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View Full Version : सप्तम सोपान श्लोक(श्रीरामचरितमानस)


ABHAY
09-12-2010, 02:44 PM
श्रीगणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्रीरामचरितमानस

सप्तम सोपान
उत्तरकाण्ड
श्लोक

केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्ढयं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्।।1।।
मोर के कण्ठ की आभा के समान (हरिताभ) नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण (भृगुजी) के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित, शोभा से पूर्ण, पीताम्बरधारी, कमलनेत्र, सदा परम प्रसन्न, हाथों में बाण और धनुष धारण किये हुए वानरसमूह से युक्त भाई लक्ष्मणजी से सेवित स्तुति किये जाने योग्य, श्रीजानकीजी के पति रघुकुल श्रेष्ठ पुष्पक-विमान पर सवार श्रीरामचन्द्रजी को मैं निरन्तर नमस्कार करता हूँ।।1।।

ABHAY
09-12-2010, 07:53 PM
कोसलेन्द्रपदकंजमजंलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृंगसंगनौ।।2।।

कोसलपुरी के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर और कोमल दोनों चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वन्दित हैं, श्रीजानकीजी के करकमलों से दुलराये हुए हैं और चिन्तन करने वाले मनरूपी भौंरे के नित्य संगी हैं अर्थात् चिन्तन करने वालों का मनरूपी भ्रमर सदा उन चरणकमलों में बसा रहता है।।2।।

कुन्दइन्दुरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
कारुणीककलकंजलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्।।3।।

कुन्द के फूल, चन्द्रमा और शंख के समान सुन्दर गौरवर्ण, जगज्जननी श्रीपार्वतीजी के पति, वांछित फलके देनेवाले, [दुखियोंपर सदा] दया करनेवाले, सुन्दर कमलके समान नेत्रवाले, कामदेव से छुड़ानेवाले, [कल्याणकारी] श्रीशंकरजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।3।।

दो.-रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग।।

[श्रीरामजीके लौटने की] अवधिका एक ही दिन बाकी रह गया, अतएव नगरके लोग बहुत आतुर (अधीर) हो रहे हैं। राम के वियोग में दुबले हुए स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ सोच (विचार) कर रहे हैं [कि क्या बात है, श्रीरामजी क्यों नहीं आये]।

सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर।।

इतने में ही सब सुन्दर शकुन होने लगे और सबके मन प्रसन्न हो गये। नगर भी चारो ओर से रमणीक हो गया। मानो ये सब-के-सब चिह्न प्रभु के [शुभ] आगमन को जना रहे हैं।

ABHAY
09-12-2010, 07:55 PM
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोई।।

कौसल्या आदि सब माताओं के मन में ऐसा आनन्द हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी आ गये।।

भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार।।

भरतजी की दाहिनी आँख और दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके मनमें अत्यन्त हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे-

चौ.-रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा।।
कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।1।।

प्राणों की आधाररूप अवधि का एक दिन शेष रह गया! यह सोचते ही भरत जी के मनमें अपार दुःख हुआ। क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आये ? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया ?।।1।।

ABHAY
09-12-2010, 07:57 PM
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।2।।

अहा ! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं; जो श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं (अर्थात् उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया!।।2।।

जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।3।।

[बात भी ठीक ही है, क्योंकि] यदि प्रभु मेरी करनी पर ध्यान दें तो सौ करोड़ (असंख्य) कल्पोंतक भी मेरा निस्तार (छुटकारा) नहीं हो सकता। [परन्तु आशा इतनी ही है कि] प्रभु सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबन्धु हैं और अत्यन्त ही कोमल स्वभाव के हैं।।3।।

मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।।
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना।।4।।

अतएव मेरे हृदय में ऐसा पक्का भरोसा है कि श्रीरामजी अवश्य मिलेंगे [क्योंकि] मुझे शकुन बड़े शुभ हो रहे हैं। किन्तु अवधि बीत जानेपर यदि मेरे प्राण रह गये तो जगत् में मेरे समान नीच कौन होगा ?।।4।।

ABHAY
09-12-2010, 08:00 PM
दो.-राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत।।1क।।

श्रीरामजी के विरह-समुद्र में भरत जी का मन डूब रहा था, उसी समय पवन पुत्र हनुमान् जी ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ गये, मानो [उन्हें डूबने से बचाने के लिये] नाव आ गयी हो।।1(क)।।

बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलपात।।1ख।।

हनुमान् जी ने दुर्बल शरीर भरतजी को जटाओं का मुकुट बनाये, राम ! राम ! रघुपति ! जपते और कमल के समान नेत्रों से [प्रेमाश्रुओंका] जल बहाते कुश के आसन पर बैठे देखा।।1(ख)।।

ABHAY
09-12-2010, 08:01 PM
चौ.-देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ।।
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी।।1।।

उन्हें देखते ही हनुमान् जी अत्यन्त हर्षित हुए। उनका शरीर पुलकित हो गया, नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बरसने लगा। मन में बहुत प्रकार से सुख मानकर वे कानों के लिये अमृतके समान वाणी बोले-।।1।।

जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती।।
रघुकुल तिलक सुजन सुखादात। आयउ कुसल देव मुनि त्राता।।2।।

जिनके विरह में आप दिन-रात सोच करते (घुलते) रहते हैं और जिनके गुण-समूहोंकी पंक्तियोंको आप निरन्तर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को सुख देनेवाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक श्रीरामजी सकुशल आ गये।।2।।

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।
सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा।।3।।

शत्रु को रण में जीतकर सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु आ रहे हैं; देवता उनका सुन्दर यश गान कर रहे हैं। ये वचन सुनते ही [भरतजीको] सारे दुःख भूल गये। जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यासके दुःख को भूल जाय।।3।।

को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।।
मारुत सुत मैं कपि हनूमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना।।4।

[भरतजीने पूछा-] हे तात ! तुम कौन हो ? और कहाँ से आये हो ? [जो] तुमने मुझको [ये] परम प्रिय (अत्यन्त आनन्द देने वाले वचन सुनाये [हनुमान् जी ने कहा-] हे कृपानिधान ! सुनिये; मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूँ; मेरा नाम हनुमान् है।।4।।

ABHAY
09-12-2010, 08:05 PM
दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर।।
मिलत प्रेम नहिं हृदय समाता। नयन स्रवत जल पुलकित गाता।।5।।

मैं दीनों के बन्धु श्रीरघुनाथजी का दास हूँ। यह सुनते ही भरत जी उठकर आदरपूर्वक हनुमान् जी से गले लगकर मिले। मिलते समय प्रेम हृदय में नहीं समाता। नेत्रों से [आनन्द और प्रेमके आँसुओंका] जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया।।5।।

कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते।।
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता।।6।।

[भरतजीने कहा-] हे हनुमान् ! तुम्हारे दर्शन से मेरे समस्त दुःख समाप्त हो गये (दुःखों का अन्त हो गया)। [तुम्हारे रूपमें] आज मुझे प्यारे राम जी मिल गये। भरतजी ने बार बार कुशल पूछी [और कहा-] हे भाई ! सुनो; [इस शुभ संवाद के बदले में] तुम्हें क्या दूँ ?।।6।।

एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।7।।

इस सन्देश के समान (इसके बदल में देने लायक पदार्थ) जगत् में कुछ भी नहीं है, मैंने यह विचार कर देख लिया है। [इसलिये] हे तात ! मैं तुमसे किसी प्रकार भी उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभु का चरित्र (हाल) सुनाओ।।7।।

तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा।।
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।।8।।

तब हनुमान् जी ने भरत जी के चरणों में मस्तक नवाकर श्रीरघुनाथजी की सारी गुणगाथा कही। [भरतजीने पूछा-] हे हनुमान् ! कहो, कृपालु स्वामी श्रीरामचन्द्रजी कभी मुझे अपने दास की तरह याद भी करते हैं ?।।8।।

छं.-निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो।।
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंध सो।।

रघुवंश के भूषण श्रीरामजी क्या कभी अपने दासकी भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं ? भरतजी के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर हनुमान् जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणोंपर गिर पड़े [और मन में विचारने लगे कि] जो चराचर के स्वामी हैं वे श्रीरघुवीर अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं, वे भरतजी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों ?

ABHAY
09-12-2010, 08:07 PM
दो.-राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदय समात।।2क।।

[हनुमान् जी ने कहा-] हे नाथ ! आप श्रीरामजी को प्राणों के समान प्रिय हैं, हे तात ! मेरा वचन सत्य है। यह सुनकर भरत जी बार-बार मिलते हैं, हृदय हर्ष समाता नहीं है।।2(क)।।

सो.- भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि।।2ख।।

फिर भरत जी के चरणों में सिर नवाकर हनुमान् जी तुरंत ही श्रीरामजी के पास [लौट] गये और जाकर उन्होंने सब कुशल कही। तब प्रभु हर्षित होकर विमान पर चढ़कर चले।।2(ख)।।

ABHAY
09-12-2010, 08:10 PM
चौ.-हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए।।
पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई।।1।।

इधर भरतजी हर्षित होकर अयोध्यापुरी आये और उन्होंने गुरु जी को सब समाचार सुनाया ! फिर राजमहल में खबर जनायी कि श्रीरघुनाथजी कुशलपूर्वक नगरको आ रहे हैं।।1।।

सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाईं।।
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए।।2।।

खबर सुनते ही सब माताएँ उठ दौड़ीं। भरत जीने प्रभु की कुशल कहकर सबको समझाया। नगरवासियों ने यह समाचार पाया, तो स्त्री-पुरुष सभी हर्षित होकर दौड़े।।2।।

दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला।।
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलि सिंधुरगामिनि।।3।।

[श्रीरघुनाथजी के स्वागत के लिये] दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मंगल के मूल नवीन तुलसीदल आदि वस्तुएँ सोने के थालोंमें भर-भरकर हथिनीकी-सी चालवली सौभाग्यवती स्त्रियाँ] उन्हें लेकर] गाती हुई चलीं।।3।।

जे जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं।।
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई।।4।।

जो जैसे हैं (जहाँ जिस दशामें हैं)। वे वैसे ही (वहीं उसी दशामें) उठ दौड़ते हैं। [देर हो जाने के डर से] सबालकों और बूढ़ों को कोई साथ नहीं लाते। एक दूसरे से पूछते हैं-भाई ! तुमने दयालु श्रीरघुनाथजीको देखा है?।।4।।

अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल शोभा कै खानी।।
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा।।5।।

प्रभुको आते जानकर अवधपुरी सम्पूर्ण शोभाओंकी खान हो गयी। तीनों प्रकारकी सुन्दर वायु बहने लगी। सरयूजी अति जलवाली हो गयीं (अर्थात् सरयूजीका जल अत्यन्त निर्मल हो गया)।।5।।

ABHAY
09-12-2010, 08:12 PM
दो.-हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत।।3क।।

गुरु वसिष्ठजी, कुटुम्बी, छोटे भाई शत्रुघ्न तथा ब्राह्मणों के समूहके साथ हर्षित होकर भरतजी अत्यन्त प्रेमपूर्ण मन से कृपाधाम श्रीरामजीके सामने (अर्थात् अगवानीके लिये) चले।।3(क)।।

बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान।।3ख।।

बहुत-सी स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ी आकाशमें विमान देख रही है और उसे देखकर हर्षित होकर मीठे स्वर से सुन्दर मंगलगीत गा रही हैं।।3(ख)।।

राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखु हरषान।
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान।।3ग।।

श्रीरघुनाथजी पूर्णिमा के चन्द्रमा हैं, तथा अवधपुर समुद्र है, जो उस पूर्णचन्द्रको देखकर हर्षित हो रहा है और शोक करता हुआ बढ़ रहा है [इधर-उधर दौड़ती हुई] स्त्रियाँ उसी तरंगोंके समान लगती है।।3(ग)।।

ABHAY
09-12-2010, 08:14 PM
चौ.-इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर।।
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा।।1।।

यहाँ (विमान पर से) सूर्यकुलरूपी कमल के प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामजी वानरोंको मनोहर नगर दिखला रहे हैं। [वे कहते है-] हे सुग्रीव ! हे अंगद ! हे लंकापति विभीषण ! सुनो। यह पुरी पवित्र है और यह देश सुन्दर है।।1।।

जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदितजगु जाना।।
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।2।।

यद्यपि सबने वैकुण्ठकी बड़ाई की है-यह वेद पुराणोंमें प्रसिद्ध है और जगत् जानता है, परन्तु अवधपुरीके समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है। यह बात (भेद) कोई-कोई (विरले ही) जानते हैं।।2।।

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनी। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।।
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा।।3।।

यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है। उसके उत्तर दिशामें [जीवोंको] पवित्र करने वाली सरयू नदी बहती है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य बिना ही परिश्रम मेरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं।।3।।

अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी।।
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी।।4।।

यहाँ के निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधामको देनेवाली है। प्रभुकी वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए [और कहने लगे कि] जिस अवध की स्वयं श्रीरामजीने बड़ाई की, वह [अवश्य ही] धन्य है।।4।।

ABHAY
09-12-2010, 08:16 PM
दो.-आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ भूमि बिमान।।4क।।

कृपासागर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने सब लोगों को आते देखा, तो प्रभुने विमानको नगरके समीप उतरने की प्रेरणा की। तब वह पृथ्वी पर उतरा।।4(क)।।

उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु।।4ख।।

विमान से उतरकर प्रभुने पुष्पकविमानसे कहा कि तुम अब कुबेर के पास जाओ। श्रीरामजीकी प्रेरणा से वाहक चले। उसे, [अपने स्वमीके पास जानेका] हर्ष है और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीसे अलग होनेका अत्यन्त दुःख भी।।4(ख)।।

ABHAY
09-12-2010, 08:18 PM
चौ.-आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा।।
बामदेव बसिष्ट मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक।।1।।

भरतजीके साथ सब लोग आये। श्रीरघुवीरके वियोगसे सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभुने वामदेव, वसिष्ठ आदि मुनिश्रेष्ठोंको देखा, तो उन्होंने धनुष-बाण पृथ्वीपर रखकर-।।1।।

धाइ धरे गुर चरन सरोरूह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह।।
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया।।2।।

छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित दौड़कर गुरु जी के चरणकमल पकड़ लिये; उनके रोम-रोम अत्यन्त पुलकित हो गये हैं। मुनिराज वसिष्ठजी ने [उठाकर] उन्हें गले लगाकर कुशल पूछी। [प्रभु ने कहा-] आपहीकी दयामें हमारी कुशल है।।2।।

सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा।।
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज।।3।।

धर्मकी धुरी धारण करनेवाले रघुकुलके स्वामी श्रीरामजीने सब ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें मस्तक नवाया। फिर भरतजीने प्रभुके चरणकमल पकड़े जिन्हें देवता, मुनि, शंकरजी और ब्रह्मा जी [भी] नमस्कार करते हैं।।3।।

परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए।।
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े।।4।।

भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं, उठाये उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्रीरामजीने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। [उनके] साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गये। नवीन कमलके समान नेत्रओंमें [प्रेमाश्रुओंके] जलकी बाढ़ आ गयी।।4।।

छं.-राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी।।
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही।।1।।

कमलके समान नेत्रों से जल बह रहा है। सुन्दर शरीर से पुलकावली [अत्यन्त] शोभा दे रही है। त्रिलोकी के स्वामी प्रभु श्रीरामजी छोटे भाई भरत जी को अत्यन्त प्रेमसे हृदय से लगाकर मिले। भाई से मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं उसकी उपमा मुझसे कहीं नहीं जाती। मानो प्रेम और श्रृंगार शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभाको प्राप्त हुए।।1।।

ABHAY
09-12-2010, 08:20 PM
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई।।
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो।।2।।

कृपानिधान श्रीरामजी भरतजी से कुशल पूछते हैं; परन्तु आनन्दवश भरतजीके मुखसे वचन शीघ्र नहीं निकलते। [शिवजीने कहा-] हे पार्वती ! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजीको मिल रहा था) वचन और मन से परे हैं; उसे वही जानता है जो उसे पाता है। [भरतजीने कहा-] हे कोसलनाथ ! आपने आर्त (दुखी) जानकर दासको दर्शन दिये है, इससे अब कुशल है। विरहसमुद्रमें डूबते हुए मुझको कृपानिधान हाथ पकड़कर बचा लिया !।।2।।

दो.-पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदय लगाइ।।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ।।5।।

फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजीको हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले।।5।।

चौ.-भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे।।
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा।।1।।

फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्न जी से गले लगकर मिले औऱ इस प्रकार विरहसे उत्पन्न दुःखका नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजीसहित भरतजीने सीताजीके चरणोंमें सिर नवाया और परम सुख प्राप्त किया।।1।।

प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोगबिपति सब नासी।।
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।2।।

प्रभुको देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए। वियोगसे उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गये। सब लोगों को प्रेमविह्लय [और मिलनेके लिये अत्यन्त आतुर] देखकर खरके शत्रु कृपालु श्रीरामजीने एक चमत्कार किया।।2।।

अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।3।।

उसी समय कृपालु श्रीरामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गये और सबसे [एक ही साथ] यथायोग्य मिले। श्रीरघुवीरने कृपाकी दृष्टिसे देखकर सब नर-नारियों को शोकसे रहित कर दिया।।3।।

ABHAY
09-12-2010, 08:22 PM
छन महिं सबहिं मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना।।
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा।।4।।

भगवान् क्षण मात्र में सबसे मिल लिये। हे उमा! यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। इस प्रकार शील और गुणों के धाम श्रीरामजी सबको सुखी करके आगे बढ़े।।4।।

कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई।।5।।

कौसल्या आदि माताएँ ऐसे दौड़ीं मानो नयी ब्यायी हुई गौएँ अपने बछड़ों को देखकर दौंड़ी हों।।5।।

छं.-जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
दिन अंत पुर रुख स्रवत थन हुंकार करि धावत भईं।।
अति प्रेम प्रभु सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गइ बिषम बिपति बियोगभव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे।।

मानो नयी ब्यायी हुई गौएँ अपने छोटे बछड़ों को घर पर छोड़ परवश होकर वनमें चरने गयी हों और दिन का अन्त होने पर [बछड़ोंसे मिलने के लिये] हुंकार करके थन से दूध गिराती हुई नगर की ओर दौड़ीं हों। प्रभु ने अत्यन्त प्रेमसे सब माताओंसे मिलकर उनसे बहुत प्रकार के कोलल वचन कहे। वियोगसे उत्पन्न भयानक विपत्ति दूर हो गयी और सबने [भगवान् से मिलकर और उनके वचन सुनकर] अगणित सुख और हर्ष प्राप्त किये।

ABHAY
09-12-2010, 08:24 PM
दो.-भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकई हृदय बहुत सकुचानि।।6क।।

सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजीकी श्रीरामजीके चरणों में प्रीति जानकर उनसे मिलीं। श्रीरामजीसे मिलते समय कैकेयीजी हृदय में बहुत सकुचायीं।।6(क)।।

लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ।।6ख।।

लक्ष्मणजी भी सब माताओंसे मिलकर और आशीर्वाद पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयी जी से बार-बार मिले, परन्तु उनके मनका क्षोभ (रोष) नहीं जाता।।6(ख)।।

ABHAY
09-12-2010, 08:25 PM
चौ.-सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही।।
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता।।1।।

जानकीजी सब सासुओं से मिलीं और उनके चरणों लगकर उन्हें अत्यन्त हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल पूछकर आशिष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो।।1।।

सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं।।
कनक थार आरती उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं।।2।।

सब मातएँ श्रीरघुनाथजीका कमल-सा मुखड़ा देख रही हैं। [नेत्रोंसे प्रेमके आँसू उमड़े आते हैं; परन्तु] मंगलका समय जानकर वे आँसुओंके जलको नेत्रोंमें ही रोक रखती हैं। सोनेके थाल से आरती उतारती हैं और बार-बार प्रभुके श्री अंगोकी ओर देखती हैं।।2।।

नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं।।
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि।।3।।

अनेकों प्रकार की निछावरें करती हैं और हृदय में परमानन्द तथा हर्ष भर रही हैं। कौसल्याजी बार-बार कृपाके समुद्र और रणधीर श्रीरघुवीर को देख रही हैं।।3।।

हृदय बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा।।
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे।।4।।

वे बार-बार हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने लंका पति रावणको कैसे मारा ? मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो बड़े भारी योद्धा और महान् बली थे।।4।।

ABHAY
09-12-2010, 08:27 PM
दो.-लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकित मातु।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु।।7।।

लक्ष्मणजी और सीताजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको माता देख रही हैं। उनका मन परमानन्द में मग्न है और शरीर बार बार पुलकित हो रहा है।।7।।

चौ.- लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला।।
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा।।1।।

लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान् और अंगद तथा हनुमान् जी आदि सभी उत्तम स्वभाव वाले वीर वानरोंने मनुष्योंके मनोहर शरीर धारण कर लिये।।1।।

भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा।।
देखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीति।।2।।

वे सब भरत जी के प्रेम, सुन्दर स्वभाव, [त्यागके] व्रत और नियमों की अत्यन्त प्रेमसे आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं। और नगरनिवासियों की [प्रेम, शील और विनयसे पूर्ण] रीति देखकर वे सब प्रभुके चरणोंमें उनके प्रेमकी सराहना कर रहे हैं।।2।।

पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए।।
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे।।3।।

फिर श्रीरघुनाथजीने सब सखाओंको बुलाया और सबको सिखाया कि मुनि के चरणों में लगो। ये गुरु वसिष्ठजी हमारे कुलभर के पूज्य हैं। इन्हीं की कृपा से रणमें राक्षस मारे गये हैं।।3।।

ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।4।।

[फिर गुरुजीसे कहा-] हे मुनि ! सुनिये। ये सब मेरे सखा हैं। ये संग्रामरूपी समुद्र में मेरे लिये बेड़े (जहाज) के समान हुए। मेरे हित के लिये इन्होंने अपने जन्मतक हार दिये। (अपने प्राणोंतक को होम दिया)। ये मुझे भरतसे भी अधिक प्रिय हैं।।4।।

सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमि। निमिष उपजत सुख नए।।5।।

प्रभुके वचन सुनकर सब प्रेम और आनन्द में मग्न हो गये। इस प्रकार पल-पल में उन्हें नये-नये सुख उत्पन्न हो रहे हैं।।5।।

ABHAY
09-12-2010, 08:28 PM
दो.-कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ।।8क।।

फिर उन लोगों ने कौसल्या जी के चरणोंमें मस्तक नवाये। कौसल्याजीने हर्षित होकर आशिषें दीं [और कहा-] तुम मुझे रघुनाथ के समान प्यारे हो।।8(क)।।

सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद।।8ख।।

आनन्दकन्द श्रीरामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की बृष्टि से छा गया। नगरके स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं।।8(ख)।।

चौ.-कंचन कलस बिचित्र संवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।।
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।।1।।

सोनेके कलशों को विचित्र रीतिसे [मणि-रत्नादिसे] अलंकृत कर और सजाकर सब लोगोंने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगलके लिये बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगायीं।।1।।

बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।।
नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।।2।।

सारी गलियाँ सुगन्धित द्रवोंसे सिंचायी गयीं। गजमुक्ताओंसे रचकर बहुत-सी चौकें पुरायी गयीं अनेकों प्रकारके के सुन्दर मंगल-साज सजाये गये औऱ हर्षपूर्वक नगरमें बहुत-से डंके बजने लगे।।2।।

जहँ तहँ नारि निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं।।
कंचन थार आरतीं नाना। जुबतीं सजें करहिं सुभ गाना।।3।।

स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ निछावर कर रही है, और हृदय में हर्षित होकर आशीर्वाद देती है। बहुत-सी युवती [सौभाग्यवती] स्त्रियाँ सोने के थालोंमें अनेकों प्रकारकी आरती सजकर मंगलगान कर रही है।।3।।

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।।
पुर शोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना।।4।।

वे आर्तिहर (दुःखोंको हरनेवाले) और सूर्यकुलरूपी कमलवनके प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामजीकी आरती कर रही हैं। नगरकी शोभा, सम्पत्ति और कल्याणका वेद शेषजी और सरस्वती वर्णन करते हैं-।।4।।

तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं।।5।।

परन्तु वे भी यह चरित्र देखकर ठगे-से रह जाते हैं (स्तम्भित हो रहते हैं)। [शिवजी कहते हैं-] हे उमा ! तब भला मनुष्य उनके गुणोंको कैसे कह सकते हैं।।5।।

ABHAY
09-12-2010, 08:32 PM
दो.-नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस।।9क।।

स्त्रियाँ कुमुदनीं हैं, अयोध्या सरोवर है और श्रीरघुनाथजीका विरह सूर्य है [इस विरह सूर्य के ताप से वे मुरझा गयी थीं]। अब उस विरह रूपी सूर्य के अस्त होनेपर श्रीरामरूपी पूर्णचन्द्रको निरखकर वे खिल उठीं।।9(क)।।

होहिं सगुन सुभ बिबिधि बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान।।9ख।।

अनेक प्रकार के शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाशमें नगाड़े बज रहे हैं। नगर के पुरुषों और स्त्रियों को सनाथ (दर्शनद्वारा कृतार्थ) करके भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महल को चले ।।9(ख)।।

चौ.-प्रभु जानी कैकई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी।।
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।1।।

[शिवजी कहते हैं-] हे भवानी ! प्रभुने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गयी हैं। [इसलिये] वे पहले उन्हीं के महल को गये और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर श्रीहरिने अपने महलको गमन किया।।1।।

कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए।।
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई।।2।।

कृपाके समुद्र श्रीरामजी जब अपने महल को गये, तब नगरके स्त्री-पुरुष सब सुखी हुए। गुरु वसिष्ठ जीने ब्राह्मणों को बुला लिया [और कहा-] आज शुभ घड़ी, सुन्दर दिन आदि सभी शुभ योग हैं।।2।।

सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन।।
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए।।3।।

आप सब ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिये, जिसमें श्रीरामचन्द्रजी सिंहासनपर विराजमान हों। वसिष्ठ मुनिके सुहावने वचन सुनते ही सब ब्राह्मणोंको बहुत ही अच्छे लगे।।3।।

कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका।।
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजै। महाराज कहँ तिलक करीजै।।4।।

वे सब अनेकों ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि श्रीरामजीका राज्याभिषेक सम्पूर्ण जगत् को आनन्द देनेवाला है। हे मुनिश्रेष्ठ ! अब विलम्ब न कीजिये और महाराजका तिलक शीघ्र कीजिये।।4।।

ABHAY
09-12-2010, 08:33 PM
दो.-तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ।।10क।।

तब मुनिने सुमन्त्र जी से कहा, वे सुनते ही हर्षित हो चले। उन्होंने तुरंत ही जाकर अनेकों रथ, घोड़े औऱ हाथी सजाये; ।।10(क)।।

जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ।।10ख।।

और तहाँ-तहाँ [सूचना देनेवाले] दूतों को भेजकर मांगलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर हर्षके साथ आकर वसिष्ठ जी के चरणों में सिर नवाया।।10(ख)।।

ABHAY
09-12-2010, 08:35 PM
नवाह्रपारायण, आठवाँ विश्राम

चौ.-अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई।।
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई।।1।।

अवधपुरी बहुत ही सुन्दर सजायी गयी देवताओंने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी। श्रीरामन्द्रजीने सेवकोंको बुलाकर कहा कि तुमलोग जाकर पहले मेरे सखाओंको स्नान कराओ।।1।।

सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए।।
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे।।2।।

भगवान् के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया। फिर करुणानिधान श्रीरामजीने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओंको अपने हाथोंसे सुलझाया।।2।।

ABHAY
17-12-2010, 09:02 AM
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई।।
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई।।3।।

तदनन्तर भक्तवत्सल कृपालु प्रभु श्रीरघुनाथजीने तीनों भाइयों को स्नान कराया। भरत जी का भाग्य कोमलताका वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते।।3।।

पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए।।
करि मज्जन प्रभु भूषण साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे।।4।।

फिर श्रीरामजीने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजीकी आज्ञा माँगकर स्नान किया। स्नान करके प्रभुने आभूषण धारण किये। उनके [सुशोभित] अंगोंको देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गये।।4।।

ABHAY
17-12-2010, 09:02 AM
दो.-सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ।।11क।।

[इधर] सासुओंने जानकीजी को आदरके साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अंग-अंगमें दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भलीभाँति सजा दिये (पहना दिये)।।11(क)।।

राम बाम दिसि सोभति रमा रुप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि।।11ख।।

श्रीरामजीके बायीं ओर रूप और गुणोंकी खान रमा (श्रीजानकीजी) शोभित हो रही हैं। उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं।।11(ख)।।

सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद।।11ग।।

[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये; उस समय ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियों के समूह तथा विमानोंपर चढ़कर सब देवता आनन्दकन्द भगवान् के दर्शन करने के लिये आये।।11(ग)।।

ABHAY
17-12-2010, 09:06 AM
चौ.-प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।1।।

प्रभुको देखकर मुनि वसिष्ठ जी के मन में प्रेम भर आया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्यके समान था। उसका सौन्दर्य वर्णन नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्रीरामचन्द्रजी उसपर विराज गये।।1।।

जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।।
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।2।।

श्रीजानकीजीके सहित श्रीरघुनाथजीको देखकर मुनियों का समुदाय अत्यन्त ही हर्षित हुआ। तब ब्राह्मणों ने वेदमन्त्रोंका उच्चारण किया। आकाशमें देवता और मुनि जय हो, जय हो ऐसी पुकार करने लगे।।2।।

प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।3।।

[सबसे] पहले मुनि वसिष्ठजीने तिलक किया। फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को [तिलक करनेकी] आज्ञा दी। पुत्रको राजसिंहासनपर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी।।3।।

बिप्रन्ह दान बिबिधि बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे।।
सिंघासन पर त्रिभुवन साईं। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं।।4।।

उन्होंने ब्राह्मणों को अनेकों प्रकारके दान दिये और सम्पूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया)। त्रिभुवन के स्वामी श्रीरामचन्द्रजीको [अयोध्या के ] सिंहासन पर [विराजित] देखकर देवताओंने नगाड़े बजाये।।4।।

ABHAY
17-12-2010, 09:08 AM
छं.-नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।।
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते।।1।।

आकाशमें बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराओंके झुंड-के-झुंड नाच रहे हैं। देवता और मुनि परमानन्द प्राप्त कर रहे हैं। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी, विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदिसहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और सक्ति लिये हुए सुशोभित हैं।।1।।

श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छबि सोहई।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।।
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।।2।।

श्रीसीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्रीरामजीके शरीर में अनेकों कामदेवों छवि शोभा दे रही है। नवीन जलयुक्त मेघोंके समान सुन्दर श्याम शरीरपर पीताम्बर देवताओंके के मन को मोहित कर रहा है मुकुट बाजूबंद आदि बिचित्र आभूषण अंग अंग में सजे हुए है। कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं; जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं।।2।।

Hamsafar+
17-12-2010, 10:02 AM
!! जय श्री राम !!