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View Full Version : स्वास्थ्य समाचार


Sikandar_Khan
11-03-2011, 07:25 PM
प्रिय मित्रों
आप सभी के लिए ये सूत्र प्रारंभ कर रहा हूँ
जिसमे आपको स्वास्थ्य सम्बंधित समाचार उपलब्ध कराए जायेंगे
धन्यवाद

Sikandar_Khan
11-03-2011, 07:26 PM
रोज कंप्यूटर को दिए 4 घंटे, तो दिल दे देगा 'धोखा'

कंप्यूटर पर ज्यादा काम करने लोग थोड़ा होशियार हो जाएं। एक नई स्टडी में दावा किया गया है हर रोज महज 4 घंटे कंप्यूटर या टीवी स्क्रीन के आगे बिताने वाले लोगों को दिल की बीमारी होने का खतरा दोगुना हो जाता है। ऐसे लोगों की समय से पहले मौत के आसार बढ़ जाते हैं।

यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के रिसर्चरों ने इस बारे में एक स्टडी कर यह नतीजा निकाला है। उन्होंने पाया कि जो लोग रोजाना चार घंटे या इससे ज्यादा समय तक कंप्यूटर पर काम करते हैं या फिर टीवी देखते हैं , उन्हें उन लोगों के मुकाबले दिल की बड़ी बीमारियां होने और इसके नतीजतन मौत का खतरा 125 फीसदी ज्यादा होता है , जो दो घंटे या इससे कम समय टीवी या कंप्यूटर पर बिताते हैं। स्टडी में यह भी पाया गया है कि कंप्यूटर या टीवी स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताने वाले लोगों की अन्य वजहों से भी मौत का खतरा 48 फीसदी बढ़ जाता है। रिसर्चरों का यह भी कहना है कि कंप्यूटर या टीवी से होने वाले इस नुकसान भी भरपाई एक्सरसाइज या वर्जिश करने से भी नहीं की जा सकती। यह स्टडी ' डेली एक्सप्रेस ' में छपी है।

रिसर्चरों के अनुसार इसकी वजह बेहद साफ है। ज्यादा समय तक निष्क्रिय रहने शरीर के अंदर सूजन और मेटाबॉलिक दिक्कतें होने लगती है। ज्यादा समय तक एक जगह बैठे रहने से एक बेहद अहम एंजाइम - लिपोप्रोटीन में 90 फीसदी तक कमी आ जाती है। वास्तव में , यह वही एंजाइम है जो शरीर में दिल की बीमारियों से बचाव करता है।

इस स्टडी की अगुवाई करने वाले यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट के डॉक्टर एमनुएल स्टामैटेकिस के मुताबिक हमारी स्टडी बताती है कि स्क्रीन पर दो घंटे या इससे ज्यादा समय बिताने से किसी शख्स में हार्ट से जुड़ी दिक्कत होने का खतरा बढ़ जाता है।

क्या करें ऐसे लोग
रिसर्चरों की सलाह है कि ऐसे लोग जो कंप्यूटर स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताते हैं , उन्हें खतरे को कम करने के लिए हरेक 20 मिनट के बाद उठकर थोड़ी दूर टहल लेना चाहिए। डॉ . एमनुएल का कहना है कि खडे़ होने और चलने से बैठे रहने के मुकाबले 50 फीसदी ज्यादा एनर्जी खर्च होती है और इस तरह से खतरे को कम किया जा सकता है। गौरतलब है कि भारत सहित दुनिया में टीवी और कंप्यूटर के साथ लोगों का समय अब ज्यादा गुजरने लगा है।

Sikandar_Khan
11-03-2011, 07:33 PM
इंजेक्शन नहीं, सूंघने वाला इंसुलिन तैयार


डायबीटीज़ के रोगियों के लिए अच्छी खबर है। उन्हें अब इंसुलिन की सूई नहीं लेनी पडे़गी। एक ऐसी दवा तैयार की गयी है जिसके केवल सूंघने से ही बात बन जाएगी।

अफ्रेज्जा नामक इस दवा को तैयार करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खून में शुगर का स्तर सामान्य के करीब रखता है और इसमें मौजूदा इंजेक्शन की तुलना में निम्न शुगर स्तर होने का जोखिम भी काफी कम है। इस नई दवा को अभी अमेरिकी खाद्य एवं मादक पदार्थ विभाग (एफडीए) से अनुमति का इंतजार है।

मैनकाइंड कॉरपोरेशन कंपनी में इस दवा को बनाने वाली टीम के प्रमुख आंड्रिया लियोन बे ने कहा- यह दवा सूखे पाउडर के रूप में है और उसे सूंघा जाता है। दवा के कण फेफडे़ से होते हुए खून में पहुंच जाते हैं और तुरंत अपना असर दिखाने लगते हैं। दवा लेने के 12-15 मिनट में ही उसका असर दिखने लगता है। लियोन बे का कहना है कि यह दवा इंजेक्शन की तुलना में काफी पहले ही अपना असर दिखाती है।

हालांकि 2006 में सूघने वाली दवा तैयार हुई थी। लेकिन अक्टूबर 2007 में दवा निर्माता कंपनी फाइज़र ने उसे कुछ चिंताओं को लेकर बाजार से हटा लिया। एक स्टडी में यह बात सामने आयी थी कि एक्यूबेरा से फेफड़े के काम करने की गति घट जाती है और दूसरी एवं अधिक चिंताजनक बात यह थी कि इससे फेफड़े का कैंसर होने का जोखिम बढ़ जाता है।

लियोन-बे कहती हैं- अफ्रेज्जा पर कैंसर संबंधी अध्ययन किया गया है। चूहे को मानव की तुलना में ज्यादा अफ्रेज्जा सुंघाया गया और शोधकर्ताओं को उसके फेफड़े के कैंसर का खतरा बढ़ने का कोई जोखिम नजर नहीं आया। दरअसल पिछली दवा पर कैंसर संबंधी अध्ययन किए ही नहीं गए थे। विशेषज्ञों ने इस नई दवा का स्वागत तो जरूर किया है लेकिन थोड़ा सावधान भी किया है। जूवेनाइल डायबीटीज़ रिसर्च फाउंडेशन के इंसुलिन विभाग के डायरेक्टर संजय दत्त कहते हैं कि नई दवा का केवल 6 महीने के लिए टेस्ट किया गया है अभी लंबी अवधि के लिए इसका असर जानना बाकी है।

bhoomi ji
11-03-2011, 07:39 PM
बहुत ही अच्छी जानकारी

एक अच्छे सूत्र के लिए बधाइयाँ

Sikandar_Khan
11-03-2011, 07:57 PM
बहुत ही अच्छी जानकारी

एक अच्छे सूत्र के लिए बधाइयाँ

सूत्र पर आगमन के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद

Sikandar_Khan
11-03-2011, 08:00 PM
दिल से दिल के लिए
प्रतिमा पांडेय

बचपन से बड़े होने तक, जब भी किसी काम में सफलता के मंत्र गिनाए जा रहे होते हैं, दिल की बात जरूर उठती है। दिल से पढ़ो, तो अच्छे नंबर, दिल से काम करो, तो तरक्की निश्चित आदि-आदि। लगता है हमारे बड़े-बुजुर्ग दिल की मल्टीटैलेंटेड तबीयत से अच्छी तरह परिचित थे। माटी के चोले में जान डालने वाली धड़कनों के अलावा दिल इस मायावी संसार में आपको सबकुछ दिला सकता है, बशर्ते ये आपके कंट्रोल में हो! और अब इसमें एक बात और जोड़ लीजिए कि दिल पर आपका कंट्रोल बना रहे, इसके लिए दिल से करिए पढ़ाई।

बीएमसी पब्लिक हेल्थ नामक एक ओपन एक्सेस शोध पत्र में प्रकाशित एक स्टडी तो यही सलाह देती है। स्टडी के अनुसार हायर एजुकेशन यानी अपनी जिंदगी के लगभग सोलह-सत्रह साल, जिन्होंने पढ़ाई में लगाए हैं, उन्हें दिल की समस्याएं बाकियों की अपेक्षा कम सताती हैं। आज के दौर में इसे यूं समझा जा सकता है कि अगर आप प्रोफेशनली, वोकेशनली या एकेडेमिकली एजुकेटेड हैं, तो लाइफ में टेंशन नहीं है। और टेंशन ही तो सारी मुसीबतों की जड़ कही जाती है। पर टेंशन शारीरिक भी हो सकती है।

जमकर मेहनत, कम खाना, कम सोना भी शरीर के सिस्टम्स को तनावग्रस्त कर देता है। आज के युग में मानसिक तनाव की तो कहिए ही क्या! अगर आपके जीवन में बार-बार फाइट ऑर फ्लाइट यानी कि लड़ो या भाग खड़े हो, की सिचुएशंस आती हैं, तो इससे उपजा तनाव भी दिल ज्यादा दिन बरदाश्त नहीं कर पाता। ऐसे अंतर्द्वंद्व दिल के लिए घातक साबित होते हैं। उन लोगों के दिल को भी नुकसान पहुंचता है, जो अपने गुस्से को कम नहीं कर पाते। यह भी जगजाहिर तथ्य है कि तनाव से उत्पन्न हाइपरटेंशन यानी उच्च रक्त चाप दिल को नुकसान पहुंचाने के अलावा मस्तिष्क आघात यानी ब्रेनहैमरेज, किडनी फेल्योर का भी कारण होता है।

इस स्टडी के हिसाब से आपके दिल की बात सीधी जाकर जुड़ती है आपकेकमाई के तौर-तरीकों से। कम पढ़े-लिखे लोगों की वर्किंग कंडीशंस तनावपूर्ण होती हैं, तो हाई ब्लड प्रेशर का कारण बनती हैं। ऐसी तनावपूर्ण स्थितियां शरीर में हाइपर टेंशन की प्रवृत्ति उत्पन्न करती हैं। अगर लंबे समय हाइपरटेंशन रहे, तो यह उच्च रक्तचाप की बीमारी में बदल जाती है और दिल बेचारा कमजोर होने लगता है।

लेकिन अगर दिल को हम केवल मांस-मज्जा वाले दिल की तरह समझेंगे और उसके मामलों को कोलेस्ट्रॉल या कार्डियाक सर्जरी जैसे मुद्दों तक सीमित कर देंगे, तो दिलवालों के प्रति नाइंसाफी होगी। दिल में जज्बात होते हैं। जज्बात दिल की दवा भी हैं और दर्द भी। जज्बात तनाव का भी कारण होते हैं। पर यहां भी पढ़ाई काम आती है और निराशा से बचाती है। क्योंकि उच्च शिक्षा वालों को जिंदगी से मिलने वाले बार-बार के सदमे झेलने के बेहतर तौर-तरीकेपता होते हैं। यह कहना है क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. नीलिमा पांडेय का।

हायर एजुकेशन में व्यक्ति के ब्लू प्रिंट्स चेंज हो जाते हैं। हायर एजुकेशन से हमारे अंदर गहरे बैठे स्टीरियोटाइप्स यानी परंपरागत भूमिकाओं या निष्कर्षों को चुनौती मिलती है। इस प्रक्रिया में हम स्टीरियोटाइप्स की कैद से बाहर निकलने लगते हैं। यह हमारे समायोजन के फ्लेक्सिबल तरीके अपनाने का आधार बनता है। पॉजिटिव कोपिंग मैकेनिज्म डेवलप होते हैं, तो तनावपूर्ण स्थिति के व्यावहारिक पक्ष पर नजर पहले पड़ती है और बेहतर समाधान आसान होता है।

उनके अनुसार उच्च शिक्षा इन्फॉर्मेशन तक पहुंच बनाती है। जिस कारण लाइफ स्टाइल भी बेहतर होता है। पोषण, एक्सरसाइज का महत्व इन सबकी सार्थकता के प्रति हमारा ध्यान जाता है। तनाव भगाने के तरीकों, जैसे कि रीडिंग, एक्सरसाइजिंग, स्पोर्ट्स वगैरह पर व्यक्ति स्वतः ही ध्यान देता है। उच्च शिक्षा फ्यूचर सिक्योरिटी की भावना भी जगाती है। लिहाजा व्यक्ति कम तनावग्रस्त रहता है और दिल की सेहत दुरुस्त रहती है।

हालांकि फोर्टिस हॉस्पिटल के कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. परनीश अरोड़ा दिल के इस मामले को हायर एजुकेशन से जुड़े लोगों की दवाइयों के प्रति जागरूकता से जोड़कर भी देखते हैं। उनके अनुसार एजुकेटेड लोगों में ड्रग कंप्लाएंस होती है। उनमें स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ज्यादा होती है। ज्यादा नमक हाई बीपी करता है, जैसे सामान्य तथ्यों से ज्यादा परिचित होते हैं। उच्च शिक्षा से मेडिकल अटेंशन बढ़ती है। आप इंटरनेट पर पढ़ते हैं, अखबार में सावधान करते हुए आलेखों पर ध्यान जाता है, तो आप ज्यादा प्रेरित होते हैं दवाइयों के इस्तेमाल के लिए सजग होते हैं।

इस संदर्भ में डॉक्टर अतुल यह भी कहते हैं कि हाई सुसाइड और स्ट्रेस केसेज वाले कारपोरेट सेक्टर में भी आप देखेंगे कि ऊंचे पद पर रहने वाला अपना तनाव या वर्कप्रेशर अपने से नीचे वाले पर, जो कि जाहिर तौर पर उससे प्रोफेशनली कम एजुकेटेड है, ट्रांसफर कर सकता है। इस तरह नंबर वन से टू और फिर थ्री और यह तनाव निचले सिरे पर सबसे ज्यादा पाया जाएगा। एक ऐसे ही अध्ययन के अनुसार ऑफिस में निचले पदों पर नियुक्त लोगों को तनाव से पहुंचने वाले नुकसान सीनियर्स की तुलना में कहीं अधिक होते हैं। बात शिक्षा पर ही आकर टिकती है।

पर सवाल यह भी उठता है कि हम शिक्षा किसे कह रहे हैं। काउंसलर जितिन चावला की बात पर गौर करें, तो यह पेंच भी कुछ-कुछ समझ में आने लगता है। वे बताते हैं कि आईआईटीज में ह्यूमैनिटीज और सोशल साइंसेज के कोर्सेज शुरू किए गए हैं। इसकी जरूरत यूं बनी कि प्रोफेशनल स्किल्स को सफल जिंदगी के लिए जितना जरूरी माना जाता है, उतना ही जरूरी होते हैं व्यक्तित्व विकास और जीने की कला। क्योंकि जिंदगी की नरमी तभी महसूस होती है, जब दिल की धड़कन से हमारा रिश्ता बना रहे। जब दिल ही बेचैन है, तो बेहाल जिंदगी में फलता-फूलता हमारा प्रोफेशन किस काम का!

ज्यादा शिक्षा, तो बेहतर सोच
फोर्टिस एस्कॉर्ट हॉस्पिटल में इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजी डायरेक्टर डॉ. अतुल माथुर की राय में भी उच्च शिक्षा हमारे नजरिए को प्रभावित करती है। उच्च शिक्षित लोगों के सोचने का तरीका बदल जाता है। यह ज्यादा विकसित और तार्किक होता है। इसी के आधार पर हर दिन आने वाले तनावों से वे आम लोगों से बेहतर ढंग से समायोजन कर लेते हैं। इसे प्रोफेशनल सिक्योरिटी से जोड़कर भी देख सकते हैं। क्योंकि बेहतर एजुकेशन आपको व्यावसायिक सुरक्षा प्रदान करती है। जिस कारण मन मजबूत रहता है और बात-बात पर दिल बेचैन नहीं होता। यानी बीपी को प्रभावित करने वाले स्ट्रेस फैक्टर्स कम ही आते हैं।

जो भी करो दिल से करो
क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. नीलिमा पांडेय के अनुसार केवल दिल की सेहत को सोच कर ही शिक्षा की उपयोगिता को न देखिए। पढ़ाई दिल से न की, तो भी यही मुश्किल आ सकती है। दिल से पढ़ाई करने का मतलब है कि हम जो कर रहे हैं, किसी दबाव में नहीं कर रहे। इसीलिए दिल से पढ़ाई करते वक्त आपका दिमाग आपको पहले मिल चुकी जानकारी और अनुभवों से पढ़ाई को रिलेट करता चलता है। जब हम कुछ नया किसी पुराने संदर्भ से जोड़ कर सीखते हैं, तो वह ज्यादा समझ में आता है और याद रहता है। इसे टेक्निकली कहें, तो अच्छे मेमोरी चंक्स फार्म होते हैं। जीवन में आप उस शिक्षा का व्यावहारिक उपयोग भी बेहतर कर सकते हैं। इससे संतोष बढ़ता है। आप जिंदगी से संतुष्ट होंगे, तो बीपी बढ़ाने वाली सिचुएशंस कम ही आएंगी।

pankaj bedrdi
11-03-2011, 08:03 PM
बहुत अच्छा आपने सुत्र बनाये हो भाइ

Bond007
11-03-2011, 08:21 PM
रोज कंप्यूटर को दिए 4 घंटे, तो दिल दे देगा 'धोखा'



एक मिनट..........|

:omg: मेरा जैसे का क्या होगा, जो रोजाना औसतन 12 से 14 घंटे कंप्यूटर पर बिताता है??? और कभी-कभी इससे भी ज्यादा.....!!!:cryingbaby::cryingbaby:

Sikandar_Khan
11-03-2011, 08:44 PM
बहुत अच्छा आपने सुत्र बनाये हो भाइ

पंकज जी
सूत्र पर आगमन के लिए आपका हार्दिक आभार

Sikandar_Khan
11-03-2011, 08:46 PM
एक मिनट..........|

:omg: मेरा जैसे का क्या होगा, जो रोजाना औसतन 12 से 14 घंटे कंप्यूटर पर बिताता है??? और कभी-कभी इससे भी ज्यादा.....!!!:cryingbaby::cryingbaby:


जितना हो सके इससे बचा जाये
और जो उपाय बताये गए है
उन पर अमल करें

Sikandar_Khan
11-03-2011, 10:47 PM
स्वाइन फ्लू की गंभीरता बता सकता है एक्सरे

इस्राइली रिसर्चरों ने दावा किया कि छाती के एक्स-रे से बताया जा सकता है कि स्वाइन फ्लू के किस मरीज को ज्यादा खतरा है। तेल अवीव सूरास्काई मेडिकल सेंटर की यह स्टडी बताती है कि स्वाइन फ्लू की पहचान और इलाज में भी एक्सरे अहम भूमिका निभा सकता है।

रेडियॉलजी जर्नल में छपी स्टडी में लीड रिसर्चर गैलिट अविरम कहते हैं कि हमने स्वाइन फ्लू प्रभावित 97 मरीजों का एक्सरे किया। इससे से 39 मरीजों के एक्सरे से कई असामान्य चीजें पता चलीं। उनमें से पांच की मौत हुई या फिर उन्हें मिकैनिकल वेंटिलेशन में रखना पड़ा। यानी गंभीरता का प्रतिशत 12.8 रहा। जबकि 58 अन्य मरीजों का एक्सरे नॉर्मल रहा। इनमें से दो की ही मौत हुई यानी गंभीर केस 3.4 फीसदी। मतलब कि अगर एक्सरे में असामान्यता ज्यादा है तो गंभीरता का प्रतिशत भी बढ़ता जाता है। एक्सरे सामान्य है तो केस बिगड़ने की संभावना भी कम

Sikandar_Khan
12-03-2011, 12:40 AM
इंजेक्शन लगाओ, फोबिया भूल जाओ

मकड़ी, छिपकली, चूहे, सांप, पानी या ऊंचाई से डरना अब बीती बात होगी। जापानी वैज्ञानिकों का दावा है कि वह दिन दूर नहीं, जब सिर्फ एक इंजेक्शन इस तरह के किसी भी फोबिया को छूमंतर कर देगा। यूनिवर्सिटी ऑफ हिरोशिमा के वैज्ञानिकों ने इस स्टडी को अंजाम दिया है। प्रफेसर मासायूकी योशिदा के मुताबिक, यह इंजेक्शन सीधे हमारे दिमाग के फियर सेंटर पर असर कर उसे स्विच ऑफ कर देता है और उसे री-प्रोग्राम कर डर को भुला देता है।

स्टडी बताती है कि फोबिया और कुछ नहीं, बचपन का डर है जो बाद में आदत में शुमार हो जाता है। जापान की यह स्टडी उन लोगों के बड़े काम आएगी, जो किसी न किसी फोबिया की वजह से रोजमर्रा की जिंदगी में परेशान हैं। प्रफेसर योशिदा कहते हैं कि एक दिन हमारा यह अचेतन फोबिया बिसरी बात बनकर रह जाएगा। जरा महसूस कीजिए आपको मकड़ी, शार्क, उड़ने या ऊंचाई से डर लगता है तो बस एक इंजेक्शन आपके उस डर को दूर कर देगा और आप निडर होकर उन चीजों का मजा उठा सकेंगे, जो अब तक आपके लिए किसी भूत से कम नहीं थे।

प्रफेसर योशिदा ने गोल्डफिश पर अपनी इस स्टडी को अंजाम दिया। माना जाता है कि गोल्डफिश और स्तनपायी के दिमाग में काफी समानता है। गौरतलब है, इंसान भी स्तनपायी है। इसलिए गोल्डफिश पर इस इंजेक्शन की कामयाबी ने इंसानी डर को दूर करने की राह खोल दी है। प्रफेसर योशिदा ने प्रयोग के दौरान गोल्डफिश को हल्का शॉक दिया और उस दौरान उसके टैंक पर लाइट फ्लैश की। इससे गोल्डफिश ने यह सीखा कि जब भी लाइट जलती है उसे करंट लगता है। इस तरह उसने लाइट को करंट से जोड़ लिया। फिर तो करंट न भी दो, सिर्फ लाइट फ्लैश कर दो तो वह गोल्डफिश डरने लगी। इस दौरान उसकी हार्ट बीट कम हो जाती। लेकिन इंसान जब डरता है तो उसकी हार्ट बीट बढ़ जाती है। आपने खुद महसूस किया होगा कि कितनी तेजी से दिल धड़कता है।

रिसर्चर ने फिर डरी हुई गोल्डफिश के बेन के सेरिब्रेलम हिस्से में लिडकेन नाम की ऐनस्थेटिक ड्रग का इंजेक्शन लगाया। इसके बाद लाइट फ्लैश करने का टेस्ट फिर किया। लेकिन अब कि गोल्डफिश पर कोई असर नहीं पड़ा। वह डरी नहीं। उसकी हार्ट बीट भी नॉर्मल रही। प्रफेसर योशिदा कहते हैं कि गोल्डफिश से दिमागी समानता होने की वजह से जल्द ही इंसानों के लिए ऐसे इंजेक्शन बन जाएंगे, जो उनके डर को नौ दो ग्यारह कर देंगे। इस इंजेक्शन का असर जैसे ही दूर होगा गोल्डफिश फिर पहले की तरह हो जाएगी। इस स्टडी को बायोमेड सेंट्रल्स जर्नल में पब्लिश किया गया है।

Sikandar_Khan
12-03-2011, 01:24 AM
खुशखबरी: वैज्ञानिकों ने ढूंढा एड्स का इलाज


वैज्ञानिकों की एक इंटरनैशनल टीम ने एड्स का इलाज खोजने का दावा किया है। इस टीम ने एक ऐसा जिनेटिक तरीका खोजा है जिसके इस्तेमाल से शरीर खुद ब खुद एचआईवी वायरस से मुक्ति पा लेगा। इस टीम को ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की सरकारों का समर्थन है।

वैज्ञानिकों ने चूहों पर ये एक्सपेरिमेंट किए थे। इसके तहत वे चूहों के इम्यून सिस्टम या प्रतिरोधक क्षमता को इस हद तक बढ़ाने में कामयाब हुए कि सिस्टम ने वायरस को नाकाम कर दिया और उसे शरीर से निकाल फेंका। इस प्रयोग के केंद्र में socs-3 नाम का जीन था। जब शरीर में एचआईवी जैसा गंभीर इन्फेक्शन होता है तो यह जीन बहुत ज्यादा सक्रिय हो जाता है और आश्चर्यजनक तौर पर खुद इम्यून सिस्टम को बंद कर देता है। इस वजह से वायरस बिना रोकटोक फलता फूलता है।

जब वैज्ञानिकों ने आईएल-7 नाम के एक हॉर्मोन का लेवल बढ़ाया तो socs-3 जीन ने काम करना बंद कर दिया और चूहे ने धीरे-धीरे एचआईवी वायरस को शरीर से बाहर कर दिया। गौरतलब है कि एड्स वायरस की सबसे बड़ी खूबी है कि यह हमारे इम्यून सिस्टम को नाकाम कर देता है।

चूहे पर हुए ताजा प्रयोग के बाद वैज्ञानिकों के दिल में नए किस्म के इलाज की उम्मीद जगी है। उन्हें भरोसा है कि इस तरह से न केवल एचआईवी बल्कि हेपटाइटिस बी, सी और टीबी जैसे गंभीर इन्फेक्शन का भी इलाज हो सकेगा।
टीम लीडर डॉ. मार्क पैलेग्रिनी का कहना है एचआईवी और हेपटाइटिस बी, सी के वायरस हमारे इम्यून सिस्टम को इतना थका देते हैं कि वह बजाय उनसे लड़ने के हथियार डाल देता है।

हमारी अप्रोच यह थी कि किसी तरह इम्यून सिस्टम को थकाने वाले कारक की पहचान करके उससे जुड़े जीन में ऐसी फेरबदल की जाए कि प्रतिरोधक क्षमता फिर से काम करने लगे और इन्फेक्शन का मुकाबला करे। अब ऐसी दवाएं डिवेलप की जाएंगी जो socs-3 जैसे जीन्स पर कारगर हों और उनके काम करने के तरीके को बदल सके।

sagar -
12-03-2011, 05:09 AM
बहुत अच्छी जानकारी सिकन्दर भाई http://content.sweetim.com/sim/cpie/emoticons/000203FA.gif (http://www.sweetim.com/s.asp?im=gen&lpver=3&ref=10)






(http://www.sweetim.com/s.asp?im=gen&lpver=3&ref=12)

Sikandar_Khan
12-03-2011, 10:25 AM
ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है पानी

पानी पीने के फायदों को जानते हुए भी अगर आपने अभी तक रोजाना पर्याप्त मात्रा में पानी पीने की आदत नहीं डाली है तो अब जरा पानी को लेकर सीरियस हो जाइए। एक स्टडी में पता लगा है कि पानी हमें ज्यादा अलर्ट रखता है। यही नहीं हमारे ब्लड प्रेशर को भी कंट्रोल करता है।

वैंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के रिसर्चरों ने एक स्टडी में पाया कि पानी पीने से हमारे नर्वस सिस्टम की एक्टिविटी बढ़ जाती है जिससे हम ज्यादा अलर्ट रहते हैं। इसी कारण हमारा ब्लड प्रेशर भी बढ़ता है और एनर्जी का खर्च भी।

इन रिसर्चरों ने सबसे पहले पानी और ब्लड प्रेशर का यह रिश्ता 10 साल पहले बेरोरफ्लेक्सेज खो चुके पेशंट्स में देखा था। बेरोरफ्लेक्सेज वह सिस्टम है जो ब्लड प्रेशर को नॉर्मल रेंज में रखता है। लीड रिसर्चर प्रोफेसर डेविड रॉबर्टसन के मुताबिक, यह ऑब्जर्वेशन हमारे लिए बिल्कुल हैरानी की बात थी क्योंकि अब तक स्टूडेंट्स को यही पढ़ाया जाता था कि पानी का ब्लड प्रेशर पर कोई इफेक्ट नहीं होता।

हालांकि जिन युवाओं में बेरोरफ्लेक्सेज सलामत होता है उनमें पानी से ब्लड प्रेशर नहीं बढ़ता। पर रिसर्चरों ने यह भी पाया कि पानी सिंपैथटिक नर्वस सिस्टम एक्टिविटी को बढ़ाता है और ब्लड वेसल्स को टाइट करता है।

Sikandar_Khan
12-03-2011, 10:32 AM
म्यूजिक थेरपी से स्ट्रोक के पेशंट्स का इलाज

लंबे समय से माना जाता है कि म्यूजिक सुनने से टेंशन में कमी आती है पर अब एक नई रिसर्च का दावा है कि इससे स्ट्रोक पेशंट्स के इलाज में मदद मिल सकती है। उनका दावा है कि इसका दिमाग पर स्ट्रॉन्ग इफेक्ट पड़ता है।

रिसर्चरों ने म्यूजिक थेरपी के फायदों पर हुईं कई स्टडीज के रिव्यू के बाद पाया कि स्ट्रोक पेशंट्स पर यह वाकई काम करती है। इससे उनके मूवमेंट में काफी सुधार भी होता है। ध्यान हो कि हर साल करीब 2 करोड़ लोग स्ट्रोक के शिकार होते हैं। कई लोगों को दिमागी चोट आ जाती है जिससे उनके मूवमेंट और लैंग्वेज अबिलिटी पर असर पड़ता है। इससे उनकी क्वॉलिटी लाइफ पर बुरा असर पड़ता है।

म्यूजिक थेरपिस्ट को भी ऐसी तकनीक मालूम होती है जो ब्रेन फंक्शंस को स्टिमुलेट करती है और पेशंट्स की हालत सुधारती है। इसमें सबसे आम तकनीक है रिदमिक ऑडिटरी स्टिमुलेशन (आरएएस)। यह रिद्म और मूवमेंट के कनेक्शंस से जुड़ी है। इसमें पेशंट्स की मूवमेंट को स्टिमुलेट करने के लिए एक खास टेंपो के म्यूजिक का इस्तेमाल किया जाता है।

विभिन्न रिसर्चों का रिव्यू करने पर देखा गया कि आरएएस थेरपी से पेशंट्स की चलने-फिरने की स्पीड में औसतन 14 मीटर प्रति मिनट का सुधार हुआ। बाकी स्टैंडर्ड मूवमेंट थेरपी में इसके मुकाबले कम सुधार देखा गया। एक ट्रायल में आरएएस से हाथों के मूवमेंट में भी सुधार आया। हाथ को कोहनी से मोड़ने में भी इस थेरपी से मदद मिली।

abhisays
12-03-2011, 03:15 PM
बहुत ही उम्दा और ज्ञानवर्धक सूत्र है. सिकंदर जी का इस सूत्र को बनाने के liye बहुत बहुत धन्यवाद.

saajid
12-03-2011, 03:17 PM
अच्छा सूत्र है एक दम ऊपर से गया मेरे

Sikandar_Khan
12-03-2011, 03:23 PM
अच्छा सूत्र है एक दम ऊपर से गया मेरे

ऐसा क्योँ भाई ?

saajid
12-03-2011, 03:28 PM
ऐसा क्योँ भाई ?


:bang-head: :bang-head:

Sikandar_Khan
12-03-2011, 08:27 PM
फिट रहने का formula 80

गुरुवार को सीनियर हार्ट स्पेशलिस्ट डॉ . के . के . अग्रवाल एनबीटी रीडर्स से सीधे रूबरू हुए। लाइव चैट के जरिए उन्होंने काफी लोगों के सवालों के जवाब दिए। चैट रूम में पहुंचने और सवाल - जवाब का सिलसिला शुरू होने से पहले ऐसा लग रहा था कि लोग उनसे डेंगू , मलेरिया , स्वाइन फ्लू , टाइफाइड और जॉन्डिस जैसी बीमारियों के बारे में पूछने में सबसे ज्यादा रुचि लेंगे , लेकिन लोगों का अलग रुझान देखकर उन्हें काफी हैरानी हुई। डॉ . अग्रवाल ने इस दौरान फिट रहने के कई दिलचस्प फॉर्म्युले भी बताए।



डॉ . अग्रवाल ने एक घंटे में 129 सवालों के जवाब दिए। इनमें सबसे ज्यादा सवाल लाइफस्टाइल से जुड़ी दिक्कतों से थे। दूसरे नंबर पर सेक्सुअल डिसॉर्डर और चेस्ट पेन से हार्ट की बीमारियों का खतरा और तीसरे नंबर पर थीं , डेंगू , मलेरिया , एच 1 एन 1 फ्लू जैसी बीमारियां। लोगों के कॉमन सवाल भी कम नहीं थे। जैसे सिक्स पैक ऐब्स बनाने के लिए कौन सा सप्लिमेंट लूं , कौन सी एक्सरसाइज करूं और कितने घंटे जिम करूं आदि। हालांकि इसके लिए सबसे जरूरी चीज यानी डाइट मैनेजमेंट पर लोगों का बिल्कुल भी ध्यान नहीं था। कोई फिटनेस का शॉर्टकट पूछ रहा था तो कोई पेट की चौड़ाई कम करने के तरीके। इनके जवाब में डॉ . अग्रवाल ने बताया कि फिट रहने के लिए 80 का फॉर्म्युला याद रखें - पेट की चौड़ाई , दिल की धड़कन , गंदा कॉलेस्ट्रॉल , खाली पेट शुगर , नीचे का बीपी 80 से कम रखें। रोज 80 मिनट चलें , 80 बार प्राणायाम करें , 80 तालियां बजाएं , 80 बार हंसें , 80 ग्राम से ज्यादा न खाएं , चाय , अल्कोहल 80 एमएल से ज्यादा न पिएं।

हार्ट अटैक होने पर एस्पिरिन की गोली चबाने से मौत का खतरा 20 पर्सेंट तक कम हो जाता है। किसी भी तरह की मौत की स्थिति में 10 मिनट तक आत्मा शरीर नहीं छोड़ती। इन 10 मिनटों में प्रति मिनट 100 की स्पीड से मरीज की छाती दबाएं। चेस्ट का जो दर्द 30 सेकंड से कम समय तक रहता है और अगर वह छाती के किसी ऐसे हिस्से में होती है , जहां से उसे तुरंत पहचाना जा सके , तो वह हार्ट से संबंधित नहीं होता। सुबह के समय चेस्ट में दर्द हो , तो उसे इग्नोर न करें। जो चीज पेड़ों से आती हैं , उनमें कॉलेस्ट्रॉल नहीं होता। जो तेल रूम टेंपरेचर में जम जाता है , वह शरीर के अंदर भी जरूर जमेगा। ऐसे में उसे न खाएं। ' च ' से शुरू होने वाली आटिर्फिशल चीजें , जैसे चावल , चीनी , मैदा चपाती , चॉकलेट जैसी चीजों से परहेज करें। नॉर्मल फ्लू , एच 1 एन 1 फ्लू जैसी बीमारियों से बचने के लिए साफ - सफाई का ध्यान रखें और जिसे भी फ्लू है उससे एक हाथ की दूरी बना कर रखें। डेंगू , मलेरिया जैसी बीमारियों से बचाव के लिए मच्छरों का प्रजनन रोकें और जॉन्डिस , टाइफाइड से बचने के लिए पानी उबालकर पिएं।

फॉर्म्युला 80 : कमर , धड़कन , गंदा कॉलेस्ट्रॉल , खाली पेट शुगर , नीचे का बीपी 80 से कम रखें। रोज 80 मिनट चलें , 80 बार प्राणायाम करें , 80 तालियां बजाएं , 80 बार हंसें , 80 ग्राम से ज्यादा न खाएं , चाय , अल्कोहल 80 एमएल से ज्यादा न पिएं।

' च ' से रहें दूर :
हिंदी वर्णमाला के अक्षर से शुरू होने वाली खाने की चीजों जैसे चावल , चीनी , मैदा चपाती , चॉकलेट जैसी चीजों से परहेज करें।

Bholu
13-03-2011, 04:20 AM
ऐसी जानकारी के लिये धन्यवाद भाईजान

Sikandar_Khan
14-03-2011, 10:57 AM
कैंसर का इलाज अब संभव?

वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया कि कैसे कैंसर का एक खास प्रकार उसके इलाज में कारगर है, जिसके आधार पर उन्होंने दावा किया है कि कैंसर का इलाज संभव है।

डंडी विश्वविद्यालय और ब्रिटेन के कैंसर रिसर्च संस्थान की अगुवाई में वैज्ञानिकों के अंतरराष्ट्रीय दल ने टीजीएफबीआर नामक एक जीन की पहचान की है, जो दुर्लभ त्वचा कैंसर एमएसएसई के लिए जिम्मेदार है।

दरसअल, त्वचा कैंसर कुछ सप्ताह तक बड़ी तेजी से बढ़ता है वैसे ही जैसे ट्यूमर बढ़ता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, यह दोषी जीन सभी तरह के कैंसर में पाया जाता है और यह खोज विभिन्न प्रकार के कैंसर के इलाज के लिए नई दवा का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।


कैंसर रिसर्च यूके के डॉ. लेस्ली वाकर ने कहा, अनुसंधान कैंसर को परास्त करने के हमारे लक्ष्य के समीप पहुंचने की दिशा एक अगला कदम है।

pankaj bedrdi
14-03-2011, 09:03 PM
बहुत मस्त और अच्छा जनकारी है

Sikandar_Khan
14-03-2011, 09:22 PM
बहुत मस्त और अच्छा जनकारी है

पंकज जी
सूत्र पर आगमन के लिए आपका हार्दिक आभार

Sikandar_Khan
14-03-2011, 09:33 PM
फैट-फ्री तेल के नाम पर कंपनियों का खेल

खाने के तेल की कंपनियां अपने प्रॉडक्ट्स पर 'कॉलेस्ट्रॉल-फ्री' या 'फैट-फ्री' लिखकर दिल के मरीजों की संख्या बढ़ा रही हैं। हालांकि एक हद तक वेजिटेबल ऑयल 'कॉलेस्ट्रॉल-फ्री' होते हैं क्योंकि कॉलेस्ट्रॉल का बाहरी सोर्स सिर्फ और सिर्फ जानवर हैं। हमारे शरीर में लीवर में जो कॉलेस्ट्रॉल बनता है, उसके अलावा दूध और दूध से बनी चीजें और मीट आदि खाने से कॉलेस्ट्रॉल बनता है। ऐसे में खाने के तेलों की पैकिंग पर 'कॉलेस्ट्रॉल-फ्री' लिखा जाना तो गलत नहीं है, पर उस पर 95 फीसदी 'फैट-फ्री' लिखा जाना लोगों को भ्रमित कर तेल बेचने के लिए मार्केटिंग फंडा है।

जीरो ऑयल खाने के इस्तेमाल की बात कहनेवाले साओल यानी 'साइंस एंड आर्ट ऑफ लिविंग' के जनक डॉ. बिमल छाजेड़ का दावा है कि खाने के तेल की कंपनियां पैकिंग पर सही जानकारी नहीं देतीं। इन तेलों में कॉलेस्ट्रॉल का ही रूप ट्राइग्लिसराइड मौजूद होता है, जो दिल की धमनियों में रुकावट पैदा करता है। कानून के शिकंजे से बचने के लिए एक स्टार लगाकर कहीं बहुत ही छोटे शब्दों में उस पर 'सैचुरेटिड ट्राइग्लिसराड्स' भी लिख दिया जाता है, जो सामान्य ढंग से पढ़ने में नहीं आता।

असल में, खाने के तेल की पैकिंग पर लिखी भाषा ऐसी होती है कि लोग सोचते हैं कि यह तेल उनकी सेहत, खासकर धमनियों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। लेकिन कोई भी तेल ऐसा नहीं है, जो दिल की सेहत को नुकसान नहीं पहुंचाता हो।

खाने में तेल की जरूरत नहीं : जब तेल सेहत के लिए अच्छा नहीं है तो फिर लोग खाने में उसका इस्तेमाल क्यों करते हैं? असल में एक गलत धारणा है कि तेल के बिना खाना स्वादिष्ट नहीं बनता। सच यह है कि स्वाद तेल से नहीं, मसालों से आता है। वैसे भी, तेल का अपना कोई स्वाद नहीं होता, बल्कि अजीब-सा स्वाद होता है।

ndhebar
16-03-2011, 04:48 PM
हमारे शरीर में लीवर में जो कॉलेस्ट्रॉल बनता है, उसके अलावा दूध और दूध से बनी चीजें और मीट आदि खाने से कॉलेस्ट्रॉल बनता है।

आप मलाई रहित दूध का इस्तेमाल कर सकते है इससे कॉलेस्ट्रॉल नहीं बनता है।
मीट की जगह चिकेन खाइए

sagar -
16-03-2011, 08:13 PM
फैट-फ्री तेल के नाम पर कंपनियों का खेल

खाने के तेल की कंपनियां अपने प्रॉडक्ट्स पर 'कॉलेस्ट्रॉल-फ्री' या 'फैट-फ्री' लिखकर दिल के मरीजों की संख्या बढ़ा रही हैं। हालांकि एक हद तक वेजिटेबल ऑयल 'कॉलेस्ट्रॉल-फ्री' होते हैं क्योंकि कॉलेस्ट्रॉल का बाहरी सोर्स सिर्फ और सिर्फ जानवर हैं। हमारे शरीर में लीवर में जो कॉलेस्ट्रॉल बनता है, उसके अलावा दूध और दूध से बनी चीजें और मीट आदि खाने से कॉलेस्ट्रॉल बनता है। ऐसे में खाने के तेलों की पैकिंग पर 'कॉलेस्ट्रॉल-फ्री' लिखा जाना तो गलत नहीं है, पर उस पर 95 फीसदी 'फैट-फ्री' लिखा जाना लोगों को भ्रमित कर तेल बेचने के लिए मार्केटिंग फंडा है।

जीरो ऑयल खाने के इस्तेमाल की बात कहनेवाले साओल यानी 'साइंस एंड आर्ट ऑफ लिविंग' के जनक डॉ. बिमल छाजेड़ का दावा है कि खाने के तेल की कंपनियां पैकिंग पर सही जानकारी नहीं देतीं। इन तेलों में कॉलेस्ट्रॉल का ही रूप ट्राइग्लिसराइड मौजूद होता है, जो दिल की धमनियों में रुकावट पैदा करता है। कानून के शिकंजे से बचने के लिए एक स्टार लगाकर कहीं बहुत ही छोटे शब्दों में उस पर 'सैचुरेटिड ट्राइग्लिसराड्स' भी लिख दिया जाता है, जो सामान्य ढंग से पढ़ने में नहीं आता।

असल में, खाने के तेल की पैकिंग पर लिखी भाषा ऐसी होती है कि लोग सोचते हैं कि यह तेल उनकी सेहत, खासकर धमनियों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। लेकिन कोई भी तेल ऐसा नहीं है, जो दिल की सेहत को नुकसान नहीं पहुंचाता हो।

खाने में तेल की जरूरत नहीं : जब तेल सेहत के लिए अच्छा नहीं है तो फिर लोग खाने में उसका इस्तेमाल क्यों करते हैं? असल में एक गलत धारणा है कि तेल के बिना खाना स्वादिष्ट नहीं बनता। सच यह है कि स्वाद तेल से नहीं, मसालों से आता है। वैसे भी, तेल का अपना कोई स्वाद नहीं होता, बल्कि अजीब-सा स्वाद होता है।
अच्छी जनकारी दी सिकन्दर भाई

Sikandar_Khan
19-03-2011, 12:46 AM
हाई ब्लड प्रेशर क्यों होता है, पता चला


शरीर में आखिर किस वजह से हाई ब्लड प्रेशर होता है, ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने यह जानने का दावा किया है। अब हाई बीपी के इलाज के नए तरीके ढूंढे जा सकते हैं।

शरीर किस तरह से ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है, इसके एक जरूरी स्टेप के बारे में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी और नॉटिंघम यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने पता लगाया है। यह भी पता चला है कि इस प्रक्रिया में कब गड़बड़ी हो जाती है। स्टडी से जुड़े प्रो. रॉबिन कैरल कहते हैं कि हमने मुख्य प्रक्रिया का पहला कदम जान लिया है। रिसर्चरों का मानना है कि इस प्रक्रिया को फोकस में रखकर गड़बडि़यां रोकी जा सकती हैं और हाइपरटेंशन पर काबू पाया जा सकेगा।

मौजूदा दवाइयों का फोकस ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करने वाली प्रक्रिया के आखिरी स्टेज पर होता है। नई स्टडी से उम्मीद है कि शुरुआती स्थिति में ही हाई ब्लड प्रेशर रोका जा सकेगा। दुनिया भर में लाखों लोग हाइपरटेंशन से परेशान हैं। इससे उन्हें हार्ट अटैक और स्ट्रोक का खतरा होता है।

रिसर्चरों ने यह जानकारी तब हासिल की, जब वे प्री-इक्लेम्पसिया की स्टडी कर रहे थे। प्रेग्नेंसी के दौरान हाई ब्लड प्रेशर की यह स्थिति जच्चा-बच्चा दोनों के लिए जानलेवा हो सकती है। ब्लड प्रेशर पर कंट्रोल एंजियोटेंसिन नाम के हामोर्न्स के जरिये होता है। इसकी बड़ी डोज रक्त नलिकाओं को सिकोड़ देती है, जिससे ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है।

20 बरस से स्टडी कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि हमने इन हार्मोंस के विकास का पहला स्टेप ढूंढ लिया है। अब हम ऐसा इंतजाम करेंगे, जिससे यह हार्मोन अधिक मात्रा में विकसित हो। इससे हाई ब्लड प्रेशर की शुरुआत को ही रोका जा सकेगा। महज 10 साल में गोली भी आ सकती है। प्री-इक्लेम्पसिया का भी नया इलाज ढूंढा जा सकता है।

Sikandar_Khan
20-03-2011, 11:50 AM
बच्चों को पालने में टेंशन न पालें

तनावग्रस्त माता-पिता के लालन-पालन का नकारात्मक तरीका उनके बच्चों पर भी असर डालता है। एक स्टडी में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि इससे बच्चों में तनाव की स्थिति पैदा हो सकती है।

अमेरिका की मेरीलैंड यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने एक स्टडी में पाया कि तनावग्रस्त महिला अपने बच्चों से गुस्से से पेश आती है, जिसका असर उन पर नकारात्मक पड़ता है। लाइवसाइंस ने स्टडी के प्रमुख मनोवैज्ञानिक लेआ डगहार्टी के हवाले से कहा कि माता-पिता के लिहाज से यह स्टडी काफी अहम है।

स्टडी इस बात को ध्यान में रखकर की गई है कि बच्चे के जीवन का शुरुआती व्यवहार कैसे तनाव को जन्म देता है और क्या माता-पिता के बच्चे को पालने के तरीके का इससे कुछ लेना देना है। रिसर्चरों ने तीन से चार साल की उम्र के बीच के 160 बच्चों और उनके माता-पिता पर स्टडी की। इनमें बालक और बालिकाओं का बराबर अनुपात था और उनके माता-पिता अधिकतर मध्यम वर्ग के थे। उन्होंने पहले माता-पिता की डिप्रेशन की हिस्ट्री जानी और पैरंट्स व बच्चों से मिले। माता-पिता से बच्चों के साथ खेलने को कहा गया।

रिसर्चरों ने इस दौरान माता-पिता द्वारा बच्चों की आलोचना, उनके प्रति गुस्सा और हताशा जैसे पहलुओं पर गौर किया। फिर बच्चों पर कुछ प्रयोग किए गए। मसलन एक खाली कमरे में बच्चों को छोड़ा गया और उनसे बातचीत के लिए एक अजनबी पुरुष को भेजा गया। एक अन्य प्रयोग में उन्हें एक पारदर्शी बंद संदूक दिया गया जिसके ताले में चाबी फिट नहीं आती थी। तनाव देखने के लिए तीसरे प्रयोग में बच्चों को गिफ्ट का लालच दिया गया लेकिन बाद में खाली डिब्बा उन्हें थमा दिया गया।

डगहार्टी ने बताया कि प्रयोग के दौरान बच्चों के तनाव को बढ़ाने वाले हॉर्मोन कार्टिसोल का स्तर देखा गया। उन्होंने कहा कि केवल तनावग्रस्त माता-पिता का होना ही कार्टिसोल को नहीं बढ़ाता लेकिन अगर तनावग्रस्त मां हो और बच्चे से गुस्से से पेश आए तो उसके हॉर्मोन के स्तर में तेजी आएगी। साइक्लोजिकल साइंस में छपी रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में तनाव और झुंझलाहट से लालन-पालन के बीच संबंध के बारे में अभी और अध्ययन किया जाना है।

Sikandar_Khan
20-03-2011, 12:03 PM
जांच बताएगी, कब तक बना जा सकता है मां


साइंटिस्टों ने एक ऐसी आनुवांशिक जांच विकसित की है जिससे महिलाओं की 20 वर्ष की आयु में ही यह पता चल जाएगा कि वह कितनी आयु तक बच्चों को जन्म दे सकती हैं।

शोधकर्ताओं ने जीनों (आनुवांशिक इकाई) का एक ऐसा समूह खोजा है जो मीनोपॉज़ के समय और महिलाओं में प्रजनन की संभावना समाप्त होने के साथ जुड़ा हुआ है। इस जांच में करीब 50 पाउंड का खर्च आएगा और अगले एक दशक बाद इसे कराया जा सकेगा।

समाचार पत्र 'टेलिग्राफ' के मुताबिक ब्रिटेन की 'युनिवर्सिटी ऑफ एक्जीटर पेनिन्सुला मेडिकल स्कूल' की रिसर्चर एना मरे कहती हैं कि इस स्टडी का उद्देश्य यह पता लगाना था किसी भी महिला में मीनोपॉज़ की आयु क्या है।

उन्होंने कहा कि ऐसा माना जाता है कि महिलाओं में मीनोपॉज़ से औसतन 10 वर्ष पहले प्रजनन की क्षमता कम हो जाती है। उन्होंने कहा कि इस रिसर्च के बाद उन्हें बताया जा सकेगा कि वे कब तक बच्चों को जन्म दे सकती हैं।

उन्होंने कहा कि 20 में से एक महिला को जल्दी मीनोपॉज़ हो जाने की शिकायत रहती है, ऐसे में यह नई जांच उन महिलाओं की मदद कर सकती है। औसत के आधार पर ज्यादातर महिलाओं में मीनोपॉज़ की उम्र 51 साल होती है लेकिन कुछ में 40वें साल में तो कुछ में 60वें साल में ऐसा होता है।

शोधकर्ता ऐसे और जीनों को खोज रहे हैं तो मीनोपॉज़ की उम्र और भी सही बता सकें।

Bond007
21-03-2011, 01:40 AM
...... "मीनोपॉज़" के समय........

ये क्या है.....कोई ज्ञानवर्धन करेगा प्लीज़.....................!:help:

pankaj bedrdi
24-03-2011, 10:58 PM
जांच बताएगी, कब तक बना जा सकता है मां


साइंटिस्टों ने एक ऐसी आनुवांशिक जांच विकसित की है जिससे महिलाओं की 20 वर्ष की आयु में ही यह पता चल जाएगा कि वह कितनी आयु तक बच्चों को जन्म दे सकती हैं।

शोधकर्ताओं ने जीनों (आनुवांशिक इकाई) का एक ऐसा समूह खोजा है जो मीनोपॉज़ के समय और महिलाओं में प्रजनन की संभावना समाप्त होने के साथ जुड़ा हुआ है। इस जांच में करीब 50 पाउंड का खर्च आएगा और अगले एक दशक बाद इसे कराया जा सकेगा।

समाचार पत्र 'टेलिग्राफ' के मुताबिक ब्रिटेन की 'युनिवर्सिटी ऑफ एक्जीटर पेनिन्सुला मेडिकल स्कूल' की रिसर्चर एना मरे कहती हैं कि इस स्टडी का उद्देश्य यह पता लगाना था किसी भी महिला में मीनोपॉज़ की आयु क्या है।

उन्होंने कहा कि ऐसा माना जाता है कि महिलाओं में मीनोपॉज़ से औसतन 10 वर्ष पहले प्रजनन की क्षमता कम हो जाती है। उन्होंने कहा कि इस रिसर्च के बाद उन्हें बताया जा सकेगा कि वे कब तक बच्चों को जन्म दे सकती हैं।

उन्होंने कहा कि 20 में से एक महिला को जल्दी मीनोपॉज़ हो जाने की शिकायत रहती है, ऐसे में यह नई जांच उन महिलाओं की मदद कर सकती है। औसत के आधार पर ज्यादातर महिलाओं में मीनोपॉज़ की उम्र 51 साल होती है लेकिन कुछ में 40वें साल में तो कुछ में 60वें साल में ऐसा होता है।

शोधकर्ता ऐसे और जीनों को खोज रहे हैं तो मीनोपॉज़ की उम्र और भी सही बता सकें।

बहुत अच्छा जनकारी धन्यवाद

Sikandar_Khan
24-03-2011, 11:47 PM
अब पुरुषों के लिए गर्भनिरोधक इंजेक्शन

फैमिली प्लानिंग की जिम्मेदारी सालों से अपने कंधों पर उठाए चल रही महिलाओं को इस खबर से थोड़ी राहत मिल सकती है। अब बाजार में पुरुषों के लिए एक गर्भनिरोधक इंजेक्शन आया है, जिससे यह जिम्मेदारी उनके कंधों पर डालने में मदद मिल सकती है। इसे हर दो महीने पर लगाना होगा। यह कॉन्डम से बेहतर गर्भ निरोधक साबित हुआ जिसका असर महिला गर्भ निरोधक गोली के बराबर था।

ब्रिटेन की एडिनबरा यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने स्कॉटलैंड में इसके टेस्ट भी किए और उन्हें कामयाब पाया। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन ट्रायल में दुनिया भर से 200 जोड़े साथ लिए गए थे। इसमें टेस्टोस्टेरॉन और प्रोजेस्टेरॉन हॉर्मोन्स के अलग-अलग कॉम्बिनेशन का इस्तेमाल किया गया था। देखा गया कि इन्होंने पुरुषों में स्पर्म काउंट को काफी हद तक कम कर दिया।

ट्रायल के दौरान दो इंजेक्शन लगाए गए और इसके नतीजे में स्पर्म काउंट 20 लाख/मिलीलीटर से गिरकर जीरो रह गया। कुछ मामलों में यह 10 लाख/मिलीलीटर रह गया जो प्रेग्नेंसी के लिए जरूरी सीमा से काफी कम है। अभी इस गर्भनिरोध के कुछ और ट्रायल होने हैं।

Sikandar_Khan
03-04-2011, 12:58 PM
एलर्जी का इलाज है मूंगफली

ऐसे बच्*चों की संख्*या निरंतर बढ़ती जा रही है, जिन्*हें कुछ कड़े छिलके वाली चीजों, जैसे बादाम, अखरोट आदि से एलर्जी होती है। इस एलर्जी के कुछ घातक परिणाम भी हो सकते हैं।

अध्*ययन से पता चलता है कि इस एलर्जी के शिकार बच्*चों में से 20 प्रतिशत प्राय: जल्*द ही उससे मुक्*त भी हो जाते हैं, लेकिन इस बात की पूरी संभावना बनी रहती है कि वे पुन: उस एलर्जी के शिकार हो जाएं।

अब वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि दानों वाले फल, जैसे मूंगफली के सेवन से ऐसी एलर्जी की संभावना को कम किया जा सकता है।

अमेरिका के मैरिलैंड में ‘जॉन हॉपकिंस बाल केंद्र’ के एक अध्*ययन में ऐसे 68 बच्*चों पर शोध किया गया, जो इस किस्*म की एलर्जी के शिकार थे। इस शोध में यह पाया गया कि जो बच्*चे निरंतर मूंगफली का सेवन कर रहे थे, उनमें इस तरह की एलर्जी का होना कम हो गया। जबकि अन्*य बच्*चे, जो कभी-कभी ही ऐसे फलों का सेवन करते थे, उनमें एलर्जी होने की संभावना निरंतर बनी रहती थी।

हंसने में छुपी है उपचार की शक्ति

यह अध्*ययन बताता है कि जिन बच्*चों को ऐसी एलर्जी की शिकायत है, उन्*हें कम से कम महीने में एक बार मूंगफली का सेवन जरूर करना चाहिए। लेकिन ऐसा करने से पहले एक बार अपने चिकित्*सक की सलाह जरूर लें।

Sikandar_Khan
21-11-2011, 06:17 PM
मोटी ममियों के बच्चे भी मोटे हो सकते हैं

लंदन।। जल्द ही मां बनने जा रही महिलाओं को सतर्क हो जाना चाहिए क्योंकि एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि मोटी ममियों के बच्चे भी मोटे हो सकते हैं।

लंदन स्थित गाइज ऐंड सेंट थॉमस हॉस्पिटल के अनुसंधानकर्ताओं ने एक अध्ययन में पाया है कि जिन महिलाओं का वजन अत्याधिक होता है उनके शरीर में वजन नियंत्रक हार्मोन में त्रुटि होती है और इसका मतलब है कि उनके बच्चे भी मोटे हो सकते हैं।

अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि खाने की इच्छा को नियंत्रित करने वाले हार्मोन लेप्टिन का मोटी महिलाओं में अत्याधिक उत्पादन होता है। लेप्टिन का अधिक स्तर भ्रूण में भी वजन नियंत्रित करने वाली ग्रंथि को नुकसान पहुंचाता है।

अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, इससे बच्चे की जन्म के बाद वजन नियंत्रित करने की क्षमता खत्म हो सकती है। ' संडे एक्सप्रेस' में अस्पताल की प्रमुख अनुसंधानकर्ता प्रो लूसिला पोस्टन के हवाले से कहा गया है, 'यह चिंताजनक पहलू है क्योंकि उस उम्र की महिलाओं में मोटापा बढ़ रहा है जिसमें वह बच्चे को जन्म देती हैं।'