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View Full Version : भाग -भाग डी के बोस..


kartik
31-07-2011, 04:33 PM
प्रस्तुत पंक्तियाँ सुपरहिट फिल्म 'देल्ही बेली' के एक सुपरहिट गीत की हैं.

हिन्दी फिल्म जगत से कभी-कभार ऐसे गीत आते हैं जो शालीनता और मर्यादा को ठेंगा दिखाकर करोड़ों दिलों को छू जाते हैं. शायद सभ्यता के दबाव से परेशान इंसान को इस तरह के गीतों से बंधन तोड़ने का अहसास होता है, और इसके शब्द हर जुबान पर चढ़ जाते हैं.

kartik
31-07-2011, 04:39 PM
डैडी मुझे बोला
तू गलती है मेरी
तुझपे जिंदगानी गिल्टी है मेरी
साबुन की शक्ल में
बेटा तू तो निकला केवल झाग झाग झाग झाग .....
भाग भाग डी के बोस >>>>भाग

भावार्थ -
दुनिया में बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिनके पिताओं ने उन्हें कम से कम एक बार नालायक ना कहा हो, अपनी अपेक्षाओं की दुहाई ना दी हो. भले ही वो पिता चार बार मैट्रिक फेल सरकारी चपरासी क्यों ना हो, वो अपने बेटे की तुलना खुद से करता ही करता है. गीत का नायक भी पिताओं के इस विचित्र मनोविज्ञान से पीड़ित है.

kartik
31-07-2011, 04:43 PM
तो बाई गोड लग गयी
क्या से क्या हुआ
देखा तो कटोरा झंका को कुआं
पिद्दी जैसा चूहा
दम पकड़ा तो निकला कला नाग
भाग ..भाग ....

इन पंक्तियों का पिछली पंक्तियों से क्या सम्बन्ध है, कह पाना मुश्किल है. बस इतना समझ आता है कि नायक किसी बड़ी मुसीबत में फंसा है.

kartik
31-07-2011, 04:51 PM
भाग भाग डी के बोस डी के बोस डी के बोस
भाग भाग डी के बोस डीके भाग (१० -1२ बार )
आंधी आई आंधी आई आंधी आई
भाग भाग डी के बोस डी के बोस भाग
आंधी आई ..

यह पंकियां इस गीत की आत्मा हैं. इसके शब्द दिल्ली की संस्कृति के एक विचित्र पहलू पर प्रकाश डालते हैं. परन्तु कैसे? हर जगह की अपनी एक पहचान होती है. कश्मीर पर्वतीय सुन्दरता के कारण जाना जाता है, केरल समुद्र की सुन्दरता के कारण. बंगलोर सॉफ्टवेर उद्योग के कारण जाता है. तो मुंबई फिल्म उद्योग के कारण. दिल्ली जानी जाती है माँ-बहन से नाजायज संबंधों और जननांगों पर आधारित अपशब्दों के अत्यधिक प्रयोग के कारण. एक फूल की प्रशंसा करते वक़्त भी कई दिल्लीवासी माँ-बहनों को याद करना नहीं भूलते. 'डी के बोस और 'बोस डी के' की शाब्दिक कलाबाजी द्वारा गीतकार ने एक झटके में दिल्ली से साक्षात्कार कराने के साथ-साथ गीत को सुपरहिट बनाने की संजीवनी बूटी दे दी है. आज के समाज में जहां गीतों और संवादों में अपशब्दों के प्रयोग को सांस्कृतिक प्रगति का पैमाना माना जा रहा है, वहाँ इस शाब्दिक शीर्षासन ने एक मील के पत्थर के रूप में अपनी छवि बनाई है.

kartik
31-07-2011, 04:57 PM
हम तो है कबूतर
दो पहिये का एक स्कूटर
जिंदगी जो न तो चाहे
अरे किस्मत की है कड़की
रोटी कपड़ा और लड़की
तीनों ही पापड बेलो तो मिले
ये भेजा गार्डन है टेंसन माली है
मन का तानपुरा फ्रास्तेसन में चाहे
एक ही राग राग राग .......भाग ...

यहाँ गीत के नायक की जीवन की परेशानियों का चित्रण है. कबूतर और स्कूटर में तुकबंदी कराने की कोशिश की गयी है. पर साथ ही एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात बतायी गयी है. वो यह कि नायक रोटी, कपड़ा और लड़की चाहता है, रोटी, कपड़ा और मकान नहीं. बड़ा ही इमानदारीपूर्ण वक्तव्य है ये. इससे तीन चीजें पता चलती हैं. पहली तो यह कि मकानों के बढ़ते दामों के कारण नायक दिल्ली में मकान के सपने नहीं देखता. दूसरी यह कि वह अपनी यौन आवश्यकताओं के प्रति पारदर्शी है. तीसरी यह कि लड़की के साथ होने पर नायक मकान की ज़रुरत महसूस नहीं करता. किसी भी सार्वजनिक स्थान पर प्रेम-क्रिया करने का साहस है उसके पास.

kartik
31-07-2011, 05:01 PM
भाग भाग डी के बोस डी के बोस डी के बोस
भाग भाग डी के बोस डीके भाग (१० -1२ बार )
आंधी आई आंधी आई आंधी आई
भाग भाग डी के बोस डी के बोस भाग
आंधी आई ..
भाग भाग
डी के बोस भाग

यहाँ पुरानी पंक्तियों को दुहराया गया है. अतः उनपर फिर से चिंतन करने की ज़रुरत नहीं. इस गीत का संगीत लोगों को ऊर्जा से भर देता है. 'भाग भाग' जैसे शब्द दर्शक को सिनेमाहाल से भागने के लिए नहीं, बल्कि वहाँ बैठकर आनंद लेने के लिए प्रेरित करते हैं. सिनेमा को समाज का दर्पण माना जाता है, यह कहकर गीतकार 'बोस डी के' जैसे शब्द का प्रयोग उत्साह के साथ करता है.यह गीत सांस्कृतिक क्रान्ति का सूचक है. वह दिन दूर नहीं जब ऐसे गीतों की लोकप्रियता के कारण २-३ साल के बच्चे भी अपनी मधुर तोतली वाणी में अपशब्द बोलकर अपने माता-पिताओं के कानों को झंकृत और दिल को आह्लादित करेंगे.
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Bhuwan
31-07-2011, 05:07 PM
भाग भाग डी के बोस डी के बोस डी के बोस
भाग भाग डी के बोस डीके भाग (१० -1२ बार )
आंधी आई आंधी आई आंधी आई
भाग भाग डी के बोस डी के बोस भाग
आंधी आई ..
भाग भाग
डी के बोस भाग

यहाँ पुरानी पंक्तियों को दुहराया गया है. अतः उनपर फिर से चिंतन करने की ज़रुरत नहीं. इस गीत का संगीत लोगों को ऊर्जा से भर देता है. 'भाग भाग' जैसे शब्द दर्शक को सिनेमाहाल से भागने के लिए नहीं, बल्कि वहाँ बैठकर आनंद लेने के लिए प्रेरित करते हैं. सिनेमा को समाज का दर्पण माना जाता है, यह कहकर गीतकार 'बोस डी के' जैसे शब्द का प्रयोग उत्साह के साथ करता है.यह गीत सांस्कृतिक क्रान्ति का सूचक है. वह दिन दूर नहीं जब ऐसे गीतों की लोकप्रियता के कारण २-३ साल के बच्चे भी अपनी मधुर तोतली वाणी में अपशब्द बोलकर अपने माता-पिताओं के कानों को झंकृत और दिल को आह्लादित करेंगे.
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:what:
:o :ranting::ranting:
:tomato::tomato:

kartik
31-07-2011, 05:10 PM
:what:
:o :ranting::ranting:
:tomato::tomato:
इस लिंक को देखें -
http://abhisays.com/movies/what-is-the-meaning-of-bhaag-d-k-bose.html

Bhuwan
31-07-2011, 05:20 PM
इस लिंक को देखें -
http://abhisays.com/movies/what-is-the-meaning-of-bhaag-d-k-bose.html

तो ये बात है. शब्दों की इस हेरा-फेरी पर तो कभी ध्यान ही नहीं दिया. धन्यवाद मित्र.
लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए. कल को मेरे ही बच्चे ऐसा बोलते नजर आएँगे, सोचकर वाकई बहुत चिंता होने लगी है.:cryingbaby:


:tomato::tomato::tomato:

kartik
31-07-2011, 06:59 PM
दोस्तों ,सूत्र अच्छा लगे तो एक दो शब्द जरुर लिख दिया करें |

इससे सूत्र धार को संतुष्टि मिलती है |

Bhuwan
31-07-2011, 09:54 PM
दोस्तों ,सूत्र अच्छा लगे तो एक दो शब्द जरुर लिख दिया करें |

इससे सूत्र धार को संतुष्टि मिलती है |

बिलकुल मित्र, आप अपना कार्य जारी रखें.
आपको अपेक्षा के अनुशार प्रतिक्रियाएं अवश्य मिलेंगी.:cheers:

kartik
01-08-2011, 12:47 AM
बिलकुल मित्र, आप अपना कार्य जारी रखें.
आपको अपेक्षा के अनुशार प्रतिक्रियाएं अवश्य मिलेंगी.:cheers:

उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया .

abhisays
01-08-2011, 06:35 AM
कार्तिक जी आपने बहुत ही गंभीर मुद्दा उठाया है.

इस तरह के गानों को सेंसर द्वारा पास करना क्या सही है, इसपर विचार करने की जरुरत है.

शायद वोह लोग d k bose का मतलब नहीं समझ पाए.

और जरा सोचिये जिन लोगो का नाम d k bose वास्तव में है, उनपर क्या गुज़र रही होगी इस गाने को सुनकर.

Kumar Anil
01-08-2011, 08:23 AM
हिन्दी फिल्म जगत से कभी-कभार ऐसे गीत आते हैं जो शालीनता और मर्यादा को ठेंगा दिखाकर करोड़ों दिलों को छू जाते हैं. शायद सभ्यता के दबाव से परेशान इंसान को इस तरह के गीतों से बंधन तोड़ने का अहसास होता है, और इसके शब्द हर जुबान पर चढ़ जाते हैं.

इसमेँ कोई हैरानगी की बात नहीँ । जब हम चोली के नीचे क्या है , पचा ले गये तो bose d.k. को हज़म करने मेँ कितना वक़्त लगेगा । चोली का सफ़र यहाँ तक तो आना ही था । सिनेकार दलील देते है कि सिनेमा समाज का दर्पण हैँ , पर शायद यह सत्य नहीँ है । इस दर्पण मेँ सही तस्वीर नहीँ है । कुछ इक्की दुक्की घटनाओँ को बाजारवाद के वशीभूत वितण्डावाद खड़ा कर मार्केट मेँ लाँच कर दिया जाता है । सिनेमा कामर्शियल तो था ही , पर उसे नैतिकता का भी होश था । शायद तभी चुंबनोँ को प्रतीकात्मक तौर पर दर्शा दिया जाता था , जैसे दो फूलोँ की परस्पर छुअन । संसर्ग के शॉट भी लाइट ऑफ करके दर्शकोँ को संदेश दे देते थे । व्यावहारिक जीवन मेँ भी हम यही करते हैँ न कि उन्मुक्त आचरण करते हैँ । अगर ऐसा न होता तो हमारे घर , घर न होते , किसी नगरवधु की दुकान होते जहाँ हम अपने ही बच्चोँ को इस तथाकथित शीर्षस्थ महत्वपूर्ण कला / विज्ञान मेँ पारंगत कर रहे होते । वास्तव मेँ ये फिल्मकार समाज के साथ निरन्तर बलात्कार कर रहे हैँ । ये फिल्मकार समाज को नशे का आदी बना रहे हैँ , समाज मेँ बुराईयोँ को व्यापक , पारदर्शी और ग्राह्य बना रहे हैँ । चोली के नीचे से ली गयी एक हल्की डोज आज bose d.k. की हैवी डोज पर पहुँच गयी है । यथार्थवाद के नाम पर कल यही फिल्मकार अन्तरंग संबंधोँ का सजीव , जीवंत चित्रण करेँगे तो कुछ बेमानी न होगा । आखिर क्या बात है कि सत्तर अस्सी के दशक की फिल्मेँ हमेँ आज भी रिझाती हैँ पर आज की फिल्मेँ पैसा बटोर कर कब हवा हवाई हो जाती हैँ , पता ही नहीँ चलता । मैँ दावे के साथ कहता हूँ कि हम इतने बुरे नहीँ है जितना ये सिनेमा बता रहा है , जता रहा है ।

Nitikesh
01-08-2011, 06:22 PM
दोस्तों ,सूत्र अच्छा लगे तो एक दो शब्द जरुर लिख दिया करें |

इससे सूत्र धार को संतुष्टि मिलती है |

हा हा हा मित्र इस गाना का आपके द्वारा किया गया वर्णन वाकई में प्रशंसा के योग्य है.
:lol::lol::bravo: :cheers:

यदि संभव हो तो और भी ऐसे कुछ गाने हैं उनका भी वर्णन कर सकते हैं!

Nitikesh
01-08-2011, 06:27 PM
कार्तिक जी आपने बहुत ही गंभीर मुद्दा उठाया है.

इस तरह के गानों को सेंसर द्वारा पास करना क्या सही है, इसपर विचार करने की जरुरत है.

शायद वोह लोग d k bose का मतलब नहीं समझ पाए.

और जरा सोचिये जिन लोगो का नाम d k bose वास्तव में है, उनपर क्या गुज़र रही होगी इस गाने को सुनकर.

कुछ सालो से तो फिल्म उद्योग में नाम वाले गानों का ज्यादा चलन है.

शिला, मुन्नी, रजिया और भी सारे नाम है....ये सभी कुछ दिन तक ही लोगों के जबान पर रहते हैं और बाद में गायब हो जाता है. शायद इसीलिए सेंसर बोर्ड भी ऐसे गानों को पास कर देता है.

Bhuwan
01-08-2011, 09:30 PM
कार्तिक जी आपने बहुत ही गंभीर मुद्दा उठाया है.

इस तरह के गानों को सेंसर द्वारा पास करना क्या सही है, इसपर विचार करने की जरुरत है.

शायद वोह लोग d k bose का मतलब नहीं समझ पाए.

और जरा सोचिये जिन लोगो का नाम d k bose वास्तव में है, उनपर क्या गुज़र रही होगी इस गाने को सुनकर.

हा हा हा हा. इस बात से नौकरी देने वाली एक वेबसाईट का ६ साल पुराना किस्सा याद आ गया. एक एम्प्लोये अपने खडूस बॉस के नाम hari sadu की व्याख्या करता है. H for Hitlar, A for Arigant......
इस नाम के लोगों को इस एड से काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी. यहाँ भी ऐसा ही है. :beating:

Bhuwan
01-08-2011, 09:35 PM
इसमेँ कोई हैरानगी की बात नहीँ । जब हम चोली के नीचे क्या है , पचा ले गये तो bose d.k. को हज़म करने मेँ कितना वक़्त लगेगा । चोली का सफ़र यहाँ तक तो आना ही था । सिनेकार दलील देते है कि सिनेमा समाज का दर्पण हैँ , पर शायद यह सत्य नहीँ है । इस दर्पण मेँ सही तस्वीर नहीँ है । कुछ इक्की दुक्की घटनाओँ को बाजारवाद के वशीभूत वितण्डावाद खड़ा कर मार्केट मेँ लाँच कर दिया जाता है । सिनेमा कामर्शियल तो था ही , पर उसे नैतिकता का भी होश था । शायद तभी चुंबनोँ को प्रतीकात्मक तौर पर दर्शा दिया जाता था , जैसे दो फूलोँ की परस्पर छुअन । संसर्ग के शॉट भी लाइट ऑफ करके दर्शकोँ को संदेश दे देते थे । व्यावहारिक जीवन मेँ भी हम यही करते हैँ न कि उन्मुक्त आचरण करते हैँ । अगर ऐसा न होता तो हमारे घर , घर न होते , किसी नगरवधु की दुकान होते जहाँ हम अपने ही बच्चोँ को इस तथाकथित शीर्षस्थ महत्वपूर्ण कला / विज्ञान मेँ पारंगत कर रहे होते । वास्तव मेँ ये फिल्मकार समाज के साथ निरन्तर बलात्कार कर रहे हैँ । ये फिल्मकार समाज को नशे का आदी बना रहे हैँ , समाज मेँ बुराईयोँ को व्यापक , पारदर्शी और ग्राह्य बना रहे हैँ । चोली के नीचे से ली गयी एक हल्की डोज आज bose d.k. की हैवी डोज पर पहुँच गयी है । यथार्थवाद के नाम पर कल यही फिल्मकार अन्तरंग संबंधोँ का सजीव , जीवंत चित्रण करेँगे तो कुछ बेमानी न होगा । आखिर क्या बात है कि सत्तर अस्सी के दशक की फिल्मेँ हमेँ आज भी रिझाती हैँ पर आज की फिल्मेँ पैसा बटोर कर कब हवा हवाई हो जाती हैँ , पता ही नहीँ चलता । मैँ दावे के साथ कहता हूँ कि हम इतने बुरे नहीँ है जितना ये सिनेमा बता रहा है , जता रहा है ।
:bravo::bravo:

उस वक्त में चोली के नीचे क्या है को पचाने में भले ही कुछ वक्त लगा हो, लेकिन अब तो bose dk को लगता है की पचा भी लिया और डकार भी नहीं मारी. और उसके सामने ये bose dk कुछ भी नजर नही आता.
वैसे भी आजकल हर फिल्म में द्विअर्थी संवादों का प्रचालन जोरो पर है. सिर्फ एक-आध शब्द या अक्षर को हेर-फेर करो और कुछ और ही अर्थ निकलेगा.

Bhuwan
01-08-2011, 09:39 PM
....यथार्थवाद के नाम पर कल यही फिल्मकार अन्तरंग संबंधोँ का सजीव , जीवंत चित्रण करेँगे तो कुछ बेमानी न होगा । आखिर क्या बात है कि सत्तर अस्सी के दशक की फिल्मेँ हमेँ आज भी रिझाती हैँ पर आज की फिल्मेँ पैसा बटोर कर कब हवा हवाई हो जाती हैँ , पता ही नहीँ चलता । मैँ दावे के साथ कहता हूँ कि हम इतने बुरे नहीँ है जितना ये सिनेमा बता रहा है , जता रहा है ।

पश्चिम की नक़ल कर रहे हैं प्रभु. होलीवूद में तो ये होता ही है, बस कुछ ही देर है यहाँ भी आने की.

kartik
02-08-2011, 09:55 PM
तो बाई गोड लग गयी
क्या से क्या हुआ
देखा तो कटोरा झंका को कुआं
पिद्दी जैसा चूहा
दम पकड़ा तो निकला कला नाग
भाग ..भाग ....

मित्रगण ,
उपरोक्त पंक्तियों के भावार्थ इतने अश्लील हैं की मै उनको यहाँ लिख भी नहीं सकता ,इसीलिए यहाँ पर मैंने कल्टी मार दी |इसका अर्थ अगर मै बता दूँ तो आपलोग समझ जायेंगें की इन फिल्मों के निर्माता किस हद तक नीचे भी सोचतें हैं |:mad:

MANISH KUMAR
03-08-2011, 07:00 PM
:bravo:बहुत अच्छे कार्तिक जी, भावार्थ समझाने के लिए.
अभी तो आने वाले दिनों में इन गानों की भरमार और बोलबाला रहेगा.