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View Full Version : बच्चो को सीख देने वाली कहानी


ABHAY
11-01-2011, 07:09 AM
आपस की फूट
प्राचीन समय में एक विचित्र पक्षी रहता था। उसका धड एक ही था, परन्तु सिर दो थे नाम था उसका भारुंड। एक शरीर होने के बावजूद उसके सिरों में एकता नहीं थी और न ही था तालमेल। वे एक दूसरे से बैर रखते थे। हर जीव सोचने समझने का काम दिमाग से करता हैं और दिमाग होता हैं सिर में दो सिर होने के कारण भारुंड के दिमाग भी दो थे। जिनमें से एक पूरब जाने की सोचता तो दूसरा पश्चिम फल यह होता था कि टांगें एक कदम पूरब की ओर चलती तो अगला कदम पश्चिम की ओर और भारूंड स्वयं को वहीं खडा पाता ता। भारुंड का जीवन बस दो सिरों के बीच रस्साकसी बनकर रह गया था।

एक दिन भारुंड भोजन की तलाश में नदी तट पर धूम रहा था कि एक सिर को नीचे गिरा एक फल नजर आया। उसने चोंच मारकर उसे चखकर देखा तो जीभ चटकाने लगा “वाह! ऐसा स्वादिष्ट फल तो मैंने आज तक कभी नहीं खाया। भगवान ने दुनिया में क्या-क्या चीजें बनाई हैं।”

“अच्छा! जरा मैं भी चखकर देखूं।” कहकर दूसरे ने अपनी चोंच उस फल की ओर बढाई ही थी कि पहले सिर ने झटककर दूसरे सिर को दूर फेंका और बोला “अपनी गंदी चोंच इस फल से दूर ही रख। यह फल मैंने पाया हैं और इसे मैं ही खाऊंगा।”

“अरे! हम् दोनों एक ही शरीर के भाग हैं। खाने-पीने की चीजें तो हमें बांटकर खानी चाहिए।” दूसरे सिर ने दलील दी। पहला सिर कहने लगा “ठीक! हम एक शरीर के भाग हैं। पेट हमार एक ही हैं। मैं इस फल को खाऊंगा तो वह पेट में ही तो जाएगा और पेट तेरा भी हैं।”

दूसरा सिर बोला “खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता भाई। जीभ का स्वाद भी तो कोई चीज हैं। तबीयत को संतुष्टि तो जीभ से ही मिलती हैं। खाने का असली मजा तो मुंह में ही हैं।”

पहला सिर तुनकर चिढाने वाले स्वर में बोला “मैंने तेरी जीभ और खाने के मजे का ठेका थोडे ही ले रखा हैं। फल खाने के बाद पेट से डकार आएगी। वह डकार तेरे मुंह से भी निकलेगी। उसी से गुजारा चला लेना। अब ज्यादा बकवास न कर और मुझे शांति से फल खाने दे।” ऐसा कहकर पहला सिर चटकारे ले-लेकर फल खाने लगा।

ABHAY
11-01-2011, 07:10 AM
इस घटना के बाद दूसरे सिर ने बदला लेने की ठान ली और मौके की तलाश में रहने लगा। कुछ दिन बाद फिर भारुंड भोजन की तलाश में घूम रहा था कि दूसरे सिर की नजर एक फल पर पडी। उसे जिस चीज की तलाश थी, उसे वह मिल गई थी। दूसरा सिर उस फल पर चोंच मारने ही जा रहा था कि कि पहले सिर ने चीखकर चेतावनी दी “अरे, अरे! इस फल को मत खाना। क्या तुझे पता नहीं कि यह विषैला फल हैं? इसे खाने पर मॄत्यु भी हो सकती है।”

दूसरा सिर हंसा “हे हे हे! तु चुपचाप अपना काम देख। तुझे क्या लेना हैं कि मैं क्या खा रहा हूं? भूल गया उस दिन की बात?”

पहले सिर ने समझाने कि कोशिश की “तुने यह फल खा लिया तो हम दोनों मर जाएंगे।”

दूसरा सिर तो बदला लेने पर उतारु था। बोला “मैने तेरे मरने-जीने का ठेका थोडे ही ले रखा हैं? मैं जो खाना चाहता हूं, वह खाऊंगा चाहे उसका नतीजा कुछ भी हो। अब मुझे शांति से विषैला फल खाने दे।”

दूसरे सिर ने सारा विषैला फल खा लिया और भारुंड तडप-तडपकर मर गया।

सीखः आपस की फूट सदा ले डूबती हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:10 AM
एक और एक ग्यारह
एक बार की बात हैं कि बनगिरी के घने जंगल में एक उन्मुत्त हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नेहीं समझता था।

बनगिरी में ही एक पेड पर एक चिडिया व चिडे का छोटा-सा सुखी संसार था। चिडिया अंडो पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेडों को तोडता-मरोडता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिडिया के घोंसले वाला पेड भी तोड डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पडा।

चिडिया और चिडा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिडिया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। तभी वहां कठफोठवी आई। वह चिडिया की अच्छी मित्र थी। कठफोडवी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिडिया ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोडवी बोली “इस प्रकार गम में डूबे रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।”

चिडिया ने निराशा दिखाई “हमें छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?”

कठफोडवी ने समझाया “एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियां जोडेंगे।”

“कैसे?” चिडिया ने पूछा।

ABHAY
11-01-2011, 07:11 AM
मेरा एक मित्र वींआख नामक भंवरा हैं। हमें उससे सलाह लेना चाहिए।” चिडिया और कठफोडवी भंवरे से मिली। भंवरा गुनगुनाया “यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र हैं आओ, उससे सहायता मांगे।”

अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुंचे, जहां वह मेढक रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राये स्वर में बोला “आप लोग धैर्य से जरा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पाने में बैठकर सोचता हूं।”

ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आंखे चमक रही थी। वह बोला “दोस्तो! उस हत्यारे हाथी को नष्ट करने की मेरे दिमाग में एक बडी अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।”

मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई,सब खुशी से उछल पडे। योजना सचमुच ही अदभुत थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना रोल समझाया।

कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोडफोड मचाकर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएं खाकर मस्ती में खडा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुंजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आंखें बंद करके झूमने लगा।

तभी कठफोडवी ने अपना काम कर दिखाया। वह् आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेजी से हाथी की दोनों आंखें बींध डाली। हाथी की आंखे फूट गईं। वह तडपता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा।

ABHAY
11-01-2011, 07:12 AM
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढता जा रहा था। आंखों से नजर न आने के कारण ठोकरों और टक्करों से शरीर जख्मी होता जा रहा था। जख्म उसे और चिल्लाने पर मजबूर कर रहे थे।

चिडिया कॄतज्ञ स्वर में मेढक से बोली “बहिया, मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूंगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी।”

मेढक ने कहा “आभार मानने की जरुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।”

एक तो आंखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाडते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज की तलाश थी, पानी।

मेढक ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बडे गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेढक टर्राने लगे।

मेढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खडे हो गए। वह यह जानता ता कि मेढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पडा।

टर्राहट और तेज होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज भागने लगा।

जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुंचा, मेढकों ने पूरा जोर लगाकर टर्राना शुरु किया। हाथी आगे बढा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पडा, जहां उसके प्राण पखेरु उडते देर न लगे इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी का अंत हुआ।

सीखः 1.एकता में बल हैं।
2.अहंकारी का देर या सबेर अंत होता ही हैं.

ABHAY
11-01-2011, 07:13 AM
एकता का बल
एक समय की बात हैं कि कबूतरों का एक दल आसमान में भोजन की तलाश में उडता हुआ जा रहा था। गलती से वह दल भटककर ऐसे प्रदेश के ऊपर से गुजरा, जहां भयंकर अकाल पडा था। कबूतरों का सरदार चिंतित था। कबूतरों के शरीर की शक्ति समाप्त होती जा रही थी। शीघ्र ही कुछ दाना मिलना जरुरी था। दल का युवा कबूतर सबसे नीचे उड रहा था। भोजन नजर आने पर उसे ही बाकी दल को सुचित करना था। बहुत समय उडने के बाद कहीं वह सूखाग्रस्त क्षेत्र से बाहर आया। नीचे हरियाली नजर आने लगी तो भोजन मिलने की उम्मीद बनी। युवा कबूतर और नीचे उडान भरने लगा। तभी उसे नीचे खेत में बहुत सारा अन्न बिखरा नजर आया “चाचा, नीचे एक खेत में बहुत सारा दाना बिखरा पडा हैं। हम सबका पेट भर जाएगा।’

सरदार ने सूचना पाते ही कबूतरों को नीचे उतरकर खेत में बिखरा दाना चुनने का आदेश दिया। सारा दल नीचे उतरा और दाना चुनने लगा। वास्तव में वह दाना पक्षी पकडने वाले एक बहलिए ने बिखेर रखा था। ऊपर पेड पर तना था उसका जाल। जैसे ही कबूतर दल दाना चुगने लगा, जाल उन पर आ गिरा। सारे कबूतर फंस गए।

कबूतरों के सरदार ने माथा पीटा “ओह! यह तो हमें फंसाने के लिए फैलाया गया जाल था। भूख ने मेरी अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। मुझे सोचना चाहिए था कि इतना अन्न बिखरा होने का कोई मतलब हैं। अब पछताए होत क्या, जब चिडिया चुग गई खेत?”

एक कबूतर रोने लगा “हम सब मारे जाएंगे।”

ABHAY
11-01-2011, 07:14 AM
बाकी कबूतर तो हिम्मत हार बैठे थे, पर सरदार गहरी सोच में डूबा था। एकाएक उसने कहा “सुनो, जाल मजबूत हैं यह ठीक हैं, पर इसमें इतनी भी शक्ति नहीं कि एकता की शक्ति को हरा सके। हम अपनी सारी शक्ति को जोडे तो मौत के मुंह में जाने से बच सकते हैं।”

युवा कबूतर फडफडाया “चाचा! साफ-साफ बताओ तुम क्या कहना चाहते हो। जाल ने हमें तोड रखा हैं, शक्ति कैसे जोडे?”

सरदार बोला “तुम सब चोंच से जाल को पकडो, फिर जब मैं फुर्र कहूं तो एक साथ जोर लगाकर उडना।”

सबने ऐसा ही किया। तभी जाल बिछाने वाला बहेलियां आता नजर आया। जाल में कबूतर को फंसा देख उसकी आंखें चमकी। हाथ में पकडा डंडा उसने मजबूती से पकडा व जाल की ओर दौडा।

बहेलिया जाल से कुछ ही दूर था कि कबूतरों का सरदार बोला “फुर्रर्रर्र!”

सारे कबूतर एक साथ जोर लगाकर उडे तो पूरा जाल हवा में ऊपर उठा और सारे कबूतर जाल को लेकर ही उडने लगे। कबूतरों को जाल सहित उडते देखकर बहेलिया अवाक रह गया। कुछ संभला तो जाल के पीछे दौडने लगा। कबूतर सरदार ने बहेलिए को नीचे जाल के पीछे दौडते पाया तो उसका इरादा समझ गया। सरदार भी जानता था कि अधिक देर तक कबूतर दल के लिए जाल सहित उडते रहना संभव न होगा। पर सरदार के पास इसका उपाय था। निकट ही एक पहाडी पर बिल बनाकर उसका एक चूहा मित्र रहता था। सरदार ने कबूतरों को तेजी से उस पहाडी की ओर उडने का आदेश दिया। पहाडी पर पहुंचते ही सरदार का संकेत पाकर जाल समेत कबूतर चूहे के बिल के निकट उतरे।

ABHAY
11-01-2011, 07:14 AM
सरदार ने मित्र चूहे को आवाज दी। सरदार ने संक्षेप में चूहे को सारी घटना बताई और जाल काटकर उन्हें आजाद करने के लिए कहा। कुछ ही देर में चूहे ने वह जाल काट दिया। सरदार ने अपने मित्र चूहे को धन्यवाद दिया और सारा कबूतर दल आकाश की ओर आजादी की उडान भरने लगा।

सीखः एकजुट होकर बडी से बडी विपत्ति का सामना किया जा सकता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:15 AM
कौए और उल्लू
बहुत समय पहले की बात हैं कि एक वन में एक विशाल बरगद का पेड कौओं की राजधानी था। हजारों कौए उस पर वास करते थे। उसी पेड पर कौओं का राजा मेघवर्ण भी रहता था।

बरगद के पेड के पास ही एक पहाडी थी, जिसमें असंख्य गुफाएं थीं। उन गुफाओं में उल्लू निवास करते थे, उनका राजा अरिमर्दन था। अरिमर्दन बहुत पराक्रमी राजा था। कौओं को तो उसने उल्लुओं का दुश्मन नम्बर एक घोषित कर्र रखा था। उसे कौओं से इतनी नफरत थी कि किसी कौए को मारे बिना वह भोजन नहीं करता था।

जब बहुत अधिक कौए मारे जाने लगे तो उनके राजा मेघवर्ण को बहुत चिन्ता हुई। उसने कौओं की एक सभा इस समस्या पर विचार करने के लिए बुलाई। मेघवर्ण बोला “मेरे प्यारे कौओ, आपको तो पता ही हैं कि उल्लुओं के आक्रमणों के कारण हमारा जीवन असुरक्षित हो गया हैं। हमारा शत्रु शक्तिशाली हैं और अहंकारी भी। हम पर रात को हमले किए जाते हैं। हम रात को देख नहीं पाते। हम दिन में जवाबी हमला नहीं कर पाते, क्योंकि वे गुफाओं के अंधेरों में सुरक्षित बैठे रहते हैं।”

फिर मेघवर्ण ने स्याने और बुद्धिमान कौओं से अपने सुझाव देने के लिए कहा।

एक डरपोक कौआ बोला “हमें उल्लूं से समझौता कर लेना चाहिए। वह जो शर्ते रखें, हम स्वीकार करें। अपने से तकतवर दुश्मन से पिटते रहने में क्या तुक है?”

बहुत-से कौओं ने कां कां करके विरोध प्रकट किया। एक गर्म दिमाग का कौआ चीखा “हमें उन दुष्टों से बात नहीं करनी चाहिए। सब उठो और उन पर आक्रमण कर दो।”

ABHAY
11-01-2011, 07:16 AM
एक निराशावादी कौआ बोला “शत्रु बलवान हैं। हमें यह स्थान छोडकर चले जाना चाहिए।”

स्याने कौए ने सलाह दी “अपना घर छोडना ठीक नहीं होगा। हम यहां से गए तो बिल्कुल ही टूट जाएंगे। हमे यहीं रहकर और पक्षियों से सहायता लेनी चाहिए।”

कौओं में सबसे चतुर व बुद्धिमान स्थिरजीवी नामक कौआ था, जो चुपचाप बैठा सबकी दलीलें सुन रहा था। राजा मेघवर्ण उसकी ओर मुडा “महाशय, आप चुप हैं। मैं आपकी राय जानना चाहता हूं।”

स्थिरजीवी बोला “महाराज, शत्रु अधिक शक्तिशाली हो तो छलनीति से काम लेना चाहिए।”

“कैसी छलनीति? जरा साफ-साफ बताइए, स्थिरजीवी।” राजा ने कहा।

स्थिरजीवी बोला “आप मुझे भला-बुरा कहिए और मुझ पर जानलेवा हमला कीजिए।’

मेघवर्ण चौंका “यह आप क्या कह रहे हैं स्थिरजीवी?”

स्थिरजीवी राजा मेघवर्ण वाली डाली पर जाकर कान मे बोला “छलनीति के लिए हमें यह नाटक करना पडेगा। हमारे आसपास के पेडों पर उल्लू जासूस हमारी इस सभा की सारी कार्यवाही देख रहे हैं। उन्हे दिखाकर हमें फूट और झगडे का नाटक करना होगा। इसके बाद आप सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत पर जाकर मेरी प्रतीक्षा करें। मैं उल्लुओं के दल में शामिल होकर उनके विनाश का सामान जुटाऊंगा। घर का भेदी बनकर उनकी लंका ढाऊंगा।”

फिर नाटक शुरु हुआ। स्थिरजीवी चिल्लाकर बोला “मैं जैसा कहता हूं, वैसा कर राजा कर राजा के बच्चे। क्यों हमें मरवाने पर तुला हैं?”

मेघावर्ण चीख उठा “गद्दार, राजा से ऐसी बदतमीजी से बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?”कई कौए एक साथ चिल्ला उठे “इस गद्दार को मार दो।”

राजा मेघवर्ण ने अपने पंख से स्थिरजीवी को जोरदार झापड मारकर तनी से गिरा दिया और घोषणा की “मैं गद्दार स्थिरजीवी को कौआ समाज से निकाल रहा हूं। अब से कोई कौआ इस नीच से कोई संबध नेहीं रखेगा।”

ABHAY
11-01-2011, 07:16 AM
आसपास के पेडों पर छिपे बैठे उल्लू जासूसों की आंखे चमक उठी। उल्लुओं के राजा को जासूसों ने सूचना दी कि कौओं में फूट पड गई हैं। मार-पीट और गाली-गलौच हो रही हैं। इतना सुनते ही उल्लुओं के सेनापति ने राजा से कहा “महाराज, यही मौका हैं कौओं पर आक्रमण करने का। इस समय हम उन्हें आसानी से हरा देंगे।”

उल्लुओं के राजा अरिमर्दन को सेनापति की बता सही लगी। उसने तुरंत आक्रमण का आदेश दे दिया। बस फिर क्या था हजारों उल्लुओं की सेना बरगद के पेड पर आक्रमण करने चल दी। परन्तु वहां एक भी कौआ नहीं मिला।

मिलता भी कैसे? योजना के अनुसार मेघवर्ण सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत की ओर कूच कर गया था। पेड खाली पाकर उल्लुओं के राजा ने थूका “कौए हमारा सामना करने की बजाए भाग गए। ऐसे कायरों पर हजार थू।” सारे उल्लू ‘हू हू’ की आवाज निकालकर अपनी जीत की घोषणा करने लगे। नीचे झाडियों में गिरा पडा स्थिरजीवी कौआ यह सब देख रहा था। स्थिरजीवी ने कां-कां की आवाज निकाली। उसे देखकर जासूस उल्लू बोला “अरे, यह तो वही कौआ हैं, जिसे इनका राजा धक्का देकर गिरा रहा था और अपमानित कर रहा था।’

उल्लुओं का राजा भी आया। उसने पूछा “तुम्हारी यह दुर्दशा कैसे हुई?” स्थिरजीवी बोला “मैं राजा मेघवर्ण का नीतिमंत्री था। मैंने उनको नेक सलाह दी कि उल्लुओं का नेतॄत्व इस समय एक पराक्रमी राजा कर रहे हैं। हमें उल्लुओं की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए। मेरी बात सुनकर मेघवर्ण क्रोधित हो गया और मुझे फटकार कर कौओं की जाति से बाहर कर दिया। मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।”

उल्लुओं का राजा अरिमर्दन सोच में पड गया। उसके स्याने नीति सलाहकार ने कान में कहा “राजन, शत्रु की बात का विश्वास नहीं करना चाहिए। यह हमारा शत्रु हैं। इसे मार दो।” एक चापलूस मंत्री बोला “नहीं महाराज! इस कौए को अपने साथ मिलाने में बडा लाभ रहेगा। यह कौओं के घर के भेद हमें बताएगा।”

ABHAY
11-01-2011, 07:17 AM
राजा को भी स्थिरजीवी को अपने साथ मिलाने में लाभ नजर आया अओ उल्लू स्थिरजीवी कौए को अपने साथ ले गए। वहां अरिमर्दन ने उल्लू सेवकों से कहा “स्थिरजीवी को गुफा के शाही मेहमान कक्षमें ठहराओ। इन्हें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए।”

स्थिरजीवी हाथ जोडकर बोला “महाराज, आपने मुझे शरण दी, यही बहुत हैं। मुझे अपनी शाही गुफा के बाहर एक पत्थर पर सेवक की तरह ही रहने दीजिए। वहां बैठकर आपके गुण गाते रहने की ही मेरी इच्छा हैं।” इस प्रकार स्थिरजीवी शाही गुफा के बाहर डेरा जमाकर बैठ गया।

गुफा में नीति सलाहकार ने राजा से फिर से कहा “महाराज! शत्रु पर विश्वास मत करो। उसे अपने घर में स्थान देना तो आत्महत्या करने समान हैं।” अरिमर्दन ने उसे क्रोध से देखा “तुम मुझे ज्यादा नीति समझाने की कोशिश मत करो। चाहो तो तुम यहां से जा सकते हो।” नीति सलाहकार उल्लू अपने दो-तीन मित्रों के साथ वहां से सदा के लिए यह कहता हुआ “विनाशकाले विपरीत बुद्धि।”

कुछ दिनों बाद स्थिरजीवी लकडियां लाकर गुफा के द्वार के पास रखने लगा “सरकार, सर्दियां आने वाली हैं। मैं लकडियों की झोपडी बनाना चाहता हूं ताकि ठंड से बचाव हो।’ धीरे-धीरे लकडियों का काफी ढेर जमा हो गया। एक दिन जब सारे उल्लू सो रहे थे तो स्थिरजीवी वहां से उडकर सीधे ॠष्यमूक पर्वत पर पहुंचा, जहां मेघवर्ण और कौओं सहित उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। स्थिरजीवी ने कहा “अब आप सब निकट के जंगल से जहां आग लगी हैं एक-एक जलती लकडी चोंच में उठाकर मेरे पीछे आइए।”

कौओं की सेना चोंच में जलती लकडियां पकड स्थिरजीवी के साथ उल्लुओं की गुफाओं में आ पहुंचा। स्थिरजीवी द्वारा ढेर लगाई लकडियों में आग लगा दी गई। सभी उल्लू जलने या दम घुटने से मर गए। राजा मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को कौआ रत्न की उपाधि दी।

सीखः शत्रु को अपने घर में पनाह देना अपने ही विनाश का सामान जुटाना हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:18 AM
खरगोश की चतुराई
किसी घने वन में एक बहुत बड़ा शेर रहता था। वह रोज शिकार पर निकलता और एक ही नहीं, दो नहीं कई-कई जानवरों का काम तमाम देता। जंगल के जानवर डरने लगे कि अगर शेर इसी तरह शिकार करता रहा तो एक दिन ऐसा आयेगा कि जंगल में कोई भी जानवर नहीं बचेगा।

सारे जंगल में सनसनी फैल गई। शेर को रोकने के लिये कोई न कोई उपाय करना ज़रूरी था। एक दिन जंगल के सारे जानवर इकट्ठा हुए और इस प्रश्न पर विचार करने लगे। अन्त में उन्होंने तय किया कि वे सब शेर के पास जाकर उनसे इस बारे में बात करें। दूसरे दिन जानवरों के एकदल शेर के पास पहुंचा। उनके अपनी ओर आते देख शेर घबरा गया और उसने गरजकर पूछा, ‘‘क्या बात है ? तुम सब यहां क्यों आ रहे हो ?’’

जानवर दल के नेता ने कहा, ‘‘महाराज, हम आपके पास निवेदन करने आये हैं। आप राजा हैं और हम आपकी प्रजा। जब आप शिकार करने निकलते हैं तो बहुत जानवर मार डालते हैं। आप सबको खा भी नहीं पाते। इस तरह से हमारी संख्या कम होती जा रही है। अगर ऐसा ही होता रहा तो कुछ ही दिनों में जंगल में आपके सिवाय और कोई भी नहीं बचेगा। प्रजा के बिना राजा भी कैसे रह सकता है ? यदि हम सभी मर जायेंगे तो आप भी राजा नहीं रहेंगे। हम चाहते हैं कि आप सदा हमारे राजा बने रहें। आपसे हमारी विनती है कि आप अपने घर पर ही रहा करें। हर रोज स्वयं आपके खाने के लिए एक जानवर भेज दिया करेंगे। इस तरह से राजा और प्रजा दोनों ही चैन से रह सकेंगे।’’ शेर को लगा कि जानवरों की बात में सच्चाई है। उसने पलभर सोचा, फिर बोला अच्छी बात नहीं है। मैं तुम्हारे सुझाव को मान लेता हूं। लेकिन याद रखना, अगर किसी भी दिन तुमने मेरे खाने के लिये पूरा भोजन नहीं भेजा तो मैं जितने जानवर चाहूंगा, मार डालूंगा।’’ जानवरों के पास तो और कोई चारा नहीं। इसलिये उन्होंने शेर की शर्त मान ली और अपने-अपने घर चले गये।

ABHAY
11-01-2011, 07:19 AM
उस दिन से हर रोज शेर के खाने के लिये एक जानवर भेजा जाने लगा। इसके लिये जंगल में रहने वाले सब जानवरों में से एक-एक जानवर, बारी-बारी से चुना जाता था। कुछ दिन बाद खरगोशों की बारी भी आ गई। शेर के भोजन के लिये एक नन्हें से खरगोश को चुना गया। वह खरगोश जितना छोटा था, उतना ही चतुर भी था। उसने सोचा, बेकार में शेर के हाथों मरना मूर्खता है अपनी जान बचाने का कोई न कोई उपाय अवश्य करना चाहिये, और हो सके तो कोई ऐसी तरकीब ढूंढ़नी चाहिये जिसे सभी को इस मुसीबत से सदा के लिए छुटकारा मिल जाये। आखिर उसने एक तरकीब सोच ही निकाली।

खरगोश धीरे-धीरे आराम से शेर के घर की ओर चल पड़ा। जब वह शेर के पास पहुंचा तो बहुत देर हो चुकी थी।

भूख के मारे शेर का बुरा हाल हो रहा था। जब उसने सिर्फ एक छोटे से खरगोश को अपनी ओर आते देखा तो गुस्से से बौखला उठा और गरजकर बोला, ‘‘किसने तुम्हें भेजा है ? एक तो पिद्दी जैसे हो, दूसरे इतनी देर से आ रहे हो। जिन बेवकूफों ने तुम्हें भेजा है मैं उन सबको ठीक करूंगा। एक-एक का काम तमाम न किया तो मेरा नाम भी शेर नहीं।’’

नन्हे खरोगश ने आदर से ज़मीन तक झुककर, ‘‘महाराज, अगर आप कृपा करके मेरी बात सुन लें तो मुझे या और जानवरों को दोष नहीं देंगे। वे तो जानते थे कि एक छोटा सा खरगोश आपके भोजन के लिए पूरा नहीं पड़ेगा, ‘इसलिए उन्होंने छह खरगोश भेजे थे। लेकिन रास्ते में हमें एक और शेर मिल गया। उसने पांच खरगोशों को मारकर खा लिया।’’

यह सुनते ही शेर दहाड़कर बोला, ‘‘क्या कहा ? दूसरा शेर ? कौन है वह ? तुमने उसे कहां देखा ?’’

‘‘महाराज, वह तो बहुत ही बड़ा शेर है’’, खरगोश ने कहा, ‘‘वह ज़मीन के अन्दर बनी एक बड़ी गुफा में से निकला था। वह तो मुझे ही मारने जा रहा था। पर मैंने उससे कहा, ‘सरकार, आपको पता नहीं कि आपने क्या अन्धेर कर दिया है। हम सब अपने महाराज के भोजन के लिये जा रहे थे, लेकिन आपने उनका सारा खाना खा लिया है। हमारे महाराज ऐसी बातें सहन नहीं करेंगे। वे ज़रूर ही यहाँ आकर आपको मार डालेंगे।’

ABHAY
11-01-2011, 07:20 AM
‘इस पर उसने पूछा, ‘कौन है तुम्हारा राजा ?’ मैंने जवाब दिया, ‘हमारा राजा जंगल का सबसे बड़ा शेर है।’

‘‘महाराज, ‘मेरे ऐसा कहते ही वह गुस्से से लाल-पीला होकर बोला बेवकूफ इस जंगल का राजा सिर्फ मैं हूं। यहां सब जानवर मेरी प्रजा हैं। मैं उनके साथ जैसा चाहूं वैसा कर सकता हूं। जिस मूर्ख को तुम अपना राजा कहते हो उस चोर को मेरे सामने हाजिर करो। मैं उसे बताऊंगा कि असली राजा कौन है।’ महाराज इतना कहकर उस शेर ने आपको लिवाने के लिए मुझे यहां भेज दिया।’’

खरगोश की बात सुनकर शेर को बड़ा गुस्सा आया और वह बार-बार गरजने लगा। उसकी भयानक गरज से सारा जंगल दहलने लगा। ‘‘मुझे फौरन उस मूर्ख का पता बताओ’’, शेर ने दहाड़कर कहा, ‘‘जब तक मैं उसे जान से न मार दूँगा मुझे चैन नहीं मिलेगा।’’ ‘‘बहुत अच्छा महाराज,’’ खरगोश ने कहा ‘‘मौत ही उस दुष्ट की सजा है। अगर मैं और बड़ा और मजबूत होता तो मैं खुद ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर देता।’’

‘‘चलो, ‘रास्ता दिखाओ,’’ शेर ने कहा, ‘‘फौरन बताओ किधर चलना है ?’’

‘‘इधर आइये महाराज, इधर, ‘‘खगगोश रास्ता दिखाते हुआ शेर को एक कुएँ के पास ले गया और बोला, ‘‘महाराज, वह दुष्ट शेर ज़मीन के नीचे किले में रहता है। जरा सावधान रहियेगा। किले में छुपा दुश्मन खतरनाक होता है।’’ ‘‘मैं उससे निपट लूँगा,’’ शेर ने कहा, ‘‘तुम यह बताओ कि वह है कहाँ ?’’

‘‘पहले जब मैंने उसे देखा था तब तो वह यहीं बाहर खड़ा था। लगता है आपको आता देखकर वह किले में घुस गया। आइये मैं आपको दिखाता हूँ।’’

खरगोश ने कुएं के नजदीक आकर शेर से अन्दर झांकने के लिये कहा। शेर ने कुएं के अन्दर झांका तो उसे कुएं के पानी में अपनी परछाईं दिखाई दी।

ABHAY
11-01-2011, 07:21 AM
परछाईं को देखकर शेर ज़ोर से दहाड़ा। कुएं के अन्दर से आती हुई अपने ही दहाड़ने की गूंज सुनकर उसने समझा कि दूसरा शेर भी दहाड़ रहा है। दुश्मन को तुरंत मार डालने के इरादे से वह फौरन कुएं में कूद पड़ा।

कूदते ही पहले तो वह कुएं की दीवार से टकराया फिर धड़ाम से पानी में गिरा और डूबकर मर गया। इस तरह चतुराई से शेर से छुट्टी पाकर नन्हा खरगोश घर लौटा। उसने जंगल के जानवरों को शेर के मारे जाने की कहानी सुनाई। दुश्मन के मारे जाने की खबर से सारे जंगल में खुशी फैल गई। जंगल के सभी जानवर खरगोश की जय-जयकार करने लगे।

ABHAY
11-01-2011, 07:22 AM
गजराज व मूषकराज
प्राचीन काल में एक नदी के किनारे बसा नगर व्यापार का केन्द्र था। फिर आए उस नगर के बुरे दिन, जब एक वर्ष भारी वर्षा हुई। नदी ने अपना रास्ता बदल दिया।

लोगों के लिए पीने का पानी न रहा और देखते ही देखते नगर वीरान हो गया अब वह जगह केवल चूहों के लायक रह गई। चारों ओर चूहे ही चूहे नजर आने लगे। चूहो का पूरा साम्राज्य ही स्थापित हो गया। चूहों के उस साम्राज्य का राजा बना मूषकराज चूहा। चूहों का भाग्य देखो, उनके बसने के बाद नगर के बाहर जमीन से एक पानी का स्त्रोत फूट पडा और वह एक बडा जलाशय बन गया।

नगर से कुछ ही दूर एक घना जंगल था। जंगल में अनगिनत हाथी रहते थे। उनका राजा गजराज नामक एक विशाल हाथी था। उस जंगल क्षेत्र में भयानक सूखा पडा। जीव-जन्तु पानी की तलाश में इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। भारी भरकम शरीर वाले हाथियों की तो दुर्दशा हो गई।

हाथियों के बच्चे प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाने व दम तोडने लगे। गजराज खुद सूखे की समस्या से चिंतित था और हाथियों का कष्ट जानता था। एक दिन गजराज की मित्र चील ने आकर खबर दी कि खंडहर बने नगर के दूसरी ओर एक जलाशय हैं। गजराज ने सबको तुरंत उस जलाशय की ओर चलने का आदेश दिया। सैकडों हाथी प्यास बुझाने डोलते हुए चल पडे। जलाशय तक पहुंचने के लिए उन्हें खंडहर बने नगर के बीच से गुजरना पडा।

हाथियों के हजारों पैर चूहों को रौंदते हुए निकल गए। हजारों चूहे मारे गए। खंडहर नगर की सडकें चूहों के खून-मांस के कीचड से लथपथ हो गई। मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई। हाथियों का दल फिर उसी रास्ते से लौटा। हाथी रोज उसी मार्ग से पानी पीने जाने लगे।

ABHAY
11-01-2011, 07:22 AM
काफी सोचने-विचारने के बाद मूषकराज के मंत्रियों ने कहा “महाराज, आपको ही जाकर गजराज से बात करनी चाहिए। वह दयालु हाथी हैं।” मूषकराज हाथियों के वन में गया। एक बडे पेड के नीचे गजराज खडा था।

मूषकराज उसके सामने के बडे पत्थर के ऊपर चढा और गजराज को नमस्कार करके बोला “गजराज को मूषकराज का नमस्कार। हे महान हाथी, मैं एक निवेदन करना चाहता हूं।”

आवाज गजराज के कानों तक नहीं पहुंच रही थी। दयालु गजराज उसकी बात सुनने के लिए नीचे बैठ गया और अपना एक कान पत्थर पर चढे मूषकराज के निकट ले जाकर बोला “नन्हें मियां, आप कुछ कह रहे थे। कॄपया फिर से कहिए।”

मूषकराज बोला “हे गजराज, मुझे चूहा कहते हैं। हम बडी संख्या में खंडहर बनी नगरी में रहते हैं। मैं उनका मूषकराज हूं। आपके हाथी रोज जलाशय तक जाने के लिए नगरी के बीच से गुजरते हैं। हर बार उनके पैरों तले कुचले जाकर हजारों चूहे मरते हैं। यह मूषक संहार बंद न हुआ तो हम नष्ट हो जाएंगे।”

गजराज ने दुख भरे स्वर में कहा “मूषकराज, आपकी बात सुन मुझे बहुत शोक हुआ। हमें ज्ञान ही नहीं था कि हम इतना अनर्थ कर रहे हैं। हम नया रास्ता ढूढ लेंगे।”

मूषकराज कॄतज्ञता भरे स्वर में बोला “गजराज, आपने मुझ जैसे छोटे जीव की बात ध्यान से सुनी। आपका धन्यवाद। गजराज, कभी हमारी जरुरत पडे तो याद जरुर कीजिएगा।”

ABHAY
11-01-2011, 07:23 AM
गजराज ने सोचा कि यह नन्हा जीव हमारे किसी काम क्या आएगा। सो उसने केवल मुस्कुराकर मूषकराज को विदा किया। कुछ दिन बाद पडौसी देश के राजा ने सेना को मजबूत बनाने के लिए उसमें हाथी शामिल करने का निर्णय लिया। राजा के लोग हाथी पकडने आए। जंगल में आकर वे चुपचाप कई प्रकार के जाल बिछाकर चले जाते हैं। सैकडों हाथी पकड लिए गए। एक रात हाथियों के पकडे जाने से चिंतित गजराज जंगल में घूम रहे थे कि उनका पैर सूखी पत्तियों के नीचे छल से दबाकर रखे रस्सी के फंदे में फंस जाता हैं। जैसे ही गजराज ने पैर आगे बढाया रस्सा कस गया। रस्से का दूसरा सिरा एक पेड के मोटे तने से मजबूती से बंधा था। गजराज चिंघाडने लगा। उसने अपने सेवकों को पुकारा, लेकिन कोई नहीं आया।कौन फंदे में फंसे हाथी के निकट आएगा? एक युवा जंगली भैंसा गजराज का बहुत आदर करता था। जब वह भैंसा छोटा था तो एक बार वह एक गड्ढे में जा गिरा था। उसकी चिल्लाहट सुनकर गजराज ने उसकी जाअन बचाई थी। चिंघाड सुनकर वह दौडा और फंदे में फंसे गजराज के पास पहुंचा। गजराज की हालत देख उसे बहुत धक्का लगा। वह चीखा “यह कैसा अन्याय हैं? गजराज, बताइए क्या करुं? मैं आपको छुडाने के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं।”

गजराज बोले “बेटा, तुम बस दौडकर खंडहर नगरी जाओ और चूहों के राजा मूषकराजा को सारा हाल बताना। उससे कहना कि मेरी सारी आस टूट चुकी हैं।

भैंसा अपनी पूरी शक्ति से दौडा-दौडा मूषकराज के पास गया और सारी बात बताई। मूषकराज तुरंत अपने बीस-तीस सैनिकों के साथ भैंसे की पीठ पर बैठा और वो शीघ्र ही गजराज के पास पहुंचे। चूहे भैंसे की पीठ पर से कूदकर फंदे की रस्सी कुतरने लगे। कुछ ही देर में फंदे की रस्सी कट गई व गजराज आजाद हो गए।

सीखः आपसी सदभाव व प्रेम सदा एक दूसरे के कष्टों को हर लेते हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:24 AM
गधा रहा गधा ही
एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड उसका सेवक था। जोडी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड जैसे चमचे की सख्त जरुरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड को बस खाने का जुगाड चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फूलकर दुगना चौडा हो जाता।

एक दिन शेर ने एक बिगडैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सीगों से एक पेड के साथ रगड दिया।

किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगो की मार से काफी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परन्तु शेर के जख्म टीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड के बस का नहीं था। दोनों के भूखों मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड समाप्त होने के कारण गीदड उसका साथ न छोड जाए।

शेर ने एक दिन उसे सुझाया “देख, जख्मों के कारण मैं दौड नहीं सकता। शिकार कैसे करुं? तु जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाडी में छिपा रहूंगा।”

गीदड को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।

ABHAY
11-01-2011, 07:25 AM
गीदड गधे के निकट जाकर बोला “पांय लागूं चाचा। बहुत कमजोर हो अए हो, क्या बात हैं?”

गधे ने अपना दुखडा रोया “क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर हैं। दिन भर ढुलाई करवाता हैं और चारा कुछ देता नहीं।”

गीदड ने उसे न्यौता दिया “चाचा, मेरे साथ जंगल चलो न, वहां बहुत हरी-हरी घास हैं। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।”

गधे ने कान फडफडाए “राम राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।”

“चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।” गीदड बोला और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका “चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी=हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई हैं तुम उसके साथ घर बसा लेना।”

गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड गधे को उसी झाडी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था।इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाडी में शेर की नीली बत्तियों की टरह चमकती आंखे नजर आ गईं। वह डरकर उछला गधा भागा और भागताही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड से बोला “भई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार गलती नहीं होगी।”

ABHAY
11-01-2011, 07:25 AM
गीदड दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला “चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?”

“उस झाडी में मुझे दो चमकती आंखे दिखाई दी थी, जैसे शेर की होती हैं। मैं भागता न तो क्या करता?” गधे ने शिकायत की।

गीदड झूठमूठ माथा पीटकर बोला “चाचा ओ चाचा! तुम भी निरे मूर्ख हो। उस झाडी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आंखे चमक उठी तो तुमने उसे शेर समझ लिया?”

गधा बहुत लज्जित हुआ, गीदड की चाल-भरी बातें ही ऐसी थी। गधा फिर उसके साथ चल पडा। जंगल में झाडी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजो से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड का भोजन जुटा।
सीखः दूसरों की चिकनी-चुपडी बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करनी चाहिए।

ABHAY
11-01-2011, 07:26 AM
गोलू-मोलू और भालू
गोलू-मोलू और पक्के दोस्त थे। गोलू जहां दुबला-पतला था, वहीं मोलू मोटा गोल-मटोल। दोनों एक-दूसरे पर जान देने का दम भरते थे, लेकिन उनकी जोड़ी देखकर लोगों की हंसी छूट जाती। एक बार उन्हें किसी दूसरे गांव में रहने वाले मित्र का निमंत्रण मिला। उसने उन्हें अपनी बहन के विवाह के अवसर पर बुलाया था।

उनके मित्र का गांव कोई बहुत दूर तो नहीं था लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए जंगल से होकर गुजरना पड़ता था। और उस जंगल में जंगली जानवरों की भरमार थी।

दोनों चल दिए…जब वे जंगल से होकर गुजर रहे थे तो उन्हें सामने से एक भालू आता दिखा। उसे देखकर दोनों भय से थर-थर कांपने लगे। तभी दुबला-पतला गोलू तेजी से दौड़कर एक पेड़ पर जा चढ़ा, लेकिन मोटा होने के कारण मोलू उतना तेज नहीं दौड़ सकता था। उधर भालू भी निकट आ चुका था, फिर भी मोलू ने साहस नहीं खोया। उसने सुन रखा था कि भालू मृत शरीर को नहीं खाते। वह तुरंत जमीन पर लेट गये और सांस रोक ली। ऐसा अभिनय किया कि मानो शरीर में प्राण हैं ही नहीं। भालू घुरघुराता हुआ मोलू के पास आया, उसके चेहरे व शरीर को सूंघा और उसे मृत समझकर आगे बढ़ गया।

जब भालू काफी दूर निकल गया तो गोलू पेड़ से उतरकर मोलू के निकट आया और बोला, ‘‘मित्र, मैंने देखा था….भालू तुमसे कुछ कह रहा था। क्या कहा उसने ?’’

ABHAY
11-01-2011, 07:27 AM
मोलू ने गुस्से में भरकर जवाब दिया, ‘‘मुझे मित्र कहकर न बुलाओ…और ऐसा ही कुछ भालू ने भी मुझसे कहा। उसने कहा, गोलू पर विश्वास न करना, वह तुम्हारा मित्र नहीं है।’’

सुनकर गोलू शर्मिन्दा हो गया। उसे अभ्यास हो गया था कि उससे कितनी भारी भूल हो गई थी। उसकी मित्रता भी सदैव के लिए समाप्त हो गई। शिक्षा—सच्चा मित्र वही है जो संकट के काम आए।

ABHAY
11-01-2011, 07:28 AM
घंटीधारी ऊंट
एक बार की बात हैं कि एक गांव में एक जुलाहा रहता था। वह बहुत गरीब था। उसकी शादी बचपन में ही हो गई ती। बीवी आने के बाद घर का खर्चा बढना था। यही चिन्ता उसे खाए जाती। फिर गांव में अकाल भी पडा। लोग कंगाल हो गए। जुलाहे की आय एकदम खत्म हो गई। उसके पास शहर जाने के सिवा और कोई चारा न रहा।

शहर में उसने कुछ महीने छोटे-मोटे काम किए। थोडा-सा पैसा अंटी में आ गया और गांव से खबर आने पर कि अकाल समाप्त हो गया हैं, वह गांव की ओर चल पडा। रास्ते में उसे एक जगह सडक किनारे एक ऊंटनी नजर आई। ऊटंनी बीमार नजर आ रही थी और वह गर्भवती थी। उसे ऊंटनी पर दया आ गई। वह उसे अपने साथ अपने घर ले आया।

घर में ऊंटनी को ठीक चारा व घास मिलने लगी तो वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और समय आने पर उसने एक स्वस्थ ऊंट अच्चे को जन्म दिया। ऊंट बच्चा उसके लिए बहुत भाग्यशाली साबित हुआ। कुछ दिनों बाद ही एक कलाकार गांव के जीवन पर चित्र बनाने उसी गांव में आया। पेंटिंग के ब्रुश बनाने के लिए वह जुलाहे के घर आकर ऊंट के बच्चे की दुम के बाल ले जाता। लगभग दो सप्ताह गांव में रहने के बाद चित्र बनाकर कलाकार चला गया।

इधर ऊंटनी खूब दूध देने लगी तो जुलाहा उसे बेचने लगा। एक दिन वहा कलाकार गांव लौटा और जुलाहे को काफी सारे पैसे दे गया, क्योंकि कलाकार ने उन चित्रों से बहुत पुरस्कार जीते थे और उसके चित्र अच्छी कीमतों में बिके थे। जुलाहा उस ऊंट बच्चे को अपना भाग्य का सितारा मानने लगा। कलाकार से मिली राशी के कुछ पैसों से उसने ऊंट के गले के लिए सुंदर-सी घंटी खरीदी और पहना दी। इस प्रकार जुलाहे के दिन फिर गए। वह अपनी दुल्हन को भी एक दिन गौना करके ले आया।

ABHAY
11-01-2011, 07:30 AM
ऊंटों के जीवन में आने से जुलाहे के जीवन में जो सुख आया, उससे जुलाहे के दिल में इच्छा हुई कि जुलाहे का धंधा छोड क्यों न वह ऊंटों का व्यापारी ही बन जाए। उसकी पत्नी भी उससे पूरी तरह सहमत हुई। अब तक वह भी गर्भवती हो गई थी और अपने सुख के लिए ऊंटनी व ऊंट बच्चे की आभारी थी।

जुलाहे ने कुछ ऊंट खरीद लिए। उसका ऊंटों का व्यापार चल निकला।अब उस जुलाहे के पास ऊंटों की एक बडी टोली हर समय रहती। उन्हें चरने के लिए दिन को छोड दिया जाता। ऊंट बच्चा जो अब जवान हो चुका था उनके साथ घंटी बजाता जाटा।

एक दिन घंटीधारी की तरह ही के एक युवा ऊंट ने उससे कहा “भैया! तुम हमसे दूर-दूर क्यों रहते हो?”

घंटीधारी गर्व से बोला “वाह तुम एक साधारण ऊंट हो। मैं घंटीधारी मालिक का दुलारा हूं। मैं अपने से ओछे ऊंटों में शामिल होकर अपना मान नहीं खोना चाहता।”

उसी क्षेत्र में वन में एक शेर रहता था। शेर एक ऊंचे पत्थर पर चढकर ऊंटों को देखता रहता था। उसे एक ऊंट और ऊंटों से अलग-थलग रहता नजर आया। जब शेर किसी जानवर के झुंड पर आक्रमण करता हैं तो किसी अलग-थलग पडे को ही चुनता हैं। घंटीधारी की आवाज के कारण यह काम भी सरल हो गया था। बिना आंखों देखे वह घंटी की आवाज पर घात लगा सकता था।

दूसरे दिन जब ऊंटों का दल चरकर लौट रहा था तब घंटीधारी बाकी ऊंटों से बीस कदम पीछे चल रहा था। शेर तो घात लगाए बैठा ही था। घंटी की आवाज को निशाना बनाकर वह दौडा और उसे मारकर जंगल में खींच ले गया। ऐसे घंटीधारी के अहंकार ने उसके जीवन की घंटी बजा दी।

सीखः जो स्वयं को ही सबसे श्रेष्ठ समझता हैं उसका अहंकार शीघ्र ही उसे ले डूबता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:30 AM
चापलूस मंडली
जंगल में एक शेर रहता था। उसके चार सेवक थे चील, भेडिया, लोमडी और चीता। चील दूर-दूर तक उडकर समाचार लाती। चीता राजा का अंगरक्षक था। सदा उसके पीछे चलता। लोमडी शेर की सैक्रेटरी थी। भेडिया गॄहमंत्री था। उनका असली काम तो शेर की चापलूसी करना था। इस काम में चारों माहिर थे। इसलिए जंगल के दूसरे जानवर उन्हें

चापलूस मंडली कहकर पुकारते थे। शेर शिकार करता। जितना खा सकता वह खाकर बाकी अपने सेवकों के लिए छोड जाया करता था। उससे मजे में चारों का पेट भर जाता। एक दिन चील ने आकर चापलूस मंडली को सूचना दी “भाईयो! सडक के किनारे एक ऊंट बैठा हैं।”

भेडिया चौंका “ऊंट! किसी काफिले से बिछुड गया होगा।”

चीते ने जीभ चटकाई “हम शेर को उसका शिकार करने को राजी कर लें तो कई दिन दावत उडा सकते हैं।”

लोमडी ने घोषणा की “यह मेरा काम रहा।”

लोमडी शेर राजा के पास गई और अपनी जुबान में मिठास घोलकर बोली “महाराज, दूत ने खबर दी हैं कि एक ऊंट सडक किनारे बैठा हैं। मैंने सुना हैं कि मनुष्य के पाले जानवर का मांस का स्वाद ही कुछ और होता हैं। बिल्कुल राजा-महाराजाओं के काबिल। आप आज्ञा दें तो आपके शिकार का ऐलान कर दूं?”

ABHAY
11-01-2011, 07:31 AM
शेर लोमडी की मीठी बातों में आ गया और चापलूस मंडली के साथ चील द्वारा बताई जगह जा पहुंचा। वहां एक कमजोर-सा ऊंट सडक किनारे निढाल बैठा था। उसकी आंखें पीली पड चुकी थीं। उसकी हालत देखकर शेर ने पूछा “क्यों भाई तुम्हारी यह हालात कैसे हुई?”

ऊंट कराहता हुआ बोला “जंगल के राजा! आपको नहीं पता इंसान कितना निर्दयी होता हैं। मैं एक ऊंटो के काफिले में एक व्यापार माल ढो रहा था। रास्ते में मैं बीमार पड गया। माल ढोने लायक नहीं उसने मुझे यहां मरने के लिए छोड दिया। आप ही मेरा शिकार कर मुझे मुक्ति दीजिए।”

ऊंट की कहानी सुनकर शेर को दुख हुआ। अचानक उसके दिल में राजाओं जैसी उदारता दिखाने की जोरदार इच्छा हुई। शेर ने कहा “ऊंट, तुम्हें कोई जंगली जानवर नहीं मारेगा। मैं तुम्हें अभय देता हूं। तुम हमारे साथ चलोगे और उसके बाद हमारे साथ ही रहोगे।”

चापलूस मंडली के चेहरे लटक गए। भेडिया फुसफुसाया “ठीक हैं। हम बाद में इसे मरवाने की कोई तरकीब निकाल लेंगे। फिलहाल शेर का आदेश मानने में ही भलाई हैं।”

इस प्रकार ऊंट उनके साथ जंगल में आया। कुछ ही दिनों में हरी घास खाने व आरम करने से वह स्वस्थ हो गया। शेर राजा के प्रति वह ऊंट बहुत कॄतज्ञ हुआ। शेर को भी ऊंट का निस्वार्थ प्रेम और भोलापन भाने लगा। ऊंट के तगडा होने पर शेर की शाही सवारी ऊंट के ही आग्रह पर उसकी पीठ पर निकलने लगी लगी वह चारों को पीठ पर बिठाकर चलता।

एक दिन चापलूस मंडली के आग्रह पर शेर ने हाथी पर हमला कर दिया। दुर्भाग्य से हाथी पागल निकला। शेर को उसने सूंड से उठाकर पटक दिया। शेर उठकर बच निकलने में सफल तो हो गया, पर उसे चोंटें बहुत लगीं।

ABHAY
11-01-2011, 07:32 AM
शेर लाचार होकर बैठ गया। शिकार कौन करता? कई दिन न शेर ने ने कुछ खाया और न सेवकों ने। कितने दिन भूखे रहा जा सकता हैं? लोमडी बोली “हद हो गई। हमारे पास एक मोटा ताजा ऊंट हैं और हम भूखे मर रहे हैं।”

चीते ने ठंडी सांस भरी “क्या करें? शेर ने उसे अभयदान जो दे रखा हैं। देखो तो ऊंट की पीठ का कूबड कितना बडा हो गया हैं। चर्बी ही चर्बी भरी हैं इसमें।”

भेडिए के मुंह से लार टपकने लगी “ऊंट को मरवाने का यही मौका हैं दिमाग लडाकर कोई तरकीब सोचो।”

लोमडी ने धूर्त स्वर में सूचना दी “तरकीब तो मैंने सोच रखी हैं। हमें एक नाटक करना पडेगा।”

सब लोमडी की तरकीब सुनने लगे। योजना के अनुसार चापलूस मंडली शेर के पास गई। सबसे पहले चील बोली “महाराज, आपको भूखे पेट रहकर मरना मुझसे नहीं देखा जाता। आप मुझे खाकर भूख मिटाइए।”

लोमडी ने उसे धक्का दिया “चल हट! तेरा मांस तो महाराज के दांतों में फंसकर रह जाएगाअ। महाराज, आप मुझे खाइए।”

भेडिया बीच में कूदा “तेरे शरीर में बालों के सिवा हैं ही क्या? महाराज! मुझे अपना भोजन बनाएंगे।”

अब चीता बोला “नहीं! भेडिए का मांस खाने लायक नहीं होता। मालिक, आप मुझे खाकर अपनी भूख शांत कीजिए।”

चापलूस मंडली का नाटक अच्छा था। अब ऊंट को तो कहना ही पडा “नहीं महाराज, आप मुझे मारकर खा जाइए। मेरा तो जीवन ही आपका दान दिया हुआ हैं। मेरे रहते आप भूखों मरें, यह नहीं होगा।”

ABHAY
11-01-2011, 07:32 AM
चापलूस मंडली तो यहीं चाहती थी। सभी एक स्वर में बोले “यही ठीक रहेगा, महाराज! अब तो ऊंट खुद ही कह रहा हैं।”

चीता बोला “महाराज! आपको संकोच हो तो हम इसे मार दें?”

चीता व भेडिया एक साथ ऊंट पर टूट पडे और ऊंट मारा गया।

सीखः चापलूसों की दोस्ती हमेशा खतरनाक होती हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:33 AM
झगडालू मेढक
एक कुएं में बहुत से मेढक रहते थे। उनके राजा का नाम था गंगदत्त। गंगदत्त बहुत झगडालू स्वभाव का था। आसपास दो तीन और भी कुएं थे। उनमें भी मेढक रहते थे। हर कुएं के मेढकों का अपना राजा था। हर राजा से किसी न किसी बात पर गंगदत्त का झगडा चलता ही रहता था। वह अपनी मूर्खता से कोई गलत काम करने लगता और बुद्धिमान मेढक रोकने की कोशिश करता तो मौका मिलते ही अपने पाले गुंडे मेढकों से पिटवा देता। कुएं के मेढकों में भीतर गंगदत्त के प्रति रोष बढता जा रहा था। घर में भी झगडों से चैन न था। अपनी हर मुसीबत के लिए दोष देता।

एक दिन गंगदत्त पडौसी मेढक राजा से खूब झगडा। खूब तू-तू मैं-मैं हुई। गंगदत्त ने अपने कुएं आकर बताया कि पडौसी राजा ने उसका अपमान किया हैं। अपमान का बदला लेने के लिए उसने अपने मेढकों को आदेश दिया कि पडौसी कुएं पर हमला करें सब जानते थे कि झगडा गंगदत्त ने ही शुरु किया होगा।

कुछ स्याने मेढकों तथा बुद्धिमानों ने एकजुट होकर एक स्वर में कहा “राजन, पडौसी कुएं में हमसे दुगने मेढक हैं। वे स्वस्थ व हमसे अधिक ताकतवर हैं। हम यह लडाई नहीं लडेंगे।”

गंगदत्त सन्न रह गया और बुरी तरह तिलमिला गया। मन ही मन में उसने ठान ली कि इन गद्दारों को भी सबक सिखाना होगा। गंगदत्त ने अपने बेटों को बुलाकर भडकाया “बेटा, पडौसी राजा ने तुम्हारे पिताश्री का घोर अपमान किया हैं। जाओ, पडौसी राजा के बेटों की ऐसी पिटाई करो कि वे पानी मांगने लग जाएं।”

गंगदत्त के बेटे एक दूसरे का मुंह देखने लगे। आखिर बडे बेटे ने कहा “पिताश्री, आपने कभी हमें टर्राने की इजाजत नहीं दी। टर्राने से ही मेढकों में बल आता हैं, हौसला आता हैं और जोश आता हैं। आप ही बताइए कि बिना हौसले और जोश के हम किसी की क्या पिटाई कर पाएंगे?”

ABHAY
11-01-2011, 07:34 AM
अब गंगदत्त सबसे चिढ गया। एक दिन वह कुढता और बडबडाता कुएं से बाहर निकल इधर-उधर घूमने लगा। उसे एक भयंकर नाग पास ही बने अपने बिल में घुसता नजर आया। उसकी आंखें चमकी। जब अपने दुश्मन बन गए हो तो दुश्मन को अपना बनाना चाहिए। यह सोच वह बिल के पास जाकर बोला “नागदेव, मेरा प्रणाम।”

नागदेव फुफकारा “अरे मेढक मैं तुम्हारा बैरी हूं। तुम्हें खा जाता हूं और तू मेरे बिल के आगे आकर मुझे आवाज दे रहा हैं।

गंगदत्त टर्राया “हे नाग, कभी-कभी शत्रुओं से ज्यादा अपने दुख देने लगते हैं। मेरा अपनी जाति वालों और सगों ने इतना घोर अपमान किया हैं कि उन्हें सबक सिखाने के लिए मुझे तुम जैसे शत्रु के पास सहायता मांगने आना पडा हैं। तुम मेरी दोस्ती स्वीकार करो और मजे करो।”

नाग ने बिल से अपना सिर बाहर निकाला और बोला “मजे, कैसे मजे?”

गंगदत्त ने कहा “मैं तुम्हें इतने मेढक खिलाऊंगा कि तुम मुटाते-मुटाते अजगर बन जाओगे।”

नाग ने शंका व्यक्त की “पानी में मैं जा नहीं सकता। कैसे पकडूंगा मेडक?”

गंगदत्त ने ताली बजाई “नाग भाई, यहीं तो मेरी दोस्ती तुम्हारे काम आएगी। मैने पडौसी राजाओं के कुओं पर नजर रखने के लिए अपने जासूस मेडकों से गुप्त सुरंगें खुदवा रखी हैं। हर कुएं तक उनका रास्ता जाता हैं। सुरंगें जहां मिलती हैं। वहां एक कक्ष हैं। तुम वहां रहना और जिस-जिस मेढक को खाने के लिए कहूं, उन्हें खाते जाना।”

ABHAY
11-01-2011, 07:34 AM
नाग गंगदत्त से दोस्ती के लिए तैयार हो गया। क्योंकि उसमें उसका लाभ ही लाभ था। एक मूर्ख बदले की भावना में अंधे होकर अपनों को दुशमन के पेट के हवाले करने को तैयार हो तो दुश्मन क्यों न इसका लाभ उठाए?

नाग गंगदत्त के साथ सुरंग कक्ष में जाकर बैठ गया। गंगदत्त ने पहले सारे पडौसी मेढक राजाओं और उनकी प्रजाओं को खाने के लिए कहा। नाग कुछ सप्ताहों में सारे दूसरे कुओं के मेढक सुरंगों के रास्ते जा-जाकर खा गया। जब सब समाप्त हो गए तो नाग गंगदत्त से बोला “अब किसे खाऊं? जल्दी बता। चौबीस घंटे पेट फुल रखने की आदत पड गई हैं।”

गंगदत्त ने कहा “अब मेरे कुए के सभी स्यानों और बुद्धिमान मेढकों को खाओ।”

वह खाए जा चुके तो प्रजा की बारी आई। गंगदत्त ने सोचा “प्रजा की ऐसी तैसी। हर समय कुछ न कुछ शिकायत करती रहती हैं। उनको खाने के बाद नाग ने खाना मांगा तो गंगदत्त बोला “नागमित्र, अब केवल मेरा कुनबा और मेरे मित्र बचे हैं। खेल खत्म और मेढक हजम।”

नाग ने फन फैलाया और फुफकारने लगा “मेढक, मैं अब कहीं नही जाने का। तू अब खाने का इंतजाम कर वर्ना हिस्स।”

गंगदत्त की बोलती बंद हो गई। उसने नाग को अपने मित्र खिलाए फिर उसके बेटे नाग के पेट में गए। गंगदत्त ने सोचा कि मैं और मेढकी जिन्दा रहे तो बेटे और पैदा कर लेंगे। बेटे खाने के बाद नाग फुफकारा “और खाना कहां हैं? गंगदत्त ने डरकर मेढकी की ओर इशार किया। गंगदत्त ने स्वयं के मन को समझाया “चलो बूढी मेढकी से छुटकारा मिला। नई जवान मेढकी से विवाह कर नया संसार बसाऊंगा।”

ABHAY
11-01-2011, 07:35 AM
मेढकी को खाने के बाद नाग ने मुंह फाडा “खाना।”

गंगदत्त ने हाथ जोडे “अब तो केवल मैं बचा हूं। तुम्हारा दोस्त गंगदत्त । अब लौट जाओ।”

नाग बोला “तू कौन-सा मेरा मामा लगता हैं और उसे हडप गया।

सीखः अपनो से बदला लेने के लिए जो शत्रु का साथ लेता हैं उसका अंत निश्चित हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:35 AM
झूठी शान
एक जंगल में पहाड की चोटी पर एक किला बना था। किले के एक कोने के साथ बाहर की ओर एक ऊंचा विशाल देवदार का पेड था। किले में उस राज्य की सेना की एक टुकडी तैनात थी। देवदार के पेड पर एक उल्लू रहता था। वह भोजन की तलाश में नीचे घाटी में फैले ढलवां चरागाहों में आता। चरागाहों की लम्बी घासों व झाडियों में कई छोटे-मोटे जीव व कीट-पतंगे मिलते, जिन्हें उल्लू भोजन बनाता। निकट ही एक बडी झील थी, जिसमें हंसो का निवास था। उल्लू पेड पर बैठा झील को निहारा करता। उसे हंसों का तैरना व उडना मंत्रमुग्ध करता। वह सोचा करता कि कितना शानदार पक्षी हैं हंस। एकदम दूध-सा सफेद, गुलगुला शरीर, सुराहीदार गर्दन, सुंदर मुख व तेजस्वी आंखे। उसकी बडी इच्छा होती किसी हंस से उसकी दोस्ती हो जाए।

एक दिन उल्लू पानी पीने के बहाने झील के किनारे उगी एक झाडी पर उतरा। निकट ही एक बहुत शालीन व सौम्य हंस पानी में तैर रहा था। हंस तैरता हुआ झाडी के निकट आया।

उल्लू ने बात करने का बहाना ढूंढा “हंस जी, आपकी आज्ञा हो तो पानी पी लूं। बडी प्यास लगी हैं।”

हंस ने चौंककर उसे देखा और बोला “मित्र! पानी प्रकॄति द्वारा सबको दिया गया वरदान हैं। एस पर किसी एक का अधिकार नहीं।”

उल्लू ने पानी पीया। फिर सिर हिलाया जैसे उसे निराशा हुई हो। हंस ने पूछा “मित्र! असंतुष्टनजर आते हो। क्या प्यास नहीं बुझी?”

उल्लू ने कहा “हे हंस! पानी की प्यास तो बुझ गई पर आपकी बतो से मुझे ऐसा लगा कि आप नीति व ज्ञान के सागर हैं। मुझमें उसकी प्यास जग गई हैं। वह कैसे बुझेगी?”

ABHAY
11-01-2011, 07:37 AM
हंस मुस्कुराया “मित्र, आप कभी भी यहां आ सकते हैं। हम बातें करेंगे। इस प्रकार मैं जो जानता हूं, वह आपका हो जाएगा और मैं भी आपसे कुछ सीखूंगा।”

इसके पश्चात हंस व उल्लू रोज मिलने लगे। एक दिन हंस ने उल्लू को बता दिया कि वह वास्तव में हंसों का राजा हंसराज हैं। अपना असली परिचय देने के बाद। हंस अपने मित्र को निमन्त्रण देकर अपने घर ले गया। शाही ठाठ थे। खाने के लिए कमल व नरगिस के फूलों के व्यंजन परोसे गए और जाने क्या-क्या दुर्लभ खाद्य थे, उल्लू को पता ही नहीं लगा। बाद में सौंफ-इलाइची की जगह मोती पेश किए गए। उल्लू दंग रह गया।

अब हंसराज उल्लू को महल में ले जाकर खिलाने-पिलाने लगा। रोज दावत उडती। उसे डर लगने लगा कि किसी दिन साधारण उल्लू समझकर हंसराज दोस्ती न तोड ले।

इसलिए स्वयं को कंसराज की बराबरी का बनाए रखने के लिए उसने झूठमूठ कह दिया कि वह भी उल्लूओं का राजा उल्लूक राज हैं। झूठ कहने के बाअद उल्लू को लगा कि उसका भी फर्ज बनता हैं कि हंसराज को अपने घर बुलाए।

एक दिन उल्लू ने दुर्ग के भीतर होने वाली गतिविधियों को गौर से देखा और उसके दिमाग में एक युक्ति आई। उसने दुर्ग की बातों को खूब ध्यान से समझा। सैनिकों के कार्यक्रम नोट किए। फिर वह चला हंस के पास। जब वह झील पर पहुंचा, तब हंसराज कुछ हंसनियों के साथ जल में तैर रहा था। उल्लू को देखते ही हंस बोला “मित्र, आप इस समय?”

उल्लू ने उत्तर दिया “हां मित्र! मैं आपको आज अपना घर दिखाने व अपना मेहमान बनाने के लिए ले जाने आया हूं। मैं कई बार आपका मेहमान बना हूं। मुझे भी सेवा का मौका दो।”

ABHAY
11-01-2011, 07:37 AM
हंस ने टालना चाहा “मित्र, इतनी जल्दी क्या हैं? फिर कभी चलेंगे।”

उल्लू ने कहा “आज तो आपको लिए बिना नहीं जाऊंगा।”

हंसराज को उल्लू के साथ जाना ही पडा।

पहाड की चोटी पर बने किले की ओर इशारा कर उल्लू उडते-उडते बोला “वह मेरा किला हैं।” हंस बडा प्रभावित हुआ। वे दोनों जब उल्लू के आवास वाले पेड पर उतरे तो किले के सैनिकों की परेड शुरु होने वाली थी। दो सैनिक बुर्ज पर बिगुल बजाने लगे। उल्लू दुर्ग के सैनिकों के रिज के कार्यक्रम को याद कर चुका था इसलिए ठीक समय पर हंसराज को ले आया था।उल्लू बोला “देखो मित्र, आपके स्वागत में मेरे सैनिक बिगुल बजा रहे हैं। उसके बाद मेरी सेना परेड और सलामी देकर आपको सम्मानित करेगी।”

नित्य की तरह परेड हुई और झंडे को सलामी दी गयी। हंस समझा सचमुच उसी के लिए यह सब हो रहा हैं। अतः हंस ने गदगद होकर कहा “धन्य हो मित्र। आप तो एक शूरवीर राजा की भांति ही राज कर रहे हो।”

उल्लू ने हंसराज पर रौब डाला “मैंने अपने सैनिकों को आदेश दिया हैं कि जब तक मेरे परम मित्र राजा हंसराज मेरे अतिथि हैं, तब तक इसी प्रकार रोज बिगुल बजे व सैनिकों की परेड निकले।”

ABHAY
11-01-2011, 07:38 AM
उल्लू को पता था कि सैनिकों का यह रोज का काम हैं। दैनिक नियम हैं। हंस को उल्लू ने फल, अखरोट व बनफशा के फूल खिलाए। उनको वह पहले ही जमा कर चुका था। भोजन का महत्व नहीं रह गया। सैनिकों की परेड का जादू अपना काम कर चुका था। हंसराज के दिल में उल्लू मित्र के लिए बहुत सम्मान पैदा हो चुका था।

उधर सैनिक टुकडी को वहां से कूच करने के आदेश मिल चुके थे। दूसरे दिन सैनिक अपना सामान समेटकर जाने लगे तो हंस ने कहा “मित्र, देखो आपके सैनिक आपकी आज्ञा लिए बिना कहीं जा रहे हैं।

उल्लू हडबडाकर बोला ” किसी ने उन्हें गलत आदेश दिया होगा। मैं अभी रोकता हूं उन्हें।” ऐसा कह वह ‘हूं हूं’ करने लगा।

सैनिकों ने उल्लू का घुघुआना सुना व अपशकुन समझकर जाना स्थगित कर दिया। दूसरे दिन फिर वही हुआ। सैनिक जाने लगे तो उल्लू घुघुआया। सैनिकों के नायक ने क्रोधित होकर सैनिकों को मनहूस उल्लू को तीर मारने का आदेश दिया। एक सैनिक ने तीर छोडा। तीर उल्लू की बगल में बैठे हंस को लगा। वह तीर खाकर नीचे गिरा व फडफडाकर मर गया। उल्लू उसकी लाश के पास शोकाकुल हो विलाप करने लगा “हाय, मैंने अपनी झूठी शान के चक्कर में अपना परम मित्र खो दिया। धिक्कार हैं मुझे।”

उल्लू को आसपास की खबर से बेसुध होकर रोते देखकर एक सियार उस पर झपटा और उसका काम तमाम कर दिया।

सीखः झूठी शान बहुत महंगी पडती हैं। कभी भी झूठी शान के चक्कर में मत पडो।

ABHAY
11-01-2011, 07:38 AM
ढोंगी सियार
मिथिला के जंगलों में बहुत समय पहले एक सियार रहता था। वह बहुत आलसी था। पेट भरने के लिए खरगोशों व चूहों का पीछा करना व उनका शिकार करना उसे बडा भारी लगता था। शिकार करने में परिश्रम तो करना ही पडता हैं न। दिमाग उसका शैतानी था। यही तिकडम लगाता रहता कि कैसे ऐसी जुगत लडाई जाए जिससे बिना हाथ-पैर हिलाए भोजन मिलता रहे। खाया और सो गए। एक दिन उसी सोच में डूबा वह सियार एक झाडी में दुबका बैठा था।

बाहर चूहों की टोली उछल-कूद व भाग-दौड करने में लगी थी। उनमें एक मोटा-सा चूह था, जिसे दूसरे चूहे ‘सरदार’ कहकर बुला रहे थे और उसका आदेश मान रहे थे। सियार उन्हें देखता रहा। उसके मुंह से लार टपकती रही। फिर उसके दिमाग में एक तरकीब आई।

जब चूहे वहां से गए तो उसने दबे पांव उनका पीछा किया। कुछ ही दूर उन चूहों के बिल थे। सियार वापस लौटा। दूसरे दिन प्रातः ही वह उन चूहों के बिल के पास जाकर एक टांग पर ख्डा हो गया। उसका मुंह उगते सूरज की ओर था। आंखे बंद थी।

चूहे बोलों से निकले तो सियार को उस अनोखी मुद्रा में खडे देखकर वे बहुत चकित हुए। एक चूहे ने जरा सियार के निकट जाकर पूछा “सियार मामा, तुम इस प्रकार एक टांग पर क्यों खडे हो?”

सियार ने एक आंख खोलकर बोला “मूर्ख, तुने मेरे बारे में नहीं सुना कभी? मैं चारों टांगें नीचे टिका दूंगा तो धरती मेरा बोझ नहीं सम्भाल पाएगी। यह डोल जाएगी। साथ ही तुम सब नष्ट हो जाओगे। तुमहारे ही कल्याण के लिए मुझे एक टांग पर खडे रहना पडता हैं।”

ABHAY
11-01-2011, 07:39 AM
चूहों में खुसर-पुसर हुई। वे सियार के निकट आकर खडे हो गए। चूहों के सरदार ने कहा “हे महान सियार, हमें अपने बारे में कुछ बताइए।”

सियार ने ढोंग रचा “मैने सैकडों वर्ष हिमालय पर्वत पर एक टांग पर खडे होकर तपस्या की। मेरी तपस्या समाप्त होने पर एक टांग पर खडे होकर तपस्या की। मेरी तपस्या समाप्त होने पर सभी देवताओं ने मुझ पर फूलों की वर्षा की। भगवान ने प्रकट होकर कहा कि मेरे तप से मेरा भार इतना हो गया हैं कि मैं चारों पैर धरती पर रखूं तो धरती गिरती हुई ब्रह्मांड को फोडकर दूसरी ओर निकल जाएगी। धरती मेरी कॄपा पार ही टिकी रहेगी। तबसे मैं एक टांग पर ही खडा हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण दूसरे जीवों को कष्ट हो।”

सारे चूहों का समूह महातपस्वी सियार के सामने हाथ जोडकर खडा हो गया। एक चूहे ने पूछा “तपस्वी मामा, आपने अपना मुंह सूरज की ओर क्यों कर रखा हैं?”

सियार ने उत्तर दिया “सूर्य की पूजा के लिए।”

“और आपका मुंह क्यों खुला हैं?” दूसरे चूहे ने कहा।

“हवा खाने के लिए! मैं केवल हवा खाकर जिंदा रहता हूं। मुझे खाना खाने की जरुरत नहीं पडती। मेरे तप का बल हवा को ही पेट में भांति-भांति के पकवानों में बदल देता हैं।” सियार बोला।

ABHAY
11-01-2011, 07:39 AM
उसकी इस बात को सुनकर चूहों पर जबरदस्त प्रभाव पडा। अब सियार की ओर से उनका सारा भय जाता रहा। वे उसके और निकट आ गए। अपनी बात का असर चूहों पर होता देख मक्कार सियार दिल ही दिल में खूब हंसा। अब चूहे महातपस्वी सियार के भक्त बन गए। सियार एक टांग पर खडा रहता और चूहे उसके चारों ओर बैठकर ढोलक, मजीरे, खडताल और चिमटे लेकर उसके भजन गाते।

सियार सियारम् भजनम् भजनम।

भजन किर्तन समाप्त होने के बाद चूहों की टोलियां भक्ति रस में डूबकर अपने बिलों में घुसने लगती तो सियार सबसे बाद के तीन-चार चूहों को दबोचकर खा जाता। फिर रात भर आराम करता, सोता और डकारें लेता।

सुबह होते ही फिर वह चूहों के बिलों के पास आकर एक टांग पर खडा हो जाता और अपना नाटक चालू रखता। धी चूहों की संख्या कम होने लगी। चूहों के सरदार की नजर से यह बात छिपी नहीं रही। एक दिन सरदार ने सियार से पूछ ही लिया “हे महात्मा सियार, मेरी टोली के चूहे मुझे कम होते नजर आ रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा हैं?”

सियार ने आर्शीवाद की मुद्रा में हाथ उठाया “हे चतुर मूषक, यह तो होना ही था। जो सच्चे मन से मेरी भक्ति लरेगा, वह सशरीर बैकुण्ठ को जाएगा। बहुत से चूहे भक्ति का फल पा रहे हैं।”

चूहो के सरदार ने देखा कि सियार मोटा हो गया हैं। कहीं उसका पेट ही तो वह बैकुण्ठ लोक नहीं हैं, जहां चूहे जा रहे हैं?

चूहों के सरदार ने बाकी बचे चूहों को चेताया और स्वयं उसने दूसरे दिन सबसे बाद में बिल में घुसने का निश्चय किया। भजन समाप्त होने के बाद चूहे बिलों में घुसे। सियार ने सबसे अंत के चूहे को दबोचना चाहा।

ABHAY
11-01-2011, 07:40 AM
चूहों का सरदार पहले ही चौकन्ना था। वह दांव मारकर सियार का पंजा बचा गया। असलियत का पता चलते ही वह उछलकर सियार की गर्दन पर चढ गया और उसने बाकी चूहों को हमला करने के लिए कहा। साथ ही उसने अपने दांत सियार की गर्दन में गढा दिए। बाकी चूहे भी सियार पर झपटे और सबने कुछ ही देर में महात्मा सियार को कंकाल सियार बना दिया। केवल उसकी हड्डियों का पिंजर बचा रह गया।

सीखः ढोंग कुछ ही दिन चलता हैं, फिर ढोंगी को अपनी करनी का फल मिलता ही हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:41 AM
ढोल की पोल
एक बार एक जंगल के निकटदो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गई। बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाते थे।

युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के जोर में वह ढोल लुढकता-पुढकता एक सूखे पेड के पास जाकर टिक गया। उस पेड की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गई थी कि तेज हवा चलते ही ढोल पर टकरा जाती थी और ढमाढम ढमाढम की गुंजायमान आवाज होती।

एक सियार उस क्षेत्र में घूमता था। उसने ढोल की आवाज सुनी। वह बडा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज बोलते पहले उसने किसी जानवर को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर हैं, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं’ढमाढम’। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उडने वाला हैं या चार टांगो पर दौडने वाला।

एक दिन सियार झाडी के पीछे छुप कर ढोल पर नजर रखे था। तभी पेड से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही।

सियार बडबडाया “ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।”

ABHAY
11-01-2011, 07:41 AM
सियार फूंक-फूंककर कदम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर नजर आया और न पैर। तभी हवा के झुंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा।

“अब समझ आया।” सियार उढने की कोशिश करता हुआ बोला “यह तो बाहर का खोल हैं।जीव इस खोल के अंदर हैं। आवाज बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता हैं, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम=ढम की जोरदार बोली बोलता हैं।”

अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला “ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूं।”

सियारी पूछने लगी “तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?”

सियार ने उसे झिडकी दी “क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूं। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा हैं। खोल ऐसा हैं कि उसमें दो तरफ सूखी चमडी के दरवाजे हैं।मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकडने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाजे से न भाग जाता?”

चांद निकलने पर दोनों ढोल की ओर गए। जब वह् निकट पहुंच ही रहे थे कि फिर हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज निकली। सियार सियारी के कान में बोला “सुनी उसकी आवाज्? जरा सोच जिसकी आवाज ऐसी गहरी हैं, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।”

दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतो से ढोल के दोनों चमडी वाले भाग के किनारे फाडने। जैसे ही चमडियां कटने लगी, सियार बोला “होशियार रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना हैं।” दोनों ने ‘हूं’ की आवाज के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अदंर कुछ नहीं था। एक दूसरे के हाथ ही पकड में आए। दोंनो चिल्लाए “हैं! यहां तो कुछ नहीं हैं।” और वे माथा पीटकर रह गए।
सीखः शेखी मारने वाले ढोल की तरह ही अंदर से खोखले होते हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:42 AM
तीन मछलियां
एक नदी के किनारे उसी नदी से जुडा एक बडा जलाशय था। जलाशय में पानी गहरा होता हैं, इसलिए उसमें काई तथा मछलियों का प्रिय भोजन जलीय सूक्ष्म पौधे उगते हैं। ऐसे स्थान मछलियों को बहुत रास आते हैं। उस जलाशय में भी नदी से बहुत-सी मछलियां आकर रहती थी। अंडे देने के लिए तो सभी मछलियां उस जलाशय में आती थी। वह जलाशय लम्बी घास व झाडियों द्वारा घिरा होने के कारण आसानी से नजर नहीं आता था।

उसी मे तीन मछलियों का झुंड रहता था। उनके स्वभाव भिन्न थे। अन्ना संकट आने के लक्षण मिलते ही संकट टालने का उपाय करने में विश्वास रखती थी। प्रत्यु कहती थी कि संकट आने पर ही उससे बचने का यत्न करो। यद्दी का सोचना था कि संकट को टालने या उससे बचने की बात बेकार हैं करने कराने से कुछ नहीं होता जो किस्मत में लिखा है, वह होकर रहेगा।

एक दिन शाम को मछुआरे नदी में मछलियां पकडकर घर जा रहे थे। बहुत कम मछलियां उनके जालों में फंसी थी। अतः उनके चेहरे उदास थे। तभी उन्हें झाडियों के ऊपर मछलीखोर पक्षियों का झुंड जाता दिकाई दिया। सबकी चोंच में मछलियां दबी थी। वे चौंके ।

एक ने अनुमान लगाया “दोस्तो! लगता हैं झाडियों के पीछे नदी से जुडा जलाशय हैं, जहां इतनी सारी मछलियां पल रही हैं।”

मछुआरे पुलकित होकर झाडियों में से होकर जलाशय के तट पर आ निकले और ललचाई नजर से मछलियों को देखने लगे।

ABHAY
11-01-2011, 07:43 AM
एक मछुआरा बोला “अहा! इस जलाशय में तो मछलियां भरी पडी हैं। आज तक हमें इसका पता ही नहीं लगा।” “यहां हमें ढेर सारी मछलियां मिलेंगी।” दूसरा बोला।

तीसरे ने कहा “आज तो शाम घिरने वाली हैं। कल सुबह ही आकर यहां जाल डालेंगे।”

इस प्रकार मछुआरे दूसरे दिन का कार्यक्रम तय करके चले गए। तीनों मछ्लियों ने मछुआरे की बात सुन ला थी।

अन्ना मछली ने कहा “साथियो! तुमने मछुआरे की बात सुन ली। अब हमारा यहां रहना खतरे से खाली नहीं हैं। खतरे की सूचना हमें मिल गई हैं। समय रहते अपनी जान बचाने का उपाय करना चाहिए। मैं तो अभी ही इस जलाशय को छोडकर नहर के रास्ते नदी में जा रही हूं। उसके बाद मछुआरे सुबह आएं, जाल फेंके, मेरी बला से। तब तक मैं तो बहुत दूर अटखेलियां कर रही हो-ऊंगी।’

प्रत्यु मछली बोली “तुम्हें जाना हैं तो जाओ, मैं तो नहीं आ रही। अभी खतरा आया कहां हैं, जो इतना घबराने की जरुरत हैं हो सकता है संकट आए ही न। उन मछुआरों का यहां आने का कार्यक्रम रद्द हो सकता है, हो सकता हैं रात को उनके जाल चूहे कुतर जाएं, हो सकता है। उनकी बस्ती में आग लग जाए। भूचाल आकर उनके गांव को नष्ट कर सकता हैं या रात को मूसलाधार वर्षा आ सकती हैं और बाढ में उनका गांव बह सकता हैं। इसलिए उनका आना निश्चित नहीं हैं। जब वह आएंगे, तब की तब सोचेंगे। हो सकता हैं मैं उनके जाल में ही न फंसूं।”

ABHAY
11-01-2011, 07:43 AM
यद्दी ने अपनी भाग्यवादी बात कही “भागने से कुछ नहीं होने का। मछुआरों को आना हैं तो वह आएंगे। हमें जाल में फंसना हैं तो हम फंसेंगे। किस्मत में मरना ही लिखा हैं तो क्या किया जा सकता हैं?”

इस प्रकार अन्ना तो उसी समय वहां से चली गई। प्रत्यु और यद्दी जलाशय में ही रही। भोर हुई तो मछुआरे अपने जाल को लेकर आए और लगे जलाशय में जाल फेंकने और मछलियां पकडने । प्रत्यु ने संकट को आए देखा तो लगी जान बचाने के उपाय सोचने । उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा। आस-पास छिपने के लिए कोई खोखली जगह भी नहीं थी। तभी उसे याद आया कि उस जलाशय में काफी दिनों से एक मरे हुए ऊदबिलाव की लाश तैरती रही हैं। वह उसके बचाव के काम आ सकती हैं।

जल्दी ही उसे वह लाश मिल गई। लाश सडने लगी थी। प्रत्यु लाश के पेट में घुस गई और सडती लाश की सडांध अपने ऊपर लपेटकर बाहर निकली। कुछ ही देर में मछुआरे के जाल में प्रत्यु फंस गई। मछुआरे ने अपना जाल खींचा और मछलियों को किनारे पर जाल से उलट दिया। बाकी मछलियां तो तडपने लगीं, परन्तु प्रत्यु दम साधकर मरी हुई मछली की तरह पडी रही। मचुआरे को सडांध का भभका लगा तो मछलियों को देखने लगा। उसने निश्चल पडी प्रत्यु को उठाया और सूंघा “आक! यह तो कई दिनों की मरी मछली हैं। सड चुकी हैं।” ऐसे बडबडाकर बुरा-सा मुंह बनाकर उस मछुआरे ने प्रत्यु को जलाशय में फेंक दिया।

प्रत्यु अपनी बुद्धि का प्रयोग कर संकट से बच निकलने में सफल हो गई थी। पानी में गिरते ही उसने गोता लगाया और सुरक्षित गहराई में पहुंचकर जान की खैर मनाई।

ABHAY
11-01-2011, 07:44 AM
यद्दी भी दूसरे मछुआरे के जाल में फंस गई थी और एक टोकरे में डाल दी गई थी। भाग्य के भरोसे बैठी रहने वाली यद्दी ने उसी टोकरी में अन्य मछलियों की तरह तडप-तडपकर प्राण त्याग दिए।

सीखः भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने वाले का विनाश निश्चित हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:45 AM
दुश्मन का स्वार्थ
एक पर्वत के समीप बिल में मंदविष नामक एक बूढा सांप रहता था। अपनी जवानी में वह बडा रौबीला सांप था। जब वह लहराकर चलता तो बिजली-सी कौंध जाती थी पर बुढापा तो बडे-बडों का तेज हर लेता हैं।बुढापे की मार से मंदविष का शरीर कमजोर पड गया था। उसके विषदंत हिलने लगेथे और फुफकारते हुए दम फूल जाता था। जो चूहे उसके साए से भी दूर भागते थे, वे अब उसके शरीर को फांदकर उसे चिढाते हुए निकल जाते। पेट भरने के लिए चूहों के भी लाले पड गए थे। मंदविष इसी उधेडबुन में लगा रहता कि किस प्रकार आराम से भोजन का स्थाई प्रबंध किया जाए। एक दिन उसे एक उपाय सूझा और उसे आजमाने के लिए वह दादुर सरोवर के किनारे जा पहुंचा। दादुर सरोवर में मेढकों की भरमार थी। वहां उन्हीं का राज था। मंदविष वहां इधर-उधर घूमने लगा। तभी उसे एक पत्थर पर मेढकों का राजा बैठा नजर आया। मंदविष ने उसे नमस्कार किया “महाराज की जय हो।”

मेढकराज चौंका “तुम! तुम तो हमारे बैरी हो। मेरी जय का नारा क्यों लगा रहे हो?”

मंदविष विनम्र स्वर में बोला “राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं आप मेढकों की सेवा करके पापों को धोना चाहता हूं। श्राप से मुक्ति चाहता हूं। ऐसा ही मेरे नागगुरु का आदेश हैं।”

मेढकराज ने पूछा “उन्होंने ऐसा विचित्र आदेश क्यों दिया?”

ABHAY
11-01-2011, 07:46 AM
मंदविष ने मनगढंत कहानी सुनाई “राजन्, एक दिन मैं एक उद्यान में घूम रहा था। वहां कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। गलती से एक बच्चे का पैर मुझ पर पड गया और बचाव स्वाभववश मैंने उसे काटा और वह बच्चा मर गया। मुझे सपने में भगवान श्रीकॄष्ण नजर आए और श्राप दिया कि मैं वर्ष समाप्त होते ही पत्थर का हो जाऊंगा। मेरे गुरुदेव ने कहा कि बालक की मॄत्यु का कारण बन मैंने कॄष्णजी को रुष्ट कर दिया हैं,क्योंकि बालक कॄष्ण का ही रुप होते हैं। बहुत गिडगिडाने पर गुरुजी ने श्राप मुक्ति का उपाय बताया। उपाय यह हैं कि मैं वर्ष के अंत तक मेढकों को पीठ पर बैठाकर सैर कराऊं।”

मंदविष कि बात सुनकर मेढकराज चकित रह गया। सांप की पीठ पर सवारी करने का आज तक किस मेढक को श्रैय प्राप्त हुआ? उसने सोचा कि यह तो एक अनोखा काम होगा। मेढकराज सरोवर में कूद गया और सारे मेढकों को इकट्ठा कर मंदविष की बात सुनाई। सभी मेढक भौंचक्के रह गए।

एक बूढा मेढक बोला “मेढक एक सर्प की सवारे करें। यह एक अदभुत बात होगी। हम लोग संसार में सबसे श्रेष्ठ मेढक माने जाएंगे।”

एक सांप की पीठ पर बैठकर सैर करने के लालच ने सभी मेढकों की अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। सभी ने ‘हां’ में ‘हां’ मिलाई। मेढकराज ने बाहर आकर मंदविष से कहा “सर्प, हम तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हैं।”

बस फिर क्या था। आठ-दस मेढक मंदविष की पीठ पर सवार हो गए और निकली सवारी। सबसे आगे राजा बैठा था। मंदविष ने इधर-उधर सैर कराकर उन्हेण् सरोवर तट पर उतार दिया। मेढक मंदविष के कहने पर उसके सिर पर से होते हुए आगे उतरे। मंदविष सबसे पीछे वाले मेढक को गप्प खा गया। अब तो रोज यही क्रम चलने लगा। रोज मंदविष की पीठ पर मेढकों की सवारी निकलती और सबसे पीछे उतरने वाले को वह खा जाता।

ABHAY
11-01-2011, 07:46 AM
एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंदविष को मेढकों को ढोते द्ख लिया। बाद में उसने मंदविष को बहुत धिक्कारा “अरे!क्यों सर्प जाति की नाक कटवा रहा हैं?”

मंदविष ने उत्तर दिया “समय पडने पर नीति से काम लेना पडता हैं। अच्छे-बुरे का मेरे सामने सवाल नहीं हैं। कहते हैं कि मुसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पडे तो बनाओ।”

मंदविष के दिन मजे से कटने लगे। वह पीछे वाले वाले मेढक को इस सफाईसे खा जाता कि किसी को पता न लगता। मेढक अपनी गिनती करना तो जानते नहीं थे, जो गिनती द्वारा माजरा समझ लेते।

एक दिन मेढकराज बोला “मुझे ऐसा लग र्हा हैं कि सरोवर में मेढक पहले से कम हो गए हैं। पता नहीं क्या बात हैं?”

मंदविष ने कहा “हे राजन, सर्प की सवारी करने वाले महान मेढक राजा के रुप में आपकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही हैं। यहां के बहुत से मेढक आपका यश फैलाने दूसरे सरोवरों, तलों व झीलों में जा रहे हैं।”

मेढकराज की गर्व से छाती फूल गई। अब उसे सरोवर में मेढकों के कम होने का भी गम नहीं था। जितने मेढक कम होते जाते, वह यह सोचकर उतना ही प्रसन्न होता कि सारे संसार में उसका झंडा गड रहा हैं।

आखिर वह दिन भी आया, जब सारे मेढक समाप्त हो गए। केवल मेढकराज अकेला रह गया। उसने स्वयं को अकेले मंदविष की पीठ पर बैठा पाया तो उसने मंदविष से पूछा “लगता हैं सरोवर में मैं अकेला रह गया हूं। मैं अकेला कैसे रहूंगा?”

मंदविष मुस्कुराया “राजन, आप चिन्ता न करें। मैं आपका अकेलापन भी दूर कर दूंगा।”

ABHAY
11-01-2011, 07:47 AM
ऐसा कहते हुए मंदविष ने मेढकराज को भी गप्प से निगल लिया और वहीं भेजा जहां सरोवर के सारे मेढक पहुंचा दिए गए थे।

सीखः शत्रु की बातों पर विश्वास करना अपनी मौत को दावत देना हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:48 AM
दुष्ट सर्प
एक जंगल में एक बहुत पुराना बरगद का पेड था। उस पेड पर घोंसला बनाकर एक कौआ-कव्वी का जोडा रहता था। उसी पेड के खोखले तने में कहीं से आकर एक दुष्ट सर्प रहना लगा। हर वर्ष मौसल आने पर कव्वी घोंसले में अंडे देती और दुष्ट सर्प मौका पाकर उनके घोंसले में जाकर अंडे खा जाता। एक बार जब कौआ व कव्वी जल्दी भोजन पाकर शीघ्र ही लौट आए तो उन्होंने उस दुष्ट सर्प को अपने घोंसले में रखे अंडों पर झपट्ते देखा।

अंडे खाकर सर्प चला गया कौए ने कव्वी को ढाडस बंधाया “प्रिये, हिम्मत रखो। अब हमें शत्रु का पता चल गया हैं। कुछ उपाय भी सोच लेंगे।”

कौए ने काफी सोचा विचारा और पहले वाले घोंसले को छोड उससे काफी ऊपर टहनी पर घोंसला बनाया और कव्वी से कहा “यहां हमारे अंडे सुरक्षित रहेंगे। हमारा घोंसला पेड की चोटी के किनारे निकट हैं और ऊपर आसमान में चील मंडराती रहती हैं। चील सांप की बैरी हैं। दुष्ट सर्प यहां तक आने का साहस नहीं कर पाएगा।”

कौवे की बात मानकर कव्वी ने नए घोंसले में अंडे सुरक्षित रहे और उनमें से बच्चे भी निकल आए।

उधर सर्प उनका घोंसला खाली देखकर यह समझा कि कि उसके डर से कौआ कव्वी शायद वहां से चले गए हैं पर दुष्ट सर्प टोह लेता रहता था। उसने देखा कि कौआ-कव्वी उसी पेड से उडते हैं और लौटते भी वहीं हैं। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उन्होंने नया घोंसला उसी पेड पर ऊपर बना रखा हैं। एक दिन सर्प खोह से निकला और उसने कौओं का नया घोंसला खोज लिया।

ABHAY
11-01-2011, 07:48 AM
घोंसले में कौआ दंपती के तीन नवजात शिशु थे। दुष्ट सर्प उन्हें एक-एक करके घपाघप निगल गया और अपने खोह में लौटकर डकारें लेने लगा।

कौआ व कव्वी लौटे तो घोंसला खाली पाकर सन्न रह गए। घोंसले में हुई टूट-फूट व नन्हें कौओं के कोमल पंख बिखरे देखकर वह सारा माजरा समझ गए। कव्वी की छाती तो दुख से फटने लगी। कव्वी बिलख उठी “तो क्या हर वर्ष मेरे बच्चे सांप का भोजन बनते रहेंगे?”

कौआ बोला “नहीं! यह माना कि हमारे सामने विकट समस्या हैं पर यहां से भागना ही उसका हल नहीं हैं। विपत्ति के समय ही मित्र काम आते हैं। हमें लोमडी मित्र से सलाह लेनी चाहिए।”

दोनों तुरंत ही लोमडी के पास गए। लोमडी ने अपने मित्रों की दुख भरी कहानी सुनी। उसने कौआ तथा कव्वी के आंसू पोंछे। लोमडी ने काफी सोचने के बाद कहा “मित्रो! तुम्हें वह पेड छोडकर जाने की जरुरत नहीं हैं। मेरे दिमाग में एक तरकीब आ रही हैं, जिससे उस दुष्टसर्प से छुटकारा पाया जा सकता हैं।”

लोमडी ने अपने चतुर दिमाग में आई तरकीब बताई। लोमडी की तरकीब सुनकर कौआ-कव्वी खुशी से उछल पडें। उन्होंने लोमडी को धन्यवाद दिया और अपने घर लौट आए। अगले ही दिन योजना अमल में लानी थी। उसी वन में बहुत बडा सरोवर था। उसमें कमल और नरगिस के फूल खिले रहते थे। हर मंगलवार को उस प्रदेश की राजकुमारी अपनी सहेलियों के साथ वहां जल-क्रीडा करने आती थी। उनके साथ अंगरक्षक तथा सैनिक भी आते थे।

ABHAY
11-01-2011, 07:49 AM
इस बार राजकुमारी आई और सरोवर में स्नान करने जल में उतरी तो योजना के अनुसार कौआ उडता हुआ वहां आया। उसने सरोवर तट पर राजकुमारी तथा उसकी सहेलियों द्वारा उतारकर रखे गए कपडों व आभूषणों पर नजर डाली। कपडे से सबसे ऊपर था राजकुमारी का प्रिय हीरे व मोतियों का विलक्षण हार।

कौए ने राजकुमारी तथा सहेलियों का ध्यान अपनी और आकर्षित करने के लिए ‘कांव-कांव’ का शोर मचाया। जब सबकी नजर उसकी ओर घूमी तो कौआ राजकुमारी का हार चोंच में दबाकर ऊपर उड गया। सभी सहेलियां चीखी “देखो, देखो! वह राजकुमारी का हार उठाकर ले जा रहा हैं।”

सैनिकों ने ऊपर देखा तो सचमुच एक कौआ हार लेकर धीरे-धीरे उडता जा रहा था। सैनिक उसी दिशा में दौडनेलगे। कौआ सैनिकों को अपने पीचे लगाकर धीरे-धीरे उडता हुआ उसी पेड की ओर ले आया। जब सैनिक कुच ही दूर रह गए तो कौए ने राजकुमारी का हार इस प्रकार गिराया कि वह सांप वाले खोह के भीतर जा गिरा।

सैनिक दौडकर खोह के पास पहुंचे। उनके सरदार ने खोह के भीतर झांका। उसने वहां हार और उसके पास में ही एक काले सर्प को कुडंली मारे देखा। वह चिल्लाया “पीछे हटो! अंदर एक नाग हैं।” सरदार ने खोह के भीतर भाला मारा। सर्प घायल हुआ और फुफकारता हुआ बाहर निकला। जैसे ही वह बाहर आया, सैनिकों ने भालों से उसके टुकडे-टुकडे कर डाले।

सीखः बुद्धि का प्रयोग करके हर संकट का हल निकाला जा सकता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:50 AM
नकल करना बुरा है
एक पहाड़ की ऊंची चोटी पर एक बाज रहता था। पहाड़ की तराई में बरगद के पेड़ पर एक कौआ अपना घोंसला बनाकर रहता था। वह बड़ा चालाक और धूर्त था। उसकी कोशिश सदा यही रहती थी कि बिना मेहनत किए खाने को मिल जाए। पेड़ के आसपास खोह में खरगोश रहते थे। जब भी खरगोश बाहर आते तो बाज ऊंची उड़ान भरते और एकाध खरगोश को उठाकर ले जाते।

एक दिन कौए ने सोचा, ‘वैसे तो ये चालाक खरगोश मेरे हाथ आएंगे नहीं, अगर इनका नर्म मांस खाना है तो मुझे भी बाज की तरह करना होगा। एकाएक झपट्टा मारकर पकड़ लूंगा।’

दूसरे दिन कौए ने भी एक खरगोश को दबोचने की बात सोचकर ऊंची उड़ान भरी। फिर उसने खरगोश को पकड़ने के लिए बाज की तरह जोर से झपट्टा मारा। अब भला कौआ बाज का क्या मुकाबला करता। खरगोश ने उसे देख लिया और झट वहां से भागकर चट्टान के पीछे छिप गया। कौआ अपनी हीं झोंक में उस चट्टान से जा टकराया। नतीजा, उसकी चोंच और गरदन टूट गईं और उसने वहीं तड़प कर दम तोड़ दिया।
शिक्षा—नकल करने के लिए भी अकल चाहिए।

ABHAY
11-01-2011, 07:50 AM
बंदर का कलेजा
एक नदी किनारे हरा-भरा विशाल पेड था। उस पर खूब स्वादिष्ट फल उगे रहते। उसी पेड पर एक बदंर रहता था। बडा मस्त कलंदर। जी भरकर फल खाता, डालियों पर झूलता और कूदता-फांदता रहता। उस बंदर के जीवन में एक ही कमी थी कि उसका अपना कोई नहीं था। मां-बाप के बारे में उसे कुछ याद नहीं था न उसके कोई भाई थाऔर न कोई बहन, जिनके साथ वह खेलता। उस क्षेत्र में कोई और बंदर भी नहीं था जिससे वह दोस्ती गांठ पाता। एक दिन वह एक डाल पर बैठा नदी का नजारा देख रहा था कि उसे एक लंबा विशाल जीव उसी पेड की ओर तैरकर आता नजर आया। बंदर ने ऐसा जीव पहले कभी नहीं देखा था। उसने उस विचित्र जीव से पूछा “अरे भाई, तुम क्या चीज हो?”

विशाल जीव ने उत्तर दिया “मैं एक मगरमच्छ हूं। नदी में इस वर्ष मछ्लियों का अकाल पड गया हैं। बस, भोजन की तलाश में घूमता-घूमता इधर आ निकला हूं।”

बंदर दिल का अच्छा था। उसने सोचा कि पेड पर इतने फल हैं, इस बेचारे को भी उनका स्वाद चखना चाहिए। उसने एक फल तोडकर मगर की ओर फेंका। मगर ने फल खाया बहुत रसीला और स्वादिष्ट वह फटाफट फल खा गया और आशा से फिर बंदर की ओर देखने लगा।

बंदर ने मुस्कराकर और फल फेकें। मगर सारे फल खा गया और अंत में उसने संतोष-भरी डकार ली और पेट थपथपाकर बोला “धन्यवाद, बंदर भाई। खूब छक गया, अब चलता हूं।” बंदर ने उसे दूसरे दिन भी आने का न्यौता दे दिया।

ABHAY
11-01-2011, 07:51 AM
मगर दूसरे दिन आया। बंदर ने उसे फिर फल खिलाए। इसी प्रकार बंदर और मगर में दोस्ती जमने लगी। मगर रोज आता दोनों फल खाते-खिलाते, गपशप मारते। बंदर तो वैसे भी अकेला रहता था। उसे मगर से दोस्ती करके बहुत प्रसन्नता हुई। उसका अकेलापन दूर हुआ। एक साथी मिला। दो मिलकर मौज-मस्ती करें तो दुगना आनन्द आता हैं। एक दिन बातों-बातों में पता लगा कि मगर का घर नदी के शूसरे तट पर हैं, जहां उसकी पत्नी भी रहती हैं। यह जानते ही बंदर ने उलाहन दिया “मगर भाई, तुमने इतने दिन मुझे भाभीजी के बारे में नहीं बताया मैं अपनी भाभीजी के लिए रसीले फल देता। तुम भी अजीब निकट्टू हो अपना पेट भरते रहे और मेरी भाभी के लिए कभी फल लेकर नहीं गए।

उस शाम बंदर ने मगर को जाते समय ढेर सारे फल चुन-चुनकर दिए। अपने घर पहुंचकर मगरमच्छ ने वह फल अपनी पत्नी मगरमच्छनी को दिए। मगरमच्छनी ने वह स्वाद भरे फल खाए और बहुत संतुष्ट हुई। मगर ने उसे अपने मित्र के बारे में बताया। पत्नी को विश्वास न हुआ। वह बोली “जाओ, मुझे बना रहे हो। बंदर की कभी किसी मगर से दोस्ती हुई हैं?”

मगर ने यकीन दिलाया “यकीन करो भाग्यवान! वर्ना सोचो यह फल मुझे कहां से मिले? मैं तो पेड पर चढने से रहा।”

मगरनी को यकीन करना पडा। उस दिन के बाद मगरनी को रोज बंदर द्वारा भेजे फल खाने को मिलने लगे। उसे फल खाने को मिलते यह तो ठीक था, पर मगर का बंदर से दोस्ती के चक्कर में दिन भर दूर रहना उसे खलना लगा। खाली बैठे-बैठे ऊंच-नीच सोचने लगी।

वह स्वभाव से दुष्टा थी। एक दिन उसका दिल मचल उठा “जो बंदर इतने रसीले फल खाता हैं,उसका कलेजा कितना स्वादिष्ट होगा?” अब वह चालें सोचने लगी। एक दिन मगर शाम को घर आया तो उसने मगरनी को कराहते पाया। पूछने पर मगरनी बोली “मुझे एक खतरनाक बीमारी हो गई है। वैद्यजी ने कहा हैं कि यह केवल बंदर का कलेजा खाने से ही ठीक होगी। तुम अपने उस मित्र बंदर का कलेजा ला दो।”

ABHAY
11-01-2011, 07:51 AM
मगर सन्न रह गया। वह अपने मित्र को कैसे मार सकाता हैं? न-न, यह नहीं हो सकता। मगर को इनकार में सिर हिलाते देखकर मगरनी जोर से हाय-हाय करने लगी “तो फिर मैं मर जाऊंगी। तुम्हारी बला से और मेरे पेट में तुम्हारे बच्चे हैं। वे भी मरेंगे। हम सब मर जाएंगे। तुम अपने बंदर दोस्त के साथ खूब फल खाते रहना। हाय रे, मर गई… मैं मर गई।”

पत्नी की बात सुनकर मगर सिहर उठा। बीवी-बच्चों के मोह ने उसकी अक्ल पर पर्दा डाल दिया। वह अपने दोस्त से विश्वासघात करने, उसकी जान लेने चल पडा।

मगरमच्छ को सुबह-सुबह आते देखकर बंदर चकित हुआ। कारण पूछने पर मगर बोला “बंदर भाई, तुम्हारी भाभी बहुत नाराज हैं। कह रही हैं कि देवरजी रोज मेरे लिए रसीले फल भेजते हैं, पर कभी दर्शन नहीं दिए। सेवा का मौका नहीं दिया। आज तुम न आए तो देवर-भाभी का रिश्ता खत्म। तुम्हारी भाभी ने मुझे भी सुबह ही भगा दिया। अगर तुम्हें साथ न ले जा पाया तो वह मुझे भी घर में नहीं घुसने देगी।”

बंदर खुश भी हुआ और चकराया भी “मगर मैं आऊं कैसे? मित्र, तुम तो जानते हो कि मुझे तैरना नहें आता।” मगर बोला “उसकी चिन्ता मत करो, मेरी पीठ पर बैठो। मैं ले चलूंगा न तुम्हें।”

बंदर मगर की पीठ पर बैठ गया। कुच दूर नदी में जाने पर ही मगर पानी के अंदर गोता लगाने लगा। बंदर चिल्लाया “यह क्या कर रहे हो? मैं डूब जाऊंगा।”

मगर हंसा “तुम्हें तो मरना हैं ही।”

उसकी बात सुनकर बंदर का माथा ठनका, उसने पूछा “क्या मतलब?”

मगर ने बंदर को कलेजे वाली सारी बात बता दी। बंदर हक्का-बक्का रह गया। उसे अपने मित्र से ऐसी बेइमानी की आशा नहीं थी।

ABHAY
11-01-2011, 07:52 AM
बंदर चतुर था। तुरंत अपने आप को संभालकर बोला “वाह, तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? मैं अपनी भाभी के लिए एक तो क्या सौकलेजे दे दूं। पर बात यह हैं कि मैं अपना कलेजा पेड पर ही छोड आया हूं। तुमने पहले ही सारी बात मुझे न बताकर बहुत गलती कर दी हैं। अब जल्दी से वापिस चलो ताकि हम पेड पर से कलेजा लेते चलें। देर हो गई तो भाभी मर जाएगी। फिर मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।”

अक्ल का मोटा मगरमच्छ उसकी बात सच मानकर बंदर को लेकर वापस लौट चला। जैसे ही वे पेड के पास पहुंचे, बंदर लपककर पेड की डाली पर चढ गया और बोला “मूर्ख, कभी कोई अपना कलेजा बाहर छोडता हैं? दूसरे का कलेजा लेने के लिए अपनी खोपडी में भी भेजा होना चाहिए। अब जा और अपनी दुष्ट बीवी के साथ बैठकर अपने कर्मों को रो।” ऐसा कहकर बंदर तो पेड की टहनियों में लुप्त हो गया और अक्ल का दुश्मन मगरमच्छ अपना माथा पीटता हुआ लौट गया।

सीखः 1. दूसरों को धोखा देने वाला स्वयं धोखा खा जाता हैं।
2. संकट के समय बुद्धि से काम लेना चाहिए।

ABHAY
11-01-2011, 07:53 AM
बगुला भगत
एक वन प्रदेश में एक बहुत बडा तालाब था। हर प्रकार के जीवों के लिए उसमें भोजन सामग्री होने के कारण वहां नाना प्रकार के जीव, पक्षी, मछलियां, कछुए और केकडे आदि वास करते थे। पास में ही बगुला रहता था, जिसे परिश्रम करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। उसकी आंखे भी कुछ कमजोर थीं। मछलियां पकडने के लिए तो मेहनत करनी पडती हैं, जो उसे खलती थी। इसलिए आलस्य के मारे वह प्रायः भूखा ही रहता। एक टांग पर खडा यही सोचता रहता कि क्या उपाय किया जाए कि बिना हाथ-पैर हिलाए रोज भोजन मिले। एक दिन उसे एक उपाय सूझा तो वह उसे आजमाने बैठ गया।

बगुला तालाब के किनारे खडा हो गया और लगा आंखों से आंसू बहाने। एक केकडे ने उसे आंसू बहाते देखा तो वह उसके निकट आया और पूछने लगा “मामा, क्या बात हैं भोजन के लिए मछलियों का शिकार करने की बजाय खडे आंसू बहा रहे हो?”

बगुले ने जोर की हिचकी ली और भर्राए गले से बोला “बेटे, बहुत कर लिया मछलियों का शिकार। अब मैं यह पाप कार्य और नहीं करुंगा। मेरी आत्मा जाग उठी हैं। इसलिए मैं निकट आई मछलियों को भी नहीं पकड रहा हूं। तुम तो देख ही रहे हो।”

केकडा बोला “मामा, शिकार नहीं करोगे, कुछ खाओगे नही तो मर नहीं जाओगे?”

ABHAY
11-01-2011, 07:53 AM
बगुले ने एक और हिचकी ली “ऐसे जीवन का नष्ट होना ही अच्छा हैं बेटे, वैसे भी हम सबको जल्दी मरना ही हैं। मुझे ज्ञात हुआ हैं कि शीघ्र ही यहां बारह वर्ष लंबा सूखा पडेगा।”

बगुले ने केकडे को बताया कि यह बात उसे एक त्रिकालदर्शी महात्मा ने बताई हैं, जिसकी भविष्यवाणी कभी गलत नहीं होती। केकडे ने जाकर सबको बताया कि कैसे बगुले ने बलिदान व भक्ति का मार्ग अपना लिया हैं और सूखा पडने वाला हैं।

उस तालाब के सारे जीव मछलियां, कछुए, केकडे, बत्तखें व सारस आदि दौसे-दौडे बगुले के पास आए और बोले “भगत मामा, अब तुम ही हमें कोई बचाव का रास्ता बताओ। अपनी अक्ल लडाओ तुम तो महाज्ञानी बन ही गए ही गए हो।”

बगुले ने कुछ सोचकर बताया कि वहां से कुछ कोस दूर एक जलाशय हैं जिसमें पहाडी झरना बहकर गिरता हैं। वह कभी नहीं सूखता । यदि जलाशय के सब जीव वहां चले जाएं तो बचाव हो सकता हैं। अब समस्या यह थी कि वहां तक जाया कैसे जाएं? बगुले भगत ने यह समस्या भी सुलझा दी “मैं तुम्हें एक-एक करके अपनी पीठ पर बिठाकर वहां तक पहुंचाऊंगा क्योंकि अब मेरा सारा शेष जीवन दूसरों की सेवा करने में गुजरेगा।”

सभी जीवों ने गद्-गद् होकर ‘बगुला भगतजी की जै’ के नारे लगाए।

अब बगुला भगत के पौ-बारह हो गई। वह रोज एक जीव को अपनी पीठ पर बिठाकर ले जाता और कुछ दूर ले जाकर एक चट्टान के पास जाकर उसे उस पर पटककर मार डालता और खा जाता। कभी मूड हुआ तो भगतजी दो फेरे भी लगाते और दो जीवों को चट कर जाते तालाब में जानवरों की संख्या घटने लगी। चट्टान के पास मरे जीवों की हड्डियों का ढेर बढने लगा और भगतजी की सेहत बनने लगी। खा-खाकर वह खूब मोटे हो गए। मुख पर लाली आ गई और पंख चर्बी के तेज से चमकने लगे। उन्हें देखकर दूसरे जीव कहते “देखो, दूसरों की सेवा का फल और पुण्य भगतजी के शरीर को लग रहा हैं।”

ABHAY
11-01-2011, 07:54 AM
बगुला भगत मन ही मन खूब हंसता। वह सोचता कि देखो दुनिया में कैसे-कैसे मूर्ख जीव भरे पडे हैं, जो सबका विश्वास कर लेते हैं। ऐसे मूर्खों की दुनिया में थोडी चालाकी से काम लिया जाए तो मजे ही मजे हैं। बिना हाथ-पैर हिलाए खूब दावत उडाई जा सकती हैं संसार से मूर्ख प्राणी कम करने का मौका मिलता हैं बैठे-बिठाए पेट भरने का जुगाड हो जाए तो सोचने का बहुत समय मिल जाता हैं।

बहुत दिन यही क्रम चला। एक दिन केकडे ने बगुले से कहा “मामा, तुमने इतने सारे जानवर यहां से वहां पहुंचा दिए, लेकिन मेरी बारी अभी तक नहीं आई।”

भगतजी बोले “बेटा, आज तेरा ही नंबर लगाते हैं, आजा मेरी पीठ पर बैठ जा।”

केकेडा खुश होकर बगुले की पीठ पर बैठ गया। जब वह चट्टान के निकट पहुंचा तो वहां हड्डियों का पहाड देखकर केकडे का माथा ठनका। वह हकलाया “यह हड्डियों का ढेर कैसा हैं? वह जलाशय कितनी दूर हैं, मामा?”

बगुला भगत ठां-ठां करके खुब हंसा और बोला “मूर्ख, वहां कोई जलाशय नहीं हैं। मैं एक- एक को पीठ पर बिठाकर यहां लाकर खाता रहता हूं। आज तु मरेगा।”

केकडा सारी बात समझ गया। वह सिहर उठा परन्तु उसने हिम्मत न हारी और तुरंत अपने जंबूर जैसे पंजो को आगे बढाकर उनसे दुष्ट बगुले की गर्दन दबा दी और तब तक दबाए रखी, जब तक उसके प्राण पखेरु न उड गए।

फिर केकेडा बगुले भगत का कटा सिर लेकर तालाब पर लौटा और सारे जीवों को सच्चाई बता दी कि कैसे दुष्ट बगुला भगत उन्हें धोखा देता रहा।

सीखः 1. दूसरो की बातों पर आंखे मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए।
[संपादित करें] 2. मुसीबत में धीरज व बुद्धिमानी से कार्य करना चाहिए।

ABHAY
11-01-2011, 07:55 AM
बडे नाम का चमत्कार
एक समय की बात है एक वन में हाथियों का एक झुंड रहता था। उस झुंड का सरदार चतुर्दंत नामक एक विशाल, पराक्रमी, गंभीर व समझदार हाथी था। सब उसी की छत्र-छाया में शुख से रहते थे। वह सबकी समस्याएं सुनता। उनका हल निकालता, छोटे-बडे सबका बराबर ख्याल रखता था। एक बार उस क्षेत्र में भयंकर सूखा पडा। वर्षों पानी नहीं बरसा। सारे ताल-तलैया सूखने लगे। पेड-पौधे कुम्हला गए धरती फट गई, चारों और हाहाकार मच गई। हर प्राणी बूंद-बूंद के लिए तरसता गया। हाथियों ने अपने सरदार से कहा “सरदार, कोई उपाय सोचिए। हम सब प्यासे मर रहे हैं। हमारे बच्चे तडप रहे हैं।”

चतुर्दंत पहले ही सारी समस्या जानता था। सबके दुख समझता था पर उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या उपाय करे। सोचते-सोचते उसे बचपन की एक बात याद आई और चतुर्दंत ने कहा “मुझे ऐसा याद आता हैं कि मेरे दादाजी कहते थे, यहां से पूर्व दिशा में एक ताल हैं, जो भूमिगत जल से जुडे होने के कारण कभी नहीं सूखता। हमें वहां चलना चाहिए।” सभी को आशा की किरण नजर आई।

हाथियों का झुंड चतुर्दंत द्वारा बताई गई दिशा की ओर चल पडा। बिना पानी के दिन की गर्मी में सफर करना कठिन था, अतः हाथी रात को सफर करते। पांच रात्रि के बाद वे उस अनोखे ताल तक पहुंच गए। सचमुच ताल पानी से भरा था सारे हातियों ने खूब पानी पिया जी भरकर ताल में नहाए व डुबकियां लगाईं।

ABHAY
11-01-2011, 07:57 AM
उसी क्षेत्र में खरगोशों की घनी आबादी थी। उनकी शामत आ गई। सैकडों खरगोश हाथियों के पैरों-तले कुचले गए। उनके बिल रौंदे गए। उनमें हाहाकार मच गया। बचे-कुचे खरगोशों ने एक आपातकालीन सभा की। एक खरगोश बोला “हमें यहां से भागना चाहिए।”

एक तेज स्वभाव वाला खरगोश भागने के हक में नहीं था। उसने कहा “हमें अक्ल से काम लेना चाहिए। हाथी अंधविश्वासी होते हैं। हम उन्हें कहेंगे कि हम चंद्रवंशी हैं। तुम्हारे द्वारा किए खरगोश संहार से हमारे देव चंद्रमा रुष्ट हैं। यदि तुम यहां से नहीं गए तो चंद्रदेव तुम्हें विनाश का श्राप देंगे।”

एक अन्य खरगोश ने उसका समर्थन किया “चतुर ठीक कहता हैं। उसकी बात हमें माननी चाहिए। लंबकर्ण खरगोश को हम अपना दूत बनाकर चतुर्दंत के पास भेंजेगे।” इस प्रस्ताव पर सब सहमत हो गए। लंबकर्ण एक बहुत चतुर खरगोश था। सारे खरगोश समाज में उसकी चतुराई की धाक थी। बातें बनाना भी उसे खूब आता था। बात से बात निकालते जाने में उसका जवाब नहीं था। जब खरगोशों ने उसे दूत बनकर जाने के लिए कहा तो वह तुरंत तैयार हो गया। खरगोशों पर आए संकट को दूर करके उसे प्रसन्नता ही होगी। लंबकर्ण खरगोश चतुर्दंत के पास पहुंचा और दूर से ही एक चट्टान पर चढकर बोला “गजनायक चतुर्दंत, मैं लंबकर्ण चन्द्रमा का दूत उनका संदेश लेकर आया हूं। चन्द्रमा हमारे स्वामी हैं।”

चतुर्दंत ने पूछा ” भई,क्या संदेश लाए हो तुम ?”

लंबकर्ण बोला “तुमने खरगोश समाज को बहुत हानि पहुंचाई हैं। चन्द्रदेव तुमसे बहुत रुष्ट हैं। इससे पहले कि वह तुम्हें श्राप देदें, तुम यहां से अपना झुंड लेकर चले जाओ।”

चतुर्दंत को विश्वास न हुआ। उसने कहा “चंद्रदेव कहां हैं? मैं खुद उनके दर्शन करना चाहता हूं।”

ABHAY
11-01-2011, 07:58 AM
लंबकर्ण बोला “उचित हैं। चंद्रदेव असंख्य मॄत खरगोशों को श्रद्धांजलि देने स्वयं ताल में पधारकर बैठे हैं, आईए, उनसे साक्षात्कार कीजिए और स्वयं देख लीजिए कि वे कितने रुष्ट हैं।” चालाक लंबकर्ण चतुर्दंत को रात में ताल पर ले आया। उस रात पूर्णमासी थी। ताल में पूर्ण चंद्रमा का बिम्ब ऐसे पड रहा था जैसे शीशे में प्रतिबिम्ब दिखाई पडता हैं। चतुर्दंत घबरा गया चालाक खरगोश हाथी की घबराहट ताड गया और विश्वास के साथ बोला “गजनायक, जरा नजदीक से चंद्रदेव का साक्षात्कार करें तो आपको पता लगेगा कि आपके झुंड के इधर आने से हम खरगोशों पर क्या बीती हैं। अपने भक्तों का दुख देखकर हमारे चंद्रदेवजी के दिल पर क्या गुजर रही है|”

लंबकर्ण की बातों का गजराज पर जादू-सा असर हुआ। चतुर्दंत डरते-डरते पानी के निकट गया और सूंड चद्रंमा के प्रतिबिम्ब के निकट ले जाकर जांच करने लगा। सूंड पानी के निकट पहुंचने पर सूंड से निकली हवा से पानी में हलचल हुई और चद्रंमा ला प्रतिबिम्ब कई भागों में बंट गया और विकॄत हो गया। यह देखते ही चतुर्दंत के होश उड गए। वह हडबडाकर कई कदम पीछे हट गया। लंबकर्ण तो इसी बात की ताक में था। वह चीखा “देखा, आपको देखते ही चंद्रदेव कितने रुष्ट हो गए! वह क्रोध से कांप रहे हैं और गुस्से से फट रहे हैं। आप अपनी खैर चाहते हैं तो अपने झुंड के समेत यहां से शीघ्रातिशीघ्र प्रस्थान करें वर्ना चंद्रदेव पता नहीं क्या श्राप देदें।”

चतुर्दंत तुरंत अपने झुंड के पास लौट गया और सबको सलाह दी कि उनका यहां से तुरंत प्रस्थान करना ही उचित होगा। अपने सरदार के आदेश को मानकर हाथियों का झुंड लौट गया। खरगोशों में खुशी की लहर दौड गई। हाथियों के जाने के कुछ ही दिन पश्चात आकाश में बादल आए, वर्षा हुई और सारा जल संकट समाप्त हो गया। हाथियों को फिर कभी उस ओर आने की जरूरत ही नहीं पडी।

सीखः चतुराई से शारीरिक रुप से बलशाली शत्रु को भी मात दी जा सकती हैं।

ABHAY
11-01-2011, 07:59 AM
बहरुपिया गधा
एक नगर में धोबी था। उसके पास एक गधा था, जिस पर वह कपडे लादकर नदी तट पर ले जाता और धुले कपडे लादकर लौटता। धोबी का परिवार बडा था। सारी कमाई आटे-दाल व चावल में खप जाती। गधे के लिए चार खरीदने के लिए कुछ न बचता। गांव की चरागाह पर गाय-भैंसें चरती। अगर गधा उधर जाता तो चरवाहे डंडों से पीटकर उसे भगा देते। ठीक से चारा न मिलने के कारण गधा बहुत दुर्बल होने लगा। धोबी को भी चिन्ता होने लगी, क्योंकि कमजोरी के कारण उसकी चाल इतनी धीमी हो गई थी कि नदी तक पहुंचने में पहले से दुगना समय लगने लगा था।

एक दिन नदी किनारे जब धोबी ने कपडे सूखने के लिए बिछा रखे थे तो आंधी आई। कपडे इधर-उधर हवा में उड गए। आंधी थमने पर उसे दूर-दूर तक जाकर कपडे उठाकर लाने पडे। अपने कपडे ढूंढता हुआ वह सरकंडो के बीच घुसा। सरकंडो के बीच उसे एक मरा बाघ नजर आया।

धोबी कपडे लेकर लौटा और गट्ठर बन्धे पर लादने लगा गधा लडखडाया। धोबी ने देखा कि उसका गधा इतना कमजोर हो गया हैं कि एक दो दिन बाद बिल्कुल ही बैठ जाएगा। तभी धोबी को एक उपाय सूझा। वह सोचने लगा “अगर मैं उस बाघ की खाल उतारकर ले आऊं और रात को इस गधे को वह खाल ओढाकर खेतों की ओर भेजूं तो लोग इसे बाघ समझकर डरेंगे। कोई निकट नहीं फटकेगा। गधा खेत चर लिया करेगा।”

ABHAY
11-01-2011, 07:59 AM
धोबी ने ऐसा ही किया। दूसरे दिन नदी तट पर कपडे जल्दी धोकर सूखने डाल दिए और फिर वह सरकंडो के बीच जाकर बाघ की खाल उतारने लगा। शाम को लौटते समय वह खाल को कपडों के बीच छिपाकर घर ले आया।

रात को जब सब सो गए तो उसने बाघ की खाल गधे को ओढाई। गधा दूर से देखने पर बाघ जैसा ही नजर आने लगा। धोबी संतुष्ट हुआ। फिर उसने गधे को खेतों की ओर खदेड दिया। गधे ने एक खेत में जाकर फसल खाना शुरु किया। रात को खेतों की रखवाली करने वालों ने खेत में बाघ देखा तो वे डरकर भाग खडे हुए। गधे ने भरपेट फसल खाई और रात अंधेरे में ही घर लौट आया। धोबी ने तुरंत खाल उतारकर छिपा ली। अब गधे के मजे आ गए।

हर रात धोबी उसे खाल ओढाकर छोड देता। गधा सीधे खेतों में पहुंच जाता और मनपसन्द फसल खाने लगता। गधे को बाघ समझकर सब अपने घरों में दुबककर बैठे रहते। फसलें चर-चरकर गधा मोटा होने लगा। अब वह दुगना भार लेकर चलता। धोबी भी खुश हो गया।

मोटा-ताजा होने के साथ-साथ गधे के दिल का भय भी मिटने लगाउसका जन्मजात स्वभाव जोर मारने लगा। एक दिन भरपेट खाने के बाद गधे की तबीयत मस्त होने लगी। वह भी लगा लोट लगाने। खूब लोटा वह गधा। बाघ की खाल तो एक ओर गिर गई। वह अब खालिस गधा बनकर उठ खडा हुआ और डोलता हुआ खेटह् से बाहर निकला। गधे के लोट लगाने के समय पौधों के रौंदे जाने और चटकने की आवाज फैली। एक रखवाला चुपचाप बाहर निकला। खेत में झांका तो उसे एक ओर गिरी बाघ की खाल नजर आई और दिखाई दिया खेत से बाहर आता एक गधा। वह चिल्लाया “अरे, यह तो गधा हैं।”

ABHAY
11-01-2011, 08:00 AM
उसकी आवाज औरों ने भी सुनी। सब डंसे लेकर दौसे। गधे का कार्यक्रम खेत से बाहर आकर रेंकने का था। उसने मुंह खोला ही था कि उस पर डंडे बरसने लगे। क्रोध से भरे रखवालों ने उसे वहीं ढेर कर दिया। उसकी सारी पोल खुल चुकी थी। धोबी को भी वह नगर छोडकर कहीं और जाना पडा।

सीखः पहनावा बदलकर दूसरों को कुछ ही दिन धोखा दिया जा सकता हैं। अंत में असली रुप सामने आ ही जाता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 08:01 AM
बिल्ली का न्याय
एक वन में एक पेड की खोह में एक चकोर रहता था। उसी पेड के आस-पास कई पेड और थे, जिन पर फल व बीज उगते थे। उन फलों और बीजों से पेट भरकर चकोर मस्त पडा रहता। इसी प्रकार कई वर्ष बीत गए। एक दिन उडते-उडते एक और चकोर सांस लेने के लिए उस पेड की टहनी पर बैठा। दोनों में बातें हुईं। दूसरे चकोर को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह केवल वह केवल पेडों के फल व बीज चुगकर जीवन गुजार रहा था । दूसरे ने उसे बताया- “भई, दुनिया में खाने के लिए केवल फल और बीज ही नहीं होते और भी कई स्वादिष्ट चीजें हैं । उन्हें भी खाना चाहिए। खेतों में उगने वाले अनाज तो बेजोड होते हैं। कभी अपने खाने का स्वाद बदलकर तो देखो।”

दूसरे चकोर के उडने के बाद वह चकोर सोच में पड गया। उसने फैसला किया कि कल ही वह दूर नजर आने वाले खेतों की ओर जाएगा और उस अनाज नाम की चीज का स्वाद चखकर देखेग।

दूसरे दिन चकोर उडकर एक खेत के पास उतरा। खेत में धान की फसल उगी थी। चकोर ने कोंपलें खाई। उसे वह अति स्वादिष्ट लगीं। उस दिन के भोजन में उसे इतना आनंद आया कि खाकर तॄप्त होकर वहीं आखें मूंदकर सो गया। इसके बाद भी वह वहीं पडा रहा। रोज खाता-पीता और सो जाता। छः – सात दिन बाद उसे सुध आई कि घर लौटना चाहिए।

इस बीच एक खरगोश घर की तलाश में घूम रहा था। उस इलाके में जमीन के नीचे पानी भरने के कारण उसका बिल नष्ट हो गया था। वह उसी चकोर वाले पेड के पास आया और उसे खाली पाकर उसने उस पर अधिकार जमा लिया और वहां रहने लगा। जब चकोर वापस लौटा तो उसने पाया कि उसके घर पर तो किसी और का कब्जा हो गया हैं। चकोर क्रोधित होकर बोला – “ऐ भाई, तू कौन हैं और मेरे घर में क्या कर रहा हैं?”

खरगोश ने दांत दिखाकर कहा – “मैं इस घर का मालिक हूं। मैं सात दिन से यहां रह रहा हूं, यह घर मेरा हैं।”

ABHAY
11-01-2011, 08:01 AM
चकोर गुस्से से फट पडा – “सात दिन! भाई, मैं इस खोह में कई वर्षो से रह रहा हूं। किसी भी आस-पास के पंछी या चौपाए से पूछ ले।”

खरगोश चकोर की बाटह् काटता हुआ बोला- “सीधी-सी बात हैं। मैं यहां आया। यह खोह खाली पडी थी और मैं यहां बस गय मैं क्यों अब पडोसियों से पूछता फिरुं?”

चकोर गुस्से में बोला- “वाह! कोई घर खाली मिले तो इसका यह मतलब हुआ कि उसमें कोई नहीं रहता? मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि शराफत से मेरा घर खाली कर दे वर्ना…।”

खरगोश ने भी उसे ललकारा- “वर्ना तू क्या कर लेगा? यह घर मेरा हैं। तुझे जो करना हैं, कर ले।”

चकोर सहम गया। वह मदद और न्याय की फरीयाद लेकर पडोसी जानवरों के पास गया सबने दिखावे की हूं-हूं की, परन्तु ठोस रुप से कोई सहायता करने सामने नहीं आया।

एक बूढे पडोसी ने कहा – “ज्यादा झगडा बढाना ठीक नहीं होगा । तुम दोनों आपस में कोई समझौता कर लो।” पर समझौते की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी, क्योंकि खरगोश किसी शर्त पर खोह छोडने को तैयार नहीं था। अंत में लोमडी ने उन्हें सलाह दी – “तुम दोनों किसी ज्ञानी-ध्यानी को पंच बनाकर अपने झगडे का फैसला उससे करवाओ।”

दोनों को यह सुझाव पसंद आया। अब दोनों पंच की तलाश में इधर-उधर घूमने लगे। इसी प्रकार घूमते-घूमते वे दोनों एक दिन गंगा किनारे आ निकले। वहां उन्हें जप तप में मग्न एक बिल्ली नजर आई। बिल्ली के माथे पर तिलक था। गले में जनेऊ और हाथ में माला लिए मॄगछाल पर बैठी वह पूरी तपस्विनी लग रही ती। उसे देखकर चकोर व खरगोश खुशी से उछल पडे। उन्हें भला इससे अच्छा ज्ञानी-ध्यानी कहां मिलेगा। खरगोश ने कहा – “चकोर जी, क्यों न हम इससे अपने झगडे का फैसला करवाएं?”

ABHAY
11-01-2011, 08:02 AM
चकोर पर भी बिल्ली का अच्छा प्रभाव पडा था। पर वह जरा घबराया हुआ था। चकोर बोला -”मुझे कोई आपत्ति नही है पर हमें जरा सावधान रहना चाहिए।” खरगोश पर तो बिल्ली का जादू चल गया था। उसने कहा-”अरे नहीं! देखते नहीं हो, यह बिल्ली सांसारिक मोह-माया त्यागकर तपस्विनी बन गई हैं।”

सच्चाई तो यह थी कि बिल्ली उन जैसे मूर्ख जीवों को फांसने के लिए ही भक्ति का नाटक कर रही थी। फिर चकोर और खरगोश पर और प्रभाव डालने के लिए वह जोर-जोर से मंत्र पडने लगी। खरगोश और चकोर ने उसके निकट आकर हाथ जोडकर जयकारा लगाया -”जय माता दी। माता को प्रणाम।”

बिल्ली ने मुस्कुराते हुए धीरे से अपनी आंखे खोली और आर्शीवाद दिया -”आयुष्मान भव, तुम दोनों के चहरों पर चिंता की लकेरें हैं। क्या कष्ट हैं तुम्हें, बच्चो?”

चकोर ने विनती की -”माता हम दोनों के बीच एक झगडा हैं। हम चाहते हैं कि आप उसका फैसला करें।”

बिल्ली ने पलकें झपकाईं -”हरे राम, हरे राम! तुम्हें झगडना नहीं चाहिए। प्रेम और शांति से रहो।” उसने उपदेश दिया और बोली -”खैर, बताओ, तुम्हारा झगडा क्या है?”

चकोर ने मामला बताया। खरगोश ने अपनी बात कहने के लिए मुंह खोला ही था कि बिल्ली ने पंजा उठाकर रोका और बोली “बच्चो, मैं काफी बूढी हूं ठीक से सुनाई नहीं देता। आंखे भी कमजोर हैं इसलिए तुम दोनों मेरे निकट आकर मेरे कान में जोर से अपनी-अपनी बात कहो ताकि मैं झगडे का कारण जान सकूं और तुम दोनों को न्याय दे सकूं। जय सियाराम।”

ABHAY
11-01-2011, 08:02 AM
वे दोनों भगतिन बिल्ली के बिलकुल निकट आ गए ताकि उसके कानों में अपनी-अपनी बात कह सकें। बिल्ली को इसी अवसर की तलाश थी उसने ‘म्याऊं’ की आवाज लगाई और एक ही झपट्टे में खरगोश और चकोर का काम तमाम कर दिया। फिर वह आराम से उन्हें खाने लगी।

वे दोनों भगतिन बिल्ली के बिलकुल निकट आ गए ताकि उसके कानों में अपनी-अपनी बात कह सकें। बिल्ली को इसी अवसर की तलाश थी उसने ‘म्याऊं’ की आवाज लगाई और एक ही झपट्टे में खरगोश और चकोर का काम तमाम कर दिया। फिर वह आराम से उन्हें खाने लगी।

सीखः दो के झगडे में तीसरे का ही फायदा होता हैं, इसलिए झगडों से दूर रहो।

ABHAY
11-01-2011, 08:04 AM
बुद्धिमान सियार
एक समय की बात हैं कि जंगल में एक शेर के पैर में कांटा चुभ गया। पंजे में जख्म हो गया और शेर के लिए दौडना असंभव हो गया। वह लंगडाकर मुश्किल से चलता। शेर के लिए तो शिकार न करने के लिए दौडना जरुरी होता है। इसलिए वह कई दिन कोई शिकार न कर पाया और भूखों मरने लगा। कहते हैं कि शेर मरा हुआ जानवर नहीं खाता, परन्तु मजबूरी में सब कुछ करना पडता हैं। लंगडा शेर किसी घायल अथवा मरे हुए जानवर की तलाश में जंगल में भटकने लगा। यहां भी किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया। कहीं कुछ हाथ नहीं लगा।

धीरे-धीरे पैर घसीटता हुआ वह एक गुफा के पास आ पहुंचा। गुफा गहरी और संकरी थी, ठीक वैसी जैसे जंगली जानवरों के मांद के रुप में काम आती हैं। उसने उसके अंदर झांका मांद खाली थी पर चारो ओर उसे इस बात के प्रमाण नजर आए कि उसमें जानवर का बसेरा हैं। उस समय वह जानवर शायद भोजन की तलाश में बाहर गया हुआ था। शेर चुपचाप दुबककर बैठ गया ताकि उसमें रहने वाला जानवर लौट आए तो वह दबोच ले।

सचमुच उस गुफा में सियार रहता था, जो दिन को बाहर घूमता रहता और रात को लौट आता था। उस दिन भी सूरज डूबने के बाद वह लौट आया। सियार काफी चालाक था। हर समय चौकन्ना रहता था। उसने अपनी गुफा के बाहर किसी बडे जानवर के पैरों के निशान देखे तो चौंका उसे शक हुआ कि कोई शिकारी जीव मांद में उसके शिकार की आस में घात लगाए न बठा हो। उसने अपने शक की पुष्टि के लिए सोच विचार कर एक चाल चली। गुफा के मुहाने से दूर जाकर उसने आवाज दी “गुफा! ओ गुफा।”

ABHAY
11-01-2011, 08:05 AM
गुफा में चुप्पी छायी रही उसने फिर पुकारा “अरी ओ गुफा, तु बोलती क्यों नहीं?”

भीतर शेर दम साधे बैठा था। भूख के मारे पेट कुलबुला रहा था। उसे यही इंतजार था कि कब सियार अंदर आए और वह उसे पेट में पहुंचाए। इसलिए वह उतावला भी हो रहा था। सियार एक बार फिर जोर से बोला “ओ गुफा! रोज तु मेरी पुकार का के जवाब में मुझे अंदर बुलाती हैं। आज चुप क्यों हैं? मैंने पहले ही कह रखा हैं कि जिस दिन तु मुझे नहीं बुलाएगी, उस दिन मैं किसी दूसरी गुफा में चला जाऊंगा। अच्छा तो मैं चला।”

यह सुनकर शेर हडबडा गया। उसने सोचा शायद गुफा सचमुच सियार को अंदर बुलाती होगी। यह सोचकर कि कहीं सियार सचमुच न चला जाए, उसने अपनी आवाज बदलकर कहा “सियार राजा, मत जाओ अंदर आओ न। मैं कब से तुम्हारी राह देख रही थी।”

सियार शेर की आवाज पहचान गया और उसकी मूर्खता पर हंसता हुआ वहां से चला गया और फिर लौटकर नहीं आया। मूर्ख शेर उसी गुफा में भूखा-प्यासा मर गया।

सीखः सतर्क व्यक्ति जीवन में कभी मार नहीं खाता।

ABHAY
11-01-2011, 08:06 AM
मक्खीचूस गीदड
जंगल मे एक गीदड रहता था था। वह बडा क कंजूस था,क्योंकि वह एक जंगली जीव था इसलिए हम रुपये-पैसों की कंजूसी की बात नझीं कर रहे। वह कंजूसी अपने शिकार को खाने में किया करता था। जितने शिकार से दूसरा गीदड दो दिन काम चलाता, वह उतने ही शिकार को सात दिन तक खींचता। जैसे उसने एक खरगोश का शिकार किया। पहले दिन वह एक ही कान खाता। बाकी बचाकर रखता। दूसरे दिन दूसरा कान खाता। ठीक वैसे जैसे कंजूस व्यक्ति पैसा घिस घिसकर खर्च करता हैं। गीदड अपने पेट की कंजूसी करता। इस चक्कर में प्रायः भूखा रह जाता। इसलिए दुर्बल भी बहुत हो गया था।

एक बार उसे एक मरा हुआ बारहसिंघा हिरण मिला। वह उसे खींचकर अपनी मांद में ले गया। उसने पहले हिरण के सींग खाने का फैसला किया ताकि मांस बचा रहे। कई दिन वह बस सींग चबाता रहा। इस बीच हिरण का मांस सड गया और वह केवल गिद्धों के खाने लायक रह गया। इस प्रकार मक्खीचूस गीदड प्रायः हंसी का पात्र बनता। जब वह बाहर निकलता तो दूसरे जीव उसका मरियल-सा शरीर देखते और कहते “वह देखो, मक्खीचूस जा रहा हैं।

पर वह परवाह न करता। कंजूसों में यह आदत होती ही हैं। कंजूसों की अपने घर में भी खिल्ली उडती हैं, पर वह इसे अनसुना कर देते हैं।

उसी वन में एक शिकारी शिकार की तलाश में एक दिन आया। उसने एक सुअर को देखा और निशाना लगाकर तीर छोडा। तीर जंगली सुअर की कमर को बींधता हुआ शरीर में घुसा। क्रोधित सुअर शिकारी की ओर दौडा और उसने खच से अपने नुकीले दंत शिकारी के पेंट में घोंप दिए। शिकारी ओर शिकार दोनों मर गए।

ABHAY
11-01-2011, 08:08 AM
तभी वहां मक्खीचूस गीदड आ निकला। वह् खुशी से उछल पडा। शिकारी व सुअर के मांस को कम से कम दो महीने चलाना हैं। उसने हिसाब लगाया।

“रोज थोडा-थोडा खाऊंगा।’ वह बोला।

तभी उसकी नजर पास ही पडे धनुष पर पडी। उसने धनुष को सूंघा। धनुष की डोर कोनों पर चमडी की पट्टी से लकडी से बंधी थी। उसने सोचा “आज तो इस चमडी की पट्टी को खाकर ही काम चलाऊंगा। मांस खर्च नहीं करूंगा। पूरा बचा लूंगा।’

ऐसा सोचकर वह धनुष का कोना मुंह में डाल पट्टी काटने लगा। ज्यों ही पट्टी कटी, डोर छूटी और धनुष की लकडी पट से सीधी हो गई। धनुष का कोना चटाक से गीदड के तालू में लगा और उसे चीरता हुआ। उसकी नाक तोडकर बाहर निकला। मख्खीचूस गीदड वहीं मर गया।

सीखः अधिक कंजूसी का परिणाम अच्छा नहीं होता।

ABHAY
11-01-2011, 08:10 AM
मित्र की सलाह
एक धोबी का गधा था। वह दिन भर कपडों के गट्ठर इधर से उधर ढोने में लगा रहता। धोबी स्वयं कंजूस और निर्दयी था। अपने गधे के लिए चारे का प्रबंध नहीं करता था। बस रात को चरने के लिए खुला छोड देता । निकट में कोई चरागाह भी नहीं थी। शरीर से गधा बहुत दुर्बल हो गया था।

एक रात उस गधे की मुलाकात एक गीदड से हुई। गीदड ने उससे पूछा “खिए महाशय, आप इतने कमजोर क्यों हैं?”

गधे ने दुखी स्वर में बताया कि कैसे उसे दिन भर काम करना पडता हैं। खाने को कुछ नहीं दिया जाता। रात को अंधेरे में इधर-उधर मुंह मारना पडता हैं।

गीदड बोला “तो समझो अब आपकी भुखमरी के दिन गए। यहां पास में ही एक बडा सब्जियों का बाग हैं। वहां तरह-तरह की सब्जियां उगी हुई हैं। खीरे, ककडियां, तोरी, गाजर, मूली, शलजम और बैगनों की बहार हैं। मैंने बाड तोडकर एक जगह अंदर घुसने का गुप्त मार्ग बना रखा हैं। बस वहां से हर रात अंदर घुसकर छककर खाता हूं और सेहत बना रहा हूं। तुम भी मेरे साथ आया करो।” लार टपकाता गधा गीदड के साथ हो गया।

बाग में घुसकर गधे ने महीनों के बाद पहली बार भरपेट खाना खाया। दोनों रात भर बाग में ही रहे और पौ फटने से पहले गीदड जंगल की ओर चला गया और गधा अपने धोबी के पास आ गया।

ABHAY
11-01-2011, 08:10 AM
उसके बाद वे रोज रात को एक जगह मिलते। बाग में घुसते और जी भरकर खाते। धीरे-धीरे गधे का शरीर भरने लगा। उसके बालों में चमक आने लगी और चाल में मस्ती आ गई। वह भुखमरी के दिन बिल्कुल भूल गया। एक रात खूब खाने के बाद गधे की तबीयत अच्छी तरह हरी हो गई। वह झूमने लगा और अपना मुंह ऊपर उठाकर कान फडफडाने लगा। गीदड ने चिंतित होकर पूछा “मित्र, यह क्या कर रहे हो? तुम्हारी तबीयत तो ठीक हैं?”

गधा आंखे बंद करके मस्त स्वर में बोला “मेरा दिल गाने का कर रहा हैं। अच्छा भोजन करने के बाद गाना चाहिए। सोच रहा हूं कि ढैंचू राग गाऊं।”

गीदड ने तुरंत चेतावनी दी “न-न, ऐसा न करना गधे भाई। गाने-वाने का चक्कर मत चलाओ। यह मत भूलो कि हम दोनों यहां चोरी कर रहे हैं। मुसीबत को न्यौता मत दो।”

गधे ने टेढी नजर से गीदड को देखा और बोला “गीदड भाई, तुम जंगली के जंगली रहे। संगीत के बारे में तुम क्या जानो?”

गीदड ने हाथ जोडे “मैं संगीत के बारे में कुछ नहीं जानता। केवल अपनी जान बचाना जानता हूं। तुम अपना बेसुरा राग अलापने की जिद छोडो, उसी में हम दोनों की भलाई हैं।”

गधे ने गीदड की बात का बुरा मानकर हवा में दुलत्ती चलाई और शिकायत करने लगा “तुमने मेरे राग को बेसुरा कहकर मेरी बेइज्जती की हैं। हम गधे शुद्ध शास्त्रीय लय में रेंकते हैं। वह मूर्खों की समझ में नहीं आ सकता।”

ABHAY
11-01-2011, 08:11 AM
गीदड बोला “गधे भाई, मैं मूर्ख जंगली सही, पर एक मित्र के नाते मेरी सलाह मानो। अपना मुंह मत खोलो। बाग के चौकीदार जाग जाएंगे।”

गधा हंसा “अरे मूर्ख गीदड! मेरा राग सुनकर बाग के चौकीदार तो क्या, बाग का मालिक भी फूलों का हार लेकर आएगा और मेरे गले में डालेगा।”

गीदड ने चतुराई से काम लिया और हाथ जोडकर बोला “गधे भाई, मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया हैं। तुम महान गायक हो। मैं मूर्ख गीदड भी तुमहारे गले में डालने के लिए फूलों की माला लाना चाहता हूं।मेरे जाने के दस मिनट बाद ही तुम गाना शुरु करना ताकि मैं गायन समाप्त होने तक फूल मालाएं लेकर लौट सकूं।”

गधे ने गर्व से सहमति में सिर हिलाया। गीदड वहां से सीधा जंगल की ओर भाग गया। गधे ने उसके जाने के कुछ समय बाद मस्त होकर रेंकना शुरु किया। उसके रेंकने की आवाज सुनते ही बाग के चौकीदार जाग गए और उसी ओर लट्ठ लेकर दौडे, जिधर से रेंकने की आवाज आ रही थी। वहां पहुंचते ही गधे को देखकर चौकीदार बोला “यही हैं वह दुष्ट गधा, जो हमारा बाग चर रहा था।’

बस सारे चौकीदार डंडों के साथ गधे पर पिल पडे। कुछ ही देर में गधा पिट-पिटकर अधमरा गिर पडा।

सीखः अपने शुभचिन्तकों और हितैषियों की नेक सलाह न मानने का परिणाम बुरा होता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 08:12 AM
मुफ्तखोर मेहमान
एक राजा के शयनकक्ष में मंदरीसर्पिणी नाम की जूं ने डेरा डाल रखा था। रोज रात को जब राजा जाता तो वह चुपके से बाहर निकलती और राजा का खून चूसकर फिर अपने स्थान पर जा छिपती।

संयोग से एक दिन अग्निमुख नाम का एक खटमल भी राजा के शयनकक्ष में आ पहुंचा। जूं ने जब उसे देखा तो वहां से चले जाने को कहा। उसने अपने अधिकार-क्षेत्र में किसी अन्य का दखल सहन नहीं था।

लेकिन खटमल भी कम चतुर न था, बोलो, ‘‘देखो, मेहमान से इसी तरह बर्ताव नहीं किया जाता, मैं आज रात तुम्हारा मेहमान हूं।’’ जूं अततः खटमल की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गई और उसे शरण देते हुए बोली,

‘‘ठीक है, तुम यहां रातभर रुक सकते हो, लेकिन राजा को काटोगे तो नहीं उसका खून चूसने के लिए।’’

खटमल बोला, ‘‘लेकिन मैं तुम्हारा मेहमान है, मुझे कुछ तो दोगी खाने के लिए। और राजा के खून से बढ़िया भोजन और क्या हो सकता है।’’

‘‘ठीक है।’’ जूं बोली, ‘‘तुम चुपचाप राजा का खून चूस लेना, उसे पीड़ा का आभास नहीं होना चाहिए।’’

‘‘जैसा तुम कहोगी, बिलकुल वैसा ही होगा।’’ कहकर खटमल शयनकक्ष में राजा के आने की प्रतीक्षा करने लगा।

रात ढलने पर राजा वहां आया और बिस्तर पर पड़कर सो गया। उसे देख खटमल सबकुछ भूलकर राजा को काटने लगा, खून चूसने के लिए। ऐसा स्वादिष्ट खून उसने पहली बार चखा था, इसलिए वह राजा को जोर-जोर से काटकर उसका खून चूसने लगा। इससे राजा के शरीर में तेज खुजली होने लगी और उसकी नींद उचट गई। उसने क्रोध में भरकर अपने सेवकों से खटमल को ढूंढकर मारने को कहा।
यह सुनकर चतुर खटमल तो पंलग के पाए के नीचे छिप गया लेकिन चादर के कोने पर बैठी जूं राजा के सेवकों की नजर में आ गई। उन्होंने उसे पकड़ा और मार डाला।
शिक्षा—अजनबियों पर कभी विश्वास न करो।

ABHAY
11-01-2011, 08:13 AM
मुर्ख गधा
किसी जंगल में एक शेर रहता था। एक सियार उसका सेवक था। एक बार एक हाथी से शेर की लड़ाई हो गई। शेर बुरी तरह घायल हो गया। वह चलने-फिरने में भी असमर्थ हो गया। आहार न मिलने से सियार भी भूखा था।

शेर ने सियार से कहा-‘तुम जाओ और किसी पशु को खोजकर लाओ, जिसे मारकर हम अपने पेट भर सकें।’ सियार किसी जानवर की खोज करता हुआ एक गाँव में पहुँच गया। वहाँ उसने एक गधे को घास चरते हुए देखा। सियार गधे के पास गया और बोला-‘मामा, प्रणाम! बहुत दिनों बाद आपके दर्शन हुए हैं। आप इतने दुबले कैसे हो गए?’ गधा बोला-‘भाई, कुछ मत पूछो। मेरा स्वामी बड़ा कठोर है। वह पेटभर कर घास नहीं देता। इस धूल से सनी हुई घास खाकर पेट भरना पड़ता है।’ सियार ने कहा-‘मामा, उधर नदी के किनारे एक बहुत बड़ा घास का मैदान है। आप वहीं चलें और मेरे साथ आनंद से रहें।’गधे ने कहा-‘भाई, मैं तो गाँव का गधा हूँ। वहाँ जंगली जानवरों के साथ मैं कैसे रह सकूँगा?’ सियार बोला- ‘मामा, वह बड़ी सुरक्षित जगह है। वहाँ किसी का कोई डर नहीं है। तीन गधियाँ भी वहीं रहती हैं। वे भी एक धोबी के अत्याचारों से तंग होकर भाग आई हैं। उनका कोई पति भी नहीं है। आप उनके योग्य हो!’ चाहो तो उन तीनों के पति भी बन सकते हो। चलो तो सही।’सियार की बात सुनकर गधा लालच में आ गया। गधे को लेकर धूर्त सियार वहाँ पहुँचा, जहाँ शेर छिपा हुआ बैठा था। शेर ने पंजे से गधे पर प्रहार किया लेकिन गधे को चोट नहीं लगी और वह डरकर भाग खड़ा हुआ।

ABHAY
11-01-2011, 08:15 AM
तब सियार ने नाराज होकर शेर से कहा-‘तुम एकदम निकम्मे हो गए! जब तुम एक गधे को नहीं मार सकते, तो हाथी से कैसे लड़ोगे?’ शेर झेंपता हुआ बोला-‘मैं उस समय तैयार नहीं था, इसीलिए चूक हो गई।’ सियार ने कहा-‘अच्छा, अब तुम पूरी तरह तैयार होकर बैठो, मैं उसे फिर से लेकर आता हूँ।’ वह फिर गधे के पास पहुँचा। गधे ने सियार को देखते ही कहा-‘तुम तो मुझे मौत के मुँह में ही ले गए थे। न जाने वह कौन-सा जानवर था। मैं बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भागा!’सियार ने हँसते हुए कहा-‘अरे मामा, तुम उसे पहचान नहीं पाए। वह तो गधी थी। उसने तो प्रेम से तुम्हारा स्वागत करने के लिए हाथ बढ़ाया था। तुम तो बिल्कुल कायर निकले! और वह बेचारी तुम्हारे वियोग में खाना-पीना छोड़कर बैठी है। तुम्हें तो उसने अपना पति मान लिया है। अगर तुम नहीं चलोगे तो वह प्राण त्याग देगी।’गधा एक बार फिर सियार की बातों में आ गया और उसके साथ चल पड़ा। इस बार शेर नहीं चूका। उसने गधे को एक ही झपट्टे में मार दिया। भोजन करने से पहले शेर स्नान करने के लिए चला गया। इस बीच सियार ने उस गधे का दिल और दिमाग खा लिया।

शेर स्नान करके लौटा तो नाराज होकर बोला-‘ओ सियार के बच्चे! तूने मेरे भोजन को जूठा क्यों किया? तूने इसके हृदय और सर क्यों खा लिए ?’

धूर्त सियार गिड़गिड़ाता हुआ बोला-”महाराज, मैंने तो कुछ भी नहीं खाया है। इस गधे का दिल और दिमाग था ही नहीं, यदि इसके होते तो यह दोबारा मेरे साथ कैसे आ सकता था। शेर को सियार की बात पर विश्वास आ गया। वह शांत होकर भोजन करने में जुट गया।”
सबक: जो दिल और दिमाग से काम नहीं लेते है, वो हमेशा किसी का शिकार हो जाते है चाहे वो जानवर हो या फिर इंसान ।

ABHAY
11-01-2011, 08:16 AM
मूर्ख को सीख
एक जंगल में एक पेड पर गौरैया का घोंसला था। एक दिन कडाके की ठंड पड रही थी। ठंड से कांपते हुए तीन चार बंदरो ने उसी पेड के नीचे आश्रय लिया। एक बंदर बोला “कहीं से आग तापने को मिले तो ठंड दूर हो सकती हैं।”

दूसरे बंदर ने सुझाया “देखो, यहां कितनी सूखी पत्तियां गिरी पडी हैं। इन्हें इकट्ठा कर हम ढेर लगाते हैं और फिर उसे सुलगाने का उपाय सोचते हैं।”

बंदरों ने सूखी पत्तियों का ढेर बनाया और फिर गोल दायरे में बैठकर सोचने लगे कि ढेर को कैसे सुलगाया जाए। तभी एक बंदर की नजर दूर हवा में उडते एक जुगनू पर पडी और वह उछल पडा। उधर ही दौडता हुआ चिल्लाने लगा “देखो, हवा में चिंगारी उड रही हैं। इसे पकडकर ढेर के नीचे रखकर फूंक मारने से आग सुलग जाएगी।”

“हां हां!” कहते हुए बाकी बंदर भी उधर दौडने लगे। पेड पर अपने घोंसले में बैठी गौरैया यह सब देख रही थे। उससे चुप नहीं रहा गया। वह बोली ” बंदर भाइयो, यह चिंगारी नहीं हैं यह तो जुगनू हैं।”

एक बंदर क्रोध से गौरैया की देखकर गुर्राया “मूर्ख चिडिया, चुपचाप घोंसले में दुबकी रह।हमें सिखाने चली हैं।”

इस बीच एक बंदर उछलकर जुगनू को अपनी हथेलियों के बीच कटोरा बनाकर कैद करने में सफल हो गया। जुगनू को ढेर के नीचे रख दिया गया और सारे बंदर लगे चारों ओर से ढेर में फूंक मारने।

ABHAY
11-01-2011, 08:17 AM
गौरैया ने सलाह दी “भाइयो! आप लोग गलती कर रहें हैं। जुगनू से आग नहीं सुलगेगी। दो पत्थरों को टकराकर उससे चिंगारी पैदा करके आग सुलगाइए।”

बंदरों ने गौरैया को घूरा। आग नहीं सुलगी तो गौरैया फिर बोल उठी “भाइयो! आप मेरी सलाह मानिए, कम से कम दो सूखी लकडियों को आपस में रगडकर देखिए।”

सारे बंदर आग न सुलगा पाने के कारण खीजे हुए थे। एक बंदर क्रोध से भरकर आगे बढा और उसने गौरैया पकडकर जोर से पेड के तने पर मारा। गौरैया फडफडाती हुई नीचे गिरी और मर गई।

सीखः मूर्खों को सीख देने का कोई लाभ नहीं होता। उल्टे सीख देने वाला को ही पछताना पडता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 08:19 AM
मूर्ख बातूनी कछुआ
एक तालाब में एक कछुआ रहता था। उसी तलाब में दो हंस तैरने के लिए उतरते थे। हंस बहुत हंसमुख और मिलनसार थे। कछुए और उनमें दोस्ती हते देर न लगी। हंसो को कछुए का धीमे-धीमे चलना और उसका भोलापन बहुत अच्छा लगा। हंस बहुत ज्ञानी भी थे। वे कछुए को अदभुत बातें बताते। ॠषि-मुनियों की कहानियां सुनाते। हंस तो दूर-दूर तक घूमकर आते थे, इसलिए दूसरी जगहों की अनोखी बातें कछुए को बताते। कछुआ मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातें सुनता। बाकी तो सब ठीक था, पर कछुए को बीच में टोका-टाकी करने की बहुत आदत थी। अपने सज्जन स्वभाव के कारण हंस उसकी इस आदत का बुरा नहीं मानते थे। उन तीनों की घनिष्टता बढती गई। दिन गुजरते गए।

एक बार बडे जोर का सुखा पडा। बरसात के मौसम में भी एक बूंद पानी नहीं बरसा। उस तालाब का पानी सूखने लगा। प्राणी मरने लगे, मछलियां तो तडप-तडपकर मर गईं। तालाब का पानी और तेजी से सूखने लगा। एक समय ऐसा भी आया कि तालाब में खाली कीचड रह गया। कछुआ बडे संकट में पड गया। जीवन-मरण का प्रश्न खडा हो गया। वहीं पडा रहता तो कछुए का अंत निश्चित था। हंस अपने मित्र पर आए संकट को दूर करने का उपाय सोचने लगे। वे अपने मित्र कछुए को ढाडस बंधाने का प्रयत्न करते और हिम्म्त न हारने की सलाह देते। हंस केवल झूठा दिलासा नहीं दे रहे थे। वे दूर-दूर तक उडकर समस्या का हल ढूढते। एक दिन लौटकर हंसो ने कहा “मित्र, यहां से पचास कोस दूर एक झील हैं।उसमें काफी पानी हैं तुम वहां मजे से रहोगे।” कछुआ रोनी आवाज में बोला “पचास कोस? इतनी दूर जाने में मुझे महीनों लगेंगे। तब तक तो मैं मर जाऊंगा।”

ABHAY
11-01-2011, 08:20 AM
कछुए की बात भी ठीक थी। हंसो ने अक्ल लडाई और एक तरीका सोच निकाला।

वे एक लकडी उठाकर लाए और बोले “मित्र, हम दोनों अपनी चोंच में इस लकडी के सिरे पकडकर एक साथ उडेंगे। तुम इस लकडी को बीच में से मुंह से थामे रहना। इस प्रकार हम उस झील तक तुम्हें पहुंचा देंगे उसके बाद तुम्हें कोई चिन्ता नहीं रहेगी।”

उन्होंने चेतावनी दी “पर याद रखना, उडान के दौरान अपना मुंह न खोलना। वरना गिर पडोगे।”

कछुए ने हामी में सिर हिलाया। बस, लकडी पकडकर हंस उड चले। उनके बीच में लकडी मुंह दाबे कछुआ। वे एक कस्बे के ऊपर से उड रहे थे कि नीचे खडे लोगों ने आकाश में अदभुत नजारा देखा। सब एक दूसरे को ऊपर आकाश का दॄश्य दिखाने लगे। लोग दौड-दौडकर अपने चज्जों पर निकल आए। कुछ अपने मकानों की छतों की ओर दौडे। बच्चे बूडे, औरतें व जवान सब ऊपर देखने लगे। खूब शोर मचा। कछुए की नजर नीचे उन लोगों पर पडी।

उसे आश्चर्य हुआ कि उन्हें इतने लोग देख रहे हैं। वह अपने मित्रों की चेतावनी भूल गया और चिल्लाया “देखो, कितने लोग हमें देख रहे है!” मुंह के खुलते ही वह नीचे गिर पडा। नीचे उसकी हड्डी-पसली का भी पता नहीं लगा।

सीखः बेमौके मुंह खोलना बहुत महंगा पडता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 08:21 AM
रंग में भंग
एक बार जंगल में पक्षियों की आम सभा हुई। पक्षियों के राजा गरुड थे। सभी गरुड से असंतुष्ट थे। मोर की अध्यक्षता में सभा हुई। मोर ने भाषण दिया “साथियो, गरुडजी हमारे राजा हैं पर मुझे यह कहते हुए बहुत दुख होता हैं कि उनके राज में हम पक्षियों की दशा बहुत खराब हो गई हैं। उसका यह कारण हैं कि गरुडजी तो यहां से दूर विष्णु लोक में विष्णुजी की सेवा में लगे रहते हैं। हमारी ओर ध्यान देने का उन्हें समय ही नहीं मिलता। हमें अओअनी समस्याएं लेकर फरियाद करने जंगली चौपायों के राजा सिंह के पास जाना पडता हैं। हमारी गिनती न तीन में रह गई हैं और न तेरह में। अब हमें क्या करना चाहिए, यही विचारने के लिए यह सभा बुलाई गई हैं।

हुदहुद ने प्रस्ताव रखा “हमें नया राजा चुनना चाहिए, जो हमारी समस्याएं हल करे और दूसरे राजाओं के बीच बैठकर हम पक्षियों को जीव जगत में सम्मान दिलाए।”

मुर्गे ने बांग दी “कुकडूं कूं। मैं हुदहुदजी के प्रस्ताव का समर्थन करता हूं”

चील ने जोर की सीटी मारी “मैं भी सहमत हूं।”

मोर ने पंख फैलाए और घोषणा की “तो सर्वसम्मति से तय हुआ कि हम नए राजा का चुनाव करें, पर किसे बनाएं हम राजा?”।

सभी पक्षी एक दूसरे से सलाह करने लगे। काफी देर के बाद सारस ने अपना मुंह खोला “मैं राजा पद के लिए उल्लूजी का नाम पेश करता हूं। वे बुद्धिमान हैं। उनकी आंखें तेजस्वी हैं। स्वभाव अति गंभीर हैं, ठीक जैसे राजा को शोभा देता हैं।”

ABHAY
11-01-2011, 08:21 AM
हार्नबिल ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा “सारसजी का सुझाव बहुत दूरदर्शितापूर्ण हैं। यह तो सब जानते हैं कि उल्लूजी लक्ष्मी देवी की सवारी है। उल्लू हमारे राजा बन गए तो हमारा दारिद्रय दूर हो जाएगा।”

लक्ष्मीजी का नाम सुनते ही सब पर जादू सा प्रभाव हुआ। सभी पक्षी उल्लू को राजा बनाने पर राजी हो गए।

मोर बोला “ठीक हैं, मैं उल्लूजी से प्रार्थना करता हूं कि वे कुछ शब्द बोलें।”

उल्लू ने घुघुआते कहा “भाइयो, आपने राजा पद पर मुझे बिठाने का निर्णय जो किया हैं उससे मैं गदगद हो गया हूं। आपको विश्वास दिलाता हूं कि मुझे आपकी सेवा करने का जो मौका मिला हैं, मैं उसका सदुपयोग करते हुए आपकी सारी समस्याएं हल करने का भरसक प्रयत्न करुंगा। धन्यवाद।”

पक्षि जनों ने एक स्वर में ‘उल्लू महाराज की जय’ का नारा लगाया।

कोयलें गाने लगी। चील जाकर कहीं से मनमोहक डिजाइन वाला रेशम का शाल उठाकर ले आई। उसे एक डाल पर लटकाया गया और उल्लू उस पर विराजमान हुए। कबूतर जाकर कपडों की रंगबिरंगी लीरें उठाकर लाए और उन्हें पेड की टहनियों पर लटकाकर सजाने लगे। मओरों की टोलियां पेड के चारों ओर नाचने लगी।

मुर्गों व शतुरमुर्गों ने पेड के निकट पंजो से मिट्टी खोद-खोदकर एक बडा हवन तैयार किया। दूसरे पक्षी लाल रंग के फूल ला-लाकर कुंड में ढेरी लगाने लगे। कुंड के चारों ओर आठ-दस तोते बैठकर मंत्र पढने लगे।

ABHAY
11-01-2011, 08:23 AM
बया चिडियों ने सोने व चाण्दी के तारों से मुकुट बुन डाला तथा हंस मोती लाकर मुकुट में फिट करने लगे। दो मुख्य तोते पुजारियों ने उल्लू से प्रार्थना की “हे पक्षी श्रेष्ठ, चलिए लक्ष्मी मंदिर चलकर लक्ष्मीजी का पूजन करें।”

निर्वाचित राजा उल्लू तोते पंडितों के साथ लक्ष्मी मंदिर के ओर उड चले उनके जाने के कुछ क्षण पश्चात ही वहां कौआ आया। चारों ओर जश्न सा माहोल देखकर वह चौंका। उसने पूछा “भाई, यहां किस उत्सव की तैयारी हो रही हैं?

पक्षियों ने उल्लू के राजा बनने की बात बताई। कौआ चीखा “मुझे सभा में क्यों नहीं बुलाया गया? क्या मैं पक्षी नहीं?”

मोर ने उत्तर दिया “यह जंगली पक्षियों की सभा हैं। तुम तो अब जाकर अधिकतर कस्बों व शहरों में रहने लगे हो। तुम्हारा हमसे क्या वास्ता?”

कौआ उल्लू के राजा बनने की बात सुनकर जल-भुन गया था। वह सिर पटकने लगा और कां-कां करने लगा “अरे, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया हैं, जो उल्लू को राजा बनाने लगे? वह चूहे खाकर जीता हैं और यह मत भूलो कि उल्लू केवल रात को बाहर निकलता हैं। अपनी समस्याएं और फरियाद लेकर किसके पास जाओगे? दिन को तो वह मिलेगा नहीं।”

ABHAY
11-01-2011, 08:24 AM
कौए की बातों का पक्षियों पर असर होने लगा। वे आपस में कानाफूसी करने लगे कि शायद उल्लू को राजा बनाने का निर्णय कर उन्होंने गलती की हैं। धीरे-धीरे सारे पक्षी वहां से खिसकने लगे। जब उल्लू लक्ष्मी पूजन कार तोतों के साथ लौटा तो सारा राज्याभिषेक स्थल सूना पडा था। उल्लू घुघुआया “सब कहां गए?”

उल्लू की सेविका खंडरिच पेड पर से बोली “कौआ आकर सबको उल्टी पट्टी पढा गया। सब चले गए। अब कोई राज्याभिषेक नहीं होगा।”

उल्लू चोंच पीसकर रह गया। राजा बनने का सपना चूर-चूर हो गया तब से उल्लू कौओं का बैरी बन गया और देखते ही उस पर झपटता हैं।

सीखः कई में दूसरों के रंग में भंग डालने की आदत होती हैं और वे उम्र-भर की दुश्मनी मोल ले बैठते हैं।

ABHAY
11-01-2011, 08:25 AM
रंगा सियार
एक बार की बात हैं कि एक सियार जंगल में एक पुराने पेड के नीचे खडा था। पूरा पेड हवा के तेज झोंके से गिर पडा। सियार उसकी चपेट में आ गया और बुरी तरह घायल हो गया। वह किसी तरह घिसटता-घिसटता अपनी मांद तक पहुंचा। कई दिन बाद वह मांद से बाहर आया। उसे भूख लग रही थी। शरीर कमजोर हो गया था तभी उसे एक खरगोश नजर आया। उसे दबोचने के लिए वह झपटा। सियार खुछ दूर भागकर हांफने लगा। उसके शरीर में जान ही कहां रह गई थी? फिर उसने एक बटेर का पीछा करने की कोशिश की। यहां भी वह असफल रहा। हिरण का पीछा करने की तो उसकी हिम्मत भी न हुई। वह खडा सोचने लगा। शिकार वह कर नहीं पा रहा था। भूखों मरने की नौबत आई ही समझो। क्या किया जाए? वह इधर उधर घूमने लगा पर कहीं कोई मरा जानवर नहीं म्मिला। घूमता-घूमता वह एक बस्ती में आ गया। उसने सोचा शायद कोई मुर्गी या उसका बच्चा हाथ लग जाए। सो वह इधर-उधर गलियों में घूमने लगा।

तभी कुत्ते भौं-भौं करते उसके पीछे पड गए। सियार को जान बचाने के लिए भागना पडा। गलियों में घुसकर उनको छकाने की कोशिश करने लगा पर कुत्ते तो कस्बे की गली-गली से परिचित थे। सियार के पीछे पडे कुत्तों की टोली बढती जा रही थी और सियार के कमजोर शरीर का बल समाप्त होता जा रहा था। सियार भागता हुआ रंगरेजों की बस्ती में आ पहुंचा था। वहां उसे एक घर के सामने एक बडा ड्रम नजर आया। वह जान बचाने के लिए उसी ड्रम में कूद पडा। ड्रम में रंगरेज ने कपडे रंगने के लिए रंग घोल रखा था।

कुत्तों का टोला भौंकता चला गया। सियार सांस रोककर रंग में डूबा रहा। वह केवल सांस लेने के लिए अपनी थूथनी बाहर निकालता। जब उसे पूरा यकीन हो गया कि अब कोई खतरा नहीं हैं तो वह बाहर निकला। वह रंग में भीग चुका था। जंगल में पहुंचकर उसने देखा कि उसके शरीर का सारा रंग हरा हो गया हैं। उस ड्रम में रंगरेज ने हरा रंग घोल रखा था। उसके हरे रंग को जो भी जंगली जीव देखता, वह भयभीत हो जाता। उनको खौफ से कांपते देखकर रंगे सियार के दुष्ट शिमाग में एक योजना आई।

ABHAY
11-01-2011, 08:26 AM
रंगे सियार ने डरकर भागते जीवों को आवाज दी “भाइओ, भागो मत मेरी बात सुनो।”

उसकी बात सुनकर सभी जानवर भागते जानवर ठिठके।

उनके ठिठकने का रंगे सियार ने फायदा उठाया और बोला “देखो, देखो मेरा रंग। ऐसा रंगकिसी जानवर का धरती पर हैं? नहीं न। मतलब समझो। भगवान ने मुझे यह खास रंग तुम्हारे पास भेजा हैं। तुम सब जानवरों को बुला लाओ तो मैं भगवान का संदेश सुनाऊं।”

उसकी बातों का सब पर गहरा प्रभाव पडा। वे जाकर जंगल के दूसरे सभी जानवरों को बुलाकर लाए। जब सब आ गए तो रंगा सियार एक ऊंचे पत्थर पर चढकर बोला “वन्य प्राणियो, प्रजापति ब्रह्मा ने मुझे खुद अपने हाथों से इस अलौकिक रंग का प्राणी बनाकर कहा कि संसार में जानवरों का कोई शासक नहीं हैं। तुम्हें जाकर जानवरों का राजा बनकर उनका कल्याण करना हैं। तुम्हार नाम सम्राट ककुदुम होगा। तीनों लोकों के वन्य जीव तुम्हारी प्रजा होंगे। अब तुम लोग अनाथ नहीं रहे। मेरी छत्र-छाया में निर्भय होकर रहो।”

सभी जानवर वैसे ही सियार के अजीब रंग से चकराए हुए ते। उसकी बातों ने तो जादू का काम किया। शेर, बाघ व चीते की भी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गई। उसकी बात काटने की किसी में हिम्मत न हूई। देखते ही देखते सारे जानवर उसके चरणों में लोटने लगे और एक स्वर में बोले “हे बह्मा के दूत, प्राणियों में श्रेष्ठ ककुदुम, हम आपको अपना सम्राट स्वीकार करते हैं। भगवान की इच्छा का पालन करके हमें बडी प्रसन्नता होगी।”

ABHAY
11-01-2011, 08:27 AM
एक बूढे हाथी ने कहा “हे सम्राट, अब हमें बताइए कि हमार क्या कर्तव्य हैं?”

रंगा सियार सम्राट की तरह पंजा उठाकर बोला “तुम्हें अपने सम्राट की खूब सेवा और आदर करना चाहिए। उसे कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। हमारे खाने-पीने का शाही प्रबंध होना चाहिए।”

शेर ने सिर झुकाकर कहा “महाराज, ऐसा ही होगा। आपकी सेवा करके हमारा जीवन धन्य हो जाएगा।”

बस, सम्राट ककुदुम बने रंगे सियार के शाही टाठ हो गए। वह राजसी शान से रहने लगा।

कई लोमडियां उसकी सेवा में लगी रहतीं भालू पंखा झुलाता। सियार जिस जीव का मांस खाने की इच्छा जाहिर करता, उसकी बलि दी जाती।

जब सियार घूमने निकलता तो हाथी आगे-आगे सूंड उठाकर बिगुल की तरह चिंघाडता चलता। दो शेर उसके दोनों ओर कमांडो बाडी गार्ड की तरह होते।

रोज ककुदुम का दरबार भी लगता। रंगे सियार ने एक चालाकी यह कर दी थी कि सम्राट बनते ही सियारों को शाही आदेश जारी कर उस जंगल से भगा दिया था। उसे अपनी जाति के जावों द्वारा पहचान लिए जाने का खतरा था।

एक दिन सम्राट ककुदुम खूब खा-पीकर अपने शाही मांद में आराम कर रहा था कि बाहर उजाला देखकर उठा। बाहर आया चांदनी रात खिली थी। पास के जंगल में सियारों की टोलियां ‘हू हू sss’ की बोली बोल रही थी। उस आवाज को सुनते ही ककुदुम अपना आपा खो बैठा। उसके अदंर के जन्मजात स्वभाव ने जोर मारा और वह भी मुंह चांद की ओर उठाकर और सियारों के स्वर में मिलाकर ‘हू हू sss’ करने लगा।

ABHAY
11-01-2011, 08:27 AM
शेर और बाघ ने उसे’हू हू sss’ करते देख लिया। वे चौंके, बाघ बोला “अर्, यह तो सियार हैं। हमें धोखा देकर सम्राट बना रहा। मारो नीच को।”

शेर और बाघ उसकी ओर लपके और देखते ही देखते उसका तिया-पांचा कर डाला।

सीखः नकली पन की पोल देर या सबेर जरूर खुलती है।

ABHAY
11-01-2011, 08:28 AM
शत्रु की सलाह
नदी किनारे एक विशाल पेड था। उस पेड पर बगुलों का बहुत बडा झुंड रहता था। उसी पेड के कोटर में काला नाग रहता था। जब अंडों से बच्चे निकल आते और जब वह कुछ बडे होकर मां-बाप से दूर रहने लगते, तभी वह नाग उन्हें खा जाता था। इस प्रकार वर्षो से काला नाग बगुलों के बच्चे हडपता आ रहा था। बगुले भी वहां से जाने का नाम नहीं लेते थे, क्योंकि वहां नदीमें कछुओं की भरमार थी। कछुओं का नरम मांस बगुलों को बहुत अच्छा लगता था।

इस बार नाग जब एक बच्चे को हडपने लगा तो पिता बगुले की नजर उस पर पड गई। बगुले को पता लग गया कि उसके पहले बच्चों को भी वह नाग खाता रहा होगा। उसे बहुत शोक हुआ। उसे आंसू बहाते एक कछुए ने देखा और पूछा “मामा, क्यों रो रहे हो?”

गम में जीव हर किसी के आगे अपना दुखडा रोने लगता हैं। उसने नाग और अपने मॄत बच्चों के बारे में बताकर कहा “मैं उससे बदला लेना चाहता हूं।”

कछुए ने सोचा “अच्छा तो इस गम में मामा रो रहा हैं। जब यह हमारे बच्चे खा जाते हैं तब तो कुछ ख्याल नहीं आता कि हमें कितना गम होता होगा। तुम सांप से बदला लेना चाहते हो तो हम भी तो तुमसे बदला लेना चाहेंगे।”

बगुला अपने शत्रु को अपना दुख बताकर गलती कर बैटा था। चतुर कछुआ एक तीर से दो शिकार मारने की योजना सोच चुका था। वह बोला “मामा! मैं तुम्हें बदला लेने का बहुत अच्छा उपाय सुझाता हूं।”

ABHAY
11-01-2011, 08:29 AM
बगुले ने अदीर स्वर में पूछा “जल्दी बताओ वह उपाय क्या हैं। मैं तुम्हारा एहसान जीवन भरा नहीं भूलूंगा।’ कछुआ मन ही मन मुस्कुराया और उपाय बताने लगा “यहां से कुछ दूर एक नेवले का बिल हैं। नेवला सांप का घोर शत्रु हैं। नेवलेको मछलिया बहुत प्रिय होती हैं। तुम छोटी-छोटा मछलियां पकडकर नेवले के बिल से सांप के कोटर तक बिछा दोनेवला मछलियां खाता-खाता सांप तक पहुंच जाएगा और उसे समाप्त कर देगा।’ बगुला बोला “तुम जरा मुझे उस नेवले का बिल दिखा दो।’

कचुए ने बगुले को नेवले का बिल दिखा दिया। बगुले ने वैसे ही किया जैसे कचुए ने समझाया ता। नेवला सचमुच मछलियां खाता हुआ कोटर तक पहुंचा। नेवले को देखते ही नाग ने फुंकार छोडी। कुछ ही देर की लडाई में नेवले ने सांप के टुकडे-टुकडे कर दिए। बगुला खुशी से उछल पडा। कछुए ने मन ही मन में कहा “यह तो शुरुआत हैं मूर्ख बगुले। अब मेरा बदला शुरु होगा और तुम सब बगुलों का नाश होगा।”

कछुए का सोचना सही निकला। नेवला नाग को मारने के बाद वहां से नहीं गया। उसे अपने चारों ओर बगुले नजर आए,उसके लिए महिनों के लिए स्वादिष्ट खाना। नेवला उसी कोटर में बस गया, जिसमें नाग रहता था और रोज एक बगुले को अपना शिकार बनाने लगा। इस प्रकार एक-एक करके सारे बगुले मारे गए।

सीखः शत्रु की सलाह में उसका स्वार्थ छिपा होता है।

ABHAY
11-01-2011, 08:30 AM
शरारती बंदर
एक समय शहर से कुछ ही दूरी पर एक मंदिर का निर्माण कैया जा रहा था। मंदिर में लकडी का काम बहुत थ इसलिए लकडी चीरने वाले बहुत से मजदूर काम पर लगे हुए थे। यहां-वहां लकडी के लठ्टे पडे हुए थे और लठ्टे व शहतीर चीरने का काम चल रहा था। सारे मजदूरों को दोपहर का भोजन करने के लिए शहर जाना पडता था, इसलिए दोपहर के समय एक घंटे तक वहां कोई नहीं होता था। एक दिन खाने का समय हुआ तो सारे मजदूर काम छोडकर चल दिए। एक लठ्टा आधा चिरा रह गया था। आधे चिरे लठ्टे में मजदूर लकडी का कीला फंसाकर चले गए। ऐसा करने से दोबारा आरी घुसाने में आसानी रहती हैं।

तभी वहां बंदरों का एक दल उछलता-कूदता आया। उनमें एक शरारती बंदर भी था, जो बिना मतलब चीजों से छेडछाड करता रहता था। पंगे लेना उसकी आदत थी। बंदरों के सरदार ने सबको वहां पडी चीजों से छेडछाड न करने का आदेश दिया। सारे बंदर पेडों की ओर चल दिए, पर वह शैतान बंदर सबकी नजर बचाकर पीछे रह गया और लगा अडंगेबाजी करने।

उसकी नजर अधचिरे लठ्टे पर पडी। बस, वह उसी पर पिल पडा और बीच मेंअडाए गए कीले को देखने लगा। फिर उसने पास पडी आरी को देखा। उसे उठाकर लकडी पर रगडने लगा। उससे किर्रर्र-किर्रर्र की आवाज निकलने लगी तो उसने गुस्से से आरी पटक दी। उन बंदरो की भाषा में किर्रर्र-किर्रर्र का अर्थ ‘निखट्टू’ था। वह दोबारा लठ्टे के बीच फंसे कीले को देखने लगा।

ABHAY
11-01-2011, 08:30 AM
उसके दिमाग में कौतुहल होने लगा कि इस कीले को लठ्टे के बीच में से निकाल दिया जाए तो क्या होगा? अब वह कीले को पकडकर उसे बाहर निकालने के लिए जोर आजमाईश करने लगा। लठ्टे के बीच फंसाया गया कीला तो दो पाटों के बीच बहुत मजबूती से जकडा गया होता हैं, क्योंकि लठ्टे के दो पाट बहुत मजबूत स्प्रिंग वाले क्लिप की तरह उसे दबाए रहते हैं।

बंदर खूब जोर लगाकर उसे हिलाने की कोशिश करने लगा। कीला जोज्र लगाने पर हिलने व खिसकने लगा तो बंदर अपनी शक्ति पर खुश हो गया।

वह और जोर से खौं-खौं करता कीला सरकाने लगा। इस धींगामुश्ती के बीच बंदर की पूंछ दो पाटों के बीच आ गई थी, जिसका उसे पता ही नहीं लगा।

उसने उत्साहित होकर एक जोरदार झटका मारा और जैसे ही कीला बाहर खिंचा, लठ्टे के दो चिरे भाग फटाक से क्लिप की तरह जुड गए और बीच में फंस गई बंदर की पूंछ। बंदर चिल्ला उठा।

तभी मजदूर वहां लौटे। उन्हें देखते ही बंदर नी भागने के लिए जोर लगाया तो उसकी पूंछ टूट गई। वह चीखता हुआ टूटी पूंछ लेकर भागा।

सीखः बिना सोचे-समझे कोई काम न करो।

ABHAY
11-01-2011, 08:31 AM
संगठन की शक्तिट
एक वन में बहुत बडा अजगर रहता था। वह बहुत अभिमानी और अत्यंत क्रूर था। जब वह अपने बिल से निकलता तो सब जीव उससे डरकर भाग खडे होते। उसका मुंह इतनाविकराल था कि खरगोश तक को निगल जाता था। एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था। सारे जीव तो उसे बिल से निकलते देखकर ही भाग चुके थे। उसे कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारने लगा और इधर-उधर खाक छानने लगा। वहीं निकट में एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपाकर स्वयं भोजन की तलाश में दूर निकल गई थी।

अजगर की फुफकार से सूखी पत्तियां उडने लगी और हिरणी का बच्चा नजर आने लगा। अजगर की नजर उस पर पडी हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देखकर इतना डर गया कि उसके मुंह से चीख तक न निकल पाई। अजगर ने देखते-ही-देखते नवजात हिरण के बच्चे को निगल लिया। तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती? आंखों में आंसू भर जड होकर दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही।

हिरणी के शोक का ठिकाना न रहा। उसने किसी-न किसी तरह अजगर से बदला लेने की ठान ली। हिरणी की एक नेवले से दोस्ती ती। शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गईऔर रो-रोकर उसे अपनी दुखभरी कथा सुनाई। नेवले को भी बहुत दुख हुआ। वह दुख-भरे स्वर में बोला “मित्र, मेरे बस में होता तो मैं उअस नीच अजगर के सौ टुकडे कर डालता। पर क्या करें, वह छोटा-मोटा सांप नहीं हैं,जिसे मैं मार सकूं वह तो एक अजगर हैं। अपनी पूंछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा। लेकिन यहां पास में ही चीटिंयों की एक बांबी हैं। वहां की रानी मेरी मित्र हैं। उससे सहायता मांगनी चाहिए।”

ABHAY
11-01-2011, 08:31 AM
हिरणी निराश स्वर में विलाप किया “पर जब तुम्हारे जितना बडा जीव उस अजगर का कुछ बिगाडने में समर्थ नहीं हैं तो वह छोटी-सी चींटी क्या कर लेगी?”

नेवले ने कहा “ऐसा मत सोचो। उसके पास चींटियों की बहुत बडी सेना हैं। संगठन में बडी शक्ति होती हैं।”

हिरणी को कुछ आशा की किरण नजर आई। नेवला हिरणी को लेकर चींटी रानी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई। चींटी रानी ने सोच-विचारकर कहा “हम तुम्हारी सहायता करेंगे । हमारी बांबी के पास एक संकरीला नुकीले पत्थरों भरा रास्ता हैं। तुम किसी तरह उस अजगर को उस रास्ते से आने पर मजबूर करो। बाकी काम मेरी सेना पर छोड दो।”

नेवले को अपनी मित्र चींटी रानी पर पूरा विश्वास था इसलिए वह अपनी जान जोखिम में डालने पर तैयार हो गया। दूसरे दिन नेवला जाकरसांप के बिल के पास अपनी बोली बोलने लगा। अपने शत्रु की बोली सुनते ही अजगर क्रोध में भरकर अपने बिल से बाहर आया। नेवला उसी संकरे रास्ते वाली दिशा में दौडा। अजगर ने पीछा किया। अजगर रुकता तो नेवला मुडकर फुफकारता और अजगर को गुस्सा दिलाकर फिर पीछा करने पर मजबूर करता। इसी प्रकार नेवले ने उसे संकरीले रास्ते से गुजरने पर मजबूर कर दिया। नुकीले पत्थरों से उसका शरीर छीलने लगा। जब तक अजगर उस रास्ते से बाहर आया तब तक उसका काफी शरीर छिल गया था और जगह-जगह से खून टपक रहा था।

ABHAY
11-01-2011, 08:33 AM
उसी समय चींटियों की सेना ने उस पर हमला कर दिया। चींटियां उसके शरीर पर चढकर छिले स्थानों के नंगे मांस को काटने लगीं। अजगर तडप उठा। अपना शरीर पटकने लगा जिससे और मांस छिलने लगा और चींटियों को आक्रमण के लिए नए-नए स्थान मिलने लगे। अजगर चींटियों का क्या बिगाडता? वे हजारों की गिनती में उस पर टूट पड रही थी। कुछ ही देर में क्रूर अजगर ने तडप-तडपकर दम तोड दिया।

सीखः संगठन शक्ति बडे-बडों को धूल चटा देती हैं।

ABHAY
11-01-2011, 08:33 AM
सच्चा शासक
कंचन वन में शेरसिंह का राज समाप्त हो चुका था पर वहां बिना राजा के स्थिति ऐसी हो गई थी जैसे जंगलराज हो जिसकी जो मर्जी वह कर रहा था। वन में अशांति, मारकाट, गंदगी, इतनी फैल गई कि वहां जानवरों का रहना मुश्किल हो गया। कुछ जानवर शेरसिंह को याद कर रहे थे कि “जब तक शेरसिंह ने राजपाट संभाला हुआ था सारे वन में कितनी शांति और एकता थी। ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन यह वन ही समाप्त हो जाएगा और हम सब जानवर बेघर होकर मारे जाएंगे।”

गोलू भालू बोला- “कोई न कोई उपाय तो करना ही होगा- क्यों न सभी कहीं सहमति से हम अपना कोई राजा चुन लें जो शेरसिंह की तरह हमें पुन: एक जंजीर में बांधे और वन में एक बार फिर से अमन शांति के स्वर गूंज उठे।” सभी गोलू भालू की बात से संतुष्ट हो गए। पर समस्या यह थी कि राजा किसे बनाया जाए? सभी जानवर स्वयं को दूसरे से बड़ा बता रहे थे।

सोनू मोर बोली- “क्यों न एक पखवाड़े तक सभी को कुछ न कुछ काम दे दिया जाए तो अपने काम को सबसे अच्छे ढंग से करेगा उसे ही यहां का राजा बना दिया जाएगा।” सोनू स्वीटी की बात से सहमत हो गए और फिर सभी जानवरों को उनकी योग्यता के आधार पर काम दे दिया गया। बिम्पी लोमड़ी को मिट्टी हटाने का काम दिया गया तो भोलू बंदर को पेड़ों पर लगे जाले हटाने का, सोनी हाथी को पत्थर उठाकर एक गङ्ढे में डालने का काम सौंपा गया था और मोनू खरगोश को घास की सफाई की।

ABHAY
11-01-2011, 08:34 AM
जब एक पखवाड़ा बीत गया तो सभी जानवर अपने-अपने कार्यों का ब्यौरा लेकर एक मैदान में एकत्रित हो गए। सभी जानवरों ने अपना काम बड़ी सफाई और मेहनत से पूरा किया था। सिर्फ सोनू हाथी था जिसने एक भी पत्थर गङ्ढे में नहीं डाला था।

अब एक समस्या फिर खड़ी हो गई कि आखिर किसके काम को सबसे अच्छा माना जाए। बुध्दिमान मोनू खरगोश ने युक्ति सुझाई “क्यों न मतदान करा लीया जाए, जिसे सबसे ज्यादा मत मिलेंगे उसे ही हम राजा चुन लेंगे।”

अगले दिन सुबह-सुबह चुनाव रख लिया गया और एक बड़े मैदान में सभी पशु-पक्षी मत देने के लिए उपस्थित हो गए। मतदान समाप्त होने के एक घंटे पश्चात मतों को गिनने का काम शुरु हुआ। यह क्या! सोनू हाथी गिनती में सबसे आगे चल रहा था और जब मतों की गिनती समाप्त हुई तो सोनू हाथी सबसे ज्यादा मतों से विजयी हो गया। सभी जानवर एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे।

तभी पक्षीराज गरूण वहां उपस्थित हुए और उपस्थित सभी जानवरों को सम्बोधित करते हुए बोले- ‘सोनू हाथी प्रतिदिन पत्थर लेकर गङ्ढे तक जाता था किंतु जब उसने देखा कि उस गङ्ढे में मेरे अंडे रखे हुए हैं तो वह पत्थरों को उसमें न डालकर पास ही जमीन पर एकत्रित करता रहा। सोनू ने अपने राजा बनने के लालच को छोड़ एक जीव को बचाना ज्यादा उपयोगी समझा। उसकी इस परोपकार की भावना को देखकर हम पक्षियों की भावना को देखकर हम पक्षियों ने तय किया कि जो अपने लालच को छोड़कर दूसरों के सुख-दु:ख का ध्यान रखें वही सच्चे तौर पर शासक बनने का अधिकारी है और चूंकि वन में पक्षियों की संख्या पशुओं से अधिक थी इसलिए सोनू हाथी चुनाव जीत गया।’
सबक: सच्चा शासक वही होता हैं जो परोपकार की भावना को सर्वोच्च स्थान दें।

ABHAY
11-01-2011, 08:35 AM
सच्चे मित्र
बहुत समय पहले की बात हैं। एक सुदंर हरे-भरे वन में चार मित्र रहते थे। उनमें से एक था चूहा, दूसरा कौआ, तीसरा हिरण और चौथा कछुआ। अलग-अलगजाति के होने के बावजूद उनमें बहुत घनिष्टता थी। चारों एक-दूसरे पर जान छिडकते थे। चारों घुल-मिलकर रहते, खूब बातें करते और खेलते। वन में एक निर्मल जल का सरोवर था, जिसमें वह कछुआ रहता था। सरोवर के तट के पास ही एक जामुन का बडा पेड था। उसी पर बने अपने घोंसले में कौवा रहता था। पेड के नीचे जमीन में बिल बनाकर चूहा रहता था और निकट ही घनी झाडियों में ही हिरण का बसेरा था।दिन को कछुआ तट के रेत में धूप सेकता रहता पानी में डुबकियां लगाता। बाकी तिन मित्र भोजन की तलाश में निकल पडते और दूर तक घूमकर सूर्यास्त के समय लौट आते। चारों मित्र इकठ्ठे होते एक दूसरे के गले लगते, खेलते और धमा-चौकडी मचाते।

एक दिन शाम को चूहा और कौवा तो लौट आए, परन्तु हिरण नहीं लौटा। तीनो मित्र बैठकर उसकी राह देखने लगे। उनका मन खेलने को भी नहीं हुआ। कछुआ भर्राए गले से बोला “वह तो रोज तुम दोनों से भी पहले लौट आता था। आज पता नहीं, क्या बात हो गई, जो अब तक नहीं आया। मेरा तो दिल डूबा जा रहा हैं।

चूहे ने चिंतित स्वर में कहा “हां, बात बहुत गंभीर हैं। जरूर वह किसी मुसीबत में पड गया हैं। अब हम क्या करे?” कौवे ने ऊपर देखते हुए अपनी चोंच खोली “मित्रो, वह जिधर चरने प्रायः जाता हैं, उधर मैं उडकर देख आता, पर अंधेरा घिरने लगा हैं। नीचे कुछ नजर नहीं आएगा। हमें सुबह तक प्रतीक्षा करनी होगी। सुबह होते ही मैं उडकर जाऊंगा और उसकी कुछ खबर लाकर तुम्हें दूंगा।”

ABHAY
11-01-2011, 08:36 AM
कछुए ने सिर हिलाया “अपने मित्र की कुशलता जाने बिना रात को नींद कैसे आएगी? दिल को चैन कैसे पडेगा? मैं तो उस ओर अभी चल पडता हूं मेरी चाल भी बहुत धीमी हैंम् तुम दोनों सुबह आ जाना ।” चूहा बोला “मुझसे भी हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा जाएगा। मैं भी कछुए भाई के साथ चल पड सकता हूं, कौए भाई, तुम पौ फटते ही चल पडना।”

कछुआ और चूहा तो चल दिए। कौवे ने रात आंखो-आंखो में काटी। जैसे ही पौ फटी, कौआ उड चला उडते-उडते चारों ओर नजर डालता जा रहा था। आगे एक स्थान पर कछुआ और चूहा जाते उसे नजर आए कौवे ने कां कां करके उन्हें सूचना दी कि उन्हें देख लिया हैं और वह खोज में आगे जा रहा हैं। अब कौवे ने हिरण को पुकारना भी शुरु किया “मित्र हिरण , तुम कहां हो? आवाज दो मित्र।”

तभी उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी। स्वर उसके मित्र हिरण का-सा था। उस आवाज की दिशा में उडकर वह सीधा उस जगह पहुंचा, जहां हिरण एक शिकारी के जाल में फंसा चटपटा रहा था। हिरण ने रोते हुए बताया कि कैसे एक निर्दयी शिकारी ने वहां जाल बिछा रखा था। दुर्भाग्यवश वह जाल न देख पाया और फंस गया। हिरण सुबका “शिकारी आता ही होगा वह मुझे पकडकर ले जाएगा और मेरी कहानी खत्म समझो। मित्र कौवे! तुम चूहे और कछुए को भी मेरा अंतिम नमस्कार कहना।”

ABHAY
11-01-2011, 08:37 AM
कौआ बोला “मित्र, हम जान की बाजी लगाकर भी तुम्हें छुडा लेंगे।” हिरण ने निराशा व्यक्त की “लेकिन तुम ऐसा कैसे कर पाओगे?” कौवे ने पंख फडफडाए “सुनो, मैं अपने मित्र चूहे को पीठ पर बिठाकर ले आता हूं। वह अपने पैने दांतो से जाल कुतर देगा।” हिरण को आशा की किरण दिखाई दी। उसकी आंखे चमक उठीं “तो मित्र, चूहे भाई को शीघ्र ले आओ।”

कौआ उडा और तेजी से वहां पहुंचा, जहां कछुआ तथा चूहा आ पहुंचे थे। कौवे ने समय नष्ट किए बिना बताया “मित्रो, हमारा मित्र हिरण एक दुष्ट शिकारी के जाल में कैद हैं। जान की बाजी लगी हैं शिकारी के आने से पहले हमने उसे न छुडाया तो वह मारा जायेगा।” कछुआ हकलाया ” उसके लिए हमें क्या करना होगा? जल्दी बताओ?” चूहे के तेज दिमाग ने कौवे का इशारा समझ लिया था “घबराओ मत। कौवे भाई, मुझे अपनी पीठ पर बैठाकर हिरण के पास ले चलो।”

चूहे को जाल कुतरकर हिरण को मुक्त करने में अधिक देर नहीं लगी। मुक्त होते ही हिरण ने अपने मित्रों को गले लगा लिया और रुंधे गले से उन्हें धन्यवाद दिया। तभी कछुआ भी वहां आ पहुचा और खुशी के आलम में शामिल हो गया। हिरण बोला “मित्र, आप भी आ गए। मैं भाग्यशाली हूं, जिसे ऐसे सच्चे मित्र मिले हैं।”।

ABHAY
11-01-2011, 08:38 AM
चारों मित्र भाव विभोर होकर खुशी में नाचने लगे। एकाएक, हिरण चौंका और उसने मित्रों को चेतावनी दी “भाइयो, देखो वह जालिम शिकारी आ रहा हैं। तुरंत छिप जाओ।” चूहा फौरन पास के एक बिल में घुस गया। कौआ उडकर पेड की ऊंची डाल पर जा बैठा। हिरण एक ही छलांग में पास की झाडी में जा घुसा व ओझल हो गया। परंतु मंद गति का कछुआ दो कदम भी न जा पाया था कि शिकारी आ धमका। उसने जाल को कटा देखकर अपना माथा पीटा “क्या फंसा था और किसने काटा?” यह जानने के लिए वह पैरों के निशानों के सुराग ढूंढने के लिए इधर-उधर देख ही रहा था कि उसकी नजर रेंगकर जाते कछुए पर पडी। उसकी आंखें चमक उठी “वाह! भागते चोर की लंगोटी ही सही। अब यही कछुआ मेरे परिवार के आज के भोजन के काम आएगा।”

बस उसने कछुए को उठाकर अपने थैले में डाला और जाल समेटकर चलने लगा। कौवे ने तुरंत हिरण व चूहे को बुलाकर कहा “मित्रो, हमारे मित्र कछुए को शिकारी थैले में डालकर ले जा रहा हैं।” चूहा बोला “हमें अपने मित्र को छुडाना चाहिए। लेकिन कैसे?”

इस बार हिरण ने समस्या का हल सुझाया “मित्रो, हमें चाल चलनी होगी। मैं लंगडाता हुआ शिकारी के आगे से निकलूंगा। मुझे लंगडा जान वह मुझे पकडने के लिए कछुए वाला थैला छोड मेरे पीछे दौडेगा। मैं उसे दूर ले जाकर चकमा दूंगा। इस बीच चूहा भाई थैले को कुतरकर कछुए को आजाद कर देगें। बस।”

ABHAY
11-01-2011, 08:38 AM
योजना अच्छी थी लंगडाकर चलते हिरण को देख शिकारी की बांछे खिल उठी। वह थैला पटककर हिरण के पीछे भागा। हिरण उसे लंगडाने का नाटक कर घने वन की ओर ले गया और फिर चौकडी भरता ‘यह जा वह जा’ हो गया। शिकारी दांत पीसता रह गया। अब कछुए से ही काम चलाने का इरादा बनाकर लौटा तो उसे थैला खाली मिला। उसमें छेद बना हुआ था। शिकारी मुंह लटकाकर खाली हाथ घर लौट गया।

सीखः सच्चे मित्र हों तो जीवन में मुसीबतों का आसानी से सामना किया जा सकता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 08:39 AM
सांड और गीदड
एक किसान के पास एक बिगडैल सांड था। उसने कई पशु सींग मारकर घायल कर दिए। आखिर तंग आकर उसने सांड को जंगल की ओर खदेड दिया।

सांड जिस जंगल में पहुंचा, वहां खूब हरी घास उगी थी। आजाद होने के बाद सांड के पास दो ही काम रह गए। खूब खाना, हुंकारना तथा पेडों के तनों में सींग फंसाकर जोर लगाना। सांड पहले से भी अधिक मोटा हो गया। सारे शरीर में ऐसी मांसपेशियां उभरी जैसे चमडी से बाहर छलक ही पडेंगी। पीठ पर कंधो के ऊपर की गांठ बढती-बढती धोबी के कपडों के गट्ठर जितनी बडी हो गई। गले में चमडी व मांस की तहों की तहें लटकने लगीं।

उसी वन में एक गीदड व गीदडी का जोडा रहता था, जो बडे जानवरों द्वारा छोडे शिकार को खाकर गुजारा चलाते थे। स्वयं वह केवल जंगली चूहों आदि का ही शिकार कर पाते थे।

संयोग से एक दिन वह मतवाला सांड झूमता हुआ उधर ही आ निकला जिदर गीदड-गीदडी रहते थे। गीदडी ने उस सांड को देखा तो उसकी आंखे फटी की फटी रह गईं। उसने आवाज देकर गीदड को बाहर बुलाया और बोली “देखो तो इसकी मांस-पेशियां। इसका मांस खाने में कितना स्वादिष्ट होगा। आह, भगवान ने हमें क्या स्वादिष्ट तोहफा भेजा हैं।

गीदड ने गीदडी को समझाया “सपने देखना छोडो। उसका मांस कितना ही चर्बीला और स्वादिष्ट हो, हमें क्या लेना।”

ABHAY
11-01-2011, 08:40 AM
गीदडी भडक उठी “तुम तो भौंदू हो। देखते नहीं उसकी पीठ पर जो चर्बी की गांठ हैं, वह किसी भी समय गिर जाएगी। हमें उठाना भर होगा और इसके गले में जो मांस की तहें नीचे लटक रही हैं, वे किसी भी समय टूटकर नीचे गिर सकती हैं। बस हमें इसके पीछे-पीछे चलते रहना होगा।”

गीदड बोला “भाग्यवान! यह लालच छोडो।”

गीदडी जिद करने लगी “तुम हाथ में आया मौका अपनी कायरता से गंवाना चाहते हो। तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। मैं अकेली कितना खा पाऊंगी?”

गीदडी की हठ के सामने गीदड की कुछ भी न चली। दोनों ने सांड के पीछे-पीछे चलना शुरु किया। सांड के पीछे चलते-चल्ते उन्हें कई दिन हो गए, पर सांड के शरीएर से कुछ नहीं गिरा। गीदड ने बार-बार गीदडी को समझाने की कोशिश की “गीदडी! घर चलते हैं एक-दो चूहे मारकर पेट की आग बुझाते हैं।

गीदडी की अक्ल पर तो पर्दा पड गया था। वह न मानी “नहीं, हम खाएंगे तो इसी का मोटा-तजा स्वादिष्ट मांस। कभी न कभी तो यह गिरेगा ही।”

बस दोनों सांड के पीछे लगे रहे।भूखे प्यासे एक दिन दोनों गिर पडे और फिर न उठ सके।

सीखः अधिक लालच का फल सदा बुरा होता हैं।

ABHAY
11-01-2011, 08:41 AM
सिंह और सियार
वर्षों पहले हिमालय की किसी कन्दरा में एक बलिष्ठ शेर रहा करता था। एक दिन वह एक भैंसे का शिकार और भक्षण कर अपनी गुफा को लौट रहा था। तभी रास्ते में उसे एक मरियल-सा सियार मिला जिसने उसे लेटकर दण्डवत् प्रणाम किया। जब शेर ने उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने कहा, “सरकार मैं आपका सेवक बनना चाहता हूँ। कुपया मुझे आप अपनी शरण में ले लें। मैं आपकी सेवा करुँगा और आपके द्वारा छोड़े गये शिकार से अपना गुजर-बसर कर लूंगा।” शेर ने उसकी बात मान ली और उसे मित्रवत अपनी शरण में रखा।

कुछ ही दिनों में शेर द्वारा छोड़े गये शिकार को खा-खा कर वह सियार बहुत मोटा हो गया। प्रतिदिन सिंह के पराक्रम को देख-देख उसने भी स्वयं को सिंह का प्रतिरुप मान लिया। एक दिन उसने सिंह से कहा, “अरे सिंह ! मैं भी अब तुम्हारी तरह शक्तिशाली हो गया हूँ। आज मैं एक हाथी का शिकार करुँगा और उसका भक्षण करुँगा और उसके बचे-खुचे माँस को तुम्हारे लिए छोड़ दूँगा।” चूँकि सिंह उस सियार को मित्रवत् देखता था, इसलिए उसने उसकी बातों का बुरा न मान उसे ऐसा करने से रोका। भ्रम-जाल में फँसा वह दम्भी सियार सिंह के परामर्श को अस्वीकार करता हुआ पहाड़ की चोटी पर जा खड़ा हुआ। वहाँ से उसने चारों और नज़रें दौड़ाई तो पहाड़ के नीचे हाथियों के एक छोटे से समूह को देखा। फिर सिंह-नाद की तरह तीन बार सियार की आवाजें लगा कर एक बड़े हाथी के ऊपर कूद पड़ा। किन्तु हाथी के सिर के ऊपर न गिर वह उसके पैरों पर जा गिरा। और हाथी अपनी मस्तानी चाल से अपना अगला पैर उसके सिर के ऊपर रख आगे बढ़ गया। क्षण भर में सियार का सिर चकनाचूर हो गया और उसके प्राण पखेरु उड़ गये।

ABHAY
11-01-2011, 08:42 AM
पहाड़ के ऊपर से सियार की सारी हरकतें देखता हुआ सिंह ने तब यह गाथा कही – ” होते हैं जो मूर्ख और घमण्डी होती है उनकी ऐसी ही गति।”

सीखः कभी भी जिंदगी में किसी भी समय घमण्ड नहीं करना चाहिए।

ABHAY
11-01-2011, 08:42 AM
स्वजाति प्रेम
एक वन में एक तपस्वी रहते थे। वे बहुत पहुंचे हुए ॠषि थे। उनका तपस्या बल बहुत ऊंचा था। रोज वह प्रातः आकर नदी में स्नान करते और नदी किनारे के एक पत्थर के ऊपर आसन जमाकर तपस्या करते थे। निकट ही उनकी कुटिया थी, जहां उनकी पत्नी भी रहती थी।

एक दिन एक विचित्र घटना घटी। अपनी तपस्या समाप्त करने के बाद ईश्वर को प्रणाम करके उन्होंने अपने हाथ खोले ही थे कि उनके हाथों में एक नन्ही-सी चुहीया आ गिरी। वास्तव में आकाश में एक चील पंजों में उस चुहिया को दबाए उडी जा रही थी और संयोगवश चुहिया पंजो से छुटकर गिर पडी थी। ॠषि ने मौत के भय से थर-थर कांपती चुहिया को देखा।

ठ्र्षि और उनकी पत्नी के कोई संतान नहीं थी। कई बार पत्नी संतान की इच्छा व्यक्त कर चुकी थी। ॠषि दिलासा देते रहते थे। ॠषि को पता था कि उनकी पत्नी के भागय में अपनी कोख से संतान को जन्म देकर मां बनने का सुख नहीं लिखा हैं। किस्मत का लिखा तो बदला नहीं जा सकता परन्तु अपने मुंह से यह सच्चाई बताकर वे पत्नी का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। यह भी सोचते रहते कि किस उपाय से पत्नी के जीवन का यह अभाव दूर किया जाए।

ॠषि को नन्हीं चुहिया पर दया आ गई। उन्होंने अपनी आंखें बंदकर एक मंत्र पढा और अपनी तपस्या की शक्ति से चुहिया को मानव बच्ची बना दिया। वह उस बच्ची को हाथों में उठाए घर पहुंचे और अपनी पत्नी से बोले “सुभागे, तुम सदा संतान की कामना किया करती थी। समझ लो कि ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली और यह बच्ची भेज दी। इसे अपनी पुत्री समझकर इसका लालन-पालन करो।”

ABHAY
11-01-2011, 08:43 AM
ॠषि पत्नी बच्ची को देखकर बहुत प्रसन्न हुउई। बच्ची को अपने हाथों में लेकर चूमने लगी “कितनी प्यारी बच्ची है। मेरी बच्ची ही तो हैं यह। इसे मैं पुत्री की तरह ही पालूंगी।”

इस प्रकार वह चुहिया मानव बच्ची बनकर ॠषि के परिवार में पलने लगी। ॠषि पत्नी सच्ची मां की भांति ही उसकी देखभाल करने लगी। उसने बच्ची का नाम कांता रखा। ॠषि भी कांता से पितावत स्नेह करने लगे। धीरे-धीरे वे यह भूल गए की उनकी पुत्री कभी चुहिया थी।

मां तो बच्ची के प्यार में खो गई। वह दिन-रात उसे खिलाने और उससे खेलने में लगी रहती। ॠषि अपनी पत्नी को ममता लुटाते देख प्रसन्न होते कि आखिर संतान न होने का उसे दुख नहीं रहा। ॠषि ने स्वयं भी उचित समय आने पर कांताअ को शिक्षा दी और सारी ज्ञान-विज्ञान की बातें सिखाई। समय पंख लगाकर उडने लगा। देखते ही देखते मां का प्रेम तथा ॠषि का स्नेह व शिक्षा प्राप्त करती कांता बढते-बढते सोलह वर्ष की सुंदर, सुशील व योग्य युवती बन गई। माता को बेटी के विवाह की चिंता सताने लगी। एक दिन उसने ॠषि से कह डाला “सुनो, अब हमारी कांता विवाह योग्य हो गई हैं। हमें उसके हाथ पीले कर देने चाहिए।”

तभी कांता वहां आ पहुंची। उसने अपने केशों में फूल गूंथ रखे थे। चेहरे पर यौवन दमक रहा था। ॠषि को लगा कि उनकी पत्नी ठीक कह रही हैं। उन्होंने धीरे से अपनी पत्नी के कान में कहा “मैं हमारी बिटिया के लिए अच्छे से अच्छा वर ढूंढ निकालूंगा।”

ABHAY
11-01-2011, 08:44 AM
उन्होंने अपने तपोबल से सूर्यदेव का आवाहन किया। सूर्य ॠषि के सामने प्रकट हुए और बोले “प्रणाम मुनिश्री, कहिए आपने मुझे क्यों स्मरण किया? क्या आज्ञा हैं?”

ॠषि ने कांता की ओर इशारा करके कहा “यह मेरी बेटी हैं। सर्वगुण सुशील हैं। मैं चाहता हूं कि तुम इससे विवाह कर लो।”

तभी कांता बोली “तात, यह बहुत गर्म हैं। मेरी तो आंखें चुंधिया रही हैं। मैं इनसे विवाह कैसे करूं? न कभी इनके निकट जा पाऊंगी, न देख पाऊंगी।”

ॠषि ने कांता की पीठ थपथपाई और बोले “ठीक हैं। दूसरे और श्रेष्ठ वर देखते हैं।”

सूर्यदेव बोले “ॠषिवर, बादल मुझसे श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी ढक लेता हैं। उससे बात कीजिए।”

ॠषि के बुलाने पर बादल गरजते-लरजते और बिजलियां चमकाते प्रकट हुए। बादल को देखते ही कांता ने विरोध किया “तात, यह तो बहुत काले रंग का हैं। मेरा रंग गोरा हैं। हमारी जोडी नहीं जमेगी।”

ॠषि ने बादल से पूछा “तुम्ही बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन हैं?”

बादल ने उत्तर दिया “पवन। वह मुझे भी उडाकर ले जाता हैं। मैं तो उसी के इशारे पर चलता रहता हूं।”

ॠषि ने पवन का आवाहन किया। पवन देव प्रकट हुए तो ॠषि ने कांता से ही पूछा “पुत्री, तुम्हे यह वर पसंद हैं?”

कांता ने अपना सिर हिलाया “नहीं तात! यह बहुत चंचल हैं। एक जगह टिकेगा ही नहीं। इसके साथ गॄहस्थी कैसे जमेगी?”

ॠषि की पत्नी भी बोली “हम अपनी बेटी पवन देव को नहीं देंगे। दामाद कम से कम ऐसा तो होना चाहिए, जिसे हम अपनी आंख से देख सकें।”

ॠषि ने पवन देव से पूछा “तुम्ही बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन हैं?”

पवन देव बोले “ॠषिवर, पर्वत मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। वह मेरा रास्ता रोक लेता हैं।”

ABHAY
11-01-2011, 08:45 AM
ॠषि के बुलावे पर पर्वतराज प्रकट हुए और बोले “ॠषिवर, आपने मुझे क्यों याद किया?”

ॠषि ने सारी बात बताई। पर्वतराज ने कहा “पूछ लीजिए कि आपकी कन्या को मैं पसंद हूं क्या?”

कांता बोली “ओह! यह तो पत्थर ही पत्थर हैं। इसका दिल भी पत्थर का होगा।”

ॠषि ने पर्वतराज से उससे भी श्रेष्ठ वर बताने को कहा तो पर्वतराज बोले “चूहा मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी छेदकर बिल बनाकर उसमें रहता हैं।”

पर्वतराज के ऐसा कहते ही एक चूहा उनके कानों से निकलकर सामने आ कूदा। चूहे को देखते ही कांता खुशी से उछल पडी “तात, तात! मुझे यह चूहा बहुत पसंद हैं। मेरा विवाह इसी से कर दीजिए। मुझे इसके कान और पूंछ बहुत प्यारे लग रहे हैं।मुझे यही वर चाहिए।”

ॠषि ने मंत्र बल से एक चुहिया को तो मानवी बना दिया, पर उसका दिल तो चुहिया का ही रहा। ॠषि ने कांता को फिर चुहिया बनाकर उसका विवाह चूहे से कर दिया और दोनों को विदा किया।

सीखः जीव जिस योनी में जन्म लेता हैं, उसी के संस्कार बने रहते हैं। स्वभाव नकली उपायों से नहीं बदले जा सकते।

ABHAY
31-01-2011, 03:56 PM
शाह आलम कैम्प की रूहें

1.शाह आम कैम्प में दिन तो किसी न किसी तरह गुज़र जाते हैं लेकिन रातें क़यामत की होती है।आवाज़ नहीं सुनाई देती, चीख-पुकार, शोर-गुल, रोना, चिल्लाना, आहें सिसकियां. . .
रात के वक्त़ रूहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं। रूहें अपने यतीम बच्चों के सिरों पर हाथ फेरती हैं, उनकी सूनी आंखों में अपनी सूनी आंखें डालकर कुछ कहती हैं। ज़िंदा जलाये जाने से पहले जो उनकी जिगरदोज़ चीख़ों निकली थी वे पृष्ठभूमि में गूंजती रहती हैं
सारा कैम्प जब सो जाता है तो बच्चे जागते हैं, उन्हें इंतिजार रहता है अपनी मां को देखने का. . .अब्बा के साथ खाना खाने का।
कैसे हो सिराज, 'अम्मां की रूह ने सिराज के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।'
'तुम कैसी हों अम्मां?'
मां खुश नज़र आ रही थी बोली सिराज. . .अब. . . मैं रूह हूं . . .अब मुझे कोई जला नहीं सकता।
''अम्मां. . .क्या मैं भी तुम्हारी तरह हो सकता हूं?'
2.कैम्प में आधी रात के बाद एक औरत की घबराई बौखलाई रूह पहुंची जो अपने बच्चे को तलाश कर रही थी। उसका बच्चा न उस दुनिया में था न वह कैम्प में था। बच्चे की मां का कलेजा फटा जाता था। दूसरी औरतों की रूहें भी इस औरत के साथ बच्चे को तलाश करने लगी। उन सबने मिलकर कैम्प छान मारा. . .मोहल्ले गयीं. . .घर धूं-धूं करके जल रहे थे। चूंकि वे रूहें थीं इसलिए जलते हुए मकानों के अंदर घुस गयीं. . .कोना-कोना छान मारा लेकिन बच्चा न मिला।
आख़िर सभी औरतों की रूहें दंगाइयों के पास गयी। वे कल के लिए पेट्रौल बम बना रहे थे। बंदूकें साफ कर रहे थे। हथियार चमका रहे थे।
बच्चे की मां ने उनसे अपने बच्चे के बारे में पूछा तो वे हंसने लगे और बोले, 'अरे पगली औरत, जब दस-दस बीस-बीस लोगों को एक साथ जलाया जाता है तो एक बच्चे का हिसाब कौन रखता है? पड़ा होगा किसी राख के ढेर में।'
मां ने कहा, 'नहीं, नहीं मैंने हर जगह देख लिया है. . .कहीं नहीं मिला।'
तब किसी दंगाई ने कहा, 'अरे ये उस बच्चे की मां तो नहीं है जिसे हम त्रिशूल पर टांग आये हैं।'

ABHAY
31-01-2011, 03:58 PM
3. कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं।
'घर?' सिराज सहम गया। उसके चेहरे पर मौत की परछाइयां नाचने लगीं।
'हां, यहां कब तक रहोगे? मैं रोज़ रात में तुम्हारे पास आया करूंगी।'
'नहीं मैं घर नहीं जाउंगा. . .कभी नहीं. . .कभी,' धुआं, आग, चीख़ों, शोर।
'अम्मां मैं तुम्हारे और अब्बू के साथ रहूंगा'
'तुम हमारे साथ कैसे रह सकते हो सिक्कू. . .'
'भाईजान और आपा भी तो रहते हैं न तुम्हारे साथ।'
'उन्हें भी तो हम लोगों के साथ जला दिया गया था न।'
'तब. . .तब तो मैं . . .घर चला जाऊंगा अम्मां।'
4.शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक बच्चे की रूह आती है. . .बच्चा रात में चमकता हुआ जुगनू जैसा लगता है. . .इधर-उधर उड़ता फिरता है. . .पूरे कैम्प में दौड़ा-दौड़ा फिरता है. . .उछलता-कूदता है. . .शरारतें करता है. . .तुतलाता नहीं. . .साफ-साफ बोलता है. . .मां के कपड़ों से लिपटा रहता है. . .बाप की उंगली पकड़े रहता है।शाह आलम कैम्प के दूसरे बच्चे से अलग यह बच्चा बहुत खुश रहता है।
'तुम इतने खुश क्यों हो बच्चे?'
'तुम्हें नहीं मालूम. . .ये तो सब जानते हैं।'
'क्या?'
'यही कि मैं सुबूत हूं।'
'सुबूत? किसका सुबूत?'
'बहादुरी का सुबूत हूं।'
'किसकी बहादुरी का सुबूत हो?'
'उनकी जिन्होंने मेरी मां का पेट फाड़कर मुझे निकाला था और मेरे दो टुकड़े कर दिए थे।'
5.शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक लड़के के पास उसकी मां की रूह आयी। लड़का देखकर हैरान हो गया।
'मां तुम आज इतनी खुश क्यों हो?'
'सिराज मैं आज जन्नत में तुम्हारे दादा से मिली थी, उन्होंने मुझे अपने अब्बा से मिलवाया. . .उन्होंने अपने दादा. . .से . . .सकड़ दादा. . .तुम्हारे नगड़ दादा से मैं मिली।' मां की आवाज़ से खुशी फटी पड़ रही थी।
'सिराज तुम्हारे नगड़ दादा. . .हिंदू थे. . .हिंदू. . .समझे? सिराज ये बात सबको बता देना. . .समझे?'

ABHAY
31-01-2011, 04:45 PM
6. कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक बहन की रूह आयी। रूह अपने भाई को तलाश कर रही थी। तलाश करते-करते रूह को उसका भाई सीढ़ियों पर बैठा दिखाई दे गया। बहन की रूह खुश हो गयी वह झपट कर भाई के पास पहुंची और बोली, 'भइया, भाई ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। वह पत्थर की मूर्ति की तरह बैठा रहा।'
बहन ने फिर कहा, 'सुनो भइया!'
भाई ने फिर नहीं सुना, न बहन की तरफ देखा।
'तुम मेरी बात क्यों नहीं सुन रहे भइया!', बहन ने ज़ोर से कहा और भाई का चेहरा आग की तरह सुर्ख हो गया। उसकी आंखें उबलने लगीं। वह झपटकर उठा और बहन को बुरी तरह पीटने लगा। लोग जमा हो गये। किसी ने लड़की से पूछा कि उसने ऐसा क्या कह दिया था कि भाई उसे पीटने लगा. . .
बहन ने कहा, 'नहीं सलीमा नहीं, तुमने इतनी बड़ी गल़ती क्यों की।' बुज़ुर्ग फट-फटकर रोने लगा और भाई अपना सिर दीवार पर पटकने लगा।
7.शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक दिन दूसरी रूहों के साथ एक बूढ़े की रूह भी शाह आलम कैम्प में आ गयी। बूढ़ा नंगे बदन था। उंची धोती बांधे था, पैरों में चप्पल थी और हाथ में एक बांस का डण्डा था, धोती में उसने कहीं घड़ी खोंसी हुई थी।
रूहों ने बूढ़े से पूछा 'क्या तुम्हारा भी कोई रिश्तेदार कैम्प में है?'
बूढ़े ने कहा, 'नहीं और हां।'
रूहों के बूढ़े को पागल रूह समझकर छोड़ दिया और वह कैम्प का चक्कर लगाने लगा।
किसी ने बूढ़े से पूछा, 'बाबा तुम किसे तलाश कर रहे हो?'
बूढ़े ने कहा, 'ऐसे लोगों को जो मेरी हत्या कर सके।'
'क्यों?'
'मुझे आज से पचास साल पहले गोली मार कर मार डाला गया था। अब मैं चाहता हूं कि दंगाई मुझे ज़िंदा जला कर मार डालें।'
'तुम ये क्यों करना चाहते हो बाबा?'
'सिर्फ ये बताने के लिए कि न उनके गोली मार कर मारने से मैं मरा था और न उनके ज़िंदा जला देने से मरूंगा।'

ABHAY
31-01-2011, 04:47 PM
8.शाह आलम कैम्प में एक रूह से किसी नेता ने पूछा
'तुम्हारे मां-बाप हैं?'
'मार दिया सबको।'
'भाई बहन?'
'नहीं हैं'
'कोई है'
'नहीं'
'यहां आराम से हो?'
'हो हैं।'
'खाना-वाना मिलता है?'
'हां मिलता है।'
'कपड़े-वपड़े हैं?'
'हां हैं।'
'कुछ चाहिए तो नहीं,'
'कुछ नहीं।'
'कुछ नहीं।'
'कुछ नहीं।'
नेता जी खुश हो गये। सोचा लड़का समझदार है। मुसलमानों जैसा नहीं है।
9. कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रूहें अपने बच्चों के लिए स्वर्ग से खाना लाती है।, पानी लाती हैं, दवाएं लाती हैं और बच्चों को देती हैं। यही वजह है कि शाह कैम्प में न तो कोई बच्चा नंगा भूखा रहता है और न बीमार। यही वजह है कि शाह आलम कैम्प बहुत मशहूर हो गया है। दूर-दूर मुल्कों में उसका नाम है।
दिल्ली से एक बड़े नेता जब शाह आलम कैम्प के दौरे पर गये तो बहुत खुश हो गये और बोले, 'ये तो बहुत बढ़िया जगह है. . .यहां तो देश के सभी मुसलमान बच्चों को पहुंचा देना चाहिए।'
10..कैम्प में एक दिन रूहों के साथ शैतान की रूह भी चली आई। इधर-उधर देखकर शैतान बड़ा शरमाया और झेंपा। लोगों से आंखें नहीं मिला पर रहा था। कन्नी काटता था। रास्ता बदल लेता था। गर्दन झुकाए तेज़ी से उधर मुड़ जाता था जिधर लोग नहीं होते थे। आखिरकार लोगों ने उसे पकड़ ही लिया। वह वास्तव में लज्जित होकर बोला, 'अब ये जो कुछ हुआ है. . .इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है. . .अल्लाह क़सम
मेरा हाथ नहीं है।
लोगों ने कहा, 'हां. . .हां हम जानते हैं। आप ऐसा कर ही नहीं सकते। आपका भी आख़िर एक स्टैण्डर्ड है।'
शैतान ठण्डी सांस लेकर बोला, 'चलो दिल से एक बोझ उतर गया. . .आप लोग सच्चाई जानते हैं।'
लोगों ने कहा, 'कुछ दिन पहले अल्लाह मियां भी आये थे और यही कह रहे थे।'

ndhebar
01-02-2011, 10:35 AM
सूत्र का शीर्षक "सिख देने वाली कहानियां" होनी चाहिए
क्योंकि बच्चा तो यहाँ कोई है नहीं

ABHAY
11-04-2011, 09:39 AM
बाल कहानी : दानव और बकरे

जंगल के पास एक गांव था। गांव के किनारे से एक नदी बहती थी। नदी पर एक पुल था। पुल के नीचे एक दानव रहता था।

जंगल में तीन बकरे चर रहे थे। सबसे बड़े बकरे ने सबसे छोटे बकरे से कहा, "नदी के पार गांव के खेतों में खूब फल-सब्जी उगे हुए हैं। उनकी महक यहां तक आ रही है। जा पुल पर से नदी पार करके उन्हें खा आ।"

छोटा बकरा पुल पार करने लगा। जब वह पुल के बीच तक पहुंच गया तो दानव पुल के ऊपर चढ़ आया और अपने बड़े-बड़े खांग और नाखून दिखाकर नन्हे बकरे को डराते हुए बोला, "मुझे बड़ी भूख लगी है। मैं तुझे खा जाऊंगा।"

डर से कांपते हुए नन्हा बकरा बोला, "मुझे मत खाओ दानव। मैं बहुत छोटा हूं। मुझसे तुम्हारी भूख नहीं मिटेगी। मेरे दो बड़े दोस्त हैं। वे अभी इसी ओर आने वाले हैं। उन्हें खा लो।"

दानव बड़े बकरों को खाने के लालच में आ गया। बोला, "अच्छा तू जा। मैं बड़े बकरों का इंतजार करूंगा।"

नन्हा बकरा सिर पर पांव रखकर वहां से भागा और गांव के खेत में पहुंचकर ताजा फल-सब्जी खाने लगा।

सबसे बड़े बकरे ने तब मंझले बकरे से कहा, "अब तू पुल पर से गांव की ओर जा।"

ABHAY
11-04-2011, 09:40 AM
मंझला बकरा पुल पार करने लगा। जब वह पुल के बीच पहुंचा तो दानव ऊपर चढ़ आया और अपने खांग और नाखून से उसे डराते हुए बोला, "मुझे बड़ी भूख लगी है। मैं तुझे खा जाऊंगा।"

मझले बकरे ने कहा, "मुझे जाने दो दानव। मैं अभी छोटा ही हूं। मुझसे तुम्हारी भूख नहीं मिटेगी। अभी मेरा एक दोस्त आनेवाला है। वह मुझसे बहुत बड़ा है। उसे खा लो।"

दानव बोला, "अच्छा तू जा।"

मझला बकरा वहां से भागकर नन्हे बकरे के पास पहुंच गया।

अब बड़ा बकरा पुल पार करने लगा। वह खूब मोटा और तगड़ा था। उसके चलने से पुल चरमरा उठा। उसके सींग लंबे और खूब नुकीले थे।

जब वह पुल के बीच पहुंचा तो दानव एक बार फिर पुल के ऊपर चढ़ आया और अपने खांग और नाखून से उसे डराते हुए बोला, "मुझे बड़ी भूख लगी है। मैं तुझे अभी खा जाऊंगा।"

पर बड़ा बकरा जरा भी नहीं डरा। उसने अपने अगले पांवों से जमीन कुरेदते हुए हुंकार भरी और सिर नीचा करके दानव के पेट पर अपने सींगों से जोर से प्रहार किया। दानव दूर नदी में जा गिरा। अब बड़ा बकरा इत्मीनान से पुल पार कर गया और अपने दोनों साथियों के पास पहुंचकर मनपसंद भोजन करने लगा।

ABHAY
11-04-2011, 10:03 AM
बाल कहानी : जादुई रंग बक्सा

वसुंधरा का पांचवां जनम दिन था। उसके नानाजी उसके लिए एक तोहफा लाए थे। वह चमकीले कागज में लिपटा था और लाल रिबन से बंधा था।

वसुंधरा ने तोहफा नानाजी से लिया और बड़े कुतूहल से उसे खोलने लगी। वह एक सुंदर रंग बक्सा था।

नानाजी ने कहा, "बेटा यह एक खास तरह का रंग बक्सा है, जैसा कि तुम्हें जल्द मालूम हो जाएगा।"

वसुंधरा बहुत ही खुश हुई। उसे चित्र बनाना और उनमें रंग भरना बेहद पसंद था। "ओह नानाजी, आप कितने अच्छे हैं!" कहकर वह अपने नानाजी से लिपट गई। नानाजी मुसकुरा उठे।

वसुंधरा ने कागज पर पेंसिल से तितली का चित्र बनाया और रंग बक्सा खोलकर तितली के पंखों पर तरह-तरह के रंग भरने लगी। जब चित्र पूरा हो गया तो वसुंधरा थोड़ा पीछे हटकर चित्र को निहारने लगी। वह अभी चित्र को परख ही रही थी कि तितली ने अपने सुंदर पंख खोले और कागज से उड़ गई। थोड़ा इधर-उधर भटककर वह बगीचे के एक फूल पर जा बैठी। यह देखकर वसुंधरा पहले तो बहुत चौंकी। पर तभी उसे नानाजी की बात याद आई कि रंग बक्सा खास प्रकार का है। वह शायद जादुई रंग बक्सा था। वसुंधरा सब समझ गई।
अब वसुंधरा ने एक सुंदर रंग-बिरंगी चिड़िया का चित्र बनाया। चित्र पूरा होते ही चिड़िया चीं-चीं करके बोल उठी। अपने नन्हें पंखों को थोड़ा फड़फड़ाकर वह पहले वसुंधरा के सिर पर बैठी फिर खिड़की से बाहर उड़ गई। इस बार वसुंधरा जरा भी नहीं चौंकी। उसे पता था कि चिड़िया ठीक वैसा ही करेगी।

इसके बाद वसुंधरा ने गिलहरी, खरगोश, मेंढ़क आदि के चित्र बनाए। वे सब कागज से जिंदा होकर बगीचे में आ गए और वहां कूदने, फुदकने और बोलने लगे। उन्हें देखकर वसुंधरा बहुत ही प्रसन्न हुई।

ABHAY
11-04-2011, 10:06 AM
कहानी : ननकी और आदमखोर शेर

वगडावर नामक गांव में एक लड़की रहती थी ननकी। इस गांव के पास से पोसी नदी बहती है। ननकी को इस नदी से बड़ा लगाव था। जब वह स्कूल जाती तो नदी के किनारे-किनारे चलती हुई नदी की कलकल बहती धारा, उसमें उछलती-कूदती मछलियों और बगुलों को देखती जाती। नदी के दोनों ओर बड़े-बड़े फलदार वृक्ष लगे थे। कभी-कभी वह उनके फल तोड़कर खा भी लेती। स्कूल से घर लौटते वक्त वह नदी के सुनसान किनारे पर पहुंचकर अपने बस्ते को किसी पेड़ की खोल में रख देती और नदी में उतरकर हाथ-मुंह धोती या उसके किनारे बैठकर अपने विचारों में खो जाती।

एक दिन स्कूल से लौटते वक्त वह रोज की भांति धीमे-धीमे नदी के किनारे-कनारे चली जा रही थी। तभी उसे एक हल्की सी आवाज सुनाई दी, “ननकी मुझे बचा लो।” उसने इधर-उधर सिर घुमाकर देखा। नदी के ऊपर तक बढ़ आई एक डाली पर एक मछली फंसी हुई थी। उसी ने पुकारा था। नदी में कूद-कूदकर खेलते समय वह शायद पानी के ऊपर स्थित डाली में उलझ गई थी।

ABHAY
11-04-2011, 10:07 AM
ननकी तुरंत डाली पर चढ़ गई और मछली को छुड़ाकर दुबारा पानी में डाल दिया। पानी में पहुंचते ही मछली सुंदर स्त्री में बदल गई। वह कोई साधरण मछली नहीं, बल्कि जलपरि थी। उसने ननकी से कहा, "बेटी तुमने मेरी जान बचाई है। इसके बदले मैं तुम्हें एक विद्या सिखाऊंगी।" और उसने ननकी को एक विद्या सिखा दी। वह इस तरह की थी कि यदि ननकी किसी को देखकर कह दे "चिपक जाओ" तो तुरंत उस प्राणी के हाथ-पैर चिपक जाते थे। वे फिर तभी खुलते थे जब ननकी यह कह दे "खुल जाओ"। इसके बाद परी अदृश्य हो गई और ननकी भी घर की ओर चलने लगी।

रास्ते में उसे एक बगुला दिखाई दिया जो एक मेंढ़क को पकड़ने ही वाला था। ननकी ने सोचा कि परि ने जो विद्या सिखाई है, उसे आजमाकर देखना चाहिए, तभी यह मालूम हो सकेगा कि वह काम करती है कि नहीं। उसने बगुले को देखकर कहा, "चिपक जाओ"। तुरंत बगुले की चोंच, पैर और पंख चिपक गए और हिलने-डुलने में असमर्थ हो गए। इसका लाभ उठाकर मेंढ़क बच निकल गया। परि द्वरा सिखाई गई विद्या को काम करते देखकर ननकी बहुत खुश हुई। उसने "खुल जाओ" कहकर बगुले को छुड़ाया और आगे बढ़ गई।

आगे चलकर उसे एक कौआ दिखाई दिया जो एक गिलहरी को पकड़ रहा था। ननकी ने तुरंत कौए को देखकर कहा, "चिपक जाओ"। कौआ मूर्तिवत हो गया और गिलहरी भाग गई। ननकी ने "खुल जाओ" कहकर कौए को छुड़ाया।

ABHAY
11-04-2011, 10:08 AM
जब ननकी गांव पहुंची तो उसने देखा कालू कुत्ता चंपा मौसी की बिल्ली के पीछे पड़ा हुआ है। उसने तुरंत कालू को देखकर "चिपक जाओ" कहा तो कालू के हाथ-पैर सब चिपक गए। वह जमीन पर निस्सहाय होकर गिर पड़ा और "कूं-कूं-कूं" करने लगा। बिल्ली जब एक घर की छत पर चढ़ गई तो ननकी ने कालू को छोड़ दिया।

बहुत जल्द गांव भर में ननकी की इस अद्भुत विद्या की खबर फैल गई। सभी उससे दुश्मनी करने से डरने लगे। गांव भर के लड़के-लड़की अब उसके पीछे-पीछे चलने और जैसा वह कहती वैसा ही करने लगे।

एक दिन उस गांव के पास के जंगलों में एक आदमखोर शेर आ गया। उसने आसपास के गांवों के कई आदमियों को मार कर खा लिया। ननकी के गांव वगडावर के कुछ निवासी भी उसके शिकार हुए। तब सब लोगों ने मिलकर ननकी से कहा कि वह इस बाघ को पकड़ने में मदद करे।

ABHAY
11-04-2011, 10:09 AM
ननकी फौरन राजी हो गई। वह गांव के शिकारी और कुछ किसानों को साथ लेकर जंगल की ओर चल पड़ी। बहुत खोजने पर उन्हें शेर की मांद मिल गई। वे धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। तभी जोर की गुर्राहट हुई और शेर एक झाड़ी के पीछे से उनकी ओर झपट पड़ा। बाकी सब लोग तो डर के मारे इधर-उधर भागने लगे, पर ननकी ने शेर की आंख में आंख डालकर कहा, "चिपक जाओ"। शेर की छलांग अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि उसके हाथ-पैर और जबड़े उसके हवा में रहते ही चिपक गए और वह धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा।

यह देखकर बाकी गांववाले धीरे-धीरे अपने छिपने के स्थानों से निकल आए और आश्चर्यचकित होकर आदमखोर शेर को देखने लगे। ननकी ने उन्हें शेर को मारने नहीं दिया। वह जानती थी कि फिलहाल शेर किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सब मिलकर शेर को वगडावर गांव ले आए। वहां के बच्चे-बच्चे तक ने साहस करके शेर की पीठ पर हाथ फेर कर देखा।

सब यही विचार कर रहे थे कि इस शेर का क्या किया जाए कि तभी चिड़ियाघर की एक गाड़ी पिंजड़ा लेकर आ गई। आदमखोर शेर के पकड़े जाने की खबर शहर तक पहुंच गई थी। चिड़ियाघर को शेर की आवश्यकता थी। उसका शेर अभी हाल ही में बूढ़ा होकर मर गया था। ननकी ने शेर को चिड़ियाघर के अधिकारियों को सहर्ष दे दिया। जब उन्होंने शेर को पिंजड़े के अंदर रख दिया और पिंजड़े का दरवाजा मजबूती से बंद कर दिया, तब ननकी ने पिंजड़े के पास जाकर "खुल जाओ" कह दिया। तुरंत शेर के हाथ-पैर खुल गए। जब शेर ने देखा कि वह कैद कर लिया गया है, तो वह थोड़ी देर बहुत छटपटाया और दहाड़ा, पर शीघ्र शांत हो गया। वह समझ गया कि वह पिंजड़े से छूट नहीं सकता। चिड़ियाघर के कर्मचारियों ने ननकी को बहुत धन्यवाद दिया और शेर को अपने साथ ले गए।

vijaysr76
22-06-2011, 02:13 PM
नियम
साबरमती आश्रम में जब बापू थे, तब एक नियम था कि भोजन के समय दो बार घंटी बजाई जाती थी। जो व्यक्ति दूसरी घंटी बजने तक नहीं पहुंच पाते थे, उन्हें दूसरी पंक्ति लगने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। एक दिन की बात है कि दूसरी घंटी बजने तक बापू भोजनालय में उपस्थित नहीं हो सके और भोजनालय का द्वार बंद हो गया। जब बापू द्वार तक आए और दूसरी पंक्ति लगने की प्रतीक्षा करने लगे तभी उनके एक सहयोगी ने हंसते हुए बापू को ताने भरे हुए शब्दों में कहा- 'बापू आज तो आप भी अपराधियों की पंक्ति में खड़े हैं।'

यह सुनकर बापू ने बड़ी विनम्रता से कहा- 'नियम तो आखिर नियम है, सभी पर नियम समान रूप से लागू होने चाहिए। अगर किसी से गलती हो जाए तो उसे सुधारने के लिए सजा भी भुगतनी चाहिए और मैं भी आज अपराधियों की पंक्ति में इसीलिए खड़ा हूं।'

vijaysr76
23-06-2011, 11:26 AM
स्वाभिमानी बालक
तब महात्मा गांधी आगा खां महल में नजरबंद थे। उनके मित्र रोज उनके लिए कुछ न कुछ भेंट लाते थे। एक दिन की बात है कि एक 10-12 साल का बालक, जो कि मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए था, आगा खां महल में पहुंचा और बापू को अपने हाथ से दो-तीन फल देने की जिद करने लगा। बापू ने उससे फल ले लिए और उसके बदले बच्चे को कुछ पैसे देने चाहे। इस पर उस नन्हे बालक ने जोर से कहा- 'बापू मैं भिखारी नहीं हूं, दिन भर मजदूरी कर मैंने जो कुछ पैसे बचाएं हैं उन्हीं से ये फल खरीद कर लाया हूं।' बालक के ऐसे स्वाभिमान भरे शब्दों को सुनना था कि बापू प्रसन्नता से बोल पड़े- 'धन्य है वह मां जिसने तुम जैसे बालक को जन्म दिया। पैसे वाले मित्रों के फल तो मुझे रोज ही मिलते रहते हैं, लेकिन असली मीठे फल तो मुझे आज ही मिले हैं।' और वह बालक था स्वाभिमान का पुजारी डॉ. राम मनोहर लोहिया, जिसने बापू के आदर्शों पर चलकर अपना सब कुछ देश के लिए न्यौछावर कर दिया।

The ROYAL "JAAT''
23-06-2011, 10:16 PM
स्वाभिमानी बालक
तब महात्मा गांधी आगा खां महल में नजरबंद थे। उनके मित्र रोज उनके लिए कुछ न कुछ भेंट लाते थे। एक दिन की बात है कि एक 10-12 साल का बालक, जो कि मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए था, आगा खां महल में पहुंचा और बापू को अपने हाथ से दो-तीन फल देने की जिद करने लगा। बापू ने उससे फल ले लिए और उसके बदले बच्चे को कुछ पैसे देने चाहे। इस पर उस नन्हे बालक ने जोर से कहा- 'बापू मैं भिखारी नहीं हूं, दिन भर मजदूरी कर मैंने जो कुछ पैसे बचाएं हैं उन्हीं से ये फल खरीद कर लाया हूं।' बालक के ऐसे स्वाभिमान भरे शब्दों को सुनना था कि बापू प्रसन्नता से बोल पड़े- 'धन्य है वह मां जिसने तुम जैसे बालक को जन्म दिया। पैसे वाले मित्रों के फल तो मुझे रोज ही मिलते रहते हैं, लेकिन असली मीठे फल तो मुझे आज ही मिले हैं।' और वह बालक था स्वाभिमान का पुजारी डॉ. राम मनोहर लोहिया, जिसने बापू के आदर्शों पर चलकर अपना सब कुछ देश के लिए न्यौछावर कर दिया।



बच्चो के लिए बहुत ही ज्ञानवर्धक सूत्र है भाई विजय आगे भी एसी कहानी भेजते रहे धन्यवाद

vijaysr76
24-06-2011, 11:15 AM
दानवीर
एक दिन अर्जुन ने कृष्ण से कहा, 'हे कृष्ण! आज तक इस संसार में मुझे बड़े भ्राता सा दानवीर कोई और नहीं दिखा।' कृष्ण मुस्करा कर रह गए। कुछ दिनों बाद जब अर्जुन वह प्रसंग भूल गए, वर्षा ऋतु में कृष्ण और अर्जुन भिक्षुक का वेष बना कर युधिष्ठिर के द्वार पर पहुंचे और सूखे चंदन की एक मन लकड़ी मांगी। युधिष्ठिर ने असमर्थता प्रकट करते हुए कहा, वर्षाकाल में चंदन की सूखी लकड़ी का मिलना असंभव है। दोनों कर्ण के द्वार पर पहुंचे और वही माँग दोहराई। कर्ण ने कहा, 'हे विप्र द्वय! आप बैठें, मैं कोई व्यवस्था करता हूँ।' जब कर्ण को चंदन की सूखी लकड़ी नहीं मिली, तो वह कुछ पल उपाय सोचता रहा, फिर अपने महल के कुछ चंदन के दरवाजे उतार कर उन्हें दे दिए। अर्जुन को अपनी बात का उत्तर मिल गया था।

vijaysr76
25-06-2011, 01:10 PM
शील की महिमा
प्रहलाद ने शील और पराक्रम के बल पर देवराज इंद्र को परास्त कर तीनों लोकों पर अपना प्रभुत्व कर लिया। निराश इंद्र ने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की शरण में जाकर पुन: इंद्रासन प्राप्त करने का उपाय पूछा। शुक्राचार्य ने क्षण भर सोचा, फिर बोले, 'हे इंद्र! यदि तुम स्वर्ग का राज्य पुन: पाना चाहते हो, तो पहले प्रहलाद को अपनी सेवा से संतुष्ट करो। प्रसन्न होने पर जब वह तुम्हें वर मांगने को कहे तो तुम उसका 'शील' मांगना।

इंद्र ने वेश बदल कर कई वर्षों तक दैत्यराज प्रहलाद की दिन-रात निष्ठा से सेवा की। आखिर एक दिन प्रहलाद ने प्रसन्न होकर कहा, 'सेवक! मैं तुम्हारी सेवा से संतुष्ट और प्रसन्न हूं। तुम वर मांगो, क्या चाहते हो?' सेवक ने तुरंत विनम्रता से कहा, 'महाराज! मुझे आप अपना 'शील' दान कर दें।' प्रहलाद ने तत्काल तथास्तु कह कर अपना शील सेवक को दान कर दिया। तीनों लोकों के स्वामी प्रहलाद के शील दान करते ही तुरंत उसके शरीर से सत्य, सदाचार, धर्म, बल एवं पराक्रम भी निकल कर सेवक रूपी इंद्र के शरीर में प्रविष्ट हो गए। इन गुणों के साथ इंद्र पुन: स्वर्ग के राजा बन गए।

vijaysr76
27-06-2011, 10:15 AM
बड़ा रत्न
एक राजा किसी साधु को अपना रत्न भंडार दिखाने ले गया। वहाँ उसने साधु को अपने संग्रह किए हुए तरह-तरह के रत्न दिखाए, उनकी विशेषताओं से परिचय कराया। फिर यह बताया कि वे कितने कीमती हैं। इसके बाद राजा ने साधु को यह भी बताया कि उनकी सुरक्षा के लिए कितने सशस्त्र सैनिकों का पहरा लगाया जाता है। साधु ने अत्यंत उपेक्षापूर्वक उन्हें देखा और उदासीन भाव से बातें सुनीं। रत्न भंडार से बाहर निकलने के बाद जब राजा ने साधु से उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उसने कहा, मैंने आपके उन सभी रत्नों से भी बड़ा रत्न देखा है। खास बात यह है कि उस पर पहरा भी नहीं लगाया जाता। और इसके साथ ही वह रत्न एक व्यक्ति के जीवन निर्वाह का साधन भी हर दिन जुटा देता है।

राजा आश्चर्य में पड़ गया, उसने साधु से वह रत्न दिखाने की प्रार्थना की। साधु उसे अपने साथ ले कर एक बुढि़या की झोपड़ी में पहुंचा और वहाँ रखी आटा पीसने की चक्की दिखा कर बोला, जैसे पत्थर के टुकड़े तुम्हारे पास हैं, उनसे कहीं बड़ा यह पत्थर है। यह अनाज पीसता है और इससे पीसने वाले का पेट भरता है। और देखो कि इसकी चौकसी की जरूरत भी नहीं पड़ती।

vijaysr76
28-06-2011, 04:53 PM
दूसरों के लिए
उत्तर भारत के गाँवों में एक लोक कथा सुनने को मिलती है। एक राजा था। एक बार उसके राज्य में भयानक अकाल पड़ा। राजा ने आज्ञा दी कि अनाज के भंडार व गोदाम खोल दिए जाएं। उसकी आज्ञा का तुरंत पालन हुआ। सभी अनाज के भंडार व गोदाम प्रजा के लिए खोल दिए गए। कुछ दिनों में भंडार भी खाली हो गए। तब राजा ने महल की रसोई में पकने वाला भोजन गरीबों व जरूरतमंदों को बांटने का आदेश दिया। धीरे-धीरे महल का भंडार भी खाली हो गया। हालत यह हो गई कि एक दिन राज परिवार के पास भी खाने को कुछ नहीं बचा। उस दिन शाम को अचानक एक अजनबी राजा के सामने प्रकट हुआ। उसके हाथ में एक बड़ा सा कटोरा था, जिसमें दूध, गेहूँ और चीनी से बनी दलिया थी। उसने भूखे राजा को वह कटोरा दे दिया, पर राजा ने उसे चखा भी नहीं। पहले अपने सेवकों को बुलाया और कहा, तुम्हारे भूखे रहते मैं इसे नहीं खा सकता। सेवक भूखे तो थे, लेकिन राजा को भूखा देख कर उन्होंने अनमने भाव से ही दलिया खाई और उसमें से भी आधी राजा व उसके परिवार के लिए बचा दिया। राज परिवार जैसे ही वह बची दलिया खाने बैठा, दरवाजे पर एक भूखा अतिथि आ पहुँचा। राजा ने वह भोजन भी भूखे अतिथि को दे दिया। वह खा कर तृप्त होने के बाद उस व्यक्ति ने अपना वेश बदला। वह स्वयं भगवान थे, जिन्होंने राजा के धैर्य की परीक्षा लेने के लिए ऐसा रूप धारण किया था। उन्होंने राजा से कहा, मैं तुम्हारे आचरण से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम मुझ से जो भी वरदान चाहो, माँग लो। भगवान को सामने पा कर राजा उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला, हे प्रभु! मैं इस लोक या परलोक का कोई ईनाम नहीं चाहता। मुझे ऐसा हृदय दें जो दूसरों की पीड़ा को महसूस करे और ऐसा मन व तन दें जो दूसरों की सेवा में लगा रहे। भगवान तथास्तु कह कर अंतर्ध्यान हो गए।

vijaysr76
30-06-2011, 11:29 AM
खुशहाली का रास्ता
एक बार हकीम लुकमान से उसके बेटे ने पूछा, अगर मालिक ने फरमाया कि कोई चीज मांग, तो मैं क्या मांगूं? लुकमान ने कहा, परमार्थ का धन। बेटे ने फिर पूछा, अगर इसके अलावा दूसरी चीज मांगने को कहे तो? लुकमान ने कहा, पसीने की कमाई मांगना। उसने फिर पूछा, तीसरी चीज? जवाब मिला, उदारता। चौथी चीज क्या मांगू- शरम। पांचवीं- अच्छा स्वभाव। बेटे ने फिर पूछा, और कुछ मांगने को कहे तो? लुकमान ने उत्तर दिया, बेटा जिसको ये पांच चीजें मिल गईं उसके लिए और मांगने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। खुशहाली का यही रास्ता है और तुझे भी इसी रास्ते से जाना चाहिए।

vijaysr76
01-07-2011, 11:11 AM
भला बनो
1. पांच-छह साल का एक नन्हा बालक साथियों के साथ आम के बगीचे में चला गया। सभी बच्चे आम तोड़ने लगे। नन्हा बालक चुपचाप एक कोने में खड़ा रहा। साथियों के उकसाने पर भी उसने आम तो नहीं तोड़े, लेकिन इसी बीच गुलाब के पौधे पर खिले एक फूल पर उसकी दृष्टि पड़ी। सुंदर गुलाब को देखकर उसका मन ललचा उठा और उसने फूल तोड़ लिया। तभी बगीचे में माली आ धमका। उसे देखते ही सब लड़के भाग गए। लेकिन नन्हा वहीं खड़ा रहा। माली ने कहा, 'कहाँ है तेरा घर, चल मैं तेरे बाबू जी से तेरी करतूत बताता हूँ। नन्हे ने सहमते हुए कहा, मेरे पिता जी नहीं हैं। बालक का भोला चेहरा और सरल आँखें देखकर माली रुक गया। उसने समझाया, तब तो तुम्हें ऐसे काम बिल्कुल नहीं करने चाहिए। क्योंकि तुम्हें पिटाई से बचाने वाला भी कोई नहीं है। नन्हे को लगा जैसे माली के रूप में उसके जीवन को दिशा बताने वाला कोई गुरु खड़ा हो। उसने उसी क्षण अच्छा बच्चा बनने का संकल्प किया। यह नन्हा कोई और नहीं, लाल बहादुर शास्त्री थे जो आगे चलकर अपनी सचाई, ईमानदारी, सेवा भावना और कर्तव्यनिष्ठा के बल पर देश के प्रधानमंत्री बने।

2. अमेरिका के मशहूर लेखक इमर्सन को गाय पालने का शौक था। ये गाएं और उनके बछड़े उनके मकान के पास एक झोपड़ी में रहते थे। एक बार जोर की बारिश आने वाली थी। सभी गाएं झोंपड़ी के अंदर चली गईं, पर एक बछड़ा बाहर ही रह गया। इमर्सन और उनका बेटा, दोनों मिलकर उसे खींचने लगे कि वह कुटिया में चला आए, पर वे ज्यों-ज्यों उन्होंने खींचना शुरू किया, त्यों-त्यों वह बछड़ा भी सारी ताकत लगाकर पीछे हटने लगा। इमर्सन बड़े परेशान हुए। इतने में उनकी बूढ़ी नौकरानी उधर से निकली। जैसे ही उसने यह तमाशा देखा, वह दौड़ी आई और अपना अंगूठा बछड़े के मुंह में प्यार से डालकर उसे धीरे-धीरे ले जाने लगी। बछड़ा चुपचाप झोपड़ी के अंदर चला गया। वह नौकरानी अनपढ़ तो थी, पर व्यवहार कुशल थी और जानती थी कि जानवर भी प्रेम की भाषा समझते हैं।

vijaysr76
05-07-2011, 12:06 PM
सूझबूझ
एक राज्य में प्रजा का शासन था। वहाँ प्रजा के बीच से ही राजा का चुनाव किया जाता था। लेकिन नियम यह था कि जनता में से जो भी राजा चुनकर गद्दी पर बिठाया जाता था, उसे दस वर्ष बाद एक ऐसे निर्जन एकाकी द्वीप में छोड़ दिया जाता था, जहां अन्न-जल कुछ भी उपलब्ध नहीं होता था। इस तरह अनेक राजा अपने प्राण गंवा चुके थे। अपने शासन के आरम्भिक समय में तो वे प्रसन्नतापूर्वक राज्य की सुख-सुविधाओं का भोग करते। दसवें वर्ष के अंतिम समय तक पहुंचते-पहुंचते, वे भविष्य की चिंता से दुखी होने लगते और अंत में काल के ग्रास बन जाते।
एक बार एक बुद्धिमान व्यक्ति उस गद्दी पर बैठा। राजकाज संभालने के कुछ समय बाद वह एक दिन उस निर्जन द्वीप का निरीक्षण करने निकला, जहाँ गद्दी छोड़ने के बाद सभी राजाओं को जाना पड़ता था। अपने भविष्य का ध्यान करते हुए उसने वहां जलाशय बनवाए, पेड़ लगवाए और खेती करने के लिए व्यक्तियों को बसाना शुरू कर दिया। दस वर्षों की अवधि में वह निर्जन एकांकी प्रदेश अत्यंत रमणीय स्थल बन गया। अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद वह राजा वहां खुशी से गया और शेष जीवन सुख-पूर्वक बिताने लगा।

vijaysr76
06-07-2011, 02:24 PM
सबसे बड़ी सजा
बगदाद के खलीफा फारूख हारून रशीद बड़े न्यायप्रिय थे। एक बार उनका शहजादा क्रोधित होकर उनके पास आया। बादशाह ने उससे क्रोध का कारण पूछा। शहजादे ने बताया कि आपके अमुक अफसर ने मुझे गालियां दी हैं और मेरा अपमान किया है। खलीफा ने अपने शहजादे की बात बड़े ध्यान से सुनी और दरबार में उपस्थित सभी सदस्यों की राय ली कि उस अफसर को क्या सजा देनी चाहिए। किसी ने कहा, कठोर दंड दिया जाए। किसी ने राय दी कि कि उसकी जुबान काट दी जाए। परन्तु बादशाह को किसी की बात अच्छी नहीं लगी।
अंत में फारूख ने अपने शहजादे से कहा, बेटा! कोई सजा देने के बदले उसे माफ ही कर दो, क्योंकि जो व्यक्ति औरों के सौ अपराध माफ करता है, खुदा उसके हजार गुनाह माफ करता है। अगर तुम्हें यह बात पसन्द नहीं और बदला लेना ही है तो तुम खुद वहां जाकर उस अफसर को गालियां दे आओ। लेकिन फिर उसमें और तुम्हारे में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। और एक खतरा यह भी होगा कि उसे जवाब सुनाते हुए तुम अगर वहां कुछ ज्यादा उत्तेजित हो गए और उससे ज्यादा गालियां दे बैठे तो तुम उससे भी बड़े अपराधी साबित हो जाओगे। पिता की यह बात सुनकर शहजादे ने अपराधी को माफ करना ही मुनासिब समझा।

abhisays
06-07-2011, 06:56 PM
स्वाभिमानी बालक


तब महात्मा गांधी आगा खां महल में नजरबंद थे। उनके मित्र रोज उनके लिए कुछ न कुछ भेंट लाते थे। एक दिन की बात है कि एक 10-12 साल का बालक, जो कि मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए था, आगा खां महल में पहुंचा और बापू को अपने हाथ से दो-तीन फल देने की जिद करने लगा। बापू ने उससे फल ले लिए और उसके बदले बच्चे को कुछ पैसे देने चाहे। इस पर उस नन्हे बालक ने जोर से कहा- 'बापू मैं भिखारी नहीं हूं, दिन भर मजदूरी कर मैंने जो कुछ पैसे बचाएं हैं उन्हीं से ये फल खरीद कर लाया हूं।' बालक के ऐसे स्वाभिमान भरे शब्दों को सुनना था कि बापू प्रसन्नता से बोल पड़े- 'धन्य है वह मां जिसने तुम जैसे बालक को जन्म दिया। पैसे वाले मित्रों के फल तो मुझे रोज ही मिलते रहते हैं, लेकिन असली मीठे फल तो मुझे आज ही मिले हैं।' और वह बालक था स्वाभिमान का पुजारी डॉ. राम मनोहर लोहिया, जिसने बापू के आदर्शों पर चलकर अपना सब कुछ देश के लिए न्यौछावर कर दिया।


इसे कहते हैं पुत के पाँव पालने में दिखने लगाना.. बहुत बढ़िया विजय जी.

vijaysr76
08-07-2011, 05:20 PM
दूसरों पर हंसने वाला
एक कुंजडे़ और कुम्हार ने साझे में ऊंट किराए पर लिया। उन दोनों को अपना-अपना सामान मंडी ले जाना था। उन्होंने ऊंट पर एक तरफ मिट्टी के बरतन रखे और दूसरी तरफ साग-सब्जियां रखीं। जब दोनों ऊंट को लेकर मंडी की ओर चले, तो उन्होंने देखा कि रास्ते में चलता हुआ वह बार-बार साग-सब्जियों की ओर गर्दन मोड़ कर थोड़ा-थोड़ा खा लेता था। ऊंट जब भी ऐसा करता, कुम्हार जोरों से खिल-खिलाकर हंसता और कुंजड़ा बेचारा मन मसोस कर रह जाता। फिर कुम्हार की हंसी के जवाब में कहता, 'चलो, देखें ऊंट किस करवट बैठता है। मंडी पहुंचने पर ऊंट जब बैठने लगा तो उसे सब्जी वाला हिस्सा हल्का लगा, क्योंकि उसका कुछ हिस्सा तो वह रास्ते में ही खा चुका था। मिट्टी के बर्तनों घड़ों वाला हिस्सा भारी होने से ऊंट उसी ओर बैठा और सारे घड़े चूर-चूर हो गए। इस बार कुंजड़ा हंसा और कुम्हार से बोला, देखा! दूसरों पर हंसने वाला कभी-कभी स्वयं भी हंसी का पात्र बन जाता है।

Emma
08-07-2011, 10:31 PM
सच में आप ने जो कुछ भी लिखा हा सच में बहुत ही अच्छा लिखा हा अगर कोय इसको पढ़ ले तो जरू कुछ न कुछ सिख लेगा.

vijaysr76
09-07-2011, 10:23 AM
बर्फ का टुकड़ा
जर्मनी के सम्राट फ्रेडरिक ने एक बार एक विशाल भोज का आयोजन किया। बातचीत के दौरान उसने मेहमानों से पूछा, 'समझ नहीं आता कि प्रजा पर इतने कर लगाने के बावजूद राज्य की आमदनी कैसे कम होती जा रही है?' यह सुनकर सभी मेहमान एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। तभी कोने में बैठे एक सज्जन ने कहा, 'यदि आज्ञा हो तो मैं इसे स्पष्ट करूं।' उस सज्जन ने बर्फ का एक टुकड़ा लिया और अपने बगल में बैठे व्यक्ति के हाथ में देते हुए कहा कि वे इसे अपने बगल वाले सज्जन के हाथ में दे दें और उनसे कहें कि वे उसे अपने साथ बैठे आदमी को दें, ताकि एक दूसरे के हाथ से होता हुए यह सम्राट के पास पहुंच जाए। जब वह टुकड़ा सम्राट के पास पहुंचा तो उसका आकार चने के बराबर रह गया था। इस पर सज्जन ने कहा, 'शाही खजाने तक पहुंचते-पहुंचते कर का भी यही हाल होता है।' फ्रेडरिक समझ गया कि उसके अधिकारी भ्रष्ट और बेईमान हैं। उसने उन सज्जन को सम्मानित किया। वे सज्जन थे जर्मनी के प्रसिद्ध बुद्धिजीवी फ्रेगरिल ल्यूक।
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vijaysr76
11-07-2011, 11:17 AM
उत्साह भरा जीवन
एक चौराहे पर तीन यात्री मिले। तीनों के कंधों पर दो-दो झोले आगे-पीछे लटके हुए थे। अपनी लंबी यात्रा से तीनों थके हुए थे। लेकिन एक यात्री के चेहरे पर प्रसन्नता और उत्साह का भाव था। दूसरा यात्री श्रम से थका हुआ तो था, लेकिन निराश या क्लांत नहीं था। पर तीसरा बेहद मुर्झाया हुआ और दुखी दिख रहा था। तीनों एक पेड़ की छाया में बैठ कर सुस्ताने लगे। बातचीत होने लगी, कौन कहाँ से आ रहा है, कहाँ जा रहा है, किसकी झोली में क्या रखा है। एक यात्री ने बताया कि उसने अपनी पीछे की झोली में कुटुम्बियों और उपकारी मित्रों की भलाइयां भर रखी थीं और सामने की झोली में उन लोगों की बुराइयां रखी थीं। दूसरे ने आगे के झोले में अपने मित्रों और हितैषियों की अच्छाइयां लटका रखी थीं और उनकी बुराइयों की थैली पीछे लटका रखी थी, जिन्हें देख-देखकर अपनी सराहना करता और खुश होता। फिर तीसरे यात्री से उन दोनों ने पूछा, तुम्हारे झोलों में क्या भरा है? आगे का झोला तो काफी भारी लगता है, पीछे का झोला हल्का है। उसने बताया कि उसने भी अच्छाइयों की थैली आगे और बुराइयों की थैली पीछे लटका रखी है। लेकिन पीछे की थैली में एक छेद है, इसलिए बुराइयाँ टिकती नहीं, एक-एक कर गिर जाती हैं और पीछे का वजन हल्का हो जाता है। जिस यात्री ने आगे के झोले में अच्छाइयाँ और पीछे के झोले में बुराइयाँ भर रखी थीं, वह प्रसन्न था क्योंकि चलते समय उसकी नजर हमेशा अच्छाइयों पर ही पड़ती थी और बुराइयों को वह भूला रहता था। जिसके थैले में छेद था वह उत्साह से भी भरा रहता था, क्योंकि चलते समय वह आगे लटकी अच्छाइयों को तो देखता ही था, उस पर बुराइयों का वजन भी कम रहता था। वे रास्ते में धीरे-धीरे गिर जाती थीं। लेकिन जिसने बुराइयों की थैली आगे और अच्छाइयों की थैली पीछे लटका रखी थी, वह हमेशा थका हुआ और निराश रहता था। यही जीवन यात्रा का सार तत्व है।

vijaysr76
29-07-2011, 11:35 AM
अमृत की खेती
एक बार भगवान बुद्ध भिक्षा के लिए एक किसान के यहाँ पहुँचे। तथागत को भिक्षा के लिए खड़ा देख कर किसान उपेक्षा से बोला, 'श्रमण! मैं हल जोतता हूँ, बीज बोता हूँ और तब खाता हूँ। तुम्हें भी हल जोतना और बीज बोना चाहिए और तब खाना चाहिए।' बुद्ध ने कहा, 'महाराज! मैं भी खेती ही करता हूँ।' इस पर उस किसान ने जिज्ञासा की, गौतम! मैं न कहीं आपका जुआ देखता हूँ, न हल, न बैल और न ही पैनी देखता हूँ। तब आप कैसे कहते हैं कि आप भी खेती ही करते हैं। आप अपनी कृषि के संबंध में समझाएं।

बुद्ध ने कहा, 'हे मित्र! मेरे पास श्रद्धा का बीज, तपस्या रूपी वर्षा, प्रज्ञा रूपी जोत और हल हैं। पापभीरुता का दंड है, विचार रूपी रस्सी है। स्मृति, चित्त की जागरूकता रूपी हल की फाल और पैनी है। मैं वचन और कर्म में संयत रहता हूँ। मैं अपनी इस खेती को बेकार घास से मुक्त रखता हूं और आनन्द की फसल काट लेने तक प्रयत्नशील रहने वाला हूं। अप्रमाद मेरा बैल है, जो बाधाएं देखकर भी पीछे मुंह नहीं मोड़ता है। वह मुझे सीधा शान्ति धाम तक ले जाता है। इस प्रकार मैं अमृत की खेती करता हूं।'

Sikandar_Khan
29-07-2011, 10:44 PM
विजय साहब
आपके द्वारा प्रस्तुत की गई कहानियां बहुत ही प्ररेणादायक हैँ ?

Nitikesh
30-07-2011, 05:14 AM
एक बार नानक जी अपने शिष्यों के साथ यात्रा पर निकले थे...वे सभी एक गाँव में पहुँचे और वहाँ के निवासियों से एक रात रहने का आसरा माँगा, तो उन्होंने उन्हें खरी खोटी सुनाई और रहने की जगह भी नहीं दी....वेलोग वहाँ से चल दिए और गाँव की सीमा पर पहुँचकर, गाँव की ओर देखकर बोला तुम सभी लोग इक्ट्ठे रहना...
फिर वे लोग वहाँ से आगे बढ़े और दूसरे गाँव में पहुँचे/ जब गुरु नानकदेव ने गाँववालो से एक रात रहने का आसरा माँगा तो उनलोगों ने श्रद्धापूर्वक उनलोगों का आदर सत्कार किया/गुरु नानकदेव उनलोगो आदर भाव से बहुत खुश हुए/अगली सुबह वे अपनी काफिले के साथ आगे बढ़ गए.जब वे गाँव की सीमा पर पहुँचे तो गाँव की ओर देखकर बोला "बिखर जाना." एक शिष्य को यह बात समझ में नहीं आई.उसने गुरुनानक देव पूछा - गुरु जी जिन लोगों ने आपका अपन्मन किया और आप को भला बार कहा उसे आपने इक्ट्ठे रहने का आशीर्वाद दिया और जिन्होंने आपका आदर सत्कार किया और अच्छे से रहने की व्यवस्था की आपके उसे बिगर जाने का आशीर्वाद दिया! ऐसा क्यों?
गुरु नानक जी मुस्कुरा कर बोले - दुनियाँ में अच्छाई की बहुत कमी है..इस दिन्याँ में बुराई की नहीं अच्छाई की बहुत जरूररत,इसीलिए दुनिया बुराई ना फैले इसीलिए मैंने उन्हें इकट्ठे रहने का आशीर्वाद दिया और अच्छे लोगों को बिखर जाने का आशीर्वाद दिया ताकि दुनिया में बुराई खत्म हो और अच्छाई फ़ैल जाए...

Bhuwan
31-07-2011, 03:19 PM
बहुत अच्छी कहानिया हैं दोस्तों. :bravo::bravo:

vijaysr76
03-08-2011, 10:24 AM
रेत और पत्थर
दो दोस्त एक बार रेगिस्तान से गुजर रहे थे। रास्ते में उनके बीच बहस छिड़ गई और पहले दोस्त ने दूसरे को थप्पड़ मार दिया। दूसरे दोस्त ने बिना कुछ कहे रेत पर लिखा, आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मुझे थप्पड़ मारा। यह लिखने के बाद दोनों फिर चल दिए। रास्ते में एक नदी आई। दूसरा दोस्त उसमें नहाने के लिए उतरा और डूबने लगा। पहले दोस्त ने तुरंत नदी में कूद कर उसकी जान बचा ली। इस बार दूसरे दोस्त ने पत्थर पर लिखा, आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मेरी जान बचाई। यह देख पहले दोस्त ने उससे रेत और पत्थर पर लिखने का कारण पूछा। उसने उत्तर दिया, जब कोई कष्ट पहुंचाए तो उसे रेत पर लिखना चाहिए, ताकि क्षमा की हवा उसे मिटा सके। लेकिन अगर कोई सहायता करे तो उसे पत्थर पर लिखना चाहिए, जिससे आप हमेशा उस उपकार को याद रख सकें।

vijaysr76
19-08-2011, 12:14 PM
आस्था
एक शिष्य अपने गुरु से शिक्षा पाने के बाद स्वतंत्र रूप से चिंतन-मनन और ध्यान करने लगा। उसके कुछ सार्थक नतीजे सामने आए। वह अपने गुरु को बताने के लिए उत्सुक हो उठा। एक दिन तैयार होकर वह गुरु के दर्शन के लिए चल पड़ा। बारिश के दिन थे और रास्ते में एक गहरी नदी पड़ी। वह बरसात के पानी से उफन रही थी। बहाव बहुत तेज था। लेकिन शिष्य को अपने गुरु पर अपार श्रद्धा थी। नदी उसके मार्ग में बाधक बनना चाहती थी, पर जब वह नदी के किनारे पहुंचा तो उसने अपने गुरु का नाम लेते हुए पानी में कदम रखा और निर्विघ्न उस पार पहुंच गया। नदी के दूसरे किनारे पर ही उसके गुरु की कुटिया थी। गुरु ने अपने शिष्य को बहुत दिनों बाद देखा तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। शिष्य ने चरणस्पर्श किया और उन्होंने उसे बीच से ही उठा कर गले से लगा लिया। फिर पूछा कि ऐसी उफनती हुई बरसाती नदी को उसने पार कैसे किया। शिष्य ने बताया कि किस तरह हृदय में उसने गुरु का ध्यान धरा और नाम जपता हुआ इस पार पहुंच गया। गुरु ने सोचा, यदि मेरे नाम में इतनी शक्ति है तो जरूर मैं बहुत ही महान और शक्तिशाली संत हूं। अगले दिन बिना नाव का सहारा लिए उन्होंने नदी पार करने के लिए मैं..मैं..मैं.. कहकर जैसे ही कदम बढ़ाया, पांव फिसल गया और नदी की तेज धार उन्हें बहा ले गई। ऐसी चमत्कारी शक्ति किसी व्यक्ति में नहीं, उसकी आस्था में ही होती है।

MANISH KUMAR
25-08-2011, 06:30 PM
आस्था
एक शिष्य अपने गुरु से शिक्षा पाने के बाद स्वतंत्र रूप से चिंतन-मनन और ध्यान करने लगा। उसके कुछ सार्थक नतीजे सामने आए। वह अपने गुरु को बताने के लिए उत्सुक हो उठा। एक दिन तैयार होकर वह गुरु के दर्शन के लिए चल पड़ा। बारिश के दिन थे और रास्ते में एक गहरी नदी पड़ी। वह बरसात के पानी से उफन रही थी। बहाव बहुत तेज था। लेकिन शिष्य को अपने गुरु पर अपार श्रद्धा थी। नदी उसके मार्ग में बाधक बनना चाहती थी, पर जब वह नदी के किनारे पहुंचा तो उसने अपने गुरु का नाम लेते हुए पानी में कदम रखा और निर्विघ्न उस पार पहुंच गया। नदी के दूसरे किनारे पर ही उसके गुरु की कुटिया थी। गुरु ने अपने शिष्य को बहुत दिनों बाद देखा तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। शिष्य ने चरणस्पर्श किया और उन्होंने उसे बीच से ही उठा कर गले से लगा लिया। फिर पूछा कि ऐसी उफनती हुई बरसाती नदी को उसने पार कैसे किया। शिष्य ने बताया कि किस तरह हृदय में उसने गुरु का ध्यान धरा और नाम जपता हुआ इस पार पहुंच गया। गुरु ने सोचा, यदि मेरे नाम में इतनी शक्ति है तो जरूर मैं बहुत ही महान और शक्तिशाली संत हूं। अगले दिन बिना नाव का सहारा लिए उन्होंने नदी पार करने के लिए मैं..मैं..मैं.. कहकर जैसे ही कदम बढ़ाया, पांव फिसल गया और नदी की तेज धार उन्हें बहा ले गई। ऐसी चमत्कारी शक्ति किसी व्यक्ति में नहीं, उसकी आस्था में ही होती है।

:bravo::bravo:
:cheers: