manishsqrt
25-07-2015, 09:11 AM
आज कल हमारे देश में नेताओ और उनके कार्यकर्ताओ के बीच एक प्रतिस्पर्धा बड़ी जोरो पर है, ये प्रतिस्पर्धा है तानो की, जिसे देखो एक दुसरे पर ताने कसने में लगा है .
खैर ये कोई नई बात नहीं है, सदियों से ऐसा होता आ रहा है, पर इस बार इन तानो को सुनते सुनते जनता के कान पाक गए है, या यो कहे की मीडिया ने जबरदस्ती सुना के पका दिए है.
मीडिया की शिकायत करो तो पत्रकार भाई लोग आँख दिखा के सलाह देने लगते है की इतना ही बुरा लगता है तो टीवी बंद करदो मत देखो, तुम्हारे लिए मै अपनी नौकरी छोड़ दू की बिजनेस बंद कर दू, खैर उनसे बहस करके फायदा भी क्या, अब उन्हें कौन समझाए की उनके समाचार देखने टीवी पर नहीं जाते, जाते तो फिल्मे या गाने या सीरियल देखने जाते है, अब उन्होंने हर दो चार मनोरंजक चैनल के बीच में अपने पत्रकार घुसेड दिए है, तो मज़बूरी बन जाती है, चैनल बदलते रहो तो ये साहब लोग बीच में आ ही जाते है.खैर उन्हें छोड़िये
तो मै बात कर रहा था व्यंग और तानो की , मैंने काफी चिंतन किया इस विषय पर की आखिर इन दोनों में फर्क क्या है, दोनों जुद्वे भाई लगते है और तानो की सजा अक्सर व्यंग को मिलती है, और व्यंग के पीछे छिप के अक्सर लोग ताने मारते रहते है.
हाल ही में मैंने दैनिक जागरण में भाई साहब कार्टून में पढ़ा की जब नितीश ने इशारो में दोहे के माध्यम से भाजपा को भुजंग और खुद को चन्दन कहना चाहा , तो मीडिया ने खिल्ली उड़ानी चाही की लालू को कह रहे है, जब लालू ने सफाई दी तो मीडिया वाले झेंप गए और उस कार्टून के माध्यम से नितीश पर ताना कसा की बस आपको छोड़ कर बाकि सब समझ रहे है की किसे भुजंग कहा गया है, अब आप सोचिये की क्या ये संभव है की कहने वाले को ही अर्थ न पता हो, वो तो चूँकि मीडिया इन दोनों को लड़ता देखने के लिए बौराई है इसी से इन दोनों ने ये मजा लिया.
अब जागरण के उस कार्टून ने जो मारा उसे ताना कहते है क्युकी वो व्यक्ति केन्द्रित था, सीधे सीधे नितीश का कार्टून छपा था, जबकि व्यंग इसीसे थोडा अलग होता है, वह किसी व्यक्ति विशेष पर केन्द्रित नहीं होता, उदहारण दू तो पिपली लाइव जैसी फिल्मे.व्यंग का उद्देश्य दुःख का मजाक उड़ना होता है, नाकि व्यक्ति का, पर इन दोनों में फर्क बहुत मामूली है और इसी का फायदा लोग उठाते रहते है, एक को दूसरा बताने के लिए.
खैर ये कोई नई बात नहीं है, सदियों से ऐसा होता आ रहा है, पर इस बार इन तानो को सुनते सुनते जनता के कान पाक गए है, या यो कहे की मीडिया ने जबरदस्ती सुना के पका दिए है.
मीडिया की शिकायत करो तो पत्रकार भाई लोग आँख दिखा के सलाह देने लगते है की इतना ही बुरा लगता है तो टीवी बंद करदो मत देखो, तुम्हारे लिए मै अपनी नौकरी छोड़ दू की बिजनेस बंद कर दू, खैर उनसे बहस करके फायदा भी क्या, अब उन्हें कौन समझाए की उनके समाचार देखने टीवी पर नहीं जाते, जाते तो फिल्मे या गाने या सीरियल देखने जाते है, अब उन्होंने हर दो चार मनोरंजक चैनल के बीच में अपने पत्रकार घुसेड दिए है, तो मज़बूरी बन जाती है, चैनल बदलते रहो तो ये साहब लोग बीच में आ ही जाते है.खैर उन्हें छोड़िये
तो मै बात कर रहा था व्यंग और तानो की , मैंने काफी चिंतन किया इस विषय पर की आखिर इन दोनों में फर्क क्या है, दोनों जुद्वे भाई लगते है और तानो की सजा अक्सर व्यंग को मिलती है, और व्यंग के पीछे छिप के अक्सर लोग ताने मारते रहते है.
हाल ही में मैंने दैनिक जागरण में भाई साहब कार्टून में पढ़ा की जब नितीश ने इशारो में दोहे के माध्यम से भाजपा को भुजंग और खुद को चन्दन कहना चाहा , तो मीडिया ने खिल्ली उड़ानी चाही की लालू को कह रहे है, जब लालू ने सफाई दी तो मीडिया वाले झेंप गए और उस कार्टून के माध्यम से नितीश पर ताना कसा की बस आपको छोड़ कर बाकि सब समझ रहे है की किसे भुजंग कहा गया है, अब आप सोचिये की क्या ये संभव है की कहने वाले को ही अर्थ न पता हो, वो तो चूँकि मीडिया इन दोनों को लड़ता देखने के लिए बौराई है इसी से इन दोनों ने ये मजा लिया.
अब जागरण के उस कार्टून ने जो मारा उसे ताना कहते है क्युकी वो व्यक्ति केन्द्रित था, सीधे सीधे नितीश का कार्टून छपा था, जबकि व्यंग इसीसे थोडा अलग होता है, वह किसी व्यक्ति विशेष पर केन्द्रित नहीं होता, उदहारण दू तो पिपली लाइव जैसी फिल्मे.व्यंग का उद्देश्य दुःख का मजाक उड़ना होता है, नाकि व्यक्ति का, पर इन दोनों में फर्क बहुत मामूली है और इसी का फायदा लोग उठाते रहते है, एक को दूसरा बताने के लिए.