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View Full Version : !! गीत सुधियोँ के !!


Sikandar_Khan
04-12-2010, 08:38 AM
भाव के सूखे से
पल्लवोँ को ,
सुधि की सुधा से
सरसा लिया मैँने ।
राग अतीत मे
खो गए जो ,
उन रागोँ को राग
से गा लिया मैँने ।
स्वप्न असत्य के
भासित सत्य से ,
सत्य को भी -
झुठला लिया मैँने ।
कैसे कहूँ तुम्हेँ
पाया नही
बिना पाए हुए
तुम्हे पा लिया मैँने ।

Sikandar_Khan
04-12-2010, 08:50 AM
जाने किस उधेड़बुन मेँ हैँ
सुधि के गीतोँ के बंजारे ।
चलते चलते ठहर ठहर कर ठहर ठहर कर चल पड़ते हैँ अनुमानोँ ने हार मान ली जाने किस पथ पर बढ़ते हैँ मझधारोँ मे खोज रहे हैँ
कब से खोए हुए किनारे । जाने किस उधेड़बुन मेँ हैँ सुधि के गीतोँ के बंजारे ।
जाने क्या ये सोच रहे हैँ जाने क्या करने वाले हैँ
तैर रही चेहरे पर हलचल अधरोँ पर लटके ताले हैँ , अगरू धूम मेँ आँखे मीचे
क्योँ बैठे हैँ योँ मन मारे ।
जाने किस उधेड़बुन मेँ हैँ सुधि के गीतोँ के बंजारे ।
पंखो मेँ आकाश समाया
फिर भी क्योँ हारे हारे हैँ ,
स्वामी हैँ शाश्वत प्रकाश के दिखने मेँ क्योँ अधियारे हैँ
देखो , कब खोलेँ ये लोचन कब दमकेँ नयनोँ के तारे ।
जाने किस उधेड़बुन मेँ हैँ
सुधि के गीतोँ के बंजारे ।

Sikandar_Khan
04-12-2010, 09:08 AM
बेबस तुम रोए ही होगे
मैँ भी बहुत बहुत रोया हूँ । पल, छिन, कल्प और कल्पान्तर
अतिशय विशद , विशाल हुए हैँ ,
अन्तर से उमड़े घन , नभ पर
छाए, छाकर क्षितिज छुए है सांसेँ कुछ डूबती हुई सी
संध्याओँ की हुई कहानी ।
कभी सपन ही सपन
आंख मे
और कभी पानी ही पानी ,
रात कटी होगी पलकोँ मेँ
मैँ भी आज नही सोया हूँ
बेबस तुम रोए ही होगे
मै भी बहुत बहुत रोया हूँ जैसे अपने से ही अपनी
अब पहचान नहीँ बाकी है मन, जैसे सुरहीन बंसरी कोई तान नहीँ बाकी है ,
वीरानोँ मेँ भटक रही है
सुधियोँ की संदली हवाएं मायूसी की चादर आढ़े
बैठी हैँ सुधि की कन्याएं
तुम भी खोए खोए होगे
मैँ भी आज बहुत खोया हूँ बेबस तुम रोए ही होगे
मैँ भी बहुत बहुत रोया हूँ

khalid
04-12-2010, 10:14 AM
आगे और पोस्ट का
इंतेजार रहेगा

Kumar Anil
04-12-2010, 03:17 PM
साहित्य की इस विधा के शिखर पुरुष आदरणीय नीरज जी की रचनाएँ भी कृपया पोस्ट करेँ ।

Kumar Anil
04-12-2010, 03:23 PM
शब्द शरीर काव्य के , प्राण तो तुम हो ।
गाँऊ कोई गीत , राग तो तुम हो ।।
जिन्दा लाश सा जीवन मेरा शुष्क एकाकी ।
नहीँ थी कोई साध न थी कोई आस ही बाकी ।
मिला तेरा अनुराग प्यार नवजीवन पाया ।
मरुभूमि हूँ मैँ बहार तो तुम हो ।।
गाऊँ कोई गीत राग तो तुम हो ।
प्रेरक प्यार तुम्हारा है गिरिराज सरीखा ।
भाव विभोर समर्पण है सरिता सागर सा ।
प्रेम पयोधि को बाँध सकी कब कोई वर्जना । मैँ सीपी अति क्षुद्र स्वाति जल तो तुम हो ।
गाऊँ कोई गीत राग तो तुम हो ।।
मेरे ह्रदय सरोवर की तुम नील कमल ।
अन्तः का सौन्दर्य तेरा रजत धवल ।।
प्यार तेरा विस्तृत , ऊँचा ज्योँ नील गगन ।
मैँ हूँ प्रेम पखेरू पँख तो तुम हो ।।

Sikandar_Khan
04-12-2010, 08:43 PM
साहित्य की इस विधा के शिखर पुरुष आदरणीय नीरज जी की रचनाएँ भी कृपया पोस्ट करेँ ।

बंधू कुमार अनिल जी
अभी हमारे पास तो उपलब्ध नही है ।
मिलने पर अवश्य प्रस्तुत करूँगा

Sikandar_Khan
04-12-2010, 08:57 PM
सुधियाँ मधुर मधुर
ही होती हैँ
यह कहना बहुत सरल है । खुशियोँ की बस्ती मे किलकारी है
दुख के गलियारे हैँ
दुख के गलियारोँ मेँ उलझे बड़े बड़े हिम्मत हारे हैँ
सुख मेँ जितना सुख का सम्बल उससे ज्यादा
दुख का छल है ।
सुधियाँ मधूर मधूर
ही होती हैँ
यह कहना बहुत सरल है।
डूब डूब कर उभर उभर जाना ही जीवन की परिभाषा
अभिलाषा के बीच हताशा और हताशा मेँ प्रत्याशा
लहरोँ के ऊपर अनन्त नभ आंचल मे अज्ञात अतल है।
सुधियाँ मधुर मधुर
ही होती हैँ
यह कहना बहुत सरल है। अपने मे खो जाना ही तो कभी किसी का हो जाना है सब कुछ पा लेने की धुन मेँ अपना सब कुछ खो जाना है कैसे कहेँ कि पाना खोना यह अमृत है या कि गरल है ।
सुधियाँ मधुर मधुर
ही होती हैँ
यह कहना बहुत सरल है।

Sikandar_Khan
06-12-2010, 10:24 AM
यह क्या किया अचानक तुमने सुधियोँ की सांकल खटका कर ।
विरहाकुल प्राणोँ मे आ कर फिर से मिलन गीत गा गा कर ।
नदी जो कि उफना कर तटबंधोँ से नाता तोड़
रही थी ,
और क्षितिज को छू लेने का स्वप्न सुनहरा जोड़ रही थी उसमे अनगिन दीप विसर्जित किए छुए लहरोँ के कम्पन , फिर क्या हुआ कि तुमने अपने से ही खुद ही कर डाली अनबन ,
अब यह कौन राग फिर गाया प्राणोँ की वर्तिका जगाकर ।
यह क्या किया अचानक तुमने सुधियोँ की सांकल खटका कर ।
प्रतिपल मधुर मधुर था मधु सा थे प्रतिपल जीवन के दर्शन अब तक वे प्राणोँ की निधि हैँ
युगोँ युगोँ पहले गूँजे स्वन, भोर हुई पर भोर न थी वह किसके सिर यह दोष मढ़ेँ अब किरनोँ के भ्रम की पांखोँ पर अपना क्योँ संसार गढ़ेँ अब ,
किसे भला मिल पाई
खुशबू सूखी कलियोँ को चटका कर ।
यह क्या किया अचानक तुमने सुधियोँ की सांकल खटका कर ।

Sikandar_Khan
06-12-2010, 01:45 PM
जीने को तो जीता ही हूँ खंडित सुरभि कथाएं सुधि के आवरणों में लिपटीं अनगिन मूक व्यथाएं यदि वह पल फिर जी सकता तो कितना अच्छा होता ! समय खींचता आगे पर मन पीछे -पीछे खींचे कोई कोमल भाव प्राण -बिरवा मधु रस से सींचे यदि वह मधु रस पी सकता तो कितना अच्छा होता !यदि वह पल फिर जी सकता तो कितना अच्छा होता ! बाहर-बाहर कुछ दिखता पर भीतर -भीतर कुछ है, जो सचमुच -सचमुच लगता है वही नहीं सचमुच है , यदि सचमुच को सी सकता तो कितना अच्छा होता ! यदि वह पल फिर जी सकता तो कितना अच्छा होता

Sikandar_Khan
06-12-2010, 03:48 PM
फिर कुछ आहट हुई पांव देहरी के पार गए ! मन तो कहेता रहा उड़ चलें जहाँ मिलन अधिकार किन्तु हताश उपेछा ने झट बंद कर लिए द्वार ,चलते चरणों में बेडी कब सरल हुआ करता , पर यह क्या हो गया की पल में खुद से हार गए !फिर कुछ आहट हुई पाँव देहरी के पर गए ! छाए हुवे सघन घन फिर से छंट से गए लगा अकुलाये प्राणों में आशा का अनुराग जगा ,पलक झपकते संसमृतिओं ने मधुरिम चित्र रचे पर नयनों के श्रोत प्राण के चरण पखार गए ! फिर कुछ आहट हुई पाँव देहरी के पार गए !

Sikandar_Khan
07-12-2010, 08:25 PM
काँपती लौ ने उठाया दर्द का सैलाब फिर से। इस अंधेरे मेँ दमकते दो नयन फिर सामने हैँ, भाव सुरभित पुष्प के सम्भार फिर से थामने हैँ, फुलझरी को छू गया आवेग का महताब फिर से। काँपती लौ ने उठाया दर्द का सैलाब फिर से। फिर घिरे बादल गगन मेँ फिर मयूरोँ के खिले मन, फिर सरोवर मिले नद से नद हुए आनन्द के घन , काँपती लौ ने उठाया दर्द का सैलाब फिर से । फिर अचानक सुरमई रातेँ अधिक गहरा गई है , व्यंजनाएं फिर नई हैँ , कुछ नए अंदाज़ मेँ सुख कह गया आदाब फिर से। काँपती लौ ने उठाया दर्द का सैलाब फिर से ।

Hamsafar+
08-12-2010, 10:56 AM
वो होंठ तेरे कानों
पर धरे कुछ सुना गए
वो गीत तेरे, मेरे अधर
गुनगुना गए
वो खुशबू तेरी रगों में
मेरी लोट गई
वो जुल्फ तेरी
मेरी पेशानी उलझा गई
वो सांसें मेरी दर्द से
तारी हो गईं
वो बलाएं तेरी
मुट्ठी में मेरी समा गईं
तेरी जान का सदक़ा
हम अपनी उम्र पे वार आये
क्या होगा तुम्हें
ज़रा ये तो बताओ
जब अपनी जान हम
रहन रख आये

Hamsafar+
08-12-2010, 10:56 AM
तुम्हारी चोट सेमेरा दरकना लाज़मी तो नहीं,
मगरकुछ बातें मेरे इख्तियार में भी नहीं,
मुझे बार-बार तोड़ना, फिर जोड़ना,
प्रिय शगल है तुम्हारा, स्वामित्व का बोध कराता है|

तुम सिर्फ मेरी हो पुख्ता अहसास दिलाता है,
मैं तुम्हें खुश होने देती हूँ,
इसलिए नहीं, कि मैं निर्बल हूँ,
इसलिए! क्योंकि,
मैं टूटी तो तुम बिखर जाओगे,
ख़ुद को अपने चारों ओर पाओगे,
समेट सकती हूँ मैं तुम्हें,
लेकिन तुम्हारे हर टुकड़े में दंभ चस्पा है
जिसमें गोंद भी तो नहीं होती है|

Hamsafar+
08-12-2010, 10:57 AM
खनिज-कोयला-जंगल के देश में
मांदल नगाड़ा बजाता
तमाखू खाता
गुज़रता है तुफू सोरेन
गाता-
‘पहाड़ तोड़ने से अच्छा है
पहाड़ बन जाना’

उसकी स्त्री
गमछे में बच्चे को
पीठ पर लटकाकर
बीनती है चटाई
जो पहुँच जाती है
इन्द्रप्रस्थ की सड़कों पर
उसकी बहन के साथ बिकने को |

तीर धनुष से
खेलता
उसका बच्चा
मार गिराता है मोर को
ख़ुश है तुफू सोरेन
पेट भरेगा आज !
अगले दिन बच्चा
बन्दूक पकड़
तैयारी करता है
शहर जाने की ||

Hamsafar+
08-12-2010, 10:57 AM
हवास नसीब नज़र को कहीं करार नहीं
मैं मुन्तज़र होऊं , मगर तेरा इंतज़ार नहीं ,

हमीं से रंग – इ – गुलिस्तान , हमीं से रंग – इ – बहार
हमीं को नज़्म – इ – गुलिस्तान पे इख्तियार नहीं ,

अभी न छेर मुहब्बत के गीत इए मुतरिब
अभी हयात का माहौल खुशगवार नहीं ,

तुम्हारे अहद – इ – वफ़ा को मैं अहद क्या सम्झौं
मुझे खुद अपनी मुहब्बत का ऐतबार नहीं ,

न जाने कितने गिले इसमें मुज़्तरिब है नदीम
वो एक दिल जो किसी का गिला – गुज़ार नहीं ,

गुरेज़ का नहीं का ’इल हयात से , लेकिन
जो सच कहौं तो मुझे मौत नागवार नहीं ,

ये किस मक़ाम पे पहुंचा दिया ज़माने ने
क अब हयात पे तेरा भी इख्तियार नहीं .

Hamsafar+
08-12-2010, 10:58 AM
वो बोली , दिल को कोई बे यकीन है मुहब्बत में
मै बोला , ठीक है पैर इश्क तो ईमान होता है

वो बोली , अर्ज़ें दिल के अन्दर बैन करती है
मै बोला , ठीक है मुझ को सुनाई देते रहेते हैं

वो बोली , हम तो जैसे एक मुसलसिल दुःख के कैदी हैं
मै बोला , ठीक है ये ज़िन्दगी दुःख का तसलसुल हैं

वो बोली , कोई सब तो ख़ाब में भी ख़ाब आते हैं
मै बोला , ठीक है कुछ हसरतें ऐसे भी करतीं हैं

वो बोली , बारिशों में और ज्यादा जान सिलागती है
मै बोला , ठीक है ये आग पानी के जैसा हैं

वो बोली ,रात कइओं मुश्किल से कटती है जुदाई में
मै बोला , वक़्त तो कैफियतों का नाम होता है

वो बोली , चाहतों में दर्द के रहने की ख्वाईस क्यों

मै बोला , दर्द के मारे हवाओ में चैन मिलता है

वो बोली , रूह की आसूदगी को किया ज़रूरी है
मै बोला रूह को आलूदगी अच्छी नहीं लगती है

वो बोली , चाँद की और चांदनी की किया कहानी है
मै बोला , आदम ओ हव्वा की चाहत की निशानी है …

Hamsafar+
08-12-2010, 10:58 AM
तनहा छोड़ के चल दिए जाने क्यूँ ,
दिल के तुकडे हजार किये जाने क्यूँ
न जाने क्या खता हुई हमसे
दिया प्यार का ये सिला जाने क्यूँ ,
नादान दिल मदहोश हुआ नशा ये प्यार में ,
कुछ होश ना रहा जाने क्यूँ ,
सारे चिताएं जला दी अरमानो कि ,
पर तस्वीर दिल से ना मिटा पाए जाने क्यूँ ,
तुकडे-तुकडे हुए सपने मेरे सारे ,
अश्क ना बहा पाए जाने क्यूँ ,
यादों के सारे चिराग बुझा दिए हमने ,
फिर भी भुला ना पाए उसे जाने क्यूँ ,
अब भी है इंतजार उनके लौट आने का ,
दिल के किसी कोने में बसी है आस जाने क्यूँ

Hamsafar+
08-12-2010, 10:58 AM
पर्वत की चोटी पर झूमता हुआ विशाल वृक्ष नही बन सकते
तो घाटी में खड़ा छोटा पौधा ही बन जाओ ,परन्तु बनो .
पर्वत की विशाल सतह से चिपकी छोटी सुंदर बेल ,
पौधा नही बन सकते तो बेल ही बन जाओ ,परन्तु बनो .

तना नही बन सकते हो तो शाखा ही बन जाओ
किंतु ऐसी जो उत्साह से झूमती रहे .
शाख नही बन सकते ,तो घास का तिनका ही बन जाओ
जो एक सुंदर उपवन की शोभा बढ़ाता रहे ,परन्तु बनो .

नायक नही बन सकते ,तो अनुसरण कर्ता ही बन जाओ
यहाँ सभी के लिए कुछ न कुछ जरुर है .
करने को बहुत कुछ है ,और करना बहुत थोड़ा है
हम काम के अत्यन्त निकट खड़े है ,उसे करो .

राजमार्ग नही बन सकते, तो पद चिन्ह ही बन जाओ
सूरज नही बन सकते ,तो रोशनी ही बन जाओ .
सफलता विफलता आकर का खेल नही है ,
इसलिए तुम द बेस्ट बन जाओ .

Hamsafar+
08-12-2010, 10:58 AM
कोइ और तरह की बात करो
दिल जिस से सबका संभाल जाए
किसी और ख्याल में ढल जाए
बाई मुसरफ दिन के आखिर पर
ये ढलती शाम संभल जाए
इस सख्त मुकाम ज़माने का
ये सख्त मुकाम बदल जाए
कोइ और तरह की बात करो —-!
किसी घात पे किश्ती आन लगे
कोइ नई नई पहचान लगे
कोइ नया नया अनजान लगे
बाई मुसरफ दिन के आखिर पर
ये ढलती शाम संभल जाए
कोइ और तरह की बात करो ”——-!

Hamsafar+
08-12-2010, 10:59 AM
हे पत्नी के पूज्य पिताजी कैसे तुमको लिखूं नमस्ते
उल्टा सीधा किया आपने मुझको अच्छा उल्लू फाँसा
कह सोने चाँदी के बर्तन दे डाला सब पीतल काँसा
सिक्के जितने दिए दान में एक-२ सब निकले खोटे
रजत थाल फौलादी निकली अलमुनियम के निकले लोटे
घडी पुराने आदम युग की दिनभर जो चाभी ही खाती
जिसे देखकर बिना बताये लोग समझ जाते खैराती
सेकेण्ड हैण्ड टायर के जूते वो भी शत प्रतिशत जापानी
तलवे जिनमे अदंर रहते बहार रहती उंगली कानी
सडी साईकल झुनझुन करती घंटी बजाये नही बजती
दो पुरषों का भार वह महासती सी सहन न करती
सिले सिलाये कपड़े ऐसे वो भी लगते महा बेढंगे
कुरते बिल्कुल चोली जैसे पतलून ढीली हो लहगें
सूखे हुए आम के जैसी ६० साल की गाय पुरानी
अजी दूध की बात छोडिये थन से नही निकलता पानी
खिड़कीदार मशहरी जिसको नाईट क्लब समझे है मच्छर
तकिए को तकिया बोलूँ या चंदन घिसने का पत्थर
अधगंजी हो गई खोपडी जिसके ऊपर घिसते-२
ये पत्नी के पूज्य पिताजी कैसे तुमको लिखूं नमस्ते!!

Kumar Anil
12-12-2010, 08:55 AM
कभी खुशी की
आशा ,
कभी गम की
निराशा ,
कभी हकीकत की धूप ,
कभी सपनोँ की छाया ,
कुछ खोकर ,
कुछ पाने की
आशा ,
शायद यही तो है
जिँदगी की परिभाषा ।

Kumar Anil
13-12-2010, 11:29 AM
दीवारोँ पर चिपके नारे
पेट नहीँ भरते प्यारे
तुझसे तेरा देश प्रगति का
पहला अक्षर माँग रहा है
युग हस्ताक्षर माँग रहा है ।
रधिया के तन पर चिथड़े हैँ जीवन के गोपन उधड़े हैँ
फुटपाथोँ पर सोया रामू
छोटा सा घर माँग रहा है
युग हस्ताक्षर माँग रहा है ।
ये जीवन की नयी दिशाएं
बनी वेद की दीप्त ऋचाएं
एक नया युगबोध व्यक्ति के
जीवन का स्तर माँग रहा है
युग हस्ताक्षर माँग रहा है ।

ndhebar
13-12-2010, 12:15 PM
"तुझसे तेरा देश प्रगति का
पहला अक्षर माँग रहा है"

बहुत अच्छे अनिल जी

Sikandar_Khan
17-01-2011, 07:14 PM
मौसम की ठंडी आहेँ जो जलती हो तोँ जलने दो।
पर मेरी सुधियोँ के हिम को रफ्ता-रफ्ता गलने दो।
मेरे भीतर एक नदी है
जो चलने को आकुल है,
खोई हुई किसी मंजिल का घर पाने को व्याकुल है,
इसके पथ के द्वीप साथ यदि चलते होँ तो चलने दो।
पर मेरी सुधियोँ के हिम को रफ्ता-रफ्ता गलने दो।
हिम-खण्डोँ की धीरे-धीरे रिसने की लाचारी है,
पर इनके मन के भीतर की गति कब हिम्मत हारी है, जो न अगति से हारे उसको थोड़ा और सम्हलने दो
मौसम की ठंडी आहेँ जो
जलती होँ तो जलने दो।

Kumar Anil
17-01-2011, 07:31 PM
बहुत सुन्दर रचना , अभिभूत हो गया हूँ ।

Sikandar_Khan
17-01-2011, 07:48 PM
बहुत सुन्दर रचना , अभिभूत हो गया हूँ ।

भाई अनिल जी आपका हार्दिक आभार

Sikandar_Khan
26-01-2011, 10:43 AM
नित्य नए सपने बुनता हूँ
किन्तु साँझ को सिर
झुनता हूँ
बीते सपनोँ जैसा सुन्दर
सपना एक नही बुन पाया।
सन्ध्याओँ ने शब्द उकेरे
रुच-रुच गीत रचे बहुतेरे किन्तु सुबह के सपनोँ वाला कोई गीत नही सुन पाया।
बीते सपनो जैसा सुन्दर सपना एक नही बुन पाया।
भाव लोक मे जितना डूबा भीतर से उतना ही ऊबा।
भूले हुए मधुर भावोँ सा कोई भाव नही गुन पाया।
बीते सपनोँ जैसा सुन्दर सपना एक नहीँ बुन पाया।
जाने क्या सपना बोया था , जाने किस धुन मे खोया था कहने भर ही को धुनिया हूँ पर वह धुन न कभी धुन पाया ।
बीते सपनोँ जैसा, सुन्दर सपना एक नही बुन पाया।

Sikandar_Khan
06-02-2011, 10:57 AM
कटे पंख वाले पंछी सी
तड़प उठी फिर याद पुरानी घुमड़-घुमड़ छाए अन्तस मेँ आकुलता के घन कजरारे
सुधि के क्षितिज छोर
पर दमके
क्षण जीवी बेसुध उजियारे
फिर ज्योँ का त्योँ घुप
अँधियारा
फिर अँधियारे कि मनमानी कटे पंख वाले पंछी सी
तड़प उठी फिर याद पुरानी चातक,मोर, पपीहे मचले मचल मचल कर शांत
हो गए ,
कोलाहल वाले बीते पल
जाने कब एकान्त हो गए, जाने कब से बने हुए हैँ
एकाकी पल अवढ़र दानी।
कटे पंख वाले पंछी सी
तड़प उठी फिर याद पुरानी
यह कया हुआ पीर
को उमड़ी और नयन का
नीर हो गई,
सहमी,ठिठकी और अचानक जाने क्योँ गंभीर हो गई,
पीर कसक की बनी सहेली
और कसक हो गई सयानी।
कटे पंख वाले पंछी सी
तड़प उठी फिर याद पुरानी

Sikandar_Khan
13-02-2011, 03:42 PM
झर कर भी जो पीले न पड़े
कुछ तो सुधि के पातोँ मेँ है
योँ तो मन माने मौसम के
कितने ही तेवर कड़े रहे
फिर भी हठयोगी जैसे ये मौसम के आगे अड़े रहे ,
बढ़ती हैँ बातोँ से बातेँ
कुछ तो इनकी बातोँ मे है ।
कुछ तो सुधि के पातोँ मेँ है ।
हंसकर ये जब कब कहते है
हंसने वाले दिन चले गए
हंसते हंसते ही सुख के दिन दुख के हाथोँ से छले गए ।
गत आवर्तोँ को गति देते
कुछ तो झंझावतोँ मेँ है ।
कुछ तो सुधि के पातोँ मेँ है
संस्मृतियोँ मेँ इनके जगते
सारे संयम खो जाते हैँ ,
चिति के पंखोँ पर उड़ते पल पल मे बेसुध हो जाते है ,
घातोँ , प्रतिघातोँ पर घातेँ
कुछ तो मधुरिम घातोँ मे है कुछ तो सुधि के पातोँ मे है

Sikandar_Khan
27-02-2011, 02:07 AM
कम्पित कम्पित,
पुलकित पुलकित,
परछा*ईं मेरी से चित्रित,
रहने दो रज का मंजु मुकुर,
इस बिन श्रृंगार-सदन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

सपने औ' स्मित,
जिसमें अंकित,
सुख दुख के डोरों से निर्मित;
अपनेपन की अवगुणठन बिन
मेरा अपलक आनन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

जिनका चुम्बन
चौंकाता मन,
बेसुधपन में भरता जीवन,
भूलों के सूलों बिन नूतन,
उर का कुसुमित उपवन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

दृग-पुलिनों पर
हिम से मृदुतर ,
करूणा की लहरों में बह कर,
जो आ जाते मोती, उन बिन,
नवनिधियोंमय जीवन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

जिसका रोदन,
जिसकी किलकन,
मुखरित कर देते सूनापन,
इन मिलन-विरह-शिशु*ओं के बिन
विस्तृत जग का आँगन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।
महादेवी वर्मा

Sikandar_Khan
18-03-2011, 11:10 PM
बूढ़े अंबर से मांगो मत पानी
मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी
धरती की तपन न हुई अगर कम तो
सावन का मौसम आ ही जाएगा।

मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो
उसका कंकड़ से कंचन होना है
जलना है नहीं अगर जीवन में तो
जीवन मरीज़ का एक बिछौना है
अंगारों को मनमानी करने दो
लपटों को हर शैतानी करने दो
समझौता कर न लिया गर पतझर से
आंगन फूलों से छा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

वे ही मौसम को गीत बनाते जो
मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की
हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो
पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की
चिंता क्या जो टूटा हर सपना है
परवाह नहीं जो विश्व न अपना है
तुम ज़रा बांसुरी में स्वर फूंको तो
पपीहा दरवाज़े गा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
जो त्रतुओं की तक़दीर बदलते हैं
वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से
दिल तो उनके होते हैं शबनम के
सीने उनके बनते चट्टानों से
हर सुख को हरजाई बन जाने दो,
हर दुख को परछाई बन जाने दो,
यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न,
क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर
सपनों की चमकीली-सी चिलमन है,
परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है
परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है,
मन के कमरों के दरवाज़े खोलो
कुछ धूप और कुछ आंधी में डोलो
शरमाए पांव न यदि कुछ कांटों से
बेशरम समय शरमा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

VIDROHI NAYAK
19-03-2011, 12:08 AM
अच्छा एक सवाल है सिकन्दर जी ! आप इतनी प्रविष्टियाँ टाईप करते हैं ऐसे में तो बहुत समय लगता होगा ! क्या कोई आपको टोकता नहीं है ?

Sikandar_Khan
19-03-2011, 12:23 AM
अच्छा एक सवाल है सिकन्दर जी ! आप इतनी प्रविष्टियाँ टाईप करते हैं ऐसे में तो बहुत समय लगता होगा ! क्या कोई आपको टोकता नहीं है ?

प्रिय मित्र विनायक जी
कोई मुझे क्यों रोकेगा ?
मै अपने काम निबटा कर ही फोरम पर समय देता हूँ .......

Sikandar_Khan
23-03-2011, 11:29 PM
फिर मन की मुंडेर पर
सुधि का कागा बोल गया |
ठहरे हुवे पलों में फिर
मधुरिम स्पंदन है
उष्मित सांसों का सहचर
बन प्रस्तुत चन्दन है,
खुशबु-खुशबु चन्दन है
रस भरी फुहारें हैं ,
मानों वर्षा में कोई
मधुॠतु को घोल गया |
फिर मन की मुंडेर पर
सुधि का कागा बोल गया |
चित्र उभरने लगे चकित
हिरनी के खंजन के ,
गतिमय हुवे झकोरे
मधुमय रस अनुरंजन के ,
शिखर -शिखर चेतना हुई
अनुभूति चकित विस्मित

कौतूहल के मन में जगा
अचरज डोल गया |
फिर मन की मुंडेर पर
सुधि का कागा बोल गया |

Sikandar_Khan
10-04-2011, 10:35 AM
कम्पित कम्पित,
पुलकित पुलकित,
परछा*ईं मेरी से चित्रित,
रहने दो रज का मंजु मुकुर,
इस बिन श्रृंगार-सदन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

सपने औ' स्मित,
जिसमें अंकित,
सुख दुख के डोरों से निर्मित;
अपनेपन की अवगुणठन बिन
मेरा अपलक आनन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

जिनका चुम्बन
चौंकाता मन,
बेसुधपन में भरता जीवन,
भूलों के सूलों बिन नूतन,
उर का कुसुमित उपवन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

दृग-पुलिनों पर
हिम से मृदुतर ,
करूणा की लहरों में बह कर,
जो आ जाते मोती, उन बिन,
नवनिधियोंमय जीवन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

जिसका रोदन,
जिसकी किलकन,
मुखरित कर देते सूनापन,
इन मिलन-विरह-शिशु*ओं के बिन
विस्तृत जग का आँगन सूना !
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।

Sikandar_Khan
19-04-2011, 11:09 PM
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार
क्यों कर जाती हो प्यार मुझे?
फिर विस्मृति बन तन्मयता का
दे जाती हो उपहार मुझे ।

मैं करके पीड़ा को विलीन
पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ
अब असह बन गया देवि,
तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे ।

माना वह केवल सपना था,
पर कितना सुन्दर सपना था
जब मैं अपना था, और सुमुखि
तुम अपनी थीं, जग अपना था ।

जिसको समझा था प्यार, वही
अधिकार बना पागलपन का
अब मिटा रहा प्रतिपल,
तिल-तिल, मेरा निर्मित संसार मुझे ।

Sikandar_Khan
19-04-2011, 11:18 PM
एकाकीपन का एकांत
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत ।

थकी-थकी सी मेरी साँसें
पवन घुटन से भरा अशान्त,
ऐसा लगता अवरोधों से
यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त ।

अंधकार में खोया-खोया
एकाकीपन का एकांत
मेरे आगे जो कुछ भी वह
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत ।

उतर रहा तम का अम्बार
मेरे मन में व्यथा अपार ।

आदि-अन्त की सीमाओं में
काल अवधि का यह विस्तार
क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर?
एक प्रशन मैं हूँ साकार ।

क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना?
मेरे मन में व्यथा अपार
औ समेटता निज में सब कुछ
उतर रहा तम का अम्बार ।

सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
आज शाम है बहुत उदास ।

जोकि आज था तोड़ रहा वह
बुझी-बुझी सी अन्तिम साँस
और अनिश्चित कल में ही है
मेरी आस्था, मेरी आस ।

जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास ।

ndhebar
08-05-2011, 01:07 PM
कुछ नया करके दिखाने, दम जताने आ गये,
बिल्लियों को जोत चूहे हल चलाने आ गये ।





कोयलों की वाणियों के कद्रदाँ थे जो कभी,

कुछ नया सुनने वो कौओं को बुलाने आ गये ।





इस चुनावी देश में मतदान कुछ ऐसा हुआ,

भेड़िये भी देखिये बहुमत दिखाने आ गये ।





जालिमों की देह पर वह श्वेत जोड़ा फ़ब रहा,

आम जनता को वो फ़िर नंगा नचाने आ गये ।





प्यार के इस गाँव का किसने पता उनको दिया,

वो किधर से गाँव में दंगा मचाने आ गये ।





लाख करके पाप उनको अब जुनूँ सा छा गया,
अब बिना ही वस्त्र वो गंगा नहाने आ गये ।

Sikandar_Khan
14-06-2011, 08:56 PM
गीत मैं गाने लगा हूं,
स्वप्न फिर बुनने लगा हूं।


तमस से मैं जूझता था,
कुछ न मन को सूझता था,
हृदय के सूने गगन में,
सूर्य सा जलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।


आंसुओं के साथ जीते,
वर्ष कितने आज बीते,
भूल कर सारी व्यथाएं,
स्वयं को छलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।


भावनाओं ने उकेरे,
चित्र सुधियों के घनेरे,
कंटकों के बीच सुरभित-
सुमन सा खिलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।

Sikandar_Khan
02-08-2011, 08:18 PM
आज स्वप्न में देख तुम्हें
झंकार उठे वीणा के स्वर
शायद जैसे तुमने मुझको
याद किया अन्तरमन से !
जैसे तड़प उठी हो सजनी ! करके यादें प्यार की !
लगता पहली बार महकती, बगिया अपने प्यार की !


कैसे भूल सकी होगी तुम ?
मिलना पहली बार का !
कैसे सह पायी होगीं इस
तरह बिछड़ना प्यार का ?
लगता कोई सखी सहेली , याद दिलाये प्यार की !
मन में उठती आज महक क्यों सुमुखि हमारे प्यार की


कैसे प्रिये ,छिपा पाऊं यह
प्रीति भला अपने मन में
कैसे भला बता पाऊं
जो टीस उठे मेरे दिल में
मन में आता है बतला दूं , सबको बातें प्यार की !
लगता सारा गगन पढ़ रहा, पोथी अपने प्यार की !


लोग पूंछते तरह तरह के
प्रश्न, लिए शंका मन में ,
किसको क्या बतलाऊं कैसा
रंग चढ़ा ?व्याकुल मन में ,
गली गली में चर्चा चलती, सजनी अपने प्यार की !
लिख लिख बारम्बार फाड़ता , पाती अपने प्यार की !

Sikandar_Khan
26-08-2011, 08:43 PM
गीतों में-
इस पार उस पार
एकांत संगीत
क्या भूलूँ क्या याद करूँ
कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ
कोई पार नदी के गाता
जीवन की आपाधापी में
जो बीत गई सो बात गई
ड्राइंगरूम में मरता हुआ गुलाब
तुम मुझे पुकार लो
दिन जल्दी-जल्दी ढ़लता है
पथ की पहचान
बहुत दिनों पर
मेरा संबल
युग की उदासी
लहरों का निमंत्रण

Sikandar_Khan
26-08-2011, 08:44 PM
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!

अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को
किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!

याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से
अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!

दोनों करके पछताता हूँ,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूँ,
सुधियों के बंधन से कैसे
अपने को आज़ाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!

Sikandar_Khan
24-09-2011, 10:16 PM
चाह तो है शब्द होठों पर स्वयं आ गीत गाये
स्वप्न आँखों में सजे तो हो मुदित वह गुनगुनाये

पॄष्ठ सुधियों के अधूरे, पुस्तकों में सज न पाते
उम्र बीती राग केवल एक, वंशी पर बजाते
हाथ जो ओढ़े हुए थे माँगने की एक मुद्रा
बाँध कर मुट्ठी कहाँ संभव रहा कुछ भी उठाते

कर्ज़ का ले तेल बाती, एक मिट्टी का कटोरा
चाहता है गर्व से वह दीप बन कर जगमगाये

सावनों के बाद कब बहती नदी बरसात वाली
बिन तले की झोलियाँ, रहती रहीं हर बार खाली
मुद्रिकाओं से जुड़े संदेश गुम ही तो हुए हैं
प्रश्न अपने आप से मिलता नहीं होकर सवाली

ओस का कण धूप से मिलता गले तो सोचता है
है नियति उसकी, उमड़ती बन घटा नभ को सजाना

अर्थ तो अनुभूतियों के हैं रहे पल पल बदलते
इसलिये विश्वास अपने, आप को हैं आप छलते
मान्यताओं ने उगाये जिस दिशा में सूर्य अपने
हैं नहीं स्वीकारतीं उनमें दिवस के पत्र झरते

रात के फँदे पिरोता, शाल तम का बुन रहा जो
उस प्रहर की कामना है धूप को वह पथ दिखाये

Sikandar_Khan
30-09-2011, 08:23 PM
अजीब सी खामोशी के साथ धीमी बरसात है

शायद आज फिर से एक लम्बी रात है

निहारती हैं एक टक आँखे बाहर के मौसम को,

फिर से याद आ रही किसी मौसम की हर बात है
वो सुरूर मोहब्बत का, वो आँखों की प्यास

वो बेताब धड़कने, वो मिलने की आस

वो तन्हाईयों में अक्सर उनकी तस्वीर से बातें,

उनसे आँखे टकराने पर वो अजीब सा एहसास
उनके खयालो से मेरा दिल महकता था हर पल

उनके दिखने से मेरे खुशियों में होती थी हलचल

एक झलक के लिए पागल हम कोई अकेले नहीं थे

देख के मौसम को मौसम भी हो जाता था चंचल
जिंदगी खुश थी और मौसम खुशगवार था

पर शायद इतनी खुशियों से वक़्त को इंकार था

जाने क्या सोच कर ठुकरा दिया मौसम ने मुझे

मेरे सामने तो बस सवालों का अंबार था
मौसम में कई नए फूल खिलने लगे थे

जैसे तैसे हम अपने ज़ख्म सिलने लगे थे

अब मौसम के दिल का कुमार कोई और था

कई सवालों के जवाब भी हमे मिलने लगे थे
खैर!!

अब बहुत दूर हो चुके हैं अपनी जिंदगी के रास्ते

शायद दर्द भी ढल जाये यूँ ही अहिस्ते अहिस्ते

जाने क्यूँ समझ नहीं पाया इस छोटी सी बात को

अरे! मौसम तो होता ही है बदलने के वास्ते …

Gaurav Soni
30-09-2011, 08:28 PM
बुहुत खूब मित्र

Sikandar_Khan
25-10-2011, 11:44 AM
सुधियोँ की उल्टी धारा ही कभी उत्स तक ले जाएगी |
सीधी धाराओँ ने भ्रम के सिवा नही कुछ और दिया है ,
मधू-घट पीने की चाहत मे जाने कितना गरल पिया है ,
जिसने भी पाया है उल्टा चलकर ही मधू-घाट पाया है ,
अब यह उल्टी धार चांद के घर से सुधा खीँच लाएगी |
सुधियोँ की उल्टी धारा ही कभी उत्स तक ले जाएगी |
बहाँ त्रास का नाम न होगा होँगे रस-रंजित उजियारे ,
नव-स्फूर्ति दायक पल होँगे
होँगे नहीँ कहीँ , पल हारे ,
जीवन की अनन्त निधि होगी प्राणोँ मेँ वसन्त का आगम , मृग-तृष्णा चिर-तृप्ति मुखी हो अभिनव अमृत-गीत गाएगी |
सुधियोँ की उल्टी धारा ही कभी उत्स तक ले जाएगी |

Dark Saint Alaick
25-10-2011, 12:33 PM
वाह, आप कविराज भी हैं ! आज ही पता लगा ! अच्छे गीत पढ़वाने के लिए शुक्रिया !

Sikandar_Khan
25-10-2011, 12:39 PM
वाह, आप कविराज भी हैं ! आज ही पता लगा ! अच्छे गीत पढ़वाने के लिए शुक्रिया !

नही जी हम तो बस प्रस्तुतकर्ता हैँ रचना तो किसी और की है |

Dark Saint Alaick
25-10-2011, 01:00 PM
नही जी हम तो बस प्रस्तुतकर्ता हैँ रचना तो किसी और की है |


फिर तो यह बेईमानी है ! बेचारे कवियों का क्या दोष कि उनके नाम नदारद हैं !

Sikandar_Khan
25-10-2011, 01:04 PM
फिर तो यह बेईमानी है ! बेचारे कवियों का क्या दोष कि उनके नाम नदारद हैं !

जिनका पता था उनका उल्लेख किया गया है बाकि का नाम मुझे नही पता है
इसलिए not mine ही समझेँ

Dark Saint Alaick
25-10-2011, 01:12 PM
फिर ठीक है ! उन अज्ञात कवियों से प्रार्थना है कि वह आपको माफ़ करें !

Sikandar_Khan
25-10-2011, 01:29 PM
फिर ठीक है ! उन अज्ञात कवियों से प्रार्थना है कि वह आपको माफ़ करें !

मै भी यही उम्मीद रखता हूँ |