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View Full Version : जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर


Bond007
17-01-2011, 12:34 AM
अकबर


http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8280&stc=1&d=1295209559

राज का समय: २७ जनवरी, १५५६ - २९ अक्तूबर १६०५
राज्याभिषेक: १४ फरवरी १५५६
जन्म: १५ अक्तूबर १५४२ (उमरकोट किला, सिंध)
मृत्यु: २७ अक्टूबर १६०५ (फतेहपुर सीकरी, आगरा)
दफ़न: बिहिस्ताबाद सिकन्दरा, आगरा
पत्नी/पत्नियाँ: हरका बाई, जोधा बाई
राजघराना: तैमूर
वंश: मुगल
पिता: हुमायुँ
माता: नवाब हमीदा बानो बेगम साहिबा

Bond007
17-01-2011, 12:40 AM
जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था।अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था।

बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया ,बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था।

अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहां विवाह भी किये।

Bond007
17-01-2011, 12:43 AM
अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियां सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया।



अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया।

Bond007
17-01-2011, 12:44 AM
इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया।

Bond007
17-01-2011, 12:46 AM
नाम

अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था।

कहा जाता है कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे। किवदंती यह भी है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर नाम से सम्मानित किया था|

अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ "महान" या बड़ा होता है।

Bond007
17-01-2011, 12:48 AM
आरंभिक जीवन

अकबर का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल उमेरकोट, सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में २३ नवंबर, १५४२ (हिजरी अनुसार रज्जब, ९४९ के चौथे दिन) हुआ था। यहां बादशाह हुमायुं अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए थे। इस पुत्र का नाम हुमायुं ने एक बार स्वप्न में सुनाई दिये के अनुसार जलालुद्दीन मोहम्मद रखा।

बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से था यानि उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की धमनियों में एशिया की दो प्रसिद्ध जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था।

Bond007
17-01-2011, 12:51 AM
हुमायुं को पश्तून नेता शेरशाह सूरी के कारण फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था। किन्तु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन रीवां (वर्तमान मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था। अकबर की वहां के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे।

कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान अफ़गानिस्तान का भाग) में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर १५४५ से काबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। यद्यपि सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज़्यादा ही होता था। किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका काफी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीता, तथा शिक्षा में उसकी रुचि नहीं रही। जब तक अकबर आठ वर्ष का हुआ, जन्म से लेकर अब तक उसके सभी वर्ष भारी अस्थिरता में निकले थे जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही प्रबंध नहीं हो पाया था। अब हुमायूं का ध्यान इस ओर भी गया।

लगभग नवम्बर, १५४७ में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया।मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया।मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ।

असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी, और कुत्ते पालने में अधिक थी।
किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था।

समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं।

Bond007
17-01-2011, 12:56 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8282&stc=1&d=1295211248
लड़कपन में अकबर


राजतिलक

शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायुं ने १५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८ वर्ष की आयु में ही हुमायुं का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से गिरने के कारण हो गया। तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया।

१४ फ़रवरी, १५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। १३ वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है।

उसे फारसी भाषा में सम्राट के लिये शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के संरक्षण में चला।

Kumar Anil
17-01-2011, 05:06 AM
एक और अच्छा सूत्र जो सदस्योँ का ज्ञानवर्द्धन कराने के लिये बाँड भाई लेकर आये हैँ । बधाई हो

Bond007
17-01-2011, 06:43 PM
एक और अच्छा सूत्र जो सदस्योँ का ज्ञानवर्द्धन कराने के लिये बाँड भाई लेकर आये हैँ । बधाई हो

:)बहुत-बहुत धन्यवाद अनिल जी|:cheers:

amit_tiwari
18-01-2011, 10:18 AM
काफी अच्चा सूत्र बनाया है भाई | :bravo::bravo:

मैं बस कुछ बिंदु अपनी तरफ से जोड़ रहा हूँ |


बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था।

साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था।




गौरतलब है कि मंगोलों ने ही मुस्लिम खलीफा की हत्या की थी | मुग़ल नाम मंगोल शब्द की व्युत्पत्ति है और इसी कारण से मुग़ल अपने काल में मुग़ल शब्द से चिढ़ते थे और कभी भी यह शब्द प्रयोग नहीं किया जाता था | बाद के काल में ही यह शब्द प्रचालन में आया |

हेमू मध्यकाल का इकलौता हिन्दू व्यक्ति था जिसने दिल्ली पर राज किया | रोचक तथ्य यह भी है कि वह हिजड़ा था |


अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी।


उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया।


एकदम सही है पहला पॉइंट | कई बार लोग अकबर को एक देवदूत दिखने का प्रयास करते हैं किन्तु असल में वह एक प्रबुद्ध व्यक्ति और कुशल राजनीतिग्य था | उसने तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार हिन्दू नीति को चलाया और यह उसकी व्यक्तिगत रूचि भी थी कि वह कई धर्मों को सीखना चाहता था इसलिए ना सिर्फ हिन्दू अपितु इसाई धर्म ऐ अपनी संतानों को परिचित करने के लिए पादरी नियुक्त किया था |

धार्मिक चर्चा का प्रारंभ मात्र मुस्लिम धर्म विदों से हुआ था, अकबर प्रत्येक मंगलवार को रात को उन्हें सुनता था और बाद में वहीँ सो जाता था | एक दिन जब सोते हुए अकबर की नींद खुली तो देखा कि दो मुस्लिम धार्मिक विद्वान् आपस में लड़ रहे हैं, एक ने दुसरे के बाल पकडे थे तो दूसरा पहले के कान चबा रहा था | इस हास्यास्पद घटना ने अकबर को झिंझोड़ दिया और उसे लगा कि जब ये विद्वान ही पुरे संयम में नहीं हैं तो ये धर्म की व्याख्या क्या करेंगे! उसके बाद से उसने सभी धर्म के लोगों को आमंत्रित करना शुरू कर दिया | शायद ये आज के फोरम जैसी ही परिकल्पना थी |

अकबर ने धर्म निसंदेह चलाया था किन्तु सौभाग्य से वह कभी इसके लिए दुराग्रही नहीं रहा | उसके दरबार के कई लोगों ने उसे स्वीकार नहीं किया और उसने भी कभी उसके लिए किसी को विवश नहीं किया | यहाँ तक कि उसे स्वीकार करने वाला एकमात्र हिन्दू बीरबल था | तो ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि वह विलुप्त हो गया | वैसे भी दीं-इ-इलाही एक शरबत कि तरह था उसमें कोई भी अपना यूनीक तत्व नहीं था |

उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया।

सिकंदर का मकबरा एकमात्र ऐसा मकबरा है जिसमें कोई गुम्बद नहीं है |

नाम

अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था।

कहा जाता है कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे। किवदंती यह भी है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर नाम से सम्मानित किया था|

अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ "महान" या बड़ा होता है।



सामान्यतया जलाल को अकबर का वास्तविक नाम मन जाता है |

हुमायुं को पश्तून नेता शेरशाह सूरी के कारण फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था। किन्तु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन रीवां (वर्तमान मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था।


किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका काफी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीता, तथा शिक्षा में उसकी रुचि नहीं रही।
असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी, और कुत्ते पालने में अधिक थी।



हुमायूँ के विषय में एक लाइन बड़ी प्रसिद्द है ' वह जीवन भर लडखडाता रहा और अंत में लड़खड़ाने से उसकी मृत्यु हो गयी |'

अकबर के विषय में यह प्रमाण मिले हैं कि वह शारीरिक रूप से इतना सक्षम था कि दो लोगों को अपनी कांख में दबा के किले की दीवार पर दौड़ लगा लेता था और तलवार की एक मार से शेर का सर अलग कर देता था |


उसे फारसी भाषा में सम्राट के लिये शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के संरक्षण में चला।
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अकबर ने स्वायत्त होने के बाद 'पादशाह' की उपाधि धारण कि जिसे गलती से बादशाह कहा जाता है |

VIDROHI NAYAK
18-01-2011, 11:08 AM
धन्यवाद बोंड जी ! वैसे तो इतिहास में रूचि कम ही है पर आपकी जासूसी को पढ़े बिना नहीं रहा गया !अमित जी के बिन्दुओ ने इसे और रोचक बना दिया है !

Bond007
18-01-2011, 08:28 PM
काफी अच्चा सूत्र बनाया है भाई | :bravo::bravo:

मैं बस कुछ बिंदु अपनी तरफ से जोड़ रहा हूँ |
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अकबर ने स्वायत्त होने के बाद 'पादशाह' की उपाधि धारण कि जिसे गलती से बादशाह कहा जाता है |

सूत्र भ्रमण के लिए हार्दिक धन्यवाद अमित जी!

आपने सूत्र में नई जानकारी जोड़कर चार-चाँद लगा दिए|:hi:

Bond007
18-01-2011, 08:31 PM
धन्यवाद बोंड जी ! वैसे तो इतिहास में रूचि कम ही है पर आपकी जासूसी को पढ़े बिना नहीं रहा गया !अमित जी के बिन्दुओ ने इसे और रोचक बना दिया है !

विद्रोही जी! आपकी तारीफ़ ने धन्य कर दिया| सूत्र के बारे में अपनी राय रखने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद|:cheers:

MANISH KUMAR
19-01-2011, 06:22 PM
Bond सर! एक और बहुत अछा थ्रेड इस फोरम ke lie.

इसके liye आपको बधाई. ऐसे ही लगे रहें.

Bond007
30-01-2011, 04:29 AM
bond सर! एक और बहुत अछा थ्रेड इस फोरम ke lie.

इसके liye आपको बधाई. ऐसे ही लगे रहें.

धन्यवाद मनीष|

Bond007
30-01-2011, 04:38 AM
राज्य का विस्तार

खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अंततः सफल हुए और वह सन्* १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन्* १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई। इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा।

Bond007
30-01-2011, 04:40 AM
दिल्ली की सत्ता-बदल

अकबर के समय मुग़ल साम्राज्यदिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। कुछ प्रदेशो मे तो अकबर के पहुंचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी। अकबर की अनुपस्थिति मे हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। ६ अक्तूबर १५५६ को हेमु ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर दिया। इसी के साथ दिल्ली मे हिंदू राज्य की पुनः स्थापना हुई।

Bond007
30-01-2011, 04:41 AM
सत्ता की वापसी
दिल्ली की पराजय का समाचार जब अकबर को मिला तो उसने तुरन्त ही बैरम खान से परामर्श कर के दिल्ली की तरफ़ कूच करने का इरादा बना लिया। अकबर के सलाहकारो ने उसे काबुल की शरण में जाने की सलाह दी। अकबर और हेमु की सेना के बीच पानीपत मे युद्ध हुआ। यह युद्ध पानीपत का द्वितीय युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। संख्या में कम होते हुए भी अकबर ने इस युद्ध मे विजय प्राप्त की। इस विजय से अकबर को १५०० हाथी मिले जो मनकोट के हमले में सिकंदर शाह सूरी के विरुद्ध काम आए। सिकंदर शाह सूरी ने आत्मसमर्पण कर दिया और अकबर ने उसे प्राणदान दे दिया।

Bond007
30-01-2011, 04:46 AM
चहुँओर विस्तार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8464&stc=1&d=1296348315
दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में, और खानदेश को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया। अकबर यह नही चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ। सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अंत तक यहीं से शासन संभाला।

Bond007
30-01-2011, 04:51 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8281&d=1295209633
शहंशाह अकबर

Bond007
30-01-2011, 04:57 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8465&stc=1&d=1296348969
मुगल ध्वजप्रशासन

सन्* १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई। सन्* १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन्* १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया।

Bond007
30-01-2011, 05:03 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8466&stc=1&d=1296349295
तत्कालीन चाँदी की मुद्रा

मुद्रा

अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले।

Bond007
30-01-2011, 05:07 AM
राजधानी स्थानांतरण

पानीपत का तृतीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। इसके बाद उसने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में और खानदेश(वर्तमान बुढ़हानपुर, महाराष्ट्र का भाग) को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में प्रशासन संभालने हेतु एक-एक राज्यपाल नियुक्त किया। उसे राज संभालने के लिये दिल्ली कई स्थानों से दूर लगा और ये प्रतीत हुआ कि इससे प्रशासन में समस्या आ सकती है, अतः उसने निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को आगरा के निकट फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के लगभग मध्य में थी। एक पुराने बसे ग्राम सीकरी पर अकबर ने नया शहर बनवाया जिसे अपनी जीत यानि फतह की खुशी में फतेहाबाद या फतेहपुर नाम दिया गया। जल्दी ही इसे पूरे वर्तमान नाम फतेहपुर सीकरी से बुलाया जाने लगा। यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं, और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं।

किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अंत तक यहीं से शासन संभाला।

Bond007
30-01-2011, 05:23 AM
अमर सिंह द्वार, आगरा का किलाआगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण वयवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चहारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं। ये दोनों द्वार अपने धनुषाकार मेहराब-रूपी आलों व बुर्जों तथा लाल व सफ़ेद संगमर्मर पर नीली ग्लेज़्ड टाइलों द्वारा अलंकरण से ही पहचाने जाते हैं। वर्तमान किला अकबर के पौत्र शाहजहां द्वारा बनवाया हुआ है। इसमें दक्षिणी ओर जहांगीरी महल और अकबर महल हैं।

Bond007
03-02-2011, 02:45 AM
नीतियां


टिप्पणी: इस शीर्षक में आगे लिखी गई कोई भी बात कोई व्यक्तिगत टिप्पणी या विवाद करने के लिए नहीं है| सभी बातें उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों और इतिहासकारों के मत एवं शौध पर आधारित हैं| अतः इसके बारे में कोई बहस ना करें| यदि किसी को कोई आपत्ति हो तो सीधे मुझसे अथवा नियामकों से संपर्क करें|

Bond007
03-02-2011, 02:52 AM
विवाह संबंध

आंबेर के कछवाहा राजपूत राज भारमल ने अकबर के दरबार में अपने राज्य संभालने के कुछ समय बाद ही प्रवेश पाया था। इन्होंने अपनी राजकुमारी हरखा बाई का विवाह अकबर से करवाना स्वीकार किया। जोधाबाई की मृत्यु १६२३ में हुई थी। उसके पुत्र जहांगीर द्वारा उसके सम्मान में लाहौर में एक मस्जिद बनवायी गई थी। भारमल को अकबर के दरबार में ऊंचा स्थान मिला था, और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र मानसिंह भी दरबार के ऊंचे सामंत बने रहे।

हिन्दू राजकुमारियों को मुस्लिम राजाओं से विवाह में संबंध बनाने के प्रकरण अकबर के समय से पूर्व काफी हुए थे, किन्तु अधिकांश विवाहों के बाद दोनों परिवारों के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे, और न ही राजकुमारियां कभी वापस लौट कर घर आयीं। हालांकि अकबर ने इस मामले को पिछले प्रकरणों से अलग रूप दिया, जहां उन रानियों के भाइयों या पिताओं को पुत्रियों या बहनों के विवाहोपरांत अकबर के मुस्लिम ससुराल वालों जैसा ही सम्मान मिला करता था, सिवाय उनके संग खाना खाने और प्रार्थना करने के। उन राजपूतों को अकबर के दरबार में अच्छे स्थान मिले थे। सभी ने उन्हें वैसे ही अपनाया था सिवाय कुछ रूढ़िवादी परिवारों को छोड़कर, जिन्होंने इसे अपमान के रूप में देखा था।

Bond007
03-02-2011, 02:55 AM
अन्य राजपूत रजवाड़ों ने भी अकबर के संग वैवाहिक संबंध बनाये थे, किन्तु विवाह संबंध बनाने की कोई शर्त नहीं थी। दो प्रमुख राजपूत वंश, मेवाढ़ के शिशोदिया और रणथंभोर के हाढ़ा वंश इन संबंधों से सदा ही हटते रहे। अकबर के एक प्रसिद्ध दरबारी राजा मानसिंह ने अकबर की ओर से एक हाढ़ा राजा सुर्जन हाढ़ा के पास एक संबंध प्रस्ताव भी लेकर गये, जिसे सुर्जन सिंह ने इस शर्त पर स्वीकार्य किया कि वे अपनी किसी पुत्री का विवाह अकबर के संग नहीं करेंगे। अन्ततः कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुए किन्तु सुर्जन को गढ़-कटंग का अधिभार सौंप कर सम्मानित किया गया। अन्य कई राजपूत सामंतों को भी अपने राजाओं का पुत्रियों को मुगलों को विवाह के नाम पर देना अच्छा नहीं लगता था। गढ़ सिवान के राठौर कल्याणदास ने मोटा राजा राव उदयसिंह और जहांगीर को मारने की धमकी भी दी थी, क्योंकि उदयसिंह ने अपनी पुत्री जोधाबाई का विवाह अकबर के पुत्र जहांगीर से करने का निश्चय किया था। अकबर ने ये ज्ञान होने पर शाही फौजों को कल्याणदास पर आक्रमण हेतु भेज दिया। कल्याणदास उस सेना के संग युद्ध में काम आया और उसकी स्त्रियों ने जौहर कर लिया।

इन संबंधों का राजनैतिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण था। हालांकि कुछ राजपूत स्त्रियों ने अकबर के हरम में प्रवेश लेने पर इस्लाम स्वीकार किया, फिर भी उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी, साथ ही उनके सगे-संबंधियों को जो हिन्दू ही थे; दरबार में उच्च-स्थान भी मिले थे। इनके द्वारा जनसाधारण की ध्वनि अकबर के दरबार तक पहुंचा करती थी। दरबार के हिन्दु और मुस्लिम दरबारियों के बीच संपर्क बढ़ने से आपसी विचारों का आदान-प्रदान हुआ और दोनों धर्मों में संभाव की प्रगति हुई। इससे अगली पीढ़ी में दोनों रक्तों का संगम था जिसने दोनों संप्रदायों के बीच सौहार्द को भी बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप राजपूत मुगलों के सर्वाधिक शक्तिशाली सहायक बने, राजपूत सैन्याधिकारियों ने मुगल सेना में रहकर अनेक युद्ध किये तथा जीते। इनमें गुजरात का १५७२ का अभियान भी था। अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने शाही प्रशासन में सभी के लिये नौकरियों और रोजगार के अवसर खोल दिये थे। इसके कारण प्रशासन और भी दृढ़ होता चला गया।

Bond007
03-02-2011, 02:58 AM
कामुकता

तत्कालीन समाज में वेश्यावृति को सम्राट का संरक्षण प्रदान था। उसकी एक बहुत बड़ी हरम थी जिसमे बहुत ही स्त्रियाँ थीं। इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक अपहृत करवा कर वहां रखा हुआ था। उस समय में सती प्रथा भी जोरों पर थी। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुन्दर स्त्री को सती होते देखते थे, बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते व उसे सम्राट की आज्ञा बताते तथा उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था। हालांकि इस प्रकरण को दरबारी इतिहासकारों ने कुछ इस ढंग से कहा है कि इस प्रकार बादशाह सलामत ने सती प्रथा का विरोध किया व उन अबला स्त्रियों को संरक्षण दिया। अपनी जीवनी में अकबर ने स्वयं लिखा है– यदि मुझे पहले ही यह बुधिमत्ता जागृत हो जाती तो मैं अपनी सल्तनत की किसी भी स्त्री का अपहरण कर अपने हरम में नहीं लाता। इस बात से यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि वह सुन्दरियों का अपहरण करवाता था। इसके अलावा अपहरण न करवाने वाली बात की निरर्थकता भी इस तथ्य से ज्ञात होती है कि न तो अकबर के समय में और न ही उसके उतराधिकारियो के समय में हरम बंद हुई थी।

Bond007
03-02-2011, 02:59 AM
आईने अकबरी के अनुसार अब्दुल कादिर बदायूंनी कहते हैं कि बेगमें, कुलीन, दरबारियो की पत्नियां अथवा अन्य स्त्रियां जब कभी बादशाह की सेवा में पेश होने की इच्छा करती हैं तो उन्हें पहले अपने इच्छा की सूचना देकर उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती है; जिन्हें यदि योग्य समझा जाता है तो हरम में प्रवेश की अनुमति दी जाती है। अकबर अपनी प्रजा को बाध्य किया करता था की वह अपने घर की स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन सामूहिक रूप से आयोजित करे जिसे अकबर ने खुदारोज (प्रमोद दिवस) नाम दिया हुआ था। इस उत्सव के पीछे अकबर का एकमात्र उदेश्य सुन्दरियों को अपने हरम के लिए चुनना था। कहते हैं कि स्वयं अपने अभिभावक एवं संरक्षक बैरम खां की बीबी सलीमा सुल्तान बेगम पर १५ वर्षीय अकबर की कामुक दृष्टि थी। इतनी कम आयु में भी उसने बैरम खां की पत्नी को हरम में लेने के लिए एक सर्वोच्च राजभक्त कर्मचारी के समस्त अधिकार छीनकर उसकी हत्या करवा दी और तुरंत बाद उसकी बीबी सलीमा सुल्तान, जो उसके ६ वर्षीय पुत्र अब्दुल रहीम की माँ थी, को अपने हरम में ले लिया। गोंडवाना की रानी दुर्गावती पर भी अकबर की कुदृष्टि थी। उसने रानी को प्राप्त करने के लिए उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के दौरान वीरांगना ने अनुभव किया कि उसे मारने की नहीं वरन बंदी बनाने का प्रयास किया जा रहा है, तो उसने वहीं आत्महत्या कर ली। तब अकबर ने उसकी बहन और पुत्रबधू को बलपूर्वक अपने हरम में डाल दिया। अकबर ने यह प्रथा भी चलाई थी कि उसके पराजित शत्रु अपने परिवार एवं परिचारिका वर्ग में से चुनी हुई महिलायें उसके हरम में भेजे।

Bond007
03-02-2011, 03:03 AM
पुर्तगालियों से संबंध

१५५६ में अकबर के गद्दी लेने के समय, पुर्तगालियों ने महाद्वीप के पश्चिमी तट पर बहुत से दुर्ग व निर्माणियाँ (फैक्ट्रियाँ) लगा ली थीं, और बड़े स्तर पर उस क्षेत्र में नौवहन और सागरीय व्यापार नियंत्रित करने लगे थे। इस उपनिवेशवाद के चलते अन्य सभी व्यापारी संस्थाओं को पुर्तगालियों की शर्तों के अधीण ही रहना पढ़ता था, जिस पर उस समय के शासकों व व्यापारियों को आपत्ति होने लगीं थीं। मुगल साम्राज्य ने अकबर के राजतिलक के बाद पहला निशाना गुजरात को बनाया और सागर तट पर प्रथम विजय पायी १५७२ में, किन्तु पुर्तगालियों की शक्ति को ध्यान में रखते हुए पहले कुछ वर्षों तक उनसे मात्र फारस की खाड़ी क्षेत्र में यात्रा करने हेतु कर्ताज़ नामक पास लिये जाते रहे। १५७२ में सूरत के अधिग्रहण के समय मुगलों और पुर्तगालियों की प्रथम भेंट हुई, और पुर्तगालियों को मुगलों की असली शक्ति का अनुमान हुआ और फलतः उन्होंने युद्ध के बजाय नीति से काम लेना उचित समझा व पुर्तगाली राज्यपाल ने अकबर के निर्देश पर उसे एक राजदूत के द्वारा संधि प्रस्ताव भेजा। अकबर ने उस क्षेत्र से अपने हरम के व अन्य मुस्लिम लोगों द्वारा मक्का को हज की यात्रा को सुरक्षित करने की दृष्टि से प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। १५७३ में अकबर ने अपने गुजरात के प्रशासनिक अधिकारियों को एक फरमान जारी किया, जिसमें निकटवर्त्ती दमण में पुर्तगालियों को शांति से रहने दिये जाने का आदेश दिया था। इसके बदले में पुर्तगालियों ने अकबर के परिवार के लिये हज को जाने हेतु पास जारी किये थे|

Bond007
03-02-2011, 03:05 AM
तुर्कों से संबंध

१५७६ में में अकबर ने याह्या सलेह के नेतृत्व में अपने हरम के अनेक सदस्यों सहित हाजियों का एक बड़ा जत्था हज को भेजा। ये जत्था दो पोतों में सूरत से जेद्दाह बंदरगाह पर १५७७ में पहुंचा और मक्का और मदीना को अग्रसर हुआ। १५७७ से १५८० के बीच चार और कारवां हज को रवाना हुआ, जिनके साथ मक्का व मदीना के लोगों के लिये भेंटें व गरीबों के लिये सदके थे। ये यात्री समाज के आर्थिक रूप से निचले वर्ग के थे, और इनके जाने से उन शहरों पर आर्थिक भार बढ़ा। तब तुर्क प्रशासन ने इनसे घर लौट जाने का निवेदन किया, जिस पर हरम की स्त्रियां तैयार न हुईं। काफी विवाद के बाद उन्हें विवश होकर लौटना पढ़ा। अदन के राज्यपाल को १५८० में आये यात्रियों की बड़ी संख्या देखकर बढ़ा रोष हुआ और उसने लौटते हुए मुगलों का यथासंभव अपमान भी किया। इन प्रकरणों के कारण अकबर को हाजियों की यात्राओं पर रोक लगानी पड़ी। १५८४ के बाद अकबर ने यमन के साम्राज्य के अधीनस्थ अदन के बंदरगाह पर पुर्तगालियों की मदद से चढ़ाई करने की योजना बनायी। पुर्तगालियों से इस बारे में योजना बनाने हेतु एक मुगल दूत गोआ में अक्तूबर १५८४ से स्थायी रूप से तैनात किया गया। १५८७ में एक पुर्तगाली टुकड़ी ने यमन पर आक्रमण भी किया किन्तु तुर्क नौसेना द्वारा हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद मुगल-पुर्तगाली गठबंधन को भी धक्का पहुंचा क्योंकि मुगल जागीरदारों द्वारा जंज़ीरा में पुर्तगालियों पर लगातार दबाव डाला जा रहा था।

Bond007
09-02-2011, 01:45 AM
धर्म

अकबर एक मुसलमान था, पर दूसरे धर्म एवं संप्रदायों के लिए भी उसके मन में आदर था । जैसे-जैसे अकबर की आयु बदती गई वैसे-वैसे उसकी धर्म के प्रति रुचि बढ़ने लगी। उसे विशेषकर हिंदू धर्म के प्रति अपने लगाव के लिए जाना जाता हैं। उसने अपने पूर्वजो से विपरीत कई हिंदू राजकुमारियों से शादी की। इसके अलावा अकबर ने अपने राज्य में हिन्दुओ को विभिन्न राजसी पदों पर भी आसीन किया जो कि किसी भी भूतपूर्व मुस्लिम शासक ने नही किया था। वह यह जान गया था कि भारत में लम्बे समय तक राज करने के लिए उसे यहाँ के मूल निवासियों को उचित एवं बराबरी का स्थान देना चाहिये।

Bond007
09-02-2011, 01:53 AM
हिन्दू धर्म पर प्रभाव

हिन्दुओं पर लगे जज़िया १५६२ में अकबर ने हटा दिया, किंतु १५७५ में मुस्लिम नेताओं के विरोध के कारण वापस लगाना पड़ा, हालांकि उसने बाद में नीतिपूर्वक वापस हटा लिया। जज़िया कर गरीब हिन्दुओं को गरीबी से विवश होकर इस्लाम की शरण लेने के लिए लगाया जाता था। यह मुस्लिम लोगों पर नहीं लगाया जाता था। इस कर के कारण बहुत सी गरीब हिन्दू जनसंख्या पर बोझ पड़ता था, जिससे विवश हो कर वे इस्लाम कबूल कर लिया करते थे। फिरोज़ शाह तुगलक ने बताया है, कि कैसे जज़िया द्वारा इस्लाम का प्रसार हुआ था।

अकबर द्वारा जज़िया और हिन्दू तीर्थों पर लगे कर हटाने के सामयिक निर्णयों का हिन्दुओं पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इससे उन्हें कुछ खास लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये कुछ अंतराल बाद वापस लगा दिए गए। अकबर ने बहुत से हिन्दुओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध भी इस्लाम ग्रहण करवाया था| इसके अलावा उसने बहुत से हिन्दू तीर्थ स्थानों के नाम भी इस्लामी किए, जैसे १५८३ में प्रयाग को इलाहाबाद किया गया। अकबर के शासनकाल में ही उसके एक सिपहसालार हुसैन खान तुक्रिया ने हिन्दुओं को बलपूर्वक भेदभाव दर्शक बिल्ले उनके कंधों और बांहों पर लगाने को विवश किया था।

इतिहासकार दशरथ शर्मा बताते हैं, कि हम अकबर को उसके दरबार के इतिहास और वर्णनों जैसे अकबरनामा, आदि के अनुसार महान कहते हैं। यदि कोई अन्य उल्लेखनीय कार्यों की ओर देखे, जैसे दलपत विलास, तब स्पष्ट हो जाएगा कि अकबर अपने हिन्दू सामंतों से कितना अभद्र व्यवहार किया करता था। अकबर के नवरत्न राजा मानसिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर के निर्माण को अकबर की अनुमति के बाद किए जाने के कारण हिन्दुओं ने उस मंदिर में जाने का बहिष्कार कर दिया। कारण साफ था, कि राजा मानसिंह के परिवार के अकबर से वैवाहिक संबंध थे। अकबर के हिन्दू सामंत उसकी अनुमति के बगैर मंदिर निर्माण तक नहीं करा सकते थे। बंगाल में राजा मानसिंह ने एक मंदिर का निर्माण बिना अनुमति के आरंभ किया, तो अकबर ने पता चलने पर उसे रुकवा दिया, और १५९५ में उसे मस्जिद में बदलने के आदेश दिए।


अकबर के लिए आक्रोश की हद एक घटना से पता चलती है। हिन्दू किसानों के एक नेता राजा राम ने अकबर के मकबरे, सिकंदरा, आगरा को लूटने का प्रयास किया, जिसे स्थानीय फ़ौजदार, मीर अबुल फजल ने असफल कर दिया। इसके कुछ ही समय बाद १६८८ में राजा राम सिकंदरा में दोबारा प्रकट हुआ और शाइस्ता खां के आने में विलंब का फायदा उठाते हुए, उसने मकबरे पर दोबारा सेंध लगाई, और बहुत से बहुमूल्य सामान, जैसे सोने, चाँदी, बहुमूल्य कालीन, चिराग, इत्यादि लूट लिए, तथा जो ले जा नहीं सका, उन्हें बर्बाद कर गया। राजा राम और उसके आदमियों ने अकबर की अस्थियों को खोद कर निकाल लिया एवं जला कर भस्म कर दिया, जो कि मुस्लिमों के लिए घोर अपमान का विषय था।

Bond007
09-02-2011, 01:54 AM
हिंदु धर्म से लगाव

बाद के वर्षों में अकबर को अन्य धर्मों के प्रति भी आकर्षण हुआ। अकबर का हिंदू धर्म के प्रति लगाव केवल मुग़ल साम्राज्य को ठोस बनाने के ही लिए नही था वरन उसकी हिंदू धर्म में व्यक्तिगत रुचि थी। हिंदू धर्म के अलावा अकबर को शिया इस्लाम एवं ईसाई धर्म में भी रुचि थी। ईसाई धर्म के मूलभूत सिद्धांत जानने के लिए उसने एक बार एक पुर्तगाली ईसाई धर्म प्रचारक को गोआ से बुला भेजा था। अकबर ने दरबार में एक विशेष जगह बनवाई थी जिसे इबादत-खाना (प्रार्थना-स्थल) कहा जाता था, जहाँ वह विभिन्न धर्मगुरुओं एवं प्रचारकों से धार्मिक चर्चाएं किया करता था। उसका यह दूसरे धर्मों का अन्वेषण कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोगों के लिए असहनीय था। उन्हे लगने लगा था कि अकबर अपने धर्म से भटक रहा है। इन बातों में कुछ सच्चाई भी थी, अकबर ने कई बार रुढ़िवादी इस्लाम से हट कर भी कुछ फैसले लिए, यहाँ तक कि १५८२ में उसने एक नये संप्रदाय की ही शुरुआत कर दी जिसे दीन-ए-इलाही यानी ईश्वर का धर्म कहा गया।

Bond007
09-02-2011, 02:00 AM
दीन-ए-इलाही
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8716&stc=1&d=1297202406
फतेहपुर सीकरी का बुलंद दरवाजा, जिसके अंदर सीकरी में ही दीनेइलाही की स्थापना हुई


दीन-ऐ-इलाही नाम से अकबर ने एक नया धर्म बनाया जिसमें सभी धर्मों के मूल तत्वों को डाला, इसमे प्रमुखता हिंदू एवं इस्लाम धर्म थे। इनके अलावा पारसी, जैन एवं ईसाई धर्म के मूल विचारों को भी सम्मलित किया। हाँलाँकि इस धर्म के प्रचार के लिए उसने ज्यादा कुछ नही किया केवल आपने विश्वस्त लोगों को ही इसमें सम्मलित किया। कहा जाता हैं कि अकबर के अलावा केवल राजा बीरबल ही मृत्यु तक इस के अनुयायी थे। दबेस्तान-ऐ-मजहब के अनुसार अकबर के पश्चात केवल १९ लोगों ने एस धर्म को अपनाया कालांतर में अकबर ने एक नए पंचांग की रचना की जिसमें की उसने एक ईश्वरीय संवत को आरम्भ किया जो अकबर की राज्याभिषेक के दिन से प्रारम्भ होत था। उसने तत्कालीन सिक्कों के पीछे अल्लाहु-अकबर लिखवाया जो अनेकार्थी शब्द था। अकबर का शाब्दिक अर्थ है "महान" और अल्लाहु-अकबर शब्द के दो अर्थ हो सकते थे "अल्लाह महान हैं " या "अकबर ही अल्लाह हैं"। दीन-ऐ-इलाही सही मायनों में धर्म न होकर एक आचार सहिंता समान था। इसमें भोग, घमंड, निंदा करना या दोष लगाना वर्जित थे एवं इन्हें पाप कहा गया। दया, विचारशीलता, और संयम इसके आधार स्तम्भ थे।

Bond007
09-02-2011, 02:05 AM
धर्म की ओर झुकाव

अकबर प्रसिद्ध तीर्थ, कुरुक्षेत्र पहुँचा। वहाँ सूर्यग्रहण पर आज भी बड़ा मेला होता है। लोग स्नान करते हैं। उस समय, कुछ साधु-वैरागी भी कुरुक्षेत्र के कुंड में स्नान करने आए थे, परंतु उनमें यह विवाद था कि कौन दल पहले स्नान करे।

आज भी पहले स्नान करने पर झगड़ा होता है। अतएव जब यह विवाद तय न हो सका तो दोनों दलों ने बादशाह से फ़रियाद की। दोनों के ही अपने-अपने दावे थे, पर बादशाह को कोई भी निश्चित प्रमाण न मिल सके। जान पड़ता है, युवक अकबर को कुछ मसखरी सूझी। उसने कहा- दोनों आपस में लड़ लें, जिस दल की जीत हो जाए वही पहले स्नान करे।

इस पर एक दल ने फ़रियाद की कि विपक्षियों के दल में अधिक व्यक्ति हैं। विनोदी अकबर ने कहा कि ठीक है, जिसके पास कम आदमी हों, वह उतने ही शाही सैनिक ले ले। फिर क्या था, किसी ने किसी की दाढ़ी पकड़ी, किसी ने किसी की जटा। इस घमासान का बड़ा मज़ेदार चित्रण अकबर-नामे की शाही प्रति में हुआ। अकबर के साथ गए चित्रकारों ने घटना का चित्र बनाया है। चित्र को देखने से ज्ञात होता है कि दूर पर खड़ा घुड़सवार अकबर भी इस तमाशे का मज़ा ले रहा था।

Bond007
09-02-2011, 02:07 AM
अकबर और जैन मुनि

अकबर के दरबार में जैन भी थे, यह बदायूँनी और अबुल फजल दोनों ही कहते हैं। दो प्रमुख जैन मुनि हीर विजयजी तथा उनके शिष्य विजयसेन सूरी उसके दरबार में आए। ये दोनों श्वेबांतर जैन थे। इनमें हीर विजयजी सूरी को तो 1584 ई. में अकबर का फ़रमान प्राप्त हुआ किपर्युषण पर्व में जीव हिंसा न हो।

लोग जैनों के सम्मुख हिंसा न करें और मांस न खाएँ। हीर विजयजी के प्रति अकबर की बड़ी श्रद्धा रही होगी। अबुल फजल ने लिखा है कि वे उच्चतम कोटि के धार्मिक व्यक्ति थे। इनके प्रभाव से अकबर को जीव हिंसा के प्रति अरुचि हुई और उसने कई ख़ास तिथियों पर अपने साम्राज्य में जीव हिंसा की मनाही कर दी। वह स्वयं मांस-भक्षण के विरुद्ध हो गया। उसने स्वयं प्रत्येक शुक्रवार शाकाहारी भोजन करने का व्रत ले लिया।

Bond007
09-02-2011, 02:09 AM
दीन-ए-इलाही का आरंभ

अकबर ने यह महसूस किया कि सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है। अतः उसने सर्वधर्म समन्वय अर्थात सब धर्मों की अच्छी बातें लेने का मार्ग पकड़ा। इसी को उसने 'सुलह कुल' कहा। इस तरह सब धर्मों की अच्छी बातों को लेकर उसने दीन-ए-इलाही चलाया।

इसमें इस्लाम का एकेश्वरवादथा, तो पारसी धर्म के अनुसार सूर्य और अग्नि उस ईश्वर के प्रकाश और तेज के रूप में पूजनीय थे। हिन्दू और जैन धर्मों के अहिंसावाद की इस धर्म पर गहरी छाप थी।

Bond007
09-02-2011, 02:10 AM
धार्मिक एकता की ओर झुकाव

सम्राट होने के नाते अकबर धार्मिक तत्वों की तह में जाना अपना कर्तव्य समझता। एक बार वह फतेहपुर सीकरी में प्रातःकाल एकांत में शिला पर बैठा तो उसके मन में यह भावना आई कि अपनी प्रजा में भेदभाव नहीं रखना चाहिए। दूसरी ओर इस्लाम के मुल्ला गैर-मुसलमानों को सताने की सलाह देते।

इनके वाद-विवाद इतने उग्र होने लगे कि बादशाह के सामने भी वे दरबारी तहजीब का ध्यान न रखते। इस सबसे अकबर के मन में सच्चाई की खोज की प्रवृत्ति और अधिक बढ़ी। अकबर-नामा में अबुल फजल लिखता है कि इसके बाद दरबार में सभी धर्मों और संप्रदायों के विद्वान भर गए। सभी की धार्मिक मान्यताओं पर विचार होता। यदि उनमें कोई कमजोरी होती तो उसे प्रकट किया जाता। धार्मिक सहिष्णुता बरती जाती, इससे उलटी बुद्धि वाले और दुष्टों को जलन होती।

Bond007
09-02-2011, 02:12 AM
कट्टरपंथियों का विरोध

अकबर जब आंतरिक झगड़ों से मुक्त हुआ तो उसका धर्म-सुधार की ओर ध्यान गया। उसने एक नए धर्म की स्थापना की। इसमें उसने पवित्र कुरान, ब्राह्मणों के धर्मशास्त्र और ईसा मसीह के उपदेशों का समन्वय किया। इस हेतु उसने एक सभा की। इसमें सभी धर्मों के आचार्यों को बुलाया, साथ ही अपने मनसबदारों को भी बुलाया।

ध्यान देने की बात है कि सभी धर्मों के कट्टरपंथी अनुयायियों ने अकबर के उदारतापूर्ण दृष्टिकोण का विरोध किया। इस पर अकबर ने कहा- 'किसी भी साम्राज्य के अंतर्गत यह अनुचित है कि जनता अनेक धर्मों में विभाजित हो। इससे आपस में मतभेद उत्पन्न होता है। जितने धर्म उतने ही दल हैं। उनमें आपस में शत्रुता होती है अतएव सभी धर्मों में समन्वय अपेक्षित है। परंतु इसे ऐसे ढंग से करना चाहिए कि एक होते हुए भी उनकी विशेषता बनी रहे। इससे सभी धर्मों की अच्छाइयाँ बनी रहेंगी और दूसरे धर्मों की विशेषताएँ भी आ जाएँगी। इससे ईश्वर क प्रति आदर बढ़ेगा, लोगों में शांति होगी और साम्राज्य की सुरक्षा भी बढ़ेगी।'

Bond007
09-02-2011, 02:13 AM
जज़िया बंद

योरपीय यात्रियों का कथन है कि अकबर की आँखें इस प्रकार दपती रहतीं मानो सागर पर सूर्य झिलमिला रहा हो। उसकी आवाज ऊँची थी, उसमें एक अनुगूँज होती थी। कोई भी उसे देखता तो जान जाता कि यही बादशाह है। जहाँगीर का कथन है कि लोग उसमें साक्षात ईश्वर का तेज पाते थे। वह अट्टहास करता था और उस समय उसका चेहरा हँसी के मारे थोड़ा विकृत हो जाता। उसे क्रोध बहुत ही कम आता। वह अत्यंत धीर था। योरपीय यात्री हैरान थे कि उसके मन की बात चेहरे के भाव से प्रकट ही न होती, पर क्रोध में उसकी आकृति असह्य हो जाती थी। उसके मूँछ के बाल खड़े हो जाते।

संयोगवश अकबर शिकार खेलने मथुरा गया था। वहाँ उसे ज्ञात हुआ कि मथुरा आने पर हिन्दुओं को कर देना पड़ता है। उसने यात्री कर उठा दिया। अकबर ने कहा- यह कहाँ का न्याय है कि ईश्वर की आराधना पर कर लिया जाए! अगले ही वर्ष, अपने राज्याभिषेक की नौवीं वर्षगाँठ पर उसने मुस्लिम कानून के अनुसार गैर-मुस्लिमों पर लगने वाले कर- जजिया को भी उठा लिया।

यह एक अनोखी घटना थी। फिर तो दोनों पीढ़ियों तक जजिया कर नहीं लगा- औरंगजेब ने 1679 में जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद जजिया कर पुनः लगाया। जजिया से प्रतिवर्ष साम्राज्य को लाखों की आय होती। फिर भी अकबर ने इसे अनुचित माना।

Bond007
09-02-2011, 02:18 AM
अकबर के नवरत्न

निरक्षर होते हुई भी अकबर को कलाकारों एवं बुद्धिजीवियो से विशेष प्रेम था। उसके इसी प्रेम के कारण अकबर के दरबार में नौ(९) अति गुणवान दरबारी थे जिन्हें अकबर के नवरत्न के नाम से भी जाना जाता है।

Bond007
09-02-2011, 02:20 AM
अबुल फजल

अबुल फजल इब्न मुबारक (१४ जनवरी,१५५१ - १२ अगस्त, १६०२ ) अकबर के दरबारी थे। उन्होने अकबरनामा मैं अकबर के जीवन काल को कलमबद्ध किया हैं। आइन-ए-अकबरी भी रचा था।

Bond007
09-02-2011, 02:25 AM
फ़ैज़ी


शेख अबु अल-फ़ैज़, प्रचलित नाम:फ़ैज़ी (२४ सितंबर १५४७, आगरा–५ अक्तूबर, १५९५, लाहौर) मध्यकालीन भारत का फारसी कवि था। १५८८ में वह अकबर का मलिक-उश-शु‘आरा (विशेष कवि) बन गया था। फ़ैज़ी अबुल फजल का बड़ा भाई था। सम्राट अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था। बाद में अकबर ने उसे अपने नवरत्नों में से एक चुना था। फ़ैज़ी के पिता का नाम शेख मुबारक नागौरी था। ये सिंध के सिविस्तान, सहवान के निकट रेल नामक स्थान के एक सिन्धी शेख, शेख मूसा की पांचवीं पीढ़ी से थे। इनका जन्म आगरा में ९५४ हि. (१५४७ ई.) में हुआ। पूरी शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। शेख मुबारक सुन्नी, शिया, महदवी सबसे सहानुभूति रखते थे। फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल इसी दृष्टिकोण के कारण अकबर के राज्यकाल में सुलह कुल (धार्मिक सहिष्णुता) की नीति को स्पष्ट रूप दे सके। हुमायूँ के पुन: हिंदुस्तान का राज्य प्राप्त कर लेने पर ईरान के अनेक विद्वान भारत पहुँचे। वे शेख मुबारक के मदरसे, आगरा में भी आए। फैज़ी को उनके विचारों से अवगत होने का अवसर मिला।

९७४ हि. (१५६७ ई.) में फ़ैज़ी शाही दरबार के कवि बने, किंतु अभी तक धार्मिक विषयों पर अकबर ने स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना प्रारंभ नहीं किया था, अत: दरबार के आलिमों के अत्याचार के कारण शेख मुबारक, फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल को कुछ समय तक बड़े कष्ट भोगने पड़े। १५७४ ई. में अबुल फ़ज़ल भी दरबार में पहुँचे। उस समय से फ़ैज़ी की भी उन्नति होने लगी। १५७८ ई. में अकबर ने अपने पुत्र शाहज़ादे सलीम व मुराद की शिक्षा का भार उनको दिया। १५७९ ई. में अकबर ने फ़तहपुर की जामा मस्जिद में जो खुतबा पढ़ा उसकी रचना फ़ैज़ी ने की थी। हि. ९९० (१५८१) में इन्हें अकबर द्वारा आगरा, कालपी एवं कलिंजर का सदर नियुक्त किया गया। ११ फरवरी, १५८९ ई. को उन्हें 'मलिकुश्शु अरा' (कविसम्राट्) की उपाधि प्रदान की गई। हि. ९९९ (अगस्त, १५९१ ई.) में उन्हें खानदेश के राजा अली खां एव अहमदनगर के बुरहानुलमुल्क के पास राजदूत बनाकर भेजा गया। १ वर्ष ८ माह १४ दिन के बाद वह दरबार में वापस पहुँचे। १० सफ़र, १००३ हि. (१५ अक्तूबर, १५९५ ई.) को दक्खिन से वापस लौटने के कुछ वर्षोपरांत फ़ैज़ी को क्षय रोग अत्यधिक बढ़ जाने से लाहौर में उनकी मृत्यु हो गई। पहले उन्हें आगरा में रामबाग में दफ़नाया गया, किन्तु बाद में सिकंदरा के निकट उनके मकबरे में दफ़नाया गया।

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09-02-2011, 02:26 AM
कार्य

दक्षिण से जो पत्र उन्होंने अकबर के पास भेजे उन्हें उसके भानजे नूरुद्दीन मुहम्मद अब्दुल्लाह ने लतायफ़े फ़ैज़ी के नाम से संकलित कर दिया है। इन पत्रों से उस समय की सामाजिक एवं संस्कृतिक दशा का बड़ा अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है तथा ईरान और तूरान के विद्वानों एवं अकबर द्वारा विद्वानों के प्रोत्साहन पर प्रकाश पड़ता है। १५९४ ई. में उसने निज़ामी गंजबी के खम्से (पाँच मसनवियों का संग्रह) के समान पाँच मसनवियों की रचना की योजना बनाई जिसमें निज़ामी के मखज़ने असरार के समान मरकज़े अदवार की और लैला मजनू के समान नल दमन (राजा नल तथा दमयन्ती की प्रेमकथा) की रचना समाप्त कर ली। नलदमन को उसने स्वयं उसी वर्ष अकबर को समर्पित किया। सिकंदरनामा के समान, अकबरनामा की रचना की योजना बनाई किंतु केवल गुजरात विजय पर कुछ शेर लिख सका। अमीर खुसरो और शीरीं के समान सुलेमान और विल्क़ीस तथा हफ्त पैकर के समान हफ्त किश्वर की रचना की भी उसने योजना बनाई थी किंतु उन्हें पूरा न कर सका। १००२ हि. (१५९३ ई.) में उसने कुरान की अरबी में एक टीका लिखी जिसमें केवल ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जिनके अक्षरों पर नुक्ते नहीं है। फैजी की गज़लों का संग्रह (दीवान) भी बड़ा महत्वपूर्ण है। उसके शेरों का लोहा ईरानवाले भी मानते हैं। उत्साह एवं स्वतंत्र दार्शनिक विचार, उसके शेरों की मुख्य विशेषता हैं। उसे धार्मिक संकीर्णता से बहुत घृणा थी और वह दरवेशों, फक़ीरों तथा संतों से आदरपूर्वक व्यवहार करता था। उसका पुस्तकालय बड़ा विशाल था। फ़ैज़ी ने भास्कराचार्य के गणित पर प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ, लीलावती का फारसी में अनुवाद किया। उसमें निहित प्रस्तावना के अनुसार यह कार्य हि. ९९५ (१५८७) में पूरा हुआ था।

Bond007
09-02-2011, 02:30 AM
तानसेन


तानसेन या मियां तानसेन या रामतनु पाण्डेय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक महान ज्ञाता थे। उन्हे सम्राट अकबर के नवरत्नों में भी गिना जाता है।

संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहाँ बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुड़कते है तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढकर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपारि हैं। शिक्षा दीक्षा ग्वालियर से लगभग 45 कि.मी. दूर ग्राम बेहट में श्री मकरंद पांडे के यहाँ तानसेन का जन्म ग्वालियर के तत्कालीन प्रसिद्ध फ़क़ीर हजरत मुहम्मद गौस के वरदान स्वरूप हुआ था। कहते है कि श्री मकरंद पांडे के कई संताने हुई, लेकिन एक पर एक अकाल ही काल कवलित होती चली गई। इससे निराश और व्यथित श्री मकरंद पांडे सूफी संत मुहम्मद गौस की शरण में गये और उनकी दुआ से सन् 1486 में तन्ना उर्फ तनसुख उर्फ त्रिलोचन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर तानसेन के नाम से विख्यात हुआ। तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहां पर बैजूबावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे, और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई। राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहाँ के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी। तब तानसेन भी वृन्दावन चले गये और वहां उन्होनें स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत तानसेन शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत ख़ाँ के आश्रय में रहे और फिर बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए। मुग़ल सम्राट अकबर ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया।

अकबर के नवरत्नों तथा मुग़लकालीन संगीतकारों में तानसेन का नाम परम-प्रसिद्ध है। यद्धपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परन्तु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय हैं। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक थे। एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं। गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे। लिहाजा इसी निधि वन में अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए। हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे। अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है। फिर तानसेन ने जवाब दिया कि जहांपनाह हम इस ज़मीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फर्क तो होगा न।

Bond007
09-02-2011, 02:34 AM
तानसेन को अपने दरबार में लाने के लिए अकबर युद्ध तक करने को तैयार हो गए थे

तानसेन के नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ का कहना है कि 'तानसेन' उनका नाम नहीं, उनकों मिली उपाधि थी। तानसेन मौलिक कलाकार थे। वे स्वर-ताल में गीतों की रचना भी करते थे। तानसेन के तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है- 1. 'संगीतसार', 2. 'रागमाला' और 3. 'श्रीगणेश स्तोत्र'। भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे।




संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। अपनी संगीत कला के रत्न थे। इस कारण उनका बड़ा सम्मान था। संगीत गायन के बिना *अकबर का दरबार सूना रहता था। तानसेन के ताऊ बाबा रामदास उच्च कोटि के संगीतकार थे। वह वृंदावन के स्वामी हरिदास के शिष्य थे। उन्हीं की प्रेरणा से बालक तानसेन ने बचपन से ही संगीत की शिक्षा पाई। स्वामी हरिदास के पास तानसेन ने बाहर वर्ष की आयु तक संगीत की शिक्षा पाई। वहीं उन्होंने साहित्य एवं संगीत शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की।

संगीत की शिक्षा प्राप्त करके तानसेन देश यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की और वहाँ उन्हें संगीत-कला की प्रस्तुति पर बहुत प्रसिद्धि तो मिली, लेकिन गुजारे लायक धन की उपलब्धि नहीं हुई।

एक बार वह रीवा (मध्यप्रदेश) के राजा रामचंद्र के दरबार में गाने आए। उन्होंने तानसेन का नाम तो सुना था पर गायन नहीं सुना था। उस दिन तानसेन का गायन सुनकर राजा रामचंद्र मुग्ध हो गए। उसी दिन से तानसेन रीवा में ही रहने लगे और उन्हें राज गायक के रूप में हर तरह की आर्थिक सुविधा के साथ सामाजिक और राजनीतिक सम्मान दिया गया। तानसेन पचास वर्ष की आयु तक रीवा में रहे। इस अवधि में उन्होंने अपनी संगीत-साधना को मोहक और लालित्यपूर्ण बना लिया। हर ओर उनकी गायकी की प्रशंसा होने लगी।

अकबर के ही सलाहकार और नवरत्नों में से एक अब्दुल फजल ने तानसेन की संगीत की प्रशंसा में अकबर को चिट्ठीु लिखी और सुझाव दिया कि तानसेन को अकबरी-दरबार का नवरत्न होना चाहिए। अकबर तो कला-पारखी थे ही। ऐसे महान संगीतकार को रखकर अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए बेचैन हो उठे।

उन्होंने तानसेन को बुलावा भेजा और राजा रामचंद्र को पत्र लिखा। किंतु राजा रामचंद्र अपने दरबार के ऐसे कलारत्न को भेजने के लिए तैयार न हुए। बात बढ़ी और युद्ध तक पहुँच गई। आखिर तानसेन के कहने पर राजा रामचंद्र ने तानसेन को भेज दिया। अकबर के दरबार में आकर तानसेन पहले तो खुश न थे लेकिन धीरे-धीरे अकबर के प्रेम ने तानसेन को अपने निकट ला दिया।

चाँद खाँ और सूरज खाँ स्वयं न गा सकें। आखिर मुकाबला शुरू हुआ। उसे सुनने वालों ने कहा 'यह गलत राग है।' तब तानसेन ने शास्त्रीय आधार पर उस राग की शुद्धता सिद्ध कर दी। शत्रु वर्ग शांत हो गया।

Bond007
09-02-2011, 02:35 AM
अकबर के दरबार में तानसेन को नवरत्न की ख्यायति मिलने लगी थी। इस कारण उनके शत्रुओं की संख्यार भी बढ़ रही थी। कुछ दिनों बाद तानसेन का ठाकुर सन्मुख सिंह बीनकार से मुकाबला हुआ। वे बहुत ही मधुर बीन बजाते थे। दोनों में मुकाबला हुआ, किंतु सन्मुख सिंह बाजी हार गए। तानसेन ने भारतीय संगीत को बड़ा आदर दिलाया। उन्होंने कई राग-रागिनियों की भीरचना की। 'मियाँ की मल्हार' 'दरबारी कान्हड़ा' 'गूजरी टोड़ी' या 'मियाँ की टोड़ी' तानसेन की ही देन है। तानसेन कवि भी थे। उनकी काव्य कृतियों के नाम थे - 'रागमाला', 'संगीतसार' और 'गणेश स्रोत्र'। 'रागमाला' के आरंभ में दोहे दिए गए हैं।

सुर मुनि को परनायकरि, सुगम करौ संगीत। तानसेन वाणी सरस जान गान की प्रीत।

तानसेन के पुराने चित्रों से उनके रूप-रंग की जानकारी मिलती है। तानसेन का रंग सांवला था। मूँछें पतली थीं। वह सफेद पगड़ी बाँधते थे। सफेद चोला पहनते थे। कमर में फेंटा बाँधते थे। ध्रुपद गाने में तानसेन की कोई बराबरी नहीं कर सकता था। तानसेन का देहावसान अस्सी वर्ष की आयु में हुआ। उनकी इच्छा धी कि उन्हें उनके गुरु मुहम्मद गौस खाँ की समाधि के पास दफनाया जाए। वहाँ आज उनकी समाधि पर हर साल तानसेन संगीत समारोह आयोजित होता है।

Bond007
09-02-2011, 02:38 AM
राजा बीरबल

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8718&stc=1&d=1297204650
राजा बीरबल (1528-1586) ( असली नाम:महेश दास या महेश दास भट्ट ) मुगल बादशाह अकबर के प्रशासन में मुगल दरबार का प्रमुख विज़ीर ( वज़ीर-ए-आजम ) था और अकबर के परिषद के नौ सलाहकारो में से एक सबसे विश्वस्त सदस्य था जो अकबर के नवरत्नो थे यह संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ नौ रत्नों है । अकबर के अलावा यह दुसरा व्यक्ति था, जिसने दीन- ए -इलाही धर्म माना था ।

अकबर के दरबार में बीरबल का ज्यादातर कार्य सैन्य और प्रशासनिक थे तथा वह सम्राट का एक बहुत ही करीबी दोस्त भी था, सम्राट अक्सर बुद्धि और ज्ञान के लिए बीरबल की सराहना करते थे । ये कई अन्य कहानियो, लोककथाओं और कथाओ की एक समृद्ध परंपरा का हिस्सा बन गए हैं

Bond007
09-02-2011, 02:43 AM
अकबर - बीरबल की कहानियों पर अभय जी का मनोरंजक सूत्र- अकबर और बीरबल की कहानी (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=1059)

Bond007
09-02-2011, 02:51 AM
राजा टोडरमल

राजा टोडरमल मुगल सम्राट अकबर के राज्य के वित्त मन्त्री थे। ये भरतपुर अलवर के पास हरसाना ग्राम के थे अकबर के राज्य कि पेमाइस इन्होने की थी|

Bond007
09-02-2011, 02:53 AM
राजा मान सिंह

राजा मान सिंह, आमेर'राजा मान सिंह आमेर (आम्बेर) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे । वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे । राजा भगवन्त दास के पिता थे। इनकी बहन जोधाबाई अकबर की पटरानी थी।

Bond007
09-02-2011, 02:54 AM
अब्दुल रहीम खान-ऐ-खाना

अब्दुल रहीम खान-ऐ-खाना एक कवि थे और अकबर के संरक्षक बैरम खान के बेटे थे।

Bond007
09-02-2011, 02:56 AM
फकीर अजिओं-दिन

फकीर अजिओं-दिन अकबर के सलाहकार थे।

मुल्लाह दो पिअज़ा

मुल्लाह दो पिअज़ा अकबर के सलाहकार थे।

Bond007
09-02-2011, 03:01 AM
जोधाबाई


जोधाबाई के नाम से जानी जाने वाली अकबर की राजपूत पत्नी मरियम-उज़-ज़मनी का राजपूत नाम हीरा कुँवरि (जन्म १ अक्तूबर १५४२) था। वह जोधपुर् के राजा उदयसिह की पुत्री थी,राजस्थान के अंतिम स्वतंत्र राठॉडराजा मालदॅव द्वारा अपनी मृत्यु सॅ पहलॅ,अपनॅ छोटॅ पुत्र राव चंद्र्सॅन को मारवाडकी राज्यगद्द्दी दॅनॅ सॅ उसकॅ पुत्रो मॅ झगडा शुरु होगया। राज्यगद्दी का सही अधिकारी व मालदॅव का ज्यॅष्ट पुत्र उदयसिह था,पिता द्वारा कियॅ गयॅ अन्याय कॅ कारण उसॅ मुगलसम्राट अकबर की सहायता लॅनी पडी व बदलॅ मॅ उसनॅ अपनी पुत्री हीरा कुँवरि (या हरकूबाई)का विवाह मुगलसम्राट सॅ किया जो बादमॅ जॉधाबाई नाम सॅ प्रसिद्द हुई।तथा मुगल बादशाह जहाँगीर की माँ थी।

जोधा बाई आमेर के राजा भारमल कि पुत्रि थी|

Bond007
09-02-2011, 03:08 AM
अकबर का मकबरा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8717&d=1297202402
१७०० ईश्वी में अकबर के मकबरे का दृश्य

आगरा से चार किमी. की दूरी पर सिकंदरा में स्थित है अकबर का मकबरा। इसका निर्माण कार्य स्*वयं अकबर ने शुरु करवाया था। यह मकबरा हिंदू, ईसाई, इस्*लामिक, बौद्ध और जैन कला का सर्वोत्*तम मिश्रण है। लेकिन इसके पूरा होने से पहले ही अकबर की मृत्*यु हो गई। बाद में उनके पुत्र जहांगीर ने इसे पूरा करवाया। जहांगीर ने मूल योजना में कई परिवर्तन किए। इस इमारत को देखकर पता चलता है कि मुगल कला कैसे विकसित हुई। दिल्*ली में हुमायूं का मकबरा, फिर अकबर का मकबरा और अंतत: ताजमहल, मुगलकला निरंतर विकसित होती रही।


सिकंदरा का नाम सिकंदर लोदी के नाम पर पड़ा। मकबरे के चारों कोनों पर तीन मंजिला मीनारें हैं। ये मीनारें लाला पत्*थर से बनी हैं जिन पर संगमरमर का सुंदर काम किया गया है। मकबरे के चारों ओर खूबसूरत बगीचा है जिसके बीच में बरादी महल है जिसका निर्माण सिकंदर लोदी ने करवाया था। सिकंदरा से आगरा के बीच में अनेक मकबरे हैं और दो कोस मीनार भी हैं। पांच मंजिला इस मकबरे की खूबसूरती आज भी बरकरार है।

Bond007
09-02-2011, 03:13 AM
फिल्म एवं साहित्य में

अकबर का व्यक्तित्व बहुचर्चित रहा है। इसलिए भारतीय साहित्य एवं सिनेमा ने अकबर से प्रेरित कई पात्र रचे गए हैं।


http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8719&stc=1&d=1297206705
२००८ में प्रर्दशित फिल्म जोधा-अकबर

■२००८ में आशुतोष गोवरिकर निर्देशित फिल्म जोधा अकबर में अकबर एवं उनकी पत्नि की कहानी को दर्शाया गया है। अकबर एवं जोधा बाई का पात्र क्रमशः ऋतिक रोशन एवं ऐश्वर्या राय ने निभाया है।
■१९६० में बनी फिल्म मुग़ल-ए-आज़म भारतीय सिनेमा की एक लोकप्रिय फिल्म है। इसमें अकबर का पात्र पृथ्वीराज कपूर ने निभाया था। इस फिल्म में अकबर के पुत्र सलीम की प्रेम कथा और उस कारण से पिता पुत्र में पैदा हुए द्वंद को दर्शाया गया है। सलीम की भूमिका दिलीप कुमार एवं अनारकली की भूमिका मधुबाला ने निभायी थी।
■१९९० में जी टीवी ने अकबर-बीरबल नाम से एक धारावाहिक प्रसारित किया था जिसमे अकबर का पात्र हिंदी अभिनेता विक्रम गोखले ने निभाया था।
■नब्बे के दशक में संजय खान कृत धारावाहिक अकबर दी ग्रेट दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया था।
■प्रसिद्ध अंग्रेजी साहित्यकार सलमान रुशदी के उपन्यास दी एन्चैन्ट्रेस ऑफ़ फ्लोरेंस (The Enchantress of Florence) में अकबर एक मुख्य पात्र है।

Gaurav Soni
30-09-2011, 10:21 AM
एक और अच्छा सूत्र जो सदस्योँ का ज्ञानवर्द्धन कराने के लिये बाँड भाई लेकर आये हैँ । बधाई हो