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View Full Version : कुछ यहां वहां से ...


malethia
08-10-2011, 03:44 PM
दोस्तों हम अखबारों में नित नये ब्लॉग देखते है जो वर्तमान हालात पर कटाक्ष होता है,और हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है ,मैं यहाँ पर कुछ ऐसे ही प्रमुख अखबारों के प्रमुख ब्लोगर के ब्लॉग पोस्ट करूँगा क्यूंकि मैं तो वैसे भी कॉपी पेस्ट का मास्टर हूँ,पर चिंता ना करें,मैं सभी ब्लॉग लेखक के नाम सहित प्रकाशित करूँगा !ताकि कम से कम मुझ पर चोरी का इलज़ाम तो ना लगे,बाकी सब आप जानते ही है !
अन्य अच्छा लिखने वालों की टिप्पणी ही उठा कर यहाँ नकल-चिप्पी तकनीक से जड़ देता हूँ। जो पढ़े उसका भला, और जो न पढ़े उसका कभी न सोचो भला!.......:giggle::giggle:

malethia
08-10-2011, 03:48 PM
"क्या हुआ?….आते ही ना राम-राम..ना हैलो-हाय...बस..बैग पटका सीधा सोफे पे और तुरन्त जा गिरे पलंग पे...धम्म से...कम से कम हाथ मुँह तो धो लो".....
"अभी नहीं...थोड़ी देर में"..
"चाय बनाऊँ?"...
"नहीं!...मूड नहीं है".. .
"क्या हुआ तुम्हारे मूड को?...जब से आए हो..कुछ परेशान से...थके-थके से...लग रहे हो"..
"बस ऐसे ही"...
"फिर भी..पता तो चले"... .
"कहा ना...कुछ नहीं हुआ है"...
"ना..मैँ नहीं मान सकती...आप जैसा मस्तमौला इनसान इस तरह गुमसुम हो के चुपचाप बैठ जाए तो..कुछ ना कुछ गड़बड़ तो ज़रूर है...
"क्यों बेफिजूल में बहस किए जा रही हो?...एक बार कह तो दिया कि कुछ नहीं हुआ है"मैँ गुस्से से बोल उठा..
"हुँह!...एक तो तुम्हारी फिक्र करो और ऊपर से तुम्हारा गुस्सा भी सहो....नहीं बताना है तो ना बताओ...तुम्हारी मर्ज़ी"...
"ये तो तुम कुछ परेशान से...बुझे-बुझे से दिखे तो पूछ लिया...वर्ना मुझे कोई शौक नहीं है कि बेफाल्तू के चक्करों में माथापच्ची करती फिरूँ"..
"एक तुम हो जो सारी बातें गोल कर जाते हो और एक अपने पड़ोसी शर्मा जी हैँ कि आते ही...पानी बाद में पीते हैँ...अपनी राम कहानी पहले बतियाते हैँ"...
"तुम्हें?"..
"मुझे भला क्यों बताने लगे?...अपनी घरवाली को बताते हैँ"...
"ओह!...फिर ठीक है"मेरे चेहरे पे इत्मिनान था
"कल ही तो देखा था उसे पड़ोस वाले कैमिस्ट की दुकान से दवाई लेते हुए"...
"तो?"...
"पेट कमज़ोर है स्साले का...दस्त लगे रहते हैँ हमेशा...तभी तो कोई बात पचा नहीं सकता"...
"और तुम?..तुम तो सारी की सारी बात ही गोल कर जाते हो...कुछ बताते ही नहीं"..
"सुनो"मैं उसे अनसुना कर अपनी ही धुन में बोला...
"क्या?"...
"ज़रा कम्प्यूटर ऑन कर के नैट तो चलाना"...
"उफ...तौबा!...आप और...आप का कम्प्यूटर….शाम होते ही इंतज़ार रहता है कि कब जनाब आएँ और कब कड़क चाय की प्याली के साथ दो-चार प्यार भरी बातें हों"...
"कुछ मैँ इधर की कहूँ..कुछ आप उधर का हाल सुनाओ लेकिन आप हैँ कि..आते ही कम्प्यूटर ऑन करने को कह रहे हैँ....कम्प्यूटर ना हुआ..मेरी सौत हो गया"...
"इस मुय्ये कम्प्यूटर से तो अच्छा था कि तुम मेरी सौत ही ला के घर पे बिठा देते तो बढिया रहता"...
"वो कैसे?"...
"कम से कम लड़-झगड़ के ही सही...टाईम तो पास हो जाया करता मेरा"...
"ओह!....
"यहाँ तो बस चुपचाप टुकुर-टुकुर ताकते रहो जनाब को कम्प्यूटर पे उँगलियाँ टकटकाते हुए...और तो जैसे कोई काम ही नहीं है मुझे"..
"अरे यार!..राखी सावंत का नया आईटम नम्बर आया है ना"...
"कौन सा?"...
"जो सबको क्रेज़ी किए जा रहा है"...
"तो?":...
"उसी का विडियो डाउनलोड करना है"...
"किसलिए?"...
"रिंकू ने मंगवाया है"..
"सब पता है मुझे कि रिंकू ने मंगवाया है या फिर पिंकू ने मंगवाया है"...
"अरे यार!...तुम तो खामख्वाह शक करती हो...सच में..उसी ने मंगवाया है"...
"कम से कम झूठ तो ऐसा बोलो कि पकड़ में ना आए..क्यों अपने कमियों को छुपाने के लिए दूसरे का नाम ले ...उसे बदनाम करते हो?"...
"क्या मतलब?"...

(क्रमश:)

malethia
08-10-2011, 04:34 PM
"कई बार तो देख चुकी हूँ कि खुद तुम्हारा मोबाईल उस कलमुँही की अधनंगी तस्वीरों और विडियोज़ से भरा पड़ा है "..
"पता नहीं ऐसा क्या धरा है इस मुय्यी राखी की बच्ची में कि बच्चे...बूढे सब उसी पे लट्टू हुए जा रहे हैँ?....मेरा बस चले तो अभी के अभी कच्चा चबा जाऊँ"...
"अरे!..तुम्हें क्या पता कि क्या गज़ब की आईटम है ...आईटम क्या पूरी बम्ब है बम्ब"....
"उसका फिगर...उसकी सैक्स अपील...वल्लाह...क्या कहने?"मैँ मन ही मन बुदबुदाया..
"अरे!..सब का सब नकली माल है...उसका असली ...बिना मेकअप पुता चौखटा देख लो तो कभी फटकोगे भी नहीं उसके पास"बीवी ने मानो मेरे मन की बात भांप ली थी....
मैं कुछ कहने ही वाला था कि ट्रिंग..ट्रिंग...की सुरीली ताने के साथ फोन घनघना उठा .....
"सुनो!...अगर कोई मेरे बारे में पूछे तो कह देना कि अभी आए नहीं हैँ"...
"क्यों?...क्या हुआ?...बात क्यों नहीं करना चाहते?"..
"कहा ना"...
"क्या?"..
"यही कि...कोई मेरे बारे में पूछे तो साफ मना कर देना"...
"हुँह!....खुद तो पहले से ही सौ झूठ बोलते हैँ और अब मुझसे भी बुलवा रहे हैँ"..
"समझा कर यार"मैँ रिकवैस्ट भरी नज़रों से देखता हुआ बोला....
"क्या समझूँ?"...
"प्लीज़"..
"ठीक है!...इस बार तो बोले देती हूँ लेकिन अगली बार नहीं "...
"ठीक है...अभी की मुसीबत तो निबटाओ...बाद की बाद में देखेंगे"...
"हैलो.."..
"नमस्ते.."...
"जी.."..
"जी.."...
"अभी तो आए नहीं हैँ...हाँ!..आते ही मैसैज दे दूंगी
"ओ.के....बाय...ब्ब बॉय"...
"कौन था?"...
"वही..तुम्हारी माशूका...'कम्मो'....और कौन?"...
"तो फिर दिया क्यों नहीं फोन?"...
"तुमने खुद ही तो मना किया था"...
"इसके लिए थोड़े ही किया था"...
"और किसके लिए किया था?"...
"व्वो...वो तो ...दरअसल .....
"याद करो...तुमने ही कहा था कि जो कोई भी हो...साफ मना कर देना"...
"तुमसे तो बहस करना ही बेकार है..अपने आप दिमाग नहीं लगा सकती थी क्या?"..
"गल्तियाँ तुम करो और उन्हें भुगताऊँ मैँ?"...
"ओ.के बाबा!...मेरी ही गलती है...तुम्हें साफ़-साफ़ नहीं बताया ....तुम सही...मैँ गलत"....
"अब ठीक?"...
"हम्म!......
"और तुम्हें पिछली बार भी समझाया था कि 'कम्मो' मेरी माशूका नहीं....बल्कि बहन है"...
"सब पता है मुझे कि कौन?..किसकी?...कैसी बहन है?...और...कौन?...किसका?...कैसा भाई है?"...
"क्या मतलब?...मतलब क्या है तुम्हारा?"मैँ आगबबूला हो उठा...
"सब जानते हो तुम कि मेरे कहने का क्या मतलब है"..
"ट्रिंग..ट्रिंग... ट्रिंग..ट्रिंग" तभी ट्रिंग..ट्रिंग करता फोन फिर से चिंघाड़ उठा
"जो कोई भी मेरे बारे में पूछे ...साफ इनकार कर देना"...
"नहीं...बिलकुल नहीं"..
"पक्का..इस बार उसी का होगा"मैँ बड़बड़ाता हुआ बोला...



cont.........

sagar -
08-10-2011, 06:39 PM
जल्दी जल्दी लिखो म्लेथिया जी

malethia
08-10-2011, 06:58 PM
जल्दी जल्दी लिखो म्लेथिया जी
बस अभी परोसता हूँ................

malethia
08-10-2011, 07:41 PM
"नहीं...बिलकुल नहीं"..
"पक्का..इस बार उसी का होगा"मैँ बड़बड़ाता हुआ बोला...
"किसका?"...
"प्लीज़...मुझे फोन मत देना"..
"तुम्हें मेरी कसम"...
"हुँह..."इतना कह बीवी फोन की तरफ बढ गई...
"हैलो"...
"कौन?"....
"ओह!...नॉट अगेन"कहते हुए बीवी ने फोन क्रैडिल पर रख दिया...
"किसका फोन था?"...
"पता नहीं...ऐसे ही कोई पागल है...बार-बार फोन कर के तंग करता है"...
"कहता क्या है?"...
"कुछ नहीं"...
"मतलब?"...
"बस ऐसे ही ...ऊटपटांग बकता रहता है "...
"क्या?"...
"कुछ भी उल्टा-पुल्टा"...
"ज़रूर तुम्हारा कोई आशिक होगा"...
"मेरा?"...
"और नहीं तो मेरा?"..
"रहने दो...रहने दो...ये वेल्ला शौक मैँने नहीं पाला हुआ है"...
"तुमने नहीं पाला तो क्या?...उसने तो पाला हुआ है ना जो तुम्हें बारंबार फोन करता है"...
"मुझे क्या पता?...कहीं से नम्बर मिल गया होगा"...
"पता नहीं लोगों को क्या मिल जाता है ऐसे ही बेकार में फ़ालतू का वक्त बर्बाद कर के"...
"अच्छा...अब ये बताओ कि तुम फोन उठाने से कतरा क्यों रहे थे?"...
"बस ऐसे ही"...
"फिर भी ..पता तो चले"...
"अरे!...वो स्साला...'घंटेश्वरनाथ बल्लमधारी' नाक में दम किए बैठा है"..
"ओह!..तो उसी के डर से फोन स्विच ऑफ किए बैठे हैँ जनाब?"बीवी पलंग से फोन उठा मुझे दिखाती हुई बोली....
"यही समझ लो"...
"तुम तो ऐसे ही बेकार में हर किसी ऐरे-गैरे...नत्थू खैरे से डरते रहते हो"...
"अरे!..वो कोई ऐरा-गैरा नहीं है बल्कि एक माना हुआ नामी-गिरामी साहित्यकार है"...
"तो तुम क्या चिड़ीमार हो?...तुम भी तो एक उभरते हुए व्यंग्यकार ही हो ना?"...
"अरे!...वो पुराना चावल अंदर तक घिस-घिस के संवर चुका है इस साहित्य की लाईन में और मैँ अभी नया खिलाड़ी हूँ"...
"लेकिन अब तो तुम्हारा भी थोड़ा-बहुत नाम हो चला है"...
"हाँ!...हो तो चला है"...
"सो!..कमी किस बात की है?"...
"माना कि नाम हो चुका है लेकिन सिर्फ ब्लागजगत की दुनिया में"...
"तो क्या हुआ?...क्या कमी है तुम्हारी आभासी दुनिया में?...इस ब्लॉगिंग की वजह से ही तुमने लिखना शुरू किया और इसी वजह से तुम में हौंसला आया कि अपने लिखे को अखबारों वगैरा में भेज के देखा जाए"
"हम्म....
"नतीजा तुमहरे सामने है...तुमने आठ रचनाएँ भेजी नवभारत टाईम्स वालों को और उन्होंने बिना किसी कट के आठों की आठों ही अप्रूव कर छाप दी"..
"हम्म...
"अब तो खुद मेल भेज-भेज के दूसरी साईट वाले भी इंवाईट करते हैँ तुम्हें लिखने के लिए"..
"बात तो तुम्हारी ठीक है लेकिन नैट पे लिखना और बात है और किताबों और अखबारों में छपना-छपाना और बात है"...



cont.......

ndhebar
08-10-2011, 11:49 PM
अपन को क्या मतलब आप कहीं से भी उठा कर लाये हों, अपन लोग को तो पढ़ने से काम है
बस माल चोखा होना चाहिए जो की ये है

malethia
09-10-2011, 10:42 AM
अपन को क्या मतलब आप कहीं से भी उठा कर लाये हों, अपन लोग को तो पढ़ने से काम है
बस माल चोखा होना चाहिए जो की ये है
धन्यवाद निशांत जी ,आपको पसंद आ गया मतलब अपना चोरी का माल अच्छे भाव में बिक गया......

malethia
09-10-2011, 10:44 AM
"लेकिन मैँने तो सुना है कि ब्लॉगिग भी साहित्य की ही एक नई विधा है और उससे कहीं बेहतर है"...
"बात तो तुम्हारी सोलह ऑने सही है...यहाँ राईटर से लेकर पब्लिशर तक...हम अपनी मर्ज़ी के मालिक खुद जो होते हैँ"..
"हम्म!...
"यहाँ हम किसी सम्पादक या पब्लिशर की दया के मोहताज नहीं होते क्योंकि यहाँ कोई हमारी रचनाओं को खेद सहित नहीं लौटाता है"...
"और एक खूबी ये भी तो है कि हमें अपने लिखे पर कमेंट भी तुरंत ही मिलने शुरू हो जाते हैँ"..
"बिलकुल!...यहाँ लिखते के साथ ही पता चलना शुरू हो जाता है कि हमने सही लिखा या फिर गलत"..
"इन्हीं सब खूबियों की वजह से ब्लॉगिंग साहित्य से बेहतर है ना?"...
"लेकिन कईयों के हिसाब ये ये खूबियाँ नहीं बल्कि कमियाँ हैँ"....
"ये सब उन्हीं नामचीनों के द्वारा फैलाया गया प्रापोगैंडा होगा जिन्हें तुम ब्लॉगरो के चलते अपनी कुर्सी खतरे में नज़र आ रही होगी"...
"मैँने अभी हाल ही में कहीं पढा था कि 'बी.बी.सी' के किसी बड़े अफसर ने कहा है कि...
"हमें टीवी...अखबार...मैग्ज़ीनज़ के अलावा हर उस व्यक्ति से खतरा है जिसके पास एक अदद कम्प्यूटर और नैट का कनैक्शन है"..
"बिलकुल सही कहा है...तुम्हें पता है कि कई बार मीडिया की सुर्खियों में आने से भी बहुत पहले कुछ खबरें ब्लॉगजगत में धूम मचा रही होती है"..
"जैसे?"..
"ये 'मोनिका लैवैंसकी' और 'बिल क्लिंटन' वाला काण्ड भी सबसे पहले नैट पे ही उजागर हुआ था"...
"अच्छा?"..
"और ये समाजवादी पार्टी से अमर सिंह के इस्तीफ़े की खबर भी मीडिया वालों को सबसे पहले उनके ब्लॉग से ही मिली थी"...
"ओह!...क्या ये सही है कि आजकल चीन के दमन के चलते तिब्बत से आने वाली लगभग हर खबर का जरिया ब्लाग और इंटरनैट ही है?"...
"बिलकुल!... बाहरले मीडिया को जो खबरों के कवरेज की इज़ाज़त नहीं है"...
"और वहाँ का लोकल मीडिया तो सारी खबरें सैंसर होने के बाद ही दे रहा होगा?"..
"यकीनन"...
"आज हर बड़ी से बड़ी हस्ती का अपना ब्लॉग है..चाहे वो 'आमिर खान' हो या फिर 'अमिताभ बच्चन और उनकी भी यहाँ वही अहमियत है जो मेरी है या फिर किसी भी अन्य ब्लॉगर की"..
"ओह!..
"सीधी बात है कि जिसकी लेखनी में दम होगा...जिसका लिखा रुचिकर होगा उसी के पास रीडर खिंचे चले आएँगे"..
"आमिर खान का तो मैँने सुना था लेकिन ये 'बच्चन साहब' को ब्लॉग बनाने की क्या सूझी?"...
"अरे यार!..मीडिया में बहुत कुछ अंट-संट बका जा रहा था ना उनके खिलाफ"..
"तो?"...
"उसी चक्कर में अपना पक्ष रखने के लिए कोई ना कोई माध्यम तो चुनना ही था उन्हें...तो ऐसे में ब्ळॉग से बेहतर और भला क्या होता?"...
"हम्म!..
"पता है...उनकी एक-एक पोस्ट के लिए पाँच-पाँच सौ से भी ज़्यादा टिप्पणियाँ आ रही हैँ?"...
"अरे वाह!...तो इसका मतलब कि यहाँ भी आते ही धूम मचा दी उन्होने"..
"बिलकुल!..लेकिन एक कमी खल रही है उनके ब्ळॉग में मुझे"...
"क्या?"...
"हिन्दी भाषी होने के बावजूद....हिन्दी फिल्मों की बदौलत नाम..काम...शोहरत और पैसा पाने के बावजूद...उन्होंने अपना ब्लॉग अंग्रेज़ी में बनाया"...
"ओह!... ये 'बिग बी' का खिताब भी तो उन्हें हिन्दी फिल्मों की बदौलत ही मिला

cont...........

abhisays
09-10-2011, 06:36 PM
आगे क्या हुआ मलेठिया जी.

malethia
09-10-2011, 06:43 PM
आगे क्या हुआ मलेठिया जी.
आगे भी बताते है ,थोड़ी थोड़ी खुराक मिलती रहेगी...............:giggle::giggle:

malethia
09-10-2011, 06:45 PM
है ना?"...
"हाँ"...
"अंग्रेज़ी में ब्लॉग बनाने के पीछे...ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाने की मंशा रही होगी उनकी"...
"लगता तो यही है"...
"वैसे अभी तुम्हारे हिन्दी के ब्लॉग हैँ ही कितने?"..
"आठ"...
"बस!...आठ?"...
"और नहीं तो क्या साठ?"...
"क्या मतलब?...सिर्फ आठ ब्लाग ही बने हैं हिन्दी के अभी तक?"...
"हाँ!..आठ तो मेरे अपने...खुद के हैं"...
"ओह!...लेकिन मैं सभी के मिला के पूछ रही थी कि कुल कितने ब्लॉग होंगे हिन्दी के?"...
"सभी के मिला के तो लगभग 15000 के आस-पास होंगे"...
"इन पंद्रह हज़ार में से रोज़ाना कितने सक्रिय होते होंगे?"....
"मुश्किल से एक या दो फीसदी"...
"तो तुम ये डेढ़-दो सौ ब्लागरों के दम पे हिन्दी का उद्धार करने चले हो?"..
"तो क्या हुआ?..बूँद-बूँद से घड़ा भरता है ...आज डेढ़-दो सौ ब्लागर सक्रिय हैं तो कल को डेढ़-दो हज़ार तो और आने वाले समय में डेढ़-दो करोड़ भी होंगे"...
"हमारा भविष्य उज्जवल है...बहुत उज्जवल"..
"बड़े लोगों के इस ब्लॉगिरी की लाईन में कूदने से एक फायदा तो हुआ है"...
"क्या?"...
"यही कि कुछ साल पहले जिन सैलीब्रिटीज़ से रूबरू मिलने...उनसे बात करने की हम कभी सपने में भी सोच भी नहीं सकते थे..आज हम उनके ब्ळॉग पे कमैंट कर डाईरैक्ट अपने दिल की बात कह सकते हैँ"..
"हाँ!..ये बात तो है"..
"खैर!...उनकी छोड़ो...वो सब तो पहले से ही जाने-माने लोग हैँ...उनसे क्या मुकाबला?...तुम इस 'घंटेश्वरनाथ' की बात करो...ये तो आम आदमी ही है ना?"..
"अरे!...इसका भी बड़ा नाम है आजकल...चाहे कोई 'कवि सम्मेलन' हो या फिर कोई 'मुशायरा'...या फिर हो किसी नए पुराने लिक्खाड़ की किताब का विमोचन..हर जगह उसी को पूछा जाता है...उसी को बारंबार मान-सम्मान दे पूजा जाता है"...
"अरे!..मान-सम्मान दिया नहीं जाता बल्कि वो खुद ही सब कुछ अपने फेवर में मैनुप्लेट करके अपना जुगाड़ बना लेता है"..
"रोज़ाना अखबारों...पत्रिकाओं...मैग्ज़ीनों ...पर्चों वगैरा में उसका कोई ना कोई लेख छपता रहता है"...
"तो क्या?...उन्हीं में यदा-कदा तुम्हारी कहानियाँ भी तो छपती ही हैँ ना?"...
"अरे!..उसे तो लिखने के पैसे मिलते हैँ और मेरा माल मुफ्त में ही हड़प लिया जाता है"...
"अफसोस तो इसी बात का है कि..जहाँ एक तरफ उसे मंच पे खाली बैठे-बैठे पान चबा...जुगाली करने के नाम पे बड़ा लिफाफा थमा दिया जाता है...वहीं दूसरी तरफ तुमसे फोकट में कविता पाठ से लेकर मंच संचालन तक करा लिया जाता है"..
"मैँ तो यही सोच के खुद को तसल्ली का झुनझुन्ना थमा देता हूँ कि चलो कम से कम इसी बहाने मेरे काम की चर्चा तो होती है"...
"लेकिन ऐसी फोकट की चर्चा से फायदा क्या कि चाय भी अपने पल्ले से पीनी और पिलानी पड़े?"...
"ऊपरवाले के घर देर है पर अंधेर नहीं...कभी तो नोटिस में लिया जाएगा मेरा काम"मेरा हताश स्वर...
"मुझे तो लगता है कि शर्म के मारे तुम खुद ही कुछ नहीं मांगते होगे"...
"बात तो यार...तुम्हारी कुछ-कुछ सही ही है"..
"अरे!...बिना रोए कभी माँ ने भी बच्चे को दूध पिलाया है?...जो लोग खुद ही तुम्हें पैसे देने लगे?...हक बनता है तुम्हारा...बेधड़क हो के माँग लिया करो"...
"हम्म!..


cont...................

malethia
09-10-2011, 06:46 PM
"काम कर के देते हो...कोई मुफ्त में ख़ैरात नहीं माँगते...इसमें शर्म काहे की?"...
"यार!...कभी-कभार हिम्मत कर के पैसे मांगने की जुर्रत कर भी लो तो 'घंटेश्वरनाथ' का यही टका सा जवाब मिलता है कि...
"शुक्र करो!...हमारी बदौलत मीडिया की सुर्खियों में तो छाए हुए हो कम से कम...वरना कोई पूछता भी नहीं तुम्हें"..
"अब अगर कहीं कोई प्रोग्राम हो तो मुझे ज़रूर ले चलना"..
"तुम क्या करोगी?"...
"उसी से पूछूँगी कि ऐसी फोक्की सुर्खियों को क्या नमक बुरका के चाटें हम?"...
"छोड़ो ना...कभी तो अपने दिन भी फिरेंगे"...
"हुंह!...कभी तो दिन फिरेंगे"..बीवी मुँह बनाती हुई बोली
"बस!...इस बात की तसल्ली है मुझे कि इसी बहाने से ही सही...मेरी अपनी...खुद की फैन फालोइंग तो बन गई है"...
"और नहीं तो क्या?...उसके जैसे चमचों के बल पे इकट्ठा की हुई भीड़ के दम पे नहीं कूदते हो तुम"...
"हाँ!..ये बात तो सच है"...
"बस!..अब से तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं है उससे डरने-वरने की"...
"हम्म!...
"ज़्यादा चूँ-चाँ करे तो उसी के खिलाफ खुल्लमखुल्ला मोर्चा खोल देना"....
"अरे यार!...कैसे विरोध करूँ उसका?..गुरू है वो मेरा"...
"गुरू गया तेल लेने...ऐसी कोई अनोखी दीक्षा नहीं दी है उसने तुम्हें जो तुम पूरी ज़िन्दगी गुरूदक्षिणा ही देते रहो"...
"तुम में जन्मजात गुण था लिखने का...माँ जी बता रहती थी कि बचपन से ही पन्ने काले करते रहते थे"...
"वो सब बात तो ठीक है लेकिन मंच पे कविता पढ़ने का पहला चाँस तो उसी की बदोलत ही मिला था ना?"..
"हुँह!...चाँस मिला था... अपनी ही गर्ज़ को तुम्हें बुलवा लिया था..ऐन टाईम पे उसका विश्वसनीय प्यादा जो बिमार पड़ गया था"..
"सो!...महफिल में रंग जमाने...तुम्हें स्टैपनी बना...तुम्हारा सहारा लिया था उसने"..
"हाँ!...ये बात तो है...मजबूरी थी उसकी....आयोजकों से मोटी रकम जो एडवांस में पकड़ चुका था"...
"तुम जैसे नए रंग-रूटों को मोहरा बना अपना उल्लू सीधा करता है वो"..
"हम्म!...
"कोई ज़रूरत नहीं है फालतू में उसके चक्करों में पड़ने की...अपना मस्त हो के काम करो...एक न एक दिन तुम्हें अपनी करनी का फल ज़रूर मिलेगा"...
"करनी का फल मिलेगा?...मैं कुछ गलत कर रहा हूँ क्या?"...
"नहीं!..मेरा मतलब था कि तुम्हें अपने द्वारा किए गए काम का प्रतिफल ज़रूर मिलेगा"...
"ओह!..मैं तो डर ही गया था"...
"कई बार तो इतना गुस्सा आता है उस पर कि मार के घूँसा उसके सभी के सभी दाँत तोड़ दूँ"...
"नहीं!...ऐसा गजब बिल्कुल नहीं करना"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"बिना दाँतो के वो तो एकदम विलायती बंदर जैसा दिखेगा"...
"तो?...तुम्हें इसमें क्या एतराज़ है?"...
"नहीं!..मैं नहीं चाहती कि हमारे किसी भी कृत्य से उसकी मशहूरी हो...प्रसिद्धि हो"..
"ओह!..तुम कहती हो तो मैं अपना आइडिया ड्रॉप कर देता हूँ...मुल्तवी कर देता हूँ"...
"ओ.के!...लेकिन उसके प्रति तुम्हारे दिल में जो नफरत का सैलाब उमड़ रहा है उसे शांत नहीं होने देना है"...
"लेकिन यार!...कुछ भी कहो..है तो वो आखिर मेरा गुरु ही ना?"..


cont.................

malethia
10-10-2011, 02:00 PM
"हुंह!...बड़े देखे हैँ ऐसे गुरू-शूरू मैँने"..
"सच कह रही हो तुम...कई बार तो मैं खुद यही सोच-सोच के परेशान हो उठता हूँ कि आखिर कब तक उसके गुरुत्व की कीमत चुकाता रहूँगा?"...
"आपको तो नाहक ही परेशान होने की आदत पड़ी हुई है...खा थोड़े ही जाएगा हमें?"...
"हाँ!..ये बात तो है"...
"तुम एक काम करो"...
"क्या?"...
"ऐसा सबक सिखाओ पट्ठे को कि छटी का दूध याद करते करते उसे नानी भी याद होने को आए"..
"लेकिन कैसे?"...
"ये सब भी मैं ही बताऊँगी तो तुम क्या घास छीलोगे?"..
"?...?...?...?..."...
"अरे!..लेखक हो तुम घसियारे नहीं...कलम की ताकत को पहचानो...उसी से वार करो"...
"अरे!...तुम जानती नहीं हो उसे....बड़ा ही पहुँचा हुआ खुर्राट है वो...एक बार में ही समझ जाएगा कि सब कुछ उसी के बारे में लिखा है मैँने"..
"तो क्या हुआ?...समझ जाएगा तो समझ जाएगा...कौन सा हम उसके हाथ के गुँथे आटे की रोटियाँ पाड़ रहे हैँ?...और वैसे भी हम कोई नाम थोड़े ही उसका लिखेंगे"...
"हाँ!..ऐसे तो चाहते हुए भी वो हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाएगा"मैं खुश होता हुआ बोला..
"बिलकुल!..खूब नमक मिर्च लगा के...ऐसा तीखा मसालेदार लिखना कि बस अंदर तक तड़प के रह जाए"...
"हम्म!...
"ऐसी-ऐसी बातें लिखना कि बिना खुल्लमखुल्ला खुलासा किए ही सब समझ जाएँ कि किसकी बात हो रही है"...
"लेकिन क्या ऐसा करना ठीक रहेगा?"...
"क्यों?...वो क्या हमारे साथ सब कुछ ठीक ही करता आया है अब तक?...पिछले तीन साल से हर सम्मेलन...हर मुशायरे...में तुम उसी की तो बँधुआगिरी कर रहे हो"...
"हाँ!..बात तो तुम्हारी सही है...देना-दिलाना कुछ होता नहीं है और जहाँ मन होता है...वहीं फटाक से फोन करके बुलवा लेता है कि...फलानी-फलानी जगह पे फलाने-फलाने टाईम पे पहुँच जाना"..
"हुँह!...तुम्हारे बाप के नौकर हैं जैसे?"...
"ये नहीं कि किराए-भाड़े के नाम पे ही कुछ थमा दे... टाईम का टाईम खोटी करो और ऑटो खर्चा भी पल्ले से भरो"...
"लेकिन मैँ तो बस से...
"अरे!...ओ राजा हरीशचन्द्र की औलाद...हर जगह क्या अपनी गुरबत का ढिंढोरा ही पीट डालोगे?....पर्सनली जानता ही कौन है तुम्हें इस किस्से-कहानियों की दुनिया में?...थोड़ी-बहुत गप भी तो मार सकते हो"...
"कैसे?"...
"ये भी मैं ही बताऊँ?... तुम्हें तो लिखना चाहिए कि मैँ हमेशा 'ए.सी' कार में सफर करता हूँ...फाईव स्टार सैलून से बाल कटाता हूँ...नोकिया 'एन' सिरीज़ का मोबाईल इस्तेमाल करत हूँ वगैरा ...वगैरा और तुम हो कि अपनी सब पोल -पट्टी ही खोले दे रहे हो"...
"ओह!..आई एम सारी ...वैरी सारी.....माय मिस्टेक"..
"और हाँ!...एक बात का हर हालत में ध्यान रखना है कि....कहानी के शुरू में और आखिर में मोटे-मोटे शब्दों में ये लिखना बिलकुल नहीं भूलना कि ये कहानी पूर्ण रूप से काल्पनिक है...इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई भी...किसी भी तरह का संबध नहीं है"..
"बाद में सौ लफड़े खड़े हो सकते हैँ...इसलिए समय रहते ही चेत जाओ ज़्यादा अच्छा है"..
"तुम्हारा कहना सही है लेकिन समझ नहीं आ रहा कि कहानी कहाँ से शुरू करूँ?"...
"वहीं से...जहाँ से उसने शुरूआत की थी"...
"मतलब...जब उसने शादी की....तब से?"...


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malethia
11-10-2011, 11:23 AM
"नहीं!...उससे भी पहले से...जब वो हमेशा उस ऐंटीक माडल की टूटी साईकिल पे नज़र आया करता था"....
"वही?..जो कई बार बीच रास्ते ही जवाब दे पंचर हो जाया करती थी?"...
"कई बार क्या?...हमेशा ही तो उसी को घसीटता नज़र आता था बल्कि यूँ कहो तो ज़्यादा अच्छा रहेगा कि वो साईकिल पे कम और साईकिल उस पे ज़्यादा लदी नज़र आती थी"
"बिलकुल सही कहा... ये प्वाईंट तो नोट कर लिया...अब आगे?"मैँ नोटबुक में कलम घिसता हुआ बोला...
"वो सब बातें लिखना कि कैसे वो उल्टे सीधे दाव पेंच चलता हुआ...एक मामुली कवि से आज साहित्य जगत की मानी हुई हस्ती बन बैठा है"...
"हम्म!...
"कैसे उसकी हाजरी के बिना हर महफिल सूनी-सूनी सी लगती है"..
"लेकिन कहीं ये उसकी तारीफ तो नहीं हो जाएगी ना?"...
"यही तो इश्टाईल होना चाहिए बिड्ड़ु"...
"क्या मतलब?"..
"मज़ा तो तब है जब तुम्हारे एक वाक्य के दो-दो मतलब निकलें"...
"कैसे?"...
"तुम्हारी लेखनी से एक तरफ लोगों को लगना चाहिए कि तुम तारीफ कर रहे हो और...वहीं दूसरी तरफ दूसरों को साफ़-साफ़ दिखाई देना चाहिए कि तुम तबीयत से दिल खोल के जूतमपैजार कर रहे हो"...
"लेकिन क्या ऐसे किसी इनसान की इस तरह सरेआम पोल खोलना ठीक रहेगा?"...
"इनसान?"...
"अरे!...अगर सही मायने में इनसान होता तो आज अपने घर में रह रहा होता ना कि घर जमाई बन के अपने ससुर के बँगले पे कब्ज़ा जमा उन्हीं की रोटियाँ तोड़ रहा होता"...
"हम्म!...
"सब जानती हूँ मैँ कि कैसे उसने उस मशहूर कवि की बेटी को अपने प्यार के जाल में फँसा शादी का चक्कर चलाया"...
"हम्म!...शादी के पहले था ही क्या उस टटपूंजिए के पास? और अब ठाठ देखो पट्ठे के"..
"पहले तो ले दे के वही एक ही...महीनों तक ना धुलने की वजह से सफेद से पीला पड़ा हुआ कुर्ता पायजामा नज़र आता था उसके तन पे...और अब?...अब एक से एक फ्लोरोसैंट कलर के कुर्ते पायजामे जैकेट के साथ उसके बदन की शोभा बढा रहे होते हैँ"...
"मैंने तो यहाँ तक सुना है कि पूरे तीस सैट बिना नाड़े के पायजामे सिलवा रखे हैँ पट्ठे ने"..
"बिना नाड़े के?"...
"हाँ!..बिना नाड़े के"...
"लेकिन वो भला किसलिए?"...
"किसलिए क्या?..अपने कैरियर के शुरुआती दिनों में हूटिंग के डर से पायजामा ढीला हो जाया करता होगा पट्ठे का..
"ओह!...तो इसका मतलब उसी के डर के मारे उसने पायजामे में नाड़े के बजाए इलास्टिक का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया?"
"और नहीं तो क्या?"...
"खैर!..हमें क्या?...नाड़े वाले सिलवाए या बिना नाड़े वाले"...
"साफ कपड़े पहनने से कोई सचमुच में अन्दर से साफ नहीं हो जाता ...रहेगा तो वो हमेशा ओछा का ओछा ही"...
"हम्म!...ये सब आईडियाज़ तो नोट कर लिए मैँने...अब?"...
"ये भी लिखना नहीं भूलना कि कैसे वो अपने ब्लॉग के रीडरस और की संख्या बढाने के लिए...
अपनी रचनाओं में सरासर सैक्स परोस रहा है"..
"मेरे ख्याल से ये लिखना ठीक नहीं रहेगा"..
"क्यों?"..
"क्योंकि...कहानी पे पकड़ बनाए रखने के लिए और ..मनोरंजन के लिहाज से कई बार

malethia
11-10-2011, 06:29 PM
ऐसा करना ज़रूरी भी होता है..मैँ खुद ऐसा कई बार कर चुका हूँ"..
"तुम तो ज़रा सा..हिंट भर ही देते हो ना?...वो तो बिलकुल ही खुल्लमखुल्ला सब कुछ कह डालने से भी नहीं चूकता"...
"पर...?...?...?.."मेरे स्वर में असमंजस था...
"एक बात गांठ बाँध लो कि हमेशा दूसरों पे कीचड उछालना ज़्यादा आसान रहता है"...
"हाँ!...ये बात तो है"...
"सो!..तुम भी बेधड़क हो के उछालो"..
"किसी ने टोक दिया तो?"...
"मुँह ना नोच लूँगी उसका?...एक मिनट...एक मिनट में सबक ना सिखा दिया तो मेरा भी नाम संजू नहीं"...
"देखती हूँ कि कौन रोकता है तुम्हें?"बीवी अपनी साड़ी संभाल ब्लाउज़ की आस्तीन ऊपर करती

हुई बोली.....
"बस बस!...ये दम खम बचा के रखो...रात को काम आएगा"मैँ शरारती हँसता हुआ बोला
"हुँह!..तुम्हारे दिमाग में तो बस हर वक्त उल्टा-पुल्टा ही चलता रहता है"...
"मैँने तो यहाँ तक सुना है कि आजकल वो नए-नए तौर तरीके अपना रहा है अपने विरोधियों पछाड़ने के लिए"...
"कौन से तौर तरीके?"..
"सभागारों में ...थिएटरों में...मीटिंगो में ...सम्मेलनों में...मंचों पर...बैठकों में...यूँ समझ लो कि हर जगह उस जगह जहाँ दो चार जानने वाले मिल जाते हैँ बस अपने विरोधियों को गालियाँ देना शुरू हो जाता है"...
"हाँ!...अगर तुम्हें शिकवे हैँ...शिकायतें हैँ तो...प्यार से...दुलार से उनका हल ढूँढो ना..ऐसे भी कहीं होहल्ले के बीच किसी के 'मोहल्ले' पर निकाली जाती है 'भड़ास'?...पता नहीं कब अकल आएगी?"...
"छोड़ो!...हमें क्या?...अच्छा है...लड़ते-भिड़ते रहें...तुम बस अपना ध्यान में मग्न हो लिखते जाओ"...
"हम्म!..
"वैसे उसका नाम ये 'घंटेश्वरनाथ बल्लमधारी' कैसे पड़ा?....बड़ा दिलचस्प और खानदानी नाम है ना?"...
"खानदानी?...अरे!...उस लावारिस को खुद नहीं पता कि वो किस खानदान का है?"..
"क्या मतलब?"...
"यूँ समझ लो कि उसकी कहानी पूरी फिल्मी है...एकदम फिल्मी"...
"कैसे?"...
"दरअसल!...हुआ क्या कि एक पुरोहित को ये मन्दिर की सीढियों पर रोता बिलखता मिल गया था"...
"ओह!...
"कोई उसे लावारिस हालत में छोड़ गया था वहाँ"..
"ओह!...
"पुजारी बेचारा...ठहरा सीधा सरल आदमी...तरस आ गया उसे और अपने पास रख लिया इसे"...
"हम्म!...
"अब ये रोज़ सुबह मन्दिर को झाड़ू-पोंछा लगा साफ सुथरा रखता और बदले में मन्दिर के चढावे में चढने वाले फल-फूल खा के अपना पेट भर लेता"..
"ओह!..और जो नकदी वगैरा चढती थी चढावे में...उसका क्या होता था?"..
"उसे?...उसे तो पुरोहित अपने पास रख लेता था...किसी को नहीं देता था...पक्का कंजूस मक्खीचूस था"..
"आगे?"...
"कुछ बड़ा हुआ तो शाम को आरती के वक्त मन्दिर का घंटा बजाने लगा"...
"तभी उसका नाम 'घंटेश्वरनाथ' पड़ गया होगा?"..
"हाँ"...
"और 'बल्लमधारी' का तखलुस्स?...वो कैसे जुड़ा इसके नाम के साथ?"..
"मंदिर में सुबह-शाम एक सज्जन आते थे अपनी बिटिया के साथ...काफी पहुँचे हुए कवि थे और...उनकी बेटी...एक उभरती शायरा"....



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malethia
11-10-2011, 06:30 PM
"जब कभी भी वो खाली होते थे तो मंदिर से सटे बाग में समय बिताने को आ जाया करते थे"..
"ओ.के"...
"कई बार जब खुश होते थे तो अपनी मर्ज़ी से तन्मय होकर कविता पाठ किया करते थे"..
"ओ.के"...
"बस!...उन्हीं की संगत में रहकर ये भी कुछ-कुछ तुकबन्दी करना सीख गया"...
"ओ.के"...
"शायरी की बारीकियाँ सीखने के बहाने उसने उनकी बेटी से भी नज़दीकियाँ बढा ली और उसी के कहने पर इसने भी बाकि साहित्यकारों की तरह अपना उपनाम रखने की सोची जैसे किसी ने अपने नाम के साथ 'चोटीवाला' तखलुस्स रखा था... तो किसी ने 'चक्रधर'... किसी ने 'बेचैन'...तो किसी ने 'लुधियानवी'
"ओ.के"...
"गाँव के बिगड़ैल लठैतों के संगत में लड़ते भिड़ते बल्लम चलाना भी सीख चुका था"...
"ओ.के"...
"सो!..'बल्लमधारी' से बढिया भला और क्या नाम होता?"...
"वाह!...क्या सटीक नाम चुना है उल्लू के चरखे ने?...घंटेश्वरनाथ 'बल्लमधारी' ...वाह-वाह"...
"अरे!...ये क्या?...बातों-बातों में पता ही नहीं चला कि कब हम उसकी बुराई करते-करते अचानक उसी का गुणगान करने लगे"...
"जी"...
"ध्यान रहे!...हमारा मकसद अपनी लेखनी के जरिए उसे नीचा दिखाना है ना कि ऊँचा उठाना"..
"ओह!.. ये तो मैंने सोचा ही नहीं था"...
"तो फिर सोचो और सोच-सोच के उसके ख़िलाफ़ ऐसी-ऐसी बातें लिखो कि सब दंग रह जाएँ"...
"लेकिन क्या लिखूँ?...बहुत सोचने के बाद भी कुछ समझ ही नहीं आ रहा है" मैँ माथे पे हाथ रख कुछ सोचता हुआ बोला...
"अरे!...इसमें सोचने वाली बात क्या है?...जो भाव दिल में उमड़-घुमड़ रहे हैँ...बस...सीधे-सीधे उन्हीं को अपनी लेखनी के जरिए कागज़ पे उतारते चले जाओ"..
"मगर यार!...सब का सब झूठ लिखने से कहीं लोग ना भड़क जाएं"..
"नहीं!...बिल्कुल झूठ नहीं...थोड़ी बहुत सच्चाई तो टपकनी ही चाहिए तुम्हारी लेखनी से"...
"वोही तो"..
"लेकिन ध्यान रहे कि तारीफ में जो कुछ भी लिखना ...कमज़ोर शब्दों में लिखना...ढीले शब्दों में लिखना "...
"वो भला क्यों?"...
"ओफ्फो!...इतना भी नहीं समझते?....दोस्त नहीं...वो दुश्मन है तुम्हारा"...
"हाँ"...
"सो!...ज़्यादा तारीफ अच्छी नहीं रहेगी हमारी सेहत के लिहाज से"..
"हाँ!...ये तो है"..
"तो क्या ये भी लिख दूँ कि कभी ये घंटेश्वरनाथ एक दम गाय के माफिक भोला और सीधा हुआ करता था?"...
"ठीक है!...लिख देना"बीवी अनमने मन से हामी भरते हुए बोली
"ये भी लिखना कि कैसे वो नेताओं के साथ रह-रह के उनके दाव...पैंतरे और गुर सब सीख गया है"..
"हाँ!..ये सब तो वो जान गया है कि कैसे पब्लिक को फुद्दू बना माल कमाया जाता है"..
"इतना चालू है कि कई बार कार्यक्रम संचालन के पैसे तक नहीं लेता है"..
"पैसे नहीं लेता है?...इसलिए वो चालू हो गया?"...
"हाँ"...
"मेरे हिसाब से तो ऐसे आदमी को चालू नहीं बल्कि बेवाकूफ कहा जाता है"..



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malethia
11-10-2011, 06:31 PM
"अरे!..वो सिर्फ बड़े-बड़े नेताओं और अफसरों की महफिलों को ही मुफ्त में सजाता है...बाकि सब की तो खाल उतार लेता है....लेकिन कई बार तो ताजुब्ब भी होता है जब वो मोटी-मोटी असामियों के फंक्शन भी मुफ्त में अटैंड कर लेता है"..
"अरे!...कोई ना कोई मतलब ज़रूर होता होगा इस सब के पीछे...वो तुम्हारी तरह लल्लू नहीं है जो फोकट में ही अपनी ऐसी तैसी करवाता फिरेगा"...
"पता नहीं क्या मतलब निकालता होगा इस सब का?"...
"इतने सालों तक क्या घास छीलते फिरते रहे उसके साथ?"...
"क्या मतलब?"...
"मैँ घर बैठे-बैठे सब समझ रही हूँ उसके दांव-पेंच"...
"कैसे दाव-पेंच?"..
"अरे!..जिन नेताओं की महफिलें वो मुफ्त में सजाया करता था... उन्हीं में से एक की सिफारिश के बल पर ही तो वो सरकारी कालेज में हिन्दी का प्रोफैसर नहीं बन बैठा था क्या?"..
"हाँ!..ये बात तो सही है... एक बड़े अफसर की रिकमैंडेशन पर बाद में उसे बिना किसी उचित योग्यता के पदोन्नत भी कर दिया गया था"...
"मुझे तो पहले से ही इस बात का शक था"...
"लेकिन अगर इतना सब कुछ है तो फिर इन तथाकथित मोटी असामियों की चमचागिरी करने का क्या अचौतिय है?"...
"अरे!..खोटा सिक्का कब चल जाए कुछ पता नहीं"...
"हम्म!...
"सो!...किसी को नाराज़ ना करते हुए गधों को भी बाप बना लेता है"...
"हम्म!...अब तो कई चेले भी तैयार हो गए उसके...उनमें से कुछ एक तो उभरते हुए कवि-लेखक भी हैँ....कुछ एक ने तो उसे गुरू धारण कर लिया है...वही लगे रहते हैँ उसकी सेवा-श्रुषा में"..
"मैं तो ये भी सुना है कि अब हिन्दी के उत्थान के नाम पे कई संस्थाओं का अध्यक्ष...तो कई कमेटियों का परमानैंट मैम्बर बन चुका है"...
"मैंने तो कुछ और ही सुना है उसके बारे में"...
"क्या?"..
"यही कि एक दो छोटी-मोटी संस्थाओं का चेयरमैन बनाया जा रहा था उसे लेकिन उसने साफ इनकार कर दिया...शायद...काम के बोझ की वजह से"...
"टट्टू!...काम के बोझ की वजह से?"...
"क्या मतलब?"...
"अरे!..ऐसी छोटी-मोटी ऑफरों को साफ ठुकरा देना ही बेहतर होता है क्योंकि वहाँ पैसा बनने की कोई गुंजाईश नहीं होती है"...
"हाँ!...ये बात तो है...सुना है की आजकल तो लोगों की खूब जेबें ढीली कर के अपने खीसे में नोट भर रहा है"..
"वो कैसे?"...
"कहा ना कि कई चेले तैयार कर लिए हैँ उसने अपने"..
"तो?"...
"कभी होली मिलन के नाम पर तो कभी इफ्तार पार्टी के नाम पर ये साहित्यकारों का सम्मेलन बुलवाता रहता है"..
"तो क्या हुआ?...ये तो अच्छी बात है...हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए"..
"माय फुट ...हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए"...
"अरे!...अन्दरखाते इन निजी कार्यक्रमों को गुपचुप तरीके से पलक झपकते ही सरकारी कार्यक्रम प्रोग्राम बना डालता है"...
"क्या मतलब?"..
"गूगल या याहू ग्रुपस को मेल भेज-भेज के हम जैसे नए खिलाड़ियों को किसी मीटिंग या गोष्ठी में भाग लेने के लिए इनवाईट कर डालता है"...
"तो?"...
"जहाँ एक तरफ हम लोग इस लालच में पहुँच जाते हैँ कि चलो इसी बहाने बड़े लोगों से मिलना जुलना हो जाएगा....वहीं दूसरी तरफ ये सरकार से हमारे आने के एवज में यात्रा खर्च और हमारी फीस के फर्ज़ी बिल पेश कर पैसे ऐंठ लेता है"...



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malethia
12-10-2011, 03:50 PM
"ओह!...
"आजकल एक नया ही शगूफा छोड़ा हुआ है पट्ठे ने"...
"क्या?"...
"पता नहीं सरकारी अफसरों को क्या घुट्टी पिलाता है कि एक से एक टॉप का ऑडिटोरियम उसके एक इशारे पे मुफ्त में बुक हो जाता है"..
"किसलिए?"...
"वहीं पर तो हिन्दी की सेवा के नाम पे ये 'घंटेश्वरनाथ' हर महीने किसी ना किसी को पुरस्कार दिलवा रहा है"...
"ये तो बड़ी अच्छी बात है"..
"खाक!...अच्छी बात है...अंधा बाँटे रेवड़ियाँ...फिर फिर अपनों को देय"...
"क्या मतलब?"..
"हर बार अपने ही किसी खास बन्दे को कभी लैपटाप तो कभी कम्प्यूटर गिफ्ट दिलवा देता है"...
"ओह!...दूसरों को हर महीने लैपटाप दिलवा रहा है और तुम्हें कभी लालीपाप भी दिलवाने की नहीं सोची?"
"गम तो इसी बात का है"...
"इन प्रोग्रामों से नाम तो इसका होता है लेकिन जेब दूसरों की ढीली होती है"...
"दूसरों की कैसे?"...
"हर बार किसी मोटी पार्टी को चने के झाड़ पे चढा के ईनाम स्पांसर करवा डालता है...तो किसी से चाय-नाश्ते के बिल भरवा डालता है"...
"अभी हाल ही में अपने एक बेटे को 'क ख ग' फिलम्स के नाम से एक कम्पनी खुलवा दी तो दूसरे से....
साहित्य को समर्पित एक वैबसाईट लाँच करवा दी"...
"इस सब से फायदा?"...
"अरे!...वही कम्पनी उसके सभी कार्यक्रम के विडियो और स्टिल शूट करती है और उलटे सीधे बिल पेश कर सरकार को चूना लगती है"...
"ओह!...
"भुगतान तो खुद ही ने पास करना होता है सो...बिल क्लीयर होने में कोई दिक्कत भी पेश नहीं आती"...
"हम्म!...ये बात तो समझ में आ गई लेकिन वैब साईट से फायदा?"...


cont.......

malethia
12-10-2011, 03:54 PM
"अरे!...दूर की सोच रहा है वो...हमारी तरह ढीला नहीं है कि जब प्यास लगे तभी कुँआ खोदने की सोचें"..
"क्या मतलब?"...
"आने वाले समय में पैसा छापने की मशीन का काम करेगी वो वैब साईट"...
"वो कैसे?"..
"रोज़ाना दुनिया भर से लाखों लोग पहुँचेगे उसकी साईट पर"..
"तो?"...
"यकीनन उनमें से कुछ बेवकूफ टाइप के भी होंगे जो बेकार की रागपट्टी सुनने के लिए शुल्क भी चुकाएंगे"...
"ओह!...
"कुछ मेरे-तेरे जैसे वेल्ले उस साईट पे आने वाली एड्स को क्लिक करके अपना भट्ठा बिठाएंगे और उन्ही के जरिए वो लाखों रुपया कमाएगा"..
"लेकिन इस काम में तो बरसों लग जाएंगे"..
"तो क्या ?...वो नहीं तो उसकी आने वाली पीड़ियाँ तो ऐश करेंगी"...
"बस यूँ समझ लो कि बढिया और उम्दा फसल के लालच में बीज डाल दिया है उसने बंजर खेत में".... "देखते हैं कि पौधा फलदायी निकलता है कि नहीं"...
"वैसे इन कार्यक्रमों में आखिर होता क्या है?"...
"खुद का एक दूसरे के द्वारा यशोगान"...
"मतलब?"..
"तू मेरी खुजा..मैं तेरी खुजाता हूँ की तर्ज पे सब लगे रहते हैँ एक दूसरे की तारीफ करने में"..
"इसका मतलब खुद ही मियाँ मिट्ठू बन रहे होते हैँ?"...
"बिलकुल.. वहाँ जब इनको या इन जैसे कइयों को सुनता हूँ तो बहुत हँसी आती

है"...
"वो किसलिए?"...
"अरे!..इस से ज़्यादा तो हमें आता है...हर बार हम नई रचना तो सुनाते हैँ कम से कम"...
"और ये?...ये क्या सुनाते हैं?"..
"हर कवि सम्मेलन में...हर मुशायरे में...हर राजनीतिक मंच पर पब्लिक डिमांड के नाम पर वही सुनाते हैँ जो बरसों पहले हिट हो चुका हो"...
"ट्रिंग ट्रिंग"..
"ओह!..इस बार तो पक्का ...उसी का फोन होगा"...
"लो!...तुम खुद ही बात कर लो"...
"न्न...नहीं"...
"इसमें घबराने की क्या बात है?...खा थोड़े ही जाएगा?...बेखौफ हो के बात करो और हाँ!...कहीं जाने के लिए बोले तो साफ मना कर देना"...
"हम्म!...
"हैलो"...
"कौन?"...
"क्या बात?...आवाज़ भी पहचाननी बन्द कर दी?"...
"ओह!...आप...मुझे लगा कि शायद कोई और है"...
"हाँ भय्यी!..बड़े लेखक बन गए हो...अब हमारी आवाज़ भला क्यों पहचानने लगे?"..
"नहीं जी!...ऐसी तो कोई बात नहीं है...आप तो मेरे गुरू हैँ...आपकी आवाज़ भला कैसे नहीं पहचानूँगा?"..
"अच्छा!...तो फिर सुनो"...
"जी"..
"कल शाम को क्या कर रहे हो?"..
"कुछ खास नहीं"...
"तो फिर ठीक पाँच बजे तालकटोरा स्टेडियम पहुँच जाना...तुमसे व्यंग्य पाठ कराना है"...
"व्यंग्य पाठ?"...
"हाँ!...व्यंग्य पाठ"...
"वो चक्रवर्ती कहाँ है?"...
"बीमार है...इसीलिए तो तुम्हें याद किया"..
"पैसे कितने मिलेंगे?"मैं मन पक्का कर के बोला...
"मिलना-मिलाना तो कुछ खास है नहीं लेकिन हाँ...तुम्हारे फेवरेट 'हल्दीराम' हलवाई के यहाँ से चाय नाश्ते का इंतज़ाम है"...
"लेकिन मैंने तो आजकल डायटिंग शुरू की हुई है"...
"तो?"...


cont......

malethia
12-10-2011, 03:56 PM
"खाऊँगा-पीऊँगा नहीं तो कम से कम कुछ तो...
"अरे यार!..मैँ खुद कुछ नहीं कमा रहा...कसम से"...
"लेकिन मैँने फोकट में काम करना छोड़ दिया है"मेरा दृढ़ स्वर...
"सोच लो!...ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते...खुद...मंत्री जी ने खास तुम्हारी डिमांड की है"...
"म्म..मंत्री जी ने?"...
"और नहीं तो क्या संतरी जी ने?"...
"दरअसल!...बात ये है कि लालकिले वाले मुशायरे में तुमने उस विरोधी पार्टी के नेता की बखिया उधेड़ी थी ना"...
"तो?"...
"बस!...तभी से मुरीद हो गए हैँ तुम्हारे...सीधा कहने लगे कि तनेजा को ज़रूर बुलाना...घणा एण्डी लिखे सै"...
"मंत्री जी ने खुद ऐसा कहा?"...
"और नहीं तो क्या?" ...
"लेकिन मुझे तो दवाई लेने भी जाना था"...
"और हाँ!...राखी सावंत का आईटम नम्बर भी रखवाया है"...
"राखी सावंत का?"...
"हाँ भय्यी!...राखी सावंत का...खास...तुम्हारे लिए"...
"ठीक है!...तो फिर मैँ टाईम पे पहुँच जाऊँगा"...
"और दवाई?"..
"कोई बात नहीं...कुछ तबियत तो उसका नाम सुनते ही ठीक हो गई है" ...
"हा हा हा ....और बाकि उसके ठुमके देख के अपने आप हो जाएगी"
"जी!...बिलकुल"

ndhebar
12-10-2011, 04:25 PM
मजा आ रहा है, किस्सा दिलचस्प होता जा रहा है तारा बाबु

malethia
10-11-2011, 09:08 PM
जब मुस्कराती हैं बेटियां-vikas bansal


बहुत चंचल बहुत खुशनुमा सी होती हैं बेटियाँ
नाज़ुक सा दिल रखती मासूम सी होती हैं बेटियाँ
बात बात पे रोती नादान सी होती हैं बेटियाँ
घर महक उठता है जब मुस्कराती हैं बेटियाँ
एक नहीं दो दो कुल की लाज़ होती हैं बेटियाँ
जो नहीं छुपा किसी से वो राज होती हैं बेटियाँ
फूलों का गुलदस्ता महकती फुलवारी होती हैं बेटियाँ
बनते हैं भाई और बाप जो होती हैं बेटियाँ
आते ना हम और आप जो ना होती बेटियाँ
माँ से जयादा बाप की प्यारी होती हैं बेटियाँ
लड़के होते राजा तो राजदुलारी होती हैं बेटियाँ
घर घर में लक्ष्मी जी का वास होती हैं बेटियाँ
माँ बहन दादी चाची ताई का अहसास होती हैं बेटियाँ
पूजा की थाली में जैसे चन्दन रोली होती हैं बेटियाँ
शादी की शहनाई और डोली होती हैं बेटियाँ
शर्म लाज़ ममता होती हैं बेटियाँ
दुर्गा काली की शक्ति और शमता होती हैं बेटियाँ
होता दिल दुखी जब घर से विदा होती हैं बेटियाँ
दुआ मेरी सबको मिले इस जंहा में बेटियाँ

ndhebar
11-11-2011, 10:42 PM
बहुत अच्छे तारा बाबु
पर पिछला किस्सा कुछ अधुरा रह गया मालूम होता है

malethia
11-11-2011, 10:52 PM
बहुत अच्छे तारा बाबु
पर पिछला किस्सा कुछ अधुरा रह गया मालूम होता है
हाँ मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा, लेकिन मुझे मिला ही इतना था ...............

malethia
11-11-2011, 10:55 PM
बोली बम कैसे बनायें?

शंशाक जौहरी




बम मनुष्य द्वारा बनाया गया एक ऐसा पिंड होता है जो विरोधी के ऊपर निशाना कर के फेंका जाता है और वह धमाके की आवाज के साथ जब फटता है तो विरोधी यातो मर जाता है या अधमरा और किम्कर्तव्य विमूढ़ हो जाता है. ऐसी स्थिति में वह बम फेकने वाले का कुछ बिगड़ तो नहीं पाता लेकिन उसे कोस सकता है और भद्दी गलियां दे सकता है ! बम का इतिहास जानने की आवश्यकता नहीं है लेकिन उसकी शक्ति बारे में जान लेना चाहिए. बम कई प्रकार के होते हैं जैसे हथगोला, सुतली बम, टाइम बम, रासायनिक बम, जैविक बम, परमाणु बम और बोली बम. यद्द्य्पी बोली बम के अलावा सभी बम बनाने के लिए बहुत अधिक तकनीक जानने की आवश्यकता होती है लेकिन बोली बम बहुत ही आसानी से बन जाता है! बोली बम का एक लाभ यह भी है की यह दूसरे बम की तरह किसी मेटल डिटेक्टर आदि से पकड़ा नहीं जा सकता और चलाने वाले के हाथ में नहीं फटता है. सामान्यतह जब कोई बम फेंका जाता है तो जिस पर बम गिरता है वह बच कर भागने की कोशिश करता है लेकिन बोली बम में खासियत यह है की यह जिस पर फेंका जाता है वह इसे पकड़ने की कोशिश करता है.
सामान्यतः इसका प्रयोग जनता में अपनी आवाज की गूँज सुनाने के लिए किया जाता है. इस बम का शिकार होने के बाद मनुष्य अपनी सोच समझ खो बैठता है और बम फेकने वाले को गन्दी गन्दी गलियां देता हुआ बम फेकने वाले को ढूँढने का प्रयास करता है लेकिन वह उसे देख कर भी कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता. बोली बम फेकने वाले को बम फेकने के बाद भागने की भी आवश्यकता नहीं होती बल्कि मीडिया उसे सुरक्षा पूर्वक अपने स्टूडियो लेजाकर उसका साक्षात्कार लेता है और उसकी बात जनता तक पहुंचता है.
बोली बम बनाने में प्रयोग सामग्री
बोली बम बनाने के लिए आपको जो रसायन और सामग्री चाहिए वह इस प्रकार है:
१. डाई हैड्रोजन मोनो अक्साइड
२. कल्शियम
३. एथिल अल्कोहल
४. फटे पुराने जूते चप्पल
५. उल्लू के ठप्पे
बम बनाने की विधि
यह बम बनाना बहुत ही आसान है. बम बना कर तुरंत ही चलाना होता है अतः पहले अपना टार्गेट सेट कर ले कि किसे निशाना बनाना है. यदि कभी कभार आप जनता में हीरो बनना चाहते हैं तो यह बम आप खुद बना कर चला सकते हैं लेकिन अगर रोज या आये दिन आप इसे चला कर जनता में अपनी पहचान बना कर रखना चाहते हैं तो आपको कुछ उल्लू के ठप्पे ढूंढने होंगे.... जिस प्रकार एक बड़ी राजनितिक पार्टी ने ढून्ढ कर रक्खा है जो आये दिन टी वी पर दिखाई देता है...
डाई हैड्रोजन मोनो अक्साइड को सामान्य भाषा में पानी कहते हैं बम चलने से पहले इसे पीलेना चाहिए ताकि चलाने के बाद थकान न हो . इसके बाद कल्शियम जिसे आम भाषा में चूना कहते हैं इसका सेवन कर लेना चाहिये.. आम तौर पर यह पान मसाला या गुटखा में पाया जाता है. अब किसी ऐसे स्थान पर जाईये जहाँ मीडिया का कैमरा हो या इन्टरनेट के माध्यम से आपकी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँच सके. अब भीड़ भाड़ वाले इलाके में किसी शरीफ आदमी को जिसका कोई अपराधिक रिकोर्ड नहो उसपर अपनी भाषा में गालियों के साथ बोली बम का प्रयोग कर दीजिये.. अगर संभव हो तो फटे पुराने जूते चप्पल के साथ बोली बम का प्रयोग कर सकते हैं.. ध्यान रहे की इस बम को चलते समय यदि मीडिया का कैमरा न हो तो उसका इन्तजार करना चाहिए वरना बम का असर कम होता है. बम चलने के बाद अगर आप पकडे भी जाते हैं तो पुलिस थाने लेजा कर छोड़ देगी और फिर आप अनेकों टी वी चैनेल्स पर इंटरव्यू देते हुए अपनी बात जनता तक पंहुचा सकते हैं..
अभी हाल ही में बोली बम का प्रयोग कुछ लोगों ने प्रशांत भूषन और अरविन्द कजरीवाल के ऊपर किया था जो बहुत ही सफल रहा.
आप सोच रहे होंगे की आपने जो एथिल अल्कोहल लिया था उसका प्रयोग तो हुआ ही नहीं.. तो भाई यह एथिल अल्कोहल सामान्य भाषा में शराब कहलाती है जिसे बम का प्रयोग करने के बाद आप सेवन कर सकते हैं.. इससे विरोधी की गालियों का प्रभाव ख़तम हो जाता है.
आशा है आपको यह बोली बम का फ़ॉर्मूला पसंद आया होगा.. याद रखिये राखी सावंत और अपने डोग्विजय जी इसी बम के सहारे महान बने हुए हैं..तो मुझे धन्यवाद देकर शुरू हो जाईये..अगर आप बहुत बीजी हैं तो इसका प्रयोग करवाने के लिए एक दो उल्लू के ठप्पे ढूंढ लीजिये.. अगर यह शब्द समझ में नहीं आया तो अपने पडोसी से बोल कर देखिये.. ओये..उल्लू के ठप्पे इधर आ... बस वह बता देगा कि यह क्या होता है.... अब मैं आपके ऊपर बोली बम चला चूका हूँ..क्योंकि इतना समझाना भी बोली बम के बराबर होता है तो आप कोई प्रतिक्रिया दें उससे पहले मैं निकल लेता हूँ. जय लंकेश...

ndhebar
11-11-2011, 10:55 PM
हाँ मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा, लेकिन मुझे मिला ही इतना था ...............
कोई बात नहीं
जितना मिला उतने में ही हमें संतुष्ट होना चाहिए

malethia
11-11-2011, 11:11 PM
हुकुमत तो सिर्फ कांग्रेस की ही चलेगी- शंशाक जौहरी



माना कि भारत को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए लाखों लोगों ने जान दे दी पर होशियार वह होता है जो मौके का फायदा उठा ले और यह करामत कांग्रेस के अलावा और किसे आती है? आये भी क्यों न, कांग्रेस की स्थापना सन १८८५ में सर ए ओ ह्यूम ने की थी जो ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक डायरेक्टर के पोते थे !

हमारा राष्ट्रीयगान भी कांग्रेस की ही देन है! २६ दिसंबर १९११ को कलकत्ता में कांग्रेस अधिवेशन के दूसरे दिन ब्रिटिश शासक जोर्ज पंचम को मुख्य अतिथि बनाया गया था और उनके स्वागत में उनकी यश गाथा में यह गीत गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टगोर जी ने लिख कर सुनाया था जो अगले दिन अख़बारों कि सुर्ख़ियों में रहा..इसमें ५ अंतरे थे लेकिन बाकी में साफ़ था कि यह जोर्ज पंजम की यश गाथा है इसलिए इसके पहले अंतरे को ही राष्ट्रीय गीत बनाया गया जिसे बाद में भगवान क़ी यशगाथा के रूप में परोसा गया!

शायद ईस्ट इंडिया कम्पनी क्रांतिकारियों के तेवर देख कर समझ गयी थी कि भागने के अलावा कोई रास्ता नहीं है इसलिए शांतिवार्ता और मध्यस्थता के लिए कांग्रेस नाम का एक मंच बनाया गया! श्रद्धेय श्री श्री महात्मा गाँधी जो अफ्रीका में अपने अपमान का बदला लेने के लिए भारत यात्रा पर निकले थे उन्हें यह मंच पसंद आया और बाबू सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर खेद व्यक्त कर के नेहरु को अध्यक्ष बनवाया!

रिश्तों के लिहाज से जो क्रांतिकारी मदर इंडिया के लिए जान देरहे थे उन्हें फादर इण्डिया और अंकल इण्डिया मिल गए.
चलिए भाई अंग्रेज किसी क्रन्तिकारी से नहीं डरे लेकिन बापू के अहिंसावादी सत्याग्रह से डर गए! सत्याग्रह यह कि अगर अंग्रेज पूछें की तुम्हारे क्रन्तिकारी मित्र कहाँ छिपे हैं तो उन्हें सब सत्य बता दिया जाये और जब अंग्रेज क्रांतिकारियों को काला पानी या फांसी की सजा दें तो देश के गुस्से को अहिंसा के नाम पर चुप करा दिया जाये! अब इतना अच्छा आन्दोलन करनेवाला ही भागते हुए अंग्रेजों से उनका ताज लेकर अपने सर पहन सकता था न कि बम गोली चलने वाला क्रन्तिकारी, तो भाई आजादी का सेहरा कांग्रेस के सर पहुँच गया!

टर्निंग पॉइंट तब आया जब कैंसर की आखिरी स्टेज पर खड़े जिन्ना ने देश का पहला प्रधानमंत्री बनने की जिद करी और दूसरी तरफ चाचा जी ने भी ... तो फादर इंडिया तो संत आदमी थे और उन्हें अपने होनहार भाई देश के चाचा जी पर पूरा भरोसा था तो देश को अपने पुरखों की जागीर समझ कर दो हिस्से कर डाले.. मुसलमानों का पाकिस्तान और बाकी सब का हिंदुस्तान.! अहिंसा के पुजारी जिसको अंग्रेज टस से मस नहीं कर पाए एक सिरफिरे ने गोली से छलनी करदिया... इस तरह देश पिता विहीन हो गया... अब चाचा जी ने देश सम्हाला और दलितों के मसीहा श्री श्री बाबा साहब आंबेडकर को मुखिया बना कर विदेशियों के संविधान का भारतीय संस्करण बनवाया जिसमे देश को जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग आदि में बाँट कर आरक्षण की हड्डियाँ डाल कर आपस में दंगे करवाने और स्वयं जनम जनम तक सत्ता का सुख भोगने का गणित तैयार करवाया गया! सरकारी नौकरी पर रखने से पहले शिक्षा दीक्षा और चाल चलन की जाँच पड़ताल का प्राविधान रक्खा गया लेकिन संसद में बैठ कर देश चलने के लिए क़ानून बनाने वालों को शिक्षा या अपराधिक रिकॉर्ड की जाँच से मुक्त रखा गया.

इसका लाभ उठा कर बाहुबलियों और माफियाओं ने सत्ता में पहुँच कर देश की हुकूमत सम्हालने में कांग्रेस का सहयोग किया और जिस तिरंगे को शहीदों के दिवंगत शरीर पर लपेटा जाता है से ही कांग्रेस का झंडा होने के नाम पर इन तथा कथित देशभक्तों का दुपट्टा बना दिया गया जिस से ये अपना मुह या जूते साफ़ करते हुए मिल जाते हैं.


cont ..........

malethia
11-11-2011, 11:12 PM
हिन्दुओं के किसी देवी-देवता या भगवान की मूर्ती या मंदिर तोड़ने पर किसी विशेष सजा का प्रावधान नहीं रक्खा गया लेकिन फादर इंडिया और अंकल इंडिया के फोटो का अपमान करने वालों के लिए एक विशेष दंड संहिता बनायीं गयी! यहाँ तक तो ठीक था लेकिन पहले तो बापू का फोटो डाक टिकट पर छापा गया जिसमे लोग थूक लगा कर लिफाफे पर रख कर घूँसा मरते थे और साथ ही नोट पर भी बापू का हँसता हुआ फोट छाप दिया गया जिसे थूक लगा लगा कर गिनते हैं ! अहिंसा के पुजारी को पता नहीं होगा कि उसका फोटो पाने के लिए लोग कितनी हिंसा करेंगे और कभी शराबी उसे फाड़े गा तो कभी अय्याश उसे वैश्या पर लुटायेगा, और कभी लूट कर फोटो ऐसी गन्दी-गन्दी जगह छिपाए जायेंगे कि बेचारे बापू को भी अपनी गलती का एहसास हो जायेगा ! इस दुर्गति को देख कर कुछ पूज्य जनों ने बापू के फोटो को भारत के बेवकूफों के चंगुल से छुड़ा कर वातानुकूलित स्वच्छ स्विज बैंक में सुरक्षित करवा दिया जो बापू के धन्यवाद के पात्र हैं!
एक और बात समझने योग्य है! जो किसी स्थान का गुंडा या बदमाश होता है अगर उसे ही पुलिस का दारोगा बना दिया जाये तो वह अपराधियों को आसानी से पहचान सकता है और उसे अड्डों का भी पता होता है! इस हिसाब से अगर देखा जाये तो हुकूमत बिलकुल सही जायज लोगों के हाथ में है और कुछ बेवकूफ उनकी सख्ती का अंदाजा किये बिना भर्ष्टाचार के नाम पर उन पूज्य लोगों पर कीचड़ उछाल कर उसे छीनना चाहते हैं! ४ जून को हश्र देख ही लिया बाकी अभी और देखने को मिल जायेगा जब बाबा और अन्ना की पोस्टमार्टम के बाद डाक्टर सचान की तरह आत्म हत्या की रिपोर्ट आजाये गी!
यह बेवकूफ भूल गए कि बापू के ३ बन्दर थे १. आँख बंद.. बुरा मत देखो.. चाहे जितने घोटाले या आतंकवादी हमले हों..२. बुरा मत सुनो..चाहे बाबा और अन्ना के साथ लाखों लोग गरीबी, भर्ष्टाचार और लूट के धन के खिलाफ आवाज़ उठायें..३. बुरा मत बोलो ... अपने प्रधान मंत्री और आलाकमान को ही देखलीजिये. लेकिन मेरे भाई बापू का चौथा बन्दर नहीं था जो अपने स्वयं के हाथ पकडे होता और कहता बुरा मत करो......समझ गए न? तो बापू के आदर्शों पर चलने वाली, देश को गोरे अंग्रेजों जे आजादी दिलाने वाली और हर अपराध की खोज खबर अपने ही दल में बैठे दिग्गजों से हर पल रखने वाली ताकतवर पार्टी का साथ दो वर्ना पहले आजादी की लड़ाई में मरने वालों ने कौन सा कद्दू में तीर मार लिया था जो आप मार लोगे ? अगर दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ी भी तो पागल लोग मारे जाएँगे और होशियार लोग फिर सत्ता पर बैठें गे..अरे भाई यह गुलामों का देश है.. विदेशी आक्रमणकारियों को अतिथि देवो भव कह कर नतमस्तक होते हैं और जब कोई अपने भाई को मार दे तो ..भगवान ने जो लिखा था वो तो होगया.. अब दुश्मन को मारने से कोई मरा हुआ वापस थोडेही आजायेगा कह कर चुप करा देते हैं..अगर अब आपके दिमाग की बत्ती जल गयी हो तो बोलो राष्ट्रीय अतिथि अजमल कसाब की जय... महा बली नेताओं की जय..भारत माता..ओह सोरी.. फादर इंडिया की जय..अंकल इंडिया की जय..विदेशी/स्वदेशी महारानी की जय.. युवराज की जय..!

मैंने देश कि एक विशेष पार्टी कि यशगाथा का प्रयास किया है ताकि इन्टरनेट से लोग भ्रमित न हों और उन्हें सही ज्ञान मिल सके लेकिन किन बातों को छुपाना चाहिए इस मामले में मैं अभी नासमझ हूँ अतः अगर कुछ गलत लिख दिया हो तो आपके प्रकोप के डर से पहले ही माफ़ी माग रहा हूँ .. संभवतः आप मुझ तुच्छ को माननीय कलमाड़ी और महा महिम ए राजा जैसे पराक्रमी लोगों के साथ तिहाड़ में भेजने का कष्ट नहीं करेंगे.. कांग्रेस जिंदाबाद..

ndhebar
12-11-2011, 08:11 AM
कटु व्यंग ...............

malethia
12-11-2011, 09:49 AM
आएगा कब 'लिटिल बच्चन - मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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लगा कर के टकटकी सब
प्रतीक्षा में लगे है अब
जल्द आये वह मधुर क्षण
आएगा जब 'लिटिल बच्चन'
अमित जी उत्सुक बहुत है
जया जी व्याकुल बहुत है
उल्लसित अभिषेक जी है
प्रतीक्षा में ये सभी है
मगन मन बेचेन श्वेता
आएगा नन्हा चहेता
एश्वर्या दर्द पीड़ित
किये मन में प्यार संचित
राह पर है प्रसूति की
एक नयी अनुभूति की
ह्रदय में आनंद ज्यादा
बनेंगे अमिताभ दादा
और 'गुड्डी 'जया दादी
खबर ने खुशियाँ मचा दी
टिकटिकी कर रही टक टक
धड़कने बढ़ रही धक धक
प्रतीक्षा में है सभी जन
आएगा कब 'लिटिल बच्चन'

malethia
13-11-2011, 09:19 AM
जो न धरा से धर्म मिटा दे नेता वो किस बात का -शंशाक जौहरी


आओ तुम आरक्षण मांगो अपनी-अपनी जात का
जात-जात को जो न लड़ा दे नेता वो किस बात का
हम हैं धर्म निरपेक्ष धर्म को धर्म-धर्म से काटेंगे
पढ़ी लिखी जनता को हम सब अनपढ़ मिलकर बांटेंगे
नारी मोर्चा बाल मोर्चा है जूता इस लात का
कोमल मन में आग लगा दो झगड़ा हो दिन रात का
आओ तुम......

नारी घर में हक मांगेगी बच्चे रपट लिखाएंगे
घर में जब कोहराम मचेगा स्वामी खुद मर जायेंगे
अबला नेता की होगी झंडा ढोये बिन बाप का
आओ तुम ....

मधुशाला घर-घर खुलवादो बर्तन खुद बिक जायेंगे
पढ़े लिखे और समझदार कर्जे में जान गंवाएंगे
युवा नारियां कपड़े पहनेंगीं बच्चों के नाप का
जो न डरे भगवन से उसको डर क्या होगा बाप का
आओ तुम ...

अब सुभाष आज़ाद भगत सिंह पुस्तक में रह जायेंगे
देश विदेशी को देकर हम अरबपति बन जायेंगे
अगर मल्लिका और शिल्पा बनना सपना है आपका
तो समझो इमरान हाशमी है ये नेता आपका
आओ तुम ...


बाप नहीं होगा कोई अब बॉयफ्रेंड रह जायेंगे
मात पिता का नाम जानने फोन ओ फ्रेंड लगायेंगे
टी वी पर बैठे ज्योतिष दुःख दूर करेंगे आपका
इन्टरनेट पर होगा सबकुछ चाहे ज़हर लो सांप का
आओ तुम ...


राम नाम है सत्य न मरने पर भी अब कह पायेंगे
करूणानिधि जब पूछेंगे तो प्रूफ कहाँ से लायेंगे
समझदार खामोश रहेंगे आप मज़ा लो आपका
जो न धरा से धर्म मिटा दे नेता वो किस बात का
आओ तुम ...

malethia
21-12-2011, 01:13 PM
थप्पड़ के साइड इफेक्ट - किशोर कुमार मालवीय॥

थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब , प्यार से लगता है - यह रोमांटिक डायलॉग ' दबंग ' में हिट हो सकता है , पर रीयल दबंगों पर हिट नहीं हो सकता। यह अजीब संयोग है कि इस डायलॉग के हिट होते ही हर तरफ थप्पड़ों की बरसात होने लगी। जिसे देखो दबंगई दिखा रहा है , जहां - तहां थप्पड़ जमा रहा है। जिनकी डिक्शनरी में प्यार जैसे शब्द नहीं हैं , उनका पाला थप्पड़ से ज्यादा पड़ रहा है - कहीं चला रहे हैं तो कहीं खुद खा रहे हैं। थप्पड़ों का मानो अखिल भारतीय अभियान चल पड़ा हो। थप्पड़ों की बढ़ती मांग ( या फरमाइश ) या एकाएक थप्पड़ों के बढ़ते प्रचलन ने मुझे इस पर शोध करने को मजबूर कर दिया। शोध में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए।

थप्पड़ दो तरह के होते हैं - एक , जिनमें आवाज नहीं होती या बहुत कम होती है। जरूरी नहीं कि इसमें चोट भी कम हो। आवाज और चोट में कोई संबंध नहीं है। ये थप्पड़ मारने या थप्पड़ खाने वाले की औकात से सीधा जुड़ा होता है। दूसरे तरह के थप्पड़ में आवाज बड़ी तेजी से होती है। इसमें भी जरूरी नहीं कि चोट ज्यादा लगे। इसमें आवाज का महत्व होता है क्योंकि इस तरह के थप्पड़ का सीधा संबंध थप्पड़ खाने वालों से जुड़ा होता है। यानी थप्पड़ खाने वाला व्यक्ति जितना बड़ा दबंग , उसकी आवाज का वॉल्यूम उतना ही ज्यादा। और कभी - कभी इसकी गूंज अति सुरक्षा वाले संसद भवन तक पहुंच जाती है।

गहन छानबीन के बाद मुझे आश्चर्यजनक जानकारियां मिलीं। कई बार कुछ थप्पड़ प्यार और आपसी मेलजोल बढ़ाते हैं। कई दिनों से संसद में कामकाज बंद था। रोज हंगामा चल रहा था और पक्ष - विपक्ष एक - दूसरे को सुनने को तैयार नहीं थे। लेकिन संसद के बाहर चले एक थप्पड़ ने कमाल कर दिया। जनता पर हर रोज पड़ रहे महंगाई और भ्रष्टाचार के चाबुक एक तरफ धरे रह गए। महंगाई पर ' आगबबूला ' विपक्ष अचानक चाबुक भूल गया और तमाम विरोध और बहिष्कार को निलंबित करते हुए एकजुट हो गया। दस दिन में केवल कुछ समय के लिए एक बार बहस हुई - महंगाई और भ्रष्टाचार पर नहीं , थप्पड़ पर। यानी एक थप्पड़ ने ' नफरत ' करने वालों के सीने में ' प्यार ' भर दिया। बड़े - बड़े नेताओं ने इसका असर कम करने के लिए और थप्पड़ खाने वाले के साथ सहानुभूति दिखाने के लिए अपने तरकश के सारे बाण छोड़ दिए। महंगाई और काले धन के लिए एक भी बचाकर नहीं रखा। पर इसमें सहानुभूति कम और डर ज्यादा था कि कहीं अगली बारी उनकी न हो।

लेकिन हर थप्पड़ एक जैसे नहीं होते। मैंने पहले ही कहा कि थप्पड़ का महत्व इस पर निर्भर करता है कि थप्पड़ मारने वाला या थप्पड़ खाने वाला कौन है। उसकी क्या औकात है। अब अगर थप्पड़ खाने वाला एक टीचर है , वह भी महिला तो उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित होगी। पहली बात तो वह टीचर है , ऊपर से महिला। इसके बावजूद मुकाबला कर बैठी दबंगों से। उस महिला टीचर को शायद कोई गलतफहमी हो गई थी। कुछ दिन पहले उसने टीवी पर थप्पड़ के साइड इफेक्ट देखे थे। कैसे उसकी गूंज लोकसभा में सुनाई दी थी। कैसे थप्पड़ मारने वाला सलाखों के पीछे पहुंच गया। कैसे पक्ष - विपक्ष ने सदन को सर पर उठा लिया था। फिर उसके मामले में तो बवाल ज्यादा होगा। आखिर सदन की स्पीकर स्वयं एक महिला हैं , सरकारी पक्ष की नेता भी महिला हैं। और तो और विपक्ष की नेता भी एक महिला हैं। ऐसे में थप्पड़ मारने वाले सरपंच की अब खैर नहीं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरा शोध ये कहता है कि इसमें गलती उस महिला की है क्योंकि थप्पड़ के सिद्धांत के मुताबिक आवाज तभी ज्यादा होती है , जब थप्पड़ मारने वाला नहीं , थप्पड़ खाने वाला दबंग हो। अगर मारने वाला बड़ा है तो उसकी आवाज चार कदम भी नहीं जा पाएगी। मेरा शोध कहता है , थप्पड़ के साइड इफेक्ट तभी होते हैं , जब थप्पड़ मारने वाला नहीं , थप्पड़ खाने वाला मजबूत हो। तभी तो थप्पड़ मारने वाला एक आदमी आज जेल में है , जबकि बाकी थप्पड़मारू दबंग बाहर मौज कर रहे हैं।

malethia
23-12-2011, 06:08 PM
चोरों की जमात पूछे अन्ना की औकात!-नरेंद्र नागर



कल लालू प्रसाद यादव को लोकसभा में बोलते हुए सुना। वह भड़के हुए थे। वह इस बात पर नाराज़ थे कि केंद्र की यूपीए सरकार अन्ना हजारे नाम के एक इंसान के आंदोलन से डरकर एक ऐसा बिल ला रही है जिससे संसद के कानून बनाने के एकाधिकार पर आंच आती है। उनके अनुसार कानून बनाने का अधिकार संसद को है और सड़कों पर होनेवाले आंदोलनों के दबाव में उसे नहीं आना चाहिए। वह कांग्रेस सरकार से पूछ रहे थे कि आखिर वह क्यों अन्ना हजारे से इतना डर रही है कि आनन-फानन में लोकपाल बिल ला रही है।

लालू लोकपाल बिल का विरोध कर रहे थे इस पर हैरत नहीं हुई। लालू, मुलायम, मायावती, जयललिता जैसे नेताओं से हम उम्मीद कर ही कैसे सकते थे कि वे एक ऐसे बिल का समर्थन करेंगे जिससे उनकी गरदन फंसने की रत्ती भर भी आशंका हो। उनके लिए तो मौजूदा व्यवस्था बहुत बढ़िया है जहां करोड़ों के घपले करने के बाद भी आज वे लोकसभा के माननीय सांसद या किसी राज्य की मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हैं। देश की न्यायिक प्रक्रिया इतनी कमाल की है कि महंगे वकीलों के बल पर ये सारे नेता अपने खिलाफ चल रहे मामलों को सालोंसाल खींच सकते हैं, खींच रहे हैं और अदालतों से बरी होकर निकल रहे हैं। तो फिर ऐसे नेता ऐसा लोकपाल क्यों बनने देंगे जो छह महीने में उन्हें अंदर कर दे! क्या वे पागल हैं?

http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/ekla-chalo/resource/jayapraksah_narayan_20070820.jpgजैसा कि मैंने ऊपर कहा, मुझे लालू या मुलायम द्वारा इस बिल का विरोध करने पर हैरत नहीं है। हैरत इस बात पर है कि वे सड़कों पर होनेवाले आंदोलनों पर सवाल उठा रहे हैं, उन्हें हिकारत की नज़र से देख रहे हैं और कह रहे हैं कि अन्ना या उनके समर्थकों की औकात ही क्या है। विश्वास नहीं होता कि ये वही नेता हैं जो राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को अपना नेता मानते हैं (या शायद थे) और जिनके साथ सड़कों पर आंदोलन करते हुए वे आज इस जगह पर पहुंचे हैं। मुझे याद है, 1974 में जयप्रकाश नारायण के बिहार आंदोलन की जब उन्होंने तब की अब्दुल गफ्फूर सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था। अगले साल उन्होंने दिल्ली में सत्तासीन इंदिरा गांधी की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए देश भर में आंदोलन छेड़ा था। क्या उस समय विधानसभा में अब्दुल गफ्फूर को बहुमत का समर्थन नहीं था? क्या इंदिरा गांधी को तब की लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं था? अगर था तो इन बहुमत-प्राप्त नेताओं को हटाने के लिए सड़कों पर आंदोलन क्यों छेड़ा गया? तब इन लालू यादव ने क्यों नहीं कहा कि भारतीय संविधान के तहत विधानसभा और संसद जन आंदोलनों से बड़ी होती हैं।

इसी तरह मुलायम सिंह यादव जिन समाजवादी नेता लोहिया को गाहे-बगाहे याद कर लेते हैं, उन्हीं राममनोहर लोहिया का मशहूर बयान है कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं। इस वाक्य का मतलब क्या है – यही न कि चुनाव में विधायक या सांसद चुनने के बाद भी जनता अपने विधायकों और सांसदों या सरकारों से सवाल पूछ सकती है, उन्हें वापस बुला सकती है, उनके खिलाफ सड़कों पर उतर सकती है।

http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/ekla-chalo/resource/Mulayam_lohia.jpgसड़कों से अपनी राजनीति शुरू करके संसद या विधानसभा तक पहुंचने वाले ये नेता आज सड़कों से शुरू और सड़कों पर ही खत्म होने वाली अन्ना की राजनीति से खौफ खा रहे हैं। आज उन्हें सड़कों पर जमा होनेवाली भीड़ से डर लगने लगा है। शायद इसलिए कि उनको पता है, यह भीड़ किराए की नहीं है। इसलिए भी कि यह भीड़ किसी धर्म, किसी जाति, किसी वर्ग के संकीर्ण हितों की मांग के लिए इकट्ठा नहीं हुई है। और शायद इसलिए भी कि इस भीड़ का जो नेता है, वह किसी कुर्सी या सुविधा के लालच में आगे नहीं बढ़ा है।

एक टीवी चैनल पर कल रामविलास पासवान बोल रहे थे – यह अन्ना हजारे क्या है! मैं अगर उनको जवाब देने की हालत में होता तो यही कहता – पासवान जी, अन्ना हजारे वह हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी में शायद ही कभी कोई ऐसा काम किया हो जिसमें उनका कोई निजी फायदा हो। और आपलोग! आपलोगों ने अपनी ज़िंदगी में शायद ही कभी कोई ऐसा काम किया हो जिसमें आपका अपना कोई फायदा न हो।

malethia
31-12-2011, 11:14 AM
बन्दर के हाथ में भारत है -शैलेश कुमार



आज लोकपाल दम तोड़ चूका है/ जहां सिविल सोसाइटी और प्रबुद्ध वर्गों ने जीवनदान देने के लिए हर संभंव् प्रयास में जुटी हुई है / वहीँ लोकपाल को दुर्योधन के दरवार में चीर हरण करने का दु: साहस करने वाले दु:शासन ,(लालू यादव द्व )और मामा शकुनी के चालो का शिकार होना पड़ा/
महाभारत में सिर्फ एक ही शकुनी था/ जिसने कुरु वंश में कौरवो का नाश करवाया और पांडवो को गृह विहीन करवाया/ इन्द्रप्रस्थ के प्रागन में भ्रष्टाचार के रखवालो ने जन लोकपाल बिल के साथ जो तांडव किया / वह तांडव सविधान के पन्नो में काले अक्षरों में मुद्रित हो गया/ इस अकर्मण्य नृत्य करो ने यही नृत्य महिला विधेयक पर किया जो आज तक लंबित पड़ा हुआ है/
जनता को सतानेवाले हजारो शकुनी मामा शीतकालीन सत्र के बाद कोठो, दारू खानों और रंगदारी की मजमा लगाने बैठेगे. ऐसे लोगो से क्या उम्मीद/ कहावत सही है बन्दर के हाथ में नारियल/ मद्यप्रदेश से निकलने वाले मासिक पत्रिका में प्रथम पृष्ट पर हैडिंग था:- बन्दर के हाथ में बिहार/ इस पर लालू यादव ने भयंकर रोष प्रकट किया था/ इस हैडिंग की भविष्यवाणी लोगो ने अपने आँखों से बिहार में देखा/ उसी परिणाम की प्रतिक्रया है की आज नितीश कुमार है/ जो बिहार को मानचित्र में लाने का प्रयास कर रहे है/
वही आज बन्दर के हाथ में भारत है/ जो हर विधेयक के पन्नो के साथ बंदरीकरण से पेश आ रहा है/
बिल का विरोध करना/ बिल में संसोधन / ये सब बाते समझ में आता है / लेकिन बिल के प्रति को फाड़ा जाना कान्हा तक संबैधानिक है/ इससे तो संबैधानिक गरिमा को मिटटी में मिलाने जैसा है/ बिल का फाड़ने से जनता को ठेंगा दिखाना ही नहीं वरण संसद को अपमानित करना है/
माना की जन लोकपाल बिल से सांसद और मंत्री को एक दरोगा जेल में ठूस देंगे/ लेकिन महिला विधेयक में कौन से सांसद जेल में ठुसे जाते/ सांसद और मंत्री को जेल में ठूसना जरुरी है/ क्योंकि 100 अपराधो में 90 अपराधी इसी सांसदों और मंत्री के कारकून होते है/ जो फोन में छोड़े जाते है/ धमकी पर जमानत मिलती है/ अगर पुलिश सीधे तौर पर उक्त मंत्री और सांसद को जेल में बंद कर दे तो शत प्रतिशत अपराध बंद हो जायेंगे/ बिल के पन्नो को फाड़ने वालो ( सांसद) को जनता के अधिकार को हनन करने के अधीन दंड देने का प्रावधान भी होना चाहिए/
जन लोकपाल बिल को सरकार चुनावो में भुनाना चाहती है/ ये ऐसे छुद्र सरकार है / अगर पता लग जाए की देश पर बम गिराने से सरकार की सत्ता बरक़रार रह पायेगी तो यह सरकार देश पर बम भी गिरा देगी/ इसलिए ऐसी बन्दर के हाथ से सत्ता जल्द से जल्द वापस होना चाहिए/
मतदाता किसी पार्टियों के बातो में न आये / मत देते वक्त बुधजीवी बर्गो ( विद्वान प्रोफेसर, विद्वान समाजसेवी और विद्वान् अधिवक्ता से अवश्य सलाह ले) जो आपको सही रहा बता सके/ फिर आप को भी सोचने का अधिकार है/देश में होने वाले किसी भी घटनाओ से आप भी पीड़ित होंगे/ देश आपका है/ भविष्य आप है/ जाती नहीं/ धनामल सेठ नहीं/ आप को कर्ज देने वाला नहीं/ आप अपने बीमारी का इलाज स्वंय करे/ ये प्रधानमंत्री और आपके इलाके के सांसद और मंत्री नहीं/ इसलिए सोच समझ कर पार्टियो को मत दे/

malethia
07-05-2012, 06:18 PM
चड्डी बने राष्ट्रीय परिधान-arvind mishra


एक फिल्म प्रेमी मित्र के साथ चर्चा के दौरान आने वाली फिल्म फात्सो के प्रसंग में चड्डी की चर्चा शुरू हो गयी. दरअसल इस फिल्म का नायक चड्डी नहीं पहनता. फिर तो चड्डी को लेकर मित्र ने चटखारे लेकर और भी बातें करनी शुरू कीं...याद है एक ब्लॉगर ने किस तरह ब्लॉगजगत में यह कह कर धमाका कर दिया था कि वह इस इह लोक में महज पति की चड्डी धोने के लिए ही नहीं अवतरित हुई हैं...हां हां भला उन्हें कौन भुला सकता है, आज वे बिना चड्डी धोये जीवन को सार्थकता के नए आयाम दे रही हैं। फिर तो एक वृहद् चड्डी चर्चा ही शुरू हो गयी. आस पास के जो लोग इधर ही कान लगाये थे थोडा और पास खिसक आये।

गुलजार के चड्डी लगाव पर चर्चा हुई। क्या गाना था वो भी...चड्डी पहन के फूल खिला है...बच्चों के साथ बड़े भी लहालोट हो जाते थे यह गीत सुन कर। तब भी यही लगता था कि चड्डी निश्चय ही फूल जैसे बच्चों की ही ड्रेस हो सकती है. इनोसेंट प्यारे बच्चे चड्डी में और भी कितने प्यारे लगने लगते हैं. मगर नाश हो इन नासपीटों होजरी उद्योग वालों का जिन्होंने विज्ञापन के चलते चड्डी को युवाओं का भी ड्रेस - अन्तःवस्त्र बना दिया और उसके साथ कुछ रोमांटिसिज्म भी जोड़ दिया। नए प्रतीक भी गढ़ लिए गए। मुओं ने इस बचपने को यौनाकर्षण से भी जोड़ दिया ...अगर तुम वह वाली चड्डी पहनोगे तो वह तुम्हारे पास खिंची चली आयेगी - हुंह ऐसा भी होता है भला? मगर चड्डी उद्योग परवान चढ़ता गया...नारियों ने अपने लिए गुलाबी रंग चुन कर इस रंग को भी एक फुरफुरी झुर्झुरीनुमा संवेदना से जोड़ दिया -पिछले दिनों एक चड्डी अभियान दरअसल इसी संवेदना की एक निगेटिव पब्लिसिटी ही तो थी :). किसी राम सेना को इस चड्डी अभियान में पूरी तरह गुलाबी बना दिया गया था.

हमारे यहां गांव गिराव में तो बच्चे ही चड्डी पहनते आये हैं...बड़े हुए तो लंगोट ढाल ली. कहते हैं लंगोट और ब्रह्मचर्य में एक घनिष्ठ रिश्ता है...अगर बात इधर मुडी तो तगड़ा विषयांतर हो जाएगा...इसलिए अभी यह चड्डी चर्चा पूरी हो जाने दीजिये। लंगोट महात्म्य फिर कभी...मैंने तो कभी पहनी नहीं, किसी लंगोटधारी से पूछ पछोर कर ही कुछ बता पाऊंगा...वैसे भी लंगोट मुझे हमेशा सांप की प्रतीति कराती है। जाहिर है लंगोट से डर लगता है। तो हां...चड्डी.....गांव में अभी भी बहुत से लोग चड्डी नहीं पहनते...यह नागर सभ्यता की देन है. हां नेकर गावों में जरूर पहना जाता है, जिसे जांघिया भी कहते हैं...मगर वह एक बहिर्वस्त्र है अंतःवस्त्र नहीं। हां कुछ उजबक किस्म के लोग जांघिया के ऊपर पायजामा, पैंट पहन कर अपनी समृद्धता का बेजा प्रदर्शन भी करते हैं - ऐसे लोग मुझे अच्छे नहीं लगते (याद दिला दूं चल रही चड्डी चर्चा में ज्यादा हिस्सेदारी मेरे मित्र की है, इसलिए जिस भी वक्तव्य के बारे में तनिक भी शंका हो उसे मेरे मित्र का माना जाये) गांव की गोरियां भी अमूमन अन्तःवस्त्र नहीं पहनतीं...एक ग्राम्य पंचायत में अभी खुलासा हुआ कि एक ग्राम्या को उसका शहरी हसबैंड जबरदस्ती चड्डी पहनने को कहता है...पञ्च लोग गरजे...अबे कलुआ ऐसा काहे करता है बे...उसने बहुत झेंप झांप के बताया कि यह फॉर्मूला अपनाने से उसे जोर का कुछ कुछ होता है...मगर उस ग्राम्या को यही ऐतराज था...मामला तलाक पर जा पहुंचा था। मुझे लगता है ग्राम्या होशियार थी...उसे भी रोज रोज चड्डी साफ़ करने की मुसीबत से छुटकारा चाहिए था।

जाहिर है यह चड्डी संस्कृति बहुत गहरे घुस गयी है हमारे जीवन में। एक मित्र दंपती को जब शादी के कई साल बाद भी संतान की प्राप्ति नहीं हुई तो ओझाई सोखाई शुरू हुई...कहां क�����ां नहीं गए बिचारे, कौन कौन सा नेम व्रत नहीं किया...किसकी मिन्नतें नहीं हुईं, देवी औलिया दरगाह सब जगह शीश नवाया...मगर संतान नहीं हुई। एक काबिल डॉक्टर ने जांच परख की तो मित्र से कहा कि अब से चड्डी पहनना छोड़ो...बच्चा हो जाएगा...आश्चर्यों का आश्चर्य दंपती को अगले वर्ष ही बच्चा नसीब हो गया....मगर कैसे? डॉक्टर ने बताया कि लगातार चड्डी पहनने से स्पर्म काउंट घट गया था- यह भी कि पुरुष जननांग के पास एक ख़ास स्थिर तापक्रम शुक्राणुओं को सक्रिय समर्थ रहने के लिए आवश्यक है...मेरे मित्र ने तबसे चड्डी ऐसी उतार फेंकी कि फिर आज तक नहीं पहनी. कई होनहार बच्चों के गर्वित पिता हैं....और चड्डी न पहनने की कई सहूलियतों का भी वर्णन करते नहीं अघाते।
ब्लॉगर आशीष श्रीवास्तव इस चड्डी पुराण से इतने प्रभावित हुए हैं कि कई ब्लॉगरों के साथ उन्होंने इसे भारत का राष्ट्रीय परिधान घोषित किये जाने की मांग की है.


साभार-नवभारत टाइम्स

malethia
08-05-2012, 07:27 PM
सारे रोगों का रामबाण इलाज़ -सत्येन्द्र कुमार



जी मैं सच कह रहा हूँ मेरे द्वारा बताये गए इस नुस्खे को अपनाने से आपके सारे रोग भाग जायेंगे मेरा यकीन करें | पता नहीं मेरा आज का ये विषय आप सबों को अच्छा लगे या न लगे , लेकिन इतना जरूर जानता हूँ मैंने जो विषय उठाया है यह खाने में नमक जैसा महत्वपूर्ण है | विष रूपी संसार में अमृत रूपी जीवन है | नीरसता रूपी रेगिस्तान में आशा रूपी बरसात है | डूबते को तिनके का सहारा है | परमात्मा के द्वार की पहली सीढ़ी है | तुलसीदास जी के ये पद बड़े हीं प्यारें हैं |
राम हीं केवल प्रेम पिआरा |
जानहिं केवल जाननीहारा ||

जी मैं प्रेम की बात कर रहां हूँ जो आजकल नदारद है और बहुत ढूंढे इनके दर्शन नहीं होते | बहुत ढूंढा नहीं मिला | मिला ! मिला ! अपने हीं भीतर मुझे यह मिला और आँख तरेर कर मुझसे सवाल कर बैठा सिर्फ दूसरे में हीं मुझे ढूंढोगे या खुद के भीतर भी तलाशोगे | हम हमेशा दूसरे से हीं प्रेम तलाशते हैं| और खुद को रुखा सूखा रखते हैं भला ऐसे में परिणाम क्या आएगा |

एक बात कहूँ सारे रोगों का अचूक उपाय है आप दूसरे से प्रेम करना शुरू कर दो आपका इलाज तय | अगर शुरू शुरू में परेशानी मालूम हो तो छोटे छोटे बच्चों से हीं प्रेम करें उनको पुचकारें उनके साथ खेलें बल्कि आप भी बच्चे बन जाएँ |बशीर बद्र साहब ने भी कहा है की ,घर से मस्जिद है बहुत दूर ,चलो किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये | हो गयी बंदगी | अपने पडोस की बूढी अम्मा के पास चलें जाएँ उनसे मीठी मीठी बातें करें सच कहूँ बहुत आनंद आएगा | आज बहुत से वृद्ध माता पिता अकेले हैं कारण उनके पुत्र पुत्रियां विदेश में हैं रुपया कमाने के चक्कर में लानत है ऐसे रुपया पर | आज भारत में वृद्धा आश्रम खुल रहें हैं शर्म ! शर्म ! शर्म ! दादा दादी , नाना नानी की कहानियों के लिए प्रसिद्ध ये भारत और आज उन्हीं दादा दादीयों नाना नानियों के लिए वृधाश्रम ! सोचें हम कहाँ खडें हैं |
लगभग सारे विश्व में अब भारत में भी एक बीमारी अपने पाँव पसार रही है वह है अवसाद (depression) इसका इलाज मेरे हिसाब से एक हीं है प्रेम प्रेम करो !प्रेम करो ! बस और कुछ नहीं सबसे प्रेम करो | किसी दुखी बुजुर्ग का हाँथ अपने हाँथ में ले कर दो शब्द प्रेम के बतिया लें देखिये कैसी उर्जा जाग जायेगी आपके भीतर और अगले के भीतर भी प्राण उर्जा ! शुद्ध चैतन्य उर्जा !

प्रेम ! धरती से यह रफूचक्कर होने के मूड में है | जरूरत है इसे कस कर पकड़ने की वर्ना .................... आप खुद हीं सोंच ले

प्रेमसहित
आपका सत्येन्द्र



साभार-नवभारत टाइम्स

malethia
12-05-2012, 06:16 PM
पॉलिटिकल साइंस पर एनसीईआरटी की एक किताब में छपे आंबेडकर के कार्टून पर आज लोकसभा में भारी हंगामा हुआ। मामला साउथ की एक नामालूम-सी पार्टी के नामालूम-से सांसद ने उठाया था लेकिन कांग्रेस, बीजेपी समेत सभी पार्टियों के सांसदों ने उनकी हां में हां मिलाई। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने भी इसे गंभीर मामला बताया है। मायावती भी मैदान में कूद पड़ी हैं। मामला और तूल न पकड़े, इसके लिए किताब से कार्टून हटाने की घोषणा भी हो गई है। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने इसके लिए सार्वजनिक तौर पर माफी भी मांग ली है।

http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/ekla-chalo/resource/cartoon-of-Ambedkar.jpg
मैंने खुद यह कार्टून देखा और मुझे इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लग रहा। इसमें संविधान नामक घोंघे पर आंबेडकर बैठे दिखाए गए हैं और नेहरू पीछे से घोंघे को सोंटा लगा रहे हैं ताकि वह थोड़ा तेज़ चले। और किताब में यह संविधान से जुड़े चैप्टर के साथ ही लगाया गया है।

महान कार्टूनिस्ट शंकर (http://en.wikipedia.org/wiki/K._Shankar_Pillai) द्वारा बनाए गए इस कार्टून से साफ झलक रहा है कि संविधान बनने में हो रही देरी पर वह व्यंग्य कर रहे हैं। कार्टूनिस्ट एक विचारवान कलाकार है जिसको बड़े से बड़े आदमी की खिल्ली उड़ाने का अधिकार है। कार्टूनिस्ट व्यंग्य या मज़ाक नहीं करेगा तो क्या आरती उतारेगा?अगर मज़ाक नहीं होगा तो फिर कार्टून क्या होगा! इसमें घोंघे पर आंबेडकर इसीलिए बिठाए गए हैं कि वही संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। यदि कोई और इस समिति का अध्यक्ष होता तो उसका कार्टून होता आंबेडकर की जगह।

यदि आंबेडकर के दलित होने का इस कार्टून में मज़ाक उड़ाया गया होता तो आपत्ति का कारण समझ में आ सकता था। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है इसमें।

कार्टून से नाराज़गी का एक मसला हाल ही में बंगाल में भी सामने आया था, जब ममता बनर्जी की पुलिस ने एक प्रफेसर के खिलाफ इस आधार पर मामला दायर कर दिया था कि उन्होंने ममता बनर्जी पर बने कार्टून सोशल नेटवर्किंग साइट पर शेयर किए थे। इससे पहले अन्ना आंदोलन के बाद पब्लिक द्वारा बनाए गए और शेयर किए गए मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी आदि के कार्टूनों-मॉर्फ्ड पिक्चरों पर भी सरकार को परेशानी हुई थी।

कार्टून आलोचना का एक मज़ाकिया तरीका है और किसी भी लोकतांत्रिक देश में इसका अधिकार सबको मिला हुआ है। आंबेडकर या नेहरू या गांधी या मोदी – ये सारे लोग भले ही किसी खास तबके के लिए भगवान हों लेकिन निष्पक्ष नागरिकों के लिए ये सारे इंसान हैं या थे और उनके कामों की भी बाकियों की तरह आलोचना हो सकती है।

आम जनता अपनी चर्चाओं में और हमारे जैसे लेखक अपनी लेखनी द्वारा जो बात कहते हैं, वही बात कार्टूनिस्ट अपने व्यंग्यचित्रों द्वारा छोटे में और बेहतर तरीके से कहते हैं।


लेखक-नरेंद्र नागर

साभार-NBT

malethia
23-05-2012, 11:38 AM
हम जहां कहेंगे बस वहीं छपेंगे कार्टून -सहीराम॥

यह वो भीड़ नहीं थी, जो सिनेमाघरों पर हमले करती थी। यह वो भीड़ तो नहीं थी जो वाटर जैसी फिल्मों की शूटिंग नहीं होने देती थी। यह वो भीड़ भी नहीं थी जो हुसैन की प्रदर्शनियों में घुस जाती थी और तोड़-फोड़ करती थी। यह वो भीड़ तो नहीं थी जो सहमत की प्रदर्शनियों पर हंगामा करती थी। यह वो भीड़ तो नहीं थी जिसके डर से आर्ट गैलरियां हुसैन की पेंटिंगें प्रदर्शित नहीं करती थी और सरकारी आयोजनों में भी उन्हें शामिल नहीं किया जाता था। ये वो लोग भी नहीं थे जो देश में जगह-जगह हुसैन पर मुकदमे दायर करते रहते थे और जिन्होंने उन पर इतने मुकदमे लाद दिए थे कि वे देश छोड़कर ही चले गए। देश निकाला ऐसे भी दिया जाता है। वे फिर कभी वापस नहीं आए। यह वो भीड़ भी नहीं थी जो हबीब तनवीर के नाटक नहीं होने देती थी। यह वह भीड़ भी नहीं थी जो महाराष्ट्र में लेन की लिखी शिवाजी वाली पुस्तक पर प्रतिबंध की मांग करती थी और भंडारकर इंस्टीट्यूट में तोड़फोड़ करती थी। यह महाराष्ट्र में ही रोहिंग्टन मिस्त्री के उपन्यास सच ए लांग जर्नी पर प्रतिबंध की मांग करनेवाली भीड़ भी नहीं थी।

ये वे लोग भी नहीं थे जिन्होंने कभी जेएनयू में पाकिस्तानी शायर फहमीदा रियाज की एक नज्म पर हंगामा बरपा कर दिया था। ये वे लोग भी नहीं थे जो कभी अमृता प्रीतम की कविताओं पर नाराज हो उठे थे। ये वे लोग भी नहीं थे जिनसे तस्लीमा नसरीन भागी फिरती हैं। ये वे धर्म के रक्षक भी नहीं थे जो कभी सलमान रश्दी के खून के प्यासे हो उठते हैं और कभी किसी डैनिश कार्टूनिस्ट के सिर पर करोड़ों का इनाम रखने लगते हैं। ये सिर्फ तृणमूल कांग्रेसवाले भी नहीं थे, जिन्होंने अपनी नेता का एक कैरीकेचर फारवर्ड करने के जुर्म में एक प्रोफेसर को जेल पहंुचा दिया था। ये इनमें से बेशक कोई नहीं थे, पर उन्हीं की जमात के लग रहे थे, उनसे काफी मिलते जुलते। वे कोई उन्मादी भीड़ नहीं थे, फिर भी उन्माद पता नहीं क्यों वैसा ही दिखता था। वे कोई हुड़दंगी भी नहीं थे। पर आक्रामक उतने ही थे। लोग पहचानने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर वे हैं कौन?

और देखो, वे तो अपने सांसद ही निकले। हमारे भाग्यविधाता। वे संसद की सर्वोच्चता के लिए चिंतित थे और उसे स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध थे। वे नेताओं की बिगड़ती छवि को लेकर चिंतित थे। पर खुद अपनी बेहतर छवि गढ़ने की बजाय या किसी पी आर एजेंसी की मदद लेने की बजाय यह चाहते थे कि पाठ्यपुस्तकों से उनकी बेहतर छवि बनाई बनाई जाए। वे बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए उतने चिंतित नहीं थे, जितने चिंतित वे इस बात को लेकर थे कि बच्चों के दिलोदिमाग में उनकी छवि अच्छी बने। और इसीलिए वे उन्हें ऐसी शिक्षा से, ऐसी पुस्तकों से दूर रखना चाहते थे, जिनसे उन्हें आशंका थी, बल्कि डर लग रहा था कि उनके मस्तिष्क प्रदूषित हो सकते हैं। पर वास्तव में यह प्रदूषण की चिंता नहीं थी। क्योंकि वे उन पुस्तकों को लेकर तो कभी चिंतित नजर नहीं आए जो बच्चों के दिलो-दिमाग को सांप्रदायिकता से प्रदूषित कर रही हैं, विषाक्त बना रही हैं और जिन्हें कुछ शिक्षण संस्थाएं बाकायदा अपने पाठ्यक्रमों में रखे हुए हैं।

खैर , वे बेहद नाराज थे। क्योंकि वे चिंतित थे। वे उन पुस्तकों से नाराज थे , जिनमें नेताओं के कार्टून छपे हैं। वे आजकल के नहीं , बल्कि साठ साल पुराने कार्टूनों से भी नाराज थे। वे बेहद गुस्से में थे , क्योंकि वे चिंतित थे कि नेताओं की छवि बिगाड़ी जा रही है। वे सरकार को घेर रहे थे , सरकार अपने मंत्रियों को घेर रही थी , घिरे हुए मंत्री तुरंत कार्रवाई करने पर तत्पर थे। क्योंकि वे सब एक थे। अपनी छवि से चिंतित और जनता से पीडि़त। वे कह रहे थे कि हमें कार्टूनों से एतराज नहीं हैं। वे पत्र - पत्रिकाओं में छपें , पर पाठ्यपुस्तकों में न छपें। आखिर तो वे हमारी अभिव्यक्ति की आजादी के रक्षक हैं। अभिव्यक्ति की आजादी जिंदाबाद !

malethia
24-05-2012, 10:44 AM
पेट्रोल बम को सरकार के सिर फोड़ दो -राजेश कालरा


कीमत में एक बार में साढ़े सात रुपये प्रति लीटर बढ़ोतरी करके सरकार ने जनता की ओर पेट्रोल बम उछाल दिया है। पेट्रोल के दाम में यह एकमुश्त अब तक की सबसे बड़ी बढ़ोतरी है। दुनिया की अर्थव्यवस्था डांवाडोल है, कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रही हैं और हमारा अपना रुपया डॉलर के मुकाबले मटियामेट होता जा रहा है। इस स्थिति में यह बात समझी जा सकती है कि सरकार के पास काफी कम विकल्प बचे थे। आखिर किसी को तो इसकी भरपाई करनी ही होगी। तेल कंपनियों को अगर टिकना है तो उससे लंबे समय तक लागत मूल्य से कम कीमत पर तेल बेचने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। सरकार भी बिना सोच-समझे हो रही खपत पर लंबे समय तक सब्सिडी नहीं जारी रख सकती।
उम्मीद के मुताबिक ही विपक्ष समेत सरकार के कुछ घटक दलों (खासकर ममता बनर्जी) ने मूल्य वृद्धि को लेकर अपना गुस्सा दिखाना शुरू कर दिया है। सबके एक से बयान हैं। गरीबों पर बुरा असर पड़ेगा, पहले से ही दैनिक खर्चे लगातर बढ़ने की वजह से मुश्किल से जीवन यापन कर पा रहे आम आदमी के लिए पेट्रोल की कीमत में बढ़ोतरी का हर चीज पर असर पड़ने से जीना दुश्वार हो जाएगा। ये सारी बातें सही हैं। इससे किसी को इनकार नहीं है।

लेकिन ज्यादातर बयानवीर जो असहाय जनता पर आंकड़ों की बमबारी करके इसे सही ठहराने की कोशिश करेंगे, उनकी जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। उनके लिए तो हर दिन मजे का होगा। वे इससे अनजान बने रहेंगे कि उनके तमाम तर्कों के बावजूद कीमत बढ़ोतरी का बोझ तो केवल आम आदमी को ही उठाना होगा।

मैं जब कह रहा हूं कि सिर्फ आम आदमी भुगतता है, इसकी वजह यह है कि इस देश में फैसले लेने वाले कीमतों के उतार-चढ़ाव या किसी भी और चीज से परे हैं और उन्हें मिलने वाली इस सुविधा की कीमत हम आम आदमी को चुकानी पड़ती है। वे या तो सिस्टम से इतनी मलाई निकाल चुके होते हैं कि दाम 10 गुना बढ़ जाए तो भी उनकी कई पीढ़ियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा या फिर वे हर सुविधा सरकार से किसी भी कीमत पर हासिल कर लेते हैं। सवाल यह है कि उनके इस 'भोग-विलास' की कीमत किसे चुकानी पड़ती है? हमें और किसे?

अगर यह सिर्फ उनके आधिकारिक काम से जुड़ा हो तो समझ में भी आता है। सरकार चाहे जो भी तर्क दे पर हकीकत यह है कि अगर दुरुपयोग पर अंकुश लगा दिया जाए तो सरकार का फ्यूल बिल आधा हो जाएगा। आप अपने आस-पास देखिए और समझ जाएंगे कि मैं किस ओर इशारा कर रहा हूं। सबसे खराब बात यह है कि चूंकि उन्हें सब मुफ्त मिल रहा होता है इसलिए वे न तो सुविधा की इज्जत करते हैं और न ही सदुपयोग की चिंता। प्रमाणित है कि स्वार्थ राष्ट्रहित पर भारी पड़ रहा है।

मसलन, आप किसी सुबह या शाम दिल्ली की “शान” संस्कृति स्कूल के बाहर खड़े हो जाएं। यानी ऐसे वक्त में जब बच्चों को स्कूल छोड़ा जा रहा हो या स्कूल के बाद लिया जा रहा हो। आपको सरकारी गाड़ियों की कतारें नजर आएंगी। कुछ में मेम साहब होंगी तो कुछ में क्लर्क या चपरासी होंगे। बच्चों की सेवा में। ये तो बहुत दूर की बात है। आप दिन में किसी सरकारी कॉलोनी की सड़कों पर टहल लीजिए, जब सरकारी अफसरों के दफ्तरों में होने वक्त हो। सरकारी गाड़ियां घरों के बाहर उन अफसरों की पत्नियों या पतियों को इधर उधर ले जाने के लिए इंतजार करती खड़ी दिख जाएंगी। किटी पार्टी, शॉपिंग, बच्चों को घुमाने या फिर किसी और निजी काम के लिए। फिर वही गाड़ियां शाम को दफ्तर जाएंगी अफसरों को लाने के लिए। और शाम को भी सरकार का काम खत्म होगा, सरकारी गाड़ियों का नहीं। साहबों के परिवारों को शाम भी तो बितानी होती है! ये सब अ-सरकारी है।

मैं चुनौती देता हूं कि आप सरकारी गाड़ियों के किसी नियम के जरिए इसे सही साबित कर दीजिए। इसे जायज ठहराया ही नहीं जा सकता। लेकिन इस पर कोई सवाल नहीं उठाएगा। क्यों? क्योंकि जिसका काम है इस सब पर नजर रखना, वह तो खुद यही कर रहा है। इसलिए बही खाते बढ़िया से तैयार मिलेंगे। अगली बार जब आप रेड लाइट पर खड़े हों और कोई सरकारी नंबर वाली लाल बत्ती चमकाती गाड़ी आपके पास आकर रुके, तो उसका शीशा खटखटाइएगा और उससे पूछिएगा, क्या तुम सरकारी ड्यूटी पर हो? उसका नंबर नोट कीजिएगा और उसे शेयर कर दीजिएगा।

आरटीआई डालकर पूछिए कि सरकार सरकारी गाड़ियों पर कितना खर्च करती है। और हां, ड्राइवरों के ओवरटाइम पर भी। जितना बड़ा अफसर बेजा इस्तेमाल उतना ज्यादा। आईएएस, आईपीएस, आईएफएस, रेवेन्यू सर्विस, मंत्री, उनका स्टाफ, उनके स्टाफ का स्टाफ सब इसे अपने जन्मसिद्ध अधिकार की तरह इस्तेमाल करते हैं। शर्म का तो नामो निशान नहीं है।

सरकार अक्सर खर्च कटौती की बात करती है। आजकल तो ये शब्द खूब सुनाई देते हैं। पर असल में ये सब खोखले नारे हैं जो तभी उछाले जाते हैं जब सरकार को जनता पर कुछ बोझ लादना होता है। सरकार बस लोगों को दिखाना चाहती है कि देखो, हम ताकतवर लोगों को कितनी फिक्र है और हम भी अपना पेट थोड़ा कसने की चाहत रखते हैं।

बेशक, सरकार की यह फिजूलखर्ची सिर्फ तेल तक सीमित नहीं है। यह तो अथाह है और लगभग हर जगह है। आप सरकारी अफसरों के यात्रा बिल देखिए, खासकर उनके जो विदेश यात्राओं में शामिल रहे हों। विदेश मंत्रालय में एक आरटीआई डालकर पता कीजिए, बड़े अधिकारी कितनी बार वर्ल्ड टूर पर जाते हैं। बिजनस क्लास में नहीं तो फर्स्ट क्लास में। आधे दिन की बैठक में शामिल होने के लिए हफ्तेभर का दौरा। और जानते हैं इसमें खराब बात क्या है? लगभग हर देश के दूतावासों में ऐसे अधिकारी हैं जो वहीं बैठे बैठे इस तरह के मामले संभाल सकते हैं। यानी यहां से किसी को भेजने की जरूरत नहीं है।

आप जरा सा ध्यान से देखेंगे तो जान जाएंगे कि 10 में सिर्फ एक यात्रा सही वजहों से हुई होगी। बाकी नौ को फोन या विडियो कॉन्फ्रेंस से ही निपटाया जा सकता था। गोपनीयता की बात होती तो भी काम करने के बहुत सारे तरीके संभव होते। लेकिन नहीं, अगर अफसर इन गैरजरूरी यात्राओं पर नहीं जाएंगे तो उनके हवाई किलोमीटर कैसे जमा होंगे? और फिर वे अपने परिवारों को मुफ्त यात्राओं पर कैसे ले जाएंगे? अब आप यह तो नहीं कह सकते कि अपने परिवार को घुमाने ले जाना गलत बात है। हम तो अपने परिवारों के लिए ही जीते हैं। लेकिन मेहरबानी करके जनता के पैसे को तो बख्श दीजिए!

जनता के पैसे का यह बेजा इस्तेमाल, यह फिजूलखर्ची हर जगह, हर चीज में नजर आ रही है। नारे लगते रहते हैं फिजूलखर्ची जारी है। शोर मचता रहता है, फिजूलखर्ची जारी है। इसके खिलाफ कहीं भी किसी भी तरह की कार्रवाई हुई हो, नहीं दिखता। वजह मैं पहले ही बता चुका हूं। सभी दोषी हैं। तो रास्ता क्या है? मैं दिखावटी अदालतों या सड़क के न्याय में विश्वास नहीं करता। लेकिन लोगों को अपनी आवाज को और ऊंचा तो करना ही होगा। इतना ऊंचा कि जब भी वे अपनी ताकत से इसे दबाने की कोशिश करें, तो आवाज का जोर और लोगों की तादाद देखकर ही डर जाएं। विश्वास कीजिए, वे ज्यादा देर तक नहीं बच सकते। इसलिए अब जागिए और अपने अधिकार मांगना शुरू कीजिए। कहिए कि आपका पैसा, आपकी खून-पसीने की कमाई को चंद लोगों की ऐश के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा।

व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि जब भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ें और ईंधन के दाम बढ़ाना जरूरी हो जाए, तो उसका बोझ सिर्फ आम आदमी पर न पड़े, सब पर पड़े। ऐसा न हो कि आम आदमी की कमर टूटती जाए और ताकतवर लोगों के लिए ऐसा हो जैसे कुछ हुआ ही न हो।


साभार -नव भारत टाइम्स

sombirnaamdev
24-05-2012, 11:04 PM
पेट्रोल बम को सरकार के सिर फोड़ दो -राजेश कालरा


कीमत में एक बार में साढ़े सात रुपये प्रति लीटर बढ़ोतरी करके सरकार ने जनता की ओर पेट्रोल बम उछाल दिया है। पेट्रोल के दाम में यह एकमुश्त अब तक की सबसे बड़ी बढ़ोतरी है। दुनिया की अर्थव्यवस्था डांवाडोल है, कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रही हैं और हमारा अपना रुपया डॉलर के मुकाबले मटियामेट होता जा रहा है। इस स्थिति में यह बात समझी जा सकती है कि सरकार के पास काफी कम विकल्प बचे थे। आखिर किसी को तो इसकी भरपाई करनी ही होगी। तेल कंपनियों को अगर टिकना है तो उससे लंबे समय तक लागत मूल्य से कम कीमत पर तेल बेचने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। सरकार भी बिना सोच-समझे हो रही खपत पर लंबे समय तक सब्सिडी नहीं जारी रख सकती।
उम्मीद के मुताबिक ही विपक्ष समेत सरकार के कुछ घटक दलों (खासकर ममता बनर्जी) ने मूल्य वृद्धि को लेकर अपना गुस्सा दिखाना शुरू कर दिया है। सबके एक से बयान हैं। गरीबों पर बुरा असर पड़ेगा, पहले से ही दैनिक खर्चे लगातर बढ़ने की वजह से मुश्किल से जीवन यापन कर पा रहे आम आदमी के लिए पेट्रोल की कीमत में बढ़ोतरी का हर चीज पर असर पड़ने से जीना दुश्वार हो जाएगा। ये सारी बातें सही हैं। इससे किसी को इनकार नहीं है।

लेकिन ज्यादातर बयानवीर जो असहाय जनता पर आंकड़ों की बमबारी करके इसे सही ठहराने की कोशिश करेंगे, उनकी जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। उनके लिए तो हर दिन मजे का होगा। वे इससे अनजान बने रहेंगे कि उनके तमाम तर्कों के बावजूद कीमत बढ़ोतरी का बोझ तो केवल आम आदमी को ही उठाना होगा।

मैं जब कह रहा हूं कि सिर्फ आम आदमी भुगतता है, इसकी वजह यह है कि इस देश में फैसले लेने वाले कीमतों के उतार-चढ़ाव या किसी भी और चीज से परे हैं और उन्हें मिलने वाली इस सुविधा की कीमत हम आम आदमी को चुकानी पड़ती है। वे या तो सिस्टम से इतनी मलाई निकाल चुके होते हैं कि दाम 10 गुना बढ़ जाए तो भी उनकी कई पीढ़ियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा या फिर वे हर सुविधा सरकार से किसी भी कीमत पर हासिल कर लेते हैं। सवाल यह है कि उनके इस 'भोग-विलास' की कीमत किसे चुकानी पड़ती है? हमें और किसे?

अगर यह सिर्फ उनके आधिकारिक काम से जुड़ा हो तो समझ में भी आता है। सरकार चाहे जो भी तर्क दे पर हकीकत यह है कि अगर दुरुपयोग पर अंकुश लगा दिया जाए तो सरकार का फ्यूल बिल आधा हो जाएगा। आप अपने आस-पास देखिए और समझ जाएंगे कि मैं किस ओर इशारा कर रहा हूं। सबसे खराब बात यह है कि चूंकि उन्हें सब मुफ्त मिल रहा होता है इसलिए वे न तो सुविधा की इज्जत करते हैं और न ही सदुपयोग की चिंता। प्रमाणित है कि स्वार्थ राष्ट्रहित पर भारी पड़ रहा है।

मसलन, आप किसी सुबह या शाम दिल्ली की “शान” संस्कृति स्कूल के बाहर खड़े हो जाएं। यानी ऐसे वक्त में जब बच्चों को स्कूल छोड़ा जा रहा हो या स्कूल के बाद लिया जा रहा हो। आपको सरकारी गाड़ियों की कतारें नजर आएंगी। कुछ में मेम साहब होंगी तो कुछ में क्लर्क या चपरासी होंगे। बच्चों की सेवा में। ये तो बहुत दूर की बात है। आप दिन में किसी सरकारी कॉलोनी की सड़कों पर टहल लीजिए, जब सरकारी अफसरों के दफ्तरों में होने वक्त हो। सरकारी गाड़ियां घरों के बाहर उन अफसरों की पत्नियों या पतियों को इधर उधर ले जाने के लिए इंतजार करती खड़ी दिख जाएंगी। किटी पार्टी, शॉपिंग, बच्चों को घुमाने या फिर किसी और निजी काम के लिए। फिर वही गाड़ियां शाम को दफ्तर जाएंगी अफसरों को लाने के लिए। और शाम को भी सरकार का काम खत्म होगा, सरकारी गाड़ियों का नहीं। साहबों के परिवारों को शाम भी तो बितानी होती है! ये सब अ-सरकारी है।

मैं चुनौती देता हूं कि आप सरकारी गाड़ियों के किसी नियम के जरिए इसे सही साबित कर दीजिए। इसे जायज ठहराया ही नहीं जा सकता। लेकिन इस पर कोई सवाल नहीं उठाएगा। क्यों? क्योंकि जिसका काम है इस सब पर नजर रखना, वह तो खुद यही कर रहा है। इसलिए बही खाते बढ़िया से तैयार मिलेंगे। अगली बार जब आप रेड लाइट पर खड़े हों और कोई सरकारी नंबर वाली लाल बत्ती चमकाती गाड़ी आपके पास आकर रुके, तो उसका शीशा खटखटाइएगा और उससे पूछिएगा, क्या तुम सरकारी ड्यूटी पर हो? उसका नंबर नोट कीजिएगा और उसे शेयर कर दीजिएगा।

आरटीआई डालकर पूछिए कि सरकार सरकारी गाड़ियों पर कितना खर्च करती है। और हां, ड्राइवरों के ओवरटाइम पर भी। जितना बड़ा अफसर बेजा इस्तेमाल उतना ज्यादा। आईएएस, आईपीएस, आईएफएस, रेवेन्यू सर्विस, मंत्री, उनका स्टाफ, उनके स्टाफ का स्टाफ सब इसे अपने जन्मसिद्ध अधिकार की तरह इस्तेमाल करते हैं। शर्म का तो नामो निशान नहीं है।

सरकार अक्सर खर्च कटौती की बात करती है। आजकल तो ये शब्द खूब सुनाई देते हैं। पर असल में ये सब खोखले नारे हैं जो तभी उछाले जाते हैं जब सरकार को जनता पर कुछ बोझ लादना होता है। सरकार बस लोगों को दिखाना चाहती है कि देखो, हम ताकतवर लोगों को कितनी फिक्र है और हम भी अपना पेट थोड़ा कसने की चाहत रखते हैं।

बेशक, सरकार की यह फिजूलखर्ची सिर्फ तेल तक सीमित नहीं है। यह तो अथाह है और लगभग हर जगह है। आप सरकारी अफसरों के यात्रा बिल देखिए, खासकर उनके जो विदेश यात्राओं में शामिल रहे हों। विदेश मंत्रालय में एक आरटीआई डालकर पता कीजिए, बड़े अधिकारी कितनी बार वर्ल्ड टूर पर जाते हैं। बिजनस क्लास में नहीं तो फर्स्ट क्लास में। आधे दिन की बैठक में शामिल होने के लिए हफ्तेभर का दौरा। और जानते हैं इसमें खराब बात क्या है? लगभग हर देश के दूतावासों में ऐसे अधिकारी हैं जो वहीं बैठे बैठे इस तरह के मामले संभाल सकते हैं। यानी यहां से किसी को भेजने की जरूरत नहीं है।

आप जरा सा ध्यान से देखेंगे तो जान जाएंगे कि 10 में सिर्फ एक यात्रा सही वजहों से हुई होगी। बाकी नौ को फोन या विडियो कॉन्फ्रेंस से ही निपटाया जा सकता था। गोपनीयता की बात होती तो भी काम करने के बहुत सारे तरीके संभव होते। लेकिन नहीं, अगर अफसर इन गैरजरूरी यात्राओं पर नहीं जाएंगे तो उनके हवाई किलोमीटर कैसे जमा होंगे? और फिर वे अपने परिवारों को मुफ्त यात्राओं पर कैसे ले जाएंगे? अब आप यह तो नहीं कह सकते कि अपने परिवार को घुमाने ले जाना गलत बात है। हम तो अपने परिवारों के लिए ही जीते हैं। लेकिन मेहरबानी करके जनता के पैसे को तो बख्श दीजिए!

जनता के पैसे का यह बेजा इस्तेमाल, यह फिजूलखर्ची हर जगह, हर चीज में नजर आ रही है। नारे लगते रहते हैं फिजूलखर्ची जारी है। शोर मचता रहता है, फिजूलखर्ची जारी है। इसके खिलाफ कहीं भी किसी भी तरह की कार्रवाई हुई हो, नहीं दिखता। वजह मैं पहले ही बता चुका हूं। सभी दोषी हैं। तो रास्ता क्या है? मैं दिखावटी अदालतों या सड़क के न्याय में विश्वास नहीं करता। लेकिन लोगों को अपनी आवाज को और ऊंचा तो करना ही होगा। इतना ऊंचा कि जब भी वे अपनी ताकत से इसे दबाने की कोशिश करें, तो आवाज का जोर और लोगों की तादाद देखकर ही डर जाएं। विश्वास कीजिए, वे ज्यादा देर तक नहीं बच सकते। इसलिए अब जागिए और अपने अधिकार मांगना शुरू कीजिए। कहिए कि आपका पैसा, आपकी खून-पसीने की कमाई को चंद लोगों की ऐश के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा।

व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि जब भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ें और ईंधन के दाम बढ़ाना जरूरी हो जाए, तो उसका बोझ सिर्फ आम आदमी पर न पड़े, सब पर पड़े। ऐसा न हो कि आम आदमी की कमर टूटती जाए और ताकतवर लोगों के लिए ऐसा हो जैसे कुछ हुआ ही न हो।


साभार -नव भारत टाइम्स


sabse accha to yahi rahega malethiya ji kiaap bhi apni car ko bech kar meri tarah bekar ho jaiye . petrol deasel ke daam chinta jyada nahi satayegi

malethia
25-05-2012, 04:40 PM
sabse accha to yahi rahega malethiya ji kiaap bhi apni car ko bech kar meri tarah bekar ho jaiye . Petrol deasel ke daam chinta jyada nahi satayegi
सोमबीर जी आप तो जानते ही है हरियाणा में कार का मतलब काम होता है और बे कार हो जायेंगे तो खायेंगे क्या ?

ndhebar
25-05-2012, 05:31 PM
यहाँ वहां से काफी बढ़िया माल जमा किया है

malethia
09-08-2012, 08:14 PM
जब आएगा रामू बाबा का रामराज्य!

अरुणेश सी दवे

आज सुबह-सुबह श्रीमती ने फ़रमाइश रख दी- "रामू बाबा आये हुए हैं, आपको हमें प्रवचन में ले चलना होगा। हमने कहा भी कि भाई आज कल रामू बाबा पहले जैसे योग नही सिखाते हैं, फ़ोकट में राजनैतिक प्रवचन झेलना होगा।" लेकिन श्रीमती कहां मानतीं, हमें ले जाकर ही दम लिया।

खैर बाबा का प्रवचन शुरू हुआ, बोले - "हम प्रमाणिकता के साथ आपकी बीमारियों को दूर भगा देंगे और विदेशों से काला धन वापस ले आएंगे।" उसके बाद बाबा ने कपाल भाती सिखाना शुरू किया, बोले- " जोर से सांस खींचो।" हमने सांस अंदर ली, फिर बाबा बोल उठे - "कालाधन छोड़ो।" हमने कहा- "बाबा हम तो आपके कहे में केवल सांस अंदर किये हैं, अब कालाधन कैसे छोड़ें?" बाबा बोले - " बेटा आप को सांस ही छोड़ना है, कालाधन वाली बात तो हम कांग्रेसियों के लिये कह रहे थे।"

बाबा फ़िर शुरू हुए - "देश का तीन सौ तीस लाख करोड़ काला धन वापस लाकर इससे हम गांव-गांव को स्वर्ग बना देंगे। इस पैसे से हर सड़क पर सोने की परत होगी। गांव-गांव में खादी बुनी जायेगी, । गाय के गोबर से हम बिजली बनायेंगे, तेल आयात की जरूरत नही होगी, पचास सालो तक देश में इनकम टैक्स नही लगेगा।"

cont.............

malethia
09-08-2012, 08:15 PM
इतना सुनते-सुनते हम सपनों में खो गये। बाबा देश के राष्ट्रपति और हम उनके प्रमुख सचिव बन गये। हमसे मिलने के लिए लोगों का तांता लग गया। हर कोई शिकायत बताने और मांगें लेकर हमारे पास आ रहा था। एक प्रतिनिधि मंडल आया, बोला - "साहब, हमारे दलित गांव का गोबर, पड़ोस के गांव के दबंग छीन कर सोसाइटी में बेच देते हैं।" हमने तुरंत आदेश जारी किया - "गायों के मालिको का हिसाब रखा जाये और नाथूराम गोड़से गोबर खरीद गारंटी मिशन के अंतर्गत चेक से सीधे मालिक के खाते में भुगतान हो।"

तभी विभिन्न देशों के राजदूत मिलने आये। पाकिस्तान वाला बोला- "सर, दुनिया में अब आपके अलावा कोई कपड़ा नही बनाता और आपने हमसे कपास खरीदना बंद कर दिया है। हमारे किसान कहां जाएं? रहम कीजिये।" हमने कहा - "पहले आतंकवाद बिल्कुल बंद होना चाहिये, दाऊद के जैसे तमाम आरोपी भारत को सौंपिये, कश्मीर को हमारा अभिन्न अंग मानिये, उसके बाद आपसे कपास खरीदा जायेगा।" अगला दल यूरोप का था, आते ही गिड़गिड़ाने लगे - "माई बाप, सारे यूरोप का पैसा तो आप वापस ले गये हो। हमारे यहां हाहाकार मचा हुआ है, हमें कर्ज दीजिये वरना हम तबाह हो जायेंगे।" हमने कहा - "अपना सोना गिरवी रखना होगा, उसके अलावा ब्रिटेन के म्यूजियम में भारत की जितनी ऐतिहासिक वस्तुएं हों, वो सब लौटानी होंगी। आखिरी शर्त लंदन के मुख्य मार्केट की सड़क हमारी होगी। उसमें बोर्ड लगा होगा- " ब्रिटिश एन्ड डॉग्स नाट अलाउड।"

इसके बाद अमेरिका के वैज्ञानिकों का दल था, वे आते ही चढ़ बैठे - "आप विश्व हित की टेक्नालॉजी को छुपा रहे हो। आप वसुधैव कुटुंबकम की हिंदू संस्कृति भूल गये हो।" हमने पूछा - "भाई, मामला क्या है?" वे और भड़क गये - " आपके यहां गायें खुल्ला घूमती हैं, लेकिन आप उस गोबर से मीथेन गैस बना, ईंधन के मामले में आत्मनिर्भर हो गये। और हम हैं कि दस हजार गायें एक-एक फ़ार्म में पालते हैं, सबका गोबर आटॊमेटिक एकत्र हो जाता है। फिर भी हम उसका उपयोग करने में असमर्थ हैं।" हमने कहा - " हम आपको गोबर की तकनीक विशेष शर्तों पर उपलब्ध करा सकते हैं। इस तकनीक में काम आने वाला गौमूत्र, शुद्ध भारतीय होगा। यह गोमूत्र आपको सौ रूपये प्रति लीटर पर खरीदना होगा।" शर्तें सुन कर अमेरिकी जमीन में लोट गये, बोले - "माई बाप, पहले एक रुपये की कीमत पचास डॉलर हो गयी है, हम ये बोझ और न सह पायेंगे।" हमने इनकार में सर हिला दिया।

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malethia
09-08-2012, 08:16 PM
अमरीकन बोले - " हम रामू बाबा से सीधे बात करेंगे।" हमने कहा - "सौ देशो की खुफ़िया पुलिस रामू बाबा को खोज रही है कि उनके हाथ लग जायें तो उनके देश का भला हो जाये। इसलिये वे गुप्त स्थान पर रहते हैं, आप नही मिल सकते।" जाते-जाते अमेरिकन भुनभुना रहे थे - "जितने आलतू-फ़ालतू बाबा थे, उनको हरे रामा हरे कृष्णा करने अमेरिका भेजते रहे और महान रामू बाबा से मिलने तक नही देते हैं।"

तभी भाजपा के गुड़गुड़ी साहब आ गये, बोले, "दवे जी चुनाव सर पर आ गया है, देश में कोई समस्या ही नहीं बची है, जनता से कहें क्या?" हमने कहा - "कल ही वित्त मंत्री कह रहे थे कि सारे विकास कार्य हो चुके हैं। जो बचे हैं, उनके लिये पैसा आबंटित हो चुका है। अब हर साल ब्याज के तैंतीस लाख करोड़ खर्च कहां करें? आप विश्व के सत्तर गरीब देशों की इस पैसे से मदद कीजिये। फिर यूएन में उनकी सहायता से प्रस्ताव पारित करा लिया जायेगा कि चीन और पाकिस्तान भारत को जमीन वापस करें। बिना लड़े जमीन आ गई तो समझिये अगला चुनाव जीतना तय है।"

प्रसन्न होकर गुड़गुड़ी साहब निकले ही थे कि तभी तेल उत्पादक देशों (ओपेक) का दल आया। आते ही गिड़गिड़ाने लगे - "साहब, कोई ऐसे ऑर्डर कैंसल करता है क्या भला! आपने तो हमें कहीं का नही छोड़ा। " हमने कहा - "भाई करें क्या, अब कुछ काम ही नही रहा तेल का, अब तो खाली परंपरा निभाने के लिये राष्ट्रपति पंद्रह अगस्त को पेट्रोल कार में बैठ कर समारोह में जाते हैं।" बाकी देशों ने तो मन मसोस लिया, लेकिन अरब वाले पैरों में गिर गये- "माई बाप, हमारे छोटे-छोटे बच्चों पर तरस खाओ, साल मे कम से कम पांच टैंकर ले लो।" हमें याद आया, जब तेल बिकता था तो कैसे अकड़ते थे साले, हमने तुरंत लात जड़ी - "चलो, भागो यहां से।"
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malethia
09-08-2012, 08:18 PM
तभी हमारा स्वप्न भंग हो गया। देखा तो हमारे सामने बैठा श्रद्धालु मुंह के बल जमीन पर पड़ा था। हमारी लात अरब राजदूत को नही, उसे पड़ी थी। लोग भड़क गये, हमें घेर लिया। तभी रामू बाबा ने बीच-बचाव करते हुए पूछा - "क्या बेटा, लात क्यों मारी?" हमने सफ़ाई दी - "बाबा, आपकी बातें सुनकर हमे कांग्रेस पर इतना गुस्सा आया कि हम क्रोध में होश खो बैठे और गलती से लात चल गयी।"

माफ़ी मांग हम प्रवचन से उठ आये। मन ही मन सोच रहे थे कि काला धन आएगा और मेरा सपना सच हो जाएगा। रास्ते भर भगवान से दुआ मांगते रहे कि बाबा को इतनी शक्ति दे कि बाबा काला धन वापस ले आयें। गोबर से मीथेन गैस बना परमाणू संयंत्रों से, कोयले की राख से मुक्ति दिलवाएं। पूरा विश्व भारत का माल खरीदे पर भारत किसी देश का माल न ले।
सुबह नाश्ता किए बिना घर से निकल गए थे। सोचा था, प्रवचन से लौटकर कुछ खाया-पीया जाएगा। लेकिन बाबा ने तो तीन दिन की फास्टिंग की घोषणा कर दी है। अब पेट में चूहे कूद रहे हैं लेकिन श्रीमती जी ने किचन पर ताला जड़ दिया है। बोलीं, "बाबा की बात तो माननी ही होगी। देश में रामराज्य लाना चाहते हैं तो क्या तीन दिन भूखे नहीं रह सकते?"


मरते क्या न करते। तो हम भी शामिल हो गए हैं तीन दिन के अनशन में। देश में रामराज्य लाने में हमारा यह योगदान कहीं इतिहास के पन्नों में दब न जाए इसलिए यह ब्लॉग भी लिख दिया। कल जब रामू बाबा का रामराज्य आ जाएगा और यह ऐलान होगा कि हर अनशन सेनानी को 1 लाख रुपए की पेंशन मिलेगी तो हम कैसे प्रूव करेंगे कि हमने भी बाबा के आंदोलन में भाग लिया था - यह ब्लॉग दिखाकर ही तो।

साभार :-नव भारत टाइम्स !

malethia
10-08-2012, 11:47 AM
हर साल की राम लीला बहुत कुछ बदल देती है- शिशिर सिंह (http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/my-own-thinking)



वाणी पर नियंत्रण रखना आसान नहीं है पर ये ना भूले की वो आपका चरित्र जाहिर करता है.
हमारे एक नेताजी का बयान आया है की ऐसी रामलीला हर साल होती है. काश उन्होने सोचा होता (दिमाग़ हो तो) की आख़िर क्या वजह है जो हर साल ये राम लीला होती है. क्या हमारे पूर्वज नासमझ थे जिन्होने ये परंपरा चलाई? माफ़ कीजिएगा नेताजी पर जिसने आपको पैदा किया वो आपसे बड़ा नासमझ नही हो सकता.

मेरे गांव मे भी हर साल रामलीला होती है. वही रामलीला जो हमारे दिल मे एक विश्वास पैदा करती है की सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं. वही रामलीला जो हमे सिखाती है की लालच हमे विनाश की तरफ ले जाती है. बडो का आदर सत्कार, छोटो को प्यार देने की सीख हमे उसी से मिलती है. किसी को छोटा ना समझना, माता पिता की इच्छा का सम्मान करना, भाई के लिए त्याग, सम्मान के लिए युद्ध करना हमने वहीं से सीखा है. काश उन्होने भी कभी रामलीला देखी होती तो ये ना बोला होता. आज बाबा जी का आंदोलन रामलीला ही सही, लोगों मे ऐसी उर्जा का संचार करेगी जिससे आपके सरकार की नींव हिल जाएगी. लोगो के अंदर आपके सरकार को उखाड़ फेंकने की शक्ति यही रामलीला देगी. आज आप सता के मद मे चूर हो कर बयान दे रहे हो, कल जब सता से बाहर किए जाओगे तो याद आएगी आपको रामलीला.

परंतु में भी किसके लिए बोल रहा हूँ, रामलीला की जगह वाइफ से मुज़रा करवाया उप्र मे चुनाव जीतने के लिए पर बात नहीं बनी, यहाँ तक की आरक्षण का पत्ता भी खेला फिर भी अपने ही लोगो से दुतकार दिए गये और बुरी तरह हार गयी इनकी वाईफ. आज इनका ज़्यादा समय सिर्फ़ राहुल बाबा और सोनिया माता की चाटुकरिता मे cयतित होता है. जिसका खुद का कोई सम्मान नहीं वो आज राम, रामदेव और रामलीला का मज़ाक उड़ा रहा है.

malethia
10-08-2012, 11:54 AM
कान्डा लगाऽऽऽऽऽ, हाय लगाऽऽऽऽऽ! :- जयकुमार राणा (http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/kasovedinrain)





http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/kasovedinrain/resource/gopal-kanda-jpg.jpg




बेचारी गीतिका, अपना गीत ठीक से गा भी नही पाई थी की बेचारी को कांडा ओह! मेरा मतलब है काँटा लग गया. वैसे ये काँटा यहाँ सब को लगा हुआ है भाई साहब. चाहे कोई माने या ना माने. गीतिका को जब तक काँटा नही लगा था तब तक वो भी बेचारी खूब तरक्की पा रही थी, पाँच साल मे कार्यकारी निदेशक कोई ऐसे ही तो नही बनता भाई जी! और वो भी सिर्फ़ 12 वी पास लड़की! तो जब तक गीतिका को काँटा नही लगा था तब तक खूब दौड़ रही थी मगर क्या करें काँटा लगते ही फुल स्टॉप! आप खुद सोचो भाई जी अगर आपके पैर में काँटा लग जाए, आप कितना दौड़ पाओगे?


ये काँटा हमारी पुलिस को भी लगा हुआ है इसीलिए उस दिन पुलिस की स्टेट्मेंट आई की ये मामला बड़ा ही संवेदनशील है, उच्च अधिकारियों से दिशा निर्देश लेकर ही आगे की कार्यवाही करेंगे. वाह जी! कितनी सतर्क है हमारी पुलिस, कभी -कभी तो इतनी सतर्कता पर मुझे फक्र होने लग जाता है भाई जी, कसम से! पुलिस वाले सोचते हैं की शायद उच्च अधिकारी ज़्यादा मजबूत जूते पहनते हैं, उन्हे काँटा लग ही नही सकता. मुझे तो छोटे-बड़े सब नंगे मेरा मतलब है नंगे पैर ही नज़र आते हैं साहब! और पुलिस का क्या छोटा-बड़ा, छोटे-बड़े तो अपराधी होते हैं. साफ-साफ नाम लिखा है कि मैं इन-इन मेहरबानों की दुआ से स्वर्ग जा रही हूँ मगर फिर भी पुलिस को लगता है की इसमे बहुत सावधानी से तहकीकात करने की ज़रूरत है. ज़रा सोचो अगर हमारे या आप जैसे किसी आदमी के खिलाफ इतना सॉफ मुकद्दमा होता तो क्या होता? उसी समय दो सिपाही मोटरसाइकल पर आपको घर से उठा कर थाने ले जाते, दो झापड़ मारते कि आप सारी स्टोरी आल इंडिया रेडियो की तरह बक-बका देते! मगर साहब यही तो खूबी है हमारी पुलिस की कि उन्हे पता है की दिवंगत के मोबाइल और लॅपटॉप से ही असली जानकारी मिल सकती है आख़िर एलेक्ट्रॉनिक्स का जमाना है भाई जी!


काँटा स्वयं हरियाणा के गृह मंत्री कांडा जी को भी लगा हुआ है भाई जी. इसीलिए वे अपने दिए गये ब्यान से आगे ही नही बढ़ पा रहे हैं बार-बार वही बात दोहराते रहते हैं कि - 'गीतिका एक शरीफ, होनहार लड़की थी जो हमेशा अपने काम को मेहनत के साथ करती थी. मुझे तो समझ ही नही आ रहा कि उसने ये कदम उठाया कैसे'. मुझे भी समझ नही आ रहा भाइयो, आप में से किसी को आ रहा हो तो ज़रूर बताना. वैसे इस बात पर विपक्ष उनको बदनाम करने की कोशिश भी करेगा की ये कैसे गृह मंत्री हैं जिन्हे अपनी ही कंपनी के बारे में नही पता कि वहाँ क्या चल रहा है.

कांडा साहब राजनैतिक साजिश की बात भी कर रहे हैं - हो सकती है जी , बिल्कुल हो सकती है. एक मामूली सी जूतों की दुकान का मालिक अगर किसी प्रदेश का गृह मंत्री बन जाए तो 10-20 दुश्मन तो पैदा हो ही जाएँगे. मगर सोचने वाली बात ये है की यह साजिश करेगा कौन? क्या गीतिका का परिवार? हो सकता है भाई, बिल्कुल हो सकता है. राजनीति चीज़ ही ऐसी है की कुर्बानी मांगती है. गीतिका के परिवार ने हो सकता है की गीतिका की कुर्बानी दे दी हो. मगर सोचने वाली बात ये है तो फिर हरियाणा के गृह राज्य मंत्री बनने के लिए कांडा साहब ने क्या कुर्बानी दी? अपनी बेटी की कुर्बानी? नही ना?? यही तो सोच कर मैं परेशान हो रहा था कि ये फंडा क्या है भाई जान.

काँटा नुपूर मेहता जी को भी लगा दिखता है भाई जान ! उनका इंटरव्यू देखा टी वी पर . बेचारी बड़ी मुश्किल से एक बड़ा काला चश्मा लगा कर अपनी आँखों में उभर आए काँटे के दर्द को छुपाने की असफल कोशिश कर रही थी. बेचारी बिल्कुल ऐसे ही बोल रही थी जैसे कोई सी डी करप्ट होने पर बार-बार वही रिपीट करती है - 'गीतिका एक अच्छी लड़की थी. काम में हमेशा लगी रहती थी, मेरा उनसे ख़ुशवंत सिंह जी वाला रिश्ता था मतलब न काहु से दोस्ती न काहु से बैर. मुझे तो समझ नही आ रहा उसने ये कदम उठाया क्यों?' देखा ना जी, नुपूर जी को भी ये मौत का रहस्य मैच फिक्सिंग की तरह बिल्कुल समझ नही आ रहा.

किस किस की बात करे भाई जान? कितने दिनों से तो हमारी अर्थव्यवस्था को काँटा लगा हुआ है, बेचारी लंगड़ा कर चल रही है. टीम अन्ना को अभी-अभी काँटा लगा है, हमारी सामाजिक संवेदनशीलता को भी काँटा लग चुका है. और थोड़ा इंतजार करो इस केस में काँटा हमारी न्याय व्यवस्था को भी लगा देखोगे. बस जिसे काँटा नही लगा वो है - महँगाई, भ्रष्टाचार और हमारी सामूहिक निद्रा. इन्हे कब लगेगा काँटा?

malethia
05-11-2012, 09:55 PM
खुश न हों भ्रष्टाचारी, यह फूट नहीं ताकत है- राजेश कालरा

देश के भ्रष्ट लोगों की आंखों में चमक साफ दिख रही है। उन्हें लग रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई मुहिम का रंग फीका पड़ चुका है। लड़ाकों में फूट पड़ गई है। रिटायर्ड जनरल वीके सिंह टीम अन्ना में शामिल हो गए हैं तो इन भ्रष्टाचारियों लोगों को लग रहा है कि अब टीम अन्ना का पूरा ध्यान अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को पीछे छोड़ने में होगा, और ऐसा करके ये लोग एक दूसरे को ही काटेंगे।

सोमवार को जनरल सिंह ने टीम अन्ना के साथ आने का ऐलान किया। इससे आंदोलन और ज्यादा ताकतवर होगा। अपनी रिटायरमेंट से ठीक पहले वह उम्र विवाद को लेकर सरकार से उलझ गए थे और एक तरह से उनकी हार हुई थी। लेकिन यह हार उन्हें किसी तरह से कमतर साबित नहीं करती। सरकार हमें कुछ भी यकीन दिलाने की कोशिश करती रहे, आम लोग यही मानते हैं कि जनरल सिंह पूरी तरह कुशल भले न हों, वह एक ईमानदार इन्सान हैं। वह अपने फायदे के लिए देश को बेचेंगे नहीं, जैसा कि हमारे शासकों के बारे में ज्यादातर लोग सोचते हैं।

उलटी सीधी चालें चलने वाले और निराशावादी लोग भले ही कहते रहें कि अब यह आंदोलन मर चुका है, सचाई यही है कि आंदोलन पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हुआ है। सड़क चलते, चाय के ठेलों पर या बसों में लोगों से बात कीजिए। आपको समझ आएगा कि मैं क्या कह रहा हूं। हो सकता है कि अनशनों और धरनों में कम लोग पहुंच रहे हों लेकिन इसका फैलाव पहले से बढ़ा है। लोगों में जागरूकता बढ़ी है। और क्योंकि हमारे नेता कुछ नहीं सीखते, इसलिए अब हर जगह फैले करप्शन, प्रबंधन की कमियों और महंगाई से लोग और ज्यादा परेशान हो चुके हैं।

अब आंदोलन की बात। अन्ना और जनरल सिंह और अरविंद केजरीवाल के अलावा बाबा रामदेव भी हैं। सबमें कुछ न कुछ कमियां हो सकती हैं। सब कुछ न कुछ बेवकूफियां करते हैं। सबके अपने अपने अहम हैं। लेकिन सबका अपना अपना अच्छा खासा प्रभाव क्षेत्र है। और आखिरकार सबका मकसद तो एक ही है। इसलिए मुझे इसमें अच्छा ही अच्छा नजर आता है। उलटी सीधी चालें चलने वाले लोग चाहेंगे कि जनता यह मानने लगे कि इन सभी आंदोलनकारियों के लिए निजी एजेंडे, अहंकार और देश हित नहीं बल्कि निजी हित सर्वोपरि हैं। उन्हें मेरा जवाब है –

1. यह सच नहीं है।

2. उन्हें शायद इस बात का यकीन न हो, लेकिन ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि राष्ट्र हित से आखिर में अपना ही फायदा होता है। और फिर इसमें तो कोई संदेह नहीं कि एक ही मकसद के लिए जितने ज्यादा आंदोलन खड़े होंगे, उतना अच्छा है। क्योंकि मैं पहले भी कह चुका हूं कि इन सभी का अपना अपना प्रभाव क्षेत्र है। और सच कहूं तो जिस स्तर तक हाल में हमारे चुने हुए प्रतिनिधि गिरे हैं, ये लोग किसी भी सूरत में उस स्तर तक नहीं जाएंगे। इसलिए कोई कुछ भी कहे, मौजूदा नेतृत्व से आजिज आ चुके लोगों के पास अब विकल्प हैं जो बेशक बेहतर हैं। और कम से कम इस मामले में मैं पूरे यकीन से कह सकता हूं कि जब आखिरी लड़ाई का मौका आएगा तो सभी आंदोलनों के नेता साथ खड़े होंगे।


ऐसा नहीं है कि हमारे मौजूदा शासकों को यह बात पता नहीं है। हाल ही में कांग्रेस एक वरिष्ठ सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी का एक बयान सुना। उन्होंने कहा कि सभी राजनीतिक दलों के नेता विश्वसनीयता खो चुके हैं, खासकर युवाओं के नजरों में। इसलिए एक-दूसरे पर उंगली उठाने और कीचड़ उछालने के बजाय सबको साथ बैठकर अपने अंदर झांकना चाहिए और इस खोए हुए भरोसे को जीतने के तरीकों पर विचार करना चाहिए।

अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए आंदोलन इन नेताओं को यह अहसास दिलाने में कामयाब हो जाते हैं तो यह भी अपने आप में एक उपलब्धि होगी। और फिलहाल मुझे इससे भी संतोष मिलेगा।

साभार-नवभारत टाइम्स

malethia
06-11-2012, 09:45 PM
दिग्विजय की राह पर केजरीवाल -vipin kishore sinha

अपुष्ट प्रमाणों के आधार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर किसी का भी चरित्र-हनन करना अरविन्द केजरीवाल का स्वभाव बन चुका है। वे अपने उद्देश्य से भटक गए हैं। अन्ना हजारे को लगभग दो वर्षों तक उन्होंने भुलावे में रखा। जन लोकपाल बिल के लिए अन्ना के आन्दोलन से ही अरविन्द केजरीवाल अचानक नायक की भांति उभरे। अन्ना के गिरते स्वास्थ्य की चिन्ता किए बिना उन्होंने अन्नाजी को मुंबई और दिल्ली में अनिश्चित काल के लिए अनशन पर बैठा दिया। अन्नाजी को अरविन्द केजरीवाल की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को पहचानने में दो वर्ष लग गए। एक कहावत है - साधु, चोर और लंपट ज्ञानी, जस अपने तस अनका जानी। साधु अन्ना अपनी तरह ही अपने सलाहकारों को साधु समझते रहे। उन्हें पहला झटका स्वामी अग्निवेश ने दिया, दूसरा झटका केजरीवाल ने। जब आन्दोलन के पीछे केजरीवाल की राजनीतिक मंशा से पर्दा हटा, तो उन्होंने न केवल इसका विरोध किया, अपितु केजरीवाल से अपना संबन्ध विच्छेद भी कर लिया। किरण बेदी ने भी यही किया। अन्नाजी ने सार्वजनिक रूप से अपने नाम का उपयोग करने से केजरीवाल को स्पष्ट मनाही कर दी। आज दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। एक व्यवस्था परिवर्तन चाहता है, तो एक अन्ना के आन्दोलन का लाभ उठाकर सत्ता। प्रश्न यह है कि अगर अरविन्द केजरीवाल के सपनों का जन लोकपाल कानून बिना किसी काट-छांट के पास भी कर दिया जाय, तो क्या गारन्टी है कि यह भारत की न्याय-व्यवस्था की तरह भ्रष्टाचार का केन्द्र बनने से बच पाएगा? हमारी सारी समस्याओं की जड़ हमारा उधारी संविधान, इसके द्वारा संचालित व्यवस्था और इसके द्वारा उत्पन्न चारित्रिक गिरावट है। एक नहीं, सौ लोकपाल बिल पास आ जाएं, फिर भी भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आएगी, वरन बढ़ेगा। अवैध धन कमाने का एक और काउंटर खुल जाएगा। अन्नाजी ने देर से इस तथ्य को समझा। इसीलिए वे बाबा रामदेव, किरण बेदी और जनरल वी.के.सिंह के साथ व्यवस्था परिवर्तन के लिए कार्य कर रहे हैं।
अरविन्द केजरीवाल अब दिग्विजय सिंह की राह पर चल पड़े हैं। सलमान खुर्शीद, वाड्रा, मुकेश अंबानी और गडकरी पर उन्होंने जो आरोप लगाए हैं, वे मात्र सनसनी फैलाने के लिए हैं। २-जी, कामनवेल्थ और कोलगेट के मुकाबले ये घोटाले कही ठहरते नहीं हैं। उन्हें डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी की तरह पूरे प्रमाणों के साथ कोर्ट में जाना चाहिए ताकि राष्ट्र का कल्याण हो सके। २-जी स्कैम के लिए अगर स्वामी सुप्रीम कोर्ट में नहीं गए होते, तो इसे कभी का दबा दिया गया होता। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने देश पर एक बड़ा उपकार किया है। सरकार की अनैतिक गतिविधियों पर प्रभावी अंकुश लगाया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उनका संघर्ष सही दिशा में है। केजरीवाल या तो दिग्भ्रान्त हैं या अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए कटिबद्ध हैं। वे अपने रहस्योद्घाटनों से यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि सभी राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं। ऐसा करके परोक्ष रूप से वे भ्रष्टाचार की जननी कांग्रेस की ही मदद कर रहे हैं। वे यह धारणा बनवा रहे हैं कि पूरे भारत में उनके अतिरिक्त कोई भी ईमानदार नहीं है। यदि उन्हें बेहतर राजनीतिक विकल्प देने की चिन्ता होती, तो वे राजनीतिक पार्टी बनाने की दिशा में ठोस पहल करते, जो कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने की क्षमता रखती। राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनाना कोई हंसी ठठ्ठा नहीं है। उनके पास हिमाचल और गुजरात के ��ुनावों से आरंभ करने का एक सुनहरा अवसर था, जिसे उन्होंने खो दिया। यदि उनकी पार्टी २०१४ के लोकसभा के चुनाव से कार्य आरंभ करना चाहती है, तो भी सदस्य बनाने, संगठन बनाने, चुनाव कोष एकत्रित करने और ५४२ योग्य उम्मीदवारों का चयन कोई छोटी प्रक्रिया नहीं है। वर्तमान व्यवस्था में बड़ी जटिल प्रक्रिया है यह। इसके अतिरिक्त श्री केजरीवाल को राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों, यथा अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, आतंकवाद, कश्मीर, बांग्लादेशी आव्रजन, सर्वधर्म समभाव, पूंजीवाद, समाजवाद, स्वदेशी, रक्षानीति, व्यवस्था परिवर्तन, जनलोकपाल में मीडिया, एन.जी.ओ. और कारपोरेट घरानों को सम्मिलित करने के विषय में, राष्ट्रीयकरण, निजीकरण, निवेश, ऊर्जा नीति, आणविक नीति, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय पद्धति, कृषि, उद्योग, ब्यूरोक्रेसी और आरक्षण पर अपने सुस्पष्ट विचारों से भारत की जनता को अवगत कराना चाहिए।
कांग्रेस के साथ भाजपा की विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाकर कुछ भी हासिल नहीं होनेवाला। कल्पना कीजिए - अगर केजरीवाल के प्रयासों के कारण भाजपा की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है, तो देश की जनता के पास क्या विकल्प रहेगा? केजरीवाल विकल्प नहीं दे सकते। क्या भारत की जनता सन २०१४ के बाद भी अगले पांच सालों तक कांग्रेस को झेलने के लिए पुनः अभिशप्त होगी? अन्ना के आभामंडल का भरपूर दोहन कर केजरीवाल जनता में भ्रम की स्थिति का निर्माण कर रहे हैं। वे पूर्ण रूप से दिग्विजय सिंह की राह पर चल चुके हैं, परिणाम की परवाह किए बिना। हिन्दी न्यूज चैनलों के समाचार वाचकों की तरह चिल्ला-चिल्ला कर बोलने से न तो समस्याएं कम होती हैं और न समाधान निकल पाते हैं। सनसनी समाधान नहीं बन सकती।

साभार-नवभारत टाइम्स