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View Full Version : धर्म और देबता!!~


ABHAY
19-04-2011, 06:06 AM
धर्म (मज़हब) किसी एक या अधिक परलौकिक शक्ति में विश्वास और इसके साथ-साथ उसके साथ जुड़ी रिति, रिवाज़, परम्परा, पूजा-पद्धति और दर्शन का समूह है । इस संबंध में प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन का अभिमत है कि आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है उससे बचने की जरूरत है। वास्तव में धर्म संप्रदाय नहीं है। जिंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है।

मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम होती जा रही है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे- स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। उस युग में व्यक्ति का ध्यान अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जय गान करने में अधिक था।

धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रियाकलाप को ईश्वर की इच्छा माना तथा मनुष्य को ईश्वर के हाथों की कठपुतली के रूप में स्वीकार किया। दार्शनिकों ने व्यक्ति के वर्तमान जीवन की विपन्नता का हेतु 'कर्म-सिद्धान्त' के सूत्र में प्रतिपादित किया। इसकी परिणति मध्ययुग में यह हुई कि वर्तमान की सारी मुसीबतों का कारण 'भाग्य' अथवा ईश्वर की मर्जी को मान लिया गया। धर्म के ठेकेदारों ने पुरुषार्थवादी-मार्ग के मुख्य-द्वार पर ताला लगा दिया। समाज या देश की विपन्नता को उसकी नियति मान लिया गया। समाज स्वयं भी भाग्यवादी बनकर अपनी सुख-दुःखात्मक स्थितियों से सन्तोष करता रहा।

ABHAY
19-04-2011, 06:07 AM
आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान 'भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है।

ABHAY
19-04-2011, 06:09 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10357&stc=1&d=1303175312
अनेक धर्म का चिह्न
हिन्दू धर्म वेदों पर आधारित है । इसमें कई देवी-देवता हैं, पर उनको एक ही ईश्वर के विभिन्न रूप माना जाता है ।

मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो , दशकं धर्म लक्षणम् ॥

( धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं । )

जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।

श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।

आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषां न समाचरेत् ॥

ABHAY
19-04-2011, 06:10 AM
(धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये । ) हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी बड़े धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है। ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, पर इसके ज़्यादातर उपासक भारत में हैं और विश्व का सबसे ज्यादा हिन्दुओं का प्रतिशत नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन असल में ये एकेश्वरवादी धर्म है।हिन्दी में इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इंडोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नही है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है " हिन्सायाम दूयते या सा हिन्दु " अर्थात जो अपने मन वचन कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दु है और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है। नेपाल विश्व का एक मात्र आधुनिक हिन्दू राष्ट्र था (नेपाल के लोकतान्त्रिक आंदोलन के पश्चात के अंतरिम संविधान में किसी भी धर्म को राष्ट्र धर्म घोषित नहीं किया गया है। नेपाल हिन्दू राष्ट्र होने या ना होने का अंतिम फैसला संविधान सभा के चुनाव से निर्वाचित विधायक करेंगे)। अनुक्रम [छुपाएँ] १ इतिहास २ निरुक्त ३ मुख्य सिद्धान्त ३.१ ब्रह्म ३.२ ईश्वर ३.३ देवी और देवता ३.४ आत्मा ४ धर्मग्रन्थ ५ 2001 की गिनती के अनुसार (पुराने आंकड़े) ६ हिन्दू संस्कृति ६.१ वैदिक काल और यज्ञ ६.२ तीर्थ एवं तीर्थ यात्रा ६.३ मूर्तिपूजा ६.४ मंदिर ६.५ त्यौहार ६.६ शाकाहार ६.७ भक्त ६.८ उदाहरण के पृष्ठ ७ संदर्भ ८ वाह्य सूत्र इतिहास

भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई निशान मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे, और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था। आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग १७०० ईसा पूर्व में आर्य अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गये, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद जैसे ग्रन्थ आये। बौद्ध और जैन धर्मों के अलग हो जाने के बाद वैदिक धर्म मे काफ़ी परिवर्तन आया। नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार हिन्दू धर्म का मूल कदाचित सिन्धु सरस्वती परम्परा (जिसका स्रोत मेहरगढ की ६५०० ईपू संस्कृति में मिलता है) से भी पहले की भारतीय परम्परा में है। निरुक्त

ABHAY
19-04-2011, 06:11 AM
हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू अपने धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म कहना बेहतर समझते हैं। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है -- वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं -- पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा, कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं : सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की [ स ] ध्वनि ईरानी भाषाओं की [ ह ] ध्वनि में बदल जाती है। इसलिये सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) मे जाकर हफ्त हिन्दु मे परिवर्तित हो गया (अवेस्ता : वेन्दीदाद, फ़र्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया। मुख्य सिद्धान्त

हिंदू मंदिर, श्री लंका हिन्दू धर्म में कोई एक अकेले सिद्धान्तों का समूह नहीं है जिसे सभी हिन्दुओं को मानना ज़रूरी है। ये तो धर्म से ज़्यादा एक जीवन का मार्ग है। हिन्दुओं का कोई केन्द्रीय चर्च या धर्मसंगठन नहीं है, और न ही कोई "पोप"। इसकी अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं, और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। धर्मग्रन्थ भी कई हैं। फ़िर भी, वो मुख्य सिद्धान्त, जो ज़्यादातर हिन्दू मानते हैं, हैं इन सब में विश्वास : धर्म (वैश्विक क़ानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति--जिसके कई रास्ते हो सकते हैं), और बेशक, ईश्वर। हिन्दू धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनो कर्म भोग सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हिन्दू धर्म में चार मुख्य सम्प्रदाय हैं : वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)। लेकिन ज्यादातर हिन्दू स्वयं को किसी भी सम्प्रदाय में वर्गीकृत नहीं करते हैं। ब्रह्म हिन्दू धर्मग्रन्थ उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्व है (इसे त्रिमूर्ति के देवता ब्रह्मा से भ्रमित न करें)। वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है। ब्रह्म एक, और सिर्फ़ एक ही है। वो विश्वातीत भी है और विश्व के परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है।

ABHAY
19-04-2011, 06:12 AM
वही परम ज्ञान है। ब्रह्म के दो रूप हैं : परब्रह्म और अपरब्रह्म। परब्रह्म असीम, अनन्त और रूप-शरीर विहीन है। वो सभी गुणों से भी परे है, पर उसमें अनन्त सत्य, अनत चित् और अनन्त आनन्द है। ब्रह्म की पूजा नही की जाती है, क्योंकि वो पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। प्रणव ॐ (ओम्) ब्रह्मवाक्य है, जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। हिन्दु यह मानते है कि ओम की ध्वनि पूरे ब्रह्मान्द मे गून्ज रही है। ध्यान मे गहरे उतरने पर यह सुनाई देता है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है, और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है। ईश्वर ब्रह्म और ईश्वर में क्या सम्बन्ध है, इसमें हिन्दू दर्शनों की सोच अलग अलग है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार जब मानव ब्रह्म को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है, क्योंकि मानव माया नाम की एक जादुई शक्ति के वश मे रहता है। अर्थात जब माया के आइने में ब्रह्म की छाया पड़ती है, तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमें ईश्वर के रूप में दिखायी पड़ता है। ईश्वर अपनी इसी जादुई शक्ति "माया" से विश्व की सृष्टि करता है और उसपर शासन करता है। हालाँकि ईश्वर एक नकारात्मक शक्ति के साथ है, लेकिन माया उसपर अपना कुप्रभाव नहीं डाल पाती है, जैसे एक जादूगर अपने ही जादू से अचंम्भित नहीं होता है। माया ईश्वर की दासी है, परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है। वैसे तो ईश्वर रूपहीन है, पर माया की वजह से वो हमें कई देवताओं के रूप में प्रतीत हो सकता है। इसके विपरीत वैष्णव मतों और दर्शनों में माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई फ़र्क नहीं है--और विष्णु (या कृष्ण) ही ईश्वर हैं। न्याय, वैषेशिक और योग दर्शनों के अनुसार ईश्वर एक परम और सर्वोच्च आत्मा है, जो चैतन्य से युक्त है और विश्व का सृष्टा और शासक है। जो भी हो, बाकी बातें सभी हिन्दू मानते हैं : ईश्वर एक, और केवल एक है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। बेशक, ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उनपर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। ईश्वर के अन्य नाम हैं : परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान (जो हिन्दी मे सबसे ज़्यादा प्रचलित है)। इसी ईश्वर को मुसल्मान (अरबी में) अल्लाह, (फ़ारसी में) ख़ुदा, ईसाई (अंग्रेज़ी में) गॉड, और यहूदी (इब्रानी में) याह्वेह कहते हैं। देवी और देवता हिन्दू धर्म में कई देवता हैं,

ABHAY
19-04-2011, 06:13 AM
जिनको अंग्रेज़ी मे ग़लत रूप से "gods" कहा जाता है। ये देवता कौन हैं, इस बारे में तीन मत हो सकते हैं : अद्वैत वेदान्त, भगवद गीता, वेद, उपनिषद्, आदि के मुताबिक सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं (ईश्वर स्वयं ही ब्रह्म का रूप है)। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिये भक्त अपने मन में भगवान को किसी प्रिय रूप में देखता है। ऋग्वेद के अनुसार, "एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति", अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं।[४] योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण वो परालौकिक शक्तियां हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं।[५], योग दर्शन के अनुसार ईश्वर ही प्रजापति औत इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरु हैं। मीमांसा के अनुसार सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं, और उनके उपर कोई एक ईश्वर नहीं है। इच्छित कर्म करने के लिये इनमें से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना ज़रूरी है। कई अन्धविश्वासी या अनपढ़ हिन्दू भी ऐसा ही मानते हैं। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है। एक बात और कही जा सकती है कि ज़्यादातर वैष्णव और शैव दर्शन पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे, कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं, और साथ ही साथ, सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। तीसरे मत को धर्मग्रन्थ मान्यता नहीं देते। जो भी सोच हो, ये देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। वैदिक काल के मुख्य देव थे-- इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता (पुरुष देव), और देवियाँ-- सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी, इत्यादि (कुल 33)। बाद के हिन्दू धर्म में नये देवी देवता आये (कई अवतार के रूप में)-- गणेश, राम, कृष्ण, हनुमान, कार्तिकेय, सूर्य-चन्द्र और ग्रह, और देवियाँ (जिनको माता की उपाधि दी जाती है) जैसे-- दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, शीतला, सीता, राधा, सन्तोषी, काली, इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों मे उल्लिखित हैं, और उनकी कुल संख्या 33 करोड़ बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहीं, बल्कि महादेव हैं और त्रिमूर्ति के सदस्य हैं। इन सबके अलावा हिन्दु धर्म में गाय को भी माता के रूप में पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय में सम्पूर्ण ३३ करोड देवि देवता वास करते हैं। आत्मा हिन्दू धर्म के अनुसार हर मनुष्य में एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन और अमर है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य में ही नहीं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव में आत्मा होती है। मानव जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्म करने पर आत्मा कुछ समय के लिये स्वर्ग जा सकती है, या कोई गन्धर्व बन सकती है, अथवा नव योनि में अच्छे कुलीन घर में जन्म ले सकती है। बुरे कर्म करने पर आत्मा को कुछ समय के लिये नरक जाना पड़ता है, जिसके बाद आत्मा निकृष्ट पशु-पक्षी योनि में जन्म लेती है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी ख़त्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमें मानव के पाप और पुण्य दोनो कर्म अपने फल देते हैं और जिसमें मोक्ष की प्राप्ति मुम्किन है। धर्मग्रन्थ

ABHAY
19-04-2011, 06:15 AM
हिंदू धर्म के ग्रंथ


हिंदू धर्म के पवित्र ग्रन्थों को दो भागों में बाँटा गया है- श्रुति और स्मृति। श्रुति हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं, जो पूर्णत: अपरिवर्तनीय हैं, अर्थात् किसी भी युग में इनमे कोई बदलाव नही किया जा सकता। स्मृति ग्रन्थों मे देश-कालानुसार बदलाव हो सकता है। श्रुति के अन्तर्गत वेद : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद ब्रह्म सूत्र व उपनिषद् आते हैं। वेद श्रुति इसलिये कहे जाते हैं क्योंकि हिन्दुओं का मानना है कि इन वेदों को परमात्मा ने ऋषियों को सुनाया था, जब वे गहरे ध्यान में थे। वेदों को श्रवण परम्परा के अनुसार गुरू द्वारा शिष्यों को दिया जाता था। हर वेद में चार भाग हैं- संहिता -- मन्त्र भाग, ब्राह्मण-ग्रन्थ -- गद्य भाग, जिसमें कर्मकाण्ड समझाये गये हैं, आरण्यक—इनमें अन्य गूढ बातें समझायी गयी हैं, उपनिषद् -- इनमें ब्रह्म, आत्मा और इनके सम्बन्ध के बारे में विवेचना की गयी है। अगर श्रुति और स्मृति में कोई विवाद होता है तो श्रुति ही मान्य होगी। श्रुति को छोड़कर अन्य सभी हिन्दू धर्मग्रन्थ स्मृति कहे जाते हैं, क्योंकि इनमें वो कहानियाँ हैं जिनको लोगों ने पीढ़ी दर पीढ़ी याद किया और बाद में लिखा। सभी स्मृति ग्रन्थ वेदों की प्रशंसा करते हैं। इनको वेदों से निचला स्तर प्राप्त है, पर ये ज़्यादा आसान हैं और अधिकांश हिन्दुओं द्वारा पढ़े जाते हैं (बहुत ही कम हिन्दू वेद पढ़े होते हैं)। प्रमुख स्मृतिग्रन्थ हैं:- इतिहास--रामायण और महाभारत, भगवद गीता, पुराण--(18), मनुस्मृति, धर्मशास्त्र और धर्मसूत्र, आगम शास्त्र। भारतीय दर्शन के ६ प्रमुख अंग हैं- साँख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। 2001 की गिनती के अनुसार (पुराने आंकड़े)

देश हिन्दू जनसंख्या प्रतिशत बांग्लादेश 13,33,76,680 12 भूटान 20,94,176 25 फ़िजी 8,56,346 33 गुयना 6,98,209 33 भारत 1,04,58,45,200 81 इंडोनेसिया ... 2 जमैका 26,80,029 1 केन्या 3,11,38,735 1 कुवैत ... 3 मालावी 1,07,01,824 5 मलेशिया 2,26,62,365 7 मारीशस 12,00,206 52 मॅयानमार 4,22,38,224 2 नेपाल 2,58,73,917 86 नियू ज़िलैंड 39,08,037 1 ओमान 27,13,462 6 पाकिस्तान १४,76,63,430 1 क़तर 7,93,341 3 सौदी अरब 2,35,13,330 1 सिंगापुर 44,52,732 5 दक्षिण अफ़्रीका 4,36,47,658 2 श्री लंका 1,95,76,783 15 सूरीनाम 4,36,494 27 तंज़ानिया 3,71,87,939 15 त्रिनिडाड और टोबागो 11,63,724 25 संयुक्त अरब अमीरात 24,45,989 2 ब्रिटेन 5,97,78,002 1 यमन 1,87,01,257 0.5 ज़िम्बाब्वे 1,13,76,676 4 हिन्दू संस्कृति

ABHAY
19-04-2011, 06:16 AM
वैदिक काल और यज्ञ प्राचीन काल में आर्य लोग वैदिक मन्त्रों और अग्नि-यज्ञ से कई देवताओं की पूजा करते थे। आर्य देवताओं की कोई मूर्ति या मन्दिर नहीं बनाते थे। प्रमुख आर्य देवता थे : देवराज इन्द्र, अग्नि, सोम और वरुण। उनके लिये वैदिक मन्त्र पढ़े जाते थे और अग्नि में घी, दूध, दही, जौ, इत्यागि की आहुति दी जाती थी। प्रजापति ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उस समय कम ही उल्लेख मिलता है। तीर्थ एवं तीर्थ यात्रा भारत देश बड़ा विशाल देश है, लेकिन उसकी विशालता और महानता को हम तब तक नहीं जान सकते, जबतक कि उसे देखें नहीं। इस ओर वैसे अनेक महापुरूषों का ध्यान गया, लेकिन आज से बारह सौ वर्ष पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने इसके लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होनें चारों दिशाओं में भारत के छोरों पर, चार पीठ (मठ) स्थापित उत्तर में बदरीनाथ के निकट ज्योतिपीठ, दक्षिण में रामेश्वरम् के निकट श्रृंगेरी पीठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ और पश्चिम में द्वारिकापीठ।तीर्थों के प्रति हमारे देशवासियों में बड़ी भक्ति भावना है। इसलिए शंकराचार्य ने इन पीठो की स्थापना करके देशवासियों को पूरे भारत के दर्शन करने का सहज अवसर दे दिया। ये चारों तीर्थ चार धाम कहलाते है। लोगों की मान्यता है कि जो इन चारों धाम की यात्रा कर लेता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है। मूर्तिपूजा ज्यादातर हिन्दू भगवान की मूर्तियों द्वारा पूजा करते हैं। उनके लिये मूर्ति एक आसान सा साधन है, जिसमें कि एक ही निराकार ईश्वर को किसी भी मनचाहे सुन्दर रूप में देखा जा सकता है। हिन्दू लोग वास्तव में पत्थर और लोहे की पूजा नहीं करते, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं। मूर्तियाँ हिन्दुओं के लिये ईश्वर की भक्ति करने के लिये एक साधन मात्र हैं। इतिहासकारो का मानना है कि हिन्दु धर्म मे मूर्ति पूजा गौतम बुद्ध् के समय प्रारम्भ् हई,हिन्दु धर्म मे किसी भी वस्तु की पुजा की जा सकती है। मंदिर हिन्दुओं के उपासना स्थलों को मन्दिर कहते हैं। प्राचीन वैदिक काल में मन्दिर नहीं होते थे। तब उपासना अग्नि के स्थान पर होती थी जिसमें एक सोने की मूर्ति ईश्वर के प्रतीक के रूप में स्थापित की जाती थी। एक नज़रिये के मुताबिक बौद्ध और जैन धर्मों द्वारा बुद्ध और महावीर की मूर्तियों और मन्दिरों द्वारा पूजा करने की वजह से हिन्दू भी उनसे प्रभावित होकर मन्दिर बनाने लगे। हर मन्दिर में एक या अधिक देवताओं की उपासना होती है। गर्भगृह में इष्टदेव की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। मन्दिर प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय कला के श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। कई मन्दिरों में हर साल लाखों तीर्थयात्री आते हैं। अधिकाँश हिन्दू चार शंकराचार्यों को (जो ज्योतिर्मठ, द्वारिका, शृंगेरी और पुरी के मठों के मठाधीश होते हैं) हिन्दू धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं। त्यौहार नववर्ष - द्वादशमासै: संवत्सर:।' ऐसा वेद वचन है, इसलिए यह जगत्मान्य हुआ।

ABHAY
19-04-2011, 06:17 AM
सर्व वर्षारंभों में अधिक योग्य प्रारंभदिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा है। इसे पूरे भारत में अलग-अलग नाम से सभी हिन्दू धूम-धाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्म में सूर्योपासनाके लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होनेके कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्षमें दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम मे अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह गया है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव मनाया जाता है। श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं। आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों (नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है। इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। शाकाहार किसी भी हिन्दू का शाकाहारी होना ज़रूरी नहीं है, मगर शाकाहार बेहतर माना जाता है। शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नही माना जाता,क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में केवल यज्ञ मे मारे गये पशुओं का मांस खाने की अनुमति थी, क्योंकि उनका मांस वैदिक मन्त्रों द्वारा शुद्ध होता था, और उसे मांस नहीं "हवि" कहा जाता था। एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग 30% हिन्दू, ज़्यादातर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से शाकाहारी हैं। जो हिन्दू मांस खाते हैं (बकरा, मुर्गा या मछली), वे भी गोमांस कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है, पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय: है। जाति व्यवस्था प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख जातियाँ थीं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोइ सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। अवतार वैष्णव धर्मावलंबी और अधिकतर हिंदू भगवान विष्णु के १० अवतार मानते हैं:- मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, नरसिंह, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि भक्त भक्त भक्त कवि उदाहरण के पृष्ठ दैनिक पूजा श्रीहरिगीता संदर्भ

↑ श्रीमद्भगवद् गीता। “श्रीमद्भगवद्* गीता हिन्दू धर्म के पवित्रतम ग्रन्थों में से एक है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का सन्देश पाण्डव राजकुमार अर्जुन को सुनाया था। यह एक स्मृति ग्रन्थ है। इसमें एकेश्वरवाद की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है।†↑ श्रीमद्भगवद् गीता सातवाँ अध्याय। “यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥७- २१॥†↑ श्रीमद्भगवद् गीता सातवाँ अध्याय। “स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते। लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥७- २२॥†↑ श्री अरविन्द, लाइफ डिवैन.

abhisays
19-04-2011, 08:22 AM
बहुत ही अच्छी जानकारी है. अभय जी शेयर करने के लिया धन्यवाद

ABHAY
19-04-2011, 08:47 AM
यमराज

यमराज हिन्दू धर्म के अनुसार मृत्यु के देवता हैं। इनका उल्लेख वेद में भी आता है। इनकी जुड़वां बहन यमुना(यमी) है। विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से भगवान सूर्य के पुत्र यमराज, श्राद्धदेव मनु और यमुना हुईं। यमराज परम भागवत, द्वादश भागवताचार्यों में हैं। यमराज जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक हैं। दक्षिण दिशा के इन लोकपाल की संयमनीपुरी समस्त प्राणियों के लिये, जो अशुभकर्मा है, बड़ी भयप्रद है। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुभ्बर, दघ्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त- इन चतुर्दश नामों से इन महिषवाहन दण्डधर की आराधना होती है। इन्हीं नामों से इनका तर्पण किया जाता है। चार द्वारों, सात तोरणों तथा पुष्पोदका, वैवस्वती आदि सुरम्य नदियों से पूर्ण अपनी पुरी में पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर के द्वार से प्रविष्ट होने वाले पुण्यात्मा पुरुषों को यमराज शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, चतुर्भुज, नीलाभ भगवान विष्णु के रूप में अपने महाप्रासाद में रत्नासन पर दर्शन देते हैं। दक्षिण-द्वार से प्रवेश करने वाले पापियों को वह तप्त लौहद्वार तथा पूय, शोणित एवं क्रूर पशुओं से पूर्ण वैतरणी नदी पार करने पर प्राप्त होते हैं। द्वार से भीतर आने पर वे अत्यन्त विस्तीर्ण सरोवरों के समान नेत्रवाले, धूम्रवर्ण, प्रलय-मेघ के समान गर्जन करनेवाले, ज्वालामय रोमधारी, बड़े तीक्ष्ण प्रज्वलित दन्तयुक्त, सँडसी-जैसे नखोंवाले, चर्मवस्त्रधारी, कुटिल-भृकुटि भयंकरतम वेश में यमराज को देखते हैं। वहाँ मूर्तिमान व्याधियाँ, घोरतर पशु तथा यमदूत उपस्थित मिलते हैं। दीपावली से पूर्व दिन यमदीप देकर तथा दूसरे पर्वो पर यमराज की आराधना करके मनुष्य उनकी कृपा का सम्पादन करता है। ये निर्णेता हम से सदा शुभकर्म की आशा करते हैं। दण्ड के द्वारा जीव को शुद्ध करना ही इनके लोक का मुख्य कार्य है।

ABHAY
19-04-2011, 08:50 AM
गणेश
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10367&stc=1&d=1303184993
गणेश शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। गणों के स्वामी होने के कारण उनका एक नाम गणपति भी है। ज्योतिष में इनको केतु का देवता माना जाता है, और जो भी संसार के साधन हैं, उनके स्वामी श्री गणेशजी हैं। हाथी जैसा सिर होने के कारण उन्हें गजानन भी कहते हैं। गणेशजी का नाम हिन्दू मत के अनुसार किसी भी कार्य के लिये पहले मान्य है।
शारिरिक संरचना
गणपति आदिदेव हैं जिन्होंने हर युग में अलग अवतार लिया। उनकी शारीरिक संरचना में भी विशिष्ट व गहरा अर्थ निहित है। शिवमानस पूजा में श्री गणेश को प्रवण (ॐ) कहा गया है। इस एकाक्षर ब्रह्म में ऊपर वाला भाग गणेश का मस्तक, नीचे का भाग उदर, चंद्र बिंदु लड्डू और मात्रा सूँड है।

चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक उनकी चार भुजाएँ हैं 'वे लंबोदर हैं क्योंकि समस्त चराचर सृष्टि उनके उदर में विचरती है। बड़े कान अधिक ग्राह्यशक्ति व छोटी-पैनी आँखें सूक्ष्म-तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं। उनकी लंबी नाक महाबुद्धित्व का प्रतीक है।

ABHAY
19-04-2011, 08:51 AM
कथा
प्राचीन समय में सुमेरू पर्वत पर सौभरि ऋषि का अत्यंत मनोरम आश्रम था। उनकी अत्यंत रूपवती और पतिव्रता पत्नी का नाम मनोमयी था। एक दिन ऋषि लकड़ी लेने के लिए वन में गए और मनोमयी गृह-कार्य में लग गई। उसी समय एक दुष्ट कौंच नामक गंधर्व वहाँ आया और उसने अनुपम लावण्यवती मनोमयी को देखा तो व्याकुल हो गया।

कौंच ने ऋषि-पत्नी का हाथ पकड़ लिया। रोती और काँपती हुई ऋषि पत्नी उससे दया की भीख माँगने लगी। उसी समय सौभरि ऋषि आ गए। उन्होंने गंधर्व को श्राप देते हुए कहा 'तूने चोर की तरह मेरी सहधर्मिणी का हाथ पकड़ा है, इस कारण तू मूषक होकर धरती के नीचे और चोरी करके अपना पेट भरेगा।

काँपते हुए गंधर्व ने मुनि से प्रार्थना की-'दयालु मुनि, अविवेक के कारण मैंने आपकी पत्नी के हाथ का स्पर्श किया था। मुझे क्षमा कर दें। ऋषि ने कहा मेरा श्राप व्यर्थ नहीं होगा, तथापि द्वापर में महर्षि पराशर के यहाँ गणपति देव गजमुख पुत्र रूप में प्रकट होंगे (हर युग में गणेशजी ने अलग-अलग अवतार लिए) तब तू उनका वाहन बन जाएगा, जिससे देवगण भी तुम्हारा सम्मान करने लगेंगे।

ABHAY
19-04-2011, 08:52 AM
बारह नाम
गणेशजी के अनेक नाम हैं लेकिन ये 12 नाम प्रमुख हैं-

सुमुख, एकदंत,कपिल, गजकर्णक, लंबोदर, विकट, विघ्न-नाश, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र, गजानन। उप्रोक्त द्वादश नाम नारद पुरान मे पहली बार गणेश के द्वादश नामवलि मे आया है| विद्यारम्भ तथ विवाह के पूजन के प्रथम मे इन नामो से गणपति के अराधना का विधान है|

* पिता- भगवान शिव
* माता- भगवती पार्वती
* भाई- श्री कार्तिकेय
* पत्नी- दो 1.रिद्धि 2. सिद्धि (दक्षिण भारतीय संस्कृति में गणेशजी ब्रह्मचारी रूप में दर्शाये गये हैं)
* पुत्र- दो 1. शुभ 2. लाभ
* प्रिय भोग (मिष्ठान्न)- मोदक, लड्डू
* प्रिय पुष्प- लाल रंग के
* प्रिय वस्तु- दुर्वा (दूब) शमी-पत्र
* अधिपति- जल तत्व के
* प्रमुख अस्त्र- पाश, अंकुश

ABHAY
19-04-2011, 08:53 AM
ज्योतिष के अनुसार

ज्योतिष्शास्त्र के अनुसार गणेशजी को केतु के रूप मे जाना जाता है,केतु एक छाया ग्रह है,जो राहु नामक छाया ग्रह से हमेशा विरोध मे रहता है, बिना विरोध के ज्ञान नही आता है, और बिना ज्ञान के मुक्ति नही है, गणेशजी को मानने वालों का मुख्य प्रयोजन उनको सर्वत्र देखना है, गणेश अगर साधन है तो संसार के प्रत्येक कण मे वह विद्यमान है। उदाहरण के लिये तो जो साधन है वही गणेश है, जीवन को चलाने के लिये अनाज की आवश्यकता होती है, जीवन को चलाने का साधन अनाज है, तो अनाज गणेश है, अनाज को पैदा करने के लिये किसान की आवश्यकता होती है, तो किसान गणेश है, किसान को अनाज बोने और निकालने के लिये बैलों की आवश्यक्ता होती है तो बैल भी गणेश है,अनाज बोने के लिये खेत की आवश्यक्ता होती है, तो खेत गणेश है,अनाज को रखने के लिये भण्डारण स्थान की आवश्यक्ता होती है तो भण्डारण का स्थान भी गणेश है, अनाज के घर मे आने के बाद उसे पीस कर चक्की की आवश्यक्ता होती है तो चक्की भी गणेश है, चक्की से निकालकर रोटी बनाने के लिये तवे, चीमटे और रोटी बनाने वाले की आवश्यक्ता होती है, तो यह सभी गणेश है, खाने के लिये हाथों की आवश्यक्ता होती है, तो हाथ भी गणेश है, मुँह मे खाने के लिये दाँतों की आवश्यक्ता होती है, तो दाँत भी गणेश है, कहने के लिये जो भी साधन जीवन मे प्रयोग किये जाते वे सभी गणेश है, अकेले शंकर पार्वते के पुत्र और देवता ही नही।

मोदक गणेश का प्रिय व्यन्जन हे।
चावल आटा…………………………………३ कप
नमक………………………………………†¦â€¦२ चुटकि
देशी गाय का घी…………………………१ छोटा चम्मच
भरने के लिए
ताजा कसा नरियल……………………१ कप
गुड़ कसा हुआ……………………………१½ कप
एलाएची……………………………………†¦२ चुटकि

ABHAY
19-04-2011, 08:56 AM
शिव
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10368&stc=1&d=1303185344
शिव ईश्वर का रूप हैं। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं । वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र स्कन्द और गणेश हैं।

शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा लिंग के रूप में की जाती है । भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है ।भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।
व्यक्तित्व
शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।

शिवरात्रि व्रत की पारणा चतुर्दशी में ही करनी चाहिए। जो चतुर्दशी में पारणा करता है, वह समस्त तीर्थो के स्नान का फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य शिवरात्रि का उपवास नहीं करता, वह जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अंत में शिवलोक में जाते हैं।

ABHAY
19-04-2011, 09:27 AM
पूजन

शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प अति प्रिय हैं। अत: पूजन में इनका उपयोग करें। जो इस व्रत को हमेशा करने में असमर्थ है, उन्हें इसे बारह या चौबीस वर्ष करना चाहिए। शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। सप्तम भाव का कारक शुक्र शिव शक्ति के सम्मिलित प्रयास से प्रजा एवं जीव सृष्टि का कारण बनता है। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।

ज्योतिर्लिंग
भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंग है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्रीËœयम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर।हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिङ्गों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है।
अनेक नाम
हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है

* रूद्र - रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।
* पशुपतिनाथ - भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं
* अर्धनारीश्वर - शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।
* महादेव - महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।
* भोला - भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।
* लिंगम - यह रोशनी की लौ व पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।
* नटराज - नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी हैं।शान्ति नगर स्थित शिवशक्ति दुर्गा मंदिर के पं. सोहनानंद जी महाराज ने बताया कि शिवरात्रि को रात्रि में चार बार हर तीन घंटे बाद रुद्राभिषेक किया जाता है। इससे जातक का कालसर्प दोष व सभी गृहदोष दूर हो जाते हैं।

ABHAY
19-04-2011, 09:28 AM
शिवरात्रि

प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है, क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे।
माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। ॥ शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ॥

भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए। कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है। इस बार 6 मार्च को शिवरात्रि प्रदोष व अर्धरात्रि दोनों में विद्यमान रहेगी।

ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं। यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है। बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगों की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है।

यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है। यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।

ABHAY
19-04-2011, 09:29 AM
महाशिवरात्रि

महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भगवान शिव का यह प्रमुख पर्व फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान् शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीव है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं। शिव ईश्वर का रूप हैं। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं । वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं।

इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र स्कन्द और गणेश हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा लिंग के रूप में की जाती है। भगवान शिव को सन्हार का देवता कहा जाता है ।

महाशिवरात्रि भगवान शिव का प्रमुख पर्व है। इसमे आत्मा और परमात्मा का मिलन, अथवा शिव और पार्वती का विवाह, मनाया जाता है। महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र-

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्*। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्*। सः जूं ह्रौं ॐ ॥

ABHAY
19-04-2011, 09:30 AM
शिव तांडव स्तोत्र

जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्*।

डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी । विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।

धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

धरा धरेंद्र नंदिनी विलाधुवंधुर- स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।

कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा- कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।

मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर- प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।

भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा- निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्* ।

सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल- द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।

धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक- प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर- त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।

निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा- विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्*

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी- रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्* ।

स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर- द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-

धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल- ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो- र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्* विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्* ।

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्* कदा सुखी भवाम्यहम्* ॥13॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका- निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्* ॥15॥

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्* ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्* ।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।

तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

khalid
19-04-2011, 09:31 AM
बहुत अच्छी जानकारी हैँ अभय
मनु स्मृति के बारे मेँ हो सके तो और बताऐ

khalid
19-04-2011, 10:53 AM
बहुत अच्छी जानकारी हैँ ..?

ABHAY
19-04-2011, 01:30 PM
विष्णु
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10369&stc=1&d=1303201809
हिन्दू धर्म के अनुसार विष्णु ईश्वर के तीन मुख्य रुपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार माना जाता है। त्रिमूर्ति के अन्य दो भगवान शिव और ब्रह्मा को माना जाता है। जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है वहीं शिव को संहारक माना गया है।

विष्णु की पत्नी लक्ष्मी है।

भगवान् विष्णु के अवतार
भगवान् विष्णु के दस मुख्य अवतार मान्यता प्राप्त हैं। यह् अवतार क्रमशः प्रस्तुत हैं :

१) मत्स्य अवतार : मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया। एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया।

२) कूर्म अवतार : कूर्म के अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुन्द्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नोंकी प्राप्ती की। (इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था।)

ABHAY
19-04-2011, 01:32 PM
३) वराहावतार : वराह के अवतार में भगवान विष्णु ने महासागर में जाकर भूमि देवी कि रक्षा की थी, जो महासागर की तह में पँहुच गयीं थीं। एक मान्यता के अनुसार इस रूप में भगवान ने हिरन्याक्ष नाम के राक्षस का वध भी किया था।

४) नरसिंहावतार : नरसिंह रूप में भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी और प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यप का वध किया था। इस अवतार से भगवान के निर्गुण होने की विद्या प्राप्त होती है।

५) वामन् अवतार : इसमें विष्णु जी वामन् (बौने) के रूप में प्रकट हुए। bakt prahlad ke paotra ashurraj raja bali se devtao ki raksha ke liye vaman avtar liya.

६) परशुराम अवतार: इसमें विष्णु जी ने परशुराम के रूप में असुरों का संहार किया।

७) राम अवतार: राम ने रावण का वध किया जो रामायण में वर्णित है।

८) कृष्णावतार : भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप मे देवकी और वसुदेव के घर मे जन्म लिया था। उनका लालन पालन यशोदा और नंद ने किया था। इस अवतार का विस्तृत वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण मे मिलता है।

९) बुद्ध अवतार: इसमें विष्णु जी बुद्ध के रूप में असुरों को वेद की शिक्षा के लिये तैयार करने के लिये प्रकट हुए।

१०) कल्कि अवतार: इसमें विष्णु जी भविष्य में कलियुग के अन्त में आयेंगे।

ABHAY
19-04-2011, 01:34 PM
विष्णु के नाम
विष्णु, नारायण, कृष्ण, बैकुण्ठ, विष्टरश्रवस्, दामोदर, हृषीकेश, केशव, माधव, स्वभू, दैत्यारि, पुण्डरीकाक्ष, गोविन्द, गरुड़ध्वज, पीताम्बर, अच्युत, शाङ्गी, विष्वक्सेन, जनार्दन, उपेन्द्र, इन्द्रावरज, चक्रपाणि, चतुर्भुज, पद्मनाभ, मधुरिपु, वासुदेव, त्रिविक्रम, देवकीनन्दन, शौरि, श्रीपति, पुरुषोत्तम, वनमाली, बलिध्वंसी, कंसाराति, अधोक्षज, विश्वम्भर, कैटभजित्, विधु और श्रवस्तलाञ्छन ये 39 विष्णु के नाम हैं।

विष्णु के शंख का नाम 'पाञ्चजन्य' चक्र का नाम 'सुदर्शन' गदा का नाम 'कौमोदकी' खङ्ग (तलवार) का नाम 'नन्दक' और मणि का नाम 'कौस्तुभ' है।

ABHAY
19-04-2011, 01:37 PM
बुद्ध अवतार: इनकी लोकप्रियता के कारण इन्हे विष्णू का अवतार माना जाता हे

ABHAY
19-04-2011, 01:42 PM
सूर्य देवता
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10370&stc=1&d=1303202442
* सूर्य आत्मा जगत्स्तथुषश्च - ऋग्वेद
* ज्योतिषां रविरंशुमान - गीता

वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है.समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है.सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है,यह आज एक सर्वमान्य सत्य है.वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे.सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.यह सर्व प्रकाशक,सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है.ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है.यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है.छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है.ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है.प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है.सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है.और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है.सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है.सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं.अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है.पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी.बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ.भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है.अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है,कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी.प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे.उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं.वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद,ज्योतिष,हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है.

ABHAY
19-04-2011, 01:45 PM
खगोलीय विज्ञान में सूर्य

खगोल की द्रिष्टि से सूर्य पृथ्वी के सर्वाधिक निकट एक स्वयं प्रकाशित तारा है.सूर्य एक गैस पिण्ड है.स्वयं के प्रकाश से प्रकाशवान है.अन्य ग्रह जैसे चन्द्र पृथ्वी उसी से प्रकाशित हैं.इस द्रष्टि से सूर्य तारा हुआ लेकिन फ़लित ज्योतिष में उसे तारा न मानकर ग्रह माना गया है.

पृथ्वी से दूरी
सूर्य की पथ्वी के मध्य की दूरी ९२९५७२०९ मील है.उसका व्यास ८६५००० मील है.पृथ्वी से सूर्य का आयतन तेरह लाख गुणा तथा परिमाण तीन लाख तेतीस हजार गुणा है.सूर्य का नाभिकीय तापमान ४००००००० फ़ैरनहीट अंश है.
हिन्दू धर्मानुसार
सूर्य की स्थिति

श्रीमदभागवत पुराण में श्री शुकदेव जी के अनुसार:- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है।

ABHAY
19-04-2011, 01:46 PM
सूर्य के पास

"हे राजन्! सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।

सूर्य की चाल

सूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं।"

सूर्य का रथ

इस रथ का विस्तार नौ हजार योजन है। इससे दुगुना इसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथ के बीच का भाग) है। इसका धुरा डेड़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्न रूप तीन नाभि, परिवत्सर आदि पांच अरे और षड ऋतु रूप छः नेमि वाले अक्षस्वरूप संवत्सरात्मक चक्र में सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है। सात छन्द इसके घोड़े हैं: गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के तुल्य ही इसके युगार्द्धों (जूओं) का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा उस रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है, और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है।

ABHAY
19-04-2011, 01:47 PM
मानसोत्तर पर्वत

* इस पर्वत के पूर्व में इन्द्र की वस्वौकसारा स्थित है।
* इस पर्वत के पश्चिम में वरुण की संयमनी स्थित है।
* इस पर्वत के उत्तर में चंद्रमा की सुखा स्थित है।
* इस पर्वत के दक्षिण में यम की विभावरी स्थित है।
ज्योतिष शास्त्र में सूर्य
भारतीय ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है.सूर्य से सम्बन्धित नक्षत्र कृतिका उत्तराषाढा और उत्तराफ़ाल्गुनी हैं.यह भचक्र की पांचवीं राशि सिंह का स्वामी है.सूर्य पिता का प्रतिधिनित्व करता है,लकडी मिर्च घास हिरन शेर ऊन स्वर्ण आभूषण तांबा आदि का भी कारक है.मन्दिर सुन्दर महल जंगल किला एवं नदी का किनारा इसका निवास स्थान है.शरीर में पेट आंख ह्रदय चेहरा का प्रतिधिनित्व करता है.और इस ग्रह से आंख सिर रक्तचाप गंजापन एवं बुखार संबन्धी बीमारी होती हैं.सूर्य की जाति क्षत्रिय है.शरीर की बनाव सूर्य के अनुसार मानी जाती है.हड्डियों का ढांचा सूर्य के क्षेत्र में आता है.सूर्य का अयन ६ माह का होता है.६ माह यह दक्षिणायन यानी भूमध्य रेखा के दक्षिण में मकर वृत पर रहता है,और ६ माह यह भूमध्य रेखा के उत्तर में कर्क वृत पर रहता है.इसका रंग केशरिया माना जाता है.धातु तांबा और रत्न माणिक उपरत्न लाडली है.यह पुरुष ग्रह है.इससे आयु की गणना ५० साल मानी जाती है.सूर्य अष्टम मृत्यु स्थान से सम्बन्धित होने पर मौत आग से मानी जाती है.सूर्य सप्तम द्रिष्टि से देखता है.सूर्य की दिशा पूर्व है.सबसे अधिक बली होने पर यह राजा का कारक माना जाता है.सूर्य के मित्र चन्द्र मंगल और गुरु हैं.शत्रु शनि और शुक्र हैं.समान देखने वाला ग्रह बुध है.सूर्य की विंशोत्तरी दशा ६ साल की होती है.सूर्य गेंहू घी पत्थर दवा और माणिक्य पदार्थो पर अपना असर डालता है.पित्त रोग का कारण सूर्य ही है.और वनस्पति जगत में लम्बे पेड का कारक सूर्य है.मेष के १० अंश पर उच्च और तुला के १० अंश पर नीच माना जाता है.सूर्य का भचक्र के अनुसार मूल त्रिकोण सिंह पर ० अंश से लेकर १० अंश तक शक्तिशाली फ़लदायी होता है.सूर्य के देवता भगवान शिव हैं.सूर्य का मौसम गर्मी की ऋतु है.सूर्य के नक्षत्र कृतिका का फ़ारसी नाम सुरैया है.और इस नक्षत्र से शुरु होने वाले नाम ’अ’ ई उ ए अक्षरों से चालू होते हैं.इस नक्षत्र के तारों की संख्या अनेक है.इसका एक दिन में भोगने का समय एक घंटा है.

ABHAY
19-04-2011, 01:48 PM
सूर्य का अन्य ग्रहों से आपसी सम्बन्ध
* चन्द्र के साथ इसकी मित्रता है.अमावस्या के दिन यह अपने आगोश में लेलेता है.
* मंगल भी सूर्य का मित्र है.
* बुध भी सूर्य का मित्र है तथा हमेशा सूर्य के आसपास घूमा करता है.
* गुरु यह सूर्य का परम मित्र है,दोनो के संयोग से जीवात्मा का संयोग माना जाता है.गुरु जीव है तो सूर्य आत्मा.
* शनि सूर्य का पुत्र है लेकिन दोनो की आपसी दुश्मनी है,जहां से सूर्य की सीमा समाप्त होती है,वहीं से शनि की सीमा चालू हो जाती है."छाया मर्तण्ड सम्भूतं" के अनुसार सूर्य की पत्नी छाया से शनि की उतपत्ति मानी जाती है.सूर्य और शनि के मिलन से जातक कार्यहीन हो जाता है,सूर्य आत्मा है तो शनि कार्य आत्मा कोई काम नही करती है.इस युति से ही कर्म हीन विरोध देखने को मिलता है.
* शुक्र रज है सूर्य गर्मी स्त्री जातक और पुरुष जातक के आमने सामने होने पर रज जल जाता है.सूर्य का शत्रु है.
* राहु सूर्य और चन्द्र दोनो का दुश्मन है.एक साथ होने पर जातक के पिता को विभिन्न समस्याओं से ग्रसित कर देता है.
* केतु यह सूर्य से सम है.

ABHAY
19-04-2011, 02:07 PM
सूर्य का अन्य ग्रहों के साथ होने पर ज्योतिष से किया जाने वाला फ़ल कथन

* सूर्य और चन्द्र दोनो के एक साथ होने पर सूर्य को पिता और चन्द्र को यात्रा मानने पर पिता की यात्रा के प्रति कहा जा सकता है.सूर्य राज्य है तो चन्द्र यात्रा राजकीय यात्रा भी कही जा सकती है.एक संतान की उन्नति जन्म स्थान से बाहर होती है.
* सूर्य और मंगल के साथ होने पर मंगल शक्ति है अभिमान है,इस प्रकार से पिता शक्तिशाली और प्रभावी होता है.मंगल भाई है तो वह सहयोग करेगा,मंगल रक्त है तो पिता और पुत्र दोनो में रक्त सम्बन्धी बीमारी होती है,ह्रदय रोग भी हो सकता है.दोनो ग्रह १-१२ या १७ में हो तो यह जरूरी हो जाता है.स्त्री चक्र में पति प्रभावी होता है,गुस्सा अधिक होता है,परन्तु आपस में प्रेम भी अधिक होता है,मंगल पति का कारक बन जाता है.
* सूर्य और बुध में बुध ज्ञानी है,बली होने पर राजदूत जैसे पद मिलते है,पिता पुत्र दोनो ही ज्ञानी होते हैं.समाज में प्रतिष्ठा मिलती है.जातक के अन्दर वासना का भंडार होता है,दोनो मिलकर नकली मंगल का रूप भी धारण करलेता है.पिता के बहन हो और पिता के पास भूमि भी हो,पिता का सम्बन्ध किसी महिला से भी हो.
* सूर्य और गुरु के साथ होने पर सूर्य आत्मा है,गुरु जीव है.इस प्रकार से यह संयोग एक जीवात्मा संयोग का रूप ले लेता है.जातक का जन्म ईश्वर अंश से हो,मतलब परिवार के किसी पूर्वज ने आकर जन्म लिया हो,जातक में दूसरों की सहायता करने का हमेशा मानस बना रहे,और जातक का यश चारो तरफ़ फ़ैलता रहे,सरकारी क्षेत्रों में जातक को पदवी भी मिले.जातक का पुत्र भी उपरोक्त कार्यों में संलग्न रहे,पिता के पास मंत्री जैसे काम हों,स्त्री चक्र में उसको सभी प्रकार के सुख मिलते रहें,वह आभूषणों आदि से कभी दुखी न रहे,उसे अपने घर और ससुराल में सभी प्रकार के मान सम्मान मिलते रहें.
* सूर्य और शुक्र के साथ होने पर सूर्य पिता है और शुक्र भवन,वित्त है,अत: पिता के पास वित्त और भवन के साथ सभी प्रकार के भौतिक सुख हों,पुत्र के बारे में भी यह कह सकते हैं.शुक्र रज है और सूर्य गर्मी अत: पत्नी को गर्भपात होते रहें,संतान कम हों,१२ वें या दूसरे भाव में होने पर आंखों की बीमारी हो,एक आंख का भी हो सकता है.६ या ८ में होने पर जीवन साथी के साथ भी यह हो सकता है.स्त्री चक्र में पत्नी के एक बहिन हो जो जातिका से बडी हो,जातक को राज्य से धन मिलता रहे,सूर्य जातक शुक्र पत्नी की सुन्दरता बहुत हो.शुक्र वीर्य है और सूर्य गर्मी जातक के संतान पैदा नही हो.स्त्री की कुन्डली में जातिका को मूत्र सम्बन्धी बीमारी देता है.अस्त शुक्र स्वास्थ्य खराब करता है.
* सूर्य और शनि के साथ होने पर शनि कर्म है और सूर्य राज्य,अत: जातक के पिता का कार्य सरकारी हो,सूर्य पिता और शनि जातक के जन्म के समय काफ़ी परेशानी हुई हो.पिता के सामने रहने तक पुत्र आलसी हो,पिता और पुत्र के साथ रहने पर उन्नति नही हो.वैदिक ज्योतिष में इसे पितृ दोष माना जाता है.अत: जातक को रोजाना गायत्री का जाप २४ या १०८ बार करना चाहिये.
* सूर्य और राहु के एक साथ होने पर सूचना मिलती है कि जातक के पितामह प्रतिष्ठित व्यक्ति होने चाहिये,एक पुत्र सूर्य अनैतिक राहु हो,कानून विरुद्ध जातक कार्य करता हो,पिता की मौत दुर्घटना में हो,जातक के जन्म के समय में पिता को चोट लगे,जातक को संतान कठिनाई से हो,पिता के किसी भाई को अनिष्ठ हो.शादी में अनबन हो.
* सूर्य और केतु साथ होने पर पिता और पुत्र दोनों धार्मिक हों,कार्यों में कठिनाई हो,पिता के पास भूमि हो लेकिन किसी काम की नही हो.

ABHAY
19-04-2011, 02:12 PM
सूर्य के साथ अन्य ग्रहों के अटल नियम जो कभी असफ़ल नही हुये

* सूर्य मंगल गुरु=सर्जन
* सूर्य मंगल राहु=कुष्ठ रोग
* सूर्य मंगल शनि केतु=पिता अन्धे हों
* सूर्य के आगे शुक्र = धन हों.
* सूर्य के आगे बुध = जमीन हो.
* सूर्य केतु =पिता राजकीय सेवा में हों,साधु स्वभाव हो,अध्यापक का कार्य भी हो सकता है.
* सूर्य बृहस्पति के आगे = जातक पिता वाले कार्य करे.
* सूर्य शनि शुक्र बुध =पेट्रोल,डीजल वाले काम.
* सूर्य राहु गुरु =मस्जिद या चर्च का अधिकारी.
* सूर्य के आगे मंगल राहु हों तो पैतृक सम्पत्ति समाप्त.
बारह भावों में सूर्य की स्थिति
* प्रथम भाव में सूर्य -स्वाभिमानी शूरवीर पर्यटन प्रिय क्रोधी परिवार से व्यथित धन में कमी वायु पित्त आदि से शरीर में कमजोरी.
* दूसरे भाव में सूर्य - भाग्यशाली पूर्ण सुख की प्राप्ति, धन अस्थिर लेकिन उत्तम कार्यों के अन्दर व्यय, स्त्री के कारण परिवार में कलह, मुख और नेत्र रोग, पत्नी को ह्रदय रोग. शादी के बाद जीवन साथी के पिता को हानि.
* तीसरे भाव में सूर्य - प्रतापी, पराक्रमी, विद्वान, विचारवान, कवि, राज्यसुख, मुकद्दमे में विजय, भाइयों के अन्दर राजनीति होने से परेशानी.
* चौथे भाव में सूर्य - ह्रदय में जलन, शरीर से सुन्दर, गुप्त विद्या प्रेमी, विदेश गमन, राजकीय चुनाव आदि में विजय, युद्ध वाले कारण, मुकद्दमे आदि में पराजित,व्यथित मन.
* पंचम भाव में सूर्य - कुशाग्र बुद्धि,धीरे धीरे धन की प्राप्ति,पेट की बीमारियां,राजकीय शिक्षण संस्थानो से लगाव,मोतीझारा,मलेरिया बुखार.
* छठवें भाव में सूर्य - निरोगी न्यायवान, शत्रु नाशक, मातृकुल से कष्ट.
* सप्तम भाव में सूर्य - कठोर आत्म रत, राज्य वर्ग से पीडित,व्यापार में हानि, स्त्री कष्ट.
* आठवें भाव में सूर्य - धनी, धैर्यवान, काम करने के अन्दर गुस्सा, चिन्ता से ह्रदय रोग, आलस्य से धन नाश, नशे आदि से स्वास्थ्य खराब.
* नवें भाव में सूर्य - योगी, तपस्वी, ज्योतिषी,साधक,सुखी,लेकिन स्वभाव से क्रूर.
* दसवें भाव में सूर्य - व्यवहार कुशल, राज्य से सम्मान, उदार, ऐश्वर्य, माता को नकारात्मक विचारों से कष्ट, अपने ही लोगों से बिछोह.
* ग्यारहवें भाव में सूर्य - धनी सुखी बलबान स्वाभिमानी सदाचारी शत्रुनाशक, अनायास सम्पत्ति की प्राप्ति, पुत्र की पत्नी या पुत्री के पति (दामाद) से कष्ट.
* बारहवें भाव में सूर्य - उदासीन, आलसी, नेत्र रोगी, मस्तिष्क रोगी, लडाई झगडे में विजय,बहस करने की आदत.

ABHAY
19-04-2011, 02:27 PM
हस्त रेखा में सूर्य
जीवन में पडने वाले प्रभाव को हथेली में अनामिका उंगली की जड में सूर्य पर्वत और और उस पर बनी रेखाओं को देख कर सूर्य की स्थिति का पता लगाया जा सकता है.सूर्य पर्वत पर बनी रेखायें ही सूर्य रेखा या सूर्य रेखायें कहलाती है.अनामिका उंगली के तर्जनी से लम्बी होने की स्थिति में ही व्यक्ति के राजकीय जीवन का फ़ल कथन किया जाता है.उन्नत पर्वत होने पर और पर्वत के मध्य सूक्ष्म गोल बिन्दु होने पर पर्वत के गुलाबी रंग का होने पर प्रतिष्ठ्त पद का कथन किया जाता है.इसी पर्वत के नीचे विवाह रेखा के उदय होने पर विवाह में राजनीति के चलते विवाह टूटने और अनैतिक सम्बन्धों की जानकारी मिलती है.
अंकशास्त्र में सूर्य
ज्योतिष विद्याओं में अंक विद्या भी एक महत्वपूर्ण विद्या है.जिसके द्वारा हम थोडे समय में ही प्रश्न कर्ता के उत्तर दे सकते है.अंक विद्या में "१" का अंक सूर्य को प्राप्त हुआ है.जिस तारीख को आपका जन्म हुआ है,उन तारीखों में अगर आपकी जन्म तारीख १,१०,१९,२८, है तो आपका भाग्यांक सूर्य का नम्बर "१" ही माना जायेगा.इसके अलावा जो आपका कार्मिक नम्बर होगा वह जन्म तारीख,महिना,और पूरा सन जोडने के बाद जो प्राप्त होगा,साथ ही कुल मिलाकर अकेले नम्बर को जब सामने लायेंगे,और वह नम्बर एक आता है तो कार्मिक नम्बर ही माना जायेगा.जिन लोगों के जन्म तारीख के हिसाब से "१" नम्बर ही आता है उनके नाम अधिकतर ब,म,ट,और द से ही चालू होते देखे गये है.अम्क १ शुरुआती नम्बर है,इसके बिना कोई भी अंक चालू नही हो सकता है.इस अंक वाला जातक स्वाभिमानी होता है,उसके अन्दर केवल अपने ही अपने लिये सुनने की आदत होती है.जातक के अन्दर ईमानदारी भी होती है,और वह किसी के सामने झुकने के लिये कभी राजी नही होता है.वह किसी के अधीन नही रहना चाहता है और सभी को अपने अधीन रखना चाहता है.अगर अंक १ वाला जातक अपने ही अंक के अधीन होकर यानी अपने ही अंक की तारीखों में काम करता है तो उसको सफ़लता मिलती चली जाती है.सूर्य प्रधान जातक बहुत तेजस्वी सदगुणी विद्वान उदार स्वभाव दयालु,और मनोबल में आत्मबल से पूर्ण होता है.वह अपने कार्य स्वत: ही करता है किसी के भरोसे रह कर काम करना उसे नही आता है.वह सरकारी नौकरी और सरकारी कामकाज के प्रति समर्पित होता है.वह अपने को अल्प समय में ही कुशल प्रसाशक बनालेता है.सूर्य प्रधान जातक मे कुछ बुराइयां भी होतीं हैं.जैसे अभिमान,लोभ,अविनय,आलस्य,बाह्य दिखावा,जल्दबाजी,अहंकार,आदि दुर्गुण उसके जीवन में भरे होते हैं.इन दुर्गुणों के कारण उसका विकाश सही तरीके से नही हो पाता है.साथ ही अपने दुश्मनो को नही पहिचान पाने के कारण उनसे परेशानी ही उठाता रहता है.हर काम में दखल देने की आदत भी जातक में होती है.और सब लोगों के काम के अन्दर टांग अडाने के कारण वह अधिक से अधिक दुश्मनी भी पैदा कर लेता है.

ABHAY
19-04-2011, 02:32 PM
सूर्य ग्रह सम्बन्धी अन्य विवरण
सूर्य प्रत्यक्ष देवता है,सम्पूर्ण जगत के नेत्र हैं.इन्ही के द्वारा दिन और रात का सृजन होता है.इनसे अधिक निरन्तर साथ रहने वाला और कोई देवता नही है.इन्ही के उदय होने पर सम्पूर्ण जगत का उदय होता है,और इन्ही के अस्त होने पर समस्त जगत सो जाता है.इन्ही के उगने पर लोग अपने घरों के किवाड खोल कर आने वाले का स्वागत करते हैं,और अस्त होने पर अपने घरों के किवाड बन्द कर लेते हैं.सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता है.सूर्य से ही दिन रात पल मास पक्ष तथा संवत आदि का विभाजन होता है.सूर्य सम्पूर्ण संसार के प्रकाशक हैं.इनके बिना अन्धकार के अलावा और कुछ नही है.सूर्य आत्माकारक ग्रह है,यह राज्य सुख,सत्ता,ऐश्वर्य,वैभव,अधिकार,आदि प्रदान करता है.यह सौरमंडल का प्रथम ग्रह है,कारण इसके बिना उसी प्रकार से हम सौरजगत को नही जान सकते थे,जिस प्रकार से माता के द्वारा पैदा नही करने पर हम संसार को नही जान सकते थे.सूर्य सम्पूर्ण सौर जगत का आधार स्तम्भ है.अर्थात सारा सौर मंडल,ग्रह,उपग्रह,नक्षत्र आदि सभी सूर्य से ही शक्ति पाकर इसके इर्द गिर्द घूमा करते है,यह सिंह राशि का स्वामी है,परमात्मा ने सूर्य को जगत में प्रकाश करने,संचालन करने,अपने तेज से शरीर में ज्योति प्रदान करने,तथा जठराग्नि के रूप में आमाशय में अन्न को पचाने का कार्य सौंपा है.<ज्योतिष< शास्त्र में सूर्य को मस्तिष्क का अधिपति बताया गया है,ब्रह्माण्ड में विद्यमान प्रज्ञा शक्ति और चेतना तरंगों के द्वारा मस्तिष्क की गतिशीलता उर्वरता और सूक्षमता के विकाश और विनाश का कार्य भी सूर्य के द्वारा ही होता है.यह संसार के सभी जीवों द्वारा किये गये सभी कार्यों का साक्षी है.और न्यायाधीश के सामने साक्ष्य प्रस्तुत करने जैसा काम करता है.यह जातक के ह्रदय के अन्दर उचित और अनुचित को बताने का काम करता है,किसी भी अनुचित कार्य को करने के पहले यह जातक को मना करता है,और अंदर की आत्मा से आवाज देता है.साथ ही जान बूझ कर गलत काम करने पर यह ह्रदय और हड्डियों में कम्पन भी प्रदान करता है.गलत काम को रोकने के लिये यह ह्रदय में साहस का संचार भी करता है.

* जो जातक अपनी शक्ति और अंहकार से चूर होकर जानते हुए भी निन्दनीय कार्य करते हैं,दूसरों का शोषण करते हैं,और माता पिता की सेवा न करके उनको नाना प्रकार के कष्ट देते हैं,सूर्य उनके इस कार्य का भुगतान उसकी विद्या,यश,और धन पर पूर्णत: रोक लगाकर उसे बुद्धि से दीन हीन करके पग पग पर अपमानित करके उसके द्वारा किये गये कर्मों का भोग करवाता है.आंखों की रोशनी का अपने प्रकार से हरण करने के बाद भक्ष्य और अभक्ष्य का भोजन करवाता है,ऊंचे और नीचे स्थानों पर गिराता है,चोट देता है.

ABHAY
19-04-2011, 02:35 PM
# श्रेष्ठ कार्य करने वालों को सदबुद्धि,विद्या,धन,और यश देकर जगत में नाम देता है,लोगों के अन्दर इज्जत और मान सम्मान देता है.उन्हें उत्तम यश का भागी बना कर भोग करवाता है.जो लोग आध्यात्म में अपना मन लगाते हैं,उनके अन्दर भगवान की छवि का रसस्वादन करवाता है.सूर्य से लाल स्वर्ण रंग की किरणें न मिलें तो कोई भी वनस्पति उत्पन्न नही हो सकती है.इन्ही से यह जगत स्थिर रहता है,चेष्टाशील रहता है,और सामने दिखाई देता है.
# जातक अपना हाथ देख कर अपने बारे में स्वयं निर्णय कर सकता है,यदि सूर्य रेखा हाथ में बिलकुल नही है,या मामूली सी है,तो उसके फ़लस्वरूप उसकी विद्या कम होगी,वह जो भी पढेगा वह कुछ कल बाद भूल जायेगा,धनवान धन को नही रोक पायेंगे,पिता पुत्र में विवाद होगा,और अगर इस रेखा में द्वीप आदि है तो निश्चित रूप से गलत इल्जाम लगेंगे.अपराध और कोई करेगा और सजा जातक को भुगतनी पडेगी.
# सूर्य क्रूर ग्रह भी है,और जातक के स्वभाव में तीव्रता देता है.यदि ग्रह तुला राशि में नीच का है तो वह तीव्रता जातक के लिये घातक होगी,दुनियां की कोई औषिधि,यंत्र,जडी,बूटी नही है जो इस तीव्रता को कम कर सके.केवल सूर्य मंत्र में ही इतनी शक्ति है,कि जो इस तीव्रता को कम कर सकता है.
# सूर्य जीव मात्र को प्रकाश देता है.जिन जातकों को सूर्य आत्मप्रकाश नही देता है,वे गलत से गलत औ निंदनीय कार्य क बैठते है.और यह भी याद रखना चाहिये कि जो कर्म कर दिया गया है,उसका भुगतान तो करना ही पडेगा.जिन जातकों के हाथ में सूर्य रेखा प्रबल और साफ़ होती है,उन्हे समझना चाहिये कि सूर्य उन्हें पूरा बल दे रहा है.इस प्रकार के जातक कभी गलत और निन्दनीय कार्य नही कर सकते हैं.उनका ओज और तेज सराहनीय होता है.

ABHAY
19-04-2011, 02:40 PM
श्रीराम

राम (रामचन्द्र), प्राचीन भारत में जन्मे, एक महापुरुष थे। हिन्दू धर्म में, राम, विष्णु के १० अवतारों में से सातवां हैं। राम का जीवनकाल एवं पराक्रम, महर्षि वाल्मिकि द्वारा रचित, संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में लिखा गया है| उन पर तुलसीदास ने भी भक्ति काव्य श्री रामचरितमानस रचा था | खास तौर पर उत्तर भारत में राम बहुत अधिक पूजनीय माने जाते हैं । रामचन्द्र हिन्दुत्ववादियों के भी आदर्श पुरुष हैं ।

राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बडे पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था (जो लक्ष्मी का अवतार मानी जाती है) और इनके तीन भाई थे, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बडे भक्त माने जाते है। राम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया|

हिन्दू धर्म के कई त्यौहार, जैसे दशहरा और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुडे हुऎ है।
राम के जीवन की प्रमुख घटनाएं
ज्न्म् बचपन और सीता-स्वयंवर राम का जन्म प्राचीन भारत में हुआ था। उनके जन्म के समय का अनुमान सही से नही लगाया जा सका है परन्तु विशेषज्ञों का मानना है कि उसके पीछे युक्ति यह है कि बौद्ध धर्म के बारे में मौन है यद्यपि उसमें जैन,शैव,पाशुपत आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है! राम का जन्म तकरीबन आज से ९,००० वर्ष (७३२३ ईसा पूर्व) हुआ था। आज के युग मे राम का जन्म, रामनवमी के रुप में मनाया जाता है। राम चार भाईयो में से सबसे बड़े थे, इनके भाइयो के नाम लक्ष्मण (भगवान शेषनागजी के अवतार माने जाते है ), भरत (भगवान ब्रह्मा जी के अवतार माने जाते है) और शत्रुघ्न (भगवान शिवजी के अवतार माने जाते है) थे। राम बचपन से ही शान्*त स्*वाभाव के वीर पुरूष थे । उन्*होने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्*च स्*थान दिया था । इसी कारण उन्*हे मर्यादा पुरूषोत्*तम राम के नाम से जाना जाता है । उनका राज्*य न्*यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था, इसलिए भारत में जब भी सुराज की बात होती है, रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है । धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनो भाइयों के साथ गुरू वशिष्*ठ से शिक्षा प्राप्*त की । किशोरवय में विश्वामित्र उन्*हे वन में राक्षसों व्*दारा मचाए जा रहे उत्*पात को समाप्*त करने के लिए लेगये । राम के साथ उनके छोटे भाई लक्श्मन् भी इस काम् उनके साथ थे ।

ABHAY
19-04-2011, 02:42 PM
। ताड़का नामक राक्षसी बक्सर ( बिहार ) मे रहती थी । वही पर उसका वध हुआ । राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारीच को पलायन के लिए मजबूर किया । इस दौरान ही विश्*वमित्र उन्*हे मिथिला लेगये । वहॉं के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए एक समारोह आयोजित किया था । शिव का एक धनुष था जिसपर प्रत्*यंचा चढ़ाने वाले शूर से सीता का वैवह किया जाना था । बहुत सारे राजा महाराजा उस समारोह में पधारे थे । बहुत से राजाओं के परिव्तन् के बाद भी जब धनुष पर प्रत्*यंचा चढ़ाना तो दूर धनुष उठा तक नहीं सके, तब विश्*वामित्र की आज्ञा पाकर राम ने धनुष उठा कर प्रत्*यंचा चढ़ाने की प्रयत्न की । उनकी प्रत्*यंचा चढाने की प्रयत्न में वह महान धुनुष ही घोर ध्**वनि करते हुए टूट गया । महर्षि परशुराम ने जब इस घोर ध्*वनि सुना तो वहॉं आगये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटनें पर रोष व्*यक्*त करने लगे । लक्ष्*मण उग्र स्*वाभाव के थे । उनका विवाद परशुराम से हुआ । तब राम ने बीच-बचाव किया । इस प्रकार सीता का विवाह राम से हुआ और परशुराम सहित समस्*त लोगो ने आशीर्वाद दिया । अयोद्या में राम सीता सुखपूर्वक रहने लगे । लोग राम को बहुत चाहते थे । उनकी मृदुल, जनसेवायुक्*त भावना और न्*यायप्रियता के कारण उनकी विशेष लोकप्रियता थी । राजा दशरथ वानप्रस्*थ की ओर अग्रसर हो रहे थे| अत: उन्*होने राज्*यभार राम को सौंपनें का सोचा । जनता में भी सुखद लहर दौड़ गई की उनके प्रिय राजा उनके प्रिय राजकुमार को राजा नियुक्*त करनेवाले हैं । उस समय राम के अन्*य दो भाई भरत और शत्रुघ्*न अपने ननिहाल कैकेय गए हुए थे । मंथरा, जो रानी कैकेयी की दासी थी, ने कैकेयी को भरमाया कि राजा तुम्*हारे साथ गलत कर रहें है । तुम राजा की प्रिय रानी हो तो तुम्*हारी संतान को राजा बनना चाहिए पर राजा दशरथ राम को राजा बनाना चा*हते हैं ।
राम के बचपन की विस्तार-पूर्वक विवरण स्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के बालकाण्ड से मिलती है।
वनवास
राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीः कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। राम कौशल्या के पु्त्र थे, सुमित्रा के दो पु्त्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे और कैकेयी के पु्त्र भरत थे। कैकेयी चाहती थी उनके पु्त्र भरत राजा बनें, इसलिए उन्होने राजा दशरथ द्वरा राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया। राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। राम की पत्नी सीता, और उनके भाई लक्ष्मण भी वनवास गये थे।

ABHAY
19-04-2011, 02:45 PM
श्रीकृष्ण

सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं। वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनका सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का ही था।

यह अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। वास्तविकता तो यह थी इस समय चारों ओर पापकृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। अतः धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे।

श्रीकृष्ण में इतने अमित गुण थे कि वे स्वयं उसे नहीं जानते थे, फिर अन्य की तो बात ही क्या है? ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव-प्रभृत्ति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते थे, ऐसे श्रीकृष्ण का गुणानुवाद अत्यंत पवित्र है। श्रीकृष्ण से ही प्रकृति उत्पन्न हुई। सम्पूर्ण प्राकृतिक पदार्थ, प्रकृति के कार्य स्वयं श्रीकृष्ण ही थे। श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी से अधर्म को जड़मूल से उखाड़कर फेंक दिया और उसके स्थान पर धर्म को स्थापित किया। समस्त देवताओं में श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे।
उन्होंने जो भी कार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना की जो कलिकाल में धर्म में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

संपूर्ण पृथ्वी दुष्टों एवं पतितों के भार से पीड़ित थी। उस भार को नष्ट करने के लिए भगवान विष्णु ने एक प्रमुख अवतार ग्रहण किया जो कृष्णावतार के नाम से संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध हुआ। उस समय धर्म, यज्ञ, दया पर राक्षसों एवं दानवों द्वारा आघात पहुँचाया जा रहा था।

पृथ्वी पापियों के बोझ से पूर्णतः दब चुकी थी। समस्त देवताओं द्वारा बारम्बार भगवान विष्णु की प्रार्थना की जा रही थी। विष्णु ही ऐसे देवता थे, जो समय-समय पर विभिन्न अवतारों को ग्रहण कर पृथ्वी के भार को दूर करने में सक्षम थे क्योंकि प्रत्येक युग में भगवान विष्णु ने ही महत्वपूर्ण अवतार ग्रहण कर दुष्ट राक्षसों का संहार किया। वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण अवतरित हुए।

ABHAY
19-04-2011, 02:46 PM
श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरंभ

भगवान ने देखा कि संपूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव-जन्तु नहीं है। जल का भी कहीं पता नहीं है। संपूर्ण आकाश वायु से रहित और अंधकार से आवृत्त हो घोर प्रतीत हो रहा है। वृक्ष, पर्वत और समुद्र आदि शून्य होने के कारण विकृताकार जान पड़ता है। मूर्ति, धातु, शस्य तथा तृण का सर्वथा अभाव हो गया है। इस प्रकार जगत्* को शून्य अवस्था में देख अपने हृदय में सभी बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एकमात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही इस सृष्टि की रचना प्रारंभ की।

सर्वप्रथम उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिण पार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्त्व अहंकार पांच तन्मात्राएं रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए। इसके उपरान्त ही श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ। जिनकी अंगकान्ति श्याम थी, वे नित्य तरुण पीताम्बरधारी और विभिन्न वनमालाओं से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन भुजाओं में क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान थे। उनके मुखारबिन्द पर मंद-मंद मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। शांर्गधनुष धारण किए हुए थे।

कौस्तुभ मणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात लक्ष्मी का निवास था। वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रस्तुत कर रहे थे। शरत्*काल की पूर्णिमा के चंद्रमा की प्रभा से सेवित मुखचन्द्र के कारण वे मनोहर जान पड़ते थे। कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनके सौंदर्य को और भी बढ़ा रहा था। नारायण श्रीकृष्ण के समक्ष खड़े होकर दोनों हाथों को जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।
कृष्ण ने ही अर्जुन को भगवद्गीता का सन्देश सुनाया था ।

उनकी कथा कृष्णावतार में मिलती है।

यदुकुल के राजा।

अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन के अनुसार परब्रह्म का दूसरा नाम।

ABHAY
19-04-2011, 02:48 PM
कृष्ण लीलाओं में छिपा संदेश
श्रीकृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ मे किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर हमें विचार करना चाहिए।

श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं, इसका स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक उल्लेख में मिलता है। वहां (3.17.6) कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि आंगिरस ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।

किंतु इनके जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत का है और वह ऐतिहासिक कम, आध्यात्मिक अधिक है और यह बात ग्रंथ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है। ग्रंथ में चमत्कारी भौतिक वर्णनों के पर्दे के पीछे गहन आध्यात्मिक संकेत संजोए गए हैं।

वस्तुतः भागवत में सृष्टि की संपूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन कराया गया है। ग्रंथ के पूर्वार्ध (स्कंध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कंध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है। भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहचानने का यहाँ प्रयास किया गया है।

ABHAY
19-04-2011, 02:50 PM
श्रीकृष्ण जन्म
त्रिगुणात्मक प्रकृति से प्रकट होती चेतना सत्ता!
श्रीकृष्ण आत्म तत्व के मूर्तिमान रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भुत और विकसित होता है अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं। 1- रजोगुणी प्रकृतिरूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं। 2- सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं। 3- इनके विपरीत एक घोर तमस रूपा प्रकृति भी शिशुभक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।
गोकुल-वृंदावन की लीलाएँ
शिशु और बाल वय में ही श्रीकृष्ण द्वारा अनेक राक्षसों के वध की लीलाओं तथा सहज-सरल-हृदय मित्रों और ग्रामवासियों में आनंद और प्रेम बांटने वाली क्रीड़ाओं का विस्तृत वर्णन भागवत में हुआ है। शिशु चरित्र गोकुल में और बाल चरित्र वृंदावन में संपन्न होने का जो उल्लेख है, वह आध्यात्मिक अर्थ की ओर संकेत करता है।

गो-शब्द का अर्थ इंद्रियाँ भी हैं, अतः गोकुल से आशय है हमारी पंचेद्रियों का संसार और वृंदावन का अर्थ है तुलसीवन अर्थात मन का उच्च क्षेत्र (तुरीयावस्था वाले 'तुर' से 'तुरस' और 'तुलसी' शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरणसम्मत है)। गोकुल में पूतना वध, शकट भंजन और तृणावर्त वध का तथा वृंदावन में बकासुर, अधासुर और धेनुकासुर आदि अनेक राक्षसों के हनन का वर्णन है।

व्यक्ति और समाज को अपने अंदर व्याप्त आसुरी वृत्तियों के रूप में इनकी पहचान करना होगा तभी आध्यात्मिक-नैतिक शक्ति से इनका हनन संभव होगा और तब ही इस बालरूप श्रीकृष्ण का उद्भव महाभारत के सूत्रधार, धर्मस्थापक, श्रीकृष्ण के रूप में होना संभव होगा।
वृंदावन की कथाओं में कालिया नाग, गोवर्धन, रासलीला और महारास वाली कथाएं अधिक प्रसिद्ध हैं। श्रीकृष्ण ने यमुना को कालिया नाग से मुक्त-शुद्ध किया था। यमुना, गंगा, सरस्वती नदियों को क्रमशः कर्म, भक्ति और ज्ञान की प्रतीक माना गया है। ज्ञान अथवा भक्ति के अभाव मेंकर्म का परिणाम होता है, कर्ता में कर्तापन के अहंकार-विष का संचय। यह अहंकार ही कर्म-नद यमुना का कालिया नाग है। सर्वात्म रूप श्रीकृष्ण भाव का उदय इस अहंकार-विष से कर्म और कर्ता की रक्षा करता है (गीता- 18.55.58)।

गोवर्धन धारण कथा की आर्थिक, नीति-परक और राजनीतिक व्याख्याएं की गई हैं। इस कथा का आध्यात्मिक संकेत यह दिखता है कि गो अर्थात इंद्रियों का वर्धन (पालन-पोषण) कर्ता, अर्थात इंद्रियों में क्रियाशील प्राण-शक्ति के स्रोत परमेश्वर पर हमारी दृष्टि होना चाहिए। इसी प्रकार गोपियों के साथ रासलीला के वर्णन में मन की वृत्तियां ही गोपिकाओं के रूप में मूर्तिमान हुई हैं और प्रत्येक वृत्ति के आत्म-रस से सराबोर होने को रासलीला या रसनृत्य के रूप में चित्रित किया गया है। इससे भी उच्च अवस्था का- प्रेम और विरह के बाह्य द्वैत का एक आंतरिक आनंद में समाहित हो जाने की अवस्था का वर्णन 'महारास' में हुआ है।

ABHAY
19-04-2011, 02:51 PM
मथुरा आगमन और कंस वध

श्रीकृष्ण को किशोर वय होते न होते कंस उन्हें मरवा डालने का एक बार फिर षड्यंत्र रचकर मथुरा बुलवाता है, किंतु श्रीकृष्ण उसको उसके महाबली साथियों सहित मार डालते हैं। कंस शब्द का अर्थ और उसकी कथा भी संकेत करती है कि कंस देहासक्ति का मूर्तिमान रूप है, जो संभावित मृत्यु से बचने के लिए कितने ही कुत्सित कर्म करता है। मथुरा का शब्दार्थ है- 'विक्षुब्ध किया हुआ।' अतः मथुरा है देहासक्ति से विक्षुब्ध मन। श्रीकृष्ण का कंस वध करने के उपरांत द्वारिका में राज्य स्थापना करने का अर्थ है कि आत्मभाव में प्रवेश के पूर्व देहासक्ति की समाप्ति आवश्यक है।

समुद्र में द्वारिका निर्माण और राज्य स्थापना

कंस वध के बाद श्रीकृष्ण समुद्र के भीतर (अंतः समुद्रे-भा. 10/50/50) द्वारिका का निर्माण करवाते हैं और वहां राज्य स्थापित करते हैं। इतिहास के महापुरुष श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका नगर का समुद्र किनारे या द्वीप पर निर्माण करवाना और कालांतर में उसका समुद्र में डूब जाना (जिसके कुछ अवशेष अभी हाल में ही खोजे गए हैं) उस काल की वास्तविक घटना होगी, किंतु भागवत ने 'समुद्र के अंदर' द्वारिका निर्माण का वर्णन करके स्पष्टतः यहां उसका आध्यात्मिक रूपांतरण प्रस्तुत किया है।

द्वारिका शब्द में द्वार का अर्थ है- साधन, उपाय या प्रवेश मार्ग। समुद्र व्यक्तित्व के गहरे तल- आत्म क्षेत्र को इंगित करता है। अतः आत्म क्षेत्र का प्रवेश द्वार है द्वारिका। इस क्षेत्र में चेतना का प्रवेश होने पर जीवन जीने का जैसा स्वरूप होगा, उसका निरूपण द्वारिका पर श्रीकृष्ण राज्य के रूप में किया गया है। इस क्षेत्र का परिचय हमें महाभारत में श्रीकृष्ण के लोकहितार्थ और धर्मस्थापनार्थ किए गए कार्यों द्वारा तथा गीता के अंतर्गत उनकी वाणी द्वारा कराया गया है। सारांश यह कि व्यक्ति भी संकल्प करे तो उसकी चेतना भी कृष्ण सम विकसित हो सकती है। श्रीकृष्ण जिनका नाम है , गोकुल जिनका धाम है! ऐसे श्री भग्वान को बरम्बार प्रनाम है !!!!

ABHAY
19-04-2011, 02:54 PM
इन्द्र
इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म मे सभी देवताओं के राजा माने जाते हैं । वैदिक काल में इन्द्र सबसे ऊँचे देव थे, पर बाद में पौराणिक करानियों में उनका स्तर बहुत कम कर दिया गया ।

ऋग्वेद में इन्द्र: ॠग्वेद के प्राय: 250 सूक्तों में इन्द्र का वर्णन है तथा 50 सूक्त ऐसे हैं जिनमें दूसरे देवों के साथ इन्द्र का वर्णन है। इस प्रकार लगभग ऋग्वेद के चतुर्थांश में इन्द्र का वर्णन पाया जाता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन्द्र वैदिक युग का सर्वप्रिय देवता था। इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ अस्पष्ट है। अधिकांश विद्वानों की सम्मति में इन्द्र झंझावात का देवता है। जो बादलों में गर्जन एवं बिजली की चमक उत्पन्न करता है। किन्तु हिलब्रैण्ट के मत से इन्द्र सूर्य देवता है। वैदिक भारतीयों ने इन्द्र को एक प्रबल भौतिक शक्ति माना जो उनकी सैनिक विजय एवं साम्राज्यवादी विचारों का प्रतीक है। प्रकृति का कोई भी उपादान इतना शक्तिशाली नहीं जितना विद्युत-प्रहार। इन्द्र को अग्निदेव का जुड़वाँ भाई कहा गया है जिससे विद्युतीय अग्नि एवं यज्ञवेदीय अग्नि का सामीप्य प्रकट होता है।
परिचय: इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है।

* अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूँद जल नहीं बरसाते। इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है। ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रैण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है।
* हिलब्रैण्ट ने सूर्य रूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए कहा है: वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्ति केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है। वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्यवस्था हुई। इन्द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है।
* ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करने वाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है।
* ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी।

ABHAY
19-04-2011, 02:57 PM
इन्द्र की शक्तियां: इन्द्र के युद्ध कौशल के कारण आर्यों ने पृथ्वी के दानवों से युद्ध करने के लिए भी इन्द्र को सैनिक नेता मान लिया। इन्द्र के पराक्रम का वर्णन करने के लिए शब्दों की शक्ति अपर्याप्त है। वह शक्ति का स्वामी है, उसकी एक सौ शक्तियाँ हैं। चालीस या इससे भी अधिक उसके शक्तिसूचक नाम हैं तथा लगभग उतने ही युद्धों का विजेता उसे कहा गया है। वह अपने उन मित्रों एवं भक्तों को भी वैसी विजय एवं शक्ति देता है, जो उस को सोमरस अर्पण करते हैं।
इन्द्र और वरुण: नौ सूक्तों में इन्द्र एवं वरुण का संयुक्त वर्णन है। दोनों एकता धारण कर सोम का पान करते हैं, वृत्र पर विजय प्राप्त करते हैं, जल की नहरें खोदते हैं और सूर्य का आकाश में नियमित परिचालन करते हैं। युद्ध में सहायता, विजय प्रदान करना, धन एव उन्नति देना, दुष्टों के विरूद्ध अपना शक्तिशाली वज्र भेजना तथा रज्जुरहित बन्धन से बाँधना आदि कार्यों में दोनों में समानता है। किन्तु यह समानता उनके सृष्टि विषयक गुणों में क्यों न हो, उनमें मौलिक छ: अन्तर है:

1. वरुण राजा है. 2. असुरत्व का सर्वोत्कृष्ट सत्ताधारी है तथा उसकी आज्ञाओ का पालन देवगण करते हैं. 3. जबकि इन्द्र युद्ध का प्रेमी एवं वैर-धूलि को फैलाने वाला है। 4. इन्द्र वज्र से वृत्र का वध करता है, जबकि वरुण साधु (विनम्र) है और वह सन्धि की रक्षा करता है। 5. वरुण शान्ति का देवता है, जबकि इन्द्र युद्ध का देव है एवं मरूतों के साथ सम्मान की खोज में रहता है। 6. इन्द्र शत्रुतावश वृत्र का वध करता है, जब कि वरुण अपने व्रतों की रक्षा करता है।
पौराणिक मत: पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है। पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु और शिव का महत्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है। वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है, सुधर्मा उसकी राजसभा तथा सहस्त्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है। शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्र अथवा अशनि है। जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड़ जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्राय: तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता हुआ पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं। पौराणिक इन्द्र शक्तिमान, समृद्ध और विलासी राजा के रूप में चित्रित है।

ABHAY
19-04-2011, 03:01 PM
कथा: एक बार अनावृष्टि के कारण अकाल पड़ा। ऋषिगण जीवित थे, तथा तपस्यारत थे। उन्हें निश्चिंत देखकर इन्द्र वहां पर प्रकट हुए और उनसे पूछने लगे कि वे किस प्रकार जीवित है? ऋषिगण बोले-'मात्र वृष्टि ही मनुष्य के जीवन का साधन नहीं है। प्रकृति हर स्थिति और ऋतु के अनुकूल मनुष्य के जीवित रहने का प्रबंध कर देती है। उदाहरण के लिए मरूभूमि में भी कुछ न कुछ खाद्य उपलब्ध होता ही है तथापि अनावृष्टि कष्टकर अवश्य रहती है।' ऋषिगण पुन: तप रत हो गये।

प्रजापति की उक्ति थी कि पापरहित, जराशून्य, मृत्यु-शोक आदि विकारों से रहित आत्मा को जो कोई जान लेता है, वह संपूर्ण लोक तथा सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। प्रजापति की उक्ति सुनकर देवता तथा असुर दोनों ही उस आत्मा को जानने के लिए उत्सुक हो उठे, अत: देवताओं के राजा इन्द्र तथा असुरों के राजा विरोचन परस्पर ईर्ष्याभाव के साथ हाथों में समिधाएं लेकर प्रजापति के पास पहुंचे। दोनों ने बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन किया, तदुपरांत प्रजापति ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। उनकी जिज्ञासा जानकर प्रजापति ने उन्हें जल से आपूरित सकोरे में देखने के लिए कहा और कहा कि वही आत्मा है। दोनों सकोरों में अपना-अपना प्रतिबिंब देखकर, संतुष्ट होकर चल पड़े। प्रजापति ने सोचा कि देव हों या असुर, आत्मा का साक्षात्कार किये बिना उसका पराभव होगा। विरोचन संतुष्ट मन से असुरों के पास पहुंचे और उन्हें बताया कि आत्मा (देह) ही पूजनीय है। उसकी परिचर्या करके मनुष्य दोनों लोक प्राप्त कर लेता है।

देवताओं के पास पहुंचने से पूर्व ही इन्द्र ने सोचा कि सकोरे में आभूषण पहनकर सज्जित रूप दिखता है, खंडित देह का खंडित रूप, अंधे का अंधा रूप, फिर यह अजर-अमर आत्मा कैसे हुई? वे पुन: प्रजापति के पास पहुंचे। प्रजापति ने इन्द्र को पुन: बत्तीस वर्ष अपने पास रखा तदुपरांत बताया-'जो स्वप्न में पूजित होता हुआ विचरता है, वही आत्मा, अमृत, अभय तथा ब्रह्म हैं।' इन्द्र पुन: शंका लेकर प्रजापति की सेवा में प्रस्तुत हुए। इस प्रकार तीन बार बत्तीस-बत्तीस वर्ष तक तथा एक बार पांच वर्ष तक (कुल 101 वर्ष तक) इन्द्र को ब्रह्मचर्य रखकर प्रजापति ने उन्हें आत्मा के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान इन शब्दों में करवाया-

* यह आत्मा स्वरूप स्थित होने पर अविद्याकृत देह तथा इन्द्रियां मन से युक्त हैं। सर्वात्मभाव की प्राप्ति के उपरांत वह आकाश के समान विशुद्ध हो जाता है। आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य कर्तव्य-कर्म करता हुआ अपनी आयु की समाप्ति कर ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है और फिर नहीं लौटता।

ABHAY
19-04-2011, 03:03 PM
रामायण में इन्द्र: देवताओं का राजा इन्द्र कहलाता था। उसे मेषवृषण भी कहते हैं। राम-रावण युद्ध देखकर किन्नरों ने कहा कि यह युद्ध समान नहीं है क्योंकि रावण के पास तो रथ है और राम पैदल हैं। अत: इन्द्र ने अपना रथ राम के लिए भेजा, जिसमें इन्द्र का कवच, बड़ा धनुष, बाण तथा शक्ति भी थे। विनीत भाव से हाथ जोड़कर मातलि ने रामचंद्र से कहा कि वे रथादि वस्तुओं को ग्रहण करें। युद्ध-समाप्ति के बाद राम ने मातलि को आज्ञा दी कि वह इन्द्र का रथ आदि लौटाकर ले जाय. रामायण में ये वर्णित है की इन्द्र राम के पिता दशरथ के मित्र थे.

दुर्वासा ऋषि का श्राप: एक बार इन्द्र मदिरापान कर उन्मत्त हो गये। वे एकांत में रंभा के साथ क्रीड़ा कर रहे थे, तभी दुर्वासा मुनि अपने शिष्यों के साथ उनके यहां पहुंचे। इन्द्र ने अतिथिसत्कार किया। दुर्वासा ने आशीर्वाद के साथ एक पारिजात पुष्प इन्द्र को दिया। वह पुष्प विष्णु से उपलब्ध हुआ था। इन्द्र को ऐश्वर्य का इतना मद था कि उन्होंने वह पुष्प अपने हाथी के मस्तक पर रख दिया। पुष्प के प्रभाव से हाथी अलौकिक गरिमायुक्त होकर जंगल में चला गया। इन्द्र उसे संभालने में असमर्थ रहे। दुर्वासा ने उन्हें श्रीहीन होने का श्राप दिया। अमरावती भी अत्यंत भ्रष्ट हो चली। इन्द्र पहले बृहस्पति की और फिर ब्रह्मा की शरण में पहुंचे। समस्त देवता विष्णु के पास गये। उन्होंने लक्ष्मी को सागर-पुत्री होने की आज्ञा दी। अत: लक्ष्मी सागर में चली गयी। विष्णु ने लक्ष्मी के परित्याग की विभिन्न स्थितियों का वर्णन करके उन्हें सागर-मंथन करने का आदेश दिया। मंथन से जो अनेक रत्न निकले, उनमें लक्ष्मी भी थी। लक्ष्मी ने नारायण को वरमाला देकर प्रसन्न किया।

सहस्त्रार नामक राजा की पत्नी मानस सुंदरी जब गर्भवती हुई तो उदास रहने लगी। राजा के पूछने पर उसने बताया कि इन्द्र का वैभव देखने की उसकी उत्कट अभिलाषा थी। राजा ने उसे तुरंत इन्द्र की ऋद्धि के दर्शन कराये। फलस्वरूप उसकी कोख से जिस बालक ने जन्म लिया उसका नाम इन्द्र ही रखा गया। वानरेंद्र इन्द्र के वैभव के विषय में सुनकर लंका के अधिपति माली ने अपने छोटे भाई सुमाली के साथ इन्द्र पर आक्रमण किया। अनेक सैनिकों के साथ माली मारा गया। सुमाली ने भागकर पाताल लंकापूरी में प्रवेश किया। तदनंतर इन्द्र वास्तव में 'इन्द्रवत' हो गया।