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View Full Version : रामचरित मानस से सीख


naman.a
01-04-2011, 11:06 PM
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्री रामचरित मानस एक अद्भुत, विलक्षण और पूर्ण महाकाव्य और ग्रंथ है । इसमे गोस्वामी जी ने मनुष्य जीवन का सार डाल कर एक अलग ही आदर्श स्थापित किया है । मनुष्य अपने धर्म का निर्वाह कैसे करे और उसका मूल धर्म क्या है इसका अद्भुत विश्लेषण इसमे है । उसी मै से कुछ सीख जो तुलसीदास जी समाज को दी है वो इस सुत्र मे डालने का प्रयास करुगा । इसमे से कुछ तत्व की बाते भी है उस पर भी मै प्रकाश डालने की कोशिस करुगा ।

हर मनुष्य को रामचरित मानस का अनुकरण करना चाहिये जिससे वो जीवन मे कभी भी निराश ना हो और अपने जीवन को सफ़ल बना सके ।

naman.a
01-04-2011, 11:09 PM
श्री राम वन्दना

माता रामो मत्पिता रामचंद्र:
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र:
सर्वस्वं में रामचंद्रो दयालु
नार्न्यम जाने नैव जाने न जाने ll

ध्यायेदाजानुबाहू धृतशरधनुष बद्धपद्मासनस्थम
पीत वासो वासन नवकमलदलस्पर्धिनेत्रम प्रसन्नं
वामाकारूढ़ सीतामुखकमलमिल्ल्लोचनम नीरदाभं
नानालंकारदिप्त दधतमुरुजटामंडन रामचंद्रम

naman.a
01-04-2011, 11:14 PM
सबसे पहले मैं कुछ ''राम चरित मानस'' के बारे में कुछ बताना चाहता हूँ
''राम चरित मानस'' को सिर्फ एक कहानी और एक रामायण के रूप में ही नहीं लिया जा सकता ये एक रामायण से ज्यादा हैं. क्योकि एक पुस्तक, ग्रन्थ का नाम ही ये बता देता हैं कि पुस्तक के अन्दर क्या हैं अगर ये सिर्फ रामायण ही होती तो इसका नाम भी रामायण ही रखा जा सकता था तो राम चरित मानस क्यों रखा गया.

रामायण का मतलब ''राम की लीला और चरित जो राम ने किये''. राम चरित मानस का मतलब ''राम के वो चरित जो मन में उदित हो''.

रामायण जो मह्रिषी वाल्मीकि जी ने लिखी थी वो उसमे श्री राम जी का वो चरित्र और लीला का बखान किया गया हैं उसमे कुछ भी उस विषय से अलग नहीं हैं. पर गोस्वामी जी ने जो रामचरित मानस लिखी हैं उसमे बहुत कुछ ऐसा हैं जो चिंतनीय, मनन करने योग्य हैं.

राम चरित मानस में वेदों का, वाल्मीकि रामायण का और भी ग्रंथो का आधार लिया गया हैं.

चूँकि इसका नाम राम चरित मानस रखा गया हैं तो उसे भी उसी तरह से लेना चाहिए. इस के हर चरित्र को अपने अन्दर उदित करने की जरूरत हैं उस के बिना इसका मूल भाव स्पष्ट नहीं हो सकता. क्योकि जो जिस तरह हैं अगर उसी तरह उसका आनंद लिया जाय उचित हैं.

वैसे तो आप स्वयं सब तरह से हर ज्ञान को अर्जित करने में सक्षम हैं पर मन में जिज्ञासा हुई इसलिए कुछ बताने की चेष्टा की.

अब कोई पूछता हैं की राम चरित मानस के पात्रो को अपने मन में उदित कैसे करे तो उसका उदाहरण देने की कोशिश करता हु.

राम चरित मानस में लिखा हैं कि
"मोह सकल व्याधीन कर मूला"
मोह को संसार में सभी व्याधियों की जड़ बताया गया हैं वैसे ही रावन को रामायण के सब झगडे का कारण बताया गया हैं
तो अगर हम रावन को मोह का रूप माने तो जब मनुष्य के अन्दर जब मोह का प्रवेश होता हैं तो सर्वप्रथम बुद्धि का हरण हो जाता हैं तो सीता को बुद्धि का रूप माना गया हैं और जब तक मनुष्य में ज्ञान नहीं आता तब तक मोह का अंत नहीं होता हैं तो राम को ज्ञान का रूप माना गया हैं.

और जब तक वैराग्य की भावना उदित नहीं हो तब तक ज्ञान और बुद्धि का मिलन नहीं हो सकता तो हनुमान जी को वैराग्य का रूप बताया गया हैं

कहने का तात्पर्य ये हैं की जब मोह रूपी रावन, बुद्धि रूपी सीता का हरण करता हैं यद्यपि मोह का बुद्धि पर कोई जोर नहीं चल सकता परन्तु मोह के कारण बुद्धि परबस हो जाती हैं और वोह कुछ करने के लिए असमर्थ होती हैं पर जब वैराग्य रूपी हनुमान का आगमन होता हैं तो मोह के सारे भेद जान उसके सारे रचाए प्रापंचो को जला (मिटा) देता हैं फिर मनुष्य में ज्ञान रूपी राम का उदय होता हैं जो मोह का समूल नष्ट कर बुद्धि रूपी सीता को मोह के जाल से मुक्त करा देता हैं.

राम चरित मानस में एक और चौपाई आई हैं कि

अवध वहा जहा राम निवासु.
तो कौनसी अवध हैं जो उत्तर प्रदेश में हैं नहीं अवध मतलब
वध मतलब मारना
अवध मतलब जिसको कभी मारा न जा सके मतलब जो अवध्य हो
वो एक ही हैं आत्मा. तो राम का निवास उसी अवध में हैं न की दूसरी अवध हैं

naman.a
01-04-2011, 11:28 PM
चौपाई
पर उपदेश कुसल बहुतेरे । जे आचरहि ते नर ना घनेरे ।

यहा पर गोस्वामी जी ने लिखा है कि दुसरो को सलाह, ग्यान और उपदेश देने वाले मनुष्य इस जग मे बहुत है पर स्वयं उस ग़्यान पर अनुकरण करने वाले लोग ज्यादा नही है ।

कहने का तात्पर्य यही है कि जो शिक्षा आप दुसरो को देते हो कम से कम उसी शिक्षा का अपने जीवन अनुकरण करो

Bholu
01-04-2011, 11:47 PM
चौपाई
पर उपदेश कुसल बहुतेरे । जे आचरहि ते नर ना घनेरे ।

यहा पर गोस्वामी जी ने लिखा है कि दुसरो को सलाह, ग्यान और उपदेश देने वाले मनुष्य इस जग मे बहुत है पर स्वयं उस ग़्यान पर अनुकरण करने वाले लोग ज्यादा नही है ।

कहने का तात्पर्य यही है कि जो शिक्षा आप दुसरो को देते हो कम से कम उसी शिक्षा का अपने जीवन अनुकरण करो

आपकी बात का अर्थ समझ गया और मनुष्य की प्राकृति यही कहती है

naman.a
02-04-2011, 12:04 AM
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

भावार्थ:- जिनके मन में दूसरे का हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिए जगत्* में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
परहित सरिस धर्म नही भाई । परपीरा सम नही अधमाई ॥
संसार मे दुसरो के हित करने के सामान कोइ धर्म नही है और दुसरो को दु:ख पहुचाना ही सबसे बड़ा अधर्म है ।

तात्पर्य ये है कि जीवन मे अपने स्वार्थ को साधने के लिये किसी को भी किसी का नुकसान करना सबसे बड़ा धर्म है । जहा तक समर्थ हो तब तक निस्वार्थ होकर दुसरो का हित करना ही मानव का परम धरम है ।

आप किसी का भला कर सकते हो तो करो ना तो ना करो क्योकि आप भगवान नही
पर जीवन मे किसी का भी बुरा ना करो क्योकि आप इंसान हो शैतान नही

sagar -
02-04-2011, 07:29 AM
बहुत अच्छा बताया हे अपने राम चरित्र मानस के बारे में

abhisays
02-04-2011, 09:07 AM
बहुत ही अनुपम सूत्र है, रामचरित मानस के बारे में बहुत ही अच्छी जानकारी दे रहे हैं नमन जी.

naman.a
03-04-2011, 12:32 AM
जेहि ते कछु निज स्वार्थ होई, तेई पर ममता कर सब कोई ।

जिस व्यक्ति से मनुष्य का कुछ निजी स्वार्थ होता है उस व्यक्ति पर उसका स्नहे और प्रेम अवश्य रहता है ।

निस्वार्थ प्रेम तो कोई विरले मनुष्य ही कर पाते है ।

naman.a
03-04-2011, 12:37 AM
नहि कोऊ अस जन्मा जग माहि, प्रभुता पाई जाहि मद नाहि

तुलसीदास जी कहते है इस संसार मै ऐसा कोई नही जन्मा है जिसे शक्ति और राज पाने के बाद उसका अभिमान और नशा ना आया हो ।

VIDROHI NAYAK
03-04-2011, 11:18 AM
बहुत ही बढ़िया...पर क्या ये क्रम में हैं?

naman.a
03-04-2011, 04:40 PM
बहुत ही बढ़िया...पर क्या ये क्रम में हैं?

नायक जी सुत्र भ्रमण और उत्साह वर्धन के लिये धन्यावाद, नही ये क्रम में नही मै कुछ चुनी हुई चौपाईयो को ही यहा पर डाल रहा हूं जिनका अपने जीवन में अनुकरण करना चाहिये ।

naman.a
03-04-2011, 07:48 PM
प्रभु श्री राम ने संतो के यह लक्षण लक्ष्मण जी को अरण्यकाण्ड में बतलाए-
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥

भावार्थ:-

कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं॥

Hamsafar+
03-04-2011, 07:54 PM
सीताराम नमन भाई

naman.a
03-04-2011, 08:16 PM
सीताराम नमन भाई

सीताराम हमसफ़र जी, कैसे है आप? मुझे तो लगा आप मुझे भूल गये है ।

naman.a
03-04-2011, 08:32 PM
प्रभु श्री राम द्बारा वर्षा और शरद ऋतू का वर्णन पढना चाहिए l इन चौपाईयों में अत्यधिक सुन्दर उपमाएं दी गई हैं -
दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥
भावार्थ: बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती॥
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥
भावार्थ: बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान्* नम्र हो जाते हैं।बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥

भावार्थ:-छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो॥

naman.a
04-04-2011, 10:34 PM
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥

हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात्* अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥

naman.a
04-04-2011, 10:36 PM
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥

भावार्थ:-संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3॥

naman.a
07-04-2011, 10:26 PM
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

भावार्थ:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥

भावार्थ:-दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात्* जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥

Hamsafar+
07-04-2011, 11:51 PM
नमस्कार नमन भाई इतने सुन्दर सूत्र को कृपया गति प्रदान करें

naman.a
08-04-2011, 09:27 PM
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥

भावार्थ:-भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्* कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-5॥दोहा :

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥

भावार्थ:-भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥5॥

***

Hamsafar+
08-04-2011, 10:02 PM
जय श्री राम मित्र
(भाई क्या बदला ले रहे हो, या गुस्सा हो, मेरा फोन क्यों नहीं ले रहे हो ???)

naman.a
09-04-2011, 01:52 PM
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥

भावार्थ:-भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥

भावार्थ:-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥दोहा :

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥

भावार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥

naman.a
12-04-2011, 08:10 PM
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
भावार्थ:-विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
भावार्थ:-भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥

naman.a
12-04-2011, 08:12 PM
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
भावार्थ:-जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥
किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
भावार्थ:-बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान्* और हनुमान्*जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥

abhisays
12-04-2011, 10:39 PM
रामनवमी के पावन अवसर पर इस सूत्र की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है. नमन जी को इसके लिए खास धन्यवाद.

A-TO-Z
13-04-2011, 07:28 AM
हर ग्रन्थ की एक विशेषता होती है ,
ऐसी ही बहुत साड़ी विशेषता रामायण में भी है,
मैं ज्यादा तो नहीं जानता पर कुछ रामायण में लिखी व लोगों से सुनी कुछ कमियां मुझे प्रेषण करती है ,
जैसे एक धोबी के कहने पर सीता का त्याग, राम को लंका में जाने के लिए पुल बनाने की आवश्यकता पड़ी लेकिन
विभिष्ण राम के पास बिना किसी साधन के पहुँच गया , औरत को ढोल ,गंवार.व पशु के समान बताना आदि आदि.....
कृपया मेरे संशय को अन्यथा में न लें,व ना ही मीरा मकसद किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचन है..........

naman.a
13-04-2011, 08:57 PM
हर ग्रन्थ की एक विशेषता होती है ,
ऐसी ही बहुत साड़ी विशेषता रामायण में भी है,
मैं ज्यादा तो नहीं जानता पर कुछ रामायण में लिखी व लोगों से सुनी कुछ कमियां मुझे प्रेषण करती है ,
जैसे एक धोबी के कहने पर सीता का त्याग, राम को लंका में जाने के लिए पुल बनाने की आवश्यकता पड़ी लेकिन
विभिष्ण राम के पास बिना किसी साधन के पहुँच गया , औरत को ढोल ,गंवार.व पशु के समान बताना आदि आदि.....
कृपया मेरे संशय को अन्यथा में न लें,व ना ही मीरा मकसद किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचन है..........

A To Z जी माफ़ी चाहता हुं आपके नाम से अवगत नही हूं इस लिये आई डी का नाम प्रयोग कर रहा हूं । संशय होना ये कोई गलत बात नही है वैसे इतना ज्ञानी मै भी नही पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिस करता हूं शायद आपके संशय मिट सके ।

आपने सीता के त्याग की बात कही उस पर अगर हम बात करते है तो आप ये बताये कि 14 वर्ष वनवास सिर्फ़ श्री राम जी को हुआ था तो फ़िर सीता जी और लक्ष्मण जी उनके साथ वन में क्यो गये ? हालाकि वो नही जाते तो भी उनको दोष नही था क्योकि उनके लिये वनवास नही था । पर वो धर्म के विरुद्ध होता सीता का पतिव्रत धर्म और लक्ष्मण का सेवक धर्म के विरुद्ध । और जनता के इसी अपवाद के कारण सीता ने स्वेच्छा से अग्निपरिक्षा भी दी थी क्योकि सीता जी को ये मालूम था कि ये उस समय के अनुसार कितनी जरुरी है । अगर वो गलत होता तो उनका विरोध होता वहा लक्ष्मण, भरत जैसे धर्मवीर पुरुष थे महार्षि वसिष्ट जैसे ज्ञानी थे और एक धोबी की ही बात क्यो करते हो बाकि प्रजा क्यो देख रही थी उन्होने क्यो नही कुछ बोला क्यो विरोध नही किया । जब राम जी वन मे गये थे तो वो सब साथ हो लिये थे और वन मे चले भी गये फ़िर उस समय क्यो चुप रही क्योकि वो निर्णय उचित लगा था । राम जी का स्वार्थ होता तो वो राजा होकर भी सीता जी के जाने बाद वैराग्य का जीवन क्यो व्यतित किया क्योकि राम जी को सीता जी से प्रेम था । बहु विवाह प्रथा होने के बाद भी वो एक पत्नि धर्म का पालन किया ।

श्री राम जी राजा थे वो सीता का त्याग नही करते तो भी कोई कुछ नही कर सकता था । पर उससे उनकी वो ही यश और वो आदर्श नही रह पाते । जो लोग ये कह रहे है कि सीता का त्याग गलत था वो ही कहते की खुद अपने पर आया तो धर्म को नही निभाया सीता का त्याग क्यो नही किया । जैसे आज के नेताओ के लिये हम कहते है कि उनके लिये कोई कानून नही है वो जो बनाये वो ही कानून है । कोई नेता पकडा जाता है तो ये ही बात होती है कल छुट जायेगा और मुकदमा चलता है तो ये ही होता है कि उसका फ़ैसला नही होता । इसी कारण जनता उनको भ्रष्ट कहती है ।

उस समय के धर्म और कानून और नीतीया अलग थी उसको हम आज के अनुसार नही देख सकते है ।

धर्म अपने आप मे एक बहुत ही सुक्ष्म वस्तु है उसका पालन बहुत ही कठिन है जो एक साधारण मनुष्य के बस मे ही नही है ।

ये सब लोग अपने अपने धर्म में बंधे हुए थे.

लक्ष्मण जी की बात करे तो लक्ष्मण जी ने अपने आप को श्री राम जी का सेवक और राम जी को आपना स्वामी माना था और एक सेवक का ये धर्म ये कि अगर कोई भी उसके स्वामी को उस अपराध का दंड दे जो उन्होंने नहीं किया तो उसका विरोध करे फिर चाहे उसके सामने उसका कोई सगा या सम्बन्धी ही क्यों न हो. क्योकि सेवक का सबसे प्रथम धर्म अपने स्वामी के प्रति वफादार होना हैं. इसीलिए तुलसीदास जी ने भी ये ही कहा हैं कि "सबसे सेवक धर्म कठोर" सेवक का धर्म सबसे कठोर होता हैं. तो उन्होंने कुछ गलत नहीं किया.

राजा दशरथ जी ने अपने कुल की मर्यादा और सत्य का पालन करना था जो उन्होंने अपने प्राण देकर भी किया.

वनवास के समय श्री राम जी का सबसे बड़ा धर्म उनके पिता के वचनों को और आदेश को मानना था और अपना कर्तव्य निभाना था.

एक नारी का सबसे बड़ा धर्म अपने पतिवर्त धर्म का पालन करना ही होता हैं जो माता सीता ने निभाया. माताओ कि सेवा के लिए उनकी बहने थी तो उनका वो धर्म भी भंग नहीं होता.

उर्मिला जी भी वन में जा सकती थी पर उनको ये मालूम था कि अगर वो साथ जायेगी तो लक्षमण जी का जो राम जी सेवा का जो प्रण था उसमे बाधा पहुचेगी और कोई पतिवर्ता नारी अपने स्वामी के धर्म में बाधा कैसे पुहुचा सकती हैं इसलिए वो नहीं गयी.

धर्म छोटे और बड़े नहीं होते. समय और परिश्थिति के अनुसार ही इसका निर्णय होता हैं और उस समय जो सबसे महत्वपूर्ण होता हैं वो ही करना उचित हैं. उदाहरण के तौर पर आप मंदिर में गए आप दुकान पर जाकर पुष्प और प्रसाद और सामग्री प्रभु को चढाने के लिए खरीद रहे हैं उसी समय आप के पास एक याचक आता हैं और कहता हैं की वो बहुत भूखा हैं उसे कुछ खाने को चाहिए और अगर आपके पास ज्यादा पैसे नहीं हैं तो आपका प्रथम धर्म उस याचक को खाना खिलाना हैं न की भगवन को माला और प्रसाद चदना. वो प्रभु जो सबको देता हैं उन्हें हम क्या देगे.


जय श्री राम

आपकी दुसरे संसयो पर भी अपनी तुच्छ बुद्धि अनुसार जरुर प्रकाश डालूगा ।

naman.a
13-04-2011, 09:13 PM
आपका संशय है कि मानस मे नारी का अपमान हुआ है तो उस पर फ़िर विचार करे ।

ताडन का अर्थ किस तरह "मारना " नहीं है और उस दोहे का अर्थ किस तरह किया जाना चाहिए और क्यूँ ?
ये स्पष्ट करें पहले |

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं.

यहाँ ताड़ना का अर्थ ''शिक्षा'' मानना चाहिए.

ये चौपाई सुन्दरकाण्ड में आई हैं जब सुमंद्र देव ने रास्ता नहीं दिया तो श्री राम जी ने समुन्द्र पर कोप किया तब समुन्द्र देव ने ये बात कही हैं.
मतलब जिस को ताड़ना (शिक्षा) दी हैं उसीने ये बात स्वयं कही हैं तो इसका मतलब मारना नहीं निकाल सकते क्योकि अगर किसी को अगर मारा जाता हैं तो वो ऐसा नहीं कहेगा की हम तो मार खाने के ही अधिकारी हैं.
तात्पर्य ये हैं कि यह उक्ति राम जी ने नहीं कही बल्कि एक अपराधी पत्र के मुख से उसकी गलती के पश्चताप के रूप में कही गयी हैं.
'अधिकारी' शब्द पर भी विचार करने से यह भाव कदापि नहीं प्रकट होता कि शुद्रो, गवारों, पशुओ और नारियो को पीटना या मरना चाहिए
क्योकि यहाँ ताड़ना कर्तव्य रूप में नहीं हैं, बल्कि अधिकार रूप में हैं.
अधिकार और कर्त्तव्य दोनों एक नहीं. कर्तव्य का पालन आवयश्यक हैं परन्तु अधिकार के विषय में यह बात नहीं, उसका तो जरूरत पड़ने पर ही प्रयोग होता हैं.
अतः: इस चौपाई का अभिप्राय कदापि यह नहीं हो सकता कि जो लोग अच्छे हैं उन्हें भी व्यर्थ ताड़ना दी जाये बल्कि जिन लोगो में सुधर की जरूरत हो.

यहाँ ताड़ना शब्द केवल सुधार मात्र के लिए हैं दंड के लिए नहीं.
जैसे ढोल को इस प्रकार से कसना और ठोकना जिससे वो सुरीली आवाज दे सके इतनी जोर से नहीं ठोका या कसा जाता हैं जिससे वो बेकार हो जाये तोल को ताड़ना का मतलब ये नहीं होता हैं की उसे उठाकर पटक दिया जाये या उसका चमडा उखाड़ दिया जाये.

वैसे ही गंवार और क्षुद्र मनुष्य को शिक्षा दे कर ही सदगुनी और बुद्धिमान बनाने का अभिप्राय हैं ना कि उन्हें मारने का.

अगर श्रीगोस्वामी जी का नारियो के प्रति ऐसा स्वाभाव होता तो वो सीता माता को जगत जननी, कौशल्या, सुमित्रा आदि को दिव्य नारी तथा शबरी व् त्रिजटा आदि नीच कुल कि नारियों की सुन्दर व्याख्या नहीं करते. उन्होंने रावन की पत्नी मंदोदरी और मेघनाद की पत्नी सुलोचना को भी पतिव्रता नारी बताया हैं.

विचारवान मनुष्य को ग्रंथकार के उद्देश्य को देखकर तथा ग्रन्थ के अनुबंध पर विचार करके ही टिपण्णी करनी चाहिए अन्यथा आलोचना का मूल अभिप्राय ही नष्ट हो जाता हैं.

A-TO-Z
15-04-2011, 08:45 AM
नमन जी माफ़ी चाहूँगा मैंने शुरू की में कहा है की मेरा उद्देश्य किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना नहीं,
ये तो मात्र मैंने मन की जिज्ञासा थी ,जो की मुझे सोचने पर मजबूर रही थे,

बहुत अच्छी तरह से आपने व्याख्या की है इसलिए आपका धन्यवाद !
परन्तु मुझे अभी भी कुछ संशय है ,जैसे की आपने कहा ढोल को कसने पर
मधुर आवाज़ देता है, लेकिन ये भी बात सही है की ढोल को पीटने पर ही उसकी
असली आवाज़ सुनाई देती है ,उसी प्रकार पशु को समझाया तो नहीं जा सकता है ,
इसलिए पशु के बिगड़ने पर उसे भी पिटा ही जाता है ,
इसी प्रकार मैंने पूछा था की राम को लंका में जाने के लिए पूल बनाना पड़ा,
जबकि विभिष्ण बिना किसी साधन के राम के पास पहुँच गया ,ये कैसे सम्भव हुआ ?

naman.a
16-04-2011, 09:58 PM
इसी प्रकार मैंने पूछा था की राम को लंका में जाने के लिए पूल बनाना पड़ा,
जबकि विभिष्ण बिना किसी साधन के राम के पास पहुँच गया ,ये कैसे सम्भव हुआ ?

विभीषण के असुर वंश मे जन्मा था तो मायावी शक्तिया और सिद्धिया उसे हासिल थी तो वो वायू मार्ग से राम जी के पास पहुचा था ।

वैसे ही हनुमान जी भी सब तरह की सिद्धिया जानते थे तो वो वायू मार्ग से समुन्द्र पार कर गये । पर

राम जी को लंका अकेले नही जाना था पुरी वानर सेना को लेकर जाना था और उन मे से कुछ को छोड़कर कोई भी समुन्द्र के पार जाने को सक्षम नही था यहा तक अंगद ने भी खुद कहा था जब वो सीता की खोज मे समुन्द्र किनारे पहुचे और ये सोचा जा रहा था कि समुन्द्र पार कौन जायेगा तो अंगद ने कहा "अंगद कहु जाऊ मे पारा । फ़िरी संशय पर फ़िरती बारा" उन्होने कहा कि मै उस पार तो जा सकता हूं पर वापिस आने मे मुझे संशय है तो सब वानरो की सेना को साथ मे ले जाने के लिये पुल के निर्माण अवश्यक था ।

naman.a
17-04-2011, 11:13 AM
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥

भावार्थ:-पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥

धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥

भावार्थ:-कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥

दोहा: ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥

भावार्थ:-ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥7 (क)॥

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥

भावार्थ:-महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥7 (ख)॥

A-TO-Z
18-04-2011, 05:39 AM
विभीषण के असुर वंश मे जन्मा था तो मायावी शक्तिया और सिद्धिया उसे हासिल थी तो वो वायू मार्ग से राम जी के पास पहुचा था ।

वैसे ही हनुमान जी भी सब तरह की सिद्धिया जानते थे तो वो वायू मार्ग से समुन्द्र पार कर गये । पर

राम जी को लंका अकेले नही जाना था पुरी वानर सेना को लेकर जाना था और उन मे से कुछ को छोड़कर कोई भी समुन्द्र के पार जाने को सक्षम नही था यहा तक अंगद ने भी खुद कहा था जब वो सीता की खोज मे समुन्द्र किनारे पहुचे और ये सोचा जा रहा था कि समुन्द्र पार कौन जायेगा तो अंगद ने कहा "अंगद कहु जाऊ मे पारा । फ़िरी संशय पर फ़िरती बारा" उन्होने कहा कि मै उस पार तो जा सकता हूं पर वापिस आने मे मुझे संशय है तो सब वानरो की सेना को साथ मे ले जाने के लिये पुल के निर्माण अवश्यक था ।

स्पष्टीकर्ण के लिए शुक्रिया .......
यदि ऐसा है तो विभिष्ण को प्राप्त किसी भी शक्ति का उल्लेख रामायण में क्यों नहीं है ?
जहां तक मैं जानता हूँ,रावण का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था !
रावन कोई राक्षस न होकर उसकी प्रवर्ती राक्षसों जैसी थी,जैसा की रामायण
में ही लिखा है की रावण ने राम के हाथों मृत्यु प्राप्त करने के लिए ये
सब किया था, व जबकि राम कथाओं के अनुसार तो सीता भी एक तरह से रावण
की ही पुत्री थी,

naman.a
18-04-2011, 11:03 PM
स्पष्टीकर्ण के लिए शुक्रिया .......
यदि ऐसा है तो विभिष्ण को प्राप्त किसी भी शक्ति का उल्लेख रामायण में क्यों नहीं है ?
जहां तक मैं जानता हूँ,रावण का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था !
रावन कोई राक्षस न होकर उसकी प्रवर्ती राक्षसों जैसी थी,जैसा की रामायण
में ही लिखा है की रावण ने राम के हाथों मृत्यु प्राप्त करने के लिए ये
सब किया था, व जबकि राम कथाओं के अनुसार तो सीता भी एक तरह से रावण
की ही पुत्री थी,

रामायण मे इसका उल्लेख नही है क्योकि विभीषण ने कभी शक्ति को उपयोग किया ही नही इसलिये उनका उल्लेख नही मिलता है । वो पुल्त्स्य कुल के थे एक ही गुरु से तीनो भाईयो को शिक्षा प्राप्त हुई थी तो शक्तियो मे सब एक समान थे । फ़र्क सिर्फ़ आचरण मे ही था । रावण को भी अपनी शक्तियो पर अभिमान तब हुआ जब उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके ये वरदान मांग लिया कि नर और वानर इन दोनो जातियो को छोड़कर वो किसी के हाथो ना मरे । उसके बाद ही उसने अपनी शक्तियो का दुर्पयोग करना चालू किया था । जबकि विभीषण का स्वाभाव संत के समान था तो उसने तो ब्रह्मा जी से भी भगवत चरणो की भक्ती ही मांगी ।

आपने बिल्कुल सही कहा कि रावण को ये ज्ञात था कि उसकी मौत श्री राम के हाथो ही लिखी है । इसके पिछे भी एक कथा है कि एक बार रावण ने परम पिता ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उससे ये जानना चाहा कि मेरी मौत किसके हाथ होगी तब ब्रह्मा जी के बहुत इन्कार करने पर भी रावण ना माना और विवश होकर ब्रह्मा जी ने उसे बता दिया कि त्रेता युग मे राजा दशरथ के पुत्र श्री राम के जो कि विष्णु का अवतार होगे उनके हाथो तुम्हारी मौत लिखी है । तब रावण ने बहुत कोशिक की कि मै राम को पैदा ही नही होने दूगा इसके लिये उसने प्रयत्न भी किये वो एक बार महाराज रघु के पास पहुच गया और उनको युद्ध के लिये ललकार रघु ने बहुत युद्ध टालने की कोशिश की पर वो नही माना तो रघु ने विवश होकर उस पर शक्ति प्रयोग करने की ठानी और अमोघ बाण को निकाला जो कभी विफ़ल नही होता और जैसे उसने उसे धनुष पर चढाया तो ब्रह्मा जी प्रकट हुये और बोले कि आप विधी के विधान को नही बदल सकते है वो बोले मुझे मालूम है इस बाण से रावण का अंत हो जायेगा पर विधी ने इसकी मौत आपके हाथ से नही लिखी है तब रघु महाराज शांत हुये और बोले कि अब तो बाण धनुष पर चढ गया है ये वापिस तरकस नही जा सकता और छुटेगा तो रावण का अंत निश्चय ही हो जायेगा तब ब्रहमा जी ने कहा कि ये बाण तुम मुझे दे दो रावण की मौत इसी बाण से समय आने पर हो जायेगी जिसके द्वारा होनी है उसके पास ये बाण मे पहुचा दूगा । तब ब्रह्मा जी ने वो बाण ले जाकर अगस्त्य मुनि को दिया और अगस्त्य मुनि ने वनवास काल मे जब श्री राम उनके पास गये तो उन्होने राम जी को वो बाण दिया और उसी से रावण का वध हुआ ।

इसी प्रकार रावण महाराज अज के पास भी पहुचा और युद्ध के लिये ललकारा उस समय महाराज अज संध्या कर रहे थे बहुत समजाने पर भी रावण नही माना तो वो बोले की संध्या करके आपसे युद्ध करुगा । रावण वही खडा रहा अचानक उसने देखा कि महाराज अज ने दो चावल के दाने अलग दिशा मे फ़ेके तो रावण को आश्चर्य हुआ विद्वान तो वो था ही उसे भी मालूम था कि संध्या की इस विधी मे चावल फ़ेकने का विधान नही है तो उसने महाराज अज से पुछा कि ये चावल फ़ेकने विधान तो इस कर्म मे नही है तो आपने चावल क्यो फ़ेके तो महाराज अज ने कहा कि ये चावल के दाने मैने मंत्रित करके फ़ेके है क्योकि 10 कोस दूर जंगल मे एक गाय को शेर खाने वाला था तो एक दाने से शेर को मारा और एक से गाय की रक्षा की । रावण ने कहा ये कैसे हो सकता है इधर बैठे हुये आप शेर को चावल के दाने से कैसे मार सकते है मुझे विश्वास नही होता तो अज ने कहा आप स्वयं जाकर देख लो तब रावण बताये हुये स्थान पर पहुचा तो सच मे वहा शेर मरा हुआ पड़ा था और गाय घास खा रही थी रावण ने अज की शक्ति को देखकर डर गया और पुन: अज के पास ही नही गया ।

इसी संदर्भ उसने एक बार कौसल्या का हरण भी कर लिया कि शादी ही नही होगी तो राम कैसे जन्म लेगे और कौसल्या का हरण करके उन्हे बांध कर एक बक्से मे डालकर नदी मै प्रवाहित कर दिया उधर दशरथ जी आखेट पर थे और जब उन्होने देखा कि नदी मै एक पेटी आ रही है तो सिपाहीयो से कहकर पेटी मंगवायी उसे खोलकर देखा तो उसमे से कौसल्या जी निकली । जिसे दशरथ जी ने पसन्द किया बाद मै दोनो राज समाज की सहमति से दोनो प्रणय सुत्र मे बंध गये ।

इसप्रकार रावण बहुत कोशिस की थी कि राम का जन्म ना हो पर विधी का विधान नही बदल सका ।

सीता रावण की पुत्री थी इसके विषय मे भी एक कथा है कि रावण जिन मुनि और तपस्वी लोगो को माराता था उनका थोड़ा खुन एक कुंभ मे रखता था और जब कुंभ भर गया तब उसे जमीन मे गाड दिया था और उसी खुन से सीता का जन्म हुआ जो हल जोतते समय राजा जनक को मिला ।

abhisays
18-04-2011, 11:15 PM
नमन जी आपके अपार ज्ञान को नमन, हमारे जैसे आज के पीढ़ी के लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति से दूर होते जा रहे है, आपका यह सूत्र शायद बढती हुई दुरी को कम करने में मदद करे.

यहाँ कुछ ऐसी बातें पता चल रही हैं जो ना कही और पढ़ी और ना सुनी. :hi::hi:

naman.a
24-04-2011, 11:31 AM
अयोध्याकाण्ड में आकाशवाणी ने लखनजी को यह सीख दी-

अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।
सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥
कोई भी काम हो, उसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान्* नहीं हैं॥

naman.a
24-04-2011, 11:32 AM
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर *िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥

भावार्थ:-जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥

naman.a
24-04-2011, 11:33 AM
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥

भावार्थ:-देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥

naman.a
01-05-2011, 10:10 PM
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥

संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं- पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही लगते हैं। इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं॥

naman.a
22-05-2011, 11:44 PM
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥37॥

भावार्थ:-मंत्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि (अप्रसन्नता के) भय या (लाभ की) आशा से (हित की बात न कहकर) प्रिय बोलते हैं (ठकुर सुहाती कहने लगते हैं), तो (क्रमशः) राज्य, शरीर और धर्म- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है॥37॥

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥3॥

भावार्थ:-जो मनुष्य अपना कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी! परस्त्री के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात्* जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)॥3॥

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥3॥

Bholu
23-05-2011, 04:06 AM
बहुत अच्छा सूत्र है मित्र

naman.a
24-05-2011, 09:23 PM
श्री रामचरित मानस मे नौ तरह की भक्ति बताई गयी है जो कि श्री राम ने शबरी से कही थी वो ही नवधा भक्ति यहां पर प्रस्तुत है ।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥

भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥

दोहा :
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥

भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥

भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत्* भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥

भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥

prashant
25-05-2011, 04:31 PM
जय श्री राम ....

Bholu
25-05-2011, 06:11 PM
जय श्री राम ....

सीताराम भाईया

prashant
25-05-2011, 07:22 PM
जय बजरंगबली ..........

Bholu
25-05-2011, 08:39 PM
जय बजरंगबली ..........

तोडो दीनू काका की नली

naman.a
14-06-2011, 10:01 PM
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
तेसिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥

भावार्थ:-जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते॥2॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥3॥

भावार्थ:-जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान है॥3॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥

भावार्थ:-वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता।

naman.a
14-06-2011, 10:03 PM
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥

भावार्थ: जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं॥


सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू॥

भावार्थ:लक्ष्मीपति भगवान जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा) को कोई दबा सकता है? ॥

naman.a
14-06-2011, 10:04 PM
तेहि तें कहहिं संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥

भावार्थ:-इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन (सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित) ही भगवान को प्रिय होते हैं।

naman.a
14-06-2011, 10:05 PM
रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥

भावार्थ:-तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य-चन्द्रमा को दुःख देता है॥170॥

Bhuwan
14-06-2011, 11:24 PM
धन्यवाद नमन जी, बहुत अनुपम जानकारी दी है रामचरित मानस की. :) :bravo:

naman.a
18-06-2011, 08:25 PM
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥

भावार्थ:-प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥57 (ख)॥

naman.a
18-06-2011, 08:27 PM
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥

भावार्थ:-यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता॥3॥

naman.a
18-06-2011, 08:28 PM
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥

भावार्थ:-गंगा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है॥1॥

naman.a
18-06-2011, 08:29 PM
पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥

पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता।

naman.a
18-06-2011, 08:30 PM
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
तेसिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥

भावार्थ:-जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते॥2॥

naman.a
18-06-2011, 08:34 PM
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥4॥

भावार्थ:-जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोह रूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए॥4॥

Nitikesh
19-06-2011, 06:51 AM
जय श्री राम

naman.a
19-06-2011, 11:44 AM
जय श्री राम


जय श्री राम

naman.a
19-06-2011, 09:16 PM
सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु, जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥

भावार्थ:-मुनिनाथ ने बिलखकर (दुःखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं॥

naman.a
19-06-2011, 09:19 PM
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥

भावार्थ:-यदि प्यासा आदमी पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा?
सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ?

naman.a
19-06-2011, 09:35 PM
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥

भावार्थ:-छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)।

naman.a
19-06-2011, 10:07 PM
अरण्यकांड मे वर्षा के मौसम का वर्णन करते हूये

भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥

भावार्थ: पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो॥

naman.a
19-06-2011, 10:54 PM
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥4॥

भावार्थ:- कुसंगति पाकर कौन नष्ट नहीं होता। नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नहीं रह जाती॥4॥

The ROYAL "JAAT''
20-06-2011, 11:10 PM
बहुत ही ज्ञानवर्धक सूत्र हैं मित्र हमेशा अपना ज्ञान सबसे बांटते रहें धन्यवाद

naman.a
21-06-2011, 09:30 AM
बहुत ही ज्ञानवर्धक सूत्र हैं मित्र हमेशा अपना ज्ञान सबसे बांटते रहें धन्यवाद

सुत्र भ्रमण और उत्साह वर्धन के लिये धन्यवाद ।

naman.a
21-06-2011, 02:13 PM
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥

भावार्थ: जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो॥

naman.a
21-06-2011, 02:15 PM
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥3॥

भावार्थ:-असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों घुँघचियाँ मिलकर भी कहीं पहाड़ के समान हो सकती हैं। 'सत्य' ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है॥3॥

naman.a
21-06-2011, 02:16 PM
नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥1॥

भावार्थ:-शास्त्र और नीति के तो वे ही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी हैं, जो धीर हैं और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं॥1॥

naman.a
24-06-2011, 08:00 PM
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥

भावार्थ:-(श्री रामचन्द्रजी ने मन ही मन कहा-) गुनाह (दोष) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते हैं। कहीं-कहीं सीधेपन में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग किसी की भी वंदना करते हैं, टेढ़े चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता॥

naman.a
24-06-2011, 08:01 PM
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥4॥

भावार्थ:-शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है, जो कर्म करता है, वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥4॥

naman.a
24-06-2011, 08:02 PM
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥

भावार्थ:- कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥2॥

naman.a
24-06-2011, 08:02 PM
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥3॥

भावार्थ:-संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं,॥3॥

naman.a
24-06-2011, 08:04 PM
दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥4॥

भावार्थ:-धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं॥4॥

naman.a
24-06-2011, 08:37 PM
सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥92॥

भावार्थ:-जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए॥92॥

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥1॥

भावार्थ:-ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं॥1॥

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥

भावार्थ:-इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥2॥

naman.a
22-09-2011, 11:53 PM
कबि कोबिद गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल नहिं प्रीति॥
उदासीन नित रहिअ गोसाईं

कवि और पंडित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्ट से न कलह ही अच्छा है, न प्रेम ही॥ -हे गोसाईं! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिए।

naman.a
22-09-2011, 11:54 PM
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥

मैं आपसे भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूँ- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं॥

naman.a
22-09-2011, 11:55 PM
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे।

naman.a
22-09-2011, 11:56 PM
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥

भावार्थ:-प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥57 (ख)॥

naman.a
22-09-2011, 11:56 PM
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥

भावार्थ:-यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता॥3॥

naman.a
22-09-2011, 11:57 PM
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥

भावार्थ:-गंगा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है॥1॥

naman.a
22-09-2011, 11:58 PM
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥

जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती॥

naman.a
23-09-2011, 12:05 AM
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥1॥

भावार्थ:-जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए॥1॥

naman.a
23-09-2011, 12:05 AM
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥2॥

भावार्थ:-जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं,॥2॥

naman.a
23-09-2011, 12:06 AM
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥4॥

भावार्थ:-जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं॥4॥

naman.a
23-09-2011, 12:07 AM
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥3॥

भावार्थ:-जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं॥3॥

naman.a
23-09-2011, 12:07 AM
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥4॥

भावार्थ:-मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए॥4॥

naman.a
23-09-2011, 12:09 AM
सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥281॥

भावार्थ:-अमृत केवल सुनने में आता है और विष जहाँ-तहाँ प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। विधाता की सभी करतूतें भयंकर हैं। जहाँ-तहाँ कौए, उल्लू और बगुले ही (दिखाई देते) हैं, हंस तो एक मानसरोवर में ही हैं॥281॥

naman.a
23-09-2011, 12:10 AM
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू॥
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥2॥

भावार्थ:-कौसल्याजी ने कहा- किसी का दोष नहीं है, दुःख-सुख, हानि-लाभ सब कर्म के अधीन हैं। कर्म की गति कठिन (दुर्विज्ञेय) है, उसे विधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी फलों का देने वाला है॥2॥

naman.a
23-09-2011, 12:11 AM
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥4॥

भावार्थ:-वेद, शास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि सेवा धर्म बड़ा कठिन है। स्वामी धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में) और स्वार्थ में विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता

malethia
23-09-2011, 12:11 AM
ज्ञानवर्धक तुलसी रामायण को प्रस्तुत करने के लिए नमन जी का आभार !

naman.a
01-10-2011, 11:18 PM
सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी॥
लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥8॥

भावार्थ:-सेवक सुख चाहे, भिखारी सम्मान चाहे, व्यसनी (जिसे जुए, शराब आदि का व्यसन हो) धन और व्यभिचारी शुभ गति चाहे, लोभी यश चाहे और अभिमानी चारों फल- अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चाहे, तो ये सब प्राणी आकाश को दुहकर दूध लेना चाहते हैं (अर्थात्* असंभव बात को संभव करना चाहते हैं)॥8॥

naman.a
01-10-2011, 11:19 PM
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥

भावार्थ:- नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किए बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढ़ने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से संन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा,॥4-5॥

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥

भावार्थ:-नम्रता के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहंकार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैंने सुनी है॥6॥

naman.a
01-10-2011, 11:21 PM
नवहि बिरोधें नहिं कल्याना॥ सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी।
बैद बंदि कबि भानस गुनी॥

शस्त्री (शस्त्रधारी),
मर्मी (भेद जानने वाला),
समर्थ स्वामी,
मूर्ख,
धनवान,
वैद्य,
भाट,
कवि और
रसोइया-

इन नौ व्यक्तियों से विरोध (वैर) करने में कल्याण (कुशल) नहीं होता॥

naman.a
06-10-2011, 09:42 PM
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥

भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥

दोहा :
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥

चौपाई :
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥

भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥

भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत्* भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥

भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥

naman.a
06-10-2011, 10:06 PM
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥38 क॥

भावार्थ:- हे तात! काम, क्रोध और लोभ- ये तीन अत्यंत दुष्ट हैं। ये विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पलभर में क्षुब्ध कर देते हैं॥38 (क)॥

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥38 ख॥

भावार्थ:- लोभ को इच्छा और दम्भ का बल है, काम को केवल स्त्री का बल है और क्रोध को कठोर वचनों का बाल है, श्रेष्ठ मुनि विचार कर ऐसा कहते हैं॥38 (ख)॥

ashokmuz
16-11-2011, 08:37 PM
ज्ञान दायक जानकारी देने के आपको मेरा धन्यवाद

anoop
01-12-2011, 06:13 PM
नमन भाई, आपके द्वारा रामचरितमानस पर लिखी गई हर चीज मैं बहुत चाव से पढ़ता रहा हूँ। आपका बड़ा गहन अध्ययन है इस पर, और इसके लिए आपको मैं दिल से धन्यवाद कहना चाहता हूँ।

naman.a
14-12-2011, 10:54 AM
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥

भावार्थ:- कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं॥1॥

जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥

भावार्थ:- वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविंद तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है॥2॥

बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥

भावार्थ:- तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्मा के तत्व का ज्ञान) और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते॥3॥

गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥


भावार्थ:- सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरों के हित में लगे रहने वाले होते हैं। हे मुनि! सुनो, संतों के जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते॥4॥

छंद :
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥


भावार्थ:- 'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान्* के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।

naman.a
14-12-2011, 10:55 AM
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥46 ख॥

भावार्थ:- युवती स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन। काम और मद को छोड़कर श्री रामचंद्रजी का भजन कर और सदा सत्संग कर॥46 (ख)॥

naman.a
14-12-2011, 10:56 AM
रामचरितमानस में मित्र के लक्षण बताये हैं
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥

भावार्थ:-जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥

[COLOR="Red"]जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥ कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2॥

भावार्थ:-जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥

भावार्थ:-देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर *िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥

भावार्थ:-जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥

naman.a
14-12-2011, 11:01 AM
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥

भावार्थ:-मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥

naman.a
14-12-2011, 11:02 AM
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥4॥

भावार्थ:- छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या- ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता॥4॥

naman.a
14-12-2011, 11:03 AM
सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥1॥

भावार्थ:- देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं॥1॥

anoop
16-12-2011, 06:00 PM
नमन जी, बहुत दिनों बाद आपने सुत्र को अपडेट किया, पर यह "देर आय दुरुस्त आए" है। आपके प्रति आभार व्यक्त करना चाहुँगा।

naman.a
23-02-2012, 10:11 AM
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥43॥

भावार्थ:-(श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥43॥

naman.a
23-02-2012, 10:13 AM
फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥16 ख॥

भावार्थ:- यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥16 (ख)॥

naman.a
23-02-2012, 10:13 AM
पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥

भावार्थ:- दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं, जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं॥1॥

naman.a
23-02-2012, 10:14 AM
जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥

एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥

भावार्थ:-व्यर्थ बकवाद करके अपने सुंदर यश का नाश न करो। क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो! संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं- पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही लगते हैं। इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं॥

naman.a
23-02-2012, 10:16 AM
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥4॥

भावार्थ:-संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है॥4॥

ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥37॥

भावार्थ:-इसी गुण के कारण चंदन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत्* का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुख को यह दंड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं॥37॥

anoop
24-02-2012, 08:37 PM
आपने नया डाला और राम जी की कृपा देखिए, मुझे पुनः इस सुत्र पर आने की प्रेरणा हुई.....आगे भी पोस्ट करें।

anoop
19-03-2012, 04:32 PM
जब जब होई धरम के हानि, बाढ़ै असुर अधम अभिमानी।
तब तब प्रभू धरि विविध शरीरा, हरहु कृपा निधि सज्जन पीड़ा॥
नमन जी, ऊपर लिखी पंक्ति राम चरित मानस में कहाँ पर मिलेगी?

anoop
20-03-2012, 07:11 PM
मिल गया नमन जी, आप परेशान न हों
बालकान्ड १२० और १२१ दोहे के बीन में है यह पंक्ति....

naman.a
02-05-2013, 12:36 PM
रामचरित मानस में तुलसी बाबा से कलयुग का कुछ इस प्रकार वर्णन किया हैं

कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ

भावार्थ:-कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥

भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म

भावार्थ:-सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार! हे श्री हरि के वाहन! सुनिए, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ

naman.a
02-05-2013, 12:37 PM
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥1॥

भावार्थ:-कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता

naman.a
02-05-2013, 12:38 PM
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥2॥

भावार्थ:-जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत है, उसी को सब कोई संत कहते हैं

naman.a
02-05-2013, 12:38 PM
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥3॥

भावार्थ:-जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥3॥

naman.a
02-05-2013, 12:39 PM
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥4॥

भावार्थ:-जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान्* है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥4॥

naman.a
02-05-2013, 12:41 PM
दोहा :
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥

भावार्थ:-जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥
सोरठा :
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥

भावार्थ:-जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥

naman.a
02-05-2013, 12:44 PM
नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥1॥

भावार्थ:-हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥1॥

naman.a
02-05-2013, 12:45 PM
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥2॥

भावार्थ:-सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥2॥

naman.a
02-05-2013, 12:45 PM
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥3॥

भावार्थ:-सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥3॥

naman.a
02-05-2013, 12:46 PM
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥4॥

भावार्थ:-जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥4॥

naman.a
02-05-2013, 12:47 PM
दोहा :
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥

भावार्थ:-स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं॥

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥

भावार्थ:-शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥

naman.a
02-05-2013, 12:58 PM
पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥1॥

भावार्थ:-जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥1॥

naman.a
02-05-2013, 12:58 PM
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥2॥

भावार्थ:-वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥2

naman.a
02-05-2013, 12:59 PM
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।
पनारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥3॥

भावार्थ:-तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं॥3॥

naman.a
02-05-2013, 12:59 PM
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥4॥

भावार्थ:-वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥4॥

naman.a
02-05-2013, 12:59 PM
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥5॥।

भावार्थ:-शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥5॥

naman.a
02-05-2013, 01:01 PM
दोहा :
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥

भावार्थ:-कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥

भावार्थ:-वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥

jai_bhardwaj
02-05-2013, 09:04 PM
दोहा :
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥

भावार्थ:-कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥



भावार्थ:-(प्रायः) कलियुग में सब लोग मर्यादा से च्युत होकर वर्णसंकर हो गए हैं। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥

नमन बन्धु, भले ही मानस में ऐसी ही व्याख्या की गयी है ... किन्तु मेरे विचार से इसमें कुछ परिवर्तन की गुंजाइश है ... संत तुलसीदास जी की रचना में मीनमेख निकालना एक बेवकूफाना आचरण ही हो सकता है फिर भी ............

naman.a
03-05-2013, 08:56 PM
भावार्थ:-(प्रायः) कलियुग में सब लोग मर्यादा से च्युत होकर वर्णसंकर हो गए हैं। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥

नमन बन्धु, भले ही मानस में ऐसी ही व्याख्या की गयी है ... किन्तु मेरे विचार से इसमें कुछ परिवर्तन की गुंजाइश है ... संत तुलसीदास जी की रचना में मीनमेख निकालना एक बेवकूफाना आचरण ही हो सकता है फिर भी ............

आपके अनुसार इसमें क्या परिवर्तन होना चाहिए और क्यों?

jai_bhardwaj
03-05-2013, 09:12 PM
आपके अनुसार इसमें क्या परिवर्तन होना चाहिए और क्यों?

नमन बन्धु, नमस्कार . मैंने आप द्वारा प्रस्तुत मूल भावार्थ में तनिक परिवर्तन करते हुए अपने विचारों के अनुरूप नवीन भावार्थ भी ऊपर की प्रविष्टि में प्रस्तुत किया है ..............यदि मैंने गलत लिखा हो तो कृपया मेरी अज्ञानता समझ कर क्षमा अवश्य कर देना ... मैं उपकृत होऊँगा।

naman.a
05-05-2013, 11:36 PM
नमन बन्धु, नमस्कार . मैंने आप द्वारा प्रस्तुत मूल भावार्थ में तनिक परिवर्तन करते हुए अपने विचारों के अनुरूप नवीन भावार्थ भी ऊपर की प्रविष्टि में प्रस्तुत किया है ..............यदि मैंने गलत लिखा हो तो कृपया मेरी अज्ञानता समझ कर क्षमा अवश्य कर देना ... मैं उपकृत होऊँगा।

आपने जो भावार्थ लिखा हैं वो किसी भी प्रकार के गलत नहीं कहाँ जा सकता हैं क्योकि वो आपने-आपके ज्ञान और अनुभव के आधार पर लिखा हैं . श्री रामचरित मानस की अनेक संतो ने अपने अनुभव और ज्ञान के अनुसार टिकाये लिखी हैं। अर्थ का अनर्थ तो तभी होता हैं जब चौपाई और लेखक के मूल भाव ना समज कर उसका अनर्थ कर के विवाद किया जाए .

इसी चौपाई का एक महानुभाव ने अपने अनुसार अर्थ किया हैं कि
कलयुग में लोग भिन्न - भिन्न मार्गो को अपनाकर वर्णशंकर हो रहे है। मतलब अपनी सहूलियत के अनुसार जाति और संप्रदाय बनाकर वो सब काम कर रहे हैं जिसे सनातन धर्म में अधर्म माना जाता हैं जैसे किसी समुदाय में एक से ज्यादा शादी को जायज माना जाता हैं, कुछ समुदायों में खून के रिश्तों में शादी होना भी जायज हैं। अब वो हमारे अनुसार तो मर्यादा से च्युत होना हैं पर उनके धर्म के अनुसार वो मर्यादा के अनुकूल हैं .

बाकी आपको अज्ञानी कहने वाले के पास ज्ञान ही नहीं हो सकता . आपको क्षमा कर सके इतने ज्ञानी हम नहीं हुए। अपने इस अनुज का मार्गदर्शन करते रहिएगा।

jai_bhardwaj
06-05-2013, 06:12 PM
आपकी सारगर्भित टिप्पणी से मन प्रसन्न हो गया है बन्धु ... आभार।

naman.a
06-05-2013, 10:04 PM
छंद :
अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥

भावार्थ:-स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात्* वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है, उनमें कोमलता नहीं है॥1॥

naman.a
06-05-2013, 10:04 PM
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन संबदु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा॥2॥

भावार्थ:-मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत (प्रलय) होने पर भी उनका नाश नहीं होगा॥2॥

naman.a
06-05-2013, 10:05 PM
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥3॥

भावार्थ:-कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। (लोगों में) न संतोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगने वाले हो गए॥3॥

naman.a
06-05-2013, 10:06 PM
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥



भावार्थ:-ईर्षा (डाह), कडुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गई। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गए॥4॥

naman.a
06-05-2013, 10:07 PM
दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे॥5॥

भावार्थ:-इंद्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। मूर्खता और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो पराई निंदा करने वाले हैं, जगत्* में वे ही फैले हैं॥5॥

naman.a
06-05-2013, 10:09 PM
दोहा :
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥

भावार्थ:-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥

भावार्थ:-सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान्* के नाम से पा जाते हैं॥

naman.a
13-05-2013, 10:17 PM
छंद
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥1॥

भावार्थ:-संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥1॥

naman.a
13-05-2013, 10:18 PM
कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥2॥

भावार्थ:-कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता॥2॥

naman.a
13-05-2013, 10:19 PM
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥3॥

भावार्थ:-जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए। राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध) दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं॥3॥

naman.a
13-05-2013, 10:19 PM
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥4॥

भावार्थ:-धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥4॥

naman.a
13-05-2013, 10:20 PM
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥5॥

भावार्थ:-कवियों के तो झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं॥5॥

naman.a
13-05-2013, 10:21 PM
दोहा :
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥

भावार्थ:-हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात्* काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥
तामस धर्म करिहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी बए न जामहिं धान॥

भावार्थ:-मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इंद्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥