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View Full Version : "अमृतवाणी"


bhoomi ji
25-01-2011, 10:58 AM
यह सूत्र उन "अमृतवाणी" के लिए है जो हमारे धर्मों, ग्रंथो, और महान व्यक्तियों द्वारा कही गयी...............

bhoomi ji
25-01-2011, 11:08 AM
"तो आइये सबसे पहले धर्म की व्याख्या करें"

bhoomi ji
25-01-2011, 11:10 AM
"धर्म"


धर्म मुख्यत चार चीजों से मिलकर बना हुआ है - "सत्य, तप,पवित्रता,और दया"
इन चारों का योगफल ही धर्म कहलाता है

कहा जाता है की जब धर्म इन चारों अंगों पर आधारित था तब सतयुग था ("सत्य, तप,पवित्रता,और दया")
जब तीन अंगों पर आधारित रहा तब त्रेता युग आया ("सत्य, तप,पवित्रता)
जब दो अंगों पर रहा तब द्वापर युग आया (" सत्य और तप)
और अब जब एक अंग पर है तब कलियुग आया (सत्य)

bhoomi ji
25-01-2011, 11:22 AM
"श्रीमदभागवत गीता" के अनुसार

"सुख ही दुखों का मूल कारण है "


क्योंकि मनुष्य हमेशा राजस सुख की कल्पना करता है और चाहता है की उसे हर राजस सुख प्राप्त हो

जितनी मात्र मैं सुख की इच्छा है उतना सुख नहीं मिलना या दुसरे व्यक्तियों के पास आपने से ज्यादा सुख होना- इन स्थितियों. मैं क्योंकि सभी मनुष्यों को राजस सुख बराबर नहीं मिल पाता है

जिसके कारण घुटन और तनाव की स्थितियां उत्पन्न होती हैं

bhoomi ji
25-01-2011, 11:35 AM
"मन की निरोगता ही सबसे बढ़ी निरोगता है"


जिसका सरीर हष्ट पुष्ट और बलवान है लेकिन मन मैं काम, क्रोध, घृणा, हिंसा, लोभ, कपट, इर्ष्य और स्वार्थ निवास करते हैं वह इंसान कभी भी निरोगी नहीं हो सकता है

Sikandar_Khan
25-01-2011, 11:43 AM
"धर्म"


धर्म मुख्यत चार चीजों से मिलकर बना हुआ है - "सत्य, तप,पवित्रता,और दया"
इन चारों का योगफल ही धर्म कहलाता है

कहा जाता है की जब धर्म इन चारों अंगों पर आधारित था तब सतयुग था ("सत्य, तप,पवित्रता,और दया")
जब तीन अंगों पर आधारित रहा तब त्रेता युग आया ("सत्य, तप,पवित्रता)
जब दो अंगों पर रहा तब द्वापर युग आया (" सत्य और तप)
और अब जब एक अंग पर है तब कलियुग आया (सत्य)
भूमि जी
आपका सूत्र
बहुत ही सुन्दर
मन प्रशन्न हो गया
कृप्या गति देती रहेँ

bhoomi ji
25-01-2011, 11:47 AM
जिस प्रकार प्रकाश के प्रभाव से अन्धकार दूर हो जाता है

उसी प्रकार हमारे जीवन मैं व्याप्त अन्धकार को ज्ञान ही दूर कर सकता है.. .

VIDROHI NAYAK
25-01-2011, 11:49 AM
अत्यंत बेहतरीन सूत्र ! बधाई स्वीकार करें भूमि माता !
परन्तु एक पंक्ति से मै सहमत नहीं हो पा रहा हूँ
और अब जब एक अंग पर है तब कलियुग आया (सत्य)[/b][/color] क्या ऐसा इस कलयुग में वास्तव में है ? आज तो हर विषय की जीत का आधार असत्य है..ऐसे में इस पंक्ति की कोई सम्भावना नहीं लगती !

bhoomi ji
25-01-2011, 11:59 AM
आपका कथन बिलकुल सत्य है
लेकिन मित्र ऐसा नहीं है की कलियुग मैं सत्य नहीं बचा है
यहाँ हम एक बात कहना चाहते हैं की अभी कलियुग का पहला चरण है और अभी भी सत्य बचा है. हाँ ये जरुर है की इसकी मात्रा कम है
और जिस दिन ये पूर्ण समाप्त हो जाएगा तब तक कलियुग का चौथा चरण आ चुका होगा
और फिर सम्पूर्ण मनुष्य जाति का विनाश, और फिर से एक नए युग का प्रारंभ..........

Sikandar_Khan
25-01-2011, 01:08 PM
भूमि जी
इस बेहतरीन सूत्र को हिंदी साहित्य में ले जाये
आपका क्या विचार है ?

Sikandar_Khan
25-01-2011, 01:31 PM
पानी स्थिर और निर्मल होता है, परन्तु बाहर की हवा उसे चंचल बना देती है !
उसी तरह उद्वेग हमे असहनशील बन देता है !
चित पर बाहरी हवा अर्थात उद्वेगों का असर नही होगा तो वह विकार शून्य हो जायेगा ! हर परिस्थिति में सहनशील रहना ही भक्त्त की पहचान है !

Water is steady and clean but outer wind makes it restless!
Same way restlessness makes us intolerant!
Intellect will be faultless if outer environment or restlessness will not effect it! To be tolerant in every condition is the sign of devotee!

bhoomi ji
25-01-2011, 08:55 PM
उपनिषदों मै एक स्लोक कहा गया है

"न तत्र सुर्योभाति, न चन्द्र तारकं ना विधुतो भाति, कुतोयमनुभाती.
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति.."

अर्थात
इस संसार एवम इसकी प्रत्येक ईकाई को न तो सूर्य, न चन्द्र, न बिधुत, और न अग्नि प्रकाशित करते हैं
वरन एक अद्वितीय आत्मा (इश्वर) ने ही ये सब प्रकाशित किये हैं
अद्वितीय आत्मा ज्योतियों की भी ज्योति है
यह आत्मा हमारे अन्दर भी है .परक्या कारण है कि हम सुख के लिए जीवन भर अन्धकार मैं भटका करते हैं.

bhoomi ji
25-01-2011, 08:56 PM
उपनिषदों मै एक स्लोक कहा गया है

"न तत्र सुर्योभाति, न चन्द्र तारकं ना विधुतो भाति, कुतोयमनुभाती.
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति.."

अर्थात
इस संसार एवम इसकी प्रत्येक ईकाई को न तो सूर्य, न चन्द्र, न बिधुत, और न अग्नि प्रकाशित करते हैं
वरन एक अद्वितीय आत्मा (इश्वर) ने ही ये सब प्रकाशित किये हैं
अद्वितीय आत्मा ज्योतियों की भी ज्योति है
यह आत्मा हमारे अन्दर भी है .पर क्या कारण है कि हम सुख के लिए जीवन भर अन्धकार मैं भटका करते हैं.

khalid
25-01-2011, 09:07 PM
अच्छी जानकारी बाँट रहीँ हैँ भुमी जी
आपको ++

bhoomi ji
25-01-2011, 09:13 PM
अच्छी जानकारी बाँट रहीँ हैँ भुमी जी
आपको ++

उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद :):)

abhisays
25-01-2011, 09:45 PM
भूमि जी, बहुत ही लाजवाब सूत्र बनाया है आपने, इसकी जितनी प्रशंशा की जाये कम होगी.

:bravo::bravo::bravo:

YUVRAJ
26-01-2011, 02:23 AM
बहुत ही सुन्दर ...:clap:...:clap:...:clap:...:bravo:"मन की निरोगता ही सबसे बढ़ी निरोगता है"


जिसका सरीर हष्ट पुष्ट और बलवान है लेकिन मन मैं काम, क्रोध, घृणा, हिंसा, लोभ, कपट, इर्ष्य और स्वार्थ निवास करते हैं वह इंसान कभी भी निरोगी नहीं हो सकता है

Nitikesh
26-01-2011, 12:28 PM
ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद

सिकंदर जी और भूमि जी..............

:india:

aksh
26-01-2011, 12:42 PM
सूर्य से इस सारे विश्व में प्राण का संचार होता रहता है. वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी आदि प्रकृति से सहज क्रम में सीमित प्राण शक्ति धारण करते रहते हैं.
मनुष्य में यह क्षमता है कि वह भावनाओं के अनुरुप बडी मात्रा में प्राण शक्ति को आकर्षित कर सकता है, धारण कर सकता है.
शरीर से सामान्य दिखने पर भी माहाप्राण-माहामानवों ने असाधारण कार्य किए हैं. हम भी उज्जवल भविष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए विशेष प्राण शक्ति धारण करने का प्रयोग करते हैं.
कमर सीधी करके ध्यानमुद्रा में बैठें. ध्यान करें कि हमारे चारों और श्वेत बादलों की तरह दिव्य प्राण का समुद्र लहरा रहा है। हम प्रार्थना करें कि-
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव, यदभद्रं तन्नऽआसुव.

इस महामंत्र का अर्थ है " हे विश्व के स्वामी, हे माहाप्राण, हमें बुराइयों से छुड़ाइये, श्रेष्ठताओं से जोड़िये. "

bhoomi ji
26-01-2011, 12:43 PM
भूमि जी, बहुत ही लाजवाब सूत्र बनाया है आपने, इसकी जितनी प्रशंशा की जाये कम होगी.

:bravo::bravo::bravo:

बहुत ही सुन्दर ...:clap:...:clap:...:clap:...:bravo:

ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद

सिकंदर जी और भूमि जी..............

:india:


आप लोग सूत्र पर पधारे और उत्साहवर्धन किया

आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद

bhoomi ji
26-01-2011, 01:45 PM
आइये अब सत्संग की व्याख्या करें

"सत्संग"



सत्संग क्या है- जिसका संग करने से परमात्मा प्राप्ति की लगन बढती हो
भगवान् की विशेष याद आती हो
भगवान् पर श्रद्धा विशवास बढ़ता हो
सारी शंकाओं का समाधान हो जाता हो
और जो हमसे कुछ भी लेने की इच्छा ना रखते हों

उन संतों का संग करने को ही सत्संग कहते हैं

VIDROHI NAYAK
26-01-2011, 01:49 PM
आइये अब सत्संग की व्याख्या करें

"सत्संग"



सत्संग क्या है- जिसका संग करने से परमात्मा प्राप्ति की लगन बढती हो
भगवान् की विशेष याद आती हो
भगवान् पर श्रद्धा विशवास बढ़ता हो
सारी शंकाओं का समाधान हो जाता हो
और जो हमसे कुछ भी लेने की इच्छा ना रखते हों

उन संतों का संग करने को ही सत्संग कहते हैं
भूमि जी क्या आप सत्संग और सत्चर्चा में अंतर स्पष्ट कर सकती हैं ?
क्या भगवत पुराण, राम कथा आदि को किसी संत द्वारा सुनना सत्संग कहलाता है ?

bhoomi ji
26-01-2011, 01:57 PM
"प्रेम की महिमा"


प्रेम के संचारित होते ही
जड़ -चेतन मैं
अन्धकार- प्रकाश मैं
मिथ्या -सत मैं
दुःख -आनंद मैं
दुराशा- सदशा मैं
भेद- अभेद मैं
कोलाहल- शांति मैं
और मृत्यु- अमरत्व मैं
रूपांतरित होने लगते हैं


जैसे ही तुम प्रेम की गहराई मैं डूबते ही वैसे ही तुम्हारे भीतर कुछ नया होने लगता है और कुछ दिव्य बनने लगता है
प्रेम के संस्पर्श से ही ह्रदय मैं श्रेष्ठ भावनाएं उमड़ने लगती हैं
अचानक सद्गुण आने लगते हैं
चहरे पर प्रसन्नता का फूल खिलने लगता है
और सारी दिनचर्या बदल जाती है

bhoomi ji
26-01-2011, 02:13 PM
भूमि जी क्या आप सत्संग और सत्चर्चा में अंतर स्पष्ट कर सकती हैं ?
क्या भगवत पुराण, राम कथा आदि को किसी संत द्वारा सुनना सत्संग कहलाता है ?

जहाँ तक हमें ज्ञान है सत्संग और सत्चर्चा मैं ये फर्क है

सत्संग मैं जहाँ हम संतों का संग करते हैं
अर्थात उनसे विचार विमर्श करते हैं, उनकी वाणी को सुनते हैं,, प्रभु का गुणगान करते हैं,, उसको पाने की अर्थात निर्वाण को पाने की या मोक्छ पाने की

वहीँ सत्चर्चा हम किसी के साथ भी कर सकते हैं घर बैठे अपने सहयोगियों, के साथ अपने रिश्तेदारों के साथ, अपने परिवार के साथ.
और सत्चर्चा जरूरी नहीं की केवल भगवान् के सम्बन्ध मैं हो ये हमारे दैनिक जीवन के बारे मैं हो सकती है हमारे संस्कारों के बारे मैं हो सकती है

भगवात पुराण और राम कथा वगेरह संतों के मुख से सुनना सबसे बड़ा सत्संग है
लेकिन ये तभी सत्संग कहलायेगा जब आप उनके द्वारा कही गयी बातों को और उस कथा मैं कही गयी बातों को अपने जीवन मैं साक्षात करें

धन्यवाद

Sikandar_Khan
26-01-2011, 04:44 PM
भक्त्ति को कितना भी छुपाओ,
परन्तु उसकी सुगन्ध तो फैलती है !
भक्त्ति की सुगन्ध वासनाओं की दुर्गन्ध को
एक एक कर के ख़तम कर देती है !


Sweet fragrance of of devotion spreads,
no matter how much you hide!
This perfume of devotion destroys the bad smell
of pleasures one by one!

Sikandar_Khan
26-01-2011, 04:47 PM
सब धन से श्रेष्ट धन प्रेम है !
सब साधन से भी श्रेष्ट साधन प्रेम है !
यदि महान से महान पतित है और उसके पास प्रेम धन है,
तो वह भी प्रभु का सबसे अधिक प्रिया है !
ह्रदय में प्रेम पैदा करो, और उसे चारो ओर फैलादो !
तुम्हारा प्रेम एक समुन्द्र बन जाये, जिसमे सारा जगत डूब जाये !

Of all the means, love is the best wealth!
If the most sinner has the love for Krishna,
he is Krishna's best devotee!
Generate the love for Krishna,
and let it spread all over!
May your love become ocean,
in which whole world drown

Sikandar_Khan
26-01-2011, 05:11 PM
जिस के पास धन है तो वो धन देगा !
भोगी भोग देगा ! ज्ञानी ज्ञान देगा ! भक्त्त भक्त्ति देगा ! धाम निष्ठा बाला धाम निष्ठा देगा ! हर जीव संसार को कुछ ना कुछ देता है ! परन्तु देता वो ही है, जो उसके पास होता है !


One who has money, will give money! Enjoy will give Bhog! Learned person will give knowledge! The devotee will give devotion! Person with faith in Dham will give the same! Everybody gives something or other to this world! But the person can only give, what he has it!

bhoomi ji
26-01-2011, 05:24 PM
सिकंदर जी आपके योगदान के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
ऐसे ही योगदान देते रहें

Kumar Anil
26-01-2011, 06:41 PM
एक अच्छा सूत्र जिसके सत्संग मेँ सत्चर्चा के माध्यम से सम्भवतः हमारा अन्तःकरण आलोकित हो सके ।

Bholu
27-01-2011, 08:29 PM
kya aap satsag ka thoda sa aanand mujhe de saktey hai me aapka aavari rahoga

bhoomi ji
30-01-2011, 02:20 PM
"समय का महत्व"



जीवन का प्रत्येक क्षण मनुष्य को प्रभु से वरदान स्वरूप मिला है
समय चक्र मैं क्षण अति सूक्ष्म है किन्तु इसमें असीमित संभावनाएं निहित हैं


जीवन मैं आने वाले सुख के क्षणों की अपेक्षा दुःख और संघर्ष के क्षण हमें अधिक भारी एवम कष्टकारी प्रतीत होते हैं
यदि हमने सुख और दुःख के अंतर से हटकर समय का मूल्यांकन करना सीख लिया तो हमारा जीवन सार्थक है
और हम अपने को जीवन के परम लक्ष्य और सफलता के निकट खड़ा पायेंगे.

bhoomi ji
30-01-2011, 02:29 PM
क्रमश.......

यदि ऐसा कहा जाए की मानव इन स्थितियों से अनभिज्ञ है तो उचित नहीं होगा
क्योंकि असीमित अपेक्षाएं पलाना मनुष्य की प्रवृति है. इसी के कारण वह सुख के क्षणों को आनंद के साथ व्यतीत करता है तथा दुःख के क्षणों को बड़ी विपत्ति मानकर स्वीकार करता है
ऐसे समय मैं वह इसे अपने सामर्थ्य की बात न मानकर दुर्दिन की संज्ञा देने लगता है...

जिन लोगों मैं आत्मविश्वास की कमी होती है वे ऐसी स्थिति मैं प्राय अपनी निर्णय-क्षमता खो देते हैं.
घोर निराशा मैं फंसे होने के कारण उन्हें इश्वर की शरण मैं जाने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं दिखाई देता
ऐसे मैं वे स्वयं को आस्तिक और ईश्वरवादी की संज्ञा देने लगते हैं.
लेकिन यथार्थत उन्हें न इश्वर पर विशवास होता है और न ही स्वयं पर.
यदि उन्हें इश्वर पर विश्वास है तो वे इन क्षणों को स्वीकार क्यों नहीं करते की यह भी उसी का दिया उपहार है, वही हमें इन क्षणों से मुक्ति दिलाएगा

bhoomi ji
30-01-2011, 02:39 PM
समय चक्र

समय चक्र का प्रत्येक क्षण सामान नहीं हो सकता, इसमें भिन्नता प्रकृति प्रदत्त है
कोई क्षण आनंद की अनुभूति दे जाता है तो कोई अवसाद लेकर आता है
"प्रत्येक कठिन एवम कष्टकारी क्षण का सामना रात्रि की भांति यह मानकर करना चाहिए की आने वाले क्षणों मैं सुप्रभात अवश्य होगा"
ये क्षण सुख के हों या दुःख के -जीवन मैं संतुष्टि और आत्म कल्याण की कामना के साथ इन्हें सार्थक मानकर स्वीकार करना चाहिए..

Bholu
30-01-2011, 10:05 PM
hallo bhoomi ji
apne jo btaya maan ko chu gayi
kya aap mujhe kuch anmol gyan
ak accha insaan banne par de sakti hai
kyoki insaan ke jivan me acchey suvichar hamesa uske liye faydemand hote hai
agar meri kisi baat se aapko koi taklif hui ho toh ak nadaan sa ladka samjh kar mujhe maaf karna aapka suvcintak
bholu

bhoomi ji
31-01-2011, 08:24 PM
hallo bhoomi ji
apne jo btaya maan ko chu gayi
kya aap mujhe kuch anmol gyan
ak accha insaan banne par de sakti hai
kyoki insaan ke jivan me acchey suvichar hamesa uske liye faydemand hote hai
agar meri kisi baat se aapko koi taklif hui ho toh ak nadaan sa ladka samjh kar mujhe maaf karna aapka suvcintak
bholu
भोलू जी हम कौन होते हैं ज्ञान देने वाले.. देने वाला तो उंपर वाला है
आप फोरम और सूत्र का आनंद लीजिये अभी बहुत कुछ बाकी है इस सूत्र पर............

Bholu
31-01-2011, 08:52 PM
भोलू जी हम कौन होते हैं ज्ञान देने वाले.. देने वाला तो उंपर वाला है
आप फोरम और सूत्र का आनंद लीजिये अभी बहुत कुछ बाकी है इस सूत्र पर............

jindgi me hamesa maine jo kaha dil se siddat se kabhi kisi ka fayda ya dhoka nahi diya
hamesa jab vi maine kuch logo se judna chaha hamesa mujhe hamesa ak aise insaan ki najar se dekha jisko hum gira hua kahate hai
jayda samay nahi loga
me bholu
ye es liya kaha kyoki kahi na kahi lagta hai ki aap ko mera naam accha nahi lagta mujhe nahi maloom kyo lakin ha etna bta raha ho aap ko me dukhi calak nahi

bhoomi ji
31-01-2011, 09:03 PM
भोलू जी
सूत्र पर सिर्फ सूत्र विषय की ही प्रविष्टियां करेँ । ये सूत्र ऐसी प्रविष्टियों के लिए नहीं है
आप अगर बात करना चाहते हैं तो चौपाल पर पधारेँ
आपका स्वागत है

YUVRAJ
01-02-2011, 12:26 AM
:clap:...:clap:...:clap:...:bravo:
**** g हम कौन होते हैं ज्ञान देने वाले.. देने वाला तो उंपर वाला है
आप फोरम और सूत्र का आनंद लीजिये अभी बहुत कुछ बाकी है इस सूत्र पर............

Kumar Anil
01-02-2011, 06:06 AM
भोलू जी हम कौन होते हैं ज्ञान देने वाले.. देने वाला तो उंपर वाला है
आप फोरम और सूत्र का आनंद लीजिये अभी बहुत कुछ बाकी है इस सूत्र पर............

ज्ञान के लिये माध्यम की आवश्यकता होती है और ईश्वर कुछ अच्छे और सच्चे व्यक्तियोँ का चयन कर अपने ज्ञान का प्रचार व प्रसार उनके माध्यम से करता है । सम्भवतः उनमेँ से एक आप भी होँ और भोलू जी इस तथ्य से परिचित होँ । बहरहाल आत्मप्राप्ति के लिये एक अच्छे सूत्र का निर्माण कर डाला है आपने । साधुवाद !

Bholu
01-02-2011, 02:42 PM
oh bhai me kaha se kaha es sutra me aaga
gyan ki baat me pucch raha tha
log kahne lage hum koun hote hai gyan batne wale aur
aare bhai aaj ke samay me kisi se thodi se baatey jo insaan banne me help karti hai bas maine unko he pucha tha uska itna derama ho gaya
maaf karo bhai aage se me prvisti nahi karoga

he ram

ndhebar
02-02-2011, 02:33 PM
"कुछ लोग जिसे ग़लती से जीवन स्तर की बढ़ती कीमतें समझ बैठते हैं, वह वास्तव में बढ़ चढ़ कर जीने की कीमत होती है।"

.......................- डग लारसन

Bholu
17-02-2011, 11:03 AM
दूसरो का दुखडा दूर करने वाले तेरे दुख दूर करेँगे राम

Sikandar_Khan
17-02-2011, 12:04 PM
इच्छा एक रोग है
परन्तु श्री प्रभु को पाने की इच्छा रोग नहीं
बल्कि सब रोगों की दवा है |
क्यों की भगवद मिलन की इच्छा जाग्रत
होते ही समस्त इच्छाए स्वतः नष्ट हो जाती हैं |
desire is desease!
but desire to get GOD is not a disease,
but it is cure for
all the diseases!
because after
awakening the
desire for GOD,
all the desires go
away themselves!

Sikandar_Khan
21-02-2011, 09:10 AM
हे नाथ! मैंने हार मान लिया !
सब तरफ से मेरी हार हो गयी !
माया से भी मैं हारा, और सभी साधनों से भी हार मान लिया !
मैं किसी भी साधन के योग्य नहीं हूँ !
हारकर के, निराश होकर के मैं तुम्हें बुलाता हूँ !
मेरी हार को जीत में बदल दो !
ये संसार दुःखमय है !
स्वयं भगवान ने कहा कि हे अर्जुन, यहाँ की प्राप्ति अनित्य है !
ये शरीर भी थोड़े दिन में चला जायेगा, ये शरीर जाने वाला है,
ये सब अनित्य है!
इससे किसीको आज तक सुख नहीं मिला,
ना शरीर से मिला, ना संसार से मिला !
कोई भी प्राणी जब मरने लग जाता है,
तो क्या लेकर जाता है , दुःख !
जब आया था, जब पैदा हुआ था, तब भी रोया था !
जीवन की शुरुआत भी रोने से होती है और
जीवन का अंत भी रोने से होता है !
इसलिए भगवान ने कहा ये दुखमय संसार है !
जीव यहाँ दुःख के साथ रोता हुआ पैदा होता है,
कष्ट से पैदा होता है और कष्ट में मरता है !
हम लोग भूल गये जब गर्भ में थे, तब कष्ट था,
लेकिन संसार में जन्म लेने के बाद क्षुद्र विषयों में हंसते है,
वो भी उसे नहीं मिलते
क्योंकि अनित्य है संसार !
इसलिये हे गोविन्द!
फिर भी मेरी आसक्ति नहीं जाती है, शरीर से,
शरीर के संबंधों से, संसार से !
इसलिये मैं हार गया !
हे गोविन्द! हे श्याम! मेरी टेर तू सुनले, मेरी टेर तू सुन ले !
माया के पानी में मै डूब रहा हूँ !
किनारे को देख रहा हूँ, जहाँ तक किनारा है !
आपके चरण,
आपके चरणों की शरण मिल जाए तो, किनारा मिल गया !
आपके चरणों की शरण ना मिला तो, सदा डूबते ही रहेंगे !
माया के प्रभाव में, ना जाने कितनी दूर चले जायेंगे,
अभी तो आपके पास हैं !
ये चरण, उनकी शरण का किनारा,
ना मिला, तो ना जाने कहाँ चले जायेंगे !
कितनी दूर चले जायेंगे, पता नहीं !
८४ लाख योनियाँ हैं , पता नहीं किस योनी में जन्म लेना पड़ेगा !
वहाँ भजन तो क्या कुछ भी ज्ञान नहीं रहता !
चारों ओर घोर अन्धकार होता है !
इसलिये मै डूब तो रहा हूँ
पर आपकी ओर भी देख रहा हूँ !
हे दीनबंधु दीनानाथ, मेरी डोरी तेरे हाथ !
जिसको भगवान का आश्रय मिल गया, वो पार हो गया !
वरना स्वर्ग में भी दुःख है !
दुःख है, जहाँ भी भोग है ,
इसलिये मैं हार चुका हूँ !
इस भव- सागर में आपने हम को जहाज दिया !
ये शरीर, एक जहाज है !
ये शरीर, भगवान ने दिया
इस जहाज में बैठके तुम हमारे पास आ जाना !
बिना कारण प्यार करते हैं भगवान !
हमारे जैसे नीच, पापी, भगवद विमुख प्राणियों से
और शरीर दे दिया यानि ये शरीर एक साधन है, भगवान के ओर जाने का !
ये शरीर जहाज दिया भगवान ने !
पर आसक्तियों का बोझ उठा लेता है मनुष्य, फिर डूब जाता है !
धन, धान, स्त्री, पुत्र, आदि की आसक्ति में डूब जाता है !
समस्त आसक्तियाँ, ये बड़े- बड़े बंधन हैं !
ये भारी भारी वजन लाद लिया, जिससे जहाज डूब रहा है !
अब ये जहाज डूबने वाला है !
जब जहाज भँवर
में फंस जाता है,
तब घूमने लग जाता है, चक्कर काटने लग जाता है
और उसमें पानी भर जाता है और वो डूब जाता है !
हमारे इस शरीर रूपी जहाज में
भ्रम का पानी भ्रम का भँवर घुस गया है !
विषयों में सुख है, ये भ्रम है,
ये भ्रम का पानी जब घुस जाता है, तो जहाज डूब जाता है !
ये भ्रम ही हमें भटका रहा है
कि धन में सुख है, स्त्री में सुख है,
आसक्ति में सुख है, विषयों में सुख है !
ये अनंत भँवर उठ रहे हैं !
ये अब डूबने वाला है !
बचाओ रे गोपाल! बचायो रे मोहे डूबत से बचायो !
हे गोविन्द! ये जीव का भ्रम है
कि अव विषयों में सुख मिलेगा !
इस भ्रम में उमर चली जाती है और कुछ नहीं मिलता !
ना भजन हो पाता है,
ना कोई साधन हो पाता है,
इस भँवर में भटकते- भटकते फिरते रहता है !
इस भँवर से निकलने के
मैंने सब उपाय कर लिये,
पर मैं नहीं निकल पाया !
एक भी भ्रम नहीं निकला मेरा !
मनुष्य इन भ्रमों में ही मर जाता है !
आदि शंकराचार्य जी ने कहा
कि देखो, इस बूढ़े को, सब अंग गल गये हैं ,
बाल सफेद हो गये हैं , दाँत मुँह में नहीं हैं ,
फिर भी ये आशा लगाये है,
संसार से, विषयों से, आसक्तियों से
और ऐसे ही ये मर जायेगा !
बूढ़ा हो गया है, चल नहीं पाता है,
लाठी लेकर चलता है !
कहाँ गया वो बचपन, वो जवानी,
फिर भी आशा, जीव को नहीं छोडती !
अनेक प्रकार के उपाए किये, निकल नहीं पाया मैं,
इसीलिये मैं हार गया !
मेरी हार हुई , हे नाथ !
मनुष्य सब विधि कर लेता है,
सब साधन कर लेता है,
सब विचार कर लेता है,
विरक्त भी हो जाता है,
साधू भी हो जाता है,
लेकिन इस भ्रम से नहीं निकल पाता !
इस भव सागर से पार होने का एक रास्ता है,
जैसे पूर्णिमा का चाँद, जब निकलता है
तो सागर उमड़ता है, उसको ज्वार कहते हैं !
समुन्द्र उमड़ता है,लहरें बढ़, जाती हैं
तो दूर- दूर किनारे में लहरें चली जाती हैं !
हे नाथ! जब आप अपना चन्द्र मुख दिखायेंगे,
तो ये माया की लहरें बड़े जोर से उठेंगी
और उनमें मैं किनारे लग जाऊंगा, मैं बाहर निकल जाऊंगा,
मैं पार हो जाऊँगा !
इसलिये हे नाथ! एक झांकी दिखा दो,
अपना मुख दिखा दो !
राधा बरसाने बाली! तेरी करुणा का मैं भिखारी !

राधे राधे
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श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यनन्दा
हरे कृष्ण हरे राम श्री राधे गोविंदा

Sikandar_Khan
21-02-2011, 09:13 AM
प्रिय साधकों


तुम्हारी ठकुराई
हे नाथ

सबसे बड़ी आपकी जो विशेषता है,
जो आपकी ठकुराई है, वो ये है,


आपका नाम जीव की वासनाओं का हरन कर लेता है !

वासनायें अनंत हैं और बिना वासनाओं के समाप्त हुए,

बंधन नहीं छूटेगा !
अनंत कर्म हैं, अनंत उनकी वासनाएँ, गांठें हैं !


उनको आपका नाम जला देता है,
तब जीव आपकी ओर चलता है !
तव जीव आपका भजन कर सकता है !

वासनाओं वाला आपका भजन नहीं कर सकता है !

वासनाओं वाला आपका भजन नहीं करेगा!
वो गिरेगा और लौट जायेगा !

सबसे बड़ी आपकी जो कृपा है, वासनाओं के सहित कर्मों का हरन,
आपका नाम कर लेता है !
हर कर्म, एक संस्कार बनता है !
प्रतिदिन उठते- बैठते जीव कर्म कर रहा है !

आपसे विमुख हो रहा है !
हर कर्म वासना बनता जा रहा है !
कर्म कर लिया तो उसकी वासना जमा हो जाती है, मन में !
लड्डू तो खा लिया
पर बुरा ये हुआ कि उसकी वासना जमा हो गई
मन में कि, बड़ा मीठा है !
हे नाथ, इनसे केवल आपकी कृपा ,

आपका नाम ही बचा सकता है !

वासनायो को जीव नहीं जला सकता,
उसको तो केवल आप का नाम जलाता है !
हे नाथ सब से बड़ी यही कृपा है !


आपने स्वयम कहा था
कि अर्जुन वासनायो के अन्धेरे को जीव कैसे हटा सकता है !
मै ही उसकी भावनायो में घुसता हूँ
और वहाँ जा के अन्धेरो को नष्ट करता हूँ
जो उसके ह्रदय में अनादिकाल का अंधकार है !
आंख बन्द करो तो अन्धेरा दिखाई पड़ेगा !
भीतर अन्त प्रकाश है !
पर जब आँख बन्द करो तो अन्धेरा दिखाई पड़ेगा !
मै इस अन्धकार को दूर करता हूँ उसकी भावनायो में घुस कर के
जिन भावनायो में मल मूत्र घुसा हुआ है, बहाँ मै जाता हूँ
और ज्ञान का दीपक जला देता हूँ !
तब जीव मेरी ओर चलता है !
वेद में बड़े बड़े यज्ञ लिखे है,
पर क्या उनसे वासनाये नहीं जाती है ?
सूरदास जी बोले नहीं !
अपने कर्म से अपने साधन से नहीं जायेंगी !
आप ने कहा है गीता में वेदों ने भी कहा है
कि त्रिगुण विषय है, उनसे ऊपर उठो !
सकाम यज्ञ कामनाये बड़ा देते है और आप से दूर कर देते है
और आप से विमुख कर देते है !
सिमित कर्म मार्ग है !
फूलो की तरह लगता है कि बड़ा आन्नद है इसमें !
जो जीव कामनायो को पूरा करता है बड़ा अच्छा लगता है !
पर ये भगवान् से अलग कर देता है !
बड़ी कठिनता से यज्ञ होता है, इस यज्ञ को भी कर लो
पर जीव फिर भी आप से विमुख ही रहेगा !
इतना बड़ा व् कठिन यज्ञ करके भी जीव आप से विमुख ही रहा !
उसका नाम जरुर हुआ बड़ा कि बहुत बड़ा यज्ञ करवाया
पर ह्रदय में भक्त्ति नहीं आयी !
ये काम तो केवल आपका नाम करता है !
हे नाथ विषयो का बंधन काटिये
और मुझे अपनी शरण में लीजिये !
हे नाथ विषयो की आशा व् संसारियो का भरोसा छुड़ा दीजिये !
ये जो जीव को जड़ बना देती है, हमारी इन जडीतायो को दूर करो !

ये जड़ताये मुझे परमार्थ के मार्ग पे नहीं चलने देंगी !
यहाँ कपट नहीं चलेगा !
यहाँ संसार में जगह जगह मन फंसा हुआ है !
अनेक जगह विशवास है
कि ये मेरी माँ है ये मेरी स्त्री है ये मेरा घर है ये मेरा प्यारा है !
ये सब झूठे विशवास है ! ये सब ख़त्म कर दो !
हे राधा रानी अब कृपा करो, ये विषयो का अन्धेरा दूर करो !

ये कृपा भक्त्ति से मिलती है !
ये कृपा योग आदि से नहीं मिलती !
गाओ नाचो, कीर्तन करो !
ये सच्चा मार्ग है ! ये भक्त्ति का मार्ग है !
ये बड़ा सरल मार्ग है, पर लोगो को विशवास नहीं होता !
जीव कठिन मार्ग की ओर चलता है !
भक्त्ति का मार्ग भगवान् के बहुत पास है , बहुत सरल है !

खूब गाओ, खूब नाचो, कृष्ण गुणगान करो आनंद से !
कठिन मार्ग की ओर क्यों जाते हो ?
सरल मार्ग से आनंद से क्यों नही गाते हो ?


कभी कभी महात्मा लोग दया कर के
अपना अनुभव भी बता देते है !
वैसे तो अपने को पापी अधम बताते है
लेकिन कभी कभी बता देते है तांकि जीव को विशवास हो जाये !
इस भजन में सूरदास जी ने अपना अनुभव बताया है
कि मैंने भक्त्ति का प्रभाव देख लिया, इसलिए समझ के कह रहा हूँ
अनुभव करके इसकी कह रहा हूँ कि इसकी छाप अन्य साधनों में नहीं है !
इसकी टकर नहीं हो सकती !
कठिन साधनों की ओर क्यों जाते हो ?
हे गोपाल हे गोविन्द हे राधे तेरी करुना का मै भिखारी !

Sikandar_Khan
21-02-2011, 09:36 AM
क्रोध क्यो आता है ?
क्रोध इस लिए आता है या तो हमारी इच्छा पुरी नही हो रही,
या उस में कोई बाधा उत्पन्न का रहा है !


Why anger comes?
It comes either our desire is not getting fulfilled
or somebody is hindering it !

Sikandar_Khan
21-02-2011, 09:39 AM
गोपी प्रेम !

यहाँ प्रेम के अतिरिक्त कोई भी धर्म आदि शेष नही रहता !
कृष्ण प्रेम के अतिरिक्त ओर कुछ है ही नही !

अब सोच लीजिये कि कितना उच्चा है ये गोपी प्रेम !
गोपिया ही सर्वश्रेष्ट उपासिका है देहधारियों में !
उनका गोविन्द में प्रेम इतना भावरुढ़ हो गया कि
उन्होंने उस प्रेम में सम्पूर्ण मर्यादाए तोड़ दी !
उनके प्रेम में लोक मर्यादा, आर्य पथ, व् वेद् पथ को गोपियों ने सब छोड़ दिया!
श्री कृष्ण ने भी विरह से पीड़ित गोपियों के विरह को दूर किया !
प्रेम के पीछे यहाँ श्री कृष्ण ने भी सब मर्यादायो को तोड़ दिया !

Gopi love!

Except
love no other religion remains here!
Except Krishn's love they have
nothing else!
Now think that how high is this Gopi love!
In living beings
Gopies are the best worshippers!
This love towards Govind became so
strong that
in that love, they broke all the norms!
In their
love to Krishna,
Gopies left public norm, Aryapath and Vedic Path!
Shri Krishna also removed
the feeling of separation of Gopies,
who were
suffering fromm separation!
Shri Krishna also broke all boundries for
the sake of love!

Sikandar_Khan
27-02-2011, 12:58 AM
गोपियो ने प्रेम भाव से,
कंस ने भय से, पांडवो ने स्नेह से
श्री कृष्ण को पाया !
गंगा में स्नान कैसे भी करो, वह कल्याणकारी ही है !
श्री कृष्ण के पास कैसे भी पहुँच जाओ, पर पहुँच जाओ !


Gopies through love,
Kans throough fear, Pandavas
through affection,
got Krishna !
However you take bath in Ganga, it is ausicious!
However reach to Krishna, but get there!!

Sikandar_Khan
27-02-2011, 01:15 PM
श्याम को भंवरा कहते है !
भंवरा कहाँ रहता है ?
भंवरा कमल के ऊपर रहता है !
जिस ह्रदय में सुंदर भाव होते है, वो ह्रदय कमल बन जाता है !


Shyam is called big beetle!
Where does it live?
It lives over lotus!
Heart filled with beautiful feelings is, lotus!

Bholu
27-02-2011, 03:11 PM
श्याम को भंवरा कहते है !
भंवरा कहाँ रहता है ?
भंवरा कमल के ऊपर रहता है !
जिस ह्रदय में सुंदर भाव होते है, वो ह्रदय कमल बन जाता है !


shyam is called big beetle!
Where does it live?
It lives over lotus!
Heart filled with beautiful feelings is, lotus!

wow this is very marvilis

Sikandar_Khan
01-03-2011, 07:35 PM
विशुद्व प्रेमी तो यह सोचता है
कि यदि हमारे मिलन से भी प्रभु को कष्ट मिले, तो वह मिलन कभी ना हो !
प्रेमी कभी भी जीतना ही नही चाहता ! प्रेमी व् भक्त्त तो सदा हारता है !
वो तो जैसा उसका प्रेमी कर रहा है, उस में ही प्रसन्न रहता है !
अपना सब कुछ हार जाने के बाद ही प्रेम की सिद्वी हो सकती है,
परन्तु हम सब जीतना चाहते है !


Real devotee thinks that
if krishna-meeting causes pain to Krishna then
that meeting should never happen!
The devotee never wants to win!
Affectionate and devotee always loses!
He is happy with whatever his Beloved is doing!
After loosing everything,love can be mature,
but all of us want to win! !

Bholu
01-03-2011, 07:51 PM
एक ही रात को भोगी भोगे
एक रात को योगी भोगे
भोगी रात को भोग करे और
योगी रात को योग लगाये

bhoomi ji
04-03-2011, 05:36 PM
"आध्यात्मिक ज्ञान"



केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही ऐसा ज्ञान है जो हमारे दुखों को सदा के लिए नष्ट कर सकता है. किसी अन्य प्रकार के ज्ञान से हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अल्प समय के लिए ही होती है.
परन्तु आत्म विषयक ज्ञान द्वारा अभाववृत का अंत हो सकता है.
अत किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक सहायत करना ही उसकी सबसे बड़ी सहायता है . जो मनुष्य को पारमार्थिक ज्ञान दे सकता है वाही मानव समाज का सबसे बड़ा हितैषी है.

bhoomi ji
04-03-2011, 05:38 PM
क्रमश....

हम देखते भी हैं की जिन व्यक्तियों ने मनुष्यों की अध्यात्मिक सहायता की है वही वास्तव में बल संपन्न थे. इसका कारण यह है कि आध्यात्मिकता ही हमारे जीवन के समस्त कृत्यों का सच्चा आधार है.
आध्यात्मिक बल से युक्त मनुष्य यदि चाहे तो किसी भी विषय में क्षमता संपन्न हो सकता है. जब तक मनुष्य में आध्यात्मिक बल पैदा नहीं होता तब तक उसकी भौतिक आवश्यकताएं उसे भली-भांति तृप्त नहीं कर सकतीं.

bhoomi ji
04-03-2011, 05:39 PM
"बौद्धिक विकास"


आध्यात्मिक सहायता के बाद है बौद्धिक सहायता करना
लेकिन ज्ञान- दान, भोजन तथा वस्त्र के दान से कहीं अधिक श्रेष्ठ है. इतना ही नहीं, यह प्राणदान से भी अधिक श्रेष्ठ है,
ज्ञान मनुष्य का प्राकृत जीवन और अज्ञान मृत्यु है.
यदि जीवन अंधकारमय है और अज्ञान तथा क्लेश में बीतता है तो वास्तव में ऐसे जीवन का कोई मूल्य नहीं है.

bhoomi ji
04-03-2011, 05:42 PM
"शारीरिक सहायता "


ज्ञान दान के बाद है- शारीरिक सहायता करना
यदि हमारे सम्मुख दूसरों की सहायता का प्रश्न उपस्थित हो तो हमें इस मूल धारणा से बचने का प्रयास करना चाहिए कि शारीरिक सहायता ही एक मात्र सहायता है.
भूखे रहने से जो कष्ट होता है उसका परिहार भोजन करने से ही हो जाता है, परन्तु वह भूख पुनः लौट आती है.
हमारे क्लेशों का अंत केवल तभी हो सकता है जब हम तृप्त होकर सब प्रकार के अभावों से परे हो जाएँ
तब क्षुधा हमें पीड़ित नहीं कर सकती और न कोई क्लेश या दुःख हमें विचलित कर सकता है,
अतएव जो सहायता हमें आध्यात्मिक बल देती है वही सर्वश्रेष्ठ है

bhoomi ji
04-03-2011, 05:44 PM
अंत में......

इस प्रकार सर्वप्रथम आध्यात्मिक सहायता, उसके बाद बौद्धिक सहायता और सबसे बाद में शारीरिक सहायता. केवल शारीरिक सहायता से ही संसार के दुखों से छुटकारा नहीं हो सकता.
जब तक मनुष्य का स्वभाव परिवर्तित नहीं होता तब तक शारीरिक आवश्यकताएं सदैव बनी रहेंगी. फलस्वरूप क्लेशों का अनुभव होता रहेगा

Bholu
05-03-2011, 05:00 AM
प्रेम ही भगबान
प्रेम ही इन्सान
बैर करे फिर क्यो
मानव से
जिन्दगी मे सब मिल जाता है
फिर दुख क्यो है इस जहान से

bhoomi ji
05-03-2011, 08:26 AM
प्रेम ही भगबान
प्रेम ही इन्सान
बैर करे फिर क्यो
मानव से
जिन्दगी मे सब मिल जाता है
फिर दुख क्यो है इस जहान से
क्या बात है
बहुत ही अच्छी लाइन लिखीं हैं :cheers:

Sikandar_Khan
09-03-2011, 08:17 PM
प्रेम क्या है ?

प्रेम वही है जहाँ बुद्वि का लय हो जाता है !
फ़िर उस जीव को ये पता ही नही रहता की धर्म क्या है ?
अधर्म क्या है ? सत्कर्म क्या है ?
प्रेम ईशवर रूप है !
प्रेम में भगवान की भगवता या मर्यादा भी लुप्त हो जाती है !

bhoomi ji
09-03-2011, 08:41 PM
प्रेम क्या है ?

प्रेम वही है जहाँ बुद्वि का लय हो जाता है !
फ़िर उस जीव को ये पता ही नही रहता की धर्म क्या है ?
अधर्म क्या है ? सत्कर्म क्या है ?
प्रेम ईशवर रूप है !
प्रेम में भगवान की भगवता या मर्यादा भी लुप्त हो जाती है !



वाह!!!!!!
प्रेम का बहुत सुन्दर वर्णन

Sikandar_Khan
10-03-2011, 08:10 AM
सूर्यं कभी नही पूछता कि अन्धकार कितना पुराना है !
अन्धकार आज का है या वर्षो पुराना है ?
सूर्य की किरणे तो अंधकार के पास पहुँचते ही उसे मिटा देती है !

ऐसे ही प्रभु की कृपा कभी यह नही पूछती कि सामने बाला कितना बड़ा पापी है !
प्रभु की कृपा होते ही जीव के समस्त पाप व् कष्ट मिट जाते है !

Sikandar_Khan
14-03-2011, 10:10 AM
जितना मनुष्य अपनी मै को काटता है, उतना ही भीतर ज्ञान प्रकाश होगा !
तुम्हारे अंदर के प्रकाश से तुम्हारे साथ साथ दूसरो को भी लाभ होगा |
दो पैसे का भी अगर दिया जला दो, तो उससे भी प्रकाश सब को लाभ देता है,
ये तो फ़िर भी तुम्हारे आचरण का दिया होगा !

Sikandar_Khan
14-03-2011, 10:16 AM
विशुद्व प्रेमी तो यह सोचता है
कि यदि हमारे मिलन से भी प्रभु को कष्ट मिले, तो वह मिलन कभी ना हो !
प्रेमी कभी भी जीतना ही नही चाहता ! प्रेमी व् भक्त्त तो सदा हारता है !
वो तो जैसा उसका प्रेमी कर रहा है, उस में ही प्रसन्न रहता है !
अपना सब कुछ हार जाने के बाद ही प्रेम की सिद्वी हो सकती है,
परन्तु हम सब जीतना चाहते है !

bhoomi ji
28-03-2011, 08:39 PM
विशुद्व प्रेमी तो यह सोचता है
कि यदि हमारे मिलन से भी प्रभु को कष्ट मिले, तो वह मिलन कभी ना हो !
प्रेमी कभी भी जीतना ही नही चाहता ! प्रेमी व् भक्त्त तो सदा हारता है !
वो तो जैसा उसका प्रेमी कर रहा है, उस में ही प्रसन्न रहता है !
अपना सब कुछ हार जाने के बाद ही प्रेम की सिद्वी हो सकती है,
परन्तु हम सब जीतना चाहते है !




वाह सिकंदर जी
प्रेम का अदभुत वर्णन किया है आपने......

Bholu
30-03-2011, 12:35 PM
दूसरो का दुखडा दूर करने बाले तेरे दुख दूर करेगेँ राम

jay sir
{ jalio }

Sikandar_Khan
07-04-2011, 01:49 PM
जितना मनुष्य अपनी मै को काटता है, उतना ही भीतर ज्ञान प्रकाश होगा !
तुम्हारे अंदर के प्रकाश से तुम्हारे साथ साथ दूसरो को भी लाभ होगा |
दो पैसे का भी अगर दिया जला दो, तो उससे भी प्रकाश सब को लाभ देता है,
ये तो फ़िर भी तुम्हारे आचरण का दिया होगा !

Sikandar_Khan
09-04-2011, 09:52 AM
पशु से इंसान बने और बने फिर इंसान से पशु

सबकी गति है एक सी अंत समय पर होय, जो आये हैं जायेंगे राजा रंक फकीर । जनम होत नंगे भये, चौपायों की चाल , न वाणी न वाक्*य थे पशुवत पाये शरीर । धीरे धीरे बदल गये चौपायों से बन इंसान । वाक्*य और वाणी मिली वस्*त्र पहन कर हुये बने महान । जाति बनी और ज्ञान बढ़ा तो बॉंट दिया फिर इंसान । अंत समय नंगे फिर भये, गये सब वेद शास्*त्र और ज्ञान ।।

dev b
19-04-2011, 06:29 PM
बहुत ही अच्छा सूत्र है मित्र ...कृपया निरंतरता बनाए रखे

Bhuwan
08-06-2011, 10:56 PM
"धर्म"


धर्म मुख्यत चार चीजों से मिलकर बना हुआ है - "सत्य, तप,पवित्रता,और दया"
इन चारों का योगफल ही धर्म कहलाता है

कहा जाता है की जब धर्म इन चारों अंगों पर आधारित था तब सतयुग था ("सत्य, तप,पवित्रता,और दया")
जब तीन अंगों पर आधारित रहा तब त्रेता युग आया ("सत्य, तप,पवित्रता)
जब दो अंगों पर रहा तब द्वापर युग आया (" सत्य और तप)
और अब जब एक अंग पर है तब कलियुग आया (सत्य)

लेकिन क्या इस कलयुग में सच में कहीं सत्य है?

Bhuwan
08-06-2011, 10:59 PM
आपका कथन बिलकुल सत्य है
लेकिन मित्र ऐसा नहीं है की कलियुग मैं सत्य नहीं बचा है
यहाँ हम एक बात कहना चाहते हैं की अभी कलियुग का पहला चरण है और अभी भी सत्य बचा है. हाँ ये जरुर है की इसकी मात्रा कम है
और जिस दिन ये पूर्ण समाप्त हो जाएगा तब तक कलियुग का चौथा चरण आ चुका होगा
और फिर सम्पूर्ण मनुष्य जाति का विनाश, और फिर से एक नए युग का प्रारंभ..........

कहीं ऐसा २०१२ में ही तो नहीं होने वाला.:lol::lol:

ndhebar
08-06-2011, 11:02 PM
कहीं ऐसा २०१२ में ही तो नहीं होने वाला.:lol::lol:
काश कि ऐसा हो..............
सभी झंझट से एक साथ सभी को मुक्ति

Bhuwan
08-06-2011, 11:02 PM
भूमि जी, बहुत ही अनुपम सूत्र है, :bravo::bravo:इसे आगे बढ़ाएँ.:cheers:

Bhuwan
08-06-2011, 11:09 PM
ज्ञान के लिये माध्यम की आवश्यकता होती है और ईश्वर कुछ अच्छे और सच्चे व्यक्तियोँ का चयन कर अपने ज्ञान का प्रचार व प्रसार उनके माध्यम से करता है । सम्भवतः उनमेँ से एक आप भी होँ और भोलू जी इस तथ्य से परिचित होँ । बहरहाल आत्मप्राप्ति के लिये एक अच्छे सूत्र का निर्माण कर डाला है आपने । साधुवाद !

:bravo:

:iagree::iagree::iagree:

bhoomi ji
09-06-2011, 10:29 PM
लेकिन क्या इस कलयुग में सच में कहीं सत्य है?
जी बिलकुल सत्य अभि भी कायम है.......तभी तो मनुष्यों के आपस मे विश्वाश है.......हालांकि इसमें लगातार गिरावट हो रही है..........:cheers:

भूमि जी, बहुत ही अनुपम सूत्र है, :bravo:इसे आगे बढ़ाएँ.:cheers:
धन्यवाद भुवन जी
अभि टाइम की थोडा कमी है इसलिए निरंतरता मे कमी है...............:cheers:

MANISH KUMAR
11-06-2011, 07:43 PM
अरे....... भूमि जी के इस काम के सूत्र पर तो हमारी नजर ही नहीं पड़ी थी. :cryingbaby: :bang-head::bang-head:

Bhuwan
12-06-2011, 10:07 PM
धन्यवाद भुवन जी
अभि टाइम की थोडा कमी है इसलिए निरंतरता मे कमी है...............:cheers:

तब तक मैं अपनी तरफ से कुछ योगदान की कोशिश करता हूँ.:cheers:

Bhuwan
12-06-2011, 10:13 PM
दूसरों के सुख को अपने दुःख का कारण मत बनने दीजिए.

Bhuwan
12-06-2011, 10:21 PM
सकारात्मक बनी, सकारात्मक सोचिए और सकारात्मक करिए. नकारत्मक सोच से मानसिक तनाव बढ़ता है.
अपने जीवन की दुखद घटनाओं को सोचकर समय और शक्ति नष्ट करने की बजाए सुखद घटनाओं का आनंद लीजिए और और सदैव व्यस्त रहिए.

Bhuwan
12-06-2011, 10:25 PM
सभी समस्याओं को एकसाथ हल करने की चेष्टा मत करिए. इन्हें एक-एक करके हल करिए और शुरुआत पहले छोटी समस्या से करिए.
निर्णय लेते समय यदि यह समझ में आए कि दूसरों के विचार सही हैं तो अपनी गलती स्वीकारने और अपने निर्णय को बदलने में संकोच मत करिए.

jai_bhardwaj
13-06-2011, 10:20 PM
अद्भुद और ज्ञानवर्धक .........
सचमुच प्रेरक एवं आचरणीय ....
पढो ..... समझो ...... और जीवन में इन्हें उतारें भी ........
धन्यवाद मित्रों ..

Sikandar_Khan
14-06-2011, 08:51 PM
मै प्रभु को रिझाने का क्या उपाए करू ?
जैसे जैसे ये इच्छा प्रबल होती है,
वैसे वैसे ही सब अन्य इच्छाए इस में लीन हो जाती है !
सांसारिक सुख भी अपने आप फीके लगते है !
जैसे सूर्य अंधेरे को रौंद डालता है
उसी तरह प्रभु रति सारे मल माने विषय व विकारों को भून डालती है !

Bhuwan
14-06-2011, 11:54 PM
जीवन के लक्ष्य को समझो , उसे पाने का प्रयास करो, जिस दिन हमें यह खजाना मिल जाता है , उस दिन एक अलग प्रकार का आनंद हमारे अन्दर बहने लगता है फिर कुछ और पाना शेष नहीं रहता ! हीरे जवाहरात के खज़ाने सामने हों तो व्यक्ति कंकड़ पत्थरों की तरफ रूचि नहीं लेता ! जिसे अमृत मिल गया फिर किसी और पेय को पीना नहीं पडेगा , क्योंकि सारी दुनिया के स्वाद वहीं जाकर जुड़ जाते हैं ! उसी में सबसे बड़ा हित आकर जुड़ जाता है ! यह शक्ति जागे यही जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है फिर और कुछ पाने की स्थिति नहीं बचेगी ! इसलिए इसे साधारण नहीं कहा जाता !

Bhuwan
14-06-2011, 11:56 PM
जितनी मेहनत आप संपत्ति बटोरने में और संपत्ति संभालने में लगाते हैं उससे कई गुना अधिक मेहनत आपको अपनी सन्तान संभालने मैं लगानी चाहिए ! जिसकी सन्तान संभल गई तो समझ लीजिए की उसकी लोक-परलोक की संपत्ति संभल गई और जिसकी सन्तान बिगड़ गई तो उसके लिए सब कुछ बिगड़ गया , इसलिए सन्तान में मर्यादा और सात्विकता लाना बहुत जरुरी है !

Bhuwan
14-06-2011, 11:57 PM
जब तक इंसान बच्चों जैसा भोलापन अपने अंदर रखता है उसके अंदर अशांति नहीं रहती !
जैसे -जैसे माया की परत व्यक्ति के ऊपर चढती जाएगी वैसे-वैसे अशांत होगा ! इसलिए कहा गया है की मनुष्य का व्यवहार जितना कृत्रिम है ,बनावटी है ,दिखावे वाला है ,उतना अशांत है और जितना सरल ,सहज ,प्रेमपूर्ण ,रसपूर्ण है उतना ही वह शांत और आनंदित है !

Bhuwan
15-06-2011, 12:00 AM
दूसरों के दोष ढूंढने में अपनी शक्ति का अपव्यय मत करो। अपने आप को ऊँचा उठाने का हर सम्भव
प्रयास जारी रखो, उसे कम न होने दो।
हर किसी में अच्छाई को ढूंढो, उससे कुछ सीखकर अपना ज्ञान और अनुभव बढाओ। इससे तुम बहुत
जलदी ऊँचाई तक पहुँच सकते हो।

Bhuwan
15-06-2011, 12:03 AM
संसार में समय को बहुमूल्य संपदा माना गया है। समय की रफ़्तार इतनी तीव्र है कि पलक झपकते ही आप पिछड़ सकते है। इसलिए अपने जीवन के हर पल को, क्षण को कीमती मानकर उसका सदुपयोग करो। समय को कभी बरबाद मत करना। क्योंकि समय को जो व्यर्थ बिता देते है, समय उनको बरबाद कर देता है।"

-सुधाँशुजी महाराज

Bhuwan
15-06-2011, 12:06 AM
वह इंसान महान है , जो अपने नियम और मर्यादा में हमेशा खरा उतरता है ! जिसके सोने का अपना नियम ,

जागनेका अपना नियम ,भोजन का अपना नियम ,काम करने का नियम हो ,वह जीवन में अवश्य सफल होता है !

वह दूसरों के लिए प्रेरणा है.

Bhuwan
15-06-2011, 12:11 AM
कामनायें जगानी बुरी बात नहीं , आशायें और आकाक्षायें पालना बुरी बात नहीं,क्योंकि व्यक्ति इसी आधार पर उन्नति करता है ! दूसरों को देख कर अन्दर से प्रेरणा आती हे तो ईंसान आगे बढ्ता है ,पुरुशार्थ करता है! आशायें आकाक्षायें हमारे मन में आगे बढने की इच्छा पैदा करती हैं ! आवश्यकता अविष्कार को जन्म देती है ! आविष्कार के माध्यम से मनुष्य तरह -तरह की चीजें प्राप्त करते हैं ! लकिन आप जानते हैं कि कोई भी चीज नियंत्रण में है तो अच्छी है ,नियंत्रण से बाहर गयी तो वही चीज खतरनाक हो जाती है ! अग्नि जब तक आपके नियंत्रण में है , तो उसके द्वारा आप भोजन पकाइये , तरह - तरह के उपक्रम चलाइये ! गाडी के अन्दर भी अग्नि का माध्यम लेकर मनुष्य उसे संचालित करता है ! अग्नि के सहारे ही मनुष्य पेट भर रहा है ! सब कुछ ठीक है , लेकिन ऐक छोटी सी चिनगारी थोड़ी सी अनियत्रित होकर विशाल रूप धारण कर ले तो फिर उस अग्नि को हितकारीमत मानना ! वह विनाशकारी हो जायेगी ! घी का उपयोग करते हुए लोग अपनी सेहत बनाते हैं , लेकिन नियंत्रणा न कर अधिक मात्रा में इसका सेवन करें तो घी भी विष हो जायेगा ! अगर मर्यादा से हटकर बिना माप-तोल के आप अमृत लेंगे तो अमृत भी विष का काम करेगा ! आशा,आकांक्षा मन में पालना अच्छी बात है , लेकिन उन पर बुधि का नियंत्रण होना बहुत जरूरी है !


-सुधांशु जी महाराज

naman.a
19-06-2011, 10:00 PM
क्या बात है यहां हो रहा सही मे सत्संग । बहुत ही अच्छे ।

जीवन मे संत लोगो का संग और सत्संग बहुत जरुरी है क्योकि इंसान को तभी अच्छे और बुरे मे फ़र्क करना आता है ।

तुलसीदासी ने भी कहा है कि

बिनु सत्संग विवेक ना होई

बिना सत्संग के विवेक नही आता ।

और भी कहा है कि सत्संगति महिमा नही गोई ।

सत्संग की महिमा का कोई बखान नही कर सकता ।

Sikandar_Khan
03-08-2011, 07:22 AM
भक्त्तो का सच्चा प्रेम तो ऐसा है जैसे तुफानो में दिया जल रहा हो !
चाहे लाख अंधिया चले, लाख तूफान आये,
परन्तु भक्त्त के प्रेम की ज्योंति बुझना तो दूर
जरा सी भी विचलित भी नही होती !

Sikandar_Khan
10-08-2011, 10:53 AM
यदि प्रभु जीव को कुछ ना दे तो, उसमे भी प्रभु की कृपा ही है !
प्रभु का अनुगृह तथा निगृह दोनों ही प्रभु की कृपा है !

Sikandar_Khan
10-08-2011, 11:09 AM
चलती हुई व् मिटती हुई दुनिया में किसी की सता नही रही !
जो अपनी सता जमाने की कोशिश कर रहा है, वो तो निरामुर्ख है !
हम सोचते है कि हमारे पास शक्त्ति है !
हमारे पास शक्त्ति कहाँ है
जब हम अपने ही शरीरी की एक छोटी सी भी क्रिया को नही रोक सकते !

Sikandar_Khan
25-08-2011, 03:01 PM
लक्ष्मी पुण्याई से मिलती है |
मेहनत से मिलती तो मजदूरोँ के पास क्योँ नही ?
जीवन मे अच्छी संतान , सम्पत्ति और सफलता पुण्याई से मिलती है |
अगर आप चाहते हैँ कि आपका इंद्रलोक और परलोँक सुखमय रहे तो पूरे दिन मे कम से कम दो पुण्य जरूर किजिए |
क्योँ की जीवन मे सुख,सम्पत्ति और सफलता पुण्याई से मिलती है |

Sikandar_Khan
24-09-2011, 10:05 AM
मनुष्य को सदा उत्तम वाणी अर्थात श्रेष्ठ लहजे में बात करना चाहिये, और सत्य वचन बोलना चाहिये, संयमित बोलना, मितभाषी होना अर्थात कम बोलने वाला मनुष्य सदा सर्वत्र सम्मानित व सुपुज्य होता है । कारण यह कि प्रत्येक मनुष्य के पास सत्य का कोष (कोटा) सीमित ही होता है और शुरू में इस कोष (कोटा) के बने रहने तक वह सत्य बोलता ही है, किन्तु अधिक बोलने वाले मनुष्य सत्य का संचित कोष समाप्त हो जाने के बाद भी बोलते रहते हैं, तो कुछ न सूझने पर झूठ बोलना शुरू कर देते हैं, जिससे वे विसंगतियों और उपहास के पात्र होकर अपमानित व निन्दय्नीय हो अलोकप्रिय हो जाते हैं । अत: वहीं तक बोलना जारी रखो जहॉं तक सत्य का संचित कोष आपके पास है । धीर गंभीर और मृदु (मधुर ) वाक्य बोलना एक कला है जो संस्कारों से और अभ्यास से स्वतः आती है ।

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:24 PM
सारा जगत स्वतंत्रता के लिए लालायित रहता है फिर भी प्रत्येक जीव अपने बंधनो को प्यार करता है। यही हमारी प्रकृति की पहली दुरूह ग्रंथि और विरोधाभास है।
- श्री अरविंद

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:24 PM
सत्याग्रह की लड़ाई हमेशा दो प्रकार की होती है। एक ज़ुल्मों के खिलाफ़ और दूसरी स्वयं की दुर्बलता के विरुद्ध।
- सरदार पटेल

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:25 PM
कष्ट ही तो वह प्रेरक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और आगे बढ़ाती है।
- सावरकर

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:25 PM
तप ही परम कल्याण का साधन है। दूसरे सारे सुख तो अज्ञान मात्र हैं।
- वाल्मीकि

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:25 PM
संयम संस्कृति का मूल है। विलासिता निर्बलता और चाटुकारिता के वातावरण में न तो संस्कृति का उद्भव होता है और न विकास।
- काका कालेलकर

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:25 PM
जो सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक से हैं झगड़ा झूठे विषयों में होता है।
-सत्यार्थप्रकाश

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:25 PM
जिस तरह एक दीपक पूरे घर का अंधेरा दूर कर देता है उसी तरह एक योग्य पुत्र सारे कुल का दरिद्र दूर कर देता है
- कहावत

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:25 PM
सही स्थान पर बोया गया सुकर्म का बीज ही महान फल देता है।
- कथा सरित्सागर

Gaurav Soni
24-09-2011, 04:26 PM
जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए।
- वेदव्यास

Sikandar_Khan
29-10-2011, 10:37 PM
उपयोगी बनो, समय का सदुपयोग करो (http://gtvachan.blogspot.com/2008/11/blog-post.html)


''चिल्ला कर और झल्ला कर बातें करना, बिना सलाह मांगे सलाह देना, किसी की मजबूरी में अपनी अहमियत दर्शाना और सिद्ध करना, ये कार्य दुनियां का सबसे कमजोर और असहाय व्यक्ति करता है, जो खुद को ताकतवर समझता है और जीवन भर बेवकूफ बनता है, घृणा का पात्र बन कर दर दर की ठोकरें खाता है ।''
''जो समय को नष्ट करता है, समय भी उसे नष्ट कर देता है''''समय का हनन करने वाले व्यक्ति का चित्त सदा उद्विग्न रहता है, और वह असहाय तथा भ्रमित होकर यूं ही भटकता रहता है''

Sikandar_Khan
30-10-2011, 09:20 AM
आज का कर्म कल का फल होगा !
आज का कर्म भविष्य का फल होगा !
हमारे हाथ में जो समय है, हम उसका कुछ भी कर सकते है !
परन्तु जब ये समय हमारे हाथ से निकल गया,
तो हम कुछ भी नही कर सकते !


Today's action will be the result for tomorrow!
Today's action will be the fruit of future!
We can do anything for the time we have in our hands!
Once it has gone from our hands, we cannot do anything!

Sikandar_Khan
08-04-2012, 06:45 PM
पाप = `प` माने परमात्मा और `अप` माने उससे अलग करना,
जो परमात्मा से अलग करे वो पाप है !

Pap = (Sin) 'P' = Parmatma ( God ) AP = (to separate from)
The thing that separates us from god is sin

Sikandar_Khan
08-04-2012, 09:36 PM
ठाकुर जी किसी के रूप पर मोहित ना होकर,
किसी के भी भाव पर मोहित हो जाते है !


God is attracted by feelings, not by face !

Kumar Anil
23-04-2012, 08:00 AM
अमृत साधना
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मंदिर शब्द का वास्तविक अर्थ है जहाँ पर मन को दूर रखा जाता है अथवा मन जहाँ दर पर रहता है , अंदर प्रवेश नहीँ कर पाता है , वह मंदिर है । लेकिन होता यह है कि मन की सारी इच्छाएं , आकांक्षाएं लेकर लोग मंदिर पहुँच जाते हैँ । बंद आँखोँ और जुड़े हाथोँ के पीछे इतनी माँगेँ और वासनाएं बिलबिलाती हैँ कि कोई उनकी आवाज सुन सके , तो प्रचण्ड शोरगुल सुनायी देगा । मंदिर कोई स्थान नहीँ अपितु एक भाव दशा है । जब तक माँग है तब भला मंदिर कैसा ! ईश्वर कोई सुपर मार्केट नहीँ जो हमेँ क्षुद्र वस्तुएँ आपूर्त करेगा । मोल मेँ मिलने वाली वस्तुएँ ईश्वर नहीँ देता , वह तो अनमोल चीजेँ देता है जो बाजार मेँ नहीँ मिलतीँ । वास्तव मेँ मंदिर मेँ वही पँहुच पाता है जो ईश्वर को धन्यवाद देने जाता है कुछ माँगने नहीँ । जिस दिन हमारे भीतर से अहर्निश धन्यवाद उठने लगेँ , फूल खिलेँ या आकाश से मेघ बरसेँ या हमारे भीतर का बच्चा किलकारी मारे , हर बात हमेँ आनंदित करने लगे तो हम जहाँ भी हैँ , मंदिर मेँ ही हैँ ।