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View Full Version : हज़ल


rajnish manga
23-12-2013, 09:59 PM
हज़ल

अरबी, फ़ारसी और उर्दू में ग़ज़ल कहे जाने का इतिहास बहुत पुराना है जिसे अन्य भाषाओं ने भी अपनी अपनी प्रकृति और मिज़ाज के अनुसार अपनाया है. ग़ज़ल विचारों की धीर-गंभीर अभिव्यक्ति का बहु प्रचलित माध्यम है. इसके विपरीत हज़ल एक ऐसी विधा के रूप में विकसित हुई जिसमे हलके-फुल्के विचारों की अभिव्यक्ति को तरजीह दी जाती है.

उर्दू शायरी में हज़ल के तीन अर्थ प्रचलित हैं: उलटबानी जैसी शायरी, बेतुकी शायरी या अश्लील शायरी। हज़लें ग़ज़ल की विधा में भी कही जा सकती हैं या किसी और विधा में भी। हज़ल को एक गंभीर साहित्यिक विधा नहीं माना जाता। हज़ल कहना कभी-कभी शायर के लिए सिर्फ़ मनबहलाव का साधन होता है। नीचे हम इसी विधा के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करेंगे.

rajnish manga
23-12-2013, 10:04 PM
हज़ल: कुछ लुत्फ़ नहीं है जीने में
(कलाम: मीराजी)

जीना जीना कहते हो, कुछ लुत्फ़ नहीं है जीने में
साँस भी अब तो रुक-रुककर चलती है अपने सीने में

हम तो तुम्हें दाना समझे थे, भेद की बात बता ही दी
इस दिन को हम कहते थे क्या फ़ायदा ऐसे पीने में!

बढ़े जो चाह तो बढ़ती जाए, घटे तो घटती जाती है
दिल में चाह की बात है ऐसी जैसे चाँद महीने में

कोठा-अटारी, मंजिल भारी, हौसले जी के निकालेंगे
सामना उनसे अचानक हो जाए जो किसी दिन ज़ीने में

जब जी चाहा, जिसको देखा, दिल ने कहा ये हासिल है
कैसे-कैसे हीरे रक्खे हैं यारों के दफ़ीने में

मेरा दिल तो मेरा दिल है, सबका दिल क्यों बनने लगा !
जामे-जम का हर इक जल्वा है मिरे दिल के नगीने में

हम तो अपनी आँख के रोगी, दुश्मन दुश्मन की जाने
चाहत की कैफ़ीयत है ये, बात नहीं वो कीने में

औरों के आईने में तू अपनी मूरत देखेगा
हर इक सूरत झूम उठेगी जब मेरे आईने में

'मीराजी' ने बात कही जो, ज्ञानी खोज लगाएँगे
कहनेवालों की आँखों में, सुननेवाले के सीने में

(दाना = बुद्धिमान / दफ़ीने = गड़े खजाने में /
जामे-जम = ईरानी बादशाह जमशेद का जाम जिसमें वह सबकुछ देख सकता था )

rajnish manga
23-12-2013, 10:10 PM
अदावत हो गई कैसी तेरे मेरे घरानोँ मेँ

अदावत हो गई कैसी तेरे मेरे घरानोँ मेँ
हमारे दिल की बातें जा पँहुची है थानोँ मेँ

महल मेँ जब बसेरा हो गया एसी ओ कूलर का
हवा तब से गुज़र करने लगी है शामियानोँ मेँ

दरोगा बस इसी इक केस को लेकर परीशां है
कि हम पैदा हुऐ कैसे जनानोँ के ठिकानोँ मेँ

हमारे पास तो सब ईँट गारा था मुहौब्बत का
दरारेँ नफ़रतोँ की आ गयीँ कैसे मकानोँ मेँ

अलामत ए रईसी कुछ ख़फा हमसे हुई ऐसी
नहीँ अब पीक भी बाक़ी हमारे पीकदानोँ मेँ

उसे बीबी तुम्हारी भाई कब की चर गई होगी
जो भूसा लाये भर कर ज़हन के तुम बारदानोँ मेँ

हसीनोँ के मुहल्ले मेँ इसी डर से नहीँ जाते
कि शायद मेहरबानी बच रही हो मेहरबानोँ मेँ

मुझे कल रात टीवी देख कर ऐसा लगा यारो
कि अब आशिक़ बनाये जा रहे हैँ कारख़ानोँ मेँ

जिसे मैँ तोड लाया हूँ मिरा कमरा सजाने को
उसी इक फूल का चर्चा था अक्सर बागबानोँ मेँ

हमेँ अफ़सोस दाना डालने का तब हुआ 'शायर'
कबूतर जाल लेकर उड गये जब आसमानोँ मेँ

(शायर देहलवी)

rajnish manga
23-12-2013, 10:14 PM
हज़ल
(रचना: भारतेंदु हरिश्चंद्र)

नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से
तंग आया हूँ मैं इस पुरसोज़ दिल के साज से

दिल पिसा जाता है उनकी चाल के अन्दाज़ से
हाथ में दामन लिए आते हैं वह किस नाज़ से

सैकड़ों मुरदे जिलाए ओ मसीहा नाज़ से
मौत शरमिन्दा हुई क्या क्या तेरे ऐजाज़ से

बाग़वां कुंजे कफ़स में मुद्दतों से हूँ असीर
अब खुलें पर भी तो मैं वाक़िफ नहीं परवाज़ से

कब्र में राहत से सोए थे न था महशर का खौफ़
वाज़ आए ए मसीहा हम तेरे ऐजाज़ से

बाए गफ़लत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो
चौंक पड़ता हूँ शिकस्तः होश की आवाज़ से

नाज़े माशूकाना से खाली नहीं है कोई बात
मेरे लाश को उठाए हैं वे किस अन्दाज़ से

कब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका ‘रसा’
चौंकने वाले हैं कब हम सूर की आवाज़ से

rajnish manga
23-12-2013, 10:16 PM
हज़ल (2)
(रचना: भारतेंदु हरिश्चंद्र)

गाती हूँ मैं औ नाच सदा काम है मेरा
ए लोगो शुतुरमुर्ग परी नाम है मेरा

फन्दे से मेरे कोई निकलने नहीं पाता
इस गुलशने आलम में बिछा दाम है मेरा

दो-चार टके ही पै कभी रात गंवा दूं
कारुं का खजाना तभी इनआम है मेरा

पहले जो मिले कोई तो जी उसका लुभाना
बस कार यही तो सहरो शाम है मेरा

शुरफा व रूज़ला एक हैं दरबार में मेरे
कुछ खास नहीं फ़ैज तो इक आम है मेरा

बन जाएँ चुगद तब तो उन्हें मूड़ ही लेना
खाली हों तो कर देना धता काम है मेरा

ज़र मज़हबो मिल्लत मेरा बन्दी हूँ मैं ज़र की
ज़र ही मेरा अल्लाह है ज़र राम है मेरा

rajnish manga
23-12-2013, 10:18 PM
हज़ल:
(रचना: वाहिद अंसारी बुरहानपुरी)

(मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल "दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है" पर आधारित इस हज़ल में ग़ालिब के शे'रों के दूसरे (सानी) मिसरों को तो वही रखा गया है लेकिन पहले मिसरों (ऊला) को बदल दिया गया है। इस तरह यह रचना ग़ज़ल न रह कर हज़ल हो गई है और उसमें हास्य और व्यंग्य का रंग भी झलकने लगा है)

तू ये रह-रह के चीख़ता क्या है
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है

इश्क़ का केंसर है बरसों से
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

खा रहा हूँ मैं मार बीवी की
या इलाही ये माजरा क्या है

मुझ पे बेलन उठाना बाद में
काश पूछो के मुद्दुआ क्या है

पाऎं वो तमग़ा -ए- वफ़ादारी
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

लानतें भेजता हूँ दुनिया पर
मैं नहीं जानता दुआ क्या है

मय का पीना हराम है वाईज़
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है

rajnish manga
30-12-2013, 12:04 PM
हज़ल: ईद का दिन
(रचना: वाहिद अंसारी बुरहानपुरी)
ईद के दिन हो गई बेगम से अनबन दोस्तो
चल गया आपस में डंडा और बेलन दोस्तो

शीर-ख़ुरमा और सिवय्याँ हों मुबारक आपको
अपनी क़िस्मत में लिखा है ग़म का सालन दोस्तो

बेबसी, बेचारगी के हर पराठे पर लगा
अपनी हर झूटी हंसी का है पलेथन दोस्तो

एश-ओ-इशरत की हमें बिरयानी क्या होगी नसीब
हमने तो अब तक न पाई उसकी खुरचन दोस्तो

हर तरफ़ जश्न-ए-बहाराँ, हर तरफ़ रंग-ए-निशात
सूना-सूना है हमारे दिल का आँगन दोस्तो

ईद के नख़रे उठाने के लिए बतलाएँ क्या
बिक गए वाहिद के घर के सारे बरतन दोस्तो

rajnish manga
30-12-2013, 12:19 PM
हज़ल: बहुत मजबूर हूँ
(रचना साभार: मयंक अवस्थी)
पढो मत ये ग़ज़ल संजीदगी से
कि तुम वाकिफ हो मेरी दिल्लगी से

तुड़ा कर हड्डियाँ अब्बा से तेरे
कभी मैं जुड़ न पाया जिंदगी से
(सिराज फैसल)

पड़ोसी की खुशी ने मार डाला
नहीं मरता कोई अपनी खुशी से
(शफीक रायपुरी)

झुके बिन भी मैं सजदा कर रहा था
मैं नर्वस था तेरी मौजूदगी से
(दोनों मिसरे सौरभ शेखर)

पड़ोसन है कि है दारू की बोतल
मेरा मरना ही तय है तिश्नगी से
(स्वप्निल तिवारी आतिश)

चली आए अगर कमरे में मेरे
मुझे परहेज़ क्यों हो फ़ारसी से
(इरशाद खान सिकंदर)

ये है शीशे पे अश्कों की इबारत
ग़ज़ल लिख्खी है कितनी सादगी से
(अज़ीज़ बेलगौमी)

लिया था हाजमोला , पूछिये मत
जो धुन निकली हवा की सिंफनी से
(गौतम राजरिशी)

मैं पी.एम . हूँ बहुत मजबूर हूँ मैं
निभाये जां रहा हूँ हर किसी से
(डा आदिक भारती)

नोट: ऊपर दिए गये अशआर में दूसरा मिसरा दिए गये शायर का है और पहला मिसरा कवि द्वारा जोड़ा गया है.

dipu
30-12-2013, 03:36 PM
great collection