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View Full Version : खेजड़ी पेड़ों की रक्षा तथा विश्नोई समाज


rajnish manga
04-11-2014, 09:15 PM
खेजड़ी पेड़ों की रक्षा तथा विश्नोई समाज

गुरु जम्भेवर भगवन ने 29 नियम बताये । गुरु जम्भेवर महाराज के बताये 29 नियमों को पालन करने वाले जन विश्नोई जन कह्लाये । गुरु महाराज के बताये 29 में से 19 वें नियम ‘पेड़ पोधो की रक्षा करना’ पर पूर्ण रूप से खरा उतरने के लिए 224 वर्ष पूर्व एक के बाद एक बिश्नोई समाज के कुल 363 लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। तब से लेकर आज तक बिश्नोई समाज इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाता आ रहा है।

बिश्नोई समाज आज भी मानता है कि 'सिर सांटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण" अर्थात सिर कटाकर भी पेड़ की रक्षा की जाए तो यह काफी सस्ती है।

केसे हुआ बलिदान तथा किस तरह किया गुरूजी के नियम का पालन :

1787 में राजस्थान के मारवाड (जोधपुर) रियासत पर महाराजा अभय सिंह का राज था। उनका मंत्री गिरधारी दास भण्डारी था।

उस समय महराणगढ़ किले में फूल महल नाम का राजभवन का निर्माण किया जा रहा था। महल निर्माण के दौरान लकड़ियों की आवश्यकता पड़ी तो महाराजा अभय सिंह ने मंत्री गिरधारी दास भण्डारी को लकडियों की व्यवस्था करने का आदेश दिया , मंत्री गिरधारी दास भण्डारी की नजर महल से करीब 24 किलोमीटर दूर स्थित गांव खेजडली पर पड़ी। मंत्री गिरधारी दास भण्डारी अपने सिपाहियों के साथ 1787 में भादवा सुदी 10वीं मंगलवार के दिन खेजडली गांव पहुंच गए।

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rajnish manga
04-11-2014, 09:17 PM
उन्होंने रामू खोड नामक बिश्नोई समाज के व्यक्ति के खेजड़ी के वृक्ष को काटना आरंभ कर दिया। कुल्हाड़ी की आवाज सुनकर रामू खोड की पत्नी अमृता बिश्नोई घर से बाहर आई। उसने बिशनोई समुदाय के नियमों का हवाला देते हुए पेड़ काटने से रोका लेकिन सिपाही नहीं माने। इस पर अमृता बिश्नोई पेड़ से चिपक गई और कहा कि पहले मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े होंगे-इसके बाद ही पेड़ कटेगा।

राजा के सिपाहियों ने उसे पेड़ से अलग करने की काफी कोशिश की परंतु अमृता टस से मस नहीं हुई। इसके बाद सिपाहियों ने अमृता पर ही कुल्हाड़ी चलाना आरंभ कर दिया। अमृता बिश्नोई के अंग कट-कट कर जमीन पर गिरने लगे इसके बाद भी उसने गुरु महाराज की आज्ञा का पूरी तरह से पालन किया।

अपनी माता के बलिदान को देखकर उसकी तीन पुत्रियों ने भी इसी प्रकार बलिदान दे दिया। इसके बाद पूरे गांव के बिश्नोई समाज ने पेड़ों को काटने से बचाने के लिए चिपको आंदोलन खड़ा कर दिया। पेड़ों को बचाने के लिए एक के बाद एक करके गांव के 363 बिश्नोइयों ने अपना बलिदान दे दिया। इनमें 71 महिलाएं व 292 पुरुष थे।

इसकी सूचना जब राजा अभय सिंह को मिली तो उन्हें काफी सदमा पहुंचा और उन्होंने वहां आकर बिश्नोईसमाज से माफी मांगी । उन्होंने ताम्र पत्रदेकर विश्नोई समाज को आश्वस्त किया कि जहाँ कहीं भी किसी भी गाव मैं विश्नोई निवास करंगे वहाँ पेड़ कभी भी नहीं काटे जायेंगे ।

तब से लेकर आज तक भादवा सुदी 10 वीं को बलिदान दिवस के रुप में खेजडली गांव में बिश्नोई समाज के लोगों का मेला लगता है। इस मेले में बिश्नोई समाज से जुड़े लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं और बलिदानियों को नमन करते हैं।

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Dr.Shree Vijay
05-11-2014, 03:47 PM
महत्वपूर्ण जानकारी के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद.........

rajnish manga
13-12-2014, 02:40 PM
विलुप्त होता खेजड़ी वृक्ष

यह सुन कर दुःख होता है कि राजस्थान का राज्य वृक्ष खेजड़ी लुप्त होने के कगार पर है वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने भी बार बार इस और ध्यान खींच कर हमें सावधान किया है. खेजड़ी का वृक्ष हमारे ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था में सहयोग देता है: यह उन्हें भोजन देता है और जलाने के लिए आवश्यक लकड़ी प्रदान करता है. यह काम किसी न्य वृक्ष अथवा कृषि उत्पाद से संभव नहीं है.

खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) राजस्थान के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के लगभग दो तिहाई भाग में पाया जाता है और सांस्कृतिक और आर्थिक आधार पर अत्यंत महत्वपूर्ण है. इस वृक्ष पर उगने वाली फली ‘सांगरी’ को खाया जाता है, स्वादिष्ट सब्जी की तरह पकाया जाता है और रेगिस्तान में पाई जाने वाली दूसरी प्रमुख कृषि उत्पाद ‘कैर’ नमक फल के साथ मिला कर प्रयोग किया जाता है. इसमें प्रोटीन बहुतायत में पाया जाता है. सूखी सांगरी को बाजार में 300 से 400 रूपए किलो में बेचा जाता है. इस वृक्ष के सूखे पत्तों को प्राकृतिक खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. और इसके अन्य भागों को पशुओं को खिलाया जाता है जिनसे उनकी दूध देने की क्षमता बढ़ जाती है.


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rajnish manga
13-12-2014, 02:44 PM
विलुप्त होता खेजड़ी वृक्ष

इस वृक्ष की ऊपर की एक दो शाखाओं को नहीं काटा जाता जिससे वृक्ष कुछ ही महीनो में फिर से हरा हो जाता है. इसे मरुवृक्ष के नाम से भी जाना जाता है. यह वृक्ष पूर्व काल में पश्चिमी राजस्थान में लोगों की जीवन-रेखा के तौर पर भी प्रसिद्ध था. इससे जलावन भी प्राप्त होता था और नकदी फसल के रूप में भी इसकी प्रतिष्ठा थी.

खेजड़ी के ख़त्म होते जाने के पीछे मूल कारण यह था कि हार साल वृक्ष मालिकों के द्वारा इसकी डंडियों, फल, फलियों, पत्तों, काट लिया जाता है. प्रसिद्ध पर्यावरणविद हर्षवर्धन के अनुसार इस प्रकार बेरोक-टोक शाखाओं को काट देने के कारण इसकी दुर्गति बढ़ती जाती है. जोधपुर स्थित मरुस्थलीय वन अनुसंधान संस्थान (afri) के वैज्ञानिकों के अनुसार जोधपुर, नागौर, चूरू, सीकर, झुंझनूं और जालौर जिलों में खेजड़ी के नष्ट होने की दर 18.08% से ले कर 22.67 % तक है जिसका औसत 20.93 % आता है.

मरुस्थलीय वनस्पतियों के विशेषज्ञ डॉ. मरतिया के अनुसार “खेजड़ी वृक्ष के नष्ट होने के कई कारण बताये गए हैं जैसे भूमिगत जल का गिरता हुआ स्तर, गोनोडर्मा ल्यूसीडर्म नामक परजीवी वनस्पति की अधिकता आदि लेकिन इस विषय में निर्णयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता.”
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Deep_
13-12-2014, 04:15 PM
दुर्लभ एवं लुप्त होती जा रही प्रजाती, चाहे वह पशु-पंखी की हो या वनस्पति वगेरह की....उन्हे आरक्षित करना हमारा कर्तव्य है।
रजनीश जी, खेजडी के वृक्ष की तसवीर उपलब्ध नही है?

Deep_
13-12-2014, 04:24 PM
आज ही डिस्कवरी चेनल पर दिखाया जा रहा था की किस तरह भारत में अन्य देशों से सब्जी एवं फल आए।
जैसे की आलु अफगानीस्तान से, अमेरीका से टमाटर, चीन से चाय वगेरह। और बहुत सारे फल वगेरह पोलेन्ड से भी भारत में आए है। ईस लिए शायद प्राचीन ग्रंथो और श्लोक वगेरेह में ईनका जिक्र नही है।

ईस प्रकार देखा जाए तो प्राचीन भारत का भोजन आज से एकदम अलग रहेता होगा। तो फिर हमे हमारे मुल वृक्ष, वनस्पति, फल, प्राणी आदि जो मुल भारत के ही है उन्हे आरक्षण देना चाहिए।