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View Full Version : प्रेम.. और... त्याग...


soni pushpa
18-09-2014, 07:22 PM
आजकल प्रेम शब्द को बड़े ही गलत अर्थ में लिया जाता है ... जबकि ये तो बहुत व्यापक शब्द है . ये एक eisa शब्द है, जो यदि मानव मन में बस जाय तो सारे समाज का कल्याण हो जाय और आज जो रंग भेद , आतंकवाद , और दुश्मनी जैसे शब्द हैं वो मानवता की डिक्शनरी से निकल ही जाये और हर कोई प्रेम की वजह से एकदूजे का मान रखे, और स्नेह से दूसरो के लिए जिए , स्वार्थ की भावना भी न हो और ये पृथ्वी स्वर्ग की तरह सुन्दर बन जाये. स्वर्ग की तरह सुन्दर ही क्यों अपितु ये कहना चहिये की धरती पर ही स्वर्ग बन जाये . ये एकतरफ हो गई प्रेम की बात अब दूजी रही त्याग की बात सो मै आप सबसे जानना चाहूंगी की त्याग और प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिर एकदूजे से अलग रखना चहिये इसे ... क्यूंकि मैंने अक्सर देखा है की प्रेम हमेशा त्याग की मांग करता ही है या फिर मांग न भी हो किन्तु जहाँ प्रेम है वहां लोग आपनो के लिए सब कुछ कुर्बान कर देते हैं ... अब आप सब अपनी अपनी राय देंगे क्या इस विषय

Rajat Vynar
19-09-2014, 10:57 AM
नवीनतम विद्युत देशों और ‘सामाजिक-आर्थिक’ समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए बने मंच ‘तर्क-वितर्क’ में आपके एक शक्तिशाली सूत्र को देखकर अतीव प्रसन्नता का अनुभव हुआ. आपके सूत्र पर अभी तक किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की. अतएव यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि आपका सूत्र कितना सशक्त है. हार्दिक बधाई. वस्तुतः इस सूत्र पर टिप्पणी करना कोई साधारण बात नहीं है. निःसंदेह यह विषय ‘आर्थिक-सामाजिक’ समस्या से सम्बन्धित है. अतः इसके लिए इस क्षेत्र में माहिर ‘वैज्ञानिकों’ की राय लेनी होगी. इस शक्तिशाली विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है, इसलिए आगे भी वार्ता जारी रहेगी.

soni pushpa
19-09-2014, 07:26 PM
[QUOTE=Rajat Vynar;528346]नवीनतम विद्युत देशों और ‘सामाजिक-आर्थिक’ समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए बने मंच ‘तर्क-वितर्क’ में आपके एक शक्तिशाली सूत्र को देखकर अतीव प्रसन्नता का अनुभव हुआ. आपके सूत्र पर अभी तक किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की. अतएव यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि आपका सूत्र कितना सशक्त है. हार्दिक बधाई. वस्तुतः इस सूत्र पर टिप्पणी करना कोई साधारण बात नहीं है. निःसंदेह यह विषय ‘आर्थिक-सामाजिक’ समस्या से सम्बन्धित है. अतः इसके लिए इस क्षेत्र में माहिर ‘वैज्ञानिकों’ की राय लेनी होगी. इस शक्तिशाली विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है, इसलिए आगे भी वार्ता जारी रहेगी.[/Q

बहुत बहुत धन्यवाद के साथ आपका अभिवादन करते हुए प्रसन्नता व्यक्त करतीहू की आपने इस सूत्र की शक्ति को पहचाना समझा और आपने मंतव्य व्यक्त किये ... प्रेम शब्द ही एक अथाह सागर है रजत जी जिसमे गहरे में जाकर मोती निकालने पड़ते हैं और ,इसके लिए विचार की जरुरत पड़ेगी ही ... रही बात त्याग की तो त्याग तो आज के ज़माने में बहुत कम लोगो में मिलता है क्यूंकि हरेक को आपने स्वार्थ का मायाजाल बांधे हुए है किसी को पैसा बांध रखे है और किसी को अपनी उन्नति के लिए सिरफ़ खुद को देखना है .. अब इन बन्धनों से हटकर जो आगे निकले निस्वार्थ होकर, सबकी सोचे एइसे तो इस समाज में विरले ही पाए जाते हैं ....

बाकि हाँ अपना ये छोटा सा मंच कहूँ या परिवार कहूँ (माय हिंदी फोरम ) जो है वो शायद निस्वार्थ लोगो से ही बना हुआ है यहाँ एक पारिवारिक वातावरण बन जाता है जब लोग दुसरो को आगे बढ़ता देखते हैं और खुश होते हैं.

rajnish manga
19-09-2014, 11:57 PM
सोनी जी, आपके सूत्र का फलक सीमित होते हुये भी असीमित है. प्रेम अनादि है और अनंत भी. हमने अनेक स्थानों पर महापुरुषों के कथन पढ़े व सुने हैं जो मानते हैं कि प्रेम ईश्वर का ही विस्तार है. जहां प्रेम है वहाँ ईश्वर है. भारतीय दर्शन व संस्कृति में कण कण में ईश्वर होने की अवधारणा रखी गयी है अतः यह हमारा कर्तव्य है कि हम प्राणिमात्र से प्रेम करें, किसी का जी न दुखायें.

संत कबीर का दोहा भी तो इसी प्रेम का संदेश देता है:

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ भया न पंडित कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

प्रेम के विषय पर फोरम पर अन्यत्र भी चर्चा की गयी है. उसके बारे में और इस चर्चा के "त्याग" पक्ष पर विचार विमर्श को कुछ अंतराल के बाद आगे बढ़ायेंगे. तब तक अलविदा.

Pavitra
20-09-2014, 12:18 AM
आपने सही कहा कि प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात हो तो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तक सीमित हो जाता है ये शब्द।
प्रेम किसी भी वस्तु से जीव से हो सकता है। प्रेम के अनेक रूप हैं।
त्याग भी प्रेम का ही रूप है , सबसे शुद्ध रूप। त्याग वहीँ होता है जहाँ प्रेम अपनी चरम सीमा पर हो। जहाँ प्रेम नहीं वहां त्याग नहीं होता वहां समझौता होता है। जैसे कि मुझे कोई चीज़ छोड़नी पड़ रही हो ना चाहते हुए भी , तो वो त्याग नहीं होगा। त्याग वहां होता है जहाँ व्यक्ति ख़ुशी से कोई चीज़ छोड़े। और किसी वस्तु के छूटने पर भी जब हमें दुःख न हो अपितु ख़ुशी हो तब वो त्याग बनता है। क्यूंकि ये ख़ुशी उस वस्तु के हमारे पास से चले जाने की नहीं बल्कि जिसके लिए हमने वो वास्तु छोड़ी उसके लिए कुछ भी कर सकने की होती है।

Rajat Vynar
20-09-2014, 09:06 AM
नवीनतम विद्युत देशों और ‘सामाजिक-आर्थिक’ समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए बने मंच ‘तर्क-वितर्क’ में आपके एक शक्तिशाली सूत्र को देखकर अतीव प्रसन्नता का अनुभव हुआ. आपके सूत्र पर अभी तक किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की. अतएव यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि आपका सूत्र कितना सशक्त है. हार्दिक बधाई. वस्तुतः इस सूत्र पर टिप्पणी करना कोई साधारण बात नहीं है. निःसंदेह यह विषय ‘आर्थिक-सामाजिक’ समस्या से सम्बन्धित है. अतः इसके लिए इस क्षेत्र में माहिर ‘वैज्ञानिकों’ की राय लेनी होगी. इस शक्तिशाली विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है, इसलिए आगे भी वार्ता जारी रहेगी.
अच्छा हुआ- किसी का ध्यान इस हास्यास्पद हिंदी अनुवाद की ओर नहीं गया. माफ कीजियेगा. मेरी खोपड़ी का संचार परिसेवक (server) एकाएक बैठ (down) हो जाने के कारण यह त्रुटि (error) हुई. वस्तुतः विदेश मंत्रालय के वेबसाईट के अंग्रेज़ी संस्करण (version) में लिखा है- Ministery of External Affairs. इसलिए मैं समझा कि यदि External Affairs का अर्थ ‘विदेश’ है तो Affairs का अर्थ ‘देश’ होना चाहिए. इसके अतिरिक्त मैं समझा कि current का तात्पर्य बिजली से है क्योंकि देश में बिजली की समस्या बहुत है. इसलिए current affairs का हास्यास्पद अनुवाद ‘विद्युत देशों’ हो गया जबकि यह ‘वर्तमान प्रसंगों’ होना चाहिए था! ऐसी गलतियाँ आप अक्सर google translation में देख सकते हैं. Google translation के अनुसार current affairs का अर्थ ‘सामयिकी’ है, किन्तु यह सटीक नहीं है क्योंकि इसका अर्थ होता है- ‘नियतकालिक घटनाओं की चर्चा से सम्बन्धित कोई भी चीज़’. जैसे- मनोरमा इयर बुक एक सामयिकी है. इस विषय पर आपके विचार/सुझाव सादर आमंत्रित हैं.

soni pushpa
20-09-2014, 11:06 AM
सोनी जी, आपके सूत्र का फलक सीमित होते हुये भी असीमित है. प्रेम अनादि है और अनंत भी. हमने अनेक स्थानों पर महापुरुषों के कथन पढ़े व सुने हैं जो मानते हैं कि प्रेम ईश्वर का ही विस्तार है. जहां प्रेम है वहाँ ईश्वर है. भारतीय दर्शन व संस्कृति में कण कण में ईश्वर होने की अवधारणा रखी गयी है अतः यह हमारा कर्तव्य है कि हम प्राणिमात्र से प्रेम करें, किसी का जी न दुखायें.

संत कबीर का दोहा भी तो इसी प्रेम का संदेश देता है:

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ भया न पंडित कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

प्रेम के विषय पर फोरम पर अन्यत्र भी चर्चा की गयी है. उसके बारे में और इस चर्चा के "त्याग" पक्ष पर विचार विमर्श को कुछ अंतराल के बाद आगे बढ़ायेंगे. तब तक अलविदा.

धन्यवाद रजनीश जी , आपने आपने अमूल्य विचार प्रगट किये ,.. और आपने संत कबीर के दोहे को लिखकर प्रेम के अपार महत्व को भी समझाया . जी हाँ भगवान भी प्रेम के बस में हैं . जहाँ मीरा, नरसी मेहताऔर विदुर शबरी के प्रेम के बस होकर ही जूठे बेर खाय ., मीरा की रक्षा की और विदुर घर भाजी पाई ., और eise हजारो उदहारण है हमारे एतिहासिक ग्रंथों में जैसे की द्रौपदी के चीर बढ़ाये , सुदामा आदि .और हाँ रजनीश जी कभी अलविदा न कहना हम सबको यही रहकर, और यू ही साहित्यिक, सामाजिक चर्चाएँ करनी है ...

soni pushpa
20-09-2014, 11:18 AM
आपने सही कहा कि प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात हो तो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तक सीमित हो जाता है ये शब्द।
प्रेम किसी भी वस्तु से जीव से हो सकता है। प्रेम के अनेक रूप हैं।
त्याग भी प्रेम का ही रूप है , सबसे शुद्ध रूप। त्याग वहीँ होता है जहाँ प्रेम अपनी चरम सीमा पर हो। जहाँ प्रेम नहीं वहां त्याग नहीं होता वहां समझौता होता है। जैसे कि मुझे कोई चीज़ छोड़नी पड़ रही हो ना चाहते हुए भी , तो वो त्याग नहीं होगा। त्याग वहां होता है जहाँ व्यक्ति ख़ुशी से कोई चीज़ छोड़े। और किसी वस्तु के छूटने पर भी जब हमें दुःख न हो अपितु ख़ुशी हो तब वो त्याग बनता है। क्यूंकि ये ख़ुशी उस वस्तु के हमारे पास से चले जाने की नहीं बल्कि जिसके लिए हमने वो वास्तु छोड़ी उसके लिए कुछ भी कर सकने की होती है।

जी लावण्या जी , आज समाज में प्रेम शब्द का ये ही अर्थ लगाया जाता है .और इस शब्द की विशालता को कहीं गुम कर दिया है इसलिए ही मेरे मन में ये सवाल आया की क्यों न इस बारे में हम सब चर्चा करे ,आज जो इंसानी समाज के हालात है ., वो कही कही जानवरों से बदतर हैं और उसकी एक वजह ये ही है की हम अपने इंसानी प्रेम को भूलते जा रहे है और स्वार्थ ने प्रेम का स्थान ले लिया है . और इसी कुण्ठा की वजह से हमारे समाज में मानवताके साथ प्रेम की कमी आ गई है,

और आपने जो उदहारण दिया वो बिलकुल सही है ..प्रेम सिर्फ अपने परिवार तक या अपनो तक सीमित न होकर हरेक के लिए हो तो वसुधेइव कुटुम्बकम का सपना सच हो जय

soni pushpa
20-09-2014, 11:24 AM
अच्छा हुआ- किसी का ध्यान इस हास्यास्पद हिंदी अनुवाद की ओर नहीं गया. माफ कीजियेगा. मेरी खोपड़ी का संचार परिसेवक (server) एकाएक बैठ (down) हो जाने के कारण यह त्रुटि (error) हुई. वस्तुतः विदेश मंत्रालय के वेबसाईट के अंग्रेज़ी संस्करण (version) में लिखा है- Ministery of External Affairs. इसलिए मैं समझा कि यदि External Affairs का अर्थ ‘विदेश’ है तो Affairs का अर्थ ‘देश’ होना चाहिए. इसके अतिरिक्त मैं समझा कि current का तात्पर्य बिजली से है क्योंकि देश में बिजली की समस्या बहुत है. इसलिए current affairs का हास्यास्पद अनुवाद ‘विद्युत देशों’ हो गया जबकि यह ‘वर्तमान प्रसंगों’ होना चाहिए था! ऐसी गलतियाँ आप अक्सर google translation में देख सकते हैं. Google translation के अनुसार current affairs का अर्थ ‘सामयिकी’ है, किन्तु यह सटीक नहीं है क्योंकि इसका अर्थ होता है- ‘नियतकालिक घटनाओं की चर्चा से सम्बन्धित कोई भी चीज़’. जैसे- मनोरमा इयर बुक एक सामयिकी है. इस विषय पर आपके विचार/सुझाव सादर आमंत्रित हैं.

धन्यवाद रजत जी अपने परिवेश संचार को beithe ही रहने दीजिये और बस इस चर्चा को यु ही आगे बढाइये ... मनोरमा बुक हमे यहाँ नही मिलती., हाँ नेट के माध्यम से शायद में इसे पढूंगी और आपके साथ इस ईयर बुक के बारे में चर्चा करुँगी ..

Rajat Vynar
20-09-2014, 08:43 PM
आपने सही कहा कि प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात हो तो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तक सीमित हो जाता है ये शब्द।
प्रेम किसी भी वस्तु से जीव से हो सकता है। प्रेम के अनेक रूप हैं।
त्याग भी प्रेम का ही रूप है , सबसे शुद्ध रूप। त्याग वहीँ होता है जहाँ प्रेम अपनी चरम सीमा पर हो। जहाँ प्रेम नहीं वहां त्याग नहीं होता वहां समझौता होता है। जैसे कि मुझे कोई चीज़ छोड़नी पड़ रही हो ना चाहते हुए भी , तो वो त्याग नहीं होगा। त्याग वहां होता है जहाँ व्यक्ति ख़ुशी से कोई चीज़ छोड़े। और किसी वस्तु के छूटने पर भी जब हमें दुःख न हो अपितु ख़ुशी हो तब वो त्याग बनता है। क्यूंकि ये ख़ुशी उस वस्तु के हमारे पास से चले जाने की नहीं बल्कि जिसके लिए हमने वो वास्तु छोड़ी उसके लिए कुछ भी कर सकने की होती है।
लावण्या जी, आपका मत महत्वपूर्ण है. वैसे तो आपके मत के प्रत्येक पंक्तियों पर चर्चा आवश्यक है किन्तु मैं कुछेक पंक्तियों को ही चर्चा के लिए यहाँ पर ले रहा हूँ. आप लिखती हैं कि ‘प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात हो तो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तक सीमित हो जाता है ये शब्द’. आप यहाँ पर आश्चर्य व्यक्त कर रही हैं कि ऐसा क्यों है? दूसरी ओर ‘सामाजिक-आर्थिक’ मामलों की विशेषज्ञ एक विख्यात लेखिका अपने बहुचर्चित स्तम्भ में लिखती हैं कि-

“...मैं आश्चर्य करती हूँ कि लोग उस क्षण जब वे किसी का ‘पुरुषमित्र’ या ‘महिलामित्र’ बनते हैं तो वे ‘मित्र’ की भूमिका को क्यों भूल जाते हैं? आप अपने मित्रों से निरन्तर मुँह चढ़ाकर व्यवहार नहीं करते क्योंकि आप जानते हैं कि वे आपको एक क्षण में छोड़ देंगे. मात्र इसलिए कि आपका पुरुषमित्र ऐसा नहीं करेगा- इसका अर्थ यह नहीं होता कि आपने उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया है।“

वैसे तो लेखिका का कथन न्यायसंगत ही प्रतीत होता है किन्तु मुझे इस बात पर भी आश्चर्य है कि लेखिका इस विषय में प्रकाश क्यों नहीं डाल पा रही हैं? यहाँ पर प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है? इसका कारण यह है कि निःसंदेह प्रेम-सम्बन्ध का दर्जा अन्य सम्बन्धों से बड़ा होता है. इसलिए जब दो लोगों के बीच में प्रेम-सम्बन्ध स्थापित होता है तो प्रेमी युगल एक-दूसरे पर अपना विशेष अधिकार समझते हैं। यदि इनके बारे में कोई दूसरा कुछ अनर्गल (absurd) बातें करता है तो ये उतना बुरा नहीं मानते और एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं किन्तु जब यही अनर्गल बात उनसे उनका प्रियजन (loved one) कहता है तो अपने इस विशेष अधिकार के कारण ही ये असहज (abnormal) होकर तनावग्रस्त (tension) हो जाते हैं और बहुत बुरा मान जाते हैं। यहाँ पर बस समझ का फेर है। इसलिए जो जितना अधिक तनावग्रस्त होता है, वह उतना ही अधिक अपने उस प्रियजन से प्रेम करता है। प्रेम की यह पराकाष्ठा (pinnacle) बहुत ही हानिकारक (dangerous) होती है। हिंदी कवि कबीरदास ने भी कहा है- ‘अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।‘ संक्षेप में- अति हर चीज़ की हानिकारक होती है। प्रेम के इस पराकाष्ठा को आधार बनाकर तमिल् फ़िल्मों के विख्यात निर्माता-निर्देशक के॰ बालचन्दर वर्ष 1989 में एक सफल तमिल् फ़िल्म ‘पुदु-पुदु अर्थङ्गल्’ (नए-नए अर्थ) भी बना चुके हैं।

निःसंदेह सभी प्रकार के सम्बन्धों (relationship) में प्रेम (love) की पवित्र (holy) भावना (spirit) विद्यमान (exist) रहती है। एक भाई का बहन के प्रति (towards)और सन्तान (offspring) का अपने माता-पिता (parents) के प्रति जो प्रेम विद्यमान रहता है उसकी तुलना (comparison) प्रेमी-युगल (couple) के मध्य विद्यमान प्रेम से नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रेमी-युगल के बीच जो प्रेम की भावना विद्यमान रहती है उसका स्थान (degree) श्रेष्ठतम (precious) है। कुछ लोग प्रेमी-युगल के मध्य विद्यमान प्रेम की भावना को अन्य (Other) प्रकार (Kind) के सम्बन्धों में विद्यमान पे्रम की भावना के समतुल्य (equivalent) समझते हैं किन्तु यह धारणा (notion) सिरे से गलत है। क्या आपको वर्ष 1997 में लोकार्पित अंग्रेज़ी फ़ीचर फ़िल्म टाइटैनिक (Titanic) का वह मर्मस्पर्शी दृष्य याद है जब टाइटैनिक जहाज़ के डूबने के बाद कहानी का नायक नायिका की जान बचाने के लिए एक छोटे से लकड़ी के तख्ते पर नायिका को चढ़ा देता है और जब स्वयं उस पर चढ़ने का प्रयत्न करता है तो लकड़ी का तख़्ता पलट जाता है। यह देखकर नायक नायिका को तख़्ते पर चढ़ाकर स्वयं तख़्ते का सिरा पकड़कर बर्फ़ीले समुद्री पानी में तैरता हुआ खड़ा रहता है। बर्फ़ीले ठण्डे समुद्री पानी के कारण नायक का बदन अकड़ जाता है और शरीर का तापमान (temperature) कम होने से हाइपोथर्मिया (hypothermia) के कारण उसकी दर्दनाक (painful) मृत्यु हो जाती है। ’हाँ-हाँ, हमें वह दृष्य याद है किन्तु ऐसा प्रेम तो सिर्फ़ फ़िल्मों में दिखाया जाता है.’- कहने वालों के लिए उत्तर यह है कि समाचार-पत्रों (newspapers) में प्रेमी-युगल के धर छोड़कर भागने की घटनाओं और विश्वासघात (perfidy) की दशा (condition) में प्रेमी-युगल द्वारा अपनी जान देने या एक-दूसरे की जान लेने अथवा अन्य किसी प्रकार से एक-दूसरे से बदला (revenge) लेने की घटनाओं का प्रकाशित (publish) होना इस बात का अकाट्य (cogent) प्रमाण (proof) है कि प्रेमी-युगल के मध्य विद्यमान प्रेम की भावना श्रेष्ठतम (precious) है।

यह निर्विवाद कटु सत्य है कि आपके अच्छे दुश्मन दोस्तों से ही पैदा होते हैं. कैसे? आप अपने दोस्तों को अपना समझकर अपना हर राज़ उन्हें बता देते हैं. जब तक दोस्ती रही तो ठीक है, लेकिन दोस्ती का कोई भरोसा नहीं. पता नहीं किस बात पर मतभेद हो जाए और दोस्ती टूट जाए. दोस्ती टूटने के बाद ऐसे लोग आपके सभी राज़ और आपकी कमज़ोर नस के बारे में जानने के कारण आपको सबसे अधिक नुकसान पहुँचा सकते हैं. आपने वह मुहावरा तो सुना ही होगा- ‘घर का भेदी लंका ढाए’. आप मुझसे एक साल या दो साल तक बात करिये. आपके पास मुझसे सम्बन्धित किसी भी व्यक्तिगत जानकारी का स्तर शून्य ही रहेगा. जबकि मेरे पास आपसे सम्बन्धित व्यक्तिगत जानकारी का स्तर सौ प्रतिशत रहेगा. प्रायः लोगों की आदत होती है- अपने बारे में अपने दोस्तों को ‘ए टू जेड’ बिना रुके बताने की. अपनी इस प्रवृत्ति को बदलिए. यह प्रवृत्ति आपके लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है. मित्रता में भी एक प्रकार की प्रेम की भावना ही निहित होती है और जहाँ पर प्रेम की भावना होती है वहाँ पर त्याग की भावना होती है. ऐसा कभी सम्भव नहीं कि आप किसी से प्रेम करें और उसके लिए त्याग करने से इन्कार कर दें. यदि आप त्याग करने से इन्कार करते हैं तो इसका सीधा सा अर्थ यह होता है कि आपने किसी स्वार्थवश प्रेम किया था. इसलिए प्रेम और त्याग एक दूसरे के पर्याय हैं. संक्षेप में, यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसके लिए त्याग करेंगे और यदि किसी के लिए त्याग करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि आप उससे प्रेम करते हैं. यह त्याग किसी भी प्रकार का हो सकता है. मित्रता में निहित प्रेम की भावना यदि सत्य है तो आप मित्र के हित को सर्वोपरि मानेंगे. कौन किससे कितना प्रेम करता है, यह मापने के लिए आज तक कोई पैमाना नहीं बना किन्तु कौन आपकी कितनी गलतियों को खुले हृदय से क्षमा कर देता है- इस आधार पर प्रेम के परिमाण का आकलन किया जा सकता है. यही कारण है कि माता-पिता अपनी सन्तान की प्रत्येक गलतियों को बिना किसी शर्त के क्षमा कर देते हैं. यहाँ पर यह हमेशा याद रखें कि गलती करना इन्सान के गुणों में शुमार है और यह कदापि सम्भव नहीं कि कोई बिलकुल गलती न करे. इसलिए कम गलती करने वाले को ही श्रेष्ठ समझ लेना चाहिए. छोटी सी गलती होने पर भी यदि मित्रता में निहित प्रेम का परिमाण कम है तो ऐसी मित्रता सदैव दुश्मनी में परिवर्तित हो जाती है और यह कटु सत्य है कि बदला लेने की तीव्र भावना में लोग यह भूल जाते हैं कि जो जानकारी उनके पास है वह उन्हें कैसे मिली? निश्चित रूप से यह जानकारी उन्हें तब मिली जब वे ‘मित्रता’ जैसे उच्च पद पर विराजमान थे, क्योंकि अपने दुश्मनों से कोई अपना राज़ नहीं बताता, लेकिन अपने दोस्तों से बता देता है. यद्यपि बदला लेने की लालसा में भूतपूर्व मित्र के पद में निहित प्रेम की भावना को किनारे कर देना किसी हालत में न्यायसंगत नहीं है, किन्तु मेरे इस विचार पर कोई भी किसी भी हालत में अमल नहीं करेगा. इसलिए ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ के सिद्धान्त पर चलते हुए अपने दोस्तों को अनावश्यक रूप से जानकारी न बाँटना ही श्रेयस्कर होगा. मुझे तो आज तक एक अभूतपूर्व ‘वैज्ञानिक’ के अतिरिक्त कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो इस तरह अपने बारे में जानकारी न बाँटता हो. आज तक उस वैज्ञानिक ने मुझे कोई जानकारी नहीं दी, न मैंने उसे दी. ऐसे लोगों को मैं बहुत पसन्द करता हूँ जो ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ के सिद्धान्त पर चलते चलते हुए ‘मौन-व्रत’ धारण किए रहते हैं… aww.. aww..

Pavitra
20-09-2014, 10:02 PM
लावण्या जी, आपका मत महत्वपूर्ण है. वैसे तो आपके मत के प्रत्येक पंक्तियों पर चर्चा आवश्यक है किन्तु मैं कुछेक पंक्तियों को ही चर्चा के लिए यहाँ पर ले रहा हूँ. आप लिखती हैं कि ‘प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात हो तो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तक सीमित हो जाता है ये शब्द’. आप यहाँ पर आश्चर्य व्यक्त कर रही हैं कि ऐसा क्यों है? दूसरी ओर ‘सामाजिक-आर्थिक’ मामलों की विशेषज्ञ एक विख्यात लेखिका अपने बहुचर्चित स्तम्भ में लिखती हैं कि-

“...मैं आश्चर्य करती हूँ कि लोग उस क्षण जब वे किसी का ‘पुरुषमित्र’ या ‘महिलामित्र’ बनते हैं तो वे ‘मित्र’ की भूमिका को क्यों भूल जाते हैं? आप अपने मित्रों से निरन्तर मुँह चढ़ाकर व्यवहार नहीं करते क्योंकि आप जानते हैं कि वे आपको एक क्षण में छोड़ देंगे. मात्र इसलिए कि आपका पुरुषमित्र ऐसा नहीं करेगा- इसका अर्थ यह नहीं होता कि आपने उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया है।“

वैसे तो लेखिका का कथन न्यायसंगत ही प्रतीत होता है किन्तु मुझे इस बात पर भी आश्चर्य है कि लेखिका इस विषय में प्रकाश क्यों नहीं डाल पा रही हैं? यहाँ पर प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है? इसका कारण यह है कि निःसंदेह प्रेम-सम्बन्ध का दर्जा अन्य सम्बन्धों से बड़ा होता है. इसलिए जब दो लोगों के बीच में प्रेम-सम्बन्ध स्थापित होता है तो प्रेमी युगल एक-दूसरे पर अपना विशेष अधिकार समझते हैं। यदि इनके बारे में कोई दूसरा कुछ अनर्गल (absurd) बातें करता है तो ये उतना बुरा नहीं मानते और एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं किन्तु जब यही अनर्गल बात उनसे उनका प्रियजन (loved one) कहता है तो अपने इस विशेष अधिकार के कारण ही ये असहज (abnormal) होकर तनावग्रस्त (tension) हो जाते हैं और बहुत बुरा मान जाते हैं। यहाँ पर बस समझ का फेर है। इसलिए जो जितना अधिक तनावग्रस्त होता है, वह उतना ही अधिक अपने उस प्रियजन से प्रेम करता है। प्रेम की यह पराकाष्ठा (pinnacle) बहुत ही हानिकारक (dangerous) होती है। हिंदी कवि कबीरदास ने भी कहा है- ‘अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।‘ संक्षेप में- अति हर चीज़ की हानिकारक होती है। प्रेम के इस पराकाष्ठा को आधार बनाकर तमिल् फ़िल्मों के विख्यात निर्माता-निर्देशक के॰ बालचन्दर वर्ष 1989 में एक सफल तमिल् फ़िल्म ‘पुदु-पुदु अर्थङ्गल्’ (नए-नए अर्थ) भी बना चुके हैं।

निःसंदेह सभी प्रकार के सम्बन्धों (relationship) में प्रेम (love) की पवित्र (holy) भावना (spirit) विद्यमान (exist) रहती है। एक भाई का बहन के प्रति (towards)और सन्तान (offspring) का अपने माता-पिता (parents) के प्रति जो प्रेम विद्यमान रहता है उसकी तुलना (comparison) प्रेमी-युगल (couple) के मध्य विद्यमान प्रेम से नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रेमी-युगल के बीच जो प्रेम की भावना विद्यमान रहती है उसका स्थान (degree) श्रेष्ठतम (precious) है। कुछ लोग प्रेमी-युगल के मध्य विद्यमान प्रेम की भावना को अन्य (Other) प्रकार (Kind) के सम्बन्धों में विद्यमान पे्रम की भावना के समतुल्य (equivalent) समझते हैं किन्तु यह धारणा (notion) सिरे से गलत है। क्या आपको वर्ष 1997 में लोकार्पित अंग्रेज़ी फ़ीचर फ़िल्म टाइटैनिक (Titanic) का वह मर्मस्पर्शी दृष्य याद है जब टाइटैनिक जहाज़ के डूबने के बाद कहानी का नायक नायिका की जान बचाने के लिए एक छोटे से लकड़ी के तख्ते पर नायिका को चढ़ा देता है और जब स्वयं उस पर चढ़ने का प्रयत्न करता है तो लकड़ी का तख़्ता पलट जाता है। यह देखकर नायक नायिका को तख़्ते पर चढ़ाकर स्वयं तख़्ते का सिरा पकड़कर बर्फ़ीले समुद्री पानी में तैरता हुआ खड़ा रहता है। बर्फ़ीले ठण्डे समुद्री पानी के कारण नायक का बदन अकड़ जाता है और शरीर का तापमान (temperature) कम होने से हाइपोथर्मिया (hypothermia) के कारण उसकी दर्दनाक (painful) मृत्यु हो जाती है। ’हाँ-हाँ, हमें वह दृष्य याद है किन्तु ऐसा प्रेम तो सिर्फ़ फ़िल्मों में दिखाया जाता है.’- कहने वालों के लिए उत्तर यह है कि समाचार-पत्रों (newspapers) में प्रेमी-युगल के धर छोड़कर भागने की घटनाओं और विश्वासघात (perfidy) की दशा (condition) में प्रेमी-युगल द्वारा अपनी जान देने या एक-दूसरे की जान लेने अथवा अन्य किसी प्रकार से एक-दूसरे से बदला (revenge) लेने की घटनाओं का प्रकाशित (publish) होना इस बात का अकाट्य (cogent) प्रमाण (proof) है कि प्रेमी-युगल के मध्य विद्यमान प्रेम की भावना श्रेष्ठतम (precious) है।

यह निर्विवाद कटु सत्य है कि आपके अच्छे दुश्मन दोस्तों से ही पैदा होते हैं. कैसे? आप अपने दोस्तों को अपना समझकर अपना हर राज़ उन्हें बता देते हैं. जब तक दोस्ती रही तो ठीक है, लेकिन दोस्ती का कोई भरोसा नहीं. पता नहीं किस बात पर मतभेद हो जाए और दोस्ती टूट जाए. दोस्ती टूटने के बाद ऐसे लोग आपके सभी राज़ और आपकी कमज़ोर नस के बारे में जानने के कारण आपको सबसे अधिक नुकसान पहुँचा सकते हैं. आपने वह मुहावरा तो सुना ही होगा- ‘घर का भेदी लंका ढाए’. आप मुझसे एक साल या दो साल तक बात करिये. आपके पास मुझसे सम्बन्धित किसी भी व्यक्तिगत जानकारी का स्तर शून्य ही रहेगा. जबकि मेरे पास आपसे सम्बन्धित व्यक्तिगत जानकारी का स्तर सौ प्रतिशत रहेगा. प्रायः लोगों की आदत होती है- अपने बारे में अपने दोस्तों को ‘ए टू जेड’ बिना रुके बताने की. अपनी इस प्रवृत्ति को बदलिए. यह प्रवृत्ति आपके लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है. मित्रता में भी एक प्रकार की प्रेम की भावना ही निहित होती है और जहाँ पर प्रेम की भावना होती है वहाँ पर त्याग की भावना होती है. ऐसा कभी सम्भव नहीं कि आप किसी से प्रेम करें और उसके लिए त्याग करने से इन्कार कर दें. यदि आप त्याग करने से इन्कार करते हैं तो इसका सीधा सा अर्थ यह होता है कि आपने किसी स्वार्थवश प्रेम किया था. इसलिए प्रेम और त्याग एक दूसरे के पर्याय हैं. संक्षेप में, यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसके लिए त्याग करेंगे और यदि किसी के लिए त्याग करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि आप उससे प्रेम करते हैं. यह त्याग किसी भी प्रकार का हो सकता है. मित्रता में निहित प्रेम की भावना यदि सत्य है तो आप मित्र के हित को सर्वोपरि मानेंगे. कौन किससे कितना प्रेम करता है, यह मापने के लिए आज तक कोई पैमाना नहीं बना किन्तु कौन आपकी कितनी गलतियों को खुले हृदय से क्षमा कर देता है- इस आधार पर प्रेम के परिमाण का आकलन किया जा सकता है. यही कारण है कि माता-पिता अपनी सन्तान की प्रत्येक गलतियों को बिना किसी शर्त के क्षमा कर देते हैं. यहाँ पर यह हमेशा याद रखें कि गलती करना इन्सान के गुणों में शुमार है और यह कदापि सम्भव नहीं कि कोई बिलकुल गलती न करे. इसलिए कम गलती करने वाले को ही श्रेष्ठ समझ लेना चाहिए. छोटी सी गलती होने पर भी यदि मित्रता में निहित प्रेम का परिमाण कम है तो ऐसी मित्रता सदैव दुश्मनी में परिवर्तित हो जाती है और यह कटु सत्य है कि बदला लेने की तीव्र भावना में लोग यह भूल जाते हैं कि जो जानकारी उनके पास है वह उन्हें कैसे मिली? निश्चित रूप से यह जानकारी उन्हें तब मिली जब वे ‘मित्रता’ जैसे उच्च पद पर विराजमान थे, क्योंकि अपने दुश्मनों से कोई अपना राज़ नहीं बताता, लेकिन अपने दोस्तों से बता देता है. यद्यपि बदला लेने की लालसा में भूतपूर्व मित्र के पद में निहित प्रेम की भावना को किनारे कर देना किसी हालत में न्यायसंगत नहीं है, किन्तु मेरे इस विचार पर कोई भी किसी भी हालत में अमल नहीं करेगा. इसलिए ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ के सिद्धान्त पर चलते हुए अपने दोस्तों को अनावश्यक रूप से जानकारी न बाँटना ही श्रेयस्कर होगा. मुझे तो आज तक एक अभूतपूर्व ‘वैज्ञानिक’ के अतिरिक्त कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो इस तरह अपने बारे में जानकारी न बाँटता हो. आज तक उस वैज्ञानिक ने मुझे कोई जानकारी नहीं दी, न मैंने उसे दी. ऐसे लोगों को मैं बहुत पसन्द करता हूँ जो ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ के सिद्धान्त पर चलते चलते हुए ‘मौन-व्रत’ धारण किए रहते हैं… aww.. aww..



रजत जी आपके इस मत से मैं सहमत नहीं हूँ कि प्रेमी युगल के मध्य प्रेम की भावना श्रेष्ठतम है। आप भूल रहे हैं कि इस दुनिया में एक माँ का प्रेम अपने बच्चे के लिए श्रेष्ठतम होता है। क्यूंकि उसमें स्वार्थ नहीं होता , त्याग होता है। मुझे नहीं लगता कि एक माँ के प्रेम की तुलना किसी भी व्यक्ति द्वारा किये गए प्रेम से की जा सकती है।

अपने Titanic मूवी के जिस दृश्य का ज़िक्र किया वो वास्तव में बहुत ही भावुक दृश्य था। जिसे देखने के बाद शायद सभी वैसा ही प्रेम पाने की अभिलाषा करने लगे। पर क्या आपको नहीं लगता कि अगर वैसा ही दृश्य एक माँ और पुत्र के बीच में हो तो नज़ारा यही होगा ? अगर कभी किसी की माँ ऐसी स्थिति में हो तो क्या एक पुत्र अपनी माँ को नहीं बचाएगा ? हो सकता है दृश्य में थोड़ा परिवर्तन हो जाये , लकड़ी के तख्ते पर पुत्र हो और माँ अपने बच्चे को बचाने के लिए पानी में खड़ी हो।

तो ये कहना उचित नहीं है कि कौन सा प्रेम श्रेष्ठतम है , प्रेम की तुलना करना सही नहीं है। सभी रिश्ते अपनी जगह होते हैं। और सभी रिश्तों में मौजूद प्रेम श्रेष्ठतम होता है।

आपके एक कथन को समझने में मुझे थोड़ी दिक्कत महसूस हो रही है , तो इसे थोड़ा स्पष्ट करने का प्रयास कीजियेगा - प्रायः लोगों की आदत होती है- अपने बारे में अपने दोस्तों को ‘ए टू जेड’ बिना रुके बताने की. अपनी इस प्रवृत्ति को बदलिए. यह प्रवृत्ति आपके लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है.

rajnish manga
21-09-2014, 12:34 PM
मित्रो, मैं सोचता हूँ कि चर्चा का विषय 'प्रेम और त्याग' को जान-बूझ कर शब्द जाल में फंसा कर हमारे अवस्तरीय टीवी सीरियलों की तरह लम्बा खींचा जा रहा है. ऐसी चर्चा का कोई उद्देश्य नहीं जिसे आप सीधे सरल तरीके से किसी निष्कर्ष पर न पहुंचा सकें. यह जरूरी नहीं कि जहां-तहां (किताबों, फिल्मों आदि) से अनावश्यक उद्धरण दे कर चर्चा को बोझिल बना दिया जाये. कई स्थानों हमने यह देखा है कि गंभीर विमर्श के चलते उसको हंसी-मज़ाक का मंच बनाने और चर्चाको हाईजैक करने तथा उसे किसी ओर दिशा में ले जाने की कोशिश भी की गयी. वर्तमान चर्चा में प्रेम को स्त्री-पुरुष के प्रेम पर ही फोकस करने और प्रेम में ‘अति’ का औचित्य कहाँ से आ गया? इस प्रकार के दिशाहीन-विचार विमर्श से आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं? और इससे क्या हासिल होगा?

Rajat Vynar
21-09-2014, 02:18 PM
रजत जी आपके इस मत से मैं सहमत नहीं हूँ कि प्रेमी युगल के मध्य प्रेम की भावना श्रेष्ठतम है। आप भूल रहे हैं कि इस दुनिया में एक माँ का प्रेम अपने बच्चे के लिए श्रेष्ठतम होता है। क्यूंकि उसमें स्वार्थ नहीं होता , त्याग होता है। मुझे नहीं लगता कि एक माँ के प्रेम की तुलना किसी भी व्यक्ति द्वारा किये गए प्रेम से की जा सकती है।

अपने Titanic मूवी के जिस दृश्य का ज़िक्र किया वो वास्तव में बहुत ही भावुक दृश्य था। जिसे देखने के बाद शायद सभी वैसा ही प्रेम पाने की अभिलाषा करने लगे। पर क्या आपको नहीं लगता कि अगर वैसा ही दृश्य एक माँ और पुत्र के बीच में हो तो नज़ारा यही होगा ? अगर कभी किसी की माँ ऐसी स्थिति में हो तो क्या एक पुत्र अपनी माँ को नहीं बचाएगा ? हो सकता है दृश्य में थोड़ा परिवर्तन हो जाये , लकड़ी के तख्ते पर पुत्र हो और माँ अपने बच्चे को बचाने के लिए पानी में खड़ी हो।

तो ये कहना उचित नहीं है कि कौन सा प्रेम श्रेष्ठतम है , प्रेम की तुलना करना सही नहीं है। सभी रिश्ते अपनी जगह होते हैं। और सभी रिश्तों में मौजूद प्रेम श्रेष्ठतम होता है।

आपके एक कथन को समझने में मुझे थोड़ी दिक्कत महसूस हो रही है , तो इसे थोड़ा स्पष्ट करने का प्रयास कीजियेगा - प्रायः लोगों की आदत होती है- अपने बारे में अपने दोस्तों को ‘ए टू जेड’ बिना रुके बताने की. अपनी इस प्रवृत्ति को बदलिए. यह प्रवृत्ति आपके लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है.

आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, लावण्या जी. आपने चर्चा में भाग लिया और अपने संदेह को दर्ज कराया. तो हम यहाँ पर आपको यह बता दें कि अभी तक आपने हमारी ‘निःशुल्क सेवा’ पढ़ने का आनन्द लिया. अब आपको अपने विशेष प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए हमारी ‘प्रीमियम सेवा’ लेनी होगी. मात्र 1000 पॉइंट के शुल्क पर आपकी शंका का समाधान कर दिया जायेगा. टिप्पणी- हमारे देश की ‘मोलभाव संस्कृति’ को बचाने के लिए यहाँ पर मोलभाव करने की पूरी छूट है. जितने पॉइंट पर सौदा तय हो जाये.:laughing:

Rajat Vynar
21-09-2014, 02:43 PM
मित्रो, मैं सोचता हूँ कि चर्चा का विषय 'प्रेम और त्याग' को जान-बूझ कर शब्द जाल में फंसा कर हमारे अवस्तरीय टीवी सीरियलों की तरह लम्बा खींचा जा रहा है. ऐसी चर्चा का कोई उद्देश्य नहीं जिसे आप सीधे सरल तरीके से किसी निष्कर्ष पर न पहुंचा सकें. यह जरूरी नहीं कि जहां-तहां (किताबों, फिल्मों आदि) से अनावश्यक उद्धरण दे कर चर्चा को बोझिल बना दिया जाये. कई स्थानों हमने यह देखा है कि गंभीर विमर्श के चलते उसको हंसी-मज़ाक का मंच बनाने और चर्चाको हाईजैक करने तथा उसे किसी ओर दिशा में ले जाने की कोशिश भी की गयी. वर्तमान चर्चा में प्रेम को स्त्री-पुरुष के प्रेम पर ही फोकस करने और प्रेम में ‘अति’ का औचित्य कहाँ से आ गया? इस प्रकार के दिशाहीन-विचार विमर्श से आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं? और इससे क्या हासिल होगा?
आपकी बात से मैं पूर्णरूपेण सहमत हूँ, रजनीश जी किन्तु जब प्रेम की बात आती है तो इस बात का जानना आवश्यक हो जाता है कि किस प्रकार के प्रेम को वरीयता दी जाती है, क्योंकि बहुधा सभी लोग यही समझते हैं कि सभी प्रकार के संबंधों में एक समान प्रेम की भावना निहित होती है. अतः इस विषय पर विस्तार से चर्चा करना आवश्यक है. कृपया अनुमति प्रदान करें.

soni pushpa
21-09-2014, 03:08 PM
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, लावण्या जी. आपने चर्चा में भाग लिया और अपने संदेह को दर्ज कराया. तो हम यहाँ पर आपको यह बता दें कि अभी तक आपने हमारी ‘निःशुल्क सेवा’ पढ़ने का आनन्द लिया. अब आपको अपने विशेष प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए हमारी ‘प्रीमियम सेवा’ लेनी होगी. मात्र 1000 पॉइंट के शुल्क पर आपकी शंका का समाधान कर दिया जायेगा. टिप्पणी- हमारे देश की ‘मोलभाव संस्कृति’ को बचाने के लिए यहाँ पर मोलभाव करने की पूरी छूट है. जितने पॉइंट पर सौदा तय हो जाये.:laughing:

रजत जी आपसे मेरा अनुरोध है, की आप इस विषय को दूसरी तरफ न ले जाएँ . मैंने इस लेख के आरंभ में ही पहली लाइन में लिखा है की प्रेम एक व्यापक शब्द है, किन्तु लोग आज इसका गलत अर्थ लेते हैं और अब ये भी कहूँगी की सिमित नही ये शब्द इतना , जितना साधारण जन समाज इसे लेता है क्यूंकि प्रेम के वश भगवन भी है, ये तो इतना व्यापक शब्द है और इतनी गहरी भावना है . आज सारे मानव समाज में सिर्फ प्रेम हो एक दूजे के लिए कोई कड़वाहट न हो दूजो की भलाई और दूजो के लिए त्याग की भावना यदिमानव मन में बस जय तो सोचिये आज ये दुनिया कितनी सुन्दर बन जाय. यदि प्रेम को सिर्फ एक परिवार या स्त्री पुरुष के संभंध तक सिमित कर दिया जय तो इसकी व्यापकता ही समाप्त हो जाएगी. फिल्मे देखकर या serials के प्रभाव में आकार हम इसको छोटा न बनाये और इसे बड़े पैमाने याने की विश्व व्यापी भावना बना दे ..तो सोचिये आज कही बम ब्लास्ट न होंगे, कोई युध्ध न होंगे सारी दुनिया सुख शांति से जीवन यापन करेगी . और मानव समाज का कितना विकास होगा सोचिये जरा आज जो धन युध्ध में लगाया जाता है , सुरक्षा के लिए लगाया जाता है, वो व्यर्थ खर्च न होते और वो ही धन सब देशों के विकास में लगता और हम मानव आज कहाँ से कहा पहुचे होते . ये व्यापकता है इस प्रेम की ,मेरा ये ही कहना है की ये बहना विश्व्यापी बने न की एक परिवार तक सिमित रहे ये .. जानती हूँ की आप कहेंगे अब की किसी भी चीज की शुरुवात परिवार सेही होती है पर हाँ शुरूवात परिवार से जरुर हो, किन्तु ये भावना सिरफ़ वही आकर न रुक जाय बल्कि आगे बढे प्रेम. और सबमें भाईचारे की भावना पनपे ये चाहूंगी और मेरे इस शीर्षक पर बहस करने का ये ही उद्देश्य था ..

धन्यवाद रजत जी पवित्रा जी और रजनीश जी इस विषय पर इतना प्रकाश डालने के लिए किन्तु मेरा आप लोगो से अब भी ये ही एक अनुरोध रहेगा की इस विषय की व्यापकता को समझकर छोटे या बड़े परदे की बातें न लायें न ही किसी ईयर बुक को ...

Rajat Vynar
21-09-2014, 03:50 PM
रजत जी आपसे मेरा अनुरोध है, की आप इस विषय को दूसरी तरफ न ले जाएँ . मैंने इस लेख के आरंभ में ही पहली लाइन में लिखा है की प्रेम एक व्यापक शब्द है, किन्तु लोग आज इसका गलत अर्थ लेते हैं और अब ये भी कहूँगी की सिमित नही ये शब्द इतना , जितना साधारण जन समाज इसे लेता है क्यूंकि प्रेम के वश भगवन भी है, ये तो इतना व्यापक शब्द है और इतनी गहरी भावना है . आज सारे मानव समाज में सिर्फ प्रेम हो एक दूजे के लिए कोई कड़वाहट न हो दूजो की भलाई और दूजो के लिए त्याग की भावना यदिमानव मन में बस जय तो सोचिये आज ये दुनिया कितनी सुन्दर बन जाय. यदि प्रेम को सिर्फ एक परिवार या स्त्री पुरुष के संभंध तक सिमित कर दिया जय तो इसकी व्यापकता ही समाप्त हो जाएगी. फिल्मे देखकर या serials के प्रभाव में आकार हम इसको छोटा न बनाये और इसे बड़े पैमाने याने की विश्व व्यापी भावना बना दे ..तो सोचिये आज कही बम ब्लास्ट न होंगे, कोई युध्ध न होंगे सारी दुनिया सुख शांति से जीवन यापन करेगी . और मानव समाज का कितना विकास होगा सोचिये जरा आज जो धन युध्ध में लगाया जाता है , सुरक्षा के लिए लगाया जाता है, वो व्यर्थ खर्च न होते और वो ही धन सब देशों के विकास में लगता और हम मानव आज कहाँ से कहा पहुचे होते . ये व्यापकता है इस प्रेम की ,मेरा ये ही कहना है की ये बहना विश्व्यापी बने न की एक परिवार तक सिमित रहे ये .. जानती हूँ की आप कहेंगे अब की किसी भी चीज की शुरुवात परिवार सेही होती है पर हाँ शुरूवात परिवार से जरुर हो, किन्तु ये भावना सिरफ़ वही आकर न रुक जाय बल्कि आगे बढे प्रेम. और सबमें भाईचारे की भावना पनपे ये चाहूंगी और मेरे इस शीर्षक पर बहस करने का ये ही उद्देश्य था ..

धन्यवाद रजत जी पवित्रा जी और रजनीश जी इस विषय पर इतना प्रकाश डालने के लिए किन्तु मेरा आप लोगो से अब भी ये ही एक अनुरोध रहेगा की इस विषय की व्यापकता को समझकर छोटे या बड़े परदे की बातें न लायें न ही किसी ईयर बुक को ...
यहाँ पर मौजूद सभी ‘बातों के बैज्ञानिकों’ को सादर नमस्कार के साथ सोनी पुष्पा जी मुझे आपसे यह कहना है कि यह सत्य है कि चर्चा यहाँ पर लम्बी हो गई है किन्तु जहाँ पर ‘बातों के वैज्ञानिक’ मौजूद होंगे वहाँ पर कई संदेह उठेंगे और चर्चा ज़रूर लम्बी ही खिंचेगी. मुझे आपसे यह बताते हुए बड़ी खुशी का अनुभव हो रहा है कि एक दर्जन साल जैसी भयानक अवधि तक अंग्रेजों की संगोष्ठियों में गपशप के वजनी अनुभव के साथ मैं यहाँ पर मौजूद हूँ. बहुधा मैंने यह पाया है कि लोग जब अपने सूत्र में एक समस्या लेकर आते हैं तो उसमें एक विचित्र सी अनोखी बात भी कहते हैं. लोग उस अनोखी बात को अनदेखा कर देते हैं और दूसरी बात पर चर्चा जारी रखते हैं और यह चर्चा निःसंदेह सूत्र-लेखक के लिए उपयोगी नहीं मानी जा सकती. इस सूत्र में ‘त्याग और प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिर एकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ कहा गया है. सभी जानते हैं कि ‘त्याग और प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं’. अतः यहाँ पर ‘या फिर एकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ का अर्थ हुआ- ‘क्या त्याग के बिना प्रेम सम्भव है?’ अथवा ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’. इस विषय पर किसी की नज़र नहीं जा रही है. ‘बातों का बैज्ञानिक’ होने के कारण मेरी दृष्टि गयी. मेरा उत्तर है- ‘हाँ, सम्भव है.’ लोग हैरत में आकर पूछेंगे- ‘कैसे?’ क्योंकि सभी जानते हैं कि त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं. अतः सोनी पुष्पा जी, आपसे अनुरोध है कि पहले ‘त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं है’ पर चर्चा चलने की अनुमति प्रदान करें. बाद में मैं बताऊँगा कि ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’ यहाँ पर मैं साफ़-साफ़ यह बता दूँ कि लेखन की हर पंक्ति ‘ईश्वरीय’ अथवा भगवान के लिए नहीं होती और जहाँ पर ऐसा भ्रम हो कि ईशनिंदा की गयी है उसे भ्रम ही माना जाए. आप अफ्रीका से हैं. आपको शायद पता नहीं कि हमारे देश में एक से एक बातों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक मौजूद हैं. उनसे मिलने के लिए आपको काफी रैंड खर्चा करके यहाँ आना होगा. वैसे आपकी यात्रा विफल नहीं होगी. कोचीन हार्बर पर मेरे दो पानी के जहाज़ हमेशा खड़े रहते हैं. एक आपको दे दूँगा. खुद चलाकर ले जाइये. आप भी क्या याद कीजियेगा कि किसी धनवान से पाला पड़ा था. आपके पास पानी का जहाज़ चलाने का लाइसेन्स तो है न?:laughing:

soni pushpa
22-09-2014, 12:42 AM
यहाँ पर मौजूद सभी ‘बातों के बैज्ञानिकों’ को सादर नमस्कार के साथ सोनी पुष्पा जी मुझे आपसे यह कहना है कि यह सत्य है कि चर्चा यहाँ पर लम्बी हो गई है किन्तु जहाँ पर ‘बातों के वैज्ञानिक’ मौजूद होंगे वहाँ पर कई संदेह उठेंगे और चर्चा ज़रूर लम्बी ही खिंचेगी. मुझे आपसे यह बताते हुए बड़ी खुशी का अनुभव हो रहा है कि एक दर्जन साल जैसी भयानक अवधि तक अंग्रेजों की संगोष्ठियों में गपशप के वजनी अनुभव के साथ मैं यहाँ पर मौजूद हूँ. बहुधा मैंने यह पाया है कि लोग जब अपने सूत्र में एक समस्या लेकर आते हैं तो उसमें एक विचित्र सी अनोखी बात भी कहते हैं. लोग उस अनोखी बात को अनदेखा कर देते हैं और दूसरी बात पर चर्चा जारी रखते हैं और यह चर्चा निःसंदेह सूत्र-लेखक के लिए उपयोगी नहीं मानी जा सकती. इस सूत्र में ‘त्याग और प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिर एकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ कहा गया है. सभी जानते हैं कि ‘त्याग और प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं’. अतः यहाँ पर ‘या फिर एकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ का अर्थ हुआ- ‘क्या त्याग के बिना प्रेम सम्भव है?’ अथवा ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’. इस विषय पर किसी की नज़र नहीं जा रही है. ‘बातों का बैज्ञानिक’ होने के कारण मेरी दृष्टि गयी. मेरा उत्तर है- ‘हाँ, सम्भव है.’ लोग हैरत में आकर पूछेंगे- ‘कैसे?’ क्योंकि सभी जानते हैं कि त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं. अतः सोनी पुष्पा जी, आपसे अनुरोध है कि पहले ‘त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं है’ पर चर्चा चलने की अनुमति प्रदान करें. बाद में मैं बताऊँगा कि ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’ यहाँ पर मैं साफ़-साफ़ यह बता दूँ कि लेखन की हर पंक्ति ‘ईश्वरीय’ अथवा भगवान के लिए नहीं होती और जहाँ पर ऐसा भ्रम हो कि ईशनिंदा की गयी है उसे भ्रम ही माना जाए. आप अफ्रीका से हैं. आपको शायद पता नहीं कि हमारे देश में एक से एक बातों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक मौजूद हैं. उनसे मिलने के लिए आपको काफी रैंड खर्चा करके यहाँ आना होगा. वैसे आपकी यात्रा विफल नहीं होगी. कोचीन हार्बर पर मेरे दो पानी के जहाज़ हमेशा खड़े रहते हैं. एक आपको दे दूँगा. खुद चलाकर ले जाइये. आप भी क्या याद कीजियेगा कि किसी धनवान से पाला पड़ा था. आपके पास पानी का जहाज़ चलाने का लाइसेन्स तो है न?:laughing:
यहाँ पर मौजूद सभी ‘बातों के बैज्ञानिकों’ को सादर नमस्कार के साथ सोनी पुष्पा जी मुझे आपसे यह कहना है कि यह सत्य है कि चर्चा यहाँ पर लम्बी हो गई है किन्तु जहाँ पर ‘बातों के वैज्ञानिक’ मौजूद होंगे वहाँ पर कई संदेह उठेंगे और चर्चा ज़रूर लम्बी ही खिंचेगी. मुझे आपसे यह बताते हुए बड़ी खुशी का अनुभव हो रहा है कि एक दर्जन साल जैसी भयानक अवधि तक अंग्रेजों की संगोष्ठियों में गपशप के वजनी अनुभव के साथ मैं यहाँ पर मौजूद हूँ. बहुधा मैंने यह पाया है कि लोग जब अपने सूत्र में एक समस्या लेकर आते हैं तो उसमें एक विचित्र सी अनोखी बात भी कहते हैं. लोग उस अनोखी बात को अनदेखा कर देते हैं और दूसरी बात पर चर्चा जारी रखते हैं और यह चर्चा निःसंदेह सूत्र-लेखक के लिए उपयोगी नहीं मानी जा सकती. इस सूत्र में ‘त्याग और प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिर एकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ कहा गया है. सभी जानते हैं कि ‘त्याग और प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं’. अतः यहाँ पर ‘या फिर एकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ का अर्थ हुआ- ‘क्या त्याग के बिना प्रेम सम्भव है?’ अथवा ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’. इस विषय पर किसी की नज़र नहीं जा रही है. ‘बातों का बैज्ञानिक’ होने के कारण मेरी दृष्टि गयी. मेरा उत्तर है- ‘हाँ, सम्भव है.’ लोग हैरत में आकर पूछेंगे- ‘कैसे?’ क्योंकि सभी जानते हैं कि त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं. अतः सोनी पुष्पा जी, आपसे अनुरोध है कि पहले ‘त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं है’ पर चर्चा चलने की अनुमति प्रदान करें. बाद में मैं बताऊँगा कि ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’ यहाँ पर मैं साफ़-साफ़ यह बता दूँ कि लेखन की हर पंक्ति ‘ईश्वरीय’ अथवा भगवान के लिए नहीं होती और जहाँ पर ऐसा भ्रम हो कि ईशनिंदा की गयी है उसे भ्रम ही माना जाए. आप अफ्रीका से हैं. आपको शायद पता नहीं कि हमारे देश में एक से एक बातों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक मौजूद हैं. उनसे मिलने के लिए आपको काफी रैंड खर्चा करके यहाँ आना होगा. वैसे आपकी यात्रा विफल नहीं होगी. कोचीन हार्बर पर मेरे दो पानी के जहाज़ हमेशा खड़े रहते हैं. एक आपको दे दूँगा. खुद चलाकर ले जाइये. आप भी क्या याद कीजियेगा कि किसी धनवान से पाला पड़ा था. आपके पास पानी का जहाज़ चलाने का लाइसेन्स तो है न?:laughing:

आपके लेखन कला की पहचान आपके पहले सूत्र से हो चुकी है रजत जी . और आप बहुत बड़े आलोचक, समालोचक, और हास्य रचनाओ के रचयिता, व्याख्याता.. किसी भी विषय की बड़े रुचिपूर्ण ढंग से व्याख्या कर सकते हो ये सब हमे पता चल जाता है जब आप इतना कुछ लिखते हो .... पर सबसे पहले धन्यवाद देती हूँ की आप इतना इन्टरेस्ट ले रहे हो इस विषय में .और मेरी अनुमति न मांगिये, जरुर लिखिए बस इतना चाहूंगी कि,जो विषय है उससे न भटक जाएँ हम सब, क्यूंकि यदि हम दुसरी बातो पर ध्यान देने लगेंगे तो जो mein मुद्दा है वो एक तरफ रह जायेगा और हम फिल्मों,serialsकी और आगे निकल जायेंगे . और रही बात भगवान को इस लेख में लेने की, तो इस प्रेम शब्द की व्यापकता कितनी है वो बताने के लिए ये बात कहना यहाँ में बहुत जरुरी समझती हू क्यूंकि हम इंसान कभी भगवान से बढकर नही हैं.

Rajat Vynar
22-09-2014, 01:43 PM
आपके लेखन कला की पहचान आपके पहले सूत्र से हो चुकी है रजत जी . और आप बहुत बड़े आलोचक, समालोचक, और हास्य रचनाओ के रचयिता, व्याख्याता.. किसी भी विषय की बड़े रुचिपूर्ण ढंग से व्याख्या कर सकते हो ये सब हमे पता चल जाता है जब आप इतना कुछ लिखते हो .... पर सबसे पहले धन्यवाद देती हूँ की आप इतना इन्टरेस्ट ले रहे हो इस विषय में .और मेरी अनुमति न मांगिये, जरुर लिखिए बस इतना चाहूंगी कि,जो विषय है उससे न भटक जाएँ हम सब, क्यूंकि यदि हम दुसरी बातो पर ध्यान देने लगेंगे तो जो mein मुद्दा है वो एक तरफ रह जायेगा और हम फिल्मों,serialsकी और आगे निकल जायेंगे . और रही बात भगवान को इस लेख में लेने की, तो इस प्रेम शब्द की व्यापकता कितनी है वो बताने के लिए ये बात कहना यहाँ में बहुत जरुरी समझती हू क्यूंकि हम इंसान कभी भगवान से बढकर नही हैं.
सोनी पुष्पा जी, आपकी बात सच है कि ‘सबसे बड़ा भगवान है’ किन्तु मुझे उस समय घोर आश्चर्य होता है जब असंबंधित बातों से ईश्वर अचानक अपना नाता जोड़कर बेवजह नाराज़ हो जाता है, जबकि उन बातों से ईश्वर का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता. ईश्वरीय भाषा मानी जाने वाली ‘संस्कृत’ कुछ ऐसी ही है जो अपने कठिन ‘व्याकरण’ (Grammer) के कारण अनावश्यक रूप से भक्तों और ईश्वर के मध्य संदेह उत्पन्न करती है. इसलिए व्याकरण के मूल सिद्धान्त को समझना चाहिए- ‘ईश्वर की इच्छा और ईश्वर के विरुद्ध कुछ भी नहीं है’. मैंने तो आज तक संस्कृत में कोई ऐसा श्लोक नहीं पढ़ा जिसमें ईश्वर के विरुद्ध कुछ कहा गया हो. आप लिखती हैं कि ‘आपकेलेखन कलाकी पहचान आपके पहले सूत्रसेहो चुकी है’. हमें लिखते समय यह तो पता ही रहता है कि हमारी कोई कृति कितनी अच्छी या घटिया है. वस्तुतः जिस कृति को दूसरे लोग अच्छा समझते हैं वह हमारी नज़रों में घटिया होती है और इस बात को कोई कला का पारखी ही पहचान सकता है. वैसे तो मैंने आपकी तीन कविताएँ ही पढ़ी हैं किन्तु मैं उन कृतियों द्वारा आपके अन्दर कला के ‘छुपे रुस्तम’ को पहचान गया और उस समय तो आपकी पारखी दृष्टि की और अधिक पुष्टि हो गयी जब आपने पहली बार मेरी कविता ‘चिराग’ पर अपनी पहली टिप्पणी में कहा कि- ‘चिरागों टले अँधेरारहे वो ही अच्छा...’ चर्चा पर अनुमति प्रदान करने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.

soni pushpa
22-09-2014, 02:03 PM
सोनी पुष्पा जी, आपकी बात सच है कि ‘सबसे बड़ा भगवान है’ किन्तु मुझे उस समय घोर आश्चर्य होता है जब असंबंधित बातों से ईश्वर अचानक अपना नाता जोड़कर बेवजह नाराज़ हो जाता है, जबकि उन बातों से ईश्वर का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता. ईश्वरीय भाषा मानी जाने वाली ‘संस्कृत’ कुछ ऐसी ही है जो अपने कठिन ‘व्याकरण’ (Grammer) के कारण अनावश्यक रूप से भक्तों और ईश्वर के मध्य संदेह उत्पन्न करती है. इसलिए व्याकरण के मूल सिद्धान्त को समझना चाहिए- ‘ईश्वर की इच्छा और ईश्वर के विरुद्ध कुछ भी नहीं है’. मैंने तो आज तक संस्कृत में कोई ऐसा श्लोक नहीं पढ़ा जिसमें ईश्वर के विरुद्ध कुछ कहा गया हो. आप लिखती हैं कि ‘आपकेलेखन कलाकी पहचान आपके पहले सूत्रसेहो चुकी है’. हमें लिखते समय यह तो पता ही रहता है कि हमारी कोई कृति कितनी अच्छी या घटिया है. वस्तुतः जिस कृति को दूसरे लोग अच्छा समझते हैं वह हमारी नज़रों में घटिया होती है और इस बात को कोई कला का पारखी ही पहचान सकता है. वैसे तो मैंने आपकी तीन कविताएँ ही पढ़ी हैं किन्तु मैं उन कृतियों द्वारा आपके अन्दर कला के ‘छुपे रुस्तम’ को पहचान गया और उस समय तो आपकी पारखी दृष्टि की और अधिक पुष्टि हो गयी जब आपने पहली बार मेरी कविता ‘चिराग’ पर अपनी पहली टिप्पणी में कहा कि- ‘चिरागों टले अँधेरारहे वो ही अच्छा...’ चर्चा पर अनुमति प्रदान करने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.

श्रीमान रजत जी फिर से आपने अनुमति की बात की , मेरा मानना है की आपकी लेखन कला से सभी वाचक अब तक परिचित हो ही गए हैं. और सब आपकी लिखी बात को पढना जरुर चाहेंगे ही तो आप लिखना जरुर . रही बात मेरी लिखी कविता में मेरे छुपे रुस्तम होने की तो वो मै कोई बड़ी कवयित्री नही हूँ बस कभीकभी मन भावुक हो जाता है और शब्द आपने आप चलते आते हैं जहन में , और कलम लिखते चली जाती है ... पर sorry यहाँ key बोर्ड है जहाँ typing होते चली जाती है ... आपकी लेखन शैली बहुत उच्च स्तररीय है .. .. आपने देखा न हम अब प्रेम और त्याग के विषय से हटकर दुसरे विषय पर बात करने लगे हैं इसलिए ही मेने कहा की हम एक ताल में ही रहे तो अच्छा होगा वर्ना विषय जो यहाँ रखा गया है, उससे हम भटक जायेंगे और दूसरी चर्चा में लग जायेंगे ..

Rajat Vynar
22-09-2014, 04:04 PM
श्रीमान रजत जी फिर से आपने अनुमति की बात की , मेरा मानना है की आपकी लेखन कला से सभी वाचक अब तक परिचित हो ही गए हैं. और सब आपकी लिखी बात को पढना जरुर चाहेंगे ही तो आप लिखना जरुर . रही बात मेरी लिखी कविता में मेरे छुपे रुस्तम होने की तो वो मै कोई बड़ी कवयित्री नही हूँ बस कभीकभी मन भावुक हो जाता है और शब्द आपने आप चलते आते हैं जहन में , और कलम लिखते चली जाती है ... पर sorry यहाँ key बोर्ड है जहाँ typing होते चली जाती है ... आपकी लेखन शैली बहुत उच्च स्तररीय है .. .. आपने देखा न हम अब प्रेम और त्याग के विषय से हटकर दुसरे विषय पर बात करने लगे हैं इसलिए ही मेने कहा की हम एक ताल में ही रहे तो अच्छा होगा वर्ना विषय जो यहाँ रखा गया है, उससे हम भटक जायेंगे और दूसरी चर्चा में लग जायेंगे ..

चर्चा का थोड़ा बहुत इधर-उधर भटक जाना कोई बहुत बुरी बात नहीं है, सोनी पुष्पा जी. इससे कुछ नई बातें पता चलती हैं. चर्चा जब भटकती है तभी उसमें नया मोड़ आता है. लावण्या जी भी इसके समर्थन में अपने सूत्र ‘गुण और कला’ में कहती हैं कि- ‘रजनीश जी आपने इस चर्चा को एक नया ही मोड़ दिया और मेरी जिज्ञासा भी आपका उत्तर देख कर थोड़ी शांत हुई है।‘ http://myhindiforum.com/showthread.php?t=13756&page=3 (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=13756&page=3) जहाँ तक गुण और कला का सवाल है- कुछ भी इंसान माँ के पेट से सीखकर नहीं आता. अफ्रीका में होने के कारण आपने वर्ष 1968 में लोकार्पित फिल्म ‘दो कलियाँ’ का यह गीत जो साहिर लुधियानवी द्वारा लिखा गया है, नहीं सुना होगा. आपके लिए उद्घृत कर रहा हूँ-
बच्चे मन के सच्चे...
सारी जग के आँख के तारे..
ये वो नन्हे फूल हैं जो..
भगवान को लगते प्यारे..

खुद रूठे, खुद मन जाये, फिर हमजोली बन जाये
झगड़ा जिसके साथ करें, अगले ही पल फिर बात करें
इनकी किसी से बैर नहीं, इनके लिये कोई ग़ैर नहीं
इनका भोलापन मिलता है, सबको बाँह पसारे
बच्चे मन के सच्चे...

इन्सान जब तक बच्चा है, तब तक समझ का कच्चा है
ज्यों ज्यों उसकी उमर बढ़े, मन पर झूठ का मैल चढ़े
क्रोध बढ़े, नफ़रत घेरे, लालच की आदत घेरे
बचपन इन पापों से हटकर अपनी उमर गुज़ारे
बच्चे मन के सच्चे...

तन कोमल मन सुन्दर
हैं बच्चे बड़ों से बेहतर
इनमें छूत और छात नहीं, झूठी जात और पात नहीं
भाषा की तक़रार नहीं, मज़हब की दीवार नहीं
इनकी नज़रों में एक हैं, मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे
बच्चे मन के सच्चे...

अतः यह स्पष्ट है कि ‘एक कला को सीखने के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयत्न कारण पड़ता है’ और ‘गुण सीखा नहीं जाता और न ही यह मनुष्य में पहले से विद्यमान कोई नैसर्गिक वस्तु है. एक मनुष्य का गुण उसके चारों और व्याप्त सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) पर आधारित होता है. इसलिए मनुष्य का गुण परिवर्तनशील है. इसका अर्थ यह है कि सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) के आधार पर मनुष्य का गुण बदल सकता है और किन गुणों को ग्रहण करना है, किन गुणों को नहीं ग्रहण करना है- यह पूर्णतः मनुष्य की मानसिकता पर निर्भर करता है. अतः यह स्पष्ट है कि जो लोग सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) के अनुरूप अपने गुणों को नहीं बदलते और दृढतापूर्वक अच्छे गुणों को आत्मसात किये रहते हैं वे ही महान की श्रेणी में आते हैं.’

kuki
22-09-2014, 05:35 PM
सोनी जी, आपने बहुत अच्छा विषय चुना है, प्रेम और त्याग। इन दोनों ही शब्दों में बहुत गहराई है ,जिसकी व्याख्या शब्दों में करना बहुत मुश्किल है। ये दोनों एक -दुसरे के पूरक हैं। कई बार हम लगाव को ही प्रेम समझ बैठते हैं. हमें लगता है हम जिसे प्रेम करते हैं हम उसे पा लें लेकिन वो किसी और से प्रेम करता है तो हमें ईर्ष्या होती है ,और जहाँ ईर्ष्या होती है वहां प्रेम कभी नहीं हो सकता। प्रेम वो होता है जहाँ हम सामने वाले की ख़ुशी में दिल से खुश होते हैं ,चाहे वो हमसे प्रेम करे या न करे। प्रेम का सबसे बड़ा आदर्श श्री कृष्ण और ब्रज की गोपियाँ हैं। श्री कृष्ण जब ब्रज को और गोपियों को छोड़ कर चले गए थे ,गोपियों को पता था श्री कृष्ण अब उन्हें नहीं मिलेंगे तब भी उनका प्रेम श्री कृष्ण के लिए कभी कम नहीं हुआ.hum जिससे प्रेम करते हैं वो चाहे हमारे पास रहे या दूर हमारा प्रेम कभी कम नहीं होता। एक बेटा चाहे कितना नालायक हो ,अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रम में भी छोड़ दे तो भी माँ-बाप अपने बच्चे को आशीर्वाद ही देते हैं ,उनका प्रेम बच्चे के लिए कभी कम नहीं होता।

Pavitra
22-09-2014, 06:33 PM
चर्चा का थोड़ा बहुत इधर-उधर भटक जाना कोई बहुत बुरी बात नहीं है, सोनी पुष्पा जी. इससे कुछ नई बातें पता चलती हैं. चर्चा जब भटकती है तभी उसमें नया मोड़ आता है. लावण्या जी भी इसके समर्थन में अपने सूत्र ‘गुण और कला’ में कहती हैं कि- ‘रजनीश जी आपने इस चर्चा को एक नया ही मोड़ दिया और मेरी जिज्ञासा भी आपका उत्तर देख कर थोड़ी शांत हुई है।‘ http://myhindiforum.com/showthread.php?t=13756&page=3 (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=13756&page=3) जहाँ तक गुण और कला का सवाल है- कुछ भी इंसान माँ के पेट से सीखकर नहीं आता. अफ्रीका में होने के कारण आपने वर्ष 1968 में लोकार्पित फिल्म ‘दो कलियाँ’ का यह गीत जो साहिर लुधियानवी द्वारा लिखा गया है, नहीं सुना होगा. आपके लिए उद्घृत कर रहा हूँ-
बच्चे मन के सच्चे...
सारी जग के आँख के तारे..
ये वो नन्हे फूल हैं जो..
भगवान को लगते प्यारे..

खुद रूठे, खुद मन जाये, फिर हमजोली बन जाये
झगड़ा जिसके साथ करें, अगले ही पल फिर बात करें
इनकी किसी से बैर नहीं, इनके लिये कोई ग़ैर नहीं
इनका भोलापन मिलता है, सबको बाँह पसारे
बच्चे मन के सच्चे...

इन्सान जब तक बच्चा है, तब तक समझ का कच्चा है
ज्यों ज्यों उसकी उमर बढ़े, मन पर झूठ का मैल चढ़े
क्रोध बढ़े, नफ़रत घेरे, लालच की आदत घेरे
बचपन इन पापों से हटकर अपनी उमर गुज़ारे
बच्चे मन के सच्चे...

तन कोमल मन सुन्दर
हैं बच्चे बड़ों से बेहतर
इनमें छूत और छात नहीं, झूठी जात और पात नहीं
भाषा की तक़रार नहीं, मज़हब की दीवार नहीं
इनकी नज़रों में एक हैं, मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे
बच्चे मन के सच्चे...

अतः यह स्पष्ट है कि ‘एक कला को सीखने के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयत्न कारण पड़ता है’ और ‘गुण सीखा नहीं जाता और न ही यह मनुष्य में पहले से विद्यमान कोई नैसर्गिक वस्तु है. एक मनुष्य का गुण उसके चारों और व्याप्त सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) पर आधारित होता है. इसलिए मनुष्य का गुण परिवर्तनशील है. इसका अर्थ यह है कि सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) के आधार पर मनुष्य का गुण बदल सकता है और किन गुणों को ग्रहण करना है, किन गुणों को नहीं ग्रहण करना है- यह पूर्णतः मनुष्य की मानसिकता पर निर्भर करता है. अतः यह स्पष्ट है कि जो लोग सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) के अनुरूप अपने गुणों को नहीं बदलते और दृढतापूर्वक अच्छे गुणों को आत्मसात किये रहते हैं वे ही महान की श्रेणी में आते हैं.’



Rajat ji, mere blog par aap ye comment post karte to humare liye zyada beneficial hota.
Is topic par mere blog pe comment kijiega, aur aapne gunn aur kalaa ke bare me to bataya..... Bt seedhepan ke baare me bhi comment chahungi.

Pavitra
22-09-2014, 06:35 PM
सोनी जी, आपने बहुत अच्छा विषय चुना है, प्रेम और त्याग। इन दोनों ही शब्दों में बहुत गहराई है ,जिसकी व्याख्या शब्दों में करना बहुत मुश्किल है। ये दोनों एक -दुसरे के पूरक हैं। कई बार हम लगाव को ही प्रेम समझ बैठते हैं. हमें लगता है हम जिसे प्रेम करते हैं हम उसे पा लें लेकिन वो किसी और से प्रेम करता है तो हमें ईर्ष्या होती है ,और जहाँ ईर्ष्या होती है वहां प्रेम कभी नहीं हो सकता। प्रेम वो होता है जहाँ हम सामने वाले की ख़ुशी में दिल से खुश होते हैं ,चाहे वो हमसे प्रेम करे या न करे। प्रेम का सबसे बड़ा आदर्श श्री कृष्ण और ब्रज की गोपियाँ हैं। श्री कृष्ण जब ब्रज को और गोपियों को छोड़ कर चले गए थे ,गोपियों को पता था श्री कृष्ण अब उन्हें नहीं मिलेंगे तब भी उनका प्रेम श्री कृष्ण के लिए कभी कम नहीं हुआ.hum जिससे प्रेम करते हैं वो चाहे हमारे पास रहे या दूर हमारा प्रेम कभी कम नहीं होता। एक बेटा चाहे कितना नालायक हो ,अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रम में भी छोड़ दे तो भी माँ-बाप अपने बच्चे को आशीर्वाद ही देते हैं ,उनका प्रेम बच्चे के लिए कभी कम नहीं होता।

:bravo::bravo: :iagree::iagree:

soni pushpa
22-09-2014, 06:46 PM
चर्चा का थोड़ा बहुत इधर-उधर भटक जाना कोई बहुत बुरी बात नहीं है, सोनी पुष्पा जी. इससे कुछ नई बातें पता चलती हैं. चर्चा जब भटकती है तभी उसमें नया मोड़ आता है. लावण्या जी भी इसके समर्थन में अपने सूत्र ‘गुण और कला’ में कहती हैं कि- ‘रजनीश जी आपने इस चर्चा को एक नया ही मोड़ दिया और मेरी जिज्ञासा भी आपका उत्तर देख कर थोड़ी शांत हुई है।‘ http://myhindiforum.com/showthread.php?t=13756&page=3 (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=13756&page=3) जहाँ तक गुण और कला का सवाल है- कुछ भी इंसान माँ के पेट से सीखकर नहीं आता. अफ्रीका में होने के कारण आपने वर्ष 1968 में लोकार्पित फिल्म ‘दो कलियाँ’ का यह गीत जो साहिर लुधियानवी द्वारा लिखा गया है, नहीं सुना होगा. आपके लिए उद्घृत कर रहा हूँ-
बच्चे मन के सच्चे...
सारी जग के आँख के तारे..
ये वो नन्हे फूल हैं जो..
भगवान को लगते प्यारे..

खुद रूठे, खुद मन जाये, फिर हमजोली बन जाये
झगड़ा जिसके साथ करें, अगले ही पल फिर बात करें
इनकी किसी से बैर नहीं, इनके लिये कोई ग़ैर नहीं
इनका भोलापन मिलता है, सबको बाँह पसारे
बच्चे मन के सच्चे...

इन्सान जब तक बच्चा है, तब तक समझ का कच्चा है
ज्यों ज्यों उसकी उमर बढ़े, मन पर झूठ का मैल चढ़े
क्रोध बढ़े, नफ़रत घेरे, लालच की आदत घेरे
बचपन इन पापों से हटकर अपनी उमर गुज़ारे
बच्चे मन के सच्चे...

तन कोमल मन सुन्दर
हैं बच्चे बड़ों से बेहतर
इनमें छूत और छात नहीं, झूठी जात और पात नहीं
भाषा की तक़रार नहीं, मज़हब की दीवार नहीं
इनकी नज़रों में एक हैं, मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे
बच्चे मन के सच्चे...

अतः यह स्पष्ट है कि ‘एक कला को सीखने के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयत्न कारण पड़ता है’ और ‘गुण सीखा नहीं जाता और न ही यह मनुष्य में पहले से विद्यमान कोई नैसर्गिक वस्तु है. एक मनुष्य का गुण उसके चारों और व्याप्त सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) पर आधारित होता है. इसलिए मनुष्य का गुण परिवर्तनशील है. इसका अर्थ यह है कि सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) के आधार पर मनुष्य का गुण बदल सकता है और किन गुणों को ग्रहण करना है, किन गुणों को नहीं ग्रहण करना है- यह पूर्णतः मनुष्य की मानसिकता पर निर्भर करता है. अतः यह स्पष्ट है कि जो लोग सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) के अनुरूप अपने गुणों को नहीं बदलते और दृढतापूर्वक अच्छे गुणों को आत्मसात किये रहते हैं वे ही महान की श्रेणी में आते हैं.’


श्रीमान रजत जी ये गाना मैंने सुना है आप भूल रहे हैं मेने पहले कही कहा है की मै इंडिया से ही हूँ भले कुछ सालो से यहाँ हूँ ... और हाँ बात सही है आपकी की यदि किसी और विषय को लिया जाय तो हम ओर् ज्यादा ज्ञान हासिल कर सकते है और ज्ञान में वृध्धि हो सकती है,पर आप अपने अभी लिखे अंश को ही देखिये यहाँ से प्रेम और त्याग का विषय लोप हो गया है पर कोई बात नही आप अपना अमूल्य समय देते हो वो भीएक सकारात्मक तथ्य है . धन्यवाद रजत जी .. अब आगे कौन सी फिल्म या फिल्म के गाने के बारे में बात करनी है/?,,,

soni pushpa
22-09-2014, 07:03 PM
:bravo::bravo: :iagree::iagree:

बहुत खूब प्रेम का एक और रूप आपने बताया है लावण्या जी , सही कहा आपने ये इर्ष्या इन्सान को बर्बाद करती है क्यूंकि इर्ष्या खुद को पहले जलाती है , बाद में सामने वाले को और जब येइर्ष्या का भाव मन में आये वहां प्रेम के लिए कोई स्थान नही रहता... प्रेम अनंत है विशाल है व्यापक है और आपने जो उदहारण दिया कृष्ण और गोपियों के प्रेम का ,वो ही प्रेम की पराकाष्ठा है .खुद को भूल के दुसरे के लिए जीना दुसरे के लिए सोचना . ये गोपियों का सच्चा प्रेम था कृष्ण के लिए ..जिसे बदले में कुछ नही चहिये था और गोपियों के माध्यम से कृष्ण ने दुनिया को प्रेम की सिख दी की प्रेम में बदले में कुछ मांग नही अपितु ,सिर्फ त्याग होना चहिये . न की कुछ पाने की लालसा.

soni pushpa
22-09-2014, 07:29 PM
सोनी जी, आपने बहुत अच्छा विषय चुना है, प्रेम और त्याग। इन दोनों ही शब्दों में बहुत गहराई है ,जिसकी व्याख्या शब्दों में करना बहुत मुश्किल है। ये दोनों एक -दुसरे के पूरक हैं। कई बार हम लगाव को ही प्रेम समझ बैठते हैं. हमें लगता है हम जिसे प्रेम करते हैं हम उसे पा लें लेकिन वो किसी और से प्रेम करता है तो हमें ईर्ष्या होती है ,और जहाँ ईर्ष्या होती है वहां प्रेम कभी नहीं हो सकता। प्रेम वो होता है जहाँ हम सामने वाले की ख़ुशी में दिल से खुश होते हैं ,चाहे वो हमसे प्रेम करे या न करे। प्रेम का सबसे बड़ा आदर्श श्री कृष्ण और ब्रज की गोपियाँ हैं। श्री कृष्ण जब ब्रज को और गोपियों को छोड़ कर चले गए थे ,गोपियों को पता था श्री कृष्ण अब उन्हें नहीं मिलेंगे तब भी उनका प्रेम श्री कृष्ण के लिए कभी कम नहीं हुआ.hum जिससे प्रेम करते हैं वो चाहे हमारे पास रहे या दूर हमारा प्रेम कभी कम नहीं होता। एक बेटा चाहे कितना नालायक हो ,अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रम में भी छोड़ दे तो भी माँ-बाप अपने बच्चे को आशीर्वाद ही देते हैं ,उनका प्रेम बच्चे के लिए कभी कम नहीं होता।
सबसे पहले आपका स्वागत है इस चर्चा में आपना मंतव्य प्रगट करने के लिए kuki जी .. सही कहा आपने इन दो शब्दों की जितनी व्याख्या की जाय वो कम ही लगेगी पर kuki जी दुर्भाग्य की बात ये है की आज के स्वार्थ के ज़माने में इसकी व्यापक परिभाषा सिमित हो रही है क्यूंकि जेइसे की आपने यहाँ उदहारण दिया की माता पिता को बेटा वृध्धाश्रम में डाल दे पर माता पिता का प्रेम कम नही होता बेटे के लिए. मेरा इस दो शब्दों पर बहस करने का मंतव्य ही ये है की अगर हमे कही से प्रेम् मिलता है तो अगर हम उसे दोगुना करके दें तो कितना आनंद व्याप्त होगा सारी दुनिया में यदि बेटा माँ बाप को उतना ही चाहे जितना वो उसे चाहते है तो vridhadshram की जरुरत ही न पड़ेगी किसी बूढ़े माँ बाप को . इस तरह यदि प्रेम सबमे व्याप्त हो जय और इसकी व्यापकता बढती रहे तो देखिये समाज के कितने बड़े दुःख का अंत हो जाय न कोई बूढ़े माबाप अपने बुढ़ापे को कोसें ., बल्कि अपने पोते पोतियों के साथ खेलकर अपने जीवन के अंतिम चरण को ख़ुशी ख़ुशी पार कर ले .किन्तु आज प्रेम की कमी ने समाज में ओल्ड हाउस बना डाले हैं और जहा प्रेम की बूढी मूर्तियाँ खून के आंसू रोतीं है और हरपल उन बूढी आँखों में एक आस होती है की कभी तो हमारा बेटा आएगा और प्रेम से माँ या पापा कहके आपने घर वापस ले जायेगा किन्तु अफ़सोस आज प्रेम और त्याग का स्थान स्वार्थ ने ले लिया है इस वजह से माँ बाप रह तकते आपनी अंतिम सांसे वृध्धाश्रम में ही छोड़ देते हैं..
धन्यवाद kuki जी ...

Rajat Vynar
22-09-2014, 08:37 PM
कुकी जी, आपने बहुत अच्छी बात कही है.. ‘इंडियन फिल्मी मोरल कोड’ के अनुरूप’. देखा- इसीलिए तो लोग फटाफट थैंक्स लगा रहे हैं. अतः ‘इंडियन फिल्मी मोरल कोड’ अति उत्तम है. मेरा दोगुना धन्यवाद आपको.. और लावण्या जी, आपको अभी काफी जवाब देने हैं. सोनी पुष्पा जी, आपसे कल बात होगी. तब तक के लिए आज्ञा दीजिए.

rajnish manga
22-09-2014, 11:13 PM
kuki ji, apne bahut achchi bat kahi hai.. according to 'Indian Filmy Moral Code'. Dekha- isiliye to log fatafat thanks laga rahe hain. Hence, 'Indian Filmy Moral Code' is best. Mera double thanks apko.. aur Lavanya ji, apko abhi kafi jawab dene hain. Soni Pushpa ji, aapse kal bat hogi. tab tak ke liye agyan dijiye.



rajat ji, aapka apna manch hai. aapko kaun agyan de sakta hai. aap apna paksh zarur saamne rakhen. ham aapke tark padhne ke liye betaab hain. dhanywad.

Rajat Vynar
23-09-2014, 11:54 AM
कुकी जी के एक अच्छे जवाब के लिए मेरी और से २५१ पॉइंट नगद इनाम दिया गया.

Rajat Vynar
23-09-2014, 08:13 PM
rajat ji, aapka apna manch hai. aapko kaun agyan de sakta hai. aap apna paksh zarur saamne rakhen. ham aapke tark padhne ke liye betaab hain. dhanywad.

रजनीश जी, bona fide दोस्तों से अनुमति लेना ही हमारे देश का विशिष्ट शिष्टाचार और कलाचार है.

Rajat Vynar
24-09-2014, 09:33 AM
श्रीमान रजत जी ये गाना मैंने सुना है आप भूल रहे हैं मेने पहले कही कहा है की मै इंडिया से ही हूँ भले कुछ सालो से यहाँ हूँ ... और हाँ बात सही है आपकी की यदि किसी और विषय को लिया जाय तो हम ओर् ज्यादा ज्ञान हासिल कर सकते है और ज्ञान में वृध्धि हो सकती है,पर आप अपने अभी लिखे अंश को ही देखिये यहाँ से प्रेम और त्याग का विषय लोप हो गया है पर कोई बात नही आप अपना अमूल्य समय देते हो वो भीएक सकारात्मक तथ्य है . धन्यवाद रजत जी .. अब आगे कौन सी फिल्म या फिल्म के गाने के बारे में बात करनी है/?,,,
देखा, सोनी पुष्पा जी.. आप ‘अब आगे कौन सी फिल्म या फिल्म के गाने के बारे में बात करनी है?’ कहकर कटाक्ष कर रहीं हैं और साहिर जी जैसे महान गीतकार का कद्र नहीं कर रहीं हैं. कभी फिल्मी सितारों के साथ उठा-बैठा होता तो आप ऐसा न कहतीं. :egyptian: सितारों का मतलब समझतीं हैं न आप? सितारों का मतलब अभिनेता या actor होता है. मेरा मतलब सिर्फ इतना था कि साहिर के गीत के बोल से स्पष्ट है कि गुण और संस्कार भी कोई माँ के पेट से सीखकर नहीं आता. लगता है- आपको यह गीत ज्यादा पसंद नहीं आया. इसका कारण यह हो सकता है कि कभी आपको ‘भूल गया सब कुछ, याद नहीं अब कुछ..’ और ‘खुल्लम-खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों, इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों..’ जैसे गीत पसंद रहे हों. प्रेम की महत्ता के बारे में यहाँ पर वर्ष १९७० में लोकार्पित फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’ में गीतकार इन्दीवर के लिखे एक गीत का उल्लेख करना अनुपयुक्त नहीं होगा-
‘’पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले
झूठा ही सही
दो दिन के लिए कोई इकरार कर ले
झूठा ही सही

हमने बहुत तुझको छुप छुपके देखा
दिल पे खिंची है तेरे काजल की रेखा
काजल की रेखा बनी लछमन की रेखा
राम में क्यों तुने रावण को देखा
खड़े खिड़की पे जोगी स्वीकार कर ले
झूठा ही सही...
पल भर के लिए...

धीरे से जड़े तेरे नैन बडे
जिस दिन से लड़े तेरे दर पे पडे
सुन सुनकर तेरी नहीं नहीं
जाँ, अपनी निकल जाए ना कहीं
ज़रा हाँ कह दे मेरी जाँ कह दे
मेरी जाँ कह दे ज़रा हाँ कह दे
जब रैन पडे नहीं चैन पड़े
नहीं चैन पडे जब रैन पड़े
माना तू सारे हँसीनो से हसीं है
अपनी भी सूरत बुरी तो नहीं है
कभी तु भी हमारा दीदार कर ले
झूठा ही सही...
पल भर के लिए...

पल भर के प्यार पे निसार सारा जीवन
हम वो नहीं जो छोड़ दे तेरा दामन
अपने होंठों की हँसी हम तुझको देंगे
आंसू तेरे अपनी आँखों में लेंगे
तू हमारी वफ़ा का ऐतबार कर ले
झूठा ही सही...
पल भर के लिए...’’

Rajat Vynar
24-09-2014, 09:42 AM
rajat ji, mere blog par aap ye comment post karte to humare liye zyada beneficial hota.
Is topic par mere blog pe comment kijiega, aur aapne gunn aur kalaa ke bare me to bataya..... Bt seedhepan ke baare me bhi comment chahungi.

देखिये, पवित्रा जी.. मैं आपके सूत्र ‘गुण और कला’ पर यहाँ पर वाद-विवाद नहीं कर रहा हूँ. आपको यह तो पता ही होगा कि दोस्त लोग जहाँ पर मिल जाते हैं वहीँ पर बातचीत करना शुरू कर देते हैं. मैं तो सोनी जी को व्यक्तिगत रूप से सड़क पर खड़ा होकर यह बता रहा था कि सूत्र ‘गुण और कला’ में ऐसी चर्चा चल रही है. आपने बीच में सुन लिया. सीधेपन पर अवश्य चर्चा करूँगा आपके सूत्र पर.

soni pushpa
24-09-2014, 11:41 AM
shreeman rajat ji , aapki kahi baton ke liye kahne ke liye mere pas bahut kuchh hai kintu kai bar na bolna hi achha, ye sochkar mai aapki bat ka jawab nahi dungi ...
veise dhanywad , eise gane batane ke liye jispar kabhi mera dhyan hi nahi gaya tha ..

Rajat Vynar
24-09-2014, 11:52 AM
shreeman rajat ji , aapki kahi baton ke liye kahne ke liye mere pas bahut kuchh hai kintu kai bar na bolna hi achha, ye sochkar mai aapki bat ka jawab nahi dungi ...
Veise dhanywad , eise gane batane ke liye jispar kabhi mera dhyan hi nahi gaya tha ..

देखिए, सोनी पुष्पा जी.. आपको मैं यह बता दूँ कि मैं बहुत बीमार हूँ और बहुत खतरनाक बीमारी है मुझे. कभी भी जान जा सकती है. देश के बहुत बड़े डॉक्टर के द्वारा मेरा इलाज चल रहा है. इलाज करवाने के लिए कई अस्पताल में 'अदल-बदल कर' जाना पड़ता है. इस तरह बोलेंगी तो मैं और बीमार पड़ जाऊँगा. संदर्भवश मैं यह बता दूँ कि लीला करना ईश्वर का गुण है और लीला करते समय ईश्वर अपनी विशेष शक्तियों का प्रदर्शन नहीं किया करते किन्तु फिर भी महाभारत में युद्ध न करने का शपथ लेने के बावजूद भी श्री कृष्ण चक्र लेकर दौड़े थे. क्यों दौड़े थे? अपनों को बचाने के लिए, मारने के लिए नहीं. महाभारत की इस घटना से प्रभावित होकर ही अमेरिकन अभिनेत्री ने Fanny Brice कहा है-

“Let the world know you as you are, not as you think you should be, because sooner or later, if you are posing, you will forget the pose, and then where are you?”

स्पष्ट है- कृष्ण थे तो भगवान लेकिन जबरदस्ती सारथी का 'रोल' कर रहे थे. जब क्रोध आया तो 'पोस' भूल गया!

Rajat Vynar
24-09-2014, 09:37 PM
सोनी पुष्पा जी, मेरा सेंचुरी बन गया. चलिए, प्रोफाइल पर कांग्रेट्स करिये. अति महान कृपा होगी.

rafik
29-09-2014, 12:53 PM
यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर ने अपने विद्यार्थियों को एक एसाइनमेंट दिया। विषय था मुंबई की धारावी झोपड़पट्टी में रहते 10 से 13 साल की उम्र के लड़कों के बारे में अध्यन करना और उनके घर की तथा सामाजिक परिस्थितियों की समीक्षा करके भविष्य में वे क्या बनेंगे, इसका अनुमान निकालना।
कॉलेज विद्यार्थी काम में लग गए। झोपड़पट्टी के 200 बच्चो के घर की पृष्ठभूमिका, मा-बाप की परिस्थिति, वहाँ के लोगों की जीवनशैली और शैक्षणिक स्तर, शराब तथा नशीले पदार्थो के सेवन , ऐसे कई सारे पॉइंट्स पर विचार किया गया । तदुपरांत हर एक लडके के विचार भी गंभीरतापूर्वक सुने तथा ‘नोट’ किये गए।
करीब करीब 1 साल लगा एसाइनमेंट पूरा होने में। इसका निष्कर्ष ये निकला कि उन लड़कों में से 95% बच्चे गुनाह के रास्ते पर चले जायेंगे और 90% बच्चे बड़े होकर किसी न किसी कारण से जेल जायेंगे। केवल 5% बच्चे ही अच्छा जीवन जी पाएंगे।
बस, उस समय यह एसाइनमेंट तो पूरा हो गया , और बाद में यह बात का विस्मरण हो गया। 25 साल के बाद एक दुसरे प्रोफ़ेसर की नज़र इस अध्यन पर पड़ी , उसने अनुमान कितना सही निकला यह जानने के लिए 3-3 विद्यार्थियो की 5 टीम बनाई और उन्हें धारावी भेज दिया । 200 में से कुछ का तो देहांत हो चुका था तो कुछ दूसरी जगह चले गए थे। फिर भी 180 लोगों से मिलना हुवा। कॉलेज विद्यार्थियो ने जब 180 लोगों की जिंदगी की सही-सही जानकारी प्राप्त की तब वे आश्चर्यचकित हो गए। पहले की गयी स्टडी के विपरीत ही परिणाम दिखे।
उन में से केवल 4-5 ही सामान्य मारामारी में थोड़े समय के लिए जेल गए थे ! और बाकी सभी इज़्ज़त के साथ एक सामान्य ज़िन्दगी जी रहे थे। कुछ तो आर्थिक दृष्टि से बहुत अच्छी स्थिति में थे।
अध्यन कर रहे विद्यार्थियो तथा उनके प्रोफ़ेसर साहब को बहुत अचरज हुआ कि जहाँ का माहौल गुनाह की और ले जाने के लिए उपयुक्त था वहां लोग महेनत तथा ईमानदारी की जिंदगी पसंद करे, ऐसा कैसे संभव हुवा ?
सोच-विचार कर के विद्यार्थी पुनः उन 180 लोगों से मिले और उनसे ही ये जानें की कोशिश की। तब उन लोगों में से हर एक ने कहा कि “शायद हम भी ग़लत रास्ते पर चले जाते, परन्तु हमारी एक टीचर के कारण हम सही रास्ते पर जीने लगे। यदि बचपन में उन्होंने हमें सही-गलत का ज्ञान नहीं दिया होता तो शायद आज हम भी अपराध में लिप्त होते…. !”
विद्यार्थियो ने उस टीचर से मिलना तय किया। वे स्कूल गए तो मालूम हुवा कि वे तो सेवानिवृत हो चुकी हैं । फिर तलाश करते-करते वे उनके घर पहुंचे । उनसे सब बातें बताई और फिर पूछा कि “आपने उन लड़कों पर ऐसा कौन सा चमत्कार किया कि वे एक सभ्य नागरिक बन गए ?”
शिक्षिकाबहन ने सरलता और स्वाभाविक रीति से कहा : “चमत्कार ? अरे ! मुझे कोई चमत्कार-वमत्कार तो आता नहीं। मैंने तो मेरे विद्यार्थियो को मेरी संतानों जैसा ही प्रेम किया। बस ! इतना ही !” और वह ठहाका देकर जोर से हँस पड़ी।
मित्रों , प्रेम व स्नेह से पशु भी वश हो जाते है। मधुर संगीत सुनाने से गौ भी अधिक दूध देने लगती है। मधुर वाणी-व्यवहार से पराये भी अपने हो जाते है। जो भी काम हम करे थोड़ा स्नेह-प्रेम और मधुरता की मात्रा उसमे मिला के करने लगे तो हमारी दुनिया जरुर सुन्दर होगी। आपका दिन मंगलमय हो, ऐसी शुभभावना।

Pavitra
29-09-2014, 10:39 PM
यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर ने अपने विद्यार्थियों को एक एसाइनमेंट दिया। विषय था मुंबई की धारावी झोपड़पट्टी में रहते 10 से 13 साल की उम्र के लड़कों के बारे में अध्यन करना और उनके घर की तथा सामाजिक परिस्थितियों की समीक्षा करके भविष्य में वे क्या बनेंगे, इसका अनुमान निकालना।
कॉलेज विद्यार्थी काम में लग गए। झोपड़पट्टी के 200 बच्चो के घर की पृष्ठभूमिका, मा-बाप की परिस्थिति, वहाँ के लोगों की जीवनशैली और शैक्षणिक स्तर, शराब तथा नशीले पदार्थो के सेवन , ऐसे कई सारे पॉइंट्स पर विचार किया गया । तदुपरांत हर एक लडके के विचार भी गंभीरतापूर्वक सुने तथा ‘नोट’ किये गए।
करीब करीब 1 साल लगा एसाइनमेंट पूरा होने में। इसका निष्कर्ष ये निकला कि उन लड़कों में से 95% बच्चे गुनाह के रास्ते पर चले जायेंगे और 90% बच्चे बड़े होकर किसी न किसी कारण से जेल जायेंगे। केवल 5% बच्चे ही अच्छा जीवन जी पाएंगे।
बस, उस समय यह एसाइनमेंट तो पूरा हो गया , और बाद में यह बात का विस्मरण हो गया। 25 साल के बाद एक दुसरे प्रोफ़ेसर की नज़र इस अध्यन पर पड़ी , उसने अनुमान कितना सही निकला यह जानने के लिए 3-3 विद्यार्थियो की 5 टीम बनाई और उन्हें धारावी भेज दिया । 200 में से कुछ का तो देहांत हो चुका था तो कुछ दूसरी जगह चले गए थे। फिर भी 180 लोगों से मिलना हुवा। कॉलेज विद्यार्थियो ने जब 180 लोगों की जिंदगी की सही-सही जानकारी प्राप्त की तब वे आश्चर्यचकित हो गए। पहले की गयी स्टडी के विपरीत ही परिणाम दिखे।
उन में से केवल 4-5 ही सामान्य मारामारी में थोड़े समय के लिए जेल गए थे ! और बाकी सभी इज़्ज़त के साथ एक सामान्य ज़िन्दगी जी रहे थे। कुछ तो आर्थिक दृष्टि से बहुत अच्छी स्थिति में थे।
अध्यन कर रहे विद्यार्थियो तथा उनके प्रोफ़ेसर साहब को बहुत अचरज हुआ कि जहाँ का माहौल गुनाह की और ले जाने के लिए उपयुक्त था वहां लोग महेनत तथा ईमानदारी की जिंदगी पसंद करे, ऐसा कैसे संभव हुवा ?
सोच-विचार कर के विद्यार्थी पुनः उन 180 लोगों से मिले और उनसे ही ये जानें की कोशिश की। तब उन लोगों में से हर एक ने कहा कि “शायद हम भी ग़लत रास्ते पर चले जाते, परन्तु हमारी एक टीचर के कारण हम सही रास्ते पर जीने लगे। यदि बचपन में उन्होंने हमें सही-गलत का ज्ञान नहीं दिया होता तो शायद आज हम भी अपराध में लिप्त होते…. !”
विद्यार्थियो ने उस टीचर से मिलना तय किया। वे स्कूल गए तो मालूम हुवा कि वे तो सेवानिवृत हो चुकी हैं । फिर तलाश करते-करते वे उनके घर पहुंचे । उनसे सब बातें बताई और फिर पूछा कि “आपने उन लड़कों पर ऐसा कौन सा चमत्कार किया कि वे एक सभ्य नागरिक बन गए ?”
शिक्षिकाबहन ने सरलता और स्वाभाविक रीति से कहा : “चमत्कार ? अरे ! मुझे कोई चमत्कार-वमत्कार तो आता नहीं। मैंने तो मेरे विद्यार्थियो को मेरी संतानों जैसा ही प्रेम किया। बस ! इतना ही !” और वह ठहाका देकर जोर से हँस पड़ी।
मित्रों , प्रेम व स्नेह से पशु भी वश हो जाते है। मधुर संगीत सुनाने से गौ भी अधिक दूध देने लगती है। मधुर वाणी-व्यवहार से पराये भी अपने हो जाते है। जो भी काम हम करे थोड़ा स्नेह-प्रेम और मधुरता की मात्रा उसमे मिला के करने लगे तो हमारी दुनिया जरुर सुन्दर होगी। आपका दिन मंगलमय हो, ऐसी शुभभावना।

बहुत ही अच्छा पोस्ट रफीक जी। .....:bravo::bravo::bravo::bravo:

soni pushpa
30-09-2014, 06:21 PM
bahut achhi kahani or kahani ke madhyam se diya gaya sandesh bhai ... prem wo hai jo insna ka jivan badla deta hai heivan ko insan bana deta hai or jivan ke sare sambhandho ki ek kadi hai ye jo sare samaaj ko ekduje se bandhe rakhty hai

bhai बहुत बहुत आभार की आपने मेरी बात को समझा और सही मतलब लिया इसका...मै बस ये ही कहना चहती थी की सारे समाज का भलाई हो सकती है \\




बहुत बहुत धन्यवाद,.. ,, भाई

Rajat Vynar
02-10-2014, 02:29 PM
हम फिल्मों,serialsकी और आगे निकल जायेंगे
आप ही नहीं, सोनी पुष्पा जी.. फ़िल्म का सन्दर्भ देने पर प्रायः सभी लोग आप जैसी ही बात करते हैं. इसमें आपका कोई दोष नहीं. एक विख्यात लेखिका के कथनानुसार भी- ‘एक कुली का एक करोड़पति की पुत्री के प्रेम में पड़ना दिखाने वाली बोंलीवुड फ़िल्में या एक अमेरिकन पर्यटक द्वारा एक भारतीय गाँव में एक अशिक्षित किसान से विवाह करना जैसे टी.वी. कार्यक्रम मनोरंजन के लिए बने हैं, लेकिन कदाचित् एक सम्पूर्ण व्यावहारिक जीवन के लिए नहीं.’ किन्तु यही बात यदि आप बोंलीवुड वालों से पूछिए तो कहेंगे कि हम वही दिखाते हैं जो समाज की सच्चाई होती है। भट्ट कैम्प की फ़िल्मों जिस्म और जिस्म-2 की कहानी की मूल (principle) संधारणा (concept) है- ’कहानी के अन्त में कारण चाहे जो भी हो, कहानी की नायिका कहानी के नायक को जान से मार देती है।’ समाचारपत्रों में प्रकाशित एक समाचार का सार यह है- ’एक युवती ने अपने प्रेमी को पार्क में मिलने के लिए बुलाया और गोली मार कर उसकी हत्या करवा दी।’ देखा आपने? समाचारपत्रों में प्रकाशित यह समाचार और भट्ट कैम्प की फ़िल्मों जिस्म और जिस्म-2 की मूल संधारणा- दोनों एक ही है। इसलिए यह निर्विवाद (implicit) रूप से सिद्ध हुआ कि फ़िल्मों में जो कुछ दिखाया जाता है उसकी संरचना यद्यपि काल्पनिक घटनाक्रम के आधार पर होती है किन्तु उसकी मूल संधारणा में कहीं न कहीं वास्तविक जीवन की सच्चाई छिपी होती है। यही कारण है कि उपरोक्त लेखिका स्वयं भ्रमित होकर अपनी सफाई में आगे लिखती हैं- ‘फिर भी, हो सकता है कि मेरे विचार गलत हों और हो सकता है- सच्चा प्यार इन सभी विषमताओं से ऊपर हो किन्तु आप और आपकी प्रेमासक्ति के बीच की व्यापक असमानता को इंगित करती हुई कहीं न कहीं पार्श्व में बजने वाली खतरे की घण्टियों के बारे में अपने कानों को खुला रखने में मैं कोई हानि नहीं समझती। क्या आप?’

Rajat Vynar
03-10-2014, 10:06 AM
श्रीमान रजत जी ये गाना मैंने सुना है आप भूल रहे हैं मेने पहले कही कहा है की मै इंडिया से ही हूँ भले कुछ सालो से यहाँ हूँ ...
अच्छा हुआ आपने बता दिया- आप इंडिया से हैं नहीं तो आपको अफ्रीकन समझकर मेरा एक पानी का जहाज़ वेस्ट हो जाता! :laughing: अफ्रीकन को पानी का जहाज़ गिफ्ट करता तो अफ्रीकन सरकार में मेरा बड़ा नाम होता! :egyptian:

soni pushpa
03-10-2014, 08:04 PM
धन्यवाद रजत जी ,... आपकी शुक्रगुजार हूँ की आप इस ब्लॉग पर इतना लिख रहे हैं

Rajat Vynar
04-10-2014, 04:02 PM
धन्यवाद रजत जी ,... आपकी शुक्रगुजार हूँ की आप इस ब्लॉग पर इतना लिख रहे हैं
जर्रा नवाजी के लिए तहेदिल से शुक्रिया, मोहतरमा सोनी पुष्पा जी.. वैसे यह कोई विशेष रोंकेट टेक्नॉलोजी नहीं है जो बताया न जा सके. गपशप संगोष्ठी में हमारी गतिविधियाँ निम्नलिखित वरीयता क्रम के अनुसार ही होती हैं-
१. Gazetted friends के सूत्रों पर टिप्पणियाँ/धन्यवाद आदि
२. Non-Gazetted friends के सूत्रों पर टिप्पणियाँ/धन्यवाद आदि
३. Gazetted friends के खास मित्रों के सूत्रों/प्रत्युत्तर आदि पर टिप्पणियाँ/धन्यवाद आदि
४. Non-Gazetted friends के खास मित्रों के सूत्रों/प्रत्युत्तर आदि पर टिप्पणियाँ/धन्यवाद आदि
५. Legends के सूत्रों/प्रत्युत्तर आदि पर टिप्पणियाँ/धन्यवाद आदि
६. नए सूत्रों का आरम्भ
७. आरम्भ किए गए सूत्रों का विस्तार
८. प्रोफाइल संदेशों का अवलोकन/प्रत्युत्तर आदि
९. व्यक्तिगत संदेशों का अवलोकन/प्रत्युत्तर आदि

soni pushpa
04-10-2014, 04:34 PM
जी ये सब तो है रजत जी, किन्तु हर कोई इतना नही लिख सकते ना ? आप अपना अमूल्य समय दे रहे हैं

Rajat Vynar
08-10-2014, 09:21 PM
जी ये सब तो है रजत जी, किन्तु हर कोई इतना नही लिख सकते ना ? आप अपना अमूल्य समय दे रहे हैं
हा.. हा.. हा.. बहुत सारा माल तो पहले से लिखा हुआ रेडीमेड में हमारे पास स्टॉक में रहता है. बस कॉपी-पेस्ट और थोड़ा बहुत एडिट करना पड़ता है.

soni pushpa
09-10-2014, 08:52 PM
achha fir bhi bahut bahut dhanywad rajat ji ....