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View Full Version : जीवन चलने का नाम।


arvind
06-06-2011, 02:08 PM
दुनियाँ की सबसे डरावनी बीमारी का नाम है कैंसर है। कैंसर अगर गंभीर स्तर तक पहुंच गया है, तब तो लोग मान बैठते है की मौत बस चंद दिनो की बात है। पर, क्या किसी ने कैंसर पीड़ित व्यक्ति को आत्महत्या करते सुना है। उदाहरण खोजना मुश्किल होगा। वह सामने खड़े यमराज से आखिरी सांस तक लड़ता है। वहीं हम आसपास फूल-से किशोरों या स्वस्थ युवकों आत्महत्या करते पाते है। हाल में एक छात्र ने सुसाइडल नोट में लिखा - सौरी पापा, मैं आपके सपने को पूरा नहीं कर पाया। जिस छात्र ने अपने बारे में ऐसा मूल्यांकन किया, उसने खुद को पहचानने में भूल की। शायद उसे नहीं मालूम था कि जिस आदमी ने मानवता का नया इतिहास लिख दिया, वही आदमी आठवीं में इतिहास में बेहद कमजोर था। जी हां, हम बात कर रहे हैं महात्मा गांधी की। उन्हें इतिहास मे कम नंबर आते थे, पर वह अपने कर्मो से ऐतिहासिक बन गये।

पूर्व राष्ट्रपति डा० ए पी जे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि आदमी को अपनी प्रतिभा की तुलना कभी अपने कॉलेज के रिपोर्ट कार्ड से नहीं करनी चाहिए। आत्महत्या कायरता है। काश, उस युवक ने लिखा होता, सौरी पापा, मेरे कम नंबर आये है, लेकिन मैं हार नहीं मानूँगा। मैं अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल दुनियाँ को सुंदर बनाने मे करना चाहता हूं। अपना छोटा-सा ही सही, लेकिन योगदान देना चाहता हूं।

arvind
06-06-2011, 02:11 PM
देश के महान गणितज्ञ श्रीनिवास अयंगर रामानुजन 12वी में दो बार फेल हुए। उनका वजीफा बंद हो गया। उन्हें क्लर्क की नौकरी करनी पड़ी। इससे पहले उन्होने मैट्रिक की परीक्षा पहले दर्जे से पास की थी। जिस गवर्नमेंट कालेज में पढ़ते हुये वे दो बार फेल हुए, बाद मे उस कालेज का नाम बदल कर उनके नाम पर ही रखा गया। पटना सहित कई शहरों में उनके नाम पर शिक्षण संस्थान हैं। तब उनकी प्रतिभा को समझने वाले लोग देश में नहीं थे। उन्होने तब के बड़े गणितज्ञ जी० एच० हार्डी को अपना पेपर भेजा। इसमे 120 थ्योरम (प्रमेय) थे। उन्हें कैम्ब्रिज से बुलावा आया। फेलो ऑफ रॉयल सोसाइटी से सम्मानित किया गया। उनके सूत्र कई वैज्ञानिक खोजों में मददगार बने। अगर रामानुजम 12वीं में फेल होने पर निराश हो गये होते, तो कल्पना कीजिए, दुनियाँ को कितना बड़ा नुकसान होता। ठीक है, सभी रामानुजम नहीं हो सकते, पर यह भी अकाट्य सत्य है कि हर किसी कि अपनी विशिष्टता है। इस विशिष्टता का व्यक्तिगत व सामाजिक मूल्य भी है। इसे नष्ट नहीं, बल्कि पहचानने व मांजने कि जरूरत है। फ्रांस के इमाइल दुर्खीम आत्महत्या पर शोध करने वाले पहले आधुनिक समाज विज्ञानी है। 1897 में उनहोंने इसके तीन कारण बताये, जिनमें पहला है आत्मकेन्द्रित होना। व्यक्ति का समाज से कट जाना। जिंदगी को अकेलेपन मे धकेलने के बदले, आइए हम खुद को सतरंगी समाज का अंग बना दे।

arvind
06-06-2011, 02:13 PM
पिछली सदी के दो बड़े नाम पूछे जायें, तो सहज ही महात्मा गांधी व आइंस्टीन के नाम आयेंगे। दोनों ही शुरुआती पढ़ाई में औसत थे। आइंस्टीन को तो मंदबुद्धि बालक माना जाता था। स्कूल शिक्षक ने यहां तक कह दिया था कि यह लड़का जिंदगी में कुछ नहीं कर पायेगा। बड़े होने पर वह पॉलिटैक्निक इंस्टीट्यूट की प्रवेश परीक्षा में भी फेल हो गये। हालांकि, उन्हें भौतिकी में अच्छे नंबर आये थे, पर अन्य विषयों में वह बेहद कमजोर साबित हुए। अगर वह निराश हो गये होते, तो क्या दुनियाँ आज यहां होती। उन्हें फादर ऑफ मॉडर्न फ़िज़िक्स कहा जाता है। जिंदगी के किसी मोड़ पर असफलता मिलते ही आत्मघाती कदम उठाने वाले युवा आइंस्टीन से सीख ले सकते हैं। युवाओ को सदी दिशा देने में अभिभावकों और शिक्षकों की भी अहम भूमिका हैं। हमारे यहां बुद्धिमता के बस दो पैमाने हैं - पहला मौखिक (वर्बल), जिसमें सूचनाओं का विश्लेषण करते हुए सवाल हल किये जाते हैं व दूसरा गणित या विज्ञान। देर से ही सही, अमेरिकी मनोविज्ञानी गार्डनर के विविध के सिद्धान्त को बिहार के स्कूलों में भी अपनाया जा रहा हैं। गार्डनर ने बताया कि बुद्धिमता आठ तरह कि होती हैं। इसीलिए गणित या अँग्रेजी में फेल हों या आईआईटी की प्रवेश परीक्षा मे असफलता मिले, तो हार न मानें। असफलता तो सफलता की सीढ़ी है। आइंस्टीन ने भी यही माना और अपने परिवार, पड़ोसी व गुरुजी को गलत साबित कर दिया। जो मानते हैं कि आप जिंदगी में कुछ नहीं कर सकते, उन्हे आप भी गलत साबित कर सकते है।

arvind
06-06-2011, 02:35 PM
क्या गाँव, क्या शहर, होंडा का नाम सबने सुना हैं, पर यह बहुत कम लोगों नें सुना होगा कि कम्पनी के संस्थापक सोइचिरो होंडा ने जब टोयोटा कम्पनी में नौकरी के लिये इंटरव्यू दिया, तो इसमें वे फेल हो गये। उनका जीवन संघर्ष आज के युवाओं के लिए प्रेरक हैं। वे बहुत ही गरीब परिवार से थे। उनके पिता लोहार थे। साइकिल रिपेयर करने की दुकान थी। खुद होंडा को कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली। वे 16 वर्ष की उम्र में टोक्यो पहुंचे। एक कम्पनी में अप्रेंटिशशिप के लिए आवेदन दिया। उनकी उम्र एक वर्ष कम थी, इसीलिए एक वर्ष तक मालिक के घर में काम करना पड़ा। अप्रेंटिशशिप के बाद नौकरी नहीं मिलने पर उन्हें अपने गाँव वापस लौटना पड़ा। वहाँ उन्होने स्कूटर रिपेयरिंग का कम शुरू किया। फिर धीरे-धीरे अपना पार्ट्स बनाया व बाद में पूरी मोटरसाइकल बना दी। आज उनकी कम्पनी दुनियाँ की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है। 32 देशो में 109 उत्पादन केंद्र हैं। तीन डिपार्टमेंट हैं - टू व्हीलर, फॉर व्हीलर व पावर प्रॉडक्ट का। अब आज के युवा कल्पना करें कि नौकरी न मिलने पर उन्होने आत्मघाती कदम उठाया होता, को क्या आज अच्छी टेक्नालजी के लिए दुनियाँ में पहचान बनाने वाली होंडा मोटरसाइकिले चला पाते। होंडा ने कम्पनी का दर्शन भी शानदार तय किया। कम्पनी की तीन खुशियाँ हैं - उच्च क्वालिटी के उत्पादन की खुशी, उच्च क्वालिटी के प्रॉडक्ट की बिक्री की खुशी व खरीदने की खुशी। कॉलेज में फेल होना, जिन्दगी में फेल होना नहीं है। जिन्दगी आकाश जैसी है, जहां एक रास्ता बंद होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। हजारो दूसरे रास्ते हैं, जहां आप भी अपनी छाप छोड़ सकते है।

ndhebar
06-06-2011, 03:28 PM
बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है अरविन्द भाई
जिंदगी है तभी तो सब कुछ है अन्यथा कुछ भी नहीं

khalid
06-06-2011, 03:40 PM
बहुत अच्छे अरविन्द भाई आप के सुत्र को पढने वाले को एक नई प्रेणा मिले ऐसा उम्मीद करते हैँ

arvind
06-06-2011, 04:01 PM
बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है अरविन्द भाई
जिंदगी है तभी तो सब कुछ है अन्यथा कुछ भी नहीं
जीवन ईश्वर का दिया हुआ अमूल्य तोहफा है - इसे हर दिन जी भर के जिये।
बहुत अच्छे अरविन्द भाई आप के सुत्र को पढने वाले को एक नई प्रेणा मिले ऐसा उम्मीद करते हैँ
इस सूत्र का मकसद भी यही है।

arvind
06-06-2011, 04:36 PM
अगर आशा के अनुरूप रिज़ल्ट आया तो ठीक है। लेकिन ग्रेडिंग आशानुरूप न आये, तो भी चिंता न करें। तनाव में न आये। ऐसा नहीं हैं कि कुछ कम अंक आने से आपका भविष्य चौपट हो जाएगा। ध्यान रखे कि अगर एक रास्ते अगर बंद होते हैं, तो हजार खुलते भी हैं। जीवन में अनेक अवसर आयेंगे। अगर ग्रेडिंग खराब हो तो बाद में कारणों पर विचार करें। अपने मित्र के रिज़ल्ट को देख कर तुलना कर तनावग्रस्त न हों।

पैरेंट्स की ज़िम्मेदारी और ज्यादा है।
वो बच्चो का मनोबल बढ़ाते रहें।
बच्चो पर अनावश्यक दबाव ना डालें।
रिज़ल्ट खराब होने पर डांटे नहीं, क्योंकि वो खुद तनाव में रहतें है।
ऐसा कुछ नहीं करें जिससे बच्चे डिप्रेशन में चले जायें या कोई गलत कदम उठा लें।

arvind
06-06-2011, 04:37 PM
एक बार परीक्षा में फेल होने पर निराश हो कर नशा करने या आत्महत्या की बात दिमाग में लानेवाले किशोर व युवा किंग रोबर्ट ब्रूस को याद करें। किंग ब्रूस व मकड़ी की कहानी दुनियाँ भर के बच्चे जानते हैं, जिसमें राजा छह बात लड़ाई हार कर भूखा और परेशान झोंपड़ी में बैठा हैं। सातवी बार हमला करने की प्रेरणा उसे मकड़ी से मिलती हैं। वह विजयी होता हैं। एडीशन को आप क्या कहेंगे, वे तो हजार बार फेल हो चुके थे। बिजली बल्ब के आविष्कारक थॉमस अल्वा एडीशन को भी सभी जानते हैं, पर इस बात को सब नहीं जानते कि वे बल्ब बनाने में एक हजार बार फेल हो चुके थे। वे कहते थे, मैं फेल नहीं हुआ, बल्कि दुनियाँ का पहला आदमी हूँ, जो यह जानता है कि किन एक हजार तरीको से बल्ब नहीं बनाये जा सकते। इस बात को और भी कम लोग जानते हैं कि अमेरिका के आधुनिक और शक्तिशाली बनाने में एडीशन के आविष्कारों का कितना बड़ा योगदान हैं। वे न होते, तो 20वीं सदी शायद अमेरिका कि सदी नहीं बन पति। आखिर उन्होने 1093 आविष्कार किए। पटना में एक बच्चे ने नए कपड़े नहीं मिलने पर आत्महत्या कर ली, पर एडीशन को 12 वर्ष कि उम्र में अखबार बेचने का काम करना पड़ा। पढ़ाई में ध्यान नहीं लगा पाने के कारण उन्हें तीन स्कूल से निकाल दिया था। एक शिक्षक ने उनकी मां से कहा, आपके बच्चे को दुनियाँ का कोई शिक्षक नहीं पढ़ा सकता । वे अटेंशन डेफ़िसिट डिसऑर्डर (add) के शिकार थे। ध्यान केन्द्रित करनेवाले खुद को असफल कदापि न मानें। अपनी प्रतिभा को पहचानें। आप भी जरूर सफल होंगे।

arvind
06-06-2011, 04:41 PM
आजकल टेंशन ज्यादा है। और-तो-और अब आठ साल का बच्चा भी कहता हैं की वह बहुत टेंशन में हैं। उधर, मम्मी-पापा भी टेंशन में हैं। बच्चो को डांट कर वो अपना टेंशन दूर करते हैं, पर बच्चे अपना टेंशन कैसे दूर करें। संयुक्त परिवार में एक ने डांटा, तो दो पुचकारने वाले थे। अब उसे समझनेवाला कोई नहीं हैं। इस भावनात्मक सपोर्ट के अभाव में न जाने कितने किशोरों को आत्मघाती कदम उठाने पर मजबूर किया। दुनियाँ के सर्वाधिक धनवान लोगों में एक बिल गेट्स का भी मन पढ़ाई में नहीं लगता था। वे हार्वर्ड में थे, पर पढ़ने के बजाय दिन भर कम्प्युटर पर टिप-टिप करते थे। उन्होने हार्वर्ड की पढ़ाई छोड़ दी। वे कम्प्युटर को इतना आसान बनाना चाहते थे की आम आदमी लाभ पा सके। इसके लिए उन्होने माइक्रोसॉफ़्ट कम्पनी बनायी, पर वे पहले प्रयास में सफल नहीं हुए। जल्द ही उन्हें सफलता मिली। उनके बनाए प्रोग्राम ने तहलका मचा दिया। 1987 में वे दुनियाँ के सबसे कम उम्र के अरबपति बन गये। कहानी यही खत्म नहीं होती। गेट्स ने टेक्नालजी का इस्तेमाल दुनियाँ की सबसे विकराल समस्या को दूर करने में लगाया। गरीबी, अशिक्षा व कुपोषण को खत्म करने का संकल्प लिया। गरीब मुल्कों में काम करना शुरू किया। गेट्स कहते है - टेक्नालजी मानवीय विकास के लिए होनी चाहिए। वे इसी सिद्धान्त पर काम करते हैं। आपका भी मन अगर कोर्स की किताबों में नहीं लगता, तो कुंठा में जीने व आत्मघाती कदम उठाने के बजाय अपनी रुचि को पहचानिए, उसे सामाजिक उद्देश्य से जोड़िए। जल्द ही आपके सामने नयी दुनियाँ होगी।

deepkukna
06-06-2011, 06:21 PM
बहुत अच्छा लिखा है भाई वास्तव मे जीवन जीने का नाम है, जिदगीँ का दुसरा नाम सघंर्ष है अत हमे जीवन को अच्छे ढंग से जीना चाहिये न कि आत्महतया...जो लोग अपने जीवन से तंग आकर आत्महतया करते है वो सरासर गलत है,
Thanks भाई जो आप लिख रहे हो वह वाक्य मे काबिलेतारीफ है

Bhuwan
07-06-2011, 01:43 AM
भाई, आत्म-हत्या एकमात्र विकल्प नहीं बचता. जिन्दगी जीने के लिए कई रस्ते तब भी हर हाल में खुले रहते है. बस जरूरत होती है एक सही रास्ता पकड़ने की.
वो अलग बात है कई लोग समाज के तानों से परेशान होकर ऐसे कदम उठाते हैं. लिकं माँ-बाप को चाहिए कि बच्चों के साथ ऐसे समय में उनके अच्छे दोस्त बनकर पेश आएं, और उम्मीदों का ज्यादा दबाव ना डालें.

Bhuwan
07-06-2011, 01:46 AM
आज हमारे प्रदेश का बारहवीं औए दसवीं का रिजल्ट निकला है. अगले कई दिनों तक अखबार में ऐसे कई घटनाओं का जिक्र आएगा जिसमें बच्चे निराश होकर कोई गलत कदम उठा चुके होंगे. इसमें बहुत भारी गलती उन माँ-बाप की है जो उन्हें हर हाल में मेरिट में देखना चाहते हैं. ऐसा नहीं होना चाहिए.:nono:

Ranveer
09-06-2011, 12:14 AM
पिछली सदी के दो बड़े नाम पूछे जायें, तो सहज ही महात्मा गांधी व आइंस्टीन के नाम आयेंगे। दोनों ही शुरुआती पढ़ाई में औसत थे। आइंस्टीन को तो मंदबुद्धि बालक माना जाता था। स्कूल शिक्षक ने यहां तक कह दिया था कि यह लड़का जिंदगी में कुछ नहीं कर पायेगा। बड़े होने पर वह पॉलिटैक्निक इंस्टीट्यूट की प्रवेश परीक्षा में भी फेल हो गये। हालांकि, उन्हें भौतिकी में अच्छे नंबर आये थे, पर अन्य विषयों में वह बेहद कमजोर साबित हुए। अगर वह निराश हो गये होते, तो क्या दुनियाँ आज यहां होती। उन्हें फादर ऑफ मॉडर्न फ़िज़िक्स कहा जाता है। जिंदगी के किसी मोड़ पर असफलता मिलते ही आत्मघाती कदम उठाने वाले युवा आइंस्टीन से सीख ले सकते हैं। युवाओ को सदी दिशा देने में अभिभावकों और शिक्षकों की भी अहम भूमिका हैं। हमारे यहां बुद्धिमता के बस दो पैमाने हैं - पहला मौखिक (वर्बल), जिसमें सूचनाओं का विश्लेषण करते हुए सवाल हल किये जाते हैं व दूसरा गणित या विज्ञान। देर से ही सही, अमेरिकी मनोविज्ञानी गार्डनर के विविध के सिद्धान्त को बिहार के स्कूलों में भी अपनाया जा रहा हैं। गार्डनर ने बताया कि बुद्धिमता आठ तरह कि होती हैं। इसीलिए गणित या अँग्रेजी में फेल हों या आईआईटी की प्रवेश परीक्षा मे असफलता मिले, तो हार न मानें। असफलता तो सफलता की सीढ़ी है। आइंस्टीन ने भी यही माना और अपने परिवार, पड़ोसी व गुरुजी को गलत साबित कर दिया। जो मानते हैं कि आप जिंदगी में कुछ नहीं कर सकते, उन्हे आप भी गलत साबित कर सकते है।

बेहतरीन सूत्र है भाई
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ' असफलता ' पर घबराना नहीं चाहिए |
इस तरह की बातें हमेशा इंसान को मोटिवेट करतीं हैं |

अरविद जी को धन्यवाद

jai_bhardwaj
09-06-2011, 11:35 PM
प्रेरक ! अद्वितीय !! उत्कृष्ट !!!
हृदयस्पर्शी सामग्री के लिए आभार बन्धु /

amit_tiwari
10-06-2011, 01:28 PM
सही समय पर सही सूत्र बनाया है भाई |
कमोवेश कुछ ऐसी परिस्थिति मेरे घर में हाल में ही हुई | मेरे छोटे भाई ने इसी साल बारहवीं की परीक्षा ९४% में पास की किन्तु IIT में दाखिला नहीं मिल पाया | वो इस बात पर खुश नहीं था की उसे ९४% मिले, इस बात पर दुखी था की IIT में नहीं हुआ |
मैं उदाहरण लायक चीज़ तो नहीं हूँ लेकिन मेरा अपना अनुभव भी ऐसा ही रहा है, बी टेक से शुरू किया लेकिन अंत में इतिहास में मास्टर्स किया, IAS प्री,मेंस क्लियर करने के बाद इंटरव्यू में अटक गया और आज multimedia में काम कर रहा हूँ और जिंदगी आराम से बिताने का इंतज़ाम है |
कोई भी परीक्षा ना तो पहली होती है ना आखिरी |||

jitendragarg
10-06-2011, 02:58 PM
सही समय पर सही सूत्र बनाया है भाई |
कमोवेश कुछ ऐसी परिस्थिति मेरे घर में हाल में ही हुई | मेरे छोटे भाई ने इसी साल बारहवीं की परीक्षा ९४% में पास की किन्तु IIT में दाखिला नहीं मिल पाया | वो इस बात पर खुश नहीं था की उसे ९४% मिले, इस बात पर दुखी था की IIT में नहीं हुआ |
मैं उदाहरण लायक चीज़ तो नहीं हूँ लेकिन मेरा अपना अनुभव भी ऐसा ही रहा है, बी टेक से शुरू किया लेकिन अंत में इतिहास में मास्टर्स किया, IAS प्री,मेंस क्लियर करने के बाद इंटरव्यू में अटक गया और आज multimedia में काम कर रहा हूँ और जिंदगी आराम से बिताने का इंतज़ाम है |
कोई भी परीक्षा ना तो पहली होती है ना आखिरी |||

badi dukhbhari kahani hai bhai, aapke jeevan ki.

naman.a
11-06-2011, 12:12 PM
एक बहुत ही प्रेरणादायक सुत्र की बधाई ।

मनुष्य को अपनी सोच को सकारात्मक बनानी चाहिये । जो व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थियो मे भी सकारात्मक विचार करना जानते है उनके लिये कुछ भी कठिन नही है ।

सकारात्मक नजरिये वाला व्यक्ति हर मुसिबत मे एक अवसर खोजता है और नकारात्मक नजरिये वाला व्यक्ति हर अवसर मे एक मुसिबत ।

arvind
11-06-2011, 02:51 PM
एक बहुत ही प्रेरणादायक सुत्र की बधाई ।

मनुष्य को अपनी सोच को सकारात्मक बनानी चाहिये । जो व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थियो मे भी सकारात्मक विचार करना जानते है उनके लिये कुछ भी कठिन नही है ।

सकारात्मक नजरिये वाला व्यक्ति हर मुसिबत मे एक अवसर खोजता है और नकारात्मक नजरिये वाला व्यक्ति हर अवसर मे एक मुसिबत ।
सही कहा नमन जी आपने - सब कुछ attitude पर निर्भर करता है - मनुष्य को जरूरत है अपने को पहचान कर अपने महत्व को समझने की। कहते है ना -

कौन कहता है कि आसमां मे सुराख नहीं हो सकता....
अरे, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।

arvind
01-07-2011, 06:29 PM
एक चित्र बनाने में किसी को 17 वर्ष लग जाये, तो आप क्या कहेंगे. कहेंगे कि पेंटिंग उसके वश की नहीं । उसे तोबा कर लेना चाहिए। लेकिन मानव इतिहास के सबसे विख्यात चित्रकार लियोनार्डो द विंची एसे ही शख्स थे। मोनालिसा का चित्र पूरा करने में उन्हे 17 वर्ष लगे। केवल होंठ बनाने में 12 साल लगे। जी हां, वही मोनालिसा, जिस पर न जाने कितनी भाषाओं में कितने आलेख, शोधपत्र व किताबें छप चुकी हैं, पर आज भी वह मुस्कान रहस्यमयी बनी हुई है। यह कई शोधों से प्रमाणित हो चुका है कि विंची डिसलेक्सीया व एडीडी (अटेंशन डेफिसीट डिसाओर्डर) से पीड़ित थे। पहले में व्यक्ति शुद्ध लिखने - पढ़ने में कमजोर होता है व दूसरे में उसका ध्यान किसी एक चीज पर केंद्रित नहीं हो पाता। इसी कारण विंची अपनी लगभग 30 पेंटिंग पूरी नहीं कर पाये। वे पूर्णतावादी थे. थोड़ी भी कमी रहने पर नाखुश होनेवाले। एडीडी के कारण टालू प्रवृति के थे। "कल करे, सो आज कर", के उलटा आज का काम कल पर टालनेवाले। वे चित्रकार ही नहीं, मूर्तिकार, इंजीनियर, शरीर विज्ञान के भी मास्टर थे। उन्होने आज के हेलीकाप्टर से सैकड़ों साल पहले 15 वीं सदी में ही उसकी डिजाइन बना दी. वे रेटिना को डिजाइन करने वाले भी पहले व्यक्ति थे। एक साथ कई कामों में लगे रहनेवाले। अगर आप भी किसी एक विषय को फोकस नहीं कर पाते, तो आपका कुंठित हो जाना सही नहीं। निराशा, अवसाद को टा – टा कहिए। कई विषयो को पढ़िए, पर आत्मघाती कदम कभी न उठाइए। धीरे – धीरे आपकी बहुआयामी प्रतिभा खिलेगी. आप भी विंची कि तरह आलराउंडर हो सकते है।

arvind
01-07-2011, 07:12 PM
विज्ञान में क्रांति पैदा करने वाले चार्ल्स डार्विन बचपन मे बेहद फूहड़ थे। अनफोकस्ड। 13 साल की उम्र में उन्हे रासायनिक पदार्थो में प्रतिक्रिया कराने में मजा आता था। दोस्त ‘गैस डार्विन’ कहा करते थे। पिता की नजर मे वे बेहद आलसी थे। कुछ भी असाधारण नहीं। मेडिकल कॉलेज भेजे गये, पर दूसरे ही साल पढ़ाई छोड़ कर भाग खड़े हुए। खून देखकर उनका माथा चकराने लगता था। वे पादरी बनने की कोशिश करने लगे। धर्म – अध्यात्म व शास्त्रीय किताबों में सिर खपाया। फिर लगा, यह उनके वश की बात नहीं। इसके बाद समुद्री जीवो व घासो को इकट्ठा करने करने निकाल पड़े। हजारो स्पेशीज इकट्ठा करने किये। शोध में लगे रहे और ‘विकास का सिद्धांत’ देकर विज्ञान में क्रांति कर दी। काग हो या केला, माछ हो या मेहंदी, पूर्वज के हिसाब से सभी जीव एक – दूसरे से जुड़े हैं। तब धार्मिक मान्यता थी कि ईश्वर ने मानव को अन्य जीवों से अलग बनाया हैं। डार्विन के इस सिद्धांत से दर्शन में नया विवाद खड़ा हो गया। इन विवादो को छोड़ दें, तो डार्विन के सिद्धांतों की वजह से बीमारियों कि जांच से लेकर कई अनसुलझे सवाल हल होने लगे। मानव जीवन पहले से बहुत बेहतर हुआ। अब आज के युवा, जो फेल होने, बीच में पढ़ाई छोडने के कारण नशा पसंद करने लगते है या आत्मघाती विचार को पास फटकने देते हैं, वे डार्विन के आईने में खुद को देखें। आपके भीतर भी कोई अमूल्य प्रतिभा होगी, उसे खिलने दें। दुनिया आपको कहेगी, थैंक्यू.

arvind
02-07-2011, 05:29 PM
विश्व सिनेमा के इतिहास में सर्वकालीन महानायकों का चुनाव करें, तो टॉम क्रूज का नाम आना ही हैं।

हालीवुड में एक कहावत हैं।
प्रश्न – कौन बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ सफलता दिला सकता है।
उतर - 1 . टॉम क्रूज 2. टॉम क्रूज 3. टॉम क्रूज.

उनकी फिल्मे अरबों का व्यवसाय करती रही हैं। ऑस्कर व अन्य पुरस्कार बरसते रहे हैं। मध्यवर्गीय घरों में यह आम शिकायत रहती हैं कि बच्चे का पढ़ाई में मन नहीं लगता। पहले साइंस पढ़ता था, अब आर्ट्स में है। किताब की नहीं, कम्प्युटर की मांग। उस पर फिल्म देखते आंखो में रात काटना। दिन–ब–दिन अंतर्मुखी होना। गुमसुम। टॉम क्रूज भी गुमसुम रहा करते थे। उनके माँ बाप अमेरिकी ख़ानाबदोश थे। आज यहाँ, कल वहाँ। क्रूज को 14 साल की उम्र में 15 स्कूल बदलने पड़े। सौतेले पिता बात–बात पर फूटबाल की तरह मारते थे। क्रूज को लगा कि उनमें स्कूली पढ़ाई करने कि क्षमता नही है। फिर पादरी बनने के लिए पढ़ाई शुरू की। फिर स्पोर्टसमैन बनने की कोशिश। मुक्केबाज़ी में हाथ आजमाया। आइस हॉकी खेली। रेक्वेट्बौल खेली। घुटने में चोट के बाद एक्टिंग कि ट्रेनिंग शुरू की। न्यूयार्क पहुंचे, तो एक्टिंग के बजाय खलासी का काम करना पड़ा। होटल में पोंछा लगाया। कुली का काम किया। साथ ही वे फिल्मों में औडिसन देते रहे। लंबे संघर्ष के बाद उन्हें फिल्मे मिलने लगीं। फिर 1986 में टॉप गन आयी। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। क्रूज व सफलता पर्याय बन गये। जीवन कि थोड़ी–सी कठिनाई से विचलित होने, आत्महत्या का विचार मन में आनेवाले क्रूज के संघर्ष से बहुत कुछ सीख सकते हैं। आदमी का संकल्प मजबूत हो, तो कुछ भी असंभव नहीं। सफलता आपके कदमों में होगी।

arvind
02-07-2011, 05:38 PM
किसी भी परीक्षा में किसी को कम नंबर आ सकते हैं या कोई फेल हो सकता है। इनमें कुछ सोचने लगते हैं कि उनके लिए अब दुनिया में कुछ नहीं बचा। ऐसे छात्र चर्चिल को जरूर पढ़ें। दो बार ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे चर्चिल दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर को हराने वाले तीन महानायकों में एक थे। उन्हे नोबेल पुरस्कार मिला। 43 किताबें लिखीं। बचपन में वे मम्मी – पापा से मिलने को तरसते थे। हॉस्टल से लिखे उनके पत्र गवाह हैं। पढ़ने में साधारण। वे हकलाया करते थे। पिता की असमय मौत हो गयी। उन्होने खुद की तुलना ‘ब्लैक डॉग’ से की। आक्सफोर्ड डिक्सनरी के अनुसार 19 वीं शताब्दी में इसका मतलब उस मनहूस बच्चे से था, जो दूसरे की पीठ पर सवार हो। युवावस्था में सेना में भरती हुए। ट्रेनिंग के बाद घर लौटने के बजाय युद्धरत देशों में निकाल पड़े। ब्रिटिश अखबारों के लिए रिपोर्टिंग की। पहले विश्वयुद्ध में उनके मोरचे पर हार हुई, जिसके लिए उन्हे हीं दोषी माना गया। वे भारी तनाव में रहने लगे। इसका अंदाजा साधारण लोग नहीं लगा सकते, कोई सैनिक समझ सकता है। उनकी पत्नी ने लिखा है, मुझे लगता था वो आत्महत्या कर लेंगे, लेकिन उन्होने संकल्पशक्ति के बल पर जोरदार वापसी की। वे ब्रिटेन के उस समय प्रधानमंत्री बने, जब जनता में घोर निराशा थी। बचपन में हकलाने वाले चर्चिल इस समय ओजस्वी वक्ता के रूप में उभरे। राष्ट्रीय स्वाभिमान जगाया व चतुर रणनीति से हिटलर को मात दी। अगर चर्चिल हार के बाद वार हीरो बन सकते हैं, तो आप भी अपनी संकल्पशक्ति से अपना रास्ता खुद बना सकते हैं।

arvind
02-07-2011, 05:54 PM
किसी भी परीक्षा में कामयाबी पानेवाले को लगातार बधाइयाँ मिल रही हैं। जो जीता, वही सिकंदर के तर्ज पर समाज सफल लोगो के गुणगान में व्यस्त हो जाता है। जो सफल नहीं हुए, उनके लिए आसानी से हम कह देते हैं कि उसने मन से पढ़ा ही नहीं या पढ़ता तो है, पर दिमाग तेज नहीं हैं। समाज की उपेक्षा के साथ ही कई असफल छात्र भी खुद को ही दोषी मानने लगते हैं। यह प्रक्रिया तेज होने पर निराशा व तनाव बढ़ने लगता है। आईआईटी में फेल तो वेंकटरमण रामाकृष्णन भी हुए थे। उनके दोस्त उन्हे वेंकी कहते हैं। तमिलनाडु में जन्मे वेंकी स्कूल कॉलेज की पढ़ाई में असाधारण नहीं थे। बस, औसत से कुछ बेहतर। बड़ौदा में रहते हुए फिजिक्स से स्नातक किया। आईआईटी के अलावा उन्होने मेडिकल के लिए भी ट्राइ किया, पर दोनों में नाकाम रहे। नौकरी के लिए 50 से अधिक आवेदन दिये। कहीं नौकरी नहीं मिली। वे अमेरिका गये। वहां ओहियो विवि से फिजिक्स में ही पीएचडी किया, पर इसके बाद वे बायलाजी में काम करने लगे। फिर उन्होने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वे फेलो ऑफ रॉयल सोसाइटी हैं। उन्हें 2009 में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला। वेंकी आईआईटी में असफल रहे, पर संकल्पशक्ति के कारण विज्ञान का सबसे बड़ा सम्मान मिला। सीबीएसइ या आईआईटी की परीक्षा कोई अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकती कि यहां असफल होने के बाद हम यह मान बैठें कि हमारी हिस्से केवल नाकामी व अंधेरा है. आत्मघाती बातें दिमाग में लाने वाले वेंकी को देखें। जिंदगी ब्लाइंड लेन नहीं, बल्कि खुला आसमान है, जहां आगे बढ़ने के हजार रास्ते हैं।

anjaan
02-07-2011, 11:15 PM
बिन हाथों के लिखी कामयाबी की दास्तान

http://wscdn.bbc.co.uk/worldservice/assets/images/2011/07/02/110702152755_binod_kumar_singh_466x262_bbc_nocredi t.jpg

anjaan
02-07-2011, 11:16 PM
दोस्तों यह बिनोद कुमार सिंह की तस्वीर है, आइये सुनिए उनकी कहानी उन्ही की जबानी

anjaan
02-07-2011, 11:17 PM
मेरा नाम बिनोद कुमार सिंह है और मैं कोललकाता में रहता हूं. मैंने जब होश संभाला तो देखा कि मुश्किलें ज़िंदगी का दूसरा नाम हैं. जन्म से ही दोनों हाथ न होने के बावजूद मैंने अपने पैरों से लिखना सीखा, नौकरी न मिलने पर रोज़ी-रोटी के लिए सिलाई-कढ़ाई सीखी और मां-बाप का सपना पूरा करने के लिए तैरना सीखा.

मेरे पिताजी ने जब मुझे पहली बार देखा तब से आज तक वो हमेशा ये कहते हैं कि मैं दूसरे लड़कों से अलग हूं और ज़रूर उनका नाम रोशन करूंगा.

आठवीं में पहुंचने के बाद खेल-कूद में मेरी रूचि बढ़ने लगी. शुरुआत हुई दौड़ से, जिसके बाद मैंने फ़ुटबॉल खेलना शुरु किया और जल्द ही मैं स्कूल और कॉलेज स्तर का चैंपियन बन गए.

इसके बाद मैंने हाई-जंप में अपना लोहा मनवाया लेकिन इस कड़वी सच्चाई से भी रूबरु हुआ कि विकलांग खिलाड़ी भले ही बेहतर खेलें लेकिन वो उन्हीं प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले सकते हैं जो खासतौर पर विकलांगों के लिए हों.

आख़िरकार मैंने स्विमिंग में अपना हुनर पहचाना और ठान लिया कि जैसे भी हो स्वमिंग चैंपियन बनूंगा.

anjaan
02-07-2011, 11:17 PM
जब मैं पहली बार अपने कोच के पास प्रशिक्षण के लिए गया तो वे मुझे देखकर हैरान हो गए. उन्हें लगा कि बिन हाथों के मेरे लिए तैरना असंभव होगा. उन्होंने कहा कि मुझे तीन दिन में तैरकर दिखाना होगा और तभी वो मुझे प्रशिक्षण देंगे.

लेकिन मैं उनकी चुनौती पर ख़रा उतरा और तीन ही दिन में मैंने पानी में खड़े होना, चलना और सोना सीख लिया.

कुछ महीनों के प्रशिक्षण के बाद आखिरकार आठ अप्रैल 2005 को मैं पहली बार पानी में उतरा. मैंने राज्य स्तर पर तैराकी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ट्रायल दिया और मुझे चुन लिया गया.

इसके बाद मुझे ऑल इंडिया स्तर पर खेलने का मौका मिला जिसमें मैंने चार स्वर्ण पदक जीते. जुलाई 2006 में मैंने पहली बार ब्रिटेन में हुई एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जिसके बाद 'वर्ल्ड गेम्स' में मैंने एक स्वर्ण एक रजत पदक जीते.

anjaan
02-07-2011, 11:18 PM
इसके बाद मैं लगातार प्रतियोगिताएं जीतता रहा और कई बार अंतरराष्ट्रीय आयोजकों ने अपने ख़र्च पर मुझे प्रतियोगिताओं के लिए आमंत्रित किया.

लेकिन मुझे अपनी ज़िंदगी से सबसे बड़ी शिकायत है कि मैंने एक ऐसी व्यवस्था में जन्म लिया है जिसने जी तोड़ मेहनत के बावजूद क़दम-क़दम पर मुझे धोखा दिया.

2009 में हुए वर्ल्ड गेम्स के लिए मेरा चयन हुआ और मुझे अगस्त महीने में जाना था लेकिन दो अगस्त को मुझसे कहा गया कि मुझे जाने के लिए पैसों का इंतज़ाम ख़ुद करना होगा.

मुझे और मुझ जैसे दूसरे विकलांग खिलाड़ियों को अगर यह बात समय रहते बताई गई होती तो हम इस प्रतियोगिता में शामिल हो पाते.

भारत में चयन प्रक्रिया का आकलन किया जाए तो पता लगेगा कि सामान्य खिलाड़ियों की श्रेणी में जहां ऐसे खिलाड़ी चुन लिए जाते हैं जो कुछ भी जीतकर नहीं ला पाते वहीं विकलांग खिलाड़ियों को काबिल होने के बावजूद देश के लिए खेलने का ही मौका नहीं मिल पाता.

बावजूद इसके कि वो साल दर साल ज़्यादा से ज़्यादा मेडल जीतकर ला रहे हैं.

सरकार भले ही पैरा-ओलंपिक कमेटियों के ज़रिए विकलांग खिलाड़ियों की आर्थिक मदद का दावा करती हो लेकिन आर्थिंक तंगी के चलते विकलांग खिलाड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं ले पाते.

2008 में मैं अपने पिता की ग्रेच्यूटी के पैसे से वर्ल्ड गेम्स में हिस्सा लेने जा सका. मेरे साथी ने इसके लिए अपनी मां के गहने बेचे.

फिर भी मैंने हार नहीं मानी है और मैं जी-तोड़ कोशिश करूंगा कि पैरा-ओलंपिक में हिस्सा लूं और देश के लिए मेडल लाऊं.

हम सरकार को दिखाना चाहते हैं कि विकलांग देश पर बोझ नहीं और वो सभी कुछ कर सकते हैं, अगर उन्हें मौका दिया जाए.

arvind
05-07-2011, 04:02 PM
आम दिनों में हम प्रायः कहते –सुनते हैं कि कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं होता या गलतियाँ सबसे होती हैं, पर परीक्षा परिणाम आते ही इन्हें भूल जाते हैं। मैट्रिक में अच्छा रिजल्ट नहीं आया, तो घर में ‘ब्लेम गेम’ शुरू हो जाता हैं। पति पत्नी को डांटता हैं कि तुमने बच्चे को बिगाड़ा हैं। पत्नी पति पर आरोप लगती है कि आप बच्चे के साथ बैठते नहीं। उधर, परीक्षा में फैल किशोर खुद को जज कि भूमिका में खड़ा कर लेता हैं। खुद को दोषी मानता है व खुद ही खुद को सजा देने का फैसला भी सुना देता है। ऐसे ही ‘ब्लेम गेम’ के शिकार चार्ली चैपलिन भी हुए थे। उन पर गंभीर आरोप लगे थे। आरोप लगाने वाले भी साधारण लोग नहीं थे, दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका कि खुफिया एजेंसी एफबीआई के चीफ एडगर होवर ने कहा चैपलिन का संबंध खतरनाक लोगों से है। अखबार मरीन छ्पा कि चैपलिन ने स्तालिन को 25 हजार डॉलर दिये हैं। पूरे अमेरिका में हंगामा हो गया। उनकी फिल्म का बायकाट होने लगा। सिनेमा हॉलों के सामने धरने दिये गये। उन्हें अपमानित होकर अमेरिका छोडना पड़ा। वे भारी तनाव में रहने लगे। एफबीआई ने उनके बैंक खातों कि जांच की, पर उसमें ऐसा कुछ नहीं मिला, जिससे साबित हो कि उनका संबंध खतरनाक लोगों से है। बाद में खुद होवर ने प्राव्दा में चैपलिन के सम्मान में लेख लिखा। परीक्षा में कम नंबर आने पर बहुत लोग बहुत कुछ कहेंगे। आप निराश न हों। आपमें बहुत कुछ है। आप तो बस नये जोश के साथ नयी पारी खेलने को तैयार हो जायें।

arvind
05-07-2011, 04:09 PM
क्या कोई नॉन ग्रेजुएट व्यक्ति नासा का सदस्य हो सकता है। आप कहेंगे, असंभव। लेकिन, सच्चाई है कि नासा कि परामर्श कमेटी के एक सदस्य ऐसे भी रहे हैं, जो बीए पास नहीं थे। तब नासा का नाम नाका (नेशनल एडवाइजरी कमेटी फॉर एरोनाटिक्स ) था। उनका नाम ओरविल राइट था। उनके भाई विलबर राइट थे। दोनों ग्रेजुएट नहीं थे। साइकिल मिस्त्री थे। पक्षियों की तरह उड़ना मानव जाति कि सबसे पुरानी इच्छा रहा था, जिसे दोनों ने पूरा किया। पहला मोटरयुक्त वायुयान बनाया। दोनों गरीबी में पले थे। पिता पादरी थे। मां के असमय मौत के बाद दीदी ने देखभाल की। वे बराबर हवाई जहाज बनाने के सपने बुना करते। लोग मज़ाक उड़ाते। दोनों ने ग्लाइडर इन्स्टीच्यूट से संपर्क किया और कई ग्लाइडर बनाये। अंततः 1903 में उन्होने पहली बार मोटरयुक्त वायुयान उड़ा कर दुनिया के सबसे पुराने सपने को पूरा कर दिया। अमेरिकी सरकार ने एक संगठन को तब 50 हजार डॉलर प्रयोग के लिए दिये थे, पर उसके वैज्ञानिक असफल रहे। राइट ब्रदर्स के पास धन भी नहीं था, पर उनके पास संकल्पशक्ति थी। कुछ नया करने का जोश था। आज ऐसे युवा भी हैं, जो अपनी किस्मत को कोसने मे समय जाया करते हैं। कहेंगे कि उन्हे उनके माँ - बाप ने नहीं पढ़ाया। वे भौतिक सुखों को पाना चाहते हैं, पर हमेशा अतीत में जीते हैं । यह विरोधाभास उन्हे निराशा में ले जाता है। अवसाद घेरने लगता है। ऐसे युवा – युवती राइट ब्रदर्स से बहुत कुछ सीख सकते हैं। मानव जीवन बहुत कीमती हैं इसे निराशा में न जलाएं। जलाएं नये सपनों के दिये, जिससे प्रकाशित होगी दुनिया।

arvind
05-07-2011, 04:16 PM
डिप्रेशन मनोवैज्ञानिक ‘ब्लैक होल ‘ कि तरह है, जिसमें इसका शिकार युवा अपनी खुशियां उड़ेलता जाता है, लेकिन बदले मे उदासी के सिवा कुछ नहीं मिलता। कपड़ों, नयी बाइक के लिए कई युवा घर में जिद करते हैं, नहीं मिलने पर अवसाद के शिकार हो जाते हैं। कई बार वे आत्मघाती कदम भी उठा लेते हैं। ऐसे युवा क्लोनिंग के जनक मारियो कपेकी के बारे में जरूर जानें। जन्म से पहले मां – पिता में अलगाव हो चुका था। मां फासिस्ट विरोधी राजनीतिक कार्यो के कारण जेल चली गयीं। बचपन फुटपाथ पर आवारा बच्चों के साथ बीता। भूख लगने पर होटलों से खाना चुराने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। अनाथालय में रहें। कुपोषण के कारण मरने – मरने को थे कि किसी ने अस्पताल पहुंचा दिया। नौ साल कि उम्र में अमेरिका पहुंचे। तब तक अक्षर ज्ञान नहीं था। यहां पढ़ाई सुरू हुई। कॉलेज में वे सोचने लगे कि "मैं समाज को क्या दे सकता हूं" पहले राजनीति विज्ञान, फिर केमेस्ट्री व फिजिक्स पढ़ा। उन्हे लगा, वे सौ साल पुरानी बाते पढ़ रहे हैं। तब बायलोजी कि तरफ मुड़े। लंबे शोध के बाद वे जिन कोशिकाओं में मनमाफिक बदलाव करने में सफल रहे। मानव में होने वाली बीमारियों से ग्रसित सैकड़ो चूहे विकसित किये गये हैं। इनमें न्यूरो रोग से पीड़ित चूहे भी हैं। अब लाइलाज बीमारियों का इलाज संभव होगा। उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। अपनी गरीबी को कभी डिप्रेशन का कारण नहीं बनने दें। दिन भर में आधी रोटी खाकर व एक कप चाय पीकर नोबेल पानेवाले कपेकी कहते हैं, कोई कमजोर नहीं होता। बस खुद को आगे बढ़ाएं।

arvind
05-07-2011, 04:21 PM
मिस्टर बिन का चेहरा देखते ही दुनिया भर के बच्चे हंस पड़ते हैं। बड़े भी मुस्कुराये बिना नहीं रह पाते। स्कूल कॉलेज में भी उन्हें देख कर लोग हंस पड़ते थे, लेकिन तब लोगों कि हंसी, हंसी उड़ाने के लिए होती थी। स्कूल में उन्हें सभी बेवकूफ समझते। मास्टर कहते, बंद करो अपनी मूर्खता। मां – पिता, भइब- बहनों व दोस्तों की हमेसा घुड़की सुनते, लेकिन वे कभी कान नहीं देते। उनका असली नाम रोवान एटकिसन है। स्कूल में वे बहुत साधारण छात्र थे। मास्टर पढ़ाते और वे अपनी दुनिया में में खोये रहते। अचानक मास्टर पढ़ाई के बारे में पूछ बैठते। रोवान जवाब नहीं दे पाते। उनका चेहरा देख कर पूरा क्लास हंस पड़ता। दोस्त उन्हे एलियन कहते। अजीब हरकतों करनेवाला। वे बहुत भोले थे। कोई कहता की तुम्हारी पीठ पर चूना लगा है, तो वे कपड़े उतार कर साफ करते। फिर आईने के सामने जा देखते। उनके साथ ऐसी घटनाएं दिन में दस- दस बार होतीं। ऑक्सफोर्ड में भी वे मजाक के पात्र थे। यहां उनके एक दोस्त ने थियेटर ज्वाइन करने की सलाह दी। उन्होने एक्टिंग की कोई ट्रेनिंग नहीं ली थी, पर शानदार एक्टिंग की। यह उनका स्वाभाविक गुण था। फिर तो उन्हें फिल्में मिलने लगीं। फिल्म के कारण ही उनका नाम मिस्टर बिन पड़ा। आज उनके प्रशंसकों की संख्या लाखों में है। उनके नाम पर कई देशों में क्लब है। आजकल कई परीक्षाओं के रिजल्ट आ रहे हैं। रिजल्ट खराब होने पर कोई मजाक उड़ाये, तो आप निराश न हों। किसी पर नाराज न हों। आपमें भी बहुत क्षमता है। अभी आपने अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल ही नहीं किया है। मेहनत करें, आप भी सफल होंगे।

arvind
07-07-2011, 04:35 PM
हम अपने आसपास देखते हैं कि किसी को कम नंबर आया या किसी को मनचाहा रोजगार न मिला, तो लोग मदद करने के बजाय कमेंट करने लगते हैं। एक असफलता पर फालतू, निकम्मा व न जाने क्या – क्या कह देते हैं। क्या आप जानते हैं कि दुनिया का सबसे चर्चित कार्टून कैरेक्टर मिकी माउस फालतू कागज पर ही बना था। जिन्हे बेकार कहा गया, वे खुद को कदापि बेकार न समझें। वाल्टर डिज्नी को बार – बार ये शब्द सुनने को मिले, लेकिन उन्होने कभी खुद को बेकार नहीं समझा। पढ़ाई में मन नहीं लगता था। स्कूल छोड़ दिया। अखबार बेचे। सेना में जाने कि कोशिश की, पर उम्र कम होने के कारण भर्ती नहीं हो सके। एक साल तक एंबुलेंस चलाया। इस बीच वे कार्टून बनाया करते। आर्ट प्रतियोगिता जीती व स्कोलरशिप पाया। फिल्म-एनीमेशन कंपनी न्यूमैन लाफ बनायी, पर यह फेल हो गयी। हॉलीवुड में लंबा संघर्ष किया। यहां उन्होने नया कैरेक्टर बनाया। इसकी सैकड़ों कड़ियां बनायीं, पर उनके अपने फाइनेंसर ने ही उनके साथ धोखा किया। कैरेक्टर का अधिकार चुरा लिया। सारे एनिमेटर्स भी ले लिये। डिज्नी महज एक सूटकेस लेकर हॉलीवुड गये थे। एक सूटकेस लेकर ही हॉलीवुड से लौट रहे थे। ट्रेन में रद्दी कागज उठा कर यो ही रेखाएं खींचने लगे। अचानक वह आकृति बन गयी, उसका नाम मिकी माउस रखा। इसके बाद फिर से उनके सितारे चमक उठे। आज उनके 10 करोड़ फेसबुक समर्थक हैं। उन्हें अमेरिका का सर्वोच्च सम्मान मिला। उन पर ऑस्कर व अन्य पुरस्कारों कि बारिश हुई। आप भी कभी उदास न हो। बस प्रयास जारी रखें। आपके भीतर का भी हीरा भी एक दिन चमक उठेगा।

arvind
07-07-2011, 04:41 PM
यह जान कर बहुतों को आश्चर्य होगा की दुनियाँ के सबसे तेज धावक यूसेन बोल्ट को 2012 ओलिंपिक में देखने के लिए दस लाख लोगों ने आवेदन दिया है। सबको टिकट चाहिए। सबको टिकट दिये जाएं, तो स्टेडियम को 25 बार बुक करना पड़ेगा। उनकी लोकप्रियता उस समय चरम पर पहुंची, जब उन्होने बिंजिंग ओलिंपिक में 90 हजार दर्शकों को चमत्कृत करते हुए आठ दिनों में तीन वर्ल्ड रेकॉर्ड तोड़ दिये। सौ, दो सौ व चार गुना सौ मीटर में गोल्ड मेडल लिये। उन्हे एक बादल से दूसरे बादल तक पहुंचनेवाली बिजली कहा जाता है। क्या बोल्ट कभी फेल नहीं हुए। कई बार फेल हुए। 2004 ओलिंपिक में वे पहले राउंड में ही बाहर हो गये। 2005 में वर्ल्ड चैंपियनशिप के फाइनल में वे आठवे नंबर पर रहे। सबसे पीछे। फिसड्डी। इसके बाद क्या वे निराशा में डूब गये। क्या हार मान ली? नहीं, हार नहीं मानी। गलतियों को सुधारा व तीन साल बाद फिसड्डी से फास्टेस्ट बन गये। किसी परीक्षा में सबसे पीछे रह जाना भी न अपराध है और न पाप। इसका मतलब यह नहीं कि आज जो पीछे है, वह हमेशा पीछे ही रहेगा। विज्ञान के अनुसार हर चीज गतिमान है। हमारे भीतर कि ऊर्जा भी। बस इसे सही दिशा देनी हैं। खुद के प्रति ईमानदार हो व संकल्प लें कि अपनी गलतियों को सुधारेंगे। दुखी होणे व गलत कदम उठाने के बजाय उन कारणो को दूर करें, तो आप भी सबसे अलग अपना मुकाम बना सकते हैं। इसमें आपका लाभ तो है ही, निराशा मे जी रहे दूसरे लोगो का भी भला है। आप दूसरे निराश लोगों को अपनी कहानी बता कर उन्हे प्रेरित कर सकेंगे।

arvind
07-07-2011, 04:47 PM
जीवन कि छोटी–छोटी परेशानियों से परेशान–हाल यूवा बार–बार सोचता है कि उसके जितना दुखी कोई नहीं हैं। इस दुष्चक्र से वह कभी निकल नहीं पायेगा। वह निराशा कि पटरी पर जितना दौड़ता है, अंधेरा और घना होता जाता है। ऐसे युवा अपने आसपास देखें, तो पायेंगे कि दूसरों के दुख या उलझन उनसे बड़े हैं। विश्वास न हो, तो हैरी पॉटर कि लेखिका जेके रोलिंग से पूछ लीजिए। रोलिंग, जिन्हे लोग जो कहते हैं, कि जीवन में थोड़ा–सा झांकते ही आपकी आंखे फटी रह जायेंगी। आपके दुख से हजार गुना अधिक दुख, पर जिनके दिमाग मे आत्महत्या कि बात कभी नहीं आयी। पति से तलाक के बाद बेटी जेसिका के साथ इंगलैंड आयी। उसके भीतर लेखन व बेटी की देखभाल को लेकर भरी द्वंद चलता। आमतौर से उसके पास कागज खरीदने को पैसे नहीं होते थे। वह दिन भर कैफे में बैठती। बेटी सो जाती,तो फेकें हुए नैपकिनों पर लिखतीं। कई बार कलम नहीं होती। वह ग्राहकों से पेन मांग कर लिखना जारी रखती। लिखने के बाद उसे छ्पाना आसान काम नहीं था। कई पब्लिशरों ने हैरी पॉटर को छापने से इनकार कर दिया, पर जब किताब छपी, तो दुनिया में छा गयी। 60 भाषाओं में 32 करोड़ प्रतियां बिक चुकी। सात में से पांच पर फिल्में बन चुकी हैं। दो दर्जन से अधिक पुरस्कार मिलें। 2007 में वह एंटरटेनमेंट की दुनिया की मलिका बन गयी। दुनिया की दूसरी सबसे अमीर। करीब 30 अरब रुपयों की मालकिन। हमारे पास एक ही हथियार है – प्रेम पर आधारित है। दुखों–उलझनों को चीर कर आप भी आगे निकालें। एक नयी दुनिया आपके सामने होगी।

arvind
07-07-2011, 04:53 PM
अर्जेंटीनी फुटबॉल खिलाड़ी मेसी ने कुछ दिनो पहले ही बार्सिलोना को फिर यूरोप का ताज पहनाया। उन्हे इस साल वेतन के रूप में लगभग 200 करोड़ रुपये मिलेंगे। क्रिकेट में भले ही शतकों की संख्या गिनने का चलन ज्यादा हो, पर फुटबॉल में महान होने का दर्जा जादुई गोल ही दिलाते हैं| 1986 में मैराडोना के वंडर गोल के बाद उनसे पूछा गया था – आप किस ग्रह से आये हैं? 21 साल बाद स्पेनिश कप के दौरान यही सवाल मेसी से भी पूछा गया| उनके माँ बाप सफाई कर्मी थे| मेसी बचपन में ठिगने थे | डॉक्टरों ने कह दिया कि वे चार फुट सात इंच से ज्यादा लंबे नहीं हो सकते| इलाज के लिए हर महीने 40 हजार रुपये चाहिए| मेसी ने हार नहीं मानी| बारसिलोना के अधिकारी से बात की| अधिकारी ने उनका खेल देखा व इलाज का सारा खर्चा देने को तैयार हो गये। मेसी रोज दोनों पैरों में इंजेक्शन लेते| चार साल तक| उन्होने खुद पर कभी निराशा को हावी नहीं होने दिया| वहीं, निराशा में डूबे कई युवाओं की चिंतन–प्रक्रिया एकांगी हो जाती है| वे सोचते हैं, उनमें दुख से लड़ने की क्षमता नहीं बची हैं, जबकि सच्चाई यह होती है कि उन्होने खुद को अब तक ठीक से पहचाना ही नहीं| बस अपने दुख को ही पहचाना है| एक पुरानी कहावत है – दुख बांटने से घटता है| अगर निराश युवा अपना उलझन छिपाने के बजाय मेसी कि तरह डॉक्टर से मिलें या दोस्तों से बात करें, तो वे पायेंगे कि उनके सामने आगे बढ़ने के कई रास्ते हैं| अपार शक्ति है| सुंदर संभावनाएं हैं|

arvind
07-07-2011, 05:18 PM
E= mc2 से साइंस का हर छात्र परिचित है, पर ऐसे छात्र भी कम नंबर आने, पारिवारिक या किसी अन्य कारण से निराशा में डूबने–उतराने लगते हैं, तो आश्चर्य होता है। किसी युवा के आगे बढ़ने के उतने ही चांस हैं, जितनी आइंस्टीन के सापेक्षता के इस सिद्धांत में अपार संभावनाएं हैं। इसमें इ एनर्जी, एम मास व सी प्रकाश का आवेग है। अगर अपने सपनों को एम मानें व इसे प्रकाश के आवेग से दौड़ाएँ, तो जो एनर्जी मिलेगी, उसकी कल्पना भी अकल्पनीय होगी। आप हजार–लाख साल आगे होंगे। निराशा में आत्मघाती बातें सोचनेवाले अपने भीतर की इस रहस्यमयी व सतरंगी ताकत को समझने, उसे जमाने के सामने लाने और पूरी दुनिया पर अमिट छाप छोड़ने की रोचक यात्रा से खुद को वंचित कर लेते हैं । कार निर्माण की दुनिया में मास प्रॉडक्शन के विचार को व्यवहार में उतार कर फोर्ड ने अपने विचारो को बस थोड़ा ही आवेग दिया था, लेकिन एनर्जी का जो रूप सामने आया, वह सबके सामने है। वे किसान परिवार में जनमे, एक कंपनी में अप्रेंटिशशिप की और कार बनाने का सोचने लगे। दो कंपनियां बनायीं, पर फेल हो गयीं। फिर हल्की, मजबूत व आसानी से रिपेयर हो सकनेवाली कार बनाते ही कमाल हो गया। मांग की तुलना में वे कार नहीं बना पा रहे थे। फिर उन्होने दुनिया को पहली बार असेंबली लाइन से परिचित कराया। उन्हें फादर ऑफ असेंबली लाइन कहा जाता है। इसे बिहार से अधिक झारखंड व पशिचम बंगाल के लोग अच्छी तरह जानते हैं। इसके बाद क्रांति हो गयी। केवल 22 साल बाद वे रोज 25 हजार कारें बनाने लगे। 1940 से 1960 के बीच उनकी एसेंबली लाइन के कांसेप्ट ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी मजबूती दी। आपके भीतर भी छोटा फोर्ड हो सकता है।

arvind
07-07-2011, 05:24 PM
दुनिया के बड़े नेताओं में अब्राहम लिंकन जितना दुख शायद ही किसी ने झेला हो। बचपन में ही पहले भाई, फिर माँ का देहांत। चाची ने पाला। फिर वे भी महामारी की शिकार हो गयीं। बाद में बहन की मौत। खुद उनके चार बच्चों में केवल एक युवा हो पाया। इतनी मौत देखने के बाद किसी पर कैसा असर होगा, समझा जा सकता है। वे उदास रहते थे। कई बार नदी के किनारे अकेले बैठे रहते। उन्होने कई कविताएं ऐसी लिखीं, जिसमें घोर उदासी दिखती है। ऐसी ही एक कविता को कई इतिहासकार सूसाइडल नोट करार देते हैं। कई बार उनके दोस्त रात में साथ सोते की कहीं वे आत्महत्या न कर लें। इतने दुखी लिंकन आखिर अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित राष्ट्रपति कैसे बन गये। पूरे अमेरिका को कैसे एक सूत्र में बांधा । गुलामों की मुक्ति के नायक कैसे बने। और सबसे बढ़ कर दुनिया में जीने के अधिकार, स्वतंत्रता व भाईचारे के झंडाबरदार कैसे बने। लिंकन ने अपने दुखो का मुकाबला सामाजिक जिम्मेवारियों के लिए खुद को समर्पित करके किया। हमेशा काम की पूजा की। राष्ट्र की चुनौतियों के मुकाबले के लिए खुद को तैयार किया। जब एक तरफ करोड़ों राष्ट्रवासियों के जीवन में खुशियां भरने का सवाल हो, तो अपना बड़ा–से–बड़ा दुख भी पंख के समान लगेगा। आप युवा हैं और अपने दुखों से परेशान हैं, तो एक बार अपने समाज या राष्ट्र की चिंता करके देखें। आपका पहाड़–सा दुख क्षण भर में राई–सा हल्का लगने लगेगा। लिंकन की तरह समाज के दुखों का खात्मा करने के लिए कदम बढ़ाइए। आपकी उदासी छू–मंतर हो जायेगी ।

arvind
07-07-2011, 05:33 PM
वालमार्ट के संस्थापक सैम वाल्टन। दुनियां के सबसे बड़े खुदरा विक्रेता। आज बाजार में डिस्काउंट व ऑफर की धूम है। दो शर्ट लेने पर एक फ्री। बड़े–बड़े मॉल खुल रहे हैं। 66 साल पहले इसकी शुरुआत अमेरिकी वाल्टन ने ही की थी। उनकी दुकाने डिस्काउंट सिटी कहलाती थीं। वे दुनिया के सबसे अमीर लोगों मे एक थे। आज भारत सहित 15 देशों में वालमार्ट चेन के 8500 स्टोर हैं। वाल्टन का सपना 2015 तक भारत के कुल खुदरा व्यापार की 35 फीसदी पर कब्जे का था। कहते थे, खुदरा व्यापार में आप उतना पाते हैं, जितना आपने सोचा नहीं था। बस आपमे ग्राहकों की बात सुनने व उनकी जरूरतों को समझने की सलाहियत होनी चाहिए। कर्मचारी नियुक्ति का उनका सिद्धांत था कि ऐसे कर्मचारी को नौकरी दो, जिसमे तुम्हें मालिक की गद्दी से बेदखल करने की क्षमता हो। उनका जन्म 1918 में तब हुआ, जब आर्थिक मंदी का दौर था। उनका परिवार एक शहर से दूसरे शहर में रोजी–रोटी के लिए भटकता। वाल्टन गाय दुहते। घर–घर दूध पहुंचाते। कई साल अखबार बेचें। पढ़ाई में साधारण थे। उन्हे कई लोग बेकार समझते। ‘जीरो’ कहते। वही ‘जीरो’, हीरो बन गये। जीरो यानी शून्य के बारे में ऋषियों–मुनियों ने काफी कुछ कहा है। बौद्ध धर्म में शून्यता की चर्चा है। शून्यता का मतलब ‘कुछ नहीं’ नहीं होता। शून्यता का मतलब सीमाहीन होने से है। आप 1000, 10,000 कुछ भी कहें, वह सीमित है, पर शून्यता असीमित। इसीलिए खुद को ‘जीरो’ मान कर कभी निराश न हो। हताशा में गलत राह पर न जायें। आपमें अपार क्षमता है।वाल्टन से भी अधिक।

arvind
08-07-2011, 06:17 PM
हमारे देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस ने पहली बार साबित किया की पौधा मनुष्य की तरह जीव हैं। वे फादर ऑफ रेडियो साइंस भी कहे जाते हैं। तब प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रयोगशाला नहीं थी। अपने खर्चे से बाथरूम को प्रयोगशाला बनायी। पहली बार बिना तार के इलेक्ट्रोमेगनेटिक तरंगों के सहारे घंटी बनाकर दुनिया को चौंकाया। अंगरेजों ने उनके सिद्धांत का इस्तेमाल पानी जहाजों को संदेश देने के लिए किया। उन्हे पैसा जमा करने से चिढ़ थी। इसीलिए पेटेंट नहीं कराया। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर को पत्र लिखा कि पैसे के पीछे लोग कैसे भाग रहे हैं। वे बस ज्ञान के प्रचार–प्रसार के इच्छुक थे। वे स्कूल में अंगरेजी में बहुत कमजोर थे। उनके सहपाठियों ने उनके साथ पढ़ने से इनकार कर दिया था। वे बोस को देहाती कहते थे। बेवकूफ – ‘जीरो’। आज भी हम कमजोर छात्र के लिए लोगों को ‘जीरो’ कहते सुनते हैं। पाइ का मान जीरो की परिधि को उसके व्यास से विभाजित करने पर आता है। इसे हम 3.14 मान कर काम चलाते हैं, पर सही मान आज तक नहीं निकला। दो अंको को दहाई व तीन अंको को सैकड़ा कहते हैं, पर एक के आगे अगर दस लाख अंक दिये जाएं, तो क्या आप गिन पायेंगे। प्रिंसटन विवि कि ‘रहस्यमयी पाइ’ में 27 पन्नों में वैल्यू निकाल कर छोड़ दिया गया है। यह अनंत है। न खुद को ‘जीरो’ मानें, न दूसरे को ‘जीरो’ कहें, क्योंकि आपमें पाइ है। आपमें कितनी क्षमता है, इसका सही मूल्यांकन पाइ की तरह अब तक नहीं हुआ है । जिंदगी को ‘जीरो’ मान कर नष्ट करने के बजाय इसके आगे अंक लगाते जाएं। आप जेसी बोस से भी आगे होंगे।

arvind
08-07-2011, 06:25 PM
हम जंगल को देखते हैं, पर पेड़ों को नहीं हम जैसे–जैसे करीब जायेंगे, पहाड़, पेड़ साफ दिखायी देंगे। जंगल के भीतर बिलकुल नयी दुनिया होगी। बहुमूल्य पेड़, जड़ी–बूटियाँ। जो बाहर से बेकार था, भीतर जाने पर उसमे कीमती चीजें दिखाई पड़ती हैं। आदमी के साथ भी ऐसा ही होता है। कोई युवा परीक्षा में फेल हुआ और हम कह देते हैं की वह किसी काम का नहीं है। ’जीरो’ है। ओसफोर्ड से प्रकाशित अपनी किताब ‘शून्य के इतिहास’ में कैपलन ने निराशावाद को तार–तार कर दिया है। उनके शब्द हैं – जीरो को दूर से देखें, तो वह महज गोलाकार आकृति है, पर उसके भीतर देखें, तो पूरी दुनियां दिखेगी। टी विजयराघवन के साथ भी ऐसा ही हुआ। तमिलनाडु में जन्मे विजयराघवन गणित में डूबे रहते थे। नतीजा हुआ की वे बीए में फेल हो गये। बहुतों ने उनका मजाक उड़ाया। कई लोगों ने भविष्यवाणी कर दी की विजयराघवन अब कुछ नहीं कर सकते, पर वे निराश नहीं हुए। अपने प्रयास में लगे रहें। आखिर ऑक्सफोर्ड में गणित के उसी विद्वान हार्डी ने उनके भीतर की क्षमता को देखा, जिन्होने रामानुजन को पहचाना था। हार्डी के पत्र लिखने के बाद मद्रास विवि ने उन्हे वजीफा देने का निर्णय लिया। इसके बाद वे ऑक्सफोर्ड पहुंचे व हार्डी के साथ शोध में लगे। फिर तो उन्होने कई सवाल हल किये। वे 1925 तक मैथमेटिकल सोसाइटी, लंदन के सदस्य रहे। वे इंडियन मैथमेटिकल सोसाइटी के भी अध्यक्ष रहे। अगर आप भी परीक्षा में फेल हो जाएं और बात–बात पर जजमेंट देने को तैयार लोग आपको ‘जीरो’ कहें, तो भी आप निराश न हो। लक्ष्य की दिशा में बढ़ते रहें। हार्डी की तरह आपको भी पहचानने वाले आयेंगे। आप भी सफल होंगे।

arvind
08-07-2011, 06:33 PM
जो चित्र बनाने में रुचि रखते हैं, वे विनोद बिहारी मुखर्जी को जानते हैं। उनकी एक आँख की रोशनी बचपन में ही बीमारी के कारण खत्म हो गयी थी। दूसरी आँख में नाममात्र की रोशनी थी। पचास वर्ष की उम्र में वे पूरी अंधेपन के शिकार हो गये। आम आदमी के लिए यह आश्चर्य का विषय है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसने बचपन से सिर्फ शब्दो को सुना हो, वह खूबसूरती कि कल्पना कैसे कर सकता है। जिसकी आंखो ने पहाड़ों को देखा न हो व हिमालय कि खूबसूतरी को कैसे चित्रों में उभार सकता है। 1903 में कोलकाता में जन्मे मुखर्जी ने शांतिनिकेतन के कला भवन में शिक्षा ली। बाद में राजस्थान से लेकर मसूरी तक नयी पीढ़ी को रंगो,रेखाओं व कैलीग्राफी के गुर सिखाये। जंहा से शिक्षा ली, उसी कला भवन के प्राचार्य बने। देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से सम्मानित हुए। मुखर्जी ने असंभव को संभव किया अपनी आंतरिक शक्ति के कारण, जिजीविषा के कारण। इसे विज्ञान भी मानता है। ज्यामिति (ज्योमेट्री) का एक सिद्ध हाइपरबोला (अतिपरवलय) है, जिसका काफी इस्तेमाल होता है। इसके अनुसार जैसे–जैसे आप एक्स को जीरो के करीब ले लायेंगे, वैसे–वैसे जीरो से वाइ कि दूरी बढ़ती जायेगी। एक्स को आप परीक्षा में असफल छात्र मान लें, तो इसका मतलब हुआ कि वह जैसे–जैसे पढ़ाई के लिए अपना समर्पण बढ़ता जाएगा, वैसे–वैसे वाइ अर्थात उसका ज्ञान बढ़ता जाएगा। यह अनंत है। आप अपने समर्पण को एक के हजारवें भाग तक जीरो के करीब ले जाएं, तो इसका मतलब होगा, आपकी बुद्धिमता (वाइ) हजार गुनी अधिक होगी । यही तो मुखर्जी ने किया था। जब वे कामयाब हो सकते हैं, तो आप क्यों नहीं?

arvind
08-07-2011, 06:39 PM
अगर जरूरतें आविष्कार की जननी हैं, तो तनाव को आप महान बनाने की भट्टी कह सकते हैं। मनुष्य व तनावों का संबंध पुराना हैं। कई पौराणिक श्लोकों में अवसाद की चर्चा है, पर आमतौर से इतिहासकार इसके कारण आत्महत्या की प्रवृति का उल्लेख नहीं करते। सम्राट अशोक ने भी तनाव झेला था। कलिंग युद्ध में एक लाख से अधिक लोग मारे गये। कोशांबी सहित मार्क्सवादी इतिहासकार नहीं मानतें, पर शिलालेख व अन्य स्रोतों के आधार पर यहीं माना जाता है कि वे गहरे अवसाद में थे। इसके बाद उनके जीवन दर्शन बदल गये। लगभग ढाई हजार साल पहले एक शिलालेख में उनकी कही बात आज भी दोहरायी जाती है कि राजा तभी हंसता है, जब प्रजा हंसती हैं। उन्होने मनुष्य ही नहीं, मवेशियों के लिए भी अस्पताल बनवाये। समाज में उदारता व अन्य लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत किया। पशु बलि व सालों चलनेवाले यज्ञों में टनों दी जानेवाली अनाजों की आहुति पर रोक लगायी। संचय को बढ़ावा दिया, जिसने व्यापार में वृद्धि की। ओड़िशा से लेकर अफगानिस्तान तक राज किया। अगर वे कलिंग युद्ध के बाद तनाव के कारण हिम्मत हार गये होते, तो जमाना कभी उन्हे याद नहीं करता। इतिहास उन्हीं को याद करता है, जो मुसीबतों का मुक़ाबला करते हैं। गलत कदम उठानेवालों का नाम केवल थानों में दर्ज रहता है। वहीं, हिम्मत से काम लेनेवालों का नाम किताबों में मॉडल बनता है। ऐसे लोग ही देश के नायक होते हैं। आप भी अगर अपनी किसी गलती के कारण तनाव में हैं, तो आत्मघाती कदम उठाने के बजाय अशोक की तरह दुनिया को बेहतर बनाने में हाथ बंटाएँ। इससे सुंदर कोई और प्रायश्चित नहीं हो सकता ।