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View Full Version : शिव-पार्वती की प्रेम विवाह कथा


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27-02-2014, 07:26 PM
शिव-पार्वती की प्रेम विवाह कथा
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महाशिवरात्रि के अवसर पर जगत के पिता और माता भगवान शिव और माँ पार्वती की याद आ रही है. उनकी प्रेमकथा निश्चय ही ब्रह्माण्ड की एक अनूठी प्रेम कथा होगी. शास्त्रों में वर्णित शिव-पार्वती प्रेम विवाह कथा संक्षिप्त रूप से एक फ़िल्म के गीत के साथ प्रस्तुत है. फिल्म “मुनीमजी” के लिए इस गीत को प्रसिद्द गीतकार शैलेन्द्रजी ने लिखा है. फ़िल्म में इस गीत को एक नाट्य कार्यक्रम के रूप में दिखाया गया है.गीत में शिव जी की बारात निकल रही है. उनके गण आसपास नृत्य करते हुए ख़ुशी से झूम रहे हैं. आप सभी को महाशिवरात्रि पर्व की बधाई देते हुए ये प्रस्तुति भगवान शिव और माँ पार्वती को समर्पित है.

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27-02-2014, 07:27 PM
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27-02-2014, 07:27 PM
सती के विरह में शंकरजी की दयनीय दशा हो गई.वे हर पल सती का ही ध्यान करते रहते और उन्हीं की चर्चा में व्यस्त रहते.उधर सती ने भी शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं राजा हिमालय के यहाँ जन्म लेकर शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूँ.
अब जगदम्बा का संकल्प व्यर्थ होने से तो रहा.वे उचित समय पर राजा हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख में से प्रकट हुईं.पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वे ‘पार्वती’ कहलाईं.जब पार्वती बड़ी होकर सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को अच्छा वर तलाश करने की चिंता सताने लगी.
एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुँचे और पार्वती को देख कहने लगे कि इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से इसके योग्य हैं.
पार्वती के माता-पिता के आनंद का यह जानकर ठिकाना न रहा कि साक्षात जगन्माता सती ही उनके यहाँ प्रकट हुई हैं.वे मन ही मन अपने भाग्य को सराहने लगे.
एक दिन अचानक भगवान शंकर सती के विरह में घूमते-घूमते उसी प्रदेश में जा पहुँचे और पास ही के स्थान गंगावतरण में तपस्या करने लगे.जब हिमालय को इसकी जानकारी मिली तो वे पार्वती को लेकर शिवजी के पास गए.

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27-02-2014, 07:28 PM
वहाँ राजा ने शिवजी से विनम्रतापूर्वक अपनी पुत्री को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की.शिवजी ने पहले तो आनाकानी की, किंतु पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह न टाल न सके.
शिवजी से अनुमति मिलने के बाद तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ ले उनकी सेवा करने लगीं.पार्वती हमेशा इस बात का सदा ध्यान रखती थीं कि शिवजी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो.
वे हमेशा उनके चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से पूजा करतीं.इसी तरह पार्वती को भगवान शंकर की सेवा करते दीर्घ समय व्यतीत हो गया.किंतु पार्वती जैसी सुंदर बाला से इस प्रकार एकांत में सेवा लेते रहने पर भी शंकर के मन में कभी विकार नहीं हुआ.

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27-02-2014, 07:28 PM
वे सदा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते.उधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा.यह जानकर कि शिव के पुत्र से ही तारक की मृत्यु हो सकती है, सभी देवता शिव-पार्वती का विवाह कराने की चेष्टा करने लगे.
उन्होंने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने के लिए कामदेव को उनके पास भेजा, किंतु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका. उलटा कामदेव उनकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गए.
इसके बाद शंकर भी वहाँ अधिक रहना अपनी तपश्चर्या के लिए अंतरायरूप समझ कैलास की ओर चल दिए.पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किंतु उन्होंने निराश न होकर अब की बार तप द्वारा शंकर को संतुष्ट करने की मन में ठानी.

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27-02-2014, 07:28 PM
उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत मना किया, इसीलिए उनका ‘उमा’- उ+मा (तप न करो)- नाम प्रसिद्ध हुआ.किंतु पार्वती पर इसका असर न हुआ.अपने संकल्प से वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं.वे भी घर से निकल उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं, जहाँ शिवजी ने तपस्या की थी.
तभी से लोग उस शिखर को ‘गौरी-शिखर’ कहने लगे.वहाँ उन्होंने पहले वर्ष फलाहार से जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे पर्ण (वृक्षों के पत्ते) खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया और इसीलिए वे ‘अपर्णा’ कहलाईं.

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27-02-2014, 07:29 PM
इस प्रकार पार्वती ने तीन हजार वर्ष तक तपस्या की.उनकी कठोर तपस्या को देख ऋषि-मुनि भी दंग रह गए.
अंत में भगवान आशुतोष का आसन हिला.उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तर्षियों को भेजा और पीछे स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया.
जब इन्होंने सब प्रकार से जाँच-परखकर देख लिया कि पार्वती की उनमें अविचल निष्ठा है, तब तो वे अपने को अधिक देर तक न छिपा सके.वे तुरंत अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अंतर्धान हो गए.
पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया.अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा.
उधर शंकरजी ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई.

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27-02-2014, 07:29 PM
सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान्* शंकरजी ने नारदजी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया.
बम बम भोला बम बम भोला बम बम भोला बम बम भोला
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके ना..
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना..
उनके इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े.
नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े.ये सभी तीन नेत्रों वाले थे.सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे.सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे.सभी के शरीर पर उत्तम भस्म पुती हुई थी.

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27-02-2014, 07:30 PM
इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई.इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे.इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे.
किसी के मुख ही नहीं था और किसी के बहुत से मुख थे.कोई बिना हाथ-पैर के ही था तो कोई बहुत से हाथ-पैरों वाला था.किसी के बहुत सी आँखें थीं और किसी के पास एक भी आँख नहीं थी.किसी का मुख गधे की तरह, किसी का सियार की तरह, किसी का कुत्ते की तरह था.
उन सबने अपने अंगों में ताजा खून लगा रखा था.कोई अत्यंत पवित्र और कोई अत्यंत वीभत्स तथा अपवित्र गणवेश धारण किए हुए था.उनके आभूषण बड़े ही डरावने थे उन्होंने हाथ में नर-कपाल ले रखा था.
वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए महादेव शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए.

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27-02-2014, 07:30 PM
चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान्* रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं.उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे.वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं.
जब शिव बाबा करें तैयारी कइके सकल समान हो
दाहिने अंग त्रिशूल विराजे नाचे भूत शैतान हो
ब्रह्मा चलें विष्णु चलें लइके वेद पुराण हो
शंख चक्र और गदा धनुष ले चलें श्री भगवान हो
और बन ठन के चलें बम भोला लिए भांग धतूर का गोला
बोले ये हरदम चलें लड़का पराई के
भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना..
धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए.उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे.पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान्* वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे.

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27-02-2014, 07:31 PM
देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे.सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे.तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे. इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं.
इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए.दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी.
इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे.
ओ माता मैना परछन चलली तिलक दिहली लिलार हो
काला नाग गर्दन के नीचे वो हू दिहल फुंफकार हो
लोटा फेंक के भाग चलेली का ई लिखल लिलार हो
इनके संगे ब्याह न करबो गौरी रही कुंआरी हो
कहें पार्वती समझाई बतिया मानो हमरी माई
उहे होइहें जइसन आइल हईं हम करमवा लिखाई के
भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना..

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27-02-2014, 07:31 PM
उधर हिमालय ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी.पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना को देखकर मैना बहुत डर गईं और उन्हें अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं.पार्वती उन्हें समझाती हैं कि हे माता,ये विवाह होना मेरे भाग्य में लिखा हुआ है,अत:इस विवाह कार्य को निर्विध्न सम्पन्न होने दो.
ओ जब शिव बाबा मंडवा गइलें होला मंगलाचार हो
बाबा पंडित वेद विचारें होला गुस्साचार हो
बजरबटी की लगी झालरी नागिन की अधिकार हो
बीच मंडवा में नाउन अइली करे झगड़ा बरियार हो
एगो नागिन दिहलन बिदाई नाउन जिउले चले पराई
सब हँसे लगैला देवता ठठाय के
भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना ..

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27-02-2014, 07:32 PM
शिवजी के विववाह में मंत्रोचार हो रहा है.वेद को मानने वाले पंडित लोग इस औघड़दानी भगवान शिव के विवाह को संपन्न करते हुए नाराज भी हो रहे हैं.उन्हें बहुत सी चीजे वेद के विरुद्ध महसूस हो रही है.मंडवा में देवता और पंडितों के साथ साथ नाग नागिन भी टहल रहे हैं.एक नाउन मंडवा में आकर भेंट देने के लिए बहुत झगड़ा करती है तो भगवान शिव एक नागिन उठाकर उसे बिदाई में भेंट देते हैं.वो डर के मारे अपनी जान बचाते हुए वहाँ से भाग खड़ी होती है.
ओ कोमल रूप धरे शिव-शंकर खुश भये नर-नारी हो
राजा हिमांचल गान कर कहें इज्जत रहे हमार हो
कहें वर साथी शिव-शंकर के केहू न पावल पार हो
इनके जटा से गंगा बहली महिमा अगम अपार हो
जय शिव-शंकर ध्यान लगायेँ इनके तीनो लोक दिखायें
कहें दुखहरण यहीं छाड़ो मनवा के
भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना
हो शिवजी बिहाने चले पालकी सजाईके भभूति लगाइके पालकी सजाईके ना..

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27-02-2014, 07:32 PM
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27-02-2014, 07:32 PM
पार्वतीजी की माताजी ने जब शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह-गेह की सुधि भूल गईं और शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया.
शिव-पार्वती का विवाह आनंदपूर्वक संपन्न हुआ.हिमाचल ने कन्यादान दिया.विष्णु भगवान तथा अन्यान्य देव और देव-रमणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए.ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया.सब लोग अमित उछाह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए.

शिव विवाह कथा-भगवान वेबपेज से आभार सहित संकलित.

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27-02-2014, 07:35 PM
शिव-पार्वती विवाह कथा-पुराणों व तुलसीदास के अनुसार
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शिव-पार्वती विवाह कथा-पुराणों के अनुसार
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माता सती को ही पार्वती, दुर्गा, काली, गौरी, उमा, जगदम्बा, गिरीजा, अम्बे, शेरांवाली, शैलपुत्री, पहाड़ावाली, चामुंडा, तुलजा, अम्बिका आदि नामों से जाना जाता है। इनकी कहानी बहुत ही रहस्यमय है। यह किसी एक जन्म की कहानी नहीं कई जन्मों और कई रूपों की कहानी है।
देवी भागवत पुराण में माता के 18 रूपों का वर्णन मिलता है। हालांकि नौ दुर्गा और दस महाविद्याओं (कुल 19) के वर्णन को पढ़कर लगता है कि उनमें से कुछ माता की बहने थीं और कुछ का संबंध माता के अगले जन्म से है। जैसे पार्वती, कात्यायिनी अगले जन्म की कहानी है तो तारा माता की बहन थी।

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27-02-2014, 07:37 PM
माता सती का पहला जन्म
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सती माता : पुराणों के अनुसार भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियां थी- प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की चौबीस कन्याएं जन्मी और वीरणी से साठ कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां और हजारों पुत्र थे।
राजा दक्ष की पुत्री ‘सती’ की माता का नाम था प्रसूति। यह प्रसूति स्वायंभुव मनु की तीसरी पुत्री थी। सती ने अपने पिती की इच्छा के विरूद्ध कैलाश निवासी शंकर से विवाह किया था।
सती ने अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध रुद्र से विवाह किया था। रुद्र को ही शिव कहा जाता है और उन्हें ही शंकर। पार्वती-शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र- गणेश, कार्तिकेवय और पुत्री वनलता। जिन एकादश रुद्रों की बात कही जाती है वे सभी ऋषि कश्यप के पुत्र थे उन्हें शिव का अवतार माना जाता था। ऋषि कश्यप भगवान शिव के साढूं थे।
मां सती ने एक दिन कैलाशवासी शिव के दर्शन किए और वह उनके प्रेम में पड़ गई। लेकिन सती ने प्रजापति दक्ष की इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव से विवाह कर लिया। दक्ष इस विवाह से संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि सती ने अपनी मर्जी से एक ऐसे व्यक्ति से विवाह किया था जिसकी वेशभूषा और शक्ल दक्ष को कतई पसंद नहीं थी और जो अनार्य था।
दक्ष ने एक विराट यज्ञ का आयोजन किया लेकिन उन्होंने अपने दामाद और पुत्री को यज्ञ में निमंत्रण नहीं भेजा। फिर भी सती अपने पिता के यज्ञ में पहुंच गई। लेकिन दक्ष ने पुत्री के आने पर उपेक्षा का भाव प्रकट किया और शिव के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें कही। सती के लिए अपने पति के विषय में अपमानजनक बातें सुनना हृदय विदारक और घोर अपमानजनक था। यह सब वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और इस अपमान की कुंठावश उन्होंने वहीं यज्ञ कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए।
सती को दर्द इस बात का भी था कि वह अपने पति के मना करने के बावजूद इस यज्ञ में चली आई थी और अपने दस शक्तिशाली (दस महाविद्या) रूप बताकर-डराकर पति शिव को इस बात के लिए विवश कर दिया था कि उन्हें सती को वहां जाने की आज्ञा देना पड़ी। पति के प्रति खुद के द्वारा किए गया ऐसा व्यवहार और पिता द्वारा पति का किया गया अपमान सती बर्दाश्त नहीं कर पाई और यज्ञ कुंड में कूद गई। बस यहीं से सती के शक्ति बनने की कहानी शुरू होती है।
दुखी हो गए शिव जब : यह खबर सुनते ही शिव ने वीरभद्र को भेजा, जिसने दक्ष का सिर काट दिया। इसके बाद दुखी होकर सती के शरीर को अपने सिर पर धारण कर शिव ने तांडव नृत्य किया। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देख कर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र द्वारा सती के शरीर के टुकड़े करने शुरू कर दिए।
शक्तिपीठ : इस तरह सती के शरीर का जो हिस्सा और धारण किए आभूषण जहां-जहां गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आ गए। देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों का जिक्र है, तो देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का जिक्र मिलता है। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों की चर्चा की गई है। वर्तमान में भी 51 शक्तिपीठ ही पाए जाते हैं, लेकिन कुछ शक्तिपीठों का पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में होने के कारण उनका अस्तित्व खतरें में है।

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27-02-2014, 07:38 PM
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पार्वती कथा :शिव-पार्वती विवाह
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दक्ष के बाद सती ने हिमालय के राजा हिमवान और रानी मैनावती के यहां जन्म लिया। मैनावती और हिमवान को कोई कन्या नहीं थी तो उन्होंने आदिशक्ति की प्रार्थना की। आदिशक्ति माता सती ने उन्हें उनके यहां कन्या के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। दोनों ने उस कन्या का नाम रखा पार्वती। पार्वती अर्थात पर्वतों की रानी। इसी को गिरिजा, शैलपुत्री और पहाड़ों वाली रानी कहा जाता है।
माना जाता है कि जब सती के आत्मदाह के उपरांत विश्व शक्तिहीन हो गया। उस भयावह स्थिति से त्रस्त महात्माओं ने आदिशक्तिदेवी की आराधना की। तारक नामक दैत्य सबको परास्त कर त्रैलोक्य पर एकाधिकार जमा चुका था। ब्रह्मा ने उसे शक्ति भी दी थी और यह भी कहा था कि शिव के औरस पुत्र के हाथों मारा जाएगा।
शिव को शक्तिहीन और पत्नीहीन देखकर तारक आदि दैत्य प्रसन्न थे। देवतागण देवी की शरण में गए। देवी ने हिमालय (हिमवान) की एकांत साधना से प्रसन्न होकर देवताओं से कहा- ‘हिमवान के घर में मेरी शक्ति गौरी के रूप में जन्म लेगी। शिव उससे विवाह करके पुत्र को जन्म देंगे, जो तारक वध करेगा।’
भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए उन्होंने देवर्षि के कहने मां पार्वती वन में तपस्या करने चली गईं। भगवान शंकर ने पार्वती के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा।
सप्तऋषियों ने पार्वती के पास जाकर उन्हें हर तरह से यह समझाने का प्रयास किया कि शिव औघड़, अमंगल वेषभूषाधारी और जटाधारी है। तुम तो महान राजा की पुत्री हो तुम्हारे लिए वह योग्य वर नहीं है। उनके साथ विवाह करके तुम्हें कभी सुख की प्राप्ति नहीं होगी। तुम उनका ध्यान छोड़ दो। अनेक यत्न करने के बाद भी पार्वती अपने विचारों में दृढ़ रही।
उनकी दृढ़ता को देखकर सप्तऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने पार्वती को सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद दिया और वे पुन: शिवजी के पास वापस आ गए। सप्तऋषियों से पार्वती के अपने प्रति दृढ़ प्रेम का वृत्तान्त सुनकर भगवान शिव अत्यन्त प्रसन्न हुए और समझ गए कि पार्वती को अभी में अपने सती रूप का स्मरण है।
सप्तऋषियों ने शिवजी और पार्वती के विवाह का लग्न मुहूर्त आदि निश्चित कर दिया।

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27-02-2014, 07:38 PM
‘पार्वती मंगल’ में शिव-पार्वती विवाह संत तुलसीदास के अनुसार
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पार्वती मंगल गोस्वामी तुलसीदास की प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है। इसका विषय शिव-पार्वती विवाह है। ‘जानकी मंगल’ की भाँति यह भी ‘सोहर’ और ‘हरिगीतिका’ छन्दों में रची गयी है। इसमें सोहर की 148 द्विपदियाँ तथा 16 हरिगीतिकाएँ हैं। इसकी भाषा भी ‘जानकी मंगल की भाँति अवधी है।
कथानक
इसकी कथा ‘रामचरित मानस’ में आने वाले शिव विवाह की कथा से कुछ भिन्न है और संक्षेप में इस प्रकार है-
हिमवान की स्त्री मैना थी। जगज्जननी भवानी ने उनकी कन्या के रूप में जन्म लिया। वे सयानी हुई। दम्पत्ति को इनके विवाह की चिंता हुई। इन्हीं दिनों नारद इनके यहाँ आये। जब दम्पति ने अपनी कन्या के उपयुक्त वर के बारे में उनसे प्रश्न किया, नारद ने कहा -
‘इसे बावला वर प्राप्त होगा, यद्यपि वह देवताओं द्वारा वंदित होगा।’
यह सुनकर दम्पति को चिंता हुई। नारद ने इस दोष को दूर करने के लिए गिरिजा द्वारा शिव की उपासना का उपदेश दिया। अत: गिरिजा शिव की उपासना में लग गयीं। जब गिरिजा के यौवन और सौन्दर्य का कोई प्रभाव शिव पर नहीं पड़ा, देवताओं ने कामदेव को उन्हें विचलित करने के लिए प्रेरित किया किंतु कामदेव को उन्होंने भस्म कर दिया। फिर भी गिरिजा ने अपनी साधना न छोड़ी। कन्द-मूल-फल छोड़कर वे बेल के पत्ते खाने लगीं और फिर उहोंने उसको भी छोड़ दिया। तब उनके प्रेम की परीक्षा के लिए शिव ने बटु का वेष धारण किया और वे गिरिजा के पास गये। तपस्या का कारण पूछने पर गिरिजा की सखी ने बताया कि वह शिव को वर के रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। यह सुनकर बटु ने शिव के सम्बन्ध में कहा-
‘वे भिक्षा मांगकर खाते-पीते हैं, मसान में वे सोते हैं, पिशाच-पिशाचिनें उनके अनुचर हैं- आदि। ऐसे वर से उसे क्या सुख मिलेगा?’
किंतु गिरिजा अपने विचारों में अविचल रहीं। यह देखकर स्वयं शिव साक्षात प्रकट हुए और उहोंने गिरिजा को कृतार्थ किया। इसके अनंतर शिव ने सप्तर्षियों को हिमवान के घर विवाह की तिथि आदि निश्चित करने के लिए भेजा और हिमवान से लगन कर सप्तर्षि शिव के पास गये। विवाह के दिन शिव की बारात हिमवान के घर गयी। बावले वर के साथ भूत-प्रेतादि की वह बारात देखकर नगर में कोलाहल मच गया। मैना ने जब सुना तो वह बड़ी दु:खी हुई और हिमवान के समझाने – बुझाने पर किसी प्रकार शांत हुई। यह लीला कर लेने के बाद शिव अपने सुन्दर और भव्य रूप में परिवर्तित हो गये और गिरिजा के साथ धूम-धाम से उनका विवाह हुआ।

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27-02-2014, 07:39 PM
रामचरित मानस में शिव-पार्वती विवाह
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‘मानस’ में शिव के लिए गिरिजा की तपस्या तथा शिव का एकाकीपन देखकर राम ने शिव से गिरिजा को अंगीकार करने के लिए कहा है, जिसे उन्होंने स्वीकार किया है। तदंतर शिव ने सप्तर्षियों को गिरिजा की प्रेम-परीक्षा के लिए भेजा है। ‘पार्वती मंगल’ में राम बीच में नहीं पड़ते और गिरिजा की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव स्वयं बटु रूप में जाकर पार्वती की परीक्षा लेते हैं। ‘मानस’ में जो संवाद सप्तर्षि और गिरिजा के बीच में होता है, वह ‘पार्वती मंगल’ में बटु और उनके बीच होता है। ‘मानस’ में कामदहन इस प्रेम-परीक्षा के बाद होता है, जो ‘पार्वती मंगल’ में पहले ही हुआ रहता है। इसीलिए इसके बाद ‘मानस’ में विष्णु आदि को मिल कर शिव से अनुरोध करना पड़ता है कि वे पार्वती को अर्द्धांगिनी रूप में अंगीकार करे, जो ‘पार्वती मंगल’ में नहीं है। तदनन्तर ‘मानस’ में ब्रह्मा ने सप्तर्षि को हिमवान के घर लग्न-पत्रिका प्राप्त करने के लिए भेजा है, जिसके लिए ‘पार्वती मंगल’ में शिव ही उन्हें भेजते हैं। शेष कथा दोनों रचनाओं में प्राय: एक-सी है।

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27-02-2014, 07:39 PM
दोनों रचनाओं में अंतर
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प्रश्न यह है कि इस अंतर का कारण क्या है?’मानस’ की कथा शिव-पुराण का अनुसरण करती है और ‘पार्वती मंगल’ की कथा ‘कुमार-सम्भव’ का। ऐसा ज्ञात होता है कि किसी समय तुलसीदास ने शिव-विवाह के विषय का भी उसी प्रकार का एक स्त्री-लोकोपयोगी खण्डकाव्य रचना चाहा, जिस प्रकार उन्होंने राम-विवाह का ‘जानकी मंगल’ रचा था। इस समय ‘शिव-पुराण’ की तुलना में उन्हें ‘कुमार सम्भव’ का आधार ग्रहण करना अधिक जंचा और इसीलिए उन्होंने ऐसा किया।
हिमालिनी और हिंदी साहित्य कोश वेबपेज से आभार सहित संकलित.

rajnish manga
27-02-2014, 08:23 PM
बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक जानकारी.