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View Full Version : !! प्रसिद्द हिंदी कहानियाँ !!


Sikandar_Khan
04-02-2011, 08:24 AM
‘‘बिन ब्याही माँ’’ - नीरज तोमर की कहानी
उसका सारा सामान मुश्किल से एक ठेले भर था। शायद वो सामान उस छोटे से कमरे में भरने के पश्चात् भी उस कमरे में एक बड़े सन्दूक की जगह बची रह जाये। पर आश्चर्य यह था कि उस अनजान मोहल्ले में उस घुटन भरी कोठरी में रहना उसने कैसे और क्यों स्वीकारा जिसमें न तो कोई बिजली की सुविधा थी और न ही पानी की। अब से पहले भी न जाने कितने लोग उस कमरे को बाहर से ही देखकर छोड़ गये। वह अन्धेरा व गुमनाम सा कमरा प्रतीक मात्र था।
वह पतली, छोटे से कद की साँवली परन्तु सुन्दर नाक-नक्श वाली 22-23 साल की लड़की थी। जिसके साथ गैस का छोटा सिलंेन्डर, गिनकर आठ बर्तन, एक चटाई, झाडू, एक सूटकेस जिसमें शायद उसके कपड़े हों और हाथों में कपडों मेें लिपटी एक अजीब सी चीज थी। वह लड़की उस चीज को अपने सीने से इस तरह चिपकाये हुए थी कि मानो अपने सारे सामान में वह उसे सर्वाधिक प्रिय हो। एक हाथ से उस चीज को संभाले और दूसरे हाथ से अपना वह थोड़ा सा सामान उठाकर उस छोटी सी कोठरी में ले जा रही थी। सामान रखने में ठेले वाले ने भी उसकी मदद की। आस-पास वाले सभी उत्सुकता भरी नजरों से जड़ हुए वो सब देख रहे थे। चारों तरफ छाये उस सन्नाटे में मात्र यही प्रश्न गूँज रहे थे- यह कौन है? कहाँ से आई है? अकेली है? कैसे रहेगी यहाँ? क्या करती है? इस कमरे का मालिक जो इस कमरे से कहीं दूर किसी अन्य स्थान पर रहता था, कैसे एक लड़की को उसने कमरा दे दिया? कहीं यह उसी की परिचित तो नहीं?
तभी एक आवाज उस सन्नाटे को चीरती हुई हम सभी के कानों में पहुँची। इस आवाज को सुनकर सभी हतप्रभ रह गये। यह आवाज बच्चे के रोने की थी, जो उस अजीब सी कपड़ों में लिपटी चीज से आ रही थी, जो वह लड़की अपने एक हाथ में संभाले हुए थी।
बच्चा................. बच्चा.................., बच्चा भी है इसके साथ? इसका है? ये तो कुवाँरी लगती है! इसकी शादी हो गई क्या? इसका पति भी है? कहाँ है वह? ना जाने एक ही क्षण में कितने सवाल चारों और गूँजने लगे। मूक दर्शक की भाँति खड़े लोगों में अब चेतना आ गई और उत्सुकता भरी चर्चा चारों ओर होने लगी।
परन्तु वो लड़की चुपचाप उस बच्चे को दुलारती हुई अपने कमरे में चली गई। मौहल्ले में प्रवेश करने से लेकर कमरे में प्रवेश तक वह अपने चेहरे की गम्भीरता के पीछे बहुत से प्रश्न उस कमरे के बंद दरवाजों के बाहर छोड़ गई।
वो दरवाजा शाम तक बंद रहा और लोगों की चौपाल उस दरवाजे के बाहर चटपटी चर्चाओं के साथ सजी रही। मोहल्ले के एक भी आदमी या औरत ने उस मोहल्ले के नये सदस्य के दरवाजे पर कोई भी दस्तक न दी। किसी ने भी किसी भी प्रकार की सहायता की कोई पेशकश नहीं की। और करते भी तो क्यों? एक कम उम्र की अकेली लड़की बच्चे के साथ वो भी बिना पति के, मतलब साफ था-‘‘एक बिन ब्याही माँ’’।
दिन भर भिन्न-भिन्न लांछन लगते रहे। नई-नई कहानियाँ बनती रही। सामाजिक मान-मर्यादाओं पर भाषण चलते रहे और अन्ततः उसे चरित्रहीन घोषित करते हुए उसके सामाजिक बहिष्कार की सर्व सम्मति बन जाने से उससे कोई मतलब न रखने का निर्णय लिया गया।
शाम को 5 बजे अचानक दरवाजा खुला और वो लड़की चुपचाप बच्चे को संभाले मोहल्ले से बाहर चली गई। मोहल्ले के सभी लोगों ने वही पुराना काम पूर्ण दक्षता के साथ किया। उसे घूरते रहे, चर्चाएँ चलती रही और उसके लौटने का इंतजार बेसब्री के साथ नज़रे गड़ाये जारी रहा।
लगभग एक घण्टे बाद वह कुछ खाने का सामान और दूध लेकर लौटी। शायद दूध उस नन्हे बच्चे के लिए था। लोग पुनः उसका दरवाजा बंद होने तक उसे घूरते रहे। और वो अपने बच्चे में लीन अपनी कोठरी में चली गई।
अगली सुबह वह पता नहीं कब चली गई। सुबह-सुबह उसके कमरे पर ताला लगा था। मैंने बाहर झाँककर देखा तो इक्का-दुक्का लोग नज़र आये। सबकी नज़र बचाती हुई मैं उसके कमरे की तरफ बढ़ी और उसकी टूटी खिडकी से उसके कमरे में झाँकने की कोशिश की। उस कमरे को देखकर उसके बदले हुए रूप की कल्पना भी न कर सकी। कमरे के अन्दर व बाहर आस-पास सफाई थी। हालाँकि बदबू-उमस थी परन्तु उतनी नहीं रही थी। और उस सफाई को देखकर यकीन है मुझे धीरे-धीरे वो सब भी समाप्त हो जायेगी। कमरे का सारा सामान व्यवस्थित था। उसके कमरे को देखकर मैं वापस आकर अपने घर की सफाई में लग गई। और साथ-साथ सोच रही थी कि उसने वो उमस भरी रात बिना बिजली के उस बच्चे के साथ उस बंद कमरे में कैसे गुजारी होगी? रात को न तो बच्चे के रोने की आवाज आई और न ही पंखे की कोई व्यवस्था ही कमरे में नज़र आई। मैं अपने घर की हर एक सुविधा की तुलना उसके कमरे की असुविधा से कर रही थी। मैं कभी पंखा बंद करती तो कभी लाइट तो कभी पानी और खुद को उस स्थिति में रखने की कोशिश करती। पर वाकई बहुत मुश्किल था। बहुत मुश्किल..............................
दोपहर को वो उसी गम्भीर मुद्रा में उस बच्चे के साथ कहीं से लौट आई और पहले की ही भाँति उस कमरे में बंद। शाम को पहले दिन की ही तरह वो फिर खाने पीने का सामान लेने बाहर गई और फिर वैसे ही दूध और कुछ खाने को लेकर लौट आई।
एक महीने तक हम सभी उसका यह रूटीन देखते रहे। उसके घर से सिर्फ उस बच्चे को खिलाने-दुलारने की आवाजें आती। उन आवाजों को सुनकर लगता कि वह और उसका बच्चा एक-दूसरे के साथ बहुत खुश थे और उनकी उस छोटी सी दुनिया में किसी और की कोई जगह नहीं थी। उस एक महीने मंे कोई भी उसके पास नहीं आया। मैं आश्चर्यचकित थी कैसे कोई उसकी सुध लेने नहीं आया? अकेली लड़की को ऐसे कैसे उसके परिवार ने छोड़ दिया? खैर! इन प्रश्नों के जवाब तो बस उन बंद होठों में ही छिपे थे और इन्हें खुलवाने के लिए कोई उस तक पहुँचा ही नहीं।
एक दिन सुबह-सुबह मेरे दरवाजे की घण्टी बजने से मेरी नींद खुल गई। दरवाजा खोला तो सामने वो खड़ी थी। उसे देखकर मेरी आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी सोई ही नहीं हूँ। मैं स्तब्ध खड़ी उसे देखती रही। मेरी आवाक् मुद्रा तब खण्डित हुई जब उसने कहा- गुड मार्निंग दीदी। दीदी मैं आपकी नई पड़ौसी हूँ। माफ कीजिएगा मैंने आपको इतनी सुबह-सुबह जगा दिया। परन्तु ये मेरी मजबूरी थी। गर्मी के कारण रात मेरा दूध फट गया। और मेरी बच्ची भूखी है। इसे दूध चाहिए। इतनी सुबह-सुबह मार्केट भी बंद है। क्या मुझे बच्ची के लिए एक कटोरी दूध मिल जाएगा। मैैं शाम को ही इसे वापस कर दूँगी।
उसके शालीनता भरे शब्द सुनकर मैं उसे ना तो कह ही नहीं सकती थी। परन्तु जब मैंने उस बच्ची को उसकी गोद में रोते देखा तो मैं तुरन्त दूध की खाली बोतल जिसे बच्ची के मुँह से लगाकर वह उसे बहकाने की कोशिश कर रही थी, उसके हाथ से छीनकर उस मासूम के लिए दूध तैयार करने चली गई।
वापस लौटी तो वो बच्ची को चुप कराने की असफल कोशिश कर रही थी। दूध की बोतल देते हुए उसके धन्यवाद से पहले मेरे जिज्ञाषा भरे शब्द उस तक पहुँच गये- ‘‘तुम कौन हो?’’
वो जैसे इस प्रश्न के लिए पहले से ही तैयार थी। उसके उस गम्भीर चेहरे पर पहली बार मैंने वो मुस्कुराहट देखी। मैंने बाहर झाँकते हुए उसे अन्दर बैठने के लिए कहा और पुनः अपना प्रश्न दूसरे रूप में दोहराया। कुछ अपने बारे में बताओ।
वो बोली- दीदी मेरा नाम शिवानी है। मैं एक स्कूल शिक्षिका हूँ। यहाँ अपनी दो महीने की बच्ची के साथ रहने आयी हूँ। ये कहकर वो चुुप हो गई।
उसके सुबह जाकर दोपहर को आने की बात तो समझ में आ रही थी। परन्तु मुझे असली उत्सुकता उसकी बच्ची को लेकर थी जो दूध पीती हुई इतनी प्यारी लग रही थी कि मेरा मन कर रहा था कि उसे शिवानी से छीन लूँ। परन्तु मन में स्थित उन्हीं बातों ने मुझे रोक लिया जिनकी वजह से मोहल्ले वालों ने शिवानी का बहिष्कार किया था। पता नहीं किसका पाप है? मैं जल्द से जल्द उसे अपने घर से भगाना भी चाहती थी लेकिन उसके बारे में और अधिक जानना भी चाहती थी। दुविधा भरी स्थिति से जूझते हुए मैंने उसके विषय में जानने का निर्णय लिया और तिरस्कृत वाणी में पूछा- ‘तुम्हारी उम्र तो 22-23 के आस-पास लगती है और इतनी कम उम्र में तुम दो महीने की बच्ची के साथ अकेली यहाँ रहती हो। ऐसा क्यों?
मेरी बात सुनकर वो हँसने लगी। और फिर धीरे से बोली- हमारे समाज की सोच का दायरा कितना सीमित है ना दीदी? जहाँ एक लड़की और बच्चा बिना किसी पुरूष के देखा वो सोच बस एक ही दिशा में सीमित हो जाती है। दीदी यह एक कुण्ठित समाज है जो मर्यादाओं, नियमों, कायदों, कानूनों का झूठा आवरण ओढ़े है। वो आवरण जो मात्र औरत की ओढ़नी है।
यह बोलकर वो एक मिनट के लिए चुप हो गई और मैं उसके तिलमिलाते चेहरे को घबराई नज़रों से देखती रही। पर एक मिनट के बाद वो शान्त हुई और बोली-दीदी यह बच्ची मेरी अपनी बच्ची नहीं है। हमारे गाँव की रिश्तेदारी में एक दुर्घटना में इस बच्ची के परिवारजनों की मृत्यु हो गई थी। कोई अन्य सहारा न होने के कारण मेरा परिवार इसे अपने घर ले आया। मैं हमेशा से चाहती थी कि मैं एक ‘बच्ची’ गोद लूँं। जिसकी सारी जिम्मेदारी मैं उठाऊँ। जिसे मैं एक परिवार दूँ, माँ-बाप का प्यार दूँ। जिसका भला मैं कर सकूँ। न जाने कितने बच्चे विभिन्न प्रकार की दुर्घटना में अनाथ हो जाते है। उनमें से कुछ का बचपन सड़कों पर और कुछ का अनाथालयों में बीतता है। यदि आप अनाथालय में जायें तो वहाँ इस बच्ची जैसे और भी न जाने कितने बच्चे अनाथालय के बाहर की दुनिया से आने वाले हर व्यक्ति को तरसायी आँखों से देखते हैे कि मानो कह रहे हों कि ‘‘हमें यहाँ से अपने साथ ले जाओ। हमें भी एक परिवार दे दो। एक नया संसार, जहाँ हमारे माँ-पिता, भाई-बहन हो। जहाँ हमें खुली हवा मिले सांस लेने के लिए। प्यार मिले जीने के लिए।’’ मैं इस बच्ची को अनाथ होने के अहसास से दूर करना चाहती थी। इसीलिए मैंने इस बच्ची की माँ बनने का निर्णय अपने घरवालों को सुनाया।
परन्तु मेरे घरवालों ने मेरे इस फैसले का घोर विरोध किया। उनके अनुसार इसके साथ मुझे समाज स्वीकार नहीं करेगा। मेरी कहीं शादी नहीं होगी। लड़का होता हो तो शायद लोगों को स्वीकार्य भी होता परन्तु लड़की के साथ कौन मुझे अपनायेगा। मुझ पर विभिन्न प्रकार के लांछन लगाये जायेगें। इसलिए मुझे यह ख्याल छोड़ देना चाहिए।
लेकिन मैं अपने फैसले पर दृढ़ रही। लड़के को तो कोई भी गोद लेने के लिए तैयार हो जाता है परन्तु क्या इन बच्चियों को माँ-बाप के प्यार नहीं चाहिये होता? क्या इन्हें अच्छी शिक्षा लेने का हक नहीं है? मैं इस बच्ची को वो सब देना चाहती थी जो एक सामान्य परिवार में दिया जाता है। मैं इसे इसका सम्मान दिलवाना चाहती हूँं।
मेरा यह संकल्प मेरे परिवार को रास नहीं आया और उन्होंने मुझे अपने परिवार का हिस्सा न रहने दिया। इसी कारण मैं ‘अकेली माँ’ अपनी बच्ची के साथ अपने इस छोटे से घर में रहती हूँ। पता नहीं क्यों लोग ये क्यों नहीं सोचते कि यदि हर परिवार एक बच्चे को मेरी तरह गोद ले ले तो कोई भी अनाथ बच्चा चोर, डाकू नहीं बल्कि एक आदर्श नागरिक बन जायेगा।
अच्छा दीदी अब मेरे स्कूल का समय हो रहा है। मैं चलती हूँ। कहकर वो चली गई। और मैं सन्न खड़ी उसके चंद शब्दों की विशाल गहराई में डूबी रह गई................................

Sikandar_Khan
04-02-2011, 08:44 AM
मोहन राकेश की कहानी - उसकी रोटी

बालो को पता था कि अभी बस के आने में बहुत देर है, फिर भी पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसकी आँखें बार-बार सडक़ की तरफ़ उठ जाती थीं। नकोदर रोड के उस हिस्से में आसपास कोई छायादार पेड़ भी नहीं था। वहाँ की ज़मीन भी बंजर और ऊबड़-खाबड़ थी—खेत वहाँ से तीस-चालीस गज़ के फ़ासले से शुरू होते थे। और खेतों में भी उन दिनों कुछ नहीं था। फ़सल कटने के बाद सिर्फ़ ज़मीन की गोड़ाई ही की गयी थी, इसलिए चारों तरफ़ बस मटियालापन ही नज़र आता था। गरमी से पिघली हुई नकोदर रोड का हल्का सुरमई रंग ही उस मटियालेपन से ज़रा अलग था। जहाँ बालो खड़ी थी वहाँ से थोड़े फासले पर एक लकड़ी का खोखा था। उसमें पानी के दो बड़े-बड़े मटकों के पास बैठा एक अधेड़-सा व्यक्ति ऊँघ रहा था। ऊँघ में वह आगे को गिरने को होता तो सहसा झटका खाकर सँभल जाता। फिर आसपास के वातावरण पर एक उदासी-सी नज़र डालकर, और अंगोछे से गले का पसीना पोंछकर, वैसे ही ऊँघने लगता। एक तरफ़ अढ़ाई-तीन फुट में खोखे की छाया फैली थी और एक भिखमंगा, जिसकी दाढ़ी काफ़ी बढ़ी हुई थी, खोखे से टेक लगाये ललचाई आँखों से बालो के हाथों की तरफ़ देख रहा था। उसके पास ही एक कुत्ता दुबककर बैठा था, और उसकी नज़र भी बालो के हाथों की तरफ़ थी।
बालो ने हाथ की रोटी को मैले आँचल में लपेट रखा था। वह उसे बद नज़र से बचाये रखना चाहती थी। रोटी वह अपने पति सुच्चासिंह ड्राइवर के लिए लायी थी, मगर देर हो जाने से सुच्चासिंह की बस निकल गयी थी और वह अब इस इन्तज़ार में खड़ी थी कि बस नकोदर से होकर लौट आये, तो वह उसे रोटी दे दे। वह जानती थी कि उसके वक़्त पर न पहुँचने से सुच्चासिंह को बहुत गुस्सा आया होगा। वैसे ही उसकी बस जालन्धर से चलकर दो बजे वहाँ आती थी, और उसे नकोदर पहुँचकर रोटी खाने में तीन-साढ़े तीन बज जाते थे। वह उसकी रात की रोटी भी उसे साथ ही देती थी जो वह आख़िरी फेरे में नकोदर पहुँचकर खाता था। सात दिन में छ: दिन सुच्चासिंह की ड्ïयूटी रहती थी, और छहों दिन वही सिलसिला चलता था। बालो एक-सवा एक बजे रोटी लेकर गाँव से चलती थी, और धूप में आधा कोस तय करके दो बजे से पहले सडक़ के किनारे पहुँच जाती थी। अगर कभी उसे दो-चार मिनट की देर हो जाती तो सुच्चासिंह किसी न किसी बहाने बस को वहाँ रोके रखता, मगर, उसके आते ही उसे डाँटने लगता कि वह सरकारी नौकर है, उसके बाप का नौकर नहीं कि उसके इन्तज़ार में बस खड़ी रखा करे। वह चुपचाप उसकी डाँट सुन लेती और उसे रोटी दे देती।
मगर आज वह दो-चार मिनट की नहीं, दो-अढ़ाई घंटे की देर से आयी थी। यह जानते हुए भी कि उस समय वहाँ पहुँचने का कोई मतलब नहीं, वह अपनी बेचैनी में घर से चल दी थी—उसे जैसे लग रहा था कि वह जितना वक़्त सडक़ के किनारे इन्तज़ार करने में बिताएगी, सुच्चासिंह की नाराज़गी उतनी ही कम हो जाएगी। यह तो निश्चित ही था कि सुच्चासिंह ने दिन की रोटी नकोदर के किसी तन्दूर में खा ली होगी। मगर उसे रात की रोटी देना ज़रूरी था और साथ ही वह सारी बात बताना भी जिसकी वजह से उसे देर हुई थी। वह पूरी घटना को मन ही मन दोहरा रही थी, और सोच रही थी कि सुच्चासिंह से बात किस तरह कही जाए कि उसे सब कुछ पता भी चल जाए और वह ख़ामख़ाह तैश में भी न आये। वह जानती थी कि सुच्चासिंह का गुस्सा बहुत ख़राब है और साथ ही यह भी कि जंगी से उलटा-सीधा कुछ कहा जाए तो वह बग़ैर गंड़ासे के बात नहीं करता।
जंगी के बारे में बहुत-सी बातें सुनी जाती थीं। पिछले साल वह साथ के गाँव की एक मेहरी को भगाकर ले गया था और न जाने कहाँ ले जाकर बेच आया था। फिर नकोदर के पंडित जीवाराम के साथ उसका झगड़ा हुआ, तो उसे उसने कत्ल करवा दिया। गाँव के लोग उससे दूर-दूर रहते थे, मगर उससे बिगाड़ नहीं रखते थे। मगर उस आदमी की लाख बुराइयाँ सुनकर भी उसने यह कभी नहीं सोचा था कि वह इतनी गिरी हुई हरकत भी कर सकता है कि चौदह साल की जिन्दां को अकेली देखकर उसे छेडऩे की कोशिश करे। वह यूँ भी ज़िन्दां से तिगुनी उम्र का था और अभी साल-भर पहले तक उसे बेटी-बेटी कहकर बुलाया करता था। मगर आज उसकी इतनी हिम्मत पड़ गयी कि उसने खेत में से आती जिन्दां का हाथ पकड़ लिया?
उसने जिन्दां को नन्ती के यहाँ से उपले माँग लाने को भेजा था। इनका घर खेतों के एक सिरे पर था और गाँव के बाकी घर दूसरे सिरे पर थे। वह आटा गूँधकर इन्तज़ार कर रही थी कि जिन्दां उपले लेकर आये, तो वह जल्दी से रोटियाँ सेंक ले जिससे बस के वक़्त से पहले सडक़ पर पहुँच जाए। मगर जिन्दां आयी, तो उसके हाथ ख़ाली थे और उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा था। जब तक जिन्दां नहीं आयी थी, उसे उस पर गुस्सा आ रहा था। मगर उसे देखते ही उसका दिल एक अज्ञात आशंका से काँप गया।
“क्या हुआ है जिन्दो, ऐसे क्यों हो रही है?” उसने ध्यान से उसे देखते हुए पूछा।
जिन्दां चुपचाप उसके पास आकर बैठ गयी और बाँहों में सिर डालकर रोने लगी।
“ख़सम खानी, कुछ बताएगी भी, क्या बात हुई है?”
जिन्दां कुछ नहीं बोली। सिर्फ़ उसके रोने की आवाज़ तेज़ हो गयी।
“किसी ने कुछ कहा है तुझसे?” उसने अब उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
“तू मुझे उपले-वुपले लेने मत भेजा कर,” जिन्दां रोने के बीच उखड़ी-उखड़ी आवाज़ में बोली, “मैं आज से घर से बाहर नहीं जाऊँगी। मुआ जंगी आज मुझसे कहता था...” और गला रुँध जाने से वह आगे कुछ नहीं कह सकी।
“क्या कहता था जंगी तुझसे...बता...बाल...” वह जैसे एक बोझ के नीचे दबकर बोलीं, “ख़सम खानी, अब बोलती क्यों नहीं?”
“वह कहता था,” जिन्दां सिसकती रही, “चल जिन्दां, अन्दर चलकर शरबत पी ले। आज तू बहुत सोहणी लग रही है...।”
“मुआ कमज़ात!” वह सहसा उबल पड़ी, “मुए को अपनी माँ रंडी नहीं सोहणी लगती? मुए की नज़र में कीड़े पड़ें। निपूते, तेरे घर में लडक़ी होती, तो इससे बड़ी होती, तेरे दीदे फटें!...फिर तूने क्या कहा?”
“मैंने कहा चाचा, मुझे प्यास नहीं है,” जिन्दां कुछ सँभलने लगी।
“फिर?”
“कहने लगा प्यास नहीं है, तो भी एक घूँट पी लेना। चाचा का शरबत पिएगी तो याद करेगी।...और मेरी बाँह पकडक़र खींचने लगा।”
“हाय रे मौत-मरे, तेरा कुछ न रहे, तेरे घर में आग लगे। आने दे सुच्चासिंह को। मैं तेरी बोटी-बोटी न नुचवाऊँ तो कहना, जल-मरे! तू सोया सो ही जाए।...हाँ, फिर?”
“मैं बाँह छुड़ाने लगी, तो मुझे मिठाई का लालच देने लगा। मेरे हाथ से उपले वहीं गिर गये। मैंने उन्हें वैसे ही पड़े रहने दिया और बाँह छुड़ाकर भाग आयी।”
उसने ध्यान से जिन्दां को सिर से पैर तक देखा और फिर अपने साथ सटा लिया।
“और तो नहीं कुछ कहा उसने?”
“जब मैं थोड़ी दूर निकल आयी, तो पीछे से ही-ही करके बोला, ‘बेटी, तू बुरा तो नहीं मान गयी? अपने उपले तो उठाकर ले जा। मैं तो तेरे साथ हँसी कर रहा था। तू इतना भी नहीं समझती? चल, आ इधर, नहीं आती, तो मैं आज तेरे घर आकर तेरी बहन से शिकायत करूँगा कि जिन्दां बहुत गुस्ताख़ हो गयी है, कहा नहीं मानती।’...मगर मैंने उसे न जवाब दिया, न मुडक़र उसकी तरफ़ देखा। सीधी घर चली आयी।”
“अच्छा किया। मैं मुए की हड्डी-पसली एक कराकर छोड़ूँगी। तू आने दे सुच्चासिंह को। मैं अभी जाकर उससे बात करूँगी। इसे यह नहीं पता कि जिन्दां सुच्चा सिंह ड्राइवर की साली है, ज़रा सोच-समझकर हाथ लगाऊँ।” फिर कुछ सोचकर उसने पूछा, “वहाँ तुझे और किसी ने तो नहीं देखा?”
“नहीं। खेतों के इस तरफ़ आम के पेड़ के नीचे राधू चाचा बैठा था। उसने देखकर पूछा कि बेटी, इस वक़्त धूप में कहाँ से आ रही है, तो मैंने कहा कि बहन के पेट में दर्द था, हकीमजी से चूरन लाने गयी थी।”
“अच्छा किया। मुआ जंगी तो शोहदा है। उसके साथ अपना नाम जुड़ जाए, तो अपनी ही इज़्ज़त जाएगी। उस सिर-जले का क्या जाना है? लोगों को तो करने के लिए बात चाहिए।”
उसके बाद उपले लाकर खाना बनाने में उसे काफ़ी देर हो गयी। जिस वक़्त उसने कटोरे में आलू की तरकारी और आम का अचार रखकर उसे रोटियों के साथ खद्दर के टुकड़े में लपेटा, उसे पता था कि दो कब के बज चुके हैं और वह दोपहर की रोटी सुच्चासिंह को नहीं पहुँचा सकती। इसलिए वह रोटी रखकर इधर-उधर के काम करने लगी। मगर जब बिलकुल ख़ाली हो गयी, तो उससे यह नहीं हुआ कि बस के अन्दाज़े से घर से चले। मुश्किल से साढ़े तीन-चार ही बजे थे कि वह चलने के लिए तैयार हो गयी।
“बहन, तू कब तक आएगी?” जिन्दां ने पूछा।
“दिन ढलने से पहले ही आ जाऊँगी।”
“जल्दी आ जाना। मुझे अकेले डर लगेगा।”
“डरने की क्या बात है?” वह दिखावटी साहस के साथ बोली, “किसकी हिम्मत है जो तेरी तरफ़ आँख उठाकर भी देख सके? सुच्चासिंह को पता लगेगा, तो वह उसे कच्चा ही नहीं चबा जाएगा? वैसे मुझे ज़्यादा देर नहीं लगेगी। साँझ से पहले ही घर पहुँच जाऊँगी। तू ऐसा करना कि अन्दर से साँकल लगा लेना। समझी? कोई दरवाज़ा खटखटाए तो पहले नाम पूछ लेना।” फिर उसने ज़रा धीमे स्वर में कहा, “और अगर जंगी आ जाए, और मेरे लिए पूछे कि कहाँ गयी है, तो कहना कि सुच्चासिंह को बुलाने गयी है। समझी?...पर नहीं। तू उससे कुछ नहीं कहना। अन्दर से जवाब ही नहीं देना समझी?”
वह दहलीज़ के पास पहुँची तो जिन्दां ने पीछे से कहा, “बहन, मेरा दिल धडक़ रहा है।”
“तू पागल हुई है?” उसने उसे प्यार के साथ झिडक़ दिया, “साथ गाँव है, फिर डर किस बात का है? और तू आप भी मुटियार है, इस तरह घबराती क्यों है?”
मगर जिन्दां को दिलासा देकर भी उसकी अपनी तसल्ली नहीं हुई। सडक़ के किनारे पहुँचने के वक़्त से ही वह चाह रही थी कि किसी तरह बस जल्दी से आ जाए जिससे वह रोटी देकर झटपट जिन्दां के पास वापस पहुँच जाए।
“वीरा, दो बजे वाली बस को गये कितनी देर हुई है?” उसने भिखमंगे से पूछा जिसकी आँखें अब भी उसके हाथ की रोटी पर लगी थीं। धूप की चुभन अभी कम नहीं हुई थी, हालाँकि खोखे की छाया अब पहले से काफ़ी लम्बी हो गयी थी। कुत्ता प्याऊ के त$ख्ते के नीचे पानी को मुँह लगाकर अब आसपास चक्कर काट रहा था।
“पता नहीं भैणा,” भिखमंगे ने कहा, “कई बसें आती हैं। कई जाती हैं। यहाँ कौन घड़ी का हिसाब है!”
बालो चुप हो रही। एक बस अभी थोड़ी ही देर पहले नकोदर की तरफ़ गयी थी। उसे लग रहा था धूल के फैलाव के दोनों तरफ़ दो अलग-अलग दुनियाएँ हैं। बसें एक दुनिया से आती हैं और दूसरी दुनिया की तरफ़ चली जाती हैं। कैसी होंगी वे दुनियाएँ जहाँ बड़े-बड़े बाज़ार हैं, दुकानें हैं, और जहाँ एक ड्राइवर की आमदनी का तीन-चौथाई हिस्सा हर महीने ख़र्च हो जाता है? देवी अक्सर कहा करता था कि सुच्चासिंह ने नकोदर में एक रखैल रख रखी है। उसका कितना मन होता था कि वह एक बार उस औरत को देखे। उसने एक बार सुच्चासिंह से कहा भी था कि उसे वह नकोदर दिखा दे, पर सुच्चासिंह ने डाँटकर जवाब दिया था, “क्यों, तेरे पर निकल रहे हैं? घर में चैन नहीं पड़ता? सुच्चासिंह वह मरद नहीं है कि औरत की बाँह पकडक़र उसे सडक़ों पर घुमाता फिरे। घूमने का ऐसा ही शौक है, तो दूसरा ख़सम कर ले। मेरी तरफ़ से मुझे खुली छुट्*टी है।”

Sikandar_Khan
04-02-2011, 08:47 AM
उस दिन के बाद वह यह बात ज़बान पर भी नहीं लायी थी। सुच्चासिंह कैसा भी हो, उसके लिए सब कुछ वही था। वह उसे गालियाँ दे लेता था, मार-पीट लेता था, फिर भी उससे इतना प्यार तो करता था कि हर महीने तनख़ाह मिलने पर उसे बीस रुपये दे जाता था। लाख बुरी कहकर भी वह उसे अपनी घरवाली तो समझता था! ज़बान का कड़वा भले ही हो, पर सुच्चासिंह दिल का बुरा हरगिज़ नहीं था। वह उसके जिन्दां को घर में रख लेने पर अक्सर कुढ़ा करता था, मगर पिछले महीने खुद ही जिन्दां के लिए काँच की चूडिय़ाँ और अढ़ाई गज़ मलमल लाकर दे गया था।
एक बस धूल उड़ाती आकाश के उस छोर से इस तरफ़ को आ रही थी। बालो ने दूर से ही पहचान लिया कि वह सुच्चासिंह की बस नहीं है। फिर भी बस जब तक पास नहीं आ गयी, वह उत्सुक आँखों से उस तरफ़ देखती रही। बस प्याऊ के सामने आकर रुकी। एक आदमी प्याज़ और शलगम का गट्*ठर लिये बस से उतरा। फिर कंडक्टर ने ज़ोर से दरवाज़ा बन्द किया और बस आगे चल दी। जो आदमी बस से उतरा था, उसने प्याऊ के पास जाकर प्याऊ वाले को जगाया और चुल्लू से दो लोटे पानी पीकर मूँछें साफ़ करता हुआ अपने गट्*ठर के पास लौट आया।
“वीरा, नकोदर से अगली बस कितनी देर में आएगी?” बालो ने दो क़दम आगे जाकर उस आदमी से पूछ लिया।
“घंटे-घंटे के बाद बस चलती है, माई।” वह बोला, “तुझे कहाँ जाना है?”
“जाना नहीं है वीरा, बस का इन्तज़ार करना है। सुच्चासिंह ड्राइवर मेरा घरवाला है। उसे रोटी देनी है।”
“ओ सुच्चा स्यों!” और उस आदमी के होंठों पर ख़ास तरह की मुस्कराहट आ गयी।
“तू उसे जानता है?”
“उसे नकोदर में कौन नहीं जानता?”
बालो को उसका कहने का ढंग अच्छा नहीं लगा, इसलिए वह चुप हो रही। सुच्चासिंह के बारे में जो बातें वह खुद जानती थी, उन्हें दूसरों के मुँह से सुनना उसे पसन्द नहीं था। उसे समझ नहीं आता था कि दूसरों को क्या हक है कि वे उसके आदमी के बारे में इस तरह बात करें?
“सुच्चासिंह शायद अगली बस लेकर आएगा,” वह आदमी बोला।
“हाँ! इसके बाद अब उसी की बस आएगी।”
“बड़ा ज़ालिम है जो तुझसे इस तरह इन्तज़ार कराता है।”
“चल वीरा, अपने रास्ते चल!” बालो चिढक़र बोली, “वह क्यों इन्तज़ार कराएगा?” मुझे ही रोटी लाने में देर हो गयी थी जिससे बस निकल गयी। वह बेचारा सवेरे से भूखा बैठा होगा।”
“भूखा? कौन सुच्चा स्यों?” और वह व्यक्ति दाँत निकालकर हँस दिया। बालो ने मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया। “या साईं सच्चे!” कहकर उस आदमी ने अपना गट्*ठर सिर पर उठा लिया और खेतों की पगडंडी पर चल दिया। बालो की दाईं टाँग सो गयी थी। उसने भार दूसरी टाँग पर बदलते हुए एक लम्बी साँस ली और दूर तक के वीराने को देखने लगी।
न जाने कितनी देर बाद आकाश के उसी कोने से उसे दूसरी बस अपनी तरफ़ आती नज़र आयी। तब तक खड़े-खड़े उसके पैरों की एडिय़ाँ दुखने लगी थीं। बस को देखकर वह पोटली का कपड़ा ठीक करने लगी। उसे अफ़सोस हो रहा था कि वह रोटियाँ कुछ और देर से बनाकर क्यों नहीं लायी, जिससे वे रात तक कुछ और ताज़ा रहतीं। सुच्चासिंह को कड़ाह परसाद का इतना शौक है—उसे क्यों यह ध्यान नहीं आया कि आज थोड़ा कड़ाह परसाद ही बनाकर ले आये?...ख़ैर, कल गुर परब है, कल ज़रूर कड़ाह परसाद बनाकर लाएगी।...
पीछे गर्द की लम्बी लकीर छोड़ती हुई बस पास आती जा रही थी। बालो ने बीस गज़ दूर से ही सुच्चासिंह का चेहरा देखकर समझ लिया कि वह उससे बहुत नाराज़ है। उसे देखकर सुच्चासिंह की भवें तन गयी थीं और निचले होंठ का कोना दाँतों में चला गया था। बालो ने धडक़ते दिल से रोटी वाला हाथ ऊपर उठा दिया। मगर बस उसके पास न रुककर प्याऊ से ज़रा आगे जाकर रुकी।
दो-एक लोग वहाँ बस से उतरने वाले थे। कंडक्टर बस की छत पर जाकर एक आदमी की साइकिल नीचे उतारने लगा। बालो तेज़ी से चलकर ड्राइवर की सीट के बराबर पहुँच गयी।
“सुच्चा स्यां!” उसने हाथ ऊँचा उठाकर रोटी अन्दर पहुँचाने की चेष्टा करते हुए कहा, “रोटी ले ले।”
“हट जा,” सुच्चासिंह ने उसका हाथ झटककर पीछे हटा दिया।
“सुच्चा स्यां, एक मिनट नीचे उतरकर मेरी बात सुन ले। आज एक ख़ास वज़ह हो गयी थी, नहीं तो मैं...।”
“बक नहीं, हट जा यहाँ से,” कहकर सुच्चासिंह ने कंडक्टर से पूछा कि वहाँ का सारा सामन उतर गया है या नहीं।
“बस एक पेटी बाकी है, उतार रहा हूँ,” कंडक्टर ने छत से आवाज़ दी।
“सुच्चा स्यां, मैं दो घंटे से यहाँ खड़ी हूँ,” बालो ने मिन्नत के लहज़े में कहा, “तू नीचे उतरकर मेरी बात तो सुन ले।”
“उतर गयी पेटी?” सुच्चासिंह ने फिर कंडक्टर से पूछा।
“हाँ, चलो,” पीछे से कंडक्टर की आवाज़ आयी।
“सुच्चा स्यां! तू मुझ पर नाराज़ हो ले, पर रोटी तो रख ले। तू मंगलवार को घर आएगा तो मैं तुझे सारी बात बताऊँगी।” बालो ने हाथ और ऊँचा उठा दिया।
“मंगलवार को घर आएगा तेरा...,” और एक मोटी-सी गाली देकर सुच्चासिंह ने बस स्टार्ट कर दी।
दिन ढलने के साथ-साथ आकाश का रंग बदलने लगा था। बीच-बीच में कोई एकाध पक्षी उड़ता हुआ आकाश को पार कर जाता था। खेतों में कहीं-कहीं रंगीन पगडिय़ाँ दिखाई देने लगी थीं। बालो ने प्याऊ से पानी पिया और आँखों पर छींटे मारकर आँचल से मुँह पोंछ लिया। फिर प्याऊ से कुछ फासले पर जाकर खड़ी हो गयी। वह जानती थी, अब सुच्चासिंह की बस जालन्धर से आठ-नौ बजे तक वापस आएगी। क्या तब तक उसे इन्तज़ार करना चाहिए? सुच्चासिंह को इतना तो करना चाहिए था कि उतरकर उसकी बात सुन लेता। उधर घर में जिन्दां अकेली डर रही होगी। मुआ जंगी पीछे किसी बहाने से आ गया तो? सुच्चासिंह रोटी ले लेता, तो वह आधे घंटे में घर पहुँच जाती। अब रोटी तो वह बाहर कहीं न कहीं खा ही लेगा, मगर उसके गुस्से का क्या होगा? सुच्चासिंह का गुस्सा बेजा भी तो नहीं है। उसका मेहनती शरीर है और उसे कसकर भूख लगती है। वह थोड़ी और मिन्नत करती, तो वह ज़रूर मान जाता। पर अब?
प्याऊ वाला प्याऊ बन्द कर रहा था। भिखमंगा भी न जाने कब का उठकर चला गया था। हाँ, कुत्ता अब भी वहाँ आसपास घूम रहा था। धूप ढल रही थी और आकाश में उड़ते चिडिय़ों के झुंड सुनहरे लग रहे थे। बालो को सडक़ के पार तक फैली अपनी छाया बहुत अजीब लग रही थी। पास के किसी खेत में कोई गभरू जवान खुले गले से माहिया गा रहा था :
“बोलण दी थां कोई नां
जिहड़ा सानूँ ला दे दित्ता
उस रोग दा नां कोई नां।”
माहिया की वह लय बालो की रग-रग में बसी हुई थी। बचपन में गरमियों की शाम को वह और बच्चों के साथ मिलकर रहट के पानी की धार के नीचे नाच-नाचकर नहाया करती थी, तब भी माहिया की लय इसी तरह हवा में समाई रहती थी। साँझ के झुटपुटे के साथ उस लय का एक ख़ास ही सम्बन्ध था। फिर ज्यों-ज्यों वह बड़ी होती गयी, ज़िन्दगी के साथ उस लय का सम्बन्ध और गहरा होता गया। उसके गाँव का युवक लाली था जो बड़ी लोच के साथ माहिया गाया करता था। उसने कितनी बार उसे गाँव के बाहर पीपल के नीचे कान पर हाथ रखकर गाते सुना था। पुष्पा और पारो के साथ वह देर-देर तक उस पीपल के पास खड़ी रहती थी। फिर एक दिन आया जब उसकी माँ कहने लगी कि वह अब बड़ी हो गयी है, उसे इस तरह देर-देर तक पीपल के पास नहीं खड़ी रहना चाहिए। उन्हीं दिनों उसकी सगाई की भी चर्चा होने लगी। जिस दिन सुच्चासिंह के साथ उसकी सगाई हुई, उस दिन पारो आधी रात तक ढोलक पर गीत गाती रही थी। गाते-गाते पारो का गला रह गया था फिर भी वह ढोलक छोडऩे के बाद उसे बाँहों में लिये हुए गाती रही थी—
“बीबी, चन्नण दे ओहले ओहले किऊँ खड़ी,
नीं लाडो किऊँ खड़ी?
मैं तां खड़ी सां बाबल जी दे बार,
मैं कनिआ कँवार,
बाबल वर लोडि़ए।
नीं जाइए, किहो जिहा वह लीजिए?
जिऊँ तारिआँ विचों चन्द,
चन्दा विचों नन्द,
नन्दां विचों कान्ह-कन्हैया वर लीडि़ए...!”
वह नहीं जानती थी कि उसका वर कौन है, कैसा है, फिर भी उसका मन कहता था कि उसके वर की सूरत-शक्ल ठीक वैसी ही होगी जैसी कि गीत की कडिय़ाँ सुनकर सामने आती हैं। सुहागरात को जब सुच्चासिंह ने उसके चेहरे से घूँघट हटाया, तो उसे देखकर लगा कि वह सचमुच बिलकुल वैसा ही कान्ह-कन्हैया वर पा गयी है। सुच्चासिंह ने उसकी ठोड़ी ऊँची की, तो न जाने कितनी लहरें उसके सिर से उठकर पैरों के नाख़ूनों में जा समाईं। उसे लगा कि ज़िन्दगी न जाने ऐसी कितनी सिहरनों से भरी होगी जिन्हें वह रोज़-रोज़ महसूस करेगी और अपनी याद में सँजोकर रखती जाएगी।
“तू हीरे की कणी है, हीरे की कणी,” सुच्चासिंह ने उसे बाँहों में भरकर कहा था।
उसका मन हुआ था कि कहे, यह हीरे की कणी तेरे पैर की धूल के बराबर भी नहीं है, मगर वह शरमाकर चुप रह गयी थी।
“माई, अँधेरा हो रहा है, अब घर जा। यहाँ खड़ी क्या कर रही है?” प्याऊ वाले ने चलते हुए उसके पास रुककर कहा।

Sikandar_Khan
04-02-2011, 08:49 AM
“वीरा, यह बस आठ-नौ बजे तक जालन्धर से लौटकर आ जाएगी न?” बालो ने दयनीय भाव से उससे पूछ लिया।
“क्या पता कब तक आए? तू उतनी देर यहाँ खड़ी रहेगी?”
“वीरा, उसकी रोटी जो देनी है।”
“उसे रोटी लेनी होती, तो ले न लेता? उसका तो दिमाग़ ही आसमान पर चढ़ा रहता है।”
“वीरा, मर्द कभी नाराज़ हो ही जाता है। इसमें ऐसी क्या बात है?”
“अच्छा खड़ी रह, तेरी मर्ज़ी। बस नौ से पहले क्या आएगी!”
“चल, जब भी आए।”
प्याऊ वाले से बात करके वह निश्चय खुद-ब-खुद हो गया जो वह अब तक नहीं कर पायी थी—कि उसे बस के जालन्धर से लौटने तक वहाँ रुकी रहना है। जिन्दां थोड़ा डरेगी—इतना ही तो न? जंगी की अब दोबारा उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ सकती। आख़िर गाँव की पंचायत भी तो कोई चीज़ है। दूसरे की बहन-बेटी पर बुरी नज़र रखना मामूली बात है? सुच्चासिंह को पता चल जाए, तो वह उसे केशों से पकडक़र सारे गाँव में नहीं घसीट देगा? मगर सुच्चासिंह को यह बात न बताना ही शायद बेहतर होगा। क्या पता इतनी-सी बात से दोनों में सिर-फुटव्वल हो जाए? सुच्चासिंह पहले ही घर के झंझटों से घबराता है, उसे और झंझट में डालना ठीक नहीं। अच्छा हुआ जो उस वक़्त सुच्चासिंह ने बात नहीं सुनी। वह तो अभी कह रहा था कि मंगलवार को घर नहीं आएगा। अगर वह सचमुच न आया, तो? और अगर उसने गुस्से होकर घर आना बिलकुल छोड़ दिया, तो? नहीं, वह उसे कभी कोई परेशान करनेवाली बात नहीं बताएगी। सुच्चासिंह ख़ुश रहे, घर की परेशानियाँ वह ख़ुद सँभाल सकती है।
वह ज़रा-सा सिहर गयी। गाँव का लोटूसिंह अपनी बीबी को छोडक़र भाग गया था। उसके पीछे वह टुकड़े-टुकड़े को तरस गयी थी। अन्त में उसने कुएँ में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली थी। पानी से फूलकर उसकी देह कितनी भयानक हो गयी थी?
उसे थकान महसूस हो रही थी, इसलिए वह जाकर प्याऊ के त$ख्ते पर बैठ गयी। अँधेरा होने के साथ-साथ खेतों की हलचल फिर शान्त होती जा रही थी। माहिया के गीत का स्थान अब झींगुरों के संगीत ने ले लिया था। एक बस जालन्धर की तरफ़ से और एक नकोदर की तरफ़ से आकर निकल गयी। सुच्चासिंह जालन्धर से आख़िरी बस लेकर आता था। उसने पिछली बस के ड्राइवर से पता कर लिया था कि अब जालन्धर से एक ही बस आनी रहती है। अब जिस बस की बत्तियाँ दिखाई देंगी, वह सुच्चासिंह की ही बस होगी। थकान के मारे उसकी आँखें मुँदी जा रही थीं। वह बार-बार कोशिश से आँखें खोलकर उन्हें दूर तक के अँधेरे और उन काली छायाओं पर केन्द्रित करती जो धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थीं। ज़रा-सी भी आवाज़ होती, तो उसे लगता कि बस आ रही है और वह सतर्क हो जाती। मगर बत्तियों की रोशनी न दिखाई देने से एक ठंडी साँस भर फिर से निढाल हो रहती। दो-एक बार मुँदी हुई आँखों से जैसे बस की बत्तियाँ अपनी ओर आती देखकर वह चौंक गयी—मगर बस नहीं आ रही थी। फिर उसे लगने लगा कि वह घर में है और कोई ज़ोर-ज़ोर से घर के किवाड़ खटखटा रहा है। जिन्दां अन्दर सहमकर बैठी है। उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा है।...रहट के बैल लगातार घूम रहे हैं। उनकी घंटियों की ताल के साथ पीपल के नीचे बैठा एक युवक कान पर हाथ रखे माहिया गा रहा है।...ज़ोर की धूल उड़ रही है जो धरती और आकाश की हर चीज़ को ढके ले रही है। वह अपनी रोटीवाली पोटली को सँभालने की कोशिश कर रही है, मगर वह उसके हाथ से निकलती जा रही है।...प्याऊ पर सूखे मटके रखे हैं जिनमें एक बूँद भी पानी नहीं है। वह बार-बार लोटा मटके में डालती है, पर उसे ख़ाली पाकर निराश हो जाती है।...उसके पैरों में बिवाइयाँ फूट रही हैं। वह हाथ की उँगली से उन पर तेल लगा रही है, मगर लगाते-लगाते ही तेल सूखता जाता है।...जिन्दां अपने खुले बाल घुटनों पर डाले रो रही है। कह रही है, “तू मुझे छोडक़र क्यों गयी थी? क्यों गयी थी मुझे छोडक़र? हाय, मेरा परांदा कहाँ गया? मेरा परांदा किसने ले लिया?”
सहसा कन्धे पर हाथ के छूने से वह चौंक गयी।
“सुच्चा स्यां!” उसने जल्दी से आँखों को मल लिया।
“तू अब तक घर नहीं गयी?” सुच्चासिंह त$ख्ते पर उसके पास ही बैठ गया। बस ठीक प्याऊ के सामने खड़ी थी। उस वक़्त उसमें एक सवारी नहीं थी। कंडक्टर पीछे की सीट पर ऊँघ रहा था।
“मैंने सोचा रोटी देकर ही जाऊँगी। बैठे-बैठे झपकी आ गयी। तुझे आये बहुत देर तो नहीं हुई?”
“नहीं, अभी बस खड़ी की है। मैंने तुझे दूर से ही देख लिया था। तू इतनी पागल है कि तब से अब तक रोटी देने के लिए यहीं बैठी है?”
“क्या करती? तू जो कह गया था कि मैं घर नहीं आऊँगा!” और उसने पलकें झपककर अपने उमड़ते आँसुओं को सुखा देने की चेष्टा की।
“अच्छा ला, दे रोटी, और घर जा! जिन्दां वहाँ अकेली डर रही होगी।” सुच्चासिंह ने उसकी बाँह थपथपा दी और उठ खड़ा हुआ।
रोटीवाला कटोरा उससे लेकर सुच्चासिंह उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए उसे बस के पास तक ले आया। फिर वह उचककर अपनी सीट पर बैठ गया। बस स्टार्ट करने लगा, तो वह जैसे डरते-डरते बोली, “सुच्चा स्यां, तू मंगल को घर आएगा न?”
“हाँ, आऊँगा। तुझे शहर से कुछ मँगवाना हो, तो बता दे।”
“नहीं, मुझे मँगवाना कुछ नहीं है।”
बस घरघराने लगी, तो वह दो क़दम पीछे हट गयी। सुच्चासिंह ने अपनी दाढ़ी-मूँछ पर हाथ फेरा, एक डकार लिया और उसकी तरफ़ देखकर पूछ लिया, “तू उस वक़्त क्या बात बताना चाहती थी?”
“नहीं, ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी। मंगल को घर आएगा ही...”
“अच्छा, अब जल्दी से चली जा, देर न कर। एक मील बाट है...!”
“...सुच्चा स्यां, कल गुर परब है। कल मैं तेरे लिए कड़ाह परसाद बनाकर लाऊँगी...।”
“अच्छा, अच्छा...”
बस चल दी। बालो पहियों की धूल में घिर गयी। धूल साफ़ होने पर उसने पल्ले से आँखें पोंछ लीं और तब तक बस के पीछे की लाल बत्ती को देखती रही जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी।

khalid
04-02-2011, 11:34 AM
वाह , क्या कहानी पोस्ट किया हैँ आपने सिकन्दर भाई

ABHAY
04-02-2011, 12:22 PM
वाह , क्या कहानी पोस्ट किया हैँ आपने सिकन्दर भाई

ये कहानी नहीं देखा जाये तो एक सच बया करती है बहुत खूब सिकंदर भाई मेरी तरफ से +

Bond007
05-02-2011, 12:40 AM
सिकंदर साब का, समाज की रूढ़िवादिता पर कटाक्ष करता एक बहुत ही उपयुक्त, छोटी, मगर हकीकत बताती कहानियों से भरा सूत्र; वाकई लाजवाब है|:bravo:

Sikandar_Khan
05-02-2011, 12:53 AM
वाह , क्या कहानी पोस्ट किया हैँ आपने सिकन्दर भाई

ये कहानी नहीं देखा जाये तो एक सच बया करती है बहुत खूब सिकंदर भाई मेरी तरफ से +

सिकंदर साब का, समाज की रूढ़िवादिता पर कटाक्ष करता एक बहुत ही उपयुक्त, छोटी, मगर हकीकत बताती कहानियों से भरा सूत्र; वाकई लाजवाब है|:bravo:


आप सभी का हार्दिक आभार
आगे भी कुछ ऐसी ही कहानियों से रूबरू करवाऊंगा .

Sikandar_Khan
05-02-2011, 12:59 AM
प्रेमचंद की कहानी - ईदगाह

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गॉंव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियॉँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लोटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयां खाऍंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी ऑंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर काधन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाऍंगें— खिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या।
और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पॉँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया,. तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियॉँ लेकर आऍंगे। अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियॉँ और अम्मीजान नियमतें लेकर आऍंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहॉँ से उतने पैसे निकालेंगे।
अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अन्धकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितबन उसका विध्वसं कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है—तुम डरना नहीं अम्मॉँ, मै सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।
अमीना का दिल कचोट रहा है। गॉँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे केसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाऍंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहॉँ सेवैयॉँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहॉँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। मॉँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पेसे मिले थे। उस उठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं हे, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटुवें में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाए। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आऍंगी। सभी को सेवेयॉँ चाहिए और थोड़ा किसी को ऑंखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराए? साल-भर का त्योंहार हैं। जिन्दगी खैरियत से रहें, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जाऍंगे।
गॉँव से मेला चला। ओर बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नींचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियॉँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता हे। माली अंदर से गाली देता हुआ निंलता है। लड़के वहाँ से एक फलॉँग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को केसा उल्लू बनाया है।
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहॉँ मुर्दो की खोपड़ियां दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हें, पर किसी कोअंदर नहीं जाने देते। और वहॉँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हें, मूँछो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क जाऍं।
महमूद ने कहा—हमारी अम्मीजान का तो हाथ कॉँपने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोल—चलों, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो हाथ कॉँपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पॉँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑंखों तक अँधेरी आ जाए।
महमूद—लेकिन दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
मोहसिन—हॉँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मॉँ इतना तेज दौड़ी कि में उन्हें न पा सका, सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयॉँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थें कि आधी रात को एक आदमी हर दूकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।
हामिद को यकीन न आया—ऐसे रूपये जिन्नात को कहॉँ से मिल जाऍंगी?
मोहसिन ने कहा—जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहें चले जाऍं। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हें, पॉँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाऍं।
हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
मोहसिन—एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए।
हामिद—लोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिनन को खुश कर लूँ।
मोहसिन—अब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियॉँ हो जाऍं। मोहसिन ने प्रतिवाद किया—यह कानिसटिबिल पहरा देते हें? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हें, सब इनसे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जाते रहो!’ पुकारते हें। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हें। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हें। बरस रूपया महीना पाते हें, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हें। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहॉँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाऍं। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए।
हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला..अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिरन जाने कहॉँ से एक सौ कर्ज लाए तो बरतन-भॉँड़े आए।
हामिद—एक सौ तो पचार से ज्यादा होते है?
‘कहॉँ पचास, कहॉँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?
अब बस्ती घनी होने लगी। ईइगाह जाने वालो की टोलियॉँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तॉँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया हे। नाचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम ढिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियॉँ एक के पीछे एक न जाने कहॉँ वक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहॉँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हे। यहॉँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हें। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती हे, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाऍं, और यही ग्रम चलता, रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाऍं, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं।

Sikandar_Khan
05-02-2011, 01:12 AM
2

नमाज खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला हें एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं। एक पेसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हें। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। अधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राज ओर वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कत्ते सुन्दर खिलोने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हे। कैसी विद्वत्ता हे उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पौथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौन वह केसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!
मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे
महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।
नूरे—ओर मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
सम्मी—ओर मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।
हामिद खिलौनों की निंदा करता है—मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जाऍं, लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हें, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हें, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचता रह जाता है।
खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियॉँ ली हें, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक् है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई ऑंखों से सबक ओर देखता है।
मोहसिन कहता है—हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!
हामिद को सदेंह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद हें मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे ओर सम्मी खूब तालियॉँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा।
हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है?
सम्मी—तीन ही पेसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगें?
महमूद—हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहमिन बदमाश है।
हामिद—मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयॉँ लिखी हैं।
मोहसिन—लेकिन दिन मे कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
महमूद—इस समझते हें, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाऍंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।
मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहॉँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पररूक जात हे। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तबे से रोटियॉँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊगलियॉँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई ऑंख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाऍंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियॉँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग मॉँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मॉँ बेचारी को कहॉँ फुरसत हे कि बाजार आऍं और इतने पैसे ही कहॉँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।
हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कतने लालची हैं। इतनी मिठाइयॉँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करों। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाऍं मिठाइयॉँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियॉं निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराऍंगे और मार खाऍंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हें। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मॉँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी—मेरा बच्चा अम्मॉँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आऍंगे। अम्मा भी ऑंएगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा हूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जात है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियॉँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हंसें! मेरी बला से! उसने दुकानदार से पूछा—यह चिमटा कितने का है?
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा—तुम्हारे काम का नहीं है जी!
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहॉँ क्यों लाद लाए हैं?’
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छ: पैसे लगेंगे।‘
हामिद का दिल बैठ गया।
‘ठीक-ठीक पॉँच पेसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे?
यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियॉँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियॉँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाऍं करते हैं!
मोहसिन ने हँसकर कहा—यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?
हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटकर कहा—जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियॉँ चूर-चूर हो जाऍं बचा की।
महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है?
हामिद—खिलौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे काकाम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाऍं, मेरे चिमटे का बाल भी बॉंका नही कर सकतें मेरा बहादुर शेर है चिमटा।
सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला—मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खॅजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, ऑंधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हें, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुंचने की जल्दी हो रही हे। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रर्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हा गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहनि, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए मियॉँ भिश्ती के छक्के छूट जाऍं, जो मियॉँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर जमीन पर लेट जाऍं। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी ऑंखे निकाल लेगा।
मोहसिन ने एड़ी—चोटी का जारे लगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा—भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई—अगर बचा पकड़ जाऍं तो अदालम में बॅधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेगे।
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा—हमें पकड़ने कौने आएगा?
नूरे ने अकड़कर कहा—यह सिपाही बंदूकवाला।
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेगें! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगें क्या बेचारे!
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई—तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया—आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लैडियों की तरह घर में घुस जाऍंगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
महमूद ने एक जोर लगाया—वकील साहब कुरसी—मेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
इस तर्क ने सम्मी औरनूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही हे पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धॉँधली शुरू की—मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेगें, तो जाकर उन्हे जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।
बात कुछ बनी नही। खाल गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज हे। उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती हे। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द हे। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाऍंगी। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
संधि की शर्ते तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा—जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमार भिश्ती लेकर देखो।
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए।

Sikandar_Khan
05-02-2011, 01:20 AM
3...

हामिद को इन शर्तो को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।
हामिद ने हारने वालों के ऑंसू पोंछे—मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
लेकिन मोहसनि की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिल्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
मोहसिन—लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?
महमूद—दुआ को लिय फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मां जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?
हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें—हिन्द हे ओर सभी खिलौनों का बादशाह।
रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दियें। महमून ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुंह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद थां।

ग्यारह बजे गॉँव में हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोहसिन की छोटी बहन दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियॉं भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोए। उसकी अम्मॉँ यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चॉँटे और लगाए।
मियॉँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिदाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। आदालतों में खर की टट्टियॉँ और बिजली के पंखे रहते हें। क्या यहॉँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बॉँस कापंखा आया ओर नूरे हवा करने लगें मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गॉँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हें। मगर रात तो अँधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियॉँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टॉँग में विकार आ जाता है।
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टॉँग को आनन-फानन जोड़ सकता हे। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जावब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टॉँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहों, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।
अब मियॉँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
‘यह चिमटा कहॉं था?’
‘मैंने मोल लिया है।‘
‘कै पैसे में?
‘तीन पैसे दिये।‘
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’
हामिद ने अपराधी-भाव से कहा—तुम्हारी उँगलियॉँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता हे और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना व्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहॉँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया।
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआऍं देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!

Sikandar_Khan
05-02-2011, 01:43 AM
प्रेमचंद की कहानी - कफ़न

1

झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के पास और अन्दर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना से पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़े की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।

घीसू ने कहा - मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते ही गया, ज़रा देख तो आ।

माधव चिढ़कर बोला - मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नही जाती ? देखकर क्या करूं?


'तू बड़ा बेदर्द है बे ! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!' 'तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।'

चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना कामचोर था कि आधे घंटे काम करता तो घंटे भर चिलम पीता। इसीलिये उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती थी। घर में मुट्ठी भर अनाज भी मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने कि कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियां तोड़ लाता और माधव बाज़ार में बेच आता। जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम कि कमी ना थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उस वक़्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी संतोष कर लेने के सिवा और कोई चारा ना होता। अगर दोनों साधू होते, तो उन्हें संतोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिल्कुल ज़रूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा और कोई सम्पत्ति नहीं थी। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढांके हुए जीये जाते थे। संसार की चिंताओं से मुक्त! कर्ज़ से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीं इतने की वसूली की बिल्कुल आशा ना रहने पर भी लोग इन्हें कुछ न कुछ कर्ज़ दे देते थे। मटर, आलू कि फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भूनकर खा लेते या दस-पांच ईखें उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृति से साठ साल कि उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे कि तरह बाप ही के पद चिन्हों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक़्त भी दोनो अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाए थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए देहांत हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जबसे यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनो बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनो और भी आराम तलब हो गए थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्बयाज भाव से दुगनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी, और यह दोनों शायद इसी इंतज़ार में थे कि वह मर जाये, तो आराम से सोयें।


घीसू ने आलू छीलते हुए कहा- जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या! यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!

माधव तो भय था कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलू का एक बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला- मुझे वहाँ जाते डर लगता है।

'डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।' 'तो तुम्ही जाकर देखो ना।'

'मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नही; और फिर मुझसे लजायेगा कि नहीं? जिसका कभी मुँह नही देखा; आज उसका उधड़ा हुआ बदन देखूं। उसे तन कि सुध भी तो ना होगी। मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी ना पटक सकेगी!'

'मैं सोचता हूँ, कोई बाल बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नही है घर में!'

'सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दे तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वो ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ ना था, भगवान् ने किसी ना किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।'

जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालात उनकी हालात से कुछ अच्छी ना थी, और किसानों के मुकाबले में वो लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीँ ज़्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृति का पैदा हो जान कोई अचरज की बात नहीं थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीँ ज़्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शुन्य समूह में शामिल होने के बदले बैठक बाजों की कुत्सित मंडली में जा मिलता था। हाँ, उसमें यह शक्ति ना थी कि बैठक बाजों के नियम और नीति का पालन कर्ता। इसलिये जहाँ उसकी मंडली के और लोग गांव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गांव ऊँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तस्कीन तो थी ही, कि अगर वह फटेहाल हैं तो उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नही करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नही उठाते। दोनो आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नही खाया था। इतना सब्र ना था कि उन्हें ठण्डा हो जाने दे। कई बार दोनों की ज़बान जल गयी। छिल जाने पर आलू का बहरी हिस्सा बहुत ज़्यादा गरम ना मालूम होता, लेकिन दोनों दांतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा ज़बान, तलक और तालू जला देता था, और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा खैरियत तो इसी में थी कि वो अन्दर पहुंच जाये। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी समान था। इसलिये दोनों जल्द-जल्द निगल जाते । हालांकि इस कोशिश में उन्ही आंखों से आँसू निकल आते ।

घीसू को उस वक़्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वो उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताज़ा थी।

बोला- वह भोज नही भूलता। तबसे फिर उस तरह का खाना और भर पेट नही मिला। लड़कीवालों ने सबको भरपेट पूड़ीयां खिलायी थी, सबको!

छोटे-बड़े सबने पूड़ीयां खायी और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोग में क्या स्वाद मिल, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, मांगो, जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पीया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गरम-गरम गोल-गोल सुवासित कचौड़ियां डाल देते हैं। मन करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल को हाथ से रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिए जाते हैं और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान इलाइची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी! खड़ा हुआ ना जाता था। झटपट अपने कम्बल पर जाकर लेट गया। ऐसा दिल दरियाव था वह ठाकुर!

माधव नें पदार्थों का मन ही मन मज़ा लेते हुए कहा- अब हमें कोई ऐसा भोजन नही खिलाता। 'अब कोई क्या खिलायेगा। वह ज़माना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो। क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कामं नही है। हाँ , खर्च में किफायती सूझती है। '

'तुमने बीस-एक पूड़ीयां खायी होंगी?'

'बीस से ज़्यादा खायी थी!'

'मैं पचास खा जाता!'

'पचास से कम मैंने भी ना खायी होगी। अच्छा पट्ठा था । तू तो मेरा आधा भी नही है ।'

आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीँ अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़्कर पाँव पेट पर डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेदुलियाँ मारे पड़े हो।

और बुधिया अभी तक कराह रही थी।

Sikandar_Khan
05-02-2011, 01:47 AM


सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियां भिनक रही थी। पथराई हुई आँखें ऊपर टंगी हुई थी । साड़ी देह धुल से लथपथ हो रही थी थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।

माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों ज़ोर-ज़ोर से है-है करने और छाती पीटने लगे। पडोस्वालों ने यह रोना धोना सुना, तो दौड हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।

मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर ना था। कफ़न और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोसले में मॉस!

बाप-बेटे रोते हुए गाव के ज़मिन्दार के पास गए। वह इन दोनों की सूरत से नफरत करते थे। कयी बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वाडे पर काम पर न आने के लिए। पूछा- क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीँ दिखलायी भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाव में रहना नहीं चाहता।

घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आंखों से आँसू भरे हुए कहा - सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घर-वाली गुज़र गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा दारु जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, पर वोह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रह मालिक! तबाह हो गए । घर उजाड़ गया। आपका ग़ुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगायेगा। हमारे हाथ में जो कुछ था, वोह सब तो दवा दारु में उठ गया...सरकार की ही दया होगी तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊं!

ज़मीन्दार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढाना था। जीं में तो आया, कह दे, चल, दूर हो यहाँ से। यों तोबुलाने से भी नही आता, आज जब गरज पढी तो आकर खुशामद कर रह है। हरामखोर कहीँ का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड का अवसर न था। जीं में कूदते हुए दो रुपये निकालकर फ़ेंक दिए। मगर सांत्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर के बोझ उतारा हो। जब ज़मींदर साहब ने दो रुपये दिए, तो गाव के बनिए-महाजनों को इनकार का सहस कैसे होता? घीसू ज़मीन्दार का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिए, किसी ने चार आने। एक घंटे में घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बांस-वांस काटने लगे।

गाव की नर्म दिल स्त्रियां आ-आकर लाश देखती थी, और उसकी बेबसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थी।

Sikandar_Khan
05-02-2011, 01:51 AM


बाज़ार में पहुंचकर, घीसू बोला - लकड़ी तो उसे जलाने भर की मिल गयी है, क्यों माधव! माधव बोला - हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिऐ।

'तो चलो कोई हल्का-सा कफ़न ले लें।

'हाँ, और क्या! लाश उठते उठते रात हो जायेगी। रात को कफ़न कौन देखता है!'

'कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते-जीं तन धांकने को चीथडा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिऐ।'

'कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।'

'क्या रखा रहता है! यहीं पांच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारु कर लेते।

दोनों एक दुसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घुमते रहे। कभी इस बजाज की दुकान पर गए, कभी उस दुकान पर! तरह-तरह के कपडे, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जंचा नहीं. यहाँ तक कि शाम हो गयी. तब दोनों न-जाने किस दयवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुंचे और जैसे पूर्व-निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गए. वहाँ ज़रा देर तक दोनों असमंजस में खडे रहे. फिर घीसू ने गड्डी के सामने जाकर कहा- साहूजी, एक बोतल हमें भी देना। उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछ्ली आयी, और बरामदे में बैठकर शांतिपूर्वक पीने लगे। कई कुज्जियां ताबड़्तोड़ पीने के बाद सुरूर में आ गए. घीसू बोला - कफ़न लगाने से क्या मिलता? आख़िर जल ही तो जाता. कुछ बहु के साथ तो न जाता. माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानो देवताओं को अपनी निश्पाप्ता का साक्षी बाना रह हो - दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग ब्राहमणों को हज़ारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!

'बडे आदमियों के पास धन है,फूंके। हमारे पास फूंकने को क्या है!'

'लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?'

घीसू हसा - अबे, कह देंगे कि रुपये कंमर से खिसक गए। बहुत ढूँढा , मिले नहीं। लोगों को विश्वास नहीं आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे। माधव भी हंसा - इन अनपेक्षित सौभाग्य पर. बोला - बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो ख़ूब खिला पिला कर!

आधी बोतल से ज़्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूड़ियाँ मंगायी. चटनी, आचार, कलेजियां. शराबखाने के सामने ही दुकान थी. माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया. पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया. सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे. दोनो इस वक़्त इस शान से बैठे पूड़ियाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ रह हो. न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी का फिक्र। इन सब भावनाओं को उन्होने बहुत पहले ही जीत लिया था.

घीसू दार्शनिक भाव से बोला - हमारी आत्म प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा? माधव ने श्रध्दा से सिर झुकाकर तस्दीख कि - ज़रूर से ज़रूर होगा। भगवान्, तुम अंतर्यामी हो. उसे बैकुंठ ले जाना । हम दोनो हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं. आज जो भोजन मिला , वह कहीँ उम्र-भर न मिल था. एक क्षण के बाद मॅन में एक शंका जागी. बोला - क्यों दादा, हम लोग भी एक न एक दिन वहाँ जायेंगे ही? घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया. वोह परलोक कि बाते सोचकर इस आनंद में बाधा न डालना चाहता था।

'जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नही दिया तो क्या कहेंगे?'

'कहेंगे तुम्हारा सिर!'

'पूछेगी तो ज़रूर!'

'तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझेईसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रह हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!' माधव को विश्वास न आया। बोला - कौन देगा? रुपये तो तुमने चाट कर दिए। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सिन्दूर मैंने डाला था।

घीसू गरम होकर बोला - मैं कहता हूँ, उसे कफ़न मिलेगा, तू मानता क्यों नहीं?

'कौन देगा, बताते क्यों नहीं?' 'वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया । हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएंगे। '

ज्यों-ज्यों अँधेरा बढता था और सितारों की चमक तेज़ होती थी, मधुशाला, की रोनक भी बढती जाती थी। कोई गाता था, दींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपट जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाए देता था। वहाँ के वातावरण में सुरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज़्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाये यहाँ खीच लाती थी और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं कि मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं। और यह दोनो बाप बेटे अब भी मज़े ले-लेकर चुस्स्कियां ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी और जमी हुई थी। दोनों कितने भाग्य के बलि हैं! पूरी बोतल बीच में है।

भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडियों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खडा इनकी और भूखी आंखों से देख रह था। और देने के गौरव, आनंद, और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।

घीसू ने कहा - ले जा, ख़ूब खा और आर्शीवाद दे। बीवी कि कमायी है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आर्शीवाद उसे ज़रूर पहुंचेगा। रोएँ-रोएँ से आर्शीवाद दो, बड़ी गाडी कमायी के पैसे हैं!

माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा - वह बैकुंठ में जायेगी दादा, बैकुंठ की रानी बनेगी।

घीसू खड़ा हो गया और उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला - हाँ बीटा, बैकुंठ में जायेगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुंठ जायेगी तो क्या मोटे-मोटे लोग जायेंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चडाते हैं?

श्रद्धालुता का यह रंग तुरंत ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ। माधव बोला - मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!

वह आंखों पर हाथ रखकर रोने लगा, चीखें मार-मारकर।

घीसू ने समझाया - क्यों रोता हैं बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गई, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिए।

और दोनों खडे होकर गाने लगे -

"ठगिनी क्यों नैना झाम्कावे! ठगिनी ...!"

पियाक्क्ड्डों की आँखें इनकी और लगी हुई थी और वे दोनो अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बनाए, अभिनय भी किये, और आख़िर नशे से मदमस्त होकर वहीँ गिर पडे।

Sikandar_Khan
06-02-2011, 08:13 AM
विष्णु प्रभाकर की कहानी 'मेरा वतन'

उसने सदा की भाँति तहमद लगा लिया था और फैज ओढ़ ली थी। उसका मन कभी-कभी साइकिल के ब्रेक की तरह तेजी से झटका देता, परन्तु पैर यन्त्रवत् आगे बढ़ते चले जाते। यद्यपि इस शि€त-प्रयोग के कारण वह बे-तरह काँप-काँप जाता, पर उसकी गति में तनिक भी अन्तर न पड़ता। देखने वालों के लिए वह एक अर्ध्दविक्षिप्त से अधिक कुछ नहीं था। वे अकसर उसका मंजांक उड़ाया करते। वे कहकहे लगाते और ऊँचे स्वर में गालियाँ देते, पर जैसे ही उनकी दृष्टि उठती—न जाने उन निरीह, भावहीन, फटी-फटी आँखों में €या होता कि वे सहम-सहम जाते; सोडावाटर के उफान की तरह उठनेवाले कहकहे मर जाते और वह नंजर दिल की अन्दरूनी बस्ती को शोले की तरह सुलगाती हुई फिर नीचे झुक जाती। वे फुसफुसाते, 'जरूर इसका सब कुछ लुट गया है,'...'इसके रिश्तेदार मारे गये हैं...' 'नहीं, नहीं ऐसा लगता है कि काफिरों ने इसके बच्चों की इसी के सामने आग में भून दिया है या भालों की नोक पर टिकाकर तब तक घुमाया है जब तक उनकी चीख-पुकार बिल्ली की मिमियाहट से चिड़िया के बच्चे की चीं-चीं में पलटती हुई खत्म नहीं हो गयी है।'
''और यह सब देखता रहा है।''
''हां! यह देखता रहा है। वही खौफ इसकी आँखों में उतर आया है। उसी ने इसके रोम-रोम को जकड़ लिया है। वह इसके लहू में उस तरह घुल-मिल गया है कि इसे देखकर डर लगता है।''
''डर'', किसी ने कहा, ''इसकी आँखों में मौत की तस्वीर है, वह मौत, जो कत्ल, खूँरेजी और फाँसी का निजाम संभालती है।''
एक बार राह चलते दर्दमन्द ने एक दुकानदार से पूछा, ''यह कौन है?''
दुकानदार ने जवाब दिया, ''मुसीबतंजदा है, जनाब! अमृतसर में रहता था। काफिरों ने सब कुछ लूटकर इसके बीवी-बच्चों को जिन्दा आग में जला दिया।''
''जिन्दा !'' राहगीर के मुंह से अचानक निकल गया।
दुकानदार हंसा ''जनाब किस दुनिया में रहते हैं? वे दिन बीत गये जब आग काफिरों के मुर्दों को जलाती थी। अब तो वह ंजिन्दों को जलाती है।''
राहगीर ने तब अपनी कड़वी भाषा में काफिरों को वह सुनायी कि दुकानदार ने खुश होकर उसे बैठ जाने के लिए कहा। उसे जाने की जल्दी थी। फिर भी जरा-सा बैठकर उसने कहा, ''कोई बड़ा आदमी जान पड़ता है।''
''जी हां ! वकील था, हाईकोर्ट का बड़ा वकील। लाखों रुपयों की जायदाद छोड़ आये हैं।''
''अच्छा...!''
''जनाब! आदमी आसानी से पागल नहीं होता। चोट लगती है तभी दिल टूटता है। और जब एक बार टूट जाता है तो फिर नहीं जुड़ता। आजकल चारों तरफ यही कहानी है। मेरा घर का मकान नहीं था, लेकिन दुकान में सामान इतना था कि तीन मकान खरीदे जा सकते थे।''
''जी हां,'' राहगीर ने सहानुभूति से भरकर कहा, ''आप ठीक कहते हैं पर आपके बाल-बच्चे तो सही-सलामत आ गये हैं!''
''जी हां ! खुदा का फज़ल है। मैंने उन्हें पहले ही भेज दिया था। जो पीछे रह गये थे उनकी न पूछिए। रोना आता है। खुदा गारत करे हिन्दुस्तान को...।''
राहगीर उठा। उसने बात काटकर इतना ही कहा, ''देख लेना, एक दिन वह गारत होकर रहेगा। खुदा के घर में देर है, पर अंधेर नहीं।''
और वह चला गया, परन्तु उस अर्ध-विक्षिप्त के कार्यक्रम में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह उसी तरह धीरे-धीरे बांजारों में से गुजरता, शरणार्थियों की भीड़ में धक्के खाता, परन्तु उस ओर देखता नहीं। उसकी दृष्टि तो आस-पास की दुकानों पर जा अटकती थी। जैसे मिकनातीस लोहे को खींच लेता है वैसे ही वे बेंजबाम् इमारतें जो जगह-जगह पर खंडहर की श€ल में पलट चुकी थीं, उसकी नंजर को और उसके साथ-साथ उसके मन, बुध्दि, चिžा और अहंकार सभी को अपनी ओर खींच लेती थीं और फिर उसे जो कुछ याद आता, वह उसे पैर के तलुए से होकर सिर में निकल जानेवाली सूली की तरह काटता हुआ, उसके दिल में घुमड़-घुमड़ उठता। इसी कारण वह मर नहीं सका, केवल सिसकियाम् भरता रहा। उन सिसकियों में न शब्द थे, न आँसू। वे बस सूखी हिचकियों की तरह उसे बेजान किये रहती थीं।
सहसा उसने देखा—सामने उसका अपना मकान आ गया है। उसके अपने दादा ने उसे बनवाया था। उसके ऊपर के कमरे में उसके पिता का जन्म हुआ था। उसी कमरे में उसने आम्खें खोली थीं और उसी कमरे में उसके बच्चों ने पहली बार प्रकाश-किरण का स्पर्श पाया था।
उस मकान के कण-कण में उसके जीवन का इतिहास अंकित था। उसे फिर बहुत-सी कहानियाँ याद आने लगीं। वह उन कहानियों में इतना डूब गया कि उसे परिस्थिति का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। वह यन्त्रवत् जीने पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा और जैसा कि वह सदा करता था उसने घण्टी पर हाथ रखा। बे-जान घण्टी शोर मचाने लगी और तभी उसकी नींद टूट गयी। उसने घबराकर अपने चारों ओर देखा। वहाँ सब एक ही जैसे आदमी नहीं थे। वे एक जैसी जबान भी नहीं बोलते थे। फिर भी उनमें ऐसा कुछ था जो उन्हें 'एक' बना रहा था और वह इस 'एक' में अपने लिए कोई जगह नहीं पाता था। उसने तेजी से आगे बढ़ जाना चाहा, पर तभी ऊपर से एक व्यक्ति उतरकर आया। उसने ढीला पाजामा और कुरता पहना था, पूछा, ''कहिए जनाब?''
वह अचकचाया, ''जी!''
''जनाब किसे पूछते थे?''
''जी, मैं पूछता था कि मकान खाली है।''
ढीले पाजामे वाले व्यक्ति ने उसे ऐसे देखा कि जैसे वह कोई चोर या उठाईगीरा हो। फिर मुंह बनाकर तलखी से जवाब दिया, ''जनाब तशरीफ ले जाइए वरना...''
आगे उसने क्या कहा वह यह सुनने के लिए नहीं रुका। उसकी गति में तूफान भर उठा, उसके मस्तिष्क में बवंडर उठ खड़ा हुआ और उसका चिन्तन गति की चट्टान पर टकराकर पाश-पाश हो गया। उसे जब होश आया तो वह अनारकली से लेकर माल तक का समूचा बांजार लाँघ चुका था। वह बहुत दूर निकल आया था। वहाँ आकर वह तेजी से काँपा। एक टीस ने उसे कुरेद डाला, जैसे बढ़ई ने पेच में पेचकश डालकर पूरी शिक्त के साथ उसे घुमाना शुरू कर दिया हो। हाईकोर्ट की शानदार इमारत उसके सामने थी। वह दृष्टि गड़ाकर उसके कंगूरों को देखने लगा। उसने बरामदे की कल्पना की। उसे याद आया—वह कहाँ बैठता था, वह कौन से कपड़े पहनता था कि सहसा उसका हाथ सिर पर गया जैसे उसने सांप को छुआ हो। उसने उसी क्षण हाथ खींच लिया पर मोहक स्वप्नों ने उस रंगीन दुनिया की रंगीनी को उसी तरह बनाए रखा। वह तब इस दुनिया में इतना डूब चुका था कि बाहर की जो वास्तविक दुनिया है वह उसके लिए मृगतृष्णा बन गयी थी। उसने अपने पैरों के नीचे की धरती को ध्यान से देखा, देखता रहा। सिनेमा की तस्वीरों की तरह अतीत की एक दुनिया, एक शानदार दुनिया उसके अन्तस्तल पर उतर आयी। वह इसी धरती पर चला करता था। उसके आगे-पीछे उसे नमस्कार करते, सलाम झुकाते, बहुत से आदमी आते और जाते थे। दूसरे वकील हाथ मिलाकर शिष्टाचार प्रदर्शित करते और...
विचारों के हनुमान ने समुद्र पार करने के लिए छलाँग लगायी। उसका ध्यान जज के कमरे पर जाकर केन्द्रित हो गया। जब वह अपने केस में बहस शुरू करता तो कमरे में सन्नाटा छा जाता। केवल उसकी वाणी की प्रतिध्वनि ही वहाँ गूँजा करती, केवल 'मी लार्ड' शब्द बार-बार उठता और 'मी लार्ड' कलम रख कर उसकी बात सुनते...
हनुमान फिर कूदे। अब वह बार एसोसिएशन के कमरे में आ गया था। इस कमरे में न जाने कितने बेबाक कहकहे उसने लगाये, कितनी बार राजनीति पर उत्तेजित कर देनेवाली बहसें कीं, महापुरुषों को श्रद्धाजलियाँ अर्पित कीं, विदा और स्वागत के खेल खेले...
वह अब उस कुर्सी के बारे में सोचने लगा जिस पर वह बैठा करता था। उसे कमरे की दीवार के साथ-साथ दरवाजे के पायदान की याद भी आ गयी। कभी-कभी ये छोटी-छोटी तंफसीलें आदमी को कितना सकून पहुंचाती हैं। इसीलिए वह सब-कुछ भूलकर सदा की तरह झूमता हुआ आगे बढ़ा, पर तभी जैसे किसी ने उसे कचोट लिया। उसने देखा कि लॉन की हरी घास मिट्टी में समा गयी है। रास्ते बन्द हैं। केवल डरावनी आँखों वाले सैनिक मशीनगन संभाले और हैलमेट पहने तैयार खड़े हैं कि कोई आगे बढ़े और वे शूट कर दें। उसने हरी वर्दी वाले होमगार्डों को भी देखा और देखा कि राइफल थामे पठान लोग जब मन में उठता है तब फायर कर देते हैं। वे मानो छड़ी के स्थान पर राइफल का प्रयोग करते हैं और उनके लिए जीवन की पवित्रता बन्दूक की गोली की सफलता पर निर्भर करती है। उसे स्वयं जीवन की पवित्रता से अधिक मोह नहीं था। वह खंडहरों के लिए आँसू भी नहीं बहाता था। उसने अग्नि की प्रज्वलित लपटों को अपनी आँखों से उठते देखा था। उसे तब खाण्डव-वन की याद आ गयी थी जिसकी नींव पर इन्द्रप्रस्थ-सरीखे वैभवशाली और कलामय नगर का निर्माण हुआ था। तो क्या इस महानाश की उस कला के कारण महाभारत सम्भव हुआ, जिसने इस अभागे देश के मदोन्मत, किन्तु जर्जरित शौर्य को सदा के लिए समाप्त कर दिया। क्या आज फिर वही कहानी दोहरायी जानेवाली है।
एक दिन उसने अपने बेटे से कहा, ''जिन्दगी न जाने क्या-क्या खेल खेलती है। वह तो बहुरूपिया है। दूसरी दुनिया बनाते हमें देर नहीं लगती। परमात्मा ने मिट्टी इसलिए बनायी कि हम उसमें से सोना पैदा करें।''
बेटा बाप का सच्चा उत्तराधिकारी था। उसने परिवार को एक छोटे-से कस्बे में छोड़ा और आप आगे बढ़ गया। वह अपनी उजड़ी हुई दुनिया फिर से बसा लेना चाहता था, पर तभी अचानक छोटे भाई का तार मिला। लिखा था, ''पिताजी न जाने कहाँ चले गये!''
तार पढ़कर बड़ा भाई घबरा गया। वह तुरन्त घर लौटा और पिता की खोज करने लगा। उसने मित्रों को लिखा, रेडियो पर समाचार भेजे, अंखबारों में विज्ञापन निकलवाये। सब कुछ किया, पर वह यह नहीं समझ सका, कि आंखिर वे कहाँ गये और €यों गये। वह उसी उधेड़-बुन में था कि एक दिन सवेरे-सवेरे क्या देखता है कि उसके पिता चले आ रहे हैं शान्त निर्द्वन्द्व और निर्लिप्त।
''आप कहाँ चले गये थे?'' प्रथम भावोद्रेक समाप्त होने पर उसने पूछा।
शान्त मन से पिता ने उत्तर दिया, ''लाहौर।''
''लाहौर,'' पुत्र अविश्वास से काँप उठा, ''आप लाहौर गये थे?''
''हां।''
''कैसे?''
पिता बोले, ''रेले में बैठकर गया था, रेल में बैठकर आया हूं।''
''पर आप वहाँ क्यों गये थे?''
''क्यों गया था,'' जैसे उनकी नींद टूटी। उन्होंने अपने-आपको संभालते हुए कहा, ''वैसे ही, देखने के लिए चला गया था।''
और आगे की बहस से बचने के लिए वे उठकर चले गये। उसके बाद उन्होंने इस बारे में किसी प्रश्न का जवाब देने से इनकार कर दिया। पुत्रों ने पिता में आनेवाले इस परिवर्तन को देखा, पर न तो वे उन्हें समझा सकते थे, न उन पर क्रोध कर सकते थे, हां, पंजाब की बात चलती तो आह भरकर कह देते थे, ''गया पंजाब! पंजाब अब कहाँ है?''
पुत्र फिर काम पर लौट गये और वे भी घर की व्यवस्था करने लगे। इसी बीच में वे फिर एक दिन लाहौर चले गये, परन्तु इससे पहले कि उनके पुत्र इस बात को जान सकें, वे लौट आये। पत्नी ने पूछा, ''आंखिर क्या बात है?''
''कुछ नहीं।''
''कुछ नहीं कैसे? आप बार-बार वहाँ क्यों जाते हैं?''
तब कई क्षण चुप रहने के बाद उन्होंने धीरे से कहा, ''क्यों जाता हूं, क्योंकि वह मेरा वतन है। मैं वहीं पैदा हुआ हूं। वहाँ की मिट्टी में मेरी जिन्दगी का रांज छिपा है। वहाँ की हवा में मेरे जीवन की कहानी लिखी हुई है।''
पत्नी की आँखें भर आयीं, बोली, ''पर अब €या, अब तो सब-कुछ गया।''
''हां, सब-कुछ गया।'' उन्होंने कहा, ''मैं जानता हूं अब कुछ नहीं हो सकता, पर न जाने €या होता है, उसकी याद आते ही मैं अपने-आपको भूल जाता हूं और मेरा वतन मिकनातीस की तरह मुझे अपनी ओर खींच लेता है।''

Sikandar_Khan
06-02-2011, 08:16 AM
2...
पत्नी ने जैसे पहली बार अपने पति को पहचाना हो। अवाक्-सी दो क्षण वैसे ही बैठी रही। फिर बोली, ''आपको अपने मन को संभालना चाहिए। जो कुछ चला गया उसका दु:ख तो जिन्दगी-भर सालता रहेगा। भाग्य में यही लिखा था, पर अब जान-बूझकर आग में कूदने से क्या लाभ?''
''हां, अब तो जो-कुछ बचा है उसी को सहेजकर गाड़ी खींचना ठीक है।''—उसने पत्नी से कहा और फिर जी-जान से नये कार्य-क्षेत्र में जुट गया। उसने फिर वकालत का चोगा पहन लिया। उसका नाम फिर बार-एसोसिएशन में गूँजने लगा। उसने अपनी जिन्दगी को भूलने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। और शीघ्र ही वह अपने काम में इतना डूब गया कि देखनेवाले दाँतों तले उँगली दबाकर कहने लगे, ''इन लोगों में कितना जीवट है। सैकड़ों वर्षों में अनेक पीढ़ियों ने अपने को खपाकर जिस दुनिया का निर्माण किया था वह क्षण-भर में राख का ढेर हो गयी, और बिना आँसू बहाये; उसी तरह दुनिया ये लोग क्षणों में बना देना चाहते हैं।''
उनका अचरज ठीक था। तम्बुओं और कैम्पों के आस-पास, सड़कों के किनारे, राह से दूर भूत-प्रेतों के चिर-परिचित अड्डों में, उजड़े गाँवों में, खोले और खादर में, जहाँ कहीं भी मनुष्य की शक्ति कुंठित हो चुकी थी वहीं ये लोग पहुँच जाते थे और पादरी के नास्तिक मित्र की तरह नरक को स्वर्ग में बदल लेते थे। इन लोगों ने जैसे कसम खायी थी कि धरती असीम है, शि€त असीम है, फिर निराशा कहाँ रह सकती है?
ठीक उसी समय जब उसका बड़ा पुत्र अपनी नयी दुकान का मुहूर्त करनेवाला था, उसे एक बार फिर छोटे भाई का तार मिला, ''पिताजी पाँच दिन से लापता हैं।''
पढ़कर वह क्रुध्द हो उठा और तार के टुकड़े-टुकड़े करके उसने दूर फेंक दिये। चिनचिनाकर बोला, ''वे नहीं मानते तो उन्हें अपने किये का फल भोगना चाहिए। वे अवश्य लाहौर गये हैं।''
उसका अनुमान सच था। जिस समय वे यहाँ चिन्तित हो रहे थे उसी समय लाहौर के एक दूकानदार ने एक अर्द्ध-विक्षिप्त व्यक्ति को, जो तहमद लगाये, फैज कैप ओढ़े, फटी-फटी आँखों से चारों ओर देखता हुआ घूम रहा था, पुकारा, ''शेख साहब! सुनिए तो। बहुत दिन में दिखाई दिए, कहाँ चले गये थे?''
उस अर्द्ध-विक्षिप्त पुरुष ने थकी हुई आवांज में जवाब दिया, ''मैं अमृतसर चला गया था।''
''क्या,'' दूकानदार ने आँखें फाड़कर कहा, ''अमृतसर!''
'हाँ, अमृतसर गया था। अमृतसर मेरा वतन है।'
दूकानदार की आँखें क्रोध से चमक उठीं, बोला, ''मैं जानता हूं। अमृतसर में साढे तीन लाख मुसलमान रहते थे, पर आज एक भी नहीं है।''
''हां,'' उसने कहा, ''वहाँ आज एक भी मुसलमान नहीं है।''
''काफिरों ने सबको भगा दिया, पर हमने भी कसर नहीं छोड़ी। आज लाहौर में एक भी हिन्दू या सिक्ख नहीं है और कभी होगा भी नहीं।''
वह हँसा, उसकी आँखें चमकने लगीं। उसमें एक ऐसा रंग भर उठा जो बे-रंग था और वह हँसता चला गया, हँसता चला गया...''वतन, धरती, मोहब्बत सब कितनी छोटी-छोटी बातें हैं...सबसे बड़ा मजहब है, दीन है, खुदा का दीन। जिस धरती पर खुदा का बन्दा रहता है, जिस धरती पर खुदा का नाम लिया जाता है, वह मेरा वतन है, वही मेरी धरती है और वही मेरी मोहब्बत है।''
दुकानदार ने धीरे से अपने दूसरे साथी से कहा, ''आदमी जब होश खो बैठता है, तो कितनी सच्ची बात कहता है।''
साथी ने जवाब दिया, ''जनाब! तब उसकी जबान से खुदा बोलता है।''
''बेशक,'' उसने कहा और मुड़कर उस अर्द्ध-विक्षिप्त से बोला—''शेख साहब! आपको घर मिला?''
''सब मेरे ही घर हैं।''
दुकानदार मुस्कराया, ''लेकिन शेख साहब! जरा बैठिए तो, अमृतसर में किसी ने आपको पहचाना नहीं।''
वह ठहाका मारकर हँसा, ''तीन महीने जेल में रहकर लौटा हूं।''
''सच।''
''हां,'' उसने आँखें मटकाकर कहा।
''तुम जीवट के आदमी हो।''
और तब दुकानदार ने खुश होकर उसे रोटी और कवाब मंगाकर दिए। लापरवाही से उन्हें पल्ले में बाँधकर और एक टुकड़े को चबाता हुआ वह आगे बढ़ गया।
दुकानदार ने कहा, ''अजीब आदमी है। किसी दिन लखपती था, आज फाकामस्त है।''
''खुदा अपने बन्दों का खूब इम्तहान लेता है।''
''जन्नत ऐसे को ही मिलता है।''
''जी हां। हिम्मत भी खूब है। जान-बूझकर आग में जा कूदा।''
''वतन की याद ऐसी ही होती है।'' उसके साथी ने जो दिल्ली का रहनेवाला था कहा, ''अब भी जब मुझे दिल्ली की याद आती है तो दिल भर आता है।''
उतने कष्ट की कल्पना करना जो दूसरे ने भोगा है असम्भव जैसा है, फिर भी यातना की समानता के कारण दो मित्र व्यक्तियों की संवेदना एक बिन्दु पर आकर एक हो जाती है।
वह आगे बढ़ रहा था। माल पर भीड़ बढ़ रही थी। कारें भी कम नहीं थीं। अँग्रेंज, एंग्लो-इंडियन तथा ईसाई नारियाँ पहले की तरह ही बांजार में देखी जा सकती थीं। फिर भी उसे लगा कि वह माल जो उसने देखी थी यह नहीं है। शरीर अवश्य कुछ वैसा ही है, पर उसकी आत्मा वह नहीं है। लेकिन यह भी उसकी दृष्टि का दोष था। कम-से-कम वे जो वहाँ घूम रहे थे उनका ध्यान आत्मा की ओर नहीं था।
एकाएक वह पीछे मुड़ा। उसे रास्ता पूछने की जरूरत नहीं थी। बैल अपनी डगर को पहचानते हैं। उसके पैर भी दृढ़ता से रास्ते पर बढ़ रहे थे और विश्वविद्यालय की आलीशान इमारत एक बार फिर सामने आ रही थी। उसने नुमायश की ओर एक दृष्टि डाली, फिर बुलनर के बुत की तरफ से होकर वह अन्दर चला गया। उसे किसी ने नहीं रोका। वह लॉ कॉलिज के सामने निकल आया। उसी क्षण उसका दिल एक गहरी हूक से टीसने लगा। कभी वह इस कॉलेज में पढ़ा करता था...
वह काँपा, उसे याद आया, उसने इस कॉलेज में पढ़ाया भी है...
वह फिर काँपा। हूक फिर उठी। उसकी आँखें भर आयीं। उसने मुंह फेर लिया। उसके सामने अब वह रास्ता था जो उसे दयानन्द कॉलेज ले जा सकता था। एक दिन पंजाब विश्वविद्यालय, दयानन्द विश्वविद्यालय कहलाता था।
तभी एक भीड़ उसके पास से निकल आयी। वे प्राय: सभी शरणार्थी थे। बे-घर और बे-जर लेकिन उन्हें देखकर उसका दिल पिघला नहीं, कड़वा हो आया। उसने चीख-चीखकर उन्हें गालियाँ देनी चाहीं। तभी पास से जानेवाले दो व्यक्ति उसे देखकर ठिठक गये। एक ने रुककर उसे ध्यान से देखा, दृष्टि मिली, वह सिहर उठा। सर्दी गहरी हो रही थी और कपड़े कम थे। वह तेजी से आगे बढ़ गया। वह जल्दी-से-जल्दी कॉलेज-कैम्प में पहुँच जाना चाहता था। उन दो व्यक्तियों में से एक ने, जिसने उसे पहचाना था, दूसरे से कहा—''मैं इसको जानता हूं।''
''कौन है?''
''हिन्दू।''
साथी अचकचाया, ''हिन्दू !''
''हां, हिन्दू। लाहौर का एक मशहूर वकील...।''
और कहते-कहते उसने ओवरकोट की जेब में से पिस्तौल निकाल लिया। वह आगे बढ़ा। उसने कहा, ''जरूर यह मुखबिरी करने आया है।''
उसके बाद गोली चली। एक हल्की-सी हलचल, एक साधारण-सी खटपट। एक व्यक्ति चलता-चलता लड़खड़ाया और गिर पड़ा। पुलिस ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया, परन्तु जो अनेक व्यक्ति कुतूहलवश उस पर झुक आये थे, उनमें से एक ने उसे पहचान लिया। वह हतप्रभ रह गया और यन्त्रवत् पुकार उठा ''मिस्टर पुरी ! तुम यहाँ कैसे...!''
मिस्टर पुरी ने आँखें खोलीं, उनका मुख श्वेत हो गया था और उस पर मौत की छाया मंडरा रही थी। उन्होंने पुकारने वाले को देखा और पहचान लिया। धीरे से कहा, ''हसन...!''
आँखें फिर मिच गयीं। बदहवास हसन ने चिल्लाकर सैनिक से कहा, ''जल्दी करो। टैक्सी लाओ। मेयो अस्पताल चलना है। अभी...''
भीड़ बढ़ती जा रही थी। फौज, पुलिस और होमगार्ड सबने घेर लिया। हसन, जो उसका साथी था, जिसके साथ वह पढ़ा था, जिसके साथ उसने साथी और प्रतिद्वन्दी बनकर अनेक मुकदमे लड़े थे, वह अब उसे भीगी-भीगी आँखों से देख रहा था। एक बार झुककर उसने फिर कहा, ''तुम यहाँ इस तरह क्यों आये, मिस्टर पुरी?''
मिस्टर पुरी ने इस बार प्रयत्न करके आँखें खोलीं और वे फुसफसाये, ''मैं यहाँ क्यों आया? मैं यहाँ से जा ही कहाँ सकता हूं? यह मेरा वतन है, हसन ! मेरा वतन...!''
फिर उसकी यातना का अन्त हो गया।

Sikandar_Khan
08-02-2011, 05:05 PM
एक लम्हे की प्रेम कहानी - कु0 नीरज तोमर

वो एक लम्हा, उसकी वो एक नज़र और उस क्षण का वो तूफान जिसने जिन्दगी के मायने ही बदल दिये। मैं कभी उस दिन को नहीं भूल पाऊगाँ। मेरी जिन्दगी का वो एक पन्ना जिस पर दर्द की कलम से मेरी प्रेम कहानी अनजाने में ही चित्रित हो गई।
जी हाँ, मेरी प्रेम कहानी। ये प्रेम कहानी कुछ लम्हों की है पर इसका अहसास मानों सदियों पुराना हो। इस कहानी में दर्द प्रेम से ज्यादा व्याप्त है, ऐसा कहकर शायद अपने इस अमर प्रेम को मैं गाली दे जाऊँ। क्योंकि प्रेम का समय से कोई सम्बन्ध नहीं होता। शायद आपको विश्वास न हो। पर मुझे यकीन है मेरी कहानी जानकर आप न केवल इस बात पर विश्वास करेंगें बल्कि इसका यकींन आपके रोम-रोम में बस जायेगा और प्यार के लिए आपकी धारणा बदल जायेगी।
यह एक ऐसी निश्चछल प्रेम कथा है जो प्यार के ज़ज्बातों को अमरत्व की माला में पिरोती है।
ये कहानी शुरू होती है कोहलापुर में भड़क रहे दंगों से। कोहलापुर के हालात बद से बदत्तर हो गये थे। चारों ओर एक ऐसा अजीब सा सन्नाटा था जो चीख-चीखकर वहाँ के लोगों की मौत के दर्द को गा रहा था। लोगों के अन्दर डर का ऐसा आतंक था कि कोयल की आवाज भी उन्हें कर्कश और आतंकित करने वाली प्रतीत हो रही थी। बच्चे जिनका नन्हा बचपन सड़क, पार्क आदि में खेलकर गुजरता था, वो आज घर की चार दीवारी में कैद सिसकियाँ ले रहे थे। लोगों के आतंकित चेहरों पर पड़ी सिकुड़न उनके हर पल मौत के खौफ को बयाँ कर रही थी। लोग समझ नहीं पा रहे थे कि वे जी-जी कर मर रहे हैं या मर-मर कर जी रहे हैं। ओह! कितना घुटन भरा वातावरण था वो सब। जिन्दगी नरक सी लगने लगी थी।
असल में ये दंगा प्रत्येक समुदाय के लोग शहर में शान्ति व्यवस्था के बिगड़ते हालातों के खिलाफ कर रहे थे। लोगों में असंतोष था कि क्यों उनके शहर की शान्ति व्यवस्था की हालत इतनी दरिद्र्र है? पर कोई उन्हें यह कैसे समझाये कि सुख-शान्ति, चैन-आराम के अर्थ जिस दिन वे समझ जायेंगें, सबसे पहले ये दंगे समाप्त हो जायेंगें।
ये लोगों की संकीर्ण मानसिकता नहीं तो और क्या है कि वे जिस चीज के लिए लड़ रहे हैं, सबसे पहले उसी का तिरस्कार कर रहे है।
यही तिरस्कृत शान्ति अचानक गली-मोहल्ले से विलुप्त होने लगी। अचानक एक ओर से कुछ हाहाकार की आवाजें आने लगी। मैं कुछ समझ नहीं पाया। और जब तक कुछ समझता, दंगाईयों की एक टोली बहुत तेजी के साथ मेरी ओर बढ़ती चली जा रही थी। वे लोग ईंट, पत्थर, तलवार, लोहे की छड़, लाठी, मशाल आदि हथियार लिये दौड़े चले आ रहे थे।
एक बार तो उन्हें देखकर मेरी सांसे थम ही गई। मैं मिट्टी के बूत की भाँति स्थिर हो गया। मैं चाह रहा था कि भाग जाऊँ पर डर के मारे मैं अपनी जगह जड़ हो गया था। कितना लाचार था मैं उस समय। पर फिर याद आया कि मैं पुलिस की सुरक्षा में खड़ा हूँ। हालांकि यह असुरक्षित सुरक्षा थी। पर मेरे लिए यह डूबते में तिनके का सहारा बनी हुई थी। पर मैं कौन हूँ? जिसे इतनी सुरक्षा मिली है।
नहीं- नहीं मैं कोई वी0 आई0 पी0 नहीं हूँ जो उन दंगाइयों की दलील सुनने वहाँ आया हूँ। हालाँकि मेरी उस समय की मनोदशा, दिल का खौफ और परजीवी प्रकृति (पुलिस वालों पर आश्रित होना) बाह्य रूप से मुझे किसी वी0 आई0 पी0 से कम नहीं आँक सकती थी। पर वास्तविकता तो यह है कि मैं तो एक मामूली सा पत्रकार हूँ जो अपनी पूरी टीम के साथ घटना स्थल की रिर्पोटिंग के लिए वहाँ उपस्थित था।
पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जो साहस की बुनियाद पर अपना करियर बनाता है। जो अपने जज्.बे और जुनून से अँधेरे में दबे सच को रोशनी दिखाकर दुनिया को वास्तविकता से रूबरू कराता है। इस पेशे में स्पष्टवादिता, चतुरता और इन सभी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण ‘साहस’ की आवश्यकता होती है। पर उस दिन मुझे अपने साहस का अहसास हुआ। मेरे इस विशालकय शरीर में चूहे का दिल निवास करता है। मुझे अच्छी तरह याद है स्कूल-कॉलेज की हर क्लास में अपनी वीरता के हमने ढ़ेरों किस्से गाये थे। लड़कियों पर इम्प्रैशन ड़ालने के लिए ऊँची-ऊँची आवाज में ड़ींगे मारना। उल्टे-सीधे फिल्मी डायलॉग बोलना। किसी भी दब्बू लड़के को पीटकर खुद को हीरो साबित करना, क्लास की बैंच पर कूदकर खुद को जिम्नास्ट साबित करना और ऐसे अनगिनत ख्याल एक ही पल में एक के बाद एक मेरे दिमाग में आते जा रहे थे। पर आज सच के एक दृश्य ने मेरी भ्रम के बादलों की दुनिया को कहीं विलुप्त कर दिया। ओह! कितना शर्मिंदगी महसूस की उस वक्त मैंने। कल्पना से बाहर की दुनिया कितनी निदर्यी है और इसी के साथ ही मैंने अपने करियर को असफलता के पर से उड़ते देखा। मेरे पैर धीरे-धीरे पीछे हटने लगे थे। और आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा था। धुँधले से इस माहौल के बीच इक हल्की सी रोशनी ने मुझे भ्रम और वास्तविकता के बीच उलझा दिया। मुझे लगा जैसे कोई झाँसी की रानी की तरह उस युद्ध के मैदान में अपने शौर्य का परिचय देती हुई आगे बढ़ रही है। पर ये क्या.............. एक झलक के बाद ही वो कहाँ खो गई। शायद मेरी ही आँखों का धोखा था। डर के कारण कुछ-कुछ दिखाई दे रहा था। शायद मेरे अंदर कहीं किसी कोने में छुपा बैठा साहस मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने की असफल कोशिश कर रहा था। क्योंकि अब मैं पुलिस व दंगाईयों की टोली के बीच खुद को ढूँढ़ रहा था कि मैं किस की तरफ खड़ा हूँ कि अचानक.............
वही धुंधला चेहरा जो अब सच बनकर मेरी बाहों में पड़ा था। वो बेचैन सा शरीर मेरी बाहों के सहारे में अचानक खुद को सहज महसूस करने लगा। उसके उस मासूम से चेहरे पर बेखौफ हिम्मत की चमक मुझे सम्मोहित कर रही थी। उसके गुलाबी गालों पर धूल की हल्की सी परत वाला वो चेहरा काली घटा में से झाँकते चाँद सा लग रहा था। और उस पर वो पसीने की बूँदे जैसे चाँद की रोशनी से टिमटिमाते तारे। वो बड़ी-बड़ी आँखें जो मेरी आँखों पर थम गई थी, उनमें लगा काजल जो थोड़ा सा बह गया था मानो नीले आकाश में बहती घटा हो। भगवान ने उसके चेहरे के एक-एक भाग को बखूबी तराशा था। मेरी बाहों में उसकी वो मजबूत पकड़ मेरे अंदर उसके प्रेम का संचार कर रही थी। 15 सेकण्ड का वो समय जिसमें हम न कुछ कह पाये, न कुछ समझ पाये। बस समझे तो वो वादा जो आँखों ही आँखों में हमने एक दूसरे से किया कि “हम सिर्फ एक दूसरे के लिए बने है।” उन 15 सेकण्ड में हमने आँखों ही आँखों में जीवन भर साथ निभाने की कसमें खा ली। हम पूरी निष्ठा से सारी उम्र एक दूसरे का साथ निभायेंगें। अपने दिल के भावों को शब्दों में पिरोते हुए मैंने अपने लब खोलने ही चाहे कि अचानक..............
उसके गुलाबी चेहरे पर चमकती पसीने की बूँदे लाल हो गई। मेरे हाथों में एक झटके के साथ उसका भार कम हो गया। जमीन पर पड़ा उसका धड़ और मेरे हाथों में उसका सर। उसकी वो बड़ी-बड़ी खुली आँखें अभी भी मुझसे कह रही थी ‘‘हम जीवन भर साथ रहेगें।’’ और मैं हकदम उसकी आँखों के विश्वास को अपना विश्वास नहीं बना पा रहा था। दिल कहता है कि वो झूठ नहीं बोल सकती। दिमाग कहता है कि वो अब नहीं..................
दंगाईयों ने मेरी बाहों में ही उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। और मैं आवाक् खड़ा सब देखता रहा।
आज भी उसकी आँखें मुझे उसके प्यार का अहसास कराती हैं। उसका वो क्षणिक स्पर्श आज भी मेरी यादों में बसा है। इसके साथ-साथ एक ग्लानि जो उस क्षण से आज तक मेरे अन्दर है-‘‘कि वो मेरी कायरता के असुरक्षित घेरे में मुझसे दूर हो गई। मेरा एक पल का साहस हमारे एक पल में देखे उस सपने को साकार कर सकता था। मेरा क्षणिक आत्मविश्वास हमें जीवन की डगर पर साथ-साथ कदम बढ़ाने में सहायक होता।
पर सच तो यह है कि आज भी मैं उन मृत सपनों को जीवित करने के एक और भ्रम में खो चुका हूँ...................

Sikandar_Khan
08-02-2011, 05:17 PM
मेरी माँ कहाँ - कृष्णा सोबती की कहानी

दिन के बाद उसने चाँद-सितारे देखे हैं। अब तक वह कहाँ था? नीचे, नीचे, शायद बहुत नीचे...जहाँ की खाई इनसान के खून से भर गयी थी। जहाँ उसके हाथ की सफाई बेशुमार गोलियों की बौछार कर रही थी। लेकिन, लेकिन वह नीचे न था। वह तो अपने नये वतन की आंजादी के लिए लड़ रहा था। वतन के आगे कोई सवाल नहीं, अपना कोई खयाल नहीं! तो चार दिन से वह कहाँ था? कहाँ नहीं था वह? गुंजराँवाला, वजीराबाद, लाहौर! वह और मीलों चीरती हुई ट्रक। कितना घूमा है वह? यह सब किसके लिए? वतन के लिए, कौम के लिए और...? और अपने लिए! नहीं, उसे अपने से इतनी मुहब्बत नहीं! क्या लम्बी सड़क पर खड़े-खड़े यूनस खाँ दूर-दूर गाँव में आग की लपटें देख रहा है? चीखों की आवांज उसके लिए नयी नहीं। आग लगने पर चिल्लाने में कोई नयापन नहीं। उसने आग देखी है। आग में जलते बच्चे देखे हैं, औरतें और मर्द देखे हैं। रात-रातभर जलकर सुबह खाक हो गये मुहल्लों में जले लोग देखे हैं! वह देखकर घबराता थोड़े ही है? घबराये क्यों? आजादी बिना खून के नहीं मिलती, क्रान्ति बिना ंखून के नहीं आती, और, और, इसी क्रान्ति से तो उसका नन्हा-सा मुल्क पैदा हुआ है! ठीक है। रात-दिन सब एक हो गये। उसकी ऑंखें उनींदी हैं, लेकिन उसे तो लाहौर पहुँचना है। बिलकुल ठीक मौके पर। एक भी काफिर जिन्दा न रहने पाये। इस हल्की-हल्की सर्द रात में भी 'काफिर' की बात सोचकर बलोच जवान की ऑंखें खून मारने लगीं। अचानक जैसे टूटा हुआ क्रम फिर जुड़ गया है। ट्रक फिर चल पड़ी है। तेज रंफ्तारसे।

सड़क के किनारे-किनारे मौत की गोदी में सिमटे हुए गाँव, लहलहाते खेतों के आस-पास लाशों के ढेर। कभी-कभी दूर से आती हुई अल्ला-हो-अकबर' और 'हर-हर महादेव' की आवांजें। 'हाय, हाय'...'पकड़ो-पकड़ो'...मारो-मारो'...। यूनस खाँ यह सब सुन रहा है। बिलकुल चुपचाप इससे कोई सरोकार नहीं उसे। वह तो देख रहा है अपनी ऑंखों से एक नयी मुंगलिया सल्तनतशानदार, पहले से कहीं ज्यादा बुलन्द...।

चाँद नीचे उतरता जा रहा है। दूध-सी चाँदनी नीली पड़ गयी है। शायद पृथ्वी का रक्त ऊपर विष बनकर फैल गया है।

''देखो, जरा ठहरो।'' यूनस खाँ का हाथ ब्रेक पर है। यहयह क्या? एक नन्ही-सी, छोटी-सी छाया! छाया? नहींरक्त से भीगी सलवार में मूर्च्छित पड़ी एक बच्ची!

बलोच नीचे उतरता है। जख्मी है शायद! मगर वह रुका क्यों ? लाशों के लिए कब रुका है वह? पर यह एक घायल लड़की...। उससे क्या? उसने ढेरों के ढेर देखे हैं औरतों के...मगर नहीं, वह उसे जरूर उठा लेगा। अगर बच सकी तो...तो...। वह ऐसा क्यों कर रहा है यूनस खाँ खुद नहीं समझ पा रहा...। लेकिन अब इसे वह न छोड़ सकेगा...काफिर है तो क्या?

बड़े-बड़े मजबूत हाथों में बेहोश लड़की। यूनस ख़ाँ उसे एक सीट पर लिटाता है। बच्ची की ऑंखें बन्द हैं। सिर के काले घने बाल शायद गीले हैं। खून से और, और चेहरे पर...? पीले चेहरे पर...रक्त के छींटे।

यूनस खाँ की उँगलियाँ बच्ची के बालों में हैं और बालों का रक्त उसके हाथों में...शायद सहलाने के प्रयत्न में! पर नहीं, यूनस खाँ इतना भावुक कभी नहीं था। इतना रहमइतनी दया उसके हाथों में कहाँ से उतर आयी है? वह खुद नहीं जानता। मूर्च्छित बच्ची ही क्या जानती है कि जिन हाथों ने उसके भाई को मारकर उस पर प्रहार किया था उन्हीं के सहधर्मी हाथ उसे सहला रहे हैं!

यूनस खाँ के हाथों में बच्ची...और उसकी हिंसक ऑंखें नहीं, उसकी आर्द्र ऑंखें देखती हैं दूर कोयटे मेंएक सर्द, बिलकुल सर्द शाम में उसके हाथों में बारह साल की खूबसूरत बहिन नूरन का जिस्म, जिसे छोड़कर उसकी बेवा अम्मी ने ऑंखें मूँद ली थीं।

सनसनाती हवा मेंकब्रिस्तान में उसकी फूल-सी बहिन मौत के दामन में हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया से बेंखबर...और उस पुरानी याद में काँपता हुआ यूनस खाँ का दिल-दिमाग।

आज उसी तरह, बिलकुल उसी तरह उसके हाथों में...। मगर कहाँ है वह यूनस खाँ जो कत्ले-आम को दीन और ईमान समझकर चार दिन से खून की होती खेलता रहा है...कहाँ है? कहाँ है?

यूनस खाँ महसूस कर रहा है कि वह हिल रहा है, वह डोल रहा है। वह कब तक सोचता जाएगा। उसे चलना चाहिए, बच्ची के जख्म!...और फिर, एक बार फिर थपथपाकर, आदर से, भीगी-भीगी ममता से बच्ची को लिटा यूनस खाँ सैनिक की तेजी से ट्रक स्टार्ट करता है। अचानक सूझ जानेवाले कर्तव्य की पुकार में। उसे पहले चल देना चाहिए था। हो सकता है यह बच्ची बच जाए उसके जख्मों की मरहम-पट्टी। तेज, तेज और तेज ! ट्रक भागी जा रही है। दिमाग सोच रहा है वह क्या है? इसी एक के लिए क्यों? हजारों मर चुके हैं। यह तो लेने का देना है। वतन की लड़ाई जो है! दिल की आवाज है चुप रहो...इन मासूम बच्चों की इन कुरबानियों का आजादी के खून से क्या ताल्लुक ? और नन्ही बच्ची बेहोश, बेखबर...

लाहौर आनेवाला है। यह सड़क के साथ-साथ बिछी हुई रेल की पटरियाँ। शाहदरा और अब ट्रक लाहौर की सड़कों पर है। कहाँ ले जाएगा वह ? मेयो हास्पिटल या सर गंगाराम ?...गंगाराम क्यों? यूनस ख़ाँ चौंकता है। वह क्या उसे लौटाने जा रहा है? नहीं, नहीं, उसे अपने पास रखेगा। ट्रक मेयो हास्पिटल के सामने जा रुकती है।

और कुछ क्षण बाद बलोच चिन्ता के स्वर में डाक्टर से कह रहा है, ''डाक्टर, जैसे भी हो, ठीक कर दो...इसे सही-सलामत चाहता हूँ मैं !'' और फिर उत्तेजित होकर, ''डाक्टर, डाक्टर...'' उसकी आवांज संयत नहीं रहती।

''हाँ, हाँ, पूरी कोशिश करेंगे इसे ठीक करने की।''

बच्ची हास्पिटल में पड़ी है। यूनस खाँ अपनी डयूटी पर है मगर कुछ अनमना-सा हैरान फिकरमन्द। पेट्रोल कर रहा है।

लाहौर की बड़ी-बड़ी सड़कों पर। कहीं-कहीं रात की लगी हुई आग से धुऑं निकल रहा है। कभी-कभी डरे हुए, सहमे हुए लोगों की टोलियाँ कुछ फौंजियों के साथ नंजर आती हैं। कहीं उसके अपने साथी शोहदों के टोलों को इशारा करके हँस रहे हैं। कहीं कूड़ा-करकट की तरह आदमियों की लाशें पड़ी हैं। कहीं उजाड़ पड़ी सड़कों पर नंगी औरतें, बीच-बीच में नारे-नारे, और ऊँचे! और यूनस खाँ, जिसके हाथ कल तक खूब चल रहे थे, आज शिथिल हैं। शाम को लौटते हुए जल्दी-जल्दी कदम भरता है। वह अस्पताल नहीं, जैसे घर जा रहा है।

एक अपरिचित बच्ची के लिए क्यों घबराहट है उसे ? वह लड़की मुसलमान नहीं हिन्दू है, हिन्दू है।

दरवाजे से पलंग तक जाना उसे दूर, बहुत दूर जाना लग रहा है। लम्बे लम्बे डग।

लोहे के पलंग पर बच्ची लेटी है। सफेद पट्टियों से बँधा सिर। किसी भयानक दृश्य की कल्पना से ऑंखें अब भी बन्द हैं। सुन्दर-से भोले मुख पर डर की भयावनी छाया...।

यूनस खाँ कैसे बुलाएक्या कहे ? 'नूरन' नाम ओठों पर आके रुकता है। हाथ आगे बढ़ते हैं। छोटे-से घायल सिर का स्पर्श, जिस कोमलता से उसकी उँगलियाँ छू रही हैं उतनी ही भारी आवाज उसके गले में रुक गयी है।

अचानक बच्ची हिलती है। आहत-से स्वर में, जैसे बेहोशी में बड़बड़ातीहै

''कैम्प, कैम्प...कैम्प आ गया। भागो...भागो...भागो...''

''कुछ नहीं, कुछ नहीं देखो, ऑंखें खोलो...''

''आग, आग...वह गोली...मिलटरी...''

बच्ची उसे पास झुके देखती है और चीख मारती है...

''डाक्टर, डाक्टर...डाक्टर, इसे अच्छा कर दो।''

डाक्टर अनुभवी ऑंखों से देखकर कहता है, ''तुमसे डरती है। यह काफिर है, इसीलिए।''

काफिर...यूनस खाँ के कान झनझना रहे हैं ,काफिर...काफिर...क्यों बचाया जाए इसे ? काफिर?...कुछ नहीं...मैं इसे अपने पास रखूँगा!

इसी तरह बीत गयी वे खूनी रातें। यूनस खाँ विचलित-सा अपनी डयूटी पर और बच्ची हास्पिटल में।

एक दिन। बच्ची अच्छी होने को आयी। यूनस खाँ आज उसे ले जाएगा। डयूटी से लौटने के बाद वह उस वार्ड में आ खड़ा हुआ।

बच्ची बड़ी-बड़ी ऑंखों से देखती हैउसकी ऑंखों में डर है, घृणा है और, और, आशंका है।

यूनस खाँ बच्ची का सिर सहलाता है, बच्ची काँप जाती है! उसे लगता है कि हाथ गला दबोच देंगे। बच्ची सहमकर पलकें मूँद लेती है! कुछ समझ नहीं पातीकहाँ है वह ? और यह बलोच?...वह भयानक रात! और उसका भाई! एक झटके के साथ उसे याद आता है कि भाई की गर्दन गँड़ासे से दूर जा पड़ी थी!

यूनस ख़ाँ देखता है और धीमे से कहता है, ''अच्छी हो न ! अब घर चलेंगे!''

बच्ची काँपकर सिर हिलाती है, ''नहीं-नहीं, घर...घर कहाँ है! मुझे तुम मार डालोगे।''

यूनस खाँ देखना चाहता था नूरन लेकिन यह नूरन नहीं, कोई अनजान है जो उसे देखते ही भय से सिकुड़ जाती है।

बच्ची सहमी-सी रुक-रुककर कहती है, ''घर नहीं, मुझे कैम्प में भेज दो। यहाँ मुझे मार देंगे...मुझे मार देंगे...''

यूनस खाँ की पलकें झुक जाती हैं। उनके नीचे सैनिक की क्रूरता नहीं, बल नहीं, अधिकार नहीं। उनके नीचे है एक असह्य भाव, एक विवशता...बेबसी।

बलोच करुणा से बच्ची को देखता है। कौन बचा होगा इसका? वह इसे पास रखेगा। बलोच किसी अनजान स्नेह में भीगा जा रहा है...

बच्ची को एक बार मुस्कराते हुए थपथपाता है, ''चलो चलो, कोई फिक्र नहीं हम तुम्हारा अपना है...''

ट्रक में यूनस खाँ के साथ बैठकर बच्ची सोचती है ,बलोच कहीं अकेले में जाकर उसे जरूर मार देने वाला है...गोली से छुरे से! बच्ची बलोच का हाथ पकड़ लेती है, ''खान, मुझे मत मारना...मारना मत...'' उसका संफेद पड़ा चेहरा बता रहा है कि वह डर रही है।

खान बच्ची के सिर पर हाथ रखे कहता है, ''नहीं-नहीं, कोई डर नहीं...कोई डर नहीं...तुम हमारा सगा के माफिक है...।''

एकाएक लड़की पहले खान का मुँह नोचने लगती है फिर रो-रोकर कहती है, ''मुझे कैम्प में छोड़ दो छोड़ दो मुझे।''

खान ने हमदर्दी से समझाया, ''सब्र करो, रोओ नहीं...तुम हमारा बच्चा बनके रहेगा। हमारे पास।''

''नहीं''लड़की खान की छाती पर मुट्ठियाँ मारने लगी, ''तुम मुसलमान हो...तुम...।''

एकाएक लड़की नफरत से चीखने लगी, ''मेरी माँ कहाँ है! मेरे भाई कहाँ हैं! मेरी बहिन कहाँ...''

ABHAY
12-02-2011, 07:06 AM
अहसास

"बडकी, टेबल पे नाश्ता तो लगा दो; बारात लौटने से पहले सब कम से कम नाश्ता ही कर लें....."
"बडकी ...... बड़ी जीजी को गरम पानी नहीं दिया क्या? कब नहायेंगीं ? बारात आने ही वाली है.........."

"बडकी....परछन का थाल तैयार किया या नहीं ?.....दुल्हन दरवाजे पर आ जायेगी तब करोगी क्या?"
बडकी -बडकी-बडकी............सबको बस एक ही नाम याद रहता है जैसे......... मेहमानों से ठसाठस भरे इस घर में काम की ज़िम्मेदारी केवल बडकी की...... मशीन बन गई है बडकी जब से छोटे देवर अभय की शादी तय हुई....

शादी भी ऐसे आनन-फानन की कुछ सोचने - प्लान करने का वक्त ही नहीं.... वैसे बडकी यानि बड़ी बहू अलका को कुछ प्लान करने का हक़ ही कहाँ है ? उसके हिस्से में तो केवल कर्तव्य ही आया है। छोटे घर की है न!! इन बड़े घर के लोगों के सामने कुछ भी बोलने का अधिकार है ही कहाँ उसके पास ? जब से आई है, तब से केवल हिदायतें ही तो मिल रहीं हैं । रस्मो-रिवाज़ सीखते -सीखते पाँच साल गुज़र गए....फिर भी अम्मा जी को लगता है कि वह कुछ सीख ही नहीं पाई।

ABHAY
12-02-2011, 07:07 AM
क्या पहनना है, क्या बोलना है, क्या बनाना है, कैसे बनाना है, सब अम्मा जी ही तो तय करतीं हैं । उसका अपना अस्तित्व तो जैसे कुछ रह ही नहीं गया ............. । यहाँ तक कि अपना नाम भी भूल गई है .........बस "बडकी" बन के रह गई है। .......भूल गई है कि कभी कॉलेज की बेहतरीन छात्राओं में से एक गिनी जाती थी वह । भूल गई है, कि उसके सलीके, उसके पहनावे , उसके बातचीत के तरीके और उसकी बुद्धिमत्ता के क़ायल थे कभी लोग.............. । उसके अपने घर में उसकी सलाह महत्वपूर्ण मानी जाती थी।

लेकिन यहाँ ?? यहाँ तो उसे ख़ुद आश्चर्य होता है अपने आप पर। कैसा दब गया है उसका व्यक्तित्व! लगता जैसे नए सिरे से कोई मूर्ति गढ़ रहा है। ये वो अलका तो नहीं जिसका उदाहरण उसके शहर की अन्य माँएँ अपनी बेटियों को दिया करतीं थीं।

पाँच बरस हो गए अलका की शादी को , लेकिन आज भी नई-नवेली दुल्हन की तरह सर झुकाए सारे आदेश सर-माथे लेने पड़ते हैं। पाँच साल पहले की अलका कितनी खुशनुमा थी। एकदम ताज़ा हवा की तरह। उसकी खनकदार आवाज़ गूंजती रहती थी घर में। गुनगुनाते हुए हर काम करने की आदत थी उसकी। और इसी आदत पर बबाल हो गया यहाँ।

"घर की बड़ी बहू हो । ज़रा कायदे से रहना सीखो। क्या हर वक्त मुजरा करती रहती हो.... । "

मुज़रा !!! बाप रे!!!! सन्नाटे में आ गई थी अलका। नहीं। अब नहीं गाऊँगी। बस! तब से गुनगुनाना भी बंद।

अलका को चटख रंग कभी पसंद नहीं आते थे। एकदम हलके पर खिले खिले से रंग उसे खूब पसंद थे। ऐसे ही रंगों की बेहतरीन साडियां भी उसने खरीदीं थीं अपनी शादी के समय। तमाम रस्मों के दौरान भारी साडियां ही पहने रही थी, लेकिन तीन - चार दिन बाद थोड़ा हल्का महसूस करने के लिए अपनी पसंद की साड़ी पहनी और कमरे से बाहर आई तो अम्मा जी ने ऐसे घूरना शुरू किया जैसे पाता नहीं कितना बड़ा अपराध हो गया हो उससे। छूटते ही बोलीं-

" ये क्या मातमी कपड़े पहने हो ? हमारे यहाँ ऐसे कपड़े नई बहुएँ नहीं पहनती कोई देखे तो क्या कहे? जाओ। बदल कर आओ। अब यहाँ के हिसाब से रहना सीखो। "

तब से ले कर आज तक उन्हीं की पसंद की साडियां पहनती चली आ रही है।

सुबह की सब्जी शाम को भी खाई जाए अलका को ये बिल्कुल पसंद नहीं। फिर जिसे खाना हो खाए, अलका तो नहीं ही खायेगी। पूरे खाने का स्वाद ही ख़त्म हो जाता है जैसे .......................यहाँ अक्सर ही ऐसा होता है। सुबह दो सब्जियाँ बनवाई जातीं ज़ाहिर है बच भी जायेगी। ऐसे में अपनी कटोरी में ज़रा सी सब्जी ले लेती अलका उसी में किसी प्रकार निगलती खाना.....इसी बात पर सुना एक दिन अम्मा जी कह रहीं हैं-

ABHAY
12-02-2011, 07:09 AM
" इसे तो सब्जी खाने की आदत ही नहीं है। पता नहीं...... शायद मायके में सब्जी बनती ही न रही होगी इसी लिए सब्जी खाने की आदत ही नहीं है॥"

तब से रोज़ अनिच्छा से सही, बासी सब्जी खा रही है अलका....... ।

आधुनिकता का झूठा लबादा ओढे अलका की ससुराल में एलान हुआ था - ' हमारे यहाँ सब एक साथ खाना खाते हैं" अच्छा लगा था उसे। लेकिन जब खाना खाने बैठे तो बगल में बैठी अम्मा जी ने टोका-

" बडकी ज़रा पल्लू खींच लो। तुम्हारे बाल दिखाई दे रहे हैं। पल्लू माथे तक रहना चाहिए, बालों की झलक न मिले।"

मन बुझ गया था अलका का। पिता समान ससुर के सामने इतनी वर्जनाएं क्यों ? फिर अगर ऐसा ही है तो साथ में खाना खाने की ज़रूरत ही क्या है?
अलका के पति रवि सुदर्शन ; सुशिक्षित हैं लेकिन किसी बड़े नामचीन पद पर आसीन नहीं हैं। बस इसीलिए अलका भी घर में सम्मानित जगह नहीं पा सकती । छोटा देवर इंजीनियर है , साल में एक-दो बार आता है , अम्मा जी के लिए साड़ी और छिट-पुट सामान ले आता है चार दिन रहता है सो जी खोल कर खर्च करता है। इसीलिए बहुत अच्छा है। घर में उसकी इज्ज़त भी रवि से कई गुना ज़्यादा है।
इसी अभय की शादी हो रही है। बारात बस आती ही होगी। किन-किन ख्यालों ने घेर लिया था अलका को......... । सर झटक के उठ खड़ी हुई अलका।

" नानी बारात आ गई............"
"बुआ जल्दी चलो, नई दुल्हन आ गई है..........."
" अरे बडकी मामी, तुम भी चलो न!!......

तुम भी? मतलब चलो तो ठीक है नही चलो तो भी ठीक है ।
पर्दे पर तो कलाकार ही दिखते हैं ना,परदे के पीछे
उस दृश्य को तैयार करने में जुटने वाले लोग और उनकी मेहनत किसे दिखती है ? उनका तो कोई नाम भी नही जानता। ठीक यही हाल अलका का है। पूरी तैयारी उसी ने की है लेकिन कोई ये कहने वाला तक नही कि अलका ने बड़ी मेहनत की।
नई बहू का परछन हो रहा है,सास ने अपने गले की तीन तोले की चेन उतार कर बहू को पहना दी। एक -एक कर सारे रिश्तेदारों ने रस्म अदा की। बडकी के साथ भी ये ही सारी रस्में हुई थी लेकिन सास ने क्या दिया था? मुश्किल से चार ग्राम के कान के बुन्दे !!
खैर... अलका बहुत ज़्यादा नही सोचती इस बारे में । लेकिन सोचने की बात तो है न!!
" नई दुल्हन को बैठने तो दो........."

ABHAY
12-02-2011, 07:11 AM
" हटो भीड़ मत लगाओ रे............"

" थोड़ा आराम कर लेने दो, फिर बात करना....."
किसी किसी प्रकार बच्चा पार्टी नई दुल्हन के पास से हटी।

घर में सुबह सबसे पहले उठने की जिम्मेदारी बडकी की ही है। उठकर किचन में सबके लिये चाय चढाना।
फिर सारे रिश्तेदारो तक पहुंचवाना भी एक बड़ा काम था। आज भी बडकी आदत के अनुसार छ्ह बजे उठकर नीचे उतर आई थी, उसने देखा, नई बहू का कमरा अभी बंद था। राहत की एक लम्बी सांस ली उसने। पता नहीं क्यों उसे लग रहा था, कि यदि नई बहू उससे पहले उठ गई, तो उसे दिए जाने वाले तमाम,ताउम्र उदाहरणॊं में ये भी शामिल हो जायेगा। शादी के बाद उसे पहले ही दिन उठने में साढे छह बज गये थे, और तब से लेकर आज तक सैकडॊं बार उसे यह बात सुनाई जा चुकी है। उसकी नींद को लेकर फ़ब्तियां कसी जाती रहतीं हैं। बस इसलिये नई दुल्हन का दरवाजा बंद देख उसे ऐसा लगा,जैसे कोई बहुत बडा बोझ उसके सर से उतर गया हो।

टॆबल पर अम्मा जी और कुछ अन्य लोगों की चाय लगा दी थी बड्की ने। पौने सात बजे छोटी बहू किरन बाहर निकली। अपने नाइट गाउन के ऊपर ही दुपट्टा ओढ कर छोटी किचन में आई।

"हाय भाभी! गुड मोर्निंग। दो कप चाय मिलेगी क्या?"

बड्की ने तत्काल दो कप चाय ट्रे में रख दी। उसे लग रहा था, कि एक तो छोटी देर से उठी उस पर गाउन पहने ही बाहर चली आयी, और अब दो कप चाय लेकर वापस जा रही है। अम्मा जी से मिली भी नही, गाउन पहने है शायद इसलिये ........ ।

लेकिन ये क्या,सुना बड्की ने मगर कानों पर भरोसा नहीं हुआ। अम्मा जी भी कह रही थी छोटी से

" अरे छोटी इतनी जल्दी क्यों उठ गयी? जाओ थोडा और आराम कर लो। कोई काम तो करना नही है---। "

हैं!! ये क्या वही अम्मा जी हैं?? अचम्भित है बड्की.... ।

न उसके बैठने पर कुछ कहा न उसके कपड़ों पर..... ।

अगले दो दिन फ़िर भारी व्यस्तता से भरे थे। रिसेप्शन के बाद मेहमानों की विदाई और घर व्यवस्थित करने में ही पांच दिन निकल गये। आज कुछ राहत मिली तो बड्की अपने कमरे में लेट गई। सोचा लंच में तो अभी देर है, थोडा आराम ही कर लूं। तभी जोर से खिलखिलाने की आवाज ने उसे चौका दिया-उठ कर देखा तो छोटी मेज पर खाना लगा रही थी, और चह्कते हुए पापा यानी ससुर जी को बता रही थी कि उसने क्या-क्या बनाया है। और सास जी? वो भी भाव-विभोर हो कर उसकी बातें सुन रही थी।

समझ में ही नही आया बड्की को ;क्या हो रहा है। ये दो तरह का व्यवहार क्यों? उस पर इतनी पाबंदियां और छोटी पर??

ABHAY
12-02-2011, 07:12 AM
शाम को फ़िर छोटी सास जी से जिद कर रही थी, बच्चों की तरह-

"चलिए मम्मी जी.... आइसक्रीम खाने चलेंगे........... । "

अलका की आंखों में भय और अचरज का भाव देखकर तुरन्त अम्माजी बोलीं-" अरे छोटी है न...

इसलिये , अरे ओ अभय तू ही खिला ला आइसक्रीम। मैं तो न जा पाऊगीं"

रवि से कभी कहा उन्होनें, कि बड्की को आइसक्रीम खिला ला? उसे घूमना अच्छा नही लगता क्या?

और पूरे दस दिन बाद ही छोटी सूट पहनकर खडी थी, जिसे पहनने की हिम्मत अलका पांच सालों में भी नही कर पायी। और अम्मा भी
"हो गया छोटी है पहनने दो । बड़ों को शोभा नही देता सो तुम न पहनना बड्की। "

" बडो को? मैं कितनी बडी हूं, उससे केवल दो साल न?

छोटी ने तो रोज़ का रुटीन बना लिया था, घूमने का। सुबह भी कुछ बनाने का मन हुआ तो ठीक है नही तो नहीं। दोनों टाइम का खाना बड़्की के सिर पर..... ।

कहीं भी जाना है तो इठलाकर पूछ्ती थी जाऊं न मम्मा??

और अम्माजी गद गद हो जाती। तुरन्त कह्ती-

" हां हां जाओ न। खाना बड़की बना लेगी। "

पता नही अम्मा जी की जुबान पर किसने ताला डाल रखा था, अभय की नौकरी ने या दहेज में आये चार लाख रुपयों ने......... ।

लेकिन नही अब नहीं। अगर एक बहू के लिये अम्माजी इतनी दरियादिल और आधुनिक हो सकती हैं,तो उन्हें दूसरी के साथ भी यही रवैया अपनाना होगा। बस अब बहुत हुआ।

यदि रवि अपनी और अपनी पत्नी की स्थिती पर कुछ नही बोल सकते तो अब बड्की को ही आवाज उठानी होगी। अब कल से बड्की अपनी तरह से जियेगी। सबसे पहले उन संस्थानों में आवेदन करेगी जिन्हें उसकी ज़रूरत है।

कितना हल्का महसूस कर रही है बड्की...............

आज चैन की नींद सोयेगी अलका...... ।

Sikandar_Khan
13-02-2011, 10:35 AM
चौथी का जोडा - इस्मत चुग़ताई की कहानियाँ

सहदरी के चौके पर आज फिर साफ - सुथरी जाजम बिछी थी। टूटी - फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आडे - तिरछे कतले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। मोहल्ले टोले की औरतें खामोश और सहमी हुई - सी बैठी हुई थीं; जैसे कोई बडी वारदात होने वाली हो। मांओं ने बच्चे छाती से लगा लिये थे। कभी - कभी कोई मुनहन्नी - सा चरचरम बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता। नांय - नायं मेरे लाल! दुबली - पतली मां से अपने घुटने पर लिटाकर यों हिलाती, जैसे धान - मिले चावल सूप में फटक रही हो और बच्चा हुंकारे भर कर खामोश हो जाता।

आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की मां के मुतफक्किर चेहरे को तक रही थीं। छोटे अर्ज की टूल के दो पाट तो जोड लिये गये, मगर अभी सफेद गजी क़ा निशान ब्योंतने की किसी की हिम्मत न पडती थी। कांट - छांट के मामले में कुबरा की मां का मरतबा बहुत ऊंचा था। उनके सूखे - सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज संवारे थे, कितने छठी - छूछक तैयार किये थे और कितने ही कफन ब्योंते थे। जहां कहीं मुहल्ले में कपडा कम पड ज़ाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठती, कुबरा की मां के पास केस लाया जाता। कुबरा की मां कपडे क़े कान निकालती, कलफ तोडतीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूंटा करतीं और दिल ही दिल में कैंची चलाकर आंखों से नाप - तोलकर मुस्कुरा उठतीं।

आस्तीन और घेर तो निकल आयेगा, गिरेबान के लिये कतरन मेरी बकची से ले लो। और मुश्किल आसान हो जाती। कपडा तराशकर वो कतरनों की पिण्डी बना कर पकडा देतीं।

पर आज तो गजी क़ा टुकडा बहुत ही छोटा था और सबको यकीन था कि आज तो कुबरा की मां की नाप - तोल हार जायेगी। तभी तो सब दम साधे उनका मुंह ताक रही थीं। कुबरा की मां के पुर - इसतकक़ाल चेहरे पर फिक्र की कोई शक्ल न थी। चार गज गज़ी के टुकडे क़ो वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टूल का अक्स उनके नीलगूं जर्द चेहरे पर शफक़ की तरह फूट रहा था। वो उदास - उदास गहरी झुर्रियां अंधेरी घटाओं की तरह एकदम उजागर हो गयीं, जैसे जंगल में आग भडक़ उठी हो! और उन्होंने मुस्कुराकर कैंची उठायी।

मुहल्लेवालों के जमघटे से एक लम्बी इत्मीनान की सांस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिये गये। चील - जैसी निगाहों वाली कुंवारियों ने लपाझप सुई के नाकों में डोरे पिरोए। नयी ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिये। कुबरा की मां की कैंची चल पडी थी।

सहदरी के आखिरी कोने में पलंगडी पर हमीदा पैर लटकाये, हथेली पर ठोडी रखे दूर कुछ सोच रही थी।

दोपहर का खाना निपटाकर इसी तरह बी - अम्मां सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बकची खोलकर रंगबिरंगे कपडों का जाल बिखेर दिया करती है। कूंडी के पास बैठी बरतन मांजती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपडों को देखती तो एक सुर्ख छिपकली - सी उसके जर्दी मायल मटियाले रंग में लपक उठती। रूपहली कटोरियों के जाल जब पोले - पोले हाथों से खोल कर अपने जानुओं पर फैलाती तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा एक अजीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी सन्दूको - जैसी शिकनों पर कटोरियों का अक्स नन्हीं - नन्हीं मशालों की तरह जगमगाने लगता। हर टांके पर जरी का काम हिलता और मशालें कंपकंपा उठतीं।

याद नहीं कब इस शबनमी दुपट्टे के बने - टके तैयार हुए और गाजी क़े भारी कब्र - जैसे सन्दूक की तह में डूब गये। कटोरियों के जाल धुंधला गये। गंगा - जमनी किरने मान्द पड गयीं। तूली के लच्छे उदास हो गये। मगर कुबरा की बारात न आयी। जब एक जोडा पुराना हुआ जाता तो उसे चाले का जोडा कहकर सेंत दिया जाता और फिर एक नये जोडे क़े साथ नयी उम्मीदों का इफतताह ( शुरुआत) हो जाता। बडी छानबीन के बाद नयी दुल्हन छांटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ - सुथरी जाजम बिछती। मुहल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बगलों में बच्चे दबाये झांझे बजाती आन पहुंचतीं।

छोटे कपडे क़ी गोट तो उतर आयेगी, पर बच्चों का कपडा न निकलेगा। लो बुआ लो, और सुनो। क्या निगोडी भारी टूल की चूलें पडेंग़ी? और फिर सबके चेहरे फिक्रमन्द हो जाते। कुबरा की मां खामोश कीमियागर की तरह आंखों के फीते से तूलो - अर्ज नापतीं और बीवियां आपस में छोटे कपडे क़े मुताल्लिक खुसर - पुसर करके कहकहे लगातीं। ऐसे में कोई मनचली कोई सुहाग या बन्ना छेड देती, कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियां सुनाने लगती, बेहूदा गन्दे मजाक और चुहलें शुरु हो जातीं। ऐसे मौके पर कुंवारी - बालियों को सहदरी से दूर सिर ढांक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया कहकहा सहदरी से उभरता तो बेचारियां एक ठण्डी सांस भर कर रह जातीं। अल्लाह! ये कहकहे उन्हें खुद कब नसीब होंगे। इस चहल - पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाये बैठी रहती है। इतने में कतर - ब्योंत निहायत नाजुक़ मरहले पर पहुंच जाती। कोई कली उलटी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाजे क़ी आड से झांकती।

यही तो मुश्किल थी, कोई जोडा अल्लाह - मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाय तो जान लो, नाइन की लगाई हुई बात में जरूर कोई अडंग़ा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्त: ( रखैल) निकल आयेगी या उसकी मां ठोस कडों का अडंगा बांधेगी। जो गोट में कान आ जाय तो समझ लो महर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगडा होगा। चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है। बी - अम्मां की सारी मश्शाकी और सुघडापा धरा रह जाता। न जाने ऐन वक्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड ज़ाती। बिसमिल्लाह के जोर से सुघड मां ने जहेज ज़ोडना शुरु किया था। जरा सी कतर भी बची तो तेलदानी या शीशी का गिलाफ सीकर धनुक - गोकरू से संवार कर रख देती। लडक़ी का क्या है, खीरे - ककडी सी बढती है। जो बारात आ गयी तो यही सलीका काम आयेगा।

और जब से अब्बा गुजरे, सलीके क़ा भी दम फूल गया। हमीदा को एकदम अपने अब्बा याद आ गये। अब्बा कितने दुबले - पतले, लम्बे जैसे मुहर्रम का अलम! एक बार झुक जाते तो सीधे खडे होना दुश्वार था। सुबह ही सुबह उठ कर नीम की मिस्वाक ( दातुन) तोड लेते और हमीदा को घुटनों पर बिठा कर जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते - सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूंसडा हलक में चला जाता और वे खांसते ही चले जाते। हमीदा बिगड क़र उनकी गोद से उतर जाती। खांसी के धक्कों से यूं हिल - हिल जाना उसे कतई पसन्द नहीं था। उसके नन्हें - से गुस्से पर वे और हंसते और खांसी सीने में बेतरह उलझती, जैसे गरदन - कटे कबूतर फडफ़डा रहे हों। फिर बी - अम्मां आकर उन्हें सहारा देतीं। पीठ पर धपधप हाथ मारतीं।

तौबा है, ऐसी भी क्या हंसी। अच्छू के दबाव से सुर्ख आंखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कराते। खांसी तो रुक जाती मगर देर तक हांफा करते। कुछ दवा - दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे। बडे शफाखाने का डॉक्टर कहता है, सूइयां लगवाओ और रोज तीन पाव दूध और आधी छटांक मक्खन। ए खाक पडे ऌन डाक्टरों की सूरत पर! भल एक तो खांसी, ऊपर से चिकनाई! बलगम न पैदा कर देगी? हकीम को दिखाओ किसी। दिखाऊंगा। अब्बा हुक्का गुडग़ुडाते और फिर अच्छू लगता। आग लगे इस मुए हुक्के को! इसी ने तो ये खांसी लगायी है। जवान बेटी की तरफ भी देखते हो आंख उठा कर?

और अब अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ रहम - तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था जवान थी? वो तो जैसे बिस्मिल्लाह ( विद्यारम्भ की रस्म) के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुन कर ठिठक कर रह गयी थी। न जाने कैसी जवानी आयी थी कि न तो उसकी आंखों में किरनें नाचीं न उसके रुखसारों पर जुल्फ़ें परेशान हुईं, न उसके सीने पर तूफान उठे और न कभी उसने सावन - भादों की घटाओं से मचल - मचल कर प्रीतम या साजन मांगे। वो झुकी - झुकी, सहमी - सहमी जवानी जो न जाने कब दबे पांव उस पर रेंग आयी, वैसे ही चुपचाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कडवा हो गया।

अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुंह गिरे और उन्हें उठाने के लिये किसी हकीम या डाक्टर का नुस्खा न आ सका।

और हमीदा ने मीठी रोटी के लिये जिद करनी छोड दी। और कुबरा के पैगाम न जाने किधर रास्ता भूल गये। जानो किसी को मालूम ही नहीं कि इस टाट के परदे के पीछे किसी की जवानी आखिरी सिसकियां ले रही है और एक नयी जवानी सांप के फन की तरह उठ रही है। मगर बी - अम्मां का दस्तूर न टूटा। वो इसी तरह रोज - रोज दोपहर को सहदरी में रंग - बिरंगे कपडे फ़ैला कर गुडियों का खेल खेला करती हैं।

कहीं न कहीं से जोड ज़मा करके शरबत के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढे सात रुपए में खरीद ही डाला। बात ही ऐसी थी कि बगैर खरीदे गुज़ारा न था। मंझले मामू का तार आया कि उनका बडा लडक़ा राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है। बी - अम्मां को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड ग़या। जानो चौखट पर बारात आन खडी हुई और उन्होंने अभी दुल्हन की मांग अफशां भी नहीं कतरी। हौल से तो उनके छक्के छूट गये। झट अपनी मुंहबोली बहन, बिन्दु की मां को बुला भेजा कि बहन, मेरा मरी का मुंह देखो जो इस घडी न आओ।

और फिर दोनों में खुसर - पुसर हुई। बीच में एक नजर दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं, जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इस कानाफूसी की जबान को अच्छी तरह समझती थी।

उसी वक्त बी - अम्मां ने कानों से चार माशा की लौंगें उतार कर मुंहबोली बहन के हवाले कीं कि जैसे - तैसे करके शाम तक तोला भर गोकरू, छ: माशा सलमा - सितारा और पाव गज नेफे के लिये टूल ला दें। बाहर की तरफ वाला कमरा झाड - पौंछ कर तैयार किया गया। थोडा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला। कमरा तो चिट्टा हो गया, मगर उसकी हथेलियों की खाल उड ग़यी। और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गयी। सारी रात करवटें बदलते गुजरी। एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाडी से राहत आ रहे थे।

अल्लह! मेरे अल्लाह मियां, अबके तो मेरी आपा का नसीब खुल जाये। मेरे अल्लाह, मैं सौ रकात नफिल ( एक प्रकार की नमाज) तेरी दरगाह में पढूंग़ी। हमीदा ने फजिर की नमाज पढक़र दुआ मांगी।

सुबह जब राहत भाई आये तो कुबरा पहले से ही मच्छरोंवाली कोठरी में जा छुपी थी। जब सेवइयों और पराठों का नाश्ता करके बैठक में चले गये तो धीरे - धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती हुई कुबरा कोठरी से निकली और जूठे बर्तन उठा लिये।

लाओ मैं धो दूं बी आपा। हमीदा ने शरारत से कहा। नहीं। वो शर्म से झुक गयीं। हमीदा छेडती रही, बी - अम्मां मुस्कुराती रहीं और क्रेप के दुपट्टे में लप्पा टांकती रहीं।

जिस रास्ते कान की लौंग गयी थी, उसी रास्ते फूल, पत्ता और चांदी की पाजेब भी चल दी थीं। और फिर हाथों की दो - दो चूडियां भी, जो मंझले मामू ने रंडापा उतारने पर दी थीं। रूखी - सूखी खुद खाकर आये दिन राहत के लिये परांठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते। खुद सूखा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे खिलातीं।

जमाना बडा खराब है बेटी! वो हमीदा को मुंह फुलाये देखकर कहा करतीं और वो सोचा करती - हम भूखे रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी - आपा सुबह - सवेरे उठकर मशीन की तरह जुट जाती हैं। निहार मुंह पानी का घूंट पीकर राहत के लिये परांठे तलती हैं। दूध औटाती हैं, ताकि मोटी सी बालाई पडे। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन परांठों में भर दे। और क्यों न भरे, आखिर को वह एक दिन उसीका हो जायेगा। जो कुछ कमायेगा, उसीकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौधे को कौन नहीं सींचता?

फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फूलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ताना देने वालियों के मुंह पर कैसा जूता पडेग़ा! और उस खयाल ही से बी - आपा के चेहरे पर सुहाग खेल उठता। कानों में शहनाइयां बजने लगतीं और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाडतीं। उसके कपडों को प्यार से तह करतीं, जैसे वे उनसे कुछ कहते हों। वो उनके बदबूदार, चूहों जैसे सडे हुए मोजे धोतीं, बिसान्दी बनियान और नाक से लिपटे हुए रुमाल साफ करतीं। उसके तेल में चिपचिपाते हुए तकिये के गिलाफ पर स्वीट ड्रीम्स काढतीं। पर मामला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुबह अण्डे - परांठे डट कर जाता और शाम को आकर कोफ्ते खाकर सो जाता। और बी - अम्मां की मुंहबोली बहन हाकिमाना अन्दाज में खुसर - पुसर करतीं।

Sikandar_Khan
13-02-2011, 10:37 AM
2...
बडा शर्मीला है बेचारा! बी - अम्मां तौलिये पेश करतीं। हां ये तो ठीक है, पर भई कुछ तो पता चले रंग - ढंग से, कुछ आंखों से। अए नउज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आंखें लडाए, उसका आंचल भी नहीं देखा है किसी ने। बी - अम्मां फख्र से कहतीं। ए, तो परदा तुडवाने को कौन कहे है! बी - आपा के पके मुंहासों को देखकर उन्हें बी - अम्मां की दूरंदेशी की दाद देनी पडती। ऐ बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो। ये मैं कब कहूं हूं? ये छोटी निगोडी क़ौन सी बकरीद को काम आयेगी? वो मेरी तरफ देख कर हंसतीं अरी ओ नकचढी! बहनों से कोई बातचीत, कोई हंसी - मजाक! उंह अरे चल दिवानी! ऐ, तो मैं क्या करूं खाला? राहत मियां से बातचीत क्यों नहीं करती? भइया हमें तो शर्म आती है। ए है, वो तुझे फाड ही तो खायेगा न? बी अम्मां चिढा कर बोलतीं। नहीं तो मगर मैं लाजवाब हो गयी। और फिर मिसकौट हुई। बडी सोच - विचार के बाद खली के कबाब बनाये गये। आज बी - आपा भी कई बार मुस्कुरा पडीं। चुपके से बोलीं, देख हंसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड ज़ायेगा।नहीं हंसूंगी। मैं ने वादा किया।

खाना खा लीजिये। मैं ने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा। फिर जो पाटी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक्त मेरी तरफ सिर से पांव तक देखा तो मैं भागी वहां से। अल्लाह, तोबा! क्या खूनी आंखें हैं! जा निगोडी, मरी, अरी देख तो सही, वो कैसा मुंह बनाते हैं। ए है, सारा मजा किरकिरा हो जायेगा। आपा - बी ने एक बार मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में इल्तिजा थी, लुटी हुई बारातों का गुबार था और चौथी के पुराने जोडों की मन्द उदासी। मैं सिर झुकाए फिर खम्भे से लग कर खडी हो गयी।

राहत खामोश खाते रहे। मेरी तरफ न देखा। खली के कबाब खाते देख कर मुझे चाहिये था कि मजाक उडाऊं, कहकहे लगाऊं कि वाह जी वाह, दूल्हा भाई, खली के कबाब खा रहे हो! मगर जानो किसी ने मेरा नरखरा दबोच लिया हो।

बी - अम्मां ने मुझे जल्कर वापस बुला लिया और मुंह ही मुंह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती, कि वो मजे से खा रहा है कमबख्त! राहत भाई! कोफ्ते पसन्द आये? बी - अम्मां के सिखाने पर मैं ने पूछा। जवाब नदारद। बताइये न? अरी ठीक से जाकर पूछ! बी - अम्मां ने टहोका दिया। आपने लाकर दिये और हमने खाये। मजेदार ही होंगे। अरे वाह रे जंगली! बी - अम्मां से न रहा गया। तुम्हें पता भी न चला, क्या मजे से खली के कबाब खा गये! खली के? अरे तो रोज क़ाहे के होते हैं? मैं तो आदी हो चला हूं खली और भूसा खाने का।

बी - अम्मां का मुंह उतर गया। बी - अम्मां की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज बी - आपा ने रोजाना से दुगुनी सिलाई की और फिर जब शाम को मैं खाना लेकर गयी तो बोले - कहिये आज क्या लायी हैं? आज तो लकडी क़े बुरादे की बारी है। क्या हमारे यहां का खाना आपको पसन्द नहीं आता? मैं ने जलकर कहा।ये बात नहीं, कुछ अजीब - सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी। मेरे तन बदन में आग लग गयी। हम सूखी रोटी खाकर इसे हाथी की खुराक दें। घी टपकतप परांठे ठुसाएं। मेरी बी - आपा को जुशांदा नसीब नहीं और इसे दूध मलाई निगलवाएं। मैं भन्ना कर चली आयी।

बी - अम्मां की मुंहबोली बहन का नुस्खा काम आ गया और राहत ने दिन का ज्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरु कर दिया। बी - आपा तो चूल्हे में जुकी रहतीं, बी - अम्मां चौथी के जोडे सिया करतीं और राहत की गलीज आँखों के तीर मेरे दिल में चुभा करते। बात - बेबात छेडना, खाना खिलाते वक्त कभी पानी तो कभीनमक के बहाने। और साथ - साथ जुमलेबाजी! मैं खिसिया कर बी आपा के पास जा बैठती। जी चाहता, किसी दिन साफ कह दूं कि किसकी बकरी और कौन डाले दाना - घास! ऐ बी, मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जायेगा। मगर बी - आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उडती हुई राख नहीं मेरा कलेजा धक् से हो गया। मैं ने उनके सफेद बाल लट के नीचे छुपा दिये। नास जाये इस कमबख्त नजले का, बेचारी के बाल पकने शुरु हो गये।

राहत ने फिर किसी बहाने मुझे पुकारा। उंह! मैं जल गयी। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्गी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पडा। आप हमसे खफा हो गयीं?राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटककर। क्या कह रहे थे? बी - आपा ने शर्मो हया से घुटी आवाज में कहा। मैं चुपचाप उनका मुंह ताकने लगी। कह रहे थे, किसने पकाया है खाना? वाह - वाह, जी चाहता है खाता ही चला जाऊं। पकानेवाली के हाथ खा जाऊं। ओह नहीं खा नहीं जाऊं, बल्कि चूम लूं। मैं ने जल्दी - जल्दी कहना शुरु किया और बी - आपा का खुरदरा, हल्दी - धनिया की बसांद में सडा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया। मेरे आंसू निकल आये। ये हाथ! मैं ने सोचा, जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ करते हैं! ये बेकस गुलाम की तरह सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं। इनकी बेगार कब खत्म होगी? क्या इनका कोई खरीदार न आयेगा? क्या इन्हें कभी प्यार से न चूमेगा? क्या इनमें कभी मेंहदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इतर न बसेगा? जी चाहा, जोर से चीख पडूं।

और क्या कह रहे थे? बी - आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे पर आवाज ऌतनी रसीली और मीठी थी कि राहत के अगर कान होते तो मगर राहत के न कान थे न नाक, बस दोजख़ ज़ैसा पेट था! और कह रहे थे, अपनी बी - आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशान्दा पिया करें। चल झूठी! अरे वाह, झूठे होंगे आपके वो अरे, चुप मुरदार! उन्होंने मेरा मुंह बन्द कर दिया। देख तो स्वेटर बुन गया है, उन्हें दे आ। पर देख, तुझे मेरी कसम, मेरा नाम न लीजो। नहीं बी - आपा! उन्हें न दो वो स्वेटर। तुम्हारी इन मुट्ठी भर हड्डियों को स्वेटर की कितनी जरूरत है? मैं ने कहना चाहा पर न कह सकी। आपा - बी, तुम खुद क्या पहनोगी? अरे, मुझे क्या जरूरत है, चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलसन रहती है।

स्वेटर देख कर राहत ने अपनी एक आई - ब्रो शरारत से ऊपर तान कर कहा - क्या ये स्वेटर आपने बुना है? नहीं तो। तो भई हम नहीं पहनेंगे। मेरा जी चाहा कि उसका मुंह नोच लूं। कमीने मिट्टी के लोंदे! ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते - जागते गुलाम हैं। इसके एक - एक फन्दे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गरदनें फंसी हुई हैं। ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पगोडे झुलाने के लिये बनाये गये हैं। उनको थाम लो गधे कहीं के और ये जो दो पतवार बडे से बडे तूफान के थपेडों से तुम्हारी जिन्दगी की नाव को बचाकर पार लगा देंगे। ये सितार की गत न बजा सकेंगे। मणिपुरी और भरतनाटयम की मुद्रा न दिखा सकेंगे, इन्हें प्यानो पर रक्स करना नहीं सिखाया गया, इन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ, मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चरबी चढाने के लिये सुबह शाम सिलाई करते हैं, साबुन और सोडे में डुबकियां लगाते हैं, चूल्हे की आंच सहते हैं। तुम्हारी गलाजतें धोते हैं। इनमें चूडियां नहीं खनकती हैं। इन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा।

मगर मैं चुप रही। बी - अम्मां कहती हैं, मेरा दिमाग तो मेरी नयी - नयी सहेलियों ने खराब कर दिया है। वो मुझे कैसी नयी - नयी बातें बताया करती हैं। कैसी डरावनी मौत की बातें, भूख की और काल की बातें। धडक़ते हुए दिल के एकदम चुप हो जाने की बातें।

ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिये। देखिये न आपका कुरता कितना बारीक है! जंगली बिल्ली की तरह मैं ने उसका मुंह, नाक, गिरेबान नोच डाले और अपनी पलंगडी पर जा गिरी। बी - आपा ने आखिरी रोटी डालकर जल्दी - जल्दी तसले में हाथ धोए और आंचल से पांछती मेरे पास आ बैठीं। वो बोले? उनसे न रहा गया तो धडक़ते हुए दिल से पूछा। बी - आपा, ये राहत भाई बडे ख़राब आदमी हैं। मैं ने सोचा मैं आज सब कुछ बता दूंगी। क्यों? वो मुस्कुरायी। मुझे अच्छे नहीं लगते देखिये मेरी सारी चूडियां चूर हो गयीं! मैं ने कांपते हुए कहा। बडे शरीर हैं! उन्होंने रोमान्टिक आवाज में सरमा कर कहा। बी - आपा सुनो बी - आपा! ये राहत अच्छे आदमी नहीं मैं ने सुलग कर कहा। आज मैं बी-अम्मां से कह दूंगी। क्या हुआ? बी-अम्मां ने जानमाज बिछाते हुए कहा। देखिये मेरी चूडियां बी - अम्मां! राहत ने तोड ड़ालीं?बी - अम्मां मसर्रत से चहक कर बोलीं। हां! खूब किया! तू उसे सताती भी तो बहुत है।ए है, तो दम काहे को निकल गया! बडी मोम की नमी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गयीं! फिर चुमकार कर बोलीं, खैर, तू भी चौथी में बदला ले लीजियो, कसर निकाल लियो कि याद ही करें मियां जी! ये कह कर उन्होंने नियत बांध ली। मुंहबोली बहन से फिर कॉनफ्रेन्स हुयी और मामले को उम्मीद - अफ्ज़ा रास्ते पर गामजन देखकर अज़हद खुशनूदी से मुस्कुराया गया।

ऐ है, तू तो बडी ही ठस है। ऐ हम तो अपने बहनोइयों का खुदा की कसम नाक में दम कर दिया करते थे। और वो मुझे बहनोइयों से छेड छाड क़े हथकण्डे बताने लगीं कि किस तरह सिर्फ छेडछाड क़े तीरन्दाज नुस्खे से उन दो ममेरी बहनों की शादी करायी, जिनकी नाव पार लगने के सारे मौके हाथ से निकल चुके थे। एक तो उनमें से हकीम जी थे।जहां बेचारे को लडक़ियां - बालियां छेडतीं, शरमाने लगते और शरमाते - शरमाते एख्तेलाज क़े दौरे पडने लगते। और एक दिन मामू साहब से कह दिया कि मुझे गुलामी में ले लीजिये। दूसरे वायसराय के दफ्तर में क्लर्क थे। जहां सुना कि बाहर आये हैं, लडक़ियां छेडना शुरु कर देती थीं। कभी गिलौरियों में मिर्चें भरकर भेज दें, कभी सेवंईंयों में नमक डालकर खिला दिया।

ए लो, वो तो रोज आने लगे। आंधी आये, पानी आये, क्या मजाल जो वो न आयें। आखिर एक दिन कहलवा ही दिया। अपने एक जान - पहचान वाले से कहा कि उनके यहां शादी करा दो। पूछा कि भई किससे? तो कहा, किसी से भी करा दो। और खुदा झूठ न बुलवाये तो बडी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बैंचा चला आता है। छोटी तो बस सुब्हान अल्लाह! एक आंख पूरब तो दूसरी पच्छम। पन्द्रह तोले सोना दिया बाप ने और साहब के दफ्तर में नौकरी अलग दिलवायी। हां भई, जिसके पास पन्द्रह तोले सोना हो और बडे साहब के दफ्तर की नौकरी, उसे लडक़ा मिलते देर लगती है? बी - अम्मां ने ठण्डी सांस भरकर कहा। ये बात नहीं है बहन। आजकल लडक़ों का दिल बस थाली का बैंगन होता है। जिधर झुका दो, उधर ही लुढक़ जायेगा।

Sikandar_Khan
13-02-2011, 10:40 AM
3...
मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा - खासा पहाड है। झुकाव देने पर कहीं मैं ही न फंस जाऊं, मैं ने सोचा। फिर मैं ने आपा की तरफ देखा। वो खामोश दहलीज पर बैठी, आटा गूंथ रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं। उनका बस चलता तो जमीन की छाती फाडक़र अपने कुंवारेपन की लानत समेत इसमें समा जातीं।

क्या मेरी आपा मर्द की भूखी हैं? नहीं, भूख के अहसास से वो पहले ही सहम चुकी हैं। मर्द का तसव्वुर इनके मन में एक उमंग बन कर नहीं उभरा, बल्कि रोटी - कपडे क़ा सवाल बन कर उभरा है। वो एक बेवा की छाती का बोझ हैं। इस बोझ को ढकेलना ही होगा।

मगर इशारों - कनायों के बावज़ूद भी राहत मियां न तो खुद मुंह से फूटे और न उनके घर से पैगाम आया। थक हार कर बी - अम्मां ने पैरों के तोडे ग़िरवी रख कर पीर मुश्किलकुशा की नियाज दिला डाली। दोपहर भर मुहल्ले - टोले की लडक़ियां सहन में ऊधम मचाती रहीं। बी - आपा शरमाती लजाती मच्छरों वाली कोठरी में अपने खून की आखिरी बूंदें चुसाने को जा बैठीं। बी - अम्मां कमजाेरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोडे में आखिरी टांके लगाती रहीं। आज उनके चेहरे पर मंजिलों के निशान थे। आज मुश्किलकुशाई होगी। बस आंखों की सुईयां रह गयी हैं, वो भी निकल जायेंगी। आज उनकी झुर्रियों में फिर मुश्किल थरथरा रही थी। बी - आपा की सहेलियां उनको छेड रही थीं और वो खून की बची - खुची बूंदों को ताव में ला रही थीं। आज कई रोज से उनका बुखार नहीं उतरा था। थके हारे दिये की तरह उनका चेहरा एक बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता। इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। अपना आंचल हटा कर नियाज क़े मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी। इस पर मौलवी साहब ने दम किया है। उनकी बुखार से दहकती हुई गरम - गरम सांसें मेरे कान में लगीं।

तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी - मौलवी साहब ने दम किया है। ये मुकद्दस मलीदा अब राहत के पेट में झौंका जायेगा। वो तन्दूर जो छ: महीनों से हमारे खून के छींटों से गरम रखा गया; ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लायेगा। मेरे कानों में शादियाने बजने लगे। मैं भागी - भागी कोठे से बारात देखने जा रही हूं। दूल्हे के मुंह पर लम्बा सा सेहरा पडा है, जो घोडे क़ी अयालों को चूम रहा है। चौथी का शहानी जोडा पहने, फूलों से लदी, शर्म से निढाल, आहिस्ता - आहिस्ता कदम तोलती हुई बी - आपा चली आ रही हैं चौथी का जरतार जोडा झिलमिल कर रहा है। बी - अम्मां का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है बी - आपा की हया से बोझिल निगाहें एक बार ऊपर उठती हैं। शुकराने का एक आंसू ढलक कर अफ्शां के जर्रों में कुमकुमे की तरह उलझ जाता है। ये सब तेरी मेहनत का फल है। बी - आपा कह रही हैं।

हमीदा का गला भर आया जाओ न मेरी बहनो! बी - आपा ने उसे जगा दिया और चौंक कर ओढनी के आंचल से आंसू पौंछती डयोढी क़ी तरफ बढी। ये मलीदा, उसने उछलते हुए दिल को काबू में रखते हुए कहा उसके पैर लरज रहे थे, जैसे वो सांप की बांबी में घुस आयी हो। फिर पहाड ख़िसकाऔर मुंह खोल दिया। वो एक कदम पीछे हट गयी। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख लगाई, जैसे कोई दिन का गला घोंट रहा हो। कांपते हाथों से मुकद्दस मलीदे का निवाला बना कर सने राहत के मुंह की तरफ बढा दिया।

एक झटके से उसका हाथ पहाड क़ी खोह में डूबता चला गया नीचे तअफ्फ़ुन और तारीकी से अथाह ग़ार की गहराइयों मेंएक बडी सी चट्टान ने उसकी चीख को घोंटा। नियाज मलीदे की रकाबी हाथ से छूटकर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने जमीन पर गिर कर दो चार सिसकियां भरीं और गुल हो गयी। बाहर आंगन में मुहल्ले की बहू - बेटियां मुश्किलकुशा ( हजरत अली) की शान में गीत गा रही थीं।

सुबह की गाडी से राहत मेहमाननवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ चला गया। उसकी शादी की तारीख तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी।उसके बाद इस घर में कभी अण्डे तले न गये, परांठे न सिकें और स्वेटर न बुने। दिक ज़ो एक अरसे से बी - आपा की ताक में भागी पीछे - पीछे आ रही थी, एक ही जस्त में उन्हें दबोच बैठी। और उन्होंने अपना नामुराद वजूद चुपचाप उसकी आगोश में सौंप दिया।

और फिर उसी सहदरी में साफ - सुथरी जाजम बिछाई गई। मुहल्ले की बहू - बेटियां जुडीं। क़फन का सफेद - सफेद लट्ठा मौत के आंचल की तरह बी - अम्मां के सामने फैल गया। तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज रहा था। बायीं आई - ब्रो फडक़ रही थी। गालों की सुनसान झुर्रियां भांय - भांय कर रही थीं, जैसे उनमें लाखों अजदहे फुंकार रहे हों।

लट्ठे के कान निकाल कर उन्होंने चौपरत किया और उनके फिल में अनगिनत कैंचियां चल गयीं। आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा - भरा इत्मीनान था, जैसे उन्हें पक्का यकीन हो कि दूसरे जोडों की तरह चौथी का यह जोडा न सेंता जाये।

एकदम सहदरी में बैठी लडक़ियां बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं। हमीदा मांजी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली। लाल टूल पर सफेद गज़ी का निशान! इसकी सुर्खी में न जाने कितनी मासूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफेदी में कितनी नामुराद कुंवारियों के कफन की सफेदी डूब कर उभरी है। और फिर सब एकदम खामोश हो गये। बी - अम्मां ने आखिरी टांका भरके डोरा तोड लिया। दो मोटे - मोटे आंसू उनके रूई जैसे नरम गालों पर धीरे धीरे रैंगने लगे। उनके चेहरे की शिकनों में से रोशनी की किरनें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं, जैसे आज उन्हें इत्मीनान हो गया कि उनकी कुबरा का सुआ जोडा बनकर तैयार हो गया हो और कोए ए अदम में शहनाइयां बज उठेंगी।

Sikandar_Khan
15-02-2011, 10:54 AM
माँ - प्रेमचंद की कहानी

आज बन्दी छूटकर घर आ रहा है। करुणा ने एक दिन पहले ही घर लीप-पोत रखा था। इन तीन वर्षो में उसने कठिन तपस्या करके जो दस-पॉँच रूपये जमा कर रखे थे, वह सब पति के सत्कार और स्वागत की तैयारियों में खर्च कर दिए। पति के लिए धोतियों का नया जोड़ा लाई थी, नए कुरते बनवाए थे, बच्चे के लिए नए कोट और टोपी की आयोजना की थी। बार-बार बच्चे को गले लगाती ओर प्रसन्न होती। अगर इस बच्चे ने सूर्य की भॉँति उदय होकर उसके अंधेरे जीवन को प्रदीप्त न कर दिया होता, तो कदाचित् ठोकरों ने उसके जीवन का अन्त कर दिया होता। पति के कारावास-दण्ड के तीन ही महीने बाद इस बालक का जन्म हुआ। उसी का मुँह देख-देखकर करूणा ने यह तीन साल काट दिए थे। वह सोचती—जब मैं बालक को उनके सामने ले जाऊँगी, तो वह कितने प्रसन्न होंगे! उसे देखकर पहले तो चकित हो जाऍंगे, फिर गोद में उठा लेंगे और कहेंगे—करूणा, तुमने यह रत्न देकर मुझे निहाल कर दिया। कैद के सारे कष्ट बालक की तोतली बातों में भूल जाऍंगे, उनकी एक सरल, पवित्र, मोहक दृष्टि दृदय की सारी व्यवस्थाओं को धो डालेगी। इस कल्पना का आन्नद लेकर वह फूली न समाती थी।
वह सोच रही थी—आदित्य के साथ बहुत—से आदमी होंगे। जिस समय वह द्वार पर पहुँचेगे, जय—जयकार’ की ध्वनि से आकाश गूँज उठेगा। वह कितना स्वर्गीय दृश्य होगा! उन आदमियों के बैठने के लिए करूणा ने एक फटा-सा टाट बिछा दिया था, कुछ पान बना दिए थे ओर बार-बार आशामय नेत्रों से द्वार की ओर ताकती थी। पति की वह सुदृढ़ उदार तेजपूर्ण मुद्रा बार-बार ऑंखों में फिर जाती थी। उनकी वे बातें बार-बार याद आती थीं, जो चलते समय उनके मुख से निकलती थी, उनका वह धैर्य, वह आत्मबल, जो पुलिस के प्रहारों के सामने भी अटल रहा था, वह मुस्कराहट जो उस समय भी उनके अधरों पर खेल रही थी; वह आत्मभिमान, जो उस समय भी उनके मुख से टपक रहा था, क्या करूणा के हृदय से कभी विस्मृत हो सकता था! उसका स्मरण आते ही करुणा के निस्तेज मुख पर आत्मगौरव की लालिमा छा गई। यही वह अवलम्ब था, जिसने इन तीन वर्षो की घोर यातनाओं में भी उसके हृदय को आश्वासन दिया था। कितनी ही राते फाकों से गुजरीं, बहुधा घर में दीपक जलने की नौबत भी न आती थी, पर दीनता के आँसू कभी उसकी ऑंखों से न गिरे। आज उन सारी विपत्तियों का अन्त हो जाएगा। पति के प्रगाढ़ आलिंगन में वह सब कुछ हँसकर झेल लेगी। वह अनंत निधि पाकर फिर उसे कोई अभिलाषा न रहेगी।
गगन-पथ का चिरगामी लपका हुआ विश्राम की ओर चला जाता था, जहॉँ संध्या ने सुनहरा फर्श सजाया था और उज्जवल पुष्पों की सेज बिछा रखी थी। उसी समय करूणा को एक आदमी लाठी टेकता आता दिखाई दिया, मानो किसी जीर्ण मनुष्य की वेदना-ध्वनि हो। पग-पग पर रूककर खॉँसने लगता थी। उसका सिर झुका हुआ था, करणा उसका चेहरा न देख सकती थी, लेकिन चाल-ढाल से कोई बूढ़ा आदमी मालूम होता था; पर एक क्षण में जब वह समीप आ गया, तो करूणा पहचान गई। वह उसका प्यारा पति ही था, किन्तु शोक! उसकी सूरत कितनी बदल गई थी। वह जवानी, वह तेज, वह चपलता, वह सुगठन, सब प्रस्थान कर चुका था। केवल हड्डियों का एक ढॉँचा रह गया था। न कोई संगी, न साथी, न यार, न दोस्त। करूणा उसे पहचानते ही बाहर निकल आयी, पर आलिंगन की कामना हृदय में दबाकर रह गई। सारे मनसूबे धूल में मिल गए। सारा मनोल्लास ऑंसुओं के प्रवाह में बह गया, विलीन हो गया।
आदित्य ने घर में कदम रखते ही मुस्कराकर करूणा को देखा। पर उस मुस्कान में वेदना का एक संसार भरा हुआ थां करूणा ऐसी शिथिल हो गई, मानो हृदय का स्पंदन रूक गया हो। वह फटी हुई आँखों से स्वामी की ओर टकटकी बॉँधे खड़ी थी, मानो उसे अपनी ऑखों पर अब भी विश्वास न आता हो। स्वागत या दु:ख का एक शब्द भी उसके मुँह से न निकला। बालक भी गोद में बैठा हुआ सहमी ऑखें से इस कंकाल को देख रहा था और माता की गोद में चिपटा जाता था।
आखिर उसने कातर स्वर में कहा—यह तुम्हारी क्या दशा है? बिल्कुल पहचाने नहीं जाते!
आदित्य ने उसकी चिन्ता को शांत करने के लिए मुस्कराने की चेष्टा करके कहा—कुछ नहीं, जरा दुबला हो गया हूँ। तुम्हारे हाथों का भोजन पाकर फिर स्वस्थ हो जाऊँगा।
करूणा—छी! सूखकर काँटा हो गए। क्या वहॉँ भरपेट भोजन नहीं मिलात? तुम कहते थे, राजनैतिक आदमियों के साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया जाता है और वह तुम्हारे साथी क्या हो गए जो तुम्हें आठों पहर घेरे रहते थे और तुम्हारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे?
आदित्य की त्योरियों पर बल पड़ गए। बोले—यह बड़ा ही कटु अनुभव है करूणा! मुझे न मालूम था कि मेरे कैद होते ही लोग मेरी ओर से यों ऑंखें फेर लेंगे, कोई बात भी न पूछेगा। राष्ट्र के नाम पर मिटनेवालों का यही पुरस्कार है, यह मुझे न मालूम था। जनता अपने सेवकों को बहुत जल्द भूल जाती है, यह तो में जानता था, लेकिन अपने सहयोगी ओर सहायक इतने बेवफा होते हैं, इसका मुझे यह पहला ही अनुभव हुआ। लेकिन मुझे किसी से शिकायत नहीं। सेवा स्वयं अपना पुरस्कार हैं। मेरी भूल थी कि मैं इसके लिए यश और नाम चाहता था।
करूणा—तो क्या वहाँ भोजन भी न मिलता था?
आदित्य—यह न पूछो करूणा, बड़ी करूण कथा है। बस, यही गनीमत समझो कि जीता लौट आया। तुम्हारे दर्शन बदे थे, नहीं कष्ट तो ऐसे-ऐसे उठाए कि अब तक मुझे प्रस्थान कर जाना चाहिए था। मैं जरा लेटँगा। खड़ा नहीं रहा जाता। दिन-भर में इतनी दूर आया हूँ।
करूणा—चलकर कुछ खा लो, तो आराम से लेटो। (बालक को गोद में उठाकर) बाबूजी हैं बेटा, तुम्हारे बाबूजी। इनकी गोद में जाओ, तुम्हे प्यार करेंगे।
आदित्य ने ऑंसू-भरी ऑंखों से बालक को देखा और उनका एक-एक रोम उनका तिरस्कार करने लगा। अपनी जीर्ण दशा पर उन्हें कभी इतना दु:ख न हुआ था। ईश्वर की असीम दया से यदि उनकी दशा संभल जाती, तो वह फिर कभी राष्ट्रीय आन्दोलन के समीप न जाते। इस फूल-से बच्चे को यों संसार में लाकर दरिद्रता की आग में झोंकने का उन्हें क्या अधिकरा था? वह अब लक्ष्मी की उपासना करेंगे और अपना क्षुद्र जीवन बच्चे के लालन-पालन के लिए अपिर्त कर देंगे। उन्हें इस समय ऐसा ज्ञात हुआ कि बालक उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है, मानो कह रहा है—‘मेरे साथ आपने कौन-सा कर्त्तव्य-पालन किया?’ उनकी सारी कामना, सारा प्यार बालक को हृदय से लगा देने के लिए अधीर हो उठा, पर हाथ फैल न सके। हाथों में शक्ति ही न थी।
करूणा बालक को लिये हुए उठी और थाली में कुछ भोजन निकलकर लाई। आदित्य ने क्षुधापूर्ण, नेत्रों से थाली की ओर देखा, मानो आज बहुत दिनों के बाद कोई खाने की चीज सामने आई हैं। जानता था कि कई दिनों के उपवास के बाद और आरोग्य की इस गई-गुजरी दशा में उसे जबान को काबू में रखना चाहिए पर सब्र न कर सका, थाली पर टूट पड़ा और देखते-देखते थाली साफ कर दी। करूणा सशंक हो गई। उसने दोबारा किसी चीज के लिए न पूछा। थाली उठाकर चली गई, पर उसका दिल कह रहा था-इतना तो कभी न खाते थे।
करूणा बच्चे को कुछ खिला रही थी, कि एकाएक कानों में आवाज आई—करूणा!
करूणा ने आकर पूछा—क्या तुमने मुझे पुकारा है?
आदित्य का चेहरा पीला पड़ गया था और सॉंस जोर-जोर से चल रही थी। हाथों के सहारे वही टाट पर लेट गए थे। करूणा उनकी यह हालत देखकर घबर गई। बोली—जाकर किसी वैद्य को बुला लाऊँ?
आदित्य ने हाथ के इशारे से उसे मना करके कहा—व्यर्थ है करूणा! अब तुमसे छिपाना व्यर्थ है, मुझे तपेदिक हो गया हे। कई बार मरते-मरते बच गया हूँ। तुम लोगों के दर्शन बदे थे, इसलिए प्राण न निकलते थे। देखों प्रिये, रोओ मत।
करूणा ने सिसकियों को दबाते हुए कहा—मैं वैद्य को लेकर अभी आती हूँ।
आदित्य ने फिर सिर हिलाया—नहीं करूणा, केवल मेरे पास बैठी रहो। अब किसी से कोई आशा नहीं है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। मुझे तो यह आश्चर्य है कि यहॉँ पहुँच कैसे गया। न जाने कौन दैवी शक्ति मुझे वहॉँ से खींच लाई। कदाचित् यह इस बुझते हुए दीपक की अन्तिम झलक थी। आह! मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया। इसका मुझे हमेशा दु:ख रहेगा! मैं तुम्हें कोई आराम न दे सका। तुम्हारे लिए कुछ न कर सका। केवल सोहाग का दाग लगाकर और एक बालक के पालन का भार छोड़कर चला जा रहा हूं। आह!
करूणा ने हृदय को दृढ़ करके कहा—तुम्हें कहीं दर्द तो नहीं है? आग बना लाऊँ? कुछ बताते क्यों नहीं?
आदित्य ने करवट बदलकर कहा—कुछ करने की जरूरत नहीं प्रिये! कहीं दर्द नहीं। बस, ऐसा मालूम हो रहा हे कि दिल बैठा जाता है, जैसे पानी में डूबा जाता हूँ। जीवन की लीला समाप्त हो रही हे। दीपक को बुझते हुए देख रहा हूँ। कह नहीं सकता, कब आवाज बन्द हो जाए। जो कुछ कहना है, वह कह डालना चाहता हूँ, क्यों वह लालसा ले जाऊँ। मेरे एक प्रश्न का जवाब दोगी, पूछूँ?
करूणा के मन की सारी दुर्बलता, सारा शोक, सारी वेदना मानो लुप्त हो गई और उनकी जगह उस आत्मबल काउदय हुआ, जो मृत्यु पर हँसता है और विपत्ति के साँपों से खेलता है। रत्नजटित मखमली म्यान में जैसे तेज तलवार छिपी रहती है, जल के कोमल प्रवाह में जैसे असीम शक्ति छिपी रहती है, वैसे ही रमणी का कोमल हृदय साहस और धैर्य को अपनी गोद में छिपाए रहता है। क्रोध जैसे तलवार को बाहर खींच लेता है, विज्ञान जैसे जल-शक्ति का उदघाटन कर लेता है, वैसे ही प्रेम रमणी के साहस और धैर्य को प्रदीप्त कर देता है।
करूणा ने पति के सिर पर हाथ रखते हुए कहा—पूछते क्यों नहीं प्यारे!
आदित्य ने करूणा के हाथों के कोमल स्पर्श का अनुभव करते हुए कहा—तुम्हारे विचार में मेरा जीवन कैसा था? बधाई के योग्य? देखो, तुमने मुझसे कभी पर्दा नहीं रखा। इस समय भी स्पष्ट कहना। तुम्हारे विचार में मुझे अपने जीवन पर हँसना चाहिए या रोना चाहिऍं?
करूणा ने उल्लास के साथ कहा—यह प्रश्न क्यों करते हो प्रियतम? क्या मैंने तुम्हारी उपेक्षा कभी की हैं? तुम्हारा जीवन देवताओं का—सा जीवन था, नि:स्वार्थ, निर्लिप्त और आदर्श! विघ्न-बाधाओं से तंग आकर मैंने तुम्हें कितनी ही बार संसार की ओर खींचने की चेष्टा की है; पर उस समय भी मैं मन में जानती थी कि मैं तुम्हें ऊँचे आसन से गिरा रही हूं। अगर तुम माया-मोह में फँसे होते, तो कदाचित् मेरे मन को अधिक संतोष होता; लेकिन मेरी आत्मा को वह गर्व और उल्लास न होता, जो इस समय हो रहा है। मैं अगर किसी को बड़े-से-बड़ा आर्शीवाद दे सकती हूँ, तो वह यही होगा कि उसका जीवन तुम्हारे जैसा हो।
यह कहते-कहते करूणा का आभाहीन मुखमंडल जयोतिर्मय हो गया, मानो उसकी आत्मा दिव्य हो गई हो। आदित्य ने सगर्व नेत्रों से करूणा को देखकर कहा बस, अब मुझे संतोष हो गया, करूणा, इस बच्चे की ओर से मुझे कोई शंका नहीं है, मैं उसे इससे अधिक कुशल हाथों में नहीं छोड़ सकता। मुझे विश्वास है कि जीवन-भर यह ऊँचा और पवित्र आदर्श सदैव तुम्हारे सामने रहेगा। अब मैं मरने को तैयार हूँ।

Sikandar_Khan
15-02-2011, 10:57 AM
2....

सात वर्ष बीत गए।
बालक प्रकाश अब दस साल का रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्नमुख कुमार था, बल का तेज, साहसी और मनस्वी। भय तो उसे छू भी नहीं गया था। करूणा का संतप्त हृदय उसे देखकर शीतल हो जाता। संसार करूणा को अभागिनी और दीन समझे। वह कभी भाग्य का रोना नहीं रोती। उसने उन आभूषणों को बेच डाला, जो पति के जीवन में उसे प्राणों से प्रिय थे, और उस धन से कुछ गायें और भैंसे मोल ले लीं। वह कृषक की बेटी थी, और गो-पालन उसके लिए कोई नया व्यवसाय न था। इसी को उसने अपनी जीविका का साधन बनाया। विशुद्ध दूध कहॉँ मयस्सर होता है? सब दूध हाथों-हाथ बिक जाता। करूणा को पहर रात से पहर रात तक काम में लगा रहना पड़ता, पर वह प्रसन्न थी। उसके मुख पर निराशा या दीनता की छाया नहीं, संकल्प और साहस का तेज है। उसके एक-एक अंग से आत्मगौरव की ज्योति-सी निकल रही है; ऑंखों में एक दिव्य प्रकाश है, गंभीर, अथाह और असीम। सारी वेदनाऍं—वैधव्य का शोक और विधि का निर्मम प्रहार—सब उस प्रकाश की गहराई में विलीन हो गया है।
प्रकाश पर वह जान देती है। उसका आनंद, उसकी अभिलाषा, उसका संसार उसका स्वर्ग सब प्रकाश पर न्यौछावर है; पर यह मजाल नहीं कि प्रकाश कोई शरारत करे और करूणा ऑखें बंद कर ले। नहीं, वह उसके चरित्र की बड़ी कठोरता से देख-भाल करती है। वह प्रकाश की मॉँ नहीं, मॉँ-बाप दोनों हैं। उसके पुत्र-स्नेह में माता की ममता के साथ पिता की कठोरता भी मिली हुई है। पति के अन्तिम शब्द अभी तक उसके कानों में गूँज रहे हैं। वह आत्मोल्लास, जो उनके चेहरे पर झलकने लगा था, वह गर्वमय लाली, जो उनकी ऑंखो में छा गई थी, अभी तक उसकी ऑखों में फिर रही है। निरंतर पति-चिन्तन ने आदित्य को उसकी ऑंखों में प्रत्यक्ष कर दिया है। वह सदैव उनकी उपस्थिति का अनुभव किया करती है। उसे ऐसा जान पड़ता है कि आदित्य की आत्मा सदैव उसकी रक्षा करती रहती है। उसकी यही हार्दिक अभिलाषा है कि प्रकाश जवान होकर पिता का पथगामी हो।
संध्या हो गई थी। एक भिखारिन द्वार पर आकर भीख मॉँगने लगी। करूणा उस समय गउओं को पानी दे रही थी। प्रकाश बाहर खेल रहा था। बालक ही तो ठहरा! शरारत सूझी। घर में गया और कटोरे में थोड़ा-सा भूसा लेकर बाहर निकला। भिखारिन ने अबकी झेली फैला दी। प्रकाश ने भूसा उसकी झोली में डाल दिया और जोर-जोर से तालियॉँ बजाता हुआ भागा।
भिखारिन ने अग्निमय नेत्रों से देखकर कहा—वाह रे लाड़ले! मुझसे हँसी करने चला है! यही मॉँ-बाप ने सिखाया है! तब तो खूब कुल का नाम जगाओगे!
करूणा उसकी बोली सुनकर बाहर निकल आयी और पूछा—क्या है माता? किसे कह रही हो?
भिखारिन ने प्रकाश की तरफ इशारा करके कहा—वह तुम्हारा लड़का है न। देखो, कटोरे में भूसा भरकर मेरी झोली में डाल गया है। चुटकी-भर आटा था, वह भी मिट्टी में मिल गया। कोई इस तरह दुखियों को सताता है? सबके दिन एक-से नहीं रहते! आदमी को घंमड न करना चाहिए।
करूणा ने कठोर स्वर में पुकारा—प्रकाश?
प्रकाश लज्जित न हुआ। अभिमान से सिर उठाए हुए आया और बोला—वह हमारे घर भीख क्यों मॉँगने आयी है? कुछ काम क्यों नहीं करती?
करुणा ने उसे समझाने की चेष्टा करके कहा—शर्म नहीं आती, उल्टे और ऑंख दिखाते हो।
प्रकाश—शर्म क्यों आए? यह क्यों रोज भीख मॉँगने आती है? हमारे यहॉँ क्या कोई चीज मुफ्त आती है?
करूणा—तुम्हें कुछ न देना था तो सीधे से कह देते; जाओ। तुमने यह शरारत क्यों की?
प्रकाश—उनकी आदत कैसे छूटती?
करूणा ने बिगड़कर कहा—तुम अब पिटोंगे मेरे हाथों।
प्रकाश—पिटूँगा क्यों? आप जबरदस्ती पीटेंगी? दूसरे मुल्कों में अगर कोई भीख मॉँगे, तो कैद कर लिया जाए। यह नहीं कि उल्टे भिखमंगो को और शह दी जाए।
करूणा—जो अपंग है, वह कैसे काम करे?
प्रकाश—तो जाकर डूब मरे, जिन्दा क्यों रहती है?
करूणा निरूत्तर हो गई। बुढ़िया को तो उसने आटा-दाल देकर विदा किया, किन्तु प्रकाश का कुतर्क उसके हृदय में फोड़े के समान टीसता रहा। उसने यह धृष्टता, यह अविनय कहॉँ सीखी? रात को भी उसे बार-बार यही ख्याल सताता रहा।
आधी रात के समीप एकाएक प्रकाश की नींद टूटी। लालटेन जल रही है और करुणा बैठी रो रही है। उठ बैठा और बोला—अम्मॉँ, अभी तुम सोई नहीं?
करूणा ने मुँह फेरकर कहा—नींद नहीं आई। तुम कैसे जग गए? प्यास तो नही लगी है?
प्रकाश—नही अम्मॉँ, न जाने क्यों ऑंख खुल गई—मुझसे आज बड़ा अपराध हुआ, अम्मॉँ !
करूणा ने उसके मुख की ओर स्नेह के नेत्रों से देखा।
प्रकाश—मैंने आज बुढ़िया के साथ बड़ी नटखट की। मुझे क्षमा करो, फिर कभी ऐसी शरारत न करूँगा।
यह कहकर रोने लगा। करूणा ने स्नेहार्द्र होकर उसे गले लगा लिया और उसके कपोलों का चुम्बन करके बोली—बेटा, मुझे खुश करने के लिए यह कह रहे हो या तुम्हारे मन में सचमुच पछतावा हो रहा है?
प्रकाश ने सिसकते हुए कहा—नहीं, अम्मॉँ, मुझे दिल से अफसोस हो रहा है। अबकी वह बुढ़िया आएगी, तो में उसे बहुत-से पैसे दूँगा।
करूणा का हृदय मतवाला हो गया। ऐसा जान पड़ा, आदित्य सामने खड़े बच्चे को आर्शीवाद दे रहे हैं और कह रहे हैं, करूणा, क्षोभ मत कर, प्रकाश अपने पिता का नाम रोशन करेगा। तेरी संपूर्ण कामनाँ पूरी हो जाएँगी।

Sikandar_Khan
15-02-2011, 10:59 AM
3....

लेकिन प्रकाश के कर्म और वचन में मेल न था और दिनों के साथ उसके चरित्र का अंग प्रत्यक्ष होता जाता था। जहीन था ही, विश्वविद्यालय से उसे वजीफे मिलते थे, करूणा भी उसकी यथेष्ट सहायता करती थी, फिर भी उसका खर्च पूरा न पड़ता था। वह मितव्ययता और सरल जीवन पर विद्वत्ता से भरे हुए व्याख्यान दे सकता था, पर उसका रहन-सहन फैशन के अंधभक्तों से जौ-भर घटकर न था। प्रदर्शन की धुन उसे हमेशा सवार रहती थी। उसके मन और बुद्धि में निरंतर द्वन्द्व होता रहता था। मन जाति की ओर था, बुद्धि अपनी ओर। बुद्धि मन को दबाए रहती थी। उसके सामने मन की एक न चलती थी। जाति-सेवा ऊसर की खेती है, वहॉँ बड़े-से-बड़ा उपहार जो मिल सकता है, वह है गौरव और यश; पर वह भी स्थायी नहीं, इतना अस्थिर कि क्षण में जीवन-भर की कमाई पर पानी फिर सकता है। अतएव उसका अन्त:करण अनिवार्य वेग के साथ विलासमय जीवन की ओर झुकता था। यहां तक कि धीरे-धीरे उसे त्याग और निग्रह से घृणा होने लगी। वह दुरवस्था और दरिद्रता को हेय समझता था। उसके हृदय न था, भाव न थे, केवल मस्तिष्क था। मस्तिष्क में दर्द कहॉँ? वहॉँ तो तर्क हैं, मनसूबे हैं।
सिन्ध में बाढ़ आई। हजारों आदमी तबाह हो गए। विद्यालय ने वहॉँ एक सेवा समिति भेजी। प्रकाश के मन में द्वंद्व होने लगा—जाऊँ या न जाऊँ? इतने दिनों अगर वह परीक्षा की तैयारी करे, तो प्रथम श्रेणी में पास हो। चलते समय उसने बीमारी का बहाना कर दिया। करूणा ने लिखा, तुम सिन्ध न गये, इसका मुझे दुख है। तुम बीमार रहते हुए भी वहां जा सकते थे। समिति में चिकित्सक भी तो थे! प्रकाश ने पत्र का उत्तर न दिया।
उड़ीसा में अकाल पड़ा। प्रजा मक्खियों की तरह मरने लगी। कांग्रेस ने पीड़ितो के लिए एक मिशन तैयार किया। उन्हीं दिनों विद्यालयों ने इतिहास के छात्रों को ऐतिहासिक खोज के लिए लंका भेजने का निश्चय किया। करूणा ने प्रकाश को लिखा—तुम उड़ीसा जाओ। किन्तु प्रकाश लंका जाने को लालायित था। वह कई दिन इसी दुविधा में रहा। अंत को सीलोन ने उड़ीसा पर विजय पाई। करुणा ने अबकी उसे कुछ न लिखा। चुपचाप रोती रही।
सीलोन से लौटकर प्रकाश छुट्टियों में घर गया। करुणा उससे खिंची-खिंची रहीं। प्रकाश मन में लज्जित हुआ और संकल्प किया कि अबकी कोई अवसर आया, तो अम्मॉँ को अवश्य प्रसन्न करूँगा। यह निश्चय करके वह विद्यालय लौटा। लेकिन यहां आते ही फिर परीक्षा की फिक्र सवार हो गई। यहॉँ तक कि परीक्षा के दिन आ गए; मगर इम्तहान से फुरसत पाकर भी प्रकाश घर न गया। विद्यालय के एक अध्यापक काश्मीर सैर करने जा रहे थे। प्रकाश उन्हीं के साथ काश्मीर चल खड़ा हुआ। जब परीक्षा-फल निकला और प्रकाश प्रथम आया, तब उसे घर की याद आई! उसने तुरन्त करूणा को पत्र लिखा और अपने आने की सूचना दी। माता को प्रसन्न करने के लिए उसने दो-चार शब्द जाति-सेवा के विषय में भी लिखे—अब मै आपकी आज्ञा का पालन करने को तैयार हूँ। मैंने शिक्षा-सम्बन्धी कार्य करने का निश्चक किया हैं इसी विचार से मेंने वह विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। हमारे नेता भी तो विद्यालयों के आचार्यो ही का सम्मान करते हें। अभी वक इन उपाधियों के मोह से वे मुक्त नहीं हुए हे। हमारे नेता भी योग्यता, सदुत्साह, लगन का उतना सम्मान नहीं करते, जितना उपाधियों का! अब मेरी इज्जत करेंगे और जिम्मेदारी को काम सौपेंगें, जो पहले मॉँगे भी न मिलता।
करूणा की आस फिर बँधी।

Sikandar_Khan
15-02-2011, 11:02 AM
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विद्यालय खुलते ही प्रकाश के नाम रजिस्ट्रार का पत्र पहुँचा। उन्होंने प्रकाश का इंग्लैंड जाकर विद्याभ्यास करने के लिए सरकारी वजीफे की मंजूरी की सूचना दी थी। प्रकाश पत्र हाथ में लिये हर्ष के उन्माद में जाकर मॉँ से बोला—अम्मॉँ, मुझे इंग्लैंड जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा मिल गया।
करूणा ने उदासीन भाव से पूछा—तो तुम्हारा क्या इरादा है?
प्रकाश—मेरा इरादा? ऐसा अवसर पाकर भला कौन छोड़ता है!
करूणा—तुम तो स्वयंसेवकों में भरती होने जा रहे थे?
प्रकाश—तो आप समझती हैं, स्वयंसेवक बन जाना ही जाति-सेवा है? मैं इंग्लैंड से आकर भी तो सेवा-कार्य कर सकता हूँ और अम्मॉँ, सच पूछो, तो एक मजिस्ट्रेट अपने देश का जितना उपकार कर सकता है, उतना एक हजार स्वयंसेवक मिलकर भी नहीं कर सकते। मैं तो सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठूँगा और मुझे विश्वास है कि सफल हो जाऊँगा।
करूणा ने चकित होकर पूछा-तो क्या तुम मजिस्ट्रेट हो जाओगे?
प्रकाश—सेवा-भाव रखनेवाला एक मजिस्ट्रेट कांग्रेस के एक हजार सभापतियों से ज्यादा उपकार कर सकता है। अखबारों में उसकी लम्बी-लम्बी तारीफें न छपेंगी, उसकी वक्तृताओं पर तालियॉँ न बजेंगी, जनता उसके जुलूस की गाड़ी न खींचेगी और न विद्यालयों के छात्र उसको अभिनंदन-पत्र देंगे; पर सच्ची सेवा मजिस्ट्रेट ही कर सकता है।
करूणा ने आपत्ति के भाव से कहा—लेकिन यही मजिस्ट्रेट तो जाति के सेवकों को सजाऍं देते हें, उन पर गोलियॉँ चलाते हैं?
प्रकाश—अगर मजिस्ट्रेट के हृदय में परोपकार का भाव है, तो वह नरमी से वही काम करता है, जो दूसरे गोलियॉँ चलाकर भी नहीं कर सकते।
करूणा—मैं यह नहीं मानूँगी। सरकार अपने नौकरों को इतनी स्वाधीनता नहीं देती। वह एक नीति बना देती है और हरएक सरकारी नौकर को उसका पालन करना पड़ता है। सरकार की पहली नीति यह है कि वह दिन-दिन अधिक संगठित और दृढ़ हों। इसके लिए स्वाधीनता के भावों का दमन करना जरूरी है; अगर कोई मजिस्ट्रेट इस नीति के विरूद्ध काम करता है, तो वह मजिस्ट्रेट न रहेगा। वह हिन्दुस्तानी था, जिसने तुम्हारे बाबूजी को जरा-सी बात पर तीन साल की सजा दे दी। इसी सजा ने उनके प्राण लिये बेटा, मेरी इतनी बात मानो। सरकारी पदों पर न गिरो। मुझे यह मंजूर है कि तुम मोटा खाकर और मोटा पहनकर देश की कुछ सेवा करो, इसके बदले कि तुम हाकिम बन जाओ और शान से जीवन बिताओ। यह समझ लो कि जिस दिन तुम हाकिम की कुरसी पर बैठोगे, उस दिन से तुम्हारा दिमाग हाकिमों का-सा हो जाएगा। तुम यही चाहेगे कि अफसरों में तुम्हारी नेकनामी और तरक्की हो। एक गँवारू मिसाल लो। लड़की जब तक मैके में क्वॉँरी रहती है, वह अपने को उसी घर की समझती है, लेकिन जिस दिन ससुराल चली जाती है, वह अपने घर को दूसरो का घर समझने लगती है। मॉँ-बाप, भाई-बंद सब वही रहते हैं, लेकिन वह घर अपना नहीं रहता। यही दुनिया का दस्तूर है।
प्रकाश ने खीझकर कहा—तो क्या आप यही चाहती हैं कि मैं जिंदगी-भर चारों तरफ ठोकरें खाता फिरूँ?
करुणा कठोर नेत्रों से देखकर बोली—अगर ठोकर खाकर आत्मा स्वाधीन रह सकती है, तो मैं कहूँगी, ठोकर खाना अच्छा है।
प्रकाश ने निश्चयात्मक भाव से पूछा—तो आपकी यही इच्छा है?
करूणा ने उसी स्वर में उत्तर दिया—हॉँ, मेरी यही इच्छा है।
प्रकाश ने कुछ जवाब न दिया। उठकर बाहर चला गया और तुरन्त रजिस्ट्रार को इनकारी-पत्र लिख भेजा; मगर उसी क्षण से मानों उसके सिर पर विपत्ति ने आसन जमा लिया। विरक्त और विमन अपने कमरें में पड़ा रहता, न कहीं घूमने जाता, न किसी से मिलता। मुँह लटकाए भीतर आता और फिर बाहर चला जाता, यहॉँ तक महीना गुजर गया। न चेहरे पर वह लाली रही, न वह ओज; ऑंखें अनाथों के मुख की भाँति याचना से भरी हुई, ओठ हँसना भूल गए, मानों उन इनकारी-पत्र के साथ उसकी सारी सजीवता, और चपलता, सारी सरलता बिदा हो गई। करूणा उसके मनोभाव समझती थी और उसके शोक को भुलाने की चेष्टा करती थी, पर रूठे देवता प्रसन्न न होते थे।
आखिर एक दिन उसने प्रकाश से कहा—बेटा, अगर तुमने विलायत जाने की ठान ही ली है, तो चले जाओ। मना न करूँगी। मुझे खेद है कि मैंने तुम्हें रोका। अगर मैं जानती कि तुम्हें इतना आघात पहुँचेगा, तो कभी न रोकती। मैंने तो केवल इस विचार से रोका था कि तुम्हें जाति-सेवा में मग्न देखकर तुम्हारे बाबूजी की आत्मा प्रसन्न होगी। उन्होंने चलते समय यही वसीयत की थी।
प्रकाश ने रूखाई से जवाब दिया—अब क्या जाऊँगा! इनकारी-खत लिख चुका। मेरे लिए कोई अब तक बैठा थोड़े ही होगा। कोई दूसरा लड़का चुन लिया होगा और फिर करना ही क्या है? जब आपकी मर्जी है कि गॉँव-गॉँव की खाक छानता फिरूँ, तो वही सही।
करूणा का गर्व चूर-चूर हो गया। इस अनुमति से उसने बाधा का काम लेना चाहा था; पर सफल न हुई। बोली—अभी कोई न चुना गया होगा। लिख दो, मैं जाने को तैयार हूं।
प्रकाश ने झुंझलाकर कहा—अब कुछ नहीं हो सकता। लोग हँसी उड़ाऍंगे। मैंने तय कर लिया है कि जीवन को आपकी इच्छा के अनुकूल बनाऊँगा।
करूणा—तुमने अगर शुद्ध मन से यह इरादा किया होता, तो यों न रहते। तुम मुझसे सत्याग्रह कर रहे हो; अगर मन को दबाकर, मुझे अपनी राह का काँटा समझकर तुमने मेरी इच्छा पूरी भी की, तो क्या? मैं तो जब जानती कि तुम्हारे मन में आप-ही-आप सेवा का भाव उत्पन्न होता। तुम आप ही रजिस्ट्रार साहब को पत्र लिख दो।
प्रकाश—अब मैं नहीं लिख सकता।
‘तो इसी शोक में तने बैठे रहोगे?’
‘लाचारी है।‘
करूणा ने और कुछ न कहा। जरा देर में प्रकाश ने देखा कि वह कहीं जा रही है; मगर वह कुछ बोला नहीं। करूणा के लिए बाहर आना-जाना कोई असाधारण बात न थी; लेकिन जब संध्या हो गई और करुणा न आयी, तो प्रकाश को चिन्ता होने लगी। अम्मा कहॉँ गयीं? यह प्रश्न बार-बार उसके मन में उठने लगा।
प्रकाश सारी रात द्वार पर बैठा रहा। भॉँति-भॉँति की शंकाऍं मन में उठने लगीं। उसे अब याद आया, चलते समय करूणा कितनी उदास थी; उसकी आंखे कितनी लाल थी। यह बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नजर आई? वह क्यों स्वार्थ में अंधा हो गया था?
हॉँ, अब प्रकाश को याद आया—माता ने साफ-सुथरे कपड़े पहने थे। उनके हाथ में छतरी भी थी। तो क्या वह कहीं बहुत दूर गयी हैं? किससे पूछे? अनिष्ट के भय से प्रकाश रोने लगा।
श्रावण की अँधेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमालाऍं, भीषण स्वप्न की भॉँति छाई हुई थीं। प्रकाश रह-रहकार आकाश की ओर देखता था, मानो करूणा उन्हीं मेघमालाओं में छिपी बैठी हे। उसने निश्चय किया, सवेरा होते ही मॉँ को खोजने चलूँगा और अगर....
किसी ने द्वार खटखटाया। प्रकाश ने दौड़कर खोल, तो देखा, करूणा खड़ी है। उसका मुख-मंडल इतना खोया हुआ, इतना करूण था, जैसे आज ही उसका सोहाग उठ गया है, जैसे संसार में अब उसके लिए कुछ नहीं रहा, जैसे वह नदी के किनारे खड़ी अपनी लदी हुई नाव को डूबते देख रही है और कुछ कर नहीं सकती।
प्रकाश ने अधीर होकर पूछा—अम्मॉँ कहॉँ चली गई थीं? बहुत देर लगाई?
करूणा ने भूमि की ओर ताकते हुए जवाब दिया—एक काम से गई थी। देर हो गई।
यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक बंद लिफाफा फेंक दिया। प्रकाश ने उत्सुक होकर लिफाफा उठा लिया। ऊपर ही विद्यालय की मुहर थी। तुरन्त ही लिफाफा खोलकर पढ़ा। हलकी-सी लालिमा चेहरे पर दौड़ गयी। पूछा—यह तुम्हें कहॉँ मिल गया अम्मा?
करूणा—तुम्हारे रजिस्ट्रार के पास से लाई हूँ।
‘क्या तुम वहॉँ चली गई थी?’
‘और क्या करती।‘
‘कल तो गाड़ी का समय न था?’
‘मोटर ले ली थी।‘
प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा रहा, फिर कुंठित स्वर में बोला—जब तुम्हारी इच्छा नहीं है तो मुझे क्यों भेज रही हो?
करूणा ने विरक्त भाव से कहा—इसलिए कि तुम्हारी जाने की इच्छा है। तुम्हारा यह मलिन वेश नहीं देखा जाता। अपने जीवन के बीस वर्ष तुम्हारी हितकामना पर अर्पित कर दिए; अब तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की हत्या नहीं कर सकती। तुम्हारी यात्रा सफल हो, यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है।
करूणा का कंठ रूँध गया और कुछ न कह सकी।

Sikandar_Khan
15-02-2011, 11:04 AM
5.....

प्रकाश उसी दिन से यात्रा की तैयारियॉँ करने लगा। करूणा के पास जो कुछ था, वह सब खर्च हो गया। कुछ ऋण भी लेना पड़ा। नए सूट बने, सूटकेस लिए गए। प्रकाश अपनी धुन में मस्त था। कभी किसी चीज की फरमाइश लेकर
आता, कभी किसी चीज का।
करूणा इस एक सप्ताह में इतनी दुर्बल हो गयी है, उसके बालों पर कितनी सफेदी आ गयी है, चेहरे पर कितनी झुर्रियॉँ पड़ गई हैं, यह उसे कुछ न नजर आता। उसकी ऑंखों में इंगलैंड के दृश्य समाये हुए थे। महत्त्वाकांक्षा ऑंखों पर परदा डाल देती है।
प्रस्थान का दिन आया। आज कई दिनों के बाद धूप निकली थी। करूणा स्वामी के पुराने कपड़ों को बाहर निकाल रही थी। उनकी गाढ़े की चादरें, खद्दर के कुरते, पाजामें और लिहाफ अभी तक सन्दूक में संचित थे। प्रतिवर्ष वे धूप में सुखाये जाते और झाड़-पोंछकर रख दिये जाते थे। करूणा ने आज फिर उन कपड़ो को निकाला, मगर सुखाकर रखने के लिए नहीं गरीबों में बॉँट देने के लिए। वह आज पति से नाराज है। वह लुटिया, डोर और घड़ी, जो आदित्य की चिरसंगिनी थीं और जिनकी बीस वर्ष से करूणा ने उपासना की थी, आज निकालकर ऑंगन में फेंक दी गई; वह झोली जो बरसों आदित्य के कन्धों पर आरूढ़ रह चुकी थी, आप कूड़े में डाल दी गई; वह चित्र जिसके सामने बीस वर्ष से करूणा सिर झुकाती थी, आज वही निर्दयता से भूमि पर डाल दिया गया। पति का कोई स्मृति-चिन्ह वह अब अपने घर में नहीं रखना चाहती। उसका अन्त:करण शोक और निराशा से विदीर्ण हो गया है और पति के सिवा वह किस पर क्रोध उतारे? कौन उसका अपना हैं? वह किससे अपनी व्यथा कहे? किसे अपनी छाती चीरकर दिखाए? वह होते तो क्या आप प्रकाश दासता की जंजीर गले में डालकर फूला न समाता? उसे कौन समझाए कि आदित्य भी इस अवसर पर पछताने के सिवा और कुछ न कर सकते।
प्रकाश के मित्रों ने आज उसे विदाई का भोज दिया था। वहॉँ से वह संध्या समय कई मित्रों के साथ मोटर पर लौटा। सफर का सामान मोटर पर रख दिया गया, तब वह अन्दर आकर मॉँ से बोला—अम्मा, जाता हूँ। बम्बई पहूँचकर पत्र लिखूँगा। तुम्हें मेरी कसम, रोना मत और मेरे खतों का जवाब बराबर देना।
जैसे किसी लाश को बाहर निकालते समय सम्बन्धियों का धैर्य छूट जाता है, रूके हुए ऑंसू निकल पड़ते हैं और शोक की तरंगें उठने लगती हैं, वही दशा करूणा की हुई। कलेजे में एक हाहाकार हुआ, जिसने उसकी दुर्बल आत्मा के एक-एक अणु को कंपा दिया। मालूम हुआ, पॉँव पानी में फिसल गया है और वह लहरों में बही जा रही है। उसके मुख से शोक या आर्शीवाद का एक शब्द भी न निकला। प्रकाश ने उसके चरण छुए, अश्रू-जल से माता के चरणों को पखारा, फिर बाहर चला। करूणा पाषाण मूर्ति की भॉँति खड़ी थी।
सहसा ग्वाले ने आकर कहा—बहूजी, भइया चले गए। बहुत रोते थे।
तब करूणा की समाधि टूटी। देखा, सामने कोई नहीं है। घर में मृत्यु का-सा सन्नाटा छाया हुआ है, और मानो हृदय की गति बन्द हो गई है।
सहसा करूणा की दृष्टि ऊपर उठ गई। उसने देखा कि आदित्य अपनी गोद में प्रकाश की निर्जीव देह लिए खड़े हो रहे हैं। करूणा पछाड़ खाकर गिर पड़ी।

Sikandar_Khan
15-02-2011, 11:06 AM
6....

करूणा जीवित थी, पर संसार से उसका कोई नाता न था। उसका छोटा-सा संसार, जिसे उसने अपनी कल्पनाओं के हृदय में रचा था, स्वप्न की भॉँति अनन्त में विलीन हो गया था। जिस प्रकाश को सामने देखकर वह जीवन की अँधेरी रात में भी हृदय में आशाओं की सम्पत्ति लिये जी रही थी, वह बुझ गया और सम्पत्ति लुट गई। अब न कोई आश्रय था और न उसकी जरूरत। जिन गउओं को वह दोनों वक्त अपने हाथों से दाना-चारा देती और सहलाती थी, वे अब खूँटे पर बँधी निराश नेत्रों से द्वार की ओर ताकती रहती थीं। बछड़ो को गले लगाकर पुचकारने वाला अब कोई न था, जिसके लिए दुध दुहे, मुट्ठा निकाले। खानेवाला कौन था? करूणा ने अपने छोटे-से संसार को अपने ही अंदर समेट लिया था।
किन्तु एक ही सप्ताह में करूणा के जीवन ने फिर रंग बदला। उसका छोटा-सा संसार फैलते-फैलते विश्वव्यापी हो गया। जिस लंगर ने नौका को तट से एक केन्द्र पर बॉँध रखा था, वह उखड़ गया। अब नौका सागर के अशेष विस्तार में भ्रमण करेगी, चाहे वह उद्दाम तरंगों के वक्ष में ही क्यों न विलीन हो जाए।
करूणा द्वार पर आ बैठती और मुहल्ले-भर के लड़कों को जमा करके दूध पिलाती। दोपहर तक मक्खन निकालती और वह मक्खन मुहल्ले के लड़के खाते। फिर भॉँति-भॉँति के पकवान बनाती और कुत्तों को खिलाती। अब यही उसका नित्य का नियम हो गया। चिड़ियॉँ, कुत्ते, बिल्लियॉँ चींटे-चीटियॉँ सब अपने हो गए। प्रेम का वह द्वार अब किसी के लिए बन्द न था। उस अंगुल-भर जगह में, जो प्रकाश के लिए भी काफी न थी, अब समस्त संसार समा गया था।
एक दिन प्रकाश का पत्र आया। करूणा ने उसे उठाकर फेंक दिया। फिर थोड़ी देर के बाद उसे उठाकर फाड़ डाला और चिड़ियों को दाना चुगाने लगी; मगर जब निशा-योगिनी ने अपनी धूनी जलायी और वेदनाऍं उससे वरदान मॉँगने के लिए विकल हो-होकर चलीं, तो करूणा की मनोवेदना भी सजग हो उठी—प्रकाश का पत्र पढ़ने के लिए उसका मन व्याकुल हो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन है? मेरा उससे क्य प्रयोजन? हॉँ, प्रकाश मेरा कौन है? हाँ, प्रकाश मेरा कौन है? हृदय ने उत्तर दिया, प्रकाश तेरा सर्वस्व है, वह तेरे उस अमर प्रेम की निशानी है, जिससे तू सदैव के लिए वंचित हो गई। वह तेरे प्राण है, तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश, तेरी वंचित कामनाओं का माधुर्य, तेरे अश्रूजल में विहार करने वाला करने वाला हंस। करूणा उस पत्र के टुकड़ों को जमा करने लगी, माना उसके प्राण बिखर गये हों। एक-एक टुकड़ा उसे अपने खोये हुए प्रेम का एक पदचिन्ह-सा मालूम होता था। जब सारे पुरजे जमा हो गए, तो करूणा दीपक के सामने बैठकर उसे जोड़ने लगी, जैसे कोई वियोगी हृदय प्रेम के टूटे हुए तारों को जोड़ रहा हो। हाय री ममता! वह अभागिन सारी रात उन पुरजों को जोड़ने में लगी रही। पत्र दोनों ओर लिखा था, इसलिए पुरजों को ठीक स्थान पर रखना और भी कठिन था। कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में गायब हो जाता। उस एक टुकड़े को वह फिर खोजने लगती। सारी रात बीत गई, पर पत्र अभी तक अपूर्ण था।
दिन चढ़ आया, मुहल्ले के लौंड़े मक्खन और दूध की चाह में एकत्र हो गए, कुत्तों ओर बिल्लियों का आगमन हुआ, चिड़ियॉँ आ-आकर आंगन में फुदकने लगीं, कोई ओखली पर बैठी, कोई तुलसी के चौतरे पर, पर करूणा को सिर उठाने तक की फुरसत नहीं।
दोपहर हुआ, करुणा ने सिर न उठाया। न भूख थीं, न प्यास। फिर संध्या हो गई। पर वह पत्र अभी तक अधूरा था। पत्र का आशय समझ में आ रहा था—प्रकाश का जहाज कहीं-से-कहीं जा रहा है। उसके हृदय में कुछ उठा हुआ है। क्या उठा हुआ है, यह करुणा न सोच सकी? करूणा पुत्र की लेखनी से निकले हुए एक-एक शब्द को पढ़ना और उसे हृदय पर अंकित कर लेना चाहती थी।
इस भॉँति तीन दिन गूजर गए। सन्ध्या हो गई थी। तीन दिन की जागी ऑंखें जरा झपक गई। करूणा ने देखा, एक लम्बा-चौड़ा कमरा है, उसमें मेजें और कुर्सियॉँ लगी हुई हैं, बीच में ऊँचे मंच पर कोई आदमी बैठा हुआ है। करूणा ने ध्यान से देखा, प्रकाश था।
एक क्षण में एक कैदी उसके सामने लाया गया, उसके हाथ-पॉँव में जंजीर थी, कमर झुकी हुई, यह आदित्य थे।
करूणा की आंखें खुल गई। ऑंसू बहने लगे। उसने पत्र के टुकड़ों को फिर समेट लिया और उसे जलाकर राख कर डाला। राख की एक चुटकी के सिवा वहॉँ कुछ न रहा, जो उसके हृदय में विदीर्ण किए डालती थी। इसी एक चुटकी राख में उसका गुड़ियोंवाला बचपन, उसका संतप्त यौवन और उसका तृष्णामय वैधव्य सब समा गया।
प्रात:काल लोगों ने देखा, पक्षी पिंजड़े में उड़ चुका था! आदित्य का चित्र अब भी उसके शून्य हृदय से चिपटा हुआ था। भग्नहृदय पति की स्नेह-स्मृति में विश्राम कर रहा था और प्रकाश का जहाज योरप चला जा रहा था।

ABHAY
15-02-2011, 06:21 PM
लाखों लोमड़ी और भेरिये इंसान के वेश में कहाँ से आये”?
बाबूजी को जुकाम हो हो गया. जुकाम भी ऐसा की ख़तम होने का नाम नहीं. माँ बहुत परेशान हो गयीं. पड़ोस के डाक्टर गुप्ता की दवाई से कुछ असर नहीं हुआ. बाबूजी को लेकर मैं शहर के सबसे बड़े अस्पताल पहुंचा. भीड़ काफी थी अस्पताल में. हम अपनी बारी आने का इंतजार करने लगे. डाक्टर साहब अभी तक नहीं आये थे. मैंने नर्स से डाक्टर साहब के लेट होने का कारन पूछा. नर्स ने बताया की डाक्टर साहब प्राइवेट क्लिनिक के मरीजों को देखते हुए अस्पताल आते हैं. इच्छा तो हुई की कुछ कहूँ, लेकिन नर्स को कुछ बोलना अनुचित था. काफी लम्बे इंतजार के बाद डाक्टर साहब के दर्शन हुए. अहो भाग्य हमारे, जो आप पधारे; सोचते हुए हम डाक्टर साहब के पास बाबूजी को लेकर चल पड़े. डाक्टर साहब ने चेक-अप करने का बाद पुर्जी पर दवाई लिख दी और हमें बाहर इंतजार करने को कहा.

“मेरा बच्चा! मेरा बच्चा कहाँ है डाक्टर बाबु”, गंदे और फटे पुराने कपड़ों में एक स्त्री चीख-चीख कर पूछ रही थी.
हमें दाल में कुछ काला नजर आया. घटना की जानकारी लेने के लिए हम उस औरत की तरफ चल पड़े.. हमने नर्स से औरत के चीखने-चिल्लाने का कारण पूछा. नर्स ने हमें बताया की चीखने वाली स्त्री प्रसूता है. उसके जो बच्चा हुआ वो मरा हुआ पैदा हुआ. अस्पताल के कर्मचारी महिला को ये बात समझाने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन महिला थी जो इस बात को मानने से इंकार कर रही थी. नर्स के इतना कहते-कहते, प्रसूता महिला के परिवार के लोग भी आ गए और वो कर्मचारियों से बहस करने लगे. बहस ऐसी छिड़ी की एकबार तो हमें लगा कहीं हम संसद भवन में तो खड़े नहीं हैं. पुरे अस्पताल के लोग वहां इकठ्ठा हो गए. इस बात की भनक शायद आस-पास के लोगों को भी लग गयी थी. अस्पताल अब भारत की बढ़ती आबादी का जीवंत उदहारण नज़र आने लगा.

“ये बच्चा चोर अस्पताल है. इन्होने बच्चे को बेच दिया है. बच्चा वापस करो”, भीड़ में से आवाज आई.
एक बार नारा बुलंद होने की देर थी. बच्चा चोरी होने की बात आते ही अस्पताल का माहौल एकाएक गर्म होने लगा. हम आज तक ये नहीं समझ पाए की ऐसी घटनाओं की खबर राजनितिक पार्टियों को कैसे हो जाती है? हमने अभी ठीक से पूरी समस्या को समझा भी नहीं था की अपने दल-बल के साथ युवा राजनैतिक पार्टी के

ABHAY
15-02-2011, 06:23 PM
सदस्य, हाथों में झंडा और पोस्टर लिए, अस्पताल के बाहर धरने पर बैठ गए.
“बच्चे को वापस करो! वरना परिणाम बुरा होगा. युवा अब कर्तव्यों से विमुख नहीं है”, जैसे कुछ नारे मेरी कानों तक पहुँचने लगे.
इतने में अस्पताल अधीक्षक आये. मारो-मारो करते हुए लोग अधीक्षक की तरफ लपके. मैंने लोगों को रोका और अधीक्षक के पास जाकर घटना की सफाई मांगी. अधीक्षक ने कहा की महिला के बच्चा तो हुआ लेकिन जीवित नहीं मृत. काफी हंगामे के बीच मैं और अधीक्षक महोदय उनके ऑफिस के अन्दर दाखिल हुए.
“श्रीमान, बच्चा तो हुआ है लेकिन इन्सान का नहीं लोमड़ी का. हंगामा होने के डर से हमने बच्चे को छुपा दिया”, अधीक्षक महोदय ने सच्चाई बयां करते हुए कहा.
“हंगामा तो इस बात का है की बच्चा कहाँ है? आप लोगों को जाकर साफ़ शब्दों में सच्चाई बता दें”, मैंने उन्हें समझाते हुए कहा.

लगता है मेरी बातों का कुछ असर हुआ था उनपर. वो बाहर आये और भीड़ को संबोधित करते हुए कहा की महिला ने बच्चे को जनम तो दिया है, लेकिन बच्चा इंसान का नहीं है. मैंने मन ही मन कहा, चलो अच्छा है, एक इन्सान तो कम हुआ धरती से. लोगों के पूछने पर अधीक्षक महोदय ने सच्चाई बताई. महिला को उसका बच्चा वापस मिल गया. इन्सान के बच्चे के बदले लोमड़ी के बच्चे को देखते ही महिला मूर्छित हो गयी. बच्चे को गोद में लिए, वहीँ गिर परी. जब तक लोग उसके पास आये,. महिला ने प्राण त्याग दिए. हम्न्गामा ख़तम हुआ और लोग अपने-अपने घरों को लौट गए. मैं भी बाबूजी को लेकर वापस आ गया.

एक इन्सान ने लोमड़ी के बच्चे को जनम दिया. ये बात पुरे शहर में आग की तरह फ़ैल गयी. अगले दिन अख़बार के मुख्यपृष्ठ पर खबर आई. “एक औरत ने लोमड़ी के बच्चे को जनम दिया”. मैंने सोचा, “क्या ये पहला वाकया है जब इन्सान ने इन्सान की जगह लोमड़ी को जनम दिया? लाखों लोमड़ी और भेरिये इंसान के वेश में कहाँ से आये”?

pankaj bedrdi
15-02-2011, 09:36 PM
वाह अभय भाइ गजब के कहानी

Sikandar_Khan
22-02-2011, 03:03 PM
नीम का पेड़
1

मैं ही इस कहानी का उनवान भी हूँ और कहानी भी...मैं नीम का बूढ़ा पेड़....गाँव के बच्चे मेरे नीचे बैठकर मेरी निमकौलियों के हार गूँथते हैं...खिलौने बनाते हैं मेरे तिनकों से...माँओं की रसीली डाँटें घरों से यहाँ तक दौड़-दौड़कर आती रहती हैं कि बच्चों को पकड़कर ले जाएँ मगर बच्चे अपनी हँसी की डोरियों से बाँधकर उन डाँटों को मेरी छाँव में बिठला देते हैं...मगर सच पूछिए तो मैं छटाएँ ओढ़कर उन डाँटों को मेरी छाँव में बिठला देते हैं...मगर सच पूछिए तो मैं घटाएँ ओढ़कर आनेवाले इस मौसम का इन्तजार किया करता हूँ...बादल मुझे देखकर ओढ़कर आने वाले इस मौसम का इन्तजार किया करता हूँ..बादल मुझे देखकर ठट्ठा लगाते हैं कि लो भई नीम के पेड़ हम आ गए...इस मौसम की बात ही और होती है क्योंकि यह मौसम नौजवानों का भी होता है...मेरे गिर्द भीड़-सी लग जाती है...मेरी शाखों में झूले पड़ जाते हैं...लड़कियाँ सावन गाने लगती हैं...

मुझे ऐसी-ऐसी कितनी बातें याद हैं जो सुनाना शुरू करूँ तो रात खत्म हो जाए मगर बात रह जाए...आज जब मैं उस दिन को याद करता हूँ जिस दिन बुधई ने मुझे लगाया था तो लगता है कि वह दिन तो जैसे समय की नदी के उस पार है...मगर दरअसल ऐसा है नहीं। मेरी और बुधई के बेटे सुखई की उम्र एक ही है...।
क्या तारीख थी 8 जुलाई, 1946 जब बुधई ने मुझे यहाँ अपने हाथों से लगाया था। सुखई की पैदाइश का भी तो वही दिन है और...
मदरसा खुर्द के ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ अपने दरवाजे़ पर बैठ हुक्का पी रहे हैं, साथ बैठे हैं लाला रूपनारायण। लालाजी ने कहा-
‘‘मियाँ पहले मेरी अरज सुन लीजिए, आगे जो हुकुम !...हम मियाँ सरकार के दिनों से नमक खाते चले आ रहे हैं। मंडा भर ज़मीन की कोई बात नहीं है। मगर...’’

लालाजी कुछ कहते कहते रुक गए।
‘‘अरे तो का हम अपने बहनोई भाई मुसलिम से फ़ौजदारी करके कुबरा का जीना अजीरन कर दें ? बाबा मरहूम ने का आपके सामने ही नहीं कहा रहा कि ऐ ज़ामिन कुबरा का ख्याल रखिए !’’ जामिन खाँ हुक्के के धुएँ के साथ धीरे-धीरे बोले।
‘‘ख़्याल और ज़मीन में बड़ा फरक होता है मियाँ। आपसे एक और बात कहनी रही मियाँ कि राम बहादुर यादव का भी कोई-न-कोई इलाज करने ही को पड़ेगा। मियाँ मुसलिम की शह तो उन्हें है ही, ऊपर से अब वह जब से गाँधीजी की पाटी में भर्ती हुए हैं, दिमाग एकदम्मे से चल गया है उनका। चमटोली में बाबूरमवा के घर जमे दिन-भर तकरीर करते रहते हैं कि देश के आज़ाद होते ही ज़मींदारी-ओमीदारी सब घुसर जाएगी।’’
लालाजी ने बयान किया।

‘‘भाई मुसलिम की बात है तो अभी बुधई को बुलाकर ख़त भेज देते हैं। और रही बात रमबहदुरा की तो साले को टाट बाहर करवा के किस्सा ख़त्म कीजिए। और बाबूरमवा से कह दीजिए कि जो आज के बाद रमबहदुरा चमटोली में दिखाइयो भर गया तो बटाई पर जो खेत ऊ जोत रहा है ओपर से ओको बेदखल करै में मिनट-भर भी नहीं लगेगा। तनी होश में रहे।’’
ज़ामिन मियाँ बुझ चुके हुक्के को गुड़गुड़ाने की कोशिश करते हुए बोले। गुस्से से उनका गोरा चेहरा लाल हो गया था।
तभी वहाँ बुधई आ खड़ा हुआ। एक तो वो अपने ज़मींदार को यह इत्तिला करने आया था कि उसने उनकी दी हुई ज़मीन पर अपने एक और संगी को बसा चुका है बित्ता भर के नीम के पेड़ को और दूसरे यह कि आज ही उसकी बीबी दुखिया ने उसका वारिस जना है, जिसका नाम उसने रखा है सुखई। बुधई का बेटा सुखई।

‘सुन ज़रा लछमनपुर कलाँ चला जा भाई मुसलिम के यहाँ। रहमतउल्लवा से पाँच सेर कटहल और दू सेर गूलर का खमीरा ले ले। मुसलिम मियाँ से कहना कि हम भेजा है उनके वास्ते। और हाँ रात-बिरात का ख़्याल न करना। जैसे ही भाई मुसलिम जवाब दें के आ जाना। और ये ख़त भी उनका दे दीहे।’’
ज़ामिन मियाँ एक साँस में बोल गए।
बुधई की बात मन में ही रह गई। ज़मींदार के हुक्म की तामील करना उसके लिए हमेशा से सबसे अहम रही है। वह ज़ामिन मियाँ को यह ख़ुशख़बरी देना ही भूल गया कि उसके घर लाल आया है...कि आज वो बहुत दिनों बाद बहुत खुश है...कि आज वह इस ख़ुशी के सिवा कुछ भी नहीं करना चाहता है...लेकिन वह चुपचाप पीठ पर बोझ उठाए दस कोस दूर मुसलिम मियाँ के गाँव लछमनपुर कलाँ चल पड़ा।

शाम लगभग डूब चुकी थी। भैंस, बकरियाँ सब अपने-अपने दरवाज़ों पर लौटकर बरसाती मच्छरों से जंग कर रहे थे। गाँव की इकलौती मस्ज़िद से शाम की नमाज़ उठी। ठीक उसी वक़्त बुधई ने लछमनपुर कलाँ में मुहम्मद मुसलिम खाँ यानी मुसलिम मियाँ के दरवाज़े पर अपने पीठ पर लदा बोरा पटका।
मुसलिम मियाँ ने नमाज़ पढ़कर आँखें खोलीं तो पाया कि सामने ज़ामिन मियाँ का हुक्मबरदार बुधई खड़ा है।
‘‘तैं कब आया बे। वहां तो सब खैरियत है न।’’
मुसलिम मियाँ ने जानमाज़ समेटते हुए पूछा।
‘‘मियाँ आपके और कुबरा बहिनी के वास्ते कटहल और गुल्लर का खमीरा भेजिन है।’’
बुधई ने सलाम करते हुए जवाब दिया।

‘‘खाली यही है कि औरो कुछ है।’’
मुसलिम मियाँ ने मुस्कुराते हुए पूछा।
‘‘जी एक ठो ख़त भेजिन है।’’
बुधई ने उसकी ओर ख़त बढ़ाया।
‘‘और मियाँ का हुकुम रहा कि जवाब आज ही लै आना’’ बुधई ने आगे जोड़ा।
मुसलिम मियाँ ख़त पढ़ते जाते और उनकी त्यौरियां चढ़ती जातीं। उनका चेहरा ऐसे लाल हो गया था कि खत का लिखा उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था। खत को गोल करके मोड़ते हुए वे बोले-
‘‘जा अपने मियाँ से कह देना कि उसे खत का जवाब अदालत सबजजी से मिलेगा।’’

बुधई के कदम वापसी की ओर मुड़ चुके थे। अँधेरा बढ़ता जा रहा था। उल्लुओं और सियारों की आवाज़ें बढ़ती जाती थीं और बुधई के कदम तेज होते जाते थे। उसे अपने सुखई को देखने की जल्दी थी...
उसे रामबहादुर यादव की बात याद आ रही थी कि आजादी मिलते ही ज़मींदारी खतम हो जाएगी। ज़मीन उसी की होगी जो हल चलाएगा। इसीलिए तो उसने रखा है अपने बेटे का नाम सुखई-सुखीराम। वो उसकी तरह बेगारी नहीं करेगा...स्कूल जाएगा। उसे अपने गाँव की छिटपुट जलती ढिबरियाँ दिखाई दीं। बारिश को पुकारते मेंढकों की आवाज़ें तेज हो गई थीं।

बुधई जैसे सपने से जगा। वह मुस्कुराया। जब वह पैदा हुआ था तो उसके बाप की आँखों में तो वो सपना भी नहीं रहा होगा। कम-से-कम अपने बेटे के लिए उसकी आँखों में ये सपना तो है..क्या पता सच ही हो जाए। लेकिन फिलहाल तो उसे जल्दी थी मियाँ ज़ामिन को यह बतलाने की कि मुसलिम मियाँ ने अदालत की धमकी दी है....

Sikandar_Khan
22-02-2011, 03:05 PM
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रामबहादुर यादव गाँधीजी के कांग्रेस में शामिल क्या हो गया था ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ का जीना हराम हो गया था। चमटोली में भाषण देता फिरता था। ज़मींदारी के ख़िलाफ़ उनको भड़काता रहता था। कहता था-
‘‘हम रामबहादुर यादव कौनो नेता ना हैं। मुदा गाँधीजी हम्में एक ठो गायत्री मन्तर दिए हैं। तूहूँ लोग ऊ मन्तर सीख ल्यो। सब ठीक हो जैयहे। और मन्तरो बहुत आसान है। खाली ज़ोर-ज़ोर से ‘भारत माता की जय’ बोले जाओ....ज़मींदार लोग बहुत जुलुम कर चुके हैं...इ मन्तर की ताकत तू लोग को ज़मींदार के जुलुम से बचावेगी..तुम लोगन को ज़मीन का मालिक बनावेगी...’’ सोचता था ऐसा बोलकर भी ज़ामिन मियाँ के प्रकोप से बच जाएगा। मदरसा खुर्द के ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ के प्रकोप से।

...और आख़िर वही हुआ जिसका डर था। एक रात जब रामबहादुर यादव हमेशा की तरह चमटोली में तकरीर कर रहा था उसी रात चमटोली की एक-एक झोपड़ी जल गई। ऐसी आग वहाँ कभी नहीं लगी थी उसी रात रामबहादुर यादव भी नहीं बच पाया। एक ही लाठी में उसका काम तमाम हो गया। इतनी बड़ी वारदात थी, लग रहा था कुछ होकर रहेगा।
वैसे होना क्या था ? अगली सुबह थानेदार बाबू जिलेदार सिंह दो-तीन कांस्टेबलों के साथ आए। आए तो बैठते भी कहाँ। बैठने के लिए तो बस एक ज़मींदार साहब का दरवाज़ा था और किसमें ताब थी कि उनका स्वागत-सत्कार करता, दारोगाजी की शान को समझता। सारा गाँव जानता था कि यह करतूत बजरंगी की है। ज़मींदार साहब के ख़ास कारिंदे बजरंगी की। पर किसी ने आज तक जुबान खोली थी जो खोलता। रामबहादुर यादव ने जुबान खोली थी और सब देख चुके थे कि उनका क्या हश्र हुआ ? चमटोली के कुछ लोग भी अपनी आँखों में सदियों का डर लिए बैठे थे ज़मींदार साहब के दरवाज़े पर। वो भी शुक्र ही मना रहे थे कि सिर्फ़ घर ही जला, जान तो बच गई। वैसे अब भी ये डर तो था ही कि न जाने क्या आफत आ जाए ? दारोगाजी जब-जब गाँव में आते हैं कुछ-न-कुछ आफत ही आती है...

उस दिन ज़मींदार साहब के दरवाजे़ पर ऐसा लग रहा था जैसे कोई जलसा हो रहा हो। हलवाई बैठे जलेबियाँ छान रहे थे। थालियों में ताजी पूरियाँ और सब्जी लगा रहे थे। हलवाई जलेबी और हलवे के थाल लगा रहा था। और साहब खुशबू ऐसी थी कि आदमीं भरपेट खाने के बाद भी कुछ-न-कुछ खा ही जाए। जिलेदार सिंह भी उसी ख़ुशबू में खोए थे-कुछ देर को यह भूले हुए कि वे वहाँ दावत खाने नहीं आए थे बल्कि रात को एक कत्ल हुआ था जिसकी तफ्तीश करनी थी उन्हें।
‘‘मियाँ साहब यह कत्ल तो बड़ी संगीन बात है। कलट्टर साहब के लड़के से मुसलिम मियाँ की बड़ी गाढ़ी छनती है ! बहुत गड़-बड़ करेंगे वह। सुनिए एस.पी. साहब के यहाँ ज़रा वजनी डाली भिजवाइएगा...एस.पी. साहब इधर हो जाएँ तो फिर कलट्टर साहब भी कुछ नहीं कर सकते...लेडी डॉक्टरनी मिस मारिसन को तो आप जानते ही होंगे। एस.पी. साहब पर अगर उनसे जोर डलवाया जाए तो समझिए कि फिर काम बन जाएगा ! राज़ की बात है एस.पी. साहब उन पर ज़रा रीझे हुए हैं !’’

जिलेदार सिंह पर जैसे ज़ामिन मियाँ के ख़ुशबूदार खाने का नशा चढ़ गया था और वो अपनी नमकहलाली दिखा रहे थे।
‘‘और मुझे एक गवाह दे दीजिए जो तोते की तरह अपना बयान याद कर ले।’’
जिलेदार सिंह दाँत खोदते हुए आगे बोले।
ज़ामिन मियाँ जैसे हुक्म की तामील करने वहाँ से उठकर चल पड़े।
गवाह हाज़िर था। बुधीराम ज़मींदार साहब का बँधुआ। मियाँ का हुकुम जो था। बयान रटा-रटाया ही था-
‘‘भगवान के हाजिर नाजिर जान के कहत है न कि ऊ घर का लैके बाबूराम और कोमिला में बहुत दिन से झगड़ा चला आवत रहा। कल फिर उन्हें बात पर बात बढ़ गई और लाठी चल गई....रामबहादुर यादौ त रहिबो ना किए रेन उहाँ। हम ज सोर सुन के उधर दौड़े तो रामबहादुर हमको रास्ते में मिलेन। भाग जात रहेन। बोलें कि कोमिला और बबुरमवा मा लाठी चलत है।

....और जिलेदार सिंह इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि बजरंगी को तो झूठ-मूठ में फँसाया जा रहा है। असली हत्यारा तो बाबूराम है। बाबूराम के पेड़ से उल्टा लटकाकर उसकी पिटाई शुरू हुई। आख़िर जिलेदार सिंह थानेदार को ज़मींदार साहब के ख़शबूदार खाने की कदर जो रखनी थी...’’
उधर मुसलिम मियाँ ने एक दिन ज़नामख़ाने में चाय पीते हुए यह ऐलान कर दिया अपनी माँ कनीज़ फ़ातिमा के सामने कि वे तो कुबरा की दुखतरी आम का एक ठो बाग और बीस बीघा ज़मीन लेकर ही रहेंगे, नहीं तो उन्हें डर है कि उनकी जुबान से कहीं तलाक़ का लफ़्ज़ न निकल जाए।

कनीज़ बीबी लाख समझाती रही उन्हें कि न कुबरा उनकी ग़ैर है और न अली ज़ामिन, आख़िर सगी खाला के लड़के हैं। और अशराफ में न तो दुखतरी ली जाती है न दुखतरी दी जाती है। मगर मुसलिम मियाँ अपनी ज़िद पर अड़े थे। थक-हार कर बीबी कनीज़ खुद चल पड़ी ज़ामिन मियाँ के दरवाज़े पर, उन्हें समझाने आती बला को टालने, छह कहारों की पालकी पर सवार दो लठैतों की निगरानी में।

मगर ज़ामिन मियाँ कोई कच्चे खिलाड़ी थोड़े ही थे। इधर उन्होंने अपनी खाला की आमद सुनी और तुरत इक्का जुतवाकर शहर की ओर चल पड़े। घर में यह बता गए कि मियाँ को तो बड़ी बीबी के आने की ख़बर ही नहीं मिली। वे तो शहर चले गए हैं कलक्टर साहेब से मिलने। कुछ पता नहीं कब तक आएँगे। असली मकसद था ख़ाला के सामने पड़ने से बचना। असल में वे तो शहर में अतहर हुसैन वकील के यहाँ ठहरने चले गए थे। उन्हें उम्मीद थी कि एकाध दिन में खाला चली जाएँगी और फिर वे वापस लौट आएँगे। ख़ामख़ा खाला दुखतरी की बात छेड़तीं और उनके लिए कुछ भी जवाब देना मुश्किल होता। खाला इन बातों को समझती ही कहाँ हैं ? कहेंगी दुखतरी समझकर मत दो, बस भाई का दिल रखने के लिए दे दो। कहाँ तक देता फिरूँगा...

अतहर हुसैन वकील शहर के माने हुए वकील थे। मुकदमे के चक्कर में कई ज़मींदारों की ज़मीनें बिकवा चुके थे। उन्हें लोग इज़्ज़त से खान बहादुर साहब बुलाते थे। अली ज़ामिन खाँ उनके बड़े मुरीद थे। एक रात पीतल की चिमनी की रोशनी में हुक्का पीते हुए उन्होंने जामिन मियाँ को भरोसा दिलाया कि वे मुसलिम मियाँ को मुकदमा तो किसी हालत में नहीं जीतने देंगे, आगे मियाँ जानें और उनकी मर्ज़ी जाने। यह भी बताया कि मुसलिम मियाँ वैसे भी मुस्लिम लीगी हैं। पाकिस्तान तो बननेवाला है ही। मुसलिम मियाँ तो पाकिस्तान चले जाएँगे और मुकदमा अपने-आप ख़ारिज़ हो जाएगा।

अतहर हुसैन साहब ने ज़ामिन मियाँ को आगे समझाया कि रामबहादुर मर्डर केस में बुधई का बयान होने के बाद बेहतर हो कि वे अपने गाँव चले जाएँ और खाला से ये कह दें कि मियाँ मुसलिम बड़ा भाई मानकर जो भी माँगें वे देने को तैयार हैं और रही बात मियाँ मुसलिम के मानने की तो वो कभी नहीं मानेंगे, आख़िर पठान जो ठहरे। इससे उनकी बात भी रह जाएगी और खाला भी चली जाएँगी। वैसे तो वो जाने से रहीं।

उधर मुसलिम मियाँ भी शहर आ चुके थे अपने वकील चन्द्रिका प्रसाद से मशविरा करने कि केस तो उन्होंने कर दिया पर क्या हर्ज़ है कि सुलह की एक कोशिश हो जाए। लेकिन ज़ामिन मियाँ सुलहनाने को कब तैयार होनेवाले थे। वे तो ये मानते थे कि मियाँ मुसलिम में इसके सिवाय और कोई खूबी ही नहीं कि वे उनकी खाला के लड़के हैं। कुबरा के लिए तो उनसे अच्छा लड़का मिल सकता था। अब चूँकि उन्होंने तलाक की बात कर दी तो साहब शरीफ घरानों की लड़कियाँ या तो कुँवारी रह जाती हैं या बेवा हो जाती हैं...तलाक लेकर अपने घर नहीं आतीं।
वकील अतहर हुसैन साहब जो मुकदमेबाजी में कई खानदानों को तबाह होते देख चुके थे एक और खानदान की तबाही के सिलसिले के गवाह बनने वाले थे शायद....।

रामबहादुर यादव हत्याकांड के मुकदमे की सुनवाई की तारीख पड़ी थी। ज़ामिन मियाँ के ताबेदार बजरंगी की तरफ़ से अतहर हुसैन मुकदमा लड़ रहे थे तो दूसरी ओर से वकील रायबहादुर चन्द्रिका प्रसाद। गवाह था बुधीराम यानी बुधई। दो नामी-गिरामी वकीलों की टक्कर थी। यह टक्कर देखने को ज़ामिन मियाँ तो आए ही थे, मुसलिम मियाँ भी मौजूद थे। चन्द्रिका प्रसादजी ज़ामिन मियाँ तो आए ही थे, मुसलिम मियाँ भी मौजूद थे। चन्द्रिका प्रसादजी ने बुधई से जिरह शुरू की-
‘‘तुम्हारा नाम ?’’
चन्द्रिका प्रसाद ने पूछा।
‘‘हमार नाव बुधई है सरकार-बुधीराम।’’
बिना घबड़ाए बुधई ने जवाब दिया।
‘‘अच्छा तो बुधई उर्फ बुद्धिराम यह बताओ कि उस दिन क्या तुमने वाकई रामबहादुर यादव को भागते हुए देखा था...और सोच के बताओ क्योंकि तुमने गीता पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाई हुई है ?’’
वकील साहब का लहज़ा ऐसा था कि अच्छे-अच्छे गवाहों के पसीने छूट जाएँ।
‘‘ई तो दिन की बात न है मालिक। रात काफी होय चुकी रही, हम शोर सुनके उधर लपके जात रहेन कि का देखा कि रामबहादुर भागे-भागे चले आ रहेन ! हमें देख के बोलेन कि अरे ओहर कहाँ जा रहा रे बुधइया ! उधर तो लाठी चलत है !’’
बुधई एक साँस में बोल गया।

‘‘बस करो, बस करो...अब तो तुम्हारा बयान अदालत को भी याद हो गया होगा। अच्छा एक बात बताओ जब तुमने यह देखा कि रामबहादुर यादव भागे चले आ रहे हैं तो उस वक़्त नंगे सिर थे या उनके सिर पर गाँधी टोपी थी !’’
चन्द्रिका प्रसाद एक माहिर वकील थे। बुधई को फँसाने के लिए उन्होंने जाल डाला। ज़ामिन मियाँ और अतहर हुसैन साहब के तो होश ही उड़ गए, पता नहीं बुधई क्या बोल जाए।

‘‘यह सवाल गवाह को उलझाने के लिए किया गया है हुजूर, वह चाहे टोपी पहने रहा हो या नंगे सर। अगर बुधई ने उसे नंगे सर देखा तब भी यह साबित नहीं हो सकता कि खून से भरी जो गाँधी टोपी मौका-ए-वारदात पर मिली, वह रामबहादुर यादव की थी ?’’ वकील अतहर हुसैन ने बात को सँभालते हुए बुधई के लिए एक इशारा किया।
‘‘बुधई क्या उस वक़्त रामबहादुर यादव ने टोपी पहन रखी थी ?’’ सवाल पूछने की बारी अब जज साहेब की थी।
‘‘जी माई-बाप ! यादवजी का त हम कभई नंगे सिर देखा ही नहीं।’’ बुधई भाँप गया था।
बुधई के इस जवाब के साथ ही जज साहेब ने केस ही ख़ारिज़ कर दिया।

Sikandar_Khan
27-02-2011, 01:02 AM
कल कहाँ जाओगी - पद्मा सचदेव की कहानी

सुबह की पहली किरण की तरह वो मेरे आँगन में छन्न से उतरी थी। उतरते ही टूटकर बिखर गई थी। और उसके बिखरते ही सारे आँगन में पीली-सी चमकदार रोशनी कोने-कोने तक फैल गई थी। खिलखिलाकर जब वो सिमटती तो रोशनी का एक घना बिंदु आँगन के बीचोबीच लरजने लगता और उसकी बेबाक हँसी से आँगन के जूही के फूल खुलकर अपनी खुशबू बिखेरने लगते। उसका नाम था प्रीत। मैं उसे प्रीतो कहती थी।

हुआ यों कि मेरी एक बड़ी पुरानी सहेली अपने घर जा रही थी। मेरे पति विदेश गए थे। घर वैसे भी काटने को दौड़ रहा था। सो जब मेरी सहेली ने ये प्रस्ताव रखा कि प्रीतो को कुछ दिन मैं घर में रख लूँ तो मैंने फौरन हाँ कर दी। मेरी सहेली का दायाँ हाथ थी प्रीतो, ये मैं जानती थी। उसके किंडर गार्डन स्कूल के बच्चे उसे तीतो कहकर स्कूल में घुसते और फिर वो उनकी प्रीत आँटी हो जाती।

प्रीतो को प्रीत कहलवाने का शौक था। स्कूल से लेकर तकिये के गिलाफ तक का काम प्रीतो के सुपुर्द था। पर जब छुटि्टयों में मैडम घर जाने लगी तो प्रीतो को साथ ले जाना उसकी बनिया बुद्धि को ठीक न लगा।

मेरी ये सहेली बचपन से ही दबंग थी।

एक बार गोलगप्पे वाले से उसका झगड़ा हुआ और मैडम की चप्पल की मार से वो भाग गया था। तब हम सब गोलगप्पों के खोमचे पर टूट पड़ने को ही थे कि मैडम खोमचे वाले की जगह बैठकर प्लेटें सजा-सजा कर सबको देने लगी।

आनन-फानन में गोलगप्पे हवा हो गए। तब उसने इमली के पानी की तुर्शी से सी-सी करते हुए बताया, 'मुआ मुझ अकेली को देखकर आँख मार रहा था। मैंने देसी जूती से वो पिटाई की कि भाग गया।' तब से हम उसे मैडम ही कहते थे। उसका असली नाम भूल ही गए। पर मैडम को कोई न भूला सका। उसके प्रस्ताव पर मैं थोड़ी नाखुश भी थी पर सोचा प्रीतो की रौनक रहेगी। दो दिन पहले ही मैडम प्रीतो को लेकर मेर घर आ गई थी। उसको कई किस्म के भाषण पिलाने के बाद जब मैडम ट्रेन पर बैठी तो प्रीतो जो उसका राई-रत्ती सँभालकर देती रही थी, थककर चूर हो चुकी थी।
आते ही जब दो सैरीडौन खाकर वो सो गई तो मैंने भी उससे कुछ पूछना ठीक न समझा। दूसरे दिन अभी सुबह न हुई थी पर घर में चहलकदमी की अपरिचित आवाज़ें आनी शुरू हो गई थीं। उन्हें तो मैं किसी तरह से सहती ही पर जब बाथरूम का पानी धुआँधार बहने की आवाज़ आई तो हिम्मत ने जवाब दे दिया। लोहे की बाल्टी में पूरे खुले नल के गिरते पानी से अधिक शोर शायद कोई नहीं कर सकता। बिस्तर में आँखें मीचे-मीचे मैं ज़ोर से चिल्लाई -
'प्री तो '
'जी मैडम,' वो जैसे सर पर ही खड़ी थी। 'खबरदार जो तुमने मुझे मैडम कहा,' मैं झल्लाकर उस पर बरस पड़ी तो वो मासूमियत से बोली, 'तो फिर क्या कहूँ मैडम जी।'
'पहले ये नल बन्द करो। और तुम मुझे दीदी कह सकती हो।'

वो मुझसे कब आकर लिपट गई मैं ये जान ही न पाई। दीदी, दीदी कहकर उसने सारा घर गुँजा दिया। और अपनी इस उदारता से मैं घमण्ड से फूल उठी। फिर उसके अतीत की चंद पोटलियाँ पलभर में ही मेरे सामने बिखरी पड़ी थीं।
प्रीतो अकेली बेटी थी। तीन-चार भाइयों की अकेली बहन। पर उसका बाप जो बढ़ई से ज़्यादा शराबी था, उसने इसके ज़रा-सा बड़ा होते ही इसे नम्बरदार के बेटे को ब्याह दिया। उसे पुराना दमा था। इस अन्याय का विरोध कौन करता। उसके भाई शराबी बाप की मार खा-खाकर दौड़ने की उम्र आते ही घर से भाग गए थे। माँ घर की दीवारों जैसी ही एक दीवार थी।

भगवान की करनी। सुहागरात के दिन ही सप्तपदी में अग्नि का धुआँ पी-पी कर दूल्हे महाशय को दमे का ऐसा दौरा पड़ा कि उसे हस्पताल ले जाना पड़ा। सुहाग शैया पर बैठी-बैठी प्रीतो सोयी रही। किसी ने उधर झाँका भी नहीं। सुबह लोगों ने कहा, ''कुलच्छनी ने आते ही पति पर वार कर दिया। पता नहीं नम्बरदार के इस नाम का क्या होगा। इसका पाँव तो जानलेवा है।'' तभी हमारी मैडम वहाँ पहुँच गई और शौहर के मरने से पहले ही उसे घर ले आई। सारे गाँव के मुकाबले में वो अकेली ही थी। पर दबंग ऐसी कि उसे देखते ही नम्बरदार हुक्का छोड़ उठ खड़ा हो। इसी दबंगता की वजह से आज तक उसकी शादी न हो पाई थी। ऐसी ख्याति थी कि पुरोहित भी उसकी जन्मपत्री लेकर कहीं जाने को राजी न होता। सो कुँआरी ही रह गई। प्रीतो की आँखों में तैरते सपने मैडम ने बड़ी आसानी से पोंछ डाले और शहर में आकर बच्चों का किंडर गार्डन खोल लिया। प्रीतो को जो सहारा मिला तो उसने अपना सारा मन बच्चों में ही लगा लिया। मैडम उसे प्यार भी करती है पर मजाल है जो कभी पता चलने दे।

प्रीतो, जिसने शादी से सुहाग सनी भाँवरों में शरमा-शरमाकर पाँव रखे, अग्नि के आगे कस्मे-वादे करते समय पिघलाती रही, वो प्रीतो कब तक अनुशासन में रहेगी इसका भय मुझे बराबर लग रहा था। मेरे घर में आते ही ज़रा-सी सहानुभूति उसकी आँखों में फिर से सपनों के सन्देशे बुनने लगी। सारा काम हँसते-हँसते निपटा लेती। और सारा दिन कोई छ: बार कंघी करके महाउबाऊ हेयर स्टाइल बनाती रहती। बिन्दी लगाने का उसे बड़ा ही चाव था। मैंने एक दिन कहा, 'प्रीतो, तू बिन्दी लगाकर मिटा क्यों देती है?'
उदास होकर बोली, 'वो जो मर गया है। पर दीदी, मेरा मन बिन्दी लगाने को करता है।' मैंने कहा, 'उससे तेरा क्या वास्ता है? ये कोई शादी थोड़े ही थी।'
वो उत्साहित होकर बोली, 'यही तो मैं कहती हूँ पर मैडम हमेशा टोक देती है। कहती हैं, लाल बिन्दी सिर्फ़ सुहागिनें लगा सकती है।'
'तुम काली बिन्दी लगाया करो।'
'हाँ दीदी, काली बिन्दी तो लगा ही सकती हूँ। और अब उसे मरे एक साल तो हो ही गया है। अब उसका प्रेत मुझे तंग नहीं कर सकता।' ये कहकर वो खिलखिलाकर हँस पड़ी। इतनी हँसी कि उसकी आँखें आँसुओं से भीग गईं।

नाक सुकड़कर वो अपने आँसुओं को पोंछते-पोंछते कहने लगी, 'दीदी, अगर वो ज़िन्दा रहता तो मैं गाँव कभी न छोड़ती। शादी से पहले एक बार उसने रास्ते में मेरा हाथ पकड़कर कहा था, 'कसम खा प्रीतो, मुझे कभी छोड़कर न जाओगी।'
मैंने अपने सबसे मीठे आम के दरख्त की कसम खाकर कहा था, 'कभी नहीं।'
तभी किसी के कदमों की आहट हुई थी और उसने मेरा हाथ छोड़ दिया था। उसके घर वाले कहते हैं, 'हमें पता था ये ज़्यादा दिन न रहेगा। हमने तो शादी इसलिए करवा दी थी कि प्रेत बनकर हमें तंग न करे।' मेरा गला उन्होंने काटना था सो काट दिया।'

मैंने कहा, 'प्रीतो, तू तो अभी २० की भी नहीं हुई, ऐसी बातें क्यों करती है? तेरी किसी भी बात से नहीं लगता तेरी शादी हो चुकी है। ये जोग तो तुमने मैडम की संगति में लिया है जानबूझकर। इसे छोड़ना ही होगा।'
'दीदी, पति को लेकर जो सपने मैं बुना करती थी उनका राजकुमार ये तो न था। वो सपने बड़ी बेरहमी के साथ मेरी आँखों में से पोंछ दिए गए। अब उस नई स्लेट पर कोई-न-कोई रोज़ आकर मिट जाता है। कोई मूरत बनती ही नहीं।'
मैंने उसे बड़े प्यार से पूछा, 'तुम्हें कोई अच्छा लगता है प्रीतो।'

'नहीं, पर जी चाहता है मैं किसी को अच्छी लगूँ। हाथ-पाँव में मेहंदी, माँग में सिंदूर, लाल जोड़ा और सुरमई आँखें। इनके साथ अगर सुहाग होता है तो मेरा भी हुआ था। पर सुहाग तो पति के साथ होता है। और वो तो मैंने देखा नहीं।'
'प्रीतो, मैडम का किंडर गार्डन तू ही तो सँभालती है। अगर तुझे कोई अच्छा लगे तो क्या सब छोड़ जाएगी?'
'पता नहीं दीदी।'
'पर मैडम क्या ये बात कभी सह पाएगी?'
'यही तो बात है, मैडम का मुझ पर पूरा भरोसा है। इसी से मुझे डर लगता है कि कहीं कोई अच्छा न लगे। मैडम तो मैडम, बच्चों के माँ-बाप भी मुझी पर भरोसा करते हैं। मैडम को तो सबके नाम भी नहीं आते। और फिर अगर एक दिन अपने हाथ से बनाकर न खिलाऊँ तो मैडम खाती ही नहीं। कभी-कभी मेरा मन नहीं करता तो भी बनाती हूँ। किसी को भूखा रखना पाप है न दीदी।'
मैंने उसकी तरफ़ देखा। जी चाहा इसे कहूँ, तू भी तो भूखी है प्रीतो। पर मैडम आकर मेरे दिमाग की इस नस को दबा गई और मैं मौन हो गई।

दो महीने कब निकल गए पता ही न चला। बस एक दिन मैडम आई और प्रीतो को लेकर चली गई। जाती बार प्रीतो ने चोरी से मुझसे कहा था, 'दीदी, मुझे भूल न जाना। मैं तो न आ पाऊँगी पर आप आना। मुझे बुलाओगी न दीदी।' मैंने उसके हाथ अपने हाथों में लिए और अपने आँसू किसी तरह उससे छुपाकर उसे हौसला दिया। फिर गृहस्थी के ताने-बाने को सुलझाती मैं प्रीतो की उलझनों को भूल-सी गई।

एक दिन भरी दोपहरी में मैं सोने जा रही थी तो मैडम आ धमकी। पहली ही साँस में उसने पूछा, 'यहाँ प्रीतो आई है?'

Sikandar_Khan
27-02-2011, 01:04 AM
2.....

मैं जड़वत खड़ी रही, कुछ उत्तर न सूझा। जवान-जहान लड़की आखिर कहाँ गई। मुझे चुप देखकर मैडम बोली, 'उसे आग लगी है ये तो मैं जान गई थी। बस गलती एक ही हुई कि उसे मैं सब्ज़ी लेने अकेली भेजती रही। सब्ज़ी की टोकरी में छुपाकर बिन्दी ले जाती थी। उस मरघट के पास जाकर लगाती थी। क्या आग है बिन्दी लगाने की। जब भी कलमुँही आती देर लगाकर आती। फिर कपड़े इस्तरी करते वक्त, सब्ज़ी काटते वक्त या चपातियाँ सेंकते वक्त कैसे-कैसे तो शरमाकर मुस्कुराती थी पठ्ठी। मुझे क्या पता था इसे क्या मौत पड़ी है। नहीं तो उड़ने से पहले ही पर काटकर फेंक न देती। मुझे तो डर लग रहा था कहीं पागल न हो जाए। लक्षण सब वही थे। कुछ दिन पहले एक बच्चे की माँ ने न बताया होता तो मुझे कहाँ पता चलना था। कोई मुआ दर्ज़ी है। सब्ज़ी वाले की दुकान के पास, उसी के साथ भागी होगी राँड। उसी के साथ आँख मटक्का चल रहा था। एक बार मिले तो पुलिस में देकर छुट्टी पाऊँ। इन्स्पेक्टर तिवारी के दोनों बच्चे मेरे ही स्कूल में है।'

मैंने उसकी बातों का परनाला रोकते हुए कहा, 'मैडम, तुम रूखी-सूखी लकड़ी हो। अगर वो नागरबेल कहीं सहारा ढूँढ़ती है तो जाने दो उसे। उसे खुशी ढूँढ़ लेने दो।
बिफरकर मैड़म चिल्लाई, 'ओह, तो ये आग तुम्हारी लगाई हुई है। मुझे पहले ही समझ लेना चाहिए था कि मेरी ट्रेनिंग में कहाँ गलती हुई है। न तुम्हारे घर उसे रखती न ये नौबत आती।'
अब मुझे भी ताव आ गया। मैंने भी चिल्लाकर कहा, 'ये आग मैंने नहीं लगाई पर ये आग मुझे ही लगानी चाहिए थी। तुम मेरी दोस्त हो। तुम्हारे पापों का प्रायश्चित्त मैं न करूँगी तो कौन करेगा। तुम क्या जानो पुरुष के प्यार के बगैर ज़िन्दगी कैसी रेगिस्तान-सी होती है। फेरों की मारी को तुमने अपने अनुशासन के डण्डे से साधकर रखा है। तुम जल्लाद हो तोषी, तुम इन्सान नहीं हो। तुमने मुहब्बत की ज़िन्दगी नहीं देखी। कभी देखो तो जानोगी तुमने अब तक क्या खोया है।' मैडम झल्लाकर बोली -
'मुझे फरेब नहीं खाना है मिसेज आदित्य वर्मा। आप घर में रखकर देखिए, अगर तुम्हारे पालतू आदित्य को भी न झटका दे दे तो मेरा नाम भी तोषी नहीं। दिन-रात उसकी इशारेबाजियाँ क्या मेरी नज़रों से नहीं गुज़रतीं। अगर इस स्कूल की मुसीबत न होती तो कब की भेज देती उसी गाँव में जहाँ से कसाइयों के हाथ से इसे छुड़ाकर लाई थी।'
'शादी करवा दो उसकी।' मैंने कहा।
'हाँ, यही तो करना चाहिए था। और फिर तू भी तो करवा सकती है।'
मैंने कहा, 'वो तुम्हारी ज़िम्मेदारी है तोषी, मैं तो खाली शादी में आ जाऊँगी। चलो चाये पियें। पानी खौल रहा होगा।'
तोषी बोली, 'तुम मेरा कलेजा और जलाना चाहती हो।' मैंने प्यार से उसका हाथ पकड़ा, 'चलो मैडम, तुम्हें रूह-अफज़ा पिलाती हूँ।' उसके बाद उसका जी थोड़ा हल्का हुआ तो मैंने कहा, 'मैडम, उसकी शादी कर दो। लड़की जवान और भावुकता की मारी है। उसके हालात में एक बार अपने-आपको खड़ा करो और सोचो।'
मैडम बोली, 'मैं कोई अच्छा लड़का देखकर कुछ कर पाती इसके पहले ही लगता है वो भाग गई है। आज दूसरा दिन है। तोबा-तोबा, अभी तो शाम की क्लासों के लिए बड़े बच्चे आते होंगे। लो मैं चली।'

मैडम को गए कई दिन हो गए। उससे प्रीतो के बारे में पूछने का हौसला मैं न जुटा पाई। फिर सब भूल-भुला गई। एक दिन शाम के वक्त मैंने दरवाज़ा खोला तो प्रीतो सामने खड़ी थी। पीछे एक लम्बा-तगड़ा खूबसूरत-सा लड़का।

शराब से वीर-बहूटी उसकी आँखें जैसे मेरे भीतर कुछ कंपा-सा गईं। बिखरे बाल और दम्भ से भरे चेहरे पर मस्तक उसने मेरी अभ्यर्थना में जरा-सा झुका भर दिया। प्रीतो ने कहा, 'यही दीदी है।' मैं स्नेह से दोनों को अंदर ले आई। कमरे में दोनों को बिठाकर थोड़ा-सा मुस्कुरायी भी। चाय का पानी चढ़ाने जैसे ही रसोईघर में गई, प्रीतो पीछे-पीछे आ गई।
हँसकर बोली, 'कैसा है?'
मैंने कहा, 'अच्छा।'
वो हँसी, फिर बोली, 'शराब तो रात को पीता है। आँखें हमेशा लाल रहती हैं।' होठों के कई बल सँवारकर वो हँसने लगी। हँसते-हँसते उसकी भरी आँखों को नज़रअंदाज़ करके मैंने कहा, 'मैडम को मिली?'
प्रीतो ने नीची नज़र करके कहा, 'गई थी। उसने निकाल दिया। और कहा दोबारा यहाँ मत आना। प्रकाश, यही आदमी बड़ा गुस्सा हुआ।' थोड़ा ठहरकर बोली, 'दीदी, मुझे पुरानी धोतियाँ देना। ये एक ही धोती है। मैडम की थी।'

मैंने उसे धोतियों के साथ शगुन के रुपए भी दिए और प्यार से कहा, 'प्रीतो, मैं हूँ, कभी उन्नीस-बीस हो तो याद रखना।' प्रीतो मेरे सीने से लगकर रो पड़ी। मुझे मालूम था वो गलती कर चुकी है। ये आदमी पति जैसा तो नहीं लग रहा। मैंने उसे भी जाते समय शगुन दिया। पता नहीं क्या हुआ उसने मेरे पाँव छुए। मुझे लगा बेटियाँ ऐसी ही विदा होती हैं।

फिर कुछ दिन बाद मैडम का फोन आया। बगैर भूमिका बाँधे उसने कहा, 'क्या दोस्ती निबाह रही हो मिसेज आदित्य वर्मा। कल तुम्हारी वही साड़ी पहने प्रीतो मिली थी जो हमने साथ-साथ कॉलेज के मेले से खरीदी थी। कमाल किया तुमने, साड़ी दी तो धुँआ तक न निकाला कि वो आई थी। देखना कहीं साड़ी से कभी आदित्य को भुलावा न हो।' ये कहकर उसने ठक्क से फोन बंद कर दिया।
आदित्य, मैं चौंकी। ये मैडम कितनी संगदिल है। उसके दूसरे ही दिन प्रीतो फिर आई, पर अकेली। आते ही मेरे पीछे-पीछे रसोईघर में आकर बोली, 'मुझे बैंगन की पकौडियाँ बना दोगी?' मैंने उसे भरपूर नज़र से देखा। वो शरमाई और कहने लगी, 'अभी तो तीन-चार महीने हैं। आज वो नासिक गया है तभी आ सकी हूँ। मुझे कुछ पैसे भी दोगी न। वो तो खाली राशन लाकर रख देता है। एक भी पैसा हाथ में नहीं देता। बाहर से ताला लगाकर दुकान पर जाता है। कभी भूने चने खाने को मन करता है। पैसे रात को उसकी पैंट से गिर जाते हैं तो ले लेती हूँ।' फिर अचानक खुश होकर बोली, 'वहाँ एक खिड़की है जिसमें से कूदकर मैं कभी-कभी निकल जाती हूँ। पर एक दिन पड़ोसिन ने उसे बता दिया था। उस रात उसने मुझे बहुत मारा।'
मैंने उसकी ओर देखे बिना पूछा, 'कोई शादी का काग़ज़ है तुम्हारे पास?'
बोली, 'नहीं, शादी तो मंदिर में हुई थी।'

पैसे लेकर प्रीतो चली गई। तीन-चार बरस उसका कोई पता न चला। एक दिन मैडम ही कहीं से ख़बर लाई थी कि उसका पति उसे बहुत मारता है। एक दिन देवर ने छुड़ाने की कोशिश की थी सो उसे भी मारा और प्रीतो को घर से निकाल दिया। वो तो पड़ोसियों ने बीच-बचाव करके फिर मेल करा दिया। मैं थोड़ी दु:खी हुई, फिर सोचा बच्चे हैं, बच्चों के सहारे औरतें रावण के साथ भी रह लेती हैं। कल बड़े हो जाएँगे। उनके साथ प्रीतो भी बड़ी हो जाएगी।

वक्त बढ़ता रहा। रोज़ सुबह भी होती, शाम भी। बच्चे स्कूल जाते, घर आते। आदित्य भी और मैं भी ज़िन्दगी के ऐसे अभिन्न अंग बन चुके थे कि उसी रोज़ के ढर्रे में ज़रा भी व्यवधान आता तो बुरा लगता। अपनी छोटी-सी दुनिया में पूरी दुनिया दिखाई देती। न वहाँ कहीं प्रीतो होती न उसका वह मरघट पति।

इसी तरह एक शाम आई। साथ लाई कुछ मेहमान। आदित्य बाज़ार से कुछ सामान लाने गए थे। तभी दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो एक अजनबी औरत अपने फूल-से दो बच्चों को थामे खड़ी थी। मैंने सोचा किसी का पता पूछना चाहती है। मैंने उसे सवालिया निगाहों से देखा। वो मुस्कुराई। होंठ मुरझाए से थे तो भी मुस्कुराहट पहचान लेने में मुझे ज़्यादा देर न लगी। मैंने कहा, 'प्रीतो' - वो बच्चों की उँगलियाँ छुड़ाकर यों लिपटी जैसे इस भरी दुनिया में उसे पहिचानने वाली सिर्फ़ मैं अकेली थी।

मैंने उसे छुड़ाते हुए कहा, 'प्रीतो, घर में मेहमान हैं। आओ, अंदर चलो।'
उसे बिठाकर मैंने बच्चों को दूध और बिस्कुट दिए। उन्हें खाता छोड़कर प्रीतो मेरे पीछे-पीछे आ गई। बगैर भूमिका बाँधे उसने कहा --
'दीदी, वो चला गया है। दुबई। घर भी किसी और को दे गया। सिर्फ़ आज रात मुझे रह लेने दो।'
मैंने कहा, 'प्रीतो, ये मेहमान आज भी आए हैं। तुम्हें कहाँ सुलाऊँगी। फिर बच्चे भी हैं।'
प्रीतो ने कहा, 'इन्हें लेकर मैं बरामदे में सो जाऊँगी। कल सवेरे यहीं मैंने किसी को मिलना है। वो मेरा कोई इन्तज़ाम करने वाले हैं। मैडम मुझे किसी आश्रम में भेजना चाहती है। बस कुछ दिन की बात है।'
मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, 'तुम मैडम के घर क्यों नहीं गईं?'
'वो कभी भी नहीं रखेगी दीदी। और फिर मैं आश्रम नहीं जाना चाहती।'
'पर क्यों?'
'अगर कभी इनका बाप आया तो?' मैंने कहा, 'अगर उसने आना होता तो जाता ही क्यों?'
उसने कहा, 'बस कुछ दिन इंतज़ार करूँगी। कुछ दिन की बात है।'

मेरी आँखों के आगे आदित्य का चेहरा घूम गया। मैडम की कही हुई बात भी याद आई। जो उन्होंने कहा था वो भी मुझे याद था। एक रात उनकी मर्ज़ी के बगैर भी रख सकती थी पर प्रीतो को ये पूछने का साहस उसमें न था कि कल कहाँ जाओगी? ये मैं जानती थी सिवाय मैडम के उसे कोई आश्रम जाने को राजी न कर सकेगा। यही एक लम्हा था, अगर मैं कमज़ोर पड़ जाती तो उसके जाने का कल ना जाने कब आता। मैंने अपने अंदर के इन्सान का गला दबाया और कहा, 'नहीं प्रीतो, यहाँ रहना मुमकिन नहीं हैं। ये लोग हमारे जेठ की लड़की देखने आए हैं। लड़की कल दिल्ली से आएगी। ऐसे नाजुक रिश्तों के दौरान मैं घर में कोई अनहोनी नहीं कर सकूँगी। तुम पैसे लो। अगर कल सवेरे यहाँ किसी को मिलना है तो टैक्सी में आ जाना। अब तुम जाओ।' मैंने उसके दोनों बच्चों को ऊँगली से लगाया। दरवाज़े के बाहर जाकर चौकीदार से टैक्सी मँगवाई और बच्चों के साथ प्रीतो को बैठते देखा। उसकी पसीने से तर हथेली में कुछ नोट खोंस दिए। टैक्सी को जाने का इंतज़ार किए बगैर घर आकर दरवाज़ा बन्द कर लिया।

ये दरवाज़ा मैंने प्रीतो के लिए बंद किया था या अपने लिए ये न जान पाई। रात-भर मुझे चौराहों के ख्वाब आते रहे। फिर कई दिन मैं दीवारों से पूछती रही, 'कल कहाँ जाओगी?'

Sikandar_Khan
10-03-2011, 08:42 AM
रिसते घाव - बूटा सिंह की कहानी

और सलमा छोटी और क्वाँरी। वह मेरे साल-सवा साल के बच्चों को उठाए रहती और मुझसे कुछ बड़ी लगती। साथ ही मेरी शक्ल-सूरत और कद बिल्कुल अम्मी-जान की तरह था। हाय! अम्मी को तो नंजर लग गयी, नहीं तो वह अभी कहाँ मरने वाली थी।

सलमा ने मेरा लड़का उठाया हुआ थायही उसका आसरा था और इसी में वह व्यस्त रहती थी। अकेली औरत को लोग लावारिस माल समझते हैं। बच्चा कुछ भी न कर सकता हो पर माँ उसे आदमी से कम नहीं समझती। सलमा बिल्कुल हिन्दू औरत लगती। उसने बुरका नहीं पहना हुआ था और मैंने काले बुरके के पल्ले को सिर पर फेंका हुआ था। इससे मेरा मुँह और नक्श और भी सुन्दर लग रहे थे। सलमा की ओर कोई नहीं देखता था, पर जो भी मेरे पास से गुजर जाता वह एक बार फिर मुड़कर मेरी तरफ देखता।

मैं दुआएँ माँगती, रब आगे प्रार्थना करती कि हम दोनों सही-सलामत अब्बाजान के पास पहुँच जाएँ। मुद्दत बीत गयी थी अब्बाजान को देखे। वे कैसे होंगे। उनकी शक्ल बदल गयी होगी। वे अपनी साहिबंजादियों को पहचानेंगे भी या नहीं। हाय मेरा अल्लाह...।

हमारे दिल डर से भरे हुए थे, पता नहीं किस समय क्या हो जाये जबकि अलीगढ़, दिल्ली, लखनऊ और हैदराबाद में हमारे घर थे। चाँदनी चौक में चाचा अब्बा की दुकान थी। जब भी कोई छोटी-मोटी छुट्टी होती, हम सब दिल्ली चले आते थे और चाचा अब्बा अपनी पर्दों वाली बग्घी भेज देते थे। वे पुराने खयालों के जो थे।

मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं घर से चाचा अब्बा की दुकान पर आती तो सबसे पहले बाहर टँगा बड़ा-सा बोर्ड पढ़तीअनायत उल्लाह एंड सन्स। चाचा अब्बा मुझे देखते ही कुर्सी से हिल जाते। उन्हें ग्राहकों का खयाल नहीं रहता और कहतेमेरी बेटी नईम आ गयी हैं वे मुझे अपने पास बैठाते, प्यार करते और रुपया निकालकर कहतेमेरी बेटी नईमी क्या खाएगी, कुल्फी या फलूदा। यह देख मेरे साथ आया उनका बेटा अकरम नारांज हो जाता, पता नहीं क्यों? क्या पता था कि मैंने अकरम की ही बीवी बनना है। मैं सुन्दर थीचाँदनी रात की तरह और उसके मुँह पर चेचक के दाग थे। हाय अल्ला-तेरी रंजा...।

दिल्ली, लखनऊ, अलीगढ़ हमारे घर थे, अब सब पराये हो गये हैं। मुझे कोई ऑंखें बाँधकर भी छोड़ देता तो भी अब्बा की दुकान ढूँढ़ लेती। सुना है अब उस दुकान पर ओम बूट हाउस का बोर्ड लगा है। अब सारी दुनिया पराई लगती है। विलाप करने के सिवा और कोई कर भी क्या सकता है? छोड़ी हुई जगह भूलती भी तो नहीं। जब स्वप्न में वे स्थान आते हैं तो डर से रूह भी काँप जाती है। जैसे किसी अजींज की रूह मिल गयी हो।

मेरे अब्बाजान डॉक्टर असलम अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रोंफेसर थे। पता नहीं हम पाँच भाई-बहन कैसे पैदा हो गये, हमने कभी अब्बाजान को अम्मीजान के साथ हँसते हुए नहीं देखा था। हर समय पढ़ाई, हर समय लिखाई। यदि कभी अम्मीजान कहती'खान साहिब चाय तैयार है', तब वे अम्मीजान की तरफ देख ऐसे 'हाँ' कहते जैसे ऊँघ रहे हों।

कई बार हमारी अम्मीजान को हँसी आ जाती और अधिकतर गुस्सा, और वह तमककर कहती''खान साहिब, नवाबजादी ने कुछ कहा है।''

''हाँ...हाँ...''

''क्या?''

''बेगम, आओ बैठो...मैं आपको कब से याद कर रहा हँ।''

''छोड़ो भी, मैं हुई आपके घर की खरीदी हुई बाँदी। आंखिर मौत के दिन तो पूरे करने हुए...''

''बेंगम क्यों नारांज होती हो आंखिर...''

''आंखिरकार क्या मेरी ंजिन्दगी का भी कोई मकसद है। मैं जानवर तो नहीं हँ। नवाब साहब ने मुझे कहाँ बाँध दिया। फरमाया करते थे'महिरो तेरा शौहर आलम आदमी है। बाप दादा से अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर और प्रिंसिपल रहे हैं। बड़ा ंखानदानी घर है।' पर नवाबंजादी को उन्होंने कसाई घर में भेज दिया। नवाबों की शहंजादी मदरसों के घर आ गयी।''

मेरी अम्मी अब्बाजान के पास खड़ी बातें करती ओर रोती जाती। वे उसकी सौ-सौ खुशामदें करते तो नवाबंजादी मुस्करा कर लाड से कहती''हुजूर को इस तरह तो नहीं करना चाहिए...।''

''हाँ...हाँ तुम ठीक कहती हो।''

जिस दिन अब्बाजान को ंफुरसत नहीं मिलती और वे अम्मीजान के साथ ठीक से बात नहीं करते उस दिन नवाबंजादी का पारा चढ़ जाता। कौन था फिर उनके सामने खड़ा होने वाला।

नवाबंजादी साहिबा ने तिल्ले वाला हैदराबादी कुर्ता पहना होता और गरारा पहन हुआ होता। कसे हुए कुर्ते से उसका शरीर फूट-फूट पड़ता, ऑंखों से ंखून उतर आता। मुँह एकदम लाल हो जाता और वह पुकारते हुए कहती''ओ शिब्बो, अरी शिबन, कहाँ मर गयी, अल्लाह रख्खा, ओ अल्लाह रख्खा, हरामंजादे, पता नहीं किधर चले जाते हैं। सूअरों को मार-मारकर अधमरा कर दूँगी।'' वह हाथों में चाबुक उठा लेती ओर हवेली के लॉन में नवाबजादी ऐसे घूमती, जैसे पिंजरे में बन्द भूखा शेर घूमता है। डरता हुआ कोई सामने न आता। आखिर वह भी नवाबंजादी थी, नवाब बदरो दीन खान की इकलौती बेटी। हंटर मारकर नौकरों की चमड़ी उधेड़ देती। हुक्म अदूली की सजा इतनी ही नहीं, मौत भी हो सकती है।

सभी नौकर एक कोने में लग जाते। कोई भी सामने आने की हिम्मत न करता। सभी अल्ला रख्खा (हिजड़े) की खुशामद करते जो खुद को अल्लाह-रख्खा कहलवाकर खुश होता था। नवाब साहिब (नाना अब्बा) ने साहिबजादी के साथ अल्लाह रख्खा को दहेज में दिया था।

''ओ अल्लाह रख्खे के बच्चे कहाँ मर गया है, सूअर के बच्चे...।''

''हाय अल्लाह! नवाबजादी साहिबा इस तरह से क्यों कहती हो? मैं सदके जाऊँ, मैं मर जाऊँ खुदा कसम सारा बाजार रंडा हो जाएगा। सभी कहते हैं अल्लाह रख्खी मेरे साथ निकाह कर ले। कसम अपनी जान की''वह अपने सिर पर हाथ रखकर कहता''मुझे अलीगढ़ का एक आदमी भी पसन्द नहीं। कहाँ लखनऊ के नवाब और कहाँ यह घसियारे... ंखुदा कसम, नवाबंजादी साहिबा हजूर की ंखैर हो, मुझे अल्लाह रख्खा मत कहा करो। मैं तो अल्लाह रख्खी हँ, हजूर की बाँदी। उठाओ अपना चाबुक और उधेड़ दो चमड़ी...।मुझे लखनऊ छोड़ आओ...नवाब साहिब खुद किसी अच्छे साहिबंजादे के साथ मेरा निकाह कर देंगे...।हाय अल्लाह, मरूँ तो नवाबों के शहर, जहाँ मेरी कबर पर कोई आशिक आकर फूल चढ़ाये।''

अल्लाह रख्खी अम्मीजान की बलाएँ लेती। ऑंखों से ऑंसू बहते तो नवाबजादी का हाथ ढ़ीला पड़ जाता।

यह देखकर फिर अल्लाह रख्खी कहती''हाय अल्लाह, दो मिनट नईम बेटी के साथ क्या खेलने लगी कि मेरी आंफत आ गयी। हजूर बताओ, क्या हुक्म है...। नवाबंजादी साहिबा आपके बिना यहाँ मेरा कौन है?''

''नवाबंजादी की बच्ची...हरामंजादी...।''

''हाँ...हाँ नवाबंजादी की बच्ची!'' अल्लाह रख्खी सिर हिला, ऑंखों में ऑंसू लाकर कहती और अम्मीजान के पैर पकड़ लेती। उन पर अपना सिर रख देती। अपनी चुनरी से अम्मीजान के पैर झाड़ती।

नवाबंजादी को चुप खड़ा देख डरते-डरते शिब्बो और बाकी के नौकर भी आ जाते और हाथ जोड़कर माफी माँगते। अल्लाह रख्खी का ड्रामा घर में फिर चहल-पहल ले आता।

मैं बता रही थी कि मेरी अम्मी पाँच बच्चों की माँ होते हुए भी बहुत सुन्दर थी। अब्बा हजूर की ंजरा-सी नारांजगी घर में कयामत ले आती थी।

Sikandar_Khan
10-03-2011, 10:25 AM
2.....
अम्मीजान को याद कोई बेगम साहिबा कह देता तो वह गले पड़ जाती थी। अम्मीजान को अपने मायके पर अभिमान था। वह नवाब बदरो दीन खान की साहिबंजादी और नवाबंजादी थी।

नवाब बदरो दीन खान की क्या बातें थीं। उन्हें दोनों बेटों से बेटी ज्यादा प्यारी थी। जब हमने लखनऊ जाना होता तो अम्मीजान तीन-तीन हफ्ते पहले से तैयार करती, उधर नवाब साहिब नौकरों को आदेश देते''याद रखो, नवाबंजादी तशरींफ ला रही है। उसकी खातिर में कमी नहीं आनी चाहिए।''

''कल्लन...?''

''जी हजूर।''

''काले साँसी को मेरी तरफ से हुक्म देना, नवाब हजूर ने याद ंफरमाया है। जंगली तीतरों का इन्तंजाम कर ले। नवाबंजादी तशरींफ ला रही है।''

''कल्लू को हुक्म दो कि हर दूसरे दिन दो दर्जन बटेर लाये।''

''हाँ...हाँ एक और बात सुनो, सारे काम भूल मत जाना। सरदार जाफर को कहना नवाबंजादी आ रही है। मुर्गाबिए जरूर भिजवा दे, एक-आध हिरन, जंगली मुर्गे मिल जाएँ तो बहुत अच्छा है।''

नवाब साहिब को पचास रुपये वजीफा मिलता, पर उनके शुगल बहुत थे। लाखों की जमीन इन शुगलों में ही जा रही थी।

दीवानखाने के बाहर लॉन में लम्बे बेंच पर हर समय दो-चार आदमी बैठे ही रहते।

''कल्लन खान, नवाब हजूर को हमारा सलाम देना। कहना फज्जू पहलवान खिदमत में हाजिर हुआ है।''

''काम।''

''काम बहुत जरूरी है। मेरा पट्ठा तैयार है। वह हसनखान के बटेर के साथ लड़ेगा। खुदा कसम कल्लन, बटेर क्या है, शहजादा है। उसका एक पंजा भी कोई नहीं सहार सकता। बहुत खूँख्वार है। दाने की जगह किशमिश और सोने के वर्क खिलाये हैं उसे, बादाम और ऑंवले का मुरब्बा।। दिल देख जवान का...।''

''पहलवान, आजकल नवाब हजूर को फुर्सत नहीं। नवाबंजादी साहिबा तशरींफ लाने वाली हैं।''

''दोस्त, हमारा सलाम तो दो नवाब साहिब को, इन रुस्तमों की लड़ाई देखने के लिए अब लखनऊ में रह भी कितने आदमी गये हैं...।''

मुझे अब भी याद है लखनऊ पहुँचने से एक हंफ्ता बाद फज्जू पहलवान के बटेर की लड़ाई हुई। मैं उस समय बहुत छोटी थी, पर अब तक मुझे सारी बातें याद हैं।

दीवान-ए-आम के बाहर लॉन में इसी काम के लिए एक तख्तपोश पड़ा हुआ था। उसके साथ उतने ही ऊँचे दीवान पर काली पड़ा था। मसनद लगाकर नाना अब्बा आकर बैठ गये थे। हुक्के की गोल नली उनके हाथ में थी और हुक्का दीवान से कुछ हटकर एक तिपाई पर सजाकर रखा गया था। मैं नाना अब्बा हजूर के कालीन पर बैठी थी। एक-दो और नाना अब्बा की उम्र के नवाब बैठे पुरानी बातें कर रहेथे।

सामने मेज पर सफेद चादर बिछी थी, जिस पर लड़ाई होनी थी और उसके चारों तरफ दोनों पार्टियों के लोग बैठे हुक्म की प्रतीक्षा कर रहे थे।

''हजूर, हुक्म हो तो दंगल शुरू हो!'' फज्जू पहलवान ने उठकर फर्शी सलाम करते हुए कहा।

''हुक्म है, कोई आदमी शोर-शराबा मत करे।'' नाना अब्बा ने हुक्के की नली उँगलियों में थामते हुए कहा।

बिछी हुई चादर पर थोड़े से दाने बिखेरे गये, और दोनों धड़ों के बीच एक और चादर तान दी गयी।

''कोई आदमी हल्ला-गुल्ला नहीं करे, नहीं तो दंगल बन्द कर दिया जाएगा ओर लोगों को बाहर निकाल दिया जाएगा। कल्लन...

''बीच की चादर ध्यान से खींचना कोई पट्ठा डर नहीं जाये। हमसे बेइन्साफी नहीं हो सकती।''

''जी सरकार।''

चादर खींचने से पहले बटेरों को छोड़ा गया। उन्होंने एक-आध दाना-चुगने के बाद पंख फड़फड़ाये और चादर खींच ली गयी।

मैं क्या बताऊँ नाना अब्बा के शुगल? वे मुनसफ आदमी थे, भेड़ों की लड़ाई के, मुर्गों की लड़ाई के, बारहसिंगे भी लड़ाए जाते थे। बटेरबाज से लेकर कबूतर-बाज तक सभी नवाब अब्बा के हजूर में सलाम करने आते। चाय-शर्बत चलते रहते, पर क्या मजाल कोई नाना अब्बा के हुक्के को हाथ भी लगा जाये।

इन कामों में नाना अब्बा ने लाखों की जायदाद गँवा दी थी, पर दरवांजे से मेहमान भूखा नहीं जाने देते थे।

मेरे अब्बाजान डॉक्टर असलम साहिब को नाना अब्बा के साथ बहुत चिढ़ थी। पर मेरी माँ अपने अब्बाजान पर फख्र करती थी। वह नवाबंजादी जो थी। पर अभी नवाबंजादी को दु:ख के दिन देखने बाकी थे।

अलीगढ़ वाली हवेली भी एक केन्द्र (मरकज) बन गयी। जो भी आता यही पूछता''डॉक्टर साहिब कहाँ हैं...।''

''काम।''

''काम उन्हीं के साथ है।''

नवाबंजादी इतने ंफजूल आदमियों की आवभगत से खीझ जाती और पूछती''खान साहिब ये कौन लोग हैं...?''

''बेंगम, हर बात औरतों को बताने वाली नहीं होती, तुम अपना काम कियाकरो।''

हमारी अम्मी को बहुत गुस्सा आता, पर उसकी पेश नहीं चलती थी।

हमारे घर में मीटिंगें होतीं, खुंफिया आदमी आते, पर पता कुछ नहीं लगता।

रावलपिंडी जल रहा है, लाहौर आग लगी हुई है। हिन्दू-सिख घर छोड़-छोड़कर भाग रहे हैं। मुसलमानों के दुश्मन बस सिख हैं सिख। इन पर काबू पा लिया तो सारा पंजाब हाथ में आ जाएगा। जैसे-जैसे ये खबरें आतीं, अब्बाजान के मुँह पर निखार आ जाता। उन्होंने अपनी हवेली के आसपास ही नहीं, मुहल्ले के आसपास भी किला-बन्दी करवा दी।

जालन्धर, लुधियाना, अमृतसर सभी सिखों ने उजाड़ दिये, बुर्के फाड़ दिये गये। स्त्रियों का स्त्रीत्व नष्ट कर दिया गया...हाय...हाय... छातियाँ काट दी गयीं...नंगे जुलूस...तौबा तौबा।

मेरे अब्बा के माथे पर पसीना आ गया और उन्होंने हवेली की खिड़की में खड़े होकर विश्वविद्यालय की बड़ी-बड़ी मीनारों को देखकर एक लम्बा साँस लिया।

एक खबर आयी दिल्ली में गड़बड़ हो गयी है। पहाड़गंज, चाँदनी चौक सभी को साफ कर दिया गया है। यह सुन अब्बाजान को महसूस हुआ कि उनकी सारी स्कीमें फेल हो गयी हैं। उन्होंने अपनी ंकब्र को अपने हाथों खोदा है।

अम्मीजान को अपना शृंगार भूल गया और वह भागकर अब्बाजान के गले लगकर रोने लगी।

''हजूर को यह क्या होता जा रहा है। आप बोलते क्यों नहीं। लड़कियाँ जवान हैं, लड़के जवान हैं। सुना है, लाहौर की तरफ से आये सिख मुसलमानों की लड़कियों को नहीं छोड़ते, लड़कों को झटका देते हैं। किसी की कोई पेश नहीं जा रही। यह वहशी कौम कहाँ से आ गयी।''

अब्बाजान चुप थे, बिल्कुल चुप। उनके माथे पर पसीना आ रहा था। सभी बच्चे उनके आसपास बैठे थे। अल्लाह रख्खी एक कोने में बैठी रो रही थी। शिबन पता नहीं कहाँ चली गयी थी। घर ंकब्रिस्तान बन गया था।

नौकर ने चाय तैयार की। वह पड़ी-पड़ी ठंडी हो गयी। सुबह का खाना भी पड़ा हुआ था। ऐसा लग रहा था कि जैसे रात होते ही घर में डाका पड़ गया हो। इतने में अल्लाह रख्खी दौड़ी-दौड़ी अन्दर आयी''हजूर की ंखैर हो, दिल्ली से एक आदमी आया है। वह जनाब को मिलना चाहता है। कहता है, काम हजूर को ही बताएगा।''

''उसे अन्दर जे आओ।''

जो आदमी अन्दर आया, उसे हम सभी जानते थे। आदमी चाचा अब्बा का विश्वासपात्र नौकर था। ऐसा लग रहा था कि वह जान पर खेलकर हम तक पहुँचा था। उसने अब्बा हजूर को सलाम करते हुए कहा''खान साहिब ने यह चिट्ठी दी है। मुझे जल्दी वापस जाना है। दिल्ली वाले अपनी जान बचाकर कसमपुरसी की हालत में हुमायूँ के मकबरे में पनाह ले रहे हैं।''

चिट्ठी में लिखा था नवाबंजादी साहिबा और बच्चों को लेकर जल्दी पहुँच जाओ। हमारा कांफिला कराची जाने वाला है। बच्चे हवाई जहाज में पहुँच चुके हैं। दिल्ली बरबाद हो गयी है।

सिख क्या, मुसलमान मुसलमान को खा रहा है। रिश्वत बहुत चल रही है। कराची पहुँचने के लिए हवाई जहाज का इन्तंजाम कर लिया गया है। आदमी चला गया तो हमारे घर मातम छा गया।

अब्बाजान का दिमाग अनेक प्रकार के विचारों से भर गया था। वे चुप थे, जैसे सकता मार गया हो। हम बेघर हो चले थे, जलावतन किये जा रहे थे। सिख मुसलमानों के मुकाबले पर...छातियाँ काट दी गयीं, बुकर्ें फाड़ दिये गये। कतारों में नंगी खड़ी की गयी मेरी साहिबंजादियाँ, मेरी बेंगम, यह सब मेरे अमालनामे हैं, अब्बाजान हवेली की खिड़की में खड़े बाहर की ओर देख रहे थे। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यूनिवर्सिटी की एक मीनार अपने आप गिर गयी हो। फिर उनकी निगाह यूनिवर्सिटी के प्रांगण में गयी! जहाँ सर सैयद अहमद खान के मंजार से कुछ हटकर उनके दादाजान और अब्बा साहिब की ंकब्रें थीं।

उन्हें लगा कब्रों में से मिट्टी उड़ रही है। उस मिट्टी ने अनेक व्यक्तित्वों का रूप धारण कर लिया। अब्बाजान ने इन शख्सियतों के बारे में हमें कराची में भी पत्र डाला था और लिखा थामैं बाप-दादा की ंजमीन से अलग नहीं हो सकता। पता नहीं इन रूहों ने अब्बा हजूर से क्या बातें की थी...फिर खिड़की से अपना मुँह घुमा उन्होंने हुक्म दिया''सभी तैयार हो जाओ, बुर्के उतार देना, कोई मुसल्ला या लाटा न उठाये। अलीगढ़ से हमें चोरों की तरह निकलना होगा।''

''बसीर!''

''जी हजूर...।''

Sikandar_Khan
10-03-2011, 10:27 AM
3....

''तुम मोटर तैयार करो, बेंगम, साहिबजादियों और लड़कों को लेकर तुम भाई साहिब के पास दिल्ली पहुँचो। रास्ते में नहीं ठहरना। रात को वापस पहुँचना होगा। मैं तेरी इन्तजार करूँगा। शाबास, मेरे बहादुर बच्चे...''

''और हजूर।'' नवाबजादी ने तरले से भरी आवांज में कहा।

''मैं भी पहुँचूगा।''

''मैं हजूर के बिना नहीं जा सकती।''

''देखो बेगम, इन बीस वर्षों में मैंने आपको कभी कोई हुक्म नहीं दिया। आज डॉक्टर आलम हुक्म दे रहा है, तुम तैयार हो जाओ, जिद नहीं करो। यह रुपये सम्भालो आपके काम आएँगे।''

नवाबजादी ने घुटनों के बल खड़े होकर, अब्बा हजूर का हाथ चूमा और ऑंसू बहाते हुए कहा''मेरे आंका! बाँदी को धोखा मत देना। यह नवाबजादी नहीं, फकीरजादी दरंखास्त करती है। हजूर बिना मैं जिन्दा नहीं रह सकती। मुझे अपने हाथों से मार दो, कौन है जनाब को पूछने वाला।'' माँ की इन बातों ने सभी को रुला दिया।

''बेगम उठ।'' अब्बा ने नवाबजादी को दोनों कन्धों से पकड़कर उठाया और हमारे सामने ही उन्हें गले लगा लिया, मेरी अम्मा का माथा चूम लिया। पता नहीं इस चुम्बन में कितनी तल्खी और कितने सकून थे।

हमाने दिल्ली से अम्माजान को कितनी ही चिट्ठियाँ डालीं। कितने पैगाम भेजे, पर वे नहीं आये। और न ही कोई जवाब आया। दिल्ली से जाते समय मेरी अम्मी फूट-फूटकर रोयी। महबूब इलाही के मंजार शरींफ की तरफ मुँह करके उन्होंने अपने शौहर के लिए दुआ माँगीसौ-सौ संजदे किये और दिल्ली की खाक को सिर पर लगा रोते हुए कहा''नवाबंजादी ंफकीरंजादी हो गयी है, है ंखुदा!''

कराची पहुँचते ही हमें अच्छा मकान मिल गया। भाई असगर की कॉलेज में नौकरी लग गयी। हम सभी पाठशाला जाने लगे। हम उदास थे, पर खुश भी। अब हमें कोई सिख नहीं सता सकता था। सिखों की भयानक बातें सुन, कई बार मैं सोते-सोते चीखने लगती थी। अम्मीजान सुबह नमांज पढ़ती तो दुआ करती। उसकी ऑंखों से ऑंसू बहने लगते''या अल्लाह! मेरे डाक्टर साहब की खैर हो। मेरा सुहाग कायम रहे।''

अम्मी ने खाना-पीना छोड़ दिया। कुछ महीनों में ही कनपटियों पर उनके बाल सफेद हो गये। वह हर हफ्ते अब्बाजान को खत लिखती, तार डलवाती, पर कोई जवाब नहीं मिला। अम्मीजान पागल-सी विलाप करती। कपड़े फाड़ देती और भिखमंगों की तरह हाथ फैला-फैलाकर डाक्टर असलम की ंखैरियत के लिए दुआ माँगती। कितनी बार अब्बा हजूर को लिखा था''डाक्टर साहिब! ंखुदा के दरवांजे सदा खुले हुए हैं। मैं हशर के दिन हजूर का दामन पकड़ पुलसरात की कठिन घाटी ऑंखें मींचकर पार कर जाऊँगी। मेरा रहबर मेरे साथ होगा। क्या मेरी जिन्दगी में हजूर के न्याज हासिल नहीं हो सकते? मैं हजूर की बाँदी हँ। मेरे दफनाए जाने से पहले एक बार मेरे महबूब मुझे देख जाते और अपने हाथ से मेरी कब्र पर पत्थर लगवा जाते। नवाबंजादी महिरुल निसा जोंजा डाक्टर असलम आराम फरमा रही है। नहीं तो कयामत के दिन पूछूँगी। मेरा क्या दोष था, मुझे इतनी बड़ी सजा क्यों दी।''

हमसे माँ का दु:ख देखा नहीं जाता था। मामा साहिब आते। वे डाक्टर थे। अपनी बहन को तसल्ली देते। उनका एक भाई अभी तक हैदराबाद में था। नाना अब्बा लखनऊ से नहीं निकल सकते थे और कुछ वर्ष पहले वहीं वफात पा गये थे। उनके पास अपना कोई अजींज नहीं था।

आदमी को मिट्टी से कितनी मुहब्बत होती है, वह मर सकता है, पर उस का मिट्टी से प्यार नहीं टूट सकता। नानाजान ने वह सरंजमीन नहीं छोड़ी, पर मौत कबूल कर ली।

नानाजान ने एक बार हमारी माँ अर्थात् नवाबजादी को लिखा था''महरो, जब कभी लखनऊ आओ, मेरे मंजार पर अपने हाथ से अगरबत्ती जलाना। मैं अकेला रह गया हँ। मेरे साथ सिर्फ कल्लन है। कभी-कभी अमीनाबाद के चौक में जाकर खड़ा हो जाता हँ। अपना कोई भी नजर नहीं आता। महिरो, तुम्हारी मुहब्बत मेरे दिल में बसी हुई है। पर जब मेरी साँस से लखनऊ की मिट्टी की महक आती है, मेरी ऑंखें मुँद जाती हैं। मेरी जमीन सरकार ने सम्भाल ली है। मेरे लिए हवेली का सामान काफी है। कोई शुगल नहीं, आंखिरी दिन की इन्तंजार है। मैं जफर की तरह रोना नहीं चाहता'दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।'

मौत के बाद भी मुझे कोई इस जमीन से अलग नहीं कर सकता। तुझे मिलने की एक तड़प बाकी है।

अब्बाजान बिलकुल चुप हो गये थे। पर माँ को नाना अब्बा के खतों से मालूम चल गया था कि डाक्टर असलम क्यों नहीं आ रहे।

मुसलमान मूर्तिपूजक नहीं होता। मेरी अम्मी मूर्तिपूजक हो गयी। यह उसकी मुहब्बत की बहिशत का नतीजा था। पता नहीं किसने अलीगढ़ विश्वविद्यालय की पत्रिका उन्हें दी, जिसमें डाक्टर अब्बा की तस्वीर थी। वे रंगीन गाउन और चौड़ी टोपी पहन कन्वोकेशन के जुलूस में जा रहे थे। नीचे लिखा था डाक्टर एम।असलम, वाइस चाँसलर।

अब्बाजान की ठोढ़ी पर की छोटी-सी दाढ़ी बिल्कुल सफेद हो चुकी थी। जब अम्मी ने तस्वीर देखी तो फूट-फूटकर रोने लगी। उसको दंदल पड़ गयी। मामाजान आये हुए थे। नवाबजादी की हालत देख उनकी ऑंखों में भी ऑंसू आ गये। डाक्टर भाई साहिब और प्रोंफेसर भाई साहिब तथा हम तीनों बहनें पास थे। डाक्टर भाई साहिब माँ को होश में लाने की कोशिश कर रहे थे तथा साथ खुद भी रोते जा रहे थेया अल्लाह फजल करो।

अम्मीजान ने अब्बाजान की तस्वीर को शीशे में जड़वाकर मेज पर रख लिया। मेज मगरब की तरफ थी। अम्मीजान नमाज पढ़ जब सिंजदा करती तो डाक्टर अब्बा की तस्वीर सामने होती। ऐसा लगता कि जैसे वे अपने देवता को सिजदा कर रही हो। अम्मा कई-कई घंटे मुसल्ले से न उठती। वह अपने महबूब से बातें करती रहती। कई बार हम चुपचाप उसके पीछे खड़े हो जाते पर उसको इसकी कोई खबर न होती।

घर में सब कुछ था। मेरा विवाह चाचा अब्बा के घर हो चुका था। सलमा एम।ए। कर चुकी थी। और अब्बाजान की यादें धुँधली पड़ती जा रही थीं, पर अम्मा का घाव वैसे ही रिस रहा था। उसमें अब प्राण नंजर नहीं आ रहे थे।

वह तरले करती कि अलीगढ़ जाए, वह मिन्नतें करतें कि लखनऊ जाकर देखे, हैदराबाद जाकर बड़े भाई साहिब को मिले। पर मेरे दोनों भाई साहब उन्हें जाने नहीं देतें थे। उन्हें हिन्दुस्तान से चिढ़ थी और ंखासकर सिखों से। 'अलीगढ़ में फिर फसाद हो गये हैं। यह सिख कितनी घटिया कौम है, औरतों का भी लिहांज नहीं करते। अम्मीजान आप बहुत कमंजोर हो गयी हैं।' मेरी अम्मी अलीगढ़ की मिट्टी के लिए तरसती हुई चल बसी।

एक दिन अम्मी ने मुझे अपने घर बुलाकर कहा था''नईम बेटी, तुम अब समझदार हो गयी हो, बहादुर भी। मेरा आखिरी समय आ गया है। एक बार अलीगढ़ जाना और डाक्टर साहब को मेरा सलाम देना। और कहना, हजूर मेरी अम्मी को मांफ कर देना, वह बड़ी गुनाहगार थी, मेरे लिए दुआ करें और महशिर वाले दिन मेरा हाथ पकड़ लें।''

अम्मी चिल बसी, पर अब्बाजान की तरफ से कोई खत नहीं आया। हम दोनों बहिनें हिन्दुस्तान जाने के लिए तैयार हो गयी थीं। माँ की बातें हमारे कानों में गूँज रही थीं। फिर कौन रोक सकता था?

मैं पहले ही बता चुकी हँ कि मैं बड़ी थी, पर सलमा से छोटी लगती थी। वह विवाहिता और मैं क्वाँरी लगती। साथ में उसने मेरा बच्चा जो उठाया हुआ था। वह बिना बुरके की और मैं बुरकेवाली। हमने सीमा पार की। हमारा रंग पीला पड़ गया। मोटे-मोटे सिख, बड़ी-बड़ी पगड़ियों और बिखरी हुई दाढ़ी वाले...जिन्न...अल्लाह तेरा फंजल। हम दिल्ली पहुँचीं...हमारी साँस-में साँस आयी। दिल्ली स्टेशन उसी तरह था जैसे आज से चौबीस साल पहले था। कुछ मुसलमानों की शक्लें नंजर आयीं तो हमारी साँस-में-साँस आयी। मैंने लम्बी साँस लेते हुए सलमा की तरफ मुँह करते हुए कहा

''अभी तक वो गलियाँ हसीनो-जवाँ हैं

जहाँ हमने अपनी जवानी लुटा दी।''

सलमा यह सुनकर मुस्करा पड़ी। उसकी मुस्कराहट में ंजहर घुला हुआ था। उसने कहा''हम तो ऐसे नहीं।

अभी तक वो गलियाँ हसीनो-जवाँ हैं

जहाँ हमने अपने है बचपन को खोया।''

हम बहुत खुश थे कि अलीगढ़ के स्टेशन पर अब्बा हजूर हमें लेने के लिए आये होंगे। पर वे कहीं नंजर नहीं आये। हमारे पास आकर एक बूढ़े-से मुसलमान ने पूछा''बेटी नईम है।''

''हाँ...हाँ...।''

और वह रोता हुआ हमारे सिरों पर हाथ फेरता रहा ''बिस्मिल्लाह! बिस्मिल्लाह! मेरी बेटियाँ आ गयी हैं।'' यह हमारा पुराना नौकर बसीर था जो अब काफी बूढ़ा हो चुका था।

''खान साहब आपका इन्तंजार कर रहे हैं। वे स्टेशन पर नहीं आ सकते।''

हम बहुत खुश थीं। वर्षों बाद अपने घर आयी थीं। अब्बा हजूर अन्दर थे और हमारा मन कर रहा था कि दौड़कर जाएँ और उन्हें बाँहों में ले लें। हम अन्दर गयीं तो डर गयीं, हमारे रंग पीले पड़ गये। अब्बा हजूर के बिलकुल पास एक सिख खड़ा था और उसके साथ एक सुन्दर लड़की। अब्बा हजूर ने हमें कसकर गले से लगा लिया और सरदार की तरफ इशारा करते हुए कहा''मेरे मुहाफज और अपने भाई साहब जोगिन्दर सिंह से मिलो।'' हम हिल न सकीं। पर सरदार जी ने हमारे सिरों पर प्यार दिया और उनको पासा खड़ी उनकी बीवी ने हम दोनों बहनों को गले लगाते हुए कहा''हम कितने दिनों से आपका इन्तजार कर रहे थे। आओ मेरे बेटे अपनी मामी के पास।'' मेरे बेटे को उठाते हुए उसने कहा।

Sikandar_Khan
21-03-2011, 11:13 PM
परदेसी - बदीउज़्ज़माँ की कहानी
"खाजे बाबू हथिन ?"
बाहर से वही जानी पहचानी आवाज़ आयी। मैं समझ गया, छाको का खत आया है और जनबा खत पढवाने के लिये मेरे पास आना चाहती है ।
मैं अभी-अभी कालेज से आया था, बदन पसीने में तर हो रहा था। सूरज डूब चुका था, पर बाहर अब भी बहुत तपिश थी। कमरे में बैठना अच्छा लग रहा था। जी चाह रहा था, कुछ देर अँधेरे कमरे में लेटा रहूँ। झुलसाने वाली गर्मी में साइकल पर चार मील का रास्ता तय करके घर पहुँचा था। बहुत थका हुआ था। ऐसे में जनबा की आवांज सुनकर मुझे बड़ी कोफ्त हुई। छाको के खत पढ़ने में वैसे भी मुझे बहुत उलझन होती थी। खुद लिखा-पढ़ा तो था नहीं, जाने किससे खत लिखवाकर भेजता था। जबान की बात तो अलग रही, लिखावट ऐसी होती कि पढ़े पढ़ी न जाती थी। इबारत और हिज्जे की गलतियों का तो हिसाब ही नहीं था। जितनी दिक्कत कचहरी के कागजात पढ़ने में होती है, उससे कम दिक्कत मुझे छाको का खत पढ़ने में न होती। शुरू-शुरू में तो बहुत ज्यादा दिक्कत होती थी, पर अब इस लिखावट से कुछ परिचित हो चला था। दो-चार लफ्ज न भी पढ़ पाता, तो अन्दाज से मतलब भाँप लेता था और मेरा अन्दाजा हमेशा सही साबित होता, क्योंकि जनबा सिर हिला-हिलाकर मेरे अन्दाज की तसदीक कर देती थी।
पिछले आठ-दस सालों से छाको के खत पढ़ने का सिलसिला चल रहा हैयानी जब से छाको अपने बाबा से लड़कर यहाँ से गया है। पहले उसके खत कोडरमा से आते थे, उसके पहले झुमरी तलैया से और उसके भी पहले हजारीबाग से। फिर वह कलकत्ता चला गया और अब वह कलकत्ते में ही है। साल में एकाध बार अब भी आ जाता था और जब आता, तो मुझसे जरूर मिलता।
जनबा, जिसका असली नाम जैनब है, छाको की बेवा बहन है। वह उसे बुआ कहता है। शौहर के मरने के बाद उसके कुनबे के खर्च का बोझ छाको ही उठाता आया है। वह अपने बाप को रुपये नहीं भेजता, पर जनबा के नाम पर हर महीने कभी तीस रुपये, कभी पैंतीस रुपये का मनीआर्डर जरूर आता। उसकी लड़की भी जनबा के साथ ही रहती है। जनबा, उसकी बहन और भाई और बाप, सब एक ही घर में रहते हैं। पर जनबा का चूल्हा अलग है। यह चूल्हा छाको का भी है, क्योंकि उसकी बच्ची जनबा के साथ ही रहती है।
''खाजे बाबू हथिन?'' जनबा पुकार रही थी।
अब उठना ही पड़ेगा, यह सोचता हुआ मैं उठा। बाहर की तरफ खुलने वाला दरवांजा खोला। जनबा हाथ में एक लिंफांफा लिये खड़ी थी। कुछ कहे बगैर उसने खत मेरे हाथ में थमा दिया और खुद दहलींज पर बैठ गयी।
मैं खत देखकर चौंक गया। यह क्या! वही लिखावट थी, बात लिखने का अन्दाज भी वही था और खत भी छाको का ही था, पर खत पाकिस्तान से आया था। मुझे उत्सुकता हो रही थी। अपनी उत्सुकता में क्षणभर के लिए मैं भूल ही गया कि जनबा बैठी है और उसे खत पढ़कर सुनाना है। मैं मन-ही-मन सारा खत एक बार पढ़ गया। फिर मुझे एहसास हुआ कि जनबा मेरी तरफ हैरानी से देख रही है। मैं चिट्ठी पढ़कर सुनाने लगा। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से बाबा को बहुत-बहुत सलाम, और जैनब बुआ को सलाम और भाई सबको दुआ। मालूम हो कि खुदा के मेहरबानी से हम खैरियत से हैं और आप लोगों की नेक खैरियत चाहते हैं। आप सब कहेंगे कि अब्दुश्शकूर कलकत्ता से बिना ंखबर किये यहाँ कैसे आ गया। इलाही मास्टर जिनकी दुकान में हम काम करते हैं कहिन कि इलाही टेलरिंग हाउस पाकिस्तान में खोलेंगे। सब कारीगरों से बोले कि हमारे साथ चलना होगा। हम बड़े मुश्किल में फँसे। इतना वक्त भी नहीं दिया कि आप लोगों से मिलकर कुछ सलाह कर सकें। चार-पाँच दिन के अन्दर-अन्दर हम सबको लेकर ढाका पहुँच गये। इलाही मास्टर के एक बहनोई यहाँ हैं। यहाँ आने पर पता चला कि वही इलाही मास्टर को बहकाइन था पाकिस्तान चलने के वास्ते। जमी-जमाई दुकान उजाड़कर यहाँ आ गये। हम सब कारीगर लोग इलाही मास्टर के बहनोई के मकान में एक कोठरी में रहते हैं। इलाही मास्टर को दुकान नहीं मिली है। खोज रहे हैं। खुदा करे जल्दी मिल जाए। खाली बैठे-बैठे जी घबरा रहा है।''
''बाबा और जनबा बुआ को मालूम हो कि हम एकदम ठीक हैं। कोई फिकर की बात नहीं। रुपया हर महीने जाएगा। चिट्ठी बराबर दिया कीजिए। ढाका अच्छा शहर है। कलकत्ता के इत्ता बड़ा नहीं है लेकिन अपने गया से बड़ा शहर है। यहाँ बंगाली लोग बहुत हैं। बंगाली लोग अपने मुलक के आदमी सबसे बहुत चिढ़ता है। कहता है कि यह सब कहाँ से आ गया हमारे देस में। इलाही मास्टर के साथ इत्ते रोज काम किया था, इसलिए उनकी बात मानकर यहाँ आ गये। यहाँ पानी खूब बरस रहा है। गया में तो बहुत गरम होगा। मोहल्ले का सब हाल लिखना। हमारी तरफ से मोहल्ले के सब लोगों को सलाम और दुआ। एक जरूरी बात यह है कि मुहर्रम आ रहा है। अखाड़ा निकलेगा। उसमें हमारी तरफ से पाँच रुपया दे दिया जाये, जैसे हर साल दिया जाता है। बाबा को सलाम, जुबैदा को उसके बाबा की दुआ, मुस्तकीम और यासीन को मेरी तरफ से बहुत-बहुत दुआ।''
मैं खत पढ़ चुका, तो देखा कि जनबा रो रही थी।
''छाको का अक्कल देखला ना खाजे बाबू! बप्पा, भइवा, बहिनिया सब तो हियाँ हथिन। अप्पन चल गेइल पाकिस्तान! हमनी सबका नसीब खराब बाबू! आउ का कहा जाये!''
मैं चुप रहा। कहता भी क्या! जनबा खत लेकर ऑंचल से ऑंसू पोंछती हुई चली गयी।
छाको का खत पढ़कर मुझे अजीब-सा लगा। एक लम्बे अरसे से वह बाहर-बाहर रहा था। कभी हजारीबांग, कभी झुमरी तलैया, कभी कोडरमा, कभी कलकत्ता। पर ये सब जगहें हिन्दुस्तान में थीं और ये जगहें ऐसी थीं, जहाँ अकसर हमारे मोहल्ले के लोग रोजगार और काम-धन्धे की तलाश में जाते रहते थे। पर ढाका तो मुल्क ही दूसरा हो गया। ऐसी बात भी नहीं है कि मेरे मोहल्ले से कोई पाकिस्तान गया ही न हो, पर जिनको जाना था, वे बँटवारे के तुरन्त बाद ही चले गये थे। जाने वालों में तकरीबन सबके सब पढ़े-लिखे नौकरीपेशा लोग थे, या फिर ऐसे लोग थे, जिनके पास रुपया था। उसके बाद से मोहल्ले की जिन्दगी में इस लिहाज से ठहराव-सा आ गया था। मोहल्ले में पढ़े-लिखे खुशहाल लोग वैसे भी कम ही थे और पाकिस्तान बनने के बाद उनकी तादाद और भी घट गयी थी। लेकिन जुलाहे, दर्जी, राज, मजदूर, कसाई और इस तरह के निचले तबके के दूसरे लोग मोहल्ले में वैसे ही मौजूद थे, जैसे पहले थे। इनकी तादाद बढ़ी ही थी, घटी नहीं थी। इसलिए छाको का पाकिस्तान चला जाना मुझे अजीब-सा लग रहा था, जैसे कोई ऐसी घटना घटी हो, जिसकी उम्मीद न हो। दिल यह मानने को तैयार नहीं था कि छाको अपनी मर्जी से पाकिस्तान चला गया है। उसके खत से भी जाहिर हो रहा था कि इलाही मास्टर के जोर देने की वजह से वह गया है। पर यह वजह भी बजाहिर बहुत लचर मालूम देती थी। वह कोई बच्चा तो था नहीं कि जोर-जबरदस्ती से उसे मजबूर कर दिया जाता। वह अड़ जाता, तो इलाही मास्टर क्या कर लेते! लेकिन छाको के खत के हर लंफ्ंज से ऐसी मासूमियत टपक रही थी कि मुझे यह मानना ही पड़ा कि छाको न टाली जा सकने वाली किसी मजबूरी की वजह से ही पाकिस्तान गया है।
अब जब कि छाको अपने मुल्क को छोड़कर किसी और मुल्क में चला गया था, न जाने क्यों मैं उसे अपने से बहुत करीब महसूस कर रहा था।
कमरे का दरवाजा, जिसकी चौखट पर कुछ देर पहले जनबा बैठी थी, खुला हुआ था। बरामदे के फर्श पर ईंट के टुकड़ों से रेखाएँ खींचकर लाल दायरे, चौकोर खाने और जाने क्या-क्या शक्लें बनाई गयी थीं। यह मोहल्ले के लड़कों की कारस्तानी थी। लाख डाँट-डपट कीजिए, लेकिन वे अपनी हरकत से कहाँ बाज आते हैं। जैसे ही पता लगा कि कमरे में कोई नहीं है, मोहल्ले-भर के लौंडे जमा हो गये'चक्को बित्ता', 'लंगड़ी टाँग' और 'अंटा' खेलने की खातिर। कमरे का दरवाजा खुला नहीं कि सब पलक झपकते गायब! नाक में दमकर दिया था लौंडों ने! पर इस वक्त जरा भी झुँझलाहट नहीं हुई बरामदे के फर्श को गन्दा देखकर। ऐसा लगा कि छाको और हम दोनों ने ही खेलने की खातिर फर्श पर ईंट के टुकड़ों से लाल रेखाएँ खींची हैं। हम दोनों दीन-दुनिया से बे-खबर खेल में मस्त हैं। और तब एकाएक अब्बाजान की रोबदार आवांज गूँजी है। छाको यह जा, वह जा और मैं भी एक छलाँग में ही कमरे के अन्दर आ गया हँ। पर अब्बाजान को तो सब कुछ मालूम हो चुका है। उनकी दिल दहला देने वाली आवांज कानों में पहुँच रही है, ''मरदूद! सूरत हराम! कितनी बार मना किया, कमीने लड़कों के साथ न खेला कर! पर कम्बख्त मानता ही नहीं! आयन्दा कभी देखा इस तरह खेलते हुए, तो जान से मार डालूँगा।''
पर दूसरे दिन अपनी जान की परवाह किये बगैर मैं फिर छाको के साथ बरामदे में खेलता दिखाई देता।
हमारा खानदान सैयदों का था। मोहल्ले में दो-चार घर ही तो सैयदों के थे। बाकी लोग तो जुलाहे, कसाई या दर्जी थे। मोहल्ले के सब लोग हमारे घर वालों की बहुत इज्जत करते थे और अपना दर्जा हमसे बहुत कम मानते थे। अब्बाजान को अपने खानदान के बड़प्पन का एहसास जरूर था, लेकिन मोहल्ले वालों पर कभी यह जाहिर नहीं होने देते थे कि वह खुद को उनसे बड़ा समझते हैं। मुझे या घर के किसी और बच्चे को मोहल्लों के लौंडों के साथ अंटा या गुल्ली-डंडा खेलते देखते, तो बहुत नाराज होते। उनके सामने तो कुछ न कहते, पर अलग ले जाकर इस बुरी तरह डाँटते कि खौफ से हमारा बुरा हाल हो जाता। एक दिन जब छाको के साथ खेलने के जुर्म की सजा के तौर पर वह मुझे फटकार रहे थे, तो इत्तफाक से छाको ने उनके शब्द सुन लिये थे। उसके बाद वह हफ्तों मुझसे दूर-दूर रहा। लाख मनाने की कोशिश की, पर किसी तरह मानता ही नहीं था। मुझे भी अब्बाजान की बातें बहुत बुरी लगी थीं। खास तौर पर छाको के लिए 'कमीना' लफ्ज सुनना मुझे किसी तरह गवारा नहीं था। जबकि छाको ने खुद अपने कानों से सुन लिया था, मुझे बहुत शर्म महसूस हो रही थी, जैसे मुझे चोरी करते हुए पकड़ा गया हो। मुझे अब्बाजान पर बहुत गुस्सा आया था। आखिर उनको क्या हंक पहुँचता है मेरे साथी को इस तरह बुरा-भला कहने का? मुझे जितना चाहें, डाँट लें, पर छाको को कमीना कहने का उन्हें कोई हक नहीं है। छाको का दिल दुखाकर क्या मिल गया था उनको! उनसे कुछ कहने की हिम्मत तो नहीं होती थी, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर गुस्सा सुलगता था।
मैं छाको को मनाने की कोशिश करता रहा। गर्मियों के दिन थे। सुबह का स्कूल था। अब्बाजान भी सवेरे कचहरी जाते और बारह-साढ़े बारह बजे तक लौट आते थे। जैसे ही खाना खाकर वह सोते और खर्राटे की आवांज मेरे कानों में पहुँचती, चुपके से उठता, कुर्सी पर चढ़कर आहिस्ता से दरवांजा खोलता और फिर बाहर से दरवांजे को इस तरह भेड़ देता कि जागने पर अब्बाजान को पता न चले कि मैं बाहर बरामदे में पहुँच गया हूँ। छाको गली में ही या अपने घर की डयोढ़ी में नंजर आ जाता। हलके से ताली बजाकर या ककड़ी फेंककर उसे बरामदे में बुलाता। पर मुझे देखते ही वह मुँह फुला लेता। फिर कहता, ''हम नहीं खेलते तुमरे साथ! तुम शरींफ हो तो अपने घर के! हम कमीने हैं तो अपने घर के! नहीं खेलते तुमरे साथ!''
अब्बाजान की बात उसको बहुत बुरी लगी थी। लेकिन इसमें मेरा क्या कसूर है? मैं सोचता। अब्बाजान की जबान मैं कैसे बन्दकर सकता हँ! यह भी छाको की ज्यादती है कि अब्बाजान की गलती का बदला मुझसे लेना चाहता है। मैंने तो नहीं कही कोई ऐसी-वैसी बात! मुझसे नारांज होने का क्या मतलब है? फिर दिल में सोचता कि ज्यादती दरअसल अब्बाजान की है। वह कौन होते हैं किसी को कमीना कहने वाले? कई बार दिल में इरादा करता कि अब्बाजनान से कहँ इसके बारे में, पर उनको देखते ही हिम्मत जवाब दे देती। जाने गुस्से में क्या कर बैठें? अम्मी तक तो थरथर काँपती हैं उनसे। मैं किस खेत की मूली हँ! पर एक दिन जाने कैसे हिम्मत करके मैंने उनसे अपनी बात कह डाली। कहने के बाद दिल जैसे डूब-सा गया। लेकिन उस दिन अब्बाजान का मूड बहुत अच्छा था। सुनकर क्षण-भर तो मेरी तरफ देखते रहे, फिर अपनी मूँछ पर उँगली फेरते हुए गम्भीर मुद्रा में बोले, ''अच्छा, तो यह बात है!'' फिर उँगली के इशारे से अपने पास बुलाते हुए बोले, ''यहाँ आओ।'' काटो तो लहू नहीं बदन में। डर के मारे बुरा हाथ था। लेकिन एकाएक मेरी पीठ को ठोंकते हुए वह हँस पड़े और बोले, ''तो छाको ंजनाराज हो गया है मेरी बात पर! मैं उसे मना लूँगा। तुम कोई फिक्र न करो।''
अगले रोज इतवार था। स्कूल और दंफ्तर की छुट्टी थी। अब्बाजान रोंज की तरह तड़के ही उठे। वजू करके नमांज पढ़ी। फिर मुझे उठाया। जेब से एक रुपया निकालकर दिया। कहा, ''जाओ, बिशुन हलवाई के यहाँ से एक रुपये की जलेबियाँ ले आओ।''
अब्बाजान नमाज पर बैठे हुए वजीफा पढ़ने लगे। मैं दौड़ा-दौड़ा बिशुन हलवाई की दुकान पर पहुँचा और गरम-गरम जलेबियाँ लेकर तुरन्त आ गया। तब एक रुपये में कित्ती सारी जलेबियाँ आ जाती थीं? मिलावट और डालडा वगैरह का तो नाम भी नहीं सुना गया था उस वक्त। जलेबियाँ मुझे बहुत पसन्द थीं, इसलिए मैं बहुत खुश हो रहा था। लेकिन साथ-साथ हैरत भी हो रही थी कि आज न तो कोई त्योहार है और न कोई ऐसी खास बात हुई है, फिर सवेरे-सवेरे अब्बाजान को फातिहा का खयाल कैसे आ गया? खर, मैं तो यह सोचकर खुश हो रहा था कि आज उठते ही गरम-गरम जलेबियाँ खाने को मिल रही हैं। फातिहा पढ़कर अब्बाजान ने तख्त पर बिछी जानमाज पर बैठे-बैठे ही जोर से पुकारा, ''छाको!''
अब्बाजान की आवांज छाको ने सुनी, या नहीं, मैं नहीं कह सकता, लेकिन उसके बाबा महम्दू खलीफा दौड़कर हमारे बरामदे में पहुँच गये।
''का कहते हैं बाबू?''
''छाको को भेज देना। फातिहा की मिठाई देनी है।''
''जी अच्छा, अभी भेजते हैं।''
छाको डरते-डरते कमरे में आया। अब्बाजान ने प्यार-भरे लहजे में उससे अपने पास तंख्त पर बैठने को कहा। फिर एक तश्तरी में बारह जलेबियाँ रखकर उसे दीं और कहा, ''चार तुम्हारी हैं, चार जनबा की और चार बेंगा की। जब वह चलने लगा, तो अब्बाजान ने मुहब्बत से उसके सिर पर अपना हाथ रखा और कहा, ''बड़ों की बात का बुरा नहीं मानते हैं! जो वक्त तुम बेकार खेलों में जाया करते हो, उसे किसी अच्छे काम में लगाओ।''
अब्बाजान के इस रवैये को देखकर मैं बहुत खुश हुआ था। उनके बड़प्पन का एक अजीब रुख मैंने देखा था। छाको के दिल पर भी इसका गहरा असर हुआ था। उसकी झेंपी-झेंपी निगाहों से यही जाहिर होता था। उसी रोज रात एक अजीब घटना घटी। रात का खाना खाकर हम लोग बिस्तर पर लेट चुके थे। चाँदनी छिटकी हुई थी। दिन-भर आग बरसती रही थी। लेकिन अब पछुआ के खुशगवार झोंकों ने जहन्नुम को जैसे जन्नत में बदल दिया था। चाँदनी की ठंडी रोशनी में बिस्तर की सफेद चादरों से दिल को बड़ी राहत-सी महसूस हो रही थी। अम्मी का पलँग हमारे पलँग से लगा हुआ था। वह पान लगाने के लिए छालियाँ कतर रही थीं। उनके हाथ में मुरादाबादी सरौता चमक रहा था। छालियाँ कतरने की आवांज के साथ अम्मी की चूड़ियों की खनखनाहट भी सुनाई दे जाती थी। पर जब अब्बाजान जोर से हुक्के का कश लेते, तो यह आवांज हुक्के की गड़गड़ाहट में डूब जाती थी। हमारी छत से दूर एक ताड़ का दरख्त चाँदनी में नहाया हुआ बहुत खूबसूरत लग रहा था।
एकाएक गली में किसी की कड़कदार आवांज गूँजी'साहेबजान है?' मैं खौंफ से अपने छोटे भाई से चिपट गया। अम्मी भी घबरा गयीं और सरौते के फलों के बीच रखी छालियाँ नीचे गिर गयीं। लेकिन अब्बाजान उसी तरह इतमीनान से हुक्के का कश लेते रहे। उनके चेहरे पर परेशानी की कोई झलक नहीं थी। हम लोगों की घबराहट को महसूस करते हुए वह बोले, ''कोई बात नहीं है। सिपाही है। साहेबजान को पूछने आया है। गुंडा है न! पुलिस को ऐसे लोगों पर निगाह रखनी पड़ती है।''
साहेबजान मोहल्ले-भर में तो बदनाम था ही, शहर में भी उसको सब लोग जानते थे। उसकी बदमाशी और गुण्डागर्दी की धाक जमी हुई थी। वह रिश्ते में छाको का मामा लगता था। लेकिन छाको के बाप को उसकी हरकतें बिलकुल पसन्द नहीं थीं, इसलिए वह साहेबजान और उसके घर वालों से कोई वास्ता नहीं रखता था। साहेबजान का भी अजीब हाल था। कभी यह ठाठ होते कि सिल्क की कमींज, सोने की बटन, रेशमी लुंगी, हाथ में खूबसूरत सुनहरी घड़ी सोने की जंजीर में बँधी हुई, गले में सोने की चेन, पैर में चमकते हुए बेहतरीन पम्प जूते और हाथ में कैंची सिगरेट का पैकट, जो उस जमाने में बहुत उम्दा सिगरेट मानी जाती थी। जिधर से निकलता, लड़कों को चवन्नी-अठन्नी देता हुआ गुंजर जाता। और कभी यह हाल कि फटी हुई मैली बनियाइन और मामूली लुंगी बदन पर, दाने-दाने को मुहताज! कई बार मेरे घर भी आ जाता आटा-चावल या पैसा माँगने को। साहेबजान से मन-ही-मन सभी लोग नफरत करते थे, पर उससे डरते भी बहुत थे। यहाँ तक की अब्बाजान की भी उससे कुछ कहने की हिम्मत न होती।
पुलिस के आदमी को गये थोड़ी ही देर हुई थी कि नीचे गली में साहेबजान की आवांज सुनाई दी। वह नशे में चूर था और गन्दी-गन्दी गालियाँ बक रहा थाऐसी-ऐसी गालियाँ, जिनका मैं तब मतलब भी नहीं समझता था।
अब्बाजान ने मुझे अपने पास बुलाया और बड़े ही प्यार-भरे लहजे में वह कहने लगे, ''बेटा, यूँ तो खुदा की निंगाह में सभी इनसान बराबर हैं, लेकिन खानदान और खून बड़ी चीज हैं। हमारे खानदान में कोई शराबी नहीं हुआ, किसी ने जुआ नहीं खेला। छाको का मामू ही तो है साहेबजान। माना कि साहेबजान और छाको के बाप की आदतें एक-सी नहीं हैं, लेकिन हैं तो एक ही खानदान के। हम लोगों को इनकी सुहबत से बचना चाहिए, ताकि इनकी बुराइयाँ हममें न घुस जाएँ...'' इसी तरह की और बहुत-सी बातें अब्बाजान मुझसे कहते रहे। फिर एक फारसी का शेर भी पढ़ा था और उसका मतलब समझाया था। उस शेर का निचोड़ भी कुछ यही था कि बुरी संगत से बचना चाहिए। जब अब्बाजान यह नसीहत कर रहे थे, तो मैंने महसूस किया था कि वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें पूरी सचाई न सही, पर कुछ-न-कुछ सचाई जरूर है।
दूसरे दिन अब्बाजान कचहरी से लौटे थे, तो उनके हाथ में एक बड़ा-सा पैकट था। पैकट मुझे देते हुए उन्होंने कहा था, ''तुम लोगों के लिए ऐसी चीज ला दी है कि खेलने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है।'' और जब पैकेट खुला था और कैरम-बोर्ड पर नजर पड़ी थी, तो कितनी खुशी हुई थी मुझे! लगता था, दो जहान की नियामत मिल गयी है।

Sikandar_Khan
21-03-2011, 11:41 PM
इसके बाद जाने कैरम-बोर्ड का असर था, या अब्बाजान की नसीहत का कि दुपहर में छाको के साथ खेलने का सिलसिला बिलकुल बन्द हो गया। मैं अपने छोटे भाई के साथ कैरम खेलता रहता। बाहर बरामदे में कंकड़ी के गिरने की आवांज होती हलके से ताली बजती, पैरों की धम-धम करने की आवांज होती, उँगली मुँह में डालकर सीटी की आवाज पैदा की जाती, पर ये तमाम आवांजें कमरे में पहुँचकर कैरम की गोटों की खट-खट में गुम हो जातीं।
इसके बाद मेरे और छाको के बीच वह नंजदीकी न रही, जो पहले थी। आते-जाते एक-दूसरे को देख लेते, तो कभी-कभार बातचीत हो जाती, पर हम दोनों के दरमियान जैसे कोई दीवार आ गयी थी। जैसे-जैसे मैं ऊँची जमातों में चढ़ता गया, पढ़ाई का बोझ भी बढ़ता गया। खेल में दिलचस्पी अब भी बनी हुई थी। अब गुल्ली-डंडा और अटा खेलने का शौक खत्म हो चुका था। उनकी जगह फुटबाल, रिंगबाल और हाकी ने ले ली थी। मैं स्कूल से घर आता। स्कूल में दिये हुए कामों को पूरा करता। फिर शाम को स्कूल के मैदान में खेलने चला जाता। स्कूल मेरे घर से कुछ ज्यादा दूर नहीं था। खेलकर वापस आता, तो मास्टर साहब पढ़ाने आ जाते। सुबह से रात गये तक मैं व्यस्त रहता। मैं मोहल्ले में रहते हुए भी वहाँ की जिन्दगी से कुछ कट-सा गया था। आज जब बचपन की इन छोटी-छोटी बातों के बारे में सोचता हँ, तो अजीब-सा लगता है। क्या रखा है इन छोटी-मोटी यादों में? पर न जाने ऐसा कौन-सा बारीक तार है, जिसने इन यादों को मजबूती से बाँध रखा है, जो इन्हें बिखरने नहीं देता। जरा मौका मिला नहीं कि मोतियों के हार की तरह ये यादें झिलमिला उठती हैं। एक और तसवीर उभर रही है। महम्दू खलीफा गली में आगे-आगे जा रहा है, पीछे-पीछे छाको चल रहा है आहिस्ता-आहिस्ता। गले में कपड़ा नापने का फीता लटक रहा है। हाथ मैं कैंची और बगल में एक छोटी गठरी चुपचाप चल रहा है वह अपने बाप के पीछे, जैसे कैदी सिपाही के पीछे-पीछे चल रहा हो। बिलकुल सपाट चेहरा, जैसे मन में कोई भी विचार-तरंग न हो। और तब एकाएक सपाट चेहरे पर जैसे जिन्दगी की लहर दौड़ गयी हैं। महम्दू खलीफा गुस्से में उसे गालियाँ दे रहा है , माँ की, बहन की।
''सुराथराम, साले, चोरी करबे तू! ममुआ का आदत सीखे है तू!''
बात बहुत मामूली थी। 'पुकार' फिल्म चल रही थी। छाको ने अपने बाप की जेब से सोते में पैसे निकाल लिये थे और चुपके से दुकान से खिसक गया था महम्दू खलीफा को जब पता चला, तो वह बुरी तरह बरस पड़ा था उस पर। मुझे बहुत खुशी हुई थी। साथ ही कुछ जलन भी हुई थी। खुशी इसलिए हुई कि उसको डाँटा गया था। अब्बाजान मुझे अकसर डाँटते-फटकारते रहते थे। इसका एक असर यह पड़ा था मुझ पर कि जब किसी को डाँट सुनाते देखता, तो मन-ही-मन बहुत खुश होता। पर उस पर रश्क भी हो रहा था। उसने ऐसा काम कर दिखाया था, जो मैं नहीं कर सकता था। मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ सकती थी। अब्बाजान का कुछ ऐसा ही रोब था मुझ पर। उन दिनों 'पुकार' फिल्म की बहुत शोहरत थी। परी-चेहरा नसीम पर लोग जान देते थे। रोज गली में कितने ही आदमी 'जिन्दगी का साज भी क्या साज है' गुनगुनाते हुए गुजर जाते। बहुत जी चाहता कि किसी तरह फिल्म देखूँ। आखिर फिल्म में ऐसी क्या बात रहती है कि अब्बाजान मुझे जाने नहीं देते! इतने सारे लोग कैसे जाते हैं। लेकिन उनसे बहस करने का सवाल ही नहीं था। इसलिए जब मालूम हुआ कि छाको 'पुकार' देख आया है, तो मुझे बहुत रश्क हुआ था उस पर। काश, मैं भी देख सकता! मजे की बात यह थी कि अब्बाजान खुद देख आये थे। कितना गुस्सा आया था उन पर मुझे! यह भी कोई बात हुई ? फिल्म देखना बुरा है, तो उनके लिए क्यों बुरा नहीं है? मुझसे तो अच्छा छाको है। डाँट ही सुननी पड़ी न, लेकिन फिल्म तो देख ली!
इस तरह की कितनी ही छोटी-मोटी बातें याद आ रही हैं। छाको दूल्हा बना है। सफेद कमीज पर बादामी रंग का जाकेट पहने है। घोड़ी पर शान से तनकर बैठा हुआ है, मुँह पर लाल रेशमी रूमाल है। पीछे उसकी कमर को पकड़े बेंगा बैठा हुआ है, सुखी मियाँ की शहनाई की आवांज गली में फैल गयी है, बंसी नाई हाथ में छतर लिए खड़ा है। गली में मोहल्ले भर के लड़कों की वह भीड़ है कि रास्ता चलना कठिन हो गया है और तब गली में ऐसा सन्नाटा हो गया कि जी घबराता है। बरात जा चुकी है, पर हमारे यहाँ से कोई भी नहीं गया है, दुनिया में हर बात के लिए कायदे बन हुए है। छाको की बरात में हमारे घर का कोई आदमी नहीं जा सका! यह बात सबको उसी तरह मालूम है, जिस तरह यह बात कि सूरज पूरब में निकलता है। किसी को कोई शिकायत नहीं है। किसी को कोई दु:ख नहीं है। मैं भी अब ऐसा बच्चा नहीं रहा कि इतनी-सी बात न समझ सकूँ। पर एक खयाल मन में जरूर पैदा हुआ है कि छाको फिर मुझसे बाजी ले गया।
और जब पाकिस्तान से आया हुआ छाको का खत मैंने पढ़ा है, तो न जाने क्यों मुझे महसूस हुआ है कि वह दीवार, जो उस चाँदनी-भरी रात में अब्बाजान की नसीहत ने या शायद कैरम-बोर्ड की गोटों ने खड़ी कर दी थी, एक ही झटके में टूट गयी है और छाको मेरे बहुत करीब आ गया हैशायद उससे भी ज्यादा करीब, जब हम दोनों गर्मी की दुपहरी में अब्बाजान और अम्मी की नंजरों से बचकर ईंट के टुकड़ों से बरामदे के फर्श पर लाल रेखाएँ खींचते थे और अजीब खेल खेलते थेबेमायने, बेमतलब, बस यूँ ही।
पन्द्रहवें रोंज छाको का एक और खत आया। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से उसके बाबा को और जैनब बुआ को सलाम। मालूम हो कि हम अच्छी तरह हैं। आप लोग लिखा है कि हमको आप सबको छोड़ के नहीं जाना चाहिए था। हम क्या बताएँ। हम नहीं चाहते थे कि आएँ। लेकिन इलाही मास्टर ने ऐसी बात कह दी कि हमको आना ही पड़ा। वह कहिन कि अच्छे वक्त में साथ दिया लेकिन जब तकलींफ का डर है, तो साथ छोड़ रहे हैं। हम बोले कि मास्टर हम ऐसे नहीं हैं। आप ऐसा सोचते हैं तो हम चलेंगे। नहीं जाएँ तो बाप का पेशाब पिएँ। इसलिए आना पड़ा। जबान दे चुके थे। घर बहुत याद आता है। यहाँ का लोग हम लोग के माफिक नहीं है। बंगला बोलता है। हम लोग को देख के बहुत कुड़कुड़ाता है। आज मुहर्रम का चार है। सात तारींख को अखाड़ा निकलेगा। दस को ताजिया उठेगा। हम रहते तो पैक बनते। बेंगा मशक उठाएगा। बड़ी दाहा के इमामबाड़े पर हमारी तरफ से मिठाई और शरबत नियाज करा देना। दाहू भैया से कहियो हमारे वास्ते इमाम साहब से दुआ करें। मुहल्ले का अखाड़ा कैसा निकला, लिखियो। कै मेर बाजा था। इब्राहीम उस्ताद मुहर्रम करने आ गये होगे। बत्तीवाले कित्ते थे। रोशनी में फाटक था या नहीं। शहर में हमारे अखाड़े का पहला नम्बर रहा या नहीं। सब बात लिखिएगा। सबको सलाम दुआ।''
उस रोज मुहर्रम की सातवीं तारींख थी। दाहा पर डंके के बजने की आवांज आ रही थी। गली में लड़के हरे ओर चमकदार नारा-बध्दी पहने आ-जा रहे थे। सचमुच छाको पैक बनकर किस तरह फुदकता फिरता था! सफेद चूड़ीदार पायजामे पर हरा कुरता। कमरबन्द बाँधे हुए, जिसमें तीन-चार घण्टियाँ और एक मूर्छल लटकती रहती। घर दाहा एक किए रहता था वह। रात भर उसकी घण्टियों की आवांज गली में गूँजती रहती। अखाड़ा निकलता, तो उसके साथ-साथ जाता और दिन के नौ-दस बजे कहीं वापस आता।
कितनी ख्वाहिश होती थी मुझे अखाड़ा के साथ शहर-भर में घूमने की, लेकिन अब्बाजान कहाँ इजाजत देते थे इसकी! मोहल्ले का अखाड़ा निकलता, तो सबसे पहले मेरे घर के करीब गली के नुक्कड़ पर एक बड़े मैदान में जमता। फिर कहीं और जाता।
लोग घर से निकलकर नुक्कड़ पर आकर खड़े होते। सामने के हिस्से में आदमियों की भीड़ नहीं रखी जाती थी, ताकि हम लोग आराम से अखाड़ा देख सकें। उस रोज हमारे यहाँ एक बहुत बड़े टप में शरबत बनता और अखाड़े में जितने लोग भी होते, उन सबको शरबत पिलाया जाता। फिर कभी बीस, कभी तीस रुपये अब्बाजान इब्राहीम उस्ताद के हाथ में रख देते। इसके बाद अखाड़ा दूसरी तरफ चला जाता। जाने कितनी बार मैंने छाको को अखाड़ा खेलते देखा था। शायद ही कोई ऐसा मुहर्रम हो, जब वह अखाड़े में मौजूद न रहा हो। बना, पटा, गदका सब कुछ ही तो खेलता था वह। बड़े होने पर गुहार भी इतना अच्छा खेलता था कि मोहल्ले-भर में उसका जवाब नहीं था। लाठी घुमाता हुआ इतनी सफाई से गोल के भीतर निकल जाता कि दूसरी लाठियाँ उसके बदन को छू भी न सकती थीं। यह सब देखकर मेरा भी कितना जी चाहता था कि मैं भी छाको की तरह पैक बनूँ, अखाड़े के साथ घूमता फिरूँ, बना-पटा खेलूँ। लेकिन मुझे क्या करना चाहिए, इसका फैसला तो अब्बाजान करते थे। मैं तो एक कठपुतली था उनके हाथों में। मैं चाहता था पैक बनना, लेकिन हमारे खानदान में इसका रिवांज नहीं था। मुझे मुहर्रम में तौक पहनाया जाता। चाँदी के तौक में हर साल एक नयी कड़ी जोड़ दी जाती, जो इस बात की निशानी थी कि मेरी उम्र में एक साल का इजांफा हो चुका है। तौक पहनाने के पहले अब्बाजान फातिहा करके उसे फूँकते। फिर मुझे तौक पहनाया जाता, नियाज की रेवड़ियाँ खाने को दी जातीं और शरबत पिलाया जाता। अम्मी मेरी जिन्दगी के लिए दुआएँ करतीं। पर मुझे यह सब बिलकुल पसन्द नहीं आता था। मैं तो बस चाहता था कि छाको की तरह मुझे भी पैक बनाया जाए। मेरी कमर में भी घंटियाँ और मूर्छल बँधी हों और मैं भी छाको की तरह रात-भर जहाँ चाहँ, घूमता फिरूँ। लेकिन मेरे लिए इतनी आजादी कहाँ थी! मुहर्रम का तमाशा देखने का इन्तजाम मेरे लिए यह किया जाता कि मुझे अपने रिश्ते के मामू के यहाँ भेज दिया जाता, जिनका मकान बांजार में बीचोबीच था। छत से हम लोग अखाड़ों और ताजियों की बहार देखते। लेकिन जो मजा सड़कों पर घूम-घूमकर तमाशा देखने में है, वह कैदी की तरह एक जगह बन्द होकर देखने में कहाँ !
लेकिन यह सब तो बचपन की बातें हैं। मुहर्रम का अखाड़ा अब भी हमारे मकान के सामने जमता है, अब भी इब्राहीम उस्ताद को रुपये दिये जाते हैं, अखाड़े में आये हुए लोगों को शरबत पिलाया जाता है, लेकिन मैं यह सब महज एक रस्म पूरी करने के लिए करता हँ। वह उमंग और जोश नहीं है, जो बचपन के दिनों में महसूस करता था। लेकिन छाको अब भी कितने चाव और हसरत से मुहर्रम का जिक्र करता है, जैसे इससे उसका रूहानी लगाव हो। मुझे याद है कि ऐसी ही खुशी और उमंग मैंने उस दिन महसूस की थी, जब अब्बाजान ने मुझे नया कैरम-बोर्ड लाकर दिया था। मेरी खुशी की सतह अब बिलकुल बदल गयी है। पर छाको की खुशियों की सतह अब भी वही है, जो बचपन के दिनों में कभी मेरी भी रह चुकी थी।
मैं मुंसिफी के इम्तिहान में बैठ चुका था। उन्हीं दिनों इम्तिहान का नतीजा निकला। मैं चुन लिया गया। नियुक्ति के पहले मुझे पटना पहुँचकर डाक्टरी परीक्षा करवानी थी। मैं पटना चला गया। वहाँ से लौटने के दो-तीन रोज बाद ही छाको का एक और खत आया। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से बाबा और जनबा बुआ को बहुत-बहुत सलाम। खत मिला। मालूम हो कि इलाही मास्टर की दुकान बहुत चल रही है। उनको गवरमेंट का बहुत बड़ा ठेका मिल गया है। मास्टर कहते हैं कि सब कारीगर का रुपया हम बढ़ा देंगे और मुनाफा में से भी कुछ देंगे। लेकिन हमारा मन नहीं लगता है। और सब तरह का आराम है। इलाही मास्टर के घर में हम सबका खाना बनता है। जो इलाही मास्टर खाते हैं, वह हम कारीगर सब खाते हैं। हमको बहुत दु:ख हुआ कि इस बार मुहर्रम में तीन मेर बाजा था। बराबर चार मेर बाजा रहता था। रोशनी का फाटक भी नहीं था। हम रहते तो ऐसा नहीं होने देते। जैसे होता, चन्दा उठाकर अच्छा से अच्छा अखाड़ा निकालते। खुदा की मरजी हुई तो हम अगले मुहर्रम में मोहल्ले में जरूर रहेंगे और दिखा देंगे अच्छा से अच्छा अखाड़ा निकालकर। लानत है मोहल्ले के लोगों पर। अपने मोहल्ले की इज्जत का कोई फिकर नहीं है। मेहँदी के बारे में कुछ नहीं लिखा। कैसी मेहँदी निकली थी।
''बाबा को मालूम हो कि हमको कुरैशा का रिश्ता साहेबजान मामू के बेटे से एकदम पसन्द नहीं है। भूरा काम-धन्धे से लगा हुआ है, यह ठीक है। लेकिन चोर-डकैत के बेटे से हमारी बहन का ब्याह हो, यह कैसे हो सकता है। बाबा को मेरी तरफ से कहा जाए कि यह रिश्ता कभी नहीं करें।
''जुबैदा को उसके बाबा की दुआ। मुस्तकीम और यासीन को बहुत-बहुत दुआ।''
छाको का खत पढ़कर मैं सोचने लगा, सैकड़ों मील की दूरी पर बैठा हुआ वह मुहर्रम के अखाड़े से कितनी निकटता अनुभव कर रहा है! पैक बनना, अखाड़ा खेलना, मेहँदी, ढोल-बाजा, मुहर्रम की धूमधाम ये सब मेरे लिए कितनी गैर अहम चीजें बनकर रह गयी हैं! हालाँकि मैं इन चीजों के दरमियान रह रहा हँ, पर मेरे दिल में इनसे कुछ भी तो उमंग नहीं होती। और छाको, जो इनसे सैकड़ों मील की दूरी पर है, जैसे इन सबको अपनी रग-रग में महसूस कर रहा है, जैसे सिवाय मौत के कोई और चीज उसको इन चीजों से अलग नहीं कर सकती। क्या यह उसके अपने स्वभाव की विशेषता है, या इसकी वजह यह है कि जो चीज दूर चली जाती है, उससे आदमी का लगाव बढ़ जाता है। लेकिन मैं तो बाहर-बाहर रहा हँ। मुझे तो मुहर्रम के धूम-धड़ाके की याद ने कभी भी इस तरह नहीं सताया। सोचने पर इसकी एक वजह तो यह मालूम होती है कि मैं जिन्दगी की इन मामूली खुशियों के लिए बूढ़ा हो चुका हँ। लेकिन छाको के लिए इन सीधी-सादी खुशियों की अब भी शायद उतनी अहमियत है, जितनी कि बचपन में थी। और तब मुझे छाको वास्तव में बिलकुल एक बच्चा लगता है, पैक बना गली में फुदकता फिर रहा है और कमर से बँधी हुई घंटियों की आवांज फ़िजाँ में बिखेर रहा है। यह तब भी बच्चा था, जब उसने अब्बाजान की गालियों का बुरा माना था, उस वक्त भी जब अब्बाजान की दी हुई जलेबियों से उसका गुस्सा एकाएक खत्म हो गया था और उस वक्त भी वह बच्चा ही था जब इलाही मास्टर के कहने पर वह अपने वतन को छोड़कर पाकिस्तान चला गया था और अपने जिस्म को उन हवाओं से अलग कर दिया था, जिनके बीच वह पला-बढ़ा था। पर उसकी रूह इन हवाओं को ढूँढ रही थी उस दूध पीते बच्चे की तरह जो माँ के दूध के लिए बिलख-बिलखकर रो रहा हो और उसकी माँ उसके पास न हो।
लेकिन अपनी बहन के रिश्ते के बारे में उसने जो कुछ लिखा था, उसको पढ़कर मुझे अजीब-सा लग रहा था। मुझे अब्बाजान की वह बात याद आ रही थी, जो उन्होंने बहुत पहले उस रात कही थी, जब छत पर चाँदनी छिटकी हुई थी, अम्मी के हाथों में मुरादाबादी सरौता चमक रहा था और एकाएक साहेबजान के दरवांजे पर सिपाही की कड़कदार आवांज गूँजी थी। अब्बाजान तो खून और ंखानदान की अहमियत के कायल थे, लेकिन छाको तो अपने ही खानदान और खून में नफरत के बीज बो रहा था, साहेबजान चोर था, गुंडा था, उसमें दुनिया-भर की बुराइयाँ थीं, लेकिन उसका लड़का भूरा तो ऐसा नहीं था फिर ंखानदान तो उसका ही था। और तब मुझे लगा कि यह भी छाको का लड़कपन ही तो है, अपनी नादानी में वह खुद उस बात को सही साबित करने पर तुला हुआ है, जो कभी अब्बाजान ने कही थी और जो उसे बहुत बुरी लगी थी।
मुंसिफ होने पर मेरी पहली पोस्टिग पूर्णियाँ में हुई। तीन साल के बाद मेरा तबादला समस्तीपुर हो गया। ये दोनों जगहें गंगा के उस पार उत्तरी बिहार में थीं। वकीलों की जिरह, गवाहों के बयान वंगैरह सुनने में पूरा दिन गुंजर जाता। रात गये तक मुकदमों के फैसले लिखता। मसरूफियत बहुत बढ़ गयी थी। इस बीच मैं घर एक-दो बार ही जा सका और वह भी एक-दो रोज के लिए ही। जब मेरी नौकरी के चार साल पूरे हो गये, तो मैंने दो महीने की छुट्टी ली और घर आ गया। पहुँचने के दूसरे दिन सवेरे मैं बैठक में बैठा कोई जरूरी खत लिख रहा था। कमरे का एक दरवाजा, जो बरामदे की तरफ था, खुला हुआ था। एकाएक मेरे कानों में एक आवाज आयी,''खाजे बाबू हैं?''
''कौन हैं? अन्दर आ जाइए'', मैंने जवाब दिया।
''हम हैं अब्दुश्शकूर!''
अभी मैं ठीक तरह से समझ भी न पाया था कि इतने में छाको मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैं चौंक पड़ा। बिलकुल वैसा ही तो था, जैसा मैंने उसे बरसों पहले देखा था। हाँ, उसके बालों में अलबत्ता कहीं-कहीं सफेदी आ गयी थी।
''अरे छाको, तुम ? तुम कब आये पाकिस्तान से?'' मैंने पूछा।
''हमको आये तो दो महीना हो गया बाबू! हम समझ रहे थे, आपसे मिलना न हो सकेगा। जनबा बुआ बताइस कि आप आये हैं। किस्मत में मिलना लिखा था। कित्ते दिन बाद आपको देखा है!''
''कब तक रहोगे?''
''आज जा रहे हैं। एक महीने का वीसा मिला था। एक महीना और बढ़ाया। इलाही मास्टर जिनकी दुकान में काम करते हैं, खत पर खत लिख रहे हैं कि जल्दी आ जाओ।''
''वहाँ दिल लग गया है तुम्हारा!'' मैंने पूछा।
''नहीं बाबू, मन बहुत घबराता है। घर बहुत याद आता है।''
''फिर गये क्यों?'' मैंने अनजान बनते हुए पूछा।
''का कहें बाबू! इलाही मास्टर के बहकावे में आ गये। धोखे से फारम भी भरवा दीहिन वह पासपोर्ट का।''
''तुम्हारी बच्ची तो ठीक है न? अब तो बड़ी हो गयी होगी'', मैंने विषय बदलते हुए कहा।
''हाँ बाबू, बारह बस की हो गयी। अच्छा लड़का मिल जाए, तो यह फरज पूरा कर दें। आप भी देखिए। कोई अच्छा लड़का मिले तो खबर कीजिए।''
''तुम्हारी एक ही तो बच्ची है। अपने साथ ले जाओ। वहीं शादी-ब्याह करना उसका।''
''बाबू की बात! वहाँ अपनी जात-बिरादरी का लड़का कहाँ मिलेगा!'' छाको ने अपनी ंखास मासूमियत से कहा।
उसी रोज रात के आठ बजे गली के नुक्कड़ पर रिक्शा आकर रुका।

Sikandar_Khan
22-03-2011, 12:06 AM
आगे-आगे छाको। उसके पीछे-पीछे महम्दू खलीफा, जनबा, उसके बेटे मुस्तकीन और यासनी, छाको की बहन कुरैशा और उसकी बेटी जुबैदा। उसकी चाल बिलकुल वैसी ही थी, जैसी मैं देखता आया था। आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा था वह, जैसे बहुत पहले अपने बाप के साथ चलता था। मुझे लगा, वह दुकान बन्द करके घर लौट रहा है। महम्दू खलीफा आगे-आगे चल रहा है और पीछे-पीछे छाको चल रहा है। उसके गले में कपड़ा नापने का फीता लटक रहा है। एक हाथ में कैंची है और बगल में कपड़ों की छोटी-सी गठरी। लेकिन कहाँ! वह घर की तरफ नहीं जा रहा है। वह तो विरोधी दिशा में जा रहा है। महम्दू खलीफा उसके आगे-आगे नहीं है। वह तो छाको के पीछे-पीछे चल रहा है। मैं सोचता हँ, जमाना कितना बदल गया है! कैसा बदला-बदला लग रहा है सब कुछ! मैं बरामदे से उतरकर गली के नुक्कड़ पर आ गया हँ। छाको रिक्शे पर चढ़ रहा है। यह दृश्य जाने कितनी बार देख चुका हँ। जब कभी वह हजारीबाग जाता, या कोडरमा जाता, या झूमरी तलैया जाता, या कलकत्ता जाता, तो इसी तरह गली के नुक्कड़ पर रिक्शा आकर रुकता। पर मैं कभी तो नहीं जाता था उसे बिदा करने को। तब भी उसके बाप, भाई, बहन, सभी आते थे उसे छोड़ने को रिक्शे तक। लेकिन किसी की ऑंखों में ऑंसू नहीं होते थे। सबके चेहरे उदास जरूर रहते थे। वे जानते थे कि यह आना-जाना तो लगा ही रहता है। यह तो उनकी जिन्दगी का एक हिस्सा है। मोहल्ले के कितने ही लोग बाहर जाते रहते हैं काम-धन्धों की तलाश में। पर आज का जाना तो और ही लग रहा था, जैसे वह रोजगार की तलाश में न जा रहा हो, जैसे वह दूर, बहुत दूर, ऐसी जगह जा रहा हो, जहाँ से जाने वह कभी लौटेगा भी, या नहीं।
मैं गली के नुक्कड़ पर खड़ा हँ। गली की सीढ़ी से लगकर रिक्शा खड़ा है। छाको के चेहरे पर अजीब तरह का तनाव है, जैसे उसका चेहरा फट पड़ेगा उसके मन के तूफान को लेकर। उसके बाजू पर लाल साड़ी की धज्जी में इमाम जामिन बँधा हुआ है। उसकी बेवा बुआ जनबा उसके पास खड़ी है। पायदान पर टीन का एक स्याह बक्स रखा है। उसके ऊपर लाल कपड़े में बँधा हुआ हाँडी क़ा ढक्कन रखा है, जिसमें शायद खाने की कोई चींज रखी हुई है। छाको का एक पैर रिक्शे के पायदान पर है, दूसरा पैर अभी जमीन पर ही है, जैसे वह जमीन में धँस चुका हो। जनबा के ऑंसुओं में डूबे हुए शब्द मेरे कानों में पहुँच रहे हैं,अल्लाह खैर से वापस लाए!''
और तब एकाएक उसका चेहरा फट पड़ा है। दिल का तूफान बाहर निकल पड़ा है। उसका पैर रिक्शे के पायदान से हटकर फिर जमीन पर आ गया है। वह फूट-फूटकर रो रहा है, जैसे वह सचमुच कोई बच्चा हो और उसकी कोई प्यारी चींज उससे छीनी जा रही हो। इस तरह छाको को फूट-फूटकर रोते तो मैंने कभी नहीं देखा। मैंने उसका पासपोर्ट देखा है। अब्दुश्शकूर वल्द महम्दू खलीफा पाकिस्तान का नागरिक है। मैंने कानून का गहरा अध्ययन किया है। कानून की इज्जत मेरी रग-रग में बसी हुई है। मैं जानता हँ कि कानून का जज्बात से कोई ताल्लुक नहीं है। पर न जाने क्यों एकाएक मेरे दिमाग ने जैसे काम करना बन्द कर दिया है। कानून की मोटी-मोटी किताबें जैसे छाको के ऑंसुओं में डूबती जा रही हैं और मैं रूह की गहराई में कहीं शिद्दत से यह महसूस कर रहा हँ कि छाको दरअस्ल परदेश जा रहा है, जहाँ की हर चींज उसके लिए अजनबी है।

Sikandar_Khan
10-04-2011, 12:25 PM
कल कहाँ जाओगी - पद्मा सचदेव की कहानी

सुबह की पहली किरण की तरह वो मेरे आँगन में छन्न से उतरी थी। उतरते ही टूटकर बिखर गई थी। और उसके बिखरते ही सारे आँगन में पीली-सी चमकदार रोशनी कोने-कोने तक फैल गई थी। खिलखिलाकर जब वो सिमटती तो रोशनी का एक घना बिंदु आँगन के बीचोबीच लरजने लगता और उसकी बेबाक हँसी से आँगन के जूही के फूल खुलकर अपनी खुशबू बिखेरने लगते। उसका नाम था प्रीत। मैं उसे प्रीतो कहती थी।

हुआ यों कि मेरी एक बड़ी पुरानी सहेली अपने घर जा रही थी। मेरे पति विदेश गए थे। घर वैसे भी काटने को दौड़ रहा था। सो जब मेरी सहेली ने ये प्रस्ताव रखा कि प्रीतो को कुछ दिन मैं घर में रख लूँ तो मैंने फौरन हाँ कर दी। मेरी सहेली का दायाँ हाथ थी प्रीतो, ये मैं जानती थी। उसके किंडर गार्डन स्कूल के बच्चे उसे तीतो कहकर स्कूल में घुसते और फिर वो उनकी प्रीत आँटी हो जाती।

प्रीतो को प्रीत कहलवाने का शौक था। स्कूल से लेकर तकिये के गिलाफ तक का काम प्रीतो के सुपुर्द था। पर जब छुटि्टयों में मैडम घर जाने लगी तो प्रीतो को साथ ले जाना उसकी बनिया बुद्धि को ठीक न लगा।

मेरी ये सहेली बचपन से ही दबंग थी।

एक बार गोलगप्पे वाले से उसका झगड़ा हुआ और मैडम की चप्पल की मार से वो भाग गया था। तब हम सब गोलगप्पों के खोमचे पर टूट पड़ने को ही थे कि मैडम खोमचे वाले की जगह बैठकर प्लेटें सजा-सजा कर सबको देने लगी।

Sikandar_Khan
10-04-2011, 12:38 PM
आनन-फानन में गोलगप्पे हवा हो गए। तब उसने इमली के पानी की तुर्शी से सी-सी करते हुए बताया, 'मुआ मुझ अकेली को देखकर आँख मार रहा था। मैंने देसी जूती से वो पिटाई की कि भाग गया।' तब से हम उसे मैडम ही कहते थे। उसका असली नाम भूल ही गए। पर मैडम को कोई न भूला सका। उसके प्रस्ताव पर मैं थोड़ी नाखुश भी थी पर सोचा प्रीतो की रौनक रहेगी। दो दिन पहले ही मैडम प्रीतो को लेकर मेर घर आ गई थी। उसको कई किस्म के भाषण पिलाने के बाद जब मैडम ट्रेन पर बैठी तो प्रीतो जो उसका राई-रत्ती सँभालकर देती रही थी, थककर चूर हो चुकी थी।
आते ही जब दो सैरीडौन खाकर वो सो गई तो मैंने भी उससे कुछ पूछना ठीक न समझा। दूसरे दिन अभी सुबह न हुई थी पर घर में चहलकदमी की अपरिचित आवाज़ें आनी शुरू हो गई थीं। उन्हें तो मैं किसी तरह से सहती ही पर जब बाथरूम का पानी धुआँधार बहने की आवाज़ आई तो हिम्मत ने जवाब दे दिया। लोहे की बाल्टी में पूरे खुले नल के गिरते पानी से अधिक शोर शायद कोई नहीं कर सकता। बिस्तर में आँखें मीचे-मीचे मैं ज़ोर से चिल्लाई -
'प्री तो '
'जी मैडम,' वो जैसे सर पर ही खड़ी थी। 'खबरदार जो तुमने मुझे मैडम कहा,' मैं झल्लाकर उस पर बरस पड़ी तो वो मासूमियत से बोली, 'तो फिर क्या कहूँ मैडम जी।'
'पहले ये नल बन्द करो। और तुम मुझे दीदी कह सकती हो।'

वो मुझसे कब आकर लिपट गई मैं ये जान ही न पाई। दीदी, दीदी कहकर उसने सारा घर गुँजा दिया। और अपनी इस उदारता से मैं घमण्ड से फूल उठी। फिर उसके अतीत की चंद पोटलियाँ पलभर में ही मेरे सामने बिखरी पड़ी थीं।
प्रीतो अकेली बेटी थी। तीन-चार भाइयों की अकेली बहन। पर उसका बाप जो बढ़ई से ज़्यादा शराबी था, उसने इसके ज़रा-सा बड़ा होते ही इसे नम्बरदार के बेटे को ब्याह दिया। उसे पुराना दमा था। इस अन्याय का विरोध कौन करता। उसके भाई शराबी बाप की मार खा-खाकर दौड़ने की उम्र आते ही घर से भाग गए थे। माँ घर की दीवारों जैसी ही एक दीवार थी।

Sikandar_Khan
10-04-2011, 12:45 PM
भगवान की करनी। सुहागरात के दिन ही सप्तपदी में अग्नि का धुआँ पी-पी कर दूल्हे महाशय को दमे का ऐसा दौरा पड़ा कि उसे हस्पताल ले जाना पड़ा। सुहाग शैया पर बैठी-बैठी प्रीतो सोयी रही। किसी ने उधर झाँका भी नहीं। सुबह लोगों ने कहा, ''कुलच्छनी ने आते ही पति पर वार कर दिया। पता नहीं नम्बरदार के इस नाम का क्या होगा। इसका पाँव तो जानलेवा है।'' तभी हमारी मैडम वहाँ पहुँच गई और शौहर के मरने से पहले ही उसे घर ले आई। सारे गाँव के मुकाबले में वो अकेली ही थी। पर दबंग ऐसी कि उसे देखते ही नम्बरदार हुक्का छोड़ उठ खड़ा हो। इसी दबंगता की वजह से आज तक उसकी शादी न हो पाई थी। ऐसी ख्याति थी कि पुरोहित भी उसकी जन्मपत्री लेकर कहीं जाने को राजी न होता। सो कुँआरी ही रह गई। प्रीतो की आँखों में तैरते सपने मैडम ने बड़ी आसानी से पोंछ डाले और शहर में आकर बच्चों का किंडर गार्डन खोल लिया। प्रीतो को जो सहारा मिला तो उसने अपना सारा मन बच्चों में ही लगा लिया। मैडम उसे प्यार भी करती है पर मजाल है जो कभी पता चलने दे।

प्रीतो, जिसने शादी से सुहाग सनी भाँवरों में शरमा-शरमाकर पाँव रखे, अग्नि के आगे कस्मे-वादे करते समय पिघलाती रही, वो प्रीतो कब तक अनुशासन में रहेगी इसका भय मुझे बराबर लग रहा था। मेरे घर में आते ही ज़रा-सी सहानुभूति उसकी आँखों में फिर से सपनों के सन्देशे बुनने लगी। सारा काम हँसते-हँसते निपटा लेती। और सारा दिन कोई छ: बार कंघी करके महाउबाऊ हेयर स्टाइल बनाती रहती। बिन्दी लगाने का उसे बड़ा ही चाव था। मैंने एक दिन कहा, 'प्रीतो, तू बिन्दी लगाकर मिटा क्यों देती है?'
उदास होकर बोली, 'वो जो मर गया है। पर दीदी, मेरा मन बिन्दी लगाने को करता है।' मैंने कहा, 'उससे तेरा क्या वास्ता है? ये कोई शादी थोड़े ही थी।'
वो उत्साहित होकर बोली, 'यही तो मैं कहती हूँ पर मैडम हमेशा टोक देती है। कहती हैं, लाल बिन्दी सिर्फ़ सुहागिनें लगा सकती है।'
'तुम काली बिन्दी लगाया करो।'

Sikandar_Khan
10-04-2011, 12:49 PM
हाँ दीदी, काली बिन्दी तो लगा ही सकती हूँ। और अब उसे मरे एक साल तो हो ही गया है। अब उसका प्रेत मुझे तंग नहीं कर सकता।' ये कहकर वो खिलखिलाकर हँस पड़ी। इतनी हँसी कि उसकी आँखें आँसुओं से भीग गईं।

नाक सुकड़कर वो अपने आँसुओं को पोंछते-पोंछते कहने लगी, 'दीदी, अगर वो ज़िन्दा रहता तो मैं गाँव कभी न छोड़ती। शादी से पहले एक बार उसने रास्ते में मेरा हाथ पकड़कर कहा था, 'कसम खा प्रीतो, मुझे कभी छोड़कर न जाओगी।'
मैंने अपने सबसे मीठे आम के दरख्त की कसम खाकर कहा था, 'कभी नहीं।'
तभी किसी के कदमों की आहट हुई थी और उसने मेरा हाथ छोड़ दिया था। उसके घर वाले कहते हैं, 'हमें पता था ये ज़्यादा दिन न रहेगा। हमने तो शादी इसलिए करवा दी थी कि प्रेत बनकर हमें तंग न करे।' मेरा गला उन्होंने काटना था सो काट दिया।'

मैंने कहा, 'प्रीतो, तू तो अभी २० की भी नहीं हुई, ऐसी बातें क्यों करती है? तेरी किसी भी बात से नहीं लगता तेरी शादी हो चुकी है। ये जोग तो तुमने मैडम की संगति में लिया है जानबूझकर। इसे छोड़ना ही होगा।'
'दीदी, पति को लेकर जो सपने मैं बुना करती थी उनका राजकुमार ये तो न था। वो सपने बड़ी बेरहमी के साथ मेरी आँखों में से पोंछ दिए गए। अब उस नई स्लेट पर कोई-न-कोई रोज़ आकर मिट जाता है। कोई मूरत बनती ही नहीं।'
मैंने उसे बड़े प्यार से पूछा, 'तुम्हें कोई अच्छा लगता है प्रीतो।'

'नहीं, पर जी चाहता है मैं किसी को अच्छी लगूँ। हाथ-पाँव में मेहंदी, माँग में सिंदूर, लाल जोड़ा और सुरमई आँखें। इनके साथ अगर सुहाग होता है तो मेरा भी हुआ था। पर सुहाग तो पति के साथ होता है। और वो तो मैंने देखा नहीं।'
'प्रीतो, मैडम का किंडर गार्डन तू ही तो सँभालती है। अगर तुझे कोई अच्छा लगे तो क्या सब छोड़ जाएगी?'
'पता नहीं दीदी।'
'पर मैडम क्या ये बात कभी सह पाएगी?'
'यही तो बात है, मैडम का मुझ पर पूरा भरोसा है। इसी से मुझे डर लगता है कि कहीं कोई अच्छा न लगे। मैडम तो मैडम, बच्चों के माँ-बाप भी मुझी पर भरोसा करते हैं। मैडम को तो सबके नाम भी नहीं आते। और फिर अगर एक दिन अपने हाथ से बनाकर न खिलाऊँ तो मैडम खाती ही नहीं। कभी-कभी मेरा मन नहीं करता तो भी बनाती हूँ। किसी को भूखा रखना पाप है न दीदी।'
मैंने उसकी तरफ़ देखा। जी चाहा इसे कहूँ, तू भी तो भूखी है प्रीतो। पर मैडम आकर मेरे दिमाग की इस नस को दबा गई और मैं मौन हो गई।

दो महीने कब निकल गए पता ही न चला। बस एक दिन मैडम आई और प्रीतो को लेकर चली गई। जाती बार प्रीतो ने चोरी से मुझसे कहा था, 'दीदी, मुझे भूल न जाना। मैं तो न आ पाऊँगी पर आप आना। मुझे बुलाओगी न दीदी।' मैंने उसके हाथ अपने हाथों में लिए और अपने आँसू किसी तरह उससे छुपाकर उसे हौसला दिया। फिर गृहस्थी के ताने-बाने को सुलझाती मैं प्रीतो की उलझनों को भूल-सी गई।

एक दिन भरी दोपहरी में मैं सोने जा रही थी तो मैडम आ धमकी। पहली ही साँस में उसने पूछा, 'यहाँ प्रीतो आई है?'
मैं जड़वत खड़ी रही, कुछ उत्तर न सूझा। जवान-जहान लड़की आखिर कहाँ गई। मुझे चुप देखकर मैडम बोली, 'उसे आग लगी है ये तो मैं जान गई थी। बस गलती एक ही हुई कि उसे मैं सब्ज़ी लेने अकेली भेजती रही। सब्ज़ी की टोकरी में छुपाकर बिन्दी ले जाती थी। उस मरघट के पास जाकर लगाती थी। क्या आग है बिन्दी लगाने की। जब भी कलमुँही आती देर लगाकर आती। फिर कपड़े इस्तरी करते वक्त, सब्ज़ी काटते वक्त या चपातियाँ सेंकते वक्त कैसे-कैसे तो शरमाकर मुस्कुराती थी पठ्ठी। मुझे क्या पता था इसे क्या मौत पड़ी है। नहीं तो उड़ने से पहले ही पर काटकर फेंक न देती। मुझे तो डर लग रहा था कहीं पागल न हो जाए। लक्षण सब वही थे। कुछ दिन पहले एक बच्चे की माँ ने न बताया होता तो मुझे कहाँ पता चलना था। कोई मुआ दर्ज़ी है। सब्ज़ी वाले की दुकान के पास, उसी के साथ भागी होगी राँड। उसी के साथ आँख मटक्का चल रहा था। एक बार मिले तो पुलिस में देकर छुट्टी पाऊँ। इन्स्पेक्टर तिवारी के दोनों बच्चे मेरे ही स्कूल में है।'

Sikandar_Khan
10-04-2011, 12:50 PM
मैंने उसकी बातों का परनाला रोकते हुए कहा, 'मैडम, तुम रूखी-सूखी लकड़ी हो। अगर वो नागरबेल कहीं सहारा ढूँढ़ती है तो जाने दो उसे। उसे खुशी ढूँढ़ लेने दो।
बिफरकर मैड़म चिल्लाई, 'ओह, तो ये आग तुम्हारी लगाई हुई है। मुझे पहले ही समझ लेना चाहिए था कि मेरी ट्रेनिंग में कहाँ गलती हुई है। न तुम्हारे घर उसे रखती न ये नौबत आती।'
अब मुझे भी ताव आ गया। मैंने भी चिल्लाकर कहा, 'ये आग मैंने नहीं लगाई पर ये आग मुझे ही लगानी चाहिए थी। तुम मेरी दोस्त हो। तुम्हारे पापों का प्रायश्चित्त मैं न करूँगी तो कौन करेगा। तुम क्या जानो पुरुष के प्यार के बगैर ज़िन्दगी कैसी रेगिस्तान-सी होती है। फेरों की मारी को तुमने अपने अनुशासन के डण्डे से साधकर रखा है। तुम जल्लाद हो तोषी, तुम इन्सान नहीं हो। तुमने मुहब्बत की ज़िन्दगी नहीं देखी। कभी देखो तो जानोगी तुमने अब तक क्या खोया है।' मैडम झल्लाकर बोली -
'मुझे फरेब नहीं खाना है मिसेज आदित्य वर्मा। आप घर में रखकर देखिए, अगर तुम्हारे पालतू आदित्य को भी न झटका दे दे तो मेरा नाम भी तोषी नहीं। दिन-रात उसकी इशारेबाजियाँ क्या मेरी नज़रों से नहीं गुज़रतीं। अगर इस स्कूल की मुसीबत न होती तो कब की भेज देती उसी गाँव में जहाँ से कसाइयों के हाथ से इसे छुड़ाकर लाई थी।'
'शादी करवा दो उसकी।' मैंने कहा।
'हाँ, यही तो करना चाहिए था। और फिर तू भी तो करवा सकती है।'
मैंने कहा, 'वो तुम्हारी ज़िम्मेदारी है तोषी, मैं तो खाली शादी में आ जाऊँगी। चलो चाये पियें। पानी खौल रहा होगा।'
तोषी बोली, 'तुम मेरा कलेजा और जलाना चाहती हो।' मैंने प्यार से उसका हाथ पकड़ा, 'चलो मैडम, तुम्हें रूह-अफज़ा पिलाती हूँ।' उसके बाद उसका जी थोड़ा हल्का हुआ तो मैंने कहा, 'मैडम, उसकी शादी कर दो। लड़की जवान और भावुकता की मारी है। उसके हालात में एक बार अपने-आपको खड़ा करो और सोचो।'
मैडम बोली, 'मैं कोई अच्छा लड़का देखकर कुछ कर पाती इसके पहले ही लगता है वो भाग गई है। आज दूसरा दिन है। तोबा-तोबा, अभी तो शाम की क्लासों के लिए बड़े बच्चे आते होंगे। लो मैं चली।'

मैडम को गए कई दिन हो गए। उससे प्रीतो के बारे में पूछने का हौसला मैं न जुटा पाई। फिर सब भूल-भुला गई। एक दिन शाम के वक्त मैंने दरवाज़ा खोला तो प्रीतो सामने खड़ी थी। पीछे एक लम्बा-तगड़ा खूबसूरत-सा लड़का।

Sikandar_Khan
10-04-2011, 12:53 PM
शराब से वीर-बहूटी उसकी आँखें जैसे मेरे भीतर कुछ कंपा-सा गईं। बिखरे बाल और दम्भ से भरे चेहरे पर मस्तक उसने मेरी अभ्यर्थना में जरा-सा झुका भर दिया। प्रीतो ने कहा, 'यही दीदी है।' मैं स्नेह से दोनों को अंदर ले आई। कमरे में दोनों को बिठाकर थोड़ा-सा मुस्कुरायी भी। चाय का पानी चढ़ाने जैसे ही रसोईघर में गई, प्रीतो पीछे-पीछे आ गई।
हँसकर बोली, 'कैसा है?'
मैंने कहा, 'अच्छा।'
वो हँसी, फिर बोली, 'शराब तो रात को पीता है। आँखें हमेशा लाल रहती हैं।' होठों के कई बल सँवारकर वो हँसने लगी। हँसते-हँसते उसकी भरी आँखों को नज़रअंदाज़ करके मैंने कहा, 'मैडम को मिली?'
प्रीतो ने नीची नज़र करके कहा, 'गई थी। उसने निकाल दिया। और कहा दोबारा यहाँ मत आना। प्रकाश, यही आदमी बड़ा गुस्सा हुआ।' थोड़ा ठहरकर बोली, 'दीदी, मुझे पुरानी धोतियाँ देना। ये एक ही धोती है। मैडम की थी।'

मैंने उसे धोतियों के साथ शगुन के रुपए भी दिए और प्यार से कहा, 'प्रीतो, मैं हूँ, कभी उन्नीस-बीस हो तो याद रखना।' प्रीतो मेरे सीने से लगकर रो पड़ी। मुझे मालूम था वो गलती कर चुकी है। ये आदमी पति जैसा तो नहीं लग रहा। मैंने उसे भी जाते समय शगुन दिया। पता नहीं क्या हुआ उसने मेरे पाँव छुए। मुझे लगा बेटियाँ ऐसी ही विदा होती हैं।

फिर कुछ दिन बाद मैडम का फोन आया। बगैर भूमिका बाँधे उसने कहा, 'क्या दोस्ती निबाह रही हो मिसेज आदित्य वर्मा। कल तुम्हारी वही साड़ी पहने प्रीतो मिली थी जो हमने साथ-साथ कॉलेज के मेले से खरीदी थी। कमाल किया तुमने, साड़ी दी तो धुँआ तक न निकाला कि वो आई थी। देखना कहीं साड़ी से कभी आदित्य को भुलावा न हो।' ये कहकर उसने ठक्क से फोन बंद कर दिया।
आदित्य, मैं चौंकी। ये मैडम कितनी संगदिल है। उसके दूसरे ही दिन प्रीतो फिर आई, पर अकेली। आते ही मेरे पीछे-पीछे रसोईघर में आकर बोली, 'मुझे बैंगन की पकौडियाँ बना दोगी?' मैंने उसे भरपूर नज़र से देखा। वो शरमाई और कहने लगी, 'अभी तो तीन-चार महीने हैं। आज वो नासिक गया है तभी आ सकी हूँ। मुझे कुछ पैसे भी दोगी न। वो तो खाली राशन लाकर रख देता है। एक भी पैसा हाथ में नहीं देता। बाहर से ताला लगाकर दुकान पर जाता है। कभी भूने चने खाने को मन करता है। पैसे रात को उसकी पैंट से गिर जाते हैं तो ले लेती हूँ।' फिर अचानक खुश होकर बोली, 'वहाँ एक खिड़की है जिसमें से कूदकर मैं कभी-कभी निकल जाती हूँ। पर एक दिन पड़ोसिन ने उसे बता दिया था। उस रात उसने मुझे बहुत मारा।'
मैंने उसकी ओर देखे बिना पूछा, 'कोई शादी का काग़ज़ है तुम्हारे पास?'
बोली, 'नहीं, शादी तो मंदिर में हुई थी।'

Sikandar_Khan
10-04-2011, 01:03 PM
पैसे लेकर प्रीतो चली गई। तीन-चार बरस उसका कोई पता न चला। एक दिन मैडम ही कहीं से ख़बर लाई थी कि उसका पति उसे बहुत मारता है। एक दिन देवर ने छुड़ाने की कोशिश की थी सो उसे भी मारा और प्रीतो को घर से निकाल दिया। वो तो पड़ोसियों ने बीच-बचाव करके फिर मेल करा दिया। मैं थोड़ी दु:खी हुई, फिर सोचा बच्चे हैं, बच्चों के सहारे औरतें रावण के साथ भी रह लेती हैं। कल बड़े हो जाएँगे। उनके साथ प्रीतो भी बड़ी हो जाएगी।

वक्त बढ़ता रहा। रोज़ सुबह भी होती, शाम भी। बच्चे स्कूल जाते, घर आते। आदित्य भी और मैं भी ज़िन्दगी के ऐसे अभिन्न अंग बन चुके थे कि उसी रोज़ के ढर्रे में ज़रा भी व्यवधान आता तो बुरा लगता। अपनी छोटी-सी दुनिया में पूरी दुनिया दिखाई देती। न वहाँ कहीं प्रीतो होती न उसका वह मरघट पति।

इसी तरह एक शाम आई। साथ लाई कुछ मेहमान। आदित्य बाज़ार से कुछ सामान लाने गए थे। तभी दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो एक अजनबी औरत अपने फूल-से दो बच्चों को थामे खड़ी थी। मैंने सोचा किसी का पता पूछना चाहती है। मैंने उसे सवालिया निगाहों से देखा। वो मुस्कुराई। होंठ मुरझाए से थे तो भी मुस्कुराहट पहचान लेने में मुझे ज़्यादा देर न लगी। मैंने कहा, 'प्रीतो' - वो बच्चों की उँगलियाँ छुड़ाकर यों लिपटी जैसे इस भरी दुनिया में उसे पहिचानने वाली सिर्फ़ मैं अकेली थी।

Sikandar_Khan
10-04-2011, 01:09 PM
मैंने उसे छुड़ाते हुए कहा, 'प्रीतो, घर में मेहमान हैं। आओ, अंदर चलो।'
उसे बिठाकर मैंने बच्चों को दूध और बिस्कुट दिए। उन्हें खाता छोड़कर प्रीतो मेरे पीछे-पीछे आ गई। बगैर भूमिका बाँधे उसने कहा --
'दीदी, वो चला गया है। दुबई। घर भी किसी और को दे गया। सिर्फ़ आज रात मुझे रह लेने दो।'
मैंने कहा, 'प्रीतो, ये मेहमान आज भी आए हैं। तुम्हें कहाँ सुलाऊँगी। फिर बच्चे भी हैं।'
प्रीतो ने कहा, 'इन्हें लेकर मैं बरामदे में सो जाऊँगी। कल सवेरे यहीं मैंने किसी को मिलना है। वो मेरा कोई इन्तज़ाम करने वाले हैं। मैडम मुझे किसी आश्रम में भेजना चाहती है। बस कुछ दिन की बात है।'
मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, 'तुम मैडम के घर क्यों नहीं गईं?'
'वो कभी भी नहीं रखेगी दीदी। और फिर मैं आश्रम नहीं जाना चाहती।'
'पर क्यों?'
'अगर कभी इनका बाप आया तो?' मैंने कहा, 'अगर उसने आना होता तो जाता ही क्यों?'
उसने कहा, 'बस कुछ दिन इंतज़ार करूँगी। कुछ दिन की बात है।'

मेरी आँखों के आगे आदित्य का चेहरा घूम गया। मैडम की कही हुई बात भी याद आई। जो उन्होंने कहा था वो भी मुझे याद था। एक रात उनकी मर्ज़ी के बगैर भी रख सकती थी पर प्रीतो को ये पूछने का साहस उसमें न था कि कल कहाँ जाओगी? ये मैं जानती थी सिवाय मैडम के उसे कोई आश्रम जाने को राजी न कर सकेगा। यही एक लम्हा था, अगर मैं कमज़ोर पड़ जाती तो उसके जाने का कल ना जाने कब आता। मैंने अपने अंदर के इन्सान का गला दबाया और कहा, 'नहीं प्रीतो, यहाँ रहना मुमकिन नहीं हैं। ये लोग हमारे जेठ की लड़की देखने आए हैं। लड़की कल दिल्ली से आएगी। ऐसे नाजुक रिश्तों के दौरान मैं घर में कोई अनहोनी नहीं कर सकूँगी। तुम पैसे लो। अगर कल सवेरे यहाँ किसी को मिलना है तो टैक्सी में आ जाना। अब तुम जाओ।' मैंने उसके दोनों बच्चों को ऊँगली से लगाया। दरवाज़े के बाहर जाकर चौकीदार से टैक्सी मँगवाई और बच्चों के साथ प्रीतो को बैठते देखा। उसकी पसीने से तर हथेली में कुछ नोट खोंस दिए। टैक्सी को जाने का इंतज़ार किए बगैर घर आकर दरवाज़ा बन्द कर लिया।

ये दरवाज़ा मैंने प्रीतो के लिए बंद किया था या अपने लिए ये न जान पाई। रात-भर मुझे चौराहों के ख्वाब आते रहे। फिर कई दिन मैं दीवारों से पूछती रही, 'कल कहाँ जाओगी?'

Sikandar_Khan
24-09-2011, 10:24 AM
दोपहर का भोजन
सिध्देश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उंगलियां या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।
अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी लेकर गट-गट चढा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कहकर वहीं जमीन पर लेट गई।
आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पडी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आंखों को मल-मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लडक़े प्रमोद पर जम गई।
लडक़ा नंग-धडंग़ पडा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियां साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककडियों की तरह सूखे तथा बेजान पडे थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियां उड रही थीं।
वह उठी, बच्चे के मुंह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खडी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड क़ी आड से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।
दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खडी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कडी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड से काफी आगे बढाकर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बडा लडक़ा रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।

Sikandar_Khan
24-09-2011, 10:26 AM
उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहां पीढा रखकर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।
रामचंद्र आकर धम-से चौंकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुंह लाल तथा चढा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिध्देश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भांति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चार भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जाकर पुकारा - बडक़ू, बडक़ू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लडक़े की नाक के पास हाथ रख दिया। सांस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आंखें खोलीं। पहले उसने मां की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ गया।
सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, ''खाना तैयार है। यहीं लगाऊं क्या?''
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, ''बाबू जी खा चुके?''
सिध्देश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, ''आते ही होंगे।''
रामचंद्र पीढे पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बडी-बडी आंखें तथा होठों पर झुर्रियां।
वह एक स्थानीय दैनिक समचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
सिध्देश्वरी ने खाने की थाली सामने लाकर रख दी और पास ही बैठकर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भांति देखा। कुल दो रोटियां, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।

Sikandar_Khan
24-09-2011, 10:27 AM
सिध्देश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, ''वहां कुछ हुआ क्या?''
रामचंद्र ने अपनी बडी-बडी भावहीन आंखों से अपनी मां को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रूखाई से बोला, ''समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।''
सिध्देश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आंगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकडे पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खडख़डिया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की सांस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।

Sikandar_Khan
24-09-2011, 10:28 AM
रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, ''प्रमोद खा चुका?''
सिध्देश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, ''हां, खा चुका।''
''रोया तो नहीं था?''
सिध्देश्वरी फिर झूठ बोल गई, ''आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बडा ही होशियार हो गया है। कहता था, बडक़ा भैया के यहां जाऊंगा। ऐसा लडक़ा..''
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवडी ख़ाने की जिद पकड ली थी और उसके लिए डेढ घंटे तक रोने के बाद सोया था।

Sikandar_Khan
24-09-2011, 10:29 AM
रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी मां की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकडा शेष रह गया, तो सिध्देश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, ''एक रोटी और लाती हूं?''
रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबडाकर बोल पडा, ''नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूं। बस, अब नहीं।''
सिध्देश्वरी ने जिद की, ''अच्छा आधी ही सही।''
रामचंद्र बिगड उठा, ''अधिक खिलाकर बीमार डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?''