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View Full Version : !!फ़िराक़ गोरखपुरी!!


Sikandar_Khan
14-04-2011, 01:25 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10293&stc=1&d=1302768806

जन्म: 28 अगस्त 1896
निधन: 1982

उपनाम: फ़िराक़
जन्म स्थान: गोरखपुर, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ: गुले-नग़मा, बज्में जिन्दगी रंगे-शायरी, सरगम

विविध: फ़िराक़ साहब का मूल नाम रघुपति सहाय था। उन्हें गुले-नग़मा के लिये 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
जीवनी: फ़िराक़ गोरखपुरी / परिचय

Sikandar_Khan
14-04-2011, 01:31 PM
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं

दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ाब
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं

बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं

उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ितने पर तोले हैं

इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम
ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं

ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं

हम लोग अब तो पराये-से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं

Sikandar_Khan
14-04-2011, 01:35 PM
इस सुकूते *फ़िज़ा में खो जाएं
आसमानों के राज हो जाएं

हाल सबका जुदा-जुदा ही सही
किस पॅ हँस जाएं किस पॅ रो जाएं

राह में आने वाली नस्लों के
ख़ैर कांटे तो हम न बो जाएं

िज़न्दगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएं

रात आयी फ़ि*राक दोस्तो नहीं
किससे कहिए कि आओ सो जाएं

Sikandar_Khan
14-04-2011, 01:50 PM
उमीदे-मर्ग कब तक
*ज़ि*न्दगी का दर्दे-सर कब तक
यॅ माना सब्र करते हैं महब्बत में
मगर कब तक

दयारे दोस्त हद होती है
यूँ भी दिल बहलने की
न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक

यॅ तदबीरें भी तक़दीरे-
महब्बबत बन नहीं सकतीं
किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक

इनायत1 की करम की लुत्फ़ की
आख़ि*र कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-जख्*़मे ज़िगर2 कब तक

किसी का हुस्नर रूसवा
हो गया पर्दे ही पर्दे में
न लाये रंग आख़िरकार ता*सीरे-
नज़र कब तक

Sikandar_Khan
14-04-2011, 01:54 PM
उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी
इक नागन-सी लहराने लगी

जब ज़ि*क्र तेरा महफ़ि*ल में छिड़ा क्यों आँख तेरी शरमाने लगी
क्या़ मौजे-सबा थी मेरी नज़र क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी
महफ़ि*ल में तेरी एक-एक अदा कुछ साग़र-सी छलकाने लगी
या रब यॉ चल गयी कैसी हवा क्यों दिल की कली मुरझाने लगी
शामे-वादा कुछ रात गये तारों को तेरी याद आने लगी
साज़ों ने आँखे झपकायीं नग़्मों को मेरे नींद आने लगी
जब राहे-ज़ि*न्दगी काट चुके हर मंज़ि*ल की याद आने लगी
क्या उन जु़ल्फ़ों को देख लिया क्यों मौजे-सबा थर्राने लगी
तारे टूटे या आँख कोई अश्कों से गुहर1 बरसाने लगी
तहज़ीब उड़ी है धुआँ बन कर सदियों की सई2 ठिकाने लगी
कूचा-कूचा रफ़्ता-रफ़्ता वो चाल क़यामत ढाने लगी
क्या बात हुई ये आँख तेरी क्यों लाखों कसमें खाने लगी
अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे रूख़सारों के फूल खिलाने लगी
फि*र रात गये बज़्मे-अंजुम रूदाद3 तेरी दोहराने लगी
फि*र याद तेरी हर सीने के गुलज़ारों को महकाने लगी
बेगोरो-कफ़न जंगल में ये लाश दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी
वो सुब्ह* की देवी ज़ेरे शफ़क़ घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी

उस वक्त फ़ि*राक हुई यॅ ग़ज़ल
जब तारों को नींद आने लगी

Sikandar_Khan
14-04-2011, 02:01 PM
उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी
इक नागन-सी लहराने लगी

जब ज़ि*क्र तेरा महफ़ि*ल में छिड़ा क्यों आँख तेरी शरमाने लगी
क्या़ मौजे-सबा थी मेरी नज़र क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी
महफ़ि*ल में तेरी एक-एक अदा कुछ साग़र-सी छलकाने लगी
या रब यॉ चल गयी कैसी हवा क्यों दिल की कली मुरझाने लगी
शामे-वादा कुछ रात गये तारों को तेरी याद आने लगी
साज़ों ने आँखे झपकायीं नग़्मों को मेरे नींद आने लगी
जब राहे-ज़ि*न्दगी काट चुके हर मंज़ि*ल की याद आने लगी
क्या उन जु़ल्फ़ों को देख लिया क्यों मौजे-सबा थर्राने लगी
तारे टूटे या आँख कोई अश्कों से गुहर1 बरसाने लगी
तहज़ीब उड़ी है धुआँ बन कर सदियों की सई2 ठिकाने लगी
कूचा-कूचा रफ़्ता-रफ़्ता वो चाल क़यामत ढाने लगी
क्या बात हुई ये आँख तेरी क्यों लाखों कसमें खाने लगी
अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे रूख़सारों के फूल खिलाने लगी
फि*र रात गये बज़्मे-अंजुम रूदाद3 तेरी दोहराने लगी
फि*र याद तेरी हर सीने के गुलज़ारों को महकाने लगी
बेगोरो-कफ़न जंगल में ये लाश दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी
वो सुब्ह* की देवी ज़ेरे शफ़क़ घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी

उस वक्त फ़ि*राक हुई यॅ ग़ज़ल
जब तारों को नींद आने लगी

Sikandar_Khan
14-04-2011, 02:25 PM
ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.

Sikandar_Khan
14-04-2011, 02:29 PM
कभी जब तेरी याद आ जाय है दिलों पर घटा बन के छा जाय है
शबे-यास में कौन छुप कर नदीम1 मेरे हाल पर मुसकुरा जाय है
महब्बत में ऐ मौत ऐ **ज़ि*न्दगी मरा जाय है या जिया जाय है
पलक पर पसे-तर्के-ग़म2 गाहगाह सितारा कोई झिलमिला जाय है
तेरी याद शबहा-ए-बे-ख्*़वाब में सितारों की दुनिया बस जाय है
जो बे-ख्*़वाब रक्खे है ता ज़ि*न्दगी वही ग़म किसी दिन सुला जाय है
न सुन मुझसे हमदम मेरा हाल-ज़ार दिलो-नातवाँ सनसना जाय है
ग़ज़ल मेरी खींचे है ग़म की शराब पिये है वो जिससे पिया जाय है
मेरी शाइरी जो है जाने-नशात ग़मों के ख़ज़ाने लुटा जाय है
मुझे छोड़ कर जाय है तेरी याद कि जीने का एक आसरा जाय है
मुझे गुमरही का नहीं कोई ख़ौफ़ तेरे घर को हर रास्ता जाय है

dgehlod
16-04-2011, 11:26 AM
nice post Sikndar sahab


:clappinghands:



कौन है गमगी, कौन है शादाँ- फ़िराक गोरखपुरी (http://www.jakhira.com/2011/01/blog-post_12.html)


सबकी हालत एक है नादा
कौन है गमगी, कौन है शादाँ

उसका पाना है वह करिश्मा
सोच तो मुश्किल, देख तो आसा

बादाकशो को फिक्र है जिसकी
बादा न सागर, बर्क न बारां

दुनिया को दुनिया करना है
ये मनसूबे, साज न सामां

ढूंढ़ ले मुझको दुनिया-दुनिया
सहारा-सहरा, जिन्दा-जिन्दा

उम्र 'फ़िराक' ने युही बसर की
कुछ गेम जाना, कुछ गमे दौरा
- फ़िराक गोरखपुरी
मायने
शादाँ=खुश, बादाकश=शराब पीने वाले, साग़र=जाम, बर्क=बिजली, बारां=बारिश, सहारा=रेगिस्तान, जिन्दा=कैदखाना

Sikandar_Khan
17-04-2011, 09:44 AM
कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दाँ नहीं होता

हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मोहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसाँ नहीं होता

बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले
दबाने के लिये हर दर्द ऐ नादाँ ! नहीं होता

यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें
कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्काँ नहीं होता

Sikandar_Khan
17-04-2011, 09:54 AM
nice post sikndar sahab


:clappinghands:



कौन है गमगी, कौन है शादाँ- फ़िराक गोरखपुरी (http://www.jakhira.com/2011/01/blog-post_12.html)


सबकी हालत एक है नादा
कौन है गमगी, कौन है शादाँ

उसका पाना है वह करिश्मा
सोच तो मुश्किल, देख तो आसा

बादाकशो को फिक्र है जिसकी
बादा न सागर, बर्क न बारां

दुनिया को दुनिया करना है
ये मनसूबे, साज न सामां

ढूंढ़ ले मुझको दुनिया-दुनिया
सहारा-सहरा, जिन्दा-जिन्दा

उम्र 'फ़िराक' ने युही बसर की
कुछ गेम जाना, कुछ गमे दौरा
- फ़िराक गोरखपुरी
मायने
शादाँ=खुश, बादाकश=शराब पीने वाले, साग़र=जाम, बर्क=बिजली, बारां=बारिश, सहारा=रेगिस्तान, जिन्दा=कैदखाना

देवेन्द्र साहब बहुत बहुत शुक्रिया

Sikandar_Khan
17-04-2011, 11:38 AM
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम

Sikandar_Khan
05-10-2011, 06:44 PM
कोई नयी ज़मीं हो, नया आसमाँ भी हो
ए दिल अब उसके पास चले, वो जहाँ भी हो

अफ़सुर्दगी- ए- इश्क़ में सोज़- ए- निहाँ भी हो
यानी बुझे दिलों से कुछ उठता धुआँ भी हो

इस दरजा इख़्तिलात और इतनी मुगैरत
तू मेरे और अपने कभी दरमियाँ भी हो

हम अपने ग़म-गुसार-ए-मोहब्बत न हो सके
तुम तो हमारे हाल पे कुछ मेहरबाँ भी हो

बज़्मे-तस्व्वुरात में ऐ दोस्त याद आ
इस महफ़िले-निशात में ग़म का समाँ भी हो

महबूब वो कि सर से क़दम तक ख़ुलूस हो
आशिक़ वही जो इश्क़ से कुछ बदगुमाँ भी हो