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View Full Version : हिंदी का पहला उपन्यास


Gaurav Soni
24-09-2011, 08:43 AM
आज हम कितने ही हिन्दी उपन्यास पढ़ते हैं ..पर क्या आप जानते हैं कि पहला हिन्दी का उपन्यास कौन सा है .. हिन्दी का प्रथम उपन्यास है देवरानी जेठानी की कहानी" यह लिखा हुआ पंडित गौरी दत्त जी के द्बारा | इस उपन्यास को न केवल अपने अपने प्रकाशक वर्ष १८७० वरन अपनी लिखे जाने के लिहाज से भी पंडित गौरीदत्त की कृति देवरानी जेठानी की कहानी को हिन्दी का पहला उपन्यास होने का श्रेय जाता है | इस में लिखा इतना बढ़िया है कि उस समय का पूरा समाज ही ध्वनित होता है .जैसे बालविवाह ,विवाह में फिजूल खर्ची .स्त्रियों का गहनों से लगाव .बंटवारा .वृद्धों और बहुओं को समस्या .शिक्षा ,स्त्री शिक्षा ..अपनी अनगढ़ ईमानदारी में यह उपन्यास कहीं चूकता नहीं |

Gaurav Soni
24-09-2011, 08:43 AM
डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति

इसको भाषा इतनी जीवंत है कि आज के साहित्याकारों को भी दिशा दिखा देती है ..और अपने लेखन से नए समय के आने की आहट देती है | यदि डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति को जानना हो तो इस उपन्यास से बेहतर कोई साधन नही हैं ..| पंडित गौरी दत्त के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हिन्दी के प्रचार प्रसार में अपनी सारी जायदाद तक लगा दी थी |इस के लिए उनकी समानता मालवीय जी .महावीर प्रसाद दिवेद्धी.बाल कुमुन्द गुप्त तक से की जाती है |

Gaurav Soni
24-09-2011, 08:43 AM
५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने

प्रथम हिन्दी उपन्यास देवरानी जेठानी की कहानी १८७० में मेरठ के एक लीथो प्रेस छापाखाना ऐ जियाई में प्रकाशित हुआ था |तब इसकी ५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने था | कुछ समय तक इस उपन्यास को नारी शिक्षा विषयक कह कर उसके समुचित गौरव से इसको वंचित रखा गया किंतु अपनी गहरी सामाजिक दृष्टि और मानवीय सरोकारों की दृष्टि से यह एक ऐसा उपन्यास बन गया जिसकी तुलना किसी से नही की जा सकती है | छोटे आकार की सिर्फ़ पैंतीस पृष्ठों की यह कृति उस वक्त के सामाजिक समस्याओं को इतने अच्छे तरीके से बताती है कि प्रथम उपन्यास में ही यह कमाल देख कर हैरानी होती है | उस वक्त के इन समस्याओं के साथ साथ जीवन के चटख रंगों में पूरे प्रमाण के साथ लिखा गया है | इसकी भाषा उस वक्त की जन भाषा से जुड़ी हुई है | किस्सागोई का अनूठा प्रयोग है और लोक भाषा के अर्थ गर्भित शब्दों के सचेत प्रयोग किए गए हैं .जैसे ..

Gaurav Soni
24-09-2011, 08:43 AM
""जब वह सायंकाल को सारे दिन का थका हारा घर आता ,नून तेल का झींकना ले बैठती | कभी कहती मुझे गहना बना दे ,रोती झींकती ,लड़ती भिड़ती |उसे रोती न करने देती |कहती कि फलाने की बहू को देख ,गहने से लद रही है |उसका मालिक नित नई चीज लावे है |मेरे तो इस घर में आ के भाग फूट गए | वह कहता ,अरी भगवान् ,जाने भगवान रोटियों की क्यों कर गुजारा कर रहे हैं ,तुझे गहने -पाते की सूझ रही है?"

Gaurav Soni
24-09-2011, 08:43 AM
नारी शिक्षा ,बाल विवाह ,विधवा विवाह
नारी शिक्षा किस प्रकार सामजिक परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निबाह कर सकती है इस पर उस वक्त भी उपन्यास कार सोचता है ..उस वक्त बाल विवाह खूब हो रहे थे .किंतु छोटी बहू और उसका पति छोटेलाल अपने पुत्र मोहन को खूब पद्वाना चाहते हैं ."नन्हे की सगाई कई जगह से आई पर छोटेलाल और उसको बहू ने फेर दी | और यह कहा की पन्द्रह -सोलह वर्ष का होगा तब विवाह सगाई करेंगे |" उस समय के समाज में यह बहुत बड़ी बात थी बहुत बड़ा निर्णय | छोटे छोटे बच्चो ५ या ६ साल के इस से भी पहेल विवाह हो जाया करते थे |विधवा विवाह की तो हिन्दी उपन्यास में बहुत बाद में चर्चा की गई शायद सेवा सदन में प्रेमचंद के उपन्यास में किंतु प्रथम उपन्यास में इस और भी ध्यान दिया गया | छोटे लाल की बहू की मामा की बेटी का नौ वर्ष की आयु में विवाह हुआ था ,और उसका पति पतंग उडाते हुए छत से नीचे गिर गया और प्राण त्याग दिए | इस तरह वह मात्र दस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गई | वह सात फेरों की गुनाहगार अपने जीवन के सब रास रंग खो देती है | जिसके अभी खेलने खाने के दिन थे वह दिन उसको कठिन वैधव्य में बीतने पड़े | पुनर्विवाह उस वक्त सबसे बड़ा पाप समझा जाता था ,पर १८७० में लिखे इस उपन्यास में यह क्रांतिकारी कदम भी दिखाया गया है |

Gaurav Soni
24-09-2011, 08:44 AM
लुप्त होते शब्द

बहुत से इस उपन्यास में इस तरह के शब्द भी आये हैं जो शायद कुछ समय बाद बिल्कुल विलुप्त हो जायेंगे या हो चुके हैं | जैसे मंझोली ..यह शब्द बैलगाडी और बैल टाँगे के मध्य की चीज के लिए उस वक्त इस्तेमाल किया जाता था | मांदी शब्द का इस्तेमाल लम्बी बीमारी के लिए हुआ है किंतु अब मेरठ क्षेत्र से यह शब्द पुरानी पीढी के साथ गायब होता जा रहा है | नौमी को आज भी कौरवी जन भाषा में नौमी ही कहा जाता है नवमी नहीं | उस वक्त के जन्म मरण .विवाह गौना ,आदि के समस्त लोकाचार का बहुत ही रसपूर्ण वर्णन है इस उपन्यास में |

Gaurav Soni
24-09-2011, 08:44 AM
इस तरह यह उपन्यास हमारी हिन्दी भाषा के लिए एक अनमोल धरोहर है | जिसको पढ़ कर उस वक्त के समय को समझा जा सकता है | अपने कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से देवरानी जेठानी की कहानी हिन्दी का प्रथम गौरव पूर्ण कृति ही नहीं है वरन यह हिन्दी उपन्यास के इतिहास में अपना दुबारा मूल्यांकन भी मांगती है |

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:47 AM
इसमे कई तरह की ओर कई लोगों का अपना अपना मत हे जो मे यहा पर पेश करुगा

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:47 AM
हिंदी का पहला उपन्यास होने का गौरव लाला श्रीनिवास दास (1850-1907) द्वारा लिखा गया और 25 नवंबर 1885 को प्रकाशित परीक्षा गुरु नामक उपन्यास को प्राप्त है। लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु युग के प्रसिद्ध नाटकार थे। नाटक लेखन में वे भारतेंदु के समकक्ष माने जाते हैं। वे मथुरा के निवासी थे और हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। उनके नाटकों में शामिल हैं, प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर और प्रेम मोहिनी, और संयोगिता स्वयंवर।

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:47 AM
लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। मदनमोहन एक समृद्ध वैश्व परिवार में पैदा होता है, पर बचपन में अच्छी शिक्षा और उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण और युवावस्था में गलत संगति में पड़कर अपनी सारी दौलत खो बैठता है। न ही उसे आदमी की ही परख है। वह अपने सच्चे हितैषी ब्रजकिशोर को अपने से दूर करके चुन्नीलाल, शंभूदयाल, बैजनाथ और पुरुषोत्तम दास जैसे कपटी, लालची, मौका परस्त, खुशामदी "दोस्तों" से अपने आपको घिरा रखता है। बहुत जल्द इनकी गलत सलाहों के चक्कर में मदनमोहन भारी कर्ज में भी डूब जाता है और कर्ज समय पर अदा न कर पाने से उसे अल्प समय के लिए कारावास भी हो जाता है।

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:47 AM
इस कठिन स्थिति में उसका सच्चा मित्र ब्रजकिशोर, जो एक वकील है, उसकी मदद करता है, और उसकी खोई हुई संपत्ति उसे वापस दिलाता है। इतना ही नहीं, मदनमोहन को सही उपदेश देकर उसे अपनी गलतियों का एहसास भी कराता है।

उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। कथा तेजी से आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है। पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह इंग्लैंड और यूनान के इतिहास से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। उपन्यास में बीच-बीच में संस्कृत, हिंदी, फारसी के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी ब्रज भाषा में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। काव्य के लिए ब्रज भाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए खड़ी बोली का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए उपन्यास के काव्यांशों के लिए ब्रज भाषा चुना है।

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:47 AM
उपन्यास की भाषा हिंदी के प्रारंभिक गद्य का अच्छा नमूना है। उसमें संस्कृत और फारसी के कठिन शब्दों से यथा संभव बचा गया है। सरल, बोलचाल की (दिल्ली के आस-पास की) भाषा में कथा सुनाई गई है। इसके बावजूद पुस्तक की भाषा गरिमायुक्त और अभिव्यंजनापूर्ण है। वर्तनी के मामले में लेखक ने बोलचाल की पद्धति अपनाई है। कई शब्दों को अनुनासिक बनाकर या मिलाकर लिखा है, जैसे, रोनें, करनें, पढ़नें, आदि, तथा, उस्समय, कित्ने, उन्की, आदि। “में” के लिए “मैं”, “से” के लिए “सैं”, जैसे प्रयोग भी इसमें मिलते हैं। कुछ अन्य वर्तनी दोष भी देखे जा सकते हैं, जैसे, समझदार के लिए समझवार, विवश के लिए बिबश। पर यह देखते हुए कि यह उपन्यास उस समय का है जब हिंदी गद्य स्थिर हो ही रहा था, उपन्यास की भाषा काफी सशक्त ही मानी जाएगी।

इस उपन्यास की भाषा का एक बानगी नीचे दे रहा हूं –

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:48 AM
“सुख-दुःख तो बहुधा आदमी की मानसिक वृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन है। एक बात सै एक मनुष्य को अत्यन्त दःख और क्लेश होता है वही दूसरे को खेल तमाशे की-सी लगती है इसलिए सुख-दुःख होनें का कोई नियम मालूम होता” मुंशी चुन्नीलाल नें कहा।

“मेरे जान तो मनुष्य जिस बात को मन सै चाहता है उस्का पूरा होना ही सुख का कारण है और उस्मैं हर्ज पड़नें ही सै दुःख होता है” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा।

“तो अनेक बार आदमी अनुचित काम करके दुःख में फँस जाता है और अपनें किये पर पछताता है इस्का क्या कराण? असल बात यह है कि जिस्समय मनुष्य के मन मैं जो वृत्ति प्रबल होती है वह उसी के अनुसार काम किया चाहता है और दूरअंदेशीकी सब बातों को सहसा भूल जाता है परन्तु जब वो बेग घटता है तबियत ठिकानें आती है तो वो अपनी भूल का पछताबा करता है और न्याय वृत्ति प्रबल हुई तो सब के साम्हने अपनी भूल का अंगीकार करकै उस्के सुधारनें का उद्योग करता है पर निकृष्ट प्रवृत्ति प्रबल हुई तो छल करके उस्को छिपाया चाहता है अथवा अपनी भूल दूसरे के सिर रक्खा चाहता है और एक अपराध छिपानें के लिये दूसरा अपराध करता है परन्तु अनुचित कर्म्म सै आत्मग्लानि और उचित कर्म्म सै आत्मप्रसाद हुए बिना सर्वथा नहीं रहता” लाला ब्रजकिशोर बोले।

(सुख-दुःख, प्रकरण से)

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:48 AM
कुल मिलाकर यह एक सफल उपन्यास है जो उपन्यास विधा की सभी विशेषताओं को दर्शाता है।

माना जाता है कि दुनिया का सबसे पहला उपन्यास जापानी भाषा में 1007 ई. में लिखा गया था। यह था “जेन्जी की कहानी” नामक उपन्यास। इसे मुरासाकी शिकिबु नामक एक महिला ने लिखा था। इसमें 54 अध्याय और करीब 1000 पृष्ठ हैं। इसमें प्रेम और विवेक की खोज में निकले एक राजकुमार की कहानी है।

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:48 AM
यूरोप का प्रथम उपन्यास सेर्वैन्टिस का “डोन क्विक्सोट” माना जाता है जो स्पेनी भाषा का उपन्यास है। इसे 1605 में लिखा गया था।

अंग्रेजी का प्रथम उपन्यास होने के दावेदार कई हैं। बहुत से विद्वान 1678 में जोन बुन्यान द्वारा लिखे गए “द पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस” को पहला अंग्रेजी उपन्यास मानते हैं।

भारतीय भाषाओं में लिखे गए प्रथम उपन्यासों का ब्योरा इस प्रकार है -

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:48 AM
मलयालम
इंदुलेखा। रचनाकाल, 1889, लेखक चंदु मेनोन।

तमिल
प्रताप मुदलियार। रचनाकाल 1879, लेखक, मयूरम वेदनायगम पिल्लै।

बंगाली
दुर्गेशनंदिनी। रचनाकाल, 1865, लेखक, बंकिम चंद्र चैटर्जी।

मराठी
यमुना पर्यटन। रचनाकाल, 1857, लेखक, बाबा पद्मजी। इसे भारतीय भाषाओं में लिखा गया प्रथम उपन्यास माना जाता है।

इस तरह हम देख सकते हैं कि भारत की लगभग सभी भाषाओं में उपन्यास विधा का उद्भव लगभग एक ही समय दस-बीस वर्षों के अंतराल में हुआ।

anoop
24-09-2011, 06:18 PM
आज हम कितने ही हिन्दी उपन्यास पढ़ते हैं ..पर क्या आप जानते हैं कि पहला हिन्दी का उपन्यास कौन सा है .. हिन्दी का प्रथम उपन्यास है देवरानी जेठानी की कहानी" यह लिखा हुआ पंडित गौरी दत्त जी के द्बारा | इस उपन्यास को न केवल अपने अपने प्रकाशक वर्ष १८७० वरन अपनी लिखे जाने के लिहाज से भी पंडित गौरीदत्त की कृति देवरानी जेठानी की कहानी को हिन्दी का पहला उपन्यास होने का श्रेय जाता है | इस में लिखा इतना बढ़िया है कि उस समय का पूरा समाज ही ध्वनित होता है .जैसे बालविवाह ,विवाह में फिजूल खर्ची .स्त्रियों का गहनों से लगाव .बंटवारा .वृद्धों और बहुओं को समस्या .शिक्षा ,स्त्री शिक्षा ..अपनी अनगढ़ ईमानदारी में यह उपन्यास कहीं चूकता नहीं |

क्या आज का समाज और मानसिकता इससे भिन्न है? अच्छी रचनाओं की खासियत उनका कालजयी होना हीं है। इसको पडःअने का आज के पहले मौका नहीं मिला था (पता तो था इसके बारे में, पर कहीं दिखा नहीं, और फ़िर मैं भी कुछ भूल सा गया था इस को)। आज आपके वजह से प्राप्त हुआ, शुक्रिया...

मूल पुस्तक क्या उपलब्ध हो पाएगी?

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:21 PM
क्या आज का समाज और मानसिकता इससे भिन्न है? अच्छी रचनाओं की खासियत उनका कालजयी होना हीं है। इसको पडःअने का आज के पहले मौका नहीं मिला था (पता तो था इसके बारे में, पर कहीं दिखा नहीं, और फ़िर मैं भी कुछ भूल सा गया था इस को)। आज आपके वजह से प्राप्त हुआ, शुक्रिया...

मूल पुस्तक क्या उपलब्ध हो पाएगी?


जी जरूर अनूप जी मे कोशिस कर रहा हु की आप सभी को ये पुस्तके दे सकु

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:26 PM
http://3.bp.blogspot.com/_V08OfHtevYw/SRlBmtWV-6I/AAAAAAAACrM/0Ax5JQIwuIY/s1600-h/devraani.jpg

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:28 PM
http://3.bp.blogspot.com/_V08OfHtevYw/SRlBmtWV-6I/AAAAAAAACrM/0Ax5JQIwuIY/s200/devraani.jpg


डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति

इसको भाषा इतनी जीवंत है कि आज के साहित्याकारों को भी दिशा दिखा देती है ..और अपने लेखन से नए समय के आने की आहट देती है | यदि डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति को जानना हो तो इस उपन्यास से बेहतर कोई साधन नही हैं ..| पंडित गौरी दत्त के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हिन्दी के प्रचार प्रसार में अपनी सारी जायदाद तक लगा दी थी |इस के लिए उनकी समानता मालवीय जी .महावीर प्रसाद दिवेद्धी.बाल कुमुन्द गुप्त तक से की जाती है |

५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने

प्रथम हिन्दी उपन्यास देवरानी जेठानी की कहानी १८७० में मेरठ के एक लीथो प्रेस छापाखाना ऐ जियाई में प्रकाशित हुआ था |तब इसकी ५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने था | कुछ समय तक इस उपन्यास को नारी शिक्षा विषयक कह कर उसके समुचित गौरव से इसको वंचित रखा गया किंतु अपनी गहरी सामाजिक दृष्टि और मानवीय सरोकारों की दृष्टि से यह एक ऐसा उपन्यास बन गया जिसकी तुलना किसी से नही की जा सकती है | छोटे आकार की सिर्फ़ पैंतीस पृष्ठों की यह कृति उस वक्त के सामाजिक समस्याओं को इतने अच्छे तरीके से बताती है कि प्रथम उपन्यास में ही यह कमाल देख कर हैरानी होती है | उस वक्त के इन समस्याओं के साथ साथ जीवन के चटख रंगों में पूरे प्रमाण के साथ लिखा गया है | इसकी भाषा उस वक्त की जन भाषा से जुड़ी हुई है | किस्सागोई का अनूठा प्रयोग है और लोक भाषा के अर्थ गर्भित शब्दों के सचेत प्रयोग किए गए हैं .जैसे ..

""जब वह सायंकाल को सारे दिन का थका हारा घर आता ,नून तेल का झींकना ले बैठती | कभी कहती मुझे गहना बना दे ,रोती झींकती ,लड़ती भिड़ती |उसे रोती न करने देती |कहती कि फलाने की बहू को देख ,गहने से लद रही है |उसका मालिक नित नई चीज लावे है |मेरे तो इस घर में आ के भाग फूट गए | वह कहता ,अरी भगवान् ,जाने भगवान रोटियों की क्यों कर गुजारा कर रहे हैं ,तुझे गहने -पाते की सूझ रही है?"

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:28 PM
लुप्त होते शब्द

बहुत से इस उपन्यास में इस तरह के शब्द भी आये हैं जो शायद कुछ समय बाद बिल्कुल विलुप्त हो जायेंगे या हो चुके हैं | जैसे मंझोली ..यह शब्द बैलगाडी और बैल टाँगे के मध्य की चीज के लिए उस वक्त इस्तेमाल किया जाता था | मांदी शब्द का इस्तेमाल लम्बी बीमारी के लिए हुआ है किंतु अब मेरठ क्षेत्र से यह शब्द पुरानी पीढी के साथ गायब होता जा रहा है | नौमी को आज भी कौरवी जन भाषा में नौमी ही कहा जाता है नवमी नहीं | उस वक्त के जन्म मरण .विवाह गौना ,आदि के समस्त लोकाचार का बहुत ही रसपूर्ण वर्णन है इस उपन्यास में |

इस तरह यह उपन्यास हमारी हिन्दी भाषा के लिए एक अनमोल धरोहर है | जिसको पढ़ कर उस वक्त के समय को समझा जा सकता है | अपने कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से देवरानी जेठानी की कहानी हिन्दी का प्रथम गौरव पूर्ण कृति ही नहीं है वरन यह हिन्दी उपन्यास के इतिहास में अपना दुबारा मूल्यांकन भी मांगती है |

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:28 PM
http://1.bp.blogspot.com/_V08OfHtevYw/SRlGbmdDljI/AAAAAAAACrU/1j9LcrEg7Ag/s200/devrani+-jethani.JPG

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:30 PM
देवरानी जेठानी की कहानी
- प. गौरीदत्*त शर्मा

( हिन्*दी का पहला उपन्*यास ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ (1870) है अथवा ‘परीक्षागुरु’ (1882), इस पर विद्वानों में मतभेद है। जहॉं डॉ नगेन्*द्र और डॉ निर्मला जैन सरीखे विद्वानों ने लाला श्रीनिवासदास के ‘परीक्षागुरु’ को हिन्*दी का पहला मौलिक उपन्*यास माना है, वहीं डॉ गोपाल राय व डॉ पुष्*पपाल सिंह आदि ने पं गौरीदत्*त रचित ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ को हिन्*दी का पहला उपन्*यास होने का गौरव प्रदान किया है।
हिन्*दी उपन्*यास कोश (1870 – 1980) के कोशकारों संतोष गोयल, उषा कस्*तूरिया और उमेश माथुर ने भी ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ को हिन्*दी का पहला उपन्*यास मानते हुए अपने कोश की शुरुआत ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ के प्रकाशन वर्ष सन् 1870 ई से ही की है।
हम हिन्*दी समय डॉट कॉम पर लाला श्रीनिवासदास लिखित ‘परीक्षागुरु’ भी शीघ्र ही प्रस्*तुत करेंगे, जिसका उल्*लेख आचार्य रामचन्*द्र शुक्*ल ने अपने महत्*वपूर्ण ग्रंथ ‘हिन्*दी साहित्*य का इतिहास’ में किया है। )

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:31 PM
भूमिका
स्त्रियों को पढ़ने-पढ़ाने के लिए जितनी पुस्*तकें लिखी गयी हैं सब अपने-अपने ढंग और रीति से अच्*छी हैं, परन्*तु मैंने इस कहानी को नये रंग-ढंग से लिखा है। मुझको निश्*चय है कि दोनों, स्*त्री-पुरुष इसको पढ़कर अति प्रसन्*न होंगे और बहुत लाभ उठायेंगे।
जब मुझको यह निश्*चय हुआ कि स्*त्री, स्त्रियों की बोली, और पुरुष, पुरुषों की बोली पसन्*द करते हैं जो कोई स्*त्री पुरुषों की बोली, वा पुरुष स्त्रियों की बोली बोलता है उसको नाम धरते हैं। इस कारण मैंने पुस्*तक में स्त्रियों ही की बोल-चाल और वही शब्*द जहॉं जैसा आशय है, लिखे हैं और यह वह बोली है जो इस जिले के बनियों के कुटुम्*ब में स्*त्री-पुरुष वा लड़के-बाले बोलते-चालते हैं। संस्*कृत के बहुत शब्*द और पुस्*तकों- जैसे इसलिए नहीं लिखे कि न कोई चित से पढ़ता है, और न सुनता है।
इस पुस्*तक में यह भी दर्शा दिया है कि इस देश के बनिये जन्*म-मरण विवाहादि में क्*या-क्*या करते हैं, पढ़ी और बेपढ़ी स्त्रियों में क्*या-क्*या अन्*तर है, बालकों का पालन और पोषण किस प्रकार होता है, और किस प्रकार होना चाहिए, स्त्रियों का समय किस-किस काम में व्*यतीत होता है, और क्*यों कर होना उचित है। बेपढ़ी स्*त्री जब एक काम को करती है, उसमें क्*या-क्*या हानि होती है। पढ़ी हुई जब उसी काम को करती है उससे क्*या-क्*या लाभ होता है। स्त्रियों की वह बातें जो आजतक नहीं लिखी गयीं मैंने खोज कर सब लिख दी हैं और इस पुस्*तक में ठीक-ठीक वही लिखा है जैसा आजकल बनियों के घरों में हो रहा है। बाल बराबर भी अंतर नहीं है।
प्रकट हो कि यह रोचक और मनोहर कहानी श्रीयुत एम.केमसन साहिब, डैरेक्*टर आफ पब्लिक इन्*सट्रक्*शन बहादुर को ऐसी पसन्*द आयी, मन को भायी और चित्*त को लुभायी कि शुद्ध करके इसके छपने की आज्ञा दी और दो सौ पुस्*तक मोल लीं और श्रीमन्*महाराजाधिराज पश्चिम देशाधिकारी श्रीयुत लेफ्टिनेण्*ट गवर्नर बहादुर के यहॉं से चिट्ठी नम्*बर 2672 लिखी हुई 24 जून सन् 1870 के अनुसार, इस पुस्*तक के कर्त्*ता पंडित गौरीदत्*त को 100 रुपये इनाम मिले।।
दया उनकी मुझ पर अधिक वित्*त से
जो मेरी कहानी पढ़ें चित्*त से।
रही भूल मुझसे जो इसमें कहीं,
बना अपनी पुस्*तक में लेबें वहीं।
दया से, कृपा से, क्षमा रीति से,
छिपावें बुरों को भले, प्रीति से।।
- प. गौरीदत्*त शर्मा

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:31 PM
देवरानी जेठानी की कहानी
भाग - 1

मेरठ में सर्वसुख नाम का एक अग्रवाल बनिया था। मंडी में आड़त की दूकान थी। आसपास के गॉंवों से लोग सौदा लाते। इसकी दुकान पर बेच जाते। पैसा-रुपया तुलाई का इसके हाथ भी लग जाता। और कभी भाव चढ़ा देखता तो हजार का नाज-पात लेकर दूकान में डाल देता और फ़ायदा देख उसे बेच डालता। ब्*याज-बट्टे और गिर्वी-पाते की भी उसे बहुतेरी आमदनी थी। हाट-हवेली, धन-दौलत, दूध-पूत परमेश्*वर का दिया उसके सबकुछ था। और यह इसने अपने ही पुरुषार्थ से किया था।

मॉं-बाप तो पिछले हैजे में पॉंच वर्ष का छोड़कर मर गये थे। चाचा ने पाला था। थोड़े ही दिन हुए होंगे जब तो कूकडि़यॉं बेचा करे था। चना-चबेना करता। खॉंचा सिर पै लिये गलियों में फिरा करे था।

फिर इसने परचून की दुकान कर ली। मुंशी टिकत नारायण और हरसहाय काबली शहर के अमीरों की इसके यहॉं उचापत उठने लगी। इसमें परमेश्*वर ने ऐसी की सुनी कि आड़त की दूकान हो गई। जहॉं-तहॉं से माल आने लगा। बढ़ी इज्*जत बढ़ गई। लोग पचास हज़ार रुपये का भरम करने लगे। सच्*च है जिसे परमेश्*वर देता है छप्*पर फाड़ के ऐसे ही देता है।

बड़ा भला मानस था। अड़ौसी-पड़ौसी सब इससे राजी थे। पुन्*न-दान में बहुत तो नहीं परंतु छठे-छमाहे कुछ-न-कुछ करता रहे था। बड़ी अवस्*था में आप ही अपना बिवाह किया था। पहिले दो लड़कियॉं हुईं, बड़ी का नाम पार्वती छोटी का प्*यार का नाम सुखदेई रक्*खा। फिर ईश्*वर ने उपरातली दो लड़के दिये। बड़े का नाम दौलत राम छोटे का नाम छोटे-छोटे पुकारने लगे। इन सब बहिन भाइयों की कोई दो-दो तीन-तीन वर्ष की छुटाई-बड़ाई होगी। बड़ी लड़की दिल्*ली बिवाही गयी। छोटी लड़की की मंगनी बंशीधर कबाड़ी के यहॉं हापुड़ हुई।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:32 PM
एक दिन रात को अपने घर में कहने लगा कि सुखदेई की मॉं, लाला बुलाकी दास हमारी बिरादरी में जो मदर्से में नौकर है यों कहते थे कि अपने छोटे बेटे को तुम अंग्रेजी पढ़ाओ। इसमें तेरी क्*या सलाह है और दौलत राम को तो मै अपने कार में गेरूंगा।
उसने कहा अच्*छा तो है। सारे दिन गलियों में कूदता फिरे है। परसों किसी लौंडे के कुछ मार आया था। उसकी मॉं लड़ती हुई यहॉं आई। और मैं तुमसे कहना भूल गई। आज चौथा दिन है कि दिल्*ला पॉंडे हमारे पुरोहित की बहू मिसरानी आई थी और कहे थी कि सुखदेई को मेरे साथ नागरी पढ़ने भेज दिया करो और भी मुहल्*ले की पॉंच-सात लौंडियें उसके घर जाया करे हैं और वह सीना-पिरोना भी सिखलाया करे है। और वह बड़ी-बड़ी बात कहै थी कि जब सुखदेई पढ़ जायगी चिट्ठी-पत्री लिखनी आ जायगी। घर का हिसाब लिख लिया करेगी। और उसके घर कभी-कभी एक मेम आया करे है। लौंडियों को देख हरी हो जा है और उनका पढ़ना सुनकर किसी को छल्*ला और किसी को अंगूठी दे जा है।

सो छोटेलाल तो मदर्से में बिठाये गये। दौलत राम लाला के साथ दूकान जाने लगे। और सुखदेई मिसरानी से नागरी पढ़ने लगी।

एक दिन कोई चार घड़ी दिन होगा। छोटे लाल बाहर खेल रहा था। घर में भाग गया और कहने लगा कि मॉं लाला आवे हैं।

यह अपने मन में डर गई और कहने लगी कि आज दिन से क्*यों आये।
इतने में वह भी आन पहुँचे और खाट पर बैठ गये। इसने छोटे लाल को पंखा दिया और कहा लाला को हवा कर।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:32 PM
यह बोले सुखदेई की मॉं, ले बोल क्*या करें? जहॉं दौलत राम को टेवा गया था, तनी गॉंठ करने को नाई आया है। और झल्*लामल जो कल खुरजे से आये थे यों कहें थे कि लड़की का बाप डूँगर बिचारा गरीब बनियॉं है। सरा के नुक्*कड़ पर परचून की दूकान खोल रक्*खी है। पर लड़की की मॉं बड़ी लड़ाका है। तुम्*हारे समधी के पास ही हमारा घर है और छोटेलाल की पीठ ठोक कर कहने लगा कि भाई छोटे लाल हमारा नसीबेवर है। गुड़गॉंवें के तहसीलदार ने इसका टेवा मॉंगा है। अभी तो रास्*ते में लाला दीनदयाल, किरपी के ताऊ, गाड़ी में बैठे आवे थे। मुझे पुकार कर कहने लगे कि मैं मामाजी से मिलने गुड़गॉंवें गया था सो वह पूछें थे कि सर्बसुख आड़ती का छोटा बेटा क्*या किया करे हैं? मैंने कहा साहब, मदर्से में अंग्रेजी पढ़े है और होशियार है। सो उन्*होंने उसका टेवा मागा है। तुम मुझे दे देना मैं भेज दूँगा। लाला साहब, लड़की बड़ी सुघड़ है। वह अपनी लड़की को आप नागरी पढ़ाया करे हैं।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:32 PM
सुखदेई की मॉं बोली कि तुम दौलत राम की सगाई रख लो। आई हुई लक्ष्*मी घर से कोई नहीं फेरता। और रुपया-पैसा हाथ-पैरों का मैल है। आगे लौंडिया लौंडे का भाग है।
सो नाई तनी गॉंठ करके चला गया। और उसी साल में विवाह की चिट्ठी ले के आया। इन्*होंने कहला भेजा कि अब के वर्ष तो हमारी लड़की विवाह की ठहर गयी है। अगले वर्ष विवाह रख लेंगे।
छोटेलाल की पत्री गुड़गॉंवे मिल ही गयी थी। लाला दीनदयाल के मारफत वहॉं से कहलावत आई कि सर्वसुख जी से कहना कि मरती जीती दुनिया है। आगे मैं सरकारी नौकर हूँ। आज यहॉं, कल जाने कहॉं को बदली हो जाय। सो लड़की का विवाह हम इसी साल में करेंगे।
इन्*होंने यहॉं से कहला भेजा कि हमारी इज्*जत उनके हाथ है। अभी तो दो विवाहों से निपटे हैं और इस साल में न केवल सूझता भी नहीं है। अगले साल जैसा मुन्*शी जी कहेंगे वैसा करेंगे।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:32 PM
अगले साल बिवाह की तैयारी हो गई और बड़ी धूम-धाम से लाला जी बेटे का बिवाह कर लाये। दोनों तर्फ की वाह-वाह रही। जब बहु घर आयी बगड़-पड़ौसन सब इकट्ठी हो गयी और सुखदेई की मॉं से कहने लगीं ले बहिन, बहुडि़या तो भली-सुन्*दर है। तेरी बड़ी बहू का रंग तो सॉवला है। जो कोई बड़ी-बूढ़ी आती है बहु कहती पॉंव पडूँ जी। वह कहती बहुत शीली सपूती हो। बूढ़ सुहागन रह।
जब कोई इसके बाप के घर की बात पूछती वह ऐसी मीठी बातों से जवाब देती कि सब प्रसन्*न हो जाती। बिना बातों नहीं बोलती, चुपकी बैठी रहती। वा जब अवसर पाती अपनी पोथी ले बैठती। मुहल्*ले और बिरादरी की बैअर-बानियों में धूम पड़ गई कि फलाने की बहु बड़ी चतुर है। कोई कहती बड़े घर की बेटी है। इसका बाप तहसीलदार है। अंग्रेजी पढ़ा हुआ है। अपनी बेटी को आप पढ़ाया है। कोई कहती जी इसके साथ जो नायन है, वह कहे थी, इसपैं सीनी-पिरोना भी आवे है और भली अच्*छी फुलकारी भी काढ़े है।
सुखदेई का अभी गौना नहीं हुआ था। बाप ही के घर थी। ननद-भावजों का बड़ा प्*यार हो गया। दोनों पढ़ी-पढ़ी मिल गयीं।

सुखदेई इतनी पढ़ी हुई न थी परन्*तु चिट्ठी-पत्री तो अच्*छी तरह से लिख लिया करे थी। इसने अपनी सब पढ़ी हुई भनेलियों को बुलाया और उनका लिखना-पढ़ना अपनी भावज को दिखलाया।
जब दौलतराम बिवाह के लाये थे तो पट्टा फेर करते लाये थे। इसका कारण यह था कि लड़की के बाप घर में पहिले ही कुछ नहीं था। विवाह ही में उघड़ गया। गौना क्*या करेगा? सो तबसे दौलत राम की बहु ज्ञानो ससुराल ही में थी। जब कोई बैअर-बानी बाहर की आती, न तो बैठने को पीढ़ा देती और न उसकी बात पूछती। और जो कुछ कहती भी, तो ऐसी बोलती जैसे कोई लड़े है। सास से तो रात दिन खटपट रक्*खे थी और जब कोई देवरानी को इसके सामने सराहती तो कहती हॉं जी, वह तो अमीर की बेटी है। मैं तो गरीब बनिये की बेटी हूँ। मुँह से कुछ नहीं कहती पर देवरानी को देख-देख फुँकी जाती। और जभी से छोटी ननद से भी जलने लगी। बड़ी ननद पारबती से बड़ा प्*यार था। (और वह विवाह में बुलाई हुई आयी थी) और प्*यार होने का कारण यह था कि वह भी लगावा-बझावा थी। उधर की इधर और इधर की उधर।

अब बहु को आये आठ-दस दिन हुए होंगे कि उसका भाई रामप्रसाद मझोली लेके विदा कराने को आया। लाल सर्वसुख जी ने भी जैसे बनियों में रस्*म होती है, दे-ले कर बहु को बिदा कर दिया और बहु के भाई से चलते-चलते यह कह दिया कि भाई, पहुँचते ही राजी-खुशी की चिट्ठी लिख भेजना।
जब सुखदेई के विवाह को तीन वर्ष हो चुके, हापुड़ से गौने की चिट्ठी आयी। लाला ने घर में आके सलाह की। सुखदेई की मॉं ने कहा मैं तो पॉंचवें वर्ष करूँगी। लाला ने समझा दिया कि जिस काम से निबटे, उससे निबटे। यह काम भी तो करना ही है और यह भी कहा है कि धी-बेटी अपने घर ही रहना अच्*छा है। अर्थात् सुखदेई भी अपने घर गई और वहॉं अपने कुनबे की लौंडियों को नागरी पढ़ाने लगी।

लाला सर्वसुख का माल रेल पै लदने जाया करे था। वहॉं के बाबू से इसकी जान पहिचान हो गई थी।
एक दिन कहने लगा कि बाबू जी हमारा छोटा लड़का मदर्से में अंग्रेजी पढ़ने जाया करे है। वह कहे था जो तुम कहो तो तुम्*हारे पास काम सीखने आ जाया करे। बाबू ने कहा कल तुम उसे हमारे पास दफ्तर में भेजना। छोटे लाल अगले दिन वहॉं गया। बाबू को अपना लिखना दिखलाया। उसकी पसंद आया। इससे कहा तुम रोज-रोज आया करो। यह जाने लगा। थोड़े दिन पीछे उसी दफ्तर में पंदरह रुपये महीने का नौकर भी हो गया।
इसे नौकर हुए कोई एक वर्ष बीता होगा कि बाबू की बदली अम्*बाले की हो गयी। यह बाबू का काम किया ही करे था। और साहब भी रोज देखा करे था। बाबू की जगह इसे कर दिया, और यह कह दिया कि अब तो तुमको चालीस रुपये महीना मिलेगा फिर काम देख के साठ रुपये महीना कर देंगे।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:33 PM
जब छोटे लाल पंदरह ही रुपये का नौकर था कि इसके लाला गौना कर लाये थे और अब गौनयायी अपने घर ही थी। छोटे लाल इस बात से अपने मन में बड़ा मगन था कि मेरी बहु पढ़ी हुई है और बड़ी चतुर है। इधर इसकी घरवाली इससे खूब राजी थी। और यह बात परमेश्*वर की दया से होती है कि दोनों स्*त्री-पुरुष के चित्*त इस तरह से मिल जायें। यह कुछ अचंभे की बात भी नहीं है। दिल तो वहॉं नहीं मिलता जहॉं मर्द पढ़ा हो, और स्*त्री बेपढ़ी। जब यह दोनों मिलते, एक-दूसरे को देख बड़े प्रसन्*न होते। इधर वह उसके मन की बात पूछती और अपनी कहती। इधर उसकू इस बात का बड़ा ही ध्*यान रहता कि कोई बात ऐसी न हो कि जिससे इसका मन दुखे। उसकी बेसलाह कोई काम न करता। उसके लिए एक नागरी का अखबार लिया। रात को उर्दू और अंग्रेजी अखबारों की खबरें उसे सुनाता और जब आप थक जाता उससे कहता लो अब तुम हमें अपने अखबार की खबरें सुनाओ। इस बात से इसको बड़ा ही आनन्*द होता।
उनका घर तो ऐसा ही था जैसा और बनियों का हुआ करता है। पर इसने अपना चौबारा सोने और उठने-बैठने को सजा रक्*खा था। चादर लग रही थी। कलई की जगह नीला रंग फिरवा रक्*खा था। बोरियों के फर्श पर दरी बिछा रक्*खी थी। तसबीर और फानूस भी लग रहे थे। दो कुर्सी बड़ी और दो कुर्सी छोटी जिनको आरामकुर्सी कहते हैं, एक तर्फ पड़ी हुई थीं। किताबों की एक आलमारी मेज के पास लगी हुई थी। दो पलंगों पर रेशम की डोरियों से चिही चादर खिंची हुई थी। अपना सादा कमरा अच्*छा बना रक्*खा था।
जो कोई बाहर की लुगाई आती, छोटेलाल की बहु अपना चौबारा दिखाने ले जाती। एक दिन अपनी जेठानी से बोली कि आओ जी, तुम भी आओ। उसने कहा अब ले मैं ना आती। और लुगाइयों ने कहा निगोड़ी अपने देवर का चौबारा देख ले ना। शर्मा-शर्मी उठी चली गयी। और चौबारे को देख अक्*क-धक्*क रह गयी।
इसकी अटारी में दो पुरानी-धुरानी खाट पड़ी हुई थीं। पिंडोल का पोता और गोबर का चौका भी न था। एक कोने में उपलों का ढेर। दूसरे में कुछ चीथड़े। और एक तर्फ नाज के मटके लग रहे थे।
इसका कारण यह था कि बिचारा दौलत राम तो निरा बनियॉं ही था। पढ़ा-लिखा कुछ था ही नहीं। आगे उसकी बहु गॉंव की बेटी थी और उसने देखा ही क्*या था? छोटेलाल की बहु की सी सुथराई और सफाई और कहॉं? आटा पीसना और गोबर पाथना इसकू खूब आवे था। वाये दिन भर लड़ा लो।

छोटेलाल की बहु सारे दिन कुछ न कुछ करती रहे थी। सबेरे उठते ही बुहारी देती। चौका-बासन करके दूध बिलोती। फिर न्*हा-धोके दो घड़ी भगवान का नाम लेती। रोटी चढ़ाती। जब लाला छोटेलाल रोटी खा के दफ्तर चले जाते, थोड़ी देर पीछे दौलतराम और उसका बाप दूकान से रोटी खाने को आते। जब वह खा लेता और सास-जिठानी भी खा चुकतीं तब सबसे पीछे आप रोटी खाती।
और जिस दिन दौलत राम की बहु रोटी करती, दाल में पानी बहुत डाल देती। और कभी नून जियादह कर देती और कभी डालना भूल जाती। गॉंव के सी मोटी-मोटी रोटियें करती। किसी को बहुत सेक देती और कोई कच्*ची रह जाती। इसलिये बेचारी देवरानी को दोनों वक्*त चूला फूँकना पड़े था।
रात को पूरी-परॉंवठा और तरकारी कर लिया करे थी। दो पहर को रोटी खाने से पीछे घण्*टा डेढ़ घण्*टा आराम करती। फिर सीना-पिरोना, मोजे बुनना, फुलकारी काढ़ना, टोपियों पै कलाबत्*तू की बेल लगाना आदि में जिस काम को जी चाहता, ले बैठती।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:33 PM
इस समय मुहल्*ले और बिरादरी की लौडियें दो घड़ी को इसके पास आ बैठा करे थीं। किसी को मोजे बुनना बतलाती, और किसी को लिखना-पढ़ना सिखलाती और आप भी अपना काम किये जाती।
जब कभी इस काम से मन उछटता तो अपनी पोथी में से सहेलियों और भनेलियों को कहानियॉं सुना-सुना कर कभी रुलाती और कभी हँसाती। और जब कभी ज्ञान-चर्चा छेड़ देती तो भगवत गीता के श्*लोक पढ़-पढ़ कर ऐसे सुन्*दर अर्थ करती कि सुनकर सब मोहित और चकित हो जातीं और जिस दिन एकादशी, जन्*माष्*टमी, रामनौमी वा और कोई तिथि-पर्वी होती और सीना पिरोना न होता तो उस दिन तुलसीदास और सूरदास के भजन गाती और विष्*णुपद सुनाती कि सब प्रसन्*न हो जातीं।
रात को जब सब व्*यालू कर चुकते यह अपने चौबारे में चली जाती और रात को दस बजे तक जहॉं-तहॉं की बातचीत करके हँसती और बोलती रहती।
सुखदेई के भानजे का बिवाह यहॉं मारवाड़े में हुआ था। हापुड़ से अपनी बहु को लेने आया। अगले दिन लाला सर्वसुख से दूकान पर मिलने गया। राजी खुशी कह के बोला कि मामी ने अपनी भावज को यह चिट्ठी दी है, घर पहुँचा देना।
लाला ने नौकर के हाथ घर चिट्ठी भेज दी। छोटेलाल की बहु ने पहले आप पढ़ी फिर सास को पढ़कर इस तरह सुना दी-

स्*वस्ति श्री सर्वोपमायोग्*य बहु आनंदीजी यहॉं से सुखदेई की राम राम बॉंचना। यहॉं क्षेम-कुशल है। तुम्*हारी क्षेम-कुशल सदा भली चाहिए। बहुत दिन हुए कि तुम्*हारी एक चिट्ठी आई थी। मैंने तो उसका जवाब लिख दिया था। फिर तुमने कोई चिट्ठी नहीं लिखी। यद्यपि वहॉं के आने-जाने वालों से राजी-खुशी की खबर मिलती रही तथापि चिट्ठी के आने से आधा मिलाप है। अब तो मुझे आये बहुत दिन हुए। तुम से मिलने को जी चाहे है। सो मॉं से कहना कि मुझे दो-चार महीने को बुला ले। यहॉं से मेरा जी उछट रहा है। लालाजी से मॉं पूछ देगी जो मेरी नथ बन गयी हो तो ज्ञानचंद मेरे भानजे के हाथ भेज देना और भाई की भोज प्रबंध की पोथी जो तुम्*हारे पास है थोड़े दिन के लिए भेज देना। जब मैं आऊँगी लेती आऊँगी। अब तो यहॉं भी एक लौंडियों का मदर्सा हो गया है। हमारी मिसरानी से हमारी पालागन कह देना और सब सहेलियों और भनेलियों से राम-राम कहना। चिट्ठी का जवाब जरूर-जरूर लिख भेजना। थोड़े लिखे को बहुत जानना। चिट्ठी लिखी मिती मार्गसिर बदी 1 सम्*बत् 1925 ।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:33 PM
सुखदेई की मॉं ने चिट्ठी सुनके कहा कि कल पॉंच सेर आटे के लड्डू कर लीजो। लौंडिया को कोथली भेजनी है और जो मैं कहूँ चिट्ठी में लिख दीजो सो सुखदेई को यह चिट्ठी लिखी गयी- स्*वस्ति श्री सर्वोपमायोग्*य बीबी सुखदेई जी यहॉं से आनन्*दी की राम-राम बॉंचना। चिट्ठी तुम्*हारी आई। समाचार लिखे सो जाने। तुम्*हारी मॉं जी ने लालाजी से तुम्*हारे बुलाने वास्*ते कहा था। सो उन्*होंने कहा है कि माघ के महीने में हम बाग की प्रतिष्*ठा करेंगे। तब लौंडिया सुखदेई को भी बुलावेंगे और मेरे सामने जेठ जी से कह दिया है कि भाई तु ही लौंडिया को जाके ले अइयो। और वह बाग लाला जी ने दिल्*ली के रास्*ते में लगाया है। उसमें कुऑं तो बन गया है, शिवाला बन रहा है। जिस सुनार को तुम्*हारी नथ बनने को दी थी, वह सोना लेके भाग गया। लाला जी कहें थे, दूसरे सुनार से और बनवा करके भेज देंगे। तुम्*हारी भनेली रामदेई मेरे पास रोज-रोज फुलकारी सीखने आया करे थी। बेचारी बड़ी गरीब थी। तुम्*हें नित याद कर ले थी। जिठानी जी के स्*वभाव को तुम जानो ही हो, एक दिन बेबास्*ते उससे लड़ पड़ी। तीन दिन से वह नहीं आई। दो घड़ी जी बहला रहे था सो यह भी न देख सकीं। फुलकारी का ओन्*ना जो मैं तुम्*हारे लिए अपने पीहर से लायी थी, भोज प्रबन्*ध की पोथी, पॉंच सेर लड्डू और आठ आने नकद तुम्*हारे भानजे के हाथ तुम्*हें भेजे हैं। रसीद भेज देना। तुम्*हारी मॉं ने तुम्*हें राम-राम कही है। मेरी राम-राम अपनी सासू और भनेलियों से कह देना। चिट्ठी लिखी मिति मार्गसिर सुदि 2 सम्*वत 1925।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:34 PM
यह चिट्ठी और चिट्ठी में लिखी हुई चीजें सुखदेई के भानजे के हाथ भेजी गयीं और जबानी भी कहलावत गई कि लाला बंसीधर से कह देना कि माघ के महीने में लौंडिया को लेने बहल आवेगी। ऐसा न हो कि उलटी फिरी आवे। एक चिट्ठी लिख भेजें। यहॉं दौलत राम की बहु बड़ी भोर उठके गौ की धार काढ़ती। गोबर पाथती। न्*हाती न धोती। चर्खा लेकर बैठ जाती और कभी-कभी दाल दलती नाज फटकती आटा छानती। दस-दस और बीस-बीस मन नाज दूकान से इखट्ठा आ जाय था। उसे अकेली बोरियों और कट्टों में भर देती। काम तो बहुतेरा करे थी। पर वैर-विषवाद बहुत रक्*खे थी।

और यह सास ने दोनों देवरानी जेठानियों को जैसा जिस जोग देखा काम बॉंट दिया था। पीसना-खोटना, चर्खापूनी ऐसी मेहनत के काम देवरानी से नहीं हो सके थे, इसलिये कि उसने बाप के घर किये नहीं थे। परंतु वह उससे दसगुने अच्*छे काम कलाबत्*तू और गोटा-किनारी के जाने थी। पीसने-खोटने में क्*या रक्*खा है। घड़ी भर पीसा, दो पैसा का हुआ। वह आठ आने रोज का कढ़ावट का काम कर ले थी।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:34 PM
जेठानी रोटी खा के फिर चर्खा ले बैठती। इस जैसी इसकी भी दो एक भनेलियॉं थीं। सो कोई न कोई इसके पास आ बैठी करे थी। यह उससे देवरानी का ही झींकना झींकती। सासू का खोट बतलाती कि मेरी सास बड़ी दोजगन है। छोटी बहु को जो कोई आधी बात कहे है तो लड़ने को उठे है। ससुर जी से मेरी रात दिन कटनी करे है। यों कहे है यह तो कच्*ची रोटी करे है। बहिन जिस पै जैसी आती होगी वैसी करेगी। और यह मेरी देवरानी बड़ी खोट और चुपचोट्टी है। मेरा देवर सत्*तर चीजें लावे है। दोनों खसम-जोरू खावे हैं। किसी को एक चीज़ नहीं दिखलाते। छडियों के मेले के दिन जरा सा मूँग का दाना मेरे बास्*ते लेके आई थी, सो मैंने तो फेर दिया। हमें तो जैसा मिल गया खा लिया। मेरी देवरानी छटॉंक भर पक्*का घी दाल में डाल के खावे है। इस प्रकार से नित चुगली करती और अपनी देवरानी को सुना-सुना चर्खा कातती जाती, ताने-मेहने और बोली-ठोली मारती जाती कि ले पीसे कोई और खावे कोई। कोई ऐसी लुगाई भी होती होगी और पीसना नहीं जानती होगी? यों कहो मेहनत नहीं होती।
देवरानी चुपकी सुना करती। कभी कुछ न कहती। एक दिन उसने इतना कहा था कि जेठानी जी, तुम्*हारा कैसा स्*वभाव है बाहर की लुगाइयों के सामने तो बोली-ठाली की बात मत कहा करो। इसमें घर की बदनामी है।
उसके पीछे ऐसी पॉंच पत्*थर लेकर पड़ी कि उसे पीछा छुड़ाना दुर्लभ हो गया।
और बोली अब चल तो तेरी जेठानी है उससे कह। छोटा मुँह और बड़ी बातें। आप मेरी बड़ी बनके बैठी है और जो कुछ मुँह में आया कहती रहीं।
वह बेचारी चुपकी होके चली आई।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:34 PM
सास ने कहा अरी तू उससे क्*यों बोली थी?
उसने कहा अयजी, मैंने तो उसके भले की बात कही थी।
सास ने कहा मैं क्*या कहूँ? हमारी वह कहावत है कि अपना मरण जगत की हांसी।
दौलत राम की बहु जहॉं तक होता अपने मालिक से रात को नित्*यप्रति सास और देवरानी की बुराई करती। तुम जानो, आदमी ही तो है और बेपढ़ा। रोज-रोज के सिखलाने और बहकाने से दौलतराम भी अपनी बहु की हिमायत करने लगा और मॉं से लड़ने लगा।
जब उसकी मॉं ने यह हाल देखा तो एक दिन उसके बाप से कहा और यह सलाह दी कि दौलत राम को जुदा कर दो। और मैं तो छोटी बहु में रहूँगी। तुम्*हारी तुम जानो।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:34 PM
ऊँच-नीच सोच के बड़ी देर में यह जवाब दिया कि अच्*छा तो मैं बड़ी बहु में रोटी खा लिया करूंगा। अपना सिर पकड़ कर बैठ गया और कहने लगा कि बिरादरी के लोग हॅसेंगे और ठट्ठे मारेंगे कि फलाने के घर लुगाइयों में लड़ाई हुई थी तो उसने अपने बड़े बेटे को जुदा कर दिया। देखो यह कैसी बहु आई इसने हमारी बात में बट्टा लगाया और घर तीन तेरह कर दिया।

घरवाली बोली अजी जब अपना ही पैसा खोटा हो परखन वाले को क्*या दोष है? जग तो आरसी है जैसा लोग देखेंगे वैसा कहेंगे।

सामने का दालान दौलत राम को दे दिया और सब तरह से जुदा-जोखा कर दिया। जो कोई चीज दुकान से आती दोनों घर आधी-आधी बट जाती।

जब यह खबर गुड़गॉंवें पहुँची कि लाला सर्वसुख के यहॉं औरतों में लड़ाई रहे थी सो उन्*होंने अपने बेटों को जुदा कर दिया है। सो तहसीलदार साहब ने अपनी बेटी को यह चिट्ठी लिखी-

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:34 PM
स्*वस्ति श्री सर्वोपमायोग्*य बीबी आनन्*दी जी यहॉं से राम प्रसाद आदि समस्*त बाल गोपाल की राम-राम बंचना। यहॉं क्षेम-कुशल है तुम्*हारी क्षेम-कुशल चाहते हैं। तुम्*हारी मॉं तुमको बहुत याद करे है। सो मैं तुमको बहुत जल्*दी ही बुलाऊँगा। तुम्*हारे छोटे भाई गंगाराम को मदर्से में बिठा दिया है और बड़े भाई राम प्रसाद को तुम्*हारे ताऊ के पास आगरे इस कारण भेज दिया है कि वहॉं कालिज में पढ़कर वकालत का इम्*तहान दे। तुम्*हारी छोटी बहिन भगवान देई एक महिने से मॉंदी है और जब ही से उसका लिखना-पढ़ना छूटा हुआ है। और तुम तो आप बुद्धिमान हो परन्*तु तौ भी जो पिता का धर्म है, दो चार बात लिखना आवश्*यक है। बेटी, जो मैं तुमसे उसी दिन प्रसन्*न हूँगा जब मैं यह सुनूँगा कि तुम्*हारी ससुराल वाले तुमसे प्रसन्*न हैं। तुम्*हारा लिखना-पढ़ना उसी दिन काम आवेगा जब तुम अपनी सास की आज्ञा में रहोगी। सास को माता के तुल्*य जानना। ननद और जेठानी को अपनी बहिनों से अधिक मानना। और यह मैं जानता हूँ कि सब लड़कियों को ससुराल में जाकर प्रथम कठिनता मालूम हुआ करती है और इसका कारण यह है कि बाप के घर तो कुछ और ही चाल-चलन होता है और ससुराल में जाकर नये-नये तौर देखती है। जी घबराया करता है। परन्*तु जो ज्ञानवान लड़कियें हैं घबराती नहीं सब काम किये जाती हैं। यह भी जानना उचित है कि मॉं-बाप का घर तो थोड़े ही दिन के लिए है। सारी अवस्*था ससुराल में ही काटनी है। अपने धर्म-कर्म पर चलना ईश्*वर को याद रखना। आए-गए का आदर सम्*मान करना, सबसे मीठा बोलना, संतोष से अपने कुटुम्*ब में गुजरान करना, आपको तुछ जानना, यह अच्*छे कुल की बेटियों के धर्म हैं। ज्ञान चालीसी की पोथी में तुमने पढ़ा है कि अच्*छों से सबको लाभ होता है। मेरा इस कहने से प्रयोजन यह है कि जो कोई स्*त्री तुम्*हारे कुटुम्*ब की तुमको सीने-पिरोने का काम दे, जो अवसर मिले तो उसे कर देना उचित है। देखो विद्यादान का शास्*त्र में कैसा महात्*मा लिखा है। अर्थात जो बातें तुमको आती हैं, औरों को भी सिखलाना चाहिए। चिट्ठी लिखी मिति पौष शुदि 6 संबत् 1925 ।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:35 PM
यह चिट्ठी छोटेलाल के खत में बंद होकर आई और उसने अपने घर में दे दी।
दौलत राम के जुदे होने से छह महीने पीछे एक लड़की हुई। इधर उसी दिन हापुड़ से चिट्ठी आई कि लाला सर्वसुख जी, अनन्*त चौदस के दिन चार घड़ी दिन चढ़े तुम्*हारे धेवती हुई है।
(उस समय लाला दुकान पर थे) चिट्ठी को पढ़ के लाला ने दौलत राम से कहा कि ले भाई लौंडियों ने घर घेर लिया। यह चिट्ठी अपनी मॉं को सुनाई आ।
दौलत रात की लड़की की छटी तो हो चुकी ही थी। दसूठन के दिन लाला भी घर ही थे और सारे कुटुम्*ब ने उस दिन दौलत राम ही के घर खाया था।
दोपहर को दुकान से एक पल्*लेदार चिट्ठी ले के आया और बोला कि लालाजी यह चिट्ठी तुम्*हारे नाम दिल्*ली से आई है। मुनीम जी ने खोली नहीं तुम्*हारे पास भेज दी है और एक आना महसूल का दिया है।
लाला ने चिट्ठी पढ़ के कहा कि पार्बती की बड़ी लौंडिया का वसन्*त पंचमी का बिवाह है। पंदरह दिन पहिले वह भात नौतने आवेगी सो अब भात का फिकर भी करना चाहिए।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:35 PM
घरवाली बोली कि सुखदेई को छूछक भेजना है। फिर ऐसी ही दो चार गृहस्*त की बातें करके कहा कि छोटेलाल के घर में भी लड़की-बाला होने वाला है। बहु के बाप को एक खत गिरवा देना कि वह साध भेज दे।
धौन भर पक्*के लड्डू, पॉंच तीयल बागे, पॉंच गहने, कुछ मूँग और चावल, एक रुपया नगद छूछक के नाम से नाई के हाथ हापुड़ भेज दिया।
जब पार्वती भात नौतने आयी तो अपनी देवरानी को साथ लायी। गुड़ की भेली देके बोली कि बिवाह में सबको आना होगा। लाला जी ने कहा बीबी, छोटेलाल की तो छुट्टी नही है। दौलतराम भात ले के आवेगा।
और बिवाह से एक दिन पहिले नाई ब्राह्मण को साथ ले दौलत राम भात ले के दिल्*ली में जा पहुँचा।
उस दिन सारी बिरादरी में बुलावा फिर गया कि आज भात लिया जायगा। 51 रुपये नगद, नथ, बिछुआ, छन, पछेली, सोने मूँगे की माला, पायजेब, सोने की हैकल, सोने का बाजू पचलड़ा और नौ नगे, पार्बती के सारे कुटुम्*ब को कपड़े 21 तीयल भरी-भरी, ग्*यारह बरतन, एक दोशाला और एक रुमाल आदि सबको दिखलाके पार्वती के ससुर के हवाले किये। और जब भात ले के डौढ़ी पर पहुँचे थे पार्वती दस-बीस तो स्त्रियों को साथ लिये गीत गाती हुई भाई का आर्ता करने आई थी।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:35 PM
वहॉं दौलत राम को जो कोई पूछता यह कौन साहब हैं वह कह देते कि यह भाती हैं।
इन दिनों छोटेलाल की बहु गर्म चीज न खाती। बहुत करके कोठे पै न जाती और न बोझ उठाती। जब किसी चीज को खाने को जी चाहता तो अपनी सास वा और किसी बड़ी-बढ़ी से पूछ के मँगा लेती। ऐसी-वैसी चीज न खाती। खट्टी चीज को बहुत जी चाहा करे था सो कभी-कभी नीबू का आचार वा कैरी खा ले थी।
जेठ शुदि 3 जुमेरात के दिन छोटेलाल के घर लड़के का जन्*म हुआ। बड़ी खुशी हुई नक्*कारखाना रखा गया। जन्*म पत्री लिखी गई बिरादरी बालों को एक-एक पान का बीड़ा दिया।
वह उठ खड़े हुए और बोले, लाला सर्वसुखजी मुबारिक।
उन्*होंने उत्*तर दिया कि साहब आपको भी मुबारिक।
बाहर जो नाई ब्राह्मण घिर गये थे उन सबको पैसा-पैसा बॉंट दिया। दाई को एक रुपया दिया, वह पॉंच रुपये मॉंगती रही।
जच्*चा के खाने को गूँद की पँजीरी हुई। अब जो भाई बिरादरी और नाते-रिश्*ते में से औरतें आतीं लौंडे की दादी का मुबा*रिक वा बधाई कहके बैठ जातीं।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:35 PM
वह कहती जी, भगवान ने दिया तो है, अब इस्*की उमर लगावे और लहना सहना हो।
नातेदारों और प्*यार-मुलाहजे वालों के यहॉं से कुर्त्*ता, टोपी, हँसली, कडूले आने लगे। धी-ध्*यानों के यहॉं से जो आये थे उनमें से किसी को फेर दिया और किसी का रख लिया और दो-दो चार-चार रुपये जैसा नाता देखा उन पर रख दिये।
तहसीलदार के यहॉं से भी छूछक अच्*छा आया। सारी बिरादरी में वहा-वाह हो गई।
जिनके स्*वभाव खोटे पड़ जा हैं फिर सुधरने कठिन पड़ जा हैं। यह कुछ तो खुशी हुई पर जेठानी एक दिन को भी आ के न खड़ी हुई। छठी और दसूठन के दिन चर्खा ले के बैठी और जिस दिन देवरानी चालीस दिन का न्*हान न्*हा के उठी तो उस बिरियॉं नाक में बत्*ती दे के छींका और सास और देवरानी को सुना-सुना यह कहती कि जिनके नसीब खोटे हैं उनके बेटी हो हैं और जिनके नसीब अच्*छे हैं उनके बेटे हो हैं।
एक दिन सास तो लड़ने को उठी भी पर बहु ने समझा लिया कि जो किसी के कहने सुनने से क्*या हो है? हमारा भगवान भला चाहिए।
जिस दिन हीजड़े नाचने आये लुगाइयों को दिखलाने को पैसा बेल का दे गई।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:35 PM
छोटे लाल ने लौंडे को खिलाने को एक टहलवी रख दी और उससे यह कह दिया कि बच्*चे को राजी राखियो।
लाला ने चार रुपये का घी और एक रुपये की खॉंड़ दूकान से भेज दी। और जब रात को घर आए घरवाली से कह दिया कि घी को ता के रख छोड़यो और बहु की खिछड़ी वा दाल में डाल दिया करियो। खॉंड़ के लड्डू बना लीजो। बहु का शरीर निर्बल हो गया है, इसमें ताकत आ जायगी और बच्*चा दूध से भूखा नहीं रहेगा और बहु से कह दीजों कि ऐसी-वैसी चीज न खाये जिससे बच्*चे को दु:ख हो।
वह आप चतुर थी। दोनों वक्*त बँधा खाना खाती। लाल मिर्च, गुड़, शक्*कर, सीताफल की तरकारी, तेल का अचार, खीरे और अमरूद आदि से परहेज करती। पर होनी क्*या करे? जब लड़का छह महीने का था, एक दिन सिर से न्*हाई थी। भीगे बालों बच्*चे को दूध पिला दिया। सर्दी से उसे खॉंसी का ठसका हो गया। अगले दिन करवा चौथ थी। बर्ती रही और पूरी कचौरी खाने में आई। लौंडे को सॉंस होई आया। बड़ा फिकर हुआ। सास उठावने उठाने लगी और बोल कबूल करने लगी। धन्*ना की मॉं पनिहारी को ननवा चमार को बुलाने भेजा। उसने आते ही झाड़ दिया और अपने पास से लौंडे को गोली खिला दी।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:36 PM
गोली के खाते ही बीमारी और बढ़ गई और लौंडे का हाल बेहाल हो गया। इतने में लाला दुकान से भागे आए। छोटेलाल घर ही था। दोनों की सलाह हुई कि हकीम को दिखलाओ और सारा हाल कह दो। हकीम जी ने कहा कि घबराओ मत, उस पाजी ने जमाल गोटे की गोली दे दी है और वह पच गई है। मैं यह दवा देता हूँ बच्*चे की मॉं के दूध में देना। इससे चार पॉंच दस्*त हो जायेंगे, आराम पड़ जायगा और वैसा ही हुआ।
लाला घर में बड़े गुस्*सा हुए कि अब तो भगवान ने दया की, कोई स्*याना-वाना घर में नहीं बड़ने पावे। यह निर्दयी इसी तरह से बच्*चों को मार डालते है और कुछ नहीं जानते। और बहु से कह दीजो कि फिर भीगे बालों दूध न पिलावे। और भला वह तो बालक है, उसने देखा ही क्*या है? तू तो बड़ी-बूढ़ी थी। पहिले से क्*यों नहीं समझा दिया था?
वह चुप हो रही।
दौलत राम की बहु सब कुछ खाती-पीती रहे थी। जब सास वा ससुर उसके भले की बात कहते, उसका उलटा करती। लौंडिया भी उसकी सूख के कॉंटा हो रही थी और आप भी नित मॉंदी रहे थी।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:36 PM
एक समय गर्मी के दिन थे। दो-तीन धुऍं में रोटी की। दोनों मॉं बेटियों की ऑंखें दुखने आ गयीं। परहेज किया नहीं और बीमारी बढ़ गई। किसी ने बहका दिया कि तुम्*हारी ऑंखें घर के देवता ने पकड़ी हैं। उस दिन से दवाई भी डालनी छोड़ दी। बेचारे दौलत राम को आप चूला फूँकना पड़ा।

Gaurav Soni
24-09-2011, 06:37 PM
इसी के साथ भाग 1 समाप्त हुआ
आगे भाग के लिए इंतजार करे

anoop
24-09-2011, 08:36 PM
आपको शायद सब पृष्ठों को टाईप करना पड़ रहा है, अगर आपके पास स्कैन की गई पेज भी हैं तो उसे हीं पोस्ट कर दीजिए।

Gaurav Soni
24-09-2011, 09:05 PM
नहीं मित्र मेरे पास कोई भी इमेज नहीं हे मे टाइप कर रहा हु आप जब तक ये भाग पढे तब तक मे दूसरा भाग लिखता हु