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View Full Version : दुनिया से जब हो रुख़सती...


Dr. Rakesh Srivastava
16-11-2013, 02:23 PM
मुमक़िन हो जितना ,रूढ़ियों को तोड़ के चलिये ; कुछ ख़ास चाहिये तो लीक छोड़ के चलिये .
बैठे बिठाये ख़्वाब मुक़म्मल नहीं होते ; अपनी तमाम क़ुव्वतें निचोड़ के चलिये .
जो आम हैं , वो बहते हवाओं के साथ - साथ ; बनना हो ख़ास , रूख़ हवा का मोड़ के चलिये .
ख़्वाहिश हो अग़र कारवां पीछे तेरे चले ; सबके मसाइलों से ख़ुद को जोड़ के चलिये .
ना इत्तेफ़ाक़ी है जिन्हें , बन सकते कल मुरीद ; रिश्ता दुआ सलाम भर का जोड़ के चलिये .
मत सोचिये कि आपही की सोच है उम्दा ; हर वक़्त बेहतरी की लोच छोड़ के चलिये .
दिल को किसी के जीतना दुश्वार नहीं है ; बस शर्त है , अपना ग़ुरूर छोड़ के चलिये .
चारागरी से बचिये , ला इलाज़ मर्ज़ की ; नंगों को दूर से ही हाथ जोड़ के चलिये .
दुनिया से जब हो रुख़सती , सबको कमी ख़ले ; सबके दिलों पे छाप ऐसी छोड़ के चलिये .
मुद्दा हो आम , लहज़ा आम , होगी क़ामयाब ; हर शख्स को अपनी ग़ज़ल से जोड़ के चलिये .

रचयिता ~~ डॉ .राकेश श्रीवास्तव , गोमती नगर , लखनऊ .
शब्दार्थ > मुमक़िन = सम्भव , मुक़म्मल = सम्पूर्ण , क़ुव्वतें = क्षमतायें , ख़्वाहिश = इच्छा , मसाइलों = समस्याओं ,
ना इत्तेफ़ाक़ी = असहमति, मुरीद = प्रशंसक, दुश्वार = मुश्किल, ग़ुरूर = अहंकार,चारागरी = चिकित्सा, रुख़सती = विदाई .