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View Full Version : ~!!महाभारत!!~


ABHAY
08-01-2011, 05:00 PM
~!!महाभारत!!~

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7849&stc=1&d=1294491247
महाभारत महाकाव्य की हस्तलिखित पाण्डुलिपि
अन्य प्रसिद्ध नाम : भारत,जय
लोकप्रियता : भारत, नेपाल, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, जकार्ता, थाइलैंड, तिब्बत, म्यान्मार
रचयिता : वेदव्यास
लेखक : गणेश
प्रचारक : वैशम्पायन,सूत,जैमिनि,पैल
ग्रंथ का परिमाण

श्लोक संख्या(लम्बाई) : १,१०,००० - १,४०,०००
रचना काल : ३१०० - १२०० ईसा पूर्व
१)वेदव्यास द्वारा १०० पर्वो में ३१०० ईसा पूर्व
२)सूत द्वारा १८ पर्वो में २००० ईसा पूर्व
३)आधुनिक लिखित अवस्था में १२००-६०० ईसा पूर्व

ABHAY
08-01-2011, 05:04 PM
मूलतत्त्व और आधार

आधार कौरवों औ*र पाण्डवों के मध्य का आपसी संघर्ष

मुख्य पात्र श्रीकृष्ण,अर्जुन,भीष्म,कर्ण,भीम,दुर्योधन,युधि ष्ठिर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7855&stc=1&d=1294491812

कुरुक्षेत्र युद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुन

ABHAY
08-01-2011, 05:08 PM
आरम्भ

महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है:
“नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्।।„

परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ "नारायणं नमस्कृत्य" से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं।

विभिन्न नाम
यह महाकाव्य "जय" ,"भारत" और "महभारत" इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के "भारत" नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डालें। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके "भारत" काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें "जय" भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर " भारत ग्रंथ" को रखा, तो "भारत ग्रंथ" सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ, अतः "भारत" ग्रंथ की इस महता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे "महाभारत" नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य "महाभारत" के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।

ABHAY
08-01-2011, 05:11 PM
ग्रन्थ लेखन की कथा
महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को समान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाए। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच नहीं रुकेंगे। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका का अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत ३ वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी। वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोकों देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोकों गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया तदन्तर अन्य शिष्यों वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया। शुकदेव जी ने गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया। देवर्षि नारद ने देवताओं को, असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया। वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य जनमेजय के यज्ञ समारोह में सूत सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था।

ABHAY
08-01-2011, 05:12 PM
विशालता
महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है :
"जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा"

VIDROHI NAYAK
08-01-2011, 05:17 PM
विशालता
महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है :
"जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा"
धन्यवाद मित्र !

ABHAY
08-01-2011, 05:20 PM
धन्यवाद मित्र !

सुक्रिया भाई स्वागत है

ABHAY
08-01-2011, 05:22 PM
महाभारत का १८ पर्वो और १०० उपपर्वो में विभाग
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7868&stc=1&d=1294492888

ABHAY
08-01-2011, 05:28 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7869&stc=1&d=1294492878

ABHAY
08-01-2011, 05:29 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7870&stc=1&d=1294492878

ABHAY
08-01-2011, 05:29 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7871&stc=1&d=1294492878

ABHAY
08-01-2011, 05:32 PM
मूल काव्य रचना इतिहास
वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रुप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रुप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रुप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं:

ABHAY
08-01-2011, 05:36 PM
३१०० ईसा पूर्व
१) सर्वप्रथम वेदव्यास द्वारा १०० पर्वों के रुप में एक लाख श्लोकों का रचित भारत महाकाव्य, जो बाद में महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
२) दूसरी बार व्यास जी के कहने पर उनके शिष्य वैशम्पायन जी द्वारा पुनः इसी "भारत" महाकाव्य को जनमेजय के यज्ञ समारोह में ऋषि-मुनियों को सुनाना।
२००० ईसा पूर्व
३) तीसरी बार फिर से *वैशम्पायन और ऋषि-मुनियो की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" को सूत जी द्वारा पुनः १८ पर्वों के रुप में सुव्यवस्थित करके समस्त ऋषि-मुनियों को सुनाना।
१२००-६०० ईसा पूर्व
४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रुप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रुप में लिपी बद्ध किया जाना।
भंडारकर संस्थान द्वारा
इसके बाद भी कई विद्वानो द्वारा इसमें बदलती हुई रीतियो के अनुसार बदलाव किया गया, जिसके कारण उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियो में कई भिन्न भिन्न श्लोक मिलते हैं, इस समस्या के निदान के लिये पुणे में स्थित भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान ने पूरे दक्षिण एशिया में उपलब्ध महाभारत की सभी पाण्डुलिपियों (लगभग १०, ०००) का शोध और अनुसंधान करके उन सभी में एक ही समान पाये जाने वाले लगभग ७५,००० श्लोकों को खोजकर उनका सटिप्पण एवं समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया, कई खण्डों वाले १३,००० पृष्ठों के इस ग्रंथ का सारे संसार के सुयोग्य विद्वानों ने स्वागत किया।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7879&stc=1&d=1294493732
जनमेजय के सर्प यज्ञ समारोह पर वैशम्पायन जी ऋषि मुनियों को महाभारत सुनाते हुए

ABHAY
08-01-2011, 05:41 PM
ऐतिहासिक एवं भाषाई प्रमाण
१००० ईसा पूर्व
महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण (११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता हैं। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी।
६००-४०० ईसा पूर्व
पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतएव यह निश्चित है कि महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे।
प्रथम शताब्दी
यूनान के पहली शताब्दी के राजदूत डियो क्ररायसोसटम(Dio Chrysostom) यह बताते है की दक्षिण-भारतीयों के पास एक लाख श्लोकों का एक ग्रंथ है जिससे यह पता चलता है कि महाभारत पहली शताब्दी में भी एक लाख श्लोकों का था। महाभारत की कहानी को ही बाद के मुख्य यूनानी ग्रंथों इलियड और ओडिसी में बार-बार अन्य रुप से दोहराया गया, जैसे धृतराष्ट्र का पुत्र मोह, कर्ण-अर्जुन प्रतिसपर्धा आदि।
संस्कृत की सबसे प्राचीन पहली शताब्दी की एमएस स्पित्ज़र पाण्डुलिपि में भी महाभारत के १८ पर्वों की अनुक्रमणिका दी गयी है कि इस काल तक महाभारत १८ पर्वों के रुप में प्रसिद्ध थी, यद्यपि १०० पर्वों की अनुक्रमणिका बहुत प्राचीन काल में प्रसिद्ध रही होगी, क्योंकि वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना सर्वप्रथम १०० पर्वों में की थी, जिसे बाद में सूत जी ने १८ पर्वों के रुप में व्यवस्थित कर ऋषियों को सुनाया था।
५वीं शताब्दी
महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है। वह अभिलेख निम्नलिखित है:
उक्तञच महाभारते शतसाहस्त्रयां संहितायां पराशरसुतेन वेदव्यासेन व्यासेन ।

ABHAY
08-01-2011, 06:17 PM
पुरातत्त्व प्रमाण (१९०० ई.पू से पहले)
सरस्वती नदी
प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है।
कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं।
भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी गंगा में चला गया, और कई विद्वान मानते है कि इसी कारण गंगा के पानी की महिमा हुई। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया।

महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7881&stc=1&d=1294496193
महाभारत कालीन सरस्वती नदी(हरे रंग में)
द्वारका
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो.एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।

ABHAY
08-01-2011, 06:19 PM
निष्कर्ष
इन सम्पूर्ण तथ्यों से यह माना जा सकता है कि महाभारत ३००० ईसा पूर्व या निश्चित तौर पर १९००-१००० ईसा पूर्व रची गयी होगीं, जो महाभारत में वर्णित ज्योतिषीय तिथियों, भाषाई विश्लेषण, विदेशी सूत्रों एवं पुरातत्व प्रमाणों से मेल खाती है। परन्तु आधुनिक संस्करण की रचना ६००-२०० ईसा पूर्व हुई होगी। अधिकतर अन्य वैदिक साहित्यों के समान ही यह महाकाव्य भी पहले वाचिक परंपरा द्वारा हम तक पीढी दर पीढी पहुँचा और बाद में छपाई की कला के विकसित होने से पहले ही इसके बहुत से अन्य भौगोलिक संस्करण भी हो गये, जिनमें बहुत सी ऐसी घटनायें हैं जो मूल कथा में नहीं दिखती या फिर किसी अन्य रूप में दिखती है।

ABHAY
08-01-2011, 08:32 PM
पृष्ठभूमि और इतिहास
महाभारत चंद्रवंशियों के दो परिवारों कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरव भाइयों और पाँच पाण्डव भाइयों के बीच भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। इस युद्ध की भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा कई भिन्न भिन्न निर्धारित की गयी तिथियाँ निम्नलिखित हैं-

१.विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के अनुसार महाभारत युद्ध २४४९ ईसा पूर्व हुआ था।
२.विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध १८ फ़रवरी ३१०२ ईसा पूर्व में हुआ था।
३.चालुक्य राजवंश के सबसे महान सम्राट पुलकेसि २ के ५वीं शताब्दी के ऐहोल अभिलेख में यह बताया गया है कि भारत युद्ध को हुए ३, ७३५ वर्ष बीत गए है, इस दृष्टिकोण से महाभारत का युद्ध ३१०० ईसा पूर्व लड़ा गया होगा।
४.पुराणों की माने तो यह युद्ध १९०० ईसा पूर्व हुआ था, पुराणों में दी गई विभिन्न राज वंशावली को यदि चन्द्रगुप्त मौर्य से मिला कर देखा जाये तो १९०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है, परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य १५०० ईसा पूर्व में हुआ था, यदि यह माना जाये तो ३१०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है क्योंकि यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में जिस चन्द्रगुप्त का उल्लेख किया था वो गुप्त वंश का राजा चन्द्रगुप्त भी हो सकता है।
५.अधिकतर पश्चिमी विद्वान जैसे मायकल विटजल के अनुसार भारत युद्ध १२०० ईसा पूर्व में हुआ था, जो इसे भारत में लौह युग (१२००-८०० ईसा पूर्व) से जोड़कर देखते हैं।

ABHAY
08-01-2011, 08:34 PM
६.अधिकतर भारतीय विद्वान जैसे बी ऐन अचर, एन एस राजाराम, के सदानन्द, सुभाष काक ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे ३०६७ ईसा पूर्व और कुछ यूरोपीय विद्वान जैसे पी वी होले इसे १३ नवंबर ३१४३ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं।
७.भारतीय विद्वान पी वी वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे १६ अक्तूबर ५५६१ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। उनके अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना(यमुना) के तट पर बसे मेथोरा(मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से भेंट का वर्णन किया था, मेगस्थनीज ने यह बताया था कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पूजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरुष होता था तथा चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ ये स्पष्ट है कि ये हेराकल्स श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान इन्हें हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोड़ते है क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले थे तो यदि एक पीढी को २०-३० वर्ष दे तो ३१००-५६०० ईसा पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है अतः इस आधार पर महाभारत का युद्ध ५६००-३१०० ईसा पूर्व के समय हुआ होगा।

ABHAY
08-01-2011, 08:36 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7885&stc=1&d=1294504562

ABHAY
08-01-2011, 08:42 PM
महाभारत के पात्र

* कुरुक्षेत्र : वह क्षेत्र जहाँ महाभारत का महान युद्ध हुआ था। यह क्षेत्र आज के भारत में हरियाणा में स्थित है।

* कृष्ण : देवकी की आठवीं सन्तान जिसने अपने दुष्ट मामा कंस का वध किया था। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र युध के प्रारम्भ में गीता उपदेश दिया था। श्री कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे।

* भीष्म : भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया।

* पाण्डव : पाण्डु की कुन्ती और माद्री से सन्ताने। यह पांच भाई थे: युद्धिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव।

* अर्जुन : देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था।

* द्रौपदी : द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है।

* कर्ण : सूर्यदेव एवमं कुन्ती के पुत्र और पाण्डवों के सबसे बड़े भाई। कर्ण को दानवीर-कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण कवच एवं कुंडल पहने हुए पैदा हुये थे और उनका दान इंद्र को किया था।
* दुर्योधन : कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े।
* दुःशासन : दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था।
* द्रोण : हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है।
* अभिमन्यु : अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये।
* अम्बा : शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था।
* अम्बिका : विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन।
* अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन।
* बभ्रुवाहन : अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र।
* बकासुर : महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी।
* द्रुपद : पाञ्चाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे!
* एकलव्य : द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था।
* गांडीव : अर्जुन का धनुष। [जो, कई मान्यताओं के अनुसार, उनको अग्नि-देव ने दिया था।]

ABHAY
08-01-2011, 08:57 PM
* गांधारी : गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी।
* जयद्रथ : सिन्धु के राजा और धृतराष्ट्र के दामाद। कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन ने जयद्रथ का शीश काट कर वध किया था।
* कृपाचार्य : हस्तिनापुर के ब्राह्मण गुरु। इनकी बहिन 'कृपि' का विवाह द्रोण से हुआ था।
* महर्षि व्यास : महाभारत महाकाव्य के लेखक। पाराशर और सत्यवती के पुत्र। इन्हें कृष्ण द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वे कृष्णवर्ण के थे तथा उनका जन्म एक द्वीप में हुआ था।
* परशुराम : अर्थात् परशु वाले राम। वे द्रोण, भीष्म और कर्ण जैसे महारथियों के गुरु थे। वे भगवान विष्णु का षष्ठम अवतार थे।
* शल्य : नकुल और सहदेव की माता माद्री के भाई।
* उत्तरा : राजा विराट की पुत्री। उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से हुआ था।

khalid
08-01-2011, 10:27 PM
जवाब नहीँ भाई
बचपन की याद ताजा कर दिया आपने
धन्य हैँ आप

ABHAY
09-01-2011, 05:44 AM
महाभारत भाग १

चन्द्रवंश से कुरुवंश तक की उत्पत्ति
पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा से आयु, आयु से राजा नहुष, और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु का जन्म हुआ। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। उनके दो छोटे भाई और थे - चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। शान्तनु के स्वर्गलोक चले जाने पर भीष्म ने अविवाहित रह कर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया।भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। ये महाराजा शांतनु के पुत्र थे। अपने पिता को दिये गये वचन के कारण इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। इन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था।

एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, “हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।” उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “बालिके! आप कौन हैं?” बालिका ने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।” उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?” उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।”

ABHAY
09-01-2011, 05:44 AM
शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।” शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये।

एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”

महाराज दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।

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09-01-2011, 05:45 AM
महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, “महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।” महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।

जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।

कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, “हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।” यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये। महाराज दुष्यंत और शकुन्तला के उस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने।

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09-01-2011, 05:46 AM
महाभारत भाग २

भीष्म का जन्म तथा भीष्म प्रतिज्ञा
एक बार हस्तिनापुर के महाराज गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके रूप-सौन्दर्य से मोहित हो कर गंगा जाँघ पर बैठ गईं। गंगा ने कहा, "हे राजन्! मैं ऋषि की पुत्री गंगा हूँ और आपसे विवाह करने आपके पास आई हूँ।" इस पर महाराज प्रतीप बोले, "गंगे! तुम मेरी दहिनी जाँघ पर बैठी हो। पत्नी को तो वामांगी होना चाहिये, दाहिनी जाँघ तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूँ।" यह सुन कर गंगा वहाँ से चली गईं।

अब महाराज प्रतीप ने पुत्र प्राप्ति के लिये घोर तप करना आरम्भ कर दिया। उनके तप के फलस्वरूप उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने शान्तनु रखा। शान्तनु के युवा होने पर उसे गंगा के साथ विवाह करने का आदेश दे महाराज प्रतीप स्वर्ग चले गये। पिता के आदेश का पालन करने के लिये शान्तनु ने गंगा के पास जाकर उनसे विवाह करने के लिये निवेदन किया। गंगा बोलीं, "राजन्! मैं आपके साथ विवाह तो कर सकती हूँ किन्तु आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।" शान्तनु ने गंगा के कहे अनुसार वचन दे कर उनसे विवाह कर लिया। गंगा के गर्भ से महाराज शान्तनु के आठ पुत्र हुये जिनमें से सात को गंगा ने गंगा नदी में ले जा कर बहा दिया और अपने दिये हुये वचन में बँधे होने के कारण महाराज शान्तनु कुछ बोल न सके। जब गंगा का आठवाँ पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिये ले जाने लगी तो राजा शान्तनु से रहा न गया और वे बोले, "गंगे! तुमने मेरे सात पुत्रों को नदी में बहा दिया किन्तु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मैंने कुछ न कहा। अब तुम मेरे इस आठवें पुत्र को भी बहाने जा रही हो। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके इसे नदी में मत बहाओ।" यह सुन कर गंगा ने कहा, "राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिये अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।" इतना कह कर गंगा अपने पुत्र के साथ अन्तर्ध्यान हो गईं। तत्पश्चात् महाराज शान्तनु ने छत्तीस वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर के व्यतीत कर दिये। फिर एक दिन उन्होंने गंगा के किनारे जा कर गंगा से कहा, "गंगे! आज मेरी इच्छा उस बालक को देखने की हो रही है जिसे तुम अपने साथ ले गई थीं।" गंगा एक सुन्दर स्त्री के रूप में उस बालक के साथ प्रकट हो गईं और बोलीं, "राजन्! यह आपका पुत्र है तथा इसका नाम देवव्रत है, इसे ग्रहण करो। यह पराक्रमी होने के साथ विद्वान भी होगा। अस्त्र विद्या में यह परशुराम के समान होगा।" महाराज शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उसे अपने साथ हस्तिनापुर लाकर युवराज घोषित कर दिया।

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09-01-2011, 05:46 AM
एक दिन महाराज शान्तनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुये एक सुन्दर कन्या दृष्टिगत हुई। उसके अंग अंग से सुगन्ध निकल रही थी। महाराज ने उस कन्या से पूछा, "हे देवि! तुम कौन हो?" कन्या ने बताया, "महाराज! मेरा नाम सत्यवती है और मैं निषाद कन्या हूँ।" महाराज उसके रूप यौवन पर रीझ कर तत्काल उसके पिता के पास पहुँचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धींवर (निषाद) बोला, "राजन्! मुझे अपनी कन्या का आपके साथ विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु आपको मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना होगा।।" निषाद के इन वचनों को सुन कर महाराज शान्तनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये।

सत्यवती के वियोग में महाराज शान्तनु व्याकुल रहने लगे। उनका शरीर दुर्बल होने लगा। महाराज की इस दशा को देख कर देवव्रत को बड़ी चिंता हुई। जब उन्हें मन्त्रियों के द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण ज्ञात हुआ तो वे तत्काल समस्त मन्त्रियों के साथ निषाद के घर जा पहुँचे और उन्होंने निषाद से कहा, "हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शान्तनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालान्तर में मेरी कोई सन्तान आपकी पुत्री के सन्तान का अधिकार छीन न पाये इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म अविवाहित रहूँगा।" उनकी इस प्रतिज्ञा को सुन कर निषाद ने हाथ जोड़ कर कहा, "हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।" इतना कह कर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मन्त्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।

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09-01-2011, 05:47 AM
देवव्रत ने अपनी माता सत्यवती को लाकर अपने पिता शान्तनु को सौंप दिया। पिता ने प्रसन्न होकर पुत्र से कहा, "वत्स! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी प्रतिज्ञा की है जैसी कि न आज तक किसी ने किया है और न भविष्य में करेगा। मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू भीष्म कहलायेगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।"

उनके जैसा वीर इस संसार में और कोई नहीं है. वो अपने जीवनकाल में कभी भी किसी से भी परस्त नहीं हुए. यहाँ तक कि उनके गुरु और स्वयं विष्णु के अवतार भगवन परशुराम भी उनसे २३ दिनों तक युद्ध करने के बाद भी उन्हें परस्त नहीं कर सके. भीष्म ने अपने पिता के सुखों के लिए राज सिंहासन का त्याग कर दिया. वे हमेशा चाहते थे की कौरव और पांडव मिल जुल कर रहें लेकिन उनके समस्त प्रयासों के बाद भी महाभारत का युद्ध हुआ।

चित्रांगद बाल्यावस्था में ही चित्रांगद नाम वाले गन्धर्व के द्वारा मारे गये। फिर भीष्म संग्राम में विपक्षी को परास्त करके काशिराज की दो कन्याओं - अंबिका और अंबालिका को हर लाये। वे दोनों विचित्रवीर्य की भार्याएँ हुईं। कुछ काल के बाद राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की अनुमति से व्यासजी के द्वारा अम्बिका के गर्भ से राजा धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और पाण्डु के युधिष्टर,भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव आदि पांच पुत्र हुए।

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09-01-2011, 05:48 AM
महाभारत भाग ३

वेद व्यास के जन्म की कथा
प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई।

गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, “देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।” सत्यवती ने कहा, “मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।” तब पाराशर मुनि बोले, “बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।” इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।”

समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, “माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।” इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।

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09-01-2011, 05:49 AM
महाभारत भाग ४

कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य की कथा
गौतम ऋषि के पुत्र का नाम शरद्वान था। उनका जन्म बाणों के साथ हुआ था। उन्हें वेदाभ्यास में जरा भी रुचि नहीं थी और धनुर्विद्या से उन्हें अत्यधिक लगाव था। वे धनुर्विद्या में इतने निपुण हो गये कि देवराज इन्द्र उनसे भयभीत रहने लगे। इन्द्र ने उन्हें साधना से डिगाने के लिये नामपदी नामक एक देवकन्या को उनके पास भेज दिया। उस देवकन्या के सौन्दर्य के प्रभाव से शरद्वान इतने कामपीड़ित हुये कि उनका वीर्य स्खलित हो कर एक सरकंडे पर आ गिरा। वह सरकंडा दो भागों में विभक्त हो गया जिसमें से एक भाग से कृप नामक बालक उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से कृपी नामक कन्या उत्पन्न हुई। कृप भी धनुर्विद्या में अपने पिता के समान ही पारंगत हुये। भीष्म जी ने इन्हीं कृप को पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा-दीक्षा के लिये नियुक्त किया और वे कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुये।

कृपाचार्य के द्वारा पाण्डवों तथा कौरवों की प्रारंभिक शिक्षा समाप्त होने के पश्चात् अस्त्र-शस्त्रों की विशेष शिक्षा के लिये भीष्म जी ने द्रोण नामक आचार्य को नियुक्त किया। इन द्रोणाचार्य जी की भी एक विशेष कथा है। एक बार भरद्वाज मुनि यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे गंगा नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ पर उन्होंने घृतार्ची नामक एक अप्सरा को गंगा स्नान कर निकलते हुये देख लिया। उस अप्सरा को देख कर उनके मन में काम वासना जागृत हुई और उनका वीर्य स्खलित हो गया जिसे उन्होंने एक यज्ञ पात्र में रख दिया।

कालान्तर में उसी यज्ञ पात्र से द्रोण की उत्पत्ति हुई। द्रोण अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई।

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09-01-2011, 05:50 AM
उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, “वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।” द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, “हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।” इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।

शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। उनके उस पुत्र के मुख से जन्म के समय अश्व की ध्वनि निकली इसलिये उसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। किसी प्रकार का राजाश्रय प्राप्त न होने के कारण द्रोण अपनी पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा के साथ निर्धनता के साथ रह रहे थे। एक दिन उनका पुत्र अश्वत्थामा दूध पीने के लिये मचल उठा किन्तु अपनी निर्धनता के कारण द्रोण पुत्र के लिये गाय के दूध की व्यवस्था न कर सके। अकस्मात् उन्हें अपने बाल्यकाल के मित्र राजा द्रुपद का स्मरण हो आया जो कि पाञ्चाल देश के नरेश बन चुके थे। द्रोण ने द्रुपद के पास जाकर कहा, “मित्र! मैं तुम्हारा सहपाठी रह चुका हूँ। मुझे दूध के लिये एक गाय की आवश्यकता है और तुमसे सहायता प्राप्त करने की अभिलाषा ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।” इस पर द्रुपद अपनी पुरानी मित्रता को भूलकर तथा स्वयं के नरेश होने के अहंकार के वश में आकर द्रोण पर बिगड़ उठे और कहा, “तुम्हें मुझको अपना मित्र बताते हुये लज्जा नहीं आती? मित्रता केवल समान वर्ग के लोगों में होती है, तुम जैसे निर्धन और मुझ जैसे राजा में नहीं।”

ABHAY
09-01-2011, 05:50 AM
अपमानित होकर द्रोण वहाँ से लौट आये और कृपाचार्य के घर गुप्त रूप से रहने लगे। एक दिन युधिष्ठिर आदि राजकुमार जब गेंद खेल रहे थे तो उनकी गेंद एक कुएँ में जा गिरी। उधर से गुजरते हुये द्रोण से राजकुमारों ने गेंद को कुएँ से निकालने लिये सहायता माँगी। द्रोण ने कहा, “यदि तुम लोग मेरे तथा मेरे परिवार के लिये भोजन का प्रबन्ध करो तो मैं तुम्हारा गेंद निकाल दूँगा।” युधिष्ठिर बोले, “देव! यदि हमारे पितामह की अनुमति होगी तो आप सदा के लिये भोजन पा सकेंगे।” द्रोणाचार्य ने तत्काल एक मुट्ठी सींक लेकर उसे मन्त्र से अभिमन्त्रित किया और एक सींक से गेंद को छेदा। फिर दूसरे सींक से गेंद में फँसे सींक को छेदा। इस प्रकार सींक से सींक को छेदते हुये गेंद को कुएँ से निकाल दिया।

इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये।

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09-01-2011, 05:51 AM
महाभारत भाग ५

धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्म की कथा
सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राजा शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।

राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, “हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।” किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, “हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।” परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।

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09-01-2011, 05:52 AM
विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, “पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।” माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, “माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।”

यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, “हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।” वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, “माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम-व्रत का पालन करते रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा।” एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, “माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।” सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, “माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।” इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनन्दपूर्वक वेदव्यास से भोग कराया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, “माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।” इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।

समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

ABHAY
09-01-2011, 05:55 AM
महाभारत भाग ६

पाण्डु का राज्य अभिषेक
धृतराष्ट्र जन्म से ही अन्धे थे अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राजा बनाया गया,इससे धृतराष्ट्र को सदा अपनी नेत्रहीनता पर क्रोध आता और पाण्डु से द्वेषभावना होने लगती।पाण्डु ने सम्पूर्ण भारतवर्ष को जीतकर कुरु राज्य की सीमाओ का यवनो के देश तक विस्तार कर दिया।एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों - कुन्ती तथा माद्री - के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृगरुपधारी निर्दोष ऋषि ने पाण्डु को शाप दिया, "राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।"

इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, "हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़" उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, "नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।" पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, "राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।"ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, "हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?"

ABHAY
09-01-2011, 05:57 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7894&stc=1&d=1294538252
दुर्वासा ऋषि द्वारा कुन्ती को मन्त्र शिक्षा
कुन्ती बोली, "हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।" इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।वहा रहने वाले ऋषि मुनि पाण्ड्वो को राजमहल छोड़् कर आ गये,ऋषि मुनि तथा कुन्ती के कहने पर सभी ने पाण्ड्वो को पाण्डु का पुत्र मान लिया और उनका स्वागत किया।

ABHAY
09-01-2011, 06:01 AM
महाभारत भाग ७

कर्ण का जन्म
धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के लालन पालन का भार भीष्म के ऊपर था। तीनों पुत्र बड़े होने पर विद्या-अध्ययन के लिए भेजे गए। धृतराष्ट्र बल विद्या में, पाण्डु धनुर्विद्या में तथा विदुर धर्म और नीति में निपुण हुए। युवा होने पर धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण राज्य के उत्तराधिकारी न बन सके। विदुर दासीपुत्र थे इसलिये पाण्डु को ही हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया। भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की राजकुमारी गांधारी से कर दिया। गांधारी को जब ज्ञात हुआ कि उसका पति अन्धा है तो उसने स्वयं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली।

उन्हीं दिनों यदुवंशी राजा शूरसेन की पोषित कन्या कुन्ती जब सयानी हुई तो पिता ने उसे घर आये हुये महात्माओं के सेवा में लगा दिया। पिता के अतिथिगृह में जितने भी साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि आदि आते, कुन्ती उनकी सेवा मन लगा कर किया करती थी। एक बार वहाँ दुर्वासा ऋषि आ पहुँचे। कुन्ती ने उनकी भी मन लगा कर सेवा की। कुन्ती की सेवा से प्रसन्न हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ अतः तुझे एक ऐसा मन्त्र देता हूँ जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी वह तत्काल तेरे समक्ष प्रकट हो कर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा।” इस प्रकार दुर्वासा ऋषि कुन्ती को मन्त्र प्रदान कर के चले गये।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7895&stc=1&d=1294538452
कुंती के आह्वान पर सूर्यदेव प्रकट हुए।

ABHAY
09-01-2011, 06:01 AM
एक दिन कुन्ती ने उस मन्त्र की सत्यता की जाँच करने के लिये एकान्त स्थान पर बैठ कर उस मन्त्र का जाप करते हुये सूर्यदेव का स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव वहा प्रकट हो कर बोले, “देवि! मुझे बताओ कि तुम मुझ से किस वस्तु की अभिलाषा करती हो। मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा।” इस पर कुन्ती ने कहा, “हे देव! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है। मैंने तो केवल मन्त्र की सत्यता परखने के लिये ही उसका जाप किया है।” कुन्ती के इन वचनों को सुन कर सूर्यदेव बोले, “हे कुन्ती! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता। मैं तुम्हें एक अत्यन्त पराक्रमी तथा दानशील पुत्र प्रदान करता हूँ।” इतना कह कर सूर्यदेव अन्तर्ध्यान हो गये।

कुन्ती ने लज्जावश यह बात किसी से नहीं कह सकी। समय आने पर उसके गर्भ से कवच-कुण्डल धारण किये हुये एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुन्ती ने उसे एक मंजूषा में रख कर रात्रि बेला में गंगा में बहा दिया। वह बालक बहता हुआ उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को गंगा नदी में जल पिला रहा था। उसकी दृष्टि कवच-कुण्डल धारी शिशु पर पड़ी। अधिरथ निःसन्तान था इसलिये उसने बालक को अपने छाती से लगा लिया और घर ले जाकर उसे अपने पुत्र के जैसा पालने लगा। उस बालक के कान अति सुन्दर थे इसलिये उसका नाम कर्ण रखा गया।कर्ण गंगाजी में बहता हुआ जा रहा था कि महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्न राधा ने उसे देखा और उसे गोद ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे।कुमार अवास्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो कि उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सारथी पुत्र था, और द्रोण केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया।कर्ण को उसके गुरु परशुराम और पृथ्वी माता से श्राप मिला था।

ABHAY
09-01-2011, 06:02 AM
कर्ण की शिक्षा अपने अंतिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छु आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण बिच्छु को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी, और उन्होनें देखा की कर्ण की जांघ से बहुत रक्त बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में, और परशुरामजी ने उसे मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उसदिन वह उसके काम नहीं आएगी। कर्ण, जो कि स्वयं ये नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर उन्हें ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होनें कर्ण को अपना विजय नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है - अमिट प्रसिद्धि। कुछ लोककथाओं में में माना जाता है कि बिच्छु के रुप में स्वयं इन्द्र थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे।

परशुरामजी के आश्रम से जाने के पश्चात, कर्ण कुछ समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह 'शब्दभेदी' विद्या सीख रहा था। अभ्यास के दौरान उसने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछडा़ मारा गया। तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा।

ABHAY
09-01-2011, 06:03 AM
इस प्रकार कर्ण परशुराम का एक अत्यंत परिश्रमी और निपुण शिष्य बना।कर्ण दुर्योधन के आश्रय में रहता था।गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की शिक्षा पूरी होने पर हस्तिनापुर में एक रंगभूमि का आयोजन करवाया। रंगभूमि में अर्जुन विशेष धनुर्विद्या युक्त शिष्य प्रमाणित हुआ। तभी कर्ण रंगभूमी में आया और अर्जुन द्वारा किए गए करतबों को पार करके उसे द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा। कब कृपाचार्य ने कर्ण के द्वंद्वयुद्ध को अस्वीकृत कर दिया और उससे उसके वंश और साम्राज्य के विषय में पूछा - क्योंकि द्वंद्वयुद्ध के नियमों के अनुसार केवल एक राजकुमार ही अर्जुन को, जो हस्तिनापुर का राजकुमार था, द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकार सकता था। तब कौरवों मे सबसे ज्येष्ठ दुर्योधन ने कर्ण को अंगराज घोषित किया जिससे वह अर्जुन से द्वंदयुद्ध के योग्य हो जाए। जब कर्ण ने दुर्योधन से पूछा कि वह उससे इसके बदले में क्या चाहता है, तब दुर्योधन ने कहा कि वह केवल ये चाहता है कि कर्ण उसका मित्र बन जाए।

इस घटना के बाद महाभारत के कुछ मुख्य संबंध स्थापित हुए, जैसे दुर्योधन और कर्ण के बीच सुदृढ़ संबंध बनें, कर्ण और अर्जुन के बीच तीव्र प्रतिद्वंद्विता, और पाण्डवों तथा कर्ण के बीच वैमनस्य।

कर्ण, दुर्योधन का एक निष्ठावान और सच्चा मित्र था।यद्यपि वह बाद में दुर्योधन को खुश करने के लिए द्यूतक्रीड़ा में भागीदारी करता है, लेकिन वह आरंभ से ही इसके विरुद्ध था। कर्ण शकुनि को पसंद नहीं करता था, और सदैव दुर्योधन को यही परमर्श देता कि वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल और बाहुबल का प्रयोग करे ना कि कुटिल चालों का। जब लाक्षागृह में पाण्डवों को मारने का प्रयास विफल हो जाता है, तब कर्ण दुर्योधन को उसकी कायरता के लिए डांटता है, और कहता है कि कायरों की सभी चालें विफल ही होती हैं और उसे समझाता है कि उसे एक योद्धा के समान कार्य करना चाहिए और उसे जो कुछ भी प्राप्त करना है, उसे अपनी वीरता द्वारा प्राप्त करे। चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी कर्ण ने दुर्योधन की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त राजाओं में जरासंध, शिशुपाल, दंतवक्र, साल्व, और रुक्मी इत्यादि थे। कर्ण की प्रशंसा स्वरूप, जरसंध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। भीम ने बाद में श्रीकृष्ण की सहायता से जरासंध को परास्त किया लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासंध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीर कर दो टुकड़ो मे बाँट कर हो सकती है।

ABHAY
09-01-2011, 06:04 AM
महाभारत भाग ८

एकलव्य की गुरु भक्ति
एकलव्य महाभारत का एक पात्र है। वह हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र था। एकलव्य को अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए जाना जाता है। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बना। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उसने न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलों की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया।

महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है।

ABHAY
09-01-2011, 06:06 AM
कथा के अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो। कहते हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7896&stc=1&d=1294538737
गुरु द्रोण को गुरुदक्षिणा में अपना अंगुठा भेंट करता एकलव्य।

ABHAY
09-01-2011, 06:07 AM
महाभारत भाग ९

लाक्षाग्रह षड्यंत्र
दैवयोग तथा शकुनि के छल कपट से कौरवों और पाण्डवों में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी। दुर्योधन बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था। उसने शकुनि के कहने पर पाण्ड्वो को बचपन मे कई बार मारने का प्रयत्न किया ।युवावस्था मे आकर जब गुणो मे उससे अधिक श्रेष्ठ युधिष्ठर को युवराज बना दिया गया तो शकुनि ने लाक्ष के बने हुए धर में पाण्डवों को रखकर आग लगाकर उन्हें जलाने का प्रयत्न किया किन्तु विदुर की सहायता से पाँचों पाण्डव अपनी माता के साथ उस जलते हुए घर से बाहर निकल गये।अपने उत्तम गुणों के कारण युधिष्ठिर हस्तिनापुर के प्रजाजनों में अत्यन्त लोकप्रिय हो गये। उनके गुणों तथा लोकप्रियता को देखते हुये भीष्म पितामह ने धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर के राज्याभिषेक कर देने के लिये कहा। दुर्योधन नहीं चाहता था कि युधिष्ठिर राजा बने अतः उसने अपने पिता धृतराष्ट्र से कहा, “पिताजी! यदि एक बार युधिष्ठिर को राजसिंहासन प्राप्त हो गया तो यह राज्य सदा के लिये पाण्डवों के वंश का हो जायेगा और हम कौरवों को उनका सेवक बन कर रहना पड़ेगा।” इस पर धृतराष्ट्र बोले, “वत्स दुर्योधन! युधिष्ठिर हमारे कुल के सन्तानों में सबसे बड़ा है इसलिये इस राज्य पर उसी का अधिकार है। फिर भीष्म तथा प्रजाजन भी उसी को राजा बनाना चाहते हैं। हम इस विषय में कुछ भी नहीं कर सकते।” धृतराष्ट्र के वचनों को सुन कर दुर्योधन ने कहा, “पिताजी! मैंने इसका प्रबन्ध कर लिया है। बस आप किसी तरह पाण्डवों को वारणावत भेज दें।”

ABHAY
09-01-2011, 06:07 AM
दुर्योधन ने वारणावत में पाण्डवों के निवास के लिये पुरोचन नामक शिल्पी से एक भवन का निर्माण करवाया था जो कि लाख, चर्बी, सूखी घास, मूंज जैसे अत्यन्त ज्वलनशील पदार्थों से बना था। दुर्योधन ने पाण्डवों को उस भवन में जला डालने का षड़यन्त्र रचा था। धृतराष्ट्र के कहने पर युधिष्ठिर अपनी माता तथा भाइयों के साथ वारणावत जाने के लिये निकल पड़े। दुर्योधन के षड़यन्त्र के विषय में विदुर को पता चल गया। अतः वे वारणावत जाते हुये पाण्डवों से मार्ग मे मिले तथा उनसे बोले, “देखो, दुर्योधन ने तुम लोगों के रहने के लिये वारणावत नगर में एक ज्वलनशील पदार्थों एक भवन बनवाया है जो आग लगते ही भड़क उठेगा। इसलिये तुम लोग भवन के अन्दर से वन तक पहुँचने के लिये एक सुरंग अवश्य बनवा लेना जिससे कि आग लगने पर तुम लोग अपनी रक्षा कर सको। मैं सुरंग बनाने वाला कारीगर चुपके से तुम लोगों के पास भेज दूँगा। तुम लोग उस लाक्षागृह में अत्यन्त सावधानी के साथ रहना।”

वारणावत में युधिष्ठिर ने अपने चाचा विदुर के भेजे गये कारीगर की सहायता से गुप्त सुरंग बनवा लिया। पाण्डव नित्य आखेट के लिये वन जाने के बहाने अपने छिपने के लिये स्थान की खोज करने लगे। कुछ दिन इसी तरह बिताने के बाद एक दिन यधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा, “भीम! अब दुष्ट पुरोचन को इसी लाक्षागृह में जला कर हमें भाग निकलना चाहिये।” भीम ने उसी रात्रि पुरोचन को किसी बहाने बुलवाया और उसे उस भवन के एक कक्ष में बन्दी बना दिया। उसके पश्चात् भवन में आग लगा दिया और अपनी माता कुन्ती एवं भाइयों के साथ सुरंग के रास्ते वन में भाग निकले।

लाक्षागृह के भस्म होने का समाचार जब हस्तिनापुर पहुँचा तो पाण्डवों को मरा समझ कर वहाँ की प्रजा अत्यन्त दुःखी हुई। दुर्योधन और धृतराष्ट्र सहित सभी कौरवों ने भी शोक मनाने का दिखावा किया और अन्त में उन्होंने पाण्डवों की अन्त्येष्टि करवा दी।

ABHAY
09-01-2011, 06:10 AM
महाभारत भाग १०

द्रौपदी स्वयंवर
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7898&stc=1&d=1294538991
अर्जुन द्वारा विराट सभा मे मत्स्य भेदन
वहाँ से एकचक्रा नगरी में जाकर वे मुनि के वेष में एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे। फिर बक नामक राक्षस का वध करके व्यास जी के कहने पर वे पांचाल-राज्य में, जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला था,गए।पांचाल-राज्य में अर्जुन के लक्ष्य-भेदन के कौशल से मत्स्यभेद होने पर पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया।द्रौपदी पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। जब पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गई तो उन्होंने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देना चाहा। द्रोणाचार्य को द्रुपद के द्वारा किये गये अपने अपमान का स्मरण हो आया और उन्होंने राजकुमारों से कहा, “राजकुमारों! यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो पाञ्चाल नरेश द्रुपद को बन्दी बना कर मेरे समक्ष प्रस्तुत करो। यही तुम लोगों की गुरुदक्षिणा होगी।” गुरुदेव के इस प्रकार कहने पर समस्त राजकुमार अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र ले कर पाञ्चाल देश की ओर चले।

पाञ्चाल पहुँचने पर अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा, “गुरुदेव! आप पहले कौरवों को राजा द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये। यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे तो हम पाण्डव युद्ध करेंगे।” गुरु की आज्ञा मिलने पर दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों ने पाञ्चाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा किन्तु अन्त में कौरव परास्त हो कर भाग निकले। कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। भीमसेन तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पाञ्चाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़ कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये।

ABHAY
09-01-2011, 06:10 AM
द्रुपद को बन्दी के रूप में देख कर द्रोणाचार्य ने कहा, “हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझ कर तुम्हारे पास आया था किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था। अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो?” द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया और अपनी भूल के लिये क्षमायाचना करते हुये बोले, “हे द्रोण! आपको अपना मित्र न मानना मेरी भूल थी और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है। मैं तथा मेरा राज्य दोनों ही अब आपके आधीन हैं, अब आपकी जो इच्छा हो करें।” द्रोणाचार्य ने कहा, “तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ।” इतना कह कर द्रोणाचार्य ने गंगा नदी के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया।

कालान्तर में पाण्वों ने बहुत सी अन्य विद्याओं का अध्ययन किया। भीमसेन ने बलराम को गुरू मान कर खम्भ-गदा आदि की शिक्षा प्राप्त की। इस समय तक युधिष्ठिर के गुणों कि प्रशंसा देश-देशान्तर में होने लगी। समय आने पर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को युवराज के पद पर आसीन कर दिया था।

गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।" महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया।

ABHAY
09-01-2011, 06:11 AM
पाण्डवों को एकचक्रा नगरी में रहते कुछ काल व्यतीत हो गया तो एक दिन उनके यहाँ भ्रमण करता हुआ एक ब्राह्मण आया। पाण्डवों ने उसका यथोचित सत्कार करके पूछा, “देव! आपका आगमन कहाँ से हो रहा है?” ब्राह्मण ने उत्तर दिया, “मैं महाराज द्रुपद की नगरी पाञ्चाल से आ रहा हूँ। वहाँ पर द्रुपद की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर के लिये अनेक देशों के राजा-महाराजा पधारे हुये हैं।” पाण्डवों ने प्रश्न किया, “हे ब्राह्मणोत्तम! द्रौपदी में क्या-क्या गुण तथा विशेषताएँ हैं?” इस पर ब्राह्मण बोला, “पाण्डवगण! गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, “इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।” महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया। द्रुपद ने धृष्टद्युम्न को शिक्षा के लिये द्रोणाचार्य के पास भेज दिया और द्रोणाचार्य अपनी समस्त शत्रुता को त्याग कर उस बालक को विद्या प्रदान करने लगे। बालिका अब युवा होकर अत्यन्त लावण्यमयी हो गई है और उसी का स्वयंवर होने वाला है।

ABHAY
09-01-2011, 06:12 AM
उस ब्राह्मण के प्रस्थान करने के पश्चात् पाण्डवों से भेंट करने वेदव्यास जी आ पहुँचे। वेदव्यास ने पाण्डवों को आदेश दिया कि तुम लोग पाञ्चाल चले जाओ। वहाँ द्रुपद कन्या पाञ्चाली का स्वयंवर होने जा रहा है। वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है क्योंकि पूर्व जन्म में उसने भगवान शंकर की तपस्या की थी और उसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर शिव जी ने उसे अगले जन्म में पाँच उत्तम पति प्राप्त होने का वरदान दिया था। वह देविस्वरूपा बालिका सब भाँति से तुम लोगों के योग्य ही है। तुम लोग वहाँ जा कर उसे प्राप्त करो। इतना कह कर वेद व्यास वहाँ से चले गये। पाञ्चाल देश की यात्रा करते-करते पाण्डव रात्रि के समय श्रायण तीर्थ में पहुँचे। वहाँ पर गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विहार कर रहे थे। पाण्डवों को आते देख चित्ररथ ने दूर ही से कहा, “सावधान! इस समय यहाँ पर किसी का भी प्रवेश वर्जित है क्योंकि रात्रि के समय जल पर पूर्ण रूप से गन्धर्वों का अधिकार होता है। तुम लोग प्रातःकाल होने के पश्चात् ही यहाँ प्रवेश कर सकते हो।” चित्ररथ के वचनों को सुन कर अर्जुन क्रोधित होकर बोले, “अरे मूर्ख! नदी, पहाड़, समुद्र पर किसी का भी कोई अधिकार नहीं होता। फिर गंगा तो सबकी माता है, इन पर तो किसी का अधिकार हो ही नहीं सकता।” अर्जुन के ऐसा कहने पर चित्ररथ ने अर्जुन पर विषैले बाणों की बौछार करना आरम्भ कर दिया। उन विषैले बाणों का जवाब अर्जुन ने आग्नेय बाणों से दिया और चित्ररथ उनके बाणों के लगने पर घायल होकर भूमि में गिर पड़े। तत्काल अर्जुन उसके बालों को पकड़ कर उसे घसीटते हुये युधिष्ठिर के पास ले गये। चित्ररथ की दुर्दशा देख कर कुम्भानसी नामक उसकी पत्नी विलाप करती हुई युधिष्ठिर के पास पहुँची और अपने पति के प्राणों की भिक्षा माँगने लगी। स्त्री की प्रार्थना से द्रवित हो कर युधिष्ठिर ने चित्ररथ को क्षमादान करते हुये मुक्त कर दिया।

कान्तिहीन चित्ररथ ने पाण्डवों से क्षमायाचना करते हुये कहा, “मैं आप लोगों के बल-पौरुष से अत्यन्त प्रभावित हुआ हूँ तथा अपनी भूल स्वीकार करता हूँ। यदि आप लोगों को स्वीकार हो तो मैं आपके साथ मित्रता करना चाहता हूँ।” पाण्डवों ने उसकी मित्रता स्वीकार कर ली। मित्रता हो जाने पर चित्ररथ ने पाण्डवों को चाक्षुसी विद्या का प्रयोग सिखाया जिससे वे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु को देख सकते थे किन्तु वे किसी को दृष्टिगोचर नहीं हो सकते थे। इसके बदले में अर्जुन ने गन्धर्वराज चित्ररथ को आग्नेयास्त्र का प्रयोग सिखाया। इसके पश्चात् चित्ररथ गन्धर्वलोक चले गये और पाण्डवों ने पाञ्चाल के लिये प्रस्थान किया।

ABHAY
09-01-2011, 06:12 AM
मार्ग में पाण्डवों की भेंट धौम्य नामक ब्राह्मण से हुई और वे उसके साथ ब्राह्मणों का वेश धर कर द्रुौपदी के स्वयंवर में पहुँचे। स्वयंवर सभा में अनेक देशों के राजा-महाराजा एवं राजकुमार पधारे हुये थे। एक ओर श्री कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम तथा गणमान्य यदुवंशियों के साथ विराजमान थे। वहाँ वे ब्राह्मणों की पंक्ति में जा कर बैठ गये। कुछ ही देर में राजकुमारी द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ उस सभा में पहुँचीं। धृष्टद्युम्न ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा, “हे विभिन्न देश से पधारे राजा-महाराजाओं एवं अन्य गणमान्य जनों! इस मण्डप में बने स्तम्भ के ऊपर बने हुये उस घूमते हुये यंत्र पर ध्यान दीजिये। उस यन्त्र में एक मछली लटकी हुई है तथा यंत्र के साथ घूम रही है। आपको स्तम्भ के नीचे रखे हुये तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुये बाण चला कर मछली की आँख को निशाना बनाना है। मछली की आँख में सफल निशाना लगाने वाले से मेरी बहन द्रौपदी का विवाह होगा।”

एक के बाद एक सभी राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी और वे कान्तिहीन होकर अपने स्थान में लौट आये। इन असफल लोगों में जरासंघ, शल्य, शिशुपाल तथा दुर्योधन दुःशासन आदि कौरव भी सम्मिलित थे। कौरवों के असफल होने पर दुर्योधन के परम मित्र कर्ण ने मछली को निशाना बनाने के लिये धनुष उठाया किन्तु उन्हें देख कर द्रौपदी बोल उठीं, “यह सूतपुत्र है इसलिये मैं इसका वरण नहीं कर सकती।” द्रौपदी के वचनों को सुन कर कर्ण ने लज्जित हो कर धनुष बाण रख दिया। उसके पश्चात् ब्राह्मणों की पंक्ति से उठ कर अर्जुन ने निशाना लगाने के लिये धनुष उठा लिया। एक ब्राह्मण को राजकुमारी के स्वयंवर के लिये उद्यत देख वहाँ उपस्थित जनों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ किन्तु ब्राह्मणों के क्षत्रियों से अधिक श्रेष्ठ होने के कारण से उन्हें कोई रोक न सका। अर्जुन ने तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से मछली की आँख को भेद दिया। द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दिया।

ABHAY
09-01-2011, 06:13 AM
एक ब्राह्मण के गले में द्रौपदी को वरमाला डालते देख समस्त क्षत्रिय राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने क्रोधित हो कर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। अर्जुन की सहायता के लिये शेष पाण्डव भी आ गये और पाण्डवों तथा क्षत्रिय राजाओं में घमासान युद्ध होने लगा। श्री कृष्ण ने अर्जुन को पहले ही पहचान लिया था, इसलिये उन्होंने बीच बचाव करके युद्ध को शान्त करा दिया। दुर्योधन ने भी अनुमान लगा लिया कि निशाना लगाने वाला अर्जुन ही रहा होगा और उसका साथ देने वाले शेष पाण्डव रहे होंगे। वारणावत के लाक्षागृह से पाण्डवों के बच निकलने पर उसे अत्यन्त आश्चर्य होने लगा।

पाण्डव द्रौपदी को साथ ले कर वहाँ पहुँचे जहाँ वे अपनी माता कुन्ती के साथ निवास कर रहे थे। द्वार से ही अर्जुन ने पुकार कर अपनी माता से कहा, “माते! आज हम लोग आपके लिये एक अद्भुत् भिक्षा ले कर आये हैं।” उस पर कुन्ती ने भीतर से ही कहा, “पुत्रों! तुम लोग आपस में मिल-बाँट उसका उपभोग कर लो।” बाद में यह ज्ञात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में हैं, कुन्ती को अत्यन्त पश्चाताप हुआ किन्तु माता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिये कुन्ती ने पाँचों पाण्डवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

पाण्डवों के द्रौपदी को साथ ले कर अपने निवास पर पहुँचने के कुछ काल पश्चात् उनके पीछे-पीछे कृष्ण भी वहाँ पर आ पहुँचे। कृष्ण ने अपनी बुआ कुन्ती के चरणस्पर्श कर के आशीर्वाद प्राप्त किया और सभी पाण्डवों से गले मिले। औपचारिकताएँ पूर्ण होने के पश्चात् युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा, “हे द्वारिकाधीश! आपने हमारे इस अज्ञातवास में हमें पहचान कैसे लिया?” कृष्ण ने उत्तर दिया, “भीम और अर्जुन के पराक्रम को देखने के पश्चात् भला मैं आप लोगों को कैसे न पहचानता।” सभी से भेंट मुलाकात करके कृष्ण वहाँ से अपनी नगरी द्वारिका चले गये।

फिर पाँचों भाइयों ने भिक्षावृति से भोजन सामग्री एकत्रित किया और उसे लाकर माता कुन्ती के सामने रख दिया। कुन्ती ने द्रौपदी से कहा, “देवि! इस भिक्षा से पहले देवताओं के अंश निकालो। फिर ब्राह्मणों को भिक्षा दो। तत्पश्चात् आश्रितों का अंश अलग करो। उसके बाद जो शेष बचे उसका आधा भाग भीम को और शेष आधा भाग हम सभी को भोजन के लिये परोसो।” पतिव्रता द्रौपदी ने कुन्ती के आदेश का पालन किया। भोजन के पश्चात् कुशासन पर मृगचर्म बिछा कर वे सो गये। द्रौपदी माता के पैरों की ओर सोई।

ABHAY
09-01-2011, 06:13 AM
द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद, धृष्तद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को संदेह हो गया था कि वे ब्राह्मण पाण्डव ही हैं। उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने धृष्टद्युम्न को भेज कर उन्हें अपने राजप्रासाद में बुलवा लिया। राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले राजकोष को दिखाया किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न-माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई। किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों उन सभी ने बहुत अधिक रुचि प्रदर्शित किया और अपनी पसंद के शस्त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मण के रूप में योद्धा ही हैं। द्रुपद ने युधिष्ठिर से पूछा, “हे आर्य! आपके पराक्रम को देख कर मुझे विश्वास हो गया है कि आप लोग ब्राह्मण नहीं हैं। कृपा करके आप अपना सही परिचय दीजिये।” उनके वचनों को सुन कर युधिष्ठिर ने कहा, “राजन्! आपका कथन अक्षरशः सत्य है। हम पाण्डु-पुत्र पाण्डव हैं। मैं युधिष्ठिर हूँ और ये मेरे भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव हैं। हमारी माता कुन्ती आपकी पुत्री द्रौपदी के साथ आपके महल में हैं।”

युधिष्ठिर की बात सुन कर द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न हुये और बोले, “आज भगवान ने मेरी सुन ली। मैं चाहता था कि मेरी पुत्री का विवाह पाण्डु के पराक्रमी पुत्र अर्जुन के साथ ही हो। मैं आज ही अर्जुन और द्रौपदी के विधिवत विवाह का प्रबन्ध करता हूँ।” इस पर युधिष्ठिर ने कहा, “राजन्! द्रौपदी का विवाह तो हम पाँचों भाइयों के साथ होना है।” यह सुन कर द्रुपद आश्चर्यचकित हो गये और बोले, “यह कैसे सम्भव है? एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ अवश्य हो सकती हैं, किन्तु एक स्त्री के पाँच पति हों ऐसा तो न कभी देखा गया है और न सुना ही गया है।” युधिष्ठिर ने कहा, “राजन्! न तो मैं कभी मिथ्या भाषण करता हूँ और न ही कोई कार्य धर्म या शास्त्र के विरुद्ध करता हूँ। हमारी माता ने हम सभी भाइयों को द्रौपदी का उपभोग करने का आदेश दिया है और मैं माता की आज्ञा की अवहेलना कदापि नहीं कर सकता।” इसी समय वहाँ पर वेदव्यास जी पधारे और उन्होंने द्रुपद को द्रौपदी के पूर्व जन्म में तपस्या से प्रसन्न हो कर शंकर भगवान के द्वारा पाँच पराक्रमी पति प्राप्त करने के वर देने की बात बताई।

वेदव्यास जी के वचनों को सुन कर द्रुपद का सन्देह समाप्त हो गया और उन्होंने अपनी पुत्री द्रौपदी का पाणिग्रहण संस्कार पाँचों पाण्डवों के साथ बड़े धूमधाम के साथ कर दिया। इस विवाह में विशेष बात यह हुई कि देवर्षि नारद ने स्वयं पधार कर द्रौपदी को प्रतिदिन कन्यारूप हो जाने का आशीर्वाद दिया।

ABHAY
09-01-2011, 06:14 AM
पाण्डवों के जीवित होने तथा द्रौपदी के साथ विवाह होने की बात तेजी से सभी ओर फैल गई। हस्तिनापुर में इस समाचार के मिलने पर दुर्योधन और उसके सहयोगियों के दुःख का पारावार न रहा। वे पाण्डवों को उनका राज्य लौटाना नहीं चाहते थे किन्तु भीष्म, विदुर, द्रोण आदि के द्वारा धृतराष्ट्र को समझाने तथा दबाव डालने के कारण उन्हें पाण्डवों को राज्य का आधा हिस्सा देने के लिये विवश होना पड़ गया। विदुर पाण्डवों को बुला लाये, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विकर्ण, चित्रसेन आदि सभी ने उनकी अगवानी की और राज्य का खाण्डव वन नामक हिस्सा उन्हें दे दिया गया। पाण्डवों ने उस खाण्डव वन में एक नगरी की स्थापना करके उसका नाम इन्द्रप्रस्थ रखा तथा इन्द्रप्रस्थ को राजधानी बना कर राज्य करने लगे। युधिष्ठिर की लोकप्रियता के कारण कौरवों के राज्य के अधिकांश प्रजाजन पाण्डवों के राज्य में आकर बस गये।

ABHAY
09-01-2011, 06:17 AM
महाभारत भाग ११

इन्द्रप्रस्थ की स्थापना
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7900&stc=1&d=1294539439
पाण्ड्व श्रीकृष्ण के साथ खाण्डववन में मय दानव तथा विश्वकर्मा द्वारा निर्मित इन्द्रप्रस्थ नगर को देखते हुए
द्रौपदी स्वयंवर के पहले विदुर को छोड़ कर सभी पाण्ड्वो को मृत समझने लगे और इस कारण धृतराष्ट्र ने इस कारण शकुनि के कहने पर दुर्योधन को युवराज बना दिया।द्रौपदी स्वयंवर के तत्पश्चात दुर्योधन आदि को पाण्ड्वो के जीवित होने का पता चला।पाण्ड्वो ने कौरवों से अपना राज्य मांगा परन्तु गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठर ने कौरवों द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डववन आधे राज्य के रुप मे प्राप्त किया।पांडवों की पांचाल राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी से विवाह उपरांत मित्रता के बाद वे काफ़ी शक्तिशाली हो गए थे। तब हस्तिनापुर के महाराज धृष्टराष्ट्र ने उन्हें राज्य में बुलाया। धृष्टराष्ट्र ने युधिष्ठिर को संबोधित करते हुए कहा, “ हे कुंती पुत्र! अपने भ्राताओं के संग जो मैं कहता हुं, सुनो। तुम खांडवप्रस्थ के वन को हटा कर अपने लिए एक शहर का निर्माण करो, जिससे कि तुममें और मेरे पुत्रों में कोई अंतर ना रहे। यदि तुम अपने स्थान में रहोगे, तो तुमको कोई भी क्षति नहीं पहुंचा पाएगा। पार्थ द्वारा रक्षित तुम खांडवप्रस्थ में निवास करो, और आधा राज्य भोगो।“

ABHAY
09-01-2011, 06:18 AM
धृतराष्ट्र के कथनानुसार, पांडवों ने हस्तिनापुर से प्रस्थान किया। आधे राज्य के आश्वासन के साथ उन्होंने खांडवप्रस्थ के वनों को हटा दिया। उसके उपरांत पांडवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर का सौन्दर्यीकरण किया। वह शहर एक द्वितीय स्वर्ग के समान हो गया। उसके बाद सभि महारथियों व राज्यों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में वहां श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास के सान्निध्य में एक महान यज्ञ और गृहप्रवेश अनुष्ठान का आयोजन हुआ। उसके बाद, सागर जैसी चौड़ी खाई से घिरा, स्वर्ग गगनचुम्बी चहारदीवारी से घिरा व चंद्रमा या सूखे मेघों जैसा श्वेत वह नगर नागों की राजधानी, भोगवती नगर जैसा लगने लगा। इसमें अनगिनत प्रासाद, असंख्य द्वार थे, जो प्रत्येक द्वार गरुड़ के विशाल फ़ैले पंखों की तरह खुले थे। इस शहर की रक्षा दीवार में मंदराचल पर्वत जैसे विशाल द्वार थे। इस शस्त्रों से सुसज्जित, सुरक्षित नगरी को दुश्मनों का एक बाण भी खरौंच तक नहीं सकता था। उसकी दीवारों पर तोपें और शतघ्नियां रखीं थीं, जैसे दुमुंही सांप होते हैं। बुर्जियों पर सशस्त्र सेना के सैनिक लगे थे। उन दीवारों पर वृहत लौह चक्र भी लगे थे।

यहां की सडअकें चौड़ी और साफ थीं। उन पर दुर्घटना का कोई भय नहीं था। भव्य महलों, अट्टालिकाओं और प्रासादों से सुसज्जित यह नगरी इंद्र की अमरावती से मुकाबला करती थीं। इस कारण ही इसे इंद्रप्रस्थ नाम दिया गया था। इस शहर के सर्वश्रेष्ठ भाग में पांडवों का महल स्थित था। इसमें कुबेर के समान खजाना और भंडार थे। इतने वैभव से परिपूर्ण इसको देखकर दामिनी के समान आंखें चौधिया जाती थीं।

“जब शहर बसा, तो वहां बड़ी संख्या में ब्राह्मण आए, जिनके पास सभी वेद-शास्त्र इत्यादि थे, व सभी भाशाओं में पारंगत थे। यहां सभी दिशाओं से बहुत से व्यापारीगण पधारे। उन्हें यहां व्यापार कर द्न संपत्ति मिलने की आशाएं थीं। बहुत से कारीगर वर्ग के लोग भी यहां आ कर बस गए। इस शहर को घेरे हुए, कई सुंदर उद्यान थे, जिनमें असंख्य प्रजातियों के फल और फूल इत्यादि लगे थे। इनमें आम्र, अमरतक, कदंब अशोक, चंपक, पुन्नग, नाग, लकुचा, पनास, सालस और तालस के वृक्ष थे। तमाल, वकुल और केतकी के महकते पेड़ थे। सुंदर और पुष्पित अमलक, जिनकी शाखाएं फलों से लदी होने के कारण झुकी रहती थीं। लोध्र और सुंदर अंकोल वृक्ष भी थे। जम्बू, पाटल, कुंजक, अतिमुक्ता, करविरस, पारिजात और ढ़ेरों अन्य प्रकार के पेड़ पौधे लगे थे। अनेकों हरे भरे कुञ्ज यहां मयूर और कोकिल ध्वनियों से गूंजते रहते थे। कई विलासगृह थे, जो कि शीशे जैसे चमकदार थे, और लताओं से ढंके थे। यहां कई कृत्रिम टीले थे, और जल से ऊपर तक भरे सरोवर और झीलें, कमल तड़ाग जिनमें हंस और बत्तखें, चक्रवाक इत्यादि किल्लोल करते रहते थे। यहां कई सरोवरों में बहुत से जलीय पौधों की भी भरमार थी। यहां रहकर, शहर को भोगकर, पांडवों की खुशी दिनोंदिन बढ़ती गई थी।

ABHAY
09-01-2011, 06:18 AM
भीष्म पितामह और धृतराष्ट्र के अपने प्रति दर्शित नैतिक व्यवहार के परिणामस्वरूप पांडवों ने खांडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ में परिवर्तित कर दिया|पाण्डुकुमार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ खाण्डववन खाण्डववन को जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों के (छत्राकार) बाँध से निवारण करते हुए अग्नि को तृप्त किया।।वहा अर्जुन और कृष्ण जी ने समस्त देवताओ को युद्ध मे परास्त कर दिया।इसके फलस्वरुप अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ प्राप्त किया और कृष्ण जी ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था। उन्हें युद्ध में भगवान् कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य द्रोण से ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट न होने वाले बाण प्राप्त किये थे।इन्द्र अप्ने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर अतिप्रसन्न हुए। इन्द्र के कहने पर देव शिल्पि विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डववन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर मे निर्मित कर दिया,जिसे इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया।

ABHAY
09-01-2011, 06:21 AM
महाभारत भाग १२

पाण्डवों की विश्व विजय और उनका वनवास
सभी पाण्डव सब प्रकार की विद्याओं में प्रवीण थे।पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पाई और युधिष्ठिर राज्य करने लगे। मयनिर्मित सभाभवन में अनेक वैचित्र्य थे। दुर्योधन जब वहां घूम रहा था तब उसको अनेक बार स्थल पर जल की, जल पर स्थल की, दीवार में दरवाजे की और दरवाजे में दीवार की भ्रांति हुई। कहीं वह सीढ़ी में समतल की भ्रांति होने के कारण गिर गया और कहीं पानी को स्थल समझ पानी में भीग गया। ऐसे ही एक बावली में उसके गिर जाने पर युधिष्ठिर के अतिरिक्त शेष चारों पांडव हंसने लगे। दुर्योधन परिहासप्रिय नहीं था। अत: ईर्ष्या, लज्जा आदि से जल उठा। राजसूय यज्ञ में राजा अनेक प्रकार की भेंट लेकर आये थे। द्विजों में प्रधान कुणिंद ने धर्मराज को भेंट में एक शंख दिया, जो अन्नदान करने पर स्वयं बज उठता था। उसकी ध्वनि से वहां उपस्थित सभी राजा तेजोहीन तथा मूर्च्छित हो गये, मात्र धृष्टद्युम्न, पांडव, सात्यकि तथा आठवें श्रीकृष्ण धैर्यपूर्वक खड़े रहे। दुर्योधन आदि के मूर्च्छित होने पर पांडव आदि जोर-जोर से हंसने लगे तथा अर्जुन ने अत्यंत प्रसन्न होकर एक ब्राह्मण को पांच सौ बैल समर्पित किये। युधिष्ठिर ने वह शंख अर्जुन को भेंटस्वरूप दे दिया।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7902&stc=1&d=1294539665
कुरु राज्य सभा मे अपमानित हुई द्रौपदी

ABHAY
09-01-2011, 06:21 AM
अनेक घटनाओं से दुर्योधन चिढ़ गया थां अत: हस्तिनापुर जाते हुए उसने मामा शकुनि के साथ पांडवों को हराकर उनका वैभव हस्तगत करने की एक युक्ति सोचीं शकुनि द्यूतक्रीड़ा में निपुण था-युधिष्ठिर को शौक अवश्य था किंतु खेलना नहीं आता था। अत उन सबने मिलकर धृतराष्ट्र को मना लिया। विदुर के विरोध करने पर भी धृतराष्ट्र ने उसी को इन्द्रप्रस्थ जाकर युधिष्ठिर को आमन्त्रित करने के लिए कहा, साथ ही यह भी कहा कि वह पांडवों को उनकी योजना के विषय में कुछ न बताये। विदुर उनका संदेश लेकर पांडवों को आमन्त्रित कर आये। पांडवों के हस्तिनापुर में पहुंचने पर विदुर ने उनको एकांत में संपूर्ण योजना से अवगत कर दिया तथापि युधिष्ठिर ने चुनौती स्वीकार कर ली तथा द्यूतक्रीड़ा में वे व्यक्तिगत समस्त दाव हारने के बाद भाइयों को, स्वयं अपने को तथा अंत में द्रौपदी को भी हार बैठे। विदुर ने कहा कि अपने-अपको दांव पर हारने के बाद युधिष्ठिर द्रौपदी को दांव पर लगाने के अधिकारी नहीं रह जाते, किंतु धृतराष्ट्र ने प्रतिकामी नामक सेवक को द्रौपदी को वहां ले आने के लिए भेजा। द्रौपदी ने उससे यही प्रश्न किया कि धर्मपुत्र ने पहले कौन सा दांव हारा है- स्वयं अपना अथवा द्रौपदी का।

ABHAY
09-01-2011, 06:22 AM
दुर्योंधन ने क्रुद्ध होकर दु:शासन (भाई) से कहा कि वह द्रौपदी को सभाभवन में लेकर आये। युधिष्ठिर ने गुप्त रूप से एक विश्वस्त सेवक को द्रौपदी के पास भेजा कि यद्यपि वह रजस्वला है तथा एक वस्त्र में है, वह वैसी ही उठ कर चली आये, सभा में पूज्य वर्ग के सामने उसका उस दशा में कलपते हुए पहुंचना दुर्योधन आदि के पापों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा। द्रौपदी सभा में पहुंची तो दु:शासन ने उसे स्त्री वर्ग की ओर नहीं जाने दिया तथा उसके बाल खींचकर कहा- 'हमने तुझे जुए में जीता है। अत: तुझे अपनी दासियों में रखेंगे।' द्रौपदी ने समस्त कुरुवंशियों के शौर्य, धर्म तथा नीति को ललकारा और श्रीकृष्ण को मन-ही-मन स्मरण कर अपनी लज्जा की रक्षा के लिए प्रार्थना की। सब मौन रहे किंतु दुर्योधन के छोटे भाई विकर्ण ने द्रौपदी का पक्ष लेते हुए कहा कि हारा हुआ युधिष्ठिर उसे दांव पर नहीं रख सकता था किंतु किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। कर्ण के उकसाने से दु:शासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्रा करने की चेष्टा की। उधर विलाप करती हुई द्रौपदी ने पांडवों की ओर देखा तो भीम ने युधिष्ठिर से कहा कि वह उसके हाथ जला देना चाहता है, जिनसे उसने जुआ खेला था। अर्जुन ने उसे शांत किया। भीम ने शपथ ली कि वह दु:शासन की छाती का खून पियेगा तथा दुर्योधन की जांघ को अपनी गदा से नष्ट कर डालेगा। द्रौपदी ने विकट विपत्ति में श्रीकृष्ण का स्मरण किया। श्रीकृष्ण की कृपा से अनेक वस्त्र वहां प्रकट हुए जिनसे द्रौपदी आच्छादित रही फलत: उसके वस्त्र खींचकर उतारते हुए भी दु:शासन उसे नग्न नहीं कर पाया। सभा में बार-बार कार्य के अनौचित्य अथवा औचित्य पर विवाद छिड़ जाता था। दुर्योधन ने पांडवों को मौन देख 'द्रौपदी की, दांव में हारे जाने' की बात ठीक है या गलत, इसका निर्णय भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव पर छोड़ दिया। अर्जुन तथा भीम ने कहा कि जो व्यक्ति स्वयं को दांव में हरा चुका है, वह किसी अन्य वस्तु को दांव पर रख ही नहीं सकता।

धृतराष्ट्र ने सभा की नब्ज पहचानकर दुर्योधन को फटकारा तथा द्रौपदी से तीन वर मांगने के लिए कहा। द्रौपदी ने पहले वर से युधिष्ठिर की दासभाव से मुक्ति मांगी ताकि भविष्य में उसका पुत्र प्रतिविंध्य दास पुत्र न कहलाए। दूसरे वर से भीम, अर्जुन नकुल तथा सहदेव की, शस्त्रों तथा रथ सहित दासभाव से मुक्ति मांगी। तीसरा वर मांगने के लिए वह तैयार ही नहीं हुई, क्योंकि उसके अनुसार क्षत्रिय स्त्रियों दो वर मांगने की ही अधिकारिणी होती हैं। धृतराष्ट्र ने उनसे संपूर्ण विगत को भूलकर अपना स्नेह बनाए रखने के लिए कहा, साथ ही उन्हें खांडव वन में जाकर अपना राज्य भोगने की अनुमति

ABHAY
09-01-2011, 06:22 AM
धृतराष्ट्र ने उनके खांडववन जाने से पूर्व, दुर्योधन की प्रेरणा से, उन्हें एक बार फिर से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दांव रखा जायेगा। पांडव अथवा धृतराष्ट्र पुत्रों में से जो भी हार जायेंगे, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। भीष्म, विदुर, द्रोण आदि के रोकने पर भी द्यूतक्रीड़ा हुई जिसमें पांडव हार गये, छली शकुनि जीत गया। वनगमन से पूर्व पांडवों ने शपथ ली कि वे समस्त शत्रुओं का नाश करके ही चैन की सांस लेंगे। श्रीधौम्य (पुरोहित) के नेतृत्व में पांडवों ने द्रौपदी को साथ ले वन के लिए प्रस्थान किया। श्रीधौम्य साम मन्त्रों का गान करते हुए आगे की ओर बढ़े। वे कहकर गये थे कि युद्ध में कौरवों के मारे जाने पर उनके पुरोहित भी इसी प्रकार साम गान करेंगे। युधिष्ठिर ने अपना मुंह ढका हुआ था (वे अपने क्रुद्ध नेत्रों से देखकर किसी को भस्म नहीं करना चाहते थे), भीम अपने बाहु की ओर देख रहा था (अपने बाहुबल को स्मरण कर रहा था), अर्जुन रेत बिखेरता जा रहा था (ऐसे ही भावी संग्राम में वह वाणों की वर्षा करेगा), सहदेव ने मुंह पर मिट्टी मली हुई थी। (दुर्दिन में कोई पहचान न ले), नकुल ने बदन पर मिट्टी मल रखी थी (कोई नारी उसके रूप पर आसक्त न हो), द्रौपदी ने बाल खोले हुए थे, उन्हीं से मुंह ढककर विलाप कर रही थी (जिस अन्याय से उसकी वह दशा हुई थी, चौदह वर्ष बाद उसके परिणाम स्वरूप शत्रु-नारियों की भी वही दशा होगी, वे अपने सगे-संबंधियों को तिलांजलि देंगी

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09-01-2011, 06:23 AM
वनवास के बारहवें वर्ष के पूरे होने पर पाण्डवों ने अब अपने अज्ञातवास के लिये मत्स्य देश के राजा विराट के यहाँ रहने की योजना बनाई। उन्होंने अपना वेश बदला और मत्स्य देश की ओर निकल पड़े। मार्ग के एक भयानक वन के भीतर के एक श्मशान में उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को छुपा कर रख दिया और उनके ऊपर मनुष्यों के मृत शवों तथा हड्डियों को रख दिया जिससे कि भय के कारण कोई वहाँ न आ पाये। उन्होंने अपने छद्*म नाम भी रख लिये – जो थे जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। किन्तु ये नाम केवल मार्ग के लिये थे, मत्स्य देश में वे इन नामों को बदल कर दूसरे नाम रखने वाले थे। राजा विराट के दरबार में पहुँच कर युधिष्ठिर ने कहा, “हे राजन्! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम कंक है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।” विराट बोले, “कंक! तुम दर्शनीय पुरुष प्रतीत होते हो, मैं तुम्हें पाकर प्रसन्न हूँ। अतएव तुम सम्मान पूर्वक यहाँ रहो।” उसके बाद शेष पाण्डव राजा विराट के दरबार में पहुँचे और बोले, “हे राजाधिराज! हम सब पहले राजा युधिष्ठिर के सेवक थे। पाण्डवों के वनवास हो जाने पर हम आपके दरबार में सेवा के लिये उपस्थित हुये हैं। राजा विराट के द्वारा परिचय पूछने पर सर्वप्रथम हाथ में करछी-कढ़ाई लिये हुये भीमसेन बोले, “महाराज! आपका कल्याण हो। मेरा नाम बल्लभ है। मैं रसोई बनाने का कार्य उत्तम प्रकार से जानता हूँ। मैं महाराज युधिष्ठिर का रसोइया था।” सहदेव ने कहा, “महाराज! मेरा नाम तन्तिपाल है, मैं गाय-बछड़ों के नस्ल पहचानने में निपुण हूँ और मैं महाराज युधिष्ठिर के गौशाला की देखभाल किया करता था।” नकुल बोले, “हे मत्स्याधिपति! मेरा नाम ग्रान्थिक है, मैं अश्*व विद्या में निपुण हूँ। राजा युधिष्ठिर के यहाँ मेरा काम उनके अश्*वशाला की देखभाल करना था।” महाराज विराट ने उन सभी को अपनी सेवा में रख लिया। अन्त में उर्वशी के द्वारा दिये गये शापवश नपुंसक बने, हाथीदांत की चूड़ियाँ पहने तथा सिर पर चोटी गूँथे हुये अर्जुन बोले, “हे मत्स्यराज! मेरा नाम वृहन्नला है, मैं नृत्य-संगीत विद्या में निपुण हूँ। चूँकि मैं नपुंसक हूँ इसलिये महाराज युधिष्ठिर ने मुझे अपने अन्तःपुर की कन्यायों को नृत्य और संगीत सिखाने के लिये नियुक्*त किया था।” वृहन्नला के नृत्य-संगीत के प्रदर्शन पर मुग्ध होकर, उसकी नपुंसकता की जाँच करवाने के पश्*चात्, महाराज विराट ने उसे अपनी पुत्री उत्तरा की नृत्य-संगीत के शिक्षा के लिये नियुक्*त कर लिया। इधर द्रौपदी राजा विराट की पत्*नी सुदेष्णा के पास जाकर बोलीं, “महारानी! मेरा नाम सैरन्ध्री है। मैं पहले धर्मराज युधिष्ठिर की महारानी द्रौपदी की दासी का कार्य करती थी किन्तु उनके वनवास चले जाने के कारण मैं कार्यमुक्*त हो गई हूँ। अब आपकी सेवा की कामना लेकर आपके पास आई हूँ।” सैरन्ध्री के रूप, गुण तथा सौन्दर्य से प्रभावित होकर महारानी सुदेष्णा ने उसे अपनी मुख्य दासी के रूप में नियुक्*त कर लिया।इस प्रकार पाण्डवों ने मत्स्य देश के महाराज विराट की सेवा में नियुक्*त होकर अपने अज्ञातवास का आरम्भ किया।

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09-01-2011, 06:25 AM
महाभारत भाग १३

पाण्डवों की तीर्थयात्रा
दुःखी होकर उन्हीं के विषय में बातें कर रहे थे कि वहाँ पर लोमश ऋषि पधारे। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनका यथोचित आदर-सत्कार करके उच्चासन प्रदान किया। लोमश ऋषि बोले, “हे पाण्डवगण! आप लोग अर्जुन की चिन्ता छोड़ दीजिये। मैं अभी देवराज इन्द्र की नगरी अमरावती से आ रहा हूँ। अर्जुन वहाँ पर सुखपूर्वक निवास कर रहे हैं। उन्होंने भगवान शिव एवं अन्य देवताओं की कृपा से दिव्य तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र तथा चित्रसेन से नृत्य-संगीत कला की शिक्षा भी प्राप्त कर लिया है। वे अब निवात और कवच नामक असुरों का वध करके ही यहाँ आयेंगे। देवराज इन्द्र ने आपके लिये यह संदेश भेजा है कि आप पाण्डवगण अब तीर्थयात्रा करके अपने आत्मबल में वृद्धि करें।

देवराज इन्द्र के दिये गये संदेश के अनुसार युधिष्ठिर अपने भाइयों, पुरोहित धौम्य, लोमश ऋषि आदि को साथ ले कर तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े। वे लोग नैमिषारण्य, कन्या-तीर्थ, अश्व-तीर्थ, गौ-तीर्थ आदि में दर्शन-स्नानादि करते हुये अगस्त्य ऋषि के आश्रम आ पहुँचे। लोमश ऋषि ने उस आश्रम की प्रशंसा करते हुये बताया, “हे धर्मराज! यह अगस्त्य मुनि एवं उनकी धर्मात्मा पत्नी लोपामुद्रा की पवित्र तपस्थली है। एक बार अगस्त्य मुनि यहाँ घूमते हुये पहुँचे तो उन्होंने एक गड्ढे में अपने पूर्वजों को उल्टे लटकते देखा। अगस्त्य मुनि के द्वारा उनके इस प्रकार से लटकने का कारण पूछने पर पूर्वजों ने बताया कि हे पुत्र! तुम्हारे निःसंतान होने के कारण हमें यह नरक कुण्ड मिला है। इसलिये शीघ्र अपना विवाह कर पुत्र उत्पन्न करो, जिससे हमारा उद्धार हो। पितृगणों की बात से दुःखी होकर अगस्त्य एक सुयोग्य पत्नी की खोज में निकले और विदर्भ देश की राजकुमारी लोपामुद्रा से विवाह कर लिया। जब अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर पुत्रोत्पत्ति की अभिलाषा से उसे अपने पास आने के लिये कहा तो लोपामुद्रा बोली कि हे स्वामी! मैं राजकुमारी हूँ इसलिये आपका मेरे साथ समागम भी राजोचित ढंग से होना चाहिये। पहले आप धन की व्यवस्था कर के मेरे और स्वयं के लिये सुन्दर वस्त्र तथा स्वर्णाभूषण ले कर आइये। अपनी पत्नी की वाणी से प्रभावित होकर अगस्त्य मुनि धन माँगने के लिये राजा श्रुतर्वा, व्रघ्नश्व तथा इक्ष्वाकु वंशी त्रसदृस्यु के पास गये किन्तु सभी राजाओं का कोष खाली होने के कारण उन राजाओं क्षमाप्रार्थना करते हुये ने अगस्त्य मुनि को धन देने में असमर्थता प्रकट कर दिया। निराश होकर अगस्त्य मुनि इल्वल नामक दैत्य के पास पहुँचे। इल्वल दैत्य ने प्रसन्नता के सा उन्हें मुँहमाँगा धन प्रदान कर दिया। धन प्राप्त करके अगस्त्य मुनि ने अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति की और दृढस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया। कालान्तर में यह तीर्थस्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी तीर्थस्थान में स्नान करके परशुराम ने अपना तेज पुनः प्राप्त किया था। इसलिये हे युधिष्ठिर! यहाँ स्नान करके आप दुर्योधन के द्वारा छीने गये अपने तेज को पुनः प्राप्त कीजिये।”

ABHAY
09-01-2011, 06:25 AM
लोमश ऋषि के आदेशानुसार वहाँ स्नान-पूजा आदि करके युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा, “हे प्रभो! कृपा करके यह बताइये कि परशुराम निस्तेज कैसे हुये थे?” लोमश ऋषि ने उत्तर दिया, “धर्मराज! दशरथनन्दन श्री राम जब शिव जी के धनुष को तोड़कर सीता जी से विवाह कर अपने पिता, भाइयों, बारातीगण आदि के साथ अयोध्या लौट रहे थे तो एक बड़े जोरों की आँधी आई जिससे वृक्ष पृथ्वी पर गिरने लगे। तभी राजा दशरथ की दृष्टि भृगुकुल के परशुराम पर पड़ी। उनकी वेशभूषा बड़ी भयंकर थी। तेजस्वी मुख पर बड़ी बड़ी जटायें बिखरी हुई थीं नेत्रों में क्रोध की लालिमा थी। कन्धे पर कठोर फरसा और हाथों में धनुष बाण थे। ऋषियों ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया और इस स्वागत को स्वीकार करके वे श्री रामचन्द्र से बोले़ “दशरथनन्दन राम! हमें ज्ञात हुआ है कि तुम बड़े पराक्रमी हो और तुमने शिव जी के धनुष को तोड़ डाला है और उसे तोड़कर तुमने अपूर्व ख्याति प्राप्त की है। मैं तुम्हारे लिये एक अच्छा धनुष लाया हूँ। यह धनुष साधारण नहीं है, जमदग्निकुमार परशुराम का है। इस पर बाण चढ़ाकर तुम अपने शौर्य का परिचय दो। तुम्हारे बल और शौर्य को देखकर मैं तुमसे द्वन्द्व युद्ध करूँगा।

परशुराम की बात सुनकर राजा दशरथ विनीत स्वर मे बोले, “भगवन्! आप वेदविद् स्वाध्यायी ब्राह्मण हैं। क्षत्रियों का विनाश करके आप बहुत पहले ही अपने क्रोध का शमन कर चुके हैं। इसलिये हे ऋषिराज! आप इन बालकों को अभय दान दीजिये।”

किन्तु परशुराम जी ने दशरथ की अनुनय-विनय पर कोई ध्यान न देते हुये राम से कहा, “राम! सम्भवतः तुम्हें ज्ञात नहीं होगा कि संसार में केवल दो ही धनुष सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। सारा संसार उनका सम्मान करता हैं विश्वकर्मा ने उन्हें स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनमें से पिनाक नामक एक धनुष को देवताओं ने भगवान शिव को दिया था। इसी धनुष से भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था। तुमने उसी धनुष को तोड़ डाला है। दूसरा दिव्य धनुष मेरे हाथ में है। इसे देवताओं ने भगवान विष्णु को दिया था। यह भी पिनाक की भाँति ही शक्तिशाली है। विष्णु ने भृगुवंशी ऋचीक मुनि को धरोहर के रूप में वह धनुष दे दिया। वंशानुवंश रूप से यह धनुष मुझे प्राप्त हुआ है। अब तुम एक क्षत्रिय के नाते इस धनुष को लेकर इस पर बाण चढ़ाओ और सफल होने पर मेरे साथ द्वन्द्व युद्ध करो।

ABHAY
09-01-2011, 06:26 AM
परशुराम के द्वारा बार-बार ललकारे जाने पर रामचन्द्र बोले, “हे भार्गव! मैं ब्राह्मण समझकर आपके सामने विशेष बोल नहीं रहा हूँ। किन्तु आप मेरी इस विनशीलता को पराक्रमहीनता एवं कायरता समझकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। लाइये, धनुष बाण मुझे दीजिये।” यह कह कर उन्होंने झपटते हुये परशुराम के हाथ से धनुष बाण ले लिये। फिर धनुष पर बाण चढ़ाकर बोले, “हे भृगुनन्दन! ब्राह्मण होने के कारण आप मेरे पूज्य हैं, इसलिये इस बाण को मैं आपके ऊपर नहीं छोड़ सकता। परन्तु धनुष पर चढ़ने के बाद यह बाण कभी निष्फल नहीं जाता। इसका कहीं न कहीं उपयोग करना ही पड़ता है। इसलिये इस बाण के द्वारा आपकी सर्वत्र शीघ्रतापूर्वक आने-जाने की शक्ति को नष्ट किये देता हूँ।” श्री राम की यह बात सुनकर शक्तिहीन से हुये परशुराम जी विनयपूर्वक कहने लगे, “बाण छोड़ने से पूर्व मेरी एक बात सुन लीजिये। क्षत्रियों को नष्ट करके जब मैंने यह भूमि कश्यप जी को दान में दी थी तो उन्होंने मुझसे कहा था कि अब तुम्हें पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिये क्योंकि तुमने पृथ्वी का दान कर दिया है। तभी से गुरुवर कश्यप जी की आज्ञा का पालन करता हुआ मैं कभी रात्रि में पृथ्वी पर निवास नहीं करता। अतः हे राम! कृपा करके मेरी गमन शक्ति को नष्ट मत करो। मैं मन के समान गति से महेन्द्र पर्वत पर चला जाउँगा। चूँकि इस बाण का प्रयोग निष्फल नहीं जाता, इसलिये आप उन अनुपम लोकों को नष्ट कर दें जिन पर मेँने अपनी तपस्या से विजय प्राप्त की है। आपने जिस सरलता से इस धनुष पर बाण चढ़ा दिया है, उससे मुझे विश्वास हो गया है कि आप मधु राक्षस का वध करने वाले साक्षत विष्णु हैं।” परशुराम की प्रार्थना को स्वीकार करके राम ने बाण छोड़कर उनके द्वारा तपस्या के बल पर अर्जित किये गये समस्त पुण्यलोकों को नष्ट कर दिया और इससे परशुराम जी निस्तेज हो गये। फिर परशुराम जी तपस्या करने के लिये महेन्द्र पर्वत पर चले गये। वहाँ उपस्थित सभी ऋषि-मुनियों सहित राजा दशरथ ने रामचन्द्र की भूरि भूरि प्रशंसा की।

ABHAY
09-01-2011, 06:27 AM
महाभारत भाग १४

अर्जुन को दिव्यास्त्रों की प्राप्ति
पाण्डवों के वन जाने का समाचार जब द्रुपद, वृष्णि, अन्धक आदि सगे सम्बंधियों को मिला तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। वे सभी राजागण काम्यक वन में पाण्डवों से भेंट करने आये, उनके साथ वहाँ श्री कृष्ण भी पधारे। उन्होंने एक साथ मिल कर कौरवों पर आक्रमण कर देने की योजना बनाई किन्तु युधिष्ठिर ने उन्हें समझाया, “हे नरेशों! कौरवों ने तेरह वर्ष पश्चात् हमें अपना राज्य लौटा देने का वचन दिया है, अतएव आप लोगों का कौरवों पर इस प्रकार आक्रमण करना कदापि उचित नहीं है।” युधिष्ठिर के वचनों को सुन कर उन्होंने कौरवों पर आक्रमण का विचार त्याग दिया, किन्तु श्री कृष्ण ने प्रतिज्ञा की कि वे भीमसेन और अर्जुन के द्वारा कौरवों का नाश करवा के ही रहेंगे। उन सबके प्रस्थान के के बाद उनसे मिलने के लिये वेदव्यास आये। पाण्डवों ने उन्हें यथोचित सम्मान तथा उच्चासन प्रदान किया वेदव्यास जी ने पाण्डवों के कष्ट निवारणार्थ उन्हें प्रति-स्मृति नामक विद्या सिखाई। एक दिन मार्कणडेय ऋषि भी पाण्डवों के यहाँ पधारे और उनके द्वारा किये गये आदर-सत्कार से प्रसन्न होकर उन्हें अपना राज्य वापस पाने का आशीर्वाद दिया।

इस प्रकार ऋषि-मुनियों के आशीर्वाद एवं वरदान से पाण्डवों का आत्मबल बढ़ता गया। बड़े भाई युधिष्ठिर के कारण भीम और अर्जुन शान्त थे किन्तु कौरवों का वध करने के अपने संकल्प को वे एक पल के लिये भी नहीं भुलाते थे और अनेक प्रकार से अपनी शक्ति और संगठन को बढ़ाने के प्रयास में जुटे रहते थे। पांचाली भी भरी सभा में किये गये अपने अपमान को एक क्षण के लिये भी विस्मृत नहीं कर पा रही थीं और भीम और अर्जुन के क्रोधाग्नि में घृत डालने का कार्य करती रहती थीं।

एक बार वीरवर अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुये एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में वे भगवान की शंकर की तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव जी ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है। शिव जी ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया। जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठा कर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये।

ABHAY
09-01-2011, 06:27 AM
शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव जी और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे। दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा-टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े हुये मुस्कुराता रहा। अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकरा कर दो टुकड़े हो गई। अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये।

थोड़ी देर पश्चात् जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़े मुस्कुरा रहा है। भील की शक्ति देख कर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली, किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई। इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े। भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा, “हे अर्जुन! मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ।” भगवान शंकर अर्जुन को पशुपत्यास्त्र प्रदान कर अन्तर्ध्यान हो गये। उसके पश्चात् वहाँ पर वरुण, यम, कुबेर, गन्धर्व और इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर सवार हो कर आ गये। अर्जुन ने सभी देवताओं की विधिवत पूजा की। यह देख कर यमराज ने कहा, “अर्जुन! तुम नर के अवतार हो तथा श्री कृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिल कर अब पृथ्वी का भार हल्का करो।” इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर अपने-अपने लोकों को चले गये।

ABHAY
09-01-2011, 06:28 AM
अर्जुन को उर्वशी का शाप
अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा, “हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं, अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।” इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे। कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया। देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया।

अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र-शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र-शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर लिया। फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले, “वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।” चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया।

एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे, वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा, “हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी काम-वासना जागृत हो गई है, अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी काम-वासना को शांत करें।” उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले, “हे देवि! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं। देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।” अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा, “तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।” इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।

जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले, “वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है, वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी, यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।”

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09-01-2011, 06:29 AM
अर्जुन की वापसी
पाण्डवगण उत्तराखंड के अनेक मनमोहक द*ृश्यों को देखते हुये ऋषि आर्ष्टिषेण के आश्रम में आ पहुँचे। उनका यथोचित स्वागत सत्कार करने के पश्*चात् महर्षि आर्ष्टिषेण बोले, “हे धर्मराज! आप लोगों को अब गन्धमादन पर्वत से और आगे नहीं जाना चाहिये क्योंकि इसके आगे केवल सिद्ध तथा देवर्षिगण ही जा सकते हैं। अतः आप लोग अब यहीं रहकर अर्जुन के आने की प्रतीक्षा करें।” इस प्रकार पाण्डवों की मण्डली महर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम में ही रह कर अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। उस प्रतीक्षा-काल में भीम ने वहाँ निवास करने वाले समस्त दुष्टों और राक्षसों का अन्त कर दिया।

उधर जब अर्जुन देवराज की पुरी अमरावती में रह रहे थे तो एक दिन इन्द्र ने उनसे कहा, “हे पार्थ! यहाँ रहकर तुम समस्त अस्त्र-शस्त्रादि विद्याओं में पारंगत हो चुके हो और तुम्हारे जैसा धनुर्धर इस जगत में कदाचित ही कोई दूसरा होगा। अब में तुम मेरे शत्रु निवातकवच नामक दैत्य से युद्ध करके उसका वध करो। यही तुम्हारे लिये गुरुदक्षिणा होगी।” इतना कहने के बाद इन्द्र ने अर्जुन को अमोघ कवच पहनाकर तथा अपने दिव्य रथ में बिठाकर अर्जुन को निवातकवच के साथ युद्ध के लिये भेज दिया। उस रथ में बैठकर अर्जुन निवातकवच की नगरी में पहुँचे जो कि समुद्र में बसा था। यह देखकर कि वह नगरी इन्द्र की पुरी अमरावती से भी अधिक मनोरम थी, अर्जुन आश्*चर्यचकित रह गये। उनके आश्*चर्य का निवारण करने के लिये इन्द्र के सारथी मातलि बोले, “हे अर्जुन! पहले देवराज इन्द्र समस्त देवताओं सहित इसी नगरी में निवास करते थे। किन्तु ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर निवातकवच अत्यन्त प्रबल हो गया और इन्द्र पर विजय प्राप्त कर लिया फलस्वरूप देवराज को इस नगरी को छोड़कर अमरावती में जाना पड़ा।” मातलि की बात सुनकर अर्जुन ने अपने शंख की ध्वनि से उस नगरी को गुँजा दिया। शंख की ध्वनि सुनकर निवातकवच अपने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर अर्जुन से युद्ध करने आ गया। दोनों महारथियों में घोर युद्ध होने लगा और अन्त में अर्जुन के हाथों निवातकवच मारा गया। निवातकवच के वध करके वापस आने पर देवराज इन्द्र ने उनके पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये कहा, “हे पार्थ! अब यहाँ पर आपका कार्य समाप्त हुआ। आपके भाई गन्धमादन पर्वत पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। चलिये मैं आपको अब उनके पास पहुँचा दूँ।” इस प्रकार अर्जुन देवराज इन्द्र के साथ उनके रथ में बैठकर गन्धमादन पर्वत में अपने भाइयों के पास आ पहुँचे। धर्मराज युधिष्ठिर ने देवराज इन्द्र का विधिवत् पूजन किया। अर्जुन भी ऋषिगणों, ब्राह्मणों, युधिष्ठिर तथा भीमसेन के चरणस्पर्श करने के पश्*चात् नकुल, सहदेव तथा मण्डली के अन्य सदस्यों से गले मिले। इसके पश्*चात देवराज इन्द्र उस मण्डली की गन्धमादन पर्वत पर स्थित कुबेर के महल में रहने की व्यवस्था कर वापस अपने लोक चले गये।

ABHAY
09-01-2011, 06:30 AM
महाभारत भाग १५

भीम द्वारा जयद्रथ की दुर्गति
एक बार पाँचों पाण्डव आवश्यक कार्यवश बाहर गये हुये थे। आश्रम में केवल द्रौपदी, उसकी एक दासी और पुरोहित धौम्य ही थे। उसी समय सिन्धु देश का राजा जयद्रथ, जो विवाह की इच्छा से शाल्व देश जा रहा था, उधर से निकला। अचानक आश्रम के द्वार पर खड़ी द्रौपदी पर उसकी द*ृष्टि पड़ी और वह उस पर मुग्ध हो उठा। उसने अपनी सेना को वहीं रोक कर अपने मित्र कोटिकास्य से कहा, “कोटिक! तनिक जाकर पता लगाओ कि यह सर्वांग सुन्दरी कौन है? यदि यह स्त्री मुझे मिल जाय तो फिर मुझे विवाह के लिया शाल्व देश जाने की क्या आवश्यकता है?” मित्र की बात सुनकर कोटिकास्य द्रौपदी के पास पहुँचा और बोला, “हे कल्याणी! आप कौन हैं? कहीं आप कोई अप्सरा या देवकन्या तो नहीं हैं?” द्रौपदी ने उत्तर दिया, “मैं जग विख्यात पाँचों पाण्डवों की पत्*नी द्रौपदी हूँ। मेरे पति अभी आने ही वाले हैं अतः आप लोग उनका आतिथ्य सेवा स्वीकार करके यहाँ से प्रस्थान करें। आप लोगों से प्रार्थना है कि उनके आने तक आप लोग कुटी के बाहर विश्राम करें। मैं आप लोगों के भोजन का प्रबन्ध करती हूँ।” कोटिकास्य ने जयद्रथ के पास जाकर द्रौपदी का परिचय दिया। परिचय जानने पर जयद्रथ ने द्रौपदी के पास जाकर कहा, “हे द्रौपदी! तुम उन लोगों की पत्*नी हो जो वन में मारे-मारे फिरते हैं और तुम्हें किसी भी प्रकार का सुख-वैभव प्रदान नहीं कर पाते। तुम पाण्डवों को त्याग कर मुझसे विवाह कर लो और सम्पूर्ण सिन्धु तथा सौबीर देश का राज्यसुख भोगो।” जयद्रथ के वचनों को सुन कर द्रौपदी ने उसे बहुत धिक्कारा किन्तु कामान्ध जयद्रध पर उसके धिक्कार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने द्रौपदी को शक्*तिपूर्वक खींचकर अपने रथ में बैठा लिया। गुरु धौम्य द्रौपदी की रक्षा के लिये आये तो उसे जयद्रथ ने उसे वहीं भूमि पर पटक दिया और अपना रथ वहाँ से भगाने लगा। द्रौपदी रथ में विलाप कर रही थी और गुरु धौम्य पाण्डवों को पुकारते हुये रथ के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। कुछ समय पश्*चात् जब पाण्डवगण वापस लौटे तो रोते-कलपते दासी ने उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया। सब कुछ जानने पर पाण्डवों ने जयद्रथ का पीछा किया और शीघ्र ही उसकी सेना सहित उसे घेर लिया। दोनों पक्षों में घोर युद्ध होने लगा। पाण्डवों के पराक्रम से जयद्रथ के सब भाई और कोटिकास्य मारे गये तथा उसकी सेना रणभूमि छोड़ कर भाग निकली। सहदेव ने द्रौपदी सहित जयद्रथ के रथ पर अधिकार जमा लिया। जयद्रथ अपनी सेना को भागती देख कर स्वयं भी पैदल ही भागने लगा। सहदेव को छोड़कर शेष पाण्डव भागते हुये जयद्रथ का पीछा करने लगे। भीम तथा अर्जुन ने लपक कर जयद्रथ को आगे से घेर लिया और उसकी चोटी पकड़ ली। फिर क्रोध में आकर भीम ने उसे पृथ्वी पर पटक दिया और लात घूँसों से उसकी मरम्मत करने लगे। जब भीम की मार से जयद्रथ अधमरा हो गया तो अर्जुन ने कहा, “भैया भीम! इसे प्राणहीन मत करो, इसे इसके कर्मों का दण्ड हमारे बड़े भाई युधिष्ठिर देंगे।” अर्जुन के वचन सुनकर भीम ने जयद्रथ के कशों को अपने अर्द्धचन्द्राकार बाणों से मूंडकर पाँच चोटी रख दी और उसे बाँधकर युधिष्ठिर के सामने प्रस्तुत कर दिया। धर्मराज ने जयद्रथ को धिक्कारते हुये कहा, “रे दुष्ट जयद्रथ! हम चाहें तो अभी तेरा वध कर सकते हैं किन्तु बहन दुःशला के वैधव्य को ध्यान में रख कर हम ऐसा नहीं करेंगे। जा तुझे मुक्*त किया।” यह सुनकर जयद्रथ कान्तिहीन हो, लज्जा से सिर झुकाये वहाँ से चला गया। वहाँ से वन में जाकर जयद्रथ ने भगवान शंकर की घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी ने उसे वर माँगने के लिये कहा। इस पर जयद्रथ बोला, “भगवन्! मैं युद्ध में पाँचों पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने का वर माँगता हूँ।” इस पर भगवान शंकर ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुये जयद्रथ से कहा, “हे जयद्रथ! पाण्डव अजेय हैं और ऐसा होना असम्भव है। श्री कृष्ण नारायण के और अर्जुन नर के अवतार हैं। मैं अर्जुन को त्रिलोक विजय प्राप्त करने का वर एवं पाशुपात्यस्त्र पहले ही प्रदान कर चुका हूँ। हाँ, तुम अर्जुन की अनुपस्थिति में एक बार शेष पाण्डवों को अवश्य पीछे हटा सकते हो।” इतना कहकर भगवान शंकर वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये और मन्दबुद्धि जयद्रथ भी अपने राज्य में वापस लौट आया।

ABHAY
09-01-2011, 06:32 AM
महाभारत भाग १६

युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन की रक्षा
गन्धमादन पर्वत स्थित कुबेर के महल में चार वर्ष व्यतीत करने के पश्*चात् पाण्डवगण ने वहाँ से प्रस्थान किया और मार्ग में अनेक वनों में रुकते-रुकाते, स्थान-स्थान पर अपने शौर्य और पराक्रम से दुष्टों का दमन करते, ऋषियों और ब्राह्मणों के सत्संग का लाभ उठाते वे द्वैतवन पहुँचे और वहीं रहकर वनवास का शेष समय व्यतीत करने लगे। अब तक वनवास के ग्यारह वर्ष पूर्ण हो चुके थे। पाण्डवों के द्वैतवन में होने की सूचना दुर्योधन तथा उसकी दुष्ट मण्डली (दुःशासन, शकुनि, कर्ण आदि) को मिली वे एक बार फिर वहाँ जाकर पाण्डवों को मार डालने की योजना बनाने लगे। संयोगवश उन दिनों कौरवों की गौ-सम्पत्ति द्वैतवन में ही थी। अपनी गौ-सम्पत्ति अंकेक्षण, निरीक्षण आदि करने के बहाने दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से द्वैतवन जाने की अनुमति प्राप्त कर लिया। इस प्रकार दुर्योधन और उसकी दुष्ट मण्डली ने अपनी एक विशाल सेना के साथ द्वैतवन में पहुँचकर वहाँ अपना डेरा डाल दिया। वे अपना राजसी ठाट-बाट का प्रदर्शन कर पाण्डवों को जलाना भी चाहते थे, इसलिये बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित राजमहिलाओं को भी उन्होंने अपने साथ रख लिया था। एक दिन वे जलविहार करने के उद्*देश्य से दुर्योधन अपनी मण्डली तथा राज महिलाओं के साथ द्वैतवन में स्थित मनोरम सरोवर में पहुँचे। किन्तु उस सरोवर में गन्धर्वराज चित्ररथ पहले से ही आकर अपनी पत्नियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे। चित्ररथ के सेवकों ने दुर्योधन को सरोवर में उतरने से रोकते हुये कहा, “इस समय गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी पत्नियों के साथ इस सरोवर में जलक्रीड़ा कर रहे हैं, अतः उनके बाहर आने से पहले अन्य कोई भी सरोवर में नहीं उतर सकता।” सेवकों के इन वचनों को सुन कर दुर्योधन ने क्रोधित होकर कहा, “तू शायद जानता नहीं कि तू किससे बात कर रहा है। मैं हस्तिनापुरनरेश धृतराष्ट्र का महाबली पुत्र दुर्योधन हूँ। यह सरोवर हमारे राज्य की सीमा के अन्तर्गत आता है। तू जाकर चित्ररथ से कह दे कि इस राज्य का युवराज यहाँ जलविहार करने आया है और तुम्हें इस सरोवर से बाहर निकलने की आज्ञा दी है।”

ABHAY
09-01-2011, 06:32 AM
दुर्योधन के दर्पयुक्त सन्देश को सुन कर गन्धर्वराज चित्ररथ के क्रोध का पारावार न रहा और उसने दुर्योधन तथा उसकी मण्डली के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। दुर्योधन के साथी और सेना कुछ समय तक तो युद्ध करते रहे किन्तु चित्ररथ को अधिक बलवान पाकर वे सभी दुर्योधन एवं राजमहिलाओं को वहीं छोड़कर भाग खड़े हुये। चित्ररथ ने दुर्योधन और उन राजमहिलाओं को कैद कर लिया। दुर्योधन के भगोड़ी सेना जब कुछ न सूझा तो वे वहाँ निवास करते हुये पाण्डवों के पास जाकर उनसे दुर्योधन और राजमहिलोओं की मुक्*ति के लिये याचना करने लगे। उनकी याचना सुनकर भीमसेन ने प्रसन्न होकर युधिष्ठिर से कहा, “बड़े भैया! दुर्योधन अपने राजसी वैभव का हमारे सामने प्रदर्शन करने यहाँ आया था। गन्धर्वों ने दुर्योधन की दुर्दशा करके हमारे हित का काम किया है। आप कदापि उसे मत छुड़ाना।” इस पर युधिष्ठिर बोले, “भैया भीम! ये लोग हमारी शरण में आये हैं और शरण में आये लोगों की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म होता है। फिर दुष्ट स्वभाव का होने के बाद भी दुर्योधन आखिर हमारा भाई ही है। उसके साथ की राज महिलाएँ हमारे ही कुल की महिलाएँ हैं और उनका निरादर होने से हमारे ही कुल को कलंक लगेगा। इसलिये उचित यही है कि तुम और अर्जुन जाकर उनकी रक्षा करो।”अपने बड़े भाई की आज्ञा मानकर भीम और अर्जुन ने सरोवर के पास जाकर चित्ररथ को युद्ध के लिये ललकारा। उनकी ललकार सुनकर चित्ररथ क्रोधित होने के बजाय मुस्कुराते हुये अर्जुन के पास आये और बोले, “हे पार्थ! मैं तो तुम्हारा सखा ही हूँ। वास्तव में दुष्ट दुर्योधन अपनी सेना के साथ तुम लोगों का वध करने के लिये यहाँ आया था। देवराज इन्द्र को इस बात की सूचना मिल चुकी थी इसलिये उन्होंने मुझे यहाँ भेजा था। हे सखा! नीति कहती है कि ऐसे दुष्टों को कभी क्षमा नहीं करना चाहिये, किन्तु अपने बड़े भ्राता की आज्ञा मानकर यदि तुम दुर्योधन को छुड़ाना ही चाहते हो, तो लो मैं इसे तथा इसके साथ की राजमहिलाओं को अभी छोड़ देता हूँ।” इतना कहकर चित्ररथ ने दुर्योधन सहित समस्त कैदियों को मुक्*त कर दिया।वे सभी वहाँ से धर्मराज युधिष्ठिर के पास आये। ग्लानि से भरे दुर्योधन ने युधिष्ठिर को प्रणाम किया और लज्जा से सिर झुकाये अपने नगर की ओर चल दिया।

ABHAY
09-01-2011, 06:34 AM
महाभारत भाग १७

कीचक वध तथा कौरवो की पराजय
पाण्डवों को मत्स्य नरेश विराट की राजधानी में निवास करते हुये दस माह व्यतीत हो गये। सहसा एक दिन राजा विराट का साला कीचक अपनी बहन सुदेष्णा से भेंट करने आया। जब उसकी द*ृष्टि सैरन्ध्री (द्रौपदी) पर पड़ी तो वह काम-पीड़ित हो उठा तथा सैरन्ध्री से एकान्त में मिलने के अवसर की ताक में रहने लगा। द्रौपदी भी उसकी कामुक द*ृष्टि को भाँप गई। द्रौपदी ने महाराज विराट एवं महारानी सुदेष्णा से कहा भी कि कीचक मुझ पर कुद*ृष्टि रखता है, मेरे पाँच गन्धर्व पति हैं, एक न एक दिन वे कीचक का वध देंगे। किन्तु उन दोनों ने द्रौपदी की बात की कोई परवाह न की। लाचार होकर एक दिन द्रौपदी ने भीमसेन को कीचक की कुद*ृष्टि तथा कुविचार के विषय में बता दिया। द्रौपदी के वचन सुनकर भीमसेन बोले, “हे द्रौपदी! तुम उस दुष्ट कीचक को अर्द्धरात्रि में नृत्यशाला मिलने का संदेश दे दो। नृत्यशाला में तुम्हारे स्थान पर मैं जाकर उसका वध कर दूँगा।” सैरन्ध्री ने बल्लभ (भीमसेन) की योजना के अनुसार कीचक को रात्रि में नृत्यशाला में मिलने का संकेत दे दिया। द्रौपदी के इस संकेत से प्रसन्न कीचक जब रात्रि को नृत्यशाला में पहुँचा तो वहाँ पर भीमसेन द्रौपदी की एक साड़ी से अपना शरीर और मुँह ढँक कर वहाँ लेटे हुये थे। उन्हें सैरन्ध्री समझकर कमोत्तेजित कीचक बोला, “हे प्रियतमे! मेरा सर्वस्व तुम पर न्यौछावर है। अब तुम उठो और मेरे साथ रमण करो।” कीचक के वचन सुनते ही भीमसेन उछल कर उठ खड़े हुये और बोले, “रे पापी! तू सैरन्ध्री नहीं अपनी मृत्यु के समक्ष खड़ा है। ले अब परस्त्री पर कुद*ृष्टि डालने का फल चख।” इतना कहकर भीमसेन ने कीचक को लात और घूँसों से मारना आरम्भ कर दिया। जिस प्रकार प्रचण्ड आँधी वृक्षों को झकझोर डालती है उसी प्रकार भीमसेन कीचक को धक्के मार-मार कर सारी नृत्यशाला में घुमाने लगे। अनेक बार उसे घुमा-घुमा कर पृथ्वी पर पटकने के बाद अपनी भुजाओं से उसके गरदन को मरोड़कर उसे पशु की मौत मार डाला। इस प्रकार कीचक का वध कर देने के बाद भीमसेन ने उसके सभी अंगों को तोड़-मरोड़ कर उसे माँस का एक लोंदा बना दिया और द्रौपदी से बोले, “पांचाली! आकर देखो, मैंने इस काम के कीड़े की क्या दुर्गति कर दी है।” उसकी उस दुर्गति को देखकर द्रौपदी को अत्यन्त सन्तोष प्राप्त हुआ। फिर बल्लभ और सैरन्ध्री चुपचाप अपने-अपने स्थानों में जाकर सो गये। प्रातःकाल जब कीचक के वध का समाचार सबको मिला तो महारानी सुदेष्णा, राजा विराट, कीचक के अन्य भाई आदि विलाप करने लगे। जब कीचक के शव को अन्त्येष्टि के लिये ले जाया जाने लगा तो द्रौपदी ने राजा विराट से से कहा, “इसे मुझ पर कुद*ृष्टि रखने का फल मिल गया, अवश्य ही मेरे गन्धर्व पतियों ने इसकी यह दुर्दशा की है।” द्रौपदी के वचन सुन कर कीचक के भाइयों ने क्रोधित होकर कहा, “हमारे अत्यन्त बलवान भाई की मृत्यु इसी सैरन्ध्री के कारण हुई है अतः इसे भी कीचक की चिता के साथ जला देना चाहिये।” इतना कहकर उन्होंने द्रौपदी को जबरदस्ती कीचक की अर्थी के साथ बाँध के और श्मशान की ओर ले जाने लगे। कंक, बल्लभ, वृहन्नला, तन्तिपाल तथा ग्रान्थिक के रूप में वहाँ उपस्थित पाण्डवों से द्रौपदी की यह दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी किन्तु अज्ञातवास के कारण वे स्वयं को प्रकट भी नहीं कर सकते थे। इसलिये भीमसेन चुपके से परकोटे को लाँघकर श्मशान की ओर दौड़ पड़े और रास्ते में कीचड़ तथा मिट्टी का सारे अंगों पर लेप कर लिया। फिर एक विशाल वृक्ष को उखाड़कर कीचक के भाइयों पर टूट पड़े। उनमें से कितनों को ही भीमसेन ने मार डाला, जो शेष बचे वे अपना प्राण बचाकर भाग निकले। इसके बाद भीमसेन ने द्रौपदी को सान्त्वना देकर महल में भेज दिया और स्वयं नहा-धोकर दूसरे रास्ते से अपने स्थान में लौट आये।कीचक तथा उसके भाइयों का वध होते देखकर महाराज विराट सहित सभी लोग द्रौपदी से भयभीत रहने लगे।

ABHAY
09-01-2011, 06:34 AM
कीचक के वध की सूचना आँधी की तरह फैल गई। वास्तव में कीचक बड़ा पराक्रमी था और उससे त्रिगर्त के राजा सुशर्मा तथा हस्तिनापुर के कौरव आदि डरते थे। कीचक की मृत्यु हो जाने पर राजा सुशर्मा और कौरवगण विराट नगर पर आक्रमण करने के उद्*देश्य से एक विशाल सेना गठित कर लिया। कौरवों ने सुशर्मा को पहले चढ़ाई करने की सलाह दी। उनकी सलाह के अनुसार सुशर्मा ने उनकी सलाह मानकर विराट नगर पर धावा बोलकर उस राज्य की समस्त गौओं को हड़प लिया। इससे राज्य के सभी ग्वालों ने राज सभा में जाकर गुहार लगाई, “हे महाराज! त्रिगर्त के राजा सुशर्मा हमसे सब गौओं को छीनकर अपने राज्य में लिये जा रहे हैं। आप हमारी शीघ्र रक्षा करें।” उस समय सभा में विराट और कंक आदि सभी उपस्थित थे। राजा विराट ने निश्*चय किया कि कंक, बल्लभ, तन्तिपाल, ग्रान्थिक तथा उनके स्वयं के नेतृत्व में सेना को युद्ध में उतारा जाये। उनकी इस योजना के अनुसार सबने मिलकर राजा सुशर्मा के ऊपर धावा बोल दिया। छद्*मवेशधारी पाण्डवों के पराक्रम को देखकर सुशर्मा के सैनिक अपने-अपने प्राण लेकर भागने लगे। सुशर्मा के बहुत उत्साह दिलाने पर भी वे सैनिक वापस आकर युद्ध करने के लिये तैयार नहीं थे। अपनी सेना के पैर उखड़ते देखकर राजा सुशर्मा भी भागने लगा किन्तु पाण्डवों ने उसे घेर लिया। बल्लभ (भीमसेन) ने लात घूँसों से मार-मार कर उसकी हड्डी पसली तोड़ डाला। सुशर्मा की खूब मरम्मत करने के बाद बल्लभ ने उसे उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया। भूमि पर गिर कर वह जोर-जोर चिल्लाने लगा। भीमसेन ने उसकी एक न सुनी और उसे बाँधकर युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। सुशर्मा के द्वारा दासत्व स्वीकार करने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे छोड़ दिया। इधर दूसरी ओर से कौरवों ने विराट नगर पर हमला बोल दिया। प्रजा राज सभा में आकर रक्षा के लिये गुहार लगाने लगी किन्तु उस समय तो महाराज चारों पाण्डवों के साथ सुशर्मा से युद्ध करने चले गये थे। महल में केवल राजकुमार उत्तर ही थे। प्रजा को रक्षा के लिये गुहार लगाते देख कर सैरन्ध्री (द्रौपदी) से रहा न गया और उन्होंने राजकुमार उत्तर को कौरवों से युद्ध करने के लिये न जाते हुये देखकर खूब फटकारा। सैरन्ध्री की फटकार सुनकर राजकुमार उत्तर ने शेखी बघारते हुये कहा, “मैं युद्ध में जाकर कौरवों को अवश्य हरा देता किन्तु असमर्थ हूँ, क्योंकि मेरे पास कोई सारथी नहीं है।” उसकी बात सुनकर सैरन्ध्री ने कहा, “राजकुमार! वृहन्नला बहुत निपुण सारथी है और वह कुन्तीपुत्र अर्जुन का सारथी रह चुकी है। तुम उसे अपना सारथी बना कर युद्ध के लिये जाओ।” अन्ततः राजकुमार उत्तर वृहन्नला को सारथी बनाकर युद्ध के लिये निकला। उस दिन पाण्डवों के अज्ञातवास का समय समाप्त हो चुका था तथा उनके प्रकट होने का समय आ चुका था। उर्वशी के शापवश मिली अर्जुन की नपुंसकता भी खत्म हो चुकी थी। अतः मार्ग में अर्जुन ने उस श्मशान के पास, जहाँ पाण्डवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छुपाये थे, रथ रोका और चुपके से अपने हथियार ले लिये। जब उनका रथ युद्धभूमि में पहुँचा तो कौरवों की विशाल सेना और भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्*वत्थामा, दुर्योधन आदि पराक्रमी योद्धाओं को देखकर राजकुमार उत्तर अत्यन्त घबरा गया और बोला, “वृहन्नला! तुम रथ वापस ले चलो। मैं इन योद्धाओं से मुकाबला नहीं कर सकता।” वृहन्नला ने कहा, “हे राजकुमार! किसी भी क्षत्रियपुत्र के लिये युद्ध में पीठ दिखाने से तो अच्छा है कि वह युद्ध में वीरगति प्राप्त कर ले। उठाओ अपने अस्त्र-शस्त्र और करो युद्ध।” किन्तु राजकुमार उत्तर पर वृहन्नला के वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह रथ से कूद कर भागने लगा। इस पर अर्जुन (वृहन्नला) ने लपक कर उसे पकड़ लिया और कहा, “राजकुमार! भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। मेरे होते हुये तुम्हारा कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आज मैं तुम्हारे समक्ष स्वयं को प्रकट कर रहा हूँ, मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूँ, और कंक युधिष्ठिर, बल्लभ भीमसेन, तन्तिपाल नकुल तथा ग्रान्थिक सहदेव हैं। अब मैं इनसे युद्ध करूँगा, तुम अब इस रथ की बागडोर संभालो।” यह वचन सुनकर राजकुमार उत्तर ने गद्*गद् होकर अर्जुन के पैर पकड़ लिया।

ABHAY
09-01-2011, 06:35 AM
देवदत्त शंख की ध्वनि रणभूमि में गूँज उठी। उस विशिष्ट ध्वनि को सुनकर दुर्योधन भीष्म से बोला, “पितामह! यह तो अर्जुन के देवदत्त शंख की ध्वनि है, अभी तो पाण्डवों का अज्ञातवास समाप्त नहीं हुआ है। अर्जुन ने स्वयं को प्रकट कर दिया इसलिये अब पाण्डवों को पुनः बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा।” दुर्योधन के वचन सुनकर भीष्म पितामह ने कहा, “दुर्योधन! कदाचित तुम्हें ज्ञात नहीं है कि पाण्डव काल की गति जानने वाले हैं, बिना अवधि पूरी किये अर्जुन कभी सामने नहीं आ सकता। मैंने भी गणना कर लिया है कि पाण्डवों के अज्ञातवास की अवधि पूर्ण हो चुकी है।” दुर्योधन एक दीर्घ निःश्*वास छोड़ते हुये बोला, “अब जब अर्जुन का आना निश्*चित हो चुका है तो पितामह! हमें शीघ्र ही व्यूह रचना कर लेना चाहिये।” इस पर भीष्म ने कहा, “वत्स! तुम एक तिहाई सेना लेकर गौओं के साथ विदा हो जाओ। शेष सेना को साथ लेकर हम लोग यहाँ पर अर्जुन से युद्ध करेंगे।” भीष्म पितामह के परामर्श के अनुसार दुर्योधन गौओं को लेकर एक तिहाई सेना के साथ हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा। यह देखकर कि दुर्योधन रणभूमि से लौटकर जा रहा है अर्जुन ने अपना रथ दुर्योधन के पीछे दौड़ा दिया और भागते हुये दुर्योधन को मार्ग में ही घेरकर अपने असंख्य बाणों से उसे व्याकुल कर दिया। अर्जुन के बाणों से दुर्योधन के सैनिकों के पैर उखड़ गये और वे पीठ दिखा कर भाग गये। सारी गौएँ भी रम्भाती हुईं विराट नगर की और भाग निकलीं। दुर्योधन को अर्जुन के बाणों से घिरा देखकर कर्ण, द्रोण, भीष्म आदि सभी वीर उसकी रक्षा के लिय दौड़ पड़े। कर्ण को सामने देख कर अर्जुन के क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने कर्ण पर इतने बाण बरसाये कि उसके रथ, घोड़े, सारथी सभी नष्ट भ्रष्ट हो गये और कर्ण भी मैदान छोड़ कर भाग गया। कर्ण के चले जाने पर भीष्म और द्रोण एक साथ अर्जुन पर बाण छोड़ने लगे किन्तु अर्जुन अपने बाणों से बीच में ही उनके बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर देते थे। अन्ततः अर्जुन के बाणों से व्याकुल होकर सारे कौरव मैदान छोड़ कर भाग गये।कौरवों के इस प्रकार भाग जाने पर अर्जुन भी विजयशंख बजाते हुये विराट नगर लौट आये।

ABHAY
09-01-2011, 06:37 AM
महाभारत भाग १८

पाण्डवों का राज्य लौटाने का आग्रह और दोनो पक्षो की कृष्ण से सहायता की माँग
राजा सुशर्मा तथा कौरवों को रणभूमि से भगा देने के बाद पाण्डवों ने स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रकट कर दिया। उनका असली परिचय पाकर राजा विराट को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और उन्होंने अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ बड़े ही धूमधाम के साथ कर दिया। इस विवाह में श्री कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ अनेक बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी सम्मिलित हुये। अभिमन्यु के विवाह के पश्चात् पाण्डवों ने अपना राज्य वापस लौटाने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण को अपना दूत बना कर हस्तिनापुर भेजा। धृतराष्ट्र के राज सभा में यथोचित सत्कार और आसन पाने के बाद श्री कृष्ण बोले, “हे राजन्! पाण्डवों ने यहाँ उपस्थित सभी गुरुजनों को प्रणाम भेजते हुये कहलाया है कि हमने पूर्व किये करार के अनुसार बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा कर लिया है। अब आप हमें दिये वचन के अनुसार हमारा आधा राज्य लौटा दीजिये।” श्री कृष्ण के वचनों को सुन कर वहाँ उपस्थित भीष्म, विदुर, द्रोण आदि गुरुजनों तथा परशुराम, कण्व आदि महर्षिगणों ने धृतराष्ट्र को समझाया कि वे धर्म तथा न्याय के मार्ग में चलते हुये पाण्डवों को उनका राज्य तत्काल लौटा दें। किन्तु उनकी इस समझाइश को सुनकर दुर्योधन ने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा, “ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते इस राज्य पर मेरे पिता धृतराष्ट्र का अधिकार था किन्तु उनके अन्धत्व का लाभ उठा कर चाचा पाण्डु ने राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। मैं महाराज धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र हूँ अतः इस राज्य पर मेरा और केवल मेरा अधिकार है। मैं पाण्डवों को राज्य तो क्या, सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने के लिये तैयार नहीं हूँ। यदि उन्हें अपना राज्य वापस चाहिये तो वे हमसे युद्ध करके उसे प्राप्त कर लें। उपस्थित समस्त जनों के बारम्बार समझाने के बाद भी दुर्योधन अपनी बात पर अडिग रहा और श्री कृष्ण वापस पाण्डवों के पास चले आये और दोनों पक्षों में युद्ध की तैयारी होने लगी।

पाण्डवों को राज्य न देने के अपने निश्चय पर दुर्योधन के अड़ जाने के कारण दोनों पक्ष मे मध्य युद्ध निश्चित हो गया तथा दोनों ही पक्ष अपने लिये सहायता जुटाने में लग गये।

ABHAY
09-01-2011, 06:37 AM
एक दिन दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिये सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा। जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा। इसके कुछ ही देर पश्*चात पाण्डुतनय अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचे और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने बैठ गये। जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी द*ृष्टि अर्जुन पर पड़ी। अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा। अर्जुन ने कहा, “भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।” अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैटा हुआ दुर्योधन बोल उठा, “हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ। चूँकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।”

दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, “हे दुर्योधन! मेरी द*ृष्टि अर्जु पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो। अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा। किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा। अब तुम लोग निश्*चय कर लो कि किसे क्या चाहिये।”

अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल सेना लेने के लिये ही आया था। इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये।

दुर्योधन के जाने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, “हे पार्थ! मेरे युद्ध नहीं का निश्*चय के बाद भी तुमने क्या सोच कर मुझे माँगा?” अर्जुन ने उत्तर दिया, “भगवन्! मेरा विश्*वास है कि जहाँ आप हैं वहीं विजय है। और फिर मेरी इच्छा है कि आप मेरा सारथी बने।” अर्जुन की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने उनका सारथी बनना स्वीकार कर लिया।

ABHAY
09-01-2011, 06:40 AM
महाभारत भाग १९

शांति दूत श्रीकृष्ण ,युद्ध की शुरुवात तथा श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7904&stc=1&d=1294540824
श्रीकृष्ण का अर्जुन को विराट रुप दिखाना
धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान् श्रीकृष्ण परम क्रोधी दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा-

'राजन्! तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या उन्हें पाँच ही गाँव अर्पित कर दो; नहीं तो उनके साथ युद्ध करो।'

श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने कहा- 'मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा; हाँ, उनसे युद्ध अवश्य करूँगा।'

ऐसा कहकर वह भगवान् श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय राजसभा में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर दुर्योधन को भयभीत कर दिया। फिर विदुर ने अपने घर ले जाकर भगवान् का पूजन और सत्कार किया।

तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले-'महाराज! आप दुर्योधन के साथ युद्ध कीजिये'

युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है।

'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा को समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।"

श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुए। उन्होंने शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति शिखण्डी थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे।
कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया।

ABHAY
09-01-2011, 06:45 AM
भीष्म द्रोण वध
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7906&stc=1&d=1294541082
बाणो की शय्या पर लेटे भीष्म
दसवें दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्म पर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की। इधर द्रुपद की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसाने वाले मेघ की भाँति भीष्म पर बाणों की झड़ी लगा दी। दोनों ओर के हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एक-दूसरे के बाणों से मारे गये। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी।जब पांडवों को ये समझ में आ गया की भीष्म के रहते वो इस युद्ध को नहीं जीत सकते तो श्रीकृष्ण के सुझाव पर उन्होंने भीष्म पितामह से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा. उन्होंने कहा कि जब तक मेरे हाथ में शस्त्र है तब तक महादेव के अतिरिक्त मुझे कोई नहीं हरा सकता. उन्होंने ने ही पांडवों को सुझाव दिया कि शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े. वो जानते थे कि शिखंडी पूर्व जन्म में अम्बा थी इसलिए वो उसे कन्या ही मानते थे. १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया. शिखंडी को आगे देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया. उनके शस्त्र त्यागने के बाद अर्जुन ने उन्हें बाणो कि शय्या पर सुला दिया। वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में भगवान् विष्णु का ध्यान और स्तवन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। भीष्म के बाण-शय्या पर गिर जाने के बाद जब दुर्योधन शोक से व्याकुल हो उठा, तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। उधर हर्ष मनाती हुई पाण्डवों की सेना में धृष्टद्युम्न सेनापति हुए। उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, जो यमलोक की आबादी को बढ़ाने वाला था।तेरहवे दिन के युद्ध में, कौरव सेना के प्रधान सेनापति, गुरु द्रोणाचार्य द्वारा, युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए चक्रव्यूह/पद्मव्यूह की रचना की गई। पाण्डव पक्ष में केवल कृष्ण और अर्जुन ही चक्रव्यूह भेदन जानते थे। लेकिन उस दिन उन्हें त्रिगत नरेश बंधु युद्ध करते-करते चक्रव्यूह स्थल से बहुत दूर ले गए। त्रिगत दुर्योधन के शासनाधीन एक राज्य था। अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में केवल प्रवेश करना आता था, उससे निकलना नहीं, जिसे उसने तब सुना था जब वह अपनी माता के गर्भ में था और उसके पिता अर्जुन उसकी माता को यह विधि समझा रहे थे और बीच में ही उन्हें नींद आ गई।

ABHAY
09-01-2011, 06:45 AM
लेकिन जैसे ही अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश किया, सिन्धु नरेश - जयद्रथ ने प्रवेश मार्ग रोक लिया और अन्य पाण्डवों को भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। तब शत्रुचक्र में अभिमन्यु अकेला पड़ गया। अकेला होने पर भी वह वीरता से लड़ा और उसने अकेले ही कौरव सेना के बड़े-बड़े योद्धाओं को परास्त किया जिन्में स्वयं कर्ण, द्रोण और दुर्योधन भी थे। कर्ण और दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निर्देशानुसार अभिमन्यु का वध करने का निर्णय लिया। कर्ण ने बाण चलाकर अभिमन्यु का धनुष और रथ का एक पहिया तोड़ दिया जिससे वह भूमि पर गिर पड़ा और अन्य कौरवों ने उसपर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में अभिमन्यु मारा गया। युद्ध समाप्ति पर जब अर्जुन को ये पता लगता है कि अभिमन्यु के मारे जाने में जयद्रथ का सबसे बड़ा हाथ है तो वह प्रतिज्ञा लेता है की अगले दिन का सूर्यास्त होने से पूर्व वह जयद्रथ का वध कर देगा अन्यथा अग्नि समाधि ले लेगा।

चौदहवें दिन का युद्ध अविलक्षण रूप से सूर्यास्त के बाद तक चलता रहा और भीमपुत्र घटोत्कच, जो अर्ध-असुर था, कौरव सेनाओं का बड़े पैमाने पर संहार करता रहा। आमतौर पर, असुर रात्री के समय बहुत अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं। दुर्योधन और कर्ण ने वीरता से उसका सामना किया और उससे युद्ध किया। अंततः जब यह लगने लगा कि उसी रात घटोत्कच सारी कौरव सेना का संहार कर देगा तो, दुर्योधन ने कर्ण से ये निवेदन किया कि वह किसी भी प्रकार से इस समस्या से छुटकारा दिलाए। कर्ण को विवश होकर शक्ति अस्त्र घटोत्कच पर चलाना पड़ा। यह अस्त्र देवराज इंद्र द्वारा कर्ण को उसकी दानपरायण्ता के सम्मान स्वरूप दिया गया था (जब कर्ण ने अपने कवच-कुंडल इंद्र को दान दे दिए थे)। लेकिन कर्ण इस अस्त्र का प्रयोग केवल एक बार कर सकता था, जिसके बाद यह अस्त्र इंद्र के पास लौट जाएगा। इस प्रकार, शक्ति अस्त्र का प्रयोग घटोत्कच पर करने के बाद वह इसे बाद में अर्जुन पर ना कर सका।

विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये।उस समय द्रोण काल के समान जान पड़ते थे। इतने ही में उनके कानों में यह आवाज आयी कि 'अश्वत्थामा मारा गया'। इतना सुनते ही आचार्य द्रोण ने अस्त्र शस्त्र त्याग दिये। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न के बाणों से आहत होकर वे पृथ्वी पर गिर पड़े।

ABHAY
09-01-2011, 06:49 AM
महाभारत भाग २०

कर्ण,शल्य और दुर्योधन वध

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7907&stc=1&d=1294541355
कर्ण और अर्जुन का एक दूसरे पर पर लक्ष्य करना
द्रोण बड़े ही दुर्धर्ष थे। वे सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करके पाँच वें दिन मारे गये। दुर्योधन पुन: शोक से आतुर हो उठा। उस समय कर्ण उसकी सेना का कर्णधार हुआ। पाण्डव-सेना का आधिपत्य अर्जुन को मिला। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों की मार-काट से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला; सत्रहवें दिन से पहले तक, कर्ण का युद्ध अर्जुन के अतिरिक्त सभी पांडवों से हुआ। उसने महाबली भीम सहित इन पाण्डवों को एक-पर-एक रण में परास्त भी किया था। पर माता कुंती को दिए वचनानुसार उसने किसी भी पांडव की हत्या नहीं की।

सत्रहवें दिन के युद्ध में आखिरकार वह घड़ी आ ही गई, जब कर्ण और अर्जुन आमने-सामने आ गए। इस शानदार संग्राम में दोनों ही बराबर थे। कर्ण को उसके गुरू परशुराम द्वारा विजय नामक धनुष भेंट स्वरूप दिया गया था, जिसका प्रतिरूप स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था। दुर्योधन के निवेदन पर पांडवों के मामा शल्य कर्ण के सारथी बनने के लिए तैयार हुए। दरसल अर्जुन के सारथी स्वयं श्रीकृष्ण थे, और कर्ण किसी भी मामले में अर्जुन से कम ना हो इसके लिए शल्य से सारथी बनने का निवेदन किया गया, क्योंकि उनके अंदर वे सभी गुण थे जो एक योग्य सारथी में होने चाहिए।

ABHAY
09-01-2011, 06:50 AM
रण के दौरान, अर्जुन के बाण कर्ण के रथ पर लगे और उसका रथ कई गज पीछे खिसक गया। लेकिन, जब कर्ण के बाण अर्जुन के रथ पर लगे तो उसका रथ केवल कुछ ही बालिश्त (हथेली जितनी दूरी) दूर खिसका। इसपर श्रीकृष्ण ने कर्ण की प्रशंसा की। इस बात पर चकित होकर अर्जुन ने कर्ण की इस प्रशंसा का कारण पूछा, क्योंकि उसके बाण रथ को पीछे खिसकाने में अधिक प्रभावशाली थे। तब कृष्ण ने कहा कि कर्ण के रथ पर केवल कर्ण और शल्य का भार है, लेकिन अर्जुन के रथ पर तो स्वयं वे और हनुमान विराजमान है, और तब भी कर्ण ने उनके रथ को कुछ बालिश्त पीछे खिसका दिया।

इसी प्रकार कर्ण ने कई बार अर्जुन के धनुष की प्रत्यंचा काट दी। लेकिन हर बार अर्जुन पलक झपकते ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा लेता। इसके लिए कर्ण अर्जुन की प्रशंसा करता है और शल्य से कहता है कि वह अब समझा कि क्यों अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहा जाता है।

कर्ण और अर्जुन ने दैवीय अस्त्रों को चलाने के अपने-अपने ज्ञान का पूर्ण उपयोग करते हुए बहुत लंबा और घमासान युद्ध किया। कर्ण द्वारा अर्जुन का सिर धड़ से अलग करने के लिए "नागास्त्र" का प्रयोग किया गया। लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा सही समय पर रथ को भूमि में थोड़ा सा धँसा लिया गया जिससे अर्जुन बच गया। इससे "नागास्त्र" अर्जुन के सिर के ठीक ऊपर से उसके मुकुट को छेदता हुआ निकल गया। नागास्त्र पर उपस्थित अश्वसेना नाग ने कर्ण से निवेदन किया कि वह उस अस्त्र का दोबारा प्रयोग करे ताकि इस बार वह अर्जुन के शरीर को बेधता हुआ निकल जाए, लेकिन कर्ण माता कुंती को दिए वचन का पालन करते हुए उस अस्त्र के पुनः प्रयोग से मना कर देता है।

ABHAY
09-01-2011, 06:51 AM
धरती में धंसे अपने रथ के पहिए को निकालता कर्ण।यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया (धरती माता के श्राप के कारण)। वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाता है, जैसा की उसके गुरु परशुराम का श्राप था। तब कर्ण अपने रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है और अर्जुन से निवेदन करता है की वह युद्ध के नियमों का पालन करते हुए कुछ देर के लिए उसपर बाण चलाना बंद कर दे। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि कर्ण को कोई अधिकार नहीं है की वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे, जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था। उन्होंने आगे कहा कि तब उसका धर्म कहाँ गया था जब उसने दिव्य-जन्मा द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वैश्या कहा था। द्युत-क्रीड़ा भवन में उसका धर्म कहाँ गया था। इसलिए अब उसे कोई अधिकार नहीं की वह किसी धर्म या युद्ध नियम की बात करे और उन्होंने अर्जुन से कहा कि अभी कर्ण असहाय है (ब्राह्मण का श्राप फलीभूत हुआ) इसलिए वह उसका वध करे। श्रीकृष्ण कहते हैं की यदि अर्जुन ने इस निर्णायक मोड़ पर अभी कर्ण को नहीं मारा तो संभवतः पांडव उसे कभी भी नहीं मार सकेंगे और यह युद्ध कभी भी नहीं जीता जा सकेगा। तब, अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। कर्ण के शरीर के भूमि पर गिरने के बाद एक ज्योति कर्ण के शरीर से निकली और सूर्य में समाहित हो गई। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि कर्ण को कोई अधिकार नहीं है की वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे, जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था। उन्होंने आगे कहा कि तब उसका धर्म कहाँ गया था जब उसने दिव्य-जन्मा द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वैश्या कहा था। द्युत-क्रीड़ा भवन में उसका धर्म कहाँ गया था। इसलिए अब उसे कोई अधिकार नहीं की वह किसी धर्म या युद्ध नियम की बात करे और उन्होंने अर्जुन से कहा कि अभी कर्ण असहाय है (ब्राह्मण का श्राप फलीभूत हुआ) इसलिए वह उसका वध करे। श्रीकृष्ण कहते हैं की यदि अर्जुन ने इस निर्णायक मोड़ पर अभी कर्ण को नहीं मारा तो संभवतः पांडव उसे कभी भी नहीं मार सकेंगे और यह युद्ध कभी भी नहीं जीता जा सकेगा। तब, अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। कर्ण के शरीर के भूमि पर गिरने के बाद एक ज्योति कर्ण के शरीर से निकली और सूर्य में समाहित हो गई।।तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार दिया।

ABHAY
09-01-2011, 06:55 AM
महाभारत भाग २१

दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7908&stc=1&d=1294541694
भीमसेन द्वारा दुर्योधन का वध
दुर्योधन की प्राय: सारी सेना युद्ध में मारी गयी थी। अन्ततोगत्वा उसका भीमसेन के साथ युद्ध हुआ। उसने पाण्डव-पक्ष के पैदल आदि बहुत-से सैनिकों का वध करके भीमसेन पर धावा किया। उस समय गदा से प्रहार करते हुए दुर्योधन के अन्य छोटे भाई भी भीमसेन के ही हाथ से मारे गये अपने राजा दुर्योधन की ऐसी दशा देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के बचे हुये वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पाँचों पुत्रों के सिर भी अश्वत्थामा ने काट डाले। अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि दुर्योधन तक को भी यह अच्छा नहीं लगा।

पुत्रों के हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला। श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था।

ABHAY
09-01-2011, 06:56 AM
उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”

श्रीकृष्ण बोले, “है अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर छोड़ा है। इस ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।”

श्रीकृष्ण की इस मंत्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने दोंनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया और झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध लिया। श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।”

श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।”

ABHAY
09-01-2011, 06:56 AM
द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।

ABHAY
09-01-2011, 06:57 AM
अश्वत्थामा को अपमानित कर शिविर से निकाल देने के पश्चात सारे पाण्डव अपने स्वजनों को जलदान करने के निमित्त धृतराष्ट्र तथा श्रीकृष्णचन्द्र को आगे कर के अपने वंश की सम्पूर्ण स्त्रियों के साथ गंगा तट पर गये. स्त्रियाँ कुररी की भाँति विलाप करती हुई गईं, उनके शोक से व्याकुल होकर धर्मराज युधिष्ठिर अति दुखी हुये. धृतराष्ट्र, गांधारी, कुन्ती और द्रौपदी सभी अपने पुत्रों, पौत्रों तथा स्वजनों के लिये शोक करने लगीं. उनके शोक के शमन के लिये श्रीकृष्ण ने धौम्य तथा वेदव्यास आदि मुनियों के साथ उन सब को अनेक प्रकार की युक्तियों से दृष्टांत देकर सन्त्वाना दी और समझाया कि यह संसार नाशवान है. जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है, सभी काल के आधीन हैं, मृत्यु सब को खाती है. अतः मरे हुये लोगों के लिये शोक करना व्यर्थ है स्वजनों को जलदान करने के बाद अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया और उनके द्वारा तीन अश्वमेघ यज्ञ करवाये गये इस प्रकार युधिष्ठिर का शुभ्र यश तीनों लोकों में फैल गया कुछ काल के बाद श्रीकृष्ण ने द्वारिका जाने का विचार किया और पाण्डवों से विदा ले कर तथा वेदव्यास आदि मुनियों की आज्ञा ले कर रथ में बैठ कर सात्यकि तथा उद्धव के साथ द्वारिका जाने के लिये प्रस्तुत हुये. उसी समय एक अपूर्व घटना हुई. उन्होंने देखा कि उनकी वधू उत्तरा ने व्याकुल स्वर में कहा कि मुझे बचाओ! मझे बचाओ!! मेरी रक्षा करो! आप योग-योगेश्वर हैं. देवताओं के भी देवता हैं. संसार की रक्षा करने वाले हैं. आप सर्व शक्तिमान हैं. यह देखिये प्रज्ज्वलित लोहे का बाण मेरे गर्भ को नष्ट न कर दे. है प्रभो! आप ही मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं. ऐसे कातर वचन सुन कर श्रीकृष्ण तुरन्त रथ से कूद पड़े और बोले कि अश्वत्थामा ने पाण्डव वंश को नष्ट करने के लिये फिर से ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है,जिससे उत्तरा का गर्भ अत्य्न्त जलने लगा,परन्तु श्रीकृष्ण ने अपने तप से शिशु को पुन*र्जिवित कर दिया।

ABHAY
09-01-2011, 06:57 AM
जब धर्मराज युधिष्ठिर लौट कर आये और पुत्र जन्म का समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुये और उन्होंने असंख्यों गौ, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम ज्योतिषियों को बुला कर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी तथा इच्क्ष्वाकु समान प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का भक्त होगा। एक ऋषि के शाप से तक्षक द्वारा मृत्यु से पहले संसार के माया मोह को त्याग कर गंगा के तट पर श्री शुकदेव जी से आत्मज्ञान प्राप्त करेगा। धर्मराज युधिष्ठिर ज्योतिषियों के द्वारा बताये गये भविष्यफल को सुन कर प्रसन्न हुये और उन्हें यथोचित दक्षिणा दे कर विदा किया। वह बालक शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। उन्हीं दिनों धर्मराज युधिष्ठिर ने राजा मरुत का गड़ा हुआ धन लाकर अश्वमेघ यज्ञ किया। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के देख रेख-में यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा- ये तीन कौरवपक्षीय वीर उस संग्राम से जीवित बचे। दूसरी ओर पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा भगवान श्रीकृष्ण-ये सात ही जीवित रह सके; दूसरे कोई नहीं बचे। उस समय सब ओर अनाथा स्त्रियों का आर्तनाद व्याप्त हो रहा था। भीमसेन आदि भाइयों के साथ जाकर युधिष्ठिर ने उन्हें सान्त्वना दी तथा रणभूमि में मारे गये सभी वीरों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दे धन आदि का दान किया।युद्ध समाप्ति के पश्चात, मृतक लोगों के लिए अंत्येष्टी संस्कार किए जा रहे थे। तब माता कुंती ने अपने पुत्रों से निवेदन किया की वे कर्ण के लिए भी सारे मृतक संस्कारों को करें। जब उन्होंने यह कहकर इसका विरोध किया की कर्ण एक सूद पुत्र है, तब कुंती ने कर्ण के जन्म का रहस्य खोला। तब सभी पांडव भाईयों को भ्रातृहत्या के पाप के कारण झटका लगता है। युधिष्ठिर विशेष रूप से अपनी माता पर रुष्ट होते हैं और उन्हें और समस्त नारी जाती को ये श्राप देते हैं की उस समय के बाद से स्त्रियां किसी भी भेद को छुपा नहीं पाएंगी।

ABHAY
09-01-2011, 06:58 AM
युधिष्ठिर और दुर्योधन, दोनों कर्ण का अंतिम संस्कार करना चाहते थे। युधिष्ठिर का दावा यह था की चुँकि वे कर्ण के कनिष्ट भ्राता हैं इसलिए यह अधिकार उनका है। दुर्योधन का दावा यह था की युधिष्ठिर और अन्य पांडवों ने कर्न के साथ कभी भी भ्रातृवत व्यवहार नहीं किया इसलिए अब इस समय इस अधिकार को जताने काअ कोई औचित्य नहीं है। तब श्रीकृष्ण मध्यस्थता करतें है और युधिष्ठिर को यह समझाते हैं की दुर्योधन की मित्रता का बंधन अधिक सुदृढ़ है इसलिए दुर्योधन को कर्न का अंतिम संस्कार करने दिया जाए।

जब १८-दिन का युद्ध समाप्त हो जाता है, तो श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके रथ से नीचे उतर जाने के लिए कहते हैं। जब अर्जुन उतर जाता है तो वे उसे कुछ दूरी पर ले जाते हैं। तब वे हनुमानजी को रथ के ध्वज से उतर आने का संकेत करते हैं। जैसे ही श्री हनुमान उस रथ से उतरते हैं, अर्जुन के रथ के अश्व जीवित ही जल जाते हैं और रथ में विस्फोट हो जाता है। यह देखकर अर्जुन दहल उठता है। तब श्रीकृष्ण उसे बताते हैं की पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कर्ण, और अश्वत्थामा के धातक अस्त्रों के कारण अर्जुन के रथ में यह विस्फोट हुआ है। यह अब तक इसलिए सुरक्षित था क्योंकि उस पर स्वयं उनकी कृपा थी और श्री हनुमान की शक्ति थी जो रथ अब तक इन विनाशकारी अस्त्रों के प्रभाव को सहन किए हुए था।

तत्पश्चात कुरुक्षेत्र में शरशय्या पर आसीन शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जाकर युधिष्ठिर ने उनसे समस्त शान्तिदायक धर्म, राजधर्म (आपद्धर्म), मोक्ष धर्म तथा दानधर्म की बातें सुनीं। फिर वे राजसिंहासन पर आसीन हुए। इसके बाद उन शत्रुमर्दन राजा ने अश्वमेध यज्ञ करके उसमें ब्राह्मणों को बहुत धन दान किया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से मूसलकाण्ड के कारण प्राप्त हुए शाप से पारस्परिक युद्ध द्वारा यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने परीक्षित् को राजासन पर बिठाया और स्वयं भाइयों के साथ महाप्रस्थान कर स्वर्गलोक को चले गये।

ABHAY
09-01-2011, 06:59 AM
महाभारत भाग २२

यदुकुल का संहार
महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्री कृष्णचन्द्र को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया कि तुम्हारे कारण से जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का आपस में लड़ कर के नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा। भगवान श्री कृष्णचन्द्र ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति को फेर दिया। एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाये। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह से भगवान श्री कृष्णचन्द्र को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा। इस घटना के बाद भगवान श्री कृष्णचन्द्र महाप्रयाण कर के स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गये। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो के उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये।

ABHAY
09-01-2011, 07:00 AM
पाण्डवों का स्वर्गगमन
श्रीकृष्णचन्द्र से मिलने के लिये तथा भविष्य का कार्यक्रम निश्चित करने के लिये अर्जुन द्वारिकापुरी गये थे। जब उन्हें गये कई महीने व्यतीत हो गये तब एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर को विशेष चिन्ता हुई। वे भीमसेन से बोले – “हे भीमसेन! द्वारिका का समाचार लेकर भाई अर्जुन अभी तक नहीं लौटे। और इधर काल की गति देखो, सम्पूर्ण भूतों में उत्पात होने लगे हैं। नित्य अपशकुन होते हैं। आकाश में उल्कापात होने लगे हैं और पृथ्वी में भूकम्प आने लगे हैं। सूर्य का प्रकाश मध्यम सा हो गया है और चन्द्रमा के इर्द गिर्द बारम्बार मण्डल बैठते हैं। आकाश के नक्षत्र एवं तारे परस्पर टकरा कर गिर रहे हैं। पृथ्वी पर बारम्बार बिजली गिरती है। बड़े बड़े बवण्डर उठ कर अन्धकारमय भयंकर आंधी उत्पन्न करते हैं। सियारिन सूर्योदय के सम्मुख मुँह करके चिल्ला रही हैं। कुत्ते बिलाव बारम्बार रोते हैं। गधे, उल्लू, कौवे और कबूतर रात को कठोर शब्द करते हैं। गौएँ निरंतर आँसू बहाती हैं। घृत में अग्नि प्रज्जवलित करने की शक्ति नहीं रह गई है। सर्वत्र श्रीहीनता प्रतीत होती है। इन सब बातों को देख कर मेरा हृदय धड़क रहा है। न जाने ये अपशकुन किस विपत्ति की सूचना दे रहे हैं। क्या भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस लोक को छोड़ कर चले गये या अन्य कोई दुःखदाई घटना होने वाली है?”

उसी क्षण आतुर अवस्था में अर्जुन द्वारिका से वापस आये। उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, शरीर कान्तिहीन था और गर्दन झुकी हुई थी। वे आते ही धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों में गिर पड़े। तब युधिष्ठिर ने घबरा कर पूछा – “हे अर्जुन! द्वारिकापुरी में हमारे सम्बंधी और बन्धु-बान्धव यादव लोग तो प्रसन्न हैं न? हमारे नाना शूरसेन तथा छोटे मामा वसुदेव तो कुशल से हैं न? हमारी मामी देवकी अपनी सातों बहनों तथा पुत्र-पौत्रादि सहित प्रसन्न तो हैं न? राजा उग्रसेन और उनके छोटे भाई देवक तो कुशल से हैं न? प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, साम्ब, ऋषभ आदि तो प्रसन्न हैं न? हमारे स्वामी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उद्धव आदि अपने सेवकों सहित कुशल से तो हैं न? वे अपनी सुधर्मा सभा में नित्य आते हैं न? सत्यभामा, रुक्मिणी, जाम्वन्ती आदि उनकी सोलह सहस्त्र एक सौ आठ पटरानियाँ तो नित्य ठनकी सेवा में लीन रहती हैं न? हे भाई अर्जुन! तुम्हारी कान्ति क्षीण क्यों हो रही है और तुम श्रीहीन क्यों हो रहे हो?”

ABHAY
09-01-2011, 07:01 AM
धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्नों के बौछार से अर्जुन और भी व्याकुल एवं शोकाकुल हो गये, उनका रंग फीका पड़ गया, नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी, हिचकियाँ बँध गईं, रुँधे कण्ठ से उन्होंने कहा – “हे भ्राता! हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने हमें ठग लिया, वे हमें त्याग कर इस लोक से चले गये। जिनकी कृपा से मेरे परम पराक्रम के सामने देवता भी सिर नहीं उठाते थे मेरे उस परम पराक्रम को भी वे अपने साथ ले गये, प्राणहीन मुर्दे जैसी गति हो गई मेरी। मैं द्वारिका से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की पत्नियों को हस्तिनापुर ला रहा था किन्तु मार्ग में थोड़े से भीलों ने मुझे एक निर्बल की भाँति परास्त कर दिया। मैं उन अबलाओं की रक्षा नहीं कर सका। मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं, वही गाण्डीव धनुष है और वही बाण हैं जिन से मैंने बड़े बड़े महारथियों के सिर बात की बात में उड़ा दिये थे। जिस अर्जुन ने कभी अपने जीवन में शत्रुओं से मुहकी नहीं खाई थी वही अर्जुन आज कायरों की भाँति भीलों से पराजित हो गया। उनकी सम्पूर्ण पत्नियों तथा धन आदि को भील लोग लूट ले गये और मैं निहत्थे की भाँति खड़ा देखता रह गया। उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के बिना मेरी सम्पूर्ण शक्ति क्षीण हो गई है।

“आपने जो द्वारिका में जिन यादवों की कुशल पूछी है, वे समस्त यादव ब्राह्मणों के श्राप से दुर्बुद्धि अवस्था को प्राप्त हो गये थे और वे अति मदिरा पान कर के परस्पर एक दूसरे को मारते मारते मृत्यु को प्राप्त हो गये। यह सब उन्हीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की लीला है।”

अर्जुन के मुख से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन और सम्पूर्ण यदुवंशियों के नाश का समाचार सुन कर धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरन्त अपना कर्तवय निश्चित कर लिया और अर्जुन से बोले – “हे अर्जुन! भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने इस लौकिक शरीर से इस पृथ्वी का भार उतार कर उसे इस प्रकार त्याग दिया जिस प्रकार कोई काँटे से काँटा निकालने के पश्चात उन कोनों काँटों को त्याग देता है। अब घोर कलियुग भी आने वाला है। अतः अब शीघ्र ही हम लोगों को स्वर्गारोहण करना चाहिये।” जब माता कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन का समाचार सुना तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में अपना ध्यान लगा कर शरीर त्याग दिया।

ABHAY
09-01-2011, 07:02 AM
धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने महापराक्रमी पौत्र परीक्षित को सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का राज्य देकर हस्तिनापुर में उसका राज्याभिषेक किया और शूरसेन देश का राजा बनाकर मथुरापुरी में अनिरुद्ध के पुत्र बज्र का राजतिलक किया। तत्पश्चात् परमज्ञानी युधिष्ठिर ने प्रजापति यज्ञ किया और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन होकर सन्यास ले लिया। उन्होंने मान, अपमान, अहंकार तथा मोह को त्याग दिया और मन तथा वाणी को वश में कर लिया। सम्पूर्ण विश्व उन्हें ब्रह्म रूप दृष्टिगोचर होने लगा। उन्होंने अपने केश खोल दिये, राजसी वस्त्राभूषण त्याग कर चीर वस्त्र धारण कर के और अन्न जल का परित्याग करके मौनव्रत धारण कर लिया। इतना करने के बाद बिना किसी की ओर दृष्टि किये घर से बाहर उत्तर दिशा की ओर चल दिये।राजा संसार की अनित्यता का विचार करके द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। उस महापथ में क्रमश: द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके गिर पड़े। इससे राजा शोकमग्न हो गये। तदनन्तर वे इन्द्र के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये। वहाँ उन्होंने दुर्योधन आदि सभी धृतराष्ट्रपुत्रों को देखा। तदनन्तर (उन पर कृपा करने के लिये अपने धाम से पधारे हुए) भगवान् वासुदेव का भी दर्शन किया इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुईं यह मैंने तुम्हें महाभारत का प्रसंग सुनाया है। जो इसका पाठ करेगा, वह स्वर्गलोक में सम्मानित होगा।

ABHAY
09-01-2011, 07:03 AM
समाप्त

इससे जूरी और खबरे है

ABHAY
09-01-2011, 07:07 AM
कुरुक्षेत्र युद्ध क्यों हुआ ?
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7910&stc=1&d=1294542373
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7911&stc=1&d=1294542428

कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के क्षत्रिय वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान् युद्ध का उस समय के महान् ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया।

ABHAY
09-01-2011, 07:09 AM
महाभारत में मुख्यतः चंद्रवंशियों के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। उक्त युद्ध को हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास हुआ माना जाता है। इस युद्ध में पाण्डव विजयी हुए थे। महाभारत में इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया है, क्योंकि यह सत्य और न्याय के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध था। महाभारत काल से जुड़े कई अवशेष दिल्ली में पुराना किला में मिले हैं। पुराना किला को पाण्डवों का किला भी कहा जाता है। कुरुक्षेत्र में भी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं। गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ७०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोजे गये हैं जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया इसके अलावा बरनावा में भी लाक्षागृह के अवशेष मिले हैं, ये सभी प्रमाण महाभारत की वास्तविकता को सिद्ध करते हैं।

ABHAY
09-01-2011, 07:12 AM
पृष्ठभूमि
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7912&stc=1&d=1294542713
कुरुराज्य सभा में द्रौपदी का अपमान
महाभारत युद्ध होने का मुख्य कारण कौरवों की उच्च महत्वाकांक्षाएँ और धृतराष्ट्र का पुत्र मोह था। कौरव और पाण्डव आपस में सहोदर भाई थे। वेदव्यास जी से नियोग के द्वारा विचित्रवीर्य की भार्या अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, उनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था। पाण्डु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पाँच पुत्र हुए| धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राज दिया गया जिससे धृतराष्ट्र को सदा पाण्डु और उसके पुत्रों से द्वेष रहने लगा। यह द्वेष दुर्योधन के रुप मे फलीभूत हुआ और शकुनि ने इस आग में घी का काम किया। शकुनि के कहने पर दुर्योधन ने बचपन से लेकर लाक्षागृह तक कई षडयंत्र किये। परन्तु हर बार वो विफल रहा। युवावस्था में आने पर जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो उसने उन्हें लाक्षागृह भिजवाकर मारने की कोशिश की परन्तु पाण्डव बच निकले। पाण्डवों की अनुपस्थिति में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया परन्तु जब पाण्डवों ने वापिस आकर अपना राज्य वापिस मांगा तो उन्हें राज्य के नाम पर खण्डहर रुपी खाण्डव वन दिया गया। धृतराष्ट्र के अनुरोध पर गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने यह प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया। पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से इन्द्र की अमारावती पुरी जितनी भव्य नगरी इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया। पाण्डवों ने विश्वविजय करके प्रचुर मात्रा में रत्न एवं धन एकत्रित किया और राजसूय यज्ञ किया। दुर्योधन पाण्डवों की उन्नति देख नहीं पाया और शकुनि के सहयोग से द्यूत में छ्ल से युधिष्ठिर से उसका सारा राज्य जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास कर उसे अपमानित किया। सम्भवतः इसी दिन महाभारत के युद्ध के बीज पड़ गये थे। अन्ततः पुनः द्यूत में हारकर पाण्डवों को १२ वर्षो को ज्ञातवास और १ वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार करना पड़ा। परन्तु जब यह शर्त पूरी करने पर भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा, परन्तु श्रीकृष्ण ने युद्ध रोकने का हर सम्भव प्रयास करने का सुझाव दिया।

ABHAY
09-01-2011, 07:14 AM
तब श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांतिदूत बनकर गये और वहाँ श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से पाण्डवों को केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। परन्तु जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया तो अन्ततः युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा। इस प्रकार कौरवों ने ११ अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने ७ अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहुँचे, जहाँ यह भयंकर युद्ध लड़ा गया .कुरुक्षेत्र के उस भयानक और घमासान संहारक युद्ध का अनुमान महाभारत के भीष्म पर्व में दिये एक श्लोक से लगाया जा सकता है कि
न पुत्रः पितरं जज्ञे पिता वा पुत्रमौरसम्।
भ्राता भ्रातरं तत्र स्वस्रीयं न च मातुलः॥
अर्थात् : उस युद्ध में न पुत्र पिता को,न पिता पुत्र को,न भाई भाई को,न मामा भांजे को,न मित्र मित्र को पहचानता था'

ABHAY
09-01-2011, 07:15 AM
श्रीकृष्ण द्वारा शांति का अंतिम प्रयास
१२ वर्षों के ज्ञातवास और १ वर्ष के अज्ञातवास की शर्त पूरी करने पर भी जब कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा। परन्तु श्रीकृष्ण ने कहा कि यह युद्ध सम्पूर्ण विश्व सभ्यता के विनाश का कारण बन सकता है अतः उन्होने युद्ध रोकने का हर सम्भव प्रयास करने का सुझाव दिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि दुर्योधन को एक अन्तिम अवसर अवश्य देना चाहिए, इसलिये श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांतिदूत बनकर गये और दुर्योधन से पाण्डवों के सामने केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया तो श्रीकृष्ण ने उसे समझाया कि दुर्योधन के इस हठ के कारण उसके वंश और साथियों के साथ-साथ कई निर्दोष लोगों को युद्ध की बलि चढ़ना पड़ेगा। इस बात क्रोधित होकर दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने की कोशिश की परन्तु श्रीकृष्ण माया का प्रयोग करके सबको अपने विराट रुप से भयभीत कर वहाँ से चले गये। इसके बाद तो युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये विवश होना ही पड़ा। उसी समय भगवान् वेदव्यास ने धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा कि तुम्हारे पुत्रों ने समस्त गुरुजनों की बातों की अवहेलना करके अन्ततः महाविनाशकारी युद्ध को खड़ा ही कर दिया। धृतराष्ट्र के युद्ध की संसूचना जानने की विनती करने पर वेदव्यास जी ने उन्हे कहा कि यदि तुम इस महायुद्ध को देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर सकता हूँ। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि इसमें मेरे ही कुल का विनाश होना है, इसलिये मैं इस युद्ध अपनी आँखों से नहीं देखूँगा। अतः आप कृपा करके ऐसी व्यवस्था कर दें कि मुझे इस युद्ध का समाचार मिलता रहे। यह सुनकर वेदव्यास जी ने संजय को बुलाकर उसे दिव्य दृष्टि दे दी और कहा, “हे धृतराष्ट्र! मैंने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर दिया है। सम्पूर्ण युद्ध क्षेत्र में कोई भी बात ऐसी न रहेगी जो इससे छुपी रहे। यह तुम्हें इस महायुद्ध का सारा वृत्तान्त सुनायेगा।” इतना कहकर वेदव्यास जी चले गये।

ABHAY
09-01-2011, 07:18 AM
युद्ध की तैयारियाँ और कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7913&stc=1&d=1294543112
महाभारत युद्ध मे भाग लेने वाले विभिन्न जनपदों की स्थिति
जब यह निश्चित हो गया कि युद्ध तो होगा ही, तो दोनों पक्षों ने युद्ध के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं। दुर्योधन पिछ्ले १३ वर्षों से ही युद्ध की तैयारी कर रहा था, उसने बलराम जी से गदा युद्ध की शिक्षा प्राप्त की तथा कठिन परिश्रम और अभ्यास से गदा युद्ध करने में भीम से भी अच्छा हो गया। शकुनि ने इन वर्षों मे की विश्व के अधिकतर जनपदों को अपनी तरफ कर लिया। दुर्योधन कर्ण को अपनी सेना का सेनापति बनाना चाहता था परन्तु शकुनि के समझाने पर दुर्योधन ने पितामह भीष्म को अपनी सेना का सेनापति बनाया, जिसके कारण भारत और विश्व के कई जनपद दुर्योधन के पक्ष मे हो गये। पाण्डवों की तरफ केवल वही जनपद थे जो धर्म और श्रीकृष्ण के पक्ष मे थे। महाभारत के अनुसार महाभारत काल में कुरुराज्य विश्व का सबसे बड़ा और शक्तिशाली जनपद था। विश्व के सभी जनपद कुरुराज्य से कभी युद्ध करने की भूल नहीं करते थे एवं सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखते थे। अत: सभी जनपद कुरुओं द्वारा लाभान्वित होने के लोभ से युद्ध में उनकी सहायता करने के लिये तैयार हो गये। पाण्डवों और कौरवों द्वारा यादवों से सहायता मांगने पर श्रीकृष्ण ने पहले तो युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की और फिर कहा कि "एक तरफ मैं अकेला और दूसरी तरफ मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना", अब अर्जुन व दुर्योधन को इनमें से एक का चुनाव करना था। अर्जुन ने तो श्रीकृष्ण को ही चुना, तब श्रीकृष्ण ने अपनी एक अक्षौहिणी सेना दुर्योधन को दे दी और खुद अर्जुन का सारथि बनना स्वीकार किया। इस प्रकार कौरवों ने ११ अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने ७ अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। फिर श्रीकृष्ण ने कर्ण से मिलकर उसे यह समझाया कि वह पाण्डवों का ही भाई है अतः वह पाण्डवों की तरफ से युद्ध करे, परन्तु कर्ण ने दुर्योधन के ऋण और मित्रता के कारण कौरवों का साथ नहीं छोड़ा। इसके बाद कुन्ती के विनती करने पर कर्ण ने अर्जुन को छोड़कर उसके शेष चार पुत्रों को अवसर प्राप्त होने पर भी न मारने का वचन दिया। इधर इन्द्र ने भी ब्राह्मण का वेष बनाकर कर्ण से उसके कवच और कुण्डल ले लिये। जिससे कर्ण की शक्ति कम हो गयी और पाण्डवों का उत्साह बढ़ गया क्योंकि उस अभेद्य कवच के कारण कर्ण को किसी भी दिव्यास्त्र से मारा नहीं जा सकता था।

ABHAY
09-01-2011, 07:21 AM
सेना विभाग एवं संरचनाएँ, हथियार और युद्ध सामग्री
दोनों पक्षों की सेनाएँ
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7914&stc=1&d=1294543255

ABHAY
09-01-2011, 07:23 AM
सेना विभाग
पाण्डवों और कौरवों ने अपनी सेना के क्रमशः ७ और ११ विभाग अक्षौहिणी में किये। एक अक्षौहिणी में २१, ८७० रथ, २१, ८७० हाथी, ६५, ६१० सवार और १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं। यह प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथि होता है हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है, कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या २, ८४, ३२३ होती हैं एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या ६, ३४, २४३ होती हैं, अतः १८ अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या १, १४, १६, ३७४ होगी। अठारह अक्षौहिणियों के लिए यही संख्या ११, ४१६ ,३७४ हो जाती है अर्थात ३, ९३, ६६० हाथी, २७, ५५, ६२० घोड़े, ८२, ६७, ०९४ मनुष्य।
महाभारत युद्ध में भाग लेने वाली कुल सेना निम्नलिखित है

कुल पैदल सैनिक-१९, ६८, ३००
कुल रथ सेना-३, ९३, ६६०
कुल हाथी सेना-३, ९३, ६६०
कुल घुड़सवार सेना-११, ८०, ९८०
कुल न्यूनतम सेना-३९,०६,६००
यह सेना उस समय के अनुसार देखने में बहुत बड़ी लगती है परन्तु जब ३२३ ईसा पूर्व यूनानी राजदूत मेगस्थनीज भारत आया था तो उसने चन्द्रगुप्त जो कि उस समय भारत का सम्राट् था, के पास ३०,००० रथों, ९००० हाथियों तथा ६,००,००० पैदल सैनिकों से युक्त सेना देखी। अतः चन्द्रगुप्त की कुल सेना उस समय ६, ३९, ००० के आस पास थी जिसके कारण सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया था और पुनः अपने देश लौट गया था। यह सेना प्रामाणिक तौर पर प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे विशाल सेना मानी जाती है। यह तो सिर्फ एक राज्य मगध की सेना थी, अगर समस्त भारतीय राज्यों की सेनाएँ देखें तो संख्या में एक बहुत विशाल सेना बन जायेगी। अतः महाभारत काल में जब भारत बहुत समृद्ध देश था, इतनी विशाल सेना का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं, जिसमें की सम्पूर्ण भारत देश के साथ साथ अनेक अन्य विदेशी जनपदों ने भी भाग लिया था।
कुल अधिकतम सेना-१, १४, १६, ३७४

ABHAY
09-01-2011, 07:27 AM
हथियार और युद्ध सामग्री
महाभारत के युद्ध मे कई तरीके के हथियार प्रयोग मे लाये गये। प्रास, ऋष्टि, तोमर, लोहमय कणप, चक्र, मुद्गर, नाराच, फरसे, गोफन, भुशुण्डी, शतघ्नी, धनुष-बाण, गदा, भाला, तलवार, परिघ, भिन्दिपाल, शक्ति, मुसल, कम्पन, चाप, दिव्यास्त्र, एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7915&stc=1&d=1294543595
प्राचीन कांस्य युग के अस्त्र-शस्त्र

ABHAY
09-01-2011, 07:29 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7916&stc=1&d=1294543730
कांस्य युग की तलवार

ABHAY
09-01-2011, 07:30 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7917&stc=1&d=1294543818
लखनऊ के दादुपुर गाँव मे उत्खनन मे प्राप्त १८०० ईसा पूर्व का लोहे के बाण का भाग

ABHAY
09-01-2011, 07:32 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7918&stc=1&d=1294543937
एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें

ABHAY
09-01-2011, 07:35 AM
सैन्य संरचनाएँ
प्राचीन समय में युद्ध के के समय में सेनापति को सेना के कई व्यूह बनाने पड़ते थे जिससे की शत्रु की सेना में आसानी से प्रवेश पाया जा सके तथा राजा और मुख्य सेनापतियों को बन्दी बनाया या मार गिराया जा सके। इसमें अपनी सम्पूर्ण सेना को व्यूह के नाम या गुण वाली एक विशेष आकृति मे व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार की व्यूह रचना से छोटी से छोटी सी सेना भी विशालकाय लगने लगती है और बड़ी से बड़ी सेना का सामना कर सकती है जैसा की महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की केवल ७ अक्षौहिणी सेना ने कौरवो की ११ अक्षौहिणी सेना का सामना करके यह सिद्ध कर दिखाया। महाभारत के १८ दिन के युद्ध में दोनों पक्ष के सेनापतियों द्वारा कई प्रकार के व्यूह बनाये गए। जो निम्नलिखित हैं-
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7919&stc=1&d=1294544072

ABHAY
09-01-2011, 07:37 AM
महाभारत काल के सबसे शक्तिशाली योद्धा
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7920&stc=1&d=1294544241

ABHAY
09-01-2011, 07:40 AM
युद्ध का प्रारम्भ और अंत
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7921&stc=1&d=1294544390
कुरुक्षेत्र की तरफ प्रस्थान करती पाण्डव और कौरव सेनाएँ,स्रोत
युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहँचे। पाण्डवों ने कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे समन्तपंचक तीर्थ से बहुत दूर हिरण्यवती नदी(सरस्वती की ही एक सहायक धारा) के तट के पास अपना पड़ाव डाला और कौरवो ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग मे वहाँ से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल मैदान मे अपना पड़ाव डाला। दोनों पक्षों ने वहाँ चिकने और समतल प्रदेशों मे जहाँ घास और ईंधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पड़ाव डाला। युधिष्ठिर ने देवमंदिरों, तीर्थों और महर्षियों के आश्रमों से बहुत दूर हिरण्यवती नदी के तट के समीप हजारों सैन्य शिविर लगवाये। वहाँ प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यन्त्र और कई वैद्य और शिल्पी वेतन देकर रखे गये। दुर्योधन ने भी इसी तरह हजारों पड़ाव डाले वहाँ केवल दोनों सेनाओ के बीच में युद्ध के लिये ५ योजन का घेरा छोड़ दिया गया था। फिर अगले दिन प्रातः दोनों पक्षो की सेनाएँ एक दूसरे के आमने-सामने आकर खड़ी हो गयीं।

ABHAY
09-01-2011, 07:42 AM
युद्ध के नियम बनाये जाना
पाण्डवों ने अपनी सेना का पड़ाव समन्त्र पंचक तीर्थ पास डाला और कौरवों ने उत्तम और समतल स्थान देखकर अपना पड़ाव डाला। उस संग्राम में हाथी, घोड़े और रथों की कोई गणना नहीं थी। पितामह भीष्म की सलाह पर दोनों दलों ने एकत्र होकर युद्ध के कुछ नियम बनाये। उनके बनाये हुए नियम निम्नलिखित हैं-
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7922&stc=1&d=1294544556

ABHAY
09-01-2011, 07:43 AM
युद्ध से पूर्व
इस प्रकार युद्ध संबंधी नियम बना कर दोनों दल युद्ध के लिये प्रस्तुत हुए। पाण्डवों के पास सात अक्षौहिणी सेना थी और कौरवों के साथ ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी। दोनों पक्ष की सेनाएँ पूर्व तथा पश्*चिम की ओर मुख करके खड़ी हो गयीं। कौरवों की तरफ से भीष्म और पाण्डवों की तरफ से अर्जुन सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। कुरुक्षेत्र के केवल ५ योजन(४० किलोमीटर) के क्षेत्र के घेरे मे दोनों पक्ष की सेनाएँ खड़ी थीं। युद्ध से पूर्व अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाने को कहते हैं जिससे वह यह देख ले कि युद्ध में उसे किन किन योद्धाओं का सामना करना है। जब अर्जुन युद्ध क्षेत्र में अपने गुरु द्रोण, पितामह भीष्म एवं अन्य संबंधियों को देखता है तो वह बहुत शोकग्रस्त एवं उदास हो जाता है। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि जिनके लिये हम ये सारे राजभोग प्राप्त करना चाहते हैं, वे तो यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में उसी राजभोग की प्राप्ति के लिये हमारे विपक्ष मे खड़े हैं इन्हें मारकर हम राज प्राप्त करके भी क्या करेगें। अतएव मैं युद्ध नहीं करूँगा, ऐसा कहकर अर्जुन अपने धनुष रखकर रथ के पिछले भाग में बैठ जाता है तब श्रीकृष्ण योग में स्थित होकर उसे गीता का ज्ञान देते हैं और कहते हैं कि संसार में जो आया है उसको एक ना एक दिन जाना ही पड़ेगा। यह शरीर और संसार दोनों नश्वर हैं परन्तु इस शरीर के अन्दर रहने वाला आत्मा शरीर के मरने पर भी नहीं मरता। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र पहनता है उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करती है इसको तुम ऐसे समझो कि यह सब प्रकृति तुम से करवा रहीं है तुम केवल निमित्त मात्र हो। श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान योग,भक्ति योग और कर्म योग तीनों की शिक्षा देते हैं जिसे सुनकर अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो जाता है।

ABHAY
09-01-2011, 07:46 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7923&stc=1&d=1294544757

ABHAY
09-01-2011, 07:48 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7924&stc=1&d=1294544899

ABHAY
09-01-2011, 07:50 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7925&stc=1&d=1294545045

ABHAY
09-01-2011, 07:53 AM
कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम
महाभारत एवं अन्य पौराणिक ग्रंथों के अनुसार यह युद्ध भारत वंशियों के साथ-साथ अन्य कई महान वंशों तथा वैदिक ज्ञान विज्ञान के पतन का कारण बना। महाभारत में वर्णित इस युद्ध के कुछ मुख्य परिणाम निम्न लिखित हैं-
नकारात्मक फल
१.यह युद्ध प्राचीन भारत के इतिहास का सबसे विध्वंसकारी और विनाशकारी युद्ध सिद्ध हुआ। इस युद्ध के बाद भारतवर्ष की भूमि लम्बें समय तक वीर क्षत्रियों से विहीन रही। इस युद्ध में लाखों वीर योद्धा मारे गये।

२.गांधारी के शापवश यादवों के वंश का भी विनाश हो गया। लगभग सभी यादव आपसी युद्ध में मारे गये, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने भी इस धरती से प्रयाण किया।

३.इस युद्ध के समापन एवं श्रीकृष्ण के महाप्रयाण के साथ ही वैदिक युग एवं सभ्यता के अंत का आरम्भ हुआ, भारत से वैदिक ज्ञान और विज्ञान का लोप होने लगा। जिसे पौराणिक विद्वानों ने कलियुग के आगमन से जोड़ा।

४.पूरे भारतवर्ष में सम्पूर्ण जनपदों की अर्थव्यवस्था बहुत खराब हो गयी, भारत में गरीबी के साथ साथ अज्ञानता फैल गयी।

५.भविष्य पुराण के अनुसार इस युद्ध के बाद भारत में निरन्तर शतियों तक विदेशियों(मलेच्छों) के आक्रमण होते रहे, कुरुवंश के अंतिम राजा क्षेमक भी मलेच्छों से युद्ध करते हुए मारे गये, जिसके बाद तो यह आर्यावर्त देश सब प्रकार से क्षीण हो गया, कलियुग के बढ़ते प्रभाव को देखकर तथा सरस्वती नदी के लुप्त हो जाने पर लगभग ८८००० वैदिक ऋषि-मुनि हिमालय चले गये और इस प्रकार भारतवर्ष ऋषि-मुनियों के ज्ञान एवं विज्ञान से भी हीन हो गया।

६.समस्त ऋषि-मुनियों के चले जाने पर भारत में धर्म का नेतृत्व ब्राह्मण करने लगे, जो पहले केवल यज्ञ करते थे एवं वेदों का अध्ययन करते थे। ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म को लम्बे समय तक बचाये रखा, परन्तु पौराणिक ग्रंथों में दिये वर्णन के अनुसार कलियुग के प्रभाव से ब्राह्मण वर्ग भी नहीं बच पाया और उनमें से कुछ दूषित एवं भ्रष्ट हो गये, मंत्रों का सही तरीके से उच्चारण करने की विधि भूल जाने के कारण वैदिक मंत्रों का दिव्य प्रभाव भी सीमित रह गया। कुछ भ्रष्ट ब्राह्मणों ने बाद के समाज में कई कुरीतियाँ एवं प्रथाएँ चला दी, जिसके कारण क्षुद्र एवं पिछड़े वर्ग का शोषण होने लगा एवं सतीप्रथा, छुआछूत जैसी प्रथाओं ने जन्म लिया। परन्तु कई ब्राह्मणों ने कठोर तप एवं नियमों का पालन करते हुए कलियुग के प्रभाव के बावजूद वैदिक सभ्यता को किसी न किसी अंश में जीवित रखा, जिसके कारण आज भी ऋग्वेद एवं अन्य वैदिक ग्रंथ सहस्रों वर्षों बाद लगभग उसी रूप में उपलब्ध हैं।

ABHAY
09-01-2011, 07:54 AM
सकारात्मक फल
१.इस युद्ध का एक सकारात्मक फल पूरी मानव जाति को श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को सुनायी गयी ज्ञानरूपी वाणी श्रीमद्भगवद्गीता के रुप में प्राप्त हुआ।

२.इस युद्ध के बाद युधिष्ठिर के राज्य-अभिषेक के साथ धरती पर धर्म के राज्य की स्थापना हुई।

ABHAY
09-01-2011, 07:57 AM
महाभारत युद्ध के बाद का भारतीय राजवंश
हिन्दू परम्पराओं एवं पुराणों में दी गयी प्राचीन राजवंशों की सूची के आधार पर तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में दी गयी ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर महाभारत काल के बाद का प्राचीन भारतीय राजवंश ऐतिहासिक घटना कालक्रम में निम्नलिखित है-
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7926&stc=1&d=1294545453

ABHAY
09-01-2011, 08:00 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7927&stc=1&d=1294545595

ABHAY
09-01-2011, 08:05 AM
महाभारत के पात्र और उनकी जीबन से मृत्यु तक की कहानी

कुरु वंश के लोग
शांतनु · गंगा · भीष्म · सत्यवती · चित्रांगद · विचित्रवीर्य · अंबा · अंबिका · अंबालिका · विदुर ·
धृतराष्ट्र:कौरव · गांधारी · दुर्योधन · दु:शासन · युयुत्सु · दुःशला · शकुनि ·
पांडु: पांडव · कुंती · माद्री · युधिष्ठिर · भीम · अर्जुन · नकुल · सहदेव · द्रौपदी ·

ABHAY
09-01-2011, 08:06 AM
शान्तनु
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है शांतनु महाभारत के एक प्रमुख पात्र हैं। वे हस्तिनापुर के महाराज प्रतीप के पुत्र थे। उनका विवाह गंगा से हुआ था। जिससे उनका देवव्रत नाम का पुत्र हुआ। यही देवव्रत आगे चलकर महाभारत के प्रमुख पात्र भीष्म के नाम से जाने गए। शान्तनु का दूसरा विवाह निषाद कन्या सत्यवती से हुआ था। इस विवाह को कराने के लिए ही देवव्रत ने राजगद्दी पर न बैठने और आजीवन कुँवारा रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की थी, जिसके कारण उनका नाम भीष्म पड़ा। सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये।

ABHAY
09-01-2011, 08:07 AM
गंगा
भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी गंगा, जो भारत और बांग्लादेश में मिलाकर २,५१० किमी की दूरी तय करती हुई उत्तरांचल में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू भाग को सींचती है, देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। २,०७१ कि.मी तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट (३१ मी) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ और देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौंदर्य और महत्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किए गए हैं।

ABHAY
09-01-2011, 08:08 AM
इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियाँ तो पाई ही जाती हैं मीठे पानी वाले दुर्लभ डालफिन भी पाए जाते हैं। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बाँध और नदी परियोजनाएँ भारत की बिजली, पानी और कृषि से संबंधित ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। गंगा की इस असीमित शुद्धीकरण क्षमता और सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसका प्रदूषण रोका नहीं जा सका है। फिर भी इसके प्रयत्न जारी हैं और सफ़ाई की अनेक परियोजनाओं के क्रम में नवंबर,२००८ में भारत सरकार द्वारा इसे भारत की राष्ट्रीय नदी तथा इलाहाबाद और हल्दिया के बीच (१६०० किलोमीटर) गंगा नदी जलमार्ग- को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया है।

ABHAY
09-01-2011, 08:10 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7928&stc=1&d=1294546212
गंगा नदी के मार्ग एवं उसकी विभिन्न उपनदियाँ

ABHAY
09-01-2011, 08:12 AM
उद्गम
गंगा नदी की प्रधान शाखा भागीरथी है जो कुमायूँ में हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है। गंगा के इस उद्गम स्थल की ऊँचाई ३१४० मीटर है। यहाँ गंगा जी को समर्पित एक मंदिर भी है। गंगोत्री तीर्थ, शहर से १९ कि.मी. उत्तर की ओर ३८९२ मी.(१२,७७० फी.) की ऊँचाई पर इस हिमनद का मुख है। यह हिमनद २५ कि.मी. लंबा व ४ कि.मी. चौड़ा और लगभग ४० मी. ऊँचा है। इसी ग्लेशियर से भागीरथी एक छोटे से गुफानुमा मुख पर अवतरित होती है। इसका जल स्रोत ५००० मी. ऊँचाई पर स्थित एक बेसिन है। इस बेसिन का मूल पश्चिमी ढलान की संतोपंथ की चोटियों में है। गौमुख के रास्ते में ३६०० मी. ऊँचे चिरबासा ग्राम से विशाल गोमुख हिमनद के दर्शन होते हैं। इस हिमनद में नंदा देवी, कामत पर्वत एवं त्रिशूल पर्वत का हिम पिघल कर आता है। यद्यपि गंगा के आकार लेने में अनेक छोटी धाराओं का योगदान है लेकिन ६ बड़ी और उनकी सहायक ५ छोटी धाराओं का भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्त्व अधिक है। अलकनंदा की सहायक नदी धौली, विष्णु गंगा तथा मंदाकिनी है। धौली गंगा का अलकनंदा से विष्णु प्रयाग में संगम होता है। यह १३७२ मी. की ऊँचाई पर स्थित है। फिर २८०५ मी. ऊँचे नंद प्रयाग में अलकनन्दा का नंदाकिनी नदी से संगम होता है। इसके बाद कर्ण प्रयाग में अलकनन्दा का कर्ण गंगा या पिंडर नदी से संगम होता है। फिर ऋषिकेश से १३९ कि.मी. दूर स्थित रुद्र प्रयाग में अलकनंदा मंदाकिनी से मिलती है। इसके बाद भागीरथी व अलकनन्दा १५०० फीट पर स्थित देव प्रयाग में संगम करती हैं यहाँ से यह सम्मिलित जल-धारा गंगा नदी के नाम से आगे प्रवाहित होती है। इन पांच प्रयागों को सम्मिलित रूप से पंच प्रयाग कहा जाता है। इस प्रकार २०० कि.मी. का संकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वार में करती है।

ABHAY
09-01-2011, 08:14 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7929&stc=1&d=1294546460
गंगा और शांतनु- राजा रवि वर्मा की कलाकृति
गंगा नदी के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। मिथकों के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु के पैर के पसीने की बूँदों से गंगा का निर्माण किया। त्रिमूर्ति के दो सदस्यों के स्पर्श के कारण यह पवित्र समझा गया। एक अन्य कथा के अनुसार राजा सगर ने जादुई रुप से साठ हजार पुत्रों की प्राप्ति की।[३१] एक दिन राजा सगर ने देवलोक पर विजय प्राप्त करने के लिये एक यज्ञ किया। यज्ञ के लिये घोड़ा आवश्यक था जो ईर्ष्यालु इंद्र ने चुरा लिया था। सगर ने अपने सारे पुत्रों को घोड़े की खोज में भेज दिया अंत में उन्हें घोड़ा पाताल लोक में मिला जो एक ऋषि के समीप बँधा था। सगर के पुत्रों ने यह सोच कर कि ऋषि ही घोड़े के गायब होने की वजह हैं उन्होंने ऋषि का अपमान किया। तपस्या में लीन ऋषि ने हजारों वर्ष बाद अपनी आँखें खोली और उनके क्रोध से सगर के सभी साठ हजार पुत्र जल कर वहीं भस्म हो गये।[३२] सगर के पुत्रों की आत्माएँ भूत बनकर विचरने लगीं क्योंकि उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया था। सगर के पुत्र अंशुमान ने आत्माओं की मुक्ति का असफल प्रयास किया और बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी। भगीरथ राजा दिलीप की दूसरी पत्नी के पुत्र थे। उन्होंने अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार किया। उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया जिससे उनके अंतिम संस्कार कर, राख को गंगाजल में प्रवाहित किया जा सके और भटकती आत्माएं स्वर्ग में जा सकें। भगीरथ ने ब्रह्मा की घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके। ब्रह्मा प्रसन्न हुये और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिये तैयार हुये और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों की आत्माओं की मुक्ति संभव हो सके। तब गंगा ने कहा कि मैं इतनी ऊँचाई से जब पृथ्वी पर गिरूँगी, तो पृथ्वी इतना वेग कैसे सह पाएगी? तब भगीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया, और उन्होंने अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोक कर, एक लट खोल दी, जिससे गंगा की अविरल धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई। वह धारा भगीरथ के पीछे-पीछे गंगा सागर संगम तक गई, जहाँ सगर-पुत्रों का उद्धार हुआ। शिव के स्पर्श से गंगा और भी पावन हो गयी और पृथ्वी वासियों के लिये बहुत ही श्रद्धा का केन्द्र बन गयीं। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को मन्दाकिनी और पाताल में भागीरथी कहते हैं। इसी प्रकार एक पौराणिक कथा राजा शांतनु और गंगा के विवाह तथा उनके सात पुत्रों के जन्म की है।

ABHAY
09-01-2011, 08:16 AM
सत्यवती
सत्यवती यह महाभारत कथा की एक महत्वपुर्ण पात्र है। सत्यवती का विवाह हस्तिनापुर नरेश शान्तनु से हुआ था। वे विचित्रवीर्य और चित्रांगद नामक दो पुत्रो की माता थी। देवव्रत(भीष्म पितामह) उनके सौतेले पुत्र थे। श्री वेदव्यास भी उनके विवाह से पूर्व पाराशर मुनि से हुये पुत्र थे

सत्यवती का जन्म
प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी ।
वेदव्यास का जन्म
एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।" तब पाराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।"

समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।

ABHAY
09-01-2011, 08:18 AM
विवाह
एक बार हस्तिनापुर के महाराज प्रतीप गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके रूप-सौन्दर्य से मोहित हो कर देवी गंगा उनकी दाहिनी जाँघ पर आकर बैठ गईं। महाराज यह देख कर आश्चर्य में पड़ गये तब गंगा ने कहा, "हे राजन्! मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूँ* और आपसे विवाह करने की अभिलाषा ले कर आपके पास आई हूँ।" इस पर महाराज प्रतीप बोले, "गंगे! तुम मेरी दहिनी जाँघ पर बैठी हो। पत्नी को तो वामांगी होना चाहिये, दाहिनी जाँघ तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूँ।" यह सुन कर गंगा वहाँ से चली गईं।

अब महाराज प्रतीप ने पुत्र प्राप्ति के लिये घोर तप करना आरम्भ कर दिया। उनके तप के फलस्वरूप उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने शान्तनु रखा। शान्तनु के युवा होने पर उसे गंगा के साथ विवाह करने का आदेश दे महाराज प्रतीप स्वर्ग चले गये। पिता के आदेश का पालन करने के लिये शान्तनु ने गंगा के पास जाकर उनसे विवाह करने के लिये निवेदन किया। गंगा बोलीं, "राजन्! मैं आपके साथ विवाह तो कर सकती हूँ किन्तु आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।" शान्तनु ने गंगा के कहे अनुसार वचन दे कर उनसे विवाह कर लिया। गंगा के गर्भ से महाराज शान्तनु के आठ पुत्र हुये जिनमें से सात को गंगा ने गंगा नदी में ले जा कर बहा दिया और अपने दिये हुये वचन में बँधे होने के कारण महाराज शान्तनु कुछ बोल न सके। जब गंगा का आठवाँ पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिये ले जाने लगी तो राजा शान्तनु से रहा न गया और वे बोले, "गंगे! तुमने मेरे सात पुत्रों को नदी में बहा दिया किन्तु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मैंने कुछ न कहा। अब तुम मेरे इस आठवें पुत्र को भी बहाने जा रही हो। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके इसे नदी में मत बहाओ।" यह सुन कर गंगा ने कहा, "राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिये अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।" इतना कह कर गंगा अपने पुत्र के साथ अन्तर्ध्यान हो गईं। तत्पश्चात् महाराज शान्तनु ने छत्तीस वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर के व्यतीत कर दिये। फिर एक दिन उन्होंने गंगा के किनारे जा कर गंगा से कहा, "गंगे! आज मेरी इच्छा उस बालक को देखने की हो रही है जिसे तुम अपने साथ ले गई थीं।" गंगा एक सुन्दर स्त्री के रूप में उस बालक के साथ प्रकट हो गईं और बोलीं, "राजन्! यह आपका पुत्र है तथा इसका नाम देवव्रत है, इसे ग्रहण करो। यह पराक्रमी होने के साथ विद्वान भी होगा। अस्त्र विद्या में यह परशुराम के समान होगा।" महाराज शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उसे अपने साथ हस्तिनापुर लाकर युवराज घोषित कर दिया।

ABHAY
09-01-2011, 08:18 AM
एक दिन महाराज शान्तनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुये एक सुन्दर कन्या दृष्टिगत हुई। उसके अंग अंग से सुगन्ध निकल रही थी। महाराज ने उस कन्या से पूछा, "हे देवि! तुम कौन हो?" कन्या ने बताया, "महाराज! मेरा नाम सत्यवती है और मैं निषाद कन्या हूँ।" महाराज उसके रूप यौवन पर रीझ कर तत्काल उसके पिता के पास पहुँचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धींवर (निषाद) बोला, "राजन्! मुझे अपनी कन्या का आपके साथ विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु आपको मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना होगा।।" निषाद के इन वचनों को सुन कर महाराज शान्तनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये।

सत्यवती के वियोग में महाराज शान्तनु व्याकुल रहने लगे। उनका शरीर दुर्बल होने लगा। महाराज की इस दशा को देख कर देवव्रत को बड़ी चिंता हुई। जब उन्हें मन्त्रियों के द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण ज्ञात हुआ तो वे तत्काल समस्त मन्त्रियों के साथ निषाद के घर जा पहुँचे और उन्होंने निषाद से कहा, "हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शान्तनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालान्तर में मेरी कोई सन्तान आपकी पुत्री के सन्तान का अधिकार छीन न पाये इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म अविवाहित रहूँगा।" उनकी इस प्रतिज्ञा को सुन कर निषाद ने हाथ जोड़ कर कहा, "हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।" इतना कह कर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मन्त्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।

देवव्रत ने अपनी माता सत्यवती को लाकर अपने पिता शान्तनु को सौंप दिया। पिता ने प्रसन्न होकर पुत्र से कहा, "वत्स! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी प्रतिज्ञा की है जैसी कि न आज तक किसी ने किया है और न भविष्य में करेगा। मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू भीष्म कहलायेगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।"

ABHAY
09-01-2011, 08:19 AM
धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर का जन्म
सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।

राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, "हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।" किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, "हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।" परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।

विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।"

ABHAY
09-01-2011, 08:20 AM
यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, "हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, "माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम व्रत का पालन करते रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा।" एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, "माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।" सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, "माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।" इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।

समय आने पर अम्बा के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

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09-01-2011, 08:20 AM
चित्रांगद
सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न राजा शांतनु के एक पुत्र और विचित्रवीर्य के छोटे भाई थे। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था, इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। 2.पुराणानुसार एक गंधर्व। 3.महाभारत के अनुसार दशार्ण के एक राजा।

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09-01-2011, 08:21 AM
विचित्रवीर्य
सत्यवती और शांतनु के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया। विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये।

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09-01-2011, 08:22 AM
अंबा
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है अम्बा काशीराज की पुत्री थीं। अम्बा की दो बहने थीं अम्बिका और अम्बालिका। अम्बा , अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया। राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, "हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।" किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, "हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।" परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।

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09-01-2011, 08:23 AM
अंबालिका
काशिराज की जिन दो कन्याओं को भीष्म संग्राम में विपक्षी को परास्त करके हर लाये थे उन्मे से एक अंबालिका थी।

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09-01-2011, 08:25 AM
विदुर
विदुर कौरवो और पांडवो के काका और धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के भाई थे। उनका जन्म एक दासी के गर्भ से हुआ था। विदुर को धर्मराज का अवतार भी माना जाता है।
जन्म की कथा
हस्तिनापुर नरेश शान्तनु और रानी सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।

राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, "हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।" किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, "हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।" परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।

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09-01-2011, 08:26 AM
विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।"

यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, "हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, "माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम व्रत का पालन करते रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा।" एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, "माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।" सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, "माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।" इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनन्दपूर्वक वेदव्यास से भोग कराया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।

समय आने पर अम्बा के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

ABHAY
09-01-2011, 08:27 AM
धृतराष्ट्र
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है

महाभारत में धृतराष्ट्र हस्तिनापुर के महाराज विचित्रवीर्य की पहली पत्नी अंबिका के पुत्र थे। उनका जन्म महर्षि वेद व्यास के वरदान स्वरूप हुआ था। हस्तिनापुर के ये नेत्रहीन महाराज सौ पुत्रों और एक पुत्री के पिता थे। उनकी पत्नी का नाम गांधारी था। बाद में ये सौ पुत्र कौरव कहलाए। दुर्योधन और दु:शासन क्रमशः पहले दो पुत्र थे।
जन्म
अपने पुत्र विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद माता सत्यवती अपने सबसे पहले जन्में पुत्र, व्यास के पास गईं। अपनी माता की आज्ञा का पालन करते हुए, व्यास मुनि विचित्रवीर्य की दोनों पत्नियों के पास गए और अपनी यौगिक शक्तियों से उन्हें पुत्र उत्पन्न करनें का वरदान दिया। उन्होंने अपनी माता से कहा कि वे दोनों रानीयों को एक-एक कर उनके पास भेजें, और उन्हे देखकर जो जिस भाव में रहेगा उसका पुत्र वैसा ही होगा। तब पहले बड़ी रानी अंबिका कक्ष में गईं लेकिन व्यासजी के भयानक रूप को देखकर डर गई और भय के मारे अपनी आँखें बंद कर लीं। इसलिए उन्हें जो पुत्र उतपन्न हुआ वह जन्मान्ध था। वह जन्मान्ध पुत्र था धृतराष्ट्र। उनकी नेत्रहीनता के कारण हर्तिनापुर का महाराज उनके अनुज पांडु को नियुक्त किया गया। पांडु की मृत्यु के बाद वे हस्तिनापुर के महाराज बनें।

ABHAY
09-01-2011, 08:29 AM
कौरव
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है कौरव महाभारत के विशिष्ट पात्र हैं। कौरवों की संख्या १०० थी तथा वे सभी सहोदर थे।
कौरवों के माता पिता
कौरवों के माता पिता का नाम गान्धारी तथा धृतराष्ट्र था।
कौरवों का जन्म
कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिर के जन्म होने पर धृतराष्ट्र की पत्नी गान्धारी के हृदय में भी पुत्रवती होने की लालसा जागी। गान्धारी ने वेद व्यास जी से पुत्रवती होने का वरदान प्राप्त कर लिया। गर्भ धारण के पश्चात् दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी जब पुत्र का जन्म नही हुआ तो क्षोभवश गान्धारी ने अपने पेट में मुक्का मार कर अपना गर्भ गिरा दिया। योगबल से वेद व्यास को इस घटना को तत्काल जान लिया। वे गान्धारी के पास आकर बोले, "गान्धारी तूने बहुत गलत किया। मेरा दिया हुआ वर कभी मिथ्या नहीं जाता। अब तुम शीघ्र सौ कुण्ड तैयार कर के उनमें घृत भरवा दो।" गान्धारी ने उनकी आज्ञानुसार सौ कुण्ड बनवा दिये। वेदव्यास ने गान्धारी के गर्भ से निकले मांसपिण्ड पर अभिमन्त्रित जल छिड़का जिसे उस पिण्ड के अँगूठे के पोरुये के बराबर सौ टुकड़े हो गये। वेदव्यास ने उन टुकड़ों को गान्धारी के बनवाये सौ कुण्डों में रखवा दिया और उन कुण्डों को दो वर्ष पश्चात् खोलने का आदेश दे अपने आश्रम चले गये। दो वर्ष बाद सबसे पहले कुण्ड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। दुर्योधन के जन्म के दिन ही कुन्ती का पुत्र भीम का भी जन्म हुआ। दुर्योधन जन्म लेते ही गधे की तरह रेंकने लगा। ज्योतिषियों से इसका लक्षण पूछे जाने पर उन लोगों ने धृतराष्ट्र को बताया, "राजन्! आपका यह पुत्र कुल का नाश करने वाला होगा। इसे त्याग देना ही उचित है। किन्तु पुत्रमोह के कारण धृतराष्ट्र उसका त्याग नहीं कर सके। फिर उन कुण्डों से धृतराष्ट्र के शेष 99 पुत्र एवं दुश्शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ। गान्धारी गर्भ के समय धृतराष्ट्र की सेवा में असमर्थ हो गयी थी अतएव उनकी सेवा के लिये एक दासी रखी गई। धृतराष्ट्र के सहवास से उस दासी का भी युयुत्स नामक एक पुत्र हुआ। युवा होने पर सभी राजकुमारों का विवाह यथायोग्य कन्याओं से कर दिया गया। दुश्शला का विवाह जयद्रथ के साथ हुआ।

ABHAY
09-01-2011, 08:29 AM
गांधारी
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है गांधारी महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी थी. उपने पति के नेत्र हीनता के कारन इन्होने भी सारा जीवन आँखों पर पट्टी बाँध कर बिताया. ये दुर्योधन, दुह्शाशन और बंकि ९८ कौरवों की माता थी.

ABHAY
09-01-2011, 08:30 AM
दुर्योधन
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है
# धृतराष्ट्र-गांधारी के सौ पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र दुर्योधन था।
# पाण्डु की पत्नी कुन्ती के पहले मां बनने से गांधारी को यह दु:ख हुआ कि उसका पुत्र राज्य का अधिकारी नहीं होगा तो उसने अपने गर्भ पर प्रहार करके उसे नष्ट करने की चेष्टा की। व्यास ने गर्भ को सौ भागों में बाँट कर घड़ों में रख दिया। जिससे सौ कौरव पैदा हुए।
# दुर्योधन गदा युद्ध में पारंगत था और श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का शिष्य था। दुर्योधन ने कर्ण को अपना मित्र बनाकर उसे अंग देश का राजा नियुक्त कर दिया था ।
# द्रौपदी ने दुर्योधन का अपमान "अन्धे का पुत्र अन्धा" कहकर किया था। दुर्योधन ने द्यूत क्रीड़ा (जुआ) में युधिष्ठर द्वारा दाव पर लगाई गयी पाण्डवों की पत्नी दौपदी को भरी सभा में अपमानित किया। जो अपमान महाभारत युद्ध का कारण बना। युद्ध के समय गांधारी ने अपने आँखों की पट्टी खोलकर दुर्योधन के शरीर को वज्र का करना चाहा। किन्तु कृष्ण की योजना और बहकाने के कारण दुर्योधन गांधारी के समक्ष पूर्णत: नि:वस्त्र नहीं जा पाया और उसका जंघा क्षेत्र वज्र का नहीं हो पाया। यह कमजोरी उसके भीम से हुए गदा युद्ध में उसकी मृत्यु का कारण बनी।

ABHAY
09-01-2011, 08:31 AM
दुःशासन
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है

दुःशासन प्रसिद्ध एवं प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत में कुरुवंश में कौरव वंश के अंतर्गत हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र का पुत्र था। इसी ने जुए के उपरांत दुर्योधन के कहने पर द्रौपदी का चीर हरण किया था।

ABHAY
09-01-2011, 08:32 AM
दुःशला
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है

दुःशला दुर्योधन की बहन थी जिसका विवाह सिन्धु एवम सौविरा नरेश जयद्रथ से हुआ था जिसका वध अर्जुन द्वारा कुरुक्षेत्र में किया गया। दुःशला के पुत्र का नाम सुरथ था। जब अर्जुन कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद युधिष्ठिर द्वारा आयोजित अश्वमेध यज्ञ के परिणाम स्वरुप प्राप्त होने वाले कर को लेने सिन्धु पहुचे तो दु:शला के पौत्र से उनका युद्ध हुआ अर्जुन ने सदा दुर्योधन की बहन को अपनी बहन माना अतः वे अपनी बहन के पौत्र और सुरथ के पुत्र को जीवन दान दे कर सिन्धु को छोड़ आगे बढ़ गये।

ABHAY
09-01-2011, 08:33 AM
शकुनि
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है शकुनि गंधार साम्राज्य का राजा था। यह स्थान आज के अफ़्ग़ानिस्तान में है। वह हस्तिनापुर महाराज और कौरवों के पिता धृतराष्ट्र का साला था, और कौरवों का मामा। दुर्योधन की कुटिल नीतियों के पीछे शकुनि का हाथ माना जाता है, और वह कुरुक्षेत्र के युद्ध के लिए दोषियों में प्रमुख माना जाता है। उसने कई बार पाण्डवों के साथ छ्ल किया और अपने भांजे दुर्योधन को पाण्डवों के प्रति कुटिल चालें चलने के लिए उकसाया।
जन्म
शकुनि का जन्म गंधार के राजा सुलभ के यहाँ हुआ था। शकुनि की बहन गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से हुआ था। शकुनि की कुरुवंश के प्रति घृणा का कारण यह था, की हस्तिनापुर के सेनापति भीष्म एक बार धृतराष्ट्र के लिए गांधारी का हाथ माँगने गंधार गए। तब गांधारी के पिता सुलभ ने ये बात स्वीकार कर ली, लेकिन उस समय उन्हें ये पता नहीं था की धृतराष्ट्र जन्मांध है। इसका शकुनि ने भी विरोध किया, लेकिन गांधारी अब तक धृतराष्ट्र को अपना पति मान चुकी थी। इसलिए शकुनि ने उस दिन ये प्रण लिया की वह समूचे कुरुवंश के सर्वनाश का कारण बनेगा।

ABHAY
09-01-2011, 08:42 AM
चौसर का खेल
हस्तिनापुर राज्य को दो बराबर टुकडो़ में बाँटकर एक भाग, हो की पुर्णतः बंजर था, पाण्डवों को दे दिया गया, जिसे उन्होनें अपने अथक प्रयासों से इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) नामक सुंदर नगरी में परिवर्तित कर दिया। शीघ्र ही वहाँ की भव्यता कि चर्चाएँ दूर्-दूर तक होने लगीं। युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ के अवसर पर, दुर्योधन को भी उस भव्य नगरी में जाने का अवसर मिला। वह राजमहल की भव्यता देख रहा था, की एक स्थान पर उसने पानी की तल वाली सजावट को ठोस भूमि समझ लिया और उसमें गिर पडा़। यह देखकर द्रौपदी को हँसी आ गई और उसने मजा़क में कह दिया, "अंधे का पुत्र अंधा"। इसे दुर्योधन ने अपना अपमान समझा और वह हस्तिनापुर लौट आया।

अपने भांजे की यह मानसिक स्थिति भाँपकर, शकुनि ने मन में पाण्डवों का राजपाट छिनने का कुटिल विचार आया। उसने पाण्डवों को चौसर के खेल के लिए आमंत्रित किया, और अपनी कुटिल बुद्धि के प्रयोग से युधिष्ठिर को पहले तो छोटे-छोटे दाव लगाने के लिए कहा। जब युधिष्ठिर खेल छोड़ने का मन बनाता तो शकुनि द्वारा कुछ ना कुछ कहकर युधिष्ठिर से कोई ना कोई दाव लगवा लेता। इस प्रकार महाराज युधिष्ठिर एक-एक कर अपनी सभी वस्तुओं को दाव पर लगा कर हारते रहे और अंत में उन्होनें अपने भाईयों और अपनी पत्नी को भी दाव पर लगा दिया और उन्हें भी हार गए और इस प्रकार द्रौपदी का अपमान करके दुर्योधन ने अपना प्रतिशोध ले लिया, और उसी दिन महाभारत के युद्ध की नींव पडी़।
कुरुक्षेत्र का युद्ध
कुरुक्षेत्र के युद्ध में शकुनि का वध सहदेव के द्वारा १८ वें दिन के युद्ध में किया गया। उसके सभी भाइयों का वध इरवन और अर्जुन के द्वारा किया गया।

ABHAY
09-01-2011, 08:43 AM
पाण्डु
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है


पाण्डु महाभारत के एक पात्र थे। वे पाण्डवों के पिता और धृतराष्ट्र के कनिष्ट भ्राता थे। जिस समय हस्तिनापुर का सिंहासन सम्भालने के लिए धृतराष्ट्र को मनोनीत किया जा रहा था तब विदुर ने राजनीति ज्ञान की दुहाई देकर की एक नेत्रहीन व्यक्ति राजा नहीं हो सकता, पाण्डु को नरेश घोषित किया गया।

एक बार महाराज पाण्डु अपनी दोनों रानियों कुन्ती और माद्री के साथ वन विहार कर रहे थे। एक दिन उन्होंने मृग के भ्रम में बाण चला दिया जो एक ऋषि को लग गया। उस समय ऋषि अपनी पत्नी के साथ सहवासरत थे और उसी अवस्था में उन्हें बाण लग गया, किन्तु उन्होंने पाण्डु को श्राप दे दिया की जिस अवस्था में उनकी मृत्यु हो रही है उसी प्रकार जब भी पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ सहवासरत होंगे तो उनकी भी मृत्यु हो जाएगी। उस समय पाण्डु की कोई सन्तान नहीं थी और इस कारण वे विचलित हो गए। यह बात उन्होंने अपनी बड़ी रानी कुन्ती को बताई। तब कुन्ती ने कहा की ऋषि दुर्वासा ने उन्हें वरदान दिया था की वे किसी भी देवता का आवाह्न करके उनसे सन्तान माँग सकतीं हैं। तब पाण्डु के कहने पर कुन्ती ने एक-एक कर कई देवताओं का आवाह्न किया। इस प्रकार माद्री ने भी देवताओं का आवाह्न किया। तब कुन्ती को तीन और माद्री को दो पुत्र प्राप्त हुए जिनमें युधिष्ठिर सब्से ज्येष्ठ थे।

एक दिन वर्ष ऋतु का समय था और पाण्डु और माद्री वन में ही थे। उस समय पाण्डु अपने काम वेग पर नितन्त्रण ना रख सके और माद्री के साथ सहवास करने को उतावले हो गए और तब ऋषि का श्राप महाराज पाण्डु की मृत्यु के रूप में फलित हुआ।

ABHAY
09-01-2011, 08:45 AM
कुंती
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है कुंती महाभारत में वर्णित पांडव जो कि पाँच थे, में से बङे तीन की माता थीं। ये हस्तिनापुर के नरेश महाराज पांडु की पहली पत्नी थीं। ये कुन्तिभोज की कन्या और श्रीकृष्ण की बुआ थी. कुंती को कुंआरेपन में महर्षि दुर्वासा ने एक वरदान दिया था जिसमें कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु एवं कुंती ने इस वरदान का प्रयोग किया एवं धर्मराज, वायु एवं इंद्र देवता का आवाहन किया । अर्जुन तीसरे पुत्र थे जो देवताओं के राजा इंद्र से हुए।

ABHAY
09-01-2011, 08:46 AM
माद्री
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है माद्री राजा पाण्डु की दूसरी रानी थी। उसके बेटे नकुल और सहदेव थे। माद्री पारस में माद्रा राज्य की राजकुमारी राजा शल्य की बहिन थी . पुरानी पारसी में माद्रा को मादा कहा गया है ये मेड साम्राज्य का नाम था

ABHAY
09-01-2011, 08:47 AM
युधिष्ठिर
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है
युधिष्ठिर
छत्रपति महाराज

उपाधियाँ धर्मपुत्र
पूर्वाधिकारी धृतराष्ट्र
उत्तराधिकारी परीक्षित
राजवंश पांडव, कुरुवंश
पिता पांडु
माता कुंती

युधिष्ठिर महाभारत में पांच पाण्डवों में बडे भाई थे। युधिष्ठिर वे धर्मराज के पुत्र थे (यमराज) भाला चलाने मे निपुण थे कभी मिथ्या नही बोलते थे उनके पिता ने यक्ष बन कर सरोवर पे उनकी परीक्षा भी ली थी

ABHAY
09-01-2011, 08:48 AM
भीम
हिन्दू धर्म के महाकाव्य महाभारत के अनुसार भीम पाण्डवों में दूसरे स्थान पर थे। वे पवनदेव के वरदान स्वरूप कुन्ती से उत्पन्न हुए थे, लेकिन अन्य पाण्डवों के विपरीत भीम की प्रशंसा पाण्डु द्वारा की गई थी। सभी पाण्डवों में वे सर्वाधिक बलशाली और श्रेष्ठ कद-काठी के थे।

उनके पौराणिक बल का गुणगान पूरे काव्य में किया गया है। जैसे:- "सभी गदाधारियों में भीम के समान कोई नहीं है, और ऐसा भी कोई को गज की सवारी करने में इतना योग्य हो और बल में तो वे दस हज़ार हाथियों के समान है। युद्ध कला में पारंगत और सक्रिय, जिन्हे यदि क्रोध दिलाया जाए जो कई धृतराष्ट्रों को वे समाप्त कर सकते हैं। सदैव रोषरत और बलवान, युद्ध में तो स्वयं इन्द्र भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते।"

महाभारत के युद्ध में भीम ने ही सारे कौरव भाईयों का वध किया था।

ABHAY
09-01-2011, 08:50 AM
अर्जुन
महाभारत के मुख्य पात्र हैं। महाराज पाण्डु एवं रानी कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे।
जन्म
जब पाण्डु संतान उत्पन्न करने में असफल रहे तो कुंती ने उनको एक वरदान के बारे में याद दिलाया। कुंती को कुंआरेपन में महर्षि दुर्वासा ने एक वरदान दिया था जिसमें कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु एवं कुंती ने इस वरदान का प्रयोग किया एवं धर्मराज, वायु एवं इंद्र देवता का आवाहन किया । अर्जुन तीसरे पुत्र थे जो देवताओं के राजा इंद्र से हुए।
व्यक्तित्व
अर्जुन सबसे अच्छा तीरंदाज था वो द्रोणाचार्य का शिष्य था जीवन मे अनेक अवसरों पर उसने इसका परिचय दिया था द्रोपदी को स्यम्वर मे जीतने वाला वो ही था।

ABHAY
09-01-2011, 08:53 AM
नकुल
नकुल महान हिन्दू काव्य महाभारत में पाँच पांडवो में से एक था। नकुल और सहदेव, दोनों माता माद्री के असमान जुड़वा पुत्र थे, जिनका जन्म दैवीय चिकित्सकों अश्विन के वरदान स्वरूप हुआ था, जो स्वयं भी समान जुड़वा बंधु थे।

नकुल, का अर्थ है, परम विद्वता। महाभारत में नकुल का चित्रण एक बहुत ही रूपवान, प्रेम युक्त, और बहुत सुंदर व्यक्ति के रूप में की गई है। अपनी सुंदरता के कारण नकुल की तुलना काम और प्रेम के देवता, "कामदेव" से की गई है। पांडवो के अंतिम और तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास में नकुल ने अपने रूप को कौरवों से छिपाने के लिए अपने शरीर पर धूल लीप कर छिपाया। श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करने के पश्चात नकुल द्वारा घुड़ प्रजनन और प्रशिक्षण में निपुण होने का महाभारत में अभिलेखाकरण है। वह एक योग्य पशु शल्य चिकित्सक था, जिसे घुड़ चिकित्सा में महारथ प्राप्त था। अज्ञातवास के समय में नकुल भेष बदल कर और अरिष्ठनेमि नाम के छद्मनाम से महाराज विराट की राजधानी उपपलव्य की घुड़शाला में शाही घोड़ों की देखभाल करने वाले सेवक के रूप में रहा था। वह अपनी तलवारबाज़ी और घुड़सवारी की कला के लिए भी विख्यात था। अनुश्रुति के अनुसार, वह बारिश में बिना जल को छुए घुड़सवारी कर सकता था।

नकुल का विवाह द्रौपदी के अतिरिक्त जरासंध की पुत्री से भी हुआ था।

नकुल नाम का अर्थ होता है जो प्रेम से परिपूर्ण हो और इस नाम की नौ पुरुष विशेषताएँ हैं: बुद्धिमत्ता, सकेन्द्रित, परिश्रमी, रूपवान, स्वास्थ्य, आकर्षकता, सफ़लता, आदर, और शर्त रहित प्रेम।

ABHAY
09-01-2011, 08:55 AM
सहदेव
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है सहदेव महाभारत में पाँच पांडवों में से एक और सबसे छोटा था। वह माता माद्री के असमान जुड़वा पुत्रों में से एक थे, जिनका जन्म देव चिकित्सक अश्विनों के वरदान स्वरूप हुआ था। जब नकुल और सहदेव का जन्म हुआ था तब यह आकाशवाणी हुई की, ‘शक्ति और रूप में ये जुड़वा बंधु स्वयं जुड़वा अश्विनों से भी बढ़कर होंगे।’

ABHAY
09-01-2011, 09:06 AM
द्रौपदी
द्रौपदी का जन्म महाराज द्रुपद के यहाँ यज्ञकुण्ड से हुआ था. द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव से हुआ था.
द्रौपदी का जन्म
द्रौपदी पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। जब पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गई तो उन्होंने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देना चाहा। द्रोणाचार्य को द्रुपद के द्वारा किये गये अपने अपमान का स्मरण हो आया और उन्होंने राजकुमारों से कहा, "राजकुमारों! यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो पाञ्चाल नरेश द्रुपद को बन्दी बना कर मेरे समक्ष प्रस्तुत करो। यही तुम लोगों की गुरुदक्षिणा होगी।" गुरुदेव के इस प्रकार कहने पर समस्त राजकुमार अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र ले कर पाञ्चाल देश की ओर चले।

पाञ्चाल पहुँचने पर अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा, "गुरुदेव! आप पहले कौरवों को राजा द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये। यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे तो हम पाण्डव युद्ध करेंगे।" गुरु की आज्ञा मिलने पर दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों ने पाञ्चाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा किन्तु अन्त में कौरव परास्त हो कर भाग निकले। कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। भीमसेन तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पाञ्चाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़ कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये।

ABHAY
09-01-2011, 09:07 AM
द्रुपद को बन्दी के रूप में देख कर द्रोणाचार्य ने कहा, "हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझ कर तुम्हारे पास आया था किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था। अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो?" द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया और अपनी भूल के लिये क्षमायाचना करते हुये बोले, "हे द्रोण! आपको अपना मित्र न मानना मेरी भूल थी और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है। मैं तथा मेरा राज्य दोनों ही अब आपके आधीन हैं, अब आपकी जो इच्छा हो करें।" द्रोणाचार्य ने कहा, "तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ।" इतना कह कर द्रोणाचार्य ने गंगा नदी के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया।

गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।" महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया।

ABHAY
09-01-2011, 09:07 AM
द्रौपदी का विवाह
"मैं महाराज द्रुपद की नगरी पाञ्चाल से आ रहा हूँ। वहाँ पर द्रुपद की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर के लिये अनेक देशों के राजा-महाराजा पधारे हुये हैं।"

वेदव्यास-तुम लोग पाञ्चाल चले जाओ। वहाँ द्रुपद कन्या पाञ्चाली का स्वयंवर होने जा रहा है। वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है शिव जी ने उसे अगले जन्म में पाँच उत्तम पति प्राप्त होने का वरदान दिया था। वह देविस्वरूपा बालिका सब भाँति से तुम लोगों के योग्य ही है। तुम लोग वहाँ जा कर उसे प्राप्त करो।

स्वयंवर सभा में अनेक देशों के राजा-महाराजा एवं राजकुमार पधारे हुये थे कुछ ही देर में राजकुमारी द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ उस सभा में पहुँचीं। धृष्टद्युम्न ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा, "विभिन्न देश से पधारे राजा-महाराजाओं एवं अन्य गणमान्य जनो से मेरी बहन द्रौपदी का विवाह होगा।"

एक के बाद एक सभी राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने एक ऊपर घूमती हुई मछली की आंख प्र उसके प्रतिबिम्ब को नीचे जल में देखकर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी और वे कान्तिहीन होकर अपने स्थान में लौट आये। इन असफल लोगों में जरासंघ, शल्य, शिशुपाल तथा दुर्योधन दुःशासन आदि कौरव भी सम्मिलित थे। कौरवों के असफल होने पर एक ब्राह्मण को राजकुमारी को प्राप्त करना चाहा। अर्जुन ने तैलपात्र में प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से निशाना लगा डाला। द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दिया।

एक ब्राह्मण के गले में द्रौपदी को वरमाला डालते देख समस्त क्षत्रिय राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने क्रोधित हो कर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। पाण्डवों तथा क्षत्रिय राजाओं में घमासान युद्ध होने लगा।

पाण्डव द्रौपदी को साथ ले कर वहाँ पहुँचे जहाँ वे अपनी माता कुन्ती के साथ निवास कर रहे थे। द्वार से ही अर्जुन ने पुकार कर अपनी माता से कहा, "माते! आज हम लोग आपके लिये एक अद्भुत् भिक्षा ले कर आये हैं।" उस पर कुन्ती ने भीतर से ही कहा, "पुत्रों! तुम लोग आपस में मिल-बाँट उसका उपभोग कर लो।" बाद में यह ज्ञात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में हैं, कुन्ती को अत्यन्त पश्चाताप हुआ किन्तु माता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिये द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

पाण्डवों के द्रौपदी को साथ ले कर अपने निवास पर पहुँचने के कुछ काल पश्चात् उनके पीछे-पीछे कृष्ण भी वहाँ पर आ पहुँचे। औपचारिकताएँ पूर्ण होने के पश्चात् कुन्ती ने द्रौपदी से कहा, "द्रौपदी!पहले देवताओं के अंश निकालो। फिर ब्राह्मणों को दो। तत्पश्चात् आश्रितों का अंश अलग करो। उसके बाद जो शेष बचे उसका आधा भाग भीम को और शेष आधा भाग हम सभी को अपनी देह परोसो।"पतिव्रता द्रौपदी ने कुन्ती के आदेश का पालन किया। भोजन के पश्चात् कुशासन पर मृगचर्म बिछा कर वे सो गये। द्रौपदी माता के पैरों की ओर सोई।

ABHAY
09-01-2011, 09:09 AM
अन्य पात्र
कर्ण · द्रोण · अंबा · व्यास · अभिमन्यु · कृष्ण · सुभद्रा · सात्यकि · धृष्टद्युम्न · संजय · इरावन · बर्बरीक · बभ्रुवाहन · परीक्षित · विराट · कीचक · कृप · अश्वत्थामा · एकलव्य · कृतवर्मा · जरासंध · मयासुर · दुर्वासा · जनमेजय · जयद्रथ · बलराम · द्रुपद · हिडिंब · शल्य · अधिरथ · शिखंडी · हिडिंबी · घटोत्कच · अहिलावती · उत्तरा · उलूपी · चित्रांगद

ABHAY
09-01-2011, 09:11 AM
कर्ण
कर्ण महाभारत के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक है। कर्ण की वास्तविक माँ कुंती थी। कर्ण का जन्म कुंती के पांडु के साथ विवाह होने से पूर्व हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था, और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाईयों के विरुद्ध लड़ा। वह सूर्य पुत्र था। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों ना पड़ गए हों।

कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था।[१] तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही।

कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी लेकिन कुल मिलाकर कर्ण को एक दानवीर और महान योद्धा माना जाता है।

ABHAY
09-01-2011, 09:12 AM
शुद्ध संकल्प के परिणाम स्वरुप जन्म
कर्ण का जन्म कुंती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में पधारे। तब कुंती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुंती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पांडु से उसे संतान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे संतान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुंती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था, और वह कवच और कुंडल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे।

चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया।

ABHAY
09-01-2011, 09:13 AM
लालन-पालन
कर्ण गंगाजी में बहता हुआ जा रहा था कि महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्न राधा ने उसे देखा और उसे गोद ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे। उन्होंने उसे वासुसेना नाम दिया। अपनी पालक माता के नाम पर कर्ण को राधेय के नाम से भी जाना जाता है। अपने जन्म के रहस्योद्घाटन होने और अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात भी कर्ण ने सदैव उन्हीं को अपना माता-पिता माना और अपनी मृत्यु तक सभी पुत्र धर्मों निभाया। अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात कर्ण का एक नाम अंगराज भी हुआ।
प्रशिक्षण
कुमार अवास्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो कि उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सारथी पुत्र था, और द्रोण केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। इस प्रकार कर्ण परशुराम का एक अत्यंत परिश्रमी और निपुण शिष्य बना।

ABHAY
09-01-2011, 09:14 AM
कर्ण को मिले विविध श्राप
कर्ण को उसके गुरु परशुराम और पृथ्वी माता से श्राप मिला था।

कर्ण की शिक्षा अपने अंतिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छु आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण बिच्छु को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी, और उन्होनें देखा की कर्ण की जांघ से बहुत रक्त बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में, और परशुरामजी ने उसे मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उसदिन वह उसके काम नहीं आएगी। कर्ण, जो कि स्वयं ये नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर उन्हें ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होनें कर्ण को अपना विजय नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है - अमिट प्रसिद्धि। कुछ लोककथाओं में में माना जाता है कि बिच्छु के रुप में स्वयं इन्द्र थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे।

परशुरामजी के आश्रम से जाने के पश्चात, कर्ण कुछ समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह 'शब्दभेदी' विद्या सीख रहा था। अभ्यास के दौरान उसने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछडा़ मारा गया। तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा।

ABHAY
09-01-2011, 09:15 AM
आंध्र की लोककथाओं के अनुसार एक बार कर्ण कहीं जा रहा था, तब रास्ते में उसे एक कन्या मिली जो अपने घडे़ से घी के बिखर जाने के कारण रो रही थी। जब कर्ण ने उसके संत्रास का कारण जानना चाहा, तब उसने बताया कि उसे भय है कि उसकी सौतेली माँ उसकी इस असावधानी पर रुष्ट होंगी। कृपालु कर्ण ने तब उससे कहा कि बह उसे नया घी लाकर देगा। तब कन्या ने आग्रह किया कि उसे वही मिट्टी में मिला हुआ घी ही चाहिए और उसने नया घी लेने से मना कर दिया। तब कन्या पर दया करते हुए कर्ण ने घी युक्त मिट्टी को अपनी मुठ्ठी में लिया और निचोड़ने लगा ताकि मिट्टी से घी निचुड़कर घड़े में गिर जाए। इस प्रक्रिया के दौरान उसने अपने हाथ से एक महिला की पीड़ायुक्त ध्वनि सुनी। जब उसने अपनी मुठ्ठी खोली तो धरती माता को पाया। पीड़ा से क्रोधित धरती माता ने कर्ण की आलोचना की, कि उसने एक बच्ची के घी के लिए उन्हें इतनी पीड़ा दी। और तब धरती माता ने कर्ण को श्राप दिया कि एक दिन उसके जीवन के किसी निर्णायक युद्ध में वह भी उसके रथ के पहिए को वैसे ही पकड़ लेंगी जैसे उसने उन्हें अपनी मुठ्ठी में पकड़ा है, जिससे वह उस युद्ध में अपने शत्रु के सामने असुरक्षित हो जाएगा।

इस प्रकार, कर्ण को तीन अलग-अलग और पृथक अवसरों पर तीन श्राप मिले। दुर्भाग्य से ये तीनों ही श्राप कुरुक्षेत्र के निर्णायक युद्ध में फ़लीभूत हुए, जब वह युद्ध में अस्त्र विहीन, रथ विहीन, और असहाय हो गया।

ABHAY
09-01-2011, 09:16 AM
विविध श्रापों के प्रभाव
कर्ण को मिले विविध श्रापों का प्रभाव इस प्रकार हुआ।
दो ब्रह्मास्त्रों का टकराना
यदि एक ब्रह्मास्त्र भी शत्रु के खेमें पर छोड़ा जाए तो ना केवल वह उस खेमे को नष्ट करता है बल्कि उस पूरे क्षेत्र में १२ से भी अधिक वर्षों तक अकाल पड़ता है। और यदि दो ब्रह्मास्त्र आपस में टकरा दिए जाएं तब तो मानो प्रलय ही हो जाता है। इससे समस्त पृथ्वी का विनाश हो जाएगा और इस प्रकार एक अन्य भूमण्डल और समस्त जीवधारियों की रचना करनी पड़ेगी। महाभारत के युद्ध में दो ब्रह्मास्त्रों के टकराने की स्थिति तब आई जब ऋषि वेदव्यासजी के आश्रम में अश्वत्थामा और अर्जुन ने अपने-अपने ब्रह्मास्त्र चला दिए। तब वेदव्यासजी ने उस टकराव को टाला और अपने-अपने ब्रह्मास्त्रों को लौटा लेने को कहा। अर्जुन को तो ब्रह्मास्त्र लौटाना आता था, लेकिन अश्वत्थामा ये नहीं जानता था, और तब उस ब्रह्मास्त्र के कारण परीक्षित, उत्तरा के गर्भ से मृत पैदा हुआ।

लेकिन कर्ण गुरु परशुराम के श्राप के कारण ब्रह्मास्त्र चलाना भूल गया था, नहीं तो वह युद्ध में अर्जुन का वध करने के लिए अवश्य ही अपना ब्रह्मास्त्र चलाता, और अर्जुन भी अपने बचाव के लिए अपना ब्रह्मास्त्र चलाता, और पूरी पृथ्वी का विनाश हो जाता। इस प्रकार गुरु परशुराम ने कर्ण को श्राप देकर पृथ्वी का विनाश टाल दिया।

ABHAY
09-01-2011, 09:17 AM
धरती माता के श्राप का प्रभाव

धरती माता का श्राप यह था कि कर्ण के जीवन के सबसे निर्णायक युद्ध में धरती उसके रथ के पहिये को पकड़ लेंगी। उस दिन के युद्ध में कर्ण ने अलग-अलग रथों का उपयोग किया, लेकिन हर बार उसके रथ का पहिया धरती मे धस जाता। इसलिए विभिन्न रथों का प्रयोग करके भी कर्ण धरती माता के श्राप से नहीं बच सकता था, अन्यथा वह उस निर्णायक युद्ध में अर्जुन पर भारी पड़ता।

ABHAY
09-01-2011, 09:17 AM
दुर्योधन से मित्रता और अंगराज
गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की शिक्षा पूरी होने पर हस्तिनापुर में एक रंगभूमि का आयोजन करवाया। रंगभूमि में अर्जुन विशेष धनुर्विद्या युक्त शिष्य प्रमाणित हुआ। तभी कर्ण रंगभूमी में आया और अर्जुन द्वारा किए गए करतबों को पार करके उसे द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा। कब कृपाचार्य ने कर्ण के द्वंद्वयुद्ध को अस्वीकृत कर दिया और उससे उसके वंश और साम्राज्य के विषय में पूछा - क्योंकि द्वंद्वयुद्ध के नियमों के अनुसार केवल एक राजकुमार ही अर्जुन को, जो हस्तिनापुर का राजकुमार था, द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकार सकता था। तब कौरवों मे सबसे ज्येष्ठ दुर्योधन ने कर्ण को अंगराज घोषित किया जिससे वह अर्जुन से द्वंदयुद्ध के योग्य हो जाए। जब कर्ण ने दुर्योधन से पूछा कि वह उससे इसके बदले में क्या चाहता है, तब दुर्योधन ने कहा कि वह केवल ये चाहता है कि कर्ण उसका मित्र बन जाए।

इस घटना के बाद महाभारत के कुछ मुख्य संबंध स्थापित हुए, जैसे दुर्योधन और कर्ण के बीच सुदृढ़ संबंध बनें, कर्ण और अर्जुन के बीच तीव्र प्रतिद्वंद्विता, और पाण्डवों तथा कर्ण के बीच वैमनस्य।

कर्ण, दुर्योधन का एक निष्ठावान और सच्चा मित्र था।

यद्यपि वह बाद में दुर्योधन को खुश करने के लिए द्यूतक्रीड़ा में भागीदारी करता है, लेकिन वह आरंभ से ही इसके विरुद्ध था। कर्ण शकुनि को पसंद नहीं करता था, और सदैव दुर्योधन को यही परमर्श देता कि वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल और बाहुबल का प्रयोग करे ना कि कुटिल चालों का। जब लाक्षागृह में पाण्डवों को मारने का प्रयास विफल हो जाता है, तब कर्ण दुर्योधन को उसकी कायरता के लिए डांटता है, और कहता है कि कायरों की सभी चालें विफल ही होती हैं और उसे समझाता है कि उसे एक योद्धा के समान कार्य करना चाहिए और उसे जो कुछ भी प्राप्त करना है, उसे अपनी वीरता द्वारा प्राप्त करे। चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी कर्ण ने दुर्योधन की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त राजाओं में जरासंध, शिशुपाल, दंतवक्र, साल्व, और रुक्मी इत्यादि थे। कर्ण की प्रशंसा स्वरूप, जरसंध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। भीम ने बाद में श्रीकृष्ण की सहायता से जरासंध को परास्त किया लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासंध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीर कर दो टुकड़ो मे बाँट कर हो सकती है।

ABHAY
09-01-2011, 09:18 AM
उदारता और चरित्र
अंगराज बनने के पश्चात कर्ण ने ये घोषणा करी कि दिन के समय जब वह सूर्यदेव की पूजा करता है, उस समय यदि कोई उससे कुछ भी मांगेगा तो वह मना नहीं करेगा और मांगने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौटेगा। कर्ण की इसी दानवीरता का महाभारत के युद्ध में इन्द्र और माता कुंती ने लाभ उठाया।

महाभारत के युद्ध के बीच में कर्ण के सेनापति बनने से एक दिन पूर्व इन्द्र ने कर्ण से साधु के भेष में उससे उसके कवच-कुंडल माँग लिये, क्योंकि यदि ये कवच-कुंडल कर्ण के ही पास रहते तो उसे युद्ध में परास्त कर पाना असंभव था, और इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कर्ण से इतना बडी़ भिक्षा माँग ली लेकिन दानवीर कर्ण ने साधु भेष में देवराज इन्द्र को भी मना नहीं किया और इन्द्र द्वारा कुछ भी वरदान माँग लेने पर देने के आश्वासन पर भी इन्द्र से ये कहते हुए कि "देने के पश्चात कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध है" कुछ नहीं माँगा।

इसी प्रकार माता कुंती को भी दानवीर कर्ण द्वारा यह वचन दिया गया कि इस महायुद्ध में उनके पाँच पुत्र अवश्य जीवित रहेंगे, और वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाँडव का वध नहीं करेगा।

ABHAY
09-01-2011, 09:19 AM
द्रौपदी स्वयंवर
कर्ण द्रौपदी के स्वयंवर में एक विवाह-प्रस्तावक था। अन्य प्रतिद्वंदियों के विपरीत, कर्ण धनुष को मोड़ने और उस पर प्रत्यंचा चढ़ा पाने में समर्थ था, पर जैसे ही वह लक्ष्य भेदन के लिए तैयार हुआ, तब श्रीकृष्ण के संकेत पर, द्रौपदी ने कर्ण को सूत-पुत्र बोलकर उसे ऐसा करने से रोक दिया। पाण्डव भी वहाँ ब्राह्मण के भेष में उपस्थित थे। अन्य राजकुमारों और राजाओं के असफल रहने पर अर्जुन आगे बढ़ा और सफलतापूर्वक मछली की आँख का भेदन किया, और द्रौपदी का हाथ जीत लिया। जब बाद में अर्जुन की पहचान उजागर हुई तो कर्ण की प्रतिद्वंद्विता की भावना और गहरी हो गई।

द्यूतक्रीड़ा़
कर्ण कभी भी शकुनी की पाण्डवों को छ्ल-कपट से हराने की योजनाओं से सहमत नहीं था। वह सदा ही युद्ध के पक्ष में था और सदैव ही दुर्योधन से युद्ध का ही मार्ग चुनने का आग्रह करता। यद्यपि वह दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए द्यूतक्रीड़ा के खेल में सम्मिलित हुआ, जो बाद में कुख्यात "द्रौपदी चीर हरण" की घटना में फलीभूत हुआ।

जब शकुनी छ्ल-कपट द्वारा द्युत क्रीड़ा में युधिष्ठिर से सबकुछ जीत गया, तो पांडवों की पटरानी द्रौपदी को दुःशासन द्वारा घसीट कर राजसभा में लाया गया, और कर्ण के उकसाने पर, दुर्योधन और उसके भाईयों ने द्रौपदी के वस्त्र हरण का प्रयास किया। कर्ण द्रौपदी का अपमान यह कहकर करता है की जिसके स्त्री का एक से अधिक पति हो वह और कुछ नहीं बल्कि 'वेश्या' होती है।

उसी स्थान पर, भीम द्वारा यह प्रतिज्ञा ली जाती है की वह अकेले ही युद्ध में दुर्योधन और उसके सभी भाईयों का वध करेगा। और फिर अर्जुन कर्ण का वध करने की प्रतिज्ञा लेता है।

ABHAY
09-01-2011, 09:21 AM
सैन्य अभियान
पाण्डवों के वनवास के दौरान, कर्ण, दुर्योधन को पृथ्वी का सम्राट बनाने का कार्य अपने हाथों में लेता है। कर्ण द्वारा देशभर में सैन्य अभियान छेड़े गए और उसने राजाओं को परास्त कर उनसे ये वचन लिए की वह हस्तिनापुर महाराज दुर्योधन के प्रति निष्ठावान रहेंगे अन्यथा युद्धों में मारे जाएगें। कर्ण सभी लड़ाईयों में सफल रहा। महाभारत में वर्णन किया गया है की अपने सैन्य अभियानों में कर्ण ने कई युद्ध छेड़े और असंख्य राज्यों और साम्राज्यों को आज्ञापालन के लिए विवश कर दिया जिनमें हैं - कम्बोज, शक, केक*य, अवन्तय, गंधार, माद्र, त्रिगत, तंगन, पांचाल, विदेह, सुह्मस, अंग, वांग, निशाद, कलिंग, वत्स, अशमक, ऋषिक, और बहुत से अन्य जिनमें म्लेच्छ और वनवासी लोग भी हैं।
श्रीकृष्ण और कर्ण
दुर्योधन के साथ शांति वार्ता के विफल होने के पश्चात, श्रीकृष्ण, कर्ण के पास जाते हैं, जो दुर्योधन का सर्वश्रेष्ठ योद्धा है। वह कर्ण का वास्तविक परिचय उसे बतातें है, कि वह सबसे ज्येष्ठ पाण्डव है और उसे पाण्डवों की ओर आने का परामर्श देते हैं। कृष्ण उसे यह विश्वास दिलाते हैं कि चुँकि वह सबसे ज्येष्ठ पाण्डव है, इसलिए युधिष्ठिर उसके लिए राजसिंहासन छोड़ देंगे, और वह एक चक्रवती सम्राट बनेगा।

पर कर्ण इन सबके बाद भी पाण्डव पक्ष में युद्ध करने से मना कर देता है, क्योंकि वह अपने आप को दुर्योधन का ऋणि समझता था, और उसे ये वचन दे चुका था कि वह मरते दम तक दुर्योधन के पक्ष में ही युद्ध करेगा। वह कृष्ण को यह भी कहता है कि जब तक वे पाण्डवों के पक्ष में हैं जो कि सत्य के पक्ष में हैं, तब तक उसकी हार भी निश्चित है। तब कृष्ण कुछ उदास हो जाते हैं, लेकिन कर्ण की निष्ठा और मित्रता की प्रशंसा करते हैं, और उसका यह निर्णय स्वीकार करते हैं, और उसे ये वचन देते हैं कि उसकी मृत्यु तक वह उसकी वास्तविक पहचान गुप्त रखेंगे।

ABHAY
09-01-2011, 09:22 AM
कवच-कुण्डल की क्षति
अर्जुन के पिता और देवराज इन्द्र को इस बात का ज्ञान होता है कि कर्ण युद्धक्षेत्र में तब तक अपराजेय और अमर रहेगा जब तक उसके पास उसके कवच और कुण्डल रहेंगे, जो जन्म से ही उसके शरीर पर थे। इसलिए जब कुरुक्षेत्र का युद्ध आसन्न था, तब इन्द्र ने यह ठानी कि वह कवच और कुण्डल के साथ तो कर्ण को युद्धक्षेत्र में नहीं जाने देंगे। उन्होनें ये योजना बनाई की वह मध्याह्न में जब कर्ण सूर्य देव की पूजा कर रहा होता है तब वह एक भिक्षुक बनकर उससे उसके कवच-कुण्डल माँग लेंगें। सूर्यदेव इन्द्र की इस योजना के प्रति कर्ण को सावधान भी करते हैं, लेकिन वह उन्हें धन्यवाद देकर कहता है कि उस समय यदि कोई उससे उसके प्राण भी माँग ले तो वह मना नहीं करेगा। तब सूर्यदेव कहते है कि यदि वह स्ववचनबद्ध है, तो वह इन्द्र से उनका अमोघास्त्र माँग ले।

तब अपनी योजनानुसार इन्द्रदेव एक भिक्षुक का भेष बनाकर कर्ण से उसका कवच और कुण्डल माँग लेते हैं। चेताए जाने के बाद भी कर्ण मना नहीं करता और हर्षपूर्वक अपना कवच-कुण्डल दान कर देता है। तब कर्ण की इस दानप्रियता पर प्रसन्न होकर वह उसे कुछ माँग लेने के लिए कहते हैं, लेकिन कर्ण यह कहते हुए कि "दान देने के बाद कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध हे", मना कर देता है। तब इन्द्र उसे अपना शक्तिशाली अस्त्र वासवी प्रदान करते है जिसका प्रयोग वह केवल एक बार ही कर सकता था। इसके बाद से कर्ण का एक और नाम वैकर्तन, पड़ा, क्योंकि उसने बिना संकुचित हुए अपने शरीर से अपने कवच-कुण्डल काट कर दान दे दिए।
कुंती और कर्ण
जब महाभारत का युद्ध निकट था, तब माता कुंती, कर्ण से भेंट करने गई और उसे उसकी वास्तविक पहचान का ज्ञान कराया। वह उसे बताती हैं कि वह उनका पुत्र है और ज्येष्ठ पाण्डव है। वह उससे कहती हैं कि वह स्वयं को 'कौन्तेय' (कुन्ती पुत्र) कहे नाकी 'राधेय' (राधा पुत्र), और तब कर्ण उत्तर देता है की वह चाहता है कि सारा संसार उसे राधेय के नाम से जाने नाकी कौन्तेय के नाम से। कुंती उसे कहती हैं कि वह पाण्डवों की ओर हो जाए और वह उसे राजा बनाएगें। तब कर्ण कहता है कि बहुत वर्ष पूर्व उस रंगभूमि में यदि उन्होनें उसे कौन्तेय कहा होता तो आज स्थिति बहुत भिन्न होती। पर अब किसी भी परिवर्तन के लिए बहुत देर हो चुकि है और अब ये संभव नहीं है। वह आगे कहता है कि दुर्योधन उसका मित्र है और उस पर बहुत विश्वास करता है, और वह उसके विश्वास को धोखा नहीं दे सकता। लेकिन वह माता कुंती को ये वचन देता है की वह अर्जुन के अतिरिक्त किसी और पांडव का वध नहीं करेगा। कर्ण और अर्जुन दोनों ने ही एक दूसरे का वध करने का प्रण लिया होता है, और इसलिए दोनों में से किसी एक की मृत्यु तो निश्चित है। वह कहता है की उनके कोई भी पाँच पुत्र जीवित रहेंगे - चार अन्य पाण्डव, और उसमें या अर्जुन में से कोई एक। कर्ण अपनी माता से निवेदन करता है कि वह उनके संबंध और उसके जन्म की बात को उसकी मृत्यु तक रहस्य रखे।

कुंती कर्ण से एक और वचन माँगती है कि वह नागास्त्र का उपयोग केवल एक बार करे। कर्ण यह वचन भी कुंती को देता है। परिणामस्वरूप बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण एक बार से अधिक नागास्त्र का प्रयोग नहीं कर पाता।

ABHAY
09-01-2011, 09:24 AM
महाभारत का युद्ध
महाभारत का युद्ध आरंभ होने से पूर्व, भीष्म ने, जो कौरव सेना के प्रधान सेनापति थे, कर्ण को अपने नेतृत्व में युद्धक्षेत्र में भागीदारी करने से मना कर दिया। यद्यपि दुर्योधन उनसे निवेदन करता है, लेकिन वे नहीं मानते। और फिर कर्ण दसवें दिन उनकी मृत्यु के पश्चात ग्यारहवें दिन ही युद्धभूमि में आ पाता है।
तेरहवे दिन का युद्ध
तेरहवे दिन के युद्ध में, कौरव सेना के प्रधान सेनापति, गुरु द्रोणाचार्य द्वारा, युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए चक्रव्यूह/पद्मव्यूह की रचना की गई। पाण्डव पक्ष में केवल कृष्ण और अर्जुन ही चक्रव्यूह भेदन जानते थे। लेकिन उस दिन उन्हें त्रिगत नरेश बंधु युद्ध करते-करते चक्रव्यूह स्थल से बहुत दूर ले गए। त्रिगत दुर्योधन के शासनाधीन एक राज्य था। अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में केवल प्रवेश करना आता था, उससे निकलना नहीं, जिसे उसने तब सुना था जब वह अपनी माता के गर्भ में था और उसके पिता अर्जुन उसकी माता को यह विधि समझा रहे थे और बीच में ही उन्हें नींद आ गई।

लेकिन जैसे ही अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश किया, सिन्धु नरेश - जयद्रथ ने प्रवेश मार्ग रोक लिया और अन्य पाण्डवों को भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। तब शत्रुचक्र में अभिमन्यु अकेला पड़ गया। अकेला होने पर भी वह वीरता से लड़ा और उसने अकेले ही कौरव सेना के बड़े-बड़े योद्धाओं को परास्त किया जिन्में स्वयं कर्ण, द्रोण और दुर्योधन भी थे। कर्ण और दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निर्देशानुसार अभिमन्यु का वध करने का निर्णय लिया। कर्ण ने बाण चलाकर अभिमन्यु का धनुष और रथ का एक पहिया तोड़ दिया जिससे वह भूमि पर गिर पड़ा और अन्य कौरवों ने उसपर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में अभिमन्यु मारा गया। युद्ध समाप्ति पर जब अर्जुन को ये पता लगता है कि अभिमन्यु के मारे जाने में जयद्रथ का सबसे बड़ा हाथ है तो वह प्रतिज्ञा लेता है की अगले दिन का सूर्यास्त होने से पूर्व वह जयद्रथ का वध कर देगा अन्यथा अग्नि समाधि ले लेगा।

ABHAY
09-01-2011, 09:25 AM
चौदहवें दिन की रात्रि
चौदहवें दिन का युद्ध अविलक्षण रूप से सूर्यास्त के बाद तक चलता रहा और भीमपुत्र घटोत्कच, जो अर्ध-असुर था, कौरव सेनाओं का बड़े पैमाने पर संहार करता रहा। आमतौर पर, असुर रात्री के समय बहुत अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं। दुर्योधन और कर्ण ने वीरता से उसका सामना किया और उससे युद्ध किया। अंततः जब यह लगने लगा कि उसी रात घटोत्कच सारी कौरव सेना का संहार कर देगा तो, दुर्योधन ने कर्ण से ये निवेदन किया कि वह किसी भी प्रकार से इस समस्या से छुटकारा दिलाए। कर्ण को विवश होकर शक्ति अस्त्र घटोत्कच पर चलाना पड़ा। यह अस्त्र देवराज इंद्र द्वारा कर्ण को उसकी दानपरायण्ता के सम्मान स्वरूप दिया गया था (जब कर्ण ने अपने कवच-कुंडल इंद्र को दान दे दिए थे)। लेकिन कर्ण इस अस्त्र का प्रयोग केवल एक बार कर सकता था, जिसके बाद यह अस्त्र इंद्र के पास लौट जाएगा। इस प्रकार, शक्ति अस्त्र का प्रयोग घटोत्कच पर करने के बाद वह इसे बाद में अर्जुन पर ना कर सका।
सत्रहवाँ दिन
सत्रहवें दिन से पहले तक, कर्ण का युद्ध अर्जुन के अतिरिक्त सभी पांडवों से हुआ। उसने महाबली भीम सहित इन पाण्डवों को एक-पर-एक रण में परास्त भी किया था। पर माता कुंती को दिए वचनानुसार उसने किसी भी पांडव की हत्या नहीं की।

सत्रहवें दिन के युद्ध में आखिरकार वह घड़ी आ ही गई, जब कर्ण और अर्जुन आमने-सामने आ गए। इस शानदार संग्राम में दोनों ही बराबर थे। कर्ण को उसके गुरू परशुराम द्वारा विजय नामक धनुष भेंट स्वरूप दिया गया था, जिसका प्रतिरूप स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था। दुर्योधन के निवेदन पर पांडवों के मामा शल्य कर्ण के सारथी बनने के लिए तैयार हुए। दरसल अर्जुन के सारथी स्वयं श्रीकृष्ण थे, और कर्ण किसी भी मामले में अर्जुन से कम ना हो इसके लिए शल्य से सारथी बनने का निवेदन किया गया, क्योंकि उनके अंदर वे सभी गुण थे जो एक योग्य सारथी में होने चाहिए।

रण के दौरान, अर्जुन के बाण कर्ण के रथ पर लगे और उसका रथ कई गज पीछे खिसक गया। लेकिन, जब कर्ण के बाण अर्जुन के रथ पर लगे तो उसका रथ केवल कुछ ही बालिश्त (हथेली जितनी दूरी) दूर खिसका। इसपर श्रीकृष्ण ने कर्ण की प्रशंसा की। इस बात पर चकित होकर अर्जुन ने कर्ण की इस प्रशंसा का कारण पूछा, क्योंकि उसके बाण रथ को पीछे खिसकाने में अधिक प्रभावशाली थे। तब कृष्ण ने कहा कि कर्ण के रथ पर केवल कर्ण और शल्य का भार है, लेकिन अर्जुन के रथ पर तो स्वयं वे और हनुमान विराजमान है, और तब भी कर्ण ने उनके रथ को कुछ बालिश्त पीछे खिसका दिया।

इसी प्रकार कर्ण ने कई बार अर्जुन के धनुष की प्रत्यंचा काट दी। लेकिन हर बार अर्जुन पलक झपकते ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा लेता। इसके लिए कर्ण अर्जुन की प्रशंसा करता है और शल्य से कहता है कि वह अब समझा कि क्यों अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहा जाता है।

कर्ण और अर्जुन ने दैवीय अस्त्रों को चलाने के अपने-अपने ज्ञान का पूर्ण उपयोग करते हुए बहुत लंबा और घमासान युद्ध किया। कर्ण द्वारा अर्जुन का सिर धड़ से अलग करने के लिए "नागास्त्र" का प्रयोग किया गया। लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा सही समय पर रथ को भूमि में थोड़ा सा धँसा लिया गया जिससे अर्जुन बच गया। इससे "नागास्त्र" अर्जुन के सिर के ठीक ऊपर से उसके मुकुट को छेदता हुआ निकल गया। नागास्त्र पर उपस्थित अश्वसेना नाग ने कर्ण से निवेदन किया कि वह उस अस्त्र का दोबारा प्रयोग करे ताकि इस बार वह अर्जुन के शरीर को बेधता हुआ निकल जाए, लेकिन कर्ण माता कुंती को दिए वचन का पालन करते हुए उस अस्त्र के पुनः प्रयोग से मना कर देता है।

ABHAY
09-01-2011, 09:25 AM
यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया (धरती माता के श्राप के कारण)। वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाता है, जैसा की उसके गुरु परशुराम का श्राप था। तब कर्ण अपने रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है और अर्जुन से निवेदन करता है की वह युद्ध के नियमों का पालन करते हुए कुछ देर के लिए उसपर बाण चलाना बंद कर दे। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि कर्ण को कोई अधिकार नहीं है की वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे, जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था। उन्होंने आगे कहा कि तब उसका धर्म कहाँ गया था जब उसने दिव्य-जन्मा द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वैश्या कहा था। द्युत-क्रीड़ा भवन में उसका धर्म कहाँ गया था। इसलिए अब उसे कोई अधिकार नहीं की वह किसी धर्म या युद्ध नियम की बात करे और उन्होंने अर्जुन से कहा कि अभी कर्ण असहाय है (ब्राह्मण का श्राप फलीभूत हुआ) इसलिए वह उसका वध करे। श्रीकृष्ण कहते हैं की यदि अर्जुन ने इस निर्णायक मोड़ पर अभी कर्ण को नहीं मारा तो संभवतः पांडव उसे कभी भी नहीं मार सकेंगे और यह युद्ध कभी भी नहीं जीता जा सकेगा। तब, अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। कर्ण के शरीर के भूमि पर गिरने के बाद एक ज्योति कर्ण के शरीर से निकली और सूर्य में समाहित हो गई।

ABHAY
09-01-2011, 09:27 AM
कर्ण की मृत्यु के पश्चात
युद्ध समाप्ति के पश्चात, मृतक लोगों के लिए अंत्येष्टी संस्कार किए जा रहे थे। तब माता कुंती ने अपने पुत्रों से निवेदन किया की वे कर्ण के लिए भी सारे मृतक संस्कारों को करें। जब उन्होंने यह कहकर इसका विरोध किया की कर्ण एक सूद पुत्र है, तब कुंती ने कर्ण के जन्म का रहस्य खोला। तब सभी पाण्डव भाईयों को भ्रातृहत्या के पाप के कारण झटका लगता है। युधिष्ठिर विशेष रूप से अपनी माता पर रुष्ट होते हैं और उन्हें और समस्त नारी जाती को ये श्राप देते हैं की उस समय के बाद से स्त्रियां किसी भी भेद को छुपा नहीं पाएंगी।

युधिष्ठिर और दुर्योधन, दोनों कर्ण का अंतिम संस्कार करना चाहते थे। युधिष्ठिर का दावा यह था की चूँकि वे कर्ण के कनिष्ट भ्राता हैं इसलिए यह अधिकार उनका है। दुर्योधन का दावा यह था की युधिष्ठिर और अन्य पांडवों ने कर्ण के साथ कभी भी भ्रातृवत व्यवहार नहीं किया इसलिए अब इस समय इस अधिकार को जताने का कोई औचित्य नहीं है। तब श्रीकृष्ण मध्यस्थता करतें है और युधिष्ठिर को यह समझाते हैं की दुर्योधन की मित्रता का बंधन अधिक सुदृढ़ है इसलिए दुर्योधन को कर्ण का अंतिम संस्कार करने दिया जाए।

जब १८-दिन का युद्ध समाप्त हो जाता है, तो श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके रथ से नीचे उतर जाने के लिए कहते हैं। जब अर्जुन उतर जाता है तो वे उसे कुछ दूरी पर ले जाते हैं। तब वे हनुमानजी को रथ के ध्वज से उतर आने का संकेत करते हैं। जैसे ही श्री हनुमान उस रथ से उतरते हैं, अर्जुन के रथ के अश्व जीवित ही जल जाते हैं और रथ में विस्फोट हो जाता है। यह देखकर अर्जुन दहल उठता है। तब श्रीकृष्ण उसे बताते हैं की पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कर्ण, और अश्वत्थामा के धातक अस्त्रों के कारण अर्जुन के रथ में यह विस्फोट हुआ है। यह अब तक इसलिए सुरक्षित था क्योंकि उस पर स्वयं उनकी कृपा थी और श्री हनुमान की शक्ति थी जो रथ अब तक इन विनाशकारी अस्त्रों के प्रभाव को सहन किए हुए था।

ABHAY
09-01-2011, 09:28 AM
महायोद्धा
आज भी लाखों हिन्दुओं के लिए कर्ण एक ऐसा योद्धा है जो जीवन भर दुखद जीवन जीता रहा। उसे एक महान योद्धा माना जाता है, जो साहसिक आत्मबल युक्त एक ऐसा महानायक था जो अपने जीवन की प्रतिकूल स्थितियों से जूझता रहा।

विशेष रूप से कर्ण अपनी दानप्रियता के लिए प्रसिद्ध है। वह इस बात का उदाहरण भी है की किस प्रकार अनुचित निर्णय किसी व्यक्ति के श्रेष्ठ व्यक्तित्व और उत्तम गुणों के रहते हुए भी किसी काम के नहीं होते। कर्ण को कभी भी वह नहीं मिला जिसका वह अधिकारी था, पर उसने कभी भी प्रयास करना नहीं छोड़ा। भीष्म और भगवान कृष्ण सहित कर्ण के समकालीनों ने यह स्वीकार किया है की कर्ण एक पुण्यात्मा है जो बहुत विरले ही मानव जाति में प्रकट होते हैं। वह संघर्षरत मानवता के लिए एक आदर्श है की मानव जाति कभी भी हार ना माने और प्रयासरत रहे।
अर्जुन से तुलना
कर्ण और अर्जुन में बहुत सी समानताएं हैं। दोनों ही अपने समय के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, दोनों ने ही द्रौपदी का हाथ जीतने के लिए प्रतियोगिता में भागीदारी की, और दोनों को अपने भाईयों के विरुद्ध युद्ध में लड़ना पड़ा। एक और गहरा संयोजन यह की दोनों ही कौरवों से निकटता से जुड़े हुए थे, कर्ण मित्रतावत और अर्जुन रक्तरत। उनके निर्णय और तद्नुरूप इसके ओउनपर और उनके परिवाओं पर पड़ने वाले परिणामों पर इस बात के लिए बल दिया जाता है की अपने कर्तव्यों का पालन करने का क्या महत्व है, जैसा की भगवद गीता में भगवान कृष्ण द्वारा बताया गया है।

कर्ण एक ऐसे व्यक्तित्व का उदाहरण है जो गुणी, दानवीर, न्यायप्रिय और साहसी था लेकिन फिर भी उसका पतन हुआ क्योंकि वह अधर्मी दुर्योधन के प्रति निष्ठावान था। कर्ण में वे पाँचो गुण थे जो द्रौपदी ने अपने वर के रूप में महादेव से माँगे थे, केवल एक को छोड़कर और वह था दुर्योधन से घनिष्ठ मित्रता।

ABHAY
09-01-2011, 09:29 AM
कर्ण की छवि पर प्रश्वचिह्न
दुर्योधन के प्रति कर्ण के स्नेह के कारण, यद्यपि अनिच्छुक रूप से, उसने अपने प्रिय मित्र के पांडवों के प्रति सभी कुकर्मों में उसका साथ दिया। कर्ण को पांडवों के प्रति दुर्योधन की दुर्भावनापूर्ण योजनाओं का ज्ञान था। उसे यह भी ज्ञान था की असत के लिए सत से टकराने के कारण उसका पतन भी निश्चित है। जबकि कुछ लोगों का यह मानना है की कुरु राजसभा में द्रौपदी के लिए 'वैश्या' शब्द का उपयोग करके कर्ण ने अपने नाम पर स्वयं कालिख पोत ली थी, वहीं कुछ अन्य लोगों का मानना है की वह अपने इस कृत्य में सही था, क्योंकि पहले द्रौपदी ने उसे अपने स्वयंवर में 'सूत पुत्र' कहकर उसका अपमान किया था ताकि वह उसके स्वयंवर में प्रतियोगी ना बन सके। फिर भी, अभिमन्यु के मारे जाने में कर्ण की भूमिका और एक योद्धा से अनेक योद्धाओं के लड़ने के कारण उसके एक महायोद्धा होने की छवि को कहीं अधिक क्षति पहुँची और फिर उसी युद्ध में उसकी भी वही गति हुई। महाभारत की कुछ व्याख्यायों के अनुसार, यही वह कृत्य था जिसने भली प्रकार से ये प्रमाणित कर दिया की कर्ण युद्ध में अधर्म के पक्ष में लड़ रहा है और इस कृत्य के कारण उसके इस दुर्भाग्य का भी निर्धारण हो गया की वह भी अर्जुन द्वारा इसी प्रकार मारा जाए जव वह शस्त्रास्त्र हीन और रथहीन हो और उसकी पीठ अर्जुन की ओर हो। कर्ण के पास १७वें दिन के युद्ध में अर्जुन का वध करने का पूरा अवसर था लेकिन युद्ध नियमों का पालन करते हुए उसने अर्जुन पर बाण नहीं चलाया क्योंकि तब तक सूर्यदेव अस्त हो चुके थे।

ABHAY
09-01-2011, 09:30 AM
कर्ण की मृत्यु के कारक
कर्ण की मृत्यु के संबंध में निम्नलिखित कारक गिनाए जा सकते हैं:
१. कर्ण की मृत्यु का सर्वप्रथम कारक तो स्वयं ऋषि दुर्वासा ही हैं। कुंती को यह वरदान देते समय की वह किसी भी देव का आह्वान करके उनसे संतान प्राप्त कर सकती है, इस वरदान के परिणाम के बारे में नहीं बताया। इसलिए, कुंती उत्सुकता वश सूर्यदेव का आह्वान करतीं हैं और यह ध्यान नहीं रखतीं की विवाहपूर्व इसके क्या परिणाम हो सकते हैं, और वरदानानुसार सूर्यदेव कुंती को एक पुत्र देते हैं। लेकिन लोक-लाज के भय से कुंती इस शिशु को गंगाजी में बहा देतीं है। तब कर्ण, महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा को मिलता है वे उसका लालन-पालन करते है, और इस प्रकार कर्ण की क्षत्रिय पहचान निषेध कर दी जाती है। कर्ण, नाकी युधिष्ठिर या दुर्योधन, हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी था, लेकिन यह कभी हो ना सका क्योंकि उसका जन्म और पहचान गुप्त रखे गए।

२. देवराज इन्द्र जिन्होंने बिच्छू के रूप में कर्ण की क्षत्रिय पहचान उसके गुरु के सामने ला दी और अपनी पहचान के संबंध में अपने गुरु से मिथ्याभाषण के कारण (जिसके लिए कर्ण स्वयं दोषी नहीं था क्योंकि उसे स्वयं अपनी पहचान का ज्ञान नहीं था) उसके गुरु ने उसे सही समय पर उसका शस्त्रास्त्र ज्ञान भूल जाने का श्राप दे दिया।

३. गाय वाले ब्राह्मण का श्राप की जिस प्रकार उसने एक असहाय और निर्दोष पशु को मारा है उसी प्रकार वह भी तब मारा जाएगा जब वह सर्वाधिक असहाय होगा और उसका ध्यान अपने शत्रु से अलग किसी अन्य वस्तु पर होगा। इसी श्राप के कारण अर्जुन उसे तब मारता है जब उसके रथ का पहिया धरती में धँस जाता है और उसका ध्यान अपने रथ के पहिए को निकालने में लगा होता है।

४. धरती माता का श्राप की वह नियत समय पर उसके रथ के पहिए को खा जाएगीं और वह अपने शत्रुओं के सामने सर्वाधिक विवश हो जाएगा।

५. भिक्षुक के भेष में देवराज इन्द्र को, कर्ण द्वारा अपनी लोकप्रसिद्ध दानप्रियता के कारण अपने शरीर पर चिपके कवच कुण्डल दान में दे देना।

६. 'शक्ति अस्त्र' का घटोत्कच पर चलाना, जिसके कारण वह वचनानुसार दूसरी बार इस अस्त्र का उपयोग नहीं कर सकता था।

७. माता कुंती को दिए वचनानुसार 'नागास्त्र' का दूसरी बार प्रयोग ना करना।
८. माता कुंती को दिए दो वचन।
९. महाराज और कर्ण के सारथी पांडवों के मामा शल्य, जिन्होंने सत्रहवें दिन के युद्ध में अर्जुन की युद्ध कला की प्रशंसा करके कर्ण का मनोबल गिरा दिया।

१०. युद्ध से कुछ दिन पूर्व जब कर्ण को यह ज्ञात होता है की पांडव उसके भाई हैं तो उनके प्रति उसकी सारी दुर्भावना समाप्त हो गई, पर दुर्योधन के प्रति निष्ठ होने के कारण वह पांडवों (अर्थात अपने भाईयों) के विरुद्ध लड़ा। जबकि कर्ण की मृत्यु होने तक पांडवों को यह नहीं पता था की कर्ण उनका ज्येष्ठ भाई है।

ABHAY
09-01-2011, 09:31 AM
११. अभिमन्यु वध में कर्ण की नकारात्मक भूमिका।

१२. द्रौपदी का अपमान करना।

१३. श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को यह आदेश देना की वह कर्ण का वध करे जबकि वह अपने रथ के धंसे पहिए को निकाल रहा होता है।

१४. भीष्म पितामह, क्योंकि उन्होंने अपने सेनापतित्व में कर्ण को लड़ने की आज्ञा नहीण दी।

१५. गुरु द्रोण, क्योंकि उन्होंने कर्ण को अपना शिष्य स्वीकार नहीं किया।

१६. सूर्यदेव जो सत्रहवें दिन के युद्ध में तब अस्त हो गए जब कर्ण के पास अर्जुन को मारने का पूरा अवसर था।

१७. दैवीय अस्त्रों से युक्त अर्जुन।

१८. कुलगुरु कृपाचार्य, जिन्होंने कर्ण को अर्जुन से युद्ध भूमि में कमतर होने की अनुभूति कराई।

१९. देवेन्द्र, जिन्होंने अर्जुन को बहुत से दिव्यास्त्र दिए थे।

२०. विश्वकर्मा का अर्जुन को दिया गया 'गांडीव'।

२१. भगवान शिव का अर्जुन को दिया गया पशुपति अस्त्र।

२२. दुर्योधन की माता गांधरी का कर्ण को युद्ध के लिए विजयश्री का आशिर्वाद ना देना।

ABHAY
09-01-2011, 09:32 AM
द्रोणाचार्य
द्रोणाचार्य ऋषि भरद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया था। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रो और शस्त्रो की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे।

महाभारत की कथा के अनुसार द्रोण (दोने) से उत्पन्न होने का कारण उनका नाम द्रोणाचार्य पड़ा। अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये वे चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।

ABHAY
09-01-2011, 09:33 AM
शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। यह महाभारत का वह महत्त्वपूर्ण पात्र बना जिसका नाम अश्वत्थामा था। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी। द्रोणाचार्य का प्रारंभिक जीवन गरीबी में कटा उन्होंने अपने सहपाठी विदुर से सहायता माँगी जो उन्हें नहीं मिल सकी। एक बार वन में भ्रमण करते हुए गेंद कुएँ में गिर गई। इसे देखकर द्रोणाचार्य का ने अपने धनुषर्विद्या की कुशलता से उसको बाहर निकाल लिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये।

जन्म द्रोण
महाभारत काल
मृत्यु कुरुक्षेत्र
मृत्यु का कारण युद्ध मृत्यु
आवास हस्तिनापुर
जातीयता क्षत्रिय
व्यवसाय कुरु वंश के आचार्य
नियोक्ता कुरु वंश
गृह स्थान गुड़गांव
प्रसिद्धि कारण धनुर्विद्या
धार्मिक मान्यता हिन्दू
जीवनसाथी कृपि
बच्चे अश्वत्थामा
माता-पिता भरद्वाज ऋषि
घृतार्ची अप्सरा

ABHAY
09-01-2011, 09:35 AM
वेदव्यास
ऋषि वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7934&stc=1&d=1294551334

ABHAY
09-01-2011, 09:36 AM
वेदव्यास के जन्म की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।" तब पाराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।"

समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।

ABHAY
09-01-2011, 09:37 AM
वेद व्यास के विद्वान शिष्य

* पैल
* जैमिन
* वैशम्पायन
* सुमन्तुमुनि
* रोम हर्षण
वेद व्यास का योगदान
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जावेंगे। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास जी के शिष्योंने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं। व्यास जी ने महाभारत की रचना की।

ABHAY
09-01-2011, 09:38 AM
पौराणिक-महाकाव्य युग की महान विभूति, महाभारत, अट्ठारह पुराण, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य-दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग ३००० ई. पूर्व में हुआ था। वेदांत दर्शन, अद्वैतवाद के संस्थापक वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे महान बाल योगी शुकदेव। श्रीमद्भागवत गीता विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य 'महाभारत' का ही अंश है। रामनगर के किले में और व्यास नगर में वेदव्यास का मंदिर है जहॉ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है। गुरु पूर्णिमा का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयन्ती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।

पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से पाँच मील की दूरी पर स्थित है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग में भी पश्चिम भाग में व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान् है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के नाम से जानती है। वास्तव में वेदव्यास की यह सब से प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मंदिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए।

इस घटना का उल्लेख काशी खंड में इस प्रकार है-

लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। स्थितो ह्यद्य्यापि पश्चेत्स: काशीप्रासाद राजिकाम् ।। स्कंद पुराण, काशी खंड ९६/२०१

व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना करने के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी। वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिये उपजीव्य हैं। महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है। महाभारत के संबंध में स्वयं व्यासजी की ही उक्ति अधिक सटीक है- इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यत्र है, पंरतु जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।

ABHAY
09-01-2011, 09:39 AM
यमुना के किसी द्वीप में इनका जन्म हुआ था। व्यासजी कृष्ण द्वैपायन कहलाये क्योंकि उनका रंग श्याम था। वे पैदा होते ही माँ की आज्ञा से तपस्या करने चले गये थे और कह गये थे कि जब भी तुम स्मरण करोगी, मैं आ जाऊंगा। वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय वे छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे। उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से महाभारत ग्रंथ की रचना की थी-

त्रिभिर्वर्षे: सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनोमुनि:। महाभारतमाख्यानं कृतवादि मुदतमम् ।। आदिपर्व - (५६/५२)

जब इन्होंने धर्म का ह्रास होते देखा तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये। वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान् का अवतार माना जाता है।

संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिखे काव्य 'आर्ष काव्य' के नाम से विख्यात हैं। व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिख कर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की नि:सारता को दिखाना है। उनका कथन है कि भले ही कोई पुरुष वेदांग तथा उपनिषदों को जान ले, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है।

१. यो विध्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विज:। न चाख्यातमिदं विद्य्यानैव स स्यादिचक्षण:।। २. अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत् । कामाशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेना मितु बुद्धिना।। महा. आदि अ. २: २८-८३

ABHAY
09-01-2011, 09:43 AM
अभिमन्यु - महाभारत के पात्र जो अर्जुन के पुत्र थे।

श्रीकृष्ण
कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार हैं । हिन्दू श्रीकृष्ण को ईश्वर मानते हैं, और उन पर अपार श्रद्धा रखते हैं ।

सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं। वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनका सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का ही था।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7935&stc=1&d=1294551792

ABHAY
09-01-2011, 09:44 AM
यह अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। वास्तविकता तो यह थी इस समय चारों ओर पापकृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। अतः धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे।

श्रीकृष्ण में इतने अमित गुण थे कि वे स्वयं उसे नहीं जानते थे, फिर अन्य की तो बात ही क्या है? ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव-प्रभृत्ति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते थे, ऐसे श्रीकृष्ण का गुणानुवाद अत्यंत पवित्र है। श्रीकृष्ण से ही प्रकृति उत्पन्न हुई। सम्पूर्ण प्राकृतिक पदार्थ, प्रकृति के कार्य स्वयं श्रीकृष्ण ही थे। श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी से अधर्म को जड़मूल से उखाड़कर फेंक दिया और उसके स्थान पर धर्म को स्थापित किया। समस्त देवताओं में श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे।

उन्होंने जो भी कार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना की जो कलिकाल में धर्म में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
संपूर्ण पृथ्वी दुष्टों एवं पतितों के भार से पीड़ित थी। उस भार को नष्ट करने के लिए भगवान विष्णु ने एक प्रमुख अवतार ग्रहण किया जो कृष्णावतार के नाम से संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध हुआ। उस समय धर्म, यज्ञ, दया पर राक्षसों एवं दानवों द्वारा आघात पहुँचाया जा रहा था।

पृथ्वी पापियों के बोझ से पूर्णतः दब चुकी थी। समस्त देवताओं द्वारा बारम्बार भगवान विष्णु की प्रार्थना की जा रही थी। विष्णु ही ऐसे देवता थे, जो समय-समय पर विभिन्न अवतारों को ग्रहण कर पृथ्वी के भार को दूर करने में सक्षम थे क्योंकि प्रत्येक युग में भगवान विष्णु ने ही महत्वपूर्ण अवतार ग्रहण कर दुष्ट राक्षसों का संहार किया। वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण अवतरित हुए।

ABHAY
09-01-2011, 09:45 AM
श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरंभ
भगवान ने देखा कि संपूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव-जन्तु नहीं है। जल का भी कहीं पता नहीं है। संपूर्ण आकाश वायु से रहित और अंधकार से आवृत्त हो घोर प्रतीत हो रहा है। वृक्ष, पर्वत और समुद्र आदि शून्य होने के कारण विकृताकार जान पड़ता है। मूर्ति, धातु, शस्य तथा तृण का सर्वथा अभाव हो गया है। इस प्रकार जगत्* को शून्य अवस्था में देख अपने हृदय में सभी बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एकमात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही इस सृष्टि की रचना प्रारंभ की।

सर्वप्रथम उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिण पार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्त्व अहंकार पांच तन्मात्राएं रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए। इसके उपरान्त ही श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ। जिनकी अंगकान्ति श्याम थी, वे नित्य तरुण पीताम्बरधारी और विभिन्न वनमालाओं से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन भुजाओं में क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान थे। उनके मुखारबिन्द पर मंद-मंद मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। शांर्गधनुष धारण किए हुए थे।

कौस्तुभ मणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात लक्ष्मी का निवास था। वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रस्तुत कर रहे थे। शरत्*काल की पूर्णिमा के चंद्रमा की प्रभा से सेवित मुखचन्द्र के कारण वे मनोहर जान पड़ते थे। कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनके सौंदर्य को और भी बढ़ा रहा था। नारायण श्रीकृष्ण के समक्ष खड़े होकर दोनों हाथों को जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।

कृष्ण ने ही अर्जुन को भगवद्गीता का सन्देश सुनाया था ।

उनकी कथा कृष्णावतार में मिलती है।

यदुकुल के राजा।

अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन के अनुसार परब्रह्म का दूसरा नाम।

ABHAY
09-01-2011, 09:45 AM
कृष्ण लीलाओं में छिपा संदेश

श्रीकृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ मे किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर हमें विचार करना चाहिए।

श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं, इसका स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक उल्लेख में मिलता है। वहां (3.17.6) कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि आंगिरस ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।

किंतु इनके जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत का है और वह ऐतिहासिक कम, आध्यात्मिक अधिक है और यह बात ग्रंथ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है। ग्रंथ में चमत्कारी भौतिक वर्णनों के पर्दे के पीछे गहन आध्यात्मिक संकेत संजोए गए हैं।

वस्तुतः भागवत में सृष्टि की संपूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन कराया गया है। ग्रंथ के पूर्वार्ध (स्कंध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कंध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है। भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहचानने का यहाँ प्रयास किया गया है।

ABHAY
09-01-2011, 09:47 AM
श्रीकृष्ण जन्म

त्रिगुणात्मक प्रकृति से प्रकट होती चेतना सत्ता!

श्रीकृष्ण आत्म तत्व के मूर्तिमान रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भुत और विकसित होता है अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं। 1- रजोगुणी प्रकृतिरूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं। 2- सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं। 3- इनके विपरीत एक घोर तमस रूपा प्रकृति भी शिशुभक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।

गोकुल-वृंदावन की लीलाएँ
शिशु और बाल वय में ही श्रीकृष्ण द्वारा अनेक राक्षसों के वध की लीलाओं तथा सहज-सरल-हृदय मित्रों और ग्रामवासियों में आनंद और प्रेम बांटने वाली क्रीड़ाओं का विस्तृत वर्णन भागवत में हुआ है। शिशु चरित्र गोकुल में और बाल चरित्र वृंदावन में संपन्न होने का जो उल्लेख है, वह आध्यात्मिक अर्थ की ओर संकेत करता है।

गो-शब्द का अर्थ इंद्रियाँ भी हैं, अतः गोकुल से आशय है हमारी पंचेद्रियों का संसार और वृंदावन का अर्थ है तुलसीवन अर्थात मन का उच्च क्षेत्र (तुरीयावस्था वाले 'तुर' से 'तुरस' और 'तुलसी' शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरणसम्मत है)। गोकुल में पूतना वध, शकट भंजन और तृणावर्त वध का तथा वृंदावन में बकासुर, अधासुर और धेनुकासुर आदि अनेक राक्षसों के हनन का वर्णन है।

व्यक्ति और समाज को अपने अंदर व्याप्त आसुरी वृत्तियों के रूप में इनकी पहचान करना होगा तभी आध्यात्मिक-नैतिक शक्ति से इनका हनन संभव होगा और तब ही इस बालरूप श्रीकृष्ण का उद्भव महाभारत के सूत्रधार, धर्मस्थापक, श्रीकृष्ण के रूप में होना संभव होगा।

वृंदावन की कथाओं में कालिया नाग, गोवर्धन, रासलीला और महारास वाली कथाएं अधिक प्रसिद्ध हैं। श्रीकृष्ण ने यमुना को कालिया नाग से मुक्त-शुद्ध किया था। यमुना, गंगा, सरस्वती नदियों को क्रमशः कर्म, भक्ति और ज्ञान की प्रतीक माना गया है। ज्ञान अथवा भक्ति के अभाव मेंकर्म का परिणाम होता है, कर्ता में कर्तापन के अहंकार-विष का संचय। यह अहंकार ही कर्म-नद यमुना का कालिया नाग है। सर्वात्म रूप श्रीकृष्ण भाव का उदय इस अहंकार-विष से कर्म और कर्ता की रक्षा करता है (गीता- 18.55.58)।

गोवर्धन धारण कथा की आर्थिक, नीति-परक और राजनीतिक व्याख्याएं की गई हैं। इस कथा का आध्यात्मिक संकेत यह दिखता है कि गो अर्थात इंद्रियों का वर्धन (पालन-पोषण) कर्ता, अर्थात इंद्रियों में क्रियाशील प्राण-शक्ति के स्रोत परमेश्वर पर हमारी दृष्टि होना चाहिए। इसी प्रकार गोपियों के साथ रासलीला के वर्णन में मन की वृत्तियां ही गोपिकाओं के रूप में मूर्तिमान हुई हैं और प्रत्येक वृत्ति के आत्म-रस से सराबोर होने को रासलीला या रसनृत्य के रूप में चित्रित किया गया है। इससे भी उच्च अवस्था का- प्रेम और विरह के बाह्य द्वैत का एक आंतरिक आनंद में समाहित हो जाने की अवस्था का वर्णन 'महारास' में हुआ है।

ABHAY
09-01-2011, 09:48 AM
मथुरा आगमन और कंस वध

श्रीकृष्ण को किशोर वय होते न होते कंस उन्हें मरवा डालने का एक बार फिर षड्यंत्र रचकर मथुरा बुलवाता है, किंतु श्रीकृष्ण उसको उसके महाबली साथियों सहित मार डालते हैं। कंस शब्द का अर्थ और उसकी कथा भी संकेत करती है कि कंस देहासक्ति का मूर्तिमान रूप है, जो संभावित मृत्यु से बचने के लिए कितने ही कुत्सित कर्म करता है। मथुरा का शब्दार्थ है- 'विक्षुब्ध किया हुआ।' अतः मथुरा है देहासक्ति से विक्षुब्ध मन। श्रीकृष्ण का कंस वध करने के उपरांत द्वारिका में राज्य स्थापना करने का अर्थ है कि आत्मभाव में प्रवेश के पूर्व देहासक्ति की समाप्ति आवश्यक है।

समुद्र में द्वारिका निर्माण और राज्य स्थापना

कंस वध के बाद श्रीकृष्ण समुद्र के भीतर (अंतः समुद्रे-भा. 10/50/50) द्वारिका का निर्माण करवाते हैं और वहां राज्य स्थापित करते हैं। इतिहास के महापुरुष श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका नगर का समुद्र किनारे या द्वीप पर निर्माण करवाना और कालांतर में उसका समुद्र में डूब जाना (जिसके कुछ अवशेष अभी हाल में ही खोजे गए हैं) उस काल की वास्तविक घटना होगी, किंतु भागवत ने 'समुद्र के अंदर' द्वारिका निर्माण का वर्णन करके स्पष्टतः यहां उसका आध्यात्मिक रूपांतरण प्रस्तुत किया है।

द्वारिका शब्द में द्वार का अर्थ है- साधन, उपाय या प्रवेश मार्ग। समुद्र व्यक्तित्व के गहरे तल- आत्म क्षेत्र को इंगित करता है। अतः आत्म क्षेत्र का प्रवेश द्वार है द्वारिका। इस क्षेत्र में चेतना का प्रवेश होने पर जीवन जीने का जैसा स्वरूप होगा, उसका निरूपण द्वारिका पर श्रीकृष्ण राज्य के रूप में किया गया है। इस क्षेत्र का परिचय हमें महाभारत में श्रीकृष्ण के लोकहितार्थ और धर्मस्थापनार्थ किए गए कार्यों द्वारा तथा गीता के अंतर्गत उनकी वाणी द्वारा कराया गया है। सारांश यह कि व्यक्ति भी संकल्प करे तो उसकी चेतना भी कृष्ण सम विकसित हो सकती है। श्रीकृष्ण जिनका नाम है , गोकुल जिनका धाम है! ऐसे श्री भग्वान को बरम्बार प्रनाम है !!!!

ABHAY
09-01-2011, 09:54 AM
सुभद्रा
कृष्ण की बहन, महाभारत की एक पात्र। सुभाद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था, आभिमन्यु इनका ही पुत्र थे

सात्यकि
सात्यकि महाभारत के युद्ध मे एक वीर यादवो का सेनापत्ति था।
धृष्टद्युम्न
धृष्टद्युम्न द्रुपद का पुत्र था और कुरुक्षेत्र में पाण्डव सेना का प्रधान सेनापति।
इरावन
इरावन अर्जुन का पुत्र था जो एक नाग कन्या से उत्पन्न हुआ था. उसकी मृत्यु अलम्बुष राक्षस के हाथों महाभारत के युद्ध में हुई.

ABHAY
09-01-2011, 09:55 AM
बर्बरीक
वे महान पान्डव भीम के पुत्र घटोतकच्छ और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र है। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेध्य बाण प्राप्त किये और तीन बाणधारी का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।

महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने लीले घोडे, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभुमि की और अग्रसर हुये।

सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उडायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यिद तीनो बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनो लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खडे थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और इश्वर को स्मरण कर बाण पेड के पत्तो की और चलाया।

तीर ने क्षण भर में पेड के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होनें अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये वर्ना ये आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस और से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है, और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।

ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा. कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की द्डता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।

ABHAY
09-01-2011, 09:56 AM
उन्होनें बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमीं की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है, उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में मांगा. बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होनें अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभुमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।

युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खींचाव-तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है अतैव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध मे विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभुमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

ABHAY
09-01-2011, 09:58 AM
बभ्रुवाहन
बरबरीक, पांडव भीम के पुत्र घटोत्कच के पुत्र थे . आपने महाभारत के युद्ध के दौरान भगवन श्री कृष्ण के कहने पर अपने सिर का दान कर देते हैं. कृष्ण के आशीर्वाद से कलिकाल में आप कृष्ण अवतार के रूप में पूजे जाते हैं. आपका मंदिर खाटू में स्थित होने के कारण आपको खाटू श्यामजी के नाम से पूजा जाता है. आप हारे के सहारे भी कहे जाते हैं क्योंकि जब भगवन कृष्ण ने आपसे पूछा की आप किसकी ओर से युद्ध करेंगे तो आपने कहा की कौरव -पांडव में से जो हार रहा होगा आप उसकी और से युद्ध करेंगे .

बभ्रुवाहन चित्रवाहन की पुत्री चित्रागंदा से उत्पन्न पुत्र थे जो अपने नाना की मृत्यु के बाद मणिपुर के राजा बने। युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के अश्व को पकड़ लेने पर अर्जुन से इनका घोर युद्ध हुआ जिसमें यह विजयी हुए। किंतु माता के आग्रह पर इन्होंने मृतसंजीवक मणि द्वारा समरभूमि में अचेत पड़े अर्जुन को चैतन्य किया और अश्व को उन्हें लौटाते हुए यह अपनी माताओं-चिंत्रांगदा और उलूपी के साथ युधिष्ठिर के यज्ञ में सम्मिलित हुए (जैमि, अश्व., 37, 21-40; महा. आश्व. 79-90)।

ABHAY
09-01-2011, 10:00 AM
परीक्षित
हस्तिनापुर अथवा हास्तिनपुर राजा
कीचक
कीचक राजा विराट का साला था तथा उनका सेनापती था। आज्ञात्वास के समय जब पाण्डव अपनी एक वर्ष की अवधी राजा विराट के यहा व्यतीत कर रहे थे तब वहाँ द्रौपदी "सैरंधृी" नामक एक दासी के रूप मे राजा विराट की पत्नी की सेवा मे कार्यरत थी। उस समय कीचक द्रौपदी "सैरंधृी" पर मोहित हो गया । एक दिन उसने बल़पूर्वक द्रौपदी "सैरंधृी" को पाने की कोशिश की जिसके परिणामस्वरूप भीम ने कीचक का वध कर दिया।
कृपाचार्य
कृपाचार्य कौरवो और पांडवो के गुरू थे।
जन्म की कथा
गौतम ऋषि के पुत्र का नाम शरद्वान था। उनका जन्म बाणों के साथ हुआ था। उन्हें वेदाभ्यास में थोडा़ भी रुचि नहीं थी और धनुर्विद्या से उन्हें अत्यधिक लगाव था। वे धनुर्विद्या में इतने निपुण हो गये कि देवराज इन्द्र उनसे भयभीत रहने लगे। इन्द्र ने उन्हें साधना से डिगाने के लिये नामपदी नामक एक देवकन्या को उनके पास भेज दिया। उस देवकन्या के सौन्दर्य के प्रभाव से शरद्वान इतने कामपीड़ित हुये कि उनका वीर्य स्खलित हो कर एक सरकंडे पर आ गिरा। वह सरकंडा दो भागों में विभक्त हो गया जिसमें से एक भाग से कृप नामक बालक उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से कृपी नामक कन्या उत्पन्न हुई। कृप भी धनुर्विद्या में अपने पिता के समान ही पारंगत हुये। भीष्म जी ने इन्हीं कृप को पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा-दीक्षा के लिये नियुक्त किया और वे कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुये।

ABHAY
09-01-2011, 10:01 AM
अश्वत्थामा
महाभारत युध्द से पुर्व गुरु द्रोणाचार्य जी अनेक स्थानो मे भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश)प्*हुचे।वहा तमसा नदी के किनारे एक दिव्य गुफा मे तपेश्वर नामक स्वय्मभू शिवलिग हे।यहा गुरु द्रोणाचार्य जी और उनकी पत्नि माता कृपि ने शिवजी की तपस्या की । इनकी तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया।कुछ समय बाद माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी |जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। अश्वत्थामा दुनिया के सबसे प*हले टॅस्ट-ट्यूब बेबी हे।

महाभारत युध्द के समय गुरु द्रोणाचार्य जी ने हस्तिनापुर(मेरठ)राज्य के प्रति निष्ठा। होने के कारण कोरवो का साथ देना उचित समझा।अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या मे निपूण थे।महाभारत के युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था।महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने भीम-पुत्र घटोत्कच को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। पिता-पुत्र की जोडी ने महाभारत युध्द के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया।पाण्डवो की सेना की हार देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कुट-निति सहारा लेने को कहा ।इस योजना के तहत यह बात फेला दी गई कि "अश्वत्थामा मारा गया" जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने जवाब दिया-"अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी"॥ श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया,जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नही सुन पाए।अपने प्रिय पुत्र की मोत का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये,और युध्द भूमि मे आखे बन्द कर शोक अवस्था मे बेट गये।गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता जानकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न ने तलवार से आपका सिर काट डाला। गुरु द्रोणाचार्य जी की निर्मम हत्या के बाद पांडवों की जीत होने लगी।इस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन के तीरों एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया।दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जाँघ भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में तोड़ दी। अपने दुर्योराजा धन की

ऐसी दशा देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन पानी को बान्धने की कला जानता था।सो जिस तालाब के पास गदायुध्द चल रहा था उसी तालाब मे घुस गया और पानी को बान्धकर छुप गया।दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पाण्डवो की जीत पक्की हो गई थी सभी पाण्डव खेमे के लोग जीत की खुशी मे मतवाले हो रहे थे।

ABHAY
09-01-2011, 10:02 AM
अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पाण्डवो पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया था। जिसके आगे सारी पाण्डव सेना ने हथियार डाल दिया था| युध्द ह्थ्के पश्चात अश्वत्थामा ने द्रोपदी के पाँचो पुत्र और द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया| अश्वत्थामा ने अभिमन्यु पुत्र परीक्षित पर बह्मशीर्ष अस्त्र का प्रयोग किया। अश्वत्थामा अमर है और आज भी जीवित हैँ।भगवान क्रष्ण के श्राप के कारण अश्वत्थामा को कोड रोग हो गया।आज भी आप जीवित हे। छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के बचे हुये वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवोंअश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि दुर्योधन तक को भी यह अच्छा नहीं लगा।केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पाँचों पुत्रों के सिर भी अश्वत्थामा ने काट डाले। अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि दुर्योधन तक को भी यह अच्छा नहीं लगा।

पुत्रों के हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला। श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था।

उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”

श्रीकृष्ण बोले, “है अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।”

ABHAY
09-01-2011, 10:03 AM
श्रीकृष्ण की इस मंत्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने दोंनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया और झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध लिया। श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।”

श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।”

द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।

ABHAY
09-01-2011, 10:04 AM
एकलव्य
एकलव्य महाभारत का एक पात्र है। वह हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र था। एकलव्य को अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए जाना जाता है। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बना। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उसने न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलों की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया।

महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है।[१]

कथा के अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो। कहते हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था।

ABHAY
09-01-2011, 10:05 AM
कृतवर्मा
कृतवर्मा यदुवंश के अंतर्गत भोजवंशीय हृदिक का पुत्र और वृष्णिवंश के सात सेनानायकों में एक। महाभारत युद्ध में इसने एक अक्षौहिणी सेना के साथ दुर्योधन की सहायता की थी। यह कौरव पक्ष का अतिरथी वीर था (म. भा., उद्यो., 130-10-11)। महाभारत के युद्ध में इसने अपने पराक्रम का अनेक बार प्रदर्शन किया; अनेक बार पांडव सेना को युद्धविमुख किया तथा भीमसेन, युधिष्ठिर, धृष्टद्युम्न, उत्तमौजा आदि वीरों को पराजित किया। द्वैपायन सरोवर पर जाकर इसी ने दुर्योधन को युद्ध के लिए उत्साहित किया था। निशाकाल के सौप्तिक युद्ध में इने अश्वत्थामा का साथ दिया तथा शिविर से भागे हुए योद्धाओं का वध किया (सौप्तिक पर्व 5-106-107), और पांडवों के शिविर में आग लगाई। मौसल युद्ध में सात्यकि ने इसका वध किया। महाभारत के अनुसार मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग जाने पर इसका प्रवेश मरुद्गणों में हो गया।

ABHAY
09-01-2011, 10:06 AM
जरासंध
जरासंध महाभारत कालीन मगध राज्य का नरेश था। वह बहुत ही शक्तिशाली राजा था और उसका सपना चक्रवती सम्राट बनने का था। यद्यपि वह एक शक्तिशाली राजा तो था, लेकिन वह था बहुत क्रूर। अजेय हो क अपना सपना पूरा करने के लिए उसने बहुत से राजाओं को अपने कारागार में बंदी बनाकर रखा था।

वह मथुरा नरेश कंस का परम मित्र था। श्रीकृष्ण से कंस वध का प्रतिशोध लेने के लिए उसने १७ बार मथुरा पर चढ़ाई की लेकिन हर बार उसे असफल होना पड़ा। जरासंध श्री कृष्ण का परम शत्रु और एक योद्धा था।
जन्म
जरासंध के पिता थे महाराज यल्ज्क् और उनकी दो पटरानियां थी। वह दोनो ही को एकसमान चाहते थे। बहुत समय व्यतीत हो गया और वे बूढ़े़ हो चले थे, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। तब एक बार उन्होंने सुना की उनके राज्य में ऋषि चंडकौशिक पधारे हुए हैं और वे एक आम के वृक्ष के नीचे विराजमान हैं। यह सुनते ही राजन आशापूर्ण होकर ऋषि से मिलने चल दिए। ऋषि के पास पहुँच कर उन्होंने ऋषि को अपना दुख कह सुनाया। राजा का वृतांत सुनकर ऋषि को दया आ गई और उन्होंने नरेश को एक आम दिया और कहा की इसे अपनी रानी को खिला देना। लेकिन चूंकि उनकी दो पत्नीयां थी और वे दोनो ही से एक समान प्रेम करते थे, इसलिए उन्होंए उस आम के बराबर टुकड़े करके अपनी दोनो रानियों को खिला दिया। इससे दोनो रानियों को आधे-आधे पुत्र हुए। भय के मारे उन्होंने उन दोनो टुकड़ो को वन में फिकवा दिया। तभी वहाँ से जरा नामक एक राक्षसी भी जा रही थी। उसने माँस के उन दोनों लोथड़ों को देखा और उसने दायां लोथड़ा दाएं हाथ में और बायां लोथड़ा बाएं हाथ में लिया जिससे वह दोनो टुकडे जुड़ गए। जुड़ते ही उस बालक ने बहुत ज़ोर की गर्जना की जिससे भयभीत होकर जरा राक्षसी भाग गई और राजभवन में दोनों रानियों की छाती से दुध उतर आया। इसीलिए उसका नाम जरासंध हुआ। इस प्रकार जरासंध का जन्म हुआ।

ABHAY
09-01-2011, 10:10 AM
मृत्यु
इंद्रप्रस्थ नगरी का निर्माण पूरा होने के पश्चात एक दिन नारद मुनि ने महाराज युधिष्ठिर को उनके पिता का यह संदेश सुनाया की अब वे राजसूय यज्ञ करें। इस विषय पर महाराज ने श्रीकृष्ण से बात की तो उन्होंने भी युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ करने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन महाराज युधिष्ठिर के चक्रवर्ती सम्राट बनने के मार्ग में केवल एक रोड़ा था, मगध नरेश जरासंध, जिसे परास्त किए बिना वह सम्राट नहीं बन सकते थे और ना ही उसे रणभूमि मे परास्त किया जा सकता था। इस समस्या का समाधान करने के लिए श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन के साथ ब्राह्मणों का भेष बनाकर मगध की ओर चल दिए। वहाँ पहुँच कर जरासंध ने उन्हें ब्राह्मण समझकर कुछ माँग लेने के लिए कहा लकिन उस समय ब्राह्मण भेषधारी श्रीकृष्ण ने कहा की अभी उनके दोनो मित्रों का मौन व्रत है जो अर्ध रात्रि में समाप्त होगा। तब जरासंध ने अर्ध रात्रि तब ही आने का वचन दिया और उन्हें ब्राह्मण कक्ष मे ठहराया।

तब अर्धरात्रि में वह आया लेकिन उसे उन तीनों पर कुछ संदेह हुआ की वे ब्राह्मण नहीं है और उन्हेण उनके वास्तविक रूप में आने को कहा। तब श्रीकृष्ण की खरी-खोटी सुनने के बाद उसे क्रोध आ गया और उस्ने कहा की उन्हें जो भी चाहिए वे माँग ले और यहाँ से चले जाएं। तब उन्होंने ब्राह्मण भेष में ही जरासंध को मल्लयुद्ध करने के लिए कहा और फिर अपना वास्तविक परिचय दिया। उसने मल्ल युद्ध के लिए भीम को चुना।

तब अगले उसने भीम के साथ मल्लभूमि में मल्ल युद्ध किया। लेकिन जितनी बार भीमसेन उसके दो टुकड़े करते वह फिर से जुड़ जाता। इस पर श्रीकृष्ण ने एक डंडी की सहायता से भीम को संकेत किया की इस बार वह उसके टुकड़े कर के दोनों टुकड़े अलग-अलग दिशा में फेंके। तब भीम ने वैसा ही किया और इस प्रकार जरासंध का वध हुआ।

तब उसका वध करके उन तीनों ने उसके बंदीगृह में बंद सभी ८६ राजाओं को मुक्त किया और श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र को राजा बनाया।
जरासंध के अखारा से ले के उसके सोंन भंडार तक का फोटो यहाँ देखे (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=1294&page=9)

ABHAY
09-01-2011, 10:11 AM
मयासुर
मय या मयासुर, कश्यप और दुन का पुत्र, नमुचि का भाई, एक प्रसिद्ध दानव। इसकी दो पत्नियाँ--हेमा और रंभा थीं जिनसे पाँच पुत्र तथा तीन कन्याएँ हुईं। मय ने दैत्यराज वृषपर्वन् के यज्ञ के अवसर पर बिंदुसरोवर के निकट एक विलक्षण सभा का निर्माण कर अपने अद्भूत शिल्पशास्त्र के ज्ञान का परिचय दिया था। यह ज्योतिष तथा वास्तुशास्त्र का आचार्य था।

जय शंकर ने त्रिपुरों को भस्म कर असुरों का नाश कर दिया तब मयासुर ने अमृतकुंड बनाकर सभी को जीवित कर दिया था किंतु विष्णु ने उसके इस प्रयास को विफल कर दिया। ब्रह्मपुराण (124) के अनुसार इंद्र द्वारा नमुचि का वध होने पर इसने इंद्र को पराजित करने के लिये तपस्या द्वारा अनेक माया विद्याएँ प्राप्त कर लीं। भयग्रस्त इंद्र ब्राह्मण वेश बनाकर उसके पास गए और छलपूर्वक मैत्री के लिये उन्होंने अनुरोध किया तथा असली रूप प्रकट कर दिया। इसपर मय ने अभयदान देकर उन्हें माया विद्याओं की शिक्षा दी।

महाभारत (आदिपर्व, 219।39; सभापर्व, 1।6) के अनुसार खांडव वन को जलाते समय यह उस वन में स्थित तक्षक के घर से भागा। कृष्ण ने तत्काल चक्र से इसका वध करना चाहा किंतु शरणागत होने पर अर्जुन ने इसे बचा लिया। बदले में इसने युधिष्ठिर के लिये सभाभवन का निर्माण किया जो मयसभा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी सभा के वैभव को देखकर दुर्योधन पांडवों से डाह करने लगा था। इस भावना ने महाभारत युद्ध को जन्म दिया।

ABHAY
09-01-2011, 10:12 AM
दुर्वासा ऋषि
दुर्वासा हिंदुओं के एक महान ऋषि हैं। वे अपने क्रोध के लिए जाने जाते हैं। दुर्वासा सतयुग, त्रैता एवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि हैं। वे महादेव शंकर के अंश से आविर्भूत हुए हैं। कभी-कभी उनमें अकारण ही भयंकर क्रोध भी देखा जाता है। वे सब प्रकार के लौकिक वरदान देने में समर्थ हैं।

महर्षि अत्रि जी सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनकी पत्नी अनसूयाजी के पातिव्रत धर्म की परीक्षा लेने हेतु ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही पत्*ि*नयों के अनुरोध पर श्री अत्री और अनसूयाजी के चित्रकुट स्थित आश्रम में शिशु रूप में उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और महेश दुर्वासा के रूप में उपस्थित हुए। बाद में देव पत्नियों के अनुरोध पर अनसूयाजी ने कहा कि इस वर्तमान स्वरूप में वे पुत्रों के रूप में मेरे पास ही रहेंगे। साथ ही अपने पूर्ण स्वरूप में अवस्थित होकर आप तीनों अपने-अपने धाम में भी विराजमान रहेंगे। यह कथा सतयुग के प्रारम्भ की है। पुराणों और महाभारत में इसका विशद वर्णन है। दुर्वासा जी कुछ बडे हुए, माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे। विशेषत: यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुंचे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियां प्राप्त हो गई। अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए। तत्पश्चात् यमुना किनारे इसी स्थल पर उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया और यहीं पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया। दुर्वासा आश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था। एक बार राजा निर्जला एकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। समस्त क्रियाएं सम्पन्न कर संत-विप्र आदि भोज के पश्चात भगवत प्रसाद से पारण करने को थे कि महर्षि दुर्वासा आ गए। महर्षि को देख राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया, पर ऋषि यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए। पारण काल निकलने जा रहा था। धर्मज्ञ ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है। भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड़ क्रत्या राक्षसी उत्पन्न की, परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीश अडिग खडे रहे। भगवान ने भक्त रक्षार्थ चक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई। दुर्वासाजी चौदह लोकों में रक्षार्थ दौड़ते फिरे। शिवजी की चरण में पहुंचे। शिवजी ने विष्णु के पास भेजा। विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है। अत:यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, तो भक्त अम्बरीश के निकट ही क्षमा प्रार्थना करें।

ABHAY
09-01-2011, 10:13 AM
जब से दुर्वासाजी अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, तब से महाराज अम्बरीशने भोजन नहीं किया था। उन्होंने दुर्वासाजी के चरण पकड़ लिए और बडे़ प्रेम से भोजन कराया। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हुए और आदर पूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया। दुर्वासाजी ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीश के गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए। महाराज अम्बरीश के संसर्ग से महर्षि दुर्वासा का चरित्र बदल गया। अब वे ब्रह्म ज्ञान और अष्टांग योग आदि की अपेक्षा शुद्ध भक्ति मार्ग की ओर झुक गए। महर्षि दुर्वासा जी शंकर जी के अवतार एवं प्रकाश हैं। शंकर जी के ईश्वर होने के कारण ही उनका निवास स्थान ईशापुर के नाम से प्रसिद्ध है। आश्रम का पुनर्निर्माण त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति वेदान्त गोस्वामी जी ने कराया। सम्प्रति व्यवस्था सन्त रास बिहारी दास आश्रम पर रह कर देख रहे हैं।

ब्रज मण्डल के अंतर्गत प्रमुख बारह वनों में से लोहवनके अंतर्गत यमुना के किनारे मथुरा में दुर्वासाजी का अत्यन्त प्राचीन आश्रम है। यह महर्षि दुर्वासा की सिद्ध तपस्या स्थली एवं तीनों युगों का प्रसिद्ध आश्रम है। भारत के समस्त भागों से लोग इस आश्रम का दर्शन करने और तरह-तरह की लौकिक कामनाओं की पूर्ति करने के लिए आते हैं।

ABHAY
09-01-2011, 10:14 AM
जयद्रथ
हिन्दू धर्म के महाकाव्य महाभारत में जयद्रथ सिंधु प्रदेश के राजा थे। इनका विवाह कौरवों की एकमात्र बहन दुःशला से हुई। जयद्रथ सिंधु नरेश वृद्धक्षत्र के पुत्र थे। वृद्धक्षत्र के यहाँ जयद्रथ का जन्म काफी समय बाद हुआ था और उन्हें साथ ही यह वरदान प्राप्त हुआ कि जयद्रथ का वध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कर पायेगा। उसने साथ ही यह वरदान भी प्राप्त किया कि जो भी जयद्रथ को मारकर जयद्रथ का सिर ज़मीन पर गिरायेगा, उसके सिर के हज़ारों टुकड़े हो जायेंगे।

ABHAY
09-01-2011, 10:15 AM
बलराम
पांचरात्र शास्त्रों के अनुसार बलराम (बलभद्र) भगवान् वासुदेव के ब्यूह या स्वरूप हैं। उनका कृष्ण के अग्रज और शेष का अवतार होना ब्राह्मण धर्म को अभिमत है। जैनों के मत में उनका संबंध तीर्थकर नेमिनाथ से है। बलराम या संकर्षण का पूजन बहुत पहले से चला आ रहा था, पर इनकी सर्वप्राचीन मूर्तियाँ मथुरा और ग्वालियर के क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। ये शुंगकालीन हैं। कुषाणकालीन बलराम की मूर्तियों में कुछ व्यूह मूर्तियाँ अर्थात् विष्णु के समान चतुर्भुज प्रतिमाए हैं, और कुछ उनके शेष से संबंधित होने की पृष्ठभूमि पर बनाई गई हैं। ऐसी मूर्तियों में वे द्विभुज हैं और उनका मस्तक मंगलचिह्नों से शोभित सर्पफणों से अलंकृत है। बलराम का दाहिना हाथ अभयमुद्रा में उठा हुआ है और बाएँ में मदिरा का चषक है। बहुधा मूर्तियों के पीछे की ओर सर्प का आभोग दिखलाया गया है। कुषाण काल के मध्य में ही व्यूहमूर्तियों का और अवतारमूर्तियों का भेद समाप्तप्राय हो गया था, परिणामत: बलराम की ऐसी मूर्तियाँ भी बनने लगीं जिनमें नागफणाओं के साथ ही उन्हें हल मूसल से युक्त दिखलाया जाने लगा। गुप्तकाल में बलराम की मूर्तियों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उनके द्विभुज और चतुर्भुज दोनों रूप चलते थे। कभी-कभी उनका एक ही कुंडल पहने रहना "बृहत्संहिता" से अनुमोदित था। स्वतंत्र रूप के अतिरिक्त बलराम तीर्थंकर नेमिनाथ के साथ, देवी एकानंशा के साथ, कभी दशावतारों की पंक्ति में दिखलाई पड़ते हैं।

कुषाण और गुप्तकाल की कुछ मूर्तियों में बलराम को सिंहशीर्ष से युक्त हल पकड़े हुए अथवा सिंहकुंडल पहिने हुए दिखलाया गया है। इनका सिंह से संबंध कदाचित् जैन परंपरा पर आधारित है।

मध्यकाल में पहुँचते-पहुँचते ब्रज क्षेत्र के अतिरिक्त - जहाँ कुषाणकालीन मदिरा पीने वाले द्विभुज बलराम मूर्तियों की परंपरा ही चलती रही - बलराम की प्रतिमा का स्वरूप बहुत कुछ स्थिर हो गया। हल, मूसल तथा मद्यपात्र धारण करनेवाले सर्पफणाओं से सुशोभित बलदेव बहुधा समपद स्थिति में अथवा कभी एक घुटने को किंचित झुकाकर खड़े दिखलाई पड़ते हैं। कभी-कभी रेवती भी साथ में रहती हैं।

ABHAY
09-01-2011, 10:17 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=7945&stc=1&d=1294553861
बलभद्र या बलराम श्रीकृष्ण के सौतेले बड़े भाई थे जो रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। बलराम, हलधर, हलायुध, संकर्षण आदि इनके अनेक नाम हैं। बलभद्र के सगे सात भाई और एक बहन सुभद्रा थी जिन्हें चित्रा भी कहते हैं। इनका ब्याह रेवत की कन्या रेवती से हुआ था। कहते हैं, रेवती 21 हाथ लंबी थीं और बलभद्र जी ने अपने हल से खींचकर इन्हें छोटी किया था।

इन्हें नागराज अनंत का अंश कहा जाता है और इनके पराक्रम की अनेक कथाएँ पुराणों में वर्णित हैं। ये गदायुद्ध में विशेष प्रवीण थे। दुर्योधन इनका ही शिष्य था। इसी से कई बार इन्होंने जरासंध को पराजित किया था। श्रीकृष्ण के पुत्र शांब जब दुर्योधन की कन्या लक्ष्मणा का हरण करते समय कौरव सेना द्वारा बंदी कर लिए गए तो बलभद्र ने ही उन्हें दुड़ाया था। स्यमंतक मणि लाने के समय भी ये श्रीकृष्ण के साथ गए थे। मृत्यु के समय इनके मुँह से एक बड़ा साँप निकला और प्रभास के समुद्र में प्रवेश कर गया था।

ABHAY
09-01-2011, 10:18 AM
हिडिंब
हिडिंब महाभारत काल का एक राक्षस था, जो अपनी बहन हिडिंबा के साथ वन में रहा करता था। उसकी बहन हिडिंबा काली माता की भक्त थी, और उसे प्रतिदिन चढा़वे के रूप मे एक मनुष्य की बलि माता को देनी होती थी। एक दिन हिडिंब बहन के लिए मानव बलि हेतु वनवासरत् पांडवों में से एक भीम को पकड़ लाया। हिडिंबा भीम को देख उस पर मोहित हो गई, और भीम से बोली कि वह अपने भाई हिडिंब से उसे बचा कर कहीं दूर स्थान पर भेज देगी। जब बहुत समय होने पर भी हिडिंबा मानव बलि के लिए भीम को लेकर नहीं आई, तो हिडिंब अपनी बहन के पास पहुँचा और भीम के साथ विहार करती हिडिंबा को मारने के लिए दौडा़। इसपर भीम ने उसे ललकारा और उसका वध कर दिया। भीम और हिडिंबा के गन्धर्व विवाह से हिडिंबा को घटोत्कच नामक पुत्र प्राप्त हुआ।

महाभारत युद्ध मे घटोत्कच ने पांडवों की ओ*र से वीरतापूर्वक भाग लिया था।

ABHAY
09-01-2011, 10:20 AM
शल्य
शल्य, माद्रा (मद्रदेश) के राजा जो पांडु के सगे साले और नकुल व सहदेव के मामा थे। परंतु महाभारत में इन्होंने पांडवों का साथ नहीं दिया और कर्ण के सारथी बन गए थे। कर्ण की मृत्यु पर युद्ध के अंतिम दिन इन्होंने कौरव सेना का नेतृत्व किया और उसी दिन युधिष्ठिर के हाथ मारे गए। इनकी बहन माद्री, कुंती की सौत थीं और पांडु के शव के साथ चिता पर जीवित भस्म हो गई थीं।
अधिरथ
ये महाभारत में वर्णित पाँडव-माता कुंती के विवाह पूर्व भगवान सूर्य से उत्पन्न पुत्र कर्ण को पालने वाले पिता थे। अधिरथ अंग वंश में उत्पन्न सत्कर्मा के पुत्र थे। इनकी पत्नी का नाम राधा था। संजय से पहले ये धृतराष्ट्र के सखा और सारथी थे। कर्ण के जन्म ग्रहण करते ही कुन्ती ने उन्हें एक मंजूषा में रखकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यह पेटी अधिरथ और राधा को गंगा में जल-क्रीडा करते समय मिली। दम्पति निस्सन्तान थे, अत: कर्ण का पुत्र की भाँति भरण-पोषण किया। कर्ण को पाल-पोसकर इन्होंने ही बड़ा किया था।

ABHAY
09-01-2011, 10:22 AM
शिखण्डी
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/hi/b/be/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0% A5%80_%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A 5%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0 %A4%82_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%82%E0%A4% A1%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%9A%E0%A4%BF% E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A3.jpeg
शिखंडी महाभारत का एक पात्र है। महाभारत कथा के अनुसार भीष्म द्वारा अपहृता काशीराज की ज्येष्ठ पुत्री अम्बा का ही दूसरा अवतार शिखंडी के रूप में हुआ था। प्रतिशोध की भावना से उसने शंकर की घोर तपस्या की और उनसे वरदान पाकर महाराज द्रुपद के यहाँ जन्म लिया उसने महाभारत के युद्ध में अपने पिता द्रुपद और भाई धृष्टद्युम्न के साथ पाण्डवों की ओर से युद्ध किया।

ABHAY
09-01-2011, 10:24 AM
पूर्व जन्म की कथा
शिखंडी के रूप में अंबा का पुनर्जन्म हुआ था। अम्बा काशीराज की पुत्री थी। उसकी दो और बहने थी जिनका नाम अम्बिका और अम्बालिका था। । विवाह योग्य होने पर उसके पिता ने अपनी तीनो पुत्रियों का स्वयंवर रचाया। हस्तिनापुर के संरक्षक भीष्म ने अपने भाइ विचित्रवीर्य के लिए जो हस्तिनापुर का राजा भी था, काशीराज की तीनों पुत्रियों का स्वयंवर से हरण कर लिया। उन तीनों को वे हस्तिनापुर ले गए। वहाँ उन्हें अंबा के किसी और के प्रति आसक्त होने का पता चला। भीष्म ने अम्बा को उसके प्रेमी के पास पहुँचाने का प्रबंध कर दिया किंतु वहां से अंबा तिरस्कृत होकर लौट आइ। अम्बा ने इसका उत्तरदायित्व भीष्म पर डाला और उनसे विवाह करने पर जोर दिया। भीष्म द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा से बंधे होने का तर्क दिए जाने पर भी वह अपने निश्चय से विचलित नहीं हुई। अंततः अंबा ने प्रतिज्ञा की कि वह एक दिन भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगी। इसके लिए उसने घोर तपस्या की। उसका जन्म पुनः एक राजा की पुत्री के रूप में हुआ। पुर्वजन्म की स्मृतियों के कारण अंबा ने पुनः अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए तपस्या आरंभ कर दी। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया तब अंबा ने शिखंडी के रुप में महाराज द्रुपद की पुत्री के रुप में जन्म लिया।
जीवन वृत
शिखण्डी का जन्म पंचाल नरेश द्रुपद के घर मूल रुप से एक कन्या के रुप में हुआ था। उसके जन्म के समय एक आकशवाणी हुई की उसका लालन एक पुत्री नहीं वरन एक पुत्र के रुप मे किया जाए। इसलिए शिखंडी का लालन-पालन पुरुष के समान किया गया। उसे युद्धकला का प्रक्षिक्षण दिया गया और कालंतर में उसका विवाह भी कर दिया गया। उसकी विवाह रात्री के दिन उसकी पत्नी ने सत्य का ज्ञान होने पर उसका अपमान किया। आहत शिखंडी ने आत्महत्या का विचार लेकर वह पंचाल से भाग गई। तब एक यक्ष ने उसे बचाया, और अपना लिंग परिवर्तन कर अपना पुरुषत्व उसे दे दिया। इस प्रकार शिखंडी एक पुरुष बनकर पंचाल वापस लौट गया और अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताया। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका पुरुषत्व यक्ष को वापस मिल गया।

ABHAY
09-01-2011, 10:25 AM
प्रतिज्ञान पूर्ति और भीष्म का अंत

कुरुक्षेत्र के युद्ध में १० वें दिन वह भीष्म के सामने आ गया, लेकिन भीष्म ने उसके रूप में अंबा को पहचान लिया और अपने हथियार रख दिए। और तब अर्जुन ने अंबा के पीछे से उनपर बाणों की बौछर लगा दी और उन्हें बाण शय्या पर लिटा दिया। इस प्रकार अर्जुन द्वारा भीष्म को परास्त किया गया, जिन्हें किसी भी अन्य विधि से परास्त नहीं किया जा सकता था।

मृत्यु

महाभारत में पांडवों की विजय के पश्चात अश्वत्थामा द्वारा पांडवों के शिविर पर रात्री में आक्रमण के दौरान शिखंडी का भी वध कर दिया गया।

ABHAY
09-01-2011, 10:26 AM
हिडिंबी
इस श्रेणी में हिन्दू एवं वैदिक धर्म ग्रंथों में दिये समस्त पौराणिक पात्रों को रखा गया है हिडिंबी, हिडिंब नामक राक्षश की बहन थी, जिसका महाभारत में उल्लेख है। महाभारत की कथा के अनुसार जब पाण्डव प्रथम वनवास कै दौरान वन-वन भटक रहे थे उनकी भेंट हिडिंबा और हिडिंब से हुई। कथा कुछ इस प्रकार है की वनवास के दौरान ही पाण्डव बंधु रात्रि में एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। उस दिन पहरा देने की भीम की बारी थी। भीम पहरा दे रहे थे की हिडिंब राक्षश कहीं से आया और भीम को उठाकर अपनी बहन के पास ले गया ताकि वह भीम को खा सके। लेकिन भीम के बलवान शरीर को देखकर हिडिंबा भीम पर मोहित हो गई और उनसे विवाह कर लिया। हिडिंबा और हिडिंब द्वाराभीम और अन्य पाण्डवों से यह अनुरोध भी किया गया की वे वनवास के शेष दिन उनके साथ उनके स्थान पर बिता लें। लेकिन पाण्डवों ने यह कहकर वहाँ रुकने से मना कर दिया की उनके साथ रुकना वनवास नही गृहवास होगा।

उसके पश्चात वे वहाँ से चले गए। नियत समय पर हिडिंबा को घटोत्कच नामक बलवान पुत्र हुआ जिसने महाभारत के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ABHAY
09-01-2011, 10:27 AM
घटोत्कच
घटोत्कच भीम और हिडिंबा पुत्र था, और बहुत बलशाली था। वह महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक था।
घटोत्कच का जन्म
लाक्षागृह के दहन के पश्चात सुरंग के रास्ते लाक्षागृह से निकल कर पाण्डव अपनी माता के साथ वन के अन्दर चले गये। कई कोस चलने के कारण भीमसेन को छोड़ कर शेष लोग थकान से बेहाल हो गये और एक वट वृक्ष के नीचे लेट गये। माता कुन्ती प्यास से व्याकुल थीं इसलिये भीमसेन किसी जलाशय या सरोवर की खोज में चले गये। एक जलाशय दृष्टिगत होने पर उन्होंने पहले स्वयं जल पिया और माता तथा भाइयों को जल पिलाने के लिये लौट कर उनके पास आये। वे सभी थकान के कारण गहरी निद्रा में निमग्न हो चुके थे अतः भीम वहाँ पर पहरा देने लगे।

उस वन में हिडिंब नाम का एक भयानक असुर का निवास था। मानवों का गंध मिलने पर उसने पाण्डवों को पकड़ लाने के लिये अपनी बहन हिडिंबा को भेजा ताकि वह उन्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा पूर्ति कर सके। वहाँ पर पहुँचने पर हिडिंबा ने भीमसेन को पहरा देते हुये देखा और उनके सुन्दर मुखारविन्द तथा बलिष्ठ शरीर को देख कर उन पर आसक्त हो गई। उसने अपनी राक्षसी माया से एक अपूर्व लावण्मयी सुन्दरी का रूप बना लिया और भीमसेन के पास जा पहुँची। भीमसेन ने उससे पूछा, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो और रात्रि में इस भयानक वन में अकेली क्यों घूम रही हो?" भीम के प्रश्न के उत्तर में हिडिम्बा ने कहा, "हे नरश्रेष्ठ! मैं हिडिम्बा नाम की राक्षसी हूँ। मेरे भाई ने मुझे आप लोगों को पकड़ कर लाने के लिये भेजा है किन्तु मेरा हृदय आप पर आसक्त हो गया है तथा मैं आपको अपने पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ। मेरा भाई हिडिम्ब बहुत दुष्ट और क्रूर है किन्तु मैं इतना सामर्थ्य रखती हूँ कि आपको उसके चंगुल से बचा कर सुरक्षित स्थान तक पहुँचा सकूँ।"

इधर अपनी बहन को लौट कर आने में विलम्ब होता देख कर हिडिम्ब उस स्थान में जा पहुँचा जहाँ पर हिडिम्बा भीमसेन से वार्तालाप कर रही थी। हिडिम्बा को भीमसेन के साथ प्रेमालाप करते देखकर वह क्रोधित हो उठा और हिडिम्बा को दण्ड देने के लिये उसकी ओर झपटा। यह देख कर भीम ने उसे रोकते हुये कहा, "रे दुष्ट राक्षस! तुझे स्त्री पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आती? यदि तू इतना ही वीर और पराक्रमी है तो मुझसे युद्ध कर।" इतना कह कर भीमसेन ताल ठोंक कर उसके साथ मल्ल युद्ध करने लगे। कुंती तथा अन्य पाण्डव की भी नींद खुल गई। वहाँ पर भीम को एक राक्षस के साथ युद्ध करते तथा एक रूपवती कन्या को खड़ी देख कर कुन्ती ने पूछा, "पुत्री! तुम कौन हो?" हिडिम्बा ने सारी बातें उन्हें बता दी।

ABHAY
09-01-2011, 10:28 AM
अर्जुन ने हिडिम्ब को मारने के लिये अपना धनुष उठा लिया किन्तु भीम ने उन्हें बाण छोड़ने से मना करते हुये कहा, "अनुज! तुम बाण मत छोडो़, यह मेरा शिकार है और मेरे ही हाथों मरेगा।" इतना कह कर भीम ने हिडिम्ब को दोनों हाथों से पकड़ कर उठा लिया और उसे हवा में अनेक बार घुमा कर इतनी तीव्रता के साथ भूमि पर पटका कि उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।

हिडिम्ब के मरने पर वे लोग वहाँ से प्रस्थान की तैयारी करने लगे, इस पर हिडिम्बा ने कुन्ती के चरणों में गिर कर प्रार्थना करने लगी, "हे माता! मैंने आपके पुत्र भीम को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया है। आप लोग मुझे कृपा करके स्वीकार कर लीजिये। यदि आप लोगों ने मझे स्वीकार नहीं किया तो मैं इसी क्षण अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी।" हिडिम्बा के हृदय में भीम के प्रति प्रबल प्रेम की भावना देख कर युधिष्ठिर बोले, "हिडिम्बे! मैं तुम्हें अपने भाई को सौंपता हूँ किन्तु यह केवल दिन में तुम्हारे साथ रहा करेगा और रात्रि को हम लोगों के साथ रहा करेगा।" हिडिंबा इसके लिये तैयार हो गई और भीमसेन के साथ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगी। एक वर्ष व्यतीत होने पर हिडिम्बा का पुत्र उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होते समय उसके सिर पर केश (उत्कच) न होने के कारण उसका नाम घटोत्कच रखा गया। वह अत्यन्त मायावी निकला और जन्म लेते ही बड़ा हो गया।

हिडिम्बा ने अपने पुत्र को पाण्डवों के पास ले जा कर कहा, "यह आपके भाई की सन्तान है अतः यह आप लोगों की सेवा में रहेगा।" इतना कह कर हिडिम्बा वहाँ से चली गई। घटोत्कच श्रद्धा से पाण्डवों तथा माता कुन्ती के चरणों में प्रणाम कर के बोला, "अब मुझे मेरे योग्य सेवा बतायें।? उसकी बात सुन कर कुन्ती बोली, "तू मेरे वंश का सबसे बड़ा पौत्र है। समय आने पर तुम्हारी सेवा अवश्य ली जायेगी।" इस पर घटोत्कच ने कहा, "आप लोग जब भी मुझे स्मरण करेंगे, मैं आप लोगों की सेवा में उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर घटोत्कच वर्तमान उत्तराखंड की ओर चला गया।

ABHAY
09-01-2011, 10:29 AM
अहिलावती

अहिलावती भीम के पुत्र घटोतकच्छ की पत्नी और बर्बरीक की माता थी.

उत्तरा (महाभारत)
उत्तरा राजा विराट की पुत्री थीं। जब पाण्डव अज्ञातवास कर रहे थे, उस समय अर्जुन वृहन्नला नाम ग्रहण करके रह रहे थे। वृहन्नला ने उत्तरा को नृत्य, संगीत आदि की शिक्षा दी थी। जिस समय कौरवों ने राजा विराट की गायें हस्तगत कर ली थीं, उस समय अर्जुन ने कौरवों से युद्ध करके अर्पूव पराक्रम दिखाया था। अर्जुन की उस वीरता से प्रभावित होकर राजा विराट ने अपनी कन्या उत्तरा का विवाह अर्जुन से करने का प्रस्ताव रखा था किन्तु अर्जुन ने यह कहकर कि उत्तरा उनकी शिष्या होने के कारण उनकी पुत्री के समान थी, उस सम्बन्ध को अस्वीकार कर दिया था। कालान्तर में उत्तरा का विवाह अभिमन्यु के साथ सम्पन्न हुआ था। चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जाने से पूर्व अभिमन्यु अपनी पत्नी से विदा लेने गया था। उस समय उसने अभिमन्यु से प्रार्थना की थी- 'हे उत्तरा के धन रहो तुम उत्तरा के पास ही' (जयद्रथ वध: मैथिलीशरण गुप्त, तृतीय सर्ग)। परीक्षित का जन्म इन्हीं की कोख से अभिमन्यु की मृत्य के बाद हुआ था।

ABHAY
09-01-2011, 10:30 AM
उलूपी

उलूपी ऐरावत वंश के कौरव्य नामक नाग की कन्या थी। इस नाग कन्या का विवाह एक बाग से हुआ था। इसके पति को गरुड़ ने मारकर खा लिया जिससे यह विधवा हो गयी। एक बार अर्जुन, जो प्रतिज्ञा भंग करने के कारण बारह वर्ष का वनवास कर रहे थे, ब्रह्मचारी के वेश में तीर्थाटन करते हुए गंगा द्वार के निकट पहुँचें जहाँ इससे उनका साक्षात्कार हुआ।

उलूपी अर्जुन को देखकर उनपर विमुग्ध हो गयी। वह अर्जुन को पाताल लोक में ले गयी और उनसे विवाह करने का अनुरोध किया। अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर उसने अर्जुन को समस्त जलचरों का स्वामी होने का वरदान दिया। जिस समय अर्जुन नागलोक में निवास कर रहे थे, उस समय चित्रांगदा से उत्पन्न अर्जुन का पुत्र वभ्रुवाहन, जो अपने नाना, मणिपुर नरेश का उत्तराधिकारी था, उनके स्वागत के लिए उनके पास आया। वभ्रुवाहन को युद्ध-सज्जा में न देखकर यथोचित व्यवहार नहीं किया। उलूपी वभ्रुवाहन की देख-रेखकर चुकने के कारण उस पर अपना प्रभाव रखती थी। उसने वभ्रुवाहन को अर्जुन के विरुद्ध भड़काया। फलतः पिता और पुत्र में युद्ध हुआ।

उलूपी की माया के प्रभाव से वभ्रुवाहन अर्जुन को मार डालने में समर्थ हुआ किन्तु अपने इस कार्य के लिए उसे इतना दुःख हुआ कि उसने आत्म-हत्या करने का निश्चय किया। वभ्रुवाहन के संकल्प को जानकर उलूपी ने एक मणि की सहायता से अर्जुन को पुनः जीवनदान दिया। विष्णु पुराण के अनुसार अर्जुन से उलूपी ने इरावत नामक पुत्र को जन्म दिया। उलूपी अर्जुन के सदेह स्वगारोहण के समय तक उनके साथ थी।

ABHAY
09-01-2011, 10:32 AM
बहुत हुआ अब जो जो छुट गया है उसे आपलोग बताये पोस्ट करने की कोसिस करूँगा !

abhisays
09-01-2011, 11:32 AM
बहुत हुआ अब जो जो छुट गया है उसे आपलोग बताये पोस्ट करने की कोसिस करूँगा !



सम्पूर्ण महाभारत को एक जगह प्रस्तुत करने का जो भागीरथी प्रयास आपने किया है वो अतुलनीय है. आपका बहुत बहुत धन्यवाद. :bravo::bravo::bravo:

khalid
09-01-2011, 12:00 PM
बहुत हुआ अब जो जो छुट गया है उसे आपलोग बताये पोस्ट करने की कोसिस करूँगा !

बहुत अच्छा प्रयास हैँ अभय आपका
धन्यवाद के पात्र हैँ आप