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View Full Version : दुष्यंत कुमार की कविताएँ


anoop
22-09-2011, 08:30 PM
दुश्यन्त कुमार की कविताएँ

आधुनिक हिन्दी के कवियों में दुश्यन्त कुमार एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। अपनी अल्प आयु में भी जितना कुछ इन्होंने सृजन किया, वह इन्हें हिन्दी जगत में सदा के लिए प्रतिस्थापित करने के लिए काफ़ी है। मेरी कोशिश होगी कि इनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी यहाँ पोस्ट कर सकूँ।

anoop
22-09-2011, 08:31 PM
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
-दुश्यन्त कुमार

Gaurav Soni
22-09-2011, 08:31 PM
एक अच्छे सूत्र की सुरुवात के लिए बधाई

malethia
23-09-2011, 12:25 AM
बहुत ही उम्दा रचना है दुष्यंत जी की,
ऐसी सुंदर रचनाओं की प्रस्तुती के लिए अनूप जी का आभार .......

bhavna singh
23-09-2011, 12:35 AM
कहाँ तो तय था
कैसे मंजर
खंडहर बचे हुए हैं
जो शहतीर है
ज़िंदगानी का कोई मकसद
मुक्तक
आज सड़कों पर लिखे हैं
मत कहो, आकाश में
धूप के पाँव
गुच्छे भर अमलतास
सूर्य का स्वागत
आवाजों के घेरे
जलते हुए वन का वसन्त
आज सड़कों पर
आग जलती रहे
एक आशीर्वाद
आग जलनी चाहिए
मापदण्ड बदलो
कहीं पे धूप की चादर
बाढ़ की संभावनाएँ
इस नदी की धार में
हो गई है पीर पर्वत-सी

anoop
23-09-2011, 08:03 PM
मेरा हौसला बढ़ाने के लिए आप सब का आभार।

anoop
23-09-2011, 08:04 PM
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें उम्र भर के लिए।
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए।
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर को,
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
- दुश्यन्त कुमार

anoop
23-09-2011, 08:05 PM
कैसे मंजर सामने आने लगें हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फ़ूल कुम्हलाने लगे हैं।
वो सलीबों के करीब आए तो हमको,
कायदे-कानून समझाने लगे हैं।
एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहखानों से तहखाने लगे हैं।
मछलियों में अब खलबली है, अब सफ़ीने,
उस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं।
मौलवी से डाँट खा कर अहले मकतब,
फ़िर उसी आयत को दोहराने लगे हैं।
अब नयी तहजीब के पेशे-नजर हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।
- दुश्यन्त कुमार

anoop
23-09-2011, 08:13 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=11919&stc=1&d=1316790779

जन्म: १ सितम्बर १९३३, ग्राम: राजपुर, जिला: बिजनौर, उ०प्र०
मृत्यु: ३० दिसम्बर १९७५
शिक्षा: एम०ए० (हिन्दी), इलाहाबाद
पेशा: कवि, नाटक-कार, लेखक, शायर, अनुवादक
वृत्ति : सरकारी नौकरी और खेती

प्रकाशित रचनाएं :
काव्यसंग्रह : सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का वसन्त।
काव्य नाटक : एक कण्ठ विषपायी
उपन्यास : छोटे-छोटे सवाल, आँगन में एक वृक्ष,
दुहरी जिंदगी।
एकांकी : मन के कोण
नाटक :और मसीहा मर गया
गज़ल-संग्रह : साये में धूप
कुछ आलोचनात्म पुस्तकें, तथा कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद।
देहान्त : ३० दिसम्बर, १९७५




दुष्यंत कुमार त्यागी (१९३३-१९७५) एक हिंदी कवि और ग़ज़लकार थे । इन्होंने 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबों का सृजन किया। दुष्यंत कुमार उत्तर प्रदेश के बिजनौर के रहने वाले थे । जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील (तरक्कीपसंद) शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था । हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था । उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे । इस समय सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की ।

YUVRAJ
23-09-2011, 08:17 PM
grrrrrrrrrrrrr8 share friend....मिजाज मस्त हो गया ...:bravo:

anoop
23-09-2011, 08:46 PM
grrrrrrrrrrrrr8 share friend....मिजाज मस्त हो गया ...:bravo:

धन्यवाद मित्र, इस सुत्र पर मैं हर जगह से खोज कर दुश्यन्त जी की रचनाओं को लाने का प्रयास करुँगा।

anoop
23-09-2011, 08:47 PM
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारों,
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो।
दर्दे दिल वक्त को पैगाम भी पहुँचाएगा,
इस कबूतर को जरा प्यार से पालो यारो।
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे,
आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो।
आज सीवन को उधेड़ों तो जरा देखेंगे,
आज संदूक से वे खत तो निकालो यारो।
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।
कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की,
तुमने कह दी है तो कहने की सजा लो यारो।
- दुश्यन्त कुमार

YUVRAJ
23-09-2011, 08:50 PM
आपकी मेहनत और कविताकार की कविताएँ दोनों की जितनी भी तारीफ की जाये कम है ...:)धन्यवाद मित्र, इस सुत्र पर मैं हर जगह से खोज कर दुश्यन्त जी की रचनाओं को लाने का प्रयास करुँगा।

anoop
23-09-2011, 08:51 PM
ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है

राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है

आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा-ए-अमज़द नहीं है

पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है

मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद-रफ़्त ही ज़ायद नहीं है

इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है

YUVRAJ
24-09-2011, 10:27 AM
:bravo::bravo::bravo:ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है

राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है

आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा-ए-अमज़द नहीं है

पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है

मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद-रफ़्त ही ज़ायद नहीं है

इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है

YUVRAJ
24-09-2011, 10:44 AM
:bravo::bravo::bravo:हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
-दुश्यन्त कुमार

anoop
24-09-2011, 06:14 PM
युवराज जी शुक्रिया...आज की पोस्ट देख लीजिए।

anoop
24-09-2011, 06:15 PM
मुक्तक



संभल संभल के बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं
पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं
कदम कदम पे' मुझे टोकता है दिल ऐसे
गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं।



तरस रहा है मन फूलों की नयी गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में गाने मुसकाने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको कैद किये हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।



गीत गाकर चेतना को वर दिया मैने
आँसुओं के दर्द को आदर दिया मैने
प्रीत मेरी आस्था की भूख थी, सहकर
ज़िन्दगी़ का चित्र पूरा कर दिया मैने।



जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे
नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे
ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन तुमने
अपने तक ही सीमित कर दिया मुझे।

anoop
24-09-2011, 06:27 PM
आज सड़कों पर

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।

अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।

ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।

YUVRAJ
24-09-2011, 06:30 PM
मित्र …आपकी सभी प्रविष्टियां काफी बेहतरीन हैं …:bravo:युवराज जी शुक्रिया...आज की पोस्ट देख लीजिए।

anoop
24-09-2011, 08:38 PM
मित्र …आपकी सभी प्रविष्टियां काफी बेहतरीन हैं …:bravo:

कवि की लेखनी का दम यह है...जिसकी आप तारीफ़ कर रहे हैं। काश, काल ने उन्हें कुछ और समय दिया होता....

anoop
26-09-2011, 03:43 PM
मत कहो

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में संभावना है

anoop
27-09-2011, 06:22 PM
मापदन्ड बदलो

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

Dark Saint Alaick
17-10-2011, 12:07 AM
सूत्र को निरंतर रखें, मित्र ! दुष्यंतजी ने बहुत कुछ रचा है और वह सभी पढ़ने योग्य है ! एक बेहतरीन सूत्र के लिए आपका धन्यवाद !

Dark Saint Alaick
20-10-2011, 02:36 PM
सूर्य का स्वागत



परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बांधकर बाहर देखता हूं
और देखता रहता हूं मैं !
सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखाई नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूं मैं !
सिर्फ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर जमीन को खरोंचता हूं
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में
उनके बारे में सोचता हूं
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूं !

Dark Saint Alaick
20-10-2011, 02:40 PM
बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं


बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं,
और नदियों के किनारे घर बने हैं ।

चीड़-वन में आंधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।

इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं ।

आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पांव कीचड़ में सने हैं ।

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं ।

अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए,
हमसफ़र ऊंघे हुए हैं, अनमने हैं ।

Dark Saint Alaick
20-10-2011, 02:43 PM
तुलना

गडरिये कितने सुखी हैं ।
न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।
जबकि
सारे दल
पानी की तरह धन बहाते हैं,
गडरिये मेडों पर बैठे मुस्कुराते हैं
– भेडों को बाड में करने के लिए
न सभाएँ आयोजित करते हैं
न रैलियाँ,
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं, उधर
भेडों को हाँके लिए जाते हैं ।
गडरिये कितने सुखी हैं ।

anoop
09-11-2011, 06:28 PM
दो पोज

सद्यस्नात[१] तुम
जब आती हो
मुख कुन्तलों[२] से ढँका रहता है
बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब
राहू से चाँद ग्रसा रहता है ।

पर जब तुम
केश झटक देती हो अनायास
तारों-सी बूँदें
बिखर जाती हैं आसपास
मुक्त हो जाता है चाँद
तब बहुत भला लगता है ।

शब्दार्थ:

[१] इसी समय नहाई हुई, तुरन्त नहाकर आना
[२] केश, बाल

anoop
09-11-2011, 06:29 PM
इनसे मिलिए

पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून

कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव

टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस

कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़

गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण

छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन-चुन कर बाल खड़े इक्कीस

पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद

बाँहें ढीली-ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल

छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हरवक़्त पसीने का बदबू का संग

पिचकी अमियों से गाल लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान

माथे पर चिन्ताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह

तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल

बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत

कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार ।

sombirnaamdev
16-01-2012, 10:16 PM
वह बचपन के दिन क्यों ढूँढता है दिल
वह पुरानी यादें क्यों ताज़ा करता है दिल
वो गर्मी की छुट्टियों में नानी का घर
स्कूल का आखरी दिन, वो ट्रेन का सफर
वो पतली सी गली में आखरी आलीशान मकान
वो गरम गरम समोसे , वो हलवाई की दूकान
घर में मामा , मौसी और बहन भाईयों की चहल पहल
छुपन छुपैयाँ , पिट्हू , बस दिन भर खूब खेल
दीवार फर्लांग के मैदान में खेलें पकड़म पकड़ी
भाई मिल के खेलें क्रिकेट, बहनें खेलें लंगडी
खेलते हुए कभी हो गई खूब जम के लड़ाई
फिर कुछ रोना रुलाना , बाद में भाई भाई
रात में छत पर अन्ताक्षरी , होता गाना बजाना
वही बिस्तर लगाकर ठंडी हवा में तारे गिनना
वह बचपन के दिन क्यों ढूँढता है दिल
वह पुरानी यादें क्यों ताज़ा करता है दिल

sombirnaamdev
16-01-2012, 10:18 PM
फिर तुम्हे याद किया
इश्क के फूल के पत्ते किताब में संभाले रखे हैं
आज खोल के देखा
तो पत्ते चूर चूर हो मेरे दामन में आ गिरे
और पंखे की हवा से सारे कमरे में उड़ कर
कमरे के कोने कोने में जा छुप बैठे
फिर तुम्हे याद किया
रात का अन्धेरा और गहरा हो गया
चाँद भी बादलों के पीछे जा छिपा
दिल की सूनसानी पूरे कमरे में फैल गयी
बाहर गली में कुत्ते के रोने की आवाज़ ……
क्या मोहब्बत सलामत तो है ?
फिर तुम्हे याद किया
जहाँ इश्क बहा करता था वहां शोक की नदी बहती है
एक सपना जिसकी पूर्ती ना हो पायी हो
मुझे लगा जैसे शून्य मेरे अन्दर फैल सा रहा है
एक नासूर की तरह,इतना बढता हुआ
के शायद तुम तक पहुँच जाए ?
फिर तुम्हे याद किया
कमरे के कोने में तुम्हारी किताब अभी भी सजी हुई
रोज़ उसके पन्ने पलटती हूँ
और वोह घड़ी जो तुम मेरे लिए तोहफा लाये थे
अपनी टिक टिक कर रात भर मेरा साथ देती हैं
जैसे उसको पता हो की तुम नहीं हो
अब कभी नहीं हो

helloprajna
27-02-2014, 09:49 PM
kya koi mujhe kripaya in gazalon ka matlab bata sakta he? akhir Dushyant ji inke madhyam se kya sandesh dena chahte hain?

ये जो राहतीर है पलकों पे उठा लो यारों
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारों

दर्दे-िदल वक़्त कोे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने िपंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस चहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो