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View Full Version : हिंदी कहानियाँ


Sikandar_Khan
02-03-2011, 01:47 AM
प्रिय मित्रों
आपके लिए हिंदी कहानियों का एक सूत्र लेकर आया हूँ
आप भी सूत्र पर योगदान करें .....

Sikandar_Khan
02-03-2011, 01:49 AM
वैंपायर
Jaan Neruda

भाप वाली कश्ती हमें इस्तांबूल से पर्नीकेपू नामी द्वीप के किनारे तक ले आई, जहां हम उतर गए। मुसाफ़िरों की तादाद कुछ यादा न थी। उनमें एक पोलैंड का ख़ानदान था, जिसमें मां, बाप, बेटी और दामाद था। उनके अलावा हम दो लोग थे। अरे! मैं कहीं यह बात भूल न जाऊं कि जब हम उस लकड़ी के पुल पर पहुंच चुके थे, जो गोल्डन हॉर्न को इस्तांबूल से गुजरता है, तो एक नौजवान यूनानी भी हम में शामिल हुआ।

बग़ल में दबे उसके सामान से लगता था, वह कोई चित्रकार है। उसके काले बालों की लटें कंधों तक फैली हुई थीं। उसका चेहरा कुछ पीला-सा था और उसकी काली आंखें अंदर तक धंसी हुई थीं। उसे देखते ही मुझे उसमें दिलचस्पी हो गई, क्योंकि वह हरेक की तरफ़ सहयोग का हाथ बढ़ा रहा था। इसके अलावा उसकी उस द्वीप से संबंधित जानकारियों से भी हम ख़ासे मुतास्सिर हुए, लेकिन वह बोलता इस क़दर ज्यादा था कि उकताहट होने की वजह से मैंने उससे दूर होना शुरू कर दिया।

दूसरी तरफ़ पोलैंड के कुनबे के लोगों के दरमियान रहकर मुझे बड़े अपनेपन का एहसास होता। बाप और मां दोनों नेक और शरीफ़ लगते थे। उनका होने वाला दामाद भी सुसंस्कृत और ख़ूबसूरत नौजवान था। ये लोग पर्नीकेपू में गर्मियों का मौसम गुजारने लड़की की ख़ातिर आए थे, जो कुछ बीमार-सी लगती थी। ऐसा महसूस होता था कि पीली रंगत की ये ख़ूबसूरत लड़की या तो किसी ख़तरनाक बीमारी से गुजर कर स्वास्थ्य लाभ ले रही है या फिर कोई ख़तरनाक बीमारी उस पर तेजी से अपना शिकंजा कस रही है। वह चलते व़त कुछ सहारे के लिए अपने महबूब के बदन से चिपटने की कोशिश करती।

अक्सर वह थक-हार कर कहीं सुस्ताने के लिए बैठ जाती। कभी-कभी उसकी सरगोशियां भी उसकी सूखी खांसी को बढ़ा देतीं। जब कभी उसे खांसी का दौरा पड़ता, उसका साथी चलते-चलते रुक जाता और उस पर प्रेम और दिलासे की नजरें गाड़ देता। लड़की भी जवाब में उसे इस अंदाज से देखती, जैसे कह रही हो कि कुछ भी तो नहीं हुआ मुझे। मैं तो बिल्कुल ठीक व ख़ुश हूं।

दोनों प्रेमी दरअसल दुख-दर्द के समय भी ख़ुश दिखने की कोशिश में लगे रहते थे।हमने यूनानी के मशवरे पर पहाड़ी पर बने एक होटल में कमरे किराए पर लिए थे। वह जहाज के डेक पर अपना यह आख़िरी मशवरा देकर फ़ौरन कहीं ग़ायब हो गया था। होटल का मालिक एक फ्रांसीसी था, जिसने होटल को सब सहूलियतों के साथ फ्रांसीसी ढंग में सजा रखा था।

हमने एक साथ नाश्ता किया और जब दोपहर की गर्मी कुछ कम हुई, तो हम पहाड़ी पर चढ़ने लगे, ताकि ख़ूबसूरत मंजरों का लुत्फ़ उठा सकें। अभी हमें मुनासिब जगह तलाश करने में मुश्किल से कुछ ही देर हुई थी कि वह यूनानी कहीं से आ धमका। उसने औपचारिक बातों के बाद इधर-उधर देखना शुरू किया। फिर हम से कुछ क़दम दूर अपने मतलब की जगह तय करके वहां बैठ गया।

फिर उसने चित्रकारी का सामान निकाला और स्केच बनाने में लग गया।‘शायद वह चट्टानों की तरफ़ पीठ किए इसलिए बैठा है, ताकि हम उसके स्केच को न देख सकें’, मैंने अपना अंदाज बताया।
‘हमें या पड़ी है कि उसका स्केच देखते फिरें। हमारे सामने देखने को इससे कहीं ज्यादा ख़ूबसूरत सीन मौजूद हैं।’

नौजवान पाेलिश ने चिढ़ कर कहा। फिर कुछ देर बाद उसने कहा, ‘मेरा ख्याल है कि वह अपने स्केच में हम लोगों को बैकग्राउंड के तौर पर दिखा रहा है। ख़ैर, उसकी मर्जी, चाहे जैसा करता रहे।’बहरहाल, हम लोगों के नजारे के लिए वहां वाक़ई बहुत कुछ मौजूद था। हमें ऐसा महसूस होता था कि इस जगह से ज्यादा ख़ूबसूरत और ख़ुशगवार पूरी दुनिया में कोई दूसरी जगह ही नहीं। महान चाल्र्स की समकालीन और राजनीतिक तौर पर शहीद मानी जाने वाली आयरन ने भी अपनी जलावतनी में एक महीना यहां गुजारा था।
अगर इस मक़ाम पर मुझे भी सिर्फ़ एक महीना गुजारने का मौक़ा मिल जाए, तो बाक़ी जिंदगी में यह अरसा मेरी हसीन यादों का हिस्सा बन जाए। पर्नीकेपू में गुजारे उस एक दिन की याद भी मेरे लिए अब तक तरोताजा है। हवा हीरे की तरह साफ़-साफ़ थी। इतनी नर्म, हल्की और ख़ुशगवार कि रूह जिस्म से आजाद होकर उसमें सांस लेने को बेताब हो जाए।

समुद्र के उस पार सीधी और एशियाई पहाड़ी चोटियों का सिलसिला था। बाईं तरफ़ दूर तक लाल यूरोपीय समुद्र साहिल फैले हुए थे। यहां से लगा हुआ चालकी का स्थान था, जो प्रिंस नामी समुद्री सिलसिलों के नौ द्वीपों में से एक था। इस ऊंचे द्वीप के सरों के जंगलात आसमान को छूते थे। किसी ग़मगीन ़ख्वाब की तरह।

उन जंगलात की क़ुदरती बनावट इतनी हसीन थी कि बेचैन और उदास दिल व दिमाग़ उसको देख कर ही ताजगी महसूस करने लगे।मारमोरा नामक समुद्र कुछ बिफरा-सा था और उसके पानी में किसी झिलमिल करते क़ीमती पत्थर की तरह चारों तरफ़ नित-नए रंग बिखरे हुए थे।

फ़ासले से यह समुद्र दूधिया सफ़ेद था। फिर वह अचानक गुलाबी हो जाता था। द्वीपों के बीच में उसकी रंगत तेज केसरिया बन जाती थी और हमारे नीचे यह ख़ूबसूरत हरी चादर पहन लेता था। शुद्ध नीलम की तरह। ग़रज कि यह समुद्र अपने अद्वितीय सौंदर्य में हमेशा डूबा रहता था। इस समुद्र में किसी बड़े जहाज का नामोनिशां नहीं था। सिर्फ़ दो छोटे जहाज साहिलों पर ब्रितानवी झंडे लहराते हुए दौड़ते फिरते। उनमें से तो एक स्टीमर था, जो महज इतने साइज का था, जितना कि किसी पहरेदार के कोने का होता है।

दूसरा जहाज दरअसल एक बड़ी नाव की तरह था, जिसे तक़रीबन बारह मल्लाह खींचते थे। और जब उनकी पतवारें एक साथ चलती थीं, तो उनमें से पिघली हुई चांदी टपकती रहती। उसी दौरान विश्वस्त और अभ्यस्त डॉल्फिन मछलियां जानबूझ कर इन पतवारों की जाद में आतीं और निकलती रहतीं। फिर हवाईजहाज की तरह एक लाइन में पानी की सतह पर तेजी से अपनी अगली मंजिलों की तरफ़ तैरती हुई निकल जातीं।

इधर नीले आसमानों से गाहे-ब-गाहे ख़ामोश क़िस्म के गरुड़ नीचे उतर आते, शायद दो महाद्वीपों के फ़ासले को नापने।हमारे नीचे पूरी ढलान गुलाब के फूलों से लदी हुई थी, जिनकी ख़ुशबू से पूरी फ़जा महक रही थी। समुद्र के क़रीब कॉफी हाउस से मद्धम सुरों का संगीत हवा के झोंकों के जरिए कभी हमारे कानों तक पहुंचता और कभी ज्यादा फ़ासला होने से विलग जाता।मु़ख्तसर यह कि पूरा माहौल एक आह्लादपूर्ण कैफ़ीयत में डूबा हुआ था। हम लोग ख़ामोश बैठे, अपना-अपना रूहानी सुकून और लुत्फ़ हासिल कर रहे थे।

उस व़क्त हम वाक़ई जमीन की बजाय, किसी जन्नत में चले आए थे।नौजवान पोलिश लड़की घास पर लेटी हुई थी, इस तरह कि उसका सिर उसके महबूब के सीने पर रखा हुआ था। उसके नफ़ीस व नाजुक अंडाकार पीले चेहरे पर कभी-कभी लालिमा भी देखी जा सकती थी। फिर अचानक उसकी नीली आंखों में से सैलाब की तरह आंसू बहने लगे। उसका महबूब शायद सूरते-हाल को ख़ूब समझता था, इसीलिए उसने झुक कर लड़की के गालों पर बहने वाले हर आंसू पर बरबस प्यार करने की कोशिश शुरू कर दी। लड़की की मां की आंखों से भी ये मंजर देख कर आंसू टपकने लगे।

ऐसे में ख़ुद मुझे, जी हां ख़ुद मुझे भी अपने दिल में अजीब क़िस्म की टीस क्यों महूसस नहीं होती।‘यहां दिमाग़ और जिस्म, दोनों को कितनी राहत मिल रही है। कितनी हसीन और ताजगी देने वाली है यह जगह!’ लड़की की सरगोशी सुनी जा सकती थी।

‘ख़ुदा जानता है कि मेरा कोई दुश्मन नहीं और अगर होता भी, तो मैं उसको यहां मुआफ़ कर देता।’ बाप की आवाज में थोड़ा कंपन था।उसके बाद हम एक बार फिर ख़ामोश हो गए।

उस व़क्त हम बेहतरीन और जादू-असर मूड में थे। इतने नशे में कि उसको शब्दों में बयान करना मुश्किल है। हम में से हरेक को महसूस हो रहा था कि एक बहुत ही ख़ुशीभरी दुनिया हमारे अंदर समा गई है और हर कोई उस व़क्त इस कोशिश में था कि पूरी दुनिया को इसका हिस्सेदार बना ले। सबके ख्यालात लग रहे थे, इसलिए हम में से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि किसी दूसरे को डिस्टर्ब करें।

इस मधुर ख़ामोशी के दौरान हमें एहसास ही नहीं हुआ कि तक़रीबन एक घंटे स्केच पर काम करने के बाद यूनानी ने उठकर चित्रकारी के साजो-सामान को समेट लिया था और हल्के-से अलविदाई इशारे के साथ, वह वहां से रु़ख्सत भी हो चुका था। हम उसके जाने के बाद भी यूं ही बैठे रहे। फिर आख़िरकार कई घंटे बाद जब फ़ासलों में गहरी ललाई फैलने लगी, दक्षिण में ये एक और जादुई हुस्न का नजारा शुमार होता है।

लेकिन लड़की की मां ने उससे लुत्फ़ उठाने की बजाय लौटने का मशवरा दे दिया। इसलिए हम उठकर होटल की ओर रवाना हुए। आराम से। किसी क़िस्म की फ़िक़्र से आजाद बच्चों की तरह फिर होटल में पहुंच कर हम उसके ख़ूबसूरत बरामदे में बैठ गए। अभी हमने मुश्किल से कुछ दम लिया ही था कि नीचे हमें किसी झगड़े और गाली-गलौज की आवाज सुनाई दी।

हमने देखा कि यूनानी आदमी होटल के मालिक से बुरी तरह उलझा हुआ था। हम उन दोनों की नोक-झोक का मजा लेने लगे। लेकिन हमारी तफ़रीह के ये पल ज्यादा देर क़ायम न रहे और अंतत: यूनानी होटल से बाहर चला गया।

‘अगर होटल के दूसरे मेहमान न होते, तो मैं इस बदजात की अच्छी तरह ख़बरें लेता’, होटल का मालिक गुर्राता हुआ हमारी तरफ़ आया।

‘श्रीमान, यह कौन था? इसका क्या नाम है?’ लड़की के प्रेमी ने पास आने वाले होटल के मालिक से पूछा। ‘हूं.. क्या मालूम कि इस आदमी का असली नाम क्या है?’ होटल के मालिक की गुर्राहट बढ़ गई। फिर वह आदमी अपनी नजरों को जहरीले अंदाज में नीचे गाड़ते हुए बोला, ‘हम उसको ‘वैंपायर’ के नाम से जानते हैं।’

‘वह कोई चित्रकार है?’ ‘जी हां, बड़ी इज्जत का पेशा है उसका।

वह सिर्फ़ लाशों के स्केच बनाता है। जब कभी इस्तांबूल या वहां के आसपास में किसी की मौत होने वाली होती है, तो यह श़ख्स मरने से पहले ही पेंट कर लेता है और देखा गया है कि मौत के बारे में उसका अंदाज कभी भी ग़लत नहीं होता है। इंसान क्या है, यह तो गिद्ध है गिद्ध!’

इस दौरान पोलिश औरत बेहोश होकर गिर पड़ी थी।

लड़की के प्रेमी ने उस समय बिजली की तेजी से होटल की सीढ़ियां फलांग ली थीं और एक हाथ से उसने यूनानी को दबोच लिया था, जबकि दूसरे हाथ ने उसके चित्रकारी के सामान को क़ाबू में कर लिया था। हम लोग जब पोलिश नौजवान के पीछे-पीछे दौड़ कर पहुंचे, तो हमने दोनों को रेत में गुत्थमगुत्था पाया।

चित्रकार के बैग का सारा सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा था। उनमें काग़ज की वह शीट भी शामिल थी, जिस पर उसने पोलिश लड़की के सिर का स्केच बनाया हुआ था। उसमें लड़की की आंखें पूरी तरह बंद थीं और उसके ललाट पर विलायती मेंहदी, यानी मॉर्टल के सफ़ेद फूलों की माला सजी हुई थी।

Sikandar_Khan
02-03-2011, 01:52 AM
कौन है इन शब्दों की मां?
नवनीता देवसेन



स्त्री ने सृजनात्मक अभिव्यक्ति के जरिए समाज के रूढ़िगत बंधनों से मुक्ति पाई। ऐसी ही कुप्रथाओं से जूझती, बांग्ला की चर्चित कवयित्री राधारानी ने किस तरह सृजनात्मक विचारों के सहारे अपनी अलहदा पहचान बनाई, उनकी सुपुत्री, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बांग्ला कवयित्री नवनीता देवसेन बता रही हैं अनुभूत क़िस्स.

राधारानी बारह साल की थीं, जब उनका विवाह हुआ और विधवा भी हो गईं। अट्ठाईस की उम्र में उन्होंने अपने दो कविता-संग्रह प्रकाशित किए, जिनकी सर्वत्र समीक्षाएं प्रकाशित हुईं। आधुनिक बंगला कविताओं का पहला संग्रह उन्होंने संपादित किया और इस संग्रह के सहयोगी संपादक तथा कवि से विवाह किया। यह १९३१ की बात है। मैंने राधारानी के क़िस्से से अपनी बात इसलिए शुरू की, कि हम यहां स्त्री, कविता और स्वतंत्रता के बारे में बात कर रहे हैं और वे मेरी जानकारी में निकटतम स्त्री हैं, जिनके लिए कविता का अर्थ स्वतंत्रता था।

अपने उच्च-जाति हिंदू परिवार में राधारानी को यह अनुमति नहीं थी कि वे वापस स्कूल जा सकें। वे एक विधवा का कठोर जीवन जीने को विवश थीं। किंतु वे कविता लिख सकती थीं। उन्होंने अपने लिए एक नए जीवन की रचना की.. घर की चहारदीवारी में रहते, साहित्यिक पत्रिकाओं में अपनी कविताएं भेजते हुए। राधारानी का नाम पाठकों के लिए जल्दी ही आत्मीय हो गया। इस तरह ऐसे समाज के भीतर उन्होंने अपने लिए जगह बनाई, जहां वे अवांछित थीं और एक लोक-स्वर उन्होंने अर्जित किया, जहां वैधव्य का अर्थ था ख़ामोशी। साहित्यिक अभिस्वीकृति ने उन्हें स्वतंत्रता का एक अतिरिक्त बोध प्रदान करते हुए, ख़ुद की पहचान गढ़ने की सुविधा दी। सृजनात्मक अभिव्यक्ति से उन्हें वह भावनात्मक और बौद्धिक बल मिला, जो उन्हें हिंदू समाज की कुरीतियों की अवज्ञा करने के लिए जरूरी था। विवाह की घोषणा तमाम समाचार-पत्रों में की गई। किसी क़िस्म का सामाजिक बहिष्कार नहीं हुआ, बल्कि यह विवाह दो कवियों के बीच एक स्वप्न-संयोग के नाम से पुकारा गया। इस तरह तमाम मांगलिक सामाजिक अवसरों से वंचित एक अमांगलिक प्राणी से वे एक सौभाग्यशाली पत्नी बन गईं। उन लोगों के लिए सम्माननीय, जो मानी रखते हैं। वे टैगोर और शरतचंद्र दोनों के क़रीब थीं।

यहां मैं एक दूसरी कहानी सुनाना चाहती हूं। राधारानी देवी और प्रथम चौधुरी (प्रसिद्ध आलोचक और टैगोर के भतीजे) के बीच बहस छिड़ गई। प्रथम चौधुरी का कहना था कि स्त्री महान कवि इसलिए नहीं बन सकीं, क्योंकि वे अपनी भाषा का इस्तेमाल करने में सक्षम नहीं थीं। वे पुरुषों के द्वारा गढ़े गए शब्द-विन्यास का उपयोग करती रहीं और पुरुषों के फैशन की पिछलग्गू बनकर ख़ुद को अभिव्यक्त करती रहीं। वे अपनी ख़ुद की आवाज नहीं पा सकीं। हमने ऐसा कोई कवि नहीं देखा, जिसकी कविता एक स्त्री-क़लम से किए गए हस्ताक्षर लिए हो। स्त्रियों के जीवन, उनके सरोकारों और उनकी प्रतिक्रियाओं को उनकी कविता में ईमानदार अभिव्यक्तियां नहीं मिलतीं। अगले महीने बंगला मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘भारतवर्ष’ में ‘निशीथ कलह’ शीर्षक से एक कविता प्रकाशित हुई, जो पति-पत्नी के बीच बिस्तर पर हुए झगड़े के बारे में थी, जिसका अंत एक चुंबन के साथ दोनों के बीच मिलन से होता है। इससे बड़ी सनसनी फैली, क्योंकि यह कविता उस समय की सामान्य काव्यात्मक शब्दावली की बजाय, बोलचाल की बंगला में लिखी गई थी। दरअसल इसका शिल्प नाटकीय एकालाप का था, जहां ‘मानिनी’ ही बोलती है। इसके अलावा यह कविता अपराजिता देवी नामक एक ऐसी स्त्री द्वारा लिखी गई थी, जिसके बारे में कभी सुना नहीं गया था। अपराजिता ने चार छोटे-छोटे संग्रहों में स्त्रियों के बारे में जीवंत कविताएं लिखीं। टैगोर उनसे बहुत प्रभावित और उनको लेकर मन-ही-मन बहुत उत्सुक थे। कविताएं राधारानी के गंभीर उद्यम के विपरीत विनोदपूर्ण और हल्के-फुल्के अंदाज में लिखी गई थीं। यह रहस्य बारह वर्षो तक पता नहीं चला कि राधारानी ही अपराजिता के नाम से लिख रही थीं।

यहां हम एक ही स्त्री के जीवन में एक साथ तीन स्त्रियों के जीवन को देखते हैं- एक बाल विधवा, एक सफल कवि और एक ऐसी स्त्री, जिसने एक पुरुष की चुनौती को स्वीकार करते हुए, बिल्कुल वैसी ही एक आदर्श स्त्री-कवि की रचना की। राधारानी के लिए यह सब इसलिए संभव हो सका, क्योंकि वे कविता पर एकाग्र बनी रहीं। अपनी प्रतिभा पर एकाग्र बनी रहीं। राधारानी के क़िस्से से मैंने इसलिए शुरुआत की कि मेरे लिए यह अत्यंत महत्व रखता है। आज मैं यहां आपके बीच खड़ी हूं, आप से बात कर रहीं हूं, तो यह केवल इसलिए संभव हो पा रहा है कि यह कविता ही थी, जिसने एक छद्म समाज-व्यवस्था की बेड़ियों से एक स्त्री को मुक्ति दिलाई- एक अद्भुत स्त्री, जिसके प्रति मैं अपने अस्तित्व के लिए ऋणी हूं। विवाह के लगभग दस वर्ष बाद राधारानी और नरेंद्र देव के यहां मेरा जन्म हुआ। एक कवि के द्वारा गर्भ में धारण किए जाने और एक-दूसरे कवि द्वारा प्रजनित होने के चलते यह बात कोई बड़ा अजूबा नहीं कि मैं कविता को स्त्री की स्वतंत्रता के लिए इतना महत्वपूर्ण बता रही हूं। कविता आपके लिए सिर्फ़ दरवाजा खोल सकती है, उसके बाहर अपने क़दम तो आपको ही रखने होते हैं। राधारानी देवी बंगला में कविता लिखने वाली एकमात्र बाल विधवा नहीं थीं। कविता को सकारात्मक वैधव्य के रूप में पाने वाली ऐसी अनेक थीं। उच्च जाति की नागर स्त्रियों के लिए साहित्य के भीतर आत्माभिव्यक्ति का एक रास्ता मिला- जिसने उन्हें वह सामाजिक स्वीकृति और निजी गरिमा उपलब्ध कराई, जिससे वैधव्य वंचित था।

कविता साक्षरता से बंधी हुई नहीं है। यह केवल मुद्रित शब्द नहीं है, जो हम स्त्रियों के लिए आंतरिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति करता हो। ग्रामीण स्त्रियों के वे गीत भी हैं, जो वे पत्थर तोड़ते हुए या धान कूटते हुए या खेतों को बोते हुए या बच्चों को सुलाते हुए रचती और गाती हैं। सारे दिन अपनी कमरतोड़ मेहनत के बीच भी वे अपने गाने के लिए किसी तरह समय निकाल ही लेती हैं। महाकाव्यों से चुनकर वे अपनी रुचि के ऐसे गीत गाती हैं, जिनके साथ वे तादात्म्य हो सकें। महाकाव्य की नायिकाओं के चरित्रों के माध्यम से वे अपने ही दुखों और वेदनाओं को गाती हैं।

महाकाव्य नायकत्व के गीत हैं- पुरुषों द्वारा पुरुषों के बारे में, प्राथमिक रूप से पुरुषों के लिए रचे गए, किंतु जब हम स्त्रियां गांवों में उन्हें गाती हैं, तो उन्हें अपने गीत बना लेती हैं। उदाहरण के लिए रामायण को लें। स्त्रियां महान युद्धों या दिव्य चमत्कारों का गायन करने में रुचि नहीं लेतीं, बल्कि वे ऐसे आख्यानों को चुनना पसंद करती हैं, जिनमें सीता के कष्ट, सीता के आनंद हैं, जिनमें एक स्त्री जीवन के दर्द और सुख हैं। जन्म, विवाह, बिछोह, खेल।

.. ख़ैर, जब राधारानी की बेटी के पति (लेखिका नोबेल विजेता अमत्र्य सेन की पूर्व पत्नी हैं) ने एक दूसरी स्त्री की ख़ातिर उसे छोड़ दिया, तो वह दो बच्चों के साथ कलकत्ता लौटी। किन्ही सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल होना उसके लिए बहुत मुश्किल था। सवाल! ताक-झांक! घूरती हुई निग़ाहें! कटाक्ष! एक परित्यक्ता स्त्री हमारे समाज के अनके वर्गो की दिलचस्पी का केंद्र होती है- अलग-अलग कारणों से। शक- शुबहे, घृणा, भय, उत्सुकता और उम्मीद से भरे प्रस्ताव- एक अनुग्रहच्युत स्त्री को इन तमाम प्रतिक्रियाओं का सामना करना होता है। यह मुझे समाज में मेरी औकात बताने के लिए पर्याप्त था, यानी मुझे किसी तरह की सकारात्मक जगह उपलब्ध नहीं थी। मुझे लोगों की निगाहों से बचकर रहना जरूरी था, पर तब के बाद से इन बीस वर्षो में चीजें मेरे लिए कितनी बदल गई हैं। इस सबका श्रेय कविता को जाता है। जितनी मैं अपनी मां की कविता के प्रति कृतज्ञ हूं, जिसने मुझे बाहर निकलने के लिए दरवाजा खोला, उतनी ही मैं भारतीय गांवों की अपनी पूर्वजन्माओं की कृतज्ञ हूं, जो आज भी सीता-द्रौपदी के गीत गा रही हैं और हमारे अपने जीवन की कथाएं कह रही हैं।

बहुत ही निजी लेखा-जोखा? हां! निश्चय ही! हम औरतों के मामले में निजी ही राजनैतिक है। हम औरतों के मामले में प्रेम और क्रांति एक ही है। हम औरतों के मामले में कविता और स्वतंत्रता एक ही हैं।

-अंग्रेजी से अनुवाद : दीपेंद्र बघेल

(संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित,
उत्पल बैनर्जी द्वारा अनूदित, नवनीता देवसेन की कविता पुस्तक ‘और एक आकाश’ से साभार)

Sikandar_Khan
02-03-2011, 02:34 PM
घर दूंगी बिटिया
यादवेंद्र चंद्र शर



दिल्ली शाहदरा, लम्बी प्रतीक्षा के बाद सोनलिया रेत से घिरे शहर और उसके आसपास के इलाके में दो दिन पूर्व वर्षा तो हुई पर ऐसी नहीं कि धरती का मन तृप्त हो जाए। हां तपती रेत और धूप की तस्वीर ज़रूर बदल गई। वातावरण खुशनुमा हो गया। पेड़-पौधे नहाए-नहाए से लगने लगे। ज़मीन आहिस्ता-आहिस्ता हरा लबादा ओढ़ने लगी।

सरोजा ‘लाली माई’ के धोरे (टीले) पर बैठी-बैठी रेत के लहरिएदार चुनरी को देख रही थी। दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा था। कहीं-कहीं कोई मुसाफिर ऊंट के साथ दिखाई पड़ जाता था। रेत अब भी गीली थी। उसने रेत के भीतर अपने पैर धंसा दिए। ठंडी-ठंडी, कोमल-कोमल रेत। वह उसे उठा-उठा कर अपने घुटनों तक के पायचों पर गिराने लगी। एक अत्यंत सुखद अहसास।

क्षितिज के ऊपर गहरे बादल होने की वजह से धूप खत्म हो गई थी। सूरज छिप गया था और सरोजा एकाएक रेत का घरौंदा बनाने लगी। जब वह छोटी थी, तब भी वह अपनी सहेलियों के साथ घरौंदा बनाती थी और प्राय: सबसे अच्छा घरौंदा भी वही बनाती थी। वह अभी भी घरौंदा बनाती गई। जब घरौंदा पूरा बन गया, तब वह आश्चर्य से उसे देखकर मुस्कुराने लगी। हाय, यह कितना सुंदर घरौंदा बना है! तीन खिड़कियां, एक रसोईघर और सुंदर चारदीवारी।

वह उसे देखती रही, देखती रही। न जाने कितनी देर मंत्रमुग्ध भाव से। उसका अंतस धीरे-धीरे अवसाद से भरने लगा। हृदय के समस्त कंगूरों को छूने वाला दुख। कब उसकी आंखों ने गर्म बूंदें बरसाई, वह नहीं जान सकी। घरौंदे को अपलक निहारते-निहारते उसने अपने आप से प्रश्न किया कि वह क्यों अनजाने में कभी रेत का और कभी ताश के पन्नों का घरौंदा बनाती है? उत्तर साफ था। उसका घरौंदा तो बना पर उसका स्थाई घर नहीं बना। उसके पास सब कुछ होते हुए भी वह मन से बेघर थी। वह सोचती थी कि जिनके स्थाई व सुखद घर बन गए, वे सबसे सुखी हैं, इस पृथ्वी पर। फिर एक स्त्री का घर? क्या सचमुच एक मंदिर होता है?

सरोजा अपने घरौंदे के पास हाथ-पैर पसार कर चित लेट गई। ठंडा-ठंडा रेशमी अहसास उसके बांए हाथ पर वर्षा के बाद जाने वाला जंगली जीव ममोलिया चढ़ आया। उसका मखमली स्पर्श उसे बहुत सुखद लगने लगा। ऐसा ही मखमली स्पर्श था, उसके वैवाहिक जीवन के आरंभिक दिनों का।

शीघ्र ही उसे पता चला कि उसका पति शराबी है। पति के शराब पीने की आदत और सास-ससुर की लोभी प्रवृत्तियों ने धीरे-धीरे उसके एक-एक आनंददायक क्षणों की निर्ममतापूर्वक हत्या करनी शुरू कर दी। जब उसका पति शराब के नशे में धुत खाली बोतल तोड़कर उस पर आक्रमण करने लगा, तो उसने प्रतिरोध स्वरूप स्टूल उठा लिया और कहा कि उसे कुछ अनहोनी करने के लिए लाचार न करें। पत्नी का विरोध और रौद्ररूप उसके शराबी पति ने पहली बार देखा था।

ऊपर से वह गालियां निकालता रहा पर भीतर से वह सहम गया, डर गया। सरोजा ने अपनी आकृति को ताम्रवर्णी बनाते हुए विषाक्त स्वर मे कहा, ‘पूरा एक बरस हो गया है, इस यातनाघर की यंत्रणाओं को सहते-सहते! स्त्री का पीहर घर होता है और ससुराल, मंदिर। पर एक बरस हो गया है, आपने मेरे मंदिर को नरक बना दिया। हर बात की हद होती है, हद के बाहर कुछ भी नहीं सहा जाता। आप मर्यादा में आ जाएं और अपने मां-बाप को भी समझा दें। मैं अंगूठा-छाप नहीं हूं, बी.कॉम पास हूं।’

उसने नागिन की तरह फुफकारा। फिर वह भावावेश और क्रोध में अंधी-सी हो गई। उसने स्पष्ट शब्दों में चीख-चीखकर बताया कि उसके पिता को जो कुछ सेवानिवृत्ति परमिला था, उसे विवाह पर लगा दिया। इस बीच उसके सास-ससुर भी आ गए। वह उन्हें सम्बोधित करके फिर बोली, ‘अब स्कूटर तो क्या साइकिल तक की गुंजाइश नहीं है।’ उसने यह भी बताया की वह दासी नहीं है, सीमाहीन निरंकुशता वह नहीं सह सकती। ‘पत्नी सदा सहन करती है कि घर की बातें बाहर न जाए पर आप तो अन्याय पर अन्याय कर रहे हैं। सुन लीजिए, मैं तीन दिनों की मोहलत देती हूं फिर मैं अदालत के दरवाज़े खटखटाऊंगी।’

उसकी सास ने लड़ाकू मुद्रा में झपटते हुए उसे धमकी दी, ‘मैं तुम्हें मिट्टी का तेल छिड़ककर जला डालूंगी। अदालत जाओगी कैसे?’ उसका रहा-सहा धैर्य भी जाता रहा। उसे महसूस हुआ कि जलाने से पूर्व ही उसके बदन में आग लग गई है। उसने विषाक्त स्वर में कहा, ‘सासूमां! कहीं इतिहास न बदल जाए।

आज तक बहुएं ही जली हैं, कहीं ऐसा न हो अब सास का नम्बर आ जाए। कोई अनहोनी घटे इससे पहले मैं आज ही यह घर छोड़कर जा रही हूं। अब यहां रहना मेरे लिए खतरे से खाली नहीं। मैंने पढ़ा है कि कई बार शत्रु अचानक हमला करके विपक्षी को मार डालता है। ध्यान दीजिएगा, मेरे दहेज का सामान और नकदी मेरे घर पहुंचा दीजिएगा, तो ठीक रहेगा वरना कानून तो है ही।’

वह अचानक संवेदनशील हो उठी। उसकी आंखों में प्रार्थना भरा गीलापन तैर आया। अपने पति के सन्निकट जाकर उसने विगलित स्वर में कहा, ‘जब तुम शादी के पहले प्रथम बार मिले थे, तब तुम कितनी भावुकता से प्रेमालाप कर रहे थे और जब तक शादी नहीं हुई, तब तक तुम्हारे शब्दों में प्यार का पराग झलकता था।

विवाह के बाद एक ही माह में तुम्हारे भीतर दूसरा आदमी जन्म गया। एक शराबी, लालची और मां-बाप का खिलौना।’ उसने लम्बी सांस लेकर कहा, ‘यह कितना सच है कि जब तक मर्द प्रेमी रहता है, तब तक वह कितना अच्छा होता है लेकिन पति बनते ही वह पत्नी को पैर की जूती समझने लगता है। उस पर हुक्म चलाता है, कभी विनती नहीं करता।’

वह ससुराल को छोड़कर अपने पीहर लौट आई। पिता बीमार थे। उनके चेहरे की झुर्रियों तरेड़े लगने लगी थीं। मां का चेहरा खुरदुरा हो गया। दो भाई और मां-बाप के इस छोटे से घर में गुज़ारा नहीं कर सके। एक ने दूसरे शहर में तबादला करा लिया। छोटे भाई की बहू ने घर में अशांति फैला दी। उसके झगड़ालू वाक्य रात को ही विश्राम लेते थे।

वह भी अलग हो गई। दोनों बेटों के अलग होने पर पिता को आघात लगा। बुढ़ापे की बैसाखियां जब टूट जाती हैं, तब आदमी हताश हो जाता है। जब सरोजा आ गई, तब तक बाप का चिथड़ा-चिथड़ा हो चुका था। पिता रुक-रुककर बोले, ‘बेटी! रावण के घर में भी बेटी नहीं खटाई। अच्छे धन्ना सेठ भी बेटियों को ससुराल ही भेजते हैं। मैं बीमार और बूढ़ा।’

सरोजा ने विगलित स्वर में कहा, ‘पिताजी पुराने ज़माने की बातें आज के संदर्भ में सही नहीं बैठतीं। मैं इस नरक में रहकर सदा इसी तनाव में जिऊं कि कब यह मेरी हत्या कर दें, इससे बेहतर तो बर्तन मांजकर रात में सुख की नींद सोऊं। मैं कुछ करूंगी। इर्श्वर मेरी मदद करेगा।’ संयोग से एक बहुत अच्छी बात हुई कि सरोजा बैंक की नौकरी की परीक्षा में पास हो गई और नौकरी लग गई। उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया।

एक बेटे की तरह सरोजा ने घर को सम्भाल लिया लेकिन पिता ने उसका साथ छोड़ दिया। वे बूढ़े व बीमार थे। एक दिन चल बसे। सरोजा आज भी उन बातों को याद करके आहत हो जाती थी कि उसके दोनों भाई पिता की मृत्यु पर रिश्तेदारों की तरह आए और औपचारिकताएं निभाकर मां से विदा लेकर चले गए। वे सरोजा के संग ऐसा बर्ताव कर रहे थे जैसे उससे उनका रक्त-सम्बंध है ही नहीं।

आहिस्ता-आहिस्ता सरोजा अंतमरुखी हो गई। काम से काम। उसके सहकर्मी भी परेशान थे। एक दो बार शादी के प्रस्ताव भी आए पर उसने साफ इंकार कर दिया। आखिर वह अनाथ आश्रम से एक पांच साल की बच्ची गोद ले आई। उसका नामकरण किया, अनामिका।

मां-बेटी का मन बहलने लगा। अच्छा भोजन, कपड़े और अथाह अनुराग के रस से सिंचित होकर अनामिका गुड़िया-सी लगने लगी। बहुत प्यारी बिटिया। पढ़ने में बहुत तेज़। हालांकि परिवारवालों ने ऐतराज़ भी किया पर उसने उनको कोरा उत्तर दे दिया। जब जाति-धर्म की बात उसके परिजनों ने उठाई, तो उसने कहा, ‘राजा जनक को भी तो सीता भूमि पर पड़ी हुई मिली थी।

उसकी जाति तो किसी ने नहीं पूछी। कर्ण को सारथी ने पाला, तो उसे उसकी जाति मिल गई। जो जिसे पालता है, उसकी जाति ही उसे मिलती है।’ सबकी बोलती बंद। एक बार तो उसका पति स्वयं आया था। उसने विनीत स्वर में कहा, ‘मैं माफी मांगता हूं,अब तुम्हारे साथ कोई भी ज्यादती और अन्याय नहीं होगा।’ उसके संवाद में उसे नाटकीयता लगी। खोखलेपन का अहसास हुआ।

सरोजा ने उसे कहा, ‘मैं जानती हूं। दस हज़ार रुपए कमाने वाली मैं दुधारू गाय जोहो गई हूं। एक बात सुनो, मैं उनमें से नहीं हूं,तो बार-बार ससुराल से निकाली जाती हैं और बार-बार अनुरोधों पर आती हैं। मैं थूक कर चाटती नहीं, समझे!’सरोजा अपने में सिमट गई। बाहर तो केवल अपनी बिटिया के लिए थी। अनामिका के लिए उसमें अथाह प्यार और असीम उत्साह था।

एक दिन सरोजा बाहर से आई, तो देखा कि अनामिका घर में नहीं है। उसने मां से पूछा तो उसने बताया कि वह राजा बिस्सा के बाड़े में खेल रही है, अन्य बच्चियों के साथ। वह बाड़े में गई। देखा कि अनामिका उत्तेजित होकर बेला से लड़ रही है। पूछा तो अनामिका ने रुआंसी होकर बताया कि बेला ने उसका घरौंदा तोड़ दिया। उसने अनामिका को अपने साथ लिया। रास्ते में कहा, ‘बिटिया, घरौंदे टूटते रहते हैं। कच्चे होते हैं, रेत के होते हैं, मैं तुझे घर बनाकर दूंगी हमारे सपनों सा, हमारी इच्छाओं सा..।’

अनामिका ने देखा कि मम्मी के चेहरे पर गंभीर दृढ़ता है। उसने पलटकर मम्मी को बांहों में लपेट लिया। सरोजा की आंखें गीली हो गईं।

Sikandar_Khan
02-03-2011, 04:10 PM
दिवाली

पखवाड़े बाद दिवाली थी, सारा शहर दिवाली के स्वागत में रोशनी से झिलमिला रहा था। कहीं चीनी मिट्*टी के बर्तन बिक रहे थे तो कहीं मिठाई की दुकानों से आने वाली मन-भावन सुगंध लालायित कर रही थी।

उसका दिल दुकानों में घुसने को कर रहा था और मस्तिष्क तंग जेब के यथार्थ का बोध करवा रहा था। ‘दिल की छोड़ दिमाग की सुन’ उसको किसी बजुर्ग का दिया मँत्र अच्छी तरह याद था। दिवाली मनाने को जो-जो जरूरी सामान चाहिए, उसे याद था। ‘रंग-बिरंगे काग़ज की लैसें, एक लक्ष्मी की तस्वीर, थोड़ी-सी मिठाई और पूजा का सामान!’
किसी दुकान में दाखिल होने से पहले उसने जेब में हाथ डाल कर पचास के नोट को टटोल कर निश्चित कर लिया था कि उसकी जेब में नोट है। फिर एक के बाद एक सामान खरीदता रहा, सब कुछ बजट में हो गया था। संतालिस रूपये में सब कुछ ले लिया था उसने। वो प्रसन्नचित घर की ओर चल दिया पर अचानक रास्ते में बैठे एक बूढ़े कुम्हार को देख उसे याद आया कि वो ‘दीये’ खरीदने तो भूल ही गया था।

‘दीये क्या भाव हैं बाबा?’

‘तीन रूपए के छह।’

उसने जेब में हाथ डाल सिक्कों को टटोला।’

‘कुछ पैसे दे दो बाबू जी, सुबह से कुछ नही खाया......’ एक बच्चे ने हाथ फैलाते हुए अपनी नीरस आँखे उसपर जमा दी।

सिक्के जेब से हाथ में आ चुके थे।

‘कितने दीये दूं, साब?’

‘...मैं फिर आऊँगा’ कहते हुए उसने दोनो सिक्के बच्चे की हथेली पर धर दिए और आगे बढ़ गया।

जब दिल सच कहता है तो वो दिमाग की कतई नहीं सुनता। ‘दिल की कब सुननी चाहिए’ उसे सँस्कारों से मिला था।

बच्चा प्रसन्नता से खिलखिला उठा, उसे लगा जैसे एक साथ हजारों दीये जगमगा उठे हों। फिर कोई स्वरचित गीत गुनगुनाते हुए वो अपने घर की राह हो लिया। वो एक लेखक था! अगले पखवाड़े आने वाली दिवाली दुनिया के लिए थी, लोग घी के दीये जलाएंगे। लेखक ने बच्चे को मुस्कान देकर पखवाड़े पहले आज ही दिवाली का आनन्द महसूस कर लिया था।

Sikandar_Khan
09-03-2011, 08:28 PM
मोहन राकेश की कहानी - जीनियस
जीनियस कॉफ़ी की प्याली आगे रखे मेरे सामने बैठा था।
मैं उस आदमी को ध्यान से देख रहा था। मेरे साथी ने बताया था कि यह जीनियस है और मैंने सहज ही इस बात पर विश्वास कर लिया था। उससे पहले मेरा जीनियस से प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं हुआ था। इतना मैं जानता था कि अब वह पहला ज़माना नहीं है जब एक सदी में कोई एकाध ही जीनियस हुआ करता था। आज के ज़माने को जीनियस पैदा करने की नज़र से कमाल हासिल है। रोज़ कहीं न कहीं किसी न किसी जीनियस की चर्चा सुनने को मिल जाती है। मगर जीनियस की चर्चा सुनना और बात है, और एक जीनियस को अपने सामने देखना बिलकुल दूसरी बात। तो मैं उसे ग़ौर से देख रहा था। उसके भूरे बाल उलझकर माथे पर आ गये थे। चेहरे पर हल्की-हल्की झुर्रियाँ थीं, हालाँकि उम्र सत्ताईस-अट्*ठाईस साल से ज़्यादा नहीं थी। होंठों पर एक स्थायी मुस्कराहट दिखाई देती थी, फिर भी चेहरे का भाव गम्भीर था। वह सिगरेट का कश खींचकर नीचे का होंठ ज़रा आगे को फैला देता था जिससे धुआँ बजाय सीधा जाने के ऊपर की तरफ़ उठ जाता था। उसकी आँखें निर्विकार भाव से सामने देख रही थी। हाथ मशीनी ढंग से कॉफ़ी की प्याली को होंठों तक ले जाते थे, हल्का-सा घूँट अन्दर जाता था और प्याली वापस सॉसर में पहुँच जाती थी।
“हूँ!” कई क्षणों के बाद उसके मुँह से यह स्वर निकला। मुझे लगा कि उसकी ‘हूँ’ साधारण आदमी की ‘हूँ’ से बहुत भिन्न है।
“मेरे मित्र आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे,” मैंने वक़्त की ज़रूरत समझते हुए बात आरम्भ की। जीनियस के माथे के बल गहरे हो गये और उसके होंठों पर मुस्कराहट ज़रा और फैल गयी।
“मैंने इनसे कहा था कि चलिए आपका परिचय करा दूँ,” मेरे साथी ने कहा। साथ ही उसकी आँखें झपकीं और उसके दो-एक दाँत बाहर दिखाई दे गये। मुझे एक क्षण के लिए सन्देह हुआ कि कहीं यह संकेत स्वयं उसी के जीनियस होने का परिचायक तो नहीं? परन्तु दूसरे ही क्षण उसकी सधी हुई मुद्रा देखकर मेरा सन्देह जाता रहा। जीनियस एक पल आँखें मूँदे रहा। फिर उसने इस तरह विस्मय के साथ आँखें खोलीं जैसे वह यह निश्चय न कर पा रहा हो कि अपने आसपास बैठे हुए लोगों के साथ उसका क्या सम्बन्ध हो सकता है। उसके फैले हुए होंठ ज़रा सिकुड़ गये। उसने सिगरेट का एक कश खींचा और तम्बाकू का धुआँ सरसराता हुआ ऊपर को उठने लगा, तो उसने कहा, “देखिए, ये सिर्फ़ आपको बना रहे हैं। मैं जीनियस-वीनियस कुछ नहीं, साधारण आदमी हूँ।”
मैंने अपने साथी की तरफ़ देखा कि शायद उसके किसी संकेत से पता चले कि मुझे क्या कहना चाहिए। मगर वह दम साधे पत्थर के बुत की तरह गम्भीर बैठा था। मैंने फिर जीनियस की तरफ़ देखा। वह भी अपनी जगह निश्चल था। बुश्शर्ट के खुले होने से उसकी बालों से भरी छाती का काफ़ी भाग बाहर दिखाई दे रहा था।
वह कहवाख़ाने का काफ़ी अँधेरा कोना था। आसपास धुआँ जमा हो रहा था। दूर ज़ोर-ज़ोर के कहकहे लग रहे थे और हाथों में थालियाँ लिये छायाएँ इधर-उधर घूम रही थीं।
“मैं आज तक नहीं समझ सका कि कुछ लोग जीनियस क्यों माने जाते हैं?” जीनियस ने फिर कहना आरम्भ किया, “मैंने बड़े-बड़े जीनियसों के विषय में पढ़ा है और जिन्हें लोग जीनियस समझते हैं, उनकी रचनाएँ भी पढ़ी हैं। उनमें कुछ नाम हैं—शेक्सपियर, टॉल्स्टाय, गोर्की और टैगोर। मैं इन सबको हेच समझता हूँ।”
मैं अब और भी ध्यान से उसे देखने लगा। उसके माथे के ठीक बीच में एक फूली हुई नाड़ी थी जिसकी धडक़न दूर से ही नज़र आती थी। उसकी गलौठी बाहर की निकली हुई थी। बायीं आँख के नीचे हल्का-सा फफोला था। मैं उसके नक़्श अच्छी तरह ज़हन में बिठा लेना चाहता था। डर था कि हो सकता है फिर ज़िन्दगी-भर किसी जीनियस से मिलने का सौभाग्य प्राप्त न हो।
“शेक्सपियर सिर्फ़ एक वार्ड था,” दो कश खींचकर उसने फिर कहना आरम्भ किया, “और अगर मर्लोवाली कहानी सच है, तो इस बात में ही सन्देह है कि शेक्सपियर शेक्सपियर था। टॉल्स्टाय, गोर्की और चेख़व जैसे लेखकों को मैं अच्छे कॉपीइस्ट समझता हूँ—केवल कॉपीइस्ट, और कुछ नहीं। जो जैसा अपने आसपास देखा उसका हूबहू चित्रण करते गये। इसके लिए विशेष प्रतिभा की आवश्यकता नहीं। टैगोर में हाँ, थोड़ी कविता ज़रूर थी।”
वह खुलकर मुस्कराया। मेरे लिए उस मुस्कराहट का थाह पाना बहुत कठिन था। पास ही कहीं दो-एक प्यालियाँ गिरकर टूट गयीं। एक कबूतर पंख फडफ़ड़ाता हुआ कहवाख़ाने के अन्दर आया और कुछ लोग मिलकर उसे बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। जीनियस की आँखें भी कबूतर की तरफ़ मुड़ गयीं और वह कुछ देर के लिए हमारे अस्तित्व को बिलकुल भूल गया। जब उसने कबूतर की तरफ़ से आँखें हटाईं तो उसे जैसे नये सिरे से हमारी मौजूदगी का एहसास हुआ।
“मैं एक निहायत ही अदना इन्सान हूँ,” उसने हमारे कन्धों से ऊपर दीवार की तरफ देखते हुए कहा, “लेकिन यह मैं ज़रूर जानता हूँ कि जीनियस कहते किसे हैं—माफ़ कीजिए, कहते नहीं, जीनियस कहना किसे चाहिए।” उसने प्याली रख दी और शब्दों के साथ-साथ उसकी उँगलियाँ हवा में खाके बनाने लगीं। “आप जानते हैं—या शायद नहीं जानते—कि जीनियस एक व्यक्ति नहीं होता। वह एक फिनोमेना होता है, एक परिस्थिति जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। उसका अपना एक रेडिएशन, एक प्रकाश होता है। उस रेडिएशन का अनुमान उसके चेहरे की लकीरों से, उसके हाव-भाव से, या उसकी आँखों से नहीं होता। वह एक फिनोमेना है जिसके अन्दर एक अपनी हलचल होती है परन्तु जो हलचल उसकी आँखों में देखने से नहीं होती। वह स्वयं भी अपने सम्बन्ध में नहीं जानता, परन्तु जिस व्यक्ति का उसके साथ सम्पर्क हो, उस व्यक्ति को उसे पहचानने में कठिनाई नहीं होती। जीनियस को जीनियस के रूप में जानने के लिए उसकी लिखी हुई पुस्तकों या उसके बनाए हुए चित्रों को सामने रखने की आवश्यकता नहीं होती। जीनियस एक फिनोमेना है, जो अपना प्रमाण स्वयं होता है। उसके अस्तित्व में एक चीज़ होती है, जो अपने-आप बाहर महसूस हो जाती है। मैं यह इसलिए कह सकता हूँ कि मैं एक ऐसे फिनोमेना से परिचित हूँ। मेरा उसका हर रोज़ का साथ है, और मैं अपने को उसके सामने बहुत तुच्छ, बहुत हीन अनुभव करता हूँ।”
उसकी मुस्कराहट फिर लम्बी हो गयी थी। उसने नया सिगरेट सुलगाकर एक और बड़ा-सा कश खींच लिया। कॉफ़ी की प्याली उठाकर उसने एक घूँट में ही समाप्त कर दी। मैं अवाक्* भाव से उसके माथे की उभरी हुई नाड़ी को देखता रहा।
“मुझे उसके साथ के कारण एक आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है,” वह फिर बोला, “मुझे उसके सम्पर्क से अपना-आप भी जीवन की साधारण सतह से उठता हुआ महसूस होता है। उसमें सचमुच वह चीज़ है जो दूसरे को ऊँचा उठा सकती है। मैं तब उसका रेडिएशन देख सकता हूँ। उसके अन्दर की हलचल महसूस कर सकता हूँ। जिस तरह अभी-अभी वह कबूतर पंख फडफ़ड़ा रहा था, उसी तरह उसकी आत्मा में हर समय एक फडफ़ड़ाहट, एक छटपटाहट भरी रहती है। उस छटपटाहट में ऐसा कुछ है जो यदि बाहर आ जाए, तो चाहे ज़िन्दगी का नक़्शा बदल दे। मगर उसे उस चीज़ को बाहर लाने का मोह नहीं है। उसकी दृष्टि में अपने को बाहर व्यक्त करने की चेष्टा करना व्यवसाय-बुद्धि है, बनियापन है। और इसलिए मैं उसका इतना सम्मान करता हूँ। मैं उससे बहुत छोटा हूँ, बहुत-बहुत छोटा हूँ, परन्तु मुझे गर्व है कि मुझे उससे स्नेह मिलता है। मैं भी उसके लिए अपने प्राणों का बलिदान दे सकता हूँ। मैंने जीवन में बहुत भूख देखी है—हर वक़्त की भूख—और अपनी भूख से प्राय: मैं व्याकुल हो जाता रहा हूँ। परन्तु जब उसे देखता हूँ तो मैं शर्मिन्दा हो जाता हूँ, भूख उसने भी देखी है, और मुझसे कहीं ज़्यादा भूख देखी है—परन्तु मैंने कभी उसे ज़रा भी विचलित या व्याकुल होते नहीं देखा। वह कठिन से कठिन अवसर पर भी मुस्कराता रहता है। मेरा सिर उसके सामने झुक जाता है। मैं जीवन के हरएक मामले में उससे राय लेता हूँ, और हमेशा उसकी बताई हुई राह पर चलने की चेष्टा करता हूँ। कई बार तो उसके सामने मुझे महसूस होता है कि मैं तो हूँ ही नहीं, बस वही वह है, क्योंकि उसके रेडिएशन के सामने मेरा व्यक्तित्व बहुत फीका पड़ जाता है। परन्तु मैं अपनी सीमाएँ जानता हूँ। मैं लाख चेष्टा करूँ फिर भी उसकी बराबरी तक नहीं उठ सकता।
उसके दाँत आपस में मिल गये और चेहरा काफी सख़्त हो गया। चेहरे की लकीरें पहले से भी गहरी हो गयीं। फिर उसने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में उलझाईं और एक बार उन्हें चटका दिया। धीरे-धीरे उसके चेहरे का तनाव फिर मुस्कराहट में बदलने लगा।
“ख़ैर!” उसने उठने की तैयारी में अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, मैं अब आपसे इजाज़त लूँगा। मैं भूल गया था कि मुझे एक जगह जाना है...।”
“मगर...” मैं इतना ही कह पाया। मैं तब तक उसी अवाक्* भाव से उसे देख रहा था। उसका इस तरह एकदम उठकर चल देना मुझे ठीक नहीं लग रहा था। अभी तो उसने बात आरम्भ ही की थी।
“आप शायद सोच रहे हैं कि वह व्यक्ति कौन है जिसकी मैं बात कर रहा था...” वह उसी तरह हाथ बढ़ाए हुए बोला, “मुझे खेद है कि मैं आपका या किसी का भी उससे परिचय नहीं करा सकता। मैंने आपसे कहा था न कि वह एक व्यक्ति नहीं, एक फिनोमेना है। अपने से बाहर वह मुझे भी दिखाई नहीं देता। मैं केवल अपने अन्दर उसका रेडिएशन ही महसूस कर सकता हूँ।”
और वह हाथ मिलाकर उठ खड़ा हुआ। चलने से पहले उसकी आँखों में क्षण भर के लिए एक चमक आ गयी और उसने कहा, “वह मेरा इनरसेल्फ है।”
और क्षण भर स्थिर दृष्टि से हमें देखकर वह दरवाज़े की तरफ़ चल दिया।

Sikandar_Khan
01-04-2011, 10:45 PM
आग
उस आदमी का घर जल रहा था। वह अपने परिवार सहित आग बुझाने का प्रयास कर रहा था लेकिन आग प्रचंड थी। बुझने का नाम न लेती थी। ऐसा लगता है जैसे शताब्दियों से लगी आग है, या किसी तेल के कुएं में माचिस लगा दी गई है या कोई ज्वालामुखी फट पड़ा है। आदमी ने अपनी पत्नी से कहा, "इस तरह की आग तो हमने कभी नहीं देखी थी।"
पत्नी बोली, "हां क्योंकि इस तरह की आग तो हमारे पेट में लगा करती है। हम उसे देख नहीं पाते थे।"
वे आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे कि दो पढ़े-लिखे वहां आ पहुंचे। आदमी ने उनसे कहा, "भाई हमारी मदद करो।" दोनों ने आग देखी और डर गए। बोले, "देखो, हम बुद्धिजीवी हैं, लेखक हैं, पत्रकार हैं, हम तुम्हारी आग के बारे में जाकर लिखते हैं।" वे दोनों चले गए।
कुछ देर बाद वहां एक आदमी और आया। उससे भी इस आदमी ने आग बुझाने की बात कही। वह बोला, "ऐसी आग तो मैंने कभी नहीं देखी… इसको जानने और पता लगाने के लिए शोध करना पड़ेगा। मैं अपनी शोध सामग्री लेकर आता हूं, तब तक तुम ये आग न बुझने देना।"वह चला गया। आदमी और उसका परिवार फिर आग बुझाने में जुट गए। पर आग थी कि काबू में ही न आती थी।
दोनों थक-हारकर बैठ गए। कुछ देर में वहां एक और आदमी आया। उससे आदमी ने मदद मांगी। उस आदमी ने आग देखी। अंगारे देखे। वह बोला, "यह बताओ कि अंगारो का तुम क्या करोगे? "
वह आदमी चकित था क्या बोलता।
वह आदमी बोला, "मैं अंगारे ले जाऊगा।"
"हां ठंडे होने के बाद…जब वे कोयला बन जाएंगे…"
कुछ देर बाद आग बुझाने वाले आ गए। उन्होंने आग का जो विकराल रूप देखा तो छक्के छूट गए। उनके पास जो पानी था वह आग क्या बुझाता उसके डालने से तो आग और भड़क जाती। दमकल वाले चिंता में डूब गए। उनमें से एक बोला, "यह आग इसी तरह लगी रहे इसी में देश की भलाई है।"
"क्यों? "आदमी ने कहा।
"इसलिए कि इसको बुझाने के लिए पूरे देश में जितना पानी है उसका आधा चाहिए होगा।"
"पर मेरा क्या होगा।"
"देखो तुम्हारा नाम गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में आ जाएगा। तुम्हारे साथ देश का नाम भी…समझे? "
वह बातचीत हो ही रही थी कि विशेषज्ञों का दल वहां आ पहुंचा। वे आग देखकर बोले, "इतनी विराट आग…इसका तो निर्यात हो सकता है…विदेशी मुद्रा आ सकती है…वह आग खाड़ी देशों में भेजी जा सकती है…." दूसरे विशेषज्ञ ने कहा, "वह आग तो पूरे देश के लिए सस्ती ऊर्जा स्रोत बन सकती है"
"ऊर्जा की बहुत कमी है देश में।"
"इस ऊर्जा से तो बिना पैटोल के गाड़ियां चल सकती हैं। यह ऊर्जा देश के विकास में महान योगदान दे सकती है।"
"इस ऊर्जा से देश में एकता भी स्थापित हो सकती है। इसे और फैला दो…
"फैलाओ?" वह आदमी चिल्लाया।
"हां बड़े-बड़े पंखे लगाओ…तेल डालो ताकि ये आग फैले।"
"पर मेरा क्या हो्गा? " वह आदमी बोला।
"तुम्हारा फायदा ही फायदा है…तुम्हारा नाम तो देश के निर्माण के इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा जाएगा…तुम नायक हो।"
कुछ दिनों बाद देखा गया कि वह आदमी जिसके घर में उसके पेट जैसी भयानक आग लगी थी, आग को भड़का रहा है, हवा दे रहा है।