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View Full Version : इस्लाम से आपका परिचय


Sikandar_Khan
21-02-2011, 02:35 AM
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
सुरु करता हूँ अल्लाह के नाम से
प्यारे दोस्तों इस सूत्र का मकसद आप तक इस्लाम को पहुँचाना है
सूत्र को पढ़कर इस्लाम के बारे में जाने
मेरा ये प्रयास होगा की आपको ज्यादा से ज्यादा बता सकूँ
नोट :किसी भी प्रकार की बहस या विवाद न करें

Sikandar_Khan
21-02-2011, 02:38 AM
इस्लाम का जन्म

इस्लाम का अर्थ इस्लाम अरबी शब्द है जिसकी धातु सिल्म है। सिल्म का अर्थ सुख, शांति, एवं समृद्धि है। कुरआन के अनुसार जो सुख, संपदा और संकट में समान रहते हैं, क्रोध को पी जाते हैं और जिनमें क्षमा करने की ताकत हैं, जो उपकारी है, अल्लाह उन पर रहमत रखता है।शब्दकोश में दिए अर्थ के अनुसार इस्लाम का अर्थ है - अल्लाह के सामने सिर झुकाना, मुसलमानों का धर्म। इस्लाम को अरबी में हुक्म मानना, झुक जाना, आत्म समर्पण, त्याग, एक ईश्वर को मानने वाले और आज्ञा का पालन करने वाला कहा है। इस प्रकार संक्षिप्त में हम कह सकते हैं कि विनम्रता और पवित्र ग्रंथ कुरआन में आस्था ही इस्लाम की पहचान है। वास्तव में इस्लाम अरबी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ है 'शांति में प्रवेश करना होता है। अत: सच्चा मुस्लिम व्यक्ति वह है जो 'परमात्मा और मनुष्य के साथ पूर्ण शांति का सम्बंध रखता हो। अत: इस्लाम शब्द का लाक्षणिक अर्थ होगा वह धर्म जिसके द्वारा मनुष्य भगवान की शरण लेता है तथा मनुष्यों के प्रति अङ्क्षहसा एवं प्रेम का बर्ताव करता है।

इस्लाम धर्म का उद्भव और विकास इस्लाम धर्म के प्रर्वतक हजरत मुहम्मद साहब थे। इनका जन्म अरब देश के मक्का शहर में सन् 570 ई. में हुआ था। जब हजरत मुहम्मद अरब में इस्लाम का प्रचार कर रहे थे उन दिनों भारत में हर्षवर्धन और पुलकेशी का राज्य था। इस्लाम धर्म के मूल ग्रंथ कुरआन और हदीस हैं। कुरआन उस पुस्तक का नाम है जिसमें मुहम्मद साहब के पास देवदूतोँ के माध्यम से ईश्वर के द्वारा भेजे गए संदेश एकत्रित हैं। हदीश उस पुस्तक का नाम है जिसमें मुहम्मद साहब के कर्मों का उल्लेख और उपदेशों का संकलन(एकत्रित) हैं।

संस्थापक मुहम्मद साहब ने इस्लाम धर्म की स्थापना किसी योजना के तहत नहीं की बल्कि इस धर्म का उन्हें इलहाम (ध्यान समाधि की अवस्था में प्राप्त हुआ) हुआ था। कुरान में उन बातों का संकलन है जो मुहम्मद साहब के मुखों से उस समय निकले जब वे अल्लाह के संपर्क में थे। यह भी मान्यता है कि भगवान कुरआन की आयतों को देवदूतों के माध्यम से मुहम्मद साहब के पास भेजते थे। इन्हीं आयतों के संकलन (इकट्ठा करना) से कुरआन तैयार हुई है।

मुहम्मद साहब का आध्यात्मिक जीवनजब से मुहम्मद साहब को धर्म का इलहाम हुआ तभी से लोग उन्हें पैगम्बर, नबी और रसूल कहने लगे। पैगम्बर कहते हैं पैगाम (संदेश) ले जाने वाले को। हजरत मुहम्मद के जरिए भगवान का संदेश पृथ्वी पर पहुंचा। इसलिए वे पैगम्बर कहे जाते हैं। नबी का अर्थ है किसी उपयोगी परम ज्ञान की घोषणा को। मुहम्मद साहब ने चूंकि ऐसी घोषणा की इसलिए वे नबी हुए। तब से नबी का अर्थ वह दूत भी गया जो परमेश्वर और समझदार प्राणी के बीच आता जाता है। मुहम्मद साहब रसूल हैं, क्योंकि परमात्मा और मनुष्यों के बीच उन्होंने धर्मदूत का काम किया।

इस्लाम का मूल मंत्र ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह यह इस्लाम का मूल है। जिसका अर्थ है-''अल्लाह के सिवा और कोई पूज्यनीय नहीं है तथा मुहम्मद उनके रसूल है। ऐसी मान्यता हैं, कि केवल अल्लाह को मनाने से कोई आदमी पक्का मुसलमान नहीं हो जाता, उसे यह भी मानना पड़ता है कि मुहम्मद अल्लाह के नबी, रसूल और पैगम्बर हैं।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 02:40 AM
इस्लाम धर्म की मान्यताएं एवं परंपराएं

कुरान ही इस्लाम धर्म का प्रमुख ग्रंथ है। कुरान में मुसलमानों के लिए कुछ नियम एवं तौर-तरीके बताए गए हैं। जिनका पालन करना सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य बताया गया है। कुरान हर मुसलमान के लिए पांच धार्मिक कार्य निर्धारित करता है।

वे कृत्य हैं :-

१. कलमा पढऩा- कलमा पढऩे का मतलब यह है कि हर मुसलमान को इस आयत को पढऩा चाहिए। अल्लाह एक है और मुहम्मद उसके रसूल है। 'ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाहó इस्लाम का ऐकेश्वरवाद (तोहीद) इसी मंत्र पर आधारित है।

२. नमाज पढऩा- हर मुसलमान के लिए यह नियम है कि वह प्रतिदिन दिन में पांच बार नमाज पढ़े। इसे सलात भी कहा जाता है।

३. रोजा रखना- अर्थात् रमजान के पूरे महीनेभर केवल सूर्यास्त के बाद भोजन करना। वर्षभर में रमजान महीना इसलिए चुना गया कि इसी महीने में पहले-पहल कुरान उतारा था।

४. जकात- इस्लाम धर्म में जकात का बड़ा महत्व है। अरबी भाषा में जकात का अर्थ है- पाक होना, बढऩा, विकसित होना। अपनी वार्षिक आय का चालीसवां हिस्सा (ढाई प्रतिशत) दान में देना।

५. हज- अर्थात् तीर्थों में जाना। इस्लाम धर्म में हज (तीर्थयात्रा) के लिए अरब देश के मक्का मदीना शहर जाया जाता है ।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 02:42 AM
इस्लाम के रीति-रिवाज

१. जन्नत- इस्लाम धर्म जन्नत पर यकीन करने वाला धर्म है। जन्नत स्वर्ग को कहते हैं। जहां पर अल्लाह को मानने वाले, सच बोलने वाले, ईमान रखने वाले (ईमानदार) मुसलमान रहेंगे।

२. जिहाद- इस्लाम धर्म में जिहाद से बड़ा महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जिहाद का वास्तविक मतलब है किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनी जान की पूरी ताकत लगा देने वाला। जिहाद केवल लडऩा या युद्ध करना नहीं है। जिहाद का वास्तविक तात्पर्य यह है कि हर इंसान, हर घड़ी अपने उद्देश्य की प्राप्ति में पूरे दिलो-दिमाग से लगा रहे। अपनी समस्त क्षमता धन, यश, बुद्धि, वाणी व लेखनी से लगातार अपनी मंजिल को पाने की कोशिश करता रहे, अपने लक्ष्य और उद्देश्य के लिए ही पूरी तरह समर्पित हो जाए। लक्ष्य प्राप्ति तक बिना रुके जुटा रहे यही जिहाद है।

३. कुर्बानी- इस्लाम धर्म में कुर्बानी की बड़ी मान्यता है। मुस्लिम मत के अनुसार हजरत इब्राहिम की यादगार को कुर्बानी कहते हैं। हजरत इब्राहिम ने अपने बेटे इस्माइल को अल्लाह की प्रसन्नता के लिए कुर्बान करना चाहा। अल्लाह ने हजरत इब्राहीम की ये भेंट दूसरे रूप में स्वीकार की। अल्लाह ने हजरत इब्राहीम को पवित्र काबा में नियुक्त कर दिया। तब से अपनी जान के बदले जानवर की कुर्बानी करने की प्रथा बन गई।

४. आखरियत- इस्लाम धर्म में आखरियत को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। आखरियत का आशय परलोकगामी है और परलौकिक जीवन भी है। ये बात इस्लाम की मौलिक शिक्षाओं में शामिल है। इस्लाम धर्म की मान्यता है कि वर्तमान जीवन अत्यंत सीमित एवं छोटा है।एक समय आएगा जब विश्व की व्यवस्था बिगड़ जाएगी और ईश्वर नए विश्व का निर्माण करेगा जिसके नियम कायदे वर्तमान विश्व से भिन्न होंगे। जो कि वर्तमान में अप्रत्यक्ष है।

ईमान और कुफ्रइस्लाम के समग्र सिद्धांत दो भागों में बांटे जा सकते हैं। एक का नाम 'उसूल' और दूसरे का नाम 'फरु' है। कुरान सिर्फ ईमान और अमल, इन दो शब्दों को उल्लेख करता है। अब ईमान का पर्याय उसूल और अमल का फरु है। उसूल वे धार्मिक सिद्धांत है जिन्हें नबी ने बताया है। फरु उन सिद्धांतों के अनुसार आचरण करने को कहते हैं। अतएव मुहम्मद साहब के उपदेश उसूल अथवा मूल हैं और उन पर अमल करने का नाम 'फरु' अथवा शाखा है।इस्लाम धर्म की मान्यता है कि अल्लाह ही अपने में सभी को समेटे है। उसने सभी को एक समान बनाया है। न कोई छोटा है और न कोई बड़ा । इस्लाम धर्म भी अन्य धर्मों की तरह स्त्रियों को अधिकार देता है। इस्लाम धर्म की मान्यता है कि मनुष्यों की एक जाति है।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 02:44 AM
इस्लाम धर्म के उपदेश

१ अल्लाह है और वह एक है, सबसे बड़ा है।
२ अल्लाह ने मनुष्यों के मार्गदर्शन को नबी भेजें।
३ मोहम्मद साहब आखिरी रसूल हंै।
४ आखरियत सत्य हंै।
५ एक दिन दुनिया मिट जाएगी। फिर खुदा दूसरी दुनिया बनाएगा। जीवन दान देगा।
६ खुदा बंदे के अच्छे बुरे कामों का बदला देगा।
७ धर्म के पाबंद लोग ही जन्नत जाएंगे।
८ धर्म न मानने वाले काफिर जहन्नुम में जाएंगे।
९ नमाज पढऩा व रोजा रखना फर्ज है।
१० कुरान की बात मानना हर मुसलमान का फर्ज है। यह खुदा की किताब है।
११ किसी पर बुरी नजर न रखो, किसी पर जुल्म मत करो, बदचलनी से बचो।
१२ जकात व कुर्बानी मानना हर मुस्लिम का फर्ज है।
१३ अन्याय के शिकार व्यक्ति की आह को अल्लाह कभी भी अनसुना नहीं करता।
१४ अल्लाह की दया काफिर व मोमिन दोनों को समान रूप।


जन्नत का रास्ता इस्लाम धर्म के अनुसार हदीस कहती है कि बंदे तू मुझे छह बातों का विश्वास दिला, मैं तुझे जन्नत बख्श दुंगा। ये छ: बातें हैं:
1. सच बोलो
2. अपना वायदा पूरा करो
3. बदचलनी से बचो
4. अमानत में पूरे उतरो
5. किसी पर बुरी नजर मत डालो
6. किसी पर जुल्म न करोइन छह बातों के अतिरिक्त हदीस का यह भी कहना है कि जिसके पड़ौसी दु:खी हो वह सच्चा मुसलमान नहीं। जो स्वार्थी है, अल्लाह को नहीं मानता, वो मुसलमान नहीं।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 02:50 AM
जिहाद और कुर्बानी: क्या कहता है इस्लाम ?


इस्लाम धर्म में जिहाद को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जिहाद इतना अद्भुत और कीमती शब्द है कि इसको समझने में अक्सर भूल या गलती की जाती है।

जिहाद के मायने- जिहाद का वास्तविक मतलब है किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनी जान की पूरी ताकत लगा देने वाला कारनामा। जिहाद केवल लडऩा या युद्ध करना नहीं है। जिहाद का असली मतलब यह है कि हर इंसान, हर घड़ी अपने उद्देश्य की प्राप्ति में पूरे दिलो-दिमाग से लगा रहे। अपनी समस्त क्षमता धन, यश, बुद्धि, वाणी व लेखनी से लगातार अपनी मंजिल को पाने की कोशिश करता रहे। अपने लक्ष्य और उद्देश्य के लिए ही पूरी तरह समर्पित हो जाए। लक्ष्य प्राप्ति तक बिना रुके जुटा रहे यही जिहाद है।


क्या है कुर्बानी -इस्लाम धर्म में कुर्बानी की बड़ी मान्यता है। मुस्लिम मत के अनुसार हजरत इब्राहिम की यादगार को कुर्बानी कहते हैं। हजरत इब्राहिम ने अपने बेटे इस्माइल को अल्लाह की प्रसन्नता के लिए कुर्बान करना चाहा। अल्लाह ने हजरत इब्राहिम को पवित्र काबा में नियुक्त कर दिया। तब से अपनी जान के बदले जानवर की कुर्बानी करने की प्रथा बन गई। कुर्बानी की प्रथा इंसान को धर्म के लिये सबकुछ बलिदान कर देने की प्रेरणा देती है।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 02:53 AM
कुरान शरीफ एवं प्रमुख त्यौहार



मुस्लिम धर्म की सर्व प्रमुख पुस्तक का नाम कुरान है इस पुस्तक में मुहम्मद साहब के पास अल्लाह द्वारा भेजे गए संदेशों का संकलन है। मान्यता है कि इसे फरिश्तों (देवदूतों) ने मुहम्मद साहब पर उतारा था। इस्लाम धर्म की ऐसी मान्यता है कि खुदा ने मुहम्मद साहब को अपना दूत मुकर्रर किया। (ऐसा कुरान में लिखा है।) अत: इस्लाम धर्म में, मुसलमान मोहम्मद साहब को पैगम्बर (अल्लाह का दूत) व कुरान को उन पर उतारी गई (अवतरित की गई) ईश्वरीय पुस्तक मानते हैं। कुरान को मुस्लिम धर्म में खुदा की किताब यानी सुंदर पुस्तक मानते हैं।

मुस्लिम धर्म के प्रमुख त्यौहार रमजान का पहला दिन: रमजान मास- 1शहादत हजरत अली: रमजान मास- 21शबे कद्र: रमजान मास- 27जमेपतुल विदा: रमजान मास- 23ईदुल फितर: शव्वाल मास- 1ईदुल जुहा: जिल्काद मास-१०मोहर्रम: मोहर्रम मास- 1०चेहलम: सफर मास- २0आखरी चहारशम्बा: सफर मास -2६बारा वफात: सफर मास- १2ईद ए गौलात: रवि- उल- अव्वल मास -17पातिहाप जदुहुम: रबि- उल- अव्वल मास- 11जन्म हजरत अली: रज्जब मास-13शबे मीराज: रज्जब मास- 27

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8962&stc=1&d=1298242362

Sikandar_Khan
21-02-2011, 02:57 AM
इबादत के साथ अनुशासन भी देती है नमाज




मुस्लिम समाज में खुदा की इबादत की एक खास पद्धति है जिसे नमाज कहा जाता है। नमाज पढऩे वालों पर अल्लाह मेहरबान होता है। ऐसी मान्यता है। नमाज खुदा को याद करने का तरीका है। दिनभर में 5 बार नमाज अदा की जाती है। प्रात: फजर, दोपहर में जौहर, सूरज ढलने पर असर, गोधुली बेला पर मगरिब एवं रात्रि के प्रथम पहर पर इशा की नमाज अदा की जाती है। इनके समय में ऋतुओं के हिसाब से अंग्रेजी समय से फेरबदल होता है। नमाज अदा करने से खुदा की इबादत के साथ ही शरीर को स्वस्थ रखने की क्रिया भी संपन्न हो जाती है। नमाज जिस तरह से अदा की जाती है उसको करने से शरीर के पाचन तंत्रों का विकास होता है। नेत्रों की ज्योति बढ़ती है तथा स्फूर्ति बनी रहती है। बल की वृद्धि होती है। स्वास्थ्य अच्छा हो तो मन भी प्रसन्न रहता है। यही प्रसन्नता खुदा की नियामत मानी जाती है। उसकी तरफ से गेबी मदद मिलती है।नमाजी व्यक्ति छल-कपट व अन्य अनैतिक कर्मों से दूर रहता है। वैसे नमाज हर दिन आवश्यक है परंतु शुक्रवार को यह पांचों समय पर पूरे रीति रिवाज के साथ ही जाती है। मुस्लिम समाज के स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी बड़े सम्मान के साथ अदा करते है।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 03:01 AM
क्यों पढ़ते हैं पांच बार नमाज?
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8963&stc=1&d=1298242832


मुस्लिम समाज में इबादत को लेकर नियम काफी सख्त हैं। इबादत यानी अल्लाह से प्रार्थना में थोड़ी भी लापरवाही नहीं चलती है। दिन में पांच बार नमाज अदायगी का नियम है। कई गैर-मुस्लिम लोग आजकल की दौड़भाग भरी और आधुनिक जिंदगी में ऐसे नियमों को गैर-जरूरी समझते हंैं लेकिन यह नियम पूरी तरह वैज्ञानिक है। पांच बार नमाज के पीछे केवल धार्मिक कट्टरता का भाव नहीं है बल्कि यह तो जिंदगी में अनुशासन और स्वास्थ्य के लिए है।

पांच बार नमाज के पीछे व्यक्ति में वक्त की पाबंदी लाना सबसे बड़ा उद्देश्य है। आदमी अपने रोजमर्रा के काम समय पर निपटाए ताकि पांचों वक्त की नमाज पढ़ सके। नमाज पढ़ने में दूसरा सबसे बड़ा फायदा है शारीरिक कसरत का। शरीर के सारे जोड़ों की कसरत हो जाती है। तीसरा फायदा है रात को जल्दी सोने और सुबह नमाज के लिए जल्दी उठने का, यह भी सीधा सेहत से जुड़ा हुआ है। इसलिए मुस्लिम समाज में दिन में पांच बार नमाज पढ़ने का नियम है।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 03:04 AM
पांच बार नमाज करने के कई अन्य फायदे
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8964&stc=1&d=1298243064


नमाज पांच बार करने के कई अन्य फायदे भी है। नमाज का जो समय निर्धारित किया गया है। वह पूरी तरह मनुष्य के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए किया गया है। प्रात: फजर की नमाज के लिए जल्दी उठना ही पड़ता है। जो उसको तन और मन की प्रसन्नता देता है। नमाज की क्रिया से हुआ हल्का व्यायाम स्फूर्ति देने वाला है। ऐसे मान्यता है कि इसी समय अल्लाह के भेजे हुए दो फरिश्ते उसके दोनों कंधों पर बैठ जाते हैं। जो उसके दिन भर के क्रिया कलाप पर नजर रखते हैं। दोपहर की जौहर, सूर्यास्त की असर एवं गोधुली बेला की मगरिब की नमाज का वक्त ऐसा इसलिए निर्धारित किया गया कि मनुष्य दिनभर अनुशासन में रहे। दोपहर के समय सोये नहीं एवं कोई भी अनैतिक कार्य नहीं कर पाए। दोपहर में सोने से कफ, सर्दी एवं श्वास संबंधी कई प्रकार के रोग होने की संभावना रहती है। रात्रि प्रथम पहर ईशा की नमाज का वक्त वह खुदा से दिनभर में अलग कोई, खता हुई हो तो उसकी क्षमा मांग सकता है तथा वे दोनों फरिश्ते भी कंधे से उतरकर अल्लाह के समक्ष जाकर नमाजी के दिनभर के कर्मों का वर्णन करते हैं। अल्लाह नमाजी के सत्कर्मों से उसका सिला प्रदान करते हैं। अलगे दिन सुबह जल्दी नमाज पढऩे के लिए उसको जल्दी सोना भी पड़ता है। जल्दी सोने से भी उसको तन-मन को स्वस्थ्ता मिलती है तथा शरीर को अधिक कार्य की क्षमता प्राप्त होती है।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 03:32 AM
मुस्लिम क्यों करते हैं हज यात्रा?
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8965&stc=1&d=1298244719


दुनिया के हर मुसलमान की ख्वाहिश होती है कि वह अपने जीवन काल में एक बार हज की यात्रा अवश्य करे। हज यात्रियों के सपनों में काबा पहुंचना, जन्नत पहुंचने के ही समान है। काबा शरीफ़ मक्का में है। असल में हज यात्रा मुस्लिमों के लिये सर्वोच्च इबादत है। इबादत भी ऐसी जो आम इबादतों से कुछ अलग तरह की होती है। यह ऐसी इबादत है जिसमें काफ़ी चलना-फि रना पड़ता है। सऊदी अरब के पवित्र शहर मक्का और उसके आसपास स्थित अलग-अलग जगहों पर हज की इबादतें अदा की जाती हैं। इनके लिए पहले से तैयारी करना ज़रूरी होता है, ताकि हज ठीक से किया जा सके। इसीलिए हज पर जाने वालों के लिए तरबियती कैंप मतलब कि प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं।
एहराम: हज यात्रा वास्तव में पक्का इरादा यानि कि संकल्प करके 'काबा' की जिय़ारत यानी दर्शन करने और उन इबादतों को एक विशेष तरीक़े से अदा करने को कहा जाता है। इनके बारे में किताबों में बताया गया है। हज के लिए विशेष लिबास पहना जाता है, जिसे एहराम कहते हैं। यह एक फकीराना लिबास है। ऐसा लिबास जो हर तरह के भेदभाव मिटा देता है। छोटे-बड़े का, अमीर-गऱीब, गोरे-काले का। इस दरवेशाना लिबास को धारण करते ही तमाम इंसान बराबर हो जाते हैं और हर तरह की ऊंच-नीच ख़त्म हो जाती है।
जुंबा पर एक ही नाम: पूरी हज यात्रा के दरमियान हज यात्रियों की ज़बान पर 'हाजिऱ हूँ अल्लाह, मैं हाजिऱ हूँ। हाजिऱ हूँ। तेरा कोई शरीक नहीं, हाजिऱ हूँ। तमाम तारीफ़ात अल्लाह ही के लिए है और नेमतें भी तेरी हैं। मुल्क भी तेरा है और तेरा कोई शरीक नहीं है़,...जैसे शब्द कायम रहते हैं। कहने का मतलब यह है कि इस पूरी यात्रा के दोरान हर पल हज यात्रियों को यह बात याद रहती है कि वह कायनात के सृष्टा, उस दयालु-करीम के समक्ष हाजिऱ है, जिसका कोई संगी-साथी नहीं है। इसके अलावा यह भी कि मुल्को-माल सब अल्लाह तआला का है। इसलिए हमें इस दुनिया में फ़क़ीरों की तरह रहना चाहिए।

Sikandar_Khan
21-02-2011, 03:37 AM
जन्नत पंहुचाने का वादा करती है हदीस

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=8966&stc=1&d=1298244923

क्या वाकई होते हैं जन्नत और जहन्नुम....यदि हां तो कहां और कैसे होते हैं.... आखिर क्या है जन्नत का रास्ता.... किन पापों की सजा है- जहन्नुम....क्या इंद्रलोक की सुन्दर अप्सराओं की तरह जन्नत में भी बेहद हसीन हूरें होती हैं?...। ऐसे और भी कितने प्रश्र हैं जो यदाकदा जहन में उठते हैं।

जिस तरह हिन्दू व दूसरे अन्य धर्मों में स्वर्ग और नर्क की प्रबल मान्यता पाई जाती है, उसी तरह इस्लाम धर्म के मानने वाले मुस्लिम भाइयों की यह दृड़ मान्यता है कि, इंसान को उसके कर्मों के अनुसार ही जन्नत या जहन्नुम मिलते हैं। इस्लाम धर्म के अनुसार हदीस कहती है कि बंदे तू मुझे छह बातों का विश्वास दिला, तुझे निश्चित रूप से जन्नत में स्थान प्राप्त होगा। आइये जाने उन महत्वपूर्ण छ: बातें को...

1. सच बोलो।
2. बिना सोचे-समझे कभी वादा मत करो यदि करो तो उसे हर हाल में पूरा करो।
3. बदचलनी से बचो यानि हमेशा विनम्र और पवित्र व्यवहार करो।
4. अमानत में पूरे उतरो यानि ईमानदारी बनाए रखो।
5. किसी पर बुरी नजर मत डालो मतलब कि किसी को भी गलत भावना से मत देखो।
6. किसी पर जुल्म न करो यानि कि किसी को भी मन, वचन और कार्य से कष्ट मत पहुंचाओ।

Nitikesh
21-02-2011, 04:57 AM
बहुत बढियाँ सिकंदर भाई जानकारी बांटने के लिए आप का धन्यवाद

Bhuwan
21-02-2011, 05:33 AM
बहुत अच्छा धार्मिक महत्व से परिपूर्ण सूत्र बनाया है सिकंदर भाई.

madhavi
21-02-2011, 06:08 AM
अधिकांश गैर-मुस्लिमों को यही गलत फहमी है कि इस्लाम का आरम्भ लगभग १५०० वर्ष पहले हजरत मुहम्मद स० अ० व० से हुआ है जबकि हजरत मुहम्मद स० अ० व० पर तो नबुव्वत समाप्त होने का ऐलान हुआ। अर्थात हजरत मुहम्मद स० अ० व० को अंतिम नबी के रूप में भेजा गया, अब उनके बाद कोई नबी संसार में नही आने वाला।
जबकि वास्तविकता यह है कि इस सृष्टि की रचना के बाद सबसे पहले नबी हजरत आदम अ० स० को संसार में भेजा गया जिनको आदम और हव्वा के नाम से जाना जाता है। उसके बाद एक एक करके एक लाख चौबीस हजार नबी दुनिया में आये और उन्होंने इस्लाम को फ़ैलाने के लिए लोगों को दीन (इस्लाम) की दावत दी। परन्तु इन सभी नबियों के नियमों में थोड़ा-थोड़ा फ़र्क था और धीरे-धीरे जैसे-जैसे मानव का मानसिक विकास होता गया, उसी के अनुसार इस्लाम के नियमों एवं ज्ञान में परिवर्तन किया जाता रहा।

sagar -
21-02-2011, 06:57 AM
इस्लाम धर्म के उपदेश

१ अल्लाह है और वह एक है, सबसे बड़ा है।
२ अल्लाह ने मनुष्यों के मार्गदर्शन को नबी भेजें।
३ मोहम्मद साहब आखिरी रसूल हंै।
४ आखरियत सत्य हंै।
५ एक दिन दुनिया मिट जाएगी। फिर खुदा दूसरी दुनिया बनाएगा। जीवन दान देगा।
६ खुदा बंदे के अच्छे बुरे कामों का बदला देगा।
७ धर्म के पाबंद लोग ही जन्नत जाएंगे।
८ धर्म न मानने वाले काफिर जहन्नुम में जाएंगे।
९ नमाज पढऩा व रोजा रखना फर्ज है।
१० कुरान की बात मानना हर मुसलमान का फर्ज है। यह खुदा की किताब है।
११ किसी पर बुरी नजर न रखो, किसी पर जुल्म मत करो, बदचलनी से बचो।
१२ जकात व कुर्बानी मानना हर मुस्लिम का फर्ज है।
१३ अन्याय के शिकार व्यक्ति की आह को अल्लाह कभी भी अनसुना नहीं करता।
१४ अल्लाह की दया काफिर व मोमिन दोनों को समान रूप।


जन्नत का रास्ता इस्लाम धर्म के अनुसार हदीस कहती है कि बंदे तू मुझे छह बातों का विश्वास दिला, मैं तुझे जन्नत बख्श दुंगा। ये छ: बातें हैं:
1. सच बोलो
2. अपना वायदा पूरा करो
3. बदचलनी से बचो
4. अमानत में पूरे उतरो
5. किसी पर बुरी नजर मत डालो
6. किसी पर जुल्म न करोइन छह बातों के अतिरिक्त हदीस का यह भी कहना है कि जिसके पड़ौसी दु:खी हो वह सच्चा मुसलमान नहीं। जो स्वार्थी है, अल्लाह को नहीं मानता, वो मुसलमान नहीं।
बहुत ही उम्दा जानकारी दी हे सिकन्दर भाई ! थैंक्स :bravo::bravo:

bhoomi ji
21-02-2011, 07:40 AM
सिकंदर जी
इस्लाम धर्म से परिचय करवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत ही अच्छी जानकारी है
आपने कई ऐसी जानकारी बांटी जो एक गैरमुस्लिम व्यक्ति शायद ही कभी जान पाता.

abhisays
21-02-2011, 08:01 AM
इस सूत्र का कोई जोड़ नही क्योकि यह बेजोड़ है, मुस्लिम समाज के प्रति आज दुनिया में जो भ्रांति और अविश्वास का वातावरण है, उसको कम करने में यह सूत्र ज़रूर योगदान करेगा. सिकंदर जी का इस्लाम धर्म की काफ़ी बारीकी से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद.

sagar -
21-02-2011, 08:25 AM
इस सूत्र का कोई जोड़ नही क्योकि यह बेजोड़ है, मुस्लिम समाज के प्रति आज दुनिया में जो भ्रांति और अविश्वास का वातावरण है, उसको कम करने में यह सूत्र ज़रूर योगदान करेगा. सिकंदर जी का इस्लाम धर्म की काफ़ी बारीकी से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद.
बहुत ही सही कहा अभिजी अपने :bravo::bravo:

ndhebar
21-02-2011, 08:32 AM
रूहानी सूत्र
बहुत बहुत शुक्रिया सिकंदर भाई इस पाक धर्म से हमारा परिचय करने हेतु

khalid
21-02-2011, 10:26 AM
बहुत बढिया सुत्र बनाया आपने सिकन्दर
शुक्रिया

masoom
21-02-2011, 11:19 AM
इस्लाम का जन्म

इस्लाम का अर्थइस्लाम अरबी शब्द है जिसकी धातु सिल्म है। सिल्म का अर्थ सुख, शांति, एवं समृद्धि है। कुरान के अनुसार जो सुख, संपदा और संकट में समान रहते हैं, क्रोध को पी जाते हैं और जिनमें क्षमा करने की ताकत हैं, जो उपकारी है, अल्लाह उन पर रहमत रखता है।शब्दकोश में दिए अर्थ के अनुसार इस्लाम का अर्थ है - अल्लाह के सामने सिर झुकाना, मुसलमानों का धर्म। इस्लाम को अरबी में हुक्म मानना, झुक जाना, आत्म समर्पण, त्याग, एक ईश्वर को मानने वाले और आज्ञा का पालन करने वाला कहा है। इस प्रकार संक्षिप्त में हम कह सकते हैं कि विनम्रता और पवित्र गं्रथ कुरान में आस्था ही इस्लाम की पहचान है। वास्तव में इस्लाम अरबी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ है 'शांति में प्रवेश करनाó होता है। अत: सच्चा मुस्लिम व्यक्ति वह है जो 'परमात्मा और मनुष्य के साथ पूर्ण शांति का संबंधó रखता हो। अत: इस्लाम शब्द का लाक्षणिक अर्थ होगा वह धर्म जिसके द्वारा मनुष्य भगवान की शरण लेता है तथा मनुष्यों के प्रति अङ्क्षहसा एवं प्रेम का बर्ताव करता है।

इस्लाम धर्म का उद्भव और विकासइस्लाम धर्म के प्रर्वतक हजरत मुहम्मद साहब थे। इनका जन्म अरब देश के मक्का शहर में सन् 570 ई. में हुआ था। जब हजरत मुहम्मद अरब में इस्लाम का प्रचार कर रहे थे उन दिनों भारत में हर्षवर्धन और पुलकेशी का राज्य था। इस्लाम धर्म के मूल ग्रंथ कुरान, सुन्नत और हदीस हैं। कुरान उस पुस्तक का नाम है जिसमें मुहम्मद के पास ईश्वर के द्वारा भेजे गए संदेश एकत्रित हैं। सुन्नत वह ग्रंथ (पुस्तक) है जिसमें मुहम्मद साहब के कर्मों का उल्लेख है और हदीस वह किताब है जिसमें उनके उपदेशों का संकलन(एकत्रित) हैं।

संस्थापक मुहम्मद साहबमुहम्मद साहब ने इस्लाम धर्म की स्थापना किसी योजना के तहत नहीं की बल्कि इस धर्म का उन्हें इलहाम (ध्यान समाधि की अवस्था में प्राप्त हुआ) हुआ था। कुरान में उन बातों का संकलन है जो मुहम्मद साहब के मुखों से उस समय निकले जब वे अल्लाह के संपर्क में थे। यह भी मान्यता है कि भगवान कुरान की आयतों को देवदूतों के माध्यम से मुहम्मद साहब के पास भेजते थे। इन्हीं आयतों के संकलन (इक_ा करना) से कुरान तैयार हुई है।मुहम्मद साहब का आध्यात्मिक जीवनजब से मुहम्मद साहब को धर्म का इलहाम हुआ तभी से लोग उन्हें पैगम्बर, नबी और रसूल कहने लगे। पैगम्बर कहते हैं पैगाम (संदेश) ले जाने वाले को। हजरत मुहम्मद के जरिए भगवान का संदेश पृथ्वी पर पहुंचा। इसलिए वे पैगम्बर कहे जाते हैं। नबी का अर्थ है किसी उपयोगी परम ज्ञान की घोषणा को। मुहम्मद साहब ने चूंकि ऐसी घोषणा की इसलिए वे नबी हुए। तब से नबी का अर्थ वह दूत भी गया जो परमेश्वर और समझदार प्राणी के बीच आता जाता है। मुहम्मद साहब रसूल हैं, क्योंकि परमात्मा और मनुष्यों के बीच उन्होंने धर्मदूत का काम किया।

इस्लाम का मूल मंत्र'ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाहó यह इस्लाम का मूल है। जिसका अर्थ है-''अल्लाह के सिवा और कोई पूज्यनीय नहीं है तथा मुहम्मद उसके रसूल है।óó ऐसी मान्यता हैं, कि केवल अल्लाह को मनाने से कोई आदमी पक्का मुसलमान नहीं हो जाता, उसे यह भी मानना पड़ता है कि मुहम्मद अल्लाह के नबी, रसूल और पैगम्बर हैं।
सिकन्दर जी मुझे कुछ तथ्यों पर आपत्ति है उन्हें मेने हाई लाईट कर दिया है |बस आपसे एक अनुरोध है कि इस्लाम के विषय में कोई भी बात "मेरे विचार से" या शायद" से आरम्भ करके लिखने से बचिए ,पहले ही इस्लाम के विषय में विश्वभर में इतनी भ्रांतियां फेली हुयी है इसलिए प्रत्येक बात पूरे आत्मविश्वास के साथ एवं पक्के सबूत के साथ लिखे तो अच्छा होगा |

Bholu
21-02-2011, 11:25 AM
सिकन्दर साहब बहुत बढिया सूत्र बनाया है मै आपको पाक इस्लाम धर्म के बारे मे बताने के लिये त्ह दिल से शुक्रिया करता हूँ

masoom
21-02-2011, 11:32 AM
एक बात तो मैं यहाँ यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि अधिकांश नॉन मुस्लिम्स एवं कुछ मुस्लिम्स भी इस गलत फहमी में मुब्तिला हैं कि इस्लाम का आरम्भ १५०० वर्ष पूर्व हजरत मुहम्मद स०अ०व० द्वारा किया गया जबकि सत्य यह है कि कुरान के अनुसार इस्लाम का आरम्भ स्रष्टि की रचना के साथ ही हो गया था सबसे पहले नबी हजरत आदम अ०स० को पृथ्वी पर भेजा गया और उसके बाद एक लाख चोबीस हज़ार नबियों को दुनिया में इस्लाम फेलाने के लिए भेजा गया |कुरान में बहुत से नबियों का ज़िक्र है जैसे कि हजरत युसूफ अ०स० ,हजरत इब्राहीम अ०स०.हजरत ईसा अ०स० (जिन्हें ईसाई लोग जीसस के नाम से जानते है)|विज्ञानं के अनुसार भी मानव का मानसिक स्तर आरम्भ में उतना विकसित नहीं था जितना कि आज है इसलिए इस्लाम के नियम उसकी सुविधानुसार परिवर्तित किये जाते रहे परन्तु एक समय ऐसा आया कि अल्लाह ताला को लगा कि अब मानव उस मानसिक स्तर पर है जब यह कुरान को समझ सकता है तब कुरान को मुहम्मद साहब स०अ०व० पर नाजिल किया गया (यह इस प्रश्न का भी उत्तर है कि लोग कहते हैं कि यदि इस्लाम सबसे पहला धर्म हे तो कुरान बाद में क्यूँ आया) और हजरत मुहम्मद स०अ०व० को अंतिम नबी के रूप में भेजने का उद्देश्य यह भी रहा कि इस्लाम अब मुकम्मल (सम्पूर्ण)हो गया है अर्थात अब कयामत तक इसमें कोई परिवर्तन नही किया जायेगा |
इस बात का एक और सबूत यह भी है कि खाना काबा जिसके चरों और आप हज यात्रा के समय चक्कर लगते हैं वो हजरत मुहम्मद स०अ०व० द्वारा नही बनाया गया बल्कि उसकी तामीर (कन्स्ट्रक्शन) हजरत इब्राहीम अ०स० द्वारा अपने बेटे हजरत इस्माइल अ०स० के साथ मिलकर की गयी |हजरत इस्माइल अ०स० भी बाद में नबी बनाये गए |
अभी कुछ सबूत और दूंगा इस बात के कि इस्लाम १५०० वर्ष पुराना नही बल्कि पृथ्वी की रचना होने के समय से है |

madhavi
21-02-2011, 11:38 AM
" सुन्नत वह ग्रंथ (पुस्तक) है जिसमें मुहम्मद साहब "
हंसी आती है पढ़ कर ! शायद कोई गैर मुस्लिम भी जानता होगा कि सुन्नत क्या होती है

masoom
21-02-2011, 11:39 AM
कुरान का नाजिल होना -अल्लाह ताला ने अपना संदेश हमेशा फरिश्तों के माध्यम से भेजा और एक फरिश्ते का नाम है "हजरत जिब्राईल अ०स०"(ईसाई लोग इन्हें गेब्रियल के नाम से जानते हैं) |हज़त जिब्राईल अ०स० ही हजरत आदम से लेकर हजरत मुहम्मद स०अ०व० तक अल्लाह का संदेश नबियों तक लाते रहे हैं |
कुरान भी समय समय पर हजरत जिब्राईल अ०स० के द्वारा अल्लाह के आदेश पर हजरत मुहम्मद स०अ०व० तक पंहुचाया जाता था |अर्थात हजरत जिब्रईल अ०स० स्वयम मुहम्मद स०अ०व० को कुरान का पाठ पढाया करते थे जिसमे उनको कुल मिलाकर २७ वर्षों का समय लगा | उसके बाद यह आप स०अ०व० को जुबानी याद हो जाता था और आप दुसरे सहाबियों को यह सुनाया करते थे और ये सहाबी भी इसे याद करके अन्य लोगों तक पहुचाते थे |
सहाबी -जिस व्यक्ति ने इस्लाम स्वीकार करने के बाद अर्थात मुस्लिम होने के बाद अपनी आँखों से हजरत मुहम्मद स०अ०व० को देखा हो उसे सहाबी कहते हैं |

masoom
21-02-2011, 11:47 AM
सुन्नत-किसी ग्रन्थ का नाम नही है बल्कि उन सभी कार्यों को सुन्नत कहा जाता है जिसको आप स०अ०व० ने स्वयम किया और अपने उम्मतीयों को करने का आदेश दिया |जैसे कि सीधे हाथ से पानी पीना ,बैठ कर पानी पीना ,अच्छी सवारी रखना ,खाना खाने के बाद मीठा खाना ,दाढ़ी रखना (कुछ लोग दाढ़ी रखने को फर्ज समझते हैं जबकि यह सुन्नत है),
सुन्नत और फर्ज में अंतर-जिस कार्य को हुज़ूर स०अ०व० ने स्वयम किया और हमे करने को कहा उसे सुन्नत कहते हैं परन्तु जिस कार्य को करने का आदेश मुहम्मद साहब स०अ०व० ने यह कहकर दिया कि यह अल्लाह का आदेश है उसे फर्ज कहते हैं |जैसे कि नमाज़ पढ़ना,रोज़ा रखना .........
अभी आपकी पहली पोस्ट ही पढ़ी है दोस्त आगे की पोस्ट पढकर और भी करेक्शन करने होंगे |

masoom
21-02-2011, 05:21 PM
इस्लाम धर्म की मान्यताएं एवं परंपराएं

कुरान ही इस्लाम धर्म का प्रमुख ग्रंथ है। कुरान में मुसलमानों के लिए कुछ नियम एवं तौर-तरीके बताए गए हैं। जिनका पालन करना सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य बताया गया है। कुरान हर मुसलमान के लिए पांच धार्मिक कार्य निर्धारित करता है।

वे कृत्य हैं :-

१. कलमा पढऩा- कलमा पढऩे का मतलब यह है कि हर मुसलमान को इस आयत को पढऩा चाहिए। अल्लाह एक है और मुहम्मद उसके रसूल है। 'ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाहó इस्लाम का ऐकेश्वरवाद (तोहीद) इसी मंत्र पर आधारित है।

२. नमाज पढऩा- हर मुसलमान के लिए यह नियम है कि वह प्रतिदिन दिन में पांच बार नमाज पढ़े। इसे सलात भी कहा जाता है।

३. रोजा रखना- अर्थात् रमजान के पूरे महीनेभर केवल सूर्यास्त के बाद भोजन करना। वर्षभर में रमजान महीना इसलिए चुना गया कि इसी महीने में पहले-पहल कुरान उतारा था।

४. जकात- इस्लाम धर्म में जकात का बड़ा महत्व है। अरबी भाषा में जकात का अर्थ है- पाक होना, बढऩा, विकसित होना। अपनी वार्षिक आय का चालीसवां हिस्सा (ढाई प्रतिशत) दान में देना।

५. हज- अर्थात् तीर्थों में जाना। इस्लाम धर्म में पहले ये तीर्थ केवल मक्का और मदीने में थे। अब संतों फकीरों की समाधियों को भी मुस्लिम तीर्थ मानते हैं।
मक्का के अतिरिक्त किसी भी दुसरे स्थान पर जाने से हज नहीं हो सकता यहाँ तक कि मदीना जाने से भी हज नही होता |हज केवल और केवल मक्का में ही हो सकता है |
सिकन्दर भाई किसी भी पीर के मजार पर जाने का कोई ज़िक्र कुरान में नही है वास्तव में ये सब बिदअत है |बिदअत उसे कहते हैं जो कुरान में नही है या अल्लाह या उसके पैगम्बर ने नही बताया बल्कि हम लोगों ने अपनी और से उसका प्रचलन शुरू कर दिया और यह बहुत बड़ा गुनाह है बल्कि हराम है |और इन मजारों पर जाने की तुलना कम से कम हज से नहीं करनी चाहिए दोस्त |
इस्लाम के पांच रुक्न सिकन्दर भाई ने बिलकुल ठीक से बताए है लेकिन इनमे से पांचवां रुक्न प्रत्येक मुसलमान पर फर्ज नही है और वो है हज |हज फर्ज होने के लिए मर्द पर पांच और महिलाओं पर ६ विशेष शर्तें है ,यदि आप इनमे से एक भी कंडीशन को पूरा नहीं करते तो आप पर हज करना फर्ज नहीं है |ये शर्तें निम्न हैं |
१-मुसलमान होना |
२-बालिग (वयस्क) होना |
३-आकिल (अक्ल वाला अर्थात पागल न होना) होना |
४-शारीरिक एवं आर्थिक रूप से सक्षम होना |
५-आज़ाद होना (पहले समय में लोग गुलाम भी होते थे इसलिए गुलामों पर आजाद होने से पहले हज फर्ज नही है) |
६-मेहरम (जिससे विवाह करना हराम हो) का साथ में होना ,जैसे कि बेटा,पति ,भाई,पिता इत्यादि |(यह नियम केवल महिलाओं पर लागू है)

madhavi
21-02-2011, 06:12 PM
६-मेहरम (जिससे विवाह करना हराम हो) का साथ में होना ,जैसे कि बेटा,पति ,भाई,पिता इत्यादि |(यह नियम केवल महिलाओं पर लागू है)
इस पर और रोशनी डालें मासूम जी !

madhavi
21-02-2011, 06:16 PM
जहाँ तक मेरी मालूमात हैं _ कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसके ऊपर घरेलू जिम्मेदारियाँ हो यानि जैसे बेटी की शादी ना हुई हो तो वह भी हज पर नहीं जा सकता !

masoom
21-02-2011, 06:31 PM
६-मेहरम (जिससे विवाह करना हराम हो) का साथ में होना ,जैसे कि बेटा,पति ,भाई,पिता इत्यादि |(यह नियम केवल महिलाओं पर लागू है)
इस पर और रोशनी डालें मासूम जी !
इसका अर्थ है कि कोई महिला अकेली या किसी अन्य महिला के साथ हज यात्रा पर नही जा सकती ,साथ में उसका मेहरम होना आवश्यक है |

Sikandar_Khan
21-02-2011, 06:49 PM
जहाँ तक मेरी मालूमात हैं _ कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसके ऊपर घरेलू जिम्मेदारियाँ हो यानि जैसे बेटी की शादी ना हुई हो तो वह भी हज पर नहीं जा सकता !

नियम ये है कि जिस बाप की बेटी की शादी न हुई हो वो हज को जा सकता है
लेकिन उसके पास इतनी मालियत होनी चाहिए की शादी मे कोई रुकावट न आए
घर पर एक जिम्मेदार सदस्य का होना जरुरी है

masoom
21-02-2011, 06:51 PM
जहाँ तक मेरी मालूमात हैं _ कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसके ऊपर घरेलू जिम्मेदारियाँ हो यानि जैसे बेटी की शादी ना हुई हो तो वह भी हज पर नहीं जा सकता !
मैं पहले ही बता चूका हूँ कि एक शर्त "आर्थिक एवं शारीरिक रूप से सक्षम होना" भी है ,इसका अर्थ यह भी है कि यदि लड़की जवान है तो उसकी शादी करके ही जाये और यदि रिश्ता उपलब्ध न हो तो शादी के योग्य धन छोड़ कर किसी को जिम्मेदार बनाकर जाएँ |

pankaj bedrdi
21-02-2011, 08:28 PM
अच्छा जनकारी इस्लाम के बारे मै

masoom
22-02-2011, 09:49 PM
जेहाद का शाब्दिक अर्थ होता है -जद्दोजहद अर्थात संघर्ष(struggle) |परन्तु यह संघर्ष अपने स्वार्थ के लिए न होकर केवल और केवल अल्लाह के आदेश के पालन के लिए होना अनिवार्य है |जैसे कि दाढ़ी रखना आजकल ऐसा हो गया है कि दाढ़ी वाले को अधिकांश लोग बेवकूफ और पुराने विचारों वाला व्यक्ति मानते हैं इसलिए आज के युग में दाढ़ी रखना भी एक प्रकार का जेहाद ही है |
जेहाद में जंग करने के भी कठोर नियम हैं जैसे कि-बच्चे,बूढ़े,महिला,बुज़ुर्ग,निहत्ते,जो लड़ना न चाहे,और धोके से या पीठ पर प्रहार करना मना है | इसमें कोई लूट पाट नहीं होनी चाहिए |परन्तु आजकल जेहाद को जिस रूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है वो निहायत ही चिंताजनक है |जो लोग जेहाद के नाम पर आतंकवाद फैला रहे हैं वो केवल और केवल अपने स्वार्थ के लिए ऐसा कर रहे हैं |
एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात बताना चाहूँगा कि जेहाद के लिए जंग करना केवल उस स्थिति में जायज़ है जब आपको अल्लाह का आदेश मानने से रोका जाये |उदाहरण के लिए यदि भारत में मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने पर पाबंदी लगाई जाये तो यहाँ पर जेहाद करना जयाज होगा |लेकिन यदि कुछ लोग कुछ मासूम मुस्लिम्स को इकट्ठा करके एक आतंकी ग्रुप बनाकर हिंसा करना शुरू कर दे तो चाहे ये लोग किसी राज्य अथवा देश को स्वतंत्र कराने का बहाना बनाये ये किसी भी स्थिति में जेहाद नहीं माना जा सकता |

Sikandar_Khan
22-02-2011, 11:26 PM
मासूम जी
आपका योगदान सूत्र के लिए अति महत्वपूर्ण है
हमारी कमियों को आपने पूरा किया
इसके लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Sikandar_Khan
22-02-2011, 11:39 PM
तलाक के 3 महीने १३ दिन तक दोबारा निकाह पर बंदिश क्यों ?


इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम भाई अपने धार्मिक नियम-कायदों का पालन पूरे समर्पण और निष्ठा से करते हैं।हर एक मुस्लिम चाहे वह दुनिया में कहीं भी रहता हो, इन नियमों का कड़ाई से पालन करने में विश्वास रखता है। इस्लाम धर्म के अनुयाई यानि कि इस्लाम को मानने वाले शरियत के नियम कायदों को अटल एवं अंतिम मानते हैं।

शरियत एक ऐसा कायदानामा (धार्मिक संविधान) है, जिसमें प्रत्येक मुस्लिम मर्द और औरत के लिए अनियार्य नियम- कानून होते हैं। शरियत में इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी प्रमुख घटनाओं में जो नियम पालने होते हैं, उनका विस्तार से वर्णन किया गया है।

शरियत में विवाह को लेकर भी स्पष्ट दिशा-निर्देश दिये गए हैं। विवाह के विषय में शरियत में नियम है, कि जब किसी भी जायज कारण से पति-पत्नी के बीच तलाक हो जाए, तो अगले ३ महीने १३ दिन तक औरत को दूसरा विवाह नहीं करना चाहिये। (जिसे तलाक की इद्दत पूरी करना कहा जाता है ) ३ महीने १३ दिन तक किसी स्त्री के निकाह न करने के पीछे एक प्रमुख कारण है, जो कि परेशानी से बचाने के लिये ही होता है। तलाकशुदा स्त्री से तीन महीने १३ दिन तक दोबारा निकाह इसलिये नहीं हो सकता, क्योंकि 3 महीने १३ दिन में यह खुलासा हो जाएगा कि वह स्त्री गर्भवती है या नहीं ? अगर स्त्री गर्भवती है तो ? जब तक बच्चे का जन्म न हो जाये दूसरा निकाह नहीं कर सकती है ( इद्दत भी बच्चे के जन्म तक पूरी करनी होगी )

Bond007
27-02-2011, 11:53 AM
सिकंदर साब अच्छा सूत्र बनाया है|:bravo: वैसे मैं पहले ही इस पर सूत्र बनाना चाहता था| लेकिन विवादों का आगमन न हो ये सोच कर मैंने नहीं बनाया|
कुछ सहयोग मेरी तरफ से|:good:

Bond007
27-02-2011, 12:09 PM
जहाँ तक इस क़ायनात (सृष्टि) के मालिक (जिसका वास्तविक नाम 'अल्लाह' है) का संबंध है, आप उसे उसकी बहुत सी निशानियों के ज़रिये आसानी से पहचान सकते हैं, आप उसे अपने नजदीक कर सकते हैं, उसके नामों के ज़रिये अपने और उसके रिश्ते को समझ सकते हैं और आप उसे दिन में २४ घंटे और पूरे साल अपनी नमाजों के ज़रिये अपनी बात कह सकते हैं. आप इस दुनिया में क्यूँ आये? आपका इस दुनिया में पैदा होने का मकसद क्या है? सबसे बड़ी बात है कि आप के पास जवाब होंगे उन सब शब्दों के जिन्हें क्यूँ, कैसे, कब, कहाँ, क्या और दीगर दार्शनिक और तत्वज्ञान सम्बन्धी सवालों के.

Bond007
27-02-2011, 12:10 PM
इस्लाम की कुछ विशेषताएं/फायदे....

Bond007
27-02-2011, 12:11 PM
सबसे पहली विशेषता तो यह है कि आपकी वफ़ादारी, ईमानदारी, सच्चाई, आज्ञापालन, आज्ञापरता केवल आपके मालिक (creator) के लिए ही होंगी. आप इस दुनिया में अपनी उक्त विशेषताओं से पहचाने जायेंगे. आपका संघर्ष चाहे वो आपके बॉस से हो, आपकी नौकरी या पेशे से हो, आपके निज़ाम (गवर्नमेंट) से हो, आपके सामाजिक तंत्र से हो, सब के सब आप के उस मालिक (अल्लाह) से सम्बद्ध होगा, आप बेशक (undoubtedly) अपने मालिक (अल्लाह) पर विश्वास करेंगे. आप किसी अन्य का अनुसरण करने के बजाये उस एक ईश्वर के नियमों का अनुसरण करेंगे.

Bond007
27-02-2011, 12:12 PM
दूसरी विशेषता यह होगा कि आप अपने आप में, अपने परिवार में, इस दुनिया के लोगों में, वातावरण में, और इस दुनिया में शांति का, अनुरूपता का, अक्षोभ और खुशियों और आनंद का संचार करेंगे.

Bond007
27-02-2011, 12:15 PM
तीसरी विशेषता यह होगा कि आपके शरीर पर, मष्तिष्क पर, तंत्रिका तंत्र पर कोई फालतू का जोर और टेंशन नहीं रहती है क्यूंकि आप दिन में पांच बार वुज़ुः (मुहं, हाँथ और पैर धोना) करके नमाज़ पढ़ते है और अपने मालिक (अल्लाह) से दुआ करते हैं. नमाज़ में जब आप सज़दा करते हैं तो अपना माथा ज़मीन पर रखते हैं इस प्रक्रिया में आप अपनी सारी टेंशन और अपने मस्तिष्क के अतिरिक्त बिना मतलब के भार को ज़मींदोज़ (ख़त्म) कर देते हैं. नमाज़ पढने से आप अपनी तमाम चिंताओं के हल के लिए अल्लाह दुआ करते है और चिंतामुक्त होते हैं. यहीं नहीं नमाज़ के ज़रिये आप के शरीर के तमाम मनोरोग भी दूर हो जाते हैं. जिस तरह से अगर आप कहीं जा रहे हों रास्ते में अगर आपको जगह-जगह पर नहरें मिले और आप उसमें हर बार नहा लें तो किन्हीं दो नहरों के बीच आपके शरीर पर जितनी भी धुल या गन्दगी जमेगी/हो जायेगी वह धुलती जायेगी. ठीक उसी तरह से आप अगर दिन में पांच मर्तबा नमाज़ पढेंगे तो दो नमाजों के बीच के गुनाह ख़त्म हो होते जायेंगे और आपका मन शांत रहेगा वह सब काम नहीं करेगा जो आपके मालिक के नियमों विरुद्ध होगा.

Bond007
27-02-2011, 12:16 PM
चौथा फ़ायदा यह होगा कि आपका व्यक्तित्व आकर्षक (कांतिमय) बन जायेगा. आप अनुकूल और मित्रवत रहेंगे. आप ग़लत काम से परहेज़ करेंगे, आप शराब नहीं पीयेंगे, ड्रग्स नहीं लेंगे, अश्लील हरक़त नहीं करेंगे, व्यभिचार नहीं करेंगे.

Bond007
27-02-2011, 12:19 PM
पांचवां फ़ायेदा यह है कि साल में एक महीने रोज़ा रखने के उपरांत आप अपने पर आत्म-नियंत्रण, आत्मानुशासन, आत्म-शिक्षा, आत्म-अनुपालन के दूर सीख लेते हैं . आप बेशक अपनी सेहत, व्यक्तित्व, चरित्र और स्वाभाव को सुधार लेते हैं.

Bond007
27-02-2011, 12:20 PM
छठवां फ़ायदा यह है कि हवस (lust), स्वार्थपरायणता (selfishness), इच्छाओं (desires), लालच (greed), अंहकार (ego), दम्भ (conceitedness) आदि दुर्गुणों से दूर रहते है और इन दुर्गुणों पर नियंत्रण रख पाते हैं.

Bond007
27-02-2011, 12:21 PM
सातवां फ़ायेदा है कि आप आर्थिक, जैविक, मानसिक, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक आदि क्षेत्र के सभी प्रकार के exploitations रोकने में सक्षम होते हैं. आप लोगों की आज़ादी के समर्थक होंगे, उन्हें बोलने की आज़ादी के, इबादत की आज़ादी के, समतुल्य संबंधों के पक्षधर होंगे, निरपेक्षता (चाहे वो धार्मिक ही क्यूँ न हो) के पक्षधर होंगे. आप नेता होंगे और लोगों में शांति, अक्षोभ (प्रशांति) और खुशियों का नेतृत्व करेंगे.

Bond007
27-02-2011, 12:22 PM
आठवां फ़ायेदा यह कि आप समाज की बुराईयों से दूर रहेंगे और अच्छाईयों अमल करेंगे. आप मुसलमान बनने के बाद समाज की बुराईयों को बढ़ने से रोकने में मदद करेंगे. जैसे- कर्त्तव्यच्युति, अपचार. पापचरित्र, बाल-अपराध, घरेलु हिंसा, कौटुम्बिक व्यभिचार (सगे-संबंधी के साथ यौन सम्पर्क), समलिंगकामुकता, स्वच्छन्द संभोग, विवाहपूर्व यौन-सम्बन्ध, विवाहेत्तर संबंधों आदि समस्त दोषों से दूर रहेंगे.

Bond007
27-02-2011, 12:23 PM
नौवां फ़ायेदा यह है कि आप समाज में उन बिमारियों से दूर कम कर सकेंगे जो ला-इलाज हैं मसलन- aids आदि

Bond007
27-02-2011, 12:24 PM
दसवां फ़ायेदा यह होगा कि जब आपकी मृत्यु होगी, आप शांति से मृत्यु को प्राप्त होंगे, कब्र की और उसके बाद की ज़िन्दगी भी खुशमय होगी, अविनाशी सुख के भोगी होंगे, आपकी मौत पर आपका साथ पाने के लिए अप्साए लालायित होंगी, वे स्वर्ग (जन्नत) में आपकी मुक़र्रर (आरक्षित) जगह तक ले जाएँगी, आखिरी दिन (क़यामत के दिन, हिसाब-किताब के दिन) आप सारे नबियों, पैगम्बरों (ईश्वर के संदेष्टाओं) जैसे- हज़रत नूह (अ.स.), हज़रत इब्राहीम (अ.स.), हज़रत मूसा (अ.स.), हज़रत ईसा (अ.स.) और हज़रत मुहम्मद (अल्लाह की उन पर शांति हो) को देख सकेंगे और उनसे मुलाक़ात कर सकेंगे. आप अपने सरे दोस्तों, रिश्तेदारों, गर के फर्दों और महबूब को देख सकेंगे. आप जन्नत में अनंत जीवन व्यतीत करेंगे. (अल्लाह बेहतर जानने वाला है)

Bond007
27-02-2011, 12:27 PM
सभी लेख सलीम खान जी के ब्लॉग हमारी अंजुमन से प्राप्त|

Bond007
27-02-2011, 12:30 PM
तरुण विजय, सम्पादक, हिन्दी साप्ताहिक ‘पाञ्चजन्य’ (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पत्रिका) का इस्लाम पर लिखा एक आलेख

‘‘...क्या इससे इन्कार मुम्किन है कि पैग़म्बर मुहम्मद एक ऐसी जीवन-पद्धति बनाने और सुनियोजित करने वाली महान विभूति थे जिसे इस संसार ने पहले कभी नहीं देखा? उन्होंने इतिहास की काया पलट दी और हमारे विश्व के हर क्षेत्र पर प्रभाव डाला। अतः अगर मैं कहूँ कि इस्लाम बुरा है तो इसका मतलब यह हुआ कि दुनिया भर में रहने वाले इस धर्म के अरबों (Billions) अनुयायियों के पास इतनी बुद्धि-विवेक नहीं है कि वे जिस धर्म के लिए जीते-मरते हैं उसी का विश्लेषण और उसकी रूपरेखा का अनुभव कर सकें। इस धर्म के अनुयायियों ने मानव-जीवन के लगभग सारे क्षेत्रों में बड़ा नाम कमाया और हर किसी से उन्हें सम्मान मिला...।’’


‘‘हम उन (मुसलमानों) की किताबों का, या पैग़म्बर के जीवन-वृत्तांत का, या उनके विकास व उन्नति के इतिहास का अध्ययन कम ही करते हैं... हममें से कितनों ने तवज्जोह के साथ उस परिस्थिति पर विचार किया है जो मुहम्मद के, पैग़म्बर बनने के समय, 14 शताब्दियों पहले विद्यमान थे और जिनका बेमिसाल, प्रबल मुक़ाबला उन्होंने किया? जिस प्रकार से एक अकेले व्यक्ति के दृढ़ आत्म-बल तथा आयोजन-क्षमता ने हमारी ज़िन्दगियों को प्रभावित किया और समाज में उससे एक निर्णायक परिवर्तन आ गया, वह असाधारण था। फिर भी इसकी गतिशीलता के प्रति हमारा जो अज्ञान है वह हमारे लिए एक ऐसे मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं है जिसे माफ़ नहीं किया जा सकता।’’

‘‘पैग़म्बर मुहम्मद ने अपने बचपन से ही बड़ी कठिनाइयाँ झेलीं। उनके पिता की मृत्यु, उनके जन्म से पहले ही हो गई और माता की भी, जबकि वह सिर्फ़ छः वर्ष के थे। लेकिन वह बहुत ही बुद्धिमान थे और अक्सर लोग आपसी झगड़े उन्हीं के द्वारा सुलझवाया करते थे। उन्होंने परस्पर युद्धरत क़बीलों के बीच शान्ति स्थापित की और सारे क़बीलों में ‘अल-अमीन’ (विश्वसनीय) कहलाए जाने का सम्मान प्राप्त किया जबकि उनकी आयु मात्रा 35 वर्ष थी। इस्लाम का मूल-अर्थ ‘शान्ति’ था...। शीघ्र ही ऐसे अनेक व्यक्तियों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया, उनमें ज़ैद जैसे गु़लाम (Slave) भी थे, जो सामाजिक न्याय से वंचित थे। मुहम्मद के ख़िलाफ़ तलवारों का निकल आना कुछ आश्चर्यजनक न था, जिसने उन्हें (जन्म-भूमि ‘मक्का’ से) मदीना प्रस्थान करने पर विवश कर दिया और उन्हें जल्द ही 900 की सेना का, जिसमें 700 ऊँट और 300 घोड़े थे मुक़ाबला करना पड़ा। 17 रमज़ान, शुक्रवार के दिन उन्होंने (शत्रु-सेना से) अपने 300 अनुयायियों और 4 घोड़ों (की सेना) के साथ बद्र की लड़ाई लड़ी। बाक़ी वृत्तांत इतिहास का हिस्सा है। शहादत, विजय, अल्लाह की मदद और (अपने) धर्म में अडिग विश्वास!’’

—आलेख (‘Know thy neighbor, it’s Ramzan’ )

अंग्रेज़ी दैनिक ‘एशियन एज’, 17 नवम्बर 2003 से उद्धृत

Bond007
27-02-2011, 12:32 PM
मुंशी प्रेमचंद का इस्लाम के बारे में नज़रिया

‘‘...हज़रत (मुहम्मद सल्ल॰) ने फ़रमाया—कोई मनुष्य उस वक़्त तक मोमिन (सच्चा मुस्लिम) नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई-बन्दों के लिए भी वही न चाहे जितना वह अपने लिए चाहता है। ...जो प्राणी दूसरों का उपकार नहीं करता ख़ुदा उससे ख़ुश नहीं होता। उनका यह कथन सोने के अक्षरों में लिखे जाने योग्य है—‘‘ईश्वर की समस्त सृष्टि उसका परिवार है वही प्राणी ईश्वर का (सच्चा) भक्त है जो ख़ुदा के बन्दों के साथ नेकी करता है।’’ ...अगर तुम्हें ख़ुदा की बन्दगी करनी है तो पहले उसके बन्दों से मुहब्बत करो।’’

‘‘...सूद (ब्याज) की पद्धति ने संसार में जितने अनर्थ किए हैं और कर रही है वह किसी से छिपे नहीं है। इस्लाम वह अकेला धर्म है जिसने सूद को हराम (अवैध) ठहराया है...।’’

—‘इस्लामी सभ्यता’
साप्ताहिक प्रताप (विशेषांक दिसम्बर 1925 )

masoom
27-02-2011, 09:28 PM
इद्दत की मुद्दत (समय सीमा) परिस्थितियों के अनुसार भिन्न भिन्न होती है |
यदि पति की मृत्यु हो जाये और यदि पत्नी गर्भवती हो तो बच्चे के जन्म तक इद्दत करनी होगी और यदि गर्भवती न हो तो ४ महीने दस दिन तक इद्दत करनी होगी |
यदि लड़का लड़की का केवल निकाह हुआ है और मिलन (शारीरिक सम्बन्ध)नही हुआ है तो तलाक होने पर इद्दत की कोई आवश्यकता नही है |
यदि पति ने तलाक दे दी है और पत्नी को मासिक धर्म आते हैं तो तीन मासिक स्राव तक इद्दत करनी होगी और यदि मासिक धर्म नही आते तो तीन महीने तक इद्दत करनी होगी |
यदि पति तलाक दे देता है और पत्नी गर्भवती है तो बच्चे की पैदाईश तक इद्दत करनी होगी |
इद्दत वास्तव में क्या है ?
इद्दत वह समय सीमा है जिसके अंदर पति की मृत्यु अथवा तलाक होने पर महिला दूसरा विवाह नही कर सकती |
इद्दत के विषय में भ्रांतियां -कुछ लोग कहते हैं कि इद्दत के दौरान महिला को किसी मर्द का समना नही करना चाहिए अर्थात पूरी तरह से पर्दे में रहना चाहिए,बाज़ार नही जाना चाहिए तो दोस्तों ये सारे नियम उन महिलाओं पर भी लागू होए हैं जो इद्दत में नही हैं |केवल एक शर्त ऐसी है जो केवल इद्दत करने वाली महिला पर लागू होती है कि इद्दत के दौरान एक ही घर में रहना होगा |

masoom
09-03-2011, 09:14 PM
एक बड़ा ही ज्वलंत मुद्दा बड़े जोर शोर से उठाया जाता है कि इस्लाम में तलाक देने का अधिकार केवल पति के पास ही क्यूँ होता है ,पत्नी तलाक क्यूँ नही दे सकती |इस विषय में आप लोगो की क्या राय है ?

Harshita Sharma
18-03-2011, 06:29 PM
बहुत अच्छे जानकारी दी है सिकंदर जी, इस्लाम के बारे में इतना जानकार बहुत ख़ुशी हुई.

अन्य सद्स्स्यों के सहयोग ने इसे और भी बढ़िया बना दिया. :party:

Bholu
23-03-2011, 03:20 PM
मासूम जी आप ही बता दीजिये

dev b
18-04-2011, 11:23 AM
प्रिय मित्र सिकंदर जी नमस्कार .............मेरा तो ये मानना है की सभी धर्म समान है ......सभी धर्म अच्छे रास्ते पर जाने के लिए कहते है ......परन्तु प्रश्न ये है की धर्मो में कही गयी बातो को कितना हम अमल में लाते है

saajid
18-04-2011, 12:37 PM
एक बड़ा ही ज्वलंत मुद्दा बड़े जोर शोर से उठाया जाता है कि इस्लाम में तलाक देने का अधिकार केवल पति के पास ही क्यूँ होता है ,पत्नी तलाक क्यूँ नही दे सकती |इस विषय में आप लोगो की क्या राय है ?

ऐसा किसने कहा आपको ??
इस्लाम पहला धर्म है जिसमें औरतों के हक की बात बहुत ही ज़ोरदार ढंग से उठायी गयी है
और जो इस पे अमल नहीं करता वो काफिर होता है :think:

MANISH KUMAR
10-05-2011, 02:11 PM
ऐसा किसने कहा आपको ??
इस्लाम पहला धर्म है जिसमें औरतों के हक की बात बहुत ही ज़ोरदार ढंग से उठायी गयी है
और जो इस पे अमल नहीं करता वो काफिर होता है :think:

मुझे कोई तो ये बताओ की काफ़िर शब्द का वास्तव में क्या मतलब होता है? बहुत कन्फ्यूज हूँ मैं इस मामले में. :bang-head: :help:

arvind
10-05-2011, 02:57 PM
मुझे कोई तो ये बताओ की काफ़िर शब्द का वास्तव में क्या मतलब होता है? बहुत कन्फ्यूज हूँ मैं इस मामले में. :bang-head: :help:
काफिर इस्लाम में अरबी भाषा का बहुत विवादित शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ - "अस्वीकार करने वाला" या "ढ़कने वाला" होता है किन्तु इस्लामी मत में "काफिर" शब्द उस व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होता है जो अल्लाह को नही मानता, या जो मोहम्मद को ईश्वर का संदेशवाहक नही मानता (अर्थात सभी गैर-मुसलमान लोग)। आजकल इस शब्द को अपमानसूचक माना जाने लगा है; इसी लिये कुछ मुस्लिम इसके स्थान पर "गैर-मुस्लिम" शब्द का प्रयोग करने की सलाह देते हैं।

amit_tiwari
10-05-2011, 06:08 PM
मुझे कोई तो ये बताओ की काफ़िर शब्द का वास्तव में क्या मतलब होता है? बहुत कन्फ्यूज हूँ मैं इस मामले में. :bang-head: :help:

काफिर का शाब्दिक अर्थ है "अल्लाह को ना मानने वाला" और इसका राजनीतिक अर्थ है "मेरी ना मानने वाला" |
इस शब्द के शाब्दिक अर्थ को तो कभी किसी ने प्रयोग नहीं किया किन्तु राजनीतिक अर्थ को ही हमेशा प्रयोग किया गया | आज जब आतंकवादी इसे प्रयोग करते हैं तो अजीब लगता होगा किन्तु कभी मुगलों ने इस शब्द का प्रयोग अफगानी सेनाओं के लिए भी किया था जबकि अफगानी भी उतने ही मुस्लिम थे जितने मुग़ल थे |

MANISH KUMAR
11-05-2011, 01:57 PM
काफिर इस्लाम में अरबी भाषा का बहुत विवादित शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ - "अस्वीकार करने वाला" या "ढ़कने वाला" होता है किन्तु इस्लामी मत में "काफिर" शब्द उस व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होता है जो अल्लाह को नही मानता, या जो मोहम्मद को ईश्वर का संदेशवाहक नही मानता (अर्थात सभी गैर-मुसलमान लोग)। आजकल इस शब्द को अपमानसूचक माना जाने लगा है; इसी लिये कुछ मुस्लिम इसके स्थान पर "गैर-मुस्लिम" शब्द का प्रयोग करने की सलाह देते हैं।

तो फिर कुछ पडोसी देश सभी हिन्दुस्तानियों को काफ़िर क्यों कहते हैं? जबकि यहाँ मुस्लिम भी रहते हैं.

arvind
11-05-2011, 02:02 PM
तो फिर कुछ पडोसी देश सभी हिन्दुस्तानियों को काफ़िर क्यों कहते हैं? जबकि यहाँ मुस्लिम भी रहते हैं.
आप जिस पड़ोसी की बात कर रहे है, उनका चरित्र तो पूरा विश्व देख रहा है, उन्हे तो अपने बारे मे भी ठीक से पता नहीं है कि वो क्या है? अब ऐसे लोग किसी दूसरे के बारे मे क्या बात करते है, उसका कोई महत्व नहीं है।

वैसे वो लोग ही इस बात का बेहतर जवाब दे सकते है कि वो लोग ऐसा क्यों कहते है और सौभाग्य से यहा पर वो लोग है भी नहीं। :tomato:

Bond007
15-05-2011, 03:18 AM
मुझे कोई तो ये बताओ की काफ़िर शब्द का वास्तव में क्या मतलब होता है? बहुत कन्फ्यूज हूँ मैं इस मामले में. :bang-head: :help:

इस्लाम में प्रयोग होने वाला काफी विवादित शब्द है, जिसके बारे में ज्यादातर लोगों को भ्रमित रहते हैं| इस बारे में ज्यादा तो शायद सिकंदर जी या खालिद जी बता सकते हैं, लेकिन थोड़ा कुछ बताने की कोशिश करूंगा|

निम्न बिन्दुओं पर ध्यान दें-

Bond007
15-05-2011, 03:34 AM
मसअला 113.

काफ़िर यानि जो ख़ुदा और उस के पैग़म्बर (स) को नही मानता है या ख़ुदा के साथ साथ किसी और को भी ख़ुदा मानता है वह एहतियात के अनुसार अपवित्र है। चाहे किसी भी आसमानी धर्म का पालन करता हो जैसे यहूदी और ईसाई।

Bond007
15-05-2011, 03:36 AM
मसअला 114.

जो लोग ख़ुदा और उस के पैग़म्बर (स) पर विश्वास तो रखते हैं लेकिन कभी कभी शंका मे पड़ जाते है और उसके बारे मे खोज अध्ययन करते है तो वह पवित्र है उस शंका का कोई महत्व नही है।

Bond007
15-05-2011, 03:37 AM
मसअला 115.

जो इन्सान इस्लाम धर्म की ज़रूरी चीज़ों का इन्कार करे यानि ऐसी चीज़ों का इन्कार करे जिसको सब मुस्लिम मानते हों (जैसे नमाज़, रोज़ा, महाप्रलय आदि) और वह इनके अनिवार्य होने को जानता भी हो तो वह काफ़िर है। और अगर उन के अनिवार्य होने मे शक रखता हो तो वह काफ़िर नही है। लेकिन एहतियाते मुसतहिब यह है कि उससे बचा जाए।

Bond007
15-05-2011, 03:38 AM
मसअला 116.

काफ़िर के अपवित्र होने के बारे मे जो कुछ बयान किया गया उस मे उस का पूरा बदन सम्मिलित है यहा तक कि बाल और नाखुन भी।

Bond007
15-05-2011, 03:39 AM
मसअला 117.
जो इन्सान इस्लामी समाज मे रहता हो और हमे उसकी आस्थों के बारे मे कुछ मालूम ना हो तो वह पवित्र है, इसके बारे मे पूछताछ करना आवश्यक नही है इसी तरह वह लोग जो ग़ैर मुस्लिम समाज मे रहते है और उन का मुसलमान या काफ़िर होने का पता ना चले तो वह पवित्र है।

Bond007
15-05-2011, 03:40 AM
मसअला 118.

काफ़िर की संतान भी काफ़िर है और मुसलमान की संतान अगर सिर्फ पिता भी मुसलमान हो तो वह भी पवित्र है, लेकिन अगर सिर्फ माँ मुस्लिम हो तो एहतियात यह है कि उनसे बचा जाए।

Bond007
15-05-2011, 03:41 AM
मसअला 119.

अगर कोई ख़ुदा, रसूल (स), इमाम (अ), और फातिमा ज़हरा (स) को बुरा भाला कहे तो वह काफ़िर और अपवित्र है।

Bond007
15-05-2011, 03:43 AM
मसअला 120.
जो लोग हज़रत अली (अ) और दूसरे इमामों के बारे मे ग़ुलू (हद से अधिक मानना जैसे उसको ख़ुदा या रसूल आदि मानना) करते है यानि उनको ख़ुदा मानते है वह कफ़िर है।

http://myhindiforum.com/images/icons/icon3.gifहालांकि इसमें कुछ मत भिन्नता है|

Bond007
15-05-2011, 03:44 AM
मसअला 121.

जो लोग एक वजूद को मानते है यानी वह कहते है कि इस ब्रहमान्ड में एक वजूद के सिवा कुछ नही है और वह ख़ुदा का वजूद है, या किसी दूसरे वजूद के अंदर हुलूक किए हुए है और उसके साथ है, या ख़ुदा के लिए शरीर का अक़ीदा रखते हों तो एहतियाते वाजिब के अनुसार उन सबसे बचना चाहिए।

Bond007
15-05-2011, 03:45 AM
मसअला 122.

तमाम इस्लामी सम्प्रदाय पवित्र है। उन लोगों के अत्तिरिक्त जो इमामों से बैर रखते है और ख़वारिज और ग़ुलू करने वाले अपवित्र है।

Bond007
15-05-2011, 03:57 AM
भारतीय समाज में कई बार यह शब्द सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ इस्तेमाल होने के कारण अधिक विवादित और संवेदनशील हो गया है, और ज्यादातर लोग सभी गैर-मुस्लिमों को काफ़िर मान बैठते हैं| इससे भारतीय समाज में नफ़रत, दुश्मनी, असहिष्णुता की स्थिति पैदा होती है| इस तरह की गलतफहमी है कि "क़ुरआन में ‘काफ़िर’ शब्द सम्प्रदाय विशेष के लिए अपमानजनक और गाली समान प्रयुक्त हुआ है। और कहा गया है कि इन्हें मारो-काटो।"

वास्तव में यदि ऐसा ही होता जैसा कि सन्देह या आपत्ति जताई जाती है तो विश्व के, और प्रमुखतः भारत के अनेक ग़ैर-मुस्लिम विचारकों, विद्वानों और इतिहासकारों ने इस्लाम के बारे में उपरोक्त आपत्ति के विरुद्ध सैकड़ों हज़ारों पृष्ठ लिख दिए होते। यह आरोप व आक्षेप अधिकतर नाजानकारी और कुछ हद तक ग़लत जानकारी या दुष्प्रचार की वजह से है।

Bond007
15-05-2011, 04:02 AM
शब्द ‘काफ़िर’ का अर्थ :

काफ़िर शब्द तीन अरबी मूल अक्षरों ‘क-फ़-र’ से बना है। क़ुरआन में इस मूल से बने 54 शब्दों में से 51 शब्द जो (74 अध्यायों (सूरा) की 479 आयतों में 521 बार आए हैं), निम्नलिखित भाव में प्रयुक्त हैं। इन सारे शब्दों का मूल शब्द ‘कुफ़्र’ है; काफ़िर का अर्थ है ‘कुफ़्र करने वाला’।

कुफ़्र के कई अर्थ हैं। उदाहरणतः इन्कार करना, छिपा लेना, हटा देना, दूर कर देना, प्रतिकूल कार्य करना, दबा देना, मिटा देना, अवहेलना करना, छोड़ देना आदि। (किसान के ज़मीन में बीज दबा देने के लिए भी अरबी में ‘कुफ़्र’ शब्द प्रयुक्त होता है)।

Bond007
15-05-2011, 04:10 AM
पारिभाषिक अर्थ :

इस्लाम (और क़ुरआन) की पारिभाषिक शब्दावली में ‘कुफ़्र’ शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे:
इस्लाम की वास्तविकता समझ लेने के बाद उस पर ईमान लाने के बजाय, इस्लाम का इन्कार कर देना, मन-मस्तिष्क पर ‘सत्य’ स्पष्ट हो जाने के बाद भी उसे छिपा लेना, दबा देना, तिरस्कृत कर देना। यह शब्द स्वयं मुसलमानों के भेस में, कपटाचारियों (hypocrites, मुनाफ़िक़ों) के उस कृत के लिए भी प्रयुक्त हुआ है जो इस्लाम की कुछ बातों पर अमल करने और कुछ को छोड़ देने, अल्लाह की आंशिक या पूर्ण अवज्ञा (नाफ़रमानी), ऊपर से ईमान लेकिन अन्दर से ईमान के विरोध आदि के रूप में किया जाए। इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) जो ईश-ग्रंथ क़ुरआन के वाहक हैं, ने स्वयं मुसलमानों के लिए कहा: ‘‘जिसने जान-बूझकर नमाज़ छोड़ दी उसने कुप्ऱ$ किया।’’ क़ुरआन की छः आयतों (8:29, 39:35, 48:5, 64:9, 65:5, 66:8) में अल्लाह ने स्वयं अपने लिए यह शब्द प्रयोग किया है; ‘‘...तो अल्लाह तुम से तुम्हारी बुराइयों, गुनाहों को दूर कर देगा।’’ एक आयत (2:271) में फ़रमाया, ‘‘...इससे तुम्हारी बुराइयां मिट जाती हैं।’

उपरोक्त विवरण से यह बात पूर्णतः, निस्सन्देह स्पष्ट हो जाती है कि क़ुरआन में ‘काफ़िर’ शब्द ग़ैर-मुस्लिमों के लिए विशेष होकर उनको अपमानित करने के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है। हिन्दुओं के लिए अपमान या गाली के तौर पर इसके प्रयुक्त न होने की साफ़ दलील यह है कि क़ुरआन के अवतरण काल (610-632 ई॰) में ‘हिन्दू’ नाम से कोई क़ौम न केवल अरब में, बल्कि भारत में भी पाई ही नहीं जाती थी |


(यह ‘हिन्दू’ शब्द बाद की शताब्दियों में बना है, इतिहासकारों ने इसकी पुष्टि की है, अमित जी इसे और स्पष्ट करें) :help:

Bond007
15-05-2011, 04:16 AM
फिर यह ‘काफ़िर’ शब्द क़ुरआन में किस हैसियत में आया है? दरअस्ल यह एक ‘पहचान तय करने वाला शब्द’ (Word of Identitification) है। यह ‘ईमान लाने वाले’ (मोमिन/मुस्लिम) व्यक्ति के विपरीत ‘ईमान (इस्लाम) का इन्कार कर देने वाले’ व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है। उदाहरणतः ‘ग्रेजुएट’ के विपरीत ‘नान-ग्रेजुएट’ का शब्द, जो निस्सन्देह पहचान (Identity) के लिए है, न कि अपमान के लिए या गाली के तौर पर।

Bond007
15-05-2011, 04:21 AM
क़ुरआन की नीति


‘काफ़िर’ के लिए क़ुरआन में मोटे तौर पर दो क़िस्म की बातें आई हैं।
इस जीवन (वर्तमान इहलौकिक जीवन) के लिए।
मृत्युपश्चात (पारलौकिक) जीवन के लिए।
चूंकि क़ुरआन (अर्थात् इस्लाम) का सामान्य नियम है कि हर मनुष्य को यह अधिकार प्राप्त है कि वह ईमान (इस्लाम) को चाहे तो स्वीकार कर ले चाहे अस्वीकार कर दे, ‘दीन’ (इस्लाम धर्म) में ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है (2:256), इसलिए काफ़िर के प्रति न्याय, सत्यनिष्ठा, मानवीय मूल्यों तथा पूरे इन्साफ़ व मानवाधिकार के तक़ाज़ों के अनुकूल व्यवहार किया जाएगा। ‘काफ़िरों’ के बारे में क़ुरआन में जो भी बातें पकड़ने, मारने, क़त्ल करने की आई हैं उन्हें पूरे संदर्भ (Context) के साथ पढ़ा जाए तो मालूम होगा कि यह युद्ध से संबंधित आदेश थे। मुसलमानों (और पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰) को मक्का के काफ़िरों ने 13 वर्ष तक सताया था, प्रताड़ित व अपमानित किया था, दो बार मुसलमानों को मक्का छोड़कर हब्शा (इथोपिया) प्रवास पर मजबूर किया था, यहां तक कि मक्का (जन्म-भूमि, अपना नगर, अपना घर-बार, सामग्री, आजीविका; यहां तक कि बीवी-बच्चे, माता-पिता, परिवार भी) छोड़कर 450 किलोमीटर दूर मदीना नगर के प्रवास (हिजरत, Migration) पर विवश कर दिया था। इसके बाद भी अपनी सेनाएं और संयुक्त सेनाएं (अहज़ाब Allied Armies) लेकर मुसलमानों पर बार-बार चढ़ आते थे, और पूरे अरब प्रायद्वीप में जगह-जगह इस्लाम और मुसलमानों का अरब से सर्वनाश कर देने के लिए हमलों की तैयारियां जारी रहती थीं तब जाकर अल्लाह ने मुसलमानों को इजाज़त दी कि इन से युद्ध करो, जहां पाओ...पकड़ो, क़त्ल करो। यह ऐसे काम की इजाज़त या आज्ञा (आदेश) थी जो मानवजाति के पूरे इतिहास में, युद्ध-स्थिति में सदा मान्य रही है। शान्ति-स्थापना के लिए हर सभ्य समाज ने ऐसे युद्ध को मान्यता दी है। इस्लामी शासन-काल में मुसलमानों ने जितने युद्ध लड़े, वे या तो आत्म-रक्षा के लिए थे, या अरब व आस-पास के भूखण्डों में शान्ति-स्थापना हेतु आक्रमणरोधक युद्ध (Pre-emptive war) के तौर पर लड़े गए। यथा-अवसर तथा यथा-संभव उन्होंने सदा ‘सुलह’ को ‘युद्ध’ पर प्राथमिकता दी। शान्ति-समझौतों को हमेशा वांछनीय विकल्प माना।

Bond007
15-05-2011, 04:22 AM
मृत्यु पश्चात जीवन के लिए ईश्वर ने काफ़िरों (सत्य-धर्म के इन्कारियों) के लिए क़ुरआन में अनेक स्थानों पर इन्कार के प्रतिफल-स्वरूप, नरक की चेतावनी दी है। यह बिल्कुल ईश्वर और उसके बन्दों के बीच का मामला है। और ईश्वर, जो अपने तमाम बन्दों का रचयिता, पैदा करने वाला, प्रभु-स्वामी, पालक-पोषक (Provider, Sustainer, रब) है वह अपने बन्दों के बारे में, (उनके कर्मानुसार) जो भी पै़$सला परलोक जीवन के लिए करे, इसका उसे अधिकार है, इसमें किसी मुसलमान की कोई भूमिका (Role) नहीं; न ही किसी भी व्यक्ति का आक्षेप (Interference) संभव है।

Bond007
15-05-2011, 04:23 AM
काफ़िरों के प्रति व्यवहार

ऐसे ‘काफ़िरों’ के साथ, जो मुसलमानों (ईमान वालों) से लड़ते नहीं, उन्हें सताते नहीं, उन पर अत्याचार के पहाड़ नहीं तोड़ते, उन्हें उनकी आबादियों, बस्तियों, नगरों से निकालते नहीं, उनके ख़िलाफ़ युद्धरत नहीं होते, कमज़ोरों को दबा-दबाकर उनका जीना अजेरन नहीं करते; इस्लाम ने सौहार्द्र, प्रेम-व्यवहार, आदर, इन्साफ़ और शान्तिमय रूप से रहने, अच्छाइयों में सहयोग करने, सहयोग देने, शान्ति-संधि समझौता करने तथा ठीक मुसलमानों ही की तरह उनके मानव-अधिकार देने तथा उनके अधिकारों की रक्षा करने की शिक्षा व आदेश दिया है।

Bond007
15-05-2011, 04:24 AM
निष्कर्ष यह कि ‘काफ़िर’ शब्द एक गुणवाचक संज्ञा (Qualitative Noun) है; इसका किसी विशेष जाति, नस्ल, क़ौम, क्षेत्रवासी समूह या रंग व वर्ग से कुछ संबंध नहीं। जो भी इस्लाम का इन्कार करे वह पहचान के तौर पर ‘इन्कारी’ (अर्थात् कुफ़्र$ करने वाला) कहलाता है।

Bond007
15-05-2011, 04:31 AM
उम्मीद है, इससे मदद मिलेगी|
तो फिर कुछ पडोसी देश सभी हिन्दुस्तानियों को काफ़िर क्यों कहते हैं? जबकि यहाँ मुस्लिम भी रहते हैं.

मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती-''मुस्लिम धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार, विश्व दो हिस्सो में विभाजित है-दार-उल-इस्लाम तथा दार-उल-हर्ब। मुस्लिम शासित देश दार-उल-इस्लाम हैं। वह देश जिसमें मुसलमान सिर्फ रहते हैं, न कि उस पर शासन करते हैं, दार-उल-हर्ब है। मुस्लिम धार्मिक कानून का ऐसा होने के कारण भारत हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों की मातृभूमि नहीं हो सकती है। यह मुसलमानों की धरती हो सकती है-किन्तु यह हिन्दुओं और मुसलमानों की धरती, जिसमें दोनों समानता से रहें, नहीं हो सकती। फिर, जब इस पर मुसलमानों का शासन होगा तो यह मुसलमानों की धरती हो सकती है। इस समय यह देश गैर-मुस्लिम सत्ता के प्राधिकार के अन्तर्गत हैं, इसलिए मुसलमानों की धरती नहीं हो सकती। यह देश दार-उल-इस्लाम होने की बजाय दार-उल-हर्ब बन जाता है।

शायद भारतीय मुस्लिमों को 'काफ़िर' शब्द की चपेट में लेने का आधार यही है| ''तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।''

यह सिद्धान्त मुसलमानों को प्रभावित करने में बहुत कारगर कारण हो सकता है। यह पड़ोसियों की कोई ठोस तार्किक वजह न होकर सिर्फ राजनैतिक उद्देश्य से बरगलाने की कोशिश प्रतीत होती है|:think:

MANISH KUMAR
21-05-2011, 05:13 PM
भारतीय समाज में कई बार यह शब्द सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ इस्तेमाल होने के कारण अधिक विवादित और संवेदनशील हो गया है, और ज्यादातर लोग सभी गैर-मुस्लिमों को काफ़िर मान बैठते हैं| इससे भारतीय समाज में नफ़रत, दुश्मनी, असहिष्णुता की स्थिति पैदा होती है| इस तरह की गलतफहमी है कि "क़ुरआन में ‘काफ़िर’ शब्द सम्प्रदाय विशेष के लिए अपमानजनक और गाली समान प्रयुक्त हुआ है। और कहा गया है कि इन्हें मारो-काटो।"

वास्तव में यदि ऐसा ही होता जैसा कि सन्देह या आपत्ति जताई जाती है तो विश्व के, और प्रमुखतः भारत के अनेक ग़ैर-मुस्लिम विचारकों, विद्वानों और इतिहासकारों ने इस्लाम के बारे में उपरोक्त आपत्ति के विरुद्ध सैकड़ों हज़ारों पृष्ठ लिख दिए होते। यह आरोप व आक्षेप अधिकतर नाजानकारी और कुछ हद तक ग़लत जानकारी या दुष्प्रचार की वजह से है।

शब्द ‘काफ़िर’ का अर्थ :

काफ़िर शब्द तीन अरबी मूल अक्षरों ‘क-फ़-र’ से बना है। क़ुरआन में इस मूल से बने 54 शब्दों में से 51 शब्द जो (74 अध्यायों (सूरा) की 479 आयतों में 521 बार आए हैं), निम्नलिखित भाव में प्रयुक्त हैं। इन सारे शब्दों का मूल शब्द ‘कुफ़्र’ है; काफ़िर का अर्थ है ‘कुफ़्र करने वाला’।

कुफ़्र के कई अर्थ हैं। उदाहरणतः इन्कार करना, छिपा लेना, हटा देना, दूर कर देना, प्रतिकूल कार्य करना, दबा देना, मिटा देना, अवहेलना करना, छोड़ देना आदि। (किसान के ज़मीन में बीज दबा देने के लिए भी अरबी में ‘कुफ़्र’ शब्द प्रयुक्त होता है)।

:bravo::bravo:
क्या बात प्रभु, आप तो गुरु से धर्मगुरु बन गए. कितना लम्बा चौड़ा व्याख्यान दे दिया.
ऐसे मुद्दे पर आपसे कुछ बात निकलने की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन अब इसके बारे में काफी समझ आने लगा है. :hi:

MANISH KUMAR
21-05-2011, 05:14 PM
उम्मीद है, इससे मदद मिलेगी|




शायद भारतीय मुस्लिमों को 'काफ़िर' शब्द की चपेट में लेने का आधार यही है| ''तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।''

यह सिद्धान्त मुसलमानों को प्रभावित करने में बहुत कारगर कारण हो सकता है। यह पड़ोसियों की कोई ठोस तार्किक वजह न होकर सिर्फ राजनैतिक उद्देश्य से बरगलाने की कोशिश प्रतीत होती है|:think:

शायद आपकी बात सही हो.

dipu
22-05-2011, 07:49 PM
बढिया जानकारी

Bhuwan
23-05-2011, 04:44 PM
वाह बोंड भाई, बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी उपलब्ध कराई है. :bravo::bravo:

आपका हार्दिक आभार. :majesty:

Bhuwan
23-05-2011, 04:46 PM
पारिभाषिक अर्थ :

इस्लाम (और क़ुरआन) की पारिभाषिक शब्दावली में ‘कुफ़्र’ शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे:


उपरोक्त विवरण से यह बात पूर्णतः, निस्सन्देह स्पष्ट हो जाती है कि क़ुरआन में ‘काफ़िर’ शब्द ग़ैर-मुस्लिमों के लिए विशेष होकर उनको अपमानित करने के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है। हिन्दुओं के लिए अपमान या गाली के तौर पर इसके प्रयुक्त न होने की साफ़ दलील यह है कि क़ुरआन के अवतरण काल (610-632 ई॰) में ‘हिन्दू’ नाम से कोई क़ौम न केवल अरब में, बल्कि भारत में भी पाई ही नहीं जाती थी |


(यह ‘हिन्दू’ शब्द बाद की शताब्दियों में बना है, इतिहासकारों ने इसकी पुष्टि की है, अमित जी इसे और स्पष्ट करें) :help:

मित्र मैं ऐसा नहीं मानता, हिन्दू धर्म तो हजारों वर्ष पुराना है. तो हिन्दू शब्द क्या कुछ सौ साल ही पुराना होगा? :bang-head:

arvind
23-05-2011, 05:09 PM
पारिभाषिक अर्थ :

इस्लाम (और क़ुरआन) की पारिभाषिक शब्दावली में ‘कुफ़्र’ शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे:


उपरोक्त विवरण से यह बात पूर्णतः, निस्सन्देह स्पष्ट हो जाती है कि क़ुरआन में ‘काफ़िर’ शब्द ग़ैर-मुस्लिमों के लिए विशेष होकर उनको अपमानित करने के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है। हिन्दुओं के लिए अपमान या गाली के तौर पर इसके प्रयुक्त न होने की साफ़ दलील यह है कि क़ुरआन के अवतरण काल (610-632 ई॰) में ‘हिन्दू’ नाम से कोई क़ौम न केवल अरब में, बल्कि भारत में भी पाई ही नहीं जाती थी |


(यह ‘हिन्दू’ शब्द बाद की शताब्दियों में बना है, इतिहासकारों ने इसकी पुष्टि की है, अमित जी इसे और स्पष्ट करें) :help:
अमित जी तो अभी देश से बाहर है, अत: मै इस पर कुछ प्रकाश डालने कि जुर्रत कर रहा हूँ। अमित जी आने पर अपना मंतव्य भी देंगे।

यह बहुत ही मजेदार बात होगी अगर आप ये जानेंगे कि हिंदू शब्द न ही द्रविडियन न ही संस्कृत भाषा का शब्द है. इस तरह से यह हिन्दी भाषा का शब्द तो बिल्कुल भी नही हुआ. मैं आप को बता दूँ यह शब्द हमारे भारतवर्ष में 17वीं शताब्दी तक इस्तेमाल में नही था. अगर हम वास्तविक रूप से हिंदू शब्द की परिभाषा करें तो कह सकते है कि भारतीय (उपमहाद्वीप) में रहने वाले सभी हिंदू है चाहे वो किसी धर्म के हों. हिंदू शब्द धर्म निरपेक्ष शब्द है यह किसी धर्म से सम्बंधित नही है बल्कि यह एक भौगोलिक शब्द है. हिंदू शब्द संस्कृत भाषा के शब्द सिन्धु का ग़लत उच्चारण का नतीजा है जो कई हज़ार साल पहले पर्सियन वालों ने इस्तेमाल किया था. उनके उच्चारण में 'स' अक्षर का उच्चारण 'ह' होता था

हिंदू शब्द अपने आप में एक भौगोलिक पहचान लिए हुए है, यह सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया गया था या शायेद इन्दुस नदी से घिरे स्थल पर रहने वालों के लिए इस्तेमाल किया गया था। बहुत से इतिहासविद्दों का मानना है कि 'हिंदू' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अरब्स द्वारा प्रयोग किया गया था मगर कुछ इतिहासविद्दों का यह भी मानना है कि यह पारसी थे जिन्होंने हिमालय के उत्तर पश्चिम रस्ते से भारत में आकर वहां के बाशिंदों के लिए इस्तेमाल किया था।



धर्म और ग्रन्थ के शब्दकोष के वोल्यूम # 6,सन्दर्भ # 699 के अनुसार हिंदू शब्द का प्रादुर्भाव/प्रयोग भारतीय साहित्य या ग्रन्थों में मुसलमानों के भारत आने के बाद हुआ था।

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में पेज नम्बर 74 और 75 पर लिखा है कि "the word Hindu can be earliest traced to a source a tantrik in 8th century and it was used initially to describe the people, it was never used to describe religion..." पंडित जवाहरलाल नेहरू के मुताबिक हिंदू शब्द तो बहुत बाद में प्रयोग में लाया गया। हिन्दुज्म शब्द कि उत्पत्ति हिंदू शब्द से हुई और यह शब्द सर्वप्रथम 19वीं सदी में अंग्रेज़ी साहित्कारों द्वारा यहाँ के बाशिंदों के धार्मिक विश्वास हेतु प्रयोग में लाया गया।

नई शब्दकोष ब्रिटानिका के अनुसार, जिसके वोल्यूम# 20 सन्दर्भ # 581 में लिखा है कि भारत के बाशिंदों के धार्मिक विश्वास हेतु (ईसाई, जो धर्म परिवर्तन करके बने को छोड़ कर) हिन्दुज्म शब्द सर्वप्रथम अंग्रेज़ी साहित्यकारों द्वारा सन् 1830 में इस्ल्तेमल किया गया था

इसी कारण भारत के कई विद्वानों और बुद्धिजीवियों का कहना है कि हिन्दुज्म शब्द के इस्तेमाल को धर्म के लिए प्रयोग करने के बजाये इसे सनातन या वैदिक धर्म कहना चाहिए. स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्ति का कहना है कि "यह वेदंटिस्ट धर्म" होना चाहिए.

prashant
23-05-2011, 05:27 PM
@ अरविन्द जी बहुत ही अच्छी जानकारी ढूँढ कर लाये है/
यह बात मुझे पहली बार पता चली/

arvind
23-05-2011, 05:38 PM
हिन्दू धर्म के संबंध मे मै कुछ और भी तथ्य रखना चाहूँगा।

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है। अनुयायीयों की संख्या के आधार पर ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में ये एकेश्वरवादी धर्म है।

हिन्दी में इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम “हिन्दु आगम” है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नही है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है ” हिन्सायाम दूयते या सा हिन्दु ” अर्थात जो अपने मन वचन कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दु है और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है।

नेपाल विश्व का एक मात्र आधुनिक हिन्दू राष्ट्र था (नेपाल के लोकतान्त्रिक आंदोलन के पश्चात के अंतरिम संविधान में किसी भी धर्म को राष्ट्र धर्म घोषित नहीं किया गया है। नेपाल हिन्दू राष्ट्र होने या ना होने का अंतिम फैसला संविधान सभा के चुनाव से निर्वाचित विधायक करेंगे)।

arvind
23-05-2011, 05:38 PM
भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई निशान मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे, और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था।

आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग १७०० ईसा पूर्व में आर्य अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गये, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद जैसे ग्रन्थ आये। बौद्ध और जैन धर्मों के अलग हो जाने के बाद वैदिक धर्म मे काफ़ी परिवर्तन आया। नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ।

दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार हिन्दू धर्म का मूल कदाचित सिन्धु सरस्वती परम्परा (जिसका स्रोत मेहरगढ की ६५०० ईपू संस्कृति में मिलता है) से भी पहले की भारतीय परम्परा में है।

arvind
23-05-2011, 05:40 PM
हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू अपने धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म कहना बेहतर समझते हैं। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है — वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं — पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा, कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं : सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की [ स ] ध्वनि ईरानी भाषाओं की [ ह ] ध्वनि में बदल जाती है। इसलिये सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) मे जाकर हफ्त हिन्दु मे परिवर्तित हो गया (अवेस्ता : वेन्दीदाद, फ़र्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।

arvind
23-05-2011, 05:43 PM
हिन्दू धर्म में कोई एक अकेले सिद्धान्तों का समूह नहीं है जिसे सभी हिन्दुओं को मानना ज़रूरी है। ये तो धर्म से ज़्यादा एक जीवन का मार्ग है। हिन्दुओं का कोई केन्द्रीय चर्च या धर्मसंगठन नहीं है, और न ही कोई “पोप”। इसकी अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं, और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। धर्मग्रन्थ भी कई हैं। फ़िर भी, वो मुख्य सिद्धान्त, जो ज़्यादातर हिन्दू मानते हैं, हैं इन सब में विश्वास : धर्म (वैश्विक क़ानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति–जिसके कई रास्ते हो सकते हैं), और बेशक, ईश्वर। हिन्दू धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनो कर्म भोग सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हिन्दू धर्म में चार मुख्य सम्प्रदाय हैं : वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)। लेकिन ज्यादातर हिन्दू स्वयं को किसी भी सम्प्रदाय में वर्गीकृत नहीं करते हैं।

संक्षेप में हिन्*दुत्*व के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं-


ईश्वर एक नाम अनेक
ब्रह्म या परम तत्त्व सर्वव्यापी है
ईश्वर से डरें नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें
हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर
हिन्दुओं में कोई पैगम्बर नहीं है
क्रिया की प्रतिक्रिया होती है
परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्
प्राणि-सेवा ही परमात्मा की सेवा है
स्त्री आदरणीय है
सती का अर्थ पति के प्रति सत्यनिष्ठा है
हिन्दुत्व का वास हिन्दू के मन, संस्कार और परम्पराओं में
पर्यावरण की रक्षा को उच्च प्राथमिकता
हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी
आत्मा अजर-अमर है
सबसे बड़ा मंत्र गायत्री मंत्र
हिन्दुओं के पर्व और त्योहार खुशियों से जुड़े हैं
हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरुषार्थ है और मध्य मार्ग को सर्वोत्तम माना गया है
हिन्दुत्व एकत्व का दर्शन है

Bond007
28-05-2011, 12:17 PM
बढिया जानकारी

वाह बोंड भाई, बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी उपलब्ध कराई है. :bravo::bravo:

आपका हार्दिक आभार. :majesty:

:bravo::bravo:
क्या बात प्रभु, आप तो गुरु से धर्मगुरु बन गए. कितना लम्बा चौड़ा व्याख्यान दे दिया.
ऐसे मुद्दे पर आपसे कुछ बात निकलने की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन अब इसके बारे में काफी समझ आने लगा है. :hi:

आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! :thank-you:
@Manish कोई धर्मगुरु नहीं,
कोई व्याख्यान नहीं, इसका 90% हिस्सा तो नेट से ही उठाया गया था| :giggle:

Bond007
28-05-2011, 12:24 PM
मित्र मैं ऐसा नहीं मानता, हिन्दू धर्म तो हजारों वर्ष पुराना है. तो हिन्दू शब्द क्या कुछ सौ साल ही पुराना होगा? :bang-head:

भुवन जी! जैसा कि अरविन्द जी ने बताया कि पहले इसे सनातन या वैदिक धर्म के नाम से जाना जाता था| जितनी जानकारी मिली है उसके अनुसार यही सत्य है| इससे अधिक यदि कोई जानकारी होगी तो वो भी उपलब्ध करा दी जाएगी| :)

Bond007
28-05-2011, 12:26 PM
अमित जी तो अभी देश से बाहर है, अत: मै इस पर कुछ प्रकाश डालने कि जुर्रत कर रहा हूँ। अमित जी आने पर अपना मंतव्य भी देंगे।

यह बहुत ही मजेदार बात होगी अगर आप ये जानेंगे कि हिंदू शब्द न ही द्रविडियन न ही संस्कृत भाषा का शब्द है. इस तरह से यह हिन्दी भाषा का शब्द तो बिल्कुल भी नही हुआ....
...
...
... इसे सनातन या वैदिक धर्म कहना चाहिए. स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्ति का कहना है कि "यह वेदंटिस्ट धर्म" होना चाहिए.

:clap: :clap:
इतनी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हार्दिक धन्यवाद अरविन्द जी! :bravo:

MANISH KUMAR
04-06-2011, 04:29 PM
अमित जी तो अभी देश से बाहर है, अत: मै इस पर कुछ प्रकाश डालने कि जुर्रत कर रहा हूँ। अमित जी आने पर अपना मंतव्य भी देंगे।

यह बहुत ही मजेदार बात होगी अगर आप ये जानेंगे कि हिंदू शब्द न ही द्रविडियन न ही संस्कृत भाषा का शब्द है. इस तरह से यह हिन्दी भाषा का शब्द तो बिल्कुल भी नही हुआ. मैं आप को बता दूँ यह शब्द हमारे भारतवर्ष में 17वीं शताब्दी तक इस्तेमाल में नही था. अगर हम वास्तविक रूप से हिंदू शब्द की परिभाषा करें तो कह सकते है कि भारतीय (उपमहाद्वीप) में रहने वाले सभी हिंदू है चाहे वो किसी धर्म के हों. हिंदू शब्द धर्म निरपेक्ष शब्द है यह किसी धर्म से सम्बंधित नही है बल्कि यह एक भौगोलिक शब्द है. हिंदू शब्द संस्कृत भाषा के शब्द सिन्धु का ग़लत उच्चारण का नतीजा है जो कई हज़ार साल पहले पर्सियन वालों ने इस्तेमाल किया था. उनके उच्चारण में 'स' अक्षर का उच्चारण 'ह' होता था

हिंदू शब्द अपने आप में एक भौगोलिक पहचान लिए हुए है, यह सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया गया था या शायेद इन्दुस नदी से घिरे स्थल पर रहने वालों के लिए इस्तेमाल किया गया था। बहुत से इतिहासविद्दों का मानना है कि 'हिंदू' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अरब्स द्वारा प्रयोग किया गया था मगर कुछ इतिहासविद्दों का यह भी मानना है कि यह पारसी थे जिन्होंने हिमालय के उत्तर पश्चिम रस्ते से भारत में आकर वहां के बाशिंदों के लिए इस्तेमाल किया था।



धर्म और ग्रन्थ के शब्दकोष के वोल्यूम # 6,सन्दर्भ # 699 के अनुसार हिंदू शब्द का प्रादुर्भाव/प्रयोग भारतीय साहित्य या ग्रन्थों में मुसलमानों के भारत आने के बाद हुआ था।

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में पेज नम्बर 74 और 75 पर लिखा है कि "the word Hindu can be earliest traced to a source a tantrik in 8th century and it was used initially to describe the people, it was never used to describe religion..." पंडित जवाहरलाल नेहरू के मुताबिक हिंदू शब्द तो बहुत बाद में प्रयोग में लाया गया। हिन्दुज्म शब्द कि उत्पत्ति हिंदू शब्द से हुई और यह शब्द सर्वप्रथम 19वीं सदी में अंग्रेज़ी साहित्कारों द्वारा यहाँ के बाशिंदों के धार्मिक विश्वास हेतु प्रयोग में लाया गया।

नई शब्दकोष ब्रिटानिका के अनुसार, जिसके वोल्यूम# 20 सन्दर्भ # 581 में लिखा है कि भारत के बाशिंदों के धार्मिक विश्वास हेतु (ईसाई, जो धर्म परिवर्तन करके बने को छोड़ कर) हिन्दुज्म शब्द सर्वप्रथम अंग्रेज़ी साहित्यकारों द्वारा सन् 1830 में इस्ल्तेमल किया गया था

इसी कारण भारत के कई विद्वानों और बुद्धिजीवियों का कहना है कि हिन्दुज्म शब्द के इस्तेमाल को धर्म के लिए प्रयोग करने के बजाये इसे सनातन या वैदिक धर्म कहना चाहिए. स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्ति का कहना है कि "यह वेदंटिस्ट धर्म" होना चाहिए.



ये तो गजब की जानकारी है, इस पर पहले कभी ध्यान नहीं दिया, ना ही पता था.
:bravo::bravo:
बहुत-बहत धन्यवाद अरविन्द सर जी. :)

MANISH KUMAR
04-06-2011, 04:31 PM
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! :thank-you:
@Manish कोई धर्मगुरु नहीं,
कोई व्याख्यान नहीं, इसका 90% हिस्सा तो नेट से ही उठाया गया था| :giggle:

:giggle::giggle:लगता हमारे गुरुदेव को भी कोपी पेस्ट का रोग लग गया है.
जो ही थी, जानकारी वाकई ज्ञानवर्धक थी.
एक बार फिर से धन्यवाद. :bravo:

Bhuwan
07-06-2011, 12:37 AM
अरविन्द जी जानकारी शेयर करने के लिए धन्यवाद. लेकिन अब भी हिन्दू शब्द के बारे में कहीं कुछ संदेह सा है. अगर आप इससे सम्बंधित किसी पुस्तक के बारे में जानकारी रखते हों तो कृपया उसके बारे में बताने की कृपा करें. आपका बहुत-बहुत आभारी होऊंगा.
धन्यवाद.:cheers:

anoop
22-09-2011, 08:23 PM
बहुत बढ़िया चर्चा इस सुत्र पर पढ़ने को मिली। आशा है आगे भी यह जारी रहेगी, और हमारे ज्ञान में कुछ और इजाफ़ा होता रगेहा।

Gaurav Soni
22-09-2011, 08:26 PM
अच्छा सूत्र हे

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 02:24 AM
मियां सिकंदर ! आपका यह एक श्रेष्ठ सूत्र (हालांकि बाद में यह हैक हो गया लगता है) अब तक मेरी नज़रों से छुपा रहा, इसके लिए मैं खुद से सख्त नाराज़ हूं ! शायद मेरी किस्मत को अल्लाह तआला की मंजूरी का इंतज़ार था ! एक बहुत बड़ी कमी जो मुझे इस सूत्र में अखरी वह यह है कि आपने इस सूत्र में कठमुल्लापन बरकरार रखा है, यानी इस्लाम का वैज्ञानिक और आधुनिक चेहरा दिखाने में आप नाकाम रहे ! जब मैंने पाक कुरआन का अध्ययन किया, तो सबसे बड़ा सवाल मेरे सामने यह था कि इतना वैज्ञानिक धर्मग्रन्थ मौजूद होने के बावजूद यह कौम इतनी पिछड़ी हुई और अवैज्ञानिक क्यों मानी जाती है ? सिर्फ एक उदाहरण दूंगा ! शूरा आदि के झंझट में पड़े बिना सीधे लिखता हूं (हांलाकि आप चाहेंगे तो, विवरण देने को मैं तैयार हूं) पाक कुरआन में हज़रत मोहम्मद (सल्लिल्लाहो अलैह वालेह वसल्लम) ने फरमाया है, 'जब भी खाना खाओ, अपने हाथ जरूर धोओ, लेकिन किसी कपड़े (तौलिया आदि) से पोंछो नहीं !' यह अजीब है कि धार्मिक ग्रन्थ अक्सर अपने कथन का विस्तार नहीं करते, अतः यहां भी इसका कोई खुलासा नहीं है ! मैंने वैज्ञानिक दृष्टि से सोचा और पाया कि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह कितनी अमूल्य सलाह है अर्थात आप हाथ धोएंगे, तो आपकी त्वचा पर चिपके कीटाणु-जीवाणु साफ़ होंगे, लेकिन यदि आप पुनः किसी कपड़े से पौंछेंगे, तो उसमें विराजे कीटाणु फिर आपके हाथों में आ लिपटेंगे अर्थात आपका हाथ स्वच्छ करने का मकसद नष्ट हो जाएगा ! इतनी वैज्ञानिक सलाह देने वाला धर्म क्या हमें भूतकाल में ले जाने वाला हो सकता है ? क्या आप मुझे बताएंगे ?

arjun_sharma
08-11-2011, 07:11 AM
मेरा एक सवाल है की इस्लाम में क्या औरतो और मर्दों को बराबर समझा जाता है?

Sikandar_Khan
09-11-2011, 04:19 PM
मियां सिकंदर ! आपका यह एक श्रेष्ठ सूत्र (हालांकि बाद में यह हैक हो गया लगता है) अब तक मेरी नज़रों से छुपा रहा, इसके लिए मैं खुद से सख्त नाराज़ हूं ! शायद मेरी किस्मत को अल्लाह तआला की मंजूरी का इंतज़ार था ! एक बहुत बड़ी कमी जो मुझे इस सूत्र में अखरी वह यह है कि आपने इस सूत्र में कठमुल्लापन बरकरार रखा है, यानी इस्लाम का वैज्ञानिक और आधुनिक चेहरा दिखाने में आप नाकाम रहे ! जब मैंने पाक कुरआन का अध्ययन किया, तो सबसे बड़ा सवाल मेरे सामने यह था कि इतना वैज्ञानिक धर्मग्रन्थ मौजूद होने के बावजूद यह कौम इतनी पिछड़ी हुई और अवैज्ञानिक क्यों मानी जाती है ? सिर्फ एक उदाहरण दूंगा ! शूरा आदि के झंझट में पड़े बिना सीधे लिखता हूं (हांलाकि आप चाहेंगे तो, विवरण देने को मैं तैयार हूं) पाक कुरआन में हज़रत मोहम्मद (सल्लिल्लाहो अलैह वालेह वसल्लम) ने फरमाया है, 'जब भी खाना खाओ, अपने हाथ जरूर धोओ, लेकिन किसी कपड़े (तौलिया आदि) से पोंछो नहीं !' यह अजीब है कि धार्मिक ग्रन्थ अक्सर अपने कथन का विस्तार नहीं करते, अतः यहां भी इसका कोई खुलासा नहीं है ! मैंने वैज्ञानिक दृष्टि से सोचा और पाया कि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह कितनी अमूल्य सलाह है अर्थात आप हाथ धोएंगे, तो आपकी त्वचा पर चिपके कीटाणु-जीवाणु साफ़ होंगे, लेकिन यदि आप पुनः किसी कपड़े से पौंछेंगे, तो उसमें विराजे कीटाणु फिर आपके हाथों में आ लिपटेंगे अर्थात आपका हाथ स्वच्छ करने का मकसद नष्ट हो जाएगा ! इतनी वैज्ञानिक सलाह देने वाला धर्म क्या हमें भूतकाल में ले जाने वाला हो सकता है ? क्या आप मुझे बताएंगे ?
क्या आप मुझे कोई उदहारण दे सकते हैँ कि ये धर्म हमेँ भूत काल मे ले जा रहा है ?
वैसे आपने हाथ के बाद न पोँछने का जो कारण आपने लिखा है वो बिल्कुल सही है और इस बात का खुलासा हदीश मे विश्तारपूर्वक है |
आपको कुरआन समझने के लिए हदीश का विश्तार से अध्यन करना पड़ेगा क्योँकि कुरआन मे जो बातेँ बताई गई है उनका खुलासा हदीश मे दिया गया है |
इस्लाम के बारे मे कोई जानकारी के लिए आप इन नम्बर पर सम्पर्क कर सकते हैँ |
मौलाना कलीम साहब
09313303149
i.a.s जनाब इफ्तेखार साहब
09453042924
जनाब राशिद साहब
09369408054

Dark Saint Alaick
09-11-2011, 04:38 PM
यह बहुत ही श्रेष्ठ रहस्य बताया आपने ! लेकिन आपने मेरे कथन को भी सत्यापित कर दिया कि इस सूत्र के आधार पर हम इस्लाम का पूर्ण या सही परिचय नहीं पा सके या सकते ! यह बिलकुल उसी तरह है कि आप बाइबल का ओल्ड टेस्टामेंट पढ़कर छोड़ दें और कहें कि यह तो सरासर गलत है कि पृथ्वी कछुए के ऊपर टिकी है ! अथवा कतिपय हिन्दू धर्म ग्रन्थ पढ़ते वक्त आपके जहन में यह सवाल खड़े हो सकते हैं कि कृष्ण के काल में लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व रामकालीन हनुमान कहां से आ गए ! इस जानकारी के लिए अन्य ग्रंथों का सहारा आवश्यक होता ही है ! जहां तक मेरे भूतकाल वाले उदाहरण की बात है, वह मेरी अवधारणा नहीं है; मैं एक सामान्य आरोप की बात कर रहा था, जो अक्सर इस्लाम पर कारित किया जाता है और यह संभवतः कई मुद्दों पर अक्सर सामने आने वाली कठमुल्लावादी सलाहों अथवा प्रतिक्रियाओं की उपज है ! मेरा आपसे अनुरोध है कि इस सूत्र में जिन मुद्दों पर जानकारी का अभाव है या कमी है आप उन पर विस्तार से प्रकाश डालें अन्यथा ऐसे प्रश्न सामने आते ही रहेंगे, जैसा मेरी प्रविष्ठि के ठीक नीचे उभरा है ! धन्यवाद !

anoop
09-11-2011, 06:56 PM
क्या आप मुझे कोई उदहारण दे सकते हैँ कि ये धर्म हमेँ भूत काल मे ले जा रहा है ?
वैसे आपने हाथ के बाद न पोँछने का जो कारण आपने लिखा है वो बिल्कुल सही है और इस बात का खुलासा हदीश मे विश्तारपूर्वक है |
आपको कुरआन समझने के लिए हदीश का विश्तार से अध्यन करना पड़ेगा क्योँकि कुरआन मे जो बातेँ बताई गई है उनका खुलासा हदीश मे दिया गया है |
इस्लाम के बारे मे कोई जानकारी के लिए आप इन नम्बर पर सम्पर्क कर सकते हैँ |
मौलाना कलीम साहब
09313303149
i.a.s जनाब इफ्तेखार साहब
09453042924
जनाब राशिद साहब
09369408054
आपने बड़ी अच्छी बात कही। इस्लाम के बारे में मेरी जानकारी थोड़ी कम है। मेरा मानना है कि, हम रोज थोड़ा-थोड़ा भगवान को समझने की कोशिश जरूर करें, किसी धर्म की समझ से ज्यादा जरुरी है परमात्मा की समझ। इसको समझने के लिए जो परेशानी है वह है सीमित ज्ञान के सहारे असीमित को समझने की चाह। जब में सोचने लगता हूँ, तो यही सब मिल कर मामले को और उलझा देते हैं। फ़िर भी आपके इस सुत्र में इस्लाम का एक सरल परिचय मिला है, और यह आसान भाषा में भी है। जानकारी में कुछ तो इजाफ़ा हीं हुआ है, पर फ़िर भी मूल प्रश्न अभी भी अनुतरित्त है - ईश्वर क्या है?

Sikandar_Khan
09-11-2011, 07:11 PM
आपने बड़ी अच्छी बात कही। इस्लाम के बारे में मेरी जानकारी थोड़ी कम है। मेरा मानना है कि, हम रोज थोड़ा-थोड़ा भगवान को समझने की कोशिश जरूर करें, किसी धर्म की समझ से ज्यादा जरुरी है परमात्मा की समझ। इसको समझने के लिए जो परेशानी है वह है सीमित ज्ञान के सहारे असीमित को समझने की चाह। जब में सोचने लगता हूँ, तो यही सब मिल कर मामले को और उलझा देते हैं। फ़िर भी आपके इस सुत्र में इस्लाम का एक सरल परिचय मिला है, और यह आसान भाषा में भी है। जानकारी में कुछ तो इजाफ़ा हीं हुआ है, पर फ़िर भी मूल प्रश्न अभी भी अनुतरित्त है - ईश्वर क्या है?
अनूप जी धन्यवाद
ईश्वर एक अदृश्य शक्ति है जिसे हम सब मे से किसी ने आज तक नही देखा है
उसका कोई माँ ,बाप नही है और न ही कोई उसका बेटा है सारी सृष्टि की रचना करके उसको चलाने वाला अकेला मालिक है |
जिस प्रकार हवा है लेकिन आजतक किसी ने हवा को नही देखा है ठीक उसी प्रकार ईश्वर है |

tanveerraja
18-12-2011, 03:46 PM
पवित्र क़ुरआन
एक परिचय
क़ुरआन अल्लाह की तरफ से उतारी गई एक दावती किताब है। अल्लाह तआला ने अपने एक बन्दे को सातवीं सदी ईस्वी की पहली तिहाई में एक .खास क़ौम के अन्दर अपना नुमाइंदा (प्रतिनिधी) बनाकर खड़ा किया और उसे अपने पैग़ाम की पैग़ाम्बरी (संदेशवाहन)पर मामूर (नियुक्त) किया। इस पैग़म्बर ने अपने माहौल में यह काम शुरू किया और इसी के साथ क़ुरआन का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा ज़रूरत के मुताबिक़ उसके ऊपर उतरता रहा। यहाँ तक कि 23 वर्षों में पैग़म्बर के दावती काम की तकमील (पूर्णता) के साथ क़ुरआन की भी तकमील हो गई।

क़ुरआन किस लिए उतारा गया। एक लफ्ज़ में इसका जवाब यह है कि इंसान के बारे में .खुदा की स्कीम (Creation Plan of God) को बताने के लिए।

इंसान को .खुदा ने अबदी मख़्लूक़ (चिरस्थाई रचना) की हैसियत से पैदा किया है। मौजूदा सीमित दुनिया में पचास साल या सौ साल गुजार कर उसे आखिरत(नतीजा या अंजाम पाने की दुनिया) की दुनिया में दाखिल कर दिया जाता है जहाँ उसे मुस्तक़िल (स्थाई) तौर पर रहना है। मौजूदा दुनिया अमल करने की जगह है और आखिरत की दुनिया इसका अंजाम पाने की जगह। आज की ज़िंदगी में आदमी जैसा अमल (व्यावहार) करेगा उसी के मुताबिक़ वह अपनी अगली ज़िंदगी में अच्छा या बुरा बदला पाएगा। कोई अपनी नेक किरदारी के नतीजे में अबदी तौर पर जन्नत में जाएगा और कोई अपनी बदकिरदारी (दुराचार) की वजह से अबदी तौर पर जहन्नम में।

क़ुरआन इसलिए उतारा गया है कि इस संगीन मसले से आदमी को बा'खबर करे और उसे बताए कि अगली ज़िंदगी में बुरे अंजाम से बचने के लिए उसे अपनी मौजूदा ज़िंदगी में क्या करना चाहिए।

.खुदा ने इंसान को फ़हम (बुद्धि और समझ) और शुऊर के एतबार से उसी फ़ितरत (प्राकृति Nature) पर पैदा किया है जो उसे इंसानों से मत्लूब (अपेक्षित) है। फिर उसने ' गिर्द व पेश' की पूरी कायनात(Universe) को मत्लूब (अपेक्षित) दुरूस्त किरदार का अमली मुज़ाहिरा (व्यावहारिक प्रदर्शन) बना दिया है। ताहम(फिर भी) यह सब कुछ .खामोश ज़बान में है।

इंसानी फ़ितरत एहसासात की सूरत में अपना काम करती है और फ़ितरत (Nature) के मज़ाहिर (रूप) तमसील (उदाहरण) की सूरत में।

क़ुरआन इसलिए आया है कि फ़ितरत (Nature) और कायनात में जो कुछ .खामोश ज़बान में मौजूद है, वह शब्दों की ज़बान में इसका एलान (घोषणा) कर दे। ताकि किसी के लिए इसका समझना मुश्किल न रहे।

फ़ितरत (Nature) और कायनात अगर आदमी की .खामोश रहनुमा (पथ–प्रदर्शक) है तो क़ुरआन एक शाब्दिक रहनुमा (पथ–प्रदर्शक)।

साथ ही यह कि क़ुरआन एक ऐसे पैग़म्बर पर उतारा गया जो ग़लबे (वर्चस्व) का पैग़म्बर था। पिछले नबी सिर्फ़ दाअी (आह्वानकर्ता) की हैसियत से भेजे गए। उनका काम उस वक्त .खत्म हो जाता था जब कि वे अपनी मु.खातब क़ौम को .खुदा की मर्ज़ी से पूरी तरह आगाह और परिचित कर दें। उन्होने अपनी मुखातब क़ौमों की ज़बान में कलाम किया। मगर इंसान ने अपनी आज़ादी का ग़लत इस्तेमाल करते हुए उनकी बात नहीं मानी। इस तरह पिछले ज़मानों में .खुदा की मर्ज़ी इंसान की ज़िन्दगी में अमली सूरत इख़्तियार नहीं कर सकी।

आखिरी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लツ) को .खुदा ने ग़लबे की निस्बत दी। यानी आपके लिए फ़ैसला कर दिया कि आपका मिशन सिर्फ़ पैग़ाम पँहुचा देने पर .खत्म नहीं होगा। बल्कि .खुदा की .खास मदद से इसे अमली (व्यावहारिक) वाक़िया बनने तक पँहुचाया जाएगा। इस .खुदाई फ़ैसले का नतीजा यह हुआ कि .खुदा के दीन के हक़ में हमेशा के लिए एक अतिरिक्त सहायक बुिनयाद फ़राहम हो गई। यानी उपरोक्त वर्णित एहतिमाम और व्यवस्था के अलावा इंसान की हक़ीक़ी (वास्तविक) ज़िन्दगी में .खुदा की मर्ज़ी का एक कामिल अमली (व्यावहारिक) नमूना।

पिछले ज़माने में .खुदा के जितने पैग़म्बर आए वे सब उसी दावत(आह्वान) को लेकर आए जिसे लेकर मुहम्मद(सल्लツ) को भेजा गया था। मगर पिछले पैग़म्बरों के साथ आमतौर पर ऐसा हुआ कि लोगों ने उनके पैग़ाम को नहीं माना। इसकी वजह यह थी कि वे इसे अपनी दुनियावी मस्लेहतों के .खिलाफ़ समझते थे। उन्हें ग़लत तौर पर यह अन्देशा था कि अगर उन्होंने .खुदा के सच्चे दीन को पकड़ा तो उनकी बनी बनाई दुिनया तबाह हो जाएगी।

क़ुरआन की तारी.ख (इतिहास) इस अन्देशे की अमली तरदीद(खंडन) है। क़ुरआन के ज़रिए जो तहरीक चलाई गई उसे .खुदा ने अपनी .खास मदद के ज़रिए दावत(आह्वान) से शुरू करके वाक़िया बनने के मरहले तक पँहुचाया। और इसके अमली (व्यावहारिक) नतीजों को दिखा दिया। इस तरह .खुदा के दीन की एक मुस्तक़िल (अटल) तारीख (इतिहास) वजूद में आ गई। अब क़ियामत तक लोग हक़ीक़ी(वास्तविक) तारीख (इतिहास) की ज़बान में देख सकते हैं कि .खुदा के सच्चे दीन को अपनाने के नतीजे में किस तरह ज़मीन और आसमान की तमाम बरकतें नाज़िल होती हैं।

फिर इसी के ज़रिए क़ुरआन की मुस्तक़िल हिफ़ाज़त का इंतज़ाम भी कर दिया गया। एक बड़े भू-क्षेत्र में अहले इस्लाम का इक्तेदार (शासन) और वहाँ इस्लामी सभ्यता और संस्कृति की स्थापना इस बात की ज़मानत बन गया कि क़ुरआन को ऐसा हिफ़ाज़ती माहौल मिल जाए जहाँ कोई उसमें किसी किस्म की तब्दीली (पविर्तन) में सक्षम न हो सके। यह एक तारीखी हक़ीक़त (ऐतिहासिक सत्य) है कि मुसलमानों का ग़लबा(वर्चस्व) डेढ़ हज़ार साल से क़ुरआन का चौकीदार बना हुआ है।

हक़ीक़त यह है कि क़ुरआन .खुदाई नेमतों का अबदी (चिरस्थाई) .खज़ाना है। क़ुरआन .खुदा का परिचय है। क़ुरआन बंदे और .खुदा का मिलन-स्थल है।
मगर उपरोक्त क़िस्म के काल्पनिक विचारों ने क़ुरआन को लोगों के लिए एक ऐसी किताब बना दिया जो या तो एक चटियल ज़मीन है जहाँ आदमी की रूह के लिए कोई ग़िज़ा नहीं या वह किसी शायर के मजमू ए कलाम की तरह एक ऐसा लफ्जी मज्मूआ है जिससे हर आदमी बस अपने .खास ज़ेहन की तस्दीक़ (पुष्टि) हासिल कर ले। वह असलन (अस्ल में) .खुद अपने आपको पाए और यह समझ कर .खुश हो कि उसने .खुदा को पा लिया है।

क़ुरआन एक फ़िक्री (वैचारिक) किताब है और फ़िक्री किताब में हमेशा एक से ज्य्ादा ताबीर की गुंजाइश रहती है। इसलिर क़ुरआन को सही तौर पर समझने के लिए ज़रूरी है कि पढ़ने वाले का ज़ेहन .खाली हो। अगर पढ़नेवाले का ज़ेहन .खाली न हो तो वह क़ुरआन में .खुद अपनी बात पढ़ेगा। इसे समझने के लिए क़ुरआन की आयत की मिसाल लीजिए :-
''कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह के सिवा दूसरों को उसका समकक्ष बनाते हैं और उनसे ऐसी मुहब्बत करते हैं जैसी मुहब्बत अल्लाह के साथ होनी चाहिए। हालाँकि इमान रखने वाले सबसे ज्य्ादा अल्लाह से मुहब्बत करते हैं।" (सूरह बक़रा- 165)

एक शख़्स जो सियासी ज़ौक़ रखता हो और सियासी उखेड़-पछाड़ को काम समझता हो, वह जब इस आयत को पढ़ेगा तो उसका ज़ेहन पूरी आयत में बस 'अंदाद' (समकक्ष) पर रूक जाएगा। वह क़ुरआन से 'समकक्ष' का लफ्.ज़ ले लेगा और बाक़ी मफ़हूम (असली मतलब भावार्थ) को अपने ज़ेहन से जोड़ कर कहेगा कि इससे आशय सियासी समकक्ष ठहराना है। इस आयत में कहा गया है कि आदमी के लिए जाइज़ (उचित) नहीं कि वह किसी को .खुदा का सियासी समकक्ष बनाए। इस तशरीह (स्पष्टीकरण) के मुताबिक़ यह आयत उसके लिए इस बात का इजाज़तनामा बन जाएगी कि जिसे वह .खुदा का ' सियासी समकक्ष' बना हुआ देखे उससे टकराव शुरू कर दे। इसके विपरीत जो आदमी सादा जे.हन के साथ इसे पढ़ेगा वह 'समकक्ष' के लफ्.ज़ पर नहीं रूकेगा, बल्कि पूरी आयत की रोशनी में इसका मफ़हूम (भावार्थ) सुनिश्चित करेगा। ऐसे शख़्स (व्यक्ति) को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि यहाँ समकक्ष ठहराने की जिस स्थिति का ज़िक्र है वह ब-एतबार मुहब्बत है न कि ब-एतबार सियासत। यानी आयत यह कह रही है कि आदमी को सबसे ज्य्.ादा मुहब्बत सिर्फ़ .खुदा से करना चाहिए। 'हुब्बे शदीद'(सबसे ज्य्.ादा मुहब्बत) के मामले में किसी दूसरे को .खुदा का हमसर नहीं बनाना चाहिए।

क़ुरआन का सामान्य मफ़हूम(भावार्थ) और इसे समझने की शर्त यह है कि आदमी .खाली ज़ेहन होकर क़ुरआन को पढ़े। मगर जो शख़्स क़ुरआन के गहरे मअना तक पँहुचना चाहे उसे एक और शर्त पूरी करनी पड़ती है। और वह यह कि वह उस राह का मुसाफ़िर बने जिसका मुसाफ़िर उसे क़ुरआन बनाना चाहता है। क़ुरआन आदमी की अमली (व्यावहारिक) ज़िन्दगी की रहनुमा किताब है और किसी अमली किताब को उसकी गहराइयों के साथ समझना उसी वक्.त मुमकिन होता है जबकि आदमी अमलन उन तजुर्बों से गुज़रे जिनकी तरफ़ इस किताब में रहनुमाई और पथ–प्रदर्शन की गई है।


यह अमल कोई सियासी या समाजी अमल नहीं है, मुकम्मल (संपूर्ण) तौर पर एक नफ्सियाती अमल है। इस अमल में आदमी को .खुद अपने नफ्.स के मुक़ाबले में खड़ा होना पड़ता है न कि हक़ीक़त में किसी .खारिज(बाह्य) के मुक़ाबले में। क़ुरआन चाहता है कि आदमी ज़ाहिरी दुनिया की सतह पर न जिए बल्कि ग़ैब(अप्रकट, अदृश्य) की दुनिया की सतह पर जिए। इस सिलसिले में जिन मरहलों की निशानदेही क़ुरआन में की गई है उन्हें वह शख़्स कैसे समझ सकता है जो इन मरहलों से आशना (भिज्ञ) और परिचित न हुआ हो। क़ुरआन चाहता है कि आदमी सिर्फ़ अल्लाह से डरे और सिर्फ़ अल्लाह से मुहब्बत करे। अब जिसका दिल अल्लाह की मुहब्बत में न तड़पा हो, जिसके बदन के रोंगटे अल्लाह के .खौफ़ से न खड़े हुए हों, वह कैसे जान सकता है कि अल्लाह से डरना क्या है। क़ुरआन चाहता है कि आदमी .खुदाई मिशन में अपने आपको इस तरह शामिल करे कि वह उसे अपना ज़ाती (निजी) मसला बना ले। अब जिस शख़्स ने .खुदा के काम को अपना ज़ाती काम न बनाया हो वह क्यों कर जानेगा कि .खुदा के साथ अपने को शामिल करने का मतलब क्या है। क़ुरआन यह चाहता है कि आदमी इंसानों के छेड़े हुए मसाइल में गुम न हो, बल्कि .खुदा की तरफ़ से बरसने वाले फ़ैज़ान में अपने आपको गुम करे।

अब जिस शख़्स पर ऐसे सुबह-शाम ही न गुज़रे हों जबकि .खुदा के फ़ैज़ान में वह नहा उठे, वह कैसे समझ सकता है कि .खुदाई फ़ैज़ान में नहाने का मतलब क्या है। क़ुरआन चाहता है कि आदामी जहन्नम से भागे और जन्नत की तरफ़ दौड़े। अब जो शख़्स इस तरह ज़िन्दगी गुज़ारे कि जहन्नम को उसने अपना मसला न बनाया हो और जन्नत उसकी ज़रूरत न बनी हो, उसे क्या मालूम कि जहन्नम से भागना क्या होता है और जन्नत की तरफ़ दौड़ना क्या मअना रखता है। क़ुरआन चाहता है कि आदमी अल्लाह की अज़्मत और किबरियाई के मीनार में लज़्ज़त ले रहा हो। उसे उस कैफ़ियत का इदराक(अंतःभान) कहाँ हो सकता है जबकि आदमी .खुदा की किबरियाई को इस तरह पाता है कि अपनी तरफ़ उसे इज्ज.(निर्बलता) के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता।

क़ुरआनी अमल असलन नफ्.स या इंसान के अंदरूनी वजूद की सतह पर होता है। मगर इंसान किसी .खला (रिक्तता) में ज़िन्दगी नहीं गुज़ारता बल्कि दूसरे बहुत से इंसानों के दर्मियान रहता है। इसलिए क़ुरआनी अमल हक़ीक़त के एतबार से ज़ाती अमल होने के बावजूद, दो पहलुओं से दूसरे इंसानों से भी संबधित हो जाता है। एक इस एतबार से कि आदमी जिस क़ुरआनी रास्ते को .खुद अपनाता है उसी रास्ते को अपनाने की दूसरों को भी दावत देता है। इसके नतीजे में एक आदमी और दूसरे आदमी के दर्मियान दाअी और मदऊ (संबेधित व्यक्ति) का रिश्ता क़ायम होता है। यह रिश्ता आदमी को बेशुमार तजुर्बों से गुज़ारता है। जो विभिन्न सूरतों में आ.खिर वक्.त तक जारी रहता है। दूसरे यह कि विभिन्न क़िस्म के इंसानों के दर्मियान ज़िंदगी गुज़ारते हुए तरह-तरह के ताल्लुक़ात (संबंध) और मामलात पेश आते हैं। किसी से लेना होता और किसी को देना, किसी से इत्तेफ़ाक़ (सहमति) होता है और किसी से इख़्तिलाफ़(मतभेद), किसी से दूरी होती है और किसी से क़ुरबत। इन अवसरों पर आदमी क्या रवैया अपनाए और किस क़िस्म की प्रतिक्रिया व्यक्त करे, क़ुरआन इन मामलों में उसकी मुकम्मल रहनुमाई करता है। अगर आदमी अपनी ख़्वाहिश पर चलना चाहे तो क़ुरआन का यह बाब (अध्याय) उस पर बन्द रहेगा और अगर वह अपने को क़ुरआन की मातहती में दे दे तो उस पर क़ुरआनी तालीमात के ऐसे भेद खुलेंगे जो किसी और तरह उस पर खुल नहीं सकते।

क़ुरआन आदमी को जो मिशन देता है वह हक़ीक़त में कोई 'निज़ाम' (व्यवस्था) क़ायम करने का मिशन नहीं है। बल्कि अपने आपको क़ुरआनी किरदार की सूरत में ढालने का मिशन है, क़ुरआन का अस्ल मु.खातब फ़र्द (व्यक्ति) है न कि समाज। इसलिए क़ुरआन का मिशन फ़र्द (व्यक्ति) पर जारी होता है न कि समाज पर। ताहम अफ़राद की क़ाबिले लिहाज़ तादाद जब अपने आपको क़ुरआन के मुताबिक़ ढालती है तो उसके समाजी नताइज भी लाज़िमन निकलना शुरू होते हैं। ये नताइज हमेशा एक जैसे नहीं होते बल्कि हालात के एतबार से इनकी सूरतें बदलती रहती हैं। क़ुरआन में विभिन्न नबियों के वाक़ियात इन्हीं समाजी नताइज या समाजी प्रतिक्रिया के विभिन्न नमूने हैं और अगर आदमी ने अपनी आँखें खोल रखी हों तो वह हर सूरतेहाल की बाबत क़ुरआन में रहनुमाई पाता चला जाता है। क़ुरआन फ़ितरते इंसानी(मानवीय प्राकृतिक स्वभाव) की किताब है। क़ुरआन को वही शख़्स ब.खूबी तौर पर समझ सकता है जिसके लिए क़ुरआन उसकी फ़ितरत का प्रतिरूप बन जाए।

-वहीदुद्दीन .खान
जुमा, 13 नवम्बर, 1981
परिचय
पवित्र क़ुरआन
अनुवादक- मौलाना वहीदुद्दीन खाँ
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tanveerraja
22-12-2011, 09:19 PM
मे‘यार को बुलन्द करना

पुराने ज़माने के अरब में बराबर की अख्लाक़ियात (नैतिकता) का रिवाज था उनकी ज़िन्दगी का उसूल यह था कि जो शख्स़ जैसा करे उसके साथ वैसा ही किया जाए। यानी अच्छा सुलूक करने वाले के साथ अच्छा सुलूक और बुरा सुलूक करने वाले के साथ बुरा सुलूक।

इस्लाम से पहले के ज़माने का एक शायर अपने मुक़ाबिले के क़बीले के बारे में कहता है कि ज़्यादती की कोई क़िस्म हमने बाक़ी नहीं छोड़ी। उन्होने हमारे साथ जैसा किया था वैसा ही हमने उनको बदला दिया।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तशरीफ़ लाए तो आपने अख्लाक़ के इस उसूल को बदला। बराबरी के अख्लाक़ के बजाय आपने उनको बुलन्द–अख्लाक़ी की तालीम दी।

आपने फ़रमाया कि “जो शख्स तुम्हारे साथ बुरा सुलूक करे उसके साथ तुम अच्छा सुलूक करो।”

एक हदीस में है :
तुम लोग इम्मआ (मौक़ापरस्त–खुदगर्ज़) न बनो‚ कि यह कहने लगो कि अगर लोग हमारे साथ अच्छा करें तो हम भी उनके साथ अच्छा करेंगे। और अगर वे ज़्यादती करें तो हम भी ज़्यादती करेंगे। बल्कि अपने आपको इसके लिए तैयार करो कि लोग तुम्हारे साथ अच्छा करें तो तुम उनके साथ अच्छा करोगे और अगर लोग तुम्हारे साथ बुरा करें तब भी तुम उनके साथ ज़्यादती नहीं करोगे। (मिश्कातुल मसाबेह‚ तीसरा भाग)

आपकी एक सुन्नत यह भी है कि लोगों के शुऊर(चेतना) को बुलन्द किया जाए। उनके अख्लाक़ को ऊंचा किया जाए। उनकी हालत को हर लिहाज़ से ऊपर उठाने की कोशिश की जाए।

इन्सान के इन्सानी मे‘यार को बुलन्द करना‚ फिक्री‚ इल्मी‚ अख्लाक़ी हैसियत से उसको ऊपर उठाना अहमतरीन काम है। इसमें आदमी की भलाई है और इसी में पूरे समाज की भलाई भी। यह ठीक रसूल का तरीक़ा है यानी सुन्नते रसूल है और इसको ज़िन्दा करना सुन्नते–रसूल को ज़िन्दा करना है।

अल–रिसाला(हिन्दी) मार्च–1991
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tanveerraja
24-12-2011, 07:06 PM
तमाम पैग़म्बर एक ही दीन लेकर आए। और वह दीने तौहीद है। मगर इन पैग़म्बरों के मानने वाले बाद को अलग–अलग दीनी फ़िरक़ों में तक्सीम हो गए।

इसकी वजह मर्कज़े तवज्जोह में तब्दीली थी।
पैग़म्बरों के अस्ल दीन में मर्कज़े तवज्जोह तमामतर ख़ुदा था।

हर एक की तालीम यह थी कि सिर्फ़ एक ख़ुदा के परस्तार बनो। मगर उनकी उम्मतों ने बाद को अपना मर्कज़े तवज्जोह तब्दील कर दिया। वे ख़ुदा के बजाए ग़ैर ख़ुदा के परस्तार बन गए।

क़दीम अरब के लोग इब्तिदा में हज़रत इब्राहीम की उम्मत थे। मगर बाद को अपने कुछ बुजुर्गों की अज़मत उनके ज़ेहनों पर इस तरह छाई कि उन्हीं को उन्होंने अपना मर्कज़े तवज्जोह बना लिया। यहां तक कि उनके बुत बनाकर वे उन्हें पूजने लगे।

यहूद हज़रत मूसा की उम्मत थे। मगर उन्होंने अपनी नस्ल को मख़सूस नस्ल समझ लिया।

उनकी तवज्जोहात अपनी नस्ल की तरफ़ इतनी ज़्यादा मायल हुईं कि बिलआख़िर ख़ुदाई दीन उनके यहां नस्ली दीन बनकर रह गया।
वे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ला0) के सिर्फ़ इसलिए मुंकिर हो गए कि वह उनकी अपनी नस्ल में पैदा नहीं हुए थे।

इसी तरह ईसाई हज़रत ईसा की उम्मत थे। उन्होंने हज़रत ईसा को ख़ुदा का पैग़म्बर मानने के बजाए उन्हें ख़ुदा का बेटा फ़र्ज़ कर लिया।
इस तरह बाद को उन्होंने जो दीन बनाया उसमें मसीह को ख़ुदा का बेटा मानने में सबसे ज़्यादा अहमियत हासिल कर ली।

ख़ुदा को अपने बंदों से जो दीन मत्लूब है वह यह है कि वह ख़ालिस तौहीद (एकेश्वरवाद) पर क़ायम हों।
सिर्फ़ एक ख़ुदा उनकी तमाम तवज्जोहात का मर्कज़ बन जाए।
यही इक़ामते दीन (दीन की स्थापना) है।
इस मर्कज़े तवज्जोह में तब्दीली का दूसरा नाम शिर्क है।

और जब लोगों में शिर्क आता है तो फ़ौरन तफरीक़ (विभेद) और इख़तेलाफ़ शुरू हो जाता है। क्योंकि तौहीद की सूरत में मर्कज़े तवज्जोह एक रहता है, जबकि शिर्क की सूरत में मर्कज़े तवज्जोह कई बन जाते हैं।

पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का दीन अगरचे अपने मत्न (मूल रूप) के एतबार से महफ़ूज़ दीन है। मगर आपकी उम्मत महफ़ूज़ उम्मत नहीं।

उम्मत के लोगों के लिए बदस्तूर यह इम्कान खुला हुआ है कि वे नई–नई चीज़ें को अपना मर्कज़े तवज्जोह बनाएं।
वे ख़ुदसाख़ता (स्वनिर्मित) तशरीह व ताबीर के ज़रिए अस्ल दीन में तब्दीलियां करें और फिर एक दीन को अमलन कई दीन बनाकर रख दें।


क़ुरआन की सूरह–42 अश–शूरा
अल्लाह ने तुम्हारे लिए वही दीन (धर्म) मुक़र्रर किया है जिसका उसने नूह को हुक्म दिया था और जिसकी ‘वही’ (प्रकाशना) हमने तुम्हारी तरफ़ की है और जिसका हुक्म हमने इब्राहीम को और मूसा को और ईसा को दिया था कि दीन को क़ायम रखो और उसमें इख़तेलाफ़ (मत-भिन्नता, बिखराव) न डालो। मुश्रिकीन पर वह बात बहुत गिरां (भार) है जिसकी तरफ़ तुम उन्हें बुला रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है अपनी तरफ़ चुन लेता है। और वह अपनी तरफ़ उनकी रहनुमाई करता है जो उसकी तरफ़ मुतवज्जह होते हैं। (13)
तज्क़िरूल क़ुरआन
- मौलाना वहीदुद्दीन खाँ
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stolen heart
12-08-2012, 09:18 AM
यह बात करने की नहीं, मगर मेरी इच्छा है कि मेरी इन प्रेम भरी बातों को आप प्यार की आँखों से देखें और पढ़ें। उस स्वामी के बारे में जो सारे संसार को चलाने और बनाने वाला है, सोच विचार करें, इस संसार में आने के बाद एक मनुष्य के लिए जिस सच्चाई को जानना और मानना आवश्यक है और जो इसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी और कर्तव्य है वह प्रेम भरी बात में आपको सुनाना चाहता हूँ।

stolen heart
12-08-2012, 09:21 AM
प्रकृति का सबसे बड़ा सच
इस संसार, बल्कि प्रकृति की सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि इस संसार में सारे जीवों और पूरी कायनात को बनाने वाला, पैदा करने वाला और उसका प्रबन्ध करने वाला केवल और केवल एक अकेला स्वामी है। वह अपनी ज़ात, गुण और अधिकारों में अकेला है। दुनिया को बनाने, चलाने, मारने और जिलाने में उसका कोई साझी नहीं। वह एक ऐसी शक्ति है जो हर जगह मौजूद है। हरेक की सुनता है हरेक को देखता है। सारे संसार में एक पत्ता भी उसकी आज्ञा के बिना हिल नहीं सकता। हर मनुष्य की आत्मा उसकी गवाही देती है, चाहे वह किसी भी धर्म का मानने वाला हो अंदर से वह विश्वास रखता है कि पैदा करने वाला, पालने वाला, पालनहार और असली मालिक तो केवल वही एक है।
इंसान की बुद्धि में भी इसके अलावा और कोई बात नहीं आती कि सारे संसार का स्वामी एक ही है। यदि किसी स्कूल के दो प्रधानाचार्य हों तो स्कूल नहीं चल सकता। यदि एक गांव के दो प्रधान हों तो गांव की व्यवस्था तलपट हो जाएगी। किसी देश के दो बादशाह नहीं हो सकते तो इतनी बड़ी और व्यापक कायनात की व्यवस्था एक से अधिक स्वामियों के द्वारा कैसे चल सकती है? और संसार की प्रबंधक कई हस्तियां कैसे हो सकती हैं?

stolen heart
12-08-2012, 09:28 AM
एक दलील
कुरआन, जो अल्लाह की वाणी है उसने दुनिया को अपनी सत्यता बताने के लिए यह दावा किया है कि-
‘‘हमने जो कुछ अपने बन्दे पर ( कुरआन) उतारा है उसमें यदि तुमको संदेह है (कि कुरआन उस मालिक का सच्चा कलाम नहीं है) तो इस जैसी एक सूरत ही (बना) ले आओ और चाहो तो इस काम के लिए अल्लाह को छोड़ कर अपने सहायकों को भी (मदद के लिए) बुला लो, यदि तुम सच्चे हो।0’’ (अनुवाद कुरआन, बक़रा 2:23)


चौदह-सौ साल से आज तक दुनिया के योग्य लेखक, विद्वान और बुद्धिजीवी शौध और रिसर्च करके थक चुके और अपना सिर झुका चुके हैं, पर वास्तव में कोई भी अल्लाह की इस चुनौती का जवाब न दे सका और न भविष्य में दे सकेगा।


इस पवित्र पुस्तक में अल्लाह ने हमारी बुद्धि को अपील करने के लिए बहुत सी दलीलें दी हैं। एक उदाहरण यह है कि-
‘‘यदि धरती और आकाशों में अल्लाह के अलावा स्वामी और शासक होते तो इन दोनों में बड़ा बिगाड़ और उत्पात मच जाता।’’ (अनुवाद कुरआन, अम्बिया 21:22)


बात स्पष्ट है। यदि एक के अलावा कई शासक व स्वामी होते तो झगड़ा होता। एक कहताः अब रात होगी, दूसरा कहताः दिन होगा। एक कहताः छः महीने का दिन होगा, दूसरा कहताः तीन महीने का होगा। एक कहताः सूरज आज पश्चिम से उदय होगा, दूसरा कहताः नहीं पूरब से उदय होगा। यदि देवी-देवताओं को यह अधिकार वास्तव में होता और वे अल्लाह के कामों में भागीदार भी होते तो कभी ऐसा होता कि एक गुलाम ने पूजा अर्चना करके वर्षा के देवता से अपनी इच्छा मनवा ली तो बड़े स्वामी की ओर से आदेश आता कि अभी वर्षा नहीं होगी। फिर नीचे वाले हड़ताल कर देते। अब लोग बैठे हैं कि दिन नहीं निकला, पता चला कि सूरज देवता ने हड़ताल कर रखी है।
सच यह है कि दुनिया की हर चीज़ गवाही दे रही है, यह संगठित रुप से चलती हुई कायनात की व्यवस्था गवाही दे रही है कि संसार का स्वामी अकेला और केवल एक है। वह जब चाहे और जो चाहे कर सकता है। उसे कल्पना एवं विचारों में क़ैद नहीं किया जा सकता। उसकी तस्वीर नहीं बनाई जा सकती। उस स्वामी ने सारे संसार को मनुष्यों के फ़ायदे और उनकी सेवा के लिए पैदा किया है। सूरज मनुष्य का सेवक, हवा मनुष्य की सेवक, यह धरती भी मनुष्य की सेवक है। आग, पानी, जानदार और बेजान दुनिया की हर वस्तु मनुष्य की सेवा के लिए बनायी गयी है। और उस स्वामी ने मनुष्य को अपना दास बना कर उसे अपनी उपासना करने और आदेश मानने के लिए पैदा किया है, ताकि वह इस दुनिया के सारे मामलों को सुचारु रुप से पूरा करे और इसी के साथ उसका स्वामी व उपास्य उससे प्रसन्न व राज़ी हो जाए।
न्याय की बात है कि जब पैदा करने वाला, जीवन देने वाला, मौत देने वाला, खाना, पानी देने वाला और जीवन की हर ज़रूरत को पूरी करने वाला वही एक है तो सच्चे मनुष्य को अपने जीवन और जीवन संबंधी समस्त मामलों को अपने स्वामी की इच्छा के अनुसार उसका आज्ञापालक होकर पूरा करना चाहिए। यदि कोई मनुष्य अपना जीवनकाल उस अकेले स्वामी का आदेश मानते हुए नहीं गुज़ार रहा है तो सही अर्थों में वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं।

stolen heart
12-08-2012, 09:30 AM
एक बड़ी सच्चाई
उस सच्चे स्वामी ने अपनी सच्ची पुस्तक कुरआन में बहुत सी सच्चाई में से एक सच्चाई हमें यह बतायी है-
‘‘हर जीवन को मौत का स्वाद चखना है फिर तुम सब हमारी ही ओर लौटाए जाओगे।’’ (अनुवाद कुरआन, अन्कबूत 29:57)
इस आयत के दो भाग हैं। पहला यह कि हरेक जीव को मौत का स्वाद चखना है। यह ऐसी बात है कि हर धर्म, हर वर्ग और हर स्थान का आदमी इस बात पर विश्वास करता है बल्कि जो धर्म को भी नहीं मानता वह भी इस सच्चाई के सामने सिर झुकाता है और जानवर तक मौत की सच्चाई को समझते हैं। चूहा, बिल्ली को देखते ही अपनी जान बचाकर भागता है और कुत्ता भी सड़क पर आती हुई किसी गाड़ी को देख कर अपनी जान बचाने के लिए तेज़ी से हट जाता है, क्योंकि ये जानते हैं कि यदि इन्होंने ऐसा न किया तो उनका मर जाना निश्चित है।

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12-08-2012, 09:32 AM
मौत के बाद
इस आयत के दूसरे भाग में क़ुरआन एक और बड़ी सच्चाई की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। यदि वह मनुष्य की समझ में आ जाए तो सारे संसार का वातावरण बदल जाए। वह सच्चाई यह है कि तुम मरने के बाद मेरी ही ओर लौटाए जाओगे और इस संसार में जैसा काम करोगे वैसा ही बदला पाओगे।
मरने के बाद तुम मिट्टी में मिल जाओगे या गल सड़ जाओगे और दोबारा जीवित नहीं किए जाआगे, ऐसा नहीं है और न यह सच है कि मरने के बाद तुम्हारी आत्मा किसी और शरीर में प्रवेश कर जाएगी। यह दृष्टिकोण किसी भी दृष्टि से मानव बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
पहली बात यह है कि आवागमन का यह काल्पनिक विचार वेदों में मौजूद नहीं है, बाद के पुरानों (देवमालाई कहानियों) में इसका उल्लेख है। इस विचारधारा की शुरुआत इस प्रकार हुई कि शैतान ने धर्म के नाम पर लोगों को ऊँच-नीच में जकड़ दिया। धर्म के नाम पर शूद्रों से सेवा कराने और उनको नीच और तुच्छ समझने वाले धर्म के ठेकेदारों से समाज के दबे कुचले वर्ग के लोगों ने जब यह सवाल किया कि जब हमारा पैदा करने वाला ईश्वर है और उसने सारे मनुष्यों को आँख, कान, नाक, हर वस्तु में समान बनाया है तो आप लोग अपने अपको ऊँचा और हमें नीचा और तुच्छ क्यों समझते हैं? इसका उन्होंने आवागमन का सहारा लेकर यह जवाब दिया कि तुम्हारे पिछले जीवन के बुरे कामों ने तुम्हें इस जन्म में नीच और अपमानित बनाया है।
इस विचाराधारा के अनुसार सारी आत्माएं। दोबारा पैदा होती हैं और अपने कामों के हिसाब से शरीर बदल कर आती हैं। अधिक बुरे काम करने वाले लोग जानवरों के शरीर में पैदा होते हैं। इनसे और अधिक बुरे काम करने वाले वनस्पति के रुप में आ जाते हैं, जिनके काम अच्छे होते हैं, वे आवागमन के चक्कर से मुक्ति पा जाते हैं।

stolen heart
12-08-2012, 09:35 AM
आवागमन के विरुद्ध तीन तर्क
1. इस सम्बंध में सबसे बड़ी बात यह है कि वैज्ञानिकों का कहना है कि इस धरती पर सबसे पहले वनस्पति पैदा हुई, फिर जानवर पैदा हुए और उसके करोड़ों साल बाद मनुष्य का जन्म हुआ। अब जबकि मनुष्य अभी इस धरती पर पैदा ही नहीं हुआ था और किसी मानव आत्मा ने अभी बुरा काम किया ही नहीं था तो सवाल पैदा होता है कि वे किसकी आत्माएं थीं, जिन्होंने अनगिनत जानवरों और पेड़ पौधों के रुप में जन्म लिया?
2. दूसरी बात यह है कि इस विचार धारा को मान लेने के बाद तो यह होना चाहिए था कि धरती पर जानवरों की संख्या में निरंतर कमी होती रहती। जो आत्माएं आवागमन से मुक्ति पा लेतीं, उनकी संख्या कम होती रहनी चाहिए थी, जबकि यह वास्तविकता हमारे सामने है कि धरती पर मनुष्यों, जानवरों और वनस्पति हर प्रकार के जीवों की संख्या में निरंतर बड़ी भारी वृद्धि हो रही है।
3. तीसरी बात यह है कि इस दुनिया में पैदा होने वालों और मरने वालों की संख्या में धरती व आकाश के जितना अंतर दिखाई देता है, मरने वालों की तुलना में पैदा होने वालों की संख्या कहीं अधिक है। खरबों अनगिनत मच्छर पैदा होते हैं, जबकि मरने वाले इससे बहुत कम हैं

stolen heart
12-08-2012, 09:36 AM
कर्मों का फल मिलेगा
यदि मनुष्य अपने पालनहार की उपासना और उसकी बात मानते हुए अच्छे काम करेगा, भलाई और सदाचार के रास्ते पर चलेगा तो वह अपने पालनहार की कृपा से जन्नत में जाएगा। जन्नत, जहाँ आराम की हर वस्तु है, बल्कि वहाँ तो आनंद व सुख वैभव की ऐसी वस्तुएं भी है, जिनको इस दुनिया में न किसी आँख ने देखा न किसी कान ने सुना न किसी दिल में उनका विचार आया। और जन्नत की सबसे बडी नेमत यह होगी कि जन्नती लोग वहाँ अपनी आँखों से अपने स्वामी एवं पालनहार को देख सकेंगे, जिसके बराबर आनन्द और हर्ष की कोई वस्तु नहीं होगी।
इसी तरह जो लोग बुरे काम करेंगे अपने पालनहार के साथ दूसरों को भागी बनाएंगे और विद्रोह करके अपने स्वामी के आदेश का इन्कार करेंगे वे नरक में डाले जाएंगे। वे वहाँ आग में जलेंगे। वहाँ उनको उनके बुरे कामों और अपराधों का दण्ड मिलेगा और सबसे बडा दंड यह होगा कि वे अपने स्वामी को देखने से वंचित रह जाएंगे और उन पर उनके स्वामी की दर्दनाक यातना होगी।

stolen heart
12-08-2012, 01:29 PM
मंच प्रबंधन से अनुरोध है कि यदि कोई प्रविष्टि किसी धर्म विशेष के विरुद्द प्रतीत हो तो उसे तुरंत मिटा दिया जाये ताकि किसी मित्र की भावनाएं आहत न हो |ये सभी विचार मेरे अपने नहीं है बल्कि किसी अन्य माध्यम से लिए गए हैं अंत में मूल लेखक का नाम (एवं पता यदि किसी को वेरीफाई करना हो तो) भी उपलब्ध कराया जायेगा |

dipu
12-08-2012, 07:16 PM
इबादत कर इबाबत दे नाल गल बन्दी है
किसे दी अ़ज बन्दी है ते किसे दी कल बन्दी है