rajnish manga
16-09-2013, 11:16 PM
जन आस्था और मूर्ति विसर्जन
आलेख: जाकिर अली ‘रजनीश’
नवरात्रिके अवसर पर होने वाले देवी जागरण एवं दुर्गा पूजा के कारण सम्पूर्ण भारत में आजकल भक्तिमय माहौल है। इस अवसर पर स्थापित होने वाली दुर्गा माँ की मूर्तियां आमतौर से पूजा समाप्त होने के बाद विसर्जन के रूप में नदियों में प्रवाहित की जाती हैं। हालाँकि धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार मूर्ति को विसर्जित करने और मिटटी में दबाने की बात कही गयी है, पर नदी में प्रवाहित करना तुलनात्मक रूप से आसान आसान होता है, इसलिए यही तरीका ज्यादा प्रचलित है।
लेकिनदिनों दिन बढ़ते जा रहे प्रदूषण की समस्या ने अब इस परम्परा को आज के युग की मांग के अनुसार बदले जाने की आवश्यकता उत्पन्न हो गयी है। हालाँकि मुम्बई सहित कुछ जगहों पर पिछले कई सालों से इसके लिए कृत्रिम तालाब बना कर मूर्ति विसर्जन करने की सराहनीय शुरुआत हो चुकी है, लेकिन ज्यादातर जगहों पर अभी भी इसके लिए पारम्परिक तरीका ही अपनाया जा रहा है।
मूर्तिविसर्जन से नदियों में होने वाला प्रदूषण इन दिनों काफी चर्चित है और सम्पूर्ण भारत वर्ष में इस पर एक बहस सी चल पड़ी है। उल्लेखनीय है कि देवी मूर्तियां बनाने के लिए मिटटी और प्लास्टर ऑफ पेरिस का प्रयोग किया जाता है। मूर्तियों में उपयोग में लाई गयी मिटटी तो आसानी से नदी में घुल जाती है, किन्तु प्लास्टर ऑफ पेरिस देर से घुलता है, जिसकी वजह से मछलियों के मरने तक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
इसकेअलावा यह भी सत्य है कि मूर्तिकार मूर्तियों को रंगने/सजाने के लिए कृत्रिम रंग, सिंदूर, वार्निश, स्टेनर, थिनर और पेंट का प्रयोग करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि इन तत्वों से नदी का पानी प्रदूषित होता है। इसके अलावा नदी के पानी में आक्सीजन की मात्रा कम हो जाने के कारण अक्सर नदी की मछलियां मर जाती हैं। इसके अलावा वही पानी जब सरकारी सप्लाई द्वारा हमारे घरों में पहुंचता है, तो हमारी किडनी, फेफड़े, नर्वस सिस्टम और त्वचा को भी बुरी तरह से प्रभावित करता है।
मूर्तिविसर्जन से होने वाले इन दुष्प्रभावों को देखते हुए कई शहरों में मूर्ति निर्माण में जहां कृत्रिम रंगों के प्रयोग को प्रतिबंधित कर दिया गया है, वहीं कुछ जगहों पर मूर्ति के नदियों में विसर्जन के स्थान पर उसे मिटटी में दबाने के लिए पूजा समितियों को सलाह दी जा रही है।
माँदुर्गाके भक्तजनों को चाहिए कि वे आज की आवश्यकताओं को समझें और मूर्ति विसर्जन के लिए कृत्रिम तालाब बनाकर उसमें प्रतिमा का विसर्जन करें। इसका एक फायदा यह भी होगा कि अवशेष के रूप में प्लास्टर ऑफ पेरिस को रिसाइकिल कर पुन उपयोग में लाया जा सकेगा। यदि पूजा कमेटियों को कृत्रिम तालाब बनाने में दिक्कत हो, तो वे लखनऊ नगर निगम के प्रयास से सीख लेते हुए प्रतिमाओं को मिटटी में दबाकर एक नई परम्परा की शुरूआत भी कर सकते हैं। यह प्रयास न सिर्फ मछलियों, जलीय जीवों और मनुष्यों के लिए भी लाभकारी होगा बल्कि इससे भक्ति की एक नई मिसाल भी कायम हो सकेगी। आशा है दुर्गा पूजा कमेटियां इस बारे में गम्भीरता से विचार करेंगी और सच्ची आस्था की मिसाल कायम करते हुए सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेंगी।
आलेख: जाकिर अली ‘रजनीश’
नवरात्रिके अवसर पर होने वाले देवी जागरण एवं दुर्गा पूजा के कारण सम्पूर्ण भारत में आजकल भक्तिमय माहौल है। इस अवसर पर स्थापित होने वाली दुर्गा माँ की मूर्तियां आमतौर से पूजा समाप्त होने के बाद विसर्जन के रूप में नदियों में प्रवाहित की जाती हैं। हालाँकि धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार मूर्ति को विसर्जित करने और मिटटी में दबाने की बात कही गयी है, पर नदी में प्रवाहित करना तुलनात्मक रूप से आसान आसान होता है, इसलिए यही तरीका ज्यादा प्रचलित है।
लेकिनदिनों दिन बढ़ते जा रहे प्रदूषण की समस्या ने अब इस परम्परा को आज के युग की मांग के अनुसार बदले जाने की आवश्यकता उत्पन्न हो गयी है। हालाँकि मुम्बई सहित कुछ जगहों पर पिछले कई सालों से इसके लिए कृत्रिम तालाब बना कर मूर्ति विसर्जन करने की सराहनीय शुरुआत हो चुकी है, लेकिन ज्यादातर जगहों पर अभी भी इसके लिए पारम्परिक तरीका ही अपनाया जा रहा है।
मूर्तिविसर्जन से नदियों में होने वाला प्रदूषण इन दिनों काफी चर्चित है और सम्पूर्ण भारत वर्ष में इस पर एक बहस सी चल पड़ी है। उल्लेखनीय है कि देवी मूर्तियां बनाने के लिए मिटटी और प्लास्टर ऑफ पेरिस का प्रयोग किया जाता है। मूर्तियों में उपयोग में लाई गयी मिटटी तो आसानी से नदी में घुल जाती है, किन्तु प्लास्टर ऑफ पेरिस देर से घुलता है, जिसकी वजह से मछलियों के मरने तक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
इसकेअलावा यह भी सत्य है कि मूर्तिकार मूर्तियों को रंगने/सजाने के लिए कृत्रिम रंग, सिंदूर, वार्निश, स्टेनर, थिनर और पेंट का प्रयोग करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि इन तत्वों से नदी का पानी प्रदूषित होता है। इसके अलावा नदी के पानी में आक्सीजन की मात्रा कम हो जाने के कारण अक्सर नदी की मछलियां मर जाती हैं। इसके अलावा वही पानी जब सरकारी सप्लाई द्वारा हमारे घरों में पहुंचता है, तो हमारी किडनी, फेफड़े, नर्वस सिस्टम और त्वचा को भी बुरी तरह से प्रभावित करता है।
मूर्तिविसर्जन से होने वाले इन दुष्प्रभावों को देखते हुए कई शहरों में मूर्ति निर्माण में जहां कृत्रिम रंगों के प्रयोग को प्रतिबंधित कर दिया गया है, वहीं कुछ जगहों पर मूर्ति के नदियों में विसर्जन के स्थान पर उसे मिटटी में दबाने के लिए पूजा समितियों को सलाह दी जा रही है।
माँदुर्गाके भक्तजनों को चाहिए कि वे आज की आवश्यकताओं को समझें और मूर्ति विसर्जन के लिए कृत्रिम तालाब बनाकर उसमें प्रतिमा का विसर्जन करें। इसका एक फायदा यह भी होगा कि अवशेष के रूप में प्लास्टर ऑफ पेरिस को रिसाइकिल कर पुन उपयोग में लाया जा सकेगा। यदि पूजा कमेटियों को कृत्रिम तालाब बनाने में दिक्कत हो, तो वे लखनऊ नगर निगम के प्रयास से सीख लेते हुए प्रतिमाओं को मिटटी में दबाकर एक नई परम्परा की शुरूआत भी कर सकते हैं। यह प्रयास न सिर्फ मछलियों, जलीय जीवों और मनुष्यों के लिए भी लाभकारी होगा बल्कि इससे भक्ति की एक नई मिसाल भी कायम हो सकेगी। आशा है दुर्गा पूजा कमेटियां इस बारे में गम्भीरता से विचार करेंगी और सच्ची आस्था की मिसाल कायम करते हुए सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेंगी।