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View Full Version : हास्य.. व्यंग्य.. परिचर्चा


Ranveer
07-04-2011, 11:52 PM
पछुआ का धुक्कड़ चल रहा है.. एक्को गो मकई में दाना नहीं धरेगा.......जो लागत लगाए उ भी डूबेगा.... काहे करें खेती...

ये बात एक किसान के जवान बेटे की है जो अब खेती नहीं करना चाहता है. ज़मीन बहुत है लेकिन कहता है कि खेती से पेट नहीं भरता.

उसने अपनी ज़मीनें बेचने का फ़ैसला कर लिया है और कहता है कि सारा पैसा बैंक में रखूंगा तो जो ब्याज़ मिलेगा वो भी खेती से ज्यादा है.

बात वाजिब है..कौन माथापच्ची करे..ट्रैक्टर मंगाए, ज़मीन जोते, बीज बोए, खाद डाले, रातों को जग कर फसल की रखवाली करे. बारिश न हो तो बोरिंग चलवाए. फिर कटाई में मज़दूर खोजे और हिसाब करे तो पता चले कि लागत भी मुश्किल से निकल रही है.

बैंक से पैसा निकालेगा, अनाज खरीदेगा, गाड़ी खरीदेगा, मॉल में जाएगा शॉपिंग करेगा और मज़े से जिएगा.

मैंने पूछा कि बात तुम्हारी ठीक लेकिन अगर सारे किसानों ने यही कर दिया तो क्या होगा. जवाब मिला.... गेहूं महंगा होता है तो मिडिल क्लास बाप बाप करने लगता है. उसको सस्ता में खिलाने का हमने ठेका ले रखा है.

मैंने कहा. सरकार सब्सिडी देती है. ऋण देती है तो खेती फायदे का सौदा हो सकता है. उसने कहा सब्सिडी सबसे बड़ा सरकारी धोखा है. डीजल, खाद, बीज और कीटनाशकों के बाद जो वापस मिलता है उससे लोग जहर भी नहीं खरीद सकते हैं. बचा हुआ कीटनाशक विदर्भ के किसान पी जाते हैं.

वो बहुत नाराज़ था. बोला, किसान का मुंह हमेसा सुखले ही काहे रहता है. एक और बहुत बड़ा दिक्कत है कि मीडिया समझती है कि देश में किसान सिर्फ हरियाणा और पंजाब में ही रहते हैं. कभी सड़क से चंडीगढ़ जाईये... वोक्सवैगन की बहुत सारी दुकानें खुली हैं.बिहार में एक्को ठो शो रूम नहीं है.

बात सोलह आने सच्ची थी. हरित क्रांति का जो लाभ पंजाब हरियाणा को हुआ वो बिहार और उत्तर प्रदेश को नहीं हुआ. वैसे आजकल पंजाब मे किसान गले तक कर्ज़े में डूबे बताए जाते हैं.

लाभ क्यों नहीं हुआ कैसे नहीं हुआ वो एक अलग ही कहानी है. फिलहाल खेती की बात. मैंन पूछा तो क्या करना चाहते हो खेती छोड़कर

बोलने लगा, खेती छोड़ने का विकल्प जिस दिन भी किसान को मिल जायेगा.. वो खेती छोड़ देगा... लोग खेती विकल्पहीनता की स्थिति में कर रहे हैं... विकल्प देकर पूछिए कि क्या वे खेती ही करना पसंद करेंगे.

इससे पहले कि मैं कुछ और पूछता उसने कहा, मेरी पूरी बात सुनिए...बाबू जी पटना यूनीवर्सिटी से पोस्ट ग्रैजुएट थे. बड़े किसान के बेटे थे. मेरे दादा जी 1200 बीघा के जोतदार थे और बड़ी कार पर चढ़ा करते थे मैंने अपने पिता को साइकिल पर चढ़ते देखा .खेती में वे असफल रहे पर जमीन बचाकर रखी. शायद मेरे लिए. मैंने स्कूल कॉलेज के समय खेती की है लेकिन अब और नहीं.

बात सोचने वाली थी. मैंने थोड़ा सोचा तो याद आया. मेरे चार मामा हैं. एक भी गांव में नहीं रहते. सब बंबई, दिल्ली रहते हैं. कोई ड्राइवर है कोई दरबान है. महीने के दो चार हज़ार मिलते हैं. आधा पेट खाते हैं आधा घर भेजते हैं. कहते हैं खेती का झंझट कौन करे. नगद है जीवन चल जाता है.

बाल बच्चों को पढ़ाएंगे. खेती कर के क्या करेगा. डॉक्टर-इंजीनियर बनेगा तो बाप का नाम रोशन होगा. कोई भी किसान नहीं चाहता उसका बेटा खेती करे क्योंकि खेती में कुछ नहीं धरा है.

हां आजकल बात बहुत होती है. एग्रीकल्चर फार्मिंग, सस्टेनेबल डेवलपमेंट, वगैरह वगैरह लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है.

मेरे पास भी नहीं. मेरे पास भी एक सवाल ही है...अगर सभी किसानों ने खेती छोड़ दी और सब डॉक्टर इंजीनियर बन गए तो अनाज कौन उगाएगा और फिर मंहगाई के मुद्दे पर पत्रकार कागज कैसे काले करेंगे.

फिर गरीब अनाज के लिए लड़ेगा कैसे. सरकार किस बात की सब्सिडी देगी, किसका ब्याज़ माफ़ करेगी और आखिरकारएक निजी सवाल - मेरा पेट कैसे भरेगा..

Hamsafar+
08-04-2011, 12:03 AM
बहुत बढ़िया , पड़ कर आनंद आ गया !!!

abhisays
08-04-2011, 09:52 AM
काफी विचारोतेजक..

saajid
08-04-2011, 10:04 AM
वाह जवाब नहीं आपका कृपया इसे गती देते रहें

Hamsafar+
08-04-2011, 03:56 PM
भाई उपरोक्त की तरह कुछ और भी लिखे, ताकि आनद में बढ़ोत्तरी हो

Kumar Anil
08-04-2011, 05:19 PM
रणवीर जी ,
एक ज्वलन्त समस्या पर विचारोत्तेजक प्रस्तुति हमारे सम्मुख लाये हैँ । एक कृषि प्रधान देश होने के बावज़ूद किसानोँ की स्थिति निरन्तर बदतर होती जा रही है । ग्रामीण अंचलोँ मेँ बड़े काश्तकार लघु कृषक मेँ , लघु कृषक सीमान्त कृषक मेँ और अन्ततोगत्वा खेतिहर मजदूर मेँ तब्दील होते जा रहे हैँ । किसी भी क्षेत्र के मुक़ाबले कृषि मेँ मुनाफा नगण्य है बल्कि यूँ कहेँ कि लागत ही निकल आये तो संतोषजनक है । दलहन , तिलहन और मोटे अनाज पर मिलने वाले सरकारी अनुदान को मलाईदार पोस्टिँग समझकर विभागीय अधिकारी चट्ट कर जाते हैँ और डकार तक नहीँ लेते । उनके खेतोँ के सुधार के लिये कार्यक्रम यथा मेड़बन्दी , समतलीकरण , समोच्च बाँध , वॉटरशेड योजनाओँ का नंगा सच तो यह है कि 85 से 90 फीसदी की बंदरबाँट हो जाती है और रही डीजल की बात तो उसका उपभोग तो धनाढ्य वर्ग अपनी कारोँ मेँ खुलेआम कर रहा है मगर सरकारेँ चिल्लाती हैँ कि किसानोँ के हित मेँ सब्सिडी जारी रहेगी । विकल्पहीनता की स्थिति मेँ भी कुछ लोगोँ ने शहरोँ का पलायन शुरु किया परन्तु वे मजदूर से ज़्यादा अपनी पहचान न बना पाये । गत वर्षोँ मेँ वोट बैँक की राजनीति के तहत महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम यानि नरेगा मेँ भोले भाले मजदूर / किसानोँ को छः माह तक सौ रुपये की नित् अफीम चटाने की व्यवस्था कर दी ।
विकल्पहीनता और किँकर्तव्यविमूढ़ता उसे उन्हीँ खेतोँ से जोड़े है । प्रति व्यक्ति आय भले ही बढ़ी है पर हमारा किसान अधोगति की ही ओर अग्रसर है । एक सरकारी बाबू तो सपने देखता है पर हमारा अन्नदाता किसान उपेक्षित , सर्वहारा सपनोँ की परिभाषा भी नहीँ जानता । अपने धूल धूसरित जीवन को खेतोँ मेँ ही रोपता रह जाता है ।
अगर हम अभी भी नहीँ चेते , अगर हमने अभी भी उनके कल्याण के लिये समग्र रूप से नहीँ सोचा तो उनका तो पता नहीँ परन्तु हम तथाकथित भलेमानुषोँ का अस्तित्व ही संकट से घिर जायेगा ।
इस यक्ष प्रश्न का जबाब ढूँढ़ना ही पड़ेगा ।

Ranveer
08-04-2011, 05:38 PM
मेरा गांव शहर में रहता है और मेरा शहर ......माफ़ कीजिएगा मेरा नहीं. शहर तो शहर है वो हम सबके दिमाग में रहता है.
गांव अब जीता नहीं. इंतज़ार करता है उनका जो शहर चले गए हैं और साथ ले गए हैं गांव का लड़कपन, उसका बांकपन, उसकी मिट्टी, उसके सपने और उसका दीवानापन.
फागुन में अब गांव में फाग नहीं गाए जाते बल्कि होली वाले दिन लाउडस्पीकर पर शहर के गुड्डू रंगीला और चंदू चमकीला अपनी भौंडी आवाज़ में छींटाकशी वाले गाने गाते हैं.

साथ में होती है मदिरा और पैंट बुश्शर्ट वाले नौजवान जो भांग नहीं बल्कि बोतल से शराब पीते हैं.
बरसात में बूढ़े दालान पर बैठकर अपनी बूढ़ी बीवियों और जवान बहुओं को गरियाते हैं या फिर अपने छोटे छोट पोते पोतियों की नाक से निकलता पोटा पोंछते हुए कहते हैं कि छोटा ही रह.
उन्हें डर है कि पोता भी बड़ा होते ही शहर हो जाएगा.
जवान औरतें अब मेला नहीं जाती हैं बल्कि मोबाइल फोन पर अपने शहर में रह रहे पतियों या किसी और से गप्प लड़ाती हैं.घर से बाहर निकलती हैं और बूढ़ों की भाषा में लेफ्ट राइट करती हैं.
शहर कभी कभी गांव आता है. होली दीवाली में. दो चार दिन रहता है. अपने कोलगेट से मांजे गए दांतों से ईख चबाने की कोशिश में दांत तुड़ाता है और फिर ईख को गरियाते हुए गांव को रौंद कर निकल जाता है.
फिर गांव इंतज़ार करता रहता है कि कब शहर आएगा और भैंस को दाना खिलाएगा. हल या ट्रैक्टर से खेत जोतेगा और बीज बोएगा. कब अपनी भीनी आवाज़ में गीत गाते हुए फसल काटेगा और कब चांदनी रात में कटी फसल पर अपनी बीवी के पसीने में लथपथ होगा.
ऐसा होता नहीं है. शहर अब फ़िल्मी गाने गाता है. ट्रैक्टर चलाने की बजाय ट्रैक्टर के पीछे हेलमेट लगा कर बैठता है. बुलडोज़र और गारा मशीन की आवाज़ों के बीच मशीन हो जाता है. दिन रात ठेकेदार की गालियां सुनता है. शाम को अपनी दिहाड़ी लेकर कमरे पर लौटता है और दो रोटियां सेंककर सो जाता है कल फिर मुंह अंधेरे उठ कर काम के इंतजा़र में.
सब कहते हैं गांव बदल गया है.
हां गांव बिल्कुल बदल गया है. अब गांव भी शहर की तरह भूतिया हो गया है जहां सिर्फ़ औरतें और बूढ़े दिखते हैं. खेत खलिहान सूखे और पानी की किल्लत दिखती है. लोकगीतों की बजाय फ़िल्मी गाने सुनाई पड़ते हैं और लोग कहते हैं अपने काम से काम रखो.

ndhebar
10-04-2011, 10:39 AM
गांव बिल्कुल बदल गया है. अब गांव भी शहर की तरह भूतिया हो गया है जहां सिर्फ़ औरतें और बूढ़े दिखते हैं. खेत खलिहान सूखे और पानी की किल्लत दिखती है. लोकगीतों की बजाय फ़िल्मी गाने सुनाई पड़ते हैं और लोग कहते हैं अपने काम से काम रखो.

रणवीर भाई आपने दिल कि व्यथा को शब्दों में पिरो दिया हैं

Ranveer
21-04-2011, 10:45 PM
काश, हमारा ऑफिस आज गांव में होता…

तो हम आज सुबह उठते, छोटे से ट्रांजिस्टर पर आकाशवाणी से समाचार सुनते कि मुम्बई में पेट्रोल नहीं मिलने से लोगों को भारी दिक्कत हो रही है, और आश्चर्य करते कि पेट्रोल की इतनी क्या जरूरत है।
फिर नाश्ता करके घर से निकलते और खरामा- खरामा टहलते हुए ऑफिस पहुंच जाते जो कि घर से दस कदम की दूरी पर होता।
रास्ते में साइकिल से शहर जाते स्कूल के गुरु जी से दुआ- सलाम भी कर लेते।
ऑफिस जाकर कुर्सी- टेबल बाहर निकालते और नीम पेड़ के नीचे, गुनगुनी धूप में काम करने बैठ जाते।
पास की गुमटी से चूल्हे में लकड़ी जला कर बनाई गई दस पैसे की अदरकवाली चाय भी आ जाती। चाय आती तो साथी भी आ जाते, अखबार भी ले आते।
फिर अखबार में छपी दुनिया भर की खबरों पर चर्चा की जाती, सुबह सुने समाचार को “ब्रेकिंग न्यूज” की तरह पेश किया जाता और मुम्बई के लोगों की हंसी उड़ाई जाती कि बेचारे बिना पेट्रोल के ऑफिस नहीं जा पा रहे हैं।
फिर चर्चा की जाती कि मुम्बई के लोगों को ऎसी मुसीबत से बचने के लिए क्या करना चाहिए। आधे लोग आश्चर्य करते कि मुम्बई वाले चीन की तरह साइकिल पर क्यों नहीं चलते, बाकी आधे आश्चर्य करते कि पेट्रोल नहीं है तो छुट्टी क्यों नहीं ले लेते मुम्बई वाले, ऑफिस जाने की क्या जरूरत है?
और फिर सब दोपहर का खाना खा कर एक झपकी लेने अपने- अपने घर चले जाते…
लेकिन ऑफिस तो हमारा है मुम्बई में.. इसलिए तेल कर्मचारियों की हड़ताल का असर झेल रहे हैं, भीड़ से खचाखच भरी लोकल ट्रेनों और बसों में सफर कर ऑफिस पहुंच रहे हैं और बंद ऑफिस में बिना एसी के बैठे यह चिंता कर रहे हैं कि हड़ताल खत्म नहीं हुई तो शाम तक बसें भी बंद हो जाएंगी फिर घर कैसे जाएंगे, 20-22 किलोमीटर दूर घर है- पैदल चल कर कैसे जाएंगे, रसोई गैस भी नहीं मिली तो खाना कैसे पकेगा, शहर में खाने –पीने के सामान की किल्लत हो जाएगी…
काश, हमारा ऑफिस आज गांव में होता…

Ranveer
21-04-2011, 10:48 PM
‘होली’ शब्द कान में पड़ते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है और अतीत की उनींदी यादों के कपाट-दर-कपाट उघड़ने लगते हैं। गांवों में एक-दो नहीं, पूरे पांच दिनों तक अबीर-गुलाल में रंगे दिन, मौज-मस्ती में सने दिन होते हैं, जिनकी तैयारी पूरे एक माह पूर्व से होना शुरू होती थी।

माघ पूर्णिमा के दिन होली का डांडा (खम्ब) गाड़ दिया जाता था, डांडा गड़ते ही चौपाल पर डाक-डफली के साथ शिव-पार्वती का ब्याह, औघढ़ धाणी की बारात के गीतों के स्वर वातावरण को आनन्दित कर देने वाले होते थे। वहीं, दूसरी ओर युवाओं-किशोरों के जत्थे के जत्थे लकड़ी चोरी में भिड़ जाते थे। गांवों में लकड़ी-कण्डे की क्या कमी! पर भी लकड़ी चुराना भी एक परम्परा के तहत होता था!

‘होली’ आनन्द और उल्लास के साथ-साथ सांस्कृतिक परम्परा और अध्यात्म को भी पोषित करती है। महिलाएं पूजन करतीं, ‘पूरण पोळई’ का भोग लगातीं एवं गोबर के बनाए आभूषण चढ़ाती थीं। होलिका दहन के मुहूर्त पर पूरा गांव एकत्रित होता था, मंत्रोच्चार के साथ होलिका में अग्नि प्रज्वलित होती और बड़ी-बड़ी लपटों से घिरी होलिका की परिक्रमा करते-करते होली की ‘बोम’ शुरू हो जाती थी।
भोर होते ही गोबर-मिट्टी की होली होती थी। गांव में धूल के गुबार उठते थे। इसीलिए आज के दिन को ‘धुलेंडी’ भी कहते हैं। सांझ के पहले ही मंदिर में रंग-गुलाल के साथ ही ठंडाई-भांग का भी रंग जमता था। पांच दिनों तक फगुआरों की टोलियां गाती-बजाती रंग में सराबोर रहतीं।

रंग-पंचमी के दिन सामूहिक रूप से मंदिर में या चौपाल पर सभी लोग एकत्रित हो पलाश के रंग व गुलाल से होली खेलते थे और बड़े-बुजुर्गों को शीश झुकाकर प्रणाम करते थे। जात-पात, अमीर-गरीब के दायरे से ऊपर उठकर, अगला साल अच्छा आए, सबसे मंगल आशीष मांगते थे।
किन्तु अब सब बदल गया है! अब तो गांवों में भी होलियां अलग-अलग जलने लगी हैं। गांववासी भी पलाश के केशरिया रंग को भूलकर ‘कलर पेस्ट’ से फाग खेलने लगे हैं। आज राजनीति का ग्रहण –‘होली’ पर्व पर भी लग गया है। टी.वी. संस्कृति ने गांव की भोली-भाली संस्कृति व परम्पराओं को निगल लिया है। पारम्परिक फाग की ओर से लोगों का रुझान खत्म होता जाता रहा है। लोकगीतों और लोकनृत्यों की जगह अश्लील कानफोडू गाने व भद्दे नृत्य होली की पहचान बनते जा रहे हैं।

अब नवयुवकों को लगता है, लोकगीतों और लोकनृत्यों से जुड़े रहना पिछड़ापन है। अत: शहरी बनने की होड़ में वे एक अपसंस्कृति को पोषित कर रहे हैं।

ndhebar
21-04-2011, 11:01 PM
काश, हमारा ऑफिस आज गांव में होता…



ख़ास इहे चलते हमने ऑफिस बड़े शहर की जगह गावं में खोल लिया है
काश कहने की जरूरत ही नहीं
ना चिंता ना फिकर ना है डर:banalema::banalema:

Ranveer
22-04-2011, 10:32 AM
ख़ास इहे चलते हमने ऑफिस बड़े शहर की जगह गावं में खोल लिया है
काश कहने की जरूरत ही नहीं
ना चिंता ना फिकर ना है डर:banalema::banalema:
ऑफिस में लेपटोप कैसे चार्ज करतें हैं
लगता है सोलर प्लांट भी लगवा चुके हैं l

abhisays
22-04-2011, 10:37 AM
आने वाले वक़्त में बड़े बड़े ऑफिस गाँव में खुलेंगे, ऐसा होगा, शायद अपने जीवन काल में ही हम लोग यह देख ले.

ndhebar
22-04-2011, 10:46 AM
ऑफिस में लेपटोप कैसे चार्ज करतें हैं
लगता है सोलर प्लांट भी लगवा चुके हैं l
नितीश बाबु की कृपा है बस
बिजली की कौनो समस्या नहीं है यहाँ

ndhebar
22-04-2011, 10:47 AM
आने वाले वक़्त में बड़े बड़े ऑफिस गाँव में खुलेंगे, ऐसा होगा, शायद अपने जीवन काल में ही हम लोग यह देख ले.
उ इसलिए की शहर में जगहवा नहीं बचेगा ना

Kumar Anil
22-04-2011, 10:04 PM
उ इसलिए की शहर में जगहवा नहीं बचेगा ना

शहर मेँ जगह थी ही कहाँ ? पर इसकी भूख बहुत विकराल है जो किसी अजगर की तरह कुंडली मारे विकास के नाम पर बरस दर बरस गाँवोँ को निगलता जा रहा है ।

Ranveer
22-04-2011, 10:17 PM
शहर मेँ जगह थी ही कहाँ ? पर इसकी भूख बहुत विकराल है जो किसी अजगर की तरह कुंडली मारे विकास के नाम पर बरस दर बरस गाँवोँ को निगलता जा रहा है ।
सही कहा आपने
एक छोटा सा तथ्य देखिये -
पिछली जनगणना में 35 दस लाख की आबादी वाले शहर हुए थे
इस बार ये संभवतः 50 के आस पास पहुँच सकती है
इससे ज्यादा तीव्र गति से तो एक से दस लाख वाले शहरों की संख्या बढ़ रही है

अब गावं पर गर्व करना थोडा मुश्किल है

Ranveer
06-06-2011, 10:01 PM
कुछ वर्षों पहले बड़ी ही शान के साथ कहा जाता था, की “सामने वाला मकान, Engineer साहब का है”| आज माँ-बाप पढाई के प्रति इतना अधिक सचेत हैं, की बच्चे का नामकरण संस्कार बाद में होता है, वो भविष्य में क्या बनेगा पहले ही तय हो जाता है| मुझे तो संदेह है की कहीं Engineering कोई भयानक बीमारी तो नहीं| अब आप ही देख लीजिए, Virus कितनी तेज़ी से बढ़ रहा है| बच्चा 10th के बाद ही तैयारी करने में लग जाता है| मैंने तो बड़ी ही मुश्किल से पिंड छुड़ाया है, वरना रिश्ते-नातेदारों में फैला Virus हमारे घर भी आ जाता|

देश को लाखों की संख्या में Engineers की ज़रूरत है, इस बात को नकारा नहीं जा सकता| आज गली-गली खुलते कॉलेजों के बीच Engineering की पढ़ाई एक मज़ाक बन कर रह गई है| आप ने ‘तथास्तु’ सुना होगा, पर “Engineer-आस्तु”?..ये मेरा आशीर्वाद है, हर उस Student को जो दिल से Engineer बनना चाहता है| जो कोई भी Engineer वाली सोंच/प्रतिभा रखता हो वो इस क्षेत्र में खूब तरक्की प्राप्त करे, और हिन्दुस्तान का नाम रोशन करे| तो फिर “Engineer-आस्तु”:
लिखा-पढ़ा जो Science में Engineer ही बनना है,
हर माँ-बाप की बस यही तमन्ना है|
अपने ‘कुल’ का झंडा सबसे ऊँचा करना है,
भाई-बहनों से भी अपने आगे बढ़ना है|
‘दसवीं’ से ही शुरू होती है अपनी Battle,
‘विदेश’ जा कर ही आखिर सबको होना है Settle|
‘तकनीकी प्रगति’ में लिखना अगला ‘पन्ना’ है,
हर माँ-बाप …………….|
B-tech है या कोई Virus या है कोई बीमारी,
एक Football के पीछे पड़ी है दुनिया सारी|
Injection, Tablet, Operation से ‘इलाज’ होता है,
‘गलती से’ जो बने Patient, ४ साल ‘रोता’ है|
‘अगल-बगल’ न फैले Virus रहना चौकन्ना है,
हर माँ-बाप …………….|
Mushroom से खुलते Collage शहर, गली, चौराहे,
I.I.T. में हो Selection, मन सबका ही चाहे|
Engineering का घोड़ा ‘५५-६०’ वाले दौड़ाएं,
‘५० प्रतिशत’ वाले भी गड़ाएं हैं निगाहें|
‘चाहे जो भी हो’, ताज Engineering का ही पहनना है,
हर माँ-बाप …………….|
‘बादाम-अखरोट’ से होगा क्या Physics-Chemistry लगाओ,
Mathematics है महासंकट, हे ‘बजरंगबली’ बचाओ|
कर लो ‘जाप’ सभी तुम चाहे ‘संगम’ में नहाना,
‘पप्पू होना पास’, हमें भी ‘Dairy-Milk’ खिलाना|
बिन Entertainment के जूस, Student ‘सूखा-गन्ना’ है,
हर माँ-बाप …………….|
सबकी कटोरी में, Placement का सिक्का कैसे आए?
Displacement से बेहतर है, M.B.A. में घुस जाएं|
‘नोंक’ जिनकी अब भी हो Sharp, Mtech में ‘रंग जमायेंगे’,
सब ‘बाकी ठहरे’ कम से कम Engineer तो कहलायेंगे|
‘बन्नी’ है Engineering, Science वाला ‘बन्ना’ है,
हर माँ-बाप …………….|
Engineering करि-करि जग मुआ Successful भया न कोए,
‘मन से’ काज जो भी किया, सफलता चरणम् धोए|
हो Engineer सा ‘हुनर’ तो ही ‘इस ओर’ आना,
सिर्फ Degree वाले Engineer बन मत देश का नाम डुबाना|
जैसी प्रतिभा हो, वैसा ही अब बनना है,
हर माँ-बाप …………….|

आभार - अंतरजाल

Ranveer
07-06-2011, 10:07 PM
कोई प्रतिक्रिया नहीं ????:help:
लगता है अधिकाँश लोग इंजीनियर ग्रुप के ही हैं ...:giggle:
माफ़ी चाहूँगा मित्रो ये केवल एक व्यंग्य के रूप में है :cheers:

ndhebar
07-06-2011, 10:26 PM
मुझे तो संदेह है की कहीं engineering कोई भयानक बीमारी तो नहीं|

आपको शक है मुझे तो पक्का यकीं है ये भयंकर बीमारी है
अजी aieee के रिजल्ट देख लीजिये
जिनका रैंक २,००,००० है उनको भी दाखिले के लिए कॉलेज मिल रहा है
अब बताइये भला कैसा इंजिनियर बनेगा

abhisays
07-06-2011, 10:32 PM
कविता बहुत ही भावपूर्ण और विचारोतेजक है इसपर विस्तार से टिपण्णी देता हूँ. जल्द ही.. लम्बी कहानी है.

Ranveer
07-06-2011, 10:37 PM
कविता बहुत ही भावपूर्ण और विचारोतेजक है इसपर विस्तार से टिपण्णी देता हूँ. जल्द ही.. लम्बी कहानी है.

इंतज़ार में ............:cheers:

abhisays
08-06-2011, 10:24 PM
इंतज़ार में ............:cheers:

यह कविता आज के समय की कडवी सच्चाई बयान कर रही है. आज हर तरफ से इंजिनियर ही इंजिनियर निकलते जा रहे है और उनमे में ८० फीसदी को पता भी नहीं है उन्होंने इंजीनियरिंग क्यों की और आगे जा कर क्या करेंगे.

चारो तरफ भेडचाल का आलम है. कुकुरमुत्ते की तरह इंजीनियरिंग कॉलेज फैले हुए है. बस उसके प्रबंधन का मकसद अधिक से अधिक लोगो को लेकर पैसे कमाना है.

हर कोई शोर्ट कट से नौकरी पाना चाहता है, लेकिन अब ऐसा हो गया है इंजीनियरिंग स्नातको को भी नौकरी नहीं मिल रही है, क्योकि यह संसार का नियम होता है की जो भी चीज़ बहुतायत में होती है उसकी कोई कद्र नहीं होती.

तो अब लोग mba के तरफ भागने लगे है,

आखिरकार इसके पीछे जिम्मेदार कौन है, यह एक चर्चा का विषय है.

वैसे बहुत ही कम लोग इंजिनियर यानी अभियंता का सही अर्थ समझते है.


इंजिनियर का काम गणित और विज्ञान की मदद से कुछ ऐसी चीजें बनाना जो आम लोगो के लिए लाभदायक हो. एक सही मायनों में इंजिनियर विज्ञान और कला के बीच का पुल होता है जो इन दोनों का इस्तेमाल करके नयी नयी चीजें बनाता है.

एक अभियंता का एक और मुख्य कार्य होता है समस्याओं का समाधान करना, नए नए उपकरण बनाना या लोगो के जीवन को सुगम करने के लिए नए नए खोज करना । इसके लिये उन्हें प्राय: इंजीनियरिंग शिक्षा में पाये हुए अपने प्रशिक्षण और तकनीक का अनुप्रयोग करना पड़ता है ।

लेकिन अधिकतर इंजीनियरिंग कॉलेज में केवल लोग रट कर परीक्षा पास करते है जिसके कारण उनके पास सही ज्ञान का अभाव होता है.

मुझे अभियांत्रिकी क्षेत्र का ८ साल का तजुर्बा है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ, करीब भारत में १०० में से केवल २० इंजिनियर ही ऐसे होते है जो सही अर्थ में इंजिनियर होते है..

ndhebar
08-06-2011, 10:56 PM
मुझे अभियांत्रिकी क्षेत्र का ८ साल का तजुर्बा है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ, करीब भारत में १०० में से केवल २० इंजिनियर ही ऐसे होते है जो सही अर्थ में इंजिनियर होते है..
मुझे तो ये संख्या भी कुछ ज्यादा ही लगती है

Ranveer
08-06-2011, 11:18 PM
सत्य वचन !!
वर्तमान में यदि कोई ये कहता है की " मै इंजीनियर हूँ " तो दिमाग पर कुछ ख़ास प्रभाव नहीं पड़ता जब तक की ये न पता चले की वो किस संस्थान से पास हुआ है |:bang-head:

abhisays
12-06-2011, 08:52 AM
मुझे तो ये संख्या भी कुछ ज्यादा ही लगती है

हो सकता है.

jai_bhardwaj
14-06-2011, 12:17 AM
सतत परिवर्तन और निरंतर विकास (कैसा भी हुआ हो) के कारण जो मानक कल तक उच्च स्तरीय थे वे आज औसत हो चले हैं .....
-- अपने बचपन में किसी कार्य में दक्षता दिखाने के प्रयास में हमने बाबा जी से बड़े मिडिल पास आये जैसे जुमले सुनने को मिलते थे ... आज मिडिल ( कक्षा आठ ) पास की तनिक भी कीमत है
-- जब मैंने हाई स्कूल की परिक्षा उत्तीर्ण की थी तो उससे पूर्व हमारे किसी भी पारिवारिक सदस्य ne यह कारनामा नहीं किया था ... आज ९० प्रतिशत से कम अंक आने पर छात्र अपने जीवन से खेल जाते हैं
-- कभी ग्रेजुएट होने का तात्पर्य था कि अब गले में टाई बाँधने के अधिकारी हो गए .... आज हम अपने बच्चों को नर्सरी कक्षा से ही अनिवार्य टाई सहित यूनिफार्म में विद्यालय भेजते हैं
-- कभी सरकारी नौकरी का बड़ा क्रेज होता था .. .. आज अपने व्यवसाय का अधिक मान है
-- कभी विदेश में बसे दूल्हे अधिक पसंद किये जाते थे .... आज अपने गाँव पड़ोस के अच्छे युवक को अधिक प्राथमिकता दी जाती है
और भी बहुत से व्यवहारिक उदाहरण हैं जिन्हें हम प्रतिदिन अनुभव करते हैं ....
निरंतरता हमें आगे बढाती है ... सही या गलत दिशा और राह चुनना हमारे विवेक की बात है / धन्यवाद /

jitendragarg
14-06-2011, 07:07 PM
jai bhai, aapne baat to bade pate ki kahi hai! lekin samasya ye hai, ki aajkal insaan skill ki nahi, baaton ki khaata hai. tabhi to manager log, asli kaam karne walo se jyada income rakhte hai. phir har vyakti ki soch aisi hoti ja rahi, ki dikhava hi sab kuch hai. aaj log, do do phone isliye khareed lete hai, kyunki har koi rakh raha hai, bhale hi upyog ek ka bhi dhang se na kare. ab, bharat me kisi ko 3g ka sahi upyog bhi nahi pata, par sab 3g wala phone khareedte hai. aise me, vidheshi dulha, videshi car, videshi kapde, videshi ghadi, aadi ka jyada prachalan hai.

ek baat aur, aajkal ki peedhi me kuch aisa hai, ki wo log 50rs kharach karke burger kha sakte hai, par 10rs. dekar samosa nahi khareedte. sab sirf dikhane ke kaaran. aur wahi log, baahar ke deshon me jaakar parantha ki dukaan dhundhte hai. aise log ke haath me agar desh ka netratv hoga, to jo baat aap kar rahe hai, wo sab to hona hi hai.

sach kahoon, to hamara desh upar nahi ja raha, balki niche ja raha hai. pehle hum videshiyon ke gulaam the, ab unki sabhyta, unke rehan-sehan ke.. hamare desh ki maansikta hi gulaami ki hai!

bharat
23-06-2011, 04:35 AM
लाजवाब लेख! खेती और किसान की सच्चाई संजोये!

bharat
23-06-2011, 04:37 AM
सत्य वचन !!
वर्तमान में यदि कोई ये कहता है की " मै इंजीनियर हूँ " तो दिमाग पर कुछ ख़ास प्रभाव नहीं पड़ता जब तक की ये न पता चले की वो किस संस्थान से पास हुआ है |:bang-head:


सही कहा! व्यवसायिक संस्थानों की बाड़ सी आ गयी है! शिक्षा बिकने लगी है! बच्चों को आगे पढ़ना भी आम आदमी के बस से बाहर की बात होता जा रहा है!