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View Full Version : ღ॰॰॰ღमाखनलाल चतुर्वेदी ღ॰॰॰ღ


Sikandar_Khan
12-04-2011, 08:37 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10248&stc=1&d=1302579007
जन्म: 04 अप्रैल 1889
निधन: 30 जनवरी 1968

उपनाम एक भारतीय आत्मा
जन्म स्थान: ग्राम बबई, जिला होशंगाबाद, मध्य प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ :
किरीटनी, हिम तरंगिनी, युग चारण, साहित्य देवता
विविध: काव्य संग्रह "हिम तरंगिनी" के लिये 1955 का साहित्य अकादमी पुरस्कार।
जीवनी: माखनलाल चतुर्वेदी / परिचय

Sikandar_Khan
12-04-2011, 08:43 AM
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।

Sikandar_Khan
12-04-2011, 08:44 AM
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।

चरण-ध्वनि पास-दूर कहीं नहीं
साधें आराधनीय रही नहीं
उठने,उठ पड़ने की बात रही
साँसों से गीत बे-अनुपात रही

बागों में पंखनियाँ झूल रहीं
कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं
फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे
किसको अनुहार रही चुप साधे

दौड़ के विहार उठो अमित रंग
तू ही `श्रीरंग' कि मत कर विलम्ब
बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं
कितना रोका कि मौन बोल उठीं
आहों का रथ माना भारी है
चाहों में क्षुद्रता कुँआरी है

आओ तुम अभिनव उल्लास भरे
नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।।

Sikandar_Khan
12-04-2011, 08:48 AM
छोड़ चले, ले तेरी कुटिया,
यह लुटिया-डोरी ले अपनी,
फिर वह पापड़ नहीं बेलने;
फिर वह माल पडे न जपनी।

यह जागृति तेरी तू ले-ले,
मुझको मेरा दे-दे सपना,
तेरे शीतल सिंहासन से
सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।

सूली का पथ ही सीखा हूँ,
सुविधा सदा बचाता आया,
मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ,
जीवन-ज्वाल जलाता आया।

एक फूँक, मेरा अभिमत है,
फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल,
मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी,
फेंक चुका कब का गंगाजल।

इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे,
इस उतार से जा न सकोगे,
तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो,
जीवन-पथ अपना न सकोगे।

श्वेत केश?- भाई होने को-
हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी,
आया था इस घर एकाकी,
जाने दो मुझको एकाकी।

अपना कृपा-दान एकत्रित
कर लो, उससे जी बहला लें,
युग की होली माँग रही है,
लाओ उसमें आग लगा दें।

मत बोलो वे रस की बातें,
रस उसका जिसकी तस्र्णाई,
रस उसका जिसने सिर सौंपा,
आगी लगा भभूत रमायी।

जिस रस में कीड़े पड़ते हों,
उस रस पर विष हँस-हँस डालो;
आओ गले लगो, ऐ साजन!
रेतो तीर, कमान सँभालो।

हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर,
तुमने पत्थर का प्रभू खोजा!
लगे माँगने जाकर रक्षा
और स्वर्ण-रूपे का बोझा?

मैं यह चला पत्थरों पर चढ़,
मेरा दिलबर वहीं मिलेगा,
फूँक जला दें सोना-चाँदी,
तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा।

चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस,
सागर गरजे मस्ताना-सा,
प्रलय राग अपना भी उसमें,
गूँथ चलें ताना-बाना-सा,

बहुत हुई यह आँख-मिचौनी,
तुम्हें मुबारक यह वैतरनी,
मैं साँसों के डाँड उठाकर,
पार चला, लेकर युग-तरनी।

मेरी आँखे, मातृ-भूमि से
नक्षत्रों तक, खीचें रेखा,
मेरी पलक-पलक पर गिरता
जग के उथल-पुथल का लेखा !

मैं पहला पत्थर मन्दिर का,
अनजाना पथ जान रहा हूँ,
गूड़ँ नींव में, अपने कन्धों पर
मन्दिर अनुमान रहा हूँ।

मरण और सपनों में
होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी,
किसकी यह मरजी-नामरजी,
किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी?

अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र !
यह मेरी बोली
यह `सुधार' `समझौतों' बाली
मुझको भाती नहीं ठठोली।

मैं न सहूँगा-मुकुट और
सिंहासन ने वह मूछ मरोरी,
जाने दे, सिर, लेकर मुझको
ले सँभाल यह लोटा-डोरी !

Sikandar_Khan
12-04-2011, 08:58 AM
आज नयन के बँगले में
संकेत पाहुने आये री सखि!

जी से उठे
कसक पर बैठे
और बेसुधी-
के बन घूमें
युगल-पलक
ले चितवन मीठी,
पथ-पद-चिह्न
चूम, पथ भूले!
दीठ डोरियों पर
माधव को

बार-बार मनुहार थकी मैं
पुतली पर बढ़ता-सा यौवन
ज्वार लुटा न निहार सकी मैं !
दोनों कारागृह पुतली के
सावन की झर लाये री सखि!

आज नयन के बँगले में
संकेत पाहुने आये री सखि !

Sikandar_Khan
12-04-2011, 09:02 AM
इस तरह ढक्कन लगाया रात ने
इस तरफ़ या उस तरफ़ कोई न झाँके।

बुझ गया सूर्य
बुझ गया चाँद, तस्र् ओट लिये
गगन भागता है तारों की मोट लिये!

आगे-पीछे,ऊपर-नीचे
अग-जग में तुम हुए अकेले
छोड़ चली पहचान, पुष्पझर
रहे गंधवाही अलबेले।

ये प्रकाश के मरण-चिन्ह तारे
इनमें कितना यौवन है?
गिरि-कंदर पर, उजड़े घर पर
घूम रहे नि:शंक मगन हैं।

घूम रही एकाकिनि वसुधा
जग पर एकाकी तम छाया
कलियाँ किन्तु निहाल हो उठीं
तू उनमें चुप-चुप भर आया

मुँह धो-धोकर दूब बुलाती
चरणों में छूना उकसाती
साँस मनोहर आती-जाती
मधु-संदेशे भर-भर लाती।

Sikandar_Khan
12-04-2011, 09:05 AM
उठ महान ! तूने अपना स्वर
यों क्यों बेंच दिया?
प्रज्ञा दिग्वसना, कि प्राण् का
पट क्यों खेंच दिया?

वे गाये, अनगाये स्वर सब
वे आये, बन आये वर सब
जीत-जीत कर, हार गये से
प्रलय बुद्धिबल के वे घर सब!

तुम बोले, युग बोला अहरह
गंगा थकी नहीं प्रिय बह-बह
इस घुमाव पर, उस बनाव पर
कैसे क्षण थक गये, असह-सह!

पानी बरसा
बाग ऊग आये अनमोले
रंग-रँगी पंखुड़ियों ने
अन्तर तर खोले;

पर बरसा पानी ही था
वह रक्त न निकला!
सिर दे पाता, क्या
कोई अनुरक्त न निकला?

प्रज्ञा दिग्वसना? कि प्राण का पट क्यों खेंच दिया!
उठ महान् तूने अपना स्वर यों क्यों बेंच दिया!

Sikandar_Khan
12-04-2011, 09:12 AM
क्यों मुझे तुम खींच लाये?

एक गो-पद था, भला था,
कब किसी के काम का था?
क्षुद्ध तरलाई गरीबिन
अरे कहाँ उलीच लाये?

एक पौधा था, पहाड़ी
पत्थरों में खेलता था,
जिये कैसे, जब उखाड़ा
गो अमृत से सींच लाये!

एक पत्थर बेगढ़-सा
पड़ा था जग-ओट लेकर,
उसे और नगण्य दिखलाने,
नगर-रव बीच लाये?

एक वन्ध्या गाय थी
हो मस्त बन में घूमती थी,
उसे प्रिय! किस स्वाद से
सिंगार वध-गृह बीच लाये?

एक बनमानुष, बनों में,
कन्दरों में, जी रहा था;
उसे बलि करने कहाँ तुम,
ऐ उदार दधीच लाये?

जहाँ कोमलतर, मधुरतम
वस्तुएँ जी से सजायीं,
इस अमर सौन्दर्य में, क्यों
कर उठा यह कीच लाये?

चढ़ चुकी है, दूसरे ही
देवता पर, युगों पहले,
वही बलि निज-देव पर देने
दृगों को मींच लाये?

क्यों मुझे तुम खींच लाये?

Nitikesh
12-04-2011, 10:37 AM
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।



मेरी पाठ्यपुस्तक में यह कविता पुष्प की अभिलाषा के नाम से छपी थी/
ये उन कविताओं में से थी जो मुझे जल्दी याद हो गयी थी/
औए बड़ी बात यह थी की यह छोटी भी थी/
हा हा हा हा
धन्यवाद सिकंदर भाई पुरानी याद ताज़ा करने के लिए/

sagar -
12-04-2011, 12:59 PM
मेरी पाठ्यपुस्तक में यह कविता पुष्प की अभिलाषा के नाम से छपी थी/
ये उन कविताओं में से थी जो मुझे जल्दी याद हो गयी थी/
औए बड़ी बात यह थी की यह छोटी भी थी/
हा हा हा हा
धन्यवाद सिकंदर भाई पुरानी याद ताज़ा करने के लिए/
जी हा ये पुष्प की अभिलाषा के नाम से ही थी हमारे टाइम में आज कल हे या नही पता नही !

Bond007
12-04-2011, 04:13 PM
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
...
...
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।

ये कविता कक्षा छः के पाठ्य-क्रम में थी, "पुष्प की अभिलाषा" नाम से|

बहुत अच्छी लगती है|

:) धन्यवाद सिकंदर जी! :cheers:

Sikandar_Khan
13-04-2011, 10:56 PM
उस प्रभात, तू बात न माने,
तोड़ कुन्द कलियाँ ले आई,
फिर उनकी पंखड़ियाँ तोड़ीं
पर न वहाँ तेरी छवि पाई,

कलियों का यम मुझ में धाया
तब साजन क्यों दौड़ न आया?

फिर पंखड़ियाँ ऊग उठीं वे
फूल उठी, मेरे वनमाली!
कैसे, कितने हार बनाती
फूल उठी जब डाली-डाली!

सूत्र, सहारा, ढूँढं न पाया
तू, साजन, क्यों दौड़ न आया?

दो-दो हाथ तुम्हारे मेरे
प्रथम `हार' के हार बनाकर,
मेरी `हारों' की वन माला
फूल उठी तुझको पहिनाकर,

पर तू था सपनों पर छाया
तू साजन, क्यों दौड़ न आया?

दौड़ी मैं, तू भाग न जाये,
डालूँ गलबहियों की माला
फूल उठी साँसों की धुन पर
मेरी `हार', कि तेरी `माला'!

तू छुप गया, किसी ने गाया-
रे साजन, क्यों दौड़ न आया!

जी की माल, सुगंध नेह की
सूख गई, उड़ गई, कि तब तू
दूलह बना; दौड़कर बोला
पहिना दो सूखी वनमाला।

मैं तो होश समेट न पाई
तेरी स्मृति में प्राण छुपाया,

युग बोला, तू अमर तस्र्ण है
मति ने स्मृति आँचल सरकाया,
जी में खोजा, तुझे न पाया
तू साजन, क्यों दौड़ न आया?

Sikandar_Khan
13-04-2011, 11:25 PM
ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा
मेरी सुरत बावली बोली-
उतर न सके प्राण सपनों से,
मुझे एक सपने में ले ले।
मेरा कौन कसाला झेले?

तेर एक-एक सपने पर
सौ-सौ जग न्यौछावर राजा।
छोड़ा तेरा जगत-बखेड़ा
चल उठ, अब सपनों में खेलें?
मेरा कौन कसाला झेले?

देख, देख, उस ओर `मित्र' की
इस बाजू पंकज की दूरी,
और देख उसकी किरनों में
यह हँस-हँस जय माला मेले।
मेरा कौन कसाला झेले?

पंकज का हँसना,
मेरा रो देना,
क्या अपराध हुआ यह?
कि मैं जन्म तुझमें ले आया
उपजा नहीं कीच के ढेले।
मेरा कौन कसाला झेले?

तो भी मैं ऊषा के स्वर में
फूल-फूल मुख-पंकज धोकर
जी, हँस उठी आँसुओं में से
छुपी वेदना में रस घोले।
मेरा कौन कसाला झेले?

कितनी दूर?
कि इतनी दूरी!
ऊगे भले प्रभाकर मेरे,
क्यों ऊगे? जी पहुँच न पाता
यह अभाग अब किससे खेले?
मेरा कौन कसाला झेले?

प्रात: आँसू ढुलकाकर भी
खिली पखुड़ियाँ, पंकज किलके,
मैं भाँवरिया खेल न जानी
अपने साजन से हिल-मिल के।
मेरा कौन कसाला झेले?

दर्पण देखा, यह क्या दीखा?
मेरा चित्र, कि तेरी छाया?
मुसकाहट पर चढ़कर बैरी
रहा बिखेरे चमक के ढेले,
मेरा कौन कसाला झेले?

यह प्रहार? चोखा गठ-बंधन!
चुंबन में यह मीठा दंशन।
`पिये इरादे, खाये संकट'
इतना क्या कम है अपनापन?
बहुत हुआ, ये चिड़ियाँ चहकीं,
ले सपने फूलों में ले ले।
मेरा कौन कसाला झेले?

Sikandar_Khan
14-04-2011, 12:09 PM
गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,

रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।


कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।


तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।

तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा

तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।

रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,

प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।

Sikandar_Khan
14-04-2011, 12:24 PM
पगली तेरा ठाट !
किया है रतनाम्बर परिधान
अपने काबू नहीं,
और यह सत्याचरण विधान !

उन्मादक मीठे सपने ये,
ये न अधिक अब ठहरें,
साक्षी न हों, न्याय-मन्दिर में
कालिन्दी की लहरें।

डोर खींच मत शोर मचा,
मत बहक, लगा मत जोर,
माँझी, थाह देखकर आ
तू मानस तट की ओर ।

कौन गा उठा? अरे!
करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर?
इसी कैद के बन्दी हैं
वे श्यामल-गौर-शरीर।

पलकों की चिक पर
हृत्तल के छूट रहे फव्वारे,
नि:श्वासें पंखे झलती हैं
उनसे मत गुंजारे;

यही व्याधि मेरी समाधि है,
यही राग है त्याग;
क्रूर तान के तीखे शर,
मत छेदे मेरे भाग।

काले अंतस्तल से छूटी
कालिन्दी की धार
पुतली की नौका पर
लायी मैं दिलदार उतार

बादबान तानी पलकों ने,
हा! यह क्या व्यापार !
कैसे ढूँढ़ू हृदय-सिन्धु में
छूट पड़ी पतवार !

भूली जाती हूँ अपने को,
प्यारे, मत कर शोर,
भाग नहीं, गह लेने दे,
अपने अम्बर का छोर।

अरे बिकी बेदाम कहाँ मैं,
हुई बड़ी तकसीर,
धोती हूँ; जो बना चुकी
हूँ पुतली में तसवीर;

डरती हूँ दिखलायी पड़ती
तेरी उसमें बंसी
कुंज कुटीरे, यमुना तीरे
तू दिखता जदुबंसी।

अपराधी हूँ, मंजुल मूरत
ताकी, हा! क्यों ताकी?
बनमाली हमसे न धुलेगी
ऐसी बाँकी झाँकी।

अरी खोद कर मत देखे,
वे अभी पनप पाये हैं,
बड़े दिनों में खारे जल से,
कुछ अंकुर आये हैं,

पत्ती को मस्ती लाने दे,
कलिका कढ़ जाने दे,
अन्तर तर को, अन्त चीर कर,
अपनी पर आने दे,

ही-तल बेध, समस्त खेद तज,
मैं दौड़ी आऊँगी,
नील सिंधु-जल-धौत चरण
पर चढ़कर खो जाऊँगी।

Kumar Anil
15-04-2011, 05:10 PM
जी हा ये पुष्प की अभिलाषा के नाम से ही थी हमारे टाइम में आज कल हे या नही पता नही !

ऐसी कालजयी रचनायेँ हमेशा रहती हैँ और आजकल भी cbse बोर्ड की चौथी कक्षा की किताब मेँ बच्चोँ को पढ़ायी जा रही है ।

Sikandar_Khan
16-04-2011, 05:10 PM
क्या गाती हो?
क्यों रह-रह जाती हो?
कोकिल बोलो तो !
क्या लाती हो?
सन्देशा किसका है?
कोकिल बोलो तो !

ऊँची काली दीवारों के घेरे में,
डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में,
जीने को देते नहीं पेट भर खाना,
मरने भी देते नहीं, तड़प रह जाना !
जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है,
शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है?
हिमकर निराश कर चला रात भी काली,
इस समय कालिमामयी जगी क्यूँ आली ?

क्यों हूक पड़ी?
वेदना-बोझ वाली-सी;
कोकिल बोलो तो !

बन्दी सोते हैं, है घर-घर श्वासों का
दिन के दुख का रोना है निश्वासों का,
अथवा स्वर है लोहे के दरवाजों का,
बूटों का, या सन्त्री की आवाजों का,
या गिनने वाले करते हाहाकार ।
सारी रातें है-एक, दो, तीन, चार-!
मेरे आँसू की भरीं उभय जब प्याली,
बेसुर! मधुर क्यों गाने आई आली?

क्या हुई बावली?
अर्द्ध रात्रि को चीखी,
कोकिल बोलो तो !
किस दावानल की
ज्वालाएँ हैं दीखीं?
कोकिल बोलो तो !

निज मधुराई को कारागृह पर छाने,
जी के घावों पर तरलामृत बरसाने,
या वायु-विटप-वल्लरी चीर, हठ ठाने
दीवार चीरकर अपना स्वर अजमाने,
या लेने आई इन आँखों का पानी?
नभ के ये दीप बुझाने की है ठानी !
खा अन्धकार करते वे जग रखवाली
क्या उनकी शोभा तुझे न भाई आली?

तुम रवि-किरणों से खेल,
जगत् को रोज जगाने वाली,
कोकिल बोलो तो !
क्यों अर्द्ध रात्रि में विश्व
जगाने आई हो? मतवाली
कोकिल बोलो तो !

दूबों के आँसू धोती रवि-किरनों पर,
मोती बिखराती विन्ध्या के झरनों पर,
ऊँचे उठने के व्रतधारी इस वन पर,
ब्रह्माण्ड कँपाती उस उद्दण्ड पवन पर,
तेरे मीठे गीतों का पूरा लेखा
मैंने प्रकाश में लिखा सजीला देखा।

तब सर्वनाश करती क्यों हो,
तुम, जाने या बेजाने?
कोकिल बोलो तो !
क्यों तमोपत्र पत्र विवश हुई
लिखने चमकीली तानें?
कोकिल बोलो तो !

क्या?-देख न सकती जंजीरों का गहना?
हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश-राज का गहना,
कोल्हू का चर्रक चूँ? -जीवन की तान,
मिट्टी पर अँगुलियों ने लिक्खे गान?
हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ,
खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कूआ।
दिन में कस्र्णा क्यों जगे, स्र्लानेवाली,
इसलिए रात में गजब ढा रही आली?

इस शान्त समय में,
अन्धकार को बेध, रो रही क्यों हो?
कोकिल बोलो तो !
चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज
इस भाँति बो रही क्यों हो?
कोकिल बोलो तो !

काली तू, रजनी भी काली,
शासन की करनी भी काली
काली लहर कल्पना काली,
मेरी काल कोठरी काली,
टोपी काली कमली काली,
मेरी लोह-श्रृंखला काली,
पहरे की हुंकृति की व्याली,
तिस पर है गाली, ऐ आली !

इस काले संकट-सागर पर
मरने की, मदमाती !
कोकिल बोलो तो !
अपने चमकीले गीतों को
क्योंकर हो तैराती !
कोकिल बोलो तो !

तेरे `माँगे हुए' न बैना,
री, तू नहीं बन्दिनी मैना,
न तू स्वर्ण-पिंजड़े की पाली,
तुझे न दाख खिलाये आली !
तोता नहीं; नहीं तू तूती,
तू स्वतन्त्र, बलि की गति कूती
तब तू रण का ही प्रसाद है,
तेरा स्वर बस शंखनाद है।

दीवारों के उस पार !
या कि इस पार दे रही गूँजें?
हृदय टटोलो तो !
त्याग शुक्लता,
तुझ काली को, आर्य-भारती पूजे,
कोकिल बोलो तो !

तुझे मिली हरियाली डाली,
मुझे नसीब कोठरी काली!
तेरा नभ भर में संचार
मेरा दस फुट का संसार!
तेरे गीत कहावें वाह,
रोना भी है मुझे गुनाह !
देख विषमता तेरी मेरी,
बजा रही तिस पर रण-भेरी !

इस हुंकृति पर,
अपनी कृति से और कहो क्या कर दूँ?
कोकिल बोलो तो!
मोहन के व्रत पर,
प्राणों का आसव किसमें भर दूँ!
कोकिल बोलो तो !

फिर कुहू !---अरे क्या बन्द न होगा गाना?
इस अंधकार में मधुराई दफनाना?
नभ सीख चुका है कमजोरों को खाना,
क्यों बना रही अपने को उसका दाना?
फिर भी कस्र्णा-गाहक बन्दी सोते हैं,
स्वप्नों में स्मृतियों की श्वासें धोते हैं!
इन लोह-सीखचों की कठोर पाशों में
क्या भर देगी? बोलो निद्रित लाशों में?

क्या? घुस जायेगा स्र्दन
तुम्हारा नि:श्वासों के द्वारा,
कोकिल बोलो तो!
और सवेरे हो जायेगा
उलट-पुलट जग सारा,
कोकिल बोलो तो !

Sikandar_Khan
16-04-2011, 05:15 PM
पगली तेरा ठाट !
किया है रतनाम्बर परिधान
अपने काबू नहीं,
और यह सत्याचरण विधान !

उन्मादक मीठे सपने ये,
ये न अधिक अब ठहरें,
साक्षी न हों, न्याय-मन्दिर में
कालिन्दी की लहरें।

डोर खींच मत शोर मचा,
मत बहक, लगा मत जोर,
माँझी, थाह देखकर आ
तू मानस तट की ओर ।

कौन गा उठा? अरे!
करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर?
इसी कैद के बन्दी हैं
वे श्यामल-गौर-शरीर।

पलकों की चिक पर
हृत्तल के छूट रहे फव्वारे,
नि:श्वासें पंखे झलती हैं
उनसे मत गुंजारे;

यही व्याधि मेरी समाधि है,
यही राग है त्याग;
क्रूर तान के तीखे शर,
मत छेदे मेरे भाग।

काले अंतस्तल से छूटी
कालिन्दी की धार
पुतली की नौका पर
लायी मैं दिलदार उतार

बादबान तानी पलकों ने,
हा! यह क्या व्यापार !
कैसे ढूँढ़ू हृदय-सिन्धु में
छूट पड़ी पतवार !

भूली जाती हूँ अपने को,
प्यारे, मत कर शोर,
भाग नहीं, गह लेने दे,
अपने अम्बर का छोर।

अरे बिकी बेदाम कहाँ मैं,
हुई बड़ी तकसीर,
धोती हूँ; जो बना चुकी
हूँ पुतली में तसवीर;

डरती हूँ दिखलायी पड़ती
तेरी उसमें बंसी
कुंज कुटीरे, यमुना तीरे
तू दिखता जदुबंसी।

अपराधी हूँ, मंजुल मूरत
ताकी, हा! क्यों ताकी?
बनमाली हमसे न धुलेगी
ऐसी बाँकी झाँकी।

अरी खोद कर मत देखे,
वे अभी पनप पाये हैं,
बड़े दिनों में खारे जल से,
कुछ अंकुर आये हैं,

पत्ती को मस्ती लाने दे,
कलिका कढ़ जाने दे,
अन्तर तर को, अन्त चीर कर,
अपनी पर आने दे,

ही-तल बेध, समस्त खेद तज,
मैं दौड़ी आऊँगी,
नील सिंधु-जल-धौत चरण
पर चढ़कर खो जाऊँगी।

Sikandar_Khan
03-08-2011, 10:04 AM
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो !

पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया

धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
तुम खिलते हो तो खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!!

किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से !

काँच-कलेजे में भी कस्र्णा-
के डोरे ही से खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।

प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा
मनमोहिनी धरा के बल हैं
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
तेरी ही छाया के छल हैं।

प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
जो बलि के फूलों खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।

Sikandar_Khan
24-09-2011, 09:44 AM
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में
नीली भूमि हरि हो आई
इस किरणों के ज्वार में।

क्या देखें तरुओं को, उनके
फूल लाल अंगारे हैं
वन के विजन भिखारी ने
वसुधा में हाथ पसारे हैं।

नक्शा उतर गया है बेलों
की अलमस्त जवानी का
युद्ध ठना, मोती की लड़ियों
से दूबों के पानी का।

तुम न नृत्य कर उठो मयूरी
दूबों की हरियाली पर
हंस तरस खायें उस-
मुक्ता बोने वाले माली पर।

ऊँचाई यों फिसल पड़ी है
नीचाई के प्यार में,
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में?

Suresh saurabh
11-12-2011, 06:56 PM
जी हा ये पुष्प की अभिलाषा के नाम से ही थी हमारे टाइम में आज कल हे या नही पता नही !

ये हमारे पाठ्यक्रम में है।

Dark Saint Alaick
11-12-2011, 07:13 PM
जी हा ये पुष्प की अभिलाषा के नाम से ही थी हमारे टाइम में आज कल हे या नही पता नही !

ऎसी कालजयी रचनाएं पाठ्यक्रम से हटाने का दुस्साहस कोई भी कदापि नहीं कर सकता !