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View Full Version : ख़्वाहिश की गठरी


Dr. Rakesh Srivastava
16-10-2011, 09:04 AM
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया .
जब कभी दामन पसारा दूसरों के सामने ;
यूँ लगा , आकार अपना और छोटा कर लिया .
इतनी कुव्वत भी न थी के मेरी ही मन्शा चले ;
कुछ न कुछ हर बार खोया , जब भी समझौता किया .
जिन उसूलों को गढ़ा था नाज से मैंने कभी ;
मुफ़लिसी की बेबसी में बेच कर उनको जिया .
आवरण चेहरे के नोचे तो बहुत हल्का हुआ ;
एक बोझा सीने पर था झूठ को जब तक जिया .
जब तलक बरगद के साये में रहा , पनपा था कम ;
दिल लगाया धूप से , तब आसमाँ का रुख किया .
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .

रचयिता ~~डॉ.राकेश श्रीवास्तव
विनय खंड-२,गोमती नगर,लखनऊ.
शब्दार्थ ~~( ख़्वाहिश=इच्छा ,कुव्वत = क्षमता,मंशा = इरादा,मुफ़लिसी=कंगाली )

Sikandar_Khan
16-10-2011, 09:15 AM
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया :bravo::bravo:
जब कभी दामन पसारा दूसरों के सामने ;
यूँ लगा , आकार अपना और छोटा कर लिया .
इतनी कुव्वत भी न थी के मेरी ही मन्शा चले ;
कुछ न कुछ हर बार खोया , जब भी समझौता किया .
जिन उसूलों को गढ़ा था नाज से मैंने कभी ;
मुफ़लिसी की बेबसी में बेच कर उनको जिया .
आवरण चेहरे के नोचे तो बहुत हल्का हुआ ;
एक बोझा सीने पर था झूठ को जब तक जिया .
जब तलक बरगद के साये में रहा , पनपा था कम ;
दिल लगाया धूप से , तब आसमाँ का रुख किया .
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .


राकेश जी
बहुत ही खूबसूरत तहेदिल से दाद कुबूल करेँ |

abhisays
16-10-2011, 09:17 AM
[QUOTE=Dr. Rakesh Srivastava;112852]
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .
QUOTE]


पूंजीवादी व्यवस्था पर गहरी चोट. एक बार फिर से लाजवाब कविता देने के आपका बहुत बहुत आभार. :fantastic::fantastic::fantastic:

ndhebar
16-10-2011, 09:59 AM
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया .

रचयिता ~~डॉ.राकेश श्रीवास्तव
विनय खंड-२,गोमती नगर,लखनऊ.
शब्दार्थ ~~( ख़्वाहिश=इच्छा ,कुव्वत = क्षमता,मंशा = इरादा,मुफ़लिसी=कंगाली )

क्या लिखते हैं प्रभु
एक और मास्टरस्ट्रोक :bravo::bravo:

Big boss
16-10-2011, 10:54 AM
हर दफ़ा ख़्वाहिश की गठरी - सँग जनम हमने लिया ;
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया .
जब कभी दामन पसारा दूसरों के सामने ;
यूँ लगा , आकार अपना और छोटा कर लिया .
इतनी कुव्वत भी न थी के मेरी ही मन्शा चले ;
कुछ न कुछ हर बार खोया , जब भी समझौता किया .
जिन उसूलों को गढ़ा था नाज से मैंने कभी ;
मुफ़लिसी की बेबसी में बेच कर उनको जिया .
आवरण चेहरे के नोचे तो बहुत हल्का हुआ ;
एक बोझा सीने पर था झूठ को जब तक जिया .
जब तलक बरगद के साये में रहा , पनपा था कम ;
दिल लगाया धूप से , तब आसमाँ का रुख किया .
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ;
उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया .

रचयिता ~~डॉ.राकेश श्रीवास्तव
विनय खंड-२,गोमती नगर,लखनऊ.
शब्दार्थ ~~( ख़्वाहिश=इच्छा ,कुव्वत = क्षमता,मंशा = इरादा,मुफ़लिसी=कंगाली )
बहुत ही खूब माशा अल्लाह क्या लाजवाब लिखते हैं आप

singhtheking
16-10-2011, 10:57 AM
nice poem. you seem to be a good poet. keep it up. :bravo::bravo::bravo:

roshan
16-10-2011, 08:25 PM
आजकल इस तरह के नयी रचनाये काफी कम देखने को मिलती है. राकेश जी :bravo:

Dr. Rakesh Srivastava
16-10-2011, 10:40 PM
सिकंदर जी ,
आपका शुक्रिया .

Dr. Rakesh Srivastava
16-10-2011, 10:41 PM
Abhisays जी ,
आपका शुक्रिया .

Dr. Rakesh Srivastava
16-10-2011, 10:43 PM
n d hebar जी ,
आपका शुक्रिया .

Dr. Rakesh Srivastava
16-10-2011, 10:45 PM
Big Boss जी ,
आपका शुक्रिया .

Dr. Rakesh Srivastava
16-10-2011, 10:47 PM
singhtheking (http://myhindiforum.com/member.php?u=2517) जी ,
आपका बहुत शुक्रिया .

Dr. Rakesh Srivastava
16-10-2011, 10:50 PM
roshan जी ,
आपका बहुत शुक्रिया .

malethia
17-10-2011, 06:06 PM
हर बार की तरह एक बार फिर से लाजवाब प्रस्तुती के लिए धन्यवाद डॉ. साहेब......

Dark Saint Alaick
17-10-2011, 07:23 PM
आपकी गठरी तो ऐसे अमूल्य रत्नों से सजी है मित्र कि प्रत्येक की ख्वाहिश पे दम ही निकल जाए ! धन्यवाद आपका !

Dr. Rakesh Srivastava
17-10-2011, 10:08 PM
मलेथिया जी ,
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया.

Dr. Rakesh Srivastava
17-10-2011, 10:10 PM
Dark Saint जी ,
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया.