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View Full Version : छींटे और बौछार


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jai_bhardwaj
29-10-2010, 01:08 AM
~:~:~छींटे और बौछार ~:~:~

महकती सी तुम आयीं थी एक दिन मेरे ख़्वाबों में :party:
मुझे लेकर गयी फिर तुम, शहर से दूर ढाबों में :cheers:
ढके मैं नाक दस्ती से, रहा मैं घूमता संग में :bang-head:
तुम्हारी वह जो खुशबू थी वह रहती 'जय' जुराबों में ||:think:

jai_bhardwaj
29-10-2010, 01:09 AM
तुम्हे देखूं तो डर जाऊं, कि जैसे पेड़ आंधी में:cry:
महारानी ज्यों डरती थी, मोहन दास गांधी से :bang-head:
मेरे पैरों में कम्पन 'जय', जैसे तुम बवंडर हो :omg:
दुल्हन कोइ डरे ऐसे, जो देखे कंगन चांदी के ||:boring:

Sikandar_Khan
29-10-2010, 01:15 AM
बढियाँ प्रस्तुति

jai_bhardwaj
29-10-2010, 01:34 AM
हमारे नक्श ऐसे हैं, जिन्हें कोई नहीं चाहे:party:
हमारे कदम ऐसे हैं, जो खोजे नित नयी राहें :bike:
हमारी साँसे बेपरवा, भले मिलते रहे धोखे:think:
हमारे पैर खुशियों पर, गले 'जय' मीत की बाहें :iagree:

anjaan
29-10-2010, 08:06 AM
दिन हुआ है तो रात भी होगी,
हो मत उदास कभी तो बात भी होगी,
इतने प्यार से दोस्ती की है खुदा की कसम
जिंदगी रही तो मुलाकात भी होगी.

कोशिश कीजिए हमें याद करने की
लम्हे तो अपने आप ही मिल जायेंगे
तमन्ना कीजिए हमें मिलने की
बहाने तो अपने आप ही मिल जायेंगे .

महक दोस्ती की इश्क से कम नहीं होती
इश्क से ज़िन्दगी ख़तम नहीं होती
अगर साथ हो ज़िन्दगी में अच्छे दोस्त का
तो ज़िन्दगी जन्नत से कम नहीं होती

सितारों के बीच से चुराया है आपको
दिल से अपना दोस्त बनाया है आपको
इस दिल का ख्याल रखना

anjaan
29-10-2010, 08:11 AM
हम कभी तुमसे खफा हो नही सकते,
वादा किया है तो बेवफा हो नही सकते,
आप भले ही हमे भूलकर सो जाओ,
मगर हम आपको याद किए बिना सो नही सकते..

---------------------------------------------------

फूल बनकर मुस्कुराना ज़िंदगी है,
मुस्कारके गम भूलना ज़िंदगी है,
जीतकर कोई खुशी हो तो क्या हुआ,
दिल हारकर खुशिया मनान्ना ज़िंदगी है

---------------------------------------------------

भूल से कभी हमे भी याद किया करो,
प्यार नही तो शिकायत किया करो,
इतना भी गैर ना समझो की बात ही ना किया करो,
फोन नही तो sms ही किया करो!

----------------------------------------------------

पत्थर से दोस्ती, जान को ख़तरा.
सरदार से दोस्ती, दिमाग़ को ख़तरा.
दारू से दोस्ती, लिवर को ख़तरा.
हम से दोस्ती, रात बे रात sms का ख़तरा.

khalid
29-10-2010, 08:53 AM
बहुत अच्छे मित्र
जय भैया के फेवरेट हो सकते हैँ
हम तो पढने वाले हैँ

jai_bhardwaj
29-10-2010, 12:35 PM
बहुत अच्छे मित्र
जय भैया के फेवरेट हो सकते हैँ
हम तो पढने वाले हैँ


जब तक आपके कान न पकें, तब तक हम सुनाते रहेंगे /
उत्साहवर्धन के लिए आभार /

malethia
29-10-2010, 01:14 PM
जब तक आपके कान न पकें, तब तक हम सुनाते रहेंगे /
उत्साहवर्धन के लिए आभार /

आपकी कविताओं से हम पकने वाले नहीं है,
आपकी कविता पढ़कर हम थकने वाले नहीं
आपसे हम अकने वाले नहीं है................
सर दर्द का बहाना कर भगने वाले नहीं है......:iloveyou:

munneraja
29-10-2010, 02:02 PM
~:~:~छींटे और बौछार ~:~:~

महकती सी तुम आयीं थी एक दिन मेरे ख़्वाबों में :party:
मुझे लेकर गयी फिर तुम, शहर से दूर ढाबों में :cheers:
ढके मैं नाक दस्ती से, रहा मैं घूमता संग में :bang-head:
तुम्हारी वह जो खुशबू थी वह रहती 'जय' जुराबों में ||:think:

:)आप हैं किन खयालो में
आपके बनियान में भी बेहोशी की शक्ति है
बहुत काम आएगा अस्पतालों में :)

Sikandar_Khan
29-10-2010, 02:21 PM
:)आप हैं किन खयालो में
आपके बनियान में भी बेहोशी की शक्ति है
बहुत काम आएगा अस्पतालों में :)

हा हा हा..........

ndhebar
29-10-2010, 06:43 PM
:)आप हैं किन खयालो में
आपके बनियान में भी बेहोशी की शक्ति है
बहुत काम आएगा अस्पतालों में :)
बढ़िया तुकबंदी जोड़ी है

पर दादा मेहनतकश का बनियान हो या जुराब

मेहनत की खुशबू तो आएगी ही

अब अगर लोग इससे भी बेहोश होने लगे तो

खुदा खैर करे

munneraja
29-10-2010, 08:04 PM
बढ़िया तुकबंदी जोड़ी है

पर दादा मेहनतकश का बनियान हो या जुराब

मेहनत की खुशबू तो आएगी ही

अब अगर लोग इससे भी बेहोश होने लगे तो

खुदा खैर करे
मैं एक बात जानता हूँ जो सत्य भी है
कि जो व्यक्ति खूब मेहनत करके पसीना बहाता है
उसके पसीने में बदबू नहीं होती

लेकिन यहाँ हसीं मजाक चल रहा है इसलिए मैंने कविता लिखी

jai_bhardwaj
29-10-2010, 08:19 PM
भाई जी , अनजाना जी , निशाँत भाई, तारा बाबू और सिकंदर भाई आप सभी का अभिनंदन है सूत्र मेँ । सर्वथा मृत तरंगोँ के कारण मैँ खिन्न हूँ । आपके होठोँ को आपके कानोँ तक खीचने का कार्य फिर कभी । धन्यवाद ।

munneraja
29-10-2010, 08:23 PM
रिजल्ट साफ़ है
किसी भी चीज को ज्यादा खीचने से वो मृत हो जाती है :)

ndhebar
29-10-2010, 09:28 PM
यहाँ हसीं मजाक चल रहा है इसलिए मैंने कविता लिखी

तो मैंने कौन सा तोप छोड़ दिया
मैंने भी तो बस वही आगे बढाया जो आपने शुरू किया
आखिर बुजुर्गों की परम्परा बढ़ाना हमारा कर्त्तव्य जो ठहरा :cheers:

munneraja
30-10-2010, 09:45 AM
तो मैंने कौन सा तोप छोड़ दिया
मैंने भी तो बस वही आगे बढाया जो आपने शुरू किया
आखिर बुजुर्गों की परम्परा बढ़ाना हमारा कर्त्तव्य जो ठहरा :cheers:

यदि इसी को आगे बढ़ाना है तो जल्दी से एक चुटीली कविता लिख मारो

ndhebar
30-10-2010, 11:39 AM
यदि इसी को आगे बढ़ाना है तो जल्दी से एक चुटीली कविता लिख मारो
जो हुक्म दादा
ये लो झेलो :-

कौन कहता है,

एक

म्यान में -

दो तलवारें नहीं होती!

शादी के बाद

वह दोनों तलवारें

एक ही -

मकान में तो होती है.

ndhebar
30-10-2010, 11:44 AM
करें क्या शिकायत अँधेरा नहीं है
अजब रौशनी है कि दिखता नहीं है

ये क्यों तुमने अपनी मशालें बुझा दीं
ये धोखा है कोई, सवेरा नहीं है

ये कैसी है बस्ती, ना दर, ना दरीचा
हवा के बिना दम घुटता नहीं है!

नई है रवायत या डर हादसों का
यहाँ कोई भी शख्स हंसता नहीं है

ABHAY
30-10-2010, 11:57 AM
क्या बात है क्या बात है लगे रहे भाई :cheers:

jai_bhardwaj
31-10-2010, 11:03 PM
---------------------------------------------------

पत्थर से दोस्ती, जान को ख़तरा.
सरदार से दोस्ती, दिमाग़ को ख़तरा.
दारू से दोस्ती, लिवर को ख़तरा.
हम से दोस्ती, रात बे रात sms का ख़तरा.

जान को कोई ख़तरा नहीं , यदि दोस्त सलोना हो
दिमाग को ख़तरा नहीं, अगर सरदार मोना हो
लीवर को ख़तरा नहीं, यदि दवा बराबर दारू लें
sms का ख़तरा नहीं, जब तीन के बाद सोना हो

jai_bhardwaj
31-10-2010, 11:13 PM
मुझे वह सर्द रात याद है जब तुम मेरे सपनों में आयीं
नयी नयी दुल्हन की तरह शर्माते हुए मेरी बाहों में समायीं
मैंने चूमे तुम्हारे रक्तिम कपोल और दोनों गुलाबी अधर
सहलाने चाहे तुम्हारे केश, तो हीटर से 'जय' उंगलियाँ जलायीं

jai_bhardwaj
31-10-2010, 11:20 PM
मेरा जन्म दिन मनाईये , शौक से ऐ दुश्मनों !
आखिर मेरी ज़िन्दगी से एक साल कम हुआ है /
खुश हो लो 'जय' , शोहरत से मेरी जलने वालों
आखिर तुम्हारे नाम से गुमनाम कम हुआ है //

jalwa
31-10-2010, 11:28 PM
मेरा जन्म दिन मनाईये , शौक से ऐ दुश्मनों !
आखिर मेरी ज़िन्दगी से एक साल कम हुआ है /
खुश हो लो 'जय' , शोहरत से मेरी जलने वालों
आखिर तुम्हारे नाम से गुमनाम कम हुआ है //

जन्म दिन मनाएंगे दुश्मन कैसे ?
जब दोस्त ही दोस्त हों महफ़िल में सिर्फ .

हुआ दोस्त जिसका हमारे जैसा...
फिर उसे दुश्मनों की क्या कमी है?

दादा, प्रणाम.

jai_bhardwaj
31-10-2010, 11:41 PM
दादा, प्रणाम.


राम राम बीरबल जी /
दिन दूना रात चौगुना तरक्की करो !!
दीपावली का अवसर है अतः अब रात में भी अपना कारखाना चलाया करो .... तभी तो तरक्की मिलेगी //

" वो हथियार ले के चल पड़े, हमारी मौत के लिए /
मेरा दोस्त मर मिटा, 'जय' अपने दोस्त के लिए //"

jalwa
31-10-2010, 11:48 PM
राम राम बीरबल जी /
दिन दूना रात चौगुना तरक्की करो !!
दीपावली का अवसर है अतः अब रात में भी अपना कारखाना चलाया करो .... तभी तो तरक्की मिलेगी //

" वो हथियार ले के चल पड़े, हमारी मौत के लिए /
मेरा दोस्त मर मिटा, 'जय' अपने दोस्त के लिए //"

दादा, करने को तो चौबीसों घंटे भी कारखाना चला सकते हैं. लेकिन मैं धन के पीछे ज्यादा नहीं भागता. इसलिए बहुत साधारण तरीके से कार्य करता हूँ.

मेरी किस्मत में गम गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते

jai_bhardwaj
31-10-2010, 11:57 PM
दादा, करने को तो चौबीसों घंटे भी कारखाना चला सकते हैं. लेकिन मैं धन के पीछे ज्यादा नहीं भागता. इसलिए बहुत साधारण तरीके से कार्य करता हूँ.

मेरी किस्मत में गम गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते

सुन्दर विचार है बीरबल जी !
हृदय गदगद हो गया / धन्यवाद /

"तुम हमारे स्वप्न में आते हो, तो बस मुस्कुराते हो /
क्या गूंगे हो तुम ? नहीं तो मौन क्यों बन जाते हो //"

jalwa
01-11-2010, 12:03 AM
सुन्दर विचार है बीरबल जी !
हृदय गदगद हो गया / धन्यवाद /

"तुम हमारे स्वप्न में आते हो, तो बस मुस्कुराते हो /
क्या गूंगे हो तुम ? नहीं तो मौन क्यों बन जाते हो //"



धन्यवाद दादा.
यह सोच कर हम आये, तेरे गुलशन में माही
वो फूलों से चेहरे गुलाबों में मिल गए

jai_bhardwaj
01-11-2010, 12:09 AM
धन्यवाद दादा.
यह सोच कर हम आये, तेरे गुलशन में माही
वो फूलों से चेहरे गुलाबों में मिल गए

हम कैसे नामुराद थे जो तुम्हे ढूंढते रहे
हमने अपनी बाजू को क्यों देखा ही नहीं //
'जय' जिनसे कह रहे थे तुम्हे ढूंढ कर लायें
तुम थे उन्ही के पीछे, हमने देखा ही नहीं //

jalwa
01-11-2010, 12:10 AM
जान लेनी ही थी तो कह दिया होता
मुस्कराने की क्या जरूरत थी
:)

jai_bhardwaj
01-11-2010, 12:24 AM
जान लेनी ही थी तो कह दिया होता
मुस्कराने की क्या जरूरत थी
:)

यह हालिया बयान तुमने पढ़ा नहीं है ?
'जय' फिर अब किसी से बावफा नहीं है !!

jai_bhardwaj
01-11-2010, 12:30 AM
मेरे रोजे हराम हो गए , 'जय' तेरे ही कारण !
जालिम ने मुझे फिर से गम को खिला दिया //

jai_bhardwaj
02-11-2010, 11:50 PM
अगर मैं डाल से टूटा तो, बोलो फिर कहाँ जाऊँ
तुम्हारा साथ यदि छूटा तो, बोलो फिर कहाँ जाऊँ
तुम्हारी आँख में स्थिर अभी, 'जय' आंसू बन करके
पलक झपकाओगे यदि तो, बोलो फिर कहाँ जाऊँ //

jai_bhardwaj
03-11-2010, 12:07 AM
तुम्हारी आँख में आंसू तो मेरी आँख में भी हैं
मगर दोनों के आंसू में थोड़ी 'जय' खराबी है /
तनिक महसूस करलो तुम इन्हें हलके से छू करके
तुम्हारे आंसू ठन्डे हैं, मेरे आंसू में गर्मी है //

aksh
03-11-2010, 12:30 AM
जय भैया ! एक दम झकास सूत्र है आपका. मजा आ गया, झकजोर दिया आपने.

sam_shp
03-11-2010, 04:03 AM
जयभाई......सूत्र की सुरुआत धमाकेदार की है और अब तो अनजाना जी का साथ भी है तो उमीद करते है की एक से बढकर एक प्रस्तुति की भरमार होंगी......
धन्यवाद.

ndhebar
03-11-2010, 06:13 PM
धोखे से लूट ले जा सकते हो तुम भी,

पर कोशिश न करना कीमत लगाने की,

जिसके बदले में बिक जाये इमान मेरा,

औकात इतनी नहीं अभी इस ज़माने की/

jai_bhardwaj
03-11-2010, 11:56 PM
धोखे से लूट ले जा सकते हो तुम भी,

पर कोशिश न करना कीमत लगाने की,

जिसके बदले में बिक जाये इमान मेरा,

औकात इतनी नहीं अभी इस ज़माने की/

बंजारा इक घूम रहा है प्रियतम की गलियों में
खोज रहा है साथी अपना तितली में कलियों में
प्रेम के बदले प्रेम मिलेगा ऐसी 'जय' गलियाँ हैं
धोखे से जो साथी लूटें, वे गिने जायेंगे छलियों में

jai_bhardwaj
03-11-2010, 11:57 PM
हम नहीं कहते, ज़माना भर ये कहता है
तेरा यह शबाब है या कोई लावा बहता है
पास जिसके तुम रहो, 'जय' दूर जाना चाहता
दूर जिससे तुम रहो, नजदीकियों को मरता है

jai_bhardwaj
03-11-2010, 11:58 PM
चलो, आओ, सब मिल करे, नया एक खेल खेलेंगे
जो बैठे सामने होंगे, उन्हें 'जय' आज खोजेंगे !!
हमारा हश्र यह होगा, बनेगें चोर फिर फिर से ,
भले ही जीभ चुप हो ले, आँख से आप बोलेंगे !!

jalwa
04-11-2010, 12:18 AM
वक्त के साथ हालात बदल जाते हैं,
अपनो तक के ख्यालात बद्ल जाते हैं,
जब बुरा वक्त आता है 'प्यारे'
खुद अपने ही ज़्ज़बात बदल जाते हैं.

jalwa
04-11-2010, 12:27 AM
यह हालिया बयान तुमने पढ़ा नहीं है ?
'जय' फिर अब किसी से बावफा नहीं है !!

वाह क्या बात कही ..दिल गद गद हो गया,
बावफा ना सही बेवफा ही सही,
दोस्त हो आखिर ,झेल ही लेंगे.

jai_bhardwaj
09-11-2010, 10:25 PM
तुम्हारी अधखुली पलकों में
ये कैसी मदिरा बहती है /
तुम्हारे अधखिले अधरों में
क्यों गुलाबी धारा बहती है //
तुम्हारे 'जय' कपोलों के उभारों
की सतह स्निग्ध है कितनी
तुम्हारी विस्तृत बाहें क्यों
सुखद सी कारा लगती हैं //
.................................................. .......
कारा...... जेल

jai_bhardwaj
09-11-2010, 10:26 PM
तुम्हारे नयनों की जिह्वा
मुझे क्यों चाटती रहती ?
हृदय के बंधनों को वह
सहज ही काटती रहती /
भयंकर ज्वार लाती 'जय'
शिराओं में, लहू में भी,
प्रिये तुम दृष्टि तो फेरो
मुझे यह मारती रहती //

jai_bhardwaj
09-11-2010, 10:29 PM
मुझे अपमान के बिछौने
से तुमने ही जगाया था /
मेरे अभिमान के पर्वत
को तुमने ही उठाया था //
साँसों के बवंडर में
फंसे होने पे 'जय' तुमने
मगर मुझको अगन-पथ
पे निरंतर क्यों चलाया था //

jai_bhardwaj
09-11-2010, 10:32 PM
''आप'' मेरी दृष्टि में


आपका ललाट है या विन्ध्य का विशाल नग
आपके कपोल हैं या भानु शशि आकाश के /
आपके नयन हैं या मदिर झील हैं कोई
आपकी नासिका है या मनोरम रास्ते //
आपके अधर ज्यों सुधा कलश हों युगल
आपके दन्त ज्यों स्तम्भ हैं प्रकाश के /
आपकी ग्रीवा से झलकते हैं जल बिंदु
जैसे कि दिखते हैं पारदर्शी गिलास से //
कुच की कठोरता में कैसी स्निग्धता है
हीरे में जैसे कि दुग्ध का निवास है /
चपल शेरनी सा कमर का प्रकार 'जय'
आपका रूप है भरा वन-विलास से //
:omg::iagree::iagree::think:
......................................
नग....... पर्वत

jai_bhardwaj
18-11-2010, 11:00 PM
चमन के कांटे मुस्काये, चलो फिर से बहार आयी !
फटे दामन छिपाने को, गुलों की फिर कतार आयी !!
हवाओं ने कहा उनसे , ये बादल बिलकुल झूठे 'जय',
मगर मदहोश काँटों को, वो लपटें ना नज़र आयीं !!:omg::omg::omg:

ndhebar
19-11-2010, 10:29 PM
अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इनसान को, इनसान बनाया जाए

आग बहती है यहाँ, गंगा में, झेलम में भी
कोई बतलाए, कहाँ जाकर नहाया जाए

मेरा मकसद है के महफिल रहे रोशन यूँही
खून चाहे मेरा, दीपों में जलाया जाए

मेरे दुख-दर्द का, तुझपर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी ना खाया जाए

जिस्म दो होके भी, दिल एक हो अपने ऐसे
मेरा आँसू, तेरी पलकों से उठाया जाए

कवि : नीरज

jai_bhardwaj
20-11-2010, 11:18 PM
सुलग रहे हैं बादल, झुलस रहा है सावन
काल की इस भट्ठी में जलता जीवन ईंधन
सेठ डकारें लेता है पर निर्धन के हैं अनशन
ताल की माटी माथे पर, है पैरों पर चन्दन
बहुत सहे हैं तेरे 'जय', अब ना सहेंगे ठनगन
मृत्यु खड़ी है आँगन में किन्तु हँस रहा जीवन
.............................
ठनगन ............ नखरे /

ndhebar
21-11-2010, 08:11 AM
मन को है तुझे देखने की प्यास
तूझ बिन बेचैन है मेरी हर एक सांस

उस एक क्षण के लिए छोड सकता हूं ये जहाँ
जिस पल मे हो तेरी नजदीकी का एहसास

jai_bhardwaj
04-12-2010, 12:13 AM
रो रो के लजा करके डोली ने कहा हमसे
बाजार में लूटा है दुल्हन को कहारों ने
दुश्मन तो हैं दुश्मन ही क्या उनसे गिला कीजै
बरबाद किया हमको यारों के सहारों ने
काँटो में भी हँस हँस कर फूलों की तरह जीकर
तकदीर को मारा है तकदीर के मारों ने
उम्मीद की कलियों को बेरहमी से मसला है
अफ़सोस! नए युग के बेशर्म नजारों ने
मुँह मोड़ के मत जाओ, आना है सजन एक दिन
कल हँस के कहा हमसे गुस्ताख़ मज़ारों ने

Kalyan Das
04-12-2010, 10:48 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=4397&stc=1&d=1291444690

तुम्हारे नयनों की जिह्वा
मुझे क्यों चाटती रहती ?
हृदय के बंधनों को वह
सहज ही काटती रहती /
भयंकर ज्वार लाती 'जय'
शिराओं में, लहू में भी,
प्रिये तुम दृष्टि तो फेरो
मुझे यह मारती रहती //

Kalyan Das
04-12-2010, 11:16 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=4402&stc=1&d=1291446393
तुम्हारी अधखुली पलकों में,
ये कैसी मदिरा बहती है ?
तुम्हारे अधखिले अधरों में,
क्यों गुलाबी धारा बहती है ??
तुम्हारे 'जय' कपोलों के उभारों
की सतह स्निग्ध है कितनी !
तुम्हारी विस्तृत बाहें क्यों
सुखद सी कारा लगती हैं ???

jai_bhardwaj
04-12-2010, 10:50 PM
पंक्तियों को जीवंत करने के लिए हार्दिक आभार बन्धु !!

jai_bhardwaj
04-12-2010, 11:23 PM
तुम्हे जब चूमना चाहूँ तो मुंह क्यों फेर लेती हो
मेरी साँसों में बदबू है, या तुम्हारे दाँत गंदे हैं !:cry::cry::cry:
पलंग पर सिमटी हो ऐसे, कि जैसे जोंक हो कोई
कहाँ पर 'जय' तेरे घुटने, कहाँ पर तेरे कंधे हैं !! :bang-head::bang-head::bang-head:

ndhebar
05-12-2010, 09:26 AM
प्यार सामने होता है उससे इकरार सामने होता है,
हम जिससे मोहब्बत करते हैं उसका इन्तजार सामने होता है,

इस दबे हुए दिल मे भी तब आँसू कि लडी लग जाती है,
जब किसी गैर कि बाहों मे अपना यार सामने होता है|

Kalyan Das
05-12-2010, 01:06 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=4441&stc=1&d=1291539915

तुम्हे जब चूमना चाहूँ तो मुंह क्यों फेर लेती हो !
मेरी साँसों में बदबू है, या तुम्हारे दाँत गंदे हैं ??:cry::cry::cry:
पलंग पर सिमटी हो ऐसे, कि जैसे जोंक हो कोई !
कहाँ पर 'जय' तेरे घुटने, कहाँ पर तेरे कंधे हैं ??? :bang-head::bang-head::bang-head:

jai_bhardwaj
05-12-2010, 10:41 PM
गुलशन के हर इक फूल की तकदीर है जुदा
है आँखों का नीर एक सा , पर पीर है जुदा
आज़ाद कौन है यहाँ हर सांस कैद है
बस सिर्फ इतना फर्क है कि ज़ंजीर है जुदा
गुजरे दिनों की याद में आहें न भरे हम
हर उम्र , वक्त , दौर की तासीर है जुदा

jai_bhardwaj
05-12-2010, 11:07 PM
हम विकट उच्छ्वास लेकर जी रहे हैं
हम हाथों में आकाश लेकर जी रहे हैं
आज हम खुशियाँ समेटे हैं मगर
कुछ सन्निकट संत्रास लेकर जी रहे हैं
क्या शत्रुओं से मित्रता हमने बढ़ा ली
अब मित्रों का उपहास लेकर जी रहे हैं
तुम हमें देखो न देखो, क्या हुआ !
तुम्हारे नेह का आभास लेकर जी रहे हैं
हमने कुछ दिन खूब लंगर थे छके
'जय' निर्जला उपवास लेकर जी रहे हैं

:bike::hi::bike::hi::bike:

Hamsafar+
08-12-2010, 10:52 AM
चल पागल मोहब्बत करनी भी नहीं आती झूठे वादे करके वादा पूरा न करना, जन्मो के इंतजार की बाते करके इस जन्म में भी इंतजार न करना मुरझाये गुल को भी गुलाब बता देना खाली पास बुक अम्बानी की बता देना उधार की गाडी को अपना बना लेना ये हई आज का चलन और तू हई पागल मोहब्बत के नाम पे कुर्बान होता जाता है जान हलाल किया जाता है आँसू बहाए जाता है वफाओं को दुहाई दी जाती है यहाँ किसी को दर्द नहीं होता, यहाँ कोई किसी को नहीं मरता है आज तू, कल कोई और सही बस इसी तर्ज पर मुर्गा कटता रहता है|

jai_bhardwaj
16-05-2011, 04:16 PM
बड़े दरख्तों की शाखों का क्या बिगड़ सकता
हवा का जोर तो चिड़ियों के आशियाँ तक था
-------------------------------------------------------
कहिये किसी से हाल ना अपना मेरी तरह
रह जाईयेगा आप भी तनहा मेरी तरह
दो चार दिन रहो तो मेरे हमनशीं जनाब
खुद सीख लेंगे आप भी जीना मेरी तरह
------------------------------------------------------
जिन्हें सलीका है तहजीब-ए-गम समझने का
उन्ही के रोने में आंसू नज़र नहीं आते
खुशी की आँख में आंसू की जगह भी रखना
बुरे जमाने कभी पूछ कर नहीं आते
--------------------------------------------------------
वो आंसू बन के उनकी, पलकों के घर में रहता है
पागल कहोगे उसको,'जय' पानी के घर में रहता है

jai_bhardwaj
18-05-2011, 03:59 PM
आप तो रात को सो लिए साहब
हमने तकिये भिगो लिए साहब :cryingbaby:
हम भी मुंह में जुबान रखते हैं
इतना ऊँचा ना बोलिए साहब :nono:

khalid
18-05-2011, 05:19 PM
आप तो रात को सो लिए साहब
हमने तकिये भिगो लिए साहब :cryingbaby:
हम भी मुंह में जुबान रखते हैं
इतना ऊँचा ना बोलिए साहब :nono:

यह शेर हैँ या धमकी भाई जी

jai_bhardwaj
20-05-2011, 12:47 AM
मौक़ा है दस्तूर भी है, और हसीन रात है
तुम हमसे बहुत दूर हो,इतनी सी बात है
हम तेरे दर पे आ गए, बस यूं ही यकबयक :horse:
तुमको गले लगाना, मेरे वास्ते सौगात है :cheers:
क्यों तुमको दीखते हैं 'जय', डालर-ओ-दीनार
इस मुल्क की मिट्टी ही, बहुत बड़ी बात है

jai_bhardwaj
20-05-2011, 12:50 AM
यह शेर हैँ या धमकी भाई जी

नहीं मित्र , यह धमकी कदापि नहीं थी बल्कि यह काव्य पंक्तियाँ मात्र हैं / धन्यवाद /

naman.a
20-05-2011, 01:20 AM
दो एक अपनी बनाई पक्तिया लिखने का सहास कर रहा हूं ।

गम की अन्धेरी रातो मे जिनको छुपा के रखा था
दु:ख के भंवर जाल मे जिनको दबा के रखा था
दो पल खुशी मे ही अपना ईमान ही खो दिया
ऐसे निकल पड़े आखो से जैसे ………………………………

जय भाई पंक्ति को पूर्ण करे शब्द नही मिल रहे ।

jai_bhardwaj
20-05-2011, 01:40 AM
दो एक अपनी बनाई पक्तिया लिखने का सहास कर रहा हूं ।

गम की अन्धेरी रातो मे जिनको छुपा के रखा था
दु:ख के भंवर जाल मे जिनको दबा के रखा था
दो पल खुशी मे ही अपना ईमान ही खो दिया
ऐसे निकल पड़े आखो से जैसे ………………………………

जय भाई पंक्ति को पूर्ण करे शब्द नही मिल रहे ।

गम की अन्धेरी रातो मे जिनको छुपा के रखा था
दु:ख के भंवर जाल मे जिनको दबा के रखा था
दो पल खुशी मे ही अपना ईमान भी खो दिया
ऐसे निकल पड़े आखो से जैसे सजा के रखा था
शब्द चयन में त्रुटि हो सकती है अतः अपराध क्षम्य हो बन्धु ............... जय राम जी की :horse://

prashant
20-05-2011, 08:41 AM
सभी रचनाकार से निवेदन है की अपनी पंक्तियों का पंजीकरण करवा लें/
नहीं तो किसी भी समय प्रीतम की बुरी नजर पड़ सकती है/:)

ndhebar
20-05-2011, 05:14 PM
गम की अन्धेरी रातो मे जिनको छुपा के रखा था
दु:ख के भंवर जाल मे जिनको दबा के रखा था
दो पल खुशी मे ही अपना ईमान भी खो दिया
ऐसे निकल पड़े आखो से जैसे सजा के रखा था
शब्द चयन में त्रुटि हो सकती है अतः अपराध क्षम्य हो बन्धु ............... जय राम जी की :horse://

जय भैया कुछ जमा नहीं
यहाँ कुछ उपमा होता तो ज्यादा सटीक लगता
जैसे बिन बदल बरसात, जैसे ...................................

khalid
20-05-2011, 06:41 PM
दो एक अपनी बनाई पक्तिया लिखने का सहास कर रहा हूं ।

गम की अन्धेरी रातो मे जिनको छुपा के रखा था
दु:ख के भंवर जाल मे जिनको दबा के रखा था
दो पल खुशी मे ही अपना ईमान ही खो दिया
ऐसे निकल पड़े आखो से जैसे ………………………………

जय भाई पंक्ति को पूर्ण करे शब्द नही मिल रहे ।

नल लगा रखा हैँ

jai_bhardwaj
20-05-2011, 11:52 PM
उन्हें गुल जब भी देता है , उसे गुलदान मिलता है
नज़र उनसे अगर मिलती, तो थरथर जिस्म हिलता है
अज़ब है दास्ताँ उसकी , अज़ब है शख्सियत उसकी
है जीने की तमन्ना भी मगर घुट घुट के मरता है
बहारों का ये मौसम है, गुल-ओ-गुलज़ार है हर सू
मगर उसके ख्यालों में, मरुस्थल ही दहकता है
अगर बाजू में आ जाएँ , क़यामत टूट पड़ती 'जय'
खुदा जाने न जाने क्यों ,उन्ही पर दिल मचलता है

jai_bhardwaj
21-05-2011, 12:07 AM
जय भैया कुछ जमा नहीं
यहाँ कुछ उपमा होता तो ज्यादा सटीक लगता
जैसे बिन बदल बरसात, जैसे ...................................

नल लगा रखा हैँ

:cryingbaby:बिन बादल बरसात कर गए नयना मेरे
सावन का आभास करा गए नयना मेरे:cryingbaby:
:cryingbaby:उषा से संध्या तक 'जय' यूं सजल रहे
पर निशांत तक सूख चुके थे नैना मेरे:crazyeyes:

(अरे भाई सुबह सुबह बिजली की कटौती के कारण पम्प बंद हो गया था :giggle::giggle::giggle:.... हा हा हा हा .... )

ndhebar
21-05-2011, 11:27 AM
नल लगा रखा हैँ
अरे वाह रे मेरे हास्य कवी सम्राट

Kalyan Das
24-05-2011, 09:10 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10876&stc=1&d=1306210132

जिन्हें सलीका है तहजीब-ए-गम समझने का
उन्ही के रोने में आंसू नज़र नहीं आते
खुशी की आँख में आंसू की जगह भी रखना
बुरे जमाने कभी पूछ कर नहीं आते

jai_bhardwaj
24-05-2011, 02:25 PM
ज़िन्दगी में कुछ नहीं तो भी बहुत है ज़िन्दगी
हादसों को भूल जाओ, खुशनुमा है ज़िन्दगी //:cheers:

भूख और ग़ुरबत के माने यह नहीं कि चुक गयी
मुफ्त की हैं साँसे यारो, काट भी लो ज़िन्दगी //:elephant:

हादसे हरदम नहीं होते हैं केवल ग़मज़दा
हादसों की तल्खी से ही है निखरती ज़िन्दगी //

बहुत गहरे ज़ख्मों को भी वक्त का मरहम भरे
वक्त तो तब ही मिलेगा जब जियोगे ज़िन्दगी //:banalema:

चाहने भर से कोई मिलती नहीं हैं नेमतें
नेमतों के वास्ते, जीनी पड़ेगी ज़िन्दगी //

जीतने का ज़ज्बा आता हौसलापस्ती के बाद
ज़ज्बा 'जय' कायम रहेगा गर रहेगी ज़िन्दगी // :think:

jai_bhardwaj
24-05-2011, 02:28 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10876&stc=1&d=1306210132



इन आखों की कोरों में लरजते अश्क कहते हैं :cryingbaby:
हज़ारों बार रोका 'जय' मगर अब तो निकलते हैं :cryingbaby:
हमें पाला है पोसा है इन आँखों ने मुहब्बत से :banalema:
ज़माने का नज़रिया है, बिछड़ते वे जो मिलते हैं :horse:

prashant
24-05-2011, 02:47 PM
इन आखों की कोरों में लरजते अश्क कहते हैं :cryingbaby:
हज़ारों बार रोका 'जय' मगर अब तो निकलते हैं :cryingbaby:
हमें पाला है पोसा है इन आँखों ने मुहब्बत से :banalema:
ज़माने का नज़रिया है, बिछड़ते वे जो मिलते हैं :horse:

इस कविता की दाद दिए बिना मैं नहीं रह पाया
जब भी आँखों को देख जय तेरी कविता याद आई.

khalid
24-05-2011, 02:54 PM
इस कविता की दाद दिए बिना मैं नहीं रह पाया
जब भी आँखों को देख जय तेरी कविता याद आई.

पढने के बाद सुनाने को गया तो लफ्ज बे आवाज रही

jai_bhardwaj
25-05-2011, 12:28 AM
साथी है, हमसफ़र है, हमराज मेरी संगिनी
पूरा हुआ जो, ख्वाब है , वो मेरी संगिनी //
शबनम सी सलोनी है , रेशम सी नरम है
सिमटी सी काएनात है, मेरी संगिनी //
जेहन में कभी भी,आये न जिसके रस्क
वो प्रेम की बरसात है, मेरी संगिनी //
ज़िन्दगी में जब कभी, घबरा गए हम
मुझको दिखाई राह तब मेरी संगिनी//
जीते हैं बहुत मेडल-इनाम-ओ-शुक्रिया
अल्लाह की सौगात है, मेरी संगिनी //
'जय' उसको मोहब्बत का मसीहा कहता है
वो खुद को कहे बागबाँ, हाँ मेरी संगिनी //:think:

khalid
25-05-2011, 07:53 AM
साथी है, हमसफ़र है, हमराज मेरी संगिनी
पूरा हुआ जो, ख्वाब है , वो मेरी संगिनी //
शबनम सी सलोनी है , रेशम सी नरम है
सिमटी सी काएनात है, मेरी संगिनी //
जेहन में कभी भी,आये न जिसके रस्क
वो प्रेम की बरसात है, मेरी संगिनी //
ज़िन्दगी में जब कभी, घबरा गए हम
मुझको दिखाई राह तब मेरी संगिनी//
जीते हैं बहुत मेडल-इनाम-ओ-शुक्रिया
अल्लाह की सौगात है, मेरी संगिनी //
'जय' उसको मोहब्बत का मसीहा कहता है
वो खुद को कहे बागबाँ, हाँ मेरी संगिनी //:think:शाँपिँग करने मेँ कभी ना थक मेरी संगिनी
रात को घर देर से आओ सौ प्रश्न पुछती हैँ मेरी संगिनी
कभी भी हँसो तो आँखेँ दिखाती हैँ मेरी संगिनी
और मत कुछ पुँछे पता नही
क्या क्या रंग दिखाती हैँ मेरी संगिनी:cryingbaby:

ndhebar
25-05-2011, 09:45 PM
शाँपिँग करने मेँ कभी ना थक मेरी संगिनी
रात को घर देर से आओ सौ प्रश्न पुछती हैँ मेरी संगिनी
कभी भी हँसो तो आँखेँ दिखाती हैँ मेरी संगिनी
और मत कुछ पुँछे पता नही
क्या क्या रंग दिखाती हैँ मेरी संगिनी:cryingbaby:

बहुत खूब खालिद मियां :bravo::bravo:

ndhebar
25-05-2011, 09:46 PM
आज भी सताया करती हैं मुझे
तन्हाई में वोह प्यारी बातें तेरी

“भीगा ना करो बारिश में
जान
पानी मीठा हो जाएगा ”

उसी शर्म की लाली से
अब भी सुर्ख है
दामन मेरा…..

मगर एक सवाल
में उलझी हूँ आज कल
की अगर मैं
चाशनी सरापा थी,

तो ये बोछार जो मेरी
आँखों में पिन्घलती है
इसकी बूंदों में
नमक के दाने क्यूँ हैं…. ????????


इसकी लेखिका का नाम है "आंच"

jai_bhardwaj
26-05-2011, 02:31 PM
आज भी सताया करती हैं मुझे
तन्हाई में वोह प्यारी बातें तेरी

इसकी लेखिका का नाम है "आंच"


तनहाइयों ने आज मुझको एक ग़ज़ल दी
ख़्वाबों में उनकी याद ने, रात दखल दी
ये ख्वाब था या आइना था मेरे प्यार का
शबनम में नहाई सी कली एक कँवल की
निकहतें मचल रही 'जय' उनकी इस तरह
कुछ देर में ही मेरी जिस्म-ओ-रूह बदल दी

दखल ...... हस्तक्षेप
निकहतें ....... खुशबुएँ

ndhebar
26-05-2011, 08:13 PM
हमे एक घर बनाना था ये हम क्या बना बैठे?
कहीं मंदिर बना बैठे, कहीं मस्जिद बना बैठे..
होती नहीं फिरकापरस्ती परिंदों में क्यूँ?…
कभी मंदिर पे जा बैठे, कभी मस्जिद पे जा बैठे…

jai_bhardwaj
26-05-2011, 10:54 PM
कहाँ गया यह मन्त्र सुहाना 'परहित सरिस धरम नहीं भाई'

माया-काया पर सब फिसलें जैसे पथ पर लगी हो काई //

'सर्वजगत ही अपनामय है' ये ही थी अपनी परिभाषा /

यह परिभाषा खंडित होकर आज बन गयी कोटि इकाई //

धर्मांध बन लोहित पीते घूम घूम कर गटक-गटक /

फिर घडियाली आंसू रोते मरता है जब धरम का भाई //

निज दारा का विपणन करते मोल भाव भार्या का भी /

भगिनी पर है कुटिल दृष्टि, पर इन्हें बिंदु भर लाज ना आयी//

मैं मदिरा पान नहीं करता हूँ किन्तु पान की इच्छा है अब /

ऐसे कुत्सित दृश्य देख कर मुझे आ रही है उबकाई //

हे ईश्वर ! मैं तृप्त हो चुका श्रवण एवं नयनों से अब /

साँसों को देकर विराम 'जय' अधम समझ दे दो शरणाई //

Kalyan Das
27-05-2011, 08:47 AM
बस एक वक़्त का खंजर मेरी तलाश में है !
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है !!
मैं कतरा हूँ, मेरा अलग वजूद तोह है,
हुआ करे जो समुंदर, वो भी मेरी तलाश में है !!
मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में,
वोह मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है !!
मैं कभी जिसके हाथ में एक फूल दे के आया था,
अब उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है .................!!!

Kalyan Das
27-05-2011, 08:59 AM
कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा,
जो चिराग बुझ गया है तेरी अंजुमन में जल कर !
मेरे दोस्तों ख़ुदारह मेरे साथ तुम भी धुन्ड़ो,
वोह यहीं कहीं छुपा है मेरे गम का रुख बदल कर ........!!!

ndhebar
27-05-2011, 10:53 PM
निज दारा का विपणन करते मोल भाव भार्या का भी /

भगिनी पर है कुटिल दृष्टि, पर इन्हें बिंदु भर लाज ना आयी//



बहुत ही सुन्दर और सच्ची पंक्तियाँ है बड़े भाई

ndhebar
27-05-2011, 11:38 PM
फट चुकी है पौ बटोही जाग रे !
दूर जाना है बटोही भाग रे !

बीहड़ों को देख कर तू रुक न जाना,
पर्वतों के सामने तू झुक न जाना,
लग न जाये बुझदिली का दाग रे !

धुन जगायी है तो धुन पर थाप दे,
तू सहारा खुद को अपने आप दे,
बुझ न जाये ये सुलगती आग रे !

मंजिलें चल कर कहाँ खुद पास आतीं,
वो खडी है देख तुझको है लुभातीं,
पास ही है वो फलों का बाग रे !

दर्द छालों का यहीं पर छोड़ दे,
गर्व से मन्जिल का ताला तोड़ दे,
वो मिलेगा जो सके तू माँग रे !

ndhebar
31-05-2011, 06:05 PM
तुम और मैं



तुम स्निग्ध धारा सी बहो ;
मैं निर्मल जल हो जाऊँगा।


तुम धरा का रूप धरो ;
मैं आकाश बन छाऊंगा।


तुम वर्षा सी उमड़ पड़ो ;
मैं बादल बन जाऊंगा।


तुम दीप का रूप धरो ;
मैं बाती बन जाऊंगा।


तुम लता सी लिपट पड़ो ;
मैं वृक्ष बन जाऊँगा।

jai_bhardwaj
03-06-2011, 12:54 AM
कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा,
जो चिराग बुझ गया है तेरी अंजुमन में जल कर !
मेरे दोस्तों ख़ुदारह मेरे साथ तुम भी धुन्ड़ो,
वोह यहीं कहीं छुपा है मेरे गम का रुख बदल कर ........!!!

आग में सजन को खोजते रहे हैं हम, हमको जलन मिली मगर वो प्यार ना मिला
हमने जलाई देह, पाए लाखों घाव 'जय', लेकिन अभी तलक हमें ऐतबार ना मिला
कैसा फलसफा है यह, कैसा नज़रिया, क्यों जलते को बुझाते हैं बुझते को जलाते हैं
चलते को गिराने को हैं लाखों आस पास, गिरते को उठा दे जो, वो दिलदार ना मिला

ndhebar
03-06-2011, 04:37 PM
कैसा फलसफा है यह, कैसा नज़रिया, क्यों जलते को बुझाते हैं बुझते को जलाते हैं
चलते को गिराने को हैं लाखों आस पास, गिरते को उठा दे जो, वो दिलदार ना मिला

क्या बात कही है जय भैया
गिरतो को उठाना ही तो बड़ी बात है और यही बात याद रखनी चाहिए

khalid
03-06-2011, 05:28 PM
आग में सजन को खोजते रहे हैं हम, हमको जलन मिली मगर वो प्यार ना मिला
हमने जलाई देह, पाए लाखों घाव 'जय', लेकिन अभी तलक हमें ऐतबार ना मिला
कैसा फलसफा है यह, कैसा नज़रिया, क्यों जलते को बुझाते हैं बुझते को जलाते हैं
चलते को गिराने को हैं लाखों आस पास, गिरते को उठा दे जो, वो दिलदार ना मिला

पार लगा दे कोई ऐसा पतवार ना मिला
काट सके जो दुश्मन का सर ऐसा कोई तलवार ना मिला
छीटेँ तो बहुत दिया दुनिया ने धो सके ऐसा कोई बौछार ना मिला
गुरबत मेँ साथ चल सके ऐसा कोई यार ना मिला
बढकर कोई गले मिले ऐसा ना कोई दिलदार मिला
छीँटे तो मिले बहुत धोने को बौछार ना मिला

jai_bhardwaj
03-06-2011, 11:35 PM
पार लगा दे कोई ऐसा पतवार ना मिला
काट सके जो दुश्मन का सर ऐसा कोई तलवार ना मिला
छीटेँ तो बहुत दिया दुनिया ने धो सके ऐसा कोई बौछार ना मिला
गुरबत मेँ साथ चल सके ऐसा कोई यार ना मिला
बढकर कोई गले मिले ऐसा ना कोई दिलदार मिला
छीँटे तो मिले बहुत धोने को बौछार ना मिला
'जय' पास बुलाओ तो, लोग दूर जायेंगे
उठ के चल पड़ो तो, लोग पीछे आयेंगे
कोई साथ दे न दे , हिम्मत हमारी साथ है
आज नहीं तो कल, तारा-ए-जमीं कहलायेंगे :think::bravo:

jai_bhardwaj
03-06-2011, 11:45 PM
गिरतो को उठाना ही तो बड़ी बात है और यही बात याद रखनी चाहिए

भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता (जिसे आजकल 'शार्ट कट' भी कहा जाता है) के मद में चूर चंचल मन झूमते हुए चलता है और सामने आ रही हर वस्तु और प्राणी को नष्ट करता हुआ निकल जाता है / भला कौन महावत इसे अंकुश मारेगा !!
इन सब से परे , 'माह के प्रयोक्ता सदस्य' नामित होने पर बिलम्बित बधाई / धन्यवाद निशांत बन्धु /

ndhebar
03-06-2011, 11:52 PM
भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता (जिसे आजकल 'शार्ट कट' भी कहा जाता है) के मद में चूर चंचल मन झूमते हुए चलता है और सामने आ रही हर वस्तु और प्राणी को नष्ट करता हुआ निकल जाता है / भला कौन महावत इसे अंकुश मारेगा !!

मनुष्य की स्वयं के प्रति निष्ठुरता ही औरों के प्रति निर्दयता में परवर्तित हो जाती है

jai_bhardwaj
04-06-2011, 12:14 AM
मनुष्य की स्वयं के प्रति निष्ठुरता ही औरों के प्रति निर्दयता में परवर्तित हो जाती है

सत्य वचन , बन्धु !:bravo:

jai_bhardwaj
04-06-2011, 11:20 PM
इतना तो बता दीजे, 'जय' कैसी शरारत है
हमसे ही मुहब्बत है हमसे ही अदावत है

ndhebar
05-06-2011, 10:08 AM
कौन हो तुम ?
राह में रोड़ा बनकर खड़े हो |
मन में गहन संताप छिपाए
शुष्क संतप्त वीत राग-से
रात्रि अन्धकार में भी वर्षों से खड़े हो !
कौन हो तुम ?

एक-एक कर कितने ही पथिक आये
देखकर अनदेखा कर गए
इस वीरान धरा पर
निर्जीव-से पड़े हो तुम
कौन हो तुम ?

मई जून की तपती धरा पर
यूँ ही तप रहे हो |
कैक्टस भी तो होता है भला
जो रहता है हर दम हरा !
खुशबू नहीं तो क्या……..
कंटीला होने पर भी सबको हरता !

कितने ही बादल आये , चले गए
कितने ही आंधी तूफ़ान आकर चले गए !
कितने ही राही तुम्हें ठुकराकर चले गए !
फिर अंतर ने महसूस किया—–
कितने निष्ठुर हो तुम
निरे ठूँठ ही हो…….ठूँठ ही हो……!!!!!

jai_bhardwaj
09-06-2011, 10:59 PM
मैं धरा हूँ, मैं गगन हूँ
नीर हूँ मैं, मैं अगन हूँ
मैं प्रकृति हूँ और सच भी
सबका जीवन हूँ, पवन हूँ //

मुझको देखो और छुओ भी
जीने दो और खुद जियो भी
तुम प्रकृति को छेड़ कर के
बच न पाओगे, वचन दूं //

तप रहा है जगत सारा
शुष्क होने लगी धारा
जंगलों को काट कर के
जो बना मैं वो भवन हूँ //

लड़कियों का जन्म दुष्कर
बुजुर्गों का मान कमतर
निर्धनों से गबन कर के
जो कमाया मैं वो धन हूँ //

बहुत कुछ पाया है मैंने
पर अधिक खोया है मैंने
चाह करके मर सका ना
ऐसा निष्ठुर 'जय' जीवन हूँ //

ndhebar
23-06-2011, 12:23 AM
कौन सा रस ?

अब तुमने सब रसों के बारे में पढ़ लिया,
काव्य के नौ रसों के बाद,
एक और रस भी सुना,
वात्सल्य रस ।


अब मैं पूछूँगा,
तुम बताओगे ।
सुनो-
“नायक की बाँहों में नायिका,
नैन से नैन मिलाती,
विभिन्न आकर्षक क्रीड़ाएँ करती,
नायक को अपने हाथ से लड्डू खिलाती,
स्वच्छंद रूप से,
अपने प्रेम का इज़हार कर रही है।”


बताओ ! यहाँ पर कौन सा रस झलक रहा है ?


धन्य हो गुरु जी !
आप तो वास्तव में रसों की खान हैं,
वाह ! मुँह में पानी आ गया,
लड्डू के नाम से ।


धन्य हो “साहित्य रसोमणि” !

निःसन्देह,
आपने ग्यारहवां रस भी खोज निकाला,
सबका मनपसंद रस,
मीठा रस ।


रचनाकार
हरीश चन्द्र लोहुमी

ndhebar
29-06-2011, 07:01 AM
अरे ! वो निकल गयी !


महँगे म्यूजिक सिस्टमों की धमक,
आज मज़ा नहीं दे पा रही थी,
बलखाती कमर खुद को,
दर्दीला एहसास करा रही थी ।

हुस्न तो रोज वाला ही था,
पर नज़ाकत गायब थी,
मेकअप भी पूरा ही था,
पर वो बात नहीं आ पा रही थी ।

खुद के बच्चों की होशियारी और स्मार्टनेस,
आज चुभ सी रही थी,
उनके तारीफों वाली पुलिया,
दरकती सी लग रही थी ।

पडोसन का दिया हुआ लड्डू,
फ़ीका सा लग रहा था,
दिखावे को मेन्टेन करना,
साफ़ झलक रहा था ।

अरे ! वो निकल गयी !,
वो अन्दर ही अन्दर झेंप सी गयी थी,
गरीब पडोसन की बेटी,
आई. आई. टी. क्वालीफ़ाइ जो कर गयी थी ।

ndhebar
09-07-2011, 04:18 PM
झरोखे से कोई नव दुल्हन झाँकती


झर-झर झरती फुहारें
तीव्रतर बहतीं शीत बयारें |
तीर सी चुभतीं गात में
मन हो जाता हर्षित पल में |


मन मानस में कल-कल करतीं तरंगें
ज्यों सागर में शोर मचातीं लहरें
आओ सखी गीत मल्हार गायें
कुछ अंतर्मन की बात बताएं


गरज-गरज कर मेघ झमाझम जल बरसायें
हरित श्यामला अवनि को उन्मत्त बनाएं |
शुष्क सरिताओं में नव जीवन आये
वन उपवन में नव अंकुर उग आये |


नव कलिकाएँ घूंघट खोलतीं
मंद-मंद हँसी बिखेरतीं जैसे |
झरोखे से कोई नव दुल्हन झाँकती
मनहुँ वसुधा का सौन्दर्य आँकती |


झर-झर झरती फुहारें
तीव्रतर बहतीं शीत बयारें

ndhebar
14-07-2011, 05:34 PM
एक अरसा हुआ मुस्कुराये हुए

दिल भी इक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इससे चाहिए या कुछ भी नहीं
जुदा जब भी हुए दिल को यूँ लगे जैसे
के अब कभी गए तो लौट कर नही मिलना
एक अरसा हुआ मुस्कुराये हुए
देख तेरे अल्फाज़ किस दिन याद आए भुलाये हुए
रोएगा इस कदर वो मेरी लाश से लिपट कर
अगर इस बात का पता होता तो कब का मर गया होता
वो इस आन में रहते हैं कि हम उन्को उंनसे मांगें
हम इस गरूर में रहते हैं कि हम अपनी ही चीज़ें माँगा नहीं करते
दिल मेरा तुझको इतनी शिद्दत से चाहता क्यों है
हर साँस के साथ तेरा ही नाम आता क्यों है
मैं तेरा कुछ भी नहीं हूँ, मगर इतना तो बता
देख कर मुझको तेरे जेहन में आता क्या है
गुज़रता है मेरी हर साँस से तेरा नाम आज भी,
ढलती है तेरे इंतज़ार में मेरी हर शाम आज भी,
तुझको मुझसे रूठे एक ज़माना हो गया,
पर होती है तेरे नाम से मेरी पहचान आज भी
आ देख मुझसे रूठने वाले तेरे बगैर
दिन भी गुज़र गया मेरी शब् भी गुज़र गई
इक उमर हुई मैं तो हँसी भूल चुका हूँ
तुम अब भी मेरे दिल को दुखाना नहीं भूले
तू अपनी शीशागरी का न कर हुनर जाया
आईना हूँ मैं, टूटने की आदत है मुझे
मेरे खताओं की फेहरिस्त ले के आया था
अजीब शख्स था अपना हिसाब छोड़ गया
भोली सी अदा फिर कोई आज इश्क की जिद पर है
फिर आग का दरिया है और डूबकर जाना है

ndhebar
17-07-2011, 09:52 AM
तुम आओ ना….

स्नेह के अश्रु भर दो नैनों में,
ऐसे तो ठुकराओ ना,
इस राह देखते दिवाने की जिद है,
अब कैसे भी तुम आओ ना।
तुम आओगी जब लेकर बहारे,
यादों के किस्से होंगे प्यारे प्यारे,
ह्रदय का हर्ष और स्नेह मिलन की,
छा जायेंगे राहों में संग तुम्हारे।
कही नैन मेरे थक कर देखो,
सपनों की नगर में खो जाये ना।
इस राह देखते दिवाने की जिद है,
अब कैसे भी तुम आओ ना।
तुमको क्या पता दिवानापन,
बेचैन है कितना मेरा मन,
हँसना तो बस मजबूरी है,
रोना ही तो है सारा जीवन।
एकांत का गीत मै गाऊँ कब तक,
तुम भी आकर संग गाओ ना।
इस राह देखते दिवाने की जिद है,
अब कैसे भी तुम आओ ना।
आज फिर वैसी ही रात है,
मानों तुमसे मेरी मुलाकात है,
तुम दूर खड़ी रोती रहती,
कुछ दिल ही दिल की बात है।
राहों में अभी तक तन्हा हूँ,
तुम मेरा साथ निभाओ ना।
इस राह देखते दिवाने की जिद है,
अब कैसे भी तुम आओ ना।
छुपा लिया मैने तुमसे,
वो बातें जो तुमसे कहनी है,
दिल ने पूछा दिल से तेरे,
दिल में तेरे मुझे रहनी है।
देकर थोड़ा सा प्यार मुझे,
अपने कल को भूल जाओ ना।
इस राह देखते दिवाने की जिद है,
अब कैसे भी तुम आओ ना।
है प्यार नहीं तो ये क्या है,
मेरे दर्द के किस्सों का मंजर,
हर जख्म होगा अब बेगाना,
इक बार जो तुम आओगी अगर।
मै राह तुम्हारी देखते ही,
अपनी राहें सब भूल गया,
मँजिल भी तो अब तुम ही हो,
तेरे इंतजार के सिवा अब और क्या?
अंतिम साँसों की धुन पर,
ये मन बेचारा बुला रहा,
अब तो बस दिल की थमती धड़कन,
को और ना तुम धड़काओ ना।
इस राह देखते दिवाने की जिद है,
अब कैसे भी तुम आओ ना।

ndhebar
18-09-2011, 01:01 PM
कहाँ थे हम ? क्यूँ थे हम ? क्या थे हम ?
इस सोच की राख को कुरेदने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है
शीशे में श़क्ल नहीं, रूह को तलाशना है,
वादे बहुत हो चुके खुद से, अब निभाने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/
ज़िन्दगी यूँ ही जीए जा रहे थे, या मर ही चुके थे हम,
ज़िन्दगी जिंदा है, इस एहसास को जीने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/
अब तक भीड़ का एक भेड़ ही तो थे हम,
आज इंसान बन, कुछ कर गुज़रने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/
जीत की क्या बात करें ?
अंतरिक्ष को कदमों से रौंदा,
समंदर की गहराई को नापा,
हिमालय की चोटी को चूमा,
इसी धरती पे, रावण को मारा,
फिर हारने का आज डर क्यूँ ?
इस डर को डराने का वक़्त आया है,
आज तो हद से गुज़र जाने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/

~VIKRAM~
18-09-2011, 04:37 PM
कहाँ थे हम ? क्यूँ थे हम ? क्या थे हम ?
इस सोच की राख को कुरेदने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है
शीशे में श़क्ल नहीं, रूह को तलाशना है,
वादे बहुत हो चुके खुद से, अब निभाने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/
ज़िन्दगी यूँ ही जीए जा रहे थे, या मर ही चुके थे हम,
ज़िन्दगी जिंदा है, इस एहसास को जीने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/
अब तक भीड़ का एक भेड़ ही तो थे हम,
आज इंसान बन, कुछ कर गुज़रने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/
जीत की क्या बात करें ?
अंतरिक्ष को कदमों से रौंदा,
समंदर की गहराई को नापा,
हिमालय की चोटी को चूमा,
इसी धरती पे, रावण को मारा,
फिर हारने का आज डर क्यूँ ?
इस डर को डराने का वक़्त आया है,
आज तो हद से गुज़र जाने का वक़्त आया है,
आईना देखने और दिखाने का वक़्त आया है/
:bravo:
अच्छा सूत्र और अच्छी racna निशांत जी

ndhebar
09-10-2011, 01:08 AM
हमे एक घर बनाना था ये हम क्या बना बैठे?
कहीं मंदिर बना बैठे, कहीं मस्जिद बना बैठे..
होती नहीं फिरकापरस्ती परिंदों में क्यूँ?…
कभी मंदिर पे जा बैठे, कभी मस्जिद पे जा बैठे…

ndhebar
09-10-2011, 01:15 AM
राम नाम सत्य है

विचित्र शब्द वाण से, शूल से कृपाण से,
हैं तुच्छ तुच्छ बुत बने,मनुज खड़े मसाण से ।

ये कौन सा विचार है, प्रहार पर प्रहार है,
ये ज्ञान दीप के तले, अजीब अन्धकार है ।

ये कौन सा मुहूर्त है, नाच रहा धूर्त है,
वो विद्वता विलुप्त सी, रहा मटक सा मूर्ख है ।

गुमान पर गुमान है, ये कौन सा प्रयाण है,
है कंठ में फँसा हुआ, सदाचरण का प्राण है ।

ये क्या हुआ है हादसा, सना सा मन्च रक्त से,
ये कौन आज भिड़ पड़ा , शारदा के भक्त से ।

मान मिल गुमान से, कर रहा कुकृत्य है,
वो शर्म औ लिहाज का, राम नाम सत्य है ।

हरीश चन्द्र लोहुमी

Dark Saint Alaick
11-10-2011, 08:54 PM
जय बाबू , यात्रा जारी है न ?

ndhebar
16-10-2011, 11:02 AM
कल हो न हो

आज एक बार सबसे मुस्करा के बात करो
बिताये हुये पलों को साथ साथ याद करो
क्या पता कल चेहरे को मुस्कुराना
और दिमाग को पुराने पल याद हो ना हो

आज एक बार फ़िर पुरानी बातो मे खो जाओ
आज एक बार फ़िर पुरानी यादो मे डूब जाओ
क्या पता कल ये बाते
और ये यादें हो ना हो

आज एक बार मन्दिर हो आओ
पुजा कर के प्रसाद भी चढाओ
क्या पता कल के कलयुग मे
भगवान पर लोगों की श्रद्धा हो ना हो

बारीश मे आज खुब भीगो
झुम झुम के बचपन की तरह नाचो
क्या पता बीते हुये बचपन की तरह
कल ये बारीश भी हो ना हो

आज हर काम खूब दिल लगा कर करो
उसे तय समय से पहले पुरा करो
क्या पता आज की तरह
कल बाजुओं मे ताकत हो ना हो

आज एक बार चैन की नीन्द सो जाओ
आज कोई अच्छा सा सपना भी देखो
क्या पता कल जिन्दगी मे चैन
और आखों मे कोई सपना हो ना हो

Big boss
16-10-2011, 11:06 AM
कल हो न हो


आज एक बार सबसे मुस्करा के बात करो
बिताये हुये पलों को साथ साथ याद करो
क्या पता कल चेहरे को मुस्कुराना
और दिमाग को पुराने पल याद हो ना हो

आज एक बार फ़िर पुरानी बातो मे खो जाओ
आज एक बार फ़िर पुरानी यादो मे डूब जाओ
क्या पता कल ये बाते
और ये यादें हो ना हो

आज एक बार मन्दिर हो आओ
पुजा कर के प्रसाद भी चढाओ
क्या पता कल के कलयुग मे
भगवान पर लोगों की श्रद्धा हो ना हो

बारीश मे आज खुब भीगो
झुम झुम के बचपन की तरह नाचो
क्या पता बीते हुये बचपन की तरह
कल ये बारीश भी हो ना हो

आज हर काम खूब दिल लगा कर करो
उसे तय समय से पहले पुरा करो
क्या पता आज की तरह
कल बाजुओं मे ताकत हो ना हो

आज एक बार चैन की नीन्द सो जाओ
आज कोई अच्छा सा सपना भी देखो
क्या पता कल जिन्दगी मे चैन

और आखों मे कोई सपना हो ना हो

बहुत खूब ढेबर जी काफी अच्छा लिखते हैं आप

ndhebar
16-11-2011, 08:52 PM
वरना जोगन बन डोलूँगी

जी भर बरसे मेघा फ़िर भी, पपिहन “प्यासी हूँ” बोले,
शब्द प्यास के फ़िर वह रह रह सबके कानों में घोले ।

लगता है कुछ शेष रह गयी अन्तर्मन की टीस सखे !
जी भर नाचा खूब मयूरा, फ़िर अधीर है पर खोले,

हरियाली का ताज सजा था कल बारिश की रिमझिम में,
कुम्हिलाने फ़िर लगी धरा है, शनै: शनै: हौले हौले ।

घर आँगन जलमग्न हुए थे, झरने भी थे खूब बहे,
पर यह कैसी प्यास सखे ! जो खड़ी ओखली मुँह खोले ।

अब तुम ही बतला दो कैसे, एक स्पर्श से जी लूँ मैं,
तुम मुझसे कहते हो भर लूँ , एक बार में ही झोले ।

मन की पीड़ा समझ सको तो, मिलना बारम्बार सखे !
वरना जोगन बन डोलूँगी, अलख निरंजन बम भोले ।

ndhebar
18-11-2011, 06:31 PM
चिटकनी

अजी सो गये क्या,
जरा उठिये ना,
मुझसे फ़िर बन्द नहीं हो पा रही,
इस दरवाजे की चिटकनी ।

तुम भी सोचते होगे,
रोज-रोज मुझे परेशान करती है,
रोज-रोज मुझे नींद से जगाती है ।

क्या करूँ,
मुझसे ये बन्द ही नहीं होती,
बड़ी मुसीबत हो जाती है,
जब तुम कभी चले जाते हो,
एक-दो दिन के लिये भी बाहर,
मैं सो नहीं पाती हूँ ,
चिटकनी के बन्द न हो पाने से ।

अजी सुनती हो,
जरा देखो तो,
आज मैनें चिटकनी ठीक करवा दी है,
तुम्हारे हर रोज की मुसीबत,
हमेशा के लिये दूर कर दी है,
अब तुम इसे आसानी से बन्द कर सकती हो,
और मेरे चले जाने के बाद,
बिना किसी मुसीबत के,
तुम आराम से सो सकती हो ।

ndhebar
20-01-2012, 05:04 PM
आज फिर से क्या हुआ की आँखें मेरी नम है,
ठहर जा ऐ अश्क मेरे , और भी तो गम हैं,|

मुन्तजिर मेरा भी है, मेरे सूने घर में,
एक घडी है दीवार पर जिसको देखते हम हैं |

उम्र मेरी लग जाए ना,एक गुत्थी को सुलझाने में,
छोटी है ज़िन्दगी मेरी , और कितने पेचोखम हैं |

मज़ा क्या जीने का है, गर पा लिया मोहब्बत,
आशिक तो आशिकी में लेते सौ जनम हैं|

कोई जबाब आता नहीं, अब सवाल-ए-वस्ल का ,
थोड़े से मशरूफ हम हैं, थोड़े मेरे सनम हैं|

खौफ से कातिल के वो मर गया जागते हुए,
जिंदा है अब तक वही ,जो सोते हरदम हैं |

उम्र लग जाती है 'मियां' प्यार के इज़हार में,
आज हमने कह दिया ,क्या इतने बेशरम हैं |

ndhebar
05-05-2012, 12:01 PM
ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक
चाँदनी चार कदम, धूप चली मीलों तक

प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक

घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक

माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक

मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक

हम तुम्हारे हैं, उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक

Suresh Kumar 'Saurabh'
05-05-2012, 12:33 PM
बहुत अच्छा लगा !

ndhebar
24-10-2012, 10:36 AM
तेरी यादें


बहुत देर से
कोशिश कर रहा हुं
आंखों में समेटने की
और बहुत देर से
हारता जा रहा हुं
जाने कैसे
पलको से गिर ही जाते हैं
मेरे आसुं
शायद ये भी
तेरी यादों की तरह हैं
न चाहते हुए भी आ ही जाते हैं

Dark Saint Alaick
24-10-2012, 12:06 PM
मधुर रस के ये छींटे और बौछारें मन को बहुत भाते हैं ! इस मनभावन प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार !:clapping:

ndhebar
26-10-2012, 02:36 PM
आर या पार

कामनाओं का संसार
भ्रांतियों से सरोबार
मरीचिका में उदित
अस्तांचल अन्धकार

दिशाओं से गुंजित
लोलुपता की झंकार
मानवता की मृत्यु

स्वार्थ की पैदावार

यहीं लेखा यहीं जोखा
आज नही तो कल, यहीं
फैसला , आर या पार |

ndhebar
29-10-2012, 12:43 PM
अभी तो भोर है सफर की... (http://www.nipunpandey.com/2008/12/blog-post.html)


आज कुछ अलग है,
पहले भी हलचल थी
पर दबा दी गई|
शायद वो क्षणिक ही थी,
पर आज कुछ अलग है,
वेदना तीव्र है,
कुछ भय सा भी है,
कुछ बेबसी है,
मन क्षुब्ध सा है,
धमनियो में विद्रोह है,
कुचल रहा हूँ ,
फ़िर भी कहीं
निराशा का स्वर है,
पर अभी तो भोर है सफर की ,
फ़िर ऐसा क्यों है ......

ndhebar
29-10-2012, 12:45 PM
मन में ऊहापोह है,
विचारो में उथल-पुथल है ,
भावनाओ का सागर उफान पर है,
भय है कहीं
किनारों को काट न दे,
मेरा कुछ अंश
बह न जाये,
मैं, मैं न रह जाऊँ,
फ़िर कहीं
मैं अकिंचन
इन सब की तरह
निर्जीव न बन जाऊँ,
और अपनी तरह
लोगों के चेत को बस
जाते हुए देखता न रह जाऊँ|

ndhebar
29-10-2012, 12:45 PM
नहीं बनना मुझे निर्जीव,
नहीं खोना है मुझे
मेरे किसी अंश को,
विद्रोह है कहीं
पर अब नहीं दबाऊंगा उसे ,
इस मोड़ पर आकर
फ़िर कुचलना नहीं है इसे,
अब नहीं भागूँगा इससे,
अब कुछ करना ही होगा,
प्रश्न को हल करना ही होगा|

ndhebar
29-10-2012, 12:46 PM
आज टाला गर इसे
बात ख़त्म न होगी,
फ़िर नासूर बन कर उभरेगी ,
आज विचार करना ही होगा ,
सही और ग़लत का,
अंतर में समाना ही होगा,
प्रश्न का उत्तर
खोजना ही होगा ,
पूर्ण हल
जाने बिना जाने न दूँगा,
फ़िर इसे आने न दूँगा.......
इस सफर की साँझ तक
फ़िर इसे आने न दूँगा.......
इस सफर की सांझ तक ........

jai_bhardwaj
24-11-2012, 10:10 PM
निशांत भाई, भावपूर्ण प्रविष्टियों के लिए मैं आपका आभारी हूँ।

jai_bhardwaj
24-11-2012, 10:11 PM
तुम्हारी अधखुली पलकों में, यह कैसी मदिरा रहती है
तुम्हारे अधखिले अधरों में, क्यों गुलाबी धारा बहती है
तुम्हारे 'जय' कपोलों के, उभारों की सतह स्निग्ध है कितनी
तुम्हारी विस्तृत बाहें क्यों, सुखद सी कारा लगती हैं

-- कारा = जेल

jai_bhardwaj
24-11-2012, 10:12 PM
तुम्हारे नैनों की जिह्वा, मुझे क्यों चाटती रहती
हृदय के बंधनों को वह, सहज ही काटती रहती
भयंकर ज्वार लाती 'जय', शिराओं में लहू में भी
प्रिये तुम दृष्टि तो फेरो, मुझे यह मारती रहती

jai_bhardwaj
24-11-2012, 10:13 PM
मुझे अपमान के बिछौने से, तुमने ही जगाया था
मेरे अभिमान के पर्वत, को तुमने ही उठाया था
साँसों के बवंडर में, फंसे होने पे 'जय' तुमने
मगर मुझको अगन-पथ पर निरंतर क्यों चलाया था

jai_bhardwaj
24-11-2012, 10:14 PM
आपका ललाट है या विन्ध्य का विशाल नग
आपके कपोल हैं या शशि-रवि आकाश के
आपके नयन हैं या मदिर झील हैं कोई
आपकी नासिका है, या मनोहारी रास्ते

आपके अधर ज्यों, सुधा-कलश हों युगल
आपके दन्त ज्यों स्तम्भ हों प्रकाश के
आपकी ग्रीवा से झलकते हैं जल-बिंदु यों
जैसे ये दिखते हैं, पारदर्शी गिलास से

कुचों की कठोरता में, कैसी स्निग्धता
हीरे में जैसे कि, दुग्ध का निवास है
चपल शेरनी सी, कटि का प्रकार 'जय'
आपका स्वरूप है, भरा वन-विलास से

jai_bhardwaj
24-11-2012, 10:20 PM
जय बाबू , यात्रा जारी है न ?
वर्ष भर बाद टिप्पणी के लिए खेद है मुझे मान्यवर अलैक जी। आपकी प्रविष्टि से मैं उपकृत हुआ हूँ मित्र। हार्दिक धन्यवाद आपको।

jai_bhardwaj
24-11-2012, 10:48 PM
मुझे भी साथ ले ले जो, जगत में अब नहीं कोई
विपद की इस घड़ी में भी, मेरी आँखें नहीं रोयी

मैं नदिया हूँ बहा करती, निरंतर और द्रुत गति से
मेरी धारा है अति पावन, हुयी क्या भूल है मुझ से
मेरे तट पर नहीं आते, पशु-पक्षी-पथिक प्यासे
बिना उपयोग के जीवन, नदी का है भला कोई
विपद की इस घड़ी में भी, मेरी आँखें नहीं रोयी

मैं तरुवर हूँ मरुस्थल का, मीठे फल बड़े प्यारे
घने पत्ते हैं शीतालकर, मगर नीरस वा बेचारे
दशा पर मेरी हँसते हैं, ये चन्दा सूरज वा तारे
अकेला हूँ मैं निर्जन में, नहीं सानिध्य में कोई
विपद की इस घड़ी में भी, मेरी आँखें नहीं रोयी

मैं बदली हूँ, बरस करके, 'जय' नीरसता मिटा देती
आँचल में भरा अमृत, मैं धरती पर लुटा देती
कृषक मुझको न देखें अब, भले सूखे फसल, खेती
बरसना तो रुदन है अब, नहीं जब मूल्य हो कोई
विपद की इस घड़ी में भी, मेरी आँखें नहीं रोयी

Sameerchand
25-11-2012, 07:22 AM
बहुत बढ़िया जय भाई। :hello:

abhisays
26-11-2012, 08:37 AM
जय जी आपको फिर से फोरम पर देख कर अच्छा लगा।

ndhebar
26-11-2012, 10:55 AM
जय भैया
बहुत ख़ुशी हुई पुनः आपको सक्रीय देखकर और आपकी रचना पढ़कर

ndhebar
26-11-2012, 10:57 AM
निशांत भाई, भावपूर्ण प्रविष्टियों के लिए मैं आपका आभारी हूँ।
आपके बिना ये सूत्र मृतप्राय था
अब इसमें जान आ गयी

Sikandar_Khan
26-11-2012, 12:38 PM
जय भइया ! आपको फोरम पर देखकर बहुत खुशी हुई ! उम्मीद है अब आपसे फोरम पर मुलाकात होती रहेगी |

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 04:36 PM
कौन हतभाग्य ऐसा, न चाहे साथ चलना आपके
असंख्य हैं जिनके लिए, सौभाग्य दर्शन आपके.
कामना है, इन दृगों को लेखनी यह नित दिखे
ज्ञान गंगा के लिए हम नित निहारें सूत्र आपके. :hello:

bhavna singh
26-11-2012, 04:59 PM
जय जी ......फोरम पर पुन: सक्रीय होने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद ........! :gm::gm:

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:40 PM
बहुत बढ़िया जय भाई। :hello:

जय जी आपको फिर से फोरम पर देख कर अच्छा लगा।

जय भैया
बहुत ख़ुशी हुई पुनः आपको सक्रीय देखकर और आपकी रचना पढ़कर

जय भइया ! आपको फोरम पर देखकर बहुत खुशी हुई ! उम्मीद है अब आपसे फोरम पर मुलाकात होती रहेगी |

कौन हतभाग्य ऐसा, न चाहे साथ चलना आपके
असंख्य हैं जिनके लिए, सौभाग्य दर्शन आपके.
कामना है, इन दृगों को लेखनी यह नित दिखे
ज्ञान गंगा के लिए हम नित निहारें सूत्र आपके. :hello:

जय जी ......फोरम पर पुन: सक्रीय होने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद ........! :gm::gm:

आप सभी स्नेहिल प्रतिक्रियाओं से मैं निःशब्द हो गया हूँ मित्रों। आप सभी का हार्दिक आभार। धन्यवाद।

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:41 PM
जीवन पथ पर ठहराव अनेकों, अनचाहे 'जय' आते हैं।
प्रबल धैर्य और चपल बुद्धि से, हम आगे बढ़ जाते हैं।।

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:41 PM
देखा एक दृश्य अलबेला निर्जन श्मशान के ढाल में
काक-मांस को पका रही, चांडालिन मनुज कपाल में
बना लिया था शव अवयवों को वैकल्पित ईंधन का रूप
सहसा कौंधा प्रश्न एक फिर मेरे वैचारिक जाल में

'हे चंडालिन ! परम अधम तू, यह स्थल भी अवशिष्ट है
परम हेय है पात्र तुम्हारा, काक-मांस भी अति निकृष्ट है
शव के अवयव बने हैं ईंधन, फिर भी पात्र ढका क्यों है?
इन अधमों को भी अधम बना दे, ऐसा क्या अपविष्ट हैं?'

वह चंडालिन हँसी और फिर, बोली मुझसे, हे 'जय' जी
सत्य कहा मैं अधम नारि हूँ, यह स्थल भी त्याज्य सही
ईंधन, पात्र, अधम है भोजन, फिर भी ढका पात्र मैंने
कोई राष्ट्र-द्रोही आ जाए, पड़ ना जाए पद-धूलि कहीं।

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:42 PM
हम लघु समझ कर, उन्हें पुचकारते रहे
वे दीन हीन समझ, हमको डाँटते रहे
विडम्बना तो देखिये, जो दैवयोग भी है 'जय'
हम उससे दोगुना उठे, वे जितना गाड़ते रहे

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:42 PM
हमने हमारे ख्वाबो को तहजीब दिया है
अपने से पहले यारों को तरजीह दिया है
'जय' दीवाना कहता रहा हमको ज़माना
हमने लहू से रिश्तों को सींच दिया है

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:43 PM
मैं अमलताश सा बना रहा, तुम निशिगंधा सी महक गयी
द्विविधावश मैं मूक रहा, तुम मुक्त-कंठ से चहक गयीं


क्या बहती धाराओं में, कल कल संगीत नहीं है
मिलने पर गले लगाने की, अब वह रीति नहीं है
सप्तपदी में बंधे पुरुष, क्या अब परिणीत नहीं हैं
इस व्यावसायिक जग में, क्या रिश्ते अभिनीत नहीं है

मैं चिंतन-पथ पर ठहर गया, तुम स्वप्निल राहों में बहक गयी
मैं अमलताश सा बना रहा, तुम निशिगंधा सी महक गयी


उच्च शिखर की चोटी से, अब हमें उतरना ही होगा
आगत जीवन के लिए हमें, संकल्प नए करना ही होगा
भावनाओं की ऊंची लहरों से, हमको लड़ना भी होगा
अब प्रचंड दैनिक तापों को, हमें शमन करना ही होगा

मैं झंझावातों में उलझ गया, कुछ दिन रहते तुम समझ गयी
मैं अमलताश सा बना रहा, तुम निशिगंधा सी महक गयी



तुम जब भी मेरे पास रहो, क्यों लगे कि हम निर्जन में हैं
जब जीवन हम जीना चाहें, क्यों लगे कि हम उलझन में हैं
सम्मुख भी हम दृष्टि ना डालें, क्या दोष युगल नयनन में है
क्यों शब्द सभी 'जय' अकथ हुए, क्यों गतिरोध कथन में है

मन जीवन की डोर सहेज रहा, क्यों पीड़ा बन तुम कसक गयी
मैं अमलताश सा बना रहा, तुम निशिगंधा सी महक गयी

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:43 PM
ये सोचा था ज़माने की निगाहों से बचा लूँ मैं
तुम्हे नज़दीक पाकर मैं, जमाने से छिपा लूँ मैं
ये मेरा था वहम खालिस, कि 'जय' तुम भोले भाले हो
ज़माने को नचाया है, खुदारा अब नचा हूँ मैं

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:43 PM
हमारे गीत की पंक्ति कभी तो गुनगुनाओगे
मेरा वादा है, पढ़ कर तुम स्वयं ही मुस्कुराओगे
रहोगे दूर तुम कितना, अभी यह देखना है शेष
हृदय 'जय' कहता है मुझसे, अभी तुम पास आओगे

jai_bhardwaj
26-11-2012, 10:45 PM
मंच-नियंत्रकों से अनुरोध है कि यदि प्रविष्टियों में पुनरावृत्ति हो रही हो तो कृपया बिना हिचक इन्हें मिटा सकते हैं। मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। धन्यवाद।

sombirnaamdev
26-11-2012, 10:51 PM
दिन हुआ है तो रात भी होगी,
हो मत उदास कभी तो बात भी होगी,
इतने प्यार से दोस्ती की है खुदा की कसम
जिंदगी रही तो मुलाकात भी होगी.

कोशिश कीजिए हमें याद करने की
लम्हे तो अपने आप ही मिल जायेंगे
तमन्ना कीजिए हमें मिलने की
बहाने तो अपने आप ही मिल जायेंगे .

महक दोस्ती की इश्क से कम नहीं होती
इश्क से ज़िन्दगी ख़तम नहीं होती
अगर साथ हो ज़िन्दगी में अच्छे दोस्त का
तो ज़िन्दगी जन्नत से कम नहीं होती

सितारों के बीच से चुराया है आपको
दिल से अपना दोस्त बनाया है आपको
इस दिल का ख्याल रखना
nice one thank you very much keep it up :bravo:

jai_bhardwaj
30-11-2012, 11:53 PM
भूले बिसरे मित्र 'अमित तिवारी' के लिए कुछ कालखण्ड पहले लयबद्ध किये गए कुछ शब्द .............

अटल नहीं तुम प्रबल बचन हो
प्रबल नहीं तुम सजल नयन हो

सजल नयन या तीव्र सरित हो
तीव्र सरित या हृदय व्यथित हो
व्यथित नहीं तुम अचल गगन हो
अटल नहीं तुम प्रबल बचन हो
प्रबल नहीं तुम सजल नयन हो


गगन नहीं तुम हरित धरा हो
धरा नहीं तुम स्वर्ण खरा हो
स्वर्ण नहीं तुम ज्ञान-गहन हो
अटल नहीं तुम प्रबल बचन हो
प्रबल नहीं तुम सजल नयन हो


ज्ञान नहीं उज्ज्वल प्रकाश हो
नहीं क्वचित तुम उच्छ्वास हो
अरे नहीं तुम मुक्त पवन हो
अटल नहीं तुम प्रबल बचन हो
प्रबल नहीं तुम सजल नयन हो


पवन नहीं तुम कार्य-त्रसित हो
त्रसित नहीं तुम नेह अमित हो
अमित नहीं 'जय' महा अटल हो
अटल नहीं तुम प्रबल बचन हो
प्रबल नहीं तुम सजल नयन हो

jai_bhardwaj
02-12-2012, 12:04 AM
======= मंच के प्रति कुछ पंक्तियाँ ==========

कई प्रकोष्ठों में अनुशासित, शत-शत सूत्रों से है बंधा हुआ
मोहक, मादक और ज्ञानार्जक, लेखों-चित्रों से विंधा हुआ
पर्यटक सहस्त्रों निश-दिन के, पञ्च-सहस्त्र सहभागी हैं
भिन्न भिन्न परिदृश्य संजोये, कई देशों से गुंथा हुआ

अनजाने रिश्तों का है, कैसा यह पहचाना नगर
बिन चेहरे के भी आती हैं, कैसी कैसी भाव लहर
आओ, ठहरो, देखो, तब कुछ शब्द-कुण्ड में हवन करें
शुद्ध सौम्य संबंधों की फिर, मिल जायेगी सुखद डगर

मिल जाते हैं सुहृद अनेकों, अग्रज और अनुज मिलते हैं
और सलोनी भगिनी मिलती, तब नेह-कँवल खिलते हैं
प्रेम पुष्प खिलते रहते हैं, हिंदी मंच के आँगन में
मिलते कई युवा सूरज जो, भरी दोपहर में ढलते हैं

मिल सकता है यहाँ बहुत कुछ, यदि मानव-मन निर्मल हो
और दुखी हो जाता है मन, जब हुआ स्वयं से छल हो
हृदय सतत खोजा करता है, मिले असीमित नेह जहाँ
किन्तु परीक्षित रिश्ते रहते , ठोस धरा पर रहें अचल जो

आओ मित्रों! हम सब मिलकर, नया नया कुछ सृजित करें
पावस ऋतु के मेघों जैसे, इस हिंदी मंच को हरित करें
नए दृश्य परिदृश्य उकेरें, नयी धारणा को बल दें
नव-पथिकों के लिए आओ 'जय', नई वीथिका रचित करें

jai_bhardwaj
03-12-2012, 10:46 PM
बंदिश की गठरियों को, ज़रा तुम खोल कर देखो :cheers:
रिवाजों की किताबों को, ज़रा तुम खोल कर देखो:hug:
भले नाज़ुक इरादे हों, उन्हें 'जय' तोल कर देखो:thinking:
जमीं को आसमां चूमे, अगर तुम बोल कर देखो :thumbup:

jai_bhardwaj
03-12-2012, 10:47 PM
हमारे नक्श ऐसे 'जय', जिन्हें कोई नहीं चाहे :devil:
हमारे कदम ऐसे हैं, जो खोजें नित नई राहें :banalama:
हमारी साँसें बेपरवाह, भले मिलती रहें आहें :laughing:
मेरे पैरों तले खुशियाँ, गले में जीत की बाहें:gm:

jai_bhardwaj
03-12-2012, 10:49 PM
ये देखो रूप दुनिया का, बड़ा ही खोखलापन है:think:
पलक में सांप पाले हैं, यही तो दोगलापन है :help:
लाज से आँख ना झुकती, काया का प्रदर्शन है :iagree:
परायों का सहारा 'जय', अपनों से पलायन है :egyptian:

jai_bhardwaj
03-12-2012, 10:50 PM
भोर की किरण और तुम्हारी याद
क्यों आती है साथ साथ ।।

तुम्हारे माथे की बिंदी की भाँति
उगता हुआ सूरज
न जाने क्यों मैं देखता रहता हूँ
उसे तब तक ...
एकटक ...
तुम्हारे मधुर स्पर्श का
आभास दिलाती हुयी सुबह की
कोमल किरणें जब तक सहला न दें
मेरा माथा, मेरी उंगलियाँ और हाथ ।।
भोर की किरण और तुम्हारी याद
क्यों आती है साथ साथ ।।

इन्ही मादक स्मृतियों में निकल जाता है दिन
और आ जाती है सांझ
फिर घनी हो जाती है तुम्हारी याद
तब डसने लगता है एकाकीपन का
विषैला नाग ............
बिस्तर पर बैठा हुआ मैं
भागता हूँ पूरे कमरे में ...
चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ ..
निःशब्द बिना आवाज ....
तुम बहुत दूर चली गयी हो 'जय'
अब कभी वापस न आने के लिए
प्रिये! अब बुला लो मुझे भी अपने पास ।।
भोर की किरण और तुम्हारी याद
क्यों आती है साथ साथ ।।

jai_bhardwaj
03-12-2012, 10:51 PM
एक हल्की-फुल्की हास्य रचना ...............


बड़ी सुहानी रात कटी
बिजली महरानी नहीं गई ।
हम सुध-बुध खो कर सोये रहे
जैसे सब राई बेंच दई ।।

सपनों में लम्बी रेल चली,
जंगल,नदिया पुल, शहर, गली
इक देवी से जब दृष्टि मिली,
हमरी दुनिया सब बिसर गयी।
बड़ी सुहानी रात कटी
बिजली महरानी नहीं गई ।।

पहले तो देखा टुकुर-टुकुर
फिर शुरू हो गयी खुसुर-फुसुर
सीने में हो गयी धुकुर-पुकुर
जब देवी ने अँगडाई लई।
बड़ी सुहानी रात कटी
बिजली महरानी नहीं गई ।।

दोनों हाथों से दाब लिया
सीने को अपने चाप लिया
पलकों से आँखें ढाँप लिया
जब जब देवी मुसकाय गयी।
बड़ी सुहानी रात कटी
बिजली महरानी नहीं गई ।।

हँस कर के कलियाँ खिला गयी
कुछ कह कर कोयल बुला गयी
हम तो धन्य हुए ही हैं,
पुरखे भी अपने तार गयी।
बड़ी सुहानी रात कटी
बिजली महरानी नहीं गई ।।

वह जाने को उठ खड़ी हुई
दिल के अन्दर भड़भड़ी हुई
साँसे भी उखड़ी चढी हुई
जीते जी हमको मार गयी।
बड़ी सुहानी रात कटी
बिजली महरानी नहीं गई ।

तभी शहद से डूबी बोली,
मेरे कानों में 'जय' डोली
मेरी प्राणप्रिया थी भोली
थोथे सपने से उबार गयी।
बड़ी सुहानी रात कटी
बिजली महरानी नहीं गई ।।
.

Dark Saint Alaick
03-12-2012, 11:17 PM
जय भाई, मुझे क्षमा करें यह लिखने के लिए कि मैं अब तक समझता था कि जय भाई यों ही तुकबंदी करते हैं, लेकिन अब कहना पड़ेगा कि निस्संदेह आप एक बड़े कवि हैं और भारत का काव्य इतिहास आपको अवश्य याद रखेगा। मैं अगर यह नहीं लिखता, तो मेरी प्रतिक्रिया ईमानदार नहीं होती और संभवतः (जहां तक मैं आपके स्वभाव को जानता हूं) आप मुझ पर सहज विश्वास भी नहीं करते। किन्तु सच के लिए आग से गुजरने का रास्ता ही उचित है, अतः अपने हृदय पर पत्थर रख कर मैंने एक कटु टिप्पणी शुरुआत में कर दी। वाकई मेरे मनोभाव अब तक यही थे, किन्तु आज मैं तहे-दिल से आपको सलाम कर रहा हूं। यह स्वीकार करते हुए मुझे अपार हर्ष है कि जो अनुपम सृजन, जो अद्भुत भाव-भूमि, जो अनमोल बिम्व और विन्यास यहां नज़र आ रहा है, वह अनेक स्वनामधन्य कवियों में भी विरल है। मैं आपके सम्मुख नतमस्तक हूं। अब यह फोरम के सदस्यों पर है कि वे आपके उद्गारों के अनुसार आचरण कब से शुरू करते हैं, लेकिन मेरा वादा है कि मेरा आचरण आपको सदा संतुष्ट रखेगा। जाने-अनजाने मुझसे कोई भूल हुई हो, तो आपसे हृदय से क्षमाप्रार्थी हूं, सादर आभार। ('मंच के प्रति ... ' के सन्दर्भ में।)

Sikandar_Khan
04-12-2012, 05:20 PM
======= मंच के प्रति कुछ पंक्तियाँ ==========

कई प्रकोष्ठों में अनुशासित, शत-शत सूत्रों से है बंधा हुआ
मोहक, मादक और ज्ञानार्जक, लेखों-चित्रों से विंधा हुआ
पर्यटक सहस्त्रों निश-दिन के, पञ्च-सहस्त्र सहभागी हैं
भिन्न भिन्न परिदृश्य संजोये, कई देशों से गुंथा हुआ

अनजाने रिश्तों का है, कैसा यह पहचाना नगर
बिन चेहरे के भी आती हैं, कैसी कैसी भाव लहर
आओ, ठहरो, देखो, तब कुछ शब्द-कुण्ड में हवन करें
शुद्ध सौम्य संबंधों की फिर, मिल जायेगी सुखद डगर

मिल जाते हैं सुहृद अनेकों, अग्रज और अनुज मिलते हैं
और सलोनी भगिनी मिलती, तब नेह-कँवल खिलते हैं
प्रेम पुष्प खिलते रहते हैं, हिंदी मंच के आँगन में
मिलते कई युवा सूरज जो, भरी दोपहर में ढलते हैं

मिल सकता है यहाँ बहुत कुछ, यदि मानव-मन निर्मल हो
और दुखी हो जाता है मन, जब हुआ स्वयं से छल हो
हृदय सतत खोजा करता है, मिले असीमित नेह जहाँ
किन्तु परीक्षित रिश्ते रहते , ठोस धरा पर रहें अचल जो

आओ मित्रों! हम सब मिलकर, नया नया कुछ सृजित करें
पावस ऋतु के मेघों जैसे, इस हिंदी मंच को हरित करें
नए दृश्य परिदृश्य उकेरें, नयी धारणा को बल दें
नव-पथिकों के लिए आओ 'जय', नई वीथिका रचित करें:bravo::bravo:
जय भैय्या ! मंच के प्रति समर्पित इस रचना को फोरम पर पेश करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद |

jai_bhardwaj
04-12-2012, 11:55 PM
दीप जलें तो दिल जलता है, रात ढले तो नयन हैं रोते ।
स्मृतियों के घने मेघ तब, मेरे अंतर्मन को भिगोते।।

मैं शिलाखंड सा मूढमति, तुम अविरल प्रपात सी आन मिली।
सानिध्य मिला जब मुझे तुम्हारा, कालिमा मेरी सब बह निकली ।।
मैं शुभ्र धवल और नवल हुआ, अथवा अपराध विहीन हुआ,
कृमशः जब पत्थर क्षरित हुआ, तब मूर्ति ढली उजली उजली ।।
वह तुम ही तो जिसके कारण, पत्थर को सब हैं नत होते।
दीप जलें तो दिल जलता है, रात ढले तो नयन हैं रोते ।।

तुम अमरबेल सी मृदु लतिका, क्यों कीकर ही का चयन किया ।
उसके तीक्ष्ण-दीर्घ काँटों को, क्यों कोमल तन पर सहन किया।।
यद्यपि तुम हो बिना मूल की, किन्तु स्वयं आधार बन गयीं,
मुझे सहेजा और सवाँरा, फिर सुखद धवल नव सृजन किया।।
वह तुम ही तो जिसके कारण, अब काँटे भी सम्मानित होते।
दीप जलें तो दिल जलता है, रात ढले तो नयन हैं रोते ।।

कुछ ही मधुमास व्यतीत हुए, तुम बनी हमारी मर्यादा।
जीवन था कितना सौम्य, सरल, सरस, सजीवन सीधा-सादा।।
भृकुटि तानी फिर क्रूर काल की, ध्वस्त हो गए सारे सपने,
नींव हिल गयी भव्य-भवन की, शेष रहा 'जय' खंडहर आधा।।
कभी क्षितिज तक भरी उड़ाने, आज उदधि में खाएं गोते।
स्मृतियों के घने मेघ अब, मेरे अंतर्मन को भिगोते।।
दीप जलें तो दिल जलता है, रात ढले तो नयन हैं रोते ।।

jai_bhardwaj
04-12-2012, 11:57 PM
जब हो प्रतिभा परिपूर्ण, पलायन क्यों करते हो?
जीवन है संघर्ष सतत, तुम सब क्यों डरते हो?

क्षुधापूर्ति के लिए तुम्हे, कुछ अन्न जुटाना होगा।
तनावरण के लिए स्वयं ही, वस्त्र जुटाना होगा ।।
अन्न-वस्त्र के साथ साथ ही, सुन लो मेरी बात,
शीत-ताप से बचने को, एक भवन बनाना होगा।।
जीवन की इन आवश्यकताओं से, तुम क्यों हटते हो?
जब हो प्रतिभा परिपूर्ण, पलायन क्यों करते हो?

तुम रुको नहीं, बढ़ चलो, सतत बढ़ते ही जाओ ।
सिन्धु-शैल-सरिता पथ में हों, तुम चढ़ते जाओ ।।
मत तोड़ो डोर प्रयासों की, हो जाओ क्यों न असफल,
सावधान हो, नई विधा से, कार्य करते जाओ।।
अकर्मण्य मत बनो, स्वेद से क्यों डरते हो?
जब हो प्रतिभा परिपूर्ण, पलायन क्यों करते हो?

निज बाहों को फैला दो, तुमको झितिज मिलेगा।
पग दो पग तो तुम चलो, तुम्हारा लक्ष्य मिलेगा ।।
अरे ! पुष्प की कामना करने वाले मानव!
आज पौध तो रोपो, कल को पुष्प खिलेगा।।
अंक-पाश में भरो सफलता, 'जय' क्यों डरते हो?
जब हो प्रतिभा परिपूर्ण, पलायन क्यों करते हो?
जीवन है संघर्ष सतत, तुम सब क्यों डरते हो?

jai_bhardwaj
05-12-2012, 12:21 AM
जय भाई, मुझे क्षमा करें यह लिखने के लिए कि मैं अब तक समझता था कि जय भाई यों ही तुकबंदी करते हैं, लेकिन अब कहना पड़ेगा कि निस्संदेह आप एक बड़े कवि हैं और भारत का काव्य इतिहास आपको अवश्य याद रखेगा। मैं अगर यह नहीं लिखता, तो मेरी प्रतिक्रिया ईमानदार नहीं होती और संभवतः (जहां तक मैं आपके स्वभाव को जानता हूं) आप मुझ पर सहज विश्वास भी नहीं करते। किन्तु सच के लिए आग से गुजरने का रास्ता ही उचित है, अतः अपने हृदय पर पत्थर रख कर मैंने एक कटु टिप्पणी शुरुआत में कर दी। वाकई मेरे मनोभाव अब तक यही थे, किन्तु आज मैं तहे-दिल से आपको सलाम कर रहा हूं। यह स्वीकार करते हुए मुझे अपार हर्ष है कि जो अनुपम सृजन, जो अद्भुत भाव-भूमि, जो अनमोल बिम्व और विन्यास यहां नज़र आ रहा है, वह अनेक स्वनामधन्य कवियों में भी विरल है। मैं आपके सम्मुख नतमस्तक हूं। अब यह फोरम के सदस्यों पर है कि वे आपके उद्गारों के अनुसार आचरण कब से शुरू करते हैं, लेकिन मेरा वादा है कि मेरा आचरण आपको सदा संतुष्ट रखेगा। जाने-अनजाने मुझसे कोई भूल हुई हो, तो आपसे हृदय से क्षमाप्रार्थी हूं, सादर आभार। ('मंच के प्रति ... ' के सन्दर्भ में।)


मित्र अलैक, नमस्कार।
मैं आपकी इस स्पष्ट एवं एवं भावपूर्ण प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ। मेरे लिए अपना असीम सम्मान और अतुलित आदर प्रकट करते हुए कुछ अत्यंत भारी-भरकम विशेषणों का प्रयोग किया है। कुछ अक्षरों में मात्राएँ चढ़ा कर के मैं शब्दों में परिवर्तित भर कर देता हूँ .... मुझे नहीं पता कि इन शाब्दिक पंक्तियों में भाव और सजीवता है अथवा नहीं। मित्र, मेरे विचार से तुकबंदी बुरी नहीं होती हैक्योंकि किसी भी कवि की पहली रचना अधिकतर तुकबंदी के रूप में ही प्रकट होती है। भावपूर्ण और जीवंत शब्दों की खोज तो मूर्धन्य व्यक्ति आजीवन करते रहते हैं। संदर्भित कविता का मूल्य तो तभी है जब वह मंच के सदस्यों को प्रेरणा दे सके और मंच में रचनात्मकता में वृद्धि कर सके।
मैं आपका अत्यधिक सम्मान करता रहा हूँ क्योंकि मुझे साहित्य-प्रेमी पसंद हैं। मैं अपेक्षा करता हूँ कि भविष्य में आप मेरी कदा-संभाव्य त्रुटियों की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित कराते रहेंगे ताकि मैं इन्हें सम्पादित कर सकूँ। धन्यवाद बन्धु।

:bravo::bravo:
जय भैय्या ! मंच के प्रति समर्पित इस रचना को फोरम पर पेश करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद |


सिकंदर बन्धु, मैं आपकी टिप्पणी का सम्मान करता हूँ। धन्यवाद।

aksh
06-12-2012, 06:01 PM
जय भैया की लिखी हुयी एक एक कविता नगीना है....!!!:hug::hug:

rajnish manga
06-12-2012, 10:29 PM
जय भाई, मुझे क्षमा करें यह लिखने के लिए कि मैं अब तक समझता था कि जय भाई यों ही तुकबंदी करते हैं, लेकिन अब कहना पड़ेगा कि निस्संदेह आप एक बड़े कवि हैं और भारत का काव्य इतिहास आपको अवश्य याद रखेगा। मैं अगर यह नहीं लिखता, तो मेरी प्रतिक्रिया ईमानदार नहीं होती और संभवतः (जहां तक मैं आपके स्वभाव को जानता हूं) आप मुझ पर सहज विश्वास भी नहीं करते। किन्तु सच के लिए आग से गुजरने का रास्ता ही उचित है, अतः अपने हृदय पर पत्थर रख कर मैंने एक कटु टिप्पणी शुरुआत में कर दी। वाकई मेरे मनोभाव अब तक यही थे, किन्तु आज मैं तहे-दिल से आपको सलाम कर रहा हूं। यह स्वीकार करते हुए मुझे अपार हर्ष है कि जो अनुपम सृजन, जो अद्भुत भाव-भूमि, जो अनमोल बिम्व और विन्यास यहां नज़र आ रहा है, वह अनेक स्वनामधन्य कवियों में भी विरल है। मैं आपके सम्मुख नतमस्तक हूं। अब यह फोरम के सदस्यों पर है कि वे आपके उद्गारों के अनुसार आचरण कब से शुरू करते हैं, लेकिन मेरा वादा है कि मेरा आचरण आपको सदा संतुष्ट रखेगा। जाने-अनजाने मुझसे कोई भूल हुई हो, तो आपसे हृदय से क्षमाप्रार्थी हूं, सादर आभार। ('मंच के प्रति ... ' के सन्दर्भ में।)

:thumbup:
जय भगवान जी, आपके सृजन में कितनी अर्थवत्ता, गतिशीलता और गहराई है, यह तो सेंट अलैक जी के उद्गार पढ़ते ही समझ में आ जाता है. उनके द्वारा अंकित पृष्ठभूमि और वर्तमान प्रतिक्रिया अत्यन्त भावुकतापूर्ण है. यह आपकी रचनाओं की मेरिट का एक प्रमाण है. सहृदय पाठक को सहज ही ज्ञात हो जाता है कि आपकी रचनायें कितने धीर, गंभीर व परिकक्व विचारों पर आधारित हैं जो पाठक को अनिर्वचनीय आल्हाद देने वाली हैं. हमारा धन्यवाद और बधाई स्वीकार करें.

jai_bhardwaj
10-12-2012, 10:56 PM
जय भैया की लिखी हुयी एक एक कविता नगीना है....!!!:hug::hug:

:thumbup:
जय भगवान जी, आपके सृजन में कितनी अर्थवत्ता, गतिशीलता और गहराई है, यह तो सेंट अलैक जी के उद्गार पढ़ते ही समझ में आ जाता है. उनके द्वारा अंकित पृष्ठभूमि और वर्तमान प्रतिक्रिया अत्यन्त भावुकतापूर्ण है. यह आपकी रचनाओं की मेरिट का एक प्रमाण है. सहृदय पाठक को सहज ही ज्ञात हो जाता है कि आपकी रचनायें कितने धीर, गंभीर व परिकक्व विचारों पर आधारित हैं जो पाठक को अनिर्वचनीय आल्हाद देने वाली हैं. हमारा धन्यवाद और बधाई स्वीकार करें.

अनिल भाई और रजनीश भाई,
आप दोनों के उद्गारों से मैं अभिभूत हो गया हूँ। हृदय गदगद और कंठ अवरुद्ध ।
मैं आप दोनों का हृदय से आभारी हूँ।
धन्यवाद।

प्रसंगवश:- रजनीश जी, आपके हृदयोद्गार में एक लेखकीय त्रुटि है जो कदाचित मुझे उपहासित सा कर रही है। त्रुटिवश ही सही किन्तु इतना उच्च स्थान माता-पिता-गुरु के अतिरिक्त किसी अन्य के लिए हो ही नहीं सकता है।

jai_bhardwaj
10-12-2012, 10:57 PM
भाग रहा हूँ सूत्र सूत्र में, किन्तु नहीं मैं रुक पाता ।
जबड़ा फैलाए दौड़ रहा है, मंच का भारी सन्नाटा ।।

नहीं दिखे मधुमास मंच पर, नहीं दिखे कोयल की धुन,
तनी मुट्ठियाँ दिखें चतुर्दिक, गुबरैले करते गुन-गुन ।
गुबरैले करते हैं गुनगुन, दिखता है मौसम पतझड़ सा,
नहीं समझ में आता है कि हुआ किधर कुछ गड़बड़ सा।।
अँधेरे से भरी रात में, दुर्गम पथ समझ न आता ।
हम में से है कौन प्रणेता, जो प्राण फूंकने आता ।।
जबड़ा फैलाए दौड़ रहा है, मंच का भारी सन्नाटा ।।

चमके तारे कई भूमि पर, कई व्योम पर लुप्त हुए,
प्रखर हुयी थी मन की गंगा, गंदे नाले थे सुप्त हुए ।
नाले सुप्त हुए थे गंदे, मंच में थी हरियाली छाई,
मन के गड्ढे मिटे सभी,सभी दरारें थी भर आयी।।
किन्तु समय ने करवट बदली, कोई नहीं इधर आता।
आ भी जाता तो अपनों से, ना जाने क्यों नयन चुराता।।
जबड़ा फैलाए दौड़ रहा है, मंच का भारी सन्नाटा ।।

होगा मूढ़ विकट कोई, जो दशमुख की विद्वता नकारे,
किन्तु दुराग्रह ही वह अवगुण, जो रावण को हर युग में मारे।
हर युग में मारा गया दशासन, किन्तु दुराग्रह नहीं मिटा,
मरघट सा सन्नाटा पसरा, दिखता है 'जय' लुटा पिटा।।
सदा सदा संकट में सबको, प्रभु ही राह सुझाता।
भँवर से नाव जो बाहर लाये, वह तारणहार कहाता।
जबड़ा फैलाए दौड़ रहा है, मंच का भारी सन्नाटा ।।

jai_bhardwaj
10-12-2012, 10:58 PM
हाहाकार मचाता आया, उत्पाती लंगूर,
अपनी दुम पर जा बैठा वह, हट कर थोड़ी दूर,
हट कर थोड़ी दूर, जोर से आँखें मीचे
बीच बीच में गुर्राता है और कभी खीझे,
सीतारामी मिटा के उसने कापालिक टीका लगा लिया
सूखी डाली छोड़ के 'जय' हरियाली ढूंढें अब भरपूर।
हाहाकार मचाता आया, उत्पाती लंगूर ।।

jai_bhardwaj
10-12-2012, 10:58 PM
आ गयी है ऋतु शरद की, ओ प्रिये! आ जाओ तुम
आ गए हैं दिन सुहाने, अब प्रिये! आ जाओ तुम

भोर का धुंधला कुहासा, ज्यों उड़े आँचल तुम्हारा,
गुनगुनी सी दोपहर है,मदभरा ज्यों तन तुम्हारा,
अब प्रवासी पक्षी दल भी, व्योम पथ पर जा रहे
भ्रमर-दल का स्वर लगे, कि बज उठा कंगन तुम्हारा
खंजनों का दल बुलाये, ओ प्रिये! आ जाओ तुम
आ गए हैं दिन सुहाने, अब प्रिये! आ जाओ तुम

मुदित पक्षी कर रहे हैं, साथी से साहचर्य बंधन
प्रणय के ये दृश्य मुझको, दे रहे 'जय' दिग्भ्रमण
वाह्य बजती प्रेम-वीणा, हृदय में हैं करुण क्रंदन
मैं एकाकी जी रहा हूँ, रस-रहित अभिशप्त जीवन
शाप को वरदान कर दो, ओ प्रिये! आ जाओ तुम
आ गए हैं दिन सुहाने, अब प्रिये! आ जाओ तुम

jai_bhardwaj
13-12-2012, 10:54 PM
जिन चित्रों में नारी को देखा है हमने बचपन से
हृदयविशाला माँ थी पहली, दूजी नारी दिखी बहन में
दूजी नारी दिखी बहन में, शीघ्र मित्र फिर पत्नी आयी
पत्नी के सौजन्य से अपने घर में प्यारी बेटी पायी
इन पाँचों से पृथक दिखा फिर हमें अनोखा नारी रूप
'जय' सोचे यह रूप भी कैसा! कहीं दिव्य तो कहीं कुरूप

jai_bhardwaj
13-12-2012, 10:56 PM
मंच बना एक सभा निराली
घूंघट - पगड़ी, गोरी - काली
नीली-पीली - लाल-सुनहरी
श्वेत - गुलाबी और हरियाली

चार मित्र हो गए इकट्ठे
दुबले-पतले, हट्टे-कट्टे
चित्र और आलेख, चुटकुले
व्यंग्यों की है भरी दुनाली

राम-जुहारी पाँय-पैलगी
हालचाल फिर बात बतकही
देश विदेश प्रदेश की बातें
लगे ठहाका, बजती ताली

ध्यान, ज्ञान, विज्ञान, वार्ता
दिल्ली, बीजिंग, इंग्लैण्ड यात्रा
इन्टरनेट 'जय' ब्लॉग कथाएं
जहाँ चाह वहाँ राह निकाली


मंच बना एक सभा निराली
घूंघट - पगड़ी, गोरी - काली
नीली-पीली - लाल-सुनहरी
श्वेत - गुलाबी और हरियाली

jai_bhardwaj
13-12-2012, 10:56 PM
यह कैसा अद्भुद परिवर्तन है !
छाया दुर्लभ नव - यौवन है ।।

क्यों देह हुई लावा जैसी ?
क्यों श्वासों में भूचाल उठा ?
क्यों नयन बन गए मदिरालय ?
क्यों हृदय में मादक गान उठा ?
क्यों रोम रोम में कम्पन है?
छाया दुर्लभ नव - यौवन है ।।

क्यों ज्येष्ठ मॉस श्रावण लगता ?
क्यों पतझड़ भी मधुमास लगे ?
क्यों दिखे सितारे अंजुरी में ?
क्यों मुट्ठी में आकाश दिखे ?
क्यों लगे सुखद एकाकीपन है?
छाया दुर्लभ नव - यौवन है ।।

क्यों हुए हैं पग डगमग डगमग ?
क्यों निज काया से मन कहता ?
क्यों स्थिर सी मुस्कान हो गयी ?
क्यों दर्पण ही अपना लगता ?
अब पूर्ण सुवासित 'जय' जीवन है ।
छाया दुर्लभ नव - जीवन है ।।

jai_bhardwaj
13-12-2012, 10:57 PM
यूं हादसे शदीद कई बार हुए हैं
हम प्यार में शहीद कई बार हुए हैं

दुश्मनों को दोस्त बनाते रहे हैं हम
पर दोस्त भी रकीब कई बार हुए हैं

है मौत ज़िन्दगी में बहुत दर्मियाँ मगर
ये फासले करीब कई बार हुए हैं

हमको जुदा किया है बारहा बहार से
बे-शाख भी हबीब कई बार हुए हैं

पहले बुलाया पास फिर फटकार भी दिए
ये वाकये अजीब कई बार हुए हैं

वीरानियों में सिर्फ इक उम्मीद बाकी है
सहरा के भी नसीब कई बार हुए हैं

हादसों में 'जय' का छोड़ा हसरतों ने साथ
अरमान भी सलीब कई बार हुए हैं

rajnish manga
14-12-2012, 11:24 PM
अनिल भाई और रजनीश भाई,
आप दोनों के उद्गारों से मैं अभिभूत हो गया हूँ। हृदय गदगद और कंठ अवरुद्ध ।
मैं आप दोनों का हृदय से आभारी हूँ।
धन्यवाद।

प्रसंगवश:- रजनीश जी, आपके हृदयोद्गार में एक लेखकीय त्रुटि है जो कदाचित मुझे उपहासित सा कर रही है। त्रुटिवश ही सही किन्तु इतना उच्च स्थान माता-पिता-गुरु के अतिरिक्त किसी अन्य के लिए हो ही नहीं सकता है।


:thumbup:
प्रिय मित्र जय भारद्वाज जी, आपने मेरी टिप्पणी में मेरी गलती की ओर ध्यान खींच कर मुझ पर बड़ा उपकार किया है. मैं मानता हूँ कि इसकी वजह से आपको पीड़ा पहुंची है. भले ही यह अनजाने में हो गयी त्रुटि है लेकिन ऐसा होना अत्यन्त दुखद घटना है. मैं अपनी गलती के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ. आशा है आप उदारता का परिचय देते हुये मुझे क्षमा करेंगे. आपके प्रति तथा आपकी रचनाओं के प्रति मेरे ह्रदय में बड़ा आदर का भाव है और रहेगा. धन्यवाद.

jai_bhardwaj
19-12-2012, 11:53 PM
मनुज वही जो विकट समय को, धीरज धर कर पार करे
सुखद समय में वह सज्जन बन, दीनों पर उपकार करे
किये हुए का फल मिलता है, सभी धर्म यह कहते हैं
उचित किया या अनुचित ही था, ऐसा स्वयं विचार करे ।।

जीवन में अभिलाषाएं हैं, जैसे हो पानी पर तैल
आत्मनिग्रही बन जाएँ तो, मिट जाएगा यह भी मैल
यह जीवन अति चंचल है, नित परिवर्तन आता है
आज वहाँ है झील मनोरम, कल तक जहाँ थे उन्नत शैल ।।

परिवर्तन है नियम प्रकृति का, सतत चला करता है
परिवर्तन का अदृश्य नियंत्रण, समय किया करता है
शत्रु बनें हो सुहृद, या भाई बन बैठे हो प्रबल विरोधी
मनुज बना 'जय' साधन केवल, समय ही बदला करता है ।।

jai_bhardwaj
20-12-2012, 12:00 AM
:thumbup:
प्रिय मित्र जय भारद्वाज जी, आपने मेरी टिप्पणी में मेरी गलती की ओर ध्यान खींच कर मुझ पर बड़ा उपकार किया है. मैं मानता हूँ कि इसकी वजह से आपको पीड़ा पहुंची है. भले ही यह अनजाने में हो गयी त्रुटि है लेकिन ऐसा होना अत्यन्त दुखद घटना है. मैं अपनी गलती के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ. आशा है आप उदारता का परिचय देते हुये मुझे क्षमा करेंगे. आपके प्रति तथा आपकी रचनाओं के प्रति मेरे ह्रदय में बड़ा आदर का भाव है और रहेगा. धन्यवाद.

रजनीश जी, भावनाओं से भरी आपकी टिप्पणी मुझे द्रवित कर गयी। बन्धु, हम सभी यहाँ मित्र हैं। परस्पर सहयोग और सानिध्य ही हमारा उद्देश्य है। हम मंच पर आकर मनोरंजन करें और अन्य सदस्यों को मनोरंजक सामग्री उपलब्ध कराएं ..यही हमारे कर्त्तव्य होने चाहिए। कृपया मन से सभी प्रकार का भार हटा दें। आपको हार्दिक धन्यावाद बन्धु।

jai_bhardwaj
21-12-2012, 11:22 PM
अरे! रुको उपहास मत करो, उस नंगे तरुवर का
संरक्षण है प्राप्त उसे भी, धरा और अम्बर का ।।

दिन उसने भी देखें हैं मस्ती और अंगड़ाई के
पास नहीं आया है कोई, देख के दिन तन्हाई के
पशु पक्षी कलरव करते थे, उसकी शीतल छाया में
पथिक शान्ति अनुभव करते थे, घने वृक्ष की माया में
जिसके फलों के कारण ही कोयल आनंदित रहती थी
जिसके पुष्पों के कारण ही पवन सुगन्धित रहती थी
थे मधुपों के बोल कभी थे, "है पराग तो मात्र यहीं है"
नहीं शिकायत आज किसी से, जबकि पास कोई भी नहीं है
हे बुद्धिमान नर! देखो संयम उस महान तरुवर का
अरे! रुको उपहास मत करो, उस नंगे तरुवर का ।।

पत्र -पूर्ति यदि कर न सके तो, पत्र-हीन पर हँसें नहीं
विष की औषधि दे न सके तो, विषधर बन कर डसे नहीं
बुरा समय है आया उस पर, यह अवसर है पतझड़ का
समय चक्र तो कभी रुका ना, यही नियम चेतन जड़ का
वही बहारें फिर आयेंगी, नए पत्र होंगे तन में
पशु-पक्षी पथिक,पवन, भौंरे, होंगे फिर उसके जीवन में
नवजीवन के लिए व्यग्र हैं, उसकी टहनी और शाखाएं
आशीर्वाद उसे तुम दे दो, "पूरी हों तेरी आशाएँ"
दो मधुर शब्द से ही कर दो, उपकार खड़े 'जय' तरुवर का
अरे! रुको उपहास मत करो, उस नंगे तरुवर का ।।

jai_bhardwaj
21-12-2012, 11:31 PM
बन्धुओं, 24 वर्ष पूर्व 18 दिसंबर 1987 को रचित यह हिंदी ग़ज़ल आप सभी के सम्मुख प्रस्तुत है। कृपया आनंद लें। हार्दिक धन्यवाद।


नीरव एकाकी हृदय भवन में आज आ गया कोई।
शुभ्र धवलतम पृष्ठ पे अपना चित्र बना गया कोई।।

अब तक मेरा जीवन था एक बंजर धरती जैसा
वारि भरा जलधर बनके,झड़ी लगा गया कोई ।।

पतझड़ का था चिर निवास मेरे मन उपवन में
बन आह्लादक आमोदक, ऋतुराज छा गया कोई ।।

विरह वेदना बहती रहती, मेरे मन-अन्तर में
हर्ष भरे गीतों के लेकिन आज गा गया कोई ।।

खंडहर जैसा पडा हुआ था मेरा मनः पटल
बहुरंगी सपनों को लाकर वहाँ सजा गया कोई ।।

शव-सदृश व प्रवाहहीन थी सभी उमंगें मेरी
नवजीवन की वर्षा करके उन्हें जगा गया कोई ।।

विवशता के बंधन में आँसू ही बहाए हैं
सुना सुना कर छंद हास्य के, आज हँसा गया कोई ।।

बिखर गयी थी आशाएं, अनंत रात की चादर में
नई सुबह की सुखद बात की आस दिला गया कोई ।।

इच्छाओं के शुष्क पुष्प थे दुःख के आँचल में
उन्हें दृष्टि स्पर्श मात्र से, पुनः खिला गया कोई ।।

पूर्ण विराम प्राप्ति की इच्छा थी 'जय' प्राण पथिक की
अति समीप उद्देश्य विन्दु को आज हटा गया कोई ।।

नीरव एकाकी हृदय भवन में आज आ गया कोई। :hug:
शुभ्र धवलतम पृष्ठ पे अपना चित्र बना गया कोई।।:egyptian:

jai_bhardwaj
24-12-2012, 10:26 PM
तुम रमणी हो, रमणीक भी हो
अभिसारित हो, अभिनीत भी हो
प्रणय-गंध सम्पूर्ण सुवासित
मोहक, 'जय' परिणीत भी हो :iagree:

jai_bhardwaj
24-12-2012, 10:32 PM
यौवन-पथ पर पथिक अकेले,
कहाँ दूर तक जाओगे ।
मन-अंतर में कसक समेटे,
कहीं भटक भी जाओगे ।।
भटके पथ पर पथिक मिलेंगे,
अनजाने, अनचाहे से ।
प्रणय-बद्ध सर्वस्व मिलन अब,
कर लो 'जय' मनचाहे से ।।

jai_bhardwaj
24-12-2012, 10:43 PM
यद्यपि जीवन ठहरा सा है
हृदय शांत और गहरा सा है
जब एकाकी पल आते हैं
कौतुक-प्रिय मन चपला सा है (1)

जब लगता कुछ टूटा सा है
हृदयन्तर कुछ बिखरा सा है
घनी निराशा छा जाती तब
घोर अन्धेरा उतरा सा है (2)

तुम कहते कुछ हुआ नहीं है
मुझे अनंग ने छुआ नहीं है
मुख पर लाऊँ हँसी लाख, पर
'जय' चेहरा क्यों धुआँ धुआँ है (3)

jai_bhardwaj
24-12-2012, 11:03 PM
बिन तुम्हारे ढल रही है, आज फिर संध्या सुहानी ।
बिन तुम्हारे बन रही है, आज फिर अनगढ़ कहानी ।।

हर निशा के बाद प्रातः से तुम्हारी राह देखूँ
यूँ कदम चलते नहीं पर आहटों पर दौड़ देखूँ
जब नहीं दिखते हो तुम तो मैं मलिन होती रही
दिवस के अवसान पर फिर से तुम्हारी आस देखूँ
बंधनों को तोड़ निकला है, मेरे नयनों से पानी ।
बिन तुम्हारे ढल रही है, आज फिर संध्या सुहानी ।।

साँझ के आते लगे कि, आज तो तुम आओगे
नन्ही बूँदों के जलद बन, तुम धरा सहलाओगे
मन-उमंगें उमड़ चलती, ज्वार बन कर चन्द्र तक
आस थी बन कर बवंडर, तुम उदधि पर छाओगे
कंठ से चाहे निकलना, 'पी-कहाँ' की मधुर वाणी ।
बिन तुम्हारे ढल रही है, आज फिर संध्या सुहानी ।।

हर निशा नागिन लगे, मुझे प्रिय बिना मधुमास में
स्वप्न में ऐसे लगे कि, तुम हो मेरे पास में
अब तुम्हारे कर-युगल ने कर दिया है मदन-वश
अधर में जिव्हा तरल है, और 'जय' भुजपाश में
अग्नि बिन मैं जल गयी और बुझ गयी मैं बिना पानी ।
बिन तुम्हारे ढल रही है, आज फिर संध्या सुहानी ।।
बिन तुम्हारे बन रही है, आज फिर अनगढ़ कहानी ।।

nlshraman
26-12-2012, 12:54 PM
स्मृति गुरु की अगली पुस्तक प्रेरणा-बुड्ढा होगा तेरा बाप पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तब नौकर था अब मालिक हूँ, तब तेरा था अब मेरा है।
अँधियार हटा आया प्रकाश, अब साँझ नहीं सबेरा है॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
आयु काल व अंत हीन, यह अचेतन मेरा चेतन है।
श्वेत केश अनुभवी साठ, यह अनुभव ही मेरा वेतन है॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
दुनिया के जितने बड़े काम, सबने साठ के बाद किये।
न्यूटन, सुक़रात, विनोबा, गाँधी , तभी तो हैं आज जिये॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
जीवन वर्षों की उड़ान नहीं, लहराये जवानी सरसों में।
तुम जोड़ो वर्षों को जीवन में, हम जीवन को जोड़े वर्षों में॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
अनंत जीवन के हम बच्चे, जो अंतकाल को न जाने।
अमरत्व नित्यता मुझ में है, हम डरना मरना क्या जाने॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
स्वागत है आगत वर्षों का, दुनिया को मेरी जरूरत है।
खोजोगे तुम भी रोज मुझे ऐसी ही मेरी सूरत है॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
माना कि हम कल ना होंगे, पर गीत हमारा गायेंगे।
हम खायें या ना खायें , पर फल वृक्ष लगाकर जायेंगे॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
हम आश्चर्यजनक हैं लाठी छूटेगी, पर गाँठ न टूटेगी।
हम खास ही हैं टूट जायेगी साँस पर आस न छूटेगी॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……

पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
घर बैठ निराश हताश अगर, अपना जीवन खो देगा।
तैरती है लाश सतह पर जो जिन्दा है वह डूबेगा।।
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
जीवन में रुची बढ़ेगी जब स्मृति गुरु पट खोलेगा।
मिल जाये मुरदा एक बार वह भी उठ कर बोलेगा ॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
द्रोणाचार्य दधीचि है हम, हमने तुम्हें सिखाया चलना।
क्या कहते हो कौन है हम, जब सीख चुके पलना बढ़ना॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
गुरु हैं हम आचार्य हैं हम, तुम तो निबल निरक्षर थे।
भूल गये वह दिन जब, हमने सिखाए अक्षर थे॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
क ख ग घ न जानो , अक्षर भैंस बराबर काला था।
पाटी बस्ता पोथी लेकर हमने ही भेजा शाला था॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तुम्हें समय का ज्ञान नहीं, समय कभी नहीं रुकेगा।
आज जहाँ पर हम हैं खड़े, तेरा सिर यहीं झुकेगा॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
प्रेम, हर्ष, धैर्य, शान्ति, इन सबकी महिमा क्या जानो।
उच्च शिखर पर मेरा आसन तुम भद्रपुरुष को क्या जानों।
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तुम क्या जानों मुझ में क्या हैं , शिष्य कभी तो बने नहीं।
अभी जान लो धन, छल, रूप यौवन अधिकार टिके नहीं।
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
सब तीरथों का तीरथ अनुभव, हमने सीखा कहाँ कहाँ।
मद है विद्या का हम मदमस्त हैं , ये सारा मेरा जहाँ॥

पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तू क्या समझे इस जिह्वा में किस शास्त्र धर्म की वाणी है।
कण कण में मेरे अनुभव है ना समझो ये कि अनाड़ी है॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
ये देख मेरे अनुभवी हाथ , कृपाण लेखनी बनते हैं।
छू लू मैं जिस कागज को , पारस बन स्वर्ण उगलते हैं॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
माली बन तुझको सींचा है, ये हरियाली उपजी हमसे है।
डाल दृष्टि चहुँ ओर हरा मैं तुझसे नहीं तू हमसे है॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
मैं बुड्ढा तो तू जवान नहीं, मैं तेरे लिये तो जीता हूँ।
प्यास लगे तो कुआँ खोदकर, पानी अभी मैं पीता हूँ।।
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तू कड़ुवा मैं मीठा हूँ , विष अमृत का अंतर क्या जानों।
आ जाये बब्बर शेर अगर वह भी काँपेगा ये मानो॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तुम नीरस और हताश दिखे, हम में अब भी विश्वास दिखे।
तुम लगते निर्जीव निबल, हम में अब भी आस दिखे॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तुम अतीत की बात करो, वह दिन तो बीते हैं।
तुम भूतकाल की बात करो हम वर्तमान में जीते हैं॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तुम भूतपूर्व कह कर हमसे रोब जमाना क्या जानों ।
नाम न लूँगा क्या था मैं ,क्या आज हूँ मैं ये तुम जानों॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तुम कहते किया बहुत काम, घर बैठ ऐश अब करते हैं।
समझो ऐसो को मरा हुआ, मुर्दे न दुबारा मरते हैं॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……

पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
मर्यादा पद पदवी गौरव है पाने की चीज नहीं।
क्या अधिकारी हो तुम इसके, बिना वृक्ष के बीज कहीं॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
योग्य न हो सम्मानों का फिर भी इसको पा जायें।
इससे अच्छा योग्य अनुभवी, इस सम्मान को न पाये॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
हम नहीं हैं बंद घड़ी, जो समय बताये एक बार।
अनवरत निरन्तर चलते हैं, जैसी सरिता की बहे धार॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
दीवानी तो थी मीरा, तुम दीवाने तो बने नहीं।
क्षण भर दीवाने हुये कभी तो पल भर भी टिके नहीं॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
न गुरू किया न गुरु बने जीवन तो तेरा शुरू नहीं।
जीने के वर्ष ही गिनते हैं , कटने के वर्ष तो बने नहीं॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
घटा उमर तू वरस के उतने, कुएँ में जितने दिन सोया है।
अब बता बची क्या उमर है तेरी क्या खोया क्या पाया है॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
तू बुढ़ापे का बने सहारा मात पिता ने पाला था
जाकर बसा विदेश प्रिया संग, भेजा रुपये का माला था॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
बावन अक्षरों का महाभारत, सबसे वृहद कहानी है।
तूने सीखे कितने अक्षर, लिखी कौन कहानी है॥
पहले आप पहले आप, बुड्ढा होगा तेरा बाप……
प्रेरक कविता " भूलना भूल जाओगे" से संदर्भ: http://unlimitedmemory.tripod.com

jai_bhardwaj
26-12-2012, 05:59 PM
बहुत सार्थक तर्क आपके, अति सुन्दर है बात
अच्छी सी प्रस्तुति आपकी, अच्छे से हैं आप
वृद्धावस्था ज्ञान की थैली, ना कोई अभिशाप
ना बुड्ढा 'जय' बाप बन्धु! न बुड्ढा आपका बाप

jai_bhardwaj
26-12-2012, 10:32 PM
ये धूप बाँटना भी कोई खेल नहीं है
आकाश के टुकड़े करना भी खेल नहीं है
जीवन जियो तो करो परोपकार तुम
जीवन को जीना भी 'जय' खेल नहीं है :think:

jai_bhardwaj
26-12-2012, 10:35 PM
एक एक शब्द में, नेह डालते चलो
तिक्त और विष भरे, मेह टालते चलो
मेह =बादल

:gm:

अक्षरों की बेल बढी और गीत बन गया
हृदय-मृदंग जब बजी, कोई मीत बन गया
बेल=लता

:hug:

अक्षर अक्षर गढ़ने से ही, गीत मधुर बन जाता है
मधुमय जिह्वा से जग सारा, मीत सुहृद बन जाता है

:cheers:

jai_bhardwaj
26-12-2012, 10:37 PM
मृत्यु सत्य है, किन्तु विकट है
सत्यम शिव है, शिवम् निकट है
मृत्यु अगर शिव, फिर डर कैसा ?
जीवन-मृत्यु सतत 'जय' शिव सा ।।



:egyptian::egyptian::egyptian:

jai_bhardwaj
26-12-2012, 10:38 PM
दो पंक्तियाँ उर्दू भाषा के शब्दों के साथ .......

हाथों से फिसल गया, आज मेरा आसमां
मुझको लगा कि 'जय' निकलेगी मेरी जां
:cry::cry::giggle::giggle:

jai_bhardwaj
26-12-2012, 10:40 PM
===== अथ शीत वियोग =====

प्रणय निवेदन करे कबूतर, खंजन गाये मिलन के गाने
बढी जा रही मंथर गति से शीत ऋतु , मधुमास को लाने
आलिंगन के लिए प्रतीक्षित, हैं बाहों के वलय सुहाने
तप्त गात में लसित भाव है, मद्यप से हैं नयन दिवाने ।।1।।

चित्त आखेटक भटक रहा है, आज प्रिया के तन-पथ में
कुसुम सरों से विद्ध किया है, आज हृदय को मन्मथ ने
विगत प्रणय के दिन आये हैं, चढ़ स्मृतियों के रथ में
संवेगों के ज्वार में बह कर, गात-तंतु गा रहे अकथ में ।।2।।

वहाँ प्रिये! तुम सुप्त शांत हो, यहाँ हृदय अतिव्याकुल है
तड़ितपात हो रहा मदन पर, बाधित मन शोकाकुल है
रुद्ध कन्ठ अवरुद्ध है वाणी, किन्तु चित्त अति चंचल है
आज वियोगी बन बैठा 'जय', योगीपन भी आकुल है ।।3।।


:help::giggle::help::giggle:
मंथर = बहुत धीरे धीरे
मधुमास = बसंत ऋतु
वलय = घेरे, चक्कर, गोलाकार
तप्त गात = उत्तेजना से भरा शरीर
लसित भाव = लिप्सा (कामना) के भाव
मद्यप = शराबी
चित्त आखेटक = मन रूपी शिकारी
कुसुम सरों से = कामदेव के अस्त्र से
मन्मथ = कामदेव
गात तंतु = शरीर की नसें (रक्त वाहिनियाँ)
अकथ = बिना कुछ बोले
तड़ितपात = आकाशीय विजली का गिरना
मदन = कामदेव

ihavejannat
27-12-2012, 02:17 PM
अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इनसान को, इनसान बनाया जाए

आग बहती है यहाँ, गंगा में, झेलम में भी
कोई बतलाए, कहाँ जाकर नहाया जाए

मेरा मकसद है के महफिल रहे रोशन यूँही
खून चाहे मेरा, दीपों में जलाया जाए

मेरे दुख-दर्द का, तुझपर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी ना खाया जाए

जिस्म दो होके भी, दिल एक हो अपने ऐसे
मेरा आँसू, तेरी पलकों से उठाया जाए

कवि : नीरज
:bravo::bravo:

rajnish manga
27-12-2012, 09:50 PM
बन्धुओं, 24 वर्ष पूर्व 18 दिसंबर 1987 को रचित यह हिंदी ग़ज़ल आप सभी के सम्मुख प्रस्तुत है। कृपया आनंद लें। हार्दिक धन्यवाद।


नीरव एकाकी हृदय भवन में आज आ गया कोई।
शुभ्र धवलतम पृष्ठ पे अपना चित्र बना गया कोई।।

अब तक मेरा जीवन था एक बंजर धरती जैसा
वारि भरा जलधर बनके,झड़ी लगा गया कोई ।।

पतझड़ का था चिर निवास मेरे मन उपवन में
बन आह्लादक आमोदक, ऋतुराज छा गया कोई ।।

विरह वेदना बहती रहती, मेरे मन-अन्तर में
हर्ष भरे गीतों के लेकिन आज गा गया कोई ।।

खंडहर जैसा पडा हुआ था मेरा मनः पटल
बहुरंगी सपनों को लाकर वहाँ सजा गया कोई ।।

शव-सदृश व प्रवाहहीन थी सभी उमंगें मेरी
नवजीवन की वर्षा करके उन्हें जगा गया कोई ।।

विवशता के बंधन में आँसू ही बहाए हैं
सुना सुना कर छंद हास्य के, आज हँसा गया कोई ।।

बिखर गयी थी आशाएं, अनंत रात की चादर में
नई सुबह की सुखद बात की आस दिला गया कोई ।।

इच्छाओं के शुष्क पुष्प थे दुःख के आँचल में
उन्हें दृष्टि स्पर्श मात्र से, पुनः खिला गया कोई ।।

पूर्ण विराम प्राप्ति की इच्छा थी 'जय' प्राण पथिक की
अति समीप उद्देश्य विन्दु को आज हटा गया कोई ।।

नीरव एकाकी हृदय भवन में आज आ गया कोई। :hug:
शुभ्र धवलतम पृष्ठ पे अपना चित्र बना गया कोई।।:egyptian:


:gm:
प्रिय मित्र जय भारद्वाज जी, आपकी मर्मस्पर्शी कवितायें बार बार पढ़ने पर भी मन तृप्त नहीं होता. संतोष की बात यह है कि यह सिर्फ एक क्लिक की दूरी पर हैं. आपके लेखन में भाव, अनुभव, शब्द विन्यास, बिम्ब, आतंरिक ऊर्जा और प्रकटन का ऐसा सुन्दर सम्मिश्रण उभर कर आता है कि पाठक भी पढ़ते पढ़ते एक रूमानी संसार में पहुँच जाता है. आपका लेखन बहुत प्रबल है और इसमें भविष्य के लिए बड़ी संभावनाएं छुपी है. आपको मेरा धन्यवाद और बधाई.
यह गज़ल में विशेष रूप से यहाँ उद्धरित कर रहा हूँ क्योकि इसमें आपके भावों की तीव्र अभिव्यक्ति हुयी है. अपने सृजन का २५वाँ जन्मदिन (अथवा २४वां वार्षिकोत्सव) इस रचना ने मनाया. इसमें आज भी वही स्पंदन है. यह एक कालजयी रचना है.

jai_bhardwaj
27-12-2012, 11:42 PM
:gm:
प्रिय मित्र जय भारद्वाज जी, आपकी मर्मस्पर्शी कवितायें बार बार पढ़ने पर भी मन तृप्त नहीं होता. संतोष की बात यह है कि यह सिर्फ एक क्लिक की दूरी पर हैं. आपके लेखन में भाव, अनुभव, शब्द विन्यास, बिम्ब, आतंरिक ऊर्जा और प्रकटन का ऐसा सुन्दर सम्मिश्रण उभर कर आता है कि पाठक भी पढ़ते पढ़ते एक रूमानी संसार में पहुँच जाता है. आपका लेखन बहुत प्रबल है और इसमें भविष्य के लिए बड़ी संभावनाएं छुपी है. आपको मेरा धन्यवाद और बधाई.
यह गज़ल में विशेष रूप से यहाँ उद्धरित कर रहा हूँ क्योकि इसमें आपके भावों की तीव्र अभिव्यक्ति हुयी है. अपने सृजन का २५वाँ जन्मदिन (अथवा २४वां वार्षिकोत्सव) इस रचना ने मनाया. इसमें आज भी वही स्पंदन है. यह एक कालजयी रचना है.

आपकी साहित्यिक विवेचना के लिए हार्दिक आभार बन्धु रजनीश जी। :hello:

jai_bhardwaj
27-12-2012, 11:57 PM
बन्धुओं, आज एक गजल पेश करने का हौसला कर रहा हूँ .............कृपया लुत्फ़ उठायें।



मैंने सियाह रात में, देखी है चांदनी।
ग़म की सियाह रात, याद तेरी चांदनी।।

गुलशन में खिले फूल, खुश है सारा ज़माना
सुन्दर सी काएनात है, मेरी चांदनी ।।

कोयल का कूजना सुना, भौरों का गूँजना भी
भाती है मुझे एक सदा, तेरी चांदनी।।

ख़त में है क्या लिखा, मुझको नहीं पता
ख़त पे है तेरा नाम मगर, मेरी चांदनी।।

काबा में करूँ सजदा, काशी में सर झुकाऊँ,
कब तक घुमाएगी मुझे और, मेरी चांदनी।।

रोशन है आफताब और आँखें भी हैं खुली
फिर भी न दिखे 'जय' क्यों, मेरी चांदनी।।


सियाह = काली
काएनात = प्रकृति
आफताब = सूर्य

Hero Hiralaal
28-12-2012, 09:34 PM
बहुत ही ऐ वन सूत्र है, जय भाई। :bravo::bravo::bravo:

prashant
30-12-2012, 05:00 AM
बन्धुओं, आज एक गजल पेश करने का हौसला कर रहा हूँ .............कृपया लुत्फ़ उठायें।



मैंने सियाह रात में, देखी है चांदनी।
ग़म की सियाह रात, याद तेरी चांदनी।।

गुलशन में खिले फूल, खुश है सारा ज़माना
सुन्दर सी काएनात है, मेरी चांदनी ।।

कोयल का कूजना सुना, भौरों का गूँजना भी
भाती है मुझे एक सदा, तेरी चांदनी।।

ख़त में है क्या लिखा, मुझको नहीं पता
ख़त पे है तेरा नाम मगर, मेरी चांदनी।।

काबा में करूँ सजदा, काशी में सर झुकाऊँ,
कब तक घुमाएगी मुझे और, मेरी चांदनी।।

रोशन है आफताब और आँखें भी हैं खुली
फिर भी न दिखे 'जय' क्यों, मेरी चांदनी।।


सियाह = काली
काएनात = प्रकृति
आफताब = सूर्य

जय जी मैं आपका बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ|
आपके द्वारा लिखी गयी लगभग सारी रचना मैंने पढ़ी है|

nlshraman
30-12-2012, 10:08 AM
प्रदूषण

“ धुएँ से प्रदूषण होता है “ प्रदूषण अधिकारी ने समझाया ।

“ धुआं समाज का कैंसर है” पर गंगाराम समझ न पाया ॥

वे बोले इस जहर को समाज से दूर करने का उपाय तो बतलाओ।

अधिकारी ने कहा “ इसे दूर करने के लिए सौ अगरबत्ती सुलगाओ।।

अधिकारी ने दलील दी “ जहर जहर को मारता है युग पुरुष कह गये।

गंगाराम सौ की जगह एक हजार बती जलाकर खुद धुएँ से मर गये॥

nlshraman
30-12-2012, 10:21 AM
अकाल से मुक्ति

देश में अकाल था, भुखमरी थी, हर आदमी कंगाल था ।

न पानी था न अनाज था, देश का बुरा हाल था॥

पंडित जी ने सुझाव दिया,

बची खुची सामग्री से हवन करा डालो ।

जो बचा है उसे भी आग में जला डालो,

दूर हो जायेगी आसुरी,

जब कुछ भी नहीं बचेगा, न हम बचेंगे , न तुम बचोगे

“ न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ॥

nlshraman
30-12-2012, 10:24 AM
बाल काला तैल

एक तेल कम्पनी ने बालों के लिए तेल बनाया।

धुंआ धार प्रचार करवाया, इसे बालों में लगाओ।

काले बाल काले ही रहेंगे,

हजारों लोंगो ने तेल खरीदा।

जिसको पूंछो जवाब मिले तेल लेने गये हैं॥

काले बाल सफ़ेद होने लगे।

लोग शिकायत लेकर कम्पनी जाने लगे।

प्रचार अधिकारी ने बताया हमारा दावा सच्चा है।

शीशी पर चिपका लेबेल नहीं पढ़ा।

एक नहीं इसे लाखों लोंगो ने आजमाया है।

कौन कहता है इसे सर में लगाओ।

हमने तो इसे दाढ़ी के लिए बनाया है॥

bindujain
30-12-2012, 10:24 AM
अकाल से मुक्ति

देश में अकाल था, भुखमरी थी, हर आदमी कंगाल था ।

न पानी था न अनाज था, देश का बुरा हाल था॥

पंडित जी ने सुझाव दिया,

बची खुची सामग्री से हवन करा डालो ।

जो बचा है उसे भी आग में जला डालो,

दूर हो जायेगी आसुरी,

जब कुछ भी नहीं बचेगा, न हम बचेंगे , न तुम बचोगे

“ न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ॥

बहुत अच्छे न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी

jai_bhardwaj
08-01-2013, 12:06 AM
======= गीत ========

अतिसमीप्यबोध को दूर तो हटाईये
हृदय-दधीचि मर रहा है फिर परोपकार में
मन-मयूर रो रहा है बादलों के शोर में
नयन मीन बन गए हैं प्रिय बिना त्यौहार में
चमक चमक दामिनी उर-प्रदाह दे रही
या कि भार बढ़ गया है आज कन्ठ-हार में
रक्त-रंजिता हुई हैं भावनाएँ आज सब
कुचल-कुचल के मर रही हैं मन-महिष की मार में
चाहना यही है एक, प्रिय बहुत समीप हो
एक बार आन मिलो 'जय' अतुल्य प्यार में
डूब चली शोक में पपीहरे की बूँद भी
दग्ध-हृदय, तप्त-गात, मन अनंग-ज्वार में


अतिसमीप्यबोध = व्याकुलता को जन्म देने वाली समीपता
हृदय-दधीचि = हृदय रूपी दधीचि
उर-प्रदाह = (हृदय की) आंतरिक पीड़ा
रक्त-रंजिता = खून से लथपथ
मन-महिष = मन रूपी भैंसा
पपीहरे की बूँद = स्वाति नक्षत्र में बरसने वाला वर्षा जल
दग्ध-हृदय = धधकता हुआ हृदय
तप्त-गात = जलता हुआ शरीर
अनंग-ज्वार = कामदेव रूपी ज्वार

jai_bhardwaj
08-01-2013, 12:08 AM
जय जी मैं आपका बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ|
आपके द्वारा लिखी गयी लगभग सारी रचना मैंने पढ़ी है|

उत्साहवर्धन के लिए आपको बारम्बार धन्यवाद प्रशांत बन्धु।

jai_bhardwaj
08-01-2013, 12:11 AM
हीरा लाल जी एवं नीलेश रमण जी आप दोनों को सूत्र में अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक आभार बंधुओं।

jai_bhardwaj
14-01-2013, 10:33 PM
गंतव्यहीन पथ पर

गंतव्यहीन पथ पर
आधारहीन रथ पर
चलता रहा निरंतर ।
अंधड़ वा आँधियों में
बर्फीली घाटियों में
जलता रहा निरंतर ।
साथ लिए बोझिल तन ।।
व्यर्थ हुआ मेरा जीवन ।।

भावी पल कंकाल बना
जीवन अब जंजाल बना
निश्वासों का बंधन है ।
ठोकर लगती है पल पल
मिला चतुर्दिक केवल छल
क़दमों में भी कम्पन है ।
आह! मेरा दारुण क्रंदन ।।
व्यर्थ हुआ मेरा जीवन ।।

भाग्य बुलाता रहा
खुद को मनाता रहा
मैं हार गया फिर भी ।
आशा विहीन होकर
आलस में खूब सोकर
हर श्वास कर दी गिरवी ।
जब शेष नहीं था धन ।।
व्यर्थ हुआ मेरा जीवन ।।

चिंताओं की आग को
विवशता के झाग को
पीता रहा निरंतर ।
कल्पना की मौज में
जीवन की खोज में
जीता रहा निरंतर ।
ढोते हुए टूटा तन ।।
व्यर्थ हुआ मेरा जीवन ।।
'जय' ऐसा एकाकीपन ।
व्यर्थ हुआ मेरा जीवन ।।
व्यर्थ हुआ मेरा जीवन ।।

jai_bhardwaj
14-01-2013, 11:56 PM
फगुनी बयार ले के आ रहा बसंत है

स्फूर्ति आ गयी है जन जन में आज कैसी
सुगंध छा गयी है वातावरण में कैसी
हैरान हैं ये लोग परेशान हैं ये लोग
आज लग रही है हर वस्तु नई जैसी
चौंकिए ना कोई, यह माया अनंत है
फगुनी बयार ले के आ रहा बसंत है


रंगीले पुष्प खिल गए हैं आज डाल डाल पर
भ्रमर यूथ गा रहे हैं आज स्वर ताल पर
ठुमक ठुमक नाच रही तितलियाँ समूह में
लाली आ गयी है आज कलियों के गाल पर
घूँघट की ओट किये बैठी दुल्हन नयी
लज्जा से आँखें नत, सामने ही कन्त है
फगुनी बयार ले के आ रहा बसंत है

स्वागत के लिए खड़े अति विनम्र द्रुम सभी
हरित पट से तन ढके, नग्न थे जो कभी
मुस्कुरा रहा है व्योम, खिलखिला रही धरा
पवन मंद बह रही, खुश हैं खग-मृग सभी
लहलहा रहे हैं आज, सरसों के खेत 'जय'
सुभाशीष दे रहे, जैसे साधु-संत हैं
फगुनी बयार ले के आ रहा बसंत है

jai_bhardwaj
20-01-2013, 06:31 PM
जिसे पायलों की धुन समझा, वो बेड़ी की खनखन निकली
जिसे ब्रह्मनाद सी शांति कही, वो अपनों की अनबन निकली
मृगमरीचिका लिए हुए, 'जय' भटक रहा प्रति पल प्रति दिन
मीठे जल की धारा भी क्यों, वारि रहित बलुआ-नद निकली

aksh
20-01-2013, 06:44 PM
बशीर बद्र साहब की कुछ लाइने पेश कर रहा हू..!!


परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता

aksh
20-01-2013, 06:57 PM
इसी बडे शायर की दो चार लाइने और पेश है..

मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता

कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता

jai_bhardwaj
20-01-2013, 07:05 PM
बशीर बद्र साहब की कुछ लाइने पेश कर रहा हू..!!


परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता

हार्दिक आभार बन्धु .......

बिना परखे बिना जाने, कोई अपना नहीं होता
जो चेहरों को समेटे ना, वो दर्पण तो नहीं होता
मेरे बाजू खुले रहते, निम्न को भी उच्च को भी
बिना बूँदों के मिलने से, सागर 'जय' नहीं होता

rajnish manga
21-01-2013, 04:25 PM
जिसे पायलों की धुन समझा, वो बेड़ी की खनखन निकली
जिसे ब्रह्मनाद सी शांति कही, वो अपनों की अनबन निकली
मृगमरीचिका लिए हुए, 'जय' भटक रहा प्रति पल प्रति दिन
मीठे जल की धारा भी क्यों, वारि रहित बलुआ-नद निकलीबशीर बद्र साहब की कुछ लाइने पेश कर रहा हू..!!

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता

:bravo:

आप दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया. जितनी सुन्दर और भावप्रवण जय जी द्वारा प्रणीत क्रिया (मूल रचना) है उतनी ही मधुर अक्ष जी की प्रतिक्रिया भी है. बशीर साहब का ही एक शे'र हाज़िर है:

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से.
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फांसले से मिला करो.

jai_bhardwaj
21-01-2013, 06:34 PM
:bravo:

आप दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया. जितनी सुन्दर और भावप्रवण जय जी द्वारा प्रणीत क्रिया (मूल रचना) है उतनी ही मधुर अक्ष जी की प्रतिक्रिया भी है. बशीर साहब का ही एक शे'र हाज़िर है:

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से.
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फांसले से मिला करो.


सूत्र भ्रमण एवं मूल्यवान प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक अभिनन्दन रजनीश जी।

नहीं मिलता गले तो क्या, न हाथों को मिलाये तो ?
'जय' अपने जैसा करता है, उन्हें भी अपना करने दो

Ranveer
21-01-2013, 09:18 PM
हार्दिक आभार बन्धु .......

बिना परखे बिना जाने, कोई अपना नहीं होता
जो चेहरों को समेटे ना, वो दर्पण तो नहीं होता
मेरे बाजू खुले रहते, निम्न को भी उच्च को भी
बिना बूँदों के मिलने से, सागर 'जय' नहीं होता


सुंदर और आश्चर्यजनक !
भले ही सहज रूप से आपने इसे रच दिया हो पर सच कहूँ तो ऐसी गुणवता के साथ ऐसी कविता लिख देना कोई आसान बात नहीं । :cheers:

jai_bhardwaj
21-01-2013, 11:17 PM
सुंदर और आश्चर्यजनक !
भले ही सहज रूप से आपने इसे रच दिया हो पर सच कहूँ तो ऐसी गुणवता के साथ ऐसी कविता लिख देना कोई आसान बात नहीं । :cheers:

रणवीर जी, सूत्र पर आपकी सार्थक अभिव्यक्ति के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। अपार आभार बन्धु।

jai_bhardwaj
21-01-2013, 11:19 PM
बन्धुओं, आज मैं अपने छोटे भाई के साथ हुई कुछ काव्यात्मक परिचर्चा प्रस्तुत कर रहा हूँ। वर्ष 2001 में वह कारगिल युद्ध का समय चल रहा था। जलसेना में भर्ती हुआ मेरा छोटा भाई "पञ्च" उस समय कोचीन में अपनी ट्रेनिंग ले रहा था। तभी एक दिन उसका एक पत्र मुझे मिला। जी हाँ, पत्र ही संदेशों की कड़ी थे उस समय हम लोगों के मध्य। पारिवारिक चर्चाओं के मध्य उस पत्र में पञ्च ने एक काव्यात्मक खंड भी लिखा था। इस काव्य में निहित कुछ बातों ने मेरे अंतर में द्वंद्व किया और तब मैंने उसे अगले छः सप्ताह तक प्रति सप्ताह एक पत्र लिखा था और प्रत्येक पत्र में एक कविता लिखा थी।

बन्धुओं, मैं उन्ही में से कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। शायद आप सभी को रुचिकर लगे।:think::think:

jai_bhardwaj
21-01-2013, 11:20 PM
सर्वप्रथम: पञ्च द्वारा प्रेषित रचना :-

एक यक्ष प्रश्न खडा है मेरे सामने
पूछता है मुझसे कि मैं कौन हूँ?

क्या है मेरी पहचान ? क्या है मुझमे विशेष ?
जन्मा हूँ किसलिए मैं? क्या है जीवन का उद्देश्य?
सामने उसके खडा मैं सोचता हूँ,
पर हूँ निरुत्तर इसलिए मैं मौन हूँ
एक यक्ष प्रश्न खडा है मेरे सामने
पूछता है मुझसे कि मैं कौन हूँ?

यह यक्ष प्रश्न ..........
मेरे अंतर्मन के अन्दर
अनुगुञ्जित हो हो कर
मेरी काया की हर ईंट पर
करता है प्रहार बार बार
मेरा काया भवन थर्राता है
कुछ शब्द उदभवित करता है

है आज कोई पहचान नहीं
मैं आज भले अनजान सही
किन्तु न कल होगा ऐसा
मैं पाऊँगा शिखर बिंदु
प्रति प्रयास मेरा ऐसा होगा
हे यक्ष प्रश्न! तब मैं तेरे
सारे प्रश्नों का दूँगा उत्तर
वह दिवा न है अब दूर बहुत
जब मैं स्वयं बनूँगा एक शिखर

jai_bhardwaj
21-01-2013, 11:22 PM
उपरोक्त कविता से प्रेरित हो कर मैंने 6 मनकों की जो "अभिनन्दन गीत माला" लिखी थी उसके चार (दो मनकों में शुद्ध पारिवारिक चित्रण है) मनके निम्नवत हैं:-

प्रथम:

अरुणांचल से उदित मिहिरकर, कोच्चि-तट पर पुकार रही
मन की लम्बित अभिलाषाएं, होंगी अब साकार यहीं
'अनजाने' हो, 'पहचान' नहीं, अपने इस भ्रम को दूर करो
शंकित मन को वीणा कर दो, दग्ध हृदय संतूर करो
दक्ष चित्त हो, दृढ प्रतिज्ञ हो, एक लक्ष्य का ध्यान करो
विजयी भाव हे भ्रातृ-श्रेष्ठ, भारतवर्ष का मान धरो
शिखर नहीं तुम शिखर-पुरुष हो, यक्ष-प्रश्न का क्षरण करो
घूँघट में खड़ी है विजयश्री, बढ़ो पञ्च तुम वरण करो
माताश्री के लाल सुनो, तुम पिताश्री के नंदन हो
भाइयों की गौरव-गाथा हो, अभिनन्दन हो, अभिनन्दन हो
-------------------------------- शत, शत, शत अभिनन्दन हो

(मिहिरकर-सूर्य की किरणें)

jai_bhardwaj
21-01-2013, 11:23 PM
द्वितीय:

कहाँ धनुष, तूणीर कहाँ है, कहाँ चित्त और ध्यान कहाँ है
कहाँ हृदय की अभिलाषा है, कहाँ लक्ष्य, संधान कहाँ है
भटक रहे हो, पञ्च कहाँ तुम, क्या तुममे मेधा अशेष है
भूल गए पहचान स्वयं की, यह भी क्या तुममे विशेष है
अनजानेपन भी भँवर तोड़ के, पुनः विशेषता लब्ध करो
विदित लक्ष्य का भेदन कर के, इस जग को स्तब्ध करो
वह लक्ष्य कहाँ है दूर तात! यह देखो बहुत सन्निकट है
आज सुअवसर है, सुयोग है और साथ में शकुन प्रकट हैं
मन-परिपथ के विद्युत तरंग, मेरी श्वासों के चन्दन हो
भारत के सीमा-रखवाले, अभिनन्दन हो, अभिनन्दन हो
------------------------ शत, शत, शत अभिनन्दन हो
(तूणीर=तरकस, लब्ध=प्राप्त)

jai_bhardwaj
21-01-2013, 11:25 PM
तृतीय:

आज धरा क्यों डोल गयी तब, प्रातः जब अलसाई सी थी
सिन्धु तरंगे उठी गगन तक, सुबह नींद जब छाई सी थी
आज हिमालय चौंक उठा तब, ऊषा ने जब ली अंगड़ाई
कौन खडा है, बहुत सन्निकट, उसका बना सहोदर भाई
विस्मित सा नगराज खडा है, सस्मित से बह पवन चले
दिग्दिगंत कह उठे एक स्वर, "आज ऊँट आया है तले"
यह अनहोनी हुई आज क्यों, कोई भी यह जान न पाया
दृढ-प्रतिज्ञ, धर्मज्ञ पञ्च ने, आज निरंतरता को पाया
कुल-गौरव, कुल-श्रेष्ठ अनुजवर! तुम कुल का स्पंदन हो
कुलदीपक, सम्मान सदृश, अभिनन्दन हो, अभिनन्दन हो
------------------------ शत, शत, शत अभिनन्दन हो

(नगराज=पर्वतराज, सस्मित=मुस्कुराते हुए, स्पंदन=धड़कन)

jai_bhardwaj
21-01-2013, 11:27 PM
चतुर्थ:

लाज त्याग कर सीमाओं ने फिर से तुम्हे बुलाया है
'भुज' से लेकर 'गिलगिट' तक, पथ-तोरणद्वार सजाया है
उठो अनुज! और ध्यान धरो, लिखनी नई कहानी है
निकट है मंजिल और राह है मुश्किल, पर जानी पहचानी है
आज तुम्हारे अरमानों में, छाई नहीं जवानी है
शहनाई की जगह तुम्हे, अब रण-भेरियाँ सुनानी हैं

'लाहौर' तुम्हे मालूम नहीं, नहीं 'करांची' तुम्हे पता
दुशमन का परचम जहाँ दिखे, वो जागीर हमारी है
अनुज समझ कर जब जब हमने उसको माफी दी है
रौंदी हैं सीमाएं तब तब, और अस्मिता ललकारी है

पथिक! बढ़ा चल, नवजीवन के पथ पर, राह सुहानी है
लक्ष्य दूर है, अगणित कण्टक, गति तो फिर भी पानी है
वह जीवन भी क्या जीवन था, परजीवी बन जब जीते थे
पर जीवन को नव-जीवन दो, ऐसी सोच बढानी है

उठो धनुर्धर! सर संधानो, सम्मुख खडा विरोधी है
शान्ति-दूत का चोला फेंको, यह तो शान्ति-अवरोधी है
कभी सामने, कभी पीठ पर, बार बार ललकार रहा
असफल शान्ति प्रयासों से, जनजीवन धिक्कार रहा

शिविर लगाकर आतंकवादी, स्वयं बनाए हैं उसने
भारत के युवकों के मन को भी भरमाये हैं उसने
इनको चीनी और अमरीकी शस्त्र दिलाये हैं उसने
और हमारे शान्ति-प्रहरियों के शीश कटाए हैं उसने

तीन बार मुँह की खाया है, चौथी बार का क्रंदन है
यह क्रंदन यदि अंतिम हो, अभिनन्दन हो, अभिनन्दन हो
-------------------------- शत, शत, शत अभिनन्दन हो

Alone_boy
23-01-2013, 02:40 PM
bahut khoob jai ji :bravo:

abhisays
23-01-2013, 04:12 PM
शानदार रचनाये हैं, जय जी। मज़ा आ गया। :bravo::bravo::bravo:

jai_bhardwaj
23-01-2013, 06:53 PM
bahut khoob jai ji :bravo:

शानदार रचनाये हैं, जय जी। मज़ा आ गया। :bravo::bravo::bravo:


आप दोनों ही महानुभावों को सूत्र पर अपने बहुमूल्य एवं ऊर्जा से भरपूर विचार देने के लिए आभार।:welcome:

Alone_boy
25-01-2013, 07:14 AM
:bravo: Aaj kuch छींटे और बौछार milenge kya :blush: :D

jai_bhardwaj
25-01-2013, 11:02 PM
:bravo: Aaj kuch छींटे और बौछार milenge kya :blush: :D

अवश्य बन्धु, यदि स्मृतियाँ और काल्पनिक उड़ान पर्याप्त ऊर्जावान हो तो छीटें और बौछारें मिलती रहेंगी ... कभी रुक रुक कर तो कभी मूसलाधार ..........:think:.
सूत्रभ्रमण के लिए आपका अभिनन्दन है बन्धु।:hello:

jai_bhardwaj
25-01-2013, 11:04 PM
मुझे लगा तुम आ जाओगी



मुझे लगा तुम आ जाओगी
मेरे सिर को सहलाओगी ।।

आज अगर तुम यहाँ पे होती
मुझको सीने से चिपटाती
बैठे बैठे हर पल रोती
रह रह कर तुम गले लगाती
चारो ओर सगे संबंधी
सास ससुर देवर और ननदी
कैसे खुद को समझाओगी।
मुझे लगा तुम आ जाओगी
मेरे सिर को सहलाओगी ।।

याद आ रहे मधुरिम पल वो
मधुर मिलन के अनुपम क्षण वो
प्रणयबद्ध हो मिले थे हम जब
रक्तिम-स्वेदज-रज के कण वो
मदिर मदिर वो कई महीने
ली है बलैया आज सभी ने
नन्हा सा 'जय' जन्माओगी।
मुझे लगा तुम आ जाओगी
मेरे सिर को सहलाओगी ।।

नन्हा सा वह रुई का फाहा
कम्बल में सोता सा आया
उसे दिया मेरी बाहों में
निकल पड़ी अंतिम राहों में
.~.~.~.~.~.~.~.~.~.~.~.~.
ढरक चला नैनों से पानी
पूर्ण हो गयी एक कहानी
अब जीवन भर तड़पाओगी।
मुझे लगा तुम आ जाओगी
मेरे सिर को सहलाओगी ।।

नन्हा-मुन्ना गोरा चिट्टा
आज हो गया हट्टा कट्टा
अब विवाह की बात चली है
तव-प्रतिरूपा बहू मिली है
मुझे तीर्थ अब जाना होगा
सारे पाप मिटाना होगा
आशा है तुम मिल पाओगी।
मुझे लगा तुम आ जाओगी
मेरे सिर को सहलाओगी।।

तनिक दूर ही मैं चल पाया
वाहन थोड़ा डगमगाया
फिर गहरी खाई में फिसल गया
सब के साथ ही ~.~.~.~.~.~.~.मैं भी मर गया
अपने शव के आस पास हूँ
थोड़ा विस्मित और उदास हूँ
मुझे लगा तुम आ जाओगी।
मेरे सिर को सहलाओगी।।

dipu
28-01-2013, 08:36 PM
Nice .................

jai_bhardwaj
07-02-2013, 11:30 PM
तुम सुखद सुबह, मैं श्रांत सांझ
तुम शीतल जल, मैं निर्झर हूँ
तुम वृहद् काव्य, मैं एक गीत
तुम झनन झनन, मैं झांझर हूँ

मैं नदी का तट, तो लहर हो तुम
मैं एक पथिक, तो डगर हो तुम
मैं बन्द द्वार, तो घर हो तुम
तुम शांत निशा, मैं बासर हूँ
तुम झनन झनन, मैं झांझर हूँ

मैं तरुवर हूँ, तुम पुष्पलता
यदि कवि हूँ मैं तो तुम कविता
मैं नील गगन तो तुम चन्दा
फूल तो तुम, मैं पाथर हूँ
तुम झनन झनन, मैं झांझर हूँ

तुम सारथि हो, मैं स्यन्दन हूँ
श्वास हो तुम, मैं जीवन हूँ
तुम एक उमंग तो मैं मन हूँ
तुम आँखें हो, मैं काजर हूँ
तुम झनन झनन, मैं झांझर हूँ

तुम मधुर छंद, मैं गायक हूँ
तुम गीता हो, मैं वाचक हूँ
तुम ज्योति हो, मैं दीपक हूँ
तुम सरिता हो, मैं सागर हूँ
तुम झनन झनन, मैं झांझर हूँ

तुम देवी हो, मैं मंदिर हूँ
तुम बदली हो, मैं अम्बर हूँ
तुम दयावती, मैं निष्ठुर हूँ
सुधा हो तुम, 'जय' गागर हूँ
तुम झनन झनन, मैं झांझर हूँ


श्रांत = थका/थकी हुयी
निर्झर = झरना
बासर = दिन
पाथर = पत्थर
स्यन्दन = रथ
अम्बर = आसमान
सुधा = अमृत

(लगभग 25 वर्ष पूर्व 30-03-1988 को रचित पंक्तियाँ)

anjaan
09-02-2013, 09:39 AM
बहुत बढ़िया जय जी। :bravo:

atul555
11-02-2013, 01:19 PM
great post.

iphone 5 (dabbaphone.blogspot.in)

jai_bhardwaj
21-02-2013, 04:47 PM
उत्साहवर्धन के लिए मैं कृतज्ञ हुआ बन्धुओं।

jai_bhardwaj
03-03-2013, 11:41 PM
ऐ बसन्ती वायु! रुक जा, रुक के कुछ आराम ले ले
राह तेरी है कठिन और तुझको जाना है अकेले ।।

नहीं मोह पाए हैं तुझको असम के चाय बगान सभी
रोक नहीं पाया है तपता, थार का रेगिस्तान कभी
बाधक कभी न बन पायी हैं, सर्द हवाएँ जम्मू की
तुझे नहीं लौटा पाई हैं, अंधड़ और आँधियाँ लू की
हार बैठे हैं तेरे से विश्व के सारे झमेले ...................... ऐ बसन्ती वायु ...


बहुमंजिले भवनों में तू तो, ठाठ से घूमी भी होगी
लहलहाते खेतों की तू, बालियाँ चूमी तो होंगी
सभ्यता देखी भी होगी, आदि से अब तक की तूने
ना ही बदला वेग तूने, ना नक़ल ही की है तूने
देखे होंगे तूने निश्चित, दुखों और खुशियों के मेले ....... ऐ बसन्ती वायु ....

कह रही है वायु तुझसे, जाग रे ऐ मूढ़ मानव!
छट रही है रात काली, छा रही है अब प्रभा नव
हार मानो मत किसी से, हर कदम चलते रहो
एक 'जय' उद्देश्य सबका, बढ़ चलो, बढ़ते रहो
सच्चा मानव है वही जो हँस के सुख व् दुःख को झेले ... ऐ बसन्ती वायु ....

khalid
04-03-2013, 07:30 AM
अति उत्तम जय भाई जी मंत्र मुग्ध हो गया
ग्रेट :bravo:

jai_bhardwaj
04-03-2013, 07:02 PM
अति उत्तम जय भाई जी मंत्र मुग्ध हो गया
ग्रेट :bravo:

धन्यवाद बन्धु, आते रहिये।

khalid
05-03-2013, 06:41 AM
धन्यवाद बन्धु, आते रहिये।

जरुर ..... :cheers:

jai_bhardwaj
13-03-2013, 12:22 AM
एक युवा पुत्र द्वारा अपनी माँ को अपमानित करके घर से निकाल देने की एक घटना से व्यथित होकर कई वर्ष पूर्व ये पंक्तियाँ लिखी थी .......... आज आप सभी के सम्मुख प्रस्तुत हैं :


।। कैसे नज़र मिला पाउँगा ।।

कतरा कतरा खून के आँसू,
आहत मन बेजार रो रहा
आज कहीं पर मानवता का
अति बर्बर संहार हो रहा

हम जननी के जाए हैं सब
हमें एक पहचान दिया
लाख उसे हम कर्ज ही माने
उसने तो पय-दान दिया

नन्हे-नन्हे कदम चले तो
खुशियों की चोटी पर थी वो
हमें तनिक भी कष्ट हुआ तो
भरे हृदय से रोती थी वो

आज हमारा पुष्ट युवा तन
उसकी ही मज्जा से बना है
मित्रों यह दुर्भाग्य हमारा
आज किया अपमान घना है

दग्ध हृदय से ज्वाला दहके
भग्न हृदय चीत्कार कर रहा
आँखों से दरिया बह निकली
अन्तस्तल फटकार रहा

दे न सके सम्मान अगर हम
तो अपमानित कर हँसे नहीं
विष की औषधि दे न सके तो
विषधर बन कर डसे नहीं

'जय' सोचे, कल घर जाऊँगा
लेकिन कैसे जा पाऊँगा
शुभ्रवस्त्रमयी माता जी से
कैसे नज़र मिला पाऊँगा
कैसे नज़र मिला पाऊँगा
कैसे नज़र मिला पाऊँगा
कैसे नज़र मिला पाऊँगा

jai_bhardwaj
13-03-2013, 12:22 AM
एक हल्की फुल्की हास्य रचना .............

एक भूखे कवि की कल्पना भी कैसी कैसी होती है ............

होंठ तुम्हारे रसीली सब्जी
गाल युगल हैं पराठे कुरमुर
नयन तुम्हारे हैं करेले भरवाँ
कान तुम्हारे पापड चुरमुर

नाभि तुम्हारी दूध कटोरी
कमर है जैसे प्याज के छल्ले
गर्दन प्यारी शिमला मिर्ची
और नितम्ब है दही के भल्ले

मोहनभोग रसीला यौवन
है चटनी की सुन्दर प्याली
'जय' तुमतो दूकान बनी हो
या फिर हो हलवाई निराली

jai_bhardwaj
13-03-2013, 12:24 AM
चलते - चलते बस यूँ ही .........

टहनियों में सूख रही थी, हिना की पत्तियाँ
'जय' किसने पत्थरों से इन्हें, पीस दिया है
वल्लाह! पत्तियाँ भी कितनी, जिंदा-दिल रही
पत्थर को पकडे हाथों को, रंग नसीब किया है

jai_bhardwaj
14-03-2013, 01:03 AM
भावना को व्यक्त करना, भी कला है बन्धु
इसी कला की पताका, लेकर चला हूँ बन्धु
सैकड़ों सन्मित्र रूठे,पाए सहस्त्रों सुहृद 'जय'
आँसुओं से भीगा हूँ, दिल भी जला है बन्धु

:giggle::giggle::giggle::giggle:

jai_bhardwaj
15-03-2013, 01:39 AM
क्यों दर्पणों के पास जाकर, देखते हैं हम स्वयं को
मन के अन्दर से निहारें, हम स्वयं से ही स्वयं को
किस लिए 'जय' चाहते, हम कल्पना व स्वप्न को
स्वप्न में जग हमको देखे, ऐसा बनायें हम स्वयं को

ndhebar
15-03-2013, 07:45 PM
एक हल्की फुल्की हास्य रचना .............

एक भूखे कवि की कल्पना भी कैसी कैसी होती है ............

होंठ तुम्हारे रसीली सब्जी
गाल युगल हैं पराठे कुरमुर
नयन तुम्हारे हैं करेले भरवाँ
कान तुम्हारे पापड चुरमुर

नाभि तुम्हारी दूध कटोरी
कमर है जैसे प्याज के छल्ले
गर्दन प्यारी शिमला मिर्ची
और नितम्ब है दही के भल्ले

मोहनभोग रसीला यौवन
है चटनी की सुन्दर प्याली
'जय' तुमतो दूकान बनी हो
या फिर हो हलवाई निराली


इस लजीज व्यंजन के बारे में पढ़कर भूख लग गया जय भैया

jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:57 PM
इस लजीज व्यंजन के बारे में पढ़कर भूख लग गया जय भैया

निशांत बन्धु, आपको देख कर रोम रोम में स्फूर्ति सी आ गयी है। सामाजिक एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण कदाचित आप मंच में कम ही आ पाते हैं। आपकी गरिमामय उपस्थिति से सूत्र को नवीन ऊर्जा मिली है। वैसे भी आपने इस सूत्र को बहुत सी अमूल्य प्रविष्टियाँ देकर निरंतर प्रगति दी है। आपके इस आत्मीय लगाव के लिए मैं कृतज्ञ हूँ। अपार आभार बन्धु।


बन्धु, इस दूकान में आकर सभी मस्त हो जाते हैं। यही इस का 'मेन मोटो'(परम उद्देश्य) भी है। कृपया आते रहें।

jai_bhardwaj
16-03-2013, 12:39 AM
~~~~~~ धुन सुनाओ तुम स्वयं को ~~~~~~


जब तुम्हारा अहम् मुखरित हो के कुछ कहने लगे
जब तुम्हारे मन के भय से, आत्मा डरने लगे
वर्जनाएं तोड़ कर के, हृदय जब बहने लगे
गज-घंट सी मंथर मनोहर, धुन सुनाओ तुम स्वयं को ।।

जब कल्पनाओं की उड़ाने, छत से टकराने लगे
जब निराशा की भँवर में, फँस के घबराने लगे
अपनी धड़कन के स्वरों से, तन ये थर्राने लगे
उड़ रही चिड़ियों के पर की, धुन सुनाओ तुम स्वयं को ।।

जब आश्रितों के कंधे और उनका सहारा न मिले
जब सफलता पास आकर भी, तुम्हे यदि न मिले
दृष्टि जिसको छू रही हो, वह किनारा न मिले
तड़ित-गति के त्वरित पल की, धुन सुनाओ तुम स्वयं को ।।

जब अकेलेपन का दानव, तुमको धमकाने लगे
जब वेदना की लहर उठ, तन-मन को सरसाने लगे
कोई बदली अति घनी हो, विरह बरसाने लगे
सिन्धु की 'जय' हर लहर की, धुन सुनाओ तुम स्वयं को ।।

:think::iagree::think::iagree::think::iagree:

jai_bhardwaj
18-03-2013, 01:39 AM
बस यूँ ही .............


बहुत मुश्किल से रात आती है
बड़ी जल्दी 'जय' तमाम होती है
आँखों में एक दूसरे के ताकते रहे
जब भी कहना चाहा,सलाम होती है

jai_bhardwaj
18-03-2013, 01:47 AM
क्यों मुझको ये लगे कि मेरे समीप हो
मोती हूँ मैं तुम्हारी, तुम मेरे सीप हो
है चारो ओर मेरे, 'जय' तेरा प्रकाश ही
बाती हूँ जिसकी मैं, तुम वो ही दीप हो

jai_bhardwaj
21-03-2013, 01:46 AM
चार पंक्तियाँ ...... मित्रों को समर्पित ................


ज़िन्दगी में कुछ नहीं, तो भी बहुत है ज़िन्दगी
हादसों को भूल जाओ, खुशनुमा है ज़िन्दगी

बहुत गहरे जख्मों को भी, वक्त का मरहम भरे
वक्त तो तब ही मिलेगा, जब जियोगे ज़िन्दगी

चाहने भर से कभी, मिलती नहीं हैं नेमतें
नेमतों के वास्ते तो, जीनी पड़ेगी जिन्दगी

जीतने का ज़ज्बा आता, हौसलापस्ती के बाद
ज़ज्बा 'जय' कायम रहेगा, गर रहेगी ज़िन्दगी
:think::think::think::think::think:

Kalyan Das
21-03-2013, 03:54 PM
वक्त तो तब ही मिलेगा, जब जियोगे ज़िन्दगी


:think::think::think::think::think:

:iagree:

jai_bhardwaj
22-03-2013, 12:46 AM
:iagree:

आपके मंच आगमन एवं सूत्र दर्शन से हमारा सम्मान वर्धन हुआ है बन्धु शुद्धात्मा जी। आपका हार्दिक अभिनन्दन है बन्धु।

jai_bhardwaj
01-04-2013, 12:06 AM
भाइयों के बीच घरेलू बंटवारे का एक शब्द चित्र


आज हमें कुछ स्वप्न दिखे हैं, अपनी देहरी गलियारे में
दुबकी सी इच्छाएं देखी, लम्बे चौड़े चौबारे में
खेत और खलिहान बगीचे, जैसे रो ही देंगे अब
उल्टी पडी दुधाडी देखी, बुझे हुए दुधियारे में

सिसक रही वह जगह जहाँ पर कभी पेड़ था दाड़िम का
उपहासित कर रहा आज वह तुलसी चौरा आँगन का
टुकड़ों में बँट गया बरोठा, तेरा और मेरा बन कर
चरही ऊपर बनी घडोंची, चूल्हा है भुसियारे में

बच्चों पर प्रतिबन्ध लगा है, इधर न जाना उधर ना जाना
वे बेचारे उलझ गए हैं, क्यों ना जाना, किधर न जाना
बच्चे तो बच्चे हैं 'जय', क्यों न बड़ों की समझ में आता
अलग रहे तो टूट जायेंगे, ताकत है सझियारे में


देहरी : दहलीज।
चौबारा : बरामदा।
दुधाडी : मिट्टी की हांडी जिसमे दूध गरम किया जाता था।
दुधियारा : फर्श के पास दीवाल में बना वह स्थान जहां पर उपलों के ऊपर दुधाडी रखी जाती थी।
दाड़िम : अनार।
बरोठा : एक लंबा चौड़ा कमरा।
चरही : जानवरों को चारा खिलाने की जगह।
घड़ोंची : घर का वह स्थान जहां पर घड़े रख कर पानी एकत्र किया जाता था।
भुसियारा : भूसा रखने वाला कमरा।
सझियारा : संयुक्त, सम्मिलित।

Kalyan Das
01-04-2013, 09:15 AM
भाइयों के बीच घरेलू बंटवारे का एक शब्द चित्र


बच्चों पर प्रतिबन्ध लगा है, इधर न जाना उधर ना जाना
वे बेचारे उलझ गए हैं, क्यों ना जाना, किधर न जाना


sabse buraa asar bachchon ke mano dashaa par padtaa hai !!!

jai_bhardwaj
01-04-2013, 07:20 PM
sabse buraa asar bachchon ke mano dashaa par padtaa hai !!!

आपका सूत्र पर पुनः भ्रमण करना मुझे हर्षित कर गया शुद्धात्मा जी।

jai_bhardwaj
03-04-2013, 07:21 PM
लिव इन रिलेशनशिप

हमारे चूल्हे में पेंदा तुम्हारा 'जय' सुलगता है
तुम्हारे ही भगोने में मेरा चावल फुदकता है
हमारी हर खुशी को तुम, तुम्हारे दुःख को हम जाने
बिना रिश्ते के कैसे यह, अजब रिश्ता पनपता है


पेंदा : किसी बर्तन(भगोना) की तली

jai_bhardwaj
11-04-2013, 10:47 PM
समय मिटा दे खारापन तो
हृदय खेत भी उर्वर होगा
बरसे कृमशः नेह वहाँ 'जय'
नए सृजन का उद्भव होगा

jai_bhardwaj
16-04-2013, 08:44 PM
तुम कहो तो हँस दूँगा मैं, लेकिन आँसू ही निकलेंगे
तुम कहो तो चल दूँगा, लेकिन कदम मेरे फ़िसलेंगे
तुम कहो तो मैं उड़ जाऊँ नभ में, लेकिन क्या होगा ?
पशु-पक्षी,शैल, नदी,मानव,'जय'धरती पर सिसकेंगे

jai_bhardwaj
17-04-2013, 07:10 PM
'जय' उदासी ओढ़ कर बैठा रहा
तुम हँसी को चूमकर चलते बने
काजू और बादाम तुमने ले लिए
मुझको हमेशा ही मिले कच्चे चने