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View Full Version : बिहार का इतिहास


Bond007
03-02-2011, 06:05 AM
बिहार का इतिहास

प्राचीन बिहार की जानकारी के लिये पुरातात्विक साहित्य, यात्रा वृतान्त व अन्य देशी स्त्रोत उपलब्ध हैं । प्राचीन शिलालेख, सिक्के, पट्टे, दानपत्र, ताम्र पत्र, राजकाज सम्बन्धी खाते-बहियों, दस्तावेज, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतान्त, स्मारक, इमारतें आदि विशेष महत्वपूर्ण होता है । ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक सामग्री व अन्य वस्तुएँ बिहार में उपलब्ध हैं ।

बिहार का उल्लेख वेदों, पुराणों, महाकाव्यों आदि ग्रन्थों में मिलता है । प्राचीन बिहार में मगध साम्राज्य के अनेक शासकों व जैन, बौद्ध धर्म सम्बन्धित जानकारियाँ ग्रन्थों से मिलती हैं । अनेक प्राचीन सामग्री का विवरण भारत के अनेक स्थानों एवं चीन, तिब्बत, अरब, श्रीलंका, बर्मा व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों आदि में उपलब्ध होती हैं ।

छात्र एवं विदेशी यात्रियों के आगमन, बौद्ध-जैन धर्म के प्रचारकों, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से होने वाले व्यापार आदि के कारण प्राचीन बिहार के अनेक स्थानों, पाटलिपुत्र, वैशाली. बोधगया, नालन्दा, राजगीर, पावापुरी, अंग आदि से व्यापक सम्पर्क थे ।

Bond007
03-02-2011, 06:07 AM
पुरातात्विक स्त्रोत

बिहार में सिंहभूम, हजारीबाग, रांची, सन्थाल परगना, मुंगेर आदि में पूर्व एवं मध्य प्रस्तर युगीन अवशेष तथा प्राचीनतम औजार प्राप्त हुए हैं ।

मुंगेर और नालन्दा से पूर्व प्रस्तर एवं मध्य प्रस्तर युग के छोटे-छोटे औजार मिले हैं ।
सारण स्थित चिरॉद और वैशाली के चेचर से नव-पाषाणीय युग की सामग्री प्राप्त हुई है ।
ताम्र पाषाणीय युगीन सामग्री चिरॉद (सारण), चेचर (वैशाली), सोनपुर (गया), मनेर (पटना) से तत्कालीन वस्तुएँ एवं मृदभांड मिले हैं ।
मौर्यकालीन अभिलेख लौरिया नंदनगढ़, लौरिया अरेराज, रामपुरवा आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं तथा आहत सिक्के की प्राप्ति से गुप्तकालीन जानकारियाँ मिलती हैं । प्राचीन स्मारकों, स्तम्भों, अभिलेखों व पत्रों में प्राचीन बिहार की ऐतिहासिक झलक मिलती है ।

पुरातात्विक स्त्रोतों में राजगीर, नालन्दा, पाटलिपुत्र एवं बराबर पहाड़ियों की पहाड़ियों में प्राचीन कालीन प्रमुख स्मारक मिले हैं ।

Bond007
03-02-2011, 06:08 AM
साहित्यिक स्त्रोत

प्राचीन बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोतों में साहित्यिक स्त्रोत अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं जो आठवीं सदी ई.पू. में रचित शतपथ ब्राह्मण, परवर्ती काल के विभिन्न पुराण, रामायण, महाभारत, बौद्ध रचनाओं में अंगतुर निकाय, दीर्घ निकाय, विनयपिटक, जैन रचनाओं में भगवती सूत्र आदि से प्राप्त होते हैं ।

बिहार का ऐतिहासिक स्त्रोत वेदों, पुराणों, महाकाव्यों आदि से प्राप्त होते हैं जो निम्न विवरणीय हैं|

Bond007
03-02-2011, 06:10 AM
वैदिक संहिता (साहित्य)

प्राचीन विश्व के सबसे प्राचीन माने जाने वाली कृति वेद संहिता है । ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद तथा सामवेद में बिहार का उल्लेख मिलता है ।

**वेदों के संहिता से रचित ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जिसमें बिम्बिसार के पूर्व घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है ।
**ऐतरेय, शतपथ, तैत्तरीय, पंचविश आदि प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में बिहार में अनेक राजाओं के नाम जुड़े हुए हैं । शतपथ में गांधार, शल्य, कैकय, कुरु, पंचाल, कोशल, विदेह आदि राजाओं का उल्लेख मिलता है ।
**बिहार का प्राचीनतम वर्णन अथर्ववेद तथा पंचविश ब्राह्मण में मिलता है जो सम्भवतः १०वीं-८वीं ई.पू. था और उस समय बिहार को ब्रात्य कहा गया है, जबकि ऋग्वेद में बिहार और बिहार वासियों को कीकर कहा गया है ।
**मगध शासकों की क्रूरता, वीरता एवं सैन्य शक्ति का उल्लेख जैन ग्रन्थ (भगवती सूत्र) में मिलता है ।
**आर्यों का विस्तार एवं आगमन का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है ।

Bond007
03-02-2011, 06:11 AM
पुराण - अठारह पुराणों में मत्स्य, वायु तथा ब्रह्मांड पुराण बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोत के लिए महत्वपूर्ण हैं । इन पुराणों से शुंगवंशीय शासक पुष्यमित्र का वर्णन मिलता है जिसने ३६ वर्षों तक शासन किया । पुराणों में उत्तर युगीन मौर्ययुगीन शासकों के शासन की जानकारी प्राप्त होती है ।

पतंजलि महाभाष्य- मौर्य युगीन साम्राज्य की समाप्ति के बाद शुंग वंश का प्रतापी राजा पुष्यमित्र हुआ, जिसके पुरोहित पतंजलि थे । पतंजलि ने उनकी वीरता, कार्यकुशलता तथा भवनों पर आक्रमण की चर्चा अपनी महाभाष्य में की है ।

मालविकाग्निमित्रम्*- यह कालिदास द्वारा रचित नाटक है जिसमें शुंगकालीन राजनीतिक गतिविधियों का उल्लेखनीय वर्णन मिलता है । कालिदास यवन की आक्रमण का चर्चा करते हैं और पुष्यमित्र को अग्निमित्र के पुत्र सिन्ध पर आक्रमण कर यवन को पराजित किया था ।

येरावली- इसकी रचना जैन लेखक मेरुतुंग ने की थी । इसमें उज्जयिनी के शासकों की वंशावली है तथा पुष्यमित्र के बारे में उल्लेख किया गया है कि उसने ३६ वर्षों तक शासन किया था ।

दिव्यादान- इस बौद्धिक ग्रन्थ में पुष्यमित्र को मौर्य वंश का अन्तिम शासक बतलाया गया है ।

पाणिनी की अष्टाध्यायी- यह पाँचवीं सदी पूर्व संस्कृत व्याकरण का अपूर्व ग्रन्थ है ।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र- यह ग्रन्थ मौर्यकालीन इतिहास का महत्वपूर्ण स्त्रोत है ।

मनुस्मृति ग्रन्थ- मनुस्मृति सबसे प्राचीन और प्रमाणित मानी गयी है, जिसकी रचना शुंग काल में हुई थी । यह ग्रन्थ शुंगकालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दशा का बोध कराता है ।

मनुस्मृति के प्रमुख टीकाकार, भारवि, मेघातिथि, गोविन्दराज तथा कल्लण भट्ट हैं । यह टीकाकार हिन्दू समाज के विविध पक्षों के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त किये होते हैं ।

Bond007
03-02-2011, 06:14 AM
बौद्ध साहित्य

बौद्ध ग्रन्थों में त्रिपिटक, विनयपिटक, सुतपिटक तथा अभिधम्म पिटक महत्वपूर्ण हैं, जिसमें अनेकों ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है । निकाय तथा जातक में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त तथा कहानियों का संग्रह है । जातकों में बुद्ध के पूर्वजन्म की कहानी है ।

**दीपवंश तथा महावंश दो पालि ग्रन्थों से मौर्यकालीन इतिहास के विषय में जानकारी होती है ।
**नागसेन का रचित मिलिन्दह्नो में हिन्द यवन शासक मेनाण्डर के विषय में जानकारी मिलती है ।
**हीनयान का प्रमुख ग्रन्थ कथावस्तु में महात्मा बुद्ध के जीवन चरित्र के अनेक कथानकों के साथ वर्णन मिलता है ।
**दिव्यादान से अशोक के उत्तराधिकारियों से लेकर पुष्यमित्र शुंग तक के शासकों के विषय में जानकारी मिलती है तथा ह्वेनसांग ने नालन्दा विश्वविद्यालय में ६ वर्षों तक रहकर शिक्षा प्राप्त की ।
**इनके भ्रमण वृतान्त सि.यू. की पुस्तक में है जिसमें १३८ देशों का विवरण मिलता है ।
**इसके वृतान्त से हर्षकालीन भारत के समाज, धर्म तथा राजनीति पर सुन्दर विवरण प्राप्त होता है ।

Bond007
03-02-2011, 06:17 AM
ह्वेनसांग का मित्र हीली ने ह्वेनसांग की जीवनी से हर्षकालीन भारत की दशा की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं । इत्सिंग सातवीं शताब्दी के अन्त में भारत आया था । उसने अपने विवरण में नालन्दा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा अपने समय के भारत की दशा का वर्णन किया है ।

**त्वानलिन नामक चीनी यात्री ने हर्ष के पूर्वी अभियान के विषय में विवरणों का उल्लेख किया है ।
**चाऊ जू कूआ चोल इतिहास के विषय में कुछ तथ्य प्रस्तुत करता है ।
**तिब्बती बौद्ध लेखक तारानाथ के ग्रन्थों कंग्युर तथा तंग्युर से भी भारतीय इतिहास के तथ्य ज्ञात होते हैं|
**वेनिस के प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो ने तेरहवीं शती में पाण्ड्य शासकों के शासन का इतिहास के वृतान्त को लिखा है ।
**मेगस्थनीज जो सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था । उसने इण्डिका नामक पुस्तक में मौर्ययुगीन समाज तथा संस्कृति विषय को लिखा है ।
**इण्डिका से यूनानियों द्वारा भारत के सम्बन्ध का उल्लेख प्राप्त होता है ।
**डायमेकस, सीरिया नरेश अन्तियोकस का राजदूत था । वह बिम्बिसार के शासन काल में भारत आया था ।
**डायोनियख्यिस जो मिस्र नरेश टालमी फिलेडेल्फस का राजदूत था । वह अशोक के दरबार में आया था ।
**टालमी ने भारत का भूगोल लिखा, जबकि टिलनी द्वारा भारतीय पशुओं, पेड़-पौधों, खनिज पदार्थों आदि का वर्णन किया गया है । चीनी यात्रियों के विवरण से हमें ऐतिहासिक विवरण प्राप्त होते हैं ।
**ये चीनी यात्री बौद्ध मतानुयायी थे । इनके विवरण से ज्ञात होता है कि यह भारत में बौद्ध तीर्थस्थानों की यात्रा तथा बौद्ध धर्म के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए आये थे ।
**फाह्यान, सुंगयुंग, ह्वेनसांग तथा इत्सिंग विशेष रूप से प्रसिद्ध चीनी यात्री हैं ।

फाह्यान- यह गुप्त नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के दरबार में आया था ।

ह्वेनसांग- यह हर्षवर्धन के शासन काल में आया था तथा उसने १६ वर्षों तक निवास कर विभिन्*न स्थानों की यात्रा की ।

Bond007
03-02-2011, 06:19 AM
अरबी एवं फारसी साहित्य

अरब व्यापारियों तथा लेखकों के विवरण से पूर्व मध्यकालीन समाज एवं संस्कृति के विषय में जानकारी प्राप्त होती है ।

**अलबरूनी ने अपनी प्रसिद्ध रचनाओं में गणित, विज्ञान तथा ज्योतिष का वर्णन किया है । उसने भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया था ।
**मध्यकाल में ऐतिहासिक जानकारी हेतु मिन्हाज की तबकाते नासिरी इखत्सान, देहलवी की वसातीनुल उन्स, शेख कबीर की अफसानाएँ, गुलाम हुसैन सलीम की रियाज, उस सलातीन गुलाम हुसैन तबतवाई की सियर, उल मुता खेरनी आदि बिहार से सम्बन्ध प्रमुख स्रोत प्राप्त होते हैं ।
**जियाउद्दीन बरनी की तारीखे फिरोजशाही, अबुल फजल की अकबरनामा, बाबर की तुजुके बाबरी एवं मिर्जानाथन की बहारिस्ताने गैवी आदि रचनाएँ बिहार के ऐतिहसिक प्रमुख स्रोत रही हैं ।
**फारसी भाषा में मुल्ला ताफिया, अब्दुल लतीफ, मोहम्मद सादिक और बहबहानी की यात्रा वृतान्त बिहार की इतिहास के लिए महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं ।

Bond007
03-02-2011, 06:20 AM
अन्य साहित्यिक स्त्रोत

विद्यापति की रचनाएँ कीर्तिलता, कीर्तिपताका हैं, ज्योतिरीश्वर की वर्ण रत्नाकर एवं चन्द्रशेखर की रचनाएँ हैं जो उत्तरी बिहार के मिथिला क्षेत्र के इतिहास के स्रोत से प्राप्त होती हैं ।

पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य- प्राचीन बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोत का प्रमुख स्त्रोत पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है । पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य में अभिलेख सम्बन्धी, मुद्रा सम्बन्धी तथा स्मारक सम्बन्धी तीन प्रमुख स्त्रोत हैं ।

अभिलेखीय स्त्रोत- अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्व साहित्यिक साक्ष्यों में पाषाण शिलाओं, स्तम्भों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं एवं प्रतिमाओं आदि पर खुदे हुए मिले हैं ।

**सबसे प्राचीन अभिलेखों में मध्य एशिया के बोधजकोई से प्राप्त अभिलेख हैं ।
**विभिन्न अभिलेखों से अशोक के शासन के विवरण मिलते हैं । अशोक के अनेक शिलालेख एवं स्तम्भ लेख देश के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं ।
**इन अभिलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा, उसके धर्म तथा शासन नीति पर महत्वपूर्ण विवरण प्राप्त होते हैं ।
**गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, मालव नरेश यशोवर्मन का मन्दसोर अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख प्रमुख हैं ।

मन्दिर इमारतें, स्मारक आदि के तहत स्तम्भ, दुर्ग, राजप्रासाद, भग्नावशेष आदि इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं । इनसे राजनीतिक व धार्मिक व्यवस्था तथा राजव्यवस्था की जानकारी मिलती है ।

Bond007
03-02-2011, 06:25 AM
विविध स्त्रोत

बिहार के मध्यकालीन इतिहास की जानकारी हेतु अभिलेख, स्मारक, सिक्के, चित्र और अनेक प्राचीन ऐतिहासिक वस्तुएँ उपलब्ध हैं । विविध स्त्रोतों में जिला गजेटियर, लैण्ड सर्वे एवं सेटलमेण्ट रिपोर्ट आदि प्रमुख हैं ।

**प्रशासनिक महत्व के पत्रों के संकलन विशेषकर फोर्ट विलियम इण्डिया हाउस कॉरेस्पोंडेंस सीरीज, फ्रांसिस बुचानन द्वारा संकलित वृहत रिपोर्ट्स, राष्ट्रीय एवं राजकीय अभिलेखाकार में सुरक्षित सरकारी संचिकाएँ एवं अन्य कागजात भी इन सन्दर्भ में उपयोगी हैं ।
**बिहार से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, विभिन्न भाषाओं की साहित्यिक कृतियाँ भी अनेक महत्वपूर्ण जानकारी देने में सहायक हैं ।
**स्वयंसेवी संस्थाओं, शैक्षिक केन्द्रों और अन्य संस्थाओं के कागजात भी ऐतिहासिक स्त्रोत हैं ।
**इनके साथ-साथ निजी पत्रों, चिट्ठियों, डायरियाँ, संस्मरणों आदि भी प्रमुख स्त्रोत हैं ।

इस प्रकार विविध स्रोतों में राजकाज की बहियाँ, खाते पट्टे, फरमान, सनद, फाइलें, राजकीय दस्तावेज, विभिन्न भाषाओं में रचित पत्र-पत्रिकाएँ व अन्य कागजात प्रमुख हैं ।

मुद्राएँ- प्राचीन ऐतिहासिक स्त्रोत में सिक्के प्रमुख स्त्रोत हैं, जिसकी प्राचीनता ८वीं शती ई.पू. तक मानी जाती है ।

आहत सिक्के सबसे प्राचीनतम सिक्के कहे जाते हैं जिन्हें साहित्य में कोषार्पण भी कहा गया है । बिहार के अनेक स्थानों से खुदाई में सिक्के मिले हैं, जिनसे बिहार के इतिहास की जानकारी मिलती है ।

स्मारक- ऐतिहासिक स्त्रोतों में स्मारक भी एक महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं । इनके अन्तर्गत प्राचीन इमारतें, मन्दिर, मूर्तियाँ, विहार, स्तूप आदि आते हैं ।

**ये सभी स्मारक विभिन्न युगों की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का विवरण देते हैं ।
**मन्दिर, विहारों व स्तूपों से जनता की आध्यात्मिकता व धर्मनिष्ठता का पता चलता है ।
**खुदाई से बिहार के प्रमुख स्थलों का विवरण प्राप्त किया गया है जिसमें पाटलिपुत्र, राजगृह, नालन्दा, वैशाली, विक्रमशिला, ओदंतपुरी आदि हैं ।
**नालन्दा स्थित बुद्ध की ताम्रमूर्ति, पटना से प्राप्त यक्ष-यक्षिणी की मूर्ति हिन्दू कला और सभ्यता के विकसित होने का प्रमाण है ।
**बिहार में स्थित ऐतिहासिक स्थलों व स्मारकों की प्रचुरता इस बात की साक्षी है कि राजव्यवस्था, शिक्षा, शासन, सभ्यता व संस्कृति आदि विश्व स्तरीय केन्द्र थे ।

Bond007
03-02-2011, 06:27 AM
जैन साहित्य

**बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोत में जैन साहित्य का भी योगदान रहा है । इसके ग्रन्थ भी बौद्ध साहित्य के समान धर्मपरक हैं ।

**भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र में चौथी शती ई.पू. का इतिहास प्राप्त होता है ।

**परिशिष्ट वर्णन तथा भद्रबाहु चरित से चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की प्रारंभिक तथा उत्तरकालीन घटनाओं की सूचना मिलती है । भगवती सूत्र से महावीर के जीवन कृत्यों तथा अन्य समकालिकों के साथ उनके सम्बन्धों का विवरण मिलता है ।

**जैन साहित्य का पुराण चरित के अनुसार छठी शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक का इतिहास वर्णित है जिससे विभिन्न कालों की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा का ज्ञान प्राप्त होता है ।

Bond007
03-02-2011, 06:29 AM
लौकिक साहित्य

*बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोत में लौकिक साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान है ।

*सिन्ध तथा नेपाल में कई इतिवृतियाँ प्राप्त हुई हैं ।

*चचनामा नामक इतिवृतियों में सिन्धु विजय का वृतान्त प्राप्त होता है । इसमें नेपाल की वंशावलियों का नामोल्लेख मिलता है ।

*गार्गी संहिता से ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी मिलती हैं जिसमें भारत पर होने वाले यवन आक्रमणों का उल्लेख प्राप्त होते हैं ।

*इस ग्रन्थ यवनों के साकेत, पंचाल, मथुरा तथा कुसुमध्वज पर आक्रमण का उल्लेख प्राप्त होता है ।

*मुद्राराक्षस से चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में जानकारी प्राप्त होती है ।

*कालिदास कृत मालविकाग्निमित्रम् में शुंगकालीन राजनीतिक परिस्थितियों का विवरण है ।

*ऐतिहासिक जीवनियों में अश्वघोष कृत बहुचरित, वाणभट्ट का हर्षचरित, वाक्यपति का गोडवहो, विल्हण का विक्रमांगदेव चरित, पद्यगुप्त का नव साहसांहत्र चरित, संध्याकार नंदी कृत रामचरित, हेमचन्द्र कृत कुमार चरित, जयनक कृत पृथ्वीराज विजय आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।

*हर्षचरित से सम्राट हर्षवर्धन के जीवन तथा तत्कालीन समाज एवं धर्म विषयक अनेक महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है ।

*गौडवहो में कन्नौज नरेश यशोवर्मन के गोंड नरेश के ऊपर किये गये आक्रमण एवं वध का विवरण मिलता है

khalid
03-02-2011, 07:08 AM
हार्दिक आभार बंधु
इतने अच्छे सुत्र के निर्माण के लिए

ABHAY
03-02-2011, 07:24 AM
हार्दिक आभार बंधु
इतने अच्छे सुत्र के निर्माण के लिए

आ हमरी तरफ से + बोंड जी को बहुते अच्छा जानकारी बा दिल खुस हो गैल:bravo::bravo::bravo:

Bond007
03-02-2011, 08:05 AM
हार्दिक आभार बंधु
इतने अच्छे सुत्र के निर्माण के लिए

आ हमरी तरफ से + बोंड जी को बहुते अच्छा जानकारी बा दिल खुस हो गैल:bravo::bravo::bravo:

धन्यवाद खालिद मियां! धन्यवाद अभय बाबू! :)

भाई हमने सोचा कि क्यों ना अपने बिहारियों के बारे में सबको बताया जाये|:think:

arvind
03-02-2011, 09:35 AM
पुरातात्विक स्त्रोत

बिहार में सिंहभूम, हजारीबाग, रांची, सन्थाल परगना, मुंगेर आदि में पूर्व एवं मध्य प्रस्तर युगीन अवशेष तथा प्राचीनतम औजार प्राप्त हुए हैं ।

मुंगेर और नालन्दा से पूर्व प्रस्तर एवं मध्य प्रस्तर युग के छोटे-छोटे औजार मिले हैं ।
सारण स्थित चिरॉद और वैशाली के चेचर से नव-पाषाणीय युग की सामग्री प्राप्त हुई है ।
ताम्र पाषाणीय युगीन सामग्री चिरॉद (सारण), चेचर (वैशाली), सोनपुर (गया), मनेर (पटना) से तत्कालीन वस्तुएँ एवं मृदभांड मिले हैं ।
मौर्यकालीन अभिलेख लौरिया नंदनगढ़, लौरिया अरेराज, रामपुरवा आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं तथा आहत सिक्*के की प्राप्ति से गुप्तकालीन जानकारियाँ मिलती हैं । प्राचीन स्मारकों, स्तम्भों, अभिलेखों व पत्रों में प्राचीन बिहार की ऐतिहासिक झलक मिलती है ।

पुरातात्विक स्त्रोतों में राजगीर, नालन्दा, पाटलिपुत्र एवं बराबर पहाड़ियों की पहाड़ियों में प्राचीन कालीन प्रमुख स्मारक मिले हैं ।


लाल चिन्हित किए गए जगह अब बिहार से दस वर्ष पूर्व अलग हुये राज्य झारखंड मे स्थित है।

Bond007
03-02-2011, 02:19 PM
लाल चिन्हित किए गए जगह अब बिहार से दस वर्ष पूर्व अलग हुये राज्य झारखंड मे स्थित है।

ओह, धन्यवाद श्रीमान; ध्यान नहीं दिया|:bang-head:

वैसे बिहारी भाई तो झारखंड में भी रहते हैं|

Bond007
05-02-2011, 12:53 AM
विदेशी यात्रियों के विवरण

प्राचीन बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोतों से विशेष जानकरियाँ भारत में आने वाले विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से मिलती हैं । इन लेखकों में यूनानी, चीनी तथा अरबी-फारसी लेखक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।

यूरोपियों यात्रियों में राल्च फिच, एडवर्ड टेरी मैनरीक, जॉन मार्शल, पीटर मुण्डी मचुकी, टैबेमियर, बॉरी और विशप हेवर ने अपने यात्रा वृतान्त में बिहार के सम्बन्ध में वर्णन किया है ।

मेगस्थनीज, डायमेक्स तथा डायोनिसियस आदि को यूनानी शासकों द्वारा पाटलिपुत्र के मौर्य दरबार में भेजे गये थे ।

Bond007
05-02-2011, 12:55 AM
बिहार भ्रमण पर आने वाले विदेशी यात्री


मेगस्थनीज-यह बिहार आने वाला प्रथम और प्रसिद्ध यात्री था जो सेल्यूकस का राजदूत बनकर मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था । मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में पाटलिपुत्र नगर और उसके प्रशासन की विस्तृत चर्चा की है ।

डिमॉलिक्स-डिमॉलिक्स बिन्दुसार के दरबार में यूनानी शासक का राजदूत बनकर आया ।

फाह्यान-फाह्यान ३९८ ई. में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के शासनकाल में आने वाला प्रथम चीनी यात्री था । उसने ४१४ ई. तक भारत में रहकर नालन्दा, पटना, वैशाली आदि स्थानों का भ्रमण किया ।

ह्वेन त्सांग- ह्वेनसांग चीनी यात्री हर्षवर्धन के शासनकाल में आया था । उसने अपनी यात्रा वृतान्त सी. यू. की में किया है ।

इत्सिंग- ७वीं शदी में आने वाला दूसरा चीनी यात्री था जो ६७३-६९२ ई. तक भारत में रहा । उसने नालन्दा बिहार में शिक्षा ग्रहण की ।

मुल्ला तकिया- मुल्ला तकिया ने अकबर के शासनकाल में जौनपुर से बंगाल तक की यात्रा की और सल्तनत काल में बिहार के इतिहास का अध्ययन किया ।

अब्दुल लतीफ- मध्यकालीन बिहार में यात्रा करने वाला ईरानी था, जो गंगा नदी के रास्ते आगरा से राजमहल तक गया था । इसने सासाराम, पटना, मुंगेर तथा सुल्तानगंज का जीवन्त दृश्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है ।

मुहम्मद सादिक- १६९१ ई. में उसके पिता पटना में दीवान खलीफा के पद पर नियुक्*त हुए उसी समय मुहम्मद सादिक आया और अपने यात्रा विवरण का उल्लेख “सुबहे सादिक" में किया ।

मुल्ला बहबहानी- यह एक ईरानी धर्माचार्य था जिन्होंने बिहार के राजमहल, भागलपुर, मुंगेर, पटना और सासाराम आदि शहरों का वर्णन अपने यात्रा वृतान्त मिरात-ए-अहवल-ए-जहाँनामा में किया है । वह पहली बार १८०७ ई. में पटना आया । वह पटना को जयतुल हिन्द (भारत का स्वर्ग) कहता था ।

राल्च फिच- यह पहला अंग्रेज था जो १५८५-८७ ई. के बीच यहाँ आया था |

Bond007
05-02-2011, 12:57 AM
मध्यकालीन बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोत

बिहार का मध्यकालीन युग १२ वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है । ऐसा माना जाता है कि कर्नाटक राजवंश के साथ ही प्राचीन इतिहास का क्रम टूट गया था । इसी काल में तुर्कों का आक्रमण भी प्रारंभ हो गया था तथा बिहार एक संगठित राजनीतिक इकाई के रूप में न था बल्कि उत्तर क्षेत्र और दक्षिण क्षेत्रीय प्रभाव में बँटा था ।

अतः मध्यकालीन बिहार का ऐतिहासिक स्त्रोत प्राप्त करने के लिए विभिन्*न ऐतिहासिक ग्रन्थों का दृष्टिपात करना पड़ता है जो इस काल में रचित हुए थे ।

मध्यकालीन बिहार के स्त्रोतों में अभिलेख, नुहानी राज्य के स्रोत, विभिन्*न राजाओं एवं जमींदारों के राजनीतिक जीवन एवं अन्य सत्ताओं से उनके संघर्ष, यात्रियों द्वारा दिये गये विवरण इत्यादि महत्वपूर्ण हैं ।

ऐतिहासिक ग्रन्थों में मिनहाज उस शिराज की “तबाकत-ए-नासिरी" रचना है जिसमें बिहार में प्रारंभिक तुर्क आक्रमण की गतिविधियों के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है । बरनी का तारीख-ए-फिरोजशाही भी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्त्रोत है ।

मुल्ला ताकिया द्वारा रचित यात्रा वृतान्त से भी बिहार में तुर्की आक्रमण बिहार और दिल्ली के सुल्तानों (अकबर कालीन, तुर्की शासन, दिल्ली सम्पर्क) के बीच सम्बन्धों इत्यादि की जानकारियाँ मिलती हैं । प्रमुख ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘बसातीनुल उन्स’ जो इखत्सान देहलवी द्वारा रचित है । इसमें सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के तिरहुत आक्रमण का वृतान्त दिया गया है ।

रिजकुल्लाह की वकियाते मुश्ताकी, शेख कबीर की अफसानाएँ से भी सोलहवीं शताब्दी बिहार की जानकारी प्राप्त होती है ।

मध्यकालीन मुगलकालीन बिहार के सन्दर्भ में जानकारी अबुल फजल द्वारा रचित अकबरनामा से प्राप्त होती है । आलमगीरनामा से मुहम्मद कासिम के सन्दर्भ में बिहार की जानकारी होती है ।

Bond007
05-02-2011, 12:59 AM
उत्तर मुगलकालीन ऐतिहासिक स्त्रोत गुलाम हुसैन तबाताई की सीयर उल मुताखेरीन, करीम आयी मुजफ्फरनामा, राजा कल्याण सिंह का खुलासातुत तवासिरत महत्वपूर्ण है जिसमें बंगाल और बिहार के जमींदारों की गतिविधियों की चर्चा है । बाबर द्वारा रचित तुजुके-ए-बाबरी एवं जहाँगीर द्वारा रचित तुजुके में भी बिहार के मुगल शासनकालीन गतिविधियों की जानकारी मिलती है । इन दोनों ग्रन्थों से अपने समय में मुगलों की बिहार के सैनिक अभियान की जानकारी प्राप्त होती है ।

■मिर्जा नाथन का रचित ऐतिहासिक ग्रन्थ बहारिस्ताने गैबी, ख्वाजा कामागार दूसैनी का मासिर-ए-जहाँगीरी भी १७ वीं शताब्दी के बिहार की जानकारी देती है ।

■बिहार के मध्यकालीन ऐतिहासिक स्त्रोतों में भू-राजस्व से सम्बन्धित दस्तावेज भी महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं । भू-राजस्व विभाग के संगठन, अधिकारियों के कार्य एवं अधिकार, आय एवं व्यय के आँकड़े एवं विभिन्*न स्तरों पर अधिकारियों के द्वारा जमा किये गये दस्तावेज बहुत महत्वपूर्ण हैं ।

■ऐसे दस्तावेज रूपी पुस्तक में आइने अकबरी, दस्तुरूल आयाम-ए-सलातीन-ए-हिन्द एवं कैफियत-ए-रजवा जमींदारी, राजा-ए-सूबा बिहार भू-कर व्यवस्था के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं ।

■सूफी सन्तों के पत्रों से भी तत्कालीन बिहार की धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की झाँकी मिलती है ।

■अहमद सर्फूद्दीन माहिया मनेरी, अब्दुल कूटूस गंगोई इत्यादि के पत्रों से धार्मिक स्थिति के सन्दर्भ में जानकारी मिलती है ।

■मध्यकालीन बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोतों में यूरोपीय यात्रियों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

■यूरोपीय यात्रियों द्वारा वर्णित यात्रा वृतान्त में बिहार के सन्दर्भ में जानकारी मिलती है ।

■राल्फ फिच, एडवर्ड टेरी, मैनरीक, जॉन मार्शल, पीटर मुंडी, मनुची, ट्रैवरनियर, मनुक्*की इत्यादि के यात्रा वृतान्त प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं ।

■यूरोपीय यात्रा वृतान्त के अलावा विभिन्*न विदेशी व्यापारिक कम्पनियों (डेनिस, फ्रेंच, इंगलिश) आदि फैक्ट्री रिकार्ड्*स आदि बहुत महत्वपूर्ण हैं जो बिहार की तत्कालीन आर्थिक गतिविधियों की जानकारी देता है ।

■बिहार के मध्यकालीन ऐतिहासिक स्त्रोत पटना परिषद, कलकत्ता परिषद एवं फोर्ट विलियम के बीच पत्राचार से प्राप्त होते हैं ।

■बिहार के जमींदारों एवं दिल्ली सम्बन्ध से तत्कालीन गतिविधियों की जानकारी प्राप्त होती है ।

■डुमरॉव, दरभंगा, हथूआ एवं बेतिया के जमींदार घरानों के रिकार्डों से बाहर की गतिविधियों की जानकारी मिलती है ।

■मध्यकालीन बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोत में पुरालेखों का भी महत्व है । ये पुरालेख अरबी या फारसी में विशेषकर मस्जिद, कब्र या इमामबाड़ा आदि की दीवारों पर उत्कीर्ण हैं ।

■बिहार शरीफ एवं पटना में भी पुरालेख की जानकारी मिलती है । विभिन्*न शासकों द्वारा जारी अभिलेख, खड़गपुर के राजा के अभिलेख, शेरशाह का ममूआ अभिलेख, मुहम्मद-बिन-तुगलक का बेदीवन अभिलेख महत्वपूर्ण हैं ।

■मध्यकालीन बिहार के अध्ययन के लिये गैर-फारसी साहित्य एवं अन्य स्त्रोतों में मिथिला के क्षेत्र में लिखे साहित्य अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं ।

■संस्कृत के लेखकों में वर्तमान में शंकर मिश्र, चन्द्रशेखर, विद्यापति के प्रमुख ऐतिहासिक स्त्रोत हैं ।

■गैर-फारसी अभिलेख बिहार में सर्वाधिक उपलब्ध हैं । बल्लाल सेन का सनोखर अभिलेख पूर्वी बिहार में लेखों के प्रसार का साक्षी है । खरवार के अभिलेख से पता चलता है उसका पलामू क्षेत्र तक प्रभाव था ।

■वुइ सेन का बोधगया अभिलेख, बिहार शरीफ का पत्थर अभिलेख, फिरोज तुगलक का राजगृह अभिलेख, जैन अभिलेख इत्यादि में प्रचुर पुरातात्विक सामग्री उपलब्ध होती हैं ।
इस प्रकार मध्यकालीन बिहार के ऐतिहासिक स्रोत बिहार की जानकारी के अत्यन्त महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं ।

Bond007
05-02-2011, 01:00 AM
आधुनिक बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोत

बिहार का आधुनिक इतिहास १७ वीं शताब्दी से प्रारंभ माना जाता है । इस समय बिहार का शासक नवाब अली वर्दी खान था । आधुनिक बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोतों को प्राप्त करने के लिये विभिन्*न शासकों की शासन व्यवस्था, विद्रोह, धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन आदि पर दृष्टिपात करना पड़ता है ।

■आधुनिक बिहार की जानकारी, बिहार के अंग्रेजी शासन की गतिविधियों, द्वैध शासन प्रणाली का प्रभाव, विभिन्*न धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन, पत्र-पत्रिकाओं आदि में मिलती हैं ।

■विभिन्*न टीकाकारों, लेखकों, कवियों की रचनाओं से आधुनिक बिहार की जानकारी मिलती है ।

■आधुनिक काल में बिहार में राजनीतिक जागरूकता बढ़ गई थी ।
आन्दोलनकारियों की जीवनी से विभिन्*न आन्दोलन और बिहार की स्थिति की जानकारी मिलती है । चम्पारण में गाँधी जी की यात्रा एक भारतीय राजनीतिक घटना थी ।

वीर कुँअर सिंह द्वारा १८५७ का विद्रोह, खुदीराम बोस को फाँसी, चुनचुन पाण्डेय द्वारा अनुशीलन समिति का गठन प्रमुख घटनाएँ हैं । डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, वीर अली, मौलाना मजरूल हक, हसन इमाम, सत्येन्द्र सिंह, मोहम्मद यूनुस, डॉ. कृष्ण सिंह आदि महान पुरुषों की राजनीतिक गतिविधियाँ आधुनिक बिहार के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्त्रोत हैं ।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्*वर नाथ ‘रेणु’ आदि की रचनाओं से आधुनिक बिहार की सामाजिक एवं आंचलिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है ।

Bond007
05-02-2011, 01:04 AM
बिहार का इतिहास, प्राचीन बिहार के ऐतिहासिक स्त्रोतों से प्राप्त महत्वपूर्ण तथ्यों से स्पष्ट होता है कि यह राज्य पवित्र गंगा घाटी में स्थित भारत का उत्तरोत्तर क्षेत्र था जिसका प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली था ।

जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारत बल्कि समस्त संसार आलोकित हुआ ।

काल खण्ड के अनुसार बिहार के इतिहास को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(।) पूर्व ऐतिहासिक काल,
(॥) ऐतिहासिक काल ।

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05-02-2011, 01:08 AM
।) पूर्व ऐतिहासिक काल

यह ऐतिहासिक काल अत्यन्त प्राचीनतम है जो ऐतिहासिक युग से करीब एक लाख वर्ष पूर्व का काल है ।

पूर्व ऐतिहासिक काल में बिहार के विभिन्*न भागों में आदि मानव रहा करते थे । आदि मानव से जुड़े विभिन्*न प्रकार के तात्कालिक साक्ष्य एवं सामग्री प्राप्त हुए हैं । जिन स्थलों से साक्ष्य मिले हैं वे मुंगेर, पटना एवं गया हैं । इनमें सोनपुर, चेचर (वैशाली), मनेर (पटना) उल्लेखनीय हैं ।

प्लीस्तोसीन काल के पत्थर के बने सामान और औजार बिहार में विभिन्*न स्थानों से प्राप्त हुए हैं । चिरॉद एवं सोनपुर (गया) से काले एवं लाल मृदभांड युगीन (हड़प्पा युगीन) अवशेष मिले हैं । हड़प्पा युगीन साक्ष्य ओरियम (भागलपुर), राजगीर एवं वैशाली में भी मिले हैं ।

पूर्व ऐतिहासिक बिहार को निम्न युगों द्वारा अध्ययन किया जा सकता है-

पूर्व प्रस्तर युग (१०००० ई. पू. से पूर्व)- आरम्भिक प्रस्तर युग के अवशेष हरत, कुल्हाड़ी, चाकू, खुर्पी, रजरप्पा (हजारीबाग पहले बिहार) एवं संजय घाटी (सिंहभूम) में मिले हैं । ये साक्ष्य जेठियन (गया), मुंगेर और नालन्दा जिले में उत्खनन के क्रम में प्राप्त हुए हैं ।

मध्यवर्ती प्रस्तर युग (१०००० ई. पू. से ४००० ई. पू.)- इसके अवशेष बिहार में मुख्यतः मुंगेर जिले से प्राप्त हुए हैं । इसमें साक्ष्य के रूप में पत्थर के छोटे टुकड़ों से बनी वस्तुएँ तथा तेज धार और नोंक वाले औजार प्राप्त हुए हैं ।

नव प्रस्तर युग (४००० ई. पू. से २५०० ई. पू.)- इस काल के ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में पत्थर के बने सूक्ष्म औजार प्राप्त हुए हैं । हड्डियों के बने सामान भी प्राप्त हुए हैं । इस काल के अवशेष उत्तर बिहार में चिरॉद (सारण जिला) और चेचर (वैशाली) से प्राप्त हुए हैं ।

ताम्र प्रस्तर युग (२५०० ई. पू. से १००० ई. पू.)- चिरॉद और सोनपुर (गया) से काले एवं लाल मृदभांड को सामान्य तौर पर हड़प्पा की सभ्यता की विशेषता मानी जाती है ।

बिहार में इस युग के अवशेष चिरॉद (सारण), चेचर (वैशाली), सोनपुर (गया), मनेर (पटना) से प्राप्त हुए हैं ।

उत्खनन से प्राप्त मृदभांड और मिट्*टी के बर्तन के टुकड़े से तत्कालीन भौतिक संस्कृति की झलक मिलती है । इस युग में बिहार सांस्कृतिक रूप से विकसित था । मानव ने गुफाओं से बाहर आकर कृषि कार्य की शुरुआत की तथा पशुओं को पालक बनाया । मृदभांड बनाना और उसका खाने पकाने एवं संचय के उद्देश्य से प्रयोग करना भी सीख गया था । ये सभी साक्ष्य को हम प्री ऐरे ऐज बिहार का इतिहास भी कह सकते हैं ।

Bond007
05-02-2011, 01:09 AM
॥) ऐतिहासिक काल (१००० ई. पू. से ६०० ई. पू.)

यह काल उत्तर वैदिक काल माना जाता है । बिहार में आर्यीकरण इसी काल से प्रारम्भ हुआ ।

बिहार का प्राचीनतम वर्णन अथर्ववेद (१०वीं-८वीं शताब्दी ई. पू.) एवं पंचविश ब्राह्मण (आठवीं-छठवीं शताब्दी ई. पू.) में मिलता है । इन ग्रन्थों में बिहार के लिए ब्रात्य शब्द का उल्लेख है । ऐसा अनुमान किया जाता है कि अथर्ववेद की रचना के समय में ही आर्यों ने बिहार के क्षेत्र में प्रवेश किया ।

८०० ई. पू. रचित शतपथ ब्राह्मण में गांगेय घाटी के क्षेत्र में आर्यों द्वारा जंगलों को जलाकर और काटकर साफ करने की जानकारी मिलती है ।

ऋग्वेद में बिहार को कीकट कहा गया है । ऋग्वेद में कीकट क्षेत्र के अमित्र शासक प्रेमगन्द की चर्चा आती है, जबकि आर्यों के सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रारंभ ब्राह्मण ग्रन्थ की रचना के समय हुआ ।

शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण, गौपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, कौशितकी आरण्यक, सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता, महाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से उत्तर वैदिककालीन बिहार की जानकारी मिलती है । बिहार के सन्दर्भ में बेहतर जानकारी पुराण, रामायण तथा महाभारत से ही मिल जाती है ।

ग्रन्थों के उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार आर्यों ने मगध क्षेत्र में बसने के बाद अंग क्षेत्र में भी आर्यों की संस्कृति का विस्तार किया । वाराह पुराण के अनुसार कीकट को एक अपवित्र प्रदेश कहा गया है, जबकि वायु पुराण, पद्म पुराण में गया, राजगीर, पनपन आदि को पवित्र स्थानों की श्रेणी में रखा गया है । वायु पुराण में गया क्षेत्र को “असुरों का राज" कहा गया है ।

आर्यों के विदेह क्षेत्र में बसने की चर्चा शतपथ ब्राह्मण में की गई है । इसमें विदेह माधव द्वारा अपने पुरोहित गौतम राहूगण के साथ अग्नि का पीछा करते हुए सदानीरा नदी (आधुनिक गंडक) तक पहुँचने का वर्णन है । इस क्रम में अग्नि ने सरस्वती नदी से सदा मीरा नदी तक जंगल को काट डाला जिससे बने खाली क्षेत्र में आर्यों को बसने में सहायता मिली । वाल्मीकि रामायण में मलद और करूणा शब्द का उल्लेख बक्सर के लिए किया गया है जहाँ ताड़िकाक्षसी का वध हुआ था ।

Bond007
05-02-2011, 01:10 AM
मगध महाजनपद

मगध का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है । अभियान चिन्तामणि के अनुसार मगध को कीकट कहा गया है ।

मगध बुद्धकालीन समय में एक शक्*तिशाली राजतन्त्रों में एक था । यह दक्षिणी बिहार में स्थित था जो कालान्तर में उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्*तिशाली महाजनपद बन गया । यह गौरवमयी इतिहास और राजनीतिक एवं धार्मिकता का विश्*व केन्द्र बन गया ।

मगध महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक, पूर्व में चम्पा से पश्*चिम में सोन नदी तक विस्तृत थीं ।

मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह थी । यह पाँच पहाड़ियों से घिरा नगर था । कालान्तर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई । मगध राज्य में तत्कालीन शक्*तिशाली राज्य कौशल, वत्स व अवन्ति को अपने जनपद में मिला लिया ।

इस प्रकार मगध का विस्तार अखण्ड भारत के रूप में हो गया और प्राचीन मगध का इतिहास ही भारत का इतिहास बना ।

Bond007
05-02-2011, 01:11 AM
प्राचीन गणराज्य- प्राचीन बिहार में (बुद्धकालीन समय में) गंगा घाटी में लगभग १० गणराज्यों का उदय हुआ । ये गणराज्य हैं-
(१) कपिलवस्तु के शाक्य,
(२) सुमसुमार पर्वत के भाग,
(३) केसपुत्र के कालाम,
(४) रामग्राम के कोलिय,
(५) कुशीमारा के मल्ल,
(६) पावा के मल्ल,
(७) पिप्पलिवन के मारिय,
(८) आयकल्प के बुलि,
(९) वैशाली के लिच्छवि,
(१०) मिथिला के विदेह ।

Bond007
05-02-2011, 01:12 AM
विदेह- प्राचीन काल में आर्यजन अपने गणराज्य का नामकरण राजन्य वर्ग के किसी विशिष्ट व्यक्*ति के नाम पर किया करते थे जिसे विदेह कहा गया । ये जन का नाम था । कालान्तर में विदेध ही विदेह हो गया ।

विदेह राजवंश की शुरुआत इश्*वाकु के पुत्र निमि विदेह के मानी जाती है । यह सूर्यवंशी थे । इसी वंश का दूसरा राजा मिथि जनक विदेह ने मिथिलांचल की स्थापना की । इस वंश के २५वें राजा सिरध्वज जनक थे जो कौशल के राजा दशरथ के समकालीन थे ।

जनक द्वारा गोद ली गई पुत्री सीता का विवाह दशरथ पुत्र राम से हुआ ।
विदेह की राजधानी मिथिला थी । इस वंश के करल जनक अन्तिम राजा थे ।
मिथिला के विदेह भागलपुर तथा दरभंगा जिलों के भू-भाग में स्थित हैं ।
मगध के राजा महापद्मनन्द ने विदेह राजवंश के अन्तिम राजा करलजनक को पराजित कर मगध में मिला लिया ।
उल्लेखनीय है कि विदेह राजतन्त्र से बदलकर (छठीं शती में) गणतन्त्र हो गया था । यही बाद में लिच्छवी संघ के नाम से विख्यात हुआ ।

गणराज्य की शासन व्यवस्था- सारी शक्*ति केन्द्रीय समिति या संस्थागार में निहित थी ।

संस्थागार के कार्यभार- आधुनिक प्रजातन्त्र संसद के ही समान थी ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन बिहार के मुख्य जनपद मगध, अंग, वैशाली और मिथिला भारतीय ंस्कृति और सभ्यता की विशिष्ट आधारशिला हैं ।

Bond007
05-02-2011, 01:13 AM
मगध साम्राज्य का उदय

मगध राज्य का विस्तार उत्तर में गंगा, पश्*चिम में सोन तथा दक्षिण में जगंलाच्छादित पठारी प्रदेश तक था।
पटना और गया जिला का क्षेत्र प्राचीनकाल में मगध के नाम से जाना जाता था ।

मगध प्राचीनकाल से ही राजनीतिक उत्थान, पतन एवं सामाजिक-धार्मिक जागृति का केन्द्र बिन्दु रहा है । मगध बुद्ध के समकालीन एक शक्*तिकाली व संगठित राजतन्*त्र था । कालान्तर में मगध का उत्तरोत्तर विकास होता गया और मगध का इतिहास (भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास के प्रमुख स्तम्भ के रूप में) सम्पूर्ण भारतवर्ष का इतिहास बन गया ।

मगध साम्राज्य का उत्कर्ष करने में निम्न वंश का महत्वपूर्ण स्थान रहा है-

ब्रहद्रथ वंश-यह सबसे प्राचीनतम राजवंश था । महाभारत तथा पुराणों के अनुसार जरासंध के पिता तथा चेदिराज वसु के पुत्र ब्रहद्रथ ने ब्रहद्रथ वंश की स्थापना की । इस वंश में दस राजा हुए जिसमें ब्रहद्रथ पुत्र जरासंध एवं प्रतापी सम्राट था । जरासंध ने काशी, कौशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, कश्मीर और गांधार राजाओं को पराजित किया । मथुरा शासक कंस ने अपनी बहन की शादी जरासंध से की तथा ब्रहद्रथ वंश की राजधानी वशुमति या गिरिव्रज या राजगृह को बनाई । भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से पाण्डव पुत्र भीम ने जरासंध को द्वन्द युद्ध में मार दिया । उसके बाद उसके पुत्र सहदेव को शासक बनाया गया । इस वंश का अन्तिम राजा रिपुन्जय था । रिपुन्जय को उसके दरबारी मंत्री पूलिक ने मारकर अपने पुत्र को राजा बना दिया । इसके बाद एक अन्य दरबारी ‘महीय’ ने पूलिक और उसके पुत्र की हत्या कर अपने पुत्र बिम्बिसार को गद्दी पर बैठाया । ईसा पूर्व ६०० में ब्रहद्रथ वंश को समाप्त कर एक नये राजवंश की स्थापना हुई । पुराणों के अनुसार मनु के पुत्र सुद्युम्न के पुत्र का ही नाम “गया" था ।

Bond007
05-02-2011, 01:14 AM
वैशाली के लिच्छवि- बिहार में स्थित प्राचीन गणराज्यों में बुद्धकालीन समय में सबसे बड़ा तथा शक्*तिशाली राज्य था । इस गणराज्य की स्थापना सूर्यवंशीय राजा इश्*वाकु के पुत्र विशाल ने की थी, जो कालान्तर में ‘वैशाली’ के नाम से विख्यात हुई ।

महावग्ग जातक के अनुसार लिच्छवि वज्जिसंघ का एक धनी समृद्धशाली नगर था । यहाँ अनेक सुन्दर भवन, चैत्य तथा विहार थे ।
लिच्छवियों ने महात्मा बुद्ध के निवारण हेतु महावन में प्रसिद्ध कतागारशाला का निर्माण करवाया था ।
राजा चेतक की पुत्री चेलना का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार से हुआ था ।
ईसा पूर्व ७वीं शती में वैशाली के लिच्छवि राजतन्त्र से गणतन्त्र में परिवर्तित हो गया ।
विशाल ने वैशाली शहर की स्थापना की । वैशालिका राजवंश का प्रथम शासक नमनेदिष्ट था, जबकि अन्तिम राजा सुति या प्रमाति था । इस राजवंश में २४ राजा हुए हैं ।

Bond007
05-02-2011, 01:15 AM
अलकप्प के बुलि- यह प्राचीन गणराज्य बिहार के शाहाबाद, आरा और मुजफ्फरपुर जिलों के बीच स्थित था । बुलियों का बैठ द्वीप (बेतिया) के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था । बेतिया बुलियों की राजधानी थी । बुलि लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे । बुद्ध की मृत्यु के पश्*चात्* उनके अवशेष को प्राप्त कर एक स्तूप का निर्माण करवाया था ।

हर्यक वंश- बिम्बिसार ने हर्यक वंश की स्थापना ५४४ ई. पू. में की । इसके साथ ही राजनीतिक शक्*ति के रूप में बिहार का सर्वप्रथम उदय हुआ । बिम्बिसार को मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक/राजा माना जाता है । बिम्बिसार ने गिरिव्रज (राजगीर) को अपनी राजधानी बनायी । इसके वैवाहिक सम्बन्धों (कौशल, वैशाली एवं पंजाब) की नीति अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया ।

बिम्बिसार (५४४ ई. पू. से ४९२ ई. पू.)- बिम्बिसार एक कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शी शासक था । उसने प्रमुख राजवंशों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर राज्य को फैलाया ।

सबसे पहले उसने लिच्छवि गणराज्य के शासक चेतक की पुत्री चेलना के साथ विवाह किया । दूसरा प्रमुख वैवाहिक सम्बन्ध कौशल राजा प्रसेनजीत की बहन महाकौशला के साथ विवाह किया । इसके बाद भद्र देश की राजकुमारी क्षेमा के साथ विवाह किया ।

महावग्ग के अनुसार बिम्बिसार की ५०० रानियाँ थीं । उसने अवंति के शक्*तिशाली राजा चन्द्र प्रद्योत के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाया । सिन्ध के शासक रूद्रायन तथा गांधार के मुक्*कु रगति से भी उसका दोस्ताना सम्बन्ध था । उसने अंग राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था वहाँ अपने पुत्र अजातशत्रु को उपराजा नियुक्*त किया था ।

Bond007
05-02-2011, 01:16 AM
बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का मित्र और संरक्षक था । विनयपिटक के अनुसार बुद्ध से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया, लेकिन जैन और ब्राह्मण धर्म के प्रति उसकी सहिष्णुता थी।
बिम्बिसार ने करीब ५२ वर्षों तक शासन किया । बौद्ध और जैन ग्रन्थानुसार उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया था जहाँ उसका ४९२ ई. पू. में निधन हो गया ।

बिम्बिसार ने अपने बड़े पुत्र “दर्शक" को उत्तराधिकारी घोषित किया था ।
भारतीय इतिहास में बिम्बिसार प्रथम शासक था जिसने स्थायी सेना रखी ।
बिम्बिसार ने राजवैद्य जीवक को भगवान बुद्ध की सेवा में नियुक्*त किया था ।
बौद्ध भिक्षुओं को निःशुल्क जल यात्रा की अनुमति दी थी ।
बिम्बिसार की हत्या महात्मा बुद्ध के विरोधी देवव्रत के उकसाने पर अजातशत्रु ने की थी ।

Bond007
05-02-2011, 01:17 AM
आम्रपाली- यह वैशाली की नर्तकी एवं परम रूपवती काम कला प्रवीण वेश्या थी । आम्रपाली के सौन्दर्य पर मोहित होकर बिम्बिसार ने लिच्छवि से जीतकर राजगृह में ले आया । उसके संयोग से जीवक नामक पुत्ररत्*न हुआ । बिम्बिसार ने जीवक को तक्षशिला में शिक्षा हेतु भेजा । यही जीवक एक प्रख्यात चिकित्सक एवं राजवैद्य बना । अजातशत्रु (४९२-४६० ई. पू.)- बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु मगध के सिंहासन पर बैठा । इसके बचपन का नाम कुणिक था । वह अपने पिता की हत्या कर गद्दी पर बैठा । अजातशत्रु ने अपने पिता के साम्राज्य विस्तार की नीति को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया ।

Bond007
05-02-2011, 01:17 AM
अजातशत्रु के सिंहासन मिलने के बाद वह अनेक राज्य संघर्ष एवं कठिनाइयों से घिर गया लेकिन अपने बाहुबल और बुद्धिमानी से सभी पर विजय प्राप्त की । महत्वाकांक्षी अजातशत्रु ने अपने पिता को कारागार में डालकर कठोर यातनाएँ दीं जिससे पिता की मृत्यु हो गई । इससे दुखित होकर कौशल रानी की मृत्यु हो गई ।

कौशल संघर्ष- बिम्बिसार की पत्*नी (कौशल) की मृत्यु से प्रसेनजीत बहुत क्रोधित हुआ और अजातशत्रु के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया । पराजित प्रसेनजीत श्रावस्ती भाग गया लेकिन दूसरे युद्ध-संघर्ष में अजातशत्रु पराजित हो गया लेकिन प्रसेनजीत ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह कर काशी को दहेज में दे दिया ।

वज्जि संघ संघर्ष- लिच्छवि राजकुमारी चेलना बिम्बिसार की पत्*नी थी जिससे उत्पन्*न दो पुत्री हल्ल और बेहल्ल को उसने अपना हाथी और रत्*नों का एक हार दिया था जिसे अजातशत्रु ने मनमुटाव के कारण वापस माँगा । इसे चेलना ने अस्वीकार कर दिया, फलतः अजातशत्रु ने लिच्छवियों के खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया ।

वस्सकार से लिच्छवियों के बीच फूट डालकर उसे पराजित कर दिया और लिच्छवि अपने राज्य में मिला लिया ।

Bond007
05-02-2011, 01:18 AM
मल्ल संघर्ष- अजातशत्रु ने मल्ल संघ पर आक्रमण कर अपने अधिकार में कर लिया । इस प्रकार पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बड़े भू-भाग मगध साम्राज्य का अंग बन गया ।

*अजातशत्रु ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्दी अवन्ति राज्य पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की ।
*अजातशत्रु धार्मिक उदार सम्राट था । विभिन्*न ग्रन्थों के अनुसार वे बौद्ध और जैन दोनों मत के अनुयायी माने जाते हैं लेकिन भरहुत स्तूप की एक वेदिका के ऊपर अजातशत्रु बुद्ध की वंदना करता हुआ दिखाया गया है ।
*उसने शासनकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अवशेषों पर राजगृह में स्तूप का निर्माण करवाया और ४८३ ई. पू. राजगृह की सप्तपर्णि गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया । इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं के सम्बन्धित पिटकों को सुतपिटक और विनयपिटक में विभाजित किया ।
*सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उसने लगभग ३२ वर्षों तक शासन किया और ४६० ई. पू. में अपने पुत्र उदयन द्वारा मारा गया था ।
*अजातशत्रु के शासनकाल में ही महात्मा बुद्ध ४८७ ई. पू. महापरिनिर्वाण तथा महावीर का भी निधन ४६८ ई. पू. हुआ था ।

Bond007
05-02-2011, 01:19 AM
उदयन- अजातशत्रु के बाद ४६० ई. पू. मगध का राजा बना । बौद्ध ग्रन्थानुसार इसे पितृहन्ता लेकिन जैन ग्रन्थानुसार पितृभक्*त कहा गया है । इसकी माता का नाम पद्*मावती था ।

उदयन शासक बनने से पहले चम्पा का उपराजा था। वह पिता की तरह ही वीर और विस्तारवादी नीति का पालक था।
इसने पाटलि पुत्र (गंगा और सोन के संगम ) को बसाया तथा अपनी राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र स्थापित की।
मगध के प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति के गुप्तचर द्वारा उदयन की हत्या कर दी गई।
बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उदयन के तीन पुत्र अनिरुद्ध, मंडक और नागदशक थे। उदयन के तीनों पुत्रों ने राज्य किया। अन्तिम राजा नागदासक था। जो अत्यन्त विलासी और निर्बल था। शासनतन्त्र में शिथिलता के कारण व्यापक असन्तोष जनता में फैला। राज्य विद्रोह कर उनका सेनापति शिशुनाग राजा बना। इस प्रकार हर्यक वंश का अन्त और शिशुनाग वंश का अन्त और शिशुनाग वंश की स्थापना ४१२ई.पू. हुई।

Bond007
05-02-2011, 01:20 AM
शिशुनाग वंश

शिशुनाग ४१२ई. पू.गद्दी पर बेठ । महावंश के अनुसार वह लिच्छवि राजा के वेश्या पत्*नी से उत्पन्*न पुत्र था । पुराणों के अनुसार वह क्षत्रिय था । इसने सर्वप्रथम मगध के प्रबल प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति को मिलाया । मगध की सीमा पश्*चिम मालवा तक फैल गई और वत्स को मगध में मिला दिया । वत्स और अवन्ति के मगध में विलय से, पाटलिपुत्र को पश्*चिमी देशों से, व्यापारिक मार्ग के लिए रास्ता खुल गया ।

शिशुनाग ने मगध से बंगाल की सीमा से मालवा तक विशाल भू-भाग पर अधिकार कर लिया ।
शिशुनाग एक शक्*तिशाली शासक था जिसने गिरिव्रज के अलावा वैशाली नगर को भी अपनी राजधानी बनाया । ३९४ ई. पू. में इसकी मृत्यु हो गई ।

कालाशोक- यह शिशुनाग का पुत्र था जो शिशुनाग के ३९४ ई. पू. मृत्यु के बाद मगध का शासक बना । महावंश में इसे कालाशोक तथा पुराणों में काकवर्ण कहा गया है । कालाशोक ने अपनी राजधानी को पाटलिपुत्र स्थानान्तरित कर दिया था । इसने २८ वर्षों तक शासन किया । कालाशोक के शासनकाल में ही बौद्ध धर्म की द्वितीय संगीति का आयोजन हुआ ।

*बाणभट्ट रचित हर्षचरित के अनुसार काकवर्ण को राजधानी पाटलिपुत्र में घूमते समय महापद्यनन्द नामक व्यक्*ति ने चाकू मारकर हत्या कर दी थी । ३६६ ई. पू. कालाशोक की मृत्यु हो गई ।
*महाबोधिवंश के अनुसार कालाशोक के दस पुत्र थे, जिन्होंने मगध पर २२ वर्षों तक शासन किया ।
*३४४ ई. पू. में शिशुनाग वंश का अन्त हो गया और नन्द वंश का उदय हुआ ।

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05-02-2011, 01:21 AM
नन्द वंश

३४४ ई. पू. में महापद्यनन्द नामक व्यक्*ति ने नन्द वंश की स्थापना की । पुराणों में इसे महापद्म तथा महाबोधिवंश में उग्रसेन कहा गया है । यह नाई जाति का था ।

उसे महापद्म एकारट, सर्व क्षत्रान्तक आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है । महापद्म नन्द के प्रमुख राज्य उत्तराधिकारी हुए हैं- उग्रसेन, पंडूक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, योविषाणक, दशसिद्धक, कैवर्त, धनानन्द । इसके शासन काल में भारत पर आक्रमण सिकन्दर द्वारा किया गया । सिकन्दर के भारत से जाने के बाद मगध साम्राज्य में अशान्ति और अव्यवस्था फैली । धनानन्द एक लालची और धन संग्रही शासक था, जिसे असीम शक्*ति और सम्पत्ति के बावजूद वह जनता के विश्*वास को नहीं जीत सका । उसने एक महान विद्वान ब्राह्मण चाणक्य को अपमानित किया था ।

*चाणक्य ने अपनी कूटनीति से धनानन्द को पराजित कर चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाया ।
*महापद्मनन्द पहला शासक था जो गंगा घाटी की सीमाओं का अतिक्रमण कर विन्ध्य पर्वत के दक्षिण तक विजय पताका लहराई ।
*नन्द वंश के समय मगध राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्धशाली साम्राज्य बन गया ।
व्याकरण के आचार्य पाणिनी महापद्मनन्द के मित्र थे ।
*वर्ष, उपवर्ष, वर, रुचि, कात्यायन जैसे विद्वान नन्द शासन में हुए ।
*शाकटाय तथा स्थूल भद्र धनानन्द के जैन मतावलम्बी अमात्य थे ।

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05-02-2011, 01:22 AM
मौर्य राजवंश

३२२ ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य की सहायता से धनानन्द की हत्या कर मौर्य वंश की नींव डाली थी ।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्दों के अत्याचार व घृणित शासन से मुक्*ति दिलाई और देश को एकता के सूत्र में बाँधा और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की । यह साम्राज्य गणतन्त्र व्यवस्था पर राजतन्त्र व्यवस्था की जीत थी । इस कार्य में अर्थशास्त्र नामक पुस्तक द्वारा चाणक्य ने सहयोग किया । विष्णुगुप्त व कौटिल्य उनके अन्य नाम हैं । आर्यों के आगमन के बाद यह प्रथम स्थापित साम्राज्य था ।

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05-02-2011, 01:23 AM
चन्द्रगुप्त मौर्य (३२२ ई. पू. से २९८ ई. पू.)- चन्द्रगुप्त मौर्य के जन्म वंश के सम्बन्ध में विवाद है । ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में परस्पर विरोधी विवरण मिलता है ।

विविध प्रमाणों और आलोचनात्मक समीक्षा के बाद यह तर्क निर्धारित होता है कि चन्द्रगुप्त मोरिय वंश का क्षत्रिय था । चन्द्रगुप्त के पिता मोरिय नगर प्रमुख थे । जब वह गर्भ में ही था तब उसके पिता की मृत्यु युद्धभूमि में हो गयी थी । उसका पाटलिपुत्र में जन्म हुआ था तथा एक गोपालक द्वारा पोषित किया गया था । चरावाह तथा शिकारी रूप में ही राजा-गुण होने का पता चाणक्य ने कर लिया था तथा उसे एक हजार में कषार्पण में खरीद लिया । तत्पश्*चात्* तक्षशिला लाकर सभी विद्या में निपुण बनाया । अध्ययन के दौरान ही सम्भवतः चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था । ३२३ ई. पू. में सिकन्दर की मृत्यु हो गयी तथा उत्तरी सिन्धु घाटी में प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या हो गई ।

जिस समय चन्द्रगुप्त राजा बना था भारत की राजनीतिक स्थिति बहुत खराब थी । उसने सबसे पहले एक सेना तैयार की और सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ किया । ३१७ ई. पू. तक उसने सम्पूर्ण सिन्ध और पंजाब प्रदेशों पर अधिकार कर लिया । अब चन्द्रगुप्त मौर्य सिन्ध तथा पंजाब का एकक्षत्र शासक हो गया । पंजाब और सिन्ध विजय के बाद चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने धनानन्द का नाश करने हेतु मगध पर आक्रमण कर दिया । युद्ध में धनाननन्द मारा गया अब चन्द्रगुप्त भारत के एक विशाल साम्राज्य मगध का शासक बन गया । सिकन्दर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस उसका उत्तराधिकारी बना । वह सिकन्दर द्वारा जीता हुआ भू-भाग प्राप्त करने के लिए उत्सुक था । इस उद्देश्य से ३०५ ई. पू. उसने भारत पर पुनः चढ़ाई की । चन्द्रगुप्त ने पश्*चिमोत्तर भारत के यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित कर एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया पेरोपेनिसडाई (काबुल) के भू-भाग को अधिकृत कर विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की । सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलन का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया । उसने मेगस्थनीज को राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में नियुक्*त किया ।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्*चिम भारत में सौराष्ट्र तक प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत शामिल किया । गिरनार अभिलेख (१५० ई. पू.) के अनुसार इस प्रदेश में पुण्यगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल था । इसने सुदर्शन झील का निर्माण किया । दक्षिण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी कर्नाटक तक विजय प्राप्त की ।

चन्द्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य में काबुल, हेरात, कन्धार, बलूचिस्तान, पंजाब, गंगा-यमुना का मैदान, बिहार, बंगाल, गुजरात था तथा विन्ध्य और कश्मीर के भू-भाग सम्मिलित थे, लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना साम्राज्य उत्तर-पश्*चिम में ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत किया था । अन्तिम समय में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला चला गया था । २९८ ई. पू. में उपवास द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना शरीर त्याग दिया ।

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05-02-2011, 01:24 AM
बिन्दुसार (२९८ ई. पू. से २७३ ई. पू.)- यह चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र व उत्तराधिकारी था जिसे वायु पुराण में मद्रसार और जैन साहित्य में सिंहसेन कहा गया है । यूनानी लेखक ने इन्हें अभिलोचेट्*स कहा है । यह २९८ ई. पू. मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा । जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता दुर्धरा थी । थेरवाद परम्परा के अनुसार वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था ।

बिन्दुसार के समय में भारत का पश्*चिम एशिया से व्यापारिक सम्बन्ध अच्छा था । बिन्दुसार के दरबार में सीरिया के राजा एंतियोकस ने डायमाइकस नामक राजदूत भेजा था । मिस्र के राजा टॉलेमी के काल में डाइनोसियस नामक राजदूत मौर्य दरबार में बिन्दुसार की राज्यसभा में आया था ।

दिव्यादान के अनुसार बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए थे, जिनका दमन करने के लिए पहली बार अशोक को, दूसरी बार सुसीम को भेजा

प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता का ही अनुसरण किया । प्रति में उपराजा के रूप में कुमार नियुक्*त किए । दिव्यादान के अनुसार अशोक अवन्ति का उपराजा था । बिन्दुसार की सभा में ५०० सदस्यों वाली मन्त्रिपरिषद्* थी जिसका प्रधान खल्लाटक था । बिन्दुसार ने २५ वर्षों तक राज्य किया अन्ततः २७३ ई. पू. उसकी मृत्यु हो गयी ।

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05-02-2011, 01:24 AM
अशोक (२७३ ई. पू. से २३६ ई. पू.)- राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे । इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद २६९ ई. पू. में हुआ था ।

वह २७३ ई. पू. में सिंहासन पर बैठा । अभिलेखों में उसे देवाना प्रिय एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है । मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है । सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने ९९ भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था, लेकिन इस उत्तराधिकार के लिए कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है ।

दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी ।

सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ । दिव्यादान में उसकी एक पत्*नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्*नी का नाम करूणावकि है जो तीवर की माता थी । बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था, लेकिन अशोक एवं बड़े भाई सुसीम के बीच युद्ध की चर्चा है ।

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05-02-2011, 01:25 AM
अशोक का कलिंग युद्ध

अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष २६१ ई. पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था । आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत्* अभिषेक हुआ । तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्*ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी । सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा । इससे द्रवित होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया ।

कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया । उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया । उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की । यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ । उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया ।

सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी । तत्पश्*चात्* मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था । दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है । अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी । तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्*त घोषित कर दिया था ।

Bond007
05-02-2011, 01:27 AM
अशोक एवं बौद्ध धर्म

*कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्*तिगत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया ।
*अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की । इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्*न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया ।
*दिव्यादान में उसकी एक पत्*नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्*नी करूणावकि है । दिव्यादान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगताशोक का नाम का उल्लेख है ।
*विद्वानों अशोक की तुलना विश्*व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है ।

अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्*वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं । एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है ।"

*अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया ।

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05-02-2011, 01:28 AM
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-

(अ) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ,
(ब) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्*ति,
(स) धर्म महापात्रों की नियुक्*ति,
(द) दिव्य रूपों का प्रदर्शन,
(य) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था,
(र) लोकाचारिता के कार्य,
(ल) धर्मलिपियों का खुदवाना,
(ह) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि ।

अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया । वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया । कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी । अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की । नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई । बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्*त किया । स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्*त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया ।

अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे धर्म महापात्र कहा गया था । इसका कर्य विभिन्*न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था ।

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05-02-2011, 01:28 AM
अशोक के शिलालेख

अशोक के १४ शिलालेख विभिन्*न लेखों का समूह है जो आठ भिन्*न-भिन्*न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-

(१) धौली- यह उड़ीसा के पुरी जिला में है ।

(२) शाहबाज गढ़ी- यह पाकिस्तान (पेशावर) में है ।

(३) मान सेहरा- यह हजारा जिले में स्थित है ।

(४) कालपी- यह वर्तमान उत्तरांचल (देहरादून) में है ।

(५) जौगढ़- यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है ।

(६) सोपरा- यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है ।

(७) एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है ।

(८) गिरनार- यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है ।

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05-02-2011, 01:29 AM
अशोक के लघु शिलालेख

अशोक के लघु शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है जिसे लघु शिलालेख कहा जाता है । ये निम्नांकित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-

(१) रूपनाथ- यह मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में है ।

(२) गुजरी- यह मध्य प्रदेश के दतुया जिले में है ।

(३) भबू- यह राजस्थान के जयपुर जिले में है ।

(४) मास्की- यह रायचूर जिले में स्थित है ।

(५) सहसराम- यह बिहार के शाहाबाद जिले में है ।

धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सा की व्य्वस्था की । अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्*त निकाय में दिया गया है ।

अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा अपने दूसरे तथा १३वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहाँ दूत भेजे गये थे ।

दक्षिण सीमा पर स्थित राज्य चोल, पाण्ड्*य, सतिययुक्*त केरल पुत्र एवं ताम्रपार्णि बताये गये हैं ।

Bond007
05-02-2011, 01:30 AM
अशोक के अभिलेख

अशोक के अभिलेखों में शाहनाज गढ़ी एवं मान सेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं । तक्षशिला एवं लघमान (काबुल) के समीप अफगानिस्तान अभिलेख आरमाइक एवं ग्रीक में उत्कीर्ण हैं । इसके अतिरिक्*त अशोक के समस्त शिलालेख लघुशिला स्तम्भ लेख एवं लघु लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं । अशोक का इतिहास भी हमें इन अभिलेखों से प्राप्त होता है ।

अभी तक अशोक के ४० अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं । सर्वप्रथम १८३७ ई. पू. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी ।

रायपुरबा- यह भी बिहार राज्य के चम्पारण जिले में स्थित है ।

प्रयाग- यह पहले कौशाम्बी में स्थित था जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखवाया गया था ।

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05-02-2011, 01:31 AM
अशोक के लघु स्तम्भ लेख

सम्राट अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है जो निम्न स्थानों पर स्थित हैं-

१. सांची- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है ।

२. सारनाथ- उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है ।

३. रूभ्मिनदेई- नेपाल के तराई में है ।

४. कौशाम्बी- इलाहाबाद के निकट है ।

५. निग्लीवा- नेपाल के तराई में है ।

६. ब्रह्मगिरि- यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है ।

७. सिद्धपुर- यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है ।

८. जतिंग रामेश्*वर- जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है ।

९. एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है ।

१०. गोविमठ- यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है ।

११. पालकिगुण्क- यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है ।

१२. राजूल मंडागिरि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है ।

१३. अहरौरा- यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है ।

१४. सारो-मारो- यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित है ।

१५. नेतुर- यह मैसूर जिले में स्थित है ।

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05-02-2011, 01:32 AM
अशोक के गुहा लेख

दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर नामक तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं । इन सभी की भाषा प्राकृत तथा ब्राह्मी लिपि में है । केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है । यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है ।

तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है ।

Bond007
05-02-2011, 01:32 AM
अशोक के स्तम्भ लेख

अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्*न स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं । इन स्थानों के नाम हैं-

(१) दिल्ली तोपरा- यह स्तम्भ लेख प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में पाया गया था । यह मध्य युगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया । इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं ।

(२) दिल्ली मेरठ- यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया ।

(३) लौरिया अरराज तथा लौरिया नन्दगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारण जिले में है ।

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05-02-2011, 01:33 AM
सैन्य व्यवस्था- सैन्य व्यवस्था छः समितियों में विभक्*त सैन्य विभाग द्वारा निर्दिष्ट थी । प्रत्येक समिति में पाँच सैन्य विशेषज्ञ होते थे ।

पैदल सेना, अश्*व सेना, गज सेना, रथ सेना तथा नौ सेना की व्यवस्था थी ।

सैनिक प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी अन्तपाल कहलाता था । यह सीमान्त क्षेत्रों का भी व्यवस्थापक होता था । मेगस्थनीज के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना छः लाख पैदल, पचास हजार अश्*वारोही, नौ हजार हाथी तथा आठ सौ रथों से सुसज्जित अजेय सैनिक थे ।

Bond007
05-02-2011, 01:33 AM
प्रान्तीय प्रशासन

चन्द्रगुप्त मौर्य ने शासन संचालन को सुचारु रूप से चलाने के लिए चार प्रान्तों में विभाजित कर दिया था जिन्हें चक्र कहा जाता था । इन प्रान्तों का शासन सम्राट के प्रतिनिधि द्वारा संचालित होता था । सम्राट अशोक के काल में प्रान्तों की संख्या पाँच हो गई थी । ये प्रान्त थे-

प्रान्त राजधानी

प्राची (मध्य देश)- पाटलिपुत्र

उत्तरापथ - तक्षशिला

दक्षिणापथ - सुवर्णगिरि

अवन्ति राष्ट्र - उज्जयिनी

कलिंग - तोलायी

Bond007
05-02-2011, 01:34 AM
प्रान्तों (चक्रों) का प्रशासन राजवंशीय कुमार (आर्य पुत्र) नामक पदाधिकारियों द्वारा होता था ।

कुमाराभाष्य की सहायता के लिए प्रत्येक प्रान्त में महापात्र नामक अधिकारी होते थे । शीर्ष पर साम्राज्य का केन्द्रीय प्रभाग तत्पश्*चात्* प्रान्त आहार (विषय) में विभक्*त था । ग्राम प्रशासन की निम्न इकाई था, १०० ग्राम के समूह को संग्रहण कहा जाता था ।

आहार विषयपति के अधीन होता था । जिले के प्रशासनिक अधिकारी स्थानिक था । गोप दस गाँव की व्यवस्था करता था ।

नगर प्रशासन मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य शासन की नगरीय प्रशासन छः समिति में विभक्*त था ।

प्रथम समिति- उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करता था ।

द्वितीय समिति- विदेशियों की देखरेख करता है ।

तृतीय समिति- जनगणना ।

चतुर्थ समिति- व्यापार वाणिज्य की व्यवस्था ।

पंचम समिति- विक्रय की व्यवस्था, निरीक्षण ।

षष्ठ समिति- बिक्री कर व्यवस्था ।

नगर में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथा अपराधों पर नियन्त्रण रखने हेतु पुलिस व्यवस्था थी जिसे रक्षित कहा जाता था ।

यूनानी स्त्रोतों से ज्ञात होता है कि नगर प्रशासन में तीन प्रकार के अधिकारी होते थे-एग्रोनोयोई (जिलाधिकारी), एण्टीनोमोई (नगर आयुक्*त), सैन्य अधिकार ।

Bond007
05-02-2011, 01:35 AM
अशोक के परवर्ती मौर्य सम्राट- मगध साम्राज्य के महान मौर्य सम्राट अशोक की मृत्यु २३७-२३६ ई. पू. में (लगभग) हुई थी । अशोक के उपरान्त अगले पाँच दशक तक उनके निर्बल उत्तराधिकारी शासन संचालित करते रहे ।

अशोक के उत्तराधिकारी- जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन के बारे में परस्पर विरोधी विचार पाये जाते हैं । पुराणों में अशोक के बाद ९ या १० शासकों की चर्चा है, जबकि दिव्यादान के अनुसार ६ शासकों ने असोक के बाद शासन किया । अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य पश्*चिमी और पूर्वी भाग में बँट गया । पश्*चिमी भाग पर कुणाल शासन करता था, जबकि पूर्वी भाग पर सम्प्रति का शासन था लेकिन १८० ई. पू. तक पश्*चिमी भाग पर बैक्ट्रिया यूनानी का पूर्ण अधिकार हो गया था । पूर्वी भाग पर दशरथ का राज्य था । वह मौर्य वंश का अन्तिम शासक है ।

Bond007
05-02-2011, 01:36 AM
मौर्य साम्राज्य का पतन

मौर्य सम्राट की मृत्यु (२३७-२३६ई. पू.)के उपरान्त करीबन दो सदियों (३२२-१८४ई.पू.) से चले आ रहे शक्*तिशाली मौर्य साम्राज्य का विघटन होने लगा।

अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र ने कर दी। इससे मौर्य साम्राज्य समाप्त हो गया।

इसके पतन के कारण निम्न हैं-

१.अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी,
२.प्रशासन का अत्यधिक केन्द्रीयकरण,
३.राष्ट्रीय चेतना का अभाव,
४.आर्थिक एवं सांस्कृतिक असमानताएँ
५.प्रान्तीय शासकों के अत्याचार,
६.करों की अधिकता।

Bond007
05-02-2011, 01:37 AM
विभिन्न इतिहासकारों ने मौर्य वंश का पतन के लिए भिन्न-भिन्न कारणों का उल्लेख किया है-

हर प्रसाद शास्त्री - धार्मिक नीति (ब्राह्मण विरोधी नीति के कारण )
हेमचन्द्र राय चौधरी - सम्राट अशोक की अहिंसक एवं शान्तिप्रिय नीति।
डी. डी.कौशाम्बी- आर्थिक संकटग्रस्त व्यवस्था का होना।
डी.एन.झा-निर्बल उत्तराधिकारी
रोमिला थापर - मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए केन्द्रीय शासन अधिकारी तन्त्र का अव्यवस्था एवं अप्रशिक्षित होना।

Bond007
05-02-2011, 01:37 AM
मौर्य शासन - भारत में सर्वप्रथम मौर्य वंश के शासनकाल में ही राष्ट्रीय राजनीतिक एकता स्थापित हुइ थी। मौर्य प्रशासन में सत्ता का सुदृढ़ केन्द्रीयकरण था परन्तु राजा निरंकुश नहीं होता था। मौर्य काल में गणतन्त्र का ह्रास हुआ और राजतन्त्रात्मक व्यवस्था सुदृढ़ हुई। कौटिल्य ने राज्य सप्तांक सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, जिनके आधार पर मौर्य प्रशासन और उसकी गृह तथा विदेश नीति संचालित होती थी -राजा,अमात्य जनपद , दुर्ग , कोष, सेना और,मित्र।

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05-02-2011, 01:38 AM
शुंग राजवंश

पुष्यमित्र शुंग- मौर्य साम्राज्य के अन्तिम शासक वृहद्रथ की हत्या करके १८४ई.पू. में पुष्यमित्र ने मौर्य साम्राज्य के राज्य पर अधिकार कर लिया । जिस नये राजवंश की स्थापना की उसे पूरे देश में शुंग राजवंश के नाम से जाना जाता है। शुंग ब्राह्मण थे। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के फ़लस्वरुप अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगा दिये जाने के बाद उन्होंने पुरोहित का कर्म त्यागकर सैनिक वृति को अपना लिया था। पुष्यमित्र अन्तिम मौर्य शासक वृहद्रथ का प्रधान सेनापति था। पुष्यमित्र शुंग के पश्चात इस वंश में नौ शासक और हुए जिनके नाम थे -अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ,वसुमित्र ,भद्रक,तीन अज्ञात शासक ,भागवत और देवभूति। एक दिन सेना का निरिक्षण करते समय वृह्द्र्थ की धोखे से हत्या कर दी। उसने ‘सेनानी’ की उपाधि धारण की थी। दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारण पुष्यमित्र इसी रुप में विख्यात था तथा राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाये रखी। शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ था मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना इसी युग में हुई थी। अतः उसने निस्संदेह राजत्व को प्राप्त किया था । परवर्ती मौर्यों के निर्बल शासन में मगध का सरकारी प्रशासन तन्त्र शिथिल पड़ गया था एवं देश को आन्तरिक एवं बाह्य संकटों का खतरा था । ऐसी विकट स्थिति में पुष्य मित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर जहाँ एक ओर यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की और देश में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर वैदिक धर्म एवं आदेशों की जो अशोक के शासनकाल में अपेक्षित हो गये थे । इसी कारण इसका काल वैदिक प्रतिक्रिया अथवा वैदिक पुनर्जागरण का काल कहलाता है । शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति की हत्या करके उसके सचिव वसुदेव ने ७५ ई. पू. कण्व वंश की नींंव डाली ।

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05-02-2011, 01:39 AM
शुंगकालीन संस्कृति के प्रमुख तथ्य

*शुंग राजाओं का काल वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म का पुनर्जागरण काल माना जाता है।
*मानव आकृतियों के अंकन में कुशलता दिखायी गयी है। एक चित्र में गरुङ सूर्य तथा दूसरे में श्रीलक्ष्मी का अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है।
*पुष्यमित्र शुंग ने ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किया। शुंग के सर्वोत्तम स्मारक स्तूप हैं।
*बोधगया के विशाल मन्दिर के चारों और एक छोटी पाषाण वेदिका मिली है।इसका निर्माण भी शुंगकाल में हुआ था। इसमें कमल, राजा, रानी, पुरुष, पशु , बोधिवृक्ष, छ्त्र, त्रिरत्न , कल्पवृक्ष,आदि प्रमुख हैं।
*स्वर्ण मुद्रा निष्क, दिनार, सुवर्ण , मात्रिक कहा जाता था। ताँबे के सिक्*के काषार्पण कहलाते थे। *चाँदी के सिक्*के के लिए ‘पुराण’अथवा ‘धारण’ शब्द आया है।
*शुंग काल में समाज में बाल विवाह का प्रचलन हो गया था। तथा कन्याओं का विवाह आठ से १२ वर्ष की आयु में किया जाने लगा था।
*शुंग राजाओं का काल वैदिक काल की अपेक्षा एक बड़े वर्ग के लोगों के मस्तिष्क परम्परा, संस्कृति एवं विचारधारा को प्रतिबिम्बित कर सकने में अधिक समर्थ है।
*शुंग काल के उत्कृष्ट नमूने बिहार के बोधगया से प्राप्त होते हैं। भरहुत ,सांची ,बेसनगर की कला भी उत्कृष्ट है।
*महाभाष्य के अलावा मनुस्मृति का मौजूदा स्वरुप सम्भवतः इसी युग में रचा गया था। विद्वानो के अनुसार शुंग काल में ही महाभारत के शान्तिपूर्ण तथा अश्*वमेध का भी परिवर्तन हुआ। माना जाता है की पुष्यमित्र ने बौद्ध धर्मावलम्बियों पर बहुत अत्याचार किया,लेकिन सम्भवतः इसका कारण बौद्धों द्वारा विदेशी आक्रमण अर्थात यवनों की मदद करना था। पुष्यमित्र ने अशोक द्वारा निर्माण करवाये गये ८४ हजार स्तूपों को नष्ट करवाया। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान के अनुसार यह भी सच है कि उसने कुछ बौद्धों को अपना मन्त्री नियुक्*त कर रखा था। पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने ३६ वर्षों तक शासन किया। इस प्रकार उसका काल ई.पू से १४८ई.पू.तक माना जाता है।

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05-02-2011, 01:40 AM
पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी

अग्निमित्र- पुष्यमित्र की मृत्यु (१४८इ.पू.) के पश्*चात उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ। वह विदिशा का उपराजा था। उसने कुल ८ वर्षों तक शासन कीया।

वसुज्येष्ठ या सुज्येष्ठ - अग्निमित्र के बाद वसुज्येष्ठ राजा हुआ।

वसुमित्र - शुंग वंश का चौथा राजा वसुमित्र हुआ। उसने यवनों को पराजित किया था। एक दिन नृत्य का आनन्द लेते समय मूजदेव नामक व्यक्*ति ने उसकी हत्या कर दी। उसने १० वर्षों तक शाशन किय । वसुमित्र के बाद भद्रक ,पुलिंदक, घोष तथा फिर वज्रमित्र क्रमशः राजा हुए। इसके शाशन के १४वें वर्ष में तक्षशिला के यवन नरेश एंटीयालकीड्स का राजदूत हेलियोंडोरस उसके विदिशा स्थित दरबार में उपस्थित हुआ था। वह अत्यन्त विलासी शाशक था। उसके अमात्य वसुदेव ने उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार शुंग वंश का अन्त हो गया।

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05-02-2011, 01:41 AM
महत्व- इस वंश के राजाओं ने मगध साम्रज्य के केन्द्रीय भाग की विदेशियों से रक्षा की तथा मध्य भारत में शान्ति और सुव्यव्स्था की स्थापना कर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को कुछ समय तक रोके रखा। मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने वैदिक संस्कृति के आदर्शों की प्रतिष्ठा की। यही कारण है की उसका शासनकाल वैदिक पुनर्जागरण का काल माना जाता है।

विदर्भ युद्ध- मालविकामित्रम के अनुसार पुष्यमित्र के काल में लगभग १८४इ.पू.में विदर्भ युद्ध में पुष्यमित्र की विजय हुई और राज्य दो भागों में ब दिया गया। वर्षा नदी दोनों राज्यों कीं सीमा मान ली गई। दोनो भागों के नरेश ने पुष्यमित्र को अपना सम्राट मान लिया तथा इस राज्य का एक भाग माधवसेन को प्राप्त हुआ। पुष्यमित्र का प्रभाव क्षेत्र नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया।

यवनों का आक्रमण - यवनों को मध्य देश से निकालकर सिन्धु के किनारे तक खदेङ दिया और पुष्यमित्र के हाथों सेनापति एवं राजा के रुप में उन्हें पराजित होना पङा। यह पुष्यमित्र के काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।

पुष्यमित्र का शासन प्रबन्ध- साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। पुष्यमित्र प्राचीन मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती भाग को सुरक्षित रख सकने में सफ़ल रहा। पुष्यमित्र का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक तथा पश्*चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में मगध तक फ़ैला हुआ था। दिव्यावदान और तारानाथ के अनुसार जालन्धर और स्यालकोट पर भी उसका अधिकार था। साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार या राजकुल के लोगो को राज्यपाल नियुक्*त करने की परम्परा चलती रही। पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सह -शाशक नियुक्*त कर रखा था। और उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। धनदेव कौशल का राज्यपाल था। राजकुमार जी सेना के संचालक भी थे। इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। इस काल तक आते-आते मौर्यकालीन केन्द्रीय नियन्त्रण में शिथिलता आ गयी थी तथा सामंतीकरण की प्रवृत्ति सक्रिय होने लगी थीं।

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05-02-2011, 01:41 AM
कण्व राजवंश

शुंग वंश के अन्तिम शासक देवभूति के मन्त्रि वसुदेव ने उसकी हत्या कर सत्ता प्राप्त कर कण्व वंश की स्थापना की। कण्व वंश ने ७५इ.पू. से ३०इ.पू. तक शासन किया। वसुदेव पाटलिपुत्र के कण्व वंश का प्रवर्तक था। वैदिक धर्म एवं संस्कृति संरक्षण की जो परम्परा शुंगो ने प्रारम्भ की थी। उसे कण्व वंश ने जारी रखा। इस वंश का अन्तिम सम्राट सुशमी कण्य अत्यन्त अयोग्य और दुर्बल था।और मगध क्षेत्र संकुचित होने लगा। कण्व वंश का साम्राज्य बिहार,पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित हो गया और अनेक प्रान्तों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया तत्पश्चात उसका पुत्र नारायण और अन्त में सुशमी जिसे सातवाहन वंश के प्रवर्तक सिमुक ने पदच्युत कर दिया था। इस वंश के चार राजाओं ने ७५इ.पू.से ३०इ.पू.तक शासन किया।

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05-02-2011, 01:42 AM
आन्ध्र व कुषाण वंश

मगध में आन्ध्रों का शासन था या नहीं मिलती है। कुषाणकालीन अवशेष भी बिहार से अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। कुछ समय के पश्चात प्रथम सदी इ. में इस क्षेत्र में कुषाणों का अभियान हुआ। कुषाण शासक कनिष्क द्वारा पाटलिपुत्र पर आक्रमण किये जाने और यह के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अश्वघोष को अपने दरबार में प्रश्रय देने की चर्चा मिलती है। कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद मगध पर लिच्छवियों का शासन रहा। अन्य विद्वान मगध पर शक मुण्डों का शासन मानते हैं।

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05-02-2011, 01:43 AM
गुप्त साम्राज्य (गुप्तकालीन बिहार)

मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया।

मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्*ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं।
मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।
गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था।
गुप्त वंश की स्थापना

गुप्त राजवंश की स्थापना महाराजा गुप्त ने लगभग २७५ई.में की थी। उनका वास्तविक नाम श्रीगुप्त था। गुप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र घटोत्कच था।

चन्द्र्गुप्त के सिंहासनारोहण के अवसर पर(३०२ई.) को गुप्त सम्वत भी कहा गया है। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार मगध के मृग शिखावन में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। तथा मन्दिर के व्यय में २४ गाँव को दान दिये थे।

श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था । प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार श्रीगुप्त भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था ।

घटोत्कच- घटोत्कच श्रीगुप्त का पुत्र था । २८० ई. पू. से ३२० ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा । इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी ।

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05-02-2011, 01:44 AM
चन्द्रगुप्त प्रथम- यह घटोत्कच का उत्तराधिकारी था, जो ३२० ई. में शासक बना ।

चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में सबसे पहला शासक था जो प्रथम स्वतन्त्र शासक है । यह विदेशी को विद्रोह द्वारा हटाकर शासक बना ।
इसने नवीन सम्वत (गुप्त सम्वत) की स्थापना की । इसने लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह सम्बन्ध स्थापित किया ।
चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है । इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी । बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया । इसका शासन काल (३२० ई. से ३५० ई. तक) था ।
पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है ।

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05-02-2011, 01:45 AM
चन्द्रगुप्त प्रथम तथा लिच्छवि सम्बन्ध

चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया । वह एक दूरदर्शी सम्राट था । चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया । स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया । कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया । लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया ।

हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की ।

उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्*कों का चलन करवाया । इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया । राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की ।

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05-02-2011, 01:45 AM
समुद्रगुप्त- चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद ३५० ई. में उसका पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा । समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था । सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है । इन्हें परक्रमांक कहा गया है । समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है । इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी ।

हरिषेण समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था । हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है ।

समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की ।
विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपधि दी ।
समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था । यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था । उसे कविराज भी कहा गया है । वह महान संगीतज्ञ था जिसे वीणा वादन का शौक था । इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्*त किया था ।

काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है । उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया । समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ भी था लेकिन वह हिन्दू धर्म मत का पालन करता था । वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है ।

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05-02-2011, 01:46 AM
समुद्रगुप्त का साम्राज्य- समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्*चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था । कश्मीर, पश्*चिमी पंजाब, पश्*चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे ।

दक्षिणापथ के शासक तथा पश्*चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्*तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं ।

समुद्रगुप्त के काल में सदियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी शक्*तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्*नति की चोटी पर जा पहुँचा था ।

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05-02-2011, 01:48 AM
रामगुप्त- समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, लेकिन इसके राजा बनने में विभिन्*न विद्वानों में मतभेद है|

विभिन्*न साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे- रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त । रामगुप्त बड़ा होने के कारण पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल एवं कायर था । वह शकों द्वारा पराजित हुआ और अत्यन्त अपमानजनक सन्धि कर अपनी पत्*नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को भेंट में दे दिया था, लेकिन उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़ा ही वीर एवं स्वाभिमानी व्यक्*ति था । वह छद्*म भेष में ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के पास गया । फलतः रामगुप्त निन्दनीय होता गय्श । तत्पश्*चात्* चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर दी । उसकी पत्*नी से विवाह कर लिया और गुप्त वंश का शासक बन बैठा ।

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05-02-2011, 01:49 AM
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य- चन्द्रगुप्त द्वितीय ३७५ ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ । वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था । वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ । उसने ३७५ से ४१५ ई. तक (४० वर्ष) शासन किया ।

हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं । उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की । उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई । वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया । उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की ।

*वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्*ति से शकों का उन्मूलन किया । कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था ।
*चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ ।
*चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है । चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ही फाह्यान नामक चीनी यात्री (३९९ ई.) आया था ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजय यात्रा

चन्द्रगुप्त एक महान प्रतापी सम्राट था । उसने अपने साम्राज्य का और विस्तार किया ।

(१) शक विजय- पश्*चिम में शक क्षत्रप शक्*तिशाली साम्राज्य था । ये गुप्त राजाओं को हमेशा परेशान करते थे । शक गुजरात के काठियावाड़ तथा पश्*चिमी मालवा पर राज्य करते थे । ३८९ ई. ४१२ ई. के मध्य चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों पर आक्रमण कर विजित किया ।

(२) वाहीक विजय- महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार चन्द्र गुप्त द्वितीय ने सिन्धु के पाँच मुखों को पार कर वाहिकों पर विजय प्राप्त की थी । वाहिकों का समीकरण कुषाणों से किया गया है, पंजाब का वह भाग जो व्यास का निकटवर्ती भाग है ।

(३) बंगाल विजय- महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था ।

(४) गणराज्यों पर विजय- पश्*चिमोत्तर भारत के अनेक गणराज्यों द्वारा समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्*चात्* अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी गई थी ।

परिणामतः चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा इन गणरज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य में विलीन किया गया । अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की । उसका साम्राज्य पश्*चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था । चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है । उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था । उसके दरबार में नौ रत्*न थे- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि उल्लेखनीय थे ।

निस्संदेह चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म का चरमोत्कर्ष का काल रहा था ।

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05-02-2011, 01:54 AM
कुमारगुप्त प्रथम (४१५ ई. से ४५५ ई.)- चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्*चात्* ४१५ ई. में उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा । वह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्*नी ध्रुवदेवी से उत्पन्*न सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था । यह कुमारगुप्त के बसाठ (वैशाली) का राज्यपाल था ।

*कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था । साम्राज्य की उन्*नति के पराकाष्ठा पर था । इसने अपने साम्राज्य का अधिक संगठित और सुशोभित बनाये रखा । गुप्त सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया था ।
*कुमारगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य की पूरी तरह रक्षा की जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्*चिम में अरब सागर तक विस्तृत था ।
*कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों या मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने अनेक उपाधियाँ धारण कीं । उसने महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्री महेन्द्र सिंह, महेन्द्रा दिव्य आदि उपाधि धारण की थी ।
*मिलरक्द अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के साम्राज्य में चतुर्दिक सुख एवं शान्ति का वातावरण विद्यमान था ।
*कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव धर्मानुयायी था, किन्तु उसने धर्म सहिष्णुता की नीति का पालन किया ।
*गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के ही प्राप्त हुए हैं । उसने अधिकाधिक संक्या में मयूर आकृति की रजत मुद्राएं प्रचलित की थीं । उसी के शासनकाल में नालन्दा विश्*वविद्यालय की स्थापना की गई थी ।

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05-02-2011, 01:54 AM
कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल की प्रमुख घटनओं का निम्न विवरण है-

१. पुष्यमित्र से युद्ध- भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम क्षण में शान्ति नहीं थी । इस काल में पुष्यमित्र ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया । इस युद्ध का संचालन कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने किया था । उसने पुष्यमित्र को युद्ध में परास्त किया ।

२. दक्षिणी विजय अभियान- कुछ इतिहास के विद्वानों के मतानुसार कुमारगुप्त ने भी समुद्रगुप्त के समान दक्षिण भारत का विजय अभियान चलाया था, लेकिन सतारा जिले से प्राप्त अभिलेखों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है ।

अश्*वमेध यज्ञ- सतारा जिले से प्राप्त १,३९५ मुद्राओं व लेकर पुर से १३ मुद्राओं के सहारे से अश्*वमेध यज्ञ करने की पुष्टि होती है ।

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05-02-2011, 01:56 AM
स्कन्दगुप्त (४५५ ई. से ४६७ ई.)- पुष्यमित्र के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की ४५५ ई. में मृत्यु हो गयी थी ।

उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा । उसने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित किया और उस पर विजय प्राप्त की । उसने १२ वर्ष तक शासन किया । स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं । कहीय अभिलेख में स्कन्दगुप्त को शक्रोपन कहा गया है ।

उदारता एवं परोपकरिता का कार्य- स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी । स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था जिसे अपनी प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी ।

जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन काल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था उसने दो माह के भीतर अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया ।

हूणों का आक्रमण- हूणों का प्रथम आक्रमण स्कन्दगुप्त के काल में हुआ था । हूण मध्य एशिया की एक बर्बर जाति थी । हूणों ने अपनी जनसंख्या और प्रसार के लिए दो शाखाओं में विभाजित होकर विश्*व के विभिन्*न क्षेत्रों में फैल गये । पूर्वी शाखा के हूणों ने भारत पर अनेकों बार आक्रमण किया । स्कन्दगुप्त ने हूणों के आक्रमण से रक्षा कर अपनी संस्कृति को नष्ट होने से बचाया ।

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05-02-2011, 01:59 AM
पुरुगुप्त- पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया ।

कुमारगुप्त द्वितीय- पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ । सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है ।

बुधगुप्त- कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था । उसकी माँ चन्द्रदेवी था । उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया ।

ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था । उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था ।

नरसिंहगुप्त बालादित्य- बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना ।

इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया । मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया । नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्*तिशाली राजा था । हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था । नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है ।

कुमारगुप्त तृतीय- नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा । वह २४ वाँ शासक बना । कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था ।

गोविन्दगुप्त का विद्रोह- यह स्कन्दगुप्त का छोटा चाचा था, जो मालवा के गवर्नर पद पर नियुक्*त था । इसने स्कन्दगुप्त के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । स्कन्दगुप्त ने इस विद्रोह का दमन किया ।

वाकाटकों से युद्ध- मन्दसौर शिलालेख से ज‘जात होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया ।

गुप्त साम्राज्य की अवति- स्कन्दगुप्त राजवंश का आखिरी शक्*तिशाली सम्राट था । ४६७ ई. उसका निधन हो गया । स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए-

पुरुगुप्त- यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था । स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था ।

दामोदरगुप्त- कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना । ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था । सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया । इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई । यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था ।

महासेनगुप्त- दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था । उसने मौखरि नरेश अवन्ति वर्मा की अधीनता स्वीकार कर ली । महासेनगुप्त ने असम नरेश सुस्थित वर्मन को ब्राह्मण नदी के तट पर पराजित किया ।

अफसढ़ लेख के अनुसार महासेनगुप्त बहुत पराक्रमी था ।

देवगुप्त- महासेनगुप्त के बाद उसका पुत्र देवगुप्त मलवा का शासक बना । उसके दो सौतेले भाई कुमारगुप्त और माधवगुप्त थे ।

देवगुप्त ने गौड़ शासक शशांक के सहयोग से कन्*नौज के मौखरि राज्य पर आक्रमण किया और गृह वर्मा की हत्या कर दी ।

प्रभाकर वर्धन के बड़े पुत्र राज्यवर्धन ने शीघ्र ही देवगुप्त पर आक्रमण करके उसे मार डाल्श ।

माधवगुप्त- हर्षवर्धन के समय में माधवगुप्त मगध के सामन्त के रूप में शासन करता था । वह हर्ष का घनिष्ठ मित्र और विश्*वासपात्र था । हर्ष जब शशांक को दण्डित करने हेतु गया तो माधवगुप्त साथ गया था । उसने ६५० ई. तक शासन किया ।

हर्ष की मृत्यु के उपरान्त उत्तर भारत में अराजकता फैली तो माधवगुप्त ने भी अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित किया ।

Bond007
05-02-2011, 02:00 AM
गुप्तोत्तर बिहार

गुप्त साम्राज्य का ५५० ई. में पतन हो गया । गुप्त वंश के पतन के बाद भारतीय राजनीति में विकेन्द्रीकरण एवं अनिश्*चितता का माहौल उत्पन्*न हो गया । अनेक स्थानीय सामन्तों एवं शासकों ने साम्राज्य के विस्तृत क्षेत्रों में अलग-अलग छोते-छोटे राजवंशों की स्थापना कर ली । इसमें एक था- उत्तर गुप्त राजवंश । इस राजवंश ने करीब दो शताब्दियों तक शासन किया । इस वंश के लेखों में चक्रवर्ती गुप्त राजाओं का उल्लेख नहीं है ।

परवर्ती गुप्त वंश के संस्थापक कृष्णगुप्त ने (५१० ई. ५२१ ई.) स्थापना की ।

अफसढ़ लेख के अनुसार मगध उसका मूल स्थान था, जबकि विद्वानों ने उनका मूल स्थान मालवा कहा गया है । उसका उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ है । उत्तर गुप्त वंश के तीन शासकों ने शासन किया । तीनों शासकों ने मौखरि वंश से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रह ।

कुमारगुप्त- यह उत्तर गुप्त वंश का चौथा राजा था जो जीवित गुप्त का पुत्र था । यह शासक अत्यन्त शक्*तिशाली एवं महत्वाकांक्षी था । इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की । उसका प्रतिद्वन्दी मौखरि नरेश ईशान वर्मा समान रूप से महत्वाकांक्षी शासक था । इस समय प्रयाग में पूष्यार्जन हेतु प्राणान्त करने की प्रथा प्रचलित थी ।

हांग गांगेय देव जैसे शसकों का अनुसरण करते हुए कुमार गुप्त ने प्रयाग जाकर स्वर्ग प्राप्ति की लालसा से अपने जीवन का त्याग किया ।

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05-02-2011, 02:01 AM
पाल वंश

यह पूर्व मध्यकालीन राजवंश था । जब हर्षवर्धन काल के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गहरा संकट उत्पन६न हो गया, तब बिहार, बंगाल और उड़ीसा के सम्पूर्ण क्षेत्र में पूरी तरह अराजकत फैली थी ।

इसी समय गोपाल ने बंगाल में एक स्वतन्त्र राज्य घोषित किया । जनता द्वारा गोपाल को सिंहासन पर आसीन किया गया था । वह योग्य और कुशल शासक था, जिसने ७५० ई. से ७७० ई. तक शासन किया । इस दौरान उसने औदंतपुरी (बिहार शरीफ) में एक मठ तथा विश्*वविद्यालय का निर्माण करवाया । पाल शासक बौद्ध धर्म को मानते थे । आठवीं सदी के मध्य में पूर्वी भारत में पाल वंश का उदय हुआ । गोपाल को पाल वंश का संस्थापक माना जाता है ।

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05-02-2011, 02:02 AM
धर्मपाल(७७०-८१० ई.)- गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल ७७० ई. में सिंहासन पर बैठा । धर्मपाल ने ४० वर्षों तक शासन किया । धर्मपाल ने कन्*नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा रहा । उसने कन्*नौज की गद्दी से इंद्रायूध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया । चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उत्तरापथ स्वामिन की उपाधि धारण की । धर्मपाल बौद्ध धर्मावलम्बी था । उसने काफी मठ व बौद्ध विहार बनवाये ।

उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्*वविद्यालय का निर्माण करवाया था । उसके देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिये थे । उल्लेखनीय है कि प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था ।

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05-02-2011, 02:03 AM
देवपाल (८१०-८५० ई.)- धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा । इसने अपने पिता के अनुसार विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया । इसी के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था । उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई । उसने पूर्वोत्तर में प्राज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल, पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया । कन्*नौज के संघर्ष में देवपाल ने भाग लिया था । उसके शासनकाल में दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे । उसने जावा के शासक बालपुत्रदेव के आग्रह पर नालन्दा में एक विहार की देखरेख के लिए ५ गाँव अनुदान में दिए ।

*देवपाल ने ८५० ई. तक शासन किया था । देवपाल के बाद पाल वंश की अवनति प्रारम्भ हो गयी । मिहिरभोज और महेन्द्रपाल के शासनकाल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया ।
*११वीं सदी में महीपाल प्रथम ने ९८८ ई.-१००८ ई. तक शासन किया । महीफाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है । उसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया ।
*महीपाल के बाद पाल वंशीय शासक निर्बल थे जिससे आन्तरिक द्वेष और सामन्तों ने विद्रोह उत्पन्*न कर दिया था । बंगाल में केवर्त, उत्तरी बिहार मॆम सेन आदि शक्*तिशाली हो गये थे ।
*रामपाल के निधन के बाद गहड़वालों ने बिहार में शाहाबाद और गया तक विस्तार किया था ।
सेन शसकों वल्लासेन और विजयसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार किया ।
*इस अराजकता के परिवेश में तुर्कों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया ।

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05-02-2011, 02:04 AM
मिथिला के कर्नाट शासक

रामपाल के शासनकाल में १०९७ ई. से १०९८ ई. तक में ही तिरहुत में कर्नाट राज्य का उदय हो गया । कर्नाट राज्य का संस्थापक नान्यदेव था । नन्यदेव एक महान शासक था । उनका पुत्र गंगदेव एक योग्य शासक बना ।

नान्यदेव ने कर्नाट की राजधानी सिमरॉवगढ़ बनाई । कर्नाट शासकों का इस वंश का मिथिला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है ।

वैन वार वंश के शासन तक मिथिला में स्थिरता और प्रगति हुई । नान्यदेव के साथ सेन वंश राजाओं से युद्ध होता रहता था ।

सामन्त सेन सेन वंश का संस्थापक था । विजय सेन, बल्लाल्सेन, लक्ष्मण सेन आदि शासक बने । सेन वंश के शासकों ने बंगाल और बिहार पर शासन किया । विजय सेन शैव धर्मानुयायी था । उसने बंगाल के देवपाड़ा में एक झील का निर्माण करवाया । वह एक लेखक भी थे जिसने ‘दान सागर’ और ‘अद्*भुत सागर’ दो ग्रन्थों की रचना की ।

लक्ष्मण सेन सेन वंश का अन्तिम शासक था । हल्लायुद्ध इसका प्रसिद्ध मन्त्री एवं न्यायाधीश था । गीत गोविन्द के रचयिता जयदेव भी लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे । लक्ष्मण सेन वैष्णव धर्मानुयायी था ।

सेन राजाओं ने अपना साम्राज्य विस्तार क्रम में ११६० ई. में गया के शासक गोविन्दपाल से युद्ध हुआ । ११२४ ई. में गहड़वाल शासक गोविन्द पाल ने मनेर तक अभियान चलाया ।
जयचन्द्र ने ११७५-७६ ई. में पटना और ११८३ ई. के मध्य गया को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया ।
कर्नाट वंश के शासक नरसिंह देव बंगाल के शासक से परेशान होकर उसने तुर्की का सहयोग लिया ।
उसी समय बख्तियार खिलजी भी बिहार आया और नरदेव सिंह को धन देकर उसे सन्तुष्ट कर लिया और नरदेव सिंह का साम्राज्य तिरहुत से दरभंगा क्षेत्र तक फैल गया ।
कर्नाट वंश के शासक ने सामान्य रूप से दिल्ली सल्तनत के प्रान्तपति नियुक्*त किये गये

Bond007
05-02-2011, 02:05 AM
बिहार और बंगाल पर गयासुद्दीन तुगलक ने १३२४-२५ ई. में आधिपत्य कर लिया । उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह था । वह तुर्क सेना से हार मानकर नेपाल की तराई में जा छिपा । इस प्रकार उत्तरी और पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश १३७८ ई. में समाप्त हो गया ।

आदित्य सेन- माधवगुप्त की मृत्यु ६५० ई. के बाद उसका पुत्र आदित्य सेन मगध की गद्दी पर बैठा । वह एक वीर योद्धा और कुशल प्रशासक था ।

*अफसढ़ और शाहपुर के लेखों से मगध पर उसका आधिपत्य प्रंआनित होता है ।
मंदार पर्वत में लेख के अंग राज्य पर आदित्य सेन के अधिकार का उल्लेख है । उसने तीन अश्*वमेध यज्ञ किये थे ।
*मंदार पर्वत पर स्थित शिलालेख से पता चलता है कि चोल राज्य की विजय की थी ।
*आदित्य सेन के राज्य में उत्तर प्रदेश के आगरा और अवध के अन्तर्गत एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने वाला प्रथम शासक था ।
*उसने अपने पूर्वगामी गुप्त सम्राटों की परम्परा का पुनरूज्जीवन किया । उसके शासनकाल में *चीनी राजदूत वांग यूएन त्से ने दो बार भारत की यात्रा की ।
*कोरियन बौद्ध यात्री के अनुसार उसने बोधगया में एक बौद्ध मन्दिर बनवाया था ।
*आदित्य सेन ने ६७५ ई. तक शासन किया था ।

Bond007
05-02-2011, 02:06 AM
आदित्य सेन के उत्तराधिकारी तथा उत्तर गुप्तों का विनाश-

आदित्य सेन की ६७५ ई. में मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवगुप्त द्वितीय हुआ । उसने भी परम भट्टारक महाधिराज की उपाधि धारण की । चालुक्य लेखों के अनुसार उसे सकलोत्तर पथनाथ कहा गया है ।

*इसके बाद विष्णुगुप्त तथा फिर जीवितगुप्त द्वितीय राजा बने ।
*जीवितगुप्त द्वितीय का काल लगभग ७२५ ई. माना जाता है । जीवितगुप्त द्वितीय का वध कन्*नौज नरेश यशोवर्मन ने किया ।
*जीवितगुप्त की मृत्यु के बाद उत्तर गुप्तों के मगध साम्राज्य का अन्त हो गया ।

Bond007
05-02-2011, 02:06 AM
मौखरि वंश

मौखरि वंश का शासन उत्तर गुप्तकाल के पतन के बाद स्थापित हुआ था । गया जिले के निवासी मौखरि लोग जो चक्रवर्ती गुप्त राजवंश के समय उत्तर गुप्तवंश के लोगों की तरह सामन्त थे ।

मौखरि वंश के लोग उत्तर प्रदेश के कन्*नौज में तथा राजस्थान के बड़वा क्षेत्र में तीसरी सदी में फैले हुए थे । मौखरि वंश के शासकों को उत्तर गुप्त वंश के चौथे शासक कुमारगुप्त के साथ युद्ध हुआ था जिसमें ईशान वर्मा ने मौखरि वंश से मगध को छीन लिया था ।

मौखरि वंश के सामन्त ने अपनी राजधानी कन्*नौज बनाई । कन्*नौज का प्रथम मौखरि वंश का सामन्त हरिवर्मा था । उसने ५१० ई. में शासन किया था । उसका वैवाहिक सम्बन्ध उत्तर वंशीय राजकुमारी हर्षगुप्त के साथ हुआ था । ईश्*वर वर्मा का विवाह भी उत्तर गुप्त वंशीय राजकुमारी उपगुप्त के साथ हुआ था । यह कन्*नौज तक ही सीमित रहा । यह राजवंश तीन पीढ़ियों तक चलता रहा

हरदा लेख से स्पष्ट होता है कि सूर्यवर्मा ईशान वर्मा का छोटा भाई था । अवंति वर्मा सबसे शक्*तिशाली तथा प्रतापी राजा था । इसके बाद मौखरि वंश का अन्त हो गया ।

Bond007
07-02-2011, 01:10 PM
बिहार का मध्यकालीन इतिहास

Bond007
07-02-2011, 01:11 PM
बिहार का मध्यकालीन इतिहास का प्रारम्भ उत्तर-पश्*चिम सीमा पर तुर्कों के आक्रमण से होता है। मध्यकालीन काल में भारत में किसी की भी मजबूत केन्द्रीय सत्ता नहीं थी। पूरे देश में सामन्तवादी व्यवस्था चल रही थी। सभी शासक छोटे-छोटे क्षेत्रीय शासन में विभक्*त थे।

मध्यकालीन बिहार की इतिहास की जानकारी के स्त्रोतों में अभिलेख, नुहानी राज्य के स्त्रोत, विभिन्न राजाओं एवं जमींदारों के राजनीतिक जीवन एवं अन्य सत्ताओं से उनके संघर्ष, दस्तावेज, मिथिला क्षेत्र में लिखे गये ग्रन्थ, यूरोपीय यात्रियों द्वारा दिये गये विवरण इत्यादि महत्वपूर्ण हैं।

*बिहार का मध्यकालीन युग १२वीं श्*ताब्दी से प्रारम्भ माना जा सकता है।
*विद्यापति का रचित ग्रन्थ कीर्तिलता के अनुसार कर्नाट वंशीय शासक हरिसिंह के पश्*चात मिथिला में राजनीतिक अराजकता का माहौल था।
*मुस्लिम आक्रमण से पूर्व बिहार दो राजनीतिक क्षेत्रीय भाग में विभक्*त था- दक्षिण बिहार का क्षेत्रीय भाग और उत्तर बिहार का क्षेत्रीय भाग।
*दक्षिण बिहार का क्षेत्रीय भाग-यह भाग दक्षिण बिहार का क्षेत्र था। जिसमें मगध राज्य मुख्य था।

*उत्तर बिहार का क्षेत्रीय भाग-यह भाग उत्तर बिहार का था जो तिरहुत क्षेत्र में पड़ता था जिसमें मिथिला राज्य प्रमुख था।

दोनों क्षेत्रीय भाग में कोई मजबूत शासक नहीं था। और सभी क्षेत्रो में छोटे-छोटे राजा/सामन्त स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर चुके थे। चाल वंशीय शासन व्यवस्था भी धीरे-धीरे बिहार में कमजोर होती जा रही थी।वे बंगाल तक ही सीमित हो चुके थे।

Bond007
07-02-2011, 01:16 PM
विद्यापति

विद्यापति भारतीय साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव और शैव भक्ति के सेतु के रुप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महती प्रयास किया है।

मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की श्रृंगार और भक्ति रस में पगी रचनायें जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनायें हैं।

प्रमुख रचनायें
महाकवि विद्यापति संस्कृत, अबहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे। शास्र और लोक दोनों ही संसार में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकाण्ड हो या धर्म, दर्शन हो या न्याय, सौन्दर्य शास्र हो या भक्ति रचना, विरह व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं के बदौलत जाने जाते हैं। महाकवि ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में विराजमान रहकर अपने वैदुश्य एवं दूरदर्शिता सो उनका मार्गदर्शन करते रहे। जिन राजाओं ने महाकवि को अपने यहाँ सम्मान के साथ रखा उनमें प्रमुख है:

(क) देवसिंह
(ख) कीर्तिसिंह
(ग) शिवसिंह
(घ) पद्मसिंह
(च) नरसिंह
(छ) धीरसिंह
(ज) भैरवसिंह और
(झ) चन्द्रसिंह।

इसके अलावे महाकवि को इसी राजवंश की तीन रानियों का भी सलाहकार रहने का सौभाग्य प्राप्त था। ये रानियाँ है:

(क) लखिमादेवी (देई)
(ख) विश्वासदेवी और
(ग) धीरमतिदेवी।

Bond007
07-02-2011, 01:22 PM
पाल वंश

पाल वंश के समय (१०५५-८१ ई.) तक मगध में मानस शासक विग्रहराज स्वतन्त्र हो गया। पाल वंश का बिहार में गहड़वाल वंश का अधिकार (११२६ से ११८८ई. तक) हो गया था।

*१२वीं शताब्दी में संग्राम गुप्त नामक शासक का शासन था, जबकि गया में पिथीके सेन शासक का शासन था।
*फूतुहाते फिरोजशाही के अनुसार फिरोजशाह तुगलक से युद्ध का वर्णन मिलता है।
*रामपाल के समय में ही कर्नाट वंश का उदय हुआ था जिनका बंगाल के शासक सेन से संघर्ष होता रहता था।

बिहार में मध्यकालीन समय अत्यन्त ही उत्क्रमणीय था। राजनीतिक अव्यवस्था के साथ-साथ धार्मिक तनाव भी व्याप्त था। बौद्ध एवं गैर-बौध मतावलम्बियों के बीच तनावपूर्ण सम्बन्ध था। बिहार के राजनीतिक, धार्मिक एवं शासकीय अव्यवस्था की विकट परिस्थितियों में तुर्की आक्रमण प्रारम्भ हुआ।

सामान्यतः ऐसा माना जाता है। कि बिहार पर प्रथम आक्रमण प्रथम तुर्क बख्तियार खिलजी ने किया था, परन्तु उसके आक्रमण से पूर्व भी बिहार में तुर्कों का आवागमन था। तुर्कों का प्रारम्भिक प्रभाव क्षेत्र पटना जिले का मनेर था। जहाँ हदारस मोमिन यारिफ बसने आये थे।

११९७-९८ ई. के पश्*चात्* बख्तियार खिलजी ने मगध क्षेत्र में प्रथम आक्रमण किया और लूटा। इसके पश्*चात उसने आधुनिक बिहार शरीफ (ओदन्तपुरी) पर आक्रमण किया। ओदन्तपुरी विश्*वविद्यालय के लूटने के बाद नालन्दा विश्*वविद्यालय को जलाकर तहस-नहस कर दिया। इसी समय उसने आधुनिक बख्तियारपुर शहर को बसाया। इसी दौरान बिहार शरीफ तुर्कों का केन्द्र के रुप में उभरा।

Bond007
07-02-2011, 01:26 PM
बौद्ध विहार


*इतिहासकारों के अनुसार इस क्षेत्र में बौद्ध विहारों की संख्या काफी थी, अतः तुर्कों ने इसे विहारों का प्रदेश कहा है। उक्*त क्षेत्र पहले बिहार शरीफ कहलाया।
*बौद्ध धर्म में बौद्ध भिक्षुओं के ठहरने के स्थान को विहार कहते हैं। यही विहार जो तुर्कों द्वारा दिया गया है। वह बाद में बिहार हो गया।
*बिहार शब्द विहार का अपभ्रंश रुप है। यह शब्द बौद्ध (मठों) विहारों कि क्षेत्रीय बहुलता के कारण (बिहार) तुर्कों द्वारा दिया हुआ नाम है।
बिहार का अर्थ- "बौद्ध भिक्षुओं का निवास"

सन्* १२६३ में रचित तवाकत-ए-नसीरी में ’विहार’ शब्द का उल्लेख इस प्रदेश के लिए हुआ है, जबकि १३०९ ई. में कविराज विद्यापति रचित कीर्तिलता में भी विहार शब्द का उल्लेख इस प्रदेश के लिए आया है।

१२वीं शताब्दी के अन्त में नालन्दा और औदन्तपुरी के नोकट स्थित अनेक बौद्ध विहारों की बहुलता को देखकर मुसलमान शासकों ने इस प्रदेश का नामकरण बिहार कर दिया। तुर्कों ने सेन शासकों को पराजित किया एवं जयपुर के गुप्त राजाओं को समाप्त किया।

बख्तियार खिलजी ने १२०० ई. में नालन्दा और औदन्तपुरी विश्*वविद्यालय को नष्ट कर दिया। १२०३ ई. मेंं कुतुबुद्दीन ऐबक ने बख्तियार खिलजी को जीते हुए प्रदेशों का अधिकार प्रदान कर दिया। फलतः खिलजी ने औदन्तपुरी पर विजय कर अपनी राजधानी लखनौती में बनाई।

१२०४ ई. के बाद बख्तियार खिलजी ने मिथिला के कर्नाट शासक नरसिंह देव के खिलाफ आक्रमण करके उसे भी अधिकार में कर लिया। इसके बाद बख्तियार खिलजी ने बंगाल एवं असोम क्षेत्र में आक्रमण किये। फलतः वह बीमार हो गया। उसी दौरान अलीमर्दन खिलजी ने उसकी हत्या कर दी। उसका शव बिहार लाकर शरीफ के इमादपुर मुहल्ला में दफना दिया गया।

Bond007
07-02-2011, 01:28 PM
ममलूक वंश

बख्तियार खिलजी की मृत्यु (१२०६ ई.) के बाद अलीमर्दन बिहार का कार्यकारी शासक बना। इसके बाद हस्युयद्दीन इवाज खिलजी ने गयासुद्दीन तुगलक (१२०७-२७ ई.) के नाम से लखनौती में स्वतन्त्र सत्ता कायम की और १२११ ई. में हूसामुद्दीन ने गयासुद्दीन की उपाधि धारण की।वह तिरहुत राजा से नजराना वसूला करता था। इसके बाद इजाउद्दीन तुगरील तुगान खान (१२३३-४५ ई.) ने भी तिरहुत पर आक्रमण किया था। दिल्ली में इल्तुतमिश के सुल्तान बनने के बाद उसने बिहार पर विशेष ध्यान नहीं दिया लेकिन १२८५ ई. तक विशाल सएना लेकर बिहार की ओर चल पड़ा, उसने बिहार शरीफ एवं बाढ़ पर अधिकार कर लिया और लखनौती के आगे बढ़ा परन्तु राजमहल की पहाड़ियों में तोलियागढ़ी शासक इवाज की सेना से मुठभेड़ हुई उसने तुरन्त अधीनता स्वीकार कर आत्मसमर्पण कर दिया। इल्तुतमिश ने मालिक अलाउद्दीन जानी को बिहार में दिल्ली के प्रथम प्रतिनिधि के रुप में नियुक्*त किया, परन्तु शीघ्र ही इवाज ने उसकी हत्या कर दी। इसके बाद इल्तुतमिश का पुत्र नसीरुद्दीन महमूद अन्त में वहाँ आया। बलबन की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत से बिहार पुनः स्वतन्त्र हो गया।

ममलूक राजवंश के समय तुर्कों का मनेर, बिहार शरीफ के अलावा शाहाबाद (गया),पटना, मुंगेर, भागलपुर, नालन्दा, सासाराम एवं विक्रमशिला इत्यादि क्षेत्रों पर अधिकार रहा। परन्तु दक्षिण बिहार में तुर्कों का उतना प्रभाव क्षेत्रों पर अधिकार रहा। परन्तु दक्षिण बिहार में तुर्कों का उतना प्रभाव क्षेत्र नहीं रहा।

Bond007
07-02-2011, 01:30 PM
खिलजी वंश


जब १२९० ई. जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना और खिलजी वंश की स्थापना की तब बंगाल में बुगरा खाँ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रुकनुद्दीन कैकाउस शासक बना हुआ था। उसके उत्तर और दक्षिण बिहार के भागों पर बंगाल का नियन्त्रण था।

१२९६ ई. में अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना और १२९७ ई. में शेख मुहम्मद इस्माइल को बिहार के दरभंगा में भेजा वह राजा चक्र सिंह द्वारा पराजित हो गया परन्तु इस्माइल के दूसरे आक्रमण में राजा को पराजित कर बन्दी बना लिया तथा दोनों ने परस्पर समझौता कर लिया। उसने अलाउद्दीन के साथ मधुर सम्बन्ध होने के कारण रणथम्भौर (१२९९-१३०० ई.) में अभियान में भाग लिया।

रुकनुद्दीन कैकाउस की मृत्यु की बाद बिहार पर लखनौती का नियन्त्रण समाप्त हो गया। फिरोज ऐतगीन ने सुल्तान शमसुद्दीन फिरोजशाह के नाम से एक राजवंश बनाया १३०५-१५ ई. तक हातिम खाँ बिहार का गवर्नर बना रहा।

इस प्रकार बिहार पर खिलजी राजवंश का प्रभाव कम और सीमित क्षेत्रों पर रहा। (जो अवध का गवर्नर था) इवाज को गिरफ्तार कर हत्या कर दी। अवध, बिहार और लखनौती को मिलाकर एक कर दिया। १२२७-२९ ई. तक उसने शासन किया। १२२९ ई. में उसकी मृत्यु के बाद दौलतशाह खिलजी ने पुनः विद्रोह कर दिया,परन्तु इल्तुतमिश ने पुनः लखनौती जाकर वल्ख खिलजी को पराजित कर दिया तथा बिहार और बंगाल को पुनः अलग-अलग कर दिया।उसने अलालुद्दीन जानी को बंगाल का गवर्नर एवं सैफूद्दीन ऐबक को बिहार का राज्यपाल नियुक्*त किया बाद में तुगान खाँ बिहार का राज्यपाल बना। उसके उत्तराधिकारियों में क्रमशः रुकनुद्दीन फिरोजशाह, रजिया मुइज्जुद्दीन, ब्रह्यराय शाह एवं अलाउद्दीन मसूद शाह आदि शासकों ने लखनौती एवं बिहार के तथा दिल्ली के प्रति नाममात्र के सम्बन्ध बनाये रखे।

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07-02-2011, 01:32 PM
इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी


इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी, जिसे बख्तियार खिलजी भी कहते हैं, कुतुबुद्दीन एबक का एक सैन्य सिपहसालार था।

विजय अभियान

खिलजी ने १२०३ में बिहार पर जीत हासिल कर दिल्ली में अपने राजनीतिक कद को ऊंचा उठाया। इस विजय अभियान के दौरान खिलजी की सेना ने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नेस्तनाबूत कर हजारों की संख्या में बौद्ध भिक्षुओं की हत्या कर दी।

इसके अगले साल खिलजी ने बंगाल पर विजय हासिल कर भारतीय उपमहाद्वीप के इस भाग पर इस्लाम को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। एक मुस्लिम कवि के अनुसार, नादिया शहर पर चढ़ाई के समय वह इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि केवल १८ घुड़सवार ही उसके साथ चल पाए। शहर में पहुंचने पर घोड़ा व्यापारी समझकर उसे राजा लक्ष्मण सेन को खाने के बीच में ही मुलाकात करने की इजाजत दे दी। परिस्थितियों को भांप राजा लक्ष्मण को खाली पैर ही किले के पिछले दरवाजे से भागना पड़ा। हालांकि इस नाटकीय चढ़ाई के बारे में इतिहासकारों में मत विभिन्नता है।

खिलजी राजधानी गौर और बंगाल के अन्य भागों में कब्जा जमाने में कामयाब रहा, लेकिन पूर्वी और दक्षिणी बंगाल स्वतंत्र ही रहे और लक्ष्मण सेन के उत्तराधिकारियों द्वारा बिक्रमपुर से शासित किए जाते रहे। १२०६ में खिलजी तिब्बत की ओर कूच किया, जहां से लौटते हुए उसकी मौत हो गई।

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07-02-2011, 01:33 PM
बलबन

जब दिल्ली का सुल्तान बलबन बना तब बिहार को पुनः बंगाल से अलग कर (गया क्षेत्र) दिल्ली के अधीन कर दिया, जिसकी स्पष्टता हमें वनराज राजा की गया प्रशस्ति से मिलती है। लखनौती शासक जो स्वतन्त्र हो गये थे उन्होने बलबन की अधीनता भी स्वीकार की।

२७९-८० ई. तक तीन विद्रोह हुए। तीनों विद्रोह को दबाने के लिए तीन अभियान भेजे जो असफल रहे। अन्त में स्वयं बलबन विद्रोही के खिलाफ अभियान चलकर विद्रोही को मार डाला। उसने तुगरिक खाँ को मारकर अपने छोटे पुत्र बुगरा खाँ को राजकीय सम्मान दिया।

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07-02-2011, 01:35 PM
गयासुद्दीन बलबन

गयासुद्दीन बलबन (1200 – 1286) दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक शासक था । उसने सन् 1266 से 1286 तक राज्य किया।

गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। उसकी जन्मतिथि का पता नहीं। उसका पिता उच्च श्रेणी का सरदार था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। भाग्यचक्र उसको भारतवर्ष लाया। सुलतान इलतुत्मिश ने उस पर दया करके उसे मोल ले लिया। स्वामिभक्ति और सेवाभाव के फलस्वरूप वह निरंतर उन्नति करता गया, यहाँ तक कि सुलतान ने उसे चेहलगन के दल में सम्मिलित कर लिया। रज़िया के राज्यकाल में उसकी नियुक्ति अमीरे शिकार के पद पर हुई। बहराम ने उसको रेवाड़ी तथा हांसी के क्षेत्र प्रदान किए। सं. 1245 ई. में मंगोलों से लोहा लेकर अपने सामरिक गुण का प्रमाण दिया। आगामी वर्ष जब नासिरुद्दीन महमूद सिंहासनारूढ़ हुआ तो उसने बलबन को मुख्य मंत्री के पद पर आसीन किया। 20 वर्ष तक उसने इस उत्तरदायित्व को निबाहा। इस अवधि में उसके समक्ष जटिल समस्याएँ प्रस्तुत हुईं तथा एक अवसर पर उसे अपमानित भी होना पड़ा, परंतु उसने न तो साहस ही छोड़ा और न दृढ़ संकल्प। वह निरंतर उन्नति की दिशा में ही अग्रसर रहा। उसने आंतरिक विद्रोहों का दमन किया और बाह्य आक्रमणों को असफल। सं. 1246 में दुआबे के हिंदू जमींदारों की उद्दंडता का दमन किया। तत्पश्चात् कालिंजर व कड़ा के प्रदेशों पर अधिकार जमाया। प्रसन्न होकर सं. 1249 ई. में सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया और उसको नायब सुल्तान की उपाधि प्रदान की। सं. 1252 ई. में उसने ग्वालियर, चंदेरी और मालवा पर अभियान किए। प्रतिद्वंद्वियों की ईर्ष्या और द्वेष के कारण एक वर्ष तक वह पदच्युत रहा परंतु शासन व्यवस्था को बिगड़ती देखकर सुल्तान ने विवश होकर उसे बहाल कर दिया। दुबारा कार्यभार सँभालने के पश्चात् उसने उद्दंड अमीरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। सं. 1255 ई. में सुल्तान के सौतेले पिता कत्लुग खाँ के विद्रोह को दबाया। सं. 1257 ई. में मंगोलों के आक्रमण को रोका। सं. 1259 ई. में क्षेत्र के बागियों का नाश किया। 1260 ई. से लेकर 1266 ई. तक की उसकी कृतियों का इतिहास प्राप्त नहीं।

नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् बिना किसी विरोध के ने मुकुट धारण कर लिया। उसने 20 वर्ष तक राज्य किया। सुल्तान के रूप में उसने जिस बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता तथा नैतिकता का परिचय दिया, इतिहासकारों ने उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। शासनपद्धति को उसने नवीन साँचे में ढाला और उसको मूलत: लौकिक बनाने का प्रयास किया। वह मुसलमान विद्वानों का आदर तो करता था लेकिन राजकीय कार्यों में उनको हस्तक्षेप नहीं करने देता था। उसका न्याय पक्षपात रहित और उसका दंड अत्यंत कठोर था, इसी कारण उसकी शासन व्यवस्था को लोह रक्त की व्यवस्था कहकर संबोधित किया जाता है। वास्तव में इस समय ऐसी ही व्यवस्था की आवश्यकता थी।

बलबन ने मंगोलों के आक्रमणों की रोकथाम करने के उद्देश्य से सीमांत क्षेत्र में सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया और इन दुर्गों में साहसी योद्धाओं को नियुक्त किया। उसने मेवात, दोआब और कटेहर के विद्रोहियों को आतंकित किया। जब तुगरिल ने बंगाल में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी तब सुल्तान ने स्वय वहाँ पहुँचकर निर्दयता से इस विद्रोह का दमन किया। साम्राज्य विस्तार करने की उसकी नीति न थी, इसके विपरीत उसका अडिग विश्वास साम्राज्य के संगठन में था। इस उद्देश्य की पूर्ति के हेतु के उसने उमराव वर्ग को अपने नियंत्रण में रखा एवं सुलतान के पद और प्रतिष्ठा को गौरवमय बनाया। उसका कहना था कि "सुल्तान का हृदय दैवी अनुकंपा की एक विशेष निधि है, इस कारण उसका अस्तित्व अद्वितीय है।" उसने सिजदा एवं पायबोस की पद्धति को चलाया। उसका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उसको देखते ही लाग संज्ञाहीन हो जाते थे। उसका भय व्यापक था। उसने सेना का भी सुधार किया, दुर्बल और वृद्ध सेनानायकों को हटाकर उनकी जगह वीर एवं साहसी जवानों को नियुक्त किया। वह तुर्क जाति के एकाधिकार का प्रतिपालक था, अत: उच्च पदों से अतुर्क लोगों को उसने हटा दिया। कीर्ति और यश प्राप्त कर वह सं. 1287 ई. के मध्य परलोक सिधारा।

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07-02-2011, 01:40 PM
तुगलक वंश

तुगलक वंश की स्थापना गयासुद्दीन तुगलक (गाजी मलिक ) ने १३२० ई. में दिल्ली सुल्तान खुसराव खान का अन्त करके की।

गयासुद्दीन का अन्तिम सैन्य अभियान बंगाल विजय थी। उसने १३२४ ई. में बंगाल-बिहार के लिए सैन्य अभियान भेजा। लखनौती शासक नसीरुद्दीन ने समर्पण कर दिया परन्तु सोनार गाँव के शासक गयासुद्दीन बहादुर ने विरोध किया, जिसे पराजित कर दिल्ली भेज दिया गया।

तुगलक वंश के समय में ही मुख्य रुप से बिहार पर दिल्ली के सुल्तानों का महत्वपूर्ण वर्चस्व कायम हुआ। गयासुद्दीन तुगलक ने १३२४ ई. में बंगाल अभियान से लौटते समय उत्तर बिहार के कर्नाट वंशीय शासक हरिसिंह देव को पराजित किया। इस प्रकार तुर्क सेना ने तिरहुत की राजधानी डुमरॉवगढ़ पर अधिकार कर लिया और अहमद नामक को राज्य की कमान सौंपकर दिल्ली लौट गया। गयासुद्दीन की १३२५ ई. में मृत्यु के बाद उसका पुत्र उलूख खान बाद में जौना सा मुहम्मद-बिन-तुगलक नाम से दिल्ली का सुल्तान बना।

मुहम्मद-बिन-तुगलक के काल में बिहार के प्रान्तपति मखदूल मुल्क था, जिसे कर्नाट वंश के राजा हरिसिंह देव के खिलाफ अभियान चलाकर नेपाल भागने के लिए मजबूर कर दिया था। इस प्रकार तिरहुत क्षेत्र को तुगलक साम्राज्य में मिला लिया तथा इस क्षेत्र का नाम तुगलकपुर रखा गया, जो वर्तमान दरभंगा है। दरभंगा में मुहम्मद-बिन-तुगलक ने एक दुर्ग और जामा मस्जिद बनवाई। इसी के समकालीन सूफी सन्त हजरत शर्फुउद्दीन याहया मेनरी का बिहार में आगमन हुआ। १३५१ ई. मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के बाद दिल्ली का सुल्तान उसका चचेरा भाई फिरोज तुगलक बना।

तत्कालीन बंगाल के शासक हाजी इलियास ने ओएन वारा के शासक कामेश्*वर सिंह के विरोध के बावजूद तिरहुत क्षेत्र को दो भागों में विभाजित कर दिया था और स्वयं बहराइच तक बढ़

फिरोजशाह तुगलक द्वारा झारखण्ड क्षेत्र से हुए बंगाल अभियान १३५९ ई. में किया। सीरते फिरोजशाही ने सुल्तान द्वारा बिहार के प्रसिद्ध सन्त शेख अहमद चिर्मपोश से मुलाकात की थी। राजगृह में जैन मन्दिरों के अभिलेखों से पता चलता है कि फिरोजशाह ने दान दिया।

तुगलक काल में बिहार की राजधानी बिहार शरीफ थी। बिहार राज्य का बिहार नाम भी इसी काल में पड़ा था। इस काल में बिहार के प्रशासकों में सबसे महत्वपूर्ण मलिक इब्राहिम था। बिहार शरीफ पहाड़ी पर स्थित इनका मकबरा तुगलक कालीन स्थापत्यकला का मन्दिर उदाहरण है

१३८८ ई. में फिरोजशाह तुगलक की मृत्यु के बाद मध्यकालीन बिहार का दिल्ली सल्तनत में विघटन प्रक्रिया शुरु हो गई। फिरोजशाह के उत्तराधिकारी निष्क्रमण और कमजोर थे जो बिहार पर नियन्त्रण न रख सके। यही स्थिति दिल्ली सुल्तान सैयद वंश के शासकों में रही फलतः बिहार का क्षेत्र जौनपुर राज्य के अधीन हो गया। जौनपुर में शर्की वंशीय शासक थे जिससे जौनपुर और दिल्ली में संघर्ष प्रारम्भ हो गया। अन्तिम शर्की शासक हुसैन शाह शर्की (१४५८-१५०५ ई.)के समय बिहार भी संघर्ष में फँसा रहा। १४८९ ई. में जौनपुर पर लोंदी वंश का अधिकार होने के बाद बिहार में नुहानी वंश का उदय हुआ।

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07-02-2011, 01:42 PM
चेरो राजवंश

बिहार में चेरो राजवंश के उदय का प्रमाण मिलता है, जिसका प्रमुख चेरो राज था। वह शाहाबाद, सारण,, चम्पारण एवं मुजफ्फर तक विशाल क्षेत्र पर एक शक्*तिशाली राजवंश के रुप में विख्यात है।

१२वीं शताब्दी में चेरो राजवंश का विस्तार बनारस के पूरब में पटना तक तथा दक्षिण में बिहार शरीफ एवं गंगा तथा उत्तर में कैमूर तक था। दक्षिण भाग में चेरो सरदारों का एक मुस्लिम धर्म प्रचारक मंसुस्*हाल्लाज शहीद था। शाहाबाद जिले में चार चेरो रान्य में विभाजित था-

*धूधीलिया चेरो- यह शाहाबाद के मध्य में स्थित प्रथम राज्य था, जिसका मुख्यालय बिहियाँ था।
*भोजपुर- यह शाहाबाद का दूसरा राज्य था, जिसका मुख्यालय तिरावन था। यहाँ का राजा सीताराम था।
*तीसरा राज्य का मुख्यालय चैनपुर था, जबकि देव मार्केण्ड चौथा राज्य का मुख्यालय था। इसमें चकाई तुलसीपुर रामगठवा पीरी आदि क्षेत्र सम्मिलित थे। राजा फूलचन्द यहाँ का राजा था। जिन्होंने जगदीशपुर में मेला शुरु किया।
*सानेपरी चेरा जो सोन नदी के आस-पास इलाकों में बसे थे जिनका प्रमुख महरटा चेरो था। इसके खिलाफ शेरशाह ने अभियान चलाया था।

भोजपुर चेरो का प्रमुख कुकुमचन्द्र कारण था। चेरो का अन्तिम राजा मेदिनीराय था। मेदिनीराय की मृत्यु के पश्*चात्* उसका पुत्र प्रताप राय राजा बना। इसके समय में तीन मुगल आक्रमण हुए अन्ततः १६६० ई. में इन्हें मुगल राज्य में मिला लिया गया।

भोजपुर का उज्जैन वंशीय शासक- ऐतिहासिक स्त्रोतों में भोजराज के वृतान्तानुसार जब धार (मालवा) पर १३०५ ई. में अलाउद्दीन खिलजी की सेना का अधिकार हो गया। भोजपुर के धार पुनः अधिकार करने में विफल रहा तब अपने पुत्र देवराज और अन्य राज पुत्र अनुयायियों के साथ अपना पैतृक स्थान छोड़कर कीकट (शाहाबाद एवं पलामू) क्षेत्रों में राजा मुकुन्द के शरण में आये।

मूल स्थान उज्जैन के होने के कारण इन्हें उज्जैनी वंशीय राजपूत कहा गया। अतः इन्होने अपना राज्य भोजपुर बनाया। इनका प्रभाव क्षेत्र डुमरॉव, बक्सर एवं जगदीशपुर रहा जो ब्रिटिश शासनकाल तक बना रहा।

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07-02-2011, 01:45 PM
नूहानी वंश

बिहार के मध्यकालीन इतिहास में नूहानी वंश का उदय एक महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान रखता है क्योंकि इसके उदय में सिकन्दर लोदी (१४८९-१५१७ ई.) के शासनकालीन अवस्था में हुए राजनैतिक परिवर्तनों से जुड़ा है।

जब सिकन्दर लोदी सुल्तान बना तो उसका भाई (जो जौनपुर के गवर्नर था) वारवाक शाह ने विद्रोह कर बिहार में शरण ली। इसके पहले जौनपुर का पूर्व शासक हुसैन शाह शर्की भी बिहार में आकर तिरहुत एवं सारण के जमींदारों के साथ विद्रोही रुप में खड़े थे।

बिहार विभिन्न समस्याओं का केन्द्र बना हुआ था फलतः सिकन्दर लोदी ने बिहार तथा बंगाल के लिए अभियान चलाया।

बिहार शरीफ स्थित लोदी के अभिलेख के अनुसार सिकन्दर लोदी ने १४९५-९६ ई. में बंगाल के हुसैन शाह शर्की को हराकर बिहार में दरिया खाँ लोहानी को गवर्नर नियुक्*त किया।

१५०४ ई. में सिकन्दर लोदी ने बंगाल के साथ एक सन्धि करके बिहार और बंगाल के बीच मुंगेर की एक सीमा रेखा निश्*चित कर दी। बिहार का प्रभारी दरिया खाँ लोहानी (१४९५-१५२२) में नियुक्*त कर दिया। दरिया खाँ लोहानी एक योग्य शासक की तरह इस क्षेत्र के जमींदारों एवं अन्य विद्रोही तत्वों को शान्त बनाये रखा। उसने जमींदारों, उलेमाओं एवं सन्तो के प्रति दोस्ताना नीति अपनाई।

पटना में दरियापुर, नूहानीपुर जैसे नाम भी नूहानी के प्रभाव की झलक देते हैं। परन्तु १५२३ ई. में दरिया खाँ नूहानी की मृत्यु हो गयी। दूसरी ओर पानीपत के प्रथम युद्ध १५२६ ई. में इब्राहिम लोदी उठाकर नूहानी का पुत्र सुल्तान मोहम्मद शाह नूहानी ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता की घोषणा कर दी। इसके दरबार में इब्राहिम जैसे असन्तुष्ट अफगान सरदारों का जमावाड़ा था। उसने धीरे-धीरे अपनी सेना की संख्या एक लाख कर ली और बिहार से सम्बल तक मुहम्मद लोहानी का कब्जा हो गया। इस परिस्थति से चिन्तित होकर इब्राहिम लोदी ने मुस्तफा फरश्*ली को सुल्तान मुहम्मद के खिलाफ सेना भेजी, परन्तु इस समय मुस्तफा की मृत्यु हो गई। सेना की कमान शेख बाइजिद और फतह खान के हाथों में थी। दोनों की सेनाओं के बीच कनकपुरा में युद्ध हुआ। इब्राहिम लोदी की मृत्यु के पश्*चात सुल्तान मुहम्मद ने सिकन्दर पुत्र मेहमूद लोदी को दिल्ली पर अधिकार करने के प्रयास में सहायता प्रदान की थी, परन्तु १५२९ ई. में घाघरा युद्ध में बाबर ने इन अफगानों को बुरी तरह पराजित किया। बाबर ने बिहार में मोहम्मद शाह नूहानी के पुत्र जलाल खान को बिहार का प्रशासक नियुक्*त किया (१५२८ ई. में) शेर खाँ (फरीद खाँ) को उसका संरक्षक नियुक्*त किया गया। इस प्रकार बिहार में नूहानिया का प्रभाव १४९५ ई. से प्रारम्भ होकर १५३० ई. में समाप्त हो गया।

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07-02-2011, 01:48 PM
अफगान

बिहार में अफगानों का इतिहास भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस समय सूर वंश का अभि उत्*थान हुआ जो बिहार सहित भारत में राजनीतिक स्थिति में क्रान्तकारी परिवर्तन हुआ। यह काल सूर वंश का काल १५४० से १५४५ ई. तक माना जाता है। यहँ पठानो का लम्बी अवधि तक शासन रहा।

शेरशाह ने १५४० ई. में उत्तर भारत में सूर वंश तथा द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की। शेरशाह को भारतीय इतिहास में उच्च कोटि का शासक, सेनानायक और साम्राज्य निर्माता कहा जाता है। वह सूर वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक था। उसने प्रारम्भिक जीवन में अरबी और फारसी में अध्यन किया। पानीपत के युद्ध के उपरान्त शेरशाह दिल्ली में बाबरी सेना में भर्ती हो गया। शेरशाह ने बाबर की सेना में रहकर युद्ध के तरीके और अस्त्रों का प्रयोग व्यापक रुप से सीखा। इसी अनुभव के आधार पर शेरशाह ने हुमायूँ को चौसा और कन्नौज के युद्ध में पराजित किया। उसने १५२७ ई. के अन्त तक मुगलों की अधीनता के साथ रहकर अपनी अफगान शक्*ति को बढ़ाया।

बिहार का शासक-मुगलों ने विद्रोही अफगानों को पराजित कर अफगान सैनिकों के योग्य अफगान को नष्ट कर दिया। १५२८ ई. के असफल अफगान विद्रोह के बाद शेर खाँ जलाल खाँ का मन्त्री और संरक्षक नियुक्*त हो गया। शेर खाँ ने संरक्षक की हैसियत से शासन करना प्रारम्भ कर दिया। उसने स्थानीय सरदारों पर कड़ा नियन्त्रण रखा, उसके हिसाब पर जांच कराई और प्रजा पर अत्याचार करने वालों को दण्डित किया जिससे नूहानी सरदार शत्रु हो गये। नूहानी सरदारों ने बंगाल शासक नुसरतशाह से आवेदन किया कि बिहार को शेर खाँ के प्रभाव से मुक्*त करने का प्रयास करे।

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07-02-2011, 01:50 PM
शेरशाह सूरी-

शेरशाह सूरी का वास्तविक नाम फरीद खाँ था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर १४७२ ई. में) में अपने पिता हसन की अफगान पत्*नी से उत्पन्न पुत्र था। उसका पिता हसन बिहार के सासाराम का जमींदार था। दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खाँ लोहानी ने उसे एक शेर मारने के उपलक्ष्य में शेर खाँ की उपाधि से सुशोभित किया और अपने पुत्र जलाल खाँ का संरक्षक नियुक्*त किया। बहार खाँ लोहानी की मृत्यु के बाद शेर खाँ ने उसकी बेगम दूदू बेगम से विवाह कर लिया और वह दक्षिण बिहार का शासक बन गया। इस अवधि में उसने योग्य और विश्*वासपात्र अफगानों की भर्ती की। १५२९ ई. में बंगाल शासक नुसरतशाह को पराजित करने के बाद शेर खाँ ने हजरत आली की उपाधि ग्रहण की। १५३० ई. में उसने चुनार के किलेदार ताज खाँ की विधवा लाडमलिका से विवाह करके चुनार के किले पर अधिकार कर लिया। १५३४ ई. में शेर खाँ ने सुरजमठ के युद्ध में बंगाल शासक महमूद शाह को पराजित कर १३ लाख दीनार देने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार शेरशाह ने अपने प्रारम्भिक अभियान में दिल्ली, आगरा, बंगाल, बिहार तथा पंजाब पर अधिकार कर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। १५३९ ई. में चौसा के युद्ध में हुमायूँ को पराजित कर शेर खाँ ने शेरशाह की अवधारणा की। १५४० ई. में शेरशाह ने हुमायूँ को पुनः हराकर राजसिंहासन प्राप्त किया। उत्तर बिहार में पहले से ही हाकिम मखदूग आलम शासन कर रहा था। नुसरतशाह ने दक्षिण बिहार पर प्रभाव स्थापित करने के लालच में कुत्य खाँ के साथ एक सेना भेजी, परन्तु शेर खाँ ने उसे पराजित कर दिया। शेर खाँ धीरे-धीरे सर्वाधिक शक्*तिशाली अफगान नेता बन गया।

नूहानी सरदारों ने उनकी हत्या के लिए असफल कोशिश की और जब शेर खाँ ने उनको नुसरतशाह के विरुद्ध युद्ध कर दिया और पराजित कर दिया। इस विजय ने बंगाल के सुल्तान की महत्वाकांक्षी योजना को विफल कर दिया। बाबर के समय शेर खाँ हमेशा अधीनता का प्रदर्शन करता रहा था परन्तु हुमायूँ के समय में अपना रुख बदलकर चुनार गढ़ को लेकर प्रथम बार चुनार लेने की चेष्टा की तब उसे महमूद लोदी के प्रत्याक्रमण के कारण वहाँ से जाना पड़ा। उसने हिन्दूबेग को सेना भेजकर शेर खाँ ने दुर्ग देने से साफ इनकार कर दिया। फलतः एक युद्ध हुआ।

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07-02-2011, 01:51 PM
चौसा का युद्ध

हुमायूँ के सेनापति हिन्दूबेग चाहते थे कि वह गंगा के उत्तरी तट से जौनपुर तक अफगानों को वहाँ से खदेड़ दे, परन्तु हुमायूँ ने अफगानो की गतिविधियों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। शेर खाँ ने एक अफगान को दूत बनाकर भेजा जिससे उसकी सेना की दुर्व्यवस्था की सूचना मिल गई। फलस्वरुप उसने अचानक रात में हमला कर दिया। बहुत से मुगल सैनिक गंगा में कूद पड़े और डूब गये या अफगानों के तीरों के शिकार हो गये। हुमायूँ स्वयं डूबते-डूबते बच गया। इस प्रकार चौसा का युद्ध में अफगानों को विजयश्री मिली।

इस समय अफगान अमीरों ने शेर खाँ से सम्राट पद स्वीकार करने का प्रस्ताव किया। शेर खाँ ने सर्वप्रथम अपना राज्याअभिषेक कराया। बंगाल के राजाओं के छत्र उसके सिर के ऊपर लाया गया और उसने शेरशाह आलम सुल्तान उल आदित्य की उपाधि धारण की। इसके बाद शेरशाह ने अपने बेटे जलाल खाँ को बंगाल पर अधिकार करने के लिए भेजा जहाँ जहाँगीर कुली की मृत्यु एवं पराजय के बाद खिज्र खाँ बंगाल का हाकिम नियुक्*त किया गया। बिहार में शुजात खाँ को शासन का भार सौंप दिया और रोहतासगढ़ को सुपुर्द कर दिया, फिर लखनऊ, बनारस, जौनपुर होते हुए और शासन की व्यवस्था करता हुआ कन्नौज पहुँचा।

कन्नौज (बिलग्राम १५४० ई.) का युद्ध- हुमायूँ चौसा के युद्ध में पराजित होने के बाद कालपीहोता आगरा पहुँचा, वहाँ मुगल परिवार के लोगो ने शेर खाँ को पराजित करने का निर्णय लिया। शेरशाह तेजी से दिल्ली की और बढ़ रहा था फलतः मुगल बिना तैयारी के कन्*नौज में आकर भिड़ गये । तुरन्त आक्रमण के लिए दोनों में से कोई तैयार नहीं था । शेरशाह ख्वास खाँ के आने की प्रतीक्षा में था । हुमायूँ की सेना हतोत्साहित होने लगी । मुहम्मद सुल्तान मिर्जा और उसका शत्रु रणस्थल से भाग खड़े हुए । कामरान के ३ हजार से अधिक सैनिक भी भाग खड़े हुए फलतः ख्वास खाँ, शेरशाह से मिल गया । शेरशाह ने ५ भागों में सेना को विभक्*त करके मुगलों पर आक्रमण कर दिया ।

जिस रणनीति को अपनाकर पानीपत के प्रथम युद्ध में अफगान की शक्*ति को समाप्त कर दिया उसी नीति को अपनाकर शेरशाह ने हुमायूँ की शक्*ति को नष्ट कर दिया । मुगलों की सेना चारों ओर से घिर गयी और पूर्ण पराजय हो गयी । हुमायूँ और उसके सेनापति आगरा भाग गये । इस युद्ध में शेरशाह के साथ ख्वास खाँ, हेबत खाँ, नियाजी खाँ, ईसा खाँ, केन्द्र में स्वयं शेरशाह, पार्श्*व में बेटे जलाल खाँ और जालू दूसरे पार्श्*व में राजकुमार आद्रित खाँ, कुत्बु खाँ, बुवेत हुसेन खाँ, जालवानी आदि एवं कोतल सेना थी । दूसरी और हुमायूँ के साथ उसका भाई हिन्दाल व अस्करी तथा हैदर मिर्जा दगलात, यादगार नसरी और कासिम हुसैन सुल्तान थे ।

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07-02-2011, 01:54 PM
शेरशाह का राज्याभिषेक

शेरशाह कन्*नौज युद्ध की विजय के बाद वह कन्नौज में ही रहा और शुजात खाँ को ग्वालियर विजय के लिए भेजा । वर्यजीद गुर को हुमायूँ को बन्दी बनाकर लाने के लिए भेजा । नसीर खाँ नुहानी को दिल्ली तथा सम्बलपुर का भार सौंप दिया ।

अन्ततः शेरशाह का १० जून, १५४० को आगरा में विधिवत्* राज्याभिषेक हुआ । उसके बाद १५४० ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया । बाद में ख्वास खाँ और हैबत खाँ ने पूरे पंजाब पर अधिकार कर लिया । फलतः शेरशाह ने भारत में पुनः द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की । इतिहास में इसे सूरवंश के नाम से जाना जाता है । सिंहासन पर बैठते समय शेरशाह ६८ वर्ष का हो चुका था और ५ वर्ष तक शासन सम्भालने के बाद मई १५४५ ई. में उसकी मृत्यु हो गई ।

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07-02-2011, 01:55 PM
द्वितीय अफगान साम्राज्य

शेरशाह ने उत्तरी भारत (बिहार) में सूर वंश तथा द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की थी । इस स्थापना में उसने अनेकों प्रतिशोध एवं युद्धों को लड़ा ।

पश्*चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा- शेरशाह ने सर्वप्रथम पश्*चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया। उसने मुगलों के प्रभाव को पूर्णतः समाप्त कर दिया । मुगलों पर विशेष नजर रखने के लिए एक गढ़ बनवया जिसका निर्माण टोडरमल और हैबत खाँ नियाजी की अध्यक्षता में करवाया गया और इस्लामशाह के काल में पूरा हुआ । हुमायूँ का पीछा करते हुए शेरशाह मुल्तान तक गया वहाँ बलूची सरदारों ने भी उसको सम्राट मानकर अधीनता स्वीकार की । मुल्तान के लिए पृथक्* हाकिम नियुक्*त किया गया । निपुण सेनानायकों मसलन हैबत खाँ नियाजी, ख्वास खाँ, राय हुसैन जलवानी आदि की नियुक्*ति की । उसे ३० हजार सेना रखने की अनुमति दे दी ।

मालवा पर अधिकार- मारवाड़ में मालदेव शासन कर रहा था । शेरशाह के भय से हुमायूँ मालदेव की शरण में गया । शेरशाह ने हुमायूँ को बन्दी बनाकर सौंप देने का सम्वाद भेजा लेकिन मालदेव ने ऐसा नहीं किया ।

फलतः शेरशाह ने अप्रसन्*न होकर १५४२ ई. में मालवा पर आक्रमण कर दिया । राजपूत सामन्तों ने शेरशाह का पूरी बहादुरी के साथ मुकाबला किया लेकिन शेरशाह की सेना के सामने टिक नहीं सके फलतः १५४३ ई. तक विजय प्राप्त की । इस दौरान पूरनमल ने भी अधीनता स्वीकार कर ली ।

इस युद्ध में राजपूतों की वीरता देखकर शेरशाह ने अपने उद्*गार प्रकट किए थे- मैंने मुट्ठी भर बाजरे के लिए (इस प्रदेश की मुख्य फसल थी) लगभग अपना साम्राज्य ही खो दिया था । बाद में सारंगपुर में कादिरशाह ने अधीनता स्वीकार कर ली । इस प्रकार मांडू और सतवास पर शेरशाह का अधिकार हो गया ।

शेरशाह ने शुजात खाँ को रूपवास में, दरिया खाँ को उज्जैन में, आलम खाँ को सारंगपुर में, पूरनमल को रायसीन में तथा मिलसा को चन्देरी में नियुक्*त किया । शेरशाह ने बाद में शुजात खाँ को सम्पूर्ण मालवा का हाकिम नियुक्*त किया और १२ हजार सैनिक रखने की अनुमति दे दी ।

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07-02-2011, 01:56 PM
रणथम्भौर पर अधिकार

शेरशाह १५४३ ई. में रणथम्भौर होता हुआ आया, फलतः वहाँ के हाकिम ने अपनागढ़ पर उनकी अधीनता स्वीकार की । शेरशाह ने अपने बड़े पुत्र आदित्य को वहाँ का हाकिम नियुक्*त किया ।

रायसीन पर अधिकार- पूरनमल के विरुद्ध शेरशाह ने कट्टरपंथियों व उलेमाओं की बात में आकर कार्यवाही की । उसने अपने किये वायदे को तोड़ा । स्वयं जाँच करने पर सही पाया फलतः पूरनमल अपने सम्मान को बचाते हुए स्वयं लड़ते हुए मारा गया ।

शेरशाह ने सम्राट बनने से पूर्व विभिन्*न स्थानों पर अपनी सुविधा और फायदे को ध्यान में रखकर विश्*वासघात किया था । पूरनमल को एक सम्राट की हैसियत से आश्*वासन देकर खुले मैदान में हराने में सक्षम होते हुए भी उलेमा की राय का बहाना बनाकर जो विश्*वासघात किया वह उसके यश को सदा के लिए कलंकित करता रहेगा । फलतः बिना किसी हानि के राजपूतों का नाश हुआ और मिलसा, रायसीन तथा चंदेरी पर शेरशाह का अधिकार हो गया ।

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07-02-2011, 01:57 PM
कालिंजर युद्ध


यह शेरशाह का अन्तिम युद्ध था । यह युद्ध चन्देल राजपूतों के साथ हुआ । भाटा के राजा वीरभानु ने हुमायूँ की सहायता की थी, जिससे शेरशाह ने एक दूत वीरभानु के पास भेज दिया । वीरभानु डरकर कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चन्देल की शरण में चला गया । शेरशाह ने कीर्तिसिंह से वीरभानु की माँग की जिसे उसने अस्वीकार कर दिया । फलतः शेरशाह ८०,००० घुड़सवार, २,००० हाथी और अनेक तोपों के साथ कालिंजर पर आक्रमण कर दिया । उसने अपने बेटे आदित्य खाँ को आदेश दिया कि वह रणथम्भौर, अजमेर, बयाना और निकटवर्ती प्रदेश पर कड़ी नजर रखे । पटना स्थित जलाल खाँ को आज्ञा भेजी कि वह पूरब की ओर से बघेल चन्देल राज्य को घेर ले । यह व्यवस्था करके उसने कालिंजर का घेरा डाला । कीर्तिसिंह और शेरशाह के साथ छः माह तक युद्ध चलता रहा । बड़ी तोपों के लिए सबाते और सरकोव (ऊँचे खम्भे) बनाये गये और उसके ऊपर से किले की दीवार पर गोलीबारी प्रारम्भ की गई । एक दिन शेरशाह अपने सैकों का निरीक्षण कर रहा था, उसने देखा कि जलाल खाँ जलवानी हुक्*के (हुक्*के-एक प्रकार के अग्निबाण, जो हाथ से फेंके जाते थे) तैयार कराये हैं और उसका प्रयोग करके दुर्ग के भीतर संकट उपस्थित करने की योजना बनाई है । शेरशाह ने स्वयं हुक्*कों को फेंकना शुरू कर दिया । एक हुक्*का किले की बाहरी दीवार से टकराकर उस ढेर पर आ गिरा जहाँ शेरशाह खड़ा था, तुरन्त एक भीषण ज्वाला प्रज्वलित हो उठी और शेरशाह बुरी तरह जल गया । शेरशाह की हालत बिगड़ने लगी और उनके सैनिक और सेनापति पास आकर दुःख प्रकट करने लगे ।

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07-02-2011, 01:59 PM
शेरशाह ने कहा कि यदि वे उसके जीवित रहते गढ़ पर अधिकार कर लें तो वह शान्ति से प्राण छोड़ सकेगा । फलतः भीषणता से आक्रमण कर दुर्ग पर शेरशाह का अधिकार हो गया । जीत की सूचना पाकर वह मई १५४५ ई. में मर गया ।

शेरशाह ने अपने अल्पकालीन शासनकाल में अनेक सार्वजनिक कार्य किये जो निम्न हैं-

शासन सुधार

शेरशाह ने एक जनहितकारी शासन प्रणाली की स्थापना की । शासन को सुविधाजनक प्रबन्ध के लिए सारा साम्राज्य को ४७ भागों में बाँट दिया, जिसे प्रान्त कहा जाता है । प्रत्येक प्रान्त में एक फौजदार था जो सूबेदार होता था । प्रत्येक प्रान्त सरकार, परगनों तथा गाँव परगने में बँटे थे । सरकार में प्रमुख अधिकारी होते थे-शिकदार-ए-शिकदारा तथा मुन्सिफ-ए-मुन्सिफा । प्रथम सैन्य अधिकारी होता था, जबकि दूसरा दीवानी मुकदमों का फैसला देता था ।

शेरशाह के प्रशासनिक सुधार में महत्वपूर्ण स्थानों पर मजबूत किलों का निर्माण शामिल था । बिहार में रोहतास का किला निर्माण कर सुरेमान करारानी को बिहार का सुल्तान नियुक्*त किया ।

ऐसा माना जाता है कि शेरशाह बंगाल पर अधिकार करने के बाद वह बिहार में पटना आया । एक दिन वह गंगा किनारे पर खड़ा था तो उसे यह जगह सामरिक महत्व की ओर ध्यान गया, उसने एक किले का निर्माण कराया । मौर्यों के पतन के बाद पटना पुनः प्रान्तीय राजधानी बनी, अतः आधुनिक पटना को शेरशाह द्वारा बसाया माना जाता है ।

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07-02-2011, 02:01 PM
भूमि व्यवस्था

शेरशाह द्वारा भूमि व्यवस्था अत्यन्त ही उत्कृष्ट था । उसके शासनकाल के भू-विशेषज्ञ टोडरमल खत्री था ।

शेरशाह ने भूमि सुधार के लिए अनेक कार्य किए । भूमि की नाप कराई, भूमि को बीघों में बाँटा, उपज का १/३ भाग भूमिकर के लिए निर्धारित किया, अनाज एवं नकद दोनों रू में लेने की प्रणाली विकसित कराई । पट्टे पर मालगुजारी लिखने की व्यवस्था की गई । किसानों की सुविधा दी गई कि वह भूमिकर स्वयं राजकोष में जमा कर सकता था ।

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07-02-2011, 02:01 PM
सैन्य व्यवस्था

शेरशाह ने एक सशक्*त एवं अनुशासित सैन्य व्यवस्था का गठन किया । सेना में लड़ाकू एवं निपुण अफगानों एवं राजपूतों को भर्ती किया, लेकिन ज्यादा से ज्यादा अफगान ही थे । सेना का प्रत्येक भाग एक फौजदार के अधीन कर दिया गया । शेरशाह ने घोड़ा दागने की प्रथा शुरू थी । उसके पास डेढ़ लाख घुड़सवार, २५ हजार पैदल सेना थी । वह सैनिकों के प्रति नम्र लेकिन अनुशासन भंग करने वाले को कठोर दण्ड दिया करता था ।

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07-02-2011, 02:02 PM
न्याय व्यवस्था

शेरशाह की न्यासी व्यवस्था अत्यन्त सुव्यवस्थित थी । शेरशाह के शासनकाल में माल और दीवानी के स्थानीय मामले की सुनवाई के लिए दौरा करने वाले मुंसिफ नियुक्*त किये गये । प्रधान नगरों के काजियों के अलावा सरकार में एक प्रधान मुंसिफ भी रहता था जिसे अपील सुनने तथा मुंसिफों के कार्यों के निरीक्षण करने का अधिकार था ।

शेरशाह ने पुलिस एवं खुफिया विभाग की स्थापना की । शान्ति व्यवस्था के लिए शिकों में प्रधान शिकदार, परगनों में शिकदार तथा गाँवों में पटवारी थे । षड्*यन्त्रों का पता लगाने के लिए खूफिया विभाग था ।

साहित्य, कला, एवं सांस्कृतिक भवन- शेरशाह के शासन काल में साहित्य, कला एवं सांस्कृतिक भवनों का संरक्षण एवं निर्माण हुआ । इसी के शासनकाल में मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्*मावत की रचना की । इसके शासनकाल में महदवी नेता शेख अलाई का शिक्षा विचार उल्लेखनीय है । इसके दरबार में अनेक प्रसिद्ध विद्वान मीर सैयद, मंझन, खान मोहम्मद, फरयूली और मुसान थे । इनके शासन में फारसी तथा हिन्दी का पूर्ण विकास हुआ ।

उसने अनेकों भवनों जिसमें रोहतासगढ़, सहरसा का दुर्ग प्रसिद्ध दुर्ग हैं । इस प्रकार शेरशाह ने अल्प अवधि में बंगाल से सिंह तक जाने वाली ५०० कोस लम्बी ग्रांड ट्रंक सड़क का निर्माण किया । आगरा से बुहारनपुर तक, आगरा से बयाना, मारवाड़, चित्तौड़ तक एवं लाहौर से मुल्तान तक ये उपर्युक्*त चार सड़कों का निर्माण किया । शेरशाह ने अनेक सरायों (लगभग १,७००) का निर्माण किया । सरायों की देखभाल शिकदार करता था ।

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07-02-2011, 02:04 PM
शेरशाह के उत्तराधिकारी

शेरशाह की मृत्यु के बाद उसका योग्य एवं चरित्रवान पुत्र जलाल खाँ गद्दी पर बैठा, लेकिन अपने बड़े भाई आदिल खाँ के रहते सम्राट बनना स्वीकार नहीं किया था । उसने अमीरों व सरदारों के विशेष आग्रह पर राजपद ग्रहण किया । गद्दी पर बैठते ही अपना नाम इस्लामशाह धारण किया और उसने आठ वर्षों तक शासन किया । इस्लामशाह के समय विद्रोह और षड्*यन्त्र का दौर चला । उनकी हत्या के लिए अनेक बार प्रयास किया गया, लेकिन इस्लामशाह ने धीरे-धीरे लगभग सभी पुराने विश्*वासी सेनापतियों, हाकिमों व अधिकारियों आदि जो सन्देह के घेरे में आते गये उनकी हत्या करवा दी । सुल्तान के षड्*यन्त्र में एकमात्र रिश्तेदार शाला को छोड़ा गया ।

मुगलों के आक्रमण के भय से (१५५२-५३ ई.) वह रोगशय्या से उठकर तीन हजार सैनिकों के साथ लड़ाई के लिए चल पड़ा । यह खबर पाकर मुगल सेना भाग खड़ी हुई । हुमायूँ के लौट जाने पर इस्लामशाह ग्वालियर (उपराजधानी) में लौट आया । अन्ततः १५५३ ई. में उसकी मृत्यु हो गई ।

इस्लामशाह के बाद उसका पुत्र फिरोजशाह गद्दी पर आसीन हुआ । उसके अभिषेक के दो दिन बाद ही उसके मामा मुवारिज खाँ ने उसकी हत्या कर दी और वह स्वयं मुहम्मद शाह आदिल नाम से गद्दी पर बैठ गया लेकिन आदिल के चचेरे भाई इब्राहिम खाँ सूर ने विद्रोह कर दिल्ली की गद्दी पर बैठा । इसके बाद उसका भाई सिकन्दर सूर दिल्ली का शासक बना । सूरवंशीय शासक के रूप में सिकन्दर सूर दिल्ली के शासक बनने के बाद उसे मुगलों (हुमायूँ) के आक्रमण का भय था ।

१५४५ ई. हुमायूँ ने ईरान शाह की सहायता से काबुल तथा कन्धार पर अधिकार कर लिया । १५५५ ई. में लाहौर को जीता । १५ मई, १५५५ में मच्छीवाड़ा युद्ध में सम्पूर्ण पंजाब पर अधिकार कर लिया । २२ जून, १५५५ के सरहिन्द युद्ध में अफगानों (सिकन्दर सूर) पर निर्णायक विजय प्राप्त कर हुमायूँ ने भारत के राजसिंहासन को प्राप्त किया तथा २३ जुलाई, १५५५ को भारत का सम्राट बना लेकिन १५५६ ई. में उसकी मृत्यु हो गई । इससे पहले उसने १५ वर्षीय सूर वंश को समाप्त कर दिया ।

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07-02-2011, 02:06 PM
मुगल शासन

बिहार के महान अफगान सम्राट शेरशाह का स्थापित सूर वंश के पतन के बाद भी बिहार अफगानो के अधीन बना रहा। ताज खाँ करारानी, सुलेमान खाँ एवं दाऊद खाँ करारानी आदि के अधीन में रहा।

इन अफगान शासकों ने बिहार पर अपना नियन्त्रण १५८० ई. तक बनाये रखा। सुलेमान खाँ ने १५५६ ई. से १५७२ ई. तक शासन किया और अपना अधिकार क्षेत्र को उड़ीसा तक विस्तार किया। उसने तत्कालीन सम्राट के साथ सम्मानप‘ऊर्ण व्यवहारिकता बनाये रखी, लेकिन उसका पुत्र दाऊद खाँ करारानी ने अकबर के प्रति अहंकारी रवैया अपनाया। फलतः मुगल शासक अकबर ने १५७४ ई. में बिहार पर आक्रमण किया और पटना पर अधिकार कर लिया। दाऊद खाँ भाग गया। बिहार मुगलों के अधीन १५७४ ई. से १५८० ई. तक पूर्णत हो गया। १५८० ई. तक बिहार को मुगल साम्राज्य एक प्रान्त के रुप में घोषित कर दिया गया।

अफगानों ने विद्रोह का झण्डा बुलन्द किया तथा खान-ए-खनाम मुनीम खान को बिहार का गवर्नर नियुक्*त किया गया। मुजफ्फर खान, टोडरमल एवं मुनीम खाँ ने इस अवधि में रोहतासगढ़, सूरजगढ़, मुंगेर भागलपुर एवं अन्य इलाकों पर कब्जा कर लिया।

अफगानों के छुटपुट नेता बहादुर खान, अधम खाँ, बतनी खाँ, दरिया खाँ नूहानी इत्यादि का विद्रोह हुआ, जिसे मुजफ्फर खान ने दबाया। मुजफ्फर खान ने गंगा पार कर चम्पारण के जमींदार उदय सिंह करण से सहायता प्राप्त कर विद्रोही पर आक्रमण कर हाजीपुर को जीता। पुनः मुजफ्फर खान अफगानों के जमावड़ों की खबर पाकर (मरहा गंडक नदी के पास) पहुँचा, लेकिन इसी युद्ध में मुगल सेना हार गयी और इस पराजय से मुगल सेना में गहरी मायूसी छाई हुई थी, लेकिन मुजफ्फर खान पुनः मुगल सेना को संगठित कर पुनः अफगान विद्रोही पर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष में ताज खाँ पनवार भाग गया तथा अफगान जमाल खान गिलजई गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद बिहार का गवर्नर (१५७५-८१ ई.) तक मुजफ्फर खान बना रहा।

इसी अवधि में मुनीम खाँ ने बंगाल और उड़ीसा के शासक दाऊद खाँ को पराजित करके मुगल प्रभुत्व की स्थापना की परन्तु अक्टूबर १५७५ ई. में मुनीम खाँ की मृत्यु हो जाने के बाद दाऊद खाँ ने पुनः सम्पूर्ण बंगाल पर अधिकार कर लिया। अकबर ने हुसैन कुली को बंगाल का गवर्नर बनाकर भेजा साथ-साथ बिहार के गवर्नर मुजफ्फर खान के खिलाफ ५,००० सेना भी भेजी। १५८२ ई. में खान-ए-आजम भी शाही दरबार में लौट गया, परन्तु विद्रोह भड़क जाने के कारण पुनः बिहर लौट गया और वह बिहार को पूर्णतः विद्रोह मुक्*त कर दिया। अब मुगलों ने बंगाल में उठे विद्रोह को दबाने की कोशिश करने लगा। बिहार के प्रमुख अधिकारियोंं एवं खान-ए-आजम, भी बंगाल गये। बारी-बारी से खान-ए-आजम, शाहनबाज, सईद खान चधता तथा युसूफ खाँ को भेजा गया। अन्त में सईद खान को गवर्नर बनाकर ये सभी अधिकारी शाही दरबार में चले गये। सईद खान को बंगाल का सूबेदार बनाया गया।

Bond007
07-02-2011, 02:08 PM
१५८७ ई. में कुँवर मानसिंह को बिहार का सूबेदार नियुक्*त किया गया । १५८९ ई. में राजा भगवान दास की मत्यु के पश्*चात्* मानसिंह को राजा की पद्*वी दी गई । उन्होंने गिद्दौर के राजा पूरनमल की पुत्री से शादी की । खड्*गपुर के राजा संग्राम सिंह एवं चेरो राजा अनन्त सिंह को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया ।

राजा मानसिंह के पुत्र जगत सिंह ने बंगाल के विद्रोही सुल्तान कुली कायमक एवं कचेना (जो बिहार के तांजपुर एवं दरभंगा में उत्पात मचा रहे थे) को शान्त किया । बिहार में मुगलों की सत्ता स्थापित होने के दौर में अफगानों ने अनेक बार विद्रोह किये ।

१९४ ई. में सईद खान तीसरी बार बिहार का सूबेदार बना और १५९८ ई. तक बना रहा । १५९९ ई. में जब उज्जैन शासक दलपत शाही ने विद्रोह किया तो इलाहाबाद के गवर्नर राजकुमार दानियाम ने उसकी पुत्री से विवाह कर लिया ।

इस प्रकार अकबर के समय बिहार पठानों एवं मुगलों की लड़ाई का केन्द्र बना रहा और भोजपुर तथा उज्जैन ने मुगलों से ज्यादा पठानों के साथ अपना नजदीकी सम्बन्ध बनाये रखा । अकबर के अन्तिम समय में बिहार सलीम के विद्रोह से मुख्य रूप से प्रभावित हुआ । तत्कालीन गवर्नर असद खान को हटाकर असफ खान को गवर्नर नियुक्*त किया गया ।

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07-02-2011, 02:08 PM
जब जहाँगीर ने दिल्ली के राजसिंहासन १६०६ ई. में बैठा, तब उसने बिहार का सूबेदार लाल बेग या बाज बहादुर को नियुक्*त किया । बाज बहादुर ने खडगपुर ने राजा संग्रामसिंह के विद्रोह को सफलतापूर्वक दबाया । बाज बहादुर ने नूरसराय का निर्माण कराया (जो स्थानीय परम्पराओं के अनुसार दरभंगा में एक मस्जिद एवं एक सराय है) यह नूरसराय मेहरुनिसा (नूरजहाँ) के बंगाल से दिल्ली जाने के क्रम में यहाँ रुकने के क्रम में बनायी गयी थी । १६०७ ई. बाज बहादुर ने जहाँगीर कुली खान की उपाधि पा गया था और उसे बंगाल का गवर्नर बनाकर भेजा गया । इसके बाद इस्लाम खान बिहार का गवर्नर बन गया १६०८ ई. में पुनः उसे भी बंगाल का गवर्नर बना दिया गया । इस्लाम के बाद अबुल फजल का पुत्र अब्दुर्रहीम या अफजल खान बिहार का सूबेदार बना तथा कुतुबशाह नामक विद्रोही को कुछ कठिनाइयों के बाद सफलतापूर्वक दबा दिया गया था ।

Bond007
07-02-2011, 02:09 PM
१६१३ ई. में अफजल खान की मृत्यु के बाद जफर खान बिहार का सूबेदार बना । १६१५ ई. में नूरजहाँ का भाई इब्राहिम खाँ बिहार का सूबेदार बना लेकिन खडगपुर के राजा संग्राम सिंह के पुत्र द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद उसने अपना राज्य प्राप्त कर लिया । इब्राहिम खान को १६१७ ई. में बंगाल के गवर्नर के रूप में स्थानान्तरण किया गया तथा जहाँगीर कुली खाँ द्वितीय को १६१८ ई. तक बिहार का गवर्नर नियुक्*त कर दिया । फिर एक बार अफगानों और मुगलों की सेना के बीच १२ जुलाई, १५७६ को राजमहल का युद्ध हुआ और अफगान पराजित हुए । इधर भोजपुर एवं जगदीशपुर में उज्जैन सरदार राजा गज्जनशाही ने विद्रोह कर दिया । प्रारम्भ में मुगल सेना को काफी सहायता दी । उसने विद्रोह कर आरा पर कब्जा जमाया और वहाँ के जागीरदार फरहत खाँ को घेर लिया । उसका पुत्र फहरंग खान ने अपने पिता को गज्जनशाही के घेरे से मुक्*त कराने का प्रयास किया, परन्तु इस प्रयास में वह मारा गया तथा फरहत भी मारा गया । गज्जनशाही गाजीपुर की ओर खान-ए-जहाँ के परिवार के सदस्यों को गिरफ्तार करने के उद्देश्य से गया लेकिन केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्*त शाहवाज खान कम्बो ने पीछा करते हुए जगदीशपुर पहुँच गया और तीन माह तक घेराबन्दी कर अन्त में उसे पराजित कर दिया ।

इसके पश्*चात्* रोहतास के क्षेत्रों में अफगानों का उपद्रव शुरू हो गया । काला पहाड़ नामक अफगान (जो बंगाल से आया था) के साथ मिलकर विद्रोह शुरू कर दिया । मालुम खान ने इसे पराजित कर मार डाला । फलतः शाहवाज खान ने रोहतास के किले एवं शेरगढ़ पर अधिकार कर लिया ।

Bond007
07-02-2011, 02:10 PM
१५७७ ई. में मुजफ्फर खान को बिहार से आगरा बुला लिया गया और शुजात खान को बिहार का गवर्नर बनाया गया । १५७८ ई. से १५८० ई. तक बिहार का कोई मुगल गवर्नर नहीं रहा । इस अवधि में छोटे-छोटे सरदार ही शासन करते थे । पटना, रोहतास, आरा, सासाराम, हाजीपुर, तिरहुत के क्षेत्रों में सरदारों का शासन चलता था । बिहार में सूबेदार के अभाव में अव्यवस्था तथा अराजकता का माहौल बना हुआ था ।

१५७९ ई. में शेरशाह ने मुल्ला तैयब को दीवान एवं राय पुरुषोत्तम को मीर बक्शी नियुक्*त किया था, लेकिन अधिकारियों की अदूरदर्शिता से शासन प्रणाली और अधिक चरमरा गई । इसी दौरान बिहार में अरब बहादुर के नेतृत्व में विद्रोह भड़क उठा । पटना में बंगाल से सम्पत्ति ले जा रही गाड़ियों को लूट लिया गया तथा १५८० ई. में विद्रोहियों ने मुजफ्फर खान की हत्या कर दी । कुशाग्र एवं बुद्धि वाला सेनापति राजा टोडरमल ने अतिरिक्*त शाही सैनिक सहायता से बंगाल का विद्रोही नेता बाबा खान कमाल को मार डाला तथा मुंगेर शासक यासुम खान को घेर लिया ।

यासुम खान पराजित हो गया फलतः शाही सेना गया होते हुए शेर घाटी पहुँची । १५८० ई. के अन्त तक लगभग सम्पूर्ण दक्षिणी बिहार पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया ।

Bond007
07-02-2011, 02:11 PM
अकबर ने अपने साम्राज्य को १२ सूबों में बाँटा था । उसमें बिहार भी एक अलग सूबा था जिसका गवर्नर खान-ए-आजम मिर्जा अजीज कोकलतास को बनाया गया । इस समय बिहार की कुल आय २२ करोड़ दाय अर्थात्* ५५,४७,९८५ रु. थी ।

१६१८ ई. मुर्करव खान को बिहार का सूबेदार नियुक्*त किया गया । वह अपने पिता के अनुरूप एक अच्छा चिकित्सक एवं अंग्रेजी साझी व्यापारी था । १६२१ ई. में बिहार का गवर्नर बनने वाला पहला राजकुमार था । वह शहजादा परवेज था । उसके प्रशासनिक कार्यों में मुखलिस खान सहायता करता था । इस समय बिहार में एक अफगान सरदार नाहर बहादुर खवेशगी द्वारा १६३६ ई. में पटना में पत्थर की मस्जिद का निर्माण करवाया था ।

१६२२-२४ ई. की अवधि में शहजादा खुर्रम ने बादशाह के खिलाफ विद्रोह कर दिया । खुर्रम ने पटना, रोहतास आदि क्षेत्रों पर परवेज का अधिकार छीन लिया । इसी समय खुर्रम ने खाने दुर्रान (बैरम बेग) को बिहार का गवर्नर बनाया ।

२६ अक्टूबर, १६२४ को बहादुरपुर के निकट टोंस नदी पर शहजादा परवेज की सेना ने खुर्रम को पराजित कर दिया । खुर्रम पटना होते हुए अकबर नगर चला गया फिर जहाँगीर द्वारा सुलह कर लिया गया । १६२६-२७ ई. में शहजादा परवेज के स्थान पर मिर्जा रुस्तम एफावी को को बिहार का सूबेदार बनाया गय जो जहाँगीर का अन्तिम गवर्नर था । १६२८ ई. में खान-ए-आलम बिहार का सूबेदार आठ वर्षों तक बना रहा । इसके बाद गुजरात के गवर्नर सैफ खान को बिहार का गवर्नर बना दिया गया । वह योग्य गवर्नरों में एक था उसने ही १६२८-२९ ई. में पटना में सैफ खान मदरसा का निर्माण कराया था । १६३२ ई. में बिहार का गवर्नर शाहजहाँ ने अपने विश्*वस्त अब्दुल्ला खान बहादुर फिरोज जंग को बनाया । इस समय भोजपुर के उज्जैन शासक ने विद्रोह कर दिया । वह पहले मुगल अधीन मनसबदार था । अन्त में पराजित होकर राजा प्रताप को मार डाला ।

एक शाही अधिकारी शहनवाज खान बिहार आया । उसने खान-ए-आजम के साथ मिलकर उज्जैन के सरदार दलपत शाही एवं अन्य विद्रोही अरब बहादुर को शान्त किया । राजा टोडरमल के शाही दरबार में लौटने के बाद शाहनवाज को वजीर नियुक्*त किया गया । अब्दुल्ला खान के बाद मुमताज महल का भाई शाहस्ता खाँ को बिहार का गवर्नर (१६३९-४३ ई.) बनाया गया ।

Bond007
07-02-2011, 02:12 PM
शाइस्ता खाँ ने १६४२ ई. में चेरो शासकों को पराजित कर दिया । उसके बाद उसने मिर्जा सपुर या इतिहाद खाँ को बिहार का सूबेदार नियुक्*त कर दिया । १६४३ ई. से १६४६ ई. तक चेरी शासक के खिलाफ पुनः अभियान चलाया गया । १६४६ ई. में बिहार का सूबेदार आजम खान को नियुक्* किया गया । उसके बाद सईद खाँ बहादुर जंग को सूबेदार बनाया । इसके प्रकार १६५६ ई. में जुल्फिकार खाँ तथा १६५७ ई. में अल्लाहवर्दी ने बिहार का सूबेदारी का भा सम्भाला । अल्लाहवर्दी खान शाहजादा शुजा का साथ देने लगा, लेकिन शाही सेना ने शहजादा सुलेमान शिकोह एवं मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में शहजादा शुजा को पराजित कर दिया । १६ जनवरी, १६५९ को खानवा के युद्ध में औरंगजेब ने शुजा को पराजित किया और शुजा बहादुर पटना एवं मुंगेर होते हुए राजमहल पहुँच गया ।

मुईउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब शाहजहाँ तथा मुमताज महल का छठवाँ पुत्र था जब औरंगजेब दिल्ली (५ जून, १६५९) को सम्राट बना तो बिहार का गवर्नर दाऊद खाँ कुरेशी को नियुक्*त किया गया । वह १६५९ ई. से १६६४ ई. तक बिहार का सूबेदार रहा । दाऊद खाँ के बाद १६६५ ई. में बिहार में लश्कर खाँ को गवर्नर बनाया गया इसी के शासन काल में अंग्रेज यात्री बर्नीयर बिहार आया था । उसने अपने यात्रा वृतान्त में सामान्य प्रशासन एवं वित्तीय व्यवस्था का उल्लेख किया है । उस समय पटना शोरा व्यापार का केन्द्र था । वह पटना में आठ वर्षों तक रहा । १६६८ ई. में लश्कर खाँ का स्थानान्तरण कर इब्राहिम खाँ बिहार का सूबेदार बना । इसके शासनकाल में बिहार में जॉन मार्शल आया था । उसने भयंकर अकाल का वर्णन किया है ।

Bond007
07-02-2011, 02:13 PM
एक अन्य डच यात्री डी ग्रैफी भी इब्राहिम के शासनकाल में आया था । जॉन मार्शल ने बिहार के विभिन्*न शहर भागलपुर, मुंगेर, फतुहा एवं हाजीपुर की चर्चा की है ।

इब्राहिम खाँ के बाद अमीर खाँ एक साल के लिए बिहार का सूबेदार नियुक्*त हुआ, उसके बाद १६७५ ई. में तरवियात खाँ को बिहार का सूबेदार नियुक्*त किया गया । १६७७ ई. में औरंगजेब का तीसरा पुत्र शहजादा आजम को बिहार का गवर्नर नियुक्*त किया गया । इसी अवधि में पटना में गंगाराम नामक व्यक्*ति ने विद्रोह कर दिया । भोजपुर एवं बक्सर के राजा रूद्रसिंह ने भी असफल बगावत की । शफी खाँ के पश्*चात्* बजरंग उम्मीद खाँ बिहार का गवर्नर बना परन्तु अपने अधिकारियों से मतभेद के कारण ज्यादा दिनों तक गद्दी पर नहीं रहा ।

फिदा खाँ १६९५ ई. से १७०२ ई. तक बिहार का सूबेदार बना रहा । इस अवधि में तिरहुत और संथाल परगना (झारखण्ड) में अशान्ति रही । कुंवर धीर ने विद्रोह कर दिया । इसे पकड़कर दिल्ली लाया गया । फिदा खाँ के बाद शहजादा अजीम बिहार के साथ-साथ बंगाल का भी शासक बना । शहजादा अजीम आलसी और आरामफरोश होने के कारण शीघ्र ही सत्ता का भार करतलब खाँ को दे दिया गया जो बाद में मुर्शिद कुली खाँ के नाम से जाना गया । परस्पर सम्बन्ध में कतुता आ गयी । १७०४ ई. में शहजादा अजीम स्वयं पटना पहुँचा । प्रशासनिक सुदृढ़ता के कारण शहर (पटना) का नाम अजीमाबाद रखा गया । बाद में अलीमर्दन के विद्रोह को दबाने को चला गया । १७०७ ई. में जब औरंगजेब की मृत्यु हो गई तथा बहादुरशाह १७०७ ई. में शसक बना और १७१२ ई. तक दिल्ली का शासक रहा तब राजकुमार अजीम बिहार का गवर्नर पद पर अधिक शक्*ति के साथ बना हुआ था । उसका नाम अजीम उश शान हो गया ।

Bond007
07-02-2011, 02:14 PM
१७१२ ई. में बहादुरशाह की मृत्यु हो गयी तो अजीम उश शान ने भी दिल्ली की गद्दी प्राप्त करने की कोशिश की, लेकिन वह असफल होकर मारा गया । जब दिल्ली की गद्दी पर जहाँदरशाह बादशाह बना तब अजीम उश शान का पुत्र फर्रुखशियर पटना में था । उसने अपना राज्याभिषेक किया और आगरा पर अधिकार के लिए चल पड़ा । आगरा के समीप फर्रुखशियर ने जहाँदरशाह को पराजित कर दिल्ली का बादशाह बन गया ।

१७०२ ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब के पौत्र राजकुमार को बिहार का सूबेदार नियुक्*त किया गया । प्रशासनिक सुधार उन्होंने विशेष रूप से पटना में किया फलतः पटना का नाम बदलकर ‘अजीमाबाद’ रख दिया ।

*अजीम का पुत्र फर्रूखशियर पहला मुगल सम्राट था जिसका राज्याभिषेक बिहार के (पटना में) हुआ था ।
*मुगलकालीन बिहार में शोरा, हीरे तथा संगमरमर नामक खनिजों का व्यापार होता था ।
*फर्रूखशियर के शासनकाल से बिहार का एक प्रान्तीय प्रशासन प्रभाव धीरे-धीरे कम होते-होते अलग सूबा की पहचान समाप्त हो गई ।

Bond007
07-02-2011, 02:15 PM
१७१२ ई. से १७१९ ई. तक फर्रूखशियर दिल्ली का बादशाह बना इसी अवधि में बिहार में चार गवर्नर- खैरात खाँ- १७१२ ई. से १७१४ ई. तक, मीलू जुमला- १७१४ ई. से १७१५ ई. तक, सर बुलन्द खाँ-१७१६ ई. से १७१८ ई. तक बना । इस दौरान जमींदारों के खिलाफ अनेक सैनिक अभियान चलाए गये । भोजपुर के उज्जैन जमींदार सुदिष्ट नारायण का विद्रोह, धर्मपुर के जमींदार हरिसिंह का विद्रोह आदि प्रमुख विद्रोही थे । इन विद्रोहियों का तत्कालीन गवर्नर सूर बुलन्द खाँ ने दमन किया । सूर बुलन्द खाँ के पश्*चात्* खान जमान खाँ १७१८-२१ ई. में बिहार का सूबेदार बना । अगले पाँच वर्षों के लिए नुसरत खाँ को बिहार का नया गवर्नर बना दिया गया । बाद में फखरुद्दौला बिहार का सूबेदार बनकर उसने छोटा नागपुर, पलामू (झारखण्ड) जगदीशपुर के उदवन्त सिंह के खिलाफ सैन्य अभियान छेड़ा ।

इसी के शासनकाल में ही पटना में दाऊल उदल (कोर्ट ऑफ जस्टिस) का निर्माण किया गया । परन्तु कुछ कारणवश इन्हें १७३४ ई. में पद से विमुक्*त कर दिया गया । फखरुद्दौला की नियुक्*ति के बाद शहजादा मिर्जा अहमद को बिहार का नाममात्र का अधिकारी गवर्नर नियुक्*त किया गया बाद में इसे सहायक रूप में बंगाल में (नाजिम शुजाउद्दीन) को नियुक्*त किया गया । शुजाउद्दीन ने अपने विश्*वत अधिकारी अलीवर्दी खाँ को अजीमाबाद में शासन की देखभाल के लिए भेजा । वह अजीमाबाद (पटना में) १७३४ ई. से १७४० ई. तक नवाब बना रहा । उसने अपनी शासन अवधि में बिहार के विद्रोहों को दबाया और एक सश्रम प्रणाली का विकास कर राज्य की आय में बढ़ोत्तरी की । यही बढ़ी आय को उसने बंगाल अभियान में लगाया । वह १७३९ ई. में शुजाउद्दीन की मृत्यु के बाद गिरियाँ युद्ध में शुजाउद्दीन के वंशज को हराकर बिहार और बंगाल का स्वतन्त्र नवाब बन गया । इसी समय बंगाल पर मराठों और अफगानों का खतरा बढ़ गया । अफगानों ने १७४८ ई. में हैबतजंग की हत्या कर दी ।

अलीवर्दी खाँ ने स्वयं रानी सराय एवं पटना के युद्ध में अफगान विद्रोहियों को शान्त किया । उसने १७५१ ई. में फतुहा के पास मराठों को पराजित किया था किन्तु मराठों ने उड़ीसा के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । इसमें मराठा विद्रोही का नेतृत्व रघु जी के पुत्र भानु जी ने किया था ।

Bond007
07-02-2011, 02:15 PM
१७५६ ई. में अलीवर्दी खाँ की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना लेकिन एक प्रशासनिक अधिकारी रामनारायण को बिहार का उपनवाब बनाया गया ।

अप्रैल, १७६६ में सिराजुद्दौला बंगाल की गद्दी पर बैठा, गद्दी पर बैठते ही उसे शौकत जंग, घसीटी बेगम तथा उसके दीवान राज वल्लभ के सम्मिलित षड्*यन्त्र का सामना करना पड़ा ।

सिराजुद्दौला का प्रबल शत्रु मीर जाफर था । वह अलीवर्दी खाँ का सेनापति था । मीर जाफर बलपूर्वक बंगाल की गद्दी पर बैठना चहता था दूसरी तरफ अंग्रेज बंगाल पर अधिकार के लिए षड्*यन्त्रकारियों की सहायता करते थे ।

फलतः व्यापारिक सुविधाओं के प्रश्*न पर तथा फरवरी, १७५७ ई. में हुई अलीनगर की सन्धि की शर्तों का ईमानदारी के पालन नहीं करने के कारण २३ जून, १७५७ में प्लासी के मैदान में क्लाइव और नवाब सेना के बीच युद्ध हुआ । युद्ध में सिराजुद्दौला मारा गया । इसके बाद मीर जाफर बंगाल का नवाब बना ।

इस प्रकार बिहार, बंगाल एवं उड़ीसा का नवाबी साम्राज्य धीरे-धीरे समाप्त हो गया और अंग्रेजी साम्राज्य की नींव पड़ गई ।

Bond007
09-02-2011, 12:37 AM
१७०७ ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजकुमार अजीम-ए-शान बिहार का बादशाह बना ।
यहां से शुरू होता है बिहार का आधुनिक इतिहास|

Bond007
09-02-2011, 12:38 AM
बिहार का आधुनिक इतिहास

Bond007
09-02-2011, 12:44 AM
आधुनिक बिहार का संक्रमण काल १७०७ ई. से प्रारम्भ होता है । १७०७ ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजकुमार अजीम-ए-शान बिहार का बादशाह बना । जब फर्रुखशियर १७१२-१९ ई. तक दिल्ली का बादशाह बना तब इस अवधि में बिहार में चार गवर्नर बने । १७३२ ई. में बिहार का नवाब नाजिम को बनाया गया ।

Bond007
09-02-2011, 12:45 AM
सिक्ख, इस्लाम और बिहार

आधुनिक बिहार में सिक्ख और इस्लाम धर्म का फैलव उनके सन्तों एवं धर्म गुरुओं के द्वारा हुआ ।

सिक्ख धर्म के प्रवर्तक एवं प्रथम गुरु नानक देव ने बिहार में अनेक क्षेत्रों में भ्रमण किये जिनमें गया, राजगीर, पटना, मुंगेर, भागलपुर एवं कहलगाँव प्रमुख हैं । गुरु ने इन क्षेत्रों में धर्म प्रचार भी किया एवं शिष्य बनाये ।

सिक्खों के नोवे गुरु श्री तेग बहादुर का बिहार में आगमन सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था । वे सासाराम, गया होते हुए पटना आये तथा कुछ दिनों में पटना निवास करने के बाद औरंगजेब की सहायता हेतु असम चले गये । पटना प्रस्थान के समय वह अपनी गर्भवती पत्*नी गुजरी देवी को भाई कृपाल चन्द के संरक्षण में छोड़ गये, तब पटना में २६ दिसम्बर, १६६६ में गुरु गोविन्द सिंह (दस्वे गुरु) का जन्म हुआ । साढ़े चार वर्ष की आयु में बाल गुरु पटना नगर छोड़कर अपने पिता के आदेश पर पंजाब में आनन्दपुर चले गये । गुरु पद ग्रहण करने के बाद उन्होंने बिहार में अपने मसनद (धार्मिक प्रतिनिधि) को भेजा । १७०८ ई. में गुरु के निधन के बाद उनकी पत्*नी माता साहिब देवी के प्रति भी बिहार के सिक्खों ने सहयोग कर एक धार्मिक स्थल बनाया ।

Bond007
09-02-2011, 12:47 AM
इस्लाम का बिहार आगमन

बिहार में सभी सूफी सम्प्रदायों का आगमन हुआ और उनके संतों ने यहां इस्लाम धर्म का प्रचार किया। सूफी सम्प्रदायों को सिलसिला भी कहा जाता है। सर्वप्रथम चिश्ती सिलसिले के सूफी आये। सूफी सन्तों में शाह महमूद बिहारी एवं सैय्यद ताजुद्दीन प्रमुख थे ।

■बिहार में सर्वाधिक लोकप्रिय सिलसिलों में फिरदौसी सर्वप्रमुख सिलसिला था। मखदूय सफूउद्दीन मनेरी सार्वाधिक लोकप्रिय सिलसिले सन्त हुए जो बिहार शरीफ में अहमद चिरमपोश के नाम से प्रसिद्ध सन्त हुए। समन्वयवादी परम्परा के एक महत्वपूर्ण सन्त दरिया साहेब थे ।
■विभिन्*न सूफी सन्तों ने धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक सद्*भाव, मानव सेवा और शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का उपदेश दिया ।

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09-02-2011, 12:49 AM
बिहार में यूरोपीय व्यापारियों का आगमन

बिहार मुगल साम्राज्य के शासनकाल में एक महत्वपूर्ण सूबा था । यहाँ से शोरा का व्यापार होता था फलतः पटना मुगल साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नगर एवं उत्तर भारत का सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था । यूरोपीय व्यापारियों में पुर्तगाली, डच (हॉलैण्ड/नीदरलैण्ड)-(१६२० ई. में), डेन ने (डेनमार्क १६५१ ई.) में ब्रिटिश व्यापारियों ने १७७४ ई. में आये ।

■बिहार में सर्वप्रथम पुर्तगाली आये । ब्रिटिश व्यापारियों द्वारा १६२० ई. में पटना के आलमगंज में व्यापारिक केन्द्र खोला गया। उस समय बिहार का सूबेदार मुबारक खान था उसने अंग्रेजों को रहने के लिए व्यवस्था की, लेकिन फैक्ट्री १६२१ ई. में बन्द हो गई ।
■व्यापारिक लाभ की सम्भावना को पता लगाने के लिए सर्वप्रथम अंग्रेज पीटर मुण्डी आये, किन्तु उन्हें १६५१ ई. फैक्ट्री खोलने की इजाजत मिली। १६३२ ई. में डच व्यापारियों ने भी एक फैक्ट्री की स्थापना की । डेन व्यापारियों ने नेपाली कोठी (वर्तमान पटना सिटी) में व्यापारिक कोठी खोली ।
■इन यूरोपीय व्यापारियों की गतिविधियों के द्वारा बिहार का व्यापार पश्*चिम एशिया, मध्य एशिया के देशों, अफ्रीका के तटवर्ती देशों और यूरोपीय देशों के साथ बढ़ता रहा ।

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09-02-2011, 12:50 AM
अंग्रेज और आधुनिक बिहार

मुगल साम्राज्य के पतन के फलस्वरूप उत्तरी भारत में अराजकता का माहौल हो गया। बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ ने १७५२ में अपने पोते सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी नियुक्*त किया था। अलीवर्दी खां की मृत्यु के बाद १० अप्रैल, १७५६ को सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना ।

प्लासी के मैदान में १७५७ ई. में हुए प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की हार और अंग्रेजों की जीत हुई । अंग्रेजों की प्लासी के युद्ध में जीत के बाद मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया और उसके पुत्र मीरन को बिहार का उपनवाब बनाया गया, लेकिन बिहार की वास्तविक सत्ता बिहार के नवाब नाजिम राजा रामनारायण के हाथ में थी ।

तत्कालीन मुगल शहजादा अली गौहर ने इस क्षेत्र में पुनः मुगल सत्ता स्थापित करने की चेष्टा की परन्तु कैप्टन नॉक्स ने अपनी सेना से गौहर अली को मार भगाया । इसी समय मुगल सम्राट आलमगीर द्वितीय की मृत्यु हो गई तो १७६० ई. गौहर अली ने बिहार पर आक्रमण किया और पटना स्थित अंग्रेजी फैक्ट्री में राज्याभिषेक किया और अपना नाम शाहआलम द्वितीय रखा ।

अंग्रेजों ने १७६० ई. में मीर कासिम को बंगाल का गवर्नर बनाया। उसने अंग्रेजों के हस्तक्षेप से दूर रहने के लिए अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से हटाकर मुंगेर कर दी। मीर कासिम के स्वतन्त्र आचरणों को देखकर अंग्रेजों ने उसे नवाब पद से हटा दिया।

मीर कासिम मुंगेर से पटना चला आया। उसके बाद वह अवध के नवाब सिराजुद्दौला से सहायता माँगने के लिए गया। उस समय मुगल सम्राट शाहआलम भी अवध में था। मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला एवं मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय से मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए एक गुट का निर्माण किया। मीर कासिम, अवध का नवाब शुजाउद्दौला एवं मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय तीनों शासकों ने चौसा अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ा । इस युद्ध में वह २२ अक्टूबर, १७६४ को सर हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना द्वारा पराजित हुआ। इसे बक्सर का युद्ध कहा जाता है।

बक्सर के निर्णायक युद्ध में अंग्रेजों को जीत मिली । युद्ध के बाद शाहआलम अंग्रेजों के समर्थन में आ गया । उसने १७६५ ई. में बिहार, बंगाल और उड़ीसा क्षेत्रों में लगान वसूली का अधिकार अंग्रेजों को दे दिया । एक सन्धि के तहत कम्पनी ने बिहार का प्रशासन चलाने के लिए एक नायब नाजिम अथवा उपप्रान्तपति के पद का सृजन किया । कम्पनी की अनुमति के बिना यह नहीं भरा जा सकता था । अंग्रेजी कम्पनी की अनुशंसा पर ही नायब नाजिम अथवा उपप्रान्तपति की नियुक्*ति होती थी ।

बिहार के महत्वपूर्ण उपप्रान्तपतियों में राजा रामनारायण एवं शिताब राय प्रमुख हैं १७६१ ई. में राजवल्लभ को बिहार का उपप्रान्तपति नियुक्*त किया गया था । १७६६ ई. में पटना स्थित अंग्रेजी कम्पनी के मुख्य अधिकारी मिडलटन को राजा रामनारायण एवं राजा शिताब राय के साथ एक प्रशसन मंडल का सदस्य नियुक्*त किया गया । १७६७ ई. में राजा रामनारायण को हटाकर शिताब राय को कम्पनी द्वारा नायब दीवान बनया गया । उसी वर्ष पटना में अंग्रेजी कम्पनी का मुख्य अधिकारी टॉमस रम्बोल्ड को नियुक्*त किया गया । १७६९ ई. में प्रशासन व्यवस्था को चलाने के लिए अंग्रेज निरीक्षक की नियुक्*ति हुई ।

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09-02-2011, 12:52 AM
द्वैध शासन और बिहार

१७६५ ई. में बक्सर के युद्ध के बाद बिहार अंग्रेजों की दीवानी हो गयी थी, लेकिन अंग्रेजी प्रशासनिक जिम्मेदारी प्रत्यक्ष रूप से नहीं थी । कोर्ट ऑफ डायरेक्टर से विचार-विमर्श करने के बाद लार्ड क्लाइब ने १७६५ ई. में बंगाल एवं बिहार के क्षेत्रों में द्वैध शासन प्रणाली को लागू कर दिया । द्वैध शासन प्रणाली के समय बिहार का प्रशासनिक भार मिर्जा मुहम्मद कजीम खाँ (मीर जाफर का भाई) के हाथों में था । उपसूबेदार धीरज नारायण (जो राजा रामनारायण का भाई) की सहायता के लिए नियुक्*त था । सितम्बर १७६५ ई. में क्लाइब ने अजीम खाँ को हटाकर धीरज नारायण को बिहार का प्रशासक नियुक्*त किया । बिहार प्रशासन की देखरेख के लिए तीन सदस्यीय परिषद्* की नियुक्*ति १७६६ ई. में की गई जिसमें धीरज नारायण, शिताब राय और मिडलटन थे ।

द्वैध शासन लॉर्ड क्लाइब द्वारा लागू किया गया था जिससे कम्पनी को दीवानी प्राप्ति होने के साथ प्रशासनिक व्यवस्था भी मजबूत हो सके । यह द्वैध शासन १७६५-७२ ई. तक रहा ।

१७६६ ई. में ही क्लाइब के पटना आने पर शिताब राय ने धीरज नारायण के द्वारा चालित शासन में द्वितीय आरोप लगाया । फलतः क्लाइब ने धीरज नारायण को हटाकर शिताब राय को बिहार का नायब नजीम को नियुक्*त किया । बिहार के जमींदारों से कम्पनी को लगान वसूली करने में अत्यधिक कठिन एवं कठोर कदम उठाना पड़ता था ।

लगान वसूली में कठोर एवं अन्यायपूर्ण ढंग का उपयोग किया जाता था । यहाँ तक की सेना का भी उपयोग किया जाता था । जैसा कि बेतिया राज के जमींदार मुगल किशोर के साथ हुई थी । इसी समय में (हथवा) हूसपुरराज के जमींदार फतेह शाही ने कम्पनी को दीवानी प्रदान करने से इंकार करने के कारण सेना का उपयोग किया गया । लगान से कृषक वर्ग और आम आदमी की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती चली गई ।

द्वैध शासनकाल या दीवानी काल में बिहार की जनता कम्पनी कर संग्रह से कराहने लगी । क्लाइब २९ जनवरी, १७६७ को वापस चला गया । वर्सलेट उत्तराधिकारी के रूप में २६ फरवरी, १७६७ से ४ दिसम्बर, १७६७ तक बनकर आया । उसके बाद कर्रियसे २४ दिसम्बर, १७६९ से १२ अप्रैल, १७७२ उत्तराधिकारी रूप बना । फिर भी बिहार की भयावह दयनीय स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ । १७६९-७० ई.में बिहार-बंगाल में भयानक अकाल पड़ा ।

१७७० ई. में बिहार में एक लगान परिषद्* का गठन हुआ जिसे रेवेन्यू काउंसिल ऑफ पटना के नाम से जाना जाता है । लगान्* परिषद के अध्यक्ष जार्ज वंसीतार्त को नियुक्*त किया गया । इसके बाद इस पद पर थामस लेन (१७७३-७५ ई.), फिलिप मिल्नर इशक सेज तथा इवान ला (१७७५-८० ई. तक) रहे । १७८१ ई. में लगान परिषद को समाप्त कर दिया गया तथा उसके स्थान पर रेवेन्यू ऑफ बिहार पद की स्थापना कर दी गई । इस पद पर सर्वप्रथम विलियम मैक्सवेल को बनाया ।

■२८ अगस्त, १७७१ पत्र द्वारा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने द्वैध शासन को समाप्त करने की घोषणा की।
१३ अप्रैल, १७७२ को विलियम वारेन हेस्टिंग्स बंगाल का गवर्नर नियुक्*त किया गया । १७७२ ई. में शिताब राय पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये गये । उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र कल्याण सिंह की बिहार के पद पर नियुक्*ति हुई । बाद में कलकत्ता परिषद्* से सम्बन्ध बिगड़ जाने से उसे हटा दिया गया । उसके बाद १७७९ ई. में सारण जिला शेष बिहार से अलग कर दिया गया । चार्ल्स ग्रीम को जिलाधिकारी बना दिया गया । १७८१ ई. में प्रान्तीय कर परिषद्* को समाप्त कर रेवेन्यू चीफ की नियुक्*ति की गई । इस समय कल्याण सिंह को रायरैयान एवं खिषाली राम को नायब दीवान नियुक्*त कर दिया गया ।

Bond007
09-02-2011, 12:56 AM
इसी समय भरवल एवं मेंसौदी के रेंटर हुसैन अली खाँ जो बनारस राजा चैत्य सिंह के विद्रोह में शामिल था उसे गिरफ्तार कर लिया गया । हथवा के राजा फतेह सिंह, गया के जमींदार नारायण सिंह एवं नरहर के राजा अकबर अली खाँ अंग्रेजों के खिलाफ हो गये ।

■१७८१-८२ ई. में ही सुल्तानाबाद की रानी महेश्*वरी ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया ।
■१७८३ ई. में बिहार में पुनः अकाल पड़ा, जॉन शोर को इसके कारणों एवं प्रकृति की जाँच हेतु नियुक्*त किया गया । जॉन शोर ने एक अन्*नागार के निर्माण की सिफारिश की ।
■१७८१ ई. में ही बनारस के राजा चैत्य सिंह का विद्रोह हुआ इसी समय हथवा के राजा फतेह सिंह, गया के जमींदार नारायण सिंह एवं नरहर के जमींदार राजा अकबर अली खाँ भी अंग्रेजों के खिलाफ खड़े थे ।
■१७७३ ई. में राजमहल, खड्*गपुर एवं भागलपुर को एक सैन्य छावनी में तब्दील कर जगन्*नाथ देव के विद्रोह को दबाया गया ।
■१८०३ ई. में रूपनारायण देव के ताल्लुकदारों धरम सिंह, रंजीत सिंह, मंगल सिंह के खिलाफ कलेक्टर ने डिक्री जारी की फलतः यह विद्रोह लगान न देने के लिए हुआ ।
■१७७१ ई. में चैर आदिवासियों द्वारा स्थायी बन्दोबस्त भूमि कर व्यवस्था विरोध में विद्रोह कर दिया ।
प्रारम्भिक विरोध- मीर जाफर द्वारा सत्ता सुदृढ़ीकरण के लिए १७५७-५८ ई. तक खींचातानी होती रही ।

अली गौहर के अभियान- मार्च १७५९ में मुगल शहजादा अली गौहर ने बिहार पर चढ़ाई कर दी परन्तु क्लाइब ने उसे वापसी के लिए बाध्य कर दिया, फिर पुनः १७६० ई. बिहार पर चढ़ाई की । इस बार भी वह पराजित हो गया । १७६१ ई. शाहआलम द्वितीय का अंग्रेजों के सहयोग से पटना में राज्याभिषेक किया ।

Bond007
09-02-2011, 12:58 AM
बक्सर की लड़ाई और बिहार

१७६४ ई. बक्सर का युद्ध हुआ । युद्ध के बाद बिहार में अनेकों विद्रोह हुए । इस समय बिहार का नवाब मीर कासिम था ।

■जॉन शोर के सिफारिश से अन्*नागार का निर्माण पटना गोलघर के रूप में १७८४ ई. में किया गया ।
■जब बिहार में १७८३ ई. में अकाल पड़ा तब अकाल पर एक कमेटी बनी जिसकी अध्यक्षता जॉन शोर था उसने अन्*नागार निर्माण की सिफारिश की ।
■गवर्नर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस के आदेश पर पटना गाँधी मैदान के पश्*चिम में विशाल गुम्बदकार गोदाम बना इसका निर्माण १७८४-८५ ई. में हुआ । जॉन आस्टिन ने किया था ।
■१७८४ ई. में रोहतास को नया जिला बनाया गया और थामस लॉ इसका मजिस्ट्रेट एवं क्लेवर नियुक्*त किया गया ।
■१७९० ई. तक अंग्रेजों ने फौजदारी प्रशासन को अपने नियन्त्रण में ले लिया था । पटना के प्रथम मजिस्ट्रेट चार्ल्स फ्रांसिस ग्राण्ड को नियुक्*त किया गया था ।
■१७९० ई. तक अंग्रेजों ने फौजदारी प्रशासन को अपने नियन्त्रण में ले लिया था । पटना के प्रथम जिस्ट्रेट चार्ल्स फ्रांसिस ग्राण्ड को नियुक्*त किया गया था ।
बिहार में अंग्रेज विरोधी विद्रोह

७५७ ई. से लेकर १८५७ ई. तक बिहार में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह चलता रहा । बिहार में १७५७ ई. से ही ब्रिटिश विरोधी संघर्ष प्रारम्भ हो गया था । यहाँ के स्थानीय जमींदारों, क्षेत्रीय शासकों, युवकों एवं विभिन्*न जनजातियों तथा कृषक वर्ग ने अंग्रेजों के खिलाफ अनेकों बार संघर्ष या विद्रोह किया । बिहार के स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ संगठित या असंगठित रूप से विद्रोह चलता रहा, जिनके फलस्वरूप अनेक विद्रोह हुए ।

Bond007
09-02-2011, 12:59 AM
बहावी आन्दोलन

१८२० ई. से १८७० ई. के मध्य भारत के उत्तर-पश्*चिम पूर्वी तथा मध्य भाग में बहावी आन्दोलन की शुरुआत हुई । बहावी मत के प्रवर्तक अब्दुल बहाव था । इस आन्दोलन के जनक और प्रचारक उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के सैयद अहमद बरेलवी हुए ।

बहावी आन्दोलन मुस्लिम समाज को भ्रष्ट धार्मिक परम्पराओं से मुक्*त कराना था । पहली बार पटना आने पर सैयद अहमद ने मुहम्मद हुसैन को अपना मुख्य प्रतिनिधि नियुक्*त किया । १८२१ ई. में उन्होंने चार खलीफा को नियुक्*त किया । वे हैं- मुहम्मद हुसैन, विलायत अली, इनायत अली और फरहत अली । सैयद अहमद बरेहवी ने पंजाब में सिक्खों को और बंगाल में अंग्रेजों को अपदस्थ कर मुस्लिम शक्*ति की पुनर्स्थापना को प्रेरित किया । बहावियों को शस्त्र धारण करने के लिए प्रशिक्षित किया गया ।

■१८२८ ई. से १८६८ ई. तक बंगाल में फराजी आन्दोलन हुआ जिसके नेता हाजी शतीयतुल्लाह थे । विलायत अली ने भारत के उत्तर-पश्*चिम भाग में अंग्रेजी हुकूमत का विरोध किया ।
■१८३१ ई. में सिक्खों के खिलाफ अभियान में सैयद अहमद की मृत्यु हो गई ।
■बिहार में बहावी आन्दोलन १८५७ ई. तक सक्रिय रहा और १८६३ ई. में उसका पूर्णतः दमन हो सका । बहावी आन्दोलन स्वरूप सम्प्रदाय था परन्तु हिन्दुओं ने कभी इसका विरोध नहीं किया । १८६५ ई. में अनेक बहावियों को सक्रिय आन्दोलन का आरोप लगाकर अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया ।

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09-02-2011, 01:00 AM
नोनिया विद्रोह

हाजीपुर, तिरहुत, सारण और पूर्णिया में बिहार में शोरा उत्पादन का प्रमुख केन्द्र था । शोरा का उपयोग बारूद बनाने में किया जाता था । शोरे के इकट्*ठे करने एवं तैयार करने का काम नोनिया करते थे । कम्पनी राज्य होने के बाद शोरे की इजारेदारी अधिक थी फलतः नोनिया चोरी एवं गुप्त रूप से शोरे का व्यापार करने लगे फलतः इससे जुड़े व्यापारियों को अंग्रेजी क्रूरता का शिकार होना पड़ा । इसी कारण से नोनिया के अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । यह विद्रोह १७७०-१८०० ई. के बीच हुआ था ।

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09-02-2011, 01:03 AM
लोटा विद्रोह

यह विद्रोह १८५६ ई. में हुआ था । यह विद्रोह मुजफ्फरपुर जिले में स्थित कैदियों ने किया था । यहाँ के प्रत्येक कैदियों को पीतल का लोटा दिया जाता था । सरकार ने इसके स्थान पर मिट्*टी के बर्तन दिये । कैदियों ने इसका कड़ा विरोध किया । इस विद्रोह को लोटा विद्रोह कहा जाता है ।

छोटा नागपुर का विद्रोह

१७६७ ई. में छोटा नागपुर (झारखण्ड) के आदिवासियों ने ब्रिटिश सेना का धनुष-बाण और कुल्हाड़ी से हिंसक विरोध शुरू किया था । १७७३ इ. में घाटशिला में भयंकर ब्रिटिश विरोधी संघर्ष शुरू हुआ । आदिवासियों ने स्थायी बन्दोबस्त (१७९३ ई.) के तहत जमीन की पैदाइश एवं नया जमाबन्दी का घोर विद्रोह शुरू हुआ ।

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09-02-2011, 01:04 AM
तमाड़ विद्रोह

(१७८९-९४ ई.)- यह विद्रोह आदिवासियों द्वारा चलाया गया था । छोटा नागपुर के उराँव जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के खिलाफ विद्रोह शुरू किया ।

हो विद्रोह

यह विद्रोह १८२० ई. के मध्य हुआ था । यह विद्रोह सिंहभूम (झारखंड) पर शुरू हुआ था । वहाँ के राजा जगन्*नाथ सिंह के सम्पर्क में आये । हो जनजाति ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया ।

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09-02-2011, 01:06 AM
कोल विद्रोह

यह विद्रोह रांची, सिंहभूमि, हजारीबाग, मानभूमि में प्रारम्भ हुआ । कोल विद्रोह में मुण्डा, हो, उरॉव, खरवार एवं चेर जनजातियों के लोगों ने मुख्य रूप से भाग लिया था । इस विद्रोह की अवधि १८३१-३२ ई. में थी । कोल विद्रोह का प्रमुख कारण आदिवासियों की जमीन पर गैर-आदिवासियों द्वारा अधिकार किया जाना तात्कालिक कारण था- छोटा नागपुर के भाई हरनाथ शाही द्वारा इनकी जमीन को छीनकर अपने प्रिय लोगों को सौंप दिया जाना । इस विद्रोह के प्रमुख नेता बुद्धो भगत, सिंगराय एवं सुगी था । इस विद्रोह में करीब ८०० से लेकर १००० लोग मरे गये थे । १८३२ ई. में अंग्रेजी सेना के समक्ष विद्रोहियों के समर्पण के साथ समाप्त हो गया ।

भूमिज विद्रोह

१८३२ ई. में यह विद्रोह प्रारम्भ हो गया था । वीरभूमि के जमींदारों पर राजस्व के कर अदायगी को बढ़ा दिया गया था । किसान एवं साहूकार लोग कर्ज से दबे हुए थे । ऐसे हालात में वे सभी लोग कर समाप्ति चाहते थे फलतः गंगा नारायण के नेतृत्व में विद्रोह हुआ ।

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09-02-2011, 01:06 AM
चेर विद्रोह

यह विद्रोह १८०० ई. में शुरू हुआ था । १७७६ ई. समयावधि में अंग्रेज पलामू के चेर शासक छत्रपति राय से दुर्ग की माँग की । छत्रपति राय ने दुर्ग समर्पण से इंकार कर दिया । फलतः १७७७ ई. में चेर और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ और दुर्ग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया । बाद में भूषण सिंह ने चेरों का नेतृत्व कर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया ।

संथाल विद्रोह

यह विद्रोह बिहार राज्य के भागलपुर से राजमहल तक फैला था । संथाल विद्रोह का नेतृत्व सिद्धू और कान्हू ने किया । सिद्धू-कान्हू ने घोषित कर रखा था कि आजादी पाने के लिए ठाकुर जी (भगवान) ने हमें हथियार उठाने का आदेश दिया है । अंग्रेजों ने इनकी कार्यवाहियों के विरुद्ध मार्शल लॉ लगा दिया और विद्रोहियों के बन्दी के लिए दस हजार का इनाम घोषित कर दिया । यह विद्रोह १८५५-५६ ई. में हुआ था ।

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09-02-2011, 01:09 AM
पहाड़िया विद्रोह

यह विद्रोह राजमहल की पहाड़ियों में स्थित जनजातियों का था । इनके क्षेत्र को अंग्रेजों ने दामनी कोल घोषित कर रखा था । अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों (जनजातियों) के क्षेत्रों में प्रवेश करना व उनकी परम्पराओं में हस्तक्षेप करने के विरुद्ध किया । यह विद्रोह १७९५-१८६० ई. के मध्य हुआ था ।

खरवार विद्रोह

यह विद्रोह भू-राजस्व बन्दोबस्त व्यवस्था के विरोध में किया गया था । यह विद्रोह मध्य प्रदेश व बिहार में उभरा था ।

सरदारी लड़ाई

१८६० ई. में मुण्डा एवं उरॉव जनजाति के लोगों ने जमींदरों के शोषण और पुलिस के अत्याचार का विरोध करने के लिए संवैधानिक संघर्ष प्रारम्भ किया इसे सरदारी लड़ाई कहा जाता है । यह संघर्ष रांची से प्रारम्भ होकर सिंहभूम तक फैल गया । लगभग ३० वर्षों तक चलता रहा । बाद में इसकी असफलता की प्रतिक्रिया में भगीरथ मांझी के नेतृत्व में खरवार आन्दोलन संथालों द्वारा प्रारम्भ किया गया, लेकिन यह प्रभावहीन हो जायेगा ।

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09-02-2011, 01:11 AM
मुण्डा विद्रोह

जनजातीय विद्रोह में सबसे संगठित एवं विस्तृत विद्रोह १८९५ ई. से १९०१ ई. के बीच मुण्डा विद्रोह था जिसका नेतृत्व बिरसा मुण्डा ने किया था ।

■बिरसा मुण्डा का जन्म १८७५ ई. में रांची के तमार थाना के अन्तर्गत चालकन्द गाँव में हुआ था । उसने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी । बिरसा मुण्डा ने मुण्डा विद्रोह पारम्परिक भू-व्यवस्था का जमींदारी व्यवस्था में परिवर्तन हेतु धार्मिक-राजनीतिक आन्दोलन का स्वरूप प्रदान किया ।
■बिरसा मुण्डा को उल्गुहान (महान विद्रोही) कहा गया है । बिरसा मुण्डा ने पारम्परिक भू-व्यवस्था का जमींदारी व्यवस्था को धार्मिक एवं राजनीतिक आन्दोलन का रूप प्रदान किया ।
■बिरसा मुण्डा ने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया को सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया । उसने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एकेश्*वरवाद का उपदेश दिया । उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान न देने का आदेश दिया ।
■१९०० ई. बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे जेल में डाल दिया जहाँ हैजा बीमारी से उनकी मृत्यु हो गयी ।

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09-02-2011, 01:12 AM
सफाहोड आन्दोलन

इस आन्दोलन का आरम्भ १८७० ई. में हो चुका था । इसका प्रणेता लाल हेम्ब्रन था । इसका स्वरूप धार्मिक था, लेकिन जब यह आन्दोलन भगीरथ मांझी के अधीन आया तब आन्दोलन का धार्मिक रूप बदलकर राजनीतिक हो गया ।

ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष के लिए आलम्बन एवं चरित्र का निर्माण करना तथा धार्मिक भावना को प्रज्ज्वलित करना ही इसका उद्देश्य था । आन्दोलनकारी राम नाम का जाप करते थे फलतः ब्रिटिश अधिकारियों ने राम नाम जाप पर पाबन्दी लगा दी थी । आन्दोलन के नेता लाल हैम्ब्रन तथा पैका मुर्यू को डाकू घोषित कर दिया गया । लाल हेम्ब्रन ने नेता सुभाषचन्द्र बोस की तरह ही संथाल परगना में ही हिन्द फौज के अनुरूप देशी द्वारक दल का गठन किया । उसने १९४५ ई. में महात्मा गाँधी के आदेश पर आत्मसमर्पण कर दिया ।

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09-02-2011, 01:14 AM
ताना भगत आन्दोलन

ताना भगत का जन्म १९१४ ई. में गुमला जिला के बिशनुपुर प्रखण्ड (छोटा नागपुर) के एक ग्राम से हुआ था । इसका नेतृत्व आदिवासियों में रहने वाले धर्माचार्यों ने किया था । यह संस्कृतिकरण आन्दोलन था । इन जनजातियों (आदिवासी) के मध्य गाँधीवादी कार्यकर्ताओं ने अपने रचनात्मक कार्यों से प्रवेश प्राप्त कर लिया था । जात्रा भगत इस आन्दोलन का प्रमुख नेता था । यह नया धार्मिक आन्दोलन उरॉव जनजाति द्वारा प्रारम्भ हुआ था । ताना भगत आन्दोलन बिहार जनजातियों का राष्ट्रीय आन्दोलन था । १९२० के दशक में ताना भगत आन्दोलनकारियों ने कांग्रेस में रहकर सत्याग्रहों व प्रदर्शनों में भाग लिया था तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की थी । इस आन्दोलन में खादी का प्रचार एवं प्रसार हुआ । इसाई धर्म प्रचारकों का विरोध किया गया । इस आन्दोलन की मुख्य माँगें थीं- स्वशासन का अधिकार, लगान का बहिष्कार एवं मनुष्यों में समता । जब असहयोग आन्दोलन कमजोर पड़ गया तब इन आन्दोलनकारियों ने स्थानीय मुद्दों को उठाकर आन्दोलन किया ।

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09-02-2011, 01:16 AM
बिहार में स्वतन्त्रता आन्दोलन

१८५७ ई. का विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ भारतवासियों का प्रथम सशक्*त विद्रोह था । १८५७ ई. की क्रान्ति की शुरुआत बिहार में १२ जून, १८५७ को देवधर जिले के रोहिणी नामक स्थान से हुई थी । यहाँ ३२वीं इनफैन्ट्री रेजीमेण्ट का मुख्यालय था एवं पाँचवीं अनियमित घुड़सवार सेना का मेजर मैक्डोनाल्ड भी यहीं तैनात था । इसी विद्रोह में लेफ्टीनेंट नार्मल लेस्ली एवं सहायक सर्जन ५० ग्राण्ट लेस्ली भी मारे गये ।

मेजर मैक्डोनाल्ड ने इस विद्रोह को निर्दयतापूर्ण दबा दिया एवं विद्रोह में सम्मिलित तीन सैनिकों को फाँसी पर लटका दिया गया । ३ जुलाई, १८५७ को पटना सिटी के एक पुस्तक विक्रेता पीर अली के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष हो गया । शीघ्र ही पटना की स्थिति बिगड़ने लगी । पटना के कमिश्नर विलियम टेलर ने छपरा, आरा, मुजफ्फरपुर, गया एवं मोतिहारी में अवस्थित सेना को सख्ती से निपटने का निर्देश दिया । फलतः टेलर ने इस विद्रोह को बलपूर्वक दबा दिया । पीर अली के घर को नष्ट कर दिया गया । १७ व्यक्*तियों को फाँसी की सजा दी गई थी ।

■२५ जुलाई, १८५४ को मुजफ्फरपुर में भी अंग्रेज अधिकारियों की असन्तुष्ट सैनिकों ने हत्या कर दी ।
■२५ जुलाई के दिन दानापुर छावनी के तीन रेजीमेण्टों ने विद्रोह कर आरा जाकर कुँअर सिंह के विद्रोहों में शामिल हो गया ।
■सिगौली में भी सैनिकों ने विद्रोह कर अपने कमाण्डर मेजर होल्यस तथा उनकी पत्*नी को मार डाला ।
■३० जुलाई तक पटना, सारण, चम्पारण आदि जिलों में सैनिक शासन लागू हो गया ।
अगस्त में भागलपुर में विद्रोह भड़क उठा था । विद्रोहियों ने गया पहुँचकर ४०० लोगों को मुक्*त कर लिया । राजगीर, बिहार शरीफ एवं गया क्षेत्र में छिटपुट विद्रोह शुरू हो गया । दानापुर के तीनों रेजीमेण्ट ने सैनिक विद्रोह कर जगदीशपुर के जमींदार वीर कुँअर सिंह के साथ शामिल हो गये थे । बाबू कुँअर सिंह के पूर्वज परमार राजपूत थे और उज्जैन से आकर शाहाबाद जिले में बस गये थे ।

कुँअर सिंह का जन्म सन्* १७८० में भोजपुर जिले के जगदीशपुर गाँव में हुआ था । पिता साहबजादा सिंह एक उदार स्वभाव के जमींदार थे । वे अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे । इनका विवाह देवयुँगा (गया) में हुआ था । उनके पूर्वज परमार राजपूत (जो उज्जैन से आकर शाहाबाद जिले में बस गये) थे ।

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09-02-2011, 01:17 AM
२५ जुलाई, १८५७ को दानापुर में हिन्दुस्तानी सिपाही विद्रोह शुरू कर दिया । वे इस समय ८० वर्ष के थे । वीर कुँअर सिंह ने कमिश्नर टेलर से मिलने के आग्रह को ठुकराकर अपने लगभग ५,००० सैनिकों के साथ आरा पर आक्रमण कर दिया । आरा नगर की कचहरी और राजकोष पर अधिकार कर लिया । आरा को मुक्*त करवाने के लिए दानापुर अंग्रेज एवं सिक्ख सैनिक कैप्टन डनवर के नेतृत्व में आरा पहुँचे ।

२ अगस्त, १८५७ को कुँअर सिंह एवं मेजर आयर की सेनाओं के बीच वीरगंज के निकट भयंकर संघर्ष हुआ । इसके बाद कुँअर सिंह ने नाना साहेब से मिलकर आजमगढ़ में अंग्रेजों को अह्राया । २३ अप्रैल, १८५८ को कैप्टन ली ग्राण्ड के नेतृत्व में आयी ब्रिटिश सेना को कुँअर सिंह ने पराजित किया । लेकिन इस लड़ाई में वे बुरी तरह से घायल हो गये थे । मरने से पूर्व कुँअर सिंह की एक बांह कट गई थी और जाँघ में सख्त चोट थी ।

२६ अप्रैल, १८५८ को उनकी मृत्यु हुई । अदम्य साहस, वीरता, सेनानायकों जैसे महान गुणों के कारण इन्हें बिहार का सिंह’ कहा जाता है । संघर्ष का क्रम उनके भाई अमर सिंह ने आगे बढ़ाया । उन्होंने शाहाबाद को अपने नियन्त्रण में बनाये रखा । ९ नवम्बर, १८५८ तक अंग्रेजी सरकार इस क्षेत्र पर अधिकार नहीं कर सकी थी । उसने कैमूर पहाड़ियों में मोर्चाबन्दी कर अंग्रेज सरकार को चुनौती दी । उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध छापामार युद्ध जारी रखा । महारानी द्वारा क्षमादान की घोषणा के बाद ही इस क्षेत्र में विद्रोहियों ने हथियार डाले ।

अमर सिंह सहित १४ आदमियों को क्षमादान के प्रावधान से पृथक रखा गया एवं इन्हें दण्डित किया गया । १८५९ ई. तक ब्रिटिश सत्ता की बहाली न केवल बिहार बल्कि सारे देश में हो चुकी थी ।

कम्पनी शासन का अन्त हुआ और भारत का शासन इंग्लैण्ड की सरकार के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में आ गया ।

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12-02-2011, 02:46 AM
भारत छोड़ो आन्दोलन और बिहार

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12-02-2011, 02:47 AM
१ अप्रैल, १९३३ को मोहम्मद युनुस ने अपने नेतृत्व में प्रथम भारतीय मन्त्रिमण्डल बिहार में स्थापित किया गया । इसके सदस्य बहाव अली, कुमार अजिट प्रताप सिंह और गुरु सहाय लाल थे । युनुस मन्त्रिमण्डल के गठन के दिन जयप्रकाश नारायण, बसावन सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी ने इसके विरुद्ध प्रदर्शन किया । फलतः गवर्नर ने वैधानिक कार्यों में गवर्नर हस्तक्षेप नहीं करेगी का आश्*वासन दिया ।

७ जुलाई, १८३७ को कांग्रेस कार्यकारिणी ने सरकारों के गठन का फैसला लिया । मोहम्मद यूनुस के अन्तरिम सरकार के त्यागपत्र के बाद २० जुलाई, १९३७ को श्रीकृष्ण सिंह ने अपने मन्त्रिमण्डल का संगठन किया लेकिन १५ जनवरी, १९३८ में राजनीतिक कैदियों की रिहाई के मुद्दे पर अपने मन्त्रिमण्डल को भंग कर दिया । १९ मार्च, १९३८ को द्वितीय विश्*व युद्ध में बिना ऐलान के भारतीयों को शामिल किया गया, जिसका पूरे देश भर में इसके विरुद्ध प्रदर्शन हुआ । २७ जून, १९३७ में लिनलियथगो ने आश्*वासन दिया कि भारतीय मन्त्रियों के वैधानिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा ।

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12-02-2011, 02:48 AM
आजाद दस्ता

यह भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद क्रान्तिकारियों द्वारा प्रथम गुप्त गतिविधियाँ थीं । जयप्रकाश नारायण ने इसकी स्थापना नेपाल की तराई के जंगलों में रहकर की थी । इसके सदस्यों को छापामार युद्ध एवं विदेशी शासन को अस्त-व्यस्त एवं पंगु करने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा ।

बिहार प्रान्तीय आजाद दस्ते का नेतृत्व सूरज नारायण सिंह के अधीन था । परन्तु भारत सरकार के दबाव में मई, १९४३ में जय प्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी, बाबू श्यामनन्दन, कार्तिक प्रसाद सिंह इत्यादि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और हनुमान नगर जेल में डाल दिया गया । आजाद दस्ता के निर्देशक सरदार नित्यानन्द सिंह थे । मार्च, १९४३ में राजविलास (नेपाल) में प्रथम गुरिल्ला प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की गई ।

सियाराम दल- बिहार में गुप्त क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व सियाराम दल ने स्थापित किया था । इसके क्रान्तिकारी दल के कार्यक्रम की चार बातें मुख्य थीं- धन संचय, शस्त्र संचय, शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण तथा सरकार का प्रतिरोध करने के लिए जनसंगठन बनाना । सियाराम दल का प्रभाव भागलपुर, मुंगेर, किशनगंज, बलिया, सुल्तानगंज, पूर्णिया आदि जिलों में था । क्रान्तिकारी आन्दोलन में हिंसा और पुलिस दमन के अनगिनत उदाहरण मिलते हैं ।

११ अगस्त, १९४२ को सचिवालय गोलीकाण्ड बिहार के इतिहास वरन्* भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का एक अविस्मरणीय दिन था । पटना के जिलाधिकारी डब्ल्यू. जी. आर्थर के आदेश पर पुलिस ने गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया । पुलिस ने १३ या १४ राउण्ड गोलियाँ चलाईं, इस गोलीकाण्ड में सात छात्र शहीद हुए, लगभग २५ गम्भीर रूप से घायल हुए । ११ अगस्त, १९४२ के सचिवालय गोलीकाण्ड ने बिहार में आन्दोलन को उग्र कर दिया ।

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12-02-2011, 02:48 AM
सचिवालय गोलीकाण्ड में शहीद सात महान बिहारी सपूत-

१. उमाकान्त प्रसाद सिंह- राम मोहन राय सेमीनरी स्कूल के १२वीं कक्षा का छात्र था । इसके पिता राजकुमार सिंह थे । वह सारण जिले के नरेन्द्रपुर ग्राम का निवासी था ।

२. रामानन्द सिंह- ये राम मोहन राय सेमीनरी स्कूल पटना के ११ वीं कक्षा का छात्र था । इनका जन्म पटना जिले के ग्राम शहादत नगर में हुआ था । इनके पिता लक्ष्मण सिंह थे ।

३. सतीश प्रसाद झा- सतीश प्रसाद का जन्म भागलपुर जिले के खडहरा में हुआ था । इनके पिता जगदीश प्रसाद झा थे । वह पटना कालेजियत स्कूल का ११वीं कक्षा का छात्र था । सीवान थाना में फुलेना प्रसाद श्रीवास्तव द्वारा राष्ट्रीय झण्डा लहराने की कोशिश में पुलिस गोली का शिकार हुए ।

४. जगपति कुमार- इस महान सपूत का जन्म गया जिले के खराठी गाँव में हुआ था ।

५. देवीपद चौधरी- इस महान सपूत का जन्म सिलहर जिले के अन्तर्गत जमालपुर गाँव में हुआ था । वे मीलर हाईस्कूल के ९वीं कक्षा का छात्र था ।

६. राजेन्द्र सिंह- इस महान सपूत का जन्म सारण जिले के बनवारी चक ग्राम में हुआ था । वह पटना हाईस्कूल के ११वीं का छात्र था ।

७. राय गोविन्द सिंह- इस महान सपूत का जन्म पटना जिले के दशरथ ग्राम में हुआ । वह पुनपुन हाईस्कूल का ११वीं का छात्र था ।

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12-02-2011, 02:49 AM
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस स्थान पर शहीद स्मारक का निर्माण हुआ । इसका शिलान्यास स्वतन्त्रता दिवस को बिहार के प्रथम राज्यपाल जयराम दौलत राय के हाथों हुआ । औपचारिक अनावरण देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने १९५६ ई. में किया । भारत छोड़ो आन्दोलन के क्रम में बिहार में १५,००० से अधिक व्यक्*ति बन्दी बनाये गये, ८,७८३ को सजा मिली एवं १३४ व्यक्*ति मारे गये ।

बिहार में भारत छोड़ो आन्दोलन को सरकार द्वारा बलपूर्वक दबाने का प्रयास किया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि क्रान्तिकारियों को गुप्त रूप से आन्दोलन चलाने पर बाध्य होना पड़ा ।

९ नवम्बर, १९४२ दीवाली की रात में जयप्रकाश नारायण, रामनन्दन मिश्र, योगेन्द्र शुक्ला, सूरज नारायण सिंह इत्यादि व्यक्*ति हजारीबाग जेल की दीवार फाँदकर भाग गये । सभी शैक्षिक संस्थान हड़ताल पर चली गई और राष्ट्रीय झण्डे लहराये गये । ११ अगस्त को विद्यार्थियों के एक जुलूस ने सचिवालय भवन के सामने विधायिका की इमारत पर राष्ट्रीय झण्डा लहराने की कोशिश की ।

द्वितीय विश्*व युद्ध की प्रगति और उससे उत्पन्*न गम्भीर परिस्थित्यों को देखते हुए कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार को सहायता व सहयोग दिया । अगस्त प्रस्ताव और क्रिप्स प्रस्ताव में दोष होने के कारण कांग्रेस ने इसे अस्वीकार कर दिया था ।

दिसम्बर, १९४१ में जापानी आक्रमण से अंग्रेज भयभीत हो गये थे । मार्च, १९४२ में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विन्सटन चर्चिल ने ब्रिटिश संसद में घोषणा की कि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान किया जायेगा । २२ मार्च, १९४२ को स्टेफोर्ड किप्स ने इस व्यवस्था में लाया । फलतः उनके प्रस्ताव राष्ट्रवादियों के लिए असन्तोषजनक सिद्ध हुए । ३० जनवरी, १९४२ से १५ फरवरी, १९४२ तक पटना में रहकर मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने सार्वजनिक सभा को सम्बोधित किया ।

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12-02-2011, 02:50 AM
१४ जुलाई, १९४२ को वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक का आयोजन किया गया । इसी समय सुप्रसिद्ध भारत छोड़ो प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और उसे अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति को मुम्बई में होने वाली बैठक में प्रस्तुत करने का निर्णय हुआ । ५ अगस्त, १९४२ को मुम्बई में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में भारत छोड़ो प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया और गाँधी जी ने करो या मरो का नारा दिया साथ ही कहा हम देश को चितरंजन दास की बेड़ियों में बँधे हुए देखने को जिन्दा नहीं रहेंगे । ८ अगस्त को भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने के तुरन्त बाद कांग्रेस के अधिकतर नेता गिरफ्तार कर लिये गये । डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को गिरफ्तार कर लिया गया । इसके बाद में मथुरा बाबू, श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह बाबू इत्यादि भी गिरफ्तार कर लिए गये । बलदेव सहाय ने सरकारी नीति के विरोध में महाधिवक्*ता पद से इस्तीफा दे दिया । ९ अगस्त अध्यादेश द्वारा कांग्रेस को गैर-कानूनी घोषित कर दिया । इसके फलस्वरूप गवर्नर ने इण्डिपेंडेन्ट पार्टी के सदस्य मोहम्मद युनुस को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रण किया । मोहम्मद युनुस बिहार के भारतीय प्रधानमन्त्री बने ।

(तत्कालीन समय में प्रान्त के प्रधान को प्रधानमन्त्री कहा जाता था।)

Bond007
12-02-2011, 02:51 AM
भारत सरकार अधिनियम, १९३५ एवं बिहार में प्रथम कांग्रेस का मन्त्रिमण्डल

ब्रिटिश संसद द्वारा १९३५ ई. में भारत के शासन के लिए एक शासन विधान को पारित किया गया । १९३५ ई. से १९४७ ई. तक इसी आधार पर भारतीय शासन होता रहा । इस विधान में एक संघीय शासन की व्यवस्था थी । कांग्रेस ने इसे अपेक्षाओं से कम माना लेकिन चुनाव में भाग लिया । १९३५-३६ ई. के चुनाव तैयार करने लगा । जवाहरलाल नेहरू एवं गोविन्द वल्लभ पन्त ने बिहार का दौरा कर कांग्रेसियों का जोश बढ़ाया ।

कांग्रेस ने अनेक रचनात्मक कार्य उद्योग संघ, चर्खा संघ आदि चलाये । रात्रि समय में पाठशाला, ग्राम पुसतकालय खोले गये । आटा चक्*की, दुकान चलाना एवं खजूर से गुड़ बनाना आदि कार्यों का प्रशिक्षण दिया गया । बिहार में कांग्रेसी आश्रम खोलने का शीलभद्र याज्ञी का विशेष योगदान रहा । १९३५ ई. का वर्ष कांग्रेस का स्वर्ण जयन्ती वर्ष था जो डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की अध्यक्षता में धूमधाम से मनाया गया । जनवरी १९३६ ई. में छः वर्षों के प्रतिबन्धों के पश्*चात्* बिहार राजनीतिक सम्मेलन का १९वाँ अधिवेशन पटना में आयोजित किया गया । २२ से २७ जनवरी के मध्य बिहार के १५२ निर्वाचन मण्डल क्षेत्रों में चुनाव सम्पन्*न हुए । कांग्रेस ने १०७ में से ९८ जीते । १७-१८ मार्च को दिल्ली में कांग्रेस बैठक के बाद बिहार में कांग्रेस मन्त्रिमण्डल का गठन हुआ ।

२१ जून को वायसराय लिनलिथगो के वक्*तव्य ने संशयों को दूर करने में सफलता पाई अन्त में युनुस को सरकार का निमन्त्रण न देकर श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया,अनुग्रह नारायण सिंह उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री बने । रामदयालु अध्यक्ष तथा प्रो. अब्दुल बारी विधानसभा के उपाध्यक्ष बने । इस बीच अण्डमान से लाये गये राजनीतिक कैदियों की रिहाई के प्रश्*न पर गंभीर विवाद उत्पन्*न हो गया फलतः वायसराय के समर्थन इन्कार के बाद १५ जनवरी, १९३८ के मन्त्रिमण्डल ने इस्तीफा दे दिया । कांग्रेस ने बाद में सुधारात्मक एवं रचनात्मक कार्यों की तरफ ध्यान देने लगा । बिहार टेनेन्सी अमेण्टमेड एक्ट के तहत काश्तकारी व्यवस्था के अन्तर्गत किसानों को होने वाली समस्या को दूर करने का प्रयास किया । चम्पारण कृषि संशोधन कानून और छोटा नागपुर संशोधन कानून पारित किये गये । श्रमिकों में फैले असन्तोष से १९३७-३८ ई. में ग्यारह बार हड़तालें हुईं । अब्दुल बारी ने टाटा वर्क्स यूनियन की स्थापना की । योगेन्द्र शुक्ल, सत्यनारायण सिंह आदि प्रमुख श्रमिक नेता हुए । इस बीच मुस्लिम लीग की गतिविधियाँ बढ़ गयीं ।

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12-02-2011, 02:51 AM
विदेशी वस्त्र बहिष्कार- ३ जनवरी, १९२९ को कलकत्ता में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार करने का निर्णय किया गया । इसमें अपने स्वदेशी वस्त्र खादी वस्त्र को बढ़ावा देने के लिए माँग की गई । सार्वजनिक सभाओं एवं मैजिक लालटेन की सहायता से कार्यकर्ता के सहारे गाँव में पहुँचे ।

पूर्ण स्वाधीनता प्रस्ताव- जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का २९-३१ दिसम्बर, १९२९ का लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता प्रस्ताव स्वीकृत किया गया । बिहार कांग्रेस कार्यसमिति की २० जनवरी, १९३० को पटना में एक बैठक आयोजित की गई । २६ जनवरी, १९३० को सभी जगह स्वतन्त्रता दिवस मनाने को निश्*चित किया और मनाया गया ।

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12-02-2011, 02:52 AM
नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आन्दोलन

दिसम्बर १९२९ ई. में पण्डित जवाहरलाल की अध्यक्षता में लाहौर का अधिवेशन सम्पन्*न हुआ था । इसके साथ ही गाँधी जी ने फरवरी १९३० ई. में कार्यकारिणी कांग्रेस को गाँधी जी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन करने का अधिकार दिया ।

१२ मार्च, १९३० को महात्मा गाँधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का आरम्भ नमक कानून तोड़ने के साथ शुरू हुआ । २६ जनवरी, १९३० को बिहार में स्वाधीनता मनाने के उपरान्त १२ मार्च को गाँधी जी की डांडी यात्रा शुरू हुई थी । बिहार में नमक सत्याग्रह का प्रारम्भ १५ अप्रैल, १९३० चम्पारण एवं सारण जिलों में नमकीन मिट्टी से नमक बनाकर किया गया । पटना में १६ अप्रैल, १९३० को नरवासपिण्ड नामक स्थान दरभंगा में सत्यनारायण सिंह, मुंगेर में श्रीकृष्ण सिंह ने नमक कानून को तोड़ा ।

४ मई, १९३० को गाँधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया । इसके विरोध में पूरे बिहार में विरोध प्रदर्शन किया गया । मई, १९३० ई. में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने विदेशी वस्त्रों और शराब की दुकानों के आगे धरने का प्रस्ताव किया । इसी आन्दोलन के क्रम में बिहार में चौकीदारी कर देना बन्द कर दिया गया । स्वदेशी वस्त्रों की माँग पर छपरा जिले में कैदियों ने नंगा रहने का निर्णय किया । इसे नंगी हड़ताल के नाम से जाना जाता है । ७ अप्रैल को गाँधी जी ने अपने वक्*तव्य द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित करने की सलाह दी । १८ मई, १९३४ को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने आन्दोलन को स्थगित कर दिया ।

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12-02-2011, 02:53 AM
साइमन कमीशन वापस जाओ आन्दोलन

१९२७ ई. में ब्रिटिश संसद एवं भारतीय वायसराय लॉर्ड डरविन ने एक घोषणा की भारत में फैल रही नैराश्य स्थिति की समाप्ति हेतु १९२८ ई. में एक कमीशन की स्थापना की घोषणा की । इस कमीशन के अध्यक्ष सर जॉन साइमन थे, अतः इसे साइमन कमीशन कहा जाता है किन्तु इसमें कोई भी भारतीय सदस्य नहीं रखा गया था । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस आयोग के बहिष्कार एवं विरोध का फैसला किया । बिहार प्रदेश कांग्रेस कार्यसमिति की पटना में सर अली इमाम की अध्यक्षता में एक बैठक हुई जिसमें साइमन कमीशन के पटना आगमन पर पूर्ण बहिष्कार किया गया ।

१८ दिसम्बर, १९२८ को साइमन कमीशन बिहार आया । हार्डिंग पार्क (पटना) के सामने बने विशेष प्लेटफार्म के सामने ३०,००० राष्ट्रवादियों ने साइमन वापस जाओ के नारे से स्वागत किया गया । साइमन कमीशन के विरोध के दौरान लखनऊ में पण्डित जवाहर लाल एवं लाहौर में लाला लाजपत राय पर लाठियाँ बरसाई गईं । लाठी की चोट से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई । फलतः विद्रोह पूरे देश में फैल गया । कमीशन के विरोध में बिहार में राजेन्द्र प्रसाद ने इसकी अध्यक्षता की थी । बिहार राष्ट्रवादियों ने नारा दिया कि “जवानों सवेरा हुआ साइमन भगाने का बेरा हुआ" । विरोधी नेताओं में ब्रज किशोर जी, रामदयालु जी एवं अनुग्रह नारायण बाबू थे । इस घटना ने बिहार के लिए नई चेतना पैदा कर दी । १९२९ ई. में सर्वदलीय सम्मेलन हुआ जिसमें भारत के लिए संविधान बनाने के लिए मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति बनी जिसे नेहरू रिपोर्ट कहते हैं । पटना में दानापुर रोड बना राष्ट्रीय पाठशाला (अन्य) भी खुली । एक मियाँ खैरूद्दीन के मकान के छात्रों को पढ़ाना शुरू किया गया । बाद में यही जगह सदाकत आश्रम के रूप में बदल गया ।

नवम्बर १९२१ ई. ब्रिटिश युवराज का भारत आगमन हुआ । इनके आगमन के विरोध करने का फैसला किया गया । इसके लिए बिहार प्रान्तीय सम्मेलन का आयोजन किया गया । जब राजकुमार २२ दिसम्बर, १९२१ को पटना आये तो पूरे शहर में हड़ताल थी । ५ जनवरी, १९२२ को उत्तर प्रदेश के चौरा-चौरी नामक स्थान पर उग्र भीड़ ने २१ सिपाहियों को जिन्दा जला दिया तो गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन को स्थगित करने का निर्णय लिया । गाँधी जी को १० मार्च, १९२२ को गिरफ्तार कर ६ महीना के लिए जेल भेज दिया गया ।

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12-02-2011, 02:54 AM
बिहार में स्वराज पार्टी

चौरा-चौरी काण्ड से दुःखी होकर गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन को समाप्त कर दिया फलतः देशबन्धु चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू और विट्*ठलभाई पटेल ने एक स्वराज दल का गठन किया ।

बिहार में स्वराज दल का गठन फरवरी १९२३ ई. में हुआ । नारायण प्रसाद अध्यक्ष, अब्दुल बारी सचिव एवं कृष्ण सहाय तथा हरनन्दन सहाय को सहायक सचिव बनाया गया । मई, १९२३ ई. को नई कार्यकारिणी का गठन हुआ । २ जून, १९२३ को पटना में स्वराज दल की एक बैठक हुई जिसमें पटना, तिरहुत, छोटा नागपुर एवं भागलपुर मण्डलों में भी स्वराज दल की शाखाओं को गठित करने की घोषणा की गई, लेकिन यह आन्दोलन ज्यादा दिनों तक नहीं चला ।

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12-02-2011, 02:54 AM
असहयोग आन्दोलन

इस आन्दोलन का प्रारूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सितम्बर, १९२० ई. में पारित हुआ, लेकिन बिहार में इसके पूर्व ही असहयोग प्रस्ताव पारित हो चुका था । २९ अगस्त, १९१८ को कांग्रेस ने अपने मुम्बई अधिवेशन में ंआण्टेक्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट पर विचार किया जिसकी अध्यक्षता बिहार के प्रसिद्ध बैरिस्टर हसन इमान ने की । हसन इमान के नेतृत्व में इंग्लैण्ड में एक शिष्ट मण्डल भेजा जा रहा था, जिससे ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाया जाय । रौलेट एक्ट के काले कानून के विरुद्ध गाँधी जी ने पूरे देश में जनआन्दोलन छेड़ रखा था ।

बिहार में ६ अप्रैल, १९१९ को हड़ताल हुई । मुजफ्फरपुर, छपरा, गया, मुंगेर आदि स्थानों पर हड़ताल का व्यापक असर पड़ा । ११ अप्रैल, १९१९ को पटना में एक जनसभा का आयोजन किया गया जिसमें गाँधी जी की गिरफ्तारी का विरोध किया गया । असहयोग आन्दोलन के क्रम में मजरूलहक, राजेन्द्र प्रसाद,अनुग्रह नारायण सिंह, ब्रजकिशोर प्रसाद, मोहम्मद शफी और अन्य नेताओं ने विधायिका के चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली । छात्रों को वैकल्पिक शिक्षा प्रदान करने के लिए पटना-गया रोड पर एक राष्ट्रीय महाविद्यालय के ही प्रांगण में बिहार विद्यापीठ का उद्*घाटन ६ फरवरी, १९२१ को गाँधी जी द्वारा किया गया । २० सितम्बर, १९२१ से मजहरूल हक ने सदाकत आश्रय से ही मदरलैण्ड नामक अखबार निकालना शुरू किया । इसका प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय भावना के प्रचार-प्रसार एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता की स्थापना करना था । इन्होंने गाँधी जी को किसानों की आर्थिक दशा की तरफ ध्यान दिलाया । ब्रजकिशोर प्रसाद ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिससे समस्याओं का निदान किया जा सके । राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर गाँधी जी ने कलकत्ता से १५ अप्रैल, १९१७ को पटना, मुजफ्फरपुर तथा दरभंगा होते हुए चम्पारण पहुँचे । स्थानीय प्रशासन ने उनके आगमन एवं आचरण को गैर-कानूनी घोषित कर गिरफ्तार कर लिया और मोतिहारी की जेल में भेज दिया गया लेकिन अगले दिन छोड़ दिया गया । बाद में तत्कालीन उपराज्यपाल एडवर्ड गेट ने गाँधीजी को वार्ता के लिए बुलाया और किसानों के कष्टों की जाँच के लिए एक समिति के लिए एक कमेटी का गठन किया, जिसका नाम चम्पारण एग्रेरोरियन कमेटी पड़ा । गाँधी जी के कहने पर तीन कढ़िया व्यवस्था का अन्त कर दिया गया ।

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12-02-2011, 02:55 AM
खिलाफत आन्दोलन

प्रथम विश्*वयुद्ध की समाप्ति के बाद जब विजयी राष्ट्रों ने तुर्की सुल्तान के खलीफा पद को समाप्त कर दिया तो अंग्रेजों द्वारा कोई आश्*वासन न मिलने के कारण भारतीय मुसलमानों एवं राष्ट्रवादियों का गुस्सा भड़क उठा । फलतः मौलाना मोहम्मद अली एवं शौकत अली ने खिलाफत आन्दोलन शुरू किया । यह आन्दोलन १९१९-२३ ई. में हुआ ।

१६ जनवरी, १९१९ को पटना में हसन इमाम की अध्यक्षता में एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें खलीफा के प्रति मित्र राष्ट्रों द्वारा उचित व्यवहार करने को कहा गया । अप्रैल, १९१९ ई. में पटना में शौकत अली आये और १९२० ई. तक पूरे बिहार में यह आन्दोलन फैल गया । इसके लिए उन्होंने मोतीहारी, छपरा, पटना, फुलवारी शरीफ में जनसभाओं को सम्बोधित किया ।

१९२२ ई. में यह आन्दोलन पूर्णरूपेण समाप्त हो गया । शचिन्द्रनाथ सान्याल ने १९१३ ई. में पटना में अनुशीलन समिति की शाखा की नींव रखी । ढाका अनुशीलन समिति के सदस्य रेवती नाग ने भागलपुर में और यदुनाथ सरकार ने बक्सर में युवा क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षित किया ।

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12-02-2011, 02:56 AM
होमरूल आन्दोलन

१९१६ ई. में भारत में होमरूल आन्दोलन प्रारम्भ हुआ था । श्रीमती एनी बेसेन्ट ने मद्रास में एवं बाल गंगाधर तिलक ने पूना में इसकी स्थापना की थी ।

बिहार में होमरूल लीग की स्थापना १६ दिसम्बर, १९१६ में हुई, इसके अध्यक्ष मौलाना मजहरूल हक, उपाध्यक्ष सरफराज हुसैन खान और पूर्गेन्दू नारायण सिंह तथा मन्त्री चन्द्रवंशी सहाय और वैद्यनाथ नारायण नियुक्*त किये गये । एनी बेसेन्ट भी होमरूल के आन्दोलन के सम्बन्ध में दो-तीन बार पटना भी आयीं । इनका भव्य स्वागत किया गया । वर्तमान पटना कॉलेज के सामने के सड़क का नाम एनी बेसेन्ट रोड इन्हीं के नाम पर रखा गया है ।

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12-02-2011, 02:56 AM
चम्पारण सत्याग्रह आन्दोलन

बिहार का चम्पारण जिला १९१७ ई. में महात्मा गाँधी द्वारा भारत में सत्याग्रह के प्रयोग का पहला स्थल था

चम्पारण में अंग्रेज भूमिपतियों द्वारा किसानों पर निर्मम शोषण किया जा रहा था । जमींदारों द्वारा किसानों को बलात नील की खेती के लिए बाध्य किया जाता था । प्रत्येक बीघे पर उन्हें तीन कट्ठों में नील की खेती अनिवार्यतः करनी पड़ती थी । इन्हें तीन कठिया व्यवस्था कहा जाता था । बदले में उचित मजदूरी नहीं दी जाती थी । इसी कारण से किसानों एवं मजदूरों में भयंकर आक्रोश था । सन्* १९१६ में लखनऊ अधिवेशन में चम्पारण के राजकुमार शुक्ल जो स्वयं जमींदार के आर्थिक शोषण से ग्रस्त थे, भाग लिया ।

२६ दिसम्बर, १९३८ को पटना में मुस्लिम लीग का २६वाँ अधिवेशन हुआ । २९ दिसम्बर, १९३८ को अखिल भारतीय मुसलमान छात्र सम्मेलन हुआ । ४ जनवरी, १९३२ को राजेन्द्र प्रसाद,अनुग्रह नारायण सिंह, ब्रजकिशोर प्रसाद, कृष्ण बल्लभ सहाय आदि नेतागण को गिरफ्तार किया गया । रैम्जे मैक्डोनाल्ड द्वारा हरिजन को कोटा की व्यवस्था से अस्त-व्यस्त हो गया । १२ जुलाई, १९३३ को सामुदायिक सविनय अवज्ञा के स्थान पर व्यक्*तिगत सविनय अवज्ञा का प्रारूप तैयार किया गया । १९२७ ई. में पटना युवा संघ की स्थापना की गई ।

नंगी हड़ताल- ४ मई, १९३० को गाँधी जी की गिरफ्तारी के बाद स्वदेशी के प्रचार एवं विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया । छपरा के कैदियों ने वस्त्र पहनने से इंकार कर दिया । नंगे शरीर रहकर विदेशी वस्त्रों का विरोध किया गया ।

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12-02-2011, 02:57 AM
बेगूसराय गोलीकाण्ड एवं बिहार किसान आन्दोलन

२६ जनवरी, १९३१ को प्रथम स्वाधीनता दिवस को पूरे जोश से मनाने का निर्णय किया गया । रघुनाथ ब्रह्मचारी के नेतृत्व में बेगूसराय जिले के परहास से एक जुलूस निकाला गया । डीएसपी वशीर अहमद ने गोली चलाने का आदेश दे दिया । छः व्यक्*ति की घटना स्थल पर मृत्यु हो गई । टेदीनाथ मन्दिर के सामने गोलीकाण्ड हुआ था ।

१९१९ ई. में मधुबनी जिले के किसान स्वामी विद्यानन्द ने दरभंगा राज के विरुद्ध विरोध किया । १९२२-३३ ई. में मुंगेर में बिहार किसान सभा का गठन मोहम्मद जूबैर और श्रीकृष्ण सिंह द्वारा किया । १९२८ ई. में स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना की । इसकी स्थापना में कार्यानन्द शर्मा, राहुल सांकृत्यायन, पंचानन शर्मा, यदुनन्दन शर्मा आदि वामपंथी नेताओं का सहयोग मिला ।

स्वामी दयानन्द सहजानन्द ने ४ मार्च, १९२८ को किसान आन्दोलन प्रारम्भ किया । इसी वर्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल की बिहार यात्रा हुई और अपने भाषणों से किसानों को नई चेतना से जागृत किया । बाद में इस आन्दोलन को यूनाइटेड पोलीटीकल पार्टी का नाम दिया गया ।

१९३३ ई. में किसान सभा द्वारा जाँच कमेटी का गठन किया गया । कमेटी द्वारा किसानों की दयनीय दशा के प्रति केन्द्रीय कर लगाया गया । १९३६ ई. में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ था । इसके अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द स्वामी थे और महासचिव प्रोफेसर एन. जे. रंगा थे ।

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12-02-2011, 02:57 AM
बिहार में मजदूर आन्दोलन

बिहार में किसानों के समान मजदूरी का भी संगठन बना । बिहार में औद्योगिक मजदूर वर्ग ने मजदूर आन्दोलन चलाया । १९१७ ई. में बोल्शेविक क्रान्ति एवं साम्यवादी विचारों में परिवर्तन के साथ-साथ प्रचार-प्रसार हुआ । दिसम्बर, १९१९ ई. में प्रथम बार जमालपुर (मुंगेर) में मजदूरों की हड़ताल प्रारम्भ हुई । १९२० ई. में एस. एन. हैदर एवं व्यायकेश चक्रवर्ती के मार्गदर्शन में जमशेदपुर वर्क्स एसोसिएशन बनाया गया । १९२५ ई. और १९२८ ई. के बीच मजदूर संगठन की स्थापना हुई । सुभाषचन्द्र बोस, अब्दुल बारी, जयप्रकाश नारायण इसके प्रमुख नेता थे ।

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12-02-2011, 02:58 AM
बिहार में संवैधानिक प्रगति और द्वैध शासन प्रणाली

बिहार प्रान्त का गठन १ अप्रैल, १९१२ में हुआ । इसके गठन के बाद १९१९ ई. को भारत सरकार का कानून लागू किया गया । द्वैध शासन की व्यवस्था बिहार में भी २० दिसम्बर, १९२० को प्रारम्भ हुई जिसकी अध्यक्षता आर. एन. मुधोलकर ने की । मौलाना मजरूलहक स्वागत समिति के अध्यक्ष बनाये गये । १९१६ ई. में पटना उच्च न्यायालय और १९१७ ई. में पटना विश्*वविद्यालय की स्थापना की गई । २० जनवरी, १९१३ को बिहार, उड़ीसा के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर के नवगठित काउन्सिल की प्रथम बैठक बांकीपुर में हुई, जिसकी अध्यक्षता बिहार-उड़ीसा के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर चार्ल्स स्टुअर्ट बेली ने की ।

७ फरवरी, १९२१ को बिहार एवं उड़ीसा लेजिस्लेटिव काउन्सिल की प्रथम बैठक का उद्*घाटन हुआ जिसकी अध्यक्षता सर मुण्डी ने की ।

१ अप्रैल, १९३६ को बिहार से उड़ीसा प्रान्त अलग किया गया । पुराने गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया एक्ट, १९१९ के एक सदनी विधानमण्डल की जगह नया कानून के अनुसार द्वि-सदनी विधानमण्डल स्थापित किया गया ।

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12-02-2011, 02:58 AM
बिहार में क्रान्तिकारी आन्दोलन

बंग भंग विरोधी आन्दोलन से बिहार तथा बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रारम्भ हो गया । बिहार के डॉ. ज्ञानेन्द्र नाथ, केदारनाथ बनर्जी एवं बाबा ठाकुर दास प्रमुख थे । बाबा ठाकुर दास ने १९०६-०७ ई. में पटना में रामकृष्ण मिशन सोसायटी की स्थापना की और समाचार-पत्र के द्वारा दी मदरलैण्ड का सम्पादन एवं प्रकाशन शुरू किया । १९०८ ई. में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी नामक दो युवकों ने मुजफ्फरपुर के जिला जज डी. एच. किंग्स फोर्ड की हत्या के प्रयास में मुजफ्फरपुर के नामी वकील की पत्*नी प्रिग्ल कैनेडी की बेटी की हत्या के कारण ११ अगस्त, १९०८ को फाँसी दी गई । इस घटना के बाद भारत को आजाद कराने की भावना प्रबल हो उठी । खेती नाग, चुनचुन पाण्डेय, बटेश्*वर पाण्डेय, घोटन सिंह, नालिन बागची आदि इस समय प्रमुख नेता थे ।

१९०८ ई. में ही नवाब सरफराज हुसैन खाँ की अध्यक्षता में बिहार कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ । इसमें सच्चिदानन्द सिंह, मजरूलहक हसन, इमाम दीपनारायण सिंह आदि शामिल थे । कांग्रेस कमेटी के गठन के बाद इसके अध्यक्ष इमाम हुसैन को बनाया गया ।

१९०९ ई. में बिहार कांग्रेस सम्मेलन का दूसरा अधिवेशन भागलपुर में सम्पन्*न हुआ । इसमें भी बिहार को अलग राज्य की माँग जोरदार ढंग से की गई ।

१९०७ ई. में ही फखरुद्दीन कलकत्ता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्*त होने वाले प्रथम बिहारी बने तथा स्थायी पारदर्शी के रूप में इमाम हुसैन को नियुक्*त किया गया । १९१० ई. में मार्लेमिण्टो सुधार के अन्तर्गत प्रथम चुनाव आयोजन में सच्चिदानन्द सिंह ने चार महाराजाओं को हराकर बंगाल विधान परिषद्* की ओर से केन्द्रीय विधान परिषद्* में विधि सदस्य के रूप में नियुक्*त हुए । १९११ ई. में दिल्ली दरबार में जार्ज पंचम के आगमन में केन्द्रीय परिषद्* के अधिवेशन के दौरान सच्चिदानन्द सिंह, अली इमाम एवं मोहम्मद अली ने पृथक बिहार की माँग की । फलतः इन बिहारी महान सपूतों द्वारा १२ दिसम्बर, १९११ को दिल्ली के शाही दरबार में बिहार और उड़ीसा को मिलाकर एक नया प्रान्त बनाने की घोषणा हुई । इस घोषणा के अनुसार १ अप्रैल, १९१२ को बिहार एवं उड़ीसा नये प्रान्त के रूप में इनकी विधिवत्* स्थापना की गई । बिहार के स्वतन्त्र अस्तित्व का मुहर लगने के तत्काल बाद पटना में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का २७वाँ वार्षिक सम्मेलन हुआ । मुगलकालीन समय में बिहार एक अलग सूबा था । मुगल सत्ता समाप्ति के समय बंगाल के नवाबों के अधीन बिहार चला गया । फलतः बिहार की अलग राज्य की माँग सर्वप्रथम मुस्लिम और कायस्थ ने की थी । जब लार्ड कर्जन ने बंगाल को १९०५ ई. में पूर्वी भाग एवं पश्*चिमी भाग में बाँध दिया था तब बिहार के लोगों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया एवं सच्चिदानन्द सिंह एवं महेश नारायण ने अखबारों में वैकल्पिक विभाजन की रूपरेखा देते हुए लेख लिखे थे जो पार्टीशन ऑफ बंगाल और लेपरेशन ऑफ बिहार १९०६ ई. में प्रकाशित हुए थे ।

इस समय कलकत्ता में राजेन्द्र प्रसाद अध्ययनरत थे वे वहाँ बिहारी क्लब के मन्त्री थे । डॉ. सच्चिदानन्द सिंह,अनुग्रह नारायण सिंह, हमेश नारायण तथा अन्य छात्र नेताओं से विचार-विमर्श के बाद पटना में एक विशाल बिहार छात्र सम्मेलन करवाया । यह सम्मेलन दशहरा की छुट्टी में पहला बिहारी छात्र सम्मेलन पटना कॉलेज के प्रांगण में पटना के प्रमुख शर्फुद्दीन के सभापतित्व में सम्पन्*न हुआ था । इससे बिहार पृथक्*करण आन्दोलन पर विशेष बल मिला । १९०६ ई. में बिहार टाइम्स का नाम बदलकर बिहारी कर दिया गया । १९०७ ई. में महेश नारायण का निधन हो गया । सच्चिदानन्द ने ब्रह्मदेव नारायण के सहयोग से पत्रिका का सम्पादन जारी रखा ।

बिहार प्रादेशिक सम्मेलन की स्थापना १२-१३ अप्रैल, १९०६ में पटना में हुई जिसकी अध्यक्षता अली इमाम ने की थी । इसमें बिहार को अलग प्रान्त की माँग के प्रस्ताव को पारित किया गया ।

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12-02-2011, 02:59 AM
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन एवं नव बिहार प्रान्त के रूप में गठन

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में बिहार का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । १८५७ ई. के विद्रोह का प्रभाव उत्तरी एवं मध्य भारत तक ही सीमित राहा । इस आन्दोलन में मुख्य रूप से शिक्षित एवं मध्यम वर्गों का योगदान रहता था ।

राष्ट्रीय चेतना की जागृति में बिहार ने अपना योगदान जारी रखा । बिहार और बंगाल राष्ट्रीय चेतना का प्रमुख केन्द्र रहा । सार्वजनिक गठन की १८८० ई. में नींव रखकर भारतीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना को जगाया । १८८५ ई. में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी । १८८६ ई. में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में बिहार के कई प्रतिनिधियों ने भाग लिया था । दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्*वर सिंह कांग्रेस को आर्थिक सहायता प्रदान की थी ।

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12-02-2011, 03:00 AM
नव राज्य का गठन

रेग्यूलेटिंग एक्ट १७७४ ई. के तहत बिहार के लिए एक प्रान्तीय सभा का गठन किया तथा १८६५ ई. में पटना और गया के जिले अलग-अलग किये गये ।

१८९४ ई. में पटना से प्रकाशित समाचार-पत्र के माध्यम से बिहार पृथक्*करण आन्दोलन की माँग की गई । इस पत्रिका के सम्पादक महेश नारायण और सच्चिदानन्द थे, जबकि किशोरी लाल तथा कृष्ण सहाय भी शामिल थे ।कुर्था थाना में झण्डा फहराने की कोशिश में श्याम बिहारी लाल मारे गये । कटिहार थाने में झण्डा फहराने में कपिल मुनि भी पुलिस का शिकार हुए ।

ब्रिटिश सरकार आन्दोलन एवं क्रान्तिकारी गतिविधियों से मजबूर होकर अपने शासन प्रणाली के नीति को बदलने लगी ।

इस बीच गाँधी जी ने १० फरवरी, १९४३ को २१ दिन का अनशन करने की घोषणा की । समाचार-पत्र में बिहार हेराल्ड, प्रभाकर योगी ने गाँधी जी की रिहाई की जोरदार माँग की । अक्टूबर, १९४३ के बीच लॉर्ड वेवेल वायसराय बनकर भारत आया । इसी समय २२ जनवरी, १९४४ को गाँधी जी की पत्*नी श्रीमती कस्तूरबा का देहान्त हो गया । मुस्लिम लीग ने बिहार का साम्प्रदायिक माहौल को बिगाड़ कर विभाजन करो और छोड़ो का नारा दे रहा था । मुस्लिम लीग ने ४ फरवरी, १९४४ को उर्दू दिवस तथा २३ मार्च को पाकिस्तान दिवस भी मनाया गया । ६ मई, १९४४ को गाँधी जी को जेल से रिहा कर दिया । अनुग्रह नारायण सिंह, बाबू श्रीकृष्ण सिंह, ठक्*कर बापा आदि नेताओं की गृह नजरबन्दी का आदेश निर्गत किये गये ।

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12-02-2011, 03:00 AM
जून, १९४५ में सरकार ने राजनैतिक गतिरोध को दूर करते हुए एक बार फिर मार्च, १९४६ ई. में बिहार में चुनाव सम्पन्*न कराया गया । विधानसभा की १५२ सीटों में कांग्रेस को ९८, मुस्लिम लीग को ३४ तथा मोमीन को ५ सीटें मिलीं । ३० मार्च, १९२६ को श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा अन्तरिम सरकार का गठन का मुस्लिम लीग ने प्रतिक्रियात्मक जवाब दिया । देश भर में दंगा भड़क उठा जिसका प्रभाव छपरा, बांका, जहानाबाद, मुंगेर जिलों में था । ६ नवम्बर, १९४६ को गाँधी जी ने एक पत्र जारी कर काफी दुःख प्रकट किया । १९ दिसम्बर, १९४६ को सच्चिदानन्द सिंह की अध्यक्षता में भारतीय संविधान सभा का अधिवेशन शुरू हुआ । २० फरवरी, १९४७ में घोषणा की कि ब्रिटिश जून, १९४८ तक भारत छोड़ देगा ।

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१४ मार्च, १९४७ को लार्ड माउण्टबेटन भारत के वायसराय बनाये गये । जुलाई, १९४७ को इण्डियन इंडिपेंडेण्ट बिल संसद में प्रस्तुत किया । इस विधान के अनुसार १५ अगस्त, १९४७ से भारत में दि स्वतन्त्र औपनिवेशिक राज्य स्थापित किये जायेंगे । बिहार के प्रथम गवर्नर जयरामदास दौलतराम और मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह बने तथा अनुग्रह नारायण सिंह बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री बने।


२६ जनवरी, १९५० को भारतीय संविधान लागू होने के साथ बिहार भारतीय संघ व्यवस्था के अनुरूप एक राज्य में परिवर्तित हो गया ।
१९४७ ई. के बाद भारत में राज्य पुनर्गठन में बिहार को क श्रेणी का राज्य घोषित किया लेकिन १९५६ ई. में राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अन्तर्गत इसे पुनः राज्य के वर्ग । में रखा गया ।
१५ नवम्बर, २००१ को बिहार को विभाजित कर झारखण्ड और बिहार कर दिया गया ।