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View Full Version : सआदत हसन मंटो की कहानियाँ


Sikandar_Khan
09-03-2011, 10:17 PM
प्रिय मित्रों

आपके लिए सआदत हसन मंटो की कहानियाँ लेकर आया हूँ
आशा करता हूँ आप सभी को पसंद आएँगी

Sikandar_Khan
09-03-2011, 10:21 PM
ठंडा गोश्त

ईश्वरसिंह ज्यों ही होटल के कमरे में दांखिला हुआ, कुलवन्त कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज-तेज आँखों से उसकी तरफ घूरकर देखा और दरवाजे की चिटखनी बन्द कर दी। रात के बारह बज चुके थे। शहर का वातावरण एक अजीब रहस्यमयी खामोशी में गर्क था।

कुलवन्त कौर पलंग पर आलथी-पालथी मारकर बैठ गयी। ईशरसिंह, जो शायद अपने समस्यापूर्ण विचारों के उलझे हुए धागे खोल रहा था, हाथ में किरपान लेकर उस कोने में खड़ा था। कुछ क्षण इसी तरह खामोशी में बीत गये। कुलवन्त कौर को थोड़ी देर के बाद अपना आसन पसन्द न आया और दोनों टाँगें पलंग के नीचे लटकाकर उन्हें हिलाने लगी। ईशरसिंह फिर भी कुछ न बोला।

कुलवन्त कौर भरे-भरे हाथ-पैरों वाली औरत थी। चौड़े-चकले कूल्हे थुल-थुल करने वाले गोश्त से भरपूर। कुछ बहुत ही ज्यादा ऊपर को उठा हुआ सीना, तेज आँखें, ऊपरी होंठ पर सुरमई गुबार, ठोड़ी की बनावट से पता चलता था कि बड़े धड़ल्ले की औरत है।

ईशरसिंह सिर नीचा किये एक कोने में चुपचाप खड़ा था। सिर पर उसके कसकर बाँधी हुई पगड़ी ढीली हो रही थी। उसने हाथ में जो किरपान थामी हुई थी, उसमें थोड़ी-थोड़ी कम्पन थी, उसके आकार-प्रकार और डील-डौल से पता चलता था कि वह कुलवन्त कौर जैसी औरत के लिए सबसे उपयुक्त मर्द है।

कुछ क्षण जब इसी तरह खामोशी में बीत गये तो कुलवन्त कौर छलक पड़ी, लेकिन तेज-तेज आँखों को नचाकर वह सिर्फ इस कदर कह सकी—''ईशरसियाँ!''

ईशरसिंह ने गर्दन उठाकर कुलवन्त कौर की तरफ देखा, मगर उसकी निगाहों की गोलियों की ताब न लाकर मुँह दूसरी तरफ मोड लिया।

कुलवन्त कौर चिल्लायी—''ईशरसिंह!'' लेकिन फौरन ही आवांज भींच ली, पलंग पर से उठकर उसकी तरफ होती हुई बोली—''कहाँ गायब रहे तुम इतने दिन?''

ईशरसिंह ने खुश्क होठों पर जबान फेरी, ''मुझे मालूम नहीं।''

कुलवन्त कौर भन्ना गयी, ''यह भी कोई माइयावाँ जवाब है!''

ईशरसिंह ने किरपान एक तरफ फेंक दी और पलंग पर लेट गया। ऐसा मालूम होता था, वह कई दिनों का बीमार है। कुलवन्त कौर ने पलंग की तरफ देखा, जो अब ईशरसिंह से लबालब भरा था और उसके दिल में हमदर्दी की भावना पैदा हो गयी। चुनांचे उसके माथे पर हाथ रखकर उसने बड़े प्यार से पूछा—''जानी, क्या हुआ तुम्हें?''

ईशरसिंह छत की तरफ देख रहा था। उससे निगाहें हटाकर उसने कुलवन्त कौर ने परिचित चेहरे की टटोलना शुरू किया—''कुलवन्त।''

आवांज में दर्द था। कुलवन्त कौर सारी-की-सारी सिमटकर अपने ऊपरी होंठ में आ गयी, ''हाँ, जानी।'' कहकर वह उसको दाँतों से काटने लगी।

ईशरसिंह ने पगड़ी उतार दी। कुलवन्त कौर की तरफ सहारा लेनेवाली निगाहों से देखा। उसके गोश्त भरे कुल्हे पर जोर से थप्पा मारा और सिर को झटका देकर अपने-आपसे कहा, ''इस कुड़ी दा दिमांग ही खराब है।''

झटके देने से उसके केश खुल गये। कुलवन्त अँगुलियों से उनमें कंघी करने लगी। ऐसा करते हुए उसने बड़े प्यार से पूछा, ''ईशरसियाँ, कहाँ रहे तुम इतने दिन?''

''बुरे की मां के घर।'' ईशरसिंह ने कुलवन्त कौर को घूरकर देखा और फौरन दोनों हाथों से उसके उभरे हुए सीने को मसलने लगा—''कसम वाहे गुरु की, बड़ी जानदार औरत हो!''

कुलवन्त कौर ने एक अदा के साथ ईशरसिंह के हाथ एक तरफ झटक दिये और पूछा, ''तुम्हें मेरी कसम, बताओ कहाँ रहे?—शहर गये थे?''

ईशरसिंह ने एक ही लपेट में अपने बालों का जूड़ा बनाते हुए जवाब दिया, ''नहीं।''

कुलवन्त कौर चिढ़ गयी, ''नहीं, तुम जरूर शहर गये थे—और तुमने बहुत-सा रुपया लूटा है, जो मुझसे छुपा रहे हो।''

''वह अपने बाप का तुख्म न हो, जो तुमसे झूठ बोले।''

कुलवन्त कौर थोड़ी देर के लिए खामोश हो गयी, लेकिन फौरन ही भड़क उठी, ''लेकिन मेरी समझ में नहीं आता उस रात तुम्हें हुआ क्या?—अच्छे-भले मेरे साथ लेटे थे। मुझे तुमने वे तमाम गहने पहना रखे थे, जो तुम शहर से लूटकर लाए थे। मेरी पप्पियाँ ले रहे थे। पर जाने एकदम तुम्हें क्या हुआ, उठे और कपड़े पहनकर बाहर निकल गये।''

ईशरसिंह का रंग जर्द हो गया। कुलवन्त ने यह तबदीली देखते ही कहा, ''देखा, कैसे रंग पीला पड़ गया ईशरसियाँ, कसम वाहे गुरु की, जरूर कुछ दाल में काला है।''

''तेरी जान कसम, कुछ भी नहीं!''

ईशरसिंह की आवांज बेजान थी। कुलवन्ता कौर का शुबहा और ज्यादा मजबूत हो गया। ऊपरी होंठ भींचकर उसने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा, ''ईशरसियाँ, क्या बात है, तुम वह नहीं हो, जो आज से आठ रोज पहले थे।''

ईशरसिंह एकदम उठ बैठा, जैसे किसी ने उस पर हमला किया था। कुलवन्त कौर को अपने मजबूत बाजुओं में समेटकर उसने पूरी ताकत के साथ झ्रझोड़ना शुरू कर दिया, ''जानी, मैं वहीं हूं—घुट-घुट कर पा जफ्फियाँ, तेरी निकले हड्डाँ दी गर्मी।''

कुलवन्त कौर ने कोई बाधा न दी, लेकिन वह शिकायत करती रही, ''तुम्हें उस रात €या हो गया था?''

''बुरे की मां का वह हो गया था!''

''बताओगे नहीं?''

''कोई बात हो तो बताऊँ।''

''मुझे अपने हाथों से जलाओ, अगर झूठ बोलो।''

ईशरसिंह ने अपने बाजू उसकी गर्दन में डाल दिये और होंठ उसके होंठ पर गड़ा दिए। मूँछों के बाल कुलवन्त कौर के नथूनों में घुसे, तो उसे छींक आ गयी। ईशरसिंह ने अपनी सरदी उतार दी और कुलवन्त कौर को वासनामयी नंजरों से देखकर कहा, ''आओ जानी, एक बाजी ताश की हो जाए।''

कुलवन्त कौर के ऊपरी होंठ पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूंदें फूट आयीं। एक अदा के साथ उसने अपनी आँखों की पुतलियाँ घुमायीं और कहा, ''चल, दफा हो।''

ईशरसिंह ने उसके भरे हुए कूल्हे पर जोर से चुटकी भरी। कुलवन्त कौर तड़पकर एक तरफ हट गयी, ''न कर ईशरसियाँ, मेरे दर्द होता है!''

ईशरसिंह ने आगे बढ़कर कुलवन्त कौर की ऊपरी होंठ अपने दाँतों तले दबा लिया और कचकचाने लगा। कुलवन्त कौर बिलकुल पिघल गयी। ईशरसिंह ने अपना कुर्ता उतारकर फेंक दिया और कहा, ''तो फिर हो जाए तुरप चाल।''

कुलवन्त कौर का ऊपरी होंठ कँपकँपाने लगा। ईशरसिंह ने दोनों हाथों से कुलवन्त कौर की कमींज का बेरा पकड़ा और जिस तरह बकरे की खाल उतारते हैं, उसी तरह उसको उतारकर एक तरफ रख दिया। फिर उसने घूरकर उसके नंगे बदन को देखा और जोर से उसके बाजू पर चुटकी भरते हुए कहा—''कुलवन्त, कसम वाहे गुरु की! बड़ी करारी औरत हो तुम।''

कुलवन्त कौर अपने बाजू पर उभरते हुए धŽबे को देखने लगी। ''बड़ा जालिम है तू ईशरसियाँ।''

ईशरसिंह अपनी घनी काली मूँछों में मुस्काया, ''होने दे आज जालिम।'' और यह कहकर उसने और जुल्म ढाने शुरू किये। कुलवन्त कौन का ऊपरी होंठ दाँतों तले किचकिचाया, कान की लवों को काटा, उभरे हुए सीने को भँभोडा, भरे हुए कूल्हों पर आवांज पैदा करने वाले चाँटे मारे, गालों के मुंह भर-भरकर बोसे लिये, चूस-चूसकर उसका सीना थूकों से लथेड़ दिया। कुलवन्त कौर तेंज आँच पर चढ़ी हुई हांड़ी की तरह उबलने लगी। लेकिन ईशरसिंह उन तमाम हीलों के बावजूद खुद में हरकत पैदा न कर सका। जितने गुर और जितने दाँव उसे याद थे, सबके-सब उसने पिट जाने वाले पहलवान की तरह इस्तेमाल कर दिये, परन्तु कोई कारगर न हुआ। कुलवन्त कौर के सारे बदन के तार तनकर खुद-ब-खुद बज रहे थे, गैरजरूरी छेड़-छाड़ से तंग आकर कहा, ''ईश्वरसियाँ, काफी फेंट चुका है, अब पत्ता फेंक !''

यह सुनते ही ईशरसिंह के हाथ से जैसे ताश की सारी गड्डी नीचे फिसल गयी। हाँफता हुआ वह कुलवन्त के पहलू में लेट गया और उसके माथे पर सर्द पसीने के लेप होने लगे।

कुलवन्त कौर ने उसे गरमाने की बहुत कोशिश की, मगर नाकाम रही। अब तक सब कुछ मुंह से कहे बगैर होता रहा था, लेकिन जब कुलवन्त कौर के क्रियापेक्षी अंगों को सख्त निराशा हुई तो वह झल्लाकर पलंग से उतर गयी। सामने खूँटी पर चादर पड़ी थी, उसे उतारकर उसने जल्दी-जल्दी ओढ़कर और नथुने फुलाकर बिफरे हुए लहजे में कहा, ''ईशरसियाँ, वह कौन हरामजादी है, जिसके पास तू इतने दिन रहकर आया है और जिसने तुझे निचोड़ डाला है?''

कुलवन्त कौर गुस्से से उबलने लगी, ''मैं पूछती हूं, कौन है वह चड्डो—है वह उल्फती, कौन है वह चोर-पत्ता?''

ईशरसिंह ने थके हुए लहजे में कहा, ''कोई भी नहीं कुलवन्त, कोई भी नहीं।''

कुलवन्त कौर ने अपने उभरे हुए कूल्हों पर हाथ रखकर एक दृढ़ता के साथ कहा—''ईशरसियाँ! मैं आज झूठ-सच जानकर रहूँगी—खा वाहे गुरु जी की कसम—इसकी तह में कोई औरत नहीं?''

ईशरसिंह ने कुछ कहना चाहा, मगर कुलवन्त कौर ने इसकी इजाजत न दी,

''कसम खाने से पहले सोच ले कि मैं भी सरदार निहालसिंह की बेटी हूं तक्का-बोटी कर दूँगी अगर तूने झूठ बोला—ले, अब खा वाहे गुरु जी की कसम—इसकी तह में कोई औरत नहीं?''

ईशरसिंह ने बड़े दु:ख के साथ हाँ में सिर हिलाया। कुलवन्त कौर बिलकुल दीवानी हो गयी। लपककर कोने में से किरपान उठायी। म्यान को केले के छिलके की तरह उतारकर एक तरफ फेंका और ईशरसिंह पर वार कर दिया।

आन-की-आन में लहू के फव्वारे छूट पड़े। कुलवन्त कौर को इससे भी तसल्ली न हुई तो उसने वहशी बिल्लियों की तरह ईशरसिंह के केश नोचने शुरू कर दिये। साथ-ही-साथ वह अपनी नामालूम सौत को मोटी-मोटी गालियाँ देती रही। ईशरसिंह ने थोड़ी देर बाद दुबली आवांज में विनती की, ''जाने दे अब कुलवन्त, जाने दे।''

आवांज में बला का दर्द था। कुलवन्त कौर पीछे हट गयी।

खून ईशरसिंह के गले में उड़-उड़ कर उसकी मूँछों पर गिर रहा था। उसने अपने काँपते होंठ खोले और कुलवन्त कौर की तरफ शुक्रियों और शिकायतों की मिली-जुली निगाहों से देखा।

''मेरी जान, तुमने बहुत जल्दी की—लेकिन जो हुआ, ठीक है।''

कुलवन्त कौर कीर् ईष्या फिर भड़की, ''मगर वह कौन है, तेरी मां?''

लहू ईशरसिंह की जबान तक पहुँच गया। जब उसने उसका स्वाद चखा तो उसके बदले में झुरझुरी-सी दौड़ गयी।

''और मैं...और मैं भेनी या छ: आदमियों को कत्ल कर चुका हूं—इसी किरपान से।''

कुलवन्त कौर के दिमाग में दूसरी औरत थी—''मैं पूछती हूं कौन है वह हरामजादी?''

ईशरसिंह की आँखें धुँधला रही थीं। एक हल्की-सी चमक उनमें पैदा हुई और उसने कुलवन्त कौर से कहा, ''गाली न दे उस भड़वी को।''

कुलवन्त कौर चिल्लायी, ''मैं पूछती हूं, वह कौन?''

ईशरसिंह के गले में आवांज रुँध गयी—''बताता हूं,'' कहकर उसने अपनी गर्दन पर हाथ फेरा और उस पर अपनी जीता-जीता खून देखकर मुस्कराया, ''इनसान माइयाँ भी एक अजीब चीज है।''

कुलवन्त कौर उसके जवाब का इन्तजार कर रही थी, ''ईशरसिंह, तू मतलब की बात कर।''

ईशरसिंह की मुस्कराहट उसकी लहू भरी मूँछों में और ज्यादा फैल गयी, ''मतलब ही की बात कर रहा हूं—गला चिरा हुआ है माइयाँ मेरा—अब धीरे-धीरे ही सारी बात बताऊँगा।''

और जब वह बताने लगा तो उसके माथे पर ठंडे पसीने के लेप होने लगे, ''कुलवन्त ! मेरी जान—मैं तुम्हें नहीं बता सकता, मेरे साथ क्या हुआ?—इनसान कुड़िया भी एक अजीब चीज है—शहर में लूट मची तो सबकी तरह मैंने भी इसमें हिस्सा लिया—गहने-पाते और रुपये-पैसे जो भी हाथ लगे, वे मैंने तुम्हें दे दिये—लेकिन एक बात तुम्हें न बतायी?''

ईशरसिंह ने घाव में दर्द महसूस किया और कराहने लगा। कुलवन्त कौन ने उसकी तरफ तवज्जह न दी और बड़ी बेरहमी से पूछा, ''कौन-सी बात?'' ईशरसिंह ने मूँछों पर जमे हुए जरिए उड़ाते हुए कहा, ''जिस मकान पर...मैंने धावा बोला था...उसमें सात...उसमें सात आदमी थे—छ: मैंने कत्ल कर दिये...इसी किरपान से, जिससे तूने मुझे...छोड़ इसे...सुन...एक लड़की थी, बहुत ही सुन्दर, उसको उठाकर मैं अपने साथ ले आया।''

कुलवन्त कौर खामोश सुनती रही। ईशरसिंह ने एक बार फिर फूँक मारकर मूँछों पर से लहू उड़ाया—कुलवन्ती जानी, मैं तुमसे क्या कहूँ, कितनी सुन्दर थी—मैं उसे भी मार डालता, पर मैंने कहा, ''नहीं ईशरसियाँ, कुलवन्त कौर ते हर रोज मजे लेता है, यह मेवा भी चखकर देख!''

कुलवन्त कौर ने सिर्फ इस कदर कहा, ''हूं।''

''और मैं उसे कन्धे पर डालकर चला दिया...रास्ते में...क़्या कह रहा था मैं...हाँ, रास्ते में...नहर की पटरी के पास, थूहड़ की झाड़ियों तले मैंने उसे लिटा दिया—पहले सोचा कि फेंटूँ, फिर खयाल आया कि नहीं...'' यह कहते-कहते ईशरसिंह की जबान सूख गयी।

कुलवन्त ने थूक निकलकर हलक तर किया और पूछा, ''फिर क्या हुआ?''

ईशरसिंह के हलक से मुश्किल से ये शब्द निकले, ''मैंने...मैंने पत्ता फेंका...लेकिन...लेकिन...।''

उसकी आवांज डूब गयी।

कुलवन्त कौर ने उसे झिंझोड़ा, ''फिर क्या हुआ?''

ईशरसिंह ने अपनी बन्द होती आँखें खोलीं और कुलवन्त कौर के जिस्म की तरफ देखा, जिसकी बोटी-बोटी थिरक रही थी—''वह...वह मरी हुई थी...लाश थी...बिलकुल ठंडा गोश्त...जानी, मुझे अपना हाथ दे...!''

कुलवन्त कौर ने अपना हाथ ईशरसिंह के हाथ पर रखा जो बर्फ से भी ज्यादा ठंडा था।

Sikandar_Khan
09-03-2011, 10:38 PM
खुदा की कसम

उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैंपों के कैंप भरे पड़े थे जिनमें मिसाल के तौर पर तिल धरने के लिए वाकई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें लोग ठुसे जा रहे थे। गल्ला नाकाफी है , सेहत की सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं , बीमारियां फैल रही हैं , इसका होश किसको था ! एक अफरा – तफरी का वातावरण था।
सन 48 का आरंभ था। संभवत मार्च का महीना था। इधर और उधर दोनों तरफ रजाकारों के जरिए से अपहृत औरतों और बच्चों की बरामदगी का प्रशंसनीय काम शुरू हो चुका था। सैकड़ों मर्द , औरतें , लडके और लड़कियां इस नेक काम में हिस्सा ले रहे थे। मैं जब उनको काम में लगे देखता तो मुझे बड़ी आश्चर्यजनक खुशी हासिल होती। यानी खुद इंसान इंसान की बुराइयों के आसार मिटाने की कोशिश में लगा हुआ था। जो अस्मतें लुट चुकी थीं , उनको और अधिक लूट – खसोट से बचाना चाहता था – किसलिए ?
इसलिए उसका दामन और अधिक धब्बों और दागों से भरपूर न हो ? इसलिए कि वह जल्दी – जल्दी अपनी खून से लिथड़ी उंगलियां चाट ले और अपने जैसे पुरुषों के साथ दस्तरखान पर बैठकर रोटी खाए ? इसलिए कि वह इंसानियत का सुई – धागा लेकर , जब एक – दूसरे आंखें बंद किए हैं , अस्मतों के चाक रफू कर दे। कुछ समझ में नहीं आता था लेकिन उन रज़ाकारों की जद्दोजहद फिर काबिले कद्र मालूम होती थी। उनको सैकड़ों मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। हजारों बखेड़े उन्हें उठाने पड़ते थे , क्योंकि जिन्होंने औरतें और लड़कियां उठाई थीं , अस्थिर थे। आज इधर कल उधर। अभी इस मोहल्ले में , कल उस मोहल्ले में। और फिर आसपास के आदमी उनकी मदद नहीं करते थे। अजीब अजीब दास्तानें सुनने में आती थीं।
एक संपर्क अधिकारी ने मुझे बताया कि सहारनपुर
में दो लड़कियों ने पाकिस्तान में अपने मां – बाप के पास जाने से इनकार कर दिया। दूसरे ने बताया कि जब जालंधर में जबर्दस्ती हमने एक लड़की को निकाला तो काबिज के सारे खानदान ने उसे यूं अलविदा कही जैसे वह उनकी बहू है और किसी दूर – दराज सफर पर जा रही है। कई लड़कियों ने मां – बाप के खौफ से रास्ते में आत्महत्या कर ली। कुछ सदमे से पागल हो चुकी थीं , कुछ ऐसी भी थी जिन्हें शराब की लत पड़ चुकी थी। उनको प्यास लगती तो पानी की बजाय शराब मांगती और नंगी – नंगी गालियां बकतीं। मैं उन बरामद की हुई लड़कियों और औरतों के बारे में सोचता तो मेरे मन में सिर्फ फूले हुए पेट उभरते। इन पेटों का क्या होगा ? उनमें जो कुछ भरा है , उसका मालिक कौन बने , पाकिस्तान या हिंदुस्तान ? और वह नौ महीने की बारवरदारी , उसकी उज्रत पाकिस्तान अदा करेगा या हिंदुस्तान ? क्या यह सब जालिम फितरत या कुदरत के बहीखाते में दर्ज होगा ? मगर क्या इसमें कोई पन्ना खाली रह गया है ?
बरामद औरतें आ रही थीं , बरामद औरतें जा रही थीं। मैं सोचता था ये औरतें भगाई हुईं क्यों कहलाई जाती थीं ? इन्हें अपहृत कब किया गया है ? अपहरण तो बड़ा रोमैंटिक काम है जिसमें मर्द और औरतें दोनों शामिल होते हैं। वह एक ऐसी खाई है जिसको फांदने से पहले दोनों रूहों के सारे तार झनझना उठते हैं। लेकिन यह अगवा कैसा है कि एक निहत्थी को पक़ड़ कर कोठरी में कैद कर लिया ?
लेकिन वह जमाना ऐसा था कि तर्क – वितर्क और फलसफा बेकार चीजें थीं। उन दिनों जिस तरह लोग गर्मियों में भी दरवाजे और खिड़कियां बंद कर सोते थे , इसी तरह मैंने भी अपने दिल – दिमाग में सब खिड़कियां दरवाजे बंद कर लिये थे। हालांकि उन्हें खुला रखने की ज्यादा जरूरत उस वक्त थी , लेकिन मैं क्या करता। मुझे कुछ सूझता नहीं था। बरामद औरतें आ रही थीं। बरामद औरतें जा रही थीं। यह आवागमन जारी था , तमाम तिजारती विशेषताओं के साथ। और पत्रकार , कहानीकार और शायर अपनी कलम उठाए शिकार में व्यस्त थे। लेकिन कहानियों और नजमों का एक बहाव था जो उमड़ा चला आ रहा था। कलमों के कदम उखड़ – उखड़ जाते थे। इतने सैद थे कि सब बौखला गए थे। एक संपर्क अधिकारी मुझसे मिला। कहने लगा , तुम क्यों गुमसुम रहते हो ? मैंने कोई जवाब न दिया। उसने मुझे एक दास्तान सुनाई।
अपहृत औरतों की तलाश में हम मारे – मारे
फिरते हैं। एक शहर से दूसरे शहर , एक गांव से दूसरे गांव , फिर तीसरे गांव फिर चौथे। गली – गली , मोहल्ले – मोहल्ले , कूचे – कूचे। बड़ी मुश्किलों से लक्ष्य मोती हाथ आता है।
मैंने दिल में कहा , कैसे मोती … मोती , नकली या असली ?
तुम्हें मालूम नहीं हमें कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है , लेकिन मैं तुम्हें एक बात बताने वाला था। हम बॉर्डर के इस पार सैकड़ों फेरे कर चुके हैं। अजीब बात है कि मैंने हर फेरे में एक बुढ़िया को देखा। एक मुसलमान बुढ़िया को – अधेड़ उम्र की थी। पहली बार मैंने उसे जालंधर में देखा था – परेशान , खाली दिमाग , वीरान आंखें , गर्द व गुबार से अटे हुए बाल , फटे हुए कपड़े। उसे तन का होश था न मन का। लेकिन उसकी निगाहों से यह जाहिर था कि किसी को ढूंढ रही है। मुझे बहन ने बताया कि यह औरत सदमे के कारण पागल हो गई है। पटियाला की रहने वाली है। इसकी इकलौती लड़की थी जो इसे नहीं मिलती। हमने बहुत जतन किए हैं उसे ढूंढने के लिए मगर नाकाम रहे हैं। शायद दंगों में मारी गई है , मगर यह बुढ़िया नहीं मानती। दूसरी बार मैंने उस पगली को सहारनपुर के बस अड्डे पर देखा। उसकी हालत पहले से कहीं ज्यादा खराब और जर्जर थी। उसके होठों पर मोटी मोटी पपड़ियां जमी थीं। बाल साधुओं के से बने थे। मैंने उससे बातचीत की और चाहा कि वह अपनी व्यर्थ तलाश छोड़ दे। चुनांचे मैंने इस मतलब से बहुत पत्थरदिल बनकर कहा , माई तेरी लड़की कत्ल कर दी गई थी।
पगली ने मेरी तरफ देखा , ‘ कत्ल ?… नहीं। ’ उसके लहजे में फौलादी यकीन पैदा हो गया। ‘ उसे कोई कत्ल नहीं कर सकता। मेरी बेटी को कोई कत्ल नहीं कर सकता। ’ और वह चली गई अपनी व्यर्थ तलाश में। मैंने सोचा , एक तलाश और फिर … । लेकिन पगली को इतना यकीन था कि उसकी बेटी पर कोई कृपाण नहीं उठ सकती। कोई तेजधार या कुंद छुरा उसकी गर्दन पर नहीं बढ़ सकता। क्या वह अमर थी ? या क्या उसकी ममता अमर थी ? ममता तो खैर अमर होती है। फिर क्या वह अपनी ममता ढूंढ रही थी। क्या इसने उसे कहीं खो दिया ? तीसरे फेरे पर मैंने उसे फिर देखा। अब वह बिल्कुल चीथड़ों में थी। करीब – करीब नंगी। मैंने उसे कपड़े दिए मगर उसने कुबूल न किए। मैंने उससे कहा , माई मैं सच कहता हूं , तेरी लड़की पटियाले में ही कत्ल कर दी गई थी।
उसने फिर फौलादी यकीन के साथ कहा , ‘ तू झूठ कहता है। ’
मैंने उससे अपनी बात मनवाने की खातिर कहा , ‘ नहीं मैं सच कहता हूं। काफी रो – पीट लिया है तुमने। चलो मेरे साथ मैं तुम्हें पाकिस्तान ले चलूंगा। ’ उसने मेरी बात न सुनी और बड़बड़ाने लगी। बड़बड़ाते हुए वह एकदम चौंकी। अब उसके लहजे में यकीन फौलाद से भी ठोस था , ‘ नहीं मेरी बेटी को कोई कत्ल नहीं कर सकता। ’
मैंने पूछा , क्यों ?
बुढ़िया ने हौले – हौले कहा , ‘ वह खूबसूरत है। इतनी खूबसूरत कि कोई कत्ल नहीं कर सकता। उसे तमाचा तक नहीं मार सकता। ’

मैं सोचने लगा , क्या वाकई वह इतनी खूबसूरत
थी। हर मां की आंखों में उसकी औलाद चांद का टुकड़ा होती है। लेकिन हो सकता है वह लड़की वास्तव में खूबसूरत हो। मगर इस तूफान में कौन सी खूबसूरती है जो इंसान के खुरदरे हाथों से बची है। हो सकता है पगली इस थोथे ख्याल को धोखा दे रही हो। फरार के लाखों रास्ते हैं। दुख एक ऐसा चौक है जो अपने इर्दगिर्द लाखों बल्कि करोड़ों सड़कों का जाल बना देता है।
बॉर्डर के इस पार कई फेरे हुए। हर बार मैंने उस पगली को देखा। अब वह हड्डियों का ढांचा रह गई थई। नजर कमजोर हो गई थीं। टटोल – टटोलकर चलती थी , लेकिन उसकी तलाश जारी थी। बड़ी तल्लीनता से। उसका यकीन उसी तरह स्थिर था कि उसकी बेटी जिंदा है। इसलिए कि उसे कोई मार नहीं सकता।
बहन ने मुझसे कहा , ‘ इस औरत से मगजमारी फिजूल है। इसका दिमाग चल चुका है। बेहतर यही है कि तुम इसे पाकिस्तान ले जाओ और पागलखाने में दाखिल करा दो। ’
मैंने उचित न समझा। उसकी यह भ्रामक तलाश तो उसकी जिंदगी का एकमात्र सहारा थी। जिसे मैं उससे छीनना नहीं चाहता ता। मैं उसे एक लंबे – चौड़े पागलखाने से , जिससे वह मीलों की यात्रा तय करके अपने पांवों के आंबलों की प्यार बुझा ही थी , उठाकर एक छोटी सी चारदीवारी में कैद करना नहीं चाहता था।
आखरी बार मैंने उसे अमृतसर में देखा। उसकी दयनीय स्थिति ऐसी थी कि मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने फैसला कर लिया कि उसे पाकिस्तान ले जाऊंगा और पागलखाने में दाखिल करा दूंगा। एक फरीद के चौक में खड़ी अपनी आधी अंधी आंखों से इधर – उधर देख रही थी। चौक में काफी चहलपहल थी। मैं बहन के साथ एक दुकान पर बैठा एक अपहृत ल़ड़की के बारे में बात कर रहा था , जिसके बारे में हमें यह सूचना मिली थी कि वह बाजार सबूनिया में एक हिंदू बनिये के घर मौजूद है। यह गुफ्तगू खत्म हुई कि मैं उठा कि उस पगली को झूठसच कहकर पाकिस्तान ले जाने के लिए तैयार करूं। तभी एक जोड़ा उधर से गुजरा। औरत ने घूंघट निकाला हुआ था। छोटा सा घूंघट। उसके साथ एक सिख नौजवान था। बड़ा छैलछबीला , तंदुरुस्त। तीखे – तीखे नक्शों वाला। जब ये दोनों उस पगली के पास से गुजरे तो नौजवान एकदम ठिठक गया। उसने दो कदम पीछे हटकर औरत का हाथ पकड़ लिया। कुछ इस अचानक तौर पर कि लड़की ने अपने छोटा सा घूंघट उठाया। लट्ठे की धुली हुई सफेद चादर के चौखटे में मुझे एक ऐसा गुलाबी चेहरा नजर आया जिसका हुस्न बयान करने में मेरी जबान लाचार है। मैं उनके बिल्कुल पास था। सिख नौजवान ने सौंदर्य की देवी से उस पगली की तरफ इशारा करते हुए धीमे से कहा , तुम्हारी मां।
लड़की ने एक पल के लिए पगली की तरफ देखा और घूंघट छोड़ दिया और सिख नौजवान का बाजू पकड़कर भींचे हुए लहजे में कहा , चलो।
और वे दोनों सड़क से जरा इधर हटकर तेजी से आगे निकल गए। पगली चिल्लाई , ‘ भागभरी … भागभरी। ’
वह सख्त परेशान थी। मैंने पास जाकर उससे पूछा , ‘ क्या बात है माई ?’
वह कांप रही थी , ‘ मैंने उसको देखा है .. मैंने उसको देखा है। ’
मैंने पूछा , ‘ किसे ?’
उसके माथे के नीचे दो गड्ढों में उसकी आंखों के बेनूर ढेले हरकत कर रहे थे , ‘ अपनी बेटी को … भागभरी को। ’
मैंने फिर उससे कहा , ‘ वह मर – खप चुकी है माई। ’
उसने चीखकर कहा , ‘ तुम झूठ कहते हो। ’
मैंने इस बार उसे पूरा यकीन दिलाने की खातिर कहा , ‘ मैं खुदा की कसम खाकर कहता हूं , वह मर चुकी है। ’
यह सुनते ही वह पगली चौक में ढेर हो गई।

sagar -
10-03-2011, 06:36 AM
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Sikandar_Khan
13-03-2011, 11:30 PM
टोबा टेकसिंह

बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि अख्लाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाय और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाय।

मालूम नहीं यह बात माकूल थी या गैर-माकूल थी। बहरहाल, दानिशमंदों के फैसले के मुताबिक इधर-उधर ऊँची सतह की कांफ्रेंसें हुई और िदन आखिर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया। अच्छी तरह छान बीन की गयी। वो मुसलमान पागल जिनके लवाहिकीन (सम्बन्धी ) हिन्दुस्तान ही में थे वहीं रहने दिये गये थे। बाकी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूंकि करीब-करीब तमाम हिन्दु सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिन्दू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफाजत में सरहद पर पहुंचा दिये गये।

उधर का मालूम नहीं। लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चीमेगोइयां होने लगी। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज बाकायदगी के साथ जमींदार पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा-

-- मोल्हीसाब। ये पाकिस्तान क्या होता है ?

तो उसने बड़े गौरो फिक्र के बाद जवाब दिया-

-- हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।

ये जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया।

इसी तरह एक और सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा--

-- सरदार जी हमें हिन्दुस्तान क्यों भेजा जा रहा है - हमें तो वहां की बोली नहीं आती।

दूसरा मुस्कराया-

-- मुझे तो हिन्दुस्तान की बोली आती है - हिन्दुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ -आकड़ फिरते हैं।

एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' का नारा इस जोर से बुलन्द किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया।

बाज पागल ऐसे थे जो पागल नहीं थे। उनमें अकसरियत ऐसे कातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे- दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जायें। ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्या तकसीम हुआ और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सही वाकेआत से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उनकी गुफ्तगू (बातचीत) से भी वो कोई नतीजा बरआमद नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे आजम कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलाहेदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है। यह कहां है ?इसका महल-ए-वकू (स्थल) क्या है इसके मुतअल्लिक वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागल खाने में वो सब पागल जिनका दिमाग पूरी तरह माउफ नहीं हुआ था, इस मखमसे में गिरफ्तार थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में। अगर हिन्दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है। अगर वो पाकिस्तान में है तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अरसा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान, और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ्तार हुआ कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठ कर दो घंटे मुस्तकिल तकरीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के नाजुक मसअले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया। डराया, धमकाया गया तो उसने कहा-

-- मैं न हिन्दुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में। मैं इस दरख्त पर ही रहूंगा।

एक एम. एससी. पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग की एक खास रविश (क्यारी) पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नमूदार हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफादार के हवाले कर दिये और नंगधंडंग़ सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।

यन्यूट के एक मौटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सरगर्म कारकुन था और दिन में पन्द्रह-सोलह मरतबा नहाता था, यकलख्त (एकदम) यह आदत तर्क (छोड़)कर दी। उसका नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उसने एक दिन अपने जिंगले में ऐलान कर दिया कि वह कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखादेखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जिंगले में खून-खराबा हो जाय, मगर दोनों को खतरनाग पागल करार देकर अलहदा-अलहदा बन्द कर दिया गया।

लाहौर का एक नौजवान हिन्दू वकील था जो मुहब्बत में मुब्तिला होकर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। इसी शहर की एक हिन्दू लड़की से उसे मुहब्बत हो गयी थी। गो उसने इस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल मिलाकर हिन्दुस्तान के दो टुकड़े कर दिये-- उसकी महबूबा हिन्दुस्तानी बन गयी और वह पाकिस्तानी।

जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे,उसको हिन्दुस्तान वापस भेज दिया जायेगा। उस हिन्दुस्तान में जहां उसकी महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था-- इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी।

यूरोपियन वार्ड में दो एंग्लो-इण्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान को आजाद करके अंग्रेज चले गये हैं तो उनको बहुत रंज हुआ। वह छुप-छुप कर इस मसअले पर गुफ्तगू करते रहते कि पागलखने में उनकी हैसियत क्या होगी। यूरापियन वार्ड रहेगा या उड़ जायगा। ब्रेकफास्ट मिलेगा या नहीं। क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इण्डियन चपाती तो जहरमार नहीं करनी पड़ेगी ?

एक सिख था जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक्त उसकी जबान पर अजीबोगरीब अल्फाज सुनने में आते थे, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी बाल आफ दी लालटेन।' वो न दिन में सोता था न रात में। पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में एक एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। अलबना किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।

हर वक्त खड़ा रहने से उसके पांव सूज गये थे। पिंडलियां भी फूल गयीं थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुतअिल्लक जब कभी पागलखाने में गुफ्तगू होती थी तो वह गौर से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या खयाल है तो बड़ी संजीदगी से जवाब देता, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।'

लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह गवर्नमेंट ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है जहां का वो रहने वाला है। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि वो पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में। जो यह बताने की कोशिश करते थे वो खुद इस उलझाव में गिरफ्तार हो जाते थे कि स्याल कोटा पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिन्दुस्तान में चला जायगा या सारा हिन्दुस्तान हीं पाकिस्तान बन जायेगा। और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब नहीं हो जायेंगे।

उस सिख पागल के केस छिदरे होके बहुत मुख्तसर रह गये थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और बाल आपस में जम गये थे जिनके बाइस (कारण) उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गयी थी। मगर आदमी बेजरर (अहानिकारक) था। पन्द्रह बरसों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाजिम थे वो उसके मुतअलिक इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांधकर लाये और पागलखाने में दाखिल करा गये।

महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी खैर-खैरियत दरयाफ्त करके चले जाते थे। एक मुप्त तक ये सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान हिन्दुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बन्द हो गया।

उसका नाम बिशन सिंह था। मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसको ये मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने दिन बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उसके अजीज व अकारिब (सम्बन्धी) उससे मिलने के लिए आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वो दफादार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघा करता। अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज-बन कर मिलने वालों के पास आता। वो उससे कुछ पूछते तो वह खामोश रहता या कभी-कभार 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी वेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी लालटेन ' कह देता। उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गयी थी। बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी आपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंख में आंसू बहते थे।पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है। जब इत्मीनान बख्श (सन्तोषजनक) जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब- दिन बढ़ती गयी। अब मुलाकात नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बन्द हो गयी थी जो उसे उनकी आमद की खबर दे दिया करती थी।

उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि वो लोग आयें जो उससे हमदर्दी का इजहार करते थे ओर उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वो उनसे अगर पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो यकीनन वो उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में, क्योंकि उसका ख्याल था कि वो टोबा टेकसिंह ही से आते हैं जहां उसकी जमीनें हैं।

पागलखाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में तो उसने हस्बेआदत (आदत के अनुसार) कहकहा लगाया और कहा--

-- वो न पाकिस्तान में है न हिन्दुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं लगाया।

बिशन सिंह ने इस खुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वो हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वो बहुत मसरूफ था, इसलिए कि उसे ओर बेशुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ वाहे गुरूजी दा खलसा एन्ड वाहे गुरूजी की फतह। जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल।' उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमान के खुदा हो, सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान दोस्त मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हट गया और वापस आने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका-- -- ये तुमसे मिलने आया है - तुम्हारा दोस्त फजलदीन है।

बिशन सिंह ने फजलदीन को देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा।

-- मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फुर्सत ही न मिली। तुम्हारे सब आदमी खैरियत से चले गये थे मुझसे जितनी मदद हो सकी मैने की। तुम्हारी बेटी रूप कौर...। वह कुछ कहते कहते रूक गया । बिशन सिंह कुछ याद करने लगा --

-- बेटी रूप कौर ।

फजलदीन ने रूक कर कहा-

-- हां वह भी ठीक ठाक है। उनके साथ ही चली गयी थी।

बिशन सिंह खामोश रहा। फजलदीन ने कहना शुरू किया-

-- उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी खैर-खैरियत पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो। भाई बलबीर सिंह और भाई बिधावा सिंह से सलाम कहना-- और बहन अमृत कौर से भी। भाई बलबीर से कहना फजलदीन राजी-खुशी है। वो भूरी भैंसे जो वो छोड़ गये थे उनमें से एक ने कट्टा दिया है दूसरी के कट्टी हुई थी पर वो छ: दिन की हो के मर गयी और और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना, मै। हर वक्त तैयार हूं और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरून्डे लाया हूं।

बिशन सिंह ने मरून्डे की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलदीन से पूछा- -- टोबा टेकसिंह कहां है?

--टोबा टेकसिंह... उसने कद्रे हैरत से कहा-- कहां है! वहीं है, जहां था।

बिशन सिंह ने पूछा-- पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में?

--हिन्दुस्तान में...। नहीं-नहीं पाकिस्तान में...।

फजलदीन बौखला-सा गया। बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया-- ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी हए फिटे मुंह।

तबादले की तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फेहरिस्तें (सूचियां) पहुंच गयी थीं, तबादले का दिन भी मुकरर्र हो गया था। सख्त सर्दियां थीं। जब लाहौर के पागलखाने से हिन्दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफिज दस्ते के साथ् रवाना हुई तो मुतअल्लिका (संबंधित ) अफसर भी हमराह थे। वाहगा के बार्डर पर तरफैन के (दोनों तरफ से) सुपरिटेंडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तेदाई कार्रवाई खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा।

पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रजामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे उनको कपड़े पहनाये जाते, तो वो फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते क़ोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है। आपस में लड़-झगड़ रहे हैं, रो रहे हैं, बक रहे हैं। कान पड़ी आवाज सुनायी नही देती थी-- पागल औरतों का शेरोगोगा अलग था और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत बज रहे थे।

पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है। चन्द जो कुछ सोच रहे थे-- 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे। दो-तीन मरतबा फसाद होते-होते बचा, क्योंकि बाज मुसलमान और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया।

जब बिशन सिंह की बारी आयी ओर वाहगा के उस पार मुतअल्लका अफसर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा-- टोबा टेकसिंह कहां है? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में? -मुतअल्लका अफसर हंसा--पाकिस्तान में।

यह सुनकर विशनसिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने बाकी मांदा साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे। मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया, और जोर-जोर से चिल्लाने लगा--टोबा टेकसिंह कहां है ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी टोबा टेकसिंह एन्ड पाकिस्तान।

उसे बहुत समझाया गया कि देखों अब टोबा टेकसिंह हिन्दुस्तान में चला गया है। अगर नहीं गया तो उसे फौरन वहां भेज दिया जायगा। मगर वो न माना। जब उसको जबरदस्ती दूसरी तरफ ले जाने की कोशिश की गयी तो वह दरम्यान में एक जगह इस अन्दाज में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे वहां से कोई ताकत नहीं हटा सकेगी।

आदमी चूंकि बेजरर था इसलिए उससे मजीद जबरदस्ती न की गयी। उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और बाकी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले साकित व साकिन (शान्त) बिशनसिंह हलक से एक फलक शगाफ (आसमान को फाड़ देने वाली ) चीख निकली -- इधर-उधर से कई अफसर दौड़ आये और देखा कि वो आदमी जो पन्द्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा, औंधे मुंह लेटा था। उधर खारदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था-- इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। दरमियान में जमीन के इस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था।

Dark Saint Alaick
17-10-2011, 08:49 PM
सिकंदर बाबू ! 'खोल दो' प्रस्तुत नहीं करेंगे ?

Sikandar_Khan
17-10-2011, 10:01 PM
सिकंदर बाबू ! 'खोल दो' प्रस्तुत नहीं करेंगे ?
अलैक जी नमस्कार
आपकी फरमाइश हम जल्द ही पूरी किये देते हैं |

Sikandar_Khan
17-10-2011, 10:02 PM
खोल दो

अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।
सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।
गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।
पूरे तीन घंटे बाद वह ‘सकीना-सकीना’ पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।
सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, "मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।"
सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था "अब्बाजी छोड़िए!" लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।....यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?
सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?
सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।
छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है... मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी...उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।...आंखें बड़ी-बड़ी...बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल...मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।
रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।
आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।
एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?
लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।
आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।
कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।
एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?
सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।
शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।
कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना
डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?
सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैं...जी मैं...इसका बाप हूं।
डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।
सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है?

Dark Saint Alaick
17-10-2011, 11:17 PM
वल्लाह ! जनाबे-आला आपका भी जवाब नहीं ! इस लाजवाब (यह अलग बात है कि कई को यह लज़ीज़ भी लग सकती है) कहानी के लिए आपका शुक्रिया !

Sikandar_Khan
18-10-2011, 06:48 AM
वल्लाह ! जनाबे-आला आपका भी जवाब नहीं ! इस लाजवाब (यह अलग बात है कि कई को यह लज़ीज़ भी लग सकती है) कहानी के लिए आपका शुक्रिया !
अलैक जी हौशलाअफजाई के लिए आपका बहुत बहुत
शुक्रिया |

Dark Saint Alaick
31-10-2011, 02:05 PM
इतनी कहानियां पढने के बाद मुझे लगा कि लोग जानें कि मंटो कौन हैं ! प्रस्तुत है मंटो की नज़र में मंटो-

सआदत हसन की नजर में मंटो

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13157&stc=1&d=1320051896

मंटो के विषय में अब तक बहुत लिखा और कहा जा चुका है। उसके पक्ष में कम और विपक्ष में ज्यादा। ये विवरण अगर दृष्टिगत रखे जाएं तो कोई बुद्धिमान व्यक्ति मंटो के विषय में केाई सही राय कायम नहीं कर सकता। मैं यह लेख लिखने बैठा हूं और समझता हूं कि मंटो के विषय में अपने विचार व्यक्त करना बड़ा कठिन काम है। लेकिन एक दृष्टि से आसान भी है। इसलिए कि मुझे मंटो के निकट रहने का सौभाग्य मिला है और सच पूछिए तो मैं मंटो का हमजाद हूं।
अब तक इस व्यक्ति के विषय में जो लिखा गया है मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है,लेकिन मैं इतना समझता हूं कि जो कुछ इन लेखों में बताया गया है, वह वास्तविकता से परे है। कुछ इसे शैतान कहते हैं,कुछ गंजा फरिश्ता। जरा ठहरिए, मैं देख लूं,कहीं वह कमबख्त सुन तो नहीं रहा। नहीं-नहीं, ठीक है। मुझे याद आ गया कि यह वक्त है जब वह पिया करता है। उसको शाम छः बजे कड़वा शरबत पीने के आदत है।
हम इकट्ठे पैदा हुए और ख्याल है कि इकट्ठे ही मरेंगे; लेकिन यह भी हो सकता है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो न मरे और सदा मुझे यह डर बहुत दुख देता है। इसिलिए मैंने उसके साथ अपनी निभाने में कोई कसर उठा नहीं रखी। अगर वह जीवित रहा और मैं मर गया तो ऐसा होगा कि अण्डे का खोल तो बचा हुआ है और उसके अन्दर की जर्दी और सफेदी लुप्त हो गई।
अब मैं अधिक भूमिका में नहीं जाना चाहता। आपसे साफ कह देता हूं कि मंटो ऐसा वन-टू आदमी है, मैंने अपनी जिन्दगी में कभी नहीं देखा। जिसे यदि जमा किया जाए तो वह तीन बन जाए। त्रिकोण के विषय में उसका ज्ञान काफी है,लेकिन मैं जानता हूं कि अभी इसकी जरूरत नहीं हुई। ये संकेत ऐसे हैं कि जिन्हें केवल सुविज्ञ ही समझ सकते हैं।
यूँ तो मंटो को उसके जन्म से ही जानता हूं। हम दोनों इकट्ठे एक ही समय 11 मई 1912 को जन्म लिया किन्तु उसने सदा यह कोशिश की कि खुद को कुछ भी बनाए रखे,जो एक बार अपना सिर और गर्दन भीतर छुपा ले तो आप लाख ढूंढते रहें,इसका पता नहीं मिले। लेकिन मैं भी आखिर उसका हूं। मैंने उसकी प्रत्येक गतिविधि का मुआयना कर ही लिया है।
लीजिए,अब मैं आपको बताता हूं कि यह वैशाखनन्दन कहानीकार कैसे बना ? लेखक,रचनाकार,बड़े लम्बे-चैड़े लेख लिखते हैं। अपने व्यक्तित्व का प्रमाण देते हैं। शोपेनहावर,फ्रायड,हीगल,नीत्से,मार्क्स का उल्लेख करते हैं, मगर वास्तिविकता से कोसों दूर रहते हैं। मंटो का कथानक दो विरोधी तत्वों के संघर्ष का परिणाम है। उसके पिता,खुदा उन्हें माफ करे, बड़े कठोर थे और उसकी मां अत्यंत दयावान। इन दानों पाटों के बीच पिसकर यह गेहूं का दाना किस रूप् में बाहर निकला होगा, इसका अनुमान आप लगा सकते हैं।
अब मैं इसके स्कूल के जीवन की तरफ आता हूं। वह बहुत बद्धिमान बालक था और अत्यंत नटखट। उस समय उसका कद अधिक से अधिक 3 फुट 6 इंच होगा। वह अपने पिता की आखिरी संतान था। उसे अपने मां-बाप की मोहब्बत तो प्राप्त थी,लेकिन उसके तीन बड़े भाई,जो उम्र में उससे बहुत बड़े थे और विलायत में शिक्षा पा रहे थे,उनसे उसको भेंट करने का अवसर नहीं मिला था,इसलिए कि वे सौतेले थे। वे चाहता था कि वे उससे मिलें, उससे बड़े भाइयों जैसा व्यवहार करें,लेकिन उसे यह व्यवहार उस समय मिला जब साहित्य-संसार उसे बहुत बड़ा कहानीकार स्वीकार कर चुका था।
अच्छा,अब उसकी कहानीकारी के विषय में सुनिए,वह अव्वल दर्जे का फ्राड हैं पहली कहानी उसने 'तमाशा' शीर्षक के अन्तगर्त लिखी जो जलियांवाला बाग की खूनी दुर्घटना के विषय में थी। यह उसने अपने नाम से नहीं छपवाई। यही कारण है कि वह पुलिस के चंगुल से बच गया।
इसके बाद उसके उर्वर मस्तिष्क में एक लहर पैदा हुई कि वह और अधिक शिक्षा प्राप्त करे। यहां यह कहना रुचिकर होगा कि उसने इण्टर परीक्षा दो बार फेल होकर पास की थी, वह थी थर्ड डीविजन में। और आपको यह सुनकर भी अचम्भा होगा कि वह उर्दू के पर्चे में नाकाम रहा।
अब लोग कहते हैं कि वह उर्दू का बहुत बड़ा अदीब हैं और मैं यह सुनकर हंसता हूं,इसलिए कि उर्दू अब भी नहीं आती। वह अल्फाज के पीछे ऐसे भागता है जैसे कोई जाली शिकारी तितलियों के पीछे। वे उसके हाथ नहीं आतीं। यही कारण है कि उसके लिखने में खूबसूरत अल्फाज की कमी है। वह लट्ठमार है लेकिन जितने लट्ठ उसकी गर्दन पर पड़े हैं उसने बड़ी खुशी से सहन किए हैं।
उसकी लट्ठबाजी लोकोक्ति के अनुसार जाटों की लट्ठबाजी नहीं है। वह बाजीगर और फकैत है। वह एक ऐसा आदमी है जो साफ और सीधी सड़क पर नहीं चलता बल्कि वह तने हुए रास्ते पर चलता है। लोग समझते हैं,अब गिरा,अब गिरा, लेकिन वह कमबख्ता आज तक नहीं गिरा- शायद गिर जाए औधें मुंह- कि फिर न उठे। लेकिन मैं जानता हूं कि मरते वक्त लोगों से कहेगा कि मैं इसलिए गिरा था कि पतन की निराश समाप्त हो जाए।
मैं इसके पूर्व कह चुका हूं कि मंटो अव्वल दर्जे का फ्राड है। इसका अन्य प्रमाण यह है कि वह अक्सर कहा करता है कि वह अफसाना नहीं सोचता,स्वयं अफसाना उसे सोचता है- यह भी फ्राड है। चुनांचे, मैं जानता हूं कि जब उसे कहानी लिखनी होती है तो उसकी वही हालात होती है जब किसी मुर्गी को अण्डा देना होता है। वह अण्डा छुपकर नहीं देता,सबके सामने देता है। उसके यार-दोस्त बैठे होते हैं,उसकी तीन बच्चियां शोर मचा रही होती हैं और वह अपनी खास कुर्सी पर उकड़ूं बैठा अण्डे देता जाता है,जो बाद में चूं-चूं करते अफसाने बन जाते हैं। उसकी पत्नि उससे बहुत नाराज है। वह उससे प्रायः कहा करती है कि तुम कहानी लिखना छोड़ दो और कोई दुकान खोल लो, लेकिन मंटो के दिमाग में जो दुकान खुली है, उसमें मनियारी के सामान से भी अधिक सामान मौजूद है। इसलिए वह प्रायः सोचा करता है कि वह कभी कोई स्टोरेज यानि शीतघर न बन जाए जहां उसके तमाम विचार और भावनाएं जम जाएं।
मैं यह लेख लिख रहा हूं और मुझे डर है कि मंटो मुझसे नाराज हो जाएगा। उसकी हर चीज सहन की जा सकती है लेकिन नाराजगी नहीं सही जा सकती। नाराजगी होने पर वह शैतान बन जाता है, लेकिन कुछ मिनटों के लिए और ये कुछ मिनट अल्लाह की पनाह........
कहानी लिखने के विषय में वह नखरे जरूर दिखाता है लेकिन मैं जानता हूं,क्योंकि उसका हमजाद हूं, वह फ्राड कर रहा है। उसने एक बार स्वयं लिखा था कि उसकी जेब में अनगिनत कहानियां पड़ी होती हैं। वास्तविकता इसके ठीक उल्टी है।
जब उसे कहानी लिखनी होगी तो वह रात को सोचेगा। उसकी समझ में कुछ नहीं आएगा। सुबह पांच बजे उठेगा और अखबारों से किसी कहानी का रस चूसने का ख्याल करेगा, लेकिन उसे नाकामी होगी। फिर वह गुसलखाने में जाएगा।वहां वह अपने शोर-भरे सिर को ठण्डा करने की कोशिश करेगा कि वह सोचने के योग्य हो सके, लेकिन नाकाम रहेगा। फिर झुंझलाकर अपनी पत्नी से बेकार का झगड़ा करना शुरू कर देगा। वहां से भी नाकामी होगी तो पान लेने चला जाएगा। पान उसकी मेज पर पड़ा रहेगा, लेकिन कहानी का कथानक उसकी समझ में फिर भी नहीं आएगा। अन्त में वह उसके मस्तिष्क में आएगा उसकी कहानी का श्री गणेश कर देगा। 'बाबू गोपिनाथ', 'टोबा टेक सिंह', 'हतक', 'मम्मी', 'मोजेल' - ये कहानियां उसने इसी फ्राड तरीके से लिखी हैं।
यह अजीब बात है कि लोग उसे बड़ा विधर्मी,अश्लील व्यक्ति समझते हैं और मेरा भी ख्याल है कि वह किसी हद तक इस कोटि में आता है। प्रायः वह बड़े गन्दे विषय पर कलम उठाता है और ऐसे शब्द अपनी रचना में प्रयोग करता है जिन पर आपत्ति की गुंजाइश भी हो सकती है। लेकिन मैं जानता हूं कि जब भी उसने कोई लेख लिखा,पहले पन्ने के शीर्ष पर 786 अवश्य मिला जिसका मतलब है बिस्मिल्ला और यह व्यक्ति जो खुदा को न मानने वाला नजर आता है,कागज पर मोमिन बन जाता है। परन्तु वह कागजी मंटो है जिसे आप कागजी बादाम की तरह केवल अंगुलियों से तोड़ सकते हैं अन्यथा वह लोहे के हथौड़े से भी टूटने वाला आदमी नहीं है।
अब मैं मंटो के व्यक्तित्व की तरफ आता हूं- वह चोर है,झूठा है,विश्वाशघातक और भीड़ इकट्ठी करने वाला है। उसने प्रायः अपनी पत्नी की गफलत से लाभ उठाते हुए कई-कई सौ रुपए उठाए हैं। इधकर आठ सौ लाकर दिए और चोर आंखों से देखता रहा कि उसने कहां रखे हैं और दूसरे दिन उनमें से एक हरा नोट गायब ! उस बेचारी को जब अपने उस नुकसान का पता लगा तो उसने नौकरों को डांटना-डपटना शुरू कर दिया।
यूं तो मंटो के विषय में मशहूर है कि वह साफ-साफ कहने वाला है, लेकिन मैं इससे सहमत होने के लिए तैयार नहीं। वह अव्वल दर्जे का झूठा है। शुरू-शुरू में उसका झूठ उसके घर चल जाता था इसलिए कि उसमें मंटो का एक विशेष टच होता था,लेकिन बाद में उसकी पत्नी को पता चल गया कि अब तक उसे विशेष बात के विषय में जो कुछ कहा जाता था,झूठ था। मंटो झूठ खूब खुलकर बोलता है, लेकिन मुसीबत है कि उसके घरवाले अब यह समझने लगे हैं कि उसकी हर बात झूठी है। उस तिल की तरह जो किसी औरत ने अपने गाल पर सुरमे से बना रखा है।
वह अनपढ़ है- इस दृष्टि से कि उसने कभी मार्क्स का अध्ययन नहीं किया। फ्रायड की कोई पुस्तक आज तक उसकी दृष्टि से नहीं गुजरी। हीगल का वह केवल नाम ही जानता है। हैबल व एैमिस को वह नाम मात्र से जानता है। लेकिन मजे की बात यह है कि लोग,मेरा मतलब है कि आलोचक यह कहते हैं कि वह तमाम चिन्तकों से प्रभावित है। जहां तक मैं जानता हूं मंटो किसी दूसरे के विचारों से प्रभावित होता ही नहीं। वह समझता है कि समझाने वाले सब चुगद है। दुनिया को समझाना नहीं चाहिए,उसको स्वयं समझना चाहिए।
स्वयं को समझा-समझाकर वह एक ऐसी समझ बन गया है जो बुद्धि और समझ के परे है। कदाचित वह ऐसी उटपटांग बातें करता है कि मुझे हंसी आती है।
मैं आपसे पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि मंटो,जिस पर अश्लील लेख के विषय में कई मुकदमे चल चुके हैं, बहुत शीलपसंद है। लेकिन मैं यह भी कहे बिना नहीं रह सकता कि वह एक ऐसा पायदान है, जो स्वयं को झाड़ता-फटकारता है।

-सआदत हसन 'मंटो'

Sikandar_Khan
31-10-2011, 05:51 PM
अलैक जी ये जानकारी मेरे लिए एकदम नई और अनोखी है
रु -ब -रु करने के लिए शुक्रिया |