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View Full Version : हास्य कहानियाँ


malethia
20-11-2010, 10:57 AM
चूहे और सरकार

दोपहर तक यह बात एक समस्या के रूप में सचिवालय के सारे कॉरीडोरों में घूमने लगी कि दफ्तर में चूहे काफी हो गए हैं, क्या किया जाए ?
‘‘मेरी तो आधी रैक ही खा डाली।’’

‘‘अरे तुम्हारी फाइलें तो चलो बाहर थीं। बेचारे दावत का माल समझकर कुतर गए होंगे। मेरी तो आलमारी में बंद थी। लोहे की आलमारी में...गोदरेज, समझे !’’

‘‘अच्छा ! कमाल हो गया। गोदरेज की अलमारी में से खा गए !’’ आश्चर्य ने गुप्ताजी का चश्मा हटवा दिया।
‘‘ये बात मेरी समझ से भी बाहर है कि आखिर उसमें घुसे कैसे ? सूत भर भी तो रास्ता नहीं है उसमें जाने का।’’
‘‘अजी घुसने की जरूरत ही क्या है, अंदर ही घर होगा उनका। घुसे तो आप हैं उनके घर में।’’ किसी ने वर्माजी को छेड़ा।

‘‘लकड़ी का तो सुना है, चूहे काट सकते हैं, पर लोहा ! स्टील ! मान गए भाई, चूहों को भी। आजादी के जितने पुराने दस्तावेज थे, सबका चूरन बना दिया दुष्टों ने।’’
‘‘सर ! जिधर मैं बैठती हूँ, वहां भी बहुत हैं। इसीलिए तो मैं अपने पास कोई फाइल नहीं रखती।’’

‘‘और इसलिए, मैं आपसे फिर कह रहा हूं कि आप अपनी सीट मेरे कमरे में ही लगवा लें। दिल में जगह होनी चाहिए...मुझे तो कोई तकलीफ नहीं होगी।’’

तो फिर क्या करना चाहिए ?
‘‘सर ! हमें तुरंत प्रशासन को इत्तिला करनी चाहिए। ये उनका काम है–ड्यूटी लिस्ट के अनुसार।’’
‘‘और क्या ? आखिर प्रशासन करता क्या है जो उनसे चूहे भी नहीं मारे जाते।’’

‘‘अजी क्या पता इन्होंने खुद चूहे मंगवाकर छोड़ दिए हों। ऑडिट वालों को कह तो भी देंगे कि सारे रिकार्ड चूहे खा गए, अब कहां से लाएं ?’’
‘‘मामला गंभीर है सर ! हमें तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए।’’ बड़े बाबू ने सबको जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया।

‘‘हां सर ! इससे गंभीर बात क्या हो सकती है ! जिन रिकार्डों को द्वितीय विश्व-युद्घ में जापान नहीं छीन पाया उसे आजाद भारत के ये चूहे इतने मजे-मजे में हजम कर गए और कानों-कान पता भी नहीं चला !’’
‘‘सर, आपको कब पता चला ?’’

‘‘आज ही, मैंने तो ये आलमारी दो साल से खोली ही नहीं थी। आज जरा ये डायरी रखने के लिए जैसे ही ये अलमारी खोली तो ये माजरा...’’
‘‘अच्छा हुआ सर ! वरना ये नई डायरियां भी खा जाते।’’

‘‘नहीं, वो मैं कभी नहीं करता। नई डायरियां तो मैं सीधे घर ही ले जाता हूं।’’
‘‘सर ठीक कहते हैं, चूहों की जाति का क्या भरोसा। इनके लिए नई-पुरानी, गोरी-काली सब बराबर हैं।’’
तो फिर क्या किया जाए ? प्रश्न गंभीर से भी बड़ा होता जा रहा था।

‘‘सर, मैं एक डिटेल नोट तैयार करता हूं। चूहे कब आए ? ये बिल्डिंग कब बनी ? शुरू में कितने थे और आज कितने ? हर पंचवर्षीय योजना में उनका प्रतिशत कितना बढ़ा है ? किस कमरे में सबसे ज्यादा हैं और किसमें सबसे कम ? कितनी जातियां हैं इनकी, और हर जाति कितनी उम्र तक जिंदा रहती है। इन्होंने प्रतिवर्ष कितनी फाइलें कुतरी हैं और किस विभाग की सबसे ज्यादा ? आसपास के किन-किन मंत्रालयों में उनका आना-जाना है।’’

‘‘सर, आप मानें या न मानें, इसमें विदेशी हाथ भी हो सकता है। जब जम्मू, पंजाब और आसाम में गुपचुप आतंकवादी उतारे जा सकते हैं तो ये तो चूहे हैं। सोचा होगा, हम दुश्मनों को बरबाद करेंगे और चूहे उनके रिकार्डों को। हमारी तो सारी मेहनत पर ही पानी फिर गया।’’

‘‘कब तक तैयार हो जाएगा ये नोट ?’’
‘‘सर ! ज़्यादा टाइम नहीं लगेगा। अभी तो मैं मच्छरों वाली रिपोर्ट बना रहा हूं। आप हुक्म दें तो मैं उसे बीच में छोड़कर पहले इसे शुरू कर दूं।’’

‘‘सर ! मच्छरों वाली रिपोर्ट तो बरसात के बाद भी बन सकती है। और फिर मच्छर-मलेरिया तो आजादी से भी पहले से चल रहा है। महीने-दो-महीने में ही क्या बिगड़ जाएगा। कहिए तो सर, मैं अभी टूर प्रोग्राम बनाकर लाता हूं। पटना, लखनऊ, भोपाल, कलकत्ता के सचिवालयों की स्थिति पर भी हमारी रिपोर्ट में कुछ होना चाहिए, आखिर हम केंद्र सरकार के नुमाइंदे हैं।’’

‘‘सर, मेरा मानना है कि इसमें रूस का अनुभव बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है। जारशाही के समय कहते हैं कि ऐसे-ऐसे चूहे हो गए थे जो आदमियों पर भी हमला करने लगे थे।’’

‘‘अरे ! ये तो बहुत खतरनाक बात है। यहां किसी पर हमला हो गया तो डिपार्टमेंटल एक्सन हो जाएगा।’’ मातहतों की गंभीरता से सर घबराए जा रहे थे।
‘‘सर ! हमें तो अपनी सीट पर बैठने में भी डर लगता है। कम से कम कैंटीन में चूहे तो नहीं हैं।’’ स्टेनो बोली।

बूढ़ा गरीबदास एक कोने में अपने काम में व्यस्त था। इतनी लंबी-लंबी बहसें तो उसने अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं सुनी थी और वह भी चूहों पर। आखिर जैसे ही उसके कान इस चक-चक से पकने को हुए, उसने सुझाव देना ही उचित समझा। ‘‘रुपये दो रुपये की दवा आएगी। आटे की गोलियों में मिलाकर रख देते हैं, चूहे खत्म। घर पर भी तो हम यही करते हैं।’’

‘‘गरीबदास, ये तुम्हारा घर नहीं है, सरकारी दफ्तर है। परमिशन ले ली है दवा लाने की ? जहर होता है जहर–असली। उठाकर किसी बाबू ने खा ली तो ? बंधे-बंधे फिरोगे। नौकरी तो जाएगी ही, पेंशन भी बंद हो जाएगी प्यारे !’’

गरीबदास सिकुड़कर पीछे बैठ गया।
‘‘ये तो वही रहेगा जिसे कहते हैं...’’
‘‘सर, मैं एक बात और कहना चाहता था ?’’

‘‘कहो मिस्टर गुप्ता ! जल्दी कहो। मेरे पास इतना वक्त नहीं है कि उसे बेकार की बहस में गवाऊं। मुझे तीन बजे एक सेमिनार में जाना है।’’

गुप्ताजी सर के कानों तक गरदन लंबी करके फुसफुसाने लगे, ‘‘सर मिस्टर सिंह को अमेरिका भिजवा दो। यह इस बीच वहां की रिपोर्ट ले जाएगा। एक तो हमें कम्युनिस्ट देश के साथ-साथ कैपिटलिस्ट देश की जानकारी भी होनी चाहिए, वरना वित्त मंत्रालय हमारे प्लान को स्वीकृत नहीं करेगा और दूसरे सिंह साहिबान भी चुप बने रहेंगे, वरना कहेंगे अपने अपनों को (सवर्णों) तो विदेश भेज दिया और हमें यहां चूहों से कटवाने के लिए छोड़ दिया। सामाजिक न्याय का भी तो ध्यान रखना है।

मिस्टर गुप्ता की गरदन जब लौटकर पीछे हुई तो सर उसे गर्वित नजरों से देख रहे थे।
‘‘तो ठीक है इस टॉप प्रायरटी दी जाए।’’

malethia
20-11-2010, 11:01 AM
चूहे और बिल्लियां

चूहे और बिल्ली प्रागैतिहासिक काल से मानव-कौतूहल का विषय रहे हैं। हालांकि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में स्थान तो चूहे एवं बिल्ली दोनों को मिला है, लेकिन चूहों को बिल्लियों से अधिक महत्त्व मिला है। यह एक अजीबोगरीब विरोधाभास है। वैसे आर्थिक दृष्टिकोण से बिल्ली मनुष्य की दोस्त होनी चाहिए थी एवं चूहे दुश्मन ! परंतु सांस्कृतिक हकीकत इसके धुर विपरीत है। पता नहीं, गणेशजी ने चूहे में ऐसी क्या महानता देखी कि पुष्पक विमान जैसी आरामदेह सवारियां त्यागकर चूहे को अपना ऑफिशियल वाहन घोषित कर दिया। कई बार यह शक होता है कि भांग के नशे में उन्हें कोई चूहा हाथी जैसा विशालकाय दिखा होगा और एक बार मुंह से निकलने पर चूहा गणेशजी के पैरों में लिपट गया होगा–‘महाराज मैं जैसा भी हूं, आपके आशीर्वाद से आपका भार भी उठा लूंगा। आप स्वयं मुझे अपना वाहन स्वीकार कर चुके हैं। अब मैं आपके अतिरिक्त किसी को भी अपने ऊपर सवार नहीं होने दूंगा और जन्म-जन्मांतर तक आप ही की सेवा में रहूंगा।’ हो सकता है, चालाक चूहे ने गोबर गणेशजी को धमकी भी दे दी हो कि हे भगवान, यदि आप अपनी बात से हटे तो मैं आत्महत्या कर लूंगा ! और वे दया खा गए हों।

एक कारण और हो सकता है चूहे को वाहन रूप में गणेशजी द्वारा स्वीकार किए जाने के पक्ष में। संभव है कि प्राचीनकाल में, जब गणेशजी का जन्म हुआ था, तब बिल्लियां न रही हों, तथा उनकी उत्पत्ति काफी समय बाद द्वापर या कलियुग में हुई हो। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जहां बिल्लियां नहीं होती, वहां के चूहे बिल्ली से भी ज्यादा तगड़े हो जाते हैं। निश्चय ही सतयुग के चूहे वर्तमान चूहों से काफी हृष्ट-पुष्ट रहे होंगे। दरअसल आसपास बिल्ली की उपस्थिति चूहों को डायटिंग के लिए मजबूर करती है। यदि बिल्ली वाले घर में चूहे बिना डायटिंग किए दिन-रात जमकर खाते रहें, तो वह अपने मोटापे के कारण तेज भागने में सफल नहीं होंगे। यही कारण है कि बिल्लियों के डर से चूहे भी वैसे ही भयभीत रहते हैं, जैसे मोटापे से डरने वाली सुंदर, छरहरी महिलाएं ! बिल्लियों के रहते चूहों को डर-डरकर जीना पड़ता है; इसीलिए दुबले-पतले घरेलू चूहों को देखकर अनायास ही यह शक होना स्वाभाविक है कि चूहे गणेशजी का वजन कैसे उठाते होंगे ?

खैर, यह चूहे जानें और गणेशजी कि वे कैसे आपस में सामंजस्य बिठाते हैं। यह दोनों के बीच का पर्सनल मामला है। बहरहाल हमें तो यही लगता है कि पौराणिक काल में चूहे लगभग हाथी के साइज के ही होते होंगे, तभी विशालकाय गणेशजी उनकी सवारी कर पाते होंगे। यूं थोड़े उन्नीस-बीस जोड़े तो बहुत से पति-पत्नियों के भी होते हैं। हमारे पड़ोसी शर्माजी तो चूहों से भी हल्के कॉकरोची काया के हैं, फिर भी बेचारे तीस-पैंतीस साल से गजगामिनी मिसेज शर्मा को ढो रहे हैं, हालांकि उनके पास एक अदद खटारा स्कूटर है।

मेरे एक अनन्य मित्र हैं। वह प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य वेद, उपनिषद् और पुराण आदि के मुझसे कई गुणा बड़े जानकार हैं। उनके मतानुसार, गणेशजी यूं ही तैंतीस करोड़ देवताओं में सबसे बुद्धिमान नहीं मान लिए गए। वे समस्त कार्यों में अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय देते थे। उनका मानना है कि गणेशजी ने सब जांच-परखकर ही चूहे को अपना वाहन चुना है। एक तो चूहे हर गांव, शहर, प्रदेश, देश एवं समस्त ब्रह्मांड में मिलते हैं। अतः जहां भी जाओ, वहां सवारी का इतंजार नहीं करना पड़ता। दुनिया-भर के एयरपोर्ट व रेलवे स्टेशनों से लेकर जंगल एवं खेतों तक में एक आवाज पर हजारों चूहें दौड़कर आ जाते हैं। संसार में इतनी सर्वसुलभ उपलब्धता शायद ही किसी अन्य वाहन की होगी। इसके अतिरिक्त चूहे के रख-रखाव का खर्च भी नगण्य है। हाथी जैसा भारी-भरकम वाहन बांधने पर किसी भी रईस का साल दो साल में दीवाला निकल सकता है। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े शहंशाह भी हाथियों की फौज बांधकर कंगाली के कगार पर पहुंच गए थे। यह भी प्रामाणिक पौराणिक सत्य है कि इंद्र की आय का एक बड़ा हिस्सा अकेले ‘ऐरावत’ की मेंटेनेंस पर खर्च होता है। संभवतः यही सब देखकर फक्कड़ गणेशजी ने सोच-समझकर चूहे का चुनाव किया होगा, ताकि जहां जाओ, रात होते ही अपने प्रिय वाहन को किसी के भी खेत, गोदाम या घर में छोड़ दो। वहीं घुसकर कागज, कपड़ा रोटी, चावल जो भी मिले, वही खा-पीकर पल जाता है चूहा। न चारे की व्यवस्था करने की जरूरत और न खली-सानी की मशक्कत। महाबदमाश चूहों के इन्हीं सद्गुणों पर गणेशजी मुग्ध हुए होंगे।

चूहों की तुलना में बिल्लियां उतनी भाग्यशाली कभी नहीं रहीं। चूहे प्लेग की महामारी फैलाते हैं, यह सर्वविदित वैज्ञानिक सत्य है, फिर भी उनकी किस्मत देखिए कि वे न केवल गणेशजी की सवारी हैं, बल्कि बीकानेर (राजस्थान) स्थित करणी माता के मंदिर में बड़े श्रद्धाभाव से पूजा भी की जाती है चूहों की। यह सब मौज-मस्ती केवल गणेशजी की बदौलत ही है। उन्हें गणेशजी का आशीर्वाद न होता तो आज चूहों का हमारे यहां भी वियतनाम और चीन जैसा हश्र होता, जहां चूहा दिखते ही उसे मारकर स्वादिष्ट सूप बनाकर पी जाते हैं, और चूहा मारने पर वहां तो प्रति मृत चूहा इनाम तक की व्यवस्था है।

अपने यहां की बिल्लियां किस्मत की कतई धनी नहीं हैं। विदेशों में फिर भी बिल्लियों को अच्छी नजर से देखा जाता है, मगर अपने यहां बिल्लियों को वैसा सम्मान नहीं मिलता, जैसा अन्य जानवरों एवं पक्षियों को मिलता है। बड़े देवताओं की तो खैर छोड़ो, किसी लोकल अथवा छुटभैये देवता ऩे भी बिल्ली को अपना वाहन नहीं बनाया। यह बिल्ली का दुर्भाग्य ही है कि असंख्य गुणों की खान होते हुए भी उस पर कभी किसी देवता की कृपादृष्टि नहीं पड़ी। बिल्ली की जाति का ही शेर–जो रिश्ते में बिल्ली का भानजा है (बिल्ली शेर की मौसी है, ऐसा हमारी कई किताबों में लिखा है)–मां दुर्गा की सवारी है। मगर बिल्ली, जिसमें शेर से कहीं अधिक स्फूर्ति, बचाव के बेहतरीन तरीके एवं अन्य कई महान गुण विद्यमान हैं, जानवर-जगत की ‘मिस यूनिवर्स’ होकर भी अपने ऊपर किसी देवी-देवता को मोहित नहीं कर सकी। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बिल्लियां स्वाभिमानी होती हैं, चमचागिरी करने के लिए किसी दैव-दरबार में हाजिर नहीं होतीं। वे अपने बूते। जिंदा रहती हैं। उन्हें किसी ‘गॉडफादर’ या ‘गॉडमदर’ की जरूरत नहीं है। इस दृष्टि से देखने पर बिल्लियां मुझे सिर्फ खूबसूरत ही नहीं, अपितु पूजनीय लगती हैं।

malethia
20-11-2010, 11:38 AM
एक अदद घोटाला

सदा की भाँति श्रीमती जी ने चाय का कप और अख़बार एक साथ थमाया। फिर, ख़ुद पास आकर बैठ गईं। चाय को मेज़ पर रख, मैंने अखबार को खोला। मुख्यपृष्ठ पर प्रकाशित एक ख़बर को पढ़कर चित्त उदास हो गया। दीर्घ निश्वास छोड़ी मैंने।
पत्नी ने शंकित स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ ? तबीयत तो ठीक है ?’’

मैंने उस सचित्र समाचार की ओर संकेत किया। पत्नी ने ख़बर की तरफ़ ध्यान नहीं देकर उसके साथ छपे चित्र को घूरा और बोली, ‘‘हाय...क्या हैंडसम पर्सनैल्टी है ? कैसा मुस्करा रहा है ? लेकिन इसे देख आप उदास क्यों हुए ?’’
मैं बोला, ‘‘इस आदमी पर अरबों रुपए के घोटाले का आरोप है।’’
‘‘तो क्या हुआ ? वह रुपया आपका तो नहीं है ! अरे, इतने उदास तो आप दंगों और दुर्घटनाओं के समाचारों को पढ़कर भी नहीं होते।’’

‘‘मैंडम ! मीडिया घोटालेबाज़ों को बड़ा उछाल रहा है। शेष समाचार घोटालों की ख़बरों के नीचे हैं। छोटे सो छोटा घोटाला भी ख़ासी सुर्ख़ियों में प्रकाशित होता है। राई का पहाड़ बन जाता है। बस, इसी बात से मेरा मन रोता है। नैतिक समाचारों को नीचा दर्जा और अनैतिक को ऊँचा। सोच रहा हूँ कि एक घोटाला मैं भी कर दूँ।’’
‘‘दैया रे...!’’ पत्नी बोली, ‘‘नौकरीपेशा होकर कैसी बात कर रहे हैं आप ? ऐसा सोचना भी पाप है। आप फँस गए तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा। हाँ, पूछताछ और गिरफ़्तारी जैसी कुछेक प्रक्रियाओं से अवश्य गुज़रना होगा। लेकिन, हमारे क़ानून में बच निकलने की अनेक गलियाँ हैं। तभी तो घोटालेबाज़ों का बाल भी बाँका नहीं हो पाता है। प्रसिद्धि पाने का इससे आसान उपाय कोई और नहीं। एक अदद घोटाला कर दो। फिर मीडिया में सनसनीखेज़ सुर्खियाँ होंगी। हो सकता है कि कोई अखबार संपादकीय भी लिख मारे। कदाचित् कभी प्रतियोगी परीक्षाओं के सामान्य ज्ञान के पर्चे में अपना नाम भी जुड़ जाए। विधानसभा या लोकसभा में हंगामें मच जाएँ। घोटालेबाज़ की पाँचों अंगुलियाँ घी में हुआ करती हैं, मैडम !’’
इससे पहले पत्नी कुछ कहतीं, मित्र ठेपीलाल नमूदार हुए। मैं उमंगपूर्वक बोला, ‘‘आओ भई, आओ; बड़े मौक़े पर तशरीफ़ लाए हो।’’

‘‘आज भाभी से बड़ी घुट-घुटकर बातें हो रही हैं। मैं दो मिनट से खड़ा हूँ और आप लोगों को मेरे आने के आभास तक नहीं है।’’ ठेपीलाल सोफ़े पर पसरते हुए बोले।
मैंने कहा, ‘‘ठेपी भाई, कई दिन से एक कीड़ा मेरे दिमाग़ में कुलबुला रहा है। घोटालों के इस दौर में, क्यों न एक घोटाला मैं भी कर डालूँ ?’’ मैंने अखबार ठेपी की ओर ठेलते हुए कहा, ‘‘यह देखो, इस घोटालेबाज़ की ख़बर कैसी प्रमुखता से प्रकाशित हुई है ?’’

ठेपी ने एक उड़ती निगाह समाचार-पत्र पर डाली और बोले, ‘‘इसके बारे में कल रात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विस्तार से ख़बर दे चुका है। बहरहाल, पहली दफ़ा तुमने अकलमंदों जैसी बात की है। मैं तो कब से कह रहा था कि नाम कमाना है तो यह लेखन-वेखन का चक्कर छोड़ो और अपनी प्रतिभा को किसी दूसरी दिशा में लगाओ। साहित्य में कैसा भी बड़ा काम कर गुज़रोगे तो दो-चार पंक्तियों का समाचार छपेगा। गिने-चुने लोग उसे पढ़ेंगे। औऱ अगर एक छोटा-सा घोटाला भी कर डालोगे, तो कई दिन तक मीडिया जगत तुम्हारे पीछे हाथ धोकर पड़ जाएगा। और तुम्हारे इतने गीत गाएगा कि देश का बच्चा-बच्चा भी तुम्हें जान जाएगा।’’

‘‘फिर सुझा ही दो, घोटाला करने का आसान-सा कोई उपाय। तरीका ऐसा हो कि साँप भी मरे और लाठी भी नहीं टूटे यानी कि नौकरी भी सही-सलामत रहे।’’
‘‘फ़िक्र मत करो मित्र, मैं एक घोटाला-किंग को जानता हूँ। अनेक बड़े कांड करके भी वह पाक दामन सिद्ध हुआ है। कल उससे तुम्हारी मुलाकात करवा देता हूँ। इस वक़्त मुल्क और मीडिया का मिज़ाज भी घोटालों के अनुकूल है। अतः ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें सरलता से सफलता मिल जाएगी।’’

YUVRAJ
29-11-2010, 07:34 AM
अच्छी कहानियाँ हैं सर जी … :clap::clap::clap:
कृपया और भी प्रविष्ट करें।

Bholu
31-03-2011, 02:56 PM
दोस्तो आओ सूत्र को आगे बढाये

Sikandar_Khan
31-03-2011, 03:02 PM
दोस्तो आओ सूत्र को आगे बढाये
भोलू जी
आप ही कुछ जान फूंको
इस सूत्र मे

Bholu
31-03-2011, 05:46 PM
भोलू जी
आप ही कुछ जान फूंको
इस सूत्र मे

बिलकुल सर जल्दी ही एक मजेदार हास्य काहानी प्रस्तुत करूँगा

malethia
17-09-2011, 06:39 PM
भोजनभट्ट जब रह गए भूखे


हमारी कंपनी के मैनेजर लुभायाराम राय यों तो बहुत डरपोक और संकोची आदमी थे, मगर खाने के मामले में और खासकर दूसरे की जेब के पैसे खर्च कराकर खाने के मामले में न उन्हें पेट फटने का डर सताता था, न संकोच होता था। इसीलिए हम उन्हें भोजनभट्ट कहते थे।
जब भी हम लंच करने रेस्तराँ में जाते भोजनभट्ट भी हमारे पीछे-पीछे आ पहुँचते और कई चीजों का ऑर्डर देकर हमारे पास बैठ जाते। फिर हमसे पहले सभी चीजें चट करके मुँह साफ करते कहते, ‘‘मैं अभी आ रहा हूँ’’ पर लौटकर कभी न आते। इस तरह उनके भोजन के पैसे भी हमें चुकाने पड़ते।
एक बार जब भोजनभट्ट जी ने हम तीन साथियों को अपने घर भोजन का निमंत्रण दिया तो हमें आश्चर्य हुआ। हम अगली-पिछली सारी कसर पूरी करने का इरादा करके अगले दिन पहुँच गए भोजनभट्ट जी के घर। उनके घर पर कीर्तन हो रहा था। करीब तीन घंटे बाद जब कीर्तन समाप्त हुआ तो भोजनभट्ट ने सबको प्रसाद बाँटा। उसके बाद एक-एक करके सभी लोग चले गए। हम तीनों इस इंतजार में बैठे रहे कि शायद मुहल्ले के लोगों के जाने के बाद भोजनभट्ट जी हमें भोजन कराएँगे। मगर करीब डेढ़ घंटा और बीत जाने का बाद भोजन आता न दीखा, तो हमारे एक साथी ने पूछ ही लिया कि भोजन कब मिलेगा। उसकी बात सुनकर भोजनभट्ट जी बोले, ‘‘भोजन कैसा भोजन ?’’
हमने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने ही हमें भोजन पर बुलाया था। भोजनभट्ट बजाय शर्मिंदा होने के तुरंत बोले, ‘‘नहीं भाई, तुम लोगों से सुनने में भूल हो गई है। हमने तो आपको भजन-कीर्तन पर बुलाया था। हम बंगाली लोग भजन को भोजन बोलते हैं भाई।’’
फिर थोड़ा ठहरकर वे बोले, ‘‘आज तो मैं आपको भोजन करा भी नहीं सकता, क्योंकि आज हमारे घर कीर्तन हुआ है सो घर में खाना नहीं बनेगा। सब उपवास रखेंगे। हाँ, अगर किसी को ज्यादा ही भूख लगेगी तो वह होटल में जाकर खा आएगा।’’
हमने कहा तो चलिए हमारी खातिर आप ही उपवास तोड़ दीजिए।’’
भोजनभट्ट जी ने यह सलाह तुरंत मान ली। होटल में पहुँचकर लंबा-चौड़ा ऑर्डर दिया। अभी हम लोग आधा पेट भी नहीं भर पाए थे कि वह अपने हिस्से का तमाम भोजन चट करके उठ खड़े हुए और हमेशा की तरह, ‘‘मैं अभी आता हूँ’’ कहते हुए यह जा और वह जा।

कहना न होगा, अपने साथ-साथ हमें उनके भोजन के भी पैसे चुकाने पड़े।
बस उसी समय हम तीनों ने उन्हें सबक सिखाने की ठान ली। अगले दिन हम तीनों भोजनभट्ट जी से अलग-अलग मिले और उन्हें इतवार की दोपहर अपने-अपने घरों में खाने का निमंत्रण दे दिया।
उन्होंने तीनों जगह खाना खाने की सहर्ष स्वीकृति दे दी।
उन्होंने बुधवार से ही अपने घर खाना छोड़ दिया था। इतवार को सुबह-सवेरे वह अपने घर से निकल पड़े। चलने से पहले अपने लड़कों को हिदायत दी, ‘‘देखो, मैं आज रमेश, सुरेश और दिनेश के घर भोजन करने जा रहा हूँ। तुम ठीक पाँच बजे साइकिल लेकर दिनेश के घर पहुँच जाना, क्योंकि ज्यादा खाने के कारण मैं चल नहीं सकूँगा।
भोजनभट्ट जी रमेश के घर पहुँचे।
उसने उन्हें बैठक में बिठाकर एक गिलास ठंडा पानी हाजिर किया।
भोजनभट्ट जी तो चार दिन से भूखे थे सो भूखे पेट में खाली पानी ने जाकर ऊधम मचाना शुरू कर दिया। भीतर रसोईघर से तवे पर कुछ तले जाने की आवाज आ रही थी। उसे सुन-सुनकर भोजनभट्ट प्रसन्न हो रहे थे और इंतजार में थे कि कब वे सब पकवान उनके सामने आयें। पर भीतर कुछ बन रहा होता तब तो आता। भीतर तो रमेश की पत्नी खाली गर्म तवे पर पानी के छीटे मार रही थी। अचानक वह आवाज आनी बंद हो गई। भोजनभट्ट जी सतर्क होकर बैठ गए। तभी रमेश की पत्नी ने आकर सूचना दी, ‘‘खाने का सब सामान कुत्ते ने जूठा कर दिया है। अब मैं बाजार से दूसरी सब्जियाँ वगैरह लेने जाती हूँ।’’
यह सुनकर भोजनभट्ट जी के तो होश ही उड़ गए। उन्हें तुरंत सुरेश की याद आई। वह उसी समय उसके घर चल पड़े।
सारे रास्ते वह रमेश और उसकी पत्नी को कोसते रहे। जैसे ही वह सुरेश की गली में मुड़े वह उनसे टकरा गया। वह बोला, ‘‘सर, मुझे सुबह रमेश ने बताया कि आज आपकी दावत उसके घर में है सो मैंने कार्यक्रम बदल दिया। अब मैं कहीं जा रहा हूँ। आपको भोजन कराने का मौका आज तो मेरे हाथ से निकल गया मगर, कोई बात नहीं, फिर कभी सही।’’ इतना कहकर वह तेजी से बस स्टॉप की तरफ दौड़ गया।

बेचारे भोजनभट्ट जी काफी देर तक भूखा पेट पकड़े सुरेश पर लानत-मलामत भेजते रहे फिर कुछ हिम्मत बटोरकर मेरे घर के लिए चल पड़े। मैं तो उनके इंतजार में बैठा ही था। तपाक से उन्हें घर ले आया। ज्योंही वह आराम से बैठे, मैंने कहा, ‘‘सर, यह तो बुरा हुआ कि आज ही सुरेश और रमेश ने भी आपको निमंत्रित किया। अब मैं आपके पेट के साथ तो ज्यादती कर नहीं सकता इसलिए...’’अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मेरी पत्नी दो कप चाय ले आई। चाय पीकर मैं उन्हें छत पर ले आया ताकि हवा का आनंद लिया जा सके।
छत पर पहुँचते ही भोजनभट्ट जी ने मरी हुई आवाज में कहा, ‘‘नहीं, मैंने उनके यहाँ भोजन नहीं किया। मैंने फैसला किया था कि खाना मैं तुम्हारे ही घर खाऊँगा।’’
तभी मेरी पत्नी छत पर आकर बोली, ‘‘देखिए मैं जरा अपनी माँ के घर तक जा रही हूँ शाम को देर से लौटूँगी।’’ और वह फौरन घर की चाभियाँ मेरे पास रखकर चली गई।
मैं ‘अरे सुनो तो...’’ चिल्लाता रहा पर उसने मुड़कर भी न देखा। इधर मैं भोजनभट्ट जी का हाल देखकर अवाक् रह गया। वह बेहोश होकर छत पर लुढ़क चुके थे।
शाम को उनका लड़का मेरे घर आया और भोजनभट्ट जी को उसी हालत में साइकिल पर लादकर ले गया। वह पूरे रास्ते बड़बड़ाता गया, ‘‘कहा था एक साथ तीन-तीन घरों में दावत मत खाना। पर किसी की सुनें तब न।’’
उसी दिन भोजनभट्ट जी ने मुफ्तखोरी से तौबा कर ली।

malethia
17-09-2011, 06:42 PM
निचली मंजिल का घर


हम लोग कई महीनों से मकान बदलने का कार्यक्रम बना रहे थे पर मकान मिल ही नहीं रहा था। तभी खबर मिली कि यमुनापार एक नई कॉलोनी बनी है मयूर विहार, जहाँ आसानी से मकान मिल रहे हैं। एक रोज हम उस कॉलोनी में गए। प्रोपर्टी डीलर से मिले तो उसने हमें कई मकान दिखाए। कुछ चौथी मंजिल पर, कुछ तीसरी, कुछ दूसरी, कुछ पहली और कुछ निचली मंजिल पर।
मकान देखकर आने के बाद हम कई दिनों तक यही सोचते रहे कि हमें कौन-सी मंजिल वाला मकान लेना चाहिए। पापा का कहना था कि चौथी मंजिल का। पर मम्मी ने कहा, ‘‘नहीं, वहाँ तक चढ़ने-उतरने में ही दम खुश्क हो जाएगा। फिर बच्चे गिर पड़े तो चोट अलग लगेगी। ऐसा करते हैं, पहली मंजिल का मकान ले लेते हैं, न ज्यादा चढ़ना पड़ेगा, न बच्चे सड़क पर डोलेंगे।’’ पर हमें यह कतई पसंद नहीं था क्योंकि वहाँ खेलने की जगह ही नहीं थी। सो हमने जिद की कि हम तो सबसे निचली मंजिल में रहेंगे। मम्मी-पापा को हमारी जिद के आगे झुकना पड़ा।
एक सप्ताह की मेहनत के बाद हमने अपना नया घर अच्छी तरह सजा लिया और उसमें जाकर रहने लगे।
अभी वहाँ रहते हमें दो ही दिन हुए थे कि किसी ने हमारा दरवाजा खटखटाया। जैसे ही दरवाजा खोला एक महिला भीतर आईं और मम्मी से बोलीं, ‘‘बहन जी नमस्ते। मैं आपके ऊपर वाले फ्लैट में रहती हूँ हमारी बेबी ने कंघी ऊपर से आपके लॉन में गिरा दी है, जरा उठा दीजिए।’’ मम्मी ने कंघी उठाकर दे दी। उसके बाद कभी उनकी बेबी, तो कभी दूसरी मंजिल वाली की बेबी, तो कभी तीसरी, तो कभी चौथी मंजिल वाली की बेबी कोई न कोई चीज गिरा देती। ऊपर वाली आंटियाँ वहीं से चिल्लाकर मुझे आवाज देतीं और कहतीं, ‘‘भूमिका बेटी, जरा हमारी फलाँ चीज उठाकर तो दे जाना।’’ और मुझे जाना पड़ता।
एक दिन एक साहब आए और बोले, ‘‘क्यों जी, चोपड़ा साहब ऊपर ही रहते हैं ?’’ पापा चूँकि किसी को जानते नहीं थे सो उन्होंने कह दिया, ‘‘पता नहीं।’’ वह साहब चले गए।
थोड़ी देर बाद फिर किसी ने घंटी बजाई। पापा चूँकि उस दिन घर में ही थे, उन्होंने दरवाजा खोला। सोचा कोई मेहमान आया होगा। पर सामने एक भिखारी खड़ा था। उसे दस पैसे देकर किसी तरह टाला और दरवाजा बंद किया। तभी ताड़-ताड़-ताड़ दरवाजा पीटने की आवाज आई। पापा को बहुत गुस्सा आया कि अजीब बदतमीज आदमी है जो घंटी न बजाकर दरवाजा पीट रहा है।

जब दरवाजा खोला तो देखा वहाँ तो कोई नहीं है। हाँ, दरवाजे पर कई अखबार जरूर पड़े थे। पापा हैरान। इतने अखबार ! हम तो केवल दो अखबार मँगवाते हैं। तभी उनकी समझ में आ गया कि जरूर अखबार वाला जल्दी में सबके अखबार हमारे ही दरवाजे पर फेंक गया है।
मेरी फिर परेड हुई। पहली मंजिल से चौथी मंजिल तक के दरवाजे खटखटा कर उन्हें अखबार पहुँचाना पड़ा। अभी मैं नीचे पहुँची ही थी कि फिर किसी ने घंटी बजाई। पापा ने दरवाजा खोला तो सामने एक सज्जन खड़े थे।
वह बोले, ‘‘नमस्ते जी, मैं इत्थे त्वाडे पड़ोस मैं रेंदा हूँ। सानू ये दस्सो इत्थे कच्चा दूध मिल्दा ए ?’’
पापा ने कहा, ‘‘नहीं।’’
‘‘होर जी मेहरी नौकर वगैरा ?’’
पापा ने कहा, ‘‘पता नहीं।’’
वे बोले, ‘‘अजी पता तो त्यानू जरूर होगा, तुसी पुराने वाशिंदे हो। खैर, कोई गल नईं, मैनूं कोई छेती लोड़ नई हैगी, जैदो त्वानूं कोई दिख जाये साडे घर भेज देना। ये कारड रख छोड़ो, इसदे विच साडा नाम होर एडरस छप्पा ए।’’ उनके जाते ही पापा सिर पकड़कर बैठ गए। तभी दरवाजा खुला देख वही सज्जन एक और आदमी के साथ आ गए जो सुबह सवेरे चोपड़ा साहब को पूछते आए थे। वे आते ही बोले, ‘‘नमस्कार जैन साहब, मैं आपका पड़ोसी हूँ, थर्ड फ्लोर पर रहता हूँ। आपसे परिचय नहीं था न, सो आज हमारे मेहमान को बहुत परेशान होना पड़ा। खैर, अब याद रखना जी। मैं चोपड़ा हूँ, थर्ड फ्लोर पर रहता हूँ, कोई आकर पूछे तो बता देना। अच्छा नमस्ते, फिर मिलेंगे।’’
पापा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वे बेचारे अभी सुबह की चाय तक नहीं पी सके थे। उन्होंने झट से दरवाजा बंद किया और फिर गुमसुम बैठ गए। तभी फिर घंटी बजी।

जैसे ही दरवाजा खोला, एक सज्जन और उनकी पत्नी भीतर आ गए। आते ही बोले, ‘‘माफ करना भाई साहब, हम दूसरी मंजिल वाले सक्सेना साहब से मिलने आए थे, पर वे तो हैं नहीं, उनके बच्चे के लिए यह मिठाई का डिब्बा लाए थे। आप उन्हें दे देना। और कहना वर्मा जी आए थे, अच्छा भाई साहब, चलें पहले ही बहुत देर हो गई है।’’
जैसे ही वे बाहर जाने के लिए उठे, मैं दरवाजा बंद करने के लिए उनके पीछे-पीछे चल दी। मुझे रोकते हुए पापा बोले, ‘‘रहने दे भूमिका। फिर कोई आएगा तो फिर खोलना पड़ेगा।’’
तभी पोस्टमेन आया और बोला, ‘‘क्यों जी, सक्सेना साहब कहाँ गए ?’’
पापा को गुस्सा तो आ ही रहा था, उन्होंने कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम मुझसे कहकर नहीं गए।’’
पोस्टमेन बोला, ‘‘साहब उनका तार है, जब वह आएं तो उन्हें पोस्ट ऑफिस भेज देना।’’ और वह चला गया।
उसके जाते ही पापा बाथरूम चले गए। मैं अपना होमवर्क करने अपनी स्टडी में चली गई और मम्मी रसोई में नाश्ता बनाने लगीं।
अचानक मम्मी के चीखने की आवाज सुनकर मैं और पापा ड्राइंगरूम में आए तो देखा सक्सेना साहब के बच्चे के लिए वर्मा साहब जो मिठाई का डिब्बा दे गए थे उसे इत्मीनान से एक कुत्ता खा रहा था। यह नजारा देखते ही पापा ने अपना सिर पीट लिया और बिना नाश्ता किए ही घर से चले गए।
दो घंटे बाद जब पापा लौटे तो उनके साथ एक ट्रक भी था। आते ही उन्होंने मम्मी से कहा, ‘‘हम तो बाज आए, निचली मंजिल का घर न हुआ सूचना केंद्र हो गया। झटपट सामान लपेटो। मैंने सादतपुर गाँव में इकमंजिल मकान किराए पर ले लिया है, अब हम वहीं रहेंगे।’’

abhisays
17-09-2011, 06:43 PM
मस्त कहानिया है मलेठिया जी, मज़ा आ गया.

malethia
17-09-2011, 06:43 PM
हमसे बस एक ही रोटी बन सकी


हमारी पत्नी बहुत दिनों से घर जाने की जिद कर रही थीं मगर हम हमेशा मना कर देते थे। जब एक बार उन्होंने ताना दिया कि मैं जानती हूँ मेरे बिना घर नहीं सँभल सकता न इसीलिए आप मुझे नहीं जाने देते, तो हमने तुरंत उन्हें उनके घर भेज दिया और कह दिया कि तुम क्या समझती हो हम घर नहीं सँभाल सकते। जाओ, और जब तक तुम्हारा मन करे, अपने घर रहना।
पत्नी के जाने के बाद हम होटल पर खाना खाने लगे थे, मगर जब देखा कि होटल में खाने पर पैसे भी ज्यादा खर्च होते हैं और पेट भी खराब होता जा रहा है तो हमने घर में ही खाना बनाना तय किया। उसी दिन हम खाना बनाने की विधि नाम की एक किताब भी खरीद लाए।
अगले दिन हमने मेज पर किताब खोलकर रख ली और उसमें से पढ़कर एक गिलास आटा थाली में रख लिया। फिर किताब में लिखे अनुसार उसमें नमक मिला लिया। पानी डालकर गूँथ लिया और फिर स्टोव जलाकर उस पर तवा रख दिया। एक रोटी बेलकर तवे पर डाल भी दी। इस तरह एक रोटी तैयार हो गई।
अब हमने दूसरी रोटी बेली और तवे पर डाल दी। मगर अभी तवे पर रोटी डाले एक मिनट भी न हुआ था कि वह तवे से चिपक गई और तीन मिनट में तो जलकर राख हो गई। हमने तीसरी रोटी बेल कर डाली, पर उसका भी दूसरी जैसा ही हाल हुआ और फिर बाकी रोटियों का भी। आखिर मन मारकर हम एक रोटी खाकर रह गए। हमारी समझ में नहीं आया कि बाकी रोटियाँ जल क्यों गईं ?
हमने राजू की मम्मी से जाकर पूछा तो उन्होंने बताया, ‘‘तवा बहुत ज्यादा गरम हो गया होगा और तुमने एक रोटी जलने के बाद तवे को साफ नहीं किया होगा, न स्टोव मंदा किया होगा।’’
दूसरे दिन हम रोटी के झमेले में न पड़कर खिचड़ी बनाने लगे। राजू और रानी भी आ गए थे। हमने स्टोव पर कुकर चढ़ाकर उसमें एक गिलास पानी और एक गिलास चावल-दाल डाल दिए। तभी राजू बोला, ‘‘भाई साहब, दो गिलास पानी और डालिए।’’ तभी रानी बोली, ‘‘नहीं भाई साहब, एक गिलास और डालिए।’’ हमने किताब में देखा। उसमें लिखा था। मनमर्जी। सो हमने तुरंत दो गिलास पानी राजू के कहने पर और एक रानी के कहने पर और एक गिलास अपनी मर्जी से डाल दिया। कुकर बंद कर सीटी लगाई और गप्पें मारने लगे।

इधर हम गप्पें मारते रहे उधर सीटियाँ बजती रहीं। अचानक घड़ाम की आवाज पर हम तीनों ने स्टोव की तरफ देखा। हमारा कुकर जमीन में ओंधा पड़ा था। तमाम खिचड़ी पास में टंगे कपड़ों पर जा लगी थी। हमें काफी देर ढूँढ़ने पर भी कुकर का ढक्कन नहीं मिला। अचानक राजू ने हमें बताया, ‘‘भाई साहब, ढक्कन तो छत से चिपका पड़ा है।’’
अगले दिन इतवार था। हमारे तमाम कपड़े खिचड़ी में सन चुके थे। हमने सोचा, क्यों न आज कपड़े ही धो डालें। हम कपड़े और टब लेकर बाथरूम में जा पहुँचे। टब में कपड़े डालकर नल खोल दिया।
अचानक हमें ध्यान आया कि साबुन तो है ही नहीं। हम तुरंत पैसे लेकर बाजार गए, मगर इतवार को तो हमारे यहाँ का बाजार बंद रहता है। अब क्या हो ? हमने तुरंत बस पकड़ी और दूसरी कॉलोनी जा पहुँचे। वहाँ से साबुन लेकर लौटे तो अपने घर का हाल देखकर हमारी आँखें फटी की फटी रह गईं।
हुआ यह कि हम तो नल बंद करना ही भूल गए थे। इधर इस बीच दो ढाई घंटे नल लगातार चलता रहा सो पूरे मकान और गली में पानी भरा पड़ा था। हमारे कपड़े गली में पानी पर ऐसे तैर रहे थे जैसे समुद्र में मोटरबोट चल रही हो।
हमने झटपट कपड़े समेटे। नल बंद किया और कपड़े व टब कमरे में पटककर मकान में ताला डाल तुरंत पत्नी के मायके जाने वाली गाड़ी में जा बैठे। अगले दिन उन्हें किसी तरह मनामनूकर घर ले आए।
अब उसी दिन से हमारी पत्नी जब देखो तब ताना देती रहती हैं, ‘‘कहो बड़े आए थे घर चलाने वाले। पता लग गया न घर चलाना हँसी खेल नहीं है।’’
अब हम सिर झुकाए चुपचाप उनकी बात सुनने के सिवा कर भी क्या सकते हैं।

malethia
17-09-2011, 07:23 PM
राजा हरिश्चन्द्र के आंसू




वह रो रहा था। सचमुच रो रहा था। जब मैंने उसकी आँखों में टावेल लगाया। कहा, ‘‘भैया, मत रोओ, सिर दुखेगा।’’
उसने कहा, ‘‘होनी को कौन टाल सका है ? देखो, क्या होना था, क्या हो गया।’’ और उसके आंसुओं ने फिर स्पीड पकड़ ली। उसने अचानक पास में रखी हुई मसाला दोचने की लुढ़िया उठायी और अपने सिर पर मारते हुए कहा, ‘‘ले भुगत।’’
उसके सर पर एक बहुत बड़ा गुरमा निकल आया। मैंने टावेल निचोड़कर उसकी आँखों पर रख दिया।

वह फूड इंस्पेक्टर था। यूं उसका रंग वही था, जो भगवान कृष्ण का था, मगर उसके गाल लाल सुर्ख थे। इस सदी में यदि किसी को निखालिस दूध मिलता था, तो उसे ही, क्योंकि वह शहर के होटलों में दूध चेक करता था। उसके बच्चे भी मोटे-ताजे थे और उसकी बीवी गहनों से लदी रहती थी। वह स्वयं घी का व्यापारी नही था पर उसके घर में घी के कनस्तर रखे रहते थे। वह फूड इंस्पेक्टर की नौकरी करता में इतना खुश था कि अगर राष्ट्र के सबसे बड़े पद का आफर भी मिलता, तो वह ठुकरा देता। वह जानता था कि किसी को भी वह एडवांटेज नहीं है, जो फूट इंस्पेक्टर को है।
वह हफ्ते में एक बार शहर के बाहर नाके पर खड़ा हो जाता था और देहात से दूध लाने वाले ग्वालों के दूध में डिग्री लगाता था। यदि दूध में पानी होता, तो वह सैंपल की बोतल भर लेता और गद्वाले से कहता, ‘‘अब कचहरी में मिलना।’’
ग्वाला कहता, ‘‘छोड़ दो मालिक।’’

वह कहता, ‘‘तुम भ्रष्टाचार छोड़ दो।’’
ग्वाला कहता, ‘‘हुजूर, भ्रष्टाचार से तो गृहस्थी चलती है। विशुद्ध दूध बेचूंगा तो शुद्ध गृहस्थी कैसे चलेगी।’’
वह कहता, ‘‘फिर मेरी कैसे चलेगी ?’’
ग्वाला विचार करता।
अब चपरासी कहता, ‘‘अबे, समझा नहीं ? दूध में पानी मिलाता है और अकल नहीं रखता ? चल उधर कोने में।’’
ग्वाला कोने में चला जाता। चपरासी पूछता, ‘‘कितना दूध लाता है ?’’
‘‘बीस सेर।’’
‘‘पानी कितना डालता है ?’’
‘आधा।’’

‘‘साले, भ्रष्टाचार के घूस-रेट फिक्स हैं। अगर तू बीस सेर में दस सेर दूध लाता है तो पांच रुपये हफ्ता देना पड़ेगा। ज्यादा जल डालेगा तो हफ्ते के रेट भी बढ़ जायेंगे।’’
‘‘अगर मैं बिलकुल न मिलाऊं तो ?’’
चपरासी खीझ जाता। कहता, ‘‘अबे, पानी तो मिलाया ही कर। वरना तू क्या खायेगा और हम क्या खायेंगे ? हमारे साहब को भी दूध में पानी मिलाने में एतराज नहीं है। उन्हें एतराज है हफ्ता न देने का। अब तू जा और दूसरे दूध वालों को समझा दे। मिल-जुलकर जो होता है, वह भ्रष्टाचार नहीं होता।’’
ग्वाला टेंट से पांच रुपये निकालता और चपरासी को दे देता। आगे जाकर वह नगरपालिका के नल से और पानी मिला देता, क्योंकि पांच रुपये की चेंट वह क्यों भोगे ?’’
वह रोये जा रहा था। तौलिया भीगकर वजनदार हो गया।
उसने रोते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे पास टिक ट्वेंटी है ?’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं।’’

वह बोला, ‘‘मैं पैसे देता हूं। ला सकते हो ?’’
मैंने कहा, ‘‘आज दुकान बंद है।’’
वह बहुत निराश हुआ और रोने लगा। उस समय वह आत्महत्या करने के मूड में था और मूड का कोई भरोसा नहीं, कब बदल जाये, इसलिए लगातार रो रहा था।
मैंने कहा, ‘‘उठो और मुंह धो लो। तुम्हारी क्या गलती थी ? तुमने तो अपना कर्तव्य किया।’’ वह चिढ़ गया। बोला, ‘‘कर्तव्य ने ही तो मुझे डुबाया। कर्तव्य करके इस जमाने में कौन सुखी हुआ है ?’’
मैंने उसे पहली बार इतना दार्शनिक होते हुए देखा था। दूध की डिग्री से वह दर्शन पर कैसे आ गया, वह एक गोलाईदार बात है ?’’

मैंने कहा, ‘‘फिर तुमने सैंपल की बोतलें फार्वर्ड क्यों कर दीं ?’’
वह बोला, ‘‘बोतलें मैंने तो धमकी देने के लिए धरी थीं। पर वह मिलने नहीं आया तो मैं क्या करूं। ड्यूटी ही कर डाली। नीति कहती है कि जब जनता के साथ बेईमान न हो सको तो सरकार के साथ ईमानदार हो जाओ। अच्छे कर्मचारी की यही परिभाषा है।’’
मैंने कहा, ‘जब इतना समझते हो तो रोते क्यों हो ? आखिर सरकार तो तुमसे खुश है।’’
वह चिढ़ गया। बोला, ‘‘नहीं, सरकार ने भी उस पार्टी का साथ दिया, जिसके खिलाफ मैंने मिलावट का केस चलाया। कर्त्तव्यपरायणता ने मुझे मार डाला। आह !’’ फिर पूरा किस्सा सुनाया।
....कुछ हफ्ते पहले की बात है, वह डिग्री लेकर बाजार में खड़ा था। उसे पता चला कि कुछ नये दूधवालों ने धंधा शुरू किया है और बिना ‘हफ्ता’ दिये मिलावट का दूध बेचते हैं। इससे जनता के स्वास्थ पर भी भारी असर पड़ता था और उसकी कमाई पर भी। सो, उसने चपरासी से कहा, ‘‘देखो कालूराम,’’ मैं सामने मंदिर के पीछे छिप जाता हूं। जैसे ही कुप्पे आयें, तुम पूछ-पूछ कर छोड़ते जाना। जो काम का है, उसे रोक लेना।’’

चपरासी ने कहा, ‘‘जी हाँ, हुजूर। मैं देख लूंगा। फिकर मत करें। यह कोई आज का काम तो है नहीं ?’’
साहब बहुत खुश हुआ और मंदिर के पीछे छिप गया। थोड़ी देर में दूध वाले आने लगे। चपरासी ने पहली साइकिल को रोका। पूछा, ‘‘हफ्ता दे दिया ?’’
दूधवाले ने कहा, ‘‘साहब के घर जाकर दिया है।’’ चपरासी ने साइकिल छोड़ दी। कुछ देर बाद दूसरी साइकिल आयी। यह एक नये दूधवाले की थी। चपरासी ने उसे भी रोका। दूधवाले ने पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’
चपरासी ने कहा दूध में डिग्री लगेगी।’’
दूधवाले ने कहा, ‘‘सबके दूध में लगती है ?’’
चपरासी बोला, ‘‘लग भी सकती है और नहीं भी लग सकती। यह तो हमें तय करना है कि किसके दूध में डिग्री लगेगी। तुमने ‘हफ्ता’ नहीं दिया इसलिए तुम्हारे दूध में लगेगी।’’
‘‘अगर मैं हफ्ता न दूं तो ?’’

चपरासी खिलखिलाकर हंसा। बोला, ‘‘फिर कानून किसलिए है ? यहीं पर तो हम कानून का सहारा लेते हैं।’’
दूधवाले ने कुछ न कहा और जाने लगा। चपरासी ने इशारा किया और साहब मंदिर के पीछे से निकल आये। आते ही बोले, ‘‘ऐ रुको, डिग्री लगेगी।’’
साहब ने डिग्री लगायी। बोतलें भरी और दूध वाले से कहा, ‘‘जाओ, बाद में हमसे मिल लेना। या तो कुछ होगा नहीं या बहुत कुछ होगा। सोच लेना।’’

दूधवाला सर झुकाकर चला गया।....
मैंने कहा, ‘‘यार, चुप भी हो जाओ। देखो पूरी दरी भीग गयी है।’’
वह कहने लगा, ‘‘अजातशत्रु भाई, मैंने तीन दिन दूधवाले की राह देखी। बोतलें जाँच के लिए नहीं भेजीं। सोचा कि वह जरूर आयेगा। शुद्ध दूध कब तक बेचेगा, पर वह नहीं आया। लाचार होकर मैंने सैंपल की बोतलें ‘फारवर्ड’ करवा दीं। तुम्हीं बताओ, जब घूस न मिले तो अपनी ड्यूटी नहीं करनी चाहिए ?’’
मैंने कहा, ‘‘करनी चाहिए।’’
उसे राहत हुई और उसने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘और, भैया, थोड़े ही दिनों में ‘पब्लिक एनालिस्ट’ (दूध-विश्लेषक) की रिपोर्ट आ गयी। उस दूध वाले पर केस कायम हो गया। दूध में पानी निकला।’’
मैंने कहा, ‘‘ठीक है, उसे सजा मिलनी चाहिए।’’

वह बिगड़ उठा। बोला, ‘‘जानते-समझते नहीं हो, बीच में क्यों बोल पड़ते हो। कल शाम को ही उस दूधवाले के एक रिश्तेदार आए थे। वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मेरे मित्र हैं। उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘यार डायन भी एक घर छोड़ देती है तुमने हमारे आदमी का ही दूध पकड़ लिया।’
‘मैं बहुत लज्जित हुआ, क्योंकि पिछले साल जब मेरे खिलाफ नगर भ्रष्टाचार उन्मूलन युवक समिति ने शासन को लिखा था और रातोंरात मेरा तबादला करवाया था, तब इन्हीं सज्जन ने मेरा ट्रांसफर रुकवाया था और उक्त समिति के नेता को पिटवाया था।’’

‘‘तुमने उन्हें क्या सफाई दी ?’’ मैंने पूछा।
वह बोला, ‘‘मैंने जवाब दिया कि मामा जी, अगर मुझे पता चलता कि यह आपके आदमी का दूध है तो मैं खुद उसे सलाह देता कि पानी डाल ले, पर उसने भी कुछ नहीं बताया। फिर मैंने बोतल भी खोल रखी थी, पर वह नहीं आया। अब तो मैं कुछ कर नहीं सकता। उसे बचाऊंगा तो खुद फस जाऊंगा।’’
इतना कहकर वह चुप हो गया और गर्दन नीचे झुका ली।
मैंने बाल-जिज्ञासा से पूछा, ‘‘अब क्या होगा ?’’

‘‘होगा क्या ? हो चुका है।’’ उसने कहा, ‘‘उस दूधवाले के रिश्तेदार ने ऊपर जाकर मेरा ट्रांसफर करा दिया है। कहा है, ‘‘और लगा ले दूध में डिग्री ?’’ और इतना कहकर वह दहाड़ें मार कर रो उठा। मेरे पास अब गद्दा बचा था, इसलिए मैंने उसे ही उसकी आंखों से लगा दिया। वह रोते हुए कहता जा रहा था, ‘‘देखो, मैंने अपनी ड्यूटी की, तो सरकार ने ट्रांसफर कर दिया। अब कितना भरोसा करूं—ईमान का या बेईमानी का ?’’
गद्दा गीला होता जा रहा था। मुझे उसकी चिंता थी।

sagar -
17-09-2011, 09:10 PM
मजेदार कहानिया हे ...

MissK
17-09-2011, 11:02 PM
लाजवाब कहानियों का संग्रह है आपके सूत्र में मलेठिया जी!!:coolspeak:

malethia
17-09-2011, 11:38 PM
लाजवाब कहानियों का संग्रह है आपके सूत्र में मलेठिया जी!!:coolspeak:
सूत्र भ्रमण व प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद ..........

malethia
09-11-2011, 09:53 PM
(घर की छत के ऊपर से हवाई जहाज के उड़ने की आवाज, अखबार पलटने की आवाज।)
गेंदा सिंह- अरे शकुंतला सुनती हो । जरा इधर आना ।
शकुंतला – क्या है? मैं किचन में बिजी हँ । वहीं से बता दीजिये ।
गेंदा सिंह- अरे दो मिनट के लिये इधर तो आ जाओ । एक बड़ी बढ़िया खबर छपी है ।
शकुंतला – देखिये अगर मैं सवेरे सवेरे अखबार पढ़ने ल्रगूंगी तो शिव शंकर को स्कूल जाने में देर हो जायेगी और आप भी आफिस लंच के समय ही पहुंचोगे ।
गेंदा सिंह- अरे जरा इधर तो आओ । अखबार में ऐसी खबर छपी है कि अगर यह बात सच हो जाये तो तुत्हारा बचपन का सपना सच हो जाये ।
शकुंतला – (कमरे में आती है) देखिये मेरे बचपन के सपनों की तो आप बात मत ही कीजिये । जब से ब्याह कर आयी हँ एक भी सपना आपने सच नही किया, इसलिये अब न तो सपने देखती हँ और न ही पुराने सपनों को याद करती हूँ । हाँ एक सपना मैंने बहुत दिन तक देखा था कि मैं इंटर पास हो जाऊं । पर इस घर-गृहस्थी के चक्कर में मेरा वह सपना भी टूट गया । अब तो मेरा यह सपना मेरा बेटा शिव शंकर ही पूरा करेगा । आप से तो कोई उम्मीद करना ही बेकार है।
गेंदा सिंह- अरे देवी जी धीरे बोलो । क्यों तुम पड़ोसियों को मेरा बायो-डेटा बताने पर तुली हो ? बड़ी मुश्किल से तो तीन बार में किसी तरह इंटर और पांच साल में बी.ए. पास की है । अब क्या तुम्हारे लिये मैं फिर इंटर की परीक्षा में बैठूं ।
शकुंतला – अब जल्दी से अपनी बात बोलिये क्यों गडे मुर्दे उखाड़ रहे हैं । दाल चढ़ा कर आयी हँ । जल गयी तो शिवू बिना खाये ही चला जायेगा ।
गेंदा सिंह – देखो अखबार में लिखा है कि लातविया के वैज्ञानिक एक टू सीटर हवाई जहाज बना रहे हैं, जो हल्का और छोटा तो है ही, उसकी कीमत भी मात्र पांच लाख रूपये है ।
शकुंतला – कल से ये पेपर मंगाना बंद । पहली अप्रेल निकले दो महीने हो गये और ये लोग अप्रेल फूल आज मना रहे हैं । मेरी सब्जी जल रही है । दाल भी जल गई तो शिवू बिना खाना खाये ही चला जायेगा । आप फ्र्री फंड में बैठे हैं तो आप ही पढ़िये । दस मिनट बाद जब नल चला जायेगा तब बैठ कर खाली बाल्टी झांकियेगा । मैं चली । (बड़बड़ाते हुये) मुंआ न जाने कैसा इनका दफ्तर भी है, जो ग्यारह बजे के पहले खुलता भी नहीं । अभी वो ज्ञान चंद भी आ जायेगा कचहरी जामने के लिये ।
गेंदा सिंह – हुंह दसवीं पास । जब भी हवाई जहाज छत के ऊपर से गुजरता है तो आंगन में खड़ी हो जाती है । बचपन का सपना है कि हवाई जहाज में बैठेंगी । अब जब हवाई जहाज इतना सस्ता होने जा रहा है तो अखबार बंद कर दो ।
(डोर बेल बजने की आवाज और शकुंतला की किचन से आवाज)
शकुंतला - सुनिये, दरवाजा खोल दीजिये । ज्ञानजी आये होंगें ।
(दरवाजा खुलने की आवाज)
गेंदा सिंह- आओ भाई ज्ञान चंद । बिटिया को स्कूल छोड़ आये ।
ज्ञान चंद- हाँ । छोड़ आया । और क्या खबर है अखबार में ?
गेंदा सिंह- अमां यार ये डेली धमाका अखबार रोज कोई न कोई धमाका करता रहता है । अब बताओ भला पांच लाख रूपये में कहीं हवाई जहाज भी मिल सकता है । बैठे बैठे ख्याली पुलाव पकाते हैं और हम लोगों को खिलाते हैं ।
ज्ञान चंद- क्या कह रहे हो गेंदा सिंह । पांच लाख में हवाई जहाज ? कौन बना रहा है ? कहाँ छपा है? दिखाइये हम भी तो देखें ।
गेंदा सिंह- लो तुम भी पढ़ लो । ये सबसे ऊपर छपा है । ‘अब पांच लाख में मिलेंगे हवाई जहाज‘ ।
( अखबार के पन्ने पलटने की आवाज)
ज्ञान चंद- अमां क्या खाक पढ़ूं । चश्मा तो घर पर ही भूल के आ रहा हूँ । तुम ने खबर पढ़ी होगी तुम ही बता दो क्या लिखा है अखबार में ।
गेंदा सिंह- तुम भी यार, भाभी को तो बिना चश्मे के भी एक किलोमीटर दूर से पहचान लेते हो और अखबार पढ़ने के लिये चश्मा लगाते हो ।
ज्ञान चंद- तुम से कितनी बार कहा है कि मेरी दुखती रग पर पांव मत रखा करो ।
गेंदा सिंह- दुखती रग पर हाथ रखा जाता है ज्ञान चंद, पैर नहीं । थोड़ा मुहावरों पर तो रहम किया करो । ज्ञान चंद- वही यार, एक ही बात है। चाहे पैर रखो या हाथ । दर्द तो दुखती रग को ही होना है न, फिर पैर रखना मुहावरे की सुपरलेटिव डिग्री है । तो मैं कह रहा था कि शिकारी शेर के शिकार के लिये जिस बकरी को चारे के लिये इस्तमाल करता है, उस बकरी को शेर की गंध दूर से ही पता चल जाती है । मैं भी अपनी बीबी के सामने बकरी ही हँ । वो हर रोज मेरा शिकार करती है ।



जारी...........

malethia
09-11-2011, 09:55 PM
गेंदा सिंह- चलो छोड़ो भी तुम तो खामखाह अच्छी भली भाभी को बदनाम करते फिरते हो । फिर ताली एक हाथ से नहीं बजती है ।
ज्ञान चंद- छोड़ो ये सब बातें तुम तो वो हवाई जहाज की कहानी बताओ । इतना सस्ता जहाज बना कौन रहा है ।
गेंदा सिंह- हाँ तो सुनो, लातविया एक देश है । वहाँ के वैज्ञानिक लोग लगे हैं एक सस्ता, हल्का, टिकाऊ और छोटा सा हवाई जहाज बनाने में । कीमत होगी मात्र नौ हजार डॉलर । यानि की पचास से गुणा करने पर भारतीय रूपये में होगा साढ़े चार लाख रूपये । पचास हजार तुम टैक्स वगैरह जोड़ लो । इस तरह से पांच लाख रूपये का इंतजाम करना पड़ेगा । बस ।
ज्ञान चंद- हूँ! बात तो तुम ठीक कह रहे हो पर विश्वास नही होता है गेंदा सिंह जी । इतना सस्ता हवाई जहाज ?
गेंदा सिंह- बात तो तुम्हारी भी ठीक है, पर ज्ञान चंद आज विज्ञान इतना तरक्की कर गया है कि आज सब कुछ संभव है । फिर हमें थोड़े ही बनाना है जहाज । यह तो लातविया वालों का सिर दर्द है । हमें तो बस पांच लाख रूपये इकट्ठे करने हैं और इंतजार करना है कि कब यह जहाज बन कर तैयार होगा और कब भारत में बिकने के लिये आयेगा । यार जब से पढ़ा है सब्र नहीं होता ।
ज्ञान चंद- गेंदा सिंह जी और भी तो कुछ छपा होगा अखबार में जहाज के बारे में ।
गेंदा सिंह- हाँ हाँ क्यों नहीं । ये जहाज बनेगा फाइबर और डयूरालोमिनियम से ।
ज्ञान चंद- कौन से मिलेनियम से ?
गेंदा सिंह- अमां यार मिलेनियम से नहीं डयूरालोमिनियम से । इस जहाज को उड़ने के लिये एक छोटी सी हवाई पट्टी की जरूरत पड़ेगी । सो इसके लिये अपनी छत से काम चल जायेगा । मकान मालिक माधो जी थोड़ा बड़बड़ायेगें पर उनको एकाध बार जहाज में घुमा दिया जायेगा तो वो भी खुश हो जायेंगे । छत पर एक फूस की मड़ई है । अपना पुष्पक विमान रात में वही विश्राम करेगा । इस जहाज में वैसे तो दो इंजन होंगे पर वह उड़ेगा एक से ही । बस टेक ऑफ के समय दो इंजनों की जरूरत पड़ेगी ।
ज्ञान चंद- ये बढ़िया है । एक इंजन से उड़ेगा तो पेट्रोल की बचत भी होगी और पैसों की भी । कंबख्त पेट्रोल वैसे भी आज कल 54 रूपये लीटर चल रहा है । इसी बहाने हम लोग पेट्रोल पंप का मुंह भी देख लेंगे क्योंकि अपनी मर्सडीज में तो सिर्फ बरसात बाद ही ऑयलिंग ग्रीसिंग होती है ।
गेंदा सिंह- ज्ञान चंद चुप कर । मुझे पहले जहाज की खबर तो पूरी सुना लेने दे फिर अपना ज्ञान बांचना । और साइकिल को मर्सडीज मत कहा कर । मर्सडीज वालों ने सुन लिया तो अपने सिर के बाल नोंच डालेंगे ।

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malethia
09-11-2011, 09:58 PM
ज्ञान चंद- देखिये गेंदा सिंह जी मेरे लिये तो वह टुटही साइकिल मर्सडीज से कम नहीं है । आप जहाज के बारे में आगे बताइये ।
गेंदा सिंह- इस जहाज में सुरक्षा के भी बेहतरीन इंतजाम होंगे । किसी भी दुर्घटना के समय इसकी सीट आपको पैराशूट के साथ बाहर फैंक देगी ।
ज्ञान चंद- जहाज का बीमा तो होगा ही इसलिये नुकसान की भी चिंता नहीं होगी । क्या बात है ! आर्थिक और शारीरिक दोनों ही नुकसान से बचाव हो जायेगा ।
(हवाई जहाज की आवाज)
गेंदा सिंह- अरे सक्कू आज तो जल्दी तैयार हो जाती । (बड़बड़ाता है) ये औरतें भी तैयार होने में इतना समय लगाती हैं कि इतने में चिड़िया खेत चुग कर अंडे भी दे देगी । (तेज आवाज में) अरे तुम्हारा मेकअप नीचे से दिखाई नहीं देगा । हम लोग शहर का एक चक्कर लगा कर लौट आयेंगे ।
शिव शंकर- पापा, पापा में तो तैयार हो गया ।
गेंदा सिंह- ओये राजाबाबू, ये स्कूल का बस्ता क्यों पीठ पर लादे हुये है? तेरे स्कूल में इत्ती जगह नहीं की हमारा जहाज लैंड कर सके । आज तेरी छुट्टी है । जा कर अपनी माता जी को ले कर आ ।
शकुंतला- गला फाड़ कर क्यों चिल्लाते रहते हो । एक तो वैसे ही कौन सा घुमाने ले जाते हो । साल में एकाध बार घुमाने ले जाते हैं तो क्या ढंग के कपड़े भी न पहनूं । और सुनिये जरा सुशीला के घर भी होते चलियेगा, उसको पांचवा बच्चा हुआ है, उसका हाल चाल लेते चलेंगे ।
गेंदा सिंह- सक्कू डार्लिंग, रिश्तेदारों को जलाने के लिये फिर कभी चले चलेंगे । आज तो इस जहाज का फैमिली ट्रायल लिया जायेगा । शहर का एकाध चक्कर लगा कर घंटे भर में लौट आयेंगे ।
शकुंतला- मैंने तो पिक्चर का भी प्लान बनाया था । प्लाजा में जय संतोषी माँ लगी है । शुक्रवार का दिन है देख लेते तो बड़ा पुण्य होता ।
गेंदा सिंह- सक्कू प्लाजा में कार पार्क करने की तो जगह है नहीं । लोग गली में खड़ी कर देते हैं । अपना जंबो जेट वहाँ कहाँ खड़ा होगा । छत भी उस पिक्चर हॉल की टीन की बनी है कि वहीं खड़ा कर देते । पिक्चर फिर दिखला दँगा ।
शकुंतला- बहाना मत बनाइये । जहाज ले कर आफिस चले जायेंगे और उस मुई सुलेखा को हर दिन घर छोड़ते हुये आयेंगे । सब जानती हूं मैं ।
गेंदा सिंह- अरे उस बिचारी सुलेखा ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है । मूड मत घराब करो मेरा, जल्दी से जहाज में बैठा जाओ । आज पहली बार जहाज उड़ाने जा रहा हूँ, फे्रश मूड से जहाज उड़ाने दो मुझे।
शकुंतला- हुंह ।
शिव शंकर- पापा मैं कहाँ बैठूं । यहाँ तो सिर्फ दो ही सीट है ।
गेंदा सिंह- बेटा तू मम्मी की गोद में बैठ जा । कल तेरे वास्ते एक छोटी सी सीट इसमें लोहार से बैल्ड करवा दूंगा ।
(जहाज के घुरघुराने की आवाज)
शकुंतला- क्यों जी ये स्टार्ट क्यों नहीं हो रहा है ।
गेंदा सिंह- पता नहीं क्या बात है । कोशिश तो कर रहा हँ ।
शकुंतला- कंपनी वालों को पहले एकाध बार चला कर दिखाना चाहिये था । ट्रक पर लाद कर लाये और क्रेन से उठा कर छत पर रख कर चले गये । देखिये किताब में कुछ दिया होगा । कुछ अंजर पंजर तो बने थे किताब में ।
शिव शंकर- पापा रिंकी के पापा का स्कूटर जब र्स्टाट नहीं होता तो वो उसको टेढ़े कर के र्स्टाट करते हैं!




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malethia
09-11-2011, 10:00 PM
गेंदा सिंह- अरे हाँ । चोक लेना तो भूल ही गया था । लो अब र्स्टाट हो जायेगा ।
(जहाज के र्स्टाट होने की आवाज और उड़ने की आवाज)
शकुंतला- एजी सुनिये । आप बहुत तेज जहाज उड़ाते हैं । मुझे चक्कर आ रहा है । थोडा धीरे उड़ाईये ।
गेंदा सिंह- अरे ये साइकिल नहीं है, पांच लाख का हवाई जहाज है । धीरे धीरे साइकिल चलती है जहाज नहीं । …..वो देखो तुम्हारा मायका आ गया । हमारे फादर इन लॉ निकर पहन कर छत पर बैठे लाल मिर्च सुखा रहे हैं । ऊपर से ही प्रणाम कर लो अपने पिता जी को ।
शिव शंकर- पापा मामाजी भी बैठे हैं दीवार के पीछे । नाना जी से छुप कर नावेल पढ़ रहे हैं ।
गेंदा सिंह- कितनी बार मना किया है साले को की नॉवेल पढ़ना छोड़ कर कोर्स की किताब पढ़ा कर । पर लगता है ये चौथी बार भी हाई स्कूल पास नहीं कर पायेगा ।
शकुंतला- आप को तो बहाना चाहिये मेरे भाई को डाटने का ।
गेंदा सिंह- काम ही ऐसा करता है तो क्या करें ।
शकुंतला- सुनिये, सरिता दीदी के घर की तरफ चलिये न । जीजा जी भी घर पर होंगे ।
गेंदा सिंह- चलेंगे, चलेंगे । अगले इतवार सबके यहाँ चलेंगे । आज इसका एवरेज वगैरह तो नाप लिया जाये, कि पता चला बीच रास्ते में पेट्रोल खत्म हो गया तो कहीं सड़क पर उतारना पड़ जायेगा।
शकुंतला- देखते हैं आपको अगले इतवार तक याद रहता है कि नहीं ।
गेंदा सिंह- अरे वो नीचे देखो, ज्ञान चंद अपनी दादाजी की साइकिल पर सब्जी मंडी से सब्जी खरीद कर आ रहा है । (चिल्ला कर) ओ ज्ञान । ज्ञान चंद ऊपर देख । ज्ञान… चंद.. ।
शकुंतला- अरे चुप भी रहिये । पूरा शहर देख रहा है आपको । ऐसे हलक फाड़ कर चिल्लायेंगे तो शहर भर की चीलें जहाज के पास इक्कठी हो जायेंगी ।
गेंदा सिंह- सलाह के लिये शुक्रिया ।
शिव शंकर- वो देखिये पापा कितनी पतंगे उड़ रही हैं । एक पतंग तोड़ कर दीजिये न ।
गेंदा सिंह- ना, ना । हाथ खिड़की से बाहर नहीं निकालते शिवू । हाथ अंदर करो । उड़ते जहाज में से हाथ पैर बाहर नहीं निकालते । एक्सीडेंट हो जायेगा ।
शिव शंकर- पापा एक ठो पतंग लूट लेने दो । बस एक ठो ।
गेंदा सिंह- नहीं, नहीं । हाथ अंदर करो । नहीं, नहीं ।
(हवाई जहाज की आवाज)
ज्ञान चंद- अरे सिंह साहब क्या हो गया आपको । ये बैठे बैठे क्या नहीं नहीं करने लगे । जहाज खरीदने का विचार त्याग दिया क्या आपने ।
गेंदा सिंह- (संभल कर) हाँ, हाँ । क्या । कुछ नहीं । कुछ नहीं । क्या कह रहे थे ।
ज्ञान चंद- मैं कह रहा था कि जहाज का बीमा तो होगा ही ।
गेंदा सिंह- हाँ, हाँ, क्यों नहीं होगा । साईकिल थोड़े ही है जो बीमा वाले छोड़ देंगे । बीमा तो करवाना ही पड़ेगा ।
ज्ञान चंद- करवा लेंगे । बीमा भी करवा लेंगे । इतनी मंहगी चीज जो है । चोरी चकारी का भी तो डर लगा रहता है ।
गेंदा सिंह- लेकिन इस जहाज को लेकर हवाई प्रशासन थोड़ा परेशान है ।

ज्ञान चंद- वो किसलिए ।
गेंदा सिंह- वो इसलिये, जहाज सस्ता हो जायेगा तो हर कोई मारूति 800 छोड़ कर जहाज पर ही चलेगा । आसमान में ट्रैफिक जाम होगा, एक्सीडेंट होगा । ऊपर आसमान में टै्रफिक लाइटें और सिग्नल लगाने पड़ेंगे । कोई आदमी टै्रफिक के नियम तोड़ कर भागेगा तो टै्रफिक पुलिस वाला बुलेट पर बैठ कर तो उसको चहेटेगा नहीं । उस को भी तो एक हवाई जहाज चाहिये कि नहीं, दौड़ा कर पकड़ने के लिये ।


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malethia
09-11-2011, 10:01 PM
ज्ञान चंद- बरोबर बोलते हो गेंदा सिंह जी । खर्च तो प्रशासन का भी बढ़ जायेगा । उनकी वो जाने, मैंने तो अपने खर्च का हिसाब मन ही मन लगा लिया है ।
गेंदा सिंह- कैसा हिसाब मन ही मन में लगा लिया हुजूर ने ।
ज्ञान चंद- देखिये गेंदा सिंह जी अगर कोई ऐसा जहाज बन कर मार्केट में बिकने आता है तो मैंने उसको खरीदने का निश्चय कर लिया है । पांच लाख होती क्या चीज है । आज कल तो छोटी मोटी कार पांच लाख की आती है । और फिर सरकार के लिये पांच लाख रूपये क्या मायने रखते हैं ।
गेंदा सिंह- क्या मतलब । आप सरकार के पैसों से जहाज खरीदना चाहते हैं । वह कैसे ?
ज्ञान चंद- आप तो जानते ही हैं कि मेरी मर्सडीज, जिसे आप साइकिल कहते हैं, वह मेरे दादाजी के जामाने की है । एंटीक पीस है । पुरातत्व वाले हाथ धो कर उसके पीछे पड़े हुये हैं । उस साइकिल का तो ऐतिहासिक महत्व भी है ।
गेंदा सिंह- ऐतिहासिक महत्व भी है । वह कैसे ?
ज्ञान चंद- अरे आप को नहीं पता । पूरे मोहल्ले को पता है । सन 1939 के चुनाव में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने इसी साइकिल पर चढ़ कर कन्वेसिंग की थी । मेरे दादाजी भी कांग्रेस के चवन्निया मेंम्बर थे । इस तरह से हुई न ऐतिहासिक साइकिल । मैं सरकार से दरख्वास्त करूंगा कि इस राष्ट्रीय संपत्ति को अब मैं राष्ट्रीय संग्रहालय को सौंपना चाहता हँ और बदले में अगर वो मुझको कोई मूल्य देना चाहती है तो मुझको कतई इंकार नहीं होगा । मैं दान दहेज को गलत मानता हूँ, इसलिये अपनी यह साइकिल राष्ट्रीय संग्रहालय को दान नहीं करूंगा । इससे सरकार की भी बेइज्ज़ती होगी कि बताओ इत्ती बड़ी सरकार हो करके एक पुरानी कबाड़ साइकिल का मूल्य भी नहीं चुका सकती । बस केवल दस लाख की ही तो बात है ।
गेंदा सिंह- दस लाख रुपये ! इतने रूपयों का तुम क्या करोगे । जहाज तो पांच लाख में ही आ जायेगा।
ज्ञान चंद- जहाज तो पांच लाख में तो आ जायेगा पर पेट्रोल भी तो भरवाना पड़ेगा । दो तीन साल के पेट्रोल का भी तो इंतजाम करना पड़ेगा ।
गेंदा सिंह- वाह भाई ज्ञान चंद तुम्हारा तो इंतजाम हो गया । पर मेरी साइकिल को कौन खरीदेगा । वह तो अभी मात्र 32 साल ही पुरानी है । चुनाव में तो नहीं, हाँ एक बार दंगे में फंस गई थी सो 15 दिन थाने में पड़ी रही । पुलीस वालों ने 15 दिन इस पर खूब सवारी ठोंकी । वापस आने पर 200 रूपये ओवरहालिंग में लगे सो अलग ।
ज्ञान चंद- भाई गेंदा सिंह जी आज कल इतने एक्सीडेंट होते हैं उसकी एक बड़ी वजह है कि लोग बाग पी पा कर गाड़ी चलाते हैं । अब ऐसे ही जहाज भी उड़ाने लगे तो हो गया । अपना तो मरेंगे ही, जिसके सिर पर कूदेंगे वो भी बेचारा गया काम से ।
गेंदा सिंह- हाँ ये तो है ही । … एक आइडिया आया है दिमाग में । विज्ञान इत्ता तरक्की कर गया है तो एक मशीन ऐसी बनाये जो जहाज में हेंडिल के पास फिट हो सके । वो मशीन पायलट की नाक सूंघ कर यह पक्का करे कि ड्राईवर पी पा कर तो नहीं आया है । जहाज का कम्प्यूटर घुसते ही चेतावनी दे-दे कि नशा पत्ती करने वाले, नशा उतरने के बाद ही जहाज पर चढ़ें, नहीं तो मरे।
ज्ञान चंद- ये आइडिया ठीक रहेगा ।
( शकुंतला का कमरे में प्रवेश )
शकुंतला- यात्रियों को सूचित किया जाता है कि हमारा जहाज भटिंडा पहुंच चुका हैं, कृपया अपनी अपनी बेल्ट बांध लीजिये । बाहर का तापमान 25 डिग्री सेल्सीयस है और चाय का तापमान 98 डिग्री । लीजिये ज्ञान भइया गर्म गर्म चाय पीजिये । बहुत आसमान में उड़ चुके अब धरती पर उतरिये । (गेंदा सिंह से) शिव शंकर कब का बस्ता लटका कर तैयार बैठा है । उसको आज फिर स्कूल के लिये देरी हो जायेगी । आपकी साइकिल उसने कपड़े से रगड़ कर चमका दी है । उसको ही हवाई जहाज मान कर अब काम पर निकलिये ।
गेंदा सिंह- अरे! दस बज गये । आज फिर देरी हो गई । ये अखबार वाले भी कहाँ कहाँ की उड़ा कर ले आते हैं और हम लोग भी हंस की चाल चल देते हैं ।
ज्ञान चंद- हाँ गेंदा सिंह जी ऐसी खबरें तो हर दिन निकला करती हैं कि पानी से चलेंगी कारें, हवा से चलेंगी गाड़ियां । पर जब तक चलेंगी हम लोग दादा-नाना बन चुके होंगे ।
गेंदा सिंह- और हम लोग अभी से ही ख्याली पुलाव पका कर खाये जा रहे हैं । चल भइये ज्ञान चंद तेरे को भी तो ऑफिस की देर हो रही होगी ।
ज्ञान चंद- हाँ हाँ, चलता हूँ । जरा चाय तो पी लूँ । आपके जहाज के चक्कर में मैं तो अपनी मर्सडीज ही बेचने जा रहा था । उसका मुकाबला भला कोई हवाई जहाज क्या कर सकता है । न पेट्रोल की जरूरत और न लाइसेंस की । …..वाह भाभी, आपकी चाय का भी जवाब नहीं । ऐसी कड़क चाय तो दार्जलिंग वालों को भी नसीब नहीं होती होगी ।
(साइकिल की घंटी की आवाज)
शिव शंकर- पापा जल्दी चलिये । आज फिर स्कूल को देरी हो गई ।
गेंदा सिंह- ओये ठहर जा अपने बाप के पुत्तर । मेरे कू तैयार तो हो लेने दे ।
(उड़ते हुये जहाज की आवाज )

Anwar Raj Singh
21-01-2012, 02:44 PM
Ati sunder kahani

abhisays
30-04-2012, 12:26 PM
bahut hi acchi कहानिया हैं...

ndhebar
30-04-2012, 02:50 PM
भई................. मजा आ गया

abhisays
14-06-2012, 05:24 PM
malethia ji,, kya aur bhi kahaniya hain.. :horse:

malethia
08-11-2012, 04:10 PM
जैसे को तैसा


एक जमींदार के लिए उसके कुछ किसान एक भुना हुआ मुर्गा और एक बोतल फल का रस ले आए. जमींदार ने अपने नौकर को बुलाकर चीजें उनके घर ले जाने को कहा. नौकर एक चालाक, शरीर लड़का था. यह जानते हुए जमींदार ने उससे कहा, "देखो, उस कपड़े में जिंदा चिड़िया है और बोतल में जहर है. खबरदार, जो रास्ते में उस कपड़े को हटाया, क्योंकि अगर उसने ऐसा किया तो चिड़िया उड़ जाएगी. और बोतल सूंघ भी ली तो तुम मर जाओगे. समझे?"

नौकर भी अपने मालिक को खूब पहचानता था. उसने एक आरामदेह कोना ढूंढा और बैठकर भुना मुर्गा खा गया. उसने बोतल में जो रस था वह भी सारा पी डाला. एक बूंद भी नहीं छोड़ा.

उधर जमींदार भोजन के समय घर पहुँचा और पत्नी से भोजन परोसने को कहा. उसकी पत्नी ने कहा, "जरा देर ठहरो. खाना अभी तैयार नहीं है." जमींदार ने कहा, "मैंने जो मुर्गा और रस की बोतल नौकर के हाथ वही दे दो. वही काफी है."

उसके गुस्से की सीमा न रही जब उसकी पत्नी ने बताया कि नौकर तो सुबह का गया अभी तक लौटा ही नहीं.

बिना कुछ बोले गुस्से से भरा जमींदार अपने काम की जगह वापस गया तो देखा नौकर तान कर सो रहा है. उसने उसे लात मारकर जगाया और किसान द्वारा लाई गई भेंट के बारे में पूछा.

लड़के ने कहा, "मालिक, मैं घर जा रहा था तो इतने जोर की हवा चली कि मुर्गे के ऊपर ढका कपड़ा उड़ गया और जैसा आपने कहा था, वह भी उड़ गया. मुझको बहुत डर लगा कि आप सज़ा देंगें और मैंने बचने के लिए बोतल में जो जहर था वह पी लिया. और अब यहाँ लेटा-लेटा मौत के आने का इंतजार कर रहा था."

malethia
08-11-2012, 04:16 PM
अभी भी हैं ऐसे लोग*.....प्रभुदयाल श्रीवास्तव

"एक मीठा पान लगा देना भाई,जरा जल्दी करना आफिस के लिये देर हो रही है। '
मैं अपना मोपेड वाहन साईड स्टेंड पर लगाकर और आदेश देकर पान का इंतजार करने लगा। दुकान में और भी ग्राहक अपनी बारी के इंतजार में खड़े थे मेरी तरफ देखकर मुस्कराने लगे। इधर दूकानदार ने भी एक उचाट सी नज़र मेरी ओर डाली और हँसने लगा।

पास में खड़े ग्राहक मुस्करा रहे हैं और दूकानदार हंस रहा है. मैं कुछ सतर्क सा हो गया क्या बात है। मैंने अपने कपड़ों की तरफ दृष्टि पात किया कि शायद गलत या उल्टे सीधे कपड़े तो नहीं पहन रखे हैं। अथवा किसी ने गधा मूरख या पागल जैसा जुमला लिखकर शर्ट अथवा पेंट पर तो नहीं चिपका दिया है। परंतु जब ऐसा कुछ नहीं दिखा तो मैंने पैरों की तरफ देखने का प्रयास किया शायद एक पैरों में बेमेल जूते पहन लिये हों आथवा जुराबें दूसरी दूसरी... पर ऐसा कुछ नहीं था। मैं सोच ही रहा था कि मैं हास्य का केन्द्र बिंदु क्यों बन रहा हूं मुझे दुकान दार की प्रेम सॆ सनी मीठी सी आवाज़ सुनाई दी "भाई साहिब ये मेडिकल स्टोर है, पान की दुकान तीन दुकानें छोड़कर आगे है। "मैंने दुकान की ओर ठीक से निहारा तो जैसे मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया। बुरी तरह से झेंप गया। मेडिकल स्टोर में जाकर पान की फरमाइश कर बैठा था।

सारी कहकर जैसे ही मैं मुड़ने को हुआ दुकानदार बोला को ई बात नहीं भाई साहब मैं पान यहीं बुलाये देता हूं। इससे पहले मैं कुछ बोल पाता उसने अपने नौकर को पान की दुकान से पान लेने भेज दिया।

"दरअसल आपकी दुकान और पानवाले की दुकान का काउंटर एक जैसा है मैं धोखा .... मैंने सफाई देना चाही।

'हो जाता है कभी कभी.........."दुकानदार हंस रहा था।

मैं सोच रहा था अभी भी दुनिया में ऐसे लोग हैं जो भावनाओं की कद्र करना.......

" भाई साहब आपका पान" नौकर की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने पैसे देना चाहे।

"मेडिकल स्टोर से पान खाने पर पैसा नहीं लगता। "

Awara
11-01-2013, 11:03 AM
बहुत ही रोचक कहानियाँ हैं :bravo:

rafik
25-08-2014, 04:35 PM
अभी भी हैं ऐसे लोग*.....प्रभुदयाल श्रीवास्तव

"एक मीठा पान लगा देना भाई,जरा जल्दी करना आफिस के लिये देर हो रही है। '



हास्य से भरपुर कहानी