Dr. Rakesh Srivastava
31-07-2011, 09:43 AM
सूरज , कभी उगता , कभी ढलता हुआ देखो ;
फुर्सत निकाल , चाँद निकलता हुआ देखो .
जब ज़िन्दगी , बे रंग नज़र आने लगे तो ;
इन्द्र धनुष गौर से , खिलता हुआ देखो .
क्यों ढो रहे हो ज़िन्दगी , कंगाल की तरह ;
आँखों में बड़ा ख्वाब, मचलता हुआ देखो.
ये तय है , वो आकाश में, उड़ेगा एक दिन;
गिर-गिर के , जिसको आज , संभलता हुआ देखो .
इस तरह बड़ा होने का , ज़ुनून न पालो ;
खुद के रचे उसूल को , जलता हुआ देखो.
घर फूंक , तमाशा अगर ना देखते बने ;
तो हुस्न को रंग अपना , बदलता हुआ देखो .
ऐ शम्मा , तूने अपने ही , परवाने जलाये ;
अब खुद के जिस्म को भी , पिघलता हुआ देखो .
जब वक़्त था , तब वक़्त की बेकद्री बहुत की ;
अब बेबसी से ,वक़्त फिसलता हुआ देखो .
जब छांटने का मौका था ,तब सो रहे थे , अब ;
दिल्ली में ,खोटे सिक्कों को , चलता हुआ देखो .
इक नयी ग़ज़ल गढ़ने का , अवसर नहीं चूको ;
ज़ख्में ज़िगर को जब भी , उबलता हुआ देखो .
रचनाकार ~~ डॉ. राकेश श्रीवास्तव
लखनऊ , इंडिया .
फुर्सत निकाल , चाँद निकलता हुआ देखो .
जब ज़िन्दगी , बे रंग नज़र आने लगे तो ;
इन्द्र धनुष गौर से , खिलता हुआ देखो .
क्यों ढो रहे हो ज़िन्दगी , कंगाल की तरह ;
आँखों में बड़ा ख्वाब, मचलता हुआ देखो.
ये तय है , वो आकाश में, उड़ेगा एक दिन;
गिर-गिर के , जिसको आज , संभलता हुआ देखो .
इस तरह बड़ा होने का , ज़ुनून न पालो ;
खुद के रचे उसूल को , जलता हुआ देखो.
घर फूंक , तमाशा अगर ना देखते बने ;
तो हुस्न को रंग अपना , बदलता हुआ देखो .
ऐ शम्मा , तूने अपने ही , परवाने जलाये ;
अब खुद के जिस्म को भी , पिघलता हुआ देखो .
जब वक़्त था , तब वक़्त की बेकद्री बहुत की ;
अब बेबसी से ,वक़्त फिसलता हुआ देखो .
जब छांटने का मौका था ,तब सो रहे थे , अब ;
दिल्ली में ,खोटे सिक्कों को , चलता हुआ देखो .
इक नयी ग़ज़ल गढ़ने का , अवसर नहीं चूको ;
ज़ख्में ज़िगर को जब भी , उबलता हुआ देखो .
रचनाकार ~~ डॉ. राकेश श्रीवास्तव
लखनऊ , इंडिया .