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View Full Version : धूप सब पी के सँवर जाओ


Dr. Rakesh Srivastava
09-10-2011, 02:58 PM
धूप सब पी के सँवर जाओ चाँदनी की तरह ;
उम्र बढ़ जायेगी , लम्हे जियो सदियों की तरह .
वक्त ज्यादा नहीं है नाप लो ऊँचाई को ;
फूट जाओगे किसी रोज बुलबुले की तरह .
हार मत मानो , पत्थरों से जूझते ही रहो ;
छाप उनपे भी पड़ेगी कभी रस्सी की तरह .
अपनी धुन में अकेले ही बढ़ो मंजिल की तरफ ;
कोई रोके अगर बन जाओ काफ़िले की तरह .
साथ कीचड़ का मिले तब भी कमल बन के रहो ;
अँधेरे चीर के बढ़ जाओ रौशनी की तरह .
बीन लो मोती समन्दर की तलहटी तक से ;
इल्म पाना है तो जुट जाओ तिश्नगी की तरह .
तुझ से जर्रे को कोई आँधी आसमाँ देगी ;
काम जब जो करो , बस करो इबादत की तरह .
फूल खिलते हैं तो मुरझाना ही पड़ता है उन्हें ;
मौत से पहले बिखर जाओ तुम ख़ुश्बू की तरह .

रचयिता ~~~डॉ. राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - २ , गोमती नगर , लखनऊ .
शब्दार्थ ~~(इल्म =ज्ञान , तिश्नगी = प्यास , ज़र्रे = अति सूक्ष्म कण )

abhisays
09-10-2011, 03:22 PM
बहुत बढ़िया..

धुप सब पी का सँवर जाओ.
...

बहुत ही प्रेरणादायक कविता है.

अँधेरे चीर के बढ़ जाओ रौशनी की तरह .
बीन लो मोती समन्दर की तलहटी तक से ;

मेरी पसंदीदा लाइन..

Sikandar_Khan
09-10-2011, 08:26 PM
धूप सब पी के सँवर जाओ चाँदनी की तरह ;
उम्र बढ़ जायेगी , लम्हे जियो सदियों की तरह .
वक्त ज्यादा नहीं है नाप लो ऊँचाई को ;
फूट जाओगे किसी रोज बुलबुले की तरह .
हार मत मानो , पत्थरों से जूझते ही रहो ;
छाप उनपे भी पड़ेगी कभी रस्सी की तरह .
अपनी धुन में अकेले ही बढ़ो मंजिल की तरफ ;
कोई रोके अगर बन जाओ काफ़िले की तरह .
साथ कीचड़ का मिले तब भी कमल बन के रहो ;
अँधेरे चीर के बढ़ जाओ रौशनी की तरह .
बीन लो मोती समन्दर की तलहटी तक से ;
इल्म पाना है तो जुट जाओ तिश्नगी की तरह .
तुझ से जर्रे को कोई आँधी आसमाँ देगी ;
काम जब जो करो , बस करो इबादत की तरह .
फूल खिलते हैं तो मुरझाना ही पड़ता है उन्हें ;
मौत से पहले बिखर जाओ तुम ख़ुश्बू की तरह .

रचयिता ~~~डॉ. राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - २ , गोमती नगर , लखनऊ .
शब्दार्थ ~~(इल्म =ज्ञान , तिश्नगी = प्यास , ज़र्रे = अति सूक्ष्म कण )
राकेश जी
बहुत खूबसूरत रचना है आपकी तहेदिल से शुक्रिया .... ये था इस संडे का कॉकटेल |

sagar -
09-10-2011, 08:31 PM
धूप सब पी के सँवर जाओ चाँदनी की तरह ;
उम्र बढ़ जायेगी , लम्हे जियो सदियों की तरह .
वक्त ज्यादा नहीं है नाप लो ऊँचाई को ;
फूट जाओगे किसी रोज बुलबुले की तरह .
हार मत मानो , पत्थरों से जूझते ही रहो ;
छाप उनपे भी पड़ेगी कभी रस्सी की तरह .
अपनी धुन में अकेले ही बढ़ो मंजिल की तरफ ;
कोई रोके अगर बन जाओ काफ़िले की तरह .
साथ कीचड़ का मिले तब भी कमल बन के रहो ;
अँधेरे चीर के बढ़ जाओ रौशनी की तरह .
बीन लो मोती समन्दर की तलहटी तक से ;
इल्म पाना है तो जुट जाओ तिश्नगी की तरह .
तुझ से जर्रे को कोई आँधी आसमाँ देगी ;
काम जब जो करो , बस करो इबादत की तरह .
फूल खिलते हैं तो मुरझाना ही पड़ता है उन्हें ;
मौत से पहले बिखर जाओ तुम ख़ुश्बू की तरह .

रचयिता ~~~डॉ. राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - २ , गोमती नगर , लखनऊ .
शब्दार्थ ~~(इल्म =ज्ञान , तिश्नगी = प्यास , ज़र्रे = अति सूक्ष्म कण )
बहुत ही जबरदस्त हे हमेसा की तरहे :bravo::bravo:

malethia
10-10-2011, 02:25 PM
वक्त ज्यादा नहीं है नाप लो ऊँचाई को ;
फूट जाओगे किसी रोज बुलबुले की तरह .


रचयिता ~~~डॉ. राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - २ , गोमती नगर , लखनऊ .
शब्दार्थ ~~(इल्म =ज्ञान , तिश्नगी = प्यास , ज़र्रे = अति सूक्ष्म कण )
बहुत खूब कहा है आपने डॉ.साहेब !
एक और सुंदर प्रस्तुती के लिए धन्यवाद !

Dr. Rakesh Srivastava
10-10-2011, 11:19 PM
सर्वश्री Abhisays जी , मलेथिया जी , मनीष जी ,
सागर जी एवं सिकंदर जी ; आप सभी का पढ़ने
और पसन्द करने के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद .

ndhebar
12-10-2011, 03:53 PM
बहुत ही जबदस्त रचना बड़े भाई
आपकी लेखनी जादू सा असर करती है और दिल पर अपना निशान छोड़ जाती है
बहुत बहुत बधाई

Dr. Rakesh Srivastava
12-10-2011, 10:38 PM
ndhebar जी एवं अरविन्द जी ,
आपने रचना पसंद की ,
आपका शुक्रिया .

swati
13-10-2011, 12:57 AM
इस उत्तम रचना के रचियेता को नमन. बहुत ही अच्छी कविता है.

Dr. Rakesh Srivastava
13-10-2011, 03:04 PM
Swati जी ,
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया एवं स्वागत .

khalid
13-10-2011, 03:37 PM
एक बार फिर से जबरदश्त रचना के लिए हार्दिक आभार डाक्टर साहब

bhavna singh
13-10-2011, 04:06 PM
धूप सब पी के सँवर जाओ चाँदनी की तरह ;
उम्र बढ़ जायेगी , लम्हे जियो सदियों की तरह .
वक्त ज्यादा नहीं है नाप लो ऊँचाई को ;
फूट जाओगे किसी रोज बुलबुले की तरह .
हार मत मानो , पत्थरों से जूझते ही रहो ;
छाप उनपे भी पड़ेगी कभी रस्सी की तरह .
अपनी धुन में अकेले ही बढ़ो मंजिल की तरफ ;
कोई रोके अगर बन जाओ काफ़िले की तरह .
साथ कीचड़ का मिले तब भी कमल बन के रहो ;
अँधेरे चीर के बढ़ जाओ रौशनी की तरह .
बीन लो मोती समन्दर की तलहटी तक से ;
इल्म पाना है तो जुट जाओ तिश्नगी की तरह .
तुझ से जर्रे को कोई आँधी आसमाँ देगी ;
काम जब जो करो , बस करो इबादत की तरह .
फूल खिलते हैं तो मुरझाना ही पड़ता है उन्हें ;
मौत से पहले बिखर जाओ तुम ख़ुश्बू की तरह .

रचयिता ~~~डॉ. राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - २ , गोमती नगर , लखनऊ .
शब्दार्थ ~~(इल्म =ज्ञान , तिश्नगी = प्यास , ज़र्रे = अति सूक्ष्म कण )
राकेश जी अति सुन्दर रचना के लिए हार्दिक आभार

Dr. Rakesh Srivastava
13-10-2011, 09:50 PM
सुश्री भावना सिंह जी एवं श्री खालिद जी ,
आपको रचना पसन्द आई , मेरे प्रयास
सफल हुए . आपका बहुत - बहुत शुक्रिया .

Dr. Rakesh Srivastava
13-10-2011, 10:01 PM
नमन जी ,
आपको रचना पसन्द आई , मेरे प्रयास
सफल हुए . आपका बहुत - बहुत शुक्रिया .