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View Full Version : बढ़ती दुनिया सिकुड़ते रिश्ते


Kumar Anil
20-01-2011, 08:33 PM
दोस्तोँ , देखते - देखते हमारी दुनिया का स्वरूप बदल गया । हमारी दुनिया का दायरा बड़ा हो गया और हम गाँव , कस्बोँ से निकल कर ग्लोबल ( वैश्विक ) हो गये हैँ । मोहल्ले - टोले से ज्यादा इंटरनेट से जुड़ चुके हैँ । दुनिया के इस फैलाव ने हमारे संयुक्त परिवारोँ को निगल कर एकल परिवार मेँ सीमित कर दिया है । तो आइये हम आप अपने अनुभव और विचार शेयर करेँ ।

VIDROHI NAYAK
20-01-2011, 08:56 PM
लाखो की भीढ़ है पर आदमी अकेला है ...!!! सच तो यही है अनिल जी !

abhisays
20-01-2011, 09:55 PM
काफी अच्छा विषय चुना है अनिल जी आपने. इसके लिए आपको धन्यवाद.

इस विषय पर मैं भी अपने कुछ विचार रख रहा हूँ.

१९९१ में नयी व्यापार नीति आने के बाद भारत में काफी बदलाव आये है. पहले हमारा देश closed economy था. १९९१ के बाद भारत के द्वार सभी विदेशी चीजों के लिए खोल दिए गए, इससे देश के रहन सहन में काफी बदलाव आये है.
यह शायद उस समय की सरकार की विवशता थी जिसने ऐसा कदम उठाया.
आज विश्व के बाकि देशो और भारत में जो अंतर था धीरे धीरे कम होता जा रहा है.
हम लोग सब अंधी राहो में भागते हुए नज़र आ रहे है.
शायद धीरे धीरे हम अपनी पहचान खोते जा रहे है.
चारो तरफ अंधी प्रतियोगिता चल रही है.
ज़िन्दगी के मायने बदल गए है.
आज सब कुछ पैसो से तौला जा रहा है.
नैतिक मूल्यों का पतन होता जा रहा है.
अभी तक मैंने केवल पॉइंट्स लिखे है. इनका विश्तार जल्द ही करता हूँ.

Kalyan Das
22-01-2011, 09:03 AM
अनिल जी, आपके सूत्र के शीर्षक बहुत प्यारा है !! विषयवस्तु भी अत्यंत वेदनादायी है !!
ऐसी सूत्र के रचनाकार से विस्तार पूर्वक अवदान के उम्मीद है !!
जल्दी इस सूत्र में अपना भी एक छोटा सा योगदान करेंगे !!
धन्यवाद !!

Kumar Anil
22-01-2011, 10:32 AM
अनिल जी, आपके सूत्र के शीर्षक बहुत प्यारा है !! विषयवस्तु भी अत्यंत वेदनादायी है !!
ऐसी सूत्र के रचनाकार से विस्तार पूर्वक अवदान के उम्मीद है !!
जल्दी इस सूत्र में अपना भी एक छोटा सा योगदान करेंगे !!
धन्यवाद !!

मित्र ये मेरा नहीँ अपितु हम सबका सूत्र है । हम अपने विचारोँ को साझा कर यंत्रवत हो चुके इस जीवन की संवेदनाओँ को खँगालेँगे । सिकुड़े सिमटे कराहते रिश्तोँ की मीमांसा कर उसे उपचारित करने का भी प्रयास करेँगे । भौतिकता रूपी दीमक द्वारा खोखली कर दी गयी नीँव को पुनः ठोस करने के उपाय सोचेँगे । अन्त मेँ मैँ आप सबका आभारी हूँ कि आप सब एक एक कर श्रृँखलाबद्ध हो गये और मेरे विचार को अपने शब्द देने के लिये आतुरता प्रकट कर रहे हैँ ।

ndhebar
22-01-2011, 12:04 PM
दिल और दिमाग को झंझोर देने वाला मुद्दा है
मुझे कालका जी वाली वो घटना याद आती है जिसमें एक बहन घर पर मरी पड़ी थी और दूसरी अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी
वो किसी को इस घटना के बारे में नहीं बताती है और दुर्भाग्य की सीमा देखिये पड़ोसिओं को तब पता चला जब लाश से दुर्गन्ध आने लगी

मेरे लिए ये घटना झकझोर देने वाली थी शायद इसलिए भी क्योंकि उस समय मैं कालका जी में ही रहता था और जिस मकान में मैं दो साल से अकेला रहता था वहां मेरे पड़ोस में कौन रहता था मुझे नहीं पता था/
ये है हमारे बड़े शहरो का सच/ मुझे लगा की मैं इस मामले में अभी तक काफी खुश किस्मत हूँ पर क्या पता आगे ना रहूँ/
सबसे पहले मैंने माकान छोड़ा फिर दिल्ली ही छोड़ दी/

Kumar Anil
22-01-2011, 01:11 PM
विश्व बन्धुत्व , वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत प्रेम के पुजारी इस देश ने न जाने क्यूँ समष्टिवाद से व्यष्टिवाद की ओर चलने की ठान ली और नतीजतन मूल्योँ का क्षरण आरम्भ हो गया । समाज की मूलभूत इकाई व्यक्ति मशीन बनकर रह गया । व्यक्ति के इस रूपान्तरण ने प्रेम की बलि देकर संवेदनाओँ को संज्ञाशून्य कर दिया । मोहल्लोँ के चाचा , चाची , मामा , मौसी न जाने कहाँ और कब काल कवलित हो गये और मीठे मुँहबोले रिश्तोँ के कब्रिस्तान पर न जाने कब उग आयीँ कुकुरमुत्ती कालोनियोँ का कैक्टस सामाजिक ढाँचे को क्षत विक्षत कर हमारा उपहास करने लगा ।

khalid
22-01-2011, 01:32 PM
आज के युग का एक कडवा सच हैँ
बाँगवान फिल्म
जिसमेँ एक सच्चाई हैँ आज के युग का

Kumar Anil
22-01-2011, 01:37 PM
शायद हमेँ इसका संज्ञान ही नहीँ था कि हमारी इस दुनिया का विस्तार हमारे अपने स्व को खोकर ही मिलना है । प्रगति के इस चक्रव्यूह मेँ हमने अपना अमूल्य खो डाला , पता ही नहीँ चला । परिवार की परिभाषा कब सिकुड़ कर पति पत्नी और बच्चोँ तक सीमित हो गयी , बोध ही नहीँ हुआ । बरगदी परिवार कब बोनसाई होकर आधुनिकता की झूठी बगिया मेँ सज गया , अहसास तक नहीँ हुआ ।

amit_tiwari
25-01-2011, 01:51 AM
शायद हमेँ इसका संज्ञान ही नहीँ था कि हमारी इस दुनिया का विस्तार हमारे अपने स्व को खोकर ही मिलना है । प्रगति के इस चक्रव्यूह मेँ हमने अपना अमूल्य खो डाला , पता ही नहीँ चला । परिवार की परिभाषा कब सिकुड़ कर पति पत्नी और बच्चोँ तक सीमित हो गयी , बोध ही नहीँ हुआ । बरगदी परिवार कब बोनसाई होकर आधुनिकता की झूठी बगिया मेँ सज गया , अहसास तक नहीँ हुआ ।

सच कहते हो भाई |
आपकी पंक्तियाँ पढ़कर मैं खुद को ही दोषी मान रहा हूँ | दिन भर फोन हाथ में रहता है किन्तु घर पर फोन करने के लिए काल मैनेजर में टास्क सेट करना पड़ता है |
हालत जाँघों जैसी है, दोनों में से कोई भी दिखे, इज्जत पुरे तन की जाएगी | पैसे ना कमाओ तो भी गुजरा नहीं और कमाने जाओ तो भी काफी कुछ छूट जाता है | किन्तु कोई भी कारण हो, दोषी तो हम हैं ही |

Nitikesh
26-01-2011, 05:17 PM
आज कल हम सोसल नेटवर्क पर हम मित्र ढूढते हैं.लेकिन हमारे आस पड़ोस में कौन रहता है हमें यह कम मालुम होता है.

हम नेट पर बहुत से अंजान लोगों के बारे में पता कर लेते हैं/लेकिन हमारे आस पड़ोस में क्या हो रहा है.यह जानने की कोशीश हम कम ही करते हैं.

ऐसा ही कुछ मेरे साथ ही होता है/मेरे बगल वाले क्या करते हैं/मुझे मालूम ही नहीं है .

Kumar Anil
26-01-2011, 05:52 PM
आज कल हम सोसल नेटवर्क पर हम मित्र ढूढते हैं.लेकिन हमारे आस पड़ोस में कौन रहता है हमें यह कम मालुम होता है.

हम नेट पर बहुत से अंजान लोगों के बारे में पता कर लेते हैं/लेकिन हमारे आस पड़ोस में क्या हो रहा है.यह जानने की कोशीश हम कम ही करते हैं.

ऐसा ही कुछ मेरे साथ ही होता है/मेरे बगल वाले क्या करते हैं/मुझे मालूम ही नहीं है .

सत्य वचन मित्र ! हमारे भीतर छिपे सत्य और आस पास फैली खुशी को छोड़कर दूर अनजाने , अनचीन्हे रास्तोँ पर छदम् लोगोँ के साथ हम क्या ढ़ूँढ रहे हैँ , शायद हमेँ भी नहीँ मालूम । कुछ अलगाव के लिये , कुछ नवीनता के लिये आधुनिकता का चोला धारण कर जिस बेजान दुनिया का वरण कर रहे हैँ । वहाँ न रिश्तोँ की सुवास है न ही मिठास , वहाँ न रिश्तोँ की हूक है न उसके लिये दिलोँ मेँ कूक है । अपनी जड़े छोड़कर भला कोई पेड़ कैसे दूसरी जगह पुष्पित पल्लवित हो सकता है ? बुनियाद को खोखला कर के गगनचुम्बी इमारत बनाना भला कैसी अक्लमंदी ।

VIDROHI NAYAK
26-01-2011, 06:04 PM
आज कल हम सोसल नेटवर्क पर हम मित्र ढूढते हैं.लेकिन हमारे आस पड़ोस में कौन रहता है हमें यह कम मालुम होता है.

हम नेट पर बहुत से अंजान लोगों के बारे में पता कर लेते हैं/लेकिन हमारे आस पड़ोस में क्या हो रहा है.यह जानने की कोशीश हम कम ही करते हैं.

ऐसा ही कुछ मेरे साथ ही होता है/मेरे बगल वाले क्या करते हैं/मुझे मालूम ही नहीं है .
उचित फ़रमाया आपने ...!

Kumar Anil
26-01-2011, 09:50 PM
क्या इसे सामाजिक परिवर्तन कहेँ या फिर मूल्योँ का ह्रास । आज हम अपने बच्चोँ को किताबोँ के माध्यम से family और big family की नयी परिभाषा गढ़ कर उनके कच्चे कोमल मन मेँ बैठा रहे हैँ । कल तक जो दादा बच्चोँ को अपने हाथोँ के तकिये पर लिटाकर कहानियोँ के माध्यम से संस्कारोँ का बीजारोपण करते थे आज परिवार का वही मुखिया family के किताबी फोटो अल्बम से बाहर कर दिया गया है ।

VIDROHI NAYAK
26-01-2011, 10:01 PM
क्या इसे सामाजिक परिवर्तन कहेँ या फिर मूल्योँ का ह्रास । आज हम अपने बच्चोँ को किताबोँ के माध्यम से family और big family की नयी परिभाषा गढ़ कर उनके कच्चे कोमल मन मेँ बैठा रहे हैँ । कल तक जो दादा बच्चोँ को अपने हाथोँ के तकिये पर लिटाकर कहानियोँ के माध्यम से संस्कारोँ का बीजारोपण करते थे आज परिवार का वही मुखिया family के किताबी फोटो अल्बम से बाहर कर दिया गया है ।
अनिल जी प्रथम तो इसे सामाजिक परिवर्तन ही कहना उचित होगा ! और इसका मुख्य कारण आर्थिक असमानता को पूर्ण करने के लिए दौड है ! आज इतना वक्त ही नहीं की किसी की परवाह की जा सके ! सच्चाई तो यह है की वक्त का हवाला देकर हम इस जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं ! हमारे पास उन चीजों के लिए वक्त तो है जिन्हें हम व्यक्तिगत रूप से पसंद तो करते हैं पर उन चीजों के लिए नहीं जो दूसरों को पसंद हैं ! अब ऐसे परिवर्तन में मूल्योँ का ह्रास होना तो लाज़मी है !

Kumar Anil
03-02-2011, 01:15 PM
संयुक्त परिवारोँ की सोँधी खुश्बू से न जाने क्यूँ हमेँ सड़ाँध आने लगी और हमने रिश्तोँ की दीवारेँ खड़ीकर अपने आशियाने की छत डाल ली बल्कि अपने को दड़बोँ मेँ समेट लिया । शायद प्राइवेसी और स्पेस की तलाश हमेँ अन्धे रास्तोँ की ओर धकेल रही थी और हम उसे अपनी आजादी मानकर फूले न समा रहे थे । लेकिन हुआ क्या आज यही पति पत्नी परस्पर रिश्तोँ मेँ स्पेस ढ़ूँढ रहे हैँ और इन रिश्तोँ मेँ भी कुढ़न एवं तकरार हम अपने बच्चोँ को ट्रान्सफर कर उन पर अनावश्यक , अनपेक्षित दबाब बनाते हुये उन्हेँ प्रतिकूल परिस्थितियोँ मेँ समय से पूर्व ही परिपक्व कर रहे हैँ और उनका मासूम बचपन छीन रहे हैँ ।

ndhebar
03-02-2011, 01:24 PM
आज कल हम सोसल नेटवर्क पर हम मित्र ढूढते हैं.लेकिन हमारे आस पड़ोस में कौन रहता है हमें यह कम मालुम होता है.


सोशल नेटवर्किंग साईट एकाकी जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है ऐसा मेरा मानना है

Kumar Anil
03-02-2011, 01:41 PM
सोशल नेटवर्किंग साईट एकाकी जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है ऐसा मेरा मानना है

अक्षरशः सहमत । इसके साथ ही आधुनिकता का वरण करने की तीव्र इच्छा जिसके वशीभूत हम इन सोशल नेटवर्किँग साइट की ओर अंधानुगमन कर रहे हैँ और ये साइट एकाकी जीवन जीने के लिये उत्प्रेरक का कार्य कर रही हैँ ।

Ranveer
05-02-2011, 06:23 PM
देखकर ख़ुशी हुई की इस मर्म को हम जैसे युवा पीढ़ी [चाहे कम ही सही ] समझतें हैं...शायद हमने अपने आपको व्यवहारिक बनाने की बजाये स्वार्थी बनाने लगें है..

Kumar Anil
08-02-2011, 04:39 PM
आपको मुम्बई की चाल तो याद होगी ही । इसी तरह कानपुर के हाते हुये करते थे । फोरम के नायक सिकन्दर भाई इससे भली भाँति परिचित होँगे । कभी इसमेँ डूब कर तो देखिये । अपना सामाजिक दायित्व समझते हुये सेठ साहूकार ऐसी चाल और हातोँ का निर्माण करा देते थे और जरूरतमंदोँ के घरौँदे सज जाया करते थे । बड़ा सा एक आँगन जो साझे सुख - दुःख का प्रतीक हुआ करता था । पचासोँ परिवारोँ की खूबसूरत दुनिया मेँ जाने के लिये बड़ा सा एक ही प्रवेश द्वार । किसी सिकन्दर के घर मेँ अमीन सयानी की बजती हुई बिनाका गीतमाला की मीठी स्वरलहरियाँ बगल वाले अनिल की नन्ही बिटिया को मचलने पर मज़बूर कर देती थी । गीत संगीत भी साझा हो जाया करता था । छज्जे पर टंगे लोग आभास ही नहीँ होने देते थे कि कौन पड़ोसी है और कौन परिवार का सदस्य । सारे तीज त्योहार मिल जुल कर मनाये जाते थे । सेठ दिवंगत हो गये और उन्हीँ के साथ दफ़न हो गयी सामाजिक दायित्व निभाने की भावना और परम्परा । विलायत से लौटे उनके सपूतोँ का अपनी जड़ोँ से तो कोई नाता था ही नहीँ । उच्च शिक्षा प्राप्त थे सो गिव एण्ड टेक के वशीभूत दृष्टिकोण भी व्यवसायिक हो गया । पुरखोँ की परम्परा को छोड़ , उनकी दायित्व भावना की नीँव खोद , पचासोँ घरोँ की कब्रोँ पर अपार्टमेन्ट बनवा डाले । लोग तो उसमेँ अलबत्ता कई रहने लगे लेकिन दीवारेँ खीँचकर । सिकन्दर के घर का संगीत अनिल के घर तक पहुँचना बंद हो गया । अगरचे पहुँच भी गया तो कर्णभेदी लगने लगा । छज्जे अलग हो गये । आँगन न जाने कहाँ गुम हो गया । समवेत ठहाकोँ के लिये तो आर्किटेक्ट ने जगह ही नहीँ छोड़ी ।

ndhebar
09-02-2011, 05:01 PM
विडम्बना तो देखिये
समाज नाम की चीज जहाँ नहीं बसती उसे लोगों ने सोसाइटी का नाम दे रखा है

khalid
09-02-2011, 07:38 PM
एक सच्चा प्रसंग मैँ रिश्तोँ के बारेँ मेँ बताना चाहुँगा
दो भाई हैँ मिडील क्लास फैमिली से
दोनो ज्यादा पढा लिखा नहीँ था इसलिए एक नौकडी करने लगा
और दुसरा भाई माथे की बिन्दी बनाने का काम करने लगा
एक अपने सिमीत कमाई कर के गुजारा करने लगा दुसरे का अच्छे खासे मजे मेँ दिन गुजरने लगा
पहले भाई को दुसरे से जलन होने लगा
एक दिन किसी मुफ्ती साहब के पास जाकर फतवा लेकर आगया कि बिन्दी का काम हराम हैँ
दुसरे भाई पर दवाब बनाकर काम बंद करवा दिया
अब वो बे रोजगार हो गया और बहुत मुश्किल से जिन्दगी गुजार रहा हैँ

ndhebar
10-02-2011, 09:25 AM
सही है खालिद भाई
लोग अपने सुख से सुखी नहीं होते
दुसरे के दुःख से सुखी होते हैं

Kumar Anil
18-02-2011, 05:33 AM
वैश्विक होने के फेर मेँ जब हमने सोशल नेटवर्किँग साईटस का सहारा लिया तो हमने पाया एक ऐसा आभासी , काल्पनिक संसार जो बचपन मेँ सुनाये गये परियोँ के क़िस्सोँ से भी कहीँ ज़्यादा दिलफ़रेब था , जहाँ रिश्तोँ का प्रबन्धन सार्वजनिक मंच पर किया जाता है जबकि रिश्तोँ के लिये दृष्टि सम्पर्क एक आवश्यक तथ्य होता है क्योँकि अभी तक की परिभाषा के अनुसार रिश्तेँ नज़रोँ का ही सहारा लेकर परवान चढ़ते हैँ ।
हमने दूरियाँ घटाकर दुनिया को छोटा तो बना दिया परन्तु हम अपनी ख़ुद की दुनिया को छोटा करते चले गये और उसकी नज़दीकियोँ को दूर करते गये क्योँकि जब साधन बढ़ जाते हैँ तो दुनिया सीमित हो जाती है । संचार हमारी आवश्यकता है पर जैसे जैसे इसके साधन बढ़ते गये लोग एक दूसरे से दूर होते गये । तो फिर बेहतर तो यही होगा कि तमाम नाम के रिश्तोँ मेँ ख़ुद को बाँटने के बजाए थोड़े से अच्छे रिश्तोँ मेँ बँधा जाये ।

Kumar Anil
14-03-2011, 08:07 AM
अचानक मन मेँ एक विचार प्रस्फुटित हुआ कि विकास भौतिक सुखोँ को तो हमारे सम्मुख बिछाता चलता है परन्तु आनन्द को उतना ही दूर करता जाता है । जैसे जैसे हम विकास के एक एक सोपान पर कदम आगे बढ़ाते जा रहे हैँ , मानवीय संवेदनायेँ हमसे उतने ही कदम पीछे छूटती जा रही है । विकास की भट्टी रिश्तोँ की उष्मा से ही प्रदीप्त हो रही है और रिश्ते अपनी उष्मा छिनवाकर बर्फ के मानिंद जम रहे हैँ । इस बर्फ को पिघलाने वाला समय तो हम विकास को समर्पित कर दे रहे हैँ । रिश्तोँ की शर्त पर हम विकास का वरण कर रहे हैँ । रिश्तोँ को तह कर वार्डरोब मेँ रख दिया गया है । इस बढ़ती दुनिया का विकास इतना क्षारीय है कि रिश्तोँ की मिश्री उसमेँ अपना वज़ूद खोती जा रही है ।

Sikandar_Khan
14-03-2011, 09:36 AM
कुमार भाई जी
सत्य तो ये है कि आज के व्यस्त माहौल मे लोग पैसोँ को रिस्तोँ से अधिक महत्व देने लगे हैँ
सच्चे रिस्तोँ का मोल हम भूलते जा रहे हैँ
सिर्फ एक दिखावे का
जीवन जी रहे हैँ
जिसमेँ घोर निराशा और अंधकार के अलावा कुछ भी नही है

Ranveer
22-03-2011, 10:19 PM
ज़िन्दगी के रास्ते को सफलता - असफलता से जोड़कर देखतें हैं हम ..........संतुष्टि, करुणा,दया,त्याग ..आदि को तो दबा डाला है हमने /
मैंने तो कई सफल लोगों के जबान से ऐसे ऐसे शब्द सुने हैं जिसमे संवेदना होने के लक्षण बिलकुल नहीं दीखते ..और उनके आवाजों पर तालिया बज़ती हैं /
इस रंग बदलती दुनिया में सिकुड़ते रिश्तों के लिए किसे दोष दें हम
हम तो खुद अपनी आत्मा से सिकुड़ चुकें हैं

Kumar Anil
23-03-2011, 08:22 AM
ज़िन्दगी के रास्ते को सफलता - असफलता से जोड़कर देखतें हैं हम ..........संतुष्टि, करुणा,दया,त्याग ..आदि को तो दबा डाला है हमने /
मैंने तो कई सफल लोगों के जबान से ऐसे ऐसे शब्द सुने हैं जिसमे संवेदना होने के लक्षण बिलकुल नहीं दीखते ..और उनके आवाजों पर तालिया बज़ती हैं /
इस रंग बदलती दुनिया में सिकुड़ते रिश्तों के लिए किसे दोष दें हम
हम तो खुद अपनी आत्मा से सिकुड़ चुकें हैं


दरअसल इस भौतिकता की अंधी दौड़ मेँ रिश्ते , नैतिक मूल्य सब पीछे छूटते जा रहे हैँ । सफलता , असफलता की परिभाषा बदल चुकी हैँ , बदल चुके हैँ उसके मायने । इस भौतिकता के दौर मेँ रिश्तोँ का घेरा तोड़कर , पैसा उगलने वाले मशीनोँ के चक्रव्यूह मेँ फँस गये और मशीनोँ के सान्निध्य ने अपनी तरह यांत्रिक करने मेँ कोई कोर कसर नहीँ छोड़ी । छीन लिया मानवीय संवेदनाओँ को हमसे और प्रतिफल मेँ लाद दी पैसोँ की गठरी । आख़िर ये गठरी किसके लिये ? अपने बूढ़े बाप की परिचर्या हेतु डॉक्टर नर्स के सेवा शुल्क के लिये । अबोध बच्चे की देख रेख हेतु नियुक्त आया के लिये । रिश्तोँ को सीँचने की एक विफल कोशिश । रिश्तोँ को पुष्पित करने के लिये पैसा खाद बन गया और निकटता , निजता अर्थहीन होते चले गये । रिश्ते बढ़े मगर बिना ख़ुश्बू , बिना मिठास के ।

Bholu
23-03-2011, 01:24 PM
विडम्बना तो देखिये
समाज नाम की चीज जहाँ नहीं बसती उसे लोगों ने सोसाइटी का नाम दे रखा है

सत्य बचन मित्र

Kumar Anil
28-03-2011, 05:21 PM
वक़्त की आँच पर पिघल जाते हैँ रिश्ते ।
न रखो ख़्याल तो बदल जाते हैँ रिश्ते ।
कभी ओढ़ लेते हैँ ख़ुशी के रंगोँ को ।
कभी एक ठोकर से बिखर जाते हैँ रिश्ते ।।

kaminey
28-03-2011, 05:32 PM
दोस्तों आप लोग बड़े लोग हो, पर मैं भी इसमें कुछ अपनी बयान बाज़ी करने चाहता हूँ...

दुनिया का सबसे बड़ा सुख संतोष है, जिसके पास संतोष है वही सुखी है, वरना तो लालच का कोई अंत नहीं है,

किसी बन्दे ने ठीक ही कहा है आदमी आता खाली हाथ है जाता खाली हाथ है फिर काहे की इतनी भाग दौड़.

Bholu
28-03-2011, 05:40 PM
दोस्तों आप लोग बड़े लोग हो, पर मैं भी इसमें कुछ अपनी बयान बाज़ी करने चाहता हूँ...

दुनिया का सबसे बड़ा सुख संतोष है, जिसके पास संतोष है वही बंद सुखी है, वरना तो लालच का कोई अंत नहीं है,

किसी बन्दे ने ठीक ही कहा है आदमी आता खाली हाथ है जाता खाली हाथ है फिर काहे की इतनी भाग दौड़.

पहले तो सुस्वागतम्
दूसरी नम्बर की बात यहाँ कोई बडा छोटा नही
रही बात बयान बाजी की तो एक सूत्र है रसरंग पर अदालत उसपेँ आकर वकील बन जाओ

kaminey
28-03-2011, 05:45 PM
पहले तो सुस्वागतम्
दूसरी नम्बर की बात यहाँ कोई बडा छोटा नही
रही बात बयान बाजी की तो एक सूत्र है रसरंग पर अदालत उसपेँ आकर वकील बन जाओ


भोलू जी, कोई भी बात कहने से पहले भूमिका बाँधी जाती है, वही मैंने किया जो शायद आप नहीं समझे.... पहले शब्दों के हेर फेर को समजिये फिर कोई बयान बाज़ी करिए..

Bholu
28-03-2011, 05:50 PM
भोलू जी, कोई भी बात कहने से पहले भूमिका बाँधी जाती है, वही मैंने किया जो शायद आप नहीं समझे.... पहले शब्दों के हेर फेर को समजिये फिर कोई बयान बाज़ी करिए..

ठीक है मित्र
आप जैसे कहते है बैसे ही कहूँगा
लगता है मेरे शब्दो से आपके हदय को तकलीफ हुई है
आपकी बात का ध्यान रखूँगा
धन्यवाद

ndhebar
29-03-2011, 06:13 AM
दुनिया का सबसे बड़ा सुख संतोष है, जिसके पास संतोष है वही सुखी है, वरना तो लालच का कोई अंत नहीं है,
किसी बन्दे ने ठीक ही कहा है आदमी आता खाली हाथ है जाता खाली हाथ है फिर काहे की इतनी भाग दौड़.

संतोष पाने का सबका अपना अपना तरीका है भाई
किसी को दिन के ७० रुपये की कमाई पर संतोष है, किसी को ७०,००० भी कम लगते हैं
कोई सुखी रोटी के साथ आचार खाकर संतुष्ट है तो किसी को ५६ भोग भी बेकार लगता है
जो गावं में रहते हैं वो शहर की चकाचौंध के पीछे भागते हैं और शहर वाले गावं की शांति और शुद्धता की ओर

Sikandar_Khan
04-04-2011, 08:21 AM
वक्त नूर को बे नूर कर देता
एक छोटे से जख्म को नासूर कर देता |
कौन चाहता है अपनोँ से
दूर रहना ?
लेकिन ये पैसा सबको मजबूर कर देता है |

Kumar Anil
29-04-2011, 03:58 AM
वक्त नूर को बे नूर कर देता
एक छोटे से जख्म को नासूर कर देता |
कौन चाहता है अपनोँ से
दूर रहना ?
लेकिन ये पैसा सबको मजबूर कर देता है |

दूर रहना और दूर होना दो अलग अलग बातेँ हैँ । दूर रहने मेँ हमारी विवशता झलकती है जबकि दूर होने मेँ हमारा स्वार्थी होकर संकीर्ण मानसिकता के मद्देनज़र स्वयं तक सीमित हो जाना । और आज का ये पैसा हमारे समूचे जीवन दर्शन को प्रभावित कर रहा है । हम ख़ुद को टुकड़ोँ मेँ बाँटते चले जा रहे हैँ । इसीलिये समाज का क्षरण हो रहा है , मूल्योँ का ह्रास हो रहा हैँ । व्यक्तिवाद हावी होता जा रहा है ।

amit_tiwari
29-04-2011, 06:25 AM
दोस्तों आप लोग बड़े लोग हो, पर मैं भी इसमें कुछ अपनी बयान बाज़ी करने चाहता हूँ...

दुनिया का सबसे बड़ा सुख संतोष है, जिसके पास संतोष है वही सुखी है, वरना तो लालच का कोई अंत नहीं है,

किसी बन्दे ने ठीक ही कहा है आदमी आता खाली हाथ है जाता खाली हाथ है फिर काहे की इतनी भाग दौड़.

भाई आदमी आता और जाता तो बिना कपड़ों के भी है फिर ताउम्र कपडे काहे पहनता है ?

bhoomi ji
29-04-2011, 10:23 AM
भाई आदमी आता और जाता तो बिना कपड़ों के भी है फिर ताउम्र कपडे काहे पहनता है ?
hehehhehhehe
लेकिन फिर जाता भी तो बिना कपड़ों के ही है ना..........:cheers:

amit_tiwari
29-04-2011, 05:59 PM
hehehhehhehe
लेकिन फिर जाता भी तो बिना कपड़ों के ही है ना..........:cheers:

इसीलिए मैंने लिखा है, आता और जाता बिना कपड़ों के ही है

ndhebar
29-04-2011, 07:06 PM
इसीलिए मैंने लिखा है, आता और जाता बिना कपड़ों के ही है

पर हमारे इधर तो कपडा पहना कर ही जलाते हैं
ही ही ही ही

Ranveer
29-04-2011, 11:02 PM
संतोष पाने का सबका अपना अपना तरीका है भाई
किसी को दिन के ७० रुपये की कमाई पर संतोष है, किसी को ७०,००० भी कम लगते हैं
कोई सुखी रोटी के साथ आचार खाकर संतुष्ट है तो किसी को ५६ भोग भी बेकार लगता है
जो गावं में रहते हैं वो शहर की चकाचौंध के पीछे भागते हैं और शहर वाले गावं की शांति और शुद्धता की ओर

मै इन्ही कथनों को अपने अनुसार ढ़ालकर व्यक्त करने की कोशिश करता हूँ
कुछ गलती हो जाए तो क्षमा करें ;-

संतोष पाने का सबका अपना अपना तरीका है
कोई ७० रुपये की कमाई पर संतोष करने का प्रयास करता है तो किसी को ७०,००० भी कम लगते हैं
कोई सुखी रोटी के साथ आचार खाकर खुद को संतुष्ट करने का प्रयास करता है तो किसी को ५६ भोग भी बेकार लगता है
जो गावं में रहते हैं वो शहर की चकाचौंध के पीछे भागते हैं और शहर वाले गावं की शांति और शुद्धता की ओर
परन्तु संतुष्टि कभी मिल ही नहीं पाती
भीड़ में रहकर भी असंतुष्ट मन अकेला ही रहता है

khalid
30-04-2011, 01:02 PM
संतोष पाने का सबका अपना अपना तरीका है
कोई ७० रुपये की कमाई पर संतोष करने का प्रयास करता है तो किसी को ७०,००० भी कम लगते हैं
कोई सुखी रोटी के साथ आचार खाकर खुद को संतुष्ट करने का प्रयास करता है तो किसी को ५६ भोग भी बेकार लगता है
जो गावं में रहते हैं वो शहर की चकाचौंध के पीछे भागते हैं और शहर वाले गावं की शांति और शुद्धता की ओर
परन्तु संतुष्टि कभी मिल ही नहीं पाती
भीड़ में रहकर भी असंतुष्ट मन अकेला ही रहता है
किसी जमाने मेँ गाँव मेँ शान्ति और शुध्दता मिलता होगा
आज का गाँव बगैर खाद और किटनाशक के कोई फसल उपज कर नहीँ आसकता हैँ
शुध्द देशी घी लेकर घर आओ बगैर डालडा मिले मिलेगा नहीँ
शुध्द हवा को ईँट भट्टो के चिमनी के धुँआ ने जहरीला कर दिया हैँ
हल्दी बगैर मिलावट के मिल नहीँ सकता हैँ
दुध बगैर पानी के मिलावट के बहुत मुश्किल होता हैँ मिलना बागीचे का सिर्फ नाम बाकी हैँ अभी तो ऐसा हैँ गाँव

ndhebar
30-04-2011, 11:52 PM
मै इन्ही कथनों को अपने अनुसार ढ़ालकर व्यक्त करने की कोशिश करता हूँ
कुछ गलती हो जाए तो क्षमा करें ;-

संतोष पाने का सबका अपना अपना तरीका है
कोई ७० रुपये की कमाई पर संतोष करने का प्रयास करता है तो किसी को ७०,००० भी कम लगते हैं
कोई सुखी रोटी के साथ आचार खाकर खुद को संतुष्ट करने का प्रयास करता है तो किसी को ५६ भोग भी बेकार लगता है
जो गावं में रहते हैं वो शहर की चकाचौंध के पीछे भागते हैं और शहर वाले गावं की शांति और शुद्धता की ओर
परन्तु संतुष्टि कभी मिल ही नहीं पाती
भीड़ में रहकर भी असंतुष्ट मन अकेला ही रहता है
मेरी राय आपसे भिन्न है
मैं इससे सहमत नहीं हूँ की संतुष्टि कभी नहीं मिलती
आप उस पिता से पूछिये जिसने अपनी बेटी की शादी संपन्न की हो
उस इंसान से पूछिये जिसने दिन भर काम करने के बाद घर लौट कर भोजन किया हो
उस इंसान से मिलिए जिसने अपनी सारी जमा पूंजी बेटे की पढ़ाई पर खर्च कर दी और उसके बेटे को नौकरी मिल गयी हो
संतुष्टि आपको उस बच्चे के चहरे पर भी मिलेगी जिसे अपना मन पसंद खिलौना मिल गया हो

Ranveer
01-05-2011, 09:10 PM
मेरी राय आपसे भिन्न है
मैं इससे सहमत नहीं हूँ की संतुष्टि कभी नहीं मिलती
आप उस पिता से पूछिये जिसने अपनी बेटी की शादी संपन्न की हो
उस इंसान से पूछिये जिसने दिन भर काम करने के बाद घर लौट कर भोजन किया हो
उस इंसान से मिलिए जिसने अपनी सारी जमा पूंजी बेटे की पढ़ाई पर खर्च कर दी और उसके बेटे को नौकरी मिल गयी हो
संतुष्टि आपको उस बच्चे के चहरे पर भी मिलेगी जिसे अपना मन पसंद खिलौना मिल गया हो

आपकी बात भी गलत नहीं कह पाउँगा
हाँ पर इतना कहूंगा की ये संतुष्टि क्षणिक ही है
परिस्तिथियों का बोझ इतना ज्यादा होता है की ये संतुष्टि स्थाई नहीं रह पाती
अस्वीकृति , निराशा ,असुरक्षा ,चिंता ,नैराश्य ,निकम्मापन ,अर्थहीनता ,आक्रोश ......इतनी सारी चीज़ें हैं मनुष्य में की ये हमेशा संतुष्टि पर भारी पड़ जातीं हैं

Kumar Anil
02-05-2011, 06:46 PM
मेरी राय आपसे भिन्न है
मैं इससे सहमत नहीं हूँ की संतुष्टि कभी नहीं मिलती
आप उस पिता से पूछिये जिसने अपनी बेटी की शादी संपन्न की हो
उस इंसान से पूछिये जिसने दिन भर काम करने के बाद घर लौट कर भोजन किया हो
उस इंसान से मिलिए जिसने अपनी सारी जमा पूंजी बेटे की पढ़ाई पर खर्च कर दी और उसके बेटे को नौकरी मिल गयी हो
संतुष्टि आपको उस बच्चे के चहरे पर भी मिलेगी जिसे अपना मन पसंद खिलौना मिल गया हो

निशांत भाई , आपकी प्रथम प्रविष्टि जिसमेँ रणवीर जी ने आंशिक शाब्दिक परिवर्तन किये थे , उसमेँ व्याख्यायित " संतोष " मात्र कमाई से ही सम्बन्धित था । जिसे रणवीर जी ने हवस के आईना से हमेँ दिखलाने का प्रयत्न किया । ज्यादा कमाई करने वालोँ की हवस , उनकी अतृप्ति के एक पहलू से परिचित करवाया । हमेँ बताया कि जैसे जैसे हम भौतिक रूप से समृद्ध होते जाते हैँ , वैसे वैसे संतोष के भाव कम होते जाते हैँ । परन्तु आपकी यह प्रविष्टि संतोष की व्यापकता समेटे है और सन्दर्भ से इतर हो गयी प्रतीत होती है ।

ndhebar
03-05-2011, 07:10 AM
निशांत भाई , आपकी प्रथम प्रविष्टि जिसमेँ रणवीर जी ने आंशिक शाब्दिक परिवर्तन किये थे , उसमेँ व्याख्यायित " संतोष " मात्र कमाई से ही सम्बन्धित था । जिसे रणवीर जी ने हवस के आईना से हमेँ दिखलाने का प्रयत्न किया । ज्यादा कमाई करने वालोँ की हवस , उनकी अतृप्ति के एक पहलू से परिचित करवाया । हमेँ बताया कि जैसे जैसे हम भौतिक रूप से समृद्ध होते जाते हैँ , वैसे वैसे संतोष के भाव कम होते जाते हैँ । परन्तु आपकी यह प्रविष्टि संतोष की व्यापकता समेटे है और सन्दर्भ से इतर हो गयी प्रतीत होती है ।

प्रभु मैं आपकी तरह व्याख्या नहीं कर सकता क्योकि मेरे पास इतने शब्द ही नहीं हैं (ये सच्चाई है और मेरी तरफ से आपके लिए सम्मान भी)
संतोष का कमाई से कोई लेना देना नहीं है, इस बात को कोई झुठला नहीं सकता
पर ये कहना की संतोष कभी मिलता ही नहीं, मैं इससे असहमत हूँ
हाँ पर ये भी सत्य है की सभी को नहीं मिलता

Kumar Anil
23-02-2012, 07:45 PM
शायद हमेँ इसका संज्ञान ही नहीँ था कि हमारी इस दुनिया का विस्तार हमारे अपने स्व को खोकर ही मिलना है । प्रगति के इस चक्रव्यूह मेँ हमने अपना अमूल्य खो डाला , पता ही नहीँ चला । परिवार की परिभाषा कब सिकुड़ कर पति पत्नी और बच्चोँ तक सीमित हो गयी , बोध ही नहीँ हुआ । बरगदी परिवार कब बोनसाई होकर आधुनिकता की झूठी बगिया मेँ सज गया , अहसास तक नहीँ हुआ ।

अलैक जी , विषय विशद है । सूत्र भटककर गतिहीन हो गया था । विषयान्तर हो जाने के कारण गति देना उचित नहीँ लगा । सम्भव हो तो मेरे इन विचारोँ को , सूत्र को पुनः अमलीजामा पहनाने का प्रयत्न कीजियेगा ।

Sikandar_Khan
23-02-2012, 08:03 PM
कुमार भाई ,अब इस सूत्र को गतिमान किया जाए |

Kumar Anil
23-02-2012, 08:47 PM
कुमार भाई ,अब इस सूत्र को गतिमान किया जाए |

जी हाँ , मेरा भी प्रयास है । बस अलैक जी की प्रतीक्षा है ।

Sikandar_Khan
23-02-2012, 09:29 PM
जी हाँ , मेरा भी प्रयास है । बस अलैक जी की प्रतीक्षा है ।

अलैक जी बस कुछ समय पश्चात आते ही होंगे |

Ranveer
24-02-2012, 07:11 PM
अलैक जी , विषय विशद है । सूत्र भटककर गतिहीन हो गया था । विषयान्तर हो जाने के कारण गति देना उचित नहीँ लगा । सम्भव हो तो मेरे इन विचारोँ को , सूत्र को पुनः अमलीजामा पहनाने का प्रयत्न कीजियेगा ।

अनिल जी को नमस्कार
मित्र , क्या आप बताना चाहेँगे कि इस सूत्र (शीर्षक के अनुसार ) की सीमा रेखा क्या है ?
साथ मे ये भी कि हमे इसे किस आयाम से देखना चाहिए ताकि विषयान्तर न लगे ?
क्या रिश्ते के सिकुडने मे स्वार्थ ,अहम के साथ साथ मजबूरी भी एक कारण नही है ?

Dark Saint Alaick
25-02-2012, 12:05 PM
मित्रो ! इस विषय में मेरे अनुभवजन्य विचार आप लोगों से बहुत अलग हैं ! साइबर संसार में मैंने बहुत समय बिताया है और इस दौरान के मेरे अनुभव कहते हैं कि यह सब स्वयं आप और आपके मनोभावों पर काफी हद तक निर्भर है अर्थात आपके मन में क्या है ? आप साइबर जगत में पनपने वाले रिश्तों को किस दृष्टि से देखते हैं और उनका किस तरह इस्तेमाल करते या करना चाहते हैं ! हमारे बुजुर्गों की एक कहावत मुझे याद आती है 'मन चंगा तो कटौथी में गंगा' यानी विश्वास बहुत बड़ी चीज़ है और फिर यह भी याद रखें कि जैसे आप स्वयं हैं, वैसे ही लोग आपके नजदीक आएंगे और उन्हीं से आपके रिश्ते पनपेंगे ! आप यकीन करें अथवा नहीं, लेकिन नेट के जरिये मुझे बहुत ही श्रेष्ठ किस्म के इंसान संसार के तकरीबन हर कोने में मिले हैं और इनमें से अनेक अब मेरे अभिन्न मित्र हैं ! अनेक देशों में जाकर मैं उनके परिवार के साथ समय बिता चुका हूं और अनेक मित्र मेरे पास जयपुर अथवा लॉस एंजिलिस आकर रहे हैं ! कुछ मित्रों के इस कथन से भी मैं कतई सहमत नहीं हूं कि सोशल नेटवर्क मनुष्य के अकेलेपन की उपज अथवा इलाज़ है ! यह बहुत कुछ आपके सामाजिक प्राणी होने अथवा नहीं होने पर निर्भर करता है ! मेरे जितने मित्र नेट पर हैं, उससे कई गुना संख्या ऐसे मित्रों की है, जिनसे मेरी दिन-प्रतिदिन मुलाक़ात है अथवा फोन पर बात होती है ! असल में सोशल नेटवर्क संबंधों का विस्तार है, यह आपको उस समय भी मित्रों से जुड़ने में मदद करता है, जब या जिस समय आप किसी मित्र को न तो फोन कर सकते हैं और न उसके घर जा सकते हैं ! जहां तक मानवीय रिश्ते-नातों का प्रश्न है, यह दरअसल सामाजिक प्रक्रिया है और ऐसे विघटन अथवा पुनर्गठन समाज में एक निश्चित अंतराल के बाद आते ही हैं और यह मेरे विचार से चिंताजनक नहीं है ! अभी तक हमारे देश में पश्चिम की छवि बहुत विचित्र है कि वहां बच्चों को थोड़ा बड़ा होते ही अलग कर दिया जाता है आदि, लेकिन वास्तविकता काफी अलग है ! मैं लगातार देख रहा हूं कि पश्चिम में अब संयुक्त परिवार तेज़ी से बढ़ रहे हैं और जनसंख्या संतुलित होने के कारण वहां प्रत्येक घर में बच्चों की संख्या भी बढ़ रही है ! आपमें से अधिसंख्य ने कहीं न कहीं अवश्य पढ़ा होगा कि आर्थिक मंदी से पीड़ित ब्रिटिश लोग सिर्फ दस फीसदी वेतन वृद्धि पर ही संसार के किसी भी कोने में नौकरी पर जाने को तैयार हैं, अतः वैश्विक आर्थिक मंदी इस दिशा में कुछ परिवर्तन कर दे, यह अलग बात है, किन्तु परिवार के प्रति नज़रिए में बहुत परिवर्तन होने वाला है, ऐसा मुझे नहीं लगता ! जहां तक भारत की बात है, हम अभी उस स्तर पर पहुंच रहे हैं, जहां से पश्चिम गुजर चुका है; अतः यहाँ भी जिस क्षण चक्र अपने चरम को पा लेगा, उसकी स्थिति में बदलाव स्वाभाविक है !

sombirnaamdev
25-02-2012, 03:11 PM
आज के युग का एक कडवा सच हैँ
बाँगवान फिल्म
जिसमेँ एक सच्चाई हैँ आज के युग का haan dost is film mein aapke dwara chalaye gaye sutra ki hi kahani hai & i like this film ,