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rajnish manga
21-02-2013, 08:58 PM
आख़िरी दिन तक
(रचना: रजनीश मंगा)

धर्मार्थ औषधालय से दवा की पुड़ियाँ ले कर उसने अपने कुरते की जेब में डालीं और भारी क़दमों से घर की ओर चल दिया. तनाव के चिन्ह चेहरे पर लिए वह अपनी बस्ती की कीचड़ भरी सड़क पर आ गया. गंदे और गलीज़ बच्चे झुग्गियों के बाहर खेलने में व्यस्त थे. औरतें गली में ही कपड़े और बर्तन वगैरह साफ कर रहीं थीं. कुछ छिछोरे लड़के मेज की चार टांगों पर खड़ी चाय की दुकान के आस पास अश्लील मजाक कर रहे थे. रामधन को देख कर भी उन्होंने शायद कुछ फ़िकरे कसे, किन्तु उसने उनकी ओर कोई ध्यान न दिया और अपनी झुग्गी में आ गया.

झुग्गी का अँधेरा उसके मन को अच्छा लगा यद्यपि इस अँधेरे और घुटन को अब तक बीसियों बार शाप दिए थे उसने. एक ओर खटिया पड़ी थी जिस पर उसकी प्रिय पत्नि लक्ष्मी अपनी भीषण बीमारी से जूझ रही थी. अपने पांच वर्षीय पुत्र किशन से वह माँ के पास रहने को कह गया था, वह अब वहां नहीं था. लक्ष्मी शायद सो रही थी. रामधन यंत्र-चालित सा लक्ष्मी की खाट के पास आया और उसके क्षीण-आभा मुख को एक टक देखते हुए वहीं भूमि पर बैठ गया. उसका कंठ भरा हुआ था, वाणी जैसे अवरुद्ध हो गई थी. विव्हलता में उसने लक्ष्मी के नाम का उच्चारण किया. लक्ष्मी जग रही थी. उसने आँखें खोले बिना अपने कमजोर हाथ को सरकाते हुए अपने पति के हाथ पर रख दिया. रामधन ने प्यार और करुणा से लक्ष्मी के हाथ को अपने होंठों से लगा लिया. रोकते रोकते भी उसकी आँखों से दो बूँदें टपक ही तो पडीं लक्ष्मी के हाथ पर. उन अश्रु-कणों की उष्णता की संवेदना से लक्ष्मी ने आँख खोल दी. मुख पर उभर आने वाले चिन्ह बता रहे थे कि उसे कितना कष्ट था. टुकड़े टुकड़े शब्दों में विव्हल हो कर पति से पूछा –
“क्या हा...ल ...क.र .. लि...या ...है अ...प..ना, तु...म...ने.?
प्रश्न पूछ कर उत्तर सुने बिना उसने अपने आँखें फिर बंद कर लीं. शायद उसे मालूम था कि रामधन क्या उत्तर देगा. रामधन ने भी उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया.

rajnish manga
21-02-2013, 09:05 PM
दिन पर दिन रामधन का मन डूबता जा रहा था. पहले जहाँ लक्ष्मी पहले जहाँ लक्ष्मी का इलाज करवा रहा था उस डॉक्टर की बात उसे सत्य प्रतीत होने लगी थी. उसने सलाह दी थी कि वह अपनी पत्नी को किसी सेनेटेरियम में भिजवा दे और अच्छे डोक्टरों से इलाज करवाये. लेकिन इस सब के लिए रूपए कहाँ थे? जितने थे वह अब तक के इलाज में खर्च हो चुके थे. कुछ उधार भी मांग टांग कर ले लिया. अब तो मरे हुए मन से जो मजदूरी कर लेता है उससे किसी तरह दो चुल्हा ही जलाया जा सकता था, बाकी कुछ नहीं. दवा भी धर्मार्थ औषधालय से लेनी शुरू कर दी थी. अपनी परिस्थितियों के हाथ में वह बुरी तरह जकड़ गया था. बचपन से गरीबी के आँचल से खेलते हुए वह बड़ा हुआ किन्तु पहली बार गरीबी ने उसके अस्तित्व पर इतना जोर का तमाचा मारा था. पिछले एक-डेढ़ माह में उसके हँसते खेलते व्यक्तित्व पर एक आवरण सा छा गया था और उसके ऊपर बरसाती बनस्पति की तरह कोई दूसरा व्यक्तित्व उग आया था.

जाने कितनी देर तक वह उसी प्रकार बैठा रहा. किशन के आने की आहात से उसकी तन्मयता भंग हुयी. अँधेरा छितराने लगा था, उसने उठ कर लालटेन जला दिया. उसकी बीमार रोशनी में रामधन ने आशा की किरण ढूँढने की एक असफल कोशिश की और चूल्हे के निकट आ कर भोजन बनाने की तैयारी करने लगा.

भोजन का मन न करता. किन्तु पुत्र को कोई आघात न पहुंचे इस लिए उसके साथ थोडा बहुत खा लिया. शरीर धर्म भी तो पूरा करना होता है. किश्न की नन्हीं बातों से उसके मन को किंचित सनोश प्राप्त हुआ. इस छोटी सी गृहस्थी में वही केंद्र बिन्दु हो गया था. उसी से घर में रौनक थी. वही था माँ-बाप की आँखों का तारा और उनके भविष्य का सपना. माँ- बाप का जीवन जैसे उसी के लिए था.

rajnish manga
21-02-2013, 09:07 PM
पुत्र को सुला कर रामधन वापिस पत्नि के पास आ बैठा. पीड़ा से लक्ष्मी कभी कभी कराह उठती. पत्नि की कराह सुन कर उसके शरीर में भी दर्दीली झनझनाहट फ़ैल जाती. हथोड़े से पड़ने लगते .लक्ष्मी की पैदा आज अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक थी. रामधन व्याकुल था.
“लक्ष्मी!”
“हाँ..”
“कैसी तबीयत है?”
“ठीक .. ही... है... आ ...ह..” लक्ष्मी कराह दी.
रामधन कुछ न बोला. वह लक्ष्मी का सिर दबाने लग गया.
“सुनो...”
“हूँ..”
“ल..लग..ता.. है.. अब...”
“क्या..??”
जिस विचार को रामधन अपने म से बलपूर्वक दूर किये हुए था, उसे लक्ष्मी ने इतनी सहजता से प्रकट कर दिया था. अर्थात लक्ष्मी को भी अपनी आसन्न मृत्यु का आभास हो गया है.
“..आ..ह!..अब...मैं...जी...न ..सकूंगी...दम...घु..ट..ता...जा .. रहा...है...”
“न लक्ष्मी, ऐसा न कह! मैं तुझे मरने नहीं दूंगा. मुझे ...किशन को छोड़ कर तू कहीं नहीं जायेगी. मेरी कसम खा! ऐसी अशुभ बातें फिर न कहेगी.” रामधन तड़प कर बोला.
अत नहीं यह लक्ष्मी ने सुना या नहीं. वह अपनी धुन में बोले जा रही थी –
“ अ..प..ना..ध्या..न....र..ख़..ना....कि..श..न....का... .भी....”
“बस करो लक्ष्मी, और कुछ मत बोल...”
“...उसको...अ..प..ने...क..ले...जे....से..ल..गा...कर ...र..ख़..ना....आ..खिरी....दि..न...तक..., आ..खि..री....दि..न...तक.., आ..खि..री....दि..न...तक ....कि..श..न.. को अ..प..ने... क.ले..जे...से... ल...गा....कर ...र..ख़..ना.... आ..खिरी....दि..न...तक.. ओह..!”

सारी रात लक्ष्मी इसी तरह अस्फुट शब्दों में बोलती रही. रामधन उसी प्रकार उसके पास बैठा रहा. दिन चढ़ने के साथ ही लक्ष्मी की हालत और बिगड़ने लगी. रामधन दौड़ कर डॉक्टर को बुला लाया. डॉक्टर ने एक इंजेक्शन दिया और रामधन को एक ओर ले जा कर उसने स्पष्ट किया कि अब लक्ष्मी की इहलीला समाप्ति के निकट आ चुकी है.

rajnish manga
21-02-2013, 09:14 PM
रामधन की आँखों के आगे अँधेरा छा गया. आसपास की झुग्गियों के कुछ लोग उसके पास आ कर उसे ढाढस बंधा रहे थे. कोई नीति की बातें समझा रहा था, कोई जीवन की कटुता का दुखड़ा सुना रहा था. यह सब देख कर छोटा किशन कुछ न समझ कर रोने लगा.
संध्या होते होते लक्ष्मी ने प्राण त्याग दिये. रामधन पर जैसे दुखों का पहाड़ गिर पड़ा था. वह गुम सुम हो कर बैठ गया. लक्ष्मी के निर्जीव मुख को ऐसे देखता रहा जैसे अभी वह पुकार उठेगी –
“किशन के बापू!! आज फिर तुमने खाना नहीं खाया, क्यों?”
उसको लक्ष्मी जैसे कह रही थी, “किशन को माँ का प्यार भी देना ... कभी ..अलग न ... करना ..कलेजे से...तुम....सुन...रहे...हो ...न...!”

सोचते सोचते रामधन फूट फूट कर रोने लगा. उधर किशन जो अभी तक सब कुछ देख कर सुबक रहा था, अपने पिता का रोना सुन कर बड़े जोर से रोने लगा. उस रुदन सुन कर सभी उपस्थित व्यक्तियों की आँखें छलछला आयीं.सभी लोग रामधन व बालक को धीरज बंधाने में व्यस्त थे.

चिता में आग देने के बाद रामधन किशन के साथ घर वापिस आ गया. उसका कहीं मन न लग रहा था. लक्ष्मी के बिना उसकी झुग्गी का अँधेरा और घना हो गया था. घुटन बढ़ कर उसके मन मस्तिष्क पर छा गई थी. लक्ष्मी के बिना उसे अपना जीवन ही निस्सार लग रहा था. पिछले सात वर्षों की झांकियां एक के बाद एक याद आने लगीं. किशन भी आज चौकड़ी न भर रहा था, एक दम चुप बैठा था. माँ के बिना उसे बड़ा अजीब अजीब लग रहा था. थोड़ी- थोड़ी देर बाद रामधन उसे अपने सीने से लगा लेता और किशन फिर - फिर व्याकुल हो कर रोना शुरू कर देता.

शाम तक जो पड़ौसी और रिश्तेदार आते रहे थे वो धीरे धीरे उठने लग पड़े थे. दो तीन रिश्तेदार रह गए जो उसको सांत्वना दिए जा रहे थे और बीच बीच में देवी देवताओं और भक्तों की कथाएं सुना रहे थे. किशन रोते रोते सो गया था. कुछ देर बाद उसके रिश्तेदार भी सो गए. जागता रह गया केवल रामधन और उसका एकांत. लालटेन की लौ को अपलक देखते हुए घंटों वह भूत और भविष्य के विचारों में डूबा रहा. उसकी झुग्गी के निकट ही जब एक कुत्ता जोर जोर से हूकने लगा तो वह अपने वर्तमान में लौट आया. बेटे के बारे में सोचने लगा. लक्ष्मी की वही तो एक निशानी थी – किशन. उसकी दृष्टि अबोध बेटे के भोले मुख पर पड़ी और वह ममत्व से भर उठा. उसे लक्ष्मी का कहा याद हो आया. आख़िरी दिन तक मैं तुझे अपने सेने से लगाए रखूंगा, किशन, मेरे बेटे. तेरी माँ कह गई है. उसकी आत्मा को कभी क्लेश न पहुँचने दूंगा – कभी नहीं.
(क्रमशः)

agyani
22-02-2013, 12:50 PM
रजनीश जी , मृत्यु जीवन का अटल सत्य है परन्तु किसी करीबी की अकाल मृत्यू से जो पीडा , वेदना और मानसिक आघात का अनुभव इन्सान अपने ह्रदय मे अनुभव करता है , उसका मार्मिक और सजीव चित्रण किया आपने .................................. आपकी लेखन शैली को सलाम ! आगे...........................?

rajnish manga
22-02-2013, 04:33 PM
रजनीश जी , मृत्यु जीवन का अटल सत्य है परन्तु किसी करीबी की अकाल मृत्यू से जो पीडा , वेदना और मानसिक आघात का अनुभव इन्सान अपने ह्रदय मे अनुभव करता है , उसका मार्मिक और सजीव चित्रण किया आपने .................................. आपकी लेखन शैली को सलाम ! आगे...........................?

:hello:

कहानी पढ़ने और पसंद करने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया, ज्ञानी जी. आपकी आत्मीयता से भरी प्रतिक्रिया पढ़ कर मैं बहुत उत्साहित हूँ. आशा करता हूँ कि आप इसी प्रकार मेरे हम कदम रहेंगे. कहानी का आगामी भाग प्रस्तुत है.

rajnish manga
22-02-2013, 04:39 PM
सारी रात उसे नींद न आयी. भोर होने से पहले वह उठा और किशन के पास आ कर लेट गया. उसकी गर्दन क नीचे अपनी बांह लगा कर उसने उसे अपने निकट खींच लिया. दूसरे हाथ से उसके बालों बालों में उंगलियाँ फिराने लगा.जाने कब उसकी भी आँख लग गई. सुबह चाय के साथ डबल रोटी मंगवा ली.अन्य लोगों और किशन को भी दी. स्वयं रामधन कुच्छ न खा सका. वह अपने को बेजान सा अनुभव कर रहा था जैसे किसी ने उसके शरीर का सारा अक्त निचोड़ लिया हो. रिश्तेदार उन्हें उसी अवस्था में छोड़ कर चले गए. उसके सामने अब एक नयी समस्या आ खड़ी हुयी.

उसने सोचा कि घर में बैठे बैठे तो उसके मस्तिष्क की सारी नसें ही फट जायेंगी. वह पागल हो जाएगा. और अगर वह चाहे बेदिली से ही सही, अपने काम पर चला जाता है तो किशन कहाँ रहेगा. किशन को अकेले छोड़ कर जाना उसे अच्छा नहीं लगा अतः किशन को उसने साथ ही ले लिया.

रामधन दुखद स्मृतियों को अपने मन से दूर रखना चाहता था. किन्तु उसका यह प्रयास सफल न हो सका क्योंकि यादों का चलचित्र मन में ज्यों का त्यों चलता रहा. आदत से साढ़े हुए हाथ ईंटों की चिनाई कर रहे थे. इस बीच दो-तीन बार हाथ और दिमाग़ का संयोजन टूट गया. एक बार तो ईंट उसके हाथ से छूट कर नीचे खड़े हुए एक और कामगार के कंधे को छूती हुयी जमीन पर आ गिरी और दूसरी बार वह स्वयं ऊपर से गिरते गिरते बचा.

rajnish manga
22-02-2013, 04:43 PM
दुर्घटनाएं होते होते बचीं. उसकी मानसिक दशा का सभी को भान था फिर भी कईयों ने बुरा भला कह सुनाया. कई साथी कामगारों ने उसको आराम करने की सलाह दी तथा सहानुभूति का प्रदर्शन भी किया. रामधन अच्छा कारीगर था किन्तु आज उसके ठेकेदार ने भी ऊंचा नीचा कह सुनाया. एक तो पत्नि की मौत का सदमा, उस पर ऐसे उखड़े हुए व्यवहार का आघात उसे भीतर तक बेध गया. उसका मन कटुता से भर उठा. वह इस माहौल से दूर भाग जाना चाहता था. वहां, जहाँ दो क्षण के लिए उसे शान्ति मिल सके. इस जगह तो वह घुट के मर जायेगा. कुछ सोच में और कुछ काम में समय निकल गया. इस बीच किशन दो-तीन बंद खा चुका था और उसने खेलने के लिए कुछ साथी भी यहाँ ढूंढ लिए थे.

पगार देते समय ठेकेदार ने फिर दो चार कड़वी बातें कह दीं. रामधन खुल उठा, किन्तु वह विवाद से बचाना चाहता था अतः आक्रोश को पी गया. किशन का हाथ पकड़े हुए वह मुर्दा क़दमों से सड़क पर आ गया. चौक पर पहुँच कर उसने पल भर सोचा और एक ढाबे में जा पहुंचा. किशन के लिए उसने भोजन की थाली मंगवा ली. उसकी आंतें भी सिकुड़ रही थीं लेकिन खाने की इच्छा न हुई. जाने क्यों उसे अपनी भूख और कष्ट में भी संतोष मिल रहा था.

दिन भर का थका हारा, भूखा, लक्ष्मी के वियोग से टूटा हुआ रामधन अपनी बस्ती में जाते जाते दोसरी और मुड़ गया. किशन ने आश्चर्य से अपने बापू को देखा. रामधन ने उसके सर पर प्यार से हाथ फेरा जैसे यह उसके मूक प्रश्न का उत्तर हो.

रामधन दारू के अड्डे पर आ पहुँच. यहाँ मजदूरों द्वारा सेवन की जाने वाली सस्ती शराब जिसे यहाँ “कच्ची शराब” के नाम से पुकारा जाता था बिकती थी. काफी देर तक वह बदहवास सा ठेके के सामने खड़ा रहा. किशन भी विस्फारित नेत्रों से वहां का अजीब दृश्य देखने लगा. रामधन सहमा हुआ था, वह स्वयं यहाँ पहली बार आया था. उसे साहस न हुआ अपने बेटे के सामने दारू पीने का.उसने किशन को बाहर ही एक बंद दुकान के पायदान पर बैठा दिया और स्वयं दारू की दुकान में चला गया. एक के बाद एक चार गिलास वह एक ही सांस में पी गया. गले के नीचे उतरती कड़वी शराब उसे इसे लगी जैसे उसकी अपनी घुटन, दुखद स्मृतियाँ, लक्ष्मी की मौत से उपजे खालीपन, ठेकेदार के प्रति रोष, अभाव से पैदा हुयी कुंठा आदि की समस्त पीड़ा उसके गले से नीचे उतर रही हो.

rajnish manga
22-02-2013, 04:46 PM
किशन को ले कर वह घर आ गया. उसको उसने आते ही सुला दिया. झुक कर उसके माथे को चूमा और लक्ष्मी की चारपाई के पास आ कर सिरहाने की ओर भूमि पर पहले ही की तरह बैठ गया और बारी बारी से सिरहाने, बिस्तर, खाट के पाए आदि का स्पर्श करके जैसे कुछ याद करने लगा. दारू का असर होने लगा था. स्मृतियाँ भी चंचल और अस्थिर होने लगीं. गला भर्राने लगा और शरीर में एक ढीलापन व्याप्त होने लगा. नींद की झपकी आने लगी, क्षण भर को लक्ष्मी और किशन के चेहरे उसके अंतर में कौंध जाते.

“मेरा बेटा ....मेरा..प्यारा बेटा” कहते हुए वह उठा और लड़खड़ाते क़दमों से किशन की खाट तक आया. उसका सिर घूम रहा था. कष्ट से उसने अपनी आँखें खोलते हुए बालक को बड़ी ममता, प्यार व श्रद्धा की मिश्रित भावना से देखा और उसके निकट आकर लेट गया, उसे अपने वक्ष से लगा लिया और उसके मुख और कन्धों को इस प्रकार स्पर्श किया जैसे उसके आरोग्य का मन्त्र सिद्ध कर रहा हो. धीरे ...धीरे...धीरे वह भी गहरी नींद में उतरता चला गया. किशन उसी प्रकार उसकी छाती से लगा हुआ सो रहा था.

और यह नींद रामधन की आख़िरी नींद साबित हुई और यह दिन उसकी ज़िंदगी का आख़िरी दिन. अगले दिन के समाचार पत्रों में खबर छपी कि विषाक्त शराब पीने से पैतीस व्यक्ति काल कवलित हो गए. उन पैंतीस में से एक रामधन भी था.

--रचना काल : 09/08/1977--
(मित्रो, मैं आपको बताना चाहता हूँ कि यह कहानी एक ऐसी दुर्घटना की पृष्ठभूमि में लिखी गई है जो जुलाई या अगस्त 1977 में हमारी राजधानी दिल्ली में घटी थी जिसमे ग़ैर कानूनी तौर पर शराब बनाने और बेचने वालों के हाथों लगभग 35 निर्दोष व्यक्तियों को जान से हाथ धोना पड़ा था)
*****

The Hell Lover
24-03-2013, 10:31 PM
"उसकी आंतें भी सिकुड़
रही थीं लेकिन खाने की इच्छा न हुई. जाने क्यों उसे
अपनी भूख और कष्ट में भी संतोष मिल रहा था."

क्या बात कही हैं? बहुत मार्मिक कहानी लिखी हैं।

rajnish manga
25-03-2013, 12:37 PM
"उसकी आंतें भी सिकुड़
रही थीं लेकिन खाने की इच्छा न हुई. जाने क्यों उसे
अपनी भूख और कष्ट में भी संतोष मिल रहा था."

क्या बात कही हैं? बहुत मार्मिक कहानी लिखी हैं।
:hello::hello:

बंधु, मैं नहीं जानता कि आपको किस नाम से संबोधित करूं. लेकिन इतना अवश्य कहूँगा कि आप कहानी के मर्म तक पहुँच सके और रामधन की पीड़ा को समझ पाए. आपकी सहृदयतापूर्ण टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद.
जय जी, आपको भी यहाँ देख कर अच्छा लगा. हार्दिक धन्यवाद.

rajnish manga
19-07-2013, 08:35 PM
मेरी कहानियाँ / कातरा

माँ-बाप ने बड़े लाड़-प्यार और दुलार से पाला था मुझे. अपने इस दुलार के अनुरूप ही उन्होंने मेरी शादी बड़ी धूम धाम से उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर नगर के एक स्वस्थ, सुन्दर और योग्य युवक के साथ की थी. उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी.

मुझे भी जैसे मन मांगी मुराद मिल गई थी. पति का प्यार पा कर मैं धन्य हो गयी थी. दो छोटी ननदें तो खाना तक मेरे हाथ से खाती थीं. सास श्वसुर आशीर्वाद देते न थकते थे. जीवन का हर क्षण आनंद से व्यतीत हो रहा था. चार माह पंख लगा कर कैसे उड़ गए, पता ही नहीं लगा. लेकिन एक दिन अचानक मुझ पर गाज गिर पड़ी. एक ही झटके से मेरा सुन्दर, हँसता, खेलता संसार झुलस गया. सब कुछ लुट गया, समाप्त हो गया. मेरे पति अपनी फैक्टरी की मजदूर यूनियन के नेता थे. अफसरों के साथ उनकी किसी मामले को ले कर तना तनी चल रही थी. मालिकान उससे रुष्ट थे. तनाव का वातावरण उत्पन्न हो गया था.

रोज की तरह उस दिन भी हम लोग अपने घर में सोये हुए थे. वह एक भयानक रात थी जब काली रात के अंधकार में द्वार पर एक दस्तक हुयी. देखा तो एक आदमी था. उसने सूचना दी कि फैक्ट्री में एक कर्मचारी को मशीन से गंभीर चोटे आई है. मैंने इन्हें रोकने की बहुत कोशिश की. वास्तव में मुझे डर लगने लगा था और पता नहीं क्यों मेरे मन में अजीन अजीब तरह की आशंकाएं सिर उठने लगीं थी. वे नहीं माने, उस व्यक्ति के साथ चल दिए. उस रात वह जो घर से बाहर गए, तो लौट कर वह तो नहीं आये; उनका पार्थिव शरीर ही घर वापिस आया. सुबह उनकी लहू लुहान देह शहर के बाहर गन्ने के खेतों में पायी गई.

मैं संज्ञा शून्य हो गई थी. इस अवस्था में रहते हुए मैंने पाया कि मैं अपने लोगों के बीच ही अजनबी होती जा रही हूँ. अब वो पहले सा वात्सल्य न झलकता था सास श्वसुर के व्यवहार में. इसकी जगह एक अजीब सी काटने वाली तटस्थता ने ले ली थी. कहीं आग्रह न था. शनै: शनै: मैंने पाया कि उन लोगों ने जान बूझ कर इस दूरी को बढ़ावा दिया था.मेरे लिए उनका आश्रय भी दूर होता गया. मैं इस अंधकार में अकेली भटकने लगी थी. मेरे हरे भरे जीवन में जैसे कातरा (फसलों को नष्ट कर देने वाला कीड़ा) लग गया था.

rajnish manga
19-07-2013, 08:36 PM
पति के जाने के बाद अधिक समय तक उस घर में रहना मेरे लिए असंभव हो गया क्योंकि मुझे अनुभव हो गया कि मेरी उपस्थिति वहां सभी को खटकने लगी थी. मुझे अशुभ माना जाने लगा और मेरा होना वहां पर अपशकुन की निशानी करार दिया गया. वो लोग जैसे मुझे ही मेरे पति की मौत का कारण मान रहे थे. कुलक्षिणी कही गई. जब यह सब हद से बढ़ गया और मेरे लिए असह्य हो गया, तो मैं अपने माता पिता के यहाँ आ गई. जीवन सूखा ठूंठ सा हो कर रह गया. हाय! फसल पाने से पहले ही उस पर कातरा लग गया. माता पिता मेरे आंसू न देख सकते थे, उन्होंने मुझे अपने सीने से लगा लिया. मन को बड़ी शांति मिली. लेकिन इस रकार मैं न पर बोझ बन कर न रहना चाहती थी. उनके चरणों में रहने का स्थान मिल गया था, यही कुछ कम न था. मन में निश्चय कर के मैंने बी.एड. करने का फैंसला किया. डिग्री मिलने के बाद, एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी भी मिल गई.

बड़ा सीधा साधा और सरल जीवन और खाना पहनना हो गया था. बोलती मैं पहले भी कम थी, अब तो सीमित बोलना मेरी आदत बन चुकी थी. अपने काम से काम रखना मुझे पसंद था.अन्य लोगों से मिलने जुलने में भी मुझे कोई रूचि नहीं रह गई थी. हाँ, इसके बावजूद मैं अपनी कक्षा की लड़कियों के विकास को सर्वोपरि मानती और कक्षा में पढ़ाये जाने वाले विषय और कक्षा के बाहर की क्रियाओं को पूरा महत्व देती. जब भी स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते, मैं तन्मयता से उसमे जुट जाती एवं उसे अच्छे से अच्छा बनाने के लिए रुचिपूर्वक सारी तैयारी करवाती. वर्ष में एक बार विभिन्न टीमें मंडलीय स्तर के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए जाती थी. मैं भी अपने विद्यालय की टीम को ले कर जाया करती थी. एक टीम उसी प्रकार लड़कों भी होती. इस प्रकार पढ़ाई और अपने विद्यार्थियों के खेलकूद व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी में मैं अपने घावों की पीड़ा को भूल गई थी. दूसरे, समय काटने की समस्या भी जाती रही और मैं खुद को अपने माता पिता पर भार न समझती. मैं इस घर की पुनः एक सामान्य सदस्य हो गई थी.

rajnish manga
19-07-2013, 08:37 PM
छः वर्ष का अंतराल कम नहीं होता. आज सोचती हूँ तो लगता है जैसे छः दिन में ही यह सब कुछ पाया, खोया और फिर पाने की कोशिश कर रही हूँ. मेरे अनुभव ने मुझे बताया कि व्यक्ति में असीम शक्ति का स्रोत छिपा है जो देश काल का मोहताज नहीं होता.

पिछले वर्षों की भाँती इस वर्ष भी मंडलीय प्रतियोगिता में हमारे नगर से दो टीमे गई थीं – एक लड़कों की और एक लड़कियों की. मैं लड़कियों की टीम का नेतृत्व कर रही थी. दूसरी लड़कों की टीम, मुझे पता लगा कि, किन्हीं लोकेश जी के नेतृत्व में जा रही थी.

जाते समय लोकेश जी जितने दूर थे और जितने अजनबी थे, वापसी पर वह उतने ही आत्मीय हो चुके थे. उनका निश्छल सौहार्द्य और स्नेहपूर्ण व्यवहार, गंभीरता और शिष्ट हास्य उनके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष थे जिन्होंने मुझे अभूतपूर्व रूप से उनकी ओर आकृष्ट किया था. उनके लिए मन में श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी. यूं भी वे मुझसे कम से कम दस वर्ष तो बड़े रहे होंगे. यह लोकेश जी से मेरी पहली भेंट थी. मैंने उनको घर आने का निमंत्रण दिया.

इस के बाद लोकेश जी हमारे घर पर आते रहे. हर बार उनके व्यक्तिव के नए पहलू खुलते, जीवन के कुछ नए रूप दिखाई देते और कई नई बातें उनके बारे में मालूम होतीं. वह लगभग 40 वर्ष के स्वस्थ व्यक्ति थे. शादी अभी तक न की थी. वह तो कहते थे कि शादी का विचार ही न आया. अक्सर उनके शैक्षणिक अनुभव भी मेरे काम आते.

लोकेश जी के प्रति मेरी श्रद्धा ह्रदय में गुदगुदी करने वाली निकटता में तब्दील होने लगी. इस भावना को क्या नाम दूँ? क्या यह प्यार है या यह मेरे ह्रदय की कोई दुर्बलता है? क्या मुझे प्यार करने का कोई हक़ है? क्या मैं किसी पुरुष द्वारा चाहे जाने के योग्य हूँ? अथवा, चेतन होते हुए भी जड़ता का नाटक करना मेरी नियति है? इसी वैचारिक उहापोह के पथरीले रास्तों से होता हुआ लोकेश जी के प्रति मेरा प्यार छटपटाने लगता था. इससे पहले कि पत्थरों से टकराकर मैं अपने व्यक्तित्व के टुकड़े कर लेती, लोकेश जी ने आगे बढ़ कर मेरा हाथ थाम लिया और मुझे सम्हाल लिया. हम दोनों ही एक दूसरे के प्रति आकृष्ट थे, हम दोनो जैसे एक दूसरे की तलाश कर रहे थे. उनके एक उद्गार में मेरा जीवन प्रकाशित कर दिया.

वर्षों के अंतराल के बाद वही चंचलता, वही अल्हड़ता, वही बालपन आज जैसे लौट कर आ गया. मेरी प्रसन्नता की आज कोई सीमा नहीं. ह्रदय की गति मेरी पकड़ में नहीं आ रही. ओह ईश्वर! तूने एक साथ ढेरों खुशियाँ मेरी झोली में डाल दीं. मुझे डर है कहीं मैं दीवानी न हो जाऊँ. रह रह कर लोकेश जी का सौम्य मुख-मंडल मेरी कल्पना के झरोखों से सम्मुख आ जाता है और मैं उनके विचार मात्र से लाज से भर जाती हूँ.

“मन्नी, सच कहूं! मुझे आज तक जिस लडकी की तलाश थी वो तुम हो, तुम्हीं हो,” मैं बहुत थक गया हूँ, मुझे तुम्हारा साथ और सहारा चाहिये, हम दोनों के लिए यह भी किसी वरदान से कम नहीं था कि हम दोनों के माता पिता ने भी हमारी नयी ज़िंदगी के लिए आशीर्वाद दिया.

dipu
20-07-2013, 03:45 PM
Great

rajnish manga
21-07-2013, 12:30 AM
great

कहानी पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद, दीपू जी.

sombirnaamdev
21-07-2013, 10:32 AM
thanks to share manga nice

rajnish manga
21-07-2013, 12:46 PM
thanks to share manga nice



:hello:
प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, सोमबीर जी.

rajnish manga
26-08-2013, 11:12 PM
मेरी कहानियाँ / आत्महत्या

“यह खून? यह खून यहां कैसे आया?” एस.एच.ओ. ने अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मी से फर्श पर दृष्टि गड़ाते हुये पूछा.

“कहाँ साब .... ?”

“अबे ये मेरे पांवों के पास ... है कि नहीं ... ?”

“मुझे तो साहब नजर नहीं आ रहा ... हिच .. “

“हिकमत सिंह, लगता है तूने ज्यादा पी ली है ...”

“हाँ ... सरकार ...हिच ... नहीं ... सरकार .. “

“तो ये खून तुझे दिखाई नहीं देता?”

“हाँ .... सरकार ...हिच ... कुछ दीखता तो है ... “

कांस्टेबल हिकमत सिंह अपने अफसर की हाँ में हाँ मिलाने को ही अपना फ़र्ज़ मानता था. नशे के जोश में उसने कुछ अटपटा बोल दिया था लेकिन जल्द ही उसने स्वयं को सम्हाल लिया.

“हाँ सा’ब बिलकुल है .. हिच ... ”

“जानता है यह खून किसका है?

“मैं तो कांस्टेबल हूँ सरकार .. “

“ताराचंद जाट का ... “ उसे कानाफूसी का स्वर सुनाई दिया. शराब के नशे में एस.एच.ओ. भी खुलने लगा था. कांस्टेबल जानते हुये भी पहल न कर रहा था.

“हाँ सरकार ... उसी का है ... ठीक?”

“उसका खून किसने किया? जानते हो?”

“नहीं सरकार ... हिच .. किसी ने भी नहीं ... उसने तो .. हिच .. आत्महत्या कर ली बताते हैं ... “

“शाबाश, अब तुमने जिम्मेदारी का परिचय दिया है ... हमें यही साबित करना है कि उसने आत्महत्या कर ली है ... “

“यह काम तो ...हिच .. बाए हाथ का है ... बाएं हाथ का ... आप क्या नहीं कर सकते .. हिच ..? विलायती बोतल बहुत.. हिच .. उम्दा थी सा’ब ... “

“ अबे चुप ...”

“भगवान ... हिच ... आपका इकबाल .. हिच .. बुलंद करे ... हिच .. “
**

rajnish manga
26-08-2013, 11:19 PM
मेरी कहानियाँ / हितैषी कौन?

ट्रेड यूनियन लीडर भाषण दे रहे थे,

“कुछ स्वार्थी लोग हम पर ये इलज़ाम लगाते हैं कि हमारी मांगें जायज़ नहीं हैं. हमारा यह रिकॉर्ड रहा है कि हम हमेशा जायज़ मांगों के समर्थन में ही आन्दोलन करते हैं, नाजायज़ के लिए नहीं. और लोकतांत्रिक तरीकों से ही हमने अपनी मांगें मनवाई हैं. साथियो, यह समय हमारी परीक्षा की घड़ी है. पिछले कई वर्षों में हमारी एकता ने जो संघर्ष की परम्पराएं कायम की हैं, उनको आगे बढ़ाना है. अपने नोटिस के आधार पर हम कम्पनी में अनिश्चित कालीन हड़ताल की घोषणा करते हैं.”

इधर मजदूरों ने अनिश्चित कालीन हड़ताल की घोषणा की, उधर प्रबंधकों ने भी तालाबंदी की घोषणा कर दी. यूनियन ने श्रम-अदालत में तालाबंदी की घोषणा को चुनौती दी. अदालत ने फैंसला दिया कि तालाबंदी अवैध है.

इस फैंसले के बाद आन्दोलन तेज हो गया. इसी बीच यूनियन के दो बड़े लीडर लापता हो गये. सबको सांप सूंघ गया.

दो दिन बाद उन दोनों लीडरों की लाश क्षत-विक्षत हालत में शहर के बाहर, खेतों में मिली. मजदूरों में भयंकर रोष फैल गया, जैसे ज्वालामुखी फट पड़ा हो. कम्पनी के प्रबंधकों का घर से निकलना दूभर हो गया.

पुलिस भी तहकीकात में सक्रिय हो गई. निरंतर छानबीन के बाद जो तथ्य सामने आये उसने सबके होश उड़ा दिये. जांच में यह रहस्योद्घाटन हुआ कि यूनियन लीडरों की हत्या में कम्पनी प्रबंधकों का नहीं बल्कि दूसरी यूनियन के लोगों का हाथ था जो कई बरस से इस कम्पनी में अपना झंडा लहराना चाहते थे, किन्तु अब तक सफल नहीं हो पाए थे.

दूसरी यूनियन वालों ने मौके का फायदा उठा कर इन लीडरों को ठिकाने लगवा दिया ताकि हत्या का दोष कम्पनी के प्रबंधकों के सिर मढ़ा जाये. लेकिन सच्चाई छुपी न रह सकी.
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rajnish manga
26-08-2013, 11:25 PM
मेरी कहानियाँ / क्या समझा था क्या निकला?

एक सिद्ध पुरुष थे. उनके भक्त उन्हें ईश्वर का अवतार मानते. वे हवा में हाथ उठाते और उनके हाथ में बहुत आश्चर्यजनक रूप से वस्तुएं प्रगट हो जातीं जैसे फूल, फल, हीरे, विदेशी घड़ियाँ और करेंसी नोट इत्यादि.

कुछ लोग ख़ुफ़िया तौर पर सिद्धपुरुष के जीवन की छानबीन सूक्ष्मता से कर रहे थे. उन लोगों को सिद्धपुरुष के बहुत से क्रिया-कलाप रहस्यमय प्रतीत हए.

अन्ततः, ख़ुफ़िया रिपोर्टों के प्रकाश में सिद्धपुरुष के आश्रम पर रेड पड़ गयी. वहां बहुत से तस्कर भाई और उनका तस्करी का कुछ माल बरामद हुआ. भक्तों के साथ सिद्धपुरुष को भी हिरासत में ले लिया गया.

अखबारों में उनके कारनामों के बारे में पढ़ पढ़ कर उनके अधिकतर भक्त और उन्हें अवतार मानने वाले सज्जन बहुत लज्जा का अनुभव करते. सोचते – क्या समझा था, क्या निकला.

पुलिस ने एक सप्ताह का रिमांड ले लिया. सिद्धपुरुष किसी से कुछ नहीं बोले. रात में उन्हें पुलिस लॉक-अप में ही रखा गया.

अगली सुबह तहलका मच गया. सिद्धपुरुष अपने सैल में नहीं थे. गेट पर ज्यों का त्यों ताला लटका हुआ था. कहीं पर सींखचे काटे जाने का भी चिन्ह नहीं था. फिर क्या हुआ? धरती निगल गई या आसमान खा गया? क्या वे वास्तव में सिद्ध पुरुष थे?

उनके भक्त पुनः स्वयं को लज्जित अनुभव कर रहे थे – क्या समझा था, क्या निकला?
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Dark Saint Alaick
26-08-2013, 11:42 PM
श्रेष्ठ लघुकथा है, मित्र। यह अनेक सन्देश देती है, लेकिन मैं इससे जो सन्देश ग्रहण कर रहा हूं, वह यह है कि आंखों-देखी, कानों सुनी बात सदैव सच नहीं होती। किसी भी बात अथवा घटना को परखने के बाद ही, उस पर यकीन करें। इस श्रेष्ठ प्रस्तुति के लिए धन्यवाद। :hello:

rajnish manga
27-08-2013, 10:31 PM
मेरी कहानियाँ / गलती की सजा

विजिलेंस वालों ने रिश्वत लेते आखिर उसे रंगे हाथों पकड़ ही लिया. फ़ौरन चार्जशीट और सस्पेंशन ऑर्डर आ गये. पकडे गये कर्मचारी की सारे विभाग में निंदा हो रही थी.

हैड साहब कह रहे थे – “मुझे सत्रह साल हो गये. मैं भी खाता हूँ, कौन नहीं खाता? लेकिन मजाल है किसी ने आज तक मुझ पर उंगली उठाई हो. एक ये हैं कि ... “

कैशियर ने समर्थन किया, “अरे हैड साहब, वाजिब खायेगा तो पचेगा, गैर-वाजिब खायेगा तो कैसे चलेगा? ऐसे ही लोग डिपार्टमेंट की बदनामी करवाते है.”

किसी ने रोक कर कहा, “यार उस बेचारे की तो नौकरी खतरे में है और तुम उसी को कोस रहे हो.”

इस पर एक मोटे से क्लर्क ने जैसे निंदा प्रस्ताव का उपसंहार करते हए कहा, “जो जैसा करेगा वो वैसा ही भरेगा भाई.”

rajnish manga
27-08-2013, 10:41 PM
मेरी कहानियाँ / लक्ष्मी

“तीन लाख”

“पांच लाख”

“कुछ तो कम कीजिये .. ”

“पांच से कम नहीं होगा, मदन लाल जी...”

“देखिये, मैं एक से तीन तक आ गया हूँ ... आप भी तो कुछ कम करें, भाई साहब .. “

“किस बात के कम करूं. लड़का इंजीनियर है ... “

“फिर भी, मैं बड़ी आशाएं ले कर आपके पास आया हूँ ... मेरी आपसे विनती है कि ... “

“इस मामले को छोड़ कर मैं अन्य किसी भी विषय में आपकी बात मानने के लिए तैयार हूँ. पुरानी यारी कम थोड़े ही हो सकती है ... ”

“हनुमान प्रसाद जी, मेरी लड़की एक दम लक्ष्मी है लक्ष्मी .. “

“छोड़िये इस बात को, मदन लाल जी ... फिलहाल तो आप धन-लक्ष्मी की बात करो . .. ”

मदन लाल जी से अब ज़ब्त न हुआ ... जाने के लिये एक दम उठ खड़े हुये. उन्हें उस जगह पर जले हुये मांस की दुर्गन्ध आने लगी थी.
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rajnish manga
27-08-2013, 10:46 PM
मेरी कहानियाँ / निर्माण कार्य

लोकल बॉडी के चुनाव हुये तो शहर के वार्ड नंबर 13 से सुभाष चंद जी विजयी घोषित किये गये. पिछली बार एक महिला चुनाव में विजयी हुई थी जो अपने पार्षद पति की मृत्यु के बाद उन के स्थान पर चुनाव लड़ी थीं. उनके कार्य काल में कुछ विशेष कार्य नहीं हुआ था.

नये पार्षद युवक थे और उत्साही थे. सबसे बड़ी बात यह थी कि वे एम.एल.ए. के भी नज़दीक थे. उन्होंने चुनाव के छः माह बाद ही प्रशासन से प्रोजेक्ट पास करवाया और वार्ड के उन इलाकों में जहां सड़कें टूटी हुई थीं या जहां बरसात का पानी जमा हो जाता था, वहां सीमेंट वाली सड़कों के निर्माण का कार्य शुरू करवा दिया. दो माह में लगभग सभी पॉकेट्स में सड़कें बन कर तैयार हो गयी जिसका जनता ने स्वागत किया.

वार्ड में एक पॉकेट ऐसी थी जहां सड़कें अभी तक खस्ता हालत में थीं. कारण? कारण यह था कि उस पॉकेट में विरोधी दल के एक नेता रहते थे. **

Dark Saint Alaick
28-08-2013, 03:08 AM
रजनीशजी, कथा कुछ अधूरी प्रतीत होती है, अथवा अंत परिपक्व नहीं लगता। मेरी दृष्टि में, कथा का सबसे बेहतर अंत 'कारण यह था कि उस पॉकेट में विरोधी दल के एक नेता रहते थे ...' पंक्ति पर ही है। कुछ और छूट लेना चाहें, तो '...पार्षद उम्मीदवार को वोट नहीं दिया था' ... पर विराम हो जाना चाहिए, बाद की 'सफाई' कथा को बेवज़ह कमजोर करती है। हां, मैं कथा का अंत इस पंक्ति से करना पसंद करूंगा '... और अगला चुनाव वे हार गए।' धन्यवाद।

rajnish manga
28-08-2013, 01:48 PM
रजनीशजी, कथा कुछ अधूरी प्रतीत होती है, अथवा अंत परिपक्व नहीं लगता। मेरी दृष्टि में, कथा का सबसे बेहतर अंत 'कारण यह था कि उस पॉकेट में विरोधी दल के एक नेता रहते थे ...' पंक्ति पर ही है। कुछ और छूट लेना चाहें, तो '...पार्षद उम्मीदवार को वोट नहीं दिया था' ... पर विराम हो जाना चाहिए, बाद की 'सफाई' कथा को बेवज़ह कमजोर करती है। हां, मैं कथा का अंत इस पंक्ति से करना पसंद करूंगा '... और अगला चुनाव वे हार गए।' धन्यवाद।

अलैक जी, उक्त लघुकथा के विषय में आपकी टिप्पणी बहुत सटीक है. कथा या लघुकथा में कथा के अंतिम बिंदु का महत्व सर्वोपरि है. अतः आपकी बात से सहमत होते हुये इसे irony वाले बिंदु पर लाकर समाप्त कर दिया गया है. आपका हार्दिक धन्यवाद.

dipu
28-08-2013, 09:22 PM
:bravo:

dipu
28-08-2013, 09:23 PM
:bravo:

dipu
28-08-2013, 09:27 PM
:banalama::banalama:

rajnish manga
03-09-2013, 12:06 PM
मेरी कहानियाँ / दत्तक पुत्र

बजरंगी जी का क्रोध बड़ा प्रसिद्ध था. साठ की उम्र में भी ऐसा जोरदार क्रोध कि आस पास के दुकानदार भी उनकी लीला देख देख कर परेशान हो जाते थे.

कभी कोई बच्चा सौदा सुल्फा लेने आता और गलती से कह बैठता, “लाला, धनिया अच्छा वाला देना ...!” सुनते ही बजरंगी लाला का पारा सातवें आसमान पर.

“भेज देवें हैं पैदा होते ही छोरे छोरियों को सौदा लेने के लिये. अबे हमारे पास घटिया सामान का क्या काम? सुसरे कहीं के .. “

अब सौदा लेने कौन आया है? स्त्री है या वृद्ध है? अथवा कोई नौजवान. इसका उनके उनके व्यवहार पर कोई असर नहीं होता था. अभी कल ही की बात है. एक स्त्री का पैर साबुत लाल मिर्चों की बोरी से स्पर्श कर गया. बस फिर क्या था. उन्होंने आव देखा न ताव, फट पड़े,

“टाबर लियां लियां घूमती फिरो. किसी दुकान पर कैसे खड़ा हुआ जावे है, यह भी मालूम नहीं. पावली की चीज लेनी है कोई दूकान तो नां खरीदनी?”

लाला बजरंगी के घर में उनके और ललायिन के अलावा छोटा वीजू भी था. दोनों की कोई संतान जीवित न रह सकी थी. एक लड़का तो जवान उम्र में ही भगवान को प्यारा हुआ था. पूरा अट्ठारह का था जब एक अजीब सी बिमारी का शिकार हो कर दो दिन में ही चल बसा था. दो बच्चे बचपन में ही मृत्यु का शिकार हो गये थे. भाग्य के इस न्यारे खेल का बजरंगी लला और उनकी धर्मपत्नी पर भिन्न भिन्न प्रभाव हुआ. बजरंगी लाला इस सब को शांतिपूर्वक सहन तो कर गये लेकिन मन में एक रिक्तता, तिक्तता व एक कड़वापन स्थाई रूप से व्याप गया था. ढलती उम्र में जिसका एकमात्र जवान बेटा साथ छोड़ कर चला गया हो, वह किससे लड़ेगा, किससे बदला लेगा या इसके वास्ते किसे कोसेगा? बजरंगी लाला ने बदले की किसी भी भावना को मन में ही दमित कर दिया था. कहीं अपना क्षोभ प्रगट नहीं किया. किसी को कोई इलज़ाम नहीं दिया. उन्होंने होनी को ईश्वर प्रदत्त मान कर स्वीकार कर लिया था. किन्तु उनका बदला हुआ कसैला व्यवहार इस बात से इनकार कर रहा था. हर समय गुस्सा, हर समय कुढ़न, हर समय चुभन.

rajnish manga
03-09-2013, 12:08 PM
दूसरी ओर ललाइन का ध्यान भजन पूजन में लगने लगा था. जो स्त्री कभी अपनी मीठी बोलचाल से घर भर और मोहल्ले में मिठास भर देती थी, ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसके चेहरे पर उभरती उम्र की लकीरें अब उसके मन पर भी खिंच आयी थीं. बोलना बतियाना जैसे उससे रूठ गये थे. बजरंगी लाला अपनी पत्नि का यद्यपि बहुत आदर करते थे और उनसे बेहद लगाव भी रखते थे, किन्तु गुस्सा !! तौबा ..... तौबा ... बात बाद में निकलती, गुस्सा पहले प्रगट हो जाता. वो मूर्तिमान क्रोध थे. क्रोध बजरंगी जी के व्यक्तित्व का हिस्सा हो कर उनसे से चिपक गया था जैसे. ललाइन पर भी बिगड़ जाते, किन्तु ललाइन के सहनशील स्वभाव के आगे वे दब जाते.

इन दोनों के अलावा घर में तीसरा प्राणी था वीजू. पुत्र की मृत्यु के बाद सहारे के लिए तथा गहन अकेलेपन को पूरने के लिए बजरंगी लाला ने इष्ट मित्रों से सलाह ले कर अपनी बुआ के पोते वीजू को गोद ले लिया था.

आरम्भ में यह सोचा गया था कि वीजू अधिकतर घर पर ही रहेगा ताकि ललाइन का मन लगा रहे. किन्तु यह क्रम अधिक दिनों तक न चल सका. धीरे धीरे लाला जी ने उसे दूकान पर बिठाना शुरू किया. स्कूल से आने के बाद खाना खाता और सीधे दूकान चला जाता. एक बच्चा तिखुंटे में बंध कर रह गया – घर, स्कूल, दुकान. खेलकूद बंद, हमजोलियों से मिलना बंद और सबसे बढ़ कर पतंगबाजी बंद. उसे पतंग उड़ाने का बहुत शौक था.

rajnish manga
03-09-2013, 12:10 PM
बजरंगी लाला के क्रोध का यदि कोई शख्स बुरी तरह शिकार बना था तो वह वीजू था. वह जितनी देर तक दुकान में लाला जी के साथ रहता उसका मन अस्थिर रहता. शरीर स्वतः कांपता रहता. छोटी से छोटी बात भी बजरंगी लाला को कब कितना क्रोधित कर दे, कोई नहीं जानता था. बेचारा वीजू उनके सामने क्या बोल सकता था? वह तो जैसे शेर के सामने एक मेमना था, अतः हमेशा भयभीत रहता. पिता का प्यार क्या होता है उसने देखा ही न था.

एक दिन की बात है कि एक कटी हुई पतंग सामने वाली छत पर आ गिरी. संध्या समय जब दुकान बढ़ाने से पहले, बजरंगी लाला सामान अन्दर रख रहे थे, और वीजू से भी रखवा रहे थे, वीजू वहां से रफ़ू चक्कर हो गया. लाला बाहर आये तो तो हैरान! कहाँ गया लड़का? दो ही मिनट में वीजू पीछे हाथ बांधे हुये आ पहुंचा. लाला सातवें आसमान से बोले, “कहाँ गया था??”

“ प ..प... प..तंग ..”

अभी बेचारे के मुंह से पूरी बात भी न निकली थी कि लला ने उसको अपने बाएं हाथ से झकझोरते हए अपने निकट खींचा और दाए हाथ से ऐसा झन्नाटेदार तमाचा मारा कि वीजू लड़खड़ाता हुआ सड़क पे आ गिरा. पतंग की डोर उसके हाथ में ही रही.

वीजू को गिरते देख कर आसपास के कई दुकानदार भागकर आये और उसको सड़क से उठा कर बजरंगी लाला को बुरा भला कहने लगे.

“पागल हो गये हो क्या?”

“मार ही डालोगे बेचारे को ....?”

“छोटे बड़े का भी कोई ध्यान नहीं ...?”

“लाला ! अपनी उम्र का ख़याल तो रखो ...!”

“अपना नहीं है न .... अपना होता तो ...!”

rajnish manga
03-09-2013, 12:11 PM
पहले तो लाला गुस्से में बोलते ही बोलते थे, लेकिन पिछले कुछ माह से हाथ भी उठाने लगे थे. कभी कान उमेठना, बांह पकड़ कर खींचना, गाल में चुटकी काटना आदि आम बातें थीं. अब थप्पड़बाजी पर भी आ गये थे. जब जी में आया जड़ दिया. वीजू घर पर आता तो ललाइन के सामने खूब रोता. कहता,

“चाची, देखो चाचा मुझ पर सारा दिन कितना गुस्सा करते हैं. मैं दूकान पर नहीं जाऊँगा चाची. मुझे दूकान पर मत भेजना.” और भी न जाने कितनी बातें कह जाता.

ललाइन उसका पक्ष ले कर बजरंगी लाला से कहा सुनी करती. उन्हें अपना व्यवहार फेरने की बात कहती. लाला जी अंत में यह कह कर बार को विराम लगाने की कोशिश करते, “रमेश की मां, पक्की ठीकरी में अब क्या जोड़ लगेगा. मैं नहीं जानता कि मैं ऐसा क्यों करता हूँ. लेकिन अब यह निश्चित है कि मेरे जीते जी तो अब यह दोष जाने वाला नहीं.”

वीजू परेशानी में चाची से कह देता कि उसे उसके मां बाप के यहां भेज दें. किन्तु बचपन से ही वह यहां आ गया था. अतः अपने मां बाप के प्रति भी वह निरपेक्ष ही रहा था. फिर भी उसे इस विचार से एक आशा की किरण फूटती दिखाई पड़ती.

rajnish manga
03-09-2013, 12:13 PM
बजरंगी लाला का क्रोध एक दिन शांत हो ही गया. उस दिन लाला जैसे मूक हो गये थे. किन्तु उनमे यह परिवर्तन यूं ही नहीं आ गया था बल्कि उन्होंने इसका बड़ा भारी मूल्य चुकाया था. वीजू घर से भाग गया था.

किसी छोटी सी त्रुटि पर वह आपे से बाहर हो गये थे और उन्होंने इतनी बुरी तरह वीजू को पीटा कि उसके मुंह और नाक से खून आने लगा. रात को बजरंगी लाला और ललाइन में खूब विवाद हुआ. बाद में दोनों ने खाना खाने के लिए वीजू की बहुत चिरौरी की. उसने खाना न खाया तो लाला और ललाइन भी निराहार सो रहे.

सुबह तक वीजू काफी दूर जा चुका था.
**

jai_bhardwaj
06-09-2013, 06:52 PM
इतिहास साक्षी है कि क्रोध का परिणाम सदैव विनाश ही हुआ है .. इस सी कथा में भी इसी उक्ति को सार्थक किया गया है। भाषा सरल एवं ग्राह्य होने के कारण सर्वसाधारण को भी क्रोध के परिणाम को समझने और इससे दूर रहने में सहायता मिल सकती है।

साझा करने के लिए आभार बन्धु।

Dark Saint Alaick
07-09-2013, 12:00 AM
अद्भुत कथा है, मित्र। आप चाहते, तो कथा को बहुत विस्तार दे सकते थे, किन्तु आपने गागर में ही विचार और ज्ञान का वह सागर भर दिया, जिसके लिए कभी-कभी उपन्यास भी लघु सिद्ध हो जाते हैं। साधुवाद आपको।

rajnish manga
09-09-2013, 08:13 PM
मेरी कहानियाँ / एक टुकड़ा मौत

(1)
“दादा जी ....”

“आओ बेटा अशोक .... यहीं आ जाओ ...” अशोक ने देखा कि दादा जी फुलवारी में पानी लगा रहे हैं.

“अरे दादा जी, ये किन्हें पानी लगा रहे हैं? इन जंगली पौधों को. आप फूलों के पौधे लगाइए न.”

“अब फूल के पौधे नहीं लगाए जाते मुझसे. अब तो जो पेड़ पत्ते अपने अप ही उग आते हैं उन्हीं की देखभाल कर लेता हूँ.”

“आप फूल क्यों नहीं उगाते? मैं लगाऊंगा. मैं माली से आपके लिए बीज लाऊंगा. दादा जी आपकी मुर्गियां कहाँ हैं?”

“बेटा, उन्हें मैंने दड़बे में बंद कर दिया है. परसों बिल्ली ने एक मुर्गी को खा लिया था न इसलिए इनको अब जल्दी बंद कर देता हूँ.”

“दादा जी, ये बिल्लियाँ भी कितनी खराब होती हैं. रोज रोज मुर्गियां खा जाती हैं. दूध भी गिरा जाती हैं ... “

“हाँ, ये बिल्लियाँ बड़ी खराब होती हैं, बेटा. बहुत खराब.” दादा जी ने उसकी बात पर सहमती व्यक्त करते हए कहा.

rajnish manga
09-09-2013, 08:15 PM
(2)
नन्हें अशोक को दादा जी के स्वर की उदासी ने द्रवित कर दिया.अशोक दादा जी के पड़ोस में रहने वाला लड़का था. आसपास के अन्य बच्चे भी दादा जी को दादा जी कह कर ही सम्बोधित करते थे. दादा जी अपने मकां में अकेले रहते थे. उन्हें रिटायर हए कोई 5-6 बरस हो गये थे. ज्यादातर घर ही में रहते थे. बच्चों से उनको बड़ा स्नेह था. अशोक ने दादा जी को उदास देखा तो वहीँ बैठ गया. कहने लगा,

“दादा जी, मेरे पापा कहते हैं कि मुर्गियां पालने के लिए बैंक वाले भी पैसे देते हैं. आप भी और मुर्गियां ले आओ न ...”

अशोक बेचारा क्या जाने दादा जी के दर्द को. वे उसे समझाते हए बोले,

“ज्यादा मुर्गियां ला कर मैं क्या करूँगा, बेटा. मैंने कोई व्यापार तो करना नहीं. यही पांच छः मुर्गियां बहुत हैं सम्हालने को.”

इस प्रकार अशोक दादा जी से घुलमिल गया था. अक्सर शाम के समय यहीं आ जाता और देर तक बैठा बतियाता रहता. एक दिन बहुत सोच विचार के बाद दादा जी से बोला,

आप अकेले क्यों रहते हैं? यहां कोई भी तो ऐसे नहीं रहता जैसे आप रहते हैं. सब लोग अच्छे अच्छे कपडे पहनते हैं, स्कूटर मोटरों पर घुमते हैं, सिनेमा देखने जाते हैं. और कभी कभी पिकनिक पर भी जाते हैं. सच कितना मजा आता है पिकनिक में ! बताओ न दादा जी?”

दादा जी कुछ सोच कर बोले, “तू बहुत समझदार बच्चा है, अशोक. तू मेरे बारे में कितना सोचता है. कितना ख्याल रखता है मेरा. मैं तुझे सब बताऊंगा. मैं आ रहा हूँ, तू दो मिनट बैठ.”

rajnish manga
09-09-2013, 08:17 PM
(3)
दादा जी उठ कर दूसरे कमरे से एक पुरानी एल्बम ले आये.उसे खोल कर अशोक को दिखाने लगे. दिखाते हुये बोलते भी जाते, “यह मेरा पोता है- दीपक, और ये हैं इसके मम्मी पापा. ये देख दीपक अपने पापा के कंधे पर बैठा है. और देख तो यहां वो तीन पहिये वाली साइकिल चला रहा है. और देख ... ये ...और .... और ...”

दादा जी का गला भर आया. उनके मुख-मंडल पर उदासी की बदली छा गयी थी. अशोक एकटक दादा जी को देखता रहा. फिर पूछ बैठा, “तो दीपक और उसके मम्मी पापा यहां क्यों नहीं रहते? कुछ लोग कहते हैं कि वो मर गये. लोग ऐसा क्यों बोलते हैं दादा जी?”

दादा जी अपने विचारों में डूब गये थे. अशोक की बात सुन कर उनका मन टीस से भर उठा. उनके दिल पर मानो हथोड़े से चोट की गयी हो. वो बोले, “हाँ वो मर गये बेटा. वो मुझे छोड़ कर चले गये. वो तीनों एक ट्रेन हादसे में मारे गये. काश उस दिन उनकी जगह मैं होता. अरे ... तू जानता है अगर वो जीवित होते तो क्या यह घर यूँही सुनसान पड़ा रहता? नहीं न? बोल?”

अपने विचारों में डूबे हुये और अपनी यादों को टटोलते हुये उन्हें ये भी नहीं मालूम पड़ा कि कब अशोक की मां ने उसे आवाज दी वह उनके पास से उठ कर अपने घर चला गया.

अशोक ने खाली जमीन में फूलों और सब्जियों के बीज बो दिये. कुछ ही दिनों में दादा जी के आँगन में गुलाब की गंध तैरने लगी, सूरजमुखी इतराने लगा और सब्जियों की बेलें लहराने लगीं. दादा जी और अशोक मिल कर पानी डाला करते. अब वहां पर जंगली पौधों के स्थान पर रंग-बिरंगे अति कोमल फूl दिखाई देने लगे. क्यारियों के नित बदलते रंग के साथ साथ दादा जी का मन भी क्रियाशील होने लगा.

rajnish manga
09-09-2013, 08:20 PM
(4)
दादा जी मुर्गियों को दाना दे कर मुड़े ही थे कि कि उन्हें अशोक आता हुआ दिखाई दिया. अशोक के साथ कोई भद्र पुरुष भी थे. अशोक ने दादा जी से उनका परिचय करवाया, “दादा जी आज मैं अपने स्कूल के प्रिन्सिपल साहब को आपसे मिलवाने लाया हू- आप हैं डॉ. ठाकुर ... और सर ये हैं दादा जी, जिनके बारे में मैंने आपको बताया था.”

दोनों गर्मजोशी से मिले. कुछ देर इधर उधर की बातें चलीं. दोनों ने अशोक की बहुत प्रशंसा की. प्रिन्सिपल साहब ने दादा जी को बताया कि अशोक का बनाया हुआ एक यंत्र राष्ट्रीय विज्ञान खोज प्रदर्शनी में बहुत प्रशंसित हुआ है. उन्होंने कहा,

“अशोक ने आपके बारे में ज़िक्र किया था. आपके बारे में सुन कर मैं आपसे मिलना चाहता था. परन्तु इधर प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण आपसे मिल न सका. मैं चाहता हूँ कि इस सत्कार्य में आपका योगदान भी लिया जाये. नगर के बहुत से इलाकों में हमने ऐसे केंद्र आरम्भ किये हैं जहां गरीब, अनपढ़, मजदूर स्त्री-पुरुषों को लिखना पढ़ना सिखाया जा सके. उनके जीवन में परिवर्तन लाया जा सके. ऐसा एक केंद्र आपके क्षेत्र में भी खोलने का विचार है. अभी स्थान का प्रबंध नहीं हो पाया. मुझे मालूम है आप यहां अकेले रहते हैं. यदि आप एक कमरे का प्रबंध इस कार्य के लिए कर सकें तो केंद्र शीघ्र ही कार्य शुरू कर सकता है. आप यदि चाहें तो यहाँ अध्यापन भी कर सकते हैं.एक दिन में लगभग दो घंटे का कार्य हुआ करेगा. यह कार्य हम सब लोगों को मिलजुल कर करना है. मुझे आप से बहुत आशाएं हैं महोदय.”

दादा जी इस कार्यक्रम से बहुत प्रभावित हए और इस बात से भी कि प्रिन्सिपल साहब निस्वार्थ भाव से इस कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे. अगले दस दिनों में सभी तैयारियां कर ली गईं और कक्षाएं शुरू हो गईं.

rajnish manga
09-09-2013, 08:21 PM
(5)
निरक्षर स्त्री पुरुषों की अलग अलग कक्षाएं चलने लगीं. बहुत से सुशिक्षित व्यक्तियों ने भी बिना वेतन के अपनी सेवायें इस केंद्र को देना स्वीकार किया. इस कार्यक्रम के अच्छे परिणाम सामने आने लगे.

दादा जी का सभी बहुत आदर करते. वे एक घंटे की कक्षा भी लिया करते थे.

वर्षाकाल में बारिश की तीव्रता से बहुधा सड़कें टूट-फूट जाती हैं परन्तु अनुकूल मौसम आने पर उनकी मरम्मत कर दी जाती है जिससे यातायात सुचारू रखना संभव होता है. दादा जी का मन भी उन सड़कों की भांति ही था जिसे अब एक मकसद मिल गया था, वे प्रसन्न रहने लगे थे और उनमे एक नई शक्ति का उदय हुआ था. उन्होंने देखा कि दूसरे दूसरे न हो कर अपनों से भी अधिक नज़दीक आ गये थे. सीधे सरल लोगों में उनकी तबीयत लगी रहती.

**
अशोक एम बी बी एस की अंतिम वर्ष की परीक्षा दे कर आया था. मालूम हुआ दादा जी बीमार हैं, झट से मिलने जा पहुंचा. दादा जी ने उसे छाती से लगा लिया. लगा जैसे फूल से उसकी गंध मिल रही हो. प्रिन्सिपल साहब भी वहीँ बैठे थे. दादा जी ने भीगे स्वर से कहा,

“इस लड़के से मैंने सीखा कि ज़िन्दगी निरंतर चलते रहने का ही दूसरा नाम है. ठहरना तो सिर्फ एक बहाना है, एक टुकड़ा मौत ...”
**

aspundir
09-09-2013, 09:09 PM
नायाब, मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत आख्यान के लिये अभिनन्दन ।

rajnish manga
11-09-2013, 12:51 AM
नायाब, मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत आख्यान के लिये अभिनन्दन ।



उक्त कथा के विषय में आपके विचारों का स्वागत करते हुये, अपना हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, पुंडीर जी.

rajnish manga
12-09-2013, 02:06 PM
इतिहास साक्षी है कि क्रोध का परिणाम सदैव विनाश ही हुआ है .. इस सी कथा में भी इसी उक्ति को सार्थक किया गया है। भाषा सरल एवं ग्राह्य होने के कारण सर्वसाधारण को भी क्रोध के परिणाम को समझने और इससे दूर रहने में सहायता मिल सकती है।

साझा करने के लिए आभार बन्धु।

जय जी, आपने कथा के मर्म को समझ कर और क्रोध के दुष्परिणाम को इतिहास से जोड़ कर देखते हुये जो समीक्षात्मक टिप्पणी दी है, उसने मुझे गदगद कर दिया है. इसके लिये मैं आपका हार्दिक धन्यवाद प्रकट करता हूँ.

rajnish manga
12-09-2013, 02:18 PM
अद्भुत कथा है, मित्र। आप चाहते, तो कथा को बहुत विस्तार दे सकते थे, किन्तु आपने गागर में ही विचार और ज्ञान का वह सागर भर दिया, जिसके लिए कभी-कभी उपन्यास भी लघु सिद्ध हो जाते हैं। साधुवाद आपको।



कथा को पढ़ने एवम् उस पर सूक्ष्म किन्तु अर्थपूर्ण समीक्षात्मक टिप्पणी देने के लिये मैं आपका आभारी हूँ, अलैक जी. आपके शब्दों में इस अकिंचन कथाकार के लिये प्रेरणा और प्रोत्साहन दोनों निहित हैं.

rafik
25-06-2014, 11:00 AM
अच्छे विचार कभी ख़त्म नहीं होते,चाहे उम्र ख़त्म हो जाये
बहुत अच्छी कहानी आपने पेश की है !धन्यवाद

rajnish manga
28-06-2014, 09:18 AM
अच्छे विचार कभी ख़त्म नहीं होते,चाहे उम्र ख़त्म हो जाये
बहुत अच्छी कहानी आपने पेश की है !धन्यवाद

आपने मेरी कहानी को सराहना योग्य समझा, उसके लिये धन्यवाद. कृपया मेरा आभार स्वीकार करें.

rafik
08-07-2014, 09:48 AM
आपने मेरी कहानी को सराहना योग्य समझा, उसके लिये धन्यवाद. कृपया मेरा आभार स्वीकार करें.

:iagree::hello::iagree::hello::iagree:

rafik
30-07-2014, 10:32 AM
http://www.indif.com/kids/hindi_stories/images/lalchi_kabootar_story.jpg

rafik
30-07-2014, 10:36 AM
http://www.indif.com/kids/hindi_stories/images/chaalak_bandar_story.jpg

rajnish manga
31-07-2014, 11:23 PM
पंचतंत्र की अन्य कहानियों की तरह इस कहानी से भी शिक्षा व प्रेरणा ली जा सकती है. कहानी पढ़वाने के लिये धन्यवाद.

rajnish manga
23-08-2014, 12:10 AM
पूर्वाभास
कथाकार: रजनीश मंगा

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcT1pwKvKcTv6kVUpXADwfvBmp2WmWiwL T1UEVwOyGrfx2iSiPB7wg

उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था. ओह – ओह – के अस्फुट स्वरों के साथ उसने अपना दाहिना हाथ बढ़ा कर बिजली का स्विच ऑन कर कमरा रौशन कर दिया. अपने मन में व्याप्त भय को उसने काबू में करने का प्रयत्न किया और अपने हाथ को अपने गले के चारों ओर इस प्रकार फेरने लगी जैसे अपना पसीना पोंछ रही हो. थोडा सा उठ कर बैठी और तकिये को दीवार के सहारे खड़ा करके उसके सहारे अपनी पीठ टेक दी. तनिक निश्चिंतता से और अपनी सिहरन को काबू में करते हुये उसने सामने के दरवाजे को देखा. फिर वही दृष्टि घुमा कर खिड़की का मुआयना करने लगी. देखा लोहे की ग्रिल पूर्ववत लगी हुई थी. श्वांस की गति सामान्य हो चली थी. इसी प्रकार बैठे हुये वह सीलिंग फैन को टकटकी लगा कर देखने लगी.

कितना अजीब स्वप्न है यह. पिछले कई दिनों से सोते हुये यह स्वप्न दिखाई दे जाता है. उफ़्फ़ ... कितना भयानक दृश्य है. बादल गरजने शुरू होते हैं .. हल्के .. हल्के और फिर कुछ ही क्षण के बाद उस पर बिजली टूट कर गिरती है ... और ... घबराहट के मारे उसकी नींद उचट जाती है. वह जाग जाती है.
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rajnish manga
23-08-2014, 12:11 AM
उसने सुन रखा था कि कोई कोई स्वप्न भविष्य के बारे में संदेश देता है और व्यक्ति को सचेत करता है. बहुत से स्वप्न आने वाली घटनाओं का विवरण भी दे जाते हैं. लेकिन वह इस स्वप्न के बारे में कुछ अनुमान न लगा पा रही थी. बस स्वप्न के बाद जब उसकी नींद खुलती तो वह अपने आप को पसीने में तर-ब-तर पाती और सामान्य होने पर सोचने लगती कि क्या यह स्वप्न भविष्य के किसी संभावित खतरे के प्रति संकेत तो नहीं?

न जाने क्या सोच कर वह मुस्कुरा पड़ी. एक घुटी हुई और विवश मुस्कान जिसके कारण उसके होंठ भी एक विशेष प्रकार से मुड़ गये थे. सोचने लगी ... अब उसे पूर्वानुमानों से और भविष्यवाणियों से क्या सरोकार हो सकता है. कोई खतरा शेष नहीं. जो होना था वह तो हो चुका है. बिजली गिरनी थी सो गिर गयी. उसका तमाम अस्तित्व जैसे इस आग में भस्म हो गया था. इस आग ने अपना काम कर दिया. अब कौन सा वज्रपात होना बाकी रह गया है.

हुंह ... वह भी क्या ले बैठी है? जो तस्वीर फट चुकी है उसमे से अब वह अपनी आँखे क्यों ढूंढ रही है. बार बार सोचने के बावजूद वह मानती थी कि इस सारे घटनाक्रम में उसका कहीं कोई दोष नहीं था. कभी उसे ख़याल आता कि मरुभूमि में भी तो कुछ फूल खिला करते हैं बशर्ते ... तभी वह इन ख्यालों को झटक कर परे कर देती. नहीं वह कोई शर्त नहीं रखेगी ज़िन्दगी जीने के लिये. जीवन जीने के लिये होता है न कि ढोने के लिये. सोचती ... ‘मैंने यह चुनौती स्वीकार की है तो निभाउंगी भी ... मुझे जीना है और अपने आत्म-सम्मान को अक्षुण्ण रखते हुये जीना है... कम व्हाट मे...
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rajnish manga
23-08-2014, 12:12 AM
वह अपने होने वाले बच्चे के लिये जियेगी. वह उसे ऐसे संस्कार देगी जिससे वह एक अच्छा व सच्चा इंसान बन सके, भरपूर जीवन जी सके, उसका अर्थ समझ सके व देश और समाज के लिये कुछ कर सके.

वह असंतुष्ट नहीं है. तीन वर्ष तक वह अपने पति सिद्धांत के साथ रही, सुखी रही. पति सरकारी नौकरी में थे और ऊँचे पद पर काम कर रहे थे. स्वभाव मधुर और परिवार से जुड़े हुये. वह स्वयं भी किसी बात में कम नहीं थी. बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर के रूप में काम कर रही थी. दोनों तन मन से एक दूसरे को चाहते थे और एक दूसरे पर जान छिड़कते थे. एक पल की जुदाई भी उन्हें बर्दाश्त न होती थी. घर में किसी प्रकार की कोई कमीं न थी. उन दोनों के मध्य किसी मन-मुटाव या किसी प्रकार की ग़लतफ़हमी के लिये कोई स्थान नहीं था.

इस बीच वह और उसके पति अपने एक परिचित परिवार में जाया करते थे. पति मिश्रा जी को अंकल कहा करते थे. उनके अलावा उनके घर में उनकी पत्नी तथा दो पुत्रियाँ, एक 19 वर्ष की नेहा तथा दूसरी थी पल्लवी जिसकी उम्र 15 वर्ष के लगभग थी. उसे महसूस हुआ कि उसके पति मिश्रा जी की बड़ी लड़की की ओर आकर्षित हो रहे थे. वह लड़की भी उनकी बातों मे रूचि लेती थी. देखते ही देखते उन दोनों का परस्पर व्यवहार सामान्य से कहीं आगे बढ़ चला था.
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rajnish manga
23-08-2014, 10:38 PM
सिद्धांत का उस परिवार में आना जाना बढ़ गया था. वह उस परिवार को पिकनिक पर या घुमाने के लिये ले जाने लगा. शुरू में तो वह शशि को भी साथ ले जाया करता लेकिन बाद में उसे अवॉयड करने लगा. अब वह अकेले ही उन्हें गाड़ी पर ले जाने लगा. ऐसा प्रतीत होता मानो उस परिवार को भी सिद्धांत की निकटता से कोई परेशानी नहीं थी. सिद्धांत और नेहा की नजदीकियाँ बढ़ती रहीं और उनके आपसी सम्बन्ध फलने-फूलने लगे थे. हाँ, बाहरी तौर पर शशि के प्रति सिद्धांत के व्यवहार में कोई खास अंतर नहीं आया था लेकिन शशि का अंतर्मन इस परिवर्तन को महसूस करने लगा था.

शशि लाख सोचती कि इस तरफ अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए लेकिन उसके मन में कडवाहट भरती चली गयी. वह सब देखती रही, सहती रही. अन्दर ही अन्दर घुटने लगी थी. अंत में, जो कुछ दिन पूर्व संभावित लगा था, वह हो गया. जल्द ही उनकी बातें, बहसें, कहा-सुनी मर्यादा की सीमा से बाहर निकल गये. पडौसियों तक को यह लगने लगा कि सिद्धांत और शशि के बीच सब कुछ ठीक होने के अतिरिक्त सब कुछ है. उनके आपसी सम्बन्ध कटुता से भर गये हैं. बात इतनी बिगड़ गई कि शशि ने अपने पति का घर छोड़ दिया और कुछ दिन के लिये अपने माता-पिता के यहाँ चली आयी.
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rajnish manga
23-08-2014, 10:39 PM
वह अपने मायके में कभी न आती यदि सिद्धांत के व्यवहार में संयम बना रहता. वह शशि के साथ गुलामों जैसा सलूक करने लगा था, किसी न किसी बात पर झगड़ा शुरू कर देता, यहाँ तक कि धमकियां भी देने लग गया था. सुबह से शाम तक टकराव व तनाव की स्थिति बनी रहती. अन्ततः शशि ने स्वयं ही इस कटखने परिवेश से अपने आपको मुक्त करने का निश्चय कर लिया और ट्रांसफर करवाने के लिये आवेदन भेज दिया. वह पेट से थी और इस वक़्त उसे पाँच माह का गर्भ था.

उसे तलाक आदि के बारे में सोचना ही व्यर्थ लगता था. इस प्रकार की कोई बात वह अपने मन में न लाना चाहती थी. शादीशुदा जीवन को वह निकट से देख चुकी थी. इस जीवन का एक भी पृष्ठ ऐसा न था जिसे एक लड़की या पत्नी खोल कर पढ़ने की अभिलाषा मन में संजोये रहती है. रुपये पैसे का भी अभाव न था कि वह तलाक जैसा कदम जरुरी समझती. एक बात और भी थी कि वह स्वयं तलाक जैसा कदम स्वयं नहीं उठाना चाहती थी. इससे तो सिद्धांत को खुली छूट मिल जाती.

यहाँ हर कोई उसका समुचित सम्मान करता. यहाँ वह किसी से जरूरत से ज्यादा बात नहीं करती. सलीके से रहती. कुछ घनिष्ठता हुई थी तो सिर्फ बैंक के प्रबंधक से जिनकी वय 55 वर्ष के आसपास होगी. वह और उनकी पत्नी दोनों ही धार्मिक प्रवृति के थे.
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rajnish manga
23-08-2014, 10:40 PM
कभी कभी शशि ने अपने सर को हल्का सा झटका दिया जैसे वह अनचाहे विचारों के घेरे से बाहर आना चाहती हो. वह फिर से सोने का उपक्रम करने लगी. लाइट ऑफ हुई और उसने चादर को ऊपर तक खींच लिया.

उसने ऑफिस से तीन माह की मेटरनिटी लीव ले ली थी. अब कुछ ही दिन में घर में एक नया मेहमान आने वाला था. उसने ममा को सूचित कर के उन्हें अपने पास बुला लिया था. सारी व्यवस्था माँ ने संभाल ली थी. एक नौकरानी थी जो दिन भर वहीँ रहती थी. इन हालात में उसे घर के काम की कोई चिंता नहीं रहती थी.

शशि दिन भर आँगन में घूमती रहती या माँ से बातचीत करती या कोई पुस्तक उठा कर पढ़ने लगती. उसका काफी समय बिस्तर पर लेटे लेटे ही निकल जाता.

यकायक उसने देखा कि वह सड़क पर अकेली चली जा रही है. वातावरण सुनसान है, भयानक अंधेरा छाया हुआ है चारों ओर, उसने अपने दायें हाथ में एक गठरी पकड़ रखी है इसे उसने यत्नपूर्वक छुपाया हुआ है. बदहवास सी वह कभी भागती है और कभी मुड़ कर पीछे देखने लगती है. आकाश में बादल गड़गड़ा रहे हैं. एकाएक बड़े जोरों की रौशनी के साथ बिजली चमकती है जो शशि को अपनी लपेट में ले लेती है, राख कर देती है. डर के मारे उसके मुंह से चीख निकल जाती है और उसकी आँख खुल जाती है. वह हड़बड़ा कर उठ बैठती है. उसे ज्ञात हुआ कि वह एक डरावना सपना देख रही थी.
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rajnish manga
23-08-2014, 10:40 PM
वह आँखों से ही अपने चारों ओर की दीवारों को टटोलने लगती है. उसके हृदय की गति अपने आप ही बहुत बढ़ गई थी. एक बार फिर उसने अपनी आँखें बंद कर लीं. हृदय पर हाथ रख कर अपने श्वांस को सामान्य करने का प्रयत्न करने लगी.

“कड़ाक ....” की ध्वनि के साथ कमरे में रोशनी हो गयी. वह सिहर कर बोली, “क ... कौन है ??” उससे करवट भी न बदली जा सकी.

“मैं हूँ, बेटे .... क्या बात है ... ??” यह माँ की आवाज थी.

“ओह .. ममा ... मुझे बड़ा डर लग रहा है ..... “

“तुम सोते हुये चीख पड़ी थी, शशि.” माँ ने बताया, “ ज्यादा तकलीफ तो नहीं हो रही, बेटा?”

“ममा तुम यहाँ मेरे पास ही सो जाओ ... मुझे अकेले में बड़ा डर लग रहा है ...... ममा.”

“पगली बच्ची, मुझे कुछ बताएगी भी या .... “

“वही पहले वाला सपना, ममा .... आज तो दो बार वही सब कुछ नींद में देखा है मैंने. ओह .... ममी ... कितने खौफनाक तरीके से बिजली गिर कर सब कुछ भस्म कर देती है.”

यह बताते हुये उसका चेहरा श्वेत पड़ गया और आँखें सामने रोशनदान में स्थिर हो गयीं. उसके चेहरे पर भय का स्थायीभाव चिपक गया था. माँ ने अपनी बेटी के कंधे को अपने दाहिने हाथ से थपथपाया.
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rajnish manga
23-08-2014, 10:42 PM
“ममा, कितनी अजीब बात है कि जिस लड़की ने अकेले जीवन जीने का फैसला सिर्फ अपने बूते पर ही लिया हो उसे एक स्वप्न ने भयभीत कर दिया. अच्छा, बताओ .... ममा, क्या आपको सपनों की सच्चाई का विश्वास है?”

“किस प्रकार का ... ?”

“यही कि हमारे सपने हमारे आगामी जीवन के बारे में संकेत देते है. कुछ पूर्वाभास होता है, इस बारे में?”

“बेटा, सुना जरुर है लेकिन पक्का कहा नहीं जा सकता. बल्कि मेरा अपना विचार तो इससे बिलकुल विपरीत है. वैसे तुम घबराई हुई क्यों हो?”

“ममा, मुझे तो कुछ नहीं सूझ रहा. मेरे ध्यान में केवल वह दृश्य आता है जिसे मैं अपने स्वप्न में कई बार देख चुकी हूँ. और कुछ सोच ही नहीं पाती. बल्कि सोचने के लिये कोई छोर ही नहीं मिलता है.”

“खैर जाने दे, बेटा. सो जाओ ... अभी तो रात के तीन बजे हैं. तुम अपने मन में दृढ़ता रखो. यह सोच लो कि स्वप्न और कुछ भी हो, वास्तविकता तो नहीं हो सकती न ..... अब सो जाओ ... मैं यहाँ तुम्हारे पास ही हूँ.”
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rajnish manga
23-08-2014, 10:43 PM
माँ को नींद न आ रही थी. लेटे हुये सोच रही थी अपनी बेटी के बारे में. नहीं ... बल्कि उस स्वप्न के बारे में जिसे पिछले कई दिनों से शशि लगभग रोज ही देख रही थी. उसने स्वप्न के विषय में बार बार विचार किया. इस स्वप्न का बार बार दिखाई देना ही इसे रहस्यमय बना रहा था. आम तौर पर हम सपनो को गंभीरता से नहीं लेते क्योंकि सोते हुये व्यक्ति के लिये यह एक सामान्य स्थिति है जिसमें सोचने लायक कुछ अधिक नहीं होता.

हर बार शशि को स्वप्न में जो गठरी दिखाई देती है, वह किस बात का संकेत हो सकता है. शशि ने अक्सर बताया है कि वह इस गठरी को बगल में दबा कर व छुपा कर चलती है जैसे इसमें कोई बहुमूल्य निधि छुपी हो. संभव है कि यह गठरी उसके होने वाले बच्चे की ओर संकेत कर रहा हो. अन्यथा और क्या मतलब हो सकता है, इस सब का? गठरी का यही अर्थ निकलता है. अपने होने वाले बच्चे की समुचित सुरक्षा के लिये हर माँ चिंतित होती है. अपने हालात के मद्दे-नज़र शशि का इस बारे में बहुत संवेदनशील होना किसी प्रकार से आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता.

बिजली गिरने का क्या अर्थ हो सकता है? माँ सोचने लगी कि शशि ने कभी ज़ाहिर नहीं होने दिया कि उसमे ज़र्रा भर भी कभी हीन भावना आयी हो. माँ अच्छी तरह जानती है कि शशि अपने बचपन से ही बहुत बोल्ड है और सदा चुनौतियों का सामना करने में उसे मजा आता है. माँ का हृदय इस स्वप्न के बारे में कोई निश्चित राय नहीं बना सका.

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rajnish manga
23-08-2014, 10:45 PM
भाग दो


धीर गंभीर स्वभाव वाले डॉ. चंचल कुमार दास बहुत दिनों से यहाँ रहते थे और नगर के सम्मानित साइकेट्रिस्ट थे. उन्होंने शशि से तन्मयतापूर्वक बातचीत की और इस सेशन के दौरान उसकी समस्या को समझने की कोशिश की. बातचीत का यह सिलसिला कोई एक सप्ताह तक चला होगा. डॉ दास सभी संभावित सूत्रों पर विचार कर रहे थे. प्रत्येक सेशन के बाद समस्या की पृष्ठभूमि स्पष्ट होती जा रही थी. डॉक्टर तथा क्लाइंट के बीच विश्वास बढ़ता जा रहा था. यही कारण था कि डॉक्टर अपनी सूचनाएं प्राप्त करने में सफल हो रहे थे.

ऐसी ही एक बैठक के दौरान डॉ दास ने शशि से पूछा, “बेटी, मुझे यह बताओ कि क्या तुम्हें दिन के समय यानी जागते हुये भी ऐसे खौफ़नाक विचार सताते हैं?”

“कतई नहीं ... डॉक्टर अंकल ... बल्कि मैं तो इस स्वप्न को कभी इतनी गंभीरतापूर्वक न लेती यदि यह मुझे बार बार न दिखाई देता.”

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rajnish manga
23-08-2014, 10:46 PM
“देखो, स्वप्न के आने पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है,” डॉ. दास बोले, “इससे भयभीत होने की जरूरत भी नहीं है. होता क्या है कि व्यक्ति के अवचेतन मन के भाव हमें कहीं न कहीं मथते रहते हैं. जागृत अवस्था में यह सभी भाव जैसे परदे के पीछे चले जाते हैं और हमें दिखाई नहीं पड़ते. जब हम सो जाते हैं तो यही भाव-संसार हमारे सम्मुख आ खड़ा होता है. इन्हीं मनोभावों की प्रकृति व तीव्रता के अनुसार हमारे स्वप्नों का संसार रचा जाता है. सपनों में दिखाई देने वाले तमाम घटनाक्रम, हमारी मानसिक अवस्था का ही अक्स होते हैं जहां वास्तविकता का संकेत रूप में या विकृत रूप में प्रतिरूपण होता है. तनावों से घिरे हुये व्यक्ति के स्वप्न भी कभी कभी उसे कष्ट देते हुये प्रतीत होते हैं. स्वप्न वास्तविकता नहीं होता लेकिन कई बार हमें वास्तविक लगने लगता है. तब यही स्वप्न हमारे चेतन मन पर हावी होने लगता है. ऐसी स्थिति में हमारे डरावने स्वप्न, जिन्हें हम नाईटमेयर (nightmares) के नाम से भी जानते हैं, हमारी चेतना को झकझोर डालते हैं. इनके प्रभाव से हमारा व्यवहार बुरी तरह प्रभावित होने लगता है.”

“अंकल, मैं यह पहले ही बता चुकी हूँ कि मैं कायर नहीं हूँ और न कायरता मेरे स्वभाव में कभी रही है. मैंने जीवन की हर चुनौती का दृढ़ता से मुकाबला किया है और आगे बढ़ी हूँ. लेकिन डॉक्टर, वह वातावरण, बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली का लपक कर मुझ पर गिरना और फिर सब स्वाहा .... मैं हड़बड़ा का नींद से उठ बैठती हूँ. सच में यह दृश्य बेहद सिहरनभरा होता है.”
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rajnish manga
23-08-2014, 10:47 PM
“ठीक है, ठीक है,” डॉक्टर दास शशि से पूछने लगे, “आज कोई खास बात तुम्हारे देखने में आयी हो?”

“हाँ, डॉक्टर अंकल, कल रात मुझे किसी विचार ने तंग नहीं किया. कोई सपना भी नहीं, कोई डरावना ख़याल मुझ तक नहीं पहुंचा!!”

“अर्थात कल रात तुम्हे कोई स्वप्न नहीं आया?” डॉक्टर दास ने पूछा.

“हाँ सर, मुझे अच्छी नींद भी आयी.”

“वैरी गुड, मैं देख रहा हूँ कि तुम सही दिशा में अग्रसर हो रही हो. हमारे इंटरव्यू सेशंस का असर पड़ रहा है. कुछ दिनों में मैं भी अपना ऑब्ज़रवेशन पूरा कर लूँगा. उसके बाद मैं तुम्हें कुछ और बता पाऊंगा. विश्वास करो कि उसके बाद तुम्हे ये डरावने स्वप्न कभी परेशान करने नहीं आयेंगे.”

“थैंक यू वैरी मच, सर ... थैंक यू वैरी मच ... डॉक्टर अंकल.”

इस प्रकार डॉक्टर दास ने परस्पर वार्ताओं के माध्यम से शशि के अंतर्मन में उतर कर वो सभी आवश्यक सूत्र ढूंढ निकाले थे जिनके आधार पर शशि को उसके कष्ट से मुक्ति दिलाई जा सकती थी.

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rajnish manga
23-08-2014, 10:48 PM
अगले दिन .....

“हेल्लो बेबी, तो आज मम्मी को साथ लेकर आई हो ... नोमोस्कार ... बहन जी,” डॉ. दास बंगला लहज़े में बोले, “बैठिये ... कृपया.”

“शशि आपकी बहुत प्रशंसा कर रही थी. अतः आपका धन्यवाद करने मुझे आना ही पड़ा.”

“धन्यवाद ... धन्यवाद ... आपकी बेटी तो डरपोक है ..”

डॉ. दास की इस बात पर सभी ने ठहाका लगाया.

“डॉक्टर अंकल, क्या आज यह नहीं पूछेंगे कि मैंने बीती रात क्या देखा?”

“अवश्य जानना चाहूँगा, बेटा. बताइये”

“आज भी स्वप्न में बिजली गिरी थी. लेकिन आज बिजली मुझ पर नहीं गिरी.”

“तो .... ?”

“एक सूखे हुये पेड़ पर ... “ यह कहते हुये शशि एक छोटी बच्ची की तरह हँसने लगी.
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rajnish manga
23-08-2014, 10:51 PM
डॉक्टर दास ने श्रीमती शशि आनंद की जो रिपोर्ट तैयार की उसका सारांश यह था कि वे किसी गंभीर मानसिक विकार, व्याधि अथवा ग्रंथि से पीड़ित नहीं हैं. वह आत्मविश्वास से भरी हुई है और किसी भी प्रकार की असुरक्षा की भावना से भी मुक्त हैं. वास्तव में वह अपने होने वाले बच्चे की तरफ से चिंतित हैं और इसी कारण से कभी कभी विचलित हो जाती हैं. मुझे लगता है कि वे अपनी भावी संतान के पालन पोषण के सवाल पर लाजवाब हो जाती हैं, अपनी असमर्थता का परिचय देती हैं. अपने तमाम आत्म-विश्वास के बावजूद शशि जी अपने पति से अलग रह कर अपने होने वाले बच्चे की स्वस्थ परवरिश कर पाने में खुद को अवश पाती हैं. यह भावना शायद उनकी इस सोच से उपजी है जिसके अनुसार बच्चे के पालन-पोषण में पिता की भी उतनी ही भूमिका और जरूरत है जितनी माता की. किसी एक के न होने का उसके शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. शशि अब एक खंडित परिवार का हिस्सा है. वह मानती है कि इस प्रकार का परिवेश बच्चे के लिये उचित नहीं हो सकता.

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rajnish manga
23-08-2014, 10:52 PM
एक अन्य बात की ओर भी इशारा किया गया था. वह यह कि शशि जी स्वस्थ तन मन की मालकिन हैं और युवती हैं. आत्मविश्वास भी रखती हैं. वह किसी भी आसन्न समस्या का या परिस्थिति का साना कर सकती हैं.किन्तु इस सब से अलग उस समाज का भी तो एक अंग हैं जिसमे वो रहती हैं. लोगों से मिलती-जुलती हैं. जिसके मूल्यों को वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकार करती हैं. ये वो संस्कार हैं जो जन्म से अब तक उनके चिंतन का विकास करते रहे हैं. हमारा समाज कई जगह दकियानूसी हो जाता है. यह इस बात को आश्चर्य और विलक्षणता से देखता है कि एक माँ अपने नन्हें बच्चे के साथ अकेली रहती है. ज़माना प्रश्न करता है- अकेले क्यों रहती है? क्या पत्नी में कोई दोष था? या पति ही बिगड़ा और बदचलन था?

क्या पत्नी का आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर होना ही ऐसे या इन जैसे ही अन्य प्रश्नों का मुंहतोड़ उत्तर देने के लिये काफी है? शशि आनंद भी काफी हद तक अपने समाज कि मान्यताओं में आस्था रखती हैं व उनको स्वीकार करती हैं. डॉक्टर दास का कहना था कि मिज़ शशि आनंद भी ऐसी ही समस्याओं से आक्रान्त हैं.

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rajnish manga
23-08-2014, 10:53 PM
अब तक की मुलाकातों का श्रीमती शशि आनंद के मन पर अपेक्षित प्रभाव पड़ा है. क्योंकि इन मुलाकातों में उन बातों पर विशेष ध्यान दिया गया था कि वे प्रश्नों का उत्तर देते समय अपने अवचेतन तथा अचेतन मन पर जोर दें. स्वतंत्र साहचर्य पद्धति द्वारा विचार बाहर लाये गये. अचेतन व अवचेतन मन की समस्या स्वतः लुप्त होती चली गयी. इन बैठकों का यह लाभ हुआ कि बार बार टटोले जाने से समस्याओं का अनोखापन समाप्त हो गया. मंद होते होते ये समस्याएं पूर्णतः समाप्त हो गयीं.

****
उधर दूसरी ओर, सिद्धांत को ठोकर लगी. मिश्रा जी की बड़ी लड़की नेहा का विवाह उनकी ही बिरादरी के एक बड़े परिवार में हो गया था. लड़का कॉलेज में लेक्चरर था. वह सुंदर, पढ़ा लिखा व सरल स्वभाव का युवक था. और सिद्धांत जिसे नेहा का प्यार समझ रहा था वह उसका सहज स्नेह था. अपना बेटा न होने के कारण नेहा के माता-पिता भी उसे अपना बेटा ही मानते थे, इससे अधिक कुछ नहीं.

वक़्त के थपेड़ों की मार खा कर और सगे सम्बन्धियों द्वारा मध्यस्थता किये जाने के बाद सिद्धांत बमुश्किल अपनी पत्नी शशि के सामने आने की हिम्मत बटोर सका. शशि ने पहले तो उससे मिलने से ही इनकार कर दिया किन्तु आखिर में उसके सब्र का बाँध भी टूट गया. अपने-अपने मन की कह लेने के बाद दोनों की आँखें सजल हो गईं. एक बार फिर उसने सिद्धांत को अपना लिया- अपने होने वाले बच्चे के लिये, अपने लिये, अपने परिवार के लिये और अपने समाज के लिये.

**** इति ****

rafik
26-08-2014, 11:46 AM
दृष्टिकोण



एक बार दो भाई, रोहित और मोहित थे। वे 9 वीं कक्षा के छात्र थे और एक ही स्कूल में पढ़ते थे। उनकी ही कक्षा में अमित नाम का भी एक छात्र था जो बहुत अमीर परीवार से था।
http://www.achhikhabar.com/wp-content/uploads/2014/06/%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%88-%E0%A4%98%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80-Wrist-watch.jpg?368445एक दिन अमित अपने जन्मदिन पर बहुत महंगी घड़ी पहन कर स्कूल आया, सभी उसे देख कर बहुत चकित थे। हर कोई उस घड़ी के बारे में बातें कर रहा था ,कि तभी किसी ने अमित से पुछा ,
“यार , ये घड़ी कहाँ से ली ? “
” मेरे भैया ने मुझे जन्मदिन पर ये घड़ी गिफ्ट की है । ” , अमित बोला।
यह सुनकर सभी उसके भैया की तारीफ़ करने लगे , हर कोइ यही सोच रहा था कि काश उनका भी ऐसा कोई भाई होता।
मोहित भी कुछ ऐसा ही सोच रहा था , उसने रोहित से कहा , ” काश हमारा भी कोई ऐसा भाई होता !”
पर रोहित की सोच अलग थी , उसने कहा , ” काश मैं भी ऐसा बड़ा भाई बन पाता !”
वर्ष गुजरने लगे। धीरे – धीरे, मोहित अपनी जरूरतों के लिए दूसरों पर निर्भर रहने लगा क्योंकि उसने खुद को इस प्रकार विकसित किया और रोहित ने मेहनत की और एक सफल आदमी बन गया , क्योंकि वह दूसरों से कभी कोई उम्मीद नहीं रखता था , बल्की ओरों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता था।
तो दोस्तों, अंतर कहाँ था? वे एक ही परिवार से थे। वे एक ही वातावरण में पले-बढे और एक ही प्रकार की शिक्षा प्राप्त की। अंतर उनके दृष्टिकोण में था। हमारी सफलता और विफलता हमारे दृष्टिकोण पर काफी हद तक निर्भर करती है। और इसका प्रमाण आस-पास देखने पर आपको दिख जाएगा। चूँकि ज्यादातर लोग मोहित की तरह ही सोचते हैं इसलिए दुनिया में ऐसे लोगों की ही अधिकता है जो एक एवरेज लाइफ जी रहे हैं। वहीँ , रोहित की तरह सोच रखने वाले लोग कम ही होते हैं इसलिए सामाज मे भी सक्सेसफुल लाइफ जीने वाले लोग सीमित हैं। अतः हमें हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए पूरी कोशिश करनी चाहिए और नकारात्मकता से बचना चाहिए। क्योंकि वो हमारा दृष्टिकोण ही है जो हमारे जीवन को परिभाषित करता है और हमारे भविष्य को निर्धारित करता है।

rafik
01-09-2014, 03:27 PM
द्रौपदी और भीष्मपितामह



महाभारत का युद्ध चल रहा था। भीष्मपितामह अर्जुन के बाणों से घायल हो बाणों से ही बनी हुई एक शय्या पर पड़े हुए थे। कौरव और पांडव दल के लोग प्रतिदिन उनसे मिलना जाया करते थे।
एक दिन का प्रसंग है कि पांचों भाई और द्रौपदी चारो तरफ बैठे थे और पितामह उन्हें उपदेश दे रहे थे। सभी श्रद्धापूर्वक उनके उपदेशों को सुन रहे थे कि अचानक द्रौपदी खिलखिलाकर कर हंस पड़ी। पितामह इस हरकत से बहुत आहात हो गए और उपदेश देना बंद कर दिया। पांचों पांडवों भी द्रौपदी के इस व्य्वहार से आश्चर्यचकित थे। सभी बिलकुल शांत हो गए। कुछ क्षणोपरांत पितामह बोले , ” पुत्री , तुम एक सभ्रांत कुल की बहु हो , क्या मैं तुम्हारी इस हंसी का कारण जान सकता हूँ ?”
द्रौपदी बोली-” पितामह, आज आप हमे अन्याय के विरुद्ध लड़ने का उपदेश दे रहे हैं , लेकिन जब भरी सभा में मुझे निर्वस्त्र करने की कुचेष्टा की जा रही थी तब कहाँ चला गया था आपका ये उपदेश , आखिर तब आपने भी मौन क्यों धारण कर लिया था ?
यह सुन पितामह की आँखों से आंसू आ गए। कातर स्वर में उन्होंने कहा – ” पुत्री , तुम तो जानती हो कि मैं उस समय दुर्योधन का अन्न खा रहा था। वह अन्न प्रजा को दुखी कर एकत्र किया गया था , ऐसे अन्न को भोगने से मेरे संस्कार भी क्षीण पड़ गए थे , फलतः उस समय मेरी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी। और अब जबकि उस अन्न से बना लहू बह चुका है, मेरे स्वाभाविक संस्कार वापस आ गए हैं और स्वतः ही मेरे मुख से उपदेश निकल रहे हैं। बेटी , जो जैसा अन्न खाता है उसका मन भी वैसा ही हो जाता है “

rafik
29-10-2014, 11:12 AM
भोजन दान की महिमा एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटता, मगर
कठोर परिश्रम के बावजूद उसे आधा पेट भोजन ही मिल
पाता था।
एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने
साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से मुलाकात
हो जाए, मेरी एक फरियाद उनके सामने रखना और मेरे कष्ट का कारण पूछना।
कुछ दिनों बाद उसे वह साधु फिर मिला।
लकड़हारे ने उसे अपनी फरियाद की याद दिलाई
तो साधु ने कहा कि प्रभु ने बताया हैं कि लकड़हारे
की आयु 60 वर्ष हैं और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए
सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, इसलिए प्रभु उसे थोड़ा अनाज ही देते हैं ताकि वह 60 वर्ष तक जीवित
रह सके।
समय बीता।
साधु उस लकड़हारे को फिर मिला तो लकड़हारे ने
कहा, "ऋषिवर अब जब भी आपकी प्रभु से बात
हो तो मेरी यह फरियाद उन तक पहुँचा देना कि वह मेरे जीवन का सारा अनाज एक साथ दे दें, ताकि कम से
कम एक दिन तो मैं भरपेट भोजन कर सकूं।"
अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर
ढ़ेर सारा अनाज पहुँच गया।
लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उसकी फरियाद कबूल कर
उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया हैं। उसने बिना कल की चिंता किए, उसने सारे अनाज
का भोजन बनाकर फकीरों और
भूखों को खिला दिया और खुद भी भरपेट खाया।
लेकिन अगली सुबह उठने पर उसने
देखा कि उतना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं।
उसने फिर गरीबों को खिला दिया। फिर उसका भंडार भर गया। यह सिलसिला रोज-रोज चल
पड़ा और लकड़हारा लकड़ियां काटने की जगह
गरीबों को खाना खिलाने में व्यस्त रहने लगा।
कुछ दिन बाद वह साधु फिर लकड़हारे
को मिला तो लकड़हारे ने कहा, "ऋषिवर! आप
तो कहते थे कि मेरे जीवन में सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पाँच बोरी अनाज आ
जाता हैं।"
साधु ने समझाया, "तुमने अपने जीवन की परवाह
ना करते हुए अपने हिस्से का अनाज गरीब व
भुखों को खिला दिया, इसीलिए प्रभु अब उन
गरीबों के हिस्से का अनाज तुम्हें दे रहे हैं।

rafik
29-10-2014, 11:35 AM
सूट केस...
एक आदमी मर गया. जब उसे महसूस हुआ तो उसने देखा कि भगवान उसके पास आ रहे हैं और उनके हाथ में एक सूट केस है.
भगवान ने कहा --पुत्र चलो अब समय हो गया.आश्चर्यचकित होकर आदमी ने जबाव दिया --अभी इतनी जल्दी? अभी तो मुझे बहुत काम करने हैं. मैं क्षमा चाहता हूँ किन्तु अभी चलने का समय नहीं है. आपके इस सूट
केस में क्या है?भगवान ने कहा -- तुम्हारा सामान.मेरा सामान? आपका मतलब है कि मेरी वस्तुएं,मेरे कपडे, मेरा धन?भगवान ने प्रत्युत्तर में कहा -- ये वस्तुएं
तुम्हारी नहीं हैं. ये तो पृथ्वी से सम्बंधित हैं.आदमी ने पूछा -- मेरी यादें?
भगवान ने जबाव दिया -- वे तो कभी भी तुम्हारी नहीं थीं. वे तो समय
की थीं. फिर तो ये मेरी बुद्धिमत्ता होंगी?भगवान ने फिर कहा -- वह
तो तुम्हारी कभी भी नहीं थीं. वे तो परिस्थिति जन्य
थीं. तो ये मेरा परिवार और मित्र हैं? भगवान ने जबाव दिया -- क्षमा करो वे
तो कभी भी तुम्हारे नहीं थे. वे तो राह में मिलने वाले पथिक थे. फिर तो निश्चित ही यह मेरा शरीर होगा? भगवान ने मुस्कुरा कर कहा -- वह तो कभी भी तुम्हारा नहीं हो सकता क्योंकि वह तो राख है.तो क्या यह मेरी आत्मा है?
नहीं वह तो मेरी है --- भगवान ने कहा. भयभीत होकर आदमी ने भगवान के हाथ से सूट केस ले लिया और उसे खोल दिया यह देखने के लिए कि सूट केस में
क्या है. वह सूट केस खाली था. आदमी की आँखों में आंसू आ गए और उसने
कहा -- मेरे पास कभी भी कुछ नहीं था. भगवान ने जबाव दिया -- यही सत्य है.
प्रत्येक क्षण जो तुमने जिया, वही तुम्हारा था. जिंदगी क्षणिक है और वे
ही क्षण तुम्हारे हैं. इस कारण जो भी समय आपके पास है, उसे भरपूर जियें. आज में जियें. अपनी जिंदगी जिए. खुश होना कभी न भूलें, यही एक बात महत्त्व
रखती है. भौतिक वस्तुएं और जिस भी चीज के लिए आप
यहाँ लड़ते हैं, मेहनत करते हैं...आप यहाँ से कुछ भी नहीं ले
जा सकते हैं...

rajnish manga
26-01-2015, 07:15 PM
हाजी अब्दुल अज़ीज़
कथाकार: रजनीश मंगा

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRgIaRbnrPowD70wjZ5AECCnu27Hxun8 mt9hbewnvxMUFAw7ybI

जो मजदूर, कारीगर, राज, मिस्त्री, चेजे, बढ़ई आदि यहाँ से अरब देशों में काम धंधे के लिये जाते हैं, उनके पौ बारह हो गये हैं. बेशुमार पैसा आ रहा है. इनके पास मकान, गहने, कपडे बड़े-बड़ों से बढ़ चढ़ कर है. आर्थिक रूप से समृद्ध हैं – दुनिया भर की सारी मशीनी और इंसानी सुविधाएं इन्होंने जुटा ली हैं.

अब्दुल अज़ीज़ जवानी की दहलीज़ तक पहुँचते हुये गरीबी के साये तले खेला था. एक बार उसके कोई रिश्तेदार हज कर के आये थे तो उनके यहाँ एक हफ़्ते तक कव्वालियों का आयोजन होता रहा था. अब्दुल अज़ीज़ उस वक़्त छोटा था लेकिन उस घटना से वह बहुत प्रभावित हुआ था. उसे हज करने की बड़ी आकांक्षा थी – इसलिये नहीं कि उसका झुकाव धर्म की ओर बहुत था बल्कि वह अपने नाम के आगे हाजी लिखा हुआ देखना चाहता था – हाजी अब्दुल अज़ीज़.
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rajnish manga
26-01-2015, 07:42 PM
हाजी अब्दुल अज़ीज़


राजस्थान से जब रोजी रोटी के लिये कोई व्यक्ति अरब देशों को जाता था तो इस आवागमन को मुसाफ़िरी के नाम से वर्णित किया जाता था. अपनी पहली मुसाफिरी के बाद अब्दुल अज़ीज़ ने शानदार दो तल्ले का मकान बनवा लिया था. डेढ़ दो लाख से कम लागत न आयी होगी. मजदूरी तो अपनी ही थी. माँ-बाप बेटे को दुआ देते न थकते थे. जितना ज़िन्दगी भर बाप न कमा सका, उससे अधिक तो बेटे ने दो वर्षों में ही सारे खर्चे निकाल कर बचा लिया था. घर खर्च भी तो भेजता था.

अगली मुसाफिरी में एक वर्ष रुकना हुआ. इस बार वह बेहद बीमार हो गया था. ऐसी हालत में उसने भारत लौटना ही मुनासिब समझा. वीसा वह साथ ही लेता आया था. इस बार वह अपने साथ बहुत सी नई नई चीजें लाया था जैसे – स्टीरिओ टेप, रिकॉर्ड प्लेयर, टीवी, कैमरा, घड़ियाँ, कपड़े आदि. यह सभी कुछ फॉरेन का सामान था. उसके मुताबिक़ इन सारी वस्तुओं से उसकी समृद्धि और सुरुचि का परिचय मिलता था. देसी वस्तुओं से वो रुतबा नहीं बनता जो इन विदेशी चीजों से बनता है. अच्छी हैसियत वाले हर व्यक्ति के पास यह वस्तुएं होना लाज़मी समझा जाता था वरना बाहर जाने का क्या फायदा?

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rajnish manga
26-01-2015, 07:44 PM
हाजी अब्दुल अज़ीज़

खैर माँ - बाप, पत्नी, छोटे भाई सब ने उसकी अच्छी सेवा सुश्रुषा की जिसके परिणामस्वरूप वह जल्द स्वस्थ हो गया. कुछ ही दिन में हवाई जहाज का टिकट बुक हो गया. जाने की तैयारी पूरी हुई.

दो वर्ष का समय कटते देर न लगी. अब्दुल अज़ीज़ के जीवन की एक बड़ी साध पूर्ण होने का योग बन गया. हज की अभिलाषा मन में लिये वह ओमान से सऊदी अरब के लिये रवाना हो गया. हज पूर्ण हुआ. वहाँ से वापिस आते समय उसकी खुशी का कोई ठिकाना न था. अब वो साधारण अब्दुल अज़ीज़ नहीं बल्कि हाजी अब्दुल अज़ीज़ था – हाजी अब्दुल अज़ीज़.

वह प्रसन्न था. पर फिर भी उसे एक बात का अफ़सोस था. अबकी बार उसका वीसा रिन्यू नहीं हुआ था. सोने का अंडा देने वाली मुर्गी उसके हाथ से जैसे निकल गई थी. एक भले आदमी की तरह रहने का अधिकार ही उससे छीन लिया गया था जैसे. हाजी अब्दुल अज़ीज़ को अपने बचपन के वो मुफ़लिसी भरे दिन याद आ जाते तो वह बुरा सा मुंह बना लेता. उसके मन में एक उम्मीद की किरण जरूर कौंध जाती थी कि शायद डाक से उसकी वापसी के कागजात आ जाएं मगर दो माह बीतते न बीतते उसके भीतर जगी यह उम्मीद की किरण भी धूमिल हो कर मिट गई.

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rajnish manga
28-01-2015, 08:21 PM
उसका मन खिन्न हो गया. अब न तो स्टीरिओ उसे तसल्ली दे पाता था और न रिकॉर्ड चेंजर उसके दिल को बहला पाते. फिल्मों के साउंड ट्रेक भी अब उसकी हंसी उड़ाते लगते. पैसा धीरे धीरे चुकता जा रहा था. इन्हीं हालात में उसके मन की ऊब भी बढ़ती जा रही थी. इस बीच आमदनी के लिये उसने कई छोटे मोटे काम शुरू किये लेकिन उनसे सीमित आय ही हो पाती थी. असंतोष का घेरा उसे चारों ओर से जकड़े जा रहा था.

जब तक कोई वस्तु हासिल नहीं हो पाती, उसकी उम्मीद होती है, उसको हासिल करने के प्रयत्न मनुष्य करता है. और जब उसे प्राप्त कर लेता हैतो उसे बेपनाह ख़ुशी और संतोष हासिल होता है. इसके पश्चात इस ख़ुशी और संतोष की तीव्रता कम होती जाती है. यहाँ तक कि उसकी कुरेद तक नहीं रहती. लेकिन जब हासिल की हुई वस्तु हाथ से निकल जाती है अथवा उसके साथ जुड़ा हुआ हमारा सुख भंग हो जाता है तो जो चोट दिल पर पड़ती है, उसका प्रभाव देर तक रहता है.


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rajnish manga
28-01-2015, 08:22 PM
आमदनी और खर्च में संतुलन बिगड़ता गया तो प्रतिष्ठा के प्रतीक बिकने लगे. गुब्बारे में बैठ कर साहसिक यात्रा अभियानों के बारे में यदि आपने पढ़ा हो तो आपने देखा होगा कि गैस कम हो जाने पर गुब्बारे के गेदोले पर रक्खे हुये रेत के बोरे नीचे गिराए जाते हैं ताकि गुब्बारे की उंचाई बढ़ाई जा सके या बरकरार रखी जा सके. हाजी अब्दुल अज़ीज़ ने भी अपने कीमती सामान यथा पैनासोनिक टू-इन-वन स्टीरियो, रिकॉर्ड चेंजर, कैमरा, घड़ियाँ, टेलीविज़न और अन्य प्रकार के इलेक्ट्रोनिक यंत्रों को धीरे धीरे औने-पौने दामों पर बेचना आरंभ कर दिया.

एक और जीवन में घटते साधनों का दबाव और दूसरी और बेहद शौक से खरीदी हुई वस्तुओं से वियोग का ग़म, इन दोनों बातों ने उसके दिलो-दिमाग को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया था. दिमाग ने तो जैसे काम करना ही बंद कर दिया था और कभी कभी उसे यूँ लगता जैसे वह नदी की तेज धार की विपरीत दिशा में तैरने की कोशिश कर रहा है. जितना ही हाथ-पैर मारता उतना ही शैथिल्य उसमे व्याप्त होता जाता. उसका अंतस सुलगने लगता.

अब उसके सामने प्रमुख विचार यही था कि पैसा कहाँ से आये ? रोजी रोटी कैसे चलेगी ? बाकी सब कुछ गौण हो गया था. इसी उधेड़-बुन में अपने बाप को भी खरी खोटी सुनानी शुरू कर दी थी कि वह नकारा क्यों बैठा रहता है ?
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rajnish manga
28-01-2015, 08:23 PM
कई बार माँ उसे समझाने का प्रयत्न करती तो उन्हें भी वह जली कटी सुना बैठता. माँ उससे फिर क्या बहस करती ? उसे कुछ न सूझता, अतः अधिकतर समय अपनी कोठरी में ही बैठी रहती.

बेचारी सुगरां का तो सबसे बुरा हाल था. ऐसी कठिन परिस्थितियों से उसे जीवन में कभी न गुज़ारना पड़ा था. इसलिये उसके मन पर अपने पति के रूखे व कठोर व्यवहार का गहरा आघात लगा. सबसे अधिक ज्यादती भी उसी के साथ होती थी. उसकी उम्र कोई ख़ास नहीं थी. अभी तो उसने गृहस्थ जीवन के सलोने सपने देखने ही शुरू किये थे, उनकी ताबीर के बारे में अभी कुछ सोच ही न पायी थी. ऐसे में पति का प्यार उसका बहुत बड़ा सहारा था, उसका संबल था. किन्तु अब ..... वक़्त ने ऐसी करवट ली कि उसके नीचे उसके सारे कोमल और सुनहरे सपने दब कर रह गये थे. पति की उपेक्षा, प्रताड़ना और उसके बाद होने वाली मारपीट ने उसे बुरी तरह तोड़ डाला था. इस टूटन के कारण उम्र से पहले ही वह जैसे बूढी हो गयी थी. मन मार कर जितना बन पड़ता काम करती, पर जल्द ही थक जाती और हांफने लगती. इस दशा में वह छत की कड़ियों पर दृष्टि अटकाते हुये अपने मौला से दुआ मांगती कि ‘ऐ मौला, तूने हमें जैसा भी रखा, हम रहे. अब और सहन नहीं होता. इसलिये मुझ अभागन को तू इस दुनिया-ए-फ़ानी से उठा ले.’

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soni pushpa
29-01-2015, 12:08 PM
सच यहाँ कुछ नही आपना न जाने क्यूँ इंसान मेरा तेरा करके पापो के भागिदार बनते हैं bhai छोटी किन्तु बड़ी रोचक कहानी ... धन्यवाद bhai ...हम सबसे के साथ शेयर करने के लिए

soni pushpa
29-01-2015, 12:12 PM
[QUOTE=rajnish manga;547657][size=3][font=&qu संबल था. किन्तु अब ..... वक़्त ने ऐसी करवट ली कि उसके नीचे उसके सारे कोमल और सुनहरे सपने दब कर रह गये थे. पति की उपेक्षा, प्रताड़ना और उसके बाद होने वाली मारपीट ने उसे बुरी तरह तोड़ डाला था. इस टूटन के कारण उम्र से पहले ही वह जैसे बूढी हो गयी थी. मन मार कर जितना बन पड़ता काम करती, पर जल्द ही थक जाती और हांफने लगती.

इंसानी दुखों का कही अंत नही इसलिए ही जीवन को एक संग्राम कहा गया है ,, इम्तिहान कहा गया है क्यूंकि मानव जीवन में कठिनाइयाँ अधिक और खुशिया कम होतीं है .

Rajat Vynar
29-01-2015, 07:41 PM
प्रतिष्ठा के प्रतीक

प्रतिष्ठा के प्रतीक... वाह-वाह.. क्या शब्दों का चयन है! हाय हुसैन, इन शब्दों को हम न लिख सके!!:laughing: यही नहीं, रजनीश मंगा जी.. कहानी की अद्वितीय वर्णन शैली से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मुंशी प्रेमचंद को पढ़ रहा हूँ. बधाई हो.

Bagula Bhagat
29-01-2015, 09:39 PM
हाजी अब्दुल अज़ीज़
कथाकार: रजनीश मंगा

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRgIaRbnrPowD70wjZ5AECCnu27Hxun8 mt9hbewnvxMUFAw7ybI

जो मजदूर, कारीगर, राज, मिस्त्री, चेजे, बढ़ई आदि यहाँ से अरब देशों में काम धंधे के लिये जाते हैं, उनके पौ बारह हो गये हैं. बेशुमार पैसा आ रहा है. इनके पास मकान, गहने, कपडे बड़े-बड़ों से बढ़ चढ़ कर है. आर्थिक रूप से समृद्ध हैं – दुनिया भर की सारी मशीनी और इंसानी सुविधाएं इन्होंने जुटा ली हैं.

अब्दुल अज़ीज़ जवानी की दहलीज़ तक पहुँचते हुये गरीबी के साये तले खेला था. एक बार उसके कोई रिश्तेदार हज कर के आये थे तो उनके यहाँ एक हफ़्ते तक कव्वालियों का आयोजन होता रहा था. अब्दुल अज़ीज़ उस वक़्त छोटा था लेकिन उस घटना से वह बहुत प्रभावित हुआ था. उसे हज करने की बड़ी आकांक्षा थी – इसलिये नहीं कि उसका झुकाव धर्म की ओर बहुत था बल्कि वह अपने नाम के आगे हाजी लिखा हुआ देखना चाहता था – हाजी अब्दुल अज़ीज़.
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Killing story!

rajnish manga
31-01-2015, 08:38 PM
प्रतिष्ठा के प्रतीक... वाह-वाह.. क्या शब्दों का चयन है! हाय हुसैन, इन शब्दों को हम न लिख सके!!:laughing: यही नहीं, रजनीश मंगा जी.. कहानी की अद्वितीय वर्णन शैली से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मुंशी प्रेमचंद को पढ़ रहा हूँ. बधाई हो.

killing story!


आप दोनों महानुभाव को कहानी पढ़ने तथा उस पर अपने बहुमूल्य विचार रखने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.

rajnish manga
31-01-2015, 08:38 PM
खुदाताला को भी शायद उस पर तरस आ गया था. एक एक दिन उसे मौत की ओर धकेल रहा था. कल की चंचल किशोरी सुगरां ने मौत के इंतज़ार में जो चारपाई पकड़ी तो फिर न उठी.

इधर अब्दुल अज़ीज़ सोचता कि उसकी बीवी अवश्य कोई नाटक खेल रही है. तन-मन से अच्छी भली होने पर भी बीमारी बहाना कर रही है और दूसरों की सहानुभूति अर्जित करने के लिये ही बिस्तर पर पड़ी हुई है. क्रोध के कारण आपे से बाहर हो जाता. कहता, “हरामखोर की बच्ची, तुझे तो पलंग तोड़ने के सिवा दूसरा कोई काम ही नहीं है. तू मर क्यों नहीं जाती.”

अब्दुल अज़ीज़ का क्रोध व क्षोभ किसी सीमा को नहीं जानता था. ऐसी मनःस्थिति में वह जो कर जाये, थोड़ा था. बीवी के बाल खींचते या उसे थप्पड़ मारते उसे लज्जा नहीं आती थी. बल्कि और उग्र हो कर कहता,

“देख, तू मेरी जान का आजार बनी हुई है. लगता है तेरे मरने से पहले मुझे खुशी देखना नसीब न होगा. मैं तुझको तलाक़ दूंगा, समझी !!! फिर मरना चाहे जीना.”
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rajnish manga
31-01-2015, 08:40 PM
उस रात नींद में सुगरां के मुंह से जोरों की चीख निकल गई. शायद कोई भयानक ख्वाब देख कर डर गयी थी. उसके पति ने चौंक कर उसे देखा और समझा कि यह सुगरां का कोई नया स्वांग है. बस यह सोचना था कि उसके नथुने फड़कने लगे. उठाया डंडा और, जो सुगरां कभी उसके दिल का करार और आँखों की ज्योति हुआ करती थी, उसी की धुनाई शुरू कर दी. इस बेरहमी से उसने सुगरां को पीटा कि उसके स्वयं के हाथ भी दुखने लग गये. सुगरां रोने लग पड़ी .. जार ...जार ... रोती जाती और बोलती जाती,

“मारो ... और मारो ... मार डालो मुझे ... खत्म कर दो. तुम्हें भी .... मेरी मौत से चैन मिल जायेगा ... और मुझे भी ... रुक क्यों गये .... और मारो”

रात उस बदनसीब सुगरां को बड़े जोर का ज्वर चढ़ा. सुबह होते न होते उसके प्राण पखेरू उड़ गये.

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rajnish manga
31-01-2015, 08:41 PM
बेशक अब्दुल अज़ीज़ ने अपनी पत्नी के मरने की दुआ मांगी थी, लेकिन दुआ का इतना वीभत्स परिणाम होगा, यह उसने कल्पना तक न की थी. सुगरां की मौत में उसे अपनी मौत दिखाई दे रही थी. वह सुगरां के पार्थिव शरीर को सुपुर्दे-ख़ाक करके भीड़ से अलग हट कर एक सुनसान सी जगह जा बैठा और बीते हुये दिनों के नक्श याद करने लगा. याद करते करते वह रोने लगा. अपने पागलपन को हज़ार लानतें देता न जाने कितनी देर तक रोता रहा ... वहीँ बैठ कर.

जिस दिन सुगरां स्वर्गवासी हुयी, उस दिन के बाद किसी ने हाजी अब्दुल अज़ीज़ को उस शहर में नहीं देखा. शुरू में बहुत से लोगों का मानना था कि शायद उसने अपनी पत्नी के ग़म में कुएं या नदी में डूब कर ख़ुदकुशी कर ली है. काफी समय बीत जाने पर कुछ लोग कहते सुने गये कि वह फ़कीर हो गया है और दीन दुखियों की सेवा करता है और आजकल किसी पीर की दरगाह पर खिदमतगार है.

(रचनाकाल: 1979)
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Rajat Vynar
04-02-2015, 11:19 AM
मुंशी प्रेमचन्द की वर्णनात्मक शैली को भी पीछे छोड़ते हुए अत्यधिक मार्मिक रूप से चली कहानी, कहानी में निर्धनता का अमिट छाप छोड़ने में पूर्णरूपेण सफल रही किन्तु कहानी के अन्त में चमत्कारपूर्ण ढंग से किसी सन्देश को स्थापित करने में विफल होने के कारण कहानी न लगकर सत्यकथा, मनोहर कहानियाँ या समाचार-पत्रों में छपी एक सत्य घटना लगने लगी। कहानी में यथोचित् संशोधन अभी भी सम्भव है। अतः रजनीश मंगा जी से अनुरोध है कि कहानी का संशोधित निर्वहण (denouement) प्रस्तुत करें अथवा मुझे मात्र 5000 पाॅइन्ट्स देकर लिखवा लें। आपसे सादर सविनय निवेदन है कि समय-समय पर पाॅइन्ट्स बाँटने के कारण मुझे काफ़ी खर्चा आता है। समय-समय पर घूँस भी देना पड़ता है। :laughing: अतः हमारे प्रस्ताव पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करें।

rajnish manga
04-02-2015, 12:13 PM
..... किन्तु कहानी के अन्त में चमत्कारपूर्ण ढंग से किसी सन्देश को स्थापित करने में विफल होने के कारण कहानी न लगकर सत्यकथा, मनोहर कहानियाँ या समाचार-पत्रों में छपी एक सत्य घटना लगने लगी। कहानी में यथोचित् संशोधन अभी भी सम्भव है। अतः रजनीश मंगा जी से अनुरोध है कि कहानी का संशोधित निर्वहण (denouement) प्रस्तुत करें अथवा .....

आपकी टिप्पणी देख कर मैं हर्षित हूँ. आपका कथन ठीक है. कथा का अंत कहानी के मानक तत्वों के हिसाब से प्रभावशाली या नाटकीय न हो सका. लेकिन मुझे इसका कोई खेद नहीं है. जिस पृष्ठभूमि से यह कहानी उभरी है, मैं उसका एक गवाह रहा हूँ. उस सामाजिक परिवेश को या कहें कि इतिहास के उस छोटे से कालखंड को मेरी ओर से यह एक विनम्र श्रद्धांजलि है.

Deep_
11-02-2015, 02:09 PM
[size=3][font=&quot]बेशक अब्दुल अज़ीज़ ने ..... जाने कितनी देर तक रोता रहा ... वहीँ बैठ कर.जिस...खिदमतगार है.

हृदयस्पर्शी कहानी..

rajnish manga
30-01-2024, 02:04 PM
हृदयस्पर्शी कहानी..

दीप जी के साथ अन्य सभी दोस्तों का बहुत बहुत शुक्रिया.