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View Full Version : राजस्थान का शौर्यपूर्ण इतिहास : एक परिचय


The ROYAL "JAAT''
18-05-2011, 04:00 PM
राजस्थान जीसके बारे जितना हम जानेगे कम ही रहेगा और मुझे गर्व है की मुझे इसको जानने और आपको बताने का मोका मिला .. ये भारत का गोरव है जिसका इतिहास जितना पुराना है उतना ही गोरवशाली है वो पवित्र धरती जिसकी माटी से नजाने कितने ही शूरवीरों और पवित्र आत्माओ ने जन्म लिया इसकी महान गाथा को शब्दों में अंकित करना किसी के बस में नही है में हमेसा प्राचीन इतिहास के लिए उत्सुक रहता हूं और जानकारी जुटाता रहता हू मेने ये सभी जानकारी नेट से ली है जो आपके सामने रख रहा हूं पसंद आये तो पोस्ट जरुर करना ............धन्यवाद

The ROYAL "JAAT''
18-05-2011, 06:57 PM
राजस्थान पुत्र गर्भा सदा से रहा है। अगल भारत का इतिहास लिखना है तो प्रारंभ निश्चित रुप से इसी प्रदेश से करना होगा। यह प्रदेश वीरों का रहा है। यहाँ की चप्पा-चप्पा धरती शूरवीरों के शौर्य एवं रोमांचकारी घटनाचक्रों से अभिमण्डित है। राजस्थान में कई गढ़ एवं गढ़ैये ऐसे मिलेंगे जो अपने खण्डहरों में मौन बने युद्धों की साक्षी के जीवन्त अध्याय हैं। यहाँ की हर भूमि युद्धवीरों की पदचापों से पकी हुई है।

प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासविद जेम्स टॉड राजस्थान की उत्सर्गमयी वीर भूमि के अतीत से बड़े अभिभूत होते हुए कहते हैं, ""राजस्थान की भूमि में ऐसा कोई फूल नहीं उगा जो राष्ट्रीय वीरता और त्याग की सुगन्ध से भरकर न झूमा हो। वायु का एक भी झोंका ऐसा नहीं उठा जिसकी झंझा के साथ युद्ध देवी के चरणों में साहसी युवकों का प्रथान न हुआ हो।''

The ROYAL "JAAT''
18-05-2011, 07:03 PM
आदर्श देशप्रेम, स्वातन्त्रय भावना, जातिगत स्वाभिमान, शरणागत वत्सलता, प्रतिज्ञा-पालन, टेक की रक्षा और और सर्व समपंण इस भूमि की अन्यतम विशेषताएँ हैं। ""यह एक ऐसी धरती है जिसका नाम लेते ही इतिहास आँखों पर चढ़ आता है, भुजाएँ फड़कने लग जाती हैं और खून उबल पड़ता है। यहाँ का जर्रा-जर्रा देशप्रेम, वीरता और बलिदान की अखूट गाथा से ओतप्रोत अपने अतीत की गौरव-घटनाओं का जीता-जागता इतिहास है। इसकी माटी की ही यह विशेषता है कि यहाँ जो भी माई का लाल जन्म लेता है, प्राणों को हथेली पर लिये मस्तक की होड़ लगा देता है। यहाँ का प्रत्येक पूत अपनी आन पर अड़िग रहता है। बान के लिये मर मिटता है और शान के लिए शहीद होता है।''
राजस्थान भारत वर्ष के पश्चिम भाग में अवस्थित है जो प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाईयाँ सम्मिलित थी जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी। उदाहरण के लिए जयपुर राज्य का उत्तरी भाग मध्यदेश का हिस्सा था तो दक्षिणी भाग सपालदक्ष कहलाता था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरुदेश का हिस्सा था तो भरतपुर, धोलपुर, करौली राज्य शूरसेन देश में सम्मिलित थे। मेवाड़ जहाँ शिवि जनपद का हिस्सा था वहाँ डूंगरपुर-बांसवाड़ा वार्गट (वागड़) के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार जैसलमेर राज्य के अधिकांश भाग वल्लदेश

The ROYAL "JAAT''
18-05-2011, 07:05 PM
में सम्मिलित थे तो जोधपुर मरुदेश के नाम से जाना जाता था। बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग जांगल देश कहलाता था तो दक्षिणी बाग गुर्जरत्रा (गुजरात) के नाम से पुकारा जाता था। इसी प्रकार प्रतापगढ़, झालावाड़ तथा टोंक का अधिकांस भाग मालवादेश के अधीन था।
बाद में जब राजपूत जाति के वीरों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश अथवा स्थान के अनुरुप कर दिया। ये राज्य उदयपु, डूंगरपुर, बांसवाड़, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, भरतपुर, करौली, झालावाड़, और टोंक थे। (इम्पीरियल गजैटियर)

The ROYAL "JAAT''
18-05-2011, 07:06 PM
इन राज्यों के नामों के साथ-साथ इनके कुछ भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता है। ढ़ूंढ़ नदी के निकटवर्ती भू-भाग को ढ़ूंढ़ाड़ (जयपुर) कहते हैं। मेव तथा मेद जातियों के नाम से अलवर को मेवात तथा उदयपुर को मेवाड़ कहा जाता है। मरु भाग के अन्तर्गत रेगिस्तानी भाग को मारवाड़ भी कहते हैं। डूंगरपुर तथा उदयपुर के दक्षिणी भाग में प्राचीन ५६ गांवों के समूह को ""छप्पन'' नाम से जानते हैं। माही नदी के तटीय भू-भाग को कोयल तथा अजमेर के पास वाले कुछ पठारी भाग को ऊपरमाल की संज्ञा दी गई है। (गोपीनाम शर्मा / सोशियल लाइफ इन मेडिवियल राजस्थान / पृष्ठ ३)

अंग्रेजों के शासनकाल में राजस्थान के विभिन्न इकाइयों का एकीकरण कर इसका राजपूताना नाम दिया गया, कारण कि उपर्युक्त वर्णित अधिकांश राज्यं में राजपूतों का शासन था। ऐसा भी कहा जाता है कि सबसे पहले राजपूताना नाम का प्रयोग जार्ज टामस ने किया। राजपूताना के बाद इस राज्य को राजस्थान नाम दिया गया। आज यह रंगभरा प्यारा प्रदेश इसी राजस्थान के नाम से जाना जाता है।

abhisays
18-05-2011, 09:14 PM
बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी है, इसके लिए सूत्रधार को बहुत बहुत बधाई.

The ROYAL "JAAT''
18-05-2011, 09:33 PM
दोस्तों आगे आपको राजस्थान के महान योद्धाओ लोक देवता -देवियाँ महान विभूतिया गढ़ (किलों)और इसके राज्यों का भी विस्तार पूर्वक जानकारी दूँगा कृपया अपने विचार देकर आगे पोस्ट करने को प्रेरित करे

The ROYAL "JAAT''
18-05-2011, 10:08 PM
माफ़ करे दोस्तों अगर आपके रिस्पांस बिना आगे ठीक से पोस्ट नही कर पाऊंगा तो कृपया आप अपना कीमती समय यहाँ जरुर दे आपका आभारी रहूँगा ..........धन्यवाद

amit_tiwari
19-05-2011, 01:11 AM
Bahut khoob. Bandhu!!!! Kaafi achchi jaankari share ki hai.

prashant
19-05-2011, 06:10 AM
हा बहुत ही अच्छी जानकारी बाँट रहे है/

The ROYAL "JAAT''
20-05-2011, 12:38 PM
हा बहुत ही अच्छी जानकारी बाँट रहे है/

धन्यवाद प्रशांत भाई

The ROYAL "JAAT''
20-05-2011, 12:48 PM
बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी है, इसके लिए सूत्रधार को बहुत बहुत बधाई.

आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद .आप ने मेरा मनोबल बढ़ाया इसके लिए शुक्रिया

The ROYAL "JAAT''
20-05-2011, 02:59 PM
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजपूताना और राजस्थान दोनों नामों के मूल में "राज' शब्द मुख्य रुप से उभरा हुआ है जो इस बात का सूचक है कि यह भूमि राजपूतों का वर्च लिये रही और इस पर लम्बे समय तक राजपूतों का ही शासन रहा। इन राजपूतों ने इस भूमि की रक्षा के लिए जो शौर्य, पराक्रम और बलिदान दिखाया उसी के कारण सारे वि में इसकी प्रतिष्ठा सर्वमान्य हुई। राजपूतों की गौरवगाथाओं से आज भी यहाँ की चप्पा-चप्पा भूमि गर्व-मण्डित है।

The ROYAL "JAAT''
20-05-2011, 03:01 PM
प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल टॉड ने इस राज्य का नाम "रायस्थान' रखा क्योंकि स्थानीय साहित्य एवं बोलचाल में राजाओं के निवास के प्रान्त को रायथान कहते थे। इसा का संस्कृत रुप राजस्थान बना। हर्ष कालीन प्रान्तपति, जो इस भाग की इकाई का शासन करते थे, राजस्थानीय कहलाते थे। सातवीं शताब्दी से जब इस प्रान्त के भाग राजपूत नरेशों के आधीन होते गये तो उन्होंने पूर्व प्रचलित अधिकारियों के पद के अनुरुप इस भाग को राजस्थान की संज्ञा दी जिसे स्थानीय साहित्य में रायस्थान कहते थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तथा कई राज्यों के नाम पुन: परिनिष्ठित किये गये तो इस राज्य का भी चिर प्रतिष्ठित नाम राजस्थान स्वीकार कर लिया गया।अगर इस प्रदेश की भौगोलिक संरचना को देख तो राजस्थान के दो प्रमुख भौगोलिक क्षेत्र हैं। पहला, पश्चिमोत्तर जो रेगिस्तानीय है, और दूसरा दक्षिण-पूर्वी भाग जो मैदानी व पठारी है। पश्चिमोत्तर नामक रेगिस्तानी भाग में जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर जिले आते हैं।

The ROYAL "JAAT''
20-05-2011, 03:04 PM
यहाँ पानी का अभाव और रेत फैली हुई है। दक्षिण-पूर्वी भाग कई नदियों का उपजाऊ मैदानी भाग है। इन नदियों में चम्बल, बनास, माही आदि बड़ी नदियाँ हैं। इन दोनों भागों के बीचोंबीच अर्द्धवर्तीय पर्वत की श्रृंखलाएं हैं जो दिल्ली से शुरु होकर सिरोही तक फैली हुई हैं। सिरोही जिले में अरावली पर्वत का सबसे ऊँचा भाग है जो आबू पहाड़ के नाम से जाना जाता है। इस पर्वतमाला की एक दूसरी श्रेणी अलवर, अजमेर, हाड़ौती की है जो राजस्थान के पठारी भाग का निर्माण करती हैं।

राजस्थान में बोली जाने वाली भाषा राजस्थानी कहलाती है। यह भारतीय आर्यभाषाओं की मध्यदेशीय समुदाय की प्रमुख उपभाषा है, जिसका क्षेत्रफल लगभग डेढ़ लाख वर्ग मील में है। वक्ताओं की दृष्टि से भारतीय भाषाओं एवं बोलियों में राजस्थानी का सातवां स्थान है। सन् १९६१ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार राजस्थानी की ७३ बोलियां मानी गई हैं।

The ROYAL "JAAT''
20-05-2011, 03:08 PM
सामान्यतया राजस्थानी भाषा को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। इनमें पहला पश्चिमी राजस्थानी तथा दूसरा पूर्वी राजस्थानी। पश्चिमी राजस्थानी की मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी और शेखावटी नामक चार बोलियाँ मुख्य हैं, जबकि पूर्वी राजस्थानी की प्रतिनिधी बोलियों में ढ़ूंढ़ाही, हाड़ौती, मेवाती और अहीरवाटी है। ढ़ूंढ़ाही को जयपुरी भी कहते हैं।

पश्चिमी अंचल में राजस्थान की प्रधान बोली मारवाड़ी है। इसका क्षेत्र जोधपुर, सीकर, नागौर, बीकानेर, सिरोही, बाड़मेर, जैसलमेर आदि जिलों तक फैला हुआ है। साहित्यिक मारवाड़ी को डिंगल तथा पूर्वी राजस्थानी के साहित्यिक रुप को पिंगल कहा गया है। जोधपुर क्षेत्र में विशुद्ध मारवाड़ी बोली जाती है।

The ROYAL "JAAT''
20-05-2011, 10:10 PM
दोस्तों में सूत्र के बिच में एक दोस्तके कहने पर आपको एक महान शक्सियत की फोटो दिखा रहा हूं
ये आपको कितनी पसंद आई आपका रेपो मुझे बताएगा.

रानी लक्ष्मीबाई की असली फोटो
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10816&stc=1&d=1305910904
रेपो जरुर करे ताकि आगे भी अच्छे पोस्ट कर सकूँ ....धन्यवाद

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 09:20 PM
दक्षिण अंचल उदयपुर एवं उसके आसपास के मेवाड़ प्रदेश में जो बोली जाती है वह मेवाड़ी कहलाती है। इसकी साहित्यिक परम्परा बहुत प्राचीन है। महाराणा कुम्भा ने अपने चार नाटकों में इस भाषा का प्रयाग किया। बावजी चतर सिंघजी ने इसी भाषा में अपना उत्कृष्ट साहित्य लिखा। डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा का सम्मिलित क्षेत्र वागड़ के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र में जो बोली बोली जाती है उसे वागड़ी कहते हैं।

उत्तरी अंचली ढ़ूंढ़ाही जयपुर, किशनगढ़, टोंक लावा एवं अजमेर, मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाती है। दादू पंथ का बहुत सारा साहित्य इसी में लिखा गया है। ढ़ूंढ़ाही की प्रमुख बोलियों में हाड़ौती, किशनगढ़ी, तोरावाटी, राजावाटी, अजमेरी, चौरासी, नागरचोल आदि हैं।

मेवाती मेवात क्षेत्र की बोली है जो राजस्थान के अलवर जिले की किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविन्दगढ़ तथा लक्ष्मणगढ़ तहसील एवं भरतपुर जिले की कामा, डीग तथा नगर तहसील में बोली जाती है। बूंदी, कोटा तथा झालावाड़ क्षेत्र होड़ौती बोली के लिए प्रसिद्ध हैं।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 09:21 PM
अहीरवाटी अलवर जिले की बहरोड़ तथा मुण्डावर एवं किशनगढ़ जिले के पश्चिम भाग में बोली जाती है। लोकमंच के जाने-माने खिलाड़ी अली बख्स ने अपनी ख्याल रचनायें इसी बोली में लिखी।

राजस्थान की इस भौगोलिक संरचना का प्रभाव यहाँ के जनजीवन पर कई रुपों में पड़ा और यहाँ की संस्कृति को प्रभावित किया। अरावली पर्वत की श्रेणियों ने जहाँ बाहरी प्रभाव से इस प्रान्त को बचाये रखा वहाँ यहाँ की पारम्परिक जीवनधर्मिता में किसी तरह की विकृति नहीं आने दी। यही कारम है कि यहाँ भारत की प्राचीन जनसंस्कृति के मूल एवं शुद्ध रुप आज भी देखने को मिलते हैं।

शौर्य और भक्ति की इस भूमि पर युद्ध निरन्तर होते रहे। आक्रान्ता बराबर आते रहे। कई क्षत्रिय विजेता के रुप में आकर यहाँ बसते रहे किन्तु यहां के जीवनमूल्यों के अनुसार वे स्वयं ढ़लते रहे और यहाँ के बनकर रहे। बड़े-बड़े सन्तों, महन्तों और न्यागियों का यहाँ निरन्तर आवागमन होता रहा। उनकी अच्छाइयों ने यहाँ की संस्कृति पर अपना प्रभाव दिया, जिस कारण यहाँ विभिन्न धर्मों और मान्यताओं ने जन्म लिया किन्तु आपसी सौहार्द और भाईचारे ने यहाँ की संस्कृति को कभी संकुचित और निष्प्रभावी नहीं होने दिया।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 09:22 PM
राजस्थान में सभी अंचलों में बड़े-बड़े मन्दिर और धार्मिक स्थल हैं। सन्तों की समाधियाँ और पूजास्थल हैं। तीर्थस्थल हैं। त्यौहार और उत्सवों की विभिन्न रंगीनियां हैं। धार्मिक और सामाजिक बड़े-बड़े मेलों की परम्परा है। भिन्न-भिन्न जातियों के अपने समुदायों के संस्कार हैं। लोकानुरंजन के कई विविध पक्ष हैं। पशुओं और वनस्पतियों की भी ऐसी ही खासियत है। ख्यालों, तमाशों, स्वांगों, लीलाओं की भी यहाँ भरमार हैं। ऐसा प्रदेश राजस्थान के अलावा कोई दूसरा नहीं है।

स्थापत्य की दृष्टि से यह प्रदेश उतना ही प्राचीन है जितना मानव इतिहास। यहां की चम्बल, बनास, आहड़, लूनी, सरस्वती आदि प्राचीन नदियों के किनारे तथा अरावली की उपत्यकाओं में आदिमानव निवास करता था। खोजबीन से यह प्रमाणित हुआ है कि यह समय कम से कम भी एक लाख वर्ष पूर्व का था।

यहां के गढ़ों, हवेलियों और राजप्रासादों ने समस्त वि का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। गढ़-गढ़ैये तो यहाँ पथ-पथ पर देखने को मिलेंगे। यहां का हर राजा और सामन्त किले को अपनी निधि और प्रतिष्ठा का सूचक समझता था। ये किले निवास के लिये ही नहीं अपितु जन-धन की सुरक्षा, सम्पति की रक्षा, सामग्री के संग्रह और दुश्मन से अपने को तथा अपनी प्रजा को बचाने के उद्देश्य से बनाये जाते थे।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 09:23 PM
बोलियों के लिए जिस प्रकार यह कहा जाता है कि यहां हर बारह कोस पर बोली बदली हुई मिलती हैं - बारां कोसां बोली बदले, उसी प्रकार हर दस कोस पर गढ़ मिलने की बात सुनी जाती है। छोट-बड़ा कोई गढ़-गढ़ैया ऐसा नही मिलेगा जिसने अपने आंगन में युद्ध की तलवार न तानी हो। खून की छोटी-मोटी होली न खेली हो और दुश्मनों के मस्तक को मैदानी जंग में गेंद की तरह न घुमाया हो। इन किलों का एक-एक पत्थर अपने में अनेक-अनेक दास्तान लिये हुए है। उस दास्तान को सुनते ही इतिहास आँखों पर चढञ आता है और रोम-रोम तीर-तलवार की भांति अपना शौर्य लिये फड़क उठता है।

शुक नीतिकारों ने दुर्ग के जिन नौ भेदों का उल्लेख किया है वे सभी प्रकार के दुर्ग यहां देखने को मिलते हैं। इनमें जिस दुर्ग के चारों ओर खाई, कांटों तथा पत्थरों से दुर्गम मार्ग बने हों वह एरण दुर्ग कहलाता है। चारों ओर जिसके बहुत बड़ी खाई हो उसे पारिख दुर्ग की संज्ञा दी गई हैं। एक दुर्ग पारिख दुर्ग कहता है जिसके चारो तरफ ईंट, पत्थर और मिट्टी की बड़ी-बड़ी दिवारों का विशाल परकोटा बना हुआ होता है। जो दुर्ग चारों ओर बड़े-बड़े कांटेदार वृक्षों से घिरा हुआ होता है वह वन दुर्ग ओर जिसके चारों ओर मरुभूमि का फैलाव हो वह धन्व दुर्ग कहलाता है।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 09:25 PM
इसी प्रकार जो दुर्ग चारों ओर जल से घिरा हो वह जल दुर्ग की कोटि में आता है। सैन्य दुर्ग अपने में विपुल सैनिक लिये होता है जबकि सहाय दुर्ग में रहने वाले शूर एवं अनुकूल आचरण करने वाले लोग निवास करते हैं। इन सब दुर्गों में सैन्य दुर्ग सर्वश्रेष्ठ दुर्ग कहा गया है।

""श्रेष्ठं तु सर्व दुर्गेभ्य: सेनादुर्गम: स्मृतं बुद:।''

राजस्थान का चित्तौड़ का किला तो सभी किलों का सिरमौर कहा गया है। कुम्भलगढ़, रणथम्भौर, जालौर, जोधपुर, बीकानेर, माण्डलगढ़ आदि के किले देखने से पता चलता है कि इनकी रचना के पीछे इतिहास, पुरातत्व, जीवनधर्म और संस्कृति के कितने विपुल सरोकार सचेतन तत्व अन्तर्निहित हैं।

यही स्थिति राजप्रासादों और हवेलियों की रही है। इनके निर्माण पर बाहर से आने वाले राजपूतों तथा मुगलों की संस्कृति का प्रभाव भी स्पष्टता: देखने को मिलता है। बूंदी, कोटा तथा जैसलमेर के प्रासाद मुगलसैली से प्रभावित हैं, जबकि उदयपुर का जगनिवास, जगमन्दिर, जोधपुर का फूलमहल, आमेर व जयपुर का दीवानेखास व दीनानेआम, बीकानेर का रंगमहल, शीशमहल आदि राजपूत व मुगल पद्धति का समन्व्य लिये हैं। मन्दिरों के स्थापत्य के साथ भी यही स्थिति रही। इन मन्दिरों के निर्माण में हिन्दू, मुस्लिम और मुगल शैली का प्रभाव देखकर उस समय की संस्कृति, जनजीवन, इतिहास और शासन प्रणाली का अध्ययन किया जा सकता है।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 09:28 PM
आबू पर्वत पर ४००० फुच की ऊँचाई पर बसे देलवाड़ा गाँव के समीप बने दो जैन मन्दिर संगमरमर के प्रस्तरकला की विलक्षण जालियों, पुतलियों, बेलबूटों और नक्काशियों के कारण सारे वि के महान आश्चर्य बने हुए हैं। प्रख्यात कला-पारखी रायकृष्ण दास इनके सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं -

संगमरमर ऐसी बारीकी से तराशा गया है
कि मानो किसी कुशल सुनार ने रेती से
रेत-रेत कर आभूषण बनाये हो। यहां पहुंचने
पर ऐसा मालूम होता है कि स्वप्न के
अद्भूत लोक में आ गये हैं। इनकी सुन्दरता
ताज से भी कहीं अधिक है। (भारतीय मूर्तिकार /
पृष्ठ १३३-१३४)

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 09:50 PM
इसी प्रकार जोधपुर का किराड़ मन्दिर, उदयपुर का नागदा का सास-बहू का मन्दिर, अर्घूणा का जैन मन्दिर, चित्तौड़ का महाराणा कुम्बा द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ, रणकपुर का अनेक कलात्मक खम्भों के लिये प्रसिद्ध जैन मन्दिर, बाड़मेर का किराडू मन्दिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। हवेली स्थापत्य की दृष्टि से रामगढ़, नवलगढ़, फतेहपुर की हवेलियां देखते ही बनती हैं। जैसलमेर की पटवों की हवेली तथा नथमल एवं सालमसिंह की हवेली, पत्थर की जाली एवं कटाई के कारण विश्वप्रसिद्ध हो गई। हवेली शैली के आधार पर यहां के वैष्णव मन्दिर भी बड़े प्रसिद्ध हैं। इन हवेलियों के साथ-साथ यहां के हवेली संगीत तथा हवेली-चित्रकला ने बी सांस्कृतिक जगत में अपनी अनूठी पहचान दी है।

चित्रकला की दृष्टि से भी राजस्थान अति समृद्ध है। यहाँ विभिन्न शैलियों के चित्रों का प्रचुर मात्रा में सजृन किया गया। ये चित्र किसी एक स्थान और एक कलाकार द्वारा निर्मित नहीं होकर विभिन्न नगरों, राजधानियों, धर्मस्थलों और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की देन हैं। राजाओं, सामन्तों, जागीरदारों, श्रेष्ढीजनों तथा कलाकारों द्वारा चित्रकला के जो रुप उद्घाटित हुए वे अपने समग्र रुप में राजस्थानी चित्रकला के व्यापक परिवेश से जुड़े किन्तु कवियों, चितासे, मुसव्विरों, मूर्तिकारों, शिल्पाचार्यों आदि का जमघट दरबारों में होने के कारण राजस्थानी चित्रकला की अजस्र धारा अनेक रियासती शैलियों, उपशैलियों को परिप्लावित करती हुई १७वीं-१८वीं शती में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची। अधिकांश रियासतों के चित्रकारों ने जिन-जिन तौर-तरीकों के चित्र बनाए, स्थानानुसार अपनी परिवेशगत मौलिकता, राजनैतिक सम्पर्क, सामाजिक सम्बन्धों के कारण वहां की चित्रशैली कहलाई।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 09:57 PM
पुरालेखा संग्रह का काल

भारत में पुरालेख संग्रह का काल वस्तुत: मुस्लिम शासकों की देन है। केन्द्रीय शासन का प्रान्तों और जिलों से तथा जिला इकाईयों का प्रांतीय प्रशासन और केन्द्र से पत्र व्यवहार, प्रशासनिक रिकॉर्ड, अभिदानों का वर्णन आदि हमें १३वीं शताब्दी से मिलने लगते हैं, किन्तु व्यवस्थित रुप में पुरालेखा सामग्री मुगलकाल और उसके पश्चात प्राप्त होती है। ब्रिटिश काल तो प्रशासनिक कार्यालयों पर आधारित था। अत: इस काल का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। राजस्थान में मुगल शासकों के प्रभाव तथा उनसे प्रशासनिक सम्बन्धों के कारण १६वीं शताब्दी के पश्चात् विभिन्न राज्यों में राजकीय पत्रों और कार्यवाहियों को सुरक्षित रखने का कार्य प्रारम्भ हुआ। मालदेव, मारवाड़ राज्य का प्रथम प्रशासक था, सम्भवत: जिसने मुगल बादशाह हुमायुं के पुस्तकलाध्यक्ष मुल्ला सुर्ख को रिका र्ड संग्रह अथवा पुस्तक संग्रह हेतु अपने राज्य में नियुक्त किया था। १५६२ ईं. से आमेर के राजघराने और १५१० ई. तक राजस्थान के अधिकांश शासकों ने मुगल शासक अकबर के समक्ष समपंण कर दिया था। उसके पश्चात वे मुगल प्रशासन में मनसबदार, जागीरदार आदि बनाये गये। इस प्रकार राजस्थान के राजघरानों में उनके और मुगल शासन के मध्य प्रशासनिक कार्यवाहियों का नियमित रिकॉर्ड रखा जाने लगा। ऐसे ही राज्यों और उनके जागीरदारों के मध्य भी रिकॉर्ड जमा हुआ। यह रिकॉर्ड यद्यपि १८-१९वीं शताब्दी में मराठा अतिक्रमणों, पिंडारियी की लूट-खसोट में नष्ट भी हुआ, किन्तु १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से रियासतों के राजस्थान राज्य में विलय होने तक का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में मिलता है। इसे रियासतों द्वारा राजस्थान सरकार को राज्य अभिलेखागार हेतु समर्पित कर दिया गया, फिर भी जागीरों के रिकॉर्ड तथा अन्य लोकोपयोगी पुरालेखा सामग्री भूतपूर्व राजाओं के पास अभी भी पड़ी हुई है।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 10:00 PM
राजस्थान का शौर्यपूर्ण इतिहास




देश (भारत) की आजादी के पूर्व राजस्थान १९ देशी रियासतों में बंटा था, जिसमें अजमेर केन्द्रशासित प्रदेश था। इन रियासतों में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा में गुहिल, जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ में राठौड़ कोटा और बूंदी में हाड़ा चौहान, सिरोही में देवड़ा चौहान, जयपुर और अलवर में कछवाहा, जैसलमेर और करौली में यदुवंशी एवं झालावाड़ में झाला राजपूत राज्य करते थे। टोंक में मुसलमानों एवं भरतपुर तथा धौलपुर में जाटों का राज्य था। इनके अलावा कुशलगढ़ और लावा की चीफशिप थी। कुशलगढ़ का क्षेत्रफल ३४० वर्ग मील था। वहां के शासक राठौड़ थे। लावा का क्षेत्रफल केवल २० वर्ग मील था। वहां के शासक नारुका थे।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 10:04 PM
राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहाससार कर्नल टॉड ने अपने ग्रंथ ""अनाल्स एण्ड अन्टीक्कीटीज आॅफ राजस्थान'' में कहा है, ""राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपली न हो और ऐसा कोई नगर नहीं, जिसने अपना लियोजन डास पैदा नहीं किया हौ।'' टॉड का यह कथन न केवल प्राचीन और मध्ययुग में वरन् आधुनिक काल में भी इतिहास की कसौटी पर खरा उतरा है। ८वीं शताब्दी में जालौर में प्रतिहार और मेवाड़ के गहलोत अरब आक्रमण की बाढ़ को न रोकते तो सारे भारत में अरबों की तूती बोलती न आती। मेवाड़ के रावल जैतसिंह ने सन् १२३४ में दिल्ला के सुल्तान इल्तुतमिश और सन् १२३७ में सुल्तान बलबन को करारी हार देकर अपनी अपनी स्वतंत्रता की रक्षी की। सन् १३०३ में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशान सेना के साथ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर हमला किया। चित्तौड़ के इस प्रथम शाके हजारों वीर वीरांगनाओं ने मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने आपको न्यौछावर कर दिया, पर खिलजी किले पर अधिकार करने में सफल हो गए। इस हार का बदला सन् १३२६ में राणा हमीर ने चुकाया, जबकि उसने खिलजी के नुमाइन्दे मालदेव चौहान और दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक की विशाल सेना को हराकर चित्तौड़ पर पुन: मेवाड़ की पताका फहराई।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 10:09 PM
१५वीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ का राणा कुम्भा उत्तरी भारत में एक प्रचण्ड शक्ति के रुप में उभरा। उसने गुजरात, मालवा, नागौर के सुल्तान को अलग-अलग और संयुक्त रुप से हराया। सन् १५०८ में राणा सांगा ने मेवाड़ की बागडोर संभाली। सांगा बड़ा महत्वाकांक्षी था। वह दिल्ली में अपनी पताका फहराना चाहता था। समूचे राजस्थान पर अपना वर्च स्थापित करने के बाद उसने दिल्ली, गुजरात और मालवा के सुल्तानों को संयुक्त रुप से हराया। सन् १५२६ में फरगाना के शासक उमर शेख मिर्जा के पुत्र बाबर ने पानीपत के मैदान में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकर कर लिया। सांगा को विश्वास था कि बाबर भी अपने पूर्वज तैमूरलंग की भांति लूट-खसोट कर अपने वतन लौट जाएगा, पर सांगा का अनुमार गलत साबित हुआ। यही नहीं, बाबर सांगा से मुकाबला करने के लिए आगरा से रवाना हुआ। सांगा ने भी समूचे राजस्थान की सेना के साथ आगरा की ओर कूच किया। बाबर और सांगा की पहली भिडन्त बयाना के निकट हुई। बाबर की सेना भाग खड़ी हुई। बाबर ने सांगा से सुलह करनी चाही, पर सांगा आगे बढ़ताही गया। तारीख १७ मार्च, १५२७ को खानवा के मैदान में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। मुगल सेना के एक बार तो छक्के छूट गए। किंतु इसी बीच दुर्भाग्य से सांगा के सिर पर एक तीर आकर लगा जिससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे युद्ध क्षेत्र से हटा कर बसवा ले जाया गया। इस दुर्घटना के साथ ही लड़ाई का पासा पलट गया, बाबर विजयी हुआ। वह भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने में सफल हुआ, स्पष्ट है कि मुगल साम्राज्य की स्थापना में पानीपत का नहीं वरन् खानवा का युद्ध निर्णायक था।

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23-05-2011, 10:11 PM
खानवा के युद्ध ने मेवाड़ की कमर तोड़ दी। यही नहीं वह वर्षो तक ग्रह कलह का शिकार बना रहा। अब राजस्थान का नेतृत्व मेवाड़ शिशोदियों के हाथ से निकल कर मारवाड़ के राठौड़ मालदेव के हाथ में चला गया। मालदेव सन् १५५३ में मारवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने मारवाड़ राज्य का भारी विस्तार किया। इस समय शेरशाह सूरी ने बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूं को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने राजस्थान में मालदेव की बढ़ती हुई शक्ति देखकर मारवाड़ के निकट सुमेल गांव में शेरशाह की सेना के ऐसे दाँत खट्टे किये कि एक बार तो शेरशाह का हौसला पस्त हो गया। परन्तु अन्त में शेरशाह छल-कपट से जीत गया। फिर भी मारवाड़ से लौटते हुए यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा - ""खैर हुई वरना मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की सल्तनत खो देता।''

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 10:12 PM
सन् १५५५ में हुमायूं ने दिल्ली पर पुन: अधिकार कर लिया। पर वह अगले ही वर्ष मर गया। उसके स्थान पर अकबर बादशाह बना। उसने मारवाड़ पर आक्रमण कर अजमेर, जैतारण, मेड़ता आदि इलाके छीन लिए। मालदेव स्वयं १५६२ में मर गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् मारवाड़ का सितारा अस्त हो गया। सन् १५८७ में मालदेव के पुत्र मौटा राजा उदयसिंह ने अपनी लड़की मानाबाई का विवाह शहजादे सलीम से कर अपने आपको पूर्णरुप से मुगल साम्राज्य को समर्पित कर दिया। आमेर के कछवाहा, बीकानेर के राठौड़, जैसलमेर के भाटी, बूंदी के हाड़ा, सिरोही के देवड़ा और अन्य छोटे राज्य इससे पूर्व ही मुगलों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 10:13 PM
अकबर की भारत विजय में केवल मेवाड़ का राणा प्रताप बाधक बना रहा। अकबर ने सन् १५७६ से १५८६ तक पूरी शक्ति के साथ मेवाड़ पर कई आक्रमण किए, पर उसका राणा प्रताप को अधीन करने का मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ स्वयं अकबर प्रताप की देश-भक्ति और दिलेरी से इतना प्रभावित हुआ कि प्रताप के मरने पर उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने स्वीकार किया कि विजय निश्चय ही गहलोत राणा की हुई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रताप जैसे नर-पुंगवों के जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर अनेक देशभक्त हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गए।

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 10:22 PM
दोस्तों आपके सामने राजस्थान के इतिहास से जुडी कुछ फोटो




http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10865&stc=1&d=1306171166

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 10:23 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10866&stc=1&d=1306171166

The ROYAL "JAAT''
23-05-2011, 10:24 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10867&stc=1&d=1306171166

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 11:52 AM
महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी अमर सिहं ने मुगल सम्राट जहांगीर से संधि कर ली। उसने अपने पाटवी पुत्र को मुगल दरबार में भेजना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार १०० वर्ष बाद मेवाड़ की स्वतंत्रता का भी अन्त हुआ। मुगल काल में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, और राजस्थान के अन्य राजाओं ने मुगलों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर मुगल साम्राज्यों के विस्तार और रक्षा में महत्वपूर्ण भाग अदा किया। साम्राज्य की उत्कृष्ट सेवाओं के फलस्वरुप उन्होंने मुगल दरबार में बड़े-बड़े औहदें, जागीरें और सम्मान प्राप्त किये।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 11:53 AM
राजस्थानी मंदिर वास्तु शिल्प


राजस्थान का वास्तुशिल्प की श्रीवृद्धि में उल्लेखनीय योगदान रहा है। मन्दिर वास्तु शिल्प के उद्भव का स्रोत वे छोटे-छोटे मन्दिर रहे हैं जिन्हें प्रारम्भ में लोगों की धार्मिक अनुभूतियों को प्रोत्साहित करने के लिए बनवाया गया था। प्रारम्भ में बने मन्दिरों में केवल एक कक्ष होता था जिसके साथ दालान जुड़ा रहता था, चौथी और पांचवी सदियां स्थापत्य शिल्प के इतिहास में स्वर्ण युग की अगुआ रही है जब रुप सज्जा और धार्मिक निष्ठा संयोग ने भक्तों पर प्रभाव डाला।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 11:55 AM
राजस्थान केवल अपनी कीर्ति कथाओं या त्याग और बलिदानों के कारण ही यशस्वी नहीं है अपितु अपने असंख्य समृद्धिशाली मन्दिरों के लिए भी प्रसिद्ध है। स्थापत्य शिल्प के क्षेत्र में राजस्थान ने स्वयं अपनी एक अत्युत्तम शैली को जन्म दिया जो ओसिया, किराडु, हर्ष, अजमेर, आबू, चन्द्रावती, बाडौली, गंगोधरा, मेनाल, चित्तौड़, जालौर और बागेंहरा के रमणीक मन्दिरों में दृष्टव्य है। चौहानों, परमारों और कुछ अन्य राजपूत वंशों के महान निर्माताओं की संज्ञा दी जानी चाहिए और पृथ्वीराज विजय उनकी उपलब्धियों में मात्र जीते हुए युद्धों का ही नहीं वरन् उनके द्वारा निर्मित महान और श्रेष्ठ मन्दिरों के निर्माण की भी महान कहानी है।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 11:56 AM
साथ-साथ बने हिन्दू और जैन मन्दिरों के निर्माण में स्थापत्य के सिद्धान्त एक-दूसरे के अत्यन्त अनुरुप थे। मुख्य संस्थापक मंदिरों की रुपरेखा और योजना बनाने के लिए उत्तरदायी होता ता। इनका निष्पादन शिल्पी, स्थापक, सूत्र ग्राहिणी, तक्षक और विरधाकिन आदि कारीगर करते थे। यद्यपि इन संरचनाओं में एकरुपता दृष्टिगोचर होती है तथापि इन पर क्षेत्रीय प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका जो मंदिरों, गर्भग्रहों, शिखरों और छतों के अलंकरणों में दृष्टव्य है।


राजस्थान को स्थापत्य शिल्प का उत्तराधिकारी सीधा गुहा काल से प्राप्त हुआ जो कला के नये कीर्तिमानों की प्रचुरता के कारण स्वर्ण युग माना जाता है। ओसिया के मन्दिर स्थापत्य कला के केत्र में अत्यधिक पूर्णता प्राप्त स्मारक हैं।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 11:57 AM
चित्तौड़ग के समीप नागरी में प्राप्त ४८१ ई. के एक शिलालेख से राजस्थान में प्रारम्भिक वैष्णव मन्दिरों का प्रभाव ज्ञात होता है#ै। जहां तक राजस्थान का सम्बन्ध है, पहली से सातवीं सदी तक मेवाड़ की भूमि वैष्णवों का मुक्य गढ़ रहा था जहां के भक्तों की कृष्ण और बलराम पर अनन्य श्रृद्धा थी। सातवीं सदी के पश्चात् निर्मित मन्दिरों पर तांत्रिक प्रभाव पड़े बिना न रह सका जो वैष्णव मन्दिरों की सज्जा में स्पष्टत: परिलक्षित होने लगा था।

अलवर के तसाई शिलालेख के अनुसार बलराम के साथ-साथ वारुणी की भी पूजा होती थी। दसवीं ग्याहरवीं सदी के जगत और रामगढ़ के मन्दिरों अन्य उदाहरण हैं जिनमें तांत्रिक अभ्यास का ज्ञान होता था। राजस्थान में प्रतिहारों का युग उन मन्दिरों के निर्माण के लिए उल्लेखनीय है जिनमें सूर्य और शिव की मूर्तियां प्रतिष्ठित की गई हैं। भीनमाल, ओसिया, मण्डोर और हर्षनाथ के मन्दिर जिनमें भगवान् सूर्य प्रतिष्ठित हैं, राजस्थानी स्थापत्य शिल्प की मनोहारी कृतियां हैं।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 11:58 AM
प्रतिहार में कोई निश्चित देवी-देवता नहीं था। कुछ लोग वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे तो कुछ शैव सम्प्रदाय को मानने वाले थे। उदाहरण के लिए रामभद्र सूर्य का अनन्य भक्त था लेकिन माथनदेव शिवपूजा का समर्थक था। मेवाड़ में शिव मन्दिर की भरमार थी जिन में सर्वाधिक प्रसिद्ध है एकलिंग जी का मंदिर जिसे परम्परानुसार सर्वप्रथम महारावल द्वारा निर्मित बताया जाता है।

शिव, विष्णु और सूर्य निर्मित देवताओं के अतिरिक्त राजस्थान के मन्दिरों में शक्ति के साथ-साथ भगवती, दुर्गा की प्रतिष्ठा की गयी थी। इनमें जगत, मण्डोर, जयपुर और पुष्कर का ब्रह्मा मन्दिर उल्लेखनीय है। आबानेरी और मण्डोर में नृत्य करते हुए गणेश की मूर्तियां भी पाई जाती हैं।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:01 PM
राजस्थान की कुछ संग्रहनीय कलाकृतियां


http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10877&stc=1&d=1306220385

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:01 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10878&stc=1&d=1306220385

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:02 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10879&stc=1&d=1306220385

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:07 PM
मध्य युग में मन्दिर वास्तुशिल्प उत्तरी और दक्षिण शैलियों में विभाजित हो गया था। आधार रचना में समानता के बावजूद अन्य भागों के निर्माण में अपने-अपने लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे थे। सम्भवत: इस परिवर्तन का कारण भौगोलिक प्रभाव और क्षेत्र के लोगों की पूजन विधियों में अन्तर रहा हो। राजस्थान में मन्दिरों पर दक्षिणी स्थापत्य शैली का प्रभाव पड़े बिना न रह सका। उत्तर के मन्दिरों पर दक्षिणी स्थापत्य शैली का प्रभाव पड़े बिना न रह सका, इनके शिखरों और मण्डलों की निर्माण रचना दक्षिण से भिन्न रही है। कड़ियों, छज्जों द्वारा शिखर के स्वरुप का विधान किया जाता था, जो पर जाकर पाट को सीमित कर देता था। इसके शीर्ष पर आमलक अपने भार से सम्पूर्ण संरचना को आबद्ध रखता था।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:08 PM
दसवीं तथा ग्याहरवीं सदियों में रामगढ़ और जगत के मन्दिरों का निर्माण मन्दिर स्थापत्य कला में एक नूतन दिशा का उद्घोष रहा। राग विषयक दृश्यों के चित्रण को भक्तों में सुखपूर्वक जीवनयापन के लिए ज्ञान के रुप में प्रसारित करना बताया जाता है। इन मिथुन मूर्तियों की नक्काशी का अन्य कारण सांसरिक सुखों और भोगों से विरक्त रहने के लिए भी हो सकता है। इस काल में शिव समप्रदाय का भी प्रभुत्व रहा था।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:09 PM
ठाकुर फेरु द्वारा १३१५ ई. में लिखित एक मनोरंजक ग्रंथ वास्तुशास्र, राजस्थान में जैन मन्दिरों के स्थापत्य शिल्प की व्यवहारिक कुंजी रहा है। इसमें वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित स्थापत्य शिल्प के सिद्धान्तों प्रतिपादन किया गया है, जिसका इन मन्दिरों के कलाकारों के द्वारा अक्षरस: पालन किया गया। केवल हिन्दुओं और जैन मतावलम्बियों के धार्मिक प्रासादों के पूजाग्रहों में स्थापित मूर्तियों की भिन्नता के अलावा दोनों ही के मन्दिरों की स्थापत्य कला मिलती-जुलती थी और एक बार तो दोनों धर्मों के निर्मातोओं द्वारा उन्हीं शिल्पियों और स्थापकों को इनके निर्माण के लिए बुलाया जाता रहा। उत्तरी भारत के जैन मन्दिरों में ग्याहरवीं-तेरहवीं सदी में बने आबू के जैन मन्दिर अपनी विशिष्ठ शैली वाले हैं। इनकी रचना मकराना के सफेद संगमरमर से हुई है और ये प्रभावोत्पादक अलंकृत स्तम्भों से शोभायुक्त है। भित्तियों और स्तम्भों की सजावट घिस-घिस कर की गई है काट-काटकर नहीं। यह पद्धति सदियों तक काम में लायी जाती रही और बाद में मुगल वास्तुकारों ने ग्रहण किया।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:10 PM
बाहरवीं सदी से लेकर तेहरवीं सदी का काल राजपूत राजाओं में आन्तरिक वैमनस्य और दुर्जेय मुगलों के साथ-साथ संघर्ष का कथानक है। इसी परिस्थिति में राजा और प्रजा दोनों के लिए सुन्दर प्रसादों का निर्माण करवा पाना सहज नहीं था। वर्तमान मन्दिरों को भी मुसलमान मूर्ति-भंजनों ने बहुत क्षिति पहुंचाई। इसका एक कारण उनकी वह अंधी ईर्ष्या भी थी जिसके द्वारा वे अपनी स्थापत्य कला को श्रेष्ठता की स्थिति में पहुंचाना चाहते थे। उनके हाथों विनाश से शायद ही कोई मन्दिर बच पाया हो। चित्तौड़गढ़, रणकपुर और राजस्थान के अन्य मंदिर आज भी उस धार्मिक प्रतिशोध की शोकमयी कहानी कहते हैं।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:12 PM
अनिश्चय की स्थितियों और मुगलों के आधिपत्य के बावजूद, चौदहवीं और पन्द्रहवीं सदी में अचलगढ़, पीपड़, रणकपुर और चित्तौड़गढ़ के मन्दिरों का आविर्भाव हुआ।

मुसलमानी काल में उत्पीड़न के होते हुए भी धार्मिक उत्साह में कोई कमी नहीं आई। अंग्रेजों के राज्य में मन्दिर बनवाने वालों को न तो तंग किया गया, न उन्हें किसी प्रकार का प्रोत्साहन ही प्राप्त हुआ। जयपुर में जयपुर की महारानी ने माधो बिहारी जी के मन्दिर का निर्माण करवाया। पिलानी में सफेद संगमरमर से निर्मित शारदा मन्दिर, राजस्थान के मन्दिर स्थापत्य शिल्प के इतिहास में बिड़ला परिवार का उल्लेखनीय योगदान है

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 12:32 PM
राजस्थानी कला : इतिहास का पूरक साधन



राजस्थानी स्थापत्य कला
मुद्रा कला
मूर्ति कला
धातु मूर्ति कला
चित्रकला
धातु एवं काष्ठ कला
लोककला

kuram
24-05-2011, 01:28 PM
१५वीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ का राणा कुम्भा उत्तरी भारत में एक प्रचण्ड शक्ति के रुप में उभरा। उसने गुजरात, मालवा, नागौर के सुल्तान को अलग-अलग और संयुक्त रुप से हराया। सन् १५०८ में राणा सांगा ने मेवाड़ की बागडोर संभाली। सांगा बड़ा महत्वाकांक्षी था। वह दिल्ली में अपनी पताका फहराना चाहता था। समूचे राजस्थान पर अपना वर्च स्थापित करने के बाद उसने दिल्ली, गुजरात और मालवा के सुल्तानों को संयुक्त रुप से हराया। सन् १५२६ में फरगाना के शासक उमर शेख मिर्जा के पुत्र बाबर ने पानीपत के मैदान में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकर कर लिया। सांगा को विश्वास था कि बाबर भी अपने पूर्वज तैमूरलंग की भांति लूट-खसोट कर अपने वतन लौट जाएगा, पर सांगा का अनुमार गलत साबित हुआ। यही नहीं, बाबर सांगा से मुकाबला करने के लिए आगरा से रवाना हुआ। सांगा ने भी समूचे राजस्थान की सेना के साथ आगरा की ओर कूच किया। बाबर और सांगा की पहली भिडन्त बयाना के निकट हुई। बाबर की सेना भाग खड़ी हुई। बाबर ने सांगा से सुलह करनी चाही, पर सांगा आगे बढ़ताही गया। तारीख १७ मार्च, १५२७ को खानवा के मैदान में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। मुगल सेना के एक बार तो छक्के छूट गए। किंतु इसी बीच दुर्भाग्य से सांगा के सिर पर एक तीर आकर लगा जिससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे युद्ध क्षेत्र से हटा कर बसवा ले जाया गया। इस दुर्घटना के साथ ही लड़ाई का पासा पलट गया, बाबर विजयी हुआ। वह भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने में सफल हुआ, स्पष्ट है कि मुगल साम्राज्य की स्थापना में पानीपत का नहीं वरन् खानवा का युद्ध निर्णायक था।


सांगा की सेना तीर लगने से नहीं बल्कि बाबर के तोपखाने के कारण हारी थी. राजपूतो की सेना तोपखाने से अनजान थी. उसके घोड़े भी धमाको के अभ्यस्त नहीं होने के कारण वो तोप के धमाको से बिदक कर भागने लगे. बाबर की सेना भी राजपूतो से इतनी खौफजदा थी की उसने लड़ने से मना कर दिया था लेकिन बाबर ने धार्मिक और जोश भरा भाषण दिया और सेना को लड़ने के लिए तैयार कर लिया. खुद राणा सांगा अपने शरीर पर अस्सी घाव लिए था. युद्ध के समय भी उसका एक हाथ एक पैर और एक आँख बेकार थी.

जयचंद (पृथ्वीराज का ससुर ) की सेना जरूर जयचंद की आँख में तीर लगने से हारी थी. उसकी आँख में तीर उस समय लगा जब गौरी का हारना लगभग तय था.

kuram
24-05-2011, 01:36 PM
खानवा के युद्ध ने मेवाड़ की कमर तोड़ दी। यही नहीं वह वर्षो तक ग्रह कलह का शिकार बना रहा। अब राजस्थान का नेतृत्व मेवाड़ शिशोदियों के हाथ से निकल कर मारवाड़ के राठौड़ मालदेव के हाथ में चला गया। मालदेव सन् १५५३ में मारवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने मारवाड़ राज्य का भारी विस्तार किया। इस समय शेरशाह सूरी ने बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूं को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने राजस्थान में मालदेव की बढ़ती हुई शक्ति देखकर मारवाड़ के निकट सुमेल गांव में शेरशाह की सेना के ऐसे दाँत खट्टे किये कि एक बार तो शेरशाह का हौसला पस्त हो गया। परन्तु अन्त में शेरशाह छल-कपट से जीत गया। फिर भी मारवाड़ से लौटते हुए यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा - ""खैर हुई वरना मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की सल्तनत खो देता।''

जब शेरशाह राजस्थान को जीतने के लिए आया तो सारे राजपूत उसको हारने के लिए इक्कठे हुए. दोनों तरफ सेना का डेरा लगा हुआ था. शेरशाह ने कपट से एक ख़त राजपूतो के खेमे के पास गिरवा दिया जिसके अनुसार एक राजपूत सरदार ( नाम याद नहीं रहा माफ़ करे ) शेरशाह से मिला हुआ है और वो एन मौके पर शेरशाह से मिल जाएगा. बस राजपूतो में बहस शुरू हो गयी. उस राजपूत सरदार पर आरोप प्रत्यारोप चालु हो गए. वो अपने आरोपों को गलत साबित करने के लिए अपने आठ हजार सैनिको के साथ शेरशाह की लाखो की तादाद वाली सेना पर टूट पडा. आठ हजार राजपूत रण में कट गए लेकिन शेरशाह के कम से कम चालीस हजार सैनिक मारे गए. शेरशाह ने तुरंत सेना को दिल्ली के लिए कूच करने का आदेश दिया और दिल्ली आने के बाद अपनी किताब में लिखा " मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैंने अपना सारा राज्य दांव पर लगा दिया था"

kuram
24-05-2011, 01:47 PM
अकबर की भारत विजय में केवल मेवाड़ का राणा प्रताप बाधक बना रहा। अकबर ने सन् १५७६ से १५८६ तक पूरी शक्ति के साथ मेवाड़ पर कई आक्रमण किए, पर उसका राणा प्रताप को अधीन करने का मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ स्वयं अकबर प्रताप की देश-भक्ति और दिलेरी से इतना प्रभावित हुआ कि प्रताप के मरने पर उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने स्वीकार किया कि विजय निश्चय ही गहलोत राणा की हुई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रताप जैसे नर-पुंगवों के जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर अनेक देशभक्त हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गए।

जी हाँ, राणा प्रताप राजस्थान ही नहीं पूरे विश्व में सम्मान के लायक है. जहां अनेक राजपूत जाती और गौरव के घमंड में चूर थे. राणा प्रताप ने भील और मीणा जाती को बराबर स्थान दिया और जातिवाद के खिलाफ जाकर रोटी का नाता कायम किया. राणा उस महान वंश से थे जिनके पुरखे शेरनी के पंजो से घायल हो गए लेकिन पलट कर वार नहीं किया क्योंकि मादा पे वार करना परम्परा के विपरीत था. जहां मुग़ल सेना युद्ध के समय छल कपट का सहारा लेने से नहीं चुकती थी वाही राणा ने युद्ध में भी धर्म और इंसानीयत का पालन किया. घर आये मानसिंह को भी खाना खिलाकर सकुशल वापिस भेजा. अपनी सेना को प्रताप का सख्त आदेश था की "स्त्री और निहत्थे लोगो पर हथियार नहीं उठाये".

अंत में राणा के लिए इतना ही -

जननी जन ऐसी जनी - जेड़ो राणा प्रताप |अकबर सुत्यो उचके जान सिराणे सांप ||

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 09:43 PM
जी हाँ, राणा प्रताप राजस्थान ही नहीं पूरे विश्व में सम्मान के लायक है. जहां अनेक राजपूत जाती और गौरव के घमंड में चूर थे. राणा प्रताप ने भील और मीणा जाती को बराबर स्थान दिया और जातिवाद के खिलाफ जाकर रोटी का नाता कायम किया. राणा उस महान वंश से थे जिनके पुरखे शेरनी के पंजो से घायल हो गए लेकिन पलट कर वार नहीं किया क्योंकि मादा पे वार करना परम्परा के विपरीत था. जहां मुग़ल सेना युद्ध के समय छल कपट का सहारा लेने से नहीं चुकती थी वाही राणा ने युद्ध में भी धर्म और इंसानीयत का पालन किया. घर आये मानसिंह को भी खाना खिलाकर सकुशल वापिस भेजा. अपनी सेना को प्रताप का सख्त आदेश था की "स्त्री और निहत्थे लोगो पर हथियार नहीं उठाये".

अंत में राणा के लिए इतना ही -

जननी जन ऐसी जनी - जेड़ो राणा प्रताप |अकबर सुत्यो उचके जान सिराणे सांप ||
भाई तुम्हारी बात से में असहमत नही हूं बल्कि बहुत खुशी है की तुमने बहुत अच्छी जानकारी दी में थैंक्स करता हूं पर भाई मेने ये जानकारी एक पर्तिस्ठीत साईट से जुटी हैं इसलिए मेरे पास इसके ठोस प्रमाण नही हैं लगता हैं हम एक ही जेसी सोच रखने वाले इतिहास और विज्ञान के कीड़े है ..... दोस्त अपनी अनमोल जानकारी के लिए धन्यवाद करता हूं आगे भी अपनी जानकारी हमें देते रहना दोस्त एक बार फिर से धन्यवाद

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 09:48 PM
इतिहास के साधनों में शिलालेख, पुरालेख और साहित्य के समानान्तर कला भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा हमें मानव की मानसिक प्रवृतियों का ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता वरन् निर्मितियों में उनका कौशल भी दिखलाई देता है। यह कौशल तत्कालीन मानव के विज्ञान तथा तकनीक के साथ-साथ समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक विषयों का तथ्यात्मक विवरण प्रदान करने में इतिहास का स्रोत बन जाता है। इसमें स्थापत्या, मूर्ति, चित्र, मुद्रा, वस्राभूषण, श्रृंगार-प्रसाधन, घरेलु उपकरण इत्यादि जैसे कई विषय समाहित है जो पुन: विभिन्न भागों में विभक्त किए जा सकते हैं।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 09:50 PM
राजस्थानी स्थापत्य कला


राजस्थान में प्राचीन काल से ही हिन्दु, बौद्ध, जैन तथा मध्यकाल से मुस्लिम धर्म के अनुयायियों द्वारा मंदिर, स्तम्भ, मठ, मस्जिद, मकबरे, समाधियों और छतरियों का निर्माण किया जाता रहा है। इनमें कई भग्नावेश के रुप में तथा कुछ सही हालत में अभी भी विद्यमान है। इनमें कला की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन देवालयों के भग्नावशेष हमें चित्तौड़ के उत्तर में नगरी नामक स्थान पर मिलते हैं। प्राप्त अवशेषों में वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म की तक्षण कला झलकती है। तीसरी सदी ईसा पूर्व से पांचवी शताब्दी तक स्थापत्य की विशेषताओं को बतलाने वाले उपकरणों में देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षिणियों की कई मूर्तियां, बौद्ध, स्तूप, विशाल प्रस्तर खण्डों की चाहर दीवारी का एक बाड़ा, ३६ फुट और नीचे से १४ फुल चौड़ दीवर कहा जाने वाला "गरुड़ स्तम्भ' यहां भी देखा जा सकता है। १५६७ ई. में अकबर द्वारा चित्तौड़ आक्रमण के समय इस स्तम्भ का उपयोग सैनिक शिविर में प्रकाश करने के लिए किया गया था। गुप्तकाल के पश्चात् कालिका मन्दिर के रुप में विद्यमान चित्तौड़ का प्राचीन "सूर्य मन्दिर' इसी जिले में छोटी सादड़ी का भ्रमरमाता का मन्दिर कोटा में, बाड़ौली का शिव मन्दिर तथा इनमें लगी मूर्तियां तत्कालीन कलाकारों की तक्षण कला के बोध के साथ जन-जीवन की अभिक्रियाओं का संकेत भी प्रदान करती हैं। चित्तौड़ जिले में स्थित मेनाल, डूंगरपुर जिले में अमझेरा, उदयपुर में डबोक के देवालय अवशेषों की शिव, पार्वती, विष्णु, महावीर, भैरव तथा नर्तकियों का शिल्प इनके निर्माण काल के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का क्रमिक इतिहास बतलाता है।

The ROYAL "JAAT''
24-05-2011, 09:53 PM
सातवीं शताब्दी से राजस्थान की शिल्पकला में राजपूत प्रशासन का प्रभाव हमें शक्ति और भक्ति के विविध पक्षों द्वारा प्राप्त होता है। जयपुर जिले में स्थित आमानेरी का मन्दिर (हर्षमाता का मंदिर), जोधपुर में ओसिया का सच्चियां माता का मन्दिर, जोधपुर संभाग में किराडू का मंदिर, इत्यादि और भिन्न प्रांतों के प्राचीन मंदिर कला के विविध स्वरों की अभिव्यक्ति संलग्न राजस्थान के सांस्कृतिक इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले स्थापत्य के नमूने हैं।

उल्लेखित युग में निर्मित चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथंभोर, गागरोन, अचलगढ़, गढ़ बिरली (अजमेर का तारागढ़) जालोर, जोधपुर आदि के दुर्ग-स्थापत्य कला में राजपूत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं। सरक्षा प्रेरित शिल्पकला इन दुर्गों की विशेषता कही जा सकती है जिसका प्रभाव इनमें स्थित मन्दिर शिल्प-मूर्ति लक्षण एवं भवन निर्माण में आसानी से परिलक्षित है। तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् स्थापत्य प्रतीक का अद्वितीय उदाहरण चित्तौड़ का "कीर्ति स्तम्भ' है, जिसमें उत्कीर्म मूर्तियां जहां हिन्दू धर्म का वृहत संग्रहालय कहा जा सकता है। वहां इसकी एक मंजिल पर खुदे फारसी-लेख से स्पष्ट होता है कि स्थापत्य में मुस्लिम लक्ष्ण का प्रभाव पड़ना शुरु होने लगा था।

सत्रहवीं शताब्दी के पश्चात् भी परम्परागत आधारों पर मन्दिर बनते रहे जिनमें मूर्ति शिल्प के अतिरिक्त भित्ति चित्रों की नई परम्परा ने प्रवेश किया जिसका अध्ययन राजस्थानी इतिहास के लिए सहयोगकर है।

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24-05-2011, 10:00 PM
मुद्रा कला...........

राजस्थान के प्राचीन प्रदेश मेवाड़ में मज्झमिका (मध्यमिका) नामधारी चित्तौड़ के पास स्थित नगरी से प्राप्त ताम्रमुद्रा इस क्षेत्र को शिविजनपद घोषित करती है। तत्पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी की स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई। जनरल कनिंघम को आगरा में मेवाड़ के संस्थापक शासक गुहिल के सिक्के प्राप्त हुए तत्पश्चात ऐसे ही सिक्के औझाजी को भी मिले। इसके उर्ध्वपटल तथा अधोवट के चित्रण से मेवाड़ राजवंश के शैवधर्म के प्रति आस्था का पता चलता है। राणा कुम्भाकालीन (१४३३-१४६८ ई.) सिक्कों में ताम्र मुद्राएं तथा रजत मुद्रा का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। इन पर उत्कीर्ण वि.सं. १५१०, १५१२, १५२३ आदि तिथियों ""श्री कुभंलमेरु महाराणा श्री कुभंकर्णस्य'', ""श्री एकलिंगस्य प्रसादात'' और ""श्री'' के वाक्यों सहित भाले और डमरु का बिन्दु चिन्ह बना हुआ है। यह सिक्के वर्गाकृति के जिन्हें "टका' पुकारा जाता था। यह प्रबाव सल्तनत कालीन मुद्रा व्यवस्था को प्रकट करता है जो कि मेवाड़ में राणा सांगा तक प्रचलित रही थी। सांगा के पश्चात् शनै: शनै: मुगलकालीन मुद्रा की छाया हमें मेवाड़ और राजस्थान के तत्कालीन अन्यत्र राज्यों में दिखलाई देती है। सांगा कालीन (१५०९-१५२८ ई.) प्राप्त तीन मुद्राएं ताम्र तथा तीन पीतल की है। इनके उर्ध्वपटल पर नागरी अभिलेख तथा नागरी अंकों में तिथि तथा अधोपटल पर ""सुल्तान विन सुल्तान'' का अभिलेख उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। प्रतीक चिन्हों में स्वास्तिक, सूर्य और चन्द्र प्रदर्शित किये गए हैं। इस प्रकार सांगा के उत्तराधिकारियों राणा रत्नसिंह द्वितीय, राणा विक्रमादित्य, बनवीर आदि की मुद्राओं के संलग्न मुगल-मुद्राओं का प्रचलन भी मेवाड में रहा था जो टका, रुप्य आदि कहलाती थी।

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24-05-2011, 10:02 PM
परवर्ती काल में आलमशाही, मेहताशाही, चांदोडी, स्वरुपशाही, भूपालशाही, उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलवाड़ी त्रिशूलिया, फींतरा आदि कई मुद्राएं भिन्न-भिन्न समय में प्रचलित रहीं वहां सामन्तों की मुद्रा में भीण्डरीया पैसा एवं सलूम्बर का ठींगला व पदमशाही नामक ताम्बे का सिक्का जागीर क्षेत्र में चलता था। ब्रिटीश सरकार का "कलदार' भी व्यापार-वाणिज्य में प्रयुक्त किया जाता रहा था। जोधपुर अथवा मारवाड़ प्रदेश के अन्तर्गत प्राचीनकाल में "पंचमार्क' मुद्राओं का प्रचलन रहा था। ईसा की दूसरी शताब्दी में यहां बाहर से आए क्षत्रपों की मुद्रा "द्रम' का प्रचलन हुआ जो लगभग सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में आर्थिक आधार के साधन-रुप में प्रतिष्ठित हो गई। बांसवाड़ा जिले के सरवानियां गांव से १९११ ई. में प्राप्त वीर दामन की मुद्राएं इसका प्रमाण हैं। प्रतिहार तथा चौहान शासकों के सिक्कों के अलावा मारवाड़ में "फदका' या "फदिया' मुद्राओं का उल्लेख भी हमें प्राप्त होता है।

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24-05-2011, 10:14 PM
मुद्राओं को ढ़ालने वाली टकसालों तथा उनके ठप्पों का भी अध्ययन अपेक्षित है। इनसे तत्कालीन मुद्रा-विज्ञान पर वृहत प्रकाश डाला जा सकता है। मुद्राओं पर उल्लेखित विवरणों द्वारा हमें सत्ता के क्षेत्र विस्तार, शासकों के तिथिक्रम ही नहीं मिलते वरन् इनसे राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन भी किया जा सकता है।

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25-05-2011, 10:46 AM
मूर्ति कला...........

राजस्थान में काले, सफेद, भूरे तथा हल्के सलेटी, हरे, गुलाबी पत्थर से बनी मूर्तियों के अतिरिक्त पीतल या धातु की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। गंगा नगर जिले के कालीबंगा तथा उदयपुर के निकट आहड़-सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी से बनाई हुई खिलौनाकृति की मूर्तियां भी मिलती हैं। किन्तु आदिकाल से शास्रोक्य मूर्ति कला की दृष्टि से ईसा पूर्व पहली से दूसरी शताब्दी के मध्य निर्मित जयपुर के लालसोट नाम स्थान पर ""बनजारे की छतरी'' नाम से प्रसिद्ध चार वेदिका स्तम्भ मूर्तियों का लक्षण द्रष्टत्य है। पदमक के धर्मचक्र, मृग, मत्स, आदि के अंकन मरहुत तथा अमरावती की कला के समानुरुप हैं। राजस्थान में गुप्त शासकों के प्रभावस्वरुप गुप्त शैली में निर्मित मूर्तियों, आभानेरी, कामवन तथा कोटा में कई स्थलों पर उपलब्ध हुई हैं।

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26-05-2011, 05:50 PM
धातु मूर्ति कला

धातु मूर्ति कला को भी राजस्थान में प्रयाप्त प्रश्रय मिला। पूर्व मध्य, मध्य तथा उत्तरमध्य काल में जैन मूर्तियों का यहां बहुतायत में निर्माण हुआ। सिरोही जिले में वसूतगढ़ पिण्डवाड़ा नामक स्थान पर कई धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसमें शारदा की मूर्ति शिल्प की दृष्टि से द्रस्टव्य है। भरतपुर, जैसलमेर, उदयपुर के जिले इस तरह के उदाहरण से परिपूर्ण है।

अठाहरवी शताब्दी से मूर्तिकला ने शनै: शनै: एक उद्योग का रुप लेना शुरु कर दिया था। अत: इनमें कलात्मक शैलियों के स्थान पर व्यवसायिकृत स्वरुप झलकने लगा। इसी काल में चित्रकला के प्रति लोगों का रुझान दिखलाई देता है।

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26-05-2011, 05:55 PM
चित्रकला

राजस्थान में यों तो अति प्राचीन काल से चित्रकला के प्रति लोगों में रुचि रही थी। मुकन्दरा की पहाड़ियों व अरावली पर्वत श्रेणियों में कुछ शैल चित्रों की खोज इसका प्रमाण है। कोटा के दक्षिण में चम्बल के किनारे, माधोपुर की चट्टानों से, आलनिया नदी से प्राप्त शैल चित्रों का जो ब्योरा मिलता है उससे लगता है कि यह चित्र बगैर किसी प्रशिक्षण के मानव द्वारा वातावरण प्रभावित, स्वाभाविक इच्छा से बनाए गए थे। इनमें मानव एवं जावनरों की आकृतियों का आधिक्य है। कुछ चित्र शिकार के कुछ यन्त्र-तन्त्र के रुप में ज्यामितिक आकार के लिए पूजा और टोना टोटका की दृष्टि से अंकित हैं।

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26-05-2011, 06:04 PM
कोटा के जलवाड़ा गांव के पास विलास नदी के कन्या दाह ताल से बैला, हाथी, घोड़ा सहित घुड़सवार एवं हाथी सवार के चित्र मिलें हैं। यह चित्र उस आदिम परम्परा को प्रकट करते हैं आज भी राजस्थान में ""मांडला'' नामक लोक कला के रुप में घर की दीवारों तथा आंगन में बने हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार इनमें आदिम लोक कला के दर्शन सहित तत्कालीन मानव की आन्तरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज प्राप्त होती है।

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26-05-2011, 06:05 PM
कालीबंगा और आहड़ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर किया गया अलंकरण भी प्राचीनतम मानव की लोक कला का परिचय प्रदान करता है। ज्यामितिक आकारों में चौकोर, गोल, जालीदाल, घुमावदार, त्रिकोण तथा समानान्तर रेखाओं के अतिरिक्त काली व सफेद रेखाओं से फूल-पत्ती, पक्षी, खजूर, चौपड़ आदि का चित्रण बर्तनों पर पाया जाता है। उत्खनित-सभ्यता के पश्चात् मिट्टी पर किए जाने वाले लोक अलंकरण कुम्भकारों की कला में निरंतर प्राप्त होते रहते हैं किन्तु चित्रकला का चिन्ह ग्याहरवी शदी के पूर्व नहीं हुआ है।

सर्वप्रथम वि.सं. १११७/१०८० ई. के दो सचित्र ग्रंथ जैसलमेर के जैन भण्डार से प्राप्त होते हैं। औघनिर्युक्ति और दसवैकालिक सूत्रचूर्णी नामक यह हस्तलिखित ग्रन्थ जैन दर्शन से सम्बन्धित है। इसी प्रकार ताड़ एवं भोज पत्र के ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए बनाये गए लकड़ी के पुस्तक आवरण पर की गई चित्रकारी भी हमें तत्कालीन काल के दृष्टान्त प्रदान करती है।

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26-05-2011, 06:05 PM
बारहवी शताब्दी तक निर्मित ऐसी कई चित्र पट्टिकाएं हमें राजस्थान के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं। इन पर जैन साधुओं, वनस्पति, पशु-पक्षी, आदि चित्रित हैं। अजमेर, पाली तथा आबू ऐसे चित्रकारों के मुख्य केन्द्र थे। तत्पशात् आहड़ एवं चित्तौड़ में भी इस प्रकार के सचित्र ग्रंथ बनने आरम्भ हुए। १२६०-१३१७ ई. में लिखा गया ""श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि'' नामक ग्रन्थ मेवाड़ शैली (आहड़) का प्रथम उपलब्ध चिन्ह है, जिसके द्वारा राजस्थानी कला के विकास का अध्ययन कर सकते हैं।

ग्याहरवी से पन्द्रहवी शताब्दी तक के उपलब्ध सचित्र ग्रंथों में निशिथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कला सरित्सागर, कल्पसूत्र (१४८३/१४२६ ई.) कालक कथा, सुपासनाचरियम् (१४८५-१४२८ ई.) रसिकाष्टक (१४३५/१४९२ ई.) तथा गीत गोविन्द आदि हैं। १५वीं शदी तक मेवाड़ शैली की विशेषता में सवाचश्म्, गरुड़ नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र, घुमावदार व लम्बी उंगलियां, गुड्डिकार जनसमुदाय, चेहरों पर जकड़न, अलंकरण बाहुल्य, लाल-पीले रंग का अधिक प्रयोग कहे जा सकते हैं।

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26-05-2011, 06:06 PM
मेवाड़ के अनुरुप मारवाड़ में भी चित्रकला की परम्परा प्राचीन काल से पनपती रही थी। किंतु महाराणा मोकल से राणा सांगा (१४२१-१५२८ ई.) तक मेवाड़-मारवाड़ कला के राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरुप साम्य दिखलाई होता है। राव मालदेव (१५३१-१५६२ ई.) ने पुन: मारवाड़ शैली को प्रश्य प्रदान कर चित्रकारों को इस ओर प्रेरित किया। इस शैली का उदाहरण १५९१ ई. में चित्रित ग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र है। मारवाड़ शैली के भित्तिचित्रों मे जोधपुर के चोखेला महल को छतों के अन्दर बने चित्र दृष्टव्य हैं।

राजस्थान में मुगल प्रभाव के परिणाम स्वरुप सत्रहवीं शती से मुगल शैली और राजस्थान की परम्परागत राजपूत शैली के समन्वय ने कई प्रांतीय शेलियों को जन्म दिया, इनमें मेवाड़ और मारवाड़ के अतिरिक्त बूंदी, कोटा, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और नाथद्वारा शैली मुख्य है।

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26-05-2011, 09:46 PM
मुगल प्रभाव के फलत: चित्रों के विषय अन्त:पुर की रंगरेलियां, स्रियों के स्नान, होली के खेल, शिकार, बाग-बगीचे, घुड़सवारी, हाथी की सवारी आदि रहे। किन्तु इतिहास के पूरक स्रोत की दृष्चि से इनमें चित्रित समाज का अंकन एवं घटनाओं का चित्रण हमें सत्रहवीं से अठारहवी शताब्दी के अवलोकन की विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। उदाहरणत: मारवाड़ शैली में उपलब्ध ""पंचतंत्र'' तथा ""शुकनासिक चरित्र'' में कुम्हार, धोबी, नाई, मजदूर, चिड़ीमार, लकड़हारा, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि से सम्बन्धित जीवन-वृत का चित्रण मिलता है। किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण की प्रेमाभिव्यक्ति के चित्रण मिलते हैं। इस क्रम में बनीठनी का एकल चित्र प्रसिद्ध है। किशनगढ़ शैली में कद व चेहरा लम्बा नाक नुकीली बनाई जाती रही वही विस्तृत चित्रों में दरबारी जीवन की झांकियों का समावेश भी दिखलाई देता है।

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26-05-2011, 09:48 PM
मुगल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें जयपुर तथा अलवर के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। १६७१ ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्व है। यद्यपि यहां के चित्रों का विषय कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता है। १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरु हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं।

चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं सदी में बनाए गए थे।

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26-05-2011, 09:51 PM
सत्रहवीं शताब्दी के चित्रणों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिन, आमेर (जयपुर) के निकट मावदूमशाह की कब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, जूनागढ़ (बीकानेर), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) आमेर महल की भोजनशाला, गलता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) सूरजमल की छतरी (भरतपुर), झालिम सिंह की हवेली (कोटा) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। शेखावटी, जैसलमेर एवं बीकानेर की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं।

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26-05-2011, 09:51 PM
कपड़ो पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। चांदी और सोने की जरी का काम किए वस्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।

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26-05-2011, 09:53 PM
धातु एवं काष्ठ कला

इसके अन्तर्गत तोप, बन्दूक, तलवार, म्यान, छुरी, कटारी, आदि अस्र-शस्र भी इतिहास के स्रोत हैं। इनकी बनावट इन पर की गई खुदाई की कला के साथ-साथ इन पर प्राप्त सन् एवं अभिलेख हमें राजनीतिक सूचनाएं प्रदान करते हैं। ऐसी ही तोप का उदाहरण हमें जोधपुर दुर्ग में देखने को मिला जबकि राजस्थान के संग्रहालयों में अभिलेख वाली कई तलवारें प्रदर्शनार्थ भी रखी हुई हैं। पालकी, काठियां, बैलगाड़ी, रथ, लकड़ी की टेबुल, कुर्सियां, कलमदान, सन्दूक आदि भी मनुष्य की अभिवृत्तियों का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्कालीन कलाकारों के श्रम और दशाओं का ब्यौरा प्रस्तुत करने में हमारे लिए महत्वपूर्ण स्रोत सामग्री है।

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26-05-2011, 09:54 PM
लोककला

अन्तत: लोककला के अन्तर्गत बाद्य यंत्र, लोक संगीत और नाट्य का हवाला देना भी आवश्यक है। यह सभी सांस्कृतिक इतिहास की अमूल्य धरोहरें हैं जो इतिहास का अमूल्य अंग हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक राजस्थान में लोगों का मनोरंजन का साधन लोक नाट्य व नृत्य रहे थे। रास-लीला जैसे नाट्यों के अतिरिक्त प्रदेश में ख्याल, रम्मत, रासधारी, नृत्य, भवाई, ढाला-मारु, तुर्रा-कलंगी या माच तथा आदिवासी गवरी या गौरी नृत्य नाट्य, घूमर, अग्नि नृत्य, कोटा का चकरी नृत्य, डीडवाणा पोकरण के तेराताली नृत्य, मारवाड़ की कच्ची घोड़ी का नृत्य, पाबूजी की फड़ तथा कठपुतली प्रदर्शन के नाम उल्लेखनीय हैं। पाबूजी की फड़ चित्रांकित पर्दे के सहारे प्रदर्शनात्मक विधि द्वारा गाया जाने वाला गेय-नाट्य है। लोक बादणें में नगाड़ा ढ़ोल-ढ़ोलक, मादल, रावण हत्था, पूंगी, बसली, सारंगी, तदूरा, तासा, थाली, झाँझ पत्तर तथा खड़ताल आदि हैं।

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27-05-2011, 10:04 PM
राजपूतों की उत्पत्ति.........


राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में उतने ही मत हैं जितने कि उसके विद्वान। जहाँ एक ओर कुछ विद्वान राजपूतों को विदेशी बताते हैं, वहीं दूसरे उन्हें देशी मानते हैं जबकि एक तीसरा मत उनकी देशी - विदेशी मिश्रित उत्पत्ति मानता है। परन्तु मतों के इस विव्चना के पूर्व हम "राजपूत" शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार कर लेते हैं।

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27-05-2011, 10:06 PM
"राजपूत" शब्द की व्युत्पत्ति

डॉ० वी० एस स्मिथ की यह मान्यता है कि राजपूतोंकी आठवीं या नवीं शताब्दी में सहसा उत्पत्ति हुई, अनेक इतिहासकारों केशोध - निष्कर्षों पर यह बात निर्मूल सिद्ध होती है। जयनारायण आसोपा ने राजपूत शब्द की उत्पत्ति के स्रोत संदर्भों को आधार पर विवेचना करते हुए स्पष्ट किया है कि वैदिक कालीन 'राजपुत्र' 'राजन्य', या 'क्षत्रिय' वर्ग ही कालान्तर में राजपूत जाति में परिणत हो गया। 'राजपूत' शब्द वैदिक 'राजपुत्र' का ही अपभ्रंश शब्द है। ॠगवेद में 'कस्य धतधवस्ता भवथ: कस्य बानरा, राजपुत्रेव सवनाय गच्छद', यजुर्वेद में 'पश्वी राजपुत्रो गोपायति राजन्यों वै प्रजानामधिपति रायुध्रुंव आयुरेव गोपात्यथो क्षेत्रमेव गोवायते', तथा ॠगवेद में ही ''ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य कृत्य:'', के गहरे काले शब्द यह प्रकट करते हैं कि 'राजपुत्र' तथा 'राजन्य' समानार्थक रुप में प्रयुक्त हुए ह। राजन्य 'क्षत्रिय' अर्थात् योद्धाओं के लिए प्रयुक्त होता था जो राज्य के अधिपति थे। 'मनस्मृति' में भी क्षत्रिय का यही अर्थ लिया गया है। 'शतपथ ब्राह्मण' में राजपुत्र, राजन्य तथा क्षत्रियों का पृथक रुप में उल्लेख मिलता है, ब्राह्मणकाल (१००० ई० पू०) से इनमें भेद किया जाना आरम्भ हो गया था।

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27-05-2011, 10:27 PM
राजस्थान का गोरव एक महान सपूत और योधा महाराणा प्रताप

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10901&stc=1&d=1306517224

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27-05-2011, 10:28 PM
'महाभारत', 'तैत्रेय ब्राह्मण' तथा कालिदास की 'रघुवंश' काव्यकृति मे इन शब्दों का प्रयोग समानार्थक रुप में हुआ है। डॉ० गौरीशंकर प्रसाद ओझा ने 'राजपुत्र' शब्द का उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्र, कालिदास के 'मालविकाग्निमित्र', अश्वघोष के 'सौंदरानंद' तथा बाणभ के 'हर्षचरित' एवं 'कादम्बरी' ग्रन्थों में विभिन्न अर्थों में किया जाना बतलाया है। कौटिल्य ने राजा के पुत्रों के लिए तथा कालिदास व अश्वघोष ने सामन्तों के पुत्रों के अर्थ में राजपुत्र शब्द का प्रयोग किया है। ह्मवेनसांग ने यात्रावर्णन में राजाओं को राजपुत्र के रुप में उल्लेख न कर उन्हें क्षत्रिय माना है। कल्हण की 'राजतरंगिनी' में राजपुत्र शब्द का प्रयोग भूस्वामियों के लिए किया गया है किन्तु उन्हें राजपूतों के ३६ वंशों से सम्बन्धित माना है। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि १२वीं शताब्दी के आरंभ में राजपुत्र या राजपूत वंश एक जाति के रुप में अस्तित्व में आ गया था। महाभारत काल तक राजपुत्र, राजन्य तथा क्षत्रिय समानार्थक शब्द थे किन्तु बाद में राजपुत्र तथा क्षत्रियों में विभेद किया जाने लगा।

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28-05-2011, 11:11 PM
सभी शासक 'राजन' कहलाते थे और उनके संबंधी 'राजपुत्र' प्राचीनकाल में कुछ शासक युनानी, शक एवं हूण विदेशी थे तथा कुछ शासक देश के ही क्षत्रिय जातियों के थे। इन देशी तथा विदेशी शासकों में परस्पर वैवाहिक संबंधों द्वारा विलयन की प्रक्रिया चल रही थी। शासकों तथा सामन्तों के वंशज राजपुत्र थे जो अपने राज्य विनष्ट होने के पश्चात् भी स्वयं को राजुपूत (राजपुत्र) नाम से पुकारने लगे।

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29-05-2011, 09:13 AM
राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न मत और उनकी समीक्षा

यहाँ ये बाते गोर करने लायक हैं

राजपूत शब्द मूलत: 'राजपुत्र' का अपभ्रंश है जिसमें देशी तथा विदेशी शासकों का धर्म परिवर्तन द्वारा भारतीयकरण होने के बाद उनके परस्पर विलियन से या सम्मिश्रण से उत्पन्न राजपुत्र वर्ग में सम्मिलित हैं। विलियन की यह प्रक्रिया १२ वीं शताब्दी तक सम्पन्न हो चुकी थी। अत: विलयन के पूर्व राजपूत अर्थात् राजपुत्रों के मूल वंशों के आधार पर इनकी उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न मत प्रचलित हो गये। उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न मतों का वर्गीकृत वर्णन नीचे दिया जा रहा है -

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29-05-2011, 09:14 AM
१) अग्निवंशीय मत
२) सूर्य और चंद्र वंशीय मत
३) विदेशी वंश का मत
४) गुर्जर वंश का मत
५) ब्राह्मण वंशीय मत
६) वैदिक आर्य वंश का मत

उपर्युक्त मतों के समीक्षात्मक वर्णन कुछ इस प्रकार है -

The ROYAL "JAAT''
29-05-2011, 09:15 AM
अग्निवंशीय मत......

अपने वंश की उत्पत्ति देवताओं से मानने की प्राचीन परम्परा रही है; दैव उत्पत्ति से अपने वंश की श्रेष्ठता स्थापित करना एक मानवीय दुर्बलता तो है ही, इसे प्रतिष्ठा का एक सूचक भी माना जाता है। मिस्र के शासक - 'फराहो' - स्वयं को 'रा' (सूर्य) का पुत्र कहते थे और यूनानी शासक अपनी एकता बनाये रखने के लिए अपनी उत्पत्ति एक ही देवता से मानते थे। कुशाण शासक चीनी शासकों की भाँति 'देवपुत्र' की उपाधि धारण करते थे। भारत में भी कुछ लोग अपनी उत्पत्ति सूर्य, चन्द्र, अग्नि देवता से मानते थे। अग्निवंशीय मत भी सूर्य तथा चंद्रवंशीय के समान एक मिथक है।

The ROYAL "JAAT''
29-05-2011, 09:19 AM
पार्टि ने सर्वप्रथम 'आग्नेय' जाति का उल्लेख महाकाव्यों और पुराणों में किया जाना बतलाया। मार्कण्डेय पुराण, महाभारत के वन पर्व तथा अनुशासन पर्व और रामायण के अयोद्धया काण्ड में आग्नेय जाति का उल्लेख किया गया है। पार्टि के अनुसार यह जाति 'कुरु क्षेत्र' के उत्तर में रहती थी। वी० एस० पाठक ने इन्हीं स्रोतों के आधार पर इस जाति का अधिवासन उत्तरीय भारत में बतलाया है, जो आगे चल कर ब्राह्मणों में परिणत हो गई। आसोपा ने मार्कण्डेय तथा विष्णु पुराण के आधार पर आग्नेय अर्थात् अग्नि से उत्पन्न जाति के पूर्वज 'अग्निधारा' (जिसके वंश में भरत नामक प्रतापी राजा हुआ) की 'मनु स्वयंभुव' से उत्पत्ति मानी जाती है। मनु स्वयंभुव 'मनु वैवस्वत' से भिन्न है। मनु वैवस्वत सूर्य वंशियों का पूर्वज था तथा 'इला' चंद्रवंशियों का पूर्वज था। ॠग्वेद में वर्णित भरतवंशी आग्नेय थे जो बाद में ब्राह्मण बने और वे चंद्रवंशीय दुष्यन्त के पुत्र भरत से संबंधित नहीं थे।

The ROYAL "JAAT''
29-05-2011, 09:25 AM
आसोपा की मान्यता है कि अग्निवंश की मान्यता मथुरा की कपोल कल्पना मात्र नहीं है बल्कि यह महाभारत तथा पुराणों के युग तक प्राचीन है। 'अग्निजया' शब्द अग्नि से उत्पन्न वंश का द्योतक है। कृष्ण स्वामी अयंगर ने दूसरी शताब्दी के तमिल भाषा के ग्रन्थ 'पुर्नानुरु' में एक सामन्त की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बतलाई गई है। डी० सी० सरकार ने महाराष्ट्र के नानदेद जिले से प्राप्त अक उत्कीर्ण लेख में (जो ११वीं शताब्दी का है) अग्निवंश का उल्लेख पाया है। पद्मगुप्त के ग्रन्थ 'नवशशांक - चरित' (९७४ - १००० ई०) में परमार शासक को आबू पर्वत पर वशिष्ट के अग्निकुण्ड से उत्पन्न माना है तथा परमारों के परवर्ती सभी लेखों में अग्निवंशी होने का उल्लेख है। नीलकंठ शास्री को अग्निवंश का प्रमाण दक्षिण भारत के एक शासक कुलोतुंग तृतीय (११७८ - १२१६ ई०) के शिलालेख से मिलता है। चंदवरदायी द्वारा १२वीं शताब्दी के अन्त में रचित ग्रन्थ 'पृथ्वीराज रासो' में चालुक्य (सोलंकी), प्रतिहार, चहमान तथा परमार राजपूतों की उत्पत्ति आबू पर्वत के अग्निकुण्ड से बतलाई है, किन्तु इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थल पर इन्हीं राजपूतों को "रवि - शशि जाधव वंशी" कहा है।

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29-05-2011, 09:27 AM
अग्निवंशीय उत्पत्ति के स्रोतों की समीक्षा द्वारा इस मत से संबंधित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पद्मगुप्त ने परमारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बतलाते हुअ इन्हें 'ब्रह्म - क्षेत्र' भी माना है। बी० एम० राऊ ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है कि वशिष्ट के वंशज परमार क्षत्रियों को (जिनके पूर्वज पहले ब्राह्मण थे किन्तु बौद्ध बन गये थे) पवित्र अग्निकुण्ड से पवित्र किया। ओझा ने 'ब्रह्मक्षत्र' की व्याख्या करते हुए कहा है कि जो शासक ब्रह्मत्तव और क्षत्रीय दोनों गुण धारण करते थे उनके लिए 'ब्रह्मक्षत्र' कहा जाता था। डॉ० दशरथ शर्मा का मत है कि परमार पहले ब्राह्मण थे किन्तु धर्म की रक्षार्थ क्षत्रिय बन गये। इसके पूर्व भी श्री शुंग, सातवाहन, कदम्ब तथा पल्लव शासक ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय कहलाये।

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29-05-2011, 09:28 AM
ओझा ने अग्निवंशी मत की एक अन्य व्याख्या की है। परमार वंश के प्रथम शासक 'धूम्रराज' का एक उत्कीर्ण लेख में उल्लेख है। अत:'धूम्र' अर्थात् अग्नि से निकले हुए धुएँ से धूम्रराज की अग्निवंशी उत्पत्ति मानी गई। किन्तु अन्य अग्निवंशी राजपूतों ने इस मत को मान्यता नहीं दी है। आसोपा का मत है कि परमार ब्राह्मण से क्षत्रिय बने।

मंडौर के प्रतिहार ब्राह्मण हरिश्चन्द्र के वंशज तथा कन्नौज के प्रतिहार लक्ष्मण के वंशज कहे जाते हैं। अत: प्रतिहार भी ब्राह्मण से क्षत्रिय बने। चहमानों का पूर्वज सामन्त बिजोलिया लेख के अनुसार विप्र था। चालुक्य भी अभिलेखों के आधार पर ब्राहम्णों के वंशज थे। इस प्रकार 'पृथवीराज रासो' में उल्लिखित सभी चार राजपूत वंश ब्राह्मण से क्षत्रिय बने। अग्निवंशी कहने का तात्पर्य था कि अग्निकुण्ड से उनकी शुद्धि की गई। ये ब्राह्मण अपनी प्राचीन आग्नेय उत्पत्ति बनाये रखने के लिए अग्निवंशी राजपूत कहलाये।

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29-05-2011, 09:29 AM
डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने चन्दवरदाई के 'पृथवीराज रासो' वर्णित अग्निकुण्ड से उत्पन्न चार राजपूत वंशों के प्रकरण को मात्र कवि की कल्पना माना है। भाटों, मुहतों, नेणसी और सूर्यमल्ल मिश्र ने इस मत का काफी प्रचार किया किन्तु १६वीं शताब्दी के अभिलेखों व साहित्यिक ग्रन्थों से यह प्रमाणित होता हे कि इन चार राजवंशों में से तीन - प्रतिहार, चौहान व परमार सूर्यवंशी तथा (चालुक्य) चन्द्रवंशी थे। डॉ० दशरथ शर्मा ने भी अग्निवंश मत को भाटों की कल्पना की एक उपज मात्र बतलाया है। डॉ० ईश्वरीप्रसाद इसे तथ्य रहित बतलाते हुए लिखते हैं कि ब्राह्मणों का एक प्रतिष्ठित जाति की उत्पत्ति की महत्ता निर्धारित करने का प्रयास मात्र है। कुक इस मत के सम्बंध में यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अग्निवंशी कहने का

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29-05-2011, 09:30 AM
तात्पर्य है कि विदेशी तथा देशी शासकों को अग्नि से पवित्र कर राजपूत जाति में सम्मिल्लित किया गया। जे० एन० आसोपा का पूर्व उल्लिखित मत भी विचारणीय है कि ब्राह्मण जो क्षत्रिय बने थे अपनी प्राचीन आग्नेय उत्पत्ति को बनाये रखने के लिए राजपूत कहलाये।

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29-05-2011, 09:36 AM
सूर्य तथा चंद्रवंशीय मत

अग्निवंशी राजपूतों के समान ही अपनी दैव उत्पत्ति मानते हुए राजपूत वंशों ने स्वयं को सूर्यवंशी अथवा चंद्रवंशी होने की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। डॉ० ओझा अग्निवंशी मत का खण्डन करते हुए राजपूतों को सूर्य और चंद्रवंशीय मानते हैं। इसके प्रमाण स्वरुप शिलालेखों व ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि नाथ लेख (९७१ ई०) आरपूर लेख (१२८५ ई०), आबू शिलालेख (१४२८ ई०) तथा श्रृंगी के लेख में गुहिल वंशी राजपूतों को रघुकूल (सूर्यवंश) से उत्पन्न माना है। पृथ्वीराज विजय, हम्मीर महाकाव्य और सुजान चरित्र में चौहानों को क्षत्रिय माना है। वंशावली लेखकों ने राठौरों को सूर्यवंशी और यादवों, भाटियों एवं चंद्रावती के चौहानों को चंद्रवंशी माना है। इन प्रमाणों के आधार पर डॉ० ओझा राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों के वंशज मानते हैं।

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29-05-2011, 09:38 AM
डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने इस मत को सभी राजपूतों की उत्पत्ति के लिए स्वीकार करना आपत्तिजनक माना है क्योंकि राजपूतों को सूर्यवंशी बतलाते हुए उनका वंशक्रम इक्ष्वाकु से जोड़ दिया गया है जो प्रथम सूर्यवंशी राजा था। बल्कि सूर्यवंशी और चंद्रवंशी समर्थक भाटों ने तो राजपूतों का संबंध इन्द्र, पद्मनाथ, विष्णु आदि से बताते बुए काल्पनिक वंशक्रम बना दिया है। इन मतों के समर्थक किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाये। अत: डॉ० गोपीनाथ शर्मा यह मानते हैं कि इस मत का एक ही उपयोग दिखाई देता है कि ११वीं शताब्दी से इन राजपूतों का क्षत्रियत्व स्वीकार कर लिया, क्योंकि इन्होंने क्षात्र - धर्म के अनुसार विदेशी आक्रमणों का सामना सफलतापूर्वक किया। आगे चलकर यह मत लोकप्रिय हो गया और तभी से इसको मान्यता प्रदान की जाने लगी।

ndhebar
29-05-2011, 09:57 AM
बहुत अच्छे पंकज भाई
काफी शानदार सूत्र बनाया है आपने, आश्चर्य है की मेरा ध्यान काफी देर से इसपर गया
राजस्थान के गौरवशाली इतिहास को आपने अब तक बड़े ही बेहतरीन तरीके से पेश किया है
इसके लिए आपको बधाई

Bond007
29-05-2011, 11:22 AM
बहुत अच्छे पंकज भाई
काफी शानदार सूत्र बनाया है आपने, आश्चर्य है की मेरा ध्यान काफी देर से इसपर गया
राजस्थान के गौरवशाली इतिहास को आपने अब तक बड़े ही बेहतरीन तरीके से पेश किया है
इसके लिए आपको बधाई

:lol:
:lol:
काम के जितने भी सूत्र होते हैं, उनपर आपका ध्यान देर से ही जाता है.......! :tomato::tomato:
@royal ji
बहुत अच्छा और शानदार सूत्र है| :clap: :bravo:
:cheers:

ndhebar
29-05-2011, 12:57 PM
काम के जितने भी सूत्र होते हैं, उनपर आपका ध्यान देर से ही जाता है.......! :tomato:

ऐसा संभव है
फोरम पर आने का मेरा उद्देश्य मनोरंजन मात्र होता है इसलिए ज्यादातर मेरा ध्यान मनोरंजक सूत्रों पर ही रहता है

The ROYAL "JAAT''
29-05-2011, 02:48 PM
बहुत अच्छे पंकज भाई
काफी शानदार सूत्र बनाया है आपने, आश्चर्य है की मेरा ध्यान काफी देर से इसपर गया
राजस्थान के गौरवशाली इतिहास को आपने अब तक बड़े ही बेहतरीन तरीके से पेश किया है
इसके लिए आपको बधाई

धन्यवाद भाई आपका बहुत बहुत शुक्रिया आपने इस सूत्र को समय दिया और अपने विचार रखे आगे भी पधारे

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29-05-2011, 02:51 PM
:lol:
:lol:
काम के जितने भी सूत्र होते हैं, उनपर आपका ध्यान देर से ही जाता है.......! :tomato::tomato:
@royal ji
बहुत अच्छा और शानदार सूत्र है| :clap: :bravo:
:cheers:

बहुत बहुत धन्यवाद भाई .........

The ROYAL "JAAT''
29-05-2011, 02:53 PM
जयनारायण ओसापा ने सूर्य तथा चंद्रवंशी मिथक का विश्लेषण करते हुए यह मान्यता प्रकट की है कि सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी मूलत: आर्यों के दो दल थे जो भारत आये। पहला दल मध्य एशिया की जैक्सर्टीज तथा दूसरा दल उसी प्रदेश की इली नदियों से चलकर भारत में प्रविष्ट हुआ। महाभारत तथा पुराणों में सर्वप्रथम राजपूतों की सूर्य तथा चंद्र से उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। पार्टि की यह मान्यता है कि सूर्यवंशी क्षत्रिय द्रविड़ थे और चंद्रवंशी क्षत्रिय प्रयाग में शासक थे। सी०वी० वैद्य इसे अस्वीकार करते हैं । वैंडीदाउ के आधार पर वैद्य यह मानते हैं कि सुदूर उत्तरी देशों से आर्यों की एक शाका ने भारत में प्रवेश किया और वे सप्त सिंधु में बस गये। वैद्य ने भारत की जनगणना रिपोर्ट (१९२१) के आधार पर कहा है कि आर्यों का पहला दल उत्तरी भारत में आये जिनकी प्रतिनिधि भाषाएँ राजस्थानी, पंजाबी, पहाड़ी तथा पूर्वी हिन्दी है। आर्यों का दूसरा दल उत्तरी भारत में प्रवेश

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29-05-2011, 10:04 PM
कर दक्षिण से जबलपुर, दक्षिण - पश्चिम में काठियावाड़ तथा उत्तर - पूर्व में नेपाल तक पहुँच गया। ये दो आर्यों के दल ही महाभारत काल के सूर्य व चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाने लगे। वैद्य की मान्यता है कि मनु स्वयंभुव वंशज भरत ॠग्वेद में वर्णित भारत जाति है जो महाकाव्य काल में सूर्यवंशी कहलाये। यह आर्यों का पहला दल था। दूसरे दल में ॠग्वेद वर्णित यदु, तुर्वस, अनुस, द्रहयु तथा पुरु वर्ग के लोग थे जो चंद्रवंशी कहलाये।

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29-05-2011, 10:06 PM
आसोपा, वैद्य की उपर्युक्त मान्यता को भाषायी आधार पर स्वीकार नहीं करते तथा वे ॠग्वेद के भारत तथा मनु स्वयंभुव के वंशज भरत को एक वर्ग का नहीं मानते। सूर्यवंशी इक्ष्वाकु राजा मनु वैवस्तव का पुत्र था, न कि मनु स्वयंभुव का। वैवस्तव का अर्थ सूर्य है जिसके वंशज इक्ष्वाकु कहलाये। वेदों में वर्णित 'इक्ष्वाकु' आर्यों के प्रथम दल के सूर्यवंसी थे तथा 'अइल' आर्यों के दूसरे दल के चंदवर्ंशी थे। आसोपा ने 'इक्ष्वाकु' तथा 'अइल' के मूल अधिवासन स्थल की खोज करते हुए कहा है कि महाभारत व हरिवंश पुराण में वर्णित 'इक्षुमति' नदी कुरुक्षेत्र में थी। रामायण में भी इसका उल्लेख है। स्ट्रैबो ने भी व्यास और यमुना नदियों के बीच एक नदी इमेसस (इक्षुमति) का उल्लेख किया है जिसे यूनानी मिनेन्डर ने पार किया था। इससे प्रतीत होता है कि आर्यों की इक्ष्वाकु शाखा 'इक्षुमति' नदी के तटों पर बस गई थी। मध्य एशिया में जैक्सर्टीज नदी में आनेवाले इन आर्यों ने

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29-05-2011, 10:14 PM
भारत में कुरुक्षेत्र प्रदेश की नदी का नाम भी जैक्सर्टीज का भारतीय रुप इक्षुमति रख दिया तथा स्वयं इक्ष्वाकु कहलाये। इनका शासन इक्ष्वाकु मनु वैवस्तव (सूर्य) का पुत्र था। इसके कारण ही सूर्यवंशी मत का प्रचलन हुआ।महाभारत, हरिवंश तथा विष्णु पुराण में पंजाब की नदी 'इरा' का उल्लेख है जो अब 'रावी' के नाम से पुकारा जाती है। रामायण के अयोध्या काण्ड में वर्णन है कि भरत ने कैकेय प्रदेश से आते हुए शतद्रु के तट पर 'अइल' राज्य को पार किया। इससे स्पष्ट होता है कि 'अइल" आर्यों की दूसरी शाखा का अधिकार क्षेत्र 'इरा' (रावी) तथा "शतद्रु' (सतलज) नदियों के मध्य था। मध्य एशिया में, जहाँ से आर्य भारत आये, जैक्सर्टीज (इक्ष्वाकु) नदी के उत्तर में एक ओर नदी 'इली' थी। इली नदी से भारत आने वाली दूसरी शाखा के आर्य 'अइल' थे जो चन्द्रवंशी कहलाये। रुस में उत्खनन द्वारा भी आर्यों के अवशेष इस 'इली' नदी के तट

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29-05-2011, 10:16 PM
पर मिले हैं। मध्य एशिया के यू - ची 'चन्द्रमा के लोग' इली नदी के तट पर बसे थे। इससे प्रतीत होता है कि जब ये लोग भारत आये थे तो स्वयं को चंद्रवंशी कहने लगे। आसोपा की मान्यता है कि इक्ष्वाकु मनु वैवस्तव से संबंधित थे। ये आर्य थे जो जैक्सर्टीज से होते हुए इक्षुमति को पार करके भारत में पूर्व की ओर चले गये। अइल भी जो सोम ॠषि तथा बुद्ध के वंशज थे, आर्य थे। ये इली व इरा नदी के तट पर रहते थे जिन्होंने यह नाम अन्य स्थानों तथा नदियों को भी दिया जहाँ वेगये। भारत की इरावती नदी तथा लंका का प्राचीन नाम इला भी इस तथ्य को प्रकट करते हैं। अत: आसोपा की मान्यता है कि सूर्यवंशी व चंद्रवंशी क्षत्रिय आर्यों की वे दो शाखआएँ थीं जो मध्य एशिया से भारत आईं। एक शाखा वहाँ की जैक्सर्टीज नदी तच पर तथा दूसरी शाखा वहाँ की इली नदी के तट से भारत आईं।

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29-05-2011, 10:19 PM
विदेशी वंश का मत

पिछले दोनों मतों के विपरीत इतिहासकार कर्नल टॉड ने राजपूतों को शक और सिथियन बताया है। इसके प्रमाण में वे राजपूतों में प्रचलित ऐसे रीति - रिवाजों का उल्लेख करते हैं जो शक जाति के रीति - रिवाजों से साम्य रखते हैं। सूर्य की पूजा, सती प्रथा, अश्वमेघ यज्ञ, मद्यपान, शस्रों और घोड़ों की पूजा तथा तातारी और शकों की पुरानी कथाओं का पुराणों की कथाओं से साम्य रखना ऐसे तथ्य हैं जो राजपूतो की विदेशी उत्पत्ति प्रकट करते है। डॉ० स्मिथ ने भी शक, यूचि, गुर्जर व हूण विदेशी जातियों का भारत में धर्म परिवर्तन कर हिन्दू बन जाना स्वीकार किया है और इन विदेशी जातियों के राज्य स्थापित हो जाने पर उससे राजपूतों की उत्पत्ति मानी है। राजपूतों ने एपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु स्वयं को चन्द्र या सूर्यवंशी कहना प्रारम्भ किया। कर्नल टॉड की पुस्तक का सम्पादन करने वाले विलियम कुक भी इस मत का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि वैदिक

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29-05-2011, 10:29 PM
कालीन क्षत्रियों एवं मध्यकालीन राजपूतों की अवधि का अन्तराल इतना अधिक है कि दोनों के सम्बन्ध मूलवंश - क्रम से संबंधित करना संभव नहीं है। शक, सिथियन, हूण आदि विदेशी जातियाँ हिन्दू समाज में स्थान पा चुके थे और देश - रक्षक के रुप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अत: उन्हें महाभारत तथा रामायण काल के क्षत्रियों से संबंधित कर दिया गया और सूर्य तथा चंद्रवंशी माना गया।
डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने विदेशी उत्पत्ति को अस्वीकार किया है। जिन रीति - रिवाजों के आधार पर राजपूतों और शकों का साम्य किया गया है वे रीति - रिवाज वैदिक काल तथा पौराणिक काल में भी भारत में विद्यमान थे। डॉ० ओझा ने अभिलेखों के आधार पर तथ्य प्रकट किया है कि मौर्य और नन्दवंश के पतन के बाद भी सातवीं सदी तक क्षत्रियों का

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29-05-2011, 10:31 PM
अस्तित्व था। द्वितीय शताब्दी के राजा खारवेल के उदयगिरी - लेख में 'कुसंब जाति के क्षत्रियों' का उल्लेख है, इसी अवधि के नासिक की पाण्डव गुहा लेख में 'उत्तम भाद्रक्षत्रियों' का वर्णन है, गिरिनार पर्वत -लेख में 'यौधेयों' को क्षत्रिय कहा गया है तथा तीसरी सदी के नागार्जुन कोंड - लेख में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का उल्लेख है।
यद्यपि डॉ० ओझा के विदेशी मत के विपक्ष में ये तर्क महत्वपूर्ण हैं किन्तु जो विदेशी भारत में आकर बस गये, उनका भारतीय समाज में विलनीकरण कैसे हुआ, यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है। डॉ० गोपीनाथ शर्मा का मत है - 'इस प्रश्न को हल करने में हमें यही युक्ति सहायक होगी कि इन विदेशियों के यहाँ आने पर पुरानी सामाजिक व्यवस्था में अवश्य हेर - फेर हुआ।

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29-05-2011, 10:33 PM
डॉ० स्मिथ, कुक से सहमत होते हुए यह मानते हैं कि पृथ्वीराज रासो में जिन चार राजपूत वंशों की अग्निकुण्ड से उत्पत्ति बतलाई गई है, वे सभी विदेशी थे जिनको अग्नि द्वारा पवित्र कर राजपूत बनाया गया। दक्षिण के राजपूतों की उत्पत्ति तक गौड़, भार, कोल आदि जन - जातियों से मानते हैं। डॉ० आर० भण्डारकर प्रतिहारों की गुर्जरों से उत्पत्ति मानते हुए अन्य अग्निवंशीय राजपूतों को भी विदेशी उत्पत्ति का कहते हैं। नीलकण्ठ शास्री विदेशियों के अग्नि द्वारा पवित्रीकरण के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं क्योंकि पृथ्वीराज रासो से पूर्व भी इसका प्रमाण तमिल काव्य 'पुरनानूर' में मिलता है। बागची गुर्जरों को मध्य एशिया की जाति वुसुन अथवा 'गुसुर 'मानते हैं क्योंकि तीसरी शताब्दी के अबोटाबाद - लेख में 'गुशुर 'जाति का उल्लेख

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29-05-2011, 10:36 PM
है। जैकेसन ने सर्वप्रथम गुर्जरों से अग्निवंशी राजपूतों की उत्पत्ति बतलाई है। पंजाब तथा खानदेश के गुर्जरों के उपनाम पँवार तथा चौहान पाये जाते हैं। यदि प्रतिहार व सोलंकी स्वयं गुर्जर न भी हों तो वे उस विदेशी दल में भारत आये जिसका नेतृत्व गुर्जर कर रहे थे।

सी० वी० वैद्य विदेशी उत्पत्ति को अस्वीकार करते हुए राजपूतों की वैदिक आर्यों से उत्पत्ति मानते हैं। इसके लिये वे पहला तर्क देते हैं कि केवल वैदिक आर्यों की संतान ही अपने धर्म की रक्षार्थ विदेशी आक्रांकाओं से युद्ध कर सकते थे। दूसरा तर्क यह है कि राजपूतों की सूर्य अवं चंद्रवंशीय होने की परम्परा उन्हें उन दो तथ्यों आर्यों के दलों का वंशज सिद्ध करता है जिन्होंने मध्य एशिया से भारत में प्रवेश किया। तीसरा तर्क १९०१ में हुई भारत की जनगणना से राजपूतों का आर्य वंश का होना प्रकट होता है ।

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29-05-2011, 10:37 PM
डॉ० गौरीशंकर ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति संबंधी उपर्युक्त देशी व विदेशी मतों में सामन्जस्य स्थापित करते हुए कहा है कि राजपूत वैदिक क्षत्रियों के वंशज थे तथा जिन विदेशी जातियों - सिथियन, कुषाण, हूण, आदि का भारतीयकरण हुआ, वे भी मध्य एशिया की आर्य जाति के ही वंशज थे। यह मत टॉड तथा वैद्य के विरोधी मतों में सामन्जस्य कर देता है। डॉ० दशरथ शर्मा ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहा है कि भारत की समस्त जनता युद्ध - प्रिय जातियाँ स्वयं को क्षत्रिय होने का अधिकार रखती थीं। आसोपा ने भी इस मत का समर्थन किया है जो तर्कसम्मत प्रतीत होता है।

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30-05-2011, 05:16 PM
गुर्जर वंश का मत

विदेशी वंश के मत के संदर्भ में यह व्यक्त किया जा चुका है कि कुछ विद्वान राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति गुर्जर होना मानते हैं। राजौर शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। गुर्जर कनिष्क के समय भारत आये और गुप्तकाल में सामन्त रुप में रहे। जैक्सन ने भी गुर्जरों 'हूणों' के साथ भारत अभियान पर आये 'खजर' जाति का माना है। आसोपा का मत है कि गुर्जरों ने छठी शताब्दी में राजस्थान तथा गुजरात में राज्य स्थापित कर लिये थे। ह्मवेनसांग ने इस प्रदेश को 'कुच -लो' अर्थात् गुजरात कहा है। बाणभ के ग्रन्थ 'हर्षचरित' में गुर्जर देश का उल्लेख है। अरब यात्री गुर्जरों को 'जुर्ज' कहते थे। नागौर जिले में दधिमाता मंदिर के शिलालेख में गुर्जर प्रदेश का उल्लेख है

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30-05-2011, 05:23 PM
जो वहाँ की जोजरी नदी के कारण इस नाम से पुकारा गया है। ये साक्ष्य प्रकट करते हैं कि गुर्जर राजस्थान व गुजरात में निवास करते थे। किन्तु डॉ० गोपीनाथ शर्मा तथा डॉ० ओझा 'गुर्जर' शब्द का अर्थ प्रदेश विशेष मानते हैं शिलालेखों में इस प्रदेश के शासक को 'गुर्जरेश्वर 'या 'गुर्जर' कहा गया है।

डॉ० सत्यप्रकाश राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति गुर्जर से मानना स्वीकार नहीं करते क्योंकि गुर्जर विदेशी नहीं थे और ह्मवेनसांग ने भी गुर्जर को क्षत्रिय माना है। गुर्जर प्रतिहारों के शिलालेखों में भी उन्होंने भारतीय आर्यों की संतान माना है। अत: निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गुर्जर भारतीय थे और वे भारतीय क्षत्रिय वंश से संबंधित थे।

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30-05-2011, 05:27 PM
ब्राह्मणवंशीय मत

बिजोलिया - शिलालेख में वासुदेव (चहमान) के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स - गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है। राजशेखर ब्राह्मण का विवाह राजकुमारी अवन्ति सुन्दरी से होना भी चौहानों का ब्राह्मणवंशीय होना प्रकट करता है। 'कायमखाँ रासो' में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स से बतलाई गई है जो जमदग्नि गोत्र में था। इस तथ्य का साक्ष्य सुण्चा तथा आबू अभिलेख है। डॉ० भण्डारकर का मत है कि गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से थी।

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30-05-2011, 05:29 PM
डॉ० ओझा तथा वैद्य इस ब्राह्मणवंशीय मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि 'द्विज ब्रह्माक्षत्री', 'विप्र' आदि शब्दों का प्रयोग राजपूतों को क्षत्रिय जाति की अभिव्यक्ति के लिए हुआ है न कि ब्राह्मण जाति के लिए। डॉ० गोपीनाथ शर्मा कुम्भलगढ़ - प्रशस्ति के आधार पर गुहिलवंशीय राजपूतों को ब्राह्मण वंशीय माना है। चाटसू अभिलेख में गुहिल भर्तृभ को 'ब्रह्मक्षत्री' इसलिये कहा गया है कि उसे ब्राह्मण संज्ञा से क्षत्रित्व प्राप्त हुआ। पहले भी कण्व तथा शुंग ब्राह्मणवंशीय क्षत्रिय शासक हुए हैं।

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30-05-2011, 05:35 PM
वैदिक आर्य वंश का मत

सूर्य तथा चंद्रवंशीय मतों के संदर्भ में यह विवेचन किया जा चुका है कि राजपूत वैदिक आर्यों की दो शाखाओं ने भारत में कुछ कालान्तर में प्रवेश किया। डॉ० ओसापा का मत है कि आर्यों की ये दो शाखआओं मध्य एशिया से भारत आईं। मध्य एशिया में इनके निवास - स्थल दो नदियों जैक्सर्टीज (इक्ष्वाकु) तथा इली के तट पर स्थित थे। इक्ष्वाकु से आने वाले चंद्रवंशीय क्षत्रिय कहलाये। रामायण, महाभारत, हरिवंश तथा विष्णु पुराणों के आधार पर यह तथ्य प्रकट होता है चीनी स्रोतों तथा रुस में हुए उत्खनन द्वारा भी इसकी पुष्टि होती है।

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30-05-2011, 05:37 PM
इस मत के आधार पर पश्चिमोत्तर प्रदेश से भारत में प्रवेश करने वाले आर्यों के समान अन्य विदेशी भी मूलत: आर्यवंशी प्रतीत होते हैं। भारत में ये विदेशी जातियाँ भी राज्य स्थापित कर राजपूत जाति के रुप में संगठित हो वैदिक आर्यों के क्षत्रिय वंश से अपना संबंध सूर्य तथा चंद्रवंशी बनकर स्थापित करने लगे।

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30-05-2011, 05:42 PM
निष्कर्ष

राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्धी उपर्युक्त मता - विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजपूत जाति में देशी क्षत्रिय तथा विदेशी, शक, पह्मलव, हूण आदि भी भारत में राज्य स्थापितकर 'राजपुत्र' बन इसमें सम्मिलित हो गये। डॉ० गोपीनाथ शर्मा की व्याख्यानुसार जिस तरह शक, पह्मलव, हूण आदि विदेशी यहाँ आए और जिस तरह इनका विलीनीकरण भारतीय समाज में हुआ, इसकी साक्षी इतिहास है। ये लोग लाखों की संख्या में थे। पराजित होने पर इनका यहाँ बस जाना प्रामाणिक है। ऐसी अवस्था में उसका किसी न किसी जाति से मिलना स्वाभाविक था। उस समय की युद्धोपजीवी जाति ही

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31-05-2011, 10:41 PM
ऐसी थी जिसने इन्हें दबाया और उन्हें समानशील होने से अपने में मिलाया। इसी तरह छठी व सातवीं शताब्दी में क्षत्रियों और राजपूतों का समानार्थ में प्रयुक्त होना भी यह संकेत करता है कि इन विदेशियों के रक्त से मिश्रित जाति ही राजपूत जाति थी,

जो यकायक क्षात्र - धर्म से सुसज्जित होकर प्रकाश में आ गई और शकादिकों का अस्तित्व समाप्त हो गया। यह स्थिति सामाजिक उथल - पुथल की पोषक है। हरिया देवी नामक हूण कन्या का विवाह गुहिलवंशी अल्लट के साथ होना, जो कि सं०

The ROYAL "JAAT''
31-05-2011, 10:43 PM
१०३४ के शक्तिकुमार शिलालेख से स्पष्ट है इस सामंजस्य का अकाट्य प्रमाण है जब सभी राजसत्ता ऐसी जाति के हाथ आ गई तो ब्राह्मणों ने भी उन्हें क्षत्रिय की संज्ञा दी। उनकी राजनैेतिक स्थिती ने उन्हें राजपुत्र की प्रतिष्ठा प्रदान की जिसे लौकिक भाषा में राजपूत कहने लगे। इस सम्बन्ध में इतना अवश्य स्वीकार करना होगा कि सम्भवत: सभी क्षत्रियों का विदेशियों से सम्पर्क न हुआ हो और कुछ एक वंशों ने अपना स्वतन्त्र स्थान बनाये रखा हो।

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31-05-2011, 10:47 PM
राजस्थान की कुछ और प्राचीन कलाकृतियां



http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10968&stc=1&d=1306863934

The ROYAL "JAAT''
31-05-2011, 10:48 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10969&stc=1&d=1306863934

The ROYAL "JAAT''
31-05-2011, 10:48 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=10970&stc=1&d=1306863934

dipu
02-06-2011, 11:24 AM
बहुत बढिया .........................

The ROYAL "JAAT''
02-06-2011, 03:48 PM
दोस्तों अब में राजस्थान के राज्यों की जानकारी दे रहा हूं पसंद आये तो थैंक्स जरूर करे ...

अलवर राज्य की स्थापना...

माण्डवा युद्ध के चार दिन पश्चात् जयपुर नरेश महाराजा माधोसिंह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र पृथ्वीसिंह सन् १७६८ ई. में जयपुर राज्य की गद्दी पर बैठा।
जयपुर की राजनीति में प्रतापसिंह का बढ़ता हुआ प्रभाव

महाराज पृथ्वीसिंह की बाल्यावस्था के कारण राज्य प्रबन्ध का भार उनकी माता चुन्डावत रानी, जो मेवाड़ के देवगढ़ ठिकाने के ठाकुर जसवन्त सिंह की पुत्री को सौंपा गया।
चुण्डावत रानी बहुत दिनों तक इस शासन प्रबन्ध का कार्य सुचारु रुप से नहीं चला सकी। प्रतापसिंह ने इस समय राज्य प्रबन्ध में पूर्ण सहयोग देकर राज्य की व्यवस्था में बहुत कुछ सुधार किया तथा मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ एवं मराणे से अच्छे सम्बन्ध बनाकर राज्य की निरन्तर रक्षा करता रहा।

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02-06-2011, 03:49 PM
मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ का भरतपुर पर प्रथम आक्रमण १७७० ई.

सन् १७७० ई. में मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ ने मराणें को अपनी ओर मिला लिया और उनकी सहायता से जब भरतपुर पर १७७० ई. में प्रथम आक्रमण किया उस समय भरतपुर महाराजा नवलसिंह शासन कर रहा था। प्रताप सिंह ने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और उक्त आक्रमण में उन्होंने नजफ खाँ की सहायता कर मित्रता स्थापित की।

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02-06-2011, 03:50 PM
प्रतापसिंह ने स्वतंत्र शासक बनने की इच्छा से अपने सभी सरदारों को एकत्र करके सम्मति ली व ऐसा संकल्प सुनकर उसके सम्बन्धियों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया।

इस समय देश राजनीतिक एकता की दृष्टि से बहुत कमजोर था। मुगल साम्राज्य की शक्ति क्रमश: क्षीण होती जो रहा थी। जयपुर राज्य में भी अव्यवस्था फैली हुई थी। नजफ खाँ के अत्याचार अन्याय व स्वेच्छातारिता से जाट लोग तंग आ चुके थे। ऐसी परिस्थितियों में प्रताप सिंह ने अपने साम्राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ किया और जयपुर तथा भरतपुर राज्य के अनेक दुर्गों पर चढ़ाई कर उनको हस्तगत कर लिया व उनके बहुत से ठिकानों पर अधिकार कर लिया।

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02-06-2011, 03:52 PM
सन् १७७० में उसने टेहला व राजपुर आदि में अनेक दुर्गों का निर्माण करवाया। सन् १७७१ में राजगढ़ का किला सम्पूर्ण करके राजगढ़ बसाया तथा देवती झील में जल महल बनवाकर उसके पास आनन्द बाग लगवाया। सन् १७७२ में मालाखेड़ा में एक दुर्ग का निर्माण करवाया। उक्त सब स्थानों के अतिरिक्त सेन्थल, बैराट, आम्बेला, मामरा, ताला, धोला, प्रयागपुरा, दुब्बी, हरदेवगढ़, सिकराय और बावड़ी खेड़ा स्थानों पर भी अपना अधिकार कर लिया।
प्रताप सिंह की बढ़ती हुई ख्याति दुसरे सरदारों के लिए असहाय थी। बहुत-सी अभिमाना और स्वार्थी प्रकृति के सामन्तों को उसकी उन्नति और उत्कर्ष असहाय हो गया था। प्रताप सिंह अपनी वीरता और कर्त्तव्यपरायणता आदि गुणों के कारण जयपुर

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02-06-2011, 03:53 PM
की जनता में बहुत शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया और उसके गुणों से प्रभावित होकर महाराज पृथ्वीसिंह भी उसकी आदर करने लगे। सरदारों का उनके मनमुटाव रखने का मुख्य कारण यही था कि उन्होंने जनता एवं जयपुर नरेश दोनों से विशेष सम्मान प्राप्त कर लिया था।

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02-06-2011, 03:54 PM
जयपुर में प्रताप सिंह के विरुद्ध षड़यन्त्र

प्रताप सिंह की बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण कुछ सरदारों ने उसके विरुद्ध जयपुर नरेश के कान भरने शुरु कर दिए। दुर्जन सिंह नामक एक सरदार तो उसकी हत्या करने के लिए तैयार हो गया व प्रताप सिंह को मारने के लिए षड़यन्त्र भी रचा, लेकिन उसे कोई सफलता न मिली।

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02-06-2011, 03:54 PM
दुर्जन सिंह की दुष्ट्ता के बारे में सुनकर प्रताप सिंह के समर्थक सरदारों के हृदय में बदने की भावना पैदा हो गई और वे बहुत क्रोधित व उत्तेजित हुए। यहाँ तक कि वे उसको दण्ड देने के लिए तैयार हो गए, लेकिन प्रताप सिंह ने उन्हें काफी समझाया। इस प्रकार के षड़यन्त्र के कारण उनियारे के सरदार सिंह को विशेष दु:ख हुआ। उस पर प्रताप सिंह के समझाने-बुझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रताप सिंह के दुश्मनों से बदला लेने के लिए वह उत्तेजित हो उठा। अन्त में उसके बहुत

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02-06-2011, 03:59 PM
समझाने पर उन्होंने अपना क्रोध रोककर कहा कि मैं दुर्जन सिंह के इस कुचक्र के सम्बन्ध में महाराजा पृथ्वी सिंह से अवश्य निवेदन कर्रूँगा। इतना कहकर सरदार सिंह ने उसी क्षण जयपुर नरेश से मिलकर उन्हें दुर्जन सिंह के षड़यन्त्र के विषय में अवगत करा दिया। जिस पर जयपुर महाराजा ने उक्त सरदार को जयपुर राज्य से बाहर निकाल दिया।

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02-06-2011, 04:00 PM
दुर्जन सिंह के षड़यन्त्र की घटना के बाद प्रताप सिंह ने जयपुर महाराजा से राजगढ़ जाने की अनुमति माँगी। जयपुर नरेश को प्रताप सिंह का यह प्रस्ताव सुनकर बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने प्रताप सिंह को राजगढ़ जाने से रोकना चाहा, पर जब उसने हठ किया और यह प्रतिज्ञा की, कि जब कभी भी आप मुझे याद करेगें, तब मैं आपकी सेवा में फिर उपस्थित हो जाऊँगा। तब जयपुर के नरेश ने उसे राजगढ़ जाने की आज्ञा दी।

The ROYAL "JAAT''
02-06-2011, 04:02 PM
प्रताप सिंह की अनुपस्थिति में उनसे मनमुटाव रखने वाले सरदारों को महाराजा पृथ्वी सिंह और प्रताप सिंह के बीच वैमनस्य पैदा करने का अच्छा अवसर मिल गया। राजसिंह नामक एक सरदार ने जयपुर महाराजा के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि प्रताप सिंह आपसे अप्रसन्न होकर राजगढ़ चला गया है। इसलिए आपको उससे चैतन्य रहना चाहिए और उसका दमन करने में देरी नहीं करनी चाहिए।

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02-06-2011, 04:03 PM
महाराजा पृथ्वी सिंह सरदार राजसिंह के कथन से प्रभावित हो गया और उसने उस समय १७७२ में राजगढ़ पर आक्रमण करने की आज्ञा प्रदान कर दी। इस पर राजसिंह व फिरोज खाँ ने जयपुर के ४०,००० सैनिकों के साथ दो दलों में विभक्त होकर राजगढ़ की ओर प्रस्थान किया और वसुवा नामक स्थान पर घेरा डाला। जब प्रताप सिंह को यह समाचार मिला तो उन्होंने अपने मंत्री छाजराम हल्दिया, उसके तीनों पुत्र दोलतराम, नन्दराम, रामसेवक, मौजीराम, जीवन खाँ तथा होशदार खाँ आदि सचिवों से परामर्श कर अपने सबी सरदारों को परामर्श के लिए बुलाया।

The ROYAL "JAAT''
02-06-2011, 04:04 PM
जब उसके सभी सरदार एकत्रित हुए तो उसने सभी से जयपु की सेना से युद्ध व स्वतंत्र सम्पत्ति की माँग की व यह प्राप्त करने में सहायता माँगी। प्रताप सिंह की उपस्थिति में सभी सरदारों ने विपत्ति में साथ देने का वायदा किया।

जब सरदारों को युद्ध के लिए उत्साहित देखकर प्रताप सिंह ने अपनी सेना का एक भाग राजगढ़ की रक्षा के लिए छोड़कर शेष सेना के साथ जयपुर की सेना का सामना करने के लिए प्रस्ताव किया।

The ROYAL "JAAT''
02-06-2011, 04:34 PM
राजसिंह को इसकी सूचना प्राप्त होते ही वह फिरोज खाँ के साथ राजगढ़ की ओर बढ़ा, जहाँ प्रताप सिंह की सेना पहले ही से युद्ध के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। राजगढ़ के मुट्ठीभर सैनिकों ने निरन्तर दो महीनों तक जयपुर की विशाल सेना का सामना किया, लेकिन इसका परिणाम नहीं निकलने पर प्रताप सिंह के नेतृत्व में राजगढ़ के सैनिकों ने इस युद्ध में अद्भुत सैनिक प्रतिभा दिखाई। इस तरह प्रताप सिंह के युद्ध कौशल को देखकर राजसिंह तथा फिरोज खाँ जैसे अनुभवी और पराक्रमी सेनापति भी चकित रह गए।

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02-06-2011, 04:42 PM
इस लड़ाई में पराजय के लक्षण देखकर राजसिंह शेखावत बहुत घबराया व अन्होंने जयपुर महाराजा को इस आशय का पत्र लिखा कि निरन्तर दो माह से युद्ध चल रहा है, लेकिन अभी तक हमें प्रताप सिंह को परास्त करने में सफलता नहीं मिली है। सारी सेना हतोत्साहित हो रही है। जिससे अब विजय प्राप्ति की आज्ञा रखना दुराशा मात्रा है। सेना नायक का पत्र पाकर महाराजा पृथ्वी सिंह बड़ा भयभीत हुआ और उसे अपने मान रक्षा की बड़ी चिन्ता हुआ व अन्त में उसने प्रताप सिंह से क्षमा याचना की। प्रताप सिंह ने उसकी क्षमा याचना को स्वीकार कर लिया और अपने हृदय से सारा मन-मुटाव दूर कर जयपुर महाराजा पृथ्वी सिंह से मिलने के लिए जयपुर को प्रस्थान किया। जयपुर नरेश ने उसका यथोचित स्वागत किया। तत्पश्चात् प्रताप सिंह राजगढ़ लौट आया व अपनी शक्ति तथा राज्य विस्तार में लग गया।

deepkukna
02-06-2011, 07:15 PM
क्या बात है यार मजा आ गया

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02-06-2011, 10:32 PM
सन् १७७३ में उसने काँकवाड़ी, अजबगढ़, बलदेवगढ़ आदि स्थानों में गड़िया बनवाई तथा अपनी शक्ति और राज्य विस्तार में लगा रहा। नजफ खाँ का भरतपुर पर द्वितीय आक्रमण और प्रताप सिंह की नजफ खाँ को सहायता (१७७४)।
मिर्जा नजफ खाँ ने भरतपुर पर द्वितीय आक्रमण १७७४ में किया। उस समय प्रताप सिंह ने मिर्जा नजफ खाँ की सहायता की। जिसके फलस्वरुप भरतपुर की सेना को आगरा का दुर्ग छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। इस सहायता के उपलक्ष्य में मिर्जा नजफ खाँ ने मुगल बादशाह शाह आलम (द्वितीय) से अनुरोध कर सन् १७७४ में उसको ""राव राजा बहादुर'' की उपाधि, पंच

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02-06-2011, 10:35 PM
हजारी मनसब (पाँच हजार जात और पाँच हजार सवार और माचेड़ी की जागीर) दिलवाई। इस प्रकार प्रताप सिंह को मुगल बादशाह शाह आलम ने एक स्वतंत्र राजा के रुप में स्वीकार कर लिया और उसकी माचेड़ी की जागीर हमेशा के लिए जयपुर से स्वतंत्र कर दी।इसके पश्चात् १७७५ में प्रताप सिंह ने प्रतापगढ़, मुगड़ा व सेन्थस आदि स्थानों में गढ़ बनवाये

The ROYAL "JAAT''
02-06-2011, 10:40 PM
अलवर राज्य की स्थापना २५ दिसम्बर १७७५

इस प्रकार प्रताप सिंह एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसने अब आसपास के प्रदेश पर अधिकार करना शुरु किया जिससे उसके राज्य का विस्तार हो सके। इस नीति पर चलते हुए उसने सबसे पहले अलवर के प्रसिद्ध किले पर अधिकार किया। इस समय अलवर का दुर्ग भरतपुर के अधिन था, लेकिन भरतुप नरेश की इस गढ़ की ओर कुछ उपेक्ष दृष्टि थी। दुर्गाध्यक्ष और सैनिकों को बहुत समय से वेतन नहीं मिला था, इससे उनमें असंतोष, अशान्ति फैल गई थी। उन्होंने वेतन के लिए अनेक बार भरतपुर नरेश से प्रार्थना की, लेकिन उसने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया।

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02-06-2011, 10:44 PM
अन्त में दुर्ग के रक्षकों ने निराश होकर भरतपुर नरेश को एक मर्मस्पर्शी भाषा में अपना अन्तिम प्रार्थना पत्र लिख भेजा। जिसमें उन्होंने उससे अपने आर्थिक कष्ट जनित असंतोष को खुले शब्दों में प्रकट किया। अपने स्वामी से अपना हार्दिक भाव प्रकट कर स्वामी भक्त रक्षकों ने वास्तव में अपने कर्त्तव्यों का यथोचित पालन किया था, परन्तु हृदयहीन भरतपुर नरेश पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भरतपुर नरेश की उदासीनता से झुंझलाकर अपने निर्वाह एवं प्राण रक्षा हेतु उन्होंने प्रताप सिंह को इस आश्य का प्रार्थना पत्र भेजा कि यदि वह उन लोगों का वेतन चुकाना स्वीकार करें, तो वे अलवर के दुर्ग उन्हें समर्पित करने के लिए प्रस्तुत हैं। प्रताप सिंह ने उनकी प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार किया और खुशालीराम की सहायता से रुपयों की व्यवस्था कर उनका और उनके सैनिकों का वेतन चुका दिया।

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03-06-2011, 10:19 PM
खुशालीराम तथा अपनी सेना के साथ प्रताप सिंह ने मार्ग शीर्ष शुक्ला ३ संवत् १८३२ (२५ दिसम्बर, १७७५) सोमवार को अलवर के दुर्ग में प्रवेश किया और माचेड़ी के स्थान पर अलवर को ही अपनी राजधानी बनाकर अलवर राज्य की स्थापना की और अपनी राज्याभिषेक कराया। प्रताप सिंह अलवर के दुर्ग पर शासन करने के साथ-साथ बानसूर, रामपुर, हमीरपुर, नारायणपुर, मामूर, थानेगाजी आदि स्थानों पर भी प्रताप सिंह ने अधिकार कर लिया। इनमें से प्रत्येक स्थान पर दुर्ग का निर्माण करवाया। इसी प्रकार जामरोली, रेनी, खेडजी, लालपुरा आदि अन्य स्थानों पर भी उसने अधिकार कर दुर्ग बनवायें। प्रताप सिंह के सभी सम्बन्धियों, मित्रों तथा जाति वालों ने उसे अपना मुखिया और राजा स्वीकार कर लिया और सभी ने उसको उपहार स्वरुप भेंट दी।

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03-06-2011, 10:20 PM
प्रताप सिंह की प्रारम्भिक समस्याएँ

प्रताप सिंह के सामने कई आन्तरिक समस्याएँ आयी, जिनका समाधान उन्होंने बड़ी बुद्धिमत्ता और साहस के साथ किया। उनकी प्रारम्भिक समस्याएँ निम्न लिखित थीं-

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03-06-2011, 10:22 PM
प्रथम अलवर के किले एवं अन्य स्थानों पर अधिकार हो जाने के बाद भी लक्ष्मणगढ़ के दासावत नरुका सरदार स्वरुप सिंह ने न तो उसकी राजसत्ता स्वीकार की और न ही उसे भेंट दी। इसलिए प्रताप सिंह ने उस पर चढ़ाई कर दी। जिसका समाचार पाकर वह अपना गढ़ छोड़कर भाग गया। प्रताप सिंह के सैनिकों ने उसका पीछा किया। अन्त में वह पकड़कर अलवर लाया गया। वह ऐसा हठी व दुराग्रही था कि लोगों के समझाने पर भी अपनी बात पर अड़िग रहा और उसने प्रताप सिंह की अधिनता स्वीकार नहीं की। इसका फल उसे बहुत शीघ्र भोगना पड़ा। वस्तुत: वह बड़ा ही दुर्विनीत और दृष्ट था। उसके अशिष्टपूर्ण

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03-06-2011, 10:23 PM
व्यवहार से चिढ़कर और आवेश में आकर प्रताप सिंह ने उसे प्राण दण्ड की सजा दे दी। बात ही बात में उसके किसी पार्श्ववर्ती सहचर ने अपनी तलवार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

इस घटना के कुछ समय बाद प्रताप सिंह ने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण करने का निस्चय किया क्योंकि अभी तक उसकी महत्त्वकांक्षा पूर्ण नहीं हुई थी।
प्रताप सिंह के समक्ष दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या यह थी कि सन् १७७५ में पीपलखेड़े के बुद्धसिंह नामक एक बादशाही जागीरदार के मरने पर अहीरों और मेवों के बीच परस्पर वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ। घटना इस प्रकार हुई कि उक्त जागीरदार

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03-06-2011, 10:24 PM
के मरने पर उसकी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी कोई नहीं था। अहीर चाहते थे कि जागीर पर प्रताप सिंह का अधिकार हो, मेव उस जागीर को गोविन्दगढ़ तथा धोसावली ने नवाब जुल्फीकार खाँ के हाथ में दे देना चाहते थे। प्रताप सिंह ने अपने दीवान भगवानदास टोगड़ा को भेजा। जिसने पीपल खेड़े पहुँचते ही उसपर अलवर राज्य की ओर से अपना अधिकार कर लिया। जुल्फिकार खाँ भी सामना करने के लिए आया, लेकिन जब उसे यह ज्ञात हुआ कि पीपल खेड़ा पर प्रताप सिंह का अधिकार हो चुका था, तो वह वापस धोसावली लौट गया।

The ROYAL "JAAT''
03-06-2011, 10:25 PM
प्रताप सिंह ने जुल्फीकार खाँ के हस्तक्षेप से परेशान होकर उसका दमन करने के लिए धोसावली पर आक्रामण किया जो उस समय नवाब जुल्फीकार खाँ के अधीन था। प्रताप सिंह को इस अप्रत्याशित आक्रमण में मराठों ने भी सहायता दी और दोनों सेनाओं ने मिलकर धोसावली पर घोरा डाल दिया। जुल्फीकार खाँ बड़ा ही निडर स्वेच्छाकारी व साहसी था। जनरल लेक ने जब मराठों को दिल्ली से निकाल दिया तब वे वहाँ से भागकर धोसावली आये, परन्तु जुल्फीकार खाँ प्रताप सिंह से भी अधिकर द्वेष भाव रखता था और हर प्रकार की छेड़छाड़ किया करते था। अतएव मराठे और प्रताप सिंह दोंनो उसके शत्रु

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04-06-2011, 01:45 PM
थे, लेकिन न तो मराठे और न राव प्रताप सिंह अकेले इसे परास्त कर सकते थे। इसलिए उसको परास्त करने के लिए मराठा व प्रताप सिंह ने आपस में समझौता कर लिया। दोनों ने मिलकर उसे युद्ध में पराजित किया। पराजित होने पर वह आश्रय व सहायता के लिए इधर-उधर भटकता फिरा, लेकिन लखनऊ तक किसी ने उसकी सहायता नहीं की। अन्त में बुन्देलखण्ड जाकर वह लड़ाई में काम आया। उसके राज्य पर भी प्रताप सिंह का अधिकार हो गया। प्रताप सिंह ने धोसावली को उजाड़कर गोविन्दगढ़ बसाया।

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04-06-2011, 01:46 PM
जुल्फीकार खाँ के युद्ध में परास्त होकर भाग जाने तथा प्रताप सिंह के धोसावली को हस्तगत कर लेने पर जुल्फीकार खाँ के समर्थक वहाँ के मेवों ने उसके विरुद्ध विद्रोह किया। प्रताप सिंह ने उनके मुख्य नेताओं को अपनी ओर मिला लिया, जिससे उनकी शक्ति कम हो जाने पर उन्हें विवश होकर उसकी अधिनता स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार प्रताप सिंह ने अपने साहस और योग्यता से बहुत शीघ्र अपने विद्रोहियों का दमन करने में सफलता प्राप्त की।

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04-06-2011, 01:49 PM
नजफ खाँ का भरतपुर पर तृतीय आक्रमण तथा प्रताप सिंह की नीति

सन् १७७५ में मिर्जा नवाब नजफ खाँ ने भरतपुर पर तीसरी बार आक्रमण किया और आक्रमण में उसकी सहायता करने के लिए उसने प्रताप सिंह को लिखा। जिसके उत्तर में उसने अपनी कुछ सेना सहित अपने मन्त्री खुशालीराम को नजफ खाँ की सहायता करने के लिए भेजा।
भरतपुर नरेश नवल सिंह अपने मंत्री जोधराज, चतुर सिंह चौहान, सीताराम तथा गुरु अचलदास आदि पराक्रमी सामन्तों के साथ शत्रु से लोगा लेने के लिए अपने दुर्ग में आ डटे। दोनों के बीच युद्ध में नजफ खाँ की विजय हुई। इस पर भरतपुर की सेना

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04-06-2011, 01:51 PM
ने युद्ध भूमि से भागकर डीग के दुर्ग पर शरण ली और नजफ खाँ ने डीग के दुर्ग का घेरा डाल दिया। भरतपुर नरेश ने दुर्ग (डीग) का अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। जाटों ने शत्रु की गति रोगने तथा दुर्ग की रक्षा करने में वीरता प्रकट की और शत्रु की विपुल सेना की बड़ी वीरता से सामना किया। परन्तु अंत में उनकी सारी वीरता और सारा यत्न विफल हुआ। जबकि प्रताप सिंह ने नजफ खाँ को सैनको सहायता दी और प्रताप सिंह की सहायता से नजफ खाँ का डीग पर अधिकार हो गया।

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04-06-2011, 01:52 PM
प्रताप सिंह ने साम्राज्य विस्तार करने के लिए १७७५-७६ में बहादुर पर अधिकार कर वहाँ एक दुर्ग पर निर्माण करवाया। इसी वर्ष प्रताप सिंह ने डेहरा और जिन्दैली में भी दुर्ग बनवाये।

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04-06-2011, 01:53 PM
जयपुर की आन्तरिक समस्याओं में प्रताप सिंह का हस्तक्षेप

प्रताप सिंह ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए जयपुर के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरु कर दिया। सर्वप्रथम उसने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण कर १७७५ में उस पर अधिकार कर लिया। इससे पूर्व इस प्रदेश पर फतेहअली खाँ नामक एक मुसलमान का अधिकार था। प्रताप सिंह ने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण किया तब फतेहअली खाँ ने उसका बड़ी बहादुरी से सामना किया। फिर भी वह प्रताप सिंह को पीछो नहीं हटा सका और अंत में परास्त होकर युद्ध भूमि से भाग निकला। अत: बैराठ प्रदेश पर सिंह का अधिकार हो गया।

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04-06-2011, 01:55 PM
कुछ समय प्रताप सिंह ने प्रयागपुरा, ताला, धोला, आतेला व मामरु आदि परगनों पर भी अपना अधिकार कर लिया। इस समय प्रताप सिंह के राज्य की सीमाएँ अलवर से लेकर सीकर तक फैल गई थी। प्रताप सिंह ने जयपुर की राजनीति में दुबारा हस्तक्षेप उस समय किया जबकि शेखावटी पर नजफकुली खाँ ने आक्रमण किया उस समय शेखावटी के सरदारों ने प्रताप सिंह से सहायता की प्रार्थना की। उसने उनकी सहायता की ओर नजफकुली खाँ को लड़ाई में पराजित कर उक्त स्थान से मार भगाया।

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04-06-2011, 01:59 PM
इस समय प्रताप सिंह की राज्य की सीमाएँ सीकर तक पहुँच गयी थीं, लेकिन सीकर के देवीसिंह और कांसली के सरदार पूरणमल दोनों के बीच कटु सम्बन्ध थे। इसका परिणाय यह हुआ कि कांसली के सरदार पूरणमल ने सीकर राज्य में लूटमार मचाकर बड़ा उपद्रव खड़ा कर दिया और उसके अत्याचार से सीकर का देवीसिंह परेशान हो गया। इस समय पूरणमल ने कांसली के पांचों गांवों पर अधिकार कर लिया। देवीसिंह ने अकेले सामना करने में अपनी सामर्थ्यहीनता को समझ कर प्रताप सिंह से सहायता माँगी। जिस पर प्रताप सिंह ने ससैन्य रवाना हो दोनों के बीच में समझौता कराने की चेष्टा की लेकिन जब पूरणमल किसी प्रकार की संधि के लिए सहमत नहीं हुआ, तब प्रताप सिंह देवीसिंह के साथ सीकर चला गया।

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04-06-2011, 08:09 PM
वहाँ जाकर उसने सीकर के देवीसिंह की बहुत सहायता की। प्रताप सिंह सीकर में कुछ दिनों ठहर कर अलवर लौटा और देवीसिंह ने कांसली पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार प्रताप सिंह ने सीकर के देवीसिंह की सहायता की जिससे दोनों के बीच मित्रता बढ़ी।

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04-06-2011, 08:09 PM
इसी समय मुहम्मद बेग हमदानी ने प्रताप सिंह पर आक्रमण किया, जिसमें प्रताप सिंह को विजय प्राप्त न होने के साथ क्षति भी नहीं हुई। इस प्रकार प्रताप सिंह ने सभी समस्याओं का साहस के साथ समाधान किया मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ ने जब भी भरतपुर पर आक्रमण किया तब-तब प्रताप सिंह ने मित्रता के सम्बन्ध स्थापित किए। इसका परिणाम यह हुआ कि उसे एस स्थायी मित्र मिल गया जो आगे चलकर कभी-भी जयपुर व भरतपुर के शासकों से उसकी रक्षा कर सकता था।

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04-06-2011, 08:11 PM
बन्ने सिंह और अलवर राज्य की प्रगति (१८१५-१८५७ ई.)

बन्ने सिंह बख्तावर सिंह के भाई थाना के ठाकुर सलेह सिंह का पुत्र था। उसका जन्म १६ सितम्बर १८०८ को हुआ था। बख्तावर सिंह के कोई पुत्र नहीं था। बख्तावर सिंह ने अपने भाई थाना के ठाकुर सलेह सिंह के लड़के विनय सिंह को सात वर्ष की उम्र से ही अपने पास रख रखा था, लेकिन गोद लेने के रस्मों रिवाज से पहले ही मृत्यु हो गई थी। इसके परिणामस्वरुप उसकी मृत्यु के बाद बन्ने सिंह के बीच उत्तराधिकार संघर्ष प्रारम्भ हो गया।

The ROYAL "JAAT''
04-06-2011, 08:12 PM
उत्तराधिकार का संघर्ष और बन्नेसिंह का राज्याभिषेक

हरनारायण हल्दिया व दीवान नोनिद्धराम सहित अनेक सरदारों ने बन्नेसिंह को ही शासक बनाने के लिए जोरदार समर्थन किया। बलबन्त सिंह की आयु उस समय लगभग ६ वर्ष की थी। कुछ मुसलमान सरदार बलवन्त सिंह को गद्दी पर बैठाने के पक्ष में थे। १२ फरवरी, १८१५ को बन्नेसिंह को गद्दी पर बैठा दिया। दोनों के बीच वैमनस्य दूर करने के लिए बन्नेसिंह को गद्दी पर बांयी तरफ बलवन्त सिंह को भी बैठाया गया और यह निश्चय किया गया कि दोनों ही बराबरी से राजगद्दी के हिस्सेदार माने जाए, लेकिन इस समझौते पर रेजीडेन्ड ने उन्हें समझाया कि एक राज्य में दो शासक कैसे राज्य कर सकते हैं, यह नियमों के प्रतिकूल है। अत: यह समझौता हुआ कि महाराव राजा का करार दिया जा कर बन्नेसिंह के नाम से होगा

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04-06-2011, 08:15 PM
लेकिन सारा कामकाज बलवन्त सिंह करेगा तथा एक-दूसरे की राय लेकर शासन करेंगे, आपस में कभी वाद-विवाद नहीं होगा। ३० जनवरी १८१७ को नवाब अहमद बख्श खाँ ने परगना तिजारा तथा टपूकड़ा का ठेका लिया। सन् १८२४ तक पदाधिकारी विकट परिस्थितियों में राज्य का काम चलाते रहे।
दोनों के सम्बन्ध बिगड़ने की शुरुआत होने का मुख्य कारण यह था कि अंग्रेंज रेजीडेन्ट जनरल अक्टरलोनी ने एक जोड़ी पिस्तौल और एक पेशकब्ज ईनाम के रुप में बन्नेसिंह के पास भेजा था। जिसमें से पेशकब्ज व पिस्तौल तो बन्नेसिंह ने अपने पास रख ली और बलवन्त सिंह को सिर्फ पिस्तौल ही दिया, पेशकब्ज नहीं दिया। जब बलवन्त सिंह को इसका पता लगा तो दोंने के सम्बन्ध कटु हो गए

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04-06-2011, 08:16 PM
अन्त में अलवर राज्य में दो दल बन गए, एक दल बलवन्त सिंह का समर्थन करता तो दूसरा बन्नेसिंह का।
अहमद वख्श खाँ के विरुद्ध षड्यन्त्र

सन् १८२४ में बन्नेसिंह के समर्थकों ने बलवन्त सिंह के प्रबल समर्थक नवाब अहमद वख्श खाँ को मारने के लिए षड्यन्त्र रचा। इस प्रकार उक्त मेव दिल्ली पहुँचा और दिल्ली में अवसर पाकर रात के समय जब अहमद खाँ खेम्मे के अन्दर सो लहा था तब उसने उस पर तलवार से वार किया, जिससे वह जख्मी हो गया। उस समय वह दिल्ली में रेजीडेन्ट का मेहमान था कुछ समय बाद नवाब स्वस्थ्य हो गया। बलवन्त सिंह ने मेव को गिरफ्तार कर लिया। मल्ला व नंदराम दीवान जि कि बन्नेसिंह के समर्थक थे उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया व तुरन्त ही तीनों का वद्य करवा दिया।

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04-06-2011, 09:04 PM
इसी समय अहमद बख्श खाँ ने दिल्ली जाकर अंग्रेंजी रेजिडेन्ट अक्टरलोनी से अपनी मांगें मनवाई व अपने पक्ष में समर्थन करवाया। अत: बलवन्त सिंह के समर्थकों को अलवर राज्य से बाहर निकाल दिया जाए।कुछ समय पश्चात् अंग्रेंज रेजिडेन्ट ने बन्नेसिंह के द्वारा बलवन्त सिंह के हिमायतियों को १५ हजार रुपयों की वार्षिक आय की व बन्नेसिंह को अंग्रेज रेजिडेन्ट ने लिखा कि बलवन्त सिंह को कैद से मुक्त कर दिया जाए, परन्तु बन्नेसिंह ने इससे इन्कार कर दिया।

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04-06-2011, 09:05 PM
अंग्रेजों की सैनिक कार्यवाही के कारण बन्नेसिंह को मजबूर होकर अंग्रेजों की सलाह को मानना पड़ा और बलवन्त सिंह को कैद से रिहा कर दिया। बन्नेसिंह ने अंग्रेजों को यह स्पष्ट किया कि हमारे यहाँ कि रियासतों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि पासवान के लड़के को दत्तक पुत्र के बराबर राज्य का आधा भाग दिया जाए। #ुसे अधिक से अधिक अपने जीवन निर्वाह के लिए कुछ रुपया प्रतिमाह दिया जा सकता है। परन्तु अंग्रेजों के दबाव के कारण बन्नेसिंह को कुछ परगने देने पड़े।

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04-06-2011, 09:06 PM
बन्नेसिंह के द्वारा बलवन्त सिंह को जागीर प्रदान करना (२१ फरवरी १८२६)

अन्त में बन्नेसिंह ने २१ फरवरी, १८२६ को बलवन्त सिंह के नाम एक इकरार नामा लिखा। बलवन्त सिंह इलाका और रुपये का मालिक रहेगा, लेकिन यदि बलवन्त सिंह की नि:सन्तार मृत्यु हो जाएगी तो यह दिया हुआ सारा क्षेत्र फिर से अलवर राज्य में स्थापित कर दिया जाएगा। बन्नेसिंह ने २१ फरवरी १८२६ को इकरारनामा ल्खिा और अंग्रेज जनरल ने १४ अप्रैल को इस समझौते की गारन्टी के साथ पुष्टि की।

इकरारनाम लिख देने पर बन्ने सिंह को बलवन्त सिंह के झगड़ों से मुक्ति मिली। उसे शासन करने के पूरे अधिकार मिल गए, लेकिन अंग्रेजों से बन्ने सिंह के सम्बन्ध खराब ही रहे थे।

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04-06-2011, 09:09 PM
बन्ने सिंह ने अंग्रेजों के साथ बिगड़ते हुए सम्बन्धों के कारण जयपुर महाराजा की अधिनता स्वीकार करना ही ठीक समझा। सन् १८३१ में उसने जयपुर महाराजा को काफी धन दिया और उससे खिलअल लेने का प्रयास किया। सन् १८३१ में जब अंग्रेज रेजीडेन्ट को यह पता चला तो वह बन्ने सिंह पर बहुत नाराज हुआ और उसने कहला भेजा कि उसके द्वारा जयपुर महाराजा से जो सम्बन्ध बनाए गए हैं वो अंग्रेजों से की गई संधियों के खिलाफ है।

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04-06-2011, 09:19 PM
१४ अप्रैल, १८२६ को बन्ने सिंह व बलवन्त सिंह के बीच अंग्रेजी सरकार के समक्ष एक समझौता हुआ था, जिसमें बन्ने सिंह ने किशनगढ़ और कठुम्बर के परगने के बजाय तिजारा के राजा बलवन्त सिंह को १६,००० रुपया प्रतिमाह किस्त के रुप में देने का वायदा किया था, लेकिन वह उसे किश्तों का समय पर भुगतान नहीं करता था। इसलिए १६ मई, १८३३ को ब्रिटिश रेजीडेन्ट ने उस पर बकाया किश्तों का भुगतान करने के लिए दबाव डाला। लेकिन बन्ने सिंह ने उसके आदेशों पर ध्यान नहीं दिया। १५ दिसम्बर, १८३८ को गर्वनर जनरल से किस्तों के बजाय कठुम्बर और किशनगढ़ का परगना बन्ने सिंह से दिलाने की माँग की।

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04-06-2011, 10:33 PM
इस पर गवर्नर जनरल बन्ने सिंह को समय पर किश्ते भुगतान करने के लिए आदेश दिया तथा परगने दिलाने से इनकार कर दिया। उसके पश्चात् उसे नियमित रुप से प्रतिमाह किश्तों का भुगतान करना पड़ा।

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04-06-2011, 10:35 PM
अलवर व भरतपुर के बीच सीमा विवाद (१९ मई, १८३३)

इस समय भरतपु और अलवर के बीच जीलालपुर और छुमरवाला गाँवों के प्रश्न को लेकर सीमा विवाद हुआ। १३ सितम्बर १८३३ को एक पत्र के द्वारा अंग्रेज गवर्नर जनरल के निर्णय के विरुद्ध अपना असंतोष प्रकट किया। अन्त में बन्ने सिंह को बाध्य होकर अंग्रेज गवर्नर जनरल के निर्णय को स्वीकार करना पड़ा। उसने २३ सितम्बर, १८३३ को ब्रिटिश रेजीडेन्ट अजमेर के वहाँ ८ हजार रुपया जुर्माने के जमा करवा दिये।

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04-06-2011, 10:36 PM
तोरावटी की समस्या - तोरावटी के भीने अंग्रेज सरकार को आदेशों का पालन नहीं करते थे और वहाँ की फसल चुराकर ले जाते थे, इसलिए अंग्रेज सरकार ने उनकी डकैतियों को समाप्त करने के लिए तथा फसल पकने तक कुछ अंग्रेज सेना को वहाँ रखने का निश्चय किया।

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04-06-2011, 10:37 PM
बन्ने सिंह की लोहारु और फिरोजपुर परगने के प्रति नीति - लासवाड़ी के युद्ध (१ नवम्बर, १८०३) में बख्तावर सिंह ने अंग्रेज गवर्नर जनलर लेक को सहायता पहुँचायी थी, तो लेक ने २८ नवम्बर, १८०३ को उसको १३ परगने उपहार स्वरुप दिए थे, जिनमें से लोहारु भी एक था। उसके वकील अहमद बख्श खाँ को उत्तम सेवा के बदले फिरोजपुर का नवाब व लोहारु का नवाब बख्तावर सिंह को बनाया। अलवर राज्य की तिजारा प्रान्त के वेश्या से अहमद बख्श खाँ को दो पुत्र शम्मुद्दीन व इब्राहिम अली दो लड़के व विवाहिता पत्नी से अमीनुद्दीन व जियाउद्दीन अहमद थे। बन्ने सिंह ने उसके फिरोजपुर व लोहारु वार सनद दे दी। किन्तु १८३५ में शम्मुद्दीन के सम्मिलित होने के कारण अंग्रेजों ने उसे मृत्यु दण्ड दिया, व साम्राज्य पर

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04-06-2011, 10:39 PM
पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने वह अलवर के राव राजा के द्वारा दिया हुआ था तो लौटा दिया। उसके बाद शम्मुद्दीन के भाई अमीनुद्दीन ने लोहारु पर अधिकार किया। बन्ने सिंह ने लोहारु के बजाय फिरोजपुर का परगना दिलाने की माँग की।

बन्ने सिंह ने दोनों सनद की प्रतियाँ भेजी। अंग्रेज गवर्नर ने दोनों प्रतियों का अवलोकन करने के बाद लोहारु के परगने का अधिकार अमीनुद्दीन को दे दिया।

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04-06-2011, 10:40 PM
उच्च सरकारी पदों का वितरण - बन्ने सिंह के उत्तराधिकारी संघर्ष के कारण राज्य प्रबन्ध की ओर पूरा ध्यान नहीं दे सका था। इसका परिणाम यह हुआ कि उसने कई पद पर नियुक्त लोगों को हटाया व नई नियुक्तियाँ की। नए दिवान के कार्य उसने नियुक्त किए, जैसे राज्य में फारसी भाषा का प्रचार करना व हिजरी का प्रयोग करना। अत: न्याय व्यवस्था करना ताकि जनता को पूरा न्याय मिल स तथा राज व्यवस्था में सुधार भी किया। १८३८ में किसानों को भूमि काश्त करने के लिए निश्चित समय के लिए दी जाती थी व लगान की दर भी निर्धारित की गई।

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04-06-2011, 10:42 PM
१८४२ में बन्ने सिंह के समय में अलवर राज्य में पहला आधुनिक स्कूल खोला गया।

१८५७ का विप्लव और बन्ने सिंह की नीति

जिस समय सन् १८५७ में भारत वर्ष में अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए उनके विरुद्ध विद्रोह किया, उस समय उत्तरी भारत में अंग्रेजों की स्थिति निरन्तर बिगड़ती जा रही थी। यद्यपि उस समय बन्ने सिंह सख्त बीमार था फिर भी उसने इस विद्रोह को दबाने में अंग्रेज सरकार को मदद पहुँचायी।

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04-06-2011, 10:45 PM
सन् १८५७ के विद्रोह के समय बन्ने सिंह ने चिमन सिंह के नेतृत्व में ८०० पैदल सैनिक, ४०० घुड़सवार सैनिक तथा ४ तोपों को आगरा में घिरी हुई अंग्रेज सेना की सहायता के लिए अलवर से रवाना किया। ११ जुलाई, १८५७ को उछनेरा गाँव में इस अलवर राज्य की सेना पर नीमच तथा नसीराबाद के विद्रोही सैनिको ने अचानक आक्रमण कर दिया।

चिमन सिंह की अंग्रेजों के प्रति स्वामी भक्ति नहीं थी और विद्रोही सेना में बहुत से ऐसे सैनिक थे जो चिम्मन लाल के सम्बन्धी थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अलवर राज्य की सेना ने इस युद्ध में अपनी पूरी बहादुरी का परिचय दिया ही नहीं।

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04-06-2011, 10:48 PM
इस युद्ध में अलवर के ५५ सैनिक मारे गए, जिसमें से १० बड़े पदाधिकारी थे। बन्ने सिंह की सेना मैदान छोड़कर बाग गई। बन्ने सिंह को यह सूचना प्राप्त हुई उस समय वह मृत्यु शैय्या पर अंतिम घड़ियाँ गिन रहा था, तब भी बन्ने सिंह ने यह आदेश जारी किया कि अंग्रेजों को एक लाख रुपये की सहायता अविलम्ब भेज दी जाए।

जब वह बीमारी की हालत में चल रहा था तब मैदा चेला ने इस्फिन्दयार बेग के बहकावे पर मम्मान चाबुक सवार, गणेश चेला तथा बलदेव आदि तीन बेकसूर व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया और उन पर झूँठा आरोप लगा दिया गया कि महाराव राजा बन्ने सिंह को मारना चाहते थे और बन्ने सिंह के ऊपर कुछ जादू करवा दिया था। इतना ही नहीं मैदा ने

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04-06-2011, 10:50 PM
ने मुसलमानों को कष्ट पहुँचाया, जिसकी सजा उसे अछनेरा गाँव के युद्ध में मिली और उसको बड़ी बेरहमी से मारा। मिर्जा इस्फिन्दयार बेग को भी अपने कर्मों का फल भुगतना पड़ा और कुछ समय बाद उसे अलवर राज्य से बाहर निकाल दिया।

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07-06-2011, 10:13 PM
अलवर क्षेत्र का प्रारम्भिक इतिहास

पुरातत्वेत्ता कर्निगम के मतानुसार इस प्रदेश का प्राचीन नाम मत्स्य देश था। महाभारत युद्ध से कुछ समय पूर्व यहाँ राजा विराट के पिता वेणु ने मत्स्यपुरी नामक नगर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था। कालान्तर में इसी को साचेड़ी कहने लगे और बाद में वही राजगढ़ परगने में माचेड़ी के नाम से जाना जाने लगा। उस समय यौधेय, अर्जुनायन, वच्छल आदि अनेक जातियाँ इसी भू-भाग में निवास करती थीं। राजा विराट ने अपनी पिता की मृत्यु हो जाने के बाद मत्स्यपुरी से ३५ मील पश्चिम में बैराठ नामक नगर बसाकर इस प्रदेश को राजधानी बनाया।

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07-06-2011, 10:17 PM
इसी विराट नगरी से लगभग ३० मील पूर्व की ओर स्थित पर्वतमालाओं के मध्य में पाण्डवों ने अज्ञातवास के समय निवास किया था। बाद में यह स्थान अलवर प्रान्त में पाण्डव पोल के नाम से जाना जाने लगा। उन्हीं दिनों राजा विराट के समीपवर्ती राजाओं में प्रसिद्ध राजा सुशर्माजीत था, जिसकी राजधानी श्रोद्धविष्ट नगर थी जो अब तिजारा परगने में सरहटा नामक एक छोटा गाँव हैं।

सुशर्मण के वंशजों का यहाँ बहुत समय तक अधिकार है। यादव वंशीय तेजपाल ने सुशर्मा के वंशधरों के यहाँ आकर शरण ली और कुछ समय बाद उसने तिजारा बसाया। राजा विराट के समय कीचक को प्रदेश पर शासन था, जिनकी राजधानी मायकपुर नगर थी जो अब बान्सूर प्रान्त में मामोड़ नामक एक उजड़ा हुआ खेड़ा पड़ा है।

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07-06-2011, 10:20 PM
तीसरी शताब्दी के आसपास इधर गुर्जर प्रतिहार वंशीय क्षत्रियों का अधिकार हो गया और इसी क्षेत्र में राजा बाधराज ने मत्स्यपुरी से ३ मील पश्चिम में एक नगर बसाया तथा एक गढ़ भी बनवाया। इसी वंश के राजदेव ने उक्त गढ़ का जीर्णोद्धार करवाया व उसका नाम राजगढ़ रखा। वर्तमान राजगढ़ दुर्ग के पूर्व की ओर इस पुराने राजगढ़ की बस्ती के चिन्ह अब भी दृष्टिगत होते हैं।

पाँचवी शताब्दी के आसपास इस प्रदेश के पश्चिमोत्तरीय भाग पर राज ईशर चौहान के पुत्र राजा उमादत्त के छोटे भाई मोरध्वज का राज्य था जो सम्राट पृथ्वीराज से ३४ पीढ़ी पूर्व हुआ था। इसी की राजधानी मोरनगरी थी जो उस समय साबी नदी के किनारे बहुत दूर कर बसी हुई थी। इस बस्ती के प्राचीन चिन्ह नदी के कटाव पर अब भी पाए जाते हैं और अब मोरधा और

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07-06-2011, 10:22 PM
मोराड़ी दो छोटे-छोटे गाँव रह गए हैं। छठी शताब्दी में इस देश के उत्तरीय भाग पर भाटी क्षत्रियों का अधिकार था। इनमें प्रसिद्ध राजा शालिवाहन ने "कोट' नामक एक नगर बसाया था और उसे अपनी राजधानी बनाया था। मुंडावर प्रान्त के सिंहाली ग्राम में उपरोक्त नगर के प्राचीन खण्डरों के चिन्ह अब भी पाए जाते हैं। इसी शालिवाहन ने इस नगर से लगभग २५ मील पश्चिम की ओर शालिवाहपुर नाम का दूसरा नगर बसाया जहाँ आजकर बहरोड़ बसा हुआ है।

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07-06-2011, 10:28 PM
इन चौहानों और भाटी क्षत्रियों के अधिकारों का ऐसा दृढ़ प्रमाण नहीं मिलता। जैसाकि उपरोक्त गुर्जर प्रतिहार (बड़ गुर्जर) के शासनाधिकार के समय का प्राप्त होता है। राजौरगढ़ के शिलालेख से पता चलता है कि सन् ९५९ में इस प्रदेश पर गुर्जर प्रतिहार वंशीय सावर के पुत्र मथनदेव का अधिकार था जो कन्नौज के भट्टारक राजा परमेश्वर क्षितिपाल देव के द्वितीय पुत्र श्री विजयपाल देव का सामन्त था। इसकी राजधानी राजपुर (वर्तमान राजोरगढ़) भी यहाँ उस समय का एक प्राचीन नीलकंठ शिव मंदिर अब भी विद्यमान है।

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07-06-2011, 10:29 PM
इसी समय जयपुर तथा अलवर राज्य के पूर्वज राजा सोढ़देव ने बड़ गुर्जरों से दौसा लिया और इनके पुत्र दुल्हेराय ने खोह आदि के मीणों को दबाकर एक छोटे से राज्य की स्थापना की तथा इनके पुत्र काकिलदेव ने अजमेर को अपनी राजधानी बनाया। उन दिनों इस प्रदेश के कुछ स्थानों पर बड़गुर्जरों, कहीं पर यादवों और कहीं निकुम्भ क्षत्रियों का अधिकार था।

राजा काकिलदेव ने मेड बैराठ और इस प्रदेश के कुछ भाग को यादवों से लेकर निकुम्भ क्षत्रियों के शासन में दिया पर इनके पुत्र अलधराय ने मेड, बैराठ यादवों से लेकर इस क्षेत्र के कुछ भाग पर अधिकार करके एक दुर्ग और अलपुर नामक नगर बसाया।

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07-06-2011, 10:29 PM
अलधराय के बाद उसके पुत्र सगर से निकुम्भ क्षत्रियों ने यह प्रदेश छील लिया और राजगढ़, बान्सूर, थानागाजी आदि कुछ प्रान्तों को छोड़कर इस राज्य के अधिकांश भाग में निकुम्भों का शासन रहा।

अलवर के गढ़ को इन्होंने सुदृढ़ किया तथा इण्डोर (तिजारा) में एक दूसरा दुर्ग बनवाया। उन दिनों राजगढ़ प्रान्त में बड़ गुर्जर थानागाजी में मेवात के मीणों एवं बान्सूर और मण्डवरा में चौहान क्षत्रियों का आधिपत्य था। राजगढ़ प्रदेश में राजा देव कुण्ड बड़गुर्जर ने वेदती नामक बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया।

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07-06-2011, 10:30 PM
इसी के वंशजों में से देवत ने देवती, राजदेव ने राजोरगढ़ और माननें माचेड़ी में अपनी-अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया । इसी वंश के राजा हरयाल ने अजमेर नरेश राजा देव को अपनी नलदेवी विवाही थी। राजा कर्णमल की पुत्री आमेर नरेश कुन्तल को विवाही गयी। कर्णमल की तीसरी पीढ़ी में बड़गुर्जर वंशीय राजा असलदेव के पुत्र महाराजा गागादेव का सुल्तान फिरोजशाह के समय में माचेड़ी में राज्य था, इनके समय के दो शिलालेख सन् १३६९ ई. में और सन् १३८२ में माचेड़ी से मिले हैं।

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07-06-2011, 10:32 PM
सन् १४५८ में इस वंश के राजा रामसिंह का पुत्र राज्यपाल था, उसके पुत्र कुम्भ ने आमेर नरेश पृथ्वीसिंह से अपनी पुत्री भगवती का विवाह किया। राजा कुम्भ का द्वितीय पुत्र अशोकमल था जिसका दूसरा नाम ईश्वरमल था। सम्राट अकबर को डोला न देने तथा आमेर नरेश मानसिंह से बिगाड़ हो जाने के कारण दिल्ली और जयपुर की सेना ने इनसे देवती का राज्य छीन लिया और केवल राजोरगढ़ पर उनके पुत्र बीका का अधिकार रहा अन्त में यह भी छीन लिया गया और राजगढ़ प्रान्त से बड़ गुर्जर का शासन सदैव के लिए समाप्त हो गया। इसके बाद राजगढ़ प्रान्त जयपुर राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

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07-06-2011, 10:33 PM
थानागाजी प्रान्त में अकबर सम्राट के शासन के प्रारम्भ में मेवात मीणों की राजधानी क्यारा नगर थी। यहाँ के मौकलसी नामक राजा को शाही सेना ने परास्त करके क्यारा को उजाड़ दिया और शाही सेनापति ने मौहम्मदाबाद नामक एक नगर बसाया। उन्हीं दिनों इधर नरहट का बाँदा मीणा प्रसिद्ध लुटेरा था, जिसकी धर्मपुत्री शशिबदनी मेवात के विख्यात टोडरमल मेव के पुत्र दारियाँ खाँ को विवाही गयी। आमेर नरेश मानसिंह के अनुरोध से सम्राट ने इस प्रान्त में शान्ति बनाए रखने के कारण बाँदा को ""राव'' का पद प्रदान किया।