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View Full Version : इस्मत चुगताई की कहानियाँ


MissK
07-05-2011, 09:26 PM
इस सूत्र में आप जानी मानी उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई की कहानियों से रूबरू होंगे. अभी फिलहाल में इन्टरनेट पर उपलब्ध उनकी कुछेक कहानियाँ प्रस्तुत करने वाली हूँ तत्पश्चात अपने पास मौजूद कलेक्शन में से भी कुछ चुनिन्दा कहानियां डालूंगी. आशा है आपलोग भी सहयोग करेंगे :)

MissK
07-05-2011, 09:31 PM
इस्मत चुगताई का परिचय...

इस्मत चुगताई उर्दू ही नहीं भारतीय साहित्य में भी एक चर्चित और सशक्त कहानीकार के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने आज से करीब 70 साल पहले महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अपनी रचनाओं में बेबाकी से उठाया और पुरुष प्रधान समाज में उन मुद्दों को चुटीले और संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम भी उठाया।

उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में 15 अगस्त 1911 को जन्मीं इस्मत का ज्यादातर वक्त जोधपुर में गुजरा। पढाई के दौरान ही उन्होंने चोरी-छुपे कहानियां लिखनी शुरू कीं। उनकी पहली लघु कथा फसादी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका साकी में प्रकाशित हुई थी। समाज विशेषकर आधी आबादी यानी महिलाओं के मुद्दों पर पैनी नजर रखने वाली इस्मत राशिद जहां, वाजेदा तबस्सुम और कुर्रतुलऐन हैदर जैसी प्रख्यात लेखिकाओं की समकालीन थीं।

आलोचकों के अनुसार इस्मत ने शहरी जीवन में महिलाओं के मुद्दे पर सरल, प्रभावी और मुहावरेदार भाषा में ठीक उसी प्रकार से लेखन कार्य किया है जिस प्रकार से प्रेमचंद ने देहात के पात्रों को बखूबी से उतारा है। इस्मत के अफसानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है।

MissK
07-05-2011, 09:33 PM
ऐसा नहीं कि इस्मत के अफसानों में सिर्फ महिला मुद्दे ही थे। उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। यही नहीं वह अफसानों में करारा व्यंग्य भी करती थीं जो उनकी कहानियों की रोचकता और सार्थकता को बढ़ा देता है।

उर्दू अदब में सआदत हसन मंटो, इस्मत, कृष्णचंदर और राजिन्दर सिंह बेदी को कहानी के चार स्तंभ माना जाता है। इनमें भी आलोचक मंटो और चुगताई को ऊँचे स्थानों पर रखते हैं क्योंकि इनकी लेखनी से निकलने वाली भाषा, पात्रों, मुद्दों और स्थितियों ने उर्दू साहित्य को काफी समृद्ध किया।

इस्मत के अनेक कथा संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें कलियां, छुई-मुई, एक बात और दो हाथ शामिल हैं। साथ ही उन्होंने टेढी लकीर, जिद्दी, एक कतरा-ए-खून, दिल की दुनिया, मासूमा और बहरूपनगर शीर्षक से उपन्यास भी लिखे। इस्मत ने वर्ष 1941 में शहीद लतीफ से शादी की। बाद में उनकी मदद से उन्होंने 12 फिल्मों की पटकथा लिखीं। उन्हें वर्ष 1975 में फिल्म गर्म हवा के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। उन्होंने वर्ष 1978 में श्याम बेनेगल की फिल्म जुनून के संवाद लिखे। अपनी कलम की धार से सामाजिक बंधनों पर वार करने वाली इस साहित्यकार का 24 अक्टूबर 1991 को मुम्बई में निधन हो गया।

MissK
07-05-2011, 09:47 PM
चौथी का जोड़ा:

सहदरी के चौके पर आज फिर साफ - सुथरी जाजम बिछी थी। टूटी - फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आडे - तिरछे कतले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। मोहल्ले टोले की औरतें खामोश और सहमी हुई - सी बैठी हुई थीं; जैसे कोई बडी वारदात होने वाली हो। मांओं ने बच्चे छाती से लगा लिये थे। कभी - कभी कोई मुनहन्नी - सा चरचरम बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता।
'' नांय - नायं मेरे लाल! '' दुबली - पतली मां से अपने घुटने पर लिटाकर यों हिलाती, जैसे धान - मिले चावल सूप में फटक रही हो और बच्चा हुंकारे भर कर खामोश हो जाता।
आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की मां के मुतफक्किर चेहरे को तक रही थीं। छोटे अर्ज की टूल के दो पाट तो जोड लिये गये, मगर अभी सफेद गजी क़ा निशान ब्योंतने की किसी की हिम्मत न पडती थी। कांट - छांट के मामले में कुबरा की मां का मरतबा बहुत ऊंचा था। उनके सूखे - सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज संवारे थे, कितने छठी - छूछक तैयार किये थे और कितने ही कफन ब्योंते थे। जहां कहीं मुहल्ले में कपडा कम पड ज़ाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठती, कुबरा की मां के पास केस लाया जाता। कुबरा की मां कपडे क़े कान निकालती, कलफ तोडतीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूंटा करतीं और दिल ही दिल में कैंची चलाकर आंखों से नाप - तोलकर मुस्कुरा उठतीं।
'' आस्तीन और घेर तो निकल आयेगा, गिरेबान के लिये कतरन मेरी बकची से ले लो।'' और मुश्किल आसान हो जाती। कपडा तराशकर वो कतरनों की पिण्डी बना कर पकडा देतीं।


पर आज तो गजी क़ा टुकडा बहुत ही छोटा था और सबको यकीन था कि आज तो कुबरा की मां की नाप - तोल हार जायेगी। तभी तो सब दम साधे उनका मुंह ताक रही थीं। कुबरा की मां के पुर - इसतकक़ाल चेहरे पर फिक्र की कोई शक्ल न थी। चार गज गज़ी के टुकडे क़ो वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टूल का अक्स उनके नीलगूं जर्द चेहरे पर शफक़ की तरह फूट रहा था। वो उदास - उदास गहरी झुर्रियां अंधेरी घटाओं की तरह एकदम उजागर हो गयीं, जैसे जंगल में आग भडक़ उठी हो! और उन्होंने मुस्कुराकर कैंची उठायी।
मुहल्लेवालों के जमघटे से एक लम्बी इत्मीनान की सांस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिये गये। चील - जैसी निगाहों वाली कुंवारियों ने लपाझप सुई के नाकों में डोरे पिरोए। नयी ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिये। कुबरा की मां की कैंची चल पडी थी।

MissK
07-05-2011, 09:52 PM
सहदरी के आखिरी कोने में पलंगडी पर हमीदा पैर लटकाये, हथेली पर ठोडी रखे दूर कुछ सोच रही थी।
दोपहर का खाना निपटाकर इसी तरह बी - अम्मां सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बकची खोलकर रंगबिरंगे कपडों का जाल बिखेर दिया करती है। कूंडी के पास बैठी बरतन मांजती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपडों को देखती तो एक सुर्ख छिपकली - सी उसके जर्दी मायल मटियाले रंग में लपक उठती। रूपहली कटोरियों के जाल जब पोले - पोले हाथों से खोल कर अपने जानुओं पर फैलाती तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा एक अजीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी सन्दूको - जैसी शिकनों पर कटोरियों का अक्स नन्हीं - नन्हीं मशालों की तरह जगमगाने लगता। हर टांके पर जरी का काम हिलता और मशालें कंपकंपा उठतीं।
याद नहीं कब इस शबनमी दुपट्टे के बने - टके तैयार हुए और गाजी क़े भारी कब्र - जैसे सन्दूक की तह में डूब गये। कटोरियों के जाल धुंधला गये। गंगा - जमनी किरने मान्द पड गयीं। तूली के लच्छे उदास हो गये। मगर कुबरा की बारात न आयी। जब एक जोडा पुराना हुआ जाता तो उसे चाले का जोडा कहकर सेंत दिया जाता और फिर एक नये जोडे क़े साथ नयी उम्मीदों का इफतताह ( शुरुआत) हो जाता। बडी छानबीन के बाद नयी दुल्हन छांटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ - सुथरी जाजम बिछती। मुहल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बगलों में बच्चे दबाये झांझे बजाती आन पहुंचतीं।
'' छोटे कपडे क़ी गोट तो उतर आयेगी, पर बच्चों का कपडा न निकलेगा।''
'' लो बुआ लो, और सुनो। क्या निगोडी भारी टूल की चूलें पडेंग़ी?'' और फिर सबके चेहरे फिक्रमन्द हो जाते। कुबरा की मां खामोश कीमियागर की तरह आंखों के फीते से तूलो - अर्ज नापतीं और बीवियां आपस में छोटे कपडे क़े मुताल्लिक खुसर - पुसर करके कहकहे लगातीं। ऐसे में कोई मनचली कोई सुहाग या बन्ना छेड देती, कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियां सुनाने लगती, बेहूदा गन्दे मजाक और चुहलें शुरु हो जातीं। ऐसे मौके पर कुंवारी - बालियों को सहदरी से दूर सिर ढांक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया कहकहा सहदरी से उभरता तो बेचारियां एक ठण्डी सांस भर कर रह जातीं। अल्लाह! ये कहकहे उन्हें खुद कब नसीब होंगे। इस चहल - पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाये बैठी रहती है। इतने में कतर - ब्योंत निहायत नाजुक़ मरहले पर पहुंच जाती। कोई कली उलटी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाजे क़ी आड से झांकती।

MissK
07-05-2011, 10:00 PM
यही तो मुश्किल थी, कोई जोडा अल्लाह - मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाय तो जान लो, नाइन की लगाई हुई बात में जरूर कोई अडंग़ा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्त: ( रखैल) निकल आयेगी या उसकी मां ठोस कडों का अडंगा बांधेगी। जो गोट में कान आ जाय तो समझ लो महर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगडा होगा। चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है। बी - अम्मां की सारी मश्शाकी और सुघडापा धरा रह जाता। न जाने ऐन वक्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड ज़ाती। बिसमिल्लाह के जोर से सुघड मां ने जहेज ज़ोडना शुरु किया था। जरा सी कतर भी बची तो तेलदानी या शीशी का गिलाफ सीकर धनुक - गोकरू से संवार कर रख देती। लडक़ी का क्या है, खीरे - ककडी सी बढती है। जो बारात आ गयी तो यही सलीका काम आयेगा।
और जब से अब्बा गुजरे, सलीके क़ा भी दम फूल गया। हमीदा को एकदम अपने अब्बा याद आ गये। अब्बा कितने दुबले - पतले, लम्बे जैसे मुहर्रम का अलम! एक बार झुक जाते तो सीधे खडे होना दुश्वार था। सुबह ही सुबह उठ कर नीम की मिस्वाक ( दातुन) तोड लेते और हमीदा को घुटनों पर बिठा कर जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते - सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूंसडा हलक में चला जाता और वे खांसते ही चले जाते। हमीदा बिगड क़र उनकी गोद से उतर जाती। खांसी के धक्कों से यूं हिल - हिल जाना उसे कतई पसन्द नहीं था। उसके नन्हें - से गुस्से पर वे और हंसते और खांसी सीने में बेतरह उलझती, जैसे गरदन - कटे कबूतर फडफ़डा रहे हों। फिर बी - अम्मां आकर उन्हें सहारा देतीं। पीठ पर धपधप हाथ मारतीं।
'' तौबा है, ऐसी भी क्या हंसी।''
अच्छू के दबाव से सुर्ख आंखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कराते। खांसी तो रुक जाती मगर देर तक हांफा करते।
'' कुछ दवा - दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे।''
'' बडे शफाखाने का डॉक्टर कहता है, सूइयां लगवाओ और रोज तीन पाव दूध और आधी छटांक मक्खन।''
'' ए खाक पडे ऌन डाक्टरों की सूरत पर! भल एक तो खांसी, ऊपर से चिकनाई! बलगम न पैदा कर देगी? हकीम को दिखाओ किसी।''
'' दिखाऊंगा।'' अब्बा हुक्का गुडग़ुडाते और फिर अच्छू लगता।
'' आग लगे इस मुए हुक्के को! इसी ने तो ये खांसी लगायी है। जवान बेटी की तरफ भी देखते हो आंख उठा कर?

MissK
07-05-2011, 10:09 PM
और अब अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ रहम - तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था जवान थी? वो तो जैसे बिस्मिल्लाह ( विद्यारम्भ की रस्म) के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुन कर ठिठक कर रह गयी थी। न जाने कैसी जवानी आयी थी कि न तो उसकी आंखों में किरनें नाचीं न उसके रुखसारों पर जुल्फ़ें परेशान हुईं, न उसके सीने पर तूफान उठे और न कभी उसने सावन - भादों की घटाओं से मचल - मचल कर प्रीतम या साजन मांगे। वो झुकी - झुकी, सहमी - सहमी जवानी जो न जाने कब दबे पांव उस पर रेंग आयी, वैसे ही चुपचाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कडवा हो गया।
अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुंह गिरे और उन्हें उठाने के लिये किसी हकीम या डाक्टर का नुस्खा न आ सका।
और हमीदा ने मीठी रोटी के लिये जिद करनी छोड दी।
और कुबरा के पैगाम न जाने किधर रास्ता भूल गये। जानो किसी को मालूम ही नहीं कि इस टाट के परदे के पीछे किसी की जवानी आखिरी सिसकियां ले रही है और एक नयी जवानी सांप के फन की तरह उठ रही है।
मगर बी - अम्मां का दस्तूर न टूटा। वो इसी तरह रोज - रोज दोपहर को सहदरी में रंग - बिरंगे कपडे फ़ैला कर गुडियों का खेल खेला करती हैं।
कहीं न कहीं से जोड ज़मा करके शरबत के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढे सात रुपए में खरीद ही डाला। बात ही ऐसी थी कि बगैर खरीदे गुज़ारा न था। मंझले मामू का तार आया कि उनका बडा लडक़ा राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है। बी - अम्मां को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड ग़या। जानो चौखट पर बारात आन खडी हुई और उन्होंने अभी दुल्हन की मांग अफशां भी नहीं कतरी। हौल से तो उनके छक्के छूट गये। झट अपनी मुंहबोली बहन, बिन्दु की मां को बुला भेजा कि बहन, मेरा मरी का मुंह देखो जो इस घडी न
आओ।
और फिर दोनों में खुसर - पुसर हुई। बीच में एक नजर दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं, जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इस कानाफूसी की जबान को अच्छी तरह समझती थी।

MissK
07-05-2011, 10:12 PM
उसी वक्त बी - अम्मां ने कानों से चार माशा की लौंगें उतार कर मुंहबोली बहन के हवाले कीं कि जैसे - तैसे करके शाम तक तोला भर गोकरू, छ: माशा सलमा - सितारा और पाव गज नेफे के लिये टूल ला दें। बाहर की तरफ वाला कमरा झाड - पौंछ कर तैयार किया गया। थोडा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला। कमरा तो चिट्टा हो गया, मगर उसकी हथेलियों की खाल उड ग़यी। और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गयी। सारी रात करवटें बदलते गुजरी। एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाडी से राहत आ रहे थे।
'' अल्लह! मेरे अल्लाह मियां, अबके तो मेरी आपा का नसीब खुल जाये। मेरे अल्लाह, मैं सौ रकात नफिल ( एक प्रकार की नमाज) तेरी दरगाह में पढूंग़ी।'' हमीदा ने फजिर की नमाज पढक़र दुआ मांगी।
सुबह जब राहत भाई आये तो कुबरा पहले से ही मच्छरोंवाली कोठरी में जा छुपी थी। जब सेवइयों और पराठों का नाश्ता करके बैठक में चले गये तो धीरे - धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती हुई कुबरा कोठरी से निकली और जूठे बर्तन उठा लिये।
'' लाओ मैं धो दूं बी आपा।'' हमीदा ने शरारत से कहा।
'' नहीं।'' वो शर्म से झुक गयीं।
हमीदा छेडती रही, बी - अम्मां मुस्कुराती रहीं और क्रेप के दुपट्टे में लप्पा टांकती रहीं।
जिस रास्ते कान की लौंग गयी थी, उसी रास्ते फूल, पत्ता और चांदी की पाजेब भी चल दी थीं। और फिर हाथों की दो - दो चूडियां भी, जो मंझले मामू ने रंडापा उतारने पर दी थीं। रूखी - सूखी खुद खाकर आये दिन राहत के लिये परांठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते। खुद सूखा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे खिलातीं।

MissK
07-05-2011, 10:51 PM
'' जमाना बडा खराब है बेटी! '' वो हमीदा को मुंह फुलाये देखकर कहा करतीं और वो सोचा करती - हम भूखे रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी - आपा सुबह - सवेरे उठकर मशीन की तरह जुट जाती हैं। निहार मुंह पानी का घूंट पीकर राहत के लिये परांठे तलती हैं। दूध औटाती हैं, ताकि मोटी सी बालाई पडे। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन परांठों में भर दे। और क्यों न भरे, आखिर को वह एक दिन उसीका हो जायेगा। जो कुछ कमायेगा, उसीकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौधे को कौन नहीं सींचता?
फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फूलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ताना देने वालियों के मुंह पर कैसा जूता पडेग़ा! और उस खयाल ही से बी - आपा के चेहरे पर सुहाग खेल उठता। कानों में शहनाइयां बजने लगतीं और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाडतीं। उसके कपडों को प्यार से तह करतीं, जैसे वे उनसे कुछ कहते हों। वो उनके बदबूदार, चूहों जैसे सडे हुए मोजे धोतीं, बिसान्दी बनियान और नाक से लिपटे हुए रुमाल साफ करतीं। उसके तेल में चिपचिपाते हुए तकिये के गिलाफ पर स्वीट ड्रीम्स काढतीं। पर मामला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुबह अण्डे - परांठे डट कर जाता और शाम को आकर कोफ्ते खाकर सो जाता। और बी - अम्मां की मुंहबोली बहन हाकिमाना अन्दाज में खुसर - पुसर करतीं।
'' बडा शर्मीला है बेचारा! '' बी - अम्मां तौलिये पेश करतीं।
'' हां ये तो ठीक है, पर भई कुछ तो पता चले रंग - ढंग से, कुछ आंखों से।''
'' अए नउज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आंखें लडाए, उसका आंचल भी नहीं देखा है किसी ने।'' बी - अम्मां फख्र से कहतीं।
'' ए, तो परदा तुडवाने को कौन कहे है!'' बी - आपा के पके मुंहासों को देखकर उन्हें बी - अम्मां की दूरंदेशी की दाद देनी पडती।
'' ऐ बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो। ये मैं कब कहूं हूं? ये छोटी निगोडी क़ौन सी बकरीद को काम आयेगी? '' वो मेरी तरफ देख कर हंसतीं '' अरी ओ नकचढी! बहनों से कोई बातचीत, कोई हंसी - मजाक! उंह अरे चल दिवानी!''
'' ऐ, तो मैं क्या करूं खाला?''
'' राहत मियां से बातचीत क्यों नहीं करती?''
'' भइया हमें तो शर्म आती है।''
'' ए है, वो तुझे फाड ही तो खायेगा न?'' बी अम्मां चिढा कर बोलतीं।
'' नहीं तो मगर'' मैं लाजवाब हो गयी।
और फिर मिसकौट हुई। बडी सोच - विचार के बाद खली के कबाब बनाये गये। आज बी - आपा भी कई बार मुस्कुरा पडीं। चुपके से बोलीं, '' देख हंसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड ज़ायेगा।''
'' नहीं हंसूंगी।'' मैं ने वादा किया।

MissK
07-05-2011, 11:11 PM
'' खाना खा लीजिये।'' मैं ने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा। फिर जो पाटी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक्त मेरी तरफ सिर से पांव तक देखा तो मैं भागी वहां से। अल्लाह, तोबा! क्या खूनी आंखें हैं!
'' जा निगोडी, मरी, अरी देख तो सही, वो कैसा मुंह बनाते हैं। ए है, सारा मजा किरकिरा हो जायेगा।''
आपा - बी ने एक बार मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में इल्तिजा थी, लुटी हुई बारातों का गुबार था और चौथी के पुराने जोडों की मन्द उदासी। मैं सिर झुकाए फिर खम्भे से लग कर खडी हो गयी।
राहत खामोश खाते रहे। मेरी तरफ न देखा। खली के कबाब खाते देख कर मुझे चाहिये था कि मजाक उडाऊं, कहकहे लगाऊं कि वाह जी वाह, दूल्हा भाई, खली के कबाब खा रहे हो!'' मगर जानो किसी ने मेरा नरखरा दबोच लिया हो।
बी - अम्मां ने मुझे जल्कर वापस बुला लिया और मुंह ही मुंह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती, कि वो मजे से खा रहा है कमबख्त!
'' राहत भाई! कोफ्ते पसन्द आये? बी - अम्मां के सिखाने पर मैं ने पूछा।
जवाब नदारद।
'' बताइये न?''
'' अरी ठीक से जाकर पूछ! '' बी - अम्मां ने टहोका दिया।
'' आपने लाकर दिये और हमने खाये। मजेदार ही होंगे।''
'' अरे वाह रे जंगली! '' बी - अम्मां से न रहा गया।
'' तुम्हें पता भी न चला, क्या मजे से खली के कबाब खा गये!''
'' खली के? अरे तो रोज क़ाहे के होते हैं? मैं तो आदी हो चला हूं खली और भूसा खाने का।''
बी - अम्मां का मुंह उतर गया। बी - अम्मां की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज बी - आपा ने रोजाना से दुगुनी सिलाई की और फिर जब शाम को मैं खाना लेकर गयी तो बोले -
'' कहिये आज क्या लायी हैं? आज तो लकडी क़े बुरादे की बारी है।''
'' क्या हमारे यहां का खाना आपको पसन्द नहीं आता? '' मैं ने जलकर कहा।
'' ये बात नहीं, कुछ अजीब - सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी।''
मेरे तन बदन में आग लग गयी। हम सूखी रोटी खाकर इसे हाथी की खुराक दें। घी टपकतप परांठे ठुसाएं। मेरी बी - आपा को जुशांदा नसीब नहीं और इसे दूध मलाई निगलवाएं। मैं भन्ना कर चली आयी।

MissK
07-05-2011, 11:14 PM
बी - अम्मां की मुंहबोली बहन का नुस्खा काम आ गया और राहत ने दिन का ज्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरु कर दिया। बी - आपा तो चूल्हे में जुकी रहतीं, बी - अम्मां चौथी के जोडे सिया करतीं और राहत की गलीज आँखों के तीर मेरे दिल में चुभा करते। बात - बेबात छेडना, खाना खिलाते वक्त कभी पानी तो कभीनमक के बहाने। और साथ - साथ जुमलेबाजी! मैं खिसिया कर बी आपा के पास जा बैठती। जी चाहता, किसी दिन साफ कह दूं कि किसकी बकरी और कौन डाले दाना - घास! ऐ बी, मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जायेगा। मगर बी - आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उडती हुई राख नहीं मेरा कलेजा धक् से हो गया। मैं ने उनके सफेद बाल लट के नीचे छुपा दिये। नास जाये इस कमबख्त नजले का, बेचारी के बाल पकने शुरु हो गये।
राहत ने फिर किसी बहाने मुझे पुकारा।
''उंह!'' मैं जल गयी। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्गी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पडा।
'' आप हमसे खफा हो गयीं?'' राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटककर।
'' क्या कह रहे थे? '' बी - आपा ने शर्मो हया से घुटी आवाज में कहा। मैं चुपचाप उनका मुंह ताकने लगी।
'' कह रहे थे, किसने पकाया है खाना? वाह - वाह, जी चाहता है खाता ही चला जाऊं। पकानेवाली के हाथ खा जाऊं। ओह नहीं खा नहीं जाऊं, बल्कि चूम लूं।'' मैं ने जल्दी - जल्दी कहना शुरु किया और बी - आपा का खुरदरा, हल्दी - धनिया की बसांद में सडा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया। मेरे आंसू निकल आये। ये हाथ! मैं ने सोचा, जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ करते हैं! ये बेकस गुलाम की तरह सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं। इनकी बेगार कब खत्म होगी? क्या इनका कोई खरीदार न आयेगा? क्या इन्हें कभी प्यार से न चूमेगा?
क्या इनमें कभी मेंहदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इतर न बसेगा? जी चाहा, जोर से चीख पडूं।

MissK
07-05-2011, 11:16 PM
'' और क्या कह रहे थे? '' बी - आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे पर आवाज इतनी रसीली और मीठी थी कि राहत के अगर कान होते तो मगर राहत के न कान थे न नाक, बस दोजख़ ज़ैसा पेट था!
'' और कह रहे थे, अपनी बी - आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशान्दा पिया करें।''
'' चल झूठी!''
'' अरे वाह, झूठे होंगे आपके वो''
'' अरे, चुप मुरदार!'' उन्होंने मेरा मुंह बन्द कर दिया।
'' देख तो स्वेटर बुन गया है, उन्हें दे आ। पर देख, तुझे मेरी कसम, मेरा नाम न लीजो।''
'' नहीं बी - आपा! उन्हें न दो वो स्वेटर। तुम्हारी इन मुट्ठी भर हड्डियों को स्वेटर की कितनी जरूरत है? मैं ने कहना चाहा पर न कह सकी।
'' आपा - बी, तुम खुद क्या पहनोगी?''
'' अरे, मुझे क्या जरूरत है, चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलसन रहती है।''
स्वेटर देख कर राहत ने अपनी एक आई - ब्रो शरारत से ऊपर तान कर कहा - '' क्या ये स्वेटर आपने बुना है?''
'' नहीं तो।''
'' तो भई हम नहीं पहनेंगे।''
मेरा जी चाहा कि उसका मुंह नोच लूं। कमीने मिट्टी के लोंदे! ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते - जागते गुलाम हैं। इसके एक - एक फन्दे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गरदनें फंसी हुई हैं। ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पगोडे झुलाने के लिये बनाये गये हैं। उनको थाम लो गधे कहीं के और ये जो दो पतवार बडे से बडे तूफान के थपेडों से तुम्हारी जिन्दगी की नाव को बचाकर पार लगा देंगे। ये सितार की गत न बजा सकेंगे। मणिपुरी और भरतनाटयम की मुद्रा न दिखा सकेंगे, इन्हें प्यानो पर रक्स करना नहीं सिखाया गया, इन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ, मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चरबी चढाने के लिये सुबह शाम सिलाई करते हैं, साबुन और सोडे में डुबकियां लगाते हैं, चूल्हे की आंच सहते हैं। तुम्हारी गलाजतें धोते हैं। इनमें चूडियां नहीं खनकती हैं। इन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा।

MissK
07-05-2011, 11:20 PM
मगर मैं चुप रही। बी - अम्मां कहती हैं, मेरा दिमाग तो मेरी नयी - नयी सहेलियों ने खराब कर दिया है। वो मुझे कैसी नयी - नयी बातें बताया करती हैं। कैसी डरावनी मौत की बातें, भूख की और काल की बातें। धडक़ते हुए दिल के एकदम चुप हो जाने की बातें।
'' ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिये। देखिये न आपका कुरता कितना बारीक है!''
जंगली बिल्ली की तरह मैं ने उसका मुंह, नाक, गिरेबान नोच डाले और अपनी पलंगडी पर जा गिरी। बी - आपा ने आखिरी रोटी डालकर जल्दी - जल्दी तसले में हाथ धोए और आंचल से पांछती मेरे पास आ बैठीं।
'' वो बोले? '' उनसे न रहा गया तो धडक़ते हुए दिल से पूछा।
'' बी - आपा, ये राहत भाई बडे ख़राब आदमी हैं।'' मैं ने सोचा मैं आज सब कुछ बता दूंगी।
'' क्यों?'' वो मुस्कुरायी।
'' मुझे अच्छे नहीं लगते देखिये मेरी सारी चूडियां चूर हो गयीं! '' मैं ने कांपते हुए कहा।
'' बडे शरीर हैं!'' उन्होंने रोमान्टिक आवाज में सरमा कर कहा।
'' '' बी - आपा सुनो बी - आपा! ये राहत अच्छे आदमी नहीं '' मैं ने सुलग कर कहा।
'' आज मैं बी-अम्मां से कह दूंगी।''
'' क्या हुआ? ''बी-अम्मां ने जानमाज बिछाते हुए कहा।
''देखिये मेरी चूडियां बी - अम्मां! ''
'' राहत ने तोड ड़ालीं?'' बी - अम्मां मसर्रत से चहक कर बोलीं।
'' हां!''
'' खूब किया! तू उसे सताती भी तो बहुत है।ए है, तो दम काहे को निकल गया! बडी मोम की नमी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गयीं!'' फिर चुमकार कर बोलीं, '' खैर, तू भी चौथी में बदला ले लीजियो, कसर निकाल लियो कि याद ही करें मियां जी!'' ये कह कर उन्होंने नियत बांध ली। मुंहबोली बहन से फिर कॉनफ्रेन्स हुयी और मामले को उम्मीद - अफ्ज़ा रास्ते पर गामजन देखकर अज़हद खुशनूदी से मुस्कुराया गया।

MissK
07-05-2011, 11:24 PM
'' ऐ है, तू तो बडी ही ठस है। ऐ हम तो अपने बहनोइयों का खुदा की कसम नाक में दम कर दिया करते थे।'' और वो मुझे बहनोइयों से छेड छाड क़े हथकण्डे बताने लगीं कि किस तरह सिर्फ छेडछाड क़े तीरन्दाज नुस्खे से उन दो ममेरी बहनों की शादी करायी, जिनकी नाव पार लगने के सारे मौके हाथ से निकल चुके थे। एक तो उनमें से हकीम जी थे।जहां बेचारे को लडक़ियां - बालियां छेडतीं, शरमाने लगते और शरमाते - शरमाते एख्तेलाज क़े दौरे पडने लगते। और एक दिन मामू साहब से कह दिया कि मुझे गुलामी में ले लीजिये। दूसरे वायसराय के दफ्तर में क्लर्क थे। जहां सुना कि बाहर आये हैं, लडक़ियां छेडना शुरु कर देती थीं। कभी गिलौरियों में मिर्चें भरकर भेज दें, कभी सेवंईंयों में नमक डालकर खिला दिया।
'' ए लो, वो तो रोज आने लगे। आंधी आये, पानी आये, क्या मजाल जो वो न आयें। आखिर एक दिन कहलवा ही दिया। अपने एक जान - पहचान वाले से कहा कि उनके यहां शादी करा दो। पूछा कि भई किससे? तो कहा, '' किसी से भी करा दो।'' और खुदा झूठ न बुलवाये तो बडी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बैंचा चला आता है। छोटी तो बस सुब्हान अल्लाह! एक आंख पूरब तो दूसरी पच्छम। पन्द्रह तोले सोना दिया बाप ने और साहब के दफ्तर में नौकरी अलग दिलवायी।''
'' हां भई, जिसके पास पन्द्रह तोले सोना हो और बडे साहब के दफ्तर की नौकरी, उसे लडक़ा मिलते देर लगती है?'' बी - अम्मां ने ठण्डी सांस भरकर कहा।
'' ये बात नहीं है बहन। आजकल लडक़ों का दिल बस थाली का बैंगन होता है। जिधर झुका दो, उधर ही लुढक़ जायेगा।''
मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा - खासा पहाड है। झुकाव देने पर कहीं मैं ही न फंस जाऊं, मैं ने सोचा। फिर मैं ने आपा की तरफ देखा। वो खामोश दहलीज पर बैठी, आटा गूंथ रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं। उनका बस चलता तो जमीन की छाती फाडक़र अपने कुंवारेपन की लानत समेत इसमें समा जातीं।
क्या मेरी आपा मर्द की भूखी हैं? नहीं, भूख के अहसास से वो पहले ही सहम चुकी हैं। मर्द का तसव्वुर इनके मन में एक उमंग बन कर नहीं उभरा, बल्कि रोटी - कपडे क़ा सवाल बन कर उभरा है। वो एक बेवा की छाती का बोझ हैं। इस बोझ को ढकेलना ही होगा।

MissK
07-05-2011, 11:28 PM
मगर इशारों - कनायों के बावज़ूद भी राहत मियां न तो खुद मुंह से फूटे और न उनके घर से पैगाम आया। थक हार कर बी - अम्मां ने पैरों के तोडे ग़िरवी रख कर पीर मुश्किलकुशा की नियाज दिला डाली। दोपहर भर मुहल्ले - टोले की लडक़ियां सहन में ऊधम मचाती रहीं। बी - आपा शरमाती लजाती मच्छरों वाली कोठरी में अपने खून की आखिरी बूंदें चुसाने को जा बैठीं। बी - अम्मां कमजोरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोडे में आखिरी टांके लगाती रहीं। आज उनके चेहरे पर मंजिलों के निशान थे। आज मुश्किलकुशाई होगी। बस आंखों की सुईयां रह गयी हैं, वो भी निकल जायेंगी। आज उनकी झुर्रियों में फिर मुश्किल थरथरा रही थी। बी - आपा की सहेलियां उनको छेड रही थीं और वो खून की बची - खुची बूंदों को ताव में ला रही थीं। आज कई रोज से उनका बुखार नहीं उतरा था। थके हारे दिये की तरह उनका चेहरा एक बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता। इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। अपना आंचल हटा कर नियाज क़े मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी।
'' इस पर मौलवी साहब ने दम किया है।'' उनकी बुखार से दहकती हुई गरम - गरम सांसें मेरे कान में लगीं।
तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी - मौलवी साहब ने दम किया है। ये मुकद्दस मलीदा अब राहत के पेट में झौंका जायेगा। वो तन्दूर जो छ: महीनों से हमारे खून के छींटों से गरम रखा गया; ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लायेगा। मेरे कानों में शादियाने बजने लगे। मैं भागी - भागी कोठे से बारात देखने जा रही हूं। दूल्हे के मुंह पर लम्बा सा सेहरा पडा है, जो घोडे क़ी अयालों को चूम रहा है।
चौथी का शहानी जोडा पहने, फूलों से लदी, शर्म से निढाल, आहिस्ता - आहिस्ता कदम तोलती हुई बी - आपा चली आ रही हैं चौथी का जरतार जोडा झिलमिल कर रहा है। बी - अम्मां का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है बी - आपा की हया से बोझिल निगाहें एक बार ऊपर उठती हैं। शुकराने का एक आंसू ढलक कर अफ्शां के जर्रों में कुमकुमे की तरह उलझ जाता है।
'' ये सब तेरी मेहनत का फल है।'' बी - आपा कह रही हैं।

MissK
07-05-2011, 11:32 PM
हमीदा का गला भर आया
'' जाओ न मेरी बहनो!'' बी - आपा ने उसे जगा दिया और चौंक कर ओढनी के आंचल से आंसू पौंछती डयोढी क़ी तरफ बढी।
'' ये मलीदा,'' उसने उछलते हुए दिल को काबू में रखते हुए कहा उसके पैर लरज रहे थे, जैसे वो सांप की बांबी में घुस आयी हो। फिर पहाड ख़िसकाऔर मुंह खोल दिया। वो एक कदम पीछे हट गयी। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख लगाई, जैसे कोई दिन का गला घोंट रहा हो। कांपते हाथों से मुकद्दस मलीदे का निवाला बना कर सने राहत के मुंह की तरफ बढा दिया।
एक झटके से उसका हाथ पहाड क़ी खोह में डूबता चला गया नीचे तअफ्फ़ुन और तारीकी से अथाह ग़ार की गहराइयों मेंएक बडी सी चट्टान ने उसकी चीख को घोंटा। नियाज मलीदे की रकाबी हाथ से छूटकर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने जमीन पर गिर कर दो चार सिसकियां भरीं और गुल हो गयी। बाहर आंगन में मुहल्ले की बहू - बेटियां मुश्किलकुशा ( हजरत अली) की शान में गीत गा रही थीं।
सुबह की गाडी से राहत मेहमाननवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ चला गया। उसकी शादी की तारीख तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी।उसके बाद इस घर में कभी अण्डे तले न गये, परांठे न सिकें और स्वेटर न बुने। दिक ज़ो एक अरसे से बी - आपा की ताक में भागी पीछे - पीछे आ रही थी, एक ही जस्त में उन्हें दबोच बैठी। और उन्होंने अपना नामुराद वजूद चुपचाप उसकी आगोश में सौंप दिया।
और फिर उसी सहदरी में साफ - सुथरी जाजम बिछाई गई। मुहल्ले की बहू - बेटियां जुडीं। क़फन का सफेद - सफेद लट्ठा मौत के आंचल की तरह बी - अम्मां के सामने फैल गया। तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज रहा था। बायीं आई - ब्रो फडक़ रही थी। गालों की सुनसान झुर्रियां भांय - भांय कर रही थीं, जैसे उनमें लाखों अजदहे फुंकार रहे हों।
लट्ठे के कान निकाल कर उन्होंने चौपरत किया और उनके फिल में अनगिनत कैंचियां चल गयीं। आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा - भरा इत्मीनान था, जैसे उन्हें पक्का यकीन हो कि दूसरे जोडों की
तरह चौथी का यह जोडा न सेंता जाये।
एकदम सहदरी में बैठी लडक़ियां बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं। हमीदा मांजी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली। लाल टूल पर सफेद गज़ी का निशान! इसकी सुर्खी में न जाने कितनी मासूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफेदी में कितनी नामुराद कुंवारियों के कफन की सफेदी डूब कर उभरी है। और फिर सब एकदम खामोश हो गये। बी - अम्मां ने आखिरी टांका भरके डोरा तोड लिया। दो मोटे - मोटे आंसू उनके रूई जैसे नरम गालों पर धीरे धीरे रैंगने लगे। उनके चेहरे की शिकनों में से रोशनी की किरनें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं, जैसे आज उन्हें इत्मीनान हो गया कि उनकी कुबरा का सुआ जोडा बनकर तैयार हो गया हो और कोए ए अदम में शहनाइयां बज उठेंगी।


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amit_tiwari
08-05-2011, 12:19 AM
Bravo Bravo!!! One more useful and unique thread of Forum of the month Miss Kamya :bravo::bravo:

MissK
08-05-2011, 01:22 AM
Bravo Bravo!!! One more useful and unique thread of Forum of the month Miss Kamya :bravo::bravo:

Haha, thank you for awarding me with this title Amit ji. I didn't know that I own a forum on my name :p

Bond007
08-05-2011, 01:28 AM
Bravo Bravo!!! One more useful and unique thread of Forum of the month Miss Kamya :bravo::bravo:

Haha, thank you for awarding me with this title Amit ji. I didn't know that I own a forum on my name :p
:laughing: :lol: :rolling:

:explosive: लगता है ज्यादा टल्ली.......................... :drunk:

@MissK
Nice & useful thread.

MissK
08-05-2011, 01:35 AM
Thank you Bond ji for taking out some time to go through my thread. :)

ndhebar
08-05-2011, 11:41 AM
"इस्मत चुगताई" ये नाम दिमाग में बज रहा था किसी नगाड़े की तरह
जब आपका सूत्र शुरू से पढ़ा फिर समझ में आया की इन्होने ही "गर्म हवा" की कहानी लिखी थी
बहुत ही खुबसूरत कहानी थी और फिल्म उससे भी खुबसूरत
इनकी और कहानियां डालिए

amit_tiwari
08-05-2011, 08:29 PM
Haha, thank you for awarding me with this title Amit ji. I didn't know that I own a forum on my name :p

Sorry i typed wrong word, i meant to say 'User of the Month'

MissK
08-05-2011, 11:22 PM
"इस्मत चुगताई" ये नाम दिमाग में बज रहा था किसी नगाड़े की तरह
जब आपका सूत्र शुरू से पढ़ा फिर समझ में आया की इन्होने ही "गर्म हवा" की कहानी लिखी थी
बहुत ही खुबसूरत कहानी थी और फिल्म उससे भी खुबसूरत
इनकी और कहानियां डालिए

अवश्य उनकी और कहानियां डालूंगी इस सूत्र में.. वैसे मुझे भी ये बात हाल में ही पता चली कि यह फिल्म उनकी कहानी पर बनी थी. वैसे शायद आप उन्हें उनकी एक विवादस्पद कहानी "लिहाफ" से भी जानते होंगे. समलिंगी रिश्तों पर आधारित यह कहानी कुछ बोल्ड मानी जाती है..यदि फोरम प्रबंधन की इज़ाज़त मिलेगी तो वह कहानी भी पोस्ट करना चाहूंगी.

MissK
08-05-2011, 11:25 PM
Sorry i typed wrong word, i meant to say 'User of the Month'

It's alright!:cheers: I was only joking. Thanks for your response on the thread, it's really encouraging :)

MissK
08-05-2011, 11:29 PM
इस्मत चुगताई की अगली कहानी...

MissK
08-05-2011, 11:57 PM
जड़ें (http://www.hindikunj.com/2010/03/ismat-chughtai_19.html)

सबके चेहरे उड़े हुए थे। घर में खाना तक न पका था। आज छठा दिन था। बच्चे स्कूल छोड़े, घर में बैठे, अपनी और सारे परिवार की जिंदगी बवाल किये दे रहे थे. वही मार पिटाई, धौल धप्पा वही उधम, जैसे कि आया ही न हो. कमबख्तों को यह भी ध्यान नहीं कि अँग्रेज चले गये और जाते जाते ऐसा गहरा घाव मार गये जो वर्षों रिसता रहेगा. भारत पर अत्याचार कुछ ऐसे क्रूर हाथों और शस्त्रों से हुआ है कि हजारों धमनियाँ कट गयीं हैं, खून की नदियाँ बह रहीं हैं. किसी में इतनी शक्ति नहीं कि टाँका लगा सके.
कुछ दिनों से शहर का वातावरण ऐसा गन्दा हो रहा था कि शहर के सारे मुसलमान एकतरह से नंजरबन्द बैठे थे। घरों में ताले पड़े थे और बाहर पुलिस का पहरा था। और इस तरह कलेजे के टुकड़ों को, सीने पर मूँग दलने के लिए छोड़ दिया गया था।

MissK
09-05-2011, 12:27 AM
वैसे सिविल लाइंस में अमन ही था, जैसा कि होता है। ये तोगन्दगी वहीं अधिक उछलती है, जहाँ ये बच्चे होते हैं। जहाँ गरीबी होती है वहीं अज्ञानता के घोड़े पर धर्म के ढेर बजबजाते हैं। और ये ढेर कुरेदे जा चुके हैं। ऊपर से पंजाब से आनेवालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी जिससे अल्पसंख्यकों के दिलों में ख़ौफ बढ़ता ही जा रहा था। गन्दगी के ढेर तेजी से कुरेदे जा रहे थे और दुर्गन्ध रेंगती-रेंगती साफ-सुथरी सड़कों पर पहुँच चुकी थी।
दो स्थानों पर तो खुला प्रदर्शन भी हुआ। लेकिन मारवाड़ राज्य के हिन्दू और मुसलमान इस प्रकार एक-दूसरे के समान हैं कि इन्हें नाम, चेहरे या कपड़े से भी बाहर वाले बड़ी मुश्किल से पहचान सकते हैं। बाहर वाले अल्पसंख्यक लोग जो आसानी से पहचाने जा सकते थे, वो तो पन्द्रह अगस्त की महक पाकर ही पाकिस्तान की सीमाओं से खिसक गये थे। बच गये राज्य के पुराने निवासी, तो उनमें ना तो इतनी समझ थी और ना ही इनकी इतनी हैसियत थी कि पाकिस्तान और भारत की समस्या इन्हें कोई बैठकर समझाता।

MissK
09-05-2011, 12:30 AM
अभी पोस्टिंग में केरेक्टर्स को लेकर कुछ समस्या आ रही अतः बाकि भाग समस्या का हल मिलने के बाद डालूंगी..

झटका
09-05-2011, 07:47 AM
इसका नाम बोलने में मेरी जबान बार बार फंसती है

सूत्र अच्छा है
continue......

Bond007
09-05-2011, 09:10 AM
इसका नाम बोलने में मेरी जबान बार बार फंसती है

सूत्र अच्छा है
continue......


:giggle: :laughing: :lol: :lol: :rolling:

कोई निक नेम रख डालो.............| :cheers:

MissK
09-05-2011, 09:05 PM
इसका नाम बोलने में मेरी जबान बार बार फंसती है

सूत्र अच्छा है
continue......


:what:अरे ये क्या बात हुयी? :ko2:

abhisays
09-05-2011, 09:09 PM
अभी पोस्टिंग में केरेक्टर्स को लेकर कुछ समस्या आ रही अतः बाकि भाग समस्या का हल मिलने के बाद डालूंगी..

Are you still facing this issue?

MissK
09-05-2011, 09:29 PM
Are you still facing this issue?

Yes... it's not taking the spaces between the words and also not letting me make lengthier posts like I did in the first story. It looks something like this when I post or see the preview---

जिन्हेंसमझनाथा, वहसमझचुकेथेऔरवहसुरक्षितभीहोचुकेथे।शेषजोयेसुनकरगयेथ े, किचारआनेकागेहँऔरचारआनेकीहाथभरलम्बीरोटीमिलतीहै , वोलूटरहेथे।क्योंकिवहाँजाकरउन्हेंयहभीपताचलाकिचारसेर कागेहँखरीदनेकेलिएएकरुपयेकीभीजरूरतहोतीहै।औरहाथभरलम् बीरोटीकेलिएपूरीचवन्नीदेनीपड़तीहै।औरयेरुपया, अठन्नियाँनकिसीदुकानमेंमिलींनहीखेतोंमेंउगीं।इन्हेंप ्राप्तकरनाइतनाहीकठिनथाजितनाजीवितरहनेकेलिएभाग-दौड़।
जबखुल्लमखुल्लाइलाकोंसेअल्पसंख्यकोंकोनिकालनेकानिर्ण यलियागयातोबड़ीकठिनाईसामनेआयी।ठाकुरोंनेसांफकहदियाकिस ाहबजनताऐसीगुँथी-मिलीरहतीहैकिमुसलमानोंकोचुनकरनिकालनेकेलिएस्टांफकीजर ूरतहै।जोकिएकफालतूखर्चहै।वैसेआपअगरजमीनकाकोईटुकड़ाशरण ार्थियोंकेलिएखरीदनाचाहेंतोवोखालीकराएजासकतेहैं।जानव रतोरहतेहीहैं।जबकहिएजंगलसाफकरवादियाजाए।

MissK
09-05-2011, 10:07 PM
आगे की कहानी..

जिन्हें समझना था, वह समझ चुके थे और वह सुरक्षित भी हो चुके थे। शेष जो ये सुनकर गये थे, कि चार आने का गेहँ और चार आने की हाथ भर लम्बी रोटी मिलती है, वो लूट रहे थे। क्योंकि वहाँ जाकर उन्हें यह भी पता चला कि चार सेर का गेहँ खरीदने के लिए एक रुपये की भी जरूरत होती है। और हाथ भर लम्बी रोटी के लिए पूरी चवन्नी देनी पड़ती है। और ये रुपया, अठन्नियाँ न किसी दुकान में मिलीं न ही खेतों में उगीं। इन्हें प्राप्त करना इतना ही कठिन था जितना जीवित रहने के लिए भाग-दौड़।
जब खुल्लमखुल्ला इलाकों से अल्पसंख्यकों को निकालने का निर्णय लिया गया तो बड़ी कठिनाई सामने आयी। ठाकुरों ने सांफ कह दिया कि साहब जनता ऐसी गुँथी-मिली रहती है कि मुसलमानों को चुनकर निकालने के लिए स्टांफ की जरूरत है। जो कि एक फालतू खर्च है। वैसे आप अगर जमीन का कोई टुकड़ा शरणार्थियों के लिए खरीदना चाहें तो वो खाली कराए जा सकते हैं। जानवर तो रहते ही हैं। जब कहिए जंगल साफ करवा दिया जाए।
अब शेष रह गये कुछ गिने-चुने परिवार जो या तो महाराजा के चेले-चपाटे में से थे और जिनके जाने का सवाल ही कहाँ। और जो जाने को तुले बैठे थे उनके बिस्तर बँध रहे थे। हमारा परिवार भी उसी श्रेणी में आता था। जल्दी न थी। मगर इन्होंने तो आकर बौखला ही दिया। फिर भी किसी ने अधिक महत्त्व नहीं दिया। वह तो किसी के कान पर जूँ तक न रेंगती और वर्षों सामान न बँधता जो अल्लाह भला करे छब्बा मियाँ का, वो पैंतरा न चलते। बड़े भाई तो जाने ही वाले थे, कह-कहकर हार गये थे तो मियाँ छब्बा ने क्या किया कि स्कूल की दीवार पर 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' लिखने का फैसला कर लिया। रूपचन्द जी के बच्चों ने इसका विरोध किया और उसकी जगह 'अखंड भारत' लिख दिया। निष्कर्ष ये कि चल गया जूता और एक-दूसरे को धरती से मिटा देने का वचन। बात बढ़ गयी। यहाँ तक कि पुलिस आ गयी और जो कुछ गिनती के मुसलमान बचे थे उन्हें लॉरी में भरकर घरों में भिजवा दिया गया।

MissK
09-05-2011, 10:10 PM
अब सुनिये, कि ज्योंही बच्चे घर में आये, हमेशा हैंजा, महामारी के हवाले करनेवाली माएँ ममता से बेकरार होकर दौड़ीं और कलेजे से लगा लिया। और कोई दिन ऐसा भी होता कि रूपचन्द जी के बच्चों से छब्बा लड़कर आता तो दुल्हन भाभी उसकी वह जूतियों से मरहम-पट्टी करतीं कि तौबा भली और उठाकर इन्हें रूपचन्द के पास भेज दिया जाता कि पिलाएँ उसे अरंडी का तेल और कोनेन का मिश्रण, क्योंकि रूपचन्द जी हमारे खानदानी डाक्टर ही नहीं, अब्बा के पुराने दोस्त भी थे। डाक्टर साहब की दोस्ती अब्बा से, इनके बेटों की भाइयों से, बहुओं की हमारी भावजों से, और नयी पौध की नयी पौध से आपस में दाँतकाटी दोस्ती थी। दोनों परिवार की वर्तमान तीन पीढ़ियाँ एक-दूसरे से ऐसी घुली-मिली थीं कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत के बँटवारे के बाद इस प्रेम में दरार पड़ जाएगी। जबकि दोनों परिवारों में मुस्लिम लीगी, काँग्रेसी और महासभाई मौजूद थे। धार्मिक और राजनीतिक वाद-विवाद भी जमकर होता था मगर ऐसे ही जैसे फुटबॉल या क्रिकेट मैच होता है। इधर अब्बा काँग्रेसी थे तो उधर डॉक्टर साहब और बड़े भाई लीगी थे तो उधर ज्ञानचन्द महासभाई, इधर मँझले भाई कम्युनिस्ट थे तो उधर गुलाबचन्द सोशलिस्ट और फिर इसी हिसाब से मर्दों की पत्नियाँ और बच्चे भी इसी पार्टी के थे। आमतौर पर जब बहस-मुबाहिसा होता तो काँग्रेस का पलड़ा हमेशा भारी रहता, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट गालियाँ खाते मगर काँग्रेस ही में घुस पड़ते। बच जाते महासभाई और लीगी। ये दोनों हमेशा साथ देते वैसे वह एक-दूसरे के दुश्मन होते, फिर भी दोनों मिलकर काँग्रेस पर हमला करते।
लेकिन इधर कुछ साल से मुस्लिम लीग का जोर बढ़ता जा रहा था और दूसरी ओर महासभा का। काँग्रेस का तो बिलकुल पटरा हो गया। बड़े भाई की देख-रेख में घर की सारी पौध केवल दो -एक पक्षपात रहित काँग्रेसियों को छोड़कर नेशनल गार्ड की तरह डट गयी। इधर ज्ञानचन्द की सरदारी में सेवक संघ का छोटा-सा दल डट गया। मगर प्रेम वही रहा पहले जैसा।
''अपने लल्लू की शादी तो मुन्नी ही से करूँगा।'' महासभाई ज्ञानचन्द के लीगी पिता से कहते, ''सोने के पाजेब लाऊँगा।''
''यार मुलम्मे की न ठोक देना।'' अर्थात् बड़े भाई ज्ञानचन्द की साहूकारी पर हमला करते हैं।

MissK
09-05-2011, 10:13 PM
और इधर नेशनल गार्ड दीवारों पर, ''पाकिस्तान जिन्दाबाद'' लिख देते और सेवक संघ का दल इसे बिगाड़ कर 'अखंड भारत' लिख देता। यह उस समय की घटना है जब पाकिस्तान का लेन-देन एक हँसने-हँसाने की बात थी।
अब्बा और रूपचन्द यह सब कुछ सुनते और मुस्कुराते और फिर सबको एक बनाने के इरादे बाँधने लगते।
अम्मा और चाची राजनीति से दूर धनिये, हल्दी और बेटियों के जहेजों की बातें किया करतीं और बहुएँ एक-दूसरे के फैशन चुराने की ताक में लगी रहतीं, नमक-मिर्च के साथ-साथ डॉक्टर साहब के यहाँ से दवाएँ भी मँगवायी जातीं। हर दिन किसी को छींक आयी और वह दौड़ा डाक्टर साहब के पास या जहाँ कोई बीमार हुआ और अम्मा ने दाल भरी रोटी बनवानी शुरू की और डाक्टर साहब को कहला भेजा कि खाना हो तो आ जाएँ। अब डाक्टर साहब अपने पोतों का हाथ पकड़े आ पहुँचे।
चलते वक्त पत्नी कहतीं, ''खाना मत खाना सुना।''
''हँ तो फिर फीस कैसे वसूल करूँ देखो जी लाला और चुन्नी को भेज देना।''
''हाय राम तुम्हें तो लाज भी नहीं आती'' चाची बड़बड़ातीं। मजा तो तब आता जब कभी अम्मा की तबीयत खराब होती और अम्मा काँप जातीं।
''ना भई ना मैं इस जोकर से इलाज नहीं करवाऊँगी।'' मगर घर के डाक्टर को छोड़कर शहर से कौन बुलाने जाता। डाक्टर साहब बुलाते ही दौड़े चले आते, ''अकेले-अकेले पुलाव उड़ाओगी तो बीमार पड़ोगी।'' वह चिल्लाते।
''जैसे तुम खाओ हो वैसा औरों को समझते हो'' अम्मा पर्दे के पीछे से भिनभिनातीं।
''अरे ये बीमारी का तो बहाना है भई, तुम वैसे ही कहला भेजा करो, मैं आ जाया करूँगा। ये ढोंग काहे को रचती हो।'' वो ऑंखों में शरारत जमाकर मुस्कुराते और अम्मा जल कर हाथ खींच लेती और बातें सुनातीं। अब्बा मुस्कुरा कर रह जाते।
एक मरीज को देखने आते तो घर के सारे रोगी खड़े हो जाते। कोई अपना पेट लिये चला आ रहा है तो किसी का फोड़ा छिल गया। किसी का कान पक गया है तो किसी की नाक फूली पड़ी है।
''क्या मुसीबत है डिप्टी साहब! एकाध को जहर दे दूँगा। क्या मुझे 'सलोतरी' समझ रखा है कि दुनिया भर के जानवर टूट पड़े।'' वह रोगियों को देखते जाते और मुस्कुराते।
और जहाँ कोई नया बच्चा जनमने वाला होता तो वह कहते
''मुंफ्त का डाक्टर है पैदा किए जाओ कमबख्त के सीने पर कोदो दलने के लिए।''
मगर ज्योंही दर्द शुरू होता, वह अपने बरामदे से हमारे बरामदे का चक्कर काटने लगते। चीख चिंघाड़ से सबको बौखला देते। मौहल्ले-टोले वालों का आना तक मुश्किल।

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09-05-2011, 10:18 PM
पर ज्योंही बच्चे की पहली आवांज इनके कानों में पहुँचती वह बरामदे से दरवाजा, दरवाजे से कमरे के अन्दर आ जाते और इनके साथ अब्बा भी बावले होकर आ जाते। औरतें कोसती-पीटती पर्दे में हो जातीं। बच्चे की नाड़ी देखकर वह उसकी माँ की पीठ ठोकते 'वाह मेरी शेरनी', और बच्चे का नाल काटकर उसे नहलाना शुरू कर देते। अब्बा घबरा-घबराकर फूहड़ नर्स का काम करते। फिर अम्मा चिल्लाना शुरू कर देतीं
''लो गजब खुदा का ये मर्द हैं कि जच्चा घर में पिले पड़ते हैं।''
परिस्थिति को भाँप कर दोनों डाँट खाए हुए बच्चे की तरह बाहर भागते।
अब फिर अब्बा के ऊपर जब फालिज का हमला हुआ तो रूपचन्द जी अस्पताल से रिटायर हो चुके थे और इनकी सारी प्रैक्टिस इनके और हमारे घर तक ही सीमित रह गयी थी। इलाज तो और भी कई डाक्टर कर रहे थे मगर नर्स के और अम्मा के साथ डाक्टर साहब ही जागते, और जिस समय से वह अब्बा को दंफना कर आये, खानदानी प्रेम के इलावा इन्हें जिम्मेदारी का भी एहसास हो गया। बच्चों की फीस माफ कराने स्कूल दौड़े जाते। लड़कियों-बालियों के दहेज के लिए ज्ञानचन्द की वाणी बन्द रखते। घर का कोई भी विशेष कार्य बिना डॉक्टर साहब की राय के न होता। पश्चिमी कोने को तुड़वाकर जब दो कमरे बढ़ाने का प्रश्न उठा तो डाक्टर साहब की ही राय से तुड़वाया गया।
''उससे ऊपर दो कमरे बढ़वा लो'', उन्होंने राय दी और वह मानी गयी। फजन एफ. ए. में साइंस लेने को तैयार न था, डाक्टर साहब जूता लेकर पिल पड़े मामला ठंडा हो गया। फरीदा, मियाँ से लड़कर घर आन बैठी, डाक्टर साहब के पास उसका पति पहुँचा और दूसरे दिन उनकी मँझली बहू शीला जब ब्याह कर आयी तो आया का झगड़ा भी समाप्त हो गया। बेचारी अस्पताल से भागी आयी। फीस तो दूर की चीज है ऊपर से छठे दिन कुर्ता-टोपी लेकर आयी।

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09-05-2011, 10:22 PM
पर आज जब छब्बा लड़कर आये तो इनकी ऐसी आवभगत हुई जैसे मैदान मार कर आया हो कोई बहादुर मर्द। सभी ने इसकी बहादुरी का वर्णन जानना चाहा और बहुत-सी जवानों के सामने अम्मा गँगी बनी रहीं। आज से नहीं, वह 15 अगस्त से जब डाक्टर साहब के घर पर तिरंगा झंडा लहराया और अपने घर पर लीग का झंडा टँगा था उसी दिन से उनकी जुबान को चुप लग गयी थी। इन झंडों के बीच एक लम्बी खाई का निर्माण हो चुका था। जिसकी भयानक गहराई अपनी दुखी ऑंखों से देख-देखकर सिहर जातीं अम्मा। फिर शरणार्थियों की संख्या बढ़ने लगी। बड़ी बहू के मौके वाले बहावलपुर से माल लुटाकर और किसी तरह जान बचाकर जब आये तो खाई की चौड़ाई और बढ़ गयी। फिर रावलपिंडी से जब निर्मला के ससुराल वाले मूर्च्छित अवस्था में आये तो इस खाई में अजगर फुँफकारें मारने लगे। जब छोटी भाभी ने अपने बच्चे का पेट दिखाने को भेजा तो शीला भाभी ने नौकर को भगा दिया।
और किसी ने भी इस मामले पर वाद-विवाद नहीं छेड़ा, सारे घर के लोग एकदम रुक गये। बड़ी भाभी तो अपने हिस्टीरिया के दौरे भूलकर लपाझप कपड़े बाँधने लगीं। ''मेरे ट्रंक को हाथ न लगाना'' अम्मा की जुबान अन्त में खुली और सबके सब हक्का-बक्का रह गये।
''क्या आप नहीं जाएँगी।'' बड़े भइया तैश से बोले।
''नौजमोई मैं सिन्धों में मरने जाऊँ। अल्लाह मारियाँ बुर्के-पाजामे फड़काती फिरे हैं।''
''तो सँझले के पास ढाके चली जाएँ।''
''ऐ वो ढाके काहे को जाएँगी। वहाँ बंगाली की तरह चावल हाथों से लसेड़-लसेड़ कर खाएँगी।'' सँझली की सास ममानी बी ने ताना दिया।
''तो रावलपिण्डी चलो फरीदा के यहाँ'', खाला बोलीं।

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09-05-2011, 10:24 PM
''तौबा मेरी, अल्लाह पाक पंजाबियों के हाथों मिट्टी गन्दी न कराये। मिट गये दोंजखियों (नरक वासी) की तो जुबान बोले हैं।'' आज तो मेरी कम बोलने वाली अम्मा पटापट बोलीं।
''ऐ बुआ तुम्हारी तो वही मसल हो गयी कि ऊँचे के नीचे, भेर लिये कि पेड़ तले बैठी तेरा घर न जानूँ। ऐ बी यह कट्टू गिलहरी की तरह गमजह मस्तियाँ कि राजा ने बुलाया है। लो भई झमझम करता हाथी भेजा। चक-चक ये तो काला-काला कि घोड़ा भेजा, चक-चक ये तो लातें झाड़े कि...''
वातावरण विषैला-सा था इसके बावजूद कहकहा पड़ गया। मेरी अम्मा का मुँह जरा-सा फूल गया।
''क्या बच्चों की-सी बातें हो रही हैं।'' नेशनल गार्ड के सरदार अली बोले।
''जिनका सर न पैर, क्या इरादा है यहाँ रहकर कट मरने का।''
''तुम लोग जाओ अब मैं कहाँ जाऊँगी अपनी अन्तिम घड़ी में।''
''तो अन्तिम घड़ियों में कांफिरों से गत बनवाओगी?'' खाला बी पोटलियों को गिनती जाती थीं। और पोटलियों में सोने-चाँदी के गहनों से लकर करहडियों का मंजन, सूखी मेथी, और मुल्तानी मिट्टी तक थी। इन चीजों को वो ऐसे कलेजे से लगा कर ले जा रही थीं मानो पाकिस्तान का एस्ट्रलिंग बैलेंस कम हो जाएगा। तीन बार बड़े भाई ने जलकर इनकी पुराने रोहड़ की पोटलियाँ फेकीं। पर वह ऐसी चिंघाड़ीं मानो अगर उनकी यह दौलत न गयी तो पाकिस्तान गरीब रह जाएगा। फिर मजबूर होकर बच्चों की मौत में डूबी हुई गदेलों की रुई की पोटलियाँ बाँधनी पड़ीं। बर्तन बोरों में भरे गये। पलंगों के पाचे-पट्टियाँ खोलकर झलंगों में बाँधी गयीं , और देखते ही देखते जमा जमाया घर टेढ़ी-मेढ़ी गठरियों और बोगचों में परिवर्तित हो गया। अब तो सामानों के पैर लग गये हैं। थोड़ा सुस्ताने को बैठा है अभी फिर उठकर नाचने लगेगा।

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09-05-2011, 10:27 PM
पर अम्मा का ट्रंक ज्यों का ज्यों रखा रहा।
''आपा का इरादा यहीं मरने का है तो इन्हें कौन रोक सकता है'', भाई साहब ने अन्त में कहा।
और मेरी मासूम सूरत वाली अम्मा भटकती ऑंखों से आसमान को तकती रहीं, जैसे वो स्वयं अपने आपसे पूछती हों, कौन मार डालेगा? और कब?
''अम्मा तो सठिया गयी हैं। इस उम्र में इनकी बुध्दि ठिकाने पर नहीं है'' मँझला भाई कान में खुसपुसाया।
''क्या मालूम इन्हें कि कांफिरों ने मासूमों पर तो और भी अत्याचार किया है। अपना देश होगा तो जान-माल की तो सुरक्षा होगी।''
अगर मेरी कम बोलने वाली अम्मा की जुबान तेंज होती तो वह जरूर कहतीं, 'अपना देश है किस चिड़िया का नाम? लोगो! वह है कहाँ अपना देश ? जिस मिट्टी में जन्म लिया, जिसमें लोट-पोट कर पले-बढ़े वही अपना देश न हुआ तो फिर जहाँ चार दिन को जाकर बस जाओ वह कैसे अपना देश हो जाएगा? और फिर कौन जाने वहाँ से भी कोई निकाल दे। कहे जाओ नया देश बसाओ। अब यहाँ सुबह का चिराग बनी बैठी हँ। एक नन्हा-सा झोंका आया और देश का झगड़ा समाप्त और ये देश उजड़ जाने और बसाने का खेल मधुर भी तो नहीं। एक दिन था मुंगल अपना देश छोड़कर नया देश बसाने आये थे। आज फिर चलो देश बसाने, देश न हुआ पैर की जूती हो गयी, थोड़ा कसी नहीं कि उतार फेंकी और फिर दूसरी पहन ली' मगर अम्मा चुप रहीं। अब इनका चेहरा पहले से अधिक थका हुआ मालूम होने लगा। जैसे वह सैकड़ों वर्षों से देश की खोज में खाक छानने के बाद थककर बैठी हों और इस खोज में स्वयं को भी खो चुकी हों।

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09-05-2011, 10:31 PM
अम्मा अपनी जगह ऐसी जमी रहीं जैसे बड़ के पेड़ की जड़ ऑंधी-तूफान में खड़ी रहती है। पर जब बेटी, बहुएँ, दामाद, पोते-पोतियाँ, नवासे-नवासियाँ, पूरे का पूरा जनसमूह फाटक से निकल कर पुलिस की सुरक्षा में लारियों में सवार हुआ तो इनके दिल के टुकड़े उड़ने लगे। बेचैन नंजरों से इन्होंने खाई के उस पार बेबसी से देखा। सड़क बीच का घर इतना दूर लगा जैसे दूर पौ फटने से पहले गर्दिश में बादल का टुकड़ा। रूपचन्द जी का बरामदा सुनसान पड़ा था। दो-एक बच्चे बाहर निकले मगर हाथ पकड़ कर वापस घसीट लिए गये पर अम्मा की ऑंसू भरी ऑंखों ने इनकी ऑंखों को देख लिया। जो दरवांजे की झिरियों के पीछे गीली हो रही थीं। जब लारियाँ धूल उड़ातीं पूरे घर को ले उड़ीं तो एक बायीं ओर की मुर्दा लज्जा ने साँस ली। दरवांजा खुला और बोझिल चालों से रूपचन्द जी चोरों की तरह सामने के खाली ढनढन घर को ताकने निकले और थोड़ी देर तक धूल के गुबार में बिछड़ी सूरतों को ढूँढ़ते रहे और फिर इनकी असफल निगाहें अपराधी शैली में, इस उजड़े दरवांजे से भटकती हुई वापस धरती में धँस गयीं।
जब सारी उम्र की पूँजी को ख़ुदा के हवाले करके अम्मा ढनढार ऑंगन में आकर खड़ी हुईं तो इनका बूढ़ा दिल नन्हें बच्चे की तरह सहम कर मुर्झा गया जैसे चारों ओर से भूत आकर इन्हें दबोच लेंगे। चकराकर इन्होंने खम्बों का सहारा लिया।

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09-05-2011, 10:33 PM
सामने नंजर उठी तो कलेजा मुँह को आ गया। यही तो वह कमरा था जिसे दूल्हे की प्यार भरी गोद में लाँघकर आयी थीं। यहीं तो कमसिन डरभरी ऑंखों वाली भोली-सी दुल्हन के चाँद से चेहरे पर से घूँघट उठा था और जिसने जीवनभर की गुलामी लिख दी थी। वह सामने कोने वाले कमरे में पहली बेटी पैदा हुई थी और बड़ी बेटी की याद एकदम से कौंध बनकर कलेजे में समा गयी। वहाँ कोने में उसका नाल गड़ा था। एक नहीं दस नाल गड़े थे । और दस आत्माओं ने यहीं पहली साँस ली थी। दस मांस व हड्डी की मूर्तियों ने, दस इनसानों ने इसी पवित्र कमरे में जन्म लिया था। इस पवित्र कोख से जिसे आज वो छोड़कर चले गये थे। जैसे वह पुरानी कजली थी जिसे काँटों में उलझा कर वो सब चले गये। अमन व शान्ति की खोज में, रुपये के चार सेर गेहँ के पीछे और वह नन्हीं-नन्हीं हस्तियों की प्यारी-प्यारी आ-गु-आ-गु से कमरा अब तक गूँज रहा था। लपक कर वह कमरे में गोद फैलाकर दौड़ गयीं पर इनकी गोद खाली रही। वह गोद जिसे सुहागिनें पवित्रता से छूकर हाथ कोख को लगाती थीं आज खाली थी। कमरा खाली पड़ा भायँ-भायँ कर रहा था। वहशत से वह लौट गयीं। मगर छूटे हुए कल्पना के कदम न लौटा सकीं।
वह दूसरे कमरे में लड़खड़ा गयीं। यहीं तो जीवनसाथी ने पचास वर्ष गुजार चुकने के बाद मुँह मोड़ लिया था। यहीं दरवांजे के सामने कफन में लिपटी लाश रखी गयी थी, सारा परिवार घेरे खड़ा था। किस्मत वाले थे वो जो अपने प्यारों की गोद में सिधारे पर जीवनसाथी को छोड़ गये। जो आज बेकफन की लाश की तरह लावारिस पड़ गयी। पाँवों ने उत्तर दिया और वहीं बैठ गयीं जहाँ मीत के सिरहाने कई वर्ष इन कँपकँपाते हाथों ने चिराग जलाया था। पर आज चिराग में तेल न था और बत्ती भी समाप्त हो चुकी थी।

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09-05-2011, 10:34 PM
सामने रूपचन्द अपने बरामदे में तेजी से टहल रहे थे। गालियाँ दे रहे थे अपने बीवी-बच्चों को, नौकरों को, सरकार को और अपने सामने फैली वीरान सड़क को, ईंट-पत्थर को, चाकू-छूरी को, यहाँ तक कि पूरा विश्व इनकी गालियों की बमबारी के आगे सहम गया था। और विशेष इस खाली घर को जो सड़क के उस पार खड़ा इनको मुँह चिढ़ा रहा था। जैसे स्वयं इन्होंने अपने हाथों से इसकी ईंट से ईंट बजा दी हो। वह कोई चीज अपने मस्तिष्क में से झटक देना चाहते थे। पूरी शक्ति की मदद से नोंचकर फेंक देना चाहते थे। मगर असफल होकर झुँझला बैठे। कपट की जड़ों की तरह जो चीज इनके अस्तित्व में जम चुकी थी वह उसे पूरी शक्ति से खींच रहे थे मगर साथ-साथ जैसे इनका मांस खिंचा चला आता हो, वह कराह कर छोड़ देते थे। फिर एकाएक इनकी गालियाँ बन्द हो गयी। टहल थम गयी और वो मोटर में बैठकर चल दिये।
रात हुई। जब गली के नुक्कड़ पर सन्नाटा छा गया तो पिछले दरवांजे से रूपचन्द जी की पत्नी दो परोसी हुई थालियाँ ऊपर नीचे रखे चोरों की तरह अन्दर आयीं। दोनों बूढ़ी औरतें चुप एक-दूसरे के आमने-सामने बैठ गयी। जुबानें बन्द रहीं पर ऑंखें सब कुछ कह रही थीं। दोनों थालियों का खाना ज्यूँ का त्यूँ रखा था। औरतें जब किसी की चुगली करती हैं तो इनकी जुबानें कैंचियों की तरह निकल पड़ती हैं। पर जहाँ भावनाओं ने हमला किया और मुँह में ताले पड़ गये।

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09-05-2011, 10:36 PM
रात भर न जाने कितनी देर तक यादें अकेला पाकर अचानक हमला करती रहीं। न जाने रास्ते ही में कहीं सब न खत्म हो जाएँ। आजकल तो पूरी-पूरी रेलें कट रही हैं। पचास वर्ष खून से सींचकर खेती तैयार की थी और आज वह देश निकाले नयी धरती की तलाश में जैसी-तैसी हालत में चल पड़े थे, कौन जाने नयी धरती इन पौधों को रास आये न आये, कुम्हला तो न जाएँगे ये गरीबुल वतन पौधे। छोटी बहू का तो पूरा महीना है न जाने किस जंगल में जच्चा घर बने। घर-परिवार, नौकरी, व्यापार सब कुछ छोड़ के चल पड़े। नये देश में। चील-कौओं ने कुछ छोड़ा भी होगा। या मुँह तकते ही लौट आएँगे और जो लौटकर आएँ तो फिर से जड़ें पकड़ने का मौका मिलेगा भी या नहीं कौन जाने यह बुढ़िया उनके लौट आने तक जीवित रहेगी भी कि नहीं।
अम्मा पत्थर की मूरत बन गयी थीं। नींद कहाँ, सारी रात बूढ़ा शरीर बेटियों की कटी-फटी लाशें, नौजवान बहुओं का नंगा जुलूस और पोतों-नवासों के चिथड़े उड़ते देख कर थर्राता रहा। न जाने कब झपकी ने हमला कर दिया। ऐसा प्रतीत हुआ दरवांजे पर दुनिया भर का हंगामा हो रहा है। जान प्यारी न सही, पर बिना तेल का दीया भी बुझते समय काँप उठता है और सीधी-सादी मौत ही क्या कम निर्दयी होती है जो ऊपर से वह इनसान का भूत बनकर सामने आये। सुना है बूढ़ियों तक को बाल पकड़ कर सड़कों पर घसीटते हैं। यहाँ तक कि खाल छिलकर हड्डियाँ तक झलक आती हैं और फिर वही दुनिया के अंजाब प्रकट होते हैं, जिनको सोचकर ही नर्क के फरिश्ते पीले पड़ जाएँ।

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09-05-2011, 10:39 PM
दस्तक की घनगरज बढ़ती जा रही थी। यमराज को जल्दी पड़ी थी और फिर अपने आप सारी चिटखनी खुलने लगीं, बत्तियाँ जल उठीं जैसे दूर कुएँ की तलहटी से किसी की आवांज आयी। शायद बड़ा लड़का पुकार रहा थान हीं ये तो छोटे और मँझले की आवांज थी दूसरी दुनिया के ध्वस्त कोने से । तो मिल गया सबको अपना देश? इतनी जल्दी? सँझला, उसके पीछे छोटा, साफ तो खड़े थे, गोदों में बच्चों को उठाए हुए बहुएँ। फिर एकदम से सारा घर जीवित हो उठा, सारी आत्माएँ जाग उठीं और दुखियारी माँ के आस-पास जमा होने लगीं। छोटे-बड़े हाथ प्यार से छूने लगे। सूखे होंठों में एकाएक कोंपलें फूट निकलीं। खुशी से सारे होश तितर-बितर होकर अँधेरे में भँवर डालते डूब गये।
जब ऑंख खुली तो रगों पर जानी-पहचानी उँगलियाँ रेंग रही थीं।
''अरे भाभी मुझे वैसे ही बुला लिया करो, चला आऊँगा। ये ढोंग काहे को रचाती हो'', रूपचन्द जी पर्दे के पीछे से कह रहे थे।
''और भाभी आज तो फीस दिलवा दो। देखो तुम्हारे नालायक लड़कों को लोनी जंक्शन से पकड़ लाया हँ। भागते जाते थे बदमाश कहीं के। पुलिस सुपर्रिटेंडेंट का भी विश्वास नहीं करते थे।''
फिर बूढ़े होंठो में कोंपलें फूट निकलीं। वह उठकर बैठ गयीं। थोड़ी देर चुप रहीं। फिर दो गर्म-गर्म मोती लुढ़क कर रूपचन्द जी के झुर्रियों भरे हाथ पर गिर पड़े।


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MissK
10-05-2011, 08:05 PM
भाभी


भाभी ब्याह कर आई थी तो मुश्किल से पंद्रह बरस की होगी। बढवार भी तो पूरी नहीं हुई थी। भैया की सूरत से ऐसी लरजती थी जैसे कसाई से बकरी। मगर सालभर के अंदर ही वो जैसे मुँह-बंद कली से खिलकर फूल बन गई। ऑंखों में हिरनों जैसी वहशत दूर होकर गरूर और शरारत भर गई।
भाभी आजाद फिजाँ में पली थी। हिरनियों की तरह कुलाँचें भरने की आदी थी, मगर ससुराल और मैका दोनों तरफ से उस पर कडी निगरानी थी और भैया की भी यही कोशिश थी कि अगर जल्दी से उसे पक्की गृहस्थन न बना दिया गया तो वो भी अपनी बडी बहन की तरह कोई गुल खिलाएगी। हालाँकि वो शादीशुदा थी। लिहाजा उसे गृहस्थन बनाने पर जुट गए।
चार-पाँच साल के अंदर भाभी को घिसघिसा कर वाकई सबने गृहस्थन बना दिया। दो-तीन बच्चों की माँ बनकर भद्दी और ठुस्स हो गई। अम्मा उसे खूब मुर्गी का शोरबा, गोंद सटूरे खिलातीं। भैया टॉनिक पिलाते और हर बच्चे के बाद वो दस-पंद्रह पौंड बढ जाती।
आहिस्ता-आहिस्ता उसने बनना-सँवरना छोड ही दिया। भैया को लिपस्टिक से नफरत थी। ऑंखों में मनों काजल और मस्करा देखकर वो चिढ जाते। भैया को बस गुलाबी रंग पसंद था या फिर लाल। भाभी ज्यादातर गुलाबी या सुर्ख ही कपडे पहना करती थी। गुलाबी साडी पर सुर्ख (लाल) ब्लाउज या कभी गुलाबी के साथ हलका गहरा गुलाबी।

MissK
10-05-2011, 08:09 PM
शादी के वक्त उसके बाल कटे हुए थे। मगर दुल्हन बनाते वक्त ऐसे तेल चुपडकर बाँधे गए थे कि पता ही नहीं चलता था कि वो पर-कटी मेम है। अब उसके बाल तो बढ गए थे मगर पै-दर-पै बच्चे होने की वजह से वो जरा गंजी-सी हो गई थी। वैसे भी वो बाल कसकर मैली धज्जी-सी बाँध लिया करती थी। उसके मियाँ को वो मैली-कुचैली ऐसी ही बडी प्यारी लगती थी और मैके-ससुराल वाले भी उसकी सादगी को देखकर उसकी तारीफों के गुन गाते थे। भाभी थी बडी प्यारी-सी, सुगढ नक्श, मक्खन जैसी रंगत, सुडौल हाथ-पाँव। मगर उसने इस बुरी तरह से अपने आपको ढीला छोड दिया था कि खमीरे आटे की तरह बह गई थी।
उफ! भैया को चैन और स्कर्ट से कैसी नफरत थी। उन्हें ये नए फैशन की बदन पर चिपकी हुई कमीज से भी बडी घिन आती थी। तंग मोरी की शलवारों से तो वो ऐसे जलते थे कि तौबा! खैर भाभी बेचारी तो शलवार-कमीज के काबिल रह ही नहीं गई थी। वो तो बस ज्यादातर ब्लाउज और पेटीकोट पर ड्रेसिंग गाउन चढाए घूमा करती। कोई जान-पहचान वाला आ जाता तो भी बेतकल्लुफी से वही अपना नेशनल ड्रेस पहने रहती। कोई औपचारिक मेहमान आता तो अमूनन वो अंदर ही बच्चों से सर मारा करती। जो कभी बाहर जाना पडता तो लिथडी हुई सी साडी लपेट लेती। वो गृहस्थन थी, बहू थी और चहेती थी, उसे बन-सँवरकर किसी को लुभाने की क्या जरूरत थी!
और भाभी शायद यूँ ही गौडर बनी अधेड और फिर बूढी हो जाती। बहुएँ ब्याह कर लाती, जो सुबह उठकर उसे झुककर सलाम करतीं, गोद में पोता खिलाने को देतीं। मगर खुदा को कुछ और ही मंजूर था।

MissK
10-05-2011, 08:11 PM
शाम का वक्त था, हम सब लॉन में बैठे चाय पी रहे थे। भाभी पापड तलने बावर्चीखाने में गई थी। बावर्ची ने पापड लाल कर दिए, भैया को बादामी पापड भाते हैं। उन्होंने प्यार से भाभी की तरफ देखा और वो झट उठकर पापड तलने चली गई। हम लोग मजे से चाय पीते रहे।
धाँय से फुटबाल आकर ऐन भैया की प्याली में पडी। हम सब उछल पडे। भैया मारे गुस्से के भन्ना उठे।
'कौन पाजी है? उन्होंने जिधर से गेंद आई थी, उधर मुँह करके डाँटा।
बिखरे हुए बालों का गोल-मोल सर और बडी-बडी ऑंखें ऊपर से झाँकीं। एक छलाँग में भैया मुँडेर पर थे और मुजरिम के बाल उनकी गिरफ्त में।
'ओह! एक चीख गूँजी और दूसरे लम्हे भैया ऐसे उछलकर अलग हो गए जैसे उन्होंने बिच्छू के डंक पर हाथ डाल दिया हो या अंगारा पकड लिया हो।
'सारी...आई एम वेरी सॉरी...। वो हकला रहे थे। हम सब दौड़ कर गए . देखा तो मुंडेर के उस तरफ़ एक दुबली नागिन-सी लडकी सफेद ड्रेन टाइप और नींबू के रंग का स्लीवलेस ब्लाउज पहने अपने बालों में पतली-पतली उँगलियाँ फेरकर खिसियानी हँसी हँस रही थी और फिर हम सब हँसने लगे।
भाभी पापडों की प्लेट लिए अंदर से निकली और बगैर कुछ पूछे ये समझकर हँसने लगी कि जरूर कोई हँसने की बात हुई होगी। उसका ढीला-ढाला पेट हँसने से फुदकने लगा और जब उसे मालूम हुआ कि भैया ने शबनम को लडका समझकर उसके बाल पकड लिए तो और भी जोर-जोर से कहकहे लगाने लगी कि कई पापड के टुकडे घास पर बिखर गए। शबनम ने बताया कि वो उसी दिन अपने चचा खालिद जमील के यहाँ आई है। अकेले जी घबराया तो फुटबॉल ही लुढकाने लगी। जो इत्तिफाकन भैया की प्याली पर आ कूदी।

MissK
10-05-2011, 08:13 PM
शबनम भैया को अपनी तीखी मस्कारा लगी ऑंखों से घूर रही थी। भैया मंत्र-मुग्ध सन्नाटे में उसे तक रहे थे। एक करंट उन दोनों के दरमियान दौड रहा था। भाभी इस करंट से कटी हुई जैसे कोसों दूर खडी थी। उसका फुदकता हुआ पेट सहमकर रुक गया। हँसी ने उसके होंठों पर लडखडाकर दम तोड दिया। उसके हाथ ढीले हो गए। प्लेट के पापड घास पर गिरने लगे। फिर एकदम वो दोनों जाग पडे और ख्वाबों की दुनिया से लौट आए।
शबनम फुदककर मुंडेर पर चढ गई।
'आइए चाय पी लीजिए, मैंने ठहरी हुई फिजाँ को धक्का देकर आगे खिसकाया।
एक लचक के साथ शबनम ने अपने पैर मुंडेर के उस पार से इस पार झुलाए। शबनम का रंग पिघले हुए सोने की तरह लौ दे रहा था। उसके बाल स्याह भौंरा थे। मगर ऑंखें जैसे स्याह कटोरियों में किसी ने शहद भर दिया हो। नीबू के रंग के ब्लाउज का गला बहुत गहरा था। होंठ तरबूजी रंग के और उसी रंग की नेल पॉलिश लगाए वो बिलकुल किसी अमेरिकी इश्तिहार का मॉडल मालूम हो रही रही थी। भाभी से कोई फुट भर लंबी लग रही थी, हालाँकि मुश्किल से दो इंच ऊँची होगी। उसकी हड्डी बडी नाजुक थी। इसलिए कमर तो ऐसी कि छल्ले में पिरो लो।
भैया कुछ गुमसुम से बैठे थे। भाभी उन्हें कुछ ऐसे ताक रही थी जैसे बिल्ली पर तौलते हुए परिंदे को घूरती है कि जैसे ही पर फडफडाए बढकर दबोच ले। उसका चेहरा तमतमा रहा था, होंठ भिंचे हुए थे, नथुने फडफडा रहे थे।

MissK
10-05-2011, 08:14 PM
इतने में मुन्ना आकर उसकी पीठ पर धम्म से कूदा। वो हमेशा उसकी पीठ पर ऐसे ही कूदा करता था जैसे वो गुदगुदा-सा तकिया हो। भाभी हमेशा ही हँस दिया करती थी मगर आज उसने चटाख-चटाख दो-चार चाँटे जड दिए।
शबनम परेशान हो गई।
'अरे...अरे...अरे रोकिए ना। उसने भैया का हाथ छूकर कहा, 'बडी गुस्सावर हैं आपकी मम्मी। उसने मेरी तरफ मुँह फेरकर कहा।
इंट्रोडक्शन कराना हमारी सोसायटी में बहुत कम हुआ करता है और फिर भाभी का किसी से इंट्रोडक्शन कराना अजीब-सा लगता था। वो तो सूरत से ही घर की बहू लगती थी। शबनम की बात पर हम सब कहकहा मारकर हँस पडे। भाभी मुन्ने का हाथ पकडकर घसीटती हुई अंदर चल दी।
'अरे ये तो हमारी भाभी है। मैंने भाभी को धम्म-धम्म जाते हुए देखकर कहा।
'भाभी? शबनम हैरतजदा होकर बोली।
'इनकी, भैया की बीवी।
'ओह! उसने संजीदगी से अपनी नजरें झुका लीं। 'मैं...मैं...समझी! उसने बात अधूरी छोड दी।
'भाभी की उम्र तेईस साल है। मैंने वजाहत (स्पष्टता) की।
'मगर, डोंट बी सिली...। शबनम हँसी, भैया भी उठकर चल दिए।
'खुदा की कसम!
'ओह...जहालत...।
'नहीं...भाभी ने मारटेज से पंद्रह साल की उम्र में सीनियर कैम्ब्रिज किया था।
'तुम्हारा मतलब है ये मुझसे तीन साल छोटी हैं। मैं छब्बीस साल की हूँ।
'तब तो कतई छोटी हैं।
'उफ, और मैं समझी वो तुम्हारी मम्मी हैं। दरअसल मेरी ऑंखें कमजोर हैं। मगर मुझे ऐनक से नफरत है। बुरा लगा होगा उन्हें?
'नहीं, भाभी को कुछ बुरा नहीं लगता।

MissK
10-05-2011, 08:19 PM
'च:...बेचारी!
'कौन...कौन भाभी? न जाने मैंने क्यों कहा।
'भैया अपनी बीवी पर जान देते हैं। सफिया ने बतौर वकील कहा।
'बेचारी की बहुत बचपन में शादी कर दी गई होगी?
'पच्चीस-छब्बीस साल के थे।
'मगर मुझे तो मालूम भी न था कि बीसवीं सदी में बगैर देखे शादियाँ होती हैं। शबनम ने हिकारत से मुस्कराकर कहा।
'तुम्हारा हर अंदाजा गलत निकल रहा है...भैया ने भाभी को देखकर बेहद पसंद कर लिया था, तब शादी हुई थी। मगर जब वो कँवल के फूल जैसी नाजुक और हसीन थीं।
'फिर ये क्या हो गया शादी के बाद?
'होता क्या... भाभी अपने घर की मल्लिका हैं, बच्चों की मल्लिका हैं। कोई फिल्म एक्ट्रेस तो हैं नहीं। दूसरे भैया को सूखी-मारी लडकियों से घिन आती है। मैंने जानकर शबनम को चोट दी। वो बेवकूफ न थी।
'भई चाहे कोई मुझसे प्यार करे या न करे। मैं तो किसी को खुश करने के लिए हाथी का बच्चा कभी न बनूँ...और मुआफ करना, तुम्हारी भाभी कभी बहुत खूबसूरत होंगी मगर अब तो...।

MissK
10-05-2011, 08:33 PM
'ऊँह, आपका नजरिया भैया से अलग है। मैंने बात टाल दी और जब वो बल खाती सीधी-सुडौल टाँगों को आगे-पीछे झुलाती, नन्हे-नन्हे कदम रखती मुँडेर की तरफ जा रही थी, भैया बरामदे में खडे थे। उनका चेहरा सफेद पड गया था और बार-बार अपनी गुद्दी सहला रहे थे। जैसे किसी ने वहाँ जलती हुई आग रख दी हो। चिडिया की तरह फुदककर वो मुँडेर फलाँग गई। पल भर को पलटकर उसने अपनी शरबती ऑंखों से भैया को तौला और छलावे की तरह कोठी में गायब हो गई।
भाभी लॉन पर झुकी हुई तकिया आदि समेट रही थी। मगर उसने एक नजर न आने वाला तार देख लिया। जो भैया और शबनम की निगाहों के दरमियान दौड रहा था।
एक दिन मैंने खिडकी में से देखा। शबनम फूला हुआ स्कर्ट और सफेद खुले गले का ब्लाउज पहने पप्पू के साथ सम्बा नाच रही थी। उसका नन्हा-सा पिकनीज कुत्ता टाँगों में उलझ रहा था। वो ऊँचे-ऊँचे कहकहे लगा रही थी। उसकी सुडौल साँवली टाँगें हरी-हरी घास पर थिरक रही थीं। काले-रेशमी बाल हवा में छलक रहे थे। पाँच साल का पप्पू बंदर की तरह फुदक रहा था। मगर वो नशीली नागिन की तरह लहरा रही थी। उसने नाचते-नाचते नाक पर अंगूठा रखकर मुझे चिडाया। मैंने भी जवाब में घूँसा दिखा दिया। मगर फौरन ही मुझे उसकी निगाहों का पीछा करके मालूम हुआ कि ये इशारा वो मेरी तरफ नहीं कर रही थी।
भैया बरामदे में अहमकों की तरह खडे गुद्दी सहला रहे थे और वो उन्हें मुँह चिडाकर जला रही थी। उसकी कमर में बल पड रहे थे। कूल्हे मटक रहे थे। बाँहें थरथरा रही थीं। होंठ एक-दूसरे से जुदा लरज रहे थे। उसने साँप की तरह लप से जुबान निकालकर अपने होंठों को चाटा। भैया की ऑंखें चमक रही थीं और वो खडे दाँत निकाल रहे थे। मेरा दिल धक से रह गया। ...भाभी गोदाम में अनाज तुलवाकर बावर्ची को दे रही थी।

MissK
10-05-2011, 08:35 PM
'शबनम की बच्ची मैंने दिल में सोचा। ...मगर गुस्सा मुझे भैया पर भी आया। उन्हें दाँत निकालने की क्या जरूरत थी। इन्हें तो शबनम जैसे काँटों से नफरत थी। इन्हें तो ऍंगरेजी नाचों से घिन आती थी। फिर वो क्यों खडे उसे तक रहे थे और ऐसी भी क्या बेसुधी कि उनका जिस्म सम्बा की ताल पर लरज रहा था और उन्हें खबर न थी।
इतने में ब्वॉय चाय की ट्रे लेकर लॉन पर आ गया... भैया ने हम सबको आवाज दी और ब्वॉय से कहा भाभी को भेज दे।
रस्मन शबनम को भी बुलावा देना पडा। मेरा तो जी चाह रहा था कतई उसकी तरफ से मुँह फेरकर बैठ जाऊँ मगर जब वो मुन्ने को पद्दी पर चढाए मुँडेर फलाँगकर आई तो न जाने क्यों मुझे वो कतई मासूम लगी। मुन्ना स्कार्फ लगामों की तरह थामे हुए था और वो घोडे की चाल उछलती हुई लॉन पर दौड रही थी। भैया ने मुन्ने को उसकी पीठ पर से उतारना चाहा। मगर वो और चिमट गया।
'अभी और थोडा चले आंटी।
'नहीं बाबा, आंटी में दम नहीं...। शबनम चिल्लाई। बडी मुश्किल से भैया ने मुन्ने को उतारा। मुँह पर एक चाँटा लगाया। एक दम तडपकर शबनम ने उसे गोद में उठा लिया और भैया के हाथ पर जोर का थप्पड लगाया।
'शर्म नहीं आती...इतने बडे ऊँट के ऊँट छोटे से बच्चे पर हाथ उठाते हैं। भाभी को आता देखकर उसने मुन्ने को गोद में दे दिया। उसका थप्पड खाकर भैया मुस्करा रहे थे।
'देखिए तो कितनी जोर से थप्पड मारा है। मेरे बच्चे को कोई मारता तो हाथ तोडकर रख देती। उसने शरबत की कटोरियों में जहर घोलकर भैया को देखा। 'और फिर हँस रहे हैं बेहया।

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10-05-2011, 08:39 PM
'हूँ...दम भी है जो हाथ तोडोगी...। भैया ने उसकी कलाई मरोड़ी . वो बल खाकर इतनी जोर से चीखी कि भैया ने कांप कर उसे छोड़ दिया और वो हंसते-हंसते जमीन पर लोट गई. चाय के दरमियान भी शबनम की शरारतें चलती रहीं। वो बिलकुल कमसिन छोकरियों की तरह चुहलें कर रही थी। भाभी गुमसुम बैठी थीं। आप समझे होंगे शबनम के वजूद से डरकर उन्होंने अपनी तरफ तवज्जो देनी शुरू कर दी होगी। जी कतई नहीं। वो तो पहले से भी ज्यादा मैली रहने लगीं। पहले से भी ज्यादा खातीं।
हम सब तो हँस ज्यादा रहे थे, मगर वो सर झुकाए निहायत तन्मयता से केक उडाने में मसरूफ थीं। चटनी लगा-लगाकर भजिए निगल रही थीं। सिके हुए तोसों पर ढेर-सा मक्खन लगा-लगाकर खाए जा रही थीं, भैया और शबनम को देख-देखकर हम सब ही परेशान थे और शायद भाभी भी फिक्र-मंद होगी, लेकिन अपनी परेशानी को वो मुर्गन खानों में दफ्न कर रही थीं। उन्हें हर वक्त खट्टी डकारें आया करतीं मगर वो चूरन खा-खाकर पुलाव-कोरमा हजम करतीं। वो सहमी-सहमी नजरों से भैया और शबनम को हँसता-बोलता देखती। भैया तो कुछ और भी जवान लगने लगे थे। शबनम के साथ वो सुबह-शाम समंदर में तैरते। भाभी अच्छा-भला तैरना जानती मगर भैया को स्वीमिंग-सूट पहने औरतों से सख्त नफरत थी। एक दिन हम सब समंदर में नहा रहे थे। शबनम दो धज्जियाँ पहने नागिन की तरह पानी में बल खा रही थी।

MissK
10-05-2011, 08:44 PM
इतने में भाभी जो देर से मुन्ने को पुकार रही थीं, आ गईं। भैया शरारत के मूड में तो थे ही, दौडकर उन्हें पकड लिया और हम सबने मिलकर उन्हें पानी में घसीट लिया। जब से शबनम आई थी भैया बहुत शरारती हो गए थे। एकदम से वो दाँत किचकिचा कर भाभी को हम सबके सामने भींच लेते, उन्हें गोद में उठाने की कोशिश करते मगर वो उनके हाथों से बोंबल मछली की तरह फिसल जातीं। फिर वो खिसियाकर रह जाते। जैसे कल्पना में वो शबनम ही को उठा रहे थे और भाभी लज्जित होकर फौरन पुडिंग या कोई और मजेदार डिश तैयार करने चली जातीं। उस वक्त जो उन्हें पानी में धकेला गया तो वो गठरी की तरह लुढक गईं। उनके कपडे जिस्म पर चिपक गए और उनके जिस्म का सारा भौंडापन भयानक तरीके से उभर आया। कमर पर जैसे किसी ने रजाई लपेट दी थी। कपडों में वो इतनी भयानक नहीं मालूम होती थीं।
'ओह, कितनी मोटी हो गई हो तुम! भैया ने कहा, 'उफ तोंद तो देखो...बिलकुल गामा पहलवान मालूम हो रही हो।
'हँह... चार बच्चे होने के बाद कमर...।
'मेरे भी तो चार बच्चे हैं... मेरी कमर तो डनलप पिल्लो का गद्दा नहीं बनी। उन्होंने अपने सुडौल जिस्म को ठोक-बजाकर कहा और भाभी मुँह थूथाए भीगी मुर्गी की तरह पैर मारती झुरझुरियाँ लेती रेत में गहरे-गहरे गङ्ढे बनाती मुन्ने को घसीटती चली गईं। भैया बिलकुल बेतवज्जो होकर शबनम को पानी में डुबकियाँ देने लगे।
जब नहाकर आए तो भाभी सर झुकाए खूबानियों के मुरब्बे पर क्रीम की तह जमा रही थीं। उनके होंठ सफेद हो रहे थे और ऑंखें सुर्ख थीं। गटारचे की गुडिया जैसे मोटे-मोटे गाल और सूजे हुए मालूम हो रहे थे।
लंच पर भाभी बेइंतिहा गमगीन थीं। लिहाजा बडी तेजी से खूबानियों का मुरब्बा और क्रीम खाने में जुटी हुई थीं। शबनम ने डिश की तरफ देखकर ऐसे फरेरी ली जैसी खूबानियाँ न हों, साँप-बिच्छू हों।
'जहर है जहर। उसने नफासत से ककडी का टुकडा कुतरते हुए कहा और भैया भाभी को घूरने लगे। मगर वो शपाशप मुरब्बा उडाती रहीं। 'हद है! उन्होंने नथूने फडकाकर कहा।

MissK
10-05-2011, 08:48 PM
भाभी ने कोई ध्यान न किया और करीब-करीब पूरी डिश पेट में उंडेल ली। उन्हें मुरब्बा-शोरबा खाता देखकर ऐसा मालूम होता था जैसे वो ईष्या-द्वेष के तूफान को रोकने के लिए बंद बाँध रही हों।
'खुदा के लिए बस करो... डॉक्टर भी मना कर चुका है...ऐसा भी क्या चटोरपन! भैया ने कह ही दिया। मोम की दीवार की तरह भाभी पिघल गईं। भैया का नश्तर चर्बी की दीवारों को चीरता हुआ ठीक दिल में उतर गया। मोटे-मोटे ऑंसू भाभी के फूले हुए गालों पर फिसलने लगे। सिसकियों ने जिस्म के ढेर में जलजला पैदा कर दिया। दुबली-पतली और नाजुक लडकियाँ किस लतीफ और सुहाने अंदाज में रोती हैं। मगर भाभी को रोते देखकर बजाए दुख के हँसी आती थी। जैसे कोई रुई के भीगे हुए ढेर को डंडों से पीट रहा हो।
वो नाक पोंछती हुई उठने लगीं, मगर हम लोगों ने रोक लिया और भैया को डाँटा। खुशामद करके वापस उन्हें बिठा लिया। बेचारी नाक सुडकाती बैठ गईं। मगर जब उन्होंने कॉफी में तीन चम्मच शकर डालकर क्रीम की तरफ हाथ बढाया तो एकदम ठिठक गईं। सहमी हुई नजरोंसे शबनम और भैया की तरफ देखा। शबनम बमुश्किल अपनी हँसी रोके हुए थी,भैया मारे गुस्से के रुऑंसे हो रहे थे। वो एकदम भन्नाकर उठे और जाकर बरामदे में बैठ गए। उसके बाद हालात और बिगडे। भाभी ने खुल्लम-खुल्ला ऐलाने-जंग कर दिया। किसी जमाने में भाभी का पठानी खून बहुत गर्म था। जरा-सी बात पर हाथापाई पर उतर आया करती थीं और बारहा भैया से गुस्सा होकर बजाए मुँह फुलाने के वो खूँखार बिल्ली की तरह उन पर टूट पडतीं, उनका मुँह खसोट डालतीं, दाँतों से गिरेबान की धज्जियाँ उडा देतीं। फिर भैया उन्हें अपनी बाँहोंमें भींचकर बेबस कर देते और वो उनके सीने से लगकर प्यासी,डरी हुई चिडिया की तरह फूट-फूटकर रोने लगतीं। फिर मिलाप हो जाता और झेंपी-खिसियानी वो भैया के मुँह पर लगे हुए खरोंचों पर प्यार से टिंचर लगा देतीं, उनके गिरेबान को रफू कर देतीं और मीठी-मीठी शुक्र-गुजार ऑंखों से उन्हें तकती रहतीं।

MissK
10-05-2011, 08:51 PM
ये तब की बात है जब भाभी हल्की-फुल्की तीतरी की तरह तर्रार थीं। लडती हुई छोटी-सी पश्चिमी बिल्ली मालूम होती थीं। भैया को उन पर गुस्सा आने की बजाए और शिद्दत से प्यार आता। मगर जब उन पर गोश्त ने जिहाद बोल दिया,वो बहुत ठंडी पड गई थीं। उन्हें अव्वल तो गुस्साही न आता और अगर आता भी तो फौरन इधर-उधर काम में लगकर भूल जातीं।
उस दिन उन्होंने अपने भारी-भरकम डील-डौल को भूलकर भैया पर हमला कर दिया। भैया सिर्फ उनके बोझ से धक्का खाकर दीवार से जा चिपके। रुई के गट्ठर को यूँ लुढकते देखकर उन्हें सख्त घिन आई। न गुस्सा हुए, न बिगडे, शश्लमदा, उदास सर झुकाए कमरे से निकल भागे,भाभी वहीं पसरकर रोने लगीं।
बात और बढी और एक दिन भैया के साले आकर भाभी को ले गए। तुफैल भाभी के चचा-जाद भाई थे। भैया उस वक्त शबनम के साथ क्रिकेट का मैच देखने गए हुए थे। तुफैल ने शाम तक उनका इंतजार किया। वो न आए तो मजबूरन भाभी और बच्चों का सामान तैयार किया।
जाने से पहले भैया घडी भर को खडे-खडे आए।
'देहली के मकान मैंने इनके मेहर में दिए, उन्होंने रुखाई से तुफैल से कहा।
'मेहर? भाभी थर-थर काँपने लगीं।
'हाँ...तलाक के कागजात वकील के जरिए पहुँच जाएँगे।
'मगर तलाक...तलाक का क्या जिक्र है?
'इसी में बेहतरी है।
'मगर...बच्चे...?
'ये चाहें तो उन्हें ले जाएँ...वरना मैंने बोर्डिंग में इंतजाम कर लिया है।

MissK
10-05-2011, 08:58 PM
एक चीख मारकर भाभी भैया पर झपटीं...मगर उन्हें खसोटने की हिम्मत न हुई, सहमकर ठिठक गईं।
और फिर भाभी ने अपने नारीत्व की पूरी तरह बेआबरूई करवा डाली। वो भैया के पैरों पर लोट गईं, नाक तक रगड डाली।
'तुम उससे शादी कर लो...मैं कुछ न कहूंगी। मगर खुदा के लिए मुझे तलाक न दो। मैं यूँ ही जिंदगी गुजार दूँगी। मुझे कोई शिकायत न होगी।
मगर भैया ने नफरत से भाभी के थुल-थुल करते जिस्म को देखा और मुँह मोड लिया।
'मैं तलाक दे चुका, अब क्या हो सकता है?
मगर भाभी को कौन समझाता। वो बिलबिलाए चली गईं।
'बेवकूफ...। तुफैल ने एक ही झटके में भाभी को जमीन से उठा लिया। 'गधी कहीं की, चल उठ! ...और वो उसे घसीटते हुए ले गए।
क्या दर्दनाक समाँ था। फूट-फूटकर रोने में हम भाभी का साथ दे रहे थे। अम्मा खामोश एक-एक का मुँह तक रही थीं। अब्बा की मौत के बाद उनकी घर में कोई हैसियत नहीं रह गई थी। भैया खुद-मुख्तार थे बल्कि हम सबके सर-परस्त थे। अम्मा उन्हें बहुत समझाकर हार चुकी थीं। उन्हें इस दिन की अच्छी तरह खबर थी, मगर क्या कर सकती थीं।
भाभी चली गईं...फिजा ऐसी खराब हो गई थी कि भैया और शबनम भी शादी के बाद हिल-स्टेशन पर चले गए।

MissK
10-05-2011, 09:00 PM
सात-आठ साल गुजर गए... कुछ ठीक अंदाजा नहीं... हम सब अपने-अपने घरों की हुईं। अम्मा का इंतकाल हो गया।
आशियाना उजड गया। भरा हुआ घर सुनसान हो गया। सब इधर-उधर उड गए। सात-आठ साल ऑंख झपकते न जाने कहाँ गुम हो गए। कभी साल-दो साल में भैया की कोई खैर-खबर मिल जाती। वो ज्यादातर हिन्दुस्तान से बाहर मुल्कों की चक-फेरियों में उलझे रहे मगर जब उनका खत आया कि वो मुंबई आ रहे हैं तो भूला-बिसरा बचपन फिर से जाग उठा। भैया ट्रेन से उतरे तो हम दोनों बच्चों की तरह लिपट गए। शबनम मुझे कहीं नजर न आई। उनका सामान उतर रहा था। जैसे ही भैया से उसकी खैरियत पूछने को मुडी धप से एक वजनी हाथ मेरी पीठ पर पडा और कई मन का गर्म-गर्म गोश्त का पहाड मुझसे लिपट गया।
'भाभी! मैंने प्लेटफॉर्म से नीचे गिरने से बचने के लिए खिडकी में झूलकर कहा। जिंदगी में मैंने शबनम को कभी भाभी न कहा था। वो लगती भी तो शबनम ही थी, लेकिन आज मेरे मुँह से बेइख्तियार भाभी निकल गया। शबनम की फुआर...उन चंद सालों में गोश्त और पोस्त (मांस-त्वचा) का लोंदा कैसे बन गई। मैंने भैया की तरफ देखा। वो वैसे ही दराज कद और छरहरे थे। एक तोला गोश्त न इधर, न उधर।
जब भैया ने शबनम से शादी की तो सभी ने कहा था... शबनम आजाद लडकी है, पक्की उम्र की है...भाभी...तो ये मैंने शहजाद को हमेशा भाभी ही कहा। हाँ तो शहजाद भोली और कमसिन थी...भैया के काबू में आ गई। ये नागिन इन्हें डस कर बेसुध कर देगी। इन्हें मजा चखाएगी।
मगर मजा तो लहरों को सिर्फ चट्टान ही चखा सकती है।

MissK
10-05-2011, 09:02 PM
'बच्चे बोर्डिंग में हैं, छुट्टी नहीं थी उनकी...। शबनम ने खट्टी डकारों भरी सांस मेरी गर्दन पर छोड़कर कहा.
और मैं हैरत से उस गोश्त के ढेर में उस शबनम को, फुआर को ढूँढ रही थी, जिसने शहजाद के प्यार की आग को बुझाकर भैया के कलेजे में नई आग भडका दी थी। मगर ये क्या? उस आग में भस्म हो जाने से भैया तो और भी सच्चे सोने की तरह तपकर निखर आए थे। आग खुद अपनी तपिश में भस्म होकर राख का ढेर बन गई थी। भाभी तो मक्खन का ढेर थी...मगर शबनम तो झुलसी हुई टसयाली राख थी...उसका साँवला-कुंदनी रंग मरी हुई छिपकली के पेट की तरह और जर्द हो चुका था। वो शरबत घुली हुई ऑंखें गंदली और बेरौनक हो गई थीं। पतली नागिक जैसी लचकती हुई कमर का कहीं दूर-दूर तक पता न था। वो मुस्तकिल तौर पर हामिला मालूम होती थी। वो नाजुक-नाजुक लचकीली शाखों जैसी बाँहें मुगदर की तरह हो गई थीं। उसके चेहरे पर पहले से ज्यादा पावडर थुपा हुआ था। ऑंखें मस्कारा से लिथडी हुई थीं। भवें शायद गलती से ज्यादा नुच गई थीं, जभी इतनी गहरी पेंसिल घिसनी पडी थी।
भैया रिट्ज में ठहरे। रात को डिनर पर हम वहीं पहुँच गए।
कैबरे अपने पूरे शबाब पर था। मिस्री हसीना अपने छाती जैसे पेट को मरोडिया दे रही थी, उसके कूल्हे दायरों में लचक रहे थे...सुडौल मरमरीं बाजू हवा में थरथरा रहे थे, बारीक शिफान में से उसकी रूपहली टाँगें हाथी-दाँत के तराशे हुए सतूनों (खम्भों) की तरह फडक रही थीं... भैया की भूखी ऑंखें उसके जिस्म पर बिच्छुओं की तरह रेंग रही थीं...वो बार-बार अपनी गुद्दी पर अनजानी चोट सहला रहे थे।

MissK
10-05-2011, 09:06 PM
भाभी...जो कभी शबनम थी...मिस्री रक्कासा (नर्तकी) की तरह लहराई हुई बिजली थी, जो एक दिन भैया के होशों-हवास पर गिरी थी, आज रेत के ढेर की तरह भसकी बैठी थी। उसके मोटे-मोटे गाल खून की कमी और मुस्तकिल स्थायी बदहज्मी की वजह से पीलेपन की ओर अग्रसर हो रहे थे। नियान लाइट्स की रोशनी में उसका रंग देखकर ऐसा मालूम हो रहा था जैसे किसी अनजाने नाग ने डस लिया हो। मिस्री रक्कासा के कूल्हे तूफान मचा रहे थे और भैया के दिल की नाव उस भँवर में चक-फेरियाँ खा रही थीं, पाँच बच्चों की माँ शबनम...जो अब भाभी बन चुकी थी, सहमी-सहमी नजरों से उन्हें तक रही थी, ध्यान बँटाने के लिए वो तेजी से भुना हुआ मुर्ग हडप कर रही थी।
आर्केस्ट्रा ने एक भरपूर साँस खींची...साज कराहे...ड्रम का दिल गूँज उठा...मिस्री रक्कासा की कमर ने आखिरी झकोले लिए और निढाल होकर मरमरीं फर्श पर फैलर् गई।
हॉल तालियों से गूँज रहा था...शबनम की ऑंखें भैया की ढूँढ रही थी...बैरा तरो-ताजा रसभरी और क्रीम का जग ले आया। बेखयाली में शबनम ने प्याला रसभरियों से भर लिया। उसके हाथ लरज रहे थे। ऑंखें चोट खाई हुई हिरनियों की तरह परेशान चौकडियाँ भर रही थीं।

MissK
10-05-2011, 09:10 PM
भीड-भाड से दूर...हल्की ऍंधेरी बालकनी में भैया खडे मिस्री रक्कासा का सिगरेट सुलगा रहे थे। उनकी रसमयी निगाहें रक्कासा की नशीली ऑंखों से उलझ रही थीं। शबनम का रंग उडा हुआ था और वो एक ऊबड-खाबड पहाड की तरह गुमसुम बैठी थी। शबनम को अपनी तरफ तकता देखकर भैया रक्कासा का बाजू थामे अपनी मेज पर लौट आए और हमारा तआरुफ कराया।
'मेरी बहन, उन्होंने मेरी तरफ इशारा किया। रक्कासा ने लचककर मेरे वजूद को मान लिया।
'मेरी बेगम... उन्होंने ड्रामाई अंदाज में कहा। जैसे कोई मैदाने-जंग में खाया हुआ जख्म किसी को दिखा रहा हो। रक्कासा स्तब्ध रह गई। जैसे उनकी जीवन-संगिनी को नहीं खुद उनकी लाश को खून में लथपथ देख लिया हो, वो भयभीत होकर शबनम को घूरने लगी। फिर उसने अपने कलेजे की सारी ममता अपनी ऑंखों में समोकर भैया की तरफ देखा। उसकी एक नजर में लाखों फसाने पोशीदा थे। 'उफ ये हिन्दुस्तान जहाँ जहालत से कैसी-कैसी प्यारी हस्तियाँ रस्मों-रिवाज पर कुर्बान की जाती हैं। काबिले-परस्तिश हैं वो लोग और काबिले-रहम भी,जो ऐसी-ऐसी 'सजाएँ भुगतते हैं। ...मेरी शबनम भाभी ने रक्कासा की निगाहों में ये सब पढ लिया। उसके हाथ काँपने लगे। परेशानी छुपाने के लिए उसने क्रीम का जग उठाकर रसभरियों पर उंडेल दिया और जुट गई।
प्यारे भैया! हैंडसम और मजलूम...सूरज-देवता की तरह हसीन और रोमांटिक, शहद भरी ऑंखों वाले भैया, चट्टान की तरह अटल...एक अमर शहीद का रूप सजाए बैठे मुस्करा रहे थे...
...एक लहर चूर-चूर उनके कदमों में पडी दम तोड रही थी...
...दूसरी नई-नवेली लचकती हुई लहर उनकी पथरीली बाँहों में समाने के लिए बेचैन और बेकरार थी।

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MissK
11-05-2011, 06:53 PM
हिन्दुस्तान छोड़ दो


साहब मर गया जयंतराम ने बाजार से लाए हुए सौदे के साथ यह खबर लाकर दी।
'साहब- कौन साहब?
'वह कांटरिया साहब था न?
'वह काना साहब- जैक्सन। च-च-बेचारा।
मैंने खिडकी में से झांक कर देखा। काई लगी पुरानी जगह- जगह से खोडी हैंसी की तरह गिरती हुई दीवार के इस पार उधडे हुए सीमेंट के चबूतरे पर सक्खू भाई पैर पसारे मराठी भाषा में बौन कर रही थी। उसके पास पीटू उकडू बैठा हिचकियों से रो रहा था। पीटू यानी पीटर, काले-गोरे मेल का नायाब नमूना था। उसकी आंखें जैक्सन साहब की तरह नीली और बाल भूरे थे। रंग गेहूंआ था, जो धूप में जलकर बिल्कुल तांबे जैसा हो गया था। इसी खिडकी में से मैं बरसों से इस अजीबोगरीब खान्दान को देखती आई थी। यहीं बैठकर मेरी जैक्सन से पहली मरतबा बातचीत शुरू हुई थी।
'सन बयालीस का 'हिन्दुस्तान छोड दो का हंगामा जोरों पर था। ग्रांट रोड से दादर तक का सफर मुल्क की बेचैनी का एक मुख्तसर मगर जान्दार नमूना साबित हुआ था। मैगन रोड के नाके पर एक बडा भारी-सा अलाव जल रहा था। जिसमें राह चलतों की टाइयां, हैट और कभी मूड आ जाता तो पतलूनें उतार कर जलाई जा रही थीं। सीन कुछ बचकाना सही, मगर दिलचस्प था। लच्छेदार टाइयां, नई तर्ज के हैट, इस्त्री की हुई पतलूनें, बडी बेदर्दी से आग में झोंकी जा रही थीं। फटे हुए चीथडे पहने आतिशबाज नए-नए कपडों को निहायत बेतकल्लुफी से आग में झोंक रहे थे। एक क्षण को भी तो किसी के दिल में यह खयाल नहीं आ रहा था कि नई गैरी डीन की पतलून को आग के मुंह में झोंकने के बजाय अपनी नंगी स्याह टांगों में ही चढा ले, इतने में मिलेट्री की ट्रक आ गई थी, जिसमें से लाल भभूका थूथनियों वाले गोरे, हाथों में मशीनगन संभाले धमाधम कूदने लगे। मजमा एकदम फुर से न जाने कहां उड गया था। मैंने यह तमाशा म्युनिस्पिल दफ्तर के सुरक्षित हाते से देखा था और मशीनगनें देखकर मैं जल्दी से अपने दफ्तर में घुस गई थी।

MissK
11-05-2011, 06:58 PM
रेल के डिब्बों में भी अफरा-तफरी मची हुई थी। बम्बई सेंट्रल से जब रेल चली थी तो डिब्बे की आठ सीटों में से सिर्फ तीन सलामत थीं। परेल आने तक वो तीनों भी उखेड कर खिडकियों से बाहर फेंक दी गईं, और मैं रास्ते भर खडे-खडे दादर तक आई। मुझे उन छोकरों पर कतई कोई गुस्सा नहीं आ रहा था। ऐसा मालूम हो रहा था, ये सारी रेलें, ये टाइयां पतलूनें, हमारी नहीं दुश्मन की हैं। इनके साथ हम दुश्मन को भी भून रहे हैं, उठाकर फेंक रहे हैं। मेरे घर के करीब ही सडक के बीचों-बीच ट्रेफिक रोकने के लिए एक पेड का लम्बा सा लट्ठा सडक पर बेडा डालकर उस पर कूडे करकट की अच्छी खासी दीवार खडी थी। मैं मुश्किलों से उसे फांद कर अपने फ्लैट तक पहुंची ही थी कि मिलेट्री की ट्रक रुक गई। उसमें से जो पहला गोरा मशीनगन लिए धम से कूदा था, जैक्सन साहब ही था। ट्राक की आमद की खबर सुनते ही सडक पर रोक बांधने वाला दस्ता इधर-उधर बिल्डिंगों में सटक गया था। मेरा फ्लैट क्योंकि सबसे निचली मंजिल पर था, लिहाजा बहुत से छोकरे एकदम रैला करके घुस आए। कुछ किचेन में घुस गए, कुछ बाथरूम और टायलेट में दुबक गए। चूंकि मेरा दरवाजा खुला हुआ था इसलिए जैक्सन दो शस्त्रधारी गोरों के साथ मुझसे जवाब-तलब करने आगे आया।
'तुम्हारे घर में बदमाश छिपे हैं, उन्हें हमारे हवाले कर दो।
'मेरे घर में तो कोई नहीं, सिर्फ मेरे नौकर हैं। मैंने बडी लापरवाही से कहा।
'कौन हैं तुम्हारे नौकर?
'ये तीनों मैंने तीन छोकरों की तरफ इशारा किया जो बर्तन खडबडर कर रहे थे।
'यह बाथरूम में कौन है?
'मेरी सास नहा रही है कहते हुए, खयाल आया मेरी सास इस वक्त न जाने कहां होंगी।
'और टायलेट में? उसके चेहरे पर शरारत की झपकी आई।
'मेरी मां होगी या शायद बहन हो मुझे क्या मालूम मैं तो अभी-अभी बाहर से आई हूँ।
'फिर तुम्हें कैसे मालूम हुआ की बाथरूम में तुम्हारी सास है।
'मेरे घर में दाखिल होते ही उन्होंने आवाज देकर मुझसे तौलिया मांगा था।
'हूँ - अपनी सास से कह दो, सडक रोकना जुर्म है। उसने दबी आवाज में कहा और अपने साथियों को, जिन्हें वह बाहर खडा कर आया था, वापस ट्रक में जाने को कहा 'हूँ -हूँ-हूँ वह गर्दन हिलाता हौले-हौले मुस्कराता हुआ चला गया। उसकी आंखों में अर्थपूर्ण जुगनू चमक रहे थे।

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11-05-2011, 07:00 PM
जैक्सन का बंगला मेरे फ्लैट की चहारदीवारी से सटी जमीन पर था। पश्चिमी छोर पर समुद्र था। उसकी मेम साहब मां दोनों बच्चों के इन दिनों हिन्दुस्तान आई हुई थीं। बडी लडकी जवान थी और छोटी बारह-तेरह बरस की। मेम साहब सिर्फ छुट्टियों में थोडे दिनों के लिए हिन्दुस्तान आ जाती थीं। उसके आते ही बंगले का हुलिया ही बदल जाता था। नौकर चाक-चौबन्द हो जाते। अन्दर-बाहर पुताई होती। बाग में नए गमले मुहय्या किए जाते। मेम साहब के जाते ही जिन्हें पास पडोस के लोग चुराना शुरू कर देते। कुछ को माली बेच डालता। दोबारा जब मेम साहब के आने का गलगला मचता तो साहब फिर विक्ट्रोया गार्डन से गमले उठवा लाता।
जितने दिन मेम साहब रहतीं, नौकर बावर्दी नजर आते। साहब भी यूनीफार्म डाले रहता या निहायत उम्दा ड्रेसिंग गाऊन पहने- साफ-सुथरे कुत्तों के साथ लान और क्यारियों का बिल्कुल इस तरह मुआयना करता फिरता गोया वह सौ फीसद यानी सचमुच साहब लोगों में से है।
मगर मेम साहब के जाते ही वह इत्मीनान की सांस लेकर दफ्तर जाता। डयूटी के बाद नेकर और बनियान पहने चबूतरे पर कुर्सी डाले बीयर पिया करता। उसका ड्रेसिंग गाऊन शायद उसका बैरा चुरा ले जाता। कुत्ते तो मेम साहब के साथ ही चले जाते। दो-चार देसी कुत्ते बंगले को यतीम समझ कर उसके लान में डेरा डाल देते।
मेम साहब जितने दिन रहती डिनर पार्टियों का जोर रहता और वह सुबह ही सुबह पंच सुरों में अपनी आया को आवाज देतीं।
'आया ऊ ..... ऊ....।
'जी मेम साहब आया उसकी आवाज पर तडप कर दौडती। मगर जब मेमसाहब चली जातीं तो लोगों का कहना था कि आया बेगम बन बैठी थीं। वह उसकी गैरहाजिरी में एवजी भुगताया करती थी।
फ्लोमीना और पीटू उर्फ पीटर इसी अस्थाई समर्पण के स्थाई प्रमाण थे।
'कुछ हिन्दुस्तान छोड दो। का हंगामा और कुछ मेम साहब उकता गई थीं, इस गंदे पिचपिचाते मुल्क और उसके वासियों से इसलिए जल्दी ही वह वतन सिधार गई। उन्हीं दिनों मेरी मुलाकात जैक्सन से इसी खिडकी के जरिए हुई।
'तुम्हारा सास नहा चुका? उसने बम्बई की जबान में कमीनपने से मुस्कुराते हुए पूछा।
'हां साहब नहा चुका था। खून का स्नान किया उसने मैंने तीखेपन से जवाब दिया, चौदह-चौदह बरस के चंद बच्चे कुछ ही दिन पहले, हरि निवास पर जब गोली चली थी, उसमें मारे गए थे। मुझे यकीन था कि उनमें से कुछ वहीं बच्चे होंगे, जो उस दिन मिलेट्री की ट्रक आने पर मेरे घर में छिप गए थे। मुझे साहब से घिन आने लगी थी। ब्रिटिश साम्राज्य का जीता जागता हथियार मेरे सामने खडा उन बेगुनाहों के खून का मजाक उडा रहा था, जो उसके हाथ से मारे गए थे। मेरा जी चाहा उसका मुंह नोच लूं! उसकी कौन-सी आंख शीशे की थी, यह अंदाज लगा पाना मेरे लिए मुश्किल था। क्योंकि वह शीशे वाली आंख विलायती थी, मक्कारी का आला नमूना थी। उसमें जैक्सन की सारी सफेद कौम की चालबाजी भरी हुई थी। उच्चता का दंभ दोनों ही आंखों में रचा हुआ था। मैंने धड से खिडकी के पट बन्द कर दिए।

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11-05-2011, 07:06 PM
मुझे सक्खू बाई पर बहुत गुस्सा आता था। सूअर की बच्ची सफेद कौम के जलील कुत्ते का तर निवाला बनी हुई थी। क्या खुद उसके मुल्क में कोढियों और हरामजादों की कमी थी, जो वह मुल्क की गैरत के नीलाम पर तुल गई थी। जैक्सन रोज शराब पीकर उसकी ठुकाई करता। मुल्क में बडे-बडे मोर्चे फतह किए जा रहे थे। सफेद हाकिम बस कुछ दिनों के मेहमान थे।
'बस अब चल चलाओ है इनकी हुकूमत का कुछ लोग कहते। 'अजी ये शेख चिल्ली के ख्वाब हैं। इन्हें निकालना आसान नहीं कुछ दूसरे लोग राय देते। इधर मैं मुल्क के नेताओं की लम्बी-चौडी तकरीरें सुन कर सोचती, कोई जैक्सन काने साहब का जिक्र ही नहीं करता। वह मजे से सक्खू बाई को झोंटे पकड कर पीटता है। फ्लोमीना और पीट्टू को मारता है। आखिर जै हिन्द का नारा लगाने वाले उसका कुछ फैसला क्यों नहीं करते? मगर मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। पिछवाडे शराब बनती थी। मुझे सब कुछ मालूम था, मगर मैं क्या कर सकती थीं। सुना था अगर गुंडों की शिकायत कर दो तो ये जान को लागू हो जाते हैं। वैसे मुझे तो यह भी नहीं मालूम था कि किससे रिपोर्ट करूं। सारी बिल्डिंग के नल दिन-रात टपकते थे, नालियां सड रही थीं। मगर मुझे बिल्कुल नहीं मालूम था कि कहां किससे रिपोर्ट की जाती है। आसपास रहने वालों में भी किसी को नहीं मालूम था कि अगर कोई बदजात औरत ऊपर से किसी के सर पर कूडे का टिन उलट दे तो किससे शिकायत करें। ऐसे मौकों पर आम तौर पर जिसके सर पर कूडा गिरता वह मुंह ऊंचा करके खिडकियों को गालियां बकता, कपडें झाडता अपनी राह लेता।
मैंने मौका पाकर एक दिन सक्खू बाई को पकडा 'क्यों कम्बख्त यह पाजी तुम्हें रोज पीटता है, तुझे शर्म भी नहीं आती?
'रोज कब्बी मारता बाई? वह बहस करने लगी।
'खैर वह महीने में चार-पांच बार तो मारता है न
'हां मारता है बाई, सो हम भी साले को मारता है वह हंसी।
'चल झूठी
'अरे पीट्टू की सौगंध, हम थोडा मार दिया साले को परसों
'मगर तुझे शर्म नहीं आती सफेद चमडी वाले की जूतियां सहती है?
'मैंने एक सच्चे वतन परस्त की तरह जोश में आकर उसे लेक्चर दे डाले।
'इन लुटेरों ने हमारे मुल्क तो कितना लूटा है वगैरा-वगैरा।

MissK
11-05-2011, 07:08 PM
'अरे बाई क्या बात करता तुम। साहब साला कोई नहीं लूटा ये जो मवाली लोग हैं न वो बेचारा को दिन-रात लूटता। मेम साब गया, पीछे सब कटलरी-फटलरी बैरा लोग पार कर दिया। अक्खा पटूलन-कोट, हैत, इतना फस्त क्लास जूता, सब खतम। देखो चल के बंगले में कुछ भी नहीं छोडा। तुम कहता चोर है साहब। हम बोलता हम नई होदे तो साल उसका बेटी काट के ले जादे ऐ लोग
'मगर तुम्हें उसका क्यों इतना दर्द है?
'काइको नई होवे दर्द, वो हमारा मरद है न बाई सक्खू बाई मुस्कराई!
'और मेम साहब?
'मेम साब पक्की छिनाल हो- लन्दन में उसका बौत यार है.... यहां सक्खू बाई ने मोटी सी गाली देकर कहा, '...वहीं मरी रहती है। आती बी नई। पन आती तो दन साहब से खिट-खिट, नौकर लोग से गिट-गिट। मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि अब अंग्रेज हिन्दुस्तान से जा रहे हैं। साहब भी चला जाएगा। मगर वह कतई नहीं समझी। बस यही कहती रही कि 'साहब चला जाएगा बाई मगर उसे विलायत बिलकुल पसंद नहीं

कुछ सालों के लिए मुझे पूना रहना पडा। इस अर्सा में दुनिया बदल गई। फिर सचमुच अंग्रेज चले गए। मुल्क का बंटवारा हुआ। सफेद हाकिम पिटी हुई चाल चल गया और मुल्क खून की नहरों में नहा गया।
जब बम्बई वापस आयी तो बंगले का हुलिया बदला हुआ था। साहब न जाने कहां चला गया था। बंगले में एक रिफ्यूजी खान्दान आ बसा था। बाहर नौकरों के क्वार्टरों में से एक में सक्खू बाई रहने लगी थी। फ्लोमीना खासी लम्बी हो गई थी। पीट्टू और वह माहम के एक यतीम खाने (अनाथालय) में पढने जाते थे।
जैसे ही सक्खू बाई को मेरे आने की खबर लगी वह फौरन ही हाथ में मूंगने की दो चार फलियां लिए आ धमकी!

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11-05-2011, 07:13 PM
'कैसा है बाई? उसने रसमन मेरे घुटने दबा कर पूछा।
'तुम कैसा है, साहब कहां है तुम्हारा? चला गया न लन्दन?
'नई बाई... सक्खू बाई का मुंह सूख गया, 'हम बोला भी जाने को पर नहीं गया। उसका नौकरी भी खलास हो गया था। आर्डर भी आया, पर नहीं गया।
'फिर कहां है?
'अस्पताल में
'क्यों क्या हो गया?
'डॉक्टर लोग बोलता कि दारू बोत पिया इस कारन मस्तक फिर गया। उधर पागल साहब लोग का हस्पताल है। उच्चा-एकदम फर्स्ट क्लास, उधर उसको डाला
'मगर वह तो वापस जाने वाला था?
'कितना सब लोग बोला, हम लोग बोला बाबा चले जाओ
सक्खू बाई रो पडी।
'पन नहीं, हमको बोला सक्खू डार्लिंग तेरे को छोड कर नहीं जाएंगे।
न जाने सक्खू बाई को रोते देखकर मुझको क्या हो गया, मैं भूल गई कि साहब एक लुटेरी साम्राजी कौम का फर्द है, जिसने फौज में भर्ती होकर मेरे मुल्क की गुलामी की जंजीरों को ज्यादा जकड बना दिया था। जिसने मेरे वतन के बच्चों पर गोलियां चलाई थीं, निहत्थे लोगों पर मशीनगनों से आग बरसायी थी। वह ब्रिटिश साम्राज्य के उन घिनौने कलपुर्जों में था जिसने मेरे देस के जांबाजों का खून सडकों पर बहाया था, सिर्फ इस कुसूर में कि वह अपने हक मांगते थे, इज्जत से जीना चाहते थे। मगर मुझे उस वक्त कुछ याद न रहा, सिवाए इसके कि सक्खू बाई का मर्द पागलखाने में भर्ती था। मुझे अपने इस तरह भावुक होने पर बहुत दुख था। क्योंकि एक कौमपरस्त को जाबिर कौम के एक फर्द से कतई किसी तरह की हमदर्दी या लगाव नहीं महसूस करना चाहिए।
मैं ही नहीं सब ही भूल चुके थे। मोहल्ले के सारे लौंडे नीली आंखों वाली फीलोमीना पर बगैर यह सोचे-समझे फिदा थे कि वह कीडा जिससे उसकी हस्ती अस्तित्व में आई सफेद था या काला। जब वह स्कूल से लौटती तो कितनी ही ठण्डी सांसें उसके इंतजार में होतीं। कितनी ही निगाहें उसके पैरों तले बिछी थीं... किसी लौण्डे को उसके इश्क करते, सिर धुनते वक्त किंचित याद न रहता कि यह उसी सफेद दरिन्दे की लडकी है जिसने हरिनिवास के नाके पर चौदह बरस के बच्चे को खून में डिबो कर मारा था। जिसने माहम चर्च के सामने निहत्थी औरतों पर गोलियां चलाई थीं। क्योंकि वो नारे लगा रही थीं। जिसने चौपाटी की रेत में जवानों का खून निचोडा था और सिक्रेट्रियेट के सामने सूखे-मारे नंगे भूखे लडकों के जुलूस को मशीनगनों से दरहम-बरहम किया था। उन सारे मंजरों को सब भूल चुके थे। बस इतना याद था कि कुंदनी गालों और नीली आंखों वाली छोकरी की कमर में गजब की लचक है। मोटे-मोटे गदराए हुए होंठों के कम्पन में मोती खलते हैं।

MissK
11-05-2011, 07:15 PM
एक दिन सक्खू बाई झोली में प्रसाद लिए भागी-भागी आई।
'हमारा साहब आ गया
उसकी आवाज लरज रही थी, आंखों में मोती चमक रहे थे। कितना प्यार था, इस लफ्ज हमारा में। जिन्दगी में एक बार किसी को पूरी जान का दम निचोड कर अपना कहने का मौका मिल जाए तो फिर जन्म लेने का मकसद पूरा हो जाता है।
'अच्छा हो गया?
'अरे बाई पागल कब्बी था वह? ऐसे इच साहब लोग पकड कर ले गया था, भाग आया।
वह राज बताने जैसे लहजे में बोली।
मैं डर गई, एक तो हारा हुआ अंग्रेज ऊपर से पागलखाने से भागा हुआ। किसको रिपोर्ट करूं। बम्बई की पुलिस के लफडे में कौन पडता फिरे। हुआ करे पागल मेरी बला से। कौन मुझे उससे मेल -जोल बढाना है।
लेकिन मेरा खयाल गलत निकला। मुझे मेल-जोल बढाना पडा मेरे दिल में खुद-बुद हो रही थी कि किसी तरह पूछूं, 'जैक्सन इंगलिस्तान अपने बीवी बच्चों के पास क्यों नहीं जाता। भला ऐसा भी कोई इंसान होगा जो जन्नत को छोडकर यों एक खोली में पडा रहे। और एक दिन मुझे मौका मिल ही गया। कुछ दिन तक तो वह कोठरी से बाहर ही न निकला। फिर आहिस्ता-आहिस्ता निकलकर चौखट पर बैठने लगा। वह सूखकर कलफ चढे कपडें जैसा हो गया था। उसका रंग जो पहले बन्दर के चेहरे जैसा लाल चुकन्दर था झुलस कर कत्थई हो गया था। बाल सफेद हो गये थे। चारखाने की लुंगी बांधे मैली बनियान चढाए वह बिल्कुल हिन्दुस्तान की गलियों में घूमते पुराने गोरखों की मानिन्द लगता था। उसकी नकली और असली आंख में फर्क मालूम होने लगा था। शीशा तो अब भी वैसा ही चमकदार झिलमिल और 'अंग्रेज था मगर असली आंख गंदली बे रौनक होकर जरा दब गई थी। अब तो ज्यादातर वह शीशे वाली आंख के बगैर ही घूमा करता था। एक दिन मैंने खिडकी में से देखा तो वह जामुन के पेड के नीचे खडा खोए-खोए अंदाज में कभी जमीन से कोई कंकर उठाता, उसे बच्चों की तरह देखकर मुस्कुराता फिर पूरी ताकत से उसे दूर फेंक देता। मुझे देखकर वह मुस्कुराया और सिर हिलाने लगा।

MissK
11-05-2011, 07:16 PM
'कैसी तबीयत है साहब
उत्सुकता ने उक्साया तो मैंने पूछा।
'अच्छा है- अच्छा है। वह मुस्कुरा कर शुक्रिया अदा करने लगा।
मैंने बाहर जाकर इधर-उधर की बातें शुरू कीं। जल्दी ही वह मुझसे बातें करने में बेतकल्लुफी महसूस करने लगा। फिर एक दिन मैंने मौका पाकर कुरेदना शुरू किया। कई दिन की कोशिशों के बाद मुझे मालूम हुआ कि वह एक शरीफजादी का नाजायज बेटा था। उसके नाना ने एक किसान को कुछ रुपए दे दिलाकर उसे पालने-पोसने को राजी कर लिया। मगर यह मामला इस सफाई से किया गया कि उस किसान को भी पता न चल सका कि वह किस खान्दान का है। किसान बडा कुटिल था। उसके कई बेटे थे, जो जैक्सन को तरह-तरह से सताया करते थे। रोज पिटाई होती थी, मगर खाने को अच्छा मिलता था। उसने बारह तेरह बरस की उम्र से भागने की कोशिशें आरंभ की। तीन-चार साल की लगातार कोशिशों के बाद वह लुढकता-पुढकता धक्के खाता लन्दन पहुंचा। वहां उसने कई पेशे बारी इख्तियार किए, मगर इस अर्से में वह इतना ढीट, मक्कार और स्वच्छंद हो गया था कि दो दिन से ज्यादा कोई नौकरी न रहती।
वह शक्ल-सूरत से रोबीला और खूबसूरत था इस वजह से लडकियों में काफी लोकप्रिय था। डार्थी उसकी बीवी नकचढे खान्दान की लडकी थी। उलार और ओछी भी। उसका बाप ऊंची पहुंच वाला शख्स था। जैक्सन ने सोचा इस खानाबदोशी की जिन्दगी में बडे झंझट हैं। आए दिन पुलिस और कचहरी से वास्ता पडता है। क्यों न डार्थी से शादी करके जिन्दगी संवार ली जाए। डार्थी उसके बस के बाहर थी, उसकी पहुंच से दूर थी। वह ऊंची सोसाइटी में उठने-बैठने की आदी थी। उस वक्त जैक्सन की दोनों आंखें असली थीं। यह तो जब वह डार्थी से लडकर शराबखानों का हो रहा। वहां किसी से मारपीट में एक आंख जाती रही। तब तक उसकी सिर्फ बडी बेटी पैदा हुई थी।
'हां तो तुमने डार्थी को कैसे घेर का फांसा?
मैंने और कुरेदा।

MissK
11-05-2011, 07:18 PM
'जब मेरी दोनों आंखें सलामत थीं....
जैक्सन मुस्कुराया
किसी न किसी तरह डार्थी हत्थे चढ गई। कम्बख्त कुंआरी भी नहीं थी। मगर ऐसे खेल रचाए कि बाप के न-न करते रहने के बावजूद शादी कर ली।
बाप ने भी लडकी की मजबूरियों को समझ लिया। और बीवी के रोज-रोज के तकाजों से मजबूर होकर उसे हिन्दुस्तान भिजवा दिया। यह वह दौर था जब हर निकम्मा अंग्रेज हिन्दुस्तान के सर मढ दिया जाता था भले वहां जूते गांठता हो, यहां आते ही साहब बन बैठता।
जैक्सन ने हद कर दी। वह हिन्दुस्तान में भी वैसा ही निकम्मा और लाउबाली साबित हुआ। सब से बडी खराबी जो उसमें थी, वह उसका छिछोरापन था। बजाय साहब बहादुरों की तरह रौब-दाब से रहने के वह निहायत भोंडेपन से नीटो लोगों में घुलमिल जाता था। जब वह बस्ती के इलाके में जंगलात के मोहकमे में तैनात हुआ तो क्लब के बजाय न जाने किन चन्डूखानों में घूमता फिरता था। आस-पास सिर्फ चंद अंग्रेजों के बंगले थे, बदकिस्मती से ज्यादातर लोग अधिक उम्र के संभ्रान्त थे। सुनसान क्लब में जहां हिन्दुस्तानियों और कुत्तों को दाखिल होने की इजाजत नहीं थी, ज्यादातर उल्लू बोला करते थे। सब ही अफसरों की बीवियां अपने वतन में रहती थीं। जब कभी किसी अफसर की बीवी हिन्दुस्तान आ जाती तो वह उसे बजाय जंगल में लाने के स्वयं छुट्टी लेकर शिमला या नैनीताल चला जाता। फिर बीवी हिन्दुस्तान की गिलाजत से आजिज आकर वापस चली जाती और उसका साहब ठण्डी आहें भरता, बीवी की हसीन यादें लिए लौट आता। साहब लोग वैसे अपना काम नीटो औरतों से चला लिया करते थे। इस किस्म के तअल्लुकात से किसी का नुकसान नहीं होता था। हिसाब भी सस्ता रहता था। हिन्दुस्तान का भी फायदा था इसमें। एक तो उनसे पैदा होने वाली औलाद खास गोरी हुआ करती थी, कभी काली भी, दूसरा यह कि उनके बारसूख, बाप उनके लिए अनाथालय और स्कूल खुलवा दिया करते थे। सरकारी खर्च पर उनकी दूसरे हिन्दुस्तानियों के मुकाबले बेहतर शिक्षा-दीक्षा होती थी। यह ऐंग्लोइण्डियन गोरी शक्ल वाला वर्ग अंग्रेजों से बस दूसरे नम्बर पर था। लडके रेलवे जंगलात और नेवी में बडी आसानी से खप जाते थे। इनकी मामूली शक्ल वाली लडकियों को भी सुन्दर हिन्दुस्तानी लडकियों से बेहतर नौकरियां मिल जाती और वो स्कूल, ऑफिसों और अस्पतालों की रौनक बढातीं.... जो ज्यादा हसीन होतीं वो बडे-बडे शहरों के पश्चिमग्रस्त ब्यूटी मार्केट में बडी सफल साबित होती थीं।

MissK
11-05-2011, 07:20 PM
जैक्सन साहब जब हिन्दुस्तान आया तो उसमें काने शख्स की तमाम बुराइयां कसरत से मौजूद थीं। कानेपन के बाद शराब उसके व्यक्तित्व की दूसरी पहचान थी। हर जगह उसकी किसी न किसी से ठन जाती और उसका तबादला हो जाता। जंगलात से हटाकर उसे पुलिस में भेज दिया गया, जिसका उसे बहुत मलाल था। क्योंकि वहां एक पहाडन पर उसका बुरी तरह दिल आ गया था। जबलपुर पहुंचकर वह उसे जरूर बुलवा लेता, लेकिन वहां उसे एक नटिनी से प्रेम हो गया। ऐसा जोरदार इश्क कि उसकी बीवी सारी छुट्टियां नैनीताल में गुजार कर वापस चली गई और वह न गया। काम की अधिकता का बहाना करता रहा, छुट्टी न मिलने का रोना रोता रहा। मगर डार्थी के डैडी के कितने ही दोस्त थे, जिनके दबाव से उसे जबरदस्ती छुट्टी दिलवाई गई। जब वह नैनीताल पहुंचा तो उसका कतई दिल न लगा। एक तो डार्थी उसकी जुदाई में उस पर बेतरह आशिक हो गई थी और चाहती थी, दोबार हनीमून मनाया जाए। दूसरी तरफ उसे जैक्सन की प्रेम पध्दति से बडी घबराहट होती थी। वह इतने दिन हिन्दुस्तान में रहकर एकदम अजनबी हो चुका था। पहाडपन और नटनी, दोनों ने हिन्दुस्तानी पतिव्रता पत्नियों की तरह खिदमत करके उसका दिमाग खराब कर दिया था। साल में सिर्फ दो महीने आने वाली बीवी भी बिल्कुल अजनबी हो गई थी। फिर उसके सामने जैक्सन को कई बंधन मानने पडते। एक दिन नशे में उसने अपनी बीवी से भी पहाडन और नटनी के अंदाज में प्यार करने की इच्छा प्रकट कर दी। वह ऐसा भडकी कि जैक्सन के छक्के ही छूट गए। उसने बहुत जिरह की कि कहीं तुम भी दूसरे बेगैरत और नीच अंग्रेजों की तरह लोकल औरतों से मेल-जोल तो नहीं बढाने लगे हो।
जैक्सन ने कसमें खायीं और डार्थी को इतना प्यार किया कि वह उसकी नेकचलनी की कायल हो गई। उसे बडा तरस आया और वह उसे बडे प्यार से जबलपुर ले आया। मगर वह वहां की मक्खियां और गर्मियों से बौखला कर पागलों जैसी हो गई। और तो सब वह झेल जाती मगर जब उसके बाथरूम में 'दोमुंही निकली तो वह उसी वक्त सामान बांधने लगी। जैक्सन ने बहुत समझाया कि यह सांप नहीं और काटता भी नहीं, लेकिन उसने एक न सुनी और दूसरे दिन देहली चली गई।

MissK
11-05-2011, 07:23 PM
वहां से उसने जोर लगाकर उसका ट्रांसफर बम्बई करवा दिया। यह उस जमाने की बात है जब दूसरी जंग शुरू हो चुकी थी। नटनी की जुदाई और डार्थी का बम्बई में स्थाई डेरा उसकी आत्मा को दीमक बन कर चाट रहा था। सक्खू बाई बच्चों की आया की मदद के लिए रखी गई थी। मगर जब बारिश से आजिज आकर डार्थी बच्चों समेत इंग्लैण्ड गई तो जैक्सन की कृपा दृष्टि उस पर पडी।
उफ! किस कदर उलझी हुई दास्तान थी साहब की, क्योंकि सक्खू बाई गनपत हैड बैरे की रखैल थी। वह उसे पवन पुले से फुसला लाया था। वैसे बीवी बच्चों वाला आदमी था। बोझ से बचने के लिए उसे बतौर असिस्टेंट के, बच्चों की आया के नीचे रखवा दिया था। सक्खू बाई अपनी इस नौकरी से जिसमें फर्श पर पोंछा लगाने, बर्तन धोने के अलावा गनपत को खुश करना भी शामिल था, काफी संतुष्ट थी।
गनपत उसे कभी अपने किसी दोस्त को भी उस पर कृपा करने या कर्ज के बदले दे दिया करता। लेकिन बडी चालाकी से ताकि सक्खू बाई उखडने न पाए। वह पीने से तो पहले से ही कुछ वाकिफ थी। गनपत की सोहबत में बाकायदगी से रोज ठर्रा चढाने लगी। जैक्सन भी कभी-कभी उसके मजे लेने लगा। फिर वह अक्सर मेम साहब की एवजी भुगतने लगी। इस तरह गनपत के चक्कर से छुट्टी मिली। वह उल्टा उसकी सारी पगार ऐंठ लिया करता था। उन्हीं दिनों गनपत आर्मी में हेड बैरे की हैसियत से मिडिल ईस्ट चला गया और सक्खू बाई हमेशा के लिए मेम साहब की जगह जम गई। बस जब मेम साहब कभी छुट्टिों में आती तो वह वक्ती तौर पर अपनी खोली में ट्रांसफर हो जाती। और जब वह अपनी कूकदार आवाज में 'अयू.... यू.... तब वह फौरन सब काम छोडछाड कर यस मेम साहब.... कहकर लपकती। यों तो मेम साहब.... मेम साहब... कहना सीखकर वह अपने को अंग्रेजी दां समझने लगी थी। अंग्रेजी भाषा में 'यस, नो, डैमफूल, सॉरी के अलावा और है ही क्या? हाकिमों का इन चंद लफ्जों में ही काम निकल जाता है। चौडे भारी-भरकम साहित्यिक जुमलों की जरूरत नहीं पडती। तांगे के घोडे को टख-टख और चाबुक की चमक ही काफी होती है। मगर सक्खू बाई को यह नहीं मालूम था कि अंग्रेज की गाडी में जुता हुआ मरियल घोडा क्षुब्ध होकर गाडी पलट चुका था और अब उसकी लगामें दूसरे हाथों में थीं। उसकी दुनिया बहुत छोटी थी। वह 'खुद, उसके दो बच्चे और उसका 'मरद। जब मेम साहब हिन्दुस्तान आया करती थीं तब भी सक्खू बडी उदारता से 'एवजी छोडकर फिर नैन्सी के हाथ के नीचे काम करने लगती। उसे मेम साहब से किसी तरह की जलन नहीं थी। मेम साहब 'वेस्टर्न ब्यूटी का नमूना हो तो हो। हिन्दुस्तानी सौन्दर्य के पैमाने पर उसे तौला जाता तो उसे अण्डे जैसा शून्य मिलता बस। उसकी त्वचा खुर्चे हुए शलजम की तरह कच्ची-कच्ची थी। जैसे उसे पूरी तरह पकने से पहले उखाड लिया गया हो! या उसे ठण्डी बेजान कब्र में बरसों दफन करने के बाद निकाला हो। उसके छिदरे मैली चांदी के रंग के बाल बिल्कुल बुढियों के बालों की तरह लगते थे। इसलिए सक्खू बाई के तबके के लोग उसे बुढिया समझते थे। या फिर सूरजमुखी जिसे हिन्दुस्तान में बडा दयनीय समझा जाता था, जब वह मुंह धोए हुए होती तो उसकी पेंसिल से बनाई हुई भवेंगायब होतीं। चेहरा ऐसा मालूम होता गोया किसी ने तस्वीर को सस्ते रबड से बिगाड दिया हो।

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11-05-2011, 07:26 PM
फिर डार्थी ठण्डी थी, अजनबी थी। जैक्सन का वजूद उसके लिए एक घिनावनी गाली था। वह अपने को निहायत बदनसीब और सताई हुई समझती थी, और शादी को नाकाम बनाने में वह काफी हद तक सही थी। भले जैक्सन कितने ही बुलंद ओहदे पर क्यों न पहुंच जाता वह उस पर गर्व नहीं कर सकती थी। क्योंकि उसे मालूम था कि ये सारे ओहदे खुद उसके बाप के दिलवाए हुए हैं। जो किसी भी अहमक को दिलवाए जाते तो वह आसमान को छू लेता। इसके विपरीत सक्खू बाई अपनी थी, गर्मागरम थी। उसने पवन पुल पर अलाव की तरह भडक कर न जाने कितनों के हाथ तापने का सामान किया था। वह गनपत की रखैल थी जो अपनी पुरानी कमीज की तरह उसे दोस्तों को उधार दे दिया करता था। उसके लिए जैक्सन साहब देवता था शराफत का औतार था। उसके और गनपत के प्यार करने के तरीके में कितना फर्क था। गनपत तो उसे मुंह का मजा बदलने के लिए चबा-चबा कर थूकता। और साहब एक लाचार जरूरत मंद की तरह उसे अमृत समझता, उसके प्यार में एक बच्चे जैसी लाचारी थी। जब अंग्रेज अपना टाट प्लान लेकर चले गए तब वह नहीं गया। डार्थी ने उसे बुलाने के सारे जतन कर डाले, धमकियां दीं, मगर उसने इस्तीफा दे दिया और नहीं गया।
'साहब तुम्हें अपने बच्चे भी याद नहीं आते?
मैंने एक दिन उससे पूछा! बहुत याद आते हैं। फिल्लू शाम को देर से आती है और पीटू लौंडों के साथ खेलने चला जाता है। मैं चाहता हूँ , वे कभी मेरे पास भी बैठें। वह इधर-उधर की उडाने लगा।
पीटू और फ्लोमिना नहीं 'एलेजेंक्डर और लीजा? मैंने भी डिठाई ओढ ली।
'नहीं.... नहीं वह हंसकर सिर हिलाने लगा। पिल्ले तो कुतिया से मानूस होते हैं, उस कुत्ते को नहीं पहचानते जो उनके वजूद में साझीदार होता है। उसने अपनी असली आंख मार कर कहा।
'यह जाता क्यों नहीं, यहां पडा सड रहा है।

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11-05-2011, 07:29 PM
मुझे ही नहीं, आसपास के सभी लोगों को बेचैनी-सी होती थी। जबकि कुछ लोग खयाल जाहिर करते 'जासूस है, उसे जानबूझकर यहां रखा गया है। ताकि यह हमारे मुल्क में दोबारा ब्रितानी राज को लाने में मदद करें
गली के लौंडे, जब कभी वह दिखाई देता तो पूछते- 'साहब विलायत कब जाएगा?
'साहब 'कुइट इण्डिया काए को नई करता?
'हिन्दुस्तान छोड दो साहब
'अंग्रेज छोरा चला गया
'वह गोरा-गोरा चला गया
'फिर तुम काए को नई जाता
सडक पर आवारा घूमने वाले लौंडे उसके पीछे धेरी लगाते, आवाजें कसते।
'ऊं.... ऊं..... ऊं, जाएगा, जाएंगा बाबा।
वह सर हिलाकर मुस्कुराता और अपनी खोली में चला जाता। तब मुझे उसके ऊपर बडा तरस आता। कहां हैं दुनिया के रखवाले। जो हर कमजोर मुल्क को तहजीब सिखाते फिरते हैं। नंगों को पैंटें-फ्रांकें पहनाते फिरते हैं। अपने सफेद खून की श्रेष्ठता का ढोल पीटते हैं। उनका ही खून- जैक्सन के रूप में कितना नंगा हो चुका है। मगर उसे मिशनरी ढांकने नहीं आता। और जब गली के लफंगे तक हार के चले जाते तो वह अपनी खोली के सामने बैठकर बीडी पिया करता। उसकी इकलौती असली आंख दूर क्षितिज पर उस मुल्क की सरहदों की तलाश करती, जहां न कोई गोरा है, न काला, न कोई जबरदस्ती जा सकता है और न आ सकता है। और न वहां बदकार माएं अपने नाजायज बच्चों को तेरी-मेरी चौखट पर जन कर खुद अपनी संभ्रांत दुनिया आबाद कर लेती हैं।

MissK
11-05-2011, 07:31 PM
सक्खू बाई आसपास के घरों में महरी का काम करती अच्छा-खासा कमा लेती। इसके इलावा वह बांस की डलियां, मेज कुर्सियां वगैरा भी बना लेती थी, इस धंधे से भी कुछ आमदनी हो जाती। जैक्सन भी अगर नशे में न होता तो उल्टी-सीधी बेपेंदे की टोकरियां बनाया करता। शाम को सक्खू बाई उसके लिए एक ठर्रों का अध्दा ला देती जिसे वह फौरन चढा जाता और फिर उससे लडने लगता। एक रात उसने जाने कहां से ठर्रे की पूरी बोतल हासिल कर ली और सारी रात पीता रहा। रात के आखिरी पहर में वही खोली के आगे पडकर सो गया। फ्लोमिना और पिट्टू उसके ऊपर से फलांग कर स्कूल चले गए। सक्खू बाई भी थोडी देर उसको गालियां देकर चली गई। दोपहर तक वह वहीं पडा रहा। शाम को जब बच्चे आए तो वह दीवार से टेक लगाए बैठा था, उसे जोर का बुखार था। जो दूसरे दिन बढकर सरशाम (दिमागी बुखार) की सूरत इखित्यार कर गया। सारी रात वह न जाने क्या-क्या बडबडाता रहा। न जाने किसे-किसे याद करता रहा, शायद अपनी मां को जिसे उसने कभी नहीं देखा था। जो शायद इस वक्त किसी शान्दार गेदेरिंग में नैतिक सुधार पर भाषण दे रही होगी या वह बाप याद आ रहा हो, जिसने नस्ल चलाने वाले सांड की सेवाएं लेने के बाद उसे अपने जिस्म से बही हुई गिलाजत से ज्यादा अहमियत नहीं दी और जो इस वक्त किसी और गुलाम देश में बैठा अपनी कौम का साम्राज्य कायम रखने के मनसूबे बना रहा होगा या डार्थी के उलाहना भरे एहसान याद आ रहे हों जो बेरहम किसान के हंटरों की तरह सारी उम्र उसकी संवदेना पर बरसते रहे या शायद वो गोलियां जो उसकी मशीनगन से बेगुनाहों के सीनों के पार हुई और आज पलट कर उसकी रूह को डस रही थीं... वह रात भर बडबडाता रहा- चिल्लाता रहा- सर पटखता रहा - सीने को धौंकनी चलती रही। दरोदीवार ने पुकार-पुकार कर कहा-

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11-05-2011, 07:34 PM
'मेरा कोई मुल्क नहीं- कोई नस्ल नहीं- कोई रंग नहीं....
'मेरा मुल्क और नस्ल सक्खू बाई है जिसने तुझे बेपनाह प्यार दिया। क्योंकि वह भी तो अपने देश में बेवतन है। बिल्कुल मेरी तरह। उन करोडों इंसानों की तरह जो दुनिया के हर कोने में पैदा होते हैं, न उनके जन्म पर शहनाइयां बजती हैं और न उनकी मौत पर मातम होते हैं
पौ फट रही थी। मिलों की चिमनियां धुआं उगल रही थीं और मजदूरों की कतारों को निगल रही थीं। थकी हारी रंडियां अपने रात भर के खरीददारों के चंगुल से पिंड छुडा कर उन्हें रुख्सत कर रही थीं।
'हिन्दुस्तान छोड दो।
'कुइट इण्डिया
कटाक्ष और घृणा में डूबी आवाजें उसके जेहन पर हथौडों की तरह पड रही थीं। उसने एक बार हसरत से अपनी औरत की तरफ देखा, जो वहीं पट्टी पर सर रख कर सो गई थी। फ्लोमीना रसोई के दरवाजे पर टाट के पर्दों पर सो रही थी। पीटू उसकी कमर में मुंह घुसाए पडा था। कलेजे में एक हूक सी उठी और उसकी असली आंख से एक आंसू टपक कर मैली दरी में जज्ब हो गया।
बर्तानवीराज की मिटती हुई निशानी ऐरिक विलियम जैक्सन ने हिन्दुस्तान छोड दिया।

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dipu
11-05-2011, 10:11 PM
बहुत बढिया ....................

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12-05-2011, 11:30 PM
दो हाथ

राम अवतार लाम पर से वापस आ रहा था. बूढी मेहतरानी अब्बा मियां से चिट्ठी पढवाने आई थी. राम अवतार को छुट्टी मिल गयी. जंग खत्म हो गयी थी न, इसलिए राम अवतार तीन साल बाद वापस आ रहा था. बूढी मेहतरानी की चीपड भरी आँखों में आंसू टिमटिमा रहे थे. मारे शुक्रगुजारी के वह दौड-दौड कर सबके पांव छु रही थी; जैसे उन पैरों के मालिकों ने ही उसका इकलौता पूत लाम से जिन्दा, सलामत मंगवा लिया.
बुढिया पचास बरस की होगी, पर सत्तर कि मालूम होती थी. दस बारह कच्चे-पक्के बच्चे जाने, उनमें से बस रामअवतरवा बड़ी मन्नतों, मुरादों से जिया था.अभी उसकी शादी रचाए साल भर भी नहीं बिता था कि राम अवतार की पुकार आ गयी. मेहतरानी ने बहुत बवेला मचाया मगर कुछ न चली और जब राम अवतार वर्दी पहन कर आखिरी बार उसके पैर छूने आया तो वह उसकी शानो-शौकत से बेइंतहा मरगूब हुयी. जैसे वह कर्नल ही तो हो गया था!

शागिर्द्पेशे में नौकर मुस्करा रहे थे. राम अवतार के आने के बाद जो ड्रामा होने की उम्मीद थी सब उसी पर आश लगाये बैठे थे. हालंकि राम अवतार लाम पर टॉप बन्दूक छोड़ने नहीं गया था फिर भी सिपाहियों का मैला उठाते उठाते उसमें कुछ सिपाहियाना आन-बान और अकड़ पैदा हो गयी थी. भूरी वर्दी डाटकर वह पुराना राम अवतरवा वाकई न रहा होगा. नामुमकिन है, वह गोरी कि करतूत सुने और उसका जवान खून हतक से खौल न उठे.
ब्याहकर आई तो क्या मुसमुसी थी गोरी. जब तक राम अवतार रहा, उसका घूँघट फुट-भर लंबा रहा और किसी ने उसके रूख पर नूर का जलवा न देखा. जब खसम गया तो कई बिलख-बिलख कर रोई थी,; जैसे उसकी माँग का सिन्दूर हमेशा के लिए उड़ रहा हो. थोड़े दिन रोई-रोई आँखें लिए, सर झुकाए-झुकाए मैले की टोकरी ढोती फिरी. फिर आहिस्ता-आहिस्ता उसके घूंघट की लम्बाई कम होने लगी.

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12-05-2011, 11:34 PM
कुछ लोगों का ख्याल है कि यह सारा बसंत रूत का किया धरा है. और कुछ साफगो कहते थे गोरी थी ही छिनाल. राम अवतार के जाते ही क़यामत हो गयी. कमबख्त कर वक्त ही-ही, हर वक्त इठलाना. कूल्हे पर मैले की टोकरी लेकर, कांसे के कड़े छनकाती जिधर से निकल जाती लोग बदहवास हो जाते. धोबी के हात से साबुन की पट्टी फिसल कर हौज में गिर जाती. बावर्ची की नजर तवे पर सुलगती हुयी रोटी से उचट जाती. भिश्ती का डोल कुँए में डूबता ही चला जाता. चपरासियों तक की बिल्ला लगी पगड़ियाँ ढीली हो कर गर्दन में झूलने लगती. और जब ये सरापा क़यामत घूंघट में से बाण फेंकती गुजर जाती तो पूरा शागिर्द्पेशा एक बेजान लाश की तरह सकते में रह जाता. फिर एकदम चौंककर वह एक दुसरे की दुर्गति पर तानाजनी करने लगते. धोबन मारे गुस्से के कलफ की कूंडी लौट देती. चपरासन छाती से चिमटे लौंडे को बेबात धमूके जड़ने लगती और बावर्ची की तीसरी बीवी पर हिस्टीरिया का दौरा पड़ जाता.
नाम की गोरी थी, पर कमबख्त स्याह बहुत थी. जैसे उलटे तवे पर किसी फूहडिया ने पराठे तल कर उसे चमकता हुआ छोड़ दिया हो. चौड़ी फूकना-सी नाक, फैला हुआ दहाना, दांत मांजने का उसका सात पुश्त ने फैशन ही छोड़ दिया था. आँखों में काजल थोपने के बाद भी दांयी आँख का भेंगापन ओझल न हो सका. फिर भी टेढ़ी आँख से न जाने कैसे जहर में बूझे तीर फेंकती थी कि निशाने पर बैठ ही जाते थे. कमर भी लचकदार न थी, खासी कुठला-सी थी. जूठन खा-खाकर दुम्बा हो रही थी. चौड़े भैंस के से खुर जिधर से निकल जाती कड़वे तेल की सड़ांध छोड़ जाती. हाँ, आवाज में बला की कूक थी. तीज-त्यौहार पर लहक कर कजरियां गाती तो उसकी आवाज सबसे ऊंची लहराती चली जाती.

MissK
12-05-2011, 11:37 PM
बुढिया मेहतरानी, यानी उसकी सास बेटे के जाते ही उससे बेतरह बदगुमान हो गयी. बैठे बिठाये एहतियातन गलियां दे देती. उस पर नजर रखने के लिए पीछे-पीछे फिरती. मगर बुढिया अब टूट चुकी थी. चालीस बार मैला ढोने से उसकी कमर मुस्तकिल तौर पर एक तरफ लचककर वही थम गयी थी. हमारी पुरानी मेहतरानी थी. हम लोगों के आंवल नाल उसी ने गाड़े थे. ज्यों ही अम्मा के दर्द लगते, मेहतरानी दहलीज पर आकार बैठ जाती और बाज वक्त लेडी डाक्टर तक को निहायत मुकीद हिदायतें देती. बलाईयात को दफा करने के लिए कुछ तावीज भी लाकर पट्टी से बाँध देती. मेहतरानी की घर में खासी बुजुर्गाना हैसियत थी.

इतनी लाडली मेहतरानी की बहु यकायक लोगों की आँखों में काँटा बन गयी. चपरासन और बावर्चन की तो बात और थी, हमारी अच्छी-भली भावजों का माथा उसे उसे इठलाते देखकर ठनक जाता. अगर वह उस कमरे में झाड़ू देने जाती , जिनमें उनके मियां होते तो वे बडबडा कर दूध पीते बच्चे के मुंह से छाती छीनकर भागतीं कि कहीं वह डायन उनके शौहरों पर टोना-टोटका न कर रही हो.
गोरी क्या थी , बस एक मरखना लंबे-लंबे सींगो वाला बिजार था, कि छुट्टा फिरता था. लोग अपने कांच के बर्तन-भांडे दोनों हाथों से समेटकर कलेजे से लगते और जब हालात ने नाजुक सूरत पकड़ी तो शागिर्द्पेशे की महिलाओं का एक बकायदा वफड अम्मा के दरबार में हाजिर हुआ. बड़े जोर-शोर से खतरा और उसके खौफनाक नताईज पर बहस हुयी. पति-रक्षा की एक कमिटी बनायीं गयी जिसमें सब भावजों ने शदो-मद से वोट दिए और अम्मा सदरे-एजाजी का ओहदा सौंपा गया. सारी ख्वातीन हस्बेमराताब (स्तर के अनुकूल) जमीन, पीढ़ियों और पलंग की अदावायीन पर बैठीं. पान के टुकड़े तकसीम हुए और बुढिया को बुलाया गया. निहायत इत्मीनान से बच्चों के मुंह में दूध दे कर सभा में ख़ामोशी कायम की गयी और मुक़दमा पेश हुआ.

MissK
12-05-2011, 11:40 PM
"क्यों री चुड़ैल, तूने कामुक बहू को छूट दे रखी है कि हमारी छातियों पर कोदो डाले, इरादा क्या है तेरा? क्या मुंह काला कराएगी?"
मेहतरानी तो भरी ही बैठी थी, फूट पड़ी- " क्या करू बेगम साहब, हरामखोर को चार चोट की मार भी दई मैं तो, रोटी भी खाने को ना दई, मेरे बस की नहीं."
"अरे रोटी की क्या कमी है उसे," बावर्चन ने ईंटा फेंका. सहारनपुर की खानदानी बावर्चन और फिर तीसरी बीवी. क्या तीहा था कि अल्लाह की पनाह.! फिर चपरासन, मालन और धोबन ने मुकदमे को और संगीन बना दिया. बेचारी मेहतरानी बैठी सबकी लताड सुनती और अपनी खारिश्जदा पिंडलियाँ खुजलाती रही.
"बेगम साहब, आप जैसी बताओ वैसी करने से मोय न थोड़ेई, पर का करूं, का रांड का टेंटुआ दबाये देवं?"
टेंटुआ दबने के ख्याल से महिलाओं में मसर्रत की एक लहर दौड गयी और सबको बुढिया से बेइंतहा हमदर्दी पैदा हो गयी.
अम्मा ने राय दी, " मुई को मैके फिंकवा दे."
"ए बेगम साहब, कहीं ऐसा हो सके है?" मेहतरानी ने बताया कि बहू मुफ्त हाथ नहीं आई है. सारी उम्र की कमाई पूरे दो सौ झोंके है. तब मुस्टंडी हाथ आई है. इतने पैसों में तो दो गाय आ जाती, मजे से भर-कलसी दूध देतीं. पर ये रांड तो दुलत्तियां ही देती है. अगर इसे मैके भेज दिया गया तो इसका बाप इसे फौरन इसे दुसरे मेहतर के हाथ बेच देगा. बहू सिर्फ बेटे के बिस्तर की जीनत ही तो नहीं, दो हाथोंवाली है पर चार आदमियों का काम निपटाती है. राम अवतार के जाने के बाद बुढिया से इतना काम क्या संभलता. ये बुढ़ापा तो अब बहू के दो हाथों के सदके में बीत रहा है.

MissK
12-05-2011, 11:44 PM
महिलाऐं कोई ना समझ न थी. मामला एख्लाकियत से हटकर इक्तिसादियात पर आ गया था. वाकयी बहू का वजूद बुढिया के लिए लाजिमी था. दो सौ रपये का माल, किसका दिल है कि फ़ेंक दे. उन दो सौ के इलावा ब्याह पर जो बनिए से लेकर खर्च किया था, जजमान खिलाये थे, बिरादरी को राजी किया था, ये सारा खर्चा कहाँ से आएगा. राम अवतार को जो तनख्वाह मिलती थी, वह सारी उधार में डूब जाती थी. ऐसी मोटी-ताज़ी बहू अब तो चार सौ से कम में न मिलेगी. पूरी कोठी की सफाई के बाद, और आसपास की चार कोठियां निपटाती है. रांड काम में चौकस है वैसे.
फिर भी अम्मा ने अल्टीमेटम दे दिया कि अगर इस लुच्ची का जल्द-अज-जल्द कोई इंतज़ाम न किया गया तो कोठी के अहाते में नहीं रहने दिया जायेगा.
बुढिया ने बहुत बवेला मचाया और जाकर बहू को मुंह भर-भरकर गालियाँ दी. झोंटे पकड़कर मारा पीटा भी. बहू उसकी जरखरीद थी; पिटती रही, बडबडाती रही और दुसरे दिन सारे मामले की धज्जियाँ बिखेर दी. बावर्ची, भिश्ती, धोबी और चपरासियों ने तो अपनी बीवियों की मरम्मत की. यहाँ तक कि बहू के मामले पर मेरी मोहज्जब भाभियों और शरीफ भाइयों में भी खटपट. भाभियों के मैके तार जाने लगे. गरज बहू हरे- भरे खानदान के लिए सुई का काँटा बन गयी.

MissK
12-05-2011, 11:47 PM
मगर दो चार दिन बाद बूढी मेहतरानी के देवर का लड़का रतिराम अपनी ताई से मिलने आया, फिर वहीँ रह पड़ा. दो-चार कोठियों में काम बढ़ गया था सो वह भी उसने संभाल लिया. अपने गांव में आवारा ही तो घूमता था. उसकी बहू अभी नाबालिग थी, इसलिए गौना नहीं हुआ था.

रतिराम के आते ही मौसम एकदम लौट-पौटकर बिलकुल ही बदल गया. जैसे घनघोर घटायें हवा के झोंको के साथ तितर-बितर हो गयी. बहू के कहकहे खामोश हो गए. कांसे के कड़े गूंगे हो गए. और जैसे गुब्बारे से हवा निकल जाये तो वह चुपचाप झूलने लगता है, ऐसे, बहू का घूंघट झूलते-झूलते नीचे की तरफ बढ़ने लगा. अब वह बजाये बे-नथे बैल के, निहायत शर्मीली बहू बन गयी. जुमला महिलाओं ने इत्मीनान का सांस लिया. स्टाफ के मर्दुए उसे छेड़ते भी तो वह छुईमुई की तरह लजा जाती और ज्यादा आँख दिखाते तो वह घूंघट में से भैंगी आँख को और तिरछा करके रतिराम की तरफ देखती, जो फौरन बाजू खुजलाता सामने आकर डट जाता. बुढिया पुरसकून अंदाज में दहलीज पर बैठी अधखुली आँखों से यह आनंददायक ड्रामा देखती और गुड़गुडी पिया करती. चरों तरफ ठंडा-ठंडा सकून छा गया, जैसे फोड़े का मवाद निकल गया हो.

MissK
12-05-2011, 11:52 PM
मगर अब बहू के खिलाफ एक नया महाज कायम हो गया और वह अमले की मर्द जात पर मुश्तमिल था. बात-बेबात बावर्ची, जो उसे पराठे तल कर दिया करता था, कूंडी साफ़ न करने पर गालियाँ देने लगा. धोबी को शिकायत थी कि वह कलफ लगाकर कपडे रस्सी पर डालता है, ये हरामजादी खाक उड़ाने आ जाती है. चपरासी मर्दाने में दस-दस मर्तबा झाड़ू दिलवाते फिर भी वहाँ की गजालत का रोया रोते रहते. भिश्ती जो उसके हाथ धुलाने के लिए कई मशकें लिए तैयार रहता था; अब घंटो सहन में छिडकाव करने को कहती, मगर टालता रहता ताकि वो सूखी जमीन पर झाड़ू दे तो चपरासी गर्दा उड़ाने के जुर्म में उसे गलियां दे सके.
मगर बहू सर झुकाए सबकी डाट-फटकार एक कान से सुनती दुसरे कान से उड़ा देती. न जाने सास से क्या जाकर कह देती कि वह कांय-कांय करके सबका भेजा चाटने लगती. अब उसकी नजर में बहू निहायत पारसा और नेक हो चुकी थी.
फिर एक दिन दरोगाजी दाढ़ीवाले, जो तमाम नौकरों के सरदार थे और अम्मा के खास मुशीर समझे जाते थे, अब्बा के हुजूर में दस्तबस्ता हाजिर हुए और उस भयानक बदमाशी और गलाजत का रोना रोने लगे जो बहू और रतिराम के नाजायज ताल्लुकात से सरे शागिर्द्पेशे को गन्दा कर रही थी. अब्बा ने मामला सेशन सुपुर्द कर दिया- यानि अम्मा को पकड़ा दिया. महिलाओं की सभा फिर से जुडी और बुढिया को बुलाकर उसके लत्ते लिए गए.

क्रमशः

MissK
14-05-2011, 08:45 PM
"अरी निगोड़ी, खबर, भी है तेरी ये कामुक बहू क्या गुल खिला रही है?"

मेहतरानी ने ऐसे चुन्धराकर देखा जैसे कुछ नहीं समझती गरीब,कि किसका जिक्र हो रहा है! और जब उसे साफ़-साफ़ बताया गया कि चश्मदीद गवाहों का कहना है कि बहू और रतिराम के ताल्लुकात नाजायज हद तक खराब हो चुके हैं, दोनों बहुत ही कबीले-एतराज हालत में पकडे गए हैं, तो उस पर बुढिया बजाय अपनी बेहतरी चाहनेवालों का शुक्रिया अदा करने के बहुत चराग-पा हुयी, बड़ा बवेला मचने लगी कि राम अवतरवा होता तो उन लोगों की खबर लेता जो उसकी मासूम बहू पर तोहमत लगाते है. बहू निगोड़ी तो अब चुपचाप राम अवतार की याद में आंसू बहाया करती है. कामकाज भी जान तोड़कर करती है. किसी की शिकायत नही होती. ठठोल भी नहीं करती. लोग उस्जे नाहक दुश्मन हो गए है. बहुत समझाया मगर वह तो मातम करने लगी कि सारी दुनिया इसकी जान की लागू हो गयी है. आखिर बुढिया और उसकी मासूम बहू ने लोगों का क्या बिगाड़ा है. वह तो किसी के लेने में न देने में. आज तक उसने किसी का भांडा नहीं फोड़ा, उसे क्या जरुरत जो किसी के फटे में पैर घुसती फिरे. कोठियों के पिछवाड़े क्या नहीं होता? मेहतरानी से किसी का मैल नहीं छुपता. इन बूढ़े हाथों ने बड़े लोगों के गुनाह दफ़न किये है. ये दो हाथ चाहे तो रानियों के तख़्त उलट दें. पर नहीं, उसे किसी से बुग्ज नहीं. अगर उसके गले पर छुरी दबाई गयी तो शायद गलती हो जाये, वैसे वह किसी के राज अपने बूढ़े कलेजे से बाहर नहीं निकलने देगी.

MissK
14-05-2011, 08:48 PM
उसका तीहा देखकर फ़ौरन छुरी दबाने वालों के हाथ ढीले पड़ गए. सारी महिलाऐं उसको पुचकारने लगी. बहू कुछ भी करती थी, उनके अपने किले तो महफूज थे, तो फिर शिकायत कैसी? फिर कुछ दिनों के लिए बहू के इश्क कि चर्चा कम होने लगी. लोग कुछ भूलने लगे. मगर ताड़ने वालों ने ताड़ लिया की कुछ दाल में काला है. बहू का भारीभरकम जिस्म भी दाल में काले को ज्यादा छुपा न सका और लोग बुढिया को समझाने लगे. मगर उस नए मौजूं पर बुढिया बिलकुल उड़नघाँईंया बताने लगी. बिलकुल ऐसी बन गयी जैसे एकदम ऊंचा सुनती हो. अब वह ज्यादातर खाट पर लेती बहू और रतिराम पर हुक्म चलाया करती. कभी खांसती-छींकती बाहर धुप में आ बैठती तो वे दोनों उसकी ऐसी देख रेख करते जैसे वह कोई पटरानी हो.
भली बीविओं ने उसे खूब समझाया- रतिराम का मुंह काला कर और इससे पहले के राम अवतार लौट कर आये, बहू का इलाज करवा डाल. वह खुद इस फन में माहिर थी. दो दिन में सफाई हो सकती थी. मगर बुढिया ने कुछ समझकर ही नहीं दिया. बिलकुल इधर- उधर की शिकायतें करने लगी कि उसके घुटनों में पहले से ज्यादा ऐंठन होती है. नीज (और) की कोठियों में लोग बहुत ज्यादा बादी चीजें खाने लगे है किसी न किसी कोठी में दस्त लगे ही रहते हैं. उसकी टाल मटोल पर जलकर नसेहीन (उपदेशक) मरमंड हो गए. माना कि बहू औरतजात है, नादान है, भोली बड़ी-बड़ी शरीफजादियों से खता हो जाती है, लेकिन उनकी आला खानदान की मोअज्जज सासें यूँ कान में तेल डालकर नहीं बैठ जाती. पर न जाने ये बुढिया क्यूँ सठिया गयी है. जिस बाला को वह बुढिया बड़ी आसानी से कोठी के कूड़े की तह में दफ्रन कर सकती थी, उसे आँखे मींचे पलने दे रही है.

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14-05-2011, 08:50 PM
राम अवतार के आने का इंतज़ार था. हर वक्त धमुकियाँ देती रहती थी-" आन दे राम अवतरवा का, कहांगी, तोड़ी हड्डी पसली एक कर देहे."
और अब राम अवतरवा लाम पर से जिन्दा वापस आ रहा था. फिजां ने सांस रोक ली थी. लोग एक मुहीब हंगामे के मुन्तजिर थे.
मगर लोगों को सख्त कोफ़्त हुयी जब बहू ने लौंडा जना बजाये उसे जहर देने के बुढिया कि मारे खुशी के बांछे खिल गयी. राम अवतार के जाने दो साल बाद पोता होने पर वह कतई आश्चर्यचकित नहीं थी. घर-घर फटे पुराने कपडे और बधाई समेटती फिरी. उसका भला चाहने वालों ने उसे हिसाब लगाकर बहुत समझाया कि लौंडा राम अवतार का हो ही नहीं सकता, मगर बुढिया ने कतई समझकर नहीं दिया, उसका कहना था-" असाढ़ में राम अवतार लाम पर गया, जब बुढिया पीली कोठी के नए वजा के संडास में गिर पड़ी थी, अब चैत लग रहा है और जेठ के महीने में बुढिया को लू लगी थी पर बाल-बाल बच गयी थी. जभी से उसके घुटनों का दर्द बढ़ गया. बैद जी पूरे हरामी है, दवा में खड़िया मिला के देते हैं." इसके बाद वह बिलकुल असल सवाल से हटकर खेलाऊँ की तरह औल-पौल बकने लगती. किसके दिमाग में इतना बूता था कि वह बात उस बुढिया को समझाता जिसे न समझने का वह फैसला कर चुकी थी. लौंडा पैदा हुआ तो उसने राम अवतार को चिट्ठी लिखवाई-" राम अवतार को बाद चुम्मा प्यार के मालूम हो कि यहाँ सब कुशल है और तुम्हारी कुशलता भगवान से नेक चाहते हैं और तुम्हारे घर में पूत पैदा हुआ है. सो तुम इस खत को तार समझो और जल्दी से आ जाओ"

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14-05-2011, 08:55 PM
लोग समझते थे कि राम अवतार जरूर चिराग-पा होगा, मगर सब उम्मीदों पर ओस पर गयी जब राम अवतार का मसर्रत से लबरेज खत आया कि वह लौंडे के लिए मोज़े और बनियाईन ला रहा है. जंग खत्म हो गयी और वह अब बस आने ही वाला है. बुढिया पोते को घुटनो पर लिटाये खाट पर बैठी राज किया करती. भला इससे ज्यादा हसीं बुढ़ापा किया होगा कि सारी कोठियों का काम तुरत-फुरत हो रहा हो, महाजन का सूद पाबन्दी से चुक रहा हो और घुटने पर पोता सो रहा है.
खैर लोगो ने सोचा राम अवतार आएगा, असलियत मालूम होगी. अब राम अवतार जंग जीतकर आ रहा था. आखिर सिपाही है, क्यूँ न खून खौलेगा. लोगो के दिल धड़क रहे थे. शागिर्द्पेशे में खलबली मच गयी. बावर्ची ने हांडी में ढेर सा पानी झोंक दिया, ताकि इत्मीनान से मुँहपीटे का लुत्फ़ उठाये. धोबी ने कलफ का बर्तन उतारकर मुंडेर पर रख दिया और भिश्ती ने डोल कुँए के पास रख दिया. राम अवतार को देखते ही बुढिया उसकी कमर से लिपटकर चिन्घारने लगी, मगर दुसरे लम्हे खींसे काढे लौंडे को राम अवतार की गोद में देकर ऐसे हँसने लगी, जैसे कभी रोई ही न हो.

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14-05-2011, 08:59 PM
राम अवतार लौंडे को देखकर ऐसे शरमाने लगा, जैसे वही उसका बाप हो. झटपट उसने संदूक खोलकर सामान निकलना शुरू किया. लोग समझे, खुकरी या चाकू निकल रहा है. मगर जब उसने उसमें से लाल बनियान और पीले मोज़े निकले तो सारे अमले की कूव्व्ते-मरदाना पर जरब कारी लगी- हत्तेरी की, साला सिपाही बनता है, हिजड़ा ज़माने भर का!

और बहू जैसे सिमटी-सिमटाई नयी-नवेली दुल्हिन ने कांसी की थाली में पानी भरकर राम अवतार के बदबूदार फौजी बूट उतारे और चरण धोकर पीये.
लोगों ने राम अवतार को समझाया और उसे गावदी कहा, मगर वह गावदी की तरह खींसे काढे हँसता रहा, जैसे उसकी समझ में न आ रहा हो. रतिराम का गुना होने वाला था, सो वह चला गया था.
राम अवतार की इस हरकत से ताज्जुब से ज्यादा लोगों ने गुस्सा किया. हमारे अब्बा, जो आमतौर पर नौकरों की बातों में दिलचस्पी नहीं लिया करते थे, वह भी जज-बज हो गए. अपनी सारी कानून्दानी का दांव लगाकर राम अवतार को कायल करने पर तुल गए-

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14-05-2011, 09:01 PM
"क्यूँ बे, तू तीन साल बाद लौटा है न?"
"मालूम नहीं हजूर, थोडा कम-ज्यादा...इत्ता ही रहा होगा."
"उधर लौंडा साल-भर का है."
" इत्ता ही लगे सरकार, पर बड़ा बदमास है ससुरा!" राम अवतार शर्माए.
"अबे तू हिसाब लगा ले."
"जब..क्या लगाऊँ सरकार." राम अवतार ने मरघिल्ली आवाज में कहा.
"उल्लू के पट्ठे, यह कैसे हुआ?"
"अब जे मैं का जानूं सरकार, भगवान की देन है."
"भगवान की देन! तेरा सर...यह लौंडा तेरा नहीं हो सकता."

अब्बा ने उसे चारों ओर से घेरकर कायल करना चाह कि लौंडा हरामी है, तो वह कुछ-कुछ कायल-सा हो गया. फिर वह मरी हुयी आवाज में अहमकों की तरह बोला-" तो अब का करूं सरकार...हरामजादी को मैंने बड़ी मार दी." वह गुस्से से बिफरकर बोला.
"अबे उल्लू का पट्ठा है तू...निकाल बाहर क्यों नहीं करता कम्बख्त को?"
"नहीं सरकार, कहीं ऐसा हो सके हो?" राम अवतार घिघयाने लगा.
"क्यूँ बे?"
"हजूर, ढाई-तीन सौ फिर दूसरी सगाई के लिय काँ से लाऊंगा और बिरादरी जिमाने में सौ-दो सौ अलग खर्च हो जायेंगे."
" क्यूँ बे, तुझे बिरादरी क्यों खिलानी पड़ेगी? बहू की बदमाशी का तवन तुझे क्यों भुगतना पड़ेगा?"
"जे मैं न जानूँ सरकार, हमारे में ऐसा ही होवे है."

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14-05-2011, 09:06 PM
"मगर लौंडा तेरा नहीं राम अवतार..उस हरामी रतिराम का है." अब्बा ने आजिज आकर समझाया.

"तो क्या हुआ सरकार...मेरा भाई होता है रतिराम, कोई गैर नहीं, अपना ही खून है."

"निरा उल्लू का पट्ठा है" अब्बा भिन्ना उठे.

"सरकार लौंडा बड़ा हो जायेगा, अपना काम समेटेगा." राम अवतार ने गिडगिडाकर समझाया. "वह दो हाथ लगायेगा, सो अपना बुढ़ापा तैर हो जायेगा." निदामत से राम अवतार का सर झुक गया.

और न जाने क्यों, एकदम राम अवतार के साथ अब्बा का भी सर झुक गया, जैसे उनके जेहन पर लाखों-करोडो हाथ छ गए..ये हाथ हरामी हैं न हलाली. ये तो बस जीते-जागते हाथ है जो दुनिया के चेहरे से गलाजत धो रहे है, उसके बुढ़ापे का बोझ उठा रहे है.
ये नन्हे-मुन्ने मिट्टी में लिथड़े हुए स्याह हाथ धरती की मांग में सिन्दूर सजा रहे है.

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14-05-2011, 09:11 PM
मुग़ल बच्चा

फतेहपुर- सिकरी के सुनसान खंडहरों में गोरी दादी का मकान पुराने सूखे जख्म की तरह खटकता था. ककैय्या ईंट का दो-मंजिला घुटा-घुटा-सा मकान एक मार खाए रूठे हुए बच्चे की तरह लगता था. देखकर ऐसा मालूम होता था कि वक्त का जलजला उसकी ढीठाई से हार कर आगे बढ़ गया और शाही शानो-शौकत पर टूट पड़ा.
गोरी दादी सफ़ेद झक चांदनी बिछे तख़्त पर सफ़ेद बेदाग कपड़ों में एक संगमरमर का मकबरा मालूम होती थी. सफ़ेद ढेरो बाल, बेखून की सफ़ेद धोई हुयी मलमल जैसी खाल, हलकी-भूरी आँखे जिन पर सफेदी रेंग आई थी, पहली नजर में सफ़ेद लगती थीं. उन्हें देखकर आँखे चकाचौंध हो जाती थी जैसे पिसी हुयी चांदी की धूल उनके आस-पास छाई हुयी हो.
न जाने कब से जिए जा रही थी. लोग उनकी उम्र सौ से ऊपर बताते थे. खुली-खुली गुमसुम बेनूर आँखों से वो इतने साल क्या क्या देखती रही थी, क्या सोचती रही थी, कैसे जीती रही थी. बारह-तेरह बरस की उम्र में वो मेरी अम्मा के चाचा-दादा से ब्याही तो गयी थी मगर दूल्हा ने दुल्हन का घूंघट भी न उठाया था. कँवारेपन की एक सदी उन्होंने इन्ही खंडहरों में बितायी थी. जितनी गोरी बी सफ़ेद थी, उतने ही उनके दूल्हा स्याह-भट्ट थे, इतने काले कि उनके आगे चिराग बुझे! गोरी बी बुझ कर भी धुआं देती रही.

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14-05-2011, 09:14 PM
सरे शाम खाना खाकर झोलियों में सूखा मेवा भरकर हम बच्चे लिहाफों में दुबककर बैठ जाते और पुरानी जिंदगी के पत्ते उलटे जाने लगते. बार-बार सुन कर भी जी न भरता, अदबदा कर गोरी बी और काले मियां की कहानी दुहरायी जाती. बेचारे की अकल पर पत्थर पड़ गए थे कि इतनी गोरी-गोरी दुल्हन का घूंघट भी न उठाया.

अम्मा साल के साल पूरा लाव-लश्कर लेकर मैंके पर धावा बोल देती. बच्चों की ईद हो जाती. फतेहपुर सिकरी के पुरअसरार शाही खंडहरों में आंखमिचौली खेलते-खेलते जब शाम पड़ जाती तो खोयी-खोयी सुरमई फिजा से डर लगने लगता. हर कोने से साये लपकते. दिल धक्-धक् करने लगता.
"काले मियां आ गए!" हम एक-दूसरे को डराते, गिरते पड़ते भागते और ककैय्या ईंट के दो-मंजिल मकान की गोद में दुबक जाते. काले मियां हर अँधेरे कोने में छिपे हुए महसूस होते.

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14-05-2011, 09:16 PM
बहुत से बच्चे मरने के बाद हजरत सलीम चिश्ती की दरगाह पर माथा रगडा तब गोरी बी का मुँह देखना नसीब हुआ. माँ-बाप की आँखों की ठंडक गोरी बी बड़ी जिद्दी थी. बात-बात पर अखाटी-खटवाती लेकर पड़ जाती. भूख-हड़ताल कर देती. घर में खाना पकता, कोई मुँह न जूठलाता. ज्यों-का-त्यों उठवा कर मस्जीद में भिजवा दिया जाता. गोरी बी न खाती तो अम्मा-बाबा कैसे निवाला तोड़ते?
बात इतनी सी थी कि जब मंगनी हुयी तो लोगों ने मजाक में छींटे कसे.
"गोरी दुल्हन, काला दूल्हा."

मगर मुग़ल बच्चे मजाक के आदी नहीं होते. सोलह-सतरह बरस के काले मियां अंदर-ही-अंदर घुटते रहे. जल कर मुरंडा होते रहे.

"दुल्हन मैली हो जायेगी. ख़बरदार ये काले-काले हाथ न लगाना."
बड़े नाजों की पली है. तुम्हारी तो परछाई भी पड़ी तो काली हो जायेगी."

"बड़ी बद-दिमाग है. सारी उम्र जूतियाँ उठवाएगी."

क्रमशः

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15-05-2011, 07:50 PM
अंग्रेजों ने जब मुगलशाही का फातिहा पढ़ा तो सबसे बुरी मुग़ल बच्चों पर बीती क्यूंकि वे ही ज्यादा ओहदे संभाले बैठे थे, ऊंचे ओहदे और जागीरें छीन जाने के बाद लाख के घर देखते देखते खाक हो गए. बड़ी-बड़ी ढढार हवेलियों में मुग़ल बचे भी पुराने सामानों की तरह जा पड़े, भौंचक्के से रह गए जैसे किसी ने पैरों तले से तख्ता खींच लिया.
तभी मुग़ल बच्चे अपने शानो-खुद्दारी की तार-तार चादर में सिमटकर अपने अंदर-ही-अंदर घुसते चले गए. मुग़ल बच्चे अपनी दिमागी धुरी से थोड़े खिसके हुए होते हैं. खरे मुग़ल की यह पहचान है कि उसके दिमाग की दो-चार पेंच ढीले या जरुरत से ज्यादा तंग होते है. आसमान से धरती की ओर लुढके तो दिमागी तवाजुन डगमगा गया. जिंदगी की कदरें गडमड हो गयी. दिमाग से ज्यादा जज्बात से काम लेने लगे.
अंग्रेज की चाकरी लानत और मेहनत-मजदूरी शान के खिलाफ. जो कुछ धन-दौलत बची, उसे बेच-बेचकर खाते रहे. हमारे अब्बा के चचा रूपये-पैसे की जगह चाची के जहेज के पलंग के पायों से चांदी का पत्तर उखाड के ले जाते थे. जेवरों और बर्तनों के बाद गोते-टेक कपड़े नोच-नोचकर खाए. पानदान की कुलियाँ सिलबट्टे से कुचल कर टुकड़ा-टुकड़ा बेंची और खायी. घर के मर्द दिन भर पलंग की अदवायन तोड़ते, शाम को पुरानी-धुली अचकन पहनी और शतरंज-पचीसी खेलने निकल गए. घर की बीवियां छुप-छुपकर सिलाई कर लेंती. चार पैसों से घर का चूल्हा जल जाता या मोहल्ले के बच्चों को कुरान पढ़ा देंती तो कुछ नजराना मिल जाता.

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15-05-2011, 07:54 PM
काले मियां ने दोस्तों की छेड़खानी को जी का घाव बना लिया. जैसे मौत की घडी नहीं टलती वैसे माँ-बाप की तय की हुयी शादी न टली. काले मियां सर झुकाकर दूल्हा बन गए. किसी सरफिरी ने ऐन मुँह दिखाई के वक्त और छेड़ दिया.

"ख़बरदार, जो दुल्हन को हाथ लगाया, काली हो जायेगा."


मुग़ल बच्चा चोट खाए नाग की तरह पलटा. बहन का आँचल सर से नोचा और बाहर चला गया. जब दूल्हा अंदर औरतों में आता है तो उसकी बहन उसके सर पर अपना आँचल डालकर लाती है.
हंसी में खंसी हो गयी. एक मातम बरपा हो गया. मरदानखाने में इस ट्रेजडी की खबर हंसी में उड़ा दी गयी. बगैर मुँह दिखाई की रस्म के बिदाई एक क़यामत थी.

"खुदा की कसम मैं उसका घमंड चकनाचूर कर दूँगा. किसी ऐसे-वैसे से नहीं, मुग़ल बच्चे से वास्ता पड़ा है." काले मियां फुँफकारे.

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15-05-2011, 07:57 PM
काले मियां शहतीर की तरह पूरी मसहरी पर फैले पड़े थे, दुल्हन एक कोने में गठरी बनी काँप रही थी. बारह बरस की बच्ची की बिसात ही क्या!

"घूंघट उठाओ!" काले मियां डकराये.

दुल्हन और गुडी-मुडी हो गयी.

"हम कहते है, घूंघट उठाओ." कोहनी के बल उठकर बोले.

सहेलियों ने कहा था, दूल्हा हाथ जोड़ेगा, पैर पड़ेगा. और ख़बरदार जो घूंघट को हाथ लगाने दिया. दुल्हन जितना भी अपने बचाव के लिए हाथ-पैर मारे, उतनी ही ज्यादा पाक समझी जाती है.

"देखो जी, तुम नवाबजादी होगी अपने घर की. हमारे तो पैर की जूती हो. घूंघट उठाओ, हम तुम्हारे बाप के नौकर नहीं."

दुल्हन को जैसे लकवा मार गया.

काले मियां चीते की तरह लपक कर उठे. जूतियाँ उठाकर बगल में दाबीं और खिड़की में से पायीं-बाग में कूद गए. सुबह की गाड़ी से वो जोधपुर दनदना गए.

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15-05-2011, 08:04 PM
घर में सोता पड़ा था. एक एक्काबी जो दुल्हन के साथ आई थी, जाग रही थी. कान दुल्हन की चीखों की तरफ लगे थे. जब दुल्हन के कमरे से चूं की आवाज भी न आये तो उनके पैरों का दम निकलने लगा.

"हाय!हाय! कैसी बेहया लड़की है. लड़की जितनी भी ज्यादा मासूम और कंवारी होगी उतनी ही ज्यादा दुन्द मचायेगी. क्या काले मियां में कुछ खोट है.?" जी में सोचने लगी. दिल चाहा कुंएं में कूद कर किस्सा खत्म करे.

चुपके से कमरे में झाँका तो जी सन्न रह गयी. दुल्हन जैसी की तैसी धरी थी और दूल्हा गायब! बड़े उलटे-सीधे किस्म के हंगामे हुए. तलवारें खींची. बड़ी मुश्किल से दुल्हन ने जो उस पर बीती थी, कह सुनाई. इस पर तरह-तरह की खुसर-पुसर होती रही. खानदान में दो पार्टियां बन गयीं. एक काले मियां की, दूसरी गोरी की.

" आखिर वो उसका शौहर है, उसका देवता है. उसका हुक्म न मानना गुनाह है." एक पार्टी इस बात पर जमी हुयी थी.

कहीं किसी दुल्हन ने खुद घूंघट उठाया है?" दूसरी पार्टी का कहना था.

MissK
15-05-2011, 08:10 PM
काले मियां को जोधपुर से बुलवाकर दुल्हन का घूंघट उठवाने की सारी कोशिशें नाकाम रही. वे वहाँ घुड़सवारों में भरती हो गए. और बीवी को रोटी-कपडा भेजते रहे जो गोरी बीवी की माँ समधन के मुँह पर मार आतीं.

गोरी बी कली से फूल बन गयी. हर अठवाडे हाथ-पैर पर मेंहदी रचाती रहीं. बंधे-टंके दुपट्टे ओढ़ती रहीं और जीती रहीं.

फिर खुदा का करना ऐसा हुआ कि बाबा की मरण-घडी आन पहुंची. काले मियां को खबर गयी तो न जाने किस मूड में थे, भागे आये. बाबा मौत का हाथ झटककर उठ बैठे. काले मियां को हाजिरी का हुक्म दिया. दूल्हा के आदाबे-रुनुमाई (घूंघट उठाने का शिष्टाचार) पर मिसकौट हुयी.

काले मियां ने सर झुका दिया. मगर शर्त वो ही रही कि चाहे जो हो जाये मगर घूंघट तो दुल्हन को अपने हाथों ही उठाना पड़ेगा.

"अब्बा हुजूर, मैं कसम खा चुका हूँ. मेरी गर्दन उड़ा दीजिए मगर कसम नहीं तोड़ सकता."

मुग़ल-बच्चो की तलवारें जंगिया चुकी थीं. आपस की मुकदमेबाजियों ने सर का कस-बल निकाल दिया था मगर अहमकाना जिद्दें रह गयीं थीं. बस उन्ही को कलेजे से लगाये बैठे थे. किसी ने काले मियां से न पूछा कि तुमने ऐसी बेवकूफी की कसम खायी ही क्यूँ कि अच्छी-भली जिंदगी एक अजाब बन गयी.

MissK
15-05-2011, 08:15 PM
खैर साहब, गोरी बी फिर से दुल्हन बनायीं गयीं. ककैय्या ईंट वाला मकान फिर फूलों और इतर की खुशबू से महक उठा.

अम्मा ने समझाया, तुमसे उसका विवाह हुआ है बेटी जान, घूंघट उठाने में कोई ऐब नहीं. उसकी जिद पूरी कर दो. मुग़ल बचे की आन रह जायेगी.तुम्हारी दुनिया संवर जायेगी गोदी में फूल बरसेंगे. अल्लाह रसूल का हुक्म पूरा होगा.

गोरी बी सर झुकाए सुनती रहीं कच्ची कली सात साल में क़यामत ढहा देनेवाली दोशीजा (युवती) बन चुकी थी. हुस्न और जवानी का एक तूफ़ान था जो तन-मन से फूटा निकलता था.

औरत काले मियां की सबसे बड़ी कमजोरी थी. उनके सबके सब सोच-विचार इस नुक्ते पर मरकूज (केंद्रित) थे. मगर उनकी कसम एक करोंदार लोहे के गोले की तरह उनके कंठ में फंसी हुयी थी. उनकी हवस के सात सालों ने आंखमिचौली खेली थी. उन्होंने बीसिओं घूंघट नोच डाले. रंडीबाजी, लौंडेबाजी, बटेरबाजी, कबूतरबाजी मतलब कोई बाजी नहीं छोड़ी थी. मगर गोरी बी के घूंघट की चोट दिल में पंजे गाडे रही जो सात साल सहलाने के बाद घाव बन चुकी थी. इस बार उन्हें यकीन था कि उनकी कसम पूरी होगी. गोरी बी ऐसी अकल की कोरी नहीं कि जीने का यह आखिरी मौका भी गँवा दे. दो उँगलियों से हल्का-फुल्का आँचल ही तो सरकाना है. कोई पहाड तो नहीं ढोना.

MissK
15-05-2011, 08:20 PM
"घूंघट उठाओ," काले मियां ने नरमी से कहना चाह, मगर मुग़लवी दबदबा फ़तेह रहा.

गोरी बेगम गरूर से तमतमाई सन्नाटे में बैठी रही.

"आखिरी बार हुक्म देता हूँ. घूंघट उठा दो, वरना इसी तरह पड़ी सड जाओगी. अब जो गया, फिर न आऊंगा."

मारे गुस्से के गोरी बी लाल भभूका हो गयीं. काश उनके सुलगते हुए चेहरे से एक शोला लपकता और वो मनहूस घूंघट जल कर ख़ाक हो जाता!

बीच कमरे में खड़े काले मियां कौडियाले सांप की तरह झूमते रहे. फिर जूते बगल में दबाए पांयीबाग में उतर गए.

जमाना बीत गया. अब तो पांयीबाग कंहा? उधर पिछवाड़े लकडियों की टाल लग गयी. बस दो जामुन के पेड रह गए थे और एक कद्दावर बरगद. बेले-चमेली की झाडियाँ, गुलाबों के झुण्ड, शहतूत और अनार के दरख़्त पेड कब के लुट-पिट चुके.

MissK
15-05-2011, 08:26 PM
जब तक माँ जिन्दा रहीं, गोरी बी को संभाले रही. उनके बाद वह ड्यूटी गोरी बी ने खुद संभल ली. हर जुमेरात को मेहँदी पीस कर पाबन्दी से लगातीं, दुपट्टा रंग चुन कर गोटा टांकती और जब तक ससुराल जिन्दा रही, हर त्यौहार पर सलाम करने जाती रहीं.

अब की तो काले मियां गायब ही हो गए. बरसों उनका सुराग न मिला. माँ-बाप रो-रोकर अंधे हो गए. वह न जाने किन जंगलो की खाक छानते फिरे. कभी दरगाहों में उनका पता मिलता, कभी किसी मंदिर की सीढियों पर पड़े पाए जाते.

गोरी बी के सुनहले बालों में चांदी फूल गयी. मौत की झाडू काम करती रही. आस-पास की जमीने और मकान कौडियों के मोल बिकते गए, कुछ पर नए लोग जबरदस्ती बस गए. कुंजरे-कसाई आन बसे. पुराने महल ढहकर नयी दुनिया की नीव पड़ने लगी. परचून की दुकान, डिस्पेंसरी, एक मरगिल्ला-सा जनरल स्टोर भी उग आया, जहाँ अल्युमिनियम की पतिलियाँ और लिप्टन की चाय की पुडियों के हार लटकने लगे.

MissK
15-05-2011, 08:33 PM
एक अधमुई मुट्ठी की दौलत रिस-रिसकर बिखर रही थी, कुछ जानदार उँगलियाँ समटने में लगी थीं. जो कल तक पलंग की अदवाईन पर बैठते थे, झुक-झुककर सलाम करते थे, आज साथ उठाना-बैठना भी अपनी शान के खिलाफ समझने लगे.

गोरी बी का जेवर आहिस्ता-आहिस्ता लालाजी की तिजोरी में पहुँच गया. दीवारें ढह रही थीं. छज्जे झूल रहे थे बचे-खुचे मुग़ल बच्चे अफीम का अंटा निगल कर पतंगों के पेंच लड़ा रहे थे. तीतर-बटेर साधा रहे थे और कबूतरों की दुमों के पर गिन कर हलकान हो रहे थे. लफ्ज "मिर्जा" जो कभी शान और दबदबे की निशानी समझा जाता था मजाक बन रहा था. गोरी बी कोल्हू के अंधे बैल की तरह जिंदगी के छकरे में जुटी धुरी पर घूमें जा रही थी. उनकी नीली आँखों में सूनेपन ने डेरा डाल दिया था.

उनके लिए तरह-तरह की कहानियां मशहूर थीं कि उनके ऊपर जिन्नो का बादशाह आशिक था. ज्योंही काले मियां उनके घूंघट को हाथ लगते चाट तलवार सूत कर खड़ा हो जाता. हर जुमेरात को आधीरात की जमात के बाद वजीफा पढ़ती तो सारा आंगन कौडीयाले साँपों से भर जाता. फिर सुनहरी मुकुट वाला नागराज अजगर पर सवार हो कर आता है. गोरी बी की पाट की धुन पर सर धुनता है. पौ फटते ही सब सिधार जाते हैं.

जब हम किस्से सुनते तो कलेजे उछल कर हलक में फँस जाते. और रात को साँपों की फुन्कारे सुन कर उठते और चीखें मारने लगते.

गोरी बी ने सारी उम्र कैसे कैसे नाग खिलाएं होंगे, कैसे अकेली नामुराद जिंदगी का बोझ ढोया होगा? उनके रसीलें होंठो को कभी किसी ने नहीं चूमा. उन्होंने अपने जिस्म की पुकार को क्या जवाब दिया होगा?

अच्छा होता ये कहानी यही खत्म हो जाती.

किस्मत मुस्करा रही थी.

MissK
15-05-2011, 08:51 PM
पूरे चालीस बरस बाद काले मियां अचानक आप ही आ धमके. उन्हें किस्म-किस्म की लाइलाज बीमारियाँ लग चुकी थी. पोर-पोर सड रही थी. रोम-रोम रिस रहा था. बदबू के मरे नाक सडी जाती थी. मगर आँखों में हसरते जाग रही थी जिनके सहारे जान सीने में अटकी हुयी थी.

"गोरी बी से कहो मुश्कील आसान कर जाये."

एक कम साठ बरस की दुलहन ने रूठे हुए दूल्हा को मनाने की तैय्यारियाँ शुरू कर दी. मेंहदी घोल कर हाथ-पैरों में रची. पानी गर्म करके पिंडा पाक किया. सुहाग का चिकटा हुआ तेल सफ़ेद लटों में बसाया. संदूक खोल कर घर-भर टपकता-झड़ता शादी का जोड़ा निकाल कर पहना और इधर काले मियां दम तोड़ते रहे.

जब गोरी बी शर्माती-लजाती धीरे-धीरे कदम उठती उनके सिरहाने पहुंची तो झिलंगे पलंग पर चीकट तकिये और गूदड बिस्तर पर पड़े हुए काले मियां की मुर्दा हड्डियों में जिंदगी की लहर दौड गयी. मलकूल-मौत (यमदूत) से जूझते हुए काले मियां ने हुकुम दिया.

"गोरी बी, घूंघट उठाओ!"

गोरी बी के हाथ उठे लेकिन घूंघट तक पहुँचने से पहले गिर गए.
काले मियां दम तोड़ चुके थे.

वो बड़े सुकून से उकडू बैठ गयी. सुहाग कि चूडियाँ ठंडी की और रंडापे का सफ़ेद आँचल माथे पर खींच लिया.

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MissK
22-05-2011, 07:13 PM
नन्ही सी जान

" तो आप फिर अब क्या होगा?"

"अल्लाह जाने क्या होगा! मुझे तो सुबह से डर लग रहा है." निजहत ने कंघी में से उलझे हुए बाल निकलकर ऊँगली पर लपेटने शुरू किये. दिमागी उलझन की वजह से उसके हाथ कमजोर हो कर काँप रहे थे और बालों का गुच्छा फिसला जाता था.

" अब्बा सुनेंगे तो बस अंधेर हो जायेगा. खुदा करे, उन्हें न मालूम हो. मुझे उनके गुस्से से तो डर ही लगता है."

"तुम समझती हो, यह बात छिपी रहेगी? अम्मी को तो कल ही शक हुआ था कि दाल में कुछ काला है. पर वह सौदे के दाम देने में लग गयीं और शायद फिर भूल गयीं. और आज तो..."

" हाँ आपा, छिपानेवाली बात तो नहीं. मैं तो कहती हूँ, जब रसूलन के अब्बा को खबर होगी, तब क्या होगा? खुदा कसम भूत है वह तो.. मार ही डालेगा....हमेशा ऐसे ही मारता है कि..."

"और उसने किसी को बताया भी तो नहीं. कैसी पक्की है! पिछली बार जब दीन मुहम्मद का किस्सा हुआ था, तो भी चुपके से खला के यहाँ भाग गयी... भाई जान दोनों को निकालने को कहते थे." बाल ज़माने के लिए वह ऊपर से महीन दाने की कंघी फेरने लगी.

"हाँ, और उस बेचारे की इतनी-सी तो तनखाह है. भाई जान पुलिस में देने को कहते थे, और देख लेना, अबकी वह छोड़ने वाले नहीं. बहन, हद हो गयी, मालूम है अब्बा जान का गुस्सा!"

"तो आपा, वह पुलिस में दे देंगे?" सलमा की आवाज बेकाबू हो गयी.

"और नहीं, तो फिर क्या?"

"फिर, फिर क्या होगा?... बेचारी रसूलन...आप...पुलिस के नाम से तो मेरा भी जी डरता है."

"डरने की बात ही है..." पुलिस किसी की नहीं होती...वह तुम्हे याद है, नन्हू की बहू ने हंसली चुराई थी, तो दोनों गए थे जेलखाने."

"हथकडिया डाल के ले जाते हैं...क्यों, आपा?"

"हथकडियां और बेडियाँ"

"लोहे की होती है न?"

"हाँ, पक्के फौलादी लोहे की."

"फिर कैसे उतरती होगी, मर जाते होंगे, तभी उतरती होंगी. क्या करेगी, बेचारी रसूलन?"

MissK
22-05-2011, 07:16 PM
"और क्या, बेचारी...भई मजाक थोड़े ही है...और तुमने देखा, उसने गाड़ा किस सफाई से बेचारे को. हिम्मत तो देखो, हमें भी न बताया. अरे, उसने तो किसी को बताया ही नहीं."

"कैसी बेरहम है...हाँ बेचारा बच्चा...उसका जी भी न दुखा...नन्ही सी जान!"

"क्या मुश्किल से जान निकली होगी!"

"मुश्किल से क्या निकली होगी. एक ऊँगली के इशारे से बेचारा खत्म हो गया होगा."

"चलो, जरा उससे पूछे, कैसे मारा उसने?"

दोनों डरी, सिमटी आँख बचाती, तलुओं से जूतियाँ चिपकाए गोदाम की ओर चलीं, जहाँ अनाज की गोल के पास टाट पर रसूलन पड़ी हुयी थी. पास ही दो-तीन नन्ही-नन्ही चुहियां गिरा-पड़ा अनाज और मिर्च के दाने लेने के लिए डरी-डरी घूम रही थीं. दोनों को देखकर ऐसे भागीं, जैसे वे मार ही तो देतीं. गो आनेवालियों के दिल चुहियों से भी ज्यादा बोदे थे. थोड़ी देर तक वे रसूलन के पीले चेहरे और पपड़ी जमे होंठ को देखती रहीं. रसूलन नौकरानी थी, पर वे बचपन से दोस्त ही रहीं. और वैसे थोड़ी-बहुत रसूलन ही मजे में थी. वह पर्दा नहीं करती थी और मजे से दुपट्टा फेंककर आम के पेड़ तले कूदा करती. ये दोनों, जब से इनके मामू रामपुर से आये थे, परदे में रहती थीं और गुलाब सगर्वाली नानी ने आकर सबको मोटी कलफदार मलमल की ओढनीयां बना दी थीं और घर से बाहर कदम रखना जुर्म था. यह रसूलन ही थी, जो उनपर तरसकर खाकर दो चार कोयल-मारी अम्बियाँ उन्हें भी खिड़की से दे देती थी, जहाँ वे परकटे तोतों की तरह टुकुर-टुकुर देखा करती थीं और मामू की मूंछ की नोक भी दिख जाये तो वे गडाप से पीछे कूद पड़ती थीं... और अब रसूलन पर यह विपदा पड़ी थी.

MissK
22-05-2011, 07:20 PM
"रसूलन! ....ए रसूलन! कैसा है जी?"

"जी!" रसूलन ने जैसे आह खींचकर कहा, " अच्छी हूँ, निजहत बी."

"क्या बुखार तेज है...और दर्द अब भी है या गया?"

"हाँ निजहत बी. सलमा बी..."

"अरे भई फिर कुछ कर न. कह दे माँ से कि हकीम साहब के यहाँ से ला दे कोई दवा."

"नहीं, बीबी..मार डालेगी माँ तो...वैसे ही गुस्से में रहती है...और अब तो और भी..."

"हाँ! गरीब लड़की! मरती हो,तो कोई दवा लाकर न दे...हद है जुल्म की! सलमा की आँखे भर आईं.

" मगर कब तक छिपाएगी...मिट्टी भी तो ठीक से नहीं डाली तूने."

"क्या?" तो क्या सब को मालूम हो गया था? रसूलन और भी पीली पड़ गयी. उसके सुरमई गाल मिट्टी के रंग के हो गए.

"अब तो बस हम से मत बनो. हमें सब मालूम है."

"हैं? आपको..निजहत बी, आपने कहाँ देखा?" वह कांपकर उठने लगी.

"और क्या, हमें कल ही मालूम हो गया था और हम पिछवाड़े जाकर देख आये. मैं और सलमा गए थे."

"हाँ..हमने देख लिया!" सलमा जल्दी से बोली कि कहीं वह पीछे न रह जाये और रसूलन समझे सबकुछ आपा ही देख सकती हैं.

"शी! इतने जोर से न बोलो..." दोनों खुद ही डरकर सिमटने लगीं.

"हम और आप कल गए थे शाम को. फिर हमने ढूँढा, तो मेहँदी के पास हमें शक हुआ. फिर कमीज का कोना दिखाई दिया..जिसके चिथड़ों में लपेटा है तूने."

"हाँ, दीन मुहम्मद की फटी हुयी कमीज...ओह! मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए....

बेचारे की गर्दन टेढ़ी हो गयी थी." निजहत ने जिबह की हुयी मुर्गी की तरह गर्दन अकडाई.

"फिर...फिर सलमा बी... फिर आप ने कह दिया होगा सबसे...हाय! मेरे मालिक!मेरी माँ!"

"हम ऐसे छिछोरे नहीं है, रसूलन...तेरी शिकायत कैसे कर देते...और फिर जबकि हमें मालूम है कि तू अकेली कसूरवार नहीं..यह दीन मुहम्मद..."

"उस बदमाश का मेरे सामने नाम न लीजिए...बीबी.."

MissK
22-05-2011, 07:22 PM
"हम तो कितनी दफा कह चुके तुझे, उस कुत्ते से न बोला कर, हमेशा तुझे जलील कराता है...मगर..."

अच्छा बीबी, अब उस मुए से बोलूँ, तो रसूलन नहीं, भंगन की जनी...बस..तो अब आप कह देंगी सब से, और जो सरकार को मालूम हो गया, तो खैर नहीं. हाय मेरे अल्लाह!...मैं तो मर ही जाऊं..."

एक तो अँधेरा, दूसरे निडर चुहियां, फिर रसूलन मरने की धमकी दे! निजहत की उँगलियों की पोरीं ठंडी पड़ गयीं और सलमा की आँखों में मिर्चें लगने लगी.

"कैसी बातें करती है, रसूलन!" सलमा की नाक जल उठी.

"क्या करूँ, बीबी, जी करता है, अपना गला घोंट लूं." और वह जी छोड़कर सिसकियाँ भरने लगी.

"हैं-हैं! रसूलन! क्या बात अपने मुँह से निकालती हो!खुदा सबका मददगार है. वही सबकी मुसीबत दूर करता है, मुझे तो उस नामुराद दीन मुहम्मद पर गुस्सा आ रहा है. जैसे उसका तो कुछ कुसूर ही नहीं. " निजहत ने कहा.

" हाँ भई, लडको को कौन कुछ कहता है. दीन मुहम्मद कुछ भी कर दे, भाई जान हिमायती, अब्बा जान तरफदार. और बेचारी रसूलन!..ख्याल से मेरा कलेजा कटा जाता है. याद है, आपा पिछली दफा किया ग़दर मचा था. और रसूलन की माँ भी गरीब क्या करे? सच कहती है अम्मी. लड़कियां जन्म से खोटा नसीब ले कर आती है."

MissK
22-05-2011, 07:26 PM
सलमा के गालो पर सचमुच आंसुओं की लकीरें बहने लगीं. तीनो के गले भर आये और निजहत की नाक में चींटियाँ सी रेंगने लगी, मानो किसी ने पानी चढा दिया हो. तीनो चुहियां भी शायद भी भूल से मिर्च का दाना चबा गयीं. आंसू-भरी उदास आँखों से, दूर बैठी सिसकारी भारती रही. आँखे,भूरी मूंछे बजरी में भुट्टे के बालों की तरह काँप रही थीं.

"मेरी निजहत बी, बताइए अब मैं क्या करूं? मुझे तो दादी बी की पिटारी से जरा-सी अफीम ला दीजिए. सचमुच खाकर सो ही रहूँ." रसूलन निचला होंठ काटने लगी.

"नहीं, रसूलन, ख़ुदकुशी हराम है. अब तो बात, मालूम होता है दब-दबा गयी और किसी को पता भी न चलेगा और तू अच्छी हो जायेगी." सलमा बोली.

"क्या करू अच्छी हो कर, इस रात-दिन की जूतियों से तो मौत भली."

"मगर मैं पूछती हूँ.. यह तूने कैसे मारा..ऐ है, जरा सा था..." निजहत का आखिर को जी न माना.

"मैंने?...बीबी आप...हो-हो..हो-हो!" रसूलन बीमार कुतिया की तरह रोने लगी.

"चुप रहो, आपा! तुम तो बेचारी का दिल दुख रही हो. मत रो रसूलन!" सलमा आगे खिसक आई.

"चलो अम्मी आ रही है." निजहत और सलमा दरवाजे के पीछे दुबक गयी. अम्मी लोटा लिए निकल चली गयी.

"ठहरो,बीबी, कहोगी तो नहीं किसी से?" रसूलन ने गिडगिडाकर सलमा के पजामे की मोरी पकड़ ली.

"नहीं..अरे छोड़...अरे.."

दोनों स्तब्ध रह गयी. चुहियां पीपों के पीछे भाग गयीं.

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22-05-2011, 07:29 PM
"हूँ...तो यह मामला है! अच्छा, कहूँगा अम्मी से." भाई जान स्टिक में कडू तेल लगाने गोदाम में आये थे.

"भाई जान!उन्होंने सारी बातें सुन ली. चुप रसूलन. आपा चलो."

दोनों दुबककर निकलने लगीं. एक चुहिया भाई जान के स्टिक को नफरत से घूरती पुराने पलंग के बानों में घुस गयी.

"क्या आप...अच्छा, तो यह कहिये..साजिशें हो रही है... मगर मैंने सुन लिया है. वह दीन मुहम्मद की कमीज..मेहँदी के नीचे. " भाई जान तेल की तलाश में पीपे टटोलने लगे.

"तो..तो आप देर से खड़े थे...?" सलमा ने चाहा, उसके चेहरे की सफेदी आँचल में जज्ब हो सके, तो क्या कहने!

"और क्या, बरामदे में था मैं...अब तुम पकड़ी गयीं...बताओ क्या साजिश थी?"

"भाई जान.."

"कुछ नहीं सच-सच बता दो, नहीं तो अभी अम्मी से जाकर कहता हूँ..बोलो क्या बात है?"

"अच्छे भाई जान!...देखिये गरीब रसूलन..हाय अल्लाह!" निजहत का जी चाहा जोर से चने की गोली से माथा फोड डाले.

"यह रसूलन... सुअरनी है. मेरे सारे जूते पलंग के नीचे भर देती है. इस चुड़ैल की तो खाल खिंचवा दूंगा. ठहर जा... क्या गाड़ कर आई है...शर्तिया..."

"नहीं, भाई जान!..अच्छा आप कसम खाइए कि कहेंगे नहीं किसी से." सलमा ने बढ़कर प्यार से भाई जान के गले में बाहें डाल दी.

"हटो, नहीं खाते हम कसम!.. मत बताओ हमें. हम खुद जानते है. आज से नहीं कई दिन से..."

MissK
22-05-2011, 07:32 PM
"हाय मेरे मौला!" रसूलन औंधी पड़कर फूट-फूटकर रोने लगी.

"अच्छे भाई जान, आप हमारा ही मरा मुँह देखे, जो किसी से कहे...सुनिए, हम सब बता देंगे." दूसरी तरफ से निजहत ने गला दाबा.

"बात यह है." और कान में सलमा ने खुसुर-पुसुर करके कुछ बताना शुरू किया.

"अरे?...कब?" भी जान की नाक फड़की और भवें टेढ़ी-मेढ़ी लहरें लेने लगीं.

"कल शाम को..." निजहत ने हौले से बताया.

"अब्बा जान क्लब गए थे और अम्मी सो रही थीं." सलमा के गले में सूखा आटा फंसने लगा.

"हूँ, फिर...अब क्या उन्हें पता नहीं चल जायेगा?" भाई जान दोनों को झिटककर बोले.

"मगर आप...आप न कहियेगा. आप को रजिया आपा की कसम." सलमा ने कहा.

"रजिया...रजिया...हैं! हुश्त...हटो...हम किसी की कसमें नहीं खाया करते." और वह हाथ झटकाते चले " हम जरूर कहेंगे...वाह, हटो, हम जा रहे है."

"आपा, तुम भी क्या हो!...इतनी जोर-जोर से बोलती हो कि सब उन्होंने सुन लिया." भाई जान के जाने के बाद सलमा की आँखे आंसुओं में डूब गयीं.

" ये भाई किसी के नहीं होते. स्वेटर बुनवाये, बटन टंकवाएं, वक्त-बेवक्त अंडे तलवाये, रुपया उधर ले जाए और कभी भूलकर भी वापस न करें. क्या मिस्कीं सूरत बना लेते है, जैसे बड़ी मुसीबत पड़ी है, निजहत गुडिया, जरा एक रुपया उधार दे दो. सच कहता हूँ, कल एक के बदले दो दे दूंगा...हुंह! और दुगुने तो दुगुने, असल ही दे दें तो बहुत जानो." निजहत बिलकुल बगावत पर तुल गयी..

क्रमशः...

MissK
24-05-2011, 05:42 PM
रसूलन की माँ रोटियों के लिए पलेथन लेने आई. बेचारी के सारे मुँह पर झुर्रियाँ पड़ी हुयी थीं और चेहरे से नफरत और गुस्सा बरस रहा था.

"अरे रसूलन की माँ, इसका बुखार नहीं उतरता. तुम कुछ करती भी नहीं." निजहत ने डांटा.

"अरे बेटा, क्या करूँ. हरामखोर ने मुझे तो कहीं का न रक्खा. जहाँ नौकरी की, इसी के गुणों से निकली गयी...घडी भर को चैन नहीं."

"मगर रसूलन की माँ, तुम चाहो कि ये मर ही जाये, तो तुम भी नहीं छुटोगी, हाँ और क्या."

"मर जाये, तो पाप ही न कट जाये. कलमुंही ने मुझे मुँह दिखने का न रक्खा. ....थानेदारिनी तो अब भी मुझे रखने को कहती है, पर इस कमीनी के मारे कहीं नहीं जाती...जब देखो, मुझे तो इन नसीबों का रोना है. जवान बेटा चल दिया और यह मारी गयी रह गयी, मेरे कलेजे पर मूंग दलने को."

"तो जहर दे दे न मुझे...हो...हो-हो!" रसूलन ने बेबसी से रोकर कहा.

"अरे मैं क्या दूँगी जहर, इन करतूतों से देख लेना, जेल जायेगी और वहीँ सड-सड के मरेगी. लो, अंधेर खुदा का! मुझसे कहा तक न इसने! हटो बीबी, मुझे आटा लेने दो."

MissK
24-05-2011, 05:47 PM
"यह क्या हो रहा है यहाँ, सलमा...निजहत...हूँ, कितनी दफा कहा है कि शरीफ बेटियां रजिलों-कमीनों के पास नहीं उठती-बैठतीं, मगर नहीं सुनती. ...चलो, यहाँ से निकालो...ऊई, इसे क्या हुआ, जो लाश बनी पड़ी है, बन्नो?"

"जी...जी, बुखार है, बीबीजी, कमबख्त को!" रसूलन की माँ जल्दी-जल्दी आटा छानने लगी.

"बुखार तो नहीं मालूम हो़ता. खासा तबक-सा चेहरा बना रखा है. यह क्यों नहीं कहतीं कि बन्नो...

"बीबीजी...यह देखिये..." दीन मुहम्मद बीच में चिल्लाया.

"आप!...वह...वह ले आया!" सलमा ने जैसे कब्र से निकली लाश को देखकर घिघियाना शुरू कर दिया और निजहत से लिपट गयी.

"अरे क्या है?"

"यह...देखिये पिछवाड़े, मेहँदी के तले."

"है-है!...कमबख्त...ऊई!" अम्मा जान के हाथ से लोटा छूट पड़ा. वे मरी हुयी चुहिया तो देख न सकती थीं.

"यह...यह, इस रसूलन ने, बीबीजी...मेहँदी के नीचे गाडा...यह देखिये!"

रसूलन का जी चाहा वह भी नन्ही-सी चुहिया होती और सट से मटकों के पीछे जा छुपती.

MissK
24-05-2011, 05:50 PM
"चल झूठे!...कैसा बन रहा है...जैसे खुद बड़ा मासूम है." निजहत चिल्लाई.

"तो क्या मैंने मारा? वाह साहब, वाह!...वाह निजहत बी! और फिर अपनी ही कमीज में लपेट देता कि झट पकड़ा जाऊं!"...बीबीजी, यह रसूलन ने गाडा."

"चल, नामुराद! तुझे कैसे मालूम, मेरी बच्ची ने गाडा है? तेरी अम्मा-बहना ने गाडा होगा. और मेरी लौंडिया के सर थोप रहा है. उसका जी परसों से अच्छा नहीं है. अलग पड़ी है कोठरी में." रसूलन की माँ दहाड़ी और जोर-जोर से छलनी से आटा उड़ाने लगी, ताकि सब के दम घुटने लगे और भाग खड़े हों. वह अपनी पीठ से रसूलन को छुपाये रही. कहते हैं, दाई ने उसके गले में बांस घंघोल दिया था, तभी तो ऐसा चीखती थी. मोहल्ले की ज्यादातर लड़ाईयां वह केवल अपने गले के जोर से जीत जाया करती थी.

" सरकार में शर्त बदता हूँ. इसी का काम है यह... यह देखिये, मेरी कमीज भी चुराकर फाड डाली. जाने दूसरी आस्तीन कहाँ गयी?" दीन मुहम्मद बोला.

"हरामखोर, उसी का नाम लिए जाता है. कह दिया, परसों से तो वह पड़ी मर रही है. मुर्गियाँ भी मैंने बंद कीं और अपने हाथ से गोदाम की झड निकाली. ...मुआ काम है कि दम को लगा है." रसूलन की माँ झूट-सच उड़ने लगी.

"इसलिए तो मक्कर साधे पड़ी है डर के मरे, नहीं तो हमें क्या मालूम नहीं इसका मरज...चुपके से गाड़ आई कि सरकार को मालूम हो गया, तो जान की खैर नहीं. " बीबीजी जूतियों में से पानी टपकाने लगी "इस चुड़ैल से तो मैं तंग आ गयी हूँ. रसूलन की माँ, यह कीडों भरा कबाब मैं घडी भर नहीं रखने की. लो भला गजब खुदा का है कि नहीं!"

"सूअर कहीं का!...यह दीन मुहम्मद...सलमा बडबडाई.

सलमा और न जाने क्या बडबडाती कि अम्मा जान ने डांट बताई " बस बी, बस, तुम न बोलो, कह दिया कि कुंवारियां हर बात में टांग नहीं अड़ाया करतीं.. चलो यहाँ से, तुम्हारा कुछ बीच नहीं...रसूलन की माँ, बस आज ही इसे इसकी खाला के यहाँ पहुंचा दे, कितना कहा, हरामखोर का ब्याह कर दे कि पाप कटे." बीबीजी बुरी तरह ताने देने लगीं.

"कहाँ कर दूं, बीबी जी, आप ही तो कहती हैं कि छोटी है. सरकार कहते हैं अभी न कर, जेल हो जायेगी. और मैं तो मुई की कर दूं, कोई कबूले भी, मुझे तो इसने कहीं मुँह दिखाने का न रखा." रसूलन की माँ रो-रोकर छलनी झाड़ने लगी.

MissK
24-05-2011, 05:54 PM
"अरी, और यह मरा कैसे? रसूलन, जरा सी जान को तूने मसलकर रख दिया और तेरा कलेजा न दुखा."

"ऊंह-ऊं-ऊं! बेचारी रसूलन कुछ भी न बता सकी.

"बन रही है, बीबी...बड़ी नन्ही सी है न." दीन मुहम्मद फिर टपका.

"ऊं-ऊं!..अल्लाह कसम बीबी जी...यह....यह दीन मुहम्मद."

"लगा दे मेरे सर...अल्लाह कसम, बीबीजी, यह इसी कि हरकत है...झूठी!"

"खुदा की मार तुझ पर, झाडूपीटे एकदम मेरी लौंडिया का नाम लिए जाता है. बड़ा साहूकार का जना आया वहाँ से! हर वक्त मेरी लौंडिया के पीछे पड़ा रहता है." रसूलन की माँ चिंघाड़ती हुयी फट पड़ी.

"बस-बस! जब तक बोलती नहीं, बढती ही जाती हैं...तुम्हारी लौंडिया है भी बड़ी सैयदानी!.."

"देखो, दीन मुहम्मद की माँ, तुम्हारा कोई बीच का नहीं.... ज़माने भर का लुच्चा-मुआ..."

"बीच कैसे नहीं, और तुम्हारी लौंडिया...अभी जो घर के सारे पोल खोल दूं, तो बगलें झांकती फिरो, कहो कि नौकर हो कर नौकर को उगाडती है...और..." रसूलन की माँ चिंघाड़ सकती थी, तो दीन मुहम्मद की माँ की कमजोर मगर एक लय की आवाज कानों में लगातार पानी की तरह गिरकर पत्थर तक को घिस डालती थी. चें-चें-चें जब शुरू होती थी, तो लगता था, दुनिया एक पुराना चरखा बन गयी है, जिसमें कभी तेल नहीं दिया जाता.

MissK
24-05-2011, 05:58 PM
"आया निगोड़ामारा कहीं से!" रसूलन की माँ दब नहीं रही थी. जरा योंही कुछ सोच रही थी.

"और क्या, नन्ही बनकर मेरे लौंडे का नाम ले रही है, जैसे हमसे कुछ छिपा है. पिछले जाडो में भी इसी ने ऐसे झटपट कर दिया और कानों-कान खबर न हुयी, और तुम खुद छिपा गयीं. मेरा लड़का मुई पर थूकता भी नहीं."

"देखिये बीबी जी, अब यह बढती ही चली जा रही है. मुई कसाईन कहीं की! माना चलो, चटपट भी किया, क्या कोई तुम्हारे खसम का था..."

"मेरे तो नहीं, हाँ, तुम्हारे खसम का था, जो पोटली में बाँध अंधे कुएँ में झोंक आई और लौंडिया को झट से खाला के यहाँ भेज दिया. जरा-सी फितनी, और गुण तो देखो!" दीन मुहम्मद की माँ की आवाज लहराई.

"बस जी, बस! यह कंजडखाना नहीं...तुम्हारे खसम का, न इनके खसम का. चलो, अपना-अपना काम करो. ....भला बतलाओ, सरकार को पता चला. तो...अल्लाह जनता है...कियामत रखी समझो...टांग बराबर छोकरी, क्या मजे से मार-मूर ठिकाने लगा दिया और तोप भी आई...अंधेर है कि नहीं...ऐ, चल हट उधर!.." बीबी जल्दी से लपकी.

MissK
24-05-2011, 06:02 PM
"कुछ नहीं, अब्बा मिया, यह रसूलन...." भाई जान हाकी स्टिक पर अब तक तेल मल रहे थे.

"ऐ चुप भी रह लड़के! कचहरी से चले आते हैं. आते ही झल्ला जायेंगे."

"यह देखिये, सरकार... यह मारकर पिछवाड़े गाड़ आई. ...मैंने आज देखा."

"अरे!...इधर लाना, ओफ्फोह यह किसने मारा?"

"सरकार, रसूलन ने...वह अंदर बैठी है."

"ओ मुर्दे, क्यूँ झूठे दोस मढ़ता है. बिजली गिरे तेरी जान पर!" रसूलन की माँ दांत पीसती झपटी.

"मुर्दी होगी तेरी चहेती,जिसकी ये करतूत है!"...लाडो के गुण तो देखो!..."

"चुप रहो, क्या भटियारनो की तरह चीख रही हो!" सरकार रौब से गुर्राए और सारे मजमे में सन्नाटा छ गया. "अभी पता चल जाता है. बुलाओ रसूलन को."

"सरकार...हजूर!" रसूलन की माँ कांपने लगी.

"बुलाओ!...बाहर निकालो, सब मालूम हो जायेगा."

"सरकार, जी अच्छा नहीं निगोड़ी का." बीबीजी उठी हिमायत करने.

"जी-वी सब अच्छा है!...बुलाओ उसे..."

MissK
24-05-2011, 06:07 PM
"रसूलन, ओ रसूलन!...चल बाहर , सरकार बुलाते है." दीन मुहम्मद दरोगा की तरह चिल्लाया.

रसूलन घुटी-घुटी आहें भरने लगी, चीखें रोकने में उसके होंठ पत्र-पत्र बोलने लगे. मगर हुक्मे-हाकिम मर्ग मफाजत. कराहती, सिसकती, लड़खड़ाती जैसे अब गिरकर जान दे देगी. निजहत ने लपककर सहारा दिया. बुखार से पिंडा तप रहा था और मुँह पर नाम को खून नहीं.

"बन रही है , सरकार!" दीन मुहम्मद अब भी न पसीजा.

"अरे, इधर आ!...इधर, हाँ, बता...साफ़-साफ़ बता दे, नहीं तो बस!"

"पुलिस में दे देंगे, सरकार." दीन मुहम्मद टपका और रसूलन की माँ ने एक दोहत्थड़ उसकी झुकी हुयी कमर पर लगाया कि औंधे मुँह गिरा सरकार के पास.

"जवानामर्ग, तुझे हैजा समेटे!..."

रसूलन की टाँगे काँप रही थीं और मुँह से बात नहीं निकलती थी.

"हाँ, साफ़ बता दे, नहीं तो सच कहते हैं, हम पुलिस में दे देंगे." सरकार बोले.
रसूलन की हिचकी बंध गयी और हिचकियों के कारण वह बोल भी न सकी.

" बेगम, इसे पानी दो... हाँ, अब बता...कैसे मारा?"
पानी पी कर जरा जी थमा. बड़ी देर तक पानी चढाती रही कि जवाब से बची रहे.

"हाँ बता, जल्दी बता! सबने कहा.

"सरकार!"...

"हाँ, बता..."

"सरकार!...ईं-ईं...हो...हो-हो!...मैं...मेरे सरकार...मैं दरबा...फिर...दरबा बंद कर रही थी...तो काली मुर्गी भागी. मैंने जल्दी से दरवाजा भेडा...तो...यह पिच गया...ओ-हो...हो!..."

"सरकार, बिलकुल झूठ. यह ऐसी बुरी तरह मुर्गियों को हांकती है कि क्या बताएं." दीन मुहम्मद कहाँ मानता था" मना करता हूँ कि हौले-हौले..."

"च-च-च! क्या खूबसूरत बच्चा था! मनारका मुर्गी का था. अभी आपने कानपुर से मंगवाया
था...आज इस रसूलन को खाना मत देना, यही सजा है इस चुड़ैल की... और दीन मुहम्मद, आज से मुर्गियाँ तू बंद किया कर, सुना?"

"वाह-वाह! निगोड़े ने मेरी लौंडिया को हलकान कर दिया. सड़के किया था निगोड़ा, बोती का टिक्का! जरा-सा मुर्गी का बच्चा और इतना शोर! चल री, चल! आज ही मुरदार को खाला के घर पटकूं, ऐसी जगह झोंकू (धप!धाँय!एँ-हें, रसूलन की आवाज) कि याद ही करे. अजीरन कर दी मेरी जिंदगी..मुँह काला करवा दिया...

रसूलन की सिसकियाँ और माँ के कोसने बड़ी देर तक हवा में नाचते रहे.

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08-06-2011, 11:42 PM
घरवाली

जिस दिन मिर्जा की नयी नौकरानी लाजो घर में आई तो सारे मोहल्ले में खलबली मच गयी. मेहतर, जो मुश्किल से दो झाड़ू मारकर भागता था, अब जमीन छीले फेंकता था. ग्वाला, जो दूध में पानी का छींटा देकर सर मूंड जाया करता था; अब घर से कढ़ा हुआ दूध लाने लगा-- ऐसा गाढ़ा कि रबर का गुमान होता था.

पता नहीं कि किस अरमान भरी ने लाजो नाम रखा होगा? लाज और शर्म का तो लाजो की दुनिया में कोई मतलब न था. न जाने कहाँ और किसके पेट से निकली, सड़को पर रुल कर पली. तेरे-मेरे टुकड़े खाकर इस काबिल हो गयी कि छीन-झपटकर पेट भर सके. जब सयानी हो गयी तो उसका जिस्म उसकी वाहिद दौलत साबित हुआ. जल्द ही वह हमउम्र आवारा लौंडो की सोहबत में जिंदगी के अछूते राज जान गयी और शुतुर-बे-मुहार (बिना नकेल की ऊंटनी) बन गयी. मोल-टोल की उसे कतई आदत न थी. कुछ हाथ लग गया तो क्या कहने! नकद न सही उधार ही सही. जो उधार न हो तो खैरात सही.
" क्यूँ री, तुझे शर्म नहीं आती?" लोग उससे पूछते.
"आती है!" वह बेहयाई से शर्मा जाती.
"एक दिन खट्टा खायेगी!"
लाजो को कब परवाह थी? वह तो खट्टा-मीठा एक सांस में डकार जाने की आदी थी. सूरत बला की मासूम पायी थी. आँख बिना काजल के कलौंच भरीं, छोटे-छोटे दांत, मीठा रंग! क्या फकत किस्म की वरगलाने-वाली चाल पायी थी कि देखनेवालों की जबाने रुक जातीं और आँखे बकवास करने लगतीं.

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08-06-2011, 11:46 PM
मिर्जा कुंवारे थे. हाथ स रोटियां थोपते-थोपते अत्तू हो गए थे. बस छोटी-सी बिसातखाने की एक दुकान थी, जिसे वह जनरल स्टोर कहते थे. घर जाकर शादी करने की फुर्सत नहीं मिलती थी. कभी व्यापर ऐसा मंदा होता कि दिवाला निकलने की नौबत आ जाती. कभी ऐसी टूटकर बिक्री होती कि सर उठाने की मुहलत न मिलती; सर पर सेहरा बंधवाने की तो बात ही कहाँ.

बख्शी को लाजो एक बस स्टॉप पर मिली थी. बीवी पूरे दिनों से थी; नौकरानी की जरूरत थी. जब बच्चा हो गया तो उसे मारकर निकाल दिया, मगर बख्शी को कुछ उसकी लत-सी पड़ गयी थी. अब उसे समुन्दर पार बड़े मार्के की नौकरी मिल गयी थी, इसलिए उसने सोचा कि लाओ भाई, उसे मिर्जा के यहाँ डाल आयें. कन्जरियों में अपनी मिट्टी पलीद करते हैं, जरा मुफ्त का माल भी चख देखें.

"लाहौल विला कूव्वत!... मैं नीच औरतों को घर में डालने का कायल नहीं!" मिर्जा बिदक गए.
"अरे मियां हटाइए भी, सारा काम-काज करेगी!" बख्शी ने समझाया.

"नहीं भाई! यह लानत कहाँ मेरे सर मढे जाते हो, अपने साथ क्यूँ नहीं ले जाते?"

"मेरे अकेले का टिकट आया है, सारे कुनबे का नहीं."

इतने में लाजो बावर्चीखाने पर धावा बोल चुकी थी. लहंगे को लंगोट की तरह कसे हुए, लंबा बांस- जिसके सर पर झाडू बंधी थी- लिए सारे घर में घुमाती फिर रही थी. बख्शी ने जब उसे मिर्जा के फैसले खबर दी तो उसने बिलकुल नोटिस नहीं लिया. उसने पतीलियाँ मचान पर ज़माने को कहा और खुद नल पर पानी लेने चली गयी.

"अगर तू कहे तो वापस घर पहुंचा दूं."

"चल दूर हो! तू मेरा खसम है जो मैके छोड़ आएगा? जा अपना रास्ता ले, हम यहाँ से निपट लेंगे."

बख्शी ने मोटी-मोटी गालियाँ दी कि हरामजादी अकड़ती काहे पे है. लाजो ने उससे भी तगड़ी गालियाँ दी कि बख्शी-जैसे लफंगे को भी पसीना छूट गया.

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08-06-2011, 11:51 PM
बख्शी के जाने के बाद मिर्जा की ऐसी सिट्टी गुम हुयी कि वह एकदम भाग लिए मस्जिद में और बैठे सोचते रहे कि बेकार का खर्च बढ़ेगा. चोरी अलग करेगी! क्या बला सर पर आ पड़ी? मगरीब की नमाज के बाद घर लौटे तो दम भरकर रह गए! जिसे बी-अम्मा मरहूमा वापस तशरीफ़ ले आई हो. घर चन्दन हो रहा था. पानी पीने का कोरा मटका, जिस पर मंजा हुआ कटोरा झिलमिला रहा था, लालटेन साफ़ जगमगाती.

"मियां खाना उतार दूं?"

लाजो ने घाट-घाट का पानी पिया था.

"खाना?"

"तैयार है. गर्म-गर्म रोटी डालती हूँ. अभी आप बैठिये."

बिना जवाब सुने वह रसोईघर में चली गयी.

आलू-पालक की तरकारी, धुली हुयी मूंग की दाल- जीरा और प्याज से बघारी हुयी! बस, अम्माजी के हाथ से खायी थी. गले में निवाला अटकने लगा.

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08-06-2011, 11:54 PM
"पैसे कहाँ से लायी?" उन्होने पूछा.

"बनिए से सामान उधार ले आई."

"मैं तुम्हारा वापसी का किराया दे दूंगा."

"वापसी?"

"हाँ, मेरी हैसियत नहीं. "

"कौन मांगे है तनख्वा?"

"मगर...?"

"ज्यादा मिर्चें तो नही?" लाजो ने फुलका रकाबी में डालते हुए पूछा. गोया बात खत्म! जी चाहा कि कह दें, नेकबख्त सर से पैर तक मिर्चें-ही-मिर्चें लगी हुयी है, मगर लाजो छपाछप फुल्के लाने में लगी हुयी थी; जैसे रसोई में कोई बैठा पका-पकाकर दे रहा हो.

"खैर सुबह देखा जायेगा." मिर्जा सोचकर अपने कमरे में चले गए. उम्र में पहली बार एक औरत घर में सो रही थी. न जाने कैसा लग रहा था. थके हुए थे, सो गए.

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09-06-2011, 07:41 PM
"न मियां, मैं न जाने की!" उन्होंने जब सुबह को उसके घर जाने की बात छेड़ी, तो लाजो ने अल्टीमेटम दिया.

"मगर...."

"क्या मेरे हाथ का खाना पसंद नहीं आया?"

"यह बात नहीं."

"घर की झाड़ू-बूहाडू ना की?"

"वह सब तो ठीक है मगर..."

"तो फिर कौन सजा हुयी...? लाजो ने गर्म मिजाज में कहा.

पहली ही नजर में लाजो दिल दे बैठी थी. मिर्जा को नहीं, घर को. बगैर मालकिन का घर अपना ही हुआ न! घर मर्द का थोड़े ही होता है. वह तो मेहमान होता है. बख्शी मुवा तो कीड़ों-भरा कबाब था. अलग कोठा करके रखा था और कोठा भी कमबख्त नंदी कुमार की भैंस का. भैंस तो कभी की खुदा को प्यारी हो चुकी थी, मगर ऐसी बू छोड़ गयी थी कि लाजो की रग-रग में रच गयी थी. उपर से नखरे करता था सो अलग. यहाँ घर की रानी तो वही थी.

मिर्जा निरे भोंदू थे, यह लाजो ने देखते ही ताड़ लिया था. वाकई मेहमान की तरह आते, चुपचाप जो आगे रख देती खा लेते. वे पैसे दे जाते और दो-चार बार हिसाब पूछा, फिर इत्मीनान हो गया कि लूटती नहीं. वे सुबह को जाते और शाम को आते.

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09-06-2011, 07:46 PM
लाजो दिन-भर घर संभालती, आँगन में नहाती. कभी जी चाहता तो पड़ोस में रामू की दादी के पास जा बैठती. रामू मिर्जा के स्टोर में काम करता था. लाजो पर फ़ौरन नरम हो गया. तेरह-चौदह बार का होगा. मुँह पर ढेरो मुँहासे. बुरी सोहबत में मिट्टी हो गया था. उसी ने बताया कि मिर्जा अक्सर कंजरी के यहाँ जाते हैं.

लाजो को बहुत बुरा लगा. बेकार का खर्चा! डाकिने होती हैं ये कन्जारियां! आखिर वह खुद किस मर्ज की दवा थी? उसने सोचा. आज तक जहाँ रही, सभी खिदमात खुश-अस्लूबी से संभाली. लाजो को आये हफ्ता गुजर गया था लेकिन ऐसी बेकदरी उसकी कहीं नहीं हुयी. मर्द व औरत के रिश्ते को उसने हमेशा फराखदिली से देखा. प्यार ही उसके लिए सबसे हसीं तजुर्बा था. कुछ उम्र से उसे इस प्यार में दिलचस्पी पैदा हो गयी थी. न माँ मिली न दादी-नानी, जो ऊंच-नीच समझातीं. इस मामले में लाजो बिलकुल पड़ोस की बिल्ली थी, जो बिल्लों के इल्तिफ़ात(मेहरबानी) को अपना हक समझती थी. इधर-उधर से बहुत पैगमात उसे मिल रहे थे, मगर वह मिर्जा की नौकरानी थी; नहीं गयी. उनको टाल दिया कि लोग हंसेगे मिर्जा पर.

मिर्जा ऊपर से बर्फ का तुद्दा बने बैठे थे, अंदर बेचारों के ज्वालामुखी दहक रहा था. जान-बूझकर वे घर से कटे-कटे-से रहते. अजीब दिल का आलम था. कुछ मोहल्ले के मनचलों का भी उनकी दहशत में हाथ था. जिधर देखो, लाजो के चर्चे. आज उसने दूधवाले का मुँह खसोटा, कल पनवाड़ी के थोबड़े पर गोबर उठाकर दे मारा! जिधर भी जाती, लोग हथेली पर दिल लेकर दौड़े पड़ते थे. स्कूल की मास्टरजी गली में मिल जाते तो उसे शिक्षा देने पर उतारू हो जाते. मस्जिद से निकलते हुए मुल्लाजी भी उसके कड़ों की आवाज सुन कर आयतलकुर्सी (बलाओं को भगाने की दुआ) पढ़ने लगते.

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09-06-2011, 07:52 PM
मिर्जा कुछ चिढ़े हुए से घर में घुसे. लाजो उसी दम नहाकर आई थी. गीले बाल शानों पर पड़े थे. चूल्हा फूंकने की वजह से गाल तमतमा रहे थे. आँखे छलक रही थीं. मियां को बेवक्त आता देखकर उसने दांत निकोस दिए. मिर्जा बडबडा कर गिरने से बचे. उन्होंने सर झुकाकर रोटी खायी! फिर जा कर मस्जिद में बैठ गए. मगर दिल घर में पड़ा था. पता नहीं बैठे-बिठाये उन्हें घर क्यूँ एकदम याद आने लगा था? लौटे तो लाजो दरवाजे पर खड़ी किसी से झगड रही थी. मिर्जा को देखकर वह मटक गया.

"कौन था. . .? उन्होंने शक्की शौहर की तरह पूछा.

"रघुवा"

"रघुवा. . .? मिर्जा बरसों से दूध लेते थे, मगर ग्वाले का नाम भी मालूम नहीं था.

"दूध वाला!"

"हुक्का ताज़ा करूँ मियां?" लाजो ने बात टाली

"नहीं. क्या कहता था."

"पूछता था कितना दूध लाऊं?"

"फिर तुमने क्या कहा . . . ?"

"मैंने कहा, तेरी अर्थी उठे! जितना रोज लाता है."

"फिर?" मिर्जा सुलग गए.

"फिर मैंने कहा, हरामी, अपनी अम्मा-भैंसा को दूध पिला"

"उल्लू का पट्ठा, बड़ा हरामी है रघुवा! बंद कर दूध, हम स्टोर से वापसी पर ले आया करेंगे."

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09-06-2011, 07:54 PM
रात को खाना खाने के बाद मिर्जा ने बड़े ठस्से के साथ कलफदार कुरता पहन, इतर की फुरेरी कान में अटकाई और छड़ी सँभालते खंकारते हुए चल दिए. लाजो जल-भुनकर खाक हो गयी. पतिव्रता की तरह गुमसुम रही और मन-ही-मन में उस कंजरी को कोसती रही. वह मिर्जा को पसंद नहीं? ऐसा तो कभी नहीं हुआ.


कंजरी अपने दूसरे ग्राहक को निपटा रही थी कि मिर्जा बिगडकर लाला की दुकान पर जा बैठे. महंगाई और सियासी उलट-फेर पर जी जलाकर वापस झुंझलाते हुए लौटे तो ग्यारह बज चुके थे. पानी की सुराही सिरहाने रखी हुयी थी, मगर ध्यान न गया. बावर्चीखानेवाले एक दर्रे में एक मटका रखा था, गटगटाकर ठंडा पानी पिया. मगर जी की आग और भड़क उठी.


लाजो कि चिकनी सुनहरी टांग दरवाजे की आड़ से झाँक रही थी. बेढंगी सी करवट पर उसके कड़े खनखनाए. टांग और पसर गयी. मिर्जा ने एक गिलास और चढ़ाया. वे लाहौल का विर्द (पाठ) करते हुए पलंग पर गिर पड़े.


करवटें ले-लेकर जिस्म छिल गया. पानी पी-पीकर पेट नक्कारा हो गया. दरवाजे के पीछे से टांग कुछ और भी अडंगे लगाने लगी. अनजाना खौफ गला दबोचने लगा. बड़ा उधम मचायेगी नामुराद, मगर शैतान ने पीछे से ढकेलना शुरू किया. अपने पलंग से एक दर्रे तक न जाने कितने मील के चक्कर काट चुके थे. अब उनमें दम नहीं था.

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09-06-2011, 07:57 PM
एक भोला-भाला-सा ख्याल उनके दिल में सर उठाने लगा कि लाजो की टांग इतनी खुली न रहे तो उन्हें उतनी प्यास न लगे. इस ख्याल ने जैसे ही फन उठाया, उनकी हिम्मत बढ़ गयी. नामुराद जाग गयी तो जाने क्या समझेगी? मगर अपने बचाव की खातिर खतरा भी तो मोल लेना ही पड़ता है.


जूते पट्टी तले छोड़े और दबे पाँव वह साँस रोके आगे बढे. चुटकी से लहंगे की गोट पकड़कर खींच दी. दूसरे लम्हें उन्हें पछतावा भी होने लगा कि शायद गरीब को गर्मी लग रही हो. थोड़ी देर बगैर फैसलाकुन अंदाज में खड़े कांपते रहे, फिर दिल पर पत्थर रखकर वापस मुड़े.


अभी उनके ठिठकते कदम चौखट तक न पहुंचे थे कि कयामत टूट पड़ी. एक करवट लगाकर लाजो ने उन्हें जा लिया! मिर्जा कि घिघ्घी बांध गयी. मिर्जा के साथ जिंदगी में ऐसी बेजा कभी नहीं हुयी थी. वह हांय-हांय करते रहे और लाजो ने उनकी लाज लूट ली.


सुबह को मिर्जा लाजो से ऐसे शर्मा रहे थे जैसे नयी ब्याही दुल्हन! लाजो सीना-जोर फ़तेह(विजेता) की तरह गुनगुना रही थी और परांठो में घी की तहें जमा रही थी. उसकी आँखों में रात की बात का कोई अक्स न था. वैसे ही रोजाना की तरह दहलीज पर बैठी मक्खियाँ उड़ाती रही. मिर्जा डर रहे थे कि अब वह ऊँगली पकड़ पहुंचा पकडेगी.

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09-06-2011, 08:03 PM
दोपहर को जब वह उनके लिए खाना लेकर दुकान पर पहुंची तो उसकी चाल में अजीब-सा ठुमका था. लाजो को देखकर लोग ख्वामख्वाह भी चीजों का भाव पूछने आ जाया करते थे. मारे-बांधे कुछ खरीदना भी पड़ जाता था. बगैर कहे लाजो फ़ौरन सामान नाप-तौल कर देने लगती. हर चीज के साथ ढेरों मुस्कराहटें और नखरे भी बाँध देती. इतनी-सी देर में वह इतनी बिक्री कर जाती कि मिर्जा से सुबह से शाम तक न हो पाती. आज उन्हें यह बात नागवार गुजर रही थी.


मगर अब तो जो मिर्जा के, सो राजा के नहीं. क्या बोटी चढ़ गयी और रंग निकल आया. लोग वजह जानते थे और जल मरते थे. मिर्जा की भी दिन-बी-दिन बौखलाहट बढती जा रही थी. जितनी वह उनकी खिदमतगुजारी करती गयी, वे उसके उतने ही दीवाने होते गए. उनके दिल में दुनिया का खौफ बढ़ता गया. उन्हें लाजो की बेतकल्लुफियों का मदहोशकुन तजुर्बा था. परले दर्जे की बेहया थी. खाना लाती तो बाजार में भूचाल आ जाता. किसी की चुटकी बजती, किसी को ठेंगा दिखाती, कूल्हे मटकाती, गालियां झाड़ती हुयी आती तो मिर्जा का खून खौल जाता. वे कहते-

"तुम खाना लेकर न आया करो."


"काहे को?" लाजो का मुँह उतर जाता.

सारे दिन अकेली बैठी बौला जाती थी. बाजार में जरा रंग जमता था, हंसी दिल्लगी चलती थी.

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09-06-2011, 08:06 PM
जब कभी खाना लेकर न आती तो मिर्जा के दिल में तरह-तरह के शुबहे उठने लगते. न जाने क्या गुल खेल रही होगी, वे सोचते. मिर्जा वक्त-बेवक्त जासूसी करने आ धमकते. वह फ़ौरन उनकी थकान उतारने पर आमदा हो जाती. ऐसी फंकैत लौंडिया से खौफ न आएगा?

एक दिन जो यों एकदम घर पहुंचे तो देखा, लाजो रद्दी कागजवाले को बेनुक्त सुना रही है और रद्दीवाला दांत निकोसे शरबत के-से घूँट गटक रहा है. मिर्जा को देख भागा. मिर्जा ने उसी दम लपकर गर्दन नापी और कस-कस के दो झापड लगाये, दी एक लात.

"क्या किस्सा था?" मिर्जा के नथुने फूले.

"मौतपड़ा दस आने सेर दे रहा था. मैंने कहा, अपनी माँ को दे जाकर, हरामजादे!"

रदी का खुला भाव आठ आने सेर का था.

"तुमसे किसने कहा है रद्दी बेचने को?" मिर्जा बडबडाये और पैर खींचकर तस्मे खोलने लगे.

बस उस दिन तो उनके जलाल की इन्तहा न रही, जब उन्होंने लाजो को गली के लौंडो के साथ कबड्डी खेलते देखा. उसका लहंगा हवा में कुलांचे मार रहा था. बच्चे तो कबड्डी खेल रहे थे और बच्चों के बाप लहंगे की फैयाजी से लुत्फ़ उठा रहे थे. ये सब बारी-बारी से उसे कोठा दिलाने कि पेशकश कर चुकेथे, जो लाजो ने ठुकरा दी थी.

मिर्जा निहायत शर्मिंदगी से सर झुकाए गुजर गए. लोग उन पर हंस रहे थे. मियांजी का गुर्रा तो देखो, जैसे वह उनकी ब्याहता ही तो है.


लाजो उनकी जान को रोग की तरह चिमट गयी थी. उसकी जुदाई के ख्याल से उनके पसीने छूटने लगते थे. स्टोर में तो अब बिलकुल जी न लगता. सारे वक्त लाजो का ख्याल सताता कि न जाने कब किसी भरी पेशकश पर नामुराद की राल टपक पड़े.

"मियां निकाह क्यूँ न पढवा लेते?" मियां के दुखड़ा रोने पर मीरन मियां ने राय दी.

MissK
11-06-2011, 03:29 PM
"लाहौलविला कुव्वत! निकाह जैसी मुक़द्दस रस्म का इस कहबा (बदकार औरत) से कैसे वाबिस्ता किया जा सकता है? जमान भर में लहंगा उछालकर अब वह उनकी दुल्हन कैसे बन सकती है?"


मगर जब शाम को वापसी पर लाजो गायब मिली तो उनके पैरों तले से जमीन खिसक गयी. लाला कमबख्त बहुत दिनों से सूंघ रहा था. कोई ढंकी-छुपी बात नहीं थी, उसने पुकारकर सबके सामने कहा था कि कोठा नहीं, वह कहे तो बंगला ले देगा. मीरन मियां बड़े दोस्त बनते थे, लेकिन चुपके से उन्होंने भी हस्बे-हैसियत नजराना पेश किया था.


मिर्जा बौखलाए हुए बैठे थे कि लाजो आ गयी. वह रामू की दादी की पीठ मलने गयी थी. उस दिन मिर्जा ने फैसला कर लिया कि खानदान की नाक कटे या सलामत रहे, लाजो को निकाह में लाना पड़ेगा.

"काहे को मियां?" लाजो बौखलाकर बोली.


"क्यों? क्या कहीं और दीदे लड़ाने का इरादा है?" मिर्जा बिगडकर बोले?


"थू...थू, काहे को लडाऊं दीदे!"


"वह राव जी, बंगला दिलाने को कहता है."


"मैं थूकूं भी न उसके बंगले पर, जूती मार दी मैंने तो उसके थोबड़े पर."


"तो फिर...?"

MissK
11-06-2011, 03:31 PM
मगर लाजो यह न समझ सकी कि ब्याह करने की क्या जरुरत है? वह तो जन्म से उनकी है और उनकी ही रहेगी. फिर ऐसी कौन सी खता हुयी जो मियां को निकाह की जरुरत महसूस हुयी? पर ऐसा मालिक तो न जाने कितने जन्म भोगने पर मिलता है. लाजो ने बहुत ठोकरे खायी थीं. मिर्जा उसे फरिश्ते मालूम होते थे. उसके सब आशिक उसके मालिक बन जाते थे, फिर उसे चार चोट की मार दिया करते थे.


मिर्जा ने कभी उसे फूल की छड़ी भी न छुई और प्यार भी जी-भरकर किया. उसने दो जोड़े बनाकर दिए और सोने की मुन्दारियाँ दिलाई. सच्चे सोने के जेवर तो उसकी सात पीढ़ी ने न पहना होगा.

उन्होंने रामू की दादी से कहा, तो वह भी हैरत में पड़ गयी.


"ए मियां काहे को गले में घंटी बांधो, क्या ससुरी नखरे करने लगी है? तो मार दो चुड़ैल को, ठीक हो जायेगी. जहाँ जूतेकारी से काम चल जाए वहाँ निकाह की क्या गुंजाईश?"


मगर मिर्जा को तो एक ही रट लगी थी, अगर मेरी है तो मेरे निकाह में आ जाए.


"क्यों री, क्या तुझे धरम की ओट लगे है?'


"ना मैया ऐसी बात ना, मैं तो उन्हें अपना मानती हूँ."

MissK
11-06-2011, 03:33 PM
लाजो बड़ी मीठी तबियत की थी. वह तो दो घडी के ग्राहक को भी दम-भर के लिए पति मानकर उसकी सेवा करती थी. उसने कभी अपने किसी आशिक के साथ कंजूसी नहीं की. धन नसीब नहीं हुआ. तन और मन उसने सैन्तकर न रखा. जिसे दिया, जी भरकर दिया. लिया भी तो जी भरकर ही था. मिर्जा की तो बात ही निराली थी कि उन्हें देने और उनसे छिनने में जो मजा आता था, वह कोई लाजो के दिल से पूछता! उनके सामने सब ढीठ कुत्ते मालूम होते थे. वह अपनी हकीकत जानती थी. शादी-ब्याह तो कुंवारियों के होते हैं और अपने होश में वह कभी कुंवारी थी ही नहीं! वह किसी की दुल्हन बनने के लायक नहीं.


वह बहुत हाथ-पांव जोड़कर गिडगिडायी, मगर मिर्जा पर निकाह का भूत सवार था. नेक साईत देख कर एक दिन ईशा (रात) की नमाज के बाद निकाह हो ही गया. बस तमाम मोहल्ले-टोले में उधम मच गया. लौंडिया-बालियाँ ढोल लेकर सुहाग गाने लग गयीं. कोई दुल्हनवाली बन गयी, कोई दुल्हावाली.



मिर्जा ने हंस-हंस कर नेग दिया और लाजो उर्फ कनीज फातमा, मिर्जा इरफ़ान बेग के निकाह में आ गयी.

MissK
11-06-2011, 03:37 PM
मिर्जा ने लहंगे पर पाबन्दी लगा दी और तंग मोरी का पजामा-कुरता बनवा दिया. कनीज फातमा को टांगो के बीच में खुला की आदत थी. दो अलग अलग पायंचे, जिनमें दो टांगो के बीच में कपड़ा आ जाये, निरा झंझट है. वह बार-बार उस फिजूल रुकावट को खींचे जाती. पहली फुर्सत में उसने पजामा उतारकर अलगनी पर डाला और लहंगा उठाकर सर से पहन ही रही थी कि मिर्जा आ गए. उसने लहंगा कमर पर रोकने की बजाय छोड़ दिया.


"लाहौल विला कूव्वत" मिर्जा गरजने लगे और चादर खींचकर उस पर डाल दी. न जाने क्या मिर्जा ने भाषण झाडा, उसके कुछ पल्ले न पड़ा कि क्या गलती की है? उसकी इस हरकत पर तो मिर्जा की जान जाया करती थी! अब मिर्जा ने अच्छा-भला लहंगा उठाकर सचमुच चूल्हे में झोंक दिया.


मिर्जा भिन-भिन करते चले गए, वह चोर-सी बैठी रह गयी. चादर फेंककर उसने अपने जिस्म का मुआयना किया कि कहीं कोढ़ तो नहीं फूट आया! नल के नीचे नहाती हुयी वह बार-बार आंसू पोंछती रही. सिराकीवाले का लौंडा मिठुवा पतंग उड़ाने के बहाने पास की छत पर से उसे नहाते देखा करता था. आज वह ऐसी उदास थी कि न उसे अंगूठा दिखाया और न जूती से धमकाया, न ही भागती हुयी कोठे पर गयी, बल्कि चादर लपेट ली.

MissK
11-06-2011, 03:42 PM
दिल पर पत्थर रखकर उसने शैतान की अंत जैसी मोरियां चढ़ाईं. मरे पर सौ दर्रे, ऊपर से कमरबंद सटक गया. चिल्ला-चिल्लाकर गला पड़ गया तब बिल्लो आई और कमरबंद पड़ा.


"यह बन्दुक का गिलाफ किस बदमाजक ने ईजाद किया होहा, जितनी बार टट्टी जाऊं, खोलूं-बांधू."


मिर्जा जब दुकान से लौटे तो फिर कमरबंद सटक गया था. वह ऊँगली से पकड़ने की कोशिश कर रही थी. मिर्जा को उस पर प्यार आ गया. चुमकारकर गोद में समेट लिया. बड़ी तिकडमों से कमरबंद हाथ में आया. तब उसे पजामे से उतनी शिकायत न रही.




एक मुसीबत और खड़ी हो गयी. पहले जो लाजो कि रानाईयाँ थीं, वह मिर्जा की दुल्हन में बेहयाईयाँ बन गयीं. ये बाजारी औरतों के लटके शरिफजादियों पर जेब नहीं देते. वह उनके ख्वाबों की रिवायती दुल्हन न बन पायी कि मिर्जा प्यार की भीख मांगे. यह शर्माए, वह जिद करें! यह बिगड जायेगी! वे मनाएं, यह रूठ जाये! लाजो तो सड़क का पत्थर थी. सेजों के फूल बनने के गुर नहीं जानती थी. डाट-डाटकर मिर्जा ने लगाम लगायी. आख़िरकार बंदरिया को सुधार ही लिया.

MissK
11-06-2011, 03:43 PM
मिर्जा अब निहायत मुतमईन थे कि उन्होंने लाजो को शरीफजादी बनाकर ही छोड़ा. यह और बात है कि अब उन्हें घर भागने की ज्यादा जल्दी नहीं होती. आम शौहरों की तरह यार-दोस्तों में भी उठ-बैठ लेते, कि लोग जोरू का गुलाम न कहें. माशूक के नाज उठाना और बात है, मगर बीवी की जूतियाँ मर्द बर्दाश्त नहीं कर सकता.


अपनी गैहजिरियों की तलाफ़ी करने के लिए उन्होंने एक मामा(नौकरानी) रखने की तजवीज पेश की, मगर लाजो की आँखों में खून उतर आया. वह जानती थी कि मियां कंजरी के पास जाने लगे हैं. सारे मोहल्ले के मियां लोग जाते थे, मगर घर में वह किसी का अमल-दखल बर्दाश्त नहीं कर सकती. कोई उसके झमझमाते बर्तनों को हाथ लगाये, उसकी रसोई में कदम रखे; तो उसकी टाँगे चीरकर फ़ेंक देगी. वह मिर्जा में साझा बर्दाश्त कर सकती थी, मगर घर की वही अकेली मालकिन थी.


फिर मिर्जाजी जैसे लाजो को घर में रखकर भूल गए. हफ़्तों "हूँ-हाँ" से आगे बात न होती. जब तक वह दाशता थी, सब आँख सेंकते थे. जब किसी शरीफ के घर बैठ गयी तो मोहल्ले-टोले के उसूलों के तहत माँ, बहिन और बेटी हो गयी. कोई भूलकर भी टाट के परदे के पीछे से निगाह डालने की जहमत न करता. सिवा मिठुवा-सिरकीवाले के लौंडे के. वह अब भी वफ़ा निभा रहा था और कोठे पर पतंग उडाता. जब मिर्जा चले जाते तो लाजो काम-काज से फारिग होकर नल के नीचे नहाने बैठती. परदे के ख्याल से ही तो नल लगवाया थे. और फिर लाजो ने कोठे की तरफ भी देखना छोड़ दिया था.

MissK
12-06-2011, 03:15 PM
उस रात मिर्जा यार दोस्तों के साथ दशहरे के दिन जश्न मनाने गायब रहे थे. सुबह लौटे और जल्दी-जल्दी नहा-धोकर स्टोर चले गए.लाजो तो चढ़ी बैठी थी, बस तभी उसकी नजर कोठे की तरफ चली गयी या शायद मिठुवा की नजर में भाले लगे हुए थे. बस, उसके गीले जिस्म में घुस गए. लौंडे की बहुत दिन बाद उस दिन पतंग कट गयी. डोर टूटी तो लाजो की पीठ पर घस्सा चली गयी. लाजो ने सिसकारी भरी और कस्दन या सह्वन चादर बगैर उठकर कोठरी में लपक गयी. एक बिजली-सी कौंधी और सामने की कोठी पर गिरी. फिर उसे ख्याल आया कि नल तो खुला ही छोड़ आई थी लिहाजा वापस फिर उलटे पांव भागी.


इसके बाद जब कभी लाजो हलवाई के यहाँ से कुछ मंगवाने को टाट का पर्दा सरकाती तो मिठुवा आस-पास ही मंडराता नजर आता.


"ऐ मिठुवे, क्या दिन-भर गोबर का-सा चोथ बना बैठा रहे है? अरे जा जरा दो कचौरियां तो ला दे. चटनी में खूब सारी मिर्च डलवाईओ!"


मिठुवा और भी हिल गया. अगर गलती से नहाते वक्त कोठे पर न नजर आता तो फडफडा के जाग उठता. वह जो प्यार सारी उम्र दोनों हाथ से लुटाती आई थी, मिठुवा के लिए भी हाजिर था. मिर्जा अगर किसी वक्त का खाना न खाते तो वह फ़ेंक थोड़े ही देती; किसी गरीब हाजतमंद को खिला देती थी. मिठुवा से ज्यादा उसकी इनायत का कौन हाजतमंद थे?

MissK
12-06-2011, 03:17 PM
मिर्जा ने लाजो के पैर में ब्याह की जंजीरें डालकर सोच लिया कि अब बन गयी वह गिरहस्तन. अपनी आँखों से न देखते तो यकीन भी न करते. लाजो ने जो उन्हें यों बेवक्त चौखट पर खड़े देखा तो बेअख्तियार हंसी निकल गयी. उसने ख्वाब में भी न सोचा था कि मिर्जा इस शिद्दत से बुरा मानेंगे. मिठुवा ताड़ गया और धोती उठाकर ऐसा भागा कि तीन गांव पार करके ही दम लिया.



मिर्जा ने लाजो को इतना मारा कि अगर उसने दुनिया के सर्द व गर्म न झेले होते तो वह अल्लाह को प्यारी हो जाती. उसी वक्त यह खबर सारे गांव में आग की तरह फैल गयी कि मिर्जा ने अपनी घरवाली को मिठुवा के साथ पकड़ लिया और दोनों को जहन्नुम दाखिल कर दिया. मिर्जा का मुँह काला हो गया. खानदान की नाक कट गयी. लोग जोक-दर-जोक (झुण्ड के झुण्ड) तमाशा देखने जमा हो गए. मगर यह देखकर उन्हें सख्त नाउम्मीदी हुयी कि मिठुवा तिड़ी हो गया और घरवाली टूट-फूट गयी. 'मगर जी जायेगी, रामू की दादी उसे समेट लेगी.'

MissK
12-06-2011, 03:19 PM
कोई सोचेगा कि इतने जूते खाने के बाद लाजो को मिर्जा की सूरत से नफरत हो गयी होगी! तौबा कीजिये! जूताकारी से तो असल बंधन बंधा, जो कि निकाह से भी न बंधा था. वह तो होश में आते ही मिर्जा की खैरियत पूछने लगी. उसके सभी आका देर-सवेर उसके आशिक बन बैठते थे. उस इनायत के बाद तो तनख्वाह का सवाल खत्म हो जाता था. मुफ्त की रगड़ाई ऊपर से चार चोट की मार! मिर्जा ने आज तक उसे फूल की छड़ी न छुआई थी. दूसरे आका उसे यार-दोस्तों को मंगनी दे देते थे. मिर्जा ने आज तक अपनी चीज समझा, उस पर अपना हक जाना. यह उसकी इज्जतअफजाई थी! हालाँकि इस्तेमाल में नहीं थी, फिर भी उन्हें इतनी प्यारी थी. दर्द पर मिर्जा की तीस ग़ालिब हो गयी. सबने उसे समझाया कि जान की अमान चाहती है तो भाग जा, मगर वह न मानी.


मीरन मियां मिर्जाजी को रोके हुए थे. बगैर नाक-चोटी काट के क़त्ल किये कोई चारा न था. उनकी नाक कट गयी, लाजो जिन्दा बच गयी. अब वह दुनिया को कैसे मुँह दिखायेंगे?


"अमां एक मालजादी की खातिर फांसी पर चढ़ जाओगे?"


"परवाह नही."


"मियां तलाक दे दो साली को और छुट्टी." मीरन मियां ने समझाया."


"अरे कोई शरीफजादी होती तो और बात थी."


मिर्जा ने उसी वक्त तलाक दे दी. मुब्लिग़ बत्तीस रूपये महर और उसके कपडे-लत्ते रामू की दादी के घर पहुंचवा दिया.

MissK
12-06-2011, 03:22 PM
लाजो को जो तलाक की खबर पहुंची तो जान में जान आ गयी. जैसे सर से बोझ उतर गया. निकाह तो उस रास ही नहीं आया था. यह सब इसी मारे हुए. चलो पाप कटा!

" मियां तो नाराज नही?" उसने रामू की दादी से पुछा.


"तेरी सूरत न देखना चाहूँ, कहीं निकल जा यहाँ से मुंह काला करके." दादी ने कहा.


मिर्जा की तलाक कि खबर सरे मोहल्ले में सरपट दौड गयी. तुरंत लाला ने पैगाम भिजवाया-

"बंगला तैयार है."

"उसमें अपनी अम्मा को बैठा दे!" लाजो ने कहलवा दिया.


मुब्लीग बत्तीस रूपये में से दस उसने बोर्डिंग और लॉजिंग के रामू की दादी को दिए. तंग पैजामे शकूरा की बहू के हाथ औने-पौने बेच लिए. पन्द्रह दिन में लोट-पोटकर खड़ी हो गयी. कमबख्त की जैसे धूल झड गयी! जूते खाकर और निखर आई. कमर में सौ-सौ बल पड़ने लगे. पान का बीड़ा लेने या सेव-कचौरी लेने हलवाई की दूकान तक निकल जाती तो गली की चहल-पहल बढ़ जाती. मिर्जा के दिल पर आरे चलते.

एक दिन पनवाड़ी से खड़ी इलायची के दानो पर झगड रही थी. वह मजे ले रहा था. मिर्जा कटे-कटे नजर बचाकर निकल गए.

MissK
12-06-2011, 03:27 PM
"अमां तुम्हें तो हो गया है खब्त, अब तुम्हारी बला से, वह कुछ भी करती फिरे! तुमने तलाक दे दी, तुम्हारा अब उससे क्या रिश्ता?" मीरन मियां ने समझाया.


"वह मेरी बीवी थी, मैं कैसे बर्दाश्त कर सकता हूँ?" मिर्जा बिगड गए.


"तो क्या हुआ, अब तो नहीं बीवी! और सच पूछो तो वह तुम्हारी थी ही नहीं."


"और निकाह जो हुआ था."


"कतई नाजायज."


"यानी कि...."


"हुआ ही नहीं बिरादर, न जाने वह किसकी नाजायज औलाद होगी! नाजायज से निकाह हराम." मीरन मियां ने फतवा जड़ा.


"तो निकाह हुआ ही नहीं?"


"कतई नहीं"

MissK
12-06-2011, 03:30 PM
बाद में मुल्ला जी ने भी साद (प्रमाणित) कर दिया कि हरामी औलाद से निकाह जायज नहीं.


"तो गोया हमारी नाक भी नहीं कटी." मिर्जा मुस्कराए! चलो सर से बोझ हट गया.


"बिलकुल नहीं." मीरन मियां ने रोका.


"भाई कमाल है; तो फिर तलाक भी नहीं हुयी?"


"भाई मेरे, निकाह ही नहीं हुआ तो फिर तलाक कैसे हो सकती है."


"मुब्लिग़ बत्तीस रूपये महर के मुफ्त में गए." मिर्जा को अफ़सोस होने लगा.


फ़ौरन यह खबर सारे मोहल्ले में छलांगे मारने लगी कि मिर्जा का उनकी घरवाली से निकाह ही नहीं हुआ, न तलाक हुई. मुब्लिग़ बत्तीस रूपये बेशक डूब गए.


लाजो ने जब यह खुशखबरी सुनी तो नाच उठी. सीने पर से बोझ फिसल गया कि निकाह और तलाक एक डरावना ख्वाब था, जो खत्म हो गया और जान छूटी.


सबसे ज्यादा खुशी तो इस बात की थी कि मियां की नाक नहीं कटी. उसे मियां की इज्जत जाने का बड़ा दुःख होता. हरामी होना कैसा वक्त पर काम आया. खुदा-न-ख्वास्ता इस वक्त किसी की जायज औलाद होती तो छुट्टी हो जाती.

MissK
12-06-2011, 03:32 PM
रामू की दादी के घर में उसका दम घुट रहा था. जिंदगी में कभी यों घर की मालकिन बनकर बैठने का मौका नहीं मिला था. उसे घर की फिकर लगी हुयी थी. चोरी-चकारी के डर से मियां ने इतने दिन से झाडू भी नहीं दिलवाई थी. कूड़े के अम्बार लग रहे होंगे. वह स्टोर जा रहे थे. लाजो ने रास्ता रोक लिया.


"फिर मियां, कल से काम पर आ जाऊं?" वह इठलाई.


"लाहौल विला कूव्वत!" मिर्जा सर न्योढ़आये लंबे-लंबे डग मारते निकल गए. दिल में सोचा, कोई मामा तो रखनी ही होगी, यह बदजात ही सही. बात साफ़ हो गयी.


लाजो ने कल-वाल का इंतज़ार नहीं किया, छतों-छतों घर में कूद गयी. लहंगे का लंगोट किया और जुट गयी.

MissK
12-06-2011, 03:36 PM
शाम को मिर्जा लौटे तो ऐसा लगा कि मरहूमा बी-अम्मा आ गयी हों. घर साफ़, चन्दन व लोबान की भीनी-भीनी खुशबू, कोरे मटके पर झिलमिलाता मंजा हुआ कटोरा...जी भर आया. चुपचाप भुना हुआ सालन और रोटी खाते रहे. लाजो अपनी हैसियत के मुताबिक दहलीज पर बैठी पंखा करती रही.


रात को दो टाट के परदे मिलाकर जब बावर्चीखाने में लेटी तो मिर्जा पर फिर शिद्दत की प्यास का दौरा पड़ा. जी मारे लेटे उसके कड़ों की झंकार सुनते रहे; करवटें बदलते रहे. जी कह रहा था कि बड़ी बेकदरी की थी उन्होंने उसकी!


"लाहौल विला कूव्वत..." यकायक वह भन्नाए हुए उठे और टाट पर से घरवाली को समेट लिया.


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Dark Saint Alaick
04-11-2011, 12:12 AM
आज मैंने अपने आप पर ढेरों लानत भेजीं ! इस्मत आपा का मैं एक बड़ा प्रशंसक हूं और उन पर चल रहे सूत्र को इतने दिन बाद आज देखा, धिक्कार है ! उनकी 'लिहाफ' मेरी पसंदीदा कहानी है ! क्या कहूं, आपकी शान में कहने के लिए मेरे पास अलफ़ाज़ का अकाल है ! फिर भी कहना तो पडेगा ही - इसलिए आभार ... कोटिशः आभार !

MissK
04-11-2011, 01:02 AM
आज मैंने अपने आप पर ढेरों लानत भेजीं ! इस्मत आपा का मैं एक बड़ा प्रशंसक हूं और उन पर चल रहे सूत्र को इतने दिन बाद आज देखा, धिक्कार है ! उनकी 'लिहाफ' मेरी पसंदीदा कहानी है ! क्या कहूं, आपकी शान में कहने के लिए मेरे पास अलफ़ाज़ का अकाल है ! फिर भी कहना तो पडेगा ही - इसलिए आभार ... कोटिशः आभार !

हाहाहा इसमें लानत भेजने की कोई बात नहीं आखिरकार इतने सारे सूत्रों के बीच में हरेक सूत्र देख पाना आसान नहीं और मैंने तो इसे महीनो से अपडेट भी नहीं किया. :tomato: वैसे इस्मत चुगताई भी मेरे पसंदीदा रचनाकारों में एक हैं. और इनकी कहानियां लिहाफ, लाजो और फूलो का कुर्ता मुझे काफ़ी पसंद है. इन्टरनेट पर लिहाफ तो मौजूद है परन्तु मुझे लगा शायद फोरम पे उसे डालना ठीक नहीं होगा इसलिए इस सूत्र में अब तक शामिल नहीं किया है. :thinking:

Dark Saint Alaick
04-11-2011, 04:17 AM
हाहाहा इसमें लानत भेजने की कोई बात नहीं आखिरकार इतने सारे सूत्रों के बीच में हरेक सूत्र देख पाना आसान नहीं और मैंने तो इसे महीनो से अपडेट भी नहीं किया. :tomato: वैसे इस्मत चुगताई भी मेरे पसंदीदा रचनाकारों में एक हैं. और इनकी कहानियां लिहाफ, लाजो और फूलो का कुर्ता मुझे काफ़ी पसंद है. इन्टरनेट पर लिहाफ तो मौजूद है परन्तु मुझे लगा शायद फोरम पे उसे डालना ठीक नहीं होगा इसलिए इस सूत्र में अब तक शामिल नहीं किया है. :thinking:


मेरे विचार से 'लिहाफ' में अश्लीलता नाम की कोई चिड़िया नहीं है ! यह उर्दू की एक बोल्ड कहानी है, बस ! उस ज़माने के हिसाब से, जो इस्मतजी ने जिया है, यह एक क्रांतिकारी रचना कही जा सकती है ! इस कहानी में जो लोग अश्लीलता देखते हैं, उनके दिमाग में भूसे के सिवा कुछ नहीं है ! एक किस्सा याद आता है मुझे ! बरसों पुरानी बात है ! जयपुर में जेएमए (जयपुर मेडिकल एसोसिएशन) के कॉन्फ्रेंस हॉल में उर्दू लिटरेचर पर एक सेमिनार चल रही थी ! इस्मत चुगताई के अलावा असगर अली इंजीनियर, शीन. काफ. निजाम जैसे अनेक दिग्गज साहित्यकार उसमें शिरकत कर रहे थे ! लोग बड़ी शान्ति से सुन रहे थे ! इस्मत आपा का नंबर आया, तो उपस्थित लोगों में कुछ हलचल नज़र आने लगी ! इस्मत आपा उस समय भी काफी बुजुर्ग थीं ! स्टेज तक वे व्हील चेयर पर आई थीं और वहां से उन्हें सहारा देकर मंच पर ले जाया गया था ! इस हलचल को हम जैसे मित्रों ने समझा कि ये इस्मतजी के कद्रदान हैं, जो उन्हें ठीक से देखने के लिए जद्दो-जहद कर रहे हैं, लेकिन माजरा कुछ और ही था ! ये शराफत की नकाब ओढ़े कुछ कठमुल्ले थे, जो किसी न किसी बहाने इस्मत आपा पर हल्ला बोलने आए थे ! आखिरकार, उन्हें मौका मिल ही गया, जब इस्मत आपा ने उर्दू दुनिया में कठमुल्लापन और स्त्री की दुर्दशा पर बोलना शुरू किया ! अनेक हुडदंगी मंच पर चढ़ आए और गालियां बकते हुए इस्मतजी पर हमला करने ही वाले थे कि निजाम साहब हाथ फैला कर उनके ठीक सामने आकर डट गए ! बस, इतना काफी था ! पलक झपकते हम जैसे कई मित्र मंच पर चढ़ कर निजाम साहब के आजू-बाजू आ डटे ! इंजीनियर साहब और निजाम साहब चाहते थे कि आपा का वक्तव्य यहीं ख़त्म करा कर उन्हें उनके होटल पहुंचा दिया जाए, लेकिन हमने कहा कि जयपुर यह गुनाह अपने सर नहीं लेगा ! आज इस्मतजी, जो बोलना चाहती हैं, वह सब हम सुनकर रहेंगे ! मैं और मेरे साथियों ने मंच पर एक घेरा बना लिया, यह देख निजाम साहब मुस्कराए और हमें हौसला मिल गया ! इसके बाद इस्मत आपा उस रोज़ पूरे डेढ़ घंटे तक बोलीं और कुछ शोरोगुल के बावजूद ज्यादातर लोगों ने उन्हें पूरे मनोयोग से सुना ! बाद में जब हम उन्हें उनके होटल पहुंचाने गए, तब बिस्तर पर बैठ कर विदाई देते वक्त जिस स्नेह से उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर दुलराया था, वह ममत्व भरा अनुपम स्पर्श मैं जीवन भर नहीं भूल सकता !

MissK
04-11-2011, 06:57 PM
मेरे विचार से 'लिहाफ' में अश्लीलता नाम की कोई चिड़िया नहीं है ! यह उर्दू की एक बोल्ड कहानी है, बस ! उस ज़माने के हिसाब से, जो इस्मतजी ने जिया है, यह एक क्रांतिकारी रचना कही जा सकती है ! इस कहानी में जो लोग अश्लीलता देखते हैं, उनके दिमाग में भूसे के सिवा कुछ नहीं है ! एक किस्सा याद आता है मुझे ! बरसों पुरानी बात है ! जयपुर में जेएमए (जयपुर मेडिकल एसोसिएशन) के कॉन्फ्रेंस हॉल में उर्दू लिटरेचर पर एक सेमिनार चल रही थी ! इस्मत चुगताई के अलावा असगर अली इंजीनियर, शीन. काफ. निजाम जैसे अनेक दिग्गज साहित्यकार उसमें शिरकत कर रहे थे ! लोग बड़ी शान्ति से सुन रहे थे ! इस्मत आपा का नंबर आया, तो उपस्थित लोगों में कुछ हलचल नज़र आने लगी ! इस्मत आपा उस समय भी काफी बुजुर्ग थीं ! स्टेज तक वे व्हील चेयर पर आई थीं और वहां से उन्हें सहारा देकर मंच पर ले जाया गया था ! इस हलचल को हम जैसे मित्रों ने समझा कि ये इस्मतजी के कद्रदान हैं, जो उन्हें ठीक से देखने के लिए जद्दो-जहद कर रहे हैं, लेकिन माजरा कुछ और ही था ! ये शराफत की नकाब ओढ़े कुछ कठमुल्ले थे, जो किसी न किसी बहाने इस्मत आपा पर हल्ला बोलने आए थे ! आखिरकार, उन्हें मौका मिल ही गया, जब इस्मत आपा ने उर्दू दुनिया में कठमुल्लापन और स्त्री की दुर्दशा पर बोलना शुरू किया ! अनेक हुडदंगी मंच पर चढ़ आए और गालियां बकते हुए इस्मतजी पर हमला करने ही वाले थे कि निजाम साहब हाथ फैला कर उनके ठीक सामने आकर डट गए ! बस, इतना काफी था ! पलक झपकते हम जैसे कई मित्र मंच पर चढ़ कर निजाम साहब के आजू-बाजू आ डटे ! इंजीनियर साहब और निजाम साहब चाहते थे कि आपा का वक्तव्य यहीं ख़त्म करा कर उन्हें उनके होटल पहुंचा दिया जाए, लेकिन हमने कहा कि जयपुर यह गुनाह अपने सर नहीं लेगा ! आज इस्मतजी, जो बोलना चाहती हैं, वह सब हम सुनकर रहेंगे ! मैं और मेरे साथियों ने मंच पर एक घेरा बना लिया, यह देख निजाम साहब मुस्कराए और हमें हौसला मिल गया ! इसके बाद इस्मत आपा उस रोज़ पूरे डेढ़ घंटे तक बोलीं और कुछ शोरोगुल के बावजूद ज्यादातर लोगों ने उन्हें पूरे मनोयोग से सुना ! बाद में जब हम उन्हें उनके होटल पहुंचाने गए, तब बिस्तर पर बैठ कर विदाई देते वक्त जिस स्नेह से उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर दुलराया था, वह ममत्व भरा अनुपम स्पर्श मैं जीवन भर नहीं भूल सकता !

आपकी बात से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता.शायद कुछ लोगों में किसी विषय की गहराई को समझने की क्षमता ही नहीं होती या फिर वे इस क्षमता को विकसित नहीं होने देना चाहते... समाज में गंदगी दबे/न होने का का भ्रम पाले लोगो को किसी के द्वारा इसे सामने लाने से एक चोट सी लगती है और जहाँ कुछ लोग इसकी तह में जाने का प्रयास करते हैं तो कुछ बस एक भ्रम को जीना ही पसंद करते हैं. हद तो तब होती है जब वो इस भ्रम को दूसरे पर थोपने का प्रयास करते हैं. इस्मत चुगताई ने निःसंदेह अपने पूरे जीवन में निडरता का उदहारण पेश किया और अपने आस-पास के समाज को , जो चाहे अच्छा हो या बुरा, अपने ईमानदार नजरिये से पेश किया.

ये जान कर सुखद आश्चर्य हुआ कि आप इस्मत जी से खुद निजी तौर पर मिल चुके हैं. :)

Dark Saint Alaick
04-11-2011, 07:38 PM
आपने शायद मेरा सूत्र 'हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें' नहीं देखा ! इसमें मैंने जिक्र किया है कि अनेक भाषाओं के अनेक साहित्यकारों से मेरा निजी सम्बन्ध है ! मुझे रूसी साहित्य से बहुत लगाव है और उसी की एक कहावत ने मेरा नज़रिया बदल दिया ! कहावत कुछ यूं कहती है - घर की शान इससे नहीं बढ़ती कि वह कितना सुन्दर बना है, बल्कि इससे बढ़ती है कि उसकी देहली कितने लोग लांघते हैं ! अर्थात आप कैसे इंसान हैं यह आपके घर आने वाले मित्रों की संख्या ही उजागर करती है ! धन्यवाद !

Dark Saint Alaick
04-11-2011, 07:54 PM
"इस्मत चुगताई" ये नाम दिमाग में बज रहा था किसी नगाड़े की तरह
जब आपका सूत्र शुरू से पढ़ा फिर समझ में आया की इन्होने ही "गर्म हवा" की कहानी लिखी थी
बहुत ही खुबसूरत कहानी थी और फिल्म उससे भी खुबसूरत. इनकी और कहानियां डालिए

अवश्य उनकी और कहानियां डालूंगी इस सूत्र में.. वैसे मुझे भी ये बात हाल में ही पता चली कि यह फिल्म उनकी कहानी पर बनी थी. वैसे शायद आप उन्हें उनकी एक विवादस्पद कहानी "लिहाफ" से भी जानते होंगे. समलिंगी रिश्तों पर आधारित यह कहानी कुछ बोल्ड मानी जाती है..यदि फोरम प्रबंधन की इज़ाज़त मिलेगी तो वह कहानी भी पोस्ट करना चाहूंगी.


इस्मतजी ने सबसे पहले 'जिद्दी' (1948) की कहानी लिखी थी ! इसके बाद आरजू' (1950) की पटकथा और संवाद लिखे ! उन्होंने 'फरेब' (1953) और 'जवाब आएगा' (1968) का निर्देशन किया ! 'सोने की चिड़िया' (1958) की प्रोड्यूसर वही थीं और इसकी पटकथा भी उनकी ही लिखी थी ! 'गरम हवा' (1973) उनकी लिखी कहानी पर बनी थी और उन्होंने ही 'जूनून' (1978) के संवाद लिखे थे ! 1975 में उन्होंने एक वृत्त चित्र का भी निर्देशन किया था, जिसका शीर्षक था - 'माइ ड्रीम्स' !

MissK
04-11-2011, 08:20 PM
आपने शायद मेरा सूत्र 'हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें' नहीं देखा ! इसमें मैंने जिक्र किया है कि अनेक भाषाओं के अनेक साहित्यकारों से मेरा निजी सम्बन्ध है ! मुझे रूसी साहित्य से बहुत लगाव है और उसी की एक कहावत ने मेरा नज़रिया बदल दिया ! कहावत कुछ यूं कहती है - घर की शान इससे नहीं बढ़ती कि वह कितना सुन्दर बना है, बल्कि इससे बढ़ती है कि उसकी देहली कितने लोग लांघते हैं ! अर्थात आप कैसे इंसान हैं यह आपके घर आने वाले मित्रों की संख्या ही उजागर करती है ! धन्यवाद !

जी हाँ ग़ज़लों और शायरी के सूत्रों पर में थोडा कम ही विचरण करती हूँ...

इस्मतजी ने सबसे पहले 'जिद्दी' (1948) की कहानी लिखी थी ! इसके बाद आरजू' (1950) की पटकथा और संवाद लिखे ! उन्होंने 'फरेब' (1953) और 'जवाब आएगा' (1968) का निर्देशन किया ! 'सोने की चिड़िया' (1958) की प्रोड्यूसर वही थीं और इसकी पटकथा भी उनकी ही लिखी थी ! 'गरम हवा' (1973) उनकी लिखी कहानी पर बनी थी और उन्होंने ही 'जूनून' (1978) के संवाद लिखे थे ! 1975 में उन्होंने एक वृत्त चित्र का भी निर्देशन किया था, जिसका शीर्षक था - 'माइ ड्रीम्स' !

इस जानकारी के लिए आपका धन्यवाद :)

Sikandar_Khan
04-11-2011, 09:01 PM
अलैक जी फरमाइश पर मै काम्या जी के सूत्र पर इस्मत आपा की लिखी हुई कहानी "लिहाफ" पेश कर रहा हूँ |

Sikandar_Khan
04-11-2011, 09:03 PM
लिहाफ




जब मैं जाडों में लिहाफ ओढती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है। और एकदम से मेरा दिमाग बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौड़ने-भागने लगता है। न जाने क्या कुछ याद आने लगता है।

माफ कीजियेगा, मैं आपको खुद अपने लिहाफ क़ा रूमानअंगेज ज़िक़्र बताने नहीं जा रही हूँ, न लिहाफ से किसी किस्म का रूमान जोडा ही जा सकता है। मेरे खयाल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी - जब लिहाफ क़ी परछाई दीवार पर डगमगा रही हो। यह जब का जिक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुजार दिया करती थी। कभी - कभी मुझे खयाल आता कि मैं कमबख्त इतनी लडाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये हर लडक़े और लडक़ी से जूतम-पैजार में मशगूल थी। यही वजह थी कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं तो हफ्ता-भर के लिए मुझे अपनी एक मुँहबोली बहन के पास छोड ग़यीं। उनके यहाँ, अम्माँ खूब जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड-भिड न सकँूगी। सजा तो खूब थी मेरी! हाँ, तो अम्माँ मुझे बेगम जान के पास छोड ग़यीं। वही बेगम जान जिनका लिहाफ अब तक मेरे जहन में गर्म लोहे के दाग की तरह महफूज है। ये वो बेगम जान थीं जिनके गरीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना लिया कि गो वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक। कभी कोई रण्डी या बाजारी औरत उनके यहाँ नजर न आयी। खुद हाजी थे और बहुतों को हज करा चुके थे।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 09:05 PM
मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक था। लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लडाते हैं, मुर्गबाजी क़रते हैं - इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफरत थी। उनके यहाँ तो बस तालिब इल्म रहते थे। नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लडक़े, जिनका खर्च वे खुद बर्दाश्त करते थे।

मगर बेगम जान से शादी करके तो वे उन्हें कुल साजाे-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गये। और वह बेचारी दुबली-पतली नाजुक़-सी बेगम तन्हाई के गम में घुलने लगीं। न जाने उनकी जिन्दगी कहाँ से शुरू होती है? वहाँ से जब वह पैदा होने की गलती कर चुकी थीं, या वहाँ से जब एक नवाब की बेगम बनकर आयीं और छपरखट पर जिन्दगी गुजारने लगीं, या जब से नवाब साहब के यहाँ लडक़ों का जोर बँधा। उनके लिए मुरग्गन हलवे और लजीज़ ख़ाने जाने लगे और बेगम जान दीवानखाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लडक़ों की चुस्त पिण्डलियाँ और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 09:10 PM
या जब से वह मन्नतों-मुरादों से हार गयीं, चिल्ले बँधे और टोटके और रातों की वजीफ़ाख्वानी भी चित हो गयी। कहीं पत्थर में जोंक लगती है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए। फिर बेगम जान का दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज्जा हुई। लेकिन यहाँ भी उन्हें कुछ न मिला। इश्किया नावेल और जज्बाती अशआर पढक़र और भी पस्ती छा गयी। रात की नींद भी हाथ से गयी और बेगम जान जी-जान छोडक़र बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गयीं।

चूल्हे में डाला था ऐसा कपडा-लत्ता। कपडा पहना जाता है किसी पर रोब गाँठने के लिए। अब न तो नवाब साहब को फुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोडक़र जरा इधर तवज्जा करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते। जब से बेगम जान ब्याहकर आयी थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और चले जाते, मगर वह बेचारी कैद की कैद रहतीं।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 09:26 PM
उन रिश्तेदारों को देखकर और भी उनका खून जलता था कि सबके-सब मजे से माल उडाने, उम्दा घी निगलने, जाडे क़ा साजाे-सामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नई रूई के लिहाफ के, पडी सर्दी में अकडा करतीं। हर करवट पर लिहाफ नयीं-नयीं सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता। मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें जिन्दा रखने लिए काफी हो। मगर क्यों जिये फिर कोई? जिन्दगी! बेगम जान की जिन्दगी जो थी! जीना बंदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और खूब जीं।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 09:33 PM
रब्बो ने उन्हें नीचे गिरते-गिरते सँभाल लिया। चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म भरना शुरू हुआ। गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला। एक अजीबो-गरीब तेल की मालिश से बेगम जान में जिन्दगी की झलक आयी। माफ क़ीजियेगा, उस तेल का नुस्खा आपको बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:00 PM
जब मैंने बेगम जान को देखा तो वह चालीस-बयालीस की होंगी। ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर नीमदराज थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी। एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पडा था और वह महारानी की तरह शानदार मालूम हो रही थीं। मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा पसन्द थी। मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी सूरत देखा करूँ। उनकी रंगत बिल्कुल सफेद थी। नाम को सुर्खी का जिक़्र नहीं। और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे। मैंने आज तक उनकी माँग ही बिगडी न देखी। क्या मजाल जो एक बाल इधर-उधर हो जाये। उनकी आँखें काली थीं और अबरू पर के जायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सीं खिंची होती थीं। आँखें जरा तनी हुई रहती थीं। भारी-भारी फूले हुए पपोटे, मोटी-मोटी पलकें। सबसे जियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज ज़ाजिबे-नजर चीज थी, वह उनके होंठ थे। अमूमन वह सुर्खी से रंगे रहते थे। ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मँछें-सी थीं और कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल। कभी-कभी उनका चेहरा देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था - कम उम्र लडक़ों जैसा।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:02 PM
उनके जिस्म की जिल्द भी सफेद और चिकनी थी। मालूम होता था किसी ने कसकर टाँके लगा दिये हों। अमूमन वह अपनी पिण्डलियाँ खुजाने के लिए किसोलतीं तो मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती। उनका कद बहुत लम्बा था और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौडी मालूम होतीं थीं। लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था। बडे-बडे चिकने और सफेद हाथ और सुडौल कमर ..तो रब्बो उनकी पीठ खुजाया करती थी। यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती - पीठ खुजाना भी जिन्दगी की जरूरियात में से था, बल्कि शायद जरूरियाते-जिन्दगी से भी ज्यादा।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:09 PM
रब्बो को घर का और कोई काम न था। बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढी क़भी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी। कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है।

कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूँ, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड-ग़ल के खत्म हो जाय। और फिर यह रोज-रोज क़ी मालिश काफी नहीं थीं। जिस रोज बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती। और इतनी होती कि मेरा तो तखय्युल से ही दिल लोट जाता। कमरे के दरवाजे बन्द करके अँगीठियाँ सुलगती और चलता मालिश का दौर। अमूमन
सिर्फ रब्बो ही रही। बाकी की नौकरानियाँ बडबडातीं दरवाजे पर से ही, जरूरियात की चीजें देती जातीं।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:20 PM
बात यह थी कि बेगम जान को खुजली का मर्ज था। बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हजारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम। डाक्टर -हकीम कहते, ''कुछ भी नहीं, जिस्म साफ चट पडा है। हाँ, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर।'' नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नजरों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली। जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख। बस जैसे तपाया हुआ लोहा। हल्के-हल्के चेचक के दाग। गठा हुआ ठोस जिस्म। फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ। कसी हुई छोटी-सी तोंद। बडे-बडे फ़ूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे। और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गये कूल्हों पर! वहाँ से रपटे रानों पर और फिर दौडे टखनों की तरफ! मैं तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहाँ हैं और क्या कर रहें हैं?

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:23 PM
गर्मी-जाडे बेगम जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं। गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते। और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई जरूर जिस्म पर ढके रहती थीं। उन्हें जाडा बहुत पसन्द था। जाडे में मुझे उनके यहाँ अच्छा मालूम होता। वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं। कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियाँ खार खाती थीं। चुडैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजँू थीं। जहाँ उन दोनों का जिक़्र आया और कहकहे उठे। लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उडाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी। वहाँ तो बस वह थीं और उनकी खुजली!

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:25 PM
मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा। वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। इत्तेफाक से अम्माँ आगरे गयीं। उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूँगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड ग़यीं। मैं भी खुश और बेगम जान भी खुश। आखिर को अम्माँ की भाभी बनी हुई थीं।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:27 PM
सवाल यह उठा कि मैं सोऊँ कहाँ? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में। लिहाजा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलँगडी ड़ाल दी गयी। दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे। मैं और बेगम जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गयी। और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी। भंगन कहीं की! मैंने सोचा। रात को मेरी एकदम से आँख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा। कमरे में घुप अँधेरा। और उस अँधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी बन्द हो!
''बेगम जान!'' मैंने डरी हुई आवाज निकाली। हाथी हिलना बन्द हो गया। लिहाफ नीचे दब गया।
''क्या है? सो जाओ।''
बेगम जान ने कहीं से आवाज दी।
''डर लग रहा है।''
मैंने चूहे की-सी आवाज से कहा।
''सो जाओ। डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ लो।''
''अच्छा।''
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढी। मगर यालमू मा बीन पर हर दफा आकर अटक गयी। हालाँकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है।
''तुम्हारे पास आ जाऊँ बेगम जान?''
''नहीं बेटी, सो रहो।'' जरा सख्ती से कहा।
और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज सुनायी देने लगी। हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी।
''बेगम जान, चोर-वोर तो नहीं?''
''सो जाओ बेटा, कैसा चोर?''
रब्बो की आवाज आयी। मैं जल्दी से लिहाफ में मुँह डालकर सो गयी।
सुबह मेरे जहन में रात के खौफनाक नज्ज़ारे का खयाल भी न रहा। मैं हमेशा की वहमी हूँ। रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बडबडाना तो बचपन में रोज ही होता था। सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है। लिहाजा मुझे खयाल भी न रहा। सुबह को लिहाफ बिल्कुल मासूम नजर आ रहा था।
मगर दूसरी रात मेरी आँख खुली तो रब्बो और बेगम जान में कुछ झगडा बडी ख़ामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था। और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियाँ लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड-सपड रकाबी चाटने-जैसी आवाजें आने लगीं, ऊँह! मैं तो घबराकर सो गयी।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:31 PM
आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गयी हुई थी। वह बडा झगडालू था। बहुत कुछ बेगम जान ने किया - उसे दुकान करायी, गाँव में लगाया, मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था। नवाब साहब के यहाँ कुछ दिन रहा, खूब जोडे-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता। लिहाजा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ उससे मिलने गयी थीं। बेगम जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मजबूर हो गयी। सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं। उनका जोड-ज़ोड टूटता रहा। किसी का छूना भी उन्हें न भाता था। उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पडी रहीं।
''मैं खुजा दूँ बेगम जान?''
मैंने बडे शौक से ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा। बेगम जान मुझे गौर से देखने लगीं।
''मैं खुजा दूँ? सच कहती हूँ!''
मैंने ताश रख दिये।
मैं थोडी देर तक खुजाती रही और बेगम जान चुपकी लेटी रहीं। दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी। बेगम जान का मिजाज चिडचिडा होता गया। चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया। मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज क़ी तख्ती-जैसी पीठ। मैं हौले-हौले खुजाती रही। उनका काम करके कैसी खुशी होती थी!
''जरा जाेर से खुजाओ। बन्द खोल दो।'' बेगम जान बोलीं, ''इधर ..एे है, जरा शाने से नीचे ..हाँ ...वाह भइ वाह! हा!हा!'' वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी साँसें लेकर इत्मीनान जाहिर करने लगीं। ''और इधर ...'' हालाँकि बेगम जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था। ''यहाँ ..ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो ..वाह!'' वह हँसी। मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी।
''तुम्हें कल बाजार भेजँूगी। क्या लोगी? वही सोती-जागती गुडिया?''
''नहीं बेगम जान, मैं तो गुडिया नहीं लेती। क्या बच्चा हूँ अब मैं?''
''बच्चा नहीं तो क्या बूढी हो गयी?'' वह हँसी ''गुडिया नहीं तो बनवा लेना कपडे, पहनना खुद। मैं दूँगी तुम्हें बहुत-से कपडे। सुनां?'' उन्होंने करवट ली।
''अच्छा।'' मैंने जवाब दिया।
''इधर ..'' उन्होंने मेरा हाथ पकडक़र जहाँ खुजली हो रही थी, रख दिया। जहाँ उन्हें खुजली मालूम होती, वहाँ मेरा हाथ रख देतीं। और मैं बेखयाली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं।
''सुनो तो ...तुम्हारी फ्राकें कम हो गयी हैं। कल दर्जी को दे दूँगी, कि नई सी लाये। तुम्हारी अम्माँ कपडा दे गयी हैं।''
''वह लाल कपडे क़ी नहीं बनवाऊँगी। चमारों-जैसा है!'' मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँचा। बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ।
बेगम जान तो चुप लेटी थीं। ''अरे!'' मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया।

''ओई लडक़ी! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियाँ नोचे डालती है!''
बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गयी।
''इधर आकर मेरे पास लेट जा।''
''उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया।
''अब है, कितनी सूख रही है। पसलियाँ निकल रही हैं।'' उन्होंने मेरी पसलियाँ गिनना शुरू कीं।
''ऊँ!'' मैं भुनभुनाायी।
''ओइ! तो क्या मैं खा जाऊँगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!''
मैं कुलबुलाने लगी।
''कितनी पसलियाँ होती हैं?'' उन्होंने बात बदली।
''एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस।''
मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली। वह भी ऊटपटाँग।
''हटाओ तो हाथ ...हाँ, एक ...दो ..तीन ..''
मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूँ ...और उन्होंने जोर से भींचा।
''ऊँ!'' मैं मचल गयी।
बेगम जान जोर-जोर से हँसने लगीं।

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:33 PM
अब भी जब कभी मैं उनका उस वक्त का चेहरा याद करती हूँ तो दिल घबराने लगता है। उनकी आँखों के पपोटे और वजनी हो गये। ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी हुई थी। बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूँदें होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं। उनके हाथ ठण्डे थे, मगर नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गयी हो। उन्होंने शाल उतार दी थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की तरह चमक रहा था। भारी जडाऊ सोने के बटन गरेबान के एक तरफ झूल रहे थे। शाम हो गयी थी और कमरे में अँधेरा घुप हो रहा था। मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी। बेगम जान की गहरी-गहरी आँखें!
मैं रोने लगी दिल में। वह मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं। उनके गरम-गरम जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा। मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना सवार था और मेरे दिमाग का यह हाल कि न चीखा जाये और न रो सकँू।

थोडी देर के बाद वह पस्त होकर निढाल लेट गयीं। उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगीं। मैं समझी कि अब मरीं यह। और वहाँ से उठकर सरपट भागी बाहर।

शुक्र है कि रब्बो रात को आ गयी और मैं डरी हुई जल्दी से लिहाफ ओढ सो गयी। मगर नींद कहाँ? चुप घण्टों पडी रही।

अम्माँ किसी तरह आ ही नहीं रही थीं। बेगम जान से मुझे ऐसा डर लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती। मगर उनके कमरे में कदम रखते दम निकलता था। और कहती किससे, और कहती ही क्या, कि बेगम जान से डर लगता है? तो यह बेगम जान मेरे ऊपर जान छिडक़ती थीं ...

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:37 PM
आज रब्बो में और बेगम जान में फिर अनबन हो गयी। मेरी किस्मत की खराबी कहिए या कुछ और, मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा। क्योंकि फौरन ही बेगम जान को खयाल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूँ और मरूँगी निमोनिया में!
''लडक़ी क्या मेरी सिर मुँडवायेगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफत आयेगी।''

उन्होंने मुझे पास बिठा लिया। वह खुद मुँह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं। चाय तिपाई पर रखी थी।

''चाय तो बनाओ। एक प्याली मुझे भी देना।'' वह तौलिया से मुँह खुश्क करके बोली, ''मैं जरा कपडे बदल लँू।''

वह कपडे बदलती रहीं और मैं चाय पीती रही। बेगम जान नाइन से पीठ मलवाते वक्त अगर मुझे किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोडे-मोडे जाती और वापस भाग आती। अब जो उन्होंने कपडे बदले तो मेरा दिल उलटने लगा। मुँह मोडे मैं चाय पीती रही।

''हाय अम्माँ!'' मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा, ''आखिर ऐसा मैं भाइयों से क्या लडती हूँ जो तुम मेरी मुसीबत ..''

अम्माँ को हमेशा से मेरा लडक़ों के साथ खेलना नापसन्द है। कहो भला लडक़े क्या शेर-चीते हैं जो निगल जायेंगे उनकी लाडली को? और लडक़े भी कौन, खुद भाई और दो-चार सडे-सडाये जरा-जरा-से उनके दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की कायल और यहाँ बेगम जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों से नहीं।

बस चलता तो उस वक्त सड़क़ पर भाग जाती, पर वहाँ न टिकती। मगर लाचार थी। मजबूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही।

कपडे बदल, सोलह सिंगार हुए, और गरम-गरम खुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना दिया। और वह चलीं मुझ पर लाड उतारने।
''घर जाऊँगी।''
मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी।
''मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाजार ले चलँूगी, सुनो तो।''

मगर मैं खली की तरह फैल गयी। सारे खिलौने, मिठाइयाँ एक तरफ और घर जाने की रट एक तरफ।
''वहाँ भैया मारेंगे चुडैल!'' उन्होंने प्यार से मुझे थप्पड लगाया।
''पडे मारे भैया,'' मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकडी बैठी रही।
''कच्ची अमियाँ खट्टी होती हैं बेगम जान!''
जली-कटी रब्बों ने राय दी।
और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड ग़या। सोने का हार, जो वह थोडी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकडे-टुकडे हो गया। महीन जाली का दुपट्टा तार-तार। और वह माँग, जो मैंने कभी बिगडी न देखी थी, झाड-झंखाड हो गयी।
''ओह! ओह! ओह! ओह!'' वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं। मैं रपटी बाहर।

बडे ज़तनों से बेगम जान को होश आया। जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झाँकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी।
''जूती उतार दो।'' उसने उनकी पसलियाँ खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ में दुबक गयी।

सर सर फट खच!

बेगम जान का लिहाफ अँधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था।
''अल्लाह! आँ!'' मैंने मरी हुई आवाज निकाली। लिहाफ में हाथी फुदका और बैठ गया। मैं भी चुप हो गयी। हाथी ने फिर लोट मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूँ। हाथी फिर फडफ़डा रहा था और जैसे उकडँू बैठने की कोशिश कर रहा था। चपड-चपड क़ुछ खाने की आवाजें आ रही थीं - जैसे कोई मजेदार चटनी चख रहा हो। अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया।

और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! जरूर यह तर माल उडा रही है। मैंने नथुने फुलाकर सूँ-सूँ हवा को सूँघा। मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ।

लिहाफ फ़िर उमँडना शुरू हुआ। मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पडी रहूँ, मगर उस लिहाफ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गयी।
मालूम होता था, गों-गों करके कोई बडा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!

''आ ... न ...अम्माँ!'' मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ। मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया। हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाजी लगायी और पिचक गया। कलाबाजी लगाने मे लिहाफ का कोना फुट-भर उठा -
अल्लाह! मैं गडाप से अपने बिछौने में ! ! !

Sikandar_Khan
04-11-2011, 10:53 PM
हाहाहा इसमें लानत भेजने की कोई बात नहीं आखिरकार इतने सारे सूत्रों के बीच में हरेक सूत्र देख पाना आसान नहीं और मैंने तो इसे महीनो से अपडेट भी नहीं किया. :tomato: वैसे इस्मत चुगताई भी मेरे पसंदीदा रचनाकारों में एक हैं. और इनकी कहानियां लिहाफ, लाजो और फूलो का कुर्ता मुझे काफ़ी पसंद है. इन्टरनेट पर लिहाफ तो मौजूद है परन्तु मुझे लगा शायद फोरम पे उसे डालना ठीक नहीं होगा इसलिए इस सूत्र में अब तक शामिल नहीं किया है. :thinking:
आपको परेशान होने की कोई जरुरत नहीं है आपका काम मैंने पूरा कर दिया है |

मेरे विचार से 'लिहाफ' में अश्लीलता नाम की कोई चिड़िया नहीं है ! यह उर्दू की एक बोल्ड कहानी है, बस ! उस ज़माने के हिसाब से, जो इस्मतजी ने जिया है, यह एक क्रांतिकारी रचना कही जा सकती है ! इस कहानी में जो लोग अश्लीलता देखते हैं, उनके दिमाग में भूसे के सिवा कुछ नहीं है !
आपका कहना बिलकुल सही है कोई की ये तो पढ़ने वाले की मानसिक्ता पर निर्भर करता है की वो क्या सोच रखता है और इसका क्या अर्थ निकलता है |
एक बात और बाइबल में भजन सहिंता में कुछ इसे लेख लिखे हैं हैं जिन्हें पढकर एक गलत मानसिक्ता का आदमी उसके क्या क्या अर्थ निकलेगा ये तो शायद वही बता सकता है |

MissK
05-11-2011, 01:45 PM
आपको परेशान होने की कोई जरुरत नहीं है आपका काम मैंने पूरा कर दिया है |


इस्मत चुगताई की एक प्रसिद्ध कहानी को इस सूत्र में पोस्ट करने के लिए आपका धन्यवाद सिकंदर जी :) :thanks:

Dark Saint Alaick
05-11-2011, 08:09 PM
आपका कहना बिलकुल सही है कोई की ये तो पढ़ने वाले की मानसिक्ता पर निर्भर करता है की वो क्या सोच रखता है और इसका क्या अर्थ निकलता है |
एक बात और बाइबल में भजन सहिंता में कुछ इसे लेख लिखे हैं हैं जिन्हें पढकर एक गलत मानसिक्ता का आदमी उसके क्या क्या अर्थ निकलेगा ये तो शायद वही बता सकता है | [/quote]


आपका बहुत-बहुत आभार सिकंदर मियां ! इसलिए नहीं कि यह कहानी आपने मुझे पढ़वाई, क्योंकि मैं तो इसे कई बार पढ़ चुका हूं, बल्कि इसलिए कि इसके साथ 'जो कुछ' चस्पां है, हमारे पाठक पढ़ेंगे, तो वह काफी हद तक धुल जाएगा ! एक बार फिर धन्यवाद !