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View Full Version : हिन्दू धर्म - हज़ार करम ???


amit_tiwari
24-11-2010, 08:06 PM
सूत्र का शीर्षक एक काफी कही सुनी जाने वाली कहावत है किन्तु सूत्र का उद्देश्य धर्म को चुनौती देना या देवी गीत लिखना नहीं है |

मेरे अपने अध्ययन में मैंने हिन्दू धर्म को धर्म से बढ़कर ही पाया है |
अब इसे सनातन धर्म कहा जाता था आदि आदि इत्यादि सभी को पता है | उस सबसे अलग कुछ बातें हैं जो मन जानना चाहता है, दिमाग समझना चाहता है और अबूझ को पाने की लालसा तो होती ही है |
हिन्दू धर्म की कुछ ऐसी बातें हैं जो बेहद अछूती हैं जैसे ;


हमारे धर्म में इतने सारे देवता हैं, इनका प्रादुर्भाव कहाँ से हुआ ?
इतने वेद पुराण हैं, इनका धर्म के अस्तित्व, जन्म, विकास और हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है !
रामायण, महाभारत आखिर क्या हैं और क्यूँ हैं ?
द्वैतवाद, अद्वैतवाद, अघोरपंथ, नाथपंथ, सखी सम्प्रदाय, शैव, वैष्णव या चार्वाक इनका सबका अर्थ क्या है? इनका अस्तित्व है या नहीं और यदि है तो एकसाथ कैसे बना हुआ है ?
क्या हिन्दू धर्म आज के भौतिक युग में प्रासंगिक है ? और किस सीमा तक है ?


ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिन पर कुछ विचार मेरे पास हैं, बाकी सबसे सुनने की अभिलाषा है अतः यथासंभव योगदान देते चलें |

नोट : देवीगीत, आरती, भजन, किसी बाबा की कथा या कही और का लेख ना छापें |
यहाँ मैं विचारों का समागम, संगम देखना और करना चाहता हूँ जिनका लेखक का अपना होना अनिवार्य है अतः भावनात्मक उत्तर प्रतिउत्तर ना करें |

-अमित

jalwa
24-11-2010, 09:49 PM
सूत्र का शीर्षक एक काफी कही सुनी जाने वाली कहावत है किन्तु सूत्र का उद्देश्य धर्म को चुनौती देना या देवी गीत लिखना नहीं है |

मेरे अपने अध्ययन में मैंने हिन्दू धर्म को धर्म से बढ़कर ही पाया है |
अब इसे सनातन धर्म कहा जाता था आदि आदि इत्यादि सभी को पता है | उस सबसे अलग कुछ बातें हैं जो मन जानना चाहता है, दिमाग समझना चाहता है और अबूझ को पाने की लालसा तो होती ही है |
हिन्दू धर्म की कुछ ऐसी बातें हैं जो बेहद अछूती हैं जैसे ;


हमारे धर्म में इतने सारे देवता हैं, इनका प्रादुर्भाव कहाँ से हुआ ?
इतने वेद पुराण हैं, इनका धर्म के अस्तित्व, जन्म, विकास और हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है !
रामायण, महाभारत आखिर क्या हैं और क्यूँ हैं ?
द्वैतवाद, अद्वैतवाद, अघोरपंथ, नाथपंथ, सखी सम्प्रदाय, शैव, वैष्णव या चार्वाक इनका सबका अर्थ क्या है? इनका अस्तित्व है या नहीं और यदि है तो एकसाथ कैसे बना हुआ है ?
क्या हिन्दू धर्म आज के भौतिक युग में प्रासंगिक है ? और किस सीमा तक है ?


ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिन पर कुछ विचार मेरे पास हैं, बाकी सबसे सुनने की अभिलाषा है अतः यथासंभव योगदान देते चलें |

नोट : देवीगीत, आरती, भजन, किसी बाबा की कथा या कही और का लेख ना छापें |
यहाँ मैं विचारों का समागम, संगम देखना और करना चाहता हूँ जिनका लेखक का अपना होना अनिवार्य है अतः भावनात्मक उत्तर प्रतिउत्तर ना करें |

-अमित
मित्र अमित तिवारी जी, नमस्कार. मित्र.. आपने एक बहुत ही ज्ञानवर्धक सूत्र का निर्माण किया है. मुझे आशा है की कोई भी सदस्य इसको अन्यथा नहीं लेगा.
मित्र, मेरे अल्पज्ञान के अनुसार मैं हिन्दू धर्म के या किसी अन्य धर्म के बारे में विषेश तो नहीं जनता लेकिन जहाँ तक इतने अधिक देवी देवताओं को पूजने के विषय में है तो मित्र .. मेरा मानना यह है की पुराने ज़माने में मनुष्य सभी वस्तुओं में भगवन का रूप देखता था. सूर्य, चंद्रमा, प्रथ्वी.. यहाँ तक की जल, अग्नि , वायु, आकाश ,आकाशी बिजली और वर्षा तक जैसी प्रक्रिया में भगवान का रूप देखा जाता था. और उन्हें पूजा भी जाता था. मनुष्य उस ज़माने में कण कण में भगवान् देखते थे इसी के परिणाम स्वरुप हिन्दू धर्म में असंख्य देवी और देवताओं को पूजा जाता है. प्रत्येक दिन के अलग देवी देवता होते हैं. सभी प्राकर्तिक क्रियाओं के पीछे किसी देवी या देवता का चमत्कार माना जाता है. लेकिन यदि अंधविश्वास की हद तक यह किया जाए तो गलत है. नहीं तो किसी हद तक देखा जाए तो यह सही भी है .. और पूजन करने वाले को इसका लाभ भी मिलता है. इसके द्वारा वह बुराइयों से दूर रहता है. उसे डर रहता है की मेरे द्वारा किये गए किसी भी गलत कार्य से कोई न कोई देवी या देवता रुष्ट हो सकते हैं.
कुल मिला कर ईश्वर को मानना तथा नियम के साथ पूजा करना (अन्धविश्वास नहीं) मानव जाती के लिए लाभदायक ही है. जिस प्रकार एक किसान बीज बोने से पूर्व अपने खेत की तथा हल की पूजा करता है ..क्योंकि वही उसका अन्नदाता है. इसी प्रकार देखा जाए तो 'सूर्य देवता' वास्तव में मानवजाति ,वनस्पति तथा सम्पूर्ण प्रथ्वी के सभी जीवों के पालनहार हैं. यदि हम उनकी पूजा करते हैं या प्रतिदिन सुबह उनको जल अर्पित करते हैं तो क्या गलत है?
कृपया अन्य सदस्य भी अपने कीमती विचार रखें.
धन्यवाद.

amit_tiwari
25-11-2010, 08:08 AM
जलवा भाई, कोई इश्वर को मानता है या नहीं इस विषय को मैं नहीं उठाना चाहता, मेरा मंतव्य है धर्म को पुरातात्विक आधार पर समझना |

उदाहरण के लिए सामान्य रूप से धर्म = मज़हब = religion समझा जाता है | सही ना ? क्या ऐसा वास्तव में है ? मज़हब मुस्लिम है जिसमें एक पैगम्बर हैं, एक अल्लाह है, एक कुरान है पांच वक्त की नमाज़ है | religion क्रिस्चियन है, एक god है, एक क्राइस्ट है, एक बाइबल है, सन्डे मास है | किन्तु क्या धर्म जो हिन्दू है उसमे कोई एक इश्वर है? शैव कहते हैं शिव है, वैष्णव कहते हैं विष्णु है | क्या कोई एक पुस्तक है? निर्धारित एक तो कोई भी नहीं, सम्माननीय काफी हैं, पूजित काफी हैं किन्तु निर्धारित एक भी नहीं | पूजा करने का तरीका? अघोरी दारु चढ़ा के, सखी नाच गा के, वैष्णव नवधा भक्ति करते हैं और शैव धतूरा चढ़ा के |
तो अब क्या विचार है ? क्या जो धर्म है वो मज़हब है या वो religion हो सकता है ?
शायद इसका उत्तर ऋग्वेद का तीसरा खंड सबसे अच्छा देता है | 'जो धारण करो वही धर्म है' शायद इसे संस्कृत में 'यद् धारयति, सः इति धर्मः' कहते हैं |
जलवा भाई देखा अभी आपकी ये लाइन
जिस प्रकार एक किसान बीज बोने से पूर्व अपने खेत की तथा हल की पूजा करता है ..क्योंकि वही उसका अन्नदाता है कैसे इस संकल्पना से मिल रही है |
यही है हिन्दू धर्म का अद्भुत वैज्ञानिक आधार, ६००० साल पहले के ऋषि बांस की कुटियाओं में लिख के गए तो आज भी हमारी सोच का आधार है |
कितनी सुन्दर संकल्पना है | इतनी बात सब समझ जाएँ तो जातिगत झगडे ही ख़त्म हो जाएँ |
ऋग्वेद के सातवें अध्याय में एक श्लोक है जिसमें श्लोक लिखने वाला गा रहा है ' मैं कवि हूँ, मेरी मा आटा पीसती है, मेरा भाई सैनिक है और मेरे पिता दवा बेचते हैं |' एक ही परिवार में ब्रम्हां, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र !!! कर्माधारित जाती व्यवस्था का इससे सुन्दर, प्राचीन और प्रकट उदाहरण और कहाँ ?
चलिए इस विषद विषय को टुकड़ों में आगे बढ़ाते हैं |
सबसे पहले विचार करते हैं देवताओं की उत्पत्ति या फिर देवता संकल्पना की उत्पत्ति के बारे में |

सबसे पहले आप लोग विचार रखें कल तक मैं लिखूंगा |
सनद रहे की हम ६००० वर्ष पहले की बात कर रहे हैं | तब ना रामायण है और ना महाभारत, ऋग्वेद के भी पहले और दसवे अध्याय का तब अस्तित्व नहीं है |

ABHAY
25-11-2010, 09:10 AM
भाई अगर पृथ्बी की सुरुबात ली जाये तो उस वक्त सिर्फ दो ही लोग धरती पे थे उनका नाम भुल रहा हू , उस बक्त सिर्फ दो थे उन्ही से ये पूरा संसार बना अयसा सब लोगो का मानना है , अगर सही में देखा जाये तो कोई धर्म नहीं है इंसानियत को छोर कर ! और धर्म का बिकास किस तरह हुआ जो लोग जिस काम में निपुण थे उसी काम से वे जाने जाते थे कोई बाल काटने में कोई कुछ में कोई कुछ में धीरे -२ उनका यही काम उनकी पहचान बन गई और वो धर्म जाती का रूप ले लिया ! इस प्रकार भागवान का भी बिकास हुआ गाँधी जी को ही लेले बहुत से जगह उन्हें पूजा जाता है बिलकुल उसी तरह भागवान भी पूजे जाते थे भागवान ने भाई लोगो को बुराई और गुलामी से बचाया था यहाँ पे गाँधी जी ने भी देस को आजाद कराया ये इतहास भी है और इसपे किताब भी लिखी गई है , और भागवान भी की किताब कोई ऋसी ने लिखी वोही आगे चल के पूजनीय हो गए उसी तरह एक दिन गाँधी जी भी पूजे जायंगे !

amit_tiwari
25-11-2010, 10:46 AM
भाई अगर पृथ्बी की सुरुबात ली जाये तो उस वक्त सिर्फ दो ही लोग धरती पे थे उनका नाम भुल रहा हू , उस बक्त सिर्फ दो थे उन्ही से ये पूरा संसार बना अयसा


मैं बताता हूँ ना! एक का नाम लालू था और दूसरे का राबड़ी |

ABHAY
25-11-2010, 11:10 AM
मैं बताता हूँ ना! एक का नाम लालू था और दूसरे का राबड़ी |

भाई आपने तो सही कहा तो यहाँ पे बहस करने से कोई फायदा नहीं है क्यों न लालू और राबड़ी से ही पूछा जाये की आखिर ये सब क्या है और हम लोग किस तरह दो से इतने हो गय और इतने भागवान कहा से आ गय !

arvind
25-11-2010, 02:10 PM
भगवान ने इंसान को बनाया या नहीं, इसपर तो विवाद हो सकता है, परंतु इंसान ने भगवान को बनाया है, यह शत-प्रतिशत सही है। अगर आज भी कही कोई दबा-कुचला कुछ अनगढ़ सा पत्थर का टुकड़ा मिल जाये तो लगे हाथ एक भगवान पैदा हो जाते है। उन्हे देश, काल, और परिस्थिति अनुसार नामकरण भी कर दिया जाता है, जैसे हमारे रांची से 40 किलोमीटर दूर खूंटी-तोरपा मार्ग पर, कुछ वर्ष पहले एक आम के पेड़ के जमीन से बाहर निकले जड़ो के बीच एक पत्थर निकला हुआ था, उस पर किसी की नजर पड़ी, पूजा पाठ शुरू हुआ और आज वो जगह "आमरेश्वर धाम" के नाम से प्रचलित है और वहा अब हर साल सावन के महीने मे हरेक सोमवार को लाखो लोग स्वर्णरेखा नदी से जल लेकर चढ़ाने जाते है। वहा अब स्थायी मंदिरो का भी निर्माण हो चुका है और सालो भर लोगो का तांता लगा रहता है। हो सकता है कालांतर मे कोई महिमामंडित करती हुई आश्चर्य से भरपूर कोई कथा भी प्रचलित हो जाय। ऐसी घटनाए लगभग हर जिले, हर कस्बे मे देखने सुनने को मिल जाएँगे।

यह पुरातन काल से चलता आया है और आज भी जारी है, क्योंकि सच्चाई पर आस्था सदियो से भारी है। आज हिन्दू धर्म मे इतने सारे देवी-देवता हो गए है कि अगर किसी विद्वान से उसकी संख्या भी पूछ दीजिये तो वो उत्तर नहीं दे पाएंगे।

kuram
25-11-2010, 04:04 PM
आस्तिक होने के लिए एक बहुत छोटा कारण भी हो सकता है जो लोग कहते है मानव विकास के कारण मानव बना है हो सकता है, | इस संसार में अनेक तरह के जानवर है जिनमे जीवन गुजारने के लिए इतनी विशेषताए है की विज्ञान भी चकरा जाता है. जिराफ की गर्दन लम्बी हो गयी क्योंकि खाने के लिए उसको अपनी गर्दन लम्बी करनी पड़ती थी. ये विकास करना जिराफ के हाथ में है लेकिन खरगोश ( और भी कई प्राणी है ऐसे ) के जब बच्चा पैदा होता है तो बड़े से बड़ा शिकारी भी उसकी गंध तब तक नहीं सूंघ सकता जब तक वो अपने प्राण बचाने के योग्य न हो जाए. क्या ये विकास उन प्राणियों के वश में है ??? कोई तो शक्ति है जो इस ब्रह्माण्ड का नियमन करती है असंख्य पिंड इतने अनुशासन से घुमते है. पृथ्वी के चक्कर लगाने की गति में और उसके अपनी धुरी पर घूमने की गति में लेश मात्र भी परिवर्तन नहीं होता. मात्र चंद सेकण्ड का हेर फेर पूरी मानव सभ्यता को नष्ट कर सकता है लेकिन कितने दिन से ये व्यवस्था चल रही है. विज्ञान जो है उसका नामकरण कर सकता है लेकिन क्यों है उसका जवाब नहीं मिलता. पानी दो तत्वों का मिश्रण है ये विज्ञान ने बता दिया लेकिन वो तत्व क्यों है ये नहीं बता पाया.
अब बात करूँगा देवी देवताओं की तो ये आस्था और अतिश्योक्ति के कारण बने होगे. पहले एक इश्वर बना फिर उसके तीन टुकड़े हुए. फिर भी अनुभव किया की तीन लोग काफी नहीं है और संख्या बढती गयी. अगर आज भी हम चार मिनट सिर्फ आग के बारे में सोचेंगे की ये क्या है और क्यों है तो अंत में आस्था अपना काम करेगी और आग अग्नि देव बन जाएगा.

ABHAY
25-11-2010, 04:19 PM
अब बात करूँगा देवी देवताओं की तो ये आस्था और अतिश्योक्ति के कारण बने होगे. पहले एक इश्वर बना फिर उसके तीन टुकड़े हुए. फिर भी अनुभव किया की तीन लोग काफी नहीं है और संख्या बढती गयी. अगर आज भी हम चार मिनट सिर्फ आग के बारे में सोचेंगे की ये क्या है और क्यों है तो अंत में आस्था अपना काम करेगी और आग अग्नि देव बन जाएगा. [/size][/color]

भाई आपने कहा चलो मान लिया की पहले एक इश्वर बना फिर उसके तीन टुकड़े हुए. फिर भी अनुभव किया की तीन लोग काफी नहीं है और संख्या बढती गयी. ठीक है तो अब आप ये बताये की जाती कहा से आ गई अगर भागवान एक ही पहले आये तो आज अनेको धर्म के अनेको भगवान इस संसार में पड़े हुए हुए है ! ये कहा से आ गय ध्यान दे जब भगवान एक थे और उन्हों ने जरुरत के अनुसार अपना रूप बदल लिया या अनेको अवतार लिया ! तो आज अलग अलग जाती के अलग -२ भगवान क्यों है ! है आपके पास इसका जवाब !

kuram
25-11-2010, 04:22 PM
भाई आपने कहा चलो मान लिया की पहले एक इश्वर बना फिर उसके तीन टुकड़े हुए. फिर भी अनुभव किया की तीन लोग काफी नहीं है और संख्या बढती गयी. ठीक है तो अब आप ये बताये की जाती कहा से आ गई अगर भागवान एक ही पहले आये तो आज अनेको धर्म के अनेको भगवान इस संसार में पड़े हुए हुए है ! ये कहा से आ गय ध्यान दे जब भगवान एक थे और उन्हों ने जरुरत के अनुसार अपना रूप बदल लिया या अनेको अवतार लिया ! तो आज अलग अलग जाती के अलग -२ भगवान क्यों है ! है आपके पास इसका जवाब !

बात हिन्दू धर्म की हो रही थी मित्र इसलिए ऐसा कहा.

ABHAY
25-11-2010, 04:26 PM
बात हिन्दू धर्म की हो रही थी मित्र इसलिए ऐसा कहा.

भाई हिन्दू धर्म कैसे बना इसे भगवान ने तो नहीं बनाया होगा , और जब-२ धर्म की बात हूइ है भगवान बिच में आते रहे है क्यों की बिना धर्म के भगवान नहीं और बिना भगवान के धर्म नहीं !

kuram
25-11-2010, 04:30 PM
इश्वर की इस श्रृष्टि में हर चीज यूनिक है मतलब कोई एक चीज अपने आप में अकेली ही है. स्थूल विकास पृकृति के ऊपर होता है और हर जगह अलग अलग देवता क्यों है ??? लेकिन देवता या इश्वर जरूर है. भारत के अन्दर अध्यात्म बहुत पुराना है यहाँ लोगो की रुचि इश्वर के बारे में ज्यादा है और भोतिक के बारे में कम. विश्व में कहीं भी इतने साधू संत नहीं मिलेंगे जितने भारत में है शायद विश्व में कोई विरला ही उदाहरण मिले जहां राज सिंहासन त्यागकर लोग इश्वर को पाने के लिए निकले हो. इसलिए आस्था की अधिकता ने अधिक देवी देवताओं को जन्म दे दिया.

arvind
25-11-2010, 04:32 PM
भाई हिन्दू धर्म कैसे बना इसे भगवान ने तो नहीं बनाया होगा , और जब-२ धर्म की बात हूइ है भगवान बिच में आते रहे है क्यों की बिना धर्म के भगवान नहीं और बिना भगवान के धर्म नहीं !
अच्छे लोगो के लिए इंसानियत ही धर्म है और उनके नेक कर्म ही भगवान।
- बाबा अरविंद स्वामी।

amit_tiwari
25-11-2010, 05:52 PM
काफी सारे मित्रों ने विचार रखे हैं, सभी का आभार |

मेरा उत्तर इस बार थोडा अपेक्षाकृत लम्बा है और कुछ तथ्यों को मैं पुनः पुष्ट करना चाहता हूँ अतः कल रखूँगा किन्तु मुझे विश्वास है की वह जानकारी आपको चौंकाएगी और एक सुखद आश्चर्य होगा |

-अमित

ndhebar
25-11-2010, 07:22 PM
कोई तो शक्ति है जो इस ब्रह्माण्ड का नियमन करती है

मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ

अच्छे लोगो के लिए इंसानियत ही धर्म है और उनके नेक कर्म ही भगवान।
- बाबा अरविंद स्वामी।

बाबा की जय हो

सबसे पहले बेहतरीन सूत्र बनाने हेतु अटल को बधाई
भाई धर्म में मेरी रूचि कम ही है अतः क्षमा करना अगर कुछ गलती हो जाये
मेरा मानना है की हिन्दू धर्म सही मायनो में लोकतंत्र की तरह है
जीतनी डफली उतनी राग,
सभी को अपना अपना करने की आजादी और सबको अपने में समाने को सर्वथा तैयार
जितना लचीलापन इस धर्म में है कहीं नहीं
रही बात रामायण और महाभारत की तो ऐसा मेरा मानना है की ये बहुत ही चतुर लेखकों की बेहतरीन रचना है जो आज तक प्रशांगिक है

jalwa
25-11-2010, 08:51 PM
मैं बताता हूँ ना! एक का नाम लालू था और दूसरे का राबड़ी |

मित्र अटल जी, इस गंभीर विषय को मजाक में न लें .. आपका सूत्र बेहद अहम् विषय वस्तु पर आधारित है. तनिक सा भी मजाक या ग़लतफ़हमी सूत्र की दिशा बदल सकती है.
बाइबल के और कुरान के अनुसार प्रथम स्त्री और पुरुष का नाम 'आदम और हव्वा' (एडम&इव). किन्तु इस बात का कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है की यह कहानी सत्य है.
इसी प्रकार एक धर्म ग्रन्थ में कहीं कहा गया है की 'प्रथ्वी थाली की तरह चपटी है.' यदि मनुष्य गलत कर्म करेंगे तो यह पलट जाएगी. . जिस समय आइजक न्यूटन नें गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत दिया तथा यह बताया की 'धरती गेंद की तरह गोल है' तो लोगों नें उन्हें धर्म का विरोधी बता कर मौत की सजा सुना दी. लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात् जब सभी को यह पता चला की वास्तव में उन्होंने जो कहा था वह सत्य था.. तब भी किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई की कोई कह सके की उस धर्म ग्रन्थ में जो लिखा है वो गलत है.
लेकिन दोस्तों.. हिन्दू धर्म के ग्रंथों में हजारों वर्ष पहले ही प्रथ्वी को गोल ही बताया गया है (गेंद की तरह)

jalwa
25-11-2010, 09:02 PM
रही बात रामायण और महाभारत की तो ऐसा मेरा मानना है की ये बहुत ही चतुर लेखकों की बेहतरीन रचना है जो आज तक प्रशांगिक है[/color][/size]
'
निशांत भाई, मैं आपके विचारों की कद्र करता हूँ .. तथा आपके सभी कथनों का समर्थन करता हूँ .. लेकिन यह कहना की 'रामायण' और 'महाभारत' केवल लेखकों की रचनाएं हैं'. .... मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ.
मित्र, रामायण तथा महाभारत में जिन स्थानों और समय या व्यक्तियों तथा घटनाओं का जिक्र है वो सभी या उनके निशान आज भी मौजूद हैं. महाभारत कल के सभी शहर (कुरुक्षेत्र,कंधार,इन्द्रप्रस्थ,मथुरा आदि ) आज भी मौजूद हैं. उनके बनाए हुए कुछेक किलों आदि के अवशेष भी मौजूद हैं. और यह एक ऐतिहासिक घटना थी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता. हाँ कहीं कहीं अतिश्योक्ति अलंकर का उदाहरण देखने को मिल सकता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है की यह केवल मिथ्या बात है. रामायण काल के अवशेष केवल भारत ही नहीं अपितु श्रीलंका में भी मौजूद हैं. यहाँ तक की वानर सेना द्वारा बनाया गया सेतु भी अभी तक मौजूद है. इसी प्रकार के हजारों उदाहरण आपको भारत और विश्व के कई देशों में देखने को मिल जाएंगे जो इन ग्रंथों से सम्बंधित हैं.
मित्र, उस ज़माने में कितना ही चतुर लेखक क्यों न हो पूरे भारत का और श्रीलंका का भ्रमण करके इतना बड़ा मनगढ़ंत ग्रन्थ नहीं लिख सकता. हाँ कहीं कहीं अलंकारों का प्रयोग अवश्य है लेकिन सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता.
मित्र अटल जी, आपसे निवेदन है की कृपया पटाक्षेप करें तथा अपने अनमोल विचारों से इस सूत्र को जल्दी आगे बढाएं.
धन्यवाद.

aksh
25-11-2010, 10:05 PM
मित्रो में वैसे तो इस मामले में अपने आपको बिलकुल ही निम्न कोटि का और निरा अज्ञानी ही मान कर चलता हूँ फिर भी में एक बात को रेखांकित करना चाहूंगा कि क्या ऐसे हो सकता है कि सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए उनके इश्वर अलग अलग हों. ऐसा नहीं हो सकता क्योकि अगर ऐसा होता तो शायद इस धरती पर आज कुछ भी शेष नहीं होता और वो इनकी आपस की लड़ाई की भेंट चढ़ गया होता.

यानि कि एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि कोई एक ही शक्ति है जो पूरे ब्रह्माण्ड को चला रही है और उसी शक्ति को हम अलग अलग नामों से जानते और पुकारते हैं. उदाहरण के लिए सूर्य सभी धर्मो के मानने वालों के लिए एक ही है. ( ऐसा नहीं है कि हिन्दुओं का सूर्य अलग है और मुसलमानों का सूरज अलग).

अपनी अपनी धार्मिक मान्यताओं के चलते सभी धर्मों में कुछ महान नाम जुड़ते चले गए और वो कालांतर में पूज्य होते चले गए. और हिन्दू धर्म में ऐसा कुछ ज्यादा ही हुआ.

जैसे कि सूत्रधार ने बताया है कि ईसाई धर्म में सिर्फ एक गोड, एक बाइबल, एक क्राइस्ट होता है पर विभाजन तो वहां पर भी है और जितना भी मैंने पढ़ा है कि उनके चर्च भी अलग होते हैं और रोम के बिशप को सभी चर्च अपना लीडर नहीं मानते. कुछ मुख्य ग्रुप बनने के बाद ईसाईयों में भी बहुत से सब ग्रुप हैं जो मुख्यतः पूजा विधि और विश्वास में भिन्नता की वजह से बने हैं. इसलिए उनके अन्दर भी बहुत से सिद्धांतों और संतो को माना जाता है और उनको सम्मान और आदर की दृष्टि से देखा जाता है. और अगर देखा जाए तो ये सभी देवता ही हुए. आज अगर मदर टेरेसा को संत की पदवी मिली तो कालांतर में वो देवी के जैसे ही पूजी और सम्मानित होंगी.

हिन्दू धर्म में ऋषि, मुनि, संतों की एक बहुत ही अटूट परंपरा रही है और इन लोगों ने जो भी अध्ययन किया उसके आधार पर धर्म को परिभाषित करते रहे और नए नए देवी देवता और इश्वर का जन्म होता गया और नए नए वाद चले और उनके अनुयायी पैदा हुए और उनके बीच में भी कुछ मतभेद हुए तो और मतों और परम्पराओं ने जन्म लिया और ये आज तक चल रहा है. हम आज भी देखते हैं कि किसी छोटी सी जगह पर अचानक ही कोई नया मंदिर किसी नए देवता या देवी के नाम से बन जाता है तो ये क्रम आज तक चल रहा है. हम सभी को अपनी अपनी आस्था का एक निजी प्रतीक शायद ज्यादा मायने रखता है और इसी क्रम में नए नए देवी देवताओं का जन्म आज तक जारी है.

हम लोग सूर्य, चन्द्र, वायु, जल, अग्नि को तो देवता के तौर पर मानते ही रहे क्योंकि इनके बिना मनुष्य का जीवन असंभव था, कालांतर मैं इनमें और भी धर्म गुरुओं और विद्वानों के नाम जुड़ते गए जो आज भगवन के तरह ही पूजे जा रहे हैं. हिन्दू धर्म में सहिष्णुता की इतनी प्रचुर मात्र मौजूद रही कि कालांतर में कूड़ा डालने के स्थान को भी पूजा जाने लगा. ( हिन्दू धर्म में शादी आदि के मौके पर घूरा पूजन होता है. घूरा = कूड़ा करकट डालने का स्थान). यानि कि जो स्थान आपके घर को साफ़ सुथरा रके और आपकी गन्दगी को अपने में समाहित कर ले वो भी पूज्यनीय हो गया. ( भावना की महानता को देखें ). तो मेरे विचार से सभी देवी देवता इसी प्रकार पैदा हुए होंगे और शायद ये सच है कि एक शक्ति जो पूरे संसार को चला रही है वो हिन्दू धर्म की विविधता के चलते यहाँ पर कुछ ज्यादा ही विभाजित हो कर बहुत सारे देवी देवताओं में तब्दील हो गयी.

amit_tiwari
25-11-2010, 10:06 PM
मित्र अटल जी, इस गंभीर विषय को मजाक में न लें .. आपका सूत्र बेहद अहम् विषय वस्तु पर आधारित है. तनिक सा भी मजाक या ग़लतफ़हमी सूत्र की दिशा बदल सकती है.
बाइबल के और कुरान के अनुसार प्रथम स्त्री और पुरुष का नाम 'आदम और हव्वा' (एडम&इव). किन्तु इस बात का कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है की यह कहानी सत्य है.
इसी प्रकार एक धर्म ग्रन्थ में कहीं कहा गया है की 'प्रथ्वी थाली की तरह चपटी है.' यदि मनुष्य गलत कर्म करेंगे तो यह पलट जाएगी. . जिस समय आइजक न्यूटन नें गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत दिया तथा यह बताया की 'धरती गेंद की तरह गोल है' तो लोगों नें उन्हें धर्म का विरोधी बता कर मौत की सजा सुना दी. लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात् जब सभी को यह पता चला की वास्तव में उन्होंने जो कहा था वह सत्य था.. तब भी किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई की कोई कह सके की उस धर्म ग्रन्थ में जो लिखा है वो गलत है.
लेकिन दोस्तों.. हिन्दू धर्म के ग्रंथों में हजारों वर्ष पहले ही प्रथ्वी को गोल ही बताया गया है (गेंद की तरह)

First of all I am sorry for posting in english. I am on mobile for some reason and I'll send my post via Arvind ji for some days.
Jalwa bhai as I initiated this thread I am more than serious but its my biggest weakness that I can't tolerate unappropriate posts. Abhay ji is frequent poster of this forum and if he do some research he can certainly improve the overall quality of his posts, I appreciate that he devote so much time in grooming this platform.
Most of the users of this forum are under 30s and out of these youngsters many are students yet. I DO expect scholar type answers from students not emotional and jay ho type answers.

Anyway enough of my feelings. Let's keep thread on track. I'll try to get my post on topic tomorrow.

Thanks to everyone for devoting time to this subject. I promise to give you content you'll not find at many places.
Good Night,
Amit

ndhebar
26-11-2010, 04:34 AM
'
निशांत भाई, मैं आपके विचारों की कद्र करता हूँ .. तथा आपके सभी कथनों का समर्थन करता हूँ .. लेकिन यह कहना की 'रामायण' और 'महाभारत' केवल लेखकों की रचनाएं हैं'. .... मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ.


नीरज जी, बात पर गौर करें
मैंने चतुर लेखकों की बेहतरीन रचना कहा है ना की "मिथ्या कल्पना"
मैं एक बात और स्पष्ट कर दूँ की मैं नास्तिक नहीं हूँ, हिन्दू धर्म में मेरी अटूट आस्था है
हाँ अन्धविश्वास नहीं करता, तथ्यों पर आधारित बातें ज्यादा पसंद है वनिस्पत किस्से कहानियों के

जैसे कि सूत्रधार ने बताया है कि ईसाई धर्म में सिर्फ एक गोड, एक बाइबल, एक क्राइस्ट होता है पर विभाजन तो वहां पर भी है और जितना भी मैंने पढ़ा है कि उनके चर्च भी अलग होते हैं और रोम के बिशप को सभी चर्च अपना लीडर नहीं मानते. कुछ मुख्य ग्रुप बनने के बाद ईसाईयों में भी बहुत से सब ग्रुप हैं जो मुख्यतः पूजा विधि और विश्वास में भिन्नता की वजह से बने हैं. इसलिए उनके अन्दर भी बहुत से सिद्धांतों और संतो को माना जाता है और उनको सम्मान और आदर की दृष्टि से देखा जाता है. और अगर देखा जाए तो ये सभी देवता ही हुए.

इस सन्दर्भ में सूत्रधार के जवाब का इन्तजार करूँगा

amit_tiwari
26-11-2010, 04:17 PM
हिन्दू धर्म में देवता की संकल्पना का उद्भव : yah सबको पता है की कुछ सबसे प्राचीन मानव बस्तियों में उत्तर भारत की मानव बस्तियां भी थीं | इनके निकटस्थ पडोसी भी साइबेरिया में थे |
यह काल संभव है ५०००-४००० BC . इस समय परिवार का जन्म हो चुका था और परिवार अब पुरुषप्रधान होने लगे थे | यह एक कुछ दिन पूर्व हुआ बदलाव ही था | संपत्ति अभी भी सामूहिक होती थी और संपत्ति का अर्थ धन नहीं गाय (पशु ) था, yahi कारण है की गाँव ( आबादी के समूह का पहला स्तर ) को संस्कृत ( उस समय की भाषा) में इसे ग्राम कहा गया | सबसे रोचक बात पुनः यह की उस समय ग्राम स्थायी नहीं होते थे, अर्थात ये आज के जैसे गाँव नहीं अपितु कारवां होते थे | जब दो ग्राम ( अर्थात कारवाँ) चलते चलते एक दुसरे के पास आते थे तो उनमें एक दुसरे की गायें लेने के लिए झगडे होते थे | इसका प्रमाण??? संस्कृत का शब्द देखिये संग्राम अर्थात युद्ध !!!
लेकिन इसका देवताओं की sankalpana से क्या सम्बन्ध? सम्बन्ध है | मैं थोडा आप sabhi के मन में तब का चित्र खीचना चाहता हूँ, एक ऐसा काल जहां अपनी जमीन नहीं है, परिवार हैं किन्तु अभी उनमें स्थायित्व नहीं आया, मनोरंजन का साधन नहीं है |
rigved का तीसरा मंडल तब के बारे में जानकारी देता है की देवताओं के तीन समूह होते हैं | भूमि, आकाश, ध्योस | पहले और दुसरे के बारे में बताने की aavashyakta नहीं है किन्तु ये तीसरा समूह रोचक है | ध्योस का अर्थ होता है क्षितिज पर स्थित अर्थात जिनकी स्थिति स्पष्ट नहीं है | इस समय तक अग्नि,इंद्र,वरुण आकाशीय देवता थे और विष्णु ध्योस में स्थित हैं | इंद्र को पुंडरिक कहा गया है |जिसका शाब्दिक अर्थ है बादलों में रहने वाला | हम सभी जानते हैं की इंद्र बारिश के देवता मने जाते हैं ( याद करें कृष्ण और गिरिराज पर्वत कांड ) और अपने पशुओं के लिए चारा खोजते मनुष्यों के लिए बारिश का देवता ही सबसे महत्वपूर्ण होगा | करेक्ट ? जितनी वर्षा! उतना चारा, उतने ही अधिक पशु और अधिक पशु का अर्थ है अधिक धन या लक्ष्मी | कृषि भी होने लगी थी और कृषि भी वर्षा पर निर्भर करती थी जिस कारण इंद्र का बोलबाला बना रहा | ऋग्वेद इस समय इंद्र के बारे में दो बातें kai बार कहता है;
१- लक्ष्मी इंद्र की पत्नी है |
२- इंद्र ने उषा देवी का बलात्कार किया |
अब इस बलात्कार वाली बात का क्या अर्थ है ये मैं नहीं समझ पाया किन्तु लक्ष्मी इंद्र की पत्नी है ये पॉइंट नोट करने लायक है | जो बारिश दे सकता है वही धन ला सकता है |

१००० BC के आसपास व्यापार बढ़ने लगा था, और व्यापार वर्षा पर नहीं चतुराई और काफी हद तक युक्तियों पर निर्भर करता है जिसके देवता हैं विष्णु | नतीजा समुद्र मंथन, गिरिराज कांड और ऐसी ही काफी युक्तियों के बाद लक्ष्मी विष्णु की पत्नी हो गयी | अब तक मानव सभ्यता बहुत अधिक विकसित हो गयी थी और पुराने सारे इतिहास को छिपाना अनिवार्य था | नतीजा विष्णु के काफी अवतार बताये गए उन्हें अच्छी तरह से स्थापित किया गया और रामायण अस्तित्व में आई | रामायण उस काल के लिए एक आदर्श था, रामायण में एक आदर्श राजा था जिसने अपने पिता के लिए वनवास झेला, एक आदर्श भाई था जो अपने भाई के साथ वन चला गया वो भी शादी के तुरंत बाद , एक आदर्श पत्नी थी जिसने अपने पति की हर बात मानी | ये ऐसे मूल्य थे जो उस समय के लोग चाहते थे जिस कारण से वो स्थापित हुए और लोगों से अपेक्षा की गयी की रोज इसे पढ़ें |

अभी तक जो भी मैंने लिखा वो सिर्फ ऋग्वेद के तथ्य हैं, अब इससे मेरा निष्कर्ष : प्राचीन पूर्वज बेहद तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे, वो वैज्ञानिक थे, उन्होंने अपनी जरुरत देखि और उसको पूरा करने के उपाय निकाले | जब एक जरुरत समाप्त हो गयी तो उन्होंने उस उपाय को अगली जरुरत के अनुसार ढाल लिया |
यह प्रक्रिया संवत १००८ तक चलती रही | १००८ में सायण ने सरे धार्मिक साहित्य का संकलन करके उसे सम्पादित करके उस रूप में रखा जिसे आज हम बुक स्टालों पर रखा पाते हैं और जिसे हम वास्तव में धर्म समझ लेते हैं किन्तु यह हमारा सौभाग्य था की सायण के समय में पुरातत्व उतना विकसित नहीं था और अब १९६० के बाद हुए उत्खनन से हम पुराने वेदों और पुरानों के वास्तविक वर्जन पढ़ सकते हैं और उन्हें एक दुसरे से तुलना करके अपनी समझ बढ़ा सकते हैं |

अभी किसी ने दुसरे धर्मों में भी भेद होने की बात कही | सही है ये, उदाहरण के लिए बौद्ध और जैन धर्म ही ले लेते हैं | जैन धर्म में विभाजन का रोचक कारण है; प्राचीन काल में अकाल पड़ा और जैन भिक्षुओं का एक दल दक्षिण में चला गया | अब जो जैन यहाँ उत्तर में रह गए उन्होंने स्वाभाविक कारणवश अपने नियोम में शिथिलता बरती | अब अकाल में jaan भी बचानी थी | किन्तु जब दक्षिण के जैन अकाल के बाद वापस आये उन्होंने उन बिचारों का तिरस्कार किया और स्वयं को अलग कर लिया | किन्तु इसका भी घूम फिरकर यही अर्थ निकलता है की धर्म पत्थर पे खिची लकीर नहीं अपितु मानव आविष्कार है | हम आज टीवी फ्रिज ऐसी में रहते हैं किन्तु आविष्कारी नहीं हैं | हम उन आविष्कारों पे झगडा कर लेते हैं जिन्हें आधी चड्ढी पहनने वाले हमारे पूर्वज करके चले गए |

यदि अभी भी इस संकल्पना पर किसी को कोई शक हो तो शायद यह एक तथ्य कुछ सहायता करे ; आज हिन्दू समाज विशेस रूप से शादी योग्य कन्या की अनिवार्य शर्त कुंवारापन मानता है | प्रश्न ये नहीं है की ये सही है या नहीं | मेरा प्रश्न ये है की की ये परंपरा कब और किसने प्रारंभ की ! कोई अनुमान |

उत्तर है, किन्तु कुछ अनुमान आने देते हैं ...

YUVRAJ
27-11-2010, 08:48 AM
वाह क्या बात है … :clap::clap::clap:
बहुत ही सुन्दर विषय उठाया है अमित भाई जी …:)
जल्दी ही कुछ लिखने का प्रयास करूँगा।
सूत्र का शीर्षक एक काफी कही सुनी जाने वाली कहावत है किन्तु सूत्र का उद्देश्य धर्म को चुनौती देना या देवी गीत लिखना नहीं है |

मेरे अपने अध्ययन में मैंने हिन्दू धर्म को धर्म से बढ़कर ही पाया है |
अब इसे सनातन धर्म कहा जाता था आदि आदि इत्यादि सभी को पता है | उस सबसे अलग कुछ बातें हैं जो मन जानना चाहता है, दिमाग समझना चाहता है और अबूझ को पाने की लालसा तो होती ही है |
हिन्दू धर्म की कुछ ऐसी बातें हैं जो बेहद अछूती हैं जैसे ;


हमारे धर्म में इतने सारे देवता हैं, इनका प्रादुर्भाव कहाँ से हुआ ?
इतने वेद पुराण हैं, इनका धर्म के अस्तित्व, जन्म, विकास और हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है !
रामायण, महाभारत आखिर क्या हैं और क्यूँ हैं ?
द्वैतवाद, अद्वैतवाद, अघोरपंथ, नाथपंथ, सखी सम्प्रदाय, शैव, वैष्णव या चार्वाक इनका सबका अर्थ क्या है? इनका अस्तित्व है या नहीं और यदि है तो एकसाथ कैसे बना हुआ है ?
क्या हिन्दू धर्म आज के भौतिक युग में प्रासंगिक है ? और किस सीमा तक है ?


ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिन पर कुछ विचार मेरे पास हैं, बाकी सबसे सुनने की अभिलाषा है अतः यथासंभव योगदान देते चलें |

नोट : देवीगीत, आरती, भजन, किसी बाबा की कथा या कही और का लेख ना छापें |
यहाँ मैं विचारों का समागम, संगम देखना और करना चाहता हूँ जिनका लेखक का अपना होना अनिवार्य है अतः भावनात्मक उत्तर प्रतिउत्तर ना करें |

-अमित

SHASHI
27-11-2010, 12:21 PM
मेरी राय इस विषय पर यह है की पहले जब धर्म संस्थापकों ने जो की बहुत ही बुद्धिमान व आगे की सोचने वाले थे, उन्होंने समाज की भलाई के लिए नियम बनाये और उन्ही नियमों को धार्मिक नियमों में पिरो कर लागु करवाया जो की आज भी प्रासंगिक है. उदहारण:-
- सगोत्र में विवाह नहीं करना. आज विज्ञानं यह मानता है की सगोत्र में शादी से बहुत ही जटिलता उत्पन्न होती है.
- सूर्यास्त के पहले भोजन करना. पहले आज की तरह बिजली नहीं थी, अंधरे में या कम रौशनी में आपके खाने में किट पतंग गिर जाये तो मालूम भी नहीं चले.
-रजस्वला स्त्री का ५ दिन तक रसोई में वर्जना, पति से अलग सोना इत्यादि . इस समय स्त्री में दुर्बलता तथा चिडचिडापन आ जाता है तथा साफ सफाई के हिसाब से स्त्री को इन दिनों सम्पूर्ण आराम मिल जाता है.

इसी प्रकार जब हम सामाजिक नियमों को मनन पूर्वक गौर करेगे तो हमें उनके होने पर और पालन करने में सार्थकता नजर आएगी.

amit_tiwari
27-11-2010, 03:46 PM
- सगोत्र में विवाह नहीं करना. आज विज्ञानं यह मानता है की सगोत्र में शादी से बहुत ही जटिलता उत्पन्न होती है.
- सूर्यास्त के पहले भोजन करना. पहले आज की तरह बिजली नहीं थी, अंधरे में या कम रौशनी में आपके खाने में किट पतंग गिर जाये तो मालूम भी नहीं चले.
-रजस्वला स्त्री का ५ दिन तक रसोई में वर्जना, पति से अलग सोना इत्यादि . इस समय स्त्री में दुर्बलता तथा चिडचिडापन आ जाता है तथा साफ सफाई के हिसाब से स्त्री को इन दिनों सम्पूर्ण आराम मिल जाता है.



बंधू यही मेरा उद्देश्य है की आखिर समीक्षा की जाये की किस स्थान, किस काल किन परिस्थितियों में क्या चीज़ हमारे धर्म में सम्मिलित हुई |
यदि आप पिछली पोस्ट को पढ़ें तो स्पष्ट होगा की ६०० BC तक हम अपनी देव कल्पना में ही सुधार कर रहे हैं | सर्व प्रमुख देव ही फिक्स नहीं हो पाए, त्रिदेव की संकल्पना नहीं है, जाती व्यवस्था है किन्तु कर्मप्रधान |
आगे आप कुछ प्रविष्टियों बाद देखेंगे की कैसे धर्म में ये सारी चीजें घोली गयीं और देव रचित बना दिया गया जबकि वो ऐसे व्यक्ति द्वारा लिख दिए गए जिससे ज्यादा बाहरी दुनिया की जानकारी आजकल ४-५ साल के बच्चों को होती है |

अरे बच्चों से बात याद आती है की ज़रा गौर फरमाइए आजकल बछ्स कितनी जल्दी मोबाइल ओपरेट करना सीख जाते हैं बनिस्पत घर के बुजुर्गों के ...यह विषय से सम्बंधित नहीं है, Just like that.

YUVRAJ
27-11-2010, 03:55 PM
यह विषय से सम्बंधित नहीं है ... aur sari duniya me in baato ko maana bhi nahi jaata ... :iagree:
बंधू यही मेरा उद्देश्य है की आखिर समीक्षा की जाये की किस स्थान, किस काल किन परिस्थितियों में क्या चीज़ हमारे धर्म में सम्मिलित हुई |
यदि आप पिछली पोस्ट को पढ़ें तो स्पष्ट होगा की ६०० BC तक हम अपनी देव कल्पना में ही सुधार कर रहे हैं | सर्व प्रमुख देव ही फिक्स नहीं हो पाए, त्रिदेव की संकल्पना नहीं है, जाती व्यवस्था है किन्तु कर्मप्रधान |
आगे आप कुछ प्रविष्टियों बाद देखेंगे की कैसे धर्म में ये सारी चीजें घोली गयीं और देव रचित बना दिया गया जबकि वो ऐसे व्यक्ति द्वारा लिख दिए गए जिससे ज्यादा बाहरी दुनिया की जानकारी आजकल ४-५ साल के बच्चों को होती है |

अरे बच्चों से बात याद आती है की ज़रा गौर फरमाइए आजकल बछ्स कितनी जल्दी मोबाइल ओपरेट करना सीख जाते हैं बनिस्पत घर के बुजुर्गों के ...यह विषय से सम्बंधित नहीं है, Just like that.

YUVRAJ
28-11-2010, 10:35 AM
अमित भाई जी,
कुछ लिखने का प्रयास करता हूँ और अग्रिम जमानत की अर्जी भी दाखिल कर देता हूँ कि यदि कुछ भी विषयपरक न हो तो माफ़ करें।

पहले प्रश्न के जवाब में…
पुराणों के अनुसार अति प्राचीन काल में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जल-प्लावित था। उसी जल में कमल-नाल से आदि ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ। कमल-नाल से उत्पन्न होने के कारण आदि ब्रह्मा को नारायण भी कहा गया है।
किन्तु इनसे पूर्व भी पंच महाभूतों अर्थात पाँच तत्वों {क्षिति,जल,पावक,गगन समीरा} के रूप में भगवान् रुद्र अर्थात स्वयंभू विधमान थे। उनकी विधमानता का भान होते ही ब्रह्मा को महान् आश्र्चर्य हुआ। उन्होंने भगवान् रुद्र को आपना अग्रज तथा ज्येष्ठ पुरुष स्वीकार किया। तत्पश्र्चात् उन्होंने विनती भाव से निवेदन किया कि "भगवान् आप में ही आदि, मध्य तथा अन्त निहित हैं। आप ही सृष्टि की रचना में सक्षम हैं अतएव सृष्टि रचें। ब्रह्मा के इस अनुरोध को भगवान् रुद्र ने तथास्तु कह कर जल में प्रवेश किया। इस प्रकार तमाम प्राणियों और देवताओं का उत्पत्ति हुई।
प्रश्न दो अभी के लिए अनुत्तरित है।
प्रश्न तीन के जवाब में…
प्राणियों की उत्पत्ति के बाद व्याप्त अस्थिरता को स्थिर करने के लिए इन रचनाओं की रचना की गयी। ताकी समाज में सामंजस्य स्थापित हो सके।
प्रश्न चार के जवाब में…
इस का उत्तर आपने स्वयं प्रविष्ट किया है और हम उसे सही मानते हुये आप से सहमत हैं।
प्रश्न पाँच के जवाब में…
इस धर्म में कुछ सीमायें और वर्जनाएँ निर्धारित हैं जिनका समय समय पर समर्थन और खंडन होता रहता है। जहाँ तक हमारा मनना है कि आजके भौतिकवाद में पूर्णतः उपयुक्त नहीं है।
हार्दिक धन्यवाद।

सूत्र का शीर्षक एक काफी कही सुनी जाने वाली कहावत है किन्तु सूत्र का उद्देश्य धर्म को चुनौती देना या देवी गीत लिखना नहीं है |

मेरे अपने अध्ययन में मैंने हिन्दू धर्म को धर्म से बढ़कर ही पाया है |
अब इसे सनातन धर्म कहा जाता था आदि आदि इत्यादि सभी को पता है | उस सबसे अलग कुछ बातें हैं जो मन जानना चाहता है, दिमाग समझना चाहता है और अबूझ को पाने की लालसा तो होती ही है |
हिन्दू धर्म की कुछ ऐसी बातें हैं जो बेहद अछूती हैं जैसे ;


हमारे धर्म में इतने सारे देवता हैं, इनका प्रादुर्भाव कहाँ से हुआ ?
इतने वेद पुराण हैं, इनका धर्म के अस्तित्व, जन्म, विकास और हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है !
रामायण, महाभारत आखिर क्या हैं और क्यूँ हैं ?
द्वैतवाद, अद्वैतवाद, अघोरपंथ, नाथपंथ, सखी सम्प्रदाय, शैव, वैष्णव या चार्वाक इनका सबका अर्थ क्या है? इनका अस्तित्व है या नहीं और यदि है तो एकसाथ कैसे बना हुआ है ?
क्या हिन्दू धर्म आज के भौतिक युग में प्रासंगिक है ? और किस सीमा तक है ?


ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिन पर कुछ विचार मेरे पास हैं, बाकी सबसे सुनने की अभिलाषा है अतः यथासंभव योगदान देते चलें |

नोट : देवीगीत, आरती, भजन, किसी बाबा की कथा या कही और का लेख ना छापें |
यहाँ मैं विचारों का समागम, संगम देखना और करना चाहता हूँ जिनका लेखक का अपना होना अनिवार्य है अतः भावनात्मक उत्तर प्रतिउत्तर ना करें |

-अमित

amit_tiwari
28-11-2010, 04:05 PM
अमित भाई जी,
कुछ लिखने का प्रयास करता हूँ और अग्रिम जमानत की अर्जी भी दाखिल कर देता हूँ कि यदि कुछ भी विषयपरक न हो तो माफ़ करें।


बंधू मैं अपने किसी भी सूत्र के लिए कम से कम गारंटी दे सकता हूँ की कुछ भी लिखो, अग्रिम जमानत की ज़रूरत नहीं है |

जो लिख दिया वो ठाँSSSSS काहे को लिखना अग्रिम जमानत, सामने वाले की जिम्मेदारी बनती है अब की वो समझे ये सही है या गलत |:boxing::boxing::smoker::drunk: Just be cool ;)

आपके उत्तर पर कुछ देर में लिखूंगा विस्तार से |

YUVRAJ
28-11-2010, 04:22 PM
:thumbup: ...I am cool broooo ...:majesty:
आपके विचारों का इन्तजार है भाई जी ... :hurray:
बंधू मैं अपने किसी भी सूत्र के लिए कम से कम गारंटी दे सकता हूँ की कुछ भी लिखो, अग्रिम जमानत की ज़रूरत नहीं है |

जो लिख दिया वो ठाँSSSSS काहे को लिखना अग्रिम जमानत, सामने वाले की जिम्मेदारी बनती है अब की वो समझे ये सही है या गलत |:boxing::smoker::drunk: Just be cool ;)

आपके उत्तर पर कुछ देर में लिखूंगा विस्तार से |

kuram
29-11-2010, 12:48 PM
अमित और अन्य मित्रो की पोस्ट का इन्तजार रहेगा. वैसे अमित की इस बात से में सहमत हूँ की धर्म कोई पत्थर की लकीर nahi होती है. यह समय के साथ परिवर्तन शील होता है. बस उद्देश्य की एकता होती है अच्छा उन्नत जीवन और व्यवस्था बनी रहे.
जब मनुष्य आबादी कम थी और चिकित्सा सुविधाए कम होने के कारण मृत्युदर अधिक थी तब बहु विवाह और अधिक संतानोत्पति को धर्म ने सही माना. अकाल के कारण खाने की कमी हो गयी थी तो ब्राह्मणों और ऋषियों को दो तीन जानवरों के मांस खाने के लिए धर्म में छूट मिली. धर्म मनुष्य की ही देन है और इश्वर के बारे में तो सटीक जवाब कोई नहीं दे पाया तो हम कौनसे बाग़ की मूली है
पूरी दुनिया में कितने धर्म है और देवता है हर कोई अपने धर्म को और देवता को सच्चा बताता है लेकिन जहां तक मेरा मानना है इस बारे में इंसान को विचार शील होना चाहिए. अगर कोई एक धर्म ही सच्चा होता और उसके देवता या पैगम्बर ही सच्चे होते तो बाकी धर्म्वालाम्बियो का जन्म ही नहीं होना चाहिए था.

YUVRAJ
29-11-2010, 01:18 PM
प्रथम प्रश्न के लिए…
भगवान् रुद्र ने अपनी योजना के तहत दीर्घकाल तक जल में निवास करते हुए घोर तपस्या की और अनेकानेक औषधियों तथा अन्न की उत्पत्ति की। अन्न तथा औषधियाँ प्राणियों की प्रथम आवश्यकता हैं। जब प्राणी उत्पन्न होता है तो वह भूख से व्याकुल रहता है, अतः प्राणियों की उत्पत्ति से पूर्व क्षुधा-तृप्ति के उपादानों का संयोजन अनिवार्य था। इसलिए जीव उत्पत्ति की प्रक्रिया में उन्हें विलम्ब हो गया। आदि ब्रह्मा सृष्टि-रचना में शीघ्रता चाहते थे। अतः उन्होंने सृष्टि रचना कर दी तो भूख से व्याकुल उन प्राणियों ने उन्हीं को उदरस्थ करना चाहा।

YUVRAJ
29-11-2010, 01:34 PM
पाँच तत्व {क्षिति,जल,पावक,गगन, समीरा} ही इश्वर हैं। जो सृष्टि की रचना में सहायक हुये।
धर्म की बात पर आप से सहमत हूँ। इस का निर्माण प्राणियों ने समय और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप किया।
अमित और अन्य मित्रो की पोस्ट का इन्तजार रहेगा. वैसे अमित की इस बात से में सहमत हूँ की धर्म कोई पत्थर की लकीर nahi होती है. यह समय के साथ परिवर्तन शील होता है. बस उद्देश्य की एकता होती है अच्छा उन्नत जीवन और व्यवस्था बनी रहे.
जब मनुष्य आबादी कम थी और चिकित्सा सुविधाए कम होने के कारण मृत्युदर अधिक थी तब बहु विवाह और अधिक संतानोत्पति को धर्म ने सही माना. अकाल के कारण खाने की कमी हो गयी थी तो ब्राह्मणों और ऋषियों को दो तीन जानवरों के मांस खाने के लिए धर्म में छूट मिली. धर्म मनुष्य की ही देन है और इश्वर के बारे में तो सटीक जवाब कोई नहीं दे पाया तो हम कौनसे बाग़ की मूली है
पूरी दुनिया में कितने धर्म है और देवता है हर कोई अपने धर्म को और देवता को सच्चा बताता है लेकिन जहां तक मेरा मानना है इस बारे में इंसान को विचार शील होना चाहिए. अगर कोई एक धर्म ही सच्चा होता और उसके देवता या पैगम्बर ही सच्चे होते तो बाकी धर्म्वालाम्बियो का जन्म ही नहीं होना चाहिए था.

YUVRAJ
01-12-2010, 08:31 AM
अमित भाई जी,
और कितना इन्तज़ार कराओगे …
बंधू ................
.........................
आपके उत्तर पर कुछ देर में लिखूंगा विस्तार से |

amit_tiwari
01-12-2010, 11:48 AM
Sorry for interruption but I had to come Mumbai and then Goa day before yesterday so I can't answer. Will try to post late tonight or tomorrow from Delhi.

-Amit

amit_tiwari
02-12-2010, 02:13 AM
अमित और अन्य मित्रो की पोस्ट का इन्तजार रहेगा. वैसे अमित की इस बात से में सहमत हूँ की धर्म कोई पत्थर की लकीर nahi होती है. यह समय के साथ परिवर्तन शील होता है. बस उद्देश्य की एकता होती है अच्छा उन्नत जीवन और व्यवस्था बनी रहे.
जब मनुष्य आबादी कम थी और चिकित्सा सुविधाए कम होने के कारण मृत्युदर अधिक थी तब बहु विवाह और अधिक संतानोत्पति को धर्म ने सही माना. अकाल के कारण खाने की कमी हो गयी थी तो ब्राह्मणों और ऋषियों को दो तीन जानवरों के मांस खाने के लिए धर्म में छूट मिली. धर्म मनुष्य की ही देन है और इश्वर के बारे में तो सटीक जवाब कोई नहीं दे पाया तो हम कौनसे बाग़ की मूली है
पूरी दुनिया में कितने धर्म है और देवता है हर कोई अपने धर्म को और देवता को सच्चा बताता है लेकिन जहां तक मेरा मानना है इस बारे में इंसान को विचार शील होना चाहिए. अगर कोई एक धर्म ही सच्चा होता और उसके देवता या पैगम्बर ही सच्चे होते तो बाकी धर्म्वालाम्बियो का जन्म ही नहीं होना चाहिए था.

इश्वर की परिकल्पना में मेरा पूरा विश्वास है | कोई एक शक्ति इस सारे तमाशे को चलाती है, चीटियों को भी रस्ते का पता चलना, जानवरों का भी बच्चो से प्यार करना, नवजात बच्चे का बिना किसी के सिखाये माँ के स्तन से दूध पीना! यह सब कोई शक्ति जीव में पहले से डाल देती हैं | धर्म भी अपने मूल रूप में एक पवित्र रास्ता है उस शक्ति को समझने का किन्तु उस पर इतने आडम्बरी लोग इतने आवरण चढ़ा देते हैं की उसका मूल स्वरुप ही खो जाता है |

युवराज जो आपने इश्वर की जन्म की संकल्पनाएँ बताई वो पुरानों में लिखी बातें हैं |
प्राचीन काल में लोगों के पास करने को अधिक कुछ नहीं था अतः आध्यात्म के लिए काफी समय होता था किन्तु 600BC तक व्यापार और कृषि बहुत बढ़ चुके थे | अब आध्यात्म के लिए किसी के पास समय नहीं था तो धर्म की उतनी गहन संकल्पना को समझना सबके बस की बात नहीं रह गयी थी इसलिए लम्बे समय से कहानियों के रूप में चल रही संकल्पनाओं को लिपिबद्ध किया गया | पुराण इसी समय लिखे गए | अथर्ववेड और यजुर्वेद का लेखन काल भी यही था | अथर्ववेद के इस काल के होने के कारण ही इसका पुरातात्विक महत्त्व बढ़ जाता है |
शायद कुछ लोगों को जानकार हैरानी हो कि कुछ उपनिषद पुराण और अथर्व वेद से भी पहले के हैं | मुंडकोपनिषद, जाबालोपनिषद कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं जो अपने रचना काल में ऋग्वेद के काफी समीप हैं | एक और हैरत कि बात कि राम के बाद आने पैदा होने वाले कृष्ण का पहला उल्लेख जाबालोपनिषद में मिलता है | जाबाल ऋषि के द्वारा लिखे गए इस उपनिषद में ऋषि स्वयं बताते हैं कि उनका सबसे प्रखर शिष्य कृष्ण हैं | कृष्ण का इतना पुराना उल्लेख??? क्या महाभारत के समय इसी प्रखर शिष्य कि इमेज को पुनः चमका कर प्रयोग किया गया ??? किसे पता !!!

खैर ऋग्वेद के काल के उपनिषदों कि चर्चा चलो तो कुछ और भी याद आ गया |
ऋग्वेद में कुछ कहानियाँ दी गयी हैं, जगह जगह पर छोटी छोटी !!! इन कहानियों में वैसे कुछ मनोरंजक नहीं है किन्तु इनसे तब कि प्रथाओं और बुराइयों कि झलक मिलती है |
जैसे एक कहानी में लेखक एक व्यक्ति को धिक्कार रहा है कि कैसे उसने जुएँ में अपना सब कुछ हार दिया और उसे भविष्य में इससे बचने को कह रहा है | मतलब कि जुआं तब भी एक अभिशाप बन चूका था |
एक और कहानी में लेखक पाठकों से कहता है कि sabhi को स्त्रियों से बचना चाहिए क्यूंकि उनके ह्रदय कुत्ते और भेड़ियों के होते हैं और वे तुम्हारा सब कुछ छें कर भाग जाएँगी ( मैं यहाँ जान बुझ कर इन शब्दों को सेंसर नहीं कर रहा हूँ क्यूंकि ये ऐतिहासिक दस्तावेज़ हैं किसी सामायिक व्यक्ति के वचन नहीं ) अब ये किस सन्दर्भ में बातें कहीं है वह तो कहीं से स्पष्ट नहीं होता किन्तु मेरा अपना अनुमान है कि ये सब उन कुछ चरित्रहीन स्त्रियों के विषय में था जो देह व्यापार में संलग्न थीं | इसका आधार है महाभारत से मिलते जुलते काल का रामशरण शर्मा द्वारा किया गया अध्ययन | इसमें उन्होंने उल्लेख किया है कि कैसे स्टेडियम जैसे खुले प्रन्गद में कुछ ताकतवर स्त्रियाँ कई कई पुरुषों के साथ खुले आसमान के नीचे सम्भोग करती थीं और दर्शक उसका आनंद लेते थे |

छी छी कहने कि जरुरत नहीं है और ना ही प्रतिवाद की, ये काल हमारे काल से बहुत बहुत पहले का है | इस समय तक विवाह से पहले कौमार्य का प्रचलन नहीं हुआ है और ना ही कमर के ऊपर कपडे पहने जाते थे ( चाहे तरुण कन्या हो युवक) |

शेष आगे ...

Kalyan Das
02-12-2010, 09:40 AM
भगवान ने इंसान को बनाया या नहीं, इसपर तो विवाद हो सकता है, परंतु इंसान ने भगवान को बनाया है, यह शत-प्रतिशत सही है।

ये बात आपने षोलाह आना सच कहा !!

Kalyan Das
02-12-2010, 09:49 AM
हिन्दू धर्म में शक्तिपीठ में पशुबलि का क्या महत्व है ??
१. अंध विश्वाश
२. कु संस्कार
३. बाबाओं , पूजकों का आत्म स्वार्थ
या कुछ और ???
क्या वो पशु माँ (देवी माँ) के संतान नहीं है ???
सुधि और ग्यानी सदस्यों से उत्तर का प्रतीक्षा कर रहें हैं !!!

amit_tiwari
02-12-2010, 10:43 AM
हिन्दू धर्म में शक्तिपीठ में पशुबलि का क्या महत्व है ??
१. अंध विश्वाश
२. कु संस्कार
३. बाबाओं , पूजकों का आत्म स्वार्थ
या कुछ और ???
क्या वो पशु माँ (देवी माँ) के संतान नहीं है ???
सुधि और ग्यानी सदस्यों से उत्तर का प्रतीक्षा कर रहें हैं !!!

अच्छा याद दिलाया बन्धु ! ये टोपिक तो छूट ही गया था |
असल में अब जो पशु बलि का स्वरुप है वो काफी कम है |
मूल धर्म प्रथा में यज्ञ का अर्थ ही बलि होता था और यज्ञ की भव्यता बलियों की संख्या से तय की जाती थी | यह पहले के लिए तो ठीक था, कमजोर और वृद्ध पशुओं को ठिकाने लगा दिया जाता था किन्तु जैसे जैसे जनसँख्या बढ़ी यज्ञों की संख्या भी बढती गयी और ब्राम्हणों ने भी होड़ में अधिक बालियाँ करानी प्रारंभ कर दी | ये वह समय था जब कृषि काफी विकसित हो चली थी और व्यापर में वृद्धि हो रही थी | दोनों में ही पशुओं की आवश्यकता होती थी किन्तु ब्रम्हां यज्ञों में एक से बढ़कर एक तंदरुस्त और सुन्दर बली पशुओं की बलि दे रहे थे | ऐसे ही समय में बुद्ध धर्म आया और बुद्ध ने समय की आवश्यकता को देखते हुए जीव हिंसा को निषेध किया | बुद्ध धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं था, हर व्यक्ति बिना जाती के सामान था और सिर्फ इन्ही दो बातों ने बुद्ध धर्म को जंगल की आग से भी अधिक गति से फैलाया |
पहले ब्राम्हणों ने इसका विरोध किया किन्तु बुद्ध की मृत्यु के बाद भी जब बुद्ध धर्म का प्रसार नहीं रुका तो उन्होंने मनन करके यह समझ लिया कि क्यूँ हिन्दू धर्म से इतने लोग कट रहे हैं और इसके बाद तुरंत ही जीव हत्या निषेध, दया जैसे मूल्य स्थापित किये गए और यहाँ तक कि कुछ ग्रंथों में तो बुद्ध को विष्णु का अवतार तक बता दिया गया |
अब सामान्यतया बलि समाप्त हो चुकी हैं, कुछ मंदिरों, सम्प्रदायों में यह अभी भी चलती है किन्तु उस स्तर पर नहीं और होना भी नहीं चाहिए ये प्रथा | अगर मेरे घर में शांति या सफलता के लिए मैं किसी निरीह बेजुबान मेमने की गर्दन कटवा दूँ तो लानत है ऐसी सफलता और शांति पर |

kuram
08-12-2010, 12:14 PM
मनुष्य की एक फितरत समझ से परे है. धर्म के विषय में पुरानी बातो को ज्यादा सही माना जाता है. जबकि नयी बातो का विरोध. जितने भी अवतार या ऋषि हुए सबका अपने जमाने में विरोद्ध हुआ. फिर चाहे वह बुद्ध हो या साईं बाबा. कृष्ण का भी समकालीन लोगो ने विरोद्ध किया था. और आज विरोद्धी नगण्य है. ऐसा क्यों ??? क्या सिर्फ पुराने काल के लोग ही धर्म के विषय में सच्चे होते है ?

amit_tiwari
10-12-2010, 12:02 AM
मनुष्य की एक फितरत समझ से परे है. धर्म के विषय में पुरानी बातो को ज्यादा सही माना जाता है. जबकि नयी बातो का विरोध. जितने भी अवतार या ऋषि हुए सबका अपने जमाने में विरोद्ध हुआ. फिर चाहे वह बुद्ध हो या साईं बाबा. कृष्ण का भी समकालीन लोगो ने विरोद्ध किया था. और आज विरोद्धी नगण्य है. ऐसा क्यों ??? क्या सिर्फ पुराने काल के लोग ही धर्म के विषय में सच्चे होते है ?

असल में बन्धु इसी जाले को हटाने के लिए यह सूत्र बनाया था |
मैं यही कहना चाहता हूँ कि ये भी व्यक्ति थे या व्यक्ति के आविष्कार थे फिर आज हम इन्हें क्यूँ एक पत्थर कि लकीर मान रहे हैं |
उदाहरण के लिए बुद्ध : मेरे विचार से दुनिया का पहला mba था | कितनी तीक्ष्ण बुद्धि से उन्होंने देखा कि समाज में दो समस्याएं हैं १) नीची जाती वाले अपनी सामाजिक स्थिति से दुखी हैं, २) उपयोगी पशुओं की हानि यज्ञों में हो रही है और नतीजा निकला बुद्ध धर्म | अन्यथा तत्कालीन हिन्दू और बौद्ध धर्म में क्या असमानता है | और हिन्दू धार्मिक लोगों कि बुद्धिमत्ता देखिये कि उन्होंने गलती का पता चलते ही उसे सुधार लिया किन्तु आज यदि कोई गलती निकाले तो वो धर्म विरोधी, नास्तिक और ना जाने क्या क्या !!!
साईं बाबा का भी वही हाल है, एक ऐसा सीधा सरल प्राणी जिसने एक अति साधारण भाषा में सिर्फ इतना कहा कि राम रहीम एक है, घी का दिया ना मिले तो तेल का ही दिया जला दो भगवान् भावना से खुश हो जायेंगे | आज देखिये उसी के मंदिर बना दिए ! मेरे विचार से उस व्यक्ति का इससे बड़ा अपमान क्या होगा कि जिस आडम्बर का उसने जीवन भर तिरस्कार सहते हुए विरोध किया उसे उसी का हिस्सा बना दिया |
फिर भी खुद को धार्मिक कहते हैं |

kuram
10-12-2010, 12:08 PM
असल में बन्धु इसी जाले को हटाने के लिए यह सूत्र बनाया था |
मैं यही कहना चाहता हूँ कि ये भी व्यक्ति थे या व्यक्ति के आविष्कार थे फिर आज हम इन्हें क्यूँ एक पत्थर कि लकीर मान रहे हैं |
उदाहरण के लिए बुद्ध : मेरे विचार से दुनिया का पहला mba था | कितनी तीक्ष्ण बुद्धि से उन्होंने देखा कि समाज में दो समस्याएं हैं १) नीची जाती वाले अपनी सामाजिक स्थिति से दुखी हैं, २) उपयोगी पशुओं की हानि यज्ञों में हो रही है और नतीजा निकला बुद्ध धर्म | अन्यथा तत्कालीन हिन्दू और बौद्ध धर्म में क्या असमानता है | और हिन्दू धार्मिक लोगों कि बुद्धिमत्ता देखिये कि उन्होंने गलती का पता चलते ही उसे सुधार लिया किन्तु आज यदि कोई गलती निकाले तो वो धर्म विरोधी, नास्तिक और ना जाने क्या क्या !!!
साईं बाबा का भी वही हाल है, एक ऐसा सीधा सरल प्राणी जिसने एक अति साधारण भाषा में सिर्फ इतना कहा कि राम रहीम एक है, घी का दिया ना मिले तो तेल का ही दिया जला दो भगवान् भावना से खुश हो जायेंगे | आज देखिये उसी के मंदिर बना दिए ! मेरे विचार से उस व्यक्ति का इससे बड़ा अपमान क्या होगा कि जिस आडम्बर का उसने जीवन भर तिरस्कार सहते हुए विरोध किया उसे उसी का हिस्सा बना दिया |
फिर भी खुद को धार्मिक कहते हैं |
गीता पढ़ते पढ़ते कृष्ण की एक बात आगे आयी - "धर्म क्या है और अधर्म क्या है इस विषय में पंडित लोग भी भ्रमित हो जाते है तो मनुष्य को चाहिए की सोच विचारकर धर्म और अधर्म का निर्णय करे" अब इससे आगे बेचारा क्या कहेगा. लेकिन हंसी तो तब आयी जब अध्याय ख़त्म होते ही उस अध्याय के पीछे उसका महात्म्य था जिसमे एक तोते को विष्णु भगवान् के दूतो ने यमदूतो से खाली इसलिए छीन लिया क्योंकि उसने सात आठ बार एक ऋषि के आश्रम में यह अध्याय सुना था. और तोते को वैकुण्ठ मिल गया.

amit_tiwari
11-12-2010, 06:34 PM
गीता पढ़ते पढ़ते कृष्ण की एक बात आगे आयी - "धर्म क्या है और अधर्म क्या है इस विषय में पंडित लोग भी भ्रमित हो जाते है तो मनुष्य को चाहिए की सोच विचारकर धर्म और अधर्म का निर्णय करे" अब इससे आगे बेचारा क्या कहेगा. लेकिन हंसी तो तब आयी जब अध्याय ख़त्म होते ही उस अध्याय के पीछे उसका महात्म्य था जिसमे एक तोते को विष्णु भगवान् के दूतो ने यमदूतो से खाली इसलिए छीन लिया क्योंकि उसने सात आठ बार एक ऋषि के आश्रम में यह अध्याय सुना था. और तोते को वैकुण्ठ मिल गया.

हाहाहा आपकी बात सही है बन्धु | इसका असल कारण यह है की बाद के कालों में हर पुस्तक में काफी सारे अध्याय जोड़ के ऐसी जाने कितनी कहानियाँ जोड़ दी गयीं हैं | जैसे उदाहरण के लिए ऋग्वेद का ही दूसरा और दसवां अध्याय बाद के काल में लिखे गए | तो ये कुछ अवशिष्ट बाद के काल में आ अवश्य गए किन्तु इन्हें सहज बुद्धि से पढ़ कर आराम से अलग किया जा सकता है |

वैसे मुझे पता है की आप यहाँ अधिक लम्बा लेख नहीं लिख सकते, व्यावसायिक मजबूरियां हैं किन्तु एक सारगर्भित लेख की आशा अवश्य है आपसे बन्धु |

kuram
13-12-2010, 04:51 PM
हाहाहा आपकी बात सही है बन्धु | इसका असल कारण यह है की बाद के कालों में हर पुस्तक में काफी सारे अध्याय जोड़ के ऐसी जाने कितनी कहानियाँ जोड़ दी गयीं हैं | जैसे उदाहरण के लिए ऋग्वेद का ही दूसरा और दसवां अध्याय बाद के काल में लिखे गए | तो ये कुछ अवशिष्ट बाद के काल में आ अवश्य गए किन्तु इन्हें सहज बुद्धि से पढ़ कर आराम से अलग किया जा सकता है |

वैसे मुझे पता है की आप यहाँ अधिक लम्बा लेख नहीं लिख सकते, व्यावसायिक मजबूरियां हैं किन्तु एक सारगर्भित लेख की आशा अवश्य है आपसे बन्धु |

अमित कोई पेशेवर लेखक या फिर फिलोसपर तो नहीं हूँ हाँ धर्म में रुचि है और इसलिए हर दिन दो चार घंटे चलते चलते या बैठा बैठा सोचता रहता हूँ.
क्या है हम - अकेले डर लगता है इसलिए संगठन बनाते है धर्म भी संगठन ही है डर के चलते और अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में अपने धर्म को श्रेष्ट और विकार रहित मानते है. ज्यादा से ज्यादा संख्या बढ़ाना चाहते है. लेकिन खुद हमने न इश्वर को पाया है और न दुसरे को पाने में मदद कर सकते. मजे की बात तो ये है की संख्या बढ़ाकर भी हम फिर से कम होकर अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने में लग जाते है यानी अकेले भी नहीं रह सकते और सबके साथ भी गुम नहीं होना चाहते. भीड़ या संगठन या धर्म में भी अपनी पहचान या श्रेष्ठता भी साबित करना चाहते है. अनेक पंथ और अनेक देव का यह भी एक कारण है. ठीक यही बात जातियों में है. बात जब वृहद् स्तर पे है तो ब्राहमण बड़ा है बात जब केवल ब्रह्मण के स्तर पे है तो ब्रह्मण में एक विशेष गौत्र श्रेष्ठ है और बात जब एक गौत्र की है तो उसमे भी एक विशेष उप गौत्र श्रेष्ठ है और बात जब उस विशेष उप गौत्र की है तो उसमे खाली इस क्षेत्र में रहने वाला श्रेष्ठ है. यानी दुनिया में भारत श्रेष्ठ है भारत में मेरा राज्य और मेरे राज्य में मेरा शहर और मेरे शहर में मेरा घर और मेरे घर में में.

arvind
14-12-2010, 10:57 AM
अमित कोई पेशेवर लेखक या फिर फिलोसपर तो नहीं हूँ हाँ धर्म में रुचि है और इसलिए हर दिन दो चार घंटे चलते चलते या बैठा बैठा सोचता रहता हूँ.
क्या है हम - अकेले डर लगता है इसलिए संगठन बनाते है धर्म भी संगठन ही है डर के चलते और अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में अपने धर्म को श्रेष्ट और विकार रहित मानते है. ज्यादा से ज्यादा संख्या बढ़ाना चाहते है. लेकिन खुद हमने न इश्वर को पाया है और न दुसरे को पाने में मदद कर सकते. मजे की बात तो ये है की संख्या बढ़ाकर भी हम फिर से कम होकर अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने में लग जाते है यानी अकेले भी नहीं रह सकते और सबके साथ भी गुम नहीं होना चाहते. भीड़ या संगठन या धर्म में भी अपनी पहचान या श्रेष्ठता भी साबित करना चाहते है. अनेक पंथ और अनेक देव का यह भी एक कारण है. ठीक यही बात जातियों में है. बात जब वृहद् स्तर पे है तो ब्राहमण बड़ा है बात जब केवल ब्रह्मण के स्तर पे है तो ब्रह्मण में एक विशेष गौत्र श्रेष्ठ है और बात जब एक गौत्र की है तो उसमे भी एक विशेष उप गौत्र श्रेष्ठ है और बात जब उस विशेष उप गौत्र की है तो उसमे खाली इस क्षेत्र में रहने वाला श्रेष्ठ है. यानी दुनिया में भारत श्रेष्ठ है भारत में मेरा राज्य और मेरे राज्य में मेरा शहर और मेरे शहर में मेरा घर और मेरे घर में में.
कुरम गुरु..... सही फरमाया है आपने।
श्रेष्ठ होने का दंभ भरना मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है। मेरा तो मानना है की मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है। अगर मानवता इंसान को इंसान से जोड़ती है तो धर्म या पंथ इसे तोड़ती है। एक आदम जात ही ऐसी जीव है जो धर्म, पंथ या जात के नाम पर भेदभाव, अत्याचार और खून खराबा करती है, बाकी किस अन्य जीव मे आपको यह प्रवृति देखने को नहीं मिलेगा। और अगर हम यह मान भी ले की भगवान या ईश्वर है, तो आप खुद ही सोचिए, क्या उसे धर्म का यह रूप पसंद होगा?