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View Full Version : प्रसिद्ध हिन्दी कविताएं


raju
28-10-2010, 10:22 PM
मैंने प्रसिद हिंदी कविताये पर एक नया थ्रेड बनाया है. फोरम के सभी मेम्बेर्स से निवदेन है की वह अपने पसंदीदा कविताये पोस्ट करे

इंसाफ की डगर प्रदीप

इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

दुनिया के रंज सहना और कुछ न मुँह से कहना
सच्चाइयों के बल पे आगे को बढ़ते रहना
रख दोगे एक दिन तुम संसार को बदल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

अपने हों या पराए सबके लिये हो न्याय
देखो कदम तुम्हारा हरगिज़ न डगमगाए
रस्ते बड़े कठिन हैं चलना सम्भल-सम्भल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

इन्सानियत के सर पर इज़्ज़त का ताज रखना
तन मन भी भेंट देकर भारत की लाज रखना
जीवन नया मिलेगा अंतिम चिता में जल के,
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

raju
28-10-2010, 10:23 PM
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला!!
हरिवंशराय बच्चन

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

raju
28-10-2010, 10:25 PM
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
- राम प्रसाद बिस्मिल

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।

करता नहीं क्यों दुसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल मैं है ।

रहबर राहे मौहब्बत रह न जाना राह में
लज्जत-ऐ-सेहरा नवर्दी दूरिये-मंजिल में है ।

यों खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है ।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफिल में है ।

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ।

खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मींद,
आशिकों का जमघट आज कूंचे-ऐ-कातिल में है ।

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।
__

रहबर - Guide
लज्जत - tasteful
नवर्दी - Battle
मौकतल - Place Where Executions Take Place, Place of Killing
मिल्लत - Nation, faith

raju
28-10-2010, 10:26 PM
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद - रामधारी सिंह दिनकर

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

raju
28-10-2010, 10:27 PM
नर हो न निराश करो मन को
- मैथिलीशरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।

jalwa
28-10-2010, 10:29 PM
मित्र राजू जी, आपको देख कर स्वर्गीय राजकपूर साहब की यादें ताजा हो गईं.
मित्र, आपके इस सूत्र में यदि मैं अपनी और से कुछ तुच्छ सा योगदान कर पाऊं तो यह मेरी खुशकिस्मती होगी.
प्रस्तुत है 'उमाशंकर यादव' जी की एक कविता...

भारत-महिमा
(1)
कृष्ण के सनेह वाली मीराबाई भारत में,
सीता, सावित्री, अनुसुइया सी कहानी है।
मेरे घर लक्ष्मी हैं, दुर्गा भवानी जैसी,
तेरे यहाँ क्लिंटन की, मोनिका निशानी है॥
तू तो मदमस्त होके इतरा रहा है देख,
अब्दुल कलाम जैसा विश्व में न शानी है।
धिक्-धिक् क्लिंटन हैं मोनिका चरित्र तेरे,
भारत विवेकानन्द जागती जवानी है॥
(2)
भारती चरित्र है, पवित्रता के द्वारा पला,
गंगा की धवल धार चरण पखारती।
कश्मीर से कुमारी कन्या का स्नेह यहाँ
मातु वैष्णों की विश्व ने उतारी आरती॥
विन्ध्यवासिनी के सिंह की दहाड़ भारत में,
गौरी और काली मातु असुर संहारती।
यहीं है अमरनाथ, बद्रीनाथ धाम यहीं,
जहाँ हिमवारि शिवलिंग को संवारती॥
(3)
यहीं के है आजाद, अशफाक भगत सिंह,
शास्त्री सुभाष जैसी, भारत की शान हैं।
अब्दुल हमीद जैसे टैंक भेदी भारत में,
सत्य औ अहिंसा वाले गाँधी उपमान हैं॥
सूर जैसे शौर्यवाले चन्द्र जैसे तुलसी हैं,
श्याम के अनन्य भक्त कवि रसखान हैं।
अपने कबीर औ रहीम यहीं विद्यमान,
भारत में भूषण, निराला जैसा ज्ञान है॥
(4)
अपनी पुनीत बाल्मीकि की तपस्थली ही
भारत का आज इतिहास बतला गई।
जानकी पियारी, जानकी को त्याग राम यहीं,
लवकुश भक्ति, पितृशक्ति को झुका गई॥
वट तरु, छांह, कुण्ड, जानकी समाई मातु,
आज यह भूमि धन्य, धन्य कहला गई।
आज हूँ दरस रमणीक दिव्य दृष्यमान,
रघुकुल-रीति, जय-गान, गान गा गई॥

raju
28-10-2010, 10:29 PM
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
- हरिवंश राय बच्चन

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

raju
28-10-2010, 10:31 PM
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले - मिर्जा गालिब

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले

हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले

कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले

--
चश्म-ऐ-तर - wet eyes
खुल्द - Paradise
कूचे - street
कामत - stature
दराजी - length
तुर्रा - ornamental tassel worn in the turban
पेच-ओ-खम - curls in the hair
मनसूब - association
बादा-आशामी - having to do with drinks
तव्वको - expectation
खस्तगी - injury
खस्ता - broken/sick/injured
तेग - sword
सितम - cruelity
क़ाबे - House Of Allah In Mecca
वाइज़ - preacher

jalwa
28-10-2010, 10:32 PM
त्याग
एक बार जापान देश में, था पड़ गया अकाल।
हुई दुर्दशा, लोग हों गए धन के बिना बेहाल॥

एक कृषक था वहाँ उस समय जिसके विमल विचार।
सदा सोचता जो परहित हित, ऐसा चतुर उदार॥

उसने किया विचार हो गयी, नष्ट सभी हैं चीज़।
फसल उगाने समय यहाँ से, सब पायेंगे बीज॥

उसके घर में रखा हुआ था, इक बोरा भर धान।
सोचा इसे बचाना इस दम है, है कर्तव्य महान॥

ठान लिया इस बोरे का अब, नही करूँ स्पर्श।
और सभी के संग भूखा रहता, मर जाने में है हर्ष॥

इस प्रकार से भूखा रहता, कुछ भी छुआ ना धान।
भूखा रहा बिना कुछ खाए, छोड़ा अपना प्रान॥

एक दिवस देखा सब ही ने, पर हित का अनुराग।
बोरे पर सिर टिका पड़ा था, कितना अद्भुत त्याग॥

- ओम प्रकाश 'जयन्त

raju
28-10-2010, 10:32 PM
यह दिया बुझे नहीं
- गोपाल सिंह नेपाली


यह दिया बुझे नहीं

घोर अंधकार हो
चल रही बयार हो
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ
शक्ति को दिया हुआ
भक्ति से दिया हुआ
यह स्वतंत्रता–दिया

रूक रही न नाव हो
जोर का बहाव हो
आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है।

यह अतीत कल्पना
यह विनीत प्रार्थना
यह पुनीत भावना
यह अनंत साधना

शांति हो, अशांति हो
युद्ध, संधि, क्रांति हो
तीर पर¸ कछार पर¸ यह दिया बुझे नहीं
देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है।

तीन–चार फूल है
आस–पास धूल है
बांस है –बबूल है
घास के दुकूल है

वायु भी हिलोर दे
फूंक दे, चकोर दे
कब्र पर मजार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है।

झूम–झूम बदलियाँ
चूम–चूम बिजलियाँ
आंधिया उठा रहीं
हलचलें मचा रहीं

लड़ रहा स्वदेश हो
यातना विशेष हो
क्षुद्र जीत–हार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है।

raju
28-10-2010, 10:32 PM
हम होंगे कामयाब एक दिन
- A translation of english song 'We shall overcome' by गिरिजाकुमार माथुर

All of us have heard "हम होंगे कामयाब" innumerable times in India. This song is translation of famous english song 'We shall Overcome' -- a song with origins in early 1900s in America. It became quite famous there during civil rights movement in 1960s. You can find more information about this at Wikipedia . The tune of hindi song is same as that of its english original (I think it's probably one of the most recognized tune in the world).

हम होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो हो हो मन मे है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन

हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन

होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होंगी शांति चारो ओर एक दिन

नहीं डर किसी का आज
नहीं डर किसी का आज एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज एक दिन

हो हो हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन

jalwa
28-10-2010, 10:33 PM
देखो! एक सपेरा आया
कन्धे पर टाँगे है झोली,
बोल रहा है अद्भुत बोली,
बीन बजाकर उसने सचमुच-
बच्चों के मन को बहलाया।

बच्चे उसको घेर रहें हैं,
मिल-जुल कर सब टेर रहें हैं,
बच्चों की इस शैतानी से-
सचमुच उसका दिल घबराया।

बबलू के दरवाजे आकर,
घेर लिया बच्चों ने जाकर,
बीन बजाकर उसने सहसा-
बच्चों का भी जी ललचाया।

उसने एक पिटारा खोला,
एक सांप भीतर से डोला,
फुफक पड़ा भागे सब बच्चे-
रामू का भी दिल घबराया।

नीले काले हरे रंग के,
सांप, बिच्छुएँ ढंग-ढंग के,
कुछ हाथों में कुछ कन्धे पर-
कुछ को गरदन में लपटाया।

दस-दस पैसे लगे माँगने,
बच्चे सुन-सुन लगे भागने,
दो-दो चुटकी आटे पर ही-
उसने सारा खेल दिखाया।

- डॉ० उमाशंकर शुक्ल 'उमेश

jalwa
28-10-2010, 10:35 PM
छोटे बच्चे, मन के सच्चे
सीधे साधे तनके कच्चे।
छोटे बच्चे, मन के सच्चे॥

जननी तभी पूर्णता पाती। बच्चा जानती माँ कहलाती॥
कितने प्यारे नन्हें बच्चे। छोटे बच्चे, मन के सच्चे॥

बोल तोतली, समझ न पाते। पर वह कितना ह्रदय लुभाते॥
स्फुट बोल बोलते बच्चे। छोटे बच्चे, मन के सच्चे॥

मन्दिर-मस्जिद भेद मिटते। नहीं किसी से वह घबड़ाते॥
सबको गले लगाते बच्चे। छोटे बच्चे, मन के सच्चे॥

बच्चों के हैं सबसे नाते। कलुषित भाव समझ ना पाते॥
प्रेम-सुधा बरसाते बच्चे। छोटे बच्चे, मन के सच्चे॥

इक मीठी मुस्कान के आगे। भरी तनाव जिंदगी भागे॥
कितने सहज सरल हैं बच्चे। छोटे बच्चे, मन के सच्चे॥

- डॉ० कृष्ण कुमार मिश्र

anjaan
28-10-2010, 10:35 PM
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
- मुहम्मद इक़बाल

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा

गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा

परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासवां हमारा

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा

ऐ आब-ए-रौंद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा

मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा

यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा

'इक़बाल' कोई मरहूम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा ।

anjaan
28-10-2010, 10:36 PM
कदम कदम बढ़ाये जा - कैप्टन राम सिंह

कदम कदम बढ़ाये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाये जा

तू शेर-ए-हिन्द आगे बढ़
मरने से तू कभी न डर
उड़ा के दुश्मनों का सर
जोश-ए-वतन बढ़ाये जा

कदम कदम बढ़ाये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाये जा

हिम्मत तेरी बढ़ती रहे
खुदा तेरी सुनता रहे
जो सामने तेरे खड़े
तू खाक में मिलाये जा

कदम कदम बढ़ाये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाये जा

चलो दिल्ली पुकार के
ग़म-ए-निशाँ संभाल के
लाल क़िले पे गाड़ के
लहराये जा लहराये जा

कदम कदम बढ़ाये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाये जा

anjaan
28-10-2010, 10:37 PM
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या - महादेवी वर्मा

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या

तारक में छवि, प्राणों में स्मृति
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पुलकों की संसृति

भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या!

तेरा मुख सहास अरुणोदय
परछाई रजनी विषादमय
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय

खेलखेल थकथक सोने दे
मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या!

तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही स्मित मिश्रित हाला,
तेरा ही मानस मधुशाला

फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या!

रोमरोम में नंदन पुलकित
साँससाँस में जीवन शतशत
स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित

मुझमें नित बनते मिटते प्रिय
स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या!

हारूँ तो खोऊँ अपनापन
पाऊँ प्रियतम में निर्वासन
जीत बनूँ तेरा ही बंधन

भर लाऊँ सीपी में सागर
प्रिय मेरी अब हार विजय क्या!

चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम
मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम

काया छाया में रहस्यमय
प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या!

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या

anjaan
28-10-2010, 10:38 PM
बढ़े चलो -द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

साथ में ध्वजा रहे
बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं
दल कभी रुके नहीं

सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर,हटो नहीं
तुम निडर,डटो वहीं

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चन्द्र से बढ़े चलो

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

jalwa
28-10-2010, 10:39 PM
प्रिय मित्र "अनजान जी" आपके देशभक्ति गीतों के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ. मित्र, कृपया इसी प्रकार अपने सहयोग के द्वारा हमारा ज्ञानवर्धन करते रहें . धन्यवाद.
:fantastic:

anjaan
28-10-2010, 10:39 PM
कोशिश करने वालों की - हरिवंशराय बच्चन

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

anjaan
28-10-2010, 10:40 PM
पुष्प की अभिलाषा - माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।

anjaan
28-10-2010, 10:41 PM
लीक पर वे चलें जिनके.. - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं

शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।

लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं

anjaan
28-10-2010, 10:42 PM
आग जलती रहे - दुष्यंत कुमार

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छुने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछुता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!

सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

RajuRastogi
29-10-2010, 12:07 PM
‘कौन कहता है आसमान पर सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’




आसमान की ओर देखकर

हाथ पर पत्थर लिए

मै सोचता रहा

दुष्यंत की प्रेरणा

और अपनी हिम्मत

के बीच का द्वंद्व

कहाँ, किस ओर से

आसमान में है

सुऱाख की गुजांइश



आसमान के बदलते तेवर

और उसे ओढ़े अनेक

रक्षा कवचों का मायाजाल

सुराख के लिए नहीं

बचाता किसी कोने में

कोई छोटी-सी जगह



डिस्टलरियों के धुएँ की मोटी परतों ने

उसे बना दिया है

आवारा, मदमस्त और कठोर

वह तो धूल की परतों से

हो गया है चट्टान

फिर भी उछालकर देखा

मैंने एक दुष्यंतनुमा पत्थर

टकराकर लौट आया

वह मेरी ओर और मैंने

अपनी ही बचने के लिए

खुद बनाई अपने आसपास

सुराख कर उसके लिए जगह



वैसे भी अब आसमान पर

कहाँ जगह बची है

आम-आदमी के लिए

देशी-विदेशी हवाई-सड़कों ने

बना ली है अपनी जगह

चील, कौव्वों और गिद्धों से भी खतरा उन्हें

एक-दूसरे से भी टकराने का

जिन्होंने आसमान को

बना लिया है आम रास्ता

ज़मीन पर रहने वाले

से ऊँचा उड़ने के लिए

उन्हें ऊपर से

कीड़ों-मकोड़े की तरह

देखने के लिए



अब तो ये पत्थर भी उठाये नहीं जाते दुष्यंत

आसमान से जमीं पर रहने वालों को खतरा है

क्योंकि कोशिश के लिए

जगह नहीं बची

कामयाबी के सटे-सटाये आसमान में

इसलिए ज़मीन पर रह कर ही

हौसले का पत्थर उछालते हैं

कि एक न एक दिन

सुराख होकर रहेगा आसमान में ।

anjaan
30-10-2010, 08:13 AM
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है - केदारनाथ अग्रवाल

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

anjaan
30-10-2010, 08:15 AM
किसको नमन करूँ मैं भारत? - रामधारी सिंह दिनकर

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

anjaan
30-10-2010, 08:17 AM
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार - शिवमंगल सिंह सुमन

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।

Sikandar_Khan
30-10-2010, 08:32 AM
मित्र
अंजान जी
बहुत ही सुन्दर लिख है

Dark Saint Alaick
03-11-2010, 04:47 PM
सूत्र में बड़ी संख्या में उर्दू ग़ज़ल और नज़्म भी शामिल हैं, अतः मेरे विचार से शीर्षक में सिर्फ 'हिन्दी' उपयुक्त नहीं है ! कविताएं वाकई बेहतरीन हैं !

Kumar Anil
18-11-2010, 12:36 PM
[QUOTE=raju;6049]हम होंगे कामयाब एक दिन
- A translation of english song 'We shall overcome' by गिरिजाकुमार माथुर

All of us have heard "हम होंगे कामयाब" innumerable times in India. This song is translation of famous english song 'We shall Overcome' -- a song with origins in early 1900s in America. It became quite famous there during civil rights movement in 1960s. You can find more information about this at Wikipedia . The tune of hindi song is same as that of its english original (I think it's probably one of the most recognized tune in the world).

एक सुन्दर सूत्र के माध्यम से ख्यातिलब्ध गीत की पृष्ठभूमि पर राजू जी ने अच्छी जानकारी प्रदान की और ज्ञानवर्द्धन किया , इसके लिए मेरी ओर से बधाई स्वीकार करेँ

Kumar Anil
18-11-2010, 01:04 PM
[QUOTE=jalwa;6054]छोटे बच्चे, मन के सच्चे

( स्फुट बोल बोलते बच्चे। )

मित्र एक अनुरोध है आशा है कि आप इसे अन्यथा नहीँ लेँगे । मेरे दृष्टिकोण से उपर्युक्त पँक्ति मेँ स्फुट शब्द के स्थान पर अस्फुट का प्रयोग होना चाहिए । कृपया इसका निवारण करने का कष्ट करेँ ।

Kumar Anil
18-11-2010, 01:40 PM
[QUOTE=anjaan;6071]पुष्प की अभिलाषा - माखनलाल चतुर्वेदी

[color="green"][b][size="3"]
जाने - अनजाने इसकी पुनरावृत्ति हो गयी है क्योँकि आरम्भ मेँ ही किसी अन्य साहित्य प्रेमी ने इसे पोस्ट कर रखा है ।

Sikandar_Khan
07-12-2010, 01:30 PM
दो क्षणद के इस जीवन में, क्या 'खोना' क्या 'पाना' है,
माटी से तू बना है मानव, फिर इसी में मिल जाना है!

धन-दौलत के मोह में आकर, मानवता को भूलजाना है,
शाम सवेरे दृष्टि में अब तो, यही किस्सा पुराना है!

लालस की नैया को जान ले, एक दिन डूब ही जाना है,
मानवता का जो करे है आदर, वही मनुष्य सयाना है!

वास्तु-मोह में फसे मनष्य को ये, फिर से याद दिलाना है,
जीवन की ये परीक्षा पूर्ण कर, इश्वर के घर जाना है!

धन दौलत सब वास्तु हैं इनको, यहीं छोढ़ कर जाना है,
बस कर्मों के ही चिंता कर तू, के इन्ही को साथ ले-जाना है!

surili koyal
08-12-2010, 04:36 PM
काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे

भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस

हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें

कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन में छाए पछाड़

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी
छूटा सहेली का साथ

डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस

इस रचना के कुछ अंशो को हिन्दी फ़िल्म उमराव जान के लिये जगजीत कौर ने ख़य्याम के संगीत में गाया भी है

surili koyal
08-12-2010, 04:44 PM
जब यार देखा नैन भर / अमीर खुसरो

जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर।

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर।

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझ दोस्ती बिसियार है एक शब मिली तुम आय कर।

जाना तलब तेरी करूँ दीगर तलब किसकी करूँ
तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर।

मेरी जो मन तुम ने लिया, तुम उठा गम को दिया
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर।

खुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर।

surili koyal
08-12-2010, 04:49 PM
कामायनी / जयशंकर प्रसाद

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,

बैठ शिला की शीतल छाँह

एक पुरुष, भीगे नयनों से

देख रहा था प्रलय प्रवाह |





नीचे जल था ऊपर हिम था,

एक तरल था एक सघन,

एक तत्व की ही प्रधानता

कहो उसे जड़ या चेतन |

ABHAY
08-12-2010, 05:21 PM
चाँदनी को क्या हुआ कि आग बरसाने लगी
झुरमुटों को छोड़कर चिड़िया कहीं जाने लगी

पेड़ अब सहमे हुए हैं देखकर कुल्हाड़ियाँ
आज तो छाया भी उनकी डर से घबराने लगी

जिस नदी के तीर पर बैठा किए थे हम कभी
उस नदी की हर लहर अब तो सितम ढाने लगी

वादियों में जान का ख़तरा बढ़ा जब से बहुत
अब तो वहाँ पुरवाई भी जाने से कतराने लगी

जिस जगह चौपाल सजती थी अंधेरा है वहाँ
इसलिए कि मौत बनकर रात जो आने लगी

जिस जगह कभी किलकारियों का था हुजूम
आज देखो उस जगह भी मुर्दनी छाने लगी

ABHAY
08-12-2010, 05:22 PM
जो पत्थर तुमने मारा...

जो पत्थर तुमने मारा था मुझे नादान की तरह
उसी पत्थर को पूजा है किसी भगवान की तरह

तुम्हारी इन उँगलियों की छुअन मौजूद है उस पर
उसे महसूस करता हूँ किसी अहसान की तरह

उसी पत्थर में मिलती है तुम्हारी हर झलक मुझको
उसी से बात करता हूँ किसी इनसान की तरह

कभी जब डूबता हूँ मैं उदासी के समंदर में
तुम्हारी याद आती है किसी तूफ़ान की तरह

मेरी किस्मत में है दोस्त तुम्हारे हाथ का पत्थर
भूल जाना नहीं मुझे किसी अंजान की तरह

ABHAY
08-12-2010, 05:23 PM
गीत है दिल की सदा..

गीत है दिल की सदा हर गीत गाने के लिए
गुनगुनाने के लिए सबको सुनाने के लिए

ज़ख़्म रहता है कहीं और टीस उठती है कहीं
दिल मचलता है तभी कुछ दर्द गाने के लिए

फूल की पत्ती से नाज़ुक गीत पर मत फेंकिए
बेसुरे शब्दों के पत्थर आज़माने के लिए

गीत के हर बोल में हर शब्द में हर छंद में
प्यार का पैग़ाम हो मरहम लगाने के लिए

फूल खिलते हैं वफ़ा के तो महकती है फ़ज़ा
हुस्न ढलता है सुरों में गुनगुनाने के लिए

आज के इस दौर में ‘जितू’ किसी को क्या कहे
गीत लिखना चाहिए दिल से सुनाने के लिए

ABHAY
08-12-2010, 05:24 PM
दूर तक जिसकी नज़र..

दूर तक जिसकी नज़र चुपचाप जाती ही नहीं

हम समझते हैं समीक्षा उसको आती ही नहीं

आपका पिंजरा है दाना आपका तो क्या हुआ
आपके कहने से चिड़िया गुनगुनाती ही नहीं

भावना खो जाती है शब्दों के जंगल में जहाँ
शायरी की रोशनी उस ओर जाती ही नहीं

आप कहते हैं वफ़ा करते नहीं हैं इसलिए
जिस नज़र में है वफ़ा वह रास आती ही नहीं

झाड़ियों में आप उलझे तो उलझकर रह गए
आप तक बादे सबा जाकर भी जाती ही नहीं

शेर की दोस्तों अभी भी शेरीयत है ज़िंदगी
इसके बिना कोई ग़ज़ल तो गुदगुदाती ही नहीं

ABHAY
08-12-2010, 05:26 PM
उसने जो चाहा था...

उसने जो चाहा था मुझे इस ख़ामुशी के बीच
मुझको किनारा मिल गया उस बेखुदी के बीच

घर में लगी जो आग तो लपटों के दरमियां
मुझको उजाला मिल गया उस तीरगी के बीच

उसकी निगाहेनाज़ को समझा तो यों लगा
कलियाँ हज़ार खिल गईं उस बेबसी के बीच

मेरे हजा़र ग़म जो थे उसके भी इसलिए
उसने हँसाकर हँस दिया उस नाखुशी के बीच

मेरी वफ़ा की राह में उँगली जो उठ गई
दूरी दीवार बन गई इस ज़िंदगी के बीच

दुनिया खफ़ा है आज भी तो क्या हुआ
उसका ही रंगो नूर है इस शायरी के बीच

ABHAY
08-12-2010, 05:27 PM
बेमुरव्वत है मगर...

बेमुरव्वत है मगर दिलबर है वो मेरे लिए
हीरे जैसा कीमती पत्थर है वो मेरे लिए

हर दफा उठकर झुकी उसकी नज़र तो यों लगा
प्यार के पैग़ाम का मंज़र है वो मेरे लिए

आईना उसने मेरा दरका दिया तो क्या हुआ
चाहतों का खूबसूरत घर है वो मेरे लिए

एक लम्हे के लिए खुदको भुलाया तो लगा
इस अंधेरी रात में रहबर है वो मेरे लिए

उसने तो मुझको जलाने की कसम खाई मगर
चिलचिलाती धूप में तरुवर है वो मेरे लिए

जिस्म छलनी कर दिया लेकिन मुझे लगता रहा
ज़िंदगी भर की दुआ का दर है वो मेरे लिए

ABHAY
08-12-2010, 05:28 PM
यादों ने आज फिर..

यादों ने आज फिर मेरा दामन भिगो दिया
दिल का कुसूर था मगर आँखों ने रो दिया

मुझको नसीब था कभी सोहबत का सिलसिला
लेकिन मेरा नसीब कि उसको भी खो दिया

उनकी निगाह की कभी बारिश जो हो गई
मन में जमी जो मैल थी उसको भी धो दिया

गुल की तलाश में कभी गुलशन में जब गया
खुशबू ने मेरे पाँव में काँटा चुभो दिया

सोचा कि नाव है तो फिर मँझधार कुछ नहीं
लेकिन समय की मार ने मुझको डुबो दिया

दोस्तों वफ़ा के नाम पर अरमाँ जो लुट गए
मुझको सुकून है मगर लोगों ने रो दिया

ABHAY
08-12-2010, 05:29 PM
सितम जिसने किया..

सितम जिसने किया मुझ पर उसे अपना बनाया है
तभी तो ऐसा लगता है कि वो मेरा ही साया है

उदासी के अँधेरों ने जहाँ रस्ता मेरा रोका
तबस्सुम के चरागों ने मुझे रस्ता दिखाया है

कभी जब दिल की बस्ती में चली जज़्बात की आँधी
उसी आँधी के झोंकों ने ग़ज़ल कहना सिखाया है

भले दुनिया समझती है इसे दीवानगी मेरी
इसी दीवानगी ने तो मुझे शायर बनाया है

इसी दुनिया में बसती है जो रंगो नूर की दुनिया
नज़र आएगी क्या उसको जो घर में भी पराया है

मुझे इस लोक से मतलब नहीं उस लोक से दोस्तों
मुझे उस नूर से मतलब जो इस दिल में समाया है

ABHAY
08-12-2010, 05:31 PM
हर सितम हर ज़ुल्म..

हर सितम हर ज़ुल्म जिसका आज तक सहते रहे
हम उसी के वास्ते हर दिन दुआ करते रहे

दिल के हाथों आज भी मजबूर हैं तो क्या हुआ
मुश्किलों के दौर में हम हौसला रखते रहे

बादलों की बेवफ़ाई से हमें अब क्या गिला
हम पसीने से ज़मीं आबाद जो करते रहे

हमको अपने आप पर इतना भरोसा था कि हम
चैन खोकर भी हमेशा चैन से रहते रहे

चाँद सूरज को भी हमसे रश्क होता था कभी
इसलिए कि हम उजाला हर तरफ़ करते रहे

हमने दुनिया को बताया था वफ़ा क्या चीज़ है
आज जब पूछा गया तो आसमाँ तकते रहे

हम तो पत्थर हैं नहीं फिर पिघलते क्यों नहीं
भावनाओं की नदी में आज तक बहते रहे

ABHAY
08-12-2010, 05:32 PM
उजड़े हुए चमन का...

उजड़े हुए चमन का, मैं तो बाशिंदा हूँ
कोई साथ है तो लगता है, मैं भी अभी ज़िंदा हूँ

ज़िंदगी अब लगती है, बस इक सूनापन
जब से बिछडे हुए हैं, तुमसे हम
जान अब तो तेरे लिए ही, बस मैं ज़िंदा हूँ

ज़िंदगी के सफ़र में, तेरे साथ हैं हम
मैंने सोचा है बस, बस तेरे हैं हम
होके तुमसे जुदा, मैं कैसे कहूँ ज़िंदा हूँ

यार अब तो तेरे ही, सपने देखते हैं हम
ख़्वाब में कहते हो मुझसे, कि तेरे हैं हम
कुछ मजबूरी है सनम, जो मैं शर्मिंदा हूँ

ABHAY
08-12-2010, 05:33 PM
कहने को तो..

कहने को तो हम, खुश अब भी हैं
हम तुम्हारे तब भी थे, हम तुम्हारे अब भी हैं

रूठने-मनाने के इस खेल में, हार गए हैं हम
हम तो रूठे तब ही थे, आप तो रूठे अब भी हैं

मेरी ख़ता बस इतनी है, तुम्हारा साथ चाहता हूँ
तब तो पास होके दूर थे, और दूरियाँ अब भी हैं

मुझसे रूठ के दूर हो, पर एहसास तो करो
प्यासे हम तब भी थे, प्यासे हम अब भी हैं

इस इंतज़ार में मेरा क्या होगा, तुम फिक्र मत करना
सुकून से हम तब भी थे, सुकून से हम अब भी हैं

बस थोड़ा रूठने के अंजाम से डरते हैं
डरते हम तब भी थे, डरते हम अब भी हैं

हमारी तमन्ना कुछ ज़्यादा नहीं थी, जो पूरी न होती
कम में गुज़ारा तब भी था, कम में गुज़ारते अब भी हैं

चलते हैं तीर दिल पे कितने, जब तुम रूठ जाते हो
ज़ख्मी हम तब भी थे, ज़ख्मी हम अब भी हैं

मेरी मासूमियत को तुम, ख़ता समझ बैठे हो
मासूम हम तब भी थे, मासूम हम अब भी हैं

आप हमसे रूठा न करें, बस यही इल्तिजा है
फ़रियादी हम तब भी थे, फ़रियादी हम अब भी हैं

तुम हो किस हाल में, कम से कम ये तो बता दो
बेखब़र हम तब भी थे, बेखब़र हम अब भी हैं

ABHAY
08-12-2010, 05:34 PM
पेड़ की छाँव में..

पेड़ की छाँव में, बैठे-बैठे सो गए
तुमने मुसकुरा कर देखा, हम तेरे हो गए

तमन्ना जागी दिल में, तुम्हें पाने की
तुम्हें पा लिया, और खुद तेरे हो गए

कब तलक यों ही, दूर रहना पड़ेगा
इस सोच में डूबे-डूबे, दुबले हो गए

बिन पत्तों की, उस डाली को देखा
तसव्वुर किया तुम्हारा, और कवि हो गए

यों ही बैठे रहे, सोचते रहे, हर पल
ख़यालों में तुम आते रहे, हमनशीं हो गए

राज़दार मेरे बनकर, ज़िंदगी में आ गए
रहनुमा बन गए, खुद राज़ हो गए

कोई फूल देखूँ, तो लगता है तुम हो
फिर फूल का क्या करूँ, खुद फूल हो गए

नसीब की कमी है, गुलाब सहता नहीं
पर तुम्हीं ख़यालों में, इक हँसी गुलाब हो गए

बेकरारी बढ़ती है, जब तुम याद आते हो
याद मैं करता नहीं, फिर भी याद आ गए

तुम्हारे लिए है, ये ज़िंदगी मेरी
ख़्वाहिश में तुम्हारी, हम लाचार हो गए

तड़प-तड़प के, एक-एक पल, मुश्किल से बीतते हैं
एक पल बीता, ऐसा लगे, कई साल हो गए

ABHAY
08-12-2010, 05:35 PM
तुम जो साथ हमारे होते..

तुम जो साथ हमारे होते
कितने हाथ हमारे होते

दूर पहुँच से होते जो भी
बिल्कुल पास हमारे होते

माफ़ सज़ाएँ होती रहतीं
कितने जुर्म हमारे होते

बँटती समझ बराबर सबको
ऐसे न बँटवारे होते

रार नहीं तकरार नहीं तो
कितने ख़्वाब सुनहरे होते

काजल से होती यारी तो
नैना ये कजरारे होते

कदम मिला कर हमसे चलते
तुम भी अपने प्यारे होते

मिर्च मसाले न होते तो
ऐसे न चटखारे होते

पैदा न मोबाइल होता
दुखी खूब हरकारे होते

सौदे न सरकारी होते
कैसे नोट डकारे होते

ABHAY
08-12-2010, 05:36 PM
मुद्दत के बाद मोम की...

मुद्दत के बाद मोम की मूरत में ढल गया
मेरी वफ़ा की आँच में पत्थर पिघल गया

उसका सरापा हुस्न जो देखा तो यों लगा
जैसे अमा की रात में चंदा निकल गया

ख़ुशबू जो उसके हुस्न की गुज़री क़रीब से
मन भी मचल गया मेरा तन भी मचल गया

गुज़रे हुए लम्हात को भुलूँ तो किस तरह
यादों में रात ढल गई सूरज निकल गया

मiना उसी के नूर से रोशन है ज़िंदगी
उसका तसव्वुर ही मेरे शेरों में ढल गया

ABHAY
08-12-2010, 05:37 PM
उदासी के समंदर को...

उदासी के समंदर को छुपाकर मन में रख लेना
किसी की बद्दुआओं को दुआ के धन में रख लेना

हज़ारों लोग मिलते हैं मगर क्या फ़र्क पड़ता है
निगाहों को जो भा जाए उसे दरपन में रख लेना

मुहब्बत रोग है दुनिया समझती है समझने दो
कलेजे से लगाकर तुम उसे धड़कन में रख लेना

पड़ोसी से छुपा लेना हँसी अपनी खुशी अपनी
नहीं तो पाँव खींचेगा इसी से मन में रख लेना

किसी भी बात पर तुमसे खफ़ा जब चाँद हो जाए
जलाकर एक नन्हा-सा दीया आँगन में रख लेना

वफ़ा की राह में ‘जितू’ ज़माना आग जब उगले
दुआओं की तरह उस आग को दामन में रख लेना

ABHAY
08-12-2010, 05:38 PM
मुझे पिला के...

मुझे पिला के ज़रा-सा क्या गया कोई
मेरे नसीब को आकर जगा गया कोई

मेरे क़रीब से होकर गुज़र गई दुनिया
मेरी निगाह में लेकिन समा गया कोई

मेरी गली की हवाओं को क्या हुआ आख़िर
दर-ओ-दीवार को दुश्मन बना गया कोई

मेरे हिसाब में ज़ख़्मों का कोई हिसाब नहीं
मेरे हिसाब को आकर मिटा गया कोई

मेरी वफ़ा ने तो चाहा कि चुप रहूँ लेकिन
ज़रा-सी बात पर मुझको रुला गया कोई

ग़मों के दौर में दोस्त मेरी खुशी के लिए
किसी मज़ार पर चादर चढ़ा गया कोई

ABHAY
08-12-2010, 05:40 PM
अगरचे मोहब्बत..

अगरचे मोहब्बत जो धोखा रही है
तो क्यों शमा इसकी हमेशा जली है

हमारे दिलों को वही अच्छे लगते
कि जिनके दिलों में मुहब्बत बसी है

मोहब्बत का दुश्मन ज़माना है लेकिन
सभी के दिलों में ये फूली फली है

बिठाते थे सबको ज़मीं पर जो ज़ालिम
वो हस्ती भी देखो ज़मीं में दबी है

सभी कीमतें आसमाँ चढ़ रहीं जब
तो इंसां की कीमत ज़मीं पे गिरी है

हो सच्ची लगन और इरादे जवाँ हों
तो मंज़िल हमेशा कदम पर झुकी है

ज़माने की चाहा था सूरत बदलना
मगर अपनी सूरत बदलनी पड़ी है

ABHAY
08-12-2010, 05:41 PM
जिनके दिल में...

जिनके दिल में गुबार रहते हैं
यार वो बादाख़्वार रहते हैं

कि जहाँ ओहदेदार रहते हैं
लोग उनके शिकार रहते हैं

पढ़ते लिखने में जो भी अव्वल थे
अब तो वो भी बेकार रहते हैं

मशवरा उनको कभी देना न
जो ज़हन से बीमार रहते हैं

किसी दौलत के ग़ार में देखो
वहाँ खुदगर्ज़ यार रहतै हैं

आजकल जिनके पास दौलत है
हुस्न के तल्बगार रहते हैं

किसी दफ़्तर के बड़े हाकिम ही
ऐश में गिरिफ़्तार रहते हैं

ABHAY
08-12-2010, 05:42 PM
ये दुनिया इस तरह..

ये दुनिया इस तरह क़ाबिल हुई है
कि अब इंसानियत ग़ाफ़िल हुई है

सहम कर चाँद बैठा आसमाँ में
फ़ज़ा तारों तलक क़ातिल हुई है

खुदाया, माफ़ कर दे उस गुनह को
लहर जिस पाप की साहिल हुई है

बड़ी हसरत से दौलत देखते हैं
जिन्हें दौलत नहीं हासिल हुई है

जहाँ पर गर्द खाली उड़ रही हो
वहाँ गुर्बत की ही महफ़िल हुई है

ABHAY
08-12-2010, 05:43 PM
ज़िंदगी अभिशाप भी...

ज़िंदगी अभिशाप भी, वरदान भी
ज़िंदगी दुख में पला अरमान भी
कर्ज़ साँसों का चुकाती जा रही
ज़िंदगी है मौत पर अहसान भी

वे जिन्हें सर पर उठाया वक्त ने
भावना की अनसुनी आवाज़ थे
बादलों में घर बसाने के लिए
चंद तिनके ले उड़े परवाज़ थे
दब गए इतिहास के पन्नों तले
तितलियों के पंख, नन्हीं जान भी

कौन करता याद अब उस दौर को
जब ग़रीबी भी कटी आराम से
गर्दिशों की मार को सहते हुए
लोग रिश्ता जोड़ बैठे राम से
राजसुख से प्रिय जिन्हें वनवास था
किस तरह के थे यहाँ इंसान भी।

आज सब कुछ है मगर हासिल नहीं
हर थकन के बाद मीठी नींद अब
हर कदम पर बोलियों की बेड़ियाँ
ज़िंदगी घुडदौड़ की मानिंद अब
आँख में आँसू नहीं काजल नहीं
होठ पर दिखती न वह मुस्कान भी।

surili koyal
15-12-2010, 05:38 AM
कामायनी/- जयशंकर प्रसाद


ऊषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई,

उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई।

वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का आज लगा हँसने फिर से,

वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में शरद-विकास नये सिर से।


नव कोमल आलोक बिखरता हिम-संसृति पर भर अनुराग,

सित सरोज पर क्रीड़ा करता जैसे मधुमय पिंग पराग।

धीरे-धीरे हिम-आच्छादन हटने लगा धरातल से,

जगीं वनस्पतियाँ अलसाई मुख धोती शीतल जल से।


नेत्र निमीलन करती मानो प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने,

जलधि लहरियों की अँगड़ाई बार-बार जाती सोने।

सिंधुसेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी,

प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये सी ऐठीं-सी।


देखा मनु ने वह अतिरंजित विजन का नव एकांत,

जैसे कोलाहल सोया हो हिम-शीतल-जड*़ता-सा श्रांत।

इंद्रनीलमणि महा चषक था सोम-रहित उलटा लटका,

आज पवन मृदु साँस ले रहा जैसे बीत गया खटका।

surili koyal
15-12-2010, 05:44 AM
वह विराट था हेम घोलता नया रंग भरने को आज,

'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक और कुतूहल का था राज़!

"विश्वदेव, सविता या पूषा, सोम, मरूत, चंचल पवमान,

वरूण आदि सब घूम रहे हैं किसके शासन में अम्लान?


किसका था भू-भंग प्रलय-सा जिसमें ये सब विकल रहे,

अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न ये फिर भी कितने निबल रहे!

विकल हुआ सा काँप रहा था, सकल भूत चेतन समुदाय,

उनकी कैसी बुरी दशा थी वे थे विवश और निरुपाय।


देव न थे हम और न ये हैं, सब परिवर्तन के पुतले,

हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा, जितना जो चाहे जुत ले।"

"महानील इस परम व्योम में, अतंरिक्ष में ज्योतिर्मान,

ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण किसका करते से-संधान!


छिप जाते हैं और निकलते आकर्षण में खिंचे हुए?

तृण, वीरुध लहलहे हो रहे किसके रस से सिंचे हुए?

सिर नीचा कर किसकी सत्ता सब करते स्वीकार यहाँ,

सदा मौन हो प्रवचन करते जिसका, वह अस्तित्व कहाँ?


हे अनंत रमणीय कौन तुम? यह मैं कैसे कह सकता,

कैसे हो? क्या हो? इसका तो- भार विचार न सह सकता।

हे विराट! हे विश्वदेव ! तुम कुछ हो,ऐसा होता भान-

मंद्-गंभीर-धीर-स्वर-संयुत यही कर रहा सागर गान।"


"यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल सदय हृदय में अधिक अधीर,

व्याकुलता सी व्यक्त हो रही आशा बनकर प्राण समीर।

यह कितनी स्पृहणीय बन गई मधुर जागरण सी-छबिमान,

स्मिति की लहरों-सी उठती है नाच रही ज्यों मधुमय तान।

जीवन-जीवन की पुकार है खेल रहा है शीतल-दाह-

किसके चरणों में नत होता नव-प्रभात का शुभ उत्साह।

मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों लगा गूँजने कानों में!

मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ' शाश्वत नभ के गानों में।


यह संकेत कर रही सत्ता किसकी सरल विकास-मयी,

जीवन की लालसा आज क्यों इतनी प्रखर विलास-मयी?

तो फिर क्या मैं जिऊँ और भी-जीकर क्या करना होगा?

देव बता दो, अमर-वेदना लेकर कब मरना होगा?"


एक यवनिका हटी, पवन से प्रेरित मायापट जैसी।

और आवरण-मुक्त प्रकृति थी हरी-भरी फिर भी वैसी।

स्वर्ण शालियों की कलमें थीं दूर-दूर तक फैल रहीं,

शरद-इंदिरा की मंदिर की मानो कोई गैल रही।


विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह सुख-शीतल-संतोष-निदान,

और डूबती-सी अचला का अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।

अचल हिमालय का शोभनतम लता-कलित शुचि सानु-शरीर,

निद्रा में सुख-स्वप्न देखता जैसे पुलकित हुआ अधीर।

surili koyal
15-12-2010, 05:49 AM
जीवन-जीवन की पुकार है खेल रहा है शीतल-दाह-

किसके चरणों में नत होता नव-प्रभात का शुभ उत्साह।

मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों लगा गूँजने कानों में!

मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ' शाश्वत नभ के गानों में।


यह संकेत कर रही सत्ता किसकी सरल विकास-मयी,

जीवन की लालसा आज क्यों इतनी प्रखर विलास-मयी?

तो फिर क्या मैं जिऊँ और भी-जीकर क्या करना होगा?

देव बता दो, अमर-वेदना लेकर कब मरना होगा?"


एक यवनिका हटी, पवन से प्रेरित मायापट जैसी।

और आवरण-मुक्त प्रकृति थी हरी-भरी फिर भी वैसी।

स्वर्ण शालियों की कलमें थीं दूर-दूर तक फैल रहीं,

शरद-इंदिरा की मंदिर की मानो कोई गैल रही।


विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह सुख-शीतल-संतोष-निदान,

और डूबती-सी अचला का अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।

अचल हिमालय का शोभनतम लता-कलित शुचि सानु-शरीर,

निद्रा में सुख-स्वप्न देखता जैसे पुलकित हुआ अधीर।
उमड़ रही जिसके चरणों में नीरवता की विमल विभूति,

शीतल झरनों की धारायें बिखरातीं जीवन-अनुभूति!

उस असीम नीले अंचल में देख किसी की मृदु मुसक्यान,

मानों हँसी हिमालय की है फूट चली करती कल गान।


शिला-संधियों में टकरा कर पवन भर रहा था गुंजार,

उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का करता चारण-सदृश प्रचार।

संध्या-घनमाला की सुंदर ओढे़ रंग-बिरंगी छींट,

गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ पहने हुए तुषार-किरीट।


विश्व-मौन, गौरव, महत्त्व की प्रतिनिधियों से भरी विभा,

इस अनंत प्रांगण में मानो जोड़ रही है मौन सभा।

वह अनंत नीलिमा व्योम की जड़ता-सी जो शांत रही,

दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे निज अभाव में भ्रांत रही।


उसे दिखाती जगती का सुख, हँसी और उल्लास अजान,

मानो तुंग-तुरंग विश्व की। हिमगिरि की वह सुढर उठान

थी अंनत की गोद सदृश जो विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय,

उसमें मनु ने स्थान बनाया सुंदर, स्वच्छ और वरणीय।


पहला संचित अग्नि जल रहा पास मलिन-द्युति रवि-कर से,

शक्ति और जागरण-चिन्ह-सा लगा धधकने अब फिर से।

जलने लगा निंरतर उनका अग्निहोत्र सागर के तीर,

मनु ने तप में जीवन अपना किया समर्पण होकर धीर।


सज़ग हुई फिर से सुर-संकृति देव-यजन की वर माया,

उन पर लगी डालने अपनी कर्ममयी शीतल छाया।

उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है क्षितिज बीच अरुणोदय कांत,

लगे देखने लुब्ध नयन से प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत।


पाकयज्ञ करना निश्चित कर लगे शालियों को चुनने,

उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना लगी धूम-पट थी बुनने।

शुष्क डालियों से वृक्षों की अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध।

आहुति के नव धूमगंध से नभ-कानन हो गया समृद्ध।


और सोचकर अपने मन में "जैसे हम हैं बचे हुए-

क्या आश्चर्य और कोई हो जीवन-लीला रचे हुए,"

अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ कहीं दूर रख आते थे,

होगा इससे तृप्त अपरिचित समझ सहज सुख पाते थे।


दुख का गहन पाठ पढ़कर अब सहानुभूति समझते थे,

नीरवता की गहराई में मग्न अकेले रहते थे।

मनन किया करते वे बैठे ज्वलित अग्नि के पास वहाँ,

एक सजीव, तपस्या जैसे पतझड़ में कर वास रहा।


फिर भी धड़कन कभी हृदय में होती चिंता कभी नवीन,

यों ही लगा बीतने उनका जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।

प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे अंधकार की माया में,

रंग बदलते जो पल-पल में उस विराट की छाया में।

surili koyal
15-12-2010, 08:29 AM
अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते प्रकृति सकर्मक रही समस्त,

निज अस्तित्व बना रखने में जीवन हुआ था व्यस्त।

तप में निरत हुए मनु, नियमित-कर्म लगे अपना करने,

विश्वरंग में कर्मजाल के सूत्र लगे घन हो घिरने।


उस एकांत नियति-शासन में चले विवश धीरे-धीरे,

एक शांत स्पंदन लहरों का होता ज्यों सागर-तीरे।

विजन जगत की तंद्रा में तब चलता था सूना सपना,

ग्रह-पथ के आलोक-वृत से काल जाल तनता अपना।


प्रहर, दिवस, रजनी आती थी चल-जाती संदेश-विहीन,

एक विरागपूर्ण संसृति में ज्यों निष्फल आंरभ नवीन।

धवल,मनोहर चंद्रबिंब से अंकित सुंदर स्वच्छ निशीथ,

जिसमें शीतल पावन गा रहा पुलकित हो पावन उद्गगीथ।


नीचे दूर-दूर विस्तृत था उर्मिल सागर व्यथित, अधीर

अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा चंद्रिका-निधि गंभीर।

खुलीं उस रमणीय दृश्य में अलस चेतना की आँखे,

हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक मधु से वे भीगी पाँखे।


व्यक्त नील में चल प्रकाश का कंपन सुख बन बजता था,

एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का मधुर रहस्य उलझता था।

नव हो जगी अनादि वासना मधुर प्राकृतिक भूख-समान,

चिर-परिचित-सा चाह रहा था द्वंद्व सुखद करके अनुमान।


दिवा-रात्रि या-मित्र वरूण की बाला का अक्षय श्रृंगार,

मिलन लगा हँसने जीवन के उर्मिल सागर के उस पार।

तप से संयम का संचित बल, तृषित और व्याकुल था आज-

अट्टाहास कर उठा रिक्त का वह अधीर-तम-सूना राज।


धीर-समीर-परस से पुलकित विकल हो चला श्रांत-शरीर,

आशा की उलझी अलकों से उठी लहर मधुगंध अधीर।

मनु का मन था विकल हो उठा संवेदन से खाकर चोट,

संवेदन जीवन जगती को जो कटुता से देता घोंट।


"आह कल्पना का सुंदर यह जगत मधुर कितना होता

सुख-स्वप्नों का दल छाया में पुलकित हो जगता-सोता।

संवेदन का और हृदय का यह संघर्ष न हो सकता,

फिर अभाव असफलताओं की गाथा कौन कहाँ बकता?


कब तक और अकेले? कह दो हे मेरे जीवन बोलो?

किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत, अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।

"तम के सुंदरतम रहस्य, हे कांति-किरण-रंजित तारा

व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिदु, भरे नव रस सारा।


आतप-तपित जीवन-सुख की शांतिमयी छाया के देश,

हे अनंत की गणना देते तुम कितना मधुमय संदेश।

आह शून्यते चुप होने में तू क्यों इतनी चतुर हुई?

इंद्रजाल-जननी रजनी तू क्यों अब इतनी मधुर हुई?"


"जब कामना सिंधु तट आई ले संध्या का तारा दीप,

फाड़ सुनहली साड़ी उसकी तू हँसती क्यों अरी प्रतीप?

इस अनंत काले शासन का वह जब उच्छंखल इतिहास,

आँसू और' तम घोल लिख रही तू सहसा करती मृदु हास।


विश्व कमल की मृदुल मधुकरी रजनी तू किस कोने से-

आती चूम-चूम चल जाती पढ़ी हुई किस टोने से।

किस दिंगत रेखा में इतनी संचित कर सिसकी-सी साँस,

यों समीर मिस हाँफ रही-सी चली जा रही किसके पास।


विकल खिलखिलाती है क्यों तू? इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर,

तुहिन कणों, फेनिल लहरों में, मच जावेगी फिर अधेर।

घूँघट उठा देख मुस्कयाती किसे ठिठकती-सी आती,

विजन गगन में किस भूल सी किसको स्मृति-पथ में लाती।


रजत-कुसुम के नव पराग-सी उडा न दे तू इतनी धूल-

इस ज्योत्सना की, अरी बावली तू इसमें जावेगी भूल।

पगली हाँ सम्हाल ले, कैसे छूट पडा़ तेरा अँचल?

देख, बिखरती है मणिराजी- अरी उठा बेसुध चंचल।


फटा हुआ था नील वसन क्या ओ यौवन की मतवाली।

देख अकिंचन जगत लूटता तेरी छवि भोली भाली

ऐसे अतुल अंनत विभव में जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग?

या भूली-सी खोज़ रही कुछ जीवन की छाती के दाग"


"मैं भी भूल गया हूँ कुछ, हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था?

प्रेम, वेदना, भ्रांति या कि क्या? मन जिसमें सुख सोता था


मिले कहीं वह पडा अचानक उसको भी न लुटा देना

देख तुझे भी दूँगा तेरा भाग, न उसे भुला देना"

surili koyal
23-12-2010, 01:16 PM
झाँसी की रानी
रचनाकार: सुभद्रा कुमारी चौहान

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।



चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।



वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

surili koyal
23-12-2010, 01:18 PM
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।



महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,



चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

surili koyal
23-12-2010, 01:22 PM
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।



अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।



रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।



बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

surili koyal
23-12-2010, 01:25 PM
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।



यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।



हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,



जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।



लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।



ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।



अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।



पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।



घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,



दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।



तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

prashant
24-12-2010, 11:06 AM
वाह कोयल जी बहुत ही अच्छी कविता प्रस्तुत की है आप ने मेरे स्कूल के समय की पसंदीदा कविताओं में से एक..................जबरदस्त........

surili koyal
24-12-2010, 01:53 PM
मित्र प्रशांत जी उत्साह वर्धन के लिए आपको धन्यवाद l आपको कविता पसंद आई जानकर अच्छा लगा शायद हम लोग इतिहास को आधुनिकता में पड़कर भूल रहे हैं

surili koyal
24-12-2010, 01:55 PM
वाह कोयल जी बहुत ही अच्छी कविता प्रस्तुत की है आप ने मेरे स्कूल के समय की पसंदीदा कविताओं में से एक..................जबरदस्त........
मित्र प्रशांत जी उत्साह वर्धन के लिए आपको धन्यवाद l आपको कविता पसंद आई जानकर अच्छा लगा शायद हम लोग इतिहास को आधुनिकता में पड़कर भूल रहे हैं

surili koyal
24-12-2010, 02:04 PM
हल्दीघाटी - प्रथम सर्ग

वण्डोली है यही¸ यहीं पर
है समाधि सेनापति की।
महातीर्थ की यही वेदिका¸
यही अमर–रेखा स्मृति की।।1।।



एक बार आलोकित कर हा¸
यहीं हुआ था सूर्य अस्त।
चला यहीं से तिमिर हो गया
अन्धकार–मय जग समस्त।।2।।



आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर
फूल चढ़ाने आया हूँ।
आज यहीं पावन समाधि पर
दीप जलाने आया हूँ।।3।।



आज इसी छतरी के भीतर
सुख–दुख गाने आया हूँ।
सेनानी को चिर समाधि से
आज जगाने आया हूँ।।4।।



सुनता हूँ वह जगा हुआ था
जौहर के बलिदानों से।
सुनता हूँ वह जगा हुआ था
बहिनों के अपमानों से।।5।।



सुनता हूँ स्त्री थी अँगड़ाई
अरि के अत्याचारों से।
सुनता हूँ वह गरज उठा था
कड़ियों की झनकारों से।।6।।



सजी हुई है मेरी सेना¸
पर सेनापति सोता है।
उसे जगाऊँगा¸ विलम्ब अब
महासमर में होता है।।7।।



आज उसी के चरितामृत में¸
व्यथा कहूँगा दीनों की।
आज यही पर रूदन–गीत में
गाऊँगा बल–हीनों की।।8।।



आज उसी की अमर–वीरता
व्यक्त करूँगा गानों में।
आज उसी के रणकाशल की
कथा कहूँगा कानों में।।9।।



पाठक! तुम भी सुनो कहानी
आँखों में पानी भरकर।
होती है आरम्भ कथा अब
बोलो मंगलकर शंकर।।10।।

surili koyal
24-12-2010, 02:04 PM
हल्दीघाटी - प्रथम सर्ग

वण्डोली है यही¸ यहीं पर
है समाधि सेनापति की।
महातीर्थ की यही वेदिका¸
यही अमर–रेखा स्मृति की।।1।।



एक बार आलोकित कर हा¸
यहीं हुआ था सूर्य अस्त।
चला यहीं से तिमिर हो गया
अन्धकार–मय जग समस्त।।2।।



आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर
फूल चढ़ाने आया हूँ।
आज यहीं पावन समाधि पर
दीप जलाने आया हूँ।।3।।



आज इसी छतरी के भीतर
सुख–दुख गाने आया हूँ।
सेनानी को चिर समाधि से
आज जगाने आया हूँ।।4।।



सुनता हूँ वह जगा हुआ था
जौहर के बलिदानों से।
सुनता हूँ वह जगा हुआ था
बहिनों के अपमानों से।।5।।



सुनता हूँ स्त्री थी अँगड़ाई
अरि के अत्याचारों से।
सुनता हूँ वह गरज उठा था
कड़ियों की झनकारों से।।6।।



सजी हुई है मेरी सेना¸
पर सेनापति सोता है।
उसे जगाऊँगा¸ विलम्ब अब
महासमर में होता है।।7।।



आज उसी के चरितामृत में¸
व्यथा कहूँगा दीनों की।
आज यही पर रूदन–गीत में
गाऊँगा बल–हीनों की।।8।।



आज उसी की अमर–वीरता
व्यक्त करूँगा गानों में।
आज उसी के रणकाशल की
कथा कहूँगा कानों में।।9।।



पाठक! तुम भी सुनो कहानी
आँखों में पानी भरकर।
होती है आरम्भ कथा अब
बोलो मंगलकर शंकर।।10।।

malethia
25-11-2011, 05:00 PM
इस सूत्र को काफी देरी से देख पाया ,इसका बेहद अफ़सोस है !
राजू जी द्वारा शुरू किये गये सूत्र में सुरीली जी के शानदार सहयोग के लिए धन्यवाद !
उम्मीद्द है सुरीली जी हमें आगे भी ऐसी ही शानदार प्रस्तुती से सहयोग करती रहेंगी !

sombirnaamdev
15-02-2012, 03:25 PM
यहाँ हर सिम्त रिश्ते हैं जो अब मुश्किल निभाना है (http://sukhanvar.blogspot.in/2010/10/blog-post.html)


बहुत आसाँ है रो देना, बहुत मुश्किल हँसाना है
कोई बिन बात हँस दे-लोग कहते हैं "दिवाना है"

हमारी ख़ुशमिज़ाजी पे तुनक-अंदाज़ वो उनका-
"तुम्हें क्यों हर किसी को हमने क्या बोला बताना है?"

मशालें ख़ूँ-ज़दा हाथों में, कमसिन पर शबाबों सी-
"चलो जल्दी चलें,फिर से किसी का घर जलाना है"

ये लाचारी कि किस्सागो हुए हम फ़ित्रतन यारो-
हमारी हर शिकायत पर वो कहते थे "फ़साना है"

किसी की दोस्ती हो तो कड़ी राहें भी कट जाएँ
यहाँ हर सिम्त रिश्ते हैं जो अब मुश्किल निभाना है

मेरी मजबूरियों को तुम ख़ुशी का नाम मत देना
यहाँ तुम भी नहीं हो अब बड़ा मुश्किल ज़माना है

वो मंज़र झील के,जंगल के,ख़ुश्बू के,चनारों के!
इन्हें भी आज ही कम्बख़्त शायद याद आना है

sombirnaamdev
15-02-2012, 03:26 PM
अश'आर चन्द यूँ भी (http://sukhanvar.blogspot.in/2010/08/blog-post_27.html)


आज के हालात का मैं तब्सरा हूँ
ख़ुश-तबस्सुम-लब मगर अन्दर डरा हूँ


बस गए जो वो किसी शर्त छोड़ते ही नहीं
टूटा-फूटा सा पुराना मकान मेरा दिल!


इस राह पे चलना भी ख़ुद हासिले-सफ़र है
मंज़िल क़रीब है पर दुश्वार रहगुज़र है


आए हैं, मुँह फुलाए बैठे हैं
लगता है ख़ार खाए बैठे हैं
उधर लाल-आँखें, चढ़ी हैं भौंहें
हम इधर दिल बिछाए बैठे हैं

sombirnaamdev
15-02-2012, 03:27 PM
जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए
ख़ैरियत-ख़ैरियत का शोर मचाते रहिए


वो जो सह लें, न कहें-उनको सहाते रहिए
वर्ना कह दें तो मियाँ ! चेहरा छुपाते रहिए


शम्मा यादों की मज़ारों पे जलाते रहिए
रोज़ इक बेबसी का जश्न मनाते रहिए


हुस्न गुस्ताख़ तमन्ना से दूर? नामुम्किन!
लाख बारूद को आतिश से बचाते रहिए


या तो खा जाइए, या रहिए निवाला बनते,
शाम के भोज का दस्तूर निभाते रहिए

anoop
17-02-2012, 06:42 PM
राम की शक्ति पूजा
—सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

जन्म :
२१ फरवरी १८९६ को पश्चिमी बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक देशी राज्य में।

मूल निवास :
उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले का गढ़कोला नामक गांव।

शिक्षा :
हाई स्कूल तक हिन्दी संस्कृत बंगला व अंग्रेज़ी का स्वतंत्र अध्ययन।

कार्यक्षेत्र :
१९१८ से १९२२ तक महिषादल राज्य की सेवा की। उसके बाद से संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य। १९२२-२३ में समन्वय (कलकत्ता) का संपादन। १९२३ के अगस्त से मतवाला के मंडल में। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय और वहां से निकलने वाली मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य।

वे प्रसाद पंत और महादेवी के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के एक प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरूप से कविता के कारण ही है।

१५ अक्तूबर १९६१ को इलाहाबाद में उनका निधन हुआ।

प्रमुख कृतियाँ :
काव्यसंग्रह : परिमल, गीतिका, द्वितीय अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, आराधना, गीत गुंज, सांध्य काकली।
उपन्यास : अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरूपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा।
कहानी संग्रह : लिली, चतुरी चमार।
निबंध : रवींद्र कविता कानन, प्रबंध पद्म, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संग्रह।
पुराण कथा : महाभारत

रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर
शतशेल सम्वरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह - भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुईद्ध-प्रत्यूह, - क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह,
विच्छुरित-वहिनई-राजीवनयन-हत-लक्ष्य-बाण
लोहित लोचन रावण मदमोचन-महीयान,
राघव-लाघव-रावण-वारण-गत-युग्म प्रहर,
उद्धत-लंकापति-मर्दित-कपि-दल-बल-विस्तरई
अनिमेष राम - विश्वजिद्दिव्य-शर-भंग-भाव,
विद्धांग - बद्ध - कोदण्ड मुष्टि - खर-रुईधिर-स्त्राव,
रावण-प्रहार-दुर्वार विकल-वानर-दल-बल,
मूर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण गवाक्ष -गय- नल,
वारित-सौमित्र-भल्लपति-अगणित-मल्ल-रोधई
गर्जित-प्रलयाब्धि-क्षुब्ध-हनुमत्-केवल-प्रबोधई
उद्गीरित-वहिईन-भीम-पर्वत-कपि-चतु:प्रहरई-
जानकी-भीरू-उर-आशा-भर, रावण सम्वर।
लौटे युग दल। राक्षस-पद-तल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल।
वानर-वाहिनी खिन्न, लख निज-पति-चरण-चिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविर-दल ज्यों विभिन्न।
प्रशमित हैं वातावरण, नमित-मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्ता-पल, पीछे वानर-वीर सकल;
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटि-बन्ध त्रस्त-तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओंई पर, वृक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार;
चमकती दूर ताराएँ त्यों हों कहीं पार।

आये सब शिविर, सानु पर पर्वत के, मन्थर,
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर,
सेनापति दल-विशेष के, अंगद, हनुईमान,
नल-नील-गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर-दल आश्रम-स्थल।

बैठे रघुकुल-मणि श्वेत-शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर-पद-क्षालनार्थ पटु हनूमान,

अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या-विधान-
वन्दना ईश की करने को लौटे सत्वर;
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर;
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण भल्लधीर, -
सुग्रीव, प्रान्त पर पद-पद्य के महावीर,
यूधपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम देश।

है अमानिशा, उगलता गगन घन-अन्धकार;
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार;

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल;
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय भय;
जो नहीं हुआ है आज तक हृदय रिपुदम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-ईबार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार हार।

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी-तनय-कुमारिका-छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, - प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का- नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन,
काँपते हुए किसलय, - झरते पराग समुदय, -
गाते खग नव-जीवन-परिचय, तरू मलय-वलय,
ज्योति: प्रपात स्वर्गीय, - ज्ञात छवि प्रथम स्वीय, -
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता-ध्यान-लीन राम के अधर,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत, -
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूपण, खर;

anoop
17-02-2012, 06:45 PM
राम की शक्ति पूजा
—सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
(2)


फिर देखी भीमा-मूर्ति आज रण देवी जो
आच्छादित किए हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ-बुझकर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन,
लख शंकाकुल हो गए अतुल-बल शेष-शयन;
खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना-हँस रहा अट्टाहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता-दल।
बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 'अस्ति-नास्ति' के एक गुण-गण-अनिन्द्य,
साधना-मध्य भी साम्य-वामा-कर दक्षिण-पद,
दक्षिण करतल पर वाम चरण, कपिवर, गद्गद्
पा सत्य, सच्चिदानन्द रूप, विश्राम धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्ति हो राम-नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु-युगल,
देखा कवि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल।
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ, -
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेग हो उठा शक्ति-खोल सागर अपार,
हो श्वसित पवन उच्छवास पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत पूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाह,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत -वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश-भाव,
जल-राशि विपुल मध मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

रावण-महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम-पूजन-प्रताप तेज:प्रसार;
इस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
उस ओर रूद्रवंदन जो रघुनन्दन-कूजित;
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण भर चंचल;
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले - "सम्वरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, नहीं हुआ शृंगार-युग्म-गत, महावीर
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय-शरीर,
चिर ब्रह्मचर्य-रत ये एकादश रूद्र, धन्य,
मर्यादा-पुरुषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य
लीला-सहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जाएगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"
कह हुए मौन शिव; पतन-तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजना-रूप का हुआ उदय

बोली माता - "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें; रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह-रह
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह-सह;
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल-
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में;
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रघुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य -
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिए धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता-छवि हुई लीन,
उतरे धीरे-धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण;
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न-वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर-वानर-
भल्लूक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर;
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही पक्ष, रण-कुशल-हस्त, बल वही अमित;
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनाद-जित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद-सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय भाव-प्रहर!
रघुकुल-गौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण

कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलन-समय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण - लम्पट, खाल कल्मय-गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पाद-प्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित-पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक्, राघव, धिक्-धिक्?'
सब सभा रही निस्तब्ध; राम के स्मित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न हो कोई दुराव,
ज्यों ही वे शब्दमात्र - मैत्री की समानुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि - "मित्रवर, विजया होगी न, समर
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरी पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण;
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेज: प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह-युग-पद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, - समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, - हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।

anoop
17-02-2012, 06:50 PM
राम की शक्ति पूजा
—सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
(3)

निज सहज रूप में संपत हो जानकी-प्राण
बोले - "आया न समझ में यह दैवी विधान;
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर, -
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेज:पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार-
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार -
शत-शुद्धि-बोध - सूक्ष्मतिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्र-धर्म का घृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गए आज रण में श्रीहत, खण्डित!
देखा है महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक;
हत मन्त्र-पूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों-ज्यों,
झक-झक झलकती वहिन वामा के दृग त्यों-त्यों;
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गए हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"

कह हुए भानु-कुल-भूषण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान, "रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,

तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर,
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त;
शक्ति की करे मौलिक कल्पना; करो पूजन,
छोड़ दो समर जब तक न सिद्ध हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक
मध्य मार्ग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक,
मैं, भल्ल सैन्य; हैं वाम-पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण - उनके प्रधान;
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यूथपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"

खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया ऋक्ष को मान राम ने झुका माथ।
हो गए ध्यान में लीन पुन: करते विचार,
देखते सकल - तन पुलकित होता बार-बार।

कुछ समय अनन्तर इन्दीवर-निदित लोचन
खुल गए, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग-रहित स्वर में विश्वास-स्थित -
"मात:, दशभुजा, विश्व-ज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है महिषासुर खल मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मात: समझा इंगित;
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"

कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक-कमल-ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न;

हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्र-मुख निन्दित रामचन्द्र
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर-मेघमन्द्र -
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द-विन्दु;
गरजता वरण-प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु,

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर;

लख महाभाव-मंगल पद-तल धँस रहा गर्व -
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"

फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर में अन्तर सींचते हुए -
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम-से-कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उष:काल होते सत्वर
तोड़ो; लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभु-पद रज सिर धर चले हर्ष भर हनूमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगत : नभ के ललाट पर प्रथमकिरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण;

हैं नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निबिड़-जटा-दृढ़ मुकुट-वन्ध;
सुन पड़ता सिंहनाद रण-कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार;
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते मनन नामों के गुणग्राम;
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन से गहनतर होने लगा समाराधन।
क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,

चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढ़ाते इन्दीवर
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समासित मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर;
दो दिन नि:स्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध;
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध;
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्राय: करने को हुआ दुर्ग जो सहस्त्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण-युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल;
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल;
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल;
देखा, वहा रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय
आसन छोड़ा असिद्धि, भर गए नयन-द्वय; -
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका;
वह एक और मन रहा राम का जो न थका;
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,

बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युत-गति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीव-नयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त लक-लक करता वह महाफलक;
ले अस्त्र थाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया वेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय -

"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन-धान्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्कर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर,
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध-अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व को श्री लज्जित
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रण-रंग-राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द-स्वर-वन्दन कर।

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन।

anoop
17-02-2012, 06:56 PM
जानकीवल्लभ शास्त्री

५ जनवरी १९१६ को औरंगाबाद जिले के दक्षिण-पश्चिम में बसे गांव मैगरा में।

कार्यक्षेत्र- छायावादोत्तर काल के सुविख्यात कवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, जिन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित भी किया है उन थोड़े-से कवियों में रहे हैं, जिन्हें हिंदी कविता के पाठकों से बहुत मान-सम्मान मिला है। आचार्य का काव्य संसार बहुत ही विविध और व्यापक है. प्रारंभ में उन्होंने संस्कृत में कविताएँ लिखीं। फिर महाकवि निराला की प्रेरणा से हिंदी में आए।

कविता के क्षेत्र में उन्होंने कुछ सीमित प्रयोग भी किए और सन चालीस के दशक में कई छंदबद्ध काव्य-कथाएँ लिखीं, जो 'गाथा` नामक उनके संग्रह में संकलित हैं।इसके अलावा उन्होंने कई काव्य-नाटकों की रचना की और 'राधा` जैसा श्रेष्ठ महाकाव्य रचा।परंतु शास्त्री की सृजनात्मक प्रतिभा अपने सर्वोत्तम रूप में उनके गीतों और ग़ज़लों में प्रकट होती है।

इस क्षेत्र में उन्होंने नए-नए प्रयोग किए जिससे हिंदी गीत का दायरा काफी व्यापक हुआ। वे न तो किसी आंदोलन से जुड़े, न ही प्रयोग के नाम पर ताल, तुक आदि से खिलवाड़ किया। फिर भी वे छायावाद से लेकर नवगीत तक हर आंदोलन के प्रतिभावान कवि रहे। छंदों पर उनकी पकड़ इतनी जबरदस्त है और तुक इतने सहज ढंग से उनकी कविता में आती हैं कि इस दृष्टि से पूरी सदी में केवल वे ही निराला की ऊँचाई को छू पाते हैं।

उनकी कुछ महत्*वपूर्ण कृतियाँ इस प्रकार हैं-
मेघगीत, अवन्तिका, श्यामासंगीत, राधा (सात खण्डों में), इरावती, एक किरण: सौ झाइयां, दो तिनकों का घोंसला, कालीदास, बांसों का झुरमुट, अशोक वन, सत्यकाम, आदमी, मन की बात, जो न बिक सकी, स्मृति के वातायन, निराला के पत्र, नाट्य सम्राट पृथ्वीराज, कर्मक्षेत्रे: मरुक्षेत्रे, एक असाहित्यिक की डायरी।

७ अप्रैल २०११ को उनका निधन हो गया।

महाकवि मेरे हीं शहर से हैं (थे)। दो बार सामने बैठ कर उनकी बातें सुनने का भी मौका मिला।

ज़िंदगी की कहानी

ज़िंदगी की कहानी रही अनकही !
दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही !

अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !

बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
आग बुझती रही, आग जलती रही !

जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !

बात ईमान की या कहो मान की
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं !

और तो और वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही !

यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही !