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View Full Version : सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी)


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rajnish manga
28-12-2013, 08:57 PM
सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी)
Sukhanvar (Great Urdu Poets & their Poetry)
एक झलक


https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSI9rC5ezGQoRmoIW-uzq8qYmbjt6Zb2LWMmL1V_Ytkp0rOrbCXmQ^https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcR3S3GjniQ9yQ8Lyet9_riEoB7ZN6D3h f4FMLPAce5vORSO22kg8w

मित्रो, हम इस सूत्र में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त ग़ज़लों, नज्मों और कविताओं को प्रस्तुत करेंगे. आशा है इस आयोजन में मुझे आपका सहयोग पहले की तरह ही मिलता रहेगा. सूत्र की शुरुआत हम फैज़ अहमद 'फैज़' की एक मशहूर ग़ज़ल से कर रहे हैं.

rajnish manga
28-12-2013, 09:03 PM
लौह-ओ-कलम
फैज़ अहमद 'फैज़' https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQULSDbFb6JvrsVEQU3VC7G9GfBbYM3c uhQEaiZ0nu5fJZNW33Q
हम परवरिश-ऐ-लोह-ओ-कलम करते रहेंगे,
जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे।

असबाब-ऐ-ग़म -ऐ-अश्क़ बहम करते रहेंगे,
वीरानी-ऐ-दौराँ पे करम करते रहेंगे।

हाँ! तल्खी-ऐ अय्याम अभी और बढेगी,
हाँ! अहल-ऐ-सितम मश्क-ऐ-सितम करते रहेंगे।

मन्ज़ूर ये तल्खी, ये सितम हमको गवारा,
दम है तो मदावा-ए-अलम करते रहेंगे।

मैखाना सलामत है तो हम सुर्खी-ऐ-मय से,
तज़इन दर-ओ-बाम-ऐ-हरम करते रहेंगे।

बाक़ी है लहू दिल में तो हर अश्क़ से पैदा,
रंग-ऐ-लब-ओ-रुख़सार-ऐ-सनम करते रहेंगे।

इक तर्ज़-ऐ-तगाफ़ुल है सो वो उनको मुबारक,
इक अर्ज़-ऐ-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे।

मेरा फ़ोरम के सभी मित्रों से निवेदन है कि वे फैज़ साहब के कलाम को निम्नलिखित सूत्र पर और विस्तारपूर्वक पढ़ सकते हैं और उसका आनन्द ले सकते हैं:

http://myhindiforum.com/showthread.php?t=5187

Dr.Shree Vijay
28-12-2013, 09:51 PM
मैखाना सलामत है तो हम सुर्खी-ऐ-मय से,
तज़इन दर-ओ-बाम-ऐ-हरम करते रहेंगे।


फैज़ अहमद 'फैज़' साहब की
बेहतरीन नज्मो मेसे एक .........

dipu
29-12-2013, 07:23 AM
great

rajnish manga
29-12-2013, 10:28 AM
फैज़ अहमद 'फैज़' साहब की
बेहतरीन नज्मो मेसे एक .........



great


सूत्र को पसंद करने के लिये डॉ. श्री विजय और दीपू जी का हार्दिक धन्यवाद.

rajnish manga
29-12-2013, 10:38 AM
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था के तू है तो दरखशां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दह्र का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सवात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूं न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक़ बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-बजा बिकते हुए कूचाओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीब बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

rajnish manga
03-01-2014, 10:09 PM
परवीन शाकिर (Parveen Shakir)

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTxjMmGrl7KPjjONw6gL9b6cdTRuax5c Q0Ow8FL4xR7KvPAsqFiWg


(जन्म: 24 नवंबर 1952. निधन: 26 दिसंबर 1994)

कुछ प्रमुख कृतियाँ: खुली आँखों में सपना, ख़ुशबू, सदबर्ग, इन्कार, रहमतों की बारिश, ख़ुद-कलामी,

rajnish manga
03-01-2014, 10:12 PM
ग़ज़ल: रफ़ाक़त

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी

सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों
मैं अपने घर के अँधेरों को लौट आऊँगी

बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी

वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किससे रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी

वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उसके इशारों पे सर झुकाऊँगी

बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी

अब उसका फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुनगुनाऊँगी

जवाज़ ढूँढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उसको भूल जाऊँगी

rajnish manga
03-01-2014, 10:16 PM
ग़ज़ल
परवीन शाकिर

मुश्किल है अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई है होती हुई सर से

बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर
इक उम्र मेरे खेत थे जिस अब्र को तरसे

इस बार जो इन्धन के लिये कट के गिरा है
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शजर से

मेहनत मेरी आँधी से तो मनसूब नहीं थी
रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से

ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से

बेनाम मुसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म
मन्ज़िल का त'य्युन कभी होता है सफ़र से

पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाये
ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से

निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आयेगा इस राह-गुज़र से

sombirnaamdev
03-01-2014, 11:12 PM
सुंदर ग़ज़लों से सुसज्जित के एक बेहतरीन सूत्र बधाई स्वीकार करें रजनीश जी जारी रखें

आपका अपना
सोमबीर नामदेव

rajnish manga
11-01-2014, 03:17 PM
डॉ. बशीर बद्र
(नाम: सैयद मोहम्मद बशीर)

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32490&stc=1&d=1389437080



जन्म: 15 फरवरी 1935
पुरस्कार: उर्दू अकादमी, उत्तर प्रदेश (3 बार), उर्दू अकादमी, बिहार तथा साहित्य अकादमी पुरस्कारों समेत अन्य कई पुरस्कार.
सम्मान: 1999 में भारत सरकार द्वारा 'पद्मश्री' से सम्मानित. कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित. यूनिवर्सिटी में एम्.ए. (उर्दू) में फर्स्ट क्लास फर्स्ट.
पुस्तकें: 'इकाई', 'आमद', 'इमेज', 'ग़ज़ल 2000' -आमिर खुसरो ता बशीर बद्र- आदि.

rajnish manga
11-01-2014, 03:20 PM
कभी यूं भी आ मेरी आंख में
(कलाम: बशीर बद्र)

कभी यूं भी आ मेरी आंख में कि मेरी नजर को खबर ना हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर ना हो

वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर ना हो

मेरे बाज़ुऔं में थकी थकी, अभी महवे ख्वाब है चांदनी ना उठे
सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुजर ना हो

ये गज़ल है जैसे हिरन की आंखों में पिछली रात की चांदनी
ना बुझे खराबे की रौशनी, कभी बेचिराग ये घर ना हो

वो फ़िराक हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग बन के जला ना हो

कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोज़ान से दोनो कुबूल हैं
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां ज़िन्दगी का हवा ना हो

कभी यूं मिलें कोई मसलेहत, कोई खौफ़ दिल में जरा ना हो
मुझे अपनी कोई खबर ना हो, तुझे अपना कोई पता ना हो

वो हजार बागों का बाग हो, तेरी बरकतो की बहार से
जहां कोई शाख हरी ना हो, जहां कोई फूल खिला ना हो

तेरे इख्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज दे
यूं दुआयें मेरी कूबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ ना हो

कभी हम भी इस के करीब थे, दिलो जान से बढ कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला ना हो

कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चले सदा, कभी खत्म अपना सफ़र ना हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के करीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूं मैं, कि बिछडने का कभी डर ना हो.

rajnish manga
11-01-2014, 03:21 PM
कोई हाथ भी न मिलाएगा
(कलाम: बशीर बद्र)

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो

नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो

rajnish manga
11-01-2014, 03:23 PM
उजाले अपनी यादों के
(कलाम: बशीर बद्र)

कभी तो आसमाँ से चांद उतरे जाम हो जाये
तुम्हारे नाम की इक ख़ूबसूरत शाम हो जाये

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाये
चराग़ों की तरह आँखें जलें जब शाम हो जाये

अजब हालात थे यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर
मोहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाये

समंदर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको
हवाएँ तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाये

मैं ख़ुद भी एहतियातन उस गली से कम गुज़रता हूँ
कोई मासूम क्यों मेरे लिये बदनाम हो जाये

मुझे मालूम है उस का ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिंदा आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाये

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये
**

Dr.Shree Vijay
13-01-2014, 04:53 PM
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है - बशीर बद्र

वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है

उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है

कहा से आई ये खुशबू ये घर की खुशबू है
इस अजनबी के अँधेरे में कौन आया है

महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है

उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है

तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है

Dr.Shree Vijay
13-01-2014, 04:56 PM
Wo chandni ka badan khushbuon ka saaya hai - Bashir Badra

Wo chandni ka badan khushbuon ka saaya hai
Bahut aziz hamein hai magar paraya hai

Utar bhi aao kabhi aasman key zeene se
Tumhen khuda ne hamare liye banaya hai

Kahan se aai ye khushboo ye ghar ki khusboo hai
Is ajnabi ke andhere mein kaun aaya hai

Mahak rahi hai zamin chandni ke phoolon se
Khuda kisi ki mohabbat pe muskuraya hai

Use kisi ki mohabbat ka eitbar nahin
Use zamane ne shayad bahut sataya hai

Tamaam umar mera dam uske dhuen se ghuta
Wo ek chiragh tha maine use bujhaya hai

rajnish manga
14-01-2014, 10:14 PM
बहुत सुन्दर, डॉ. श्री विजय. सहयोग के लिये आभारी हूँ.

bindujain
15-01-2014, 07:44 PM
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

अपना दिल भी टटोल कर देखो
फासला बेवजह नही होता

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

गुफ़्तगू उनसे रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता

bindujain
15-01-2014, 07:45 PM
http://3.bp.blogspot.com/_b9d-RmUt1yo/TGEFZcWaG1I/AAAAAAAAB2I/N0NqNUaPlSM/s320/roses.jpg

rajnish manga
15-01-2014, 10:38 PM
बशीर बद्र साहब के जीवन की तरह शायरी में भी सादगी है. लेकिन सरल शब्दों में भी वह जीवन की गहरी से गहरी सच्चाई बयान कर जाते हैं. इस विषय में सहयोग के लिये आपका धन्यवाद, बिंदु जी.

rajnish manga
31-01-2014, 08:32 PM
डॉ. राहत इंदौरी
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32653&stc=1&d=1391185784
जन्म: 1 जनवरी 1950
जन्मस्थान: इंदौर (मध्य प्रदेश)
प्रमुख कृतियाँ: नाराज़ (ग़ज़ल-संग्रह) आदि.

rajnish manga
31-01-2014, 08:38 PM
ग़ज़ल
हमारे मुह में तुम्हारी जुबान थोड़ी है

अगर खिलाफ है होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआं है कोई आसमान थोड़ी है

लगेगी आग तो आयेंगे घर कई जद में
यहाँ पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है

मै जानता हू के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है

हमारे मुह से जो निकले वही सदाकत है
हमारे मुह में तुम्हारी जुबान थोड़ी है

जो आज साहिबे मसनद है कल नहीं होंगे
किरायेदार है जाती मकाँ थोड़ी है

सभी का खून है शामिल यहाँ की मिटटी में
!!किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

rajnish manga
31-01-2014, 08:40 PM
अपनी पहचान मिटाने को कहा जाता है.
बस्तिया छोड़ के जाने को कहा जाता है
पत्तिया रोज़ गिरा जाती है जहरीली हवा
और हमें पेड़ लगाने को कहा जाता है
**

कोई मौसम हो दुःख सुख में गुज़ारा कौन करता है |
परिंदों की तरह सब कुछ गवारा कौन करता है |
घरो की राख फिर देखेंगे पहले ये देखना है,
घरों को फूंक देने का इशारा कौन करता है |
जिसे दुनिया कहा जाता है कोठे की तवाइफ़ है |
इशारा किसको करती है, नजारा कौन करता है |

rajnish manga
31-01-2014, 08:43 PM
ग़ज़ल
चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया|
चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया|
आईना सारे शहर की बीनाई ले गया|

डूबे हुए जहाज़ पे क्या तब्सरा करें,
ये हादसा तो सोच की गहराई ले गया|

हालाँकि बेज़ुबान था लेकिन अजीब था,
जो शख़्स मुझ से छीन के गोयाई ले गया|

इस वक़्त तो मैं घर से निकलने न पाऊँगा,
बस एक कमीज़ थी जो मेरा भाई ले गया|

झूठे क़सीदे लिखे गये उस की शान में,
जो मोतीयों से छीन के सच्चाई ले गया|

यादों की एक भीड़ मेरे साथ छोड़ कर,
क्या जाने वो कहाँ मेरी तन्हाई ले गया

अब असद तुम्हारे लिये कुछ नहीं रहा,
गलियों के सारे संग तो सौदाई ले गया|

अब तो ख़ुद अपनी साँसें भी लगती हैं बोझ सी,
उमरों का देव सारी तवानाई ले गया|

(डॉ. राहत इंदौरी)

rajnish manga
01-02-2014, 09:36 PM
जां निसार अख्तर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32654&stc=1&d=1391275996
नाम: जां निसार अख्तर
जन्म: 14 फरवरी 1914
मृत्यु: 19 अगस्त 1976
जन्म स्थान: ग्वालियर
किताबें: नज़रे-बुतां, सिलासिल, जाविदां, पिछली पहर, घर आंगन, ख़ाक-ए-दिल आदि. उर्दू पुस्तक “ख़ाक-ए-दिल” के लिये उन्हें 1976 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ. संचयन
अन्य कार्य: उन्होंने बहुत सी हिंदी फिल्मों के लिये गीत भी लिखे जो बेहद मकबूल हुये.

rajnish manga
01-02-2014, 09:39 PM
ग़ज़ल
कलाम: जां निसार अख्तर
फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारों
ये न सोचो के अभी उम्र पड़ी है यारों

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्मा लिये दर पे खड़ी है यारों

उनके बिन जी के दिखा देंगे चलो यूँ ही सही
बात इतनी सी है के ज़िद आन पड़ी है यारों

फ़ासला चंद क़दम का है मना लें चल कर ...
सुबह आई है मगर दूर खड़ी है यारों

किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाऊँ इस को
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारों

जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिये बात बड़ी है यारों..

rajnish manga
01-02-2014, 09:42 PM
ग़ज़ल
कलाम: जां निसार अख्तर

हम आप क़यामत से गुजर क्यूँ नहीं जाते |
जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते |

कतराते है बलखाते है,घबराते है क्यूँ लोग,
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते |

आँखों में चमक है तो नजर क्यूँ नहीं आता ,
पलको पे गुहर है तो बिखर क्यूँ नहीं जाते


अखबार में रोजाना वाही शोर है,यानी ...
अपने से ये हालात संवर क्यूँ नहीं जाते |

यह बात अभी मुझको भी मालुम नहीं है,
पत्थर इधर आते है,उधर क्यूँ नहीं जाते |

(गुहर - मोती )

rajnish manga
01-02-2014, 09:50 PM
अब एक गीत

सन् 1966 में बनी फिल्म "सुशीला" का निम्नलिखित गीत जां निसार अख्तर साहब का लिखा हुआ है जिसे कर्णप्रिय धुन से संवारा है सी. अर्जुन ने और जिसे स्वर दिया तलत महमूद और मुहम्मद रफ़ी ने:-

ग़म की अंधेरी रात में दिल को ना बेक़रार कर
सुबह ज़रूर आयेगी सुबह का इन्तज़ार कर
ग़म की अंधेरी रात में .....

दर्द है सारी ज़िन्दगी जिसका कोई सिला नहीं
दिल को फ़रेब दीजिये और ये हौसला नहीं
खुद से तो बदग़ुमाँ ना हो खुद पे तो ऐतबार कर
सुबह ज़रूर आयेगी सुबह का इन्तज़ार कर
ग़म की अन्धेरी रात में .....

खुद ही तड़प के रह गये दिल कि सदा से क्या मिला
आग से खेलते रहे हम को वफ़ा से क्या मिला
दिल की लगी बुझा ना दे दिल की लगी से प्यार कर
सुबह ज़रूर आयेगी सुबह का इन्तज़ार कर
ग़म की अंधेरी रात में .....
**

rajnish manga
01-02-2014, 09:58 PM
गोपाल दास ‘नीरज’
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32655&stc=1&d=1391277386

नाम: गोपाल दास ‘नीरज’
जन्म: 4 जनवरी 1925
जन्म स्थान: पुरावली, इटावा, उत्तर प्रदेश.
कुछ प्रमुख कृतियाँ: दर्द दिया है, प्राण गीत, आसावरी, नीरज की पाती, लहर पुकारे, मुक्तकी, गीत-अगीत, विभावरी, संघर्ष, अंतरध्वनी, बादलों से सलाम लेता हूँ आदि.
सम्मान: केंद्र सरकार द्वारा पद्मश्री (1991) व पद्मभूषण (2007) अलंकरण
पुरस्कार: विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार / उ.प्र. सरकार द्वारा संचालित यश भारती एवं एक लाख रुपये का पुरस्कार (1994) फिल्म गीत लेखन के लिये तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार

rajnish manga
01-02-2014, 10:02 PM
ग़ज़ल
अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए
अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए,
जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाए!

जिसकी खुशबू से महक जाये पडोसी का भी घर,
फुल इस किस्म का हर सिम्त खिलाया जाए !

आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी,
कोई बताए कहा जाके नहाया जाए !

प्यार का खून हुआ क्यों ये समझने के लिए,
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए !

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर ऐसा,
मै रहू भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए !

जिस्म दो होके भी दिल एक हो अपने ऐसे,
मेरा आसू तेरी पलकों से उठाया जाए !

गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रुबाई है दुखी,
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए !

– गोपालदास ‘नीरज’

rajnish manga
01-02-2014, 10:05 PM
ग़ज़ल
खुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की खुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की,
खिडकी खुली है ग़ालिबन उनके मकान की।
हारे हुए परिन्दे ज़रा उड़ के देख तो,
आ जायेगी ज़मीन पे छत आसमान की।
बुझ जाये सरे आम ही जैसे कोई चिराग,
कुछ यूँ है शुरुआत मेरी दास्तान की।
ज्यों लूट ले कहार ही दुल्हन की पालकी,
हालत यही है आजकल हिन्दुस्तान की।
ज़ुल्फों के पेंचो - ख़म में उसे मत तलाशिये,
ये शायरी ज़ुबां है किसी बेज़ुबान की।
'नीरज' से बढ़कर और धनी कौन है यहाँ,
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की।
– गोपालदास ‘नीरज’

rajnish manga
01-02-2014, 10:19 PM
पेशे-ख़िदमत है श्री गोपालदास 'नीरज' की प्रसिद्ध रचना - 'कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे !'
(इस गीत को फिल्म “नई उम्र की नई फ़सल” में भी शामिल किया गया था)

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
**

rajnish manga
02-02-2014, 07:59 PM
नीरज के दोहे

मौसम कैसा भी रहे कैसी चले बयार
बड़ा कठिन है भूलना पहला-पहला प्यार

अमरीका में मिल गया जब से उन्हें प्रवेश
उनको भाता है नहीं अपना भारत देश

बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आस
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रकाश

वाणी के सौन्दर्य का, शब्दरूप है काव्य,
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य

दिखे नहीं फिर भी रहे खुशबू जैसे साथ
उसी तरह परमात्मा संग रहे दिन रात

मिटे राष्ट्र कोई नहीं हो कर के धनहीन
मिटता जिसका विश्व में गौरव होता क्षीण

यदि तुम पियो शराब तो इतना रखना याद
इस शराब ने हैं किये, कितने घर बर्बाद

रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमार
लेकिन धन का तो नशा कभी न उतरे यार

रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लूट
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छूट

काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवार
और इसी से है मुझे करना सागर पार

-गोपालदास नीरज

rajnish manga
15-02-2014, 10:03 PM
वसीम बरेलवी

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18 फरवरी 1940 को जन्में वसीम बरेलवी का मूल नाम जाहिद हसन वसीम है। उनकी मकबूलियत उनकी ग़ज़लों से है। उर्दू के इस शायर के नाम 'आंखों आंखों रहे', 'मौसम अंदर-बाहर के', 'मिजाज', 'मेरा क्या' सरीखे चर्चित कविता-संग्रह हैं।

rajnish manga
15-02-2014, 10:06 PM
ग़ज़ल
उसूलों पर जहां आंच आये टकराना ज़रूरी है

उसूलों पर जहां आंच आये टकराना ज़रूरी है
जो जिन्दा हों तो फ़िर जिंदा नज़र आना ज़रूरी है

नयी उम्रों की खुद-मुख्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है

थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटे
सलीकामंद शाखों ने कहा लचक जाना ज़रूरी है

बहुत बेबाक़ आँखों में तालुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है

सलीका ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है

मेरे होठों पे अपनी प्यास रख दो और फ़िर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है



---- वसीम बरेलवी

rajnish manga
15-02-2014, 10:09 PM
ग़ज़ल
मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा

मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा

ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा

---- वसीम बरेलवी

rajnish manga
15-02-2014, 10:13 PM
ग़ज़ल
क्या बताऊं कैसे ख़ुद को दर-ब-दर मैंने किया

क्या बताऊं कैसे ख़ुद को दर-ब-दर मैंने किया,
उम्र भर किस-किस के हिस्से का सफ़र मैंने किया ।

तू तो नफ़रत भी न कर पाएगा उस शिद्दत के साथ,
जिस बला का प्यार तुझसे बे-ख़बर मैंने किया ।

कैसे बच्चों को बताऊँ रास्तों के पेचो-ख़म
ज़िन्दगी भर तो किताबों का सफ़र मैंने किया ।

शोहरतों की नज़्र कर दी शे’र की मासूमियत,
इस दिये की रोशनी को दर-ब-दर मैंने किया ।
चंद जज़्बातों से रिश्तों के बचाने को ‘वसीम‘,
कैसा-कैसा जब्र अपने आप पर मैंने किया ।

---- वसीम बरेलवी

rajnish manga
15-02-2014, 10:19 PM
निदा फ़ाज़ली

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSIbvqgLoMKUpw3wCdpgf5TPDh7or8Zh pXDkQUnYU5iAPhn6L47

निदा फ़ाज़ली
मूल नाम: मक्तिदा हसन निदा फ़ाज़ली जिन्हें निदा फ़ाज़ली के नाम से साहित्य जगत में जाना जाता है.

जन्म: 12 अक्तूबर 1938. जन्म स्थान, दिल्ली, भारत. कुछ प्रमुख कृतियाँ, आँखों भर आकाश, मौसम आते जाते हैं , खोया हुआ सा कुछ, लफ़्ज़ों के फूल, मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियाँ, सफ़र में धूप तो होगी और अन्य पुस्तकें.

rajnish manga
15-02-2014, 10:23 PM
निदा फ़ाज़ली साहब की बहुचर्चित रचना "मां"

बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ

बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे ,
आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ

चिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली ,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई ,
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ

rajnish manga
15-02-2014, 10:25 PM
ग़ज़ल

अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुयी चीज़ों को सजाया जाये |

जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ़ नहीं
उन चिरागों को हवाओं से बचाया जाये |

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फ़ूलों से उड़ाया जाये |

ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये |

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये |
---- निदा फ़ाज़ली

rajnish manga
15-02-2014, 10:31 PM
कुछ दोहे / निदा फ़ाज़ली
1.
छोटा कर के देखिये, जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है, बाँहो भर संसार ।

2.
वो सूफ़ी का कौ़ल हो, या गीता का ज्ञान
जितनी बीते आप पर, उतना ही सच मान

3.
सात समुन्दर पार से कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें, फ़िर भेजे हथियार

4.
बच्चा बोला देख कर,मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान

rajnish manga
02-04-2014, 11:42 PM
नवाब मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ां शेफ़्ता

(1806-1869)

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32807&stc=1&d=1396463928
^

हम तालिबे शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम
बदनाम अगर होंगे......तो क्या नाम न होगा

rajnish manga
02-04-2014, 11:47 PM
नवाब मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ां शेफ़्ता
(1806-1869)
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32808&d=1396463924 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32808&d=1396463924)

^
मुस्तफ़ा खान, जो “शेफ़्ता” उपनाम से उर्दू शायरी करते थे, का जन्म दिल्ली में सन 1806 में हुआ था. उनके पिता का नाम नवाब मुरतिज़ा खान था. वे जहांगीराबाद (जिला- बुलंदशहर) रियासत के नवाब थे. जहांगीराबाद की जायदाद नवाब मुस्तफ़ा खान ने खुद खरीदी थी. 1857 के ग़दर में विद्रोहियों की सहायता करने के जुर्म में उन्हें सात वर्ष के कारावास की सजा हुई. लेकिन गनीमत हुई कि अपील करने पर उनकी सजा रद्द हो गई पर कुल जायदाद ज़ब्त कर ली गई और पेंशन रद्द कर दी गई. बाद में, लम्बी कोशिशों के बाद उनकी आधी जायदाद वापिस कर दी गई.

rajnish manga
02-04-2014, 11:51 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32807&stc=1&thumb=1&d=1396463924 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32807&d=1396463924)
नवाब मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ां शेफ़्ता
(1806-1869)
1824 में उन्होंने शायरी के क्षेत्र में बाकायदा पदार्पण किया और उर्दू तथा फ़ारसी में कलाम कहना शुरू कर दिया. उर्दू में ‘शेफ़्ता’ और फ़ारसी शायरी में ‘हसरती’ उपनाम से लिखना शुरू किया. वह मिर्ज़ा ग़ालिब और मोमिन से क्रमशः उर्दू शायरी और फ़ारसी शायरी में इस्लाह लेते थे.

उन्हें शायरी से बेपनाह मुहब्बत थी और वे अपने घर में ही हर हफ्ते शो’अरा की बैठके या नशिस्तें रखते थे. हिजरत के बाद उनका रुझान शायरी से कम हो गया और मज़हब के कामकाज में अधिक लगने लगा. कहते हैं कि 1857 के ग़दर के दौरान उनकी शायरी का बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया था. फिर भी उनकी उर्दू और फ़ारसी की जो रचनाएं उपलब्ध थीं उनको मिला कर एक ‘तज़किरा’ “गुलशन-ए-पुरख़ार” नाम से प्रकाशित हुआ जिसे उस दौर की साहित्यिक हिस्ट्री का एक विश्वसनीय दस्तावेज माना जाता है.

rajnish manga
02-04-2014, 11:55 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32807&stc=1&thumb=1&d=1396463924 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32807&d=1396463924)
नवाब मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ां शेफ़्ता
ग़ज़ल / शेफ़्ता
था गै़र का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब
था गै़र का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब
नींद उन को मेरे साथ न आई तमाम शब

शिक्वा मुझे न हो जो मुकाफ़ात हद से हो
वाँ सुल्ह एक दम है लड़ाई तमाम शब

ये डर रहा के सोते न पाएँ कहीं मुझे
वादे की रात नींद न आई तमाम शब

सच तो ये है कि बोल गए अक्सर अहल-ए-शौक
बुलबुल ने की जो नाला-सराई तमाम शब

दम भर भी उम्र खोई जो ज़िक्र-ए-रक़ीब में
कैफ़ियत-ए-विसाल न पाई तमाम शब

थोड़ा सा मेरे हाल पे फ़रमा कर अल्तिफ़ात
करते रहे वो अपनी बड़ाई तमाम शब

वो आह तार ओ पूद हो जिस का हवा-ए-जुल्फ़
करती है अंबरी ओ सबाई तमाम शब

वो सुब्ह जलवा जलवा-गर-ए-बाग़ था जो रात
मुर्ग़-ए-सहर ने धूम मचाई तमाम शब

अफ़साने से बिगाड़ है अनबन है ख़्वाब से
है फ़िक्र-ए-वस्ल ओ ज़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब

जिस की शमीम-ए-ज़ुल्फ़ में मैं ग़श हूँ ‘शेफ़्ता’
उस ने शमीम-ए-ज़ुल्फ़ सुँघाई तमाम शब

rajnish manga
02-04-2014, 11:59 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32807&stc=1&thumb=1&d=1396463924 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32807&d=1396463924)
नवाब मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ां शेफ़्ता

ग़ज़ल / शेफ़्ता
दस्त-ए-अदू से शब जो वो साग़र लिया किए


दस्त-ए-अदू से शब जो वो साग़र लिया किए
किन हसरतों से ख़ून हम अपना पिया किए

शुक्र-ए-सितम ने और भी मायूस कर दिया
इस बात का वो गै़र से शिकवा किया किए

कब दिल के चाक करने की फ़ुर्सत हमें मिली
नासेह हमेशा चाक-ए-गिरेबाँ सिया किए

तश्बीह देते हैं लब-ए-जाँ-बख़्श-ए-यार से
हम मरते मरते नाम-ए-मसीहा लिया किए

ज़िक्र-ए-विसाल-ए-गै़र-ओ-शब-ए-माह-ओ-बादा से
ऐसे लिए गए हमें ताने दिया किए

थी लहज़ा लहज़ा हिज्र में इक मर्ग-ए-नौ नसीब
हर-दम ख़्याल-ए-लब से तेरे हम जिया किए

तर्ज़-ए-सुख़न कहे वो मुसल्लम है ‘शेफ़्ता’
दावे ज़बान से न किये मैं ने या किए

rajnish manga
03-04-2014, 12:01 AM
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नवाब मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ां शेफ़्ता
ग़ज़ल / शेफ़्ता
आराम से है कौन जहान-ए-ख़राब में


आराम से है कौन जहान-ए-ख़राब में
गुल सीना चाक और सबा इजि़्तराब में

सब उस में महव और वो सब से अलाहिदा
आईने में है आब न आईना आब में

मानी है फ़िक्र चाहिए सूरत से क्या हुसूल
क्या फ़ाएदा है मौज अगर है सराब में

नै बाद-ए-नौ-बहार है अब नै शमीम-ए-गुल
हम को बहुत सबात रहा इजि़्तराब में

हैरत है क्या नकाब हैं गर रंग रंग
नैरंग-ए-जलवा से है तनव्वो नक़ाब में

फ़ुर्सत कहाँ कि और भी कुछ काम कीजिए
बाज़ी में जुम्मा सर्फ़ है शम्बा शराब में

ज़ात ओ सिफ़ात में भी यही रब्त समझिए
जो आफ़ताब ओ रौशनी-ए-आफ़ताब में

क़ता-ए-नज़र जो नक़्श ओ निगार-ए-जहाँ से हो
देखो वो आँख से जो न देखा हो ख़्वाब में

तूबा लहुम जो कुश्त-ए-इश्क़-ए-अफ़ीफ़ हैं
क्या शुबह उस गरोह के हुस्न-ए-मआब में

मरने के बाद भी कहीं शायद पता लगे
खोया है हम ने आप को अहद-ए-शबाब में

फिर है हवा-ए-मुतरिब-ओ-मय हम को ‘शेफ़्ता’
मुद्दत गुज़र गई वारा ओ इजि़्तनाब में

rajnish manga
14-04-2014, 10:21 PM
अख्तर शीरानी
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQ0DTXE8AGmvaWa0YktdPiyCkmnh8SpI dmUkpG7_eSWTRt23dBL1A
^
अख्तर शीरानी का असल नाम मोहम्मद दाऊद ख़ां था 4 मई, 1905 ई. को टौंक (राजस्थान) में आपका जन्म हुआ| आपके पिता हाफ़िज महमूद खां शीरानी जाने-माने शिक्षाविद थे|

1914 ई. में जब ‘अख़्तर’ के पिता हाफ़िज महमूद खां शीरानी इंगलैंड से वापस आये तो उन्होंने शायरी की बजाय उसे पहलवानी सिखानी शुरू कर दी और इस उद्देश्य के लिए विशेष रूप से एक पहलावन नौकर रख दिया, जो सुबह शाम ‘अख़्तर’ की मालिश करके और लंगर-लंगोट कसके उसे अखाड़े में उतरने के लिए ललकारता।

पहलवानी का यह सिलसिला 1920 ई. तक चला। 1920 ई. में जब ‘अख़्तर’ के पिता ओरियंटल कालेज लाहौर में फ़ारसी के प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए तो ‘अख़्तर’ भी उनके साथ लाहौर चला गया। आपने 1921 में इस्लामिया कालेज, लाहौर में पढाना प्रारंभ किया बाद में वे ओरिएंटल कालेज, लाहौर में चले गए| अख्तर बहुत कम उम्र में टौंक से लाहौर आ गए थे और जिंदगी भर यही रहे|
>>>

rajnish manga
14-04-2014, 10:26 PM
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSTpFkneTpX88kPFJgxwNMvXpfRELLBS enAw66Uoi79lJ5jTI1T3A

शायरी के अतिरिक्त, उस ज़माने में कुछ समय तक उसने उर्दू की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘हुमायूँ’ के सम्पादन का काम किया। फिर 1925 में ‘इन्तिख़ाब’ का सम्पादन किया। 1928 में रिसाला ‘ख़यालिस्तान’ निकाला और 1931 में ‘रोमान’ जारी किया और उसके बाद कुछ समय तक स्वर्गीयमौलाना ताजवर नजीबाबादीकी मासिक पत्रिका ‘शाहकार’ का सम्पादन किया।

आपके ज्ञात ग़ज़ल संग्रह मेंअख्तरिस्तान, सुबह-ए-बहार, शहनाज़है| अपनी आज़ादाना तबीयत के चलते अख्तर शीरानी साहब की आर्थिक दशा भी दयनीय हो गई और शराब के अत्यधिक सेवन से उनका स्वास्थ्य भी दिन-ब-दिन बिगड़ता चला गया.

फ़्लेमिंग रोड, लाहौर के एक मकान में बाहर की सीढ़ियों से मिला हुआ एक छोटा-सा कमरा था और ‘अख़्तर’ था। लाहौर के शराबख़ाने थे और ‘अख़्तर’ था। या भटकने को गलियां थीं और ‘अख़्तर’ था। फिर शराब-नोशी भी आम शराबियों जैसी न थी। एक बार पीने बैठता तो बस पिये चला जाता। कई कई दिन बिना कुछ खाये. आखिर यह सब कुछ कब तक चलता?

9 सितम्बर 1948 ई. को उर्दू के इस महान रोमांसवादी शायर ने बड़ी दयनीय दशा में लाहौर के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया।

rajnish manga
14-04-2014, 11:05 PM
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gazal
Poet: Akhtar Shirani

यारो कू-ए-यार की बातें करें
फिर गुल ओ गुल-ज़ार की बातें करें

चाँदनी में ऐ दिल इक इक फूल से
अपने गुल-रुख़्सार की बातें करें

आँखों आँखों में लुटाए मै-कदे
दीदा-ए-सरशार की बातें करें

अब तो मिलिए बस लड़ाई हो चुकी
अब तो चलिए प्यार की बातें करें

फिर महक उट्ठे फ़ज़ा-ए-ज़िंदगी
फिर गुल ओ रुख़सार की बातें करें

महशर-ए-अनवार कर दें बज़्म को
जलवा-ए-दीदार की बातें करें

अपनी आँखों से बहाएँ सैल-ए-अश्क
अब्र-ए-गौहर-बार की बातें करें

उन को उल्फ़त ही सही अग़्यार से
हम से क्यूँ अग़्यार की बातें करें

'अख़्तर' उस रंगीं अदा से रात भर
ताला-ए-बीमार की बातें करें.

rajnish manga
14-04-2014, 11:08 PM
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gazal
Poet: Akhtar Shirani
मेरे पहलू में जो बह निकले तुम्हारे आंसू,
बन गए शामे-मोहब्बत के सितारे आंसू |

देख सकता है भला कौन ये प्यारे आंसू,
मेरी आँखों में न आ जाए तुम्हारे आंसू |

अपना मुह मेरे गिरेबां में छुपाती क्यों हो,
दिल की धडकन कही सुन ले न तुम्हारे आंसू |

मेह की बूंदों की तरह हो गए सस्ते क्यों आज?
मोतियों से कही महंगे थे तुम्हारे आसू |

साफ़ इकरारे-मोहब्बत हो जबां से क्योकर,
आँख में आ गए यू शर्म के मारे आंसू |

हिज्र अभी दूर है, मै पास हू, ऐ जाने-वफ़ा,
क्यों हुए जाते है बैचेन तुम्हारे आंसू |

सुबह-दम देख न ले कोई ये भीगा आँचल,
मेरी चुगली कही कह दे न तुम्हारे आंसू |

दमे-रुखसत है क़रीब, ऐ गमे-फुरकत खुश हो,
करने वाले है जुदाई के इशारे आंसू |

सदके उस जाने-मोहब्बत के मै ‘अख्तर’ जिसके,
रात भर बहते रहे शौक के मारे आंसू |

shayar: अख्तर शिरानी


मायने
हिज्र=जुदाई, सुबह-दम=सुबह के वक्त, दमे-रुख्सत=विदाई का समय, गमे-फुरकत=जुदाई का गम, जाने-मोहब्बत के=प्रेम के जीवन (प्रेयसी) के

rajnish manga
14-04-2014, 11:12 PM
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSTpFkneTpX88kPFJgxwNMvXpfRELLBS enAw66Uoi79lJ5jTI1T3A

Poet: Akhtar Shirani

EK LAMBI NAZM (against the backdrop of Partitition)
ओ देस से आने वाले बता! ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी वहां के बाग़ों में मस्ताना हवाएँ आती हैं?
क्या अब भी वहां के परबत पर घनघोर घटाएँ छाती हैं?
क्या अब भी वहां की बरखाएँ वैसे ही दिलों को भाती हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी वतन में वैसे ही सरमस्त नज़ारे होते हैं?
क्या अब भी सुहानी रातों को वो चाँद-सितारे होते हैं?
हम खेल जो खेला करते थे अब भी वो सारे होते हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
शादाबो-शिगुफ़्ता1 फूलों से मा' मूर हैं गुलज़ार अब कि नहीं?
बाज़ार में मालन लाती है फूलों के गुँधे हार अब कि नहीं?
और शौक से टूटे पड़ते है नौउम्र खरीदार अब कि नहीं?

rajnish manga
14-04-2014, 11:16 PM
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSTpFkneTpX88kPFJgxwNMvXpfRELLBS enAw66Uoi79lJ5jTI1T3A

Poet: Akhtar Shirani
ओ देस से आने वाले बता!
क्या शाम पड़े गलियों में वही दिलचस्प अंधेरा होता हैं?
और सड़कों की धुँधली शम्मओं पर सायों का बसेरा होता हैं?
बाग़ों की घनेरी शाखों पर जिस तरह सवेरा होता हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी वहां वैसी ही जवां और मदभरी रातें होती हैं?
क्या रात भर अब भी गीतों की और प्यार की बाते होती हैं?
वो हुस्न के जादू चलते हैं वो इश्क़ की घातें होती हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी महकते मन्दिर से नाक़ूस की1 आवाज़ आती है?
क्या अब भी मुक़द्दस मस्जिद पर मस्ताना अज़ां थर्राती है?
और शाम के रंगी सायों पर अ़ज़्मत की झलक छा जाती है?

rajnish manga
14-04-2014, 11:22 PM
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSTpFkneTpX88kPFJgxwNMvXpfRELLBS enAw66Uoi79lJ5jTI1T3A

Poet: Akhtar Shirani
ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी वहाँ के पनघट पर पनहारियाँ पानी भरती हैं?
अँगड़ाई का नक़्शा बन-बन कर सब माथे पे गागर धरती हैं?
और अपने घरों को जाते हुए हँसती हुई चुहलें करती है?

ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी वहां मेलों में वही बरसात का जोबन होता है?
फैले हुए बड़ की शाखों में झूलों का निशेमन होता है?
उमड़े हुए बादल होते हैं छाया हुआ सावन होता है?

ओ देस से आने वाले बता!
क्या शहर के गिर्द अब भी है रवाँ दरिया-ए-हसीं लहराए हुए?
ज्यूं गोद में अपने मन को लिए नागन हो कोई थर्राये हुए?
या नूर की हँसली हूर की गर्दन में हो अ़याँ बल खाये हुए?

rajnish manga
14-04-2014, 11:26 PM
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSTpFkneTpX88kPFJgxwNMvXpfRELLBS enAw66Uoi79lJ5jTI1T3A

Poet: Akhtar Shirani
ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी किसी के सीने में बाक़ी है हमारी चाह? बता
क्या याद हमें भी करता है अब यारों में कोई? आह बता
ओ देश से आने वाले बता लिल्लाह बता, लिल्लाह बता

ओ देस से आने वाले बता!
क्या गांव में अब भी वैसी ही मस्ती भरी रातें आती हैं?
देहात में कमसिन माहवशें तालाब की जानिब जाती हैं?
और चाँद की सादा रोशनी में रंगीन तराने गाती हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी गजर-दम चरवाहे रेवड़ को चराने जाते हैं?
और शाम के धुंदले सायों में हमराह घरों को आते हैं?
और अपनी रंगीली बांसुरियों में इश्क़ के नग्मे गाते हैं?

rajnish manga
14-04-2014, 11:29 PM
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSTpFkneTpX88kPFJgxwNMvXpfRELLBS enAw66Uoi79lJ5jTI1T3A

Poet: Akhtar Shirani ओ देस से आने वाले बता!
आखिर में ये हसरत है कि बता वो ग़ारते-ईमाँ कैसी है?
बचपन में जो आफ़त ढाती थी वो आफ़ते-दौरां कैसी है?
हम दोनों थे जिसके परवाने वो शम्मए-शबिस्तां कैसी हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
क्या अब भी शहाबी आ़रिज़ पर गेसू-ए-सियह बल खाते हैं?
या बहरे-शफ़क़ की मौजों पर दो नाग पड़े लहराते हैं?
और जिनकी झलक से सावन की रातों के से सपने आते हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
अब नामे-खुदा, होगी वो जवाँ मैके में है या ससुराल गई?
दोशीज़ा है या आफ़त में उसे कमबख़्त जवानी डाल गई?
घर पर ही रही या घर से गई, ख़ुशहाल रही ख़ुशहाल गई?
ओ देस से आने वाले बता!
**

rajnish manga
18-04-2014, 11:25 PM
कैसर-उल-जाफ़री
*
^^
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32862&stc=1&d=1397845309
*
^^
इलाहाबाद में 1926 में जन्मे जुबैर अहमद ग़ज़लों की दुनिया में कैसर-उल-जाफ़री के नाम से विख्यात हैं ! ज़िन्दगी की कड़वी सचाई को भी बड़े सहज अंदाज़ में कह जाने की खूबी उन्हें एक मीठा और बड़ा शायर बनाती है ! उर्दू के पारंपरिक शब्दों, प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग उनकी शायरी में अधिक अवश्य है, फिर भी उनकी ग़ज़लों में सहज रवानी कहीं भी देखी जा सकती है !

आइये तो फिर लुत्फ़ लेते हैं उनकी कुछ बेहतरीन ग़ज़लों और नज़्मों का.

rajnish manga
18-04-2014, 11:29 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32863&stc=1&thumb=1&d=1397845306 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32863&d=1397845306)

ग़ज़ल
बरसो के रतजगे की थकन खा गयी मुझे
बरसो के रतजगे की थकन खा गयी मुझे
सूरज निकल रहा था कि नींद आ गयी मुझे

मै बिक गया था, बाद में बेसर्फ़ जान कर
दुनिया मेरी दुकान पे, लौटा गयी मुझे

आखिर अना से जीत गयी, मेरी मुफ़लिसी
चादर हटा के राह में फैला गयी मुझे

दुनिया निबाहती है बहुत कम किसी के साथ
क्या जाने किस ख्याल से रास आ गयी मुझे

ए जिन्दगी ! तमाम लहू रायगा हुआ
किस दश्ते-कमसवाद में बरसा गयी मुझे

'कैसर' नजात मिल न सकी शामे दर्द से
इतना हुआ कि रस्मे दुआ आ गयी मुझे
-- कैसर-उल-जाफ़री

शब्दार्थ:

बेसर्फ़ = व्यर्थ /अना = स्वाभिमान / मुफलिसी = गरीबी / रायगा = व्यर्थ / दश्ते-कमसवाद = अल्प प्रतिभावान, तुच्छ क्षेत्र /शामे-दर्द = दर्द की शाम

Dr.Shree Vijay
18-04-2014, 11:36 PM
एकसे बढकर एक किस की तारीफ करू और किस की ना करू इसी कशमकश में हूँ.........

rajnish manga
18-04-2014, 11:37 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32863&stc=1&thumb=1&d=1397845306 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32863&d=1397845306)

गीत
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह
(शायर: कैसर उल जाफ़री)

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह
सिर्फ़ इक बार मुलाक़ात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...

मेरी मंजिल है, कहाँ मेरा ठिकाना है कहाँ
सुबह तक तुझसे बिछड़ कर मुझे जाना है कहाँ
सोचने के लिए इक रात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...

अपनी आंखों में छुपा रक्खे हैं जुगनू मैंने
अपनी पलकों पे सजा रक्खे हैं आंसू मैंने
मेरी आंखों को भी बरसात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...

आज की रात मेरा दर्द-ऐ-मोहब्बत सुन ले
कंप-कंपाते हुए होठों की शिकायत सुन ले
आज इज़हार-ऐ-खयालात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...

भूलना ही था तो ये इकरार किया ही क्यूँ था
बेवफा तुने मुझे प्यार किया ही क्यूँ था
सिर्फ़ दो चार सवालात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...

इस मधुर गीत को गुलाम अली ने भी अपनी पुरसोज़ आवाज़ में गाया है. गीत को सुनना चाहें तो कृपया नीचे दिए गये youtube लिंक को क्लिक करें:
http://www.youtube.com/watch?v=K8Hrmd7jFwk (http://www.youtube.com/watch?v=K8Hrmd7jFwk)

rajnish manga
18-04-2014, 11:43 PM
ग़ज़ल
शायर: कैसर-उल-जाफ़री

उदासियों के जज़ीरे में दिन गुज़ारे जा
ख़ुद अपने आपको चारों तरफ पुकारे जा

सफ़र की धूप में चलना है घर की बात नहीं
तमाम रात के ख़्वाबों का बोझ उतारे जा

ये ज़िन्दगी का सफ़र है पयम्बरी का नहीं
असा नहीं है तो सहरा में बेसहारे जा

मुझी को देख, कहाँ पर शिकस्त खायी है
अब इसके बाद तुझे शौक़ है तो हारे जा

बहुत से लोग किनारे पे मुंतज़िर होंगे
मुझे नहीं तो मिरी लाश, पार उतारे जा

समझ कि वक़्त भी उड़ता हुआ परिंदा है
उठा कमान ! हवाओं में तीर मारे जा

(जज़ीरे = टापू / असा = लाठी / शिकस्त = पराजय / मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

rajnish manga
21-04-2014, 04:24 PM
जॉन एलिया
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32868&stc=1&d=1398079366

जॉन एलिया का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तरप्रदेश के अमरोहा में हुआ | आप अपने भाइयो में सबसे छोटे थे | आपके पिता अल्लामा शफीक हसन एलिया कला और साहित्य के क्षेत्र में काफी कार्य करते थे और वह एक शायर और ज्योतिष (Astrologer ) भी थे | विभाजन के समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया था.

आपने 8 वर्ष की उम्र में ही अपना पहला शेर लिखा |

इनका पहला शायरी संग्रह शायद 1991 में प्रकाशित हुआ जब आप 60 वर्ष के थे | आपका दूसरा शायरी संग्रह 2003 में प्रकाशित हो पाया जिसका नाम यानी था | इसके बाद आपके विश्वासपात्र खालिद अंसारी ने तीन संग्रह छपवाए जिनके नाम थे गुमान ( 2004), "लेकिन"(2006) और गोया (2008) |

इन्होने उर्दू साहित्य पत्रिका "इंशा" का भी संपादन किया और वहा आपकी मुलाकात जाहिदा हिना से हुई जिससे आपने बाद में शादी की | जाहिदा जी आज भी दैनिक समाचार पत्रों जैसे जंग और एक्सप्रेस में लिख रही है | आपको दो पुत्रिया और एक पुत्र है |एलिया और जाहिदा के बीच सन 80 के दशक में तलाक़ हो गया | जिससे एलिया काफी टूट गये और आपने शराब का सहारा लिया | काफी लम्बी बीमारी के बाद आपका 8 नवम्बर, 2002 को कराची में इंतकाल हो गया |

rajnish manga
21-04-2014, 04:28 PM
ग़ज़ल
जॉन एलिया



तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है

उस दिन पहली बार हुआ था मुझको रफ़ाक़त का एहसास
जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है

हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है

आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है

rajnish manga
21-04-2014, 04:35 PM
ग़ज़ल
जॉन एलिया

उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?

मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?


बोलते क्यो नहीं मेरे अपने
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?

मुझको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?

अपनी महरूमियां छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?

है नसीम-ए-बहार गर्द आलूद (धूल भरी हवा)
खाक उड़ती है उस मकान में क्या

ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या?

rajnish manga
21-04-2014, 04:37 PM
ग़ज़ल
जॉन एलिया

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं

क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं

अब है बस अपना सामना दरपेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं

वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही ग़मज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं

अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं

कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं

तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं

कू–ए–जानां में सोग बरपा है
के अचानक, सुधर गया हूँ मैं
**

rafik
21-04-2014, 05:06 PM
धन्यवाद,आपने हम फेज जी ,परवीन शाकिर से रूबरू कराया / बहूत अच्छा

rajnish manga
24-04-2014, 11:24 PM
कैसर-उल-जाफ़री साहब की निम्नलिखित ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद है. मैं चाहता हूँ कि आप भी ग़ज़ल को पढ़ कर इसका मज़ा ले.

ग़ज़ल
शायर: कैसर-उल-जाफ़री

तू अपने फूल से होठों को रायगां मत कर
अगर वफ़ा का इरादा नहीं तो हाँ मत कर

तू मेरी शाम की पलकों से रोशनी मत छीन
जहां चराग़ जलाये, वहां धुआं मत कर

फिर उसके बाद तो आँखों को संग होना है
मिली है फुरसते-गिरियाँ तो रायगां मत कर

छलक रहा है तिरे दिल का दर्द चेहरे से
छुपा छुपा के मुहब्बत को, दास्तां मत कर

कसम की कोई ज़रुरत नहीं मुहब्बत को
तुझे कसम है, खुदा को भी दरमियां रखना

छलक उठे सरे-महफ़िल कभी, तो क्या होगा
तू आंसुओं को भी खलवत का राज़दां मत कर

ये ज़िन्दगी है, कोई मकबरा नहीं ‘कैसर’
सुकूने-दिल का तसव्वुर भी तू यहां मत कर


(रायगां = व्यर्थ / संग = पत्थर / फुरसते-गिरिया = रोने की फुरसत / सरे-महफ़िल = सभा के बीच / खलवत = एकांत / राज़दां = राज़ का साथी / सुकूने-दिल = दिल का चैन / तसव्वुर = कल्पना)

rajnish manga
25-04-2014, 12:17 AM
कुँवर अखलाक मुहम्मद खान ‘शहरयार’
(1936 – 2012)

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32869&stc=1&d=1398366823

कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ उर्फ "शहरयार" का जन्म 6 जून 1936 को आंवला, जिला बरेली में हुआ। वैसे उनके पूर्वज चौढ़ेरा बन्नेशरीफ़, जिला बुलंदशहर के रहने वाले थे। वालिद पुलिस अफसर थे और जगह-जगह तबादलों पर रहते थे इसलिए आरम्भिक पढ़ाई हरदोई में पूरी करने के बाद इन्हें 1948 में अलीगढ़ भेज दिया गया. वे अपने कैरियर के अंतिम पड़ाव वे में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के चेयरमैन पद तक पहुंचे और वहीँ से रिटायर हुये।

शहरयार ने अपनी शायरी के लिए एक नए निखरे और बिल्कुल अलग अन्दाज़ को चुना—और यह अन्दाज़ नतीजा था और उनके गहरे समाजी तजुर्बे का, जिसके तहत उन्होंने यह तय कर लिया था कि बिना वस्तुपरक वैज्ञानिक सोच के दुनिया में कोई कारगर-रचनात्मक सपना नहीं देखा जा सकता। उसके बाद वे अपनी तनहाइयों और वीरानियों के साथ-साथ दुनिया की खुशहाली और अमन का सपना पूरा करने में लगे रहे ! इसमें सबसे बड़ा योगदान उस गंगा-जमुनी तहज़ीब का है जिसने उन्हें पाला-पोसा और वक्त-वक्त पर उन्हें सजाया, सँभाला और सिखाया है।

rajnish manga
25-04-2014, 12:20 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32870&d=1398366824 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32870&d=1398366824)

शहरयार
*

कमलेश्वर मानते थे कि शहरयार की शायरी चौकाने वाली आतिशबाजी और शिकायती तेवर से अलग बड़ी गहरी सांस्कृतिक सोच की शायरी है और वह दिलो दिमाग को बंजर बना दी गयी जमीन को सीचती है। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार और अकादमी पुरस्कार के अतिरिक्त विभिन्न स्तरों पर देश विदेश में सम्मान और ख्याती प्राप्त शहरयार के उर्दू में ‘इस्में आज़्म’, ‘सातवाँ दर’, ‘हिज्र की जमीन’ शीर्षकों से आए काव्य संग्रह काफी चर्चित और प्रशंसित हुए हैं। ‘ख्वाब का दर बंद है’ हिन्दी और अंग्रेजी मे भी प्रकाशित हो चुका है तथा ‘काफिले यादों के’, ‘धूप की दीवारे’, ‘मेरे हिस्से की ज़मीन’ और ‘कही कुछ कम है’ शीर्षकों से उनके काव्य संग्रह हिन्दी मे प्रकाशित हो चुके है। ‘सैरे जहाँ’ हिन्दी मे शीघ्र प्रकाश्य है। उन्होंने फिल्मों के लिये भी कुछ बेहद यादगार गीत लिखे. फिल्म ‘उमराव जाम’ के लिये उनके द्वारा लिखी ग़ज़लों को कौन भूल सकता है. 13 फरवरी 2012 को इस अज़ीम शायर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

rajnish manga
25-04-2014, 12:27 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32869&stc=1&thumb=1&d=1398366824 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32869&d=1398366824)

ग़ज़ल
शहरयार
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के

आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के

इक बूँद ज़हर के लिये फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के

कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के

इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के

rajnish manga
25-04-2014, 12:30 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32869&stc=1&thumb=1&d=1398366824 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32869&d=1398366824)

ग़ज़ल
शहरयार

जिन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घडी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है यकीं कुछ कम है

अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज जियादा है कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

rajnish manga
25-04-2014, 12:32 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32869&stc=1&thumb=1&d=1398366824 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32869&d=1398366824)

ग़ज़ल
शहरयार इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं

इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं

इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं

इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं

(खैयाम साहब के संगीत निर्देशन में आशा भोंसले की सुरीली आवाज़ में गाई गई यह ग़ज़ल फिल्म ‘उमराव जान’ में अभिनेत्री रेखा पर फिल्माई गई है. आप चाहें तो निम्नलिखित लिंक पर क्लिक कर के इसे सुन सकते हैं)
http://www.youtube.com/watch?v=cXdJJvpgTvw

rajnish manga
28-04-2014, 12:09 AM
हफ़ीज़ जालंधरी
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&stc=1&d=1398625605

अबू अल-असर 'हफीज़' जो 'हफीज़' जालंधरी के नाम से शायरी करते थे, पंजाब के जालंधर शहर में 14 जनवरी 1900 को पैदा हुए. इनके वालिद शमसुद्दीन साहब को कुरआन जुबानी याद थी और वो फौज़ के लिए वर्दियां बनाने का धंधा करते थे. जो 'हफ़ीज़' कभी हिंदुस्तान के इस कोने से उस कोने तक अपनी तरन्नुम भरी शायरी के लिए मशहूर थे, जिन्हें शायरी की बदौलत बरतानवी हुकूमत ने खानबहादुर का ख़िताब दिया था, जिन्हें तकसीम-ऐ-हिंदुस्तान के बाद (जबकि पाकिस्तान में बहुत नामी शायर मौजूद थे) पाकिस्तानी हुकूमत ने क़ौमी शायर का खिताब और 6000 रुपये सालाना वज़ीफ़ा दिया, वही 'हफ़ीज़' महज़ छठी पास थे. शायरी का चस्का उन्हें सातवीं जमात से ही लग गया था, जिसके चलते उन्होंने स्कूल भी छोड़ दिया. माँ-बाप की फटकार और मार-पीट का भी कोई असर नहीं हुआ.
"शेरगोई यूं तो मेरी उम्र के सातवें बरस ही शुरू हो गयी थी | लेकिन इस मर्ज़ का बाकायदा हमला ग्यारह साल की उम्र में हुआ| जब मैं छठी जमात में पढ़ता था, उस वक़्त शायरी की वजह तिफ्ली इश्क़ (बचपन का प्यार) की गर्मी थी|
पाकिस्तान का राष्ट्रगीत लिखने का श्रेय भी इन्हें जाता है. 21 दिसम्बर 1982 को लाहौर में इस महान शायर का इंतकाल हो गया.

rajnish manga
28-04-2014, 12:12 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&stc=1&thumb=1&d=1398625612 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&d=1398625612)

ग़ज़ल
हफीज़ जालंधरी

हम ही में थी न कोई बात याद न तुमको आ सके
तुमने हमें भुला दिया हम न तुम्हें भुला सके

तुम्ही न सुन सके अगर, किस्सा-ए-गम सुनेगा कौन
किसकी ज़ुबां खुलेगी फिर, हम न अगर सुना सके

होश में आ चुके थे हम, जोश में आ चुके थे तुम
बज़्म का रंग देख कर सर न मगर उठा सके

रौनक-ए-बज़्म बन गए, लब पे हिकायतें रहीं
दिल में शिकायतें रहीं, लब न मगर हिला सके

इज्ज़ से और बढ गई बरहमी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त
अब वोह करे इलाज-ए-दोस्त जिसकी समझ में आ सके

शौक़-ए-विसाल है यहाँ, लब पे सवाल है यहाँ
किसकी मजाल है यहाँ हम से नज़र मिला सके

अहले जुबां तो हैं बोहत, कोई नहीं है अहल-ए-दिल
कौन तेरी तरह हफीज़ दर्द के गीत गा सके

rajnish manga
28-04-2014, 12:15 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&stc=1&thumb=1&d=1398625612 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&d=1398625612)

ग़ज़ल
हफ़ीज़ जालंधरी

अब तो कुछ और भी अँधेरा है
ये मिरी रात का सवेरा है

रह-ज़नों से तो भाग निकला था
अब मुझे रह-बरों ने घेरा है

आगे आगे चलो तबर वालो
अभी जंगल बहुत घनेरा है

क़ाफ़िला किस की पैरवी में चले
कौन सब से बड़ा लुटेरा है

सर पे राही की सरबराही ने
क्या सफाई का हाथ फेरा है

सुरमा-आलूद ख़ुश्क आँसुओं ने
नूर-ए-जाँ ख़ाक पर बिखेरा है

राख राख उस्तख़्वाँ सफ़ेद सफ़ेद
यही मंज़िल यही बसेरा है

ऐ मिरी जान अपने जी के सिवा
कौन तेरा है कौन मेरा है

सो रहो अब ‘हफीज़’ जी तुम भी
ये नई ज़िंदगी का डेरा है

rajnish manga
28-04-2014, 12:19 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&stc=1&thumb=1&d=1398625612 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&d=1398625612)

नज़्म
हफ़ीज़ जालंधरी
अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ

हवा भी ख़ुशगवार है, गुलों पे भी निखार है
तरन्नुमें हज़ार हैं, बहार पुरबहार है
कहाँ चला है साक़िया, इधर तो लौट इधर तो आ
अरे, यह देखता है क्या? उठा सुबू, सुबू उठा
सुबू उठा के पियाला भर, पियाला भर के दे इधर
चमन की सिम्त कर नज़र, समा तो देख बेख़बर
वो काली-काली बदलियाँ, उफ़क़ पे हो गई अयां
वो इक हजूम-ए-मैकशां, है सू-ए-मैकदा रवां
ये क्या गुमां है बदगुमां, समझ न मुझको नातवां
ख़याल-ए-ज़ोह्द अभी कहाँ? अभी तो मैं जवान हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ

इबादतों का ज़िक्र है, निजात की भी फ़िक्र है
जुनून है सबाब का, ख़याल है अज़ाब का
मगर सुनो तो शेख़ जी, अजीब शय हैं आप भी
भला शबाब-ओ-आशिक़ी, अलग हुए भी हैं कभी
हसीन जलवारेज़ हो, अदाएं फ़ितनख़ेज़ हो
हवाएं इत्र्बेज़ हों, तो शौक़ क्यूँ न तेज़ हो?
निगारहा-ए-फ़ितनागर, कोई इधर कोई उधर
उभारते हो ऐश पर, तो क्या करे कोई बशर
चलो जी क़िस्सा मुख़्तसर, तुम्हारा नुक़्ता-ए-नज़र
दुरुस्त है तो हो मगर, अभी तो मैं जवान हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ
(क्रमशः)

rajnish manga
28-04-2014, 12:22 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&stc=1&thumb=1&d=1398625612 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32871&d=1398625612)

नज़्म
हफ़ीज़ जालंधरी

ये ग़श्त कोहसार की, ये सैर जू-ए-वार की
ये बुलबुलों के चहचहे, ये गुलरुख़ों के क़हक़हे
किसी से मेल हो गया, तो रंज-ओ-फ़िक्र खो गया
कभी जो वक़्त सो गया, ये हँस गया वो रो गया
ये इश्क़ की कहानियाँ, ये रस भरी जवानियाँ
उधर से महरबानियाँ, इधर से लन्तरानियाँ
ये आस्मान ये ज़मीं, नज़्ज़राहा-ए-दिलनशीं
उने हयात आफ़रीं, भला मैं छोड़ दूँ यहीं
है मौत इस क़दर बरीं, मुझे न आएगा यक़ीं
नहीं-नहीं अभी नहीं, नहीं-नहीं अभी नहीं

अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ

न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, बलंद का न पस्त का
न बूद का न हस्त का न वादा-ए-अलस्त का
उम्मीद और यास गुम, हवास गुम क़यास गुम
नज़र से आस-पास गुम, हमन बजुज़ गिलास गुम
न मय में कुछ कमी रहे, कदा से हमदमी रहे
नशिस्त ये जमी रहे, यही हमा-हमी रहे
वो राग छेड़ मुतरिबा, तरवफ़िज़ा अलमरुबा
असर सदा-ए-साज़ का, जिग़र में आग दे लगा
हर इक लब पे हो सदा, न हाथ रोक साक़िया
पिलाए जा पिलाए जा, पिलाए जा पिलाए जा

अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मैं जवान हूँ
**
नोट:

इस नज़्म को हमारे उपमहाद्वीप की महान गायिका मलका पुखराज ने अपनी दिलफ़रेब आवाज़ में गा कर अमर कर दिया. यदि आप भी इस गायिका की जादूभरी आवाज़ को महसूस करना चाहते हैं तो कृपया निम्न लिखित लिंक को क्लिक करें:-

http://www.youtube.com/watch?v=CXlSUXBTDUs (http://www.youtube.com/watch?v=CXlSUXBTDUs)

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rajnish manga
28-04-2014, 11:23 PM
मोमिन खां 'मोमिन'
(1800-1851)

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32872&stc=1&d=1398709320

मुग़ल साम्राज्य के आखिरी दिनों में कश्मीर से दिल्ली आकर शाही हकीम बने नामदार खां के पौत्र 'मोमिन' (पिता का नाम हकीम गुलाम नबी) स्वयं एक कुशल चिकित्सक और मशहूर ज्योतिषी भी थे ! दिल्ली में 1800 में जन्मे मोमिन का उर्दू काव्य जगत में विशेष महत्त्व है ! उनका क्षेत्र मुख्यतः प्रेम-वर्णन होते हुए भी, इसमें जो तड़प उन्होंने पैदा की, वह सिर्फ उन्हीं का हिस्सा है ! अभिव्यक्ति की मौलिकता और भाव पक्ष की प्रबलता की वज़ह से उर्दू अदब की तवारीख (इतिहास) में वे एक अमर शायर के रूप में दर्ज हैं !

मोमिन खान मोमिन, जो कि पेशे से हकीम थे, को ब्रिटिश सरकार ने भी नौकरी की पेशकश की थी पर मोमिन साहब कहाँ रुकने वाले थे किसी नौकरी की कैद में. उनके समकालीन शायर मिर्जा ग़ालिब ने एक बार कहा था कि वो अपना पूरा दीवान मोमिन को दे सकते हें उनके एक शेर के बदले में, जानना चाहेंगे कि वो शेर कौन सा था? और वो ग़ज़ल कौन सी थी?
वह शेर था -

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नही होता

rajnish manga
28-04-2014, 11:29 PM
ग़ज़ल
मोमिन खां ‘मोमिन’

असर उसको ज़रा नहीं होता
रंज, राहत फज़ा नहीं होता

तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता

नारसी से द'आम रुके तो रुके
मैं किसी से खफा नहीं होता

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता

हाले-दिल यार को लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता

क्यों सुने अर्ज़े- मुज्तरिब मोमिन
सनम आख़िर खुदा नहीं होता

rajnish manga
28-04-2014, 11:32 PM
ग़ज़ल
मोमिन खां ‘मोमिन’

रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आपका दिल भी मेरी तरह

न ताब हिज्र में है न आराम वस्ल में
कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह

गर चुप रहें तो हम गमे-हिजरां से छूट जाएं
कहते तो हैं भले को वो, लेकिन बुरी तरह

न जाए वां बने है न बिन जाए चैन है
क्या कीजिये हमें तो है मुश्किल सभी तरह

लगती हैं गालियाँ भी तेरी मुझको क्या भली
कुर्बान तेरे, फिर मुझे कह ले इसी तरह

हूँ जां-बलब बुताने-सितमगर के हाथ से
क्या सब जहाँ में जीते हैं मोमिन इसी तरह

rajnish manga
28-04-2014, 11:38 PM
ग़ज़ल
मोमिन खां ‘मोमिन’

वो जो हम में तुम में करार था, तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो के न याद हो

वो नये गिले, वो शिकायतें, वो मज़े-मज़े की हिकायतें
वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो के न याद हो

कोई बात ऐसी अगर हुई, जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयां से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो के न याद हो

सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझसे था आपका
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो के न याद हो

हुए इत्तेफाक से गर बहम , वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिल- ए- मलामते-अक़रबा, तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू, तो इशारतों ही से गुफ्तुगू
वो बयान शौक़ का बरमाला, तुम्हें याद हो के न याद हो

वो बिगाड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हरेक अदा, तुम्हें याद हो के न याद हो

जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूँ मोमिने-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो

नोट: उपरोक्त ग़ज़ल को कई गायकों ने अपने अपने अंदाज़ में गाया है, लेकिन बेग़म अख्तर इसमें अतुलनीय हैं. आइये उनकी पुरसोज़ आवाज़ में यह ग़ज़ल सुनें (कृपया नीचे दिए link को क्लिक करें):

http://www.youtube.com/watch?v=H9lMOhP9yYg (http://www.youtube.com/watch?v=H9lMOhP9yYg)
(बेग़म अख्तर)

इसी ग़ज़ल को गुलाम अली ने भी अपनी विशिष्ट शैली में गाया है जो दिल पर अपना असर छोड़ती है. आइये उनकी आवाज़ में इस ग़ज़ल का आनन्द लेते हैं (कृपया नीचे दिए link को क्लिक करें):

http://www.youtube.com/watch?v=dGIZEshKJtc (http://www.youtube.com/watch?v=dGIZEshKJtc)
(गुलाम अली)

rajnish manga
01-05-2014, 03:49 PM
शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ज़ौक
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32889&stc=1&d=1398940996

^
शेख़ मोहम्मद इब्राहीम ‘ज़ौक़’ 1204 हिजरी तदनुसार 1789 ई. में दिल्ली के एक ग़रीब सिपाही शेख़ मुहम्मद रमज़ान के घर पैदा हुए थे। शेख़ रमज़ान नवाब लुत्फअली खां के नौकर थे। शेख़ इब्राहीम (ज़ौक़ का असल नाम) इनके इकलौते बेटे थे। इस कमाल के उस्ताद ने 1271 हिजरी (1854 ई.) में सत्रह दिन बीमार रहकर परलोक गमन किया।

उर्दू शायरी में ‘ज़ौक़’ का अपना खास स्थान है। वे शायरी के उस्ताद माने जाते थे। आखिरी बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के दरबार में शाही शायर भी थे।

ज़ौक़ की असली सहायक उनकी जन्मजात प्रतिभा और अध्ययनशीलता थी। कविता-अध्ययन का यह हाल कि पुराने उस्तादों के साढ़े तीन सौ दीवानों को पढ़कर उनका संक्षिप्त संस्करण किया। कविता की बात आने पर वह अपने हर तर्क की पुष्टि में तुरंत फ़ारसी के उस्तादों का कोई शे’र पढ़ देते थे।

मरने के तीन घंटे पहले उन्होंने यह शे’र कहा था:

कहते हैं ‘ज़ौक़’ आज जहां से गुज़र गया
क्या खूब आदमी था, खुदा मग़फ़रत करे

rajnish manga
01-05-2014, 03:54 PM
ग़ज़ल
मुहम्मद इब्राहिम ज़ौक


रिन्द-ए-ख़राब हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
तुझको पराई क्या पड़ी अपनी निबेड़ तू

नाखू़न खु़दा ना दे तुझे ऐ पंज-ए-जुनून
देगा तमाम अक़्ल के बखिये उधेड़ तू

यह तंग-नाये-देह्र नहीं मंज़िल-ए-फ़राग
गाफ़िल! ना पाँव हिर्स के फैला,सुकेड़ तू

उल्फ़त का गर है नख़्ल तो सरसब्ज़ होयेगा
सौ बार जड़ से फ़ेंक दे उस को उखेड़ तू

उम्र-ए-रवाँ का तौसन-ए-चालाक इसलिये
तुझ को दिया कि जल्द करे याँ से एड़ तू

आवारगी से कू-ए-मोहब्बत के हाथ उठा
अए ज़ौक ! ये उठा न सकेगा खुखेड़ तू


शब्दार्थ:
रिन्द-ए-ख़राब हाल= पियक्कड़ की दशा / ज़ाहिद= धर्म उपदेशक / नबेड़ = सम्भाल / (दह्र= समय, मंज़िल-ए-फ़राग=मुक्ति की मंज़िल / हिर्स=लालच / नख़्ल= पेड़ / तौसन= घोड़ा /

rajnish manga
01-05-2014, 03:58 PM
ग़ज़ल
मुहम्मद इब्राहीम जौक
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे

सामने-चश्मे-गुहरबारके, कह दो, दरिया
चढ़ के गर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे

ख़ाली ऐ चारागरोंहोंगे बहुत मरहमदां
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम से गुज़र जायेंगे

आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसीअरक़-ए-शर्मसे तर जायेंगे

हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे

रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-महनज़रों से यारों के उतर जायेंगे

'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले आओ, सँवर जायेंगे

rajnish manga
01-05-2014, 04:33 PM
ग़ज़ल
मुहम्मद इब्राहीम जौक


लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

हो उम्रे-ख़िज़्र भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले

नाज़ाँ न हो ख़िरद पे जो होना है वो ही हो
दानिश तेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले

जा कि हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी बला से बादे-सबा अब कहीं चले

rajnish manga
01-05-2014, 04:40 PM
ग़ज़ल
मुहम्मद इब्राहीम जौक

लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले
(ऊपर पूरी ग़ज़ल दी गई है)


इस ग़ज़ल को विभिन्न गायकों ने स्वर दिया है. मुझे यह कहने में कोई उज्र नहीं कि इनमे से k l sehgal और begum akhtar द्वारा गाई इस ग़ज़ल का कहीं कोई मुकाबला नहीं. दोनों ही लाजवाब हैं. नीचे दिए गये लिंक्स पर क्लिक कर के आप इन दोनों महान कलाकारों की जादूभरी आवाज़ और ग़ज़ल गायकी का आनन्द ले सकते हैं:

1. कुन्दन लाल सहगल:- https://www.youtube.com/watch?v=BWwUbF7EHKw (https://www.youtube.com/watch?v=BWwUbF7EHKw)

2. बेग़म अख्तर:--------- https://www.youtube.com/watch?v=Onrvi-LXbN8 (https://www.youtube.com/watch?v=Onrvi-LXbN8)

rajnish manga
01-05-2014, 05:04 PM
बहादुर शाह ज़फ़र / BAHADUR SHAH ZAFAR
(1775-1862)

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32890&stc=1&d=1398945547

मिर्ज़ा अबू ज़फ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुरशाह ज़फ़र या बहादुरशाह द्वितीय, जिनका “ज़फ़र” उपनाम था, भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू भाषा के माने हुए शायर थे। बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को हुआ था। वह अपने पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद 28 सितंबर 1838 को दिल्ली के बादशाह बने। उनकी मां लालबाई हिंदू परिवार से थीं. ज़फ़र संगीतप्रेमी एवम् साहित्यानुरागी व्यक्ति थे और स्वयं भी अच्छे शायर थे. ‘दीवान-ए-ज़फ़र’ उनकी उत्कृष्ट शायरी का जीता जागता सबूत है. उनके दरबार में उर्दू व फ़ारसी के शायरों का बड़ा सम्मान होता था. शेख़ मुहम्मद इब्राहिंम ज़ौक उनके उस्ताद थे और मोमिन व ग़ालिब सरीखे शायर उनके घनिष्ट थे.

उन्होंने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन पर ब्रिटिश हकूमत के खिलाफ़ बग़ावत करने के जुर्म पर मुक़दमा चलाया और उन्हें सज़ा के तौर पर जिलावतन करके रंगून भेज दिया. ज़फ़र मृत्युपर्यंत वहीँ रहे और वहीँ 7 नवम्बर 1862 को उनका प्राणांत हुआ. उन्हें रंगून में ही सुपुर्दे-ख़ाक किया गया.

rajnish manga
01-05-2014, 05:11 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32890&stc=1&d=1398945547

बहादुर शाह ज़फ़र अपने देश से बेइंतिहा मुहब्बत करते थे. अंग्रेजों द्वारा भारत की स्वायत्तता को नष्ट करने की दिशा में की जाने वाली अनाधिकृत कार्यवाही ने उन्हें उद्वेलित किया और अंग्रेजी प्रभाव को उखाड़ फेंकने के उपाय सोचते रहते थे. उनका यह शे’र उनके दिल की कितनी अच्छी तर्जुमानी कर रहा है:

ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्ते-लंदन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की

बहादुर शाह ज़फ़र भारत में ही जीना चाहते थे, अंतिम सांस भी भारत में ही लेना चाहते थे और इस बुजुर्ग बादशाह ने अपनी पार्थिव देह दिल्ली की गोद में दफ़न कराने की इच्छा जताई थी लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी. उनकी ग़ज़ल का यह शे’र उनकी इस व्यथा को कितनी सच्चाई से बयान करता है:

कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

आइये इस शहंशाह-शायर के कलाम से कुछ मोतियों की झलक देखते हैं.

rajnish manga
01-05-2014, 05:15 PM
ग़ज़ल
बहादुरशाह ज़फ़र / bahadur shah zafar

ऐश से गुजरी कि गम के साथ, अच्छी निभ गई
निभ गई जो उस सनम के साथ, अच्छी निभ गई

दोस्ती उस दुश्मने-जां ने निबाही तो सही
जो निभी जुल्मो-सितम के साथ, अच्छी निभ गई

खूब गुजरी गरचे औरों की निशातो-ऐश में
अपनी भी रंजो-अलम के साथ, अच्छी निभ गई

हमको था मंजूर अपनी खाकसारी का निबाह
बारे उस खाके-कदम के साथ, अच्छी निभ गई

जो जुबां पर उसकी आया, लब पे नक्श उसने किया
लोह की सोहबत कलम के साथ अच्छी निभ गई

बू-ए-गूल क्या रह के करती, गुल ने रहकर क्या किया
वह नसीमे-सुबह-दम के साथ, अच्छी निभ गई

शुक्र-सद-शुक्र अपने मुंह से जो निकाली मैंने बात
ऐ ‘जफर’, उसके करम के साथ, अच्छी निभ गई

शब्दार्थ:
निशातो-ऐश = स्वर्ग सा आराम / खाकसारी = नम्रता / बारे = अन्त में
लोह = तख्ती / नसीमे-सुबह-दम = सुबह की हवा

rajnish manga
01-05-2014, 05:25 PM
ग़ज़ल
बहादुरशाह ज़फ़र / bahadur shah zafar

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी

उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
के तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी

अक्स-ए-रुख़-ए-यार ने किस से है तुझे चमकाया
ताब तुझ में माह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी

क्या सबब तू जो बिगड़ता है "ज़फ़र" से हर बार
ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी

rajnish manga
01-05-2014, 07:48 PM
ग़ज़ल
बहादुरशाह ज़फ़र / BAHADUR SHAH ZAFAR
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले बहार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में

दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
1. रफ़ी साहब के भावपूर्ण स्वर में यह ग़ज़ल आप अवश्य सुनना चाहेंगे. कृपया निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें:-

https://www.youtube.com/watch?v=ha3V_87LvR0 (https://www.youtube.com/watch?v=ha3V_87LvR0)

2. हबीब वाली मोहम्मद साहब ने भी इस ग़ज़ल को बड़े प्यारे अंदाज़ में गाया है. आइये उनकी आवाज़ में इस ग़ज़ल का आनन्द लेते हैं. कृपया नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें:
https://www.youtube.com/watch?v=dX05yZNT2hk (https://www.youtube.com/watch?v=dX05yZNT2hk)

rajnish manga
01-05-2014, 09:46 PM
ग़ज़ल
बहादुरशाह ज़फ़र / BAHADUR SHAH ZAFAR


न किसी कि आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-गुबार हूँ

न तो मैं किसी का हबीब हूँ न तो मैं किसी की रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ

मेरा रंग-रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन खिज़ां में उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

पये फ़तेहा कोइ आए क्यों कोइ चार फूल चढ़ाये क्यों
कोइ आके शम्मा जलाये क्यों मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ

मैं नहीं हूँ नग़मा-ए-जांफ़िशां कोई सुनके मुझको करेगा क्या
मैं बड़े ही दर्द की हूँ सदा किसी दिलजले की पुकार हूँ


फिल्म 'लालकिला' में रफ़ी द्वारा गाई गई यह ग़ज़ल आप नहीं सुनना चाहेंगे? कृपया नीचे दिए गये लिंक को क्लिक करें:

https://www.youtube.com/watch?v=Qg2UbRh_r54

rajnish manga
10-05-2014, 12:01 AM
मीर तकी 'मीर' (MIR TAQI 'MIR')
https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcROjvIEyjGrgQpRHSyAIrZXUQPgYYYwH TAFurawz5v14rCTD6dleg
मिलने का वादा उनके तो मुंह से निकल गया
पूछी जगह जो मैंने .... कहा हँस के ख्व़ाब में

rajnish manga
10-05-2014, 12:11 AM
मीर तक़ी मीर
मोहम्मद तक़ी जिनका तखल्लुस या उपनाम ‘मीर’ था और जो उर्दू शायरी व साहित्य में मीर तक़ी मीर के नाम से जाने जाते हैं, का जन्म आगरे में 1723 ई0 में हुआ. उस समय तक उर्दू शायरी अपनी किशोरावस्था में थी.
पिता की देख-रेख में शिक्षा पाकर मीर ने इश्क के बारीक रहस्यों को समझा और उसके परिष्कृत मूल्यों को अन्तःकीलित किया जो आगे चलकर उनकी गजलों में इस प्रकार मुखर हुआ कि उनकी शायरी की आतंरिक ऊर्जा बन गया. मीर सही अर्थों में उर्दू ग़ज़ल के अद्भुत शिल्पकार हैं. गालिब को भी उनकी कला का लोहा मानना पड़ा. उनके शेरों में ज़िंदगी के खट्टे मीठे अनुभव और दुःख-दर्द की लयात्मकता कुछ यूं रची-बसी मिलती है कि पाठक उसके साथ अंतरंग हुए बिना नहीं रह पाता. मीर के समय तक शायरी की भाषा के लिए 'उर्दू' शब्द प्रयोग में नहीं आया था. यह स्थिति ग़ालिब के समय तक बनी हुई थी. वे अपनी उर्दू गजलों को हिन्दी का नाम देते थे और स्वयम को मीर की भाँति ‘रेखता’(भाषा जो बाद में उर्दू के नाम से प्रचलित हुयी) का उस्ताद समझते थे. 'अवधी' और 'ब्रज' के कवि अपनी भाषा को 'भाखा' कहते थे. हाँ ब्रज और अवधी के मुसलमान कवि इसके लिए 'हिन्दवी' या 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग करते थे. इसीलिए मीर की कविता में हिन्दोस्तानियत का जो सोंधापन है वह अन्य उर्दू कवियों में उतना नहीं झलकता. मीर के छः ‘दीवान’ उपलब्ध है जिनमे उनके शेरों की संख्या 13585 है. 1810 में लखनऊ में उनकी मृत्यु हो गई.

rajnish manga
10-05-2014, 12:20 AM
https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcR-D61tCIzkIszQwFvtyrzHsIx-yvvZSGlCy9g2cpCT_z-LpzPCमीर तकी मीर (रेख्ते- उर्दू का पुराना रूप- के उस्ताद)

ग़ज़ल
मीर तक़ी मीर

इब्तिदाए-इश्क है रोता है क्या
आगे-आगे देखिए होता है क्या

काफ्ले में सुबह के इक शोर है
यानी गाफिल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख्मे-ख्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशाने-इश्क हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या

गैरते-यूसुफ है ये वक्ते-अजीज़
मीर इसको राएगाँ खोता है क्या

rajnish manga
10-05-2014, 12:25 AM
मीर तकी 'मीर'

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcR-D61tCIzkIszQwFvtyrzHsIx-yvvZSGlCy9g2cpCT_z-LpzPC


ग़ज़ल
मीर तक़ी मीर

पत्ता - पत्ता बूटा - बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने, गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

आगे उस मुतकब्बिर के, हम खुदा खुदा क्या करते हैं
कब मौजूद खुदा को, वो मगरूर,खुदारा जाने है


आशिक सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उसके, अपना वारा जाने है


चारा-गरी बीमारिए-दिल की, रस्मे-शहरे-हुस्न नहीं
वरना दिल्बरे-नादाँ भी, इस दर्द का चारा जाने है


मेह्रो-वफाओ-लुत्फो-इनायत, एक से वाकिफ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्जो-कनाया, रम्जो-इशारा जाने है


तश्ने-खूं है अपना कितना, मीर भी नादाँ, तल्खी-कश
दमदार आबे-तेग को उसके, आबे-गवारा जाने है

rajnish manga
10-05-2014, 12:28 AM
ग़ज़ल
मीर तक़ी मीर

उलटी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारि-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अह्दे-जवानी रोरो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये, तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आपकरे हैं, हमको अबस बदनाम किया

सारे रिन्द ओबाश जहाँ के, तुझसे सुजूद में रहते हैं
बांके, तेढ़े, तिरछे, तीखे सब का तुझको इमाम किया

सरज़द हमसे बेअदबी तो, वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उसकी ओर गए पर, सजदा हर-हर गाम किया

किसका काबा, कैसा क़ैबला, कौन हरम है क्या ऎहराम
कूंचे के उसके बाशिन्दों ने, सबको यहीं से सलाम किया

याँ के सुपैदो-सियाह में हमको, दख़्ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया या दिन को जूं-तूं शाम किया

सुबह चमन में उसको कहीं, तकलीफ़े-हवा ले आई थी
रुख़ से गुल को मोल लिया, क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया

साइदे-सीमी दोनो उसके, हाथ में लाकर छोड़ दिये
भूले उसके क़ौलो-क़सम पर, हाय ख़्याले-ख़ाम किया

काम हुए हैं सारे ज़ाया, हर साअत की समाजत से
इस्तिग़्ना की चौगुनी उसने, ज्यूं-ज्यूं मैं इबराम किया

'मीर' के दीनो-मज़हब को अब पूछते क्या हो उसने तो
क़स्क़ा खेंचा दैर में बैठा, कब का तर्क इसलाम


कठिन शब्दों के अर्थ

अहदे-जवानी = जवानी के दिन / पीरी = बुढ़ापा /तोहमत = इल्ज़ाम/ मुख़्तारी = स्वाधीनता / सुजूद = सजदे / इमाम = नमाज़ पढ़ाने वाला / वहशत = पागलपन / गाम = क़दम /सुपेदो-सियाह = सफ़ेद और काले / रुख़ = मुख, चेहरा /क़ामत = क़द /शरीर की लम्बाई / सर्व = एक पौदा/ साइदे-सीमीं = चांदी जैसे बाज़ू / ख़्याले-ख़ाम = भ्रम / क़ौलो-क़सम = वचन / ज़ाया----नष्ट, बरबाद /साअत = पल, लम्हा /समाजत = ख़ुशामद / इस्तिग़ना = लापरवाही / बेनियाज़ी, इबराम = रंजीदा, आग्रह / आहू-ए-रमख़ुर्दा = भागा हुआ हरिण / एजाज़ = चमत्कार /क़श्क़ा = तिलक / दैर = मन्दिर /तर्क = सम्बंध विच्छेद/

rajnish manga
10-05-2014, 11:53 AM
क़तील शिफ़ाई (QATEEL SHIFAI)

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32919&stc=1&d=1399704685

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औरंगज़ेब खान जिन्होंने “कतील शिफ़ाई” तखल्लुस (उपनाम) अपनाया, का जन्म 24 दिसम्बर 1919 हरिपुर (अब पाकिस्तान) में हुआ था. वे उर्दू साहित्य, विशेष रूप से उर्दू शायरी के क्षेत्र में अपने विशिष्ट योगदान के लिये जाने जाते हैं. उन्होंने हकीम मोहम्मद ‘शिफ़ा’ की उस्तादी में शायरी की बारीकियां सीखीं. वे अपने उस्ताद का इतना सम्मान करते थे कि उनके उपनाम ‘शिफ़ा’ को ही अपने उपनाम में शामिल कर लिया.

rajnish manga
10-05-2014, 11:56 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32920&stc=1&d=1399704679

कतील शिफ़ाई

सन 1946 में उन्हें पत्रिका से जुड़े जनाब नज़ीर अहमद ने अदबी माहनामा ‘अदबे-लतीफ़’ में बतौर उपसंपादक काम करने के लिये लाहौर बुलवा लिया. उनकी पहली ग़ज़ल लाहौर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘स्टार’ में छपी थी. इस पत्रिका के संपादक क़मर अजनालवी थे. 1947 में ही क़तील शिफ़ाई साहब के सामने लाहौर के एक फिल्म प्रोड्यूसर ने अपनी फिल्म के लिये गीत लिखने का प्रस्ताव रखा. यह फिल्म थी – तेरी याद. इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. पाकिस्तान और भारत में वे कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित तथा पुरस्कृत हुये जिनमें प्रतिष्ठित अमीर खुसरू एवार्ड शामिल है. उनकी नज्मों, ग़ज़लों और गीतों के करीब 20 मजमुए तथा पाकिस्तानी और भारतीय फिल्मों के लगभग 2500 गीत प्रकाशित हो चुके हैं.

11 जुलाई 2001 को लगभग 80 वर्ष की आयु में इस लोकप्रिय शायर का लाहौर में इंतकाल हो गया.

rajnish manga
10-05-2014, 11:58 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32920&stc=1&d=1399704679

ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई


इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झांकूँ उस के पीछे तो स्र्स्वाई ही स्र्स्वाई है

यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूं
आंखें मेरी अपनी हैं पर उन में नींद पराई है

देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समंदर से तुझ में कितनी गहराई है

आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चंद सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है

तोड़ गए पैमान-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच ‘क़तील’ कि बस इक यार तेरा हरजाई है

rajnish manga
10-05-2014, 12:01 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32920&stc=1&d=1399704679

ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई

परेशां रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारों तुम तो सो जाओ

हंसों और हंसते-हंसते डूबते जाओ ख़लाओं में
हमें ये रात भारी है सितारों तुम तो सो जाओ

तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
ये बाज़ी हम ने हारी है सितारों तुम तो सो जाओ

कहे जाते हो रो-रोके हमारा हाल दुनिया से
ये कैसी राज़दारी है सितारों तुम तो सो जाओ

हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ

हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएंगे
अभी कुछ बेक़रारी है सितारों तुम तो सो जाओ

rajnish manga
10-05-2014, 12:14 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32920&stc=1&d=1399704679

ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला तू डाल के बाहें बाहों में
दिल तोड़ने वाले देख के चल हम भी तो पड़े हैं राहो में

क्या क्या ना जफ़ायें दिल पे सही पर तुम से कोई शिकवा न किया
इस जुर्म को भी शामिल कर लो मेरे मासूम गुनाहों में

जहाँ चांदनी रातों में तुम ने खुद हमसे किया इकरार ए वफ़ा
फिर आज है क्यों हमसे बेगाने तेरी बेरहम निगाहों में

हम भी है वोही, तुम भी वोही ये अपनी अपनी किस्मत है
तुम खेल रहे हो खुशियों से हम डूब गये हैं आहों में

दिल तोड़ने वाले देख के चल हम भी तो पड़े है राहों में

सुप्रसिद्ध गायिका इक़बाल बानों के स्वर में यहाँ ग़ज़ल सुनने के लिये नीचे दिए link पर क्लिक करें:
http://www.dailymotion.com/video/x12nok0_iqbal-bano-live-ulfat-ki-nai-manzil-ko-chala_music

rajnish manga
10-05-2014, 12:23 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32920&stc=1&d=1399704679

ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई

अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
मैं हूं तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझको

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादा दिली मार न डाले मुझको

मैं समंदर भी हूं मोती भी हूं गोतज़ान भी
कोई भी नाम मेरा ले के बुलाले मुझको

तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गवां ले मुझको

कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको

ख़ुद को मैं बांट न डालूं कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको

मैं जो कांटा हूं तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूं अगर फूल तो जूड़े में सजाले मुझको

मैं खुले दर के किसी घर का हूं समां प्यार
तू दबे पांव कभी आके चुराले मुझको

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलाने वालो मुझको

वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं
शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको

rajnish manga
14-06-2014, 12:11 AM
अदम गौंडवी (ADAM GONDAVI)
(मूल नाम: रामनाथ सिंह)

जन्म: 22 अक्तूबर 1947
मृत्यु: 18 दिसम्बर 2011


https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRQoh5VxsSnC3pC2nlNuB5SUd0ccLpKc 9uunbWekkWZgbMJ80O1
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देहाती संस्कारों के देशभक्त कवि-शायर अदम गौंडवी

22 अक्तूबर 1947 को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के आटा ग्राम में स्व. श्रीमती मांडवी सिंह एवं श्री देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में "अदम गोंडवी" के नाम से सुविख्यात हुए। अदम जी कबीर परंपरा के कवि हैं, अंतर यही कि अदम ने कागज़ कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था।

अदम गौंडवी कीकलम आम अवामकीभाषा है, वही उसका कथ्य है और वही उसका कलेवर.कविता कीसजी संवरी बनावटी भाषा के लिए आक्रामक विरोध के तेवर में "जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को, किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये."

दुष्यंत जी ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की है जहाँ से एक एक चीज़ बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके.

rajnish manga
14-06-2014, 12:13 AM
अदम गौंडवी
मुशायरों में, घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफ़ेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान जिसकी और आपका शायद ध्यान ही न गया हो यदि अचानक माइक पे आ जाए और फिर ऐसी रचनाएँ पढे के आपका ध्यान और कहीं जाए ही न तो समझिए वो इंसान और कोई नहीं अदम गोंडवी हैं. उनकी निपट गंवई अंदाज़ में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है.

अदम शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय वे ठेठ गंवई दो टूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते हैं। उनके कथन में प्रत्यक्षा और आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है.

वस्तुतः ये गज़लें अपने ज़माने के लोगों से 'ठोस धरती की सतह पर लौट' आने का आग्रह करती प्रतीत होती हैं. 'धरती की सतह पर' एवं 'समय से मुठभेड़' आदि उनके ग़ज़ल संग्रह की कई रचनाएँ जनता की जुबान पर हैं।

अदम जी की शायरी में आज जनता की झल्लाहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है, ऐसा धार लगा व्यंग है के पाठक का कलेजा चीर कर रख देता है. आप इस किताब का कोई सफा पलटिए और कहीं से भी पढ़ना शुरू कर दीजिए, आपको मेरी बात पर यकीन आ जायेगा.

अदम साहब की शायरी में अवाम बसता है उसके सुख दुःख बसते हैं शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं. उनकी शायरी न तो हमें वाह करने के अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है. सीधे सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है.

'धरती की सतह पर' एवं 'समय से मुठभेड़' आदि उनके ग़ज़ल संग्रह हैं। उन्हें अपने जीवन काल में कई सम्मान प्राप्त हुये. वर्ष ।998 में मध्य प्रदेश सरकार ने भी उन्हें 'दुष्यंत कुमार पुरस्कार प्रदान' किया था।

rajnish manga
14-06-2014, 12:17 AM
अदम गौंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

ग़ज़ल

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में।

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में।

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।

rajnish manga
14-06-2014, 12:19 AM
अदम गौंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

ग़ज़ल

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से

अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से

rajnish manga
14-06-2014, 12:23 AM
अदम गौंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

ग़ज़ल

ज़ुल्फ़-अँगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब

पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुरसत है पढ़े दिल की क़िताब

इस सदी की तिश्नगी का ज़ख़्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब

चार दिन फुटपाथ के साए में रहकर देखिए
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब

ज़ुल्फ़-अँगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब

पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुरसत है पढ़े दिल की क़िताब

इस सदी की तिश्नगी का ज़ख़्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब

चार दिन फुटपाथ के साए में रहकर देखिए
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब

rajnish manga
15-06-2014, 11:44 PM
अदम गोंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

एक नज़्म
(जो कलम की ताकत से पाठक को झकझोरने की क्षमता रखती है)
अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
>>>

rajnish manga
15-06-2014, 11:46 PM
अदम गोंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

>>>एक नज़्म

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
>>>

rajnish manga
15-06-2014, 11:48 PM
अदम गोंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

>>>एक नज़्म
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
>>>

rajnish manga
15-06-2014, 11:51 PM
अदम गोंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

>>>एक नज़्म

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
>>>

rajnish manga
15-06-2014, 11:53 PM
अदम गोंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

>>>एक नज़्म

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
>>>

rajnish manga
15-06-2014, 11:55 PM
अदम गोंडवी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS7E0ebADeq2TxFD0uHb_iR-hQirBydbzOcELadIUHhG6bYbWPw6g

>>>एक नज़्म

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
**

rajnish manga
16-06-2014, 11:08 PM
मौलाना हसरत मोहानी (Maulana Hasrat Mohani)
(वास्तविक नाम: सैयद फजलुल हसन)
जन्म: 1 जनवरी, 1875
मृत्यु: 13 मई, 1951

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTzKLvy7cNK4-RPus1cK5kPPzG4nfMQHqe3V8PU5tIynRxKo1Im ^^https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSc63dzCmqecgXPPBOBMIkhmzKaFCi4f j4Td1RzJQl_AkGaSMvZ
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https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTyvsYK8ZVkgld28ElLVTRHuxVNICYKu CbyeffT6iHGnFD5xrUA
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भारत सरकार द्वारा महान उर्दू शायर तथा स्वतंत्रता सैनानी मौलाना हसरत मोहानी के सम्मान में दिनांक 25 फरवरी 2014 को उपरोक्त डाक टिकट जारी किया गया.

rajnish manga
16-06-2014, 11:52 PM
मौलाना हसरत मोहानी

https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQXZLy__AAljb84Rhoe2WFsLrD8lrzo0 neyca37dTl-lRIyKOId
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1 जनवरी, 1875 के दिन उत्तरप्रदेश के उन्नाव में जन्मे मौलाना हसरत मोहानी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की जंग में शामिल रहे और कई साल जेल में भी रहे. ऑल इंडिया मुस्लिम लीग में रह कर हसरत मोहानी ने सब से पहले आज़ादी-ए-कामिल (पूर्ण स्वराज्य) की मांग की. आज़ादी के दीवानों को “इन्कलाब ज़िन्दाबाद” जैसा क्रांतिकारी नारा हसरत मोहानी की देन है (1921). भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI ) के संस्थापकों में से एक थे. आज़ादी के बाद उस वक़्त के कुछ बड़े शायर, मसलन जोश मलीहाबादी, नासिर काज़मी पाकिस्तान चले गए लेकिन हसरत मोहानी ने भारत में रहना पसंद किया और भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली संविधान सभा के सदस्य भी रहे. हसरत मोहानी की मृत्यु 13 मई, 1951 को, लखनऊ में हुई. उन्हें ‘मोहब्बत का शायर’ कहा जाता है, उन्होंने “चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है” जैसी अमर रचना लिखी है. दिल ही निकाल कर बिछा दिया, उन्होंने अपने वतन से भी बेपनाह मोहब्बत की. वे खुदा के नेक-काबिल बन्दे थे.
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rajnish manga
16-06-2014, 11:59 PM
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https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTtJBzlGBA8qIJK1rzgXfF3DXEWxUylL SA9PTYED1BtqvL66jNh

मौलाना हसरत मोहानी संविधान सभा के सदस्य थे. चित्र में वे सभा के अध्यक्ष बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के साथ विचार विमर्श करते हुये.

rajnish manga
17-06-2014, 12:02 AM
मौलाना हसरत मोहानी
मौलाना बहुत ही मज़हबी आदमी थे, नमाज़ रोजे़ के पाबन्द, कादरिया सिलसिले के मुरीद, लेकिन ये इमान था उनका कि किसी के मज़हब को बुरा कहना और न ये समझना कि वो बुरा हैअपना मजहब अपने साथ उसका मज़हब उसके साथ। सिर्फ यही नहीं बल्कि जितने और रिचुअल थेमसलन हज़ करने वो हर साल जाया करते थे। हर साल हज करके आ रहे हैं तो एक दफ़ा किसी ने मौलाना से पूछा कि मौलाना ये एक दफा हज होता है, दो दफ़ा हज होता है, आप हर साल क्योंजाते हैं ? कहने लगे कि आप समझते नहीं हैं। ये एक इंटरनेश्नल गैदरिंग होती है। जिसमेंतरह तरह के मसायल आते हैं और मैं अपनी बात कहता हूं। मैं अपनी बात समझाने की कोशिश करता हूं लोगों को।

एक खुसूसियतये थी मौलाना की कि वो कृष्णजी को नबी समझते थे और बड़ेमौतकित्त थे- और अपना हज़, कहते थे मेरा हज मुक्कमिल नहीं होता जब तक मैं वापस आकेमथुरा और वृन्दावन में सलाम न कर लूं। तो वहां से आके पहले पहुंचते थे मथुरा, वृन्दावन और वहां सलाम करते थे और फिर बेइन्तहा कतात और वहाईयां कृष्णजी के बारेमें उनकी मौजूद हैं।
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rajnish manga
17-06-2014, 07:45 AM
हसरत मोहानी साहब की एक दिलचस्प बात यह थी कि वो नमाज फौरन दो मिनट में खत्म कर देते थे। लोग कहते कि अभी हमने शुरू भी नहीं किया अभी अलहम पर पहुंचे हैं और तुम... नमाज भी खत्म हो गई तुम्हारी, वो कहते थे कि देखिए आप ख़त लिखते हैं तो बिसमिल्लाह पूरा लिखते हैं ..... क्या करते हैं ? कहने लगे 786 लिखते हैं न आप। क्यों ? इसलिए कि आपने बिसमिल्लह इर्र रहमान रहीम को हुरूफ़ को बदल दिया अपने नम्बर्स में। यानि 786 में कहने का मतलब है कि बिसमिल्लाह इर्र रहमान ऐ रहीम। तो नमाज में जितनी सूरते हैं जितनी आयतें पढ़नी होती हैं सबके नम्बर उसके निकाल लिए हैं इसी हिसाब से और वो नम्बर पढ लेता हूं तो आयत हो जाती है, इस तरह नमाज पूरी होती जाती है मेरी। इस किस्म की चीजें मौलाना में देखने को मिलती थीं।

आइये अब मौलाना के कलाम पर भी एक नज़र डालते हैं.

rajnish manga
17-06-2014, 08:05 AM
ग़ज़ल
शायर: मौलाना हसरत मोहानी
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है,

बाहज़ारां इज़्तिराब-ओ-सदहज़ारां इश्तियाक,
तुझसे वो पहले पहल दिल का लगाना याद है,

तुझसे मिलते ही वो कुछ बेबाक हो जाना मेरा,
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है,

खींच लेना वो मेरा पर्दे का कोना दफ़्फ़ातन,
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छिपाना याद है,

जानकर सोता तुझे वो क़सा-ए-पाबोसी मेरा,
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है,

तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़राह-ए-लिहाज़,
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है,

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना ना था,
सच कहो क्या तुम को भी वो कारखाना याद है,

ग़ैर की नज़रों से बचकर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़,
वो तेरा चोरीछिपे रातों को आना याद है,

आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़,
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है,

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये,
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है,

देखना मुझको जो बर्गश्ता तो सौ सौ नाज़ से,
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है,

चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह,
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है,

बेरुख़ी के साथ सुनाना दर्द-ए-दिल की दास्तां,
और तेरा हाथों में वो कंगन घुमाना याद है,

वक़्त-ए-रुख़सत अलविदा का लफ़्ज़ कहने के लिये,
वो तेरे सूखे लबों का थरथराना याद है,

बावजूद - ए - इद्दा - ए - इत्तका 'हसरत' मुझे,
आज तक अहद-ए-हवस का ये फ़साना याद है
उक्त ग़ज़ल मौलाना की सार्वाधिक लोकप्रिय ग़ज़लों में शुमार की जाती है. उपमहाद्वीप के जाने माने ग़ज़ल गायक गुलाम अली ने भी इस ग़ज़ल को अपनी पुरकशिश आवाज़ में गा कर जन जन तक पहुंचाने का काम किया है. उनके द्वारा गायी गई इस ग़ज़ल (चुने हुए शे'र) को सुनना चाहें तो निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें:

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRofcv9frAdWuUZRktDu-93ERksDZvrOKQxTeV2WzWVsMoyE_63


http://www.youtube.com/watch?v=SZCGW4v-0fE

rajnish manga
17-06-2014, 08:15 AM
https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTyoNpGT2JkPEhoqbAPK73IJsMB6aV0p kE_Jh3LefHDr8SRzZy4FA

ग़ज़ल
शायर: मौलाना हसरत मोहानी
भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही तर्क-ए-उल्फत पर वो क्योंकर याद आते हैं

ना छेड़ ऐ हमनशीं कैफिअत-ए-सहबा के अफ़साने
शराब-ए-बेखुदी के मुझ को सागर याद आते हैं

रहा करते हैं कैद-ए-होश में ऐ वाये नाकामी
वो दश्त-ए-ख़ुद फरामोशी के चक्कर याद आते हैं

नहीं आती तो याद उनकी महीनों भर नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं

हकीकत खुल गयी 'हसरत' तेरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़कर याद आते हैं

rajnish manga
17-06-2014, 08:21 AM
https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTyoNpGT2JkPEhoqbAPK73IJsMB6aV0p kE_Jh3LefHDr8SRzZy4FA

ग़ज़ल और कुछ शे'र
शायर: मौलाना हसरत मोहानी

अब तो उठ सकता नहीं आँखों से बारे-इन्तज़ार
किस तरह काटे कोई लैलो – निहारे - इन्तज़ार

उनकी उलफ़त का यकीं हो उनके आनें की उम्मीद
हों ये दोनों सूरतें, तब है बहारे-इन्तज़ार

मेरी आहें ना-रसा मेरी दुआएँ ना-क़बूल
या इलाही क्या करूँ मैं शर्म-सार-ए-इंतज़ार

उनके ख़त की आरज़ू है, उनकी आमद का ख़्याल
किस क़दर फैला हुआ है, कारोबारे-इंतज़ार

**

वस्ल की बनती है इन बातों से तदबीरें कहीं ?
आरज़ूओं से फिरा करतीं हैं, तक़दीरें कहीं ?

क्यो कहें हम कि ग़मेदर्द से मुश्किल है फ़राग़
जब तेरी याद में हर फ़िक्र से हासिल है फ़राग़

अब सदमये-हिजराँ से भी डरता नहीं कोई
ले पहुँची है याद उनकी बहुत दूर किसी को

शब्दार्थ:
बारे-इंतिज़ार= प्रतीक्षा का बोझ, लैलो-निहारे-इंतिज़ार = प्रतीक्षा के दिन-रात, ना-रसा=पहुँचती नहीं, ग़मेदर्द= दर्द की पीडा़, फ़राग़= छुटकारा,हिजरां= वियोग, वस्ल= मिलन,
**

rajnish manga
17-06-2014, 08:25 AM
https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTyoNpGT2JkPEhoqbAPK73IJsMB6aV0p kE_Jh3LefHDr8SRzZy4FA

ग़ज़ल
शायर: मौलाना हसरत मोहानी

अब तो उठ सकता नहीं आँखों से बारे-इन्तज़ार
किस तरह काटे कोई लैलो – निहारे - इन्तज़ार

उनकी उलफ़त का यकीं हो उनके आनें की उम्मीद
हों ये दोनों सूरतें, तब है बहारे - इन्तज़ार

मेरी आहें ना-रसा मेरी दुआएँ ना - क़बूल
या इलाही क्या करूँ मैं शर्म-सार-ए-इंतज़ार

उनके ख़त की आरज़ू है, उनकी आमद का ख़्याल
किस क़दर फैला हुआ है, कारोबारे - इंतज़ार

**

वस्ल की बनती है इन बातों से तदबीरें कहीं ?
आरज़ूओं से फिरा करतीं हैं, तक़दीरें कहीं ?

क्यो कहें हम कि ग़मेदर्द से मुश्किल है फ़राग़
जब तेरी याद में हर फ़िक्र से हासिल है फ़राग़

अब सदमये-हिजराँ से भी डरता नहीं कोई
ले पहुँची है याद उनकी बहुत दूर किसी को

शब्दार्थ:
बारे-इंतिज़ार= प्रतीक्षा का बोझ, लैलो-निहारे-इंतिज़ार = प्रतीक्षा के दिन-रात, ना-रसा=पहुँचती नहीं, ग़मेदर्द= दर्द की पीडा़, फ़राग़= छुटकारा,हिजरां= वियोग, वस्ल= मिलन,
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rajnish manga
17-06-2014, 01:01 PM
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS0jhPGj767bJOdoxUFcNe0-9GS530niEYarZZWX9rDAeoiPl5N

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTsDlK6XJf5MAuDF9qC3-yrtzEGaPY17u1ZsUR7f369BWYxwAT15Q
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शकेब जलाली / Shakeb Jalali
शकेब जलाली
(वास्तविक नाम: सैयद हसन रिज़वी)
जन्म: 1 अक्टूबर 1934
मृत्यु: 12 नवम्बर 1966

rajnish manga
17-06-2014, 01:11 PM
शकेब जलाली अलीगढ़ के कस्बे जलाली में तारीख 1 अक्टूबर 1934 को पैदा हुये थे। उनका असल नाम था सैयद हसन रिज़वी । शायरी में उनका तखल्लुस रहा ‘शकेब जलाली’ । बदायूँ से मैट्रिक तक की तालीम । बँटवारे का शिकार होकर पाकिस्तान चले गए, जहाँ बी०ए० पास किया । शादी की । जीने के लिये नौकरियाँ की । पैसे की और ज़माने की तमाम दुश्वारियाँ झेलीं। दुश्वारियों ने उँगली पकड़कर दुनिया को एक नए रंग में देखने वाली नज़र दी । शकेब ने इस नज़र को ग़ज़लों की शक्ल दे दी जिससे हर कोई देख सकता है ।

शकेब ने 15 साल की उम्र से ही शेर कहना शुरू कर दिया था । इसकी कोई ख़ास ख़बर नहीं कि वो लिखा हुआ क्या है । अब तो जो दिखाई देता है वो तो न जाने कितने इंसानों की कुल जमा उम्र के बराबर का दिखाई देता है। आज की नस्ल की नई शायरी पर छाया उनका प्रभाव इस बात का एक बड़ा सबूत है ।

rajnish manga
17-06-2014, 11:56 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32969&stc=1&d=1403031626

पहले तो सिर्फ एक मजमूआ ‘रौशनी ऐ रौशनी’ ही मौजूद था पर बाद में लाहौर से ‘कुलियाते शकेब जलाली’ भी आ गया। लीलाधर मंडलोई, जिन्होंने शकेब की ग़ज़लों और नज्मों का एक संग्रह “दरख़्त पानी के” प्रकाशित करवाया, ने बताया कि सरकारी महकमें में रहने के बावजूद शकेब का कलाम उस जमाने के हालात और बदली सत्ता के चरित्र को बेबाकी से उधेड़ता है। हालांकि उस जमाने के तरक्कीपसंद लोगों ने भी शकेब की गज़लों को खास तवज्जो नहीं दी और जीते जी वह गुमनामी में ही रहे। उनकी किताबें मरने के बाद ही शाया हो सकीं। उनकी गजलें उस दौर का पूरा फसाना कहती हैं।

शकेब जलाली नाम है उस शायर का जिस ने धारणाओं को बदला, अपनी पहिचान कायम की और अल्पायु में ही ज़ियादा शोरशराबा किये बिना अपने असली घर लौट गया। 12 नवम्बर 1966 के दिन मात्र 32 वर्ष की उम्र में इस नौजवान, होनहार व प्रतिभासंपन्न शायर ने रेल की पटरी पर जाकर जान दे दी।

rajnish manga
18-06-2014, 12:02 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32969&stc=1&d=1403031626

ग़ज़ल
शकेब जलाली

मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.

कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या सूंघ के भी देख.

हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.

तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख.

इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख

rajnish manga
18-06-2014, 12:07 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32969&stc=1&d=1403031626

ग़ज़ल
शकेब जलाली

जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मेरी तरह से अकेला दिखाई देता है

न इतना तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है

बुरा न मानिये लोगों की ऐब-जूई का
इन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है

ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ- कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है

वो अलविदा का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है

मेरी निगाह से छुप कर कहाँ रहेगा कोई
के अब तो संग भी शीशा दिखाई देता है

सिमट के रह गये आख़िर पहाड़ से क़द भी
ज़मीं से हर कोई ऊँचा दिखाई देता है

ये किस मक़ाम पे लाई है जुस्तजू तेरी
जहाँ से अर्श भी नीचा दिखाई देता है

खिली है दिल में किसी के बदन की धूप "शकेब"
हर एक फूल सुनहरा दिखाई देता है

rajnish manga
18-06-2014, 12:09 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32969&stc=1&d=1403031626

ग़ज़ल
शकेब जलाली

हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर
बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर

आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू से तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चटान पर

पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता
देखो हवा का नक़्श कभी बादबान पर

यारो मैं इस नज़र की बलंदी का क्या करूँ
साया भी अपना देखता हूँ आसमान पर

कितने ही ज़ख़्म मेरे एक ज़ख़्म में छिपे
कितने ही तीर आन लगे इक निशान पर

जल-थल हुई तमाम ज़मीं आसपास की
पानी की बूँद भी न गिरी सायबान पर

मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर

हक़ बात आके रुक-सी गई थी कभी शकेब
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

Dr.Shree Vijay
18-06-2014, 01:11 PM
अदम गौंडवी (ADAM GONDAVI)
(मूल नाम: रामनाथ सिंह)

जन्म: 22 अक्तूबर 1947
मृत्यु: 18 दिसम्बर 2011


https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRQoh5VxsSnC3pC2nlNuB5SUd0ccLpKc 9uunbWekkWZgbMJ80O1
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देहाती संस्कारों के देशभक्त कवि-शायर अदम गौंडवी

22 अक्तूबर 1947 को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के आटा ग्राम में स्व. श्रीमती मांडवी सिंह एवं श्री देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में "अदम गोंडवी" के नाम से सुविख्यात हुए। अदम जी कबीर परंपरा के कवि हैं, अंतर यही कि अदम ने कागज़ कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था।

अदम गौंडवी कीकलम आम अवामकीभाषा है, वही उसका कथ्य है और वही उसका कलेवर.कविता कीसजी संवरी बनावटी भाषा के लिए आक्रामक विरोध के तेवर में "जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को, किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये."

दुष्यंत जी ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की है जहाँ से एक एक चीज़ बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके.

मौलाना हसरत मोहानी (Maulana Hasrat Mohani)
(वास्तविक नाम: सैयद फजलुल हसन)
जन्म: 1 जनवरी, 1875
मृत्यु: 13 मई, 1951

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTzKLvy7cNK4-RPus1cK5kPPzG4nfMQHqe3V8PU5tIynRxKo1Im
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https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTyvsYK8ZVkgld28ElLVTRHuxVNICYKu CbyeffT6iHGnFD5xrUA
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भारत सरकार द्वारा महान उर्दू शायर तथा स्वतंत्रता सैनानी मौलाना हसरत मोहानी के सम्मान में दिनांक 25 फरवरी 2014 को उपरोक्त डाक टिकट जारी किया गया.

https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS0jhPGj767bJOdoxUFcNe0-9GS530niEYarZZWX9rDAeoiPl5N

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTsDlK6XJf5MAuDF9qC3-yrtzEGaPY17u1ZsUR7f369BWYxwAT15Q
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शकेब जलाली / Shakeb Jalali
शकेब जलाली
(वास्तविक नाम: सैयद हसन रिज़वी)
जन्म: 1 अक्टूबर 1934
मृत्यु: 12 नवम्बर 1966

इन महान शख्शियातो से रूबरू कराने के लिए आपका हार्दिक आभार

:hello::hello::hello:

rajnish manga
20-06-2014, 05:29 PM
उपरोक्त साहित्यकारों पर प्रस्तुत आलेख तथा उनका कलाम पसंद करने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद, डॉ. साहब.

rajnish manga
20-06-2014, 11:18 PM
सैयद अब्दुल हमीद ‘अदम’
जन्म: 10 अप्रेल 1910
मृत्यु: 10 मार्च 1981
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https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRhet6fT_EcajDuvxKkqLwMUHGu7BZf8 E-IOqMtHfGM5psZqCoe

परिचय: इनका जन्म 1910 में लायलपुर – जो बाद में फेसलाबाद के नाम से जाना गया - (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी की और पाकिस्तान सरकार के ऑडिट एण्ड अकाउंट्स विभाग में ऊँचे ओहदे पर रहे। वे अपनी नौकरी के दौरान पाकिस्तान में कई स्थानों तथा विदेशों में भी कार्यरत रहे.

rajnish manga
20-06-2014, 11:53 PM
https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQKqkKhXjk0hIHJwhJZWHn9iPxVTsjJF aanAFyh_BPonyh9zpZCvw
सैयद अब्दुल हमीद ‘अदम’

अदम ने अपनी किशोरावस्था में ही शायरी करना शुरू कर दिया था. उनकी ग़ज़लें भाषा तथा शैली की दृष्टि से उर्दू की श्रेष्ठ ग़ज़लें हैं और तीव्र भावनाओं की दृष्टि से बेमिसाल भी। अदम की अपनी शैली है, अपना रंग है, अपना तेवर है। अपनी ग़ज़लों में अपनी बात बड़ी शिद्दत से कहते हैं। युवा वर्ग तो उनकी शायरी का दीवाना रहा है । वह एक सरल, स्पष्टवादी और ईमानदार व्यक्ति थे. उनकी ग़ज़लों की भाषा में अरबी फ़ारसी के बोलचाल के शब्द भी ऐसे घुलमिल जाते थे जैसे वे सदा से उर्दू का भाग हों. भाषा का यह स्वरूप उनकी शायरी को लयात्मक व संगीतमय रूप प्रदान करता था ।

अदम का जीवन-दर्शन उनकी शायरी में कदम कदम पर दिखाई देता है. वे बड़े शांत स्वभाव के थे व अपने जीवन से संतुष्ट थे और दूसरों दूसरों की भावनाओं की कद्र करते थे. आम व्यक्ति की तकलीफों व दुखों एवम् समाज के दोहरे मानदंडों से उपजी समस्याओं को बड़ी बेबाकी से अभिव्यक्त करते थे ।

उनकी पुस्तकों में प्रमुख हैं: नक्श-ए-दवां (1934), सर्वो-समां, गर्दिश-ए-जाम, शहर-ए-खूबां, गुलनार, आब-ए-रवां, जिंस-ए-गिरां, निगार खाना, साज़-ओ-सदफ़, दास्तान-ए-हीर, झूठ सच (1972) आदि आदि.

rajnish manga
20-06-2014, 11:59 PM
ग़ज़ल
सैयद अब्दुल हमीद 'अदम'

फूलों की आरजू में बड़े ज़ख्म खाए हैं
लेकिन चमन के ख़ार भी अब तक पराए हैं

उस पर हराम है ग़म-ए-दौरां की तल्ख़ियाँ
जिसके नसीब में तेरी ज़ुल्फों के साये हैं

महशर में ले गई थी तबीयत की सादगी
लेकिन बड़े ख़ुलूस से हम लौट आए हैं

आया हूँ याद बाद-ए-फ़ना उनको भी ‘अदम‘
क्या जल्द मेरे सीख पे इमान लाए हैं

शब्दार्थ:
महशर = निर्णय का दिन, जहाँ पर उत्पात हो रहा हो
ख़ुलूस = अपनापन / बाद-ए-फ़ना = मृत्यु के बाद

rajnish manga
21-06-2014, 12:11 AM
ग़ज़ल
सैयद अब्दुल हमीद ‘अदम’





जो लोग जानबूझ के नादान बन गए
मेरा ख्याल है की वो इंसान बन गए

हँसते है हमको देख के अरबाबे-आगही
हम आपके मिजाज की पहचान बन गए

मझधार तक पहुचना तो हिम्मत की बात थी
साहिल के आसपास ही तूफान बन गए

इंसानियत की बात तो इतनी है शैख़ जी
बदकिस्मती से आप भी इंसान बन गए

कांटे बहुत थे दामने-फितरत में ए अदम
कुछ फुल और कुछ मेरे अरमान बन गए

शब्दार्थ:

अरबाबे-आगही = बुद्धिजीवी, जानकार

rajnish manga
21-06-2014, 12:21 AM
https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQKqkKhXjk0hIHJwhJZWHn9iPxVTsjJF aanAFyh_BPonyh9zpZCvw

ग़ज़ल
अब्दुल हमीद ‘अदम’

लहरा के झूम झूम के ला, मुस्कुरा के ला
फूलों के रस में चांद की किरने मिला के ला

कहते हैं उम्रे रफ्ता कभी लौटती नहीं
जा मैकदे से मेरी जवानी उठा के ला

महसूस हो रहा है ........सितारे अलील हैं
उन को भी एक घूँट कहीं से पिला के ला

साग़र शिकन है शेक बला नोश की नज़र
शीशे को ज़ेर-ए- दामने- रंगीं छुपा के ला

क्योँ जा रही है रूठ के रंगीनी-ए-बहार
जा एक मर्तबा उसे फिर बर्गला के ला

देखी नहीं है तूने कभी ज़िंदगी की लहर
अच्छा तो जा अदम की सुराही उठा के ला

इस ग़ज़ल को भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से नामचीन गायक गायिकाओं ने गाया है. नीचे दिए गये लिंक को क्लिक करके आप प्रसिद्ध पाकिस्तानी गायिका ताहिरा सैयद (मलका पुखराज की सुपुत्री) की आवाज़ में यह ग़ज़ल सुन सकते हैं:

http://www.youtube.com/watch?v=0O3Pxxv5eV8 (http://www.youtube.com/watch?v=0O3Pxxv5eV8)

गायिका: ताहिरा सैयद का स्वर

rajnish manga
21-06-2014, 12:27 AM
चंद क़त’आत
अब्दुल हमीद ‘अदम’

ग़मज़दों पर इस तरह होता है माजी का असर,
शादमानी में भी अक्सर मुस्कुरा सकते नहीं,
जिस तरह दो तालिबो-मतलूब नाराज़ी के बाद,
मुद्दतों इक दूसरे के दिल से जा सकते नहीं.

दिल का तेरे फिराक़ की तल्खी में है ये हाल
कांटे चुभे हों जैसे ....... मुसाफिर के पाँव में
आती है ऐसे बिछड़े हुये ..... दोस्तों की याद
जैसे चराग़ जलते हों ....... रातों को गाँव में

हर मुसाफिर को बाखबर कर दो
ये मेरे तजरुबे का जौहर है
रहबरों की फ़रेबकारी से
रह्ज़नों का खुलूस बेहतर है

(जौहर = निचोड़ / फ़रेबकारी = चालें / खुलूस = व्यवहार)

मेरे रज्ज़ाक ! तेरी रहमत भी
इस कदर तंग- दस्त हो जाये
जो तेरे लुत्फ़ पर नज़र रखे
वही फ़ाका – परस्त हो जाये
(रज्ज़ाक = खुदा, भोजन देने वाला / रहमत = दया / तंग- दस्त = संकीर्ण / फ़ाका – परस्त = निर्धन)

सैलाब के सैलाब गुज़र जाते हैं
गर्दाब के गर्दाब गुज़र जाते हैं
आलामो-हवादिस से परेशां क्यों है
यह ख्व़ाब है ख्वाब गुज़र जाते हैं

(सैलाब = बाढ़ / गर्दाब = भंवर / आलामो-हवादिस = कष्ट और विपत्तियाँ)

सर्दो-गमगीं सकूत के मसकन
कहकहों के शराबखाने थे
आज कब्रें हैं जिस जगह साक़ी
कल फ़लकबोस आशियाने थे

(सकूत के मसकन = सुख चैन के निवास / फ़लकबोस आशियाने = गगनचुम्बी अट्टालिकाएं)

ऐ खुदा ! तुझको पूजने वाले
तंग करते हैं तेरे बन्दों को
बाग़े-जन्नत के सब्ज़ पेड़ों से
बाँध अपने नियाज़मंदों को

(नियाज़मंदों = श्रद्धालुओं)

rajnish manga
22-06-2014, 11:22 PM
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ग़ज़ल
अब्दुल हमीद ‘अदम’

बस इस क़दर है खुलासा मिरी कहानी का
कि बन के टूट गया इक हबाब पानी का

मिला है साक़ी तो रौशन हुआ है ये मुझ पर
कि हज्फ़ था कोई टुकड़ा मेरी कहानी का

मुझे भी चेहरे पे रौनक़ दिखाई देती है
ये मोजज़ा है तबीबों की खुश-बयानी का

है दिल में एक ही ख्वाहिश वो डूब जाने की
कोई शबाब कोई हुस्न है रवानी का

लिबास-ए-हश्र में कुछ हो तो और क्या होगा
बुझा सा एक छनाका ...... तिरी जवानी का

करम के रंग निहायत अजीब होते हैं
सितम भी एक तरीका है मेहरबानी का

‘अदम’ बहार के मौसम ने ख़ुदकुशी कर ली
खुला जो रंग किसी जिस्म-ए-अर्गवानी का

शब्दार्थ:
हबाब = बुलबुला /हज्फ़ = छुटा हुआ / मोजज़ा = चमत्कार / तबीबों = चिकित्सकों / लिबासे-हश्र = क़यामत के दिन वाला लिबास / छनाका = आवाज़ / जिस्मे-अर्गवानी = श्यामल बदन

rajnish manga
24-06-2014, 10:18 PM
बेकल उत्साही
वास्तविक नाम: मुहम्मद शफी खान
(आलेख: डॉ मुहम्मद अहमद)
जन्म: 1 जून 1924

http://www.vaniprakashan.in/authors/bekal%20Utsahi.jpg

सन 1924 में बलरामपुर के रमवापुर [उतरौला] में एक ज़मीदार परिवार में मुहम्मद शफी खां के रूप में जन्मे बेकल उत्साही को बचपन से ही फकीराना तबीयत मिली थी.

सुनहरी सरज़मीं मेरी ........ रुपहला आसमाँ मेरा
मगर अब तक नहीं समझा, ठिकाना है कहाँ मेरा
किसी बस्ती को जब जलते हुए देखा तो ये सोचा
मैं ख़ुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआँ मेरा |

rajnish manga
24-06-2014, 10:23 PM
बेकल उत्साही

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उपरोक्त भावपूर्ण शब्द हैं पद्मश्री बेकल उत्साही के, जिनके कलाम का कोई जवाब नहीं. मैं यह बात इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि बेकल साहब मेरे शहर के हैं और न इसलिए कि मेरा उनसे बड़ा ही आत्मवत संबंध है, अपितु वह हैं ही ऐसे! एक महान कवि और शायर .... आप वर्तमान समय के सबसे वरिष्ठ और लोकप्रिय कवियों में एक हैं. खड़ी बोली हिंदी के साथ ही सोंधी मिट्टी की भाषा अवधी और उर्दू तीनों भाषाओँ में उनकी निपुणता है. इन सभी उनकी काव्यधारा का सम - प्रवाह है, लेकिन अवधी के प्रति उनका बेइंतिहा लगाव है. अवधी के विकास और प्रचार प्रसार के लिए वे सदैव तत्पर और कटिबद्ध रहे हैं. मगर इस सच्चाई के बावजूद वे अपने को तुलसी और कबीर के बीच पाते हैं. एक शेअर देखिए –

छिड़ेगी दैरो हरम में ये बहस मेरे बाद,
कहेंगे लोग कि बेकल कबीर जैसा था.

मन तुलसी का दास हो अवधपुरी हो धाम,
साँस उसके सीता बसे, रोम - रोम में राम.

मैं ख़ुसरो का वंश हूँ, हूँ अवधी का संत,
हिंदी मिरी बहार है , उर्दू मिरी बसन्त.

rajnish manga
24-06-2014, 10:26 PM
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काव्य की शायद कोई ऐसी विधा नहीं , जिसमें बेकल साहब ने कलम न चलाई हो , और वह भी पूरे मनोयोग से . यद्यपि बलरामपुर ने कई रचनाकार दिए हैं , किन्तु आपका कोई सानी नहीं .... उनकी विविध विधाओं की रचनाएं सब पर भारी हैं.

ज़मीदारी और संपन्नता का कभी कोई प्रदर्शन नहीं, बल्कि इससे बचने के लिए आपने अपनी बहुत - सी चल - अचल संपत्तियों को जरुरतमंदों के बीच बाँट दिया था. उन्होंने यह काम युवावस्था के पूर्व ही कर लिया था, ताकि काव्य सृजन में कोई बाधा न आए. वे ज़मींदारी को शोषण का ही एक रूप मानते थे.

अरबी, फारसी, उर्दू और हिन्दी के गहन अध्येता बेकल उत्साही ने अपनी कविता की शुरूआत अवधी से की और आज 91 साल की उम्र में भी उनका लेखन अनवरत जारी है. 1952 से मंचों पर आपकी उपस्थिति अब तक बरक़रार है. हाँ, अब उम्र के लिहाज़ से बारम्बारता में अवश्य कमी आई है


“छिड़ेगी दैरो हरम में ये बहस मेरे बाद, कहेंगे लोग कि बेकल कबीर जैसा था”. पद्मश्री बेकल उत्साही, जिन्हें उत्साही नाम पं. नेहरु ने दिया था, वर्तमान समय के सबसे वरिष्ठ और लोकप्रिय कवियों में एक हैं. खड़ी बोली, अवधी और उर्दू तीनों ज़ुबानें उनकी कविता से एक समान समृद्ध होती रहीं हैं.

rajnish manga
24-06-2014, 10:28 PM
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बेकल उत्साही एक ऐसे शख्स, ऐसे शायर, ऐसे गीतकार का नाम है जो हर दिल अज़ीज़ हैं जिन्हें काव्यमंचों पर बड़े शौक से सुना जाता है। मुशायरों, कवि सम्मेलनों के माध्यम से वे लगभग दुनिया भर में अपना क़लाम अपना काव्य पेश कर चुके हैं।

बेकल उत्साही उर्दू शायरी के बेहद मक़बूल शायर हैं। हिन्दुस्तानी तहजीब में रची-बसी और ख़ासकर गाँव खुशबू में ढली उनकी शायरी अपनी जुबान की सादगी के लिए भी आम हिन्दुस्तानी कारी और सामे (पढने सुनने वाले) को मशहूर कर देती है।

पद्मश्री बेकल उत्साही ने अपने दोहों में कहा-

धर्म मेरा इस्लाम है भारत जन्म स्थान,
वजू करूं अजमेर में, काशी में स्नान।

गोरी पनघट से चली, भरे गगरिया नीर,
ग़ज़ल, भजन सब त्याग दें, गालिब और कबीर।

फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
गरीब शर्मो हया में हसीन कुछ तो है.

लिबास कीमती रख कर भी शहर नंगा है
हमारे गाँव में मोटा महीन कुछ तो है.

rajnish manga
24-06-2014, 10:32 PM
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ग़ज़ल
बेकल उत्साही

उदास काग़ज़ी मौसम में रंग-ओ-बू रख दे
हर एक फूल के लब पे मेरा लहू रख दे

ज़बान-ए-गुल से चट्टानें तराशने वाले
सुकूत-ए-नक़्श में आराइश-ए-नमू रख दे

गिराँ लगे है जो एहसान दस्त-ए-क़ातिल का
उठ और तेग़ के लब पे रग-ए-गुलू रख दे

चला है जानिब-ए-मैख़ाना आज फिर वाइज़
कहीं न जाम पे लब अपने बेवज़ू रख दे

ख़ुदा करे मेरा मुन्सिफ़ सज़ा सुनाने में
मेरा ही सर मेरे क़ातिल के रू-ब-रू रख दे

समन्दरों ने बुलाया है तुझ को ऐ एकल
तू अपनी प्यास की सहरा में आबरू रख दे

rajnish manga
24-06-2014, 10:34 PM
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ग़ज़ल
बेकल उत्साही
भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे, मौला ख़ैर करे
इक सूरत की चाह में फिर काबे को दैर करे, मौला ख़ैर करे

इश्क़विश्क़ ये चाहतवाहत मनका बहलावा फिर मनभी अपना क्या
यार ये कैसा रिश्ता जो अपनों को ग़ैर करे, मौला ख़ैर करे

रेत का तोदा आंधी की फ़ौजों पर तीर चलाए, टहनी पेड़ चबाए
छोटी मछली दरिया में घड़ियाल से बैर करे, मौला ख़ैर करे

सूरज काफ़िर हर मूरत पर जान छिड़कता है, बिन पांव थकता है
मन का मुसलमाँ अब काबे की जानिब पैर करे, मौला खैर करे

फ़िक्र की चाक पे माटी की तू शक्ल बदलता है, या ख़ुद ही ढलता है
'बेकल' बे पर लफ़्ज़ों को तख़यील का तैर करे, मौला ख़ैर करे

rajnish manga
24-06-2014, 10:36 PM
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ग़ज़ल
बेकल उत्साही

ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है

पहुँच जाती हैं दुश्मन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है

अजब है आजकल की दोस्ती भी, दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है

तेरी वादी से हर इक साल बर्फ़ीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है

किसी कुटिया को जब "बेकल"महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है

rajnish manga
24-06-2014, 10:38 PM
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नज़्म
बेकल उत्साही

इक दिन ऐसा भी आएगा होंठ-होंठ पैमाने होंगे
मंदिर-मस्जिद कुछ नहीं होंगे घर-घर में मयख़ाने होंगे

जीवन के इतिहास में ऐसी एक किताब लिखी जाएगी
जिसमें हक़ीक़त औरत होगी मर्द सभी अफ़्साने होंगे

राजनीति व्यवसाय बनेगी संविधान एक नाविल होगा
चोर उचक्के सब कुर्सी पर बैठ के मूँछें ताने होंगे

एक ही मुंसिफ़ इंटरनैट पर दुनिया भर का न्याय करेगा
बहस मोबाइल ख़ुद कर लेगा अधिवक्ता बेग़ाने होंगे

ऐसी दवाएँ चल जाएँगी भूख प्यास सब ग़ायब होगी
नये-नवेले बूढे़ होंगे,बच्चे सभी पुराने होंगे

लोकतंन्त्र का तंत्र न पूछो प्रतियाशी कम्प्यूटर होंगे
और हुकूमत की कुर्सी पर क़ाबिज़ चंद घराने होंगे

गाँव-खेत में शहर दुकाँ में सभी मशीनें नौकर होंगी
बिन मुर्ग़ी के अन्डे होंगे बिन फ़सलों के दाने होंगे

छोटॆ-छोटॆ से कमरों में मानव सभी सिमट जाएँगे
दीवारें ख़ुद फ़िल्में होंगी,दरवाज़े ख़ुद गाने होंगे

आँख झपकते ही हर इंसा नील-गगन से लौट आएगा
इक-इक पल में सदियाँ होंगी,दिन में कई ज़माने होंगे

अफ़्सर सब मनमौजी होंगे, दफ़्तर में सन्नाटा होगा
जाली डिग्री सब कुछ होगी कालेज महज़ बहाने होंगे

बिन पैसे के कुछ नहीं होगा नीचे से ऊपर तक यारो
डालर ही क़िस्मत लिक्खेंगे रिश्वत के नज़राने होंगे

मैच किर्किट का जब भी होगा काम-काज सब ठप्प रहेंगे
शेयर में घरबार बिकेंगे मलिकुल-मौत सरहाने होंगे

होटल-होटल जुआ चलेगा अबलाओं के चीर खिचेंगे
फ़ोम-वोम के सिक्के होंगे डिबियों बीच ख़ज़ाने होंगे

शायर अपनी नज़्में लेकर मंचों पर आकर धमकेंगे
सुनने वाले मदऊ होंगे और संचालक बेमाने होंगे

बेकल इसको लिख लेना नर-नारी में फ़र्क न होगा
रिश्ता-विश्ता कुछ नहीं होगा संबंधी अंजाने होंगे

rajnish manga
27-06-2014, 10:52 PM
Dr. Rahi Masoom Raza
डॉ. राही मासूम रज़ा
जन्म: 1 सितंबर 1927
निधन: 15 मार्च 1992

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https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcR8tW2VU0xAq-94NFblgY-nFaYko-qCNxsCmPJbloLGPRyX4KHc4g
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राही मासूम रज़ा का जन्म गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था. बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एवं प्रसिद्ध साहित्यकार थे। राही का जन्म एक सम्पन्न एवं सुशिक्षित शिया परिवार में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएच.डी. की। पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।

rajnish manga
27-06-2014, 11:06 PM
डॉ. राही मासूम रज़ा

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डॉ. राही मासूम रज़ा किशोर अवस्था में तथा वरिष्ठ लेखक के रूप में

1968 से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। यहीं रहते हुए राही ने आधा गांव, दिल एक सादा कागज, हिम्मत जौनपुरी, अजनबी शहर:अजनबी रास्ते, मैं एक फेरी वाला, ग़रीबे शहर उपन्यास व 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी’ लिखी। उनकी ये सभी कृतियाँ हिंदी में थीं। इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य 1857 जो बाद में हिन्दी में ‘क्रांति कथा’ नाम से प्रकाशित हुआ तथा छोटी-बड़ी उर्दू नज़्में व गजलें लिखे चुके थे। नीम का पेड़, कटरा बी आर्ज़ू, टोपी शुक्ला, ओस की बूंद और सीन 75 उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

rajnish manga
27-06-2014, 11:46 PM
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQsC6ygKgTIZNhaIqodEKJLUgGKvSefC 4cSLyjb-jjjtISWUwqt^^https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTl8XmGsLXulo_4HpUQnUN1tSNrLN59Z Jo3T_IA1uEykRVTLRUAdA
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https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTObNyikvSdulr_yHzrb6254T8OfQIT7 IUl6BJvoalJUOby2Ldj

Few scenes from 'mahabharat' serial

राही जी ऐसे हिंदुस्तान का सपना देखा करते थे, जिसकी सियासत में मजहब की कोई जगह न हो और जहां हिंदोस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब (संस्कृति) सबसे ऊपर हो. इस `हिंदोस्तानियत' को नुकसान पहुंचानेवाली वह हर उस शक्ति के खिलाफ थे, चाहे वह मुसलिम सांप्रदायिकता की शक्ल में हो या हिंदू सांप्रदायिकता की शक्ल में. इसीलिए वह अपने जीवन भर इन शक्तियों की आंख की किरकिरी बने रहे. राही मासूम रज़ा एक ऐसे उपन्यासकार थे जिनकी किताबों से गुज़रकर हिंदुस्तानियत को और करीब से पढ़ा, समझा और महसूस किया जा सकता है।

किसी समय के सर्वाधिक लोकप्रिय महाभारत टी वी सीरियल में उन्होंने संवाद एवं पटकथा लेखन का काम किया। उनके द्वारा इस धारावाहिक में प्रयुक्त पिताश्री, माताश्री आदि संबोधन लीगों की जुबान पर आज भी चढ़े हुए हैं। उनके उपन्यास ‘नीम का पेड़’ के टी वी रूपान्तर को दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था, इस धारावाहिक को भी अपार लोकप्रियता मिली थी।

rajnish manga
27-06-2014, 11:51 PM
http://rekhta.org/Uploads/GeneratedImages/Poets/Thumbnails/round/786860fd-1796-4adc-9596-bbde2e452a8b.png

राही मासूम रज़ा

ग़ज़ल
राही मासूम रज़ा

सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन
इश्क तराजू तो है, लेकिन, इस पे दिलों को तौले कौन

सारा नगर तो ख्वाबों की मैयत लेकर श्मशान गया
दिल की दुकानें बंद पड़ी है, पर ये दुकानें खोले कौन

काली रात के मुँह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून
सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन

हमने दिल का सागर मथ कर काढ़ा तो कुछ अमृत
लेकिन आयी, जहर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन

लोग अपनों के खूँ में नहा कर गीता और कुरान पढ़ें
प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन।

rajnish manga
28-06-2014, 12:11 AM
ग़ज़ल
राही मासूम रज़ा
अजनबी शहर के अजनबी रास्ते, मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे

ज़हर मिलता रहा ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे
ज़िंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते रहे

ज़ख़्म जब भी कोई ज़ेह्न-ओ-दिल पे लगा, ज़िंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला
हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं, चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे

कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया
इतनी यादों के भटके हुए कारवाँ, दिल के ज़ख़्मों के दर खटखटाते रहे

सख़्त हालात के तेज़ तूफानों में, घिर गया था हमारा जुनूने-वफ़ा
हम चिराग़े - तमन्ना जलाते रहे, वो चिराग़े - तमन्ना बुझाते रहे


इस ग़ज़ल को सलमान अल्वी की मधुर आवाज़ में सुनने के लिये कृपया नीचे दिए you tube लिंक पर क्लिक करें:
https://www.youtube.com/watch?v=sPhZelD5tIc

rajnish manga
29-06-2014, 08:33 PM
नज़्म (एक अंश)
ये मेरा लावारिस दिल है
राही मासूम रज़ा

ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े
ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते
एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल
जगह-जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और ख़ून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।

rajnish manga
29-06-2014, 08:40 PM
मैं एक फ़ेरीवाला से
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
राही मासूम रज़ा

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो ।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढ़ा, गर्म लहू बन बन के दौड़ रही है।

rajnish manga
02-07-2014, 09:59 AM
‘मख़मूर’ जालंधरी / MAKHMOOR JALANDHARI
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32989&stc=1&d=1404279219
‘मख़मूर’ जालंधरी
वास्तविक नाम: गुरबक्श सिंह
जन्म: 1915
मृत्यु: 1 जनवरी 1979

‘मखमूर’ जालंधरी साहब का जन्म सन 1915 में पंजाब राज्य के जालंधर शहर के लालकुर्ती इलाके में हुआ था. उनके पिता का नाम केसर सिंह था. बचपन से ही उनको साहित्य से लगाव रहा. उन्होंने पढ़ाई के साथ साथ शायरी करना भी शुरू कर दिया था. 1938 में उनकी शादी दमयंती देवी से हुई. पढ़ाई समाप्त करने के बाद रोजगार की तलाश करने के दौरान उन्होंने आल इंडिया रेडियो जालंधर के लिये ड्रामे लिखने शुरू कर दिये. यह सिलसिला कई बरस तक चलता रहा. उनके लिखे ड्रामे श्रोताओं में खासे मकबूल होते थे. उन्होंने रेडियो के लिये लगभग 250 ड्रामा लिखे. उन्हीं दिनों वह प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़ गये.

rajnish manga
02-07-2014, 10:44 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32990&stc=1&d=1404279839

उस समय के राजनैतिक माहौल तथा परिवार की बढ़ती जिम्मेदारियों व आर्थिक दुश्वारियों के मद्देनज़र वह अपने स्वजन-मित्रों की सलाह पर सन 1958 में सदा के लिये जालंधर छोड़ कर दिल्ली आ गये और वहीँ बस गये. यहाँ पर फ़िक्र तौंसवी, प्रकाश पंडित और बलराज कोमल जैसे उर्दू – हिंदी साहित्यकारों से प्रोत्साहन पाकर उर्दू अदब के क्षेत्र में अपनी खिदमात फिर से देने लगे. कुछ वक़्त तक उन्होंने उस वक़्त के लोकप्रिय रोज़ाना उर्दू अखबार ‘मिलाप’ में काम किया (फ़िक्र तौंसवी साहब उन दिनों अखबार में एक कॉलम लिखा करते थे ‘प्याज़ के छिलके’ जो बेहद मक़बूल था). बाद में कुछ समय तक मखमूर साहब ने रूसी साहित्य के अनुवाद का कार्य भी हाथ में लिया. दिल्ली में ही वह ‘मीराजी’ और क़य्यूम ‘नज़र’ आदि साथियों के साथ ‘हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक’ नामक साहित्यिक संस्था से भी जुड़े रहे.

rajnish manga
02-07-2014, 10:50 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32989&stc=1&d=1404279219

जो काम वह करते थे, उससे इतनी आमदनी नहीं होती थी कि घर का खर्च और बढ़ती उम्र के बच्चों की शिक्षा का खर्च वहन कर पाते. कई अन्य समकालीनों की तरह उन्हें भी सिगरेट तथा शराब का शुगल रहा. इन परिस्थितियों में उन्होंने लोक रूचि को ध्यान में रखते हुये जासूसी और सामाजिक-रोमांटिक उपन्यास लिखने शुरू कर दिये. यह रचनायें हिंदी में छपती थीं तथा बहुत पसंद की जाती थीं. पाठकों में इनकी मांग बनी रहती थी. लेकिन यह भी सच है कि यह सभी पुस्तकें उनके वास्तविक नाम या तखल्लुस (उपनाम) से नहीं छपती थीं बल्कि छ्द्म नामों से छपती थीं. यह व्यस्तता लगभग 15-16 वर्ष तक चलती रही. इस बीच वह लिवर की खराबी का शिकार हुये और अन्ततः 1979 में उनकी मृत्यु के साथ ही यह सिलसिला समाप्त हुआ. इस प्रकार के लेखन से उन्हें नाम तो न मिल सका मगर दाम (यानी पारिश्रमिक) ज़रूर मिलता रहा.

rajnish manga
02-07-2014, 10:55 AM
सन 2004 में फ़िरोज़ बख्त अहमद को दिये एक इंटरव्यू में प्रख्यात पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ ने बताया था कि आज के भारतीय शायरों में कोई उन्हें प्रभावित नहीं करता. हाँ, “पुराने शायरों में साहिर लुधियानवी अपनी साफ़गोई और दिल को छू लेने वाली शायरी के कारण मेरे हीरो हैं. इसके अलावा फ़िराक़, कुँवर महेंदर सिंह बेदी, अली सरदार जाफ़री, नून मीम राशिद व मख़मूर जालंधरी को भी पसंद करता हूँ.” इस बात से उस शायरे अज़ीम अर्थात ‘मख़मूर’ साहब के कलाम की श्रेष्ठता व ऊंचाई का पता चलता है.

मख़मूर साहब की प्रकाशित पुस्तकों में ‘मुख़्तसर नज्में’ ‘जल्वागाह’ ‘तलातुम’ और ‘फुलझड़ियां’ प्रमुख हैं. उर्दू अकादमी, दिल्ली से भी एक पुस्तक ‘मख़मूर जालंधरी की मुंतखब नज्में’ नाम से प्रकाशित हुई. जनाब बलराज ‘कोमल’ इसके एडिटर थे.

rajnish manga
02-07-2014, 10:59 AM
ग़ज़ल
‘मख़मूर’ जालंधरी

पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा भी न हो सके
हम क़ैद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म से रिहा भी न हो सके

दार-ओ-मदार-ए-इश्क़ वफ़ा पर है हम-नशीं
वो क्या करे कि जिससे वफ़ा भी न हो सके

गो उम्र भर भी मिल न सके आपस में एक बार
हम एक दूसरे से जुदा भी न हो सके

जब जुज़्ब की सिफ़ात में कुल की सिफ़ात है
फिर वो बशर भी क्या जो खुदा भी न हो सके

ये फैज़-ए-इश्क़ था कि हुई हर खता मुआफ़
वो खुश न हो सके तो खफ़ा भी न हो सके

वो आस्तान-ए-दोस्त पे क्या सर झुकाएगा
जिस से बुलंद दस्त-ए-दुआ भी न हो सके

ये एहतिराम था निगह-ए-शौक़ का जो तुम
बेपर्दा हो सके जल्वा-नुमां भी न हो सके

‘मख़मूर’ कुछ तो पूछिए मजबूरी-ए-हयात
अच्छी तरह खराब-ए-फ़ना भी न हो सके

शब्दार्थ:
पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा = अच्छाई करने में सावधानी व प्रतिबद्धता / क़ैद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म= दुःख को छुपाने का बंधन / दार-ओ-मदार-ए-इश्क़ = प्यार की निर्भरता / वफ़ा = अच्छाई / हम-नशीं = साथी / जुज़्ब की सिफ़ात = एक अंश की विशेषतायें / बशर = व्यक्ति / फैज़-ए-इश्क़ = प्यार की देन / आस्तान-ए-दोस्त = मित्र का घर / दस्त-ए-दुआ = दुआ के लिये उठे हुये हाथ / एहतिराम = आदर सहित / निगह-ए-शौक़ = प्यारभरी दृष्टि / जल्वा-नुमां = सामने प्रगट होना / मजबूरी-ए-हयात = जीवन की विवशतायें / खराब-ए-फ़ना = मृत्यु से विनष्ट होना /

rajnish manga
02-07-2014, 11:01 AM
ग़ज़ल
‘मख़मूर’ जालंधरी

सज्दे ज़बीन-ए-शौक़ के अब रायगाँ नहीं
तू बे-हिजाब अंजुमन-ए-आरा कहाँ नहीं

मैं मीर-ए-कारवाँ हूँ पस-ए-कारवाँ नहीं
हाथों में मेरे दामन-ए-मंजिल कहाँ नहीं

मौजूदगी-ए-जन्नत-ओ-दोज़ख से है अयां
रहमत है एक बहर मगर बेकराँ नहीं

चाहे हिजाब में रहो तो चाहे बे-हिजाब
हम तुम ही तो हैं और कोई दरमियाँ नहीं

बर्क-ए-जमाल-ए-दोस्त न हो इस पे शोला ज़न
तेरा भी घर है सिर्फ़ मेरा आशियाँ नहीं

दिलचस्पियाँ बहुत सी हैं इस इख्तसार में
कुछ ग़म नहीं शबाब अगर जावेदां नहीं

साकित फ़लक को मुफ़्त में ज़ालिम बना दिया
गर्दिश में है ज़मीन फ़क़त आसमां नहीं

नाकामतर हैं मेरी शिकस्ता-नसीबियाँ
‘मख़मूर’ सिर्फ ज़ीस्त ही ना-कामरां नहीं

शब्दार्थ:
ज़बीन-ए-शौक़ = प्यार का चेहरा / रायगाँ = व्यर्थ / बे-हिजाब = बिना पर्दा किये / अंजुमन-ए-आरा = सभा का केंद्र / मीर-ए-कारवाँ = कारवाँ का अगुआ / पस-ए-कारवाँ = कारवाँ के पीछे / अयां = प्रगट रूप से / बहर = कविता का छंद / बेकराँ = असीम / हिजाब = पर्दा / बर्क-ए-जमाल-ए-दोस्त = प्रियतम की सुंदरता रुपी बिजली की चमक / शोला ज़न = शोले जैसी स्त्री / इख्तसार = सारांश / शबाब = जवानी / जावेदां = न मिटने वाला, अनित्य /
साकित फ़लक = स्थिर आसमान, अल्लाह / शिकस्ता-नसीबियाँ = दुर्भाग्य / ज़ीस्त = जीवन /
ना-कामरां = नाकामयाब /

rajnish manga
02-07-2014, 11:05 AM
नज़्म / मगरमच्छ के आंसू
‘मख़मूर’ जालंधरी


सुनते हैं याद मुसीबत में खुदा आता है
आसरा इक यही मजबूर की तक़दीर में रह जाता है
“खोल दो बंद कलीसाओं के दर खोल भी दो
माना मानूस नहीं हाथ दुआओं से दुआएं मांगें
मम्लिकत पर कहीं ख़ुर्शीद न हो जाए गुरूब
हुक्म दे दो कि सभी अपने खुदाओं से दुआएं मांगें”

नाग है अपना मुआविन तो कोई बात नहीं
काम लेना है हमें नाग खजाने पे बिठा लो अपने
शहद का घूँट समझ कर सम-ए-क़ातिल पी जाओ
किसी कीमत किसी उजरत पे उसे साथ मिला लो अपने”

सारा धन जाता है तो निस्फ़ लुटा देते हैं
सुनते हैं बच्चे जो चीखें उन्हें अफ़यून खिला देते हैं

“सब को बख्शेंगे मसाहब की सलासिल से निजात
जंग लड़ते हैं सदाक़त की, मुसावात की, एलान करो
अपनी मनमानी ही आखिर में करेंगे अब तो
दहर को वादा-ए-पुर-कैफ़ से मिन्नत-कश-ए-एहसान करो
नाग डसता है उसे दूध पिलाओ कितना
सूखी बेरी से कभी बेर नहीं झड़ते, हिलाओ कितना”

अहद-ए-आलाम भी मादूम, खुदा भी मादूम
कोई ख़दशा नहीं फिर से सितम-ओ-जौर को अर्ज़ां कर लो
फ़तह का जश्न मनाना है मगर धूम के साथ
अपने घर हुस्न से या खून की बूंदों से चरागाँ कर लो
अपने महकूमों की हस्ती भी कोई हस्ती है
ये तो वादों पे भी जी सकते हैं उनसे नए पैमां कर लो”

तीरगी बढ़ती है तूफ़ान उमड़ आता है
बदलियाँ छा के बरसती हैं फ़लक फिर से निखर जाता है

शब्दार्थ:
कलीसाओं = मंदिरों / मुआविन = सहायक / मुम्लिकत = देश, राज्य / खुर्शीद = सूरज /
गुरूब = अस्त होना/ सम-ए-क़ातिल = ज़हर / निस्फ़ = आधा/ अफ़यून = नशा, अफीम / मसाइब
= दुर्भाग्य/ सलासिल = बंधन/ सदाक़त, मुसावात = सच्चाई, बराबरी / दहर = संसार/
मिन्नत-कश-ए-एहसान = / अहद-ए-आलाम = / मादूम = अस्तित्वहीन/ ख़दशा = संशय /
सितम-ओ-जौर = अत्याचार / अर्ज़ां = सस्ता / महकूमों = मातहत / पैमां = वचन / तीरगी = अंधेरा /

rajnish manga
02-07-2014, 03:52 PM
निम्नलिखित पंक्तियाँ मैं एक पत्रिका से साभार उद्धृत कर रहा हूँ जिसको पढ़ने के बाद हमें इस बात का अंदाज़ा बखूबी हो जाता है कि मख़मूर जालंधरी उर्दू शायरी, उर्दू शो'अरा और उर्दू अदब में अत्यन्त महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय स्थान रखते हैं. आज़ादी के आसपास के समय में उनके योगदान को आज भी आदर सहित याद किया जाता है:

People’s Democracy
(Weekly organ of CPI Marxist- issue dated 18 December, 2005)
Sajjad Zaheer: A Life of Struggle and Creativity (exerpts)

"The PWA (Progressive Writers Association formed in April 1936) was, in a very real sense, a united front in the field of literature though interested quarters always dubbed it as a communist body. Apart from communists, Congressmen, Congress socialists and even non-party people also joined its ranks. Led by Sajjad Zaheer, a big contingent of Urdu writers took an active part in its work, and many of these attained an international stature for their writings. These included Majaz, Sardar Jaffri, Saahir, Majrooh, Jan Nisar Akhtar, Kaif Bhopali, Kaifi Azmi, Makhdoom Mohiuddin, Krishna Chander, Rajendra Singh Bedi, Shankar Shailendra, Gurbakhsh Singh Makhmoor Jalandhari and a host of others.

As for presiding over the PWA’s foundation conference, all his colleagues happily accepted the name which Comrade Sajjad (whom others now lovingly called "Banne Bhai") suggested. It was Premchand, the doyen of Urdu-Hindi writers, whose presidential address is still remembered for its gist as well as simplicity."

rajnish manga
08-07-2014, 11:58 PM
इब्ने इंशा (Ibne Insha)
वास्तविक नाम: शेर मोहम्मद खां
जन्म : 15 जून 1927 (लुधियाना में)
मृत्यु : 11 जनवरी 1978 (लंदन में कैंसर से मृत्यु)

^
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSZGgyYOKvnkK3br6k-BacmlvS7UcHQMygJO8cpeB-WgMTedXoV
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rajnish manga
09-07-2014, 12:02 AM
इब्ने इंशा (Ibne Insha)https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSH0qdyYRQhlNdPve4tBp6C_o4mgEA5r TnnVG7yTnj0juOgdMu6

प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना में ही हुई 1949 में कराची आ बसे और वहीं उर्दू कालेज से बीए किया। माता पिता ने शेर मोहम्मद खां नाम दिया लेकिन बचपन से ही स्वयं को इब्ने इंशा कहना और लिखना प्रारंभ कर दिया और इसी नाम से प्रसिद्ध हुए।

वह उर्दू के प्रख्यात कवि और व्यंग्यकार थे। उनके लहज़े में मीर की खस्तगी और नज़ीर की फ़कीरी देखि जा सकती है । वे मनुष्य की स्वाधीनता और स्वाभिमान के प्रबल पक्षधर थे।

आपकी उर्दू रचनाओं में हिन्दी के प्रयोगों की भरमार है। हिंदी ज्ञान के बल पर शुरू में आल इंडिया रेडियो पर काम किया। बाद में कौमी किताबघर के निर्देशक, इंगलैंड स्थित पाकिस्तानी दूतावास में सांस्कृतिक मंत्री और फिर पाकिस्तान में यूनेस्को के प्रतिनिधि रहे।

प्रमुख पुस्तकें : उर्दू की आख़िरी किताब (व्यंग्य) चाँद नगर, इस बस्ती के इस कूचे में (कविता), बिल्लू का बस्ता, यह बच्चा किसका है (बाल कविताएँ)

rajnish manga
09-07-2014, 12:07 AM
इब्ने इंशा (Ibne Insha)https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSH0qdyYRQhlNdPve4tBp6C_o4mgEA5r TnnVG7yTnj0juOgdMu6

ग़ज़ल
शायर: इब्ने इंशा
कल चौदहवीं की रात थी, शब-भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा

हम भी वहाँ मौजूद थे, हम से भी सब पूछा किये
हम हँस दिये, हम चुप रहे, मन्ज़ूर था पर्दा तेरा

इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटीं मेहफ़िलें
हर शक़्स तेरा नाम ले, हर शक़्स दीवाना तेरा

कूचे को तेरे छोड कर जोगी ही बन जायें मगर
जँगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी सहरा तेरा

हम और रस्म-ए-बन्दग़ी, आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या-क्या तेरा, ऐ हुस्न-ए-बेपरवा तेरा

दो अश्क़ जाने किस लिये, पलकों पे आकर टिक गये
अल्ताफ़ की बारिश तेरी, इकराम का दरया तेरा

ऐ बेदारेग़-ओ-बेअमाँ, हमने कभी की है फ़ुग़ाँ
हमको तेरी वहशत सही, हमको सही सौदा तेरा

तू बेवफ़ा तू मेहरबाँ, हम और तुझसे बदगुमाँ,
हमने तो पूछा था ज़रा, ये वक़्त क्यूँ ठहरा तेरा

हमपर ये सख्ती की नज़र, हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र
रस्ता कभी रोका तेरा, दामन कभी थामा तेरा

हाँ-हा तेरी सूरत हसीं, लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इस शख्स के अश'आर से, शोहरा हुआ क्या-क्या तेरा

बेशक़ उसी का दोश है, कहता नहीं, खामोश है
तू आप कर ऐसी दवा, बीमार हो अच्छा तेरा

बेदर्द सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तेरा रुसवा तेरा, शायर तेरा 'इन्शा' तेरा

rajnish manga
09-07-2014, 12:19 AM
इब्ने इंशा (Ibne Insha)https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSH0qdyYRQhlNdPve4tBp6C_o4mgEA5r TnnVG7yTnj0juOgdMu6
कल चौदह्वीं की रात थी, शब-भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा

[/QUOTE]

उक्त ग़ज़ल को गुलाम अली ने अपनी मधुर आवाज में गा कर संगीत की दुनिया को एक नायाब तोहफ़ा दिया. इसे सुनने के लिये कृपया you tube के निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें:

http://www.youtube.com/watch?v=ZUyn3H1xy1I

rajnish manga
09-07-2014, 12:25 AM
इब्ने इंशा (Ibne Insha)https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSH0qdyYRQhlNdPve4tBp6C_o4mgEA5r TnnVG7yTnj0juOgdMu6

ग़ज़ल
शायर: इब्ने इंशा

इंशा जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदां दामन को देखो तो सही सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला जंज़ीर पड़ी दरवाजे. में
क्यों देर गये घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या

फिर हिज्र की लंबी रात मियां संजोग की तो यही एक घड़ी
जो दिल में है लब पर आने दो शरमाना क्या घबराना क्या

उस रोज़ जो उनको देखा है अब ख्वाब का आलम लगता है
उस रोज़ जो उनसे बात हुई वो बात भी थी अफसाना क्या

उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें
जिसे देख सकें पर छू न सकें वह दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या

उसको भी जला दुखते हुए मन एक शोला लाल भभूका बन
यूं आंसू बन बह जाना क्या यूँ माटी में मिल जाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की सी ना बात करे तो और करे दीवाना क्या

Dr.Shree Vijay
09-07-2014, 06:25 PM
सैयद अब्दुल हमीद ‘अदम’
जन्म: 10 अप्रेल 1910
मृत्यु: 10 मार्च 1981

बेकल उत्साही
वास्तविक नाम: मुहम्मद शफी खान
(आलेख: डॉ मुहम्मद अहमद)
जन्म: 1 जून 1924

http://www.vaniprakashan.in/authors/bekal%20utsahi.jpg


dr. Rahi masoom raza
डॉ. राही मासूम रज़ा
जन्म: 1 सितंबर 1927
निधन: 15 मार्च 1992
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:and9gcr8tw2vu0xaq-94nfblgy-nfayko-qcnxscmpjblolgpryx4khc4g


‘मख़मूर’ जालंधरी / makhmoor jalandhari
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32989&stc=1&d=1404279219
[size=3]‘मख़मूर’ जालंधरी
[color=#000000]वास्तविक नाम: गुरबक्श सिंह
जन्म: 1915
मृत्यु: 1 जनवरी 1979

इब्ने इंशा (ibne insha)
वास्तविक नाम: शेर मोहम्मद खां
जन्म : 15 जून 1927 (लुधियाना में)
मृत्यु : 11 जनवरी 1978 (लंदन में कैंसर से मृत्यु)

^
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:and9gcszggyyokvnkk3br6k-bacmlvs7uchqmygjo8cpeb-wgmtedxov
^




ये सभी महान शायर नींव के पत्थर हें इसी वजह से आज भी यह इमारत बुलंद हें, अन्यथा आज के कुछ चव्वनी छाप शायरों की मिली भगत इस बुलंद इमारत को जर्जरित कर चुके होतें.........

rajnish manga
09-07-2014, 11:47 PM
ये सभी महान शायर नींव के पत्थर हें इसी वजह से आज भी यह इमारत बुलंद हें, अन्यथा आज के कुछ चव्वनी छाप शायरों की मिली भगत इस बुलंद इमारत को जर्जरित कर चुके होतें.........

आपकी बात में सच्चाई की गंध है. इन महान साहित्यकारों ने अपनी शायरी के ज़रिये कभी सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश नहीं की. उनका कलाम दिल से निकल कर सीधा पढ़ने वाले के दिल तक जाता है. उनकी सादगी और सदाक़त ही उन्हें अविस्मरणीय बनाये रखती है. यही साहित्य की शक्ति है. आपका धन्यवाद,मित्र.

rajnish manga
09-07-2014, 11:52 PM
ग़ज़ल
शायर: इब्ने इंशा

और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का
सुबह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अक्सर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का

अपनी ज़ुबाँ से कुछ न कहेंगे छुपे ही रहेंगे आशिक़ लोग
तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का

एक ज़रा सी बात थी जिस का चर्चा पहुँचा गली गली
हम गुमनामों ने फिर भी एहसान न माना यारों का

दर्द का कहना चीख़ उट्ठो दिल का तक़ाज़ा वज़अ निभाओ
सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इज़्ज़तदारों का

rajnish manga
09-07-2014, 11:55 PM
https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSH0qdyYRQhlNdPve4tBp6C_o4mgEA5r TnnVG7yTnj0juOgdMu6

नज़्म / साये से
इब्ने इंशा

क्यों मेरे साथ-साथ आता है ?
मेरी मंज़िल है बेनिशाँ नादाँ
साथ मेरा-तेरा कहाँ नादाँ
थक गए पाँव पड़ गए छाले
मंज़िलें टिमटिमा रही हैं - दूर
बस्तियाँ और जा रही हैं - दूर
मैं अकेला चलूँगा ऎ साए
कौन अहदे-वफ़ा निभाता है
क्यों मेरे साथ-साथ आता है
तू अभी जा मिलेगा सायों में
मैं कहाँ जाऊँ मैं कहाँ जाऊँ
किसकी आग़ोश में अमाँ पाऊँ
**

rajnish manga
29-07-2014, 11:16 PM
अनवर मिर्ज़ापुरी / ANWAR MIRZAPURI

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSi5eQbA_ByicJ839IQ6iKU3cHd45XsH _QYXcFJgkMaVQhzrOI4

काफी कोशिश के बाद भी जनाब अनवर मिर्ज़ापुरी साहब की जीवनी या उनकी कोई तस्वीर नहीं ढूंढ सका हूँ. आप साहेबान इस बाबत कोई सहायता कर सकें तो मैं आपका आभारी हूँगा.

शायर का कलाम प्रस्तुत कर रहा हूँ.

rajnish manga
29-07-2014, 11:20 PM
ग़ज़ल
अनवर मिर्ज़ापुरी

मैं नज़र से पी रहा हूँ, ये समा बदल न जाए
न झुकाओ तुम निगाहें, कहीं रात ढल न जाए

मेरे अश्क़ भी हैं इसमें, ये शराब उबल न जाए
मेरा जाम छूने वाले, तेरा हाथ जल न जाए

अभी रात कुछ है बाक़ी, न उठा नक़ाब साक़ी
तेरा रिन्द गिरते-गिरते, कहीं फिर सँभल न जाए

मेरी ज़िन्दग़ी के मालिक मेरे दिल पे हाथ रखना
तेरे आने की खुशी में, मेरा दम निकल न जाए

मुझे फूँकने से पेहले, मेरा दिल निकाल लेना
ये किसी की है अमानत, कहीं साथ जल न जाए

इसी खौफ़ से नशेमन न बना सका मैं 'अनवर'
के निगाह-ए-अहल-ए-गुलशन, कहीं फिर बदल न जाए

rajnish manga
29-07-2014, 11:21 PM
ग़ज़ल
अनवर मिर्ज़ापुरी
वादा-ए-शाम-ए-फर्दा पे ऐ दिल मुझे ग़र यकीं ही न आये तो मैं क्या करूँ
उनकी झूठी तसल्ली के तूफ़ान में नब्ज़ ही डूब जाये तो मैं क्या करूँ

मैंने मांगी थी ये मस्जिदों में दुआ मैं जिसे चाहता हूँ वो मुझको मिले
जो मेरा फ़र्ज़ था मैंने पूरा किया अब खुदा भूल जाये तो मैं क्या करूँ

सारे झगड़े अगर मेरे जीने के हैं तो गला घोंट दो मैं भी बेज़ार हूँ
मौत अब तक तो दामन बचाती रही तू भी दामन बचाए तो मैं क्या करूँ

तू न समझेगा हरगिज़ मेरे नासेहा मेरी मयनोशियाँ मेरी बदमस्तियाँ
मुझ पे तोहमत न रख मैं शराबी नहीं वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ

तुम मुझे बेवफ़ाई के ताने न दो मेरे महबूब मैं बेवफ़ा तो नहीं
तुम भी मगरूर हो मैं भी खुद्दार हूँ आँख खुद ही भर आये तो मैं क्या करूँ

rajnish manga
29-07-2014, 11:23 PM
ग़ज़ल
अनवर मिर्ज़ापुरी

इस वास्ते दामन चाक किया शायद ये जुनूँ काम आ जाए
दीवाना समझ कर ही उनके होंटों पे मेरा नाम आ जाए

मैं खुश हूँ अगर गुलशन के लिये कुछ मेरा लहू काम आ जाए
लेकिन मुझको डर है इसका गुल्चीं पे न इल्ज़ाम आ जाए

ऐ काश हमारी किस्मत में ऐसी भी कोई शाम आ जाए
इक चाँद फ़लक पे निकला हो इक चाँद सर-ए-बाम आ जाए

मयखाना सलामत रह जाए इसकी तो किसी को फ़िक्र नहीं
मयख्वार हैं बस इस ख्वाहिश में साक़ी पे कुछ इल्ज़ाम आ जाए

पीने का सलीका कुछ भी नहीं इस पर है ये ख्वाहिश रिन्दों की
जिस जाम पे हक़ है साक़ी का हाथों में वाही जाम आ जाए

इस वास्ते ख़ाक -ए- परवाना पर शम्अ बहाती है आंसू
मुमकिन है वफ़ा के किस्से में उसका भी कहीं नाम आ जाए

अफसाना मुकम्मल है लेकिन अफ़साने का उन्वां कोई नहीं
ऐ मौत बस इतनी मोहलत दे उनका कोई पैग़ाम आ जाए

rajnish manga
20-08-2014, 11:24 PM
Naresh Kumar Shad
नरेश कुमार शाद

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRnrHNQuUI91Hec10YK6LPcKgSzkhIcq D_IDdn2t85SyYGUJb2R


नरेश कुमार “शाद” : परिचय उस महान शायरसे


हर शब्द का अर्थ ज़रूर होता है, फिर शब्द अगर शब्दों के जादूगरों की कलम की पैदाइश हों तोतो क्या कहिये! यूँ सभी श्रद्धेय हैं पर मुझे आधुनिक युग के ये हजरात – जैसे साहिर साहिब, नूर साहिब, जॉन एलिया साहिब, फैज़ साब और शाद साहिब बहुत भाते हैं। नरेश शाद साहिब पर बहुत कम लिखा गया है सो एक छोटी सी कोशिश पेश है।

उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर नरेश कुमार “शाद” का जन्म वर्ष 1928 में पंजाब राज्य के जिला जालंधर के निकट ग्राम नकोदर में साधारण से परिवार में हुआ था। इनके पिता नोहरा राम की माली हालत बहुत खराब थी, रोज़गार के रूप में वे एक लोकल साप्ताहिक में काम करते थे जहां से नाम-मात्र पगार मिलती थी। शाद साब के पिता ‘दर्द’ के उपनाम से शायरी भी करते थे तथा उनके सुरापान करने की आदत के कारण से परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद शोचनीय थी।

rajnish manga
20-08-2014, 11:29 PM
Naresh Kumar Shad

शाद साब की माँ सीधी-सादी देहाती महिला थी, जो किसी तरह घर चला रही थी। इस तरह शाद के पास शायरी विरासत में आई और दो वक्त रोटी का जुगाड ना होने जेसा माहौल घर में मिला। बाद के जीवन की नाकामियों, विषमताओं और नाउम्मीदी ने उन्हें भी शराबी बना दिया, जो कालान्तर में उनकी जवान उम्र में ही मौत का कारण भी बना।

अजीब बात है नरेश केवल नाम के नरेश थे साथ ही शाद (प्रसन्न) उपनाम भी रख लिया था, कौन जाने शाद ने ऐसा गरीबी से उपजी कुंठा और उसका मजाक उड़ाने के लिए किया हो, अन्यथा तो दरिद्रता, नाकामी और उदासी का शाद साब से चोली दामन का साथ रहा। वे अपने परिवेश से इस कद्र तंग आ गये के निकल पड़े घर से एक आवारा सफर पर। पेट की भूख और तबियत की बैचेनी लाहौर, रावलपिंडी, पटियाला, दिल्ली, कानपुर, मुम्बई, और लखनऊ, कहाँ नही ले गयी उन्हें।

ऐसी ही कैफियत में शायद गज़ल के ये शेर निकले है :-

हाय! मेरी मासूम उम्मीदें, वाय! मेरे नाकाम इरादे
मरने की तदबीर न सूझी जीने के अंदाज़ न आये
शाद वही आवारा शायर जिसने तुझे प्यार किया था
नगर-नगर में घूम रहा है अरमानों की लाश उठाये।

rajnish manga
20-08-2014, 11:32 PM
Naresh Kumar Shad


शाद साहब को निर्मोही काल चक्र ने सन 1928 से 1969 अर्थात मात्र 41 बहारों का समय ही दिया और वे बहारें भी काँटों द्वारा अहसास अजमाइश के सिवा कुछ नहीं थ॥ बहुत उदासी, दर्द और शराब के ज़हर में डूब कर इस लोकप्रिय और हर दिल अज़ीज़ शायर ने दुनिया से मुँह मोड़ लिया। पर उनका लेखन कद्रदानों को तो कयामत तक मोहता रहेगा।

सन 1938 में 'शाद' का दीवान 'नाम-ए-इल्हाम' के नाम से प्रकाशित हुआ । इसमें लगभग 4000 शेर है । 'शाद' की आत्मकथा भी प्रकाशित हो चुकी है। नरेश कुमार शाद ने यूँ तो बहुत खूबसूरत ग़ज़लें भी लिखी हैं मगर उनके कत’आत और रूबाईयों का कोई जवाब नहीं. उनकी शायरी के दो मजमुए ‘कशन’ और ‘कलीम-ए-मुन्तखब’ भी उनके जीवन काल में ही प्रकाशित हो चुके थे. 1970 में नरेश कुमार शाद स्मारक समिति द्वारा ‘शादनामा’ प्रकाशित करवाया जिसमे शाद की कविताओं के अलावा उनकी शायरी का मूल्यांकन करने वाले लेख भी प्रकाशित किये गये थे.

rajnish manga
20-08-2014, 11:33 PM
Naresh Kumar Shad

स्व. विष्णु प्रभाकर के संस्मरण

वह कॉफ़ी हाउस की दशकों पुरानी यादों में से एक से एक मजेदार किस्से सुनाने लगे। अपने जमाने को याद करते हुए संतोष के साथ कह रह थे कि पुराने लिखने वाले नए लोगों को बहुत हिम्मत बंधाते थे। रास्ता दिखाते थे। आजकल जैसी मारामारी नहीं थी। कॉफी हाउस खाने-पीने की नहीं, बल्कि विचार-विमर्श की जीवंत जगह थी। बहस करते-करते कई बार हाथापाई की नौबत भी आ जाती, लेकिन जब घर जाते थे तो सारे शिकवे खत्म। उर्दू के मशहूर शायर नरेश कुमार शाद को बहुत शिद्दत से याद करते रहे, भई, पीता खूब था, शायरी भी खूब करता था। एक बार इतना पी लिया कि बैरों ने कॉफी हाउस से बाहर कर दिया। फिर मैंने उनको समझाया, वह बहुत बड़ा शायर है। अंदर ले आओ। नहीं तो बहुत बदनामी होगी। वे मेरी बात मान गए और शाद को अंदर ले आए। विष्णुजी उदास हो गए कि पहले तो हिंदी, उर्दू और पंजाबी तीनों भाषाओं के साहित्यकार आते थे। पहले पंजाबी वालों ने आना छोड़ा, फिर उर्दू वालों ने और अब हिंदी वाले भी कम हो गए हैं।

rajnish manga
20-08-2014, 11:38 PM
Naresh Kumar Shad
नरेश कुमार शाद

ग़ज़ल

एक धोखा है ये शबे-रंग सवेरा क्या है
ये उजाला है उजाला तो अंधेरा क्या है

तू मिरे ग़म में न हँसती हुई आँखों को रुला
मैं तो मर मर के भी जी सकता हूँ मेरा क्या है

ज़र्रे ज़र्रे में धड़कती है कोई शय जैसे
तेरी नज़रों ने फ़ज़ाओं में बिखेरा क्या है

दर्द-ए-दुनिया की तड़प दिल में मिरे रहने दे
तू तो आँखों में भी रह सकती है तेरा क्या है

तंग है ‘शाद’ मिरे शौक़ की वुस’अत के लिये
हल्का-ए-ज़ुल्फ़ है आफाक़ का घेरा क्या है

rajnish manga
20-08-2014, 11:40 PM
Naresh Kumar Shad
नरेश कुमार शाद

ग़ज़ल

बद-गुमां मुझसे न ऐ फस्ल-ए-बहारां होना
मेरी आदत है खिज़ां में भी गुल-अफशां होना

मेरे ग़म को भी दिल-आवेज़ बना देता है
तेरी आँखों से मेरे ग़म का नुमायां होना

क्यों न प्यार आये उसे अपनी परेशानी पर
सीख ले जो तेरी जुल्फों से परीशां होना

मेरे विज़्दान ने महसूस किया है अक्सर
तेरी खामोश निगाहों का ग़ज़ल-ख्वाँ होना

ये तो मुमकिन है किसी रोज़ ख़ुदा बन जाये
ग़ैर-मुमकिन है किसी शैख़ का इंसां होना

अपनी वहशत की नुमाइश मुझे मंज़ूर न थी
वरना दुश्वार न था चाक – गिरेबां होना

रहरव-ए-शौक़ को गुमराह भी कर देता है
बाज़-औकात किसी राह का आसां होना

क्यों गुरेज़ां हो मेरी जान परेशानी से
दूसरा नाम है जीने का परेशां होना

जिन को हमदर्द समझते हो हँसेंगे तुम पर
हाल-ए-दिल कह के न ऐ ‘शाद’ पशीमां होना

rajnish manga
20-08-2014, 11:42 PM
Naresh Kumar Shad
नरेश कुमार शाद
चंद कत’आत

'दहर' में हम 'वफ़ा शआरों' को— (दुनिया, सचाई का साथ देने वाले)
दोस्ती के भरम ने मार दिया
दुश्मनों से तो बच गए लेकिन
दोस्तों के 'करम' ने मार दिया

दर्द मन्दों की सर्द आहों से
मुख्तलिफ़ मुख्तलिफ़ निगाहों से
दोस्ती का फ़रेब खाया है
आप जैसे ही 'खैरख्वाहों' से

'सालहा साल' की तलाश के बाद
ज़िन्दगी के चमन से छांटे हैं `
आप को चाहिए तो पेश करूँ
मेरे दामन में चन्द काँटे हैं

rajnish manga
20-08-2014, 11:46 PM
Naresh Kumar Shad
नरेश कुमार शाद
चंद कत’आत

मैंने हर ग़म खुशी में ढाला है
मेरा हर इक चलन निराला है
लोग जिन 'हादिसों' से मरते हैं
मुझ को उन हादिसों ने पाला है

ज़िन्दगी अपने आईने में तुझे
अपना चहरा नज़र नहीं आता
ज़ुल्म करना तो तेरी आदत है
ज़ुल्म सहना मगर नहीं भाता

तूने तो जिस्म ही को बेचा है
एक 'फ़ाक़े' को टालने के लिए----------भूख
लोग 'यज़दाँ' को बेच देते हैं--------खुदा
अपना मतलब निकालने के लिए

rajnish manga
20-08-2014, 11:50 PM
Naresh Kumar Shad
नरेश कुमार शाद
चंद कत’आत

हर 'हसीं काफ़िराँ' के माथे पर---------बहुत सुन्दर
अपनी रहमत का ताज रखता है
तू भी 'परवरदिगार' मेरी तरह
आशिक़ाना 'मिज़ाज' रखता है

हर कली मस्त-ए-ख्वाब हो जाती
पत्ती पत्ती गुलाब हो जाती
तू ने डालीं न मयफ़िशां नज़रें
वर्ना शबनम शराब हो जाती

एक मरहूम दोस्त का चेहरा
फिर रहा हैमेरी निगाहों में
जैसे इक बदनसीब शहज़ादी
जंगलों की उदास राहों में

rajnish manga
20-08-2014, 11:55 PM
Naresh Kumar Shad
नरेश कुमार शाद
चंद कत’आत

मेरे क़त'आत का ये मजमूआ
उस मुसाफ़िर की इक कहानी है
जिसने फूलों की आरज़ू ले कर
हर बयाबां की खाक़ छानी है

मैंने हर ग़म खुशी में ढाला है
मेरा हर इक चलन निराला है
लोग जिन हादिसों से मरते हैं
मुझको उन हादिसों ने पाला है

दर्द मन्दों की सर्द आहों से
मुख्तलिफ़ मुख्तलिफ़ निगाहों से
दोस्ती का फ़रेब खाया है
आप जैसे ही ‘खैरख्वाहों’ से

rafik
25-08-2014, 03:56 PM
Naresh Kumar Shad
नरेश कुमार शाद चंद कत’आत

मैंने हर ग़म खुशी में ढाला है
मेरा हर इक चलन निराला है
लोग जिन 'हादिसों' से मरते हैं
मुझ को उन हादिसों ने पाला है


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rajnish manga
08-09-2014, 11:56 PM
Anand Narayan Mulla
आनन्द नारायण मुल्ला

https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQy3pqDrouhZfo6eojJsnnhPeaArVlPf qEgmvJjlRtbOLXuNPyiXQ

जन्म: 1 अक्तूबर 1901 (लखनऊ)
निधन: 12 जून 1997

आनन्द नारायण मुल्ला कश्मीरी पंडित परिवार से थे और उनका जन्म लखनऊ में हुआ था. उनके पिता श्री जगत नारायण मुल्ला भी अपने समय के प्रख्यात वकील थे जो लखनऊ विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रह चुके है. आनन्द नारायण जुबली हाई स्कूल के विद्यार्थी थे और लखनऊ विश्वविद्यालय से ही उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक की शिक्षा पूरी की.

1946 से 1952 के बीच वह भारत-पाक ट्रिब्यूनल के चेयरमैन रहे और 1954 से 1961 तक इलाहाबाद हाई कोर्ट के बड़े दबंग न्यायाधीश रहे.मुल्ला ने एक मुकद्दमे में दिए गये ऐतिहासिक फैसले में उत्तर प्रदेश पुलिस बल को ‘संगठित अपराधियों का गिरोह’ कह कर परिभाषित किया.

rajnish manga
08-09-2014, 11:58 PM
सन 1995 में अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू ने उर्दू ज़ुबान के प्रति की गई उनकी सेवाओं को याद करते हुये “आनन्द नारायण मुल्ला की अदबी खिदमात” नामक स्मारक ग्रन्थ प्रकाशित करवाया.

सताने को सता ले आज ज़ालिम जितना जी चाहे
मगर इतना कहे देते हैं कि मर्दान-ए-वतन हम हैं
सुलायेगी हमें खाक-ए-वतन आगोश में अपनी
न फ़िक्र-ए-गोर है हमको न मोहताज-ए-कफ़न हम हैं

उन्हें उर्दू जुबान से बेइन्तेहा मुहब्बत थी. उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि ‘मैं अपना मज़हब छोड़ सकता हूँ लेकिन उर्दू जुबान नहीं.’ उन्होंने कट्टरपंथियों की इस बात का खुल कर विरोध किया जो मानते थे कि उर्दू सिर्फ मुसलमानों की जुबान है.

जिस भाषा में ‘पहले आप’ वाली संस्कृति परवान चढ़ी वह अब दिखाई नहीं देती. वह अब ‘पहले मैं’ में ढल चुकी है. जिस प्रकार की भाषा उन्होंने अपनी शायरी में प्रयोग की है, क्या उस प्रकार की तहज़ीब और अदब से भरी भाषा आज के युग में दिखाई देती है? उनका एक शे’र देखें:-

जिसके ख़याल में हूँ गुम उसको भी कुछ ख़याल है
मेरे लिये यही सवाल...............सबसे बड़ा सवाल है

rajnish manga
09-09-2014, 12:02 AM
वे उच्च कोटि के न्यायविद, राजनीतिज्ञ और बेहतरीन शायर थे। राजनीति में आने से पहले आनंद नारायण मुल्ला 1954 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायधीश बने और 1961 तक जिम्मेदारी निभायी। सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने वकालत की प्रैक्टिस भी की। निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर 1967 में लखनऊ से लोकसभा के लिए चुने गए और 1972 से 1978 तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे। वह उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के चेयरमैन रहे और उन्हें साहित्य अकादमी एवार्ड एवं इकबाल सम्मान भी हासिल हुआ। वह 1997 में 96 साल की उम्र में इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख्सत हो गये।

दलगत राजनीति की मजबूत बेड़ियों को काटकर किसी निर्दलीय उम्मीदवार का लोकसभा चुनाव जीतना कितना मुश्किल काम है, यह किसी से छिपा नहीं है। वर्ष 1967 में हुए लोकसभा के चौथे चुनाव में आनंद नारायण मुल्ला लखनऊ से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़े और अपनी बेदाग़ प्रतिष्ठा के बल पर चुनाव जीते। आज तक उसके बाद लखनऊ से कोई अन्य निर्दलीय प्रत्याशी जीत कर लोकसभा में नहीं आया।

rajnish manga
09-09-2014, 12:08 AM
https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQF4XBQjEfxxvucEH-pUqB28JfT0-UjP0g2LbIAPPxPdIZnkkth1w

जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला का एक चित्र

वो कौन है जिन्हें तौबा की मिल गई फुरसत,
हमें गुनाह भी करने को ज़िंदगी कम है.

नज़र जिसकी तरफ़ करके निगाहें फेर लेते हो
क़यामत तक फिर उस दिल की परेशानी नहीं जाती

rajnish manga
09-09-2014, 12:11 AM
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQy3pqDrouhZfo6eojJsnnhPeaArVlPf qEgmvJjlRtbOLXuNPyiXQ

ग़ज़ल
आनन्द नारायण मुल्ला

दुनिया है ये किसी का न इस में क़ुसूर था
दो दोस्तों का मिल के बिछड़ना ज़रूर था

उस के करम पे शक तुझे ज़ाहिद ज़रूर था
वरना तेरा क़ुसूर न करना क़ुसूर था

तुम दूर जब तलक थे तो नग़मा भी था फ़ुग़ाँ
तुम पास आ गए तो अलम भी सुरूर था

इस इक नज़र के बज़्म में क़िस्से बने हज़ार
उतना समझ सका जिसे जितना शुऊर था

इक दर्स थी किसी की ये फ़न-कारी-ए-निगाह
कोई न ज़द में था न कोई ज़द से दूर था

बस देखने ही में थीं निगाहें किसी की तल्ख़
शीरीं सा इक पयाम भी बैनस-सुतूर था

पीते तो हम ने शैख़ को देखा नहीं मगर
निकला जो मै-कदे से तो चेहरे पे नूर था

'मुल्ला' का मस्जिदों में तो हम ने सुना न नाम
ज़िक्र उस का मै-कदों में मगर दूर दूर था

rajnish manga
09-09-2014, 12:14 AM
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQy3pqDrouhZfo6eojJsnnhPeaArVlPf qEgmvJjlRtbOLXuNPyiXQ

ग़ज़ल
आनन्द नारायण मुल्ला
निगाह-ओ-दिल का अफ़साना करीब-ए-इख्तिताम आया ।
हमें अब इससे क्या आया शहर या वक्त-ए-शाम आया ।।

ज़बान-ए-इश्क़ पर एक चीख़ बनकर तेरा नाम आया,
ख़िरद की मंजिलें तय हो चुकी दिल का मुकाम आया ।

न जाने कितनी शम्मे गुल हुईं कितने बुझे तारे,
तब एक खुर्शीद इतराता हुआ बला-ए-बाम आया ।

इसे आँसू न कह एक याद अय्यामें गुलिश्ताँ है,
मेरी उम्रे खाँ को उम्रे रफ़्ता का सलाम आया ।

बिरहमन आब-ए-गंगा शैख कौसर ले उड़ा उससे,
तेरे होठों को जब छूता हुआ मुल्ला का जाम आया |

rajnish manga
09-09-2014, 12:19 AM
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQy3pqDrouhZfo6eojJsnnhPeaArVlPf qEgmvJjlRtbOLXuNPyiXQ

ग़ज़ल
आनन्द नारायण मुल्ला
रह-रवी है न रह-नुमाई है, आज दौर-ए-शकिस्ता-पाई है
अक़्ल ले आई ज़िंदगी को कहाँ, इश्क़-ए-नादाँ तेरी दुहाई है

है उफ़ुक़ दर उफ़ुक़ रह-ए-हस्ती, हर रसाई में नारसाई है
शिकवे करता है क्या दिल-ए-नाकाम आशिक़ी किस को रास आई है

हो गई गुम कहाँ सहर अपनी, रात जा कर भी रात आई है
जिस में एहसास हो असीरी का, वो रिहाई कोई रिहाई है

कारवाँ है ख़ुद अपनी गर्द में गुम, पाँव की ख़ाक सर पे आई है
बन गई है वो इल्तिजा आँसू, जो नज़र में समा न पाई है

बर्क़ ना-हक़ चमन में है बद-नाम, आग फूलों ने ख़ुद लगाई है
वो भी चुप हैं ख़मोश हूँ मैं भी, एक नाज़ुक सी बात आई है

और करते ही क्या मोहब्बत में, जो पड़ी दिल पे वो उठाई है
नए साफ़ी में हो न आलाइश, यही 'मुल्ला' की पारसाई है
**

rafik
09-09-2014, 11:56 AM
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQy3pqDrouhZfo6eojJsnnhPeaArVlPf qEgmvJjlRtbOLXuNPyiXQ

ग़ज़ल
आनन्द नारायण मुल्ला

हो गई गुम कहाँ सहर अपनी, रात जा कर भी रात आई है
जिस में एहसास हो असीरी का, वो रिहाई कोई रिहाई है

कारवाँ है ख़ुद अपनी गर्द में गुम, पाँव की ख़ाक सर पे आई है
बन गई है वो इल्तिजा आँसू, जो नज़र में समा न पाई है

बर्क़ ना-हक़ चमन में है बद-नाम, आग फूलों ने ख़ुद लगाई है
वो भी चुप हैं ख़मोश हूँ मैं भी, एक नाज़ुक सी बात आई है



:bravo::bravo::bravo:

rajnish manga
09-09-2014, 04:10 PM
ग़ज़ल पसंद करने के लिये व समय समय पर मेरा उत्साहवर्धन करने के लिये धन्यवाद, मित्र रफ़ीक जी.

rajnish manga
10-09-2014, 12:21 AM
सीमाब अकबराबादी (मूल नाम आशिक हुसैन)
Seemab Akbarabadi (Real Name Ashiq Hussain)


https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRix36RmRrI4pNcA6h5IGJOQHA4TXael 44HqEMeNMNQjE2p_J96Ww

सीमाब अकबराबादी (1880-1951)

जन्म: 1880 (आगरा)
निधन: 31 जनवरी, 1951 (कराची)

जनाब सीमाब अकबराबादी, अबू बकर सिद्दीकी (इस्लाम के पहले खलीफा) के वंशज थे और काकू गली, नई मंडी, आगरा इमली वाले मकान में सन 1880 में पैदा हुए थे| आपके पिता का नाम मोहम्मद हुसैन सिद्दीकी था जो कि स्वयं एक उर्दू कवि, कई पुस्तकों के लेखक तथा हकीम थे.

rajnish manga
10-09-2014, 12:30 AM
https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRfd3PuCwYl7NYouQVLnt2YUi5RWvz38 MWu5xYlDFUDO2AYR2kerQ

आप पहले आगरा फिर कानपुर में कार्य करते रहे तत्पश्चात आपने अजमेर में रेल सेवा में कार्य शुरू किया जहा से आपने 1922 में इस्तीफा दे दिया | रेल सेवा से इस्तीफा देने के बाद आपने वर्ष 1923 में साग़र निज़ामी के साथ “कैसर उल अदब” नामक एक प्रकाशन घर की स्थापना की | जहाँ आपने मासिक पत्रिका “पैमाना” को प्रकाशित करना शुरू किया | 1929 में आपने साप्ताहिक “ताज” का प्रकाशन शुरू किया और 1930 में मासिक “शेर” | पैमाना का प्रकाशन 1932 में बंद कर दिया गया जब साग़र निज़ामी सीमाब से अलग हो गए और मीरुत को चले गए |

तब आप आगरा नहीं आ पाए और 1949 में भारी स्ट्रोक से बीमार हुए और फिर उससे उभर नहीं पाए और 31 जनवरी 1951 को कराची में आपका स्वर्गवास हो गया|

rajnish manga
10-09-2014, 12:35 AM
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcT5Klyk-atg94c5EtR5NjR8_pRMPR06pMapamh8hos1x7IgD4mR

रंग भरते हैं वफ़ा का जो तसव्वुर में तेरे
तुझ से अच्छी तेरी तस्वीर बना लेते हैं

प्रमुख रचनाएं:
आपका पहला काव्य संग्रह “नैस्तान” सन 1923 में प्रकाशित हुआ था. उसके बाद विभिन्न विषयों पर उनकी लगभग 75 पुस्तकें प्रकाशित हुईं. इनमे प्रमुख पुस्तकें ये हैं: -

लोह-ए-महफूज़ (1979), बही-ए-मंजूम (1981) और साज़-ए-हिजाज़ (1982), साज़-ओ-आहंग, सरोद-ए-ग़म, नफ़ीर-ए-ग़म, कीर-ए-इमरोज़ तथा शीबा-ए-कोहन आदि|1948 में अपनी महान कृति “बही-ए-मंजूम” (कुरान का पद्य रूप में उर्दू अनुवाद ) के प्रकाशन के लिए सीमाब पहले लाहौर फिर कराची गए | आप प्रकाशक ढूंढने में असफल रहे| यह एक विडम्बना है कि कुरान का वह अनुवाद 1951 में हुई इनकी मृत्यु के तीस साल बाद प्रकाशित हुआ|

आप अपनी गज़लों से जाने जाते है जिनमें से कुछ को स्व. के.एल. सहगल तथा अन्य जाने-माने कलाकारों द्वारा स्वर दिया गया है| आपने गज़लों के अतिरिक्त लघु कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, जीवनी, और आलोचनात्मक मूल्यांकन भी लिखे | आपको उर्दू, फारसी और अरबी भाषा के विशेषज्ञ के रूप में भी प्रतिष्ठित हुये|

rajnish manga
10-09-2014, 12:47 AM
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ग़ज़ल
सीमाब अकबराबादी
नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलोँ से खेलती होगी
किसी की आख़िरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी

तुम्हें दानिश्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी

मज़ा आ जायेगा महशर में कुछ सुनने सुनाने का
ज़ुबाँ होगी हमारी और कहानी आप की होगी

सर-ए-महफ़िल बता दूँगा सर-ए-महशर दिख दूँगा
हमारे साथ तुम होगे ये दुनिया देखती होगी

यही आलम रहा पर्दानशीनोँ का तो ज़ाहिर है
ख़ुदाई आप से होगी न हम से बंदगी होगी

त'अज्जुब क्या लगी जो आग ऐ 'सीमाब' सीने में
हज़ारोँ दिल मे अँगारे भरे थे लग गई होगी

शब्दार्थ: नसीम = हवा / दानिश्ता = जान बूझ कर / महशर = फैसले का दिन

rajnish manga
10-09-2014, 12:51 AM
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQJ_kiJxT-BOybw-IIR40fSwFGkbPBMcrLSiO2F5hSEMvBnO_4X

ग़ज़ल
सीमाब अकबराबादी
दिल की बिसात क्या थी निगाह-ए-जमाल में
एक आईना था टूट गया देखभाल में

सब्र आ ही जाए गर हो बसर एक हाल में
इमकां एक और ज़ुल्म है क़ैद-ए-मुहाल में

आज़ुरदा इस क़दर हूं सराब-ए-ख़याल से
जी चाहता है तुम भी न आओ ख़याल में

तंग आ के तोड़ता हूं तिलिस्म-ए-ख़याल को
या मुतमईन करो कि तुम्हीं हो ख़याल में

दुनिया है ख़्वाब हासिल-ए-दुनिया ख़याल है
इंसान ख़्वाब देख रहा है ख़याल में

उम्र-ए-दो-रोज़ा वाक़ई ख़्वाब-ख़याल थी
कुछ ख़्वाब में गुज़र गई बाक़ी ख़याल में

rajnish manga
10-09-2014, 12:54 AM
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नज़्म
सीमाब अकबराबादी
गर्द चेहरे पर, पसीने में जबीं डूबी हई
आँसुओं मे कोहनियों तक आस्तीं डूबी हुई

पीठ पर नाक़ाबिले बरदाश्त इक बारे गिराँ
ज़ोफ़ से लरज़ी हुई सारे बदन की झुर्रियाँ

हड्डियों में तेज़ चलने से चटख़ने की सदा
दर्द में डूबी हुई मजरूह टख़ने की सदा

पाँव मिट्टी की तहों में मैल से चिकटे हुए
एक बदबूदार मैला चीथड़ा बाँधे हुए

जा रहा है जानवर की तरह घबराता हुआ
हाँपता, गिरता,लरज़ता, ठोकरें खाता हुआ

मुज़महिल बामाँदगी से और फ़ाक़ों से निढाल
चार पैसे की तवक़्क़ोह सारे कुनबे का ख़याल

अपनी ख़िलक़त को गुनाहों की सज़ा समझे हुए
आदमी होने को लानत और बला समझे हुए

इसके दिल तक ज़िन्दगी की रोशनी जाती नहीं
भूल कर भी इसके होंठों तक हसीं आती नहीं

शब्दार्थ:
मज़रूह = घायल / मुज़महिल = थका हुआ / बामाँदगी = दुर्बलता

rajnish manga
22-09-2014, 11:48 PM
kumar Pashi
कुमार पाशी


https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQlX-vqY2B58NZEr7xPsyp7dWHTV3Z7C7ZozKDycAspQRxlkV2csA


जन्म: 3 जुलाई 1935
मृत्यु: 17 सितम्बर 1992

आधुनिक उर्दू शायरी में बड़ी पहचान रखने वाले कुमार पाशी, जिनका वास्तविक नाम शंकर दत्त कुमार था, 3 जुलाई 1935 को बहावलपुर (पाकिस्तान) में पैदा हुए थे | विभाजन के बाद वह भारत आ गये और पहले जयपुर तथा बाद में दिल्ली में रहे| उनका बाकी का जीवन दिल्ली में ही व्यतीत हुआ| 17 सितंबर 1992 को 57 साल की उम्र में दिल्ली में ही उनका निधन हुआ| भारत में आधुनिक उर्दू शायरी का जिक्र उनके बिना अधूरा है. उन्होंने मुशायरों में ही नहीं उर्दू शायरी के गंभीर पाठकों और आलोचकों के बीच अपनी अलग पहचान बना ली. आप उनकी शायरी में नयापन और प्रतीकों में अनूठापन पायेंगे।

rajnish manga
23-09-2014, 12:02 AM
कुमार पाशी ने कई कहानियां (जुमलों की दुनिया), नाटक (पहले आसमान का ज़वाल) और समीक्षाएं लिखी है मगर आपकी पहली पहचान कविता है जिनमें प्रमुखतः नज़्म और ग़ज़ल हैं । प्रकाशित कृतियाँ हैं – विलास-यात्रा, रू-ब-रू, पुराने मौसमों की आवाज, ख्व़ाब तमाशा, इन्तज़ार की रात, एक मौसम मेरे दिल के अन्दर, एक मौसम मेरे दिल के बाहर और ‘जवाले-शब का मंज़र’ आदि हैं|

शायरी में सबसे मुश्किल काम नई नई बहरों, काफियों और रदीफ़ों का चुनाव करना है क्यूँ की बरसों से लिखी जा रही इस विधा में अपनी बात को अलग ढंग से कहना आसान काम नहीं है. ये बात सिर्फ शायरी पर ही लागू नहीं होती बल्कि ज़िन्दगी के हर मोड़ पर नवीनता की तलाश करना भी बहुत मुश्किल काम है, इस बात को अपनी एक ग़ज़ल में पाशी साहब ने मौलिक अंदाज़ में समझाया है:

जो कुछ नज़र पड़ा, मेरा देखा हुआ लगा
ये जिस्म का लिबास भी पहना हुआ लगा

जो शे'र भी कहा वो पुराना लगा मुझे
जिस लफ्ज़ को छुआ वही बरता हुआ लगा

दिल का नगर तो देर से वीरान था मगर
सूरज का शहर भी मुझे उजड़ा हुआ लगा

rajnish manga
23-09-2014, 12:03 AM
यूँ तो पाशी साहब ज्यादातर अपनी कहानियों, कविताओं,नज्मों के लेखन के लिए जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने ग़ज़ल के फन को भी अपने हुनर से खूब निखारा है. इंसान की त्रासदियों को उन्होंने जानदार लफ्ज़ दिए हैं, कहन की सरलता और सहजता उनके अशआरों को पढने सुनने वालों से सीधा राबता बिठा लेती है, उन्हें तब उनके ये अशआर अपनी ही आप बीती से लगने लगता हैं :

वो हुक्म- ए- ज़बाँबंदी लगाने भी न देगा
पर दिल की कोई बात सुनाने भी न देगा

देगा वो दुआएं भी कि साया रहे मुझ पर
राहों में मगर पेड़ उगाने भी न देगा

कह देगा न अब याद करूँ मैं उसे 'पाशी'
जब भूलना चाहूँ तो भुलाने भी न देगा

हुक्मे-ज़बाँबंदी = अभिव्यक्ति पर पाबन्दी की आज्ञा

rajnish manga
23-09-2014, 12:07 AM
kumar Pashi
कुमार पाशी

गजल

आंधी थी तेज कोई खबर भी न पा सका
दिल के शजर पे एक ही पत्ता था आस का

उसके बदन की धूप का आलम न पूछिए
जलता हो जिस तरह कोई जंगल कपास का

उस खूब-रू का शहर है आँखें खुली रखो
कुछ लफ्ज़ भी तो लेते चलो आस-पास का

उसको गए हुए तो इक उम्र हो चली
दिल में मगर है आज भी आलम हिरास का

है आँधियों का ज़ोर चमकती है बर्क भी
और हम बनाए बैठे हैं इक घर कपास का

गर्मी है जैसे धुप में उसके जिस्म ही की
और चांदनी में नूर है उसके लिबास का

दिल पर गुज़र रही है जो, करते चलो रक़म
‘पाशी’ यही है रास्ता ग़म के निकास का

खूब-रू = सुंदर चेहरे वाला / हिरास = डर / बर्क = बिजली / रक़म = लिखना

rajnish manga
23-09-2014, 12:10 AM
kumar Pashi
कुमार पाशी

गजल
डूबते तारो ने क्या-क्या रंग दिखलाये हमें
कुछ पुराने नक्श जो रह-रह के याद आए हमें

किस में जुर्रत है कि उतरे पानियों के दरमिया
किस को ख्वाहिश है जो अब के रह पर लाये हमें

हम यह क्या जाने की क्यों सब्रो सकूं जाता रहा
तू जो इक दिन पास आ बैठे तो समझाए हमें

रात भर छ्त पर हमें तारे सदा देते रहे
रात भर कमरे में इक परछाई दहलाए हमें

ख्वाब में डूबे तो फ़िर पाया न कुछ अपना सुराग
किस को फुर्सत है जो 'पाशी' ढूँढने आए हमें

rajnish manga
23-09-2014, 12:12 AM
kumar Pashi
कुमार पाशी

नज़्म
अंतिम संस्कार

सूख चुकी है बहती नदी
आँखों में अब नीर नहीं है
सोचो तो कुछ
कहाँ गये वो भक्त, पुजारी
सुबह को उठ कर
जो सूरज को जल देते थे
कहाँ गया वो चाँद सलोना
जो लहरों के होंट चूम कर
झूम-झूम कर
आँखों की पुरशोर नदी में लहराता था

पानी से लबरेज़ घटाओ !
जल बरसाओ
सुन्दर लहरो !
आँखों की नदी को जगाओ
जाने कब से
बीते जुग के फूल लिये हाथों में खड़ा हूँ
सोच रहा हूँ, इन्हें बहा दूँ
जीवन का हर दर्द मिटा दूँ
**

rajnish manga
24-09-2014, 10:17 PM
मुज़फ्फ़र हनफ़ी / Muzaffar Hanfi


http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33251&stc=1&d=1411578895

जन्म: 1 अप्रैल 1936

उर्दू के महान साहित्यकार और शायर मुज़फ्फ़र हनफ़ी का असली नाम अबुल मुज़फ्फ़र है | उनका जन्म 1 अप्रैल 1936 को खंडवा मध्यप्रदेश में हुआ | उनका असली वतन हस्वा फतहपुर उत्तरप्रदेश है | मुज़फ्फ़र हनफी ने उर्दू साहित्य की बहुत सेवा की है | पहला शेर 9 साल की उम्र में कहा, 1949 से विभिन्न पत्रिकाओं में बच्चों की कहानियाँ प्रकाशित होना शुरु हुईं | 1954 में पहली पुस्तक प्रकाशित हुई | 1959 में मुज़फ्फ़र हनफी ने खंडवा से ''नए चिराग़'' के नाम से मासिक पत्रिका निकाली, जिसे हिन्दुस्तान में आधुनिक साहित्य की पहली पत्रिका कहा जाता है, शबखून 6-7 साल बाद अलाहाबाद से निकला | नए चिराग़ को उस दौर के बड़े सहित्यकारों ने बहुत सराहा | फ़िराक़ गोरख़पुरी, शाद आरफ़ी, अब्दुल हमीद अदम, राही मासूम रज़ा, खलील उर रहमान आज़मी, एहतेशाम हुसैन, क़ाज़ी अब्दुल वदूद, नयाज़ फतहपुरी, निसार अहमद फ़ारूक़ी और कई नये लिखने वाले इस पत्रिका में प्रकाशित होते थे |

rajnish manga
24-09-2014, 10:18 PM
मुज़फ्फ़र हनफी की शायरी (ग़ज़ल) की पहली किताब ''पानी की जुबां'' 1967 हिंदुस्तान में आधुनिक शायरी की पहली किताब मानी जाती है | मुज़फ्फ़र हनफी नेअपने कैरियर की शुरुवात 1960 में भोपाल से की और 14 साल तक मध्यप्रदेश केफारेस्ट डिपार्टमेंट में काम किया यहाँ उनकी मुलाक़ातदुष्यंत कुमार से हुई जो मुज़फ्फ़र हनफ़ी और फज़ल ताबिश की गोष्टी में शामिल होने लगे | मुज़फ्फ़र हनफ़ी और फज़ल ताबिश दुष्यंत को ग़ज़ल की तरफ लाये|

1974 में मुज़फ्फ़र हनफ़ी दिल्ली गये और नेशनल कौंसिल ऑफ़ रिसर्च एंड ट्रैनिंग (ncert) में असिस्टेंट प्रोडक्शन ऑफिसर के पद पर भी काम करने लगे.

फरवरी 1978 में जामिया मिलिआ इस्लामिया में उर्दू के अध्यापक नियुक्त हुऐ और रीडर बने । यहाँ उन्होंने 1989 तक काम किया। 1989 में कलकता यूनिवर्सिटी ने उन्हे इक़बाल चेयर, जिसकी स्थापना सन 1977 में हुयी थी, प्रोफेसेर के पद पर नियुक्त किया । इस पद पर उनसे पहले फैज़ अहमद फैज़ का चयन हुआ था लेकिन फैज़ साहब अपनी मंज़ूरी देने के बावजूद किन्ही कारणों से नहीं आ सके और ‘लोटस’ के संपादक के रूप में बैरूत चले गए. इक़बाल चेयर 12 वर्ष तक खाली रही।

rajnish manga
24-09-2014, 10:24 PM
मुज़फ्फ़र हनफी ने लगभग 90 पुस्तकें लिखी है और 1700 के लगभग ग़ज़लें कही हैं। उनके शायरी के 13 संग्रह, कहानी के 3 संग्रह, तनक़ीद/आलोचना और रिसर्च की कई किताबें शामिल हैं। मुज़फ्फर हनफी को हिंदुस्तान और हिंदुस्तान से बाहर मुशायरों में अक्सर बुलाया जाता है और पसन्द किया जाता है मुज़फ्फर हनफी एक स्वाभिमानी और सच बोलने शायर माने जाते हैं और उनकी इस छवि कि लोग क़दर भी करते हैं। हर महीने उन्हें लगभग चार-पांच मुशायरों के आमंत्रण मिलते हैं मगर वर्ष भर में मुश्किल से 8-10 मुशायरों में शिरकत करते हैं और अपना ज़यादा वक़्त लिखने पढने में लगाते हैं ।

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRUxdLIrDqq2LgmCylJa9qkmpbJNIgpu 2j75fza0aDI2IaPxAJW6Q

Great Urdu Scholar & Poet
Muzaffar Hanfi

rajnish manga
24-09-2014, 10:27 PM
ग़ज़ल
मुज़फ्फ़र हनफ़ी

डुबो कर ख़ून में लफ़्ज़ों को अंगारे बनाता हूँ
फिर अंगारों को दहका कर ग़ज़लपारे बनाता हूँ

मिरे हाथों के छाले फूल बन जाते हैं क़ाग़ज़ पर
मिरी आँखों से पूछो रात भर तारे बनाता हूँ

जिधर मिट्टी उड़ा दूँ आफ़्ताबे-ताज़ा पैदा हो
अभी बच्चों में हूँ साबुन के ग़ुब्बारे बनाता हूँ

ज़मीं पर ही रफ़ू का ढेर सारा काम बाक़ी है
ख़लाओम से न कह देना कि सय्यारे बनाता हूँ

ज़माना मुझसे बरहम है मिरा सर इस लिए ख़म है
कि मंदिर के कलश मस्जिद के मीनारे बनाता हूँ

मिरे बच्चे खड़े हैं, बाल्टी लेकर क़तारों में
कुँए तालाब नहरें और फ़व्वारे बनाता हूँ

rajnish manga
24-09-2014, 10:28 PM
ग़ज़ल
मुज़फ्फ़र हनफ़ी
हमसायों के अच्छे नहीं आसार ख़बरदार
दीवार से कहने लगी दीवार ख़बरदार

हुशियार कि आज़ेब मकानों में छुपे हैं
महफूज़ नहीं कूचा-ओ-बाज़ार ख़बरदार

कौनैन में कुहराम ज़मीं टूट रही है
जुंबिश न करो कोई भी ज़िनहार ख़बरदार

तीरों की है बौछार कदम रोक उधर से
इस मोड़ पे चलने लगी तलवार ख़बरदार

नेज़ो पे रहें हाथ कोई आँख न झपके
शबखून न पड़ जाये, खबरदार ख़बरदार

आंधी को पहुँचने लगे पत्तों के बुलावे
अपनों से रहे शाख़-ए-समरदार ख़बरदार

हमजाद पे ऐसे में भरोसा है खतरनाक
दुश्मन है तिरी घात में हुशियार ख़बरदार

अहसास न इस मारिका-आराई में कट जाय
आमद की ‘मुज़फ्फ़र’ पे है यलग़ार ख़बरदार

शब्दार्थ:
हमसायों = पड़ोसियों / आज़ेब = प्रेतात्मा / कौनैन = ब्रह्मांड / ज़िनहार = कदापि नहीं / शाख़-ए-समरदार = फलदार टहनी / हमज़ाद = बेताल, भूत / मारिका-आराई = मार-काट, संघर्ष / आमद = आगमन / यलग़ार = आक्रमण

rajnish manga
24-09-2014, 10:32 PM
ग़ज़ल
मुज़फ्फ़र हनफ़ी
कोई शाख फूलों से खाली न थी
किसी एक पौधे पे बाली न थी

सिसकने लगी खोखली सीपियाँ
अभी हमने हसरत निकाली न थी

कई फूल खिलने से क्यों रह गए
सुना है हवा लाउबाली न थी

लुटाता रहा खून मैं हर तरफ़
मिरे दर पे दुनिया सवाली न थी

बिलावज्ह तुम तो खफ़ा हो गए
मुहब्बत मिरे यार गाली न थी

‘मुज़फ्फ़र’ गहन खा गया इसलिए
की सूरज पे कीचड़ उछाली न थी

शब्दार्थ:
लाउबाली = बेपरवाह / सवाली = मांगने वाला / बिलावज्ह = बिना किसी कारण

rajnish manga
24-09-2014, 10:35 PM
मुज़फ्फ़र हनफ़ी के चंद शे'र
उन पेड़ों के फल मत खाना जिनको तुम ने ही बोया हो
जिन पर हों अहसान तुम्हारे उन से आशाएँ कम रखना

सब की आवाज़ में आवाज़ मिला दी अपनी
इस तरह आपने पहिचान मिटा दी अपनी

लोग शुहरत के लिये जान दिया करते हैं
और इक हम हैं कि मिट्टी भी उड़ा दी अपनी

हज़ारों मुश्किलें हैं दोसतों से दूर रहने में
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर ख़ंजर नहीं लगता

वो हाथों हाथ लेना डाकिये को राह में बढ़ कर
लिफ़ाफ़ा चूम लेना फिर उसे पढ़ कर जला देना

ग़र्क़ होने से ज़ियादा ग़म हुआ इस बात का [डूबना]
ये नहीं मालूम हम को डूबना है किसलिये

rajnish manga
25-09-2014, 10:00 PM
शीन काफ़ निज़ाम
SHEEN KAAF NIZAM

https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRSY8Jb39XUIf2DE7ArOHWvBsKRfJC-owQGOuwdjzzyHpLzWid0
^

जन्म: 26 नवम्बर 1947

उर्दू के प्रसिद्ध स्कॉलर व लोकप्रिय शायर शीन काफ़ निज़ाम (वास्तविक नाम: शिव किशन) का जन्म 26 नवंबर 1947 को राजस्थान के जोधपुर नामक स्थान पर हुआ था. कुछ प्रमुख कृतियाँ, नाद, लम्हों की सलीब, दश्त में दरिया, साया कोई लम्बा न था, ‘सायों के साए में’ हैं. अन्य कई पुरस्कारों के बीच उन्हें सन 2010 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे काफी समय तक राजस्थान उर्दू अकादमी से भी जुड़े रहे.

rajnish manga
25-09-2014, 10:06 PM
शीन काफ़ निज़ाम
sheen kaaf nizam

ग़ज़ल
आँखों में रात ख्वाब का खंज़र उतर गया
यानी सहर से पहले चिराग़े-सहर गया
इस फ़िक्र में ही अपनी तो गुजरी तमाम उम्र
मैं उसकी था पसंद तो क्यों छोड़ के गया

आँसू मिरे तो मेरे ही दामन में आए थे
आकाश कैसे इतने सितारों से भर गया

कोई दुआ हमारी कभी तो कुबूल कर
वर्ना कहेंगे लोग दुआ से असर गया

पिछले बरस हवेली हमारी खँडर हुई
बरसा जो अबके अब्र तो समझो खँडर गया

मैं पूछता हूँ तुझको ज़रूरत थी क्या 'निजाम'
तू क्यूँ चिराग़ ले के अँधेरे के घर गया.

rajnish manga
25-09-2014, 10:10 PM
शीन काफ़ निज़ाम
sheen kaaf nizam

ग़ज़ल

रास्ते में वो मिला अच्छा लगा
सूना-सूना रास्ता अच्छा लगा

उस ने जाने क्या कहा अच्छा लगा
रूकते रूकते बोलना अच्छा लगा

अपना चेहरा आज क्या अच्छा लगा
बादे-मुद्दत आईना अच्छा लगा

कितने शिकवे थे मुझे तक़दीर से
आज किस्मत का लिखा अच्छा लगा

मुझ में क्या है मुझ को कब मालूम है
उस से पूछो उस को क्या अच्छा लगा

उस की सूरत से लगा मुझ को 'निज़ाम'
उस को मेरा देखना अच्छा लगा

rajnish manga
25-09-2014, 10:15 PM
शीन काफ़ निज़ाम
sheen kaaf nizam

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चंद दोहे

ये कैसा ईनाम है, ये .. कैसी ...सौगात
दिन देखे जुग हो गए, जब जागूं तब रात

सांझ, सबेरा, रात, दिन, आंधी, बारिश, धूप
इन्द्र धनुष के सात रंग, उस के सौ सौ रूप

बुढ़िया चरखा कातती, हो गई क्या अनहूत
झपकी से झटका लगा , गया साँस का सूत

पतझड़ की रुत आगयी, चलो आपने देस
चेहरा पीला पड़ गया , धोले हो गए केस

याद आई परदेस में, उसकी इक-इक बात
घर का दिन ही दिन मियाँ , घर की रात ही रात

वो सब की पहचान है, सब उसके अनुरूप
शाइर, शे'र और शायरी, सभी शब्द के रूप

चौपालें चौपट हुईं, सहन में सोया सोग
अल्ला जाने क्या हुए, आल्हा गाते लोग

हम 'कबीर' कलिकाल के, खड़े हैं खाली हाथ
संग किसी के हम नहीं और हम सब के साथ

मन में धरती सी ललक, आँखों में आकाश
याद के आँगन में रहा, चेहरे का परकाश

rajnish manga
09-10-2014, 07:09 PM
अनवर जलालपुरी
ANWAR JALALPURI
जन्म: 6 जुलाई 1947

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33338&stc=1&d=1412863674

rajnish manga
09-10-2014, 07:17 PM
अनवर जलालपुरी
ANWAR JALALPURI
https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS42wGAmiD_Q07IfKeypEuNNRyMUcLib cImZA04IC3yj3vFYoUMzw

छह जुलाई 1947 को जन्मे अनवार अहमद उर्फ अनवर जलालपुरी उर्दू अदब की दुनिया में किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। मुशायरों की दुनिया में एक प्रख़्यात संचालक के रूप में तो ये मशहूर हैं ही, इसके अलावा भी इन्होंने कई बड़े काम किए हैं। सन 1988 से 1992 तक उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के सदस्य रहे, 1994 से 2000 तक उत्तर प्रदेश राज्य हज कमेटी के सदस्य ने रूप में अपनी संवाएं दी है।वर्तमान में ये उत्तर प्रदेश उर्दू-अरबी फारसी बोर्ड के चेयरमैन हैं। मेगा सीरियल ‘अकबर दी ग्रेट’ का संवाद और गीत लेखन भी आप ही ने किया है। अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘रोशनाई के सफ़ीर’,‘खारे पानियों का सिलसिला’,‘खुश्बू की रिश्तेदारी’,‘जागती आंखें’,‘जर्बे लाईलाह’, ‘जमाल-ए-मोहम्मद’, ‘बादअज खुदा’,‘हर्फ अब्जद’ और ‘अपनी धरती अपने लोग’ आदि हैं।एन डी कालेज जलालपुर में ये अंग्रेजी के लेक्चरर भी रह चुके हैं.

मुशायरों की महफिल में हजारों की तादाद में जमा सामाईन की भीड़ के मिजाज को चार दशक से बखूबी समझने वाले अनवर जलालपुरी की निजामत (मंच-संचालन) किसी भी मुशायरे की कामयाबी की जमानत बन जाती है।

rajnish manga
09-10-2014, 07:22 PM
अनवर जलालपुरी
anwar jalalpuri

वे बताते हैं कि साहित्यिक स्तर पर हिंदी और उर्दू दोनों अलग-अलग ज़बानें हैं, लेकिन बोलचाल में बगैर सोचे हुए जो बातचीत होती है, वही उर्दू है, वही हिन्दी है,वही हिन्दुस्तानी है। और उसी के अंदर हिन्दुस्तानियत छिपी होती है। यह बिल्कुल उसी तरह से है जैसे शेक्सपीयर के प्ले भी अंग्रेज़ी में है, शॉ के प्ले भी अंग्रेज़ी में और गांधी, नेहरु या राधाकृष्णन की लिखी हुई पुस्तकें भी अंग्रेज़ी में है। लेकिन शेक्सपीयर या शॉ की अंग्रेज़ी गांधी, नेहरु या राधाकृष्णन की अंग्रेज़ी से बिल्कुल भिन्न है। हिन्दी-उर्दू का बंटवारा साहित्यिक स्तर पर ही है, बोलचाल के स्तर ज़बान का नाम हिन्दुस्तानी ही होना चाहिए। आप दुष्यंत कुमार के दस शेर ले लीजिए और दस शेर मुनव्वर राना के, और किसी को यह न बताइए कि ये किसके शेर हैं और पूछिए कि यह हिन्दी है या उर्दू? दुष्यंत कुमार का शेर है-

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सज़द में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।

और मुनव्वर राना का शेर यह है-

सो जाते हैं फुटपाथ पर अख़बार बिछाकर,
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।

बताइए इसमें हिन्दी में कौन है और उर्दू में कौन है? अगर हम कहें दोनों हिन्दुस्तानी हैं, जो लोग हिन्दुस्तान में रहते हैं और जो लोग हिन्दुस्तान के माहौल में रचे-बसे हैं, यह उन्हीं की भाषा है। यह न राना की भाषा है, न ही दुष्यंत कुमार की भाषा है, अलबत्ता शेर उनके हैं.....।

नज़्म व्याख्या है, विस्तार है और ग़ज़ल संक्षिप्त है, गागर में सागर है। यही कारण है कि ग़ज़लें नज़्म की तुलना में अधिक लोकप्रिय हुईं।

rajnish manga
09-10-2014, 07:33 PM
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अनवर जलालपुरी
anwar jalalpuri

ग़ज़ल
कारोबार-ए-ज़ीस्त में तबतक कोई घाटा न था
जब तलक ग़म के इलावा कोई सरमाया न था

मैं भी हर उलझन से पा सकता था छुटकरा मगर
मेरे गमख़ाने में में कोई चोर दरवाज़ा न था

कर दिया था उसको इस माहौल ने ख़ानाबदोश
ख़ानदानी तौर पर वह शख़्स बनजारा न था

शहर में अब हादसों के लोग आदी हो गये
एक जगह एक लाश थी और कोई हंगामा न था

दुश्मनी और दोस्ती पहले होती थी मगर
इस क़दर माहौल का माहौल ज़हरीला न था

rajnish manga
09-10-2014, 07:35 PM
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अनवर जलालपुरी
anwar jalalpuri
ग़ज़ल

वह जिन लोगों का माज़ी से कोई रिश्ता नहीं होता
उन्हीं को अपने मुस्तक़बिल का अन्दाज़ा नहीं होता

नशीली गोलियों ने लाज रखली नौजवानों की
कि मैख़ाने में जाकर अब कोई रुसवा नहीं होता

ग़लत कामों का अब माहौल आदी हो गया शायद
किसी भी वाक़ये पर कोई हंगामा नहीं होता

मेरी क़ीमत समझनी हो तो मेरे साथ साथ आओ
कि चौराहे पे ऐसे तो कोई सौदा नहीं होता

इलेक्शन दूर है उर्दू से हमदर्दी भी कुछ कम है
कि बाज़ारों में अब कहीं कोई जलसा नहीं होता

rajnish manga
09-10-2014, 07:38 PM
https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRrBu3DnSx8AgmeQayBvXf3NSnezyHn_ aA4b0wxT486bcvH6MMhtw
अनवर जलालपुरी
anwar jalalpuri
ग़ज़ल

बुरे वक़्तो में तुम मुझसे न कोई राब्ता रखना
मैं घर को छोड़ने वाला हूँ अपना जी कड़ा रखना

जो बा हिम्मत हैं दुनिया बस उन्हीं का नाम लेती है
छुपा कर ज़ेहन में बरसो मेरा ये तजरूबा रखना

जो मेरे दोस्त हैं अकसर मैं उन लोगों से कहता हूँ
कि अपने दुश्मनों के वास्ते दिल में जगह रखना

मेरे मालिक मुझे आसनियों ने कर दिया बुज़दिल
मेरे रास्ते में अब हर गाम पर इक मरहला रखना

मैं जाता हूँ मगर आँखों का सपना बन के लौटूगा
मेरी ख़ातिर कम-अज़-कम दिल का दरवाज़ा खुला रखना

rajnish manga
31-10-2014, 11:27 PM
कृष्ण बिहारी'नूर'
Krishna Bihari ‘Noor’


https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTbw59mS745_G9EZO6vsOBTlSOmLdLAI E1nPp-VyVlncbivyBdD





जन्म: 08 नवंबर 1925
निधन: 30 मई 2003

rajnish manga
31-10-2014, 11:34 PM
कृष्ण बिहारी 'नूर'
Krishna Bihari ‘Noor’


प्रकाशित कृतियाँ: दुख-सुख, तपस्या (उर्दू), समुन्दर मेरी तलाश में है (हिन्दी), तजल्ली-ए-नूर(उर्दू), ‘आज के प्रसिद्ध शायर कृष्ण बिहारी नूर’ (सम्पादन -कन्हैया लाल नंदन), मेरे मुक्तक : मेरे गीत, मेरे गीत तुम्हारे हैं, मेरी लम्बी कविताएँ (कविता), दो औरतें, पूरी हक़ीकत पूरा फ़साना, नातूर (कहानी संग्रह), यह बहस जारी रहेगी, एक दिन ऐसा होगा, गांधी के देश में (एकांकी नाटक), संगठन के टुकड़े (नाटक), रेखा उर्फ नौलखिया, पथराई आँखों वाला यात्री, पारदर्शियाँ (उपन्यास), सागर के इस पार से उस पार से (यात्रा वृतांत) आदि.

rajnish manga
31-10-2014, 11:36 PM
कृष्ण बिहारी 'नूर'
Krishna Bihari ‘Noor’


ग़ज़ल
तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था
कोई न जान सका, रख-रखाव ऐसा था

बस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था
मेरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा था

वो हमको देखता रहता था, हम तरसते थे
हमारी छत से वहाँ तक दिखाव ऐसा था

कुछ ऐसी साँसें भी लेनी पड़ीं जो बोझल थीं
हवा का चारों तरफ से दबाव ऐसा था

ख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद ही बिक जाते
तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था

हैं दायरे में क़दम ये न हो सका महसूस
राहे हयात में यारो घुमाव ऐसा था

कोई ठहर न सका मौत के समन्दर तक
हयात ऐसी नदी थी, बहाव ऐसा था

बस उसकी मांग में सिंदूर भर के लौट आए
हमारा अगले जनम का चुनाव ऐसा था

फिर उसके बाद झुके तो झुके ख़ुदा की तरफ़
तुम्हारी सम्त हमारा झुकाव ऐसा था

वो जिसका ख़ून था वो भी शिनाख्त कर न सका
हथेलियों पे लहू का रचाव ऐसा था

ज़बां से कुछ न कहूंगा, ग़ज़ल ये हाज़िर है
दिमाग़ में कई दिन से तनाव ऐसा था

फ़रेब दे ही गया 'नूर' उस नज़र का ख़ुलूस
फ़रेब खा ही गया मैं, सुभाव ऐसा था

rajnish manga
31-10-2014, 11:39 PM
कृष्ण बिहारी 'नूर'
Krishna Bihari ‘Noor’


ग़ज़ल
लाख ग़म सीने से लिपटे रहे नागन की तरह
प्यार सच्चा था महकता रहा चंदन की तरह

तुझ को पहचान लिया है तुझे पा भी लूँगा
इक जनम और मिले गर इसी जीवन की तरह

अब कोई कैसे पहुँच पाएगा तेरे ग़म तक
मुस्कुराहट की रिदा डाल दी चिलमन की तरह

कोई तहरीर नहीं है जिसे पढ़ ले कोई
ज़िंदगी हो गई बे नाम सी उलझन की तरह

जैसे धरती का किसी शय से तअल्लुक़ ही नहीं
हो गया प्यार तिरा भी तिरे दामन की तरह

शाम जब रात की महफ़िल में क़दम रखती है
भरती है माँग में सिंदूर सुहागन की तरह

मुस्कुराते हो मगर सोच लो इतना ऐ नूर
सूद लेती है मसर्रत भी महाजन की तरह


(रिदा = आवरण)

rajnish manga
31-10-2014, 11:43 PM
कृष्ण बिहारी 'नूर'
Krishna Bihari ‘Noor’


ग़ज़ल
इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तक़ाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत

रात हो दिन हो कि ग़फ़लत हो कि बेदारी
उसको देखा तो नहीं है उसको सोचा है बहुत

तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत

मिरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत

कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है
घर की इस दहलीज़ पे ऐ नूर उजाला है बहुत

rajnish manga
31-10-2014, 11:45 PM
बिमल कृष्ण ‘अश्क़’
Bimal Krishna 'Ashk'

हरियाणा राज्य में जिला गुडगाँव की छोटी सी जगह भान्गरोला में 1924 के किसी रोज़ पैदा हुए बिमल कृष्ण 'अश्क' उर्दू साहित्य संसार में एक जाना-पहचाना नाम हैं ! नए बिम्ब विधान और नए प्रतीकों की बदौलत 'अश्क' ने ग़ज़ल को नई ऊंचाइयां तो अता की हीं, यथार्थ चित्रण के कई प्रयोग भी किए ! दरअसल उनकी समूची शायरी में वर्तमान की धडकनें हैं, तिस पर भी वह सार्वजनीन और सर्वकालिक भी है ! यही 'अश्क के सृजन की वह बड़ी खूबी है, जो उन्हें एक महान शायर बनाती है !

(परिचय अलैक जी के सौजन्य से साभार)

rajnish manga
04-11-2014, 08:17 PM
बिमल कृष्ण ‘अश्क़’
Bimal Krishna 'Ashk'

ग़ज़ल
डूब गए हो देख के जिनमें ठहरा, गहरा, नीला पानी
आंख झपकते मर जाएगा 'अश्क' उन्हीं आंखों का पानी

तू, मैं, फूल, सितारा, मोती सब उस दरिया की मौजें
जैसा - जैसा बर्तन, वैसा - वैसा भेष बदलता पानी

बारह मास हरी टहनी पर पीले फूल खिला करते हैं
दुख के पौदे को लगता है जाने किस दरिया का पानी

बीती उम्र सरहाना सींचे, आंखें रोती हैं कन्नियों को
दुख का सूरज पीकर डूबा दोनों दरियाओं का पानी

चौखट-चौखट आंगन-आंगन, खट्टी छाछ, कसैला मक्खन
गांव के हर घर में दर आया बस्ती का मटमैला पानी

तन का लोभी क्या जाने, तन-मन का दुख दोनों तीरथ हैं
पाक-बदन काशी की मिट्टी, आंसू गंगा मां का पानी

शब्दार्थ
अश्क = आंसू / मौजें = लहरें / दर आया = आ गया / पाक-बदन = पवित्र शरीर

rajnish manga
04-11-2014, 08:19 PM
बिमल कृष्ण ‘अश्क़’
Bimal Krishna 'Ashk'


ग़ज़ल
मिरी भी मान मिरा अक्स मत दिखा मुझ को
मैं रो पड़ूँगा मिरे सामने न ला मुझ को

मैं बंद कमरे की मजबूरियों में लेटा रहा
पुकारती फिरी बाज़ार में हवा मुझ को

तू सामने है तो आवाज़ कौन सुनता है
जो हो सके तो कहीं दूर से बुला मुझ को

तू अक्स बन के मिरे आईने में बैठा रहा
तमाम उम्र कोई देखता हुआ मुझ को

वरक़ वरक़ यूँ ही फिरता रहूँ कहाँ तक मैं
किताब जान के बुक-शेल्फ़ पर सजा मुझ को

ख़ुदा तो अब भी है वो ‘अश्क’ क्या बिगड़ जाता
अगर वो और तरीक़े से सोचता मुझ को

rajnish manga
04-11-2014, 08:22 PM
बिमल कृष्ण ‘अश्क़’
Bimal Krishna 'Ashk'

ग़ज़ल
जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था
इस तरह जागा कि जैसे रात-भर सोया न था

अब यही दुख है हमीं में थी कमी उस में न थी
उस को चाहा था मगर अपनी तरह चाहा न था

जाने वाले वक़्त ने देखा था मुड़ कर एक बार
गो हमें पहचानता कम था मगर भूला न था

हम बहुत काफ़ी थे अपने वास्ते जैसे भी थे
कोई हम सा दोस्त कोई हम सा बेगाना न था

अजनबी राहें न जाने किस तरह आवाज़ दें
जब सफ़र पर चल पड़े थे किस लिए सोचा न था

पाँव का चक्कर लिए फिरता रहेगा दोस्तो
और फिर सोचोगे अपने शहर में क्या क्या न था

हम भी उन रातों में थाली पर दिया रख कर चले
जब शिवाले की इमारत का कोई दर वा न था

फ़र्ज़ की मंज़िल ने मेरी गुमरही भी छीन ली
वर्ना ‘अश्क’ इस रस्ती-बस्ती राह में क्या क्या न था

rajnish manga
08-11-2014, 09:54 PM
बल्ली सिंह चीमा
Balli Singh Cheema

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRtIdAzE5OUbiPxhVb9642-09WaWFdYsNwiVoHoQrqDe6X8QPXV

जन्म 2 सितंबर 1952

बल्ली सिंह चीमा की पहली कविता 1973 को द्विमासिक पत्रिका 'चर्चा' के सितंबर अंक में प्रकाशित हुई। 1975 से अपना पूरा समय मडैया बक्थी में ही खेती को देने लगे। तब से वे किसानी करते हैं और शायरी भी करते हैं। इनकी पहचान गीतकार गजलकार और उत्तराखंड राज्य से जुड़े आंदोलनकारी के रूप में भी है। सितम्बर 2012 में राजधानी दिल्ली में प्रख्यात कवि मंगलेश डबराल की अध्यक्षता में चीमा जी का षष्टिपूर्ति समारोह मनाया गया। कार्यक्रम में कई वरिष्ठ साहित्यकार उपस्थित थे जिनमे से.रा. यात्री, रामकुमार कृषक, वीरेन डंगवाल, पंकज बिष्ट शामिल थे।

“जमीन से उठती आवाज” नाम से चीमा जी का ग़ज़ल-गीत संग्रह छपा है जिसके दो संस्करण आ चुके हैं.

rajnish manga
08-11-2014, 09:59 PM
बल्ली सिंह चीमा
Balli Singh Cheema


ग़ज़ल
मेरे अजीज मेरे साथ ये भी होना था।
मुझे रुला के, मेरे साथ तुमने रोना था।

मुझे खबर थी खुशी ये भी टिक न पायेगी,
उसे हँसा के मुझे पिफर उदास होना था।

ये वारदात भी मेरे ही साथ होनी थी,
तेरी नज़र में मुझे पिफर खराब होना था।

बिना कसौटी पे परखे ही जिसको छोड़ दिया,
पता चला है कि मिट्टी नहीं वो सोना था।

ये सर्द रात भी 'बल्ली' के साथ रोयी थी,
तेरे फ़िराक का हर दाग़ दिल से धोना था।

rajnish manga
08-11-2014, 10:01 PM
बल्ली सिंह चीमा
Balli Singh Cheema
ग़ज़ल
तेरी तलाश में कब से हूँ ऐतबार तो कर।
मेरी हयात तू मेरे से खुल के प्यार तो कर।

मेरी हयात मैं तेरे पे जाँ भी वारूँगा,
मेरे वजूद को अपनों में तू शुमार तो कर।

नज़र उठा के गुज़र यार आज गलियों से,
हरेक चोर-नजर को तु शर्मसार तो कर।

तेरे बदन को मैं चूंमूँगा मौसमों की तरह,
मेरी ज़मीन तू थोड़ा सा इंतज़ार तो कर।

rajnish manga
08-11-2014, 10:03 PM
बल्ली सिंह चीमा
Balli Singh Cheema
ग़ज़ल
ज़ख्म भी वो दे गया है, इस कदर गहरा कि बस।
क्या बताएँ दर्द दिल में आ के यूँ ठहरा कि बस।

मैं भी सस्सी बन गई, जब खो गया पुन्नू मेरा,
मेरे चारों और ही था सुलगता सहरा कि बस।

बोलना, सच बोलना क्या सोचना भी है मना,
हर विरोधी सोच पर ही लग गया पहरा कि बस।

कब तलक लड़ता अकेला, अपनी बेकारी से वो,
जिनसे लड़ना था उन्हीं का बन गया मुहरा कि बस।

कौन सुनता प्यार - नगमें, नफ़रतों के दौर में,
हाकिमें-दौरां तो बिलकुल हो गया बहरा कि बस।
**

आकाश महेशपुरी
06-12-2014, 04:36 AM
बहुत अच्छा सूत्र! आदरणीय! जारी रखें।

आकाश महेशपुरी
06-12-2014, 04:39 AM
ज़ख्म भी वो दे गया है, इस कदर गहरा कि बस।
क्या बताएँ दर्द दिल में आ के यूँ ठहरा कि बस।
शानदार मतला!

rajnish manga
06-12-2014, 08:29 AM
बहुत अच्छा सूत्र! आदरणीय! जारी रखें।

ज़ख्म भी वो दे गया है, इस कदर गहरा कि बस।
क्या बताएँ दर्द दिल में आ के यूँ ठहरा कि बस।
शानदार मतला!

सूत्र में पोस्ट की जाने वाली सामग्री को पसंद करने और उस पर अपने बहुमूल्य विचार दर्ज करने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद, मित्र आकाश जी.

soni pushpa
06-12-2014, 11:02 AM
सुन्दर ग़ज़ल और कविताओं का संग्रह मिला पढ़ने को इस सूत्र की वजह से आपको हार्दिक बधाइयाँ और धन्यवाद ..

rajnish manga
06-12-2014, 06:44 PM
सुन्दर ग़ज़ल और कविताओं का संग्रह मिला पढ़ने को इस सूत्र की वजह से आपको हार्दिक बधाइयाँ और धन्यवाद ..

सूत्र में शामिल की गयी सामग्री को पसंद करने के लिए और बधाई प्रेषित करने के लिए आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ, पुष्पा सोनी जी.

rajnish manga
21-12-2014, 09:29 PM
मुज़फ्फर वारसी / Muzaffar Warsi


वास्तविक नाम: मुहम्मद मुज़फ्फर-उद-दीन सिद्दीक़ी
जन्म: 20 दिसम्बर 1933 (मेरठ, उत्तर प्रदेश)
मृत्यु: 28 जनवरी 2011 (लाहौर, पाकिस्तान)



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GREAT URDU POET MUZAFFAR WARSI

rajnish manga
21-12-2014, 09:41 PM
मुज़फ्फर वारसी / Muzaffar Warsi

मुज़फ्फर वारसी भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान चले गये थे. वहां स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान में मुलाज़मत करते रहे. इस बीच उन्होंने शायरी में भी अच्छा नाम कमाया. उन्होंने बहुत सी पाकिस्तानी फिल्मों के गीत भी लिखे जो बहुत मकबूल हुए. बाद में उनका रुझान आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर हो गया और उन्होंने ‘हम्द’ और ‘नात’ (इस्लाम में ईश्वरीय शायरी) लिखने को अपनी ज़िन्दगी का मकसद बना लिया. वे अंत समय तक पाकिस्तानी अखबार ‘नवा-ए-वक़्त’ में हालात-ए-हाज़रा पर छोटी छोटी कवितायें भी लिखते रहे.

उनकी प्रकाशित कृतियों में प्रमुख हैं- बर्फ की नाव, बाब-ए-हरम, लहज़ा, नूर-ए-अज़ल, अलहम्द, हिसार, लहू की हरियाली, सितारों की आबजू, खुले दरीचे बंद हवा, दिल से यार-ए-नबी तक आदि आदि.

rajnish manga
21-12-2014, 09:44 PM
मुज़फ्फर वारसी / Muzaffar Warsi

ग़ज़ल

शोला हूँ धधकने की गुज़ारिश नहीं करता
सच मुंह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता

गिरती हुइ दीवार का हमदर्द हूँ लेकिन
चड़ते हुए सूरज की परस्तिश नहीं करता

माथे के पसीने की महक आये तो देखें
वो ख़ून मेरे जिस्म में गर्दिश नहीं करता

हमदर्दी-ए-अहबाब से डरता हूँ 'मुज़फ़्फ़र'
मैं ज़ख़्म तो रखता हूँ नुमाइश नहीं करता

rajnish manga
21-12-2014, 09:50 PM
मुज़फ्फर वारसी / Muzaffar Warsi

ग़ज़ल


मेरी ज़िन्दगी किसी और की, मेरे नाम का कोई और है
मेरा अक्स है सरे-आइना, पस-ए-आइना कोई और है

मेरी धड़कनों में है चाप सी, ये जुदाई भी है मिलाप सी
मुझे क्या पता, मेरे दिल बता, मेरे साथ क्या कोई और है

न गए दिनों को ख़बर मेरी, न शरीक-ए-हाल नज़र तेरी
तेरे देस में, मेरे भेस में, कोई और था कोई और है

वो मेरी तरफ़ निगराँ रहे, मेरा ध्यान जाने कहाँ रहे
मेरी आँख में कई सूरतें, मुझे चाहता कोई और है

rajnish manga
21-12-2014, 09:53 PM
'मुज़फ्फर' वारसी / Muzaffar Warsi

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQ-mjbGGDE4kGdFpWkqfNyYsMc2FbNmZKLtY4Nvm0gz5I6hXOhRyA

ग़ज़ल


ज़ख्मे-तन्हाई में खुशबू-ए-हिना किसकी थी
साया दीवार पे मेरा था सदा किसकी थी

उसकी रफ़्तार से लिपटी रही मेरी आँखें
उस ने मुड़ कर भी न देखा कि वफ़ा किसकी थी

वक़्त की तरह दबे पाँव ये कौन आया है
मैंने अँधेरा जिसे समझा वो क़बा किसकी थी

आँसुओं से ही सही भर गया दामन मेरा
हाथ तो मैं ने उठाये थे दुआ किसकी थी

मेरी आहों की ज़बां कोई समझता कैसे
ज़िन्दगी इतनी दुखी मेरे सिवा किसकी थी

आग से दोस्ती उस की थी जला घर मेरा
दी गई किस को सज़ा और ख़ता किसकी थी

मैं ने बीनाइयाँ बो कर भी अंधेरे काटे
किसके बस में थी ज़मीं अब्र-ओ-हवा किस की थी

छोड़ दी किस लिये तू ने "मुज़फ़्फ़र" दुनिया
जुस्तजू सी तुझे हर वक़्त बता किसकी थी

rajnish manga
02-02-2015, 06:13 PM
Amjad Islaam Amjad
अमजद इस्लाम अमजद

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS3e1oMw49QT8OBlBIeyXWR8d-0_47xnEMbUGNPxI2bWKM9hRwcuA



अमजद इस्लाम अमजद, पाकिस्तान के मशहूर शायर, ड्रामा निगार और गीतकार हैं. उनका जन्म 4 अगस्त 1944 को लाहौर में हुआ था. उनकी साहित्यिक सेवाओं के मद्देनज़र उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है. इनमे से कुछ पुरस्कार इस प्रकार ‘प्राइड ऑफ़ परफॉरमेंस’ और सितारा-ए-इम्तियाज़ आदि. उनकी शायरी से एक चुनाव यहाँ प्रस्तुत है.

rajnish manga
02-02-2015, 06:20 PM
Amjad Islaam Amjad
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
गुज़रे हैं तेरे बाद भी कुछ लोग इधर से
लेकिन तेरी खुशबू न गई राहगुज़र से

क्यूँ डूबती बुझती हुई आँखों में है रौशनी
रातों को शिकायत है तो इतनी है सहर से

लरज़ा था बदन उसका मेरे हाथ से छू कर
देखा था मुझे उसने अजब मस्त नज़र से

आया है बहुत देर में वो शख्स पर उस को
जज़्बात की इस भीड़ में देखूँ मैं किधर से

rajnish manga
02-02-2015, 06:22 PM
Amjad Islaam Amjad
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल कहाँ आके रुकने थे रास्ते , कहाँ मोड़ था उसे भूल जा
वो जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा

वो तेरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गई
दिल-ए-बेखबर मेरी बात सुन, उसे भूल जा उसे भूल जा

मैं तो गुम था तेरे ही ध्यान में, तेरी आस में, तेरे गुमान में
हवा कह गई मेरे कान में, मेरे साथ आ उसे भूल जा

तुझे चाँद बन के मिला था जो, तेरे साहिलों पे खिला था जो
वो था एक दरिया विसाल का, सो उतर गया उसे भूल जा

rajnish manga
02-02-2015, 06:30 PM
Amjad Islaam Amjad
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल

खुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन
यूँ है के तुझे भूल के देखेंगे किसी दिन

भटके हुए फिरते हैं कई लफ्ज़ जो दिल में
दुनिया ने दिया वक़्त तो लिक्खेंगे किसी दिन

हिल जायेंगे इक बार तो अर्शों के दर-ओ-बाम
ये खाकनशीं लोग जो बोलेंगे किसी दिन

आपस की किसी बात का मिलता ही नहीं वक़्त
हर बात ये कहे हैं के बैठेंगे किसी दिन

ऐ जान तेरी याद के बे-नाम परिंदे
शाखों पे मेरे दर्द की उतरेंगे किसी दिन

जाती है किसी झील की गहराई कहाँ तक
आँखों में तेरी डूब के देखेंगे किसी दिन

खुशबू से भरी शाम में जुगनू के कलम से
इक नज़्म तेरे वास्ते लिक्खेंगे किसी दिन

सोयेंगे तेरी आंख की खल्वत में किसी रात
साये में तेरी ज़ुल्फ़ के जागेंगे किसी दिन

‘अमजद’ है यही अब के कफ़न बांध के सर से
उस शहर-ए-सितमगर में जायेंगे किसी दिन