PDA

View Full Version : प्रणय रस


Sikandar_Khan
04-11-2010, 05:46 PM
वासना के चषक छलके
ज्योति के अलोक झलके
व्योम में द्युति हर्ष कौँधा
मूर्छना मेँ सफर डूबा
भोग के आयाम से ही
सर्जना मेँ सत्य डूबा
सृष्टि के वरदान झलके
ज्योति के अलोक झलकेँ
सत्य का स्थान ले जब
अहम बोला
श्रृष्टि ने जब संयमी
आयुध के बोध झलके
ज्योति के आलोक झलके
मै , सहित पर भी यहां है
द्वैत का संभ्रम तना है
दृष्टि पर पर्दे पड़े हैँ
सत्य पर संशय घना है
नौ रसोँ के सेतू झलके
ज्योति के अलोक झलकेँ
________________________
साभारः ऋतुपर्णा
द्वाराः शशि भूषण अवस्थी

Sikandar_Khan
04-11-2010, 05:55 PM
रूप प्यास की बदरी छाई
मन आंगन मेँ झड़ी लगाई
धुली विरह की काली राख
स्नेहिल मन कतकी की रात
मन बौराया तन ललचाया
बांकी छावि ने धूम मचाया
आज वर्जता प्रश्न नया रव
किरन किरन कतकी की
रात बदरी के घूंघट मेँ चंदा
लुकछिप खिले चांदनी फंदा
अरमानोँ का उजाला पाख
महक रही कतकी की रात
मन का चोर निकल
कर भागा
सोया अपनापन फिर जागा
फिर से जगी प्रीति की साख
सुरासिक्त कतकी की रात
_________________________
साभारः ऋतुपर्णा
द्वाराः शशि भूषण अवस्थी

Sikandar_Khan
04-11-2010, 06:25 PM
दृगोँ का घूंघट उघारो
मधुमिलन के इन क्षणोँ को; ह्रदय के पट पर उघारो,
दृगोँ का घूंघट उघारो,
शर्म को देकर तिलांजलि;
आज प्रिय उन्मुक्त होओ आज अलिंगन सुरा;
छककर पियो उन्मत्त होओ हम पढ़ेँ संस्पर्श आखर;
जो मिलन की आदि भाषा कामना का संसार धरती
पर उतारो
दृगोँ का घूंघट उघारो
रह न जाये आज कोई प्यास या ख्वाहिश अधूरी
बांध लो आकाश मुटठी मे मिटायेँ आज दूरी
इस अनंगी यज्ञ मे;
हर द्वैत का हम दहन कर देँ युग्म बन अद्वैत जीवन
मे उतारो
दृगोँ का घूंघट उघारो
________________________
साभारः ऋतुपर्णा
द्वाराः शशि भूषण अवस्थी

aksh
04-11-2010, 08:23 PM
बहुत सुन्दर सूत्र है अनुज सिकंदर. बहुत बहुत साधुवाद !

ndhebar
04-11-2010, 11:27 PM
सिकन्दर भाई मैं यहाँ आपको स्पष्ट कर दूँ की ऐसा हो सकता की आपके इस सूत्र में जवाब कम आये
पर इससे विचलित मत होना मेरे भाई
इसका कारन है की बहुत कम लोग ऐसे विषयों में रूचि रखते हैं
पर कुछ लोग जो इसे पसंद करते हैं उनके लिए आपका ये सूत्र अमृत कलश स्वरुप हैं
और उन्ही लोगों के लिए सूत्र की निरन्तरता बनाये रखना

Sikandar_Khan
04-11-2010, 11:36 PM
सिकन्दर भाई मैं यहाँ आपको स्पष्ट कर दूँ की ऐसा हो सकता की आपके इस सूत्र में जवाब कम आये
पर इससे विचलित मत होना मेरे भाई
इसका कारन है की बहुत कम लोग ऐसे विषयों में रूचि रखते हैं
पर कुछ लोग जो इसे पसंद करते हैं उनके लिए आपका ये सूत्र अमृत कलश स्वरुप हैं
और उन्ही लोगों के लिए सूत्र की निरन्तरता बनाये रखना

मित्र निशांत जी
आपका हार्दिक आभार
हमारा प्रयास जारी रहेगा

jalwa
05-11-2010, 12:06 AM
बेहद मादक और उत्तेजक,
भाई सिकंदर सूत्र तुम्हारा.
जारी रखना यूँही हमेशा,
कीमती ये प्रयास तुम्हारा.


बेहद बेहतरीन सूत्र और आपकी रचनाएं. धन्यवाद

Sikandar_Khan
05-11-2010, 07:18 AM
बेहद मादक और उत्तेजक,
भाई सिकंदर सूत्र तुम्हारा.
जारी रखना यूँही हमेशा,
कीमती ये प्रयास तुम्हारा.


बेहद बेहतरीन सूत्र और आपकी रचनाएं. धन्यवाद

मित्र जलवा जी
सूत्र भ्रमण और सुझाव के लिए आपका हार्दिक आभार

Sikandar_Khan
05-11-2010, 07:26 AM
कामना की पलक हिलते
ह्रदय के पट बंद खुलते स्वांस मेँ रस छंद घुलते
सृष्टि मेँ नव स्वप्न खिलते रूप मेँ श्रृंगार मचले
सर्जना का
भावना संगीत बनती
अर्चना मे ज्योति घुलती
वंदना मे प्रीति बहती
दृगोँ को नव सृष्टि मिलती
बोध मे सत्कार मचले
व्यंजना का
अक्षरोँ के बंध खुलते
छंद के मीड़न सम्हलते
रसोँ के मकरंद खिलते
सर्जना को व्योम मिलते गान मे उल्लास मचले
कामना का
________________________
साभारः ऋतुपर्णा
द्वाराः शशि भूषण अवस्थी

Sikandar_Khan
05-11-2010, 07:37 AM
बजे वासना भी शहनाई
मन डोले,
तन बोले
कोष कोष मे सूत्र लिखे हैँ आखर ब्रह्रा के
रूपोँ के रूपाकारोँ मेँ भाव भंगिमा के
रचे गीत नूतन तरूणाई
मन बोले,
तन डोले
भाव भाव संवेग सुहावन
स्नेहिल बंधन के
अंतहीन रूपक जीवन की रचना गंगा के
मौसम लेते हैँ अंगड़ाई
मन डोले
तन बोले
अथक, अनगिनत,रामकथा मे प्रहसन लीला के
सद सौ असद भाव रूपोँ के शिवकी करूण के
सांस करे सुर की पहुनाई
मन डोले,
तन बोले

khalid
05-11-2010, 07:44 AM
आपको मेरे तरफ से बहुत धन्यवाद मित्र इतने अच्छे सुत्र के निर्माण के लिऐ

Sikandar_Khan
05-11-2010, 07:47 AM
चितवन है या खिली
चांदनी या वैशाखी भोर सम्मोहन का पाश लजाया आमंत्रण की डोर
मन की गोपन कुंज लता मे मौन खोलता है
कोष कोष वारूणी मचलती बोध बोलता है
मधू पराग की सुरधनु
काया या फूलोँ की खोर
शलभ त्याग सारे असमंजस पंख खोलता है
ऐसे पांसे पड़े कि अंतर वाह्रय डोलता है
नाव संदली ज्योतिधार मेँ बहा रही किस ओर
नव किसलय सा गात
ओज रूप का मन मे
रस अलोक बोलता है
परिरम्भी सोपनोँ पर मन
नाचे जैसे मोर

Sikandar_Khan
05-11-2010, 09:31 AM
बांहो मे जब गंध कुवांरी
मचली थी
ईंगुरी कपोलोँ पर
सलज मुंदी पलकोँ पर
तृषित से गुलाबो पर
ह्रदय उमड़ आया था
धड़कन की तालो पर
धड़कन तब मचली थी
सांसो की रंगत पर
आलिँगन संगत पर
शोखी , अलमस्ती पर
तब दुलार आया था
आंखो की भाषा पर
आंखे तब मचली थीँ
दृढ़तम विश्वासोँ पर
कसमोँ और वादोँ पर
साथ के इरादोँ पर
सहज प्यार आया था
जग को वश करने की
एक चाह मचली थी

Sikandar_Khan
05-11-2010, 09:41 AM
फिर चिट्ठी भेजी है
मतवाले मौसम ने
शब्द शब्द बिसरा इतिहास रागोँ का स्वार्गिक एहसास स्मरणोँ की मीठी फांस
प्रीति पगा भोरा विश्वास
अनल सुधा भेजी है
मतवाले मौसम ने
किसलय तन के क्वांरे भास छुवनोँ की चिर मीठी प्यास परिरम्भी आहुति की आस पुष्प पुष्प निर्मल आकाश गंध गमक भेजी है
मतवाले मौसम ने
सूरज के भेजे अनुबन्ध
आम्रमंजरी के सम्बन्ध
फागुनाहट के भेजे छंद
गीतोँ के आशय स्वछंद
मदन मूठ भेजी है
मतवाले मौसम ने

munneraja
05-11-2010, 10:50 AM
अनुज सिकंदर
आपके सूत्र को पढ़कर आनंदित हो गया मैं

Sikandar_Khan
06-11-2010, 10:32 AM
अनुज सिकंदर
आपके सूत्र को पढ़कर आनंदित हो गया मैं

दादा
सूत्र भ्रमण के लिए आपका हार्दिक आभार आपको पसंद आया ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात है

Sikandar_Khan
06-11-2010, 10:45 AM
पुरवा भी है बिजुरी भी है बादल भी बरसात भी
हाथ ढूंढ़ते संस्पर्शो को
ओठ अधर को ढूंढ़ रहे
ह्रदय ढूंढ़ता है प्रियतम को भाव प्रीति को ढूंढ़ रहे
यादेँ भी हैँ बातेँ भी हैँ
आंखे भी अनुराग भी
जिस कांटे से विंधा हुआ मन उस पीड़ा की आग भी
तुम खोई होगी सखियोँ मे
गुड़ियोँ मे औ फूलोँ मेँ
याद कहां तुम करती होगी
हम जैसोँ को भूले मेँ
मोर,कोयलिया,दादुर,सब है जुगनू भी है रात भी
बस केवल तुम साथ नही हो रोती यह बरसात भी
हम हैँ राह घाट के संगी
पल दो पल के साथी थे
पर सच जानो प्रेम प्यार से कोर सीधे सादे थे
तन्हाई है बेचैनी है
शंका भी विश्वास भी
शायद कभी याद आती हो
इस चातक की प्यास भी

Sikandar_Khan
06-11-2010, 06:27 PM
थके थके हैँ पांव चाव
सब रूठ गये
जाने कितने मंजर पीछे
छूट गये
वह अल्हड़ता वह अरूणाई
गांव गली बौरी अमराई
खेल, पसीना, दौड़, घुमाई
फिर बप्पा की कांन खिचाई बचकाने वो मधुर बहाने
रूठ गये
दादी की वो कथा कहानी हम उम्रोँ की भीड़ दिवानी देह परस की प्यास सुहानी मन की चोरी की नादानी मादक मीठे ठाँव याद बन छूट गये
रेखोँ वाली वह तरूणाई
खट मिट्ठी अमियां गदराई रूप कशिश की वह अंगड़ाई गोपन ठावोँ की पहुनाई मदिर आँच के स्वाद सभी रस लूट गये
जिम्मेदारी की भरपाई
और विवशता की रुसवाई बंधी नाव की थकन दुहाई
घनी रिक्तता पीड़ादाई
अनचाहे पड़ाव तक पथ
क्यो फूट गये..

raju
07-11-2010, 09:34 PM
तड़प कर देख किसी की चाह मैं
पता चले प्यार क्या होता है
मील जाए हर कोई यूं ही राहों में
तोह कैसे पता चले इंतज़ार क्या होता है

Sikandar_Khan
08-11-2010, 02:20 PM
बंजारा है मन मितवा
चाह चाह भटके
साध सी उम्र चली
सपन सपन अटकी
दर्प दर्प चोँट मिली
पीर पीर खटकी
बंजरा है मन मितवा
आस आस भटके
नयन नयन बांच गया
बात बात जांचा
अर्थोँ से परे रहा किन्तु
सत्य सांचा
बंजारा है मन मितवा
अर्थ अर्थ भटके
नीर नीर तरल हुआ
सिँधु सिँधु गहरा
उदित और अस्त हुआ
ताल ताल पहरा
बंजारा है मन मितवा
प्यास प्यास भटके
नेह नेह छला गया
देँह देँह रोका
बदरा ,बुजुरी,बरखा
कभी पवन झोँका
बंजरा है मन मितवा
सांस सांस भटके

jai_bhardwaj
08-11-2010, 11:06 PM
बहुत ही सुन्दर और मदभरी पंक्तियाँ उद्धृत की हैं मित्र सिकंदर / धन्यवाद बन्धु /

jai_bhardwaj
09-11-2010, 10:53 PM
भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !!
क्यों आती है साथ साथ !!

तुम्हारे माथे की बिंदी की भाँति
उगता हुआ सूरज
ना जाने क्यों मैं देखता रहता हूँ
उसे तब तक ..... एक टक !
तुम्हारे मधुर चुम्बनों का आभास दिलाती
हुई सुबह की कोमल किरणे
जब तक सहला ना दें
मेरा माथा और मेरे हाथ !!
भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !!
क्यों आती है साथ साथ !!

इन्ही मादक स्मृतियों में निकल जाता है
दिन और आ जाती है रात !
तब घनी हो चुकी तुम्हारी यादों के बीच
डसने लगता है एकाकीपन का नाग !!
बिस्तर में बैठा हुआ मैं भागता हूँ
पूरे कमरे में
और चीखता हूँ चिल्लाता हूँ
निःशब्द ... बिना आवाज !!
तुम बहुत दूर चली गयी हो 'जय'
कभी वापस ना आने के लिए
प्रिये! अब बुला लो मुझे भी अपने पास !!
भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !!
क्यों आती है साथ साथ !!

Sikandar_Khan
11-11-2010, 07:56 AM
युग बीते सुदिनोँ की बाट
ही निहारते
सारे शुभत्व पर
ग्रहण की छाया
तभी तभी पड़ी
जब मनका कुछ पाया
दिनोँ के फेर देख मन
को पुचकारते
प्रतिबिम्बोँ मे भासित
मर्म को परखते
मरूथली मरीचिकायेँ
भ्रमित हो विखरते
बचपन सा भोरा विश्वास
सतत हारते
जाने क्या क्या
करना चाहा आरक्षित
अवनी से अम्बर तक
कितना कुछ इच्छित
अंजुरी भर धूप से अंधेरे
बुहारते

kamesh
15-11-2010, 02:25 PM
कामना की पलक हिलते
ह्रदय के पट बंद खुलते स्वांस मेँ रस छंद घुलते
सृष्टि मेँ नव स्वप्न खिलते रूप मेँ श्रृंगार मचले
सर्जना का
भावना संगीत बनती
अर्चना मे ज्योति घुलती
वंदना मे प्रीति बहती
दृगोँ को नव सृष्टि मिलती
बोध मे सत्कार मचले
व्यंजना का
अक्षरोँ के बंध खुलते
छंद के मीड़न सम्हलते
रसोँ के मकरंद खिलते
सर्जना को व्योम मिलते गान मे उल्लास मचले
कामना का
________________________
साभारः ऋतुपर्णा
द्वाराः शशि भूषण अवस्थी
वह क्या बात है

सुन्दर अति सुन्दर

सुन्दर सूत्र बनाने के लिए कोटि कोटि बधाई

kamesh
15-11-2010, 02:33 PM
जाने ये कौन सा मौसम है
न सर्दियों की धुप है
न दिन यहाँ पर कम हँi
न ठण्ड का कोई भी रूप है

न मिटटी की खुशबु है

न भीगे यौवन में हलचल
न बादलों में गुफ्तगू है
न चाय पकोड़ी का ही कोई पल

धुप भी चिलचिलाती नहीं

न चांदनी का कोई आलम
न झरनों की आरज़ू कहीं
न ये छुट्टियों का मौसम

सरसों भी नहीं दीखते हैं
पतंग अस्मा में अब तक न नाचा है

नए पत्ते भी कहीं न उगते हैं
न मुस्कराता कोई भी रास्ता है

जाने ये कौन सा मौसम है

तुम पास होकर भी इतने दूर हो
हर बात शुरू होने से पहले ख़त्म है
काम हो न हो , मसरूफ हो …

ndhebar
17-11-2010, 05:20 AM
वो सुरूर मोहब्बत का, वो आँखों की प्यास
वो बेताब धड़कने, वो मिलने की आस
वो तन्हाईयों में अक्सर उनकी तस्वीर से बातें,
उनसे आँखे टकराने पर वो अजीब सा एहसास

उनके खयालो से मेरा दिल महकता था हर पल
उनके दिखने से मेरे खुशियों में होती थी हलचल
एक झलक के लिए पागल "निशान्त" अकेले नहीं थे

Sikandar_Khan
20-11-2010, 10:37 AM
तुम नहीँ हो साथ लेकिन याद से संत्रास तो है
हूँ अकेला
पर नही कोई गिला है
इस सफर मे
बोध ही मन का सिला है
सिलसिले टूटे सही लेकिन तुम्हारी प्यास तो है
क्या हुआ है दृगोँ को
इनको न कोई और भाता
और मन तो हर प्रहर
बस नाम तेरा गुनगुनाता
साथ छूटा क्या हुआ लेकिन कसकती फांस तो है
आ गया है समझ मे
यह जगत संयोग भर है
कठपुतलियां लेख की हैँ
सांस इनकी डोर पर है
भले क्षण भंगुर सभी कुछ मन खुला आकाश तो है ।

Sikandar_Khan
21-11-2010, 09:12 AM
बीज अंखुवाया
सृष्टि का हर भेद मुस्काया
किरण बोती ज्योत्सना
और प्रीति बोती बीज है
सृष्टि का यह भेद अनुपम वेद कहते नेति है
सत्य अंखुवाया
सृष्टि का हर भेद मुस्काया
ज्योति देती अर्ध्य किसको
प्रीतिका है अर्ध्य क्या ?
जनम कया है मरण क्या है सृष्टि का है अर्थ क्या ?
शब्द अंखुवाया
सृष्टि का हर भेद मुस्काया
महामाया जाल मे
हर सत्य है उलझा
अद्यतन संशोध से भी
कुछ नही सुलझा
भास अंखुवाया
सृष्टि का हर भेद मुस्काया

kamesh
22-11-2010, 04:21 PM
आज शाम से मन उदास है
कोई न कोई बात खाश है
तुम नहीं हो मगर ये अहसाश है
की तुम नहीं आवोगी
मगर इस पागल दिल को कोंन समझाए
हर पल मानता तुम्हे आस पास है
तोड़ के सारे बंधन प्रेम के चली गयी तुम दूर निस्तब्ध हमें कर
मन में बस यह चाहत है तुम आवो गी जरुर
मगर इतना भी न तद्पवो की दम निकल जाये तड़प कर

Sikandar_Khan
26-01-2011, 10:58 AM
युग बीते सुदियोँ की बाट ही निहारते
सारे शुभत्व पर,
ग्रहण की छाया
तभी-तभी पड़ी,
जब मनका कुछ पाया
दिनोँ के फेर देख मन को पुचकारते
प्रतिबिम्बोँ मे भासित
मर्म को परखते
मरुथाली मरीचिकायेँ
भ्रमित हो विखरते
बचपन सा भोरा विश्वास
सतत हारते
जाने क्या क्या
करना चाहा आरक्षित
अवनी से अम्बर तक
कितना कुछ इच्छित
अंजुरी भर धूप से अंधेरे बुहारते

Harshita Sharma
26-01-2011, 01:51 PM
युग बीते सुदियोँ की बाट ही निहारते
सारे शुभत्व पर,
ग्रहण की छाया
तभी-तभी पड़ी,
जब मनका कुछ पाया
दिनोँ के फेर देख मन को पुचकारते
प्रतिबिम्बोँ मे भासित
मर्म को परखते
मरुथाली मरीचिकायेँ
भ्रमित हो विखरते
बचपन सा भोरा विश्वास
सतत हारते
जाने क्या क्या
करना चाहा आरक्षित
अवनी से अम्बर तक
कितना कुछ इच्छित
अंजुरी भर धूप से अंधेरे बुहारते


कब से तड़प रहे हो सिकंदर जी! (जोकिंग)
दिल के करीब से निकली बहुत अच्छी रचनाएँ हैं.:bravo:

Sikandar_Khan
06-02-2011, 08:33 AM
रसनिधान पावन बृंदाबन रबि-तनया-तट सोहै,
नित नूतन निज सुख-सुषमा सौं सुर-नर-मुनि-मन मोहै।
सेष सारदा हू पै जाकी सोभा बरनि न जाई,
जहँ पावस बसंत आदिक ऋतु संतत रहैं लुभाई। ।

जहाँ बेलि-तृण-तरु-समूह ह्वै संत मोच्छ-सुख वारैं,
बिकसित कुसुम सरिस नैनन सौं स्यामा स्याम निहारैं।
वा बृंदाबन बीच मंजु इक नवल निकुंज बिराजै,
जाकी स्याममयी सुषमा लखि नंदन कोटिक लाजै। ।

मध्य मनोहर वा निकुंज के एक कदंब सुहावै,
निज अनुपम अनल्प महिमा सौं पादप कल्प लजावै।
डाल डाल अरु सघन पात बिच कुसुमित कुसुम घनेरे,
कै सुरराज जुगल छबि हेरत सहस नैन करि नेरे। ।

नीचे वा कदंब तरुवर के कोटि मदन छबि हारी,
ठाढ़े ललित त्रिभंगी छबि सौं बृन्दाबिपिन-बिहारी।
बाईं और मदनमोहन के श्रीबृषभानुकिसोरी,
चितवति स्याम बिनत चितवन सौं मानौ चंद चकोरी। ।

मोर-मुकुट स्वर्नाभ सुघर सिर श्रीहरि के छबि पावै,
सीस चंद्रिका भानुसुता के भानु-बिभा बगरावै।
पेखि स्याम द्युति पीत प्रिया को पीत बसन तन धारैं,
पिय के रंग सम नील-स्याम पट स्यामा अंग संवारैं। ।

कुंडल लोल अमोल स्रवन बिच बक्ष बिमल बनमाला,
मुरली मधुर बजाई बिस्व कौ मन मोहत नंदलाला।
घूंघट नैक उठाई हाथ सौं पिय छबि निरखति प्यारी,
रूप सुधा कौ दान पाइ त्यों हिय हरषत बनवारी। ।

बिबिध बरन आभरण बिभूषित रसिक राय गिरिधारी,
झीन बसन भूषन कंचुक पट सोभित भानु दुलारी।
दोउन के दृग द्वै चकोर बनि दोउ मुखचंद निहारैं,
प्रेम बिबस दोउ दोउन पै तन-मन-सरबस हारें। ।

परम प्रेम फलरूप, कोटि सत रति-मन्मथ छबि छीने,
संत-हृदय-सम्पति दम्पति नव लसत-प्रणय-रस भीने।
ढारति चँवर जुगल प्रीतम कौं स्नेहमयी कोउ बामा,
अरपन कर सौं करति पान कौ बीरो कोउ अभिरामा। ।

सेवा रत सहचरी-बृंद जुत स्याम और स्यामा की,
जाके हिय बिच बसति सदा यह भुवनमोहनी झांकी।
सोइ तापस गुनवंत संत सुचि, सोइ ध्यानी, सोइ ज्ञानी
सोई लाह लह्यो जीवन कौ भावुक भगत अमानी।

Sikandar_Khan
13-02-2011, 03:17 PM
बजे वासना की शहनाई
मन डोले ,
तन बोले
कोष कोष मे सूत्र लिखे हैँ
आखर ब्रह्मा के
रूपोँ के रूपाकरोँ मेँ भाव भंगिमा के
रचे गीत नूतन तरूणाई
मन बोले,
तन डोले
भाव भाव संवेग सुहावन
स्नेहिल बंधन के
अंतहीन रूपक जीवन की रचना गंगा के
मौसम लेते हैँ अंगड़ाई
मन डोले
तन बोले
अथक,अनगिनत,रामकथा मे
प्रहसन लीला के
सद औ असद भाव रूपोँ के
शिवकी करूणा के
सांस करे सुर की पहुनाई
मन डोले,
तन बोले!!

Sikandar_Khan
18-03-2011, 11:14 PM
सेज पर साधें बिछा लो,
आंख में सपने सजा लो
प्यार का मौसम शुभे ! हर रोज़ तो आता नहीं है।

यह हवा यह रात, यह
एकांत, यह रिमझिम घटाएं,
यूं बरसती हैं कि पंडित–
मौलवी पथ भूल जाएं,
बिजलियों से मांग भर लो
बादलों से संधि कर लो
उम्र-भर आकाश में पानी ठहर पाता नहीं है।
प्यार का मौसम...

दूध-सी साड़ी पहन तुम
सामने ऐसे खड़ी हो,
जिल्द में साकेत की
कामायनी जैसे मढ़ी हो,
लाज का वल्कल उतारो
प्यार का कंगन उजारो,
‘कनुप्रिया’ पढ़ता न वह ‘गीतांजली’ गाता नहीं है।
प्यार का मौसम...

Bond007
19-03-2011, 01:16 AM
दूध-सी साड़ी पहन तुम
सामने ऐसे खड़ी हो,
जिल्द में साकेत की
कामायनी जैसे मढ़ी हो,


:clap: :clap:
यही भाव तो यादों में साथ देते हैं| :good:

Sikandar_Khan
21-03-2011, 08:25 PM
बाहर से भीतर तक फैला जो संसार है
एक यात्रा-कथा योग ही इस असार का सार है
यहीँ मिली पहचान
यहीँ सब छूटेगा
जाने क्या उस पार
प्रीति,घृणा, कामना, कल्पना, सभी सेतु इकसार है
सारे उपक्रम , सारी दौड़ेँ
सारे घाव ,पीर सारी
सपने, जुगनू, केसर, चंदन रात चांदनी फुलवारी
सारा जादू -टोना ऋतुरंग मन के खेल हजार हैँ
उलझे अंकगणित के थोथे
गुणा , भाग और हानि सही मात्र प्यास का लम्बा चिट्ठा जिसे सहेजे सांस बही
नीरव ज्योति जले मंदिर मेँ किस पूजा का सार है ?

VIDROHI NAYAK
21-03-2011, 08:53 PM
बाहर से भीतर तक फैला जो संसार है
एक यात्रा-कथा योग ही इस असार का सार है
यहीँ मिली पहचान
यहीँ सब छूटेगा
जाने क्या उस पार
प्रीति,घृणा, कामना, कल्पना, सभी सेतु इकसार है
सारे उपक्रम , सारी दौड़ेँ
सारे घाव ,पीर सारी
सपने, जुगनू, केसर, चंदन रात चांदनी फुलवारी
सारा जादू -टोना ऋतुरंग मन के खेल हजार हैँ
उलझे अंकगणित के थोथे
गुणा , भाग और हानि सही मात्र प्यास का लम्बा चिट्ठा जिसे सहेजे सांस बही
नीरव ज्योति जले मंदिर मेँ किस पूजा का सार है ?
वाह क्या बात है ....!!

Sikandar_Khan
24-03-2011, 10:25 AM
बहते पानी पर मैंने अरमानों का एक नाम लिख
तूफानों पर नाम लिखा नीले अम्बर पर नाम लिखा
भले हर कहीं मिटा नाम
लेकिन मेरे मन में था
सुने मंदिर में दीपक सा
अन्धकार में संबल था
उस दीपक को अर्दासों से एक सलाम लिखा
गर्दिश चलती रही वक्त की
दिन आए और चले गए
आया कोई भी मौसम
हमको बाबूल के शूल मिले
आभारी होकर शूलोँ का दिल से उन्हे सलाम लिखा
मझधारोँ मेँ कश्ती खेया
दुर्गम पथ पर सफर किया
संकल्पोँ ने थकान भुलाया
धीरज ने भी साथ दिया
फिर भी बिखरे अरमानोँ को भरा भरा पैगाम लिखा
तूफानोँ पर नाम लिखा -नीले अम्बर पर नाम लिखा

Sikandar_Khan
28-03-2011, 12:40 AM
तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका ।

मुझे भर लिया तुमने गोद में,
कितने चुम्बन दिये,
मेरे मानव-मनोविनोद में
नैसर्गिकता लिये;

सूखे श्रम-सीकर वे
छबि के निर्झर झरे नयनों से,
शक्त शिरा*एँ हु*ईं रक्त-वाह ले,
मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका ।

Bholu
28-03-2011, 01:56 PM
bhaaiijee - भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !!
क्यों आती है साथ साथ !!

तुम्हारे माथे की बिंदी की भाँति
उगता हुआ सूरज
ना जाने क्यों मैं देखता रहता हूँ
उसे तब तक ..... एक टक !
तुम्हारे मधुर चुम्बनों का आभास दिलाती
हुई सुबह की कोमल किरणे
जब तक सहला ना दें
मेरा माथा और मेरे हाथ !!
भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !!
क्यों आती है साथ साथ !!

इन्ही मादक स्मृतियों में निकल जाता है
दिन और आ जाती है रात !
तब घनी हो चुकी तुम्हारी यादों के बीच
डसने लगता है एकाकीपन का नाग !!
बिस्तर में बैठा हुआ मैं भागता हूँ
पूरे कमरे में
और चीखता हूँ चिल्लाता हूँ
निःशब्द ... बिना आवाज !!
तुम बहुत दूर चली गयी हो 'जय'
कभी वापस ना आने के लिए
प्रिये! अब बुला लो मुझे भी अपने पास !!
भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !!
क्यों आती है साथ साथ


जय भाईआ आप अब बापस आओ
मै आपका इन्तजार करूँगा !!

Sikandar_Khan
11-04-2011, 09:01 AM
यूँ जगा दो हृदय के स्वरों को प्रिये
प्राण की रागिनी फिर मुखर हो उठे

गीत के नव स्वरों को नया साज दो
प्रेम के छंद को एक अंदाज़ दो
दो हमें भाव की व्यंजना तुम वही
नेह की मुरलिका फिर सस्वर हो उठे

जग उठे फिर प्रणय-दीप की वर्तिका
मेल हो छंद रस-भाव संगीत का
खोल दो प्रेरणा के नए द्वार तुम
साधना का पुनः स्वर प्रखर हो उठे

रस-भरी हो प्रणय कुञ्ज की गायिका
मन, हृदय, प्राण निर्झर बनें भाव का
राग-सर में विचरने लगे भावना
उल्लासित प्रेम की हर लहर हो उठे

यूँ जगा दो हृदय के स्वरों को प्रिये
प्राण की रागिनी फिर मुखर हो उठे

Sikandar_Khan
11-04-2011, 09:07 AM
आज तुम्हारे अनुबंधों पर
बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ

अब तक के सारे तलाश के
निकले हैं अंजाम निराले
आस भरे सपने जाने क्यों
लगते हैं मावस से काले

सूनापन कहता चुपके से
बीते पल की मधुर कथाएँ
आज तुम्हारे अनुबंधों पर
बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ

मन की बात अधर से कह लूँ
ऐसा हाल कहाँ है मेरा
सारी रात अगन पीने के
बाद मिलेगा कहीं सवेरा

लेकिन पल पल धूमिल पड़ती
दीपक के लौ की आशाएँ
आज तुम्हारे अनुबंधों पर
बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ

Sikandar_Khan
14-04-2011, 09:14 AM
प्रिय तुम प्रेम प्रतीक हो
तुम प्रेम का आधार हो
तुम ही तो हो पथ प्रेम का
तुम ही प्रेम का द्वार हो

सर्द सुलगती रातों में
शीतल मृदु अहसास तुम
मधुर स्वप्न हो नयनों के
जटिल जीवन की आस तुम

जलती बुझती चाहों में
तुम एक अमर अभिलाषा हो
घोर निराशा के रुक्ष्ण क्षणों में
तृप्त प्रेम सी आशा हो

लक्ष्य तुम ही हो जीवन का
उस लक्ष्य तक पहुँचती हर राह तुम्ही
तुम ही तनहाई की अकुलाहट हो
प्रणय प्रेम की ठाह तुम्ही

तुम ही इष्ट हो इस साधक के
तुम ही साधना के बाधक हो
विपुल साधना जिसकी मैं

Nitikesh
14-04-2011, 10:02 AM
वाह सिकंदर भाई
यहाँ तो प्रेमरस की खूब बरसा रहे हो!
धन्यवाद

Sikandar_Khan
14-04-2011, 02:44 PM
माँग भरती रही ....... रूप रोता रहा

विवशता प्रणय की किसने है जानी,
माँग भरती रही, रूप रोता रहा ।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।

धवल ज्योत्स्ना में बिखेरा सुआँचल,
तारों की सारी निशा ने पहन कर,
लुटा फिर दिया चाँद को वह सभी कुछ,
रक्खा था उसने हृदय में सँजोकर,
मिलन को उषा का सुस्वागत मिला, पर
रात रोती रही, चाँद ढलता रहा ।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।

बसन्ती सुरभि में पली इक कली ने,
भ्रमर का मधुर स्वर निमंत्र्ति किया,
कली मुस्कराई, लजाई, मगर फिर,
प्रिय भ्रमर को अधर-रस समर्पित किया, बस क्षणिक गीत-गुंजन कली पा सकी,
गीत बनते रहे, स्वर बदलता रहा।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।

सपनों से लिपटी बहारें मचल कर, हर रूप यौवन को पाकर लजाया, प्रणय की मधुर कल्पना तब सजाकर, अदेखे पिया को नयन में बसाया, कि सपन में पिया का अभिसार पाने, आँख जगती रही, स्वप्न सजता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।

नभ ने धरा के कपोलों को चूमा,
रुपहली किरन का सुआँचल उठाकर, धडकनें धरा की बढी फिर स्वतः ही, गगन को समर्पण किया जब लजाकर, तभी आ जगाया उन्हें रवि किरन ने, अश्रु झरते रहे, प्यार पलता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । विवशता प्रणय की किसी ने न जानी, माँग भरती रही, रूप रोता रहा।

Sikandar_Khan
16-04-2011, 11:02 AM
फागुन की माधुरी छुवन
मदन सिक्त कर देती मन
मन्मथ की जादुई छड़ी
जगा रही साधेँ बिसरी
अंगना मे घुटन सी होने लगे
अटरा पर प्यास जा चढ़े
मितवा की छुवन मद भरी
अंग अंग दहके चुन चुन
महुआ पीकर चला पवन
सरसोँ इठलाती बन ठन
किँशुक की आँख हुई लाल
देख ये कुलच्छनी चलन
अमराई मे चिढ़ कर पिक
पिया पिया टेरे पुन पुन
खिलते चौपाल पर मुखर
रसिया के गीत रसीले
बार बार आकर टिकते
अंचरा पर नयन हठीले कोयलिया मार टहोके
बंसवट की बात न दे गुन
पीहर से पाती आई
गोरी का जियरा डोले
कसर मसर अंगिया करती
छुनुन छुनुन पायल बोले
विरहा की धुन मे गाता
जोगी सीवान मे निरगुन

Sikandar_Khan
17-04-2011, 12:03 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10314&stc=1&d=1303023340
दो नयना मिल दो से चार हुए, ना सूझे कोई और
जो तुम सुध आकर लो मेरी, मैं यह दुनिया दू छोड़

धरती मचले प्यास से, बादल का ना कोई निशान
चंचल मन हुआ बावरा, तुम बिन देह हुई निष्प्राण

कोयल कूहके बाग में, पपीहे ने मचाया शोर
ऋतु पर भी यौवन चड़ा, पर ना नाचे मन का मोर

लगे है चन्दन आग सा, पुरवाई चुभोए शूल
मैं जोगन बन राह तकू, पियुजी गए तुम मुझको भूल

चंद्रप्रभा से रात सजी, तारो ने जमाया डेरा
सिसक विरह में रात कटी, असुवन में हुआ सवेरा

तुम बिन सब सुख दुःख भये, ना पाए मन कहीं चैन
प्राण जाए तो जाए पर, ना आए विरह की रैन.....ना आए विरह की रैन !!

Sikandar_Khan
19-04-2011, 12:34 AM
प्रथम प्यार का, प्रथम पत्र है
लिखता, निज मृगनयनी को
उमड़ रहे, जो भाव ह्रदय में
अर्पित , प्रणय संगिनी को ,
इस आशा के साथ, कि समझें भाषा प्रेमालाप की !
प्रेयसि पहली बारलिख रहा,चिट्ठी तुमको प्यार की !


अक्षर बन कर जनम लिया
है , मेरे मन के भावों ने !
दवे हुए जो बरसों से थे
भड़क उठे अंगारों से
शब्द नहीं लिखे हैं , इसमें भाषा ह्रदयोदगार की !
आशा है सम्मान करोगी, प्यार भरे अरमान की !


तुम्हें द्रष्टिभर जिस दिन
देखा उन सतरंगी रंगों में
भूल गया मैं रंग पुराने ,
भरे हुए थे स्मृति में !
उसी समय से पढनी सीखी , गीता अपने प्यार की !
प्रियतम पहली बार गा रहा, मधुर रागिनी प्यार की !


प्रथम मिलन के शब्द, स्वर्ण
अक्षर से लिख मानसपट पर
गूँज रहे हैं मन में अब ,
जब पास नहीं , तुम मेरे हो !
निज मन की बतलाऊँ कैसे ? बातें हैं अहसास की !
बहुत आ रही मुझे सुहासिन याद तुम्हारे प्यार की !

Sikandar_Khan
19-04-2011, 02:38 AM
गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।

शीतल अनिल अनल दहकाती,
सोम कौमुदी मन बहकाती,
रति यामिनी बीती जाती,
प्राण प्रणय आ सेज सजा दो ।
गीत प्रणय का अधर सजा दो ।

गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।

ताल नलिन छटा बिखराती,
कुंतल लट बिखरी जाती,
गुंजन मधुप विषाद बढाती,
प्रिय वनिता आभास दिला दो ।
गीत प्रणय का अधर सजा दो ।

गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।

नंदन कानन कुसुम मधुर गंध,
तारक संग शशि नभ मलंद,
अनुराग मृदुल शिथिल अंग,
रोम रोम मद पान करा दो ।
गीत प्रणय का अधर सजा दो ।

गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।

Sikandar_Khan
19-04-2011, 11:49 PM
संकोच-भार को सह न सका
पुलकित प्राणों का कोमल स्वर
कह गये मौन असफलताओं को
प्रिय आज काँपते हुए अधर ।

छिप सकी हृदय की आग कहीं ?
छिप सका प्यार का पागलपन ?
तुम व्यर्थ लाज की सीमा में
हो बाँध रही प्यासा जीवन ।

तुम करूणा की जयमाल बनो,
मैं बनूँ विजय का आलिंगन
हम मदमातों की दुनिया में,
बस एक प्रेम का हो बन्धन ।

आकुल नयनों में छलक पड़ा
जिस उत्सुकता का चंचल जल
कम्पन बन कर कह गई वही
तन्मयता की बेसुध हलचल ।

तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं
मधु की मादकता को छूकर
वह देखो अरुण कपोलों पर
अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर ।

तुम सुषमा की मुस्कान बनो
अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल
तुम मुझ में अपनी छवि देखो,
मैं तुममें निज साधना अचल ।

पल-भर की इस मधु-बेला को
युग में परिवर्तित तुम कर दो
अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,
मेरे प्राणों में तुम भर दो ।

तुम एक अमर सन्देश बनो,
मैं मन्त्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ
तुम कौतूहल-सी मुसका दो,
जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ ।

तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो
तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ
बहना है, बस बह चलो, अरे
है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ?

थोड़ा साहस, इतना कह दो
तुम प्रेम-लोक की रानी हो
जीवन के मौन रहस्यों की
तुम सुलझी हुई कहानी हो ।

तुममें लय होने को उत्सुक
अभिलाषा उर में ठहरी है
बोलो ना, मेरे गायन की
तुममें ही तो स्वर-लहरी है ।

होंठों पर हो मुस्कान तनिक
नयनों में कुछ-कुछ पानी हो
फिर धीरे से इतना कह दो
तुम मेरी ही दीवानी हो ।

Sikandar_Khan
21-04-2011, 12:47 AM
पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
'लो टूट चुका बन्धन मेरा!'
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !

Sikandar_Khan
14-06-2011, 08:28 PM
प्रथम प्यार का, प्रथम पत्र है
लिखता, निज मृगनयनी को
उमड़ रहे, जो भाव ह्रदय में
अर्पित , प्रणय संगिनी को ,
इस आशा के साथ, कि समझें भाषा प्रेमालाप की !
प्रेयसि पहली बारलिख रहा,चिट्ठी तुमको प्यार की !


अक्षर बन कर जनम लिया
है , मेरे मन के भावों ने !
दवे हुए जो बरसों से थे
भड़क उठे अंगारों से
शब्द नहीं लिखे हैं , इसमें भाषा ह्रदयोदगार की !
आशा है सम्मान करोगी, प्यार भरे अरमान की !


तुम्हें द्रष्टिभर जिस दिन
देखा उन सतरंगी रंगों में
भूल गया मैं रंग पुराने ,
भरे हुए थे स्मृति में !
उसी समय से पढनी सीखी , गीता अपने प्यार की !
प्रियतम पहली बार गा रहा, मधुर रागिनी प्यार की !


प्रथम मिलन के शब्द, स्वर्ण
अक्षर से लिख मानसपट पर
गूँज रहे हैं मन में अब ,
जब पास नहीं , तुम मेरे हो !
निज मन की बतलाऊँ कैसे ? बातें हैं अहसास की !
बहुत आ रही मुझे सुहासिन याद तुम्हारे प्यार की !

Sikandar_Khan
02-08-2011, 09:27 PM
चन्द्रबाबू अग्निहोत्री


माँग भरती रही ....... रूप रोता रहा

विवशता प्रणय की किसने है जानी,
माँग भरती रही, रूप रोता रहा ।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।

धवल ज्योत्स्ना में बिखेरा सुआँचल,
तारों की सारी निशा ने पहन कर,
लुटा फिर दिया चाँद को वह सभी कुछ,
रक्खा था उसने हृदय में सँजोकर,
मिलन को उषा का सुस्वागत मिला, पर
रात रोती रही, चाँद ढलता रहा ।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।

बसन्ती सुरभि में पली इक कली ने,
भ्रमर का मधुर स्वर निमंत्र्ति किया,
कली मुस्कराई, लजाई, मगर फिर,
प्रिय भ्रमर को अधर-रस समर्पित किया, बस क्षणिक गीत-गुंजन कली पा सकी,
गीत बनते रहे, स्वर बदलता रहा।
दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी,
ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।

सपनों से लिपटी बहारें मचल कर, हर रूप यौवन को पाकर लजाया, प्रणय की मधुर कल्पना तब सजाकर, अदेखे पिया को नयन में बसाया, कि सपन में पिया का अभिसार पाने, आँख जगती रही, स्वप्न सजता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा ।

नभ ने धरा के कपोलों को चूमा,
रुपहली किरन का सुआँचल उठाकर, धडकनें धरा की बढी फिर स्वतः ही, गगन को समर्पण किया जब लजाकर, तभी आ जगाया उन्हें रवि किरन ने, अश्रु झरते रहे, प्यार पलता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । विवशता प्रणय की किसी ने न जानी, माँग भरती रही, रूप रोता रहा। ।

Sikandar_Khan
02-08-2011, 09:31 PM
याद तुम्हारी..........

जब जब पूरब में ऊषा नित अरुणिम आभा बिखराती है, क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब गीतों में ढल जाती है ?

उन्मत्त समीरण की बाँहें, हर तरु का आलिंगन करती,
फूलों की मदमस्त जवानी, तितली निज बाँहों में भरती,
अधखिली कली के यौवन से मधुपावलियाँ गुंठन करती,
सौन्दर्य-रूप की तंत्री में सुरभित बगिया जीवन भरती,
सुख के वैभव में सहसा क्यों कोयल दर्द सुना जाती है ?
क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब बीतों में ढल जाती है ?

है नित्य सितारे क्रीडा करते, रजनी के नव यौवन से,
नित निशा सुन्दरी, रूपगर्विता हो, प्रस्वेदित प्रणयन से,
जब वक्ष धरा का गीला होता, प्रियतम नभ के चुम्बन से,
तब प्रणय-मिलन स्पंदित होते, दिल की बढती धडकन से,
बदली चन्दा का घूँघट क्यों सहसा हटा हटा जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब गीतों में ढल जाती है ?

है पावस की घनघोर घटा, मदमस्त हस्तिनी सी आती,
वह शान्त पिपासा करने जग की, यौवन घट भर भर लाती,
चिर-तृषित धरा गगनांचल में लेटी कुछ-कुछ शरमाई सी,
ऋतुदान हेतु कर रही प्रतीक्षा, सोई सी अलसाई सी,
सहसा बिजली चमक चमक क्यों उसका दर्द बढा जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब गीतों में ढल जाती है ?

संध्या का सूरज रक्तिम हो, ढल गया जमी अस्ताचल को, चाँदनी हँसी खिलखिला उठी, फैलाकर निज श्वेतांचल को, प्रणय-पिपासा हृदय सँजोए और धडकते दिल को लेकर,
जब किया समर्पण चन्दा को निज यौवन रूप हृदय देकर,
जगती नींद तभी सहसा क्यों सपनों को बहका जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बन तब गीतों में ढल जाती है ?

मधुरिम तराने प्यार के क्यों रूप की हर साँस गाती ?
हर आँख की उन्मन पलक क्यों निज अंक में सपने सुलाती ? सिन्दूर बेंदी पग-महावर, किसको चले सजकर मनाने ?
हर घाव मिलन का विरहानिल क्यों सहसा सहला जाती है ? क्यों याद तुम्हारी आँसू बनकर गीतों में ढल जाती है ?

abhisays
09-08-2011, 08:00 AM
बहुत बढ़िया सिकंदर जी.

Bholu
09-08-2011, 09:50 AM
बहुत बढ़िया सिकंदर जी.

जी ये तो सिकन्दर जी सालो से करते आये है

MANISH KUMAR
25-08-2011, 06:34 PM
जी ये तो सिकन्दर जी सालो से करते आये है

हे हे हे :giggle: :tomato::tomato:

Sikandar_Khan
25-08-2011, 09:14 PM
कोई मौसम तुम सा आए
धरती का ये जीवन दुष्कर
देख देख प्रियतम वो अम्बर
झर झर नीर बहाए
कोई मौसम तुम सा आए

उठे गंध वह भीना भीना
जैसे ओढ़े आंचल झीना
धरा प्रणय रस सिक्त अघाये
कोई मौसम तुम सा आए

आए चुपके से कुछ अक्सर
जैसे शरद उंगलियों में भर
नटखट सखी गुदगुदा जाए
कोई मौसम तुम सा आए

या जैसे रक्तिम पलाश वन
अमलतास के स्वर्णिम तरुवर
धरती का आंचल रंग जाए
कोई मौसम तुम सा आए

-जया पाठक

Sikandar_Khan
25-08-2011, 09:16 PM
खिल उठा हृदय,
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!

खुल गए साधना के बंधन,
संगीत बना, उर का रोदन,
अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।

क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!

तन में आएँ शैशव यौवन
मन में हों विरह मिलन के व्रण,
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!

जो नित्य अनित्य जगत का क्रम
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय!

तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय!

Sikandar_Khan
26-08-2011, 12:33 AM
खिले कँवल से, लदे ताल पर,
मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी.
गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण
चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग,
हो, ली !
एक बदलीने झुक कर पूछा,
"ओ, मधुकर, तू ,
गुनगुन क्या गाये?
"छपक छप -
मार कुलाँचे,मछलियाँ,
कँवल पत्र मेँ,
छिप छिप जायेँ !
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,
बोला,
" कर दो, छाया,बदली रानी !
मैँ भी छिप जाऊँ,
कँवल जाल मेँ,
प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"
" रे धूर्त भ्रमर,
तू,रस का लोभी --
फूल फूल मँडराता निस दिन,
माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?
गरज रहे घन -
ना मैँ तेरी सहेली!"

टप, टप, बूँदोँ ने
बाग ताल, उपवन पर,
तृण पर, बन पर,
धरती के कण क़ण पर,
अमृत रस बरसाया -
निज कोष लुटाया !

अब लो, बरखा आई,
हरितमा छाई !
आज कँवल मेँ कैद
मकरँद की, सुन लो
प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर,
हो गई, सगाई !!

Sikandar_Khan
17-09-2011, 01:10 PM
कोई मौसम तुम सा आए
धरती का ये जीवन दुष्कर
देख देख प्रियतम वो अम्बर
झर झर नीर बहाए
कोई मौसम तुम सा आए

उठे गंध वह भीना भीना
जैसे ओढ़े आंचल झीना
धरा प्रणय रस सिक्त अघाये
कोई मौसम तुम सा आए

आए चुपके से कुछ अक्सर
जैसे शरद उंगलियों में भर
नटखट सखी गुदगुदा जाए
कोई मौसम तुम सा आए

या जैसे रक्तिम पलाश वन
अमलतास के स्वर्णिम तरुवर
धरती का आंचल रंग जाए
कोई मौसम तुम सा आए

shaktiman
25-09-2011, 07:33 PM
ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला,
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,
हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।

shaktiman
25-09-2011, 07:35 PM
मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।

shaktiman
25-09-2011, 07:36 PM
और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।

shaktiman
25-09-2011, 07:37 PM
नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।

shaktiman
25-09-2011, 07:38 PM
ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।

shaktiman
25-09-2011, 07:39 PM
यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।

shaktiman
25-09-2011, 07:40 PM
पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।

shaktiman
25-09-2011, 07:41 PM
शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।

shaktiman
25-09-2011, 07:42 PM
जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।

shaktiman
25-09-2011, 07:44 PM
देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।

Sikandar_Khan
13-10-2011, 03:45 PM
पानी पर लिखा
एक ने संदेश
दूसरे ने ठीक-ठीक पढ़ा
समझ लिया
गढ़ा नया वाक्य
नयी लिपि
नयी भाषा का जैसे आविष्कार किया

दौर की हवा कुल हवा
से एक की साँसों की हवा
को चुम्बन में चुना
होंठों पर सजा लिया

प्रेम में
उन पर
जैसे सच साबित हुए
घटिया फ़िल्मों के गाने
बहाने भी
कितने विश्वसनीय लगे

प्रेम में
चुना क्या शब्द कोई एक
नया वाक्य नई लिपि नई भाषा
महसूस सका?
पूछूँ जो कविता से- "तेरी कुड़माई हो गई?"-
- "धत्*" -कहे और भाग जाये ऐसे
कि लगे
सिमट आई है और... और पास।

Sikandar_Khan
27-11-2011, 09:44 AM
जब तुम्हारी ही हृदय में याद हर दम,
लोचनों में जब सदा बैठे स्वयं तुम,
फिर अरे क्या देव, दानव क्या, मनुज क्या?
मैं जिसे पूजूं जहां भी तुम वहीं साकार !
किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार ?

क्या कहा- 'सपना वहां साकार होगा,
मुक्ति औ अमरत्व पर अधिकार होगा,
किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूं
है जहां करती अमरता मत्यु का श्रृंगार।
क्या करूं आकर तुम्हारे द्वार ?

तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन,
मत डुबाओ हास में ये अश्रु के कण,
क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं
'प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार!'
मत कहो- आओ हमारे द्वार।

आज मुझमें तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय,
अब न अपने बीच कोई भेद-संशय,
क्योंकि तिल-तिलकर गला दी प्राण! मैंने
थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार।
व्यर्थ फिर आना तुम्हारे द्वार॥

दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल,
क्योंकि मेरी साधना ने पल-निमिष चल
कर दिए केन्द्रित सदा को ताप-बल से
विश्व में तुम और तुम में विश्वभर का प्यार।
हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार॥

gopal das niraj

Sikandar_Khan
27-11-2011, 09:46 AM
बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में,
अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,
बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,
आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है
कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,
जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,
किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में,
प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता,
जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,
वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,
आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,
करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,
अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,
और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है
कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,
नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,
सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो
धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,
जो मुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
gopal das niraj

Sikandar_Khan
09-12-2012, 08:00 PM
घिरे काजल मेघ मन स्वप्निल हुआ है
रेशमी एहसास ने मनो छुवा है
सुखद पुरवा , वृष्टि
बदरौखा उजाला
ज्यों झुका चेहरा
बिखरे प्रीत हाला
इस सूरा से फिर खुमारी - तन हुआ है
रेशमी एहसास ने मानो छुवा है
रिमझिम रवगान
मेघों का बरसना
गंध सोंधी - सिक्त माती का
परसना
लगा बाँहों ने तुम्हारी छवि छुवा हो
रेशमी एहसास मानों छुवा हो
मेह के जल से अटारी बनी झरना
सब लुटाकर प्यास
ज्यों चाहे हर्षना
हर्ष चाहे प्यास मन पारा हुआ है
रेशमी एहसास मानो छुवा है
कौंधती बिजली की जैसे याद आये
विवश मन बौछार से बस भीग जाये
अनमना फिर हो गया द्रग का सुवा है
रेशमी एहसास मानो छुवा है |







साभार :- शशि भूषण अवस्थी