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Dark Saint Alaick
07-08-2012, 05:00 PM
आठ अगस्त को जन्मदिन पर
‘तमस’ को जिया था भीष्म साहनी ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17437&stc=1&d=1344340787

आज से करीब 65 साल पहले देश के विभाजन का दर्द सहने वाले भीष्म साहनी ने जब अपने अनुभवों को ‘तमस’ के रूप में शब्दों में बांधा, तब शायद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि उनकी इस रचना की प्रासंगिकता वर्तमान हालात में और बढ़ चुकी होगी। नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा के पूर्व निदेशक देवेन्द्र राज अंकुर ने कहा कि देश के विभाजन की पीड़ा वही समझ सकता है जिसने विभाजन का दंश सहा हो। इस विभाजन के कड़वे अनुभवों को भीष्म साहनी ने बेहद ही प्रामाणिक और मार्मिक तरीके से ‘तमस’ में शब्दों में बांधा है। उन्होंने कहा कि एक बार फिर स्वतंत्रता दिवस करीब है और विभाजन का दर्द फिर ताजा हो रहा है। मैं मानता हूं कि हिन्दी, उर्दू और पंजाबी में विभाजन पर जितनी भी रचनाएं आईं, भीष्म साहनी की तमस का उनमें विशिष्ट स्थान है। दिलचस्प बात यह है कि विस्थापन की त्रासदी को शब्दों में दर्ज कर भीष्म ने काफी पहले, 1974 में पेश किया था, लेकिन जब गोविंद निहलानी ने 1987 में इस पर धारावाहिक बनाया तो विवाद उठ खड़ा हुआ। रंगमंच के जाने-माने चेहरे राकेश नैयर ने कहा कि विवादों ने भीष्म साहनी की इस रचना के पक्ष में ही काम किया। यह सब तो भीष्म साहनी ने खुद पर भुगता था। हम तो उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो आजाद हवा में सांस ले रही है। हमें अपना घर, अपना शहर छोड़ने में दर्द महसूस होता है, लेकिन एक पीढ़ी ने तो अपना देश, घर-बार, अपनों को और न जाने क्या क्या छोड़ा। खुद को उनकी जगह रख कर सोचें तो दिल दहल जाता है। देवेंद्र राज अंकुर ने कहा कि अमेरिका के विस्कोन्सिन स्थित गुरुद्वारे में गोलीबारी की घटना हुई है जो बढ़ती असहिष्णुता बताती है। दिन पर दिन खतरनाक होते हालात में ‘तमस’ और अधिक प्रासंगिक हो गई है। भीष्म को प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाला रचनाकार माना जाता है, लेकिन ‘तमस’ उन्हें बहुत अलग दर्जा देती है और इसके लिए वह हमेशा याद किए जाएंगे। भीष्म साहनी का जन्म आठ अगस्त, 1915 को रावलपिंडी (पाकिस्तान) में हुआ था। फिर उनका परिवार लाहौर में रहने लगा। विभाजन के बाद वह भारत आ गए। एक साक्षात्कार में साहनी ने भारत आने की परिस्थिति का उल्लेख किया था। उन्होंने कहा था कि जब दिल्ली में स्वाधीनता समारोह होने जा रहा था, तब मैं रावलपिंडी छोड़कर दिल्ली आया था, सिर्फ यह देखने के लिए कि लाल किले पर झंडा फहराएंगे पंडित नेहरू और हिंदुस्तान की आजादी का जश्न होगा। मैं तो जश्न देखने आया था इस इरादे से, कि हफ्ते भर बाद लौट जाऊंगा, लेकिन जब दिल्ली पहुंचा तो पता चला कि गाड़ियां बंद हो गर्इं और फिर मेरा लौटना नामुमकिन हो गया। इस तरह यहीं बस गया ‘तमस’ का रचनाकार। अपने अक्षरों से साहित्य को समृद्ध करने वाले भीष्म ने 11 जुलाई, 2003 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
08-08-2012, 03:11 PM
नौ अगस्त को मनोहर श्याम जोशी के जन्मदिन पर विशेष
भारत में सोप ओपेरा लेखन के जनक

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17441&stc=1&d=1344420628

मनोहर श्याम जोशी ने पत्रकारिता को एक नया आयाम देने के साथ ही साहित्य और भारतीय टेलीविजन के इतिहास में धारावाहिकों के लेखन को भी एक नयी बुलंदी दी। उन्हें भारत में सोप ओपेरा लेखन का जनक भी कहा जाता है। जोशी के लेखन का दायरा इतना विस्तृत था कि उन्होंने उपन्यास, कहानियों और टेलीविजन और पत्र-पत्रिकाओं के लिए अलग-अलग शैली में लिखा। हर क्षेत्र में उन्होंने अलग मानदंड बनाया। वरिष्ठ पत्रकार भूपेंद्र अबोध कहते हैं, ‘मनोहर श्याम जोशी के लेखन में विविधता थी। वह लेखन में नए प्रयोग करते थे। उन्होंने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में नए-नए प्रयोग किए और यही वजह रही कि यह पत्रिका एक समय ‘धर्मयुग’ को टक्कर देने लगी थी।’ जोशी का जन्म नौ अगस्त, 1933 को अजमेर में हुआ। उनके पिता प्रख्यात शिक्षाविद् थे, जिसका प्रभाव उन पर पड़ा। साहित्य की दुनिया में उन्होंने अपनी लेखनी से समकालीन साहित्यकारों और आलोचकों को अपना मुरीद बना लिया। ‘क्याप’, ‘कसप’, ‘नेताजी कहिन’, ‘कुरु कुरु स्वाहा’ और ‘बातों बातों में’ उनकी कुछ प्रमुख रचनाएं हैं। ‘कुरु कुरु स्वाहा’ उनका सबसे चर्चित उपन्यास है। ‘क्याप’ उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। पत्रकार के रूप में जोशी काफी सफल रहे। ‘दिनमान’ पत्रिका में उन्होंने अज्ञेय के साथ बतौर सहायक संपादक काम किया। उनके संपादन में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ ने सफलता के नये आयाम हासिल किए। ‘चौथी दुनिया’ के संपादक संतोष भारतीय कहते हैं, ‘मनोहर श्याम जोशी पत्रकारिता में मानवता को काफी अहमियत देते थे। उनकी लेखन क्षमता गजब की थी। पत्रकारिता, साहित्य और पटकथा एवं संवाद लेखन में उनका बहुत बड़ा योगदान है।’ टेलीविजन के लेखन में उन्होंने अमिट छाप छोड़ी। उनके लिखे ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’ टेलीविजन धारावाहिक काफी सफल रहे। उन्होंने ‘हे राम’, ‘पापा कहते हैं’ और ‘भ्रष्टाचार’ जैसी फिल्मों की पटकथा एवं संवाद लिखे। ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’ धारावाहिकों में काम कर चुके अभिनेता अभिनव चतुर्वेदी का कहना है, ‘उनके लेखन में गजब का आकर्षण था। उनकी भाषा बहुत सरल होती थी। हमें जो पहचान मिली उसमें मनोहर श्याम जोशी का बड़ा योगदान रहा।’ जोशी को साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा शरद जोशी सम्मान सहित कई पुरस्कार एवं सम्मान मिले। 30 मार्च, 2006 को जोशी का निधन हो गया। उनके निधन पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘जोशी आधुनिक समय के सबसे प्रभावशाली लेखकों और टिप्पणीकारों में थे।’

Dark Saint Alaick
09-08-2012, 06:12 PM
अगस्त क्रांति में महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद उभरे जन असंतोष पर विशेष
गरीबी, शोषण जैसी समस्याओं से मुक्ति के लिये
एक और ‘अगस्त क्रांति’ की जरूरत

गांधीवादी विचारकों का मानना है कि ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला देने वाले भारत छोड़ो आंदोलन के सत्तर साल बीत जाने के बाद भी भारत को गरीबी, भुखमरी और शोषण जैसी समस्याओं से मुक्ति नहीं मिली है और आज जरूरत एक ऐसे ही आंदोलन को शुरू करने की है, जो भारत को राष्ट्रपिता के सपनों का देश बनाये। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और स्वतंत्रता सेनानी आर पी मिश्रा ने कहा, ‘भारत छोड़ो आंदोलन या अगस्त क्रांति से गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत में बदलाव आया । इससे पहले वर्ष 1919 के असहयोग आंदोलन के दौरान गांधी जी ने अहिंसा पर बहुत जोर दिया था, लेकिन आठ अगस्त 1942 को बंबई से शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने ‘करो या मरो’ का नारा दिया और कहा कि हम भारत छोड़ो आंदोलन को इस तरह से आगे बढायेंगे कि अंग्रेजों को देश छोड़ना ही होगा ।’ उन्होंने कहा, ‘गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन को देश के हर गांव, शहर कस्बे में समर्थन मिला। इतनी बड़ी आबादी को जगाने का काम पूरी दुनिया में इससे पहले कभी नहीं हुआ था । उस समय के सीमित संचार माध्यमों के साथ सुदूरवर्ती गांवों के लोगों को इस आंदोलन से जोड़ना आसान नहीं था, लेकिन गांधी जी ने इस असंभव माने जा रहे कार्य को कर दिखाया ।’इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले मिश्रा ने कहा, ‘गांधी जी का उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण था, जहां गरीबी, अछूत, भुखमरी जैसी बुराइयां न हो। गरीब से गरीब व्यक्ति को उसका हक मिले । इसीलिये आजादी के बाद वर्ष 1948 में जवाहर लाल नेहरू को लिखे पत्र में बापू ने कहा था कि कांग्रेस को भंग कर ‘लोक सेवक संघ’ बनाया जाये । यह संगठन आने वाले समय में गरीबी, अछूतों के हक की लड़ाई लड़ सके। हालांकि नेहरू ने गांधी जी इस आग्रह को नहीं माना।’
प्रोफेसर मिश्रा ने कहा, ‘आज हरेक आदमी भ्रष्टाचार, गरीबी और अन्याय से परेशान है । अन्ना हजारे के आंदोलन से यह साबित हो गया है कि लोग परेशान है और उन्हें नेतृत्व की जरूरत है। वस्तुत: आज भारत छोड़ो आंदोलन की तरह के एक आंदोलन की जरूरत है ताकि हक की लड़ाई लड़ रहे लोगों को उनके अधिकार दिलाये जा सकें।’ गांधीवादी कार्यकर्ता और उत्तराखंड में बांधों के निर्माण के खिलाफ अभियान चला रहे विभव का मानना है कि देश में आंदोलन चल रहा है, उसे बस दिशा दिये जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा, ‘आजादी के समय देश के दुश्मन सामने दिख रहे थे लेकिन आज आदिवासियों की जमीन लूटी जा रही हैं और खनन तथा विभिन्न परियोजनाओं के नाम पर उनकी जमीन ली जा रही है। उनकी संस्कृति नष्ट हो रही है।’ उन्होंने कहा, ‘आज जरूरत है कि उत्पादन का विकेंद्रीकरण किया जाए। उत्पादन के उपभोग का विकेंद्रीकरण किया जाए। आदिवासी, समाज के पिछड़े तबकों या गांधी जी के शब्दों में कहें तो समाज के अंतिम आदमी को इस विकास का लाभ मिले, इसके लिए प्रयास किए जाने की जरूरत है।’ उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने तुरंत आजादी दिए जाने की मांग को लेकर अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा दिया। करो या मरो के नारे के बाद अंग्रेजों ने गांधी जी समेत सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था । बड़े नेताओं की अनुपस्थिति में अरूणा आसिफ अली ने नेतृत्व संभाला । इस आंदोलन के दौरान तामलुक और कोंटई में समानांतर सरकार बन गई। इस आंदोलन का इतना व्यापक असर रहा कि अंग्रेजों को जल्द ही (1947 में) देश छोड़कर जाना पड़ा।

Dark Saint Alaick
10-08-2012, 08:52 PM
11 अगस्त को पुण्यतिथि पर
आजादी की अलख जगाने में अहम भूमिका थी उषा मेहता के रेडियो की

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17447&stc=1&d=1344613924

आजादी के लिए आंदोलन चरम पर था और 14 अगस्त 1942 को एक गोपनीय रेडियो स्टेशन से एक महिला की आवाज गूंजी ‘भारत में कहीं से 42.34 मीटर्स पर यह कांग्रेस रेडियो है।’ कांग्रेस के, 42.34 मीटर्स की वेवलेंथ पर इस गोपनीय रेडियो पर गूंजने वाली आवाज थी स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता की, जिन्होंने अपने सहयोगियों विट्ठलभाई झावेरी, चंद्रकांत झावेरी, बाबूभाई ठक्कर तथा नन्का मोटवानी के साथ मिल कर इस रेडियो की शुरूआत की थी। उषा मेहता के भतीजे डॉ. यतीन मेहता ने बताया, ‘इससे करीब सप्ताह भर पहले उषा मेहता नई दिल्ली से मुंबई पहुंच गईं और नौ अगस्त 1942 को उन्होंने गवालिया टैंक ग्राउंड पर तिरंगा फहराया था। बाद में यह मैदान ‘अगस्त क्रांति मैदान’ कहलाया। उन दिनों कांग्रेस के सभी बड़े नेता जेल में थे।’ गुड़गांव स्थित ‘मेदान्ता द मेडिसिटी’ अस्पताल के वरिष्ठ एनेस्थीटिस्ट डॉ. मेहता ने बताया, ‘कांग्रेस के गोपनीय रेडियो पर महात्मा गांधी तथा देशभर के प्रमुख नेताओं के रिकॉर्ड किए गए संदेशों का प्रसारण किया जाता था। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया, अच्युतराव पटवर्द्धन और पुरूषोत्तम त्रिकमदास भी इस रेडियो से जुड़े रहे थे।’ नन्का मोटवानी शिकागो रेडियो के मालिक थे और कांग्रेस के गोपनीय रेडियो के लिए उपकरण तथा तकनीशियन उन्होंने ही मुहैया कराए थे। ब्रिटिश प्रशासन के कहर से बचने के लिए लगभग हर दिन इस रेडियो का ठिकाना बदला जाता था। उषा मेहता का यह रेडियो हालांकि तीन माह ही चला, लेकिन आजादी की अलख जगाने में इसने अहम भूमिका निभाई। इतिहास के सेवानिवृत्त प्राध्यापक वाई. एस. गुप्ता ने बताया, ‘उषा मेहता ने न केवल इस रेडियो पर नेताओं के रिकॉर्ड किए गए संदेश प्रसारित किए बल्कि वह खबरें और सूचनाएं भी बेखौफ हो कर प्रसारित कीं जिन्हें ब्रिटिश सरकार के प्रतिबंधों के चलते प्रसारित करने की मनाही थी। ब्रिटिश प्रशासन की आंख की किरकिरी बन चुके इस गोपनीय रेडियो ने एक तरह से स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं का जनता से संपर्क बना रखा था।’ उन्होंने बताया, ‘आखिरकार 12 नवंबर 1942 को एक तकनीशियन की गद्दारी की वजह से उषा मेहता सहित इस रेडियो से जुड़े सभी लोग पकड़े गए और सभी को जेल में डाल दिया गया। छह माह तक सभी से कड़ी पूछताछ की गई। इस दौरान उषा मेहता को एक अलग कोठरी में रखा गया और तरह तरह के प्रलोभन दिए गए। उनसे कहा गया कि अगर वह प्रशासन का साथ देंगी, तो उन्हें अध्ययन के लिए विदेश भेजा जाएगा, लेकिन उषा मेहता ने अपनी खामोशी नहीं तोड़ी।’ गुप्ता के अनुसार, अपने खिलाफ सुनवाई के दौरान भी उषा मेहता ने किसी भी सवाल का जवाब देने या अपना बचाव करने से मना कर दिया। उन्हें चार साल कैद की सजा सुनाई गई और 1942 से 1946 तक वह यरवदा जेल में रहीं। मार्च 1946 में उन्हें रिहा किया गया। एक साल बाद भारत आजाद हो गया। 25 मार्च 1920 को जन्मी उषा मेहता को भारत सरकार ने 1988 में पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित किया था। 11 अगस्त 2000 को 80 साल की उम्र में इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
12-08-2012, 03:52 PM
बदला लेने के लिये खूबसूरती का सहारा ले रही हैं महिलाएं

एक समय था जब महिला अपने पति एवं प्रेमी को लुभाने के लिये सजती-संवरती थीं लेकिन अब ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है, जो बेवफा एवं धोखेबाज पतियों या प्रेमियों से बदला लेने के लिए अपने ही चेहरे एवं जिस्म पर नश्तर चलवा रही हैं। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों की तरह भारत में भी महिलाओं में प्रतिशोध लेने के लिए सर्जरी कराने की प्रवृति तेजी से बढ़ रही है। ऐसी सर्जरी को रिवेंज सर्जरी का नाम दिया गया है। सुप्रसिद्ध कॉस्मेटिक सर्जन एवं कॉस्मेटिक ंलेजर सर्जरी सेंटर आॅफ इंडिया (सीएलएससीआई) के निदेशक डॉ. पी. के. तलवार बताते हैं कि किसी तरह की शारीरिक कमी की वजह से पति या प्रेमी द्वारा छोड़ दी गई महिलाएं अब अपना आत्मविश्वास बढ़ाने और अपने पति या प्रेमी को नीचा दिखाने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी का सहारा लेने लगी हैं। डॉ. तलवार बताते हैं कि अब उनके पास ऐसी कई महिलाएं कॉस्मेटिक सर्जरी कराने आ रही हैं, जिन्हें उनके पति ने मोटापे, छोटे स्तन या अन्य शारीरिक कमियों के कारण छोड़ दिया है। सर गंगाराम अस्पताल के मोटापा कम करने की बैरिएट्रिक सर्जरी के विशेषज्ञ डॉ. तरुण मित्तल बताते हैं कि आज न केवल अधिक उम्र की महिलाएं, बल्कि कॉलेज जाने वाली लड़कियां भी मोटापा कम कराने वाली सर्जरी कराने लगी हैं। मोटापा कम कराने के लिए या तो वे कॉस्मेटिक सर्जन से लाइपोसक्शन कराती हैं या बैरिएट्रिक सर्जरी कराती हैं, जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान तेजी से लोकप्रिय हुआ है। डॉ. तलवार बताते हैं कि रिश्तों में असुरक्षा और बदले की भावना के कारण अब ज्यादा लोग कॉस्मेटिक सर्जरी कराने लगे हैं। महिलाएं अच्छा दिखने और अपने पति या प्रेमी को अपनी ओर आकर्षित रखने के लिए भी मोटापा घटाने वाली कास्मेटिक सर्जरी लाइपोसक्शन, टमी टक, बोटोक्स, चिन लिफ्ट से लेकर वेजाइनोप्लास्टी तक कराने लगी हैं। डॉ. तलवार कहते हैं कि आजकल प्रेम और नफरत दोनों स्थितियों में अपने को सुंदर बनाने के लिए कॉस्मेटिक एवं प्लास्टिक सर्जरी का सहारा लेने की प्रवृत्ति बढ़ी है। उन्होंने बताया कि कई महिलाएं या पुरुष विवाहेतर संबंध बनाने के लिए भी कॉस्मेटिक सर्जरी कराते हैं। कुछ पुरुष अपने से कम उम्र की महिलाओं से संबंध बनाने के लिए खुद को आकर्षक दिखाने के लिए लाइपोसक्शन से अपना वजन कम कराते हैं, जबकि कुछ मामलों में महिलाएं खासकर कामकाजी महिलाएं अपने से कम उम्र के पुरुष के साथ अफेयर करने के लिए अपनी शरीरिक बनावट में कॉस्मेटिक सर्जरी के जरिये सुधार करना चाहती हैं।
एशियन इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल साइंसेस (एआईएमएस) के मनोचिकित्सा विभाग की प्रमुख डॉ. मीनाक्षी मनचंदा कहती हैं कि खुद को युवा या तरोताजा दिखाने, अधिक मोटे होने पर अपना वजन कम करने या अपनी शारीरिक विकृति या कमी को दूर करने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी का सहारा लेने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन गलत कारणों से कॉस्मेटिक सर्जरी कराना सही नहीं है। इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल एवं मैक्स अस्पताल में वरिष्ठ कॉस्मेटिक सर्जन रह चुके डॉ. तलवार कहते हैं कि ऐसे रोगी जब कॉस्मेटिक सर्जरी कराने के लिए आते हैं, तो वे अपने तलाक या अपने संबंध खत्म होने को लेकर गुस्से में होते हैं। अपने धोखेबाज प्रेमी या पति के लिए उनके मन में ईर्ष्या की भावना होती है, इसलिए उनकी काउंसलिंग करना भी जरूरी होता है। डॉ. मनचंदा कहती हैं कि चूंकि पति या प्रेमी के द्वारा छोड़ दी गई ऐसी अधिकतर महिलाएं बदले की भावना से कॉस्मेटिक सर्जरी कराती हैं, इसलिए उनकी काउंसलिंग भी होनी चाहिए, क्योंकि ऐसी महिलाओं में सुंदर दिखने का जुनून हावी होता है, इसलिए ऐसी महिलाओं को मनोचिकित्सक से काउंसलिंग की भी जरूरत होती है। डॉ. तलवार कहते हैं कि उनके पास कॉस्मेटिक सर्जरी कराने के लिए आने वाली ऐसी महिलाओं को वह सबसे पहले यह समझाते हैं कि उन्हें कॉस्मेटिक सर्जरी खुद के लिए कराना चाहिए न कि किसी से बदला लेने के लिए या उसे नीचा दिखाने के लिए।
डॉ. मनचंदा कहती हैं कि कॉस्मेटिक सर्जरी का इस्तेमाल अपनी शारीरिक स्थिति में सुधार करने या अपनी शारीरिक विकृति को दूर करने के लिए किया जाना चाहिए। यह वैवाहिक या गैर वैवाहिक रिश्ते से संबंधित समस्याओं का समाधान नहीं है। इसलिए कॉस्मेटिक सर्जरी करने से पहले ऐसी महिलाओं को अवश्य समझाना चाहिए कि उन्हें अपने व्यक्तित्व में निखार लाना चाहिए, न कि खुद में घमंड पैदा करने के लिए या किसी से बदला लेने के लिए सिर्फ शरीरिक सुंदरता पर ध्यान देना चाहिए। बदला लेने की भावना से कास्मेटिक सर्जरी कराने वाले लोगों के बीच ब्रिटेन में ट्रांसफार्म कॉस्मेटिक ग्रूप के द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार वहां प्लास्टिक सर्जरी कराने वाले 26 प्रतिशत लोग हाल ही में तलाकशुदा महिलाएं थीं, जबकि 11 प्रतिशत लोग हाल में तलाकशुदा पुरुष थे और वे मूब जॉब्स, नोज जॉब्स या बोटोक्स कराना चाह रहे थे। इस अध्ययन में पाया गया कि बोटोक्स कराने वाले 34 प्रतिशत लोग तलाकशुदा थे और उन्होंने खुद में बदलाव लाने के लिए बोटोक्स कराया। कई तलाकशुदा लोगों ने बदला लेने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी कराई। कई ने अपने पति या प्रेमी को वापस पाने और अपने शरीर को प्रसव से पूर्व का सही आकार देने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी कराई।

Dark Saint Alaick
13-08-2012, 08:43 PM
पुण्यतिथि 14 अगस्त पर
नायकों की स्थापित छवि को तोड़ने वाले ‘बागी स्टार’ शम्मी कपूर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17455&stc=1&d=1344872582

हिंदी फिल्मों में नायकों की स्थापित छवि को तोड़ने वाले ‘बागी स्टार’ शम्मी कपूर उन अभिनेताओं में थे जिन्होंने न सिर्फ पर्दे पर नायकों को तमाम बंधनों से मुक्त कर दिया बल्कि अपनी अभिनय शैली खासकर गानों के साथ बदलाव की नयी बयार ले कर आए जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया। शम्मी कपूर ने नायकों की स्थापित छवि को न सिर्फ खारिज कर दिया बल्कि अपनी अभिनय शैली में एक ताजगी भी पेश की, जिसे दर्शकों खासकर युवाओं ने खूब पसंद किया। शम्मी कपूर के रूप में हिंदी सिनेमा को एक ऐसा कलाकार मिला, जिसके किरदार में जोश, शरारत, चुलबुलापन होने के साथ साथ बगावती तेवर भी थे। उस समय के नायकों की छवि के विपरीत उन्होंने ऐसे किरदार निभाए जो मुश्किलों का सामना करता था और समाज की रूढियों को दरकिनार करते हुए अपनी मंजिल तक पहुंचने का प्रयास करता था। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी शम्मी कपूर का पर्दे पर विद्रोही तेवर देखते ही बनता था। अपने समकालीन अभिनेताओं से अलग अंदाज के साथ वह एक ऐसे नायक के रूप में सामने आए जो जीवन से भरा था। गानों में तो उनका उत्साह देखते ही बनता है। राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की तिकड़ी के बीच अपनी अलग छवि बनाना आसान नहीं था लेकिन शम्मी कपूर ने अपनी अलग शैली विकसित की जो उन सबसे अलग थी और उनकी कई फिल्मों ने बॉक्स आफिस पर जुबली मनायी।
कार ड्राइविंग, फैशन और इंटरनेट में विशेष दिलचस्पी रखने वाले शम्मी कपूर के अभिनय की शुरूआत पृथ्वी थियेटर से हुयी थी। उनकी पहली फिल्म जीवन ज्योति थी जो सफल नहीं रही। उनके लिए फिल्मों का शुरूआती सफर आसान नहीं रहा और उनकी कई प्रारंभिक फिल्में नाकामयाब रहीं। शम्मी कपूर को एक साथ दो चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। एक ओर उन्हें फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमाने थे वहीं पिता पृथ्वीराज कपूर और बड़े भाई राज कपूर से अपनी अलग पहचान भी बनानी थी। संघर्ष के दिनों में उन्होंने गीता बाली से शादी कर ली थी। गीता बाली ने उन्हें काफी प्रोत्साहन दिया और अंतत: नासिर हुसैन की फिल्म ‘तुमसा नहीं देखा’ को भारी कामयाबी मिली। इस फिल्म के गाने भी खूब पसंद किए गए। इस फिल्म की कामयाबी शम्मी कपूर के करियर के लिए महत्वपूर्ण साबित हुयी। 1957 में प्रदर्शित इस फिल्म से शुरू नायक शम्मी कपूर का सफर करीब 15 साल तक जारी रहा और इस दौरान उन्होंने दिल देके देखो, जंगली, दिल तेरा दीवाना, प्रोफेसर, चाइना टाउन, राजकुमार, कश्मीर की कली, जानवर, तीसरी मंजिल, ब्रह्मचारी, अंदाज आदि फिल्मों से दर्शकों को खूब रोमांचित किया। जिस प्रकार राज कपूर के गाने मुख्य रूप से मुकेश की आवाज में होते थे, उसी प्रकार शम्मी कपूर के लिए अधिकतर गाने मोहम्मद रफी ने गाए। रफी की आवाज, शंकर जयकिशन का संगीत और शम्मी कपूर की अदाकारी को सिनेप्रेमियों ने हाथोंहाथ लिया। उनके कई गाने आज भी खूब पसंद किए जाते हैं।
शम्मी कपूर को संगीत और धुन की अच्छी समझ थी और वह अपने गीतों को लेकर काफी सजग रहते। गीतों के चयन, उसके संगीत से लेकर उसके फिल्मांकन तक में वह दिलचस्पी रखते थे। रफी भी शम्मी कपूर के गानों के लिए अलग से तैयारी करते और उनकी अदाओं के हिसाब से अपने को ढाल लेते। उम्र के साथ वजन बढने पर शम्मी कपूर ने चरित्र भूमिकाएं शुरू कर दी। बतौर चरित्र अभिनेता उन्होंने विधाता, प्रेम रोग, हीरो, बेताब, अजूबा, हुकूमत, तहलका जैसी कई चर्चित फिल्मों में काम किया। शम्मी कपूर लोकप्रिय अभिनेता होने के साथ साथ हरदिल अजीज इंसान भी थे। निधन से पूर्व उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि उन्होंने अपनी जिंदगी किसी ‘प्रिंस’ की तरह जिया जिसका मौका कम ही लोगों को मिल पाता है।

Dark Saint Alaick
17-08-2012, 03:44 PM
18 अगस्त की कथित घटना पर विशेष
...आखिर कब उठेगा नेताजी के बारे में छाए रहस्य से पर्दा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17523&stc=1&d=1345200232

स्वाधीनता संग्राम के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में छाए रहस्य से 67 साल बाद भी पर्दा नहीं उठ पाया है। 18 अगस्त 1945 को ताइवान में विमान हादसे में उनकी कथित मौत के सच का पता लगाने के लिए तीन-तीन आयोग बनाए गए, लेकिन सच अब तक सामने नहीं आया है। देश के बहुत से लोग आज भी यह मानते हैं कि नेताजी की मौत विमान हादसे में नहीं हुई थी और वह आजादी के बाद भी काफी दिनों तक जीवित रहे तथा अपनी जिन्दगी गुमनामी में बिताई। नेताजी के बारे में ढेरों किस्से कहानियां प्रचलित हैं। कई साधु संतों ने खुद के नेताजी होने का दावा किया जिससे रहस्य और गहराता चला गया । ताइवान सरकार ने अपना रिकॉर्ड देखकर खुलासा किया कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में कोई विमान हादसा हुआ ही नहीं था। इससे नेताजी की मौत की कहानी को सच न मानने वालों का यह विश्वास और पक्का हो गया कि आजादी का यह महानायक भारत की अंग्रजों से मुक्ति के बाद भी जीवित था। सुभाष चंद्र बोस के रहस्य पर पुस्तक लिख चुके मिशन नेताजी के अनुज धर का कहना है कि भारत सरकार सबकुछ जानती है, लेकिन वह जानबूझकर रहस्य से पर्दा नहीं उठाना चाहती । उन्होंने कहा कि इसीलिए सरकार ने सूचना के अधिकार के तहत दायर उनके आवेदन पर उन्हें नेताजी से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया । नेताजी के बारे में जानने के लिए जितनी भी जांच हुईं, उन सबमें कुछ न कुछ ऐसा आया जिससे कहानी और उलझती चली गई । ताइवान में कथित विमान हादसे के वक्त नेताजी के साथ रहे कर्नल हबीबुर रहमान ने आजाद हिन्द सरकार के सूचना मंत्री एसए नैयर, रूसी तथा अमेरिकी जासूसों और शाहनवाज समिति के समक्ष विरोधाभासी बयान दिए। रहमान ने कभी कहा कि उन्होंने नेताजी के जलते हुए कपड़े उनके बदन से अलग किए थे तो कभी अपने बारे में कहा कि वह तो विमान हादसे में खुद भी बेहोश हो गए थे और जब आंख खुली तो अपने को ताइपै के एक अस्पताल में पाया। कभी उन्होंने नेताजी के अंतिम संस्कार की तारीख 20 अगस्त 1945 तो कभी 22 अगस्त बताई। आजाद हिन्द फौज के बहुत से सैनिकों और अधिकारियों ने भी यह कहा कि नेताजी की मौत कथित विमान हादसे में नहीं हुई थी। रहस्य से पर्दा उठाने के लिए जवाहर लाल नेहरू सरकार द्वारा शाहनवाज खान के नेतृत्व में अप्रैल 1956 में बनाई गई जांच समिति ने विमान हादसे की घटना को सच बताया था, लेकिन समिति में शामिल रहे नेताजी के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस ने इस रिपोर्ट को नकारते हुए कहा था कि कथित विमान हादसे को जानबूझकर सच बताने की कोशिश की जा रही है। आजाद हिन्द फौज के वयोवृद्ध सेनानी राम सिंह का मानना है कि नेताजी आजादी के बाद भी बहुत दिनों तक जीवित रहे और देश की घटिया राजनीति ने उन्हें कभी सामने नहीं आने दिया। जुलाई 1970 में बनाए गए न्यायमूर्ति जीडी खोसला आयोग ने भी वही रिपोर्ट दी जैसी कि शाहनवाज समिति ने दी थी। इसके बाद नेताजी की कथित मौत की जांच के लिए 1999 में तीसरा आयोग गठित किया गया, जिसका नाम मुखर्जी आयोग था। इसने अपनी रिपोर्ट में विमान हादसे में नेताजी की मौत को खारिज कर दिया तथा कहा कि मामले में आगे और जांच की जरूरत है। मुखर्जी आयोग ने आठ नवम्बर 2005 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी थी । इसे 17 मई 2006 को संसद में पेश किया गया, लेकिन सरकार ने रिपोर्ट को मानने से इनकार कर दिया । आजाद हिन्द फौज से जुड़े कई लोग यह दावा कर चुके हैं कि फैजाबाद में रहने वाले गुमनामी बाबा ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे और वे गुप्त रूप से नेताजी से मिला करते थे। अनुज धर ने अपनी किताब ‘इंडियाज बिगेस्ट कवर अप’ में कई गोपनीय दस्तावेजों और तस्वीरों के हवाले से दावा किया है कि नेताजी 1985 तक जीवित थे।

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 03:55 PM
18 अगस्त को विजयलक्ष्मी पंडित की जयंती पर
राजनीति के साथ-साथ कूटनीति की भी महान हस्ती

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प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की बहन तथा संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष विजयलक्ष्मी पंडित न केवल राजनीति बल्कि कूटनीति की भी महान शख्सियत थीं। वह दुनिया की पहली महिला राजदूत थीं जिन्होंने रूस, अमेरिका और ब्रिटेन में बतौर भारतीय राजदूत अपनी सेवाएं दी। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपना परिवार मानती थीं क्योंकि उनके पिता मोती लाल नेहरू एवं भाई जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महान नेता थे और उसी दौर में उनका जन्म हुआ था। विजयलक्ष्मी पंडित के अनुसार राजनीति सामाजिक और आर्थिक सुधार का माध्यम है जो मानवाधिकार को मजबूती प्रदान करती है तथा महिलाओं को सशक्त बनाती है। इलाहाबाद में 18 अगस्त, 1900 ईस्वी में जन्मी विजयलक्ष्मी पंडित ने अपनी आत्मकथा ‘द स्कोप आॅफ हैपीनेस’ में लिखा है कि उनका बचपन अंतर्विरोधों और विरोधाभासों से भरा था क्योंकि यह वर्र्र्षाे पुरानी परंपराओं एवं पूर्वग्रहों से जीवन एवं चिंतन की नयी जीवनशैली की ओर संक्रमण था। उन पर अपने पिता मोतीलाल नेहरू का गहरा प्रभाव था।
बाद में महात्मा गांधी ने विजयलक्ष्मी को भारत की वास्तविक स्थिति के बारे लोगों को बताने के लिए अमेरिका भेजा। सर तेज बहादुर सप्रू ने वर्जीनिया में पैसफिक रिलेशंस कांफ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में विजयलक्ष्मी पंडित को शामिल किया। वह संविधान प्रारूप समिति की सदस्य बनीं। आजादी के बाद वह राजनयिक सेवा में चली गयीं और वह सोवियत संघ, अमेरिका, मैक्सिको, आयरलैंड (इस दौरान वह ब्रिटेन की उच्चायुक्त भी थीं), स्पेन में भारत की राजदूत रहीं। वर्ष 1946 से 1968 तक संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई भी कीं। वर्ष 1953 में वह संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष बनीं। भारत में वह महाराष्ट्र की राज्यपाल रहीं। वह लोकसभा के लिए भी चुनी गयी। हालांकि उनकी अपनी भतीजी इंदिरा गांधी से संबंध अच्छे नहीं रहे। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक अनिल राय कहते हैं कि दरअसल आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की तानाशाही उन्हें रास नहीं आई और वह उनकी कटु आलोचक बन गयीं। उन्हें देश विदेश के कई विश्वविद्यालयों से आठ से अधिक मानद उपाधियां मिली थीं। वह पहली दिसंबर, 1990 को चल बसीं।

Dark Saint Alaick
19-08-2012, 02:54 PM
रमजान के रूहानी सफर की सुहानी मंजिल है ईद-उल-फित्र

रोजेदारों के एक महीने की इबादत भरे रूहानी सफर की सुहानी मंजिल यानी ईद-उल-फित्र का त्यौहार अल्लाह का अपने बंदों को दिया गया बेशकीमत तोहफा है। सिवइयों के लच्छों में लिपटी मोहब्बत की मिठास का यह पर्व न सिर्फ रोजे की तपिश में साफ हो चुके दिलों के मिलन का मौका है बल्कि सारे जहां के मालिक की रहमत की नजीर भी है। ईद-उल-फित्र हमारी गंगा-जमुनी तहजीब को थामने वाली मजबूत डोर है, हमारी दिलशिकनियों को दूर करने का खूबसूरत बहाना है और फितरे तथा जकात से सम्भले गरीब लोगों की दुआओं की बारिश में सराबोर होने का मौका है। आजमगढ स्थित प्रमुख इस्लामी शोध संस्थान दारुल मुसन्निफीन के उपप्रमुख मौलाना उमेर अल सिद्दीक ईद को एक मुकम्मल त्यौहार बताते हुए कहते हैं कि यह पर्व एक महीने तक रोजा रखकर इबादत करने वाले बंदों को अल्लाह की तरफ से बख्शा गया बेशकीमत तोहफा है। इस त्यौहार के अनेक आयाम है और इसका हर गोशा खुद में एक दर्शन को छुपाये है। उन्होंने बताया कि ईद-उल-फित्र का इतिहास हजरत मुहम्मद साहब के काल जितना पुराना है और अल्लाह ने रोजे और उसके बाद ईद के दौरान सारी इंसानियत को अपनी रहमतों और अपने संदेश में आदेशित दुनियावी व्यवस्थाओं के जरिए तृप्त करने का इंतजाम किया है। मौलाना उमेर ने बताया कि सक्षम लोग ईद से पहले रमजान के महीने में सात तोला सोना या 52 तोले चांदी अथवा उसकी कीमत के बराबर ऐसी रकम के ढाई फीसद के बराबर धन निकालकर उसे गरीबों और बेसहारा लोगों में बांट देते हंै, वह भी किसी को बताए बगैर। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में इस्लामी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर जुनैद हारिस कहते हैं, ‘ईद महज एक त्यौहार नहीं, बल्कि भाईचारे और एकजुटता का एक बड़ा मौका होता है। इस दिन इंसान दुश्मन से भी गले मिलता है। यह हमें ऐसा मौका देता है कि हम दुश्मनी को भूल भाईचारा कायम करने की ओर बढ़ते हैं। ईद सही मायनों में इंसानियत का पैगाम देता है।’ वैसे दुनिया के विभिन्न हिस्सों में ईद का जश्न मनाने का तरीका भी जुदा है। भारत की ईद में यहां की वर्षों पुरानी परंपरा झलकती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में ईद के मौके पर विभिन्न पकवान बनते हैं। आमतौर पर सीर-खुरमा और सेवइयों के कई अन्य लजीज पकवान बनाए जाते हैं। ईद के संदेश के बारे में दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम अहमद कहते हैं, ‘ईद को मजहबी दायरे से हटकर देखें तो इसकी इंसानी नजरिए से खासी अहमियत है। यह एक ऐसा त्यौहार है जो दुश्मनों के बीच की दूरियों को पाटने का काम करता है।’ उन्होंने कहा, ‘मेरा मानना है कि ईद के मौके पर इंसान को दुश्मन को भी अपना दोस्त बनाने की सोचना चाहिए। यही पैगम्बर की रवायत रही और हम सभी को उनके बताए रास्ते पर ही चलना है।’ मौलाना उमेर के मुताबिक ईद के रुहानी के साथ-साथ मुकम्मल आर्थिक पहलू भी हैं। मसलन, जकात की रकम से गरीब लोगों को भी ईद मनाने का बराबर का मौका मिलता है। इसके अलावा रमजान के दौरान होने वाली बरकत से व्यापारी वर्ग भी मालामाल हो जाता है। ईद की तैयारी के लिये लोग जमकर खरीददारी करते हैं जिससे तिजारती तबके के माल में बढोतरी होती है। उन्होंने बताया कि ईद मेहनतकश तबके के लिये भी रहमत की वजह बनती है। ईद की तैयारियों में लोग अपने घरों की मरम्मत, रंगाई-पोताई वगैरह करवाते हैं, जिससे श्रमिक वर्ग को साल के बाकी महीनों के मुकाबले रमजान में ज्यादा धन मिलता है, इससे वे भी ईद का लुत्फ उठा पाते हैं। ईद एक आवाज है जो अल्लाह की रहमतों की गवाही देती है। ईद एक मौका है जो दिलों की दूरियां खत्म करने की दावत देता है। ईद हर तबके पर रहमत की बारिश का अवसर है। सच, ईद एक मुकम्मल त्यौहार है।

Dark Saint Alaick
20-08-2012, 04:05 PM
वरिष्ठ नागरिक दिवस पर विशेष
सिर्फ प्यार के भूखे हैं ये बुजुर्ग

भारत में बुजुर्गों के सम्मान की परंपरा रही है और हम हमेशा इसी बात पर नाज करते रहे हैं कि हमारे यहां नयी पीढी पुरानी पीढी की उपेक्षा नहीं करती बल्कि उन्हें पूरा सम्मान देती है और उनके अनुभवों की कद्र करती है। लेकिन बढते औद्योगिकरण, उदार अर्थव्यवस्था और पश्चिमी सभ्यता ने कुछ हद तक हमारी संस्कृति में सेंध लगा दी है। अब ऐसे अनेक मामले देखे जा रहे हैं जहां बुजुर्गो को बोझ माना जाने लगा है और उनकी अनदेखी और कहीं कहीं तो तिरस्कार तक किया जाने लगा है। कुछ सीधे सीधे ऐसा करते हैं तो कुछ परोक्ष तौर पर उनकी अनदेखी करते हैं। ऐसी भी संतानें मिल जायेंगी जो माता पिता के वृद्ध होते ही उन्हें या तो सड़कों पर छोड़ देते हैं या फिर उन्हें वृद्धाश्रम में अकेले रहने को मजबूर कर देते हैं। पूरे भारत में इस वक्त लगभग 500 वृद्धाश्रम हैं, जिनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो वृद्धों की नि:शुल्क सेवा करते हैं। इनमें से कुछ सरकार से अनुदानप्राप्त हैं तो कुछ स्वयंसेवी संस्थानों द्वारा चलाए जा रहे हैं । दिल्ली में ‘गुरु विश्राम वृद्धाश्रम’ के संचालनकर्ता डॉ गिरधर प्रसाद भगत कहते हैं, ‘जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एमफिल करने के दौरान ही मन में कुछ करने की इच्छा थी । माता पिता का और गुरुजनों का आशीर्वाद मेरे इस कार्य का प्रेरणा स्त्रोत रहा है । हालांकि शुरू में पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण सेवा के इस कार्य में देरी हुई । आखिरकार वर्ष 2003 में मैंने इस वृद्धाश्रम को शुरू किया।’
भगत कहते हैं, ‘हमारे इस वृद्धाश्रम में 100 से ज्यादा बुजुर्ग हैं और अधिकतर लावारिस रूप में मिले परित्यक्त बुजुर्ग हैं, जिन्हें हम रेलवे स्टेशन, बस स्टॉप या फिर अस्पतालों से लेकर आए हैं। कई तो ऐसे हैं जिन्हें कुछ याद नहीं। हालांकि यह भी आश्चर्य की बात है कि जिन संतानों ने इन्हें मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया था उनका नाम यह कभी नहीं भूलते।’ उन्होंने कहा, ‘जैसे ही हमें किसी लावारिस बुजुर्ग की सूचना मिलती है, हम उन्हें आश्रम में ले आते हैं, हमने इस काम के लिए खास तौर पर दो गाड़ियां रखी हैं। इनके खाने पीने, दवा, रहने और अन्य सुविधाओं का भी खास ख्याल रखते हैं। इनके साथ हर त्योहार मनाते हैं। इनके दाह संस्कार की व्यवस्था भी हम इनके धर्म के अनुसार ही करते हैं। हमारा एकमात्र लक्ष्य बेसहारा और परित्यक्त बुजुर्गों को आसरा देना है।’ अपने बेटे के इस कार्य से प्रसन्न गिरधर प्रसाद के 80 वर्षीय पिता गुरु विश्राम कहते हैं, ‘वैसे तो मैं बनारस (वाराणसी) में रहता हूं और कभी कभी अपने बेटे से मिलने यहां दिल्ली आ जाया करता हूं। मेरा तो सारा समय भगवान के ध्यान में ही लगा रहता है, लेकिन यहां आकर अपने बेटे का सेवाकार्य देख कर बहुत खुशी होती है।’ सरकार ने भी बुजुर्गों के लिए वृद्धावस्था पेंशन जैसी कई योजनाएं शुरू की हैं। हाल ही में सरकार वरिष्ठ नागरिकों का रखरखाव विधेयक -2007 संसद में पेश कर चुकी है। यह विधेयक माता पिता की देखभाल, वृद्धाश्रमों की स्थापना और वरिष्ठ नागरिकों की संपत्ति और जीवन की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से तैयार किया गया है। एक दिन 21 अगस्त को वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाकर ही हमें अपनी जिम्मेदारियों का अंत नहंी समझ लेना चाहिए। इन बुजुर्गों की अनकही पुकार की तरफ भी गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। अपने माता पिता की देखभाल का दायित्व हर संतान को समझने की आवश्यकता है, ताकि भारत अपने जिन मूल्यों के लिये पूरे विश्व में पहचाना जाता है, वे कहीं अतीत की बात बन कर नहीं रह जाएं।

Dark Saint Alaick
20-08-2012, 04:09 PM
कुर्रतुल ऐन हैदर की पुण्यतिथि पर विशेष
बदलते मानव संबंधों का जिंदा दस्तावेज है एनी आपा का लेखन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17525&stc=1&d=1345460944

ऐनी आपा के नाम से मशहूर कुर्रतुल ऐन हैदर का रचनात्मक संसार बहुत विस्तृत रहा। उनके लेखन में समाज और संस्कृति की विस्तृत झलक दिखाई देती है। हालांकि ऐनी का बहुआयामी लेखन कई विधाओं में फैला है, लेकिन उनकी मूल पहचान उपन्यासकार की रही। हिन्दी-उर्दू के वरिष्ठ उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा, ‘हालांकि कुर्रतुल ऐन हैदर ने कहानी, रिपोर्ताज, अनुवाद, जीवनी उपन्यास जैसे तमाम रचनात्मक एवं उल्लेखनीय रचनाएं कीं, लेकिन उनकी मूल पहचान उपन्यासकार की रही। उनके उपन्यासों में सामान्यत: हमारे लंबे इतिहास की पृष्ठभूमि में आधुनिक जीवन की जटिल परिस्थितियों को पिरोया गया है।’ बिस्मिल्लाह ने कहा, ‘उनका रचनात्मक संसार इतना विस्तृत था, कि उन्हें बांग्ला के रबीन्द्रनाथ टैगौर अथवा हिन्दी के प्रेमचन्द के समान रखा जा सकता है। ऐनी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘आग का दरिया’ की तुलना टालस्टाय के ‘वार एंड पीस’ से करते हुए उन्होंने कहा कि उनका लेखन में युगों-युगों की गाथा है और उसमें समाज और संस्कृति की वास्तविक तस्वीर दिखाई देती है।’ एनी ने बहुत कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। उनकी पहली कहानी ‘बी चुहिया’ मात्र छह वर्ष की अल्पायु में प्रकाशित हुई। जब वह 17-18 वर्ष की थीं, तब 1945 में उनका कहानी संकलन ‘शीशे का घर’ प्रकाशित हुआ। इसके अगले ही साल 19 वर्ष की आयु में उनका प्रथम उपन्यास ‘मेरे भी सनमखाने’ प्रकाशित हुआ।
वर्ष 1959 में कुर्रतुल ऐन हैदर का उपन्यास ‘आग का दरिया’ प्रकाशित हुआ। इसे आजादी के बाद विभाजन की पृष्ठभूमि पर उर्दू में लिखा जाने वाला सबसे बड़ा उपन्यास माना गया था, जिसमें उन्होंने ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर 1947 तक की भारतीय समाज की संस्कृति और दार्शनिक बुनियादों को समकालीन परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया है। इस उपन्यास के बारे में निदा फाजली ने यहां तक कहा है, कि मोहम्मद अली जिन्ना ने हिन्दुस्तान के साढे चार हजार सालों के इतिहास में से मुसलमानों के 1200 सालों की तारीख को अलग करके पाकिस्तान बनाया था। कुर्रतुल ऐन हैदर ने ‘आग का दरिया’ लिखकर उन अलग किये गये 1200 सालों को हिन्दुस्तान में जोड़कर हिन्दुस्तान को फिर से एक कर दिया। कुर्रतुल ऐन हैदर के उपन्यास ‘आखिरी शब के हमसफर’ का उर्दू से हिन्दी में :निशांत के सहयात्री: अनुवाद करने वाले असगर वजाहत ने कहा, ‘यह देश के वामपंथी आंदोलन के उभार और उसमें शामिल लोगों के सत्ता के करीब जाकर पतन हो जाने की कहानी है। इसका फलक बहुत विस्तृत है और कुर्रतुल ऐन हैदर के लेखन की विशेषता भी यही है।’’ उन्होंने बताया कि इसके अलावा उनके जीवनी आधारित उपन्यास भी बहुत प्रामाणिक और जीवंत हैं।’ कुर्रतुल ऐन हैदर ने अपना कैरियर एक पत्रकार की हैसियत से शुरू किया, लेकिन इस दौरान वह लिखती भी रहीं। उनकी कहानियां, उपन्यास, अनुवाद, रिपोर्ताज वगैरह सामने आते रहे । वह उर्दू में लिखती और अंग्रेजी में पत्रकारिता करती थीं। उनका जन्म 20 जनवरी 1927 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में हुआ था, उनके पिता सज्जाद हैदर यलदरम उर्दू के जाने माले लेखक होने के साथ साथ ब्रिटिश शासन के राजदूत की हैसियत से अफगानिस्तान तुर्की इत्यादि देशों में तैनात रहे थे। उनकी मां नजर बिन्ते बाकिर भी उर्दू लेखिका थीं।
कुर्रतुल ऐन हैदर की प्रारंभिक शिक्षा लालबाग, लखनउ के गांधी स्कूल में हुयी। उन्होंने अलीगढ और लखनउ के आईटी कालेज से बीए एवं लखनउ विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने लंदन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। विभाजन के समय 1947 में उनके भाई बहन व रिश्तेदार पाकिस्तान चले गये। लखनउ में अपने पिता की मौत के बाद कुर्रतुल ऐन हैदर भी बड़े भाई मुस्तफा हैदर के साथ पाकिस्तान चली गयीं। वहां स्वतंत्र लेखक व पत्रकार के रूप में वह बीबीसी लंदन से जुड़ी तथा दि टेलीग्राफ की रिपोर्टर व इम्प्रिंट पत्रिका की प्रबंध संपादक भी रहीं। कुर्रतुल ऐन हैदर इलेस्ट्रेट वीकली की संपादकीय टीम में भी रहीं। 1956 में जब वह भारत भ्रमण के लिए आईं, तो फिर वापस नहीं गयीं और जीवन भर मुंबई में रहीं। उन्होंने विवाह नहीं किया था। ऐनी साहित्य अकादमी में उर्दू सलाहकार बोर्ड की दो बार सदस्य रहीं। विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में उन्होंने जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय व अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय और अतिथि प्रोफेसर के रूप में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से भी जुड़ी रहीं। उन्हें 1967 में ‘आखिरी शब के हमसफर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। 1984 में पद्मश्री, गालिब मोदी अवार्ड, 1985 में उनकी कहानी पतझड़ की आवाज के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1987 में इकबाल सम्मान, 1989 में अनुवाद के लिए सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, 1989 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, और 1989 में ही पद्मभूषण से उन्हें सम्मानित किया गया। उनकी मृत्यु 21 अगस्त 2007 को हुई।

Dark Saint Alaick
24-08-2012, 08:41 PM
24 अगस्त को जयंती पर
ओड़िसी नृत्य का गौरव लौटाने वाली श्रेष्ठ नृत्यांगना संयुक्ता पाणिग्रही

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ओड़िसी नृत्य को न केवल पुनर्स्थापित करने वाली बल्कि उसे असीम उंचाईयों तक पहुंचाने वाली पद्मश्री नृत्यांगना संयुक्ता पाणिग्रही बचपन से ही नृत्य के प्रति समर्पित रही और गुड्डे गुड़िया से खेलने की उम्र में ताल और भंगिमाओं की शिक्षा लेने लगी। जानी मानी ओड़िशा नृत्यांगना सुजाता महापात्रा ने कहा कि संयुक्ता पाणिग्रही ने ओड़िशी नृत्य को असीम उंचाई तक पहुंचाया। उनके नृत्य कौशल और उनके पति रघुनाथ महापात्रा के गायन ने मिलकर ओड़िशी नृत्य के उत्तम मानदंड स्थापित किए। सुजाता ने कहा कि वह गुरू केलुचरण महापात्रा की पहली उत्तराधिकारी समझी जाती हैं और ओड़िसी नृत्य के प्रति उनका योगदान शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता। ओड़िशा में गंजाम जिले के बरहमपुर में 24 अगस्त, 1944 को जन्म लेने वाली संयुक्ता पाणिग्रही के पिता अभिराम मिश्रा प्रारंभ में उनके नृत्य के खिलाफ थे लेकिन उनकी मां ने अपनी बेटी की मेधा को पहचाना और बाद में दोनों ही उनके नृत्य सीखने पर राजी हो गए। उन्हें चार साल की उम्र में ही नृत्य की शिक्षा के लिए गुरू केलुचरण महापात्रा के पास भेजा गया। उस दिन के बाद संयुक्ता ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपनी लगन और गरिमापूर्ण शैली से इस नृत्य का पर्याय बन गईं।
संयुक्ता ने वर्ष 1952 में अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्मोत्सव में पहला पुरस्कार जीता। उनकी सफलता से अभिभूत उनके माता पिता ने उन्हें नृत्य का अच्छा प्रशिक्षण दिलाने के लिए चेन्नई के ‘कलाक्षेत्र’ भेजा दिया। वहां उन्होंने भरतनाट्यम में नृत्यपरायणम डिप्लोमा हासिल किया। यहीं उन्हें रघुनाथ पाणिग्रही से प्रेम हो गया जो उनसे उम्र में 10 साल बड़े थे। रघुनाथ पाणिग्रही ने उनके नृत्य को गायन समर्थन प्रदान करने के वास्ते चेन्नई में फिल्म संगीत को तिलांजलि दे दी। दोनों ने शादी कर ली। संयुक्ता और उनके पति रघुनाथ के लिए प्रारंभिक वर्ष काफी चुनौतीपूर्ण थे। वर्ष 1966 में तब स्थिति बदली जब उनके गुरू केलुचरण महापात्रा को संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार मिला। उस पुरस्कार समारोह में संयुक्ता के नृत्य से दर्शक अभिभूत हो गए। उसके बाद वह राष्ट्रीय क्षितिज पर छा गयीं। फिर कभी उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। देश के विभिन्न हिस्सों में ओड़िशी नृत्य प्रस्तुत करने के अलावा उन्होंने विभिन्न देशों का भ्रमण किया और वहां अपनी प्रस्तुति पेश कीं। अपने अथक प्रयास से उन्होंने करीब करीब भुला दी गयी नृत्य की इस विधा को एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। करीब चार दशक तक वह ओड़िशा की एक निर्विवाद प्रमुख नृत्यांगना रही। वह 24 जून, 1997 को महज 52 साल की उम्र में कैंसर की बीमारी से चल बसीं। नृत्य आलोचक डॉ. सुनील कोठारी कहते हैं, ‘संयुक्ता पाणिग्रही ने भरतनाट्यम को छोड़ कर अपना सारा जीवन ओड़िसी नृत्य के लिये समर्पित कर दिया और इस विधा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।’

Dark Saint Alaick
25-08-2012, 03:35 PM
स्वस्थ जीवनशैली दिवस आज
स्वस्थ जीवनशैली की ओर लौटने लगे हैं लोग

तेजी से आगे बढ़ने और पैसा कमाने के चक्कर में सौम्या की दिनचर्या इस कदर बदली कि अनिद्रा, तनाव जैसी जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों ने उसे जकड़ लिया। डॉक्टर ने उसे जीवनशैली में बदलाव लाने की सलाह दी और कहा, आखिर जान है तो जहान है। कभी पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल करने वाले ज्यादार लोग स्वस्थ जीवनशैली की ओर लौटने लगे हैं, जिसकी वजह से देश में जैविक खाद्य, पर्यावरण अनुकूल उत्पादों का बाजार तेजी से बढ़ रहा है और हर जगह लोग योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा की शरण में जा रहे हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की डायटीशियन मिनी बाली ने बताया कि हमारे यहां आने वाले ज्यादातर लोग मोटापे से परेशान हैं। शारीरिक श्रम व खेलकूद नहीं करने से किशोर मोटापे का शिकार हो रहे हैं। हालांकि अब माता-पिता बच्चों को खेलकूद के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। प्राकृतिक चिकित्सक डॉक्टर अनिल बंसल ने कहा कि लोग दवाइयों के साइड इफेक्ट से बचने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा का सहारा ले रहे हैं। सूर्योदय से पहले उठना और सूर्य की किरणें ग्रहण करना भी निरोगी रहने का सटीक नुस्खा है। लोग तेजी से अपने खानपान की आदतों में बदलाव ला रहे हैं। लोगों में स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता की वजह से कोल्ड ड्रिंक की मांग तेजी से घटी है और लोगों ने फलों के रस को तरजीह देना शुरू कर दिया है। एसोचैम के एक सर्वेक्षण में 79 प्रतिशत लोगों ने गैरकार्बोनेटेड, पैकेज्ड फू्रट ड्रिंक्स को अपनी पहली पसंद बताया। भारत के पारंपरिक पेय पदार्थों में लोग लस्सी, छाछ, शर्बत, ठंडाई, शिकंजी, नींबू पानी, बादाम दूध और नारियल पानी को तरजीह देते हैं। शुद्ध खानपान के प्रति लोगों का रूझान बढ़ने से देश में जैविक खाद्य उत्पादों का बाजार सालाना 20-22 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। जैविक खाद्य बाजार पर यस बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, देश में रसायन रहित खाद्य, जैविक और प्राकृतिक उत्पादों के बारे में जागरूकता काफी बढ़ी है। भारत में जैविक खाद्य उत्पादों का बाजार अभी 1,000 करोड़ रुपए का है और देश में करीब 38.8 करोड़ टन प्रमाणित जैविक उत्पादों का उत्पादन किया जाता है, जिसमें बासमती चावल, दाल, चाय, काफी, मसाले और तिलहन शामिल हैं। सरकार नेशनल प्रोजेक्ट आन आर्गेनिक फार्मिंग, नेशनल होर्टिकल्चर मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत जैविक खेती को प्रोत्साहित कर रही है।

Dark Saint Alaick
27-08-2012, 07:22 AM
पुण्यतिथि 27 अगस्त के अवसर पर
फिल्म इंडस्ट्री के स्टार मेकर थे रिषिकेश मुखर्जी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17563&stc=1&d=1346034066

भारतीय सिनेमा जगत में रिषिकेश मुखर्जी को ऐसे स्टार मेकर के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने धर्मेन्द्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, अमोल पालेकर और जया भादुड़ी जैसे सितारों को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित किया। कोलकाता में 30 सितंबर 1922 को जन्मे रिषिकेश मुखर्जी ने अपनी स्नातक की शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से पूरी की। इसके बाद कुछ दिनो तक उन्होंने गणित और विज्ञान का अध्यापन भी किया, लेकिन फिल्मों के प्रति आकर्षण के चलते उनका मन नहीं लगा और वह अध्ययन छोडकर फिल्मों से जुड गये। उन्होंने चालीस के दशक में अपने सिने कैरियर की शुरूआत न्यू थियेटर में बतौर कैमरामैन की। न्यू थियेटर में उनकी मुलाकात जाने माने फिल्म संपादक सुबोध मित्र से हुई । उनके साथ रहकर रिषिकेश मुखर्जी ने फिल्म संपादन का काम सीखा। इसके बाद वह फिल्मकार विमल राय के साथ सहायक के तौर पर काम करने लगे।रिषिकेष मुखर्जी ने विमल राय की चर्चित फिल्मों फिल्म 'दो बीघा जमीन' और 'देवदास' का संपादन भी किया था। बतौर निर्देशक रिषिकेश मुखर्जी ने अपने कैरियर की शुरूआत वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म 'मुसाफिर' से की। दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन और किशोर कुमार जैसे नामचीन सितारों की मौजूदगी के बावजूद यह फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई। वर्ष 1959 में रिषिकेश मुखर्जी को राज कपूर को फिल्म 'अनाड़ी' निर्देशित करने का मौका मिला। यह फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई और इसके साथ ही बतौर निर्देशक रिषिकेश मुखर्जी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए।
वर्ष 1960 में रिषिकेश मुखर्जी की एक और फिल्म 'अनुराधा' प्रदर्शित हुई। बलराज साहनी और लीला नायडू अभिनीत इस फिल्म की कहानी ऐसी शादीशुदा युवती पर आधारित है, जिसका पति उसे छोड़कर अपने आदर्श के निर्वाह के लिये गांव चला जाता है। हालांकि यह फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई, लेकिन राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ ही बर्लिन फिल्म फेस्टिबल में भी इसे सम्मानित किया गया। वर्ष 1966 में प्रदर्शित फिल्म 'आशीर्वाद' रिषिकेश मुखर्जी के कैरियर की सर्वाधिक सफल फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के जरिये रिषिकेश मुखर्जी ने न सिर्फ जाति प्रथा और जमीन्दारी प्रथा पर गहरी चोट की, बल्कि एक पिता की व्यथा को भी रूपहले पर्दे पर साकार किया। इस फिल्म में अशोक कुमार पर फिल्माया यह गीत 'रेलगाड़ी रेलगाड़ी' उन दिनों काफी लोकप्रिय हुआ था। वर्ष 1969 में प्रदर्शित फिल्म 'सत्यकाम' रिषिकेश मुखर्जी निर्देशित महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है। धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म की कहानी एक ऐसे युवक पर आधारित है, जिसने स्वतंत्रता के बाद जैसा सपना देश के बारें में सोचा था, वह पूरा नहीं हो पाता है। हालांकि यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई, लेकिन सिने प्रेमियों का मानना है कि यह फिल्म रिषिकेश मुखर्जी की उत्कृष्ट फिल्मों में से एक है।
जया भादुड़ी को प्रारंभिक सफलता दिलाने में निर्माता-निर्देशक रिषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का बड़ा योगदान रहा। उन्हें पहला बड़ा ब्रेक वर्ष 1971 में आई उन्हीं की फिल्म 'गुड्डी' से मिला। इस फिल्म में उन्होंने एक ऐसी लड़की की भूमिका निभायी जो फिल्में देखने की काफी शौकीन है और अभिनेता धर्मेन्द्र से प्यार करती है। अपने इस किरदार को जया भादुड़ी ने इतने चुलबुले तरीके से निभाया कि दर्शक उस भूमिका को आज भी नहीं भूल पाए हैं। फिल्म गुड्डी के बाद जया भादुड़ी रिषिकेश मुखर्जी की पसंदीदा अभिनेत्री बन गईं। रिषिकेश मुखर्जी जया भादुड़ी को अपनी बेटी की तरह मानते थे और उन्होंने जया भादुड़ी को लेकर 'बावर्ची', 'अभिमान', 'चुपके चुपके' और 'मिली' जैसी कई फिल्मों का निर्माण भी किया।
सुपर स्टार राजेश खन्ना के यादगार अभिनय से सजी फिल्म 'आनंद' रिषिकेश मुखर्जी निदेर्शित सुपरहिट फिल्मों में शुमार की जाती है। वर्ष 1972 में प्रदर्शित इस फिल्म में राजेश खन्ना ने आनंद की शीर्षक भूमिका निभाई थी। फिल्म में उन्होंने एक ऐसे कैंसर पीड़ित व्यक्ति का किरदार निभाया, जो चंद दिनों में मरने वाला है, लेकिन उसका मानना है, जब तक जिंदा रहो, जिंदादिल इंसान के तौर पर जियो। इस फिल्म के एक दृश्य में राजेश खन्ना का बोला गया संवाद 'बाबू मोशाय, हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों से बंधी हुई है। कौन कब किसकी डोर खिंच जाये ये कोई नहीं बता सकता' उन दिनों सिने दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था और आज भी सिने दर्शक उसे भूल नहीं पाए हैं। वर्ष 1973 में प्रदर्शित फिल्म 'अभिमान' भी रिषिकेश मुखर्जी निर्देशित अहम फिल्म में शुमार की जाती है। अमिताभ और जया भादुड़ी की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म में अमिताभ बच्चन एक ऐसे अभिमानी पति की भूमिका में दिखाई दिए, जो पत्नी को संगीत के क्षेत्र में बढ़ता देखकर अंदर ही अंदर जलने लगता है। वर्ष 1975 में प्रदर्शित फिल्म 'चुपके चुपके' रिषिकेष मुखर्जी के करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में एक है। इस दौर में अमिताभ और धर्मेन्द्र को लेकर फिल्मकार केवल मारधाड़ और एक्शन से भरपूर फिल्म का निर्माण किया करते थे, लेकिन उन्होंने उन दोनों अभिनेताओं को लेकर हास्य से भरपूर फिल्म 'चुपके चुपके' का निर्माण करके सबको आश्चर्यचकित कर दिया।
वर्ष 1979 में प्रदर्शित फिल्म 'गोलमाल' रिषिकेष मुखर्जी के सिने करियर की सुपरहिट फिल्म में शुमार की जाती है। जब कभी हास्य फिल्मों की चर्चा की जाती है, तब फिल्म 'गोलमाल' का नाम अवश्य लिया जाता है। अमोल पालेकर और उत्पल दत्त अभिनीत इस फिल्म के जरिये रिषिकेष मुखर्जी ने दर्शको को हंसते-हंसते लोटपोट कर दिया था। वर्ष 1988 में प्रदर्शित फिल्म 'नामुमकिन' की टिकट खिड़की पर असफलता के बाद रिषिकेश मुखर्जी को यह महसूस हुआ कि इंडस्ट्री में व्यावसायिकता कुछ ज्यादा ही हावी हो गई है। इसके बाद उन्होंने लगभग दस वर्ष तक फिल्म इंडस्ट्री से किनारा कर लिया। वर्ष 1999 में उन्होंने अनिल कपूर को लेकर फिल्म 'झूठ बोले कौआ काटे' का निर्माण किया, लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर विफल साबित हुई। रिषिकेश मुखर्जी को अपने सिने कैरियर में सात बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। रिषिकेश मुखर्जी को वर्ष 1954 में प्रदर्शित फिल्म 'नौकरी' के लिये सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादन के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद 1958 में फिल्म 'मधुमती' (फिल्म संपादन), वर्ष 1970 में अनोखी रात (स्क्रीन प्ले), वर्ष 1970 में आनंद (निर्माता, संपादन, कहानीकार), वर्ष 1980 में खूबसूरत के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्माता के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए। इन सबके साथ ही वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म 'अनुराधा' के लिए भी रिषिकेश मुखर्जी बतौर फिल्म निर्माता राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए। फिल्म के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार और देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया। रिषिकेश मुखर्जी उन गिने चुने चंद फिल्मकारों में शामिल हैं, जो फिल्म की संख्या से अधिक उसकी गुणवत्ता पर यकीन रखते हैं। उन्होंने अपने तीन दशक के सिने कैरियर में 13 फिल्मों का निर्माण और 43 फिल्मों का निर्देशन किया। फिल्म निर्माण के अलावा उन्होंने कई फिल्मों का संपादन भी किया। इसके अलावा उन्होंने कई फिल्मों की कहानी और पटकथा भी लिखी। अपनी फिल्मों से लगभग तीन दशक तक दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करने वाले महान फिल्मकार रिषिकेश मुखर्जी 27 अगस्त 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। उनकी निर्देशित फिल्मों में कुछ अन्य हैं - मेमदीदी, छाया, असली नकली, आशिक, बीबी और मकान, मंझली दीदी, बुड्ढा मिल गया, बावर्ची, नमक हराम, चैताली, अर्जुन पंडित, आलाप, जुर्माना, खूबसूरत, नरम गरम, बेमिसाल, झूठी आदि।

Dark Saint Alaick
27-08-2012, 07:45 AM
पुण्यतिथि 27 अगस्त पर
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17564&stc=1&d=1346035531

दर्द भरे नगमों के बेताज बादशाह मुकेश आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी दर्दभरी सुरीली आवाज के दम पर वह आज भी अपने प्रशंसकों के दिल में जिंदा हैं। उनकी दिलकश आवाज सुनकर बरबस श्रोताओं के दिल से बस एक ही आवाज निकलती है - ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना। 22 जुलाई 1923 को दिल्ली में एक मध्यम परिवार में जन्मे मुकेश चंद्र माथुर उर्फ मुकेश बचपन के दिनों में के. एल. सहगल से प्रभावित रहने के कारण उन्हीं तरह गायक बनना चाहते थे। हिन्दी फिल्मों के जाने माने अभिनेता मोतीलाल ने मुकेश की बहन की शादी में उनके गानों को सुना। मोतीलाल उनकी आवाज से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुकेश को मुंबई बुला लिया। मोतीलाल मुकेश के दूर के रिश्तेदार भी थे। फिल्मों में कदम रखने के पहले मुकेश पी.डब्ल्यू.डी. में एक सहायक के रूप में काम करते थे। वर्ष 1940 में अभिनेता बनने की चाह के साथ उन्होंने मुंबई का रूख किया। मोतीलाल ने मुकेश को अपने घर में ही रखकर उनके लिए संगीत की शिक्षा की व्यवस्था की और वह पंडित जगन्नाथ प्रसाद से संगीत की शिक्षा लेने लगे।
मुकेश को बतौर अभिनेता वर्ष 1941 में प्रदर्शित फिल्म 'निर्दोष' में काम करने का मौका मिला, लेकिन इस फिल्म के जरिये वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। इसके बाद अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में मुकेश ने अपना पहला गाना 'दिल जलता है तो जलने दे' वर्ष 1945 में प्रदर्शित फिल्म 'पहली नजर' के लिए गाया। इसे महज एक संयोग कहा जा सकता है कि यह गाना अभिनेता मोतीलाल पर ही फिल्माया गया। फिल्म की कामयाबी के बाद मुकेश गायक के रूप में रातो रात अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।
सहगल की गायकी के अंदाज से प्रभावित रहने के कारण अपनी शुरूआती दौर की फिल्मों में वह सहगल के अंदाज में ही गीत गाया करते थे। हालांकि वर्ष 1948 में नौशाद के संगीत निर्देशन में फिल्म 'अंदाज' में गाए उनके गीत 'तू कहे अगर जीवन भर, झूम झूम के नाचो गाओ, हम आज कहीं दिल खो बैठे' आदि जैसे सदाबहार गाने की कामयाबी के बाद मुकेश ने गायकी का अपना अलग अंदाज बनाया। मुकेश की ख्वाहिश थी कि वह गायक के साथ साथ अभिनेता के रूप में भी अपनी पहचान बनाएं। वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म 'आवारा' की कामयाबी के बाद उन्होंने गायकी के साथ-साथ ही अभिनय में एक बार फिर हाथ आजमाया, लेकिन इस बार भी निराशा ही उनके हाथ आई। बतौर अभिनेता वर्ष 1953 में प्रदर्शित 'माशूका' और वर्ष 1956 में प्रदर्शित फिल्म 'अनुराग' की विफलता के बाद उन्होंने फिर गाने की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया।
इसके बाद वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म 'यहूदी' के गाने 'ये मेरा दीवानापन है' की कामयाबी के बाद मुकेश को एक बार फिर से बतौर गायक पहचान मिली। इसके बाद मुकेश ने एक से बढ़कर एक गीत गाकर श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया। मुकेश ने अपने तीन दशक के सिने कैरियर में 200 से भी ज्यादा फिल्मों के लिए गीत गाए। उन्हें चार बार फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मुकेश को सबसे पहले वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म 'अनाड़ी' के 'सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी' गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद वर्ष 1970 में प्रदर्शित 'पहचान' के 'सबसे बड़ा नादान', फिल्म 'बेईमान' के 'जय बोलो बेईमान की' (1972 ) और वर्ष 1976 में प्रदर्शित फिल्म 'कभी कभी' के गाने 'कभी कभी मेरे दिल मे ख्याल आता है' के लिए भी मुकेश सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। इसके अलावा वर्ष 1974 में प्रदर्शित 'रजनीगंधा' का गाना 'कई बार देखा है' के लिए मुकेश नेशनल अवार्ड से भी सम्मानित किए गए।मुकेश के पसंदीदा संगीत निर्देशक के तौर पर शंकर जयकिशन और गीतकार में शैलेन्द्र नाम सबसे पहले आता है। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म 'बरसात' मुकेश, शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की जोड़ी वाली पहली हिट फिल्म थी। इसके बाद वर्ष 1951 में फिल्म 'आवारा' की कामयाबी के पश्चात पश्चात मुकेश, शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की जोड़ी ने गीत-संगीत से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया।
वर्ष 1941 में बतौर अभिनेता फिल्म 'निर्दोष' से अपने कैरियर की शुरूआत करने वाले मुकेश बतौर अभिनेता सफल नहीं हो सके। उन्होंने बतौर अभिनेता दुख सुख (1942), आदाब अर्ज (1943), माशूका (1953), आह (1953), आक्रमण (1956), दुल्हन (1974) फ़िल्में की। बतौर निर्माता मुकेश ने वर्ष 1951 में 'मल्हार' और वर्ष 1956 में 'आक्रमण' फिल्में भी बनाईं और इसके साथ ही इसी फिल्म के लिए उन्होंने संगीत भी दिया।
26 अगस्त 1976 को राज कपूर की फिल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' के गाने 'चंचल निर्मल शीतल' की रिकार्डिग पूरी करने के बाद मुकेश अमेरिका में कन्सर्ट में भाग लेने के लिए चले गए। इसके ठीक अगले दिन 27 अगस्त 1976 को मिशिगिन (अमेरिका) में दिल का दौरा पड़ा और वह अपने करोड़ों प्रशंसको को छोड़ सदा के लिए चले गए। इसके बाद उनके पार्थिव शरीर को भारत लाया गया। राज कपूर ने उनके मरने की खबर मिलने पर कहा था, "मुकेश के जाने के बाद ऐसा लगता है कि जैसे मेरी आवाज और आत्मा दोनों ही चली गई हैं।"

Dark Saint Alaick
01-09-2012, 04:23 PM
जन्म दिवस 1 सितम्बर पर विशेष
खलनायकी के उस्ताद

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17575&stc=1&d=1346498597 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17576&stc=1&d=1346498597

कड़क आवाज और आंखों से ही कुटिलता के भाव को व्यक्त कर देने में दक्ष खलनायकी के उस्ताद और चरित्र अभिनेता कृष्ण निरंजन सिंह अर्थात के. एन. सिंह ने रूपहले पर्दे पर जिन आंखों से अभिनय को एक नया अंदाज दिया, जीवन के अंतिम दिनों में उन्हीं आंखों ने उन्हें धोखा दे दिया था। के. एन. सिंह ने प्रारंभ में रूपहले पर्दे पर नायक की भूमिकाएं निभाई और बाद में उन्होंने खल पात्रों की भूमिका को नया अंदाज और आयाम दिया। उन्होंने नायक की भूमिका वाली कुछ ही फिल्में कीं। ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने खलनायक की भूमिकाएं ही निभायीं। वर्ष 1930 से 1950 के मध्य तक उनका जादू चलता रहा। इसी बीच खलनायक की भूमिका प्राण ने हथिया ली। के. एन. सिंह उन खलनायकों में थे, जिन्होंने इस तरह की भूमिकाओं का परिष्कार किया।
के. एन. सिंह का जन्म एक सितम्बर 1908 को देहरादून में हुआ था। उनके पूर्वज वहां के प्रसिद्ध वकीलों में से एक थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा देहरादून और लखनऊ दोनों जगह हुई। उन्हें भी सीनियर कैम्ब्रिज तक की शिक्षा दिलाई गई। उसके बाद उनका परिवार उन्हें लंदन भेजकर वकालत पढ़ाने के पक्ष में था, लेकिन उन्हें यह पेशा पसन्द नहीं था। वह कुछ और करना चाहते थे। इसी कारण उन्होंने पहले देहरादून, फिर लखनऊ और बाद में रूड़की में कई कारोबार किए, मगर कहीं भी उनका मन नहीं लगा। लखनऊ में उन्हें भले ही कारोबारी सफलता नहीं मिली, मगर यहीं उनकी मुलाकात उस समय के विख्यात गायक कुंदन लाल सहगल से हुई।
वह एक बार बीमार बहन को देखने कलकत्ता गए। कलकत्ता उस समय कला, संस्कृति, थियेटर और फिल्म निर्माण का बड़ा केन्द्र था। के. एन. सिंह की दुबारा मुलाकात संयोग से कलकत्ता में गायक सहगल से हुई, जिन्होंने पृथ्वीराज कपूर से उनकी मुलाकात कराई। उनकी पारखी निगाहों ने के. एन. सिंह में एक अच्छा कलाकार देखा। पृथ्वीराज कपूर ने अपने मित्र फिल्म निर्माता देवकी बोस से उनकी प्रशंसा की, जिन्होंने अपनी कई फिल्मों में उन्हें मौका दिया।
के. एन. सिंह ने वर्ष 1936 में देवकी बोस की फिल्म 'सुनहरा संसार' में पहली बार रूपहले पर्दे पर एक डाक्टर की भूमिका निभाई। उन्होंने कलकत्ता में और चार फिल्में की। देवकी बोस ने अपनी दूसरी फिल्म 'हवाई डाकू' में उन्हें हीरो बना दिया। वह उनके जीवन की आखिरी हीरो की भूमिका वाली फिल्म थी। उन्होंने देवकी बोस के निर्देशन में 1937 में न्यू थियेटर की 'विद्यापति' और 'अनाथ आश्रम' में खलनायक की भूमिका की। फिर उन्होंने 1937 में 'मिलाप' में सरकारी वकील की भूमिका निभाई।
स्वर्गीय ए. आर. कारदार अपने समय के बड़े फिल्म निर्माता थे। एक मुलाकात में वह के. एन. सिंह के अंदाज से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपने साथ बंबई ले आए। रंजीत मूवीटोन में जब वह अभिनय करने बम्बई आए, तो अपने मित्र पृथ्वीराज के साथ मटुंगा में रहने लगे, जहां के. एल. सहगल भी रहते थे। वहीं इन्होंने 1938 में कारदार की 'बागवान' में एक धूर्त इंजीनियर की भूमिका अदा की।
मुंबई में वर्ष 1942 का दौर बड़ा ही नाजुक था। चारों तरफ फिरंगियों के विरूद्ध आंदोलन हो रहे थे। उसी समय 'एक रात' नामक फिल्म बन रही थी, जिसके नायक पृथ्वीराज कपूर थे और उन्हें एक खलनायक की तलाश थी। के. एन. सिंह ने उस रोल के साथ ऐसा न्याय किया कि वह खलनायक बनकर रह गए। उसके बाद उन पर लगी खलनायकी की छाप उन्हें बुलंदी तक ले गई।
उनकी महत्वपूर्ण फिल्मों में 'ज्वारभाटा' (1944), 'लैला मजनूं' (1945), 'परवाना' (1947), 'बाजी', 'बरसात' (1949), 'मिलाप' (1955) शामिल हैं। उन्होंने वर्ष 1956 में 'फंटूश', 'सीआईडी', 'चलती का नाम गाड़ी' (1958), 'हावड़ा ब्रिज' (1958), 'डिक्टेटिव', 'मेरा सलाम', 'तीसरी मंजिल', 'बागबान', 'बीस साल बाद', 'अजूबा', 'कालिया', 'छबीली' आदि फिल्मों में मुख्य खलनायक की भूमिका निभाई। वर्ष 1951 में राज कपूर की 'आवारा' और गुरूदत्त की 'बाजी' दो शानदार फिल्मों में के. एन. सिंह ने यादगार रोल किया था। रूस में 'आवारा' फिल्म को लोकप्रियता मिली। के. एन. सिंह ने स्वयं इस फिल्म की डबिंग रशियन में की।
उन्होंने लगभग 250 फिल्मों में सभी प्रमुख कलाकारों के साथ अभिनय किया। वर्ष 1950 के मध्य में के एन सिंह से रूपहले पर्दे की खलनायकी की भूमिका को प्राण ने हथिया लिया। उसके बाद उन्होंने 'मिलाप' (1955), 'चलती का नाम गाड़ी' (1958) और 'हावड़ा ब्रिज' में बुजुर्ग खलनायक की भूमिका की। हालांकि उम्रदराज होने के कारण 70 के दशक से वह फिल्मों में कम ही दिखलाई पड़ते थे। उनकी देखने की शक्ति भी क्षीण हो रही थी।
के. एन. सिंह रूपहले पर्दे पर दमदार अभिनय के लिए ओवरकोट, सूट-बूट और मुंह में सिगार दबाए जितने क्रूर और मक्कार दिखते थे, वास्तविक जीवन में वह उतने ही रहमदिल और फिल्मी दुनिया में कलाकारों के प्रति हमदर्दी रखने वाले इंसान थे। जिन आंखों के कारण वह अभिनय को एक नया अंदाज दे गए, जीवन के अंतिम दिनों में उनकी उन्हीं आंखों की रोशनी चली गई थी। यह रौबदार खलनायक 91 वर्ष की उम्र में 31 जनवरी 2000 को इस संसार को अलविादा करने के साथ अपने पीछे लगभग 200 से अधिक फिल्मों की यादगार भूमिकाएं छोड़ गया।

Dark Saint Alaick
03-09-2012, 01:47 AM
दो सितंबर को जापान पर अमेरिका की विजय दिवस पर
बहुध्रुवीय विश्व की ओर बढ़ रही है दुनिया

विशेषज्ञों का मानना है कि 57 साल पहले द्वितीय विश्वयुद्ध में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के बाद ‘महाशक्ति’ बनकर उभरे अमेरिका के दुर्दिन शुरू हो गए हैं और दुनिया बहुध्रुवीय विश्व की ओर बढ़ रही है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ कमर आगा के अनुसार अमेरिका में आई भीषण मंदी के बाद उसके बुरे दौर की शुरूआत हो गई है। यह मंदी बहुत गहरी है और उसका उबरना अब मुश्किल लग रहा है। उसकी रेटिंग एएए से घटाकर एए प्लस कर गई है। उन्होंने कहा कि आज दुनिया बहुधु्रवीय विश्व की ओर बढ़ रही है और एशिया में चीन और भारत बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। आज पूरी दुनिया में संसाधनों पर कब्जा करने की नीति चल रही है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तेल प्रमुख ऊर्जा बनी जिसके कारण पश्चिमी देशों ने पश्चिम एशिया में प्रभाव बनाए रखा और इसी की तलाश में वे अब उत्तरी धु्रव की ओर बढ़ रहे हैं। आर्थिक मामलों के जानकार आलोक पुराणिक ने कहा कि अमेरिका के आर्थिक, सैन्य व राजनीतिक पतन की शुरूआत हो गई है। उसके इस संकट की नींव वर्ष 2003 में इराक युद्ध की शुरूआत के साथ पड़ी। पुराणिक ने कहा कि इराक और अफगानिस्तान युद्ध के कारण अमेरिका का खर्च बहुत बढ़ गया है और उसे बड़ी मात्रा में कर्ज लेना पड़ा है । उन्होंने कहा कि अमेरिका धीरे-धीरे कमजोर होगा लेकिन उसमें अभी काफी समय लगेगा। रक्षा मामलों के विशेषज्ञ और इंडियन डिफेंस रिव्यू पत्रिका के संपादक भरत वर्मा ने कहा कि अमेरिका अभी भी शेष दुनिया से 20 से 25 साल आगे है। उन्होंने कहा कि अमेरिका की आबादी 30 करोड़ है और वह अपनी जमीन के अंदर रणनीतिक रिजर्व बनाए हुए हैं जिससे लंबे समय तक उसे मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि लगातार युद्धों के कारण अमेरिका की स्थिति कमजोर हुई है लेकिन उसे पूरी तरह से कमजोर होने में 20 से 25 साल लग जाएंगे। वह सुपर पॉवर की तरह काम नहीं कर पाएगा और उसे सहयोगियों की जरूरत पड़ेगी और इसमें भारत उसकी मदद कर सकता है। उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दो सितंबर 1945 के दिन जापान की सेना ने औपचारिक रूप से आत्मसमर्पण किया था। जापानी सेनाओं ने यह आत्मसमर्पण युद्धपोत यूएसएस मिसौरी पर किया था जो टोक्यो की खाड़ी में खड़ा था ।

Dark Saint Alaick
03-09-2012, 03:59 PM
चार सितंबर को दादा भाई नौरोजी की जयंती पर
ब्रिटिश काल में भारत में सिविल सेवा परीक्षाओं के आयोजन का श्रेय है नौरोजी को

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17583&stc=1&d=1346669950

भारतीयों को सिविल सेवा परीक्षा में शामिल करने की मांग को लेकर जाने माने स्वतंत्रता सेनानी दादा भाई नौरोजी ने न केवल आंदोलन चलाया बल्कि ब्रिटेन के हाउस आॅफ कॉमन्स में एक सदस्य की हैसियत से देश में सिविल सेवा परीक्षाएं आयोजित कराने का प्रस्ताव भी पारित कराया था। जाने माने इतिहासकार रिजवान कैसर ने बताया, ‘लिबरल पार्टी के सदस्य के तौर पर नौरोजी 1886 में ब्रिटिश संसद का चुनाव हार गए थे लेकिन 1892 में वह लंदन के सेंट्रल फिन्सबरी से लिबरल पार्टी के सदस्य के तौर पर ब्रिटिश संसद के लिए निर्वाचित हो गए थे। यह उपलब्धि हासिल करने वाले वह पहले भारतीय थे। नौरोजी का ‘हाउस आॅफ कॉमन्स’ की सदस्यता हासिल करने का उद्देश्य ब्रिटिश संसद में भारत के हितों के लिए आवाज उठाना था जिसमें वह सफल रहे।’ उन्होंने बताया, ‘अपने मासिक पत्र ‘द वायस आॅफ इंडिया’ में भी उन्होंने यही किया। उनके प्रयासों से ही ‘क्रिमिनल ज्यूरिस्डिक्शन’ विधेयक पेश किया गया था जिसमें भारत की अदालतों में यूरोपीयों के मामलों की सुनवाई भारतीय न्यायाधीशों द्वारा किए जाने को अनुमति दी गई थी। इसके अलावा ब्रिटिश काल में भारत में सिविल सेवा परीक्षाओं के आयोजन का श्रेय भी उन्हें है।’ इतिहासकार ए. के. गुप्ता ने बताया कि नौरोजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उनकी दूरदर्शिता और कौशल की वजह से ही उन्हें ‘ग्रैंड ओल्ड मैन आफ इंडियन कांग्रेस’ और ‘ग्रैंड ओल्ड मैन आॅफ इंडियन नेशनलिज्म’ कहा जाता है।’ उन्होंने कहा कि पारसियों ने आजादी के आंदोलन में जिस तरह बढ चढ कर हिस्सा लिया उसमें नौरोजी का अहम रोल रहा। रिजवान कैसर ने कहा, ‘नौरोजी मानते थे कि अंग्रेजों ने जिस तरह अपने देश में शासन किया अगर वह भारत में उसी तरह शासन करते तो भारत बदहाल नहीं होता। यही बात उन्होंने अपनी किताब ‘अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में कही है।’ वर्ष 1876 में उनका एक दस्तावेज ‘पॉवर्टी आॅफ इंडिया’ प्रकाशित हुआ था जिसमें भारत में गरीबी के लिए ब्रिटिश सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्होंने कहा था, ‘ऐसे समय पर भारत की संपदा इंग्लैंड ले जाई जा रही है जब देश को औद्योगीकरण और अन्य आर्थिक सुधारों की बहुत ज्यादा जरूरत है।’ बंबई में चार सितंबर 1825 को एक पारसी परिवार में जन्मे दादा भाई नौरोजी ने बंबई के ही एल्फिन्स्टन कॉलेज में अपनी पढाई की और फिर इसी कॉलेज में वह गणित एवं नैचुरल फिलॉसफी के प्रोफेसर नियुक्त किए गए। भारत के लिए स्वराज और स्वशासन की मांग करने वाले नौरोजी ने 30 जून 1917 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
06-09-2012, 03:19 PM
सलिल चौधरी की पुण्यतिथि के अवसर पर
दिल तड़प-तड़प के कह रहा है आ भी जा

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महान संगीतकार सलिल चौधरी के संगीतबद्ध गीतों से फिल्म जगत की सतरंगी दुनिया हमेशा जगमगाती रहेगी । उनकी स्मृति में श्रोताओं के दिल से एक हीं आवाज निकलती है .. दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा तू हमसे आंख ना चुरा तुझे कसम है आ भी जा .. सलिल चौधरी का जन्म पश्चिम बंगाल के सोनारपुर में 19 नवंबर 1923 को हुआ था । उनके पिता ज्ञानेन्द्र चंद्र चौधरी असम में डाक्टर के रूप में काम करते थे । सलिल चौधरी का बचपन असम में हीं बीता । बचपन से ही सलिल चौधरी का रूझान संगीत की ओर था। वह संगीतकार बनना चाहते थे। हालांकि उन्होंने किसी उस्ताद से संगीत की शिक्षा नही ली थी । सलिल चौधरी के बड़े भाई एक आक्रेस्ट्रा में काम करते थे और इसी वजह से वह हर तरह के वाद्य यंत्रों से भली भांति परिचत हो गये। सलिल को बचपन से ही बांसुरी बजाने का बहुत शौक था। इसके अलावा उन्होंने पियानो और वायलिन बजाना भी सीखा। कुछ समय बाद सलिल चौधरी शिक्षा प्राप्त करने के लिये पश्चिम बंगाल आ गये ।
सलिल चौधरी ने स्रातक की शिक्षा कलकत्ता के मशहूर बंगावासी कॉलेज से पूरी की । इस बीच वह भारतीय जन नाटय् संघ से जुड़ गये । वर्ष 1940 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। देश को स्वतंत्र कराने के लिये छिड़ी मुहिम में सलिल चौधरी भी शामिल हो गये । इसके लिये उन्होंने अपने संगीतबद्व गीतों का सहारा लिया। सलिल चौधरी ने अपने अपने संगीतबद्व गीतों के माध्यम से देशवासियों मे जागृति पैदा की।उन्होंने अपने संगीतबद्व गीतों कोगुलामी के खिलाफ आवाज बुलंद करने के हथियार के रूप मे इस्तेमाल किया । उनके गीतो ने अंग्रेजो के विरूद्व भारतीयो के संघर्ष को एक नयी दिशा दी । वर्ष 1943 में उनके संगीतबद्ध गीतों ..बिचारपति तोमार बिचार .. और ..धेउ उतचे तारा टूटचे .. ने आजादी के दीवानों में नया जोश भरने का काम किया । अंग्रेज सरकार ने बाद में इस गीत पर प्रतिबंध लगा दिया ।
पचास के दशक में सलिल चौधरी ने पूरब और पश्चिम के संगीत का मिश्रण करके अपना अलग हीं अंदाज बनाया जो परंपरागत संगीत से काफी भिन्न था । इस समय तक सलिल चौधरी कलकत्ता में संगीतकार और गीतकार के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे । वर्ष 1950 में अपने सपनो को नया रूप देने के लिये वह मुंबई आ गये। सलिल चौधरी ने संगीतकार के रुप में अपना पहला संगीत वर्ष 1952 में प्रदर्शित विमल राय की फिल्म दो बीघा जमीन के गीत आ री आ निंदिया के लिये दिया । फिल्म की कामयाबी के बाद सलिल चौधरी बतौर संगीतकार फिल्मों में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये । फिल्म दो बीघा जमीन की सफलता के बाद इसका बंगला संस्करण रिक्शावाला बनाया गया । वर्ष 1955 में प्रदर्शित इस फिल्म की कहानी और संगीत निर्देशन सलिल चौधरी ने ही किया था। फिल्म दो बीघा जमीन की सफलता के बाद सलिल चौधरी विमल राय के चहेते संगीतकार बन गये और इसके बाद विमल राय की फिल्मों के लिये सलिल चौधरी ने बेमिसाल संगीत देकर उनकी फिल्मो को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।
सलिल चौधरी के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी गीतकार शैलेन्द्र के साथ खूब जमी । शैलेन्द्र-सलिल की जोडी वाली फिल्मो के गीतों में अजब तेरी दुनिया हो मोरे रामा (दो बीघा जमीन), जागो मोहन प्यारे (जागते रहो), आजा रे मै तो कब से खडी उस पार, टूटे हुये ख्वाबो ने (मधुमति), अहा रिमझिम के प्यारे प्यारे गीत लिये आई रात सुहानी (उसने कहा था), गोरी बाबुल का घर है अब बिदेशवा (चार दीवारी), चांद रात तुम हो साथ (हॉफ टिकट), ऐ मतवाले दिल जरा झूम ले (पिंजरे के पंछी) जैसी कई सुपरहिट फिल्मों के गीत शामिल हैं। सलिल चौधरी के पसंदीदा पार्श्व गायकों में लता मंगेशकर का नाम सबसे पहले आता है । लता की सुरमयी आवाज के जादू से सलिल चौधरी का संगीत सज उठता था। उस दौरान किसी फिल्म के गाने की गायिका लता और संगीतकार अगर सलिल चौधरी हों तो गानों के हिट होने में कोई संशय नहीं होता था। अपनी आवाज के जादू से सलिल चौधरी के जिन संगीत को लता ने कर्णप्रिय बनाया उनमें आजा रे निंदिया तू आ (दो बीघा जमीन), आजा रे परदेसी मैं तो कब से खड़ी उस पार, दिल तड़प तड़प के कह रहा है (मधुमति), अहा रिमझिम के ये प्यारे प्यारे आई रात सुहानी (उसने कहा था), इतना ना तू मुझसे प्यार बढ़ा (छाया), ना जाने क्यूं होता है कोई जिंदगी के साथ (छोटी सी बात) जैसे सुपरहिट नगमे शामिल हैं। वर्ष 1958 में विमल राय की फिल्म मधुमति के लिये सलिल चौधरी को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1998 में संगीत के क्षेत्र में उनके बहूमूल्य योगदान को देखते हुये वह संगीत नाटय अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किये गये। वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म काबुलीवाला में पार्श्व गायक मन्ना डे की आवाज में सजा गीत ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान आज भी श्रोताओं की आंखो को नम कर देता है ।
सत्तर के दशक में सलिल चौधरी को मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब सी लगने लगी और वह कलकत्ता चले गये । सलिल चौधरी ने अपने चार दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 75 हिन्दी फिल्मों में संगीत दिया । हिन्दी फिल्मों के अलावा उन्होंने मलयालम, तमिल, तेलगू, कन्नड़, गुजराती, असमिया, उड़िया और मराठी फिल्मों के लिये भी संगीत दिया। लगभग चार दशक तक अपने संगीत के जादू से श्रोताओं को भावविभोर करने वाले सलिल चौधरी 5 सिंतबर 1995 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
13-09-2012, 03:54 AM
श्रद्धांजलि
सहकारी दुग्ध उद्योग के जनक थे कुरियन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17588&stc=1&d=1347490432

भारत को दुनिया का सर्वाधिक दुग्ध उत्पादक देश बनाने के लिए श्वेत क्रांति लाने वाले वर्गीज कुरियन को देश में सहकारी दुग्ध उद्योग के मॉडल की आधारशिला रखने का श्रेय जाता है। अरबों रुपए वाले ब्रांड ‘अमूल’ को जन्म देने वाले कुरियन का रविवार सुबह 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिए रैमन मैग्सस पुरस्कार, कार्नेगी-वाटलर विश्व शांति पुरस्कार और अमेरिका के इंटरनेशनल परसन आॅफ द ईयर सम्मान से भी नवाजा गया। केरल के कोझिकोड में 26 नवंबर, 1921 को जन्मे कुरियन ने चेन्नई के लोयला कॉलेज से 1940 में विज्ञान में स्नातक किया और चेन्नई के ही जी सी इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। जमशेदपुर स्थित टिस्को में कुछ समय काम करने के बाद कुरियन को डेयरी इंजीनियरिंग में अध्ययन करने के लिए भारत सरकार की ओर से छात्रवृत्ति दी गई। बेंगलूरु के इंपीरियल इंस्टीट्यूट आॅफ एनिमल हजबेंड्री एंड डेयरिंग में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद कुरियन अमेरिका गए जहां उन्होंने मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी से 1948 में मेकेनिकल इंजीनियरिंग में अपनी मास्टर डिग्री हासिल की, जिसमें डेयरी इंजीनियरिंग भी एक विषय था।
भारत लौटने पर कुरियन को अपने बांड की अवधि की सेवा पूरी करने के लिए गुजरात के आणंद स्थित सरकारी क्रीमरी में काम करने का मौका मिला। 1949 के अंत तक कुरियन को क्रीमरी से कार्यमुक्त करने का आदेश दे दिया गया। उन्होंने 1949 में कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड के अध्यक्ष त्रिभुवन दास पटेल के अनुरोध पर डेयरी का काम संभाला। सरदार वल्लभभाई पटेल की पहल पर इस डेयरी की स्थापना की गई थी। बाद में पटेल ने कुरियन को एक डेयरी प्रसंस्करण उद्योग बनाने में मदद करने के लिए कहा जहां से ‘अमूल’ का जन्म हुआ। अमूल के सहकारी मॉडल को सफलता मिली और पूरे गुजरात में इसे देखा जाने लगा। बाद में अलग-अलग दुग्ध संघों को गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ के बैनर तले एक जगह लाया गया। कुरियन ने सहकारिता के माध्यम से भारतीय किसानों को सशक्त बनाने की दिशा में अपना कॅरियर समर्पित कर दिया और 1973 से 2006 तक जीसीएमएमएफ की सेवा की। उन्होंने 1979 से 2006 तक ग्रामीण प्रबंधन संस्थान में भी काम किया। आणंद में कुरियन के काम करने के दौरान भारतीय दुग्ध उद्योग की दिशा और दशा ही बदल गई। गुजरात में पहले दुग्ध सहकारी संघ की शुरुआत 1946 में की गई थी जब दो गांवों की समितियां इसकी सदस्य बनीं। सदस्य समितियों की संख्या आज 16,100 हो गई है जिसमें 32 लाख सदस्य दूध की आपूर्ति कर रहे हैं। भैंस के दूध से पहली बार पाउडर बनाने का श्रेय भी कुरियन को जाता है। उनके प्रयासों से ही दुनिया में पहली बार गाय के दूध से पाउडर बनाया गया।
अमूल की सफलता से अभिभूत होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्रीय दुग्ध विकास बोर्ड (एनडीडीबी) का गठन किया जिससे पूरे देश में अमूल मॉडल को समझा और अपनाया गया। कुरियन को बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया। एनडीडीबी ने 1970 में ‘आॅपरेशन फ्लड’ की शुरुआत की जिससे भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बन गया। कुरियन ने 1965 से 1998 तक 33 साल एनडीडीबी के अध्यक्ष के तौर पर सेवाएं दीं। 60 के दशक में भारत में दूध की खपत जहां दो करोड़ टन थी वहीं 2011 में यह 12.2 करोड़ टन पहुंच गई। कुरियन के निजी जीवन से जुड़ी एक रोचक और दिलचस्प बात यह है कि देश में ‘श्वेत क्रांति’ लाने वाला और ‘मिल्कमैन आफ इंडिया’ के नाम से मशहूर यह शख्स खुद दूध नहीं पीता था। वह कहते थे, मैं दूध नहीं पीता क्योंकि मुझे यह अच्छा नहीं लगता।

Dark Saint Alaick
13-09-2012, 04:47 AM
जयंती पर विशेष
विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को मिला था अपार जनसमर्थन

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महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी एवं महान स्वतंत्रता सेनानी विनोबा भावे ने देश में अपने भूदान आंदोलन की शुरुआत ऐसे समय की जब देश में जमीन को लेकर रक्तपात होने की आशंका उत्पन्न हो गई थी। विनोबा भावे के इस आंदोलन को अपार जनसमर्थन मिला तथा जनजागरूकता के साथ ही समाजिक निर्णय में लोगों की भागीदारी बढ़ी। विनोबा भावे का मानना था कि भारतीय समाज के पूर्ण परिवर्तन के लिए ‘अहिंसक क्रांति’ छेड़ने की आवश्यकता है। राजधानी दिल्ली स्थित केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के सचिव रामचंद्र राही के अनुसार विनोबा भावे ने कहा था कि उन्हें गांधीजी में हिमालय की शांति और बंगाल का क्रांतिकारी जोश मिलता है। गांधीजी ने विनोबा भावे की यह कहते हुए प्रशंसा की थी कि वह उनके विचारों को बेहतर ढंग से समझते हैं। गांधीजी ने वर्ष 1940 में अंग्रेज सरकार की युद्ध नीतियों के खिलाफ राष्ट्रीय विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए विनोबा भावे को चुना। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेंद्र भाई के अनुसार विनोबा भावे ने वर्ष 1955 में अपने भूदान आंदोलन की शुरुआत ऐसे समय की जब देश में जमीन के लिए खूनी संघर्ष शुरू होने की आशंका थी।
30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद उनके अनुयायी दिशानिर्देश के लिए विनोबा भावे की ओर देख रहे थे। विनोबा ने सलाह दी कि अब देश ने स्वराज हासिल कर लिया है, ऐसे में गांधीवादियों का उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना होना चाहिए जो सर्वोदय के लिए समर्पित हो। तेलंगाना क्षेत्र में कम्युनिस्ट छात्र और कुछ गरीब ग्रामीणों ने छापामार गुट बना लिया था। यह गुट अमीर भूमिमालिकों की हत्या करके या उन्हें भगाकर तथा उनकी भूमि आपस में बांटकर जमीन पर ऐसे लोगों के एकाधिकार को तोड़ने का प्रयास कर रहा था। ऐसा भी समय आया जब छापामार गुट ने कई गांवों के क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया लेकिन सरकार की ओर से सेना भेजी गई। दोनों ओर से हिंसा शुरू हो गई। विनोबा भावे ने इस संघर्ष का हल निकालने का संकल्प लिया। उन्होंने प्रभावित क्षेत्र में पैदल ही जाने का फैसला किया। विनोबा भावे अपनी पदयात्रा के तीसरे दिन तेलंगाना के पोचमपल्ली गांव पहुंचे जो कम्युनिस्टों का गढ़ था। वह मुस्लिम प्रार्थना स्थल परिसर में रूके। जल्द ही गांव के सभी वर्ग के लोग उनसे मिलने आने लगे। उनसे मिलने पहुंचे लोगों में भूमिहीन दलितों का 40 परिवार भी था। इस समूह ने विनोबा को बताया कि उनके पास कम्युनिस्टों का समर्थन करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है क्योंकि वे ही उन्हें भूमि दिला सकते हैं। समूह में शामिल लोगों ने विनोबा से पूछा कि क्या वह सरकार से उन्हें जमीन दिला सकते हैं। विनोबा ने कहा कि इसके लिए सरकार की क्या जरूरत है, हम स्वयं अपनी मदद कर सकते हैं।
विनोबा भावे ने बाद में गांव में एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया जिसमें हजारों लोग शामिल हुए। उन्होंने सभा में दलितों की समस्या रखी। उन्होंने लोगों से पूछा कि क्या ऐसा कोई है जो उनकी मदद कर सकता है? गांव के एक प्रमुख किसान ने एक सौ एकड़ भूमि दान देने की बात कही। दलितों ने कहा कि उन्हें केवल 80 एकड़ भूमि की ही जरूरत है। विनोबा भावे को क्षेत्र की समस्या का हल मिल गया। उन्होंने प्रार्थना सभा में घोषणा की कि वह जमीन प्राप्त करने के लिए पूरे क्षेत्र का दौरा करेंगे। इसके साथ ही उनके भूदान आंदोलन की शुरुआत हो गई। अगले सात सप्ताहों में विनोबा भावे ने तेलंगाना क्षेत्र के 200 गांवों में जमीन दान में प्राप्त करने के लिए गए। सात सप्ताह के अंत में उन्होंने 12000 एकड़ भूमि एकत्रित कर ली। विनोबा भावे के तेलंगाना क्षेत्र से जाने के बाद भी सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने भूमि प्राप्त करते रहे उन्होंने उनके नाम पर एक लाख एकड़ भूमि दान में प्राप्त की।
विनोबा भावे का जन्म महाराष्ट्र के कोलाबा (अब रायगढ़) जिले के गागोडे गांव में 11 सितम्बर 1895 को एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम रूक्मणि और पिता का नाम नरहिरशंभू राव था। उनकी मां का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव था। वह भगवत गीता, महाभारत और रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथों से बहुत अधिक प्रभावित थे। कई पत्रों के अदान-प्रदान के बाद विनोबा भावे सात जून 1916 को गांधीजी से मिलने गए। पांच वर्ष बाद आठ अप्रेल 1921 विनोबा भावे ने वर्धा स्थित गांधी आश्रम का कार्यभार संभाल लिया। उन्होंने वहां रहने के दौरान ‘महाराष्ट्र धर्म’ नाम की मासिक पत्रिका निकाली। इसमें उपनिषदों पर लेख होते थे। इस दौरान उनके और गांधीजी के बीच सम्बंध और मजबूत हुए तथा समाज के लिए रचनात्मक कार्यों में उनकी भागीदारी बढ़ती रही। वर्ष 1932 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सरकार के खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप में धुलिया में छह महीने के लिए जेल भेज दिया। विनोबा भावे सामुदायिक नेतृत्व के लिए पहला अंतर्राष्ट्रीय रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला था। नवम्बर 1982 में विनोबा भावे गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्होंने भोजन और दवा नहीं लेने का निर्णय किया। उनका 15 नवम्बर 1982 को निधन हो गया। उन्हें 1983 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

Dark Saint Alaick
14-09-2012, 09:34 AM
पुण्यतिथि पर
महादेवी वर्मा ने की स्त्री विमर्श की शुरुआत

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हिन्दी साहित्य में छायावाद की एक मजबूत स्तंभ मानी जाने वाली लेखिका महादेवी वर्मा ने नारी मन को न केवल गहरे तक टटोल कर स्त्री विमर्श की शुरुआत की बल्कि आज से करीब आठ दशक पहले कुरीतियों को नकारने का साहस भी दिखाया था। वरिष्ठ साहित्यकार रवीन्द्र कालिया ने कहा कि मेरी राय में महादेवी वर्मा आधुनिक भारत में स्त्री विमर्श की जननी हैं। स्त्रियों की स्थिति के बारे में कलम के जरिए पहली आवाज उन्होंने ही उठाई। उनसे पहले ऐसा किसी ने नहीं किया और आज जो स्त्री विमर्श की बात होती है उसकी शुरुआत महादेवी वर्मा ने ही की। कुरीतियों को तोड़ने का दम रखने वाली महादेवी ने अपने बाल विवाह को नकार दिया था। यह हौसला उन्होंने करीब आठ दशक पहले दिखाया था जबकि देश में इसे आज भी मुश्किल कदम माना जाता है। पुनर्विवाह का प्रस्ताव भी खारिज कर महादेवी अकेले रहीं और शब्दों से उनकी दोस्ती प्रगाढ़ बनी रही। रवीन्द्र कालिया ने कहा कि जहां तक लेखन की बात है तो उनके जैसे संस्करण और पद आज तक किसी ने नहीं लिखे। विचारों को उन्होंने इस तरह पेश किए कि वह सीधे दिल तक उतरते हैं। उनकी एक रचना ‘शृंखला की कड़ियां’ न केवल भारतीय नारी की स्थिति बताती है बल्कि महिलाओं पर लिखी बेहतर रचनाओं में से एक मानी जाती है। कालिया के अनुसार, पेंटिंग करने की शौकीन महादेवी वर्मा ने अपनी जिन भावनाओं को ‘दीपशिखा’ और ‘यामा’ में शब्दों में बांधा था, उन्हीं पर उन्होंने रंगों से कागज पर चित्रकारी भी की थी। वह बहुत ही अच्छी चित्रकार थीं। वरिष्ठ साहित्यकार पद्मा सचदेव ने बताया, मुंबई में वर्ष 1973 में पुष्पा भारती के घर पर उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई और मुझे लगा ही नहीं कि इतनी बड़ी लेखिका से मैं मिल रही हूं। वह बेहद सहज लेखिका थीं। उन्होंने एक मुलाकात में मेरी रचना ‘दीवान खाना’ पर हंस कर कहा ‘तुम्हारा दीवानाखाना क्या है।’ मैंने उन्हें उसके बारे में बताया कि वह दीवानाखाना नहीं बल्कि दीवान खाना है। फिर उन्होंने बताया कि वह दरख्त पर बैठकर कविताएं लिखती थीं। पद्मा ने बताया कि पंडित नेहरू भी महादेवी वर्मा की किताबें शौक से पढ़ते थे और उनसे मुलाकात होने पर व्यापक चर्चा करते थे। चर्चा के बाद वह उनसे कहते थे चलो देवी, अब चाय बना कर पिलाओ। उनके घर जाने पर हमेशा यह अहसास होता था कि किताबों के बिना वह रह ही नहीं सकती थीं। हिन्दी साहित्य की अमिट हस्ताक्षर महादेवी वर्मा की यामा को हिन्दी साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञान पीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। 1956 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण सम्मान दिया। साहित्य अकादमी की फेलो बनने वाली वह पहली महिला हैं। यह उपलब्धि उन्होंने 1979 में हासिल की। 1988 में उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। 26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद में होली के दिन जन्मी महादेवी वर्मा का 11 सितंबर 1987 को निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
15-09-2012, 08:23 PM
हिन्दी दिवस विशेष : राष्ट्रपिता ने 1918 में 8वें हिन्दी साहित्य सम्मेलन में किया था आह्वान
...जब बापू बोले, हिन्दी ही बने राष्ट्रभाषा


कोई साढ़े नौ दशक पहले सार्वजनिक मंच से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कहे गए वे ऐतिहासिक शब्द मानो आज भी हिन्दी पट्टी के इस शहर की फिजा में तैर रहे हैं। इन शब्दों के जरिए बापू ने हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा बनाए जाने का मार्मिक आह्वान किया था। उस वक्त इसकी प्रतिध्वनि आजादी पाने के लिए अंग्रेजों से लोहा ले रहे देश में दूर-दूर तक सुनाई दी थी। इससे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की आग और भभक उठी थी।
मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति के प्रचार मंत्री अरविंद ओझा ने हिन्दी दिवस के मौके पर बताया कि महात्मा गांधी ने 29 मार्च 1918 को यहां आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। इस दौरान उन्होंने अपने उद्बोधन में पहली बार आह्वान किया था कि हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए। ओझा ने बताया कि जब बापू ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की अपील की, तब देश गुलामी के बंधनों से आजाद होने के लिए संघर्ष कर रहा था। उस दौर में इस मार्मिक अपील ने देशवासियों के दिल को छू लिया था और उनके भीतर मातृभूमि की स्वतंत्रता की साझी भावना बलवती हो गई थी। उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी ने आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दौरान इंदौर से पांच ‘हिन्दी दूतों’ को देश के उन राज्यों में भेजा था, जहां उस वक्त इस भाषा का ज्यादा प्रचलन नहीं था। ‘हिन्दी दूतों’ में बापू के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी भी शामिल थे। ओझा ने बताया कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार की इस अनोखी और ऐतिहासिक मुहिम के तहत ‘हिन्दी दूतों’ को सबसे पहले तत्कालीन मद्रास प्रांत के लिए रवाना किया गया था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में बापू ठेठ काठियावाड़ी पगड़ी, कुरते और धोती में लकदक होकर मंच पर थे। सम्मेलन का आयोजन मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति ने किया था। बापू ने मंच से कहा था कि जैसे अंग्रेज अपनी मादरी जुबान यानी अंग्रेजी में ही बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। हिन्दी की गंगा-जमुनी संस्कृति की व्याख्या करते हुए गांधीजी ने कहा था कि हिन्दी वह भाषा है जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी संस्कृतमयी नहीं है, न ही वह एकदम फारसी अल्फाज से लदी हुई है। बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी बने राष्ट्रपिता ने अदालती काम-काज में भी हिन्दी के इस्तेमाल की पुरजोर पैरवी की थी। उन्होंने कहा था कि हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलने चाहिएं। हमारी अदालतों में राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषाओंं का जरूर प्रचार होना चाहिए। बापू के अध्यक्षीय उद्बोधन के आखिरी शब्दों में उनके दिल में बसी हिन्दी जैसे खुद बोल उठी थी। उन्होंने कहा था कि मेरा नम्र, लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम हिन्दी को राष्ट्रीय दर्जा और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज की सब बातें निरर्थक हैं।

Dark Saint Alaick
15-09-2012, 08:42 PM
सरकारी, राजभाषा एवं साहित्य अकादमी की हिंदी वेबसाइटें है अंग्रेजीदां

सरकारी स्तर पर हिंदी की उपेक्षा का पता इसी से लगता है कि विभिन्न मंत्रालयों और विभागों की ही नहीं बल्कि साहित्य अकादमी और राजभाषा जैसे अग्रणी संस्थानों की हिंदी वेबसाइटों पर अधिकांश सामग्री अंग्रेजी में हैं और जो हिंदी में उपलब्ध है उनमें भाषा संबंधी तमाम अशुद्धियां है तथा शब्द इतने कठिन है कि वे आम पाठक के सिर के उपर से गुजर जाते है। मीडिया के क्षेत्र में कार्यरत संगठन मीडिया स्टडीज ग्रुप की ओर से कराये गये विभिन्न मंत्रालयों की हिंदी और अंग्रेजी वेबसाइटों के तुलनात्मक अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ हैं। हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर आज यहां जारी इस रिपोर्ट में बताया गया है कि परिवार एवं स्वास्य कल्याण और अल्पसंख्यक कल्याण जैसे मंत्रालयों और विभिन्न राष्टñीय आयोगों की अलग से हिंदी वेबसाइट है ही नहीं। जिन विभागों की वेबसाइटें इस भाषा में हैं वे बडी मुश्किल से खुलती है और इनमें उपलब्ध सामग्री के नाम पर अंग्रेजी का क्लिस्ट हिंदी अनुवाद है। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए बनी राजभाषा और साहित्य अकादमी तक की वेबसाइटे भाषा संबंधी अशुद्धियों से पटी पडी है। रक्षा मंत्रालय की वेबसाइट को तो हिंदी अनुवाद के लिए गूगल ट्रांसलेटर से जोड दिया गया है। अखबारों की सुर्खियां बटोरने वाले प्रधानमंत्री कार्यालय की हिन्दी वेबसाइट में प्रधानमंत्री के परिचय में भाषा और वर्तनी संबंधी तमाम अशुद्धियां है। अंग्रेजी साइट पर प्रधानमंत्री के सात इंटरव्यू का लिंक दिया गया है जबकि हिंदी में सिर्फ एक है और वह भी अंग्रेजी इंटरव्यू का हिंदी अनुवाद है। ग्रामीण भारत का विकास करने वाले ग्रामीण विकास मंत्रालय की मनरेगा. प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना तथा इंदिरा आवास जैसे प्रमुख योजनाओं की हिंदी वेबसाइट नहीं है। राजभाषा की हिंदी साइट आसानी से नहीं खुलती। इसकी हिंदी की सामग्री में व्याकरण और भाषा की तमाम अशुद्धियां हैं। साहित्य अकादमी के मुख्य पृष्ठ पर देवनागरी में हूज हू लिखा है। उसके नीचे स्पष्ट लिखा है कि अकादमी हूज हू आफ इंडिया राइटर्स को संशोधित करने जा रही है। इसे क्लिक करने पर पूरा प्रारुप अंग्रेजी में मिलता है। चौबीस भाषाओं के प्रकाशन की जानकारी में पुस्तकों की पूरी सूची अंग्रेजी में है। ग्रामीण भारत का विकास करने वाले ग्रामीण विकास मंत्रालय की हिंदी वेबसाइट पर मनरेगा. प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना. भारत निर्माण और इंदिरा आवास जैसी योजनाओं की हिंदी वेबसाइट नहीं है। देश के नामचीन सरकारी अस्पताल एम्स की अंग्रेजी वेबसाइट 3। जुलाई 20।2 और हिंदी 26 मार्च 20।2 के बाद से अपडेट ही नहीं हुयी है। रेलवे की आईआरटीसी के आनलाइन पैसेंजर के होम पेज में अंग्रेजी शब्दों का देवनागरीकरण है जबकि वेटलिस्ट ई टिकट योजना की जानकारी सिर्फ अंग्रेजी में है तथा टूर पैकेज नान अवेल्येबल यानी उपलब्ध नहीं है बताता है। वित्त मंत्रालय की हिंदी साइट पर सभी प्रेस विज्ञप्तियां ताजा घटनाक्रम का स्क्राल और सभी महत्वपूर्ण आदेश अंग्रेजी में है। केन्द्रीय बजट के विकल्प में मासिक आर्थिक रिपोर्ट तो हिंदी में लिखा है लेकिन इसके लिंक पर उपलब्ध सामग्री अंग्रेजी में है। लोकसभा और राज्यसभा की वेबसाइटों में हिंदी की प्रेस विज्ञप्तियां अपडेट नहीं है तथा स्थायी समितियों की रिपोर्टों के मामले में हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी वेबसाइट ज्यादा समृद्ध है। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की वेबसाइट में हिंदी काफी अशुद्ध है तथा शब्द निहायत ही भारी भरकम है।

Dark Saint Alaick
15-09-2012, 08:43 PM
हिन्दी ही नहीं, हिन्दी की सरकारी वेबसाइटें भी उपेक्षित हैं

सरकार न केवल हिन्दी बल्कि विभिन्न मंत्रालयों, सरकारी विभागों और संस्थानों की हिन्दी वेबसाइटों की उपेक्षा कर रही है। विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और संस्थानों के अलावा संसद की वेबसाइटों को लेकर किये गये सर्वेक्षण से पता चलता है कि इन वेबसाइटों के प्रति घोर उपेक्षा का भाव है। यही कारण है कि हिंदी के नाम पर जो वेबसाइटें है. वे तकनीकी खामियों एवं भाषागत अशुद्धियों से भरी हैं। एक अध्ययन से पता चला है कि हिंदी की सरकारी वेबसाइटें या तो खुलती नहीं है, बहुत मुशिकल से कोई वेबसाइट खुल भी जाये तो उनमें से कई पर हिन्दी में नहीं बल्कि अंग्रेजी में सामग्रियां मिलती है। यही नहीं. रक्षा मंत्रालय की वेबसाइट का हिंदी रू पांतरण करने के लिए उसे गूगल ट्रासलेंशन से जोड दिया गया है। मीडिया स्टडीज ग्रुप की ओर से किये गये एक अध्ययन से यह पता चला है। इस अध्ययन के तहत उन मंत्रालयों या विभागों और संस्थाओं की साइटों को मुख्य तौर पर चुना गया जिससे बहुसंख्यक लोगों का हित जुडा होता है। इसके अलावा उन विषयों से जुडी वेबसाइटों का चुनाव किया गया जो विषय आधुनिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं, जैसे विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, ग्रामीण विकास, कृषि, वित्त और वाणिज्य। अध्ययन से पाया गया कि जनहित से जुडे स्वास्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, राष्ट्रीय महिला आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसे मंत्रालयों एवं विभागों की हिन्दी में कोई वेबसाइट ही नहीं है जबकि पर्यावरण वन मंत्रालय, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, अनुसूचित जनजाति आयोग एवं भारतीय डाक जैसे विभागों एवं मंत्रालयों की हिन्दी वेबसाइटों पर अंग्रेजी में जानकारियां है।

Dark Saint Alaick
16-09-2012, 09:00 PM
पुण्यतिथि पर विशेष
टाइटल गीतों में माहिर थे गीतकार हसरत जयपुरी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17594&stc=1&d=1347811190

हिन्दी फिल्मों में जब भी टाइटल गीतों का जिक्र होता है। गीतकार हसरत जयपुरी का नाम सबसे पहले लिया जाता है। वैसे तो हसरत जयपुरी ने हर तरह के गीत लिखे लेकिन फिल्मों के शीर्षक पर गीत लिखने में उन्हें महारत हासिल थी। हिन्दी फिल्मों के स्वर्णयुग के दौरान टाइटल गीत लिखना बड़ी बात समझी जाती थी। निर्माताओं को जब भी टाइटल गीत की जरूरत होती थी, हसरत जयपुरी से गीत लिखवाने की गुजारिश की जाती थी। उनके लिखे टाइटल गीतों ने कई फिल्मों को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हसरत जयपुरी के लिखे कुछ टाइटल गीत हैं, दीवाना मुझको लोग कहें (दीवाना), दिल एक मंदिर है (दिल एक मंदिर) , रात और दिन दीया जले (रात और दिन), तेरे घर के सामने इक घर बनाऊंगा (तेरे घर के सामने), ऐन इवनिंग इन पेरिस (ऐन इवनिंग इन पेरिस), गुमनाम है कोई बदनाम है कोई (गुमनाम), दो जासूस करें महसूस (दो जासूस) आदि।
15 अप्रेल 1918 को जन्मे हसरत जयपुरी (मूल नाम इकबाल हुसैन) ने जयपुर में प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद अपने दादा फिदा हुसैन से उर्दू और फारसी की तालीम हासिल की। बीस वर्ष का होने तक उनका झुकाव शेरो-शायरी की तरफ होने लगा और वह छोटी-छोटी कविताएं लिखने लगे। वर्ष 1940 मे नौकरी की तलाश में हसरत जयपुरी ने मुम्बई का रुख किया और आजीविका चलाने के लिए वहां बस कंडक्टर के रुप में नौकरी करने लगे। इस काम के लिए उन्हे मात्र 11 रुपए प्रति माह वेतन मिला करता था। इस बीच उन्होंने मुशायरोंं में भाग लेना शुरू किया। उसी दौरान एक कार्यक्रम में पृथ्वीराज कपूर उनके गीत को सुनकर काफी प्रभावित हुए और उन्होंने अपने पुत्र राजकपूर को हसरत जयपुरी से मिलने की सलाह दी। राज कपूर उन दिनों अपनी फिल्म (बरसात) के लिए गीतकार की तलाश कर रहे थे। उन्होंने हसरत जयपुरी को मिलने का न्यौता भेजा। राज कपूर से हसरत जयपुरी की पहली मुलाकात रॉयल ओपेरा हाउस में हुई और उन्होंने अपनी फिल्म बरसात के लिए उनसे गीत लिखने की गुजारिश की। इसे महज संयोग ही कहा जाएगा कि फिल्म बरसात से ही संगीतकार शंकर जयकिशन ने भी अपने सिने करियर की शुरुआत की थी। राजकपूर के कहने पर शंकर जयकिशन ने हसरत जयपुरी को एक धुन सुनाई और उसपर उनसे गीत लिखने को कहा। धुन के बोल कुछ इस प्रकार थे ‘अंबुआ का पेड़ है वहीं मुंडेर है.. आजा मेरे बालमा काहे की देर है।’ शंकर जयकिशन की इस धुन को सुनकर हसरत जयपुरी ने गीत लिखा, जिया बेकरार है छाई बहार है आजा मेरे बालमा तेरा इंतजार है। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म बरसात में अपने इस गीत की कामयाबी के बाद हसरत जयपुरी गीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। हसरत जयपुरी की जोड़ी संगीतकार शंकर जयकिशन के साथ खूब जमी। इस जोड़ी के गीतों में शामिल कुछ गीत है, छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला, हम तुमसे मोहब्बत करके सनम आवारा, ईचक दाना बीचक दाना (श्री 420), आजा सनम मधुर चांदनी में हम, जाऊं कहां बता ए दिल, ऐहसान तेरा होगा मुझपर, तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को, तुम रूठी रहो मैं मनाता रहू, इब्तिदाये इश्क में हम सारी रात जागे, बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, कौन है जो सपनों में आया, रुख से जरा नकाब उठाओ मेरे हुजूर, पर्दे मे रहने दो पर्दा ना उठाओ, जाने कहां गए वो दिन और जिंदगी एक सफर है सुहाना। हसरत जयपुरी की जोड़ी राजकपूर के साथ वर्ष 1971 तक कायम रही। संगीतकार जयकिशन की मृत्यु और फिल्म मेरा नाम जोकर और कल आज और कल की बाक्स आफिस पर नाकामयाबी के बाद राजकपूर ने हसरत जयपुरी की जगह आनंद बख्शी को अपनी फिल्मों के लिए लेना शुरू कर दिया। हालांकि अपनी फिल्म ‘प्रेम रोग’ के लिए राजकपूर ने एक बार फिर से हसरत जयपुरी को मौका देना चाहा लेकिन बात नही बनी। इसके बाद हसरत जयपुरी ने राजकपूर के लिए वर्ष 1985 मे प्रदर्शित फिल्म राम तेरी गंगा मैली में ‘सुन साहिबा सुन’ गीत लिखा जो काफी लोकप्रिय हुआ।
हसरत जयपुरी को दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें पहला फिल्म फेयर पुरस्कार वर्ष 1966 में फिल्म सूरज के गीत ‘बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है’ के लिए दिया गया। वर्ष 1971 में फिल्म अंदाज में ‘जिंदगी एक सफर है सुहाना’ गीत के लिए भी वह सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। पार्श्वगायक मुकेश को शोहरत की बुलंदियो तक पहुंचाने में हसरत जयपुरी के गीतों का अहम योगदान रहा है। मुकेश और हसरत जयुपरी की जोड़ी के गीतों में छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला (बरसात), आजा रे अब मेरा दिल पुकारा (आह), ईचक दाना बीचक दाना (श्री 420), आंसू भरी है ये जीवन की राहें (परवरिश), वो चांद खिला वो तारे (अनाड़ी), जाऊ कहां बता ये दिल (छोटी बहन), हाले दिन हमारा जाने ना (श्रीमान सत्यवादी), तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूं (आस का पंछी), इब्तिदाए इश्क में हम सारी रात जागे (हरियाली और रास्ता), ओ मेहबूबा ओ मेहबूबा (संगम), दुनिया बनाने वाली क्या तेरे मन में समाई (तीसरी कसम), दीवाना मुझको लोग कहें (दीवाना), जाने कहां गए वो दिन (मेरा नाम जोकर) प्रमुख है। हसरत जयपुरी ने यूं तो कई रूमानी गीत लिखे लेकिन असल जिदंगी में उन्हें अपना पहला प्यार नहीं मिला। बचपन के दिनों में उनका राधा नाम की हिन्दू लड़की से प्रेम हो गया था लेकिन उन्होंने अपने प्यार का इजहार नहीं किया। उन्होंने पत्र के माध्यम से अपने प्यार का इजहार करना चाहा लेकिन उसे देने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाए। बाद में राजकपूर ने उस पत्र में लिखी कविता ‘ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज ना होना’ का इस्तेमाल अपनी फिल्म संगम के लिए किया। हसरत जयपुरी वर्ल्ड यूनिवर्सिटी टेबुल के डाक्ट्रेट अवार्ड और उर्दू कान्फ्रेंस में जोश मलीहाबादी अवार्ड से भी सम्मानित किए गए। फिल्म मेरे हुजूर में हिन्दी और ब्रज भाषा में रचित गीत ‘झनक झनक तोरी बाजे पायलिया’ के लिए वह अम्बेडकर अवार्ड से सम्मानित किए गए। हसरत जयपुरी ने तीन दशक लंबे अपने सिने करियर में 300 से अधिक फिल्मों के लिए लगभग 2000 गीत लिखे। अपने गीतों से कई वर्षों तक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाला यह शायर और गीतकार 17 सिंतबर 1999 को संगीतप्रेमियों को अपने एक गीत की इन पंक्तियों ‘तुम मुझे यूं भूला ना पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे’ की स्वर लहरियों में छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कह गए ।

Dark Saint Alaick
21-09-2012, 11:32 PM
विश्व अल्झाइमर दिवस पर
भारत में बढ़ रहे अल्झाइमर के मरीज

डिमेंशिया या स्मृतिलोप के सबसे प्रचलित रूप, अल्झाइमर का कोई इलाज नहीं है। पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में इस बीमारी के मरीजों की संख्या कम है लेकिन जैसे-जैसे देश विकास कर रहा है, जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है। वैसे-वैसे अमूनन 60 से 65 साल की उम्र में होने वाले अल्झाइमर के मरीजों की संख्या भी धीरे-धीरे देश में बढ़ रही है।
मेदांता मेडिसिटी अस्पताल में न्यूरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर सुमित सिंह ने बताया कि पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में अल्झाइमर के मरीजों की संख्या कम है लेकिन जैसे-जैसे देश विकास कर रहा है, जीवन प्रत्याशा बढ़ने के साथ इसके मरीजों की संख्या भी यहां बढ़ रही है। सिंह ने कहा कि भारत में अनुमानित तौर पर अल्झाइमर के मरीजों की संख्या 15 से 20 लाख के बीच है। अल्झाइमर की बीमारी धीरे-धीरे याद्दाश्त के कमजोर होने के साथ शुरू होती है और बढ़ती जाती है। एक समय ऐसा आता है जब मरीज सब कुछ भूल जाता है और अपने परिजनों को भी नहीं पहचाना पाता। अल्झाइमर के दुनिया भर में करीब तीन करोड़ मरीज हैं और उनकी संख्या बढ़ भी रही है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय और जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 2007 में किए गए अपने एक अध्ययन में कहा था कि 2050 तक हर 85 में से एक व्यक्ति अल्झाइमर से ग्रस्त हो सकता है।
एम्स के न्यूरोसर्जन डॉक्टर दीपक अग्रवाल ने कहा कि लोग याद्दाश्त कम होने को बुढ़ापे के साथ बढ़ने वाली समस्या मानते हैं लेकिन जब स्थिति बहुत विकट हो जाती है तब जांच कराने पर पता चलता है कि मरीज अल्झाइमर से ग्रस्त है। भारत में इस बीमारी को लेकर जागरूकता की कमी है। ज्यादातर मामलों में अल्झाइमर होने की वजह का पता नहीं चलता है लेकिन कुछ मामलों में आनुवांशिक भिन्नताएं इसकी वजह होती हैं। डॉक्टर अग्रवाल ने कहा कि अल्झाइमर के लिए जीन जिम्मेदार होते हैं। साथ ही मधुमेह जैसी बीमारियों से भी इसका सम्बंध है। इस बीमारी का भावनात्मक असर होता है। यह बीमारी परिवार को दिल से तोड़ कर रख देती है। मरीज अपने सभी सगे-सम्बधियों को भूल जाते हैं। इसका भले ही अभी कोई इलाज ना हो लेकिन चिकित्सा विज्ञान में हो रही प्रगति को देखते हुए कहा जा सकता है कि इसका इलाज भविष्य में संभव हो। उन्होंने कहा कि सही खानपान, योग-अभ्यास और नियमित स्वास्थ्य जांच कराकर इस रोग से बचा जा सकता है।

Dark Saint Alaick
21-09-2012, 11:33 PM
इक्वीनॉक्स डे - 22 सितंबर
...जब दिन और रात होंगे बराबर

वर्ष के मौजूदा महीने सितंबर की 22 तारीख हम सभी के लिए बेहद खास होने वाली है। इस दिन न तो किसी महान व्यक्ति का जन्म हुआ था और न ही कोई ऐतिहासिक घटना घटित हुई थी। दरअसल आकाशीय घटनाओं के लिहाज से यह दिन बेहद खास होगा क्योंकि इस दिन रात और दिन बराबर होंगे। विज्ञान की भाषा में इसे इक्वीनॉक्स दिन के रूप में जाना जाता है। यह वर्ष में दो बार 20 मार्च और 22 सितंबर को पड़ता है। इक्वीनॉक्स का अर्थ होता है दिन और रात दोनों का समय बराबर होना। यानी इस तारीख में दिन और रात का समय 12-12 घंटे होगा। दरअसल जब सूर्य धरती के भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर से होकर गुजरता है तो दिन और रात कमोबेश समान हो जाते हैं। इसे ही विज्ञान की भाषा में इक्वीनॉक्स के नाम से जानते हैं। आम जीवन पर भले ही इस दिन का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है लेकिन खगोल वैज्ञानिकों के लिए यह दिन आकाश में होने वाली इस खगोलीय घटना के लिहाज से अहम होता है। एमेच्योर एस्ट्रोनॉमर एसोसिएशन नेहरू प्लेनेटोरियम दिल्ली के महासचिव रघु कालरा ने बताया कि 22 सितंबर को इक्वीनॉक्स को आटम्नल इक्वीनॉक्स के नाम से भी जानते हैं। इस तिथि को दिन और रात का समय लगभग समान होता है और वर्ष में यह दूसरा इक्वीनॉक्स है। उन्होंने बताया कि पहले समय में गर्मियों और सर्दियों के मौसम का पता लगाने के लिए भी इक्वीनॉक्स को एक संकेत के रूप में माना जाता था। इसकी वजह यह है कि 22 सितंबर को होने वाले इक्वीनॉक्स के बाद से रातें लंबी होना शुरू हो जाती है जो सर्दियों के आगमन का संकेत होता है। रघु ने बताया कि वर्ष के दोनों इक्वीनोक्स एक दूसरे से बिल्कुल उलट होते हैं। 20 मार्च को होने वाला इक्वीनोक्स वैज्ञानिक भाषा में 'वर्नल' कहलाता है। इसके बाद दिन लगातार लंबे और रातें छोटी होने लगती है जो इस बात का संकेत होता है कि गर्मियों का आगमन होने वाला है। दूसरी ओर 22 सितंबर के बाद रातें लंबी होना शुरू हो जाती हैं। उन्होंने बताया कि इक्वीनॉक्स के समय उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में रात और दिन करीब 12-12 घंटे के होते हैं। रघु ने बताया कि इक्वीनॉक्स के दिन का महत्व पहले त्योहारों का समय तय करने के लिए भी किया जाता है। दशहरा, दीवाली जैसे त्योहार इसी पर आधारित हुआ करते थे। हालांकि अब वैज्ञानिक तरीके से हम अधिक सटीक रूप से किसी त्योहार की तिथि तय कर पाते हैं।

Dark Saint Alaick
21-09-2012, 11:38 PM
ताराचंद बडजात्या की पुण्यतिथि पर विशेष
फिल्मों की साफ़-सुथरी धारा के जनक

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17599&stc=1&d=1348252696

मुंबई। महान फिल्म निर्माता ताराचंद बडजात्या का नाम एक ऐसे फिल्मकार के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने पारिवारिक और साफ सुथरी फिल्में बनाकर लगभग चार दशकों तक सिने दर्शकों के दिल में अपनी खास पहचान बनाई। फिल्म जगत में सेठजी के नाम से मशहूर ताराचंद बडजात्या का जन्म राजस्थान में एक मध्यम वर्गीय परिवार में 10 मई 1914 को हुआ था। उन्होंने अपनी स्नातक की शिक्षा कलकत्ता के विद्यासागर कॉलेज से पूरी की। उनके पिता चाहते थे कि वह पढ़-लिखकर बैरिस्टर बने लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति खराब रहने के कारण ताराचंद को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। वर्ष 1933 में वह नौकरी की तलाश में मुंबई पहुंचे। मुंबई में वह मोती महल थियेटर्स प्रा. लिमिटेड नामक फिल्म वितरण संस्था से जुड गए। यहां उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर 85 रुपए मिलते थे। वर्ष 1939 में उनके काम से खुश होकर वितरण संस्था ने उन्हें महाप्रबंधक के पद पर नियुक्त करके मद्रास भेज दिया। मद्रास पहुंचने के बाद वह और अधिक परिश्रम के साथ काम करने लगे। उन्होंने वहां के कई निर्माताओं से मुलाकात की और अपनी संस्था के लिए वितरण के सारे अधिकार खरीद लिए। मोती महल थियेटर्स के मालिक उनके काम को देख काफी खुश हुए और उन्हें स्वयं की वितरण संस्था शुरू करने के लिए उन्होंने प्रेरित किया। इसके साथ ही उनकी आर्थिक सहायता करने का भी वायदा किया। ताराचंद बडजात्या को यह बात जंच गई और उन्होंने अपनी खुद की वितरण संस्था खोलने का निश्चय किया। 15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतंत्र हुआ तो इसी दिन उन्होंने (राजश्री) नाम से वितरण संस्था की शुरूआत की। वितरण व्यवसाय के लिए उन्होंने जो पहली फिल्म खरीदी वह थी चंद्रलेखा। जैमिनी स्टूडियो के बैनर तले बनी यह फिल्म काफी सुपरहिट हुई जिससे उन्हें काफी फायदा हुआ। इसके बाद वह जैमिनी के स्थाई वितरक बन गए। इसके बाद ताराचंद फिल्म प्रर्दशन के क्षेत्र से भी जुड़ गए जिससे उन्हें काफी फायदा हुआ। उन्होंने कई शहरों मे सिनेमा हॉल का निर्माण किया। फिल्म वितरण के साथ-साथ ताराचंद का यह सपना भी था कि वह छोटे बजट की पारिवारिक फिल्मों का निर्माण भी करें। वर्ष 1962 में प्रदर्शित फिल्म आरती के जरिए उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। फिल्म आरती की सफलता के बाद बतौर निर्माता वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। इस फिल्म से जुड़ा रोचक तथ्य है कि इस फिल्म के लिए अभिनेता संजीव कुमार ने स्क्रीन टेस्ट दिया जिसमें वह पास नहीं हो सके थे। ताराचंद के मन में यह बात हमेशा आती थी कि नए कलाकारों को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित होने का समुचित अवसर नहीं मिल पाता है। उन्होंने यह संकल्प किया कि वह अपनी फिल्मों के माध्यम से नए कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने का ज्यादा से ज्यादा मौका देगें। वर्ष 1964 में इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने फिल्म दोस्ती का निर्माण किया जिसमें उन्होंने अभिनेता संजय खान को फिल्म इंडस्ट्री के रूपहले पर्दे पर पेश किया। दोस्ती के रिश्ते पर आधारित इस फिल्म ने न सिर्फ सफलता के नए आयाम स्थापित किए बल्कि अभिनेता संजय खान के कैरियर को भी एक नई दिशा दी। कई अन्य अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के सिने कैरियर को संवारने में भी ताराचंद का अहम योगदान रहा है जिनमें सचिन-सारिका (गीत गाता चल), अमोल पालेकर-जरीना बहाव (चितचोर), रंजीता (अंखियों के झरोखे से), राखी (जीवन-मृत्यु), अरुण गोविल (सावन को आने दो), रामेश्वरी (दुल्हन वही जो पिया मन भाये) व सलमान खान-भाग्यश्री (मैने प्यार किया) जैसे सितारे शामिल हैं। वर्ष 1982 में प्रदर्शित फिल्म नदिया के पार के जरिए ताराचंद ने भोजपुरी सिनेमा की ओर भी रुख किया। फिल्म काफी लोकप्रिय हुई और सिल्वर जुबली रही। बाद में इसी फिल्म का हिंदी संस्करण हम आपके है कौन भी बनाया गया। ताराचंद को मिले सम्मानों को देखा जाए तो उन्हें अपनी निर्मित फिल्म के लिए दो बार फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार से नवाजा गया है। उन्हें सबसे पहले वर्ष 1964 में फिल्म दोस्ती के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्माता के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके बाद वर्ष 1990 में प्रदर्शित फिल्म मैने प्यार किया में भी वह सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। यह महान फिल्मकार 21 सितंबर 1992 को इस दुनिया को अलविदा कह गया।

Dark Saint Alaick
22-09-2012, 02:11 AM
पुण्यतिथि पर विशेष
स्टूडियो सिस्टम तोड़ने की हिम्मत की थी दुर्गा खोटे ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17603&stc=1&d=1348262002 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17604&stc=1&d=1348262002

जिस दौर में महिलाओं का फिल्मों से जुड़ना अच्छा नहीं समझा जाता था, उस दौर में अभिनय का फैसला करना, स्टूडियो सिस्टम तोड़ना और खुद फिल्म निर्देशन की कमान संभालना, ऐसे हिम्मत भरे फैसले दुर्गा खोटे ने किए थे। फिल्म समीक्षक चैताली नोन्हारे ने कहा कि दुर्गा खोटे ने उस दौर में ‘स्टूडियो सिस्टम’ तोड़ा था जब महिला कलाकारों को अधिक महत्व दिया ही नहीं जाता था। स्टूडियो सिस्टम में कलाकार एक करार के तहत स्टूडियो की ही फिल्में मासिक वेतन पर करते थे। लेकिन यह व्यवस्था खत्म कर दुर्गा खोटे पहली ‘फ्रीलांस’ कलाकार बनीं और न्यू थिएटर्स कंपनी के लिए समय समय पर काम किया। फिल्म समीक्षक आर सी ग्वालानी ने कहा ‘‘1983 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित दुर्गा खोटे ने 1937 में ‘साथी’ फिल्म बनाई और इसका निर्देशन भी किया। उन्होंने थिएटर कभी नहीं छोड़ा और विज्ञापन फिल्में भी बनाईं। दिलचस्प बात यह रही कि फिल्म जगत में रह कर दुर्गा खोटे कभी विवादों में नहीं घिरीं। दिवंगत अभिनेत्री शोभना समर्थ हमेशा कहती थीं कि दुर्गा खोटे उनकी प्रेरणास्रोत रही हैं। चैताली ने कहा कि अपनी आत्मकथा में खुद दुर्गा खोटे ने अमरज्योति के बारे में लिखा है कि ऐसी फिल्में कभी कभार ही बनती हैं जिनमें काम कर कलाकार को सचमुच संतुष्टि मिलती है। अमरज्योति में सिनेमेटोग्राफी, सेट, कॉस्ट्यूम, गहने सब कुछ इतना शानदार था कि दर्शक एक-एक दृश्य को दिल से देखते रहे। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती सौदामिनी की भूमिका को मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में जगह देती हूं। वर्ष 1936 में बनी ‘अमरज्योति’ का एक ‘अंखियों के तुम तारे’ गीत दुर्गा खोटे ने गाया था। उन दिनों कई कलाकार अपने गीत खुद गाते थे। फिल्म समीक्षक माया ने कहा कि दुर्गा खोटे का बाल विवाह हुआ था लेकिन जब वह 26 साल की थीं तब उनके पति की मृत्यु हो गई थी। स्वाभिमानी दुर्गा खोटे के लिए आत्मनिर्भर बनना जरूरी था और उन्होंने इसके लिए अभिनय की दुनिया चुनी। दुर्गा खोटे ने जब फिल्मों में काम करने का हिम्मत भरा फैसला किया था तब सम्मानित परिवारों की महिलाओं का फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। मूक फिल्मों का दौर गुजर चुका था। दुर्गा खोटे को अपनी प्रतिभा दिखाने का अच्छा अवसर दिया बोलती फिल्मों ने। 14 जनवरी 1905 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मीं दुर्गा खोटे की पहली फिल्म थी 1931 में बनी ‘फरेबी जाल’। प्रभात कंपनी की इस फिल्म में उन्होंने बहुत छोटी भूमिका निभाई थीं। लेकिन प्रभात कंपनी की ही 1932 में बनी ‘अयोध्येचा राजा’ में वह नायिका बनीं। यह पहली बोलती मराठी फिल्म थी। के आसिफ की ‘मुगल ए आजम’ में उनकी जोधा की भूमिका, ‘बॉबी’ में नायिका की दादी और ‘अभिमान’ में हीरो की चाची की भूमिका को दर्शकों ने खूब सराहा। करीब 200 फिल्मों में काम करने वाली दुर्गा खोटे को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। दुर्गा खोटे ने 22 सितंबर 1991 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
27-09-2012, 05:39 AM
27 सितंबर को जयंती पर विशेष
भगत सिंह : मां की चाहत जिन्दगी, बेटे की ख्वाहिश कुर्बानी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17611&stc=1&d=1348706257

देश पर अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले शहीद ए आजम भगत सिंह ने अपनी मां की ममता से ज्यादा तवज्जो भारत मां के प्रति अपने प्रेम को दी थी । कहा जाता है कि भगत सिंह को फांसी की सजा की आशंका के चलते उनकी मां विद्यावती ने उनके जीवन की रक्षा के लिए एक गुरुद्वारे में अखंड पाठ कराया था । इस पर पाठ करने वाले ग्रंथी ने प्रार्थना करते हुए कहा, ‘‘गुरु साहब...मां चाहती है कि उसके बेटे की जिन्दगी बच जाए, लेकिन बेटा देश के लिए कुर्बान हो जाना चाहता है । मैंने दोनों पक्ष आपके सामने रख दिए हैं जो ठीक लगे, मान लेना ।’’ शहीद ए आजम के पौत्र (भतीजे बाबर सिंह संधु के पुत्र) यादविंदर सिंह ने परिवार के बड़े सदस्यों के संस्मरणों के आधार पर बताया कि विद्यावती जब भगत सिंह के जीवन की रक्षा के लिए अरदास करने गुरुद्वारे गईं तो भगत सिंह ने उनसे कहा था कि वह देश पर बलिदान हो जाने की अपने बेटे की ख्वाहिश का सम्मान करें । उन्होंने कहा कि जब विद्यावती भगत सिंह से मिलने जेल पहुंचीं तो शहीद ए आजम ने उनसे पूछा कि ग्रंथी ने क्या कहा । इस पर मां ने सारी बात बताई और भगत सिंह ने इसके जवाब में कहा, ‘‘मां आपके गुरु साहिबान भी यही चाहते हैं कि मैं देश पर कुर्बान हो जाउं, क्योंकि इससे बड़ा कोई और पुण्य नहीं है । देश के लिए मर जाना आपकी ममता से कहीं बड़ा है ।’’
यादविंदर ने बताया कि भगत सिंह चाहते थे कि जब उन्हें फांसी हो तो उनकी पार्थिव देह उनका छोटा भाई कुलबीर घर ले जाए और उनकी मां उस समय जेल में हरगिज नहीं आएं । हालांकि, भगत सिंह की यह चाहत पूरी नहीं हो सकी क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें तय वक्त से एक दिन पहले ही फांसी पर लटका दिया और टुकड़े-टुकड़े कर उनके शव को सतलुज नदी के किनारे जला दिया । उनके अनुसार भगत सिंह ने अपनी मां से कहा था, ‘‘मां मेरा शव लेने आप नहीं आना और कुलबीर को भेज देना । क्योंकि यदि आप आएंगी तो आप रो पड़ेंगी और मैं नहीं चाहता कि लोग यह कहें कि भगत सिंह की मां रो रही है ।’’ पंजाब के लायलपुर जिले (वर्तमान में पाकिस्तान का फैसलाबाद) के बांगा गांव में 27 सितंबर 1907 को जन्मे शहीद ए आजम भगत सिंह जेल में मिलने के लिए आने वाली अपनी मां से अक्सर कहा करते थे कि वह रोएं नहीं क्योंकि इससे देश के लिए उनके बेटे द्वारा किए जा रहे बलिदान का महत्व कम होगा । परिवार के अनुसार, शहीद ए आजम का नाम ‘भागां वाला’ (किस्मत वाला) होने के कारण भगत सिंह पड़ा । उन्हें यह नाम उनकी दादी जयकौर ने दिया था क्योंकि जिस दिन उनका जन्म हुआ उसी दिन उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजित सिंह जेल से छूटकर आए थे । करतार सिंह सराबा को अपना आदर्श मानने वाले भगत सिंह की जिन्दगी में 13 और 23 तारीख का बहुत बड़ा महत्व रहा । 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार ने उन्हें क्रांतिकारी बनाने का काम किया । उनके परिवार के सदस्यों के मुताबिक भगत सिंह द्वारा लिखे गए ज्यादातर पत्रों पर 13 या 23 तारीख अंकित है । 23 मार्च 1931 को 23 साल की उम्र में वह देश के लिए फांसी के फंदे पर झूल गए ।

Dark Saint Alaick
27-09-2012, 05:41 AM
27 सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस पर
छलांग लगाने को तैयार पर्यटन उद्योग

देश का पर्यटन उद्योग आने वाले वर्षों में छलांग लगाने की तैयारी में है। पर्यटन पर 12वीं योजना के लिए कार्यसमूह ने 12वीं पंचवर्षीय योजनावधि में पर्यटन के विकास व संवर्धन के लिए 22,800 करोड़ रुपये आवंटित करने की सिफारिश की है जो 11वीं योजना के लिए आवंटित 5,156 करोड़ रुपये के मुकाबले चार गुना से अधिक है। इसके अलावा, पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण ढांचागत क्षेत्र के सुधार पर सरकार द्वारा विशेष ध्यान देने एवं विभिन्न राज्यों द्वारा पर्यटन स्थलों को लोकप्रिय बनाने की पहल से इस क्षेत्र को जबरदस्त प्रोत्साहन मिलेगा। पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय के मुताबिक, ‘भारत ने 2016 तक पर्यटन क्षेत्र में 12 प्रतिशत की वृद्धि का लक्ष्य रखा है। अगर यह हासिल हो जाता है तो हम ढाई करोड़ अतिरिक्त रोजगार पैदा करने में समर्थ होंगे।’ एसोसिएशन आफ डोमेस्टिक टूर आपरेटर्स आफ इंडिया (एडीटीओआई) के अध्यक्ष सुभाष वर्मा ने कहा, ‘पर्यटन क्षेत्र को अभी तक सरकार द्वारा उद्योग का दर्जा नहीं दिया गया। लेकिन, हाल की गतिविधियों से लगता है कि सरकार पर्यटन क्षेत्र के महत्व को पहचान रही है। यही वजह है कि योजना आयोग ने भी आवंटन बढाने की सिफारिश की है।’ पर्यटन क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने से उत्तर प्रदेश घरेलू पर्यटकों को आकर्षित करने के मामले में आंध्र को पछाड़कर 2011 में शीर्ष पायदान पर काबिज हो गया। इस दौरान उत्तर प्रदेश ने 15.54 करोड़ घरेलू सैलानी आकर्षित किए, जबकि 15.31 करोड़ घरेलू पर्यटकों के साथ आंध्र प्रदेश दूसरे पायदान पर रहा। 2010 में आंध्र प्रदेश पहले पायदान पर था। इंडियन एसोसिएशन आफ टूर आपरेटर्स (आईएटीओ) के अध्यक्ष सुभाष गोयल ने कहा, ‘योजना आयोग द्वारा 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए आबंटन बढाकर चार गुना से अधिक करने की सिफारिश से ग्रामीण पर्यटन, हुनर से रोजगार, कौशल विकास आदि पर खर्च बढेगा और बड़ी संख्या में रोजगार के अवसरों का सृजन होगा।’ गोयल ने कहा, ‘इसके अलावा, राज्यों को उनकी पर्यटन विकास योजनाओं के लिए अधिक आवंटन संभव हो सकेगा जिससे राज्य अपने पर्यटन स्थलों को तेजी से विकसित करेंगे।’

Dark Saint Alaick
27-09-2012, 05:45 AM
27 सितंबर को महेन्द्र कपूर की पुण्यतिथि पर
‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाये हम दोनों’

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हिन्दी फिल्म संगीत के स्वर्ण युग के गायकों रफी, मुकेश, किशोर और मन्ना डे के बीच अक्सर लोग महेन्द्र कपूर को भूल जाते हैं। लेकिन महेन्द्र कपूर के खाते में कई ऐसे फिल्मी गीत हैं, जो उन्हें एक अलग मुकाम देते हैं। रफी के समान आवाज के बारे में पूछे जाने पर महेन्द्र कपूर कहते थे, ‘‘रफी साहब ने एक बात बहुत पहले साफ कर दी थी। दो कारणों के चलते हम कभी साथ में गाना नहीं गायेंगे। पहला हम दोनों के बीच गुरू चेले का संबंध है और इसलिए हमारे बीच प्रतिस्पर्धा नहीं हो सकती। दूसरी हमारी आवाज में काफी समानता है।’’ हालांकि, 1967 में फिल्म ‘आदमी’ के लिए ‘कैसी हसीं आज बहारों की रात’ गाना उन्होंने रफी के साथ गाया था। यह गाना पहले तलत और रफी की आवाज में रिकार्ड किया गया था। फिल्म के नायक मनोज कुमार ने अपने लिए तलत की आवाज का प्रयोग करने से मना कर दिया था, जिससे यह गाना कपूर की आवाज में दोबारा रिकार्ड किया गया। अमृतसर में 9 जनवरी 1934 को जन्में महेन्द्र कपूर ने अपने पार्श्व गायन के सफर की शुरूआत 1956 में की थी। ढाई हजार से अधिक गीत गाने वाले महेन्द्र कपूर को फिल्म उपकार को गीत ‘मेरे देश की धरती के लिए’ राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। इसके अलावा उन्हें तीन फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिले थे। महेन्द्र कपूर का निधन 27 सितंबर 2008 को मुंबई में हुआ था।
फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज ने कहा, ‘‘देश प्रेम की चाशनी में पगे महेन्द्र कपूर के गाने लोगों को भावनात्मक रूप से आकर्षित करते हैं। देशभक्ति के गानों की अपनी एक अलग जगह होती है, जो कुछ समय तक अच्छे लगते हैं।’’ हालांकि, उन्होंने कहा कि महेन्द्र कपूर के गाये कुछ रोमांटिक गाने बहुत ही बेहतरीन हैं, जिसमें साहिर लुधियानवी का लिखा ‘नीले गगन के तले धरती का प्यार पले’ जैसा गाना शामिल है, लेकिन उनके अधिकतर गाने मनोज कुमार की देशपूर्ण फिल्मों के है, हालांकि उस दौर में मनोज कुमार का अलग ही स्टारडम था। हिन्दी फिल्मों में ‘चलो एक बार फिर से’ (‘गुमराह’-1963), ‘आधा है चंद्रमा’ (नवरंग-1959), ‘नीले गगन के तले’ (‘हमराज’-1967) और ‘लाखों हैं यहां दिलवाले’ (‘किस्मत’-1968) जैसे कुछ रोमांटिक गीत महेन्द्र कपूर के खाते में है। उन्होंने कहा कि यह हिन्दी फिल्मों का वह दौर था, जब रफी-मुकेश-किशोर कुमार की तिकड़ी की तूती बोलती थी। इस दौरान शास्त्रीय संगीत में महारत के चलते मन्ना डे अपना एक अलग मुकाम बनाया। लेकिन हिन्दी फिल्म संगीत स्वर्णयुग में इस त्रयी की रेंज बहुत अधिक थी, जिसके चलते महेन्द्र कपूर जैसे कई गायक दायरे में सिमटकर रह गये।

Dark Saint Alaick
30-09-2012, 01:05 AM
29 सितंबर को विश्व हृदय दिवस पर
दिल की बस्ती में बढने न पाए बाहरी दखल

दिल की बस्ती को संभालने की बार बार हिदायत और चेतावनी दिए जाने के बाद भी हर साल दुनिया भर में 1.73 करोड़ लोग केवल दिल की वजह से ही मौत के मुंह में चले जाते हैं। आधुनिक तकनीक के चलते इस दिल को बचाने की खातिर अब उसकी बस्ती में बाहरी दखल बढती जा रही है लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह दखल जितनी कम हो, उतना बेहतर है। गुड़गांव स्थित मेदांता मेडिसिटी के डायरेक्टर और जाने माने हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ नरेश त्रेहन ने कहा ‘‘दिल की हिफाजत में हुई चूक, जीवनशैली, पर्यावरण तथा अन्य कारणों के चलते दिल की बीमारी के मामले बढते जा रहे हैं। बहरहाल, आधुनिक दुनिया में अपना सिक्का जमाने वाला रोबोट अब दिल की सर्जरी में मददगार हो रहा है।’’ उन्होंने कहा ‘‘भले ही सुनने में अजीब लगे लेकिन अब रोबोट की मदद से दिल के खराब वाल्व की मरम्मत, कोरोनरी धमनी की बाईपास ग्राफ्टिंग, हृदय के उपरी कक्ष में हुए छेद की मरम्मत के साथ साथ धमनियों में आई रूकावट दूर की जाती है। रोबोट की मदद से बाइवेन्ट्रीकुलर पेसमेकर भी लगाया जा सकता है। लेकिन इसका खर्च आम आदमी के लिए बहुत मुश्किल होता है। इसलिए कोशिश करना चाहिए कि समय रहते सतर्क हो जाएं।’’ फोर्टिस एस्कॉर्ट हार्ट इन्स्टीट्यूट के हृदय रोग विशेषज्ञ डा अतुल माथुर ने कहा ‘‘कम उम्र के लोगों में दिल की बीमारी के बढते मामले चिंताजनक हैं। बड़ी देर तक एक ही जगह बैठकर काम करना, तला भुना खाना, तनाव, धूम्रपान, शराब, असंयमित जीवनशैली, कम से कम शारीरिक श्रम, पर्यावरण.... कई कारण हैं दिल की बीमारी के। समाधान भी हैं लेकिन समय रहते चेत जाने से बाहरी समाधान की जरूरत नहीं पड़ती। यही बेहतर भी है।’’
मुंबई स्थित हिन्दुजा अस्पताल के हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ सुधीर वैष्णव ने ईमेल के जरिये बताया कि ट्रान्सकैथेटर एओर्टिक वाल्व इम्प्लांटेशन :टीएवआई: भी एक ऐसी ही प्रौद्योगिकी है जिसकी मदद से खराब हो चुके धमनी वाल्व को हटा कर दूसरा वाल्व लगाया जा सकता है। इस प्रौद्योगिकी में गाय के उतक से बना वाल्व दिल में लगा दिया जाता है। यह वाल्व मजबूत होता है और इसमें स्टेनलेस स्टील का एक स्टेन्ट भी लगा होता है। डॉ वैष्णव ने बताया कि इस वाल्व को कैथेटर की मदद से पहले जांघ की फीमोरल धमनी में प्रविष्ट कराया जाता है और फिर छाती में पहुंचा कर दिल में लगा दिया जाता है तथा खराब हुए वाल्व को निकाल दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में लगने वाला समय ओपन हार्टसर्जरी में लगने वाले समय से आधा होता है। इसी अस्पताल के डा सुरेश विजयन ने कहा ‘‘इस पर फिलहाल होने वाला खर्च बहुत ज्यादा है लेकिन नयी कंपनियां जो नए उपकरण पेश कर रही हैं, उनसे यह खर्च कम होने की उम्मीद है। लेकिन हमारे देश की बड़ी आबादी मामूली स्वास्थ्य खर्च भी नहीं उठा सकती। इसलिए जागरूकता फैलाना जरूरी है कि हृदय की देखभाल समय रहते की जाए।’’
डॉ त्रेहन ने कहा कि कृत्रिम हृदय भी दिल की बीमारी की समस्या का हल बन कर सामने आया है। उन्होंने कहा ‘‘दिल के मरीजों में से एक फीसदी से भी कम लोगों को प्रत्यारोपण के लिए अंग नहीं मिल पाते। ऐसे में हाल ही में विकसित कृत्रिम हृदय बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। इस उपकरण का आकार मूल हृदय से छोटा होता है। मरीज का मूल हृदय ठीक होने के बाद कृत्रिम हृदय को निकाल दिया जाता है पर इसका खर्च उठाना सबके बस की बात नहीं होती।’’ हृदय संबंधी बीमारियों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए वर्ष 2000 से हर साल सितंबर माह के आखिरी रविवार को विश्व हृदय दिवस मनाया जा रहा है। इस साल 29 सितंबर को विश्व हृदय दिवस मनाया जा रहा है और इसकी थीम ‘वन वर्ल्ड, वन होम, वन हार्ट’ है। डॉ त्रेहन ने कहा ‘‘तकनीकें आती रहेंगी लेकिन अगर शुरू से ही संयमित खानपान, व्यसनों से परहेज, व्यायाम आदि को अपनाया जाए तो दिल की दुनिया को बाहरी दस्तक से बचाया जा सकता है। इस साल विश्व हृदय दिवस की थीम ‘वन वर्ल्ड, वन होम, वन हार्ट’ है। इसलिए पूरी कोशिश करनी चाहिए कि दिल सचमुच एक ही हो और उसकी दुनिया में बाहरी दखल न हो।’’

Dark Saint Alaick
02-10-2012, 12:18 AM
हृषिकेश मुखर्जी के जन्मदिन पर
‘माचोमैन’ से कॉमेडी और ‘एंग्री यंग मैन’ से आंसू निकलवाए थे रिषी दा ने

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‘मिडिल सिनेमा’ के प्रतिपादक हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में कहानी ही असली नायक होती थी और उनके साधारण से दिखने वाले किरदार जीवंत रूप में मध्यमवर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। उन्होंने ही पहली बार धमेंद्र को हास्य भूमिकाओं में पेश किया तो अमिताभ बच्चन को साधारण किरदारों में पर्दे पर उतारा था। फिल्म समीक्षक रोहित वत्स का कहना है, ‘‘रिषी दा की फिल्मों में साधारण जीवन दिखता था लेकिन कहानी का अर्थ गहरा होता था। उनके कहानी कहने का अंदाज बहुत सरल था। राजकपूर की फिल्में, देव आनंद की फिल्में, अमिताभ की एंग्री यंग मैन छवि वाली फिल्मों से अलग रिषी दा की फिल्मों में ‘हीरोइज्म’ नहीं होता था। खुद कहानी ही फिल्म का नायक होती थी और फिल्म के नायक-नायिका साधारण से दिखने वाले किरदार। उन्होंने अपनी फिल्मों में अमोल पालेकर जैसे साधारण से दिखने वाले अभिनेता को नायक बनाया था।’’ एनसाइक्लोपीडिया आॅफ इंडियन सिनेमा के अनुसार 30 सितंबर 1922 को कोलकाता में जन्मे मुखर्जी ने पहले कैमरामैन के रूप में अपना फिल्म करियर शुरू किया था। इसके बाद वह फिल्म एडिटर बन गए। निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म मुसाफिर (1957 ) थी लेकिन यह फिल्म सफल नहीं रही। इसके बाद 1959 में आयी उनकी दूसरी फिल्म ‘अनाड़ी’ बॉक्स आॅफिस पर कामयाब रही और इसने मुखर्जी को एक पहचान दिलायी। वत्स के अनुसार रिषी दा ने कई स्टार कलाकारों को अपनी फिल्मों में अलग अंदाज में पेश किया और कई नये कलाकारों को फिल्मों में जगह दी। उन्होंने ‘माचोमैन’ धमेंद्र को पहली बार हास्य किरदार में पेश किया वहीं ‘एंग्री यंग मैन’ की छवि में ढलने से पहले अमिताभ बच्चन से :‘आनंद’ फिल्म में: आंसू बहवाएं। उन्होंने सुपरस्टार राजेश खन्ना को उनके फिल्म करियर की सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओंं :‘आनंद’ और ‘बावर्ची’: में पेश किया, वहीं ‘गुड्डी’ फिल्म में अभिनेत्री जया भादुड़ी को पहली बार हिन्दी फिल्मों में पेश किया।’’ ‘ग्रेट मास्टर्स आफ इंडियन सिनेमा’ किताब में लेखक डीपी मिश्रा ने लिखा है, ‘‘मुखर्जी की फिल्मों में हिंसा, अपराध नहीं होते थे। उनमें साधारण किरदार होते थे, संगीत होता था। संगीत उनकी फिल्मों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता था। संगीत कहानी को आगे बढाता था। ज्यादातर फिल्मों में मुख्य किरदार संगीत से कहीं न कहीं जुड़े होते थे। इन फिल्मों में ‘अभिमान’, ‘गोलमाल’, ‘बावर्ची’, ‘आनंद’ आदि शामिल हैं।’’ अपने चार दशक लंबे फिल्म करियर में मुखर्जी ने 40 से ज्यादा फिल्मों का निर्देशन किया। इनमें ‘सत्यकाम’, ‘अनुराधा’, ‘चुपके-चुपके’, ‘अनुपमा’, ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘खूबसूरत’, ‘मिली’, ‘आनंद’ जैसी फिल्में शामिल हैं। फिल्मों के अलावा उन्होंने कई टीवी धारावाहिकों का भी निर्देशन किया। इनमें ‘हम हिन्दुस्तानी’, ‘तलाश’, ‘रिश्ते’, ‘उजाले की ओर’ जैसे धारावाहिक शामिल हैं। वत्स के अनुसार मुखर्जी की आखिरी फिल्म 1998 में आयी ‘झूठ बोले कौआ काटे’ थी। 27 अगस्त, 2006 को 83 साल की उम्र में मुखर्जी का निधन हो गया। उनके पीछे उनकी हल्के फुल्के लेकिन गहरे तक असर डालने वाले विषयों पर बनी फिल्मों की ‘भारी भरकम’ विरासत सिनेमा प्रेमियों के पास है।

Dark Saint Alaick
02-10-2012, 12:28 AM
एक अक्तूबर विश्व शाकाहार दिवस पर विशेष
प्रकृति और मनुष्य दोनों को ‘निरोग’ रखता है शाकाहारी भोजन

दुनियाभर में शाकाहार और मांसाहार को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि शाकाहारी भोजन मनुष्य को फ्लू जैसी रोजमर्रा की बीमारियों के साथ साथ कैंसर जैसी घातक बीमारियों को दूर रखने में मदद करता है और एक शाकाहारी व्यक्ति एक साल में बहुत से पशुओं की जान बचा सकता है । आहार विशेषज्ञ डाक्टर भुवनेश्वरी गुप्ता ने ‘भाषा’ को बताया कि शरीर के लिये शाकाहारी खाना सबसे अच्छा है । मांस, अंडे और डेयरी उत्पाद छोड़ देने से कम वसा, कम कोलेस्ट्राल और बहुत पौष्टिक खाना मिलता है । उन्होंने कहा, ‘‘भारत में ह्दय से जुड़ी बीमारियां, मधुमेह और कैंसर के मामले तेजी से बढ रहे हैं और इसका सीधा संबंध अंडे, मांस और डेयरी उत्पादों जैसे मक्खन, पनीर और आइसक्रीम की बढ रही खपत से है।’’ डाक्टर गुप्ता ने कहा, ‘‘शाकाहारी खाने में कोलेस्ट्राल नहीं होता, बहुत कम वसा होती है और यह कैंसर के खतरे को 40 फीसद कम करता है । शाकाहारी खाने में सोया दूध, अनाज, फल, सब्जियां, बादाम और जूस हमारी रोजमर्रा की विटामिन, कैल्शियम, फोलिक एसिड, प्रोटीन की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं ।’’ दुनियाभर में शाकाहार को बढावा देने वाली गैर सरकारी संस्था ‘पेटा’ के प्रवक्ता सचिन बंगेरा ने बताया कि वैज्ञानिकों ने पाया है कि जो लोग शाकाहारी होते हैं, उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता मांसाहारी खाना खाने वाले लोगों की तुलना में ज्यादा मजबूत होती है । उन्होंने कहा, ‘‘शाकाहारी लोग फ्लू जैसी रोजमर्रा की बीमारियों से जल्दी प्रभावित नहीं होते हैं । मांसाहारी लोगों को शाकाहारी खाना खाने वालों की तुलना में मोटे होने का खतरा नौ गुना ज्यादा होता है । बंगेरा ने कहा, ‘‘शाकाहार से मांस और डेयरी उद्योगों के विनाश से पृथ्वी को बचाया जा सकता है । संयुक्त राष्ट्र की एक हाल की रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के गंभीर दुष्प्रभावों से निपटने के लिये वैश्विक स्तर पर शाकाहारी खाने की ओर बढना होगा ।’’ उन्होंने बताया कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक आज पर्यावरण की गंभीर समस्याओं में मांस उद्योग का एक बड़ा योगदान है । मांस और डेयरी उद्योग ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करते हैं । बंगेरा ने कहा कि एक शाकाहारी व्यक्ति एक साल में 200 पशुओं की जान बचा सकता है । उल्लेखनीय है कि उत्तरी अमेरिका शाकाहार सोसाइटी ने शाकाहारी जीवन शैली को बढावा देने के लिये वर्ष 1977 में एक अक्तूबर के दिन ‘शाकाहार दिवस’ मनाये जाने की शुरूआत की थी । बाद में अंतरराष्ट्रीय शाकाहारी संघ ने भी इसका समर्थन किया और तभी से एक अक्तूबर को हर साल ‘अंतरराष्ट्रीय शाकाहार दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा ।

Dark Saint Alaick
02-10-2012, 12:33 AM
एक अक्तूबर को जन्मदिवस पर विशेष
शासक के जिस्म पर छाले की तरह हैं शकेब जलाली की गजलें

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उर्दू शायरी में शकेब जलाली के कलाम उस दौर की हलचलों से लबरेज होने के बावजूद अदबी रवायत को तोड़ते रहे हैं । उनकी गजलों और नज्मों में एक लमहे में हजार लमहों का फसाना छुपा है। शकेब उर्दू के एक बड़े शायर हैं, जबकि अभी तक उनके काम का मूल्यांकन नहीं हो पाया है। शकेब जलाली के काम पर ‘पानियो पे नाम’ नामक किताब लिखने वाले वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई ने बताया कि मुल्क का बंटवारा और हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाने जैसी घटनाओं ने उनके भीतर तक असर डाला था। उनकी शायरी का मूल भाव विषाद और करुणा भरा है। हालांकि अभी उनके काम का मूल्यांकन होना बाकी है। बंटवारे का दर्द उनकी गजलों में कुछ इस तरह आया... ‘आके पत्थर तो मेरे सहन में दो चार गिरे, जितने उस पेड़ के फल थे पसे दीवार गिरे’ उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक और अनुवादक नरेश नदीम ने कहा कि उनका व्यक्तित्व समझौता नहीं करने वाला था। उस समय पाकिस्तान में अयूब खां का शासन था और वह इसी तानाशाही का बर्दाश्त नहीं कर सके। शायद उनके आत्महत्या करने की वजह भी यही रही हो। उन्होंने कहा कि वह उर्दू के पांच बड़े शायरों में एक हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी तक उनके काम और उनके जीवन का मूल्यांकन नहीं हो पाया है। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में जा बसने वाले उर्दू शायर शकेब जलाली की पैदाइश अलीगढ के कस्बे जलाली में एक अक्तूबर 1934 को हुई थी। उनका असल नाम सैयद हसन रिजवी था, जबकि कलमी नाम शकेब जलाली था। उन्होने बदायूं से मैट्रिक तक की तालीम हासिल की। बंटवारे का शिकार होकर वह पाकिस्तान चले गये और वहां से बीए पास किया। मंडलोई ने बताया कि सरकारी महकमें में रहने के बावजूद शकेब का कलाम उस जमाने के हालात और बदली सत्ता के चरित्र को बेबाकी से उधेडता है। हालांकि उस जमाने के तरक्कीपसंद लोगों ने भी शकेब के गजलों को तवज्जो नहीं दी और जीते जी वह गुमनामी में ही रहे। उनकी किताबें मरने के बाद ही साया हो सकीं। उनकी गजलें उस दौर का पूरा फसाना कहती हैं। ‘मलबूस खुशनुमा हैं, मगर खोखले हैं जिस्म, छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर। हक बात आके रुक-सी गयी थी कभी शकेब, छाले पड़े हुये हैं अभी तक जबान पर।’ शकेब ने पैसे की कमी और जमाने की तमाम दुश्वारियां झेलीं। दुश्वारियों ने शकेब की उंगली पकड़कर दुनिया को नये रंग में देखने की नजर दी। शकेब ने इस नजर के गजलों की शक्ल दी, जिसे हर कोई देख सकता है। उन्होंने कहा... यारो मैं इस नजर की बलंदी का क्या करूं, साया भी अपना देखता हूं आसमान पर । मुझको गिरना है, तो अपने ही कदमों पर गिरूं, जिस तरह साया ए दीवार पर दीवार गिरे। शकेब ने 15 साल की उम्र में शेर कहना शुरू कर दिया था। हालांकि उनका लिखे हुये ज्यादातर शेरों का आज कोई पता नहीं है, लेकिन उनके जितने भी शेर दिखाई देते है, वह उस दौर की पूरी हकीकत बयान करते हैं। आज की नस्ल की नयी शायरी में शकेबाना अंदाज इस बात का पाएदार सबूत है। बारह नवंबर 1966 को शकेब ने रेल की पटरी पर कटकर जान दे दी। मंडलोई के मुताबिक वह एक क्षण में हजार क्षण जीते थे। यही उनका हौसला था और मौत भी उनके लिए एक उत्सव जैसा रही। अभी तक उनका सिर्फ एक मजमूआ ‘रौशनी ऐ रौशनी’ ही सामने आया था। कुछ समय पहले लाहौर से उनका ‘कुलियाते शकेब जलाली’ भी साया हुआ है।

Dark Saint Alaick
02-10-2012, 12:40 AM
जन्मदिन पर
सादगी और विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे लालबहादुर शास्त्री

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देश के द्वितीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री न केवल अपनी सादगी और विनम्रता के लिये पहचाने जाते हैं बल्कि वह अपने उसूलों के भी पक्के थे। महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू के आदर्शों को आत्मसात करने वाले शास्त्री जी अपने जीवन के किसी भी मोड़ पर उन आदर्शों से नहीं डिगे और सिर्फ स्वयं ही नहीं बल्कि अपने पूरे परिवार को उन आदर्शों से जोड़े रखा। शास्त्री जी के पुत्र सुनील शास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी’ में बताया है कि शास्त्री जी आज के राजनीतिज्ञों से बिल्कुल भिन्न थे। उन्होेंने कभी भी अपने पद या सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग नहीं किया। अपनी इस दलील के पक्ष में एक नजीर देते हुए उन्होंने किताब में लिखा है, शास्त्री जी ‘जब 1964 में प्रधानमंत्री बने तब उन्हें सरकारी आवास के साथ ही इंपाला शेवरलेट कार मिली जिसका उपयोग वह न के बराबर ही किया करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी।’ किताब के अनुसार एक बार उनके पुत्र सुनील शास्त्री किसी निजी काम के लिये इंपाला कार ले गये और उसे वापस लाकर चुपचाप खडी कर दी। शास्त्री जी को जब पता चला तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि कल कितने किलोमीटर गाड़ी चलायी गयी और जब ड्राइवर ने बताया कि चोैदह किलोमीटर तो उन्होंने उसे निर्देश दिया, ‘लिख दो, चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज।’ किताब के अनुसार शास्त्री जी यहीं नहीं रूके बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी को बुला कर निर्देश दिया कि उनके निजी सचिव से कह कर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा करवा दें। पुस्तक के अनुसार शास्त्री जी को खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने में जो आनंद मिलता था, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। एक बार की घटना है जब शास्त्री जी रेल मंत्री थे और वह मुंबई जा रहे थे। उनके लिये प्रथम श्रेणी का डिब्बा लगा था। गाडी चलने पर शास्त्री जी बोले, ‘डिब्बे में काफी ठंडक है, वैसे बाहर गरमी है।’ उनके पीए कैलाश बाबू ने कहा, ‘जी, इसमें कूलर लग गया है।’ शास्त्री जी ने पैनी निगाह से उन्हें देखा और आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा, ‘कूलर लग गया है? बिना मुझ बताए? आपलोग कोई काम करने से पहले मुझसे पूछते क्यों नहीं? क्या वे और सारे लोग जो गाडी में चल रहे हैं, उन्हें गरमी नहीं लगती होगी?’ शास्त्री जी ने कहा, ‘कायदा तो यह है कि मुझे भी थर्ड क्लास में चलना चाहिये, लेकिन उतना तो नहीं हो सकता, पर जितना हो सकता है उतना तो करना चाहिये।’ दिवंगत नेता ने कहा, ‘बडा गलत काम हुआ है। आगे गाड़ी जहां भी रूके, कूलर पहले निकलवाइये।’ मथुरा स्टेशन पर गाड़ी रूकी और कूलर निकालने के बाद ही गाड़ी आगे बढी। आज भी फर्स्ट क्लास में उस जगह, जहां कूलर लगा था, वहां पर लकड़ी जड़ी है। पुस्तक में लिखा गया है, ‘यह बात सिद्धांत प्रतिपादित करने की नहीं, सिद्धांत को जीने की है, उसे जीवन में उतारने की है। साधारण देशवासियों से, उन्हें कठिनाइयों से उबारने की उनमें सच्ची लगन थी। उनसे वे प्यार करते थे, क्योंकि वे उनके बीच से ही उभरे थे।’ लेखक ने लिखा है, ‘उनका काम करने का अपनेपन का तरीका अनोखा था। वे आदमी को उसके परिवेश से जोड़कर कुछ इस तरह व्यवहार करते थे कि वह खुद इस बात का अनुभव करने लगता था कि गलती फिर न हो।’ पुस्तक के अनुसार ‘आज के संदर्भ में उनकी सहजता के अर्थ नहीं लगाये जा सकते।’ शास्त्री जी के किफायती स्वभाव का जिक्र करते हुए किताब में सुनील शास्त्री ने लिखा है, ‘अब जबकि उनके पास चीजों की कोई कमी नहीं थी और वे प्रधानमंत्री थे, तब भी उनके काम और बात करने के तौर तरीके में कोई फर्क नहीं आया। तब भी वे अपने कपड़ों और खादी से लगाव रखते थे।’ पुस्तक में एक घटना का जिक्र करते हुए बताया गया है कि एकबार शास्त्री जी की अलमारी साफ की गयी और उसमें से अनेक फटे पुराने कुर्ते निकाल दिये गये। लेकिन शास्त्री जी ने वे कुर्ते वापस मांगे और कहा, ‘अब नवंबर आयेगा, जाड़े के दिन होंगे, तब ये सब काम आयेंगे। उपर से कोट पहन लूंगा न।’ शास्त्री जी का खादी के प्रति अनुराग ही था कि उन्होंने उन फटे पुराने समझ हटा दिये गये कुर्तों को सहेजते हुए कहा, ‘ये सब खादी के कपड़े हैं। बड़ी मेहनत से बनाए हैं बीनने वालों ने। इसका एक एक सूत काम आना चाहिये।’ लेखक ने बताया कि शास्त्री जी की सादगी और किफायत का यह आलम था कि एक बार उन्होंने अपना फटा हुआ कुर्ता अपनी पत्नी को देते हुए कहा, ‘इनके रूमाल बना दो।’’ इस सादगी और किफायत की कल्पना तो आज के दौर के किसी भी राजनीतिज्ञ से नहीं की जा सकती। पुस्तक में कहा गया है, ‘वे क्या सोचते हैं, यह जानना बहुत कठिन था, क्योंकि वे कभी भी अनावश्यक मुंह नहीं खोलते थे। खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने में उन्हें जो आनंद मिलता था, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।’

Dark Saint Alaick
02-10-2012, 12:41 AM
जन्मदिन पर/नई किताब
सभी व्यस्तताओं के बीच मां के साथ कुछ समय जरूर बिताते थे शास्त्रीजी

देश के दूसरे प्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री अपनी सारी व्यस्ताओं के बावजूद अपनी मां के साथ कुछ पल बिताना नहीं भूलते थे और बाहर से चाहे वे कितना ही थककर आयें अगर मां आवाज देती थीं तो वह उनके पास जाकर जरूर बैठते थे। लालबहादुर शास्त्री पर उनके पुत्र सुनील शास्त्री द्वारा लिखी पुस्तक ‘लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी’ में बताया गया है कि शास्त्री जी की मां उनके कदमों की आहट से उनको पहचान लेती थीं और बडे प्यार से धीमी आवाज में कहती थीं, ‘‘नन्हें, तुम आ गये?’’ सुनील शास्त्री ने कहा कि आज की पीढी जहां अपने बुजुर्गो की उपेक्षा करती है और आमतौर पर बुजुर्गों की शिकायत रहती है कि उनकी संतान उनकी अवहेलना करती है वहीं शास्त्री जी अपनी सभी व्यस्तताओं के बावजूद मां की कभी अनदेखी नहीं करते थे। किताब के अनुसार शास्त्री जी ‘‘चाहे कितनी ही परेशानियों से लदे हुए आये हों, मां की आवाज सुनते ही उनके कदम उस कमरे की तरफ मुड़ जाते थे, जहां उनकी मां की खाट पड़ी थी।’’ पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि ‘‘सारी उलझनों के बावजूद वे पांच एक मिनट अपनी मां की खाट पर जा बैठते। मैं देखता, दादी का अपने बेटे के मुंह पर, सिर पर प्यार से हाथ फेरना और भारत के प्रधानमंत्री, हजार तरह की देशी, अंतरदेशी परेशानियों से जूझते जूझते अपनी मां के श्रीचरणों में स्नेहिल प्यार में लोट पोट।’’ एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी है कि 60 वर्ष या इससे ज्यादा की उम्र वाली आबादी के लगभग 31 प्रतिशत बुर्जुगों को अपने परिवार के सदस्यों की उपेक्षा, अपमान और गालीगलौज झेलना पड़ता है और पांच में से एक बुजुर्ग परिवार का साथ तलाश रहा है। पुस्तक के अनुसार शास्त्री जी की मां रामदुलारी 1966 में शास्त्री जी के निधन के बाद नौ माह तक जीवित रहीं और इस पूरे समय उनकी फोटो सामने रख उसी प्यार एवं स्नेह से उन्हें चूमती रहती थीं, मानों वह अपने बेटे को चूम रही हों। सुनील शास्त्री के अनुसार उनकी दादी कहती थीं ‘‘इस नन्हे ने जन्म से पहले नौ महीने पेट में आ बड़ी तकलीफ दी और नहीं जानती थी कि वह इस दुनिया से कूच कर मुझे नौ महीने फिर सतायेगा।’’ किताब के अनुसार शास्त्री जी के निधन के ठीक नौ माह बाद उनकी माता का निधन हो गया था। लेखक लिखते हैं, ‘‘दादी का प्राणांत बाबूजी के दिवंगत होने के ठीक नौ महीने बाद हुआ। पता नहीं कैसे दादी को मालूम था कि नौ महीने बाद ही उनकी मृत्यु होगी।’’ वर्ष 1965 भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद शास्त्री जी दोनों देशों में संधि के लिये बातचीत करने ताशकंद गये थे और वहीं 11 जनवरी 1966 को उनका निधन हो गया था।

Dark Saint Alaick
02-10-2012, 12:46 AM
जन्मदिन पर विशेष
‘गांधी सेवा संघ’ को अंग्रेज ही नहीं कांग्रेसी भी मानते थे चुनौती

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17629&stc=1&d=1349120674

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के रचनात्मक आंदोलन की प्रयोगशाला ‘गांधी सेवा संघ’ को जहां एक तरफ अंग्रेज अपने लिए खतरा मानते थे वहीं, दूसरी तरफ कांग्रेस के दिग्गज नेता भी इसे चुनौती मानने लगे थे। पुस्तक ‘गांधी सेवा संघ का इतिहास: अहिंसा के प्रयोग’ के मुताबिक, ‘अंग्रेजों की नजर में गांधी जी राजनीति छोड़ नहीं रहे थे बल्कि रचनात्मक कार्यों के सहारे लोकशक्ति इकट्ठा करके ब्रिटिश शासन के खिलाफ बड़ा खतरा बनने वाले थे। ... कालांतर में पंडित नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे कांग्रेस के अनेक शीर्षस्थ लोगों ने गांधी सेवा संघ को कांग्रेस के भीतर उभरती हुई एक बड़ी चुनौती मानने लगे थे, क्योंकि कांग्रेस को असली शक्ति गांधी से मिलती थी।’ यह पुस्तक बापू के जीवनकाल में उनके नाम पर स्थापित एकमात्र संगठन ‘गांधी सेवा संघ, सेवाग्राम (वर्धा)’ का ‘आधिकारिक इतिहास’ है। इसके लेखक अभय प्रताप है तथा कनकमल गांधी और पराग चोलकर ने इसका संपादन किया है। गांधी के अहिंसा केंद्रित रचनात्मक कार्यक्रम को लेकर जमनालाल बजाज ने 1923 में जेल रहते हुए ‘गांधी सेवा संघ’ की स्थापना की थी। 1934 के बाद परोक्ष रूप से गांधीजी ही इसके संचालक की भूमिका में थे। हालांकि, संस्था के नाम में ‘गांधी’ शब्द और ‘गांधीवाद’ पर अनेक बार बापू ने तीखी टिप्पणी की थी, लेकिन उन्हें चाहने वालों सहित इसके संचालक काका कालेलकर ने संस्था से उनका नाम नहीं हटा दिया था। पुस्तक के मुताबिक, ‘कांग्रेस में दो गुट अपरिवर्तनवादी और परिवर्तनवादी थे। ... 1933-34 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के शिथिल पड़ते ही गांधी को यह महसूस होने लगा कि अहिंसा के रास्ते स्वराज्य प्राप्ति की योजना कांग्रेस में रहते सफल नहीं होने वाली। अत: 1934 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का फैसला लिया। उन्होंने संघ के वार्षिक अधिवेशनों की योजना बनायी। इसका विधान परिवर्तन कराया और इसमें नयी जान फूंकने में लग गये थे।’ किताब के मुताबिक, ‘गांधीजी को यह विश्वास था कि परिवर्तनवादियों के रास्ते जो स्वराज्य आयेगा वह पूर्ण स्वराज्य नहीं होगा। ... राजनीतिक स्वतंत्रता मिल जाने के बाद भी परिवर्ती सरकारें उस मार्ग पर आगे बढती रहीं। परिवर्तनवादियों की राह पर चलता हुआ देश 1991 के बाद पुन: परावलंबन की दौड़ में शामिल हो गया और पुन: देश में गुलामी के लक्षण परिलक्षित होने लगे हैं।’ पुस्तक के अनुसार, 1934 में बापू ‘गांधी सेवा संघ’ की ओर से बड़ी प्रयोगशाला बनाने की जरूरत महसूस कर रहे थे ताकि भारतीय ग्रामीण परिवेश के अनुकूल एवं भारतीय समाज की दैनिक जरूरतों के अनुरूप तमाम वस्तुओं, उत्पादों के प्रयोग एवं परीक्षण कराए जा सकें। इसमें कहा गया है, ‘वे (बापू) भारतीय विज्ञान एवं तकनीक को पश्चिम की छाया से मुक्त कराना चाहते थे तथा अपने लिए ज्यादा से ज्यादा उपयोगी बनाना चाहते थे। ऐसी प्रयोगशाला की जरूरत बाजारवाद के बढते दौर में 1934 की तुलना में कई गुना बढ गई। अब ऐसी प्रयोगशाला किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं बल्कि देश की 90 फीसदी जनता के काम की है।’ पुस्तक के अनुसार, ‘स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस मार्ग पर चलने वाले सेनानियों का बोलबाला रहा है। वर्ष 1947 में देश को जो राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई उसमें भी गांधी द्वारा बताए गए रास्ते की अपेक्षा परिवर्तनवादियों द्वारा कल्पित मार्ग की भूमिका ही मुख्य रही।’

Dark Saint Alaick
02-10-2012, 12:50 AM
फिल्मों में हमेशा सफल रहे हैं ‘बापू’ के किरदार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17630&stc=1&d=1349120995

देश को अंग्रजों की गुलामी से आजादी दिलाने में अहम भूमिका निभाने वाले बापू का करिश्मा सेल्युलाइड पर भी कम नहीं रहा और उन पर बनी फिल्में विवादों में घिरने के बावजदू लोगों को हमेशा पसंद आई हैं। मोहनदास करमचंद गांधी.... इस नाम पर बॉलीवुड ने जब भी भरोसा किया, उसका भरोसा कायम रहा। फिल्म समीक्षक चैताली नोन्हारे ने कहा, ‘रिचर्ड एटनबरो की 1982 में आई ‘गांधी’ में बापू बने बेन किंग्सले को आजादी के आंदोलन की पृष्ठभूमि में भारतीयों में स्वराज की भावना जगाते हुए दर्शकों ने खूब सराहा। आलोचकों ने इस फिल्म को बापू का ‘सर्वश्रेष्ठ आत्मकथ्य चित्रण’ करार दिया। दरअसल बापू का व्यक्तित्व ही ऐसा है जिसे लेकर हमेशा उत्सुकता बनी रहती है।’ ‘बापू’ की शूटिंग भारत में हुई और अंग्रेजी भाषा की इस फिल्म में अमरीश पुरी, ओम पुरी, सईद जाफरी, रोहिणी हट्टंगड़ी ने भी काम किया। लेकिन मुख्य भूमिका में बापू बने बेन किंग्सले कहीं से भी विदेश नहीं लगे। फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध मिश्र ने कहा, ‘श्याम बेनेगल ने बापू पर अंग्रेजी में ‘द मेकिंग आॅफ महात्मा’ और हिन्दी में ‘गांधी से महात्मा तक’ बनाई और दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास करमचंद गांधी नामक एक बैरिस्टर के महात्मा बनने तक के सफर को रजित कपूर ने बहुत अच्छी तरह पर्दे पर निभाया। बापू का किरदार निभाते समय बहुत छोटी छोटी बातों को लेकर सतर्क रहना पड़ता है जिसमें रजित कपूर ने न्याय किया।’ जब्बार पटेल द्वारा लिखी गई बाबासाहेब अंबेडकर की जीवनी पर 2000 में बनी फिल्म में पहली बार बापू को नकारात्मक भूमिका में दिखाया गया और यह भूमिका मोहन गोखले ने निभाई। फिल्म में दक्षिण भारतीय अभिनेता ममूटी ने अंबेडकर का रोल निभाया और दर्शकों ने उनके साथ साथ गोखले के अभिनय को भी पसंद किया। कमल हासन की ‘हे राम’ में मोहन गोखले फिर बापू बने। लेकिन उनके आकस्मिक निधन के कारण यह भूमिका नसीरूद्दीन शाह को मिली जिन्होंने बापू को गुजराती लहजे वाला और उनकी बॉडी लैंग्वेज को भी गुजराती पुट लिए दिखाया। ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में दिलीप प्रभावलकर बापू बने और मुन्ना भाई को गांधीगीरी का पाठ पढाया। इस मराठी कलाकार को स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में नहीं बल्कि समकालीन व्यवस्था में बापू के उपदेशों का प्रभाव बताना था और इस चुनौती पर वह खरे उतरे। अनिल कपूर की ‘गांधी माई फादर’ में दर्शन जरीवाला बापू बने। यह फिल्म बापू के राजनीतिक और सामाजिक जीवन पर कम बल्कि निजी जीवन पर अधिक केंद्रित थी। इसमें गांधी और उनके पुत्र हरिलाल के तनावपूर्ण रिश्तों को दिखाया गया था। वीर सावरकर, भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस पर बनी फिल्मों में सुन्दर राजन ने बापू का संक्षिप्त किरदार निभाया।

Dark Saint Alaick
02-10-2012, 12:54 AM
गांधी के सपने को पूरा करने की क्षमता है इंटरनेट में : सुधींद्र कुलकर्णी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17631&stc=1&d=1349121230

महात्मा गांधी के सिद्धांतों को इंटरनेट से जोड़ते हुए भाजपा नेता सुधींद्र कुलकर्णी ने कहा कि गांधी के दर्शन को इंटरनेट के युग में एक शांतिपूर्ण और न्याय वाली दुनिया बनाने के शक्तिशाली साधन के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। कुलकर्णी ने अपनी पुस्तक ‘म्यूजिक आफ द स्पिनिंग व्हील : महात्मा गांधीज मैनिफेस्टो फॉर द इंटरनेट एज’ में लिखे अपने विचारों की व्याख्या करते हुए कहा कि वह महात्मा गांधी के जीवन से प्रभावित हुए हैं और इंटरनेट को लेकर अनेक अध्ययनों के चलते उन्होंनें पुस्तक में ‘इंटरनेट सत्याग्रह’ शब्द का इस्तेमाल किया। कुलकर्णी ने पीटीआई को दिये साक्षात्कार में कहा, ‘‘यह उन सभी पाठकों के लिए है जो इंटरनेट सत्याग्रही बनने के लिए एक तरफ इंटरनेट की शक्ति और दूसरी तरफ महात्मा गांधी के सिद्धांतों को मानते हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘महात्मा गांधी का चरखा केवल एक यंत्र नहीं बल्कि अहिंसा, न्याय, प्रकृति का सम्मान, समान और सतत सामाजिक..आर्थिक विकास जैसे विचारों को जन्म देने वाली जीवन की मशीन भी है और इंटरनेट को लेकर मेरे अध्ययन ने मुझे इस ओर प्रेरित किया कि इंटरनेट ने वैश्विक ग्राम में एक समुदाय के तौर पर रहने के लिए दुनिया को एकजुट किया है।’’ लेखक का कहना है कि ‘सत्याग्रह’, ‘स्वराज’ और ‘स्वदेशी’ गांधीवादी विचारधारा के तीन स्तंभ हैं और इन्हें इंटरनेट से जोड़कर पूरी धरती को लाभान्वित किया जा सकता है। वर्ल्ड वाइड वेब (डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू) को सामूहिक निर्माण का साधन बताते हुए कुलकर्णी ने कहा कि इंटरनेट ने तेजी से दुनिया के रचनात्मक संसाधनों में बढोतरी की है और महात्मा गांधी ने भी विश्वग्राम के निर्माण के लिए ऐसी संकल्पना की थी। उन्होंने कहा, ‘मेरा पुरजोर विश्वास है कि इंटरनेट के कारण ‘ग्लोबलाइजेशन’ को ‘ग्लोकलाइजेशन’ में बदला जा रहा है जो ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ के बीच का उचित संतुलन है।’ फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क का उदाहरण देते हुए कुलकर्णी ने मनुष्य के बीच सीधे संवाद की अहमियत पर भी जोर दिया है। लेखक ने अपनी किताब में इस धारणा को भी दूर करने का प्रयास किया है गांधी प्रौद्योगिकी के खिलाफ थे। उन्होंने कहा, ‘विज्ञान और आध्यात्मिकता उनके लिए एक सिक्के के दो पहलू थे। महात्मा रूमानी वैज्ञानिक थे।’

Dark Saint Alaick
08-10-2012, 05:15 AM
आठ अक्तूबर को जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि पर
समर्पित लोकनायक के रूप में देश की दिशा तय की थी जेपी ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17748&stc=1&d=1349655325

देश में आजादी की लडाई से लेकर वर्ष 1977 तक तमाम आंदोलनों की मशाल थामने वाले जयप्रकाश नारायण का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरता है जिन्होने अपने विचारों, दर्शन तथा व्यक्तित्व से देश की दिशा तय की थी । उनका नाम लेते ही एक साथ उनके बारे में लोगों के मन में कई छवियां उभरती हैं। लोकनायक के शब्द को असलियत में चरितार्थ करने वाले जयप्रकाश नारायण अत्यंत समर्पित जननायक और मानवतावादी चिंतक तो थे ही इसके साथ साथ उनकी छवि अत्यंत शालीन और मर्यादित सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति की भी है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार ने बातचीत में बताया, ‘मैं उनका तीसरी पीढी का अनुयायी था। पितामह, पिता और स्वयं के संबंधों के प्रकाश में यह भी स्पष्ट याद आता है कि वह अपने मित्रों तथा सहयोगियों के प्रति अत्यंत प्रेममयी संबंध रखने वाले असाधारण नेता थे।’ उन्होंने जयप्रकाश को याद करते हुये कहा ‘‘उनको आप सभी दृष्टियों में एक अजातशत्रु, महामानव की परंपरा का श्रेष्ठ प्रतीक कह सकते हैं।’ जय प्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्तूबर 1902 को बिहार के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र में आने वाले ‘लाला का टोला’ में हुआ था । आज के समय में जय प्रकाश नारायण की प्रासंगिकता के बारे में पूछे गये सवाल के जबाव में वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने कहा कि वह आज के समय में पहले से ज्यादा प्रासंगिक हैं। उन्होंने बताया, ‘जयप्रकाश नारायण ने जो सवाल उठाया था उसका जवाब उनके जीवन काल में नहीं मिल पाया । वह समस्या आज पहले से भी ज्यादा विकराल रूप में यथावत है और उससे निपटने का आंदोलन ही एकमात्र रास्ता है। जयप्रकाश हमेशा चुनाव सुधार की बात करते थे और इसमें कम खर्च करने पर जोर देते थे।’
रामबहादुर राय ने कहा कि वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में 100 करोड़ रूपये खर्च होने पर जयप्रकाश नारायण ने अफसोस जताया था लेकिन आज के समय में किसी एक लोकसभा क्षेत्र में इससे कहीं ज्यादा धन खर्च हो जाता है। ऐसे में सुधार को लेकर आज उनकी प्रासंगिकता कहीं अधिक बढ़ जाती है। जयप्रकाश नारायण को वर्ष 1977 में हुए ‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन’ के लिए जाना जाता है लेकिन वह इससे पहले भी कई आंदोलनों में शामिल रहे थे। उन्होंने कांग्रेस के अंदर सोशलिस्ट पार्टी योजना बनायी थी और कांग्रेस को सोशलिस्ट पार्टी का स्वरूप देने के लिए आंदोलन शुरू किया था। इतना ही नहीं जेल से भाग कर नेपाल में रहने के दौरान उन्होंने सशस्त्र क्रांति शुरू की थी। इसके अलावा वह किसान आंदोलन, भूदान आंदोलन, छात्र आंदोलन और सर्वोदय आंदोलन सहित छोटे-बड़े कई आंदोलनों में शामिल रहे और उन्हें अपना समर्थन देते रहे। रामबहादुर राय ने बताया कि जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन का उद्देश्य सिर्फ इंदिरा गांधी की सरकार को हटाना और जनता पार्टी की सरकार को लाना नहीं था, उनका उद्देश्य राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव लाना था। उन्होंने बताया कि जयप्रकाश के जीवन काल में सिर्फ एक राज्य सरकार ऐसी थी जिसने उनके सपनों को साकार करने के लिए कुछ प्रयास किया। राजस्थान में तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत ने ‘अंत्योदय कार्यक्रम’ चलाया था। जयप्रकाश नारायण का 76 साल की उम्र में आठ अक्तूबर 1979 को पटना में निधन हो गया था।

Dark Saint Alaick
08-10-2012, 05:22 AM
आठ अक्तूबर को पुण्यतिथि पर विशेष
समस्याओं के साथ-साथ समाधान सुझाने वाले लोकप्रिय साहित्यकार थे प्रेमचंद

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17750&stc=1&d=1349655765

उपन्यास सम्राट के तौर पर विख्यात प्रेमचंद आज भी सर्वाधिक पढे जाने वाले हिंदी के साहित्यकार हैं। इतने लंबे समय तक लोगों के बीच लोकप्रियता का कारण साहित्य जगत से जुड़े लोग उनकी रचनाओं की खूबियों को बताते हैं। गोदान जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले रचनाकार के बारे में साहित्यकार सुधीश पचौरी ने कहा, ‘वाकई प्रेमचंद आज भी हिंदी के सबसे लोकप्रिय साहित्यकार हैं। ऐसा यूं ही नहीं है। वह अपनी रचनाओं में सिर्फ समस्याओं को उभारने का काम नहीं करते बल्कि उनसे कैसे निपटा जाए उसे भी बखूबी बताते हैं। वह भावनाओं को सींचने वाले साहित्यकार थे। यही बात उन्हें भरोसेमंद बनाती है।’ उन्होंने कहा, ‘‘वह साहित्य में सिर्फ संघर्ष की बात नहीं करते बल्कि सृजनात्मकता और सौहार्द पर भी जोर देते हैं।’ प्रख्यात साहित्यकार और प्रेमचंद द्वारा शुरु की गई पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव ने कहा, ‘प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में जिन समस्याओं और चुनौतियों को उभारा है, वह आज भी मौजूद हैं। चाहे आम व्यक्ति की दीनहीन दशा हो अथवा दूसरी परिस्थितियां। यही वजह है कि वह आज भी सामयिक बने हुए हैं।’ साहित्यकार निर्मल वर्मा ने भी कहा है कि प्रेमचंद की कहानियां आज भी इसलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि उन्होंने भावी परिस्थितियों को एक संदर्भ के रूप में लिया था। पचौरी ने कहा, ‘आज के साहित्यकार संघर्ष और समस्याओं की बात तो करते हैं, लेकिन उनका समाधान क्या और कैसे होगा, वह नहीं बता पाते। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में समस्याओं के साथ-साथ उम्दा समाधान भी बताते हैं। आज भी उनकी कहानियों को पढ़ने के बाद लोग आस्था बनाए रखते हैं।’
जुलाई 1880 में वाराणसी के निकट लमही गांव में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था। उनका मानना था कि व्यक्ति बुरा नहीं होता बल्कि परिस्थितियां उसे बुरा बना देती हैं। यूं तो प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का प्रारंभ 1909 में ही हो चुका था पर उनकी पहली हिंदी कहानी ‘सरस्वती पत्रिका’ में 1915 में ‘सौत’ नाम से प्रकशित हुई थीं। आगे वह कहानी और उपन्यास की विषयवस्तु में मूलभूत परिवर्तन करते हैं और काल्पनिक तथा एय्यारी रचनाओं की जगह यथार्थवाद को अपनी रचना के केंद्र में रखते हैं। प्रेमचंद ने भारतीय समाज में मौजूद लगभग सभी समस्याओं और कुरीतियों पर बखूबी लिखा है। राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में समेटा और खास करके एक आम आदमी को, एक किसान को और दलित वर्ग के लोगों को ... वह अपने आप मिसाल है। उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, कर्मभूमि और गोदान जैसे चर्चित उपन्यासों की रचना की। उनकी कहानियों में ईदगाह, बड़े भाई साहब, पूस की रात, कफन, दूध का दाम आदि उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा उन्होंने नाटक और अनुवाद का काम भी बखूबी किया। उनकी अनेक रचनाओं का अंग्रेजी, चीनी, रूसी समेत अनेक विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया। प्रेमचंद मात्र 56 वर्ष की आयु में आठ अक्तूबर 1936 को इस दुनिया से विदा हो गए।

Dark Saint Alaick
08-10-2012, 05:27 AM
आठ अक्तूबर को भारतीय वायुसेना दिवस पर विशेष
भारतीय वायुसेना : आसमां से आए मददगार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17751&stc=1&d=1349656007

असम की बाढ में बहने वाली जिंदगियों और सिक्किम के भूकंप के बाद रूकने वाली सांसों की गिनती कुछ और ज्यादा हो सकती थी, अगर समय रहते भारतीय वायुसेना के जांबाज इन दुर्गम इलाकों में राहत और बचाव का काम न शुरू करते। दक्षिण भारत में आई सुनामी हो या गुजरात का भूकंप, उत्तराखंड में बादल से बरसा वो कहर हो या जम्मू कश्मीर में आया बर्फीला सैलाब... इन सभी आपदाओं में भारतीय वायुसेना ने हमेशा आगे बढकर खोज, बचाव और राहत कार्यों के मोर्चे को बखूबी संभाला है। आसमां में उंचाइयां नापने वाली भारतीय वायुसेना में जमीनी जिंदगियां बचाने का यह जज्बा सिर्फ इंसानों तक ही सीमित नहीं है। पिछले रविवार से असम में ब्रहमपुत्र की बाढ में बहकर कीचड़ से भरी दुर्गम जगह पर फंसे एक गैंडे को बचाने के लिए भी वायुसेना के जवान लगातार कोशिश में जुटे हैं। किसी आपदा के समय वायुसेना की मदद की सिफारिश राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण या राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की ओर से रक्षा मंत्रालय में आती है। आपदा प्रबंधन और बचाव कार्यों में वायुसेना की भूमिका की सराहना करते हुए राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल के उप महानिरीक्षक जेकेएस रावत कहते हैं, ‘किसी आपदा में राहत या बचाव कार्य के लिए जब भी वायुसेना से सहयोग मांगा है कभी इंकार या देरी जैसी चीज देखने को नहीं मिली। खराब मौसम या दुर्गम इलाकों के बावजूद वायुसेना ने हमारा साथ दिया है। वायुसेना के जवानों का हौंसला वाकई काबिलएतारीफ है।’
भारतीय वायुसेना का काम देश की वायुसीमाओं की सुरक्षा और अन्य रक्षा बलों को सहयोग देना तो है ही लेकिन आपदा के समय ये विभिन्न संस्थाओं के साथ तालमेल बैठाकर दुर्गम इलाकों में तुरंत राहत पहुंचाने में एक अहम भूमिका भी निभाती है। भारतीय वायुसेना के एक अधिकारी ने बताया, ‘किसी भी आपदा की स्थिति में मदद की मांग किए जाने पर वायुसेना पूरे साजो सामान के साथ जुट जाती है। विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य के साथ जुटे रहना भारतीय वायुसेना के जवान अच्छी तरह जानते हैं।’ आपदा के दौरान हुई क्षति और मौजूदा स्थिति को देखते हुए ही वायुसेना अपनी योजना तैयार करती है। उसका उद्देश्य होता है कि किसी हादसे में होने वाले नुकसान को कम से कम किया जा सके। राहत कार्यों में इस्तेमाल किए जाने वाले विमानों की भी प्रकृति अलग-अलग अभियानों में अलग-अलग हो सकती है। किसी इलाके में भोजन और अन्य राहत सामग्री गिराने के लिए जहां हेलीकॉप्टरों का प्रयोग किया जाता है, वहीं बहुत से लोगों को किसी स्थान से सुरक्षित निकालने या चिकित्सीय सुविधाएं पहुंचाने के लिए कुछ बड़े विमानों का भी इस्तेमाल किया जाता है।
ऐसा नहीं है कि वायुसेना में जवानों को सिर्फ लड़ाकू विमान उड़ाना और हवाई हमले करना ही सिखाया जाता है। यहां पर उन्हें विभिन्न प्राकृतिक या मानवीय आपदाओं के दौरान राहत पहुंचाने का भी बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। किसी भी स्थिति में हार न मानने की कसम खाकर निकले ये जवान अक्सर विपरीत परिस्थितियों को भी अपने हिसाब से ढाल लेते हैं। एक ऐसा वाकया बीते महीने असम और अरूणाचल प्रदेश में आई बाढ का ही है, जब भारी बारिश में पूरा हैलीपैड बह जाने पर वायुसेना के जवानों ने असम के तिनसुकिया में राष्ट्रीय राजमार्ग बाईपास पर एक अस्थायी हैलीपैड का निर्माण कर लिया ताकि राहत कार्यों में बाधा न आए। आसमान में उड़ान भरने वाले इन जाबांज परिंदों की जमीनी जिंदगी बचाने में एक अहम भूमिका वाकई सराहनीय है।

Dark Saint Alaick
09-10-2012, 10:34 PM
नौ अक्तूबर को अग्नि रोकथाम दिवस पर विशेष
मामूली सी सतर्कता से नहीं लगेगी आग, बचेंगी हजारों जिंदगियां

उपहार अग्निकांड, कुंभकोणम हादसा और कलकत्ता की एमआरआई अस्पताल की घटनायें अगर सुनने में दिल दहला सकती हैं तो जरा कल्पना कीजिये उन पर क्या गुजरी होगी जिनके इन अग्निकांडों से मिले जख्म आज तक नहीं भरे । दिल्ली अग्निशमन सेवा के निदेशक ए के शर्मा ने बताया कि अग्निकांड के ज्यादातर मामलों के पीछे लापरवाही होती है । चाहे घर हो, स्कूल या अस्पताल बस छोटी छोटी चीजों का ध्यान रखने और आग से बचाव के उपकरणों के उचित रखरखाव से हजारों लोगों की जिंदगियां बच सकती हैं । शर्मा ने कहा, ‘‘कोलकाता के आमरी अस्पताल अग्निकांड के बाद दिल्ली के सभी अस्पतालों की आडिट की गई जिसमें पाया गया कि सभी सरकारी अस्पतालों में आग से बचाव के इंतजाम हैं लेकिन उनका रखरखाव सही नहीं है । इसकी तुलना में निजी बड़े अस्पतालों में आग से बचाव की बेहतरीन व्यवस्था की गई है ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘सरकारी अस्पतालों में रखरखाव के संबंध में हमने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है और सरकार इस पर कार्रवाई कर रही है।’’ उल्लेखनीय है कि दिल्ली में करीब 883 चिकित्सा संस्थान हैं जिनमें 752 निजी क्षेत्र में हैं जबकि 131 सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के हैं ।
शर्मा ने कहा कि राजधानी में करीब छह से सात हजार स्कूल हैं, जिनमें से 2500 को अग्नि से बचाव के प्रमाण पत्र दिये जा चुके हैं । उन्होंने कहा कि 4500 स्कूलों के आवेदन प्रमाण पत्र के लिए आये हैं। इनमें सरकारी, एनडीएमसी, एमसीडी और निजी क्षेत्र के स्कूल शामिल हैं । उन्होंने बताया कि करीब पांच साल पहले स्कूलों में सुरक्षा मानकों पर कोई ध्यान नहीं देता था, लेकिन उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर अग्नि से सुरक्षा के मानक बनाये गये । शर्मा ने कहा कि आज करीब 60 फीसद स्कूलों में आग से बचाव के इंतजाम हैं । शर्मा ने कहा कि दिल्ली में आज लगभग सभी इमारतों में आग से बचाव के इंतजाम किये गये हैं । अब किसी भी नयी इमारत को बिना अग्नि सुरक्षा इंतजाम के अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं दिया जाता है । उन्होंने कहा कि ये इमारतें शुरू में तो आग से बचाव के इंतजाम कर लेती हैं लेकिन बाद मेें इसका रखरखाव नहीं किया जाता, जिससे आग लगने पर उपकरण काम नहीं करते। शर्मा ने कहा कि घर पर समय समय पर गैस चूल्हों, बिजली के उपकरणों की रखरखाव से आग से बचा जा सकता है । शर्मा ने कहा कि आग से बचाव के लिये हम समय समय पर जन जागरूकता अभियान चलाते हैं । इसके तहत अखबारों, रेडियो और टीवी पर विज्ञापन दिया जाता है । दीवाली से पहले हम अपने अभियान को और तेज करेंगे और लोगों विशेषकर बच्चों को सुरक्षित तरीके से पटाखे जलाने का तरीका बतायेंगे । उल्लेखनीय है कि अमेरिका में वर्ष 1925 से हर साल नौ अक्तूबर से अग्नि रोकथाम दिवस सप्ताह मनाया जाता है । इस दौरान लोगों को आग से बचाव के उपाय बताये जाते हैं ।

Dark Saint Alaick
10-10-2012, 12:47 AM
शहादत के 45 वर्ष
चे ग्वेवारा, जिसने डाक्टरी का पेशा छोड़ क्रांति का साथ लिया

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17774&stc=1&d=1349812051

साम्राज्यवाद के खिलाफ् प्रतिरोध की जीवंत तस्वीर बनकर उभरने वाले क्रांतिकारी चे ग्वेवारा अपनी शहादत के 45 वर्ष बाद आज जहां दुनियाभर के युवाओं के बीच फ्शैन स्टेटमेंट के रूप में लोकप्रिय हो गये हैं वहं बहुत कम लोग ही जानते हैं कि डाक्टरी की पढाई करने के बावजूद उन्होंने डाक्टरी का पेशा नहीं चुनकर लातिन अमेरिकी देशों में क्रांति का परचम बुलंद किया। विश्वभर में टीशर्टों, झंडों, टोपियों, कपों इत्यादि पर छपकर जनमानस के बीच ग्वेवारा की लोकप्रियता की शुरुआत 09 अक्टूबर 1967 को बोलीविया के जंगलों में वहां की सेना द्वारा उनकी हत्या किये जाने के बाद से हुई। वह अपने जीवित रहते जो प्रसिद्धि हासिल नहीं कर पाये वह 39 वर्ष की उम्र में मिली शहादत के बाद उन्हें हासिल हुई। चे ग्वेवारा का जन्म 14 मई ।928 को अर्जेंटीना में हुआ था। उन्होंने 20 वर्ष की उम्र में ब्यूनस आयर्स विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान की पढाई करने के लिये दाखिला लिया और इसके तीन वर्ष बाद ही अपने चिकित्सक मित्र अल्बर्तो ग्रानादो के साथ एक मोटरसाइकिल पर बैठकर पूरे लातिन अमेरिका की सैर पर निकल पडे। इस यात्रा के दौरान ग्वेवारा को लातिन अमेरिकी महाद्वीप के अवाम को करीब से जानने का मौका मिला और नौ महीने बाद यात्रा का अंत होते होते उन्होंने तय कर लिया था कि इस क्षेत्र के अवाम के कष्टों का कारण साम्राज्यवाद ही है और इससे उन्हें मुक्ति दिलाने के लिये ग्वेवारा क्रांति की राह पर चल निकले। ग्वेवारा के पूरे जीवन को बदलकर रख देने वाली यह यात्रा बाद में उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'मोटरसाइकिल डायरीज' का आधार भी बनी। ग्वेवारा का जहां वर्ष 1953 से 1959 तक चली क्यूबा की क्रांति में बेहद अहम योगदान रहा वहीं विश्वभर के देशों में फ्लैी गरीबी और भूख भी उन्हें हमेशा विचलित करती रही। चे की पहली पत्नी हिल्दा गादेआ लिखती हैं कि एक बार एक बुजुर्ग महिला का उपचार करते समय वह इतने व्यथित हो गये कि उन्होंने उस महिला पर एक कविता लिखी जिसमें सभी गरीबों और पिछडों के लिये एक बेहतर दुनिया बनाने की बात कही गयी थी। ग्वेवारा की वर्ष 1959 में हुई भारत यात्रा से भारत.क्यूबा मैत्री की नींव पडी थी। वह उस समय ब्रिटिश युग को पीछे पीछे छोडकर नई नई विकसित हो रही राजधानी दिल्ली के अशोक होटल में ठहरे थे। भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू काफी पुराने समय से ही उनके आदर्श रहे थे और दोनों के बीच हुई मुलाकात का चे ने कुछ यूं जिक्र किया, नेहरू जी ने एक संयुक्त परिवार के दादाजान जैसा व्यक्तित्व रखते थे और उन्होंने बेहद ह्नरेम के साथ हमारा स्वागत तो किया ही बल्कि क्यूबाई अवाम के संघर्षों के प्रति भी गहरा उत्साह प्रदर्शित किया। इस यात्रा के बाद भारत की मौजूदा दशा पर लिखते हुये ग्वेवारा ने कहा था, हमारे दोनों देशों का अतीत एक जैसा रहा था, दोनो ही उपनिवेशवाद में जकडे रहे थे। हालांकि स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारा लक्ष्य एक होते हुये भी तौरतरीके उतने ही भिन्न हैं जितने दिन और रात। हमारे देश में जहां व्यापक कृषि सुधारों के तहत जमीन को मुफ्त ही किसानों को दिया जा रहा है, वहीं भारत इस मुद्दे पर संभल संभल कर आगे बढ रहा है और बडे जमींदारों को न्याय की परिभाषा समझाने का प्रयत्न कर रहा है। चे ने कहा था, भारत एक अनोखा देश है, जहां गरीबी तथा बेहद उन्नत जीवन साथ साथ चलते हैं, जहां महिलाओं का सामाजिक संरचना में तो महत्वपूर्ण योगदान है ही, साथ ही वे राजनीति में भी अच्छा हस्तक्षेप रखती हैं। यहां के लोग युद्ध शब्द के जैसे मायने ही नहीं जानते और यही कारण था कि इनकी स्वतंत्रता की लडाई पर अहिंसा का गहरा प्रभाव पडा।

Dark Saint Alaick
10-10-2012, 01:37 AM
गुरूदत्त की पुण्यतिथि 10 अक्तूबर पर
फिजा में आज भी महकती है 'कागज के फूल' की खूशबू

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17775&stc=1&d=1349815053

नौ अक्टूबर 1964 के दिन अपनी फिल्म 'बहारें फिर भी आएंगी' की शूटिंग के दौरान गुरूदत्त काफी थक से गये थे। उन्होंने अत्यधिक शराब भी पी रखी थी। उन्होंने उस समय फिल्म के कहानीकार अबरार अल्वी से कहा था, मैं काफी थक गया हूं और अब सोना चाहता हूं। तुम काम जारी रखो ... तब यह किसी ने नही सोंचा था कि उनके ये शब्द उनके जीवन के आखिरी शब्द साबित होंगे। इसके ठीक अगले दिन 10 अक्टूबर 1964 को वह इस दुनिया को अलविदा कह गये। बसंत कुमार उर्फ गुरूदत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को कर्नाटक के धारवाड़ में एक मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता शिवशंकर पादुकोण एक स्कूल में प्रधानाध्यापक थे, जबकि मां स्कूल में शिक्षिका थी। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा कलकत्ता में प्राप्त की। परिवार की आर्थिक स्थित खराब होने की वजह से गुरूदत्त को मैट्रिक के बाद पढाई छोड देनी पडी। बचपन से ही गुरूदत्त का रूझान नृत्य और संगीत की ओर था। इसी शौक को पूरा करने के लिये उन्होंने अपने चाचा की मदद से पांच वर्ष की स्कालरसिप हासिल की और अल्मोडा स्थित उदय शंकर इडिया कल्चर सेंटर में दाखिला ले लिया, जहां वह उस्ताद उदय शंकर से नृत्य सीखा करते थे। इस बीच गुरूदत्त ने बतौर टेलीफोन आपरेटर एक मिल में काम भी किया।
उदय शंकर से पांच वर्ष तक नृत्य सीखने के बाद गुरूदत्त पुणे के प्रभात स्टूडियो में तीन वर्ष के अनुबंध पर बतौर नृत्य निर्देशक काम करने लगे। वर्ष 1946 में गुरूदत्त ने प्रभात स्टूडियो की निर्मित फिल्म 'हम एक हैं' से बतौर कोरियोग्राफर अपने सिने कैरियर की शुरूआत की, लेकिन इस फिल्म के असफल होने से वह दर्शकों के बीच अपनी पहचान नहीं बना सके। इस फिल्म के निर्माण के दौरान उनकी मुलाकात अभिनेता देव आनंद से हुई। इसे महज एक संयोग ही कहा जायेगा कि इसी फिल्म से देव आनंद ने भी बतौर अभिनेता अपने सिने कैरियर की शुरूआत की थी। प्रभात स्टूडियो के साथ किये गये अनुबंध की समाप्ति के बाद गुरूदत्त अपने घर मांटूगा लौट आए। इस दौरान वह छोटी छोटी कहानियां लिखने लगे जिन्हें छपने के लिये वह प्रकाशकों के पास भेज दिया करते थे। इस दौरान उन्होंने 'प्यासा' की कहानी लिखी जिस पर बाद में फिल्म भी बनाई। वर्ष 1950 में अपनी पहली फिल्म 'अफसर' की नाकामी के बाद देव आनंद का ध्यान गुरूदत्त को किए वादे की तरफ गया। उन्होंने अपनी अगली फिल्म 'बाजी' के निर्देशन की जिम्मेदारी गुरूदत्त को सौंप दी। फिल्म 'बाजी' की सफलता के बाद गुरूदत्त निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फिल्म के एक गाने 'तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले' की रिकार्डिग के दौरान उनकी मुलाकात फिल्म की अभिनेत्री और गायिका गीता राय से हुई। इसके बाद उनका झुकाव गीता राय की ओर हो गया और वर्ष 1953 मे गुरूदत्त ने गीता राय से शादी कर ली। गीता राय अब गीता दत्त बन गईं। वर्ष 1952 में अभिनेत्री गीताबाली की बड़ी बहन हरिदर्शन कौर के साथ मिलकर गुरूदत्त ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया, लेकिन वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म 'बाज' की नाकामयाबी के बाद गुरूदत्त ने अपने आपको हरिदर्शन कौर के बैनर से अलग कर लिया। इसके बाद उन्होंने अपनी फिल्म कंपनी और स्टूडियो की स्थापना कर दी।
गुरूदत्त ने वर्ष ।954 अपने बैनर की पहली फिल्म आर पार का निर्माण किया। इस फिल्म की कामयाबी के बाद गुरूदत्त ने बाद में सी.आई.डी (1956), प्यासा (1957), कागज के फूल (1959), चौदहवीं का चांद (1960) और साहब बीबी और गुलाम (1962) जैसी कई फिल्मो का निर्माण किया। वर्ष 1954 मे प्रदर्शित फिल्म 'आरपार' की कामयाबी के बाद गुरूदत्त की गिनती अच्छे निर्देशको मे होने लगी। इसके बाद उन्होंने 'प्यासा' और 'मिस्टर एंड मिसेज 55 ' जैसी अच्छी फ़िल्में बनाईं । वर्ष 1959 गुरूदत्त के सिने कैरियर का अहम वर्ष साबित हुआ। इसी वर्ष उन्होंने भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म 'कागज के फूल' का निर्माण किया। हांलाकि फिल्म से उन्हें काफी उम्मीदे थी, लेकिन अच्छी कहानी पटकथा के बावजूद फिल्म फ्लाप हो गयी। फिल्म की असफलता के बाद गुरूदत्त ने निर्णय लिया कि भविष्य में वह किसी और फिल्म का निर्देशन नहीं करेगें। बाद मे उन्होंने फिल्म 'साहिब बीबी और गुलाम' का निर्माण किया। ऐसा माना जाता है कि फिल्म 'साहिब बीबी और गुलाम' हालांकि गुरूदत्त ने ही बनायी थी लेकिन गुरूदत्त ने इसका क्रेडिट फिल्म के कथाकार अबरार अल्वी को दिया। इस फिल्म को 'प्रेसिडेंट सिल्वर मेडल' दिया गया। बंगाल जर्नलिस्ट्स एसोशियन की ओर से इस फिल्म को उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी दिया गया। इसके साथ हीं जहां यह फिल्म बर्लिन फिल्म फेस्टिबल में दिखायी गयी, वहीं इसे भारत की ओर से आस्कर के लिये आधिकारिक प्रविष्टि भी बनाया गया। इन सबके साथ ही 'साहिब बीबी और गुलाम' सर्वश्रेष्ठ फिल्म और निर्देशन के फिल्म फेयर अवार्ड से भी नवाजी गई। गुरूदत्त ने अपने सिने कैरियर में कभी हिट या फ्लाप फिल्मों की परवाह नहीं की। वह अच्छी फिल्में बनाने में यकीन रखते थे। फिल्म 'कागज के फूल' की नाकामी के बाद जब सभी ने यह कहा कि वह अब चुक गए हैं । उन्होंने बाद में फिल्म 'चौदहवी का चांद' जैसी सुपरहिट फिल्म का निर्माण करके आलोचकों का मुंह सदा के लिये बंद कर दिया और कहा, लाइफ में यार क्या है ... दो ही चीज होती हैं ... सफलता या विफलता ... इसीलिए न तो विफलता से घबराना चाहिए, न ही सफलता से ज्यादा खुश होने की जरूरत है।
वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म 'बाज' के साथ गुरूदत्त ने अभिनय के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। इसके बाद सुहागन, आरपार. मिस्टर एंड मिसेज 55, प्यासा, 12ओ क्लाक, कागज के फूल, चौदहवी का चांद, सौतेला भाई, साहिब बीबी और गुलाम, भरोसा, बहूरानी, सांझ और सवेरा और पिकनिक जैसी कई फिल्मों में उन्होंने अपने अभिनय का जौहर दिखाया। गुरूदत्त ने कई फिल्मो की पटकथा भी लिखी, जिनमें बाजी, जाल और बाज शामिल है। इसके अलावा गुरूदत्त ने लखरानी (1945), मोहन (1947), गर्ल्स होस्टल (1949) और संग्राम (1950) जैसी कई फिल्मों का सहनिर्देशन भी किया। वर्ष 1957 मे गुरूदत्त और गीता दत्त की विवाहित जिंदगी में दरार आ गयी। काम में प्रति समर्पित गुरूदत्त अपने पारिवारिक दायित्व को निभा नहीं सके। गुरूदत्त और गीता दत्त ने अलग अलग रहने लगे। इसकी मुख्य वजह यह भी रही कि उस समय उनका नाम अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ भी जोड़ा जा रहा था। गीता दत्त से जुदाई के बाद गुरूदत्त टूट से गए और उन्होंने अपने आप को शराब के नशे में डुबो दिया। गुरूदत्त गीता दत्त से बहुत प्यार करते और अब उनकी कमी महसूस करने लगे। वह अक्सर कहा करते ... मुझे निर्देशक बनना था, बन गया ... अभिनेता बनना था ... बन गया ... अच्छी फ़िल्में बनाना चाहता था ... वो मैंने बना दी ... पैसा कमाना चाहता था ... सो कमाया ... आज मेरे पास सब कुछ है, लेकिन कुछ नहीं है। दस अक्टूबर 1964 को अत्यधिक मात्रा मे नींद की गोलियां लेने के कारण गुरूदत्त इस दुनिया को सदा के लिए छोडकर चले गए । गुरूदत्त की मौत आज भी सिनेप्रेमियों के लिये एक रहस्य हीं बना हुआ है कि उनकी मौत आत्महत्या थी या सिर्फ एक हादसा।

Dark Saint Alaick
10-10-2012, 02:11 AM
10 अक्तूबर को मृत्युदंड के खिलाफ विश्व दिवस
किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराया जा सकता मृत्युदंड : मानवाधिकार विशेषज्ञ

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17777&stc=1&d=1349817096

मानव जीवन को किसी भी सरकार या शासन से उपर करार देते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि दुनिया के विभिन्न देशों में लोगों को दी जा रही मौत की सजा बेहद चिंताजतक है तथा यह सामाजिक, धार्मिक, कानूनी समेत सभी तरीकों से गलत है। अल्पसंख्यक एवं मानवाधिकार मामलों के विशेषज्ञ जॉन दयाल ने कहा, ‘‘मौत की सजा धार्मिक, कानूनी, अपराध विज्ञान और सामाजिक दृष्टिकोण से ठीक नहीं है । सजा ए मौत के पक्षधर कहते हैं कि यह दंड अपराध के लिये ‘प्रतिरोधक’ है लेकिन मौत की सजा दिये जाने का अर्थ ही है कि अपराध हुआ है और यह दंड दिया गया है । इसलिये मौत की सजा के लिये ‘प्रतिरोधक’ का आधार ठीक नहीं है ।’’ दयाल ने कहा, ‘‘नार्वे में मौत की सजा का प्रावधान नहीं है और वहां अपराध का ग्राफ बहुत कम है । इसके विपरीत अमेरिका में मौत की सजा दी जाती है लेकिन वहां अपराध बहुत ज्यादा है ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘धार्मिक आधार पर देखें तो इंसान जीवन दे नहीं सकता तो उसे जीवन लेने का भी कोई अधिकार नहीं है । इसलिये हम इस सजा के खिलाफ हैं। कानूनी आधार पर भी देखे तो कौन यह निर्धारित करेगा कि किसे मौत की सजा दी जाये । एक ही धारा में दोषी पाये गये व्यक्तियों में कुछ को मौत की सजा दी जाती है तो कुछ को जेल की सजा दी जाती है ।’’ दयाल ने कहा कि सामाजिक आधार पर देखें तो भारत में उच्च वर्ग की तुलना में समाज के निचली जातियों को ज्यादा फांसी दी गई है । इसी तरह से अमेरिका में श्वेतों की अपेक्षा अश्वेतों को ज्यादा फांसी दी गई है ।’

Dark Saint Alaick
10-10-2012, 02:38 AM
दस अक्तूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर
अवसाद का मुख्य कारण आज की व्यस्ततम दिनचर्या और जीवन शैली

आपाधापी के दौर में व्यस्ततम दिनचर्या और जीवन शैली ने अवसाद को जन्म दिया है। यूं तो न यह लाइलाज बीमारी है और न ही अनुवांशिक फिर भी आपाधापी, असमंजस और अकेलेपन के कारण अवसाद के मामले तेजी से बढ रहे हैं। फोर्टिस हेल्थकेयर में मेंटल हेल्थ एंड बिहेवियरल साइंस के निर्देशक डॉ समीर पारिख ने बताया ‘‘अवसाद वास्तव में न कोई लाइलाज बीमारी है और न ही इसका कोई अनुवांशिक कारण होता है। मस्तिष्क में पाए जाने वाले कुछ रसायनों का असंतुलन अवसाद का कारण होता है। नियमित मनोचिकित्सकीय परामर्श और दवाओं से यह असंतुलन दूर किया जा सकता है। लेकिन इसे नजरअंदाज बिल्कुल नहीं करना चाहिए।’’ उन्होंने कहा कि आत्महत्या मौत का आठवां बड़ा कारण है और आत्महत्या करने वाले ज्यादातर लोग अवसादग्रस्त होते हैं। इसीलिए अवसाद को नजरअंदाज करना महंगा पड़ सकता है। रॉकलैंड अस्पताल में मनोचिकित्सा विभाग के वरिष्ठ सलाहकार डा एस सुदर्शनन कहते हैं ‘‘आज काम का दबाव, हर कदम पर अनिश्चितता, हमारे आसपास का माहौल, रिश्तों में आ रही जटिलता से लेकर सामाजिक, आर्थिक और अन्य भी कारण हैं जिनके चलते व्यक्ति खुद को बिल्कुल असहाय, असफल और अकेला महसूस करता है।’’ डॉ सुदर्शनन ने कहा ‘‘अकेलेपन और असहायता की भावना तो अबोध बच्चे में भी होती है। रोते हुए बच्चे को जब मां उठा कर गले लगाती है तो वह चुप हो जाता है। इसी तरह परेशान व्यक्ति के सर पर अगर प्यार से हाथ फेर दिया जाए तो उसे अपनेपन और एक सहारे का अहसास होता है। किसी अपने को खो कर या विपरीत परिस्थितियों में अक्सर लोग खुद को असहाय, असफल और अकेला महसूस करते हैं तथा अवसाद के शिकार हो सकते हैं।’’ ‘वर्ल्ड फेडरेशन आफ मेन्टल हेल्थ’ और विश्व स्वास्थ्य संगठन की संयुक्त पहल पर मानसिक बीमारियों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल दस अक्तूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2012 के लिए विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस की थीम ‘डिप्रेशन : अ ग्लोबल क्राइसिस’ यानी ‘अवसाद : एक वैश्विक संकट’ रखा गया है। मनोविज्ञानी मनप्रीत सोढी ने बताया कि अवसाद के लिए कोई उम्र तय नहीं होती। किसी भी उम्र के लोगों को यह समस्या हो सकती है। अवसादग्रस्त व्यक्ति को कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उसकी उर्जा का स्तर कम हो जाता है, वह एकाग्र नहीं हो पाता और उसे अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है। उन्होंने कहा ‘‘कई बार बातचीत में लोग इस तरह के भाव जाहिर भी करते हैं। ऐसी बातों को हल्के से नहीं लेना चाहिए क्योंकि यह संकेत व्यक्ति की नकारात्मक सोच जाहिर करते हैं। ऐसे व्यक्ति आत्महत्या तक कर सकते हैं। इसीलिए अगर कोई ऐसी बातें करे तो उसे समझाना चाहिए। अवसाद सामाजिक बुराई नहीं है और इससे ग्रस्त व्यक्ति को मनोचिकित्सक के पास जाने में झिझकना नहीं चाहिए।’’

Dark Saint Alaick
10-10-2012, 02:57 AM
रामविलास शर्मा की जन्मशती
रामविलास शर्मा को प्रलेस महासचिव पद से हटा दिया था

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प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक एवं इतिहासकार डा. रामविलास शर्मा को 1953 में भाषा संबंधी विवाद के कारण अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव पद से हटा दिया गया था। अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव अजय घोष ने श्री शर्मा को इस पद से हटा दिया था जबकि इस विवाद में महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन को तो पार्टी से ही निकाल दिया था। अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव डा. अली जावेद ने श्री शर्मा की जन्मशती के मौके पर यूनीवार्ता से बातचीत में यह जानकारी दी। दस अक्टूबर 1912 में उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के उचगांव में जन्मे डा. शर्मा की कल सौंवी जयंती है और रामविलास शर्मा फाउंडेशन उनकी स्मृति में कल राजधानी में राष्ट्रीय सेमीनार आयोजित कर रहा है। डा. शर्मा के जन्मशती के वर्ष में जनवादी लेखक संघ. जन संस्कृति मंच और प्रगतिशील लेखक संघ ने कार्यक्रम आयोजित किए हैं। लखनऊ में ।2 अक्तूबर को प्रलेस की ओर से एक कार्यक्रम हो रहा है तथा प्रलेस दिसंबर में राजधानी में एक बडा समारोह करने वाला है। कई लघु पत्रिकाओं तथा अखबारों ने भी उन पर विशेषांक एवं परिशिष्ट निकाले हैं। उनके पैतृक जिले उन्नाव में भी 13 अक्तूबर को एक कार्यक्रम हो रहा है तथा 16 को महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय में कार्यक्रम होगा। डा. अली जावेद का कहना है कि डा. शर्मा की हिन्दी जाति संबंधी अवधारणा को लेकर अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी में मतभेद था, क्योंकि पार्टी की लाइन उनसे अलग थी और यही कारण है कि डॉ. शर्मा को प्रलेस के महासचिव पद से पार्टी ने हटा दिया था। उनके बाद उर्दू के मशहूर लेखक क्रिश्न चंदर महासचिव बनाये गये थे। पार्टी ने तो महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन को भी पार्टी से निकाल दिया था। राहुल जी दोबारा पार्टी में शामिल होना चाहते थे पर डा. शर्मा पार्टी में बने रहे। डा. शर्मा के निधन के एक बरस बाद प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने 'इतिहास की शव साधना' नामक एक विवादास्पद लेख लिखा था, जिसको लेकर हिन्दी जगत में हंगामा मच गया था, क्योंकि उनमें उन्हें हिन्दूवादी सिद्ध करने की कोशिश की गयी थी। रामविलास फाउंडेशन ने कल के समारोह में डॉ. नामवर सिंह को आमंत्रित नहीं किया है और जलेस तथा जसम के डॉ. शर्मा पर हुए कार्यक्रम में भी डॉ. सिंह को नहीं बुलाया गया था। डॉ. शर्मा का मानना है कि आर्य भारत में बाहर से नहीं आये थे और हिन्दी एक जाति है। उनकी इस अवधारणा पर आज भी हिन्दी साहित्य के लेखकों में एक ध्रुवीकरण हो चुका है। डॉ. नामवर सिंह के साथ डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल और वीर भारत तलवार जैसे लोग हैं, तो डॉ. शर्मा के समर्थकों में डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. अजय तिवारी, विजय गुप्त, भगवान सिंह जैसे आलोचक है।
सौंवीं जयंती पर कल राष्ट्रीय समारोह
हिन्दी के यशस्वी लेखक मार्क्सवादी आलोचक, इतिहासकार एवं भाषाविद् डॉ. रामविलास शर्मा की कल जन्मशती पर राजधानी में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। रामविलास शर्मा फाउंडेशन द्वारा आयोजित इस संगोष्ठी में हिन्दी साहित्य में डॉ. शर्मा के योगदान पर देश के जाने-माने विद्वान अपने विचार व्यक्त करेंगे। डॉ. शर्मा के पुत्र विजय मोहन शर्मा ने बताया कि संगोष्ठी में डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. नित्यानंद तिवारी, डॉ. मैनेजर पाण्डेय एवं रामदेव शुक्ल जैसे प्रसिद्ध आलोचक भाग लेंगे। इस अवसर पर 10 अक्टूबर 1912 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के उचागांव में जन्मे डॉ. रामविलास शर्मा पर एक प्रदर्शनी भी आयोजित की गयी है। उसमें उनके दुलर्भ फोटो, पत्र एवं पुस्तकें आदि शामिल की गयी हैं। डॉ. शर्मा ने हिन्दी में 85 पुस्तकें लिखी थी और अंग्रेजी में पांच किताबें। उन्होंने बताया कि लखनऊ में 12 अक्टूबर को भी डॉ. रामविलास शर्मा पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया है। इसके अलावा 13 अक्टूबर को उन्नाव में भी एक कार्यक्रम होगा। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय (वर्धा) ने 16 अक्टूबर को रामविलास शर्मा पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की है। अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के महासचिव डॉ. अली जावेद ने बताया कि दिसंबर में डॉ. शर्मा पर राजधानी में एक राष्ट्रीय सेमीनार होगा। डॉ. शर्मा 1953 तक प्रलेस के महासचिव थे। डॉ. शर्मा की जन्मशती मनाने का सिलसिला गत वर्ष 10 अक्टूबर से शुरु हुआ था। जनवादी लेखक संघ ने इसकी शुरुआत की थी। जनसंस्कृति मंच ने भी डॉ. शर्मा की जन्मशती पर कार्यक्रम किये हैं। इसके अलावा कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद् ने भी एक कार्यक्रम किया है। साम्य, वसुधा, वागर्थ जैसी पत्रिकाओं ने डॉ. शर्मा पर अपना अंक केन्द्रित किया है और कई पत्रिकाओं के अंक आने वाले हैं। डॉ. जावेद का कहना है कि रामविलास शर्मा की मान्यताओं पर लंबी बहस होनी चाहिए। जन्मशती वर्ष में उनकी मूर्तिपूजा करने से कोई फायदा नहीं। डॉ. अजय तिवारी का कहना है कि डॉ. शर्मा ने हिन्दी जाति के सवाल पर पार्टी फोरम के बाहर सार्वजनिक रुप से कभी कुछ नहीं कहा था। बहस पार्टी के भीतर थी। वह 1964 तक पार्टी में बने रहे। जब कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हो गई, तो भाकपा और माकपा के लोगों ने उन्हें अपनी पार्टी में लेना चाहा, पर वे उसमें शामिल नहीं हुए, लेकिन दिवंगत आलोचक डॉ. चंद्रवली सिंह के अनुसार डॉ. शर्मा ने पार्टी खुद छोड दी थी।
जनवादी लेखक संघ की डॉ. रेखा अवस्थी का भी मानना है कि डॉ. शर्मा ने धीरे-धीरे अपने को पार्टी से किनारा कर लिया और वे चुपचाप अपने काम में लग गए। डॉ. शर्मा ने अपने जीवन काल में हिन्दी में 85 पुस्तकें लिखी, जबकि वह अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से 1940 में अंग्रेजी में पीएचडी प्राप्त करने वाले पहले छात्र थे। 1943 तक वह लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक रहे। अंग्रेजी में भी उनकी पांच किताबें हैं। 1943 में मुम्बई में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहली कांग्रगेस में आब्जर्वर के रुप में भाग लिया था। उसी साल वह बलवन्त राजपूत कालेज, आगरा में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष होकर चले गए। निराला जी की साहित्य साधना पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला और इस पुस्तक से उन्हें अपार ख्याति मिली। वह अपने निधन से कुछ वर्ष पूर्व साहित्य अकादमी के फैलो भी बनाए गए थे जो अकादमी का सर्वोच्च सम्मान है। भाषा और समाज, भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी, 1857 की राज्यक्रांति और मार्क्सवाद, पश्चिम एशिया और रिगवेद, भारत में अंग्रेजी राज एवं मार्क्सवाद, गांधी, अम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं, भारतीय साहित्य की भूमिका उनके गौरव ग्रंथ है जिनमें उनका पांडित्य झलकता है। हिन्दी जगत में किसी भी लेखक ने इतिहास और भाषा पर इतनी पुस्तकें नहीं लिखी हैं। लेकिन उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत कविता से की और वे तारसप्तक के कवि थे पर उनकी पहली किताब चार दिन (उपन्यास) 1934 में छपी थी। हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक डॉ. शिवकुमार मिश्र का मानना है कि डॉ. शर्मा ने प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, महादेवी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि में सकारात्मक देखा पर यशपाल, राहुल सांस्कृत्यायन, रांगेय राघव, जैनेन्द्र में प्राय नकारात्मक देखा।

Dark Saint Alaick
10-10-2012, 03:30 AM
ईमेल की 40वीं सालगिरह
वैज्ञानिकों ने याद की भारत में ईमेल की शुरूआत

आज से 40 साल पहले प्रोग्रामर रे टॉमलिन्सन द्वारा भेजे गए पहले ईमेल के बाद से आज यह दुनिया में संचार का एक अहम जरिया बन गई है। हालांकि भारतीय वैज्ञानिक याद करते हैं कि इस तकनीक को भारत में आने में 20 और वर्ष लग गए थे। टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च, मुंबई के कंप्यूटर विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर सुगाता सान्याल ने कहा, ‘‘अक्टूबर 1971 में टॉमलिन्सन ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया था जो एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर तक संदेश पहुंचा सकता था। यह पहला नेटवर्क वाला ईमेल था। यह इंटरनेट के आने से काफी समय पहले था।’’ टॉमलिन्सन की यह खोज दरअसल एक प्रोग्राम को सुधारने के दौरान हुई। 1960 से इस्तेमाल हो रहे इस प्रोग्राम की मदद से एक ही कंप्यूटर में कोई संदेश लिखकर दूसरे यूजर्स को उनके मेलबॉक्स के पते पर भेजा जा सकता था। पहले ईमेल ने आपस में एरपानेट (एआरपीएएनईटी) नामक कनेक्शन के जरिए कंप्यूटरों के बीच में संदेश प्रसारित किया गया था। यह कनेक्शन दुनिया के पहले कंप्यूटर नेटवर्कों में से एक था। फिलहाल टीसीएस के कॉरपोरेट टेक्नोलॉजी आर्गनाइजेशन में सलाहाकार के रूप में कार्यरत सान्याल ने कहा कि उस समय अमेरिका में पढने या शोध करने वाले कई भारतीयों ने ईमेल का अपना पहला अनुभव एरपानेट या बिटनेट की मदद से लिया था। उस समय अमेरिकी विश्वविद्यालयों में ईमेल का आदान-प्रदान इसी नेटवर्क की मदद से किया जाता था। टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ फंडामेंटल रिसर्च के सैद्धांतिक भौतिकी विभाग के प्रोफेसर राजीव गवई उन भारतीयों में से ही एक थे। 80 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में गवई न्यूयार्क की ब्रूकहावेन राष्ट्रीय प्रयोगशाला में एक शोधकर्ता थे। तब वे एरपानेट या बिटनेट की मदद से कई मील दूर बैठे अपने सह लेखकों से संपर्क किया करते थे। ईमेल की इस आसान तकनीक से गवई काफी प्रभावित थे क्योंकि इसमें महंगी फैक्स मशीनों और मुश्किल टेलेक्स मशीनों को इस्तेमाल नहीं करना पड़ता था। गवई ने भारत में बिटनेट पर आधारित एक अकादमिक नेटवर्क स्थापित करने के लिए पहल की। गवई ने कहा, ‘‘ऐसा ही अकादमिक नेटवर्क भारत में स्थापित करने के लिए भारी उत्साह था।’’ इस नेटवर्क को ‘विद्यानेट’ का नाम दिया गया। इसे जेनेवा की प्रयोगशाला सीईआरएन के सहयोग से स्थापित किया गया। यह वही प्रयोगशाला है जो हाल ही में एक नए कण की खोज के चलते सुर्खियों में छाई रही थी। गवई ने कहा, ‘‘इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक में हमें पता चला कि ईआरनेट (एजुकेशन एंड रिसर्च नेटवर्क) नामक एक परियोजना अकादमिक क्षेत्र के लिए शुरू की जा रही है। ईआरनेट ने विद्यानेट के सिद्धांत को अपनाने में रूचि दिखाई, लेकिन उसने डायल-अप लाइन के जरिए तंत्र स्थापित करने की बात कही। यह विद्यानेट के स्वरूप से अलग था।’’ इसलिए सीईआरएन और टीआईएफआर ने मॉडेम और लाइनों की तकनीकों पर चर्चा करके टीआईएफआर के सदस्यों को ईमेल संचार की दुनिया से जोड़ लिया। इसी बीच संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मदद से इलेक्ट्रॉनिक विभाग के अंतर्गत एरनेट का विकास हो रहा था। यही भारत में इंटरनेट लेकर आया। बेंगलूर के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर श्रीनिवासन रामानी ने कहा कि जब तक देश में कोई सार्वजनिक या निजी इंटरनेट सेवा प्रदाता नहीं थे तब तक एरनेट ने ही कंपनियों को ईमेल की सुविधा दी थी। शुरूआत में लोगों को ईमेल की उपयोगिता का ज्यादा अंदाजा नहीं था लेकिन एक हालिया सर्र्वेक्षण में भारत के इंटरनेट ग्राहकों की संख्या इस साल के अंत तक लगभग 15 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया गया है।

Dark Saint Alaick
11-10-2012, 12:36 AM
डॉ रामविलास शर्मा के जन्मदिवस पर विशेष
डॉ शर्मा ने सम्मान एवं पुरस्कार की संपूर्ण राशि हिन्दी विकास को समर्पित की

आलोचना में मार्क्सवादी दृष्टि और नवीन मानदंड स्थापित करने वाले डॉ रामविलास शर्मा ने अपने जीवनकाल में प्राप्त सम्मान एवं पुरस्कार के रूप में मिली संपूर्ण धन-राशि हिन्दी के विकास के लिए समर्पित करके लेखकीय प्रतिबद्धता के नये मानक स्थापित किए। साहित्य के निरंतर पतन पर आयोजित होने वाले चिंतन एवं विलाप जैसे कार्यक्रमों से हमेशा एक दूरी बनाकर रखने वाले आलोचक डॉ रामविलास शर्मा किसी भी रचना को लेखकीय कौशल से नहीं, बल्कि समय की सापेक्षता की कसौटी पर परखते थे। मीडिया विश्लेषक, साहित्यकार एवं स्तंभकार सुधीश पचौरी ने कहा, ‘‘पुरस्कार एवं सम्मान की संपूर्ण राशि को हिन्दी सेवा के लिए समर्पित करना आज के आलोचकों के लिए अनुकरणीय है। वह किसी के आग्रह पर नहीं अपितु अपने अध्ययन के आधार पर ही अपनी रायशुमारी के लिए भी चर्चित रहे। ’’ पचौरी ने बताया, ‘‘पुरस्कार और सम्मान की धक्का-मुक्की से खुद को अलग रखने के कारण ही वह आलोचना संबंधी 100 से अधिक पुस्तकों के रचयिता बन सके। ताका-झांकी की आदत से दूर रहने वाले डॉ शर्मा ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण को भारतीय परिप्रेक्ष्य में ढालने का सराहनीय प्रयास किया।’’ उन्होंने कहा कि आज के हिन्दी साहित्यकारों के ‘श्रद्धा या भर्त्सना’ के पुराने रोग के कारण हालांकि अभी तक उनके प्रयासों का सही मूल्यांकन नहीं हो सका है। विकासशील समाज अध्ययन पीठ के संपादक एवं डॉ रामविलास शर्मा पर अध्ययन एवं शोध करने वाले अभय कुमार दुबे ने कहा, ‘‘ डॉ शर्मा की आलोचना के साथ उनका व्यक्तित्व भी अनुकरणीय है। वह पुरस्कार और सम्मान की लंबी लाइन से दूर रहते थे और प्रयासहीन पुरस्कार और सम्मान से मिलने वाली राशि को हिन्दी की सेवा और विकास के लिए ही समर्पित कर देते थे। ’’
राजकमल प्रकाशन की पत्रिका ‘आलोचना’ के सह.संपादक, एवं अपनी पुरस्कार राशि को सामाजिक कार्यो के लिए देने वाले युवा कवि आर चेतनक्रांति ने कहा कि डॉ रामविलास शर्मा सिर्फ साहित्यिक रचनाआें के ही नहीं वरन अपने जीवन के भी कठोर आलोचक थे। उन्होंने हिन्दी सेवा से मिली संपूर्ण राशि को हिन्दी सेवा के लिए ही समर्पित कर दिया। हालांकि आज उस राशि का कितना और कैसा उपयोग किया जा रहा है, यह खोज का अलग विषय हो सकता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद डॉ रामविलास शर्मा ही ऐसे आलोचक के रूप में दिखाई देते हैं, जो भाषा, साहित्य, इतिहास और समाज को एक साथ रखकर किसी रचना का मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में साहित्य के साथ समाज, अर्थ और राजनीति भी समाहित था। किसी रचना को परखने की उनकी कसौटी यह थी कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है। डॉ रामविलास शर्मा का जन्म 10 अक्तूबर 1912 को उन्नाव जिले के उच्चगांव सानी में हुआ था। लखनउ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए एवं 1938 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद वह अध्यापन क्षेत्र में आ गये। उन्होंने 1943 से 1974 तक बलवंत राजपूत कालेज, आगरा के अंग्रेजी विभाग में कार्य किया और अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे। इसके बाद कुछ समय तक उन्होंने कन्हैयालाल माणिक मुंशी विद्यापीठ आगरा में निदेशक के रूप में भी कार्य किया। 30 मई 2000 को उनका देहान्त हो गया। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साथ 1933 में संपर्क में आने के बाद साहित्यिक जीवन आरंभ करने वाले डॉ रामविलास शर्मा अपनी बारीक मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय संदर्भो का मूल्यांकन करते हैं। वह अंग्रेजों द्वारा लिखवाये गये भारतीय इतिहास को षड़यत्र मानते हैं। उनका कहना था कि भारतीय इतिहास और साहित्य के समग्र मूल्यांकन के लिए हमें अपने प्राचीन ग्रंथो का अध्ययन करना होगा।

Dark Saint Alaick
13-10-2012, 04:14 AM
निदा फाजली के जन्म दिवस पर विशेष
फिल्मों में लिखने की वजह से पाई आसान जुबान

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उर्दू-हिन्दी शायरी के अजीम फनकार निदा फाजली ने फिल्मों के लिए लिखने की बदौलत ही इतनी आसान जुबान हासिल की। यही आसान जुबान और अलहदा अंदाज ही बाद में निदा फाजली की गजलों की खासियत साबित हुयी और उन्हें शायरी की दुनिया में बुलंदियों तक पहुंचाने में कारगर बनी। दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के प्रोफेसर अब्बास अहमद ने कहा कि निदा फाजली की शायरी की पहचान ही आसान जुबान है। उन्होंने कहा कि वह आवाम से जुड़े शायर हैं और यही वजह है कि वह आसानी से आवाम की समझ में आने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। अब्बास ने कहा कि निदा ने बहुत पहले से ही फिल्मों के गीत लिखने शुरू कर दिये थे। चूंकि फिल्मों को वृहत्तर समाज के लिए बनाया जाता है, इसलिए उसमें ऐसी भाषा का प्रयोग होता है, जिसे आसानी से समझा जा सके। निदा ने 1883 में सबसे पहले रजिया सुलतान के गाने लिखे थे। उर्दू नज्मों की मैगजीन ‘जहदे जदीद’ के संपादक और उर्दू के मशूहर शायर जुबैर रिजवी ने कहा कि आसान जुबान के अलावा वह फिल्मों के जरिये उर्दू साहित्य को पहचान दिलाने के लिए याद किये जाएंगे। रिजवी ने कहा कि गालिब और मीर के बाद के शायर नजीर अकबराबादी को बहुत दिनों तक उनकी आसान जुबान के कारण ही तवज्जो नहीं दी गयी। उस दौर के शायरों ने उन्हें यह कहकर खारिज कर दिया था कि उनकी शायरी की जुबान बहुत आम है। हालांकि बाद में उनकी आसान जुबान उनकी शायरी की खासियत मानी गयी। उन्होंने कहा कि निदा के अलावा जावेद अख्तर और गुलजार ने भी फिल्मों के जरिये उर्दू साहित्य को एक नयी पहचान दी है। आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर और दुष्यंत कुमार की रवायत को आगे बढाने वाले निदा फाजली का असली नाम मुक्तदा हसन है। उनका जन्म 12 अक्तूबर 1938 को हुआ था। उनके पिता खुद भी शायर थे और उन्ही के नक्शे-कदम पर चलकर मुक्तदा ने शायरी का ककहरा सीखा। शायरी की दुनिया में कदम रखने के बाद मुक्तदा ने बीते दौर के तमाम शायरों की तर्ज पर अपना नाम निदा फाजली रख लिया। निदा का अर्थ ‘आवाज’ या ‘स्वर’ है, और फाजिला कश्मीर के इलाके का नाम है, जहां से उनके पुरखे दिल्ली आकर बसे थे। बाद में शायरी की दुनिया में उनका यही नाम मकबूल हो गया। हालांकि उर्दू शायरी में तखल्लुस रखने की रस्म बहुत पुरानी है, लेकिन तमाम ऐसे शायर भी हैं, जिन्होंने कलाम कहने के लिए अपना पूरा नाम बदल लिया। आज के दौर के मशहूर शायर गुलजार का असली नाम सम्पूरन सिंह कालरा है, जबकि मरहूम फिराक गोरखपुरी का नाम रघुपति सहाय है। गालिब का असली नाम असदुल्ला खां था, लेकिन वह गालिब के नाम से मशहूर हुये। इसी तरह जौक का असली नाम इब्राहिम शेख था।

Dark Saint Alaick
13-10-2012, 04:23 AM
राम मनोहर लोहिया की पुण्यतिथि पर
सामाजिक समानता के लिए अथक प्रयास किया लोहिया ने

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महान स्वतंत्रता सेनानी राम मनोहर लोहिया ने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में बढचढ हिस्सा लिया बल्कि वह आजादी के बाद भी अमीरी गरीबी भेद, जाति प्रथा, राजनीति में युवाओं की भागीदारी जैसे मुद्दों पर लगातार काम करते रहे। जामिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने कहा कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान लोहिया ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के माध्यम से सामाजिक समानता के लिए काम किया और सांप्रदायकिता के खिलाफ संघर्ष किया। वह पैदावार के सभी साधनों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में थे। उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में 23 मार्च, 1910 को राष्ट्रवादी हीरा लाल के घर जन्मे राम मनोहर लोहिया के कम उम्र में ही उनकी मां गुजर गयी। उनके जीवन में अहम मोड़ तब आया जब उनके पिता उन्हें अपने साथ महात्मा गांधी के पास ले गए। वह गांधीजी से बहुत प्रभावित हुए। महज दस साल की उम्र में उन्होंने सत्याग्रह मार्च में हिस्सा लिया और गांधीजी के प्रति अपनी निष्ठा तथा आने वाले समय के लिए बतौर स्वतंत्रता सेनानी का जज्बा साबित किया। वर्ष 1921 में वह पंडित नेहरू के संपर्क में आए और उनके साथ उनका गहरा जुड़ाव पैदा हो गया। हालांकि कई मुद्दों पर दोनों की राय भिन्न थीं। अठारह साल की उम्र में उन्होंने 1928 में साइमन आयोग के खिलाफ छात्रों का प्रदर्शन आयोजित किया, लेकिन इसके बीच लोहिया ने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा। उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट किया। उन्होनें 1929 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक किया। उसके बाद वह जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय चले गए जहां से उन्होंने 1932 में पीएचडी किया। उन्होंने 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की आधारशिला रखी। वह 1936 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के प्रथम सचिव चुने गए। उन्हें 1939 में उत्तेजक भाषण देने तथा लोगों से सरकारी संस्थानों का बहिष्कार का आह्वान करने पर गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 1940 में उनके आलेख ‘अब सत्याग्रह’ के लिए फिर गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया। जब महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, मौलाना आजाद जैसे शीर्ष नेता गिरफ्तार कर लिए गए तब उन्होंने इस आंदोलन की ज्वाला जलाए रखी। उन्हें 1944 में गिरफ्तार कर लाहौर की जेल में डाल दिया गया जहां उनका उत्पीड़न किया गया। कैसर कहते हैं कि आजादी के बाद वह व्यवस्था के सामाजीकरण के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने न केवल अपने भाषणों बल्कि आलेखों, किताबों के माध्यम से भी लोगों को उद्वेलित किया। लोहिया हिंदी के बहुत बड़े पक्षधर थे। वह मानते थे कि अंग्रेजी भाषा लोगों के बीच दीवार खड़ी करती है। उनका कहना था कि हिंदी से एकता बढेगी तथा बदलाव के विचार तेजी से बढेंगे। वह जाति प्रथा के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने ‘रोटी और बेटी’ का सिद्धांत दिया था। वह मानते थे कि साथ मिलकर खाने और अन्य जाति के लड़के के साथ बेटी के ब्याहने से जाति की बाधा खत्म होगी। प्रो. तुलसी राम मानते हैं कि इस मोर्चे पर उन्होंने शानदार काम किया।

Dark Saint Alaick
13-10-2012, 04:29 AM
13 अक्तूबर को जन्मदिन पर
स्वाभाविक अभिनय वाले कलाकार थे अशोक कुमार

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भारत में जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ उस जमाने में अभिनय में काफी लाउडनेस होती थी और पारसी थियेटर के प्रभाव में संवाद अदायगी पर विशेष जोर दिया जाता था, उसी समय अशोक कुमार यानी दादामुनि हिंदी फिल्मों में ऐसे कलाकार के रूप में सामने आए जिनके अभिनय में स्वाभाविकता और सहजता थी। अपनी अभिनय प्रतिभा से स्टारडम को नया आयाम देते हुए अशोक कुमार ने तमाम ऐसे सामाजिक एवं मनोरंजक फिल्में दी जो समाज में प्रचलित कुरीतियों पर चोट करते हुए उनसे उबरने का संदेश देती थींं। बिहार के शहर भागलपुर में गंगा नदी के तट पर बसे आदमपुर मुहल्ले में 13 अक्तूबर 1911 को पैदा हुए कुमुदलाल गांगुली उर्फ अशोक कुमार ने अपने को किसी इमेज में नहीं बंधने दिया और नायक की छवि को नया आयाम दिया। ऐसे युग में जब हीरो को अच्छाई का प्रतीक समझा जाता था, उस समय उन्होंने फिल्म ‘किस्मत’ में एंटी हीरो की भूमिका निभाते हुए प्रचलित मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया। उन्होंने ऐेसे दौर में अभिनय को सम्मानजनक स्थान दिलाया जब फिल्मों को सम्मान से नहीं देखा जाता था। दिलचस्प है कि अपने अभिनय से कई पीढी के दर्शकों के दिलों पर राज करने वाले अशोक कुमार की शुरू अभिनय में नहीं थी और वह फिल्म के तकनीकी पक्ष से जुड़ना चाहते थे। लेकिन संयोग ने उन्हें अभिनय के क्षेत्र में ला दिया और उन्होंने अभिनय को इस कदर आत्मसात कर दिया कि उनका जादू लोगों के सर पर चढकर बोला।
‘अछूत कन्या’ उनकी शुरूआती फिल्मों में थी जिसने अशोक कुमार को हिंदी सिनेमा उद्योग में स्थापित कर दिया। इसमें उनकी नायिका देविका रानी थी जो उन दिनों चोटी की नायिका होती थीं। इस फिल्म में अशोक कुमार का आत्मविश्वास देखते ही बनता है और कहीं से यह प्रतीत नहीं होता कि स्थाति नायिका के सामने एक नवोदित अभिनेता है। देविका रानी के साथ अशोक कुमार का साथ आगे भी रहा और दोनों ने कई लोकप्रिय फिल्मों में काम किया। उन फिल्मों में ‘सावित्री’, ‘निर्मला’, ‘इज्जत’ आदि शामिल हैंं बांबे टॉकीज की फिल्म ‘किस्मत’ मील का पत्थर साबित हुयी। ज्ञान मुखर्जी निर्देशित ‘किस्मत’ हिंदी सिनेमा की बहुचर्चित फिल्मों में से एक है। एक ओर इसमें नायक अशोक कुमार एंटी हीरो की भूमिका में थे वहीं कवि प्रदीप के गानों में राष्ट्रवाद भी परोक्ष रूप से प्ररिलक्षित होता था। यह फिल्म जब प्रदर्शित हुयी, उस समय दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था और ब्रिटेन युद्ध में जर्मनी एवं जापान जैसे देशों से जूझ रहा था। इस फिल्म का एक गाना ‘दूर हटो ऐ दुनियावालो हिन्दुस्तान हमारा है’ काफी हिट हुआ। इसी गाने में आगे जर्मन और जापान का भी जिक्र आता है। दरअसल अंग्रेजों की सख्त सेंसरशिप से बचने के लिए उन दोनों देशों का नाम लिया गया था और इसमें परोक्ष रूप से अंग्रेजों से भी भारत छोड़ कर जाने का कहा गया था।
इसके बाद अशोक कुमार की एक ओर चर्चित फिल्म महल आयी जिसमें उन्होंन अपेक्षाकृत नयी नायिका मधुबाला के साथ काम किया। अशोक कुमार ने अपने दौर की नायिकाओं के अलावा बाद की पीढी की चर्चित तारिकाओं के साथ भी काम किया। उनकी चर्चित फिल्मों में ‘पाकीजा’, ‘बहु बेगम’, ‘आरती’, ‘चलती का नाम गाड़ी’, ‘आशीर्वाद’ आदि शामिल हैं। उम्र बढने के साथ ही अशोक कुमार ने चरित्र भूमिकाएं निभानी शुरू कर दी। इन भूमिकाओं में भी उन्होने अपनी एक अलग छाप छोड़ी। उन्होंने कुछ एक फिल्मों में विलेन की भूमिका की। ऐसी ही एक चर्चित फिल्म देव आनंद और वैजयंती माला अभिनीत ‘ज्वैल थीफ’ थी। इसका कथानक ऐसा था जिसमें आखिरी क्षण तक दर्शकों को यह पता नहीं लग पाता कि अशोक कुमार ही विलेन की भूमिका में हैं फिल्मों के अलावा अशोक कुमार ने टीवी धारावाहिकों में भी काम किया। देश के पहले सोप ओपेरा ‘हम लोग’ में वह सूत्रधार की भूमिका में नजर आए। चर्चित धारावाहिक बहादुरशाह जफर में उन्होंने वृद्ध हो चुके बादशाह की अविस्मरणीय भूमिका निभाई। अशोक कुमार बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जिनका शौक पेंटिंग, होमियोपैथी, कारों में भी था।

Dark Saint Alaick
13-10-2012, 04:42 AM
पुण्यतिथि 13 अक्टूबर पर विशेष
चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना कभी अलविदा ना कहना ...

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हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ न बोलिए, जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए ... अपने ही गाए इस गीत की इन पंक्तियों को जीवन का फलसफा मानने वाले पार्श्वगायक किशोर कुमार ने अभिनय के क्षेत्र में भी उतना ही ऊंचा मुकाम हासिल किया था। मध्य प्रदेश के खंडवा शहर में 4 अगस्त 1929 को एक मध्यवर्गीय बंगाली परिवार में अधिवक्ता कुंजीलाल गांगुली के घर जब सबसे छोटे बालक ने जन्म लिया, तो कौन जानता था कि आगे चलकर यह बालक अपने देश और परिवार का नाम रौशन करेगा। नटखट आभास कुमार गांगुली उर्फ किशोर कुमार का रूझान बचपन से ही अपने पिता के पेशे वकालत की तरफ न होकर संगीत की ओर था। महान गायक-अभिनेता के.एल. सहगल से प्रभावित किशोर कुमार उनकी ही तरह गायक बनना चाहते थे। के.एल. सहगल से मिलने की चाह लिए किशोर कुमार 18 वर्ष की उम्र में मुंबई पहुंचे, लेकिन उनसे मिलने की इच्छा पूरी नहीं हो पाई। उस समय तक उनके बड़े भाई अशोक कुमार बतौर अभिनेता अपनी पहचान बना चुके थे। अशोक कुमार चाहते थे कि किशोर नायक के रूप में अपनी पहचान बनाएं, लेकिन किशोर कुमार को अदाकारी की बजाय पार्श्वगायक बनने की चाह थी। हालांकि उन्होंने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा कभी किसी से नहीं ली। अशोक कुमार की बालीवुड में पहचान के कारण उन्हें बतौर अभिनेता काम मिल रहा था। अपनी इच्छा के विपरीत किशोर कुमार ने अभिनय करना जारी रखा, जिसका मुख्य कारण यह था कि जिन फिल्मों में वह बतौर कलाकार काम किया करते थे, उन्हें उस फिल्म में गाने का भी मौका मिल जाया करता था। किशोर कुमार की आवाज के.एल. सहगल से काफी हद तक मेल खाती थी। बतौर गायक सबसे पहले उन्हें वर्ष 1948 में बाम्बे टाकीज की फिल्म जिद्दी में सहगल के अंदाज में ही अभिनेता देव आनंद के लिए मरने की दुआएं क्यूं मांगू गाने का मौका मिला।
वर्ष 1951 में बतौर मुख्य अभिनेता उन्होंने फिल्म आन्दोलन से अपने कैरियर की शुरुआत की, लेकिन इस फिल्म से दर्शकों के बीच वे अपनी पहचान नहीं बना सके। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म लड़की बतौर अभिनेता उनके कैरियर की पहली हिट फिल्म थी। इसके बाद बतौर अभिनेता भी किशोर कुमार ने अपनी फिल्मों के जरिए दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। उनकी अभिनीत कुछ फिल्मों में नौकरी, बाप रे बाप, चलती का नाम गाड़ी, दिल्ली का ठग, बेवकूफ, कठपुतली, झुमरू, बाम्बे का चोर, मनमौजी, हॉफ टिकट, बावरे नैन, मिस्टर एक्स इन बाम्बे, दूर गगन की छांव में, प्यार किये जा, पडोसन, दो दूनी चार शामिल हैं, जो आज भी किशोर कुमार के जीवंत अभिनय के लिए याद की जाती हैं। किशोर कुमार को अपने कैरियर में वह दौर भी देखना पड़ा, जब उन्हें फिल्मों में काम नहीं मिला करता था, तब वह स्टेज पर कार्यक्रम पेश कर अपना जीवन यापन करने को मजबूर थे। बंबई में आयोजित एक ऐसे ही एक स्टेज कार्यक्रम के दौरान संगीतकार ओ.पी. नैयर ने जब उनका गाना सुना, तब वह भावविह्वल हो गए और कहा, महान प्रतिभाएं तो अक्सर जन्म लेती रहती हैं, लेकिन किशोर कुमार जैसा पार्श्वगायक हजार वर्ष में केवल एक ही बार जन्म लेता है। उनके इस कथन का उनके साथ बैठी पार्श्वगायिका आशा भोसले ने भी इस बात का समर्थन किया।
वर्ष 1969 में निर्माता-निर्देशक शक्ति सामंत की फिल्म 'आराधना' के जरिए किशोर गायकी की दुनिया के बेताज बादशाह बने, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि फिल्म के आरंभ के समय इसके संगीतकार सचिन देव वर्मन चाहते थे इसके गाने किसी एक गायक से न गवाकर दो गायकों से गवाए जाएं। बाद में सचिन देव वर्मन की बीमारी के कारण फिल्म आराधना में उनके पुत्र आर.डी. बर्मन ने संगीत दिया। 'मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू' और 'रूप तेरा मस्ताना' गाना किशोर कुमार ने गाया, जो बेहद पसंद किया गया। 'रूप तेरा मस्ताना' गाने के लिये किशोर कुमार को बतौर गायक अपना पहला फिल्म फेयर पुरस्कार मिला और इसके साथ ही फिल्म 'आराधना' के जरिए वह उन ऊंचाइयों पर पहुंच गए, जिसके लिए वह सपनों के शहर मुंबई आए थे। किशोर कुमार ने 1964 में फिल्म दूर गगन की छांव में के जरिए निर्देशन के क्षेत्र मे कदम रखने के बाद हम दो डाकू, दूर का राही, बढ़ती का नाम दाढ़ी, शाबास डैडी, दूर वादियों में कहीं, चलती का नाम जिंदगी, ममता की छांव में जैसी कई फिल्मों का निर्देशन भी किया। निर्देशन के अलावा उन्होंने कई फिल्मों में संगीत भी दिया, जिनमें झुमरू, दूर गगन की छांव में, दूर का राही, जमीन आसमान, ममता की छांव में शामिल हैं। बतौर निर्माता किशोर कुमार ने दूर गगन की छांव में और दूर का राही फिल्में भी बनाईं।
किशोर कुमार को उनके गाए गीतों के लिए 8 बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। सबसे पहले उन्हें वर्ष 1969 में 'आराधना' फिल्म के रूप तेरा मस्ताना गाने के लिये सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके बाद 1975 मे फिल्म 'अमानुष' के गाने 'दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा', 1978 में 'डॉन' के गाने 'खइके पान बनारस वाला', 1980 में 'हजार राहें मुड़ के देखीं' (फिल्म थोड़ी सी बेवफाई), 1982 में फिल्म 'नमक हलाल' के 'पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी', 1983 में फिल्म 'अगर तुम न होते' 1984 में फिल्म 'शराबी' के मंजिलें अपनी जगह हैं' और 1985 में फिल्म 'सागर' के 'सागर किनारे दिल ये पुकारे' गाने के लिये भी किशोर कुमार सर्वश्रेष्ठ गायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। किशोर कुमार ने अपने सम्पूर्ण फिल्मी कैरियर मे 600 से भी अधिक हिन्दी फिल्मों के लिये अपना स्वर दिया। हिन्दी फिल्मों के अलावा उन्होंने बांग्ला, मराठी, असमी, गुजराती, कन्नड़, भोजपुरी और उड़िया फिल्मों में भी अपनी दिलकश आवाज के जरिए श्रोताओं को भाव विभोर किया। हरदिलअजीज कलाकार किशोर कुमार कई बार विवादों का भी शिकार हुए। आपातकाल के दौरान दिल्ली में एक सांस्कृतिक आयोजन में उन्हें गाने का न्योता मिला, जिसके लिए किशोर कुमार ने पारिश्रमिक मांगा, इसके कारण उन्हे आकाशवाणी और दूरदर्शन पर गाने के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। आपातकाल हटने के बाद पांच जनवरी 1977 को उनका पहला गाना बजा 'दुखी मन मेरे सुनो मेरा कहना जहां नहीं चैना वहां नहीं रहना'। यूं तो किशोर कुमार ने कई अभिनेताओं को अपनी आवाज दी, लेकिन कुछ मौकों पर मोहम्मद रफी ने उनके लिए गीत गाए थे। इन गीतो में 'हमें कोई गम है तुम्हें कोई गम है', 'मोहब्बत कर जरा नहीं डर', 'चले हो कहां कर के जी बेकरार', 'मन बाबरा निस दिन जाए', 'है दास्तां तेरी ये जिंदगी', आदत है सबको सलाम करना आदि । दिलचस्प बात है कि मोहम्मद रफी किशोर कुमार के लिए गाए गीतों के लिए महज एक रूपया पारिश्रमिक लिया करते थे। वर्ष 1987 में किशोर कुमार ने यह निर्णय लिया कि वह फिल्मों से संन्यास लेने के बाद वापस अपने गांव खंडवा लौट जाएंगे। वह अक्सर कहा करते थे कि ..दूध जलेबी खाएंगे खंडवा में बस जाएंगे ..लेकिन उनका यह सपना अधूरा ही रह गया। तेरह अक्टूबर 1987 को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वह इस दुनिया से विदा हो गए।

Dark Saint Alaick
15-10-2012, 06:00 AM
विश्व अंडा दिवस पर विशेष
संडे हो या मंडे, कैसे खाएं रोज महंगे अंडे

रोज अंडे खाना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है क्योंकि अंडे में विटामिन, कैल्शियम, प्रोटीन, फॉस्फोरस जैसे पोषक तत्व होते हैं। लेकिन पिछले एक साल में अंडे की बढी कीमतों ने खाने की प्लेट से अंडे को दूर कर दिया है। पिछले साल 2.30-3 रुपए में मिलने वाला एक अंडा अब चार से पांच रुपए में मिल रहा है, वहीं एक दर्जन अंडे की कीमत 30-35 रुपए से बढकर 50-60 रुपए हो गयी है। वहीं अब ब्रांडेड या पैक्ड अंडे 60 से 70 रुपए प्रति दर्जन की कीमत में मिल रहे हैं। नेशनल एग कोर्डिनेशन कमिटी (एनईसीसी) के अधिकारी, डॉक्टर ए शर्मा, अंडों की कीमतों में हुई बढोतरी की वजह अंडों के ट्रे का कमीशन, खुदरा और थोक भाव के बीच मूल्यों का बढा अंतर बताते हैं। शर्मा ने कहा कि अंडों की उत्पादक लागत बहुत ज्यादा है, इस वजह से भी अंडों की कीमत इतनी बढ गयी है। शर्मा ने कहा, ‘‘अंडों की उत्पादन लागत बढ गयी है। मुर्गियों के दाने-पानी की कीमत बढ गयी है। साथ ही रोजगारप्रद होने के बावजूद, दूसरे क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र के लिए किसी तरह की समर्थन प्रणाली नहीं है और सरकार की तरफ से इस क्षेत्र को किसी तरह की सब्सिडी या सहयोग भी नहीं मिलता।’’ अंडों का प्रयोग कई तरह के आहार बनाने में किया जाता है। चाहे वह आमलेट, अंडा करी, आमलेट करी, एग राइस, अंडा पराठा हो या फिर केक, मफीन या मेओनीज हो, अंडे का इस्तेमाल, खाने को लजीज और अलग बना देता है। अंडों का इस्तेमाल घरों और रेस्त्रांओं में खानपान, फुटपाथ पर फेरी लगाने वाले अंडा विक्रेता की आजीविका कमाने से लेकर घरेलू सौंदर्य नुस्खों में भी किया जाता है। लेकिन अंडों की बढी कीमतों ने इसके सबसे बड़े उपयोगकर्ताओं यानि आम घरों में इनके इस्तेमाल को प्रभावित किया है। सुखदेव विहार इलाके में स्थित एक किराने की दुकान के मालिक कमल किशोर ने कहा कि अंडों की बिक्री अब पहले से थोड़ी कम हो गयी है। पहले जो लोग हर हफ्ते, दो-चार दर्जन अंडे खरीदते थे, उन्होंने अब एक से दो दर्जन अंडों में ही काम चलाना शुरू कर दिया है। वहीं शर्मा ने अंडे की ब्रिकी कम होने की बात से इनकार करते हुए कहा कि अंडों की बिक्री कम नहीं हुई है लेकिन यह सही है कि निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में इसकी खपत कुछ हद तक प्रभावित हुई है। मदनगीर इलाके में स्थित एक पॉल्ट्री फार्म के मालिक विमल शर्मा ने कहा कि मुर्गीपालन पहले जितना आसान नहीं रहा। हालांकि मुर्गीपालन अभी भी फायदे का व्यापार है लेकिन उत्पादन की लागत बढ गयी है और मुनाफा कुछ कम हो गया है। शर्मा ने कहा कि अंडों की खपत को और मुर्गीपालन उद्योग को बढावा देने के लिए सरकार को मदद करनी चाहिए। निजी या सरकारी तौर पर अंडों के प्रसंस्करण और भंडारण की व्यवस्था होनी चाहिए। अंडों का सेवन शरीर से बीमारियों को दूर रखता है और यह प्रोटीन-विटामन का प्रमुख स्त्रोत है, इन्हें देखते हुए एनईसीसी भी अपनी ओर से मूल्य नियंत्रण आदि के लिए प्रयास कर रही है।

Dark Saint Alaick
20-10-2012, 02:05 AM
भारत-चीन युद्ध के 50 साल पूरे होने पर विशेष
‘ड्रैगन’ से निपटने के लिए तीनों सैन्य बलों को
आधुनिक बनाने की जरूरत : विशेषज्ञ

भारत-चीन युद्ध के 50 साल बीत जाने के बावजूद देश की सीमाओं पर खतरा टला नहीं है और रक्षा विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगर केंद्र सरकार ने आधारभूत ढांचे और तीनों सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण की दिशा में तत्काल कदम नहीं उठाए तो आने वाले समय में देश को इसके गंभीर नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं। भारत चीन युद्ध के बाद चीन की सीमा पर तैनात किए गए लेफ्टिनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) शंकर राय चौधरी ने कहा कि वर्ष 1962 के युद्ध के बाद से देश में काफी बदलाव आया है, लेकिन खतरा अभी टला नहीं है।
सरकारी हलकों में कहा जा रहा है कि भारत और चीन के बीच युद्ध का कोई खतरा नहीं है, जबकि ऐसा नहीं है। चौधरी ने कहा कि वर्ष 1962 के पहले भी ऐसी ही स्थिति थी और हिंदी चीनी भाई-भाई का नारा बीजिंग से नई दिल्ली तक गूंज रहा था, लेकिन दोनों देशों के बीच युद्ध हुआ। हमें यह कभी सोचना नहीं चाहिए कि अच्छे सम्बंधों की वजह से दुश्मन हमला नहीं करेगा। इसके बजाय हमें हालात को ऐसा बनाना चाहिए कि चीन हम पर हमला करने के बारे में सोच ही नहीं सके। भारत के सुरक्षा हालात पर ‘अंडर फायर’ नामक किताब लिखने वाले रक्षा मामलों के विशेषज्ञ कैप्टन (अवकाश प्राप्त) भरत वर्मा ने कहा कि भारत चीन युद्ध में हमारी हार के पीछे देश के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व की भूल थी। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू कहते थे कि ‘हमें रक्षा नीति की कोई जरूरत नहीं है, हमारी रक्षा नीति अहिंसा है। वर्मा ने कहा कि भारत सरकार की राजनीतिक इच्छा शक्ति और भारत की सैन्य क्षमता इतनी जबर्दस्त होनी चाहिए कि तिब्बत और लाहौर को बचाने में ही चीन और पाकिस्तान के पसीने छूट जाएं और वे अरुणाचल प्रदेश तथा कश्मीर का नाम ही नहीं ले सकें। उन्होंने कहा कि देश आज आंतरिक और बाह्य चुनौतियों से जूझ रहा है। पचास साल बीत जाने के बावजूद सरकार ने पूर्वोत्तर में आधारभूत ढांचे का विकास नहीं किया है। इस मामले में हम चीन से 20 से 25 साल पीछे हैं। चौधरी ने कहा कि आज सेना के स्ट्राइक कोर की सख्त जरूरत है, लेकिन सरकार अभी तक इस पर फैसला नहीं कर सकी है। पहाड़ों में लड़ने में सक्षम दो ‘माउंटेन डिवीजन’ बनाने की सरकार ने स्वीकृति दी है, लेकिन अभी इस पर अमल नहीं हो पाया है।
चीन का रक्षा बजट इस वित्तीय वर्ष में जहां करीब 110 अरब डॉलर का है वहीं भारत का रक्षा बजट करीब 36 अरब डॉलर का है। हथियारों के मामले में भी चीन आज भारत से काफी आगे निकल चुका है। अमेरिकी वैज्ञानिकों के संघ के मुताबिक चीन के पास कुल 240 परमाणु बम हैं, जबकि भारत के पास 80 से 100 के बीच हैं। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रेटजिक स्टडीज के मुताबिक चीन की सेना मेें 2285000 सैनिक हैं, वहीं भारत की सेना में 1325000 सैनिक हैं। चीन के पास 2800 टैंक हैं, वहीं भारत के पास केवल 568 टैंक हैं। भारत के पास 15 पनडुब्बी, वहीं चीन के पास 60 पनडुब्बियां हैं। भारत के पास 1105 अत्याधुनिक बख्तरबंद वाहन हैं, वहीं चीन के पास 2390 ऐसे वाहन हैं। चीन के पास डीएफ-5 और डीएफ-31 ए जैसे अंतर महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र हैं, जो भारत के किसी भी शहर को निशाना बना सकते हैं। लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों के मामले में भारत ने भी काफी प्रगति की है और हाल ही में भारत ने अग्नि-5 मिसाइल का सफल परीक्षण किया जो बीजिंग, शंघाई समेत चीन के सूदूरवर्ती इलाकों को भी निशाना बना सकती है। भारत के पूर्व थल सेना प्रमुख जनरल वी. के. सिंह ने भी हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर सेना की इस स्थिति से वाकिफ कराया था। उल्लेखनीय है कि 20 अक्टूूबर 1962 को चीन ने भारत की पूर्वोत्तर और उत्तरी सीमा पर हमला किया था। इस हमले में भारत के हजारों जवान शहीद हो गए और देश को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था।

Dark Saint Alaick
22-10-2012, 12:41 AM
नया शोध
कीटनाशकों और मोबाइल टावरों से कौओं के अस्तित्व पर खतरा

भारतीय संस्कृति और साहित्य में किसी न किसी रूप में मानव के करीबी साथी के रूप में मौजूद काले रंग और अपनी चपल दृष्टि के लिए मशहूर पक्षी कौआ किताबों में सिमटकर रह जाएगा, क्योंकि खाद्य बीजों और खेती में बढ़ते कीटनाशकों के उपयोग तथा मोबाइल टावरों के रेडिएशन से प्रभावित कौओं का जीवन खतरे में है। उनकी प्रजनन क्षमता में गिरावट के साथ ही उनकी आबादी में 20 से 30 प्रतिशत तक की कमी आई है। यह दावा एक नए अध्ययन में बैतूल के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राणिशास्त्र विभाग में प्राध्यापक डॉ. सुखदेव डोंगरे ने किया है। मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के आठनेर, आमला, भीमपुर, चिचोली, घोड़ा डोंगरी, मासोद, मुलताई, शाहपुर और पट्टन विकास खंडों में आॅब्जरवेन विधि से किए गए अध्ययन में डॉ. डोंगरे ने पाया कि कृषि रसायन से उपचारित बीज, पालतू पशुओं (गाय-भैंस आदि) पर फंजीसाइड्स, चूहे मारने के लिए साइनाइड कम्पांउड के बढेþ प्रयोग तथा मोबाइल टावर एवं मोबाइल से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन के प्रभाव के कारण घरेलू कौओं की आबादी में 20 से 30 प्रतिशत तक की कमी आई है। डॉ. डोंगरे के शोध पत्र के अनुसार, बैतूल में कौओं की दो प्रजातियां पाई जाती हैं, जिन्हें जनसामान्य घरेलू और जंगली कौए के रूप में पहचानता है। रेडिएशन एवं रसायन से मुख्यत: घरेलू कौओं की संख्या में कमी आई है। घरेलू कौओं का पूरा शरीर काला होता है, लेकिन उनकी गर्दन काली-भूरी होती है, जबकि जंगली कौआ पूर्णत: काला होता है।
डॉ. डोंगरे के शोध पत्र के अनुसार, देश में हरित क्रांति के बाद किसान अनाज का उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि रासायनिक पदार्थों से बीजों को उपचारित करता है। सभी बीज जमीन में नहीं जाते हैं, जिसे कौए चुगते हैं। कीटनाशकों से उपचारित बीज खाने से कौओं की प्रजनन क्रिया, मेटाबोलिक क्रियाओं तथा व्यवहार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, जिससे कौओं की संख्या में काफी कमी आई है। शोध के अनुसार, घरों में चूहों से अनाज को बचाने के लिए उन्हें जहर (साइनाइड कम्पाउंड) देकर मारा जाता है और फिर उन्हें बाहर फेंक दिया जाता है। इन मरे चूहों को कौए खाते हैं। इस कारण कौओं की संख्या में 30 प्रतिशत की कमी आई है। मवेशियों के शरीर पर फंजीसाइड्स का प्रयोग किया जाता है। इसे भी कौए खाते हैं, जिसका उनके प्रजनन पर विपरीत असर पड़ा है। शोध पत्र में कहा गया है कि मोबाइल फोन के बढ़ते उपयोग और मोबाइल टावरों के रेडिएशन की वजह से भी कौओं की संख्या में 30 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई है। विकास की आधुनिक जीवनशैली और उससे पर्यावरण में आए असंतुलित बदलाव के कारण कौओं की संतति पर विपरीत असर हुआ है। भारतीय संस्कृति में पितृ पक्ष में विशेष महत्व रखने वाले कौओं का पूजन किया जाता है और ऐसा माना जाता है कि इसी रूप में पूर्वज हमसे मिलते हैं। पितृ पूजन में नैवेद्य के लिए कौओं का आह्वान किया जाता है, लेकिन यदि कौओं की आबादी ऐसे ही कम होती रही तो एक दिन वे सिर्फ किताब के पन्नों पर सिमटकर रह जाएंगे। मध्यकालीन भक्त कवि तुलसीदास रचित श्रीराम चरित मानस की कथा काक भुशुंडी जी को आलंबन बनाकर जिस तरह से भगवान राम के जीवन का चरित्र उकेरा गया है, उस काक भुशुंडी के बारे में लंदन में वर्ष 1994 में किए गए एक शोध अध्ययन में भी कुछ ऐसा ही दावा किया गया था। मूलत: पक्षियों पर शोध एवं अध्ययन में पाया गया था कि मोबाइल टावर तथा मोबाइल इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन के प्रभाव से गौरैया चिड़िया की आबादी में 75 प्रतिशत की कमी आई थी।
कनाडा के डॉ. बीजू के वर्ष 1973 में एक अध्ययन के अनुसार, माइक्रोवेव रेडिएशन के प्रभाव से पक्षियों में अंडों का 13.7 प्रतिशत प्रोडक्शन बढ़ा है। टी. एफ. कैनेडी तथा ज.े कोनेरी के वर्ष 2007 में एक अध्ययन के अनुसार, रसायन उपचारित बीजों के भक्षण से कौओं पर प्रतिकूल असर पाया गया। उत्तरी अमेरिका एवं यूरोप में पक्षियों पर शोध अध्ययनों में पाया गया कि बीजों के रासायनिक उपचार और खेती में कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग के कारण पक्षियों की मृत्यु दर बढ़ी है। कौए भी इससे अछूते नहीं हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में स्थित पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय की डॉ. सरला शर्मा, प्राध्यापक ने इसी वर्ष छत्तीसगढ़ में पक्षियों पर किए गए अपने अध्ययन में पाया कि राज्य में कौओं की संख्या में कमी आई है। महू अनुसंधान केंद्र के निदेशक और भूगोलवेत्ता डॉ. वाई. जी. जोशी ने डॉ. सुखदेव डोंगरे के शोध निष्कर्ष का समर्थन करते हुए इए अध्ययन को मौलिक और प्रमाणिक बताते हुए कहा कि अब जरूरत इस बात जोर दिए जाने की है कि पक्षियों खासकर कौए के अस्तित्व पर आसन्न संकट से कैसे निपटा जाए। बैतूल शासकीय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. सुभाष लव्हाले और प्राणिशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. आरजी वर्मा ने डॉ. डोंगरे के शोधकार्य की प्रशंसा की है। डॉ. डोंगरे ने इससे पहले मोबाइल रेडिएशन का गौरैया चिड़िया पर पड़ने वाला प्रभाव विषय पर शोध पत्र प्रस्तुत किया है।

Dark Saint Alaick
22-10-2012, 12:49 AM
नया चलन
नवरात्र के फलाहारी जायके पर अंतर्राष्ट्रीय रंग

साबूदाना रिसोटा, कुट्टू पास्ता, फलाहारी पित्जा, कोकोनट बॉल्स, वालनट टैपस .... सुनने में भले ही ये नाम थोड़े नए लगते हैं लेकिन इस बार नवरात्र में इनकी धूम है और लगता है कि नवरात्र पर अंतर्राष्ट्रीय रंग चढ़ रहा है। हालांकि ये व्यंजन नवरात्र के परंपरागत व्यंजनों से अलग हैं लेकिन इन्हें बनाने वालों का दावा है कि ये पूरी तरह फलाहारी हैं। दिल्ली के सागर रत्ना रेस्टोरेंट के प्रोडक्ट डवलपमेंट और क्वालिटी शेफ पारिजात ने कहा, ‘लोग परंपरागत मेनू से कुछ हट कर खाना चाहते हैं। इसीलिए हमने कोशिश की कि नवरात्र में उन्हें सचमुच कुछ नया ही मिले। फ्रूट जूस, फ्रूट सलाद से लेकर पोटैटो पास्ता और अन्य वेरायटी इस बार हमारे नवरात्र मेनू का हिस्सा हैं।’ सुन्दर नगर मार्केट के अनन्दा रेस्तरां में सिंघाड़े के आटे के ‘फ्रूटी गोलगप्पे’ की बहार है। यहां फलों से तैयार की गई ‘फ्रूटी लस्सी’, साबूदाना पुडिंग, फ्रूट पकोड़ा और ‘तंदूरी ग्रिल्ड वेजीज’ भी लोगों को पसंद आ रही है। यहां के शेफ समीर शेल ने बताया, ‘हमारे यहां आलू पनीर टिक्की, फ्रूट चाट, आलू दही चाट, आलू अनारदाना चाट भी है। पेय पदाथो’ में हमने केसर पिस्ता मिल्क, लस्सी, सोडा वाला खस शर्बत तैयार किया है।’ छतरपुर स्थित त्रिवोली गार्डन होटल में सिंघाड़े की टिक्की, तंदूर भरवां आलू, नवरात्र पनीर कबाब, फलाहारी चाट और तिल मखाना खीर मुंह में पानी लाने के लिए पर्याप्त है। यहां के शेफ आशीष चड्ढा ने कहा, ‘पूरे खाने में प्याज लहसुन का कोई उपयोग नहीं किया जा रहा है और सेंधा नमक मिलाया जा रहा है।’ आशीष ने कहा, ‘कुट्टू के आटे की पूरियां, सिंघाड़े के आटे का हलवा और साबूदाने की खीर ... पहले नवरात्र के नौ दिन व्रत करने वाले लोग फलाहार में इसका सेवन करते थे और नवरात्र खत्म होने पर मुंह से निकलता था ‘उब गए उपवास का खाना खा कर, अब हो जाए कुछ जायकेदार ...।’ इसीलिए हमने इस बार नवरात्र की थाली जायकेदार बनाने की कोशिश की है।’ गुड़गांव स्थित जूरा रेस्तरां में कुट्टू पास्ता, फ्रूटकेक, पित्जा ब्रेड नवरात्र के लिए तैयार किए गए हैं। द मेट्रोपोलिस होटल एंड स्पा में कुट्टू के आटे और सूखे मेवे से पाइनैपल कुकीज तैयार की गई तो एशिया किचन ने कोकोनट बॉल्स और कोकोनट आइसक्रीम पेश की है। पिज्जोरियो रोजा ने बिना प्याज लहसुन का फलाहारी पित्जा तैयार किया है। हिल्टन मयूर के कार्यकारी शेफ मयूर थापा ने कहा, ‘हमने नवरात्र के व्यंजनों को इतालवी स्वाद देने की कोशिश की और स्वदेशी बकव्हीट तथा पोटैटो पास्ता तैयार किया। कद्दू का सूप, आलू का सूप भी लोगों को पसंद आ रहा है। परंपरागत व्यंजनों में कद्दू का हलवा, साबूदाने की टिक्की, अरबी पकोड़ा तो हैं ही।’ हौजखास स्थित वेरवे रेस्तरां ने स्पैनिश फूड की तरह नवरात्र में फलाहारी लेमन ग्रीन टैपस, एप्पल टैपस और वालनट टैपस पेश किए हैं। बज रेस्तरां के गगन कपूर ने कहा ‘रसोई एक रसायनिक प्रयोगशाला की तरह है। बस, प्रयोगों की जरूरत है। हमने पहली बार साबूदाना रिसोटो, साबूदाना बॉल्स, ग्रिल्ड कॉटेज चीज पेश किया है।’

Dark Saint Alaick
22-10-2012, 12:58 AM
अजूबा
वहां चालीस वर्षों से हो रही है शिव भक्त रावण की पूजा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=18921&stc=1&d=1350849500

देश में विजयादशमी के पर्व को बेशक असत्य पर सत्य की जीत कहकर पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता हो और इस अवसर पर बुराई के प्रतीक रावण के हजारों की संख्या में पुतले दहन किये जाते हों लेकिन इस बहुचर्चित पौराणिक चरित्र को इंदौर में कुछ लोग लगभग 40 सालों से पूज रहे हैं । हिंदुओं की प्रचलित धार्मिक मान्यताओं से एकदम अलग शिवभक्त रावण की पूजा की यह परंपरा दशहरे पर 24 अक्तूबर को भी जारी रहेगी, जबकि दूसरी ओर त्यौहारी उल्लास के बीच हजारों की संख्या में पूरे देश में रावण के पुतले धू-धू करके जल रहे होंगे। ‘जय लंकेश मित्र मंडल’ के अध्यक्ष महेश गौहर ने बताया, ‘हम इस बार भी दशहरे पर गाजे-बाजे के साथ रावण की पूजा-अर्चना करेंगे। इस मौके पर दशानन की आरती होगी, कन्याओं का पूजन किया जायेगा और प्रसाद भी बांटा जायेगा।’ इसमें काफी संख्या में लोग हिस्सा लेंगे । गौहर ने बताया कि उनकी अगुवाई वाला संगठन 10 सिरों वाले पौराणिक चरित्र को विजयादशमी पर करीब चार दशकों से पूज रहा है और अपने आराध्य रावण की आम छवि बदलने की कोशिशों में भी जुटा है। वह कहते हैं, ‘रावण भगवान शिव के परम भक्त और प्रकांड विद्वान थे। हम चाहते हैं कि दशहरे पर जगह-जगह रावण का दहन नहीं, बल्कि पूजन हो।’ उन्होंने बताया कि शहर में रावण के मंदिर के निर्माण का काम लगभग पूरा हो चुका है। सब कुछ योजना के मुताबिक रहा तो अगले दो महीने के भीतर इस मंदिर में रावण की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हो जायेगी, ताकि विधि-विधान से उनके आराध्य की हर रोज पूजा-अर्चना हो सके। गौहर बताते हैं कि उन्होंने सरकारी या गैर सरकारी संगठनों अथवा किसी आम व्यक्ति से रावण का मंदिर बनवाने के लिए दान में जमीन मांगी थी, लेकिन रावण की आम छवि के चलते कोई भी उन्हें जमीन देने का तैयार नहीं। सही भी है कि इस देश में रावण का मंदिर बनवाने के लिये कौन जमीन देगा । इस कोशिश में नाकामी पर उन्होंंने आखिरकार अपनी पुश्तैनी जमीन पर यह मंदिर बनवाने का काम शुरू करा दिया है। गौहर ने बताया कि उन्होंने रावण के मंदिर के पास उनकी मां ‘कैकेसी’ का भी छोटा सा मंदिर बनवाया है। कैकेसी को दशानन के स्थानीय भक्त ‘दशा माता’ के नाम से पुकारते हैं। करीब 66 वर्षीय गौहर पर रावण की भक्ति का रंग कुछ इस कदर चढा है कि उन्होंने करीब चार साल पहले दशहरे पर अपने पोते का नाम ‘लंकेश्वर’ और पोती का नाम ‘चंद्रनखा’ रखने का फैसला किया। इस मौके पर एक पुरोहित की मदद से बाकायदा नामकरण संस्कार भी किया गया। रावण भक्तों के संगठन के अध्यक्ष की मानें तो दशानन की बहन का असली नाम ‘चंद्रनखा’ ही था। श्रीलक्ष्मण ने जब उसकी नाक काटी तो उसे ‘शूर्पणखा’ के नाम से जाना गया। उन्होंने बताया, ‘हम परिसंवाद जैसे कार्यक्रमों के जरिये रावण के व्यक्तित्व के छिपे पहलुओं को सामने लाकर उनकी आम छवि बदलने की कोशिश करते हैं। इसके साथ ही, जनता से अनुरोध करते हैं कि दशहरे पर रावण के पुतले फूंकने का सिलसिला बंद हो।’ बहरहाल, गौहर बताते हैं कि मध्य प्रदेश में उन जैसे रावण भक्तों की कमी नहीं है। प्रदेश के विदिशा, मंदसौर, पिपलदा (उज्जैन), महेश्वर और अमरवाड़ा (छिंदवाड़ा) में अलग-अलग रूपों में रावण की पूजा होती है।

Dark Saint Alaick
22-10-2012, 02:08 AM
नज़ीर/बेनज़ीर
पाकिस्तानी न्यायाधीश के मकान में लगी हैं भारत की मिट्टी और र्इंटें

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=18924&stc=1&d=1350853699

इसे पिता के भारत प्रेम के प्रति अगाध श्रद्धा कहें अथवा पत्नी के प्रति आदर और सम्मान का भाव, पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश खलीलउर रहमान रामदे जब 2005 में पहली बार भारत आए थे तो यहां से अपने पिता और ससुर के घर की मिट्टी और र्इंटें लेकर वापस लौटे थे। हाल ही में यहां आए रामदे ने बताया कि लाहौर स्थित अपने घर में उन्होंने इस मिट्टी और र्इंटों का इस्तेमाल किया है। पंजाब के नवांशहर में स्थित ‘दोआबा आर्य सीनियर सेकंडरी स्कूल’ में अपने पिता तथा पाकिस्तान के एक हाई कोर्ट के न्यायाधीश मोहम्मद सादिक के नाम पर बनवाए आडिटोरियम का उद्घाटन करने आए जस्टिस रामदे ने अपने जज्बात का इजहार करते हुए बताया कि नवांशहर जिले के करियाम गांव में मेरे पूर्वजों का घर था। मेरे पिता का बचपन और जवानी इसी गांव में बीता है। वह यहीं एक अधिवक्ता के तौर पर पै्रक्टिस करते थे। इसी स्कूल से उन्होंने पढ़ाई की थी। हम लोगों से हमेशा उस स्कूल का जिक्र करते थे। पिता के निधन के बाद मैं मार्च, 2005 में भारत आया। अपने पिता के गांव गया। अधिकारियों की इजाजत से मैं वहां की तथा जालंधर के पक्काबाग इलाके में स्थित अपने ससुर के घर की र्इंटें और मिट्टी लेकर वापस लौटा। लाहौर में जब मैंने अपना मकान बनवाया तो उसमें इनका मैंने इस्तेमाल किया। जस्टिस रामदे जब यहां आए थे तो करियाम गांव गए थे। वहां पिता का पुराना मकान देख कर वह इस कदर भावुक हो गए कि उनकी आंखों से आंसू बह निकले। उन्होंने वहां की मिट्टी उठाई और उसे अकीदत से अपने माथे से लगाया। इस बारे में पूछने पर पाक जज ने कहा कि मैं अपने पिता का पुराना घर देखकर बहुत भावुक हो गया था और मेरी आंख भर आर्इं। मैं चाहता था कि किसी भी तरह इस याद को मैं अपने साथ ले जाऊं, इसलिए मैंने उस घर की मिट्टी और र्ईंटें लेने की इच्छा जताई। यहां के मेहरबान लोगों ने मुझे उस याद को सहेजने में मदद की। उन्होंने रुंधे गले से कहा कि मेरे लिए यह संभवत: दुनिया का यह सबसे अनमोल तोहफा था। मेरी पत्नी के पिता का घर जालंधर में था। वहां से भी कुछ र्इंटें मैंने लीं। मेरे ससुर तथा पाक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस याकूब अली खान भी यहां प्रैक्टिस करते थे। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के शासन काल के दौरान पैदा हुए न्यायिक संकट से जुड़े कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करने वाले रामदे ने कहा कि मैं भारत को अपना दूसरा घर मानता हूं। मुझे यहां से काफी मान-सम्मान मिला। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय ने मुझे डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी है। जब भी मैं यहां आया, मुझे कभी नहीं लगा कि मैं अपने घर से बाहर हूं। उन्होंने कहा कि एक बार भारत दौरे के दौरान जब मैं पूरी नमाज पढ़ने के बाद उठा तो मेरी पत्नी ने मुझे टोका और कहा आप घर से बाहर हैं तो ‘सुन्नत’ और ‘नफिल’ क्यों पढ़ी? सिर्फ आधी ‘फर्ज’ पढ़नी चाहिए थी। इस पर मैंने कहा कि नहीं, यह भी मेरा घर है और मैं अपने घर से बाहर नहीं हूं। रामदे ने बताया कि मेरे वालिद जस्टिस मोहम्मद सादिक हमेशा कहा करते थे कि उन्हें नवांशहर से जालंधर पढ़ने के लिए जाना पड़ता था। बहुत लोग नहीं जा पाते थे। वहां के कुछ हिंदुओं ने अपने संसाधनों से 1911 में एक स्कूल बनवाया। मेरे पिता ने 1919 में वहां दाखिला लिया। उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और जज की कुर्सी तक पहुंचे। उन्होंने कहा कि मुसलमान होकर उन्होंने हिंदू स्कूल में दाखिला लिया और कभी किसी तरह की दिक्कत नहीं आई। वालिद साहब हमेशा इस स्कूल का जिक्र करते थे। उनसे स्कूल के बारे में सुनकर मेरे मन में वहां उनकी याद में कुछ तामीर कराने की ख्वाहिश जगी। पंजाब सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुझसे कहा कि आप जो चाहते हैं उसका निर्माण सरकार करवाएगी और जस्टिस सादिक के नाम पर उसका नामकरण होगा, लेकिन यह मेरी आत्मसंतुष्टि का विषय था। अंतत: मुख्यमंत्री सहमत हो गए। उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान के अंदरूनी हालात, उनकी नजरबंदी सहित अन्य कारणों से इसके उद्घाटन में देरी हुई। हालांकि, 18 अक्टूबर को इसका उद्घाटन कर दिया गया। रामदे के साथ मौजूद हरिद्वार स्थित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति स्वतंत्र कुमार ने बताया कि शहीद ए आजम भगत सिंह के खिलाफ मुकदमों की सुनवाई से सम्बंधित सभी दस्तावेज जस्टिस रामदे ने हमें मुहैया कराए हैं, जिन्हें विश्वविद्यालय में रखा गया है।

Dark Saint Alaick
22-10-2012, 05:25 AM
श्रद्धांजलि
रोमांस की नई परिभाषा गढ़ी थी यश चोपड़ा ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=18938&stc=1&d=1350865524

दुनिया को अलविदा कह गये प्रसिद्ध फिल्म निर्माता निर्देशक यश चोपड़ा ने अपने पांच दशक के बॉलीवुड करियर में कई फिल्मों के जरिये रोमांस की नयी परिभाषा गढी। चोपड़ा ने भारतीय सिनेमा की सबसे सफलतम फिल्मों का निर्देशन किया। ‘एंग्री यंग मैन’ अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’ से लेकर ‘बादशाह’ शाहरुख खान की ‘दिल तो पागल है’ जैसी फिल्में देने वाले यश चोपड़ा ने कैमरे के पीछे जाकर दशकों तक दर्शकों की नब्ज को थामे रखा। चोपड़ा और बच्चन की जोड़ी ने बॉलीवुड की ‘कभी कभी’ और ‘त्रिशूल’ जैसी फिल्में भी दीं। यदि शाहरुख खान फिल्मों के बादशाह हैं, तो यश चोपड़ा ‘किंगमेकर’ हैं। उन्होंने ही अपने कैमरे की कलाकारी से कई अभिनेताओं को बॉलीवुड का सुपरस्टार बना दिया। हालांकि उन्होंने अपना करियर अलग तरह की फिल्में बना कर शुरु किया, पर उन्हें हमेशा ‘चांदनी’, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’, ‘सिलसिला’ जैसी फिल्मों के लिये याद रखा जायेगा। उनकी शैली की रोमांटिक फिल्मों के लिये ‘यश चोपड़ा रोमांस’ लफ्ज़ ईजाद हुआ। उन्होंने अपने पांच दशक के करियर में 50 से अधिक फिल्में बनायीं।
यश चोपड़ा को उनके फिल्मी करियर में छह राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 11 फिल्मफेयर पुरस्कारों से नवाजा गया। उन्हें उनकी फिल्मों के चार बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। लाहौर में 27 सितंबर 1932 को जन्मे चोपड़ा बंटवारे के बाद भारत आ गये। वह इंजीनियर बनना चाहते थे। हालांकि फिल्म निर्माण के लिये अपने जज्बे के चलते वह मुंबई चले गये, जहां वह आई. एस. जौहर और फिर अपने निर्माता निर्देशक भाई बी. आर. चोपड़ा के साथ सहायक निर्देशक बन गये। फिल्मों की कामयाबी के बाद चोपड़ा बंधुओं ने 50 और 60 के दशक में कई फिल्में बनायीं। यश चोपड़ा की पहली सफल फिल्म ‘वक्त’ को माना जाता है, जो 1965 में आयी थी। इस फिल्म से ही बॉलीवुड में मल्टी स्टारर फिल्मों का चलन शुरु हुआ। उन्होंने फिल्म ‘चांदनी’ से अपनी रोमांटिक फिल्मों की पारी शुरु की। इसके बाद 1991 में उन्होंने ‘लम्हे’ बनायी। बॉलीवुड के बादशाह शाहरुख खान के साथ चोपड़ा का सफर 1993 में शुरु हुआ, जब उन्होंने ‘डर’ बनायी। इस फिल्म में शाहरुख ने एक पागल प्रेमी की दमदार और असरदार भूमिका निभायी थी।
‘डर’ (1993 ) के बाद से उन्होंने तीन फिल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उन्होंने सिर्फ शाहरुख को ही मुख्य अभिनेता के रूप में चुना। 1997 में ‘दिल तो पागल है’... 2004 में ‘वीर जारा’ और इस साल 13 नवंबर को आने वाली फिल्म ‘जब तक है जान’ में चोपड़ा-खान की इस जोड़ी ने पर्दे पर रूमानियत को नया आयाम दिया। पिछले महीने अपने 80 वें जन्म दिन पर एक साक्षात्कार में चोपड़ा ने शाहरुख के बारे में कहा था, ‘मुझे उनके साथ काम कर हमेशा एक अलग अनुभव हुआ। उन्होंने कभी मुझसे यह नहीं पूछा कि कहानी किस बारे में है और उन्हें कितने पैसे मिलेंगे। मैंने जब भी उन्हें चेक भेजा, उन्होंने पूछा कि मैंने उन्हें इतनी भारी रकम क्यों भिजवाई।’ यश राज बैनर तले बनी दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995), ‘दिल तो पागल है’ (1997), ‘मोहब्बतें’ (2000), ‘रब ने बना दी जोड़ी’ (2008) में भी शाहरुख ने ही पर्दे पर रूमानी किरदारों को जीया। चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा भी एक सफल निर्देशक हैं और यश की विरासत को आगे ले जा रहे हैं। कुछ फिल्मों में पर्दे पर दिख चुके उनके दूसरे बेटे उदय चोपड़ा फिल्म निर्माण कंपनी की अंतरराष्ट्रीय शाखा का काम देख रहे हैं।

ndhebar
22-10-2012, 10:16 PM
Meri mashrufiyat ki had dekhiye
yash sahab ke gujarane ki khabar mujhe abhi pata chali....
strange..

Dark Saint Alaick
23-10-2012, 12:42 AM
जन्मदिवस पर विशेष
आम आदमी की पीड़ा, स्वप्न एवं आक्रोश की आवाज थी ‘अदम’ की कविता

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=18962&stc=1&d=1350934947

हिन्दी साहित्य में अदम गोंडवी एक ऐसे अक्खड़ की आवाज थी, जिसने आशिक..माशूक के मिजाज वाली गजल को आमजन की पीड़ा, स्वप्न और आक्रोश की आवाज बनाया। आलोचक एक स्वर में स्वीकार करते हैं कि अदम ने कविता और गजलों में भाषा की वर्जनाओं और परंपराओं को तोड़ते हुए उसे समाज के बंद और अंधेरे कोनों की तड़प से जोड़ दिया। घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा कुर्ता और गले में सफेद गमछा डाले ठेठ देहाती रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी की गजलों का निपट गंवई अंदाज, आज की महानगरीय और चमकीली कविता को नये सिरे से सोचने का विकल्प देता है। हिन्दी आलोचक मानते हैं कि अदम ने अपने काव्य के जरिये उस परंपरा के सूत्रों को पकड़ने या उसे आगे बढाने का प्रयास किया जो कबीर, निराला या दुष्यंत में देखने को मिलती है। आज के हालात पर अदम का अंदाज कुछ ऐसा है... काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में । उतरा है रामराज विधायक निवास में । पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत । इतना असर है खादी के उजले लिबास में। पत्रकार एवं दैनिक हिन्दुस्तान लखनउ के संपादक नवीन जोशी ने अदम से संबंधित अपने संस्मरण साझा करते हुये कहा कि इमरजेंसी के बाद सक्रिय और उम्मीद भरे वर्षो में हमारे दौर के अनेक युवा, ‘सौ में सत्तर आदमी और ले मशालें चल पड़े’ जैसे गीतों को सुनकर वाम आंदोलन में कूद पड़े। उत्तराखंड में चलने वाले जनांदोलनों में अदम के गीत बहुत गाये जाते थे। 1984-85 के बाद जब गिर्दा ने संस्था बनाकर सांस्कृतिक और आंदोलनकारी जनगीतों की छोटी पुस्तिकाएं और कैसेट निकाले, तो उसमें अदम के अनेक गीतों को शामिल किया गया।
जनांदोलन और विरोध प्रतिरोध के जुलूस में अदम की शायरी नारे की तरह गाई जाती है। हालांकि अदम को नयी पीढी पर पूरा भरोसा है और अपनी रचनाओं के माध्यम से युवाओं से देश को संभालने का आह्वान करते है। उन्होंने कहा, ‘सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिए, मुल्क क्या आजाद है। ये नयी पीढी पे निर्भर है, वही जजमेंट दे, फलसफा गांधी का मौजूं है, कि नक्सलवाद में’’ पत्रकार एवं संपादक दयाशंकर राय ने बताया, ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र जीवन में शहर के प्रमुख स्थानों में ब्रेख्त, नेरूदा, मुक्तिबोध, धूमिल, निराला और गोरख पाण्डेय के साथ अदम की कविताओं के पोस्टर भी लगाये जाते थे।’ उन्होंने कहा कि मार्क्स ने दुनिया और समाज को समझने की सुसंगत दृष्टि दी, तो अदम जैसे कवियों ने हाशिये पर पड़े समाज के सबसे वंचित और उपेक्षित व्यक्ति की पीड़ा से जुड़ने और उसे समझने की संवेदना विकसित की। आमजन की पीड़ा को उन्होंने कुछ ऐसे लिखा... घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है, बताओ कैसे लिख दूं, धूप फाल्गुन की नशीली है। या दूसरी कविता....आंख पर पट्टी और अक्ल पर ताला रहे। अपने शाहे वक्त का यू मर्तबा आला रहे। तालिबे शोहरत है, कैसे भी मिले मिलती रहे। आए दिन अखबार में प्रतिभूति घोटाला रहे। आज के समाज में फैले भ्रष्टाचार पर अदम की कविता... जो उलझ कर रह गयी, फाइलों के जाल मेंं। गांव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में। बूढा बरगद साक्षी है, किस तरह से खो गयी। रामसुध की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में। राय ने कहा कि अदम का ग्रामीण और खुरदुरा जीवन हमारे मध्यवर्गीय सौन्दर्यबोध के खांचे में फिट नहीं बैठता, अदम को समझने के लिए हमें प्याज की गांठ सरीखे व्यक्तित्व से मुक्त होना होगा।
प्रख्यात समीक्षक विश्वनाथ त्रिपाठी आजादी के बाद हिन्दी-उर्दू गजलों की परंपरा में अदम के योगदान को रेखांकित करते हैं। त्रिपाठी ने कहा, ‘समकालीन समय में अदम शब्द की परंपरा को पहचानने वाले विरल कवि थे। उनकी गजलों में शेर को पूरा करने के लिए घाल-मेलकर ठूंसे गये शब्दों की जगह उर्दू की जातीय परंपरा से उपजी लय, नाद, ध्वनि और शब्द-मैत्री का साझा संधान है।’ उन्होंने कहा, ‘अदम उर्दू गजल को बीहड़ रास्ते में ले गये और उसे आमजन की पीड़ा, स्वप्न और आक्रोश की व्यंजना की आवाज बनाया।’ सांप्रदायिकता के विषय में अदम की कविता आज भी मौजूं है... हममे कोई शक, कोई हूण कोई मंगोल है। दफ्न है जो बात उस बात को मत छेड़िए। गर गलतियां बाबर की थी, जुम्मन का घर फिर क्यों जला, ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए। हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां। मिट गये सब, कौम की औकात को मत छेड़िए। देश के आज के हालात पर अदम का कहना है ... जो डलहौजी न कर पाया, वो ये हुक्काम कर देंगे। कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे। ये बंदे मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर, मगर बाजार में चीजों का दुगना दाम कर देंगे। सदम में घूस देकर बच गयी कुर्सी तो देखोगे, वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे। अदम गोंडवी का जन्म आजादी के कुछ महीने बाद 22 अक्तूबर 1947 को गोंडा जनपद के परसपुर आटा ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री देवी कलि सिंह और माता का नाम मांडवी सिंह था। उनका असल नाम रामनाथ सिंह था, लेकिन उन्होंने लेखन के लिए अपना नाम अदम गोंडवी रख लिया। अदम कबीर परंपरा के कवि थे और उनकी लिखाई पढाई उतनी ही हुयी थी, जितनी किसी किसान ठाकुर के लिए जरूरी थी। जीवन काल में उनकी दो कृतियां ‘धरती की सतह पर’ और ‘समय से मुठभेड़’ प्रकाशित हुयीं। 18 दिसंबर 2011 को वह अपना शब्द संसार की विरासत छोड़कर इस दुनिया से विदा हो गए।

ndhebar
23-10-2012, 10:14 PM
this is one of the best post in this thred....
Excellent....

Dark Saint Alaick
24-10-2012, 01:38 AM
this is one of the best post in this thred....
Excellent....

धन्यवाद, निशांतजी ! मैं आपके शहर के समानधर्मा दो दिग्गजों पर भी इसी तरह लिखना चाहता हूं, लेकिन समयाभाव करने नहीं देता ! किन्तु कभी लिखूंगा जरूर ! पटना के ये दो दिग्गज हैं कर्मेंदु शिशिर और राणा प्रताप !

ndhebar
24-10-2012, 10:23 AM
धन्यवाद, निशांतजी ! मैं आपके शहर के समानधर्मा दो दिग्गजों पर भी इसी तरह लिखना चाहता हूं, लेकिन समयाभाव करने नहीं देता ! किन्तु कभी लिखूंगा जरूर ! पटना के ये दो दिग्गज हैं कर्मेंदु शिशिर और राणा प्रताप !
कभी मौका मिले तो अवश्य लिखियेगा

Dark Saint Alaick
24-10-2012, 04:35 PM
25 अक्तूबर को साहिर की पुण्यतिथि पर
‘मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19025&stc=1&d=1351078476

जज्बात, अहसास, शिद्दत और सच्चाई के शायर साहिर ने अपनी शायरी से दरबार और सरकार के खिलाफ आवाज तो बुलंद की ही, साथ ही साथ उन्होंने अपने दौर में ही आज के हालात को अपनी नज्मों में बयां कर दिया था। बेरोजगार, शोषित वर्ग और युवाओं के हीरो रहे साहिर के बारे में मशहूर शायर मुनव्वर राना ने कहा कि शायरी में साहिर ने मजहबी कट्टरवाद को तोड़ने की रवायत को पुरजोर तरीके से आगे बढाया। फिल्म 1959 में आयी फिल्म ‘धूल का फूल’ का गीत- ‘तू हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ और फिल्म हम दोनों (1961) का गीत-‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम’ को हमेशा गंगा जमुनी तहजीब की नजीर माना जाता रहा है। ऊंचे पाए के शायर साहिर ने अपने आक्रोश को जाहिर करने के लिये पैरोडी का सहारा लेने से गुरेज नहीं किया। उन्होंने अल्लामा इकबाल के गीत ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा’ को बेघर और फुटपाथ पर सोेने वालों के हक में बदल कर कहा- ‘चीनो अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा, रहने को घर नहीं है, सारा जहांं हमारा।’ प्रसिद्ध शायर मंसूर उस्मानी का कहना है कि साहिर एक जमींदार परिवार में पैदा हुए थे, फिर भी उन्होंने अपनी जिंदगी और अपने कलाम में सरमायादारों की मुखालफत की। वह हुकूमत और कुदरत के असामान्य बंटवारे के विरोध में शोषितोें और मुफलिसों के लिए लिखते रहे। अब्दुल हई साहिर का जन्म लुधियाना के जागीरदार के परिवार में हुआ था। उनकी तालीम लुधियाना के खालसा कालेज में हुई। 1943 में उनकी पहली किताब ‘तल्खियां’ प्रकाशित हुई जिससे साहिर को पहचान मिली।
अपने तखल्लुस के बारे मेें पूछे जाने पर साहिर ने आॅल इंडिया रेडियो को दिए साक्षात्कार में बताया था, ‘क्योंकि कोई ने कोई तखल्लुस रखने का रिवाज था, इसलिए मैं अपनी किताबों के वर्क उलट कर किसी मौजंू लफ्ज की तलाश में था, जिसे मैं अपना तखल्लुस बना सकूं। अचानक मेरी नजर एक शे'र पर पड़ी, जिसे इकबाल ने दागÞ के लिए लिखा था- ‘इस चमन में होंगे पैदा बुलबुल ऐ शीराज भी, सैकड़ों साहिर भी होंगे, साहिब ए एजाज भी।’ मुझे इसमें से साहिर लफ्ज अपने तखल्लुस के लिए मुनासिब लगा।’ इश्क के पुजारी रहे इस शायर की कई नज्मों में रूमानियत की खूबसूरत और भीनी-भीनी महक भी थी। ‘छू लेने दो नाजुक होठों को, कुछ और नहीं हैं जाम हैं ये', ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’ और ‘ऐ मेरी जोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं’ जैसे गीत लिखे, जिन्हें आज भी गुनगुनाया जाता है। ‘वो भी एक पल का किस्सा थे, मैं भी एक पल का किस्सा हूं, कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूं’ लिखने वाले साहिर ने 25 अक्तूबर 1980 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, पर कभी मोहब्बत, कभी फलसफे, कभी विद्रोह, तो कभी सामाजिक मसलों के गीत लिखने वाले साहिर को हमेशा गुनगुनाया जाता रहेगा।

एक नज़्म

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19026&stc=1&d=1351078476

Dark Saint Alaick
29-10-2012, 01:47 AM
नई किताब
मधुबाला ने मात्र एक रुपया लेकर फिल्म का अनुबंध किया था

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19140&stc=1&d=1351457182

हिन्दी फिल्मों के शोमैन राज कपूर की चर्चित फिल्म आवारा में उनके दादाजी यानी पृथ्वीराज कपूर के पिता ने भी अभिनय किया था। उनका नाम बसेसरनाथ था और वह जज बने थे। मधुबाला ने एक फिल्म में काम करने के लिए केवल एक रुपए में अनुबंध किया था। महान निर्देशक बिमल राय ने अपनी प्रसिद्ध फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ का नाम गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता पर रखा था और मदर इंडिया के मशहूर निर्देशक महबूब खान जब मुंबई फिल्मों में काम के लिए पहुंचे तो बिना टिकट लिए ही ट्रेन से गए थे। गुरुदत्त की मशहूर फिल्म ‘प्यासा’ पहले मधुबाला और नर्गिस को लेकर बनने वाली थी, पर वे दोनों तय नहीं कर पार्इं कि वे कौन सी भूमिका निभाएंगी, बाद में उनकी जगह माला सिन्हा और वहीदा रहमान ने निभाई। ऐसी अनेक दुर्लभ जानकारियां हिन्दी सिनेमा के सौ साल पर प्रकाशित पुस्तक ‘हाउस फुल’ में दी गई है, जिसका लोकार्पण 30 अक्टूबर को प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक गुलजार, महेश भट्ट और अनुराग कश्यप करेंगे। इस पुस्तक का संपादन मशहूर फिल्म पत्रकार जिया उल सलाम ने किया है जो अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू’ के फीचर संपादक भी हैं। इस पुस्तक की भूमिका महेश भट्ट ने लिखी है और उपसंहार जयाप्रदा ने लिखा है। पुस्तक में हिन्दी सिनेमा के स्वर्णयुग के बारे में स्व. बिमल राय, गुरुदत्त, महबूब खान, व्ही शांताराम के अलावा नवकेतन प्रोडक्शन, शक्ति सामंत, बी. आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा के अलावा आजादी के बाद बनी 50 सर्वाधिक हिट फिल्मों के बारे में आलेख दिए गए हैं। इनमें 1951 में बनी फिल्म बैजू बावरा से लेकर 1969 में बनी खामोशी शामिल है। पुस्तक की भूमिका में महेश भट्ट ने लिखा है कि हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण युग महबूब खान, बिमल राय, के. आसिफ, गुरुदत्त, राजकपूर और चेतन आनंद ने बनाया था। पुस्तक में संपादक जिया ने बिमल राय की मशहूर फिल्म ‘सुजाता’ के लेखक सुबोध घोष के बारे में जानकारी दी है कि घोष ने न केवल महात्मा गांधी के साथ काम किया था, बल्कि वह बस के कंडक्टर, सर्कस में जोकर और नगर निगम में सफाई कर्मचरी का भी काम कर चुके थे। यही कारण है कि वह जाति व्यवस्था पर प्रहार करने वाली ऐसी फिल्म की कहानी लिख सके थे। पुस्तक में ‘गाइड’ फिल्म के बारे में लिखा गया है कि इस फिल्म में विवाहेतर प्रेम सम्बंधों पर गंभीर आपत्ति व्यक्त की गई थी और इसे मंत्रिमंडल के सामने प्रदर्शित किया गया था। प्रधानमंत्री को छोड़कर शेष सभी मंत्रियों ने यह फिल्म देखी थी। फिल्म के आलोचकों ने भी सूचना प्रसारण मंत्रालय से अनुरोध किया कि इस फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट नहीं दिया जाना चाहिए। इस फिल्म की अभिनेत्री वहीदा रहमान ने धमकी भी दी थी कि अगर राज खोसला इस फिल्म को निर्देशित करेंगे तो वह इस फिल्म से हट जाएंगी। पुस्तक के अनुसार, शक्ति सामंत का चयन भरतीय वायुसेना में हो गया था पर उनकी मां ने सेना में नौकरी करने से मना कर दिया। जब शक्ति सामंत ने 1957 में हावड़ा ब्रिज फिल्म बनाई तो मधुबाला को 1001 रुपए की पेशकश की गई थी, लेकिन फिल्म के अनुबंध के लिए मधुबाला ने केवल एक रुपया लिया और कहा कि वह शेष राशि फिल्म बन जाने के बाद लेंगी। इससे पता चलता है कि हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण युग उस जमाने के कलाकारों की निष्ठा, लगन और ऊंचे आदर्शों के कारण संभव हुआ।

Dark Saint Alaick
30-10-2012, 12:36 AM
30 अक्टूबर : पुण्यतिथि पर सादर नमन
गजलों में सुर-ताल की ‘बेगम’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19150&stc=1&d=1351539356

आवाज की खूबसूरती, कोमलता और निर्मलता, इन्हीं तमाम खूबियों के चलते आज भी ठुमरी श्रोताओं के बीच बेगम अख्तर खास पहचान रखती हैं। आज के रिमिक्स संगीत और हिप-हॉप पर झूमती युवा पीढ़ी भी इनकी निर्मल आवाज सुनकर यकायक ठहर सी जाती है। बेगम अख्तर की इस खास पहचान के पीछे की वजह थी उनकी पुरसोज आवाज और अनथक रियाज, जिसके चलते उन्हें अमिट पहचान मिली। गजल हो या ठुमरी अथवा दादरा या ख्याल गायकी, बेगम अख्तर को भारतीय शास्त्रीय संगीत में महान गायिका के रूप में जाना जाता है। इसी कारण उन्हें गजलों की रानी कहा जाता था। उनकी प्रथम रिकॉर्डिंग ‘वो असीरे दम...’ से लेकर आल इंडिया रेडियो के लिए की गई थी। उनका पहला ग्रामोफोन रिकॉर्ड मात्र 14 वर्ष की आयु में कोरियन कम्पनी ने तैयार किया। हर गायक-कलाकार की तरह बेगम अख्तर का भी अपना ही अलग अंदाज था। वे अपने गायन की शुरुआत अक्सर किराना शैली में खयाल गायन से करती थीं। उसके बाद ठुमरी, दादरा तथा गजल गाती थीं।
मिठासभरी गजल गायकी
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में 7 अक्टूबर, 1914 में जन्मीं बेगम अख्तर का बचपन से ही संगीत की ओर रुझान था। वह पार्श्वगायिका बनना चाहती थीं। उनका परिवार उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ था, लेकिन चाचा ने बेगम अख्तर के संगीत के प्रति लगाव को पहचाना और उन्हें इस राह पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। बेगम अख्तर ने फैजाबाद में सारंगी के उस्ताद इमान खां और अता मोहम्मद खान से संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा ली। इसके अलावा उन्होंने मोहम्मद खान और अब्दुल वहीद खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा। मेहनत और लगन से उन्होंने शास्त्रीय संगीत में महारत हासिल की, लेकिन उनका मूल झुकाव ठुमरी, दादरा और गजल की ओर ज्यादा रहा। मिठासभरी आवाज से गजल गायकी को एक नई दिशा देने वाली बेगम अख्तर के गायन की कलात्मकता, सौंदर्य एवं शास्त्रीय परिपक्वता ने गजल गायकी को एक नई दिशा प्रदान की। वे अपने गायन की शुरुआत अक्सर किराना शैली में ख्याल गायन से करती थीं। उसके बाद ठुमरी, दादरा तथा गजल गाती थीं।
छाया आवाज का जादू
बिहार में भूकम्प पीड़ितों की सहायता के लिए संगीतज्ञ उस्ताद अता मोहम्मद खान ने जलसे का आयोजन किया था, जिसमें फैयाज खान, विलायत खान, केसरबाई और मोगू बाई कुर्डीकर जैसे नामी-गिरामी कलाकार आमंत्रित थे। कार्यक्रम में पूर्व निश्चित समय पर उनके पहुंचने में विलम्ब होने पर अता मोहम्मद खान ने दर्शकों के मनोरंजन के लिए एक छोटी सी शिष्या बिब्बी को गाने का मौका दिया। बिब्बी ने मंच पर जाकर ऐसा सुर लगाया कि हो-हल्ला करने वाले श्रोता शांत हो गए और बाहर गए श्रोता भी वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए। दूसरे दिन अखबार में उस छोटी लड़की की तारीफ छपी। यही नहीं, कलकत्ता की मशहूर मेगाफोन कम्पनी के अधिकारी भी उस लड़की से आकर मिले और उसके गानों का रिकॉर्ड बनाने की पेशकश की। यही बिब्बी बाद में संगीत जगत की महान गायिका बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हुई।
तू सच्ची अदाकारा है बिटिया
तीस के दशक में बेगम अख्तर पारसी थिएटर से जुड़ी। नाटकों में काम करने के कारण उनका रियाज छूट गया, जिससे उनके गुरु मो. अता खान काफी नाराज हुए। उन्होंने कहा कि जब तक तुम नाटक में काम करना नहीं छोड़ती, मैं तुम्हें गाना नहीं सिखाऊंगा। उनकी इस बात पर बेगम अख्तर ने कहा कि आप सिर्फ एक बार मेरा नाटक देखने आ जाए, उसके बाद आप जो कहेंगे मैं करूंगी। उस रात मो. अता खान बेगम अख्तर के नाटक ‘तुर्की हूर’ देखने गए। जब बेगम अख्तर ने उस नाटक का गाना ‘चल री मोरी नैय्या...’ गाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गए और नाटक समाप्त होने के बाद बेगम से उन्होंने कहा कि ‘बिटिया तू सच्ची अदाकारा है जब तक चाहो नाटक में काम करो’। नाटकों में मिली शोहरत के बाद बेगम अख्तर को कलकत्ता की ईस्ट इंडिया कम्पनी में अभिनय करने का मौका मिला। बतौर अभिनेत्री बेगम अख्तर ने ‘एक दिन का बादशाह’ से सिने कॅरियर की शुरुआत की। इस फिल्म की असफलता के कारण अभिनेत्री के रुप में वह कुछ खास पहचान नहीं बना पार्इं। वर्ष 1933 में ईस्ट इंडिया के बैनर तले बनी फिल्म ‘नल दमयंती’ की सफलता के बाद बेगम अख्तर बतौर अभिनेत्री पहचान बनाने में सफल रही।
...और लौट आर्इं लखनऊ
वर्ष 1942 में महबूब खान की फिल्म ‘रोटी’ में बेगम अख्तर ने अभिनय करने के साथ ही गाने भी गाए। उस फिल्म के लिए बेगम अख्तर ने छह गाने रिकॉर्ड कराए थे, लेकिन फिल्म निर्माण के दौरान संगीतकार अनिल विस्वास और महबूब खान की अनबन के बाद रिकॉर्ड किए गए तीन गानों को फिल्म से हटा दिया गया। बाद में उनके इन्हीं गानों को ग्रामोफोन डिस्क ने जारी किया गया। कुछ दिनों के बाद बेगम अख्तर को मुम्बई की चकाचौंध अजीब सी लगने लगी और वह लखनऊ वापस चली गर्इं। वर्ष 1945 में बेगम अख्तर का निकाह बैरिस्टर इश्ताक अहमद अब्बासी से हुआ। दोनों की शादी का किस्सा काफी दिलचस्प है। एक कार्यक्रम के दौरान बेगम अख्तर और इश्ताक मोहम्मद की मुलाकात हुई। बेगम अख्तर ने कहा कि मैं शोहरत और पैसे को अच्छी चीज नहीं मानती हूं। औरत की सबसे बड़ी कामयाबी है किसी की अच्छी बीवी बनना। यह सुनकर ब्बासी साहब बोले, क्या आप शादी के लिए कॅरियर छोड़ देंगी। इस पर उन्होंने जवाब दिया हां, यदि आप मुझसे शादी करते है तो मैं गाना-बजाना तो क्या आपके लिए अपनी जान भी दे दूं। बाद में शादी के बाद उन्होंने गाना-बजाना तो दूर गुनगुनाना तक छोड़ दिया। एक दिन जब बेगम अख्तर गा रही थीं, तभी पति के दोस्त सुनील बोस जो लखनऊ रेडियो के स्टेशन डायरेक्टर थे, ने उन्हें गाते देखकर कहा, अब्बासी साहब कम से कम बेगम को रेडियो में तो गाने का मौका दीजिए। दोस्त की बात मानकर उन्होंने बेगम अख्तर को गाने का मौका दिया। पहला गाना अच्छा नहीं रहा, लेकिन बाद में रियाज किया और उनका अगला कार्यक्रम अच्छा हुआ। इसके बाद बेगम अख्तर ने एक बार फिर से संगीत समारोहों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इस बीच उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय करना जारी रखा और धीरे-धीरे फिर से खोई हुई पहचान पाने में सफल हो गर्इं।
कह गर्इं अलविदा
70 के दशक में संगीत से जुड़े कार्यक्रमों में लगातार भाग लेने और काम के बढ़ते दबाव के कारण वह बीमार रहने लगीं। इससे उनकी आवाज भी प्रभावित होने लगी। इसके बाद उन्होंने संगीत कार्यक्रमों में हिस्सा लेना कम कर दिया। वर्ष 1972 में संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा वह पद्मश्री और पद्मभूषण से भी सम्मानित की गर्इं। अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों पर राज करने वाली यह महान गायिका 30 अक्टूबर, 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गई।

Dark Saint Alaick
30-10-2012, 04:20 PM
बेगम अख्तर / कुछ और यादें
सब अजनबी हैं यहां कौन किसको पहचाने

बिहार में भूकंपपीडितों की सहायता के लिये अपने जमाने के संगीतज्ञ उस्ताद अता मोहम्मद खान ने एक जलसे का आयोजन किया था, जिसमें फैयाज खान, विलायत खान, केसरबाई और मोगू बाई कुर्डीकर जैसे नामी गिरामी कलाकार आमंत्रित थे। कार्यक्रम में पूर्व निश्चित समय पर उनके पहुंचने में विलंब होने पर अता मोहम्मद खान ने दर्शकों के मनोरंजन के लिये अपनी एक छोटी सी शिष्या बिब्बी को गाने का मौका दिया। बिब्बी ने मंच पर जाकर ऐसा सुर लगाया कि हो हल्ला करने वाले श्रोता शांत हो गये और बाहर गये श्रोता भी वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गये। दूसरे दिन अखबार में उस छोटी लडकी की तारीफ छपी। यही नही कलकत्ता की मशहूर मेगाफोन कंपनी के अधिकारी भी उस लड़की से आकर मिले और उसके गानों का रिकार्ड बनाने की पेशकश की। यही लडकी बिब्बी बाद में संगीत जगत की महान गायिका बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हुयी। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में 07 अक्टूबर ।9।4 में जन्मी बेगम अख्तर का बचपन के दिनों से ही संगीत की ओर रूझान था। वह पार्श्वगायिका बनना चाहती थी। उनके परिवार वाले उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ थे लेकिन चाचा ने बेगम अख्तर के संगीत के प्रति लगाव को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढने के लिये प्रेरित किया। बेगम अख्तर ने फैजाबाद में सारंगी के उस्ताद इमान खां और अता मोहम्मद खान से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली। इसके अलावा उन्होने मोहम्मद खान और अब्दुल वहीद खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा। तीस के दशक में बेगम अख्तर पारसी थियेटर से जुड गयी। नाटकों में काम करने के कारण उनका रियाज छूट गया जिससे उनके गुरू मोहम्मद अता खान काफी नाराज हुये और कहा, जब तक तुम नाटक में काम करना नही छोडती मैं तुम्हें गाना नहीं सिखाउंगा। उनकी इस बात पर बेगम अख्तर ने कहा ..आप सिर्फ एक बार मेरा नाटक देखने आ जाये उसके बाद आप जो कहेगे मै करूंगी। उस रात मोहम्मद अता खान बेगम अख्तर के नाटक 'तुर्की हूर' देखने गये। जब बेगम अख्तर ने उस नाटक का गाना 'चल री मोरी नैय्या' गाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गये और नाटक समाप्त होने के बाद बेगम अख्तर से उन्होंने कहा, बिटिया तू सच्ची अदाकारा है, जब तक चाहो नाटक में काम करो। नाटकों में मिली शोहरत के बाद बेगम अख्तर को कलकत्ता की ईस्ट इंडिया कंपनी में अभिनय करने का मौका मिला। बतौर अभिनेत्री बेगम अख्तर ने 'एक दिन का बादशाह' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की लेकिन इस फिल्म की असफलता के कारण अभिनेत्री के रुप में वह कुछ ख़ास पहचान नहीं बना पायी। वर्ष 1933 में ईस्ट इंडिया के बैनर तले बनी फिल्म नल दमयंती की सफलता के बाद बेगम अख्तर बतौर अभिनेत्री अपनी कुछ पहचान बनाने में सफल रही।
वर्ष 1942 में महबूब खान की फिल्म 'रोटी' में बेगम अख्तर ने अभिनय करने के साथ ही गाने भी गाये। उस फिल्म के लिए बेगम अख्तर ने छह गाने रिकार्ड कराये थे लेकिन फिल्म निर्माण के दौरान संगीतकार अनिल विश्वास और महबूब खान के आपसी अनबन के बाद रिकार्ड किये गये तीन गानों को फिल्म से हटा दिया गया। बाद में उनके इन्हीं गानों को ग्रामोफोन डिस्क ने जारी किया गया। कुछ दिनों के बाद बेगम अख्तर को मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब सी लगने लगी और वह लखनऊ वापस चली गयी। वर्ष 1945 में बेगम अख्तर का निकाह बैरिस्टर इश्ताक अहमद अब्बासी से हो गया। दोनों की शादी का किस्सा काफी दिलचस्प है। एक कार्यक्रम के दौरान बेगम अख्तर और इश्ताक मोहम्मद की मुलाकात हुयी। बेगम अख्तर ने कहा, 'मैं शोहरत और पैसे को अच्छी चीज नहीं मानती हूं.. औरत की सबसे बडी कामयाबी है किसी की अच्छी बीवी बनना। यह सुनकर अब्बासी साहब बोले, 'क्या आप शादी के लिये अपना कैरियर छोड देगी।' इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'हां यदि आप मुझसे शादी करते है तो मैं गाना बजाना तो क्या आपके लिये अपनी जान भी दे दूं।' बाद में शादी के बाद उन्होंने गाना बजाना तो दूर गुनगुनाना तक छोड दिया। शादी के बाद पति की इजाजत नहीं मिलने पर बेगम अख्तर ने गायकी से मुख मोड लिया। गायकी से बेइंतहा मोहब्बत रखने वाली बेगम अख्तर को जब लगभग पांच वर्ष तक आवाज की दुनिया से रूखसत होना पडा तो वह इसका सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकीं और हमेशा बीमार रहने लगी। हकीम और वैद्यों की दवाइयां भी उनके स्वास्य को नही सुधार पा रही थी। एक दिन जब बेगम अख्तर गा रही थी। तभी उनके पति के दोस्त सुनील बोस जो लखनऊ रेडियो के स्टेशन डायरेक्टर ने उन्हें गाते देखकर कहा, 'अब्बासी साहब यह तो बहुत नाइंसाफी है। कम से कम अपनी बेगम को रेडियो में तो गाने का मौका दीजिये।' बाद में अपने दोस्त की बात मानकर उन्होंने बेगम अख्तर को गाने का मौका दिया। जब लखनऊ रेडियो स्टेशन में बेगम अख्तर पहली बार गाने गयी तो उनसे ठीक से नही गाया गया। अगले दिन अखबार में निकला ... बेगम अख्तर का गाना बिगडा. बेगम अख्तर नही जमी.. यह सब देखकर बेगम अख्तर ने रियाज करना शुरू कर दिया और बाद में उनका अगला कार्यक्रम अच्छा हुआ। इसके बाद बेगम अख्तर ने एक बार फिर से संगीत समारोहों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इस बीच उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय करना जारी रखा और धीरे धीरे फिर से अपनी खोई हुई पहचान पाने में सफल हो गयी।
वर्ष 1958 में सत्यजीत राय द्वारा निर्मित फिल्म 'जलसा घर' बेगम अख्तर के सिने कैरियर की अंतिम फिल्म साबित हुयी। इस फिल्म में उन्होंने एक गायिका की भूमिका निभाकर उसे जीवंत कर दिया था। इस दौरान वह रंगमंच से भी जुड़ी रही और अभिनय करती रही। बेगम अख्तर बहुत स्वाभिमानी गायिका थी। एक बार कश्मीर में वह कार्यक्रम करने के लिये गयी थी। वहां के राज्यपाल ने उन्हें चाय पर आमंत्रित किया था। जब वह वहां पहुंची तो राज्यपाल ने कहा, 'पहले आप गाना सुनाये उसके बात मैं आपको चाय पिलाता हूं।' उनकी इस बात से बेगम अख्तर काफी नाराज हुयी और कहा, 'आपने मुझे चाय पर बुलाया है न कि गाना सुनने..!' और वह वहां से चली गयी। बाद में राज्यपाल ने उनसे इस बात के लिये माफी भी मांगी। सत्तर के दशक में लगातार संगीत से जुड़े कार्यक्रमों मे भाग लेने और काम के बढ़ते दबाव के कारण वह बीमार रहने लगी और इससे उनकी आवाज भी प्रभावित होने लगी। इसके बाद उन्होंने संगीत कार्यक्रमों में हिस्सा लेना काफी कम कर दिया। वर्ष 1972 में संगीत के क्षेत्र मे उनके अप्रतिम योगदान को देखते हुये संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह पदम्श्री और पदम भूषण पुरस्कार से भी सम्मानित की गयी। अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों के तार झंकृत करने वाली यह महान गायिका 30 अक्तूबर 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गयी। अपनी मौत से सात दिन पहले बेगम अख्तर ने कैफी आजमी की गजल गायी थी - सुना करो मेरी जान उनसे उनके अफसाने सब अजनबी है यहां कौन किसको पहचाने।

bhavna singh
30-10-2012, 06:25 PM
आपके इस सूत्र के लिये मेरे पास शब्द कम पड़ रहे हैँ ......! :fantastic:

Dark Saint Alaick
31-10-2012, 12:09 AM
30 अक्टूबर : पुण्यतिथि
शांताराम की फिल्मों की युवराज चार्ल्स ने भी देखी झलक

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19153&stc=1&d=1351624160

शांताराम को उनसे जुड़े लोग शांताराम बापू कहते थे। उन्हें 1985 में भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादासाहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया। नागपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी थी। 18 नवंबर 1901 को जन्मे शांताराम ने 30 अक्टूबर 1990 को अंतिम सांस ली।

1980 में भारत के दौरे पर आए युवराज चार्ल्स हिन्दी फिल्मों के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे और उन्होंने न सिर्फ प्रख्यात अभिनेता निर्माता और निर्देशक वी. शांताराम के स्टूडियो राजकमल कला मंदिर को देखा, बल्कि उनकी बनाई कुछ फिल्मों की झलक देखकर उनकी निर्माण तकनीक देखकर अभिभूत हुए और इसके बारे में शांताराम से बातचीत भी की थी। फिल्म समीक्षक चैताली नोन्हारे ने बताया कि 1980 में भारत प्रवास के दौरान युवराज चार्ल्स तय समय पर राजकमल कला मंदिर पहुंचे और वी. शांताराम ने द्वार पर उनकी अगवानी की। उन्होंने कहा कि अंदर जाने के रास्ते पर कई महिलाएं भारी कांजीवरम की साड़ी पहने, हाथों में फूल की थाली लिए खड़ी थीं। राजसी ठाठ वाले स्टूडियो और वैसी ही वेशभूषा वाली महिलाओं को देख कर चार्ल्स ने शांताराम से पूछा तो उन्होंने बताया कि सब उनकी पत्नी की रिश्तेदार हैं और उनका स्वागत करने यहां मौजूद हैं। चैताली ने कहा कि उन दिनों वहां फिल्म आहिस्ता आहिस्ता की शूटिंग चल रही थी, जिसकी वजह से शम्मी कपूर वहां मौजूद थे। चार्ल्स के उत्सुकता जाहिर करने पर उनको शांताराम ने शूटिंग दिखाई और शम्मी कपूर से मिलवाया भी। यह जिक्र शांताराम ने अपनी आत्मकथा ‘शांताराम’ में भी किया है। चैताली ने कहा कि शांताराम ने चार्ल्स से कहा था ‘यह हिन्दी फिल्मों के महान डांसर कलाकारों में से एक हैं, जिनके नृत्य के स्टेप जादू की तरह होते हैं। इनकी नकल कई हीरो ने की, लेकिन नाकाम रहे। शम्मी कपूर एक हैं और एक ही रहेंगे। तब शम्मी कपूर ने अपने वजन की वजह से झुकने में दिक्कत के बावजूद झुक कर शांताराम के पैर छुए और कहा, ‘बापू, मैं सिर्फ सच कहूंगा और सच यह है कि आप जैसा डांसिंग स्टार न कोई है और न कोई होगा। फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध ने बताया ‘कभी वेंकूडरे शांताराम फिल्मों के सेट पर कैमरा और अन्य सामान एक जगह से दूसरी जगह लाने ले जाने तक का काम करते थे, लेकिन जब समय बदला तो उन्होंने न केवल राजकमल कला मंदिर स्टूडियो की स्थापना की, बल्कि उस दौर में उनके स्टूडियो के पास अत्याधुनिक कैमरे, ध्वनि रिकॉर्डिंग एवं संपादन के उपकरण, फिल्म डेवलपिंग लेबोरेटॅरी और अन्य आवश्यक उपकरण थे जिन्हें शांताराम अन्य निर्माताओं को किराए पर देने में कोई परहेज नहीं करते थे। करीब 50 साल में राजकमल कला मंदिर ने चानी, पिंजरा, शकुंतला, नवरंग, झनक-झनक पायल बाजे, गीत गाया पत्थरों ने सहित लगभग 35 फिल्में बनाईं।

Dark Saint Alaick
31-10-2012, 12:18 AM
सरदार पटेल की जयंती पर
लौह पुरूष के नेतृत्व का दुनिया ने माना लोहा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19154&stc=1&d=1351624644

आजादी के बाद भारत को एक अखंड स्वरूप देने में लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल के योगदान को भुलाया नही जा सकता और माना जाता है कि उनके जैसे धैर्यवान और दूरदर्शी नेतृत्व के कारण ही छोटी छोटी रियासतों में बंटे भारत को एकजुट किया जा सका था। सरदार पटेल के बारे में बताते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर डॉक्टर शरदेंदु मुखर्जी कहते हैं, ‘पटेल दूरदर्शी सोच और व्यवहारिक दृष्टिकोण वाले नेता थे। तभी वे भारत के एकीकरण की बड़ी समस्या को इतने कम समय में हल कर सके थे।’ एक अनुशासित व्यक्तित्व के स्वामी सरदार पटेल ने वी पी मेनन समेत कई सहयोगियों की मदद से 500 से भी ज्यादा रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने के लिए मना लिया था। इनमें से अधिकांश रियासतों ने आजादी की पूर्व संध्या से पहले ही ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947’ पर हस्ताक्षर कर दिए थे। इस ऐतिहासिक एकीकरण के चलते ही भारत को आजादी खंडित टुकड़ों के बजाय एक अखंड राष्ट्र के रूप में मिल सकी। आजादी की घोषणा होने के बाद भारत में मौजूद सैंकड़ों छोटी-बड़ी रियासतों को एक साथ मिलाना सबसे मुश्किल काम था। इस मुश्किल की तीन मुख्य वजहें अधिकांश रियासतों में खुद को स्वतंत्र देश बनाने की चाह, नेहरू के नेतृत्व के प्रति राजाओं में संशय और पाकिस्तान के साथ मिल जाने का विकल्प मौजूद होना थीं। इस मुश्किल स्थिति में पटेल के व्यक्तित्व की एक-एक खूबी काम में आई और उन्होंने इन रियासतों के एकीकरण के लिए अपनी हर तरकीब लगा दी। वे एक ओर इन राजाओं के लिए विशेष भोज आयोजित कर रहे थे वहीं दूसरी ओर राजकीय फैसलों में दखल रखने वाले दीवान लोगों को पत्र लिखकर राजा को मनाने के लिए जोर डाल रहे थे। इंग्लैंड से वकालत पढकर आए पटेल गुजरात के प्रसिद्ध वकीलों में शुमार थे। गांधी जी के व्यक्तित्व और उनके विचारों से प्रभावित होने के बाद वे स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए थे। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने अपने तमाम अंग्रेजीदां कपड़ों को आग के हवाले कर पूरी तरह से खादी अपना ली थी। उनके नेतृत्व के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1946 में कांग्रेस प्रसीडेंसी के चुनावों में उन्हें राज्यों के 16 प्रतिनिधियों में से 13 का समर्थन मिला था। इन चुनावों को जीतने वाले का आजाद भारत का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय था लेकिन पटेल ने गांधी जी के कहने पर प्रधानमंत्री बनने का विचार सोच छोड़ दिया । इस पूरे दौर में ही पटेल और नेहरू के बीच कई मसलों को लेकर मतभेद रहे लेकिन उन्होंने राष्ट्रहित में इन मतभेदों को दरकिनार किया था। इस बारे में राजनैतिक विश्लेषक और सामाजविद् धीरूभाई शेठ कहते हैं, ‘‘अगर पटेल चाहते तो वे देश के पहले प्रधानमंत्री बन सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसी किसी महत्वाकांक्षा को राष्ट्रहित पर हावी नहीं होने दिया। देश के पहले गृह मंत्री व उप प्रधानमंत्री बनकर उन्होंने देश को एक संगठित राष्ट्र की विरासत दी।’’ भारत निर्माण में पटेल के योगदान के कारण उन्हें भारत का अब तक का सफलतम गृह मंत्री और लौह पुरूष कहा जाता है।

Dark Saint Alaick
31-10-2012, 12:24 AM
31 अक्तूबर को पुण्यतिथि पर
‘पंजाबी साहित्य जगत की राजनीति का शिकार बनी थीं अमृता प्रीतम’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19155&stc=1&d=1351625045

पंजाबी साहित्य का सबसे जाना पहचाना चेहरा और देश भर की महिला रचनाकारों की प्रेरणास्रोत अमृता प्रीतम, कभी स्त्री पुरूष के सामाजिक विभेद और स्त्री की प्रेमाभिव्यक्ति को लेकर समाज की रूढिवादी सोच का शिकार बनी थीं। यही वजह थी कि पंजाबी साहित्य को नए मुकाम पर ले जाने वाली अमृता को पंजाबी साहित्य जगत ने उनका योग्य स्थान देने में देर की। साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और उर्दू के वरिष्ठ साहित्यकार गोपीचंद नारंग ने कहा, ‘‘अमृता हम सबके लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। उन्होंने न केवल पंजाबी साहित्य को दुनिया भर में ख्याति दिलायी बल्कि भारतीय साहित्य में भी अपनी एक विशेष जगह बनायी। लेकिन खेद की बात है कि अमृता ने खुद के लिए जो मुकाम बनाया, उन्हें पंजाबी साहित्य जगत ने समुचित स्थान देने में आनाकानी की। अमृता की खुली सोच, और स्त्री-पुरूष के बीच विभेदपूर्ण व्यवहार इसकी वजह थी।’’ नारंग ने कहा, ‘‘अमृता को 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। यह अपने आप में एक विशेष बात थी क्योंकि अमृता पहली महिला थीं जिन्हें यह पुरस्कार मिला। प्रधानमंत्री और साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने अपने हाथों से अमृता को यह सम्मान दिया था। 1982 में अमृता को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। लेकिन यह पुरस्कार उन्हें बहुत मुश्किल से मिला, क्योंकि पंजाबी साहित्य जगत में उनका प्रतिकार किया जा रहा था, उनका बहिष्कार किया गया। वह पंजाबी साहित्य राजनीति का शिकार हुई थीं।’ नारंग ने कहा, ‘मेरी अमृता के साथ विशेष यादें जुड़ी हैं। वह हौजखास स्थित मेरे घर के पड़ोस में ही रहती थीं। मैं अमृता और उनके साथी इमरोज को एक साथ पार्क में टहलते देखता था। लेकिन आगे की सोच वाली अमृता का यह प्रेम उनके लिए कई बार अवरोध बना था।’ अमृता की रचनाओं में महिला अभिव्यक्ति को विशेष जगह मिली है। अमृता की सर्वाधिक ख्याति प्राप्त कविता ‘अज अक्खां वारिस शाह नूं’ बंटवारे की त्रासदी पर आधारित है जिसमें उन्होंने बंटवारे के दौरान भारत और पाकिस्तान दोनों ओर की महिलाओं और पंजाब की बेटियों के दर्द को अपने शब्दों मेंं उतारा था। अमृता की रचनाएं सामाजिक और राजनीतिक अभिव्यक्तियों को जगह देती हैं। ‘अमृता प्रीतम और पंजाबी साहित्य’ विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध कर रही आभा त्रिपाठी ने कहा, ‘अमृता अपने प्रेम को लेकर कभी मौन नहीं रहीं। साहिर लुधियानवी के प्रति उनके प्रेम के बारे में दुनिया जानती है तथा इमरोज और उनका रूमानी साथ अपने आप में प्रेम की खूबसूरत अभिव्यक्ति है जिसे उन्होंने अपनी बेजोड़ कविता ‘मैं तैनूं फिर मिलांगी’ में जगह भी दी।’ अमृता-इमरोज के प्रेम को समर्पित अपनी किताब ‘अमृता-इमरोज : अ लव स्टोरी’ में लेखिका उमा त्रिलोक ने लिखा है, ‘इमरोज ने कहा था कि ‘उनका प्रेम बिना किसी अंह के, बिना किसी द्वंद के, और बिना किसी तरह के बनावटीपन वाला प्रेम है, ऐसा प्रेम जिसमें दोनों ने कोई हिसाब नहीं लगाया’।’ पाकिस्तान के पंजाब के गुजरांवाला में 31 अगस्त, 1919 को जन्मी अमृता ने अपने छह दशक लंबे साहित्यिक करियर में 100 से ज्यादा किताबों की रचनाएं कीं। 31 अक्तूबर, 2005 को 86 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। साहित्य के प्रति उनके योगदान के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी फैलोशिप, ज्ञानपीठ, पद्मश्री और पद्मविभूषण सम्मान सहित अनगिनत पुरस्कारों से सम्मानित किया गया ।

Dark Saint Alaick
31-10-2012, 12:41 AM
पुण्य तिथि 31 अक्टूबर पर
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19156&stc=1&d=1351626050

अपने सुरों के जादू से मदहोश करने वाले महान संगीतकार सचिन देव बर्मन उर्फ सचिन दा के संगीतबद्ध गीतों को सुनकर आज भी अनेक संगीत प्रेमी कह उठते हैं - 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना'। सचिन देव का रूझान बचपन से ही संगीत की ओर था। उनके पिता नवदीप चंद्रादेव बर्मन जाने माने सितारवादक और ध्रुपद गायक थे। उन्होंने पहले अपने पिता और उसके बाद उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय से भी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली थी। अपने जीवन के शुरूआती दौर में उन्होंने रेडियो द्वारा प्रसारित पूर्वोत्तर लोकसंगीत के कार्यक्रमो में संगीतकार और गायक दोनों के रूप में काम किया। वर्ष 1930 तक वह लोकसंगीत के गायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। वर्ष 1944 में संगीतकार बनने का सपना लिये वह कलकत्ता से मुंबई आये। यहां सबसे पहले उन्हें वर्ष 1946 में फिल्मिस्तान की फिल्म 'एट डेज' में बतौर संगीतकार काम करने का मौका मिला, लेकिन इस फिल्म से कुछ खास बात नहीं बनी। इसके बाद वर्ष 1947 में उनके संगीत से सजी फिल्म 'दो भाई' में पार्श्वगायिका गीता दत्त के गाये गीत 'मेरा सुंदर सपना बीत गया' की कामयाबी के बाद कुछ हद तक बतौर संगीतकार वह अपनी पहचान बनाने में सफल हुये। कुछ ही समय बाद सचिन देव बर्मन को मायानगरी मुंबई की चकाचौध कुछ अजीब सी लगने लगी और फिर वह सब कुछ छोड़कर वापस कोलकाता चले गये, लेकिन वहां भी उनका मन नहीं लगा और वह अपने आप को फिर मुम्बई पहुंचने से नहीं रोक पाये।
सचिन देव बर्मन ने अपने करीब तीन दशक के फिल्मी जीवन में लगभग 90 फिल्मों के लिये संगीत दिया। बर्मन के फिल्मी सफर पर अगर नजर डालें, तो पायेंगे कि उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ ही की हैं। सिने सफर में उनकी जोड़ी प्रसिद्ध गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ खूब जमी और उनके संगीतबद्ध गीत जबर्दस्त हिट हुये। सबसे पहले इस जोड़ी ने वर्ष 1951 में फिल्म 'नौजवान' के गीत 'ठंडी हवाएं लहरा के आएं' के जरिये लोगों का मन मोहा। इसके बाद वर्ष 1951 में ही गुरूदत्त की पहली निर्देशित फिल्म 'बाजी' के गीत 'तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले' में एस. डी. बर्मन और साहिर की जोंड़ी ने संगीतप्रेमियों का दिल जीत लिया। एस. डी. बर्मन की जोड़ी गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के साथ भी बहुत खूब जमी। एस. डी. बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी के गानों की लंबी फेहरिस्त में शामिल कुछ हैं - 'माना जनाब ने पुकारा नहीं', 'छोड दो आंचल जमाना क्या कहेगा', 'है अपना दिल तो आवारा', 'नजर लागी राजा तोरे बंगले पे', 'जलते हैं जिसके लिये तेरी आंखो के दिये', 'सुन मेरे बंधु रे सुनो मेरे मितवा', 'दीवाना मस्ताना हुआ दिल', 'ना तुम हमें जानो, 'ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत', 'मीत ना मिला रे मन का', 'तेरी बिंदिया रे', 'अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी' आदि।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी एस. डी. बर्मन ने संगीत निर्देशन के अलावा कई फिल्मों के लिये गाने भी गाये। इन फिल्मों में सुजाता, बंदिनी, गाइड, तलाश, अमर प्रेम और अभिमान आदि शामिल हैं। सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक किशोर कुमार के कैरियर को उंचाइयों तक पहुंचाने में एस. डी. बर्मन के संगीतबद्ध गीतों का अहम योगदान रहा है। वर्ष 1969 में प्रदर्शित फिल्म 'आराधना' के पहले किशोर कुमार की आवाज का जादू उतार पर था, लेकिन 'आराधना' की कामयाबी ने किशोर कुमार के सिने कैरियर को नई दिशा दी और उन्हें अपने कैरियर में वह मुकाम हासिल हो गया, जिसकी उन्हें बरसों से तलाश थी। इसके साथ ही किशोर कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा बैठे। एस. डी. बर्मन को उनके संगीतबद्ध गीतों के लिये दो बार फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पुरस्कार से नवाजा गया है। एस. डी. बर्मन को सबसे पहले वर्ष 1954 में प्रदर्शित फिल्म 'टैक्सी ड्राइवर' के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके बाद वर्ष 1973 में प्रदर्शित फिल्म 'अभिमान' के बेहतरीन संगीत के लिए भी एस. डी. बर्मन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजे गए। फिल्म 'मिली' के संगीत 'बड़ी सूनी सूनी है' की रिर्काडिंग के दौरान एस. डी. बर्मन अचेतन अवस्था में चले गये थे। त्रिपुरा में 10 अक्टूबर 1906 को जन्मे सचिन दा करीब तीन दशक तक हिन्दी सिने जगत को अपने मधुर संगीत से सराबोर कर 31 अक्तूबर 1975 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।

Dark Saint Alaick
31-10-2012, 12:56 AM
31 अक्तूबर को पुण्यतिथि पर
भूगोल बदल कर रख दिया भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19157&stc=1&d=1351626961

दृढनिश्चयी और किसी भी परिस्थिति से जूझने और जीतने की क्षमता रखने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न केवल इतिहास, बल्कि पाकिस्तान को विभाजित कर दक्षिण एशिया के भूगोल को ही बदल डाला और 1962 के भारत चीन युद्ध की अपमानजनक पराजय की कड़वाहट धूमिल कर भारतीयों में जोश का संचार किया। रूसी क्रान्ति के साल 1917 में 19 नवंबर को पैदा हुईं इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध में विश्व शक्तियों के सामने न झुकने के नीतिगत और समयानुकूल निर्णय की क्षमता से पाकिस्तान को परास्त किया और बांग्लादेश को मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र भारत को एक नया गौरवपूर्ण क्षण दिलवाया। देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (1917-1984 ) के साथ काम कर चुके और पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने कहा, ‘वह एक बड़ी राजनेता थीं और उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि बांग्लादेश की स्वतंत्रता थी। इसके जरिये उन्होंने भूगोल को ही बदल कर रख दिया।’ उस समय भारत के लिए पूर्वी पाकिस्तान पर आक्रमण करना कोई आसान काम नहीं था। अमेरिका और चीन की तरफ से भी भारत पर दबाव बनाया जा रहा था, लेकिन इंदिरा उस समय आत्मविश्वास से लबरेज थीं। उन्होंने एक कार्यक्रम में बीबीसी से कहा था, ‘हम लोग इस बात पर निर्भर नहीं है कि दूसरे क्या सोचते हैं ... हमें यह पता है कि हम क्या करना चाहते हैं और हम क्या करने जा रहे हैं। चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो।...’
स्वप्नदर्शी राजनेता जवाहरलाल नेहरू ने भारत में कई महत्वपूर्ण पहल कीं, लेकिन उन्हें अमली जामा इंदिरा गांधी ने पहनाया। चाहे रजवाड़ों के प्रिवीपर्स समाप्त करना, बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो अथवा कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण ... इनके जरिये उन्होंने अपने आपको गरीबों और आम आदमी का समर्थक साबित करने की कोशिश की। राजनीति में कदम रखने पर कुछ लोगों ने इंदिरा को ‘गूंगी गुड़िया’ कहा था, लेकिन वह सदैव अपने विरोधियों पर बीस साबित होती थीं। नटवर सिंह ने कहा, ‘इंदिरा गांधी हमेशा अपने विरोधियों पर भारी पड़ती थीं। चौथे राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह वी. वी. गिरी को जिता कर उन्होंने इसे और पुख्ता किया था।’ बीबीसी के पूर्व संवाददाता मार्क टली ने कहा, ‘इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’, ‘लौह महिला’, ‘भारत की सम्राज्ञी’ और भी न जाने कि कितने विशेषण दिए गए थे, जो एक ऐसी नेता की ओर इशारा करते थे, जो आज्ञा का पालन करवाने और डंडे के जोर पर शासन करने की क्षमता रखती थी।’ मौजूदा जटिल दौर में देश के कई कोनों से नेतृत्व संकट की आवाज उठ रही हैं । वरिष्ठ समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कहा, ‘नेतृत्व की पहचान गुडी गुडी छवि के लिए नहीं, उसके मजबूत समर्थन और विरोध से बनती है। ऐसा न उसके चाहने से होता है, न उनके विरोधियों के। कठिन चुनौतियों का सामना करते हुए उन्हें मजबूती से कुछ चीजों के, कुछ मूल्यों के पक्ष में खड़ा होना होता है और कुछ की उतनी ही तीव्रता से मुखालफत करनी होती है। आज भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी की छवि कुछ ऐसे ही संकल्पशील नेता की है।’
इंदिरा गांधी 16 वर्ष देश की प्रधानमंत्री रहीं और उनके शासनकाल में कई उतार-चढाव आए, लेकिन 1975 में आपातकाल लागू करने के फैसले को लेकर इंदिरा गांधी को भारी विरोध-प्रदर्शन और तीखी आलोचनाएं झेलनी पड़ी थी। आलोचकों ने इसे लोकतंत्र और मीडिया पर हमला बताया और कहीं न कहीं भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि भी प्रभावित हुई। नटवर सिंह ने कहा, ‘इंदिरा गांधी ने खुद ही आपातकाल खत्म कर आम चुनाव करवाया। हालांकि कांग्रेस को 1977 के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, लेकिन 1980 में उन्होंने भारी बहुमत से वापसी की। फिर 1983 में उन्होंने नई दिल्ली में निर्गुट सम्मेलन और उसी साल नवंबर में राष्ट्रमंडल राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन का आयोजन किया। इनसे भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि सशक्त हुई।’ आशीष नंदी ने कहा, ‘अंतरिक्ष, परमाणु विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान में भारत की आज जैसी स्थिति की कल्पना इंदिरा गांधी के बगैर नहीं की जा सकती थी। हर राजनेता की तरह इंदिरा गांधी की भी कमजोरियां हो सकती हैं, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत को यूटोपिया से निकालकर यथार्थ के धरातल पर उतारने का श्रेय उन्हें ही जाता है।’ आपरेशन ब्लूस्टार के बाद उपजे तनाव के बीच उनके निजी अंगरक्षकों ने ही 31 अक्तूबर 1984 को गोली मार कर इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी।

Dark Saint Alaick
31-10-2012, 12:59 AM
बकलमखुद / इंदिरा गांधी
जब मैंने मांस को स्वादिष्ट सब्जी समझकर खाया

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19158&stc=1&d=1351627159

महात्मा गांधी से प्रभावित होकर मांसाहारी भोजन छोड़ने वाले जवाहरलाल नेहरू और उनकी पत्नी अपनी बेटी इंदिरा को भी शाकाहारी बनाना चाहते थे लेकिन एक घटना ने उनकी इस हसरत को कभी पूरा नहीं होने दिया। इंदिरा गांधी ने अपने संस्मरण ‘बचपन के दिन’ में लिखा, ‘गांधीजी से प्रभावित होकर मेरे माता-पिता ने मांस खाना छोड़ दिया था और यह निर्णय किया गया कि मुझे भी शाकाहारी बनायेंगे। मैं चूंकि बड़ों के खाने से पहले खा लेती थी, इसलिए मुझे पता ही नहीं था कि उनका खाना मेरे से भिन्न होता था।’ ‘एक दिन, मैं अपनी सहेली लीला के घर खेलने गई और उसने मुझे दोपहर के खाने पर रूकने को कहा। खाने में मांस परोसा गया। अगली बार जब मेरी दादी ने मुझसे पूछा कि मेरे लिए क्या मंगाया जाए, तो मैंने उस स्वादिष्ट नई सब्जी के बारे में बताया, जो मैंने लीला के घर खाई थी।’ उन्होंने लिखा, ‘दादी ने सभी सब्जियों के नाम लिए लेकिन ऐसी कोई सब्जी हमारे घर में नहीं परोसी जाती थी । आखिर में लीला की मां को फोन करके यह पहेली सुलझाई गई । इसके साथ ही मेरे शाकाहारी भोजन का भी अंत हो गया।’ इंदिरा को खिलौनों का ज्यादा शौक नहीं था । ‘शुरू में मेरा मनपसंद खिलौना एक भालू था, जो उस पुरानी कहावत को याद दिलाता है कि दया से कोई मर भी सकता है क्योंकि प्यार के कारण ही मैंने उसे नहलाया था और अपनी आंटी की चहेरे पर लगाने वाली नई और महंगी फ्रेंच क्रीम को उस पर पोत दिया था । अपनी रूआंसी हो आई आंटी से डांट खाने के अलावा मेरे सुन्दर भालू के बाल हमेशा के लिए खराब हो गए।’ इंदिरा ने बचपन के दिनों को याद करते हुए लिखा, ‘गर्मी का लाभ यह था कि हम तारों से चमकते आकाश के नीचे सोते थे जिससे तारों के बारे में ढेर सारी जानकारी मिलती थी और दूसरा लाभ था आम, जो उन दिनों हम एक या दो नहीं बल्कि टोकरी भर कर खाते थे। मैं कम ही खाती थी क्योंकि मैं खाने और सोने को निरर्थक बर्बादी मानती थी।’ उन्होंने लिखा है, ‘मुझे अंधेरे से डर लगता था, जैसा कि शायद प्रत्येक छोटे बच्चे को लगता है। रोज शाम को अकेले ही निचली मंजिल के खाने के कमरे से उपरी मंजिल के शयनकक्ष तक की यात्रा मुझे बहुत भयभीत करती थी । लम्बे, फैले हुए बरामदे को पार करना, चरमराती हुई लकड़ी की सीढियों पर चढना और एक स्टूल पर चढकर दरवाजे के हैंडिल और बत्ती के स्विच तक पहुंचना।’ उन्होंने लिखा है, ‘अगर मैंने अपने इस डर की बात किसी से कही होती तो मुझे पूरा विश्वास है कि कोई न कोई मेरे साथ उपर आ जाता या देख लेता कि बत्ती जल रही है या नहीं। लेकिन उस उम्र में भी साहस का ऐसा महत्व था कि मैंने निश्चय किया कि मुझे इस अकेलेपन के भय से अपने आप ही छुटकारा पाना होगा।’ इंदिरा ने लिखा है, ‘मेरे दादा परिवार के मुख्यिा थे, इसलिए नहीं कि वह उम्र में सबसे बड़े थे बल्कि इसलिए कि उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। लेकिन मेरी छोटी सी दुनिया के केन्द्रबिन्दु में मेरे पिता थे । मैं उनको प्यार, उनकी प्रशांसा और सम्मान करती थी। वही एकमात्र व्यक्ति थे जिनके पास मेरे अन्तहीन प्रश्नों को गंभीरता से सुनने का समय होता था। उन्होंने ही आसपास की चीजों के प्रति मेरी रूचि जाग्रत कर मेरी विचारधारा को दिशा दी।’

Dark Saint Alaick
02-11-2012, 11:40 AM
किंग खान के जन्मदिन पर विशेष
भारत के ‘बेचैन युवा’ की तस्वीर हैं ‘शाहरुख’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19241&stc=1&d=1351838403

भारतीय फिल्मों का नायक अब सिर्फ मार-पिटाई करने वाला नहीं रह गया। उनके किरदारों में ऐसा युवा दिखता है जो बड़े शहरों में रहकर अंग्रेजी बोलने की ख्वाहिश रखता है। दिल्ली की गलियों में अमिताभ बच्चन जैसे बाल, दिलीप कुमार जैसे अंदाज और मर्लिन ब्रैंडो की आवाज की नकल करने वाला एक लड़का अभिनेता बनने की हसरत लेकर मुंबई पहुंचता है और फिर दुनिया का सबसे बड़ा बॉलीवुड सितारा बन जाता है।

उनके पास न तो ही मैन जैसी कद काठी है और न ही उन्होंने अपनी फिल्मों में जोरदार मारधाड़ की है, वह फिल्मी दुनिया के सबसे खूबसूरत सितारे भी नहीं हैं, फिर भी ऐसा क्या है शाहरुख खान में कि वह पिछले दो दशक से भी अधिक समय से बदलते भारत के युवा की तस्वीर है। फिल्म समीक्षकों और फिल्मी दुनिया के आलिमों का मानना है कि शाहरुख खान उदारीकरण के बाद के भारत का चेहरा हैं। मशहूर फिल्म समीक्षक तरण आदर्श के अनुसार शाहरुख खान की शख्सियत भारत के बेचैन युवा समाज के साथ जुड़ गई है, जो असीम संभावनाओं को अपने दामन में समेट लेने को तैयार है। उन्होंने कहा कि किंग खान के नाम से मशहूर शाहरुख के किरदारों को देखकर पता लगता है कि भारतीय फिल्मों का नायक अब सिर्फ मार-पिटाई करने वाला नहीं रह गया। उनके किरदारों में ऐसा युवा दिखता है जो बड़े शहरों में रहकर अंग्रेजी बोलने की ख्वाहिश रखता है। दिल्ली की गलियों में अमिताभ बच्चन जैसे बाल, दिलीप कुमार जैसे अंदाज और मर्लिन ब्रंैडो की आवाज की नकल करने वाला एक लड़का अभिनेता बनने की हसरत लेकर मुंबई पहुंचता है और फिर दुनिया का सबसे बड़ा बॉलीवुड सितारा बन जाता है। ‘बादशाह जैसा चेहरा’ यानी शाहरुख सिर्फ एक अभिनेता ही नहीं, बल्कि करोड़ों युवा भारतीयों के सपनों की गाथा हैं। फिल्म समीक्षक गौरव सोलंकी ने बताया कि शाहरुख ऐसे युवा की तस्वीर हैं, जिसे दुनियावी बातों की फिक्र नहीं है फिर भी वह अपने प्रेम को एक जज्बे के साथ जीता है। उनके किरदारों की प्रेम कहानियों में एक ईमानदारी दिखती है, इसलिए युवा अपनी प्रेम कहानियों में खुद को शाहरुख से जोड़ पाते हैं।

Dark Saint Alaick
02-11-2012, 11:20 PM
तीन नवंबर को पृथ्वीराज कपूर के जन्मदिन पर
कुंभ में शो के बाद गमछा फैला कर धन जुटाते थे पृथ्वीराज कपूर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19334&stc=1&d=1351880389

हिन्दी थिएटर के विकास में पृथ्वीराज कपूर का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता जिन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के अपने दम पर थिएटर को स्थापित करने की पहल की। यह बात इसी तथ्य से समझी जा सकती है कि इलाहाबाद में महाकुंभ के दौरान शो करने के बाद पृथ्वीराज खुद गेट पर खड़े हो कर गमछा फैलाते थे और लोग उसमें पैसे डालते थे। इलाहाबाद के वरिष्ठ लेखक, 80 वर्षीय नरेश मिश्रा ने फोन पर बताया, ‘मैंने वह दौर भी देखा है जब महाकुंभ के दौरान पृथ्वी थिएटर शो करने प्रयाग की धरती पर आता था और शो समाप्त होने के बाद पृथ्वीराज कपूर गेट पर गमछा फैला कर खड़े हो जाते थे। निकलने वाले दर्शक उस गमछे में रूपये और पैसे डालते जाते थे। यह काम पृथ्वीराज कपूर जैसा महान अभिनेता पृथ्वी थिएटर को स्थापित करने के लिए किया करता था।’ मिश्रा के अनुसार, हिन्दी थिएटर के विकास में पृथ्वीराज कपूर जैसे लोगों का अहम योगदान है जिन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के अपने दम पर थिएटर को स्थापित करने के लिए न केवल पहल की बल्कि कड़ी मेहनत भी की। यह वह समय था जब थिएटर के लिए पैसा जुटाना लगभग असंभव होता था। गौरतलब है कि वर्ष 2013 में प्रयाग में महाकुंभ होने वाला है और आज भी महाकुंभ के दौरान बदलते वक्त के साथ इलाहाबाद में उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र कुंभ तथा महाकुंभ के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों का एक महीनों तक आयोजन करता है और इसके लिए विशेष पंडाल लगाया जाता है। इसमें तमाम बड़े बड़े कलाकार और गायकों को मोटी रकम देकर बुलाया जाता है। लेकिन बीते दौर में ऐसा कोई केंद्र नहीं था और कलाकार अपने शो मुफ्त में करते थे। मिश्रा ने कहा, ‘ऐसे समय पर पृथ्वीराज का, पैसों के लिए गमछा फैलाना मुझे आज भी याद है। यह वह कलाकार था जिसने अभिनय के क्षेत्र में बुलंदियों को छुआ था। आज तो शो और कलाकारों का मेहनताना लाखों में जाता है। बीते दौर में एक एक रूपया मुश्किल से मिल पाता था।’ उन्होंने बताया, ‘पृथ्वीराज कपूर और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला दोनों में बहुत गहरी दोस्ती थी और इलाहाबाद के प्राचीन मोहल्ले दारागंज की संकरी गलियों में जब लंबे चौड़े पृथ्वीराज कपूर और महाप्राण निराला बात करते हुए एक साथ चलते थे तो किसी बच्चे के निकलने की भी जगह गली में नहीं बचती थी।’ पृथ्वी थिएटर की स्थापना उन्होंने 1944 में की और पहले आधुनिक शहरी थिएटर की अवधारणा को मूर्त रूप दिया। उन्होंने 16 साल से अधिक समय तक इस थिएटर की बागडोर संभाली और विभिन्न जगहों पर करीब 2,662 शो किए। पृथ्वीराज का जन्म तीन नवंबर 1906 को पेशावर में हुआ था। आजादी से पहले के दौर के बेहद ‘हैंडसम’ अभिनेताओं में से एक पृथ्वीराज को अभिनय का शौक इस कदर था कि उन्होंने कानून की पढाई अधूरी छोड़ दी थी। अभिनय की पाठशाला कहलाने वाले इस कलाकार को भारतीय सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए मरणोपरांत हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 29 मई 1972 को उन्होंने अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
03-11-2012, 02:00 AM
पाक कला में भी माहिर हैं खाने के शौकीन तेंदुलकर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19339&stc=1&d=1351890010

सचिन तेंदुलकर ने अपनी कई पुरानी यादों को ताजा किया लेकिन इसमें फर्क इतना था कि उन्होंने क्रिकेट पर बात नहीं की। इस दिग्गज बल्लेबाज ने इसके बजाय दो दशक के अपने करियर के दौरान टीम के साथ देश और विदेशों के दौरे में पाक कला और भोजन के अपने अनुभवों पर बात की। उन्होंने कई दिलचस्प बातें बतायी। इनमें यह बात भी शामिल थी कि किस तरह से विश्व कप 2003 में पाकिस्तान की तेज गेंदबाजी की त्रिमूर्ति वसीम अकरम, वकार यूनुस और शोएब अख्तर का सामना करने से पहले उन्होंने लंच करने के बजाय ढेर सारी आईसक्रीम खायी। भारत ने यह मैच छह विकेट से जीता था और तेंदुलकर ने 75 गेंद पर 98 रन बनाये थे। उन्हें मैन आफ द मैच चुना गया था। तेंदुलकर ने अच्छे भोजन के प्रति अपनी आसक्ति का खुलासा कल रात यहां पाक कला से संबंधित किताब के विमोचन के अवसर पर किया। उन्होंने कहा, ‘लंच के समय मैंने केवल आईसक्रीम ली थी। मैंने इसके अलावा कुछ नहीं लिया था। मैंने अपना हेडफोन चला रखा था और मैं किसी की बात नहीं सुनना चाहता था। मैंने ढेर सारी आईसक्रीम ली और उसे चट कर गया। मैंने कहा था कि जब भी अंपायर मैदान पर जाएं तो मुझे बता दें। अंपायर जैसे ही मैदान पर पहुंचे मैंने अपना हेडफोन उतारा और बल्लेबाजी के लिये चला गया। आईसक्रीम बहुत स्वादिष्ट थी।’ तेंदुलकर ने कहा कि टीम ने इस जीत का जश्न दक्षिण अफ्रीका में ढाबों पर सड़क के किनारे खाना खाकर मनाया। उन्होंने कहा, ‘मैच के तुरंत बाद हमने फैसला किया जहां भी हम जाएंगे साथ में रहेंगे। यह बड़ा दिन था और हमें साथ में जश्न मनाना था। इसलिए हम सीधे सड़क के किनारे ढाबे में खाने के लिये चले गये। वह टूर्नामेंट का सबसे महत्वपूर्ण मैच था।’
तेंदुलकर ने कहा कि उन्हें पाकिस्तानी खाना बहुत पसंद है और जब वह वहां दौरे पर गये तब उनका वजन कुछ किलो बढा। उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान का पहला दौरा यादगार था। मैं नाश्ते में कीमा परांठा और फिर लस्सी लेता था और उसके बाद रात के भोजन के बारे में सोचता था। अभ्यास सत्र के दौरान लंच नहीं रहता था क्योंकि मैं नाश्ते में काफी खा लेता था और दोपहर में लंच या स्नैक लेने के बारे में नहीं सोचता था। मैं तब केवल 16 साल का था और मेरा शारीरिक विकास हो रहा था।’ तेंदुलकर ने कहा, ‘यह अद्भुत अनुभव था क्योंकि जब मैं वापस मुंबई आया और मैंने अपना वजन देखा तो उस पर मुझे विश्वास नहीं हुआ। लेकिन जब भी मैं पाकिस्तान गया तो वहां का भोजन बहुत स्वादिष्ट था। इसके स्वाद का जवाब नहीं था और मैं अपने वजन को लेकर सजग रहता था।’ विश्व क्रिकेट में सर्वाधिक रन बनाने वाले तेंदुलकर ने बताया कि एक बार उन्होंने पूरी टीम के लिये खाना बनाया था और ऐसा आज तक उनके किसी साथी ने नहीं किया है। उन्होंने कहा, ‘1997 या 1998 में हम दिल्ली में थे। पूरी टीम डिनर के लिये अजय जडेजा के घर पर गयी थी। मैं वहां आधे घंटे पहले पहुंच गया था और मैंने पूरी टीम के लिये बैंगन परांठा बनाया था।’ खाने के शौकीन तेंदुलकर ने कहा कि वह विशेष अवसरों पर घर में भी खाना बनाते हैं और जब वह फिश करी बनाते हैं तो उनकी पत्नी बड़े चाव से उसे खाती हैं। उन्होंने कहा, ‘मैंने उसके (पत्नी अंजलि) लिये खाना बनाया है। मैं अब भी ऐसा करता हूं। हमेशा नहीं लेकिन कुछ अवसरों पर मैंने सारा (पुत्री), अर्जुन (पुत्र) और अंजलि के लिये नाश्ता बनाया। पहले मैं नियमित तौर पर ऐसा करता था लेकिन अब खास अवसरों पर ही ऐसा करता हूं।’
तेंदुलकर ने कहा, ‘मैं कई पकवान जैसे फिश करी और प्रॉन मसाला बनाता हूं। मैंने अपनी मां से इन्हें बनाना सीखा है। उन्होंने वर्षों पहले मुझे कुछ चीजें सिखायी थी। मैं उन्हें बनाने की कोशिश करता हूं और अंजलि उसका स्वाद लेती है। उसने कहा कि मेरी बनायी फिश करी सबसे स्वादिष्ट होती है।’ इस स्टार बल्लेबाज ने कहा कि किशोरावस्था में उन्हें केवल महाराष्ट्र का भोजन बनाना ही आता था लेकिन लगातार यात्राओं के दौरान उन्होंने अन्य तरह का खाना बनाना भी सीखा। उन्होंने कहा, ‘मैं इंग्लैंड दौरे पर गया तो पहली बार मैंने वहां कोल्ड चिकन के बारे में सुना। मैंने उसे खाया। मैं समझता हूं कि क्रिकेट इतना महत्वपूर्ण और रोमांचक होता है कि हम खाने के बारे में भूल जाते थे। शाम का समय थोड़ा मुश्किल होता था। उन दिनों आप बर्गर से काम चला सकते थे लेकिन अब नहीं।’ तेंदुलकर ने कहा, ‘मैं 25 साल से यात्रा कर रहा हूं और इस दौरान मैंने तमाम तरह का भोजन किया। मैं अच्छे भोजन और अच्छे स्वाद की तारीफ करता हूं। कई बार डाइट के बारे में सोचे बिना आप जो चाहते हो उसको खाना अच्छा रहता है।’ उन्होंने कहा कि वह जापानी खाने के शौकीन हैं और एक बार सुरेश रैना के साथ रेस्टोरेंट चले गये थे हालांकि उन्हें इसके अंत का पता नहीं था। तेंदुलकर ने कहा, ‘मुझे तीन साल पहले की बात याद है। मैं सुरेश रैना को लेकर जापानी रेस्टोरेंट गया जो बुरा नहीं था। मुझे नहीं पता था कि वह आना चाहता था या नहीं क्योंकि मैं बहुत उत्साहित था। मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारा जापानी भोजन से परिचय करवाता हूं। उसे वह पसंद आया।’ उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि उसने इसके बाद जापानी भोजन किया या नहीं। तब उसने साशिमी और सुशी का जरूर भरपूर आनंद लिया था मैंने गार्लिक फ्राइड राइस भी मंगवाया था जो उसके लिये खाना मुश्किल नहीं था।’
भोजन बनाने की अपनी यादों के बारे में तेंदुलकर ने कहा, ‘हम 2000 में जिम्बाब्वे गये। हम तब एक दिन जंगल में गये और हमने अपना खाना खुद बनाया। हमने बारबेक्यू चिकन और सास का मजा लिया था। जंगल में जाकर खुद खाना बनाना और साथियों के साथ मस्ती करना बहुत अच्छा अनुभव था। वह अनुभव वास्तव में यादगार रहा।’ तेंदुलकर ने कहा कि जब भी वह नये रेस्टोरेंट में जाते थे तो अक्सर मुंबई के साथी जहीर खान और अजित अगरकर को साथ में लेकर जाते थे। उन्होंने कहा, ‘मैं, जहीर खान और अजित अगरकर नये रेस्टोरेंट और नये पकवानों का स्वाद लेने की कोशिश करते थे। लेकिन अधिकतर साथी इटालियन या थाई या चाइनीज पसंद करते थे। लेकिन हम तीनों और कभी युवराज सिंह अलग चीजें आजमाते थे।’ तेंदुलकर ने कहा कि जब वह विदेश के लंबे दौरे से लौटते हैं तो उन्हें ‘वरन भात’ (महाराष्ट्रियन दाल चावल) खाना पसंद करते हैं। उन्होंने कहा, ‘आप भारत के बाहर इसे नहीं पा सकते हो। वरन भात में थोड़ा घी होता है और उसमें हल्का नींबू मिलाया रहता है।’ खाने के अपने सबसे बुरे अनुभव के बारे में उन्होंने कहा, ‘मैंने घोंघा आजमाया जिसे पचा पाना थोड़ा मुश्किल होता है। मैंने लहसुन के सॉस के साथ उसे खाया और अपनी पत्नी को भी जबर्दस्ती खिलाया। यह बहुत अच्छा भोजन नहीं था। मैंने फिर इसे कभी नहीं खाया।’
तेंदुलकर ने जब पूछा गया कि क्या उन्होंने कभी शाकाहारी बनने की कोशिश की, उन्होंने कहा, ‘बीच में कभी मैंने यह जानने के लिये शाकाहारी बनने की कोशिश की कि कैसा महसूस होता है। मेरे लिये यह मुश्किल था क्योंकि मैंने शुरू से ही मांसाहारी भोजन लिया है। मेरे लिये प्रत्येक भोजन में मांस का होना जरूरी नहीं है। मुझे अच्छा शाकाहारी भोजन करने से परहेज नहीं क्योंकि यह स्वास्थ्यवर्धक होता है।’ तेंदुलकर ने कहा कि इंग्लैंड के खिलाफ आगामी श्रृंखला की तैयारियों के लिये उन्होंने वसायुक्त भोजन से परहेज की। उन्होंने कहा, ‘यह ऐसा समय है जबकि मैं कोई खास भोजन करना ही पसंद करता हूं। इससे मुझे आगामी श्रृंखला की तैयारियों में मदद मिलेगी। आपको रूटीन बनाना होता है और मैं ऐसा करने की कोशिश करता हूं। लंबे समय से क्रिकेट में होने के कारण मुझे पता है कि किसी को कब वसायुक्त भोजन करना चाहिए और कब नहीं।’ तेंदुलकर ने उदाहरण दिया कि किस तरह से एक मैच से पहले उन्होंने खुद के लिये भोजन बनाया। उन्होंने कहा, ‘यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। विश्व कप 2011 के दौरान हमने आस्ट्रेलिया के खिलाफ अहमदाबाद में मैच खेला था। तब वास्तव में बहुत गर्मी थी इसलिए दो तीन दिन तक मैंने शाकाहारी भोजन किया जैसे कि दही भात और खूब नारियल पानी पिया। मेरा मानना है कि इस तरह की परिस्थितियों में मसालेदार भोजन करना अच्छा नहीं होता।’ तेंदुलकर से पूछा गया कि क्या मैच से पहले भोजन को लेकर उनका कोई अंधविश्वास रहा है, उन्होंने कहा, ‘अब आप मेरे दिमाग में एक और बात बिठा रहे हो। मैं इतना बुरा नहीं हूं।’

Dark Saint Alaick
04-11-2012, 08:06 PM
पुण्यतिथि 5 नवम्बर पर विशेष
भारतीय सिनेमा जगत के युगपुरुष थे बी. आर. चोपड़ा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19432&stc=1&d=1352045194

भारतीय सिनेमा जगत में बी.आर.चोपड़ा को एक ऐसे फिल्मकार के रूप में याद किया जाएगा, जिसने एक फिल्म समीक्षक से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश किया और विशिष्ट विषयों पर अनेक यादगार फिल्मों के निर्माण के साथ सिनेजगत के युगपुरुष कहलाए। बी. आर. चोपड़ा ने पारिवारिक, सामाजिक और साफ सुथरी फिल्में बनाकर लगभग पांच दशक तक सिने प्रेमियों के दिल में अपनी खास पहचान बनाई। 22 अप्रैल 1914 को पंजाब के लुधियाना शहर में जन्मे बी. आर. चोपड़ा उर्फ बलदेव राय चोपड़ा बचपन के दिनों से ही फिल्म में काम कर शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचना चाहते थे। देश के विभाजन के पश्चात उनका परिवार दिल्ली आ गया, लेकिन कुछ दिन के बाद बी. आर. चोपड़ा का मन वहां नहीं लगा और वह अपने सपनों को साकार करने के लिए दिल्ली से मुम्बई आ गए। बी. आर. चोपड़ा ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी स्रातकोत्तर की शिक्षा लाहौर के मशहूर गवर्नमेंट कालेज में पूरी की।
बी.आर. चोपड़ा ने अपने कैरियर की शुरुआत फिल्म पत्रकार के रूप में की। फिल्मी पत्रिका 'सिने हेराल्ड' में वह फिल्मों की समीक्षा लिखा करते थे। वर्ष 1949 में फिल्म 'करवट' से उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा, लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म बाक्स आॅफिस पर बुरी तरह असफल हो गई। वर्ष 1951 में अशोक कुमार अभिनीत फिल्म 'अफसाना' को बी.आर. चोपड़ा ने निर्देशित किया। फिल्म ने बॉक्स आॅफिस पर अपनी सिल्वर जुबली (25 सप्ताह) पूरी की। फिल्म की सफलता के बाद बी.आर. चोपड़ा फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। वर्ष 1955 में बी.आर. चोपड़ा ने 'बी.आर. फिल्म्स' बैनर का निर्माण किया। बी.आर. फिल्म्स के बैनर तले उन्होंने सबसे पहले फिल्म 'नया दौर' का निर्माण किया। फिल्म 'नया दौर' के माध्यम से बी.आर. चोपड़ा ने आधुनिक युग और ग्रामीण संस्कृति के बीच टकराव को रुपहले पर्दे पर पेश किया। यह फिल्म दर्शकों को बहुत पसंद आई। फिल्म 'नया दौर' ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। इसके बाद बी.आर. चोपड़ा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक से बढ़कर एक फिल्मों का निर्माण कर दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया।
बी.आर. चोपड़ा के बैनर तले निर्मित फिल्मों पर यदि एक नजर डाली जाए, तो उनकी निर्मित फिल्में समाज को संदेश देने वाली होती थीं। साठ के दशक पर यदि एक नजर डालें, तो पाएंगे उस दौर में निर्मित फिल्में संगीत प्रधान हुआ करती थीं, लेकिन बी.आर. चोपड़ा अपने दर्शकों को हर बार कुछ नया देना चाहते थे। इसी को देखते हुए वर्ष 1960 में उन्होंने 'कानून' जैसी प्रयोगात्मक फिल्म का निर्माण किया। यह फिल्म इंडस्ट्री में एक नया प्रयोग था, जब फिल्म का निर्माण बगैर गानों के भी किया गया। अपने भाई और जाने माने निर्माता निर्देशक यश चोपड़ा को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाने में बी.आर. चोपड़ा का अहम योगदान रहा है। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म 'धूल का फूल', 'वक्त' और 'इत्तेफाक' जैसी फिल्मों की सफलता के बाद ही यश चोपड़ा फिल्म इंडस्ट्री में निर्देशक के रूप में स्थापित हुए थे।
सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका आशा भोसले को कामयाबी के शिखर पर पहुंचाने में निर्माता-निर्देशक बी.आर.चोपड़ा की फिल्मों का अहम योगदान रहा है। पचास के दशक में जब आशा भोसले को केवल बी और सी ग्रेड की फिल्मों में ही गाने का मौका मिला करता था, बी.आर. चोपडा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और अपनी फिल्म 'नया दौर' में गाने का मौका दिया। यह फिल्म आशा भोसले के सिने कैरियर की पहली सुपरहिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में मोहम्मद रफी और आशा भोसले के गाए युगल गीत बहुत लोकप्रिय हुए, जिनमें 'मांग के साथ तुम्हारा', 'उड़ें जब जब जुल्फें तेरी' गीत शामिल हैं। फिल्म 'नया दौर' की कामयाबी के बाद ही आशा को अपना सही मुकाम हासिल हुआ। इसके बाद बी.आर. चोपड़ा ने आशा को अपनी कई फिल्मों में गाने का मौका दिया। इन फिल्मों में 'वक्त', 'गुमराह', 'हमराज', 'आदमी और इंसान' और 'धुंध' प्रमुख हैं। आशा भोसले के अलावा पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर को भी हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने में बी.आर. चोपड़ा की अहम भूमिका रही।
अस्सी के दशक में स्वास्थ्य खराब रहने के कारण बी.आर. चोपड़ा ने फिल्म का निर्माण करना कुछ कम कर दिया। इस दौरान उन्होंने 'इंसाफ का तराजू' (1980) और 'निकाह' (1982) का निर्माण किया। वर्ष 1985 में बी. आर. चोपड़ा ने दर्शकों की नब्ज पहचानते हुए छोटे पर्दे की ओर भी रुख कर लिया। दूरदर्शन के इतिहास में अब तक सबसे कामयाब सीरियल 'महाभारत' के निर्माण का श्रेय भी बी.आर. चोपड़ा को ही जाता है। 96 प्रतिशत दर्शकों तक पहुंचने के साथ ही इस सीरियल ने अपना नाम 'गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड' में भी दर्ज हुआ। बी.आर. चोपड़ा को मिले सम्मान पर यदि नजर डालें, तो वह 1998 में हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के अवार्ड' से सम्मानित किए गए। इसके अलावा वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म 'कानून' के लिए वह सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बी.आर. चोपड़ा ने फिल्म निर्माण के अलावा 'बागवान' और 'बाबुल' की कहानी भी लिखी। अपनी निर्मित फिल्मों से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाले फिल्मकार बी. आर. चोपड़ा 5 नवंबर 2008 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
07-11-2012, 10:11 AM
सात नवंबर को जयंती पर
बंगाल विभाजन के धुर विरोधी थे विपिनचंद्र पाल

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19542&stc=1&d=1352268692

स्वदेशी आंदोलन के कर्णधारों में से एक विपिनचंद्र पाल ने बंगाल विभाजन का कड़ा विरोध किया था और अपने लेखों के माध्यम से बंगाल पुनर्जागरण अभियान की एक तरह से पृष्ठभूमि भी तैयार कर दी थी। रामजस कॉलेज के सेवानिवृत्त प्राध्यापक प्रो यू के गुप्ता ने बताया ‘बंगाल विभाजन के खिलाफ विपिनचंद्र पाल ने न केवल खुल कर आवाज उठाई बल्कि अपने लेखों के माध्यम से उन्होंने एक तरह से आंदोलन की पृष्ठभूमि ही तैयार कर दी।’ इतिहासकार रिजवान कैसर ने कहा ‘विपिनचंद्र पाल बंगाल पुनर्जागरण के आधार स्तंभों में से एक थे। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपतराय के साथ मिल कर बंगाल विभाजन के दौरान ब्रिटिश हुकूमत का कड़ा विरोध किया था।’ उन्होंने कहा ‘विपिनचंद्र पाल के बारे में कहा जाता है कि वह और उनके दो करीबी सहयोगी लाला लाजपतराय और बाल गंगाधर तिलक उग्र विचारधारा वाले थे। यह तिकड़ी ‘लाल, बाल, पाल’ कहलाती थी। सच तो यह है कि यह तीनों कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं करते थे और इस अवधारणा पर विश्वास करते थे कि ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है जिसे हम ले कर रहेंगे।’ प्रो गुप्ता के अनुसार, विपिनचंद्र पाल मानते थे कि सामाजिक विकास पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। स्वदेशी आंदोलन से बहुत पहले ही उन्होंने स्वदेशी पर जोर देना शुरू कर दिया था क्योंकि वह मानते थे कि स्वदेशी सामाजिक विकास में गहरा योगदान दे सकती है। प्रो गुप्ता ने कहा ‘वह पत्रकार थे और अपने पेशे का उपयोग देशभक्ति की भावना फैलाने तथा सामाजिक कुरीतियों के प्रति जागरूकता के प्रसार के लिए करते थे। दिलचस्प बात यह भी है कि उन्होंने महारानी विक्टोरिया की बायोग्राफी बांग्ला में प्रकाशित की थी।’ विपिनचंद्र पाल का जन्म सात नवंबर 1858 को सिल्हट जिले के पोइल गांव में हुआ था। अब सिल्हट जिला बांग्लादेश में है। दूरदर्शन के लिए स्वतंत्रता सेनानियों पर वृत्तचित्र बना चुकीं सुनीता जादवानी ने कहा ‘सामाजिक कुरीतियों का खुल कर विरोध करने वाले विपिनचंद्र पाल को इसके लिए अपने ही परिवार से गहरी आलोचना का सामना करना पड़ा था। वह जाति प्रथा, छुआछूत पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे और स्त्री शिक्षा तथा विधवा विवाह के समर्थक थे। उन्होंने कड़े विरोध के बावजूद उच्च जाति की एक विधवा से विवाह किया था।’ अध्ययन के शौकीन विपिनचंद्र पाल ने 22 साल की उम्र से ही एक साप्ताहिक ‘परिदाषक’ का प्रकाशन शुरू किया था। तत्कालीन कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘बेंगाल पब्लिक ओपीनियन’ के संपादकीय स्टाफ में शामिल रहे पॉल 1887 से 88 तक लाहौर में ट्रिब्यून के संपादक भी रहे। 1901 में उन्होंने अंग्रेजी साप्ताहिक ‘इंडिया’ का प्रकाशन शुरू किया और 1906 में अंग्रेजी दैनिक ‘बंदे मातरम’ के संस्थापक संपादक बने। ‘बंदे मातरम’ पर बाद में सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। वर्ष 1801 से 11 तक वह निर्वासन में लंदन में रहे और अंग्रेजी साप्ताहिक ‘स्वराज’ का प्रकाशन किया। 20 मई 1932 को उनका निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
08-11-2012, 12:12 AM
एक परिचय
दृढ प्रतिज्ञ और करिश्माई वक्ता हैं ओबामा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19574&stc=1&d=1352319139

तमाम अवरोधों को पार करते हुए एक बार फिर व्हाइट हाउस में चार साल के एक औैर कार्यकाल के चुने गए बराक ओबामा बेहद दृढ़ प्रतिज्ञ, विनम्र, करिश्माई वाक् कौशल के धनी और सबको साथ लेकर चलने वाले राजनेता हैं। उनके इन्हीं गुणों की बदौलत अमेरिकियों ने दूसरी बार सत्ता की कमान एक बार फिर से उनके हाथों में सौंपी है। ओबामा का पिछले चार साल का कार्यकाल एक प्रकार से कांटों का ताज रहा, जिस दौरान उन्हें बिगड़ती अर्थव्यवस्था से जूझना पड़ा। नए कार्यकाल में उनकी विदेश नीति एशिया प्रशांत क्षेत्र पर पहले की तरह ही केंद्रित रहेगी, जहां भारत को अमेरिकी रणनीति में महत्वपूर्ण धुरी के रूप में देखा जा रहा है। ओबामा भारत के साथ मजबूत सम्बंधों के पक्षधर रहे हैं, लेकिन घरेलू बाध्याताओं के कारण उन्हें अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान नौकरियों को भारत में आउटसोर्स किए जाने के खिलाफ आवाज उठानी पड़ी। अपने पहले ही कार्यकाल में भारत यात्रा पर जाने वाले ओबामा पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के मुद्दे को भी समर्थन दिया है। चुनाव परिणाम बताते हैं कि अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने के उनके तौर-तरीकों से असंतुष्ट रहने के बावजूद जनता उनके प्रति निष्ठावान बनी रही और उनमें फिर से अपना भरोसा जताया।
ओबामा ने हाल ही में सैंडी तूफान से तबाह हुए न्यूजर्सी के तटीय इलाकों का दौरा किया था। इस दौरान न्यूजर्सी के रिपब्लिकन गवर्नर भी उनके साथ थे। दोनों नेताओं ने अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को दरकिनार करते हुए आपदा से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर एक-दूसरे की जी भरकर तारीफ की। आपदा से निपटने की उनकी शैली की जनता ने बड़ी सराहना की। राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान से मात्र कुछ ही दिन पहले आई इस आपदा में 90 लोग मारे गए थे और देश की अर्थव्यवस्था को करीब 50 अरब डॉलर का नुकसान हुआ था। श्वेत अमेरिकी मां ऐन डनहैम और केन्या में पैदा हुए हार्वर्ड शिक्षित अर्थशास्त्री पिता के घर बराक का जन्म होनोलूलू के हवाई में बराक हुसैन ओबामा के रूप में हुआ था। वह चार नवंबर, 2008 को अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। उन्होंने इन चुनावों में अपने तत्कालीन रिपब्लिकन प्रतिद्वंद्वी जान मैक्केन को परास्त किया था और 20 जनवरी, 2009 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली। अश्वेत मानवाधिकार नेता मार्टिन लूथर किंग द्वारा अमेरिकियों को ‘समानता के सपने’ को पूरा करने के लिए उठ खड़े होने का आह्वान किए जाने के ठीक 45 साल बाद ओबामा व्हाइट हाउस पहुंचे थे। वर्ष 2009 में नोबल शांति पुरस्कार से नवाजे गए ओबामा 21 जनवरी, 2013 को दूसरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण करेंगे। हालांकि संविधान के तहत 20 जनवरी का दिन शपथ ग्रहण के लिए तय होता है, लेकिन उस दिन रविवार पड़ रहा है। जनादेश के बाद ओबामा के कंधों पर देश की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की जिम्मेदारी नए सिरे से आ गई है।
कई दशकों के बाद अमेरिका में आई भीषण मंदी के बीच ओबामा के कार्यभार संभालने के बाद से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को काफी संघर्ष करना पड़ा है, जिसमें धीमी रोजगार वृद्धि दर और बेरोजगारी दर का आठ फीसदी से ऊपर बने रहना बड़े मुद्दे रहे हैं। इससे पूर्व, नवंबर 2010 के मध्यावधि चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी को ऐतिहासिक नुकसान झेलना पड़ा था। अपने कंजर्वेटिव एजेंडे को आगे बढ़ाने तथा राष्ट्रपति की योजनाओं में पलीता लगाने के लिए रिपब्लिकन अधिक दृढ़ प्रतिज्ञ होकर सामने आ रहे थे। हालांकि विदेश नीति के मुद्दे पर ओबामा ने पाकिस्तान के ऐबटाबाद में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए कमांडो दस्ता भेजकर, इराक में युद्ध समाप्त कर और रूसी राष्ट्रपति दमित्री मेदवेदेव के साथ नई परमाणु हथियार संधि कर अपनी स्थिति को काफी मजबूत करने में सफलता हासिल की। ओबामा ने अपना पहला कार्यकाल संभालने के पहले दिन से ही भारत के साथ अमेरिकी सम्बंधों के महत्व को समझा और जनवरी 2009 में राष्ट्रपति पद की औपचारिक शपथ लेने से पहले ही तत्कालीन भारतीय राजदूत रोनेन सेन को खुद फोन कर मुंबई आतंकवादी हमलों पर संवेदना प्रकट की। इतना ही नहीं, यह प्रतिबद्धता भी जताई कि अमेरिका दोषियों को कानून के कठघरे में लाने के लिए हरसंभव सहायता उपलब्ध कराएगा। उन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे पहले नवंबर, 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपने सरकारी मेहमान के रूप में आमंत्रित किया और उनके सम्मान में पहला रात्रिभोज दिया। इसके एक साल बाद ही वह अपने पहले कार्यकाल के दौरान भारत यात्रा पर आने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बन गए। इस दौरान उन्होंने न केवल 21वीं सदी में भारत- अमेरिका सम्बंधों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण सम्बंध घोषित किया, बल्कि विश्व स्तर पर देश की बढ़ती महत्ता को मान्यता देते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के दावे का समर्थन भी किया।
ओबामा ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान बड़ी संख्या में भारतीय अमेरिकियों को अपने प्रशासन में शीर्ष पदों पर नियुक्त किया, जिनमें राज शाह भी शामिल हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने दिवाली मनाने के लिए व्हाइट हाउस के भीतर खुद पारंपरिक दीया जलाया। उनके पहले कार्यकाल के दौरान भारत- अमेरिकी द्विपक्षीय कारोबार 100 अरब डॉलर के आंकड़ें को पार कर गया। घरेलू मोर्चे पर ओबामा के सत्ता संभालने के बाद डेमोक्रेट्स ने आर्थिक प्रोत्साहन कार्यक्रमों, अमेरिकी हेल्थकेयर व्यवस्था में भारी बदलाव, वॉल स्ट्रीट और बैंकिंग इंडस्ट्री के लिए नए नियम तय करने तथा अमेरिकी आॅटो उद्योग को बर्बादी से बचाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर रिपब्लिकन की आलोचना का कड़ा जवाब दिया। अन्य डेमोक्रेट्स के सहयोग से ओबामा ने सार्वजनिक रूप से घोषित समलैंगिकों को अमेरिकी सेना में नियुक्त किए जाने पर लगाए गए प्रतिबंध सम्बंधी दो दशक पुराने कानून को भी बदल दिया। राष्ट्रपति चुनाव से पूर्व भी ओबामा ने अपना धीरज नहीं खोया और चुनावी शतरंज पर अपने मोहरे जमाने में लगे रहे, जिसमें अंतत: जीत उन्हीं की हुई। इलियोनोइस की राज्य सीनेट के लिए चुने जाने पर ओबामा ने 1996 में पहली बार सत्ता के गलियारे में कदम रखा, जहां से उनकी यात्रा 2004 में संघीय सीनेट के सीनेटर के रूप में चुने जाने पर संपन्न हुई। इस चुनाव में उन्होंने भारी मतों से जीत हासिल की और उनके राजनीतिक कॅरियर ने नया मोड़ ले लिया।
जमीनी स्तर का नेता होने के कारण शुरुआत में ओबामा को उनके विरोधियों ने हल्के में लिया और कहा कि यह अनुभव अमेरिकी राष्ट्रपति पद को पाने में काम नहीं आएगा, लेकिन विश्लेषक महसूस करते हैं कि इस जमीनी स्तर पर काम करने के कौशल ने ही अश्वेत अमेरिकी नेता की अपने पहले चुनाव अभियान के दौरान मतदाताओं के दिलों तक पहुंचने में उनकी मदद की। ओबामा के पहले नाम ‘बराक’ का अरबी में अर्थ होता है ‘धन्य’। उन्हें अपने पहले कार्यकाल के दौरान इस नाम को लेकर इन अफवाहों को दूर करने में कड़ी मेहनत करनी पड़ी कि वह एक मुस्लिम हैं। उन्होंने कहा कि वह ईसाई धर्म का पालन करते हैं। ओबामा के माता-पिता का उनके जन्म के बाद ही तलाक हो गया था और उनके पिता 1982 में एक सड़क हादसे में मारे गए थे। अपने बचपन में ओबामा ने कुछ समय इंडोनेशिया में गुजारा। उनकी मां, स्टेन्ले डनहम से शादी करने के बाद वहां जा बसी थीं। इसके बाद उनका पालन-पोषण उनके दादा-दादी ने किया। उनके दादा पैटन सेना में थे। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद ओबामा शिकागो चले गए और स्थानीय स्टील संयंत्रों के बंद होने के कारण बर्बाद हुए लोगों को पुनर्वास मुहैया कराने के लिए वहां उन्होंने सामाजिक आयोजक के तौर पर काम किया। ओबामा ने हार्वर्ड लॉ स्कूल से शिक्षा हासिल की, जहां वह हार्वर्ड लॉ रिव्यू के पहले अफ्रीकी-अमेरिकी अध्यक्ष चुने गए। कानून में स्नातक करने के बाद वह फिर से शिकागो लौटे, जिसे उन्होंने अपना गृहनगर बना लिया था। उन्होंने मानवाधिकार मामलों को देखने वाले वकील के रूप में अपनी प्रैक्टिस जारी रखी और प्रोफेसर के रूप में यूनिवर्सिटी आफ शिकागो में संवैधानिक कानून पढ़ाते रहे।

Dark Saint Alaick
12-11-2012, 10:47 PM
13 नवंबर को विश्व दया दिवस पर विशेष
स्वार्थ और संकुचित सोच से दुनिया में बढ़ रही है हिंसा

दुनियाभर में बढ़ती हिंसा, सांप्रदायिक दंगे और लूटमार के बीच लोगों में संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है, स्वार्थ तथा संकुचित सोच उन पर हावी होती जा रही है। ओशो वर्ल्ड पत्रिका के संपादक स्वामी चैतन्य कीर्ति ने कहा कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सूडान समेत दुनिया के विभिन्न देशों में हिंसा और संघर्ष का स्तर बढ़ता जा रहा है। इस संघर्ष का प्रमुख कारण लोगों में दया और करुणा की लगातार होती कमी है। दया और करुणा ध्यान के बिना संभव नहीं है। यदि व्यक्ति ध्यान नहीं करता है तो उसकी संवेदनशीलता खत्म होती जाती है। इससे व्यक्ति कुंठित होता जाता है और उसकी यह कुंठित ऊर्जा या तो संघर्ष में निकलती है या ध्यान के जरिए। लोगों में बढ़ती हिंसात्मक प्रवृत्ति के बारे में फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम ने कहा कि आज लोगों में दया और करुणा खत्म होती जा रही है। लोगों में खुदगर्जी और लालच बढ़ता जा रहा है, जिसकी वजह से पूरी दुनिया में हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं। आज कोई भी अपनी स्थिति से खुश नहीं है, जिससे उनमें असंतोष बढ़ रहा है। लोगों में बढ़ती इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए हमें दया और करुणा की भावना को बढ़ावा देना होगा। स्वामी चैतन्य कीर्ति ने कहा कि व्यक्ति स्वार्थी होता जा रहा है और वह अपने संकुचित दायरे से निकल नहीं पा रहा है। ऐसा आत्म ज्ञान नहीं होने की वजह से होता है। व्यक्ति में अज्ञान और संकीर्णता के कारण धर्म को लेकर दंगे हो रहे हैं। आज समाज में भ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ रही है और दया तथा करुणामय जीवन व्यतीत करने वाले लोगोें की संख्या घट रही है। अगर व्यक्ति अपने को प्रकृति से जोड़े और सूर्य, चंद्रमा तथा समुद्र को देखे तो उसकी सोच का दायरा विस्तृत होगा। व्यक्ति इस विस्तृत सोच को जब अपने ज्ञान से फिर से जोड़ेगा तो उसकी कुंठित सोच खत्म हो जाएगी। उल्लेखनीय है कि विश्व दया आंदोलन ने वर्ष 1998 में 13 नवंबर के दिन विश्व दया दिवस मनाए जाने की शुरुआत की थी। यह दिवस कनाडा, जापान, आस्ट्रेलिया, इटली, भारत और नाइजीरिया में मनाया जाता है। यह ऐसा दिवस है जो लोगों को देशों की सीमाओं, नस्ल और धर्म के पार जाकर सोचने के लिए प्रेरित करता है।

Dark Saint Alaick
13-11-2012, 08:53 PM
दीपावली पर विशेष
दीपावली के साथ न्याय नहीं किया फिल्मकारों ने

बॉलीवुड के फिल्मकारों ने कई त्योहारों पर फिल्में बनाई हैं, लेकिन रोशनी के महापर्व ‘दीपावली’ को रुपहले पर्दे पर उन्होंने नहीं के बराबर पेश किया है। हिंदी फिल्मों में दीपावली का चित्रण नहीं के बराबर किया गया है। वैसे कुछ फिल्में ऐसी हैं, जिनमें खुशियों के प्रतीक के रूप में इस पर्व को दिखाया गया है, लेकिन उन फिल्मों में भी दीपावली बोनस, छुट्टी, रोशनी तथा आतिशबाजी तक ही सीमित रह गई है, कम ही फिल्मों में दीपावली को विशेष स्थान दिया गया है। वर्ष 1973 में प्रदर्शित प्रकाश मेहरा की सुपरहिट फिल्म जंजीर का नाम ऐसी ही फिल्मों में आता है, जिसमें सदी के महानायक अभिताभ बच्चन ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फिल्म की शुरुआत उस समय होती है, जब दीपावली पर एक घर के आसपास का सारा माहौल रोशनी से जगमग रहता है। ऐसे खुशनुमा माहौल में एक अपराधी चालनुमा मकान के एक कमरे में प्रवेश करता है और आतिशबाजी की गूंज के बीच उसकी रिवाल्वर से गोली निकलती है, फिर देखते ही देखते एक मासूम बच्चे की दुनिया उजड़ जाती है। वह बच्चा अपने माता-पिता की हत्या होते हुए देखता है। वह बड़ा होकर उस अपराधी को पहचानता है और उसे सजा दिलाता है। संयोगवश उस दिन भी दीपावली की ही रात होती है। इसके बाद फिल्म का सुखद अंत हो जाता है। आखिर तक फिल्म की कहानी कई नाटकीय मोड़ों से गुजरती है, लेकिन पूरी कहानी पर दीपावली की रात हावी रहती है। फिल्म की शुरुआत में दीपावली से जुड़ा दृश्य सिने प्रेमी शायद ही कभी भूल पाएं, जिसमें अभिनेता अमिताभ बच्चन के माता-पिता की हत्या दीपावली के दिन होती है। प्रकाश मेहरा ने कभी कहा था कि उन्होंने फिल्म के पटकथा लेखक सलीम-जावेद से फिल्म के निर्माण के समय ही कह दिया था कि इस घटना को दीपावली की रात में दिखाया जाए। हाल में प्रदर्शित फिल्मों में करण जौहर की फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ में दीपावली के दृश्यों को बहुत ही खूबसूरती के साथ पेश किया गया है। फिल्म की शुरुआत में नायक रितिक रोशन दीपावली पर अपने घर लौटते हैं। उन्हें पता चलता है कि उसके भाई घर छोड़ कर चले गए हैं। उन्हें यह भी पता चलता है कि जब कभी उनके भाई शाहरुख खान छुट्टियों के दौरान दीपावली पर घर लौटते थे, तब सारा घर खुशियों से भर उठता था। इन सबके साथ ही कुछ फिल्मों में दीपावली के दृश्य का चित्रण बेहद मार्मिक तरीके से किया गया है। इसी क्रम में चेतन आंनद की वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘हकीकत’ खास तौर पर उल्लेखनीय है। वर्ष 1962 में भारत और चीन के बीच हुए युद्ध पर आधारित इस फिल्म के एक दृश्य में दीपावली के ही दिन फिल्म का एक अभिनेता जयंत देश के जवानों को जो संदेश भेजता है, वह अत्यंत मार्मिक है। फिल्मों में कई बार उल्लास के बाद वेदना के क्षणों का चित्रण करने के लिए भी दीपावली के दृश्यों का सहारा लिया गया है। निर्माता निर्देशक शक्ति सामंत की फिल्म ‘अनुराग’ में इस तरह के दृश्यों को सुन्दरता से पेश किया गया है। फिल्म के एक दृश्य में दीपावली की ही रात होती है, जब पूरा घर खुशियों से झूम रहा होता है। ऐसे में अचानक परिवार के मुखिया को यह पता चलता है कि उसके पोते को असाध्य बीमारी है। इसके बाद पूरा घर अचानक मायूस हो जाता है और उनकी सारी खुशियां पलभर में दुख में बदल जाती हैं। फिल्म का यह दृश्य भी सिने दर्शक शायद ही कभी भूल पाएं।
दीपावली का पर्व आशाओं, आकांक्षाओं से भरे उत्सव के रूप में मनाए जाने की परंपरा है। फिल्म ‘मुझे कुछ कहना है’ में इस पर्व को कुछ ऐसे ही तरीके से पेश किया गया है। फिल्म के एक दृश्य में फिल्म का नायक तुषार कपूर अपने परिवार की नजर में एकदम निकम्मा है और उससे किसी को कोई उम्मीद नही है। दीपावली की रात को वह एकदम हताश होकर सड़कों पर भटक रहा होता है। तभी अचानक फिल्म की नायिका करीना कपूर को देखकर उसके जीवन में नई उमंग और आशा का संचार होता है। हाल के वर्षों में कुछ अन्य फिल्मों में भी दीपावली से जुड़े दृश्यों का सहारा लिया गया है। इनमें ‘हम आपके है कौन’, ‘एक रिश्ता द बांड आॅफ लव’, ‘ख्वाहिश’ आदि शामिल हैं। महेश मांजरेकर की संजय दत्त अभिनीत फिल्म ‘वास्तव’ में दीपावली के दृश्य को कहानी का हिस्सा बनाकर पेश किया गया है। इन सबके साथ ही दीपावली से जुड़े गीत फिल्मकारों ने कभी-कभी ही पेश किए हैं, इनमें आई दिवाली की रोशनी (रतन), आई है अबकी साल दिवाली (हकीकत), दिवाली की रात पिया का घर (अमर कहानी), लाखों तारे आसमान में (हरियाली और रास्ता), आई है दिवाली (आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया), हैप्पी दिवाली (होम डिलीवरी) आदि गीत प्रमुख हैं।

rajnish manga
14-11-2012, 07:42 PM
ख्यालों के बेबहर पंछियों की बेतरतीब उड़ान .... बतकही यूँ भी !


"----और दे गया सन्देश ,मैं सूरज अपनी धूप सबके लिए एक सी ही तो बिखेरता हूँ , कोई पौधा पत्थरों की ओट बना कर मुरझा जाए तो मेरा क्या कुसूर....
-वाणी

सच में बहुत अच्छी रचना है सेंट अलैक जी. लेखक बधाई के पात्र हैं. अनुमति हो तो यहाँ अपनी दो पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगा:
धूप इतनी नहीं फूल खिल भी सकें.
कहीं इतनी मिली फूल मुरझा गए.
धन्यवाद.

rajnish manga
14-11-2012, 07:58 PM
[QUOTE=Dark Saint Alaick;170427]अजूबा
वहां चालीस वर्षों से हो रही है शिव भक्त रावण की पूजा

:gm:
रावण के किरदार को नए परिप्रेक्ष्य में समझने के प्रयास अच्छे हैं किन्तु लोक धारा बदलना आसान नहीं. लेख द्वारा रावण की बहन शूर्पणखा का वास्तविक नाम ज्ञात हुआ. यह बात समझ में नहीं आती कि चन्द्रनखा नाम किसने और कहाँ बदला.

Dark Saint Alaick
16-11-2012, 02:16 PM
शी चिनफिंग
एक रहस्यमय देश का नया रहस्यमय नेता

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19842&stc=1&d=1353060976

चीन के शीर्ष पद पर आसीन हुए ‘वंशानुगत’ साम्यवादी शी चिनफिंग का व्यक्तित्व बाहरी दुनिया के लिए तो रहस्यमय है ही और करीब 1.3 अरब की आबादी वाला उनका देश भी अपने नए नेता को उनके क्रांतिकारी पिता और अत्यंत लोकप्रिय गायिका पत्नी की वजह से अधिक जानता है। भारत-चीन संबंधों, तिब्बत मुद्दे, वैश्विक अर्थव्यवस्था या जलवायु परिवर्तन पर पांचवी पीढी के नेता 59 वर्षीय शी के विचारों के बारे में लोग ज्यादा नहीं जानते। रसायन इंजीनियरिंग करके राजनीति में आए शी 2008 से उप राष्ट्रपति थे। एक सप्ताह तक चली सत्तारूढ कम्युनिस्ट पार्टी की आज ही संपन्न हुई 18 वीं कांग्रेस में शी को पार्टी का महासचिव बनाया गया। अगले साल मार्च में वह 69 वर्षीय हू जिंताओ की जगह राष्ट्रपति का पदभार भी संभाल लेंगे। शी सितंबर माह में करीब दो सप्ताह तक ‘लापता’ रहे और देश के दौरे पर आई अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन तथा अन्य विदेशी अधिकारियों से उनकी निर्धारित मुलाकातें रद्द कर दी गई। इससे उनके स्वास्थ्य और सीपीसी (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) में अंदरूनी कलह की अटकलें तेज हो गई । चीन के तमाम नेताओं की तरह शी के जीवन के ब्यौरे के बारे में भी वहां की सरकार ने कोई खास जानकारी नहीं दी है। लंबे गृह युद्ध के पश्चात चीन में कम्युनिस्ट शासन स्थापित होने के चार साल बाद 1953 में शी का जन्म हुआ था। शी चीनी क्रांति के बड़े नायकों मेें से एक शी शोंगशन के पुत्र हैं। शोंगशन को तत्कालीन करिश्माई नेता माओ जेदोंग ने प्रचार एवं शिक्षा मंत्री नियुक्त किया था। बाद में प्रधानमंत्री शाओ एनलाई के कार्यकाल में वह उप प्रधानमंत्री और 1962 से पहले तक चीन की सर्वोच्च प्रशासनिक निकाय रही स्टेट काउंसिल के महासचिव रहे। तब तक शी चिनफिंग चीन की पहली पीढी के नेताओं के अन्य बच्चों के साथ ‘शोंगनन्हाई’ में राजसी अंदाज में बड़े हुए। शोंगनन्हाई बीजिंग के तियानअनमेन चौक के समीप है। बाद में उनके पिता के माओ से संबंध मधुर नहीं रहे और सांस्कृतिक क्रांति के दौरान (1969-1975) जो तीन करोड़ युवा शहरों को छोड़ कर दूरस्थ पहाड़ियों में जाने के लिए मजबूर हुए थे, उनमें शी भी शामिल थे। तब शी अपने पैतृक प्रांत शांक्सी के लियांगजियाहे में एक खेतिहर मजदूर बन गए। सरकारी मीडिया में प्रकाशित उनकी आधिकारिक आत्मकथा में कहा गया है ‘वहां उन्होंने छह साल बिताए। उन दिनों उन्होंने फसल काटी, पशु चराए और केरोसिन लैम्प की धीमी रोशनी में किताबें पढीं। जल्द ही वह गांग की पार्टी शाखा के प्रमुख चुने गए। माओ का 1976 में निधन हो गया और शी के पिता एक बार फिर अहम भूमिका में आ गए । वह दक्षिणी प्रांत गुआंगदोंग के पार्टी सचिव बनाए गए जहां उन्होंने हांगकांग के समीप चीन के पहले विशेष आर्थिक क्षेत्र :स्पेशल इकोनॉमिक जोन: का प्रबंधन किया। शी ने 1979 में बीजिंग में प्रतिष्ठित सिंगहुआ विश्वविद्यालय से रसायनिक इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री ली और फिर पार्टी में अपने पिता के प्रभाव का बखूबी उपयोग किया। वह अपने पिता के पूर्व ‘कॉमरेड इन आर्म्स’ गेंग बिआओ के निजी सचिव बने। सीपीसी, सरकार और सेना में गेंग बिआओ की बात को खासा महत्व दिया जाता था। यही वह समय था जब शी ने के. लिंगलिंग से पहला विवाह किया था। के ब्रिटेन में चीन के राजदूत के. हुआ की पुत्री थीं। वर्ष 1987 में शी ने अपनी वर्तमान पत्नी फेंग लियुआन से दूसरा विवाह किया जो 1980 के दशक में पीपल्स लिबरेशन आर्मी (चीनी सेना) के लिए अत्यंत लोकप्रिय लोक गायिका थीं। बताया जाता है कि शी की पुत्री शी मिंगजे हार्वर्ड में छद्म नाम से पढ रही है। वर्ष 1982 में शी के पिता सत्तारूढ पोलित ब्यूरो और सचिवालय में लिए गए। तब शी मध्य चीन के हेबेई प्रांत के च्येंगदिंग में काउंटी उप सचिव बने। यह ग्रामीण राजनीति में उनका पहला अनुभव था। सामाजिक सुरक्षा कोष घोटाले को लेकर शंघाई के तत्कालीन पार्टी प्रमुख छेन लियांगयु को बर्खास्त कर दिया गया और शी शंघाई के शीर्ष नेता बने। जून में उनकी स्वच्छ छवि की हर तरफ चर्चा हुई। साथ ही उनके परिवार की संपत्ति भी चर्चा का विषय बनी। हालिया बड़ी विदेश यात्रा में शी फरवरी में अमेरिका गए जहां एक बड़े नीतिगत भाषण में उन्होंने ‘एक चीन नीति’ और एक दूसरे के मुख्य हितों का सम्मान करते हुए रणनीतिक विश्वास बढाने तथा संदेह घटाने का आह्वान किया। ‘एक चीन नीति’ ताइवान और तिब्बत की स्वतंत्रता के खिलाफ है। अमेरिका में शी ने वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा, उप राष्ट्रपति जो बाइडेन, विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन और रक्षा मंत्री लियोन पैनेटा से मुलाकात की। एक गांव के प्रमुख से लेकर देश के नेता तक के सफर के दौरान शी पर हमेशा ‘वंशानुगत’ साम्यवादी होने का ठप्पा लगा रहा क्योंकि वह ऐसे पूर्व उप प्रधानमंत्री के पुत्र हैं जिनके कुछ समय तक जेल में रहने की भी खबरें रही हैं। शी शोंगशन ने 1989 में तियानअनमेन चौक पर हुए घटनाक्रम की बाद में निंदा की थी जिसमें हजारों छात्र मारे गए थे। इसके बाद शी शोंगशन कभी कभार ही नजर आए। एक उदारवादी के तौर पर शोंगशन को हू और वेन का परामर्शदाता माना जाता है। वह शेनझेन स्थित देश के पहले विशेष आर्थिक क्षेत्र का मुख्य योजनाकार भी बने जो खूब सफल साबित हुआ था। शी अपने पिता के अलावा दूसरी पत्नी फेंग लियुआन की वजह से भी जाने जाते हैं। पीएलए की नागरिक सदस्य के तौर पर फेंग सेना के एक जनरल का रैंक रखती हैं। वह 24 साल तक सालाना ल्यूनर न्यू ईयर पर होने वाले भव्य समारोह में लाखों दर्शकों को मंत्रमुग्ध किए रहीं और उनके कार्यक्रम का सरकारी टीवी पर सीधा प्रसारण होता था। शी का एक प्रसिद्ध उद्धरण है ‘बहुत सारे लोगों की तुलना में मुझे ज्यादा कड़वाहट मिली।’ यह बात उन्होंने संभवत: वंशानुगत साम्यवादी कहे जाने संबंधी अपनी आलोचना खारिज करते हुए कही थी।

Dark Saint Alaick
17-11-2012, 12:23 AM
17 नवंबर 75वें जन्मदिन पर विशेष
तीन भाषाओं का संगम हैं ‘क्रिकेट के प्रोफेसर’ चतुर्वेदी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19878&stc=1&d=1353097403

क्रिकेट हलकों में उन्हें ‘क्रिकेट का प्रोफेसर’ कहा जाता है, लेकिन अंग्रेजी के प्राध्यापक होने के बावजूद हिन्दी में क्रिकेट पर 11 किताबें लिखने वाले सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी का मानना है कि इस खेल के प्रति अगाध प्रेम उन्हें निरंतर लेखन के लिये प्रेरित करता है। चतुर्वेदी पिछले साढे चार दशक से क्रिकेट पर हिन्दी में निरंतर लिख रहे हैं। उनकी नयी किताब ‘क्रिकेट अंपायर्स’ का कल (17 नवंबर) इंदौर में उनके 75वें जन्मदिवस पर विमोचन किया जाएगा। उन्होंने 1995 में सी के नायडू पर पहली किताब लिखी थी जिसके बाद उनकी कुल 11 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। क्रिकेट के प्रति अपने इस समर्पण के बारे में चतुर्वेदी ने कहा, ‘क्रिकेट मेरी जिंदगी है। आप किसी भी विषय पर लिखना चाहते हैं तो उसके प्रति आपका गहरा प्यार होना चाहिए। क्रिकेट हमेशा मेरे दिल के करीब रहा।’ प्रो. चतुर्वेदी ने भारत के पहले कप्तान सी के नायडू, मुश्ताक अली, विजय मर्चेंट, सुनील गावस्कर, गुंडप्पा विश्वनाथ और सचिन तेंदुलकर के साथ समय बिताया है। उन्होंने कहा, ‘मुझे बचपन से ही क्रिकेट का शौक था। मैंने 1945 में सी के नायडू को बड़ौदा के खिलाफ रणजी फाइनल में दोहरा शतक लगाते हुए देखा था। मैं भाग्यशाली रहा कि मुझे कई महान क्रिकेटरों का सानिध्य मिला।’ इंदौर के गवर्नमेंट आर्ट्स एवं कामर्स कालेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे चतुर्वेदी ने अब तक सी के नायडू, मुश्ताक अली, आजाद भारत में क्रिकेट, हमारे आज के क्रिकेट सितारे, नंबर एक कौन. सचिन या ब्रायन लारा, विश्व क्रिकेट और भारत, भारतीय स्पिन गेंदबाजी की परंपरा, आलराउंडर्स, हमारे कप्तान, विकेटकीपर और क्रिकेट अंपायर जैसी किताबें लिखी हैं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार जैसी पत्रिकाओं के अलावा देश के कई समाचार पत्रों में क्रिकेट पर हजारों आलेख लिखने वाले चतुर्वेदी ने कहा कि वह हमेशा सी के नायडू, मुश्ताक अली, प्रो एम एम जगदाले के रिणी रहेंगे जिन्होंने उनकी क्रिकेट के प्रति दीवानगी बनाये रखने में मदद की। प्रो जगदाले के पुत्र और बीसीसीआई सचिव संजय जगदाले के लिये वह आदर्श गुरू हैं। उन्होंने कहा, ‘मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वह मेरे लिये आदर्श गुरू हैं। मैं उनकी स्पष्टवादिता और ईमानदारी का कायल हूं।’ जगदाले ने कहा, ‘वह बड़े स्तर पर क्रिकेट नहीं खेले हैं लेकिन वह इस खेल पर किसी भी व्यक्ति से बेहतर पकड़ रखते हैं। वह साहित्यकार हैं। उर्दू की शायरी के शौकीन हैं और इसलिए वह अपनी बात को बेहतर तरीके से पेश करते हैं।’ वरिष्ठ खेल पत्रकार विजय लोकपल्ली उन्हें ‘क्रिकेट का प्रोफेसर’ मानते हैं। उन्होंने कहा, ‘वह वास्तव में क्रिकेट के प्रोफेसर हैं। उन्होंने जिस तरह से क्रिकेट के इतिहास और इसके तमाम पहलुओं को बेहतर तरीके से पेश किया है उससे उनकी हर किताब संग्रहणीय बन जाती है।’ नेशनल बुक ट्रस्ट के हिन्दी विभाग के संपादक पंकज चतुर्वेदी के अनुसार वह ‘तीन भाषाओं का संगम’ हैं। उन्होंने कहा, ‘एक अनूठा संगम है। अंग्रेजी के प्रोफेसर, हिन्दी के लेखक और शौक उर्दू शेरो शायरी का। सूर्यप्रकाश जी ने हिन्दी में क्रिकेट की नयी शब्दावलियां गढी हैं। वह चकाचौंध और ग्लैमर से दूर रहने वाले इंसान हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित उनकी किताबों की बहुत अधिक मांग रहती है।’

Dark Saint Alaick
17-11-2012, 12:28 AM
17 नवंबर को ‘सर्वाइवर्स आफ स्युसाइड डे’ पर
आत्मघाती प्रवृत्ति पर रोक लगा सकते हैं अभिभावक

आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है लेकिन कई पढे लिखे लोग भी अपनी समस्याओं का हल निकालने के बजाय इस रास्ते को अपनाते हैं और देश उस प्रतिभा से वंचित हो जाता है जो उसके निर्माण में योगदान दे सकती थी। सर गंगाराम हॉस्पिटल में क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट प्रियंका गोयनका ने कहा ‘अवसादग्रस्त व्यक्ति अक्सर आत्महत्या के बारे में सोचते हैं और उनकी बातों से कई बार उनके विचारों के संकेत भी मिल जाते हैं। अगर इन्हें गंभीरता से लिया जाए और समय रहते सतर्कता बरती जाए तो सामने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने से बचाया जा सकता है।’ उन्होंने कहा ‘एक अन्य सच यह भी है कि कई बार लोग दूसरों की सहानुभूति लेने के लिए भी आत्महत्या करने की बात करते हैं। कई बार आत्महत्या का नाकाम प्रयास भी इसीलिए किया जाता है। हालांकि ऐसे मामलों की संख्या नगण्य होती है। बहरहाल, आत्मघाती प्रवृत्ति रोकने में अभिभावक मददगार हो सकते हैं।’ मैक्स हेल्थकेयर में कन्स्ल्टेन्ट साइकोलॉजिस्ट समीर पारिख ने कहा ‘आत्महत्या के लिए कारण कई होते हैं। जीवन में कुछ न कर पाने की हताशा, समस्याएं, घरेलू कलह, गरीबी, प्रताड़ना, अवसाद या कोई असाध्य बीमारी आदि। लेकिन मेरे विचार से ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान न हो। बचपन से ही अभिभावकों को चाहिए कि वह अपने बच्चों को परेशानी का सामना करना सिखाएं और स्पष्ट रूप से उन्हें बताएं कि समाधान मुंह मोड़ कर भागने में नहीं है।’ रिख ने कहा ‘बच्चों को यह बताना चाहिए कि अगर कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है तो वह अपना अमूल्य जीवन तो खत्म करता ही है, साथ में खुद से जुड़े कई रिश्तों को भी गहरी पीड़ा दे जाता है। समय हमेशा बदलता रहता है और बुरे समय के बाद अच्छा समय जरूर आता है।’ अमेरिका में 1999 में तत्कालीन सीनेटर हैरी रीड ने अपने पिता के आत्महत्या करने के बाद सीनेट में एक प्रस्ताव पेश किया था। इसे मंजूरी मिलने के बाद से 17 नवंबर को ‘सर्वाइवर्स आफ स्युसाइड डे’ मनाया जाने लगा। अगर बीते बरस के आंकड़े देखें तो देश में एक लाख 35 हजार से अधिक लोगों ने आत्महत्या की। आत्महत्या की सर्वाधिक घटनाएं पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में हुईं। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के अनुसार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक वे पांच राज्य हैं जहां देश में आत्महत्या की कुल घटनाओं में से 56.2 फीसदी घटनाएं हुईं। टोरंटो विश्वविद्यालय में पिछले दिनों किए गए एक अध्ययन में दावा किया गया है कि बचपन में जिन बच्चों का शारीरिक दुर्व्यवहार होता है उनके वयस्क होने पर आत्महत्या करने की आशंका अधिक होती है। समीर पारिख कहते हैं ‘बचपन से जुड़ी कुछ तकलीफदायक यादें आत्महत्या का कारण बन सकती हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि ऐसा ही हो। अगर बच्चों को बचपन से ही बताया जाए कि जीवन में हर तरह का समय आता है और उसका सामना हिम्मत के साथ करना चाहिए तो आत्मघाती प्रवृत्ति को पनपने से रोका जा सकता है।’

Dark Saint Alaick
19-11-2012, 12:04 PM
इंदिरा गांधी की जयंती पर विशेष
लौह महिला इंदिरा गांधी को बचपन में लगता था अंधेरे से डर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19907&stc=1&d=1353312244

अपने दृढ़ निश्चय, साहस और निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता के कारण इंदिरा गांधी को विश्व राजनीति में लौह महिला के रूप में जाना जाता है लेकिन कम लोगों को मालूम होगा कि बचपन में उन्हें आम बच्चों की तरह अंधेरे से काफी डर लगता था। इंदिरा गांधी ने अपने संस्मरण ‘बचपन के दिन’ में इसका उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा, ‘मुझे अंधेरे से डर लगता था, जैसा कि शायद प्रत्येक छोटे बच्चे को लगता है। रोज शाम को अकेले ही निचली मंजिल के खाने के कमरे से उपरी मंजिल के शयनकक्ष तक की यात्रा मुझे बहुत भयभीत करती थी । लम्बे, फैले हुए बरामदे को पार करना, चरमराती हुई लकड़ी की सीढियों पर चढना और एक स्टूल पर चढकर दरवाजे के हैंडिल और बत्ती के स्विच तक पहुंचना।’ उन्होंने लिखा, ‘अगर मैंने अपने इस डर की बात किसी से कही होती तब मुझे पूरा विश्वास है कि कोई न कोई मेरे साथ उपर आ जाता या देख लेता कि बत्ती जल रही है या नहीं। लेकिन उस उम्र में भी साहस का ऐसा महत्व था कि मैंने निश्चय किया कि मुझे इस अकेलेपन के भय से अपने ही छुटकारा पाना था।’ पूर्व विदेश मंत्री एवं वरिष्ठ नेता नटवर सिंह ने कहा कि माता की खराब सेहत और पिता की व्यस्तता के कारण उनका बचपन सामान्य बच्चों की तरह नहीं बीता लेकिन पिता जवाहर लाल नेहरू का उनपर गहरा प्रभाव था। नेहरू ने भी अपनी पुत्री का हर पथ पर मार्गदर्शन किया। पिता का पत्र पुत्री के नाम इसका जीवंत उदाहरण है। इंदिरा ने भी इसे स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा, ‘मेरे दादा परिवार के मुख्यिा थे, इसलिए नहीं कि वह उम्र में सबसे बड़े थे बल्कि इसलिए क्योंकि उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। लेकिन मेरी छोटी सी दुनिया के केन्द्रबिन्दु में मेरे पिता थे। मैं उनको प्यार, उनकी प्रशांसा और सम्मान करती थी । वही एकमात्र व्यक्ति थे जिनके पास मेरे अन्तहीन प्रश्नों को गंभीरता से सुनने का समय होता था। उन्होंने ने ही आसपास की चीजों के प्रति मेरी रूचि जागृत कर मेरी विचारधारा को दिशा दी।’ इंदिरा को खिलौनों का ज्यादा शौक नहीं था । ‘शुरू में मेरा मनपसंद खिलौना एक भालू था जो उस पुरानी कहावत को याद दिलाता है कि दया से कोई मर भी सकता है क्योंकि प्यार के कारण ही मैंने उसे नहलाया था और अपनी आंटी की चहेरे पर लगाने वाली नई और महंगी फ्रेंच क्रीम को उस पर थोप दिया था । अपनी रूआंसी हो आई आंटी से डांट खाने के अलावा मेरे सुन्दर भालू के बाल हमेशा के लिए खराब हो गए।’ गुलाम भारत की चिंतनीय स्थिति को इंदिरा गांधी ने बचपन में ही भांप लिया था, उनको समझ में आ गया था कि स्वतंत्रता कितनी जरूरी है। सिंह ने बताया कि इंदिरा ने बालपन में हम उम्र बच्चों और मित्रों के सहयोग से ‘वानर सेना’ का गठन किया था। उन्हें राजनीति की समझ विरासत में मिली जिसकी वजह से जल्द ही उनका प्रवेश राजनीति में हो गया। पंडित नेहरू भी कई बार उनसे मशवीरा करते थे। उनकी दृढ निश्चय की क्षमता का उदाहरण देश का पहला परमाणु परीक्षण करने का निर्णय था। इंदिरा ने बचपन के दिनों को याद करते हुए लिखा, ‘गर्मी का लाभ यह था कि हम तारों से चमकते आकाश के नीचे सोते और इससे तारों के बारे में ढेर सारी जानकारी मिलती थी और दूसरा लाभ था आम, जो उन दिनों हम एक या दो नहीं बल्कि टोकरी भर कर खाते थे। मैं कम ही खाती थी क्योंकि खाने और सोने को निरर्थक बर्बादी मानती थी।’ इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवंबर 1917 को इलाहाबाद में आनंद भवन में हुआ था।

Dark Saint Alaick
20-11-2012, 09:50 PM
21 नवम्बर को 14वीं पुण्यतिथि पर विशेष
वो मोतियों से करते हैं शायरों का मुंह बन्द-वामिक जौनपुरी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19911&stc=1&d=1353433789

पूरब देश में डुग्गी बाजे, फैला सुख का काल, जिन हाथों में मोती रोले आज वही कंगाल रे साथी भूखा है बंगाल ... यह पंक्तियां उर्दू अदब को समृद्ध तथा प्रगतिशील बनाने वाले इंकलाबी शायर वामिक जौनपुरी की हैं, जिनकी 21 नवम्बर को 14वीं पुण्यतिथि है। उत्तर प्रदेश में जौनपुर शहर से लगभग आठ किलोमीटर दूर कजगांव की लालकोठी में 23 अक्टूबर 1909 को जमींदार घराने में बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सैय्यद अहमद मुजतबा (वामिक जौनपुरी) का जन्म हुआ । विधि स्रातक की शिक्षा ग्रहण करने के बाद वामिक कई सरकारी सेवाओं में रहे और सन् 1969 में अवकाश ग्रहण किया। वामिक जौनपुरी ने उर्दू शायरी में केवल प्रगतिशीलता का संचार ही नहीं किया, बल्कि उन बिन्दुओं की भी तलाश की, जो आम आदमी की बेहतर जिन्दगी के लिए जरूरी होते हैं। बंगाल में 1940 में भीषण अकाल पड़ा। लोग रोटी के लिए तरसने लगे। उस वक्त वामिक जौनपुरी ने भूखा बंगाल शीर्षक से लम्बी कविता लिखकर अपना तथा सिराजे-हिन्द जौनपुर का नाम शायरी की दुनिया में अविस्मरणीय बनाया। वामिक साहब अपना आदर्श उपन्यासकार सम्राट मुंशी प्रेमचन्द्र तथा मशहूर शायर सज्जाद जहीर (बन्ने भाई) को मानते रहे। वामिक का लोहा कैफी आजमी जैसे मशहूर शायर मानते थे। वह कहा करते थे, मुझे मरने से डर नहीं लगता और अधिक जीने की ख्वाहिश भी नहीं रखता। उनकी शायरी मानवता के लिए पूरी तरह समर्पित थी। वामिक जौनपुरी की रचनाओं में भूखा बंगाल, मीना बाजार, चीखें, जरस, शरब चराग, नीला परचम, सफरे नातमाम, मीरे कारवां, अवाम और संसार, कुनकका आदि प्रमुख हैं। सन् 1992 में अपनी आत्मकथा गुफ्तनी नागुफ्तनी लिखने के बाद उन्होंने फिर से कलम नहीं चलाई। इंकलाबी शायर जनाब वामिक जौनपुरी ने अपनी नज्म में लिखा है कि वो मोतियों से करते हैं शायरों का मुंह बन्द, ऐसे में क्या हम अपने को बेआबरू करें। वामिक ने अपनी लेखनी और जिन्दगी में कभी किसी से समझौता नहीं किया। वामिक को उनके लेखन पर काफी सम्मान भी मिला। वामिक साहब को मीर इंतियाज, सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड, उत्तर प्रदेश अकादमी सम्मान एवं गालिब शायरी अवार्ड 1996 सहित अति विशिष्ट सम्मानों से नवाजा गया। हिन्दुस्तान ही नहीं दुनियाभर में कई दशक तक लोगों के दिलो-दिमाग पर राज करने वाले इस महान शायर ने 21 नवम्बर सन् 1998 को दुनिया से विदा ले लिया। वह अब अपनी वर्षगांठ और पुण्यतिथि पर ही याद किए जाते हैं। जन संस्कृति मंच के उपाध्यक्ष अजय कुमार ने बताया कि इंकलाबी शायर वामिक जौनपुरी की पुण्यतिथि यादे वामिक के रूप में मनाई जाएगी।

Dark Saint Alaick
21-11-2012, 02:31 AM
21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस पर
जीवन का अहम हिस्सा बन गया टेलीविजन

कहने को छोटा पर्दा ... लेकिन आज जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है टेलीविजन। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का यह साधन लगभग हर घर में मौजूद है और हर कदम पर अपना महत्व भी साबित कर रहा है। विशेषज्ञों की राय है कि थोड़े से उपायों से इसे और अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। टीवी धारावाहिक ‘उतरन’ के निर्माता पिंटू गुहा ने कहा, ‘आज टेलीविजन हमारी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गया है। पहले घरों में रेडियो होता था और काम करते हुए उससे समाचार, मनोरंजक कार्यक्रम सुने जाते थे। आज टेलीविजन ने उसकी जगह ले ली और दर्शकों को बांध भी लिया है। अब दर्शक काम रोक कर टीवी देखते हैं।’ एक समय में भारतीय टेलीविजन के लोकप्रिय सोप आपेरा ‘हम लोग’ तथा ‘बुनियाद’ में काम कर चुके कलाकार अभिनव चतुर्वेदी कहते हैं, ‘मैं मानता हूं कि छोटे पर्दे में अभिनय के लिए भी उतनी ही मेहनत की जरूरत होती है जितनी बड़े पर्दे के लिए। हम लोग लगातार जुटे रहते थे और जब तक मनोहर श्याम जोशी को तसल्ली नहीं होती थी, तब तक हमें हमारा काम अधूरा लगता था।’ गुहा ने कहा ‘अक्सर कहा जाता है कि सास बहू के कार्यक्रमों के अलावा और टीवी पर होता क्या है। मैं कहता हूं कि कहीं न कहीं ये कार्यक्रम भी कुछ संदेश तो देते ही हैं। आप इन कार्यक्रमों को नापसंद कर सकते हैं पर इन्हें नकार नहीं सकते। लंबे समय से महिलाएं अपने आसपास जो महसूस करती रही हैं, उसे वह टीवी पर अब देख रही हैं। हमने सिर्फ उसे कुछ पॉलिश कर पेश किया है।’ बात सिर्फ मनोरंजन तक ही सीमित नहीं रहती। इंटरनेट पर एक न्यूज वेबपोर्टल से जुड़े केवल कृष्ण मित्रा कहते हैं ‘कई बार हम टीवी पर जो कुछ देखते हैं, उसे सिर्फ देखते हैं और उसके बारे में सोचना पसंद नहीं करते। खास कर पारिवारिक धारावाहिकों या फिल्मों के लिए ऐसा कहा जा सकता है।’ उन्होंने कहा ‘लेकिन यह भी सच है कि टीवी ने खास समय पर गहरे तक झकझोरा भी है। करगिल युद्ध के दौरान जब लोग अपने शहीदों के ताबूत टीवी पर देखते थे तो अंदर ही अंदर आत्मा रो पड़ती थी। मुंबई हमले के दौरान पूरा देश टीवी के सामने था और आतंकवादियों की करतूत से उद्वेलित हो रहा था। टीवी पर होने वाली बहसें कई परतें उघाड़ती हैं।’ मनोविज्ञानी समीर पारिख ने कहा ‘यह सच है कि बच्चों को ज्यादा देर तक टीवी देखने नहीं देना चाहिए। लेकिन शिक्षा के कई ऐसे अच्छे कार्यक्रम टीवी पर आते हैं जो उनके लिए उपयोगी होते हैं। इसके अलावा, कुछ चैनलों के कार्यक्रम ज्ञानवर्द्धक होते हैं। लेकिन हिंसा भरे कार्यक्रम बच्चों की मानसिकता पर प्रतिकूल प्रभाव भी डालते हैं।’ लोगों को दुनिया भर की जानकारी देने में टेलीविजन की अहम भूमिका को देखते हुए 17 दिसंबर 1996 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस के तौर पर मनाने का फैसला किया। 21 नवंबर की तारीख इसलिए चुनी गई क्योंकि इसी दिन पहले विश्व टेलीविजन फोरम की बैठक हुई थी। धारावाहिक ‘उतरन’ की रश्मि देसाई ने कहा ‘टीवी मनोरंजन का एक अहम, सुविधाजनक और सस्ता साधन है। पूरा परिवार एक साथ बैठता है। दुनिया भर की घटनाओं को केवल सुनने के बजाय देखने से अधिक प्रभाव पड़ता है और टीवी इसमें बड़ी भूमिका निभाता है। विज्ञान, राजनीति, भूगोल, इतिहास, स्वास्थ्य, शिक्षा, खेल से लेकर सामाजिक पारिवारिक कार्यक्रम, नवीनतम घटनाक्रम.... क्या नहीं है टीवी पर। हमें चाहिए कि हम इसके नकारात्मक पहलुओं के बजाय सकारात्मक पहलुओं को देखें तथा इसे और अधिक प्रभावी बनाने के बारे में सोचें।’

Dark Saint Alaick
25-11-2012, 10:08 PM
भगतराम की पुण्यतिथि 26 नवंबर पर विशेष
फिल्म इंडस्ट्री की पहली संगीतकार जोड़ी : हुस्नलाल-भगतराम

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=20053&stc=1&d=1353866865

हिन्दी फिल्मों के चोटी के पार्श्वगायक मोहम्मद रफी को प्रारंभिक सफलता दिलाने में दो सगे भाइयों की संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम का अहम योगदान रहा था। चालीस के दशक के अंतिम वर्षों में जब मोहम्मद रफी को फिल्म इंडस्ट्री में बतौर पार्श्वगायक काम ही नहीं मिल रहा था, तो हुस्रलाल-भगतराम की जोड़ी ने उन्हें एक गैर फिल्मी गीत गाने का अवसर दिया था। वर्ष 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद इस जोड़ी ने मोहम्मद रफी को राजेन्द्र कृष्ण रचित गीत सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की अमर कहानी गाने का अवसर दिया। देशभक्ति के जज्बे से परिपूर्ण यह गीत श्रोताओं में काफी लोकप्रिय हुआ। इसके बाद अन्य संगीतकार भी मोहम्मद रफी की प्रतिभा को पहचान कर उनकी तरफ आकर्षित हुए और अपनी फिल्मों में उन्हें गाने का मौका देने लगे। मोहम्मद रफी हुस्नलाल-भगतराम के संगीत बनाने के अंदाज से काफी प्रभावित थे और उन्होंने कई मौकों पर इस बात का जिक्र भी किया है। मोहम्मद रफी सुबह चार बजे ही इस संगीतकार जोड़ी के घर तानपूरा लेकर चले जाते थे, जहां वह संगीत का रियाज किया करते थे। हुस्नलाल-भगतराम ने मोहम्मद रफी के अलावा कई अन्य संगीतकारों को भी पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी। सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन ने हुस्नलाल-भगतराम से ही संगीत की शिक्षा हासिल की थी। मशहूर संगीतकार लक्ष्मीकांत भी हुस्नलाल-भगतराम से वायलिन बजाना सीखा करते थे।
छोटे भाई हुस्नलाल का जन्म 1920 में पंजाब में जालंधर जिले के कहमां गांव में हुआ था, जबकि बड़े भाई भगतराम का जन्म भी इसी गांव में वर्ष 1914 में हुआ था। बचपन से ही दोनों भाइयों का रुझान संगीत की ओर था। हुस्नलाल वायलिन और भगतराम हारमोनियम बजाने में रुचि रखते थे। हुस्रलाल और भगतराम ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा बड़े भाई और संगीतकार पंडित अमरनाथ से हासिल की। इसके अलावा उन्होंने पंडित दिलीप चंद बेदी से से भी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली थी। वर्ष 1930-1940 के दौरान संगीत निर्देशक शास्त्रीय संगीत की राग-रागिनी पर आधारित संगीत दिया करते थे। हुस्नलाल-भगतराम इसके पक्ष में नहीं थे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत में पंजाबी धुनों का मिश्रण करके एक अलग तरह का संगीत देने का प्रयास दिया और उनका यह प्रयास काफी सफल भी रहा। हुस्नलाल-भगतराम ने अपने सिने कैरियर की शुरूआत वर्ष 1944 में प्रदर्शित फिल्म चांद से की ।इस फिल्म में उनके संगीतबद्ध गीत दो दिलों की ये दुनिया श्रोताओं में काफी लोकप्रिय हुए, लेकिन फिल्म की विफलता के कारण संगीतकार के रूप में वे अपनी खास पहचान नही बना सके। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म प्यार की जीत में अपने संगीतबद्ध गीत एक दिल के टुकड़े हजार हुए की सफलता के बाद हुस्नलाल-भगतराम फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए। मोहम्मद रफी की आवाज में कमर जलालाबादी रचित यह गीत आज भी रफी के दर्द भरे गीतों में विशिष्ट स्थान रखता है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि हुस्नलाल-भगतराम ने यह गीत फिल्म प्यार की जीत के लिए नहीं, बल्कि फिल्म सिंदूर के लिये संगीतबद्ध किया था। फिल्म सिंदूर के निर्माण के समय जब हुस्नलाल-भगतराम ने फिल्म निर्माता शशिधर मुखर्जी को यह गीत सुनाया, तो उन्होंने इसे अनुपयोगी बताकर फिल्म में शामिल करने से मना कर दिया। बाद में निर्माता ओ.पी. दत्ता ने इस गीत को अपनी फिल्म प्यार की जीत में इस्तेमाल किया ।
वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म चांद में अपने संगीतबद्ध गीत चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है की सफलता के बाद हुस्नलाल-भगतराम फिल्म इंडस्ट्री में चोटी के संगीतकारों में शुमार हो गए। इस गीत से जुड़ा एक रोचक तथ्य है कि उस जमाने में गांवों में रामलीला के मंचन से पहले दर्शकों की मांग पर इसे अवश्य बजाया जाता था। लता मंगेशकर और प्रेमलता की युगल आवाज में रचे-बसे इस गीत की तासीर आज भी बरकरार है। साठ के दशक मे पाश्चात्य गीत-संगीत की चमक से निर्माता-निर्देशक अपने आप को नहीं बचा सके और धीरे-धीरे निर्देशकों ने हुस्नलाल-भगतराम की ओर से अपना मुख मोड़ लिया। इसके बाद हुस्नलाल दिल्ली चले गए और आकाशवाणी में काम करने लगे, जबकि भगतराम मुंबई में ही रहकर छोटे-मोटे स्टेज कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे। अपने संगीतबद्ध गीतों से श्रोताओं को भावविभोर करने वाले भगतराम 26 नवंबर 1973 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। हुस्नलाल-भगतराम के संगीतबद्ध गीतों में कुछ हैं -ऐ मेरी जिंदगी तुझे ढूंढे कहां (अदले जहांगीर), चले जाना नहीं नैन मिला के (बड़ी बहन), अभी तो मैं जवान हूं (अफसाना), आ आंखों में आ (आंसू), अब तो आ जाओ (राखी), अजी लूट लिया दिल ओ लूटने वाले (दुश्मन), छोटा सा फसाना है तेरे मेरे प्यार का (विरहा की रात), दिल ले गया ओ दिल (सनम), दिल में हमारे आग लागने (फरमाइश), हो नदिया किनारे मोरा गांव रे (हम एक हैं), ढूंढ रही है जिंदगी (आनबान), खुशी का जमाना गया (छोटी भाभी), मनवा में प्यार डोले सारा (सरताज), मस्त आंखें हैं या छलके हुए पैमाने (नकली नवाब) आदि।

Dark Saint Alaick
03-12-2012, 11:42 PM
बच्चन की कालजयी रचनायें आज भी
उद्वेलित करती हैं उनके चाहने वालों को

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कालजयी रचनाओं के रचनाकार हरिवंश राय बच्चन की रचनाओं में उनके व्यक्तित्व और जीवन दर्शन की झलक तो मिलती ही है, साथ ही उनकी बेबाक आत्मकथा आज भी उनके चाहने वालों को दांतों तले उंगली दबाने के लिये विवश करती रहती है । बच्चन ने अपनी लोकप्रिय रचना ‘मधुशाला’ में लिखा, ‘मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता, शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा ।’ बच्चन की काव्य रचनाओं के साथ साथ उनकी आत्मकथा ने इस उक्ति को साकार किया है। हिन्दी के शायद ही किसी रचनाकार की आत्मकथा में अभिव्यक्ति का ऐसा मुखर रूप दिखाई देता है। बच्चन की जयंती (26 नवम्बर) बेशक चंद दिनों पहले ही गुजरी हो लेकिन उनके चाहने वालों के जेहन पर उनका व्यक्तित्व हमेशा अंकित रहता है । डा. धर्मवीर भारती ने उनकी आत्मकथा के बारे में लिखा था, ‘हिन्दी के इतिहास में यह पहली घटना है, जब किसी साहित्यकार ने अपने बारे में सब कुछ इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना के साथ लिखा हो।’ हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बच्चन की आत्मकथा के बारे में कहा, ‘बच्चनजी की आत्मकथा में केवल व्यक्तित्व और परिवार ही नहीं, समूचा देशकाल और क्षेत्र भी गहरे रंगों में उतरा है।’ स्पष्टत: बच्चन की आत्मकथा अपने जीवन और युग के प्रति एक ईमानदार प्रयास है। उन्होंने अपनी आत्मकथा की भूमिका में लिखा, ‘अगर मुझे दुनिया से किसी पुरस्कार की चाह होती तो मैं अपने को अच्छे से सजाता-बजाता और अधिक ध्यान से रंग-चुन कर दुनिया के सामने पेश करता। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे मेरे सरल, स्वाभाविक और साधारण रूप में देख सकें। सहज और निष्प्रयास प्रस्तुति, क्योंकि मुझे अपना ही तो चित्रण करना है।’ उन्होंने लिखा, ‘जीवन की आपा-धापी के बीच युगीन परिस्थितियों का ताना-बाना उसी रूप में प्रकट करना ही किसी सच्चे रचनाकार का कर्म हो सकता है।’ नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हरिवंशराय बच्चन रचनावली के संपादक एवं दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज के हिन्दी प्रोफेसर रहे अजित कुमार ने कहा, ‘बच्चनजी के साथ ‘साहित्यक त्रासदी’ हुयी। उनका लेखन न तो प्रगतिशीलों को पसंद आया और न प्रयोगवादियों को, जबकि ‘मधुशाला’ इस शताब्दी की सबसे अधिक बिकने वाली काव्य-कृतियों में से एक है। अब तक मधुशाला के पचास से अधिक संस्करण निकल चुके हैं, और उसकी तरो ताजगी आज भी उतनी ही है जितनी उस समय जब यह लिखी गयी थी हालांकि उसे किसी भी पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया। उन्होंने बताया कि बीसवीं सदी में ऐसी कोई कृति नहीं है, जिसके इतने संस्करण निकले हों। मधुशाला की तुलना में प्रेमचंद की गोदान के बहुत कम संस्करण छपे हैं, लेकिन वह पाठ्यक्रम में शामिल रही है। अजित कुमार ने बताया कि देवकीनंदन खत्री की तिलिस्मी उपन्यास ‘चन्द्रकांता संतति’ के अलावा केवल ‘मधुशाला’ की ऐसी रचना है, जिसने गैर हिन्दीभाषी लोगों के अंदर हिंदी सीखने पढने का आकर्षण पैदा किया। वर्ष 1949 से मृत्युपर्यन्त बच्चनजी के संपर्क में रहने वाले अजित कुमार ने बताया कि बच्चनजी हिन्दी के एकमात्र कवि हैं, जिन्होंने अपने काव्य-पाठ के जरिये हिन्दी साहित्य में स्थान बनाया। व्यक्तिवादी गीत, कविता और हालावाद के प्रमुख कवि बच्चन की ‘निशा-निमंत्रण’ भी काफी लोकप्रिय हुयी। बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के करीब प्रतापगढ जिले के पट्टी में एक कायस्थ परिवार में हुया था। बचपन में इन्हें बच्चन कहकर पुकारा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ बच्चा या संतान होता है। बाद में यह इसी नाम से मशहूर हो गये। इन्होंने कायस्थ पाठशाला में उर्दू की शिक्षा ली, जो उस समय कानून की पढाई का पहला कदम थी। इसके बाद उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम0ए0 और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध कवि डब्ल्यू बी यीट्स की कविताओं पर शोधकार्य कर पीएचडी हासिल की। बच्चन का विवाह 1926 में श्यामा के साथ हुआ। तब वह 19 वर्ष के थे, जबकि श्यामा 14 साल की थीं। 1936 में टीबी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के पांच साल बाद बच्चन ने पंजाब की तेजी सूरी से विवाह किया। वह रंगमंच और गायन से जुड़ी थीं। तेजी बच्चन से दो पुत्र अमिताभ और अजिताभ पैदा हुये। अमिताभ बॉलीवुड सिनेमा के अभिनेता है, जिन्हें सदी के महानायक का दर्जा मिला है। हरिवंश राय बच्चन ने प्रयाग विश्वविद्यालय के अलावा केन्द्र सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में कार्य किया। वह राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे। बच्चन को उनकी कृति ‘दो चट्टानें’ के लिए वर्ष 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिडला फाउंडेशन ने उनकी आत्मकथा के लिए ‘सरस्वती सम्मान’ दिया था। केन्द्र सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था।

Dark Saint Alaick
04-12-2012, 12:03 AM
पुण्यतिथि 3 दिसंबर पर विशेष
सदाबहार देव आनंद को करना पड़ा था कड़ा संघर्ष

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लगभग छह दशक तक दर्शको के दिलो पर राज करने वाले सदाबहार अभिनेता देव आनंद को अदाकार बनने के अपने ख्वाब को हकीकत में बदलने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। 26 सिंतबर 1923 को पंजाब के गुरदासपुर में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे धर्मदेव पिशोरीमल आनंद उर्फ देव आनंद का झुकाव अपने पिता के पेशे वकालत की ओर न होकर अभिनय की ओर था। उन्होंने स्नातक की शिक्षा अंग्रेजी साहित्य में 1942 में लाहौर के मशहूर गवर्नमेंट कॉलेज में पूरी की। देव आनंद आगे भी पढ़ना चाहते थे, लेकिन उनके पिता ने साफ शब्दों में कह दिया कि उनके पास उन्हें पढ़ाने के लिये पैसे नही हैं और यदि वह आगे पढ़ना चाहते है, तो नौकरी कर लें। देव आनंद ने निश्चय किया कि अगर नौकरी ही करनी है, तो क्यों नहीं फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत आजमाई जाए। जब देव आनंद ने अपने पिता से फिल्म इंडस्ट्री में काम करने की अनुमति मांगी, तो पहले तो उन्होंने इन्कार कर दिया, लेकिन बाद में पुत्र की जिद के आगे झुककर उन्हें फिल्मों में काम करने की अनुमति दे दी। वर्ष 1943 में अपने सपनों को साकार करने के लिए जब वह मुम्बई पहुंचे, तब उनके पास मात्र 30 रूपये थे और रहने के लिये कोई ठिकाना नही था। देव आनंद ने मुंबई पहुंचकर रेलवे स्टेशन के समीप ही सस्ते होटल में एक कमरा किराये पर लिया। उस कमरे में उनके साथ तीन अन्य लोग भी रहते थे, जो देव आनंद की तरह ही फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिये संघर्ष कर रहे थे। देव आनंद भी उन्ही की तरह फिल्म इंडस्ट्री में बतौर अभिनेता काम करने के लिये संघर्ष करने लगे, लेकिन इससे उन्हें उसे कुछ खास फायदा नही हुआ।
मुंबई में इसी तरह जब काफी दिन यूं ही गुजर गये, तब देव आनंद ने सोचा यदि उन्हें यहां रहना है तो जीवन-यापन के लिये नौकरी करनी पड़ेगी, चाहे वह कैसी भी नौकरी क्यों न हो । अथक प्रयास के बाद उन्हें मिलिट्री सेन्सर आफिस में क्लर्क की नौकरी मिल गयी। यहां उन्हें सैनिको द्वारा लिखी चिट्ठियों को उनके परिवार के लोगों को पढ़कर सुनाना पड़ता था ।
इस काम के लिये देव आनंद को 165 रुपए मासिक वेतन के रूप मे मिलते थे, जिसमें से 45 रूपये वह अपने परिवार के खर्च के लिये भेज देते थे। लगभग एक वर्ष तक मिलिट्री सेन्सर मे नौकरी करने के बाद वह अपने बड़े भाई चेतन आनंद के पास चले गये। चेतन आनंद उस समय भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा) से जुड़े हुये थे। उन्होंने देव आनंद को भी अपने साथ इप्टा में शामिल कर लिया। इस बीच देव आनंद ने नाटकों में छोटी मोटी भूमिका निभाई।
वर्ष 1945 में प्रदर्शित फिल्म 'हम एक हैं' से बतौर अभिनेता देव आनंद ने अपने सिने कैरियर की शुरूआत की। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म 'जिद्दी' देव आनंद के फिल्मी कैरियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म की कामयाबी के बाद उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रख दिया और नवकेतन बैनर की स्थापना की। नवकेतन के बैनर तले उन्होने वर्ष 1950 मे अपनी पहली फिल्म 'अफसर' का निर्माण किया जिसके निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनंद को सौंपी। इस फिल्म के लिये उन्होंने उस जमाने की जानी मानी अभिनेत्री सुरैया का चयन किया, जबकि अभिनेता के रूप मे देव आनंद खुद ही थे। हांलाकि यह फिल्म चली नहीं और इसके बाद उनका ध्यान गुरूदत्त को किये गये वायदे की तरफ गया। उन्होंने अपनी अगली फिल्म 'बाजी' के निर्देशन की जिम्मेदारी गुरूदत्त को सौंप दी। फिल्म 'अफसर' के निर्माण के दौरान देव आनंद का झुकाव फिल्म अभिनेत्री सुरैया की ओर हो गया था। एक गाने की शूटिंग के दौरान देव आनंद और सुरैया की नाव पानी में पलट गयी। देव आनंद ने सुरैया को डूबने से बचाया। इसके बाद सुरैया देव आनंद से बेइंतहा मोहब्बत करने लगीं, लेकिन सुरैया की नानी की इजाजत न मिलने पर यह जोड़ी परवान नही चढ़ सकी। वर्ष 1954 में देव आनंद ने उस जमाने की मशहूर अभिनेत्री कल्पना कार्तिक से शादी कर ली। देव आनंद प्रख्यात उपन्यासकार आर.के. नारायण से काफी प्रभावित रहा करते थे और उनके उपन्यास 'गाइड' पर वह फिल्म बनाना चाहते थे। आर.के. नारायणन की स्वीकृति के बाद देव आनंद ने हालीवुड के सहयोग से हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं मे फिल्म 'गाइड' का निर्माण किया, जो देव आनंद के सिने कैरियर की पहली रंगीन फिल्म थी। इस फिल्म के लिये देव आनंद को उनके जर्बदस्त अभिनय के लिये सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। बतौर निर्माता देव आनंद ने कई फ़िल्में बनायी। इनमें वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म 'अफसर' के अलावा 'बाजी', 'हमसफर', 'टैक्सी ड्राइवर', 'हाउस न. 44', 'फंटूश', 'कालापानी', 'काला बाजार', 'हमदोनो', 'तेरे मेरे सपने', 'गाइड' और 'ज्वैल थीफ' आदि शामिल हैं।
वर्ष 1970 में फिल्म 'प्रेम पुजारी' के साथ देव आनंद ने निर्देशन के क्षेत्र में कदम रख दिया। फिल्म बाक्स आफिस पर बुरी तरह से नकार दी गई। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इसके बाद वर्ष 1971 में फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' का सफल निर्देशन किया। इसके बाद उन्होंने 'हीरा पन्ना', 'देश परदेस', 'लूटमार', 'स्वामी दादा', 'सच्चे का बोलबाला' और 'अव्वल नंबर' जैसी कुछ और फिल्मों का निर्देशन किया। देव आनंद को अपने अभिनय के लिये दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। पहली बार उन्हें यह पुरस्कार वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म 'काला पानी' के लिये दिया गया। इसके बाद वह वर्ष 1965 में फिल्म 'गाइड' के लिये फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किये गये। वर्ष 2001 में देव आनंद को भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण सम्मान प्राप्त हुआ, वहीं दूसरी ओर वर्ष 2002 में उनके हिन्दी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुये उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
वर्ष 2011 में प्रदर्शित फिल्म 'चार्जशीट' देव आनंद की अभिनीत और निर्देशित अंतिम फिल्म साबित हुई। अपने सदाबहार अभिनय से दर्शको के बीच खास पहचान बनाने वाले सदाबहार अभिनेता देव आनंद 3 दिसंबर 2011 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
04-12-2012, 09:53 PM
अमृता शेरगिल की पुण्यतिथि पांच दिसंबर पर
पारंपरिक पश्चिमी शैली को भारतीय परिवेश में
ढालने वाली अनुपम चित्रकार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=20822&stc=1&d=1354643575

प्रसिद्ध महिला चित्रकार अमृता शेरगिल भले ही विश्व के कला विशेषज्ञों में उतनी प्रसिद्ध नहीं हों, लेकिन भारतीय कला क्षेत्र में उनका प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण है। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में जब उन्होंने पारंपरिक पश्चिमी कला शैली में भारत की सामान्य स्त्रियों और गरीबों के जीवन को चित्रित करना शुरू किया तो वह भारतीय कला क्षेत्र के लिए पूर्णत: नवीन था। भारतीय कला क्षेत्र में अपना नाम बनाने और प्रसिद्धि पाने वाली वह पहली महिला थीं। अमृता शेरगिल सबसे कम उम्र में सबसे अधिक ख्याति पाने वाली चित्रकार थीं। उनकी पहचान पारंपरिक पश्चिमी शैली में नितांत भारतीय विषयों को चित्रित करने के कलाकार के रूप में होती है। बाइस साल से कम उम्र में वह तकनीकी तौर पर चित्रकार बन चुकी थीं। उस समय तक उनमें असामान्य प्रतिभाशाली कलाकार के सभी आवश्यक गुण आ चुके थे। पूरी तरह भारतीय नहीं होने के बावजूद वह भारतीय संस्कृति को जानने के लिए उत्सुक थीं। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने 1976 और 1979 में अमृता शेरगिल को भारत के नौ सर्वश्रेष्ठ कलाकारों में शामिल किया था। सिख पिता उमराव सिंह शेरगिल संस्कृत फारसी के विद्वान और नौकरशाह थे। हंगरी मूल की यहूदी ओपेरा गायिका मां मेरी एंटोनी गोट्समन की यह संतान मात्र आठ वर्ष की अल्पायु में पियानो, वायलिन बजाने के साथ साथ कैनवस पर भी हाथ आजमाने लगी थी। अमृता शेरगिल का जन्म 30 जनवरी 1913 को बुडापेस्ट (हंगरी) में हुया था। वह सोलह साल की उम्र में अपनी हंगेरियन मां के साथ पेरिस की कला के बारे में जानने के लिए फ्रांस पहुंची। उन्होंने पहले ग्रैंड चाउमीअर में पीअरे वेलण्ट के और इकोल डेस बीउक्स आर्ट्स में ल्यूसियन सायमन के मार्गदर्शन में अभ्यास किया। 1934 के अंत में वह भारत लौट आईं।
पेरिस में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने भारत लौटने की जिज्ञासा व्यक्त कर दी थी। उन्होंने कहा था कि चित्रकार होने के नाते वह अपने देश में ही अपना भाग्य आजमाना चाहती हैं। 1933 में मात्र बाइस साल की उम्र में उनकी यह सोच उनके स्वछंद विचारों को व्यक्त करते हैं। उस समय स्त्रियों को व्यावसायिक शिक्षा लेने की प्रथा नहीं थी । अमृता शेरगिल की छोटी बहन इंदिरा के पुत्र विवान सुंदरम ने लिखा, ‘अमृता का भारत लौट आने का मतलब उनके मजबूत उद्देश्यों और कुछ कर दिखाने की आग को अंजाम देना था। यहां लौटने के बाद वह पूरे मनोयोग से अपने काम में जुट गईं। पेरिस में रहते हुए वह शायद यूरोपीय चित्रकला और वर्तमान संस्कृति से अभी तक तीस साल पीछे थीं, लेकिन भारत आने पर 1930 के दशक में उन्हें महसूस हुआ कि वह अपने समय से तीस साल आगे चली गई हैं। 1960 के बाद ही भारतीय चित्रकारों ने शेरगिल जैसी प्रतिभा, आत्मविश्वास और निश्चय को परिचय देना शुरू किया। भारत लौटने के बाद वह हिमालय की वादियों में स्थित शिमला में जा बसीं। यहां आने के बाद उनकी जीवनशैली में काफी बदलाव आ गया। उन्होंने गरीब लोगों के जीवन पर चित्रकारी शुरू की। चित्रों में उदास दुखी और बड़ी आंखें और खाली सीढ़ियां जीवन के नैराश्य को दर्शाती हैं। उनके चित्रों में विषादपूर्ण मन:स्थिति और मन की खिन्नता भी दिखाई देती है। 1935 में उन्हें शिमला फाइन आर्ट सोसाइटी की ओर से सम्मानित किया गया, लेकिन उन्होंने यह सम्मान लेने से मना कर दिया। 1940 में बांबे आर्ट सोसाइटी ने उन्हें पारितोषिक दिया।
1935 के बाद भारत के सभी बड़े शहरों में उनकी चित्रकारी की प्रदर्शनियां लगायी गईं। उनके चित्र अब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैयक्तिक और सार्वजनिक संग्रहालयों में शामिल हैं। उनके काम को राष्ट्रीय कला कोष घोषित किया गया है। अजंता, एलोरा और मत्तचेरी महल और मथुरा की मूर्तियां देखने के बाद उन्हें चित्रकारी के गुण दोष दिखाई देने लगे। वह भारत के सूक्ष्म आकार के चित्रों को देखने के बाद यहा के बसोलो पाठशाला की दीवानी हो गईं। इसके बाद उनकी चित्रकारी में राजपूत चित्रकारी की झलक भी मिलती है। अमृता ने अपने हंगेरियन चचेरे भाई से 1938 में विवाह किया। इसके बाद वह अपने पुश्तैनी घर गोरखपुर में आ बसीं। 1941 में अमृता अपने पति के साथ लाहौर चली गईं, वहां उनकी पहली बड़ी एकल प्रदर्शनी होनी थी, किन्तु वह अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गईं और मात्र 28 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
(पेंटिंग-अमृता का बनाया स्वचित्र)

Dark Saint Alaick
05-12-2012, 10:11 PM
जोश मलीहाबादी के जन्मदिवस पर विशेष
पाक को कभी दिल से कबूल नहीं कर सके जोश

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बीसवीं सदी के महान शायर जोश मलीहाबादी को पाकिस्तान में बसने के बाद मरते दम तक हिन्दुस्तान से चले आने का मलाल सालता रहा। वह कभी भी पाकिस्तान को दिल से कबूल नहीं कर सके। आजादी के बाद अनेक उर्दू शायरों के पाकिस्तान जाने के बाद जोश मलीहाबादी ने भी यहां से पाकिस्तान जाने का निर्णय किया। उनका मानना था कि वहां की आवाम उर्दू शायरी को ज्यादा अहमियत और उन्हें ज्यादा इज्जत बख्शेगी। हालांकि पाकिस्तान जाने के बाद उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उर्दू शायरी को समझने वाले ज्यादा लोग तो हिन्दुस्तान में हैं। वह दिल से हिन्दुस्तानी थे और उनकी जिन्दगी और शायरी का फलसफा हिन्दुस्तानी था। वह कभी भी पाकिस्तान को दिल से कबूल नहीं कर सके। उन्हें मरते दम तक हिन्दुस्तान लौटने की ख्वाहिश रही। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से इस बारे में खत-ओ-किताबत भी की, लेकिन तब तक राजनीतिक हालात बदल चुके थे और उनकी यह हसरत कभी पूरी नहीं हो सकी। बीसवीं सदी के महान शायर जोश उर्दू व्याकरण के सर्वोत्तम उपयोग और उर्दू के अल्फाज का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने वाले शायर हैं। अल्फाज कनीजों की तरह उनकी शायरी में आने के लिए खड़े रहते थे। अल्फाज के प्रयोग के मामले में जोश के बाद नजीर अबकराबादी का नाम आता है। भाषा के इस्तेमाल के बारे में उनकी तुलना संस्कृत के कालिदास या अंग्रेजी के शेक्सपियर से ही की जा सकती है। जोश मलीहाबादी का वास्तविक नाम शब्बीर हसन खां था। उनका जन्म पांच दिसंबर 1898 को ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रांत मलीहाबाद में हुआ था। उनकी शिक्षा सेंट पीटर्स कॉलेज आगरा में हुई और 1914 में उन्होंने वरिष्ठ कैंब्रिज परीक्षा उत्तीर्ण की। जोश ने उर्दू के साथ अरबी और फारसी का भी गहन अध्ययन किया। उन्होंने छह माह तक शांति निकेतन में साहित्य का अध्ययन किया। 1916 में पिता बशीर अहमद खान की मृत्यु के बाद वह आगे की पढाई जारी नहीं रख सके। वर्ष 1925 में जोश ने उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद में अनुवाद की निगरानी का काम शुरू किया। हालांकि उनका हैदराबाद प्रवास ज्यादा दिन तक जारी नहीं रह सका और हैदराबाद रियासत के शासक के खिलाफ एक नज्म लिखने के कारण उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया गया। इसके तुरंत बाद जोश ने कलीम (वार्ताकार) नामक पत्रिका शुरू कर दी जिसमें खुले तौर पर भारत में ब्रिटिश राज से आजादी के पक्ष में लेख छपने लगे। इस पत्रिका के कारण चारों ओर उनकी ख्याति फैल गयी। इस कारण वह कांग्रेस पार्टी और विशेष तौर पर जवाहरलाल नेहरू के संपर्क में आये। भारत में ब्रिटिश शासन की समाप्ति के बाद जोश आजकल प्रकाशन के संपादक बने। आजादी के बाद 1948 में जोश पाकिस्तान चले गये। पाकिस्तान जाने के बाद जोश कराची में बस गये और मौलवी अब्दुल हक के साथ ‘अंजुमन ए तरक्की ए उर्दू’ के लिए काम किया। इसके बाद मृत्यु पर्यन्त वह पाकिस्तान में ही रहे। 22 फरवरी 1982 को इस्लामाबाद में उनकी मृत्यु हो गयी। जोश का पहला संग्रह 1921 में प्रकाशित हुआ। उनकी प्रमुख रचनाओं में शोला -ओ-शबनम, जुनून-ओ-हिकमत, फ्रिक-ओ-निशात, सुंबल-ओ-सलासल, अर्फ-ओ-हिकायत, सरोद ओ-खरोश, और इरफानियत-ए-जोश शामिल है। उनकी आत्मकथा ‘यादों की बारात’ शीर्षक से प्रकाशित हुई।

Dark Saint Alaick
11-12-2012, 01:51 AM
पुण्यतिथि 10 दिसंबर के अवसर पर विशेष
फिल्म इंडस्ट्री के पहले एंटी हीरो थे अशोक कुमार

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हिन्दी फिल्मों के मशहूर अभिनेता अशोक कुमार की छवि भले ही एक सदाबहार अभिनेता की रही है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह फिल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे अभिनेता हुये जिन्होंने एंटी हीरो की भूमिका भी निभाई थी। पिछली शताब्दी के चालीस के दशक में अभिनेताओं की छवि परंपरागत अभिनेता की होती थी, जो रूमानी और साफ सुथरी भूमिका किया करते थे। अशोक कुमार फिल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे अभिनेता हुये जिन्होंने अभिनेताओं की परंपरागत शैली को तोड़ते हुये फिल्म 'किस्मत' में ऐंटी हीरो की भूमिका निभाई थी। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सर्वाधिक कामयाब फिल्मों में बांबे टॉकीज की वर्ष 1943 में निर्मित फिल्म 'किस्मत' और उसमें अशोक कुमार के किरदार को दर्शकों ने काफी पसंद किया। इस फिल्म ने कलकत्ता के चित्रा थियेटर सिनेमा हॉल में लगातार 196 सप्ताह तक चलने का रिकार्ड बनाया। फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत यूं तो कई मायनों में अहम स्थान रखती है, लेकिन कोलकाता के चित्रा थियेटर में जब यह फिल्म दिखाई जा रही थी, तब जैसे ही कवि प्रदीप का लिखा गीत 'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है' बजा सभी दर्शक अपनी सीट से उठकर खड़े हो गये और गाने की समाप्ति तक ताली बजाते रहे। फिल्म की समाप्ति के बाद इसे दुबारा दिखाया गया। फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में शायद पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। भारतीय सिनेमा जगत के चौथे स्तंभ के रूप में अपनी धाक जमाने वाले अशोक कुमार ने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि वह अभिनेता बनेंगे। बिहार के भागलपुर में 13 अक्टूबर 1911 को एक मध्यवर्गीय बंगाली परिवार में जन्मे अशोक कुमार स्रातक की शिक्षा पूरी करने के बाद वर्ष 1934 में बांबे टॉकीज में लैबोरेट्री सहायक के तौर पर काम करने लगे। वर्ष 1936 मे बांबे टॉकीज की फिल्म 'जीवन नैया' के निर्माण के दौरान फिल्म के मुख्य अभिनेता बीमार पड़ गये। इस विकट स्थिति में बांबे टाकीज के मालिक हिंमाशु राय का ध्यान अशोक कुमार पर गया और उन्होंने उनसे फिल्म में बतौर अभिनेता काम करने की पेशकश की। इसके साथ ही 'जीवन नैया' से अशोक कुमार का बतौर अभिनेता फिल्मी सफर शुरू हो गया।

वर्ष 1937 में अशोक कुमार को बांबे टाकीज के बैनर तले प्रदर्शित फिल्म 'अछूत कन्या' में काम करने का मौका मिला । इस फिल्म में 'जीवन नैया' के बाद देविका रानी फिर से उनकी नायिका बनी। फिल्म में अशोक कुमार एक ब्राह्मण युवक के किरदार में थे, जिन्हें एक अछूत लड़की से प्यार हो जाता है। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म काफी पसंद की गयी और इसके साथ ही अशोक कुमार बतौर अभिनेता फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये । इसके बाद देविका रानी के साथ अशोक कुमार ने कई फिल्मों में काम किया । इन फिल्मों में 1937 में प्रदर्शित फिल्म 'इज्जत', 'सावित्री', 'निर्मला' आदि फिल्में शामिल हैं । इन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद तो किया, लेकिन कामयाबी का श्रेय अशोक कुमार के बजाय देविका रानी को दिया गया। इस बीच अशोक कुमार ने 'कंगन', 'बंधन' और 'झूला' में अभिनेत्री लीला चिटनिस के साथ काम किया । इन फिल्मों में उनके अभिनय को दर्शकों द्वारा काफी सराहा गया, जिसके बाद अशोक कुमार बतौर अभिनेता फिल्म इंडस्ट्री मे स्थापित हो गये। हिमांशु राय की मौत के बाद वर्ष 1943 में अशोक कुमार बाम्बे टाकीज को छोड़कर फिल्मिस्तान स्टूडियो चले गये । वर्ष 1947 में देविका रानी के बाम्बे टॉकीज छोड़ देने के बाद बतौर प्रोडक्शन चीफ बाम्बे टाकीज के बैनर तले उन्होंने 'मशाल', 'जिद्दी' और 'मजबूर' जैसी कई फिल्मों का निर्माण किया। इसी दौरान बाम्बे टाकीज के बैनर तले उन्होंने वर्ष 1949 में प्रदर्शित सुपरहिट फिल्म 'महल' का निर्माण किया। उस फिल्म की सफलता ने अभिनेत्री मधुबाला के साथ-साथ पार्श्वगायिका लता मंगेशकर को भी शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा दिया था।

पचास के दशक में बाम्बे टॉकीज से अलग होने के बाद अशोक कुमार ने अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी शुरू की और जूपिटर थियेटर को भी खरीद लिया। अशोक कुमार प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने सबसे पहले फिल्म 'समाज' का निर्माण किया, लेकिन यह फिल्म बॉक्स आफिस पर बुरी तरह नकार दी गयी। इसके बाद उन्होंने अपने बैनर तले फिल्म परिणीता भी बनायी । लगभग तीन वर्ष के बाद फिल्म निर्माण क्षेत्र में घाटा होने के कारण उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी बंद कर दी। अभिनय में आई एकरूपता से बचने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिये अशोक कुमार ने खुद को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' में अशोक कुमार के अभिनय के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले। हास्य से भरपूर इस फिल्म में उनके अभिनय को देख दर्शक हंसते-हंसते लोटपोट हो गये।

वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म 'आशीर्वाद' में अपने बेमिसाल अभिनय के लिये अशोक कुमार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किये गये। इस फिल्म मे उनका गाया गाना 'रेल गाड़ी रेल गाड़ी' बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। इस फिल्म के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी दिया गया। वर्ष 1962 में 'राखी' और वर्ष 1966 में फिल्म 'अफसाना' के लिये वह सहायक अभिनेता के फिल्म फेयर अवार्ड से भी नवाजे गये। वर्ष 1988 में अशोक कुमार को हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के अवार्ड से भी नवाजा गया।

वर्ष 1984 में दूरदर्शन के इतिहास के पहले शोप ओपेरा 'हम लोग' में वे सीरियल के सूत्रधार की भूमिका मे दिखाई दिये और छोटे पर्दे पर भी उन्होंने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। दूरदर्शन के लिए ही दादा मुनि ने 'भीम भवानी', 'बहादुर शाह जफर' और 'उजाले की ओर' जैसे सीरियल में भी अपने अभिनय का जौहर दिखाया। अशोक कुमार ने अपने छह दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फिल्मों में काम किया। उनके कैरियर की उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ हैं - दीदार, परिणीता, एक ही रास्ता, हावड़ा ब्रिज, धूल का फूल, धर्म पुत्र, आरती, कानून, बंदिनी, गुमराह, भीगी रात, चित्रलेखा, दूज का चांद, ममता, बहू बेगम, सफर, पाकीजा, ज्वैल थीफ, विक्टोरिया नम्बर 203, छोटी सी बात, मिली, खटृामीठा, खूबसूरत, शौकीन, रिटर्न ऑफ़ ज्वैलथीफ आदि। लगभग छह दशक तक अपने बेमिसाल अभिनय से दर्शकों के दिल पर राज करने वाले अशोक कुमार 10 दिसंबर 2001 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
11-12-2012, 01:54 AM
एक किस्सा
अशोक कुमार ने भाई किशोर से ‘कोई हमदम न रहा’ नहीं गाने को कहा था

अभिनय की पाठशाला कहे जाने वाले कलाकार अशोक कुमार ने फिल्म 'झुमरू' में ‘कोई हमदम ना रहा’ गीत न सिर्फ खुद गाने से मना कर दिया था, बल्कि अपने छोटे भाई और इस फिल्म के निर्माता किशोर कुमार को भी यह गीत नहीं गाने के लिए समझाया था। फिल्म झुमरू के इस गीत (‘कोई हमदम ना रहा’) को जमनास्वरूप कश्यप ने लिखा और यह गीत किशोर कुमार को इतना अच्छा लगा कि उन्होंने अपनी फिल्म ‘झुमरू’ में शामिल करने के लिए अशोक कुमार से अनुमति मांगी। फिल्म समीक्षक दिलीप गुप्ते ने कहा कि अशोक कुमार गायक नहीं थे और न ही उन्होंने कभी संगीत सीखा था। उन दिनों कायदे से पार्श्वगायन व्यवस्था ठीक से शुरू नहीं हुई थी और कलाकार को अपने गीत खुद ही गाने पड़ते थे। भले ही वह संगीत के जानकार हों या न हों। उन्होंने बताया कि जब ‘झुमरू’ बनी तो अशोक कुमार ने यह गीत गाने से मना कर दिया। एक साक्षात्कार में अशोक कुमार ने कहा था कि झुमरू के निर्माण के दौरान उन्होने किशोर कुमार से कहा था कि इस गीत में शास्त्रीय पुट है इसलिए वह इसे न गाएं। किशोर कुमार ने भी संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली थी, लेकिन उन्होंने अशोक कुमार से कहा कि वह यह गीत जरूर गाएंगे और दादामुनी से अच्छा गाएंगे। फिल्म समीक्षक चैताली नोन्हारे ने कहा कि अशोक कुमार को फिल्म जगत से जुड़े लोग आदर से दादामुनी कहते थे। उन्होंने अपना कॅरियर 1936 में बॉम्बे टॉकीज प्रोडक्शन की ‘जीवन नैया’ से शुरू किया था। चैताली के अनुसार बाद में देविका रानी और अशोक कुमार ने तीन फिल्मों इज्जत (1937), सावित्री (1937) और निर्मला (1938) में साथ काम किया। इस जोड़ी को लोगों ने इतना पसंद किया कि यह उस दौर की लोकप्रिय जोड़ी बन गई। वर्ष 1980 और 1990 के दशक में अशोक कुमार को छोटे पर्दे पर देखा गया। सोप आॅपेरा ‘हम लोग’ में काम कर चुके अभिनव चतुर्वेदी ने कहा कि उस समय मैं बहुत छोटा था लेकिन अब लगता है कि वह अभिनय की पाठशाला थे। उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता था। हमारे साथ सेट पर वह बहुत घुलमिल कर रहते थे। हालांकि उन्हें ‘हम लोग’ में सिर्फ एंकरिंग ही करनी होती थी लेकिन उसमें भी वह कोई चूक पसंद नहीं करते थे। उनका ‘छन्न पकैया’ कहना आज भी याद है। अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर पर इसी नाम से बने धारावाहिक में उन्हें लोगों ने जफर की भूमिका में देखा। अभिनय के अलावा उनकी रूचि पेंटिंग में भी थी और समय मिलने पर वह चित्रकारी करने का मौका नहीं छोड़ते थे। उन्होंने 275 से अधिक फिल्मों में काम किया और 30 से अधिक बांग्ला ड्रामे उनके अभिनय से सजे। उनकी अंतिम फिल्म 1997 में आई ‘आंखों में तुम हो’ थी। अशोक कुमार का जन्म 13 अक्टूबर 1911 को हुआ था और उनका असली नाम कुमुदलाल गांगुली था। फिल्मों में काम करने के लिए उन्होंने अपना नाम अशोक कुमार रखा। भारत सरकार ने भारतीय सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 1988 को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से और 1998 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। अशोक कुमार ने दस दिसंबर 2001 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
12-12-2012, 07:01 AM
13 दिसंबर को संसद पर हमले के दिन पर विशेष
हर पल सजग रहने की जरूरत :विशेषज्ञ

देश में लोकतंत्र का प्रतीक समझे जाने वाले भारतीय संसद पर हमले के 11 साल बीत जाने के बावजूद खतरा अभी टला नहीं है और विशेषज्ञों का मानना है कि भविष्य में इस तरह के किसी भी हमले से बचने के लिये हमें हर पल सजग रहने तथा अपनी तैयारियों को और पुख्ता करने की जरूरत है। रक्षा मामलों के विशेषज्ञ मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) दीपाकंर बनर्जी ने कहा, ‘‘संसद पर आतंकवादी हमले के बाद सरकार ने सुरक्षा व्यवस्था के चाक चौबंद प्रबंध किये हैं । इसके अंतर्गत सुरक्षाकर्मियों की संख्या बढाई गई और साथ ही उन्हें अत्याधुनिक तकनीक से भी लैस किया गया।’’ उन्होंने कहा, ‘‘भारत की पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से लगती सीमा बहुत लंबी है जबकि दूसरी तरफ सीमा के उस पार बड़ी संख्या में प्रशिक्षित आतंकवादी इस ताक में बैठे हैं कि कब मौका मिले और कब घुसपैठ करें ।’’ उधर रक्षा मामलों के विशेषज्ञ लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) शंकर राय चौधरी का मानना है कि भारत ने इस हमले से कई सबक सीखे लेकिन क्रियान्वित एक भी नहीं किया । उन्होंने कहा, ‘‘केवल नित नये संगठन बना देने से कुछ नहीं होगा बल्कि हमें सुरक्षा व्यवस्था को पुख्ता करने के लिये वर्तमान संगठनों को मजबूत करना होगा।’’ बनर्जी ने कहा, ‘‘इसी तरह से भारत में कई बेहद महत्वपूर्ण इमारतें हैं जिनकी सुरक्षा की जानी है । लेकिन हरेक इमारत की उचित तरीके से सुरक्षा करना लगभग असंभव है । इसलिये आतंकवादी हमला रोकने के लिये एहतियाती कदम उठाने और हर पल सजग रहने की जरूरत है । हमें केवल वैध बांग्लादेशी और पाकिस्तानी नागरिकों को भारत में प्रवेश की अनुमति देनी चाहिये ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘भारत में एक समस्या है जिसे दूर करने की जरूरत है। यहां पर कानून व्यवस्था राज्य का विषय है । इसलिये केंद्र सरकार कई चीजें नहीं कर पा रही है । इसमें राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र (एनसीटीसी) की स्थापना भी शामिल है ।’’ दूसरी तरफ चौधरी ने कहा, ‘‘देश की सुरक्षा के लिये जिम्मेदार सुरक्षा संगठनों के प्रमुखों की जिम्मेदारी तय करनी होगी ताकि संसद की तरह कोई हमला देश की सरजमीं पर दोबारा न हो सके ।’’ उल्लेखनीय है कि 13 दिसंबर 2001 को पाकिस्तानी आतंकवादी लश्करे तैयबा के पांच आतंकवादियों ने संसद पर हमला कर दिया था । हमले के दौरान हुई आपसी गोलीबारी में पांचों आतंकवादी मारे गये और छह सुरक्षाकर्मी शहीद हो गये थे । हमले में संसद के एक कर्मचारी की भी मौत हो गई थी । इस हमले के दौरान कई केंद्रीय मंत्री और सांसद समेत करीब 200 लोग संसद परिसर में मौजूद थे । संसद पर हमले के सिलसिले में जैश ए मोहम्मद के आतंकवादी अफजल गुरू को दोषी पाया गया और उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2004 में उसे मौत की सजा सुनाई थी लेकिन इतने साल बीत जाने के बावजूद उसे अभी तक फांसी नहीं दी जा सकी है ।

Dark Saint Alaick
16-12-2012, 07:46 PM
बलिदान दिवस पर विशेष
स्वतंत्र देश में पुनर्जन्म लेने की उम्मीद के साथ फांसी चढ़े लाहिड़ी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=21692&stc=1&d=1355672686

आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले क्रांतिकारी राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को 85 साल पहले आज ही के दिन (17 दिसंबर को) 1927 में गोण्डा जेल में फांसी दी गई थी। शहीद लाहिड़ी ने वंदे मातरम के उद्घोष के साथ हंसते-हंसते फांसी का फन्दा चूमते हुए कहा था, मैं मर नहीं रहा हूं बल्कि स्वंतत्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूं। नौ अगस्त 1925 को काकोरी में ट्रेन लूटने के आरोप में लाहिड़ी के साथ रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान और रोशन सिंह को भी मृत्युदंड की सजा सुनायी गई थी। शहीदों की यादगार को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए जेल के निकट टेढ़ी नदी के तट पर अन्त्येष्टि स्थल की पहचान के लिए उनके रिश्तेदार स्वतंत्रता सेनानी मन्मथनाथ गुप्त, लालबिहारी टण्डन एवं ईश्वरशरण ने एक बोतल जमीन में गाड दी थी। इस स्थल का अभी तक सही पता नहीं लग पाया है। अंग्रेजी हुकूमत ने सभी 23 क्रान्तिकारियों पर काकोरी षड्यंत्र काण्ड में सशस्त्र युद्ध छेड़ने एवं खजाना लूटने का अभियोग लगाया। इस कांड में लाहिड़ी को लखनऊ की विशेष अदालत ने छह अप्रैल 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह तथा अशफाक उल्लाह खां को एक साथ फांसी देने की सजा सुनाई, लेकिन लाहिड़ी को गोण्डा कारागार में 17 दिसम्बर 1927 को फांसी दी गई। लाहिड़ी का जन्म 23 जून 1901 को बंगाल के पावना जिला के मोहनापुर ग्राम में हुआ था । यह स्थान अब बांग्लादेश में है। उस समय लाहिड़ी के पिता क्रान्तिकारी क्षितिह मोहन लाहिड़ी और बडेÞ भाई बंग भंग आन्दोलन में सजा भोग रहे थे। लाहिड़ी को देशप्रेम और निर्भीकता विरासत में मिली थी। वह मात्र नौ वर्ष की आयु में ही बंगाल से काशी अपने मामा के यहां आ गए। वहां वह क्रान्तिकारी सचिन्द्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आए। लाहिड़ी में फौलादी दृढ़ता, देशप्रेम तथा अड़िगता को पहचान कर उन्हें क्रान्तिकारियों ने अपनी टोली में भर्ती कर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिवोल्यूशन आर्मी पार्टी का बनारस का प्रभारी बना दिया। वह इस क्रांतिकारी दल की गुप्त बैठकों में बुलाये जाने लगे। उस समय क्रान्तिकारियों को चल रहे आन्दोलन को गति देने के लिए धन की व्यवस्था करनी थी । इसके लिए उन्होंने शाहजहांपुर बैठक में अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी । इसे अंजाम देने के लिए नौ अगस्त 1925 को शाम छह बजे लखनऊ के काकोरी से चली आठ डाउन ट्रेन में जा रहे अंग्रेजी सरकार के खजाने को लूटने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां तथा ठाकुर रोशन सिंह सहित 19 अन्य क्रान्तिकारियों के साथ धावा बोल दिया।

Dark Saint Alaick
01-01-2013, 09:03 PM
साइंस फिक्शन डे पर विशेष
भविष्य में झांकते हैं वैज्ञानिक उपन्यास

नोटों की गड्डियों को संभालकर घर ले जाते हुए दशकों पहले क्या आपके दिमाग में कभी एटीएम कार्ड या डेबिट कार्ड का ख्याल आया था? मीलों दूर बैठे परिजन के विरह में आंसू बहाते हुए उससे वीडियो कांफ्रेंस की कल्पना आपने कभी की थी? आम जीवन की ऐसी बहुत छोटी छोटी समस्याओं का हल एक समय नामुमकिन लगता था, लेकिन साइंस फिक्शन यानी वैज्ञानिक उपन्यासों में इन समस्याओं के निदान पहले ही बता दिए गए थे। आज जिन एटीएम कार्ड्स को हम आराम से जेब में रखकर घूमते हैं इनकी कल्पना आज से लगभग सवा सौ साल पहले ही कर ली गई थी। वर्ष 1888 में एडवर्ड बेलामे के उपन्यास ‘लुकिंग बैकवर्ड’ में प्लास्टिक मनी का जिक्र आज से कुछ साल पहले बेशक हैरान करता हो लेकिन आज यह नकदी के लेनदेन का सुरक्षित और आसान साधन है। साइंस फिक्शन लेखन में कल्पनाओं का इस्तेमाल बेशक व्यापक स्तर पर होता है लेकिन जब वर्षों पूर्व लिखे गए इन उपन्यासों की बातों को आज हम सच होते देखते हैं तो इन पर यकीन अपने आप ही बढ जाता है। ऐसा नहीं है कि इन उपन्यास की हर बात अक्षरश: सच साबित होती है लेकिन विज्ञान के इन उपन्यासों में की गई बहुत सी भविष्यवाणियां आज तकनीक की मदद से हकीकत का रूप ले चुकी हैं। साइंस फिक्शन का महत्व बताते हुए विज्ञान पत्रकार डॉक्टर संजय वर्मा कहते हैं, ‘लोगों की रूचि विज्ञान के क्षेत्र में जगाने में साइंस फिक्शन एक अहम कड़ी के रूप में काम करती है। इसके अभाव में विद्यार्थी विज्ञान की असीम संभावनाओं से सीधा जुड़ाव महसूस नहीं कर पाते।’
‘ईश्वर हर जगह है और आपको देख रहा है’ जैसी बातें तो आपने अपने बुर्जुगों से खूब सुनी होंगी लेकिन विज्ञान ने वाकई एक ऐसी निगाह बना डाली है जो आपकी हर हरकत पर नजर रखती है। ये निगाहें कुछ और नहीं बल्कि मेट्रो समेत कई सार्वजनिक स्थलों और निजी परिसरों में लगे सीसीटीवी कैमरे हैं। इन सीसीटीवी कैमरों का जिक्र भी जॉर्ज आरवैल के 1949 में लिखे गए उपन्यास ‘1984’ में आया था। इसमें उन्होंने एक ऐसे ‘बिग ब्रदर’ की बात की थी जो सर्वव्यापी था और टेलीस्क्रीन की मदद से नागरिकों पर अपनी नजर बनाकर रखता था। इस उपन्यास के प्रकाशित होने के लगभग बीस साल बाद ऐसा कैमरा ब्रिटेन में बन गया था। हल्के युद्धक विमानों की परियोजना पर काम कर चुके भारत सरकार के पूर्व वैज्ञानिक एम बी वर्मा छात्रों में विज्ञान के प्रति जिज्ञासा पैदा करने में साइंस फिक्शन को महत्वपूर्ण मानते हैं। वे कहते हैं, ‘विज्ञान के क्षेत्र में तरक्की के लिए रटंत शिक्षा की जगह प्रयोगात्मक शिक्षा पर जोर दिया जाना जरूरी है। विभिन्न प्रयोगों, कार्यकारी मॉडलों के साथ-साथ साइंस फिक्शन भी विद्यार्थियों में जिज्ञासा बढाने का काम करते हैं।’ विज्ञान की ऐसी कहानियों को पढकर खुद को भविष्य दृष्टा जैसा महसूस करने पर सिर्फ विज्ञान के छात्र ही नहीं बल्कि आम पाठक भी रोमांच से भर उठते हैं। आज दिखाई पड़ने वाले आनलाइन न्यूजपेपर, टच स्क्रीन तकनीक, स्वचलित सीढियों और आटोमेटिक दरवाजे ऐसे ही कई आविष्कार हैं जो वर्षों पहले साइंस फिक्शन में पढने पर चमत्कार से कम प्रतीत नहीं होते थे।

Dark Saint Alaick
02-01-2013, 09:18 PM
तीन जनवरी को जन्मदिन पर
चेतन आनंद के लिए अर्थहीन थी बॉक्स आफिस की सफलता

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22399&stc=1&d=1357147047

बॉलीवुड आज जिस बुलंदी पर पहुंचा है उसकी नींव के पत्थरों में चेतन आनंद एक ऐसा दुस्साहसी नाम है जिसने भारतीय फिल्म उद्योग के शुरूआती दिनों से ही रूपहले पर्दे पर प्रयोगों का सिलसिला शुरू कर दिया था और बॉक्स आफिस पर सफलता जिसके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। फिल्म चेतन आनंद देश के विभाजन से पहले ही पंजाब के गुरदासपुर से बंबई आ गए थे। लेखन के अलावा रंगमंच में दिलचस्पी रखने वाले चेतन आनंद ने देश की आजादी के लिए नाटकों के जरिये अलख जगाने का काम किया था। वह अच्छी तरह जानते थे कि अंग्रेजों के दमन से परेशान लोगों की आवाज बुलंद करना मुश्किल नहीं, तो आसान भी नहीं था। इसीलिए वह नाटकों के जरिये ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों को जाग्रत करने की कोशिश करते थे। इसी दौरान चेतन ने सिनेमा का रूख किया। जल्द ही उन्हें अहसास हो गया कि सिनेमा लोगों तक पहुंचने और उनकी चेतना जगाने का एक सशक्त माध्यम है। और चेतन आनंद फिल्मों में रम गए। उन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘नीचा नगर’ बनाई जिसमें श्मशान की भूमि पर रहते लोगों की दशा और उनकी उम्मीद को उन्होंने बहुत बारीकी से पेश किया। यह फिल्म पूरी तरह वास्तविकता दिखाने में सफल रही और चेतन पहली ही फिल्म से अपना लोहा मनवाने में सफल रहे।’ आलोचकों ने उन्हें सत्यजीत रे, रित्विक घटक और मृणाल सेन के समकक्ष खड़ा कर दिया। यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसकी दुनिया भर में सराहना हुई और सभी बड़े फिल्म महोत्सवों में चेतन आनंद को इस फिल्म के जरिए मजबूत पहचान मिली। ‘नीचा नगर’ की सफलता को चेतन आनंद ने खुद पर हावी नहीं होने दिया लेकिन यह भी फैसला किया कि वह ऐसी फिल्म दोबारा नहीं बनाएंगे। इसके पीछे कारण सिनेमा के साथ नए नए प्रयोग करने की उनकी आदत थी। वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध हुआ और इस पर चेतन ने ‘हकीकत’ बनाई। तमाम विषमताओं के बावजूद बनी इस फिल्म में युद्ध की विभीषिका, उसके परिणाम, लोगों पर उसका असर, सैनिकों की समस्याएं.... सब कुछ भारत चीन सीमा पर फिल्माया गया। बहुत मामूली शूटिंग बंबई में स्टूडियो में बनाए गए सेट्स पर हुई। फिल्म रिलीज हुई और सुपरहिट साबित हुई। पहली बार लोगों ने युद्ध पर बनी फिल्म देखी। इस युद्ध में मिली पराजय का घाव भरा नहीं था। कैफी आजमी के गीत और मदनमोहन के संगीत ने पूरे देश को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि युद्ध किसी भी देश और उसकी जनता की प्रगति को किस हद तक प्रभावित करता है। इस फिल्म के बाद युद्ध की पृष्ठभूमि पर और भी फिल्में बनती गईं लेकिन ‘हकीकत’ की तरह भावनाओं का सैलाब देखने को नहीं मिला। यह बात नवीनतम तकनीक के जरिये ‘बार्डर’, ‘रिफ्यूजी’ और ‘एलओसी करगिल’ जैसी युद्ध आधारित फिल्में बनाने वाले जे पी दत्ता ने भी मानी।’ चैताली ने कहा ‘चेतन आनंद का एक और अभिनव प्रयोग ‘हीर रांझा’ थी जिसमें फिल्म के पूरे डायलॉग कविता के रूप में लिखे गए थे। बाल मनोविज्ञान पर उनकी फिल्म ‘आखिरी खत’ को भी दर्शकों ने बहुत पसंद किया।’ तीन जनवरी 1921 को जन्मे चेतन आनंद ने हिन्दी सिनेमा को ‘अफसर’, ‘आंधियां’, ‘टैक्सी ड्राइवर’, ‘फंटूश’, ‘हिन्दुस्तान की कसम’, ‘कुदरत’ और ‘हाथों की लकीरें’ जैसी फिल्में भी दीं। उन्होंने छह जुलाई 1997 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
04-01-2013, 12:26 AM
चार जनवरी को पुण्यतिथि पर
ट्रैफिक जाम.... और पंचम ने बना ली ‘मुसाफिर हूं यारो’ की धुन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22438&stc=1&d=1357244795

भारतीय फिल्म संगीत का एक पूरा दौर राहुल देव बर्मन के नाम है जिसे सुनहरा दौर कहा जाता है। संगीत के दीवाने इस अनूठे फनकार ने कभी पंखे की आवाज से ही धुन तैयार कर ली तो कभी ट्रैफिक जाम उनके लिए धुन रचने की प्रेरणा बन गया। उनके अंदर संगीत इस कदर रचाबसा था कि धुन तैयार करने के लिए उन्हें किसी खास माहौल की जरूरत नहीं पड़ती थी। किसी आवाज में उन्हें संगीत का अहसास हुआ और उन्होंने उस पर ही एक धुन बना ली। उन्होंने चलते हुए पंखे से निकलती आवाज पर भी धुन तैयार की थी। इसका उपयोग उन्होंने फिल्म ‘आपकी कसम’ के गीत ‘सुनो कहो, कहा सुना’ गीत में किया था। पहली पत्नी से अलग होने के बाद एक बार राहुल देव बर्मन एक होटल में रूके थे। उनके साथ उनके गिटार वादक भानु गुप्ता भी थे। वह बैठे बैठे यूं की गिटार बजा रहे थे कि अचानक पंचम के दिमाग में एक धुन आ गई। उन्होंने वह धुन भानु को बताई। यह धुन ‘परिचय’ फिल्म के गीत ‘मुसाफिर हूं यारो’ की दूसरी पंक्ति की थी। इसके बाद दोनों रात भर काम करते रहे और सुबह तक पूरा गाना तैयार हो चुका था।’ बर्मन पर ‘पंचम के सात सुर’ लिखने वाली वीरा चतुर्वेदी ने कहा, ‘इस बात पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया होगा कि ‘पाथेर पंचाली’ का टाइटल म्यूजिक और ‘मुसाफिर हूं यारो’ गीत बहुत मिलते जुलते हैं। इसका कारण यह है कि पंचम अली अकबर खान साहब के शिष्य रहे हैं, इसलिए उन पर खान साहब के संगीत का गहरा प्रभाव था।’
पंचम और फिल्म निर्माता रमेश बहल के बीच गहरी दोस्ती थी। एक बार दोनों रात को खाना खाने के बाद आइसक्रीम खाने चले गए और जाम में फंस गए। गाड़ी रमेश चला रहे थे और बर्मन बैठे थे। जाम में गाड़ी कभी रूकती और कभी बेहद धीरे धीरे आगे बढती थी। बर्मन सब देख रहे थे तथा कुछ गुनगुना रहे थे और वहीं उन्होंने एक धुन तैयार कर ली। यह धुन बाद में ‘घर’ फिल्म के गीत ‘तेरे बिना जिया जाए ना’ में उपयोग की गई। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने इस गीत के अंतरे में ‘फंटूश’ फिल्म के गीत ‘दुखी मन मेरे’ की ट्यून का उपयोग बहुत ही चतुराई के साथ किया। ‘फंटूश’ के लिए संगीत पंचम के पिता एस डी बर्मन का था। इसी फिल्म के गीत ‘ऐ मेरी टोपी पलट के आ’ की धुन पंचम ने तैयार की थी, लेकिन न यह बात किसी को पता नही चल पाई और न ही पंचम ने कभी इसका श्रेय लेना चाहा। लेकिन इस गीत की लोकप्रियता के लिए पंचम और उनके पिता ने एक दूसरे को बधाई दी थी। एस डी बर्मन का झुकाव जहां विशुद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत की ओर था वहीं पंचम अपने संगीत में पश्चिम का प्रभाव जरूर डालते थे। फिल्म ‘अराधना’ के लिए कई बार कहा गया कि इसका संगीत राहुल देव बर्मन ने तैयार किया था, लेकिन वास्तव में इस फिल्म की संगीत रचना उनके पिता एस डी बर्मन ने की थी। उन दिनों पंचम अपने पिता के सहायक थे। 23 जून 1939 को जन्मे राहुल देव बर्मन ने चार जनवरी 1994 को आखिरी सांस ली।

Dark Saint Alaick
06-01-2013, 02:13 PM
कमलेश्वर की जयंती 6 जनवरी पर
मैनपुरी के शहजादे ने कहानियों में उकेरी कस्बाई संवेदना

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22469&stc=1&d=1357467219

देश की भाषा ‘हिन्दी’ में नई कहानी आंदोलन के अगुवा कथाकार कमलेश्वर ने हिन्दी साहित्य में कस्बाई संवेदना स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई थी । नई कहानी के पुरोधा कमलेश्वर का जन्म छह जनवरी को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ था। उन्होंने ‘राजा निरबंसिया’ और ‘कस्बे का आदमी’ जैसी कहानियों की पृष्ठभमि कस्बों पर ही आधारित रखी और कस्बाई संवेदनाओं को उकेरने की पहल की । कमलेश्वर के साहित्य की मूल चिंता आम आदमी और राजनीति से संबंधित थी। कमलेश्वर कस्बाई संवेदना के अग्रणी कहानीकार थे। मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव के साथ नई कहानी आंदोलन के सूत्रधार के रूप में उन्होंने साहित्य में कस्बाई संवदेना की स्थापना की थी, जबकि इससे पहले आमतौर पर कहानियों की चादरें गांव देहात की पृष्ठभूमि पर बुनी जाती थीं। कमलेश्वर ने अपनी गहरी सृजनशीलता से कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा, टीवी पत्रकारिता सहित अनेक क्षेत्रों में मानक स्थापित किए। इसके अलावा उन्होंने अनेक पत्रिकाओं का संपादन किया और दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक का महत्वपूर्ण दायित्व निभाकर अपने प्रशासनिक कौशल का परिचय भी दिया। कमलेश्वर को अनेक क्षेत्रों में नवोन्मेष कार्यों के लिए भी याद किया जाता है। वरिष्ठ साहित्यकार कृष्णा सोबती ने अपने संस्मरण ‘हम हशमत’ में कमलेश्वर को मैनपुरी का शहजादा कहा है। नई कहानी आंदोलन के बाद उन्होंने कस्बाई लेखकों को एक मंच पर लाकर समानान्तर कहानी का आंदोलन शुरू किया। उनके साथ जुड़े अनेक कहानीकार रमेश उपाध्याय, मधुकर सिंह आदि आज भी उसी संवेदना के साथ सक्रिय हैं। कहानी लेखन में कमलेश्वर एक ब्रांड की तरह थे। प्राय: आज के सभी युवा लेखकों की रचनाएं कहीं न कहीं कमलेश्वर की संवेदना से जरूर प्रभावित हैं। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से जुड़ा नहीं रहा, बल्कि उनके उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ या भारतीय राजनीति का चेहरा दिखाने वाली फिल्म ‘आंधी’ को आज भी एक मानक की तरह देखा जाता है। कमलेश्वर का जन्म छह जनवरी 1932 को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में हुआ था। उन्होंने 1954 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की । फिल्म की पटकथा लिखने के अलावा उनके उपन्यासों पर बनी फिल्में आंधी, मौसम, सारा आकाश, रंजनीगंधा, छोटी सी बात, मिस्टर नटवरलाल, सौतन, राम बलराम और लैला को बॉक्स आॅफिस पर भारी सफलता मिली। वर्ष 1994 में कमलेश्वर को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 2003 में उन्हें कितने पाकिस्तान के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। वह सारिका, धर्मयुग, जागरण और दैनिक भास्कर जैसी पत्र-पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। 75 साल के जीवन में उन्होंने 12 उपन्यास, 17 कहानी संग्रहों में 300 से अधिक कहानियां, और करीब 100 फिल्मों की पटकथाएं लिखीं। कमलेश्वर ने 27 जनवरी 2007 को इस दुनिया से बिदी ली थी।

Dark Saint Alaick
08-01-2013, 11:17 AM
आठ जनवरी को जन्मदिन पर
समानान्तर सिनेमा के लिए सटीक रहीं मोहन राकेश की कहानियां

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22485&stc=1&d=1357629441

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनींदा साहित्यकारों में हैं, जिन्हें ‘नई कहानी आंदोलन‘ का नायक माना जाता है और साहित्य जगत में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का ‘महानायक‘ कहते हैं। उन्होंने ‘आषाढ़ का एक दिन‘ के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा। मोहन राकेश की रचनाओं में गजब की प्रयोगशीलता थी। साठ के दशक से आरंभ होने वाले समानान्तर सिनेमा के लिए मोहन राकेश की कहानियां बहुत सटीक रहीं। मणि कौल ने मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पर इसी नाम से फिल्म बनायी, जो समानान्तर सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुयी। मणि कौल ने मोहन राकेश की कई कहानियों पर फिल्में बनायीं, जिन्होंने गैरपेशेवर फिल्मों की श्रेणी में प्रयोगधर्मी सिनेमा के नई धारा आंदोलन को ऐतिहासिक पहचान दी। मोहन राकेश के कहानी संग्रह के चयनकर्ता एवं साहित्य समीक्षक जयदेव तनेजा ने कहते हैं, ‘हिन्दी के समानान्तर सिनेमा ने मोहन राकेश के अलावा निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, रमेश बक्षी, विनोद कुमार शुक्ल, धर्मवीर भारती सरीखे लेखकों की रचनाओं को चुना। सभी नयी कहानी आंदोलन से जुड़े रचनाकार थे और नई लहर के सिनेमा को भी नई कहानी का सहारा चाहिए था।’ फिल्म वित्त निगम ने 60 के दशक में सिनेमा के लिए नई जगह बनानी शुरू की थी। दशक के अंतिम वर्षों में भारतीय भाषाओं में अनेक ऐसी फिल्में बनीं, जिन्होंने समानान्तर अथवा सार्थक सिनेमा आंदोलन को गति दी। फ्रांस में पचास के दशक के निर्देशकों गोदार, फ्रांसुआ, त्रुफो आदि की फिल्मों को वहां के समीक्षकों ने फ़्रांसीसी भाषा में नूवेन वाग (यानी नई धारा) का नाम दिया। हिन्दुस्तान में इस प्रकार की फिल्मों को समानान्तर या सार्थक सिनेमा कहा गया। फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज ने ‘इप्टिनामा’ में लिखा, ‘समानान्तर सिनेमा की प्रमुख फिल्मों में वी शांताराम की ‘स्त्री’ (1962), सत्यजीत रॉय की ‘चारूलता’, ‘नायक’ और ‘गोपी गायन बाघा बायन’ सरीखी फिल्में थीं। हालांकि शांताराम मुख्यधारा की सिनेमा की पैदाइश थे, लेकिन बी के कंजरिया के एफएफसी के अध्यक्ष बनने के बाद छोटे बजट की प्रयोगधर्मी फिल्मों को बढावा मिलना शुरू हुआ। तनेजा ने बताया कि नई कहानी आंदोलन के प्रमुख कहानीकार मोहन राकेश समानान्तर सिनेमा के प्रमुख निर्देशक मणि कौल के पसंदीदा रचनाकार थे। मणिकौल ने मोहन राकेश की ‘उसकी रोटी’ और ‘आषाढ का एक दिन’ पर फिल्म बनायीं। इसके अलावा रमण कुमार ने फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान पुणे के लिए ‘सदमा’ बनायी, जो मोहन राकेश की कहानी ‘एक ठहरा हुआ चाकू’ का रूपांतर थी। ‘जोगेन्द्र शैली ने टीवी धारावाहिक ‘मिट्टी के रंग’ के लिए राकेश की ‘मवाली’, ‘एक ठहरा हुआ चाकू’, ‘आखिरी सामान’, ‘मिस्टर भाटिया’, ‘सुहागिनें’, ‘मरुस्थल’ तथा ‘एक और जिंदगी’ का चुनाव किया। वहीं राजिन्द्र नाथ ने दूरदर्शन के लिए राकेश की कहानी ‘आर्द्रा’ का फिल्मांकन किया। देवन्द्र राज अंकुर ने ‘कहानी का रंगमंच’ शैली की विभिन्न प्रस्तुतियों के लिए ‘अपरिचित’, ‘मलबे का मालिक’, ‘बस स्टैंड पर एक रात’, ‘मिस पॉल’, ‘एक और जिंदगी’, ‘जानवर और जानवर’ का इस्तेमाल किया। मधुसूदन आनंद ने लिखा है, ‘समानान्तर सिनेमा के दो ध्रुव थे, जिसके एक ओर बांग्ला फिल्मकार मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ (1969), बासु चटर्जी की ‘सारा आकाश’, एमएस सथ्यू की ‘गर्म हवा’, श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ जैसी फिल्में थीं, वहीं दूसरी ओर मणि कौल की ‘उसकी रोटी’, ‘माया दर्पण’ और ‘दुविधा’ जैसी फिल्में प्रचलित परिभाषा से काफी दूर थीं। मोहन राकेश का जन्म आठ जनवरी 1925 को अमृतसर में हुआ था। उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से हिन्दी और अंग्रेजी में एमए किया। जीविकोपर्जन के लिए कुछ समय तक अध्यापक कार्य किया। फिर बाद में ‘सारिका’ के संपादक हो गये। वह नई कहानी आंदोलन के प्रमुख रचनाकार थे। उन्होंने ‘आषाढ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे अधूरे’ कुल तीन नाटक लिखे। इब्राहिम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड, श्यामानंद जालान, रामगोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने इनके नाटकों को निर्देशित किया, जिन्हें अपार सफलता मिली। उनके हर नाटक और उपन्यास में कुछ अलग है। एक महान लेखक होने के अलावा उनमें लेखकीय स्वाभिमान था। इसको लेकर वह विख्यात हैं। नई कहानी दौर में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। हिंदी साहित्य में उनके अमूल्य योगदान के लिए राकेश को 1968 में संगीत नाटक अकादमी सम्मान से नवाजा गया। 3 जनवरी, 1972 को महज 47 साल की उम्र में राकेश का निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
11-01-2013, 03:20 PM
12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन पर विशेष
उन्होंने भारतीयों में जगाया आत्मसम्मान, नवजागरण की शुरूआत की

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22545&stc=1&d=1357903233

दुनियाभर में भारतीय आध्यात्म का परचम लहराने करने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारत की गौरवशाली परंपरा और संस्कृति के प्रति न केवल भारतीयों के मन में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास का संचार किया, बल्कि नव भारत के निर्माण की रूपरेखा तैयार करने के साथ ही एक नवजागरण की शुरूआत भी की। भारतीय इतिहास के अहम स्तंभ स्वामी विवेकानंद की 12 जनवरी, 2013 को 150वीं जयन्ती है, जिसे भारत सहित पूरे विश्व में उस महापुरूष के प्रति अगाध श्रद्धा और आदर के साथ मनाया जाएगा। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा, ‘राष्ट्रीय नवजागरण के अग्रदूत की भूमिका निभाने वाले स्वामी विवेकानंद को लेकर भारतीय जनमानस में कई तरह की छवियां अंकित हैं। सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए उनके द्वारा शुरू किया गया अभियान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। साथ ही एक भारतीय युवा के रूप में जीवन जीने का उन्होंने जो आदर्श प्रस्तुत किया वह आज के समय में भी युवाओं के लिए ‘रोल मॉडल’ है।’ उन्होंने कहा कि विवेकानंद को भारतीय समाज की बुनियादी एकता को मजबूत करने और पाश्चात्य समाज के बीच भारत की एक अलग एवं नयी छवि बनाने के लिए सदा याद किया जाएगा। विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में कोलकाता के निकट बेलूर मठ में हुआ था। ‘उठो, जागो और तब तक मत रूको, जब तब लक्ष्य को न प्राप्त कर लो’ कहने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारतीय सभ्यता संस्कृति को खुद में इस तरह आत्मसात किया कि उनके बारे में एक बार गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था, ‘अगर भारत को जानना है तो विवेकानंद को पढिये। उनमें आप कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’ वर्ष 1893 में शिकागो विश्व हिन्दू सम्मेलन में भाग लेकर भारतीय संस्कृति का झंडा बुलंद करने वाले विवेकानंद ने पूर्व और पश्चिम का एक अद्भुत सहचर्य प्रस्तुत किया। शायद यही वजह है कि उनके बारे में एक बार सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा ‘स्वामी जी ने पूर्व एवं पश्चिम, धर्म एवं विज्ञान, भूत एवं वर्तमान का आपस में मेल कराया। इस लिहाज से वह महान हैं। भारतवासियों को उनकी शिक्षा से अभूतपूर्व आत्म सम्मान, आत्म निर्भरता एवं आत्म विश्वास मिला।’ यायावर जीवन व्यतीत करने वाले स्वामी विवेकानंद पर प्रकाशित मशहूर बांग्ला लेखक शंकर की पुस्तक ‘द मॉन्क एज मैन’ में कहा गया है कि वह कई बीमारियों से पीड़ित थे। शायद यही वजह है जब बच्चे उनके पास गीता का उपदेश सुनने के लिए आए तो उन्होंने कहा कि गीता नहीं फुटबॉल खेलो। उन्होंने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि तुम्हारी मांसपेशियां पत्थर सी मजबूत हों और तुम्हारे दिमाग में बिजली की तरह कौंधने वाले विचार आएं।’ विवेकानंद ने अपने जीवन और विचारों में आधुनिकता को समुचित स्थान दिया था। उनसे जुड़े इस पहलू से आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहर लाल नेहरू भी भली-भांति परिचित थे। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा है, ‘प्राचीन मूल्यों से जुड़े, भारत की प्रतिष्ठा पर गौरव महसूस करने वाले विवेकानंद ने जीवन की कठिनाइयों के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण अपनाया। वह एक तरह से प्राचीन और वर्तमान भारत के बीच की कड़ी थे। उन्होंने दुखियों और हतोत्साहित हिन्दू संस्कृति के लिए मरहम का काम किया और उन्हें स्वाभिमान की भावना से भरा।’ कई विशिष्ट ग्रंथों की रचना करने वाले विवेकानंद जब शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में बोलने के लिए गये तो उन्होंने वहां भारत की एक अविस्मरणीय गाथा लिख डाली। रामकृष्ण मिशन की स्थापना करने वाले स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन को लेकर लिखा है, ‘यह कहा जा सकता है, उन्होंने जब बोलना शुरू किया तो हिन्दुओं के धार्मिक विचार सामने आने शुरू हुए लेकिन जब उन्होंने खत्म किया तब वहां हिन्दू धर्म का निर्माण हो गया।’ कई बीमारियों से लड़ते हुए चार जुलाई, 1902 को विवेकानंद का देहावसान हो गया। उस समय इस यशस्वी विद्वान की उम्र महज 39 साल थी।

Dark Saint Alaick
11-01-2013, 03:30 PM
12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष
सुनहरा करियर छोड़ गांवों का रुख करने को तैयार आज का युवा

आलीशान दफ्तर, ऊंची तन्ख्वाह और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मोह को छोड़ देश का युवा अब कुछ गुजरने का सपना लिये गांवों का रुख कर रहा है। अधिक से अधिक युवा अब ग्रामीण स्तर पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों से जुड़ रहे हैं। प्रमुख कंपनी जॉब्समास्टर डॉट कॉम के सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी है कि इंजीनियरिंग और एम बी ए जैसे पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद ग्रामीण स्तर पर सक्रिय गैर सरकारी संगठनों में काम करने वाले शिक्षित युवाओं की संख्या में पिछले दो सालों में 26 प्रतिशत इजाफा हुआ है। इंजीनियरिंग की पढाई कर चुके महेंद्र चौधरी गांधी फेलोशिप से जुड़े हैं और उन्होंने एक समूचे गांव को कंप्यूटर साक्षर बनाने का बीड़ा उठाया है। उन्होंने बताया कि वह हमेशा से ही अपनी पढाई का लाभ गांव के स्तर तक पहुंचाना चाहते थे इसलिये उन्होंने अपनी आई टी कंपनी की नौकरी छोड़ गांव में काम करने का मन बनाया। उन्होंने बताया कि अपने मित्र रॉबिन राजहंस के साथ उन्हें पूरे गांव के युवाओं को कंप्यूटर शिक्षित बनाने का विचार आया और वह इसे पूरा करने में जुट गये। उन्होंने गांव में कंप्यूटर संबंधी शिक्षा देना शुरु कर दिया और अब उन्होंने गांव को ‘पूर्ण कंप्यूटर साक्षर’ गांव घोषित किये जाने के लिये प्रशासन को प्रस्ताव भेज दिया है। उनकी तरह ही गांव में शिक्षा के मॉडल को बेहतर करने के उद्देश्य से पिरामल फाउंडेशन में काम करने वाली क्रिसलिन डिकोस्टा ने मुंंबई के सेंट जेवियर कॉलेज से शिक्षा हासिल की लेकिन फिर वह गांवों में काम कर रहे गैर सरकारी संगठन से जुड़ गयीं। वह बताती हैं कि वह मुंबई में ही पली बढी हैं और उन्होंंने यहां आने से पहले कभी गांव देखा भी नहीं था। उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी सहकर्मी अंशु सचदेवा और अर्चिता सिसोदिया के साथ गांवों के विद्यालयों में प्रायोगिक शिक्षा के प्रसार के लिये सरकारी स्कूलों के हेडमास्टरों के प्रशिक्षण का मन बनाया। अंशु बताती है कि आने वाले समय में वह इन गांवों में यूथ कमेटी ‘युवा समिति’ का गठन करवाना चाहती हैं जिससे गांव के स्तर की समस्या को सुलझाने के लिये युवाओं को प्रशासन और सरकारी तंत्र पर निर्भर न रहना पड़े। टोंक जिले के सोड़ा गांव की सरपंच छवि राजावत का कहना है कि चंूकि युवा का सरकारी तंत्र और राजनेताओं से भरोसा उठ चुका है इसलिये वह अपने स्तर से कुछ करने के लिये ग्रामीण स्तर पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों का रुख कर रहे हंंै। देश की पहली एमबीए सरपंच छवि ने भी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी छोड़ गांव के सरपंच का चुनाव लड़ा और जीत गयीं। छवि ने विशेष बातचीत में भाषा को बताया कि यदि आने वाले समय में युवाओं को प्रशासन और सरकारी तंत्र का सहयोग मिले तो अधिक युवा ग्रामीण स्तर पर विकास कार्यों में जुटने के लिये आगे आयेंगे।

Dark Saint Alaick
12-01-2013, 10:09 PM
एक प्रसंग
विविदिशानन्द खेतड़ी में बने विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द ने राजस्थान में शेखावाटी अंचल के खेतड़ी में 1981 में शास्त्रों का अध्ययन किया था और खेतड़ी नरेश अजीत सिंह ने उनका नाम विवेकानन्द रखा था। इससे पूर्व युवा संन्यासी का नाम विविदिशानन्द था। यह बहुत कम लोगों को विदित है कि खेतड़ी नरेश अजीत सिंह के आर्थिक सहयोग से ही स्वामी विवेकानन्द अमरीका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल होने गए और वेदान्त की पताका फहरा कर भारत को विश्व धर्मगुरु का सम्मान दिलाया था। खेतड़ी पुस्तकालय में उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार नरेश से माउंट आबू पर्वत पर पहली बार स्वामी विवेकानन्द की मुलाकात 14 जून 1891 को हुई और इस युवा संन्यासी से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपना गुरु बना लिया तथा अपने साथ खेतड़ी चलने का आग्रह किया जिसे स्वामीजी ठुकरा नहीं पाए। पहली बार स्वामी विवेकानन्द 7 अगस्त 1891 को खेतड़ी आए। उन्होंने यहां राजपण्डित नारायण दास शास्त्री से ‘अष्टध्यायी’ तथा ‘महाभाष्यधायी’ का अध्ययन किया। इसके साथ ही व्याकरणाचार्य और पाण्डित्म्य के लिए विख्यात नारायण दास शास्त्री को गुरु कह कर सम्बोधित किया। युवा संन्यासी विविदिशानन्द के शिकागो जाने से पूर्व नरेश ने स्वामीजी से कहा आपका नाम बड़ा कठिन है तथा टीकाकार की सहायता से बिना उसका अर्थ नहीं समझा जा सकता। इसके साथ ही नाम का उच्चारण करना भी दुष्कर होता है और अब तो विविदिशाकाल यानि जानने की इच्छा भी समाप्त हो चुकी है। उसी दिन खेतड़ी नरेश ने उन्हें नया साफा बांधकर भगवा चोगा पहनाया तथा नामकरण स्वामी विवेकानन्द किया। एक दिन महाराजा और स्वामीजी फतेहविलास महल में बैठे शास्त्र चर्चा कर रहे थे तभी राज्य की नर्तकियों ने गायन वादन का अनुरोध किया तो स्वामीजी उठ कर जाने लगे। नर्तकियों की नायिका मैनाबाई ने अनुरोध किया स्वामी जी विराजें तो मैं भजन सुनाऊंगी, आग्रह पर वह बैठ गए तो मैनाबाई ने सूरदास रचित प्रसिद्ध भजन ‘प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो..’ सुनाया तो स्वामीजी की आंखों से पश्चायत मिश्रित अश्रुधारा बह निकली और उन्होंने मैनाबाई को ज्ञानदायिनी मां कहकर सम्बोधित किया और कहने लगे तुमने आज मेरी आंखें खोल दी हैं। स्वामी विवेकानन्द ने 10 मई 1893 को मात्र 28 वर्ष की आयु में खेतड़ी से अमरीका के लिए प्रस्थान किया था। शिकागो में हिन्दू धर्म की पताका फहराकर स्वामीजी विश्व भ्रमण करते हुए 1897 में जब भारत लौटे तो 12 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी नरेश ने पन्नालाल शाह तालाब पर उनके सम्मान में भव्य समारोह आयोजित किया था। इसके बाद 21 दिसम्बर 1897 को स्वामीजी खेतडी से प्रस्थान कर गए और यह उनका अंतिम खेतड़ी प्रवास था। स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन नामक सेवा भावी संगठन की स्थापना की, जिसकी राजस्थान में सर्वप्रथम शाखा खेतड़ी में ही प्रारम्भ की गई जिसका विस्तार आज विश्वस्तर पर है।

Dark Saint Alaick
14-01-2013, 12:49 AM
जन्मदिवस 13 जनवरी पर विशेष
शमशेर बहादुर सिंह : भाषा और शिल्प के सजग रचनाकार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22873&stc=1&d=1358110161

आधुनिक हिन्दी कविता के प्रगतिशीन त्रयी के स्तंभ शमशेर बहादुर सिंह कविता की भाषा और शिल्प के प्रति बेहद सजग रचनाकार थे। भाषा और शिल्प की दृष्टि से शमशेर ने आधुनिक कविता को रीतिकालीन रचनाओं और लोकगीतों से कमतर बताते हुये अपनी डायरी में लिखा, ‘अब तक रचे गये साहित्य में बहुत कम ही ऐसा है, जो कायम रहने वाला है। ऐसे साहित्य का सिर्फ ऐतिहासिक महत्व ही बचेगा, जीवंतता नहीं। जीवंत साहित्य में निराला, पंत और बच्चन की फुटकर चीजों को छोड़कर लोकगीतों के श्रेष्ठ पद बचे रहेंगे। इसके अलावा उर्दू का खासा हिस्सा जिंदा होगा और रीतिकाल का भी।’ शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी डायरी में लिखा है कि भाषा की अवहेलना किसी भी रचना को सहज ही साहित्य क्षेत्र से बाहर फेंक देती है और शिल्प की अवहेलना उसे कलात्मकता के क्षेत्र से बाहर करती है। भाषा और शिल्प के लिहाज से हम उस श्रेणी में आ चुके हैं कि हर भाव और विचार को शब्दों में गढकर व्यक्त करने में सक्षम हैं। प्राप्त भाषा और शिल्प से आगे जाने का संघर्ष ही सफल साहित्य और सफल कविता कही जा सकती है। जो कुछ दिनों तक जीवित रहेगी। मुहावरे की गलती को वह अक्षम्य मानते हैं। युवा कवि एवं आलोचक देवी प्रसाद मिश्र ने कहा, ‘कविता में शमशेर की अगाध आस्था थी और वह उसी कविता के ढांचे में रहकर नया शिल्प रचते हैं। शमशेर का मानना था कि शिल्प ही कविता की व्यंजना को तीखा या फीका बनाता है, इसलिए कविता के लिए विषयवस्तु के अलावा सिर्फ शिल्प का संधान और शिल्प की साधना ही आवश्यक है।’ युवा कवि एवं आलोचक आर चेतनक्रांति ने कहा, ‘शमशेर प्रेम के बहुत अंतर्मुखी कवि थे, यही कारण है कि वह भाषा और उसके शिल्प को लेकर भी बहुत सजग रहते थे। उन्होंने कविता की भाषा और उसके शिल्प को लेकर बहुत काम किया। उन्होंंने अपनी कविताओं में अनेक नये मुहावरे गढे।’ चेतनक्रांति ने बताया, ‘शमशेर ने ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ और ‘चुका भी नहीं हूं मैं’ जैसी कविताएं लिखकर सटीक और कालजयी मुहावरों की परंपरा शुरू की। उनके मुहावरे बहुत जीवंत हैं और हमेशा रहेंगे। यही उनकी विशेषता है।’ शमशेर बहादुर सिंह का जन्म मुजफ्फरनगर के एलम ग्राम में 13 जनवरी 1911 को एक जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम तारीफ सिंह और माता का नाम प्रभुदेवी था। उनका ननिहाल देहरादून में था और उनकी प्रारंभिक शिक्षा वहीं हुयी। शमशेर की बाद की शिक्षा गोंडा और इलाहाबाद में हुयी। 1935-36 में उन्होंने उकील बंधुओं से कला का प्रशिक्षण लिया। उनका विवाह 1929 में धर्मदेवी के साथ हुआ। उन्होंने 1931 में कविता लिखना शुरू किया। चौबीस वर्ष की आयु में उनकी पत्नी धर्मदेवी छह वर्ष के साथ के बाद 1935 में टीबी से गुजर गयीं। उनके जीवन का यह अभाव कविता में विभाव बनकर हमेशा उपस्थित रहा। काल ने जिसे छीन लिया था, उसे अपनी कविता में सजीव रखकर शमशेर हमेशा काल से होड़ लेते रहे। सुमित्रानंदन पंत और नरेन्द्र शर्मा ने 1939 में ‘रूपाभ’ निकाला। शमशेर इसके सहायक संपादक बन गये। इसके बाद 1940 में वह ‘कहानी’ के संपादक बने। इसके बाद 1946 में बंबई से प्रकाशित ‘नया साहित्य’ के संपादक हो गये। 1948 से 1954 तक वह ‘माया’ के संपादक रहे और साथ ही ‘नया पथ’ और ‘मनोहर कहानियां’ में भी संपादकीय सहयोग करते रहे। 1965 से 1977 तक उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए ‘हिन्दी-उर्दू कोष’ का संपादन किया, जो बाद में राजकमल से प्रकाशित हुआ। 1981 से 85 तक वह विक्रम विश्वविद्यालय में प्रेमचन्द सृजन पीठ के अध्यक्ष रहे। वर्ष 1977 में उन्हें ‘चुका भी नहीं हूं मैं’ के लिए साहित्य अकादमी और मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् के ‘तुलसी’ सम्मान से सम्मानित किया गया। 1987 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें ‘मैथिलीशरण गुप्त’ पुरस्कार से सम्मानित किया। शमशेर बहादुर सिंह ऐसे कवियों में थे, जिनके लिए मार्क्सवाद की क्रांतिकारी आस्था और देश की सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा में विरोध नहीं था। शमशेर ने अपना संपूर्ण जीवन साहित्य साधना में लगा दिया। उनकी मृत्यु 12 मई 1993 को अहमदाबाद में हुई।

Dark Saint Alaick
15-01-2013, 03:19 AM
14 जनवरी को जन्मदिन पर
‘अमरज्योति’ की सौदामिनी थी दुर्गा खोटे की पसंदीदा भूमिका

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22948&stc=1&d=1358205520

अभिनेत्री दुर्गा खोटे का जिक्र होने पर मुगले-आजम फिल्म में बेटे सलीम की ममता में छटपटाती लेकिन पति अकबर के साथ पूरी हिम्मत से पत्नी धर्म निभाती जोधा का चेहरा आंखों में झूल जाता है। इस किरदार को पर्दे पर साकार करने वाली दुर्गा खोटे सचमुच बहुत साहसी महिला थीं और फिल्म ‘अमरज्योति’ में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती सौदामिनी की भूमिका को वह अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक मानती थीं। जिस दौर में महिलाओं का फिल्मों से जुड़ना अच्छा नहीं समझा जाता था, उस दौर में अभिनय का फैसला करना, स्टूडियो सिस्टम तोड़ना और खुद फिल्म निर्देशन की कमान संभालना ... ऐसे हिम्मत भरे फैसले दुर्गा खोटे ने किये थे। दुर्गा खोटे ने उस दौर में ‘स्टूडियो सिस्टम’ तोड़ा, जब महिला कलाकारों को अधिक महत्व दिया ही नहीं जाता था। स्टूडियो सिस्टम में कलाकार एक करार के तहत स्टूडियो की ही फिल्में मासिक वेतन पर करते थे। लेकिन यह व्यवस्था खत्म कर दुर्गा खोटे पहली ‘फ्री लांस’ कलाकार बनीं और न्यू थिएटर्स कंपनी के लिए समय समय पर काम किया। 1983 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित दुर्गा खोटे ने फिल्म निर्माण और निर्देशन भी किया था। महिलाओं से जुड़ी वर्जनाओं को तोड़ते हुए उन्होंने 1937 में ‘साथी’ फिल्म का निर्माण और निर्देशन किया। उन्होंने थिएटर कभी नहीं छोड़ा और विज्ञापन फिल्में भी बनाईं। फिल्म जगत में रह कर दुर्गा खोटे ने मजबूत फैसले किये और कभी विवादों में नहीं घिरीं। दिवंगत अभिनेत्री शोभना समर्थ हमेशा कहती थीं कि दुर्गा खोटे उनकी प्रेरणास्रोत रही हैं। अपनी आत्मकथा में दुर्गा खोटे ने 'अमरज्योति' के बारे में लिखा है कि ऐसी फिल्में कभी कभार ही बनती हैं जिनमें काम कर कलाकार को सचमुच संतुष्टि मिलती है। ‘अमरज्योति में सिनेमेटोग्राफी, सेट, कॉस्ट्यूम, गहने सब कुछ इतना शानदार था कि दर्शक एक एक दृश्य को दिल से देखते रहे। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती सौदामिनी की भूमिका को मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में जगह देती हूं।’ दुर्गा खोटे का बाल विवाह हुआ था, लेकिन जब वह 26 साल की थीं तब उनके पति की मृत्यु हो गई थी। स्वाभिमानी दुर्गा खोटे के लिए आत्मनिर्भर बनना जरूरी था और उन्होंने इसके लिए अभिनय की दुनिया चुनी। 14 जनवरी 1905 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मीं दुर्गा खोटे की पहली फिल्म थी 1931 में बनी ‘फरेबी जाल’। के आसिफ की ‘मुगल ए आजम’ में उनकी जोधा की भूमिका, ‘बॉबी’ में नायिका की दादी और ‘अभिमान’ में हीरो की चाची की भूमिका को दर्शकों ने खूब सराहा। करीब 200 फिल्मों में काम करने वाली दुर्गा खोटे को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। दुर्गा खोटे ने 22 सितंबर 1991 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
15-01-2013, 03:30 AM
पुण्यतिथि 14 जनवरी के अवसर पर
चल उड़ जा रे पंछी ...

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22949&stc=1&d=1358206229

भारतीय सिनेमा के युगपुरूष चित्रगुप्त का नाम एक ऐसे संगीतकार के रूप में याद किया जाता है जिन्होनें लगभग चार दशक तक अपने सदाबहार और रूमानी गीतों से श्रोताओं के दिल पर अमिट छाप छोड़ी । सोलह नवंबर 1917 को बिहार के गोपालगंज जिले में जन्मे चित्रगुप्त श्रीवास्तव को बचपन के दिनो से ही संगीत के प्रति रूचि थी। चित्रगुप्त अर्थशास्त्र तथा पत्रकारिता में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त करने के बाद वह पटना में व्याख्याता के पद पर काम करने लगे लेकिन उनका मन इस काम में अधिक समय तक नहीं लगा। अपने सपनों को उड़ाने देने के लिए उन्होंने सपनों की नगरी मुंबई की रूख किया। मुंबई आने के बाद चित्रगुप्त को काफी संघर्ष करना पड़ा। इस दौरान उनकी मुलाकात संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी से हुयी और वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। वर्ष 1946 में प्रदर्शित फिल्म 'तूफान क्वीन' से चित्रगुप्त ने बतौर संगीतकार अपने कैरियर की शुरूआत की लेकिन फिल्म की विफलता से चित्रगुप्त अपनी पहचान बनाने में असफल रहे। इस बीच चित्रगुप्त ने अपना संघर्ष जारी रखा। अपने वजूद की तलाश में चित्रगुप्त को इंडस्ट्री में लगभग 10 वर्ष तक संघर्ष करना पड़ा । वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म 'सिंदबाद द सेलर' चित्रगुप्त के सिने करियर की पहली हिट फिल्म साबित हुयी । इस फिल्म ने सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। फिल्म में मोहम्मद रफी और शमशाद बेगम की आवाज में उनका संगीतबद्ध गीत 'अदा से झूमते हुये' श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ।फिल्म और संगीत की सफलता के बाद चित्रगुप्त कुछ हद तक फिल्म इडस्ट्री में संगीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये। इस बीच उनकी मुलाकात महान संगीतकार एस.डी.बर्मन से हुयी जिनके कहने पर चित्रगुप्त को उस जमाने के मशहूर बैनर 'एवीएम' की फिल्म 'शिव भक्त' में संगीत देने का मौका मिला। इस फिल्म की सफलता के बाद चित्रगुप्त 'एवीएम' बैनर के तले बनने वाली फिल्मों के निर्माताओं के चहेते संगीतकार बन गये। इसके बाद में उन निर्माताओं ने यह निश्चय किया कि जब कभी वे फिल्म का निर्माण करेंगे तो चित्रगुप्त को अपनी फिल्म में संगीत देने का ज्यादा से ज्यादा मौका देंगे। चित्रगुप्त के सदाबहार संगीत के कारण ही 'एवीएम' की ज्यादातार फिल्में आज भी याद की जाती हैं। इन फिल्मों में खासकर 'भाभी', 'बरखा', 'मैं चुप रहूंगी' और 'मैं भी लड़की हूं' जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं। वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म 'भाभी' की सफलता के बाद चित्रगुप्त सफलता के शिखर पर जा पहुंचे। इस फिल्म में उनके संगीत से सजा यह यह गीत 'चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना' श्रोताओं के बीच आज भी काफी लोकप्रिय है। साठ के दशक में चित्रगुप्त ने जिन फिल्मों को संगीतबद्ध किया उनमें 'बरखा', 'पतंग', 'गैंबलर', 'अपलम चपलम', 'ओपेरा हाउस', 'बेजुबान', 'एक राज', 'गंगा की लहरें', 'ऊंचे लोग', 'औलाद' और 'वासना' जैसी फिल्में शामिल हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी चित्रगुप्त ने संगीत निर्देशन के अलावा अपने पार्श्व गायन से भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया। इन सब के साथ हीं चित्रगुप्त ने कई फिल्मों के लिये गीत भी लिखे। चित्रगुप्त ने हिंदी फिल्मों के अलावा भोजपुरी, गुजराती और पंजाबी फिल्मों के लिये भी संगीत दिया, जिसमें सभी फिल्में सुपरहिट साबित हुयी। सत्तर के दशक में चित्रगुप्त ने फिल्मों में संगीत देना काफी हद तक कम कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि अधिक फिल्मों के लिये संगीत देने से अच्छा है, अच्छा संगीत देना। चित्रगुप्त ने लगभग चार दशक के अपने सिने कैरियर में महज 150 फिल्मों को संगीतबद्ध किया। अपने संगीतबद्ध गीतों से लगभग चार दशक तक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले महान संगीतकार चित्रगुप्त 14 जनवरी 1988 को इस दुनिया से अलविदा कह गये। वर्ष 1988 में प्रदर्शित फिल्म 'इंसाफ की मंजिल' चित्रगुप्त के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुई। उनके संगीतबद्ध गीतो की फेहरिस्त में कुछ हैं - पनघट पे चली सांवर गोरी (श्री गणेश विवाह), दो दिल धड़क रहे हैं (इंसाफ), चल उड़ जा रे पंछी (भाभी), जाने कैसे चढ़ने लगा नशा (जबक), मचलती हुयी हवा में (गंगा की लहरें) और इतनी नाजुक ना बनो (वासना)।

Dark Saint Alaick
15-01-2013, 03:38 AM
15 जनवरी को पुण्यतिथि पर
तपन सिन्हा की फिल्मों में नजर नहीं आता दोहराव

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22950&stc=1&d=1358206671

बांग्ला फिल्मों के मजबूत स्तंभ कहे जाने वाले निर्माता निर्देशक तपन सिन्हा का फिल्म संसार अत्यंत व्यापक है और अलग अलग विषय, अलग कथानक वाली यह फिल्में भले ही सभी दर्शकों को पसंद न आएं तथा प्रचलित फार्मूले पर भी आधारित न हों लेकिन इन्होंने अपनी छाप जरूर छोड़ी है। ‘तपन सिन्हा की फिल्मों की खासियत यह है कि उनमें कहीं कोई दोहराव नजर नहीं आता। समानांतर सिनेमा के दायरे से बाहर तपन सिन्हा ऐसे फिल्म निर्माता हैं जिन्होंने समझौता नहीं किया और यही वजह है कि उन्हें मृणाल सेन तथा सत्यजीत रॉय के समकक्ष माना जाता है। फिल्मों से जुड़ने के लिए तपन सिन्हा को चार्ल्स डिकेन के उपन्यास ‘ए टेल ऑफ़ टू सिटीज’ पर बनी फिल्म और इसके अभिनेता रोनाल्ड कोलमैन के अभिनय ने प्रेरित किया।’ वह 1950 के दशक में लंदन गए फिल्म निर्माण सीखने के लिए और वहां उनकी मुलाकात पिनवुड स्टूडियो के प्रबंधक क्राईहर्स्ट से हुई। तपन सिन्हा को यहीं निर्देशक चार्ल्स क्राइटन की यूनिट में साउंड इंजीनियर के तौर पर काम मिला। इसके बाद शुरू हुआ तपन सिन्हा का सफर निर्देशन की राह पर चल पड़ा। भारतीय फिल्म जगत पर कुछ किताबें लिख चुकीं वीरा चतुर्वेदी ने कहा, ‘वहां तपन सिन्हा ने जो सीखा, उस पर भारत लौट कर काम शुरू किया और 1954 में उन्होंने पहली फिल्म ‘अंकुश’ बनाई। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का काम हमेशा उन्हें प्रेरित करता था। उनकी रचनाओं पर सिन्हा ने कई फिल्में बनाईं। ‘काबुलीवाला’ में उन्होंने टिंकू ठाकुर को नन्हीं बच्ची और जिबान बोस को जेलर बनाया जो काबुलीवाला को पसंद करता था। फिल्म में रवीन्द्र संगीत का भी उपयोग किया गया। यह बांग्ला फिल्म थी।’ बाद में 1957 में बिमल राय ने हिन्दी में ‘काबुलीवाला’ बनाई जिसमें जेलर की भूमिका बलराज साहनी ने और बच्ची की भूमिका ओर्डलिन ने निभाई। बर्लिन फिल्म महोत्सव में इस फिल्म ने बेहतरीन संगीत के लिए पुरस्कार हासिल किया। तपन सिन्हा ने अपनी कई फिल्मों में रवीन्द्र संगीत का उपयोग किया। इसके साथ ही गुरूदेव की और भी रचनाओं पर उन्होंने फिल्में बनाईं। तपन सिन्हा की छोटी बहन गीतांजलि के पुत्र गौतम मजुमदार ने बताया ‘तपन सिन्हा और बांग्ला फिल्म निर्माता प्रथमेश बरूआ संघर्ष के दिनों से गहरे मित्र थे। प्रथमेश के निधन के बाद उनकी अधूरी फिल्में तपन सिन्हा ने पूरी की थीं लेकिन इसका श्रेय उन्होंने कभी नहीं लिया।’ उन्होंने बताया ‘अक्सर कहा जाता है कि तपन सिन्हा की सत्यजीत राय से नहीं बनती थी। यह बात सही नहीं है। दोनों अच्छे मित्र थे और एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे।’ दो अक्तूबर 1924 को जन्मे तपन सिन्हा का 15 जनवरी 2009 को देहांत हो गया।

Dark Saint Alaick
15-01-2013, 03:44 AM
15 जनवरी को सेना दिवस पर विशेष
भारतीय सेना की गौरवशाली परंपरा की याद दिलाता है सेना दिवस

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22951&stc=1&d=1358206999 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22952&stc=1&d=1358206999

देश की सीमाओं की चौकसी करने वाली भारतीय सेना अपनी गौरवशाली परंपरा का निर्वाह करते हुए हर साल जनवरी में सेना दिवस मनाती है और इस दौरान अपने दम खम का प्रदर्शन करने के साथ ही उस दिन को पूरी श्रद्धा से याद करती है जब सेना की कमान पहली बार एक भारतीय के हाथ में आयी थी। लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत) शंकर राय चौधरी ने लेफ्टिनेंट जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) के एम करियप्पा ने आज के दिन भारतीय सेना के पहले भारतीय कमांडिग इन चीफ के रूप में वर्ष 1948 में अंतिम ब्रिटिश कमांडर सर फ्रांसिस बु्चर से पदभार संभाला था । इस तरह लेफ्टिनेंट करियप्पा लोकतांत्रिक भारत के पहले सेना प्रमुख बने । इसी की याद में भारत में हर साल 15 जनवरी को सेना दिवस मनाया जाता है। इस दिन की शुरूआत यहां इंडिया गेट पर बनी अमर जवान ज्योति पर शहीदों को श्रद्धांजलि देने के साथ होती है । इस दिन राजधानी दिल्ली और सेना के सभी छह कमान मुख्यालयों में परेड आयोजित की जाती है और सेना अपनी मारक क्षमता का प्रदर्शन करती है । इस मौके पर सेना के अत्याधुनिक हथियारों और साजो सामान जैसे टैंक, मिसाइल, बख्तरबंद वाहन आदि प्रदर्शित किये जाते हैं । इस दिन सेना प्रमुख दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब देने वाले जवानों और जंग के दौरान देश के लिये बलिदान करने वाले शहीदों की विधवाओं को सेना मेडल और अन्य पुरस्कारों से सम्मानित करते हैं। दिल्ली में आयोजित परेड के दौरान अन्य देशों के सैन्य अताचियों और सैनिकों के परिवारों वालों को बुलाया जाता है । उन्होंने बताया कि सेना इस दौरान जंग का एक नमूना पेश करती है और इस दौरान अपने प्रतिक्रिया कौशल और रणनीति के बारे में बताती है । उन्होंने कहा कि इस परेड और हथियारों के प्रदर्शन का उद्देश्य दुनिया को अपनी ताकत का एहसास कराना तथा देश के युवाओं को सेना में शामिल होने के लिये प्रेरित करना है । सेना दिवस पर शाम को सेना प्रमुख चाय पार्टी आयोजित करते हैं जिसमें तीनों सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिमंडल के सदस्य हिस्सा लेते हैं । उल्लेखनीय है कि भारतीय सेना अपने सेवानिवृत सैनिकों, वीर नारियों और विधवाओं के कल्याण के लिये कई कल्याणकारी योजनायें भी चलाती है, जिनमें पेंशन, बच्चों के लिये सैनिक स्कूल, सस्ती कीमत पर गुणवत्तापूर्ण आवास, बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधायें मुहैया कराना शामिल है।

Dark Saint Alaick
15-01-2013, 10:09 PM
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की पुण्यतिथि पर विशेष
हारा हुआ नायक, मजबूत स्त्री पात्र हैं शरतचन्द्र की कहानियों का आधार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22992&stc=1&d=1358273375

बांग्ला साहित्य के महान रचनाकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के साहित्य में मुख्य पात्र समाज के उस वंचित वर्ग से जुडे हुए होते थे जिन्हें उनके पहले के साहित्य में कभी इतनी प्रमुखता से नहीं उठाया गया था। आमतौर पर हारा हुआ नायक और मजबूत स्त्री पात्र उनकी कहानियों का आधार हुआ करते थे। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय वैसे तो स्वयं को बंकिमचंद्र चटर्जी और रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य से प्रेरित बताते थे लेकिन उनके साहित्य ने समाज के निचले तबके को पहचान दिलाई और यही नहीं उन्हें उनके इसी दुस्साहस के लिए समाज के रोष का पात्र भी बनना पड़ा। शायद यही वजह रही कि हिन्दी साहित्य के रचनाकार विष्णु प्रभाकर ने उन्हें ‘आवारा मसीहा’ की संज्ञा दी। दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य करने वाले और हिन्दी साहित्य में लेखन के लिए ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ जैसे कई पुरस्कारों से सम्मानित प्रभात रंजन कहते हैं, ‘शरतचंद्र ने अपनी रचनाओं में समाज के निचले तबके को उभारने का काम किया है, सुंदरता की जगह कुरूपता को अधिक प्रमुखता दी और इसी कारण उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक लगती हैं।’ उन्होंने बताया, शरतचंद्र ने ‘पथ के दावेदार’ में अपने म्यामां प्रवास के अनुभव को बताया जो अंग्रेजों को खटक गई और इसी कारण अंग्रेजों ने इस पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया था। शरतचन्द्र की ‘देवदास’ पर तो 12 से अधिक भाषाओं में फिल्में बन चुकी हैं और सभी सफल रही हैं। उनकी ‘चरित्रहीन’ पर बना धारावाहिक भी दूरदर्शन पर सफल रहा। ‘चरित्रहीन’ को जब उन्होंने लिखा था तब उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा था क्योंकि उसमें उस समय की मान्यताओं और परंपराओं को चुनौती दी गयी थी। विष्णु प्रभाकर लिखते हैं, ‘रवींद्रनाथ ने जिस नवयुग का सूत्रपात किया शरतचंद्र ने उसमें माटी की गंध बसाकर उसे घर-घर तक पहुंचा दिया। बिहार के भागलपुर में ननिहाल में शरत का बचपन बिता। उनका वह समय ज्यादातर अपने मामा सुरेंद्र के साथ शरारत करने में बीता। लेकिन शरारती शरत के कोमल मन में एक दार्शनिक नायक भी जीवित था। साहित्य के क्षेत्र में शरतचंद्र देश के ऐसे साहित्यकार रहे जो देशभर में हर भाषाओं में लोकप्रिय रहे।’ विष्णु प्रभाकर की ‘आवारा मसीहा’ को पढने पर शरतचंद्र की लेखन शैली का पता चलता है। फक्कड़ व्यक्तित्व और यायावरी जीवनशैली जहां उनमें व्याप्त ‘आवारगी’ को दिखाती है तो ‘देवदास’ जैसी कृति उनमें व्याप्त रूमानियत को भी दर्शाती है। ‘देवदास’, ‘चरित्रहीन’, ‘बड़ी दीदी’, ‘मंझली दीदी’, ‘पथ के दावेदार’ और ‘श्रीकांत’ जैसी अनगिनत कहानियों और उपन्यासों से उनकी साहित्य की विविधता का तो पता चलता ही है साथ ही इन कहानियों के पात्रों द्वारा वे समाज को चुनौती देते हुए भी दिखते हैं।

Dark Saint Alaick
15-01-2013, 10:59 PM
16 जनवरी को जन्मदिन पर
होमियोपैथी के गहरे जानकार थे ओ पी नैयर,
मरीज बनकर आते थे प्रशंसक

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=22993&stc=1&d=1358276329

अपने सुरीले संगीत की वजह से फिल्म जगत में खास स्थान हासिल करने वाले संगीतकार ओ पी नैयर होमियोपैथी के गहरे जानकार थे और 1990 के दशक में उनके पास मरीज भी आते थे। इनमें कुछ लोग उनके प्रशंसक भी होते थे जो उनसे मिलने के लिए मरीज बन कर आते थे। फिल्म समीक्षक चैताली नोन्हारे ने कहा ‘नैयर मनमौजी थे। एक बार उन्हें होमियोपैथी की धुन सवार हो गई। बस, सीखा और 1990 के दशक में होम्योपैथ के तौर पर लोगों का इलाज भी शुरू कर दिया। उनके पास मरीज आने लगे। कुछ लोग तो उनसे मिलने के लिए मरीज बन कर उनके पास आते थे।’ उन्होंने कहा ‘अक्सर संगीतकार अपने पास धुन तैयार करके रखते हैं। निर्माता उन धुनों पर गीतकार को गीत लिखने के लिए कहता है। लेकिन ओ पी नैयर इसे सही नहीं मानते थे। वह गीत के बोल सुनते थे और उसके अनुसार धुन तैयार करते थे। अगर धुन उन्हें पसंद आ गई तो ठीक, वर्ना उस धुन को वह एक तरफ कर दूसरी धुन तैयार करने में जुट जाते थे।’ सुगम संगीत की कलाकार देवयानी झा ने कहा ‘ओ पी नैयर ने शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण नहीं लिया था लेकिन फिल्म ‘कल्पना’ का राग ललित पर आधारित गीत ‘तू है मेरा प्रेम देवता’ और फिल्म ‘रागिनी’ का राग देश पर आधारित गीत ‘छोटा सा बालमा’ सुन कर नहीं लगता कि वह शास्त्रीय संगीत में दक्ष नहीं थे।’ उन्होंने कहा ‘उस दौर में ज्यादातर संगीतकारों की पसंद लता मंगेशकर थीं। लेकिन ओ पी नैयर ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने उस दौर में गीता दत्त और आशा भोंसले के स्वर में लोकप्रिय गीत दिए।’ देवयानी ने कहा ‘वर्ष 1958 में आई फिल्म ‘हावड़ा ब्रिज’ में ‘मेरा नाम चिन चिन चू’ गीत के लिए ओ पी नैयर ने जैज का प्रयोग किया था। इसके लिए उन्होंने कई दिन मेहनत की। नैयर चाहते थे कि यह गीत गीता दत्त गाएं। उन्होंने इस फिल्म का दूसरा गीत ‘आइये मेहरबां’ आशा से गवाया और नैयर को उनकी आवाज में यह गीत इतना अच्छा लगा कि वह आशा की पीठ थपथपाए बिना नहीं रह सके।’ 16 जनवरी 1926 को लाहौर में जन्मे ओ पी नैयर की संगीत में गहरी दिलचस्पी थी। परिवार को यह पसंद नहीं था लिहाजा उन्होंने घर छोड़ा और वह आकाशवाणी के एक केंद्र से जुड़ गए। उन्होंने तत्कालीन शीर्ष गायक सी एच आत्मा के लिए ‘प्रीतम आन मिलो’ गीत की धुन बनाई। यह गीत बेहद लोकप्रिय हुआ और नैयर भी चर्चित हो गए। लेकिन उसी दौरान देश का विभाजन हुआ और नैयर को अमृतसर आना पड़ा। फिर नयी दिल्ली के आकाशवाणी केंद्र में नौकरी शुरू हुई। तय घंटों की नौकरी रास नहीं आई और नैयर बंबई पहुंंच गए। शुरूआती फिल्में फ्लॉप हुईं और संगीत के सुरों के इस जादूगर ने अमृतसर वापसी का फैसला कर लिया। लेकिन तभी वह गुरूदत्त से मिले जो ‘आर पार’ बनाने की सोच रहे थे। वर्ष 1954 में ओ पी नैयर के संगीत से सजी ‘आर पार’ आई और फिल्म संगीत के आकाश में वह नया नक्षत्र चमका जिसकी रची धुनों पर सातों सुर थिरकते महसूस होते हैं। देवयानी ने कहा ‘उनके संगीत का जादू 1950 के दशक में संगीत प्रेमियों के सिर चढ कर बोलता था। 1990 के दशक में उन्होंने फिल्म ‘जिद’ और ‘निश्चय’ में संगीत दिया और उनका सुरीलापन यथावत था। ’ नैयर ने 28 जनवरी 2007 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

Dark Saint Alaick
15-01-2013, 11:27 PM
16 जनवरी को धार्मिक स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
गंगा जमुनी तहजीब दुनियाभर में मशहूर, मगर गिले शिकवे भी हैं

भारतीय संविधान के अनुसार देश के हरेक व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता का पूरा अधिकार है और यहां की ‘गंगा जमुनी तहजीब’ दुनियाभर के लिये एक मिसाल है । हालांकि अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ प्रतिनिधियों को यह शिकायत जरूर है कि देश में उन्हें समुचित सम्मान और अधिकार नहीं मिल पाए। हालांकि बहुसंख्यक प्रतिनिधि इस शिकायत को बेबुनियाद बताते हैं। रोमन कैथलिक चर्च के प्रवक्ता फादर डोमनिक इमैनुअल ने कहा, ‘भारत में अल्पसंख्यकों विशेषकर ईसाइयों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है । मैं मानता हूं कि भारत में सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है, लेकिन कुछ राज्यों में ऐसे कानून सामने आए हैं, जो देश की धर्मनिरपेक्ष छवि के अनुरूप नहीं हैं।’ ईसाई मिशनरियों पर लगने वाले जबरन धर्म परिवर्तन के आरोपों पर इमैनुअल ने दावा किया, ‘जबरन धर्म परिवर्तन का एक भी मामला अभी तक साबित नहीं हुआ है और हम खुद भी जबरन धर्म परिवर्तन के सख्त खिलाफ हैं । धर्म आस्था का विषय है और इसे जबरन नहीं थोपा जा सकता है।’ इमैनुअल के इस बयान पर विश्व हिंदू परिषद इंद्रप्रस्थ के मीडिया प्रमुख विनोद बंसल ने कहा, ‘ईसाई मिशनरियों की मंशा है कि भारत का बहुसंख्यक हिंदू समाज ईसाई बन जाए । उनके इस लक्ष्य में धार्मिक स्वतंत्रता कानून आड़े आ रहा है, इसीलिये वह इसको रद्द करने की मांग कर रहे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘ईसाई मिशनरी तरह तरह का लालच देकर धर्म परिवर्तन कराते हैं और झारखंड, उड़ीसा, पूर्वोत्तर के राज्य के इसके ज्वलंत उदाहरण हैं । सेवा करना ठीक है लेकिन सेवा के नाम पर धर्म परिवर्तन ठीक नहीं है।’ बंसल ने कहा, ‘उड़ीसा में जनता के बीच बेहद लोकप्रिय स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या कर दी जाती है और इसके पीछे चर्च से जुड़े लोगों का हाथ था। हमारी सरकार से मांग है कि धार्मिक स्वतंत्रता कानून को पूरे भारत में लागू किया जाये ताकि लोभ और लालच पर चल रहे धर्म परिवर्तन के खेल को बंद किया जा सके। ईसाई मिशनरियों को अरबों डालर का चंदा हर साल मिलता है लेकिन यह कहां जाता है, सरकार इसकी जांच नहीं करती है।’ इस्लामी मामलों के जाने माने विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन ने कहा कि समाज में इस्लाम की सही तस्वीर नहीं पेश की जाती है, जबकि हमारा का मानना है कि हर मजहब को पूरा सम्मान दो । उन्होंने बताया कि कुरान में लिखा है कि हरेक व्यक्ति को सभी धर्मों का आदर करना चाहिये। उन्होंने कहा, ‘इस्लाम की नजर से आतंकवादियों या अपराधियों द्वारा हथियार का इस्तेमाल हराम है। हथियार के इस्तेमाल का अधिकार सिर्फ सरकार को है । इस्लाम में केवल अहिंसक कार्यों की अनुमति है और हिंसा के लिये कोई जगह नहीं है । इसी लिये ओसामा बिन लादेन का कृत्य इस्लाम के खिलाफ है।’ उल्लेखनीय है कि अमेरिका में 16 जनवरी के दिन को धार्मिक स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है । इस दिन स्कूलों, घरो और पूजा स्थलों पर कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं । आज ही के दिन वर्ष 1786 में वर्जीनिया धार्मिक स्वतंत्रता कानून पारित किया गया था ।

Dark Saint Alaick
16-01-2013, 02:03 AM
जन्मदिन पर कुछ ख़ास
बहुत कुछ किया जाना बाकी है अभी : अशोक वाजपेयी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=23040&stc=1&d=1358287379

साहित्य एवं कला जीवन की लंबी उम्र तय करने के बाद भी वरिष्ठ कवि एवं आलोचक अशोक वाजपेयी की रचनात्मक यात्रा निरंतर जारी है। बहत्तर साल की उम्र में वह कला और साहित्य की अनेक योजनाओं पर काम करने में संलग्न है। वरिष्ठ कवि एवं आलोचक अशोक वाजपेयी ने कहा, ‘अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कला की सृष्टि में मेरा अवदान समुद्र में बूंद जैसा ही रहा। अभी बहुत कुछ करने की इच्छा है, जैसे बहुत दिनों से कबीर और गालिब पर केन्द्रित एक पुस्तक पर काम करना चाहता हूं।’ उन्होंने बताया, ‘फिलहाल मैं कला से संबंधित दो पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए काम कर रहा हूं। उनमें से एक पत्रिका ललित एवं वास्तु जैसी अमूर्त कलाओं पर केन्द्रित होगी। ‘अरूप’ नाम से आने वाली इस पत्रिका का प्रकाशन फरवरी से आरंभ हो जाएगा। इसका प्रकाशन ‘रजा फाउंडेशन’ की ओर से किया जाएगा। अशोक वाजपेयी ने बताया कि इसके अलावा शास्त्रीय नृत्य, संगीत पर आधारित पत्रिका ‘स्वरमुद्रा’ का प्रकाशन भी फरवरी में ही शुरू हो जाएगा। संगीत कला पर आधारित यह पत्रिका अपने आप में अनूठी होगी। अभी तक संगीत के लिए इस प्रकार की कोई पत्रिका नहीं आती है।’ उल्लेखनीय है कि 16 जनवरी को अपने जीवन के 72 वर्ष पूरा करने वाले कवि आलोचक अशोक वाजपेयी की चार पुस्तकों का लोकार्पण किया जा रहा है। इसमें राजकमल से प्रकाशित कविता संग्रह ‘कहीं कोई दरवाजा नहीं’ भी शामिल है। इसके अलावा एक पुस्तक आंतानियो पोर्किया की कविताओं का अनुवाद ‘हम छाया तक नहीं’ यात्रा बुक्स से एवं संगीत, नृत्य और ललित कलाओं पर टिप्पणियों का संचयन ‘पुनर्भव’ सूर्य प्रकाशन मंदिर और ओम निश्चल द्वारा संपादित अशोक वाजपेयी की प्रेम कविताओं का संचयन ‘आश्चर्य की तरह खुला है संसार’ किताबघर से प्रकाशित हो रही है। समकालीन हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि आलोचक अशोक वाजपेयी का जन्म 16 जनवरी 1941 को मध्य प्रदेश के दुर्ग में हुआ था। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी है, लेकिन वह कवि और कला समीक्षक के रूप में ज्यादा जाने जाते हैं। कविताओं के लिए 1994 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। वह महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रह चुके हैं और वर्तमान में ललित कला अकादमी के अध्यक्ष हैं। भोपाल में भारत भवन की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

Dark Saint Alaick
18-01-2013, 01:13 AM
18 जनवरी को पुण्यतिथि पर
सहगल के गीत से खत्म होता था रेडियो सीलोन का सुबह का कार्यक्रम

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=23195&stc=1&d=1358457186

रेडियो सीलोन का कार्यक्रम ‘पुरानी फिल्मों के गीत’ सुबह साढे सात बजे शुरू होता और आठ बजे कुंदन लाल सहगल की आवाज से सजे किसी गीत से यह अपने अंजाम तक पहुंचता। यह मात्र संयोग नहीं, बल्कि एक परंपरा बन गई थी कि रेडियो सीलोन के कार्यक्रम का आखिरी गाना सहगल का होता और लोग सहगल की आवाज में एक और नगमा सुनने के लिए अगले दिन के कार्यक्रम का इंतजार करते। के एल सहगल की पुण्यतिथि पर उन्हें उनके गीतों के जरिये श्रद्धांजलि देने के लिए समारोह आयोजित करने वाली वीरा चतुर्वेदी ने कहा ‘उन दिनों सहगल के गाने फिल्मों में या रिकॉर्ड प्लेयर पर सुने जा सकते थे। बाद के दशकों में रेडियो स्टेशन शुरू हुए और फिल्मों के लोकप्रिय गाने बजाने लगे। रेडियो सीलोन का कार्यक्रम ‘पुरानी फिल्मों के गीत’ सुबह साढे सात बजे शुरू होता और आठ बजे इसका समापन सहगल के गीत से होता। यह परंपरा बन गई थी कि रेडियो सीलोन के कार्यक्रम का आखिरी गाना सहगल का होता। इसी के साथ शुरू हो जाता अगले दिन के कार्यक्रम का इंतजार।’ फिल्म समीक्षक आर सी ग्वालानी ने कहा ‘ लोगों के साथ साथ कलाकार भी इस कदर सहगल के दीवाने थे कि मुकेश और किशोर कुमार के करियर के शुरूआती दिनों में उनकी गायकी में सहगल शैली साफ झलकती है। बाद में इन गायकों ने अपनी अलग शैली विकसित की। ’ 11 अप्रैल 1904 को तत्कालीन जम्मू राज्य के नवाशहर में जन्मे कुंदनलाल सहगल ने स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद रेलवे में टाइमकीपर का काम शुरू किया। बाद में रेमिंग्टन टाइपराइटर के लिए सेल्समेन बने। इस नौकरी में उन्हें कई जगहों का दौरा करना पड़ता था। वीरा ने बताया कि ऐसे ही एक दौरे में सहगल कलकत्ता गए। यह 1930 के दशक के शुरूआती समय की बात है। वहां उनकी मुलाकात न्यू थिएटर्स फिल्म कंपनी के संगीत निर्देशक राय चंद बोराल से हुई। बोराल ने सहगल की प्रतिभा को पहचाना और अनुबंध पर अपने यहां काम दे दिया। यहीं सहगल पंकज मलिक, के सी डे और पहाड़ी सान्याल से मिले। संगीत की औपचारिक शिक्षा न लेने के बावजूद सहगल की आवाज और सुरों की समझ का तालमेल ऐसा था कि उनके गीत दिल में उतरते थे। अपने जीवनकाल में सहगल ने 185 गीत गाए जिनमें 142 गीत फिल्मी और 43 गैर फिल्मी हैं। फिल्मी गीतों में से 110 हिन्दी, 30 बांग्ला और दो तमिल गीत हैं। सहगल ने 36 फीचर फिल्मों में अपने अभिनय के जौहर दिखाए। इनमें से 28 हिन्दी, सात बांग्ला और एक तमिल फिल्म थी। उनकी पहली फिल्म ‘मोहब्बत के आंसू’ थी। लेकिन 1935 में आई ‘देवदास’ ने सहगल को उस दौर में भारतीय सिनेमा का पहला सुपर स्टार बना दिया। लोग उनके दीवाने हो गए। सिनेमा के इतिहास के शुरूआती दशकों में सहगल के गाए बेहतरीन गीतों ‘जब दिल ही टूट गया’, ‘ए कातिबे तकदीर मुझे इतना बता दे’, ‘इक बंगला बने न्यारा’, ‘आन बसो मोरे मन में’, ‘दुख के अब दिन बीतत नाहीं’, ’बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए’ को अगर हटा दिया जाए तो लगता है जैसे उस समय के फिल्म संगीत का खजाना खाली हो गया। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सहगल की आवाज सुन कर ही उन्हें अपने गीत गाने की अनुमति दी थी। सहगल पहले गैर बांग्ला व्यक्ति थे जिन्हें टैगोर ने अपने गीत गाने की अनुमति दी थी। 11 अप्रैल 1904 को जन्मे सहगल का 18 जनवरी 1947 को निधन हो गया।

rajnish manga
19-01-2013, 10:16 PM
18 जनवरी को पुण्यतिथि पर
सहगल के गीत से खत्म होता था रेडियो सीलोन का सुबह का कार्यक्रम

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=23195&stc=1&d=1358457186

1 अप्रैल 1904 को जन्मे सहगल का 18 जनवरी 1947 को निधन हो गया।
:bravo:

कुंदन लाल सहगल को आपने उनकी पुन्य तिथि 18 जनवरी को याद करते हुए उनके जीवन के कुछ जाने अनजाने पक्षों पर रौशनी डाल कर मुझ जैसे अनगिनत सहगल भक्तों को एक तोहफ़ा भेंट किया है, इसके लिए मैं अपनी ओर से तथा अन्य पाठकों की ओर से आपका आभार प्रकार करता हूँ. अपने समय में सहगल ने अपनी मधुर आवाज़, गायकी, और अभिनय क्षमता के बल पर भारतीय फिल्म उद्योग पर एकछत्र राज्य किया. सन् 1937 में उनकी पहली बंगला फिल्म 'दीदी' रिलीज़ हुई थी जिसके बाद वे बंगाली संभ्रांत वर्ग के भी ह्रदय सम्राट बन गए थे. कहते हैं कि उनका बांग्ला गायन सुन कर गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोरे ने कहा था ‘की शुंदर गला तोमार ... आगे जानले कोतोई ना आनंद पेताम’..”

फिल्म ‘देवदास’ में सहगल के स्वर में एक ठुमरी रेकॉर्ड की गयी ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन’ जो पूर्व में उस्ताद करीम खां द्वारा गाई गयी थी. उस्ताद फ़िल्में देखना पसंद नहीं करते थे. किन्तु अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान वह जिन नवाब साहब के यहाँ ठहरे थे उनके बहुत इसरार करने पर वह ‘देवदास फिल्म देखने के लिए तैयार हो गए. वह बेमन से गए थे लेकिन फिल्म देखते-देखते उनकी आँखें नम हो गई और जब वह गाना आया ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन’ तो सहगल की दर्द भरी आवाज़ में राग झिंझोटी में उक्त ठुमरी सुन कर उनकी आँखों से बेइख्तियार आंसू बहने लगे. पिक्चर की समाप्ति पर उन्होंने इस नौजवान (सहगल) से मिलने की इच्छा व्यक्त की. नवाब साहब ने सहगल को बुलाने की पेशकश की. उस्ताद ने कहा कि नहीं, मैं खुद उसके पास चल कर जाऊंगा. कदाचित यह गौरव किसी फिल्म कलाकार को न मिला होगा कि इतना बड़ा गवैय्या खुद चल कर उसका गाना सुनने जाए. खां साहब ने मिल कर सहगल का गाना सुनने की अपनी ख्वाहिश बतायी. सहगल यह सुन कर मानो ज़मीन में गड़ गए. बोले कि यह आप क्या फरमा रहे है, मैं नाचीज़ तो आपके सामने गाना तो क्या जुबान भी नहीं खोल सकता. खां साहब ने कहा कि नहीं, यह मेरा हुक्म है.

सहगल इसे कैसे टाल सकते थे. उन्होंने उस्ताद के चरणों में सर झुकाया और हारमोनियम ले कर जैसे ही गाना शुरू किया, खां साहब की आँखों से फिर आंसुओं की धार बहने लगी. गाना ख़त्म हो जाने के बाद उस्ताद ने सहगल को गले लगा लिया और भावुक हो कर बोले कि तुम्हारे गाने में वो जादू है जो किसी भी रूह को बैचेन कर देगा.

उनकी गाई ग़ज़ल ‘ए कातिबे तकदीर मुझे इतना बता दे... ‘ (फिल्म: मेरी बहन/ बेनर: न्यू थिएटर्स/ गीत: पंडित भूषन/ संगीत: पंकज मालिक) आज भी ग़ज़ल गायकों के लिए मार्ग दर्शक का स्थान रखती है. इसके अलावा सहगल द्वारा गाई गयी ग़ालिब की दो ग़जलें ‘नुक्ताचीं है ग़मे दिल ... ‘ (फिल्म: यहूदी के लडकी) तथा ‘दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गयी’ (फिल्म: कारवाने हयात) को उन्होंने जिस तर्ज़े बयानी और सोज़ में भीगी हुयी आवाज़ में गाया है कि आज भी सुनने वालों पर अपना जादू कायम रखे हुए हैं.

अंत में फिल्म स्ट्रीट सिंगर का सब से महत्वपूर्ण गीत ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए’ एक पारंपरिक ठुमरी है जिसे उस्ताद फैय्याज़ खां तथा अन्य कई उस्ताद गाया करते थे. किन्तु सहगल ने इसे शुद्ध भैरवी में गा कर सब को आश्चर्यचकित कर दिया. सहगल की मृत्यु के 65 साल बाद भी सहगल की आवाज़ का जादू ज्यों का त्यों बरकरार है. (शरद दत्त जी द्वारा के.एल.सहगल की जीवनी पर आधारित)

aksh
20-01-2013, 04:25 PM
बहुत ही अच्छी जानकारी दी है बन्धु..!!!

Dark Saint Alaick
22-01-2013, 11:23 PM
23 जनवरी को जयंती पर विशेष
कहां गई नेताजी को दान में मिली करोड़ों की धन संपत्ति ?

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=23420&stc=1&d=1358882614

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नायक सुभाष चंद्र बोस के जीवन के बारे में छाया रहस्य 68 साल बाद भी नहीं सुलझ पाया है। इतना ही नहीं आजादी की लड़ाई के लिए विदेशों में बसे भारतीयों से उन्हें दान में मिली करोड़ों रुपए की धन संपत्ति का भी कोई अता पता नहीं है। 23 जनवरी 1897 को जन्मे सुभाष चंद्र बोस के बारे में कहा जाता है कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान की वायुसीमा में कथित विमान हादसे में उनकी मौत हो गई थी, लेकिन इस दावे में भी कई विरोधाभास सामने आए हैं। सुभाष चंद्र बोस के जीवन पर पुस्तक लिखने वाले अनुज धर का कहना है कि सिर्फ नेताजी के बारे में ही नहीं, बल्कि आजादी की लड़ाई के लिए उन्हें विदेशों में रहने वाले भारतीयों से दान में मिली करोड़ों रुपए की संपत्ति का भी कोई पता नहीं है । धर ने अपनी पुस्तक ‘इंडियाज बिगेस्ट कवर अप’ में आरोप लगाया है कि नेताजी की इस धन संपत्ति को देश के कुछ बड़े लोगों ने ‘लूट’ लिया और भारत सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। उन्होंने लिखा है कि तोक्यो में भारतीय मिशन के तत्कालीन प्रमुख और बाद में लंबे समय तक भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे सर बेनेगल रामा राव ने इस बारे में चार दिसंबर 1947 को भारत सरकार को सूचित किया था, लेकिन उन्हें कोई उत्साहजनक उत्तर नहीं मिला । किताब में विदेश मंत्रालय के अति गोपनीय दस्तावेजों का हवाला देकर दावा किया गया है कि संपत्ति मामले को प्रकाश में लाने में एक और मिशन प्रमुख केके चेत्तूर की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी ।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आह्वान पर आजादी की लड़ाई के लिए विदेशों में बसे भारतीयों ने उन्हें करोड़ों रुपए की संपत्ति दान में दी थी । इसमें हीरे जवाहरात, सोना चांदी और नकदी शामिल थी । धर ने कई गोपनीय दस्तावेजों और तस्वीरों के हवाले से दावा किया है कि नेताजी 1985 तक जीवित थे। नेताजी के बारे में बहुत से किस्से कहानियां प्रचलित हैं । कई साधु संतों ने खुद के नेताजी होने का दावा किया, लेकिन सच्चाई कभी साबित नहीं हो पाई। ताइवान सरकार अपना रिकॉर्ड देखकर यह खुलासा कर चुकी है कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान के ऊपर कोई विमान हादसा नहीं हुआ था । नेताजी के बारे में हुई जांचों से भी कोई सच्चाई सामने नहीं आई । ताइवान में कथित विमान हादसे के समय नेताजी के साथ जा रहे कर्नल हबीबुर रहमान ने आजाद हिन्द सरकार के सूचना मंत्री एस ए नैयर, रूसी तथा अमेरिकी जासूसों के समक्ष अलग-अलग बयान दिए । रहमान ने कभी कहा कि उन्होंने नेताजी के जलते हुए कपड़े उनके बदन से उतारे थे तो कभी अपने बारे में कहा कि वह तो खुद इस हवाई दुर्घटना में बेहोश हो गए थे और उन्हें ताइपै के एक अस्पताल में होश आया । कभी उन्होंने नेताजी के अंतिम संस्कार की तारीख 20 अगस्त तो कभी 22 अगस्त 1945 बताई ।
रहस्य से पर्दा उठाने के उद्देश्य से देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा शाहनवाज खान के नेतृत्व में अपे्रल 1956 में बनाई गई जांच समिति ने विमान हादसे की बात को सच बताया था, लेकिन समिति में शामिल रहे नेताजी के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस ने इस रिपोर्ट को मानने से इन्कार कर दिया और आरोप लगाया कि सच्चाई जानबूझकर छिपाई जा रही है । जुलाई 1970 में गठित न्यायमूर्ति जीडी खोसला आयोग ने भी शाहनवाज समिति जैसी ही रिपोर्ट दी । इसके बाद नेताजी के रहस्य के बारे में जांच के लिए तीसरा आयोग 1999 में गठित किया गया । इस मुखर्जी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में नेताजी की विमान हादसे में मौत को पूरी तरह खारिज कर दिया तथा मामले में और जांच की जरूरत बताई। आठ नवम्बर 2005 को भारत सरकार को सौंपी गई मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट 17 मई 2006 को संसद में पेश की गई, लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को मानने से इन्कार कर दिया।

jai_bhardwaj
23-01-2013, 07:44 PM
अब भला किसे याद है नेता जी की जयंती ?? अत्यंत खेदजनक ....

Dark Saint Alaick
23-01-2013, 11:03 PM
जानें जीवन वृत्त
भाजपा में संकट के बीच संकटमोचक बने राजनाथ

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=23542&stc=1&d=1358967782

भाजपा के अध्यक्ष चुने गए राजनाथ सिंह पहले भी विभिन्न संकटों के बीच सरताज बनकर उभरे हैं। ऐसे समय में जब लोकसभा चुनाव बहुत दूर नहीं है और पार्टी गुटबाजी की शिकार है तब राजनाथ सिंह का इस पद पर चुना जाना बहुत मायने रखता है। नितिन गडकरी के बाद भाजपा की बागडोर संभालने वाले 61 वर्षीय सिंह उत्तर प्रदेश से हैं। राजनीतिक हलकों में उन्हें काफी मृदुभाषी और बेलाग बोलने वालों में माना जाता है। इससे पहले भी वह इस भूमिका को अंजाम दे चुके हैं। अब आगे उनके सामने प्रमुख चुनौती है आगामी आम चुनाव। नाटकीय रूप से सिंह के चुने जाने पर एक तरह से भाजपा के भीतर के मतभेद पर विराम लग गया है। गडकरी के दूसरी बार अध्यक्ष चुने जाने को लेकर पार्टी में स्पष्ट तौर पर दरार नजर आ रही थी। दिसंबर 2009 वह समय था जब सिंह के बाद अध्यक्ष पद पर गडकरी आए थे। लेकिन अब 2013 की शुरूआत में, अंतिम समय में हुए जबर्दस्त उलटफेर में गडकरी कल रात भाजपा अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर हो गए और इसके बाद दूसरी बार आम सहमति से राजनाथ सिंह की भाजपा अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी हुई। पार्टी के पास निश्चित तौर पर कुछ विकल्प थे लेकिन सिंह की निर्विवाद और प्रतिद्वंद्वियों के बीच बेहतर छवि ने उनके नाम पर सहमति बनाने में मदद की। राजनाथ सिंह ऐसे समय में पार्टी का दायित्व संभाल रहे है जब ठीक तीन दिन पहले ही कांग्रेस ने अपने ‘युवराज’ राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाया है। अब एक अहम सवाल है कि क्या सिंह भाजपा को कांग्रेस के बरक्स खड़ा कर पाएंगे।
कॉलेज में भौतिकी के व्याख्याता के रूप में अपना करियर शुरू करने वाले राजनाथ सिंह का पार्टी में धीरे-धीरे उदय हुआ। 2006 से 2009 के दौरान भाजपा प्रमुख के तौर पर उन्होंने काफी प्रतिष्ठा हासिल की और दिखा दिया कि चाहे मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी हो या केंद्रीय मंत्री या फिर पार्टी की कमान, वह कुशलता से जिम्मेदारी निभा सकते हैं। सिंह के पार्टी में दोबारा शीर्ष स्थान हासिल करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नजदीकी ने उनकी राह को आसान बना दिया। भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी के बाद 2005 में भाजपा की बागडोर संभालने वाले राजनाथ सिंह ने पार्टी को फिर से एकजुट किया और पार्टी की मूल विचारधारा हिंदुत्व पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में कोई समझौता नहीं होगा। बहरहाल, 2009 में पार्टी को केंद्र में सत्ता में लाने में नाकामी तो मिली ही, साथ ही 2004 की तुलना में पार्टी को 22 सीट भी कम मिली। उत्तरप्रदेश के चंदौली जिले में 10 जुलाई 1951 को जन्मे सिंह ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से भौतिकी में एमएससी की डिग्री हासिल की। 1971 में मिर्जापुर में केबी पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री कॉलेज में व्याख्याता नियुक्त हुए। वर्ष 1964 में 13 वर्ष की अवस्था में ही वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे। व्याख्याता बनने के बाद भी संघ से उनका जुड़ाव बना रहा। कदम दर कदम आगे बढने वाले सिंह ने 1969 में गोरखपुर में भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद :एबीवीपी: में संगठन सचिव से राजनीतिक करियर की शुरूआत की। 1974 में वह जनसंघ के मिर्जापुर ईकाई के सचिव बने। आपातकाल के दौरान सिंह जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल हुए और जेल गए।
पहली बार 1977 में राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश से विधायक बने। 1977 में वह भाजपा के राज्य सचिव बने। 1986 में भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव बनने वाले सिंह 1988 में इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। वर्ष 1988 में ही सिंह उत्तरप्रदेश में विधानपरिषद के सदस्य चुने गए। कल्याण सिंह सरकार के दौरान वह शिक्षा मंत्री बने। उत्तप्रदेश की सियासत में भले ही वह लंबी पारी खेल चुके हो लेकिन संसद में वह पहली बार 1994 में पहुंचे जब उन्हें राज्यसभा टिकट मिला। उपरी सदन में उन्हें भाजपा का मुख्य सचेतक भी बनाया गया। वर्ष 1997 में जब उत्तरप्रदेश राजनीतिक संकट का सामना कर रहा था, एक बार फिर से उन्होंने राज्य पार्टी अध्यक्ष की बागडोर संभाली और इस पद पर 1999 तक रहे। इसके बाद केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार में भूतल परिवहन मंत्री बने। केंद्र और राज्यों के बीच उनका आना जाना लगा रहा। 28 अक्तूबर 2000 को वह राम प्रकाश गुप्ता की जगह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 2002 तक वह राज्य के मुख्यमंत्री रहे। लेकिन तब तक राज्य में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी राज्य में बढत बना चुकी थीं। भाजपा ने बसपा प्रमुख मायावती को उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर समर्थन देने को फैसला किया लेकिन सिंह ने इस कदम पर एतराज जाहिर किया था। इसके बाद एक बार फिर से वह भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बने। किसान परिवार से आने वाले सिंह 2003 में राजग से अजित सिंह के अलग होने के बाद वाजपेयी मंत्रिमंडल में कृषि मंत्री के तौर पर वापसी की। भाजपा में सिंह के आगे बढने की यात्रा जारी रही। 31 दिसंबर 2005 को वह राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। उनके कार्यकाल में पहली बार कर्नाटक में भाजपा सत्ता में आयी।

bindujain
24-01-2013, 05:01 AM
जानें जीवन वृत्त
भाजपा में संकट के बीच संकटमोचक बने राजनाथ

भाजपा के अध्यक्ष चुने गए राजनाथ सिंह पहले भी विभिन्न संकटों के बीच सरताज बनकर उभरे हैं। ऐसे समय में जब लोकसभा चुनाव बहुत दूर नहीं है और पार्टी गुटबाजी की शिकार है तब राजनाथ सिंह का इस पद पर चुना जाना बहुत मायने रखता है। नितिन गडकरी के बाद भाजपा की बागडोर संभालने वाले 61 वर्षीय सिंह उत्तर प्रदेश से हैं। राजनीतिक हलकों में उन्हें काफी मृदुभाषी और बेलाग बोलने वालों में माना जाता है। इससे पहले भी वह इस भूमिका को अंजाम दे चुके हैं। अब आगे उनके सामने प्रमुख चुनौती है आगामी आम चुनाव। नाटकीय रूप से सिंह के चुने जाने पर एक तरह से भाजपा के भीतर के मतभेद पर विराम लग गया है। राजनाथ सिंह ऐसे समय में पार्टी का दायित्व संभाल रहे है जब ठीक तीन दिन पहले ही कांग्रेस ने अपने ‘युवराज’ राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाया है। अब एक अहम सवाल है कि क्या सिंह भाजपा को कांग्रेस के बरक्स खड़ा कर पाएंगे।
भगवान इनको सदवुधदी दे

Dark Saint Alaick
28-01-2013, 12:09 AM
28 जनवरी को जयंती पर
स्वतंत्रता आंदोलन की पहली पीढी के नेता थे लाला लाजपत राय

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24092&stc=1&d=1359317317

महान स्वतंत्रता सेनानी ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय स्वतंत्रता आंदोलन की पहली पीढी के ऐसे नेता थे जो देश की आजादी के लिए शहीद हो गए। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत प्राध्यापक यू पी अरोड़ा कहते हैं कि आर्य समाजी लाला लाजपत राय कांग्रेस के गरम दल के नेताओं में एक थे और साइमन कमीशन के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन के दौरान ब्रिटिश सरकार ने उन पर लाठीचार्ज किया और बाद में वह चल बसे। पंजाब में मोगा जिले के धुदिके गांव में 28 जनवरी, 1865 को जन्मे लाला लाजपत राय ने प्रारंभिक शिक्षा रेवाड़ी में ग्रहण की जहां उनके पिता मुंशी राधाकृष्ण उर्दू के शिक्षक थे। । उन्होंने 1885 में लाहौर के सरकारी कॉलेज से वकालत की डिग्री ली। कॉलेज में ही वह लाला हंसराज और पंडित गुरूदत्त के संपर्क में आए और तीनों घनिष्ठ मित्र बन गए। उनकी मां गुलाब देवी ने उनमें मजबूत नैतिक मूल्य डाला। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक चमन लाल कहते हैं कि लाला लाजपत राय के घर का माहौल बहुत ही अच्छा था और घर में ही उनमें उत्तम जीवन मूल्यों की नींव पड़ गयी थी। लाला लाजपत राय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन प्रमुख हिंदू राष्ट्रवादी सदस्यों में एक थे। वह लाल-बाल-पाल :लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल: के सदस्य थे जो गरम दल कहलाता था। यह गोपाल कृष्ण गोखले के खेमे का विरोधी था। उन्होंने बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन में बढचढकर हिस्सा लिया । सुरेंद्र नाथ बनर्जी, बिपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष के साथ मिलकर बंगाल और देश में स्वदेशी के पक्ष में सघन अभियान चलाया। लालाजी को तीन मई, 1907 को गिरफ्तार कर छह महीने के लिए मंडाले जेल में डाल दिया गया। वह 11 नवंबर, 1907 को रिहा हुए। लालाजी का विश्वास था कि आजादी के पक्ष में विदेशों में भी जनमत तैयार किया जाए। वह अप्रैल, 1914 में ब्रिटेन चले गए। उसी समय प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया और वह स्वदेश लौट नहीं पाए। वह भारत के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए अमेरिका चले गए। वहां उन्होंने ‘इंडियन होम लीग सोसायटी ऑफ़ अमेरिका’ का गठन किया और ब्रिटिश शासन की कटु आलोचना करते हुए ‘यंग इंडिया’ पुस्तक लिखी लेकिन भारत एवं ब्रिटेन में इस पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद ही वह भारत लौट पाए। लौटने के बाद उन्होंने जालियाबाग नरसंहार के खिलाफ पंजाब में प्रदर्शनों की अगुवाई की और असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया। हालांकि चौरी-चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने पर वह महात्मा गांधी से असहमत थे और उन्होंने कांग्रेस इंडिपेंडेंस पार्टी बनाई। वर्ष 1928 में ब्रिटिश सरकार ने संवैधानिक सुधारों पर चर्चा के लिए साइमन कमीशन भारत भेजने का फैसला किया। इस कमीशन में एक भी भारतीय नहीं था । इससे भारतवासी नाराज हो गए। 30 अक्तूबर 1928 में जब यह कमीशन भारत आया तब देशभर में उसके खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हुए। लालाजी ने स्वयं एक विरोध प्रदर्शन की अगुवाई की। ब्रिटिश सरकार ने प्रदर्शन पर भयंकर लाठीचार्ज किया और लालाजी को गहरी चोटें आयी। वह इस चोट से उबर नहीं सके और 17 नवंबर, 1928 को चल बसे। चमन लाल कहते हैं कि उनकी मौत पर क्रांतिकारी दल की कड़ी प्रतिक्रिया हुई और जे पी सांडर्स क्रांतिकारियों के हाथों मारा गया।

Dark Saint Alaick
28-01-2013, 10:52 AM
अतीत पर एक नज़र
भारत के गणतंत्र बनने के साक्षी थे इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24162&stc=1&d=1359355911

देश के पहले गणतंत्र दिवस पर तत्कालीन गवर्नमेंट हाउस (वर्तमान राष्ट्रपति भवन) जगमग रोशनी से गुलजार था, जहां भारत के गणतंत्र के रूप में दुनिया के पटल पर उभरने के साक्षी रहे लोगों में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो शामिल थे। ‘रेमिनिसेंस आॅफ फर्स्ट रिपब्लिक डे’ के अनुसार, 26 जनवरी 1950 को देश के पहले गणतंत्र दिवस पर तत्कालीन गवर्नमेंट हाउस में कई देशों के राजनयिकों और सुकर्णो सहित 500 से अधिक अतिथि थे। इन सब अतिथियों के बीच भारत के गणतंत्र बनने की घोषणा देश के अंतिम गर्वनर जनरल सी राज गोपालाचारी ने करते हुए कहा कि इंडिया जो भारत है, वह सम्प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक गणतंत्र होगा। देश के इतिहास के उस अभूतपूर्व क्षण में स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलायी गई । भारत के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति हीरालाल कानिया ने हिन्दी में शपथ दिलाई। इस मौके पर राजेन्द्र प्रसाद काली अचकन, उजला चूड़ीदार पाजामा और सफेद गांधी टोपी पहने हुए थे। 20वीं शताब्दी के उस ऐतिहासिक क्षण के गवाहों में निवर्तमान गर्वनर जलरल सी राजगोपालाचारी, प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, उपप्रधानमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल, कैबिनेट मंत्री, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, भारत के आॅडिटर जनरल आदि मौजूद थे। उस अवसर पर पंडित नेहरू और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों को पद एवं गोपनीयता की शपथ भी दिलाई गई। लोकसभा के पहले अध्यक्ष जी वी मावलंकर भव्य दरबार हाल में पहली पंक्ति में बैठे हुए थे। दरबार हाल में हर्ष और उल्लास के अविस्मरणीय दृश्य था। देश के विभिन्न क्षेत्रों से बड़ी संख्या में आए लोग राष्ट्रपति भवन परिसर के आसपास एकत्र थे। बाद में हजारों की संख्या में लोगों ने महात्मा गांधी की समाधि ‘राजघाट’ जाकर अपने प्यारे बापू को श्रद्धांजलि आर्पित की। दरबार हाल में पहली बार राष्ट्रीय प्रतीक (चार शेर मुख वाले अशोक स्तम्भ) को उस स्थान पर रखा गया जहां ब्रिटिश वायसराय बैठा करते थे। पहली बार ही वहां सिंहासन के पीछे मुस्कुराते बुद्ध की मूर्ति भी रखी गई थी। प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने सभी उपस्थित लोगों का हाथ जोड़कर अभिवादन किया और हिन्दी एवं अंग्रेजी में संक्षिप्त भाषण दिया। दिल्ली समेत देश के अनेक स्थानों पर देश के प्रथम गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रभात फेरी भी निकाली गई और यह परंपरा आज भी जारी है।

Dark Saint Alaick
29-01-2013, 10:14 PM
विगत की कथा
अहिंसा के पुजारी बापू के मुरीद थे एल्बर्ट आइंस्टीन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24223&stc=1&d=1359483268 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24224&stc=1&d=1359483268

दुनिया को परमाणु क्षमता से रूबरू कराने के बाद इन बमों की विध्वंसक शक्ति का दुरुपयोग होने की आशंका से परेशान एल्बर्ट आइंस्टीन की अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी से मिलने की बहुत तमन्ना थी जो पूरी नहीं हो सकी। अल्बानो मुलर के संकलन के अनुसार, 1931 में बापू को लिखे पत्र में आइंस्टीन ने उनसे मिलने की इच्छा जताई थी। आइंस्टीन ने पत्र में लिखा था कि मैं आपके एक मित्र के मेरे घर में उपस्थित होने का सदुपयोग करते हुए आपको ये पंक्तियां भेज रहा हूं । आपने अपने काम से यह साबित कर दिया है कि ऐसे लोगों के साथ भी अहिंसा के जरिए जीत हासिल की जा सकती है जो हिंसा के मार्ग को खारिज नहीं करते। मैं उम्मीद करता हूं कि आपका उदाहरण देश की सीमाओं में बंधा नहीं रहेगा बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होगा। उन्होंने लिखा कि मैं उम्मीद करता हूं कि एक दिन मैं आपसे मुलाकात कर पाउंगा, ‘कलेक्टेड वर्क्स आॅफ महात्मा गांधी वाल्यूम 54’ के अनुसार महात्मा गांधी ने आइंस्टीन के पत्र का जवाब 18 अक्टूबर 1831 को दिया। उन्होंने लिखा कि सुंदरम के माध्यम से मुझे आपका सुंदर पत्र मिला । मुझे इस बात की संतुष्टि मिली कि जो काम मैं कर रहा हूं वह आपकी दृष्टि में सही है। मैं उम्मीद करता हूं कि भारत में मेरे आश्रम में आपसे मेरी आमने सामने मुलाकात होगी। हालांकि महात्मा गांधी और आइंस्टीन आमने-सामने नहीं मिल सके। आइंस्टीन ने बापू के बारे में लिखा है कि महात्मा गांधी की उपलब्धियां राजनीतिक इतिहास में अद्भुत हैं। उन्होंने देश को दासता से मुक्त कराने के लिए संघर्ष का ऐसा नया मार्ग चुना जो मानवीय और अनोखा है। यह एक ऐसा मार्ग है जो पूरी दुनिया के सभ्य समाज को मानवता के बारे में सोचने को मजबूर करता है। उन्होंने लिखा कि हमें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए कि तकदीर ने हमें अपने समय में एक ऐसा व्यक्ति तोहफे में दिया जो आने वाली पीढ़ियों के लिए पथ प्रदर्शक बनेगा। अपने जीवनकाल में महात्मा गांधी ने करीब 35 हजार पत्र लिखे। इन पत्रों में बापू अपने सहयोगियों, शिष्यों, मित्रों, सम्बंधियों आदि को छद्म नाम से संबोधित करते थे। मसलन, सरोजनी नायडू को बापू ‘माई डियर पीसमेकर, सिंगर एंड गार्डियन आॅफ माई सॉल’, माई डियर फ्लाई आदि से संबोधित करते थे जबकि राजकुमारी अमृत कौर को माई डियर रेबल कहते थे। लियो टॉल्सटाय को बापू ‘सर’ और एडाल्फ हिटलर तथा एलबर्ट आइंस्टीन को ‘माई डियर फ्रेंड’ कहते थे। मोहम्मद अली जिन्ना को ‘डियर कायदे आजम’ और विंस्टन चर्चिल को ‘डियर प्राइम मिनिस्टर’ कहा करते थे।

Dark Saint Alaick
30-01-2013, 02:34 PM
ब्रेल साक्षरता जागरुकता माह पर विशेष
बिंदुओं ने फैलाया अंधेरी दुनिया में उजाला

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24225&stc=1&d=1359542053

पढने के लिए आंखों की जरूरत होती है लेकिन ब्रेल वह लिपि है जो नेत्रहीनों के जीवन में ज्ञान का उजियारा भर सकती है। ब्रेल लिपि में लिखे अक्षर वास्तव में बिंदुओं से बनते हैं और नेत्रहीन व्यक्ति हाथों के स्पर्श से ब्रेल लिपि में लिखे अक्षरों को पहचान कर बिना किसी की मदद के इन्हें पढ सकते हैं। ब्रेल का आविष्कार 1824 में लुइस ब्रेल ने किया था। उसके पहले नेत्रहीन लोगों को अपनी परेशानियों का हल अपने ही तरीकों से निकालना होता था, लेकिन बिंदुओं के उपयोग से बने इस तंत्र के आविष्कार ने उन लोगों की दुनिया में क्रांति ला दी जो लोग आंखों में रोशनी न होने की वजह से देख ही नहीं पाते। नेत्रहीनों और दृष्टिबाधित लोगों के लिए काम करने वाली संस्था ‘दृष्टि’ की संयोजक अनु शर्मा ने बताया ‘नेत्रहीनों के लिए सरकार की ओर से बहुत से दिशानिर्देश जारी किए गए हैं। इन्हीं में से एक दिशानिर्देश सभी सरकारी और निजी कार्यालयों में ब्रेल में काम करने की सुविधा देने का है, लेकिन अब भी बहुत से कार्यालय नेत्रहीनों के लिए पारिवारिक माहौल नहीं देते।’ नेत्रहीनों को ब्रेल की शिक्षा देने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता और ब्रेल प्रशिक्षक आनंद अग्निहोत्री ने कहा, ‘जरूरी नहीं है कि आप नेत्रहीनों की मदद उन्हें ब्रेल का प्रशिक्षण देकर ही करें। इस बात को समझना जरूरी है कि आम जनजीवन में छोटे-छोटे काम करके भी आप उनकी मदद कर सकते हैं। लेकिन अगर ब्रेल की सुविधा में विस्तार हो जाए तो क्या कहने।’ आनंद ने अपने रोजमर्रा के अनुभवों के आधार पर कहा, ‘आम तौर पर नेत्रहीन किसी से मदद लेना पसंद नहीं करते और इतने प्रशिक्षित हो जाते हैं कि अपने दैनिक कार्य खुद कर सकें, लेकिन आप मेट्रो में, बसों में और सड़कों पर उनकी मदद कर सकते हैं। जो देख नहीं सकते, वे भी हमारी तरह ही इंसान हैं और उनके साथ ‘असामान्य’ लोगों की तरह व्यवहार उन्हें तकलीफ देता है।’ उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि गरीब परिवारों में पैदा होने वाले नेत्रहीन बच्चों को शिक्षा-दीक्षा देने के लिए सरकारी स्तर पर और मदद की जरूरत है। साथ ही उन्होंने कहा ‘हमारे देश की साहित्य की परंपरा अत्यंत समृद्ध है। अगर अधिक से अधिक संख्या में किताबें ब्रेल लिपि में उपलब्ध हों तो ज्ञान का उजियारा अंधकार भरे जीवन को रौशन कर देगा।’ अनु के मुताबिक, ‘देखने में आता है कि कार्यालयों में न तो नेत्रहीनों को उचित सुविधाएं मिलती हैं और न ही कोई उनकी मदद के लिए आगे आता है। स्वाभिमान से जीने के इच्छुक नेत्रहीनों को कार्यालयों के चक्कर लगवाना किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं है। ऐसे में समाज में जागरुकता लाकर ही परिवर्तन लाया जा सकता है।’ ब्रेल का आविष्कार करने वाले लुइस ब्रेल का जन्म जनवरी में हुआ था, इसके चलते जनवरी को ‘ब्रेल साक्षरता जागरुकता माह’ के रूप में मनाया जाता है।

Dark Saint Alaick
31-01-2013, 06:02 PM
एक फरवरी को जन्मदिन पर
फिल्मों में काम नहीं करना चाहते थे हंगल

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24249&stc=1&d=1359640927

लगभग 200 फिल्मों में पिता, चाचा, दादा, नाना, प्रताड़ित बुजुर्ग या नौकर की भूमिकाएं निभाने वाले कलाकार ए के हंगल फिल्मों में काम करने के इच्छुक नहीं थे और रंगमंच उनका शौक था। लेकिन ऐसे हालात बने कि उन्होंने फिल्मों में काम शुरू कर दिया। फिल्म समीक्षक चैताली नोन्हारे ने बताया ‘हालांकि हंगल किसी भी फिल्म में मुख्य भूमिका में नहीं रहे लेकिन चरित्र अभिनेता के तौर पर उन्होंने सशक्त उपस्थिति दशाई। हर तरह की भूमिकाओं में अपनी छाप छोड़ने वाले हंगल फिल्म ‘शोले’ के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। इसमें नेत्रहीन रहीम चाचा बने हंगल की कांपती आवाज में बोले गए शब्द ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई’ आज भी लोगों को याद हैं।’ फिल्म समीक्षक आर सी ग्वालानी ने बताया ‘हंगल को फिल्म का पहला प्रस्ताव जब मिला तब वह 40 बरस के हो चुके थे। निर्देशक बासु भट्टाचार्य ने 1966 में राज कपूर की ‘तीसरी कसम’ के लिए हंगल को प्रस्ताव भेजा। आर्थिक समस्या से जूझ रहे हंगल ने हां कर दी। लेकिन जब फिल्म बनी तो उनके ही दृश्य पर कैंची चल चुकी थी।’ अपनी आत्मकथा ‘द लाइफ एंड टाइम आॅफ ए के हंगल’ में हंगल ने लिखा है ‘फिल्मों में करियर को लेकर मैं कभी महत्वाकांक्षी नहीं था। मैं तो रंगमंच में ही खुश था। हालात मुझे फिल्मों में ले गए। पर मैं इससे नाखुश भी नहीं रहा। शो बिजनेस में मुझे अलग माहौल मिला, मैं सबसे घुलमिल गया लेकिन दिल के किसी कोने में बाहरी होने का अहसास बना रहा।’ एक फरवरी 1917 को पेशावर में एक कश्मीरी पंडित परिवार में जन्मे अवतार किशन हंगल शुरू में दर्जी का काम करते थे। उन दिनों वह कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे और यूनियन की गतिविधियों में भाग लेने के कारण गिरफ्तार भी किए गए थे। पेशावर की जेल में दो साल बिता चुके हंगल देश विभाजन के बाद 1949 में बंबई आ गए। तब उम्र थी 21 बरस और जेब में थे 20 रूपये। वह ‘इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन’ से जुड़ गए और बलराज साहनी तथा कैफी आजमी जैसे कलाकारों के साथ नाटकों में काम करने लगे। लगभग 200 फिल्मों में काम कर चुके हंगल ने ज्यादातर भूमिकाएं पिता, चाचा, दादा, नाना, प्रताड़ित बुजुर्ग या नौकर की निभाई। इस छवि से उन्हें कभी छुटकारा नहीं मिल सका लेकिन वह इस छवि को साफसुथरी बनाए रखने के लिए हमेशा प्रयासरत रहे। शोले, शौकीन, नमक हराम, आइना, अवतार, अर्जुन, आंधी, कोरा कागज, बावर्ची, चितचोर, गुड्डी, अभिमान, अनामिका, परिचय, आपकी कसम, अमरदीप, नौकरी, थोड़ी सी बेवफाई, फिर वही रात, तेरे मेरे सपने, लगान जैसी फिल्मों को अपने अभिनय से सजाने वाले हंगल की आखिरी फिल्म शाहरूख खान अभिनीत पहेली थी जो 2005 में बनी थी। हिन्दी सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 2006 में हंगल को भारत सरकार ने पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया। जीवन के आखिरी दिनों में गंभीर रूप से बीमार पड़े हंगल को घोर आर्थिक संकट का भी सामना करना पड़ा। उनके इलाज के लिए उनके बेटे को लोगों से मदद की अपील करनी पड़ी। हंगल ने 26 अगस्त 2012 को आखिरी सांस ली।

Dark Saint Alaick
03-02-2013, 11:43 PM
जन्मदिन पर विशेष
'कथक' के ‘महाराज’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24598&stc=1&d=1359920557

(एक ऐतिहासिक चित्र : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से पुरस्कार ग्रहण करते बिरजू महाराज।)
ताल की थापों और घुंघुरूओं की रूंझन को महारास के माधुर्य में तब्दील करने की बात हो तो बिरजू महाराज के अतिरिक्त और कोई नाम ध्यान में नहीं आता। वह भारतीय नृत्य की ‘कथक’ शैली के आचार्य और लखनऊ के ‘कालका-बिंदादीन’ घराने के मुख्य प्रतिनिधि हैं। उनका सारा जीवन ही इस कला को क्लासिक की ऊंचाइयों तक ले जाने में ही व्यतीत हुआ है। उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ (1986) और ‘कालीदास सम्मान’ समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
बिरजू महाराज का जन्म 4 फरवरी, 1938 को लखनऊ (उत्तर प्रदेश) के ‘कालका बिन्दादीन घराने’ में हुआ था। पहले उनका नाम ‘दुखहरण’ रखा गया था जो बाद में बदल कर ‘बृजमोहन नाथ मिश्रा’ हुआ। उनके पिता जगन्नाथ महाराज ‘लखनऊ घराने’ से थे और अच्छन महाराज के नाम से जाने जाते थे। महज तीन साल की उम्र में उनकी प्रतिभा को देखते हुए पिता ने बचपन से ही यशस्वी पुत्र बिरजू महाराज को कला दीक्षा देनी शुरू कर दी। किंतु नौ साल में सिर से पिता का साया उठ जाने के बाद उनके चाचाओं, सुप्रसिद्ध आचार्यों शंभू और लच्छू महाराज ने उन्हें प्रशिक्षित किया।
विरासत : भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा कथक नृत्य बिरजू महाराज को विरासत में मिला। उनके पूर्वज ईश्वरी प्रसाद मिश्र इलाहाबाद के हंडिया तहसील के रहने वाले थे और उन्हें कथक के पहले ज्ञात शिक्षक के रूप में जाना जाता है। इसी खानदान के ठाकुर प्रसाद नवाब वाजिद अलीशाह के कत्थक गुरू थे। कथक नृत्य के मामले में आज के समय में बिरजू महाराज का कोई सानी नहीं है। पिता अच्छन महाराज के साथ महज सात साल की उम्र में ही वह देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर अपनी प्रस्तुति देने लगे थे, लेकिन उनकी पहली एकल प्रस्तुति रही बंगाल में आयोजित ‘मन्मथनाथ गुप्त समारोह’ में जहां उन्होंने ‘शास्त्रीय नृत्य’ के दिग्गजों के समक्ष अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन किया था। तभी उनकी प्रतिभा की झलक लोगों को मिल गई थी और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
हिंदी फिल्मों से नाता : उनका बालीवुड से भी गहरा नाता रहा है। उन्होंने कई हिन्दी फिल्मों के नृत्य निर्देशन किया। इनमें प्रख्यात फिल्मकार सत्यजीत राय की शास्त्रीय कृति ‘शतरंज के खिलाड़ी’ भी शामिल है। इस फिल्म में उन्होंने दो शास्त्रीय नृत्य उद्देश्यों के लिए संगीत रचा और गायन भी किया। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा की ‘दिल तो पागल है’, ‘गदर एक प्रेम कथा’ तथा संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘देवदास’ का नाम भी इनमें प्रमुखता से लिया जा सकता है।
शास्त्रीय गायक व वादक : केवल नृत्य के क्षेत्र में ही बिरजू महाराज सिद्धहस्त नहीं हैं, बल्कि ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ पर भी उनकी गहरी पकड़ है। ठुमरी, दादरा, भजन और गजल गायकी में उनका कोई जवाब नहीं है। वह कई वाद्य यंत्र भी बखूबी बजाते हैं। तबले पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ है। इसके अतिरिक्त वह सितार, सरोद और सारंगी भी अच्छी प्रकार से बजा सकते हैं। खास बात यह है कि उन्होंने इन वाद्य यंत्रों को बजाने की विधिवत शिक्षा नहीं ली है। एक संवेदनशील कवि और चित्रकार के रूप में भी उन्हें जाना जाता है।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 01:02 AM
पंडित मोतीलाल नेहरू की पुण्यतिथि पर
प्रतिबद्धता और आदर्श की प्रतिमूर्ति

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24634&stc=1&d=1360098139

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के पिता और देश के एक अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी पंडित मोतीलाल नेहरू को उनकी सादगी और समय के साथ चलने की प्रवृत्ति के लिए याद किया जाता है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में मोतीलाल नेहरू एक ऐसे व्यक्तिथे जिन्होंने न केवल अपनी जिंदगी के सभी सुखों को देश के लिए भुला दिया बल्कि अपने परिवार को भी देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। पश्चिमी सभ्यता और रहन-सहन से प्रभावित मोतीलाल नेहरू ने अपने जीवन में सादगी को ही अधिक प्राथमिकता दी। महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने के बाद मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस के साथ काम करना शुरू किया और धीरे-धीरे देश की माटी के रंग मे रंगते चले गए। मोतीलाल नेहरू के जीवन में महात्मा गांधी ने बहुत असर छोड़ा था। यहां तक कि वह देश के बड़े वकील होने के बाद भी वह गरीबों की मदद के लिए कभी पीछे नहीं रहते थे। दिल्ली में कश्मीरी ब्राह्मण के घर 6 मई, 1861 को जन्मे मोतीलाल नेहरू का बचपन ठिकाना खेतड़ी एस्टेट में बीता, जहां उनके बड़े भाई नंदलाल दीवान रहा करते थे। बाद में उनका परिवार आगरा तथा फिर इलाहाबाद आ गया। कानपुर से मैट्रिकुलेशन करने के बाद मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद के मुईर सेंट्रल कॉलेज में पढ़ाई की। बाद में उन्होंने कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय से ‘बार एट लॉ’ किया। अप्रेल, 1887 में भाई नंदलाल के निधन के बाद पूरे परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ गई। वह वकालत में आगे बढ़ते गए। वर्ष 1900 में वह पूरे परिवार को इलाहाबाद की सिविल लाइंस में ले आए और आनंद भवन में रहने लगे। वर्ष 1909 तक वे वकालत में खुद को साबित कर चुके थे। यहां तक कि इसी साल उन्हें प्रिव्ही काउंसिल आॅफ ग्रेट ब्रिटेन में पेश होने के लिए बुलाया गया था। मोतीलाल नेहरू की शादी स्वरूप रानी से हुई थी। देश की आजादी में विशेष सहयोग देने वाले मोतीलाल नेहरू का निधन 6 फरवरी,1931 को लखनऊ में हुआ था। मोतीलाल नेहरू पश्चिमी सभ्यता से बहुत प्रभावित थे। जिस समय सिर्फ कोलकाता और दिल्ली जैसे महानगरों के लोगों ने पश्चिमी फैशन को नया-नया पसंद किया था उस समय मोतीलाल नेहरू ने कानपुर जैसे छोटे शहर में नए फैशन को अपनाकर एक तरह की क्रांति पैदा कर दी थी। अपने कालेज जीवन में ही मोतीलाल नेहरू पश्चिमी सभ्यता से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपने आपको पूरी तरह उसी ढ़ांचे में ढाल लिया था। उस जमाने में कलकत्ता और बम्बई जैसे बड़े-बड़े नगरों मे ही लोगों ने पाश्चात्य वेश-भूषा, रहन-सहन और सभ्यता को अपनाया था, लेकिन मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद जैसे छोटे-से शहर में पाश्चात्य वेश-भूषा और सभ्यता को अपनाकर एक नई क्रान्ति को जन्म दिया। इसके अलावा भारत में जब पहली बाइसिकल आई तो मोतीलाल नेहरू ही इलाहाबाद के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बाइसिकल खरीदी थी। मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद में बनवाए गए आनंद भवन में हर सुबह मरीजों का इलाज करते थे। उनके मरीजों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि उनको एक युवा होम्योपैथ को इस काम पर लगाना पड़ा। हालांकि जटिल मरीजों को वे खुद ही देखते थे और मरीज यदि ठीक नहीं हो रहा होता तो रात में बैठकर पुस्तकों से उसके बारे में अध्ययन करते थे। मोतीलाल 1910 में संयुक्त प्रांत वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए। अमृतसर में वर्ष 1919 के जलियांवाला बाग गोलीकांड के बाद उन्होंने महात्मा गांधी के आग्रह पर वकालत छोड़ दी और वह वर्ष 1919 -1920 में दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास के साथ मिलकर वर्ष 1923 में ‘स्वराज पार्टी ’ का गठन किया। इस पार्टी के जरिए वह सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली पहुंचे और बाद में वह विपक्ष के नेता बने। असेम्बली में मोतीलाल ने अपने कानूनी ज्ञान के कारण सरकार के कई कानूनों की जमकर आलोचना की। मोतीलाल नेहरू ने आजादी के आंदोलन में भारतीय लोगों के पक्ष को सामने रखने के लिए ‘इंडिपेंडेट अखबार’ भी चलाया। अपने बच्चों और देश के विकास के लिए मोतीलाल नेहरू ने हमेशा से शिक्षा पर जोर दिया। अपने बच्चों को किसी तरह की कमी ना हो इस बात का उन्होंने पूरा ख्याल रखा। उनके ही अच्छे संस्कारों का नतीजा था जो उनके बड़े बेटे पंडित जवाहरलाल नेहरू आगे चलकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने। भारतीय राजनीति में राजनीतिक विरासत पुत्र या परिवार को सौंपने की पहली नजीर भी मोतीलाल के समय सामने आई, जब उन्होंने वर्ष 1930 के दशक में कांग्रेस की अध्यक्षता पुत्र जवाहर को सौंपी। मोतीलाल नेहरू की अंत्येष्टि क्रिया पर महात्मा गांधी ने उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि मोतीलाल नेहरू एक महान राष्ट्र सेनानी थे। उन्होंने देश के लिए तो अनेक लड़ाईयां लड़ी थीं। साथ ही उन्होंने यमराज के साथ भी कड़ा संघर्ष किया। कल ही मैंने मोतीलाल से कहा था कि जैसे ही आप स्वस्थ हो जाएंगे, मैं आपको स्वराज दिला दूंगा। जलियावाला बाग हत्याकांड के बाद सुबूत की तलाश में मोती लाल नेहरू अमृतसर आए और पीड़ितों से मिले। मगर सुबूत जुटाने के काम में ब्रिटिश सरकार ने कई रोड़े अटकाए, जिसके बाद उन्होंने अपनी आंखों पर चढ़ा अंग्रेजी न्याय का चश्मा उतार फेंका। इस दौरे में उन्होंने पीड़ित परिवारों को आर्थिक सहायता भी दी। केस के लिए वह एक साल तक पंजाब आते रहे और इस दौर ने उनकी जिंदगी की दिशा बदल दी। रोलेट एक्ट और मार्शल लॉ की ज्यादतियों के बाद बनी लॉर्ड हंटर कमेटी की मई 1920 में रिपोर्ट आई, जिसने नेहरू का अंग्रेजों पर विश्वास पूरी तरह तोड़ दिया।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 11:22 PM
संत रविदास जयंती
समाज को समर्पित रहे संत ‘रविदास’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24668&stc=1&d=1360178411

भारत संतों की भूमि है। यहां समय-समय पर संतों और ज्ञानियों ने अपने ज्ञान से समाज में विकास की रफ्तार को मजबूत किया और एकता का प्रचार किया है। लेकिन संत बनना भी कोई आसान काम नहीं। इच्छाओं का अंत हो जाने पर ही मनुष्य संत की श्रेणी में आ सकता है। मीरा हों या कबीर सभी ने अपनी इच्छाओं को दरकिनार कर प्रभु भक्ति और समाज सेवा की वजह से ही इतनी अधिक प्रसिद्धी पाई। संत समाज के इसी भाव और भक्ति को और ऊंचे स्तर तक ले जाने का काम किया संत रविदास ने। संत रविदास ने साबित किया है कि भगवान की भक्ति के लिए आपको किसी ऊंची जाति या पंडित होने की जरूरत नहीं। भक्ति किसी जाति और नस्ल को नहीं देखती।
जीवन परिचय : भारत की मध्ययुगीन संत परंपरा में रविदास या कहें रैदास जी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। उनका जन्म वाराणसी के पास एक गांव में सन 1398 में माघ पूणिर्मा के दिन हुआ था रविवार के दिन जन्म होने के कारण इनका नाम रविदास रखा गया था। इनके पिता का नाम ‘रग्घु’ और माता का नाम ‘घुरविनिया’ बताया जाता है। चर्मकार का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया। अपने कार्य को वह बहुत लगन और मेहनत से किया करते थे उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण लोग इनसे बहुत प्रसन्न रहते थे। यद्यपि संत रविदास का जन्म तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के हिसाब से निम्न वर्ग में हुआ था, लेकिन उन्होंने अपनी प्रज्ञा से समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त किया था।
बचपन से साधु प्रवृति : बचपन से ही रविदास साधु प्रकृति के थे और यह संतों की बड़ी सेवा करते थे। इस कारण इनके पिता रघु इन पर अक्सर नाराज हो जाते थे। इनकी संत-सेवा में सब कुछ अर्पित कर देने की प्रवृत्ति से क्रुद्ध होकर इनके पिता ने इन्हें घर से बाहर कर दिया और खर्च के लिए एक पैसा भी नहीं दिया। फिर भी रविदास साधुसेवी बने रहे। यह बड़े अलमस्त-फक्कड़ थे और संसार के विषयों के प्रति इनमें जरा भी आसक्तिनहीं थी। यह अपनी गृहस्थी जूता-चप्पल बनाकर अत्यंत परिश्रम के साथ चलाते थे और उनकी पत्नी भी सती-साध्वी थी।
भक्त, साधक व कवि : रविदास भक्त,साधक और कवि थे उनके पदों में प्रभु भक्ति भावना, ध्यान साधना तथा आत्म निवेदन की भावना प्रमुख रूप में देखी जा सकती थ्ी। वह प्रकृति के होने के अलावा समाज के लिए भी बेहद सतर्क रहते थे उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्हें भक्ति के मार्ग को अपनाया और सत्संग द्वारा अपने विचारों को जनता के मध्य पहुंचाया तथा अपने ज्ञान तथा उच्च विचारों से समाज को लाभान्वित किया करते थे। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भूत प्रयोग था, जिसका मानव धर्म और समाज पर अमिट प्रभाव पड़ता है। संत रविदास की भक्ति से प्रभावित भक्तों की एक लम्बी श्रृंखला है। उनके आदर्शों और उपदेशों को मानने वाले ‘रैदास पंथी’ कहलाते हैं कि मन चंगा तो कठौती में गंगा यह उनकी पंक्तियां मनुष्य को बहुत कुछ सीखने का अवसर प्रदान करती है। ‘रविदास के पद’, ‘नारद भक्ति सूत्र’ और ‘रविदास की बानी’ उनके प्रमुख संग्रह हैं।

Dark Saint Alaick
08-02-2013, 07:53 PM
जन्मतिथि पर विशेष
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते...

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24679&stc=1&d=1360338790

गजलों की दुनिया के बादशाह और अपनी मखमली आवाज से लाखों-करोड़ों सुनने वालों के दिलों पर राज करने वाले जगजीत सिंह प्रसिद्ध गजल गायक थे। जिसकी आवाज ने गजलों को नजाकत बख्शी, जिसने आत्मा के सोए तारों में रागिनियां थिरका दीं। हिंदी, उर्दू, पंजाबी, भोजपुरी सहित कई जुबानों में गाने वाले जगजीत सिंह को साल 2003 में पद्मभूषण से नवाजा गया था। जगजीत जी का जन्म 8 फरवरी, 1941 को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। उनके पिता संगीतकार बनने में असफल रहे, अत: अपने पुत्र के माध्यम से अपने सपने को साकार करना चाहते थे। लिहाजा वह जगजीत को संगीत गुरुओं के पास ले गए और सेन बंधुओं की शिक्षा उन्हें लम्बे समय तक मिली। जालंधर के कॉलेज में पढ़ते हुए उनके गायन के कई लोग कायल हुए और वह मुम्बई आए।
जीवन में संघर्ष : जगजीत सिंह मुंबई में पेइंग गेस्ट के तौर पर रहा करते थे और विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाकर या शादी-समारोह वगैरह में गाकर रोजी का जुगाड़ करते रहे। यही से उनके संघर्ष का दौर शुरू हुआ। इसके बाद फिल्मों में कुछ हिट संगीत दिए तो कुछ प्रयास बुरी तरह नाकामयाब रहे। 1981 में रमन कुमार निर्देशित ‘प्रेमगीत’ और 1982 में महेश भट्ट निर्देशित ‘अर्थ’ को भला कौन भूल सकता है। ‘अर्थ’ में जगजीत ने ही संगीत दिया था। फिल्म का हर गाना लोगों की जुबान पर चढ़ गया था। कुछ साल पहले डिंपल कापड़िया और विनोद खन्ना अभिनीत फिल्म ‘लीला’ का संगीत औसत दर्जे का रहा। इसके बाद फिल्मों में हिट संगीत देने के सारे प्रयास बुरी तरह नाकामयाब रहे। 1994 में खुदाई, 1989 में बिल्लू बादशाह, 1989 में क ानून की आवाज, 1987 में राही, 1986 में ज्वाला, 1986 में लौंग दा लश्कारा, 1984 में रावण और 1982 में सितम के न गीत चले और न ही फिल्में। ये सारी फिल्में उन दिनों औसत से कम दर्जे की फिल्में मानी गई। हालांकि उन्होंने बतौर कम्पोजर बहुत पापड़ बेले लेकिन वह अच्छे फिल्मी गाने रचने में असफल ही रहे। इसके उलट पाश्वर्गायक जगजीत अपने सुनने वालों को सदा जमते रहे हैं। उनकी मखमली आवाज दिल की गहराइयों में ऐसे उतरती रही मानो गाने और सुनने वाले दोनों के दिल एक हो गए हों।
कुछ हिट फिल्मी गीत ये रहे : ‘प्रेमगीत’ का ‘होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो’ ‘खलनायक’ का ‘ओ मां तुझे सलाम’ ‘दुश्मन’ का ‘चिट्ठी ना कोई संदेश’ ‘जॉगर्स पार्क’ का ‘बड़ी नाजुक है ये मंजिल’ ‘साथ-साथ’ का ‘ये तेरा घर, ये मेरा घर’ और ‘प्यार मुझसे जो किया तुमने’ ‘सरफ रोश’ का ‘होशवालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है’ ‘ट्रैफिक सिगनल’ का ‘हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते’ (फिल्मी वर्जन) ‘तुम बिन’ का ‘कोई फ रयाद तेरे दिल में दबी हो जैसे’ ‘वीर जारा’ का ‘तुम पास आ रहे हो’ (लता के साथ) ‘तरक ीब’ का ‘मेरी आंखों ने चुना है तुझको दुनिया देखकर’ (अलका याज्ञनिक के साथ)।

Dark Saint Alaick
08-02-2013, 07:57 PM
जन्मतिथि पर विशेष
आशावादी व्यक्तित्व के धनी ‘हुसैन’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24680&stc=1&d=1360339062

देश के तीसरे राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन एक व्यावहारिक और आशावादी व्यक्तित्व के इंसान थे। इसके अलावा शुरू से ही शिक्षा के प्रति उनका रुझान था। साधारण वेशभूषा, सरल स्वभाव एवं सात्विक आचरण के कारण वह विद्यार्थी जीवन में ‘मुर्शिद’ के नाम से विख्यात हुए। हुसैन देश की शिक्षा प्रणाली को रोजगार से जोड़ने के पैरोकार थे। डॉ. जाकिर हुसैन का जन्म 8 फरवरी, 1897 को हैदराबाद के सम्पन्न पठान परिवार में हुआ था। उनके पिता वकील थे। जब जाकिर मात्र नौ वर्ष के थे, तब उनके पिता का संरक्षण उनसे सदा के लिए छिन गया। इस घटना के बाद उनका पूरा परिवार कायमगंज लौट आया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा इटावा के इस्लामिया हाई स्कूल में हुई। इन्होंने अलीगढ़ के एम.ए.ओ. कालेज से अर्थशास्त्र की स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर बर्लिन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में ही डाक्टरेट किया। अध्ययनकाल में उनकी गणना सदैव सुयोग्य एवं शिष्ट छात्रों में की जाती थी। अपनी साधारण वेशभूषा, सरल स्वभाव एवं सात्विक आचरण के कारण ये विद्यार्थी जीवन में ‘मुर्शिद’ के नाम से विख्यात हुए। तीन मई,1969 को हृदय की गति बंद हो जाने से इनका असामयिक निधन हो गया। वह देश के ऐसे पहले राष्ट्रपति थे जिनका कार्यालय में निधन हुआ।
जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना : वर्ष1920 में जब जाकिर एम.ए.ओ. कालेज में एम.ए. के छात्र थे तभी महात्मा गांधी अली बंधुओं के साथ अलीगढ़ आए। उन्होंने कालेज के छात्रों एवं अध्यापकों के समक्ष देशभक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत ओजस्वी भाषण किया। बापू ने अंग्रेज सरकार द्वारा संचालित अथवा नियंत्रित शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार कर राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने के लिए छात्रों एवं अध्यापकों का आहृवान किया। यहीं पर गांधी के भाषण का जाकिर पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा और उसी वक्त उन्होंने कालेज त्याग दिया। उन्होंने कतिपय छात्रों एवं अध्यापकों के सहयोग से एक राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान की स्थापना की जो बाद में ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ के नाम से विख्यात हुआ। उन्होंने इस संस्था का पोषण 40 वर्षों तक किया।
अध्यापन : हुसैन उच्च अध्ययन हेतु बर्लिन चले गए। वहां पर उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी. की उपाधि प्राप्त की करने के बाद देश की सेवा करने के लिए अपने देश लौट आए। वे जामिया मिलिया के वाइस चांसलर बनाए गए। 29 वर्ष की अल्पायु में इतने गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होना इनके व्यक्तित्व की अहमीयता का द्योतक है। उस्मानिया विश्वविद्यालय के 600 रुपए मासिक के आमंत्रण को अस्वीकार कर पावन कर्तव्य की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने जामिया मिलिया में केवल 75 रुपए मासिक वेतन पर अध्यापन किया। विषम आर्थिक स्थितियों में भी वह निराश नहीं हुए एवं संस्था की अस्तित्व रक्षा के लिए सतत संघर्ष करते रहे। जामिया मिलिया उनके त्यागमय जीवन की महान पूंजी और उनकी 22 वर्षों की मौन साधना और घोर तपस्या का ज्वलंत उदाहरण है। वह देश की अनेक शिक्षण समितियों से सम्बद्ध रहे। हुसैन महात्मा गांधी द्वारा विकसित की गई बुनियादी शिक्षा अभियान के सूत्रधार थे। यहां तक कि हुसैन हिंदुस्तानी तालीमी संघ, सेवाग्राम, विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग आदि अनेक शिक्षण समितियों के सदस्य तथा सभापति भी रह चुके थे। वर्ष 1937 में जब प्रांतों को कुछ सीमा तक स्वायत्तता मिली और महात्मा गांधी ने जनप्रिय प्रांतीय सरकारों से बुनियादी शिक्षा के प्रसार पर बल देने का अनुरोध किया तब गांधी के आमंत्रण पर हुसैन ने बुनियादी शिक्षा सम्बंधी राष्ट्रीय समिति की अध्यक्षता स्वीकार की। देश के विभाजन के बाद तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के अनुरोध पर उन्होंने अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का कार्यभार संभाला। उस समय विश्वविद्यालय पृथक्तावादी मुसलमानों के षड्यंत्र का केंद्र था। ऐसी स्थिति में उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन का गम्भीर उत्तरदायित्व ग्रहण किया और आठ वर्षों तक कुशलतापूर्वक उसका निर्वाह किया। इसके अलावा उन्होंने कई बार यूनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया।
राजनैतिक सफर : डॉ. हुसैन के कार्यों को देखते हुए वर्ष 1952 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किए गए। वर्ष 1957 में वह बिहार के राज्यपाल नियुक्त होने के बाद वह वर्ष 1962 में भारत के उपराष्ट्रपति पद पर निर्वाचित हुए। राज्यसभा के अध्यक्ष पद पर भी उन्होंने जिस निष्पक्षता और योग्यता का परिचय दिया वह इनके उत्तराधिकारियों के लिए अनुकरणीय थी। वर्ष1967 में डा. हुसैन भारत के तृतीय राष्ट्रपति के रूप में चुने गए। अपने कार्यकाल की अल्प अवधि में उन्होंने अपने पद की गरिमा बढ़ाई।
लेखक भी रहे हुसैन : जाकिर हुसैन जितने अच्छे इंसान और नेता थे उतने ही सफल लेखक भी थे। इनकी कृतियों में एक ओर ज्ञान विज्ञान की गुरु गंभीर धारा प्रवाहित होती है वहीं दूसरी ओर ‘अबू की बकरी’ जैसी लोकप्रिय बालोपयोगी रचनाओं की प्रचुरता है। उन्होंने प्लेटो द्वारा रचित पुस्तक ‘रिपब्लिक’ का उर्दू में अनुवाद किया। शिक्षा से सम्बंधित अनेक ग्रंथों एवं कहानियों के अतिरिक्त हुसैन ने अर्थशास्त्र पर भी एक ग्रंथ की रचना की। ‘एलिमेंट्स आव एकानामिक्स’ तथा अर्थशास्त्र की अनेक महत्वपूर्ण कृतियों का उर्दू में अनुवाद किया। सुंदर हस्तलिपि में अपनी प्रगाढ़ रुचि का उपयोग उन्होंने गालिब की कविताओं के अत्यंत मनोहर प्रकाशन में किया। वह उर्दू के शीर्षस्य संस्मरणलेखक भी थे।
अनुशासनप्रिय व्यक्तित्त्व के धनी : डॉ. हुसैन बेहद अनुशासनप्रिय व्यक्तित्त्व के धनी थे। वह चाहते थे कि जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र अत्यंत अनुशासित रहें, जिनमें साफ-सुथरे कपडे और पॉलिश से चमकते जूते होना सर्वोपरि था। इसके लिए डॉ. हुसैन ने एक लिखित आदेश भी निकाला किंतु छात्रों ने उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। छात्र अपनी मनमर्जी से ही चलते थे, जिसके कारण जामिया विश्वविद्यालय का अनुशासन बिगड़ने लगा। यह देखकर डॉ. हुसैन ने छात्रों को अलग तरीके से सुधारने पर विचार किया। एक दिन वह विश्वविद्यालय के दरवाजे पर ब्रश और पॉलिश लेकर बैठ गए और हर आने-जाने वाले छात्र के जूते ब्रश करने लगे। यह देखकर सभी छात्र बहुत लज्जित हुए। उन्होंने अपनी भूल मानते हुए डॉ. हुसैन से क्षमा मांगी और अगले दिन से सभी छात्र साफ-सुथरे कपड़ों में और जूतों पर पॉलिश करके आने लगे। इस तरह विश्वविद्यालय में पुन: अनुशासन कायम हो गया।

Dark Saint Alaick
23-02-2013, 01:03 AM
आज जन्मदिन पर विशेष
चित्रों की प्रेरणा भारतीय संस्कृति से लेता हूं : एसएच रजा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25108&stc=1&d=1361567009

करीब छह दशक का वक्त फ्रांस में गुजारने के बाद भी भारतीय संस्कृति को दिल में सहेज कर रखने वाले वरिष्ठ चित्रकार सैयद हैदर रजा का कहना है कि उन्हें भारतीय संस्कृति की विविधता से चित्र बनाने की प्रेरणा मिलती है। रजा ने जन्मदिन पर खास मुलाकात में कहा, ‘छह दशक का वक्त फ्रांस में गुजारने के बाद भी भारतीय नागरिक बना रहा। फ्रांस में भारतीय पासपोर्ट और वीजा के साथ समय गुजारा और अपने लोगों के बीच रहने की खुशी को बयां नहीं कर सकता।’ ज्यामिती के बिंदु और त्रिकोण के जरिए अपने भाव प्रकट करने वाले चित्रकार ने कहा, ‘विदेश में रहने के बावजूद दिल, दिमाग और आत्मा हमेशा भारतीय रही। भारतीय दर्शन के साथ हमेशा जुड़ा रहा और अपने कार्य के लिए भारतीय संस्कृति से विचार लेता हूं।’ एसएच रजा का जन्म 22 फरवरी 1922 को मध्य प्रदेश के मंडला जिले के बावरिया में हुआ था। यहां वह 12 साल की उम्र तक रहे। इसके बाद रजा ने दमोह के सरकारी विद्यालय में स्कूली शिक्षा पूरी की और जेजे स्कूल आफ आर्ट्स में अध्ययन किया। प्रगतिशील कलाकार समूह बनाने वाले कलाकार ने कहा कि शुजा और हुसैन जैसे चित्रकार अपना काम बेहद सादगी से करता थे, लेकिन कट्टरपंथियों के कारण एम. एफ. हुसैन को भारत के बाहर जाना पड़ा। कई चित्रकारों को निर्वासित जीवन बिताना पड़ा, लेकिन किसी ने कोई समझौता कभी नहीं किया। 91 वर्षीय रजा मानते हैं, ‘मेरा काम मेरे अंतर अनुभवों पर आधारित होता है और प्रकृति के रहस्यों के साथ जुड़ा होता है, जिसे रंग, रेखा, अंतरिक्ष और प्रकाश के जरिये दर्शाया जाता है।’ एक सवाल के जवाब में रजा ने कहा कि विभिन्न तरह के विवादों को सुनता हूं और देख रहा हूं कि लोग ‘न्यूड पेंटिग्स’ बना रहे हैं। यहां तक कि मेरी पेंटिग्स की कॉपी हो रही है। उन्होंने कहा कि पेंटिग्स खुद कुछ नहीं कहती, यह आर्टिस्ट का काम है कि वह अपने काम के बारे में लोगों को बताये और कई लोग ऐसा कर भी रहे है। चित्रों के बारे में उन्होंने कहा, ‘हरे, काले और लाल जैसे प्रमुख रंगों का इस्तेमाल करता हूं। ‘पुरूष और प्रकृति’ की अवधारणा स्त्री और पुरूष की शक्ति को दर्शाती है। बिंदु के विकिरण को विविध तरह से दर्शाया जा सकता है।’ उन्होंने कहा, ‘कभी भी पब्लिसिटी का सहारा नहीं लिया, जो बेहद महत्वपूर्ण है। मैं इस उम्र में भी सुबह 10 या 11 बजे काम शुरू करता हूं और दोपहर में एक से डेढ़ बजे तक काम करता हूं। शाम को 4 बजे से 6 बजे तक काम करता हूं।’ रजा के स्टूडियों में एक बड़ी पेंटिग रखी थी, जिसमें ‘संसार को प्रणति’ लिखा था। इससे उनके मित्र अशोक बाजपेयी की बात याद आई कि रजा एकमात्र हिन्दी के चित्रकार है, उनका हिन्दी के साथ प्रेम उनके चित्रों में देखा जा सकता है। उन्होंने बताया कि इसे कल ही पूरा किया है। इसे भी रजा ने अपने चिर परिचित अंदाज बिंदु, खड़ी रेखा और त्रिभुज के संयोजन से बनाया है। उन्होंने कहा कि परिवर्तन के इस दौर में लोग सिनेमा के बारे में अधिक जानते हैं, लेकिन सेवाग्राम, महात्मा गांधी, भक्ति और टैगोर के बारे में नहीं जानते। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि भारतीय समकालीन कला को पूरी दुनिया में बेहद गंभीरता से लिया जाता है और इस वक्त कई आर्टिस्ट बेहतरीन काम कर रहे हैं।

Dark Saint Alaick
23-02-2013, 01:09 AM
जन्मदिन पर एक संस्मरण
भूखे पेट गाए भजन ने अनिल बिस्वास को दिलाई नौकरी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25109&stc=1&d=1361567363

बॉलीवुड में स्थापित होने से पहले वैसे तो कई कलाकारों को काम ढूंढने के दौरान कई तरह की कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है लेकिन सुरेन्द्र, मुकेश, तलत महमूद, लता मंगेशकर, अमीरबाई कर्नाटकी और पारुल घोष जैसे पार्श्वगायकों और गायिकाओं की प्रतिभा को पहचानकर उनके गायन को तराशने में अहम भूमिका निभाने वाले दिग्गज संगीतकार अनिल बिस्वास को भूखे पेट गाए भजन ने मुम्बई में पहली नौकरी दिलाई। यह 1934 की बात है, जब फिल्मों में संगीतकार बनने की ख्वाहिश लिए कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) से मुम्बई पहुंचे अनिल बिस्वास नौकरी पाने के लिए दर-दर की खाक छान रहे थे। उसी दौरान उन्हें इसी सिलसिले में अजंता स्टूडियो में कहानी सुनाने अपने मित्र हीरेन बोस के पास जाना था। सुबह वह मामूली सा नाश्ता करके निकले थे। पहले वह प्रकाश स्टूडियो के चक्कर काट चुके थे और वहां से निकलने तक दोपहर हो चुकी थी। भूख से उनके प्राण अकुलाने लगे थे, लेकिन उनकी जेब में इतने पैसे भी नहीं थे कि कुछ खा-पी सकें। उनके पास लोकल ट्रेन या बस का टिकट खरीदने के लिए भी पर्याप्त पैसे नहीं थे। इसलिए वह भूखे, प्यासे पैदल ही चल पड़े और गिरते पड़ते लगभग दो मील का फासला तय करके अजंता स्टूडियो पहुंचे। अनिल बिस्वास ने स्टूडियो में कदम ही रखा था कि हीरेन बोस ने तुरंत उनसे गाना गाकर सुनाने को कह दिया और उनके पास सीधे आर्गन पर बैठने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया। उन्होंने बैठकर गाना शुरू कर दिया - घनश्याम भज मन बारंबार। वह स्थायी पर ही थे कि उनका गला रुंध गया और आंखों से आंसू बहने लगे। फिर भी वह गाते रहे और रोते रहे और आखिर में आर्गन पर सिर टिकाकर निढाल हो गए। अनिल बिस्वास रोए थे भूख से तड़प कर, यह सोचकर कि कैसे लोग हैं दुनिया में। आने पर खाने की बात तो छोड़ दो, किसी ने पानी तक के लिए नहीं पूछा। ऊपर से देखते ही गाना सुनाने का फरमान जारी कर दिया, लेकिन स्टूडियो के मालिक के. एस. दरयानी पर अनिल बिस्वास के रोने का दूसरा ही असर हुआ। उन्होंने सोचा कि लड़का बहुत भावुक है। गाते-गाते कैसा तल्लीन हो गया। इसके स्वर में कैसी कसक, कैसा माधुर्य है। यहूदी फिल्म के मशहूर निर्देशक प्रेमांकुर अतार्थी भी वहां मौजूद थे। वे दरयानी साहब की राय से सहमत हुए। अनिल बिस्वास अब तक उसी मनोस्थिति में थे। दरयानी साहब ने उन्हें पीठ थपथपाकर दिलासा दिया और हीरेन बोस को संबोधित कर बोले, क्या रतन लाया है मेरे भाई। तुम्हारी स्टोरी तो हम देख लेंगे, लेकिन यह लड़का कल से ईस्टर्न आर्ट के लिए काम करेगा। तनख्वाह ढाई सौ रुपया महीना। जिस समय अनिल बिस्वास गाना सुना रहे थे, उस समय मशहूर कॉमेडियन गोप कमलानी भी वहां मौजूद थे। गाना सुनाने के बाद अनिल बिस्वास के बाहर निकलते समय वह भी उनके साथ हो लिए और उनसे बड़ी आत्मीयता के साथ पूछा कि उन्होंने खाना खाया है या नहीं। जब उन्हें पता चला कि अनिल बिस्वास ने खाना नहीं खाया है, तो वह उन्हें कैंटीन में ले गए और उनके लिए आमलेट और चार टोस्ट मंगाए। रात का खाना भी गोप ने उन्हें अपने साथ ही खिलाया।

Dark Saint Alaick
23-03-2013, 04:29 PM
23 मार्च को भगत सिंह के शहादत दिवस पर विशेष
भगत सिंह के बिना अधूरी रहती आजादी की कहानी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25941&stc=1&d=1364038129

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में शहीद ए आजम भगत सिंह एक ऐसा नाम हैं जिनके बिना शायद आजादी की कहानी अधूरी रहती। वह सिर्फ युवाओं ही नहीं, बल्कि बुजुर्गों और बच्चों के भी आदर्श हैं । लाहौर सेंट्रल जेल में उनके द्वारा लिखी गई 400 पृष्ठ की डायरी उनके विहंगम व्यक्तिव की कहानी बयां करती है । वह लेखकों, रचनाकारों, इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों सबके लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं । भगत सिंह को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमनलाल क्रांतिवीर मानने के साथ ही वैचारिक क्रांति का पुरोधा भी मानते हैं । उनका कहना है कि मात्र 23 साल की उम्र में शहीद हो जाने वाले इस युवा के बिना शायद आजादी की कहानी अधूरी कहलाती । चमनलाल ने अपनी पुस्तक ‘क्रांतिवीर भगत सिंह : अभ्युदय और भविष्य’ में शहीद ए आजम के विहंगम व्यक्तित्व, कृतित्व और उनकी लोकप्रियता का व्यापक वर्णन किया है। उनका कहना है कि यदि भगत सिंह न होते तो आज देश के लिए शायद कोई ऐसा आदर्श न होता जिसने वैचारिक क्रांति के दम पर ऐसे शासन की नींव हिला दी जिसका साम्राज्य दुनियाभर में फैला था । उन्होंने बताया कि 23 मार्च 1931 को भगत सिंह की फांसी के बाद भारत का पत्रकारिता जगत उनसे संबंधित खबरों से अटा पड़ा रहता था । शहीद ए आजम की जीवनी लिखने के लिए जितेंद्रनाथ सान्याल को गोरी हुकूमत ने दो साल कैद की सजा सुनाई थी । चमनलाल के अनुसार भगत सिंह ने जहां क्रांतिवीर के रूप में दुनिया के मानसपटल पर अपनी छाप छोड़ी, वहीं पत्रकार के रूप में भी उन्होंने अपनी भूमिका बखूबी निभाई । उन्होंने कहा कि अलीगढ के शादीपुर गांव में स्थित स्कूल आज भी इस बात का गवाह है कि देश के लिए मर मिटने वाला यह नौजवान एक कुशल शिक्षक भी था। समाजशास्त्री स्वर्ण सहगल के अनुसार भगत सिंह के लिए क्रांति का मतलब हिंसा से नहीं, बल्कि वैचारिक परिवर्तन से था । बहरों को सुनाने के लिए सेंट्रल असेंबली में धमाका कर वह दुश्मन को उसी की भाषा में जवाब देने वाले योद्धा के रूप में नजर आते हैं । लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए सांडर्स को गोली से उड़ा देना भी उनके इसी जज्बे का प्रतीक था । शहीए ए आजम के पोते :भतीजे बाबर सिंह संधु के पुत्र: यादविंदर सिंह ने कहा कि उनके दादा द्वारा लाहौर सेंट्रल जेल में लिखी गई डायरी इस बात की गवाह है कि उनके बिना भारत का स्वाधीनता संग्राम संभवत: अधूरा कहलाता । उन्होंने कहा कि भगत सिंह की इस डायरी में जहां वैचारिक तूफान दिखाई देता है, वहीं उनके द्वारा लिखे गए गणित और राजनीति के सूत्र उनके व्यक्तित्व की विशालता को दर्शाते हैं । यादविंदर के अनुसार उनके दादा द्वारा जेल में की गई लंबी भूख हड़ताल उनकी दृढ इच्छाशक्ति का प्रतीक थी जो युवाओं को देश के लिए अपने भीतर संकल्प शक्ति पैदा करने की सीख देती है ।

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 01:16 AM
पुण्यतिथि पर स्मरण
गायक बनने की तमन्ना रखते थे आनंद बख्शी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26162&stc=1&d=1364588207

सदाबहार गीतों से श्रोताओं को दीवाना बनाने वाले गीतकार आनंद बख्शी के बारे में बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह गीतकार नहीं, बल्कि पार्श्वगायक बनना चाहते थे। पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में 21 जुलाई 1930 को जन्मे बख्शी साहब बचपन से ही फिल्मों में काम कर शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचने का सपना देखते थे, लेकिन लोगों के मजाक उड़ाने के डर से उन्होंने अपनी यह मंशा कभी जाहिर नहीं की। फिल्म इंडस्ट्री में बतौर गीतकार स्थापित होने के बाद भी पार्श्व गायक बनने की आनंद बख्शी की हसरत हमेशा बनी रही। वैसे उन्होंने वर्ष 1970 में प्रर्शित फिल्म में ‘मैं ढूंढ रहा था सपनों में... और बागों में बहार...’ जैसे दो गीत गाए जो लोकप्रिय भी हुए। इसके साथ ही फिल्म ‘चरस’ के गीत ‘आजा तेरी याद आई...’ कि चंद पंक्तियों और कुछ अन्य फिल्मों में भी आनंद बख्शी ने अपना स्वर दिया। चार दशक तक फिल्मी गीतों के बेताज बादशाह रहे आनंद बख्शी ने 550 से भी ज्यादा फिल्मों में लगभग 4000 गीत लिखे। बख्शी अपने कॅरियर में चार बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। आनंद बख्शी 30 मार्च 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

कुछ खास थे वो 100 रुपए

बॉलीवुड के जाने-माने निर्माता-निर्देशक सुभाष घई ने आनंद बख्शी को कर्मा के एक गीत ‘दिल दिया है जान भी देंगे ए वतन तेरे लिए...’ गीत की पंक्ति सुनकर इनाम के रूप में 100 रुपए दिए थे। 3 अगस्त 1984 का दिन था। सुभाष घई उन दिनों अपनी महत्वकांक्षी फिल्म ‘कर्मा’ का निर्माण कर रहे थे। सुभाष घई ने आंनद बख्शी को गीत की कुछ पंक्ति सुनाने को कहा। जैसे ही आनंद बख्शी ने ‘दिल दिया है जान भी देंगे...’ गीत की पंक्ति घई को सुनाई तो वह भाव विभोर हो गए और अपने अपने पर्स से 100 रुपए निकाल कुछ लिखा और उन्हें दे दिया। आनंद बख्शी की यह आदत रही थी कि वह उन चीजों को सदा अपने साथ रखते थे, जिनसे उनकी भावना जुड़ी हों। बताया जाता है अपने जीवन के अंतिम दिनों तक आनंद बख्शी ने सुभाष घई के दिए गए नोट को संभाल कर रखा था। अपने गीतों से लगभग चार दशक तक श्रोताओं को भावविभोर करने वाले गीतकार आनंद बख्शी 30 मार्च 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। उल्लेखनीय है कि सुभाष घई ने वर्ष 1985 में दिलीप कुमार, नूतन, अनिल कपूर, जैकी श्राफ, नसीरूद्दीन शाह और अनुपम खेर जैसे सितारों को लेकर ‘कर्मा’ का निर्माण किया था। देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत फिल्म का एक ‘दिल दिया है जान भी देंगे ए वतन तेरे लिए...’ आज भी श्रोताओं में देशभक्ति के जज्बे को बुंलद कर देता है।

Dark Saint Alaick
10-04-2013, 10:28 AM
डॉ. बीरबल साहनी की पुण्यतिथि पर विशेष
कई खोजों से खोली दुनिया की आंखें

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26445&stc=1&d=1365571694

भारत में जीवाश्म की सहायता से भूगर्भ शास्त्र के निर्णयों को बदलने वाले व्यक्ति का नाम है -डॉ. बीरबल साहनी, जिन्होने वर्तमान तथा पुराकालीन वनस्पतियों तथा जीवाश्म पौधों पर की गई विस्तृत खोजों और उनके सम्बंध में अनसुलझे-अबूझे तथ्यों को उद्घाटित करके हिन्दुस्तान का नाम दुनिया में ऊंचा उठाया। डॉ. बीरबल साहनी ने जीवाश्म की सहायता से, डेक्कन टैऊप तथा सलाइन रैंज की काल गणना की। वर्तमान तथा पुराकालीन दोनों प्रकार की वनस्पतियों पर डॉ. साहनी ने शोध किया और जीवाश्म पर की गई उनकी विस्तृत खोज के परिणामस्वरूप अज्ञात तथ्य खुलकर सामने आए। साथ ही कश्मीर की केरवा रचनाओं पर डॉ. साहनी के किए कामों ने पुरानी धारणाओं को बदल डाला।
जीवन परिचय
डॉ. बीरबल साहनी का जन्म 14 नवम्बर,1891 को पंजाब के ऐतिहासिक शाहपुर जिले अब पाकिस्तान में नमक की पहाड़ियों के समीप बसे ‘मेरा’ नामक गांव में एक शिक्षक के घर हुआ था। बचपन से ही बीरबल साहनी को वनस्पति से काफी प्रेम था। वर्ष 1911 में बी.एस.सी. करने के बाद वह इंग्लैण्ड चले गए। यहां उन्होंने प्रख्यात जीवाश्म और वनस्पति शास्त्र के ज्ञाता सर एम. सी. सीवर्ड के साथ संशोधन कार्य किया। वर्ष 1914 में साहनी ने वनस्पति शास्त्र में डिग्री ली। वर्ष 1919 में उन्हें लंदन विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि मिली।
पृथ्वी पर वनस्पतियों का क्या स्वरूप
साहनी ने जीवाश्म की सहायता से यह साबित किया कि डेक्कन टैऊप तथा सलाइन रैंज की काल गणना,जिसे भूगर्भ विज्ञानी क्रेबियन यानी सात करोड़ साल पूर्व बताते हैं, वह ‘टरशरी’ काल की एक करोड़ साल पुरानी है। उनके अनुसार नीपा नामक पौधे से डैक्कन ट्रैप काल की प्रायद्वीपीय वनस्पति में तथा प्रारंभिक टर्शियरी काल की पश्चिमी यूरोपीय वनस्पति में समानता प्रमाणित होती है। इससे उन्होंने भूगर्भ शास्त्र के निर्णयों का बदल डाला। उन्होंने देश में जीवाश्म के अध्ययन व उसके शोध किए जाने की शुरुआत की। देश की धरती और पहाड़ियों में छिपे राज को उन्होंने हिमालय और महाद्वीपों के स्वरूप को स्पष्ट किया और कहा कि लगातार यह बदलता रहा है और आज जहां हिमालय है, लगभग तीन सौ करोड़ वर्ष पहले वहां समुद्र रहा है। उनके अध्ययन और शोध से यह जानकारी मिलती है कि पृथ्वी पर वनस्पतियों का क्या स्वरूप था। कुछ वृक्ष तो ऐसे भी हैं, जो करोड़ों साल पहले पृथ्वी पर मौजूद थे। उनमें से कुछ समाप्त हो चुके हैं, कुछ लुप्त हैं और कुछ जंगलों में आज भी मिल जाते हैं। कुछ जिनकी ऊंचाई 50-60 फु ट थी, लेकिन आज वह केवल कुछेक इंच वाले पौधे होकर रह गए हैं। इसके लिए उन्होंने चट्टानों को भी तोड़ा। तकरीबन 90 साल पहले उनकी राजमहल की पहाड़ियों में छिपे जीवाश्म की खोज अनुपम और बेजोड़ है।
जीवाश्म पर की गई खोज
वर्ष 1929 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने बीरबल साहनी को एससीडी की पदवी से और बाद में भारत सरकार ने उन्हें ‘पदमश्री’ की उपाधि से सम्मानित किया। गौरतलब है कि इंग्लैण्ड जाने से पूर्व उन्होंने तिब्बत का भ्रमण किया, जहां उनकी प्रख्यात स्वीडिश संशोधक ‘स्वेन हेडिन’ से मुलाकात हुई। इंग्लैण्ड में अध्ययन के दौरान लॉसन की लिखी वनस्पति शास्त्र की पुस्तक का एक उपयोगी संस्करण तैयार करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उनको सौंपी गई। आज यह पुस्तक ‘लॉसन एवं साहनी’ के नाम से जानी जाती है। वर्तमान तथा पुराकालीन दोनों प्रकार की वनस्पतियों पर डॉ. साहनी ने शोध किया। जीवाश्म पर की गई उनकी विस्तृत खोज के परिणामस्वरूप अज्ञात तथ्य खुलकर सामने आए। आक्मोपीले, नेफोलिस, नीफ़ोबोलुस, टाक्सुम, प्सीलोटुम, स्मेसिप्टेरिस और आस्फोडेलुस आदि पौधों पर किए उनके शोध से इन वंशों, जातियों उनकी संरचना तथा विकास के भिन्न-भिन्न पहलुओं का खुलासा हुआ। पौधों के अध्ययन और उसके बारे में विस्तृत जानकारी करने की खातिर उन्होंने हिमालय में पठानकोट से रोहतांग दर्रा, तिब्बत, कालका से कसौली, शिमला आदि पहाड़ी तथा पठारी भारतीय क्षेत्रों के भ्रमण के साथ-साथ विदेशों की भी यात्राएं की। गोंडवाना प्रदेश के पौधों पर तो डॉ. साहनी ने कई शोध पत्र भी लिखे।
गुलमर्ग में झील नहीं थी
कश्मीर की केरवा रचनाओं पर डॉ. साहनी के किए कामों ने पुरानी धारणाओं को बदल डाला। केरवा में अनेक समुद्री जंतुओं के अवशेष मिलने से वैज्ञानिकों की यह धारणा बनी कि कश्मीर के पर्वत कभी समुद्र की तलहटी में डूबे रहे होंगे। वहां पर्वतों के बीच झीलें भी रही होंगी। लेकिन उन्होने खोज के बाद स्पष्ट किया कि गुलमर्ग के निकट आठ-नौ हजार फीट की ऊंचाई पर अवशेष तो हैं लेकिन प्राचीनकाल में वहां झीलें नहीं थी। ये झीलें सैकड़ों मील दूर चार-पांच हजार फीट की ऊंचाई वाली किसी और जगह पर रही होंगी और पीरपंजाल पर्वतमाला के कई हजार फीट ऊंचा उठ जाने से ये जीवाश्म वहां पहुंच गए होंगे। उन्होंने हिमालय में स्पीती, बिहार में राजमहल, पंजाब में नमक की पहाड़ियों तथा असम में वहां की पुरावनस्पति पर भी शोध कार्य किया। वर्ष 1936 में उन्होंने रोहतक में खोखराकोट में पाए गए प्राचीन सिक्कों के सांचों तथा चीन में पाए जाने वाले सिक्कों का अध्ययन कर उस दौरान सिक्कों की ढलाई, सांचों की रचना आदि के बारे में भी खुलासा किया।
‘जीवाश्म संस्थान’ की स्थापना
अपने जीवन के आखिरी वर्षों में वह पेलियो बॉटनी ‘जीवाश्म संस्थान’ की स्थापना के महाकार्य में लगे रहे। उनका मानना था। कि पुरावनस्पति विश्वाान को संयोजित और प्रोत्साहित करने की देश में महती आवश्यकता है। लखनऊ विश्वविद्यालय के उत्तरी प्रांगण में 3 अप्रेल,1949 को इस संस्थान का शिलान्यास कर भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. साहनी के दस साल पुराने सपने को साकार किया। लेकिन नियति है कि उसके एक हफ्ते बाद ही डॉ. साहनी दुनिया को अलविदा कह गए। उनके सम्मान में संस्थान का नाम ‘बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान’ कर दिया गया। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व अविस्मरणीय है और उनका शोध समूचे विश्व के लिए अमूल्य देन।
सम्मान-पुरस्कार
उनको मिलने वाले पदकों व सम्मान की सूची बहुत लम्बी है। वे वर्ष 1936 में रॉयल सोसायटी ऑफ़ इंग्लैण्ड के सदस्य चुने गए। रॉयल एशियाटिक सोसायटी ने उन्हें ‘वर्कले पदक’ से सम्मानित किया। अमेरिकन एकेडमी ऑफ़ आर्ट्स एण्ड साइंस ने उन्हें मानद सभासद चुना। उन्हें वर्ष 1930 में कैम्ब्रिज तथा वर्ष 1935 में स्टॉहकोम में आयोजित बॉटनी कांग्रेस का उपाध्यक्ष चुना गया। मृत्यु से कुछ समय पहले स्टॉकहोम में वर्ष 1950 में आयोजित इंटरनेशनल बॉटनी कांग्रेस के लिए उन्हें अध्यक्ष चुना गया था। इंडियन एकेडमी आफ साइंस के वह दो बार उपाध्यक्ष, नेशनल एकेडमी के संस्थापक तथा दो बार अध्यक्ष रहे। इंडियन सांइस कांग्रेस के वर्ष 1940 में वह अध्यक्ष रहे। वर्ष 1947 में उन्हें सर सी. आर. रेड्डी पारितोषिक से सम्मानित किया गया।

Dark Saint Alaick
13-04-2013, 12:18 AM
पुण्यतिथि 13 अप्रैल पर
रियल लाइफ को रील लाइफ में जीवंत करते थे बलराज साहनी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26531&stc=1&d=1365794306

भारतीय सिनेमा जगत में बलराज साहनी को एक ऐसे अभिनेता के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने रियल लाइफ किरदारों को रील लाइफ में खूबसूरती के साथ अदा किया। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में बलराज साहनी ने एक रिक्शावाले के किरदार को जीवंत कर दिया था। रिक्शावाले को फिल्मी पर्दे पर साकार करने के लिए बलराज साहनी ने कोलकाता की सड़कों पर 15 दिनों तक खुद रिक्शा चलाया और रिक्शेवालों की जिंदगी के बारे में उनसे बातचीत की। इसी तरह वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म ‘काबुलीवाला’ में भी बलराज साहनी ने अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों को भावविभोर किया। उनका मानना था कि पर्दे पर किसी किरदार को साकार करने के पहले उस किरदार के बारे में पूरी तरह से जानकारी हासिल की जानी चाहिए। इसीलिए वह मुंबई में एक काबुलीवाले के घर में लगभग एक महीना तक रहे। रावलपिंडी शहर (अब पाकिस्तान) में एक मध्यम वर्गीय व्यवसायी परिवार में एक मई 1913 को जन्में बलराज साहनी (मूल नाम युधिष्ठर साहनी) ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी स्नातकोत्तर की शिक्षा लाहौर के मशहूर गवर्नमेट कॉलेज से पूरी की। वर्ष 1951 में जिया सरहदी की फिल्म ‘हमलोग’ के जरिए बतौर अभिनेता वह अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। बलराज साहनी के कॅरियर की उल्लेखनीय फिल्मों में गरम कोट, सीमा, कठपुतली, लाजवंती, सोने की चिड़िया, घर संसार, सट्टा बाजार, भाभी की चूड़िया, हकीकत, वक्त, दो रास्ते, एक फूल दो माली, मेरे हमसफर , गर्म हवा आदि हैं। अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों को भावविभोर करने वाले बलराज साहनी 13 अप्रैल 1973 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
14-04-2013, 07:09 AM
एक किस्सा
अमृता शेरगिल ने कभी नेहरू को कैनवस पर क्यों नहीं उतारा

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू अमृता शेरगिल की असाधारण प्रतिभा और सुंदरता से बेहद प्रभावित थे और दोनों के बीच अच्छी मित्रता भी हो गयी थी लेकिन उन्हें इस असाधारण कलाकार के कैनवस पर कभी जगह नहीं मिल पाई। इसका कारण महिला चित्रकार की यह सोच थी कि नेहरू ‘काफी सुंदर दिखायी देते हैं।’ अमृता ने अपनी शर्तों पर जीवन जिया था तथा अपने प्रेम प्रसंगों एवं अपारंपरिक शैली के कारण उस दौर के समाज में वह चर्चा का केन्द्र बन गयी थीं। उनका करिश्माई व्यक्तित्व, उनकी शारीरिक सुंदरता और उनका नाटकीय जीवन, इन सब के कारण वे कई लोगों की कल्पना को आकर्षित करती थीं। एक महिला के रूप में एकांत के प्रति उनकी भूख तथा विरोधाभासों के प्रति उनके संघर्ष ने उनकी जिंदगी को और भी उल्लेखनीय बना दिया था। अमृता के व्यक्तित्व के इन बारीक पहलुओं को कला इतिहासकार यशोधरा डालमिया द्वारा लिखी गयी उनकी जीवनी ‘अमृता शेरगिल : ए लाइफ’ में संजीदा ढंग से पेश किया गया है। अमृता की 1941 में जब महज 28 साल की आयु में मृत्यु हुई तो वह अपने पीछे ऐसी कलाकृतियां छोड़ गयीं जिन्होंने उन्हें शताब्दी के अग्रणी कलाकारों की पंक्ति में ला खड़ा किया। पूर्व एवं पश्चिम के कला संगम में वह एक मनोहारी प्रतीक बनकर उभरी।
अमृता की नेहरू से मुलाकात दिल्ली में हुई थी। लेखिका के अनुसार नेहरू से उनकी मुलाकात ऐसे माहौल में एकमात्र घटनापूर्ण चीज थी जो चित्रकार के अनुसार चित्रांकन के लिए हर्गिज भी उपयुक्त नहीं थी। राजधानी के कामकाजी माहौल के बीच नेहरू उन्हें काफी भिन्न नजर आये। दोनों के बीच कई बार पत्राचार हुआ, कुछ मुलाकातें हुई लेकिन उन्होंने नेहरू का चित्र कभी नहीं बनाया। अमृता की अपने नजदीकी मित्र एवं विश्वासपात्र इकबाल सिंह से 1937 में मुलाकात हुई थी। इकबाल ने उनसे एकबार पूछा था कि उन्होंने नेहरू का चित्र क्यों नहीं बनाया। इस पर अमृता ने जवाब दिया कि वह नेहरू का चित्र कभी नहीं बनायेंगी क्योंकि नेहरू काफी सुंदर हैं। फरवरी 1937 में नेहरू ने दिल्ली में हुई उनकी प्रदर्शनी में भाग लिया था। चित्रकार ने अपने एक मित्र को लिखे पत्र में नेहरू का जिक्र करते हुए कहा था, ‘मुझे लगता है कि वह भी मुझे पसंद करते हैं जितना कि मैं उन्हें करती हूं। वह मेरी प्रदर्शनी में आये थे और हमारी लंबी बातचीत हुई।’ जीवनी में सवाल उठाया गया है कि क्या उनके बीच प्रेम प्रसंग था। यदि था तो यह कोई गंभीर प्रसंग था या केवल पे्रम पूर्व खिलवाड़ था। डालमिया कहती हैं, ‘उनके संबंधों का सही स्वरूप पता लगा पाना मुश्किल है क्योंकि बाद में नेहरू के कई पत्रों को अमृत के अभिभावकों ने उस समय जला दिया जब वह शादी :अपनी रिश्तेदार की: में भाग लेने के लिए बुडापेस्ट गयी थी। उनके पिता एक सिख सामंतवादी और मां हंगेरियाई थी। उनका जन्म शताब्दी के शुरू में 1913 में बुडापेस्ट में हुआ था।’ अपने पत्रों को जलाये जाने पर अचंभा जताते हुए अमृता ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था, ‘‘मैं उन्हें इसलिए नहीं छोड़कर गयी थी कि वे मेरे पापपूर्ण विगत के खतरनाक गवाह है बल्कि मैं अपने पहले से ही भारी सामान को नहीं बढाना चाहती थी। बहरहाल, मुझे लगता है कि मुझे अब उदास वृद्धावस्था में संतोष करना पड़ेगा जो पुराने पे्रम पत्रों को पढने से मिलने वाले मजे से वंचित होगी।’
नेहरू ने अपनी आत्मकथा की प्रति अमृता के पास भिजवाई थी। अमृता ने इसके लिए उन्हें धन्यवाद दिया और लिखा, ‘नियम के तौर पर मैं आत्मकथा एवं जीवनियां पसंद नहीं करती। उनमें गलत बातें पेश की जाती है। दिखावा और दावे होते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि मुझे आपकी (आत्मकथा) पसंद आयी। आप कई बार अपने आभामंडल को काटने में कामयाब हुए है। आपने यह कहा है, ‘मैंने जब पहली बार समुद्र को देखा, जबकि अन्य लोग कहते हैं, ‘जब समुद्र ने मुझे पहली बार देखा।’ अमृता लिखती हैं, ‘मैं आपको अच्छी तरह से जानना पसंद करूंगी। मैं हमेशा उन लोगों के प्रति आकर्षित रहती हूं जो विसंगितयों के बिना अस्थिरता से पर्याप्त रूप से जुड़े होते हैं। साथ ही वे अपने पीछे आदर का चिपचिपा धागा नहीं लटकाये रहते हैं। मुझे नहीं लगता कि जीवन की कगार पर आदमी अस्त-व्यस्तता महसूस करता है। इस कगार को पार करने के बाद ही आदमी को लगता है कि जो चीज सरल लग रही थी या जो भावना सरल महसूस हो रही थी वह अनंत गुना पेचीदा एवं जटिल है।’ उन्होंने लिखा है, ‘अस्थिरता के भीतर ही कोई स्थिरता होती है। लेकिन निश्चित तौर पर आपका संतुलित दिमाग है। मुझे नहीं लगता कि आप वाकई में मेरी कलाकृतियों में रूचि रखते हैं। आप मेरी कलाकृतियों को देखे बिना उनका अवलोकन करते हैं। आप कठोर नहीं है। आपका मृदु चेहरा है। मुझे आपका चेहरा, उसकी संवेदनशीलता, ऐन्द्रियता और साथ ही निस्संगता पसंद है।’

Dark Saint Alaick
15-04-2013, 12:28 AM
जयन्ती पर विशेष
उपेक्षित समाज के मसीहा ‘अम्बेडकर’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26548&stc=1&d=1365967693

विलक्षण क्षमताओं के आधार पर एक विशिष्ट स्थान पाने वाले डा. भीमराव अम्बेडकर का जीवन अनेक प्रकार की विविधिताओं से परिपूर्ण है। उनकी सर्वाधिक ख्याति संविधान निर्माता तथा समाज के उपेक्षित और वंचित वर्ग के अधिकारों की रक्षा हेतु संघर्षरत योद्धा के रूप में ही अधिक है। जात-पांत, छूत-अछूत, ऊंच-नीच आदि विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए अम्बेडकर ने कई काम किए।
जीवन परिचय
भारतीय संविधान की रचना में महान योगदान देने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रेल, 1891 को ब्रिटिशों के केंद्रीय प्रांत (अब मध्य प्रदेश में) में स्थापित नगर व सैन्य छावनी मऊ में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14वीं संतान थे। कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स से पढ़ाई करने वाले डॉ. अंबेडकर ने देश की सामाजिक विषमता और छुआछूत के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई। वे हमेशा दलित उत्थान और सामाजिक समता को लेकर आगे बढ़े। वे भारतीय विधिवेत्ता होने के साथ ही बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी भी थे। उनको बाबा साहेब के नाम से भी जाना जाता है। 6 दिसम्बर,1956 को उन्होंने देह त्याग दी।
सामाजिक कार्यों में योगदान
अम्बेडकर ने सामाजिक समानता को दूर करने के लिए कई प्रयत्न किए थे। यहां तक कि उन्होंने ‘आॅल इण्डिया क्लासेस एसोसिएशन’ का संगठन किया। दक्षिण भारत में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में गैर-ब्राह्मणों ने ‘सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट’ प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य उन भेदभावों को दूर करना था जिनको ब्राह्मणों ने उन पर थोप दिया था। सम्पूर्ण भारत में दलित जाति के लोगों ने उनके मन्दिरों में प्रवेश-निषेध एवं इस तरह के अन्य प्रतिबन्धों के विरुद्ध अनेक आन्दोलनों का सूत्रपात किया। परन्तु विदेशी शासन काल में अस्पृश्यता विरोधी संघर्ष पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया। विदेशी शासकों को इस बात का भय था कि ऐसा होने से समाज का परम्परावादी एवं रूढ़िवादी वर्ग उनका विरोधी हो जाएगा। अत: क्रांतिकारी समाज-सुधार का कार्य केवल स्वतन्त्र भारत की सरकार ही कर सकती थी। पुन: सामाजिक पुनरुद्वार की समस्या राजनीतिक एवं आर्थिक पुनरुद्वार की समस्याओं के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई थी। जैसे, दलितों के सामाजिक पुनरुत्थान के लिए उनका आर्थिक पुनरुत्थान आवश्यक था। इसी प्रकार इसके लिए उनके बीच शिक्षा का प्रसार और राजनीतिक अधिकार भी अनिवार्य थे।
अंग्रेजी में रचनावली
वर्ष 1926 में अम्बेडकर बम्बई विधान सभा के सदस्य नामित किए गए। उसके बाद वह निर्वाचित भी हुए। क्रमश: ऊपर चढ़ते हुए वर्ष 1942-1946 के दौर में वह गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी की सदस्यता तक पहुंचे। भारत के स्वाधीन होने पर जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में विधि मंत्री हुए। बाद में विरोधी दल के सदस्य के रूप में उन्होंने काम किया। भारत के संविधान के निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी। वह संविधान विशेषज्ञ थे। अनेक देशों के संविधानों का अध्ययन उन्होंने किया था। भारतीय संविधान का मुख्य निर्माता उन्हीं को माना जाता है। उन्होंने जो कुछ लिखा, उसका गहरा सम्बन्ध आज के भारत और इस देश के इतिहास से है। शूद्रों के उद्धार के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया, पर उनका लेखन केवल शूद्रों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने दर्शन, इतिहास, राजनीति, आर्थिक विकास आदि अनेक समस्याओं पर विचार किया जिनका सम्बन्ध सारे देश की जनता से है। अंग्रेजी में उनकी रचनावली ‘डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज’ नाम से महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है। हिन्दी में उनकी रचनावली ‘बाबा साहब डॉक्टर आम्बेडकर सम्पूर्ण वाडम्य’के नाम से भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है।
कई पत्रिका प्रकाशित की
अत्यन्त कुटिल व मानवता को शमर्सार कर देने वाली परिस्थितियों के बीच दलितों, पिछड़ों और पीड़ितों के मुक्तिदाता और मसीहा बनकर अवतरित हुए डा. भीमराव अम्बेडकर ने स्वदेश लौटकर मुम्बई में वकालत के साथ-साथ अछूतों पर होने वाले अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाना शुरू कर दिया। अपने आन्दोलन को अचूक, कारगर व व्यापक बनाने के लिए उन्होंने ‘मूक नायक’ पत्रिका भी प्रकाशित करनी शुरू की। उनके प्रयासों ने रंग लाना शुरू किया और वर्ष 1927 में उनके नेतृत्व में दस हजार से अधिक लोगों ने विशाल जुलूस निकाला और ऊंची जाति के लिए आरक्षित ‘चोबेदार तालाब’ के पीने के पानी के लिए सत्याग्रह किया और सफलता हासिल की। इसी वर्ष उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक पाक्षिक मराठी पत्रिका का प्रकाशन करके अछूतों में स्वाभिमान और जागरुकता का अद्भुत संचार किया। देखते ही देखते वे दलितों व अछूतों के बड़े पैरवीकार के रूप में देखे जाने लगे। इसी के परिणास्वरूप डॉ. भीमराव अम्बेडकर को वर्ष 1927 में मुम्बई विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया।
देश के पहले कानून मंत्री
भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त,1947 को अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना कि लिए बनी के संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ मे संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की, और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उनको हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना मे पहले इस कदम को अस्थाई रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गई थी। 26 नवंबर,1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। वर्ष 1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गई थी। अम्बेडकर ने वर्ष 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गए। मार्च 1952 मे उनको संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।

Dark Saint Alaick
15-04-2013, 12:32 AM
डॉ. मोक्षगुंडम विश्वैश्वरैया की पुण्यतिथि पर
इंजीनियरिंग के पितामह ‘सर एमवी’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26549&stc=1&d=1365967934

सर एमवी के नाम से सम्बोधित किए जाने वाले डॉ. विश्वश्वरैया न केवल प्रख्यात अभियंता थे, बल्कि महान दूरदर्शी राजनेता और प्रशासक भी थे। अपने समय के बहुत बड़े इंजीनियर, वैज्ञानिक और निर्माता के रूप में देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले डॉ. मोक्षगुंडम विश्वश्वरैया को भारत ही नहीं वरन विश्व की महान प्रतिभाओं में गिना जाता है। इंजीनियरिंग की सेवा करते-करते 101 वर्ष की आयु में 14 अप्रेल, 1962 को देश के इस विरले सपूत का देहावसान हो गया था।
इंजीनियरिंग को दिखाई प्रगति की राह
मैसूर रियासत के कोलार जिले (वर्तमान में कर्नाटक) के मुद्देहल्ली गांव में 15 सितम्बर, 1861 को जन्में डॉ. एमवी ने प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा चिकबल्लापुर में पूरी की। वर्ष 1881 में बेंगलूरु से स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद मैसूर रियासत की ओर से आर्थिक सहायता मिली और उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना स्थित साइंस कॉलेज में प्रवेश लिया। वर्ष 1883 में एलसीई और एफसीई परीक्षा में प्रथम स्थान हासिल किया। इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही तत्कालीन बम्बई सरकार ने डॉ. विश्वश्वरैया को नौकरी की पेशकश की और नासिक में सहायक अभियंता के पद पर नियुक्त किया। उनकी अभियांत्रिकी क्षमता का पहला परिचय तब हुआ, जब उन्हें दशहरी धुलिया से करीब 35 मील दूर गांव में पांजरा सिफोन के निर्माण का कार्य सौंपा गया। इसमें उन्होंने इंजीनियर के रूप में विशेष अनुभव हासिल किया। इसके बाद शहर में जलापूर्ति की एक नई और बेहतरीन योजना बनाई, जिसे आधुनिक सिंचाई प्रणाली में ‘ब्लॉक सिस्टम’ कहा जाता है। इसके अलावा उन्होंने पानी के अनावश्यक बहाव को रोकने के लिए लोहे के आॅटोमेटिक दरवाजे ईजाद किए। अपने इस आविष्कार का इस्तेमाल उन्होंने खड़कवास्ला बांध के निर्माण के दौरान किया। वे मैसूर के कृष्णराजसागर बांध के वास्तुकार भी थे। मौजूदा समय में यह बांध कर्नाटक के महत्वपूर्ण बांधों में से एक है।
सरल जीवन, उच्च विचार
सादा-सरल जीवन के साथ ही विशुद्ध शाकाहारी डॉ. विश्वैश्वरैया ने अपना कार्य पूरी लगन और ईमानदारी के साथ निभाया। उनकी कर्तव्य परायणता से प्रभावित होकर मैसूर रियासत के महाराजा ने उन्हें वर्ष 1912 में दीवान बनने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने मैसूर के दीवान के रूप में शिक्षा को बढ़ावा देने के साथ ही औद्योगिक विकास पर भी विशेष जोर दिया। इसके साथ ही उन्होंने चप्पल, साबुन, धातु और क्रोम ट्रेनिंग फैक्ट्री की शुरुआत की। इसके अलावा उन्होंने राज्य में कई कल-कारखानों की स्थापना में भी अहम भूमिका निभाई। उन्हीं के अथक प्रयासों से भद्रावती में आयरन और स्टील फैक्ट्री का निर्माण हुआ। वर्ष 1918 में उन्होंने मैसूर रियासत के दीवान पद से अपनी इच्छा से सेवानिवृत्ति ली।
सेवानिवृति के बाद भी कार्यरत
मैसूर के दीवान पद से मुक्त होने के बाद वे फिर से अपने काम में सक्रिय हो गए। उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर कंसल्टेंसी इंजीनियरिंग का कार्य शुरू किया। इस तरह उन्होंने अपनी अभियांत्रिकी क्षमता का लोहा विश्व स्तर पर भी मनवाया। देश के विकास में किए गए उनके उल्लेखनीय कार्य के लिए वर्ष 1955 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। उनके सम्मान में विश्वस्तरीय तकनीकी संस्थान की स्थापना की गई, जिसका नामकरण भी उन्हीं के नाम पर किया गया।

Dark Saint Alaick
15-04-2013, 09:42 AM
नई किताब
मोदी बचपन में तार्किक थे और अकसर अध्यापकों की बात नहीं माना करते थे

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26552&stc=1&d=1366000933

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर छपी एक नई किताब में बताया गया है कि बचपन में मोदी काफी तार्किक थे और अकसर अध्यापकों के आदेश की अवज्ञा किया करते थे लेकिन शुरुआत से ही उनमें नेतृत्व का गुण था। पत्रकार निलंजन मुखोपाध्याय ने ‘ नरेंद्र मोदी : द मैन द टाइम्स’ नामक किताब में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता के जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला है। पुस्तक में मोदी के बचपन, उनके युवा जीवन, राजनीति में उनके उदय, उनके संघर्षों और आखिरकार मुख्यमंत्री बनने की उनकी जीत से जुड़े पहलुओं का जिक्र किया गया है। इस पुस्तक का प्रकाशन वेस्टलैंड लिमिटेड ने किया है। दुबले पतले युवा मोदी से लेकर आत्मविश्वास से लबरेज मुख्यमंत्री बनने तक की उनकी दुर्लभ तस्वीरें किताब में छापी गई हैं। पुस्तक में मोदी के कार्यकाल में आंकड़ों और तथ्यों के साथ गुजरात विकास की व्यापक तस्वीर पेश की गई है। बी.एन. हाईस्कूल में मोदी के अध्यापक प्रह्लादभाई जी. पटेल को याद है कि मोदी अत्यंत तार्किक छात्र थे जो कि अकसर अध्यापकों की बात नहीं माना करते थे। पटेल ने बताया कि एक बार उन्होंने मोदी से अपना गृहकार्य कक्षा के एक मॉनिटर को दिखाने को कहा तो उन्होंने (मोदी) जवाब दिया कि यदि उन्हें किसी अन्य से अपने काम का मूल्यांकन कराना है तो वह अध्यापक के बिना कोई नहीं होना चाहिए। मुखोपाध्याय के अनुसार पटेल ने मोदी से गृहकार्य अपने सहपाठी को दिखाने के लिए इसलिए कहा क्योंकि वह ‘बहुत अच्छे छात्र’ नहीं थे। पुस्तक में लिखा गया है, ‘50 छात्रों की कक्षा में हालांकि मोदी को कमजोर छात्र नहीं कहा जा सकता था लेकिन पटेल ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि मोदी औसत दर्जे के छात्र थे।’ लेखक ने मोदी के बचपन के मित्र सुधीर जोशी के हवाले से कहा कि मोदी पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य गतिविधियों में काफी सक्रिय थे और उन्हें सुर्खियों में बने रहना पसंद था। वह अपने सहपाठियों की समस्याओं को प्रधानाचार्य के सामने रखते थे। मोदी एक अच्छे तैराक थे और वाद विवाद प्रतियोगिताओं एवं नाटकों में हिस्सा लिया करते थे। किताब में इस बात का भी जिक्र है कि मोदी जब छह साल के थे तो वह अपने पिता की मदद करने के लिए चाय बेचा करते थे और एक स्थानीय नेता के कहने पर नारेबाजी किया करते थे। पुस्तक में बताया गया है कि मोदी ने सच की तलाश के लिए किस तरह अपने परिवार का परित्याग कर दिया और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता बने। लेखक लिखता है, ‘युवा मोदी चाय की दुकान चलाने में अपने पिता दामोदरन की मदद करता था। पिता चाय बनाया करते थे। बेटा उसे केतली में भरता था और रेलगाडियों के आने पर उसे बेचा करता था।’ पुस्तक में बताया गया है कि मोदी अपने पांच अन्य भाई- बहनों और माता - पिता के साथ 12 फुट चौड़े और 40 फुट लंबे मकान में रहा करते थे। वह अपने पहनावे के बारे में हमेशा सचेत रहा करते थे।

Dark Saint Alaick
15-04-2013, 09:45 AM
नया अध्ययन
गूगल से लेकर फेसबुक तक ‘सर्वत्र’ मौजूद हैं नरेंद्र मोदी

जनता से सीधे जुड़ने का प्रयास कहें या अपनी छवि बदलने की कोशिश, भाजपा की ओर से आगामी आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की दौड़ में सबसे आगे चल रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सोशल मीडिया की 11 प्रमुख वेबसाइटों पर न केवल मौजूद हैं बल्कि पूरी सक्रियता के साथ अपनी बात रख रहे हैं । दुनिया की सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर लोकप्रियता के मामले में नरेंद्र मोदी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम करूणानिधि जैसे चर्चित नेताओं को पीछे छोड़ते हुये पहले स्थान पर पहुंच गये हैं । फेसबुक पर उनके आधिकारिक पेज को 14,90,818 लोगों ने ‘लाइक’ किया है जबकि 1,25,629 लोग उनके बारे में चर्चा कर रहे हैं । मोदी ने पांच मई, 2009 को फेसबुक की दुनियां में कदम रखा था । जनता से जुड़ने के लिये मोदी अपने फेसबुक पेज का जोरदार इस्तेमाल करते हैं । इस पेज पर मोदी की फोटो और वीडियो तथा उनके विचार देखे और पढे जा सकते हैं । उल्लेखनीय है कि आईआरआईएस ज्ञान फाउंडेशन और भारतीय इंटरनेट एवं मोबाइल संघ द्वारा हाल ही में कराये गये एक अध्ययन में कहा गया है कि अगले आम चुनाव में सोशल मीडिया लोकसभा की 543 में से 160 सीटों को प्रभावित कर सकता है । अध्ययन में कहा गया है कि इनमें से महाराष्ट्र से सबसे अधिक फेसबुक के प्रभाव वाली 21 सीटें और गुजरात से 17 सीटें शामिल है। सबसे अधिक प्रभाव वाली सीट से आशय उन सीटों से है जहां पिछले लोकसभा चुनाव में विजयी उम्मीदवार के जीत का अंतर उस क्षेत्र विशेष में फेसबुक का प्रयोग करने वालों की संख्या से कम है अथवा जिन सीटों पर फेसबुक का प्रयोग करने वालों की संख्या कुल मतदाताओं की संख्या का 10 प्रतिशत है। माइक्रो ब्लागिंग वेबसाइट ट्विटर पर भी नरेंद्र मोदी बेहद सक्रिय हैं जहां उनके 14,59,356 ‘फालोअर’ हैं और वह खुद 346 लोगों को ‘फालो’ करते हैं जिनमें कई नामचीन हस्तियां शामिल हैं । मोदी की सक्रियता का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अब तक 2276 ट्वीट किया है । मोदी की वेबसाइट ‘नरेंद्रमोदीडॉटइन’ पूरी तरह से चुनावी रंग में रंगी नजर आती है । इस वेबसाइट के पहले पेज पर उनका नया नारा ‘पहले भारत :इंडिया फर्स्ट’ लिखा नजर आता है । साथ ही इस पर लिखा है ‘दल से पहले देश है’ । मोदी की वेबसाइट तीन भाषाओं अंग्रेजी, हिंदी और गुजराती में है । दुनियाभर की वेबसाइटों की रैंकिंग करने वाली चर्चित वेबसाइट ‘अलेक्सा डॉट कॉम’ के मुताबिक विश्व स्तर पर नरेंद्र मोदी की वेबसाइट का रैंक 17,681 हैं जबकि भारत में इसकी रैंक 1338 है। अलेक्सा के मुताबिक नरेंद्र मोदी की वेबसाइट सबसे अधिक अमेरिका में देखी जाती है और इसके बाद ब्रिटेन तथा नीदरलैंड का नंबर आता है । नरेंद्र मोदी गूगल की चर्चित सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट ‘गूगल प्लस’ पर भी मौजूद हैं जहां उन्हें 5,01,864 लोगों ने अपने ‘सर्कल’ में शामिल कर रखा है । ‘गूगल प्लस’ पर मोदी ने श्रीराम कालेज ऑफ़ कामर्स में छात्रों के साथ खींची गई अपनी फोटो लगा रखी है । गुजरात के मुख्यमंत्री का वीडियो शेयरिंग वेबसाइट यूट्यूब पर अपना एक चैनल है जिसको 36,177 लोगों ने ‘सब्सक्राइब’ कर रखा है । मोदी से जुड़े वीडियो को अब तक 61,56,676 बार देखा गया है । यूट्यूब के इस चैनल पर मोदी के भाषणों को देखा जा सकता है । इसके अलावा नरेंद्र मोदी फोटो शेयरिंग वेबसाइट ‘पिंटरेस्ट’, ‘फ्लिकर’, ‘टंबलर’ तथा ‘स्टंबलअपान’ जैसी भारत में कम लेकिन विदेशों में ज्यादा प्रचलित वेबसाइटों पर भी दमदार तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। यही नहीं उनके नाम से एंड्रायड और आईफोन इस्तेमाल करने वालों के लिये आधिकारिक एप्लीकेशन भी बनाया गया है ।

Dark Saint Alaick
17-04-2013, 12:41 AM
भारतीय रेल के गौरवमय 160 साल

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26604&stc=1&d=1366141268

अंग्रेजों ने भारत में रेल सेवा की शुरूआत 16 अप्रैल 1853 को अपनी प्रशासनिक सुविधा के लिए की थी लेकिन 160 वर्ष बाद करीब 16 लाख कर्मचारियों, प्रतिदिन चलने वाली 11 हजार ट्रेनों, 7 हजार से अधिक स्टेशनों एवं करीब 65 हजार किलोमीटर रेलमार्ग के साथ ‘भारतीय रेल’ आज देश की जीवनरेखा बन गयी है। रेलवे के दस्तावेज के अनुसार 16 अप्रैल 1853 को मुम्बई और ठाणे के बीच जब पहली रेल चली, उस दिन सार्वजनिक अवकाश था। पूर्वाहन से ही लोग बोरीबंदी की ओर बढ रहे थे, जहां गर्वनर के निजी बैंड से संगीत की मधुर धुन माहौल को खुशनुमा बना रही थी। साढे तीन बजे से कुछ पहले ही 400 विशिष्ट लोग ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे के 14 डिब्बों वाली गाड़ी में चढे । चमकदार डिब्बों के आगे एक छोटा फाकलैंड नाम का भाफ इंजन लगा था। करीब साढे चार बजे फाकलैंड के ड्राइवर ने इंजन चालू किया, फायरमैन उत्साह से कोयला झोंक रहा था। इंजन ने मानो गहरी सांस ली और इसके बाद भाप बाहर निकलना शुरू हुई। सीटी बजने के साथ गाड़ी को आगे बढ़ने का संकेत मिला और उमस भरी गर्मी में उपस्थित लोग आनंदविभोर हो उठे। इसके बाद फिर से एक और सिटी बजी और छुक छुक करती हुए यह पहली रेल नजाकत और नफासत के साथ आगे बढी । यह ऐतिहासिक पल था जब भारत में पहली ट्रेन ने 34 किलोमीटर का सफर किया जो मुम्बई से ठाणे तक था। रेल का इतिहास काफी रोमांच से भरा है जो 17वीं शताब्दी में शुरू होता है। पहली बार ट्रेन की परिकल्पना 1604 में इंग्लैण्ड के वोलाटॅन में हुई थी जब लकड़ी से बनायी गई पटरियों पर काठ के डब्बों की शक्ल में तैयार किये गए ट्रेन को घोड़ों ने खींचा था। इसके दो शताब्दी बाद फरवरी 1824 में पेशे से इंजीनियर रिचर्ड ट्रवेथिक को पहली बार भाप के इंजन को चलाने में सफलता मिली। भारत में रेल की शुरूआत की कहानी अमेरिका के कपास की फसल की विफलता से जुड़ी हुई है जहां वर्ष 1846 में कपास की फसल को काफी नुकसान पहुंचा था। इसके कारण ब्रिटेन के मैनचेस्टर और ग्लासगो के कपड़ा कारोबारियों को वैकल्पिक स्थान की तलाश करने पर विवश होना पड़ा था। ऐसे में भारत इनके लिए मुफीद स्थान था। अंग्रेजो को प्रशासनिक दृष्टि और सेना के परिचालन के लिए भी रेलवे का विकास करना तर्क संगत लग रहा था। ऐसे में 1843 में लार्ड डलहौजी ने भारत में रेल चलाने की संभावना तलाश करने का कार्य शुरू किया। डलहौजी ने बम्बई, कोलकाता, मद्रास को रेल सम्पर्क से जोड़ने का प्रस्ताव दिया। हालांकि इस पर अमल नहीं हो सका। इस उद्देश्य के लिए साल 1849 में ग्रेट इंडियन पेंनिनसुलर कंपनी कानून पारित हुआ और भारत में रेलवे की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ।

Dark Saint Alaick
17-04-2013, 12:50 AM
गोपाल सिंह नेपाली की पुण्यतिथि के अवसर पर
जब दुकानदार ने लौटा लिया पुराना कार्बन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26605&stc=1&d=1366141815

कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली लहरों की धारा के विपरीत चल कर हिन्दी साहित्य, पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में ऊंचा स्थान हासिल करने वाले छायावादोत्तर काल के विशिष्ट कवि और गीतकार थे। बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के बेतिया में 11 अगस्त 1911 को जन्मे गोपाल सिंह नेपाली की काव्य प्रतिभा बचपन में ही दिखाई देने लगी थी। एक बार एक दुकानदार ने बच्चा समझकर उन्हें पुराना कार्बन दे दिया, जिस पर उन्होंने वह कार्बन लौटाते हुए दुकानदार से कहा, इसके लिए माफ कीजिएगा गोपाल पर ... सड़ियल दिया है आपने कार्बन निकाल कर। उनकी इस कविता को सुनकर दुकानदार काफी र्शमिंदा हुआ और उसने उन्हें नया कार्बन निकाल कर दे दिया। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पारंगत नेपालीजी की पहली कविता भारत गगन के जगमग सितारे 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। पत्रकार के रूप में उन्होंने कम से कम चार हिन्दी पत्रिकाओं रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी का सम्पादन किया। युवावस्था में नेपालीजी के गीतो की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें आदर के साथ कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। उस दौरान एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर उनके एक गीत को सुनकर गद्गद हो गए। वह गीत था सुनहरी सुबह नेपाल की
ढलती शाम बंगाल की
कर दे फीका रंग चुनरी का
दोपहरी नैनीताल की
क्या दरस परस की बात यहां
जहां पत्थर में भगवान है
यह मेरा हिन्दुस्तान है,
यह मेरा हिन्दुस्तान है...।

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26606&stc=1&d=1366141815

Dark Saint Alaick
17-04-2013, 12:55 AM
डॉ. राधाकृष्णन की पुण्यतिथि पर
आदर्श शिक्षक, अद्वितीय राजनेता

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26607&stc=1&d=1366142130

वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो हम यह साफ देख सकते हैं कि कुछ समय पहले जहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार धर्म समझा जाता था आज वहीं यह शुद्ध व्यवसाय और धन अर्जित करने का बेहतर माध्यम बन गया है। लेकिन भारत जैसे महान देश में शिक्षक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने ज्ञान का प्रसार केवल पैसा कमाने के लिए ही नहीं बल्कि विद्यार्थियों को सही मार्ग पर चलाने और उन्हें अच्छा नागरिक बनाने के लिए किया। इन्ही में से एक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ना सिर्फ उत्कृष्ट अध्यापक थे बल्कि भारतीय संस्कृति के महान ज्ञानी, दार्शनिक, वक्ता और विज्ञानी हिंदू विचारक भी थे। राधाकृष्णन ने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए। उनके जन्मदिन को आज भी पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने तामउम्र देश में शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने का प्रयास करते रहे, लेकिन बढ़ती उम्र और बीमारियों के सिलसिले के चलते 17 अप्रेल, 1975 को उन्होंने देह त्याग दिया था।
जीवन परिचय
स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर, 1888 को तमिलनाडु के पवित्र तीर्थ स्थल तिरुतनी ग्राम में हुआ था। इनके पिता सर्वपल्ली विरास्वामी गरीब किंतु विद्वान ब्राह्मण थे। इनके पिता पर बड़े परिवार की जिम्मेदारी थी इस कारण राधाकृष्णन को बचपन में कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह शुरू से ही मेधावी छात्रों में गिने जाते थे। अपने विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाइबल के महत्वपूर्ण अंश याद कर लिए थे, जिसके लिए उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान भी मिला। वर्ष 1902 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की जिसके लिए उन्हें छात्रवृत्ति मिली। कला संकाय में स्नातक करने के बाद उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर किया और जल्द ही मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए।
जानकारियां देना शिक्षा नहीं
शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, फिर भी जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में सतत योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। उनका मानना था कि मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण भी है फिर भी व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतांत्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति। वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं। वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षों तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर अर्जित करना चाहिए। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है।
डॉ. राधाकृष्णन को दिए गए सम्मान
शिक्षा और राजनीति में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए महान दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक डॉ. राधाकृष्णन को देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न दिया गया। राधाकृष्णन के मरणोपरांत उन्हें मार्च 1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो कि धर्म के क्षेत्र में उत्थान के लिए प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार को ग्रहण करने वाले यह प्रथम गैर-ईसाई सम्प्रदाय के व्यक्ति थे। उन्हें आज भी शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श शिक्षक के रूप में याद किया जाता है।
राजनीतिक जीवन
1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉ. राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। यहां तक कि संविधान में उनके लिए उपराष्ट्रपति का नया पद तक बनाया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। बाद में पं. नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितम्बर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके। वर्ष 1962 में वे भारत के राष्ट्रपति चुने गए। उन दिनों राष्ट्रपति का वेतन 10 हजार रुपए मासिक था लेकिन प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मात्र ढाई हजार रुपए ही लेते थे और शेष राशि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष में जमा करा देते थे। डॉ. राधाकृष्णन ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की इस गौरवशाली परम्परा को जारी रखा। देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचकर भी वे सादगीभरा जीवन बिताते रहे। 17 अप्रेल 1975 को हृदयाघात के कारण उनका निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
17-04-2013, 03:18 AM
नई किताब
वनों की निगरानी का अच्छा साधन हैं तितलियां

तितलियां और छोटे-छोटे पतंगे जैव-सूचकों के रूप में काम करते हैं। उनकी इस विशेषता को देखते हुए एक नई किताब में कहा गया है कि इनका इस्तेमाल हमारे वनों की सेहत की निगरानी करने वाले एक प्रभावी साधन के रूप में किया जा सकता है। ‘बटरफ्लाईज आन द रूफ आफ द वर्ल्ड’ नामक पुस्तक में प्रकृति विज्ञानी पीटर स्मेटासेक लिखते हैं, ‘वन की सेहत का आकलन करने के लिए वे स्थानीय प्रजातियां लाभदायक होंगी, जो कि साल दर साल एक नियमित समय के दौरान सीमित क्षेत्र में पाई जाती हैं।’ एलेफ द्वारा प्रकाशित किताब में वह कहते हैं कि अगर कोई यह समझ ले कि ये प्राणी किसी और इलाके में जाकर क्यों नहीं रहते हैं तो वह अपने आप ही समझ जाएगा कि कोई घाटी या पहाड़ी ढलान विशेष क्यों महत्वपूर्ण है। भारतीय तितलियों और पतंगों के बारे में विशेषज्ञता रखने वाले स्मेटासेक विज्ञान के लिए नई लगभग एक दर्जन प्रजातियों की व्याख्या कर चुके हैं। वे उत्तराखंड के भीमताल में तितली अनुसंधान केंद्र भी चलाते हैं। इस कीटविज्ञानी के अनुसार, इन जीवित प्राणियों की मौजूदगी या गैर मौजूदगी का इस्तेमाल पर्यावरण की सेहत को दर्शाने के लिए किया जा सकता है क्योंकि ये जैव-सूचक हैं। कीट-पतंगों की रंग-बिरंगी दुनिया के रहस्यों को स्मेटासेक पश्चिमी हिमालयों में पाई जाने वाली गोल्डन बर्डविंग नामक तितलियों के उदाहरण के जरिए समझाते हैं। किताब कहती है, ‘अगर किसी को गोल्डन बर्डविंग्स अपने आसपास नहीं मिलती है तो इसका मतलब है कि वहां आसपास कोई भी सदाबहार जलस्रोत नहीं है। अगर वहां बर्डविंग्स हैं तो निश्चत तौर पर कहा जा सकत है कि वहां एरिस्टोलोशिया डाईलाटाटा नामक विकसित पौधे हैं, जिनके लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की जरूरत होती है। इसलिए इसका अर्थ है कि आसपास कोई न कोई जलधारा होनी ही चाहिए।’ अगर किसी इलाके से बर्डविंग्स गायब होने लग जाएं ते इसका अर्थ होगा कि वहां की जलधाराएं मौसमी होने लगी हैं और एरिस्टोलोशिया पौधे पूरी तरह विकसित नहीं हो पा रहे। लेखक बताते हैं कि किस तरह तितलियां और उनके लारवा अपने भोजन और रिहाईश के लिए पौधों पर निर्भर करते हैं। वहीं अगर पौधों के जीवन की बात की जाए तो इसके लिए वह जलस्रोतों की मौजूदगी पर निर्भर करते हैं। इसमें भूजलस्रोत भी शामिल हैं। ये तितलियां उन्हीं वनों में पाई जाती हैं, जिनमें उनके पंखों के आकार की पत्तियां पाई जाती हैं। किताब में कहा गया, ‘एक वन में कई पेड़ एक समान पत्तियों वाले होते हैं। उनके बीच इन तितलियों की पहचान करना काफी मुश्किल होता है। हालांकि चीड़ के वनों में तितलियों के सूखी पत्तियों की आकृति और प्रारूप ध्यान आकर्षित करने का काम करेंगी क्योंकि चीड़ के पेड़ों उनके जैसा कुछ न होगा।’ निजी अनुभव की कहानियों से भरी यह किताब एक बड़ा समय वनों और चारगाहों में तितलियों के पीछे भागने और उन्हें पकड़ने का परिणाम है। इसका सार यही है कि वह समय आ रहा है, जब तितलियां हमारे वनों की निगरानी में हमारी मदद किया करेंगी।

rajnish manga
17-04-2013, 09:04 AM
[QUOTE=Dark Saint Alaick;259245]

गोपाल सिंह नेपाली की पुण्यतिथि के अवसर पर

नेपाली जी अपनी तमाम विसंगतियों, कष्टों और विरोधाभासों के बावजूद आम जन के संघर्षों में शामिल रहे और उनके प्रति समर्पित रहे. वे सस्ती लोकप्रियता से सदा परे रहे और उन्होंने आर्थिक संकट व फिल्मों में घाटे से जूझते हुए भी कवि ने अपनी लेखनी से अपने संकटों का रोना नहीं रोया.
उन्होंने कहा था:

अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी सो न सका ...
ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुख-शैया पर भी सो न सका ...

उनकी जन्म-शती को वर्ष भर हो चुका है. इस अवसर पर उनकी कविता 'मेरा धन है स्वाधीन कलम' से कुछ पंक्तियाँ:

तुलसी चंदा तो सूर सूर, केशव से तारे दूर-दूर
बाकी हैं जुगनू, मैं तो बस जागरण पक्ष में चूर-चूर
रवि लाने वाला दीपक हूँ, मेरी लौ मैं लवलीन कलम.


बस मेरे पास ह्रदय भर है, यह भी जग को न्यौछावर है,
लिखता हूँ तो मेरे आगे सारा ब्रह्माण्ड विषय-भर है,
रंगती चलती संसार-पटी यह सपनों की रंगीन कलम.
.....

आदत न रही कुछ लिखने की, निंदा-वंदन-खुदगर्जी से ...
उड़ने को उड़ जाए नभ में, पर छोड़े नहीं ज़मीन कलम ...

उनकी स्मृति को हमारा श्रद्धा वंदन और नमन.

Dark Saint Alaick
20-04-2013, 02:57 PM
शकील बदायूंनी की पुण्यतिथि पर
शायद आगाज हुआ है फिर किसी अफसाने का ...

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26663&stc=1&d=1366451741

अपने पुरकशिश नग्मों के जरिये रूपहले पर्दे पर रूमानियत को नयी शक्ल देने वाले मशहूर शायर शकील बदायूंनी बेशक एक ऐसे अदीब थे जिन्होंने देखने-सुनने वालों को मुहब्बत के नये पहलुओं और कशिश से रूबरू कराया और अपनी अमिट छाप छोड़ी। उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर में तीन अगस्त 1916 को जन्में शकील ने कालजयी फिल्म मुगल-ए-आजम, चौदहवीं का चांद, साहब बीवी और गुलाम, मदर इंडिया, घराना, गंगा-जमुना और मेरे महबूब समेत अनेक फिल्मों में यादगार गीत लिखकर सुनने वालों के दिलों में आशियाना बनाया। शकील ने उर्दू शायरी में अपने रास्ते खुद चुने और ऐसे फलक पर पहुंचे जिसे देखकर आज की शायर पीढी शायद रश्क करती होगी। शकील बदायूंनी से शायरी की बुनियादी बारीकियां सीखने वाले प्रख्यात शायर पूर्व राज्यसभा सांसद बेकल उत्साही ने इस शायर के अदबी पहलू का जिक्र करते हुए बताया कि इश्क को खास अहमियत देने वाले शकील की गजलों में गजब की कशिश थी। उन्होंने कहा कि शकील ने जितने फिल्मी गीत लिखे वे निहायत अदबी थे। उनके हर लफ्ज में गहरे मायने छुपे होते थे और उन्होंने उर्दू के अल्फाज, अदाओं और कशिश को इस शिद्दत से आम अवाम तक पहुंचाया कि वह उनका मतलब समझने लगी। वह बेशक उर्दू के ऐसे दूत थे जिन्होंने इस जबान की चाश्नी को आम लोगों तक पहुंचाया। बेकल ने बताया कि वैसे तो शकील ने अनेक फिल्मी संगीतकारों के साथ काम किया लेकिन नौशाद उन्हें सबसे ज्यादा अहमियत देते थे। इसका नतीजा मुगल-ए-आजम समेत अनेक फिल्मों के गीतों के रूप में सामने आया जो आज भारतीय सिनेमा का बेशकीमत सरमाया हैं। बेकल उत्साही के मुताबिक उर्दू शायरी और उसकी विधाओं से जुड़ी तहजीब को संजोने में भी शकील का अहम योगदान रहा। इस शायर ने कभी मुशायरे पढने के लिये रकम नहीं मांगी। बेशक, शकील ने मुशायरे के मंचों को बुलंदी पर पहुंचाया। उन्होंने कहा कि वह शकील से बहुत प्रभावित रहे हैं और जब उन्होंने उर्दू शायरी की दुनिया में कदम रखा था तब शकील बुलंदी पर थे। ऐसे में उन्हें उनसे उर्दू मौसीकी के बारे में काफी कुछ सीखने को मिला। बचपन से ही शायरी की तरफ झुकाव रखने वाले शकील ने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से तालीम हासिल की और वहां शुरुआत से ही मुशायरों में हिस्सा लेकर मकबूलियत बटोरनी शुरू कर दी। वर्ष 1944 में शकील मुम्बई चले आये और वर्ष 1947 में बनी फिल्म ‘दर्द’ के लिये गीत लिखने के साथ अपने सुनहरे सफर की शुरुआत की। संगीतकार नौशाद के साथ शकील ने बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, दुलारी, शबाब और गंगा-जमुना जैसी फिल्मों में यादगार नग्मे लिखे। इसके अलावा उन्होंने संगीतकार रवि और हेमंत कुमार के साथ भी काम किया। फिल्म ‘घराना’ के गीत ‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं’ के लिये शकील को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। उसके बाद वर्ष 1960 में बनी हेमंत कुमार की ‘चौदहवीं का चांद’ फिल्म के शीर्षक गीत के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार के एक और फिल्मफेयर अवार्ड से नवाजा गया। हिन्दुस्तानी सिने जगत में अपने गीतों की गूंज छोड़कर शकील ने 20 अप्रैल 1970 को दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन अपने नग्मों की शक्ल में वह हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे।

Dark Saint Alaick
29-04-2013, 06:09 AM
29 अप्रैल को सातवीं पुण्यतिथि पर विशेष
पैर कटवाने की डॉक्टरी सलाह ठुकरा दी थी शंकर लक्ष्मण ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26849&stc=1&d=1367197749

हॉकी गोल पोस्ट के सामने अंगद की तरह पैर जमाकर भारत को ओलंपिक में दो बार सुनहरी कामयाबी दिलाने वाले शंकर लक्ष्मण का जुझारूपन उनके आखिरी दम तक कायम रहा था। भारत के जुझारू गोलची का पैर उनके जीवन की संध्या बेला में गैंगरीन का शिकार हो गया था। डॉक्टरों की सलाह थी कि इसे कटवा लिया जाये, ताकि बीमारी शरीर में फैल न सके। मगर उन्होंने इस सलाह को ठुकरा दिया था और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से अपने पैर का इलाज जारी रखा था। बीमारी से जूझते हुए 29 अप्रैल 2006 को लक्ष्मण ने यहां से करीब 20 किलोमीटर दूर अपनी जन्मस्थली महू में दम तोड़ दिया था। लेकिन जब भी भारतीय हॉकी के स्वर्णिम इतिहास के पन्ने पलटे जाते हैं, इस धाकड़ गोलची का जिक्र बरबस ही छिड़ जाता है। वह हॉकी इतिहास में पहले ऐसे गोलची थे, जिसने किसी अंतरराष्ट्रीय टीम की कप्तानी का गौरव हासिल किया था। लक्ष्मण की गिनती हॉकी के सर्वकालिक महान खिलाड़ियों में होती है और पचास व साठ के दशक में भारत के राष्ट्रीय खेल को देश में धर्म जैसा दर्जा दिलाने में उनकी अहम भूमिका थी। वर्ष 1964 के तोक्यो ओलंपिक में भारत की 1-0 से पाकिस्तान के खिलाफ खिताबी जीत में लक्ष्मण के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। खेल के जानकारों के मुताबिक लक्ष्मण ने उस जमाने में गोल बचाने की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित किया और साबित कर दिया कि एक गोलची भी अपने बूते टीम को जीत दिला सकता है। बहरहाल, महू में सात जुलाई 1933 को जन्मे लक्ष्मण ने अपनी सफलता की इबारत उस दौर में लिखी, जब गोलची न तो छाती ढंकने वाला गार्ड पहनता था, न ही सिर बचाने के लिये हेलमेट। उसके पास रक्षा कवच के नाम पर होते थे तो सिर्फ मामूली पैड्स और हॉकी स्टिक। तोक्यो ओलंपिक (1964) से पहले लक्ष्मण मेलबर्न (1956) और रोम (1960) में आयोजित ओलंपिक में भी अपने खेल के जौहर दिखा चुके थे। तीनों खिताबी मुकाबलों में खास बात यह भी थी कि इनमें भारत का मुकाबला परंपरागत प्रतिद्वन्द्वी पाकिस्तान से था। इनमें भारत को दो बार स्वर्ण और एक बार रजत पदक हासिल हुआ।

Dark Saint Alaick
10-05-2013, 11:55 AM
पुण्यतिथि 10 मई पर विशेष
अदब का बेजोड़ सरमाया है कैफी की ‘कैफियत’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27257&stc=1&d=1368168884

‘यूं ही कोई मिल गया था...’ जैसे यादगार नग्मों के जरिये कलम की रोशनी से रूमानियत की गहराइयों को नापने वाले मशहूर शायर और गीतकार कैफी आजमी की बहुरंगी ‘कैफियत’ उर्दू अदब का बेजोड़ सरमाया है और उनका साहित्य रोशनाई के जरिये समाज में बदलाव लाने की उनकी पुरजोर कोशिशों का अक्स भी पेश करता है। प्रगतिशील लेखकों के दौर के अग्रदूतों में शुमार कैफी आजमी ने जिंदगी के मुख्तलिफ पहलुओं पर कलम चलाई। उनकी रचनाओं में जहां रूमानियत का रंग बेहद चटख नजर आता है वहीं, उनके अनेक नग्मे जिन्दगी की स्याह-सफेद सचाई को भी उनके असल रूप में सामने रखकर सोचने पर मजबूर करते हैं। तरक्कीपसंद शायरों में कैफी का नाम अगली पांत में खड़े शायरों में जरूर शामिल किया जाएगा। वह एक इंकलाबी शायर थे और उन्होंने कलम की रूह को जिंदा रखने के लिये कोई समझौता नहीं किया। एक फिल्म गीतकार के रूप में भी कैफी ने कभी मूल्यों का दामन नहीं छोड़ा। जांनिसार अख्तर, शहरयार और साहिर जैसे अपने दौर के मशहूर नग्मानिगारों की तरह कैफी ने भी फिल्मी गीतों में उर्दू के कद और उसकी सभी नजाकतों को बरकरार रखा। कैफी का मानना था कि शायरी का इस्तेमाल समाज में बदलाव के औजार के तौर पर किया जाना चाहिये और अपनी इसी सोच को अमली जामा पहनाते हुए उन्होंने साम्प्रदायिक, धार्मिक कट्टरता और महिलाओं पर जुल्म के खिलाफ ढेरों शेर और कविताएं लिखीं। उनकी लिखी ‘औरत’, ‘मकान’, ‘दायरा’, ‘सांप’ और ‘बहूरानी’ शीर्षक वाली कविताएं औरतों की हालत पर उनकी फिक्र का दर्द पेश करती हैं। कैफी की रचनाओं के दर्शन और उनमें गुथी राष्ट्रवाद तथा सुधारवाद की भावना की थाह लेना आसान नहीं है। वर्ष 1919 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ स्थित मिजवां नाम के छोटे से गांव के जमींदार खानदान में जन्मे कैफी आजमी का असली नाम अतहर हुसैन रिजवी था। महज 19 साल की उम्र में मुम्बई आए कैफी ने साल 1952 में शाहिद लतीफ द्वारा निर्देशित फिल्म ‘बुजदिल’ के लिये पहला गीत लिखा और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कैफी ने ‘शमा’, ‘कागज के फूल’, ‘शोला और शबनम’, ‘अनुपमा’, ‘आखिरी खत’, ‘हकीकत’, ‘हंसते जख्म’, ‘अर्थ’ और ‘हीर रांझा’ समेत अनेक फिल्मों को अपने गीतों से सजाया। उन्होंने जिन फिल्मों में गीत लिखे उनमें से कुछ बाक्स आफिस पर भले ही सफल नहीं हो सकीं लेकिन उनके नग्मों ने कामयाबी की नयी इबारतें लिखीं। वर्ष 1973 में इस्मत चुगताई की अप्रकाशित कहानी पर आधारित फिल्म ‘गरम हवा’ के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहानी, पटकथा और संवाद के लिये फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके पूर्व वर्ष 1970 में उन्हें ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म के लिये सर्वश्रेष्ठ गीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। इसके अलावा उन्हें पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, महाराष्ट्र गौरव अवार्ड तथा युवा भारतीय पुरस्कार के अलावा एफ्रो-एशियन राइटर्स लोटस अवार्ड जैसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया था। कैफी की किताबें एवं कविता संग्रह ‘कैफियत’, ‘आवारा सजदे’, ‘सरमाया’, ‘मेरी आवाज सुनो’, ‘नयी गुलिस्तान’ और ‘जहर-ए-इश्क’ कद्रदानों के लिये किसी खजाने से कम नहीं हैं। अदब की दुनिया को अपनी कृतियों से मालामाल करके यह अजीम शायर 10 मई 2002 को इस दुनिया को हमेशा के लिये अलविदा कहकर चला गया।

Dark Saint Alaick
13-05-2013, 04:36 AM
जीवन पर एक नज़र
नवाज शरीफ : पाकिस्तान में गरजा पंजाब का शेर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27371&stc=1&d=1368401767

पाकिस्तान में तीसरी बार वजीरे आजम का ताज पहनने जा रहे नवाज शरीफ को ‘पंजाब का शेर’ कहा जाता है, जिन्होंने भारत के साथ अमन का दौर वापस लाने का वादा किया है और जिन्हें देश की छिली कटी अर्थव्यवस्था पर मरहम लगाने वाले हाथ के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन उन्हें तालिबान के प्रति नरम भी माना जाता है। इस्पात कारोबारी नवाज फौलादी हौसले के साथ पाकिस्तान की सत्ता की ओर पेशकदमी कर रहे हैं। 1999 में बगावत के बाद सत्ता से बेदखल किए जाने और फिर जेल और निष्कासन का दुख झेलने वाले शख्स के लिए इतने तूफानी तरीके से सियासत की चोटी पर पहुंचना आसान नहीं था। शनिवार को हुए ऐतिहासिक आम चुनाव के वोटों की गिनती का काम अभी चल रहा है। शरीफ ने अपनी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन के मुख्यालय से जीत का ऐलान कर दिया है । पाकिस्तान टेलीविजन के अनुमान के अनुसार नवाज की पार्टी 125 सीटों पर बढत के साथ सत्ता की ओर बड़े मजबूत कदमों से बढ़ती दिखाई दे रही है। ऐसा लग रहा था कि इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी इन चुनाव में बाकी सब पर भारी पड़ेगी, लेकिन यह अनुमान गलत साबित हुए और इमरान को 34 सीटें मिलने का अंदाजा लगाया जा रहा है। 63 वर्षीय नवाज शरीफ ने देश की बदहाल अर्थव्यवस्था को नयी राह दिखाने, सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार कम करने, लाहौर से कराची तक मोटरवे बनाने और बुलेट ट्रेन चलाने का वादा किया है।
प्रधानमंत्री के तौर पर शरीफ का कार्यकाल 1999 में खत्म हुआ, जब सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने रक्तहीन बगावत के दम पर उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया। उसके बाद के नाटकीय घटनाक्रम में नवाज अर्श से फर्श पर आन गिरे और उन्हें जेल में डाल दिया गया। उनपर मुशर्रफ को ला रहे विमान को उतरने से रोकने का प्रयास करने के आरोप लगे और लगा जैसे इस बंदे पर उपर वाले की ‘नवाजिश’ अब नहीं रही। इसके बाद के आठ बरस नवाज सउदी अरब में निर्वासन में रहे और फिर 2007 में वापस लौटे और पीपीपी के साथ मिलकर मुशर्रफ को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने का इंतजाम किया। इसे इत्तफाक ही कहेंगे कि एक वक्त नवाज की जो हालत थी, आज मुशर्रफ का वही हाल है। वह चुनाव में भाग लेने के लिए स्व निर्वासन से वापस पाकिस्तान लौटे और यहां कई तरह के इल्जामात में धर लिए गए। शरीफ हालांकि कह चुके हैं कि मुशर्रफ से उनकी कोई रंजिश नहीं है, लेकिन उन्होंने साफ शब्दों में यह ऐलान भी किया कि अगर वह सत्ता में वापस लौटे, तो पूर्व सैनिक शासक पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाएगा। अपने प्रचार के दौरान शरीफ ने भारत के साथ शांति प्रक्रिया बहाल करने की हिमायत की। उन्होंने कहा, ‘हमें बातचीत के सिरे को वहीं से उठाना है, जहां हमने 1999 में छोड़ा था। वह ऐतिहासिक मौका था और मैं वहीं से उस रास्ते पर आगे जाना चाहूंगा ... हम सब इस बात पर राजी हैं कि हमें तमाम समस्याओं को हल करना होगा, हम शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत के जरिए तमाम मुश्किलें सुलझाएंगे।’
शरीफ ने कहा था, ‘हम उस वक्त को फिर वापस लाना चाहते हैं और उसी मुकाम से अपना सफर दोबारा शुरू करेंगे।’ उन्होंने अपने चुनाव प्रचार में अर्थव्यवस्था पर भी खासा जोर दिया गया। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में पाकिस्तान को 186 देशों में 146वां स्थान दिया गया है। यह सूचकांक देश के लोगों के रहन सहन, स्वास्थ्य और शिक्षा के आधार पर उसका स्थान निर्धारित करता है। शरीफ ने ‘मजबूत अर्थव्यवस्था-मजबूत पाकिस्तान’ का नारा देकर जैसे अपने मुल्क के लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दिया और देश की आवाम उन्हें अर्थव्यवस्था को बदहाली से निकालने में अहम किरदार निभाते देखना चाहती है। शरीफ ने 1990 के दशक में अपने कार्यकाल के दौरान अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के कदम उठाए थे। आर्थिक मोर्चे पर नवाज शरीफ की उपलब्धियां जहां लोगों में उम्मीद की किरण जगाती हैं, वहीं पाकिस्तानी तालिबान के लिए उनके दिल में मुलायम कोना है उससे ला्रेग चिंतित भी हैं। वह तालिबान के सैन्य नरसंहार की बजाय उन्हें बातचीत के जरिए मुख्य धारा में लाने के हामी हैं। लाहौर के एक धनी मानी परिवार में 1949 में जन्मे नवाज शरीफ ने प्राइवेट स्कूलों से शुरूआती शिक्षा ग्रहण करने के बाद पंजाब विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली और उसके बाद अपने पिता की स्टील कंपनी में काम करने लगे। 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के शासनकाल में राष्ट्रीयकृत निजी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से इनके परिवार को बहुत नुकसान उठाना पड़ा और नवाज शरीफ के कदम सियासत की ओर मुड़ गए। जिया-उल-हक की रहनुमाई में शरीफ पहले वित्त मंत्री बने और फिर 1985 में पंजाब के मुख्य मंत्री के ओहदे तक पहुंचे। वह 1990 में प्रधानमंत्री बनने तक इस ओहदे पर बने रहे। उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सत्ता छोड़ देनी पड़ी और उनकी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी बेनजीर भुट्टो ने उनकी जगह ले ली।

Dark Saint Alaick
21-05-2013, 01:19 AM
जयंती पर विशेष
प्रकृति के चित्रकार सुमित्रानंदन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27585&stc=1&d=1369081141

हिंदी साहित्य में छायावाद को स्वर्णिम युग माना जाता है, इस युग के रचनाकारों में तीन सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत प्रमुख हैं, तीनों अलग-अलग हैं। पंत की शुरुआत छायावादी थी, लेकिन बाद में उन्होंने बदलाव किया। पंत ने अपनी रचनाओं की शुरुआत छायावादी परम्परा के रूप में की। उनकी कई रचनाओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण देखा जा सकता है। साहित्यकार रामदरश मिश्र कहते हैं, ‘पंत की तरह किसी और ने प्रकृति का वर्णन नहीं किया। प्रकृति के चित्रण में वह सब पर हावी थे।’ आजीवन अविवाहित रहे हिन्दी साहित्य के इस महत्त्वपूर्ण लेखक ने तीन नाटक, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक संस्मरण संकलन सहित करीब चालीस पुस्तकें लिखीं, जो उनकी निरन्तर सृजनशीलता को रेखांकित करती हैं। ‘गुंजन’, ‘वीणा’ आदि छायावादी कृतियों से शुरू हुआ यह साहित्यिक सफर अरविन्द-दर्शन और साम्यवादी युग-चेतना से प्रभावित ग्रंथों ‘युगांत’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘उत्तरा’, 'पतझड़’, ‘शिल्पी’ में सिमटता हुआ ‘कला और बूढ़ा चांद’ जैसी यथार्थवादी रचना तक पहुंचा। इस रचना पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।
वात्सल्य-रस की रचनाएं
पंत का जन्म 20 मई, 1900 को उत्तराखंड में कुमाऊं के कौसानी गांव में हुआ था। उनके पैदा होने के कुछ घंटों बाद ही पंत की मां का स्वर्गवास हो गया। उनका नाम गोसेन दत्त रखा गया। पंत ने जब होश संभाला तो उन्हें अपने नाम से चिढ़ होने लगी और स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपना नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया। वह पढ़ाई के लिए इलाहाबाद पहुंचे। महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में पंत भी शामिल हुए और इस दौरान उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। इसके बावजूद उन्होंने अपने स्तर पर अध्ययन जारी रखा। हिंदी साहित्य में पंत की कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं ‘पल्लव’, ‘ग्रंथि’, ‘ग्राम्या’ और ‘गुंजन’ प्रमुख हैं। पंत ने भावों और विचारों को मूर्तरूप प्रदान करने के दृष्टिकोण से ‘लोकायतन’ नामक संस्था की शुरुआत की किन्तु इसमें कुछ समय उन्हें खास कामयाबी नहीं मिली। फिर वर्ष 1938 में पंत जी ने ‘रूपाभ’ नामक एक प्रगतिशील मासिक पत्र का संपादन भार सम्भाला। रघुपति सहाय, शिवदानसिंह चौहान, शमशेर जैसे लोगों के सम्पर्क में आने के बाद वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। 1955-1962 तक सुमित्रानंदन पंत आकाशवाणी के मुख्य प्रोड्यूसर के पद पर बने रहे। 1961 में उन्हें भारत सरकार के उच्च राष्ट्रीय सम्मान ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया गया। वर्ष 1969 में सुमित्रानंदन पंत को उनकी काव्य कृति ‘चिदम्बरा’ के लिए देश के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ’ से सम्मानित किया गया। हिंदी साहित्य में पंत ने वात्सल्य रस की रचनाओं को भी आगे बढ़ाया। पंत को अक्सर प्रकृति से जुड़ी उनकी रचनाओं से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन उनके साहित्य में वात्सल्य भी देखने को मिलता है। इसमें भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है। पंत के जीवन से जुड़ा एक और किस्सा है, जो हिंदी सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन से जुड़ा है। अमिताभ का नाम पहले इंकलाब रखा जाना था, लेकिन पंत ने उन्हें अमिताभ नाम दिया। टेलीविजन कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के दौरान खुद अमिताभ ने इस बात को सार्वजनिक किया। अमिताभ ने कहा, ‘जिस दिन मेरा जन्म हुआ, पंतजी हमारे घर पर थे। उन्होंने मेरा नामकरण किया। उनके कहने पर ही मेरा नाम अमिताभ रखा गया।’
‘ग्राम्या’ से नई पहचान
‘ग्राम्या’ सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध रचना है। ग्राम्या में पंत की 1939 से 1940 के बीच लिखी गई कविताओं का संग्रह है। पंतजी सुकोमल भावनाओं के कवि हैं। इनके काव्य में अनेकरूपता है किंतु वे अपनी सौन्दर्य दृष्टि और सुकुमार उदात्त कल्पना के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। निसंग्रत वे प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। प्रकृति के साथ उनकी प्रगाढ़ रागात्मकता बाल्यकाल से ही हो गई थी। पंतजी ने प्रकृति में अनेक रूपों की कल्पना की है। उन्होंने प्रकृति के अनेक सौंदर्यमय चित्र अंकित किए हैं और इसके साथ उनके उग्र रूप का भी चित्रण किया है किंतु इनकी वृत्ति मूलत: प्रकृति के मनोरम रूप वर्णन में ही रमी है।
यथार्थ की नई जमीन
पंत काव्य की रेखाएं चाहे टेढी-मेढ़ी हैं, किंतु उनका विकासक्रम सीधा है। इस क्रम में हम पंत को छायावादी, प्रगतिवादी, समन्वयवादी एवं मानववादी रूप में देख सकते हैं। वर्ष 1930 में पंत भाई देवीदत्त के साथ अल्मोड़ा आ गए। यहां उन्होंने फ्रायड, साम्यवाद, मार्क्सवाद आदि का गहन अध्ययन किया। वह मार्क्स के आर्थिक चिंतन से बेहद प्रभावित हुए। पूरनचन्द जोशी के सानिध्य में रहकर उनके विचारों में परिपक्वता आई। इस दौरान उन्होंने कवि के कल्पनाशील मन के लिए यथार्थ की नई जमीन तोड़ी। इसके बाद इनकी रचनाओं में मानवतावादी दृष्टिकोण उत्तरोत्तर विकसित होता गया। इसके अनंतर इनके समन्वयवादी रूप को निहारा जा सकता है। उन्होंने 28 दिसंबर, 1977 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
21-05-2013, 01:25 AM
राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष
सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति के प्रणेता

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27586&stc=1&d=1369081490

भारतीय राजनीति में सबसे शक्तिशाली और प्रभावी नेहरू-गांधी परिवार से सम्बंध रखने वाले राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए देश में होने वाले सरकारी घोटालों जैसे आरोपों को स्वीकारा था। 40 साल की उम्र में देश के सबसे युवा और नौवें प्रधानमंत्री होने का गौरव हासिल करने वाले राजीव गांधी आधुनिक भारत के शिल्पकार हैं। राजनीतिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद राजीव गांधी ने कभी भी राजनीति में रुचि नहीं थी, लेकिन राजनीति में उनका प्रवेश केवल हालातों की ही देन था। राजीव सूचना प्रौद्योगिकी में भारत की भूमिका अहम मानते थे। उन्होंने कम्प्यूटर के इस्तेमाल को आम करने की शुरुआत की। साइंस और टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने के लिए सरकारी बजट बढ़ाए। राजीव गांधी को समाज और राजनीति में अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया।
विज्ञान-तकनीक को बढ़ावा
इसमें कोई शक नहीं कि राजीव गांधी एक दूरदर्शी नेता थे। चुनाव जीतने और सरकार में शामिल होने जैसी बातें उनके कद के आगे बौनी थीं। एयर इंडिया के पायलट रह चुके राजीव धारा प्रवाह हिंदी और अंग्रेजी बोलते-लिखते थे। चुनावी रैलियों में सुरक्षा घेरे तोड़ते हुए गांव के बुजुर्गों के पास पहुंच जाना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। उनकी मुस्कुराहट उम्मीदें जगाती थीं। एक ऐसे वक्त में जब कोई भी देश को आगे ले जाने के बारे में सोच नहीं रहा था, वह देश को 21वीं सदी में ले जाने की सोच विकसित कर चुके थे। राजीव सूचना प्रौद्योगिकी में भारत की भूमिका अहम मानते थे। उन्होंने कम्प्यूटर के इस्तेमाल को आम करने की शुरुआत की। साइंस और टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने के लिए सरकारी बजट बढ़ाए। हवाई सोच से परे राजीव चाहते थे कि देश में शिक्षा का स्तर सुधरे और 1986 में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एलान किया। जवाहर नवोदय विद्यालय के नाम से आज ग्रामीण बच्चों को शिक्षा मिल रही है। आज इन विद्यालयों में लाखों बच्चे पढ़ रहे हैं। 1986 में राजीव ने महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) की स्थापना की। पब्लिक कॉल आॅफिस के जरिए ग्रामीण इलाकों में संचार सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। राजीव पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने देश में तकनीक के प्रयोग को प्राथमिकता देकर कम्प्यूटर के व्यापक प्रयोग पर जोर डाला। भारत में कम्प्यूटर को स्थापित करने के लिए उन्हें कई विरोधों और आरोपों को भी झेलना पड़ा लेकिन अब वह देश की ताकत बन चुके कम्प्यूटर क्रांति के जनक के रूप में भी जाने जाते हैं।
राजनीतिक सफर
भारतीय राजनीति और शासन व्यवस्था में राजीव गांधी का प्रवेश केवल हालातों की ही देन था। राजीव गांधी ने भ्रष्टाचार को देश के विकास का सबसे बड़ा दुश्मन बताया। उनका चर्चित बयान था कि सरकार के आवंटित एक रुपए में से सिर्फ 15 पैसे ही गांव तक पहुंचते हैं। वे पहले नेता थे, जिन्होंने भ्रष्टाचार को इतना करीब से पहचाना और सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार किया। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए राजीव ने कानूनों को सख्ती से लागू कराया, जो भ्रष्टाचार को रोकने में ताकतवर भी साबित हुए। उन्होंने दल-बदल विरोधी कानून भी लागू कराया, जिससे राजनीति में भ्रष्टाचार पर रोक लग सके। राजीव पर खुद भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे। उन पर बोफोर्स तोप की खरीद में घूस लेने के आरोप लगे, लेकिन कोर्ट में साबित नहीं हो पाए। अपने शासनकाल में उन्होंने प्रशासनिक सेवाओं और नौकरशाही में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाए। कश्मीर और पंजाब में चल रहे अलगाववादी आंदोलनकारियों को हतोत्साहित करने के लिए राजीव गांधी ने कड़े प्रयत्न किए।
सहयोग ही बना निधन की वजह
20 अगस्त, 1944 को जन्मे राजीव गांधी इंदिरा गांधी के पुत्र थे। इनका पूरा नाम राजीव रत्न गांधी था। सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वह भारी बहुमत से प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी और उनके छोटे भाई संजय गांधी की प्रारंभिक शिक्षा देहरादून के प्रतिष्ठित दून स्कूल में हुई थी। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने लंदन के इम्पीरियल कॉलेज में दाखिला लिया साथ ही कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से इंजीनीयरिंग का पाठ्यक्रम भी पूरा किया। भारत लौटने के बाद राजीव गांधी ने लाइसेंसी पायलट के तौर पर इण्डियन एयरलाइंस में काम शुरू किया। कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान राजीव गांधी की मुलाकात एंटोनिया मैनो से हुई, विवाहोपरांत जिनका नाम बदलकर सोनिया गांधी रखा गया। छोटे भाई संजय गांधी की दुर्घटना में मृत्यु के बाद उन्होंने अपनी मां को सहयोग दिया। श्रीलंका में चल रहे लिट्टे और सिंघलियों के बीच युद्ध को शांत करने के लिए राजीव गांधी ने भारतीय सेना को श्रीलंका में तैनात कर दिया। जिसका प्रतिकार लिट्टे ने तमिलनाडु में चुनावी प्रचार के दौरान राजीव गांधी पर आत्मघाती हमला करवाया। 21 मई, 1991 को रात 10 बजे के करीब एक महिला राजीव गांधी से मिलने के लिए स्टेज तक गई और उनके पांव छूने के लिए जैसे ही झुकी उसके शरीर में लगा आरडीएक्स फट गया। इस हमले में राजीव गांधी का निधन हो गया।
बनेंगी फिल्में
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जिंदगी पर आधारित एक नहीं दो फिल्में पाइप लाइन में हैं। निर्देशक आदित्य ओम के साथ शीतल तलवार उनकी जिंदगी पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे हैं। फिल्म ‘बंदूक’ से निर्माण और निर्देशन के क्षेत्र में कूदे अभिनेता आदित्य ओम अब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्याकांड पर एक डॉक्यू ड्रामा फिल्म ‘हू किल्ड राजीव’ बनाने जा रहे हैं। राजीव गांधी पर एक और फिल्म निर्देशिका भवाना तलवार और उनके निर्माता पति शीतल तलवार मिलकर बनाने की तैयारी कर रहे हैं। फिल्म को लेकर किसी प्रकार का विवाद न हो इसके लिए निर्माता और निर्देशक, सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मिलकर इस फिल्म को बनाने की अनुमति लेना चाहते हैं। उनकी स्वीकृति के बाद ही यह फिल्म बननी शुरू होगी।

Dark Saint Alaick
14-06-2013, 08:47 AM
पुण्यतिथि : मेहदी हसन
तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है...

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=28057&stc=1&d=1371181655

गजल गायकी के इस धुरंधर को अब उनके चाहने वाले भले ही लाइव ना सुन पाएं, लेकिन उनकी आवाज उनकी गाई गजलों के माध्यम से हमेशा लोगों के दिलों में जिंदा रहेगी। मशहूर गजल गायक मेहदी हसन का गत वर्ष 14 जून को निधन हो गया था। यह वह शख्स थे जिन्हें हिंदुस्तान व पाकिस्तान में बराबर का सम्मान मिलता था और इन्होंने अपनी गायिकी से दोनों देशों को जोड़े रखा था।
जीवन परिचय
राजस्थान के झुंझुनूं जिले के लूणा गांव में 18 जुलाई, 1927 को जन्में हसन का परिवार संगीतकारों का परिवार रहा है। हसन के अनुसार कलावंत घराने में उनसे पहले की 15 पीढ़ियां भी संगीत से ही जुड़ी हुई थी। कहते हैं ना कि स्कूल के पहले बच्चा अपने घर में ही प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर लेता है, वैसे ही हसन ने भी अपने पिता व संगीतकार उस्ताद अजीम खान व चाचा उस्ताद इस्माइल खान से संगीत की प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। भारत-पाक बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। वहा उन्होंने कुछ दिनों तक एक साइकिल दुकान में काम किया और बाद में मोटर मेकैनिक का भी काम कर लिया, लेकिन संगीत को लेकर उनके दिल में जज्बा व जुनून था वह कभी कम नहीं हुआ।
गायकी की शुरुआत
वर्ष 1950 का दौर उस्ताद बरकत अली, बेगम अख्तर, मुख्तार बेगम जैसों का था, जिसमें मेहंदी हसन के लिए अपनी जगह बना पाना सरल नहीं था। एक गायक के तौर पर उन्हें पहली बार वर्ष1957 में रेडियो पाकिस्तान में बतौर ठुमरी गायक पहचान मिली। इसके बाद मेहदी हसन ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। फिर क्या था फिल्मी गीतों की दुनिया में व गजलों के समुंदर में वह छा गए।
अंतिम समय
गौरतलब है कि वर्ष 1957 से 1999 तक सक्रिय रहे मेहदी हसन ने गले के कैंसर के बाद पिछले 12 सालों से गाना लगभग छोड़ ही दिया था। उनकी अंतिम रिकॉर्डिग 2010 में सरहदें नाम से आई जिसमें फरहत शहजाद ने अपना लेख दिया। तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है... वर्ष 2009 में इस गाने की रिकार्डिग पाकिस्तान में की गई। दूसरी ओर उसी ट्रैक को सुनकर वर्ष 2010 में लता मंगेशकर ने अपनी रिकॉर्डिग मुम्बई में शुरू कर दी। हसन की हजारों गजलें कई देशों में जारी हुई। पिछले 40 साल से भी अधिक समय से संगीत की दुनिया में गूंजती शहंशाह-ए-गजल की आवाज की विरासत संगीत की दुनिया को हमेशा रौशन करती रहेगी।
सम्मान और पुरस्कार
मेहदी हसन को गायकी की वजह से संगीत की दुनिया में कई सम्मान प्राप्त हुए हैं। जनरल अयूब खां ने उन्हें ‘तमगा-ए-इम्तियाज’, जनरल जिया उल हक ने ‘प्राइड आॅफ परफ ॉर्मेंस’ और जनरल परवेज मुशर्रफ ने ‘हिलाल-ए-इम्तियाज’ पुरस्कार से सम्मानित किया था। इसके अलावा भारत ने वर्ष 1979 में ‘सहगल अवॉर्ड’ से सम्मानित किया।

Dark Saint Alaick
16-06-2013, 11:44 AM
16 जून को 'शहरयार' के जन्मदिन पर
जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो ना पाया हमने...

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=28060&stc=1&d=1371365035

नई और बहुरंगी सोच को शानदार अल्फाज में पिरोकर उर्दू शायरी को नया चेहरा देने वाले मकबूल शायर अखलाक मोहम्मद खां ‘शहरयार’ अदब के ऐसे अलमबरदार थे जिन्होंने अपनी नज्मों, गजलों और फिल्मी गीतों के जरिये उर्दू को नया लब-ओ-लहजा भी दिया। उत्तर प्रदेश के बरेली में 16 जून 1936 को जन्मे शहरयार बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और उन्होंने एक शायर, गीतकार, पत्रकार और शिक्षक के किरदारों को बहुत खूबी से निभाया और जिया। शहरयार की शख्सियत के बारे में शायर बेकल उत्साही कहते हैं कि वह एक अच्छे शायर और बेहतरीन स्वभाव के धनी शख्स थे और उन्होंने खासकर अपने फिल्मी गीतों के जरिये पर्दे पर खुशी, गम, जुदाई और रुसवाई के दर्द को उर्दू की नजाकत से भरी अभिव्यक्ति देने में बहुत मदद की। उन्होंने बताया कि शहरयार अपने नाम के मुताबिक नज्म और नस्र के सुलतान थे लेकिन उन्हें ज्यादा शोहरत अपने काव्य संग्रहों से नहीं बल्कि फिल्मी गीतों के गुलदस्ते की वजह से मिली। शहरयार ने वर्ष 1972 में आयी म्यूजिकल सुपरहिट फिल्म ‘पाकीजा’ के बाद उसी स्तर की संगीतमय फिल्म बनाने की महत्वाकांक्षा से लिखी गयी ‘उमराव जान’ फिल्म में ‘दिल चीज क्या है, आप मेरी जान लीजिये’ समेत अनेक कालजयी गीत लिखकर उस फिल्म के संगीतकार खय्याम की मुराद पूरी की थी। उस फिल्म के गीत आज भी लोगों के जेहन पर चस्पां हैं। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर रहे शहरयार के सहयोगी प्रोेफेसर यासीन मजहर ने एक शिक्षक के तौर पर इस शायर के किरदार के बारे में बताया कि अलखाक खां अपने नामक के मुताबिक बेहतरीन स्वभाव के व्यक्ति थे। अखलाक खां शहरयार को एक शायर के तौर पर निखारने में मशहूर अदीब खलील-उर्रहमान आजमी की अहम भूमिका रही। शहरयार ने रोजीरोटी के लिये अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू पढाना शुरू किया था और बाद में उन्होंने वहीं अपनी आगे की शिक्षा ग्रहण की और पीएचडी की उपाधि हासिल कर ली। शहरयार वर्ष 1986 में प्रोफेसर बने और 1996 में उर्दू के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने अदबी मैगजीन शेर-ओ-हिकमत का सम्पादन भी किया। शहरयार की फिल्मी पारी हालांकि कुछ फिल्मों तक ही सीमित रही लेकिन जितनी भी रही, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। उन्होंने ‘गमन’, ‘फासले’, ‘अंजुमन’ और ‘उमराव जान’ को अपने गीतों से सजाया। उनकी गजलें ‘दिल चीज क्या है, आप मेरी जान लीजिये’, ‘ये क्या जगह है दोस्तों’ और ‘इन आंखों की मस्ती के’ जैसे गीत बालीवुड की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में शुमार किये जाते हैं। शहरयार की नज्मों का पहला संग्रह ‘इस्म-ए-आजम’ वर्ष 1965 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद ‘हिज्र के मौसम’ और ‘ख्वाब के दर बंद हैं’ भी मंजर-ए-आम पर आये। इस शायर को वर्ष 1987 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और साल 2008 के लिये देश का शीर्ष साहित्य पुरस्कार ज्ञानपीठ अवार्ड प्रदान किया गया। शहरयार ने 13 फरवरी 2012 को अपनी कर्मभूमि अलीगढ में आखिरी सांस ली।

Dark Saint Alaick
16-09-2013, 01:08 AM
नई किताब
जब ‘दम मारो दम ’ सुनकर उठकर चले गए थे एस डी बर्मन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=30555&stc=1&d=1379275685

संगीतकार सचिन देव बर्मन अपने बेटे आर डी बर्मन की ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ फिल्म के लिए तैयार की गयी संगीत रचना ‘दम मारो दम’ को सुनकर इतने दुखी हुए थे कि रिकार्डिंग स्टूडियो से ही उठकर चले गए थे । महान संगीतकार एस डी बर्मन के बारे में इसी प्रकार की कई अन्य रोचक और दिलचस्प जानकारियां खगेश देव बर्मन द्वारा लिखी गयी किताब ‘एस डी बर्मन : द वर्ल्ड आफ हिज म्यूजिक’ में दी गयी हैं । रूपा द्वारा प्रकाशित और लेखक एस के रायचौधरी द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित किताब में सचिन दा के गानों की फेहरिस्त के अलावा उनकी अनोखी शैली और संगीत का भी विश्लेषण किया गया है । सचिन के संस्मरणों को उद्धृत करते हुए लेखक ने उनके बचपन, उनके चरित्र को आकार देने वाली घटनाओं, उनके संघर्ष के दिनों, उनकी संगीत प्रतिभा तथा महान संगीतकार बनने तक के उनके सफर का विस्तार से बखान किया है । हालांकि राहुल देव बर्मन ने अपने पिता के विपरीत एकदम भिन्न शैली को अपनाया लेकिन वह अपने पिता के प्रभाव से बच नहीं सके । सचिन दा ने आर डी को एक संगीतकार के रूप में संवारा था और उन्हें अलग अलग तरह के साजों पर हाथ आजमाने को प्रोत्साहित किया । लेखक लिखते हैं, ‘‘ वह दम मारो दम गीत के संगीत से आहत नहीं थे , न ही यह बात उन्हें बुरी लगी थी कि उन्हें अब अपने बेटे के लिए रास्ता खाली करना पड़ेगा या लंबे समय से संबंध रखने वाले देव आनंद ने ‘ हरे रामा हरे कृष्णा ’ के लिए उन्हें नजरअंदाज कर राहुल को अपना संगीत निदेशक बनाया था बल्कि वह इस बात से दुखी थे कि उनके बेटे ने उन्हें त्याग दिया था।’’ किताब के अनुसार, ‘‘ जब उन्होंने :सचिन दा ने :स्टूडियो में ‘ दम मारो दम’ गाने की रिकार्डिंग सुनी तो उन्हें बड़ी निराशा हुई । वह परेशान थे । उन्होंने सोचा कि अपने जिस बेटे को उन्होंने अपनी विरासत सौंपी थी, जिन्होंने उसे बचपन से संगीत सिखाया था , उसने उन्हें त्याग दिया है ।’’ ‘‘क्या यह विरासत में मिली संस्कृति को त्यागना था? क्या अपने पिता को त्याग देना था ? राहुल ने अपने पिता को स्टूडियो से धीरे धीरे सिर झुकाए बाहर जाते देखा। ऐसा लगता था कि कोई हारा हुआ शहंशाह , युद्ध के मैदान से जा रहा हो ।’’ सचिन दा को फुटबाल और टेनिस से बेहद प्यार था और वे इन खेलों में काफी माहिर भी थे । लेखक कहते हैं, ‘‘ यदि ईस्ट बंगाल और मोहन बगान के बीच मैच हो रहा होता था तो कोई उन्हें फुटबाल के मैदान से दूर नहीं रख सकता था। ईस्ट बंगाल के प्रबल समर्थक सचिन दा अपनी टीम के मैच हारने पर खाना पीना छोड़ देते थे । गुस्से और दुख के मारे रोते थे और उन्हें अपनी खुशमिजाजी में लौटने में कई दिन लग जाते थे ।’’ लेखक ने फिल्म ‘मिली’ के गीतों की रिकार्डिंग के दौरान उन्हें पक्षाघात होने और फुटबाल से सचिन दा के लगाव के बारे में एक किस्सा कुछ इस तरह बखान किया है : ‘‘ सचिन दा गहन कोमा की हालत में थे और उन्हें ठीक करने के सभी प्रयास विफल साबित हो रहे थे । ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने केवल एक बार आंखें खोली थी। जिस दिन ईस्ट बंगाल ने मोहन बगान को लीग मैच में 5 0 से हराया , राहुल ने यह खबर अपने पिता के कान में चिल्लाकर दी । इस पर उन्होंने एक बार आंखें खोली और सिर्फ अंतिम बार ।’’ किताब में यह भी बताया गया है कि सचिन दा को किस प्रकार संगीत जगत में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा।

rajnish manga
16-09-2013, 12:55 PM
अमर संगीत साधक एस.डी.बर्मन के जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं की जानकारी देने वाले इस समीक्षात्मक आलेख ने एक बार फिर हमें उनकी कभी न भूलने वाली गीत-रचनाओं की और उनकी आवाज़ की याद दिला दी. आपका आने बार आभार, अलैक जी.

Dark Saint Alaick
16-10-2013, 11:53 PM
नई किताब
पाकिस्तानी सेना द्वारा हिंदू-जनसंहार पर चुप रहे थे निक्सन

वर्ष 1971 में बांग्लादेश की स्वतंत्रता से पहले पाकिस्तानी सेना ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में सुनियोजित तरीके से हिंदू समुदाय के जनसंहार को अंजाम दिया था और निक्सन प्रशासन ने इससे आंखें मूंदे रही। एक नयी किताब में यह खुलासा किया गया है। ‘द ब्लड टेलीग्राम : निक्सन किसिंगर एंड ए फॉरगॉटन जेनोसाइड’ नामक इस किताब के लेखक गैरी जे बास ने कहा कि हालांकि भारत सरकार इस बारे में जानती थी लेकिन उसने इसे ज्यादा तवज्जो देने के बजाय इसे बांग्लादेश में बंगाली समुदाय के खिलाफ जनसंहार की संज्ञा दी थी, ताकि तत्कालीन जनसंघ के नेता इस बात को लेकर हाय तौबा नहीं मचाये। प्रिंसटन विश्वविद्यालय में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर बास कहते हैं, ‘‘इसे मूल रूप से हिंदुओं की प्रताड़ना के रूप में सामने लाने के बजाए भारत ने इसे बंगालियों के विनाश के रूप में पेश करने पर ध्यान केंद्रित किया।’’
बास ने कहा, ‘‘भारतीय विदेश मंत्रालय ने यह तर्क दिया था कि देश में बंगालियों की संख्या बहुत ज्यादा होने के कारण चुनाव हार गए पाकिस्तानी जनरल उनकी :बंगालियों की: हत्याएं कर रहे हैं ताकि ‘पूर्वी बंगाल में जनसंख्या में भारी कमी आ सके।’ और ये लोग पाकिस्तान में बहुसंख्यक न बने रह सकें।’’ किताब कहती है कि चूंकि पाकिस्तानी सेना लगातार हिंदू समुदाय को अपना निशाना बना रही थी, ऐसे में भारतीय अधिकारी नहीं चाहते थे कि जन संघ पार्टी के हिंदू राष्ट्रवादी और ज्यादा भड़कें। बास ने किताब में लिखा है, ‘‘रूस में भारत के राजदूत डी पी धर ने मास्को से पाकिस्तान की सेना पर हिंदुओं को चुन-चुनकर उनकी हत्या करने की पूर्वनियोजित नीति बनाने का दोष लगाया था लेकिन उन्होंने लिखा है कि जनसंघ जैसे दक्षिणपंथी हिंदू उग्रराष्ट्रवादी दल की उग्र प्रतिक्रिया के भय से हमने इस बात की पूरी कोशिश करी कि यह मामला भारत में प्रचारित न हो।’’ ढाका में तत्कालीन अमेरिकी कूटनीतिज्ञों ने विदेश मंत्रालय और व्हाइट हाउस दोनों को ही लिखा था कि यह हिंदुओं के ‘जनसंहार’ से कम नहीं है।
किताब कहती है, ‘‘दमन का नेतृत्व करने वाले सैन्य गर्वनर लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खान ने तर्क दिया था कि पूर्वी पाकिस्तान भारत की दासता का सामना कर रहा है। उन्होंने कहा कि अवैध आवामी लीग हमारे उस देश के लिए तबाही ले आई होती, जिसे हमने मुस्लिमों के एक अलग देश के रूप में उपमहाद्वीप में से भारी बलिदानों के बाद हासिल किया है।’’ किताब में यह भी कहा गया कि ‘‘चीफ आॅफ आर्मी स्टाफ और चीफ आॅफ जनरल स्टाफ जैसे वरिष्ठ अधिकारियों को अक्सर यह मजाक करते हुए यह कहते सुना जाता था कि कितने हिंदू मारे गए?’’ बास ने लिखा, ‘‘लेकिन ढाका में अमेरिकी काउंसल जनरल आर्चर ब्लड द्वारा इसे ‘जनसंहार’ की भयावह संज्ञा दिए जाने का भी व्हाइट हाउस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।’’ बास के अनुसार ब्लड ने सोचा था कि जो कुछ भी हिंदुओं के साथ हो रहा था, उसकी व्याख्या के लिए ‘जनसंहार’ ही सही शब्द था। ‘‘उन्होंने बताया था कि पाकिस्तानी सेना ने भारतीय और पाकिस्तानी हिंदुओं में कोई भी भेद नहीं किया था। दोनों के साथ ही दुश्मनों की तरह व्यवहार किया था।’’ ब्लड ने लिखा, ये हिंदू विरोधी भावनाएं व्यापक रूप से फैली हुई थीं। किताब के अनुसार, भारतीय सरकार का मानना था कि पाकिस्तान लाखों हिंदुओं को निकालकर बंगालियों की संख्या कम करना चाहती है ताकि वे पाकिस्तान में बहुमत में न रह सकें। इसके साथ ही पाकिस्तान चाहता था कि वह मासूम बंगाली मुस्लिमों को कथित रूप से भड़काने वाले हिंदुओं से छुटकारा पाकर आवामी लीग को एक राजनैतिक शक्ति बनने से रोके।
तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह ने भारतीय कूटनीतिज्ञों की लंदन में आयोजित एक बैठक में खुलकर कहा था ‘‘भारत में हमने इस बात को ढंककर रखने की कोशिश की लेकिन विदेशियों को ये आंकड़े देने में हमें कोई झिझक नहीं है।’’ ‘‘सिंह ने अपने स्टाफ को देश के लिए गलत बयानी करने के निर्देश देते हुए कहा था: हमें इसे भारत-पाकिस्तान या हिंदू-मुस्लिम विवाद बनने से रोकना है। हमें यह दिखाना चाहिए कि दमन का सामना करने वाले शरणार्थियों में मुस्लिमों के अलावा बौद्ध और ईसाई भी हैं।’’ बास लिखते हैं कि भारत सरकार को डर था कि सच्चाई बताए जाने पर उनका अपना देश ही हिंदुओं और मुस्लिमों में बंट जाएगा। बास कहते हैं कि निक्सन प्रशासन के पास सिर्फ इस जनसंहार के ही पर्याप्त सबूत नहीं थे बल्कि उसके पास हिंदू अल्पसंख्यकों को विशेष तौर पर निशाना बनाए जाने के भी सबूत थे। तत्कालीन विदेश मंत्री हैनरी किसिंगर ने एक बार खुद राष्ट्रपति को बताया था, ‘‘उसने :याह्या ने: पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में हिंदुओं को निष्कासित करके एक और बेवकूफाना गलती की है।’’ भारत में अमेरिका के तत्कालीन राजदूत ने भी रिचर्ड निक्सन से ओवल कार्यालय में बताया था कि उनका सहयोगी ‘पाकिस्तान’ जनसंहार कर रहा है। किताब कहती है, ‘‘ओवल कार्यालय में राजदूत ने अमेरिकी राष्ट्रपति और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार से सीधे कहा था कि उनका सहयोगी जनसंहार कर रहा है। रोजाना डेढ लाख शरणार्थियों के आने की वजह यह है कि वे हिंदुओं की हत्या कर रहे हैं।’’ किताब कहती है, ‘‘न तो निक्सन ने और न ही किसिंगर ने इस पर कुछ भी कहा।’’

rajnish manga
17-10-2013, 12:10 AM
बांग्लादेश के उदय से पहले तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं के बर्बर नरसंहार की ओर आज तक किसी ने इतने जोरदार अंदाज़ में नहीं उठाया जितना उक्त लेखक ने अपनी पुस्तक में उठाया है. यह हमारे लिये चौकाने वाला सच है.

Dark Saint Alaick
26-10-2013, 11:35 AM
सुरों का काफिला छोड़ चला गया सुरसाज

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=31221&stc=1&d=1382769282

भारतीय शास्त्रीय संगीत में पॉप का जुझारूपन घोलने वाले सुरों के सरताज मन्ना डे हिंदी सिनेमा के उस स्वर्ण युग के प्रतीक थे जहां उन्होंने अपनी अनोखी शैली और अंदाज से ‘पूछो ना कैसे मैने, अय मेरी जोहराजबी और लागा चुनरी में दाग’ जैसे अमर गीत गाकर खुद को अमर कर दिया था। मोहम्मद रफी , मुकेश और किशोर कुमार की तिकड़ी का चौथा हिस्सा बनकर उभरे मन्ना डे ने 1950 से 1970 के बीच हिंदी संगीत उद्योग पर राज किया। पांच दशकों तक फैले अपने करियर में डे ने हिंदी, बंगाली, गुजराती , मराठी, मलयालम , कन्नड और असमी मेंं 3500 से अधिक गीत गए और 90 के दशक में संगीत जगत को अलविदा कह दिया। 1991 में आयी फिल्म ‘प्रहार’ में गाया गीत ‘‘हमारी ही मुट्ठी में ’’ उनका अंतिम गीत था। महान गायक आज बेंगलूर में 94 साल की उम्र में दुनिया से रूखसत हो गए । यह संगीत की दुनिया का वह दौर था , जब रफी, मुकेश और किशोर फिल्मों के नायकों की आवाज हुआ करते थे लेकिन मन्ना डे अपनी अनोखी शैली के लिए एक खास स्थान रखते थे । रविन्द्र संगीत में भी माहिर बहुमुखी प्रतिभा मन्नाडे ने पश्चिमी संगीत के साथ भी कई प्रयोग किए और कई यादगार गीतों की धरोहर संगीत जगत को दी। पिछले कुछ सालों से बेंगलूर को अपना ठिकाना बनाने वाले मन्ना डे ने 1943 में ‘तमन्ना’ फिल्म के साथ पार्श्व गायन में अपने करियर की शुरूआत की थी। संगीत की धुनें उनके चाचा कृष्ण चंद्र डे ने तैयार की थीं और उन्हें सुरैया के साथ गीत गाना था। और ‘‘सुर ना सजे, क्या गाउं मैं’’ रातों रात हिट हो गया जिसकी ताजगी आज भी कायम है ।
1950 में ‘मशाल’ उनकी दूसरी फिल्म थी जिसमें मन्ना डे को एकल गीत ‘‘उपर गगन विशाल’’ गाने का मौका मिला जिसे संगीत से सजाया था सचिन देव बर्मन ने । 1952 में डे ने एक ही नाम और कहानी वाली बंगाली तथा मराठी फिल्म ‘‘अमर भुपाली ’ के लिए गीत गाए और खुद को एक उभरते बंगाली पार्श्वगायक के रूप में स्थापित कर लिया । डे साहब की मांग दुरूह राग आधारित गीतों के लिए अधिक होने लगी और एक बार तो उन्हें 1956 में ‘‘बसंत बहार’’ फिल्म में उनके अपने आदर्श भीमसेन जोशी के मुकाबले में गाना पड़ा । ‘‘केतकी, गुलाब , जूही ’’ बोल वाले इस गीत को शुरू में उन्होंने गाने से मना कर दिया था। शास्त्रीय संगीत में उनकी पारंगता के साथ ही उनकी आवाज में एक ऐसी अनोखी कशिश थी कि आज तक उनकी आवाज को कोई कापी करने का साहस नहीं जुटा सका। यह मन्ना डे की विनम्रता ही थी कि उन्होंने बतौर गायक उनकी प्रतिभा को पहचानने का श्रेय संगीतकार शंकर जयकिशन की जोड़ी को दिया। डे ने शोमैन राजकपूर की ‘‘आवारा’’ , ‘‘श्री 420’’ और ‘‘चोरी चोरी’’ फिल्मों के लिए गाया। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘‘ मैमोयर्स कम अलाइव’’ में लिखा है , ‘‘ मैं शंकरजी का खास तौर से रिणी हूं । यदि उनकी सरपरस्ती नहीं होती तो जाहिर सी बात है कि मैं उन उंचाइयों पर कभी नहीं पहुंच पाता जहां आज पहुंचा हूं । वह एक ऐसे शख्स थे जो जानते थे कि मुझसे कैसे अच्छा काम कराना है । वास्तव में , वह पहले संगीत निदेशक थे जिन्होंने मेरी आवाज के साथ प्रयोग करने का साहस किया और मुझसे रोमांटिक गीत गवाए।’’ मन्ना डे के कुछ सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में ‘‘दिल का हाल सुने दिलवाला’’, प्यार हुआ इकरार हुआ , आजा सनम , ये रात भीगी भीगी , ऐ भाई जरा देख के चलो , कसमे वादे प्यार वफा और यारी है ईमान मेरा’शामिल है ।
मन्ना डे ने रफी , लता मंगेशकर, आशा भोंसले और किशोर कुमार के साथ कई गीत गए। उन्होंने अपने कई हिट गीत संगीतकार एस डी बर्मन, आर डी बर्मन, शंकर जयकिशन , अनिल बिस्वास, रोशन और सलील चौधरी, मदन मोहन तथा एन सी रामचंद्र के साथ दिए । उनकी आवाज ने न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी उनके चाहने वालों का एक हुजूम पैदा कर दिया जो उनकी लरजती आवाज के दीवाने थे । इसी के चलते उन्हें राष्ट्रीय गायक, पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मानों से नवाजा गया। मन्ना डे ने अपनी स्कूली शिक्षा कोलकाता के प्रसिद्ध स्काटिश चर्च कालेज और विद्यासागर कालेज से प्राप्त की थी। वह स्कूल के दिनों से ही गाते थे लेकिन जल्द ही उनके चाचा ने उन्हें संगीत की गंभीर रूप से शिक्षा देना शुरू कर दिया और वह अपने चाचा के साथ 1942 में मुंबई चले गए । वहां पहले उन्होंने अपने चाचा के साथ और बाद में सचिन देव बर्मन के साथ संगीत की बारिकियां सीखीं जिन्होंने उनकी प्रतिभा को सही मायने में पहचाना। एक मई 1919 को पूर्ण चंद्र और महामाया डे के घर प्रबोध चंद्र डे के रूप में कोलकाता में पैदा हुए डे को उनके चाचा कृष्ण चंद्र डे ने प्रेरित किया जो खुद भी न्यू थियेटर कंपनी के ख्यातिनाम गायक और अभिनेता थे । मन्ना नाम उन्हें उनके इन्हीं चाचा ने दिया था और वह शुरू में बैरिस्टर बनना चाहते थे लेकिन अपने चाचा के प्रभाव में उन्होंने संगीत को कैरियर के रूप में अपनाने का फैसला किया।
आनंद फिल्म के लिए मन्ना डे का गाया गीत ‘जिंदगी कैसी है पहेली हाय’ को सैल चौधरी ने संगीतबद्ध किया था । अभी भी देश भर के एफएम-रेडियो चैनलों पर इस गीत को सुना जा सकता है । फिल्मों के अलावा मन्ना डे गैर-फिल्मी संगीत की दुनिया में भी काफी बड़ी विरासत पीछे छोड़ गए हैं । विशेष रूप से आधुनिक बांग्ला संगीत के क्षेत्र में जहां उनके गीत अभी भी बहुत पसंद किए जाते हैं । कव्वाली की विधा में उन्होंने ‘जंजीर’ फिल्म के लिए ‘यारी है ईमान मेरा, यार मेरी जिंदगी’ गाया, जिसे अभी भी श्रोता शौक से सुनते हैं । मन्ना डे की शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता के मशहूर स्कॉटिस चर्च कॉलेज और विद्यासागर कॉलेज में हुई । स्कूल के दिनों से ही वह दोस्तों के लिए गाते थे लेकिन उनकी इस कला को उनके चाचा ने पहचाना । डे 1942 में अपने रिश्तेदार के साथ मुंबई घुमने आए । उस दौरान उन्होंने अपने चाचा के साथ और सचिन देव बर्मन के साथ काम किया । बर्मन ने ही उनकी प्रतिभा को पहचाना । पूर्ण चन्द्र और महामाया डे के पुत्र मन्ना का जन्म एक मई 1919 को कलकत्ता में प्रबोध चन्द्र डे के रूप में हुआ । मन्ना डे अपने सबसे छोटे चाचा, मशहूर गायक और रंगकर्मी कृष्ण चन्द्र डे से बहुत प्रभावित थे । मन्ना डे नाम उन्हें अपने चाचा से मिला । शुरूआती दिनों में बैरिस्टर बनने की इच्छा रखने वाले डे अपने चाचा के प्रभाव में आकर संगीत के क्षेत्र में चले आए । उन्होंने अपने चाचा के अलावा उस्ताद दबीर खान, उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की शिक्षा ली । डे का विवाह केरल निवासी सुलोचना कुमारन से हुआ । दोनों को दो पुत्रियां हैं । वह सुलोचना को अपनी प्रेरणा बताते थे । उनकी जीवनी ‘जिबोरेन जल्साघोरे’ 2005 में प्रकाशित हुई थी । बाद में उसका अनुवाद अंग्रेजी, हिन्दी और मराठी में हुआ । डे ने केरल निवासी सुलोचना कुमारन से शादी की और उनकी दो बेटियां हुई । उनकी पत्नी का उनकी जिंदगी में बेहद महत्वपूर्ण रोल था और यही वजह थी कि जनवरी 2012 में सुलोचना की मृत्यु के बाद डे अपनी जिंदगी के अंतिम दिनों में एकदम उदासीन और एकांतवासी हो गए थे । वह बेंगलूर में अकेले रहते थे । डे के निधन से हिंदी फिल्म संगीत का एक अध्याय समाप्त हो गया।

rajnish manga
26-10-2013, 11:27 PM
इस आलेख के लिये धन्यवाद स्वीकार करें अलैक जी.
आज मुझे मन्ना दा के बहुत से गीत, टीवी प्रोग्राम और इंटरव्यू याद आते हैं जिनमें वे एक उत्कृष्ट गायन शैली वाले कलाकार के रूप में तो सामने आते ही हैं, साथ ही एक साफ, शफ्फाफ़ और धरती से जुड़ी हुई एक महान शख्सियत के रूप में भी हर दिल अज़ीज़ बन जाते हैं. उनकी शरीके हयात सुलोचना का नक्श भी उभरता है. वे एक दुसरे के पूरक थे और एक दूसरे से बेपनाह मुहब्बत करते थे. हम मन्ना दा के निधन पर उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके परिवार के प्रति गहरी संवेदना प्रगट करते हैं. ईश्वर मन्ना दा की आत्मा को शान्ति प्रदान करे!!!