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View Full Version : जीवन ज्योति


jai_bhardwaj
17-05-2011, 03:36 PM
मित्रों, प्रस्तुत सूत्र में परमार्थ और धर्म से सम्बंधित विषयों पर छोटे छोटे किन्तु हृदयग्राही दृष्टांत प्रस्तुत करने की चेष्टा कर रहा हूँ / आज के वातावरण में उक्त सूत्र धर्मान्धता और दकियानूसी विचारों से भरा हुआ भी माना जा सकता है अतः विचारों में मतभेद संभव है किन्तु सूत्रधार का अभी भी इन सब पर विश्वास है / धन्यवाद /

ज्ञान
आतंरिक प्रकाश का नाम ज्ञान जबकि अज्ञान आतंरिक अँधेरे का पर्यायवाची है / जीवन का पथ इस अज्ञान के अंधियारे से पूरी तरह आपूरित है / इस पर सफलतापूर्वक चलने के लिए ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता है किन्तु ध्यान रहे कि इस अंधियारे में औरों का प्रकाश काम में नहीं आता बल्कि अपना प्रकाश हो तो जीवन पथ सुगमता से पार किया जा सकता है / जो किसी भी कारण दूसरों के प्रकाश पर भरोसा कर लेते हैं वे हमेशा धोखा खाते हैं /
सूफियों में बाबा फरीद के कथा प्रसंग में एक कथा आती है / उन्होंने अपने शिष्य से कहा, "ज्ञान को उपलब्ध करो/ इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है /"
यह सुन कर वह शिष्य नम्र भाव से बोला, " बाबा! रोगी तो सदैव वैद्य के पास ही जाता है, स्वयं चिकित्साशास्त्र का ज्ञान अर्जित करने के चक्कर में नहीं पड़ता/ आप मेरे मार्गदर्शक हैं, गुरु हैं/ मैं यह जानता हूँ कि आप मेरा उद्धार करेंगे तो फिर स्वयं के ज्ञान की क्या आवश्यकता ?"
यह सुनकर बाबा फरीद ने बड़ी गंभीरता से उसे एक कथा सुनायी, " एक गाँव में एक वृद्ध रहता था/ वह मोतियाबिंद के कारण अंधा हो गया था/ जब बेटों में अपने पिता के नेत्रों की चिकित्सा करानी चाही तो उसने स्पष्ट रूप से अस्वीकार करते हुए कहा, 'भला मुझे आँखों की अब क्या आवश्यकता, तुम आठ मेरे पुत्र हो, ये आठ मेरी पुत्रवधुएँ हैं और तुम्हारी माँ भी तो हैं / ये चौतीस आँखे मुझे मिली हैं तो फिर मेरी दो आँखे ना होने का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है/'
पिता ने पुत्रों की बात नहीं मानी और उसकी आँखे वैसी ही बनी रहीं / कुछ दिनों के बाद एक रात अचानक घर में आग लग गयी / सभी अपनी अपनी जान बचा कर भागे किन्तु अभागे पिता की किसी को भी याद नहीं आयी और वह प्रचंड आग में जल कर भस्म हो गया /"
यह कथा सुनाने के बाद शेख फरीद ने अपने शिष्य से कहा, "बेटा! अज्ञान का आग्रह मत करो / ज्ञान स्वयं की आँखे हैं/ इसका कोई विकल्प नहीं है/ सत्य कहीं पडा हुआ नहीं प्राप्त हो जाता बल्कि उसे स्वयं ही अनुभव के आधार पर पाया जता है /स्वयं का ज्ञान ही कुसमय में असहाय मनुष्य का एक मात्र आधार होता है / "
(कृपया संभावित शाब्दिक त्रुटियों को शुद्ध कर के पढ़ लें/ धन्यवाद)

prashant
17-05-2011, 06:32 PM
ज्ञान वह प्रकाश पुंज है/
जिससे जीवन रूपी पथ प्रकाशित होता है/
अत: जीवन में हमेशा ज्ञान का सहारा अवश्य लेना चाहिए/

jai_bhardwaj
18-05-2011, 01:04 AM
उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार मित्रों/:thanks::thanks::thanks:
पुण्य एक संत मृत्यु के उपरान्त स्वर्गलोक पहुंचे / चित्रगुप्त ने उनका हिसाब किताब देखने से पूर्व उनका विस्तृत विवरण पूछा / संत बोले," आप नहीं जानते कि मैं कौन हूँ? अरे ! मेरी तपश्चर्या के चर्चे तो सम्पूर्ण धरती पर हैं / मैं अमुक संत हूँ /"
चित्रगुप्त ने पुनः प्रश्न किया, " आपने धरती में क्या क्या किया?"
संत ने तनिक दर्प से कहा," प्रारम्भ का आधा जीवन तो दुनियादारी के चक्कर में व्यतीत हो गया/ जीवन के अंतिम आधे भाग में सांसारिकता को त्याग कर मैंने तपस्या की और पुण्य कमाया है/"
चित्रगुप्त बही में उनके पाप और पुण्य का विवरण देखने लगे /
साधु ने कहा, " आप प्रारम्भ में क्या देख रहे हैं , महोदय मैंने असली पुण्य तो उत्तरार्ध में कमाए हैं /"
चित्रगुप्त ने कहा, "किन्तु आपके उत्तरार्ध में मुझे कुछ भी पुण्य नहीं दिखाई दे रहे हैं / जो कुछ भी पुण्य हैं वे आपके जीवन के पूर्वार्ध में ही हैं/ "
तब संत ने आश्चर्य से कहा, " ऐसा कैसे हो सकता है ? इसका क्या कारण है यह मुझे नहीं ज्ञात है !! "
चित्रगुप्त ने स्पष्ट किया, " आपने अपने जीवन का पूर्वार्ध काल भले ही दुनियादारी में व्यतीत किया हो किन्तु आत्मीयता, प्रेम, बंधुत्व, दया, करुणा, उपकार, सहायता, दान आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ है / पुण्य कमाने के यही कारण हैं / सच तो यही है कि आपके स्वर्गलोक में आने का कारण आपके जीवन का पूर्वार्ध काल ही है ना कि उत्तरार्ध काल /"
संत को सचाई का बोध हो गया /

(कृपया संभावित शाब्दिक त्रुटियों को शुद्ध कर के पढ़ें/ धन्यवाद/)

prashant
18-05-2011, 04:16 AM
इससे तो मुझे यही लगता है की कर्म करो तभी फल भी मिलेगा/
निठल्ला ध्यान भजन भी किसी काम का नहीं है/
धन्यवाद भाई जी

jai_bhardwaj
18-05-2011, 03:51 PM
आप को हार्दिक धन्यवाद मित्र /उपासना

महाभारत युद्ध काल का यह प्रसंग है / युधिष्टिर रात्रि में व्यक्तिगत उपासना हेतु जाते हैं, यह सभी पांडव भाइयों को विदित था किन्तु वे कहाँ जाते हैं यह किसी को नहीं पता था / प्रातः तीसरे पहर वे लौट आते एवं कुछ देर विश्राम करने के उपरान्त युद्ध हेतु तैयार हो जाते थे / एक दिन भीम, नकुल, सहदेव ने उनका पीछा किया ताकि वे जान सकें कि युधिष्ठिर कहाँ जाते हैं /जहां जाते हैं वह स्थान सुरक्षित है अथवा नहीं / मद्धिम प्रकाश में उन्होंने ने देखा कि वे युद्ध स्थल की तरफ जा रहे हैं / पीछे आ रहे तीनों भाइयों से अनजान युधिष्ठिर मृतकों के मध्य घायलों को खोज रहे थे और ऐसे व्यक्तियों को वे अपने साथ चादर में छुपा कर लाये अन्न, जल, औषधियों आदि से उपचारित करते जा रहे थे / ऐसा करते समय उन्होंने यह जानने की चेष्टा नहीं की कि यह घायल सैनिक पांडव सेना का है अथवा कौरव सेना का / उन्होंने सभी घायलों को सम्यक दृष्टि से किसी को पानी पिलाया, किसी को भोजन दिया और किसी के घावों में पीड़ाहारी लेप लगाया /
तीनों भाईयों ने अब अपने आप को प्रकट कर दिया और पूछा, " तात! आप छिप कर यहाँ क्यों आये?"
" भाईयों! यदि मैं प्रकट होकर आता तो वे अपने हृदय की बातें मुझसे ना कह पाते / मैं सेवा के सौभाग्य से वंचित रह जाता और वे संभवतः अकालमृत्यु को प्राप्त हो जाते/"
" किन्तु क्या शत्रु की सेवा करना अधर्म नहीं है ?" भीम ने जानना चाहा /
"बन्धु, मनुष्य शत्रु कब से होने लगा ? अरे शत्रु तो होते हैं पाप, अधर्म, छद्म , झूठ और कलुषित विचार /"
"आपने कह रखा है कि आप उपासना के लिए जाते हैं अतः आपका यह झूठ क्या आपको पाप में नहीं धकेल रहा है ?" जिज्ञासु नकुल ने जानना चाहा /
"नहीं नकुल! दुखियों और पीड़ितों की सेवा करना ही असली उपासना है और यही मैंने किया है /" युधिष्ठिर ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया /
सभी नतमस्तक हो गए और धर्मराज को हृदय से प्रणाम किया /
(कृपया संभावित शाब्दिक त्रुटियों को शुद्ध कर के पढ़ें / धन्यवाद /)

khalid
18-05-2011, 06:25 PM
जय भाई आप नहीँ थे तो कितनी अच्छी अच्छी बातोँ से हमलोग वंचित रह गए आप का हार्दिक आभार

jai_bhardwaj
19-05-2011, 03:25 PM
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद मित्र /
मन
अष्टावक्र अपने पिता को मुक्त कराने के लिए राजा जनक की सभा में गए / उनके आठ तरफ से टेढ़े मेढ़े शरीर को देख कर राजा जनक सहित सभी उपस्थित दरबारी हँस पड़े / अष्टावक्र हँस कर राजा जनक से बोले, " तुम ज्ञान की बात कहते हो और स्वयं शरीर के रंग, रूप और बनावट के प्रेमी हो/ यह कैसा ज्ञान यज्ञ है आपका ?"
जनक जी चुप हो गए और दरबारियों ने अपना शीश लज्जा से झुका लिया / सायंकाल अष्टावक्र शयन के लिए चले गए किन्तु राजा जनक की नींद उड़ चुकी थी / उन्हें आभास हुआ कि यह ऋषि कुमार ही उन्हें सत्य के मार्ग तक ले जाएगा / वे मध्यरात्रि में अष्टावक्र के कक्ष में गए / तब वे ध्यानस्थ थे /
बाद में अष्टावक्र ने जनक से आने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा ," मुझे विश्वास हो गया है कि आप ही मुझे ज्ञान दे सकते हैं / सच्ची बात को पूर्ण निर्भीकता के साथ कहने वाला ही उपदेश का अधिकारी हो सकता है / कृपया मुझे ज्ञान दें /"
काफी देर तक प्रश्नों और उत्तरों का आदान प्रदान हुआ / राजा जनक ने गुरु दक्षिणा में पहले राज्य, फिर सम्पूर्ण राजकोष, फिर शरीर और फिर मन को देने की बात कही / अंत में ऋषिकुमार अष्टावक्र ने उनसे कहा, " अच्छा, आप अपना मन मुझे दे दीजिये/" राजा जनक ने सहर्ष संकल्प कर दिया / ऋषिकुमार अपने गंतव्य को चले गए /
कुछ दिनों बाद वे राजदरबार में उपस्थित हुए और राजा जनक से पूछा, " अब कैसा लग रहा है ?"
शांत स्वर में जनक ने उत्तर दिया, " जब से मन आपको दे दिया तब से सारी चंचल क्रियाएं शांत हो गयी हैं /"
" राजन! सारी संसारिकता, विषय आदि मन के आधीन हैं / मन ही देही है / तब तक मन की गति आत्मा की ओर उन्मुख नहीं होगी तब तक वह शरीर में लगा है / धीरे धीरे एक एक कोष पार कर तुम विशुद्ध ज्ञान और आनंद को प्राप्त हो जाओगे/ अब ज्ञान के आधीन हो कर राज्य का संचालन करो /"
उसी के बाद राजा जनक विदेह कहलाये / अष्टावक्र ने न केवल अपने पिता को मुक्त कराया बल्कि सभी ज्ञानियों को भी मुक्त करा लिया /
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prashant
19-05-2011, 04:58 PM
सह प्रशासक के पद के लिए बधाई/

jai_bhardwaj
25-05-2011, 12:35 AM
पराधीन
मगधराज की कन्या सुहासिनी विवाह योग्य हो गयी / बाल्यकाल से ही संतो ऋषियों का सानिध्य मिला था अतः ज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी उसे / उसने पिता से कहा कि वह स्वतंत्र होकर श्रेष्ठतम का वरण करना चाहती है / पराधीन तो कष्ट ही भोगते हैं / राजा ने इच्छित वर का चयन करने के लिए स्वयंवर की व्यवस्था कर दी / राजकुमार, व्यवसायी, विद्वान्, कलाकार अलग अलग कक्षों में ठहराए गए / राजकुमारी कृमशः सभी वर्गों के कक्षों में गयी / राजकुमारों से पूछा, " आपकी इच्छा तो सभासदों पर निर्भर रहती है फिर तो आप पराधीन ही हुए /" राजकुमारों को उत्तर नहीं समझ में आया / राजकुमारी ने विद्वानों के वर्ग से कहा, " गुण ग्राहकों के अभाव में आपकी विद्या का परिचय कैसे मिलता होगा अतः आप की विद्या उन्ही के अधीन है /" विद्वान् वर्ग अनुत्तरित रह कर शांत हो गया / व्यवसायियों के वर्ग से राजकुमारी ने कहा, " यदि दुर्भिक्ष पडा, अराजकता फैली तो आपका व्यवसाय कैसे चलेगा ?" व्यवसायियों ने भी अपनी पराजय स्वीकार कर ली / पारखी के अभाव में कलाकार वर्ग कैसे पनपेगा यह द्विविधा कलाकार वर्ग नहीं हल कर सका /
सभी को निराश कर खिन्न हृदय से राजकुमारी भी एकान्त में चली गयी / तभी महामनीषी कौन्डिल्य का राज्य में आगमन हुआ / मगध राज ने अपनी पुत्री को साथ लिया और उनका आशीष प्राप्त किया / राजकुमारी की खिन्नता महामनीषी से छिपी नहीं रही अतः उन्हों ने कहा, " दूसरों के सहारे सुख की आस रखने वाली तू भी तो पराधीन हुई न !"
अब राजकुमारी को आत्मज्ञान हुआ तो मानसिक भ्रांतियां भी मिट गयी / जीवनसाथी खोजने का विचार छोड़ कर वह परमार्थ में तल्लीन हो गयी और आजीवन उसने यही किया /

(संभावित शाब्दिक त्रुटियों को कृपया शुद्ध कर के पढ़ लें / धन्यवाद /)

jai_bhardwaj
26-05-2011, 02:25 PM
आत्म संतुष्टि

महानगरों में भिखारियों की रूप सज्जा के लिए भी कई ब्यूटी पार्लर खुले हुए हैं / क्योंकि ये भिखारी परम्परागत भिखारी नहीं होते हैं अतः इन रूप सज्जा केन्द्रों पर जाकर पर्याप्त धनराशि व्यय करके भिखारियों का रूप रचते हैं और पुनः होटल अथवा किसी अति व्यस्त स्थल पर अपने लिए निर्धारित स्थान की प्राप्ति के लिए भी उचित धनराशि व्यय करते हैं / विचारणीय है कि यदि उन्हें पर्याप्त भीख ना मिलती हो तो वे प्रतिदिन इतना कैसे व्यय कर सकते हैं ?
आखिर इन भिखारियों को भीख देता कौन है ?
हममे से कई /
अब प्रश्न उठता है कि हम भीख क्यों देते हैं ?
भिखारियों की सहायता के उद्देश्य से /
तो क्या वाकई यह सच है ?
एक भिखारी से पूछा गया कि उसे प्रतिदिन कितनी आय हो जाती है तो उसने कहा कि इसका कोई निश्चित माप दंड नहीं है / उसने यह भी कहा कि वह अगले कुछ दिनों में प्रतिदिन की आय को बताएगा और उसी से उसकी आय का निर्धारण कर लिया जाए /
पहली संध्या को जब वह अपने स्थान पर लौटा को उसने बताया कि आज जब वह अपनी रूप सज्जा के उपरान्त एक पांच सितारा होटल के द्वार पर अपने निर्धारित स्थल पर खडा था तो एक साहब अपने कुछ मित्रों के साथ आये और जब उसने कटोरा आगे किया तो मित्रों की ओर देखते हुए पांच सौ की एक नोट उस कटोरे में डाल दी / इसके अलावा कुछ फुटकर राशियाँ भी प्राप्त हुयी हैं /
दूसरी संध्या को भी वह भिखारी बहुत प्रफुल्लित वाणी में बोला कि आज पुनः वही साहब अपनी पत्नी के साथ होटल आये और मेरे कटोरे में सौ सौ के तीन नोट डाल गए तथा उनकी पत्नी ने भी सौ के दो नोट डाले / जो फुटकर राशियाँ प्राप्त हुईं हैं वे पृथक हैं /
तीसरी संध्या को वह भिखारी दुखी था और नशे में भी था / कुछ बता भी नहीं रहा था / बहुत कुरेदने पर उसने कहा कि उसे आज बहुत बड़ा घाटा लगा है / आज उसे उस स्थान के लिए अधिक राशि भी चुकानी पडी थी / आज वही साहब पुनः होटल में आये / आज वह अकेले थे / उन्होंने ना तो उसकी ओर देखा और ना उसके कटोरे में एक रूपये का सिक्का ही डाला / जो कुछ फुटकर राशियाँ मिली थी उसी में आज उसने मद्यपान भी किया है /
निष्कर्ष यही निकला कि तीसरे दिन उन साहब के 'मैं' के सम्मान बोध की संतुष्टि में दानी दिखाने के लिए उनके साथ में कोई अन्य व्यक्ति नहीं था अतः तथाकथित दान नहीं दिया था / वस्तुतः यही परम सच्चाई है कि जीवन में हम जो भी करते हैं वह मात्र अपने लिए करते हैं .... या तो अपनी भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति के लिए ..... या प्रेम और सम्मान की संतुष्टियों के लिए ...... या सुरक्षा बोध, धन हानि अथवा सम्मान - प्रेम के मामलों में होने वाली असंतुष्टियों से बचने के लिए /
हम किसी अन्य के लिए कभी भी कुछ भी नहीं करते / करते हैं तो मात्र आत्म संतुष्टि के लिए ......भौतिक अथवा मानसिक /
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ndhebar
26-05-2011, 08:12 PM
आज वही साहब पुनः होटल में आये / आज वह अकेले थे / उन्होंने ना तो उसकी ओर देखा और ना उसके कटोरे में एक रूपये का सिक्का ही डाला /
यही झूठा दिखावा तो है जो कभी कभी इंसान को इंसानियत तक छोड़ने को मजबूर कर देती है

jai_bhardwaj
26-05-2011, 10:33 PM
थकान

एक माँ अपने बच्चे का लालन पालन बहुत ही आत्मीय लगाव के साथ करती हैं क्योंकि वह उसे अत्यंत स्नेह करती है / यद्यपि वह जानती है कि यह छोटा सा बच्चा ना तो माँ को जानता है और ना ही पहचानता है तथापि माँ के स्नेह-दुलार और लाड प्यार में कोई कमी नहीं आती है / वस्तुतः आत्मिक संतुष्टि के लिए यह आवश्यक नहीं है कि सामने वाला चरित्र भी हमें स्नेह दे, प्यार दे और दुलार करे बल्कि यह आवश्यक है कि सम्मुख स्थित चरित्र के मन में हमारी भावनाओं की अनुभूति अथवा यों कहें कि प्यार या सम्मान की अनुभूति है या नहीं / अपनी भावनात्मक संतुष्टि पाने के कारण माँ में बच्चे के प्रति कर्त्तव्य निभाने के लिए बहुत अधिक ऊर्जाएं और उत्साह उत्पन्न होते रहते हैं / वह रात्रि जागरण करती हुयी बच्चे की देखभाल करती है और रात्रि पर्यंत रोने और चिल्लाने के उपरान्त सोये हुए बच्चे के जागने पर नए ढंग से हंसने अथवा रोने पर वह इतनी प्रसन्न होती है कि उसकी मूर्छित हो रही चेतना पुनः ऊर्जावान हो जाती हैं और वह द्विगुणित उत्साह से बच्चे को दुलारने लगती है / वह यह नहीं कहती कि 'आज रात्रि में सो नहीं सकी है अतः उसे थकान है और वह कोई कार्य करने में असमर्थ है' /

अब इसी माँ को मोहल्ले के किसी बच्चे को एक या दो दिन के लिए रखने के लिए दे दिया जाए /पराये बच्चे के साथ भावनात्मक लगाव ना होने के कारण उसमे अत्यंत क्षीण उत्साह और ऊर्जाएं प्रवाहित होंगी / उस मोहल्ले के बच्चे के पोषण में यदि उस माँ को एक रात्रि का जागरण करना पड़े तो प्रातः से ही उसका शरीर शिथिल प्रतीत होगा और वह कोई कार्य कर सकने में सक्षम नहीं होगी / उसे इतनी अधिक थकान प्रतीत होगी कि जैसे वह एक लम्बी दूरी की दौड़ लगा कर आयी हो /

स्पष्ट है कि जहाँ 'मैं' के साथ उपलब्धि या संतुष्टि की बात नहीं जुडती है वहां शारीरिक - मानसिक थकान अति शीघ्र आ जाती है /

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jai_bhardwaj
03-06-2011, 12:25 AM
स्वार्थ
छोटी आकर्षक घड़ी को देख कर किसी भारतीय ने दूकानदार से जानकारी चाही , " क्या इसका मूल्य उचित है?" विक्रेता ने उसे बताया , " यह जापान में बना हुआ बिलकुल नवीन माडल है / आप तो जानते ही हैं कि जापान के बने हुए कैमरे, कारे, कैलकुलेटर आदि यूरोपीय और अमेरिकी उत्पादों की अपेक्षाकृत अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं और साथ ही साथ कम मूल्य वाले भी / "
" किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तो जापान बिलकुल नष्ट हो चुका था फिर इतनी उत्तम गुणवत्ता की सामग्री जापान में कैसे बनाए जा रहे हैं ?" भारतीय ने उत्सुकतावश जानना चाहा /
" जी महोदय, आपका कथन सर्वथा उचित है किन्तु नष्ट हो चुके जापान के निवासियों में अपने देश के अस्तित्व को फिर से क्षितिज तक ले जाने का उत्साह था / उनके मनोमस्तिष्क में कहीं भी स्वयं की उन्नति की भावना नहीं थी / वे राष्ट्रीयता की भावना से ओत प्रोत थे / यही उनकी सफलता का मूल कारण हैं / उन्हें यह खुशहाली अचानक नहीं प्राप्त हुयी है बल्कि उनकी निरंतरता ने उन्हें सफल बनाया है / सभी कामगार अपने कार्य के प्रति अत्यंत सजग और उत्तरदायी है / वे एक सप्ताह में चालीस घंटे कार्य भले ही करते हैं किन्तु उनकी आस्था और इमानदारी तो दिन भर का कार्य करके खरे पसीने की मजदूरी लेने में है / उन्हें कार्य - अवरोध, हड़ताल, धरना और प्रदर्शन आदि के बारे में कोई विचार नहीं आते हैं / वे जो भी कमाते हैं उसमे व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षाकृत राष्ट्रीय हित-सम्मान और ग्राहक के स्वार्थ का सामान ध्यान रखते हैं / "
ना जाने क्यों भारतीय के चेहरे पर लज्जा के भाव उभर आये थे / :nono::nono::nono:
(कृपया अशुद्धियों को शुद्ध कर के पढ़ें / धन्यवाद /)

jai_bhardwaj
10-06-2011, 10:59 PM
अभिलाषा
एक साधु के तप की कीर्ति चारों ओर फ़ैली थी, उनके मनोनिग्रह की कठोरता सर्वविदित थी, पर आज वे अत्यंत उद्विग्न थे / उन्हें कई वर्षों से तप करते हो चुके थे किन्तु अभी तक उन्हें उनके आराध्य के दर्शन नहीं हुए थे / नर्मदा नदी के पावन तट पर बने उनके आश्रम में कीर्तन चल रहा था / सायंकाल की आरती होने वाली थी / झांकी सज चुकी थी / इसी समय एक भक्त राजमहल की एक परिचारिका सुनयना भी भागी भागी आ गयी / आँगन में एक खम्भे के सहारे बैठे साधु अपने आराध्या को स्मरण करने में मग्न थे / बढ़ती हुयी भीड़ के कारण जब सुनयना को कोई स्थान नहीं मिला तो वह उसी स्तम्भ के सहारे खड़ी हो गई / आरती की तन्मयता में सुनयना ने अज्ञानतावश एक पैर साधु के कंधे पर टिका रखा था / वह प्रभु की आरती गाने में भाव विह्वल थी /
जब आरती का समापन हुआ और आँगन की भीड़ छंटी तो लोगों ने पाया कि राजमहल की दासी ने एक सिद्ध संत के कंधे पर पैर टिका रखे हैं / सभी उसे तिरस्कृत और फटकारने लगे / किन्तु महात्मा ने उन सभी को रोकते हुए कहा, " आज से यह मेरी गुरु हुई / एक साधक की उत्कृष्ट अभिलाषा कैसी होनी चाहिए , उसे अपने आराध्य के दर्शनों की प्यास कैसी होनी चाहिए, यह मैंने आज सुनयना से जाना है / इसके बिना मुझे अपने ध्येय की प्राप्ति कैसे होगी ?"
सांसारिकता की दृष्टि मिटी और उस दिन उन्हें अपने आराध्य के दर्शन हो गए /
सच ही तो है ... बिना एकाग्रता के लक्ष्य की प्राप्ति अत्यंत कठिन है /
(कृपया संभावित त्रुटियों को सुधार कर पढ़ लें /धन्यवाद /)

jai_bhardwaj
17-01-2013, 08:25 PM
नारी के अंतर्मन के द्वंद्व को व्यक्त करती एक लघु कथा

"मनहूस"

मैं अभी न किसी की बेटी हूँ ,न बहिन हूँ ,न प्रेमिका,न पत्नी ,न माँ i अभी तो कोई अस्तित्व ही नहीं है मेरा, इस धरती पर जो नहीं आई अभी …हाँ पर रिश्तों में बस जल्द ही बंधने वाली हूँ…अभी कुछ और वक़्त है माँ की कोख में चिप के रहने का का ….अभी कुछ और वक़्त है अपनों के साथ बैठके खेलने में ,वक़्त है अभी घर में बड़ी बेटी बनके जाने में। सुनती हूँ सबकी बातें यहीं से .. सबकी ख़ुशी का कारण हूँ मैं .. बहुत खुश हूँ की कितना प्यार मिलेगा जब साथ होंगी माँ और पापा के।

पापा बहुत ध्यान रखते हैं मम्मी का आजकल।दादी भी बोहत प्यार करती हैं माँ को। आज पापा मम्मी को लेकर आये हैं डॉक्टर आण्टी के पास जांच करना की मैं ठीक तो हूँ न।देखो कितने उतावले हो रहे हैं,मेरे बारे में जानने को। पूछ रहे हैं की लड़का है या लड़की,पर शुक्रिया आण्टी की अपने कह दिया की बेटा है।।।अब जब बाहर जाउंगी तो सब हैरान हो जाएँगे की यह तो बेटी है बेटा नहीं।।।पर हाँ डॉक्टर आण्टी ,आज खूब लूटा पापा को झूठ बोलकर की बेटा है।पर माँ को क्या हुआ ,क्यूँ उदास है वो .. लगता है की जानती है की मैं हूँ “बेटी” …”बेटा ” नहीं ..शायद दुखी है सच छुपाकर पापा से … हाँ लेकिन जब पापा और दादी को मेरे बारे में पाटा चलेगा तब कितनी ख़ुशी और हैरानी होगी उनके चेहरे पर।मुझसे तो इंतज़ार ही नहीं हो रहा …जबसे आये हैं डॉक्टर के पास से ,सब तैयारियों में लगे हैं मेरे आने की … लो आज तो मेरी मम्मी की गोद भराई का दिन भी आ गया …आज मम्मी खूब सजेंगी ….मुझे भी सबका आशीर्वाद मिलेगा,सबका प्यार मिलेगा। सब लोग एक एक करके आएँगे और मम्मी के कान में मेरे लिए दुवाएं मांगेंगे ….अरे यह क्या ! सबने एक ही बात क्यूँ कही ” बेटा हो”… अच्छा अब समझी पापा और दादी ने शायद सबको बताया होगा की डॉक्टर आण्टी ने कहा है ऐसा …अब तो और मज़ा आएगा …सब चौंक जाएँगे मेरे आने पर।

देखो नाम भी सब सोच रहे हैं तो लड़को वाले।अब कौन समझाए की मैं इन नामों से नहीं कहलाऊँगी ….चाची कह रही हैं की राजकुमार आएगा ,तो ताईजी मुझे राजा बेटा कह के बुला रही हैं ..पर मैं जानती हूँ की मैं तो चाची की राजकुमारी और ताईजी की रानी बिटिया होंगी …दादी ने तो पहले हे मेरे गले के लिए लॉकेट बनवा लिया है …जब आउंगी तो बदलवाकर मेरे पैरों के लिए पायल ले आएंगी और हाथों के लिए कड़े। ओह हो दादी परेशान करोगे खुद को …

आज आ गया है वो दिन …आज मैं आ जाउंगी सबके पास …मम्मी की गोद में . पापा के हाथों में ..दादा की कमीज़ गीली करुँगी, और दादी की ऊँगली मुट्ठी में बंद कर लुंगी ..कितना दर्द हो रहा है मम्मी को मेरी वजह से …पर हाँ माँ तुम्हे हमेशा खुश रखूंगी …सबकी लाडली बनके रहूंगी

और अब वो पल आ गया है ..अब डॉक्टर सबको बता रहे हैं की मैं सब के बीच आ गयी हूँ …. अरे ! कोई हँसा क्यूँ नहीं ? अच्छा! हो गए ना सब हैरान ….माँ ने मुझे गोद में उठा लिया और बहुत प्यार कर रही हैं। पर माँ रो क्यूँ रही हैं …चाची मुझे राजकुमारी क्यूँ नहीं बुला रही .. ताईजी रानी बिटिया को अपनी गोद क्यूँ नहीं उठा रही ………पापा रुको ! रुको ना … कुछ तो कहो …कुछ कहो .. पापा ने कुछ कहा … बुलाया है मुझे … हाँ बुलाया है शायद … पर क्या ?

“मनहूस” … “मनहूस ये नाम तो नहीं सुना था मैंने माँ की कोख में …. क्या मेरा हैरान करना पसंद नहीं आया पापा को .. क्यूँ कहा उन्होंने मुझे मनहूस ?

क्यूँ दादा की कमीज़ न गीली कर पाई …..क्यूँ दादी की ऊँगली मुट्ठी में ना दबा पाई …….आखिर क्यूँ मैं मनहूस कहलाई …….आखिर क्यूँ मैं मनहूस कहलाई …..

bindujain
18-01-2013, 09:06 AM
नारी के अंतर्मन के द्वंद्व को व्यक्त करती एक लघु कथा

"मनहूस"

मैं अभी न किसी की बेटी हूँ ,न बहिन हूँ ,न प्रेमिका,न पत्नी ,न माँ i अभी तो कोई अस्तित्व ही नहीं है मेरा, इस धरती पर जो नहीं आई अभी …हाँ पर रिश्तों में बस जल्द ही बंधने वाली हूँ…अभी कुछ और वक़्त है माँ की कोख में चिप के रहने का का ….अभी कुछ और वक़्त है अपनों के साथ बैठके खेलने में ,वक़्त है अभी घर में बड़ी बेटी बनके जाने में। सुनती हूँ सबकी बातें यहीं से .. सबकी ख़ुशी का कारण हूँ मैं .. बहुत खुश हूँ की कितना प्यार मिलेगा जब साथ होंगी माँ और पापा के।

पापा बहुत ध्यान रखते हैं मम्मी का आजकल।दादी भी बोहत प्यार करती हैं माँ को। आज पापा मम्मी को लेकर आये हैं डॉक्टर आण्टी के पास जांच करना की मैं ठीक तो हूँ न।देखो कितने उतावले हो रहे हैं,मेरे बारे में जानने को। पूछ रहे हैं की लड़का है या लड़की,पर शुक्रिया आण्टी की अपने कह दिया की बेटा है।।।अब जब बाहर जाउंगी तो सब हैरान हो जाएँगे की यह तो बेटी है बेटा नहीं।।।पर हाँ डॉक्टर आण्टी ,आज खूब लूटा पापा को झूठ बोलकर की बेटा है।पर माँ को क्या हुआ ,क्यूँ उदास है वो .. लगता है की जानती है की मैं हूँ “बेटी” …”बेटा ” नहीं ..शायद दुखी है सच छुपाकर पापा से … हाँ लेकिन जब पापा और दादी को मेरे बारे में पाटा चलेगा तब कितनी ख़ुशी और हैरानी होगी उनके चेहरे पर।मुझसे तो इंतज़ार ही नहीं हो रहा …जबसे आये हैं डॉक्टर के पास से ,सब तैयारियों में लगे हैं मेरे आने की … लो आज तो मेरी मम्मी की गोद भराई का दिन भी आ गया …आज मम्मी खूब सजेंगी ….मुझे भी सबका आशीर्वाद मिलेगा,सबका प्यार मिलेगा। सब लोग एक एक करके आएँगे और मम्मी के कान में मेरे लिए दुवाएं मांगेंगे ….अरे यह क्या ! सबने एक ही बात क्यूँ कही ” बेटा हो”… अच्छा अब समझी पापा और दादी ने शायद सबको बताया होगा की डॉक्टर आण्टी ने कहा है ऐसा …अब तो और मज़ा आएगा …सब चौंक जाएँगे मेरे आने पर।

देखो नाम भी सब सोच रहे हैं तो लड़को वाले।अब कौन समझाए की मैं इन नामों से नहीं कहलाऊँगी ….चाची कह रही हैं की राजकुमार आएगा ,तो ताईजी मुझे राजा बेटा कह के बुला रही हैं ..पर मैं जानती हूँ की मैं तो चाची की राजकुमारी और ताईजी की रानी बिटिया होंगी …दादी ने तो पहले हे मेरे गले के लिए लॉकेट बनवा लिया है …जब आउंगी तो बदलवाकर मेरे पैरों के लिए पायल ले आएंगी और हाथों के लिए कड़े। ओह हो दादी परेशान करोगे खुद को …

आज आ गया है वो दिन …आज मैं आ जाउंगी सबके पास …मम्मी की गोद में . पापा के हाथों में ..दादा की कमीज़ गीली करुँगी, और दादी की ऊँगली मुट्ठी में बंद कर लुंगी ..कितना दर्द हो रहा है मम्मी को मेरी वजह से …पर हाँ माँ तुम्हे हमेशा खुश रखूंगी …सबकी लाडली बनके रहूंगी

और अब वो पल आ गया है ..अब डॉक्टर सबको बता रहे हैं की मैं सब के बीच आ गयी हूँ …. अरे ! कोई हँसा क्यूँ नहीं ? अच्छा! हो गए ना सब हैरान ….माँ ने मुझे गोद में उठा लिया और बहुत प्यार कर रही हैं। पर माँ रो क्यूँ रही हैं …चाची मुझे राजकुमारी क्यूँ नहीं बुला रही .. ताईजी रानी बिटिया को अपनी गोद क्यूँ नहीं उठा रही ………पापा रुको ! रुको ना … कुछ तो कहो …कुछ कहो .. पापा ने कुछ कहा … बुलाया है मुझे … हाँ बुलाया है शायद … पर क्या ?

“मनहूस” … “मनहूस ये नाम तो नहीं सुना था मैंने माँ की कोख में …. क्या मेरा हैरान करना पसंद नहीं आया पापा को .. क्यूँ कहा उन्होंने मुझे मनहूस ?

क्यूँ दादा की कमीज़ न गीली कर पाई …..क्यूँ दादी की ऊँगली मुट्ठी में ना दबा पाई …….आखिर क्यूँ मैं मनहूस कहलाई …….आखिर क्यूँ मैं मनहूस कहलाई …..
shandar

jai_bhardwaj
18-01-2013, 05:39 PM
मुझे ऑफिस जाना था, क्योंकि आज के खुशगवार मौसम में कौन अन्दर बैठना चाहता होगा। सब ही बाहर घूमना चाहते होंगे । लेकिन शहर में एकाकी जीवन जीने वाला मेरा मन नही माना और मैं ऑफिस नहीं गया।तभी अख़बार वाला अख़बार लेकर घर में आया। पलंग पर बैठकर कुछ देर अख़बार पढ़ा।पर आजकल समाचार ही क्या होते हैं यह बम ब्लास्ट हुआ इसने इसे मारा और न जाने क्या क्या।कलयुग को आतंकवाद युग कहना चाइए।मुझे उन निर्दोष लोगो पर तरस आता हैं जो बेरहमी से मारे जाते हैं।इन लोगो का पेट नहीं भरता क्या।यह भगवान से भी नहीं डरते।कैसे पत्थर दिल होता हैं इनका पास।यह लोग समझ नहीं सकते कि जीवन कितना अमूल्य हैं कितनी कठिनाई से मिलता हैं।खैर बरकत तो ऊपर वाला देता हैं।एक न एक दिन इन्हें दंड जरूर मिलेगा।

आज का दिन आराम करना का दिन था पर दिन का खाना तो बनाना ही था।मैं रसोई में आया तो देखा की आटा तो था ही नहीं।हाय अब मुझे बाज़ार जाना पड़ेगा। मैं थोड़ा उलझन में आ गया ।बाइक निकाली और नजदीकी बाजार आ गया। बाज़ार में बहुत भीड़ थी।लोग एक दूसरे को धक्का मार रहे थे।अच्छे मौसम का सत्यानाश हो रहा था।सबके चेहरे पर मुस्कान थी पर मेरी नज़र एक नन्हा से बालक पर पड़ी जो लोगो के सामने हाथ जोड़कर भीख मांग रहा था।वह करीब नौ साल का था।कपडे फटे हुए थे और बेचारा रो रहा था। मुझे उस पर बड़ी दया आई ।लोग मुझे अक्सर कहते हैं कि भिखारी को कुछ नहीं देना चाइए।यह लोग काम तो करते नही पर भीख मांगते हैं।छोटा सा भोला बच्चा क्या काम करेगा?तभी अचानक से मैंने एक आदमी को उस बच्चे को धक्का देता हुआ निहारा।वह बच्चा जमीन पर जा गिरा।उसके घुटनों से खून बहने लगा।उसका क्या दोष था सिर्फ यह की वह अपनी रोज़ी रोटी पाने के लिए भीख मांग रहा था।मेरी आँखे आँसू से भर आई।उसके पास और चारा भी क्या था।मैं पूरी तेज़ी से उस बच्चे के पास गया उसे उठाया और तुरंत उसे नजदीकी डॉक्टर के पास ले आया।डॉक्टर ने उसके घुटनों पर पट्टी करी।उसने मेरा शुक्रिया अदा किया।मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि मैंने एक मुसीबत के समय एक बच्चे की मदत करी।मैंने उसे अपनी बाइक में बैठाया और अपने लिए आटा खरीदा और वापस घर की तरफ चल पडा।

मैं उस बच्चे को घर ले आया।बच्चा मेरी इस क्रिया कलाप को देख हैरान था।मैं बड़ी कठिनाई से उसे अपने घर ला सका था क्योंकि वह बीच राह में उतर जाना चाहता था। शायद वह डर रहा था मुझसे। खैर .. उसे एक कुर्सी पर बैठा दिया।मैंने आटा गूँदा और फिर गरम गरम रोटी तवे पर सेकी।सब्जी सुबह की बची हुई थी वो गरम करी और मेज पर रख दी।दो प्लेट पर खाना सजाया और एक प्लेट उसे दे दी।उसनेजल्दी से खाना खा लिया।उसने सारी मेज़ गन्दी कर दी।कपडे पर भी खाना गिरा दिया।उसने मुझे बताया कि वह अनाथ हैं और उसने सात दिन से जीने लायक कुछ नहीं खाया था।उसने यह भी बताया कि वह भीख में मिले पैसो पर निर्भर रहता हैं।यह सब सुनकर मैं रो पड़ा।सच में, हमारे भारत का यह ही हाल हैं।कोई इन बच्चो पर रहम नहीं खा सकता।इस उम्र में शिक्षा ग्रहण करने के बजाए यह भीख पर निर्भर हैं।अगर यह ही भारत का हाल रहा तो भारत आगे कैसा बढ़ेगा।भारत की उन्नति के लिए हर बच्चे को शिक्षित होना जरुरी हैं।भारत का भविष्य इन पर टिका हुआ हैं।

मैंने प्लेटे माँजने के लिए रख दी। मेरे पास अपने कुछ पुराने कपडे अलमारी में संभाल के रखे हुए थे।मैंने एक जोड़ी कपडे निकाले और उस बच्चे को पहनाए।वह बहुत खुश हो गया।उसे खुश देख कर मैं भी खुश था।मेरे लिए ज़िन्दगी का सबसे सबसे अदभुत दिन रहा।काश भविष्य में मैं इन जैसे लोगो की और सहायता कर सकूँ।

jai_bhardwaj
18-01-2013, 05:43 PM
हाय रे ... बेटियाँ

…बेटी पैदा होने पर घर में मातम मनाने वाले लोग आज के मॉडर्न जमाने भी है!…ये लोग बेटे के पैदा होने पर ढोल-ताशे बजवातें है, मिठाइयां बटवातें है, रिश्तेदारों को आमंत्रित करके जश्न मनाते है….और जिस तरीके के मना सकें, खुशियाँ मनाते है!…लेकिन बेटी के पैदा होना इनके लिए आफत खड़ी हो जाना होता है!…केवल हमारे भारत में ही नहीं दुनिया के अन्य देशों में भी यही हाल है!…हो सकता है भारत में कुछ ज्यादा प्रमाण में यह देखने को मिलता हो!

…अभी पिछ्ले वर्ष मेरा जर्मनी के अर्लांगन शहर में जाना हुआ!…मेरी बड़ी बिटिया वहाँ रहती है!…उसके यहाँ दूसरे बेटे का जन्म हुआ!…पास-पड़ोसी बधाई देने घर पर आने लगे!…साथ में बच्चे के लिए खिलौने, कपडे और अन्य उपहार भी लेकर आते थे …मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं यहाँ लगभग एक महीने से रह रही हूँ..लेकिन अब तक पास-पड़ोसी कोई भी मिलने आए नहीं थे…सभी ‘रिझर्व’ हो कर अपने में मस्त ही नजर आ रहे थे..लेकिन अब बिन बुलाएं भी आ रहे है, क्या बात है!….इस पर खुशी तो मुझे बहुत हो रही थी!..सभी की आव-भगत करने और उन्हें बेसन के, देसी घी के, ड्राई-फ्रूट्स डाल कर बनाएं हुए भारतीय पद्धति के लड्डू खिलाने में मुझे बड़ा ही आनद आ रहा था!

….मेरी बिटिया ने बताया कि ‘ मम्मी!..यहाँ ऐसा ही होता है…’लड़का’ पैदा होने की खबर पा कर सभी मिलने और बधाई देने आ ही जाते है…,लड़की होने की खबर पा कर सिर्फ नजदीकी फ्रेंड्स या रिश्तेदार ही तशरीफ़ लाते है!’

…..छोटे बच्चे को मालिश कर के नहलाने के लिए रोजाना अस्पताल से एक नर्स जिसका नाम नाम ”मायके” था; आती थी!…उससे मेरी रोज बात-चीत होती थी!…एक दिन बात चल पडी तो उसने जो बताया वह उसी की ज़ुबानी सुनिए…मायके कहने लगी!

“…. मैडम!..मेरी तीन बेटियाँ है!…जब तीसरी बेटी पैदा हुई तब जो कुछ हुआ वह सुन कर आप हैरान रह जाएगी!…हुआ ये कि मेरी तीसरी बेटी ‘ एलिना’ पैदा हुई!…तीसरी भी बेटी ही हुई थी सो पास-पड़ोसियों ने मेरे घर आना बेहतर न समझा!…मेरी दूर रहने वाली दो-चार सहेलियां जरुर अपने परिवार के साथ आ कर हाल-चाल पूछ गई!…मेरी बेटी ‘ एलिना’ एक स्वस्थ और तंदुरुस्त बच्ची थी!….वह बहुत ही कम रोती थी…उसे नींद भी भरपूर प्रमाण में आती थी!…जब वह तीन दिन की हुई कि अचानक रात के ग्यारह बजे हमारी डोर-बेल बज उठी….मेरे पति विल्सन ने दरवाजा खोला तो सामने पुलिस के दो सिपाही थे!…विल्सन ने उन्हें अंदर आने दिया और आने का सबब पूछा…वे बोले..

” मि. विल्सन, क्या आप के यहाँ कोई छोटा बच्चा है?…”

“जी…मेरी बिटिया ‘एलिना’ है…वह तीन दिन की है!…बाकी दो बच्चियां बड़ी है!”….विल्सन ने बताया!

” हम एलिना को देखना चाहते है!…कहाँ है?” एक पुलिसवाला इधर-उधर देखता हुआ बोला..

“….वो गहरी नींद सो रही है..उस तरफ के बेड-रूम में…आप उसे क्यों देखना चाहते है?”…विल्सन ने आश्चर्य के साथ पूछा!

“…हमारे पास कंप्लैन आई है!…किसी ने शिकायत दर्ज करवाई है कि बच्ची के रोने की आवाज तीन दिन से बिलकुल आई नहीं है!…शिकायत कर्ता को शक है कि कही बच्ची के साथ कुछ बुरा तो नहीं हुआ…खैर!…हम बच्ची को अभी देखना चाहते है…चलिए दिखाइए!”…दूसरा पुलिसवाला कुछ सख्ती से बोला!

…विल्सन ने उन्हें रिक्वेस्ट की…. ”कि छोटी बच्ची सो रही है…आप के पास जाने से उसकी नींद में खलल पड़ सकता है, आप सुबह आइए…’ लेकिन पुलिसवाले माने नहीं और बिटिया ‘एलिना’ के पास गए!…उसके दिल पर हाथ रख कर, उसकी साँसों की जांच-पड़ताल भी की!..एलिना जाग गई और रोने लगी!…तब पुलिस वाले उसके पास से हट गए और इतनी रात को आ कर तकलीफ देने के लिए ‘सौरी’ भी कहा!.

..उन्होंने कहा कि वे अपनी ड्यूटी निभाने आए थे!…आगे बताया कि ‘कुछ लोग बेटी पैदा होने पर उस पर जुल्म ढाते है और संगीन अपराध करने तक भी नीचे उतर जाते है!..आप के पड़ोसी ने तीन दिन से बेटी के रोने की आवाज नहीं सुनी और उन्हें कुछ ‘बुरा’ होने का शक हुआ…सो उन्होंने फोन किया और हम आ गए…अब हम उन्हें बता देंगे कि ऐसा कुछ नहीं है, जो वे सोच रहे थे!’…अपनी ड्यूटी निभा कर पुलिसवाले चले गए!

अब मैंने मायके से पूछा…” क्या आप को बुरा नहीं लगा कि आपके पड़ोसी ने ऐसी हरकत की और पुलिस को बुलाया?”

” नहीं मैडम!…हमें तो अच्छा लगा कि दुनिया में ऐसे लोग भी है जो बेटियों की चिंता करते है!…वरना किस को क्या पडी होती है? ”

……नर्स मायके से यह किस्सा सुनकर मुझे भी लगा कि वाकई पड़ोसी ने जो किया अच्छा ही किया!…बेटियों की खुश-हाली की चिंता करने वाले लोग ही उन्हें उनका सही हक दिलवा सकतें है!

jai_bhardwaj
18-01-2013, 05:48 PM
बदले की आग


सुरेखा मेरी बिटिया शोभना की सहेली थी!…दोनों ही हम-उम्र याने कि लगभग ग्यारह-बारह वर्ष की थी!…एक ही स्कूल में और एक ही कक्षामें पढ़ती थी!…सुरेखा पहले कही अन्यत्र रहती थी लेकिन छह महीने पहले अपने परिवार वालों के साथ हमारी सोसाइटी में रहने आई थी ; सो कभी कभी हमारे घर खेलने भी आ जाती थी!….बहुत ही शालीन और सलीकेदार लड़की थी!

एक बार उसे ढूंढती हुई उसकी मम्मी मेरे यहाँ आई!…

” नमस्ते!…मैं सुरेखा की मम्मी हूँ!…हम लोग यहाँ, इस सोसाइटी में छह महीने पहले ही आए है!”

” नमस्ते!..आइए, अंदर आइए!…बहुत अच्छा हुआ जो आप आई!..सुरेखा तो आती रहती है…मैंने उसे कहा भी था कि कभी अपनी मम्मी को भी साथ ले कर आना!”…मुझे सुरेखा की मम्मी से मिलकर खुशी हो रही थी!

” नहीं!..अभी बैठने का टाइम नहीं है मिसेस कपूर!…हम छत्तरपुर माता के मंदिर जा रहे है!…अपने तीन साल के छोटे बेटे तुषार को घर पर छोड़ कर जा रही हूँ!…घर पर मेरी सासुजी है, लेकिन सुरेखा अपने भाई का ज्यादा अच्छा ध्यान रखती है!….कहाँ है सुरेखा?…” सुरेखा की मम्मी को जाने की जल्दी थी और वह जल्दी जल्दी से बोले भी जा रही थी!

” आप दरवाजे में ही खड़ी है मिसेस चंद्रा!…अंदर तो आइए! सुरेखा अंदर है….मेरी बिटिया के साथ पोहे खा रही है….आज पोहे बनाएं थे ;सो शोभना और सुरेखा को प्लेट में डाल कर दे दिए….सुरेखा तो मना कर रही थी लेकिन मैंने कहा थोडेसे ले लों बिटिया…”

…सुरेखाने अपनी मम्मी की आवाज सुन ली और वह बाहर ड्रोइंग-रूम में आ गई!

” चलो रेखा!…जल्दी चलो!..आपकी दादी और तुषार घर में अकेले है!” सुरेखा की मम्मी ने कहा…

” मम्मी!…नीरज भैया और नकुल आप के साथ मंदिर जा रहे है?” सुरेखाने मम्मी से पूछा…

…सुरेखा और नीरज जुड़वा भाई बहन थे और नकुल और तुषार उसके छोटे भाई थे!…इस परिवार में तीन बेटे और एक बेटी थी!…मैं सुरेखा के परिवार के बारे में इतना ही जानती थी!

” मम्मी!…पापा भी जा रहे है क्या?…” सुरेखा ने मम्मी के साथ दरवाजे से बाहर निकलते हुए पूछा!

” हद हो गई तेरी तो !…पापा की तो ऐसी की तैसी!…वे नहीं जाएंगे तो कार कौन ड्राइव करेगा?” …सुरेखा की मम्मी ने कहा और मुझे हंसी आ गई!

…दोनों माँ-बेटी चली गई!…फिर भी मुझे लगा कि ‘पति के बारे में सुरेखा की मम्मी ने ऐसा क्यों कहा?’…हो सकता है कि पहले उन्होंने छत्तरपुर मंदिर जाने से मना कर दिया हो और बाद में तैयार हुए तो…पत्नी को गुस्सा आना स्वाभाविक है!

…इसके कुछ दिनों बाद जब सुरेखा मेरे यहाँ शोभना बिटिया के साथ खेलने आई तब पता चला कि सुरेखा और नीरज जुड़वा भाई बहन है…लेकिन उनकी अपनी मम्मी गुजर जाने के बाद, उनके पापा ने दूसरी शादी की, जो वर्त्तमान में उनकी मम्मी है!..लेकिन सौतेली मम्मी होने के बावजूद वह उनकी सगी मौसी है…मतलब कि उसकी अपनी मृत मम्मी की सगी बहन है!

jai_bhardwaj
18-01-2013, 05:48 PM
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…एक दिन फिर सुरेखा की मम्मी आई!..इस बार वह मुझसे मिलने ही आई थी!..इधर -उधर की बाते हुई..मेरे साथ उसकी मित्रता भी हो गई …और हमारा मिलना-जुलना और एक दूसरी के घर आना-जाना भी शुरू हुआ!..

..सुरेखा की मम्मी का नाम कौशल्या था…सो अब कौशल्या के नाम से ही हम उसे संबोधित करेंगे!…कौशल्या को घुमने का बड़ा शौक था!…घर में बैठे रहना उसे अच्छा नहीं लगता था!…घर का सारा काम उसकी बूढ़ी विधवा सास ही देखती थी!…कौशल्या को किट्टी-पार्टिओं का भी शौक था!…नए नए कपड़ों की भी खरीदारी वह करती रहती थी!…सुरेखा को वह अपनी सगी बेटी की तरह प्यार करती थी…लेकिन पता नहीं क्यों…सुरेखा के ही जुड़वा भाई नीरज का वह तिरस्कार ही करती थी!…अपने सगे दो बेटे नकुल और तुषार को उसने महंगी फ़ीस वाले इंग्लिश मीडियम के स्कूल में दाखिला दिलवाया था…सुरेखा भी इंग्लिश मीडियम के अच्छे स्कूल में पढ़ रही थी..लेकिन नकुल के लिए सरकारी स्कूल में पढ़ना तय था!…और एक दिन नीरज को अपने मायके माता-पिता के पास पंजाब भिजवा दिया!…वे पंजाब के किसी गाँव में रहते थे..वही नीरज अब स्कूली शिक्षा ग्रहण करने लगा!

…समय गुजरता गया, कौशल्या अब मेरे सहेली थी..अपने घर की बातें बताया करती थी! ..मुझे भी मेरे नाम से ‘अरुणा” कहकर बुलाती थी! मैं जान चुकी थी कि कौशल्या अपने पति और सास की बिलकुल ही इज्जत करती नहीं थी!..पति का कारोबार अच्छा था सो उसके पास पैसो-गहनों की बहुतायत थी! एक दिन उसने एक और परदा-फाश कर दिया…

“अरुणा!..मेरी शादी मेरी मरजी के विरुद्ध हुई है! ”

“…लेकिन तुम्हारी शादी को अब बारह साल हो चले है…सुरेखा अब बारह साल की हो गई है!” मैंने कहा…

“..हाँ! समय गुजरते देर थोड़े ही लगती है?…मेरी बड़ी बहन ने सुरेखा और नीरज…दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया और वह डिलीवरी के दो दिन बाद ही गुजर गई!”…कौशल्या ने अपनी दास्ताँ बयाँ करनी शुरू की…

” बहुत अफ़सोस हो रहा है कौशल्या…कितनी दु:खद घटना है यह…”..जान कर मैंने दु:ख व्यक्त किया!

“…घर में सब परेशान थे और बच्चों की तरफ देखते हुए निर्णय लिया गया कि दीदी की जगह अब मुझे दी जाए…हमारे अन्य रिश्तेदार भी इस बात पर सहमत हो गए…दीदी की सास भी सहमत हो गई…दीदी के पति भी मुझसे शादी करने के लिए राजी हो गए!..लेकिन मुझसे किसीने नहीं पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ!…अरुणा!…मैं इस शादी के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थी!…मेरे बड़े बड़े, सुन्दर से अलग ही सपने थे! मुझे किसी हैंडसम राज कुमार से दुल्हे का इंतज़ार था!..मै किसी डॉक्टर या इंजीनियर की पत्नी बनना चाहती थी!…दो बच्चों की सौतेली माँ बन कर जीना, मुझे कतई मंजूर नहीं था!”

“…लेकिन भाग्य को कौन बदल सकता है कौशल्या!’ मैं बीच में बोल उठी!

“…भाग्य?..कौनसा भाग्य?…यह सब मेरे साथ मेरे मेरे माँ-बाप ने अपने स्वार्थ के लिए किया…वे जमाई ढूंढने के कष्ट से बच गए…दीदी के बच्चों की चिंता से मुक्त हो गए…मेरे दिए दहेज खर्च करने से बच गए!…आप जानती है सुरेखा के पापा मुझ से दस साल बड़े है!…पैसे वाले है तो क्या हुआ?”…अब कौशल्या तैश में आ कर बोल रही थी!

“…तो तुमने उसी समय इस शादी के लिए विरोध क्यों नहीं जताया?”‘..मैंने पूछा!

“…बहुत विरोध जताया था मैंने!…बहुत रोई…माँ-बाप के ना मानने पर आत्महत्या भी करने की कोशिश की!…एक बंजर कुँए में अपने आप को झौंकने चली गई…लेकिन किसीने पीछे से आकर पकड लिया और बचा लिया…”…अब कौशल्या रो रही थी मैंने उसे शांत किया और पानी का गिलास उसके मुंह से लगाया!

” …क्या शादी के बाद पति का व्यवहार तेरे साथ ठीक नहीं था?”

“…वह तो खुश थे!…मेरे साथ भी वर्ताव अच्छा ही था और आज भी अच्छा ही है!…जानती हो अरुणा!..मैंने उन्हें डराकर रखा हुआ है!”…कौशल्या कह रही थी!

” क्या…कैसे?”

jai_bhardwaj
18-01-2013, 05:49 PM
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” मै बात बात में आत्महत्या करने धमकी देती हूँ…एक पत्नी की मृत्यु से वह बेहद डरे और घबराए हुए है…अगर दूसरी भी चल बसी तो क्या होगा…यही सोच सोच कर घबरा जाते है उन्हें पसीने छूट जाते है!…मैं उनके अंदर के इसी डर का फायदा उठा कर अपनी मन-मानी करती हूँ!…मैं उनसे नफरत जो करती हूँ!”…अब कौशल्या के चेहरे पर मुस्कुराहट थी!

“…ये ठीक नहीं है कौशल्या!..अपनी सास को भी तुमने नौकरानी बना कर रखा हुआ है..और नीरज से इतनी नफरत क्यों करती हो?”

“…मेरी अपनी कोख से पैदा हुए ,नकुल और तुषार तो है ही!…नीरज की मुझे जरुरत नहीं है! वह दीदी का बेटा है ..उसकी चिंता मैंने अपने माँ-बापू पर छोड़ दी है और उसे पंजाब भिजवा दिया है!..मेरी अपनी बेटी कोई नहीं है सो मैं सुरेखा को प्यार से पाले हुए हूँ!…बड़ी होने पर धूमधाम से शादी भी कर दूंगी!…अगर अपनी बेटी होती तो सुरेखा को भी माँ-बापू के पास पंजाब भिजवा दिया होता…”…अब कौशल्या बिलकुल सामान्य हो गई थी!

“…तो तुम्हारे साथ जो हुआ…उसका तुम समाज से बदला ले रही हो…अपने माता-पिता और पति से बदला ले रही हो…और चाहती हो कि मैं तुम्हारा समर्थन करू?…तुम जो कर रही हो इसे सही बताऊँ?..बेचारी बूढ़ी सास को भी तुमने अपने बदले की आग में झौंक दिया..क्या ठीक कर रही हो तुम कौशल्या?”….मैं भी अब तैश में आ गई!

“….मै अपने इरादे की पक्की हूँ…मेरे साथ मेरे माँ-बाप, पति, सास और समाज ने जो अन्याय किया है उसका मुंह तोड़ जवाब यही है!…अरुणा!..मैं सही रास्ते पर चल रही हूँ!” ..कौशल्या अपने आप सही बता रही थी!

…इस मै कोई जवाब नहीं दे पाई!

….यह सच्ची कहानी है…पात्रों के नाम बदले हुए है!…क्या आप समझतें है कि कौशल्या अपनी जगह सही है और सही व्यवहार अपने पति. सास, बच्चें और समाज के साथ कर रही है ??
:think:

dipu
18-01-2013, 08:51 PM
unique thread

jai_bhardwaj
24-01-2013, 07:54 PM
तुम कौन हो ?

तुम इलाहाबाद के पथ पर
पत्थर तोड़नेवाली बाला नहीं
जिसे निराला ने देखा था

तुम शरत के उपन्यासों की नायिका नहीं,
लारेंस,काफ्का, मंटो और राजकमल की लेखनी ने तुम्हें नहीं रचा,
भीष्म साहनी की बासंती
या आलोकधन्वा की भागी हुई लड़कियों में भी
तुम्हारी गिनती नहीं हो सकती
तुम्हें मैं नारी मुक्ति आंदोलन की नायिकाओं की श्रेणी में भी नहीं पाता
तुम्हें पेट भरने के लिए फलवाले किसी पेड़ की तलाश भी नहीं
लेकिन उड़ने की कद्र की है तुमने
श्रम मूल्य है तुम्हारा पसीना
पसन्द है तुम्हे
यही मुझे अच्छा लगता है सोनचिरैया,यही।
(वेद प्रकाश वाजपेयी की कविता "सोनचिरैया" का अंश)

....बोए जाते हैं बेटे
उग आती है बेटियां
एवरेस्ट की चोटी तक ठेले जाते हैं बेटे
चढ जाती है बेटियां....(कवि का नाम पता नहीं)

महिला सशक्तिकरण के लगभग 102 साल पूरे होने वाले हैं। 1910 में महिला दिवस की घोषणा के बाद सबसे पहले 19 मार्च 1911 को आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी, स्वीटजरलैंड में यह पर्व मनाया गया।
1975 में अंतराष्ट्रीय महिला वर्ष के दौरान यूएन ने 8 मार्च को महिला दिवस के रुप में मनाना शुरु किया।
इतना लंबा सफर तय करने के बाद भी हमारा लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया है..मुक्ति स्वप्न नहीं है..यहां लोहिया का एक कथन सटीक बैठता है..वह कहते हैंकि पुरुष स्त्री को प्रतिभासंपन्न और बुद्दिमति भी बनाना चाहता है और उसे अपने कब्जे में भी रखना चाहता है, जो किसी कीमत पर नहीं हो सकता...जब तक यह गैरबराबरी खत्म नहीं होती....स्वप्न अधूरा, क्रांति अधूरी....
बोल बोल कि लब आजाद हैं तेरे....

(अंतरजाल के सौजन्य से)

Dark Saint Alaick
24-01-2013, 08:34 PM
आपने आज इस सूत्र में प्रविष्ठि करके अति उत्तम कार्य किया, जय भाई। वरना यह हतभाग्य पता नहीं, न जाने कब तक इस अनुपम ज्ञान गंगा में डुबकी लगाने से वंचित रहता। इस शानदार सूत्र के लिए आपको बधाई देना भी मैं अपर्याप्त मानता हूं, तथापि आभार। :hello:

jai_bhardwaj
25-01-2013, 06:30 PM
उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के सरधना क्षेत्र के गांव ईकड़ी ने एक नया इतिहास रच दिया है। इक्कीसवीं सदी में जिस देश

के बहुत सारे गांव अभी भी विद्युतीकरण से वंचित हों, वहां ईकड़ी ऐसा गांव है जहां रात में बिजली जाने पर भी अब

मुख्य मार्गों पर अंधेरा नहीं रहता है। रात में रोशन रहने के मायने में यह गांव देश के लिए मिसाल बनकर उभर रहा

है। यूं तो मेरठ जिला कई चीजों केलिए मशहूर रहा है, कभी नौचंदी मेले के लिए, कभी कैंची तो कभी खेल के सामान

केलिए। लेकिन पिछले कुछ समय से यह जिला अपराधों केलिए भी जाना जा रहा है। अपराधियों केलिए रात का अंधेरा

वारदातों को अंजाम देने केलिए सबसे मुफीद समय होता है। गांवों में रात में बिजली न होने केकारण अपराधियों

केहौसले बुलंद रहते हैं। वारदात के बाद अंधेरे का फायदा उठाकर अपराधी बेखौफ फरार हो जाते हैं। लेकिन ईकड़ी गांव में

हुआ प्रयोग कामयाब रहा तो बदमाशों केलिए अब रात में वहां भागना मुश्किल होगा। इसकी वजह यह है कि गांव की

स्ट्रीट लाइट बिजली गुल होने के बाद भी इन्वर्टर और बैटरी से जगमग रहेंगी। ईकड़ी शायद हिंदुस्तान का अकेला पहला

ऐसा गांव है जहां स्ट्रीट लाइट केलिए इन्वर्टर और बैटरी का इंतजाम किया गया है। ग्राम प्रधान अंजना त्यागी ने

फिलहाल मुख्य मार्गों पर तीन-तीन इमरजेंसी स्ट्रीट लाइटों के पांच सैट गांव में लगवाए हैं। अगर यह प्रयोग कामयाब

रहा तो इनकी संख्या बढ़ा दी जाएगी। इससे गांव को एक फायदा यह भी होगा कि रात में ग्रामीणों को आवागमन में

कोई परेशानी नहीं होगी। गांव के बाशिंदों में जहां सुरक्षा की भावना बढ़ेगी, वहीं उनकी जिंदगी की रफ्तार रात में भी

सुस्त नहीं होगी। रोजमर्रा के कामकाज निपटाने में भी सहूलियत होगी। रात में पूरे गांव का हमेशा रोशन रहना और

एक शानदार मिसाल बनकर उभरना दूसरे गांवों के लिए प्रेरणा का माध्यम बन सकता है।

jai_bhardwaj
25-01-2013, 06:32 PM
अन्ना ने जब त्यागा अन्न,
पूरा देश रह गया सन्न ।

जनता ने जो दिया समर्थन,
भ्रष्टाचारी करें कीर्तन।

सत्ता हिल गई, नेता हिल गए,
राजनीति के अभिनेता हिल गए।

जनमानस में भर गया जोश,
देशद्रोहियों के उड़ गए होश।

जागृति की अलख जगा दी
गांधीजी की याद दिला दी।

चलती रहें जो ऐसी तदबीर,
देश की फिर बदले तकदीर।

(साभार : अंतरजाल )

jai_bhardwaj
26-01-2013, 04:38 PM
ये बुद्ध की धरती, युद्ध न चाहे- चाहे अमन परस्ती |

ये बुद्ध की धरती, युद्ध न चाहे- चाहे अमन परस्ती |
ये बुद्ध की धरती- बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि |

ये बुद्ध का भारत, प्रबुद्ध भारत, पूर्ण समर्थक शांति का,
पूर्ण समर्थक शांति का –
सम्मान बड़ा अहिंसा का यहाँ, मुंह काला निर्थक क्रांति का,
मुंह काला निर्थक क्रांति का –
जग वालो अमन का व्रत लेकर- जग वालो अमन का व्रत लेकर
संसार संवारो भ्रान्ति का –
है हिंसक नीती युद्ध की नीती धरो अहिंसक नीती ||
ये बुद्ध की धरती—
ये बुद्ध की धरती, युद्ध न चाहे- चाहे अमन परस्ती |
ये बुद्ध की धरती- बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि |

संसार को अपना घर समझो, गौतम ने अमर सन्देश दिया |
गौतम ने अमर सन्देश दिया –
जियो स्वयं और जीने दो, औरों को यही उपदेश दिया |
औरों को यही उपदेश दिया –
मानव को जहां मानवता दी, मानव को जहां मानवता दी
जीवन को वही उपदेश दिया |
है पतन की अर्थी और वह कुर्ती, आदर्शों की वुरती ||
ये बुद्ध की धरती –
ये बुद्ध की धरती, युद्ध न चाहे- चाहे अमन परस्ती |
ये बुद्ध की धरती- बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि |

जो बुद्ध ने मानव हित में किया, उस कार्य का उत्तम क्या कहना |
उस कार्य का उत्तम क्या कहना –
जनहित ही उनका था जीना, जनहित ही उनका था मरना |
जनहित ही उनका था मरना –
फिर सत्य अहिंसा शांति में - फिर सत्य अहिंसा शांति में,
क्या रिक्र हमारा हो गहना |
यह ज्ञान की ज्योति अखंड जलती, दमके सारी जगती ||
ये बुद्ध की धरती—
ये बुद्ध की धरती, युद्ध न चाहे- चाहे अमन परस्ती |
ये बुद्ध की धरती- बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि |

jai_bhardwaj
05-02-2013, 12:54 PM
प्यार का पोलिथिन

‘भारतीय रिजर्व बैंक’ का जारी किया हुआ सब नोट पर लिखा रहता है कि “मैं धारक को .....रुपये अदा करने का वचन देता हूँ. दस्तखत – गवर्नर – भारतीय रिजर्व बैंक.” जब छोटा थे तो सोचते थे कि यह लिखने का क्या जरूरत है? और यह बात सोचकर हंसी भी आता था कि दस रुपया के नोट के बदले में दस रुपया देने का वचन क्यों दे रहे हैं. यह तो जानते हैं कि दस रुपया के बदले में दस रुपया मिलेगा और सौ रुपया के बदले में सौ रुपया, इसमें वचन देने वाली कौन सी बात हो गयी !

जब बड़ा हुए, तब जाकर समझ में आया कि इसके पीछे क्या कारण है. असल में एक रुपया भारत सरकार का करेंसी होता है और उसके ऊपर का सब नोट, भारत सरकार के गारण्टी पर रिजर्व बैंक जारी करता है. इसीलिये रिजर्व बैंक के गवर्नर को वचन देने का जरूरत पड़ता है कि वह दस रूपये के बदले में भारत सरकार का एक रुपया वाला दस नोट अदा करेंगे. यह जानने के बाद कठिन से कठिन सवाल भी बहुते आसान लगने लगता है. बहुत-बहुत साल पहिले ‘हिन्दुस्तान टाइम्स” का एक साप्ताहिक टैबलॉयड आता था “मॉर्निंग ईको.” आठ-दस पन्ना का पत्रिका जैसा अखबार. उसमें एक कॉलम था “Something you never wanted to know, but were always asked” माने ऐसी बात जिसको जानना आपके लिये जरूरी नहीं, मगर जानने में नुकसान भी नहीं. कहने का मतलब कि हम जो ज्ञान ऊपर बाँच रहे थे, उसको इग्नोर भी कर सकते हैं आप लोग.

हाँ तो हम कह रहे थे कि जब गवर्नर का दस्तखत किया हुआ नोट हाथ में हो (जाली नोट को छोड़कर) तो उसको स्वीकार करने में त कोइ आपत्ति नहीं होना चाहिये किसी को. नेपाल में जब राजशाही था, तब नोट चाहे कितना भी गन्दा हो मगर उसको लौटा देना, चाहे लेने से मना कर देना, राजा का अपमान समझा जाता था. दुबई में भी हमने देखा है कि नोट चाहे कितना भी पुराना हो, चाहे कटा-फटा हो, लेने से कोई दुकानदार, बैंक, चाहे आदमी मना नहीं करता था.

मगर अपने देश में तो अजब हाल है. तनिक सा पुराना नोट, कोना से कटा हुआ नोट, बीच से मुड़कर जरा सा फटा हुआ नोट, कोई रिक्शा वाला, टैक्सीवाला, तरकारी वाला देखते ही तुरंत मना कर देगा लेने से. बोलेगा – दूसरा नोट दीजिए, ये नहीं चलेगा. अगर आपकी बात सुनकर और बिका हुआ माल वापस हो जाने का डर से वह मान भी गया, तो आपको ऐसी हिकारत भरी नजर से देखेगा कि आपको अपने ऊपर ग्लानि होने लगेगी . वैसे भी भी सारा दुनिया का चलन है कि नया नोट हाथ में आते ही दबाकर रख दिया जाता है और जिनते भी पुराने नोट हो, उन्हें ही पहले चलाने का कोशिश की जाती है. अब तो देश में आदमी के साथ भी यही होने लगा है. सज्जन आदमी दबा दिया जाता है और चोर सब खुल्ले घूमता रहता है.

ये मामला में गुजरात का अपना अलग ही रंग है. यहाँ के लोग पासे को हैं और गवर्नर का दस्तखत भी. बाकी नोट तो नोट ही होता है. अब बताइये भला कि सोना का कंगन अगर नाली में गिरा हुआ हो तो क्या उसका मोल कम होता है? नहीं न, तब भला गन्दा होने से रिजर्व बैंक के नोट वैल्यू कैसे कम हो सकती है ?


भावनगर में तो पाँच के नोट का अपना अलग ही पहचान है. गला हुआ नोट दो तह में मोडकर एक छोटे से पॉलीथीन में बंद कर दिया जाता है और वही नोट बाजार में चलता है. न लेने से कोई मना करता है, न देने में किसी आदमी को खराब लगता है. बहुत से देशों में चलता है प्लास्टिक का नोट, मगर यहाँ पर नोट को दुर्दशा से बचाने के लिए उसको प्लास्टिक में बंद करके रखा जाता है.

भावनगर में जब हम पहुँचे तो लोगों ने हमको मजाक में बताया कि इसको वरिष्ठ नागरिकों का शहर कहते हैं. जल्द ही यह हमें समझ में आ गया. सचमुच होटल (रेस्त्राँ) में देखिये तो पूरा परिवार अपने बुजुर्ग के साथ खाना खाता दिखाई देता है, पार्क में भी सब साथ साथ होते हैं. ऑफिस में भी आने वाला दस में से आठ आदमी सत्तर साल या उससे अधिक उमर का होता है. कमाल यह है कि जिसको आप मुस्कुराकर प्रणाम कर दिए वह आपके माथे पर हाथ रखकर आशीर्वाद देता हुआ जाता है.

बुजुर्गों का हमरे ऊपर हाथ होना तो अनमोल बात है, लेकिन भावनगर में उनका कीमत पाँच रुपया से अधिक नहीं हैं. चौंकिये मत, पाँच का नोट जैसा ही अपने बुजुर्ग को भी लोग हिफाजत से प्यार के पॉलीथीन में लपेट कर रखते हैं, उनकी झुर्रियों को समेटकर. ये लोग चाहे कितना भी पुराने क्यों न हो जाएँ, इनका चलन कभी नहीं रुकता है. यही लोग तो हमारा कल हैं, क्यों कि हमारा आज हमको इन्ही लोगों से ही तो मिला है।

bindujain
05-02-2013, 02:13 PM
ज्योति कलश छलके \- ४
हुए गुलाबी, लाल सुनहरे
रंग दल बादल के
ज्योति कलश छलके

घर आंगन वन उपवन उपवन
करती ज्योति अमृत के सींचन
मंगल घट ढल के \- २
ज्योति कलश छलके

पात पात बिरवा हरियाला
धरती का मुख हुआ उजाला
सच सपने कल के \- २
ज्योति कलश छलके

ऊषा ने आँचल फैलाया
फैली सुख की शीतल छाया
नीचे आँचल के \- २
ज्योति कलश छलके

ज्योति यशोदा धरती मैय्या
नील गगन गोपाल कन्हैय्या
श्यामल छवि झलके \- २
ज्योति कलश छलके

अम्बर कुमकुम कण बरसाये
फूल पँखुड़ियों पर मुस्काये
बिन्दु तुहिन जल के \- २
ज्योति कलश छलके

jai_bhardwaj
09-02-2013, 05:21 PM
ईमानदारी भले ही बेस्ट पालिसी नहीं रह गई हो......लेकिन आपकी ईमानदारी एक ब्रांड तो है ही...अब बलबीर भाटिया को ही देख लीजिए...ऑटो चलाते है, लेकिन अपनी ब्रांडिंग करना नहीं भूलते। ईमानदारी को ही अपना यूएसपी बना लिया....टाटा और रिलायंस का अंतर समझते हैं। ख़ैर तस्वीर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से ली गई है। दस लाख रूपए कम नहीं होते लेकिन ईमानदारी की भी भला कोई क़ीमत लगा पाया है।


http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24693&stc=1&d=1360416070

jai_bhardwaj
22-02-2013, 07:21 PM
एक व्यक्ति आफिस में देर रात तक काम करने के बाद थका-हारा घर पहुंचा . दरवाजा खोलते ही उसने देखा कि उसका छोटा सा बेटा सोने की बजाय उसका इंतज़ार कर रहा है . अन्दर घुसते ही बेटे ने पूछा —“ पापा , क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ ?” “ हाँ -हाँ पूछो , क्या पूछना है ?” पिता ने कहा . बेटा – “ पापा , आप एक घंटे में कितना कमा लेते हैं ?” “ इससे तुम्हारा क्या लेना देना …तुम ऐसे बेकार के सवाल क्यों कर रहे हो ?” पिता ने झुंझलाते हुए उत्तर दिया . बेटा – “ मैं बस यूँ ही जाननाचाहता हूँ . प्लीज बताइए कि आप एक घंटे में कितना कमाते हैं ?” पिता ने गुस्से से उसकी तरफ देखते हुए कहा , नहीं बताऊंगा , तुम जाकर सो जाओ “यह सुन बेटा दुखी हो गया …और वह अपने कमरे में चला गया . व्यक्ति अभी भी गुस्से में था और सोच रहा था कि आखिर उसके बेटे ने ऐसा क्यों पूछा ……पर एक -आध घंटा बीतने के बाद वह थोडा शांत हुआ , फिर वह उठ कर बेटे के कमरे में गया और बोला , “ क्या तुम सो रहे हो ?”, “नहीं ” जवाब आया . “ मैं सोच रहा था कि शायद मैंने बेकार में ही तुम्हे डांट दिया ,

दरअसल दिन भर के काम से मैं बहुत थक गया था .” व्यक्ति ने कहा. सारी बेटा “…….मै एक घंटे में १०० रूपया कमा लेता हूँ……. थैंक यूं पापा ” बेटे ने ख़ुशी से बोला और तेजी से उठकर अपनी आलमारी की तरफ गया , वहां से उसने अपने गोल्लक तोड़े और ढेर सारे सिक्के निकाले और धीरे -धीरे उन्हें गिनने लगा . “ पापा मेरे पास 100 रूपये हैं . क्या मैं आपसे आपका एक घंटा खरीद सकता हूँ ? प्लीज आप ये पैसे ले लोजिये और कल घर जल्दी आ जाइये , मैं आपके साथ बैठकर खाना खाना चाहता हूँ .” दोस्तों , इस तेज रफ़्तार जीवन में हम कई बार खुद को इतना व्यस्त कर लेते हैं कि उन लोगो के लिए ही समय नहीं निकाल पाते जो हमारे जीवन में सबसे ज्यादा अहमयित रखते हैं. इसलिए हमें ध्यान रखना होगा कि इस आपा-धापी भरी जिंदगी में भी हम अपने माँ-बाप, जीवन साथी, बच्चों और अभिन्न मित्रों के लिए समय निकालें, वरना एक दिन हमें अहसास होगा कि हमने छोटी-मोटी चीजें पाने के लिए कुछ बहुत बड़ा खो दिया…

jai_bhardwaj
22-02-2013, 08:00 PM
चिड़िया फुर्र……आनन्द विश्वास

अभी दो चार दिनों से देवम के घर के बरामदे में चिड़ियों की आवाजाही कुछ ज्यादा ही हो गई थी। चिड़ियाँ तिनके ले कर आती, उन्हें ऊपर रखतीं और फिर चली जातीं दुबारा, तिनके लेने के लिये।

लगातार ऐसा ही होता, कुछ तिनके नीचे गिर जाते तो फर्श गंदा हो जाता। पर इससे चिड़ियों को क्या ? उनका तो निर्माण का कार्य चल रहा है, नीड़ निर्माण का कार्य। उन्हें गन्दगी से क्या लेना-देना।

नये मेहमान जो आने वाले हैं। और नये मेहमान को रहने के लिये घर भी तो चाहिये न ? आखिर एक छत तो उनको भी चाहिये, रहने के लिये। पक्षी हैं तो क्या हुआ ? उड़ना बात अलग है, चाहे कितना भी ऊँचा उड़ लिया जाय, पर रहने के लिये, आधार तो सबको ही चाहिये।

और फिर इनकी दुनियाँ में तो सब कुछ सेल्फ-सर्विस ही होता है। सब कुछ खुद ही तो करना होता है इन्हें। कोई नौकर नहीं, कोई मालिक नहीं। सब अपने मन के राजा और सब अपने मन के गुलाम।

देवम जब भी बरामदे में आता तो उसे कचरा पड़ा दिखाई देता। ऐसा कई बार हुआ। पर जब उसने ऊपर की ओर देखा तो उसे ख्याल आ गया कि ये तिनके तो चिड़ियाँ बार-बार ला कर ऊपर रख रहीं हैं और वे ही तिनके नीचे गिर जाते हैं। और घर गंदा हो जाता है।

गन्दगी तो देवम को विल्कुल भी रास नहीं आती। कभी काम वाली से तो कभी खुद, साफ-सफाई करते-करवाते देवम हैरान परेशान हो गया।

उसने मम्मी से शिकायत के लहज़े में कहा, “ मम्मी, ये चिड़ियाँ तो घर को कितना गंदा करतीं हैं, देखो ना ? ”

jai_bhardwaj
22-02-2013, 08:01 PM
मम्मी को समझने में देर न लगी। उन्होंने देवम को समझाते हुए कहा, “ बेटा, ये अपना घर बना रहीं हैं और जब घर बनता है तो थोड़ी बहुत गंदगी तो हो ही जाती है। ला मैं साफ कर देती हूँ। कुछ दिनों के बाद देखना छोटे-छोटे बच्चे जब चीं-चीं करके उड़ेंगे तो बड़े प्यारे लगेंगे। ”

“ ऐसा माँ ? ” देवम ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा।

“ हाँ बेटा, छोटे-छोटे मेहमान आयेंगे अपने घर में। ” मम्मी ने बड़े प्यार से देवम को समझाया।

देवम के मन में आतुरता जागी, छोटी-छोटी चिड़ियाँ के पास कहाँ से, कैसे आ जाते हैं छोटे-छोटे प्यारे बच्चे ? अब तो उसके मन में बस प्रतीक्षा थी कि कब वह प्यारे-प्यारे बच्चों को देख सकेगा ?

अब तो उसे उनके प्रति सहानुभूति हो गई थी । नीचे पड़े हुए तिनकों को पहले तो वह कचरा मान कर बाहर फैंक दिया करता था। पर अब तो सब के सब तिनके उठा कर, जब चिड़िया बाहर गई होती, तो चुपके से टेबल के ऊपर चढ़कर घोंसले के पास रख देता। और इस तरह रखता कि चिड़िया को पता न लगे। गुप्तदान की तरह गुप्त सहयोग।

सहयोग और सहानुभूति की प्रबल इच्छा होती है बालकों में। बस यह सोच कर कि जितनी जल्दी घर बन जायेगा, उतनी ही जल्दी बच्चे भी आ जायेंगे। और कभी-कभी तो वह बाहर से गार्डन में पड़े तिनकों को खुद ही उठा कर ले आता और टेबल पर चढ़ कर घौंसले के पास रख देता।

और जब उन तिनकों को चिड़ियाँ नहीं लेतीं, तो कभी तो बोल कर, तो कभी इशारे से वह कहता, “ ये तिनके भी ले लो न। ये भी तुम्हारे लिये ही हैं। ” पर दोनों एक दूसरे की भाषा समझें, तब न।

देवम रोज सुबह घोंसले की ओर देखता, और फिर निराश मन से मम्मी से पूछता, “ मम्मी, कितने दिन और लगेंगे बच्चों के आने में ? ”

एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर किसी के पास न था और वैसे भी बच्चों के प्रश्नों का उत्तर देना इतना आसान भी तो नहीं होता। हर कोई बीरबल तो होता नहीं है।

देवम को समझाते हुए मम्मी ने कहा, “ बेटा, ये सब तो भगवान की मर्जी है, जब वे चाहेंगे तब तुरन्त भेज देंगे। ”
“ पर कब होगी भगवान की मर्जी ? इतने दिन तो हो गये हैं।” देवम ने उलाहना देते हुए कहा। जैसे कि वो भगवान की शिकायत कर रहा हो। बच्चों के लिये तो माँ, किसी भगवान से कम नहीं होतीं।

शायद देवम की बात भगवान को सुनने में देर न लगी और दूसरे दिन सुबह-सुबह ही घोंसले से चीं-चीं की आवाज सुनाई दी। घोंसले के अन्दर वातावरण गर्मा गया था। चहल-पहल बढ़ गई थी। शायद देवम की प्रार्थना भगवान ने सुन ली थी। उसकी इच्छा पूरी हो गई थी और चिड़िया ने बच्चों को जन्म दे दिया था।

jai_bhardwaj
22-02-2013, 08:02 PM
देवम को जब पता चला तो खुशी के मारे फूला नहीं समाया। दौड़ा-दौड़ा वह मम्मी के पास पहुँचा और खुशी का समाचार सुनाया।

वह बोला, “ मम्मी, घोंसले से चीं-चीं की आवाज आ रही है, सुनो न। ”

मम्मी ने देवम को समझाया, “ एक दो दिन बाद जब बच्चे बाहर निकलेंगे तब दिखाई देंगे। तब तक तो इन्तजार करना ही होगा। ”

“ मम्मी, मैं अभी ऊपर चढ़ कर देख लूँ तो ? ” देवम ने उत्सुकता वश पूछा।

“ न बेटा, चिड़िया नाराज़ हो जायेगी और घर छोड़ कर कहीं दूसरी जगह चली जायेगी। ” मम्मी ने देवम को समझाते हुए कहा।

“ तो फिर क्या करूँ ? मम्मी। ” देवम का प्रश्न था।

“ बस एक दो दिन में बच्चे खुद ही बाहर आ जायेंगे। ” मम्मी ने बाल-मन को समझाते हुए कहा।

“ ठीक है, मम्मी। जब बाहर आयेंगे तभी देख लूँगा ” देवम ने अपने मन को समझाते हुये कहा।

एक-एक पल का इन्तज़ार जिसके लिए बेहद मुश्किल हो, दो दिन कैसे बिताये होंगे, ये तो देवम ही जाने। पर आज चिड़िया के बच्चों ने घोंसले से बाहर अपना मुँह निकाला और वो भी तब जब कि चिड़िया दाना लेने बाहर गई हुई थी।
शायद अधिक देर हो जाने के कारण, बेटों को माँ की चिन्ता हुई होगी या फिर भूख अधिक लगने के कारण उनकी व्याकुलता बढ़ गई हो ?

खैर, कारण जो भी हो, पर देवम की शिशु-दर्शन की तमन्ना आज पूर्ण हो गई। छोटे-छोटे बच्चों को आज उसने जी भर कर देखा। और इसी अन्तराल में चिड़िया भी वहाँ आ पहुँची।

बच्चों का चीं-चीं करके मुँह खोलना और चिड़िया का मुँह में दाना डालना। दिव्य-दृश्य देवम ने निहारा। गद्-गद् हो गया उसका आतुर मन।

छोटे-छोटे बच्चे कभी घोंसले से बाहर की ओर मुँह निकाल कर अपनी माँ का इन्तजार करते और कभी जब माँ दिखाई दे जाती तो चीं-चीं कर के उसे बुलाते। देवम यह सब कुछ देख कर बड़ा खुश होता।

कभी तो थाली में ज्वार का दाना रख कर दूर हट जाता और दूर खड़े हो कर चिड़िया का इन्तजार करता। उसे तो उस क्षण का इन्तजार रहता जब चिड़िया दाना ले कर अपने छोटे-छोटे बच्चों के मुँह में दाना डाले।

इस क्षण की अनुभूति ही देवम को बड़ी अच्छी लगती। और इसी क्षण की प्रतीक्षा में वह घण्टों घोंसले से दूर इन्तजार करता।

jai_bhardwaj
22-02-2013, 08:03 PM
कभी-कभी तो वह छोटी थाली में दाना डाल कर, टेबल पर चढ़ कर थाली को ही घोंसले के पास रख देता। और दूर खड़ा हो गतिविधियों का निरीक्षण करता।

एक दिन देवम ने देखा कि एक बिल्ली टेबल पर रखे सामान के ऊपर चढ़ कर घोंसले तक पहुँचने का प्रयास कर रही है। उसे समझते देर न लगी कि बिल्ली तो बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है। उसने बिल्ली को तुरन्त भगाया और मम्मी को बताया।

मम्मी ने पायल की मदद से टेबल पर रखे सामान को वहाँ से हटा कर टेबल को भी उस जगह से हटा कर दूसरी जगह रख दिया। और साथ ही ऐसी व्यवस्था कर दी कि घोंसले के पास तक बिल्ली न पहुँच सके।

अब उसे ख्याल आ गया कि बिल्ली कभी भी चिड़िया के बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है और उनकी रक्षा करना उसका पहला कर्तव्य है। उसने निश्चय किया कि वह अपना अधिक से अधिक समय बरामदे में ही बिताएगा।

अपने पढ़ने की टेबल-कुर्सी भी उसने बरामदे में ही रख ली। और तो और डौगी को भी पिलर से बाँध दिया ताकि बिल्ली घोंसले के आसपास भी न फटक सके। अब तो उसकी पढ़ाई भी बरामदे में ही होती।

शायद राजा दिलीप ने इतनी सेवा नन्दिनी की नहीं की होगी, जितनी सेवा देवम ने चिड़िया और उनके बच्चों की, की। राजा दिलीप का तो स्वार्थ था। पर देवम का क्या स्वार्थ, उसे तो बस सेवा करने में अच्छा लगता है। बच्चों का प्रेम तो निश्छल होता हैं, उनका प्रेम तो निःस्वार्थ भावना से भरा होता है। छल और कपट से परे, भगवान का वास होता है उनके पावन मन-मन्दिर में।

और इस तरह एक सप्ताह ही बीता होगा कि एक दिन देवम ने देखा कि घोंसले में न तो चिड़िया थी और ना ही बच्चे। चिड़िया-फुर्र और घोंसला खाली।

एक दिन और इन्तजार किया, शायद रास्ता भूल गये हों। पर वे नहीं आये तो नहीं ही आये। चिड़िया और बच्चे उड़ कर जा चुके थे।

बाल-मन उदास हो गया। प्रेम की डोर ही कुछ ऐसी ही होती है। जब टूटती है तो दुख तो होता ही है।

उसने मम्मी से बड़े ही उदास मन से कहा, “ मम्मी, चिड़िया तो बच्चों के साथ कहीं उड़ गई। अब घोंसला तो खाली पड़ा है। ”

“ अच्छा ! चिड़िया फुर्र हो गई ? चलो, अच्छा हुआ और दूसरी आ जायेगी। ” मम्मी ने जानबूझ कर वातावरण को हल्का करते हुए कहा।

“ नहीं मम्मी, मुझे चिड़िया के बच्चे अच्छे लगते थे। ” देवम ने दुखी मन से कहा।

“ पर उनको जहाँ अच्छा लगेगा, वहीं तो वे रहेंगे। ” मम्मी ने देवम को समझाया।

“ मैं तो उनका कितना ध्यान रखता था फिर भी चले गये। ” देवम ने शिकायत भरे लहज़े में कहा और कहते-कहते आँसू छलक पड़े।

कैसे समझाये मम्मी, जिन्दगी के इस गूढ रहस्य को। बच्चे प्यारे होते हैं, वे निश्छल और निःस्वार्थ प्रेम करते हैं। और प्रेम ही तो मोह का मूल कारण होता है। बन्धन में बाँध लेता है भोले मन को।

जो आया है उसे एक न एक दिन तो जाना ही होता है। बालक को समझाना कितना मुश्किल होता है, ये तो देवम की मम्मी ही जाने। माँ से ज्यादा अच्छा और कौन समझा सकता है ? और समझ सकता है अपने बालक को ?

jai_bhardwaj
22-02-2013, 08:05 PM
पर यह सत्य है एक न एक दिन तो हम सबको ही फुर्र हो कर कहीं उड़ जाना है और घोंसले को तो यहीं का यहीं रह जाना है। फिर मोह कैसा ? पर फिर भी, मोह तो होता ही है। आँखें तो भर ही आती हैं।

मम्मी ने देवम को समझाते हुए कहा, “ बेटा, जब तेरे पापा छोटे थे तो पापा की मम्मी, पापा को दूध पिलाती थी, खाना खिलाती थी और गाँव में रहते थे। ”

“ ऐं मम्मी ! ” देवम को आश्चर्य भी हुआ और हँसी भी आई।

“ हाँ और सुन, फिर पापा बड़े हो गये, उनकी नौकरी यहाँ शहर में लगी, तो फुर्र होकर गाँव से शहर आ गये। ” ऐसा कहते हुए मम्मी ने एलबम में से अपनी बचपन की एक फोटो दिखाई।

“ ये तो मम्मी फ्रॉक पहने हुए कोई छोटी सी लड़की बैठी है । ” देवम ने फोटो देख कर कहा।

“ पहचान, ठीक से पहचान। ये तो मैं हूँ ” मम्मी ने देवम की जिज्ञासा बढ़ाई।

“ पहले ऐसी थीं मम्मी आप ? ” देख कर देवम को हँसी आ गई।

“ हाँ, पहले ऐसी थी मैं, फिर बड़ी हो गई, शादी हुई और फिर फुर्र होकर मैं तेरे पापा के पास आ गई। ” मम्मी ने देवम को समझाया।

पहले तो देवम हँसा फिर बोला, “ फिर तो मम्मी, मैं भी बड़ा हो कर पापा जैसा हो जाऊँगा ? ”

“ हाँ बेटा, अभी तू पढ़ेगा, फिर जहाँ तेरी नौकरी लगेगी वहीं तू भी फुर्र होकर चला जायेगा। तेरी भी सुन्दर- सी बहू फुर्र
हो कर तेरे पास आ जायेगी। ” मम्मी ने देवम को गुदगुदाया।

“ अच्छा मम्मी, मैं अभी फुर्र हो कर दूसरे कमरे में हो कर आता हूँ और आप मेरे लिये किचिन में से फुर्र होकर ठंडा-ठंडा पानी ले आओ। मुझे बड़ी जोर से प्यास लगी है ” देवम ने कहा।

और जब एक प्यास बुझ जाती है तो दूसरी प्यास लगा ही करती है, ऐसा प्रकृति का नियम ही है। शायद देवम की समझ में भी कुछ आ गया होगा।

वह समझ गया था कि भगवान ने पक्षियों को उड़ने के लिये पंख दिये हैं तो वे उड़ेंगे ही। स्वच्छंद असीम आकाश में। पक्षी तो आकाश की शोभा हैं न कि बन्द पिंजरों की।

उधर देवम के पापा ने यह सोच कर कि देवम का मन लगा रहेगा और चिड़िया के बच्चों से मन हट जायेगा, बाजार से दो तोते पिंजरों के साथ मँगवा दिये। और जहाँ घोंसला था उसी के नीचे दोनों पिंजरे टँगवा दिये। खाना और पानी की भी पूरी व्यवस्था भी करवा दी।

देवम ने तोतों को देखा तो आश्चर्य हुआ। पर उसे अच्छा नहीं लगा।

उसने पापा से कहा, “ पापा, इन तोतों को उड़ा दें तो कितना अच्छा रहेगा ? आकाश में उड़ते हुये ये कितने सुन्दर
लगेंगे ? ”

“ हाँ, पर तुम जैसा उचित समझो ? ” पापा ने कहा। चाहते तो पापा भी यही थे। पर कभी-कभी सन्तान की खुशी के लिये माता-पिता को वह काम भी करना पड़ता है जिसे वे नहीं चाहते हैं। पर उनका प्रयास बच्चों को सही दिशा दिखाने का अवश्य ही रहता है।

देवम ने दोनों तोतों को खट्टी अमियाँ खिलाईं, पानी पिलाया और फिर पिंजरे के दरवाजे को खोल कर हँसते हुये कहा, “ तोते फुर्र….. तोते फुर्र…… तोते फुर्र…..। ”

और देखते ही देखते दोनों तोते पंख फड़फड़ाते हुए असीम आकाश में ओझल हो गए और शायद देवम का मन भी असीम आकाश सा विशाल हो गया था।

और मम्मी खड़ी-खड़ी देवम की प्रसन्नता को निहार रहीं थीं।

फिर मम्मी को देख कर, हँसते हुये देवम ने मम्मी से कहा, “ मम्मी, चिड़िया फुर्र… तोते फुर्र… फुर्र… फुर्र…”

देवम ने दोनों पिंजरों को बड़ी बेरहमी से तोड़ डाला ताकि कोई दूसरा तोता इन पिंजरों में, कोई बन्द न कर सके।

और घोंसले को वहीं रखा रहने दिया ताकि कोई दूसरी चिड़िया इसमें आ कर रह सके।

पर भोले देवम को क्या मालूम कि इनके समाज में, ये लोग तो अपना घर खुद ही बनाते हैं। ये लोग किसी दूसरे के घर में नहीं रहते हैं। और तो और इनके यहाँ तो सब कुछ सैल्फ-सर्विस ही होता है।

देवम क्या जाने कि जब ये प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं तो ये नश्वर शरीर किसी काम का नहीं रहता और ना ही इस नश्वर घोंसले में कोई प्राण, पुनः प्रवेश करता है। प्राण को परमात्मा से मिलने के लिए घोंसले से तो बाहर निकलना ही पड़ता है। ये चिड़िया फुर्र होकर ही तो अनन्त आकाश में विलीन हो जाती है। एक जगह विरह होता है तो दूसरी जगह मिलन भी तो होता है।

इस जरा सी बात को देवम क्या, हम भी नहीं समझ पाते हैं और चिड़िया के फुर्र होने पर वरबस आँखों से सागर छलक जाते हैं। गंगा-जमना बह जातीं हैं। मन उदास हो जाता है।

यही तो संसार का नियम है।

jai_bhardwaj
11-03-2013, 07:54 PM
हिंदू धर्म से जुड़े प्रत्येक मंदिर और धार्मिक स्थलों के बाहर आप सभी ने बड़े-बड़े घंटे या घंटियां लटकी तो अवश्य देखी होंगी जिन्हें मंदिर में प्रवेश करने से पहले भक्त श्रद्धा के साथ बजाते हैं. लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि इन घंटियों को मंदिर के बाहर लगाए जाने के पीछे क्या कारण है या फिर धार्मिक दृष्टिकोण से इनका औचित्य क्या है?


असल में प्राचीन समय से ही देवालयों और मंदिरों के बाहर इन घंटियों को लगाया जाने की शुरुआत हो गई थी. इसके पीछे यह मान्यता है कि जिन स्थानों पर घंटी की आवाज नियमित तौर पर आती रहती है वहां का वातावरण हमेशा सुखद और पवित्र बना रहता है और नकारात्मक या बुरी शक्तियां पूरी तरह निष्क्रिय रहती हैं.

यही वजह है कि सुबह और शाम जब भी मंदिर में पूजा या आरती होती है तो एक लय और विशेष धुन के साथ घंटियां बजाई जाती हैं जिससे वहां मौजूद लोगों को शांति और दैवीय उपस्थिति की अनुभूति होती है.

लोगों का मानना है कि घंटी बजाने से मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियों में चेतना जागृत होती है जिसके बाद उनकी पूजा और आराधना अधिक फलदायक और प्रभावशाली बन जाती है.

पुराणों के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के कई जन्मों के पाप तक नष्ट हो जाते हैं. जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) गूंजी थी वही आवाज घंटी बजाने पर भी आती है. उल्लेखनीय है कि यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जागृत होता है.

मंदिर के बाहर लगी घंटी या घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है. कहीं-कहीं यह भी लिखित है कि जब प्रलय आएगा उस समय भी ऐसा ही नाद गूंजेगा.

मंदिर में घंटी लगाए जाने के पीछे ना सिर्फ धार्मिक कारण है बल्कि वैज्ञानिक कारण भी इनकी आवाज को आधार देते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि जब घंटी बजाई जाती है तो वातावरण में कंपन पैदा होता है, जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है. इस कंपन का फायदा यह है कि इसके क्षेत्र में आने वाले सभी जीवाणु, विषाणु और सूक्ष्म जीव आदि नष्ट हो जाते हैं, जिससे आसपास का वातावरण शुद्ध हो जाता है.

इसीलिए अगर आप मंदिर जाते समय घंटी बजाने को अहमियत नहीं देते हैं तो अगली बार प्रवेश करने से पहले घंटी बजाना ना भूलें.

jai_bhardwaj
01-04-2013, 07:44 PM
लेखन और विज्ञापनों में सक्रिय कमलेश पांडे ने मायानगरी में एक पूरा युग जी लिया है। कई महत्वपूर्ण फिल्मों की कहानियां लिखीं। कौन बनेगा करोडपति के छठे सीजन का ऐड कैंपेन भी उन्होंने तैयार किया। कमलेश पांडे का विवाह 12 दिसंबर 1976 को कोलकाता की कांति पांडेय से हुआ। तब से अब तक जीवन के हर पल में दोनों साथ-साथ हैं। रूबरू होते हैं दांपत्य जीवन पर उनकी सोच से।

jai_bhardwaj
01-04-2013, 07:45 PM
शादी क्या है आपकी नजर में?

कमलेश : मेरा मानना है कि शादी तो सबको करनी चाहिए। कुछ ही लोग होते हैं जो शादी के बिना भी उम्र काट लेते है। बाकी जिम्मेदारियों की तरह यह भी बेहद अहम जिम्मेदारी है। यह एक इम्तिहान है। स्त्री-पुरुष संबंधों को गहराई से देखने की नजर देती है शादी। शादी से पहले भले ही यह दावा करें कि एक-दूसरे को जानते हैं, मगर यह सच है कि शादी एक-दूसरे को समझने का मौका देती है। शादी से पहले सिर्फ अच्छाइयां दिखती हैं, लेकिन शादी के बाद जब चौबीस घंटे साथ रहने लगते हैं, तब पता चलता है कि हम रिश्तों को कितना सहेज कर रख सकते हैं और हमारे भीतर धैर्य कितना है। शादी के बाद ही पता चलता है कि हम कितने परिपक्व हैं। मैं दार्शनिक सुकरात का उदाहरण दूं, जिनका कहना था, शादी के दो फायदे हैं। बीवी अच्छी मिले तो आप खुशिकस्मत बनते हो, बुरी मिले तो फिलोसॉफर (जोर से हंसते हैं कमलेश)।

कांति : बिलकुल सही बात है। शादी व्यक्ति को परिपक्व बनाती है। यहीं से गुजर कर पता चलता है कि आप कितने अच्छे या बुरे हैं? हम मां-बाप के साथ भी पूरी जिंदगी नहीं रहते, लेकिन इस एक रिश्ते में हर पल साथ होते हैं। शादी एक नई दुनिया और सोच को विकसित होने का मोका देती है। मैं मानती हूं कि इससे बडा न कोई स्वर्ग है और न नर्क। एक लेखक की पत्नी होने के नाते मेरे लिए धैर्य सबसे जरूरी है। पति के लिए शांतिपूर्ण माहौल बनाना मेरी जिम्मेदारी है। शादी बेहतरीन कंपेनियनशिप है। जिंदगी में संतुलन सिखाती है, सीमा में रहना सिखाती है और इसी में हम दूसरों के लिए जीना सीखते हैं।

कमलेश : सारे रिश्ते निभाते-निभाते स्त्री के पास खुद के लिए भी समय नहीं बचता। लेकिन मुझे माफ करें, यह चीज मैं आज की लडकियों में नहीं देखता। उनकी लाइफ का अलग एजेंडा है। करियर, महत्वाकांक्षाएं, पैसा उनके लिए अहम है। कामकाजी औरत के सवाल वाजिब हैं कि क्या उन्हें सिर्फ अपनी इच्छाओं की कुर्बानी देनी होगी? उनसे मेरा कहना है कि जिंदगी एकतरफा नहीं होती, न यह दोनों हाथों में लड्डू देती है। एक हाथ देती है, तो दूसरे हाथ से छीनती भी है। इसकी कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए। महत्वाकांक्षाओं व करियर को प्राथमिकता देंगे तो जिंदगी के बाकी मोर्चो पर मुंह की खानी होगी। इसीलिए लडकियां नौकरी छोडती हैं?

कांति : अब लडकियां किसी मजबूरी में हाउसवाइफ नहीं बनतीं। वे तय करती हैं कि उन्हें नौकरी करनी है या घर पर रहना है। दोनों जिम्मेदारियां साथ नहीं निभाई जा सकतीं। मैं पोस्ट ग्रेजुएट हूं। बीच-बीच में काम भी किया। फिर महसूस किया कि दोनों काम में संतुलन नहीं बिठा पा रही हूं। तब मैंने घर को चुना। इसमें खुश व संतुष्ट होना सीखा।

कमलेश : मैं यह नहीं कह रहा कि नौकरी करने वाली स्त्रियां घर नहीं संभाल पातीं। लेकिन तुलना करके देखें तो एक गृहणी ही घर ठीक ढंग से चला सकती है। दो नावों में सवार स्त्री की पूरी जिंदगी इस तनाव में गुजर जाती है कि वह नौकरी और परिवार के साथ न्याय कर पा रही है कि नहीं। मैं नहीं मानता कि नौकरी करने वाली औरतें परिवार को पूरा वक्त दे पाती हैं। वे ड्यूटी पर होती हैं और घर में बच्चे नौकरों के साथ बडे होते हैं। मैं तो यह भी कहता हूं कि पति कामकाजी नहीं है तो उसे पत्नी की भूमिका निभानी चाहिए। इसमें किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए। भारतीय परिवारों का ढांचा दोषी है?

कांति : हां, हमारे यहां सास-ससुर को इस बात से ऐतराज नहीं होता कि बहू नौकरी करने वाली है। लेकिन बहू घर भी उसी तरह संभाले, जैसे कोई टिपिकल हाउसवाइफ संभालती है, यह अपेक्षा रहती ही है। यह कैसा न्याय है? पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता। वहां स्त्रियां आजादी के साथ जीती हैं, परिवार उन्हें नहीं बांधता।

कमलेश : सही कहा कांति ने। मेरे खयाल से कोई एक चयन करना चाहिए ताकि आप अपनी पूरी ऊर्जा उसी दिशा में लगा सकें, वरना यहां भी तुलना की स्थिति पैदा हो जाती है। हाउसवाइफ को लगता है कि नौकरी करने वाली स्त्री घर-बाहर अच्छी तरह संभाल रही है, जबकि नौकरी करने वाली स्त्री को लगता है कि वह दोहरी जिंदगी जी रही है।

कांति : मुझे आज की लडकियों को देखकर अच्छा लगता है। वे ऊर्जावान हैं, आक्रामक हैं, उन्हें पता है कि सबको खुश नहीं रखा जा सकता। पति, दोस्तों, मां-बाप, बाकी रिश्तों को लेकर वे पहले की स्त्रियों से ज्यादा स्पष्ट हैं। वे व्यावहारिक सोच से आगे बढ रही हैं। इसलिए घर-बाहर सही तरह संभाल पा रही हैं।

कमलेश : पहले स्त्रियां दूसरों के लिए त्याग करती थीं, मगर अब उन पर सेल्फ हावी हो रहा है।

jai_bhardwaj
01-04-2013, 07:46 PM
आप दोनों को एक-दूसरे में कौन सी बातें अच्छी लगती हैं?

कांति : पहली बात है- इनका लेखन। इनके अनुभवों का संसार भी बहुत गहरा है। हमारी अरेंज्ड मैरेज है, सो पहली मुलाकात में कोई विशेष बात नहीं थी। विज्ञापन कंपनी में काम करते थे। इनके पिता ने वैवाहिक विज्ञापन दिया था। उसे पढा तो लगा कि यही मेरे जीवनसाथी बन सकते हैं।

कमलेश : इनके भाई साहब मुझे जानते थे। मेरे ऑफिस भी आते थे। उन्होंने मेरे सामने बात रखी तो मैंने कहा, चलो देखते हैं। संयोग से मेरा ऑफिस भी इनके घर के पास था वर्ली नाका पर मुंबई में। इसलिए ऐसा कोई अजनबीपन नहीं था। मैं इन्हें देखने गया और यह मुझे जंच गई। मेरा मानना है कि आप जिसे अपना हमसफर बनाना चाहते हैं, उसे स्वीकार करें उसकी अच्छाई-बुराई सहित। अगर आपकी पत्नी अच्छा खाना बनाती है, पर बोलती ज्यादा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि आप उसकी आलोचना करें। जिस क्षण आप खूबियों-खामियों का चुनाव करने लगते हैं, रिश्ता उसी समय से खत्म होना शुरू हो जाता है।

jai_bhardwaj
01-04-2013, 07:50 PM
आप दोनों में कॉमन चीजें क्या हैं और किन बातों पर गुस्सा आता है?

कांति : मुझे अच्छा खाना बनाने का शोक है और इन्हें अच्छा खाने का। गुस्सा कम ही आता है। ये कभी मुझे मोका नहीं देते। मुझे भी इनकी तरह किताबों से प्यार है।

कमलेश : हम परफेक्ट मैच हैं। ये मेरा पूरा खयाल रखती हैं, इसलिए मुझे ग्ाुस्सा नहीं आता। कभी-कभी जब तल्लीनता से लिख रहा होता हूं, तभी पूछती हैं कि आज क्या खाओगे भर्ता या कोफ्ता, तब झल्लाहट होती है। लेकिन वह उनकी मजबूरी है। चाहती हैं कि मेरी खुशी का खयाल रखें। पत्नी के बाद किताबें मेरी सच्ची दोस्त हैं। मेरी निजी लाइब्रेरी में दस से बारह हजार किताबें हैं।

लेट मैरिज के ट्रेंड पर क्या कहेंगे?

कांति : सेहत के लिहाज से यह सही नहीं है। हालांकि महंगाई के दौर में लेट मैरिज की बात एक हद तक सही भी है। लेकिन बीच का रास्ता निकालना जरूरी है। लोग लिव-इन में विकल्प तलाश रहे हैं, मगर इसमें भी खतरे हैं। भविष्य में अनबन हुई तो साथ छोडकर निकल लेंगे। शादी में अलगाव होता है तो स्त्रियों के पक्ष में बहुत से लोग आ जाते हैं, लेकिन लिव-इन में अलगाव की स्थिति में कोई साथ नहीं देता।

कमलेश : मेरे लिए यह नैतिकता का सवाल नहीं है। यदि आप जिम्मेदार हैं, जोखिम लेने को तैयार हैं तो ऐसे रह सकते हैं। सुनने में भले ही यह अच्छा लगे कि इसमें आजादी है। लेकिन सच्चाई अलग है। हम सभी कहीं-न-कहीं बंधे रहना चाहते हैं। चाहे देश हो या परिवार। आजादी की बात अच्छी है, मगर यह अप्राकृतिक है। जिन लोगों ने आजादी के नाम पर एकल परिवार बनाए, अब वे बडे परिवार को मिस कर रहे हैं। कमिटमेंट जरूरी है, वरना तो साथ सफर करने वाले यात्रियों की तरह ही हैं आप। जब एक-दूसरे का सहारा न बन पाए तो साथ रहने का मतलब क्या है?

jai_bhardwaj
08-04-2013, 02:34 PM
पिताजी कोई किताब पढने में व्यस्त थे , पर उनका बेटा बार-बार आता और उल्टे-सीधे सवाल पूछ कर उन्हें डिस्टर्ब कर देता .

पिता के समझाने और डांटने का भी उस पर कोई असर नहीं पड़ता.

तब उन्होंने सोचा कि अगर बच्चे को किसी और काम में उलझा दिया जाए तो बात बन सकती है. उन्होंने पास ही पड़ी एक पुरानी किताब उठाई और उसके पन्ने पलटने लगे. तभी उन्हें विश्व मानचित्र छपा दिखा , उन्होंने तेजी से वो पेज फाड़ा और बच्चे को बुलाया – ” देखो ये वर्ल्ड मैप है , अब मैं इसे कई पार्ट्स में कट कर देता हूँ , तुम्हे इन टुकड़ों को फिर से जोड़ कर वर्ल्ड मैप तैयार करना होगा.”
और ऐसा कहते हुए उन्होंने ये काम बेटे को दे दिया.

बेटा तुरंत मैप बनाने में लग गया और पिता यह सोच कर खुश होने लगे की अब वो आराम से दो-तीन घंटे किताब पढ़ सकेंगे .

लेकिन ये क्या, अभी पांच मिनट ही बीते थे कि बेटा दौड़ता हुआ आया और बोला , ” ये देखिये पिताजी मैंने मैप तैयार कर लिया है .”

पिता ने आश्चर्य से देखा , मैप बिलकुल सही था, – ” तुमने इतनी जल्दी मैप कैसे जोड़ दिया , ये तो बहुत मुश्किल काम था ?”

” कहाँ पापा, ये तो बिलकुल आसान था , आपने जो पेज दिया था उसके पिछले हिस्से में एक कार्टून बना था , मैंने बस वो कार्टून कम्प्लीट कर दिया और मैप अपने आप ही तैयार हो गया.”, और ऐसा कहते हुए वो बाहर खेलने के लिए भाग गया और पिताजी सोचते रह गए .

बन्धुओं, कई बार जीवन की परेशानियाँ भी ऐसी ही होती हैं, सामने से देखने पर वो बड़ी भारी-भरकम लगती हैं , मानो उनसे पार पान असंभव ही हो , लेकिन जब हम उनका दूसरा पहलू देखते हैं तो वही परेशानियाँ आसान बन जाती हैं, इसलिए जब कभी आपके सामने कोई समस्या आये तो उसे सिर्फ एक नजरिये से देखने की बजाये अलग-अलग दृष्टिकोण से देखिये , क्या पता वो बिलकुल आसान बन जाएं !

jai_bhardwaj
17-04-2013, 07:45 PM
काकी उवाच :


युवाओं की स्थिति पतंग के समान होती है, इधर-उधर इतराती पतंग। तेज हवा के झोंके पर डोर छूटने का डर भी रहता है। उन्मुक्त गगन से बातें करने की चाह कई बार धरातल पर भी रहने को विवश कर देती है। संगति का प्रभाव उजड़ा सेवरा न फैला दे, इसलिये अंगारों से बचकर खेलने की सलाह काम आयेगी। अक्सर जल्दबाजी में बहुत कुछ थम जाता है


मैंने बूढ़ी काकी से पूछा कि युवा जीवन में अहम बदलाव हैं क्या? काकी मुस्कराई और बोली,‘जीवन पैर जमाना इसी समय सीखता है। एक बेहतर और टिकाऊ नींव इसी अवस्था बनकर तैयार होती है। हम जानते हैं कि मकान को धंसने से बचाने के लिये नींव कितनी उपयोगी है। कमजोर नींव के मकान अक्सर ढह जाया करते हैं।’

‘युवाओं की स्थिति पतंग के समान होती है, इधर-उधर इतराती पतंग। तेज हवा के झोंके पर डोर छूटने का डर भी रहता है। उन्मुक्त गगन से बातें करने की चाह कई बार धरातल पर भी रहने को विवश कर देती है। तभी कहा जाता है, जो गलत नहीं, कि इतनी तेजी अच्छी नहीं। रगों में रक्त का प्रवाह इस कदर गतिमान होता है कि जोश और जस्बे की कमी नहीं रहती। उम्मीदों के घोड़े दौड़ते हैं पंख लगाकर। नयी सोच, नई ऊर्जा का संसार रच रहा होता है।’

‘मोम की तरह मुलायम भी होता यह समय। हल्की सी गर्मी से मोम पिघलने लगता है तथा उसे किसी आकार में ढाला जा सकता है। यह समय आकार लेने का भी है। अपने आसपास के वातावरण से हम कितने प्रभावित होते हैं? विचारों का हम पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह भी सोचने योग्य विषय है। सांचा ढल जाता है, लेकिन सुन्दर और बेकार होने में देर नहीं लगती। निखार आ गया तो बेहतर, निखरे हुये पर दाग लग गया तो जीवन भर के लिये मजबूत छाप रह जायेगी। शायद ऐसे मौके पर खुद को कोसने का वक्त भी न मिले।’

‘कदमों को कीचड़ से बचाने की जरुरत पड़ेगी। निर्मल पैर ही अच्छे लगते हैं। संगति का प्रभाव उजड़ा सेवरा न फैला दे, इसलिये अंगारों से बचकर खेलने की सलाह काम आयेगी। अक्सर जल्दबाजी में बहुत कुछ थम जाता है। ठिठक कर चलने में कोई बुराई नहीं है। खेल-खेलने वाले कोई ओर होते हैं, भुगतने वाले कोई ओर। इस तरह बनी-बनाई बातें बिगड़ जाती हैं और यहीं से बिखराव की स्थिति उत्पन्न होती है। तब अपनों की याद आती है। अंत में सहारा भी वे ही बनते हैं।’

काकी के विचारों से मैं और अधिक प्रभावित होता जा रहा था। पता नहीं क्यों उसके शब्दों का मुझ पर गहरा असर पड़ रहा था। शब्दों की गहराई समझ में आ रही थी। यही कारण था कि काकी का एक-एक शब्द मुझे कीमती लग रहा था। शायद में बोलों को धीरे-धीरे चुनता जा रहा था।

jai_bhardwaj
17-04-2013, 09:05 PM
वो जो बचपन की अटखेलियों में दिन रात होते हैं

जवानी के जोशो उमंग में जिनके जज़्बात होते हैं ,

हर मुश्किल में काँधों पे जिनके हाँथ होते हैं ,

कोई और नहीं बस वो दोस्त हैं हमारे

जीवन की हर राह पर जो साथ होते हैं .

jai_bhardwaj
17-04-2013, 09:06 PM
मानव एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक होने का अर्थ है किसी समाज का हिस्सा होना. हर व्यक्ति की एक अलग society होती है जो उसके अपने relationship पर depend करती है .इसलिए मानव के लिए संबंधों का बहुत अधिक महत्व है जिसके सहारे वो अपना सारा जीवन व्यतीत करता है. . मानव दो तरह के संबंधों से जुड़ा है पहले वो जो जन्म से ही उसके साथ होते हैं औरदूसरे वो जिसे वो अपनी ख़ुशी या पसंद से बनाता है.

आप के माता -पिता या रिश्तेदार कौन होंगे ,आपके स्कूल के principal कौन होंगे, boss कौन होंगे , colleagues कौन होंगे या पड़ोसी कौन होंगे ये आप decide नहीं कर सकते.हाँ !एक ऐसा सम्बन्ध ज़रूर है जिसे आप अपनी इच्छा से चुनते और जोड़ते हैं और वो है ’दोस्ती’. दोस्तहम कई लोगों में से कुछ लोगों को ही बनाते हैं .

कुछ लोग शायद ये नहीं जानते कि भले ही friendship एक secondary relationship है पर फिर भी वो life की सबसे important relationship है .इस relation का अगर थोड़ा सा भी हिस्सा किसी और relation में मिला दिया जाये तो उस रिश्ते का रूप ही बदल जाता है .”My mom is my best friend“, “My life partner is my best friend” ये कहते हुए भी अच्छा लगता है और सुनते हुए भी .किसी बच्चे को अपने माता -पिता ,किसी student को अपना teacher, किसी employee को अपना boss या किसी व्यक्ति को अपना life-partner तभी अच्छा लगता है जब उनमें एक अच्छा दोस्त दिखाई देता है.तो बिना किसी संदेह के दोस्ती एक ऐसा relation है जिसे हम जाने-अनजाने बाकी सभी relations में खोजने कि कोशिश करते हैं.

jai_bhardwaj
17-04-2013, 09:06 PM
दोस्त अक्सर समानता , समीपता ,frequent interaction या common goals के कारण बन जाते हैं . जिन लोगों को हम अपने समान या अपने आस -पास आसानी से उपलब्ध पाते हैं उनसे हम दोस्ती कर लेते हैं . ये relation किसी जाति को , धर्म को या किसी उम्र को नहीं मानता .यही अकेला एक ऐसा रिश्ता है जो human relation को show करता है क्योंकि बाकी सभी संबंधों को हम इसलिए निभाते हैं क्यों कि वो हमारे साथ पहले से ही जुड़े हुए हैं या हमारे पास उन्हें निभाने के आलावा कोई option नहीं होता.

किसी relation को अगर आप कोई नाम नहीं दे सकें तो उसे दोस्ती का नाम आसानी से दिए जा सकता है. ये give and take के rule को follow नहीं करता , हाँ अगरऐसी किसी relation में ऐसा कोई rule है तो आपको दोस्ती का सिर्फ एक भ्रम है .

jai_bhardwaj
17-04-2013, 09:06 PM
आज के competitive world में अक्सर लोगों को अपने परिवार से दूर जाना पड़ता है पर आपने कभी ध्यान से सोचा है कि उस अकेलेपन के लम्बे समय को रोमांचक बनाकर आसानी सेकाटने में आपकी मदद कौन करता है ; कोई और नहीं बस आपके दोस्त . इसमें किसी formality या किसी discipline कि मांग नहीं होती .अपने दोस्तों से अपने दिल कि बात कहने के लिए आपको किसी खास समय का इंतज़ार नहीं करना पड़ता .आप ये नहीं सोचते कि आपके दोस्त क्या सोचेंगे . और अगर क्षण भर के लिए ये विचार आपके मन में आता भी है तो आप कहते है ’तो क्या हुआ दोस्त ही तो है ज़रूर समझ जायेगा!!! ‘.

कहते हैं दुनियां में मंहगी से महंगी जगह घर बनाना फिर भी आसान है पर किसी के दिल मेंसच्ची जगह बनाना बहुत ही मुश्किल है . इसलिए सच्चा दोस्त मिलना उतना आसन भी नहीं होता . अगर सोचें तो दोस्त हमारे सबसे अच्छे teachers होते हैं क्योंकि वो हमें अपने आप सेइमानदार होना सिखाते हैं हमें उनके सामने कोई ideal role play करने कि ज़रुरत नहीं होती है . जिन लोगों के जीवन में दोस्तों कि कमी होती है वो depression के शिकार भी जल्दी होते हैं . एक अच्छा दोस्त आपकी व्यक्तित्व को भी निखारता है .

jai_bhardwaj
17-04-2013, 09:06 PM
ये relation जितना पुराना होता है उतना ही गहरा होता जाता है.लेकिन कई बार हम सच्चे दोस्त और सिर्फ दोस्त में अंतर नहीं कर पाते .अगर आप हजारों से मिलते हैं तो वो सारे आपके अच्छे दोस्त या शुभचिंतक नहीं हो सकते .अच्छे दोस्त आपको कभी misguide नहीं करते और मदद के लिए हमेशा तैयार रहते हैं . हाँ अगर आप ग़लत हैं तो आप काविरोध भी करते हैं लेकिन जीवन के किसी भी मोड़ पर आप पलट के देखें तो वो हमेशा आप के लिए खड़े होंगे .

सोचिये कि उस व्यक्ति का जीवन भी क्या जीवन है जिसके कई रिश्तेदार तो हैं पर कोई दोस्त नहीं है .आप अपनी हर छोटी – बड़ी बात उस व्यक्ति से share करते हैं जिसे आप अपना सबसे अच्छा दोस्त समझते हैं फिर चाहे वो आपके parents हों , आप का life-partner हो या कोई अन्य . दोस्ती का कोई भी रूप हो सकता है .

एक बात ज़रूर याद रखिये कि इस प्यारे से unconditional रिश्ते को भी attention कि उतनी ही ज़रुरत होती है जितनी कि किसी और रिश्ते को. इसे लम्बे समय तक चलाने के लिए empathy और प्यार कि भावना से सींचना पड़ता है . तो अगर किसी भी रिश्ते में मिठास लानी हैतो उसमें दोस्ती कि थोड़ी से चाश्नी तो डालनी ही पड़ेगी !

jai_bhardwaj
17-04-2013, 09:07 PM
मशहूर शायर नासिर जी ने क्या खूब कहा है

“आज मुश्किल था संभलना ए दोस्त,

तू मुसीबत में अजब याद आया ,

वो तेरी याद थी ; अब याद आया”

jai_bhardwaj
01-05-2013, 08:51 PM
25 फीट ऊंची, 17 फुट चौड़ी और दो फुट मोटी किताब = लिम्का बुक आफ रिकार्ड्स भारत के नाम

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26980&stc=1&d=1367423478

jai_bhardwaj
01-05-2013, 08:52 PM
लंदन। वह उस घटना को भूल गया था लेकिन 35 साल बाद अचानक एक दिन पुलिस ने उसके घर पहुंचकर चौंका दिया।

वह दरअसल 1978 में चोरी हुए उसके पर्स को लौटाने आई थी। वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने पर्स खोलकर देखा तो उसमें मौजूद 15 पौंड को छोड़कर ड्राइविंग लाइसेंस और तब खरीदा गया सिनेमा एवं बस का टिकट अब भी सुरक्षित था। रकम चोर ने निकाल ली थी। दरअसल कुछ दिन पहले शहर की एक बिल्डिंग का जीर्णोद्धार किया जा रहा था तो एक दीवार के भीतर छिपाया गया वह पर्स मिला। पुलिस को सूचना दी गई। लाइसेंस में दिए गए पते पर पहुंचकर पुलिस ने पर्स मालिक को वापस कर दिया। उस व्यक्ति का जब पर्स खोया था तब वह 23 वर्ष का युवा था। अब वह 58 साल का अधेड़ व्यक्ति है।

jai_bhardwaj
04-05-2013, 07:38 PM
चरण स्पर्श (लघु कथा) - विनीता शुक्ल

रमिता रंगनाथन, मिसेज़ शास्त्री की खातिर में यूँ जुटी थीं- मानों कोई भक्त, भगवान की सेवा में हो। क्यों न हो- एक तो बॉस की बीबी, दूसरे फॉरेन रिटर्न। अहोभाग्य- जो खुद उनसे मिलने, उनके घर तक आयीं! पहले वडा और कॉफ़ी का दौर चला फिर थोड़ी देर के बाद चाय पीना तय हुआ। इस बीच ‘मैडम जी’, सिंगापुर के स्तुतिगान में लगीं थीं- “यू नो- उधर क्या बिल्डिंग्स हैं! इत्ती बड़ी बड़ी…’एंड’ तक देख लो तो सर घूम जाता है…और क्या ग्लैमर!! आई शुड से- ‘इट्स ए हेवेन फॉर शॉपर्स’…” रमिता ने महाराजिन को, चाय रखकर जाने का इशारा किया. गायित्री शास्त्री ने चाय का प्याला उठाया भी, पर एक ही घूँट के बाद मुंह सिकोड़ लिया- “इट्स वैरी स्ट्रोंग! हम लोग तो फॉरेन- ट्रिप में बहुत लाईट ‘टी’ पीते थे…एंड फ्लेवर वाज़ सो सूदिंग!! ” रमिता कुढ़ गयी. श्रीमती जी को ‘शीशे में उतारना’ इतना सहज न था. तभी उसे कुछ सूझा और तब जाकर- दिमाग की तनी हुई नसें, थोडी ढीली पड़ीं.

“विनायक” उसने बेटे को आवाज़ दी,” जरा देखो तो कौन आया है.” विनायक का प्रवेश हुआ; उसने रट्टू तोते की भांति आंटी को ‘गुड -मॉर्निंग’ विश किया तो रमिता बोली, “ऐसे नहीं, आज ‘विशु’( एक तमिल त्यौहार) है. आज के दिन बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं” विनायक ने झुककर गायित्री के चरण छुए तो उन्हें बेस्वाद चाय को भूलकर, ‘गार्डेन गार्डेन’ होना ही पडा. इम्पोर्टेड चौकलेट का डिब्बा बेटे को थमाते हुए, रमिता ने कहा, “ये स्वीट्स आंटी सिंगापुर से लायी हैं- इट्स लाइक ए विशु गिफ्ट फॉर यू ” फिर गर्व से ‘मैडम’ को देखकर कहा, “अवर इंडियन कलचर यू नो!” न चाहते हुए भी ‘श्रीमतीजी’ चारों खाने चित्त हो गयीं थीं- अपने पति की ‘जूनियर’ के आगे!

यह तो अच्छा ही हुआ कि विनायक का गिटार- टीचर थोडा लेट आया. नहीं तो वो भी यहीं सोफे में बैठ जाता और रंग में भंग पड जाता. विनायक को रमिता ने ताकीद भी कर रखी थी- “इस आदमी को लिविंग रूम में मत बैठाया करो…यह हमारी बराबरी का नहीं.” पर बेटा प्रतिवाद करने की कोशिश करता, “अम्मा, मुकुन्दन मेरे गुरु हैं और मैं उनकी इज्ज़त करता हूँ” लेकिन माँ की जलती हुई आँखों के आगे, उस बेचारे की गुरु भक्ति धरी रह जाती.मुकुन्दन को आते देख रमिता, वर्तमान में लौट आई. परन्तु यह वो क्या देख रही थी! विनायक ने लपककर, अपने उस ‘तथाकथित’ गुरु के पैर छू लिए!! माँ के आपत्ति से भरे हाव- भाव भी, बेटे को विचलित न कर सके. मुस्कुराकर बोला, ” इट्स विशु अम्मा” और मुकुन्दन को लेकर भीतर चला गया. रमिता चुपचाप, उन्हें जाते हुए देखती रही -बिलकुल असहाय सी!!!

jai_bhardwaj
06-05-2013, 06:55 PM
एक बार मेरे एक हमउम्र मित्र मेरे कार्यस्थल पर आये ! हम अक्सर मिलते थे, बातें करते थे, और पुराने दोस्त थे । मुझसे उन्होने एक सामान का रेट पूछा, वो चीज उनको चाहिये थी । मित्र होने के नाते, मेनें उनको एक दम वाजिब से वाजिब भाव बताया उस वस्तु का ! मित्र ने कहाः में यह ले तो जाता हुं, पर पैसे अभी नहीं है बाद में दुंगा । मेनें कहा भाई नहीं चल सकता है एसा, कम मार्जिन और उधारी ! अव्वल तो हम उधारी में सामान ना तो खरीदते हैं ना ही बेचते हैं ! फिर भी व्यवसाय है तो छोटा मोटा देखना ही पडता है । और उधारी का काम ए॓सा है ना कि दे ओर फिर देख ।

अपन आदमी हैं साफ कहने और सुखी रहने वाले टाईप के ! मुझे पता था कि ये अगर ले गया तो पैसे वापस आने में महीनों लग सकते हैं, मेनें मित्र को साफ मना कर दिया कि नहीं पैसे बाकी रखो तो में नहीं दे सकता हूं । दोस्त नाराज … उनके चेहरे से ही पता चल गया था मुझे ! अगले ही पल मित्र नें चेहरे की झेंप को मिटाते हुए कहाः अरे क्या यार में तो परीक्षा ले रहा था कि दोस्त कुछ पेसे बाकी रख सकता है भी कि नहीं ।

वाह ……………वाह ……….. ! क्या बात है, उस टाईप के शख्स से और आशा भी क्या कि जा सकती थी । में जानता था कि खिसियानी बिल्ली खंभे को नोच रही है । में चुप रह गया फिर भी ! आखिर क्यों लोग मुझसे उम्मीदें लगा बैठते हैं .. जो कि में पुरी नहीं कर सकता ।

आज तक जीवन में मेनें भी काफी उतार चढ़ाव देखे हैं और जब में आज तक किसी से उधार मांगने नहीं गया तो में किसी को क्यूं एसा करुं । कभी परिस्थिती वश ए॓सा कुछ गिनती की बार हुआ भी है, तो भी पन्द्रह मिनट या आधे घंटे में पैसे वापस लौटाने जाने पर मुझे लोगों ने यही कहा क्या पैसे कहीं भाग कर जा रहे थे क्या ! पर नहीं लोग कैसे भी हों कुछ भी करे पर में अपने हिस्से की ईमानदारी रखता हूं। पता नही लोग रुपये पैसे के मामले में इतने कमीनेपन पर कैसे उतर जाते है ।

jai_bhardwaj
06-05-2013, 06:59 PM
एक बार की बात हैं, बहुत सालों पहले एक साधारण सा नौकरी पेशा आदमी ने अपनी हैसियत से थोडा उपर की सोच रखते हुए अपने मकान को थोडा व्यवस्थित करने के लिये मकान का काम चालू करवाया ! पता नहीं किस बुरे मुहु्र्त में ये सब शुरु हुआ था कि काम छः महिने से उपर होने पर भी खतम होने का नाम नहीं ले रहा था । कुछ ना कुछ काम बढ़ ही जाता था । वेसे राजस्थानी मेवाडी भाषा में एक कहावत है कि “ब्याह कहे कि मुझे मांड के देख, और मकान कहे कि काम छेड कर देख” सो बस मकान मालिक यह सोचता था कि अब औखली में सर तो दे ही दिया है, हो जाने दो जैसे भी हो, थोडा बहुत उधार भी हो गया तो मेहनत करके चुका देंगे ।

कुछ वक्त बाद बस सीमेंट पिल्लर, पलास्तर, घूटाई आदि के कामों से निबटे तो बारी आई, बाथरुम में टाईल्स लगाने की, तो मकान मालिक नें पहले से ही अच्छी क्वालिटी की टाईल्सों के डब्बे व व्हाईट सीमेंट का एक कट्टा कारीगर से पुछ कर उचित मात्रा में मगंवा दिये थे ! अब ढ़ु्ढ़ां गया टाईल्स लगाने वाला कारीगर को ! बडी मुश्किल से वो मिला । मकान मालिक नें कारीगर को देखाः पतला दुबला सा साधारण कपडे पहने एक सीधा सा दिखने वाला व्यक्ती था वो, शहर के पास के किसी गांव का ही रहने वाला था । सो रेट तय की गई और कारीगर ने कहा कि इतने रुपये में यह कार्य में नियत अवधि में यानी पन्द्रह रोज में कर दुंगा । रुपये आधे अभी व आधे रुपये काम पुरा हो जाने के बाद आप दे देना बाबूजी ।

बात पक्की हो गई, काली सीमेंट, व्हाईट सीमेंट का एक कट्टा और टाईल्सों के डब्बे उसको दे दिये गये । उसने दुसरे दिन से ही काम चालू कर दिया । हाथ में उसके सफाई थी, पर काम चालू करते ही उसने व्हाईट सीमेंट को लगाकर टाईल्से चिपकाई जिससे पुरा कट्टा खत्म हो गया, जो कि लगभग पुरे बाथ में लग सकती थी, आम तौर पर व्हाईट सीमेंट को टाईल्सों के बीच की दरजों में भरने के लिये ही काम में लेते हैं, और टाईल्सों के पीछे काली सीमेंट को लगाया जाता है । अब व्हाईट सीमेंट आती बहुत महंगी है और काली सीमेंट सस्ती ।

कारीगर नें कहाः बापू व्हाईट सीमेंट खत्म हो गई, तो मकान मालिक नें जाकर बाथरुम में देखा तो हतप्रत रह गया, मुर्ख कारीगर नें महंगी व्हाईट सीमेंट को लगाकर टाईल्से चिपकाई जिससे पुरा कट्टा खत्म हो गया । खैर नुकसान तो होना था सो हो गया । बाद में फिर से कारीगर को कारीगरी सिखाई गयी कि व्हाईट सीमेंट को टाईल्सों के बीच की दरजों में भरने के लिये ही काम में लेते हैं, और टाईल्सों के पीछे काली सीमेंट को लगाया जाता है ! कारीगर नें शर्मिंदा होते हुए माफी मांगी और फिर से काम शुरु किया ! तीन दिन बराबर काम करने के बाद अचानक वह गायब हो गया व वापस नहीं आया ।

मकान मालिक को लगा कि हाथ खुला रखने का नहीं है इस दुनिया में हर आदमी की चाबी अपने पास रखो तो वह दोडा चला आता है, अब उसको कहां ढ़ुढ़ें ? एक तो काम लेट हो रहा है मेरा, उपर से आधे पैसे उसको एडवांस दे रखे हैं वो तो अब गये समझों ! खेर मकान मालिक को पता ही था कि ए॓से तो हमेशा ही होता रहा है की काम में देरी, व कारीगरो के कारण नुकसान सब से ज्यादा टेंशन ।

दस दिन बाद अचानक वह टाईल्स लगाने वाला कारीगर मकान पर आया, वह चेहरे से बडा ही मायूस सा दिख रहा था और उसके कपडे, बाल आदि अस्त व्यस्त थे । वह पहले ही मकान मालिक का नुकसान कर चुका था और अब काम लेट और करने के कारण गमजदा व शर्मिंदा भी था । नजरे निचें किये वह काम पर आया और उसनें फिर से अधुरा पडा कार्य प्रारंभ किया ? थोडी देर में मकान मालिक बाबूजी आये । उसने नमस्ते किया, मकान मालिक नें कहा कि देखो भाई मेनें तुमसे पहले हौ बात कि थी कि काम मझे इस समय के अन्दर अन्दर चाहिये और तुमने भी हामी भरी थी, अब पहले ही मेरा इतना नुकसान कर चुके हो अब तुम और क्या चाहते हो ? क्या मुझसे कुछ गलती हो गई है क्या मिस्त्री साहब ?

वह नजरे नींचे किये खडा रहा व सुनता रहा, अचानक उसका गला रुंध गया व उसने बताया कि चंद रोज पहले एक दुर्घटना में मेरे बेटे की मौत हो गई थी, बस इसलिये में नहीं आ पाया, बाबुजी नें कारीगर के चेहरे में अजीब सी सच्चाई को देखा और उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ कि में गुस्से में इस भले आदमी को जाने क्या क्या कह गया ।

अब मकान मालिक निरत्तर थे उन्होनें कारीगर के कंधे पर हाथ रखा, प्यार भरा स्पर्श पाकर वह गदगद हो गया । कारीगर को पराये आदमी से कभी इतना स्नेह नहीं मिला था। मकान मालिक ने कहा भगवान के आगे कोई नहीं चल सकता है, जो होना था वो हो गया, अभी मुझे बताओ क्या में कुछ और तुम्हारी मदद कर सकता हु् ?

कारीगर निर्विकार भाव से खडा बाबुजी को देखता रहा । कुछ देर निःशब्द खडा रहा ।

दो चार दिन में ही उसने काम सफाई के साथ पुरा किया बाकी का पैसा लिया व चला गया ! जाते समय बाबुजी ने उसके चेहरे को देखा, उसमें एक अलग ही तरह का प्रेम था, निर्विकार, निस्वार्थ प्रेम|

jai_bhardwaj
08-05-2013, 07:26 PM
एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं। उनको श्रीकृष्ण ने समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए।

रास्ते में उनकी मुलाकात एक गरीब ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी।

अर्जुन ने उससे पूछा, ‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’

ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं।’

‘ आपके शत्रु कौन हैं?’ अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की।

ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं।

सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं।

फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।’

‘ आपका तीसरा शत्रु कौन है?’ अर्जुन ने पूछा। ‘

वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया।

और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को।’ यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए।

यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।’

jai_bhardwaj
08-05-2013, 07:29 PM
बहुत पुरानी बात है. मिस्र देश में एक सूफी संत रहते थे जिनका नाम ज़ुन्नुन था. एक नौजवान ने उनके पास आकर पूछा, “मुझे समझ में नहीं आता कि आप जैसे लोग सिर्फ एक चोगा ही क्यों पहने रहते हैं!? बदलते वक़्त के साथ यह ज़रूरी है कि लोग ऐसे लिबास पहनें जिनसे उनकी शख्सियत सबसे अलहदा दिखे और देखनेवाले वाहवाही करें”.
ज़ुन्नुन मुस्कुराये और अपनी उंगली से एक अंगूठी निकालकर बोले, “बेटे, मैं तुम्हारे सवाल का जवाब ज़रूर दूंगा लेकिन पहले तुम मेरा एक काम करो. इस अंगूठी को सामने बाज़ार में एक अशर्फी में बेचकर दिखाओ”.
नौजवान ने ज़ुन्नुन की सीधी-सादी सी दिखनेवाली अंगूठी को देखकर मन ही मन कहा, “इस अंगूठी के लिए सोने की एक अशर्फी!? इसे तो कोई चांदी के एक दीनार में भी नहीं खरीदेगा!”
“कोशिश करके देखो, शायद तुम्हें वाकई कोई खरीददार मिल जाए”, ज़ुन्नुन ने कहा.
नौजवान तुरत ही बाज़ार को रवाना हो गया. उसने वह अंगूठी बहुत से सौदागरों, परचूनियों, साहूकारों, यहाँ तक कि हज्जाम और कसाई को भी दिखाई पर उनमें से कोई भी उस अंगूठी के लिए एक अशर्फी देने को तैयार नहीं हुआ. हारकर उसने ज़ुन्नुन को जा कहा, “कोई भी इसके लिए चांदी के एक दीनार से ज्यादा रकम देने के लिए तैयार नहीं है”.
ज़ुन्नुन ने मुस्कुराते हुए कहा, “अब तुम इस सड़क के पीछे सुनार की दुकान पर जाकर उसे यह अंगूठी दिखाओ. लेकिन तुम उसे अपना मोल मत बताया, बस यही देखना कि वह इसकी क्या कीमत लगाता है”.
नौजवान बताई गयी दुकान तक गया और वहां से लौटते वक़्त उसके चेहरे पर कुछ और ही बयाँ हो रहा था. उसने ज़ुन्नुन से कहा, “आप सही थे. बाज़ार में किसी को भी इस अंगूठी की सही कीमत का अंदाजा नहीं है. सुनार ने इस अंगूठी के लिए सोने की एक हज़ार अशर्फियों की पेशकश की है. यह तो आपकी माँगी कीमत से भी हज़ार गुना है!”
ज़ुन्नुन ने मुस्कुराते हुए कहा, “और वही तुम्हारे सवाल का जवाब है. किसी भी इन्सान की कीमत उसके लिबास से नहीं आंको, नहीं तो तुम बाज़ार के उन सौदागरों की मानिंद बेशकीमती नगीनों से हाथ धो बैठोगे. अगर तुम उस सुनार की आँखों से चीज़ों को परखने लगोगे तो तुम्हें मिट्टी और पत्थरों में सोना और जवाहरात दिखाई देंगे. इसके लिए तुम्हें दुनियावी नज़र पर पर्दा डालना होगा और दिल की निगाह से देखने की कोशिश करनी होगी. बाहरी दिखावे और बयानबाजी के परे देखो, तुम्हें हर तरफ हीरे-मोती ही दिखेंगे”.

jai_bhardwaj
09-05-2013, 02:48 PM
परिभ्रमसि किं व्यर्थं क्वचन चित्त विश्राम्यतां
स्वयं भवति यद्यथा तत्तथा नान्यथा।
अतीतमपि न स्मरन्नपि च भाव्यसङ्कल्पय-
न्नतर्कितगमनाननुभवस्व भोगानिह॥ - भर्तृहरि

"Why do you wander, 'O' mind, rest somewhere. The natural course of thing to happen cannot be altered. It is bound to happen. Therefore enjoy the pleasures, whose arrival and departure cannot be ascertained, without remembering the past and without expecting the future" - Bhartrihari

- Bhartrihari is a 5th century Sanskrit poet

"हे (चंचल) चित्त, तो क्यों (व्यर्थ में) इधर उधर भटक रहा है, तू कहीं तो ठहर। (संसार में) मात्र प्रकृति निर्धारित घटनाएं ही संभव हैं, इन्हें बदला नहीं जा सकता है। इसलिए भूतकाल में क्या हुआ था अथवा भविष्य में क्या होगा, इसकी चिंता किये बिना (वर्तमान की) स्थितियों का खुशी से उपभोग करो क्यों कि गमन और आगमन को रोका नहीं जा सकता है।"
-भर्तृहरि