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View Full Version : व्यक्तित्व के शत्रु


rajnish manga
27-12-2014, 11:16 PM
व्यक्तित्व के शत्रु

यदि हम गौर से देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि क्रोध, घमण्ड, अविश्वसनीयता, और प्रलोभन हमारे व्यक्तित्व को असरदार बनने नहीं देते. और इन चारों के अधीस्त जो भी दूषण आते है वे भी सभी मिलकर हमें नैतिकता के प्रति आस्थावान नहीं रहने देते.

ये सभी दोष, कम या ज्यादा सभी में होते है किंतु इनकी बहुत ही मामूली सी उपस्थिति भी विकारों को प्रोत्साहित करने में समर्थ होती है. इसलिए इनको एक्ट में न आने देना, इन्हे निरंतर निष्क्रिय करते रहना या नियंत्रण स्थापित करना ही व्यक्तित्व के लिए लाभदायक है. यदि हमें अपनी नैतिक प्रतिबद्धता का विकास करना है तो हमें इन कषायों पर विजय हासिल करनी ही पडेगी. इन शत्रुओं से शांति समझौता करना (थोडा बहुत चलाना) निदान नहीं है. इन्हें बलहीन करना ही उपाय है. इनका दमन करना ही एकमात्र समाधान है.

rajnish manga
27-12-2014, 11:20 PM
व्यक्तित्व के शत्रु
क्रोध आभार: हंसराज सुज्ञ

'मोह' वश उत्पन्न, मन के आवेशमय परिणाम को 'क्रोध' कहते है. क्रोध मानव मन का अनुबंध युक्त स्वभाविक भाव है. मनोज्ञ प्रतिकूलता ही क्रोध का कारण बनती है. अतृप्त इच्छाएँ क्रोध के लिए अनुकूल वातावरण का सर्जन करती है. क्रोधवश मनुष्य किसी की भी बात सहन नहीं करता. प्रतिशोध के बाद ही शांत होने का अभिनय करता है किंतु दुखद यह कि यह चक्र किसी सुख पर समाप्त नहीं होता.

क्रोध कृत्य अकृत्य के विवेक को हर लेता है और तत्काल उसका प्रतिपक्षी अविवेक आकर मनुष्य को अकार्य में प्रवृत कर देता है. कोई कितना भी विवेकशील और सदैव स्वयं को संतुलित व्यक्त करने वाला हो, क्रोध के जरा से आगमन के साथ ही विवेक साथ छोड देता है और व्यक्ति असंतुलित हो जाता हैं। क्रोध सर्वप्रथम अपने स्वामी को जलाता है और बाद में दूसरे को. यह केवल भ्रम है कि क्रोध बहादुरी प्रकट करने में समर्थ है, अन्याय के विरूद्ध दृढ रहने के लिए लेश मात्र भी क्रोध की आवश्यकता नहीं है. क्रोध के मूल में मात्र दूसरों के अहित का भाव है, और यह भाव अपने ही हृदय को प्रतिशोध से संचित कर बोझा भरे रखने के समान है. उत्कृष्ट चरित्र की चाह रखने वालों के लिए क्रोध पूर्णतः त्याज्य है.

rajnish manga
27-12-2014, 11:23 PM
व्यक्तित्व के शत्रु
आईए देखते है महापुरूषों के कथनो में 'क्रोध' का यथार्थ.........

“क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणाम” (माघ कवि) – मनुष्य का प्रथम शत्रु क्रोध है.


“वैरानुषंगजनकः क्रोध” (प्रशम रति) - क्रोध वैर परम्परा उत्पन्न करने वाला है.

“क्रोधः शमसुखर्गला” (योग शास्त्र) –क्रोध सुख शांति में बाधक है.

“अपकारिणि चेत कोपः कोपे कोपः कथं न ते” (पाराशर संहिता) - हमारा अपकार करनेवाले पर क्रोध उत्पन्न होता है फिर हमारा अपकार करने वाले इस क्रोध पर क्रोध क्यों नहीं आता?

soni pushpa
28-12-2014, 12:59 AM
क्रोध से होने वाले नुकसान की अच्छी व्याख्या की है आपने . महर्षियों द्वारा दिए गए उदहारण काफी रोचक हैं .. धन्यवाद रजनीश जी .

rajnish manga
31-12-2014, 01:14 PM
क्रोध से होने वाले नुकसान की अच्छी व्याख्या की है आपने . महर्षियों द्वारा दिए गए उदहारण काफी रोचक हैं .. धन्यवाद रजनीश जी .

सूत्र भ्रमण करने तथा विषयवस्तु को पसंद करने के लिए मैं आपका आभारी हूँ. महापुरुषों ने कहा है कि क्रोध का शमन करना न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि उसके ज़रिये समाज के लिए भी लाभकारी है.

rajnish manga
31-12-2014, 01:18 PM
महापुरुषों की दृष्टि में क्रोध

“क्रोध और असहिष्णुता सही समझ के दुश्मन हैं.” - महात्मा गाँधी

“क्रोध एक तरह का पागलपन है.” - होरेस

“क्रोध मूर्खों के ह्रदय में ही बसता है.” - अल्बर्ट आइन्स्टाइन

“क्रोध वह तेज़ाब है जो किसी भीचीज जिसपर वह डाला जाये ,से ज्यादा उस पात्र को अधिक हानिपहुंचा सकता है जिसमे वह रखा है.” - मार्क ट्वेन

“क्रोध को पाले रखना गर्म कोयले को किसी और पर फेंकने की नीयत से पकडे रहने के सामान है; इसमें आप ही जलते हैं.” - महात्मा बुद्ध

rajnish manga
31-12-2014, 01:25 PM
महापुरुषों की दृष्टि में क्रोध

“मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करता है, किंतु बुद्धिमान शांति से उसे वश में करता है।” - बाइबिल

“जब क्रोध आए तो उसके परिणाम पर विचार करो।” - कन्फ्यूशियस

“जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं करता और क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करनेवाले की महासंकट से रक्षा करता है।” - वेदव्यास

“क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।” - प्रेमचंद

“जिस तरह उबलते हुए पानी में हम अपना, प्रतिबिम्ब नहीं देख सकते उसीतरह क्रोध की अवस्था में यह नहीं समझ पाते कि हमारी भलाई किस बात में है।” - महात्मा बुद्ध

rajnish manga
31-12-2014, 01:53 PM
महापुरुषों की दृष्टि में क्रोध

क्रोध को आश्रय देना, प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना अनेक कष्टों का आधार है. जो व्यक्ति इस बुराई को पालते रहते है वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रह जाते है. वे दूसरों के साथ मेल-जोल, प्रेम-प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष से कोसों दूर रह जाते है. परिणाम स्वरूप वे अनिष्ट संघर्षों और तनावों के आरोह अवरोह में ही जीवन का आनंद मानने लगते है. उसी को कर्म और उसी को पुरूषार्थ मानने के भ्रम में जीवन बिता देते है.

क्रोध को शांति व क्षमा से ही जीता जा सकता है. क्षमा मात्र प्रतिपक्षी के लिए ही नहीं है, स्वयं के हृदय को तनावों और दुर्भावों से क्षमा करके मुक्त करना है. बातों को तूल देने से बचाने के लिए उन बातों को भुला देना खुद पर क्षमा है. आवेश की पद्चाप सुनाई देते ही, क्रोध प्रेरक विचार को क्षमा कर देना, शांति का उपाय है. सम्भावित समस्याओं और कलह के विस्तार को रोकने का उद्यम भी क्षमा है. किसी के दुर्वचन कहने पर क्रोध न करना क्षमा कहलाता है। हमारे भीतर अगर करुणा और क्षमा का झरना निरंतर बहता रहे तो क्रोध की चिंगारी उठते ही शीतलता से शांत हो जाएगी. क्षमाशील भाव को दृढ बनाए बिना अक्रोध की अवस्था पाना दुष्कर है.

rajnish manga
31-12-2014, 02:03 PM
व्यक्तित्व के शत्रु
मोह व अहंकार
आभार: हंसराज सुज्ञ

मोह वश रिद्धि, सिद्धि, समृद्धि, सुख और जाति आदि पर अहम् बुद्धि रूप मन के परिणाम को "मान" कहते है. मद, अहंकार, घमण्ड, गारव, दर्प, ईगो और ममत्व(मैं) आदि ‘मान’ के ही स्वरूप है. कुल, जाति, बल, रूप, तप, ज्ञान, विद्या, कौशल, लाभ, और ऐश्वर्य पर व्यक्ति 'मान' (मद) करता है.

मान वश मनुष्य स्वयं को बड़ा व दूसरे को तुच्छ समझता है. अहंकार के कारण व्यक्ति दूसरों के गुणों को सहन नहीं करता और उनकी अवहेलना करता है. घमण्डसे ही ‘मैं’ पर घनघोर आसक्ति पैदा होती है. यही दर्प, ईर्ष्या का उत्पादक है. गारव के गुरुतर बोझ से भारी मन, अपने मान की रक्षा के लिए गिर जाता है. प्रशंसा, अभिमान के लिए ताजा चारा है. जहां कहीं भी व्यक्ति का अहंकार सहलाया जाता है गिरकर उसी व्यक्ति की गुलामी को विवश हो जाता है. अभिमानस्वाभिमान को भी टिकने नहीं देता. अहंकार वृति से यश पाने की चाह, मृगतृष्णा ही साबित होती है. दूसरे की लाईन छोटी करने का मत्सर भाव इसी सेपैदा होता है.

rajnish manga
31-12-2014, 02:34 PM
व्यक्तित्व के शत्रु / मोह व अहंकार

आईए देखते है महापुरूषों के कथनों में मान (अहंकार) का स्वरूप....

"अहंकारो हि लोकानाम् नाशाय न वृद्ध्ये." (तत्वामृत) – अहंकार से केवल लोगों का विनाश होता है, विकास नहीं होता.

"अभिमांकृतं कर्म नैतत् फल्वदुक्यते." (महाभारत पर्व-12) – अहंकार युक्त किया गया कार्य कभी शुभ फलद्रुप नहीं हो सकता.

"मा करू धन जन यौवन गर्वम्". (शंकराचार्य) – धन-सम्पत्ति, स्वजन और यौवन का गर्व मत करो. क्योंकि यह सब पुण्य प्रताप से ही प्राप्त होता है और पुण्य समाप्त होते ही खत्म हो जाता है.

"लुप्यते मानतः पुंसां विवेकामललोचनाम्." (शुभचंद्राचार्य) – अहंकार से मनुष्य के विवेक रूप निर्मल नेत्र नष्ट हो जाते है.

"चरित्र एक वृक्ष है और मान एक छाया। हम हमेशा छाया की सोचते हैं; लेकिन असलियत तो वृक्ष ही है।" -अब्राहम लिंकन

rajnish manga
31-12-2014, 02:41 PM
व्यक्तित्व के शत्रु / मोह व अहंकार

"बुराई नौका में छिद्र के समान है। वह छोटी हो या बड़ी, एक दिन नौका को डूबो देती है।" -कालिदास

"समस्त महान ग़लतियों की तह में अभिमान ही होता है।" -रस्किन

"जिसे होश है वह कभी घमंड नहीं करता।" -शेख सादी

"जिसे खुद का अभिमान नहीं, रूप का अभिमान नहीं, लाभ का अभिमान नहीं, ज्ञान का अभिमान नहीं, जो सर्व प्रकार के अभिमान को छोड़ चुका है, वही संतहै।" -महावीर स्वामी

"जिस त्याग से अभिमान उत्पन्न होता है, वह त्याग नहीं, त्याग से शांति मिलनी चाहिए, अंतत: अभिमान का त्याग ही सच्चा त्याग है।" -विनोबा भावे

rajnish manga
13-01-2015, 10:32 PM
व्यक्तित्व के शत्रु / मोह व अहंकार

"ज्यों-ज्यों अभिमान कम होता है, कीर्ति बढ़ती है।" -यंग
"अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है।" (सूत्रकृतांग)
"जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है।" -क्षेमेन्द्र

विचित्रता तो यह है कि अभिमान से मनुष्य ऊँचा बनना चाहता है किंतु परिणाम सदैव नीचा बनने का आता है. निज बुद्धि का अभिमान ही, शास्त्रों की, सन्तों की बातों को अन्त: करण में टिकने नहीं देता. 'मान' भी विवेक को भगा देता है और व्यक्ति को शील सदाचार से गिरा देता है. अभिमान से अंधा बना व्यक्ति अपने अभिमान को बनाए रखने के लिए दूसरों का अपमान पर अपमान किए जाता है और उसे कुछ भी गलत करने का भान नहीं रहता. यह भूल जाता है कि प्रतिपक्ष भी अपने मान को बचाने में पूर्ण संघर्ष करेगा. आत्मचिंतन के अभाव में मान को जानना तो दूर पहचाना तक नहीं जाता. वह कभी स्वाभिमान की ओट में तो कभी बुद्धिमत्ता की ओट में छुप जाता है. मान सभी विकारों में सबसे अधिक प्रभावशाली व दुर्जेय है.

मान को मार्दव अर्थात् मृदुता व कोमल वृति से जीता जा सकता है.
अहंकार को शांत करने का एक मात्र उपाय है 'विनम्रता'.

rajnish manga
13-01-2015, 10:36 PM
व्यक्तित्व के शत्रु /माया-मोह

मोह वश मन, वचन, काया की कुटिलता द्वारा प्रवंचना अर्थात् कपट, धूर्तता, धोखा व ठगी रूप मन के परिणामों को माया कहते है. माया व्यक्ति का वह प्रस्तुतिकरण है जिसमें व्यक्ति तथ्यों को छद्म प्रकार से रखता है.कुटिलता, प्रवंचना, चालाकी, चापलूसी, वक्रता, छल कपट आदि माया के ही रूप है. साधारण बोलचाल में हम इसे बे-ईमानी कहते है. अपने विचार अपनी वाणी अपने वर्तन के प्रति ईमानदार न रहना माया है. माया का अर्थ प्रचलित धन सम्पत्ति नहीं है, धन सम्पत्ति को यह उपमा धन में माने जाते छद्म, झूठे सुख के कारण मिली है.

माया वश व्यक्ति सत्य का भी प्रस्तुतिकरण इस प्रकार करता है जिससे उसका स्वार्थ सिद्ध हो. माया ऐसा कपट है जो सर्वप्रथम ईमान अथवा निष्ठा को काट देता है. मायावी व्यक्ति कितना भी सत्य समर्थक रहे या सत्य ही प्रस्तुत करे अंततः अविश्वसनीय ही रहता है. तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना, झांसा देकर विश्वसनीय निरूपित करना, कपट है. वह भी माया है जिसमें लाभ दर्शा कर दूसरों के लिए हानी का मार्ग प्रशस्त किया जाता है. दूसरों को भरोसे में रखकर जिम्मेदारी से मुख मोड़ना भी माया है. हमारे व्यक्तित्व की नैतिक निष्ठा को समाप्त प्रायः करने वाला दुर्गुण 'माया' ही है..

rajnish manga
13-01-2015, 10:40 PM
व्यक्तित्व के शत्रु /माया-मोह

आईए देखते है महापुरूषों के कथनो में माया का यथार्थ :

“माया दुर्गति-कारणम्” – (विवेकविलास) - माया दुर्गति का कारण है..

“मायाशिखी प्रचूरदोषकरः क्षणेन्.” – (सुभाषित रत्न संदोह) - माया ऐसी शिखा है को क्षण मात्र में अनेक पाप उत्पन्न कर देती है..

“मायावशेन मनुजो जन-निंदनीयः.” – (सुभाषित रत्न संदोह) -कपटवश मनुष्य जन जन में निंदनीय बनता है..

"यदि तुम मुक्ति चाहते हो तो विषयों को विष के समान समझ कर त्याग दो और क्षमा, ऋजुता (सरलता), दया और पवित्रता इनको अमृत की तरह पी जाओ।" - चाणक्यनीति - अध्याय 9

"आदर्श, अनुशासन, मर्यादा, परिश्रम, ईमानदारी तथा उच्च मानवीय मूल्यों के बिना किसी का जीवन महान नहीं बन सकता है।" - स्वामी विवेकानंद.

rajnish manga
13-01-2015, 10:42 PM
व्यक्तित्व के शत्रु /माया-मोह

"बुद्धिमत्ता की पुस्तक में ईमानदारी पहला अध्याय है।" - थॉमस जैफर्सन

"कोई व्यक्ति सच्चाई, ईमानदारी तथा लोक-हितकारिता के राजपथ पर दृढ़तापूर्वक रहे तो उसे कोई भी बुराई क्षति नहीं पहुंचा सकती।" - हरिभाऊ उपाध्याय

"ईमानदारी, खरा आदमी, भलेमानस-यह तीन उपाधि यदि आपको अपने अन्तस्तल से मिलती है तो समझ लीजिए कि आपने जीवन फल प्राप्त कर लिया, स्वर्ग का राज्य अपनी मुट्ठी में ले लिया।" - अज्ञात

"सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।" - अज्ञात

"अपने सकारात्मक विचारों को ईमानदारी और बिना थके हुए कार्यों में लगाए और आपको सफलता के लिए प्रयास नहीं करना पड़ेगा, अपितु अपरिमित सफलता आपके कदमों में होंगी।" - अज्ञात

rajnish manga
13-01-2015, 10:48 PM
व्यक्तित्व के शत्रु /माया-मोह

"बुद्धि के साथ सरलता, नम्रता तथा विनय के योग से ही सच्चा चरित्र बनता है।" -अज्ञात

"मनुष्य की प्रतिष्ठा ईमानदारी पर ही निर्भर है।" - अज्ञात

वक्रता प्रेम और विश्वास की घातक है. कपट, बे-ईमानी, अर्थात् माया, शील औरचरित्र (व्यक्तित्व)का नाश कर देती है. माया करके हमें प्रतीत होता है किहमने बौद्धिक चातुर्य का प्रदर्शन कर लिया. सौ में से नब्बे बार व्यक्तिमात्र समझदार दिखने के लिए, बेमतलब मायाचार करता है. किंतु इस चातुर्य केखेल में हमारा व्यक्तित्व संदिग्ध बन जाता है. माया एक तरह से बुद्धि कोलगा कुटिलता का नशा है.

कपट, अविद्या (अज्ञान) का जनक है. और अपयश का घर. माया हृदय में गड़ा हुआ वह कांटा है जो निष्ठावान रहने ही नहीं देता.

माया को आर्जव अर्थात् ऋजुता (सरल भाव) से जीता जा सकता है.

Arvind Shah
14-01-2015, 12:13 AM
धोबी पछाड मार दिया रजनीशजी !

मानव जात में पाये जाने वाले दूर्गुणो का क्रिस्टल क्लियर परिभाषएं !!

saru4d
14-01-2015, 12:09 PM
काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान।।

rajnish manga
20-01-2015, 09:28 PM
धोबी पछाड मार दिया रजनीशजी !

मानव जात में पाये जाने वाले दूर्गुणो का क्रिस्टल क्लियर परिभाषएं !!

काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान।।

आपकी टिप्पणियाँ इशारा करती हैं कि आप इस सूत्र को रुचिपूर्वक फॉलो कर रहे हैं. आप दोनों महानुभाव का हार्दिक धन्यवाद.

soni pushpa
21-01-2015, 03:16 PM
हमारे पूर्वज मनीषी कह गए हैं जो की बिलकुल सही बातें हैं.. और मेरे ख्याल से सब जानते भी हैं एइसे स्वाभाव के दुष्प्रभाव को ,किन्तु बदले की भावना, से त्राहित व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के इन शत्रु को भूलकर सामने वाले को प्रताड़ित करते रहते हैं कभी भाषा से कभी अपने अहंकार से रजनीश जी, किन्तु ये- ये नही समझते की इससे उनका ही नुकसान हो रहा होता है..

dipu
21-01-2015, 05:49 PM
:bravo::bravo::bravo:

rajnish manga
21-01-2015, 06:42 PM
हमारे पूर्वज मनीषी कह गए हैं जो की बिलकुल सही बातें हैं.. और मेरे ख्याल से सब जानते भी हैं एइसे स्वाभाव के दुष्प्रभाव को ,किन्तु बदले की भावना, से त्राहित व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के इन शत्रु को भूलकर सामने वाले को प्रताड़ित करते रहते हैं कभी भाषा से कभी अपने अहंकार से रजनीश जी, किन्तु ये- ये नही समझते की इससे उनका ही नुकसान हो रहा होता है..

मैं आपकी बात का समर्थन करता हूँ, पुष्पा सोनी जी. मैं सिर्फ इतना जोड़ना चाहता हूँ कि मानव स्वभाव की यही विडंबना है कि हम अहम् से ग्रस्त हो कर अपने-पराये का भेद मन में पाले रहते हैं और मनीषियों के वचनों को पढ़-सुन कर तालियाँ तो बजाते हैं लेकिन उन पर अमल नहीं करते.

:bravo::bravo::bravo:

सूत्र पसंद करने के लिये आपका आभारी हूँ, दीपू जी.

Deep_
21-01-2015, 09:42 PM
शायद किसी को भली/बुरी लगे...लेकिन रजनीश जी शायद मुझसे शत प्रतिशत सहमत होंगे।...यह की विदेशी/पाश्चात्य सोच ईससे बिलकुल उल्टी या बहुत अलग है।
लेकिन ईसका यह मतलब नहीं की हम दूध के धुले हुएं है, हम में कई बदी बाकी है जो हमें मिल के दूर करनी है।

rajnish manga
22-01-2015, 07:12 AM
शायद किसी को भली/बुरी लगे...लेकिन रजनीश जी शायद मुझसे शत प्रतिशत सहमत होंगे।...यह की विदेशी/पाश्चात्य सोच ईससे बिलकुल उल्टी या बहुत अलग है।
लेकिन ईसका यह मतलब नहीं की हम दूध के धुले हुएं है, हम में कई बदी बाकी है जो हमें मिल के दूर करनी है।

धन्यवाद दीप जी. आपका कहना ठीक है. हम मनुष्य हैं और हममें हज़ार कमियाँ हैं. अपने में सुधार ला कर ही हम एक बेहतर समाज की कल्पना कर सकते हैं.

rajnish manga
22-01-2015, 07:18 AM
व्यक्तित्व के शत्रु
लोभ
आभार: हंसराज सुज्ञ

मोह वश दृव्यादि पर मूर्च्छा, ममत्व एवं तृष्णा अर्थात् असंतोष रूप मन के परिणाम को ‘लोभ’ कहते है. लालच, प्रलोभन, तृष्णा, लालसा, असंयम के साथ ही अनियंत्रित एषणा (अदम्य इच्छायें), अभिलाषा, कामना, इच्छा आदि लोभ के ही स्वरूप है. परिग्रह, संग्रहवृत्ति, अदम्य आकांक्षा, कर्पणता, प्रतिस्पर्धा, प्रमाद आदि लोभ के ही भाव है. धन-दृव्य व भौतिक पदार्थों सहित, कामनाओं की प्रप्ति के लिए असंतुष्ट रहना लोभवृत्ति है। ‘लोभ’ की दुर्भावना से मनुष्य में हमेशा और अधिक पाने की चाहत बनी रहती है।

लोभ वश उनके जीवन के समस्त कार्य, समय, प्रयास, चिंतन, शक्ति और संघर्ष केवल स्वयं के हित साधने में ही लगे रहते है. इस तरह लोभ, स्वार्थ को महाबली बना देता है.

rajnish manga
22-01-2015, 07:59 AM
व्यक्तित्व के शत्रु / लोभ

आईए देखते है महापुरूषों के सद्वचनों में लोभ का स्वरूप……….


“लोभो व्यसन-मंदिरम्.” (योग-सार) – लोभ अनिष्ट प्रवृतियों का मूल स्थान है.

“लोभ मूलानि पापानि.” (उपदेश माला) – लोभ पाप का मूल है.

“अध्यात्मविदो मूर्च्छाम् परिग्रह वर्णयन्ति निश्चयतः .” मूर्च्छा भाव (लोभ वृति) ही निश्चय में परिग्रह है ऐसा अध्यात्मविद् कहते है.

“त्याग यह नहीं कि मोटे और खुरदरे वस्त्र पहन लिए जायें और सूखी रोटी खायी जाये, त्याग तो यह है कि अपनी इच्छा अभिलाषा और तृष्णा को जीता जाये।“ - सुफियान सौरी

rajnish manga
22-01-2015, 08:06 AM
व्यक्तित्व के शत्रु / लोभ

अभिलाषा सब दुखों का मूल है। – बुद्ध

विचित्र बात है कि सुख की अभिलाषा मेरे दुःख का एक अंश है। - खलील जिब्रान

बुढ़ापा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राण को, क्रोध श्री को, काम लज्जा को हरता है परंतु अभिमान सब को हर लेता है। - विदुर नीति

क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो। – दयानंद सरस्वती

लोभ धैर्य को खा जाता है और व्यक्ति का आगत विपत्तियों पर ध्यान नहीं जाता. यह ईमान का शत्रु है और व्यक्ति को नैतिक बने रहने नहीं देता. लोभ सभी दुष्कर्मों का आश्रय है. यह मनुष्य को सारे बुरे कार्यों में प्रवृत रखता है.

soni pushpa
25-01-2015, 02:34 PM
लोभ व्यक्तित्व का वो शत्रु है रजनीश जी जो जब भी इन्सान के जीवन में आता है तब सबसे पहले तो समाज में से इंसान का अच्छा नाम ओहदा जो होता है उसे खो देता है लोभ के नुक्सान कई हैं जबकि लाभ कोई नही होते. लोभ की वजह से इंसान अच्छे बुरे का ज्ञान खो देता है और वो कार्य कर डालते हैं जो खुद के लिए जरा भी ठीक नही होते ..

rajnish manga
25-01-2015, 06:15 PM
आपका बहुत बहुत धन्यवाद, पुष्पा सोनी जी. आपने उपरोक्त उपरोक्त पोस्टों में व्यक्त किये गए विचारों के सार को समझते हुये बड़े सुंदर शब्दों में अपनी व्याख्या प्रस्तुत की है. लोभ जैसे व्यक्तित्व के बड़े शत्रु से बचना अत्यंत आवश्यक है. एक व्यक्ति के लिए तथा पूरे राष्ट्र के चहुँ मुखी विकास के लिए इन शब्दों पर अमल करना जरुरी है.