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View Full Version : सिंहासन बत्तीसी


ABHAY
30-10-2010, 05:59 PM
सिंहासन बत्तीसी 00

बहुत दिनों की बात है। उज्जैन नगरी में राजा भोंज नाम का एक राजा राज करता था। वह बड़ा दानी और धर्मात्मा था। न्याय ऐसा करता कि दूध और पानी अलग-अलग हो जाये। उसके राज में शेर और बकरी एक घाट पानी पीते थे। प्रजा सब तरह से सुखी थी।
नगरी के पास ही एक खेत था, जिसमें एक आदमी ने तरह–तरह की बेलें और साग-भाजियां लगा रक्खी थीं।
एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। खूब तरकारियां उतरीं, लेकिन खेत के बीचों-बीच थोड़ी-सी जमीन खाली रह गई। बीज उस पर डाले थे, पर जमे नहीं। सो खेत वाले न क्या किया कि वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। पर उसपर वह जैसें ही चढ़ा कि लगा चिल्लाने- "कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओं और सजा दो।"
होते-होते यह बात राजा के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, "मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।"
लोग राजा को ले गये। खेत पर पहुंचने ही देखते क्या हैं कि वह आदमी मचान पर खड़ा है और कह रहा है- "राजा भोज को फौरन पकड़ लाओं और मेरा राज उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओं।"
यह सुनकर राजा को बड़ा डर लगा। वह चुपचाप महल में लौटा आया। फिक्र के मारे उसे रातभर नींद नहीं आयी। ज्यों-त्यों रात बिताई। सवेरा होते ही उसने अपने राज्य के ज्योतिषियों और पंडितों को इकट्ठा किया उन्होंने हिसाब लगाकर बताया कि उस मचान के नीचे धन छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाय।
खोदते-खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक लोगों ने देखा कि नीचे एक सिंहासन है। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो उसने उसे बाहर निकालने को कहा, लेकिन लाखों मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन
सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियां खड़ी थीं।
टस-से मस-न हुआ। तब एक पंडित ने बताया कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तबतक नहीं हटेगा जबतक कि इसकों कोई बलि न दी जाय।
राजा ने ऐसा ही किया। बलि देते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानों फूलों का हो। राजा बड़ा खुश हुआ। उसने कहा कि इसे साफ करो। सफाई की गई। वह सिंहासन ऐसा चमक उठा कि अपने मुंह देख लो। उसमें भांति-भांति के रत्न जड़ें थे, जिनकी चमक से आंखें चौधियाती थीं। सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियां बनी थीं। उनके हाथ में कमल का एक-एक फूल था। कहीं-कहीं सिंहासन का रंग बिगड़ गया था। कहीं कहीं से रत्न निकल गये थें। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर उसे ठीक कराओ।
ठीक होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन ऐसा हो गया था। कि जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगतीं, मानो अभी बोल उठेंगीं।
राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, "तुम लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालो। उसी दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।" एक दिन तय किया गया। दूर-दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गये। तरह-तरह के बाजे बजने लगे, महलों में खुशियों मनाई जाने लगीं।
सब लोगों के सामने राजा सिंहासन के पास जाकर खड़े हो गये। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सब-की-सब पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि ये बेजान पुतलियां कैसें हंस पड़ी। राजा ने डर के मारे अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से बोला, "ओ पुतलियों! सच-सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?"
पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, " राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन घमंड करना ठीक नहीं। सुनो! जिस राजा का यह सिहांसन है, उसके यहां तुम जैसे तो हजारों नौकर-चाकर थे।"
यह सुनकर राजा आग-बबूला हो गया। बोला, "मैं अभी इस सिहांसन को तोड़कर मिट्टी में मिला दूंगा।"
पुतली ने शांति से कहा, "महाराज! जिस दिन राजा विक्रमादित्य से हम अलग हुई उसी दिन हमारे भाग्य फूट गये, हमारे लिए सिंहासन धूल में मिल गया।"
राजा का गुस्सा दूर हो गया। उन्होंने कहा, "पुतली रानी! तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। साफ-साफ कहो।"
पुतली ने कहा, "अच्छा सुनो।"

ABHAY
30-10-2010, 06:03 PM
सिंहासन बत्तीसी 01
अंबावती में एक राजा राज करता था। उसका बड़ा रौब-दाब था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राहृण दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राहृणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राहृणीत रक्खा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रक्खा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रक्खा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।
जब वे लड़के बड़े हुए तो ब्राह्यणी का बेटा दीवान बना। बाद में वहां बड़े झगड़े हुए। उनसे तंग आकर वह लड़का घर से निकल पड़ा और धारापूर आया। हे राजन्! वहां का राज तुम्हारा बाप था। उस लड़के ने किया क्या कि राजा को मार डाला और राज्य अपने हाथ में करके उज्जैन पहुंचा। संयोग की बात कि उज्जैन में आते ही वह मर गया। उसके मरने पर क्षत्राणी का बेटा शंख गद्दी पर बैठा। कुछ समय बाद विक्रमादित्य ने चालाकी से शंख को मरवा डाला और स्वयं गद्दी पर बैठ गया।
एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार खेलने गया। बियावान जंगल। रास्ता सूझे नहीं। वह एक पेड़ चढ़ गया। ऊपर जाकर चारों ओर निगाह दौड़ाई तो पास ही उसे एक बहुत बड़ा शहर दिखाई दिया। अगले दिन राजा ने अपने नगर में लौटकर उसे बुलवाया। वह आया। राजा ने आदर से उसे बिठाया और शहर के बारे में पूछा तो उसने कहा, "वहां बाहुबल नाम का राजा बहुत दिनों से राज करता है। आपके पिता गंधर्वसेन उसके दीवान थे। एक बार राजा को उन पर अविश्वास हो गया और उन्हें नौकरी से अलग कर दिया। गंधर्बसेन अंबावती नगरी में आये और वहां के राजा हो गये। हे राजन्! आपको जग जानता है, लेकिन जबतक राजा बाहुबल आपका राजतिलक नहीं करेगा, तबतक आपका राज अचल नहीं होगा। मेरी बात मानकर राजा के पास जाओं और प्यार में भुलाकर उससे तिलक कराओं।"
विक्रमादित्य ने कहा, "अच्छा।" और वह लूतवरण को साथ लेकर वहां गया। बाहुबल ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया और बड़े प्यार से उसे रक्खा। पांच दिन बीत गये। लूतवरण ने विक्रमादित्य से कहा, "जब आप विदा लोगे तो बाहुबल आपसे कुछ मांगने को कहेगा। राजा के घर में एक सिंहासन हैं, जिसे महादेव ने राजा इन्द्र को दिया था। और इन्द्र ने बाहुबल को दिया। उस सिंहासन में यह गुण है कि जो उसपर बैठेगा। वह सात द्वीप नवखण्ड पृथ्वी पर राज करेगा। उसमें बहुत-से जवाहरात जड़े हैं। उसमें सांचे में ढालकर बत्तीस पुतलियां लगाई गई है। हे राजन्! तुम उसी सिंहासन को मागं लेना।"
अगले दिन ऐसा ही हुआ। जब विक्रमादित्य विदा लेने गया तो उसने वही सिंहासन मागं लिया। सिंहासन मिल गया। बाहुबल ने विक्रमादित्य को उसपर विठाकर उसका तिलक किया और बड़े प्रेम से उसे विदा किया।
इससे विक्रमादित्य का मान बढ़ गया। जब वह लौटकर घर आया तो दूर-दूर के राजा उससे मिलने आये। विक्रमादित्य चैन से राज करने लगा।
एक दिन राजा ने सभा की और पंडितों को बुलाकर कहा, "मैं एक अनुष्ठान करना चाहता हूं। आप देखकर बतायें कि मैं इसके योग्य हूं। या नहीं।" पंडितों ने कहा, "आपका प्रताप तीनों लोकों में छाया हुआ है। आपका कोई बैरी नहीं। जो करना हो, कीजिए।" पंडितों ने यह भी बताया कि अपने कुनबे के सब लोगों को बुलाइये, सवा लाख कन्यादान और सवा लाख गायें दान कीजिए, ब्राह्याणों को धन दीजियें, जमींदारों का एक साल का लगान माफ कर दीजिये।"
राजा ने यह सब किया। एक बरस तक वह घर में बैठा पुराण सुनता रहा। उसने अपना अनुष्ठान इस ढंग से पूरा किया कि दुनिया के लोग धन्य –धन्य करते रहे।
इतना कहकर पुतली बोली, "हे राजन्! तुम ऐसे हो तो सिंहासन पर बैठो।"
पुतली की बात सुनकर राजा भोज ने अपने दीवान को बुलाकर कहा, " आज का दिन तो गया। अब तैयारी करो, कल सिंहासन पर बैठेंगे।"
अगले दिन जैसे ही राजा ने सिंहासन पर बैठना चाहा कि दूसरी पुतली, हैं जो राजा विक्रमादित्य जैसा गुणी हो।"
राजा ने पूछा, "विक्रमादित्य में क्या गुण थे?"
पुतली ने कहा, "सुनो।"

ABHAY
30-10-2010, 06:06 PM
सिंहासन बत्तीसी 02
एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधने की हुई। अपना राजपाट अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर वह अंग में भभूत लगाकर जंगल में चले गये।

उसी जंगल में एक ब्राह्यण तपस्या कर रहा था। एक दिन देवताओं ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्यण को एक फल दिया और कहा, "जो इसे खा लेगा, वह अमर हो जायगा।" ब्राह्यण ने उस फल को अपनी ब्राह्यणी को दे दिया। ब्राह्याणी ने उससे कहा, "इसे राजा को दे आओं और बदले में कुछ धन ले आओ।" ब्राह्यण ने जाकर वह फल राजा को दे दिया। राजा अपनी रानी को बुहत प्यार करता था, उससे कहा, "इसे अपनी रानी का दे दिया। रानी की दोस्ती शहर के कोतवाल से थी। रानी ने वह फल उस दे दिया। कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। वह फल वेश्या के यहां पहुंचा। वेश्या ने सोचा कि, "मैं अमर हो जाऊंगी तो बराबर पाप करती रहूंगी। अच्छा होगा कि यह फल राजा को दे दूं। वह जीयेगा तो लाखों का भला करेगा।" यह सोचकर उसने दरबार में जाकर वह फल राजा को दे दिया। फल को देखकर राजा चकित रह गया। उसे सब भेद मालूम हुआ तो उसे बड़ा दु:ख हुआ। उसे दुनिया बेकार लगने लगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे-सुने राजघाट छोड़कर घर से निकल गया। राजा इंद्र को यह मालूम हुआ तो उन्होंने राज्य की रखवाली के लिए एक देव भेज दिया।
उधर जब राजा विक्रमादित्य का योग पूरा हुआ तो वह लौटे। देव ने उन्हे रोकां विक्रमादित्य ने उससे पूछा तो उसने सब हाल बता दिया। विक्रमादित्य ने अपना नाम बताया, फिर भी देव उन्हें न जाने दिया। बोला, "तुम विक्रमाकिदत्य हो तो पहले मुझसे लड़ों।"
दोनों में लड़ाई हुई। विक्रमादित्य ने उसे पछाड़ दिया। देव बोला, "तुम मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हारी जान बचाता हूं।"
राजा ने पूछा, "कैसे?"
देव बोला, "इस नगर में एक तेली और एक कुम्हार तुम्हें मारने की फिराक में है। तेजी पाताल में राज करता है। और कुम्हार योगी बना जंगल में तपस्या करता
"तुम विक्रमादित्य हो तो पहले मुझसे' लड़ो।"
है। दोनों चाहते हैं कि एक दूसरे को और तुमको मारकर तीनों लोकों का राज करें।
योगी ने चालाकी से तेली को अपने वश में कर लिया है। और वह अब सिरस के पेड़ पर रहता है। एक दिन योगी तुम्हें बुलायगा और छल करके ले जायगा। जब वह देवी को दंडवत करने को कहे तो तुम कह देना कि मैं राजा हूं। दण्डवत करना नहीं जानता। तुम बताओं कि कैसे करुं। योगी जैसे ही सिर झुकाये, तुम खांडे से उसका सिर काट देना। फिर उसे और तेली को सिरस के पेड़ से उतारकर देवी के आगे खौलते तेल के कड़ाह में डाल देना।"
राजा ने ऐसा ही किया। इससे देवी बहुत प्रसन्न हुई और उसने दो वीर उनके साथ भेज दिये। राजा अपने घर आये और राज करने लगे। दोनों वीर राजा के बस में रहे और उनकी मदद से राजा ने आगे बड़े–बडे काम किये।
इतना कहकर पुतली बोली, "राजन्! क्या तुममें इतनी योग्यता है? तुम जैसे करोड़ो राजा इस भूमि पर हो गये है।"
दूसरा दिन भी इसी तरह निकल गया। तीसरे दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को हुआ तो रविभामा नाम की तीसरी पुतली ने उसे रोककर कहा, "हे राजन्! यह क्या करते हो? पहले विक्रमादित्य जैसे काम करों, तब सिंहासन पर बैठना!"
राजा ने पूछा, "विक्रमादित्य ने कैसे काम किये थे?"
पुतली बोली, "लो, सुनो।"

ABHAY
30-10-2010, 06:10 PM
सिंहासन बत्तीसी 03
एक दिन राजा विक्रमादित्य नदी के किनारे अपने महल में बैठे गाना सुन रहे थे। उनका मन संगीत के रस में डूबा हुआ था। इतने में एक आदमी गुस्सा होकर अपनी स्त्री और बच्चे के साथ घर से निकला और वे सब-के-सब नदी में कुद पड़े। जब वे डूबने लगे तो उन्होनें पुकारा कि है कोई धर्मात्मा, जो हमें निकाले! आदमी बहुत 'हाय-हाय' कर रहा था और अपनी करती पर पछता रहा था। तभी राजा के आदमियों ने राजा को खबर दी। वे दौड़े आये। आदमी हैरान होकर कह रहा था कि है कोई ईश्चर का, बंदा जो हमें पार लगाये! राजा वहां आया और उन लोगों को डूबते देख स्वयं नदी में कूद पड़ा। पानी में आगे बढ़कर उसने स्त्री और बच्चे का, हाथ पकड़ लिया। तभी वह आदमी भी राजा से लिपट गया। राजा घबराया। उनके साथ वह भी डूबने लगा। उसी समय उसे अपने दोनों वीरों की याद आयी। याद आते ही वे दोनों वहां आ गये और चारों को बाहर निकाल लाये।

वह आदमी राजा के "पैरो पर गिर पड़ा और बोला, "महाराज! आपने हमारी जान बचाई है, आप हमारे भगवान हो।" राजा ने कहा, "बचाने वाला तो ईश्चर है।" और बहुत-सा धन देकर उन्हें विदा किया।

पुतली बोली, "हे राजन्! इतने हिम्मत वाले हो तो सिंहासन पर बैठो।"

मुहूर्त टल गया। अगले दिन राजा सिंहासन पर बैठने के लिए आया तो चंद्रवाली नाम की चौथी पुतली ने उसे रोका और कहा कि पहले मेरी बात सुन लो।

ABHAY
30-10-2010, 06:13 PM
सिंहासन बत्तीसी 04
राजा विक्रमादित्य ने एक बार बड़ा ही आलीशान महल बनवाया। उसमें कहीं जवाहरात जड़े थे तो कहीं सोने और चांदी का काम हो रहा था। उसके द्वार पर नीलम के दो बड़े-बड़े नगीने लगे थे, जिससे किसी की नजर न लगे। उसमें सात खण्ड थे। उसके तैयार होने में बरसों लगे। जब वह तैयार हो गया तो दीवान ने जाकर राजा को खबर दी। एक ब्राह्यण को साथ लेकर राजा उसे देखने गया। महल को देखकर ब्राह्यण ने कहा, "महाराज! इसे तो मुझे दान में दे दो।" ब्राह्यण का इतना कहना था कि राजा ने उस महल को तुंरत उसे दान कर दिया। ब्राह्यण बहुत प्रसन्न हुआ अपने कुनबे के साथ उसमें रहने लगा।

एक दिन रात को लक्ष्मी आयी और बोली, "मैं कहां गिरुं?" ब्राह्यण समझा कि कोई भूत है। वह डर के मारे वहां से भागा और राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने दीवान को बुलाकर कहा, "महल का जितना मूल्य है, वह ब्राह्यण को दे दो।"

इसके बाद राजा स्वयं जाकर महल में रहने लगा। रात को लक्ष्मी आयी और उसने वही सवाल किया। राजा ने तत्काल उतर दिया कि मेरे पलंग को छोड़कर जहां चाहों गिर पड़ों। राजा के इतना कहते ही सारे नगर पर सोना बरसा। सवेरे दीवान ने राजा को खबर दी तो राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जिसकी हद में जितना सोना हो, वह ले ले।

इतना कहकर पुतली बोली, " महाराज!; इतना था विक्रमादित्य प्रजा का हितकारी तुम किस तरह उसके सिंहासन पर बैठने की हिम्मत करते हो?"

वह साइत भी निकल गई। अगले दिन फिर राजा सिंहासन पर बैठने को उसकी ओर बढ़ा कि पांचवी पुतली लीलावती बोली, "राजन्! ठहरों। पहले मुझसे विक्रमादित्य के गुण सुन लो।"

ABHAY
30-10-2010, 06:15 PM
सिंहासन बत्तीसी 05
एक बार दो आदमी आपस में झगड़ रहे थे। एक कहता था कि तकदीर बड़ी है, दूसरा कहता था कि पुरुषार्थ बड़ा है। जब किसी तरह मामला न निबटा तो वे इन्द्र के पास गये। इन्द्र ने उन्हें विक्रमादित्य के पास भेज दिया। राजा ने उनकी बात सुनी और कहा कि छ: महीने बाद आना। इसके बाद राजा ने किया क्या कि भेस बदलकर स्वयं यह देखने निकल पड़ा कि तकदीर और पुरुषार्थ में कौन बड़ा हैं। घूमते-घूमते उसे एक नगर मिला। विक्रमादित्य उस नगर के राजा के पास पहुंचा और एक लाख रूपये रोज पर उसके यहां नौकर हो गया। उसने वचन दिया कि जो काम और कोई नहीं कर सकेगा, उसे वह करेगा, उसे वह करेगा। एक बार की बात है कि उस नगर की राजा बहुत-सा सामान जहाज पर लादकर किसी देश को गया। विक्रमादित्य साथ में था। अचानक बड़े जोर का तूफान आया। राजा ने लंगर डलवाकर जहाज खड़ा कर दिया। जब तुफान थम गया तो राजा ने लंगर उठाने को कहा, लेकिन लंगर उठा ही नहीं। इस पर राजा ने विक्रमादित्य से कहा, "अब तुम्हारी बारी है।" विक्रमादित्य नीचे उतरकर गया और भाग्य की बात कि उसके हाथ लगाते ही लंगर उठ गया, लेकिन उसके चढ़ने से पहले ही जहाज पानी और हवा की तेजी से चल पड़ा।

विक्रमादित्य बहते-बहते किनारे लगा। उसे एक नगर दिखाई दिया। ज्योहीं वह नगर में घुसा, देखता क्या है, चौखट पर लिखा है कि यहां की राजकुमारी सिंहवती का विवाह विक्रमादित्य के साथ होगा। राजा को बड़ा अचरज हुआ। वह महल में गया। अंदर सिंहवती पलंग पर सो रही थी। विक्रमादित्य वहीं बैठ गया। उसने उसे जगाया। वह उठ बैठी और विक्रमादित्य का हाथ पकड़कर दोनों सिंहासन पर जा बैठे। उनका, विवाह हो गया।

उन्हें वहां रहते–रहते काफी दिन बीत गये। एक दिन विक्रमादित्य को अपने नगर लौटने क विचार आया और अस्तबल में से एक तेज घोड़ी लेकर रवाना हो गया। वह अवन्ती नगर पहुंचा। वहां नदी के किनारे एक साधु बैठा था। उसने राजा को फूलों की एक माला दी और कहा, "इसे पहनकर तुम जहां जाओंगे, तुम्हें फतह मिलेगी। दूसरे, इसे पहनकर तुम सबको देख सकोगे, तुम्हें कोई भी नही देख सकेगा।" उसने एक छड़ी भी दी। उसमें यह गुण था कि रात को सोने से पहले जो भी जड़ाऊ गहना उससे मांगा जाता, वही मिल जाता।

दोनों चीजों को लेकर राजा उज्जैन के पास पहुंचा। वहां उसे एक ब्राह्यण और एक भाट मिले। उन्होंने राजा से कहा, "हे राजन्! हम इतने दिनों से तुम्हारे द्वार पर सेवा कर रहे हैं, फिर भी हमें कुछ नहीं मिला।" यह सुनकर राजा ने ब्राह्यण को छड़ी दे दी और भाट को माला। उनके गुण भी उन्हें बता दिये। इसके बाद राजा अपने महल में चला गया।

छ: महीने बीत चुके थे। सो वही दोनों आदमी आये, जिनमें पुरुषार्थ और भाग्य को लेकर झगड़ा हो रहा था। राजा ने उनकी बात का जवाब देते हुए कहा, "सुनो भाई, दुनिया में पुरुषार्थ के बिना कुछ नहीं हो सकता। लेकिन भाग्य भी बड़ा बली है।" दोनो की बात रह गई। वे खुशी-खुशी अपने अपने घर चले गये।

इतना कहकर पुतली बोली, "हे राजन्! तुम विक्रमादित्य जैसे तो सिंहासन पर बैठों।"

उस दिन का, मुहूर्त भी निकल गया। अगले दिन राजा सिंहासन की ओर बढ़ा तो कामकंदला नाम की छठी पुतली ने उसे रोक लिया। बोली, " पहले मेरी बात सुनो।"

ABHAY
30-10-2010, 06:17 PM
सिंहासन बत्तीसी 06
एक दिन राजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठा हुआ था कि एक ब्राह्यण आया। उसने बताया कि उत्तर में एक जगंल है। उसमें एक पहाड़ है। उसके आगे एक तालाब है, जिसमें स्फटिक का एक खंभा है। जब सूरज निकलता है तब वह भी बढ़ता जाता है। दोपहर को वह खंभा सूरज के रथ के बराबर पहुंच जाता है। दोपहर बाद जब सूरज के छिपने के साथ वह भी पानी में लोप हो जाता है।

यह सुनकर राजा को बड़ा अचंभा हुआ। ब्राह्यण के चले जाने पर उसने दोनों वीरों को बुलाया और ब्राह्यण की बताई सब बात सुनाकर कहा कि मुझे उस तालाब पर ले चलो।

वीरों ने बात-की बात में उसे वहां पहुंचा दिया। राजा देखता क्या है कि तालाब का चारों ओर से पक्का घाट बना है। और उसके पानी में हंस, मुर्गाबियां चकोर, पनडुब्बी किलोल कर रही हैं। राजा बहुत खुश हुआ। इतने में सूरज निकला। खंभा दिखाई देने लगा। राजा ने वीरों से कहा कि मुझे खंभे पर बिठा दो। उन्होंने बिठा दिया। अब खंभा ऊंचा होने लगा। ज्यों ज्यों वह सूरज के रथ के बराबरा पहुंचा, राजा को गर्मी लगने लगी। जब वह सूरज के रथ के बराबर पहुंचा, राजा जलकर अंगारा हो गया। सूरज के रथवान ने यह देखा तो रथ को रोक लिया। सूरज ने झांका तो उसे जला हुआ आदमी दिखाई दिया। उसने सोचा कि जबतक मरा हुआ आदमी पड़ा है, तबतक मैं भोजन कैसे करुं। उसने अमृत लेकर राजा पर छिड़का। राजा जी उठा। उसने सूरज प्रणाम किया। सूरज ने पूछा तो उसने बता दिया कि मेरा नाम विक्रमादित्य है। सूरज ने अपना कुण्डल उतारकर राजा को दिया और उसे विदा किया।

राजा अपने नगर में लौटा। रास्ते में उसे एक गुसाई मिला। उसने कहा, 'हे राजा! यह कुण्डल मुझे दे दो।" राजा ने हंसकर वह कुण्डल उसे दे दिया और अपने घर चला आया।

इतना कहकर कामकुंदता बोली, "तुम ऐसे हो तो सिंहासन पर बैठो।"

राजा बड़ा गुस्सा हुआ। उसने मन-ही-मन कहा, " कुछ भी हो, मैं कल सिंहासन पर जरुर बैठूंगा।"

राजा खंभे पर बैठ गया।

अगले दिन जब वह ऐसा करने लगा तो कोमुदी नाम की सातवीं पुतली उसके पैरों में आ गिरी। बोली,

"जरा मेरी बात सुन लो, तब सिंहासन पर बैठना।"

ABHAY
30-10-2010, 06:20 PM
सिंहासन बत्तीसी 07
एक दिन राजा विक्रमादित्य सो रहा था। आधी रात बीत चुकी थी। अचानक उसे किसी के रोने की आवाज सुनायी दी। राजा ढाल-तलवार लेकर, जिधर से आवाज आ रही थी, उधर चल पड़ा। चलते-चलते नदी पर पहुंचा। देखता क्या है कि एक बड़ी सुन्दर तरुण स्त्री धाड़े मार-मारकद रो रही है। राजा ने पूछा तो उसने कहा कि मेरा आदमी चोरी करता था। एक दिन कोतवाल ने उसे पकड़ लिया और सूली पर लटका दिया। मैं उसे प्यार से खाना खिलाने आयी हूं, पर सूली इतनी ऊंची है कि मेरा हाथ उसके मुंह तक नहीं पहुंच पाता।

राजा ने कहा, "इसमें रोने की क्या बात है? तुम मेरे कन्धे पर चढ़कर उसे खिला दो।"

वह स्त्री थी डायन। राजा के कन्धे पर सवार होकर उस आदमी को खाने लगी। पेट भरकर वह नीचे उतरी। राजा से बोली, "मैं तुमसे बहुत खुश हूं। जो चाहो सो मांगो।" राजा ने कहा, "अच्छा, तो मुझे अन्नपूर्णा दे दो।" वह बोली, "अन्नपूर्णा तो मेरी छोटी बहन के पास है। तुम मेरे साथ चलो, दे दूंगी।"

वे दोनों नदी के किनारे एक मकान पर पहुंचे। वहां उस स्त्री ने ताली बजाई। बहन आयी। स्त्री ने उसे सब बात बताई और कहा कि इसे अन्नपूर्णा दे दो। बहन ने हंसकर उसे एक थैली दी और कहा, 'जो भी खाने की चीज चाहोगे, इसमें से मिल जायगी।" राजा ने खुश उसे ले लिया और वहां से चल दिया। नदी पर जाकर उसने स्नान-ध्यान पूजा-पाठ किया। इतने में एक ब्राह्यण वहां आया। उसने कहा, "भूख लगी है।" राजा ने पूछा, "पूछा, "क्या खाओगे?" उसने जो बताया, वही राजा ने थैली में हाथ डालकर निकालकर दे दिया। ब्राह्यण ने पेट भरकर खाया, फिर बोला, "कुछ दक्षिणा भी तो दो।" राजा ने कहा, "जो मांगोगे, दूगां।" ब्राह्यण ने वही थैली मांग ली। राजा ने खुशी-खुशी दे दी और अपने घर चला आया।

पुतली बोली, "हे राजन्! विक्रमादित्य को देखो, इतनी मेहनत से पाई थैली ब्राह्यण को देते ने लगी। तुम ऐसे दानी हो तो सिंहासन पर बैठो, नहीं तो पाप लगेगा।"

राजा भोज सिंहासन पर बैठने को उतावला हो रहा था। अगले दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को आगे बढ़ा कि पुष्पावती नाम की आठवी पुतली ने उसे रोक दिया। बोली, "इस पर बैठने की आशा छोड़ दो।"

राजा ने पूछा, "क्यों?"

उसने कहा, "लो सुनों।"

ABHAY
30-10-2010, 06:26 PM
सिंहासन बत्तीसी 08

एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक बढ़ई आया। उसने राजा को काठ का, एक घोड़ा दिखाया और कहा कि यह ने कुछ खाता है, न पीता है और जहां चाहों, वहां ले जाता है। राजा ने उसी समय दीवान को बुलाकर एक लाख रुपया उसे देने को कहा।, "यह तो काठ का है और इतने दाम का नहीं है।" राजा ने चिढ़कर कहां, "दो लाख रुपये दो।" दीवान चुप रह गया। रूपये दे दिये। रूपये लेकर बढ़ई चलता बना, पर चलते चलते कह गया कि इस घोड़े में ऐड़ लगाना कोड़ा मत मारना।
एक दिन राजा ने उस पर सवारी की। पर वह बढ़ई की बात भूल गया। और उसने घोड़े पर कोड़ा जमा दिया। कोड़ा लगना था कि घोड़ा हवा से बातें करने लगा और समुद्र पार ले जाकर उसे जंगल में एक पेड़ पर गिरा दिया। लुढ़कता हुआ राजा नीचे गिरा मुर्दा जैसा हो गया। संभलने पर उठा और चलते-चलते एक ऐसे बीहड़ वन में पहुंचा कि निकलना मुश्किल हो गया। जैसे-तैसे वह वहां से निकला। दस दिन में सात कोस चलकर वह ऐसे घने जंगल में पहुंचा, जहां हाथ तक नहीं सूझता था। चारों तरफ शेर-चीते दहाड़ते थे। राजा घबराया। उसे रास्ता नहीं सूझता था। आखिर पंद्रह दिन भटकने के बाद एक ऐसी जगह पहुंचा जहां एक मकान था। और उसके बाहर एक ऊंचा पेड़ और दो कुएं थे। पेड़ पर एक बंदरियां थी। वह कभी नीचे आती तो कभी ऊपर चढ़ती।
राजा पेड़ पर चढ़ गया और छिपकर सब हाल देखने लगा। दोपहर होने पर एक यती वहां आया। उसने बाई तरफ के कुएं से एक चुल्लू पानी लिया और उस बंदरिया पर छिड़क दिया। वह तुरन्त एक बड़ी ही सुन्दर स्त्री बन गई। यती पहरभर उसके साथ रहा, फिर दूसरे कुएं से पानी खींचकर उस पर डाला कि वह फिर बंदरिया बन गई। वह पेड़ पर जा चढ़ी और यती गुफा में चला गया।
राजा को यह देखकर बड़ा अचंभा हुआ। यती के जाने पर उसने भी ऐसा ही किया। पानी पड़ते ही बंदरियां सुन्दर स्त्री बन गई। राजा ने जब प्रेम से उसकी ओर देखा तो वह बोली, "हमारी तरफ ऐसे मत देखो। हम तपस्वी है। शाप दे देंगे तो तुम भस्म हो जाओंगे।"
राजा बोला, " मेरा नाम विक्रमादित्य है। मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।"
राजा का नाम सुनते वह उनके चरणों में गिर पड़ी बोली, "हे महाराज! तुम अभी यहां से चले जाओं, नहीं तो यती आयगा और हम दोनों को शाप देकर भस्म कर देगा।"
राजा ने पूछा, "तुम कौन हो और इस यती के हाथ कैसे पड़ीं?"
वह बोली, "मेरा बाप कामदेव और मां पुष्पावती हैं। जब मैं बारह बरस की हुई तो मेरे मां-बाप ने मुझे एक काम करने को कहा। मैंने उसे नहीं किया। इसपर उन्होंने गुस्सा होकर मुझे इस यती को दे डाला। वह मुझे यहां ले आया। और बंदरियां बनाकर रक्खा है। सच है, भाग्य के लिखे को कोई नहीं मेट सकता।"
राजा ने कहा, "मैं तुम्हें साथ ले चलूंगा।" इतना कहकर उसने दूसरे कुएं का, पानी छिड़ककर उसे फिर बंदरिया बना दिया।
अगले दिन वह यती आया। जब उसने बंदरिया को स्त्री बना लिया तो वह बोली, "मुझे कुछ प्रसाद दो।"
यती ने एक कमल का फूल दिया और कहा, " यह कभी कुम्हलायगा नहीं और रोज एक लाल देगा। इसे संभालकर रखना।"
यती के जाने पर राजा ने बंदरिया को स्त्री बना लिया। फिर अपने वीरों को बुलाया। वे आये और तख्त पर बिठाकर उन दोनों को ले चले। जब वे शहर के पास आये ता देखते क्या है कि एक बड़ा सुन्दर लड़का खेल रहा है। अपने घर चला गया। राजा स्त्री को साथ लेकर अपने महल में आ गये।
अगले दिन कमल में एक लाल निकला। इस तरह हर दिन निकलते-निकलते बहुत से लाल इकट्ठे हो गये। एक दिन लड़के का बाप उन्हें बाजार में बेचने गया। तो कोतवाल ने उसे पकड़ लिया। राजा के पास ले गया। लड़के के बाप ने राजा को सब हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। सुनकर राजा को कोतवाल पर बड़ा गुस्सा आया और उसने हुक्म दिया कि वह उसे बेकसूर आदमी को एक लाख रुपया दे।
इ़तना कहकर पुतली बोली, "हे राजन्! जो विक्रमादित्य जैसा दानी और न्यायी हो, वहीं इस सिंहासन पर बैठ सकता है।"
राजा झुंझलाकर चूप रह गया। अगले दिन वह पक्का करके सिहांसन की तरफ बढ़ा कि मधुमालती नाम की नंवी पुतली ने उसका रास्ता रोक लिया। बोली, "हे राजन्! पहले मेरी बात सुनो।"

ABHAY
30-10-2010, 06:28 PM
सिंहासन बत्तीसी 09
एक बार राजा विक्रमादित्य ने होम किया। ब्राह्यण आये, सेठ-साहूकार आये, देश-देश के राजा आये। यज्ञ होने लगा। तभी एक ब्राह्यण मन की बात जान लेता था। उसने आशीर्वाद दिया, "हे राजन्! तू चिरंजीव हो।"

जब मन्त्र पूरे हुए तो राजा ने कहा, "हे ब्राह्यण! तुमने बिना दण्डवत् के आशीर्वाद दिया, यह अच्छा नहीं किया-

जब लग पांव ने लागे कोई।

शाप समान वह आशिष होई॥"

ब्राह्यण ने कहा, "राजन् तुमने मन-ही-मन दण्डवत् की, तब मैंने आशीष दी।"

यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बहुत-सा धन ब्राह्यण को दिया। ब्राह्यण बोला, "इतना तो दीजिये, जिससे मेरा काम चले।"

इस पर राजा ने उसे और अधिक धन दिया। यज्ञ में और जो लोग आये थे। उन्हें भी खुले हाथ दान दिया।

इतना कहकर पुतली बोली, "राजन्! तुम सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं। शेर की बराबरी सियार नहीं कर सकता, हंस के बराबर कौवा नहीं हो सकता, बंदर के गले में मोतियों की माला नहीं सोहती। तुम सिंहासन पर बैठने का विचार छोड़ दो।"

पर राजा भोज नहीं माना। अगले दिन फिर सिहांसन की ओर बढ़ा तो दसवीं पुतली प्रेमवती ने उसके रास्ते मे बाधा डाल दी। बोली, "पहले मेरी बात सुनो।"

राजा ने बिगड़कर कहा, "अच्छा, सुनाओ।"

पुतली बोली, "लो सुनों।"

ABHAY
30-10-2010, 06:30 PM
सिंहासन बत्तीसी 10
एक दिन विक्रमादित्य अपने बगीचे में बैठा हुआ था। वसन्त ऋतु थी। टेसू फूले हुए थे। कोयल कूक रही थी। इतने में एक आदमी राजा के पास आया। उसका शरीर सूखकर कांटा हो रहा था। खाना पीना उसने छोड़ दिया था, आंखों से कम दीखता था। व्याकुल होकर वह बार-बार रोता था। राजा ने उसे धीरज बंधाया और रोने का कारण पूछा। उसने कहा, "मैं कार्लिजर का रहनेवाला हूं। एक यती ने बताया कि अमुक जगह एक बड़ी सुन्दर स्त्री तीनों लोकों में नहीं है। लाखों राजा-महाराज और दूसरे लोग आते हैं। उसके बाप ने एक कढ़ाव में तेल खौलवा रक्खा है। कहता है कि कढ़ाव में स्नान करके जो जाता निकल आयगा, उसी के साथ वह अपनी जल चुकें है। जबसे उस स्त्री को देखा है, तबसे मेरी यह हालत हो गई है।"

राजा ने कहा, "घबराओ मत। कल हम दोनों साथ-साथ वहां चलेंगे।"

अगले दिन राजा ने स्नान पूजा आदि से छूट्टी पाकर दोनों वीरों को बुलाया।

राजा के कहने पर वे उन्हें वहीं ले चले, जहां वह सुन्दर स्त्री रहती थी। वहां पहुंचकर वे देखते क्या हैं कि बाजे बज रहे है। और राजकन्या माला हाथ में लिये घूम रही है। जो कढ़ाव में कूदता है, वही भून जाता है।

राजा उस कन्या के रूप को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और कढ़ाव के पास जाकर झट उसमें कूद पड़ा। कूदते ही भुनकर राख हो गया।

राजा के दोनों वीरों ने यह देखा तो अमृत ले आये और जैसे ही राजा पर छिड़का, वह जी उठा।

फिर क्या था! सबको बड़ा आनन्द हुआ। राजकन्या का विवाह राजा

के साथ हो गया। करोड़ो की सम्पत्ति मिली।

स्त्री ने हाथ जोड़कर कहा, "हे राजन्! तुमने मुझे दु:ख से छुड़ाया"

राजा के साथ जो आदमी गया था, वह अब भी साथ था। राजा ने उस स्त्री को बहुत-से माल-असबाब सहित उसे दे दिया।

राजकन्या ने हाथ जोड़कर राजा से कहा, "हे राजन्! तुमने मुझे दु:ख से छुड़ाया। मेरे बाप ने ऐसा पाप किया था कि वह नरक में जाता और मैं उम्र भर क्वांरी रहती।"

इतना कहकर पुतली बोली, "देखा तुमने! राजा विक्रमादित्य ने कितना पराक्रम करके पाई हुई राजकन्या को दूसरे आदमी को देते तनिक भी हिचक न की। तुम ऐसा कर सकोगे तभी सिंहासन पर बैठने के योग्य होगें।"

राजा बड़े असमंजस में पड़ा। सिहांसन पर बैठने की उसकी इच्छा इतनी बढ़ गई थी कि अगले दिन वह फिर वहां पहुंच गया, लेकिन पैर रखने को जैसे ही बढ़ा कि ग्यारहवीं पुतली पद्मावती ने उसे रोक दिया। बोली, "ठहरो मेरी बात सुनो।"

राजा रूक गया। पुतली ने अपनी बात सुनायी।

ABHAY
30-10-2010, 06:36 PM
सिंहासन बत्तीसी 11
एक दिन विक्रमादित्य अपने महल में सो रहा था। रात का समय था। अचानक उत्तर दिशा से किसी के रोने की आवाज आयी। राजा ढाल-तलवार लेकर अंधेरी रात में उसी तरफ बढ़ा। जंगल में जाकर देखता क्या है कि एक स्त्री धाड़े मार-मारकर रो रहीहै। एक देव उसे हैरान कर रहा था। राजा को क्रोध आ गया। दोनों में लड़ाई ठन गई। राजा ने ऐसे जोर से तलवार मारी कि देव का सिर धड़ से अलग हो गया। देव के सिर और धड़ से दो वीर निकले। वे राजा से लिपट गये। उनमें से एक को तो राजा ने मार डाला, दूसरा बचकर भाग गया।

राजा ने उस स्त्री से साथ चलने को कहा। स्त्री बोली, "हे भूपाल!मैं कहीं भी जाऊं, उस राक्षस से बच नहीं पाऊंगी। उसके पास एक मोहनी है, जो उसके पेट में रहती है। उसमें ऐसी ताकत है कि एक देव के मरने पर चार देव बना सकती है।"

यह सूनकर राजा वहीं छिप गया और देखने लगा कि आगे क्या होता है। शाम होते ही वह देव फिर आया। उस स्त्री को हैरान करने लगा। राजा से यह न देखा गया। वह निकलकर आया। और देव से लड़ने लगा। लड़ते–लड़ते उसने ऐसा खांड़ा मारा कि देव का सिर कट गया। धड़ से मोहनी निकली और अमृत लेने चली। राजा ने उसी समय अपने वीरों को बुलाया। उसने कहा कि देखों, यह स्त्री जाने न पाये। वीर उसे पकड़कर ले आये। राजा ने पूछा, " तुम कौन हो? हंसती हो तो फूल झड़ते हैं। देव के पेट में क्यों रहती हो?"

वह बोली, "मैं पहले शिव की गण थी। एक बार शिव की आज्ञा को मानने से चूक गई तो शाप देकर उन्होंने मुझे मोहनी बना दिया। और इस देव को दे दिया। तबसे यह मुझे अपने पेट में डाले रहता है। हे राजन्! अब मैं तुम्हारे बस में हूं। तुम्हारे पास रहूंगी, जैसे महादेव के पास पार्वती रहती थीं।"

राजा और देव लड़ने लगे।

राजा मोहनी और उस दूसरी स्त्री को लेकर अपने महल में आया। उसने मोहनी से विवाह कर लिया। दूसरी स्त्री से यह पूछने पर कि वह कौन है, उसने बताया, "मैं सिंहलद्वीप के एक ब्राह्यण की कन्या हूं। एक दिन अपनी सखियों के साथ तालाब पर नहाने गई। नहा-धोकर पूजा-पाठ करके लौटने लगी तो यह राक्षय मेरे सामने जा गया। इसने मुझे बहुत सताया। हे राजन्! तुमने मेरा जो उपकार किया उसे मैं कभी नहीं भूलूंगी। तुम हजार बरस तक जीओगे। और नाम कमाओगें।"

इसके बाद राजा ने अपने राज्य में से एक योग्य ब्राह्यण ढुंढ़वाकर उसके साथ उस स्त्री का विवाह करा दिया और स्वयं उसका कन्यादान किया। लाखों रूपये उन्हें दान में दिये।

कहानी सुनाकर पुतली बोली, "हे राजा भोज! तुम ऐसे हो तो सिंहासन पर बैठो।"

राजा जी मसोसकर रह गया। उसने तय किया कि अब वह किसी का नहीं सुनेगा। लेकिन अगले दिन फिर वही हुआ। राजा के सिंहासन की ओर पैर बढ़ाते ही बारहवीं पुतली कीर्तिमती ने उसे रोकर सुनाया:

ABHAY
30-10-2010, 06:39 PM
सिंहासन बत्तीसी 12
एक दिन विक्रमादित्य अपने दरबार में बैठा हुआ था। उसने कहा, "कलियुग में और कोई दाता है?" एक ब्राह्मण ने बताया कि समुद्र के किनारे एक राजा रहता है, वह बड़ा दान करता है। सवेरे स्नान करके एक लाख रुपये देता है, तब जल पीता है। ऐसा धर्मात्मा राजा हमने नहीं देखा।

ब्राह्मण की बात सुनकर राजा की इच्छा हुई कि उसे देखे। अगले दिन अपने वीरों की मदद से वहां पहुंच गया। वहां के राजा के उसी बड़ी आवभगत की! वह उसके यहां चार हजार रुपये पर काम करने लगा तय हुआ कि जो काम कोई भी नहीं कर सकेगा, उसे वह करेगा।

वहां रहते-रहते नौ-दस दिन बीत गये। राजा विक्रमादित्य सोचने लगा कि दान में यह जो एक लाख रुपये देता है, वे कहां से आते हैं? पता लगाना चाहिए। एक दिन दो पहर रात गये, विक्रमादित्य ने देखा कि राजा जंगल की ओर अकेला जा रहा है। वह पीछे-पीछे हो लिया। जंगल में जाकर राजा देवी के मंदिर के आगे रुका। वहां एक कढ़ाव में तेल खौल रहा था। राजा ने तालाब में स्नान किया, देवी के दर्शन किये और फिर कढ़ाव में कूद पड़ा। कूदते ही भुन गया। तब चौंसठ जोगिनियां आयीं और उन्होंने राजा के बदन को नोंच-नोंचकर खा डाला। इतने में देवी आयी और उसने हाड़-पिंजर पर अमृत छिड़क दिया। राजा उठ खड़ा हुआ। देवी ने मंदिर में से एक लाख रुपये लाकर दिय। राजा रुपये लेकर चला आया।

अगले दिन विक्रमादित्य ने भी ऐसा ही किया। उसे भी लाख रुपये मिल गये। इस प्रकार सात बार उसने ऐसा किया। आठवीं बार जब वह कढ़ाव में कूदने को हुआ तो देवी ने उसे रोक दिया। कहा कि जो मांगो सो पाओ। विक्रमादित्य ने उससे वह थैली मांग ली, जिसमें से वह देवी रुपये दिया करती थी। देवी ने दे दी।

दूसरे दिन हुआ क्या कि जब वह राजा रोज के हिसाब से वहां पहुंचा तो देखता क्या है कि न वहां मंदिर है, न कढ़ाव। वह दु:खी होकर घर लौट आया। उसे पास दान करने को रुपये न थे तो वह जल कैसे पीता? कई दिन बीत गये। राजा की देह सूख गई। एक दिन विक्रमादित्य ने उससे पूछा कि आपके दु:ख का क्या कारण है? राजा ने बता दिया। यह सुनते ही विक्रम ने थैली निकालकर उसे दे दी और कहा, "महाराज, अब स्नान-ध्यान करके नित्य कर्म कीजिये। इस थैली से जितने रुपये चाहोगे, मिल जायंगे।"

थैली मिल जाने पर राजा का सब काम अच्छी तरह से चलने लगा। विक्रमादित्य अपने नगर को लौट आया।

पुतली बोली, "राजन्, देखा ऐसी थैली देने में विक्रमादित्य न हिचका, न पछताया। ऐसा जो राजा हो, वही सिंहासन पर बैठे।"

राजा भोज बड़ी द्विविधा में पड़ा। क्या करे? सिंहासन पर बैठने की उसी इच्छा इतनी बलवती थी कि अगले दिन वह फिर उधर गया, पर हुआ वही, जो पिछले दिनों में हुआ था। तेरहवीं पुतली सुलोचना आगे आयी और उसने राजा को रोककर कहा कि पहले मेरी बात सुनो, तब सिंहासन पर पैर रखना।

ABHAY
30-10-2010, 06:41 PM
सिंहासन बत्तीसी 13
एक बार राजा विग्रमादित्य शिकार खेलने जंगल में गया। बहुत-से मुसाहिब भी उसे साथ थे। जंगल में जाकर शिकार के लिए तैयारी हुई। जानवर घिर-घिरकरआने लगे। इसी बीच राजा की निगाह एक परिंदे पर पड़ी। उसने बाज छोड़ा और स्वयं घोड़े पर सवार होकर उसे देखता हुआ चला। चलते-चलते कोसों निकल गया। शाम होने को हुई तब उसे पता चला कि उसे साथ कोई नहीं है। चारों ओर घना जंगल था। रात होने पर राजा ने घोड़े को एक पेड़ से बांध दिया और उसकी जीन बिछाकर बैठ गया। तभी उसने देखा कि पास में जो नदी है, वह बढ़ती आ रही है। राजा पीछे हट गया। नदी और बढ़ आयी। उसी समय उसने देखा कि धार में एक मुर्दा बहा आ रहा है और उस पर एक योगी और एक बैताल खींचातानी कर रहे हैं। बैताल कहता था कि मैं इसे हजार कोस से लाया हूं। सो मैं खाऊंगा। योगी कहता था कि मैं इस पर अपना मंत्र साधूंगा। जब झगड़ा किसी तरह नहीं निबटा तो उनकी निगाह राजा पर पड़ी। वे उसके पास आये और सब हाल सुनाकर कहा कि तुम जो फैसला कर दोगे, उसे हम मान लेंगे। राजा ने कहा कि पहले मुझे तुम दोनों कुछ दो, तब न्याय करुंगा। योगी ने हंसकर उसे एक बटुआ दिया और उससे कहा कि तुम जो मांगोगे, वही यह देगा। बैताल ने उसे मोहनी तिलक दिया। कहा कि जब तुम घिसकर इसे माथे पर लगा लोगे तो सब तुमसे दबेंगे, कोई तुम्हारे सामने नहीं ठहर सकेगा।

राजा ने दोनों चीजें ले लीं। फिर उसने बैताल से कहा कि तुम्हें अपना पेट भरना है न! तो मेरे घोड़े को खा लो और इस मुर्दे को योगी को दे दो। इस फैसले से दोनों खुश हो गये।

राजा दोनों चीजों को लेकर वहां से चला। अपने नगर के पास पहुंचने पर उसे एक भिखारी मिला। वहा बोला, "महाराज, कुछ दीजिये।"

राजा ने बटुआ उसे दे दिया और उसका भेद बता दिया। उसके बाद राजा घर लौट आया।

पुतली बोली, "राजन्, इतना दिलवाला कोई हो तो सिंहासन पर बैठें।"

दूसरे दिन राजा बड़े तड़के उठा। उसने दीवान को बुलाकर कहा कि आज हम सिंहासन पर जरुर बैठेंगे। सौ गायें दान की गई। ऐन वक्त पर चौदहवीं पुतली त्रिलोचनी ने रोक दिया। राजा ने उठा पैर पीछे खींच लिया।

त्रिलोचनी ने सुनाया:

ABHAY
30-10-2010, 06:42 PM
सिंहासन बत्तीसी 14
एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा हुई कि वह यज्ञ करे। देश-देश को न्योते भेजे। सातों द्वीपों के ब्राह्मणों को बुलाया, राजाओं को इकट्ठा किया। एक वीर स्वर्ग के देवताओं को बुलाने भेजा राजा ने एक ब्राह्मण से कहा कि तुम जाकर समुद्र को न्योता दे आओ। ब्राह्मण चला। चलते-चलते समुद्र के किनारे पहुंचा। वहां देखता क्या है कि चारों ओर पानी-ही-पानी है। न्योता किसे दे? तब उसने चिल्लाकर कहा कि हे समुद्र! तुम यज्ञ में आना।

जब वह चला तो आगे उसे ब्राह्मण के भेस में समुद्र मिला। उसने कहा, "मैं आने को तो तैयार हूं, लेकिन मेरे आने से पानी भी आयगा और बहुत-से नगर डूब जायंगे। सो तुम राजा से सब बात कह देना और ये पांच लाल और घोड़ा सौगात में मेरी ओर से दे देना।"

ब्राह्मण पांचों रत्न और घोड़ा लेकर वापस आया और राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने वे चीजें उसी ब्राह्मण को दान में दे दीं। ब्राह्मण प्रसन्न होकर चला गया।

पुतली बोली, "ऐसा कोई दानी हो तो सिंहासन पर बैठै!"

राजा चुप रह गया। अगले दिन पंद्रहवी पुतली अनूपवती की बारी आयी। उसने भी वही किया, जो चौदह कर चुकी थीं। उसने कहा कि लो, विक्रमादित्य के गुण कान लगा कर सुनो।

ABHAY
30-10-2010, 06:46 PM
सिंहासन बत्तीसी 15
एक दिन राजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठे हुए थे। कहीं से एक पंडित आया। उसने राजा को एक श्लोक सुनाया। उसका भाव था कि जबतक चांद और सूरज हैं, तबतक विद्रोही और विश्वासघाती कष्ट पायंगे। राजा ने उसे एक लाख रुपये दिये और कहा कि इसका मर्म मुझे समझाओ। ब्राह्मण ने कहा, "महाराज! एक बूढ़ा अज्ञानी राजा था। उसके एक रानी थी, जिसे वह बहुत प्यार करता था। हमेशा साथ रखता था। दरबार में भी उसे साथ बिठाता था। एक दिन उसके दीवान ने कहा, "महाराज! ऐसा करना अच्छा नहीं है। लोग हंसते हैं। अच्छा हो कि आप रानी का एक चित्र बनवाकर सामने रख लें।" राजा को यह सलाह पसन्द आयी। उसने एक बड़े होशियार चित्रकार को बुलवाया। वह चित्रकार ज्योतिष भी जानता था। उसने राजा के कहने पर एक बड़ा ही सुंदर चित्र बना दिया। राजा को वह बहुत पसंद आया। लेकिन जब उसी निगाह टांग पर गई तो वहा एक तिन था। राजा को बड़ा गुस्सा आया कि रानी का यह तिल इसने कैसे देखा।
उसने उसी समय चित्रकार को बुलवाया और जल्लाद को आज्ञा दी कि जंगल में ले जाकर उसी आंखें निकाल लाओ। जल्लाद लेकर चले। आगे जाकर दीवान ने जल्लादों को रोका और कहा कि इसे मुझे दे दो और हिरन की आंखें निकालकर राजा को दे दो। जल्लादों ने ऐसा ही किया। जब वे आंखें लेकर आये तो राजा ने कहा, "इन्हें नाली में फेंक दो।"
उधर एक दिन राजा का बेटा जंगल में शिकार खेलने गया। सामने एक शेर को देखकर वह डर के मारे पेड़ पर चढ़ गया। वहां पहले से ही एक रीछ बैठा था। उसे देखते ही उसके प्राण सूख गये। रीछ ने कहा, "तुम घबराओ नहीं। मैं तुम्हें नहीं, खाऊंगा, क्योंकि तुम मेरी शरण में आये हो।" जब रात हुई तो रीछ बोला, "हम लोग दो-दो पहर जागरि पहरा दें, तभी इस नाहर से बच सकेंगे। पहले तुम सो लो।"
राजकुमार सो गया। रीछ चौकसी करने लगा। शेर नीचे से बोला, "तुम इस आदमी को नीचे फेंक दो। हम दोनों खा लेंगे। अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो जब इस आदमी की पहरा देने की बारी आयगी, तब यह तेरा सिर काटकर गिरा देगा।" रीछ ने कहा, "राजा के मारने में, पेड़ के काटने में, गुरु से झूठ बोलने में, और जंगल जलाने में बड़ा पाप लगता है। उससे ज्यादा पाप विद्रोह और विश्वासघात करने में लगता है। मैं ऐसा नहीं करुंगा।"
आधी रात होने पर राजकुमार जागा और रीछ सोने लगा। शेर ने उससे भी वही बात कहीं। बोला, "तू इसका भरोसा मत कर। सवेरा होते ही यह तुझे खा जायगा।"
रीछ ने कहा, "तुम घबराओ नहीं।"
राजकुमार उसकी बातों में आ गया और इतने जोर से पेड़ को हिलाया कि रीछ गिर पड़े। इतने में रीछ की आंखें खुल गईं और वह एक टहनी से लिपट गया। बोला, "तू बड़ा पापी है। मैंने तेरी जान बचाई और तू मुझे मारने को तैयार हो गया। अब मैं तुझे खा जाऊं तो तू क्या कर लेगा!"
राजकुमार के हाथ-पांव फूल गये। खैर, सवेरे शेर तो चला गया और इधर रीछ राजकुमार को गूंगा-बहरा बनाकर चलता बना।
राजकुमार घर लौटा तो उसकी हालत देखकर राजा को बड़ा दु:ख हुआ। उसने बहुतेरा इलाज कराया, पर कोई फायदा न हुआ। तब एक दिन दीवान ने कहा, "मेरे बेटे की बहू बहुत होशियार है।" राजा ने कहा, "बुलाओ।" दीवान के यहां वह चित्रकार छिपा हुआ था। उसने उसका स्त्री का भेस बनवाया और दरबार में लाया। पर्दे की आड़ में वह स्त्री बैठी। उसने राजकुमार से कहा, "मेरी बात सुनो। विभीषण बड़ा शूरवीर था, पर दगा करके रामचन्द्र से जा मिला और राज्य का नाशक हुआ। भस्मापुर ने महादेव की तपस्या करके वर पाया, फिर उन्हीं के साथ विश्वासघात करके पार्वती को लेने की इच्छा की, सो भस्म हो गया। हे राजकुमार! रीछ ने तुम्हारे साथ इतना उपकार किया था, पर तुमने उसे धोखा दिया। पर इसमें दोष तुम्हारा नहीं है, तुम्हारे पिता का है। जैसा बीज बोयेगा, वैसा ही फल होगा।"
इतनी बात सुनते ही राजकुमार उठ बैठा। राजा सब सुन रहा था। बोला, "रीछ की बात तुम्हें कैसे मालूम हुई?"
उसने कहा, "राजन्! जब मैं पढ़ने जाती थी तो मैंने अपने गुरु की बड़ी सेवा की थी। गुरु ने प्रसन्न होकर मुझे एक मंत्र दिया। उसे मैंने साधा। तबसे सरस्वती मेरे मन में बसी हैं। जिस तरह रानी का तिल मैंने पहचान कर बनाया, वैसे ही रीछ बात जान ली।"
यह सुनकर राजा सारी बात समझ गया। उसने पर्दा हटवा दिया। खुश होकर चित्रकार को आधा राज्य देकर अपना दीवान बना लिया।
इतना कहकर ब्राह्मण बोला, "महाराज! मेरे श्लोक का यह मर्म है।"
राजा विक्रमादित्य ने प्रसन्न होकर हजार गांव उसके लिए बांध दिये।
पुतली बोली, "क्यों राजन्! हैं तुममें इतने गुण?"
राजा बड़ी परेशानी में पड़ा दीवान ने कहा, "महाराज! आप सिंहासन पर बैठेंगे तो ये पुतलियां रो-रोकर मर जायंगी।" पर राजा न माना। अगले दिन फिर सिंहासन की ओर बढ़ा कि सोलहवीं पुतली सुन्दरवती बोल उठी, "हैं-हैं, ऐसा मत करना। पहले मेरी बात सुनो।"

ABHAY
30-10-2010, 06:48 PM
सिंहासन बत्तीसी 16
उज्जैन नगरी में छत्तीस और चार जात बसती थीं। वहां एक बड़ा सेठ था। वह सबकी सहायता करता था। जो भी उसके पास जाता, खाली हाथ न लौटता। उस सेठ के एक बड़ा सुन्दर पुत्र था। सेठ ने सोचा कि अच्छी लड़की मिल जाय तो उसका ब्याह कर दूं। उसने ब्राह्मणों को बुलाकर लड़की की तलाश में इधर-उधर भेजा। एक ब्राह्मण ने सेठ को खबर दी कि समुद्र पार एक सेठ है, जिसकी लड़की बड़ी रुपवती और गुणवती है। सेठ ने उसे वहां जाने को कहा। ब्राह्मण जहाज में बैठकर वहां पहुंचा। सेठ से मिला। सेठ ने सब बातें पूछीं और अपनी मंजूरी देकर आगे की रस्म करने के लिए अपना ब्राह्मण उसके साथ भेज दिया। दोनों ब्राह्मण कई दिन की मंजिल तय करके उज्जैन पहुंचे।

सेठ को समाचार मिला तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। दोनों ओर से ब्याह की तैयारी होने लगी। दावतें हुईं। ब्याह का दिन पास आ गया तो चिंता हुई कि इतने दूर देश इतने कम समय में कैसे पहुंचा जा सकता है। सब हैरान हुए। तब किसी ने कहा कि एक बढ़ई ने एक उड़न-खटोला बनाकर राजा विक्रमादित्य को दिया था। वह उसे दे दे तो समय पर पहुंचा जा सकता है और लग्न में विवाह हो सकता है।

सेठ राजा के पास गया। उसने फौरन उड़न-खटोला दे दिया और कहा, "तुम्हें और कुछ चाहिए तो ले जाओ।"

सेठ ने कहा, "महाराज की दया से सबकुछ है।"

उड़न-खटोला लेकर बारात समय पर पहुंच गई और बड़ी धूम-धाम से विवाह हो गया। बारात लौटी तो सेठ राजा का उड़न-खटोला वापस करने गया। राजा ने कहा, "मैं दी हुई चीज वापस नहीं लेता।"

इतना कहकर उन्होंने बहुत-सा धन उस सेठ को दिया और कहा, "यह मेरी ओर से अपने बेटे को दे देना।"

पुतली बोली, "विक्रमादित्य की बराबरी तो इंद्र भी नहीं कर सकता। तुम किस गिनती में हो"

वह दिन भी गुजर गया।

अगले दिन राजा फिर सिंहासन पर बैठने को गया तो सत्यवती नाम की सत्रहवीं पुतली ने उसे रोककर यह कहानी सुनायी:

ABHAY
30-10-2010, 07:33 PM
सिंहासन बत्तीसी 17
एक दिन वीर विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठा था। अचानक उसने पंडितों से पूछा, "बताओ, पाताल का राजा कौन है?" एक पंडित बोला, "महाराज! पाताल का राजा शेषनाग है।" राजा की इच्छा हुई कि उसे देखें। उसने अपने वीरों को बुलाया। वे राजा को पाताल ले गये। राजा ने देखा कि शेषनाग का महल रत्नों से जगमगा रहा है। द्वार पर कमल के फूलों की बंदनवारें बंधी हुई हैं। घर-घर आनंद हो रहा है। खबर मिलने पर शेषनाग द्वार पर आया। पूछा कि तुम कौन हो? राजा ने बता दिया। फिर बोला, "आपके दर्शन की इच्छा थी, सो पूरी हुई।"

शेषनाग राजा को अंदर ले गया। वहां उसी खूब आवभगत की। राजा पांच-सात दिन वहां रहा। जब विदा मांगी तो शेषनाग ने उसे चार लाल दिये। एक का गुण था कि जितने चाहो, उतने गहने उससे ले लो। दूसरे लाल से हाथी-घोड़े-पालकियां मिलती थीं, तीसरे से लक्ष्मी और चौथे से हरिभजन और अनेक काम करने की इच्छा पूरी होती थी।

राजा अपने नगर में आया। वहां उसे एक भूखा ब्राह्मण मिला। उसने भिक्षा मांगी। राजा ने सोचा कि एक लाल दे दे। उसने ब्राह्मण को चारों लाल के गुण बताये और पूछा कि कौन-सा लोगे? उसने कहा कि मैं घर पूछकर अभी आता हूं। घर पहुंचने पर उसने लालों की बात कही तो ब्राह्मणी ने कहा, "वह लाल लो, जो लक्ष्मी देता है; क्योंकि लक्ष्मी से ही सब काम सधते हैं।" ब्राह्मण के बेटे ने कहा, "अकेली लक्ष्मी से क्या होगा! तुम वह लो, जिससे हाथी-घोड़े-पालकियां मिलती हैं।" बेटे की बहू ने कहा, "तुम वह लो, जिससे गहने मिलते है; क्योंकि गहनों से बहुत-से काम निकलते है।" ब्राह्मण ने कहा, "तुम तीनों बौरा गये हो। मेरी इच्छा सिवा धर्म के और कुछ नहीं; क्योंकि धर्म से जग में यश मिलता है। मैं तो वह लाल चाहता हूं जिससे धर्म-कर्म हो।" चारों की चार मति। ब्राह्मण क्या करे! आकर उसने राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने कहा, "महाराज! तुम उदास न हो। चारों लाल ले जाओ।"

ब्राह्मण को चारों लाल देकर विक्रमादित्य अपने घर लौट आया।

पुतली बोली, "इस कलियुग में है कोई जो उस राजा के समान दान दे?"

राजा भोज बड़ा निराश हुआ। अगले दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को हुआ तो उसे अठारहवीं पुतली रुपरेखा ने रोक दिया और यह कहानी सुनायी:

ABHAY
30-10-2010, 08:30 PM
सिंहासन बत्तीसी 18
एक दिन दो सन्यासी झगड़ते हुए राजा विक्रमादित्य के यहां आये। एक कहता था कि सबकुछ मन के वश में है। मन की इच्छा से ही सब होता है। दूसरा कहता था कि सबकुछ ज्ञान से होता है। राजा ने कहा, "अच्छी बात है। मैं सोचकर जवाब दूंगा।"

इसके बाद कई दिन तक राजा विचार करता रहा। आखिर एक दिन उसने दोनों संन्यासियों को बुलाकर कहा, "महराज! यह शरीर आग, पानी, हवा और मिट्टी से बना है। मन इनका सरदार है। अगर ये मन के हिसाब से चलें तो घड़ी भर में शरीर का नाश हो जाय। इसलिए मन पर अंकुश होना जरुरी है। जो ज्ञानी लोग है।, उनकी काया अमर होती है। सो हे संन्यासियो! मन का होना बड़ा जरुरी है, पर उतना ही जरुरी ज्ञान का होना भी है।"

इस उत्तर से दोनों संन्यासी बहुत प्रसन्न हुए। उसमें से एक ने राजा को खड़िया का एक ढेला दिया और कहा, "हे राजन्! इस खड़िया से दिन में जो चित्र बनाओगे, रात को वे सब शक्लें तुम्हें प्रत्यक्ष अपनी आंखों से दिखाई देंगी।"

इतना कहकर दोनों संन्यासी चले गये। उनके जाने पर राजा ने अपने महल

दो संन्यासी राजा के पास आये।

की सफाई कराई और फिर किवाड़ बंद करके उसने कृष्ण, सरस्वती आदि की तस्वीरें बनाई। रात होने पर वे सब उसे साफ दीखने लगे। वे आपस में जो बात करते थे, वह भी राजा को सुनायी देती थी। सवेरा होते ही वे सब गायब हो गये और दीवार पर चित्र बने रह गये।

अगले दिन राजा ने हाथी, घोड़े, पालकी, रथ, फौज आदि बनाये। रात को ये सब दिखाई दिये। इसी तरह तीसरे दिन उसने मृदंग, सितार, बीन, बांसुरी, करताल, अलगोजा आदि एक-एक बजाने वाले साथ में बना दिये। रात भर वह गाना सुनता रहा।

राजा रोज कुछ-न-कुछ बनाता और रात को उनका तमाशा देखता। इस तरह कई दिन निकल गये। उधर राजा जब अंदर महल में रानियों के पास नहीं गये तो उन्हें चिंता हूई। पहले उन्होंने आपस में सलाह की, फिर चार रानियां मिलकर राजा के पास आयीं। राजा ने उन्हें सब बातें बता दीं। रानियों ने कहा कि हमें बड़ा दु:ख है। हम महल में आपके ही सहारे हैं।

राजा ने कहा, "मुझे बताओ, मैं क्या करुँ। जो मांगो, सो दूं।"

रानियों ने वही खड़िया मांगी। राजा ने आनंद से दे दी।

पुतली ने कहा, "राजा भोज, देखो, कैसी बढ़िया चीज विक्रमादित्य के हाथ लगी थी, पर मांगने पर उसने फौरन दे दी। तुम इतने उदार हो तो सिंहासन पर बैठो।"

वह दिन भी निकल गया। राजा क्या करता! अगले दिन जब सिंहासन की ओर बढ़ा तो तारा नाम की उन्नीसवीं पुतली झट उसके रास्ते को रोककर खड़ी हो गई। बोली, "पहले मेरी बात सुनों।"

ABHAY
30-10-2010, 08:35 PM
सिंहासन बत्तीसी 19
एक ब्राह्मण हाथ-पैर की लकीरों को अच्छी तरह जानता था। एक दिन उसने रास्ते में एक पैर के निशान देखे, जिसमें ऊपर को जानेवाली एक लकीर थी और कमल था। ब्राह्मण ने सोचा कि हो न हो, कोई राजा नंगे पैर इधर से गया है। यह सोचकर वह उन निशानों को देखता हुआ उधर चल दिया। कोसभर गया होगा कि उसे एक आदमी पेड़ से लकड़ियां तोड़कर गट्ठर में बांधते हुए दिखाई दिया। उसने पास जाकर पूछा, "तुम यहां कबसे हो? इधर कोई आया है क्या?"

उस आदमी ने जवाब दिया, "मैं तो दो घड़ी रात से यहां हूं। आदमी तो दूर, मुझे छोड़कर कोई परिन्दा भी नहीं आया।" इस पर ब्राह्मण ने उसका पैर देखा। रेखा और कमल दोनों मौजूद थे।

ब्राह्मण बड़े सोच में पड़ गया कि आखिर मामला क्या है? सब लक्षण राजा के होते हुए भी इसकी यह हालत है! ब्राह्मण ने पूछा, "तुम कहां रहते हो और लकड़ी काटने का काम कबसे करते हो?" उसने बताया, "मै! राजा विक्रमादित्य के नगर में रहता हूं और जबसे होश संभाला है, तब से यही काम करता हूं।" ब्राह्मण ने फिर पूछा, "क्यों, तुमने बहुत दु:ख पाया है?" उसने कहा, "भगवान् की इच्छा है कि किसी को हाथी पर चढ़ाये, किसी को पैदल फिराये। किसी को धन-दौलत बिना मांगे मिले, किसी को मांगने पर टुकड़ा भी न मिले। जो करम में लिखा है, वह भुगतान ही पड़ता है।"

यह सब सुनकर ब्राह्मण सोचने लगा कि मैंने इतनी मेहनत करके विद्या पढ़ी, सो झूठी निकली। अब राजा विक्रमादित्य के पास जाकर उसे निशान भी देखूं। न मिले तो पोथियों को जला दूंगा।

इतना सोच वह विक्रमादित्य के पास पहुंचा। राजा के पैर देखे तो उनमें कोई निशान न था। यह देखकर वह और भी दुखी हुआ और उसने तय किया कि घर जाकर किताबें जला देगा। उसे उदास देखकर राजा ने पूछा, "क्या बात है?"

ब्राह्मण ने सब बातें दीं। बोला, "जिसके पैर में राजा के निशान है, वह जंगल में लकड़ी काटता है। जिसके निशान नहीं है, वह राज करता है।"

राजा बोला, "महाराज! किसी के लक्षण गुप्त होते हैं, किसी के दिखाई देते है।"

ब्राह्मण ने कहा, "मैं कैसे जानूं?"

राजा ने छुरी मंगाकर तलुवे की खाल चीरकर लक्षण दिखा दिये। बोला, "हे ब्राह्मण! ऐसी विद्या किस काम की, जिसे सब भेद न मालूम हों!"

यह सुनकर ब्राह्मण लज्जित होकर चला गया।

पुतली बोली, "जो इतना साहस कर सता हो, वह सिंहासन पर बैठे। नाम, धर्म और यश आदमी के जाने से नहीं जाना जाता—जैसे फूल नहीं रहता, पर उसकी सुगंधि इत्र में रह जाती है।"

सुनकर राजा को चेत हुआ। कहने लगा, "यह दुनिया स्थिर नहीं है। पेड़ की छांह जैसी उसी गति है। जिस तरह चांद-सूरज आते-जाते रहते हैं, वैसे ही आदमी का जीना=मरना है। देह दु:ख देती है। सुख हरि-भजन में है।"

राजा ने यह सब सोचा, लेकिन जैसे ही अगला दिन आया कि सिंहासन पर बैठने की फिर इच्छा हुई। वह उधर गया कि बीसवीं पुतली चन्द्रज्योति ने उसे रोक दिया। बोला, "पहले मेरी बात सुनो।"

Video Master
30-10-2010, 08:38 PM
अभय भाई बहुत अच्छी जानकारी दे रहे हो इसके लिए बधाई हो मित्र

ABHAY
30-10-2010, 08:39 PM
सिंहासन बत्तीसी 20
एक बार कार्तिक के महीने में राजा विक्रमादित्य ने भजन-कीर्तन कराया। राजा की खबर पाकर दूर-दूर से राजा लोग आये, योगी आये। जब राजा सबका प्रसाद देने लगा तो उसने देखा कि और सब देवता तो आ गये हैं, पर चंद्रमा नहीं आये। राजा ने अपने वीरों को बुलाया और उनकी मदद से चंद्रलोक पहुंचा। वहां जाकर चंद्रमा से कहा, "हे देव! मेरा क्या अपराध है जो आपने आने की कृपा नहीं की? आपके बिना काम अधूरा रहेगा।"

चंद्रमा ने हंसकर कहा, "तुम अपने जी में उदास न हो। मेरे जाने से संसार में अंधेरा हो जायगा। इसलिये मेरा जाना ठीक नहीं। तुम जाओ और अपना काम पूरा करो।"

इतना कहकर चंद्रमा ने उन्हें अमृत देकर विदा किया। रास्ते में राजा देखते क्या हैं कि यम के दूत एक ब्राह्मण के प्राण लिये जा रहे हैं। राजा ने उन्हें रोका, पूछने पर मालूम हुआ कि उज्जैन नगरी के एक ब्राह्मण को हमें दिखा दो, तब ले जाना।"

राजा ने कहा, "पहले उस ब्राह्मण को हमें दिखा दो, तब ले जाना।"

वे सब उज्जैन आये। राजा ने देखा कि वह तो उसी का पुरोहित है। राजा ने यम के दूतों को बातों में लगाकर मुर्दे के मुंह में अमृत डाल दिया। वह जी उठा। यम के दूत निराश होकर चले गये। पुतली बोली, "हे राजा! तुम इतना पुरुषार्थ कर सको तो सिंहासन पर बैठो।"

राजा ने कीर्तन कराया।

राजा मन मारकर रह गया, पर सिंहासन पर बैठने की उसकी इच्छा ज्यों-की-त्यों बनी रही। अगले दिन जब वह उस पर बैठने को हुआ तो इक्कीसवीं पुतली अनुरोमवती रोककर अपनी बात सुनाने लगी।

ABHAY
30-10-2010, 08:42 PM
सिंहासन बत्तीसी 21
किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था। वह बड़ा गुणी था। एक बार वह घूमते-घूमते कामानगरी में पहुंचा। वहां कामसेन नाम का राजा राज करता था। उसके कामकंदला नाम की एक नर्तकी थी। जिस दिन ब्राह्मण वहां पहुंचा, कामकंदला का नाच हो रहा था। मृदंग की आवाज आ रही थी। आवाज सुनकर ब्राह्मण ने कहा कि राज की सभा के लोग बड़े मूर्ख हैं, जो गुण पर विचार नहीं करते। पूछने पर उसने बताया कि जो मृदंग बजा रहा है, उसके एक हाथ में अंगूठा नहीं है। राजा ने सुना तो मृदंग बजाने वाले को बुलाया और देखा कि उसका एक अंगूठा मोम का है। राजा ने ब्राह्मण को बहुत-सा धन दिया और अपनी सथा में बुला लिया। नाच चल रहा था। इतने में ब्राह्मण ने देखा कि एक भौंरा आया और कामकंदला को काट कर उड़ गया, लेकिन उस नर्तकी ने किसी को मालूम भी न होने दिया। ब्राह्मण ने खुश होकर अपना सबकुछ उसे दे डाला। राजा बड़ा गुस्सा हुआ कि उसी दी हुई चीज उसने क्यों दे दी और ब्राह्मण को देश निकाला दे दिया। कामकंदला चुपचाप उसके पीछे गई और उसे छिपाकर अपने घर में ले आयी। लेकिन दोनों डरकर वहां रहते थे। एक दिन ब्राह्मण ने कहा, "अगर राजा को मालूम हो गया तो हम लोग बड़ी मुसीबत में पड़ जायंगे। इसलिए मैं कहीं और ठिकाना करके तुम्हें ले जाऊंगा।"

इतना कहकर वह उज्जैन में राजा विक्रमादित्य के यहां गया और उससे सब हाल कहा। राजा ब्राह्मण को लेकर अपनी फौज सहित कामानगरी की तरफ बढ़ा। दस कोस इधर ही डेरा डाला। इसे बाद विक्रमादित्य ने किया क्या कि वैद्य का भेस बनाकर कामकंदला के पास पहुंचा। ब्राह्मण की याद में वह बड़ी बेचैन हो रही थी। राजा ने कहा, "ऐसे ही हमारे यहां माधव नाम का एक ब्राह्मण था, जो विरह का दु:ख पाकर मर गया।" इतना सुनकर कामकंदला ने एक आह भरी और उसके प्राण निकल गये।

राजा ने लौटकर यह खबर ब्राह्मण को सुनायी तो उसकी भी जान निकल गई। राजा को बडा दु:ख हुआ और वह चंदन की चिता बनाकर खुद जलने को तैयार हो गया। इसी बीच राजा के दोनों वीर आ गये और उन्होंने कहा, "हे राजा! तुम दु:खी मत हो, हम अभी अमृत लाकर ब्राह्मण और कामकंदला को जिला देंगे।"

इसके बाद विक्रमादित्य ने कामानगरी के राजा से युद्ध किया और उसे हरा किया। कामकंदला उसे मिल गई और उसने बड़ी धूमधाम से उसका विवाह ब्राह्मण से कर दिया।

पुतली बोली, "हे राजन्! तुममें इतना साहस हो तो सिंहासन पर बैठो।"

राजा चुप रहा गया।

अगले दिन उसे बाईसवीं पुतली अनूपरेखा ने रोककर यह कहानी सुनायी:

ABHAY
30-10-2010, 08:51 PM
सिंहासन बत्तीसी 22
एक दिन राजा विक्रमादित्य ने अपने दीवान से पूछा कि आदमी बुद्धि अपने कर्म से पाता है या अपने माता-पिता से? दीवान ने कहा, "महाराज! पूर्वजन्म में जो जैसा कर्म करता है, विधाता वैसा ही उसके भागय में लिख देता है।" राजा ने कहा, "यह तुमने क्या कहा? जन्म लेते ही लड़का माता-पिता से सीखता है।" दीवान बोला, "नहीं महाराज! कर्म का लिखा ही होता।"

इस पर राजा ने क्या किया कि दूर बियावान में एक महल बनवाया और उसमें अपने दीवान के, ब्राह्मण के और कोतवाल के बेटे को जन्मते ही गूंगी, बहरी और अंधी दाइयां देकर उस महल में भिजवा दिया। बारह बरस बाद उन्हें बुलाया। सबसे पहले उसने अपने बेटा से पूछा, "तुम्हारे क्या हाल हैं?" राजकुमार ने हंसकर कहा, "आपके पुण्य से सब कुशल है।" राजा ने खुश होकर मंत्री की तरफ देखा। मंत्री ने कहा, "महाराज! यह सब कर्म का लिखा है।" फिर राजा ने दीवान के बेटे को बुलाया और उससे वही सवाल किया। उसने कहा, "महाराज! संसार में जो आता है, वह जाता भी है। सो कुशल कैसी?" सुनकर राजा चुप हो गया। थोड़ी देर बाद उसने कोतवाल के बेटे को बुलाया। कुशल पूछने पर उसने कहा, "महाराज! कुशल कैसे हो? चोर चोरी करते हैं, बदनाम हम होते हैं।" इसके बाद ब्राह्मण के बेटे की बारी आयी। उसने कहा, "महाराज! दिन-दिन उमर घटती जाती है। सो कुशल कैसी?"

चारों की बातें सुनकर राजा समझ गया कि दीवान का कहना ठीक था। महल में कोई सिखाने वाला नहीं था। फिर भी वे चारों सीख गये तो इसमें पूर्वजन्म के कर्मों का ही हाथ रहा होगा। राजा ने दीवान को अपने सब सरदारों का सरदार बनाया और चारों लड़कों के विवाह करके उन्हें बहुत-सा धन दिया।

राजा ने चारों लड़को को बुलाया।

पुतली बोली, "राजा होकर भी जो अपनी बात पर हठ न करे और सही बात को माने, वहीं सिंहासन पर पांव रक्खे।"

अगले दिन तेईसवीं पुतली करुणवती ने राजा को रोका और अपनी कहानी सुनायी:

ABHAY
30-10-2010, 08:53 PM
सिंहासन बत्तीसी 23
जब राजा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा तो उसने अपने दीवान से कहा कि तुमसे काम नहीं होगा। अच्छा हो कि मेरे लिए बीस दूसरे आदमी दे दो। दीवान ने ऐसा ही किया। वे लोग काम करने लगे। दीवान सोचने लगा कि वह अब क्या करे, जिससे राजा उससे खुश हो। संयोग की बात कि एक दिन उसे नदी में एक बहुत ही सुन्दर फूल बहुता हुआ मिला, जिसे उसने राजा को भेंट कर दिया। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा, "इस फूल का पेड़ लाकर मुझे दो, नहीं तो मैं तुम्हें देश-निकाला दे दूंगा।" दीवान बड़ा दु:खी हुआ और एक नाव पर कुछ सामान रखकर जिधर से फूल बहकर आया था, उधर चल दिया।

चलते-चलते वह एक पहाड़ के पास पहुंचा, जहां से नदी में पानी आ रहा था। वह नाव से उतरकर पहाड़ पर गया। वहां देखता क्या है कि हाथी, घोड़े, शेर आदि दहाड़ रहे हैं। वह आगे बढ़ा। उसे ठीक वेसा ही एक और फूल बहता हुआ दिखाई दिया। उसे आशा बंधी। आगे जाने पर उसे एक महल दिखाई दिया। वहां पेड़ में एक तपस्वी जंजीर से बंधा उलटा लटक रहा था और उसे घाव से लहू की जो बूंदें नीचे पानी में गिरती थीं, वे ही फूल बन जाती थीं। बीस और योगी वहां बैठे थे, जिनका शरीर सूखकर कांटा हो रहा था।

एक तपस्वी उल्टा लटका था।

दीवान ने बहुत-से फूल इकट्ठे किये और अपने देश लौटकर राजा को सब हाल कह सुनाया। सुनकर राजा ने कहा, "तुमने जो तपस्वी लटकता देखा, वह मेरा ही शरीर है। पूर्व जन्म में मैंने ऐसे ही तपसया की थी। बीस योगी जो वहां बैठे हैं, वे तुम्हारे दिये हुए आदमी हैं।" इतना बताकर राजा ने कहा, "तुम चिंता न करो, जबतक मैं राजा हूं, तुम दीवान रहोगे। अपना परिचय देने के लिए मैंने यह सब किया था। अपने बड़े भाई को मैंने मारा तो इसमें दोष मेरा नहीं था। जो करम में लिखा होता है, सो होकर ही रहता।"

पुतली बोली, "राजा भोज!तुम हो ऐसे, जो सिंहासन पर बैठो?"

अगले दिन चौबीसवीं पुतली चित्रकला की बारी थी। उसने राजा को रोककर अपनी कहानी कही।

ABHAY
31-10-2010, 12:28 PM
सिंहासन बत्तीसी 24
एक बार राजा विक्रमादित्य गंगाजी नहाने गया। वहां देखता क्या है कि एक बनिये की सुंदर स्त्री नदी के किनारे खड़ी एक साहूकार के लड़के से इशारों में बात कर रही है। थोड़ी देर में जब वे दोनों जाने लगे तो राजा ने अपना एक आदमी उनके पीछे कर दिया। उसने लौटकर बताया कि उस स्त्री ने घर पर पहुंचने पर अपना सिर खोलकर दिखाया, फिर छाती पर हाथ रक्खा, और अंदर चली गई। राजा ने पूछा कि इसका क्या मतलब है तो उसने कहा, "स्त्री ने बताया कि जब अंधेरी रात होगी तब मैं आऊंगी। साहूकार के लड़के ने भी वैसा ही इशारा करके कहा कि अच्छा।"

इसके बाद रात को राजा वहां गया। जब रात अंधेरी हो गई तो राजा ने खिड़की पर कंकड़ी मारी। स्त्री समझ गई कि साहूकार का लड़का आ गया। वह माल-मत्ता लेकर आयी। राजा ने कहा, "तुम्हारा आदमी जीता है। वह राजा से शिकायत कर देगा तो मुसीबत हो जायगी। इससे पहले उसे मार आओ।" स्त्री गई और कटारी से अपने आदमी को मारकर लौट आयी। राजा ने सोचा कि जब यह अपने आदमी की सगी नहीं हुई तो और किसकी होगी। सो वह उसे बहकाकर नदी के इस किनारे पर छोड़ उधर चला गया। स्त्री ने राह देखी। राजा न लौटा तो वह घर जाकर चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगी कि मेरे आदमी को चोरों ने मार डाला।

अगले दिन वह अपने आदमी के साथ सती होने को तैयार हो गई। आधी जल चुकी तो सहा न गया। कूदकर बाहर निकल आयी और नदी में कूद पड़ी। राजा ने कहा, "यह क्या?" वह बोली, "इसका भेद तुम अपने घर जाकर देखो। हम सात सखियां इस नगर में हैं। एक मैं हूं, छ: तुम्हारे घर में है।"

इतना कहकर वह पानी में डूब मरी। राजा घर लौटकर गया और सब हाल देखने लगा। आधी रात गये छहों रानियां सोने के थाल मिठाई से भरकर महल के पिछवाड़े गईं। वहां एक योगी ध्यान लगाये बैठा था। उसे उन्होंने भोजन कराया। इसके बाद योग-विद्या से छ: देह करके छहों रानियों को अपने पास रक्खा। थोड़ी देर बाद रानियां लौट गईं।

राजा ने सब बातें अपनी आंखों से देखीं। रानियों के चले जाने पर राजा योगी के पास गया। योगी के कहा, "तुम्हारी जो कामना हो सो बताओं।" राजा बोला, "हे स्वामी! मुझे वह विद्या दे दो, जिससे एक देह की छ: देहें हो जाती हैं।" योगी ने वह विद्या दे दी। इसे बाद राजा ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। फिर वह रानियों को लेकर गुफा में आया और उनके सिर काटकर उसमें बंद करके चला आया। उनका धन उसने शहर के ब्राह्मणों में बांट दिया।

पुतली बोली, "हे राजा! हो तुम ऐसे, जो सिंहासन पर बैठो?"

उस दिन भी मुहूर्त निकल गया। अगले दिन पच्चीसवीं पुतली जयलक्ष्मी ने उसे रोककर कहानी सुनायी:

ABHAY
31-10-2010, 12:37 PM
सिंहासन बत्तीसी 25
एक गरीब भाट था। उसकी कन्या ब्याह के योग्य हुई तो उसने सारी दुनिया के राजाओं के यहां चक्कर लगाये, लेकिन किसी ने भी उसे एक कौड़ी न दी। तब वह राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचा और उसे सब हाल कह सुनाया। राजा ने तुरंत उसे दस लाख रुपये और हीरे, लाल, मोती और सोने-चांदी के गहने थाल भर-भरकर दिये। ब्राह्मण ने सब कुछ ब्याह में खर्च कर डाला। खाने को भी अपने पास कुछ न रक्खा।

पुतली बोली, "इतने दानी हो तो सिंहासन पर बैठो।"

राजा की हैरानी बहुत बढ़ गई। रोज कोई-न-कोई बाधा पड़ जाती थी। अगले दिन उसे छबीसवीं पुतली विद्यावती ने रोका और बोली, "पहले विक्रमादित्य की तरह यश कमाओ, तब सिंहासन पर बैठना।" इतना कहकर उसने सुनाया:

ABHAY
31-10-2010, 12:43 PM
सिंहासन बत्तीसी 26
एक दिन राजा विक्रमादित्य के मन में विचार आया कि वह राजकाज की माया में ऐसा भूला है कि उससे धर्म-कर्म नहीं बन पाता। यह सोच वह तपस्या करने जंगल में चला। वहां देखता क्या है कि बहुत-से तपस्वी आसने मारे धूनी के सामने बैठे साधना कर रहे हैं और धीरे-धीरे अपने शरीर को काट-काटकर होम कर रहे हैं। राजा ने भी ऐसा ही किया। तब एक दिन शिव का एक गण आया और सब तपस्वियों की राख समेटकर उन पर अमृत छिड़क दिया। सारे तपस्वी जीवित हो गये, लेकिन संयोग से राज की ढेरी पर अमृत छिड़कने से रह गया, तपस्वियों ने यह देखकर शिवजी से उसे जिलाने की प्रार्थना की और उन्होंने मंजूर कर ली। राजा जी गया। शिवजी ने प्रसन्न होकर उससे कहा, "जो तुम्हारे जी में आये, वह मांगो।"

राजा ने कहा, "आपने मुझे जीवन दिया है तो मेरा दुनिया से उद्धार कीजिये।" शिव ने हंसकर कहा, "तुम्हारे समान कलियुग में कोई भी ज्ञानी, योगी और दानी नहीं होगा।"

इतना कहकर उन्होंने उसे एक कमल का फूल दिया और कहा, "जब यह मुरझाने लगे तो समझ लेना कि छ: महीने के भीतर तुम्हारी मृत्यु हो जायगी।"

फूल लेकर राजा अपने नगर में आया और कई वर्ष तक अच्छी तरह से रहा। एक बार उसने देखा कि फूल मुरझा गया। उसने अपनी सारी धन-दौलत दान कर दी।

पुतली बोली, "राजन्! तुम हो ऐसे, जो सिंहासन पर बैठो?"

वह दिन भी निकल गया। अगले दिन उसे सत्ताईसवीं पुतली जगज्योति ने रोककर यह कहानी सुनायी:

ABHAY
31-10-2010, 12:51 PM
सिंहासन बत्तीसी 27
एक बार विक्रमादित्य से किसी ने कहा कि इंद्र के बराबर कोई राजा नहीं है। यह सुनकर विक्रमादित्य ने अपने वीरों को बुलाया और उन्हें साथ लेकर इंद्रपुरी पहुंचा। इंद्र ने उसका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। राजा ने कहा, "मैं आपके दर्शन करने आया हूं।" इंद्र ने प्रसन्न होकर उसे अपना मुकुट तथा विमान दिया और कहा, "जो तुम्हारे सिंहासन को बुरी निगाह से देखेगा, वह अंधा हो जायगा।"

राजा विदा होकर अपने नगर में आया। .......

राजा इन्द्रपुरी पहुंचा।

पुतली कहानी सुना रही थी कि इतने में राजा भोज सिंहासन पर पैर रखकर खड़ा हो गया। खड़े होते ही वह अंधा हो गया और उसे पैर वहीं चिपक गये। उसने पैर हटाने चाहे, पर हटे ही नहीं। इस पर सब पुतलियां खिलखिलाकर हंस पड़ीं। राजा भोज बहुत पछताया। उसने पुतलियों से पूछा, "मुझे बताओ, अब मैं क्या करुं?" उन्होंने कहा, "विक्रमादित्य का नाम लो। तब भला होगा।" राजा भोज ने जैसे ही विक्रमादित्य का नाम लिया कि उसे दीखने लगा और पैर भी उखड़ गये।

पुतली बोली, "हे राजन्! इसी से मैं कहती हूं कि तुम इस सिंहासन पर मत बैठो, नहीं तो मुसीबत में पड़ोगे।"

अगले दिन राजा उसे ओर गया तो मनमोहनी नाम की अट्ठाईसवीं पुतली ने उसे रोककर यह कहानी सुनायी:

ABHAY
31-10-2010, 12:53 PM
सिंहासन बत्तीसी 28
एक बार विक्रमादित्य से किसी ने कहा कि पाताल में बलि नाम का बहुत बड़ा राजा है। इतना सुनकर राजा ने अपने वीरों को बुलाया और पाताल पहुंचा। राजा बलि को खबर भिजवाई तो उसने मिलने से इंकार कर दिया। इस पर राजा विक्रमादित्य ने दुखी होकर अपना सिर काट डाला। बलि को मालूम हुआ तो उसने अमृत छिड़कवाकर राजा को जिंदा कराया और कहलाया कि शिवरात्रि को आना। राजा ने कहा, "नहीं, मैं अभी दर्शन करुंगा।" बलि के आदमियों ने मना किया तो उसने फिर अपना सिर काट डाला। बलि ने फिर जिन्दा कराया और उसके प्रेम को देखकर प्रसन्न हो, उससे मिला। बोला, "हे राजन्! यह लाल-मूंगा लो और अपने देश जाओ। इस मूंगे से जो मांगोगे, वही मिलेगा।"

मूंगा लेकर राज विक्रमादित्य अपने नगर को लौटा। रास्ते में उसे एक स्त्री मिली। उसका आदमी मर गया था और वह बिलख-बिलखकर रो रही थी। राजा ने उसे चुप किया और गुण बताकर मूंगा उसे दे दिया।

पुतली बोली, "है राजन्! जो इतना दानी और प्रजा की भलाई करने वाला हो, वह सिंहासन पर बैठे।"

इस तरह अट्ठाईस दिन निकल गये। अगले दिन वैदेही नाम की उनत्तीसवीं पुतली ने रोककर अपनी गाथा सुनायी:

ABHAY
31-10-2010, 12:58 PM
सिंहासन बत्तीसी 29
एक दिन राजा विक्रमादित्य ने सपना देखा कि एक सोने का महल है, जिसमें तरह-तरह के रत्न जड़े हैं, कई तरह के पकवान और सुगंधियां हैं, फुलवाड़ी खिली हुई है, दीवारों पर चित्र बने हैं, अंदर नाच और गाना हो रहा है और एक तपस्वी बैठा हुआ है। अगले दिन राजा ने अपने वीरों को बुलाया और अपना सपना बताकर कहा कि मुझे वहां ले चलो, जहां ये सब चीजें हों। वीरों ने राजा को वहीं पहुंचा दिया।

राजा को देखकर नाच-गान बंद हो गया। तपस्वी बड़ा गुस्सा हुआ। विक्रमादित्य ने कहा, "महाराज! आपके क्रोध की आग की कौन सह सकता है? मुझे क्षमा करें।" तपस्वी प्रसन्न हो गया और बोला, "जो जी में आये, सो मांगो।" राजा ने कहा, "योगिराज! मेरे पास किसी चीज की कमी नहीं है। यह महल मुझे दे दीजिये।" योगी वचन दे चुका था। उसने महल राजा को दे दिया।

महल दे तो दिया, पर वह स्वयं बड़ा दुखी होकर इधर-उधर भटकने लगा। अपना दुख उसने एक दूसरे योगी को बताया। उसने कहा, "राजा विक्रमादित्य बड़ा दानी है। तुम उसे पास जाओ और महल को मांग लो। वह दे देगा।"

तपस्वी ने ऐसा ही किया। राजा विक्रमादित्य ने मांगते ही महल उसे दे दिया। पुतली बोली, "राजन्! हो तुम इतने दानी तो सिंहासन पर बैठो?"

अगले दिन रुपवती नाम की तीसवीं पुतली की बारी थी। सो उसने राजा को रोककर यह कहानी सुनायी:

ABHAY
31-10-2010, 01:20 PM
सिंहासन बत्तीसी 30
एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य घूमने के लिए निकला। आगे चलकर देखता क्या है कि चार चोर खड़े आपस में बातें कर रहे हैं। उन्होंने राजा से पूछा, 'तुम कौन हो?" राजा ने कहा, "जो तुम हो, वहीं मैं हूं।" तब चोरों ने मिलकर सलाह की कि राजा के यहां चोरी की जाय। एक ने कहा, "मैं ऐसा मुहूर्त देखना जानता हूं कि जायं तो खाली हाथ न लौटें।" दूसरे ने कहा, "मैं जानवरों की बोलियां समझता हूं।" तीसरा बोला, "मैं जहां चोरी को जाऊं, वहां मुझे कोई न देख सके, पर मैं सबको देख लूं।" चौथे ने कहा, "मेरे पास ऐसी चीज है कि कोई मुझे कितना ही मारे, मैं ने मरुं।" फिर उन्होंने राजा से पूछा तो उन्होंने कहा, "मैं यह बता सता हूं कि धन कहां गड़ा है।"

पांचों उसी वक्त राजा के महल में पहुंचे। राजा ने जहां धन गड़ा था, वह स्थान बता दिया। खोदा तो सचमुच बहुत-सा माल निकला। तभी एक गीदड़ बोला, जानवरों की बोली समझने वाले चोर ने कहा, "धन लेने में कुशल नहीं है।" पर वे न माने। फिर उन्होंने एक धोबी के यहां सेंध लगाई। राजा को अब क्या करना था। वह उनके साथ नहीं गया।

अगले दिन शोर मच गया कि राज के महल में चोरी हो गई। कोतवाल ने तलाश करके चोरों को पकड़कर राजा के सामने पेश किया। चोर देखते ही पहचान गये कि रात को उनके साथ पांचवां चोर और कोई नहीं, राज था। उन्होंने जब यह बात राजा से कही तो वह हंसने लगा। उसने कहा, "तुम लोग डरो मत। हम तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ने देंगे। पर तुम कसम लो कि आगे से चोरी नहीं करोगे।

जितना धन तुम्हें चाहिए, मुझसे ले लो।"

राजा ने मुंहमांगा धन देकर विदा किया।

पुतली बोली, "हे राज भोज! है तुममें इतनी उदारता?"

अगले दिन राजा ने जैसे ही सिंहासन की ओर पैर बढ़ाया कि कौशल्या नाम की इकत्तीसवीं पुतली ने उसे रोक दिया। बोली, "हे राजा! पीतल सोने की बराबरी नहीं कर सकता। शीशा हीरे के बराबर नहीं होता, नीम चंदन का मुकाबला नहीं कर सकता तुम भी विक्रमादित्य नहीं हो सकते। लो सुना:"

ABHAY
31-10-2010, 01:22 PM
सिंहासन बत्तीसी 31
राजा विक्रमादित्य को जब मालूम हुआ कि उसका अंतकाल पास आ गया है तो उसने गंगाजी के किनारे एक महल बनवाया और उसमें रहने लगा। उसने चारों ओर खबर करा दी कि जिसको जितना धन चाहिए, मुझसे ले ले। भिखारी आये, ब्राह्मण आये। देवता भी रुप बदलकर आये। उन्होंने प्रसन्न होकर राजा से कहा, "हे राजन्! तीनों लोकों में तुम्हारी निशानी रहेगी। जैसे सतयुग में सत्यवादी हरिश्चंद्र, त्रेता में दानी बलि और द्वापर में धर्मात्मा युधिष्ठिर हुए, वैसे ही कलियुग में तुम हो। चारों युग में तुम जैसा राजा न हुआ है, न होगा।"

देवता चले गये। इतने में राजा देखता क्या है कि सामने से एक हिरन चला आ रहा है। राजा ने उसे मारने को तीर-कमान उठाई तो वह बोला, "मुझे मारो मत। मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था। मुझे यती ने शाप देकर हिरन बना दिया ओर कहा कि राजा विक्रमादित्य के दर्शन करके तू फिर आदमी बन जायगा।"

इतना कहते-कहते हिरन गायब हो गया और उसी जगह एक ब्राह्मण खड़ा हो गया। राजा ने उसे बहुत-सा धन देकर विदा किया।

पुतली बोली, "हे राजन्! अगर तुम अपना भला चाहते हो तो इस सिंहासन को ज्यों-का-त्यों गड़वा दो।" पर राजा का मन न माना।

अगले दिन वह फिर उधर बढ़ा तो आखिरी, बत्तीसवीं पुतली ने, जिसका नाम भासमती था, उसे रोक दिया। बोली, "हे राजन्! पहले मेरी बात सुनो।"

ABHAY
31-10-2010, 01:30 PM
सिंहासन बत्तीसी 32
राजा विक्रमादित्य का आखिरी समय आया तो वह विमान में बैठकर इंद्रलोक को चला गया। उसे जाने से तीनों लोकों में बड़ा शोक मनाया गया। राजा के साथ उसके दोनों वीर भी चले गये। धर्म की ध्वजा उखड गई। ब्राह्मण, भिखारी, दुखी होकर रोने लगे। रानियां राजा के साथ सती हो गई। दीवान ने राजकुमार जैतपाल को गद्दी पर बिठाया।

एक दिन की बात है कि नया राजा जब इस सिंहासन पर बैठा तो वह मूर्च्छित हो गया। उसी हालत में उसने देखा, राजा विक्रमादित्य उससे कह रहे हैं कि तू इस सिंहासन पर मत बैठ। जैतपाल की आंखें खुल गईं और वह नीचे उतर आया। उसने दीवान से सब हाल कहा। दीवान बोला, "रात को तुम ध्यान करके राजा से पूछो कि मैं क्या करुं। वह जैसा कहें, वैसा ही करो।"

जैतपाल ने ऐसा ही किया। राजा विक्रमादित्य ने उससे कहा, "तुम उज्जैन नगरी और धारा नगरी छोड़कर अंबावती नगरी में चले जाओं और राज्य करो। इस सिंहासन को वहीं गड़वा दो।"

सवेरा होते ही राजा जैतवाल ने सिंहासन वहीं गड़वा दिया और स्वयं अंबावती चला गया। उज्जैन और धारा नगरी उजड़ गई। अंबावती नगरी बस गई।

पुतली की यह बात सुनकर राजा भोज बड़ा पछताया और दीवान को बुलाकर आज्ञा दी कि इस सिंहासन को जहां से निकलवाया था, वहीं गड़वा दो। फिर अपना राजपाट दीवान को सौंपकर वह एक तीर्थ में चला गया और वहीं तपस्या करने लगा।

ABHAY
01-11-2010, 05:33 PM
सिंहासन बत्तीसी समाप्त हुआ मगर किसी ने ये नहीं बोला की कयशा लगा चलो कोई बात नहीं !

abhisays
01-11-2010, 05:58 PM
सिंहासन बत्तीसी समाप्त हुआ मगर किसी ने ये नहीं बोला की कयशा लगा चलो कोई बात नहीं !



बहुत अच्छा था.. शेयर करने के लिए धन्यवाद्..

khalid
24-11-2010, 07:13 AM
सिंहासन बत्तीसी समाप्त हुआ मगर किसी ने ये नहीं बोला की कयशा लगा चलो कोई बात नहीं !

अभय आपका हार्दिक धन्यवाद
बहुत अच्छा था