PDA

View Full Version : सवाल आपके - जवाब हम सब के !!


VIDROHI NAYAK
03-03-2011, 01:17 PM
काफी दिनों से एक ऐसे ही सूत्र की तलाश थी अतः काफी सोच समझ कर मैंने यह सूत्र बनाया है !
प्रत्येक व्यक्ति के मन में कुछ अनुत्तरित से प्रश्न होते ही हैं , चाहे वो उनकी अध्यात्मिक जिंदगी को लेकर हों या व्यवहारिक ! कभी कभी कोई जवाब मिलता भी है तो वह पूर्ण संतुष्टि नहीं दे पता ! हम प्रायः इसी उलझन में रहते हैं की कैसे इस प्रश्न की समाप्ति की जाए, अर्थात इसका संतुष्टिदायक उत्तर पाया जाए ! वास्तव में मानव स्वभाव विरोधाभासी होता है अर्थात आसानी से किसी जवाब को मानने को तैयार नहीं होता !उसका ज्ञान उसे हमेशा शंकित रखता है ! आमतौर पर ये बाते तब ज्यादा सामने आती हैं जब हम किसी एक पक्ष के तार्किक पहलुओ का अध्यन कर रहे होते हैं ! ज़ाहिर है ऐसी स्थिति में नकारत्मक और सकारात्मक सोच का आना संभव है ! बस यही विरोधाभासी विचार हमेशा हमें द्विपक्षिक रखता है !
मेरा यह सूत्र कुछ ऐसी ही स्थितियो को स्पष्ट करने के लिए है ! इस सूत्र में आप अपने मन के किसी भी सवाल को रख सकते हैं और इस फोरम के सदस्य अपनी जानकारी और खोज के आधार पर उत्तर देने का प्रयास करेंगे ! हो सकता है की किसी सदस्य का उत्तर आपको एक पाक्षिक करते हुए संतुष्टि दे जाए !
बस इस सूत्र का यही उद्देश्य है !
फोरम के सदस्यों से निवेदन -
कृपया कोई भी उत्तर देने से पूर्व अपने पक्ष को मजबूत कर लें !
किसी भी प्रश्न की समय सीमा तब तक रहेगी जब तक प्रश्नकर्ता दिए गए उत्तरों में से किसी भी एक उत्तर से संतुष्टि का संकेत न दे दे !
प्रश्न किसी विषय को लेकर हो सकते हैं !
अंत में - सदस्यों का सहयोग आपेक्षित है ! अतः सहयोग करें !
धन्यवाद !

VIDROHI NAYAK
03-03-2011, 01:18 PM
सूत्र का श्रीगणेश करते हुए मै स्वयं ही एक प्रश्न रख रहा हूँ !

क्या भारतीय समाज के अनुसार निर्धारित किये गए हास परिहास के रिश्तों में अश्लीलता या द्विअर्थिक बातो का होना लाज़मी है ? चूँकि अश्लीलता के पक्ष में कोई नहीं जाएगा अतः यह स्पष्ट करें की क्या द्विअर्थिक हास परिहास जायज है ?

Bholu
03-03-2011, 02:35 PM
सूत्र का श्रीगणेश करते हुए मै स्वयं ही एक प्रश्न रख रहा हूँ !

क्या भारतीय समाज के अनुसार निर्धारित किये गए हास परिहास के रिश्तों में अश्लीलता या द्विअर्थिक बातो का होना लाज़मी है ? चूँकि अश्लीलता के पक्ष में कोई नहीं जाएगा अतः यह स्पष्ट करें की क्या द्विअर्थिक हास परिहास जायज है ?

कभी कभी मनुष्य के आगे स्थित के आगे झुक कर गलत को सही कहना पडता है
इसलिए कहता हूँ
अपने अन्दर के साहस को जिन्दा रखे

khalid
03-03-2011, 04:19 PM
क्या भारतीय समाज के अनुसार निर्धारित किये गए हास परिहास के रिश्तों में अश्लीलता या द्विअर्थिक बातो का होना लाज़मी है ? चूँकि अश्लीलता के पक्ष में कोई नहीं जाएगा अतः यह स्पष्ट करें की क्या द्विअर्थिक हास परिहास जायज है
?
शालीनता के हद तक कोई भी मजाक ठिक हैँ
हमारे भारतीय परिवेश के मुताबिक कई रिश्ते मजाक के दायरे मेँ आता हैँ
लेकिन हमेँ देखना परेगा किसी का दिल ना दुःखे
वैसे भी अगर कोई गलत करेगा तो उनके साथ गलत होगा
जैसे अगर भाई के साली के साथ आप गलत तरह के मजाक करेगेँ तो आपके घर मेँ भी किसी के भाई का साला रहती हैँ

Bholu
03-03-2011, 04:26 PM
शालीनता के हद तक कोई भी मजाक ठिक हैँ
हमारे भारतीय परिवेश के मुताबिक कई रिश्ते मजाक के दायरे मेँ आता हैँ
लेकिन हमेँ देखना परेगा किसी का दिल ना दुःखे
वैसे भी अगर कोई गलत करेगा तो उनके साथ गलत होगा
जैसे अगर भाई के साली के साथ आप गलत तरह के मजाक करेगेँ तो आपके घर मेँ भी किसी के भाई का साला रहती हैँ

भाई साहब जो लिखा है उसपे नजर मारे:crazyeyes:

VIDROHI NAYAK
03-03-2011, 04:50 PM
शालीनता के हद तक कोई भी मजाक ठिक हैँ
हमारे भारतीय परिवेश के मुताबिक कई रिश्ते मजाक के दायरे मेँ आता हैँ
लेकिन हमेँ देखना परेगा किसी का दिल ना दुःखे
वैसे भी अगर कोई गलत करेगा तो उनके साथ गलत होगा
जैसे अगर भाई के साली के साथ आप गलत तरह के मजाक करेगेँ तो आपके घर मेँ भी किसी के भाई का साला रहती हैँ
जहाँ तक दिल न दुखने का सवाल है तो ऐसा तो होता है ! हम भारतीय लोग रिश्तों को लेकर कुछ ज्यादा गंभीर और मालिकाना हक जताते हैं ! खास तौर से पति पत्नी के रिश्ते में ! अक्सर तर दोनों एक दूसरे के प्रति असुरक्षित नजरिया अपनाते हैं ...! क्या यह एक खास वज़ह नहीं होती दिल दुखने की ?
दूसरी बात अगर करे तो लोग खुद को दूसरे से ज्यादा स्वछंद समझते हैं ! ऐसे में सीमाओ की परिभाषा क्या होगी? क्या यही 'आम' मजाक द्विअर्थी होकर अश्लील नहीं हो जाते? क्या आज का मनुष्य कुछ ज्यादा वासना ग्रस्त नहीं है? क्या ऐसे रिश्तों में मजाक करने वाले का धेय्य एक स्वस्थ मजाक ही होता है ?

ndhebar
03-03-2011, 05:59 PM
दूसरी बात अगर करे तो लोग खुद को दूसरे से ज्यादा स्वछंद समझते हैं ! ऐसे में सीमाओ की परिभाषा क्या होगी? क्या यही 'आम' मजाक द्विअर्थी होकर अश्लील नहीं हो जाते? क्या आज का मनुष्य कुछ ज्यादा वासना ग्रस्त नहीं है? क्या ऐसे रिश्तों में मजाक करने वाले का धेय्य एक स्वस्थ मजाक ही होता है ?

सीमाओं की कोई परिभाषा नहीं होती, आपको अपनी परिधि का निर्माण खुद करना होता है.

जहाँ तक अर्थ द्विअर्थ की बात है ये आपके कहने और सामनेवाले के समझने पर भी निर्भर करता है, कई बार मैंने खुद देखा है की हम कहते कुछ है और सुननेवाला उसे कुछ और समझ लेता है. मजाक मजाक होता है आम क्या और खास क्या. मजाक करने से पहले उसके भावनाओं को आपको खुद समझना चाहिए ताकि जिससे आप मजाक कर रहे हैं वो भी उसे समझ पाए. अपने दिल से जानिए पराये दिल का हाल.

Bholu
03-03-2011, 07:37 PM
सीमाओं की कोई परिभाषा नहीं होती, आपको अपनी परिधि का निर्माण खुद करना होता है.

जहाँ तक अर्थ द्विअर्थ की बात है ये आपके कहने और सामनेवाले के समझने पर भी निर्भर करता है, कई बार मैंने खुद देखा है की हम कहते कुछ है और सुननेवाला उसे कुछ और समझ लेता है. मजाक मजाक होता है आम क्या और खास क्या. मजाक करने से पहले उसके भावनाओं को आपको खुद समझना चाहिए ताकि जिससे आप मजाक कर रहे हैं वो भी उसे समझ पाए. अपने दिल से जानिए पराये दिल का हाल.

बहुत ज्ञान रूपी बात कही आपने

VIDROHI NAYAK
03-03-2011, 08:25 PM
सीमाओं की कोई परिभाषा नहीं होती, आपको अपनी परिधि का निर्माण खुद करना होता है.

जहाँ तक अर्थ द्विअर्थ की बात है ये आपके कहने और सामनेवाले के समझने पर भी निर्भर करता है, कई बार मैंने खुद देखा है की हम कहते कुछ है और सुननेवाला उसे कुछ और समझ लेता है. मजाक मजाक होता है आम क्या और खास क्या. मजाक करने से पहले उसके भावनाओं को आपको खुद समझना चाहिए ताकि जिससे आप मजाक कर रहे हैं वो भी उसे समझ पाए. अपने दिल से जानिए पराये दिल का हाल.
समस्या तो यही आती है जब हम खुद अपनी परिधि का निर्माण अपने हिसाब से करते हैं... ये तो वही बात हुई की जिसने जितना आपने आप को बांधना चाहा उतना बाँध लिया...अब इससे फरक क्या पड़ता है की आपकी सीमायें क्या हैं ! प्रश्न तो सीमाओं का है इस का नहीं की सीमाए कौन बनाये ! इसी कारण तो मतभेद है , एकरूपता नहीं है, सबकी अपने अपने हिसाब से आपन अपनी सीमायें होती है जसिके बाहर वो नहीं जा सकता परन्तु क्या ज़रुरी है की उसका मानक औरो के मानक से मेल ही खायेगा?
हाँ अगर यह परिधि बाह्य है यानी दूसरों से संबंधो के बारे में है तो मै पूर्णतः सहमत हूँ आपकी बात से !

VIDROHI NAYAK
03-03-2011, 08:49 PM
एक और प्रश्न -
इच्छा मृत्यु का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है| मुंबई के एक अस्पताल में 64 वर्षीया अरुणा करीब 38 साल से जिंदा लाश की तरह जिंदगी जी रही हैं| उनका पूरा शरीर निष्क्रिय और दिमाग मृत हो चूका है| ज़ाहिर है हर बार की तरह इस बार भी कोर्ट या तो अपील ठुकरा देगी या फाइल कम से कम इतने टाइम के लिए दबा दी जाएगी की पीडिता खुद ही मर जाए| इस सब से हमारी माहमई न्यायिक व्यवस्था के संवेदनहीन होने का पता चलता है!
पता नहीं क्यों हमारे शीर्ष के लोग कोई भी कठोर फैसला लेने से क्यों भागते हैं? मुद्दा कोई भी हो रास्ते हमेशा वो ऐसा सोचते हैं जो उन्हें पूर्णतः उत्तरदाई न बनाये ! आज ही मैंने उस बुज़ुर्ग की तस्वीर देखि ! तस्वीर तो कहीं से बयां नहीं करती उन्हें इच्छा म्रत्यु न दी जाए, जबकि कई देशो में ये कानूनन वैद्य भी है !
हम बड़े गर्व से कहते हैं की विश्व में सबसे बड़ा लोक तंत्र हमारे देश का है! परन्तु कानून के उसी घिसे पिटे रवैये का क्या? तो फिर ऐसे स्थिति में किसी नए कानून के लिए बहस क्यों नहीं? क्या आज़ादी के बाद इन कानूनों में परिवर्तन की आव्यशकता नहीं? कई कानून तो सिर्फ रीढ़ का बोझ हैं , परन्तु समस्या तो यह है न की व्यक्ति सिर्फ व्यक्तिगत लाभ के लिए सोच रहा है और वो भी ऐसे देश में जहाँ संवेदनाओं पर धड़कने चलती हैं !
क्या अब ये ज़रुरी नहीं?

VIDROHI NAYAK
04-03-2011, 07:21 PM
कहीं कानून का दुरूपयोग न हो इसलिए हम नए कानून नहीं बनायेंगे लेकिन उन लोगों का क्या जो खुद पर दया दिखाए जाने के लिए वर्षो से भीख मांग रहे हैं | यहाँ गेंहू के साथ घुन भी पिस रहा है|क्या ये ज़रुरी है की इस डर से कोई कार्य ही न किया जाए? क्या पुराने कानूनों का दुरूपयोग नहीं होता? मुझे तो लगता है की बनाने वालो ने खुद का ज्यादा ध्यान दिया ! आज कानून डर नहीं लोगो की ताकत है...! देखें कौन क्या कर सकता है !

Bholu
04-03-2011, 11:57 PM
बाल - बिवाह सही है या गलत

ndhebar
05-03-2011, 08:56 AM
कहीं कानून का दुरूपयोग न हो इसलिए हम नए कानून नहीं बनायेंगे लेकिन उन लोगों का क्या जो खुद पर दया दिखाए जाने के लिए वर्षो से भीख मांग रहे हैं | यहाँ गेंहू के साथ घुन भी पिस रहा है|क्या ये ज़रुरी है की इस डर से कोई कार्य ही न किया जाए? क्या पुराने कानूनों का दुरूपयोग नहीं होता? मुझे तो लगता है की बनाने वालो ने खुद का ज्यादा ध्यान दिया ! आज कानून डर नहीं लोगो की ताकत है...! देखें कौन क्या कर सकता है !

कोई कुछ नहीं कर सकता, सभी अपने अपने सामर्थ्य का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करने में लगे हैं .

ndhebar
05-03-2011, 08:57 AM
बाल - बिवाह सही है या गलत
सर्वथा गलत है.

senior
05-03-2011, 07:50 PM
and your views about early marriage ie. girl at 18 and boy at 21

ndhebar
05-03-2011, 07:54 PM
and your views about early marriage ie. Girl at 18 and boy at 21
हरेक कार्य के लिए एक उचित समय होता है और वो उसी समय शोभा देता है

Ranveer
05-03-2011, 09:27 PM
बल विवाह के सही होने का कोई औचित्य ही नहीं दिखता ....कारण.....
१.शारीरिक रूप से विवाह की जो उम्र निर्धरित की गयी है वो वैज्ञानिक भी है .
२.जनसख्या की समस्या बढ़ जायेगी
३.भावी पीढ़ी दुर्बल हो सकती है

VIDROHI NAYAK
05-03-2011, 10:11 PM
बल विवाह के सही होने का कोई औचित्य ही नहीं दिखता ....कारण.....
१.शारीरिक रूप से विवाह की जो उम्र निर्धरित की गयी है वो वैज्ञानिक भी है .
२.जनसख्या की समस्या बढ़ जायेगी
३.भावी पीढ़ी दुर्बल हो सकती है
इसके साथ साथ मानसिक मजबूती भी आवश्यक है ! क्योंकि रिश्ते बनाना तो आसान है परन्तु निभाना अत्यंत कठिन ! इतनी उम्र में गंभीरता नहीं आ पाती है !

Bholu
07-03-2011, 12:06 PM
इसके साथ साथ मानसिक मजबूती भी आवश्यक है ! क्योंकि रिश्ते बनाना तो आसान है परन्तु निभाना अत्यंत कठिन ! इतनी उम्र में गंभीरता नहीं आ पाती है !

ये सबाल था उन पिछडी सोच के व्यक्तियो के लिये जो ये पाप करते है

VIDROHI NAYAK
07-03-2011, 12:15 PM
ये सबाल था उन पिछडी सोच के व्यक्तियो के लिये जो ये पाप करते है
तो क्या हम सब ने उत्तर देकर गलत किया है भोलू जी ?

Bholu
07-03-2011, 12:56 PM
तो क्या हम सब ने उत्तर देकर गलत किया है भोलू जी ?

क्या आप यहाँ बैस के माध्यम से आते है
मैने सबाल पूछा जबाव मिल गया उस जबाव को मैने ये दरसाया की ये हमारे समाज के लिये एक शाराफ है और आप कह रहे है हमने गलत किया
पहले सोचो बाद मे लिखो और प्रबिष्टि या बढाने के लिये गलत प्रबिष्टि न बढाये मै भोलू का भाई अन्शू हूँ मुझे गलत समझना आता है
मै भी एक फोरम का बिशिष्ट सदस्य हूँ

ndhebar
07-03-2011, 01:23 PM
क्या आप यहाँ बैस के माध्यम से आते है
मैने सबाल पूछा जबाव मिल गया उस जबाव को मैने ये दरसाया की ये हमारे समाज के लिये एक शाराफ है और आप कह रहे है हमने गलत किया
पहले सोचो बाद मे लिखो और प्रबिष्टि या बढाने के लिये गलत प्रबिष्टि न बढाये मै भोलू का भाई अन्शू हूँ मुझे गलत समझना आता है
मै भी एक फोरम का बिशिष्ट सदस्य हूँ
फोरम पर सवाल किसी भी विशेष व्यक्ति के लिए नहीं होता
सभी सदस्य अपने अपने विवेक अनुसार उतर देने के लिए स्वतंत्र हैं
अंशु जी किसी भी दुसरे सदस्य को कोई बात बोलने से पहले सोच लें और यथा संभव भाषा को शालीन रखने का प्रयास करें

Bholu
07-03-2011, 01:55 PM
फोरम पर सवाल किसी भी विशेष व्यक्ति के लिए नहीं होता
सभी सदस्य अपने अपने विवेक अनुसार उतर देने के लिए स्वतंत्र हैं
अंशु जी किसी भी दुसरे सदस्य को कोई बात बोलने से पहले सोच लें और यथा संभव भाषा को शालीन रखने का प्रयास करें


आप जैसे सदस्य से समझने उम्मीद लगा के बैठा था आपने सत्य कह जबाब तो मनुष्य अपने बिवेकअनुसार ही देगा
खैर मेरी ये आखिरी प्रबिष्ट थी आपसे मिलकर खुशी हुई
शुक्रिया
अन्शू

ndhebar
07-03-2011, 01:59 PM
आप जैसे सदस्य से समझने उम्मीद लगा के बैठा था आपने सत्य कह जबाब तो मनुष्य अपने बिवेकअनुसार ही देगा
खैर मेरी ये आखिरी प्रबिष्ट थी आपसे मिलकर खुशी हुई
शुक्रिया
अन्शू
समझने और समझाने के लिए भाषा का संतुलन बहुत आवश्यक है
आप क्या लिखना चाहते है और क्या लिखते है, इसका निरिक्षण अगर आप खुद कर लें तो कुछ समझने की जरूरत नहीं रहेगी
धन्यवाद

VIDROHI NAYAK
07-03-2011, 04:06 PM
क्या आप यहाँ बैस के माध्यम से आते है
मैने सबाल पूछा जबाव मिल गया उस जबाव को मैने ये दरसाया की ये हमारे समाज के लिये एक शाराफ है और आप कह रहे है हमने गलत किया
पहले सोचो बाद मे लिखो और प्रबिष्टि या बढाने के लिये गलत प्रबिष्टि न बढाये मै भोलू का भाई अन्शू हूँ मुझे गलत समझना आता है
मै भी एक फोरम का बिशिष्ट सदस्य हूँ
कभी कभी आप जैसे लोगो की वजह से ह्रदय इतना दुखी हो जाता है की एक दम से बुरे ख्यालात मन में आते हैं ! मै भी कभी यहाँ नया था पर आज तक किसी ने ऐसी अशिष्टता नहीं की ! इतना स्नेह मिलता है यहाँ पर की चाह कर भी हम इस फोरम को नहीं छोड़ सकते! दूसरी बात मेरी प्रविष्टियो की संख्या देखिये अगर प्रविष्टि बढ़ाने का ही इरादा होता तो आज मै कम से कम कर्मठ सदस्य तो हो ही गया होता ! काश आप समझदारी से इस फोरम पर शुरुवात करते ! खैर ये जानकार वास्तव में अत्यंत प्रसन्नता हुई की आप की आखिरी प्रविष्टि निशांत जी को थी !
धन्यवाद

Bond007
07-03-2011, 04:55 PM
कभी कभी आप जैसे लोगो की वजह से ह्रदय इतना दुखी हो जाता है की एक दम से बुरे ख्यालात मन में आते हैं ! मै भी कभी यहाँ नया था पर आज तक किसी ने ऐसी अशिष्टता नहीं की ! इतना स्नेह मिलता है यहाँ पर की चाह कर भी हम इस फोरम को नहीं छोड़ सकते! दूसरी बात मेरी प्रविष्टियो की संख्या देखिये अगर प्रविष्टि बढ़ाने का ही इरादा होता तो आज मै कम से कम कर्मठ सदस्य तो हो ही गया होता ! काश आप समझदारी से इस फोरम पर शुरुवात करते ! खैर ये जानकार वास्तव में अत्यंत प्रसन्नता हुई की आप की आखिरी प्रविष्टि निशांत जी को थी !
धन्यवाद

विद्रोही जी! आप दुखी न हों| कुछ लोग दुसरे फोरम से कुछ समय के लिए यहां आकर अव्यवस्था फैलाने की कोशिश करते हैं, जो दुसरे फोरम का हवाला देते हुए कटु भाषा का प्रयोग करते हैं| अन्यथा कोई भी छोटा या बड़ा सदस्य किसी का भूलकर भी अनादर नहीं करना चाहता|

ये भोलू जी के भाई थे, जो उनकी आईडी का इस्तेमाल करके आ रहे थे| अंत में ऐसे में यही कहना ठीक होगा की संयम बहुत जरूरी है| :)

Bholu
07-03-2011, 05:17 PM
नमस्कार मित्रो आपका भोलू हाजिर है कृपा चौपाल पर मिले

ndhebar
08-03-2011, 11:38 AM
सूत्रधार से निवेदन है की सूत्र को आगे बढाया जाय

Ranveer
08-03-2011, 09:40 PM
ये सबाल था उन पिछडी सोच के व्यक्तियो के लिये जो ये पाप करते है

सवाल के साथ कंडीसन भी लगा देते मित्र :giggle::giggle:

Bholu
09-03-2011, 01:32 PM
सवाल के साथ कंडीसन भी लगा देते मित्र :giggle::giggle:

मित्र सबाल का मतलब है हमारे भारत मे शिक्षित होने के बाद भी देश मे बाल विबाह कही न कही होता है बता दू सबाल रखा गया था उन लोगो को एहसास कराने के लिये की इतने सदस्यो के मतो के साथ की बाल बिवाह पाप है हाँ इसको लिखने का तरीका स्पष्टता पूर्वक नही हुआ लेकिन आप बताये हमे बाल बिवाह के उत्तर मांगा है आप जैसे अच्छे मित्रो से भेद भाव करना नही चाहते है
निशांत जी
बोन्ड जी
बिनायक जी
आप तीनो की आत्मा को बहुत तकलीफ पँहुची है उसके लिये मे क्षमा प्रार्थी हूँ
आप मुझे दण्ड दे आप का दोषी भोलू:bigsorry:

Bond007
09-03-2011, 04:01 PM
निशांत जी
बोन्ड जी
बिनायक जी
आप तीनो की आत्मा को बहुत तकलीफ पँहुची है उसके लिये मे क्षमा प्रार्थी हूँ
आप मुझे दण्ड दे आप का दोषी भोलू:bigsorry:

चलो भाई! अब इस बहस को बंद भी करो| छोटी मोटी गलतियां होती रहती हैं, नजर अंदाज करना सीखें| हम किसी से भी नाराज नहीं हैं|

अब इस बारे में और कोई चर्चा नहीं :offtopic: , बस आगे से ध्यान रखना|:)

सूत्र को आगे गति दें| धन्यवाद| :cheers:

Bholu
09-03-2011, 06:59 PM
धन्यवाद बोन्ड जी

ndhebar
10-03-2011, 11:47 AM
चलो भाई! अब इस बहस को बंद भी करो| छोटी मोटी गलतियां होती रहती हैं, नजर अंदाज करना सीखें| हम किसी से भी नाराज नहीं हैं|

अब इस बारे में और कोई चर्चा नहीं :offtopic: , बस आगे से ध्यान रखना|:)

सूत्र को आगे गति दें| धन्यवाद| :cheers:


:good::good::good::good:

VIDROHI NAYAK
13-03-2011, 08:47 PM
एक और प्रश्न है..
कुछ चीजे हामरी सोच और समझ से परे होती हैं , अगर थोड़ी भी समझ में आयें तो हम उन पर अत्तु विश्वास करने लगते हैं और अगर नहीं तो शंका ! जैसे की भारत के हिंदू समाज के ज्योतिरविज्ञान, नक्षत्र गणना आदि ! समय दर समय ये पुरानी होती गई और हमारा अविश्वास नया ! वस्तुतः अगर हम इनकी गहराई में जाएँ तो हमें इनके न होने के तर्क भी मिलते हैं ! अब मेरा प्रश्न यह है की हिंदू संस्कृति के छोडकर के संस्कृतियो में इनको मान्यता नहीं दी जाती..परन्तु फिर भी वहां के लोग सफल होते हैं, खुशहाल जीवन जीते हैं ! ऐसे में क्या ये आध्यात्मिक विज्ञान भी भेदभाव करता है? इसके लिए भी संस्कृति, धर्म महत्त्व रखता है ? अगर हाँ तो क्यों?

ndhebar
13-03-2011, 09:50 PM
कोई भेदभाव नहीं करता है
जहाँ तक मेरी जानकारी है यह सभी धर्मों में कमोवेश व्याप्त है
अंतर बस यही है की हमारे यहाँ कुछ ज्यादा है
मेरी नजर में इसका सबसे बड़ा कारन है अशिक्षा, जैसे जैसे लोग शिक्षित होते गए उनका विज्ञानं में विश्वास ज्यादा होता गया वनिस्पत ज्योतिष नक्षत्र के

Kumar Anil
13-03-2011, 09:53 PM
एक और प्रश्न है..
कुछ चीजे हामरी सोच और समझ से परे होती हैं , अगर थोड़ी भी समझ में आयें तो हम उन पर अत्तु विश्वास करने लगते हैं और अगर नहीं तो शंका ! जैसे की भारत के हिंदू समाज के ज्योतिरविज्ञान, नक्षत्र गणना आदि ! समय दर समय ये पुरानी होती गई और हमारा अविश्वास नया ! वस्तुतः अगर हम इनकी गहराई में जाएँ तो हमें इनके न होने के तर्क भी मिलते हैं ! अब मेरा प्रश्न यह है की हिंदू संस्कृति के छोडकर के संस्कृतियो में इनको मान्यता नहीं दी जाती..परन्तु फिर भी वहां के लोग सफल होते हैं, खुशहाल जीवन जीते हैं ! ऐसे में क्या ये आध्यात्मिक विज्ञान भी भेदभाव करता है? इसके लिए भी संस्कृति, धर्म महत्त्व रखता है ? अगर हाँ तो क्यों?

विद्रोही जी , आपका प्रश्न स्पष्ट नहीँ हो पा रहा है । सफलता और ख़ुशी का ज्योतिर्विज्ञान और नक्षत्रविज्ञान से भला क्या रिश्ता ? जहाँ तक मेरी जानकारी है हिन्दू संस्कृति से इतर अन्य संस्कृतियोँ मेँ भी ज्योतिर्विज्ञान को मान्यता प्राप्त है । सफलता और ख़ुशी व्यक्तिपरक हैँ न कि संस्कृतिपरक । हर संस्कृति मेँ सफल और ख़ुशहाल लोग होते हैँ । ख़ुशी हमारे भीतर छिपी होती है । हम जितना सरल , सहज होते हैँ , ख़ुशियाँ उतनी ज़्यादा होती हैँ और हमारी संस्कृति सनातन काल से ही सरल और ग्राही रही है ।

VIDROHI NAYAK
13-03-2011, 10:00 PM
विद्रोही जी , आपका प्रश्न स्पष्ट नहीँ हो पा रहा है । सफलता और ख़ुशी का ज्योतिर्विज्ञान और नक्षत्रविज्ञान से भला क्या रिश्ता ? जहाँ तक मेरी जानकारी है हिन्दू संस्कृति से इतर अन्य संस्कृतियोँ मेँ भी ज्योतिर्विज्ञान को मान्यता प्राप्त है । सफलता और ख़ुशी व्यक्तिपरक हैँ न कि संस्कृतिपरक । हर संस्कृति मेँ सफल और ख़ुशहाल लोग होते हैँ । ख़ुशी हमारे भीतर छिपी होती है । हम जितना सरल , सहज होते हैँ , ख़ुशियाँ उतनी ज़्यादा होती हैँ और हमारी संस्कृति सनातन काल से ही सरल और ग्राही रही है ।
चलिए थोडा और स्पष्ट करते हैं ! दो टूक शब्दों में ...जब इन सब चीजों की हर धर्म को आव्यशकता नहीं पड़ती तो हिंदू धर्म में इतना क्यों ?

VIDROHI NAYAK
13-03-2011, 10:02 PM
कोई भेदभाव नहीं करता है
जहाँ तक मेरी जानकारी है यह सभी धर्मों में कमोवेश व्याप्त है
अंतर बस यही है की हमारे यहाँ कुछ ज्यादा है
मेरी नजर में इसका सबसे बड़ा कारन है अशिक्षा, जैसे जैसे लोग शिक्षित होते गए उनका विज्ञानं में विश्वास ज्यादा होता गया वनिस्पत ज्योतिष नक्षत्र के
निशांत जी अशिक्षित तो सभी धर्मो के लोग लगभग सामान रूप से ही रहें हैं ऐसे में सिर्फ हिंदू धर्म पर इसका व्यापक असर क्यों?

ndhebar
13-03-2011, 10:07 PM
चलिए थोडा और स्पष्ट करते हैं ! दो टूक शब्दों में ...जब इन सब चीजों की हर धर्म को आव्यशकता नहीं पड़ती तो हिंदू धर्म में इतना क्यों ?

हिन्दू धर्म को भी आव्यशकता नहीं पड़ती है भाई

ndhebar
13-03-2011, 10:09 PM
निशांत जी अशिक्षित तो सभी धर्मो के लोग लगभग सामान रूप से ही रहें हैं ऐसे में सिर्फ हिंदू धर्म पर इसका व्यापक असर क्यों?
जिस भी धर्म के लोग अशिक्षित है उन पर समान रूप से इनका उतना ही असर है जितना यहाँ
भले उनको आपने देखा नहीं है और यहाँ के हालात आप रोज देखते हैं

VIDROHI NAYAK
13-03-2011, 10:18 PM
हिन्दू धर्म को भी आव्यशकता नहीं पड़ती है भाई
तब फिर नाहक ही इतने रीतिरिवाज क्यों?

Kumar Anil
13-03-2011, 10:28 PM
निशांत जी अशिक्षित तो सभी धर्मो के लोग लगभग सामान रूप से ही रहें हैं ऐसे में सिर्फ हिंदू धर्म पर इसका व्यापक असर क्यों?

मेरे विचार मेँ आप पाश्चात्य संस्कृति से तुलना कर रहे हैँ और हमारी संस्कृति , हमारा हिन्दू धर्म यानि सनातन धर्म उसकी तुलना मेँ अधिक प्राचीन है और जब कोई नया धर्म या संस्कृति अस्तित्व मेँ आती है तो वह निश्चित रूप से परिष्कृत , परिमार्जित होगी । वैसे अशिक्षा की दर तुलनात्मक रूप से हमारे यहाँ ज़्यादा है ।

VIDROHI NAYAK
13-03-2011, 10:50 PM
मेरे विचार मेँ आप पाश्चात्य संस्कृति से तुलना कर रहे हैँ और हमारी संस्कृति , हमारा हिन्दू धर्म यानि सनातन धर्म उसकी तुलना मेँ अधिक प्राचीन है और जब कोई नया धर्म या संस्कृति अस्तित्व मेँ आती है तो वह निश्चित रूप से परिष्कृत , परिमार्जित होगी । वैसे अशिक्षा की दर तुलनात्मक रूप से हमारे यहाँ ज़्यादा है ।
यही तो प्रश्न है क्या पाश्चत्य संस्कृति को इन चीजों की ज़रूरत नहीं पड़ती? अगर शिक्षा इसके विकसित होने का सबसे प्रमुख कारण है तो क्या हमें शिक्षित हो जाने पर इन चीजों को त्यागना चाहिए?

Kumar Anil
16-03-2011, 05:08 PM
तब फिर नाहक ही इतने रीतिरिवाज क्यों?

विद्रोही जी ,
बात केवल हिन्दू धर्म की नहीँ है । उसमेँ भी मतान्तर हैँ । जैसे जैसे नये विचार आये , शाखायेँ बनीँ और नये रिवाज़ भी । परन्तु वृक्ष एक ही रहा । हर शाखा की जड़े एक ही रही , रसद हमसे ही पूरी हुई । सबको एक साथ जोड़कर देखने से रिवाज़ भी बढ़े हुये लगे और पूरी साँख्यिकी गड़बड़ हो गयी । रीति रिवाजोँ की पृष्ठभूमि मेँ भी मनोरंजन निहित होता था । अनेक रिवाज़ प्रतीकात्मक हुआ करते थे और हैँ । कुछ हमारा जनमानस धर्मभीरु और अशिक्षित था । शायद तभी हमारे धर्मगुरुओँ ने धार्मिक रीतियोँ के रूप मेँ उसे स्थापित कर डाला जो कालान्तर मेँ कर्मकाण्ड के रूप मेँ सड़ांध पैदा करने लगा । लेकिन स्मरण रहे कि इस कुकृत्य मेँ कतिपय लोगोँ के स्वार्थ निहित थे । धर्म के भीतर भी कुछ रिवाज़ स्थान विशेष के अनुरूप होते हैँ और कुछ तमाम जातियोँ के । यह आवश्यक नहीँ कि गोला गोकर्णनाथ मेँ जो रीति रिवाज है उसे दक्षिणभारत का हिन्दू अनुयायी भी सम्मान करता हो । शिवरात्रि पर उत्तर भारत का हिन्दू निराहार रहता है तो काठमाण्डू का हिन्दू बलि चढ़ाता है । नवरात्र पर बंगाली हिन्दू मछली को शुभ मानते हुये भक्षण करता है और आप उसकी कल्पना भी नहीँ कर सकते । विवाह के पूर्व के रीति रिवाज़ महिलाओँ के लिये बतौर मनोरंजन हुआ करते थे जिसे हम टिटिम्मा समझते हैँ । जैसे जैसे हम शिक्षित हुये , विकसित हुये , उन रिवाज़ोँ मेँ भी कमी आयी । दुःख की बेला मेँ बाल मुँडवाने का रिवाज़ प्रतीकात्मक होता है । जब एक ही धर्म मेँ , एक ही राष्ट्र के भीतर इतनी विषमता है तो सात समन्दर पार अपेक्षाकृत नये धर्म और संस्कृति की भिन्नता पर भला कैसी हैरानगी । दूर क्योँ जाते हैँ अपने इर्द गिर्द मुस्लिम मित्रोँ के धर्म मेँ झाँककर देखिये । क्या उनके यहाँ रीति रिवाज़ नहीँ हैँ ?

VIDROHI NAYAK
20-03-2011, 10:08 PM
विद्रोही जी ,
बात केवल हिन्दू धर्म की नहीँ है । उसमेँ भी मतान्तर हैँ । जैसे जैसे नये विचार आये , शाखायेँ बनीँ और नये रिवाज़ भी । परन्तु वृक्ष एक ही रहा । हर शाखा की जड़े एक ही रही , रसद हमसे ही पूरी हुई........ .................?
धन्यवाद दादा आपके जवाब ने काफी संतुष्टि पहुंचाई !

VIDROHI NAYAK
20-03-2011, 10:08 PM
एक प्रश्न और है..
क्या प्रेम ईर्षा का पूरक है ? या फिर ये अनुक्रमुनुपाती है ? अथवा वित्युक्रमानुपाती ? क्या सम्बन्ध है इनका आपस में ?

Bholu
23-03-2011, 02:50 PM
अपनी पत्नी से हर बात पर झूठ बोलना सही है या गलत

Ranveer
23-03-2011, 10:21 PM
मुझे ये सवाल बहुत कठिन लग रहा है
फिर भी जवाब देने की कोशिश करता हूँ ..
प्रेम और इर्ष्या पूरक नहीं हो सकता क्योंकि प्रेम का भाव इर्ष्या के बिना संभव है /
अनुक्रमानुपाती नहीं हो सकता है क्योंकि प्रेम के बढ़ने पर इर्ष्या नहीं बढती /
व्युत्क्रमानुपाती थोडा थोडा हो सकता है क्योंकि इर्ष्या प्रेम को घटा सकता है और प्रेम इर्ष्या को /
वैसे मै ज्यादा सोच नहीं पा रहा हूँ इस विषय को ....

Bholu
23-03-2011, 10:31 PM
मुझे ये सवाल बहुत कठिन लग रहा है
फिर भी जवाब देने की कोशिश करता हूँ ..
प्रेम और इर्ष्या पूरक नहीं हो सकता क्योंकि प्रेम का भाव इर्ष्या के बिना संभव है /
अनुक्रमानुपाती नहीं हो सकता है क्योंकि प्रेम के बढ़ने पर इर्ष्या नहीं बढती /
व्युत्क्रमानुपाती थोडा थोडा हो सकता है क्योंकि इर्ष्या प्रेम को घटा सकता है और प्रेम इर्ष्या को /
वैसे मै ज्यादा सोच नहीं पा रहा हूँ इस विषय को ....

अरे रनबीर भाईया ये सबाल आपके लिये नही था
आपके लिये तो सबाल आर्यभट्ट और आइंस्टीन खोज रहे है

Ranveer
24-03-2011, 09:39 AM
अरे रनबीर भाईया ये सबाल आपके लिये नही था
आपके लिये तो सबाल आर्यभट्ट और आइंस्टीन खोज रहे है

......????.....:iamconfused:

Bholu
24-03-2011, 10:59 AM
......????.....:iamconfused:

पहले करते हो फिर होते हो

Sikandar_Khan
24-03-2011, 11:37 AM
आप सभी के लिए मेरा प्रश्न
आग मे जल जाने से क्या होता है ?

arvind
24-03-2011, 12:45 PM
आप सभी के लिए मेरा प्रश्न
आग मे जल जाने से क्या होता है ?
आग मे "जल" जाने से आग "बुझ" जाती है - बुझ गए ना?

Bholu
24-03-2011, 01:00 PM
आप सभी के लिए मेरा प्रश्न
आग मे जल जाने से क्या होता है ?

जलने बाले का धुआ निकल जाता है

Ranveer
24-03-2011, 01:34 PM
अरे रनबीर भाईया ये सबाल आपके लिये नही था
आपके लिये तो सबाल आर्यभट्ट और आइंस्टीन खोज रहे है

पहले करते हो फिर होते हो

श्रीमान आप लड़ने के मूड में रहतें हैं क्या ?
निरर्थक प्रविष्टियाँ मुझे करनी नहीं आती ..
कृपया संयम बरतें ...

Sikandar_Khan
24-03-2011, 01:50 PM
श्रीमान आप लड़ने के मूड में रहतें हैं क्या ?
निरर्थक प्रविष्टियाँ मुझे करनी नहीं आती ..
कृपया संयम बरतें ...

सही कहा आपने व्यर्थ की प्रविष्टियां करने से अच्छा है कुछ मूल्यवान प्रविष्टियां करी जाएं

Bholu
24-03-2011, 02:14 PM
श्रीमान आप लड़ने के मूड में रहतें हैं क्या ?
निरर्थक प्रविष्टियाँ मुझे करनी नहीं आती ..
कृपया संयम बरतें ...

जनाब आपसे लडके मुझे क्या मिलगा
आपका जबाब समझ मे नही आया
और मै मजाक मे लिखा था मुझे नही मालूम था आप इतने भाबुक इंसान है सिकन्दर साहब अपनी थैक्स बचा कर रखिये

Sikandar_Khan
24-03-2011, 02:29 PM
सिकन्दर साहब अपनी थैक्स बचा कर रखिये
भोलू जी
थैँक्स बहुत है चिँता न करेँ

Ranveer
24-03-2011, 03:16 PM
कोई बात नहीं भोलू जी .....कूल ल ल ...:D
वैसे मेरा जवाब तो साधारण सा है .मैंने पूरक का अर्थ '' inter depend "...अनुक्रमानुपाती का " propotional " और व्युत्क्रमानुपाती का " anti -propotional " समझकर जवाब दिया था
हो सकता है की मैंने जो अर्थ समझा है वो सत्य न हो...:kisstogether:

VIDROHI NAYAK
24-03-2011, 03:20 PM
आग मे "जल" जाने से आग "बुझ" जाती है - बुझ गए ना?
जलन ही होती है सरकार ! इससे ज्यादा मज़ा आता हो तो मुझे अनुभव नहीं !

Ranveer
26-03-2011, 07:06 PM
मेरा एक सवाल {शंशोधित कर }...............कुत्ता जब अपने से ताकतवर या संख्या में अधिक कुत्तों से घिर जाता है तो दुम क्यों दबा लेता है?

Bholu
28-03-2011, 05:17 AM
दुनिया मे मस्तिष्क को छोड कर सबसे तेज क्या है

amit_tiwari
28-03-2011, 07:05 AM
दुनिया मे मस्तिष्क को छोड कर सबसे तेज क्या है

AJAX. It refreshes the page before you even think about hitting F5 on your keyboard lol.

Atlest arvind bhai and Abhishek ji will say its right haha ???

ndhebar
07-04-2011, 03:06 PM
मेरा एक सवाल {शंशोधित कर }...............कुत्ता जब अपने से ताकतवर या संख्या में अधिक कुत्तों से घिर जाता है तो दुम क्यों दबा लेता है?

कुत्ता ही नहीं हर समझदार प्राणी यही करेगा

VIDROHI NAYAK
13-04-2011, 03:22 PM
कल पूजन एवं भोज के लिए कन्याएं ढूंढे नहीं मिल रही थी , शायद तब उनकी एहमियत का एहसास हुआ हो ! जिनकी कन्याएं थीं उनका सीना गर्व से फूला हुआ था ! पर सिर्फ कल ही क्यों? क्या रोज कन्याओं का पूजन नहीं हो सकता ? क्या रोज गौरान्वित नहीं हो सकते? यह तो सिर्फ एक छोटी सी बात है, हमें उनकी एहमियत समझनी होगी , रोज सोचना होगा की कन्या पूजन करना है ! रोज उनके सम्मान को लेकर गंभीर होना पड़ेगा ! सिर्फ एक दिन ही नहीं !

VIDROHI NAYAK
13-04-2011, 03:29 PM
कुत्ता ही नहीं हर समझदार प्राणी यही करेगा
वास्तव में शायद इसका एक जैविक पहलु भी है ! कुत्ता डर कर भागने और ज्यादा आक्रामक स्थिति में दिखने के लिए अपनी सारी उर्जा एक जगह केंद्रित करता है और थोडा सा सिकुड जाता है ! चूँकि यह क्रिया हमें उसकी पूँछ में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है अतः हमें सिर्फ यही समझ में आता है, हालांकि अक्सर उसे मौका नहीं मिल पाता !

VIDROHI NAYAK
13-04-2011, 03:30 PM
ajax. It refreshes the page before you even think about hitting f5 on your keyboard lol.

Atlest arvind bhai and abhishek ji will say its right haha ???
शायद ' मन '

Nitikesh
13-04-2011, 04:50 PM
आज मैंने एक बात सुनी/
जो मैं आपके सामने रख रहा हूँ/
आशा करता हूँ की आप भी अपने विचर रखेंगें/


"किसी ने कहा ही हिंदू घर्म का कोई इतिहास नहीं है/अत: तकनिकी रूप से हिंदू या सनातन कोई कोई घर्म नहीं है/"
यहाँ पर इतिहास से मेरा तात्पर्य हिंदी धर्म के उद्भव या फिर इस धर्म की शुरुवात किसने की से है/
आप इस बारे में क्या सोचते है?

ndhebar
13-04-2011, 08:46 PM
आज मैंने एक बात सुनी/
जो मैं आपके सामने रख रहा हूँ/
आशा करता हूँ की आप भी अपने विचर रखेंगें/


"किसी ने कहा ही हिंदू घर्म का कोई इतिहास नहीं है/अत: तकनिकी रूप से हिंदू या सनातन कोई कोई घर्म नहीं है/"
यहाँ पर इतिहास से मेरा तात्पर्य हिंदी धर्म के उद्भव या फिर इस धर्म की शुरुवात किसने की से है/
आप इस बारे में क्या सोचते है?

अमित ने इस विषय पर एक सूत्र बनाया था
शायद यहाँ आपको अपने सवाल का जवाल मिल जायेगा
हिन्दू धर्म - हज़ार करम ??? (http://myhindiforum.com/showthread.php?t=1352)

Ranveer
13-04-2011, 11:18 PM
आज मैंने एक बात सुनी/
जो मैं आपके सामने रख रहा हूँ/
आशा करता हूँ की आप भी अपने विचर रखेंगें/


"किसी ने कहा ही हिंदू घर्म का कोई इतिहास नहीं है/अत: तकनिकी रूप से हिंदू या सनातन कोई कोई घर्म नहीं है/"
यहाँ पर इतिहास से मेरा तात्पर्य हिंदी धर्म के उद्भव या फिर इस धर्म की शुरुवात किसने की से है/
आप इस बारे में क्या सोचते है?

जहां तक मै सोचता हूँ तो हिन्दू धर्म का उदभव धर्म के रूप में हुआ ही नहीं है
ये कई अलग अलग मत ,सम्प्रदाय ,दर्शन, उपासना की परम्परा आदि से मिलकर बना एक मिला जुला स्वरूप है /कदाचित ये स्वरूप समय और स्थान के साथ बदलता रहा है और बदलता रहेगा ..इसकी इसी लचीली प्रवृर्ति के कारण ये कभी ख़त्म नहीं हो पाया ..सिन्धु घाटी सभ्यता से लेकर वर्तमान तक इसमें एक महत्वपूर्ण चीज़ देखी गयी की ये निरंतर समय और परिस्तिथि के साथ खुद को सामंजस्य स्थापित करता रहा /
विश्व में नए धर्मो के आगमन से सनातन धर्म लुप्त होते गए और इस्लाम और इसाई धर्मो ने उनका उन्मूलन कर दिया पर भारत में ऐसा संभव ही नहीं हो पाया क्योंकि यहाँ हिन्दू धर्म के रूप में न होकर शुरू से एक जीवन शैली के रूप में रहा है /

अब इस स्तिथि में यह नहीं कहा जा सकता की इसका इतिहास नहीं रहा है क्योंकि इतिहास में जीवन शैली के अतिरिक्त कई ग्रंथों (वेद पुराण ,उपनिषद् ..आदि) में प्रमाण है / सबसे बड़ी चीज़ देखा जाए तो ये ग्रन्थ दो तरह के हैं -श्रुति और स्मृति / श्रुति ग्रन्थ वे थे जो सुना कर और समझा कर शिष्यों को याद कराया जाता था / / स्मृति वे थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी कहानियों के रूप में सुनाये जाते थे /

जहां तक " शुरुआत किसने की है " का सवाल है तो किसी भी सनातन धर्म की शुरुआत प्रकृति के रहस्यों की व्याख्या से होती है ..इसमें किसी एक व्यक्ति का या एक समूह का योगदान नहीं होता / आर्यों के आगमन से पूर्व ही यहाँ पशुपति की आराधना की जाती थी ..बाद में इंद्र ,वरुण ,सावित्री ,आदि का महत्त्व बढ़ा
वर्तमान में भी अनेक देवताओं की पूजा की जाती है /

लेकिन जैसा ही होता रहा है ( लगभग सभी धर्मो में ) अन्धविश्वाश और रूढ़ियाँ ज्यादा हावी हो जाती है और हिन्दू धर्म के मामले में कुछ ज्यादा ही हुआ है ...वो शायद इसीलिए की यहाँ के समाज को शुरू से ही तार्किक सोचने के लिए रोका गया ( कथित पूर्व के धार्मिक ठेकेदारों द्वारा )

MissK
14-04-2011, 01:36 PM
मेरा एक सवाल है हिंदू धर्म से सम्बंधित ही कि हिंदू धर्म में पाप-पुण्य और कर्मों की जो व्याख्या की गयी है और जिस के अनुसार हम अपने वर्तमान जन्म में कुछ भी हैं और जिस भी स्थिति का सामना कर रहे है वह पिछले जन्मों के ही कर्मों द्वारा निर्धारित होता है..उस आधार पर प्राकृतिक विपदाओं को कैसे परिभाषित क्या जा सकता है और उसके क्या कारण बताये जा सकते है. ऐसी विपदाओं में जो हजारों और लाखों लोग मरते हैं क्या वो भी उनके पूर्व जन्मो के कर्मों का ही फल होता है?

VIDROHI NAYAK
14-04-2011, 02:09 PM
मेरा एक सवाल है हिंदू धर्म से सम्बंधित ही कि हिंदू धर्म में पाप-पुण्य और कर्मों की जो व्याख्या की गयी है और जिस के अनुसार हम अपने वर्तमान जन्म में कुछ भी हैं और जिस भी स्थिति का सामना कर रहे है वह पिछले जन्मों के ही कर्मों द्वारा निर्धारित होता है..उस आधार पर प्राकृतिक विपदाओं को कैसे परिभाषित क्या जा सकता है और उसके क्या कारण बताये जा सकते है. ऐसी विपदाओं में जो हजारों और लाखों लोग मरते हैं क्या वो भी उनके पूर्व जन्मो के कर्मों का ही फल होता है?
सीधा सा एक जवाब है , हमारे पुराणों आदि के श्लोको का अर्थ भिन्न भिन्न वक्त पर भिन्न भिन्न निकला गया है , जिसका जैसा मंतव्य वैसा उसने अर्थ निकला ! बहुत विविधताएं हैं, कहीं कुछ पुन्य है तो कहीं वही पाप !कहीं चमड़े की बेल्ट मंदिर तक अंदर नहीं जा सकती तो कहीं शंकर जी का आसान शेर की खाल पर लगाया जाता है ! कहीं हमने हत्या शब्द का इस्तेमाल किया तो कहीं उसी को वध का ! उफ़ इतनी विविधताएं , अब लीजिए आपके इसी तर्क से इस बात का खंडन होता है की पूर्वजन्म के कारण वर्तमान में क्रियाएँ घटित होती है ! तर्क तो अच्छा है और अखंड भी है , जाहिर सी बात है एक दम से एक ही तरफ के हज़ारो लाखो लोगो के पूर्वजन्म के कर्म एक से तो हो ही नहीं सकते ! सच पूछो तो मानव मस्तिष्क की तर्कशक्ति ने हर बात का खंडन किया है ! अब या तो आप मष्तिष्क का इस्तेमाल ही मत कीजिए या फिर अंधविश्वास कीजिए ! फैसला आपका व्यक्तिगत है !

MissK
14-04-2011, 05:04 PM
सीधा सा एक जवाब है , हमारे पुराणों आदि के श्लोको का अर्थ भिन्न भिन्न वक्त पर भिन्न भिन्न निकला गया है , जिसका जैसा मंतव्य वैसा उसने अर्थ निकला ! बहुत विविधताएं हैं, कहीं कुछ पुन्य है तो कहीं वही पाप !कहीं चमड़े की बेल्ट मंदिर तक अंदर नहीं जा सकती तो कहीं शंकर जी का आसान शेर की खाल पर लगाया जाता है ! कहीं हमने हत्या शब्द का इस्तेमाल किया तो कहीं उसी को वध का ! उफ़ इतनी विविधताएं , अब लीजिए आपके इसी तर्क से इस बात का खंडन होता है की पूर्वजन्म के कारण वर्तमान में क्रियाएँ घटित होती है ! तर्क तो अच्छा है और अखंड भी है , जाहिर सी बात है एक दम से एक ही तरफ के हज़ारो लाखो लोगो के पूर्वजन्म के कर्म एक से तो हो ही नहीं सकते ! सच पूछो तो मानव मस्तिष्क की तर्कशक्ति ने हर बात का खंडन किया है ! अब या तो आप मष्तिष्क का इस्तेमाल ही मत कीजिए या फिर अंधविश्वास कीजिए ! फैसला आपका व्यक्तिगत है !

विद्रोही जी आपकी बातों से मैं भी इत्तेफ्फाक रखती हूँ..मुझे भी आमतौर पर यही लगता है कि इन घटनाओं को पाप-पुण्य अच्छे-बुरे कर्मों से परिभाषित करना मुश्किल है. फिर भी मैं ये जानना चाहती हूँ कि हिंदू धर्म के जानकार आखिर इसका क्या तर्क देते है? क्या यह घटनाएँ इस चक्र से परे हैं और हिंदू धर्म भी कुछ अन्य धर्मों की तरह पृथ्वी पर पापियों के बढे बोझ जैसे तर्क प्रस्तुत करता है? यहाँ पर मैं मुख्यतः हिंदू point of view जानना चाहती हूँ..

VIDROHI NAYAK
14-04-2011, 08:43 PM
विद्रोही जी आपकी बातों से मैं भी इत्तेफ्फाक रखती हूँ..मुझे भी आमतौर पर यही लगता है कि इन घटनाओं को पाप-पुण्य अच्छे-बुरे कर्मों से परिभाषित करना मुश्किल है. फिर भी मैं ये जानना चाहती हूँ कि हिंदू धर्म के जानकार आखिर इसका क्या तर्क देते है? क्या यह घटनाएँ इस चक्र से परे हैं और हिंदू धर्म भी कुछ अन्य धर्मों की तरह पृथ्वी पर पापियों के बढे बोझ जैसे तर्क प्रस्तुत करता है? यहाँ पर मैं मुख्यतः हिंदू point of view जानना चाहती हूँ..

आज अध्यात्म को छोड़ हम अधिभूत में डूबते जा रहे हैं। एक तरफ नैतिक पतन की पराकाष्ठा, अनाचार, अत्याचार, बिगाड़ बढ़ता जा रहा है, दूसरी तरफ उत्तम और दुर्लभ मनुष्य योनि (Population) बढ़ती जा रही है। किस तरह समझें इस पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को ? विज्ञान इस तथ्य की तह तक पहुंच गया है कि इस सृष्टि का आदि भी है और अंत भी है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि का प्रारम्भ एक महाविस्फोटक (Big Bang Theory) से हुआ और अंत भी इसी प्रकार होगा। फिर जन्म-मरण की अनवरत श्रंखला को कैसे सत्य माना जा सकता है ?

स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नवम समुल्लास में आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘‘पूर्व जन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।’’
इस विषय में लोगों ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न भी किए हैं, जो निम्नवत् हैं -
1. जन्म एक है या अनेक ?
2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता?
3. मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का?
4. मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है या नहीं?
5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ?
स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं :
1. जन्म अनेक हैं।
2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता।
3. मनुष्य व पश्वादि में जीव एक सा है।
4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य शरीर में आता जाता है।
5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है।
मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है :-
‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।
पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83)

भावार्थ : ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’
वेदों के पुरोधा और शोधक महर्षि दयानंद ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका के पुनर्जन्म अध्याय में पुनर्जन्म के समर्थन में ऋग्वेद मंडल-10 के दो मंत्रों के साथ अथर्ववेद व यजुर्वेद के मंत्र भी प्रस्तुत किए हैं :
1. ‘‘आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि।
धास्युर्योनि प्रथमः आ विवेशां यो वाचमनुदितां चिकेत’’।।
(अथर्व0 कां0-5, अनु0-1, मं0-2)
भाषार्थ : ‘‘जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों का धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता। जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करके स्वभावयुक्त जीवात्मा है वह पूर्व शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल, औषधि व प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर योनि अर्थात गर्भाशय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनूदित वाणी अर्थात जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जान के बोलता है, और धर्म ही में यथावत स्थित रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है और जो अधर्माचरण करता है वह अनेक नीच शरीर अथवा कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।’’
2. ‘‘द्वे सतीऽ अशृणावं पितृणामहं देवानामुत मत्र्यानाम्।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च।।’’
(यजु0 अ0-19, मं0-47)
भाषार्थ : ‘‘इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का होना। इनमें मनुष्य शरीर के तीन भेद हैं, एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विधाओं को पढ़कर विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्य का शरीर धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्य शरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिए है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने-अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्म धारण करना, पुनः शरीर का छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, बारंबार होता है।’’
यहाँ एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि कभी सृष्टि का प्रारम्भ तो अवश्य हुआ होगा, चाहेे वह करोड़ों साल पहले हुआ हो, सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य के जन्म का सैद्धान्तिक आधार क्या था ? जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि ‘‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। (7-86) आगे क्रम संख्*या 88 में लिखा है कि वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे, अन्य कोई उनके सदृश नहीं था। यहाँ सवाल यह है कि सृष्टि के आदि में पूर्व पुण्य कहाँ से आया? इस सवाल का कोई तर्कपूर्ण और न्यायसंगत जवाब स्वामी जी ने अपने ग्रंथों में कहीं नहीं लिखा।
स्वामी जी ने स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, परलोक चार शब्दों की गलत और भ्रामक व्याख्या की है। नवम समुल्लास के क्रम सं0 79 में लिखा है कि सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फंसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहलाता है। जो सांसारिक सुख है वह स्वर्ग और जो सांसारिक दुःख है वह नरक है। जबकि वैदिक धारणा और शब्दकोष के अनुसार स्वर्ग और नरक स्थान विशेष का नाम है। इसी प्रकार पुनः का अर्थ दोबारा है न कि बार-बार। जैसे पुनर्विवाह, पुनर्निर्माण वैसे ही पुनर्जन्म। चतुर्थ समुल्लास में स्वामी दयानंद ने मनुस्मृति के कुछ ‘लोकों द्वारा परलोक के सुख हेतु उपाय बताए हैं। यहाँ स्वामी जी ने परलोक और परजन्म दोनों को एक ही अर्थ में लिया है। (4-106) मनुस्मृति के जो ‘लोक उन्होंने उद्धरित किए हैं वे परलोक की सफलता पर केन्द्रित हैं न कि आवागमनीय पुनर्जन्म पर। स्वामी जी की धारणाओं और तथ्यों में प्रचुर विरोधाभास पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वेद विषयों पर स्वामी जी की जानकारी संदिग्ध थी।
मनुष्य चाहे जन्मना हिंदू हो, यहूदी हो, ईसाई हो या मुसलमान या अन्य किसी धर्म, मत व पंथ को मानने वाला हो, सबके जीवन का मूल स्रोत एक ही है। सब एक माँ-बाप की संतान हैं, सब परस्पर भाई-भाई हैं। यह तथ्य न केवल वेद और कुरआन सम्मत है बल्कि विज्ञान सम्मत भी है। इसके साथ एक सर्वमान्य तथ्य यह भी है कि मनुष्य चाहे एक हजार साल जिन्दा रहे, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। मृत्यु जीवन की अनिवार्य नियति है। इस नियति से जुड़ा है मानव जीवन का एक बड़ा अहम सवाल कि हमें मृत्युपरांत कहाँ जाना है ? मृत्युपरांत हमारा क्या होगा ? इस एक अहम सवाल से जुड़ी है हमारे जीवन की सारी आध्यात्मिकता ()Spirituality) और सर्वांग सम्पूर्णता। आइए इस अहम विषय पर एक तथ्यपरक दृष्टि डालते हैं।

जड़वादियों (Materialists) का मानना है कि यहीं आदि है और यही अंत है। (Death is end of life) ‘‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।’’ देह भस्म हो गया फिर आना-जाना कहाँ ? अनीश्वरवादी (Atheist) महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा, ‘‘भला करो, भले बनो, मृत्युपरांत क्या होगा यह प्रश्न असंगत है, अव्याकृत है।’’ हिंदूवादियों (Polytheist) का मानना है कि वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्यादि में जीव (Soul) एक सा है और कर्मानुसार यह जीव (Soul) वनस्पति योनि, पशु योनि और मनुष्य योनि में विचरण करता रहता है। जीवन-मरण की यह अनवरत श्रंखला है। रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार कुल चैरासी लाख योनियों में 27 लाख स्थावर, 9 लाख जलचर, 11 लाख पक्षी, 4 लाख जानवर और 23 लाख मानव योनियाँ हैं। हिंदू धर्मदर्शन के मनीषियों ने इस अवधारणा को आवागमनीय पुनर्जन्म का नाम दिया है।

इस अवधारणा (Cycle of Birth & Death) के संदर्भ में हिंदू धर्मदर्शन के चिंतकों का एक मजबूत तीर व तर्क है कि संसार में कोई प्राणी अंधा जन्मता है, कोई गूंगा और लंगड़ा जन्मता है। कोई प्रतिभाशाली तो कोई निपट मूर्ख जन्मता है। यहाँ कोई खूबसूरत है, कोई बदसूरत है। कोई निर्धन है तो कोई धनवान है। कोई हिंदू जन्मता है तो कोई मुसलमान जन्मता है। कोई ऊँची जात है तो कोई नीची जात है। जन्म के प्रारम्भ में ही उक्त विषमताएं पिछले जन्म का फल नहीं तो और क्या हैं ? इसी धारणा के साथ हिंदू मनीषियों की यह भी मान्यता है कि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों से मिलती है। ‘‘बड़े भाग मानुष तनु पाया’’। यहाँ हिंदू चिंतकों के उक्त दोनों तथ्यों में असंगति स्पष्ट प्रतीत होती है।

अगर यह मान लिया जाए कि यहाँ की सभी विषमताएं पूर्वकृत कर्मों का लेखा है। एक मनुष्य दूसरे को इसलिए मार रहा है कि उसने पिछले जन्म में उसे मारा है। एक मनुष्य यहाँ इसलिए जुल्म कर रहा है कि पिछले जन्म में उस पर जुल्म किया गया है। फिर तो यह एक युक्तियुक्त स्थिति है। अगर यह मान्यता सत्य है फिर तो मामला सस्ते में ही निपट जाता है। फिर तो इस विषमता को दूर करने के सारे प्रयास न केवल बेकार हैं बल्कि प्रयास करना ही बेवकूफी है। यहाँ जो हो रहा है सब कुछ तर्कसंगत और न्यायसंगत है। लूटमार, मारकाट, अनाचार, अत्याचार यदि सभी कुछ पूर्व कर्मों का फल है तो फिर न कोई पाप-पुण्य का आधार बनता है न ही सही-गलत बाकी रहता है। यहाँ यह विचारणीय है कि यदि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों से मिलती है तो फिर कोई जन्म से अंधा, बहरा, लंगड़ा और जड़बुद्धि क्यों ? दूसरा विचारणीय तथ्य है कि यदि इस जन्म की अपंगता पिछली योनि के कर्मों का फल है तो न्याय की मांग है कि दण्डित व्यक्ति को यह जानकारी होनी चाहिए कि उसने पूर्वजन्म में किस योनि में क्या पाप व दुष्कर्म किया है जिसके कारण उसे यह सजा मिली है ताकि सुधार की सम्भावना बनी रहे। अगर अपंग व्यक्ति को पूर्व योनि में किए दुष्कर्म और पापकर्म का पता नहीं है और सत्य भी यही है कि उसे कुछ पता नहीं है तो क्या आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा पूर्णतया भ्रामक और कतई मिथ्या नहीं हो जाती ?


आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का तीन तत्वः जीवन तत्व (Life), चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) के आधार पर वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि वनस्पतियों में केवल जीवन तत्व (Life) होता है, चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) नहीं होता। यदि वनस्पतियों में भी वही चेतन तत्व (Consciousness) होता जो पशु-पक्षियों में होता है, तो फिर वनस्पतियों का भक्षण भी उसी प्रकार पाप व अपराध होता जिस प्रकार तथाकथित पुनर्जन्मवादी पशु-पक्षियों का मांस खाने में मानते हैं। अब यदि जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों में भी वही चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) होता जो मनुष्य में है तो पशु-पक्षियों को मारना भी उतना ही पाप व अपराध होता जितना मनुष्यों को मारने में होता है। पेड़-पौधों और पशुओं में वह चेतन तत्व व आत्म तत्व नहीं होता जो कर्म कराता है और कर्मफल भोगने का कारण बनता है। वृक्ष-वनस्पति और पशुओं में केवल इनकमिंग सुविधा है जबकि मनुष्यों में इनकमिंग के साथ-साथ आउट गोइंग सुविधा भी है जिससे कर्म लेखा (Account of Deeds) तैयार होता है। मनुष्य इसलिए तो सर्वश्रेष्ठ प्राणी है कि परम तत्व (ळवकद्ध ने उसे विवेक (Wisdom) और विचार (Thinking) प्रदान किया है जो किसी अन्य को नहीं किया है। जहाँ जीवन है वहाँ चेतना और आत्मा का होना अनिवार्य नहीं। आत्मा (Soul), चेतना (Consciousness) और प्रज्ञा (Knowledge) वहीं है जहाँ कर्म (Right and Wrong Deeds) है। पशुओं में नींद, भूख, भय और मैथुन आदि दैहिक क्रियाएं (Physical Process)तो है मगर विवेक संबंधी क्रियाएं (Ethical Process) नहीं है। मनुष्य आत्मा (Soul) में ही ज्ञानत्व, कर्तृत्व और भौक्तृत्व ये तीनों निहित हैं। इसलिए वेद और कुरआन मनुष्य जाति के लिए है न कि पशु और वनस्पति जगत के लिए।

कीट-पतंगे और पशु पक्षी नैसर्गिक जीवन व्यतीत करते हैं। एक वृक्ष और एक पशु को यह विवेक नहीं दिया गया है कि वे इस विशाल ब्रह्मांड में अपने अस्तित्व का कारण तलाश करें। पशुओं के सामने न कोई अतीत होता है न कोई भविष्य। भय, भूख, नींद, मैथुन आदि क्रियाओं के होते हुए भी पशु एक बेफिक्र रचना (Careless Creature) है, चेतनाहीन (In a State of Stupid) कृति है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी तो मनुष्य जीवन की सामग्री मात्र है। इनकी रचना को मनुष्य योनि के पाप-पुण्य से जोड़ना नादानी की बात है।

देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक बकरी कसाई और चरवाहे में फ़र्क नहीं करती। देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक गाय मालिक और दुश्मन के खेत में अंतर नहीं करती। इससे सुस्पष्ट है कि पश्वादि में आत्मचेतना (Moral Mind) नहीं होती। विवेक (Wisdom) और विचार (Thinking) नहीं होता। जब पश्वादि में न विवेक है, न विचार है, न कोई आचार संहिता (Code of Conduct) है तो फिर कर्म और कर्मफल कैसा ? विचित्र विडंबना है कि हिंदू धर्म दर्शन ने पेड़-पौधों, पशुओं और मनुष्य को एक ही श्रेणी में रखा है। क्या यह अवधारणा तर्कसंगत और न्यायसंगत हो सकती है कि एक योनि चिंतन (Thinking Power) और चेतना (Moral Sense) रखने के बावजूद चिंतनहीन (Thoughtless)और चेतना विहीन (Unconsciousness) योनि में अपने कर्मों का फल भोगे ? कैसी अजीब धारणा है कि पाप कर्म करें मनुष्य और फल भोगे गधा और विवेकहीन वृक्ष?

यहाँ यह भी विचारणीय है कि दण्ड और पुरस्कार का सीधा संबंध विवेक, विचार और कर्म से है। दूसरी बात बिना पेशी, बिना गवाह, बिना सबूत, बिना प्रतिवादी कैसी अदालत, कैसा न्याय ? एक व्यक्ति को बिना किसी चार्जशीट के अंधा, लंगड़ा, जड़बुद्धि बना दिया जाए या कीट, कृमि, कुत्ता बना दिया जाए या पशु को मनुष्य बना दिया जाए, यह कैसा इंसाफ, कैसा कानून ? क्या इसे कोई कानून कहा जा सकता है ? न्यायसंगत और तर्कसंगत तो यह है कि फल भोगने वाले को सजा या पारितोष का एहसास हो और यह तभी सम्भव है कि जब कर्म करने वाला उसी शरीर व चेतना के साथ फल भोगे, जिस शरीर व चेतना के साथ उसने कर्म किया है।

उपर्युक्त तथ्यों और तर्कों से सिद्ध हो जाता है कि आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा एक अबौद्धिक और अवैज्ञानिक धारणा है। इस मिथ्या व कपोल-कल्पित मान्यता ने करोड़ों मनुष्यों को जीवन के मूल उद्देश्य से भटका दिया है। यह धारणा मनुष्य जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं करती। मनुष्य के सामने कोई उच्च लक्ष्य न हो, कोई दिशा न हो तो वह जाएगा कहाँ ? विचित्र विडंबना है कि जीवन है मगर कोई जीवनोद्देश्य नहीं है। बिना किसी जीवनोद्देश्य के साधना और साधन सब व्यर्थ हो जाता है। यात्रा में हमारे पास कितनी भी सुख-सुविधा, सामग्री, साधन हो, मगर यह पता न हो कि जाना कहाँ है ? हमारी दिशा, हमारी मंजिल, हमारा गंतव्य क्या है तो हम जाएंगे कहाँ ? दिशा और गंतव्य निश्चित हो तभी तो गंतव्य की दिशा की तरफ चला जा सकता है। अगर दिशा का भ्रम हो तो मनुष्य कभी सही दिशा की तरफ नहीं बढ़ सकता। एक व्यक्ति दौड़ा जा रहा है और उसे पता न हो कि किधर और कहाँ जाना है तो क्या लोग उसे बेवकूफ नहीं कहेंगे?

हमारे जीवन में भौतिक कारणों, अकारणों का बड़ा महत्व है। यहाँ किसी का विकलांग, निर्धन, रोगी अथवा स्वस्थ, सुन्दर और धनी होना पिछले कर्मों का प्रतिफल नहीं है। यह विषमता भौतिक, प्राकृतिक और सामाजिक असंतुलन का परिणाम है। कभी चेचक व पोलियों आदि बीमारियों को मनुष्य का भाग्य और पूर्वजन्म का फल समझा जाता था मगर आज वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रयासों द्वारा मनुष्य ने इन पर विजय प्राप्त कर ली है। यहाँ के परिणाम किसी पूर्वकृत योनियों के सत्कर्म या पाप कर्म के परिणाम नहीं हैं। यहाँ की विषमता को समझने के लिए हमें सृष्टिकर्ता की योजना (Creation Plan of God) को भी समझना होगा।



यह जगत एक क्रियाकलाप (Activation) है। तैयारी (Examination) है, एक दिव्य जीवन के लिए, पारलौकिक जीवन के लिए। सांसारिक अभ्युद्य मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य है पारलौकिक जीवन की सफलता। भौतिक सुख-सुविधा सामग्री केवल जरूरत मात्र है। यहाँ जब हम वह कुछ हासिल कर लेते हैं जो हम चाहते हैं, तो हमारे मरने का वक्त करीब आ चुका होता है। हम बिना किसी निर्णय, न्याय, परिणाम के यहाँ से विदा हो जाते हैं। धन, दौलत, बच्चें आदि सब यही रह जाता है। अगर हम यह मानते हैं कि जो कर्म हमने यहाँ किए हैं, उनके परिणाम स्वरूप हम जीव-जन्तु, पेड़- पौधा या मनुष्य बनकर पुनः इहलोक में आ जाएंगे तो यह एक आत्मवंचना (Self Deception) है। हमें इस धारणा की युक्ति-युक्तता पर गहन और गम्भीर चिंतन करना चाहिए। पारलौकिक जीवन की सफलता मानव जीवन का अभीष्ट (Desired) है। यही है मूल वैदिक और कुरआनी अवधारणा और साथ-साथ बौद्धिक और वैज्ञानिक भी।

(अंतरजाल से साभार , शायद इससे कुछ मदद मिले )

झटका
15-04-2011, 10:17 AM
महाराज ...!
इतना लिख दिए की पढने में समस्या हो गयी

khalid
15-04-2011, 10:46 AM
महाराज ...!
इतना लिख दिए की पढने में समस्या हो गयी

कोई बात नहीँ आप किस्तो मेँ पढ़ सकते हैँ

VIDROHI NAYAK
15-04-2011, 11:04 AM
महाराज ...!
इतना लिख दिए की पढने में समस्या हो गयी
लिखे कहाँ है भाई...थोडा कॉपी पेस्ट मारें हैं !

MissK
15-04-2011, 03:11 PM
आज अध्यात्म को छोड़ हम अधिभूत में डूबते जा रहे हैं। एक तरफ नैतिक पतन की पराकाष्ठा, अनाचार, अत्याचार, बिगाड़ बढ़ता जा रहा है, दूसरी तरफ उत्तम और दुर्लभ मनुष्य योनि (population) बढ़ती जा रही है। किस तरह समझें इस पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को ? विज्ञान इस तथ्य की तह तक पहुंच गया है कि इस सृष्टि का आदि भी है और अंत भी है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि का प्रारम्भ एक महाविस्फोटक (big bang theory) से हुआ और अंत भी इसी प्रकार होगा। फिर जन्म-मरण की अनवरत श्रंखला को कैसे सत्य माना जा सकता है ?

स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नवम समुल्लास में आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘‘पूर्व जन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।’’
इस विषय में लोगों ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न भी किए हैं, जो निम्नवत् हैं -
1. जन्म एक है या अनेक ?
2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता?
3. मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का?
4. मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है या नहीं?
5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ?
स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं :
1. जन्म अनेक हैं।
2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता।
3. मनुष्य व पश्वादि में जीव एक सा है।
4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य शरीर में आता जाता है।
5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है।
मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है :-
‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।
पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83)

भावार्थ : ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’
वेदों के पुरोधा और शोधक महर्षि दयानंद ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका के पुनर्जन्म अध्याय में पुनर्जन्म के समर्थन में ऋग्वेद मंडल-10 के दो मंत्रों के साथ अथर्ववेद व यजुर्वेद के मंत्र भी प्रस्तुत किए हैं :
1. ‘‘आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि।
धास्युर्योनि प्रथमः आ विवेशां यो वाचमनुदितां चिकेत’’।।
(अथर्व0 कां0-5, अनु0-1, मं0-2)
भाषार्थ : ‘‘जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों का धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता। जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करके स्वभावयुक्त जीवात्मा है वह पूर्व शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल, औषधि व प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर योनि अर्थात गर्भाशय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनूदित वाणी अर्थात जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जान के बोलता है, और धर्म ही में यथावत स्थित रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है और जो अधर्माचरण करता है वह अनेक नीच शरीर अथवा कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।’’
2. ‘‘द्वे सतीऽ अशृणावं पितृणामहं देवानामुत मत्र्यानाम्।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च।।’’
(यजु0 अ0-19, मं0-47)
भाषार्थ : ‘‘इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का होना। इनमें मनुष्य शरीर के तीन भेद हैं, एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विधाओं को पढ़कर विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्य का शरीर धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्य शरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिए है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने-अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्म धारण करना, पुनः शरीर का छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, बारंबार होता है।’’
यहाँ एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि कभी सृष्टि का प्रारम्भ तो अवश्य हुआ होगा, चाहेे वह करोड़ों साल पहले हुआ हो, सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य के जन्म का सैद्धान्तिक आधार क्या था ? जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि ‘‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। (7-86) आगे क्रम संख्*या 88 में लिखा है कि वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे, अन्य कोई उनके सदृश नहीं था। यहाँ सवाल यह है कि सृष्टि के आदि में पूर्व पुण्य कहाँ से आया? इस सवाल का कोई तर्कपूर्ण और न्यायसंगत जवाब स्वामी जी ने अपने ग्रंथों में कहीं नहीं लिखा।
स्वामी जी ने स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, परलोक चार शब्दों की गलत और भ्रामक व्याख्या की है। नवम समुल्लास के क्रम सं0 79 में लिखा है कि सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फंसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहलाता है। जो सांसारिक सुख है वह स्वर्ग और जो सांसारिक दुःख है वह नरक है। जबकि वैदिक धारणा और शब्दकोष के अनुसार स्वर्ग और नरक स्थान विशेष का नाम है। इसी प्रकार पुनः का अर्थ दोबारा है न कि बार-बार। जैसे पुनर्विवाह, पुनर्निर्माण वैसे ही पुनर्जन्म। चतुर्थ समुल्लास में स्वामी दयानंद ने मनुस्मृति के कुछ ‘लोकों द्वारा परलोक के सुख हेतु उपाय बताए हैं। यहाँ स्वामी जी ने परलोक और परजन्म दोनों को एक ही अर्थ में लिया है। (4-106) मनुस्मृति के जो ‘लोक उन्होंने उद्धरित किए हैं वे परलोक की सफलता पर केन्द्रित हैं न कि आवागमनीय पुनर्जन्म पर। स्वामी जी की धारणाओं और तथ्यों में प्रचुर विरोधाभास पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वेद विषयों पर स्वामी जी की जानकारी संदिग्ध थी।
मनुष्य चाहे जन्मना हिंदू हो, यहूदी हो, ईसाई हो या मुसलमान या अन्य किसी धर्म, मत व पंथ को मानने वाला हो, सबके जीवन का मूल स्रोत एक ही है। सब एक माँ-बाप की संतान हैं, सब परस्पर भाई-भाई हैं। यह तथ्य न केवल वेद और कुरआन सम्मत है बल्कि विज्ञान सम्मत भी है। इसके साथ एक सर्वमान्य तथ्य यह भी है कि मनुष्य चाहे एक हजार साल जिन्दा रहे, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। मृत्यु जीवन की अनिवार्य नियति है। इस नियति से जुड़ा है मानव जीवन का एक बड़ा अहम सवाल कि हमें मृत्युपरांत कहाँ जाना है ? मृत्युपरांत हमारा क्या होगा ? इस एक अहम सवाल से जुड़ी है हमारे जीवन की सारी आध्यात्मिकता ()spirituality) और सर्वांग सम्पूर्णता। आइए इस अहम विषय पर एक तथ्यपरक दृष्टि डालते हैं।

जड़वादियों (materialists) का मानना है कि यहीं आदि है और यही अंत है। (death is end of life) ‘‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।’’ देह भस्म हो गया फिर आना-जाना कहाँ ? अनीश्वरवादी (atheist) महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा, ‘‘भला करो, भले बनो, मृत्युपरांत क्या होगा यह प्रश्न असंगत है, अव्याकृत है।’’ हिंदूवादियों (polytheist) का मानना है कि वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्यादि में जीव (soul) एक सा है और कर्मानुसार यह जीव (soul) वनस्पति योनि, पशु योनि और मनुष्य योनि में विचरण करता रहता है। जीवन-मरण की यह अनवरत श्रंखला है। रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार कुल चैरासी लाख योनियों में 27 लाख स्थावर, 9 लाख जलचर, 11 लाख पक्षी, 4 लाख जानवर और 23 लाख मानव योनियाँ हैं। हिंदू धर्मदर्शन के मनीषियों ने इस अवधारणा को आवागमनीय पुनर्जन्म का नाम दिया है।

इस अवधारणा (cycle of birth & death) के संदर्भ में हिंदू धर्मदर्शन के चिंतकों का एक मजबूत तीर व तर्क है कि संसार में कोई प्राणी अंधा जन्मता है, कोई गूंगा और लंगड़ा जन्मता है। कोई प्रतिभाशाली तो कोई निपट मूर्ख जन्मता है। यहाँ कोई खूबसूरत है, कोई बदसूरत है। कोई निर्धन है तो कोई धनवान है। कोई हिंदू जन्मता है तो कोई मुसलमान जन्मता है। कोई ऊँची जात है तो कोई नीची जात है। जन्म के प्रारम्भ में ही उक्त विषमताएं पिछले जन्म का फल नहीं तो और क्या हैं ? इसी धारणा के साथ हिंदू मनीषियों की यह भी मान्यता है कि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों से मिलती है। ‘‘बड़े भाग मानुष तनु पाया’’। यहाँ हिंदू चिंतकों के उक्त दोनों तथ्यों में असंगति स्पष्ट प्रतीत होती है।

अगर यह मान लिया जाए कि यहाँ की सभी विषमताएं पूर्वकृत कर्मों का लेखा है। एक मनुष्य दूसरे को इसलिए मार रहा है कि उसने पिछले जन्म में उसे मारा है। एक मनुष्य यहाँ इसलिए जुल्म कर रहा है कि पिछले जन्म में उस पर जुल्म किया गया है। फिर तो यह एक युक्तियुक्त स्थिति है। अगर यह मान्यता सत्य है फिर तो मामला सस्ते में ही निपट जाता है। फिर तो इस विषमता को दूर करने के सारे प्रयास न केवल बेकार हैं बल्कि प्रयास करना ही बेवकूफी है। यहाँ जो हो रहा है सब कुछ तर्कसंगत और न्यायसंगत है। लूटमार, मारकाट, अनाचार, अत्याचार यदि सभी कुछ पूर्व कर्मों का फल है तो फिर न कोई पाप-पुण्य का आधार बनता है न ही सही-गलत बाकी रहता है। यहाँ यह विचारणीय है कि यदि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों से मिलती है तो फिर कोई जन्म से अंधा, बहरा, लंगड़ा और जड़बुद्धि क्यों ? दूसरा विचारणीय तथ्य है कि यदि इस जन्म की अपंगता पिछली योनि के कर्मों का फल है तो न्याय की मांग है कि दण्डित व्यक्ति को यह जानकारी होनी चाहिए कि उसने पूर्वजन्म में किस योनि में क्या पाप व दुष्कर्म किया है जिसके कारण उसे यह सजा मिली है ताकि सुधार की सम्भावना बनी रहे। अगर अपंग व्यक्ति को पूर्व योनि में किए दुष्कर्म और पापकर्म का पता नहीं है और सत्य भी यही है कि उसे कुछ पता नहीं है तो क्या आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा पूर्णतया भ्रामक और कतई मिथ्या नहीं हो जाती ?


आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का तीन तत्वः जीवन तत्व (life), चेतन तत्व (consciousness) और आत्म तत्व (soul) के आधार पर वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि वनस्पतियों में केवल जीवन तत्व (life) होता है, चेतन तत्व (consciousness) और आत्म तत्व (soul) नहीं होता। यदि वनस्पतियों में भी वही चेतन तत्व (consciousness) होता जो पशु-पक्षियों में होता है, तो फिर वनस्पतियों का भक्षण भी उसी प्रकार पाप व अपराध होता जिस प्रकार तथाकथित पुनर्जन्मवादी पशु-पक्षियों का मांस खाने में मानते हैं। अब यदि जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों में भी वही चेतन तत्व (consciousness) और आत्म तत्व (soul) होता जो मनुष्य में है तो पशु-पक्षियों को मारना भी उतना ही पाप व अपराध होता जितना मनुष्यों को मारने में होता है। पेड़-पौधों और पशुओं में वह चेतन तत्व व आत्म तत्व नहीं होता जो कर्म कराता है और कर्मफल भोगने का कारण बनता है। वृक्ष-वनस्पति और पशुओं में केवल इनकमिंग सुविधा है जबकि मनुष्यों में इनकमिंग के साथ-साथ आउट गोइंग सुविधा भी है जिससे कर्म लेखा (account of deeds) तैयार होता है। मनुष्य इसलिए तो सर्वश्रेष्ठ प्राणी है कि परम तत्व (ळवकद्ध ने उसे विवेक (wisdom) और विचार (thinking) प्रदान किया है जो किसी अन्य को नहीं किया है। जहाँ जीवन है वहाँ चेतना और आत्मा का होना अनिवार्य नहीं। आत्मा (soul), चेतना (consciousness) और प्रज्ञा (knowledge) वहीं है जहाँ कर्म (right and wrong deeds) है। पशुओं में नींद, भूख, भय और मैथुन आदि दैहिक क्रियाएं (physical process)तो है मगर विवेक संबंधी क्रियाएं (ethical process) नहीं है। मनुष्य आत्मा (soul) में ही ज्ञानत्व, कर्तृत्व और भौक्तृत्व ये तीनों निहित हैं। इसलिए वेद और कुरआन मनुष्य जाति के लिए है न कि पशु और वनस्पति जगत के लिए।

कीट-पतंगे और पशु पक्षी नैसर्गिक जीवन व्यतीत करते हैं। एक वृक्ष और एक पशु को यह विवेक नहीं दिया गया है कि वे इस विशाल ब्रह्मांड में अपने अस्तित्व का कारण तलाश करें। पशुओं के सामने न कोई अतीत होता है न कोई भविष्य। भय, भूख, नींद, मैथुन आदि क्रियाओं के होते हुए भी पशु एक बेफिक्र रचना (careless creature) है, चेतनाहीन (in a state of stupid) कृति है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी तो मनुष्य जीवन की सामग्री मात्र है। इनकी रचना को मनुष्य योनि के पाप-पुण्य से जोड़ना नादानी की बात है।

देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक बकरी कसाई और चरवाहे में फ़र्क नहीं करती। देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक गाय मालिक और दुश्मन के खेत में अंतर नहीं करती। इससे सुस्पष्ट है कि पश्वादि में आत्मचेतना (moral mind) नहीं होती। विवेक (wisdom) और विचार (thinking) नहीं होता। जब पश्वादि में न विवेक है, न विचार है, न कोई आचार संहिता (code of conduct) है तो फिर कर्म और कर्मफल कैसा ? विचित्र विडंबना है कि हिंदू धर्म दर्शन ने पेड़-पौधों, पशुओं और मनुष्य को एक ही श्रेणी में रखा है। क्या यह अवधारणा तर्कसंगत और न्यायसंगत हो सकती है कि एक योनि चिंतन (thinking power) और चेतना (moral sense) रखने के बावजूद चिंतनहीन (thoughtless)और चेतना विहीन (unconsciousness) योनि में अपने कर्मों का फल भोगे ? कैसी अजीब धारणा है कि पाप कर्म करें मनुष्य और फल भोगे गधा और विवेकहीन वृक्ष?

यहाँ यह भी विचारणीय है कि दण्ड और पुरस्कार का सीधा संबंध विवेक, विचार और कर्म से है। दूसरी बात बिना पेशी, बिना गवाह, बिना सबूत, बिना प्रतिवादी कैसी अदालत, कैसा न्याय ? एक व्यक्ति को बिना किसी चार्जशीट के अंधा, लंगड़ा, जड़बुद्धि बना दिया जाए या कीट, कृमि, कुत्ता बना दिया जाए या पशु को मनुष्य बना दिया जाए, यह कैसा इंसाफ, कैसा कानून ? क्या इसे कोई कानून कहा जा सकता है ? न्यायसंगत और तर्कसंगत तो यह है कि फल भोगने वाले को सजा या पारितोष का एहसास हो और यह तभी सम्भव है कि जब कर्म करने वाला उसी शरीर व चेतना के साथ फल भोगे, जिस शरीर व चेतना के साथ उसने कर्म किया है।

उपर्युक्त तथ्यों और तर्कों से सिद्ध हो जाता है कि आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा एक अबौद्धिक और अवैज्ञानिक धारणा है। इस मिथ्या व कपोल-कल्पित मान्यता ने करोड़ों मनुष्यों को जीवन के मूल उद्देश्य से भटका दिया है। यह धारणा मनुष्य जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं करती। मनुष्य के सामने कोई उच्च लक्ष्य न हो, कोई दिशा न हो तो वह जाएगा कहाँ ? विचित्र विडंबना है कि जीवन है मगर कोई जीवनोद्देश्य नहीं है। बिना किसी जीवनोद्देश्य के साधना और साधन सब व्यर्थ हो जाता है। यात्रा में हमारे पास कितनी भी सुख-सुविधा, सामग्री, साधन हो, मगर यह पता न हो कि जाना कहाँ है ? हमारी दिशा, हमारी मंजिल, हमारा गंतव्य क्या है तो हम जाएंगे कहाँ ? दिशा और गंतव्य निश्चित हो तभी तो गंतव्य की दिशा की तरफ चला जा सकता है। अगर दिशा का भ्रम हो तो मनुष्य कभी सही दिशा की तरफ नहीं बढ़ सकता। एक व्यक्ति दौड़ा जा रहा है और उसे पता न हो कि किधर और कहाँ जाना है तो क्या लोग उसे बेवकूफ नहीं कहेंगे?

हमारे जीवन में भौतिक कारणों, अकारणों का बड़ा महत्व है। यहाँ किसी का विकलांग, निर्धन, रोगी अथवा स्वस्थ, सुन्दर और धनी होना पिछले कर्मों का प्रतिफल नहीं है। यह विषमता भौतिक, प्राकृतिक और सामाजिक असंतुलन का परिणाम है। कभी चेचक व पोलियों आदि बीमारियों को मनुष्य का भाग्य और पूर्वजन्म का फल समझा जाता था मगर आज वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रयासों द्वारा मनुष्य ने इन पर विजय प्राप्त कर ली है। यहाँ के परिणाम किसी पूर्वकृत योनियों के सत्कर्म या पाप कर्म के परिणाम नहीं हैं। यहाँ की विषमता को समझने के लिए हमें सृष्टिकर्ता की योजना (creation plan of god) को भी समझना होगा।

(अंतरजाल से साभार , शायद इससे कुछ मदद मिले )


धन्यवाद विद्रोही जी, एक तार्किक लेख प्रस्तुत करने के लिए पाप पुण्य और कर्म की अवधारणा पर. वैसे जहाँ तक मुझे पता है हिंदू धर्म में जीव का वास तो सभी प्राणियों में माना गया है. इसलिए इस अवधारणा को पशु -पक्षियों इत्यादि को चेतन विहीन या निकृष्ट जीव बता कर ख़ारिज कर देने की बात उतनी दम वाली नहीं प्रतीत होती. खास कर आज कल के युग में जब मनुष्य प्राणी जगत पर खुले दिमाग से नए अध्ययन कर रहा है और पशु मनोविज्ञान जैसी विधाएँ उभर कर आ रही है. उपरी तौर पर यह कह देना आसान होता है कि मनुष्य को छोड़ कर अन्य प्राणी चेतना शून्य है.. इन सब का उदाहरण हमें उन से पूछना चाहिए जो उनके निकट संपर्क में है. हाँ हम यह जरूर कह सकते है कि उनका चेतन अल्पविकसित होता है मनुष्य की तुलना में. हिंदू धर्म में वनस्पति, पशु-पक्षी इत्यादि का भक्षण भी पाप की श्रेणी में आता ही है. और इस पाप से बचने की अवधारणा ऋषि मुनियों के आहार में मिलती है. जिसमें फलाहार को ऋषियों के लिए उचित भोजन बताया गया है जिसमें आप बीज का परित्याग करते है क्यूंकि बीज में जीव का वास माना जाता है(नए जीवन का). जैन धर्म भी इस तरह की अवधारणा मानता है मेरे ख्याल से..

खैर ये सब बातें तो कुछ विषय से हट कर है. लगता है हिंदू धर्म के विद्वानों ने प्राकृतिक विपदा और कर्म चक्र के प्रश्न पर कुछ तर्क नहीं रखे हैं... और निष्कर्ष यही निकलता है कि इस बात का कोई तार्किक उत्तर हिंदू धर्म नहीं दे पाया है.

VIDROHI NAYAK
17-04-2011, 09:59 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10309&stc=1&d=1303016244

हम भी तो भूखे हैं...कहाँ हड़ताल करें??
यह तो वह तस्वीर है जो किसी छायाकार की दया दृष्टि से सामने आई ..ऐसी ना जाने कितनी कहानियां हैं, कहीं कोई भूख से मरता है तो कहीं कोई तृष्णा से ! हम जानते हैं , सब जानते हैं ...पर हमें क्या, बाप दादाओ ने तो दिया ही है ,हमें कौन सी मौत आई जा रही है ! हमारे दावे तो राष्ट्र हित के ही हैं परन्तु शायद यह शाब्दिक ही है ! हाँ राष्ट्र हित होगा , अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होते हुए देश की पहचान बनाये रखेंगे ! वही देश ... !!भारत !! (जो अब गांवों में नहीं गरीबी में बसता है )

Ranveer
18-04-2011, 04:58 PM
मेरा एक सवाल है हिंदू धर्म से सम्बंधित ही कि हिंदू धर्म में पाप-पुण्य और कर्मों की जो व्याख्या की गयी है और जिस के अनुसार हम अपने वर्तमान जन्म में कुछ भी हैं और जिस भी स्थिति का सामना कर रहे है वह पिछले जन्मों के ही कर्मों द्वारा निर्धारित होता है..उस आधार पर प्राकृतिक विपदाओं को कैसे परिभाषित क्या जा सकता है और उसके क्या कारण बताये जा सकते है. ऐसी विपदाओं में जो हजारों और लाखों लोग मरते हैं क्या वो भी उनके पूर्व जन्मो के कर्मों का ही फल होता है?
इस सवाल को दर्शन में " अशुभ (evil ) समस्या" ....'' पुनर्जन्म '' ...तथा '' कर्मवाद '' के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है /
ये समस्या भी कुछ उसी तरह की समस्या की श्रेणी में शामिल है जिसकी पूर्णतः व्याख्या असंभव है ( जैसे इश्वर ,आत्मा ,आदि )

पहले
आपने यहाँ पर " हिन्दू धर्म के अनुसार पाप पुण्य की व्याख्या " पर सवाल किया है तो मै सर्वप्रथम यह कहूंगा की हिन्दू धर्म पूरी तरह से ईश्वरवादी है / अगर यहाँ हिन्दू दर्शन की बात आती या भारतीय दर्शन का जिक्र होता तो मै कुछ महान लोगों के विचार प्रस्तुत कर सकता था /भारतीय दर्शन में वैसे तो चार्वाक ,बौध ,जैन ...को छोड़ दें तो बाकी " षड्दर्शन " हिन्दू दर्शन में ही आतें हैं जिनके विचारों में काफी विभिन्नता देखने को मिलती है / मगर ये षड्दर्शन हिन्दू धर्म नहीं है /

मै यहाँ कुछ विचार रख रहां हूँ पर ये विचार केवल हिन्दू धर्म के अनुसार है न की किसी दर्शन के अनुसार ( आशा करूंगा की यहाँ तक आपलोग दोनों में अंतर समझ चुके होंगे )
(1 ) हिन्दू धर्म की पहली मान्यता है की संसार में शारीरिक और मानसिक दुःख के रूप में जो अशुभ ही वह वस्तुतः मनुष्य के अपने किये गए कर्मों का ही दुष्परिणाम है /
इश्वर मनुष्य के खुद के पापो का ही समुचित दंड देने के लिए अशुभ उत्पन्न करता है ...जैसे अगर कहीं भूकंप आया तो कोई हिन्दू धार्मिक व्यक्ति यही कहेगा की धरती पर पाप का बोझ बढ़ गया अतः इश्वर को ऐसा करना पडा /
(2 ) दूसरी मान्यता है की प्राकृतिक विपदाओं से उत्पन्न अशुभ मानव के लिए एक चेतावनी है जिसके द्वारा वह अपने इश्वर की महानता और अपार शक्ति को पहचान सकता है /
यदि संसार में कोई अशुभ न हो तो कोई इश्वर की पहचान नहीं कर सकता /
(3 ) तीसरी मान्यता है की शुभ को जानने के लिए ...उसके महत्व को पहचानने के लिए अशुभ का होना अनिवार्य है /
दुःख प्राप्त करने के बाद ही हमें सुख का वास्तविक स्वरुप और महत्व पता चलता है /
जिस व्यक्ति ने स्वम अपने जीवन में कष्ट सहा हो वही एनी दुखी व्यक्तियों के प्रति सच्ची सहानुभूति रख सकता है /

उपरोक्त मान्यताओं पर सबसे गंभीर आपति यह कहकर लगाईं जाती है की नैतिक अशुभ की व्याख्या तक तो ठीक है परन्तु प्राकृतिक अशुभ में तो निर्दोष लोग भी शिकार होतें हैं ..ऐसा क्यूँ है ..क्यूँ उन बच्चों ..पशु पक्षियों को इनका सामना करना पडता है जिन्होंने कोई पाप नहीं किया है
तो यहाँ पर पुनर्जन्म के आधार पर बताने की कोशिश की जाती है की इसके लिए " आत्मा " और " पुनर्जन्म " का अस्तित्व है /
उसके पूर्वजन्म में किये गए कर्म का फल उसे इस परिणाम के रूप में भोगना पड़ता है /

यहाँ पर मै फिर कहूंगा की यह तार्किक रूप से युक्तिसंगत नहीं है
परन्तु ये समस्या किसी हिन्दू धर्म के व्यक्ति की नहीं है की वो इसकी व्याख्या करे
समस्या दार्शनिकों की हो जाती है
और इसी क्रम में षड्दर्शन सामने आतें हैं /
षड्दर्शन में सभी ने अपने अपने विचार रखें हैं


बस इतना ही

dev b
18-04-2011, 05:36 PM
लिखे कहाँ है भाई...थोडा कॉपी पेस्ट मारें हैं !

ये कापी , पेस्ट कँहा मिलता है मित्र हम को भी बताओ ...........

VIDROHI NAYAK
18-04-2011, 08:01 PM
ये कापी , पेस्ट कँहा मिलता है मित्र हम को भी बताओ ...........
मित्र ढूंढो...ढूंढने से ये विधा भी मिल जायेगी !

Ranveer
18-04-2011, 11:24 PM
लगता है किसी को जवाब समझ में नहीं आया ..:crazyeyes:
या फिर मुझे ही
सवाल समझ में नहीं आया ...:lol:

Ranveer
19-04-2011, 11:09 AM
खैर कोई बात नहीं.............चलिए मै एक और सवाल पूछता हूँ -
" क्या एक लोकतांत्रिक देश में नक्सलवाद जैसी विचारधारा का उपजना सही है ? "

khalid
19-04-2011, 12:47 PM
खैर कोई बात नहीं.............चलिए मै एक और सवाल पूछता हूँ -
" क्या एक लोकतांत्रिक देश में नक्सलवाद जैसी विचारधारा का उपजना सही है ? "

बिल्कुल गलत हैँ
लेकिन दोस्त कुछ कारण भी होगा जो ऐसे विचार धारा को अपनाते हैँ

Kumar Anil
19-04-2011, 01:50 PM
खैर कोई बात नहीं.............चलिए मै एक और सवाल पूछता हूँ -
" क्या एक लोकतांत्रिक देश में नक्सलवाद जैसी विचारधारा का उपजना सही है ? "

कतई नहीँ , अगरचे वास्तव मेँ लोकतान्त्रिक देश हो । संविधान की मूल भावना के अनुरूप कल्याणकारी राज्य की अवस्थापना अथवा पुरजोर क़ोशिशेँ ऐसी समस्याओँ को जन्म ही नहीँ देँगी । परन्तु जब लोकतन्त्र के नाम पर लोगोँ के हितोँ से , उनकी अस्मिता से खेला जायेगा तो समाज का वह उपेक्षित , सर्वहारा , शोषित वर्ग असंतोष की ज्वाला मेँ , विषमताओँ के नैराश्य मेँ नक्सलवाद क्या किसी भी वाद का दामन थामने को विवश होगा । यही विसंगतियां विप्लव की कारक बनती हैँ । एक तबका अपने हितोँ को संरक्षित करने , अन्याय का सामना करने मेँ जब स्वयं को लाचार पाता है तो वह विद्रोह करने के लिये विवश हो जाता है । आख़िर क्योँ नक्सली क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनोँ , उनकी खनिज सम्पदा का भरपूर दोहन कर अन्य क्षेत्रोँ का विकास सतत् है । क्या विकास मेँ उनकी भागीदारी न्यायोचित नहीँ है ? उन्हेँ हाशिये पर डाले रखने की पृष्ठभूमि मेँ क्या उनका कोई अपराध है ? क्या एक लोकतान्त्रिक सरकार को व्यापारी मानसिकता से ग्रस्त होकर ज्यादा टैक्स चुकाने वाले क्षेत्रोँ पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करना उचित है ? क्या एक लोकतान्त्रिक सरकार का दृष्टिकोण सम्यक् व समभाव युक्त नहीँ होना चाहिये ।

Ranveer
19-04-2011, 10:19 PM
कतई नहीँ , अगरचे वास्तव मेँ लोकतान्त्रिक देश हो । संविधान की मूल भावना के अनुरूप कल्याणकारी राज्य की अवस्थापना अथवा पुरजोर क़ोशिशेँ ऐसी समस्याओँ को जन्म ही नहीँ देँगी । परन्तु जब लोकतन्त्र के नाम पर लोगोँ के हितोँ से , उनकी अस्मिता से खेला जायेगा तो समाज का वह उपेक्षित , सर्वहारा , शोषित वर्ग असंतोष की ज्वाला मेँ , विषमताओँ के नैराश्य मेँ नक्सलवाद क्या किसी भी वाद का दामन थामने को विवश होगा । यही विसंगतियां विप्लव की कारक बनती हैँ । एक तबका अपने हितोँ को संरक्षित करने , अन्याय का सामना करने मेँ जब स्वयं को लाचार पाता है तो वह विद्रोह करने के लिये विवश हो जाता है । आख़िर क्योँ नक्सली क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनोँ , उनकी खनिज सम्पदा का भरपूर दोहन कर अन्य क्षेत्रोँ का विकास सतत् है । क्या विकास मेँ उनकी भागीदारी न्यायोचित नहीँ है ? उन्हेँ हाशिये पर डाले रखने की पृष्ठभूमि मेँ क्या उनका कोई अपराध है ? क्या एक लोकतान्त्रिक सरकार को व्यापारी मानसिकता से ग्रस्त होकर ज्यादा टैक्स चुकाने वाले क्षेत्रोँ पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करना उचित है ? क्या एक लोकतान्त्रिक सरकार का दृष्टिकोण सम्यक् व समभाव युक्त नहीँ होना चाहिये ।

मेरे सवाल में ये बातें भी छुपीं हैं -

लोकतंत्र में चुनाव में शामिल होकर तथा जीतकर और इस तरह जनता के प्रतिनिधि बनकर सुधार नहीं कर सकते ?
निर्दोष और बच्चों को मारना किस प्रकार का पूंजीवादी विरोध है ?

MissK
19-04-2011, 11:13 PM
इस सवाल को दर्शन में " अशुभ (evil ) समस्या" ....'' पुनर्जन्म '' ...तथा '' कर्मवाद '' के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है /
ये समस्या भी कुछ उसी तरह की समस्या की श्रेणी में शामिल है जिसकी पूर्णतः व्याख्या असंभव है ( जैसे इश्वर ,आत्मा ,आदि )

पहले
आपने यहाँ पर " हिन्दू धर्म के अनुसार पाप पुण्य की व्याख्या " पर सवाल किया है तो मै सर्वप्रथम यह कहूंगा की हिन्दू धर्म पूरी तरह से ईश्वरवादी है / अगर यहाँ हिन्दू दर्शन की बात आती या भारतीय दर्शन का जिक्र होता तो मै कुछ महान लोगों के विचार प्रस्तुत कर सकता था /भारतीय दर्शन में वैसे तो चार्वाक ,बौध ,जैन ...को छोड़ दें तो बाकी " षड्दर्शन " हिन्दू दर्शन में ही आतें हैं जिनके विचारों में काफी विभिन्नता देखने को मिलती है / मगर ये षड्दर्शन हिन्दू धर्म नहीं है /

मै यहाँ कुछ विचार रख रहां हूँ पर ये विचार केवल हिन्दू धर्म के अनुसार है न की किसी दर्शन के अनुसार ( आशा करूंगा की यहाँ तक आपलोग दोनों में अंतर समझ चुके होंगे )
(1 ) हिन्दू धर्म की पहली मान्यता है की संसार में शारीरिक और मानसिक दुःख के रूप में जो अशुभ ही वह वस्तुतः मनुष्य के अपने किये गए कर्मों का ही दुष्परिणाम है /
इश्वर मनुष्य के खुद के पापो का ही समुचित दंड देने के लिए अशुभ उत्पन्न करता है ...जैसे अगर कहीं भूकंप आया तो कोई हिन्दू धार्मिक व्यक्ति यही कहेगा की धरती पर पाप का बोझ बढ़ गया अतः इश्वर को ऐसा करना पडा /
(2 ) दूसरी मान्यता है की प्राकृतिक विपदाओं से उत्पन्न अशुभ मानव के लिए एक चेतावनी है जिसके द्वारा वह अपने इश्वर की महानता और अपार शक्ति को पहचान सकता है /
यदि संसार में कोई अशुभ न हो तो कोई इश्वर की पहचान नहीं कर सकता /
(3 ) तीसरी मान्यता है की शुभ को जानने के लिए ...उसके महत्व को पहचानने के लिए अशुभ का होना अनिवार्य है /
दुःख प्राप्त करने के बाद ही हमें सुख का वास्तविक स्वरुप और महत्व पता चलता है /
जिस व्यक्ति ने स्वम अपने जीवन में कष्ट सहा हो वही एनी दुखी व्यक्तियों के प्रति सच्ची सहानुभूति रख सकता है /

उपरोक्त मान्यताओं पर सबसे गंभीर आपति यह कहकर लगाईं जाती है की नैतिक अशुभ की व्याख्या तक तो ठीक है परन्तु प्राकृतिक अशुभ में तो निर्दोष लोग भी शिकार होतें हैं ..ऐसा क्यूँ है ..क्यूँ उन बच्चों ..पशु पक्षियों को इनका सामना करना पडता है जिन्होंने कोई पाप नहीं किया है
तो यहाँ पर पुनर्जन्म के आधार पर बताने की कोशिश की जाती है की इसके लिए " आत्मा " और " पुनर्जन्म " का अस्तित्व है /
उसके पूर्वजन्म में किये गए कर्म का फल उसे इस परिणाम के रूप में भोगना पड़ता है /

यहाँ पर मै फिर कहूंगा की यह तार्किक रूप से युक्तिसंगत नहीं है
परन्तु ये समस्या किसी हिन्दू धर्म के व्यक्ति की नहीं है की वो इसकी व्याख्या करे
समस्या दार्शनिकों की हो जाती है
और इसी क्रम में षड्दर्शन सामने आतें हैं /
षड्दर्शन में सभी ने अपने अपने विचार रखें हैं


बस इतना ही

रणवीर जी आपने भी काफ़ी अच्छी जानकारी दी है. नहीं दर्शन शास्त्र नहीं बल्कि मुझे सामान्यत जो कर्म चक्र की अवधारणा है उसके के परिप्रेक्ष्य में जवाब चाहिए था और लगता है इन घटनाओं की व्याख्या उसके माध्यम से नहीं हो सकती...

Ranveer
20-04-2011, 12:01 AM
रणवीर जी आपने भी काफ़ी अच्छी जानकारी दी है. नहीं दर्शन शास्त्र नहीं बल्कि मुझे सामान्यत जो कर्म चक्र की अवधारणा है उसके के परिप्रेक्ष्य में जवाब चाहिए था और लगता है इन घटनाओं की व्याख्या उसके माध्यम से नहीं हो सकती...
हाँ सही कहा आपने
बाद में मुझे भी ऐसा ही महसूस हुआ :oldman:.....:smoker:

खैर ....अब प्रविष्टि मिटा भी नहीं सकता न
इसीलिए क्षमा प्रार्थी हूँ :thumbup:

SHASWAT
29-06-2011, 10:29 PM
कहीं चमड़े की बेल्ट मंदिर तक अंदर नहीं जा सकती तो कहीं शंकर जी का आसान शेर की खाल पर लगाया जाता है !

ये बिसंगती आपको सिर्फ शिव और शिव से जुड़े देवताओं में ही मिलेगी .इसका प्रमुख कारन है की शिव पहले असुरों के देवता थे और इनका नाम रूद्र हुआ करता था. पर जब कर्म-कांड ज्यादा बढ़ गया और धीरे धीरे जब इनकी लोकप्रियता बढती गयी क्यूंकि इनके पूजन में ज्यादा खर्च और कर्मकांड की जरुरत नहीं थी. तो आर्यों ने फिर इन्हें भी अपने देवताओं में सामिल कर लिया और इनका नाम पड़ा -शिव .बहुत सारी चीजें बदली गयीं पर बहुत सी बिसंगतियों को नहीं बदला गा सका तो इन्हें महादेव कहकर बिसंगतियों के साथ ही अपना लिया गया.