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View Full Version : कतरनें


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Dark Saint Alaick
20-10-2011, 04:33 PM
मित्रो ! एक नया सूत्र शुरू कर रहा हूं ! शीर्षक से आपने शायद अंदाजा लगा लिया होगा ! क्या ... नहीं ? लीजिए, मैं ही स्पष्ट कर देता हूं ! इस सूत्र में मेरा कुछ नहीं होगा ! नेट पर इधर-उधर विचरण करते हुए जो कुछ श्रेष्ठ, मनमोहक, पठनीय और रोचक प्रतीत होगा: उसे यहां प्रस्तुत कर दूंगा ! बस, यही इस सूत्र में मेरा योगदान होगा ! ... तो शुरू करते हैं कतरनें एकत्र करने की यात्रा !

Dark Saint Alaick
20-10-2011, 04:37 PM
सफेद बालों वाली धूप

-पृथ्वी

धूप इन दिनों अपने बालों में फागुन की मेहंदी लगाकर आसमान की छत पर बैठी रहती है ! सहज स्मित के साथ ! सफेद होती लटों के बारे में सोचकर मंद मंद मुस्कुराते, यादों के गन्ने चूसते हुए ! यादें, जिनमें आज भी गुड़ की मिठास और धनिए की कुछ महक बाकी है !

यह थार की धूप है; जिसकी यादों में मावठ अब भी हौले-हौले बरसती है ! सपने नम- नरम बालू को चूमते हुए उड़ते हैं ! हौसले हर दसमी या पून्यू (पूर्णिमा) को पांच भजन पूरते हैं ! आसमान के चौबारे पर खड़ी फागुन की यह धूप देखती है सरसों की पकती बालियों को, चने के किशोर खेतों को, गेहूं के संदली जिस्म को ! किसान को, जिसके मेहनती बोसों, आलिंगनों, उच्छवासों ने खेतों को नख-शिख इतना सुंदर बना दिया है !

यह सोचते ही धूप खिलखिला पड़ती है और यूं ही मेहंदी के कुछ अनघड़ टुकड़े नीचे गिरते हैं और गेहूं के कई खेत मुस्कुराकर धानी हो जाते हैं ! माघ-फागुन की धूप कुछ यूं ही, टुकड़ों टुकड़ों में खेतों को पकाती है !

धूप को पता है कि यही मौसम है, जब प्रेम और मेहनत की कहानियां परवान चढ़नी हैं ! प्रेम खेतों का फसलों से, प्रेम धरा का मेह से, प्रेम हवाओं का खुशबुओं से और मेहनत किसान की ! मेहनत की कहानी खेत से शुरू होती है तो फसल, खलिहान और मंडी पर आकर समाप्त होती है ! या यूं कहें कि नए रूप में शुरू हो जाती है ! सपनों की कुछ किताबें झोले में आती हैं, नये जीवन की हल्दी हाथों पर रचती है और जीवन यूं ही चलता रहता है ज्यूं फागुन की धूप अपने मेहंदी लगे बालों को सुखाती है !

धूप के रेशमी बालों की कालस या घना काला रंग कोहरे, धुंध और बादलों की तरह उड़ता जा रहा है ! दूर देस से आये पखेरूओं की तरहां; यही कोमल गेसू आने वाले महीनों में जेठ की आंधियों से उलझे और रुखे हो जाने हैं यह बात धूप को भी पता है पर फिलहाल तो वह जीवन के इस मोड़ का आनंद ले रही है, जब मौसम बहुत नरम, नम और हरा है ! सफेद बालों वाली धूप, आजकल अपनी सांसों से लिपट गए मौसमों को जीती है !

Dark Saint Alaick
20-10-2011, 05:23 PM
ख्यालों के बेबहर पंछियों की बेतरतीब उड़ान .... बतकही यूँ भी !


उस दिन किस बारीकी से दिल का वह बंद कोना छुआ तुमने कि कोई सोया दर्द फिर से जाग उठा ...जब तुमने कहा कि कुछ घाव जो सूखे बिना भर जाते हैं, जीवन भर तकलीफ देते हैं और वह अपने पैरों की एडी में छिपा सा हल्का निशान सहला बैठी . उम्र के किस बीते पल में उस स्थान पर वह घाव हुआ था , कभी ललाई लिए एडी से बहता रक्त तो कभी पीले जख्म से रिसता मवाद...हर कुछ दिनों पर अपनी सूरत बदल लेता था . आम जख्म ही होता तो कोई इतना समय , इतने महीने लगता उसे ठीक होने में ...वह तो नासूर ही हो गया था ,डॉक्टर ने कह दिया कुछ देर और करते तो पैर ही काटना पड़ता ... ऑपरेशन टेबल पर बैठी वह रोई नहीं , बड़ी शांति से देखती रही डॉक्टर किस तरह उस जख्म को कैंची लगी रूई से साफ़ करते थे , मवाद बह कर जमा होता रहा वही नीचे एक बर्तन में , वह सिर्फ चुपचाप देखती रही . क्या दर्द नहीं हुआ होगा उसे , होता तो है ही , मगर वह नहीं रोई , सिर्फ देखती रही और डॉक्टर ने कह दिया बहुत हिम्मती है बच्ची और वह सोचती थी कोई निश्चेतक है जो दर्द को इस तरह गुजर जाने देता है ....आज वहां घाव नहीं है , देखने पर कुछ नजर नहीं आता , मगर भीतर खुजली चलने पर वह हाथ से टटोलकर एडी के उस खोखले स्थान को महसूस करती है , उसी जख्म को ....
और वह सोचती रही उन निशानों को , उन जख्मों को , जिनके कोई हल्के से निशान भी ऊपर से नजर नहीं आते थे ....वह जो उसकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था , बिछड़ा था उससे तब , जब्त किया था उसने ,जीवन की रीत सा ही तो हुआ था मिलना और बिछड़ना भी ...
क्यों किया था उसने ऐसा , समन्दर को कितनी लहरों ने छुआ होता ,क्या फर्क पड़ता है ...फिर उस एक लहर से ही शिकवा !! अपने हिस्से का आसमान तो उसने भी छुआ था , फिर क्या था, जो उसके भीतर ऐसा टूटा , बिना निशान भी जिसका दर्द एडी में हुए उस जख्म जैसा ही ....क्यों !!!
उसने खुद को शाबासी दी , एडी के मवाद जैसा कुछ निकला तो नहीं मगर जाने कौन सा निश्चेतक मस्तिष्क का वह हिस्सा शून्य कर गया कि दर्द हँसता- सा गुजर गया ...और अनजाने में उसने प्रेम के लिए अपने ह्रदय के कपाट हमेशा के लिए बंद कर दिए ... वह प्रश्न अनुत्तरित , वह जख्म अनछुआ ही रह जाता , जो उस दिन उसने कहा नहीं होता ...जख्मों का बिना सूखे भर जाना ठीक नहीं होता ....किस खूबी से छुआ था उसने बिना निशान वाले उस जख्म को !
उसने जोर से आँखें बंद कर ली , चीखी -चिल्लाई , मगर वह शांत सा उसकी अंगुली पकडे उसे आईने के सामने खड़ा कर गया ...देखो , यह तुम हो , जिसके भय से चीख कर अपनी आँखें बंद कर लेती हो , उसने उसे वह सब दिखाया जो वह नहीं देखना चाहती थी .... वह भौंचक थी , यह आईने में उसका ही अक्श था , जिस प्रेम को वह दूसरों में ढूंढती थी , नहीं पाने पर झुंझलाती थी , शिकायत करती थी , रोती थी , चीखती थी , वह स्वयं उसमे ही नहीं था ,या कहूँ खोया नहीं था , सूख गया था....जैसे बहते झरने के स्रोत पर कोई पत्थर की शिला अड़ गयी हो ... अब निर्झरणी- सा बहने लगा उसकी अपनी पलकों से ...आह! प्रेम , तुम मुझमे ही छिपे थे , मैंने तुम्हे कहाँ नहीं ढूँढा !
और दे गया सन्देश ,मैं सूरज अपनी धूप सबके लिए एक सी ही तो बिखेरता हूँ , कोई पौधा पत्थरों की ओट बना कर मुरझा जाए तो मेरा क्या कुसूर....मैं ही हूँ सागर , मेरी लहरें साथ साफ़ धुली चमकदार बालू रेत पर सुन्दर शीपियाँ छोड़ देता हूँ किनारे , सडा गला सब बहा ले जाता हूँ , मुझ जैसी गहराई , विशालता तुममे में ना सही , तुम हो प्रेम की कलकल बहती नदिया -सी , कभी शांत , कभी हलचल मचाती ... सडे गले पत्ते , सब अवांछित किनारे पर आ टिकेंगे , मत सोचो कि किसने क्या कहा , क्या समझा जबकि तुम समझती हो तुम क्या हो, तो किसी को समझाने की कोशिश मत करो , उन्हें खुद समझने दो....नदी को नाला समझने वालों की अपनी किस्मत , उनके हिस्से में तलछट ही है ! जो तुमसे नफरत करते हैं , तुम जैसा ही बनना चाह्ते हैं ....क्या- क्या नहीं समझाया उसने , कभी प्यार से , कभी गुस्से से , कभी डांट कर, कभी गले लगा कर !
और वह भरती गयी भीतर से , प्रेम से ! उसने पाया प्रेम कहीं बाहर नहीं ,है उसमे ही है , चीखना , झूटी मूठी शिकायत जैसी शरारतें करना छोड़ा नहीं है अभी उसने , मगर जानती है , प्रेम कही और नहीं है , स्वयं उसके भीतर है ! जीवन क्यारी की महकती बगिया की खुशबू -सा प्रेम ....कस्तूरी मृग की नाभि- सा स्वयं उसमे ही है !

-वाणी

Dark Saint Alaick
24-10-2011, 09:45 PM
हम बड़े क्यों हो जाते हैं !!!

-वाणी
सस्ता रिचार्ज आजकल के बच्चों को बहुत ललचाता है ...चूँकि sms के द्वारा बात करना फोन कॉल से सस्ता पड़ता है , इसलिए ज्यादा समय आजकल के बच्चों की अंगुलियाँ अपन मोबाइल पर ही थिरकती रहती है , वो चाहे परिवार के बीच हो या दोस्तों के बीच . ..कभी टोक दो उन्हें कि इतना समय टाइप करने में बर्बाद होता है , इतने में फोन ही कर लो ,तो जवाब मिलेगा , ये सस्ता है ...एक हमारे जैसे आलसीराम , फ़ोन तो बेचारा इधर -उधर पड़ा रहता है किसी कोने में , कभी मैसेज टोन सुनाई देने पर ढूंढना पड़ जाता है . इसलिए मायके और ससुराल की सारी खबर बच्चों के माध्यम से ही पता चलती रहती है , हम तो ज़रूरी होने पर ही फोन करते हैं या फिर मिलने पर सारी बात होती है .

इधर बहुत दिनों बाद भतीजा घर आया तो देखा कुछ नाराज , कुछ उदास सा लगा . थोडा कुरेदने पर पता चला कि महाशय इसलिए नाराज़ थी कि दोनों भाई -बहनों की लडाई में मैंने अपनी बेटी का पक्ष ले लिया था . मैंने समझाया कि उस समय वह सही थी , सिर्फ इसलिए , मैं पक्षपात नहीं करती हूँ , जो गलत होता है , उसे ही डांटती हूँ , मगर बेटा सुनने को तैयार नहीं ...
नहीं बुआ , आप दीदी का पक्ष ले रहे थे , जबकि वो गलत थी . इतनी देर में बिटिया रानी उठाकर आ गयी कमरे से बाहर और दोनों में वाद विवाद शुरू हो गया , तब समझ आया कि पिछले कुछ दिनों से दोनों में अबोला चल रहा था . दोनों को ही ये शिकायत , तुमने ऐसा कहा , तुमने वैसा कहा , और बात भी कुछ गंभीर नहीं थी , बस नोट्स के आदान प्रदान को लेकर कुछ ग़लतफ़हमी थी .
मैं बहुत देर तक समझाती रही , मगर उस पर कुछ असर नहीं . वो बस यही कहता रहा कि आप दीदी की मम्मी हैं , इसलिए उसका पक्ष ले रही है . मैंने बहुत समझाने की कोशिश की ,मगर वह सुनने को तैयार नहीं ..आखिर मैंने कह दिया ," अगर तुझे ऐसा लग रहा है कि दीदी ही गलत है , तो छोड़ ना , जाने दे , कौन तेरे सगी बहन है , कौन सी दीदी , किसकी दीदी , चल जाने दे , तू सोच ही मत "...
क्या जादू हुआ इन शब्दों का , भतीजा एक दम से शांत हो गया ...
अरे वाह , ऐसे कैसे , दीदी तो दीदी ही रहेगी , झगडा होने का ये मतलब थोड़े हैं कि दीदी ही नहीं है ...
अब मुझे हंसी आ गयी , फिर क्या परेशानी है !!
दोनों भाई- बहन देर तक आपस में बहस करते रहे , तूने उस दिन ऐसे कहा , वैसे कहा , ऐसा क्यों कहा , वैसा क्यों कहा , मैं घर के काम निपटाते सब सुन रही थी , जब नाश्ता बना कर लेकर आई तो देखा दोनों की आँखों से गंगा- जमना बह रही थी , मन का कलुष भी शायद इनके साथ बह कर निकल गया था ...
दोनों के सिर पर हाथ फेर कर मैंने कहा ," इतना सबकुछ इतने दिनों तक मन में क्यों छिपाए रखा था , पहले ही कह सुन लेते "...दोनों फिर से हंसी मजाक करते हुए नाश्ता करने लगे .
बच्चों के लडाई झगडे इतने से ही तो होते हैं , कुछ दिन कुछ महीने फिर सब कुछ वैसा ही , मगर वही बच्चे जब बड़े हो जाते हैं , तो सबकुछ बदल जाता है , कभी कभी लगता है , हम बड़े ही क्यों हो जाते हैं , वैसे ही बच्चे क्यों नहीं बने रहते ...सुनती हूँ माता -पिता की प्रोपर्टी और विरासत के लिए भाई- बहन एक दूसरे के खून के प्यासे , तो मन उदास हो जाता है .
ये लोंग बड़े क्यों हो जाते हैं !!!! शायद इसलिए ही कहा गया है मेरे भीतर का बच्चा बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है!

कुछ शब्द कैसे जादू करते हैं , जब कोई लगातार नकारात्मक बातें कर रहा हो , एक बार उसकी हाँ में हाँ मिला दीजिये , देखिये उसका असर , बेशक इसके लिए ज़रूरी है दिल का सच्चा होना , और भावनाओं की ईमानदारी ...
" तू जो अच्छा समझे ये तुझपे छोड़ा है " ...वाद विवाद के बाद अक्सर अपने पति और बच्चों को कह देती हूँ , मुझे भी कहा किसी ने, आप भी कभी किसी खास अपने को कह कर तो देखिये!

Dark Saint Alaick
24-10-2011, 09:47 PM
फैज़ अहमद फैज़ के खत, दानिश इकबाल की आवाज़ और दुख का उजला पक्ष

-विपिन चौधरी


''दुख और नाखुशी दो मुखतलिफ और अलग-अलग चीज़ें हैं और बिलकुल मुमकिन है कि आदमी दुख भी सहता रहे और खुश भी रहें"। ये पंक्तियाँ फैज़ अहमद फैज़ ने जेल की चारदीवारी में रहते हुऐ अपनी पत्नी को १५ सितम्बर १९५७ को लिखी थी। ख़त के माध्यम से दुनिया के सामने दुख का अनोंखा और उजला पक्ष रखने वाले फैज़ को आज हम उंनकी जन्म शताब्दी पर याद कर रहे है जिसके तहत देश भर में उन्हें अलग -अलग तरीके से उन्हें याद किया जा रहा है। राजधानी दिल्ली में भी फैज़ की याद को समर्पित कई कार्यक्रम आयोजित किऐ जा रहे हैं । इसी कडी में एक खूबसूरत कार्यक्रम बीती रविवार को इंडिया हबिटैट सेन्टर की खुली छत पर आयोजित किया गया। रंगमंच और रेडियो के दो दिग्गजों दानिश इकबाल और सलीमा राजा ने फैज़ के लगभग ३०-३५ खतों के सार पढ़े। जिस नाटकीय लय में दोनों ने फैज़ के लिखे को अपनी आवाज़ दी वह बेहद दिल ओ दिमाग को सुकून देने के साथ कानो मै भी शहद घोलने वाला रहा, लगभग ढाई घंटें वहाँ मौजुद लोग मुग्ध हो उन्हें सुनते रहे। उस समय पूरा माहौल फैज़मय हो उठा जब इकबाल बानो और शौकत खान जैसे महान गायकों द्वारा गई उनकी तीन गज़लें को भी सुनाया गया ।

१९५० के उस दौर में जब पूरा उपमहाद्वीप राजनीतिक अशांति से गुज़र रहा था, तब इस प्रबुद्ध दम्पति के ज़ीवन में क्या उधल पुधल चल रही थी इसका पता हमें उनके द्वारा लिखे इन पत्रों से मिला। ये पत्र जीवन को तिरछी नज़र से भी देखने का साहस दिखाते हैं। फैज़ अपने पत्रों में अपनी पत्नि से बार-बार यह गिला कर रहे थे की उन्कें जेल मे रहने से उनहें घर और बहार दोनों की जिम्मेदारेयाँ संभालनी पर रही हैं।

जीवन के किसी मोड पर जब इन्सान का सामना दुःख से होता है तो वह लगभग विचार शुन्य हो जाता है। फैज़ के लिये उस खास घडी से उपजे दुःख के अलग मायने थे, तब समझ मे आता है की दुःख को कितनी शायस्तगी से जीया था फैज़ ने। दुख से घबराने वाले और दुख में ढूब जाने वाले हम सतही चीज़ों पर ही विचार करते रह जाते हैं। पर कहतें हैं कि सामान्यता से ठीक उलट जीवन को बेहतर तौर पर जीने का रास्ता कोई विलक्षण बुद्धी वाला ही खुल कर सामने रख सकता है और इसी सोच का सामने रखा फैज़ ने.

फैज़ के पत्रों के जवाब में उनकी प्रबुद्ध ब्रिटिश पत्नी अल्यस फैज़ के जवाब भी उतने ही गहन और माकूल थे। ये सभी ख़त निजी होते हुऐ भी सामाजिक दृष्टी से महताव्पूर्ण है और जीवन को नयी दिशा दिखाने का काम करते है जब जीवन में सरे राह चलते चलते कई तरह की परेशानियाँ हमें घेर लेती हैं तो उस वक़्त में कैसे उनसे पार पाया जा सकता है यह सोचने का विषय है। सबका दुख अलग-अलग होता है और दुख को देखने का नज़रिया भी। ज़ब हमारे लाख चाहते हुऐ भी जब कुछ अज़ीज चीज़ों की परछाई हमारे पास से बहुत दूर चली जाती हैं और जो चीज़े समय की तेज़ रफ़्तार में हमारे हाथ से छुट जाती है उनहें खोने का दर्द हमें बार बार सालता है । कुछ अति संवेदनशील लोगों के लिए दुख एक टानिक का काम भी करता है और यह भी सच है कि दुःख का वातावरण कला में पैनापन ले आता है तभी जब-जब भी समाज में बडे तौर पर विपत्ति आई है तब कला भी सघनता से उभर आई है। जैसे दक्षिण अफ्रीकन देशों की त्रासदी, नाइजीरिया का गृहयुद्ध, भारत-पाक विभाजन, सोवियत-रुस का विखंडन आदि एक बडी त्रासदी के रूप में जब समाज में उभरी तो कला मे पैनापन आया । नोबल पुरस्कार विजेता ब्रिटिश लेखिका डोरोथी लेंसिंग का मानना है "आँसू वास्तव में मोती हैं" और असदुल्ला खान ग़ालिब भी कह गए है "दर्द के फूल भी खिलते है बिखर जाते हैं, जख्म कैसे भी हो कुछ रोज़ में भर जाते है" लेकिन फैज़ ने दुःख -दर्द का जो मनोवाज्ञानिक विश्लेषण किया है वह बेमिसाल है। निजता बहुत अज़ीज़ चीज़ है मगर उससे इतना विस्तार देना भी ताकि उससे बाकी लोग भी सबक ले सके, यह बडी बात है।

भावनाओं का सार, खुशी का उत्साह, अवसाद की अकड़न, चिंता की चिंता, यह सब मस्तिक्ष में ख़ुशी औरउल्लास की भावनाओं की तरह ही एक आसमानी इंद्रधनुष की तरह से हैं जो क्षणभंगुर होता है।

जहाँ तक शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क की संरचना को खंगाला के बाद यह निष्कर्ष निकला कि मस्तिष्क सिर्फ एक भावनात्मक केन्द्र नहीं है जैसा कि लंबे समय से यह माना जाता रहा है, बल्कि वहां अलग-अलग भावनाओं की सरंचना भी शामिल है। पुरुषों और महिलाओं के दिमाग मे सुख और दुख अलग- अलग तरह से असर डालते है। न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर जोसेफ फोरगस ने इस पर शोध कर यह परिंणाम निकाला कि नाकारात्मक मूड में लोगों की रचनाशीलाता अधिक बढ़ जाती है। पीडा एक सार्वभौमिक प्रेरक तत्व है, जब हम पीडा में उलझे होते हैं तो इससे बाहर आने के उपाय खोजनें लगते हैं और इसके उबरने के लिये अपनी गतिविधियाँ बढा देते हैं यह ठीक ऐसा ही है जैसे दलदल में फसें होनें पर उस से बाहर निकलनें के लिये हाथ-पाँव मारना। यह सच है जब हम दूर खडे होकर अपने दुख की अनुभूति को देखने, परखने और परिभाषित करने की शमता विकसित करेगें तभी दुसरों के दुख में हमारी भागीदारिता बढ सकेगी। इस मामले में कई संवेदनशील विभूतियों की तरह फैज़ भी धनी थे तभी वे दुख का सटीक विश्लेषण कर सके।

बहरहाल फैज़ अपने इसी खत में आगे लिखते है

"दुख और नाखुशी दो मुखतलिफ और अलग-अलग चीज़ें हैं और बिलकुल मुमकिन है कि आदमी दुख भी रहता रहे और खुश भी रहें। दुख और ना-खुशी खारिज़े चीज़ें हैं जो हमारी या हादसे की तरह बाहर से वारिद होते है, जैसे हमारी मौजुदा जुदाई हैं। या जैसे मेरे भाई की मौत है ,,, लेकिन नाखुशी जो इस दर्द से पैदा होती है अपने अंदर की चीज़ है ये अपने अंदर भी बैठी पनपती रहती है,,,और अगर आदमी एतीहात ना करे तो पुरी शक्सियत पर काबू पा लेती है,,,दुख दर्द से तो कोई बचाव नहीं ,,,लेकिन ना खुशी पर घल्बा पाया जा सकता है,,,बशर्त की आदमी किसी ऐसी चीज़ से लौ लगा ले की जिसकी खातिर जिंदा रहना अच्छा लगे"।

Dark Saint Alaick
24-10-2011, 09:52 PM
एक किस्सा....

-अशोक पांडे

फिर उसने कहा .....अल्लाह तुम पर मेहरबान हो! उसका करम तुम्हें नसीब हो!
एक दिन, शेख अल-जुनैद यात्रा पर निकल पड़े। और चलते-चलते उन्हें प्यास ने आ घेरा। वे व्याकुल हो गये। तभी उन्हें एक कुआं दिखा, जो इतना गहरा था कि उससे पानी निकालना मुमकिन न था। वहां कोई रस्सी-बाल्टी भी न थी। सो उन्होंने अपनी पगड़ी खोली और साफे को कुएं में लटकाया। उसका एक छोर किसी कदर कुएं के पानी तक जा पहुंचा।
वे बार बार साफे को इसी तरह कुएं के भीतर लटकाते फिर उसे बाहर खींच कर अपने मुंह में निचोड़ते।
तभी एक देहाती वहां आया और उसने उनसे कहा-
अरे, तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? पानी से कहो कि ऊपर आ जाये। फिर तुम पानी अपने चुल्लू से पी लो।´
ऐसा कह कर वह देहाती कुएं के जगत तक गया और उसने पानी से कहा-
`अल्लाह के नाम पर तू ऊपर आ जा!´ और पानी ऊपर आ गया। और फिर शेख अल-जुनैद और उस देहाती ने पानी पिया।
प्यास बुझाने के बाद शेख अल-जुनैद ने उस देहाती को देखा और उससे पूछा-
`तुम कौन हो ?´
`अल्लाह ताला का बनाया एक बंदा।´ उसने जवाब दिया।
`और तुम्हारा शेख कौन है?´ अल-ज़ुनैद ने उससे पूछा।
`मेरा शेख है .....अल-जुनैद! हालांकि –आह! अभी तक मेरी आंखों ने उन्हें कभी देखा नहीं।´ गांव वाले ने जवाब दिया।
`फिर तुम्हारे पास ऐसी ताकत कैसे आयी?´ शेख ने उससे सवाल किया।
`अपने शेख पर मेरे यकीन की वजह से!´ उस सीधे-सादे देहाती ने जवाब दिया।
और चला गया!

abhisays
24-10-2011, 11:10 PM
बहुत ही उम्दा कतरने हैं. :fantastic:

Dark Saint Alaick
25-10-2011, 04:06 PM
लाल किले में भी होता था दिवाली का जश्न


‘‘दोनों फिरकों के लोग एक दूसरे के धार्मिक त्यौहारों में शिकरत करते थे। विभिन्न धर्म के पड़ोसियों के बीच अमन चैन से रहने का चलन था। बादशाह इन मामलों में जिंदगी भर उसूलों का पालन करते थे। वे किले के अठपहलू बुर्ज में बैठकर हिंदुओं और मुसलमानों के त्यौहारों की तैयारियों और तमाशों को देखते थे। इस तरह से भलाई की भावनाएं बढती थीं।’’ ये पंक्तियां एन्ड्रयूज की हैं, जिनमें दिल्ली के बादशाहों की दिवाली की एक झलक मिलती है। उर्दू अकादमी के सचिव अनीस आजमी कहते हैं ‘‘बहुत मेलजोल का दौर था। दीवाली और नवरोज की तो जैसे धूम ही मच जाती थी। शाम को जश्न का नजारा देखने के लिए बादशाह किले के झरोखे में आते थे। बेगमें पर्दों से जश्न देखती थीं।’’

इतिहासकार फिरोज बख्त ने कहा, ‘‘चांदनी चौक के कटरा नील में उन दिनों भी पूजा की कई दुकानें थीं और वहां से पूजा का सामान अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के पास भेजा जाता था। किले के अंदर भी दिवाली की रौनक होती थी। कटरा नील में ही मामचंद की दुकान है जहां से बेगम जीनत महल के लिए श्रृंगार का सामान आलता, मेहंदी, उबटन आदि जाता था। दिवाली के लिए खास तौर पर सामान भेजा जाता था। मामचंद के परदादा हकीम सौदागरमल यह सामान ले कर जाते थे।’’

महेश्वर दयाल के मुताबिक, ‘‘दशहरे के बाद से ही दिवाली की तैयारी शुरू हो जाती थी। घरों की सफाई, पकवान, दुकानों की सजावट, नए बहीखाते....सब कुछ सिलसिलेवार तरीके से होता था। बाजार में खील, खांड के खिलौने, मिठाइयों और सूखे मेवों की खरीदी चरम पर होती। हिन्दू और मुसलमान मिल कर दिवाली मनाते थे। उन दिनों एक आने के 50 मिट्टी के दीए और चंद आनों का सेर भर सरसों का तेल मिलता था। दीये सरसों के तेल से जलते थे और मोमबत्ती केवल अमीर तथा रईस जलाते थे। किले में भी दीवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती थी। बादशाह को सोने, चांदी और सात तरह के अनाजों के मिश्रण ‘सतनाजे’ से तौला जाता था और बाद में इसे गरीबों में बांट दिया जाता था। सुबह गुसल करके बादशाह लिबास बदलते थे और नजराना कबूल करते थे। रात को किले की बुर्जियां रौशन की जाती थीं। खील, बताशे और खांड के खिलौने, हटड़ियां और गन्ने अमीरों और रईसों में बांटे जाते थे। पटरियां और दुकाने सामान से अटी रहती थीं। हलवाइयों की दिवाली के दौरान ही साल भर की कमाई हो जाती थी। सवा रूपये में कागजी बादाम आता था। यही भाव भुने हुए चिलगोजे का था। सेरों सूखा मेवा घर लाया जाता था। खाने के लिए भी और बांटने के लिए भी। शायद ही कोई मुफलिस और फकीर हो जिसे दिवाली के रोज मिठाई खाने को न मिलती हो।......दिवाली पर जुआ भी खेला जाता था और शहर में हिजड़े ‘छल्ला दे रे मोरे साईं’ गाते फिरते और पैसे लेते।’’ ( महेश्वर दयाल की किताब ‘दिल्ली जो एक शहर है’ का एक अंश)

Dark Saint Alaick
27-10-2011, 10:23 AM
रोशन है कायनात दीवाली की रात है,
अपने वतन की अलग ही कुछ बात है.

यहाँ हर दिल में ख़ास रौशनी होती है.
प्रेम - मोहब्बत भरे सबके जज्बात है.

मंदिर - मस्जिद- गिरजाघर भी बोले,
एक ही मिट्टी से हमारी मुलाक़ात है.

जाति - जमात में जो बांटे हमसब को,
कह दो हमारी एक हिन्दुस्तानी जात है.

भ्रष्टाचार मिटाने को लड़ रहे हैं हमसब,
पर हम पर ये हो रहा कैसा आघात है ?

अब उठो जागो ऐ मेरे वतन के लोगों,
जम्हूरियत की अब तो निकली बरात है


-रोहतास (सासाराम, बिहार)

Dark Saint Alaick
29-10-2011, 01:15 PM
'गटारी' सेलिब्रेशन

कहा जाता है कि शराब ऐसी चीज है जिसे लेकर शायर लोग तनिक ज्यादा ही भावुक होते हैं, कोई शराब को खराब बताये तो अगिया बैताल हो जाते हैं। ताना मारते हुए कह भी देंगे कि तुम क्या जानों शराब क्या चीज है। आये तो हो बड़े शुचितावादी बनकर, लेकिन जिस सड़क पर खड़े हो उसमें आबकारी टैक्स से मिले पैसों का भी हिस्सा है। न जाने देश के कितने बांध, कितनी सड़के शराबियों के टैक्स देने के बल पर बने हैं और अब भी बने जा रहे हैं।

इतना ही नहीं, कुछ अति संवेदनशील कवि तो तमाम मौजूदा चीजों से तुलना कर साबित करने लगेंगे कि शराब बहुत बढ़िया चीज है, इसे वो न समझो, फलां न जानो। ऐसा ही किसी शायर ने कभी कहा था कि - अरे यह मय है मय, मग़स ( मधुमक्खी) की कै तो नहीं।

बहरहाल इस वक्त जब मैं यह लेख लिख रहा हूं तब यहां मुंबई तमाम शराब की दुकानें, बार, पब गुलज़ार हैं। मौका है विशेष शराब सेवन का जिसे कि स्थानीय भाषा में 'गटारी' कहा जाता है। यह गटारी अक्सर श्रावण महीने से जोड़कर देखा जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि श्रावण महीने में मांस-मदिरा आदि का सेवन नहीं करना चाहिये। दाढ़ी और बाल काटने से भी बचने की कोशिश होती है। इसलिये जो पियक्कड़ होते हैं वह श्रावण आने के पहले ही जुट लेते हैं क्योंकि अगले एक महीने तक सुखाड़ रहेगा। यह अलग बात है कि कुछ लोग 'गटारी' वाले दिन को एक्सट्रा लेने के बाद पूरे श्रावण महिने में भी डोज लेते रहने से नहीं चूकते। उनका डोज मिस नहीं होना चाहिये। कई शराबी तो यह कहते पाये जाते हैं कि न पिउं तो हाथ पैर कांपने लगते हैं। कोई काम नहीं होता :)

दूसरी ओर 'गटारी' शब्द को लेकर भी बड़ी मौजूं बात सुनने में आई है जिसके अनुसार शराबी इसे गटारी अमावस्या इसलिये कहते हैं क्योंकि इस दिन ढेर सारी शराब गटक कर गटर में गिरने का दिन होता है। यह अलग बात है कि मुंबई के गटर अब कंक्रीट के जंगलों से ढंक चुके हैं। इस गटारी अमावस्या के बारे में यहां तक प्रचलित है कि कुछ कम्पनियों में वर्करों को इस दिन के लिये विशेष भत्ता दिया जाता है। उस भत्ते को 'खरची' का नाम दिया जाता है। कहीं भी गटारी शब्द का उल्लेख नहीं होता। बाद में मिली हुई इस 'खरची' को वर्कर की तनख्वाह में से एडजस्ट कर लिया जाता है। यह सिलसिला काफी पहले से चला आ रहा है।

इस गटारी के कुछ साइड इफेक्ट भी दिखते हैं जैसे कि थर्ड शिफ्ट में काम करने वालों की संख्या में उस दिन भारी कमी आती है। लोग एब्सेंट ज्यादा होते हैं। प्रॉडक्शन घटता है। निर्माण क्षेत्र से जुड़े कार्यों पर भी असर पड़ता है। दूसरी ओर पुलिस को भी काफी मुस्तैदी रखनी पड़ती है। बार आदि अलग से टेबल लगवाते हैं या कुछ इंतजाम करते हैं। कुल मिलाकर वह सारा कुछ होता है जो शराब के धंधे, उससे जुड़े फायदों नफा नुकसान आदि से जुड़ा होता है।

एक चलन यह भी देखा गया है कि पहले जहां गटारी केवल एक शाम की होती थी अब उसमें तीन चार शामें होने लगी हैं। पीने वालों की संख्या बदस्तूर बढ़ती जा रही है। बस मौका होना चाहिये। वैसे भी माना जाता है कि पीने वालों को पीने का बहाना चाहिये :)

चलते चलते कुछ शराब से जुड़ी पंक्तियां । जहां तक मैं समझता हूँ शराब अच्छी चीज है या बुरी यह अलग बात है लेकिन शराब को लेकर जो शेर बने हैं वो काफी दिलकश हैं। मसलन,

देखा किये वो मस्त निगाहों से बार बार
जब तक शराब आये, कई दौर हो गये

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मेरी तबाही का इल्जाम अब शराब पे है
मैं करता भी क्या तुम पे आ रही थी बात

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रह गई जाम में अंगड़ाइयां लेके शराब
हमसे मांगी न गई उनसे पिलाई न गई

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जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता जहां पर खुदा ना हो

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फिलहाल प्यासा फिल्म देख रहा हूँ। गजब की पंक्तियां हैं इस फिल्म में।

आज सजन मोहे अंग लगा लो जनम सफल हो जाय......ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है.....हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा दें तो......वाह साहिर लुधियानवी.....वाह !

-सतीश पंचम

Dark Saint Alaick
29-10-2011, 01:19 PM
श्रीलाल शुक्ल जी का जाना

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13103&stc=1&d=1319876309

श्रीलाल शुक्ल जी का जाना एक अजीब तरह के खालीपन से भर गया है। जब से वे अस्पाताल में थे, हम रोज़ सुबह दुआएं करते थे कि आज का दिन भी उनके लिए ठीक-ठाक बल्कि पहले से बेहतर गुज़रे और वे जल्द चंगे हो कर वापिस अपने घर लौट आयें। अपना भरपूर जीवन जीयें। हम कि*तना चाहते रहे कि वे ज्ञानपीठ सम्मान पूरी सज-धज के साथ लेते, हम सब उन अविस्मरणीय पलों के साक्षी बनते जब वे ज्ञानपीठ सम्मान लेने के बाद मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपना चुटीला भाषण पढ़ते और हम सब ठहाके लगाते हुए अपने प्रिय रचनाकार के शब्द-शब्द को सम्मानित होते देखते। लेकिन ऐसा नहीं होना था।
राग दरबारी मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक थी। जब भी किसी नये पाठक को कोई किताब उपहार में देने की बात आती, वह किताब राग दरबारी ही होती और किताब पाने वाला हमेशा-हमेशा के लिए इस बात का अहसान मानता कि कितनी अच्छी किताब से वह हिंदी साहित्य पढ़ने की शुरुआत कर रहा है। राग दरबारी कहीं से भी पढ़ना शुरू करो, हर बार नये अर्थ खोलती थी। पचासों बार उसके शब्द-शब्द का आनंद लिया होगा।
श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी रू ब रू दो ही मुलाकातें थीं! दोनों ही मुलाकातें उनके घर पर। दोनों ही यादगार मुलाकातें। पहली बार कई बरस पहले अखिलेश जी भरी बरसात में रात के वक्त उनके घर पर ले गये थे। मैंने आदरवश उनके पैर छूए थे तो वे नाराज़ होते हुए से बोले थे कि ये क्या करते हो, हम जिस किस्म की विचारधारा का लेखन करते हैं, उसमें ये पैर-वैर छूना नहीं चलता लेकिन मैं उन्हें कैसे बताता कि उनके जैसे कथा मनीषी के पैर छू कर ही आदर दिखाया जा सकता है और उनसे आशीर्वाद पाया जा सकता है।
दूसरी बार कोई चार बरस पहले लखनऊ जाने पर उनके घर गया था। मेरे साथ मेरे बैंक के वरिष्ठ अधिकारी श्याम सुंदर जी थे। श्याम सुंदर जी तमिल भाषी हैं लेकिन कई भाषाएं जानते हैं, हिंदी में कविता करते हैं और सबसे बड़ी बात राग दरबारी उनकी भी प्रिय पुस्तक थी। उस वक्त संयोग से शुक्लि जी घर पर अकेले थे। मैं हैरान हुआ मैं उनकी स्मृति में अभी भी बना हुआ था। उन्होंने मुझे कथा दशक नाम के कहानी संग्रह की भी याद दिलायी। मैंने इस संग्रह का कथा यूके के लिए संपादन किया था। इसमें कथा यूके के इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित दस रचनाकारों की कहानियां हैं। शायद श्रीलाल शुक्ल जी ने साक्षात्कार पत्रिका में अपने किसी इंटरव्यू में इस किताब की तारीफ भी की थी। इस मुलाकात में उन्होंने कहा था कि मैं उन्हें ये किताब दोबारा भेज दूं। मैं ये जान कर भी हैरान हुआ था कि उन्होंने मेरी कहानियां भी पढ़ रखी थीं।
तभी वे चुटकी लेते हुए बोले थे – आप लोग आये हैं और घर पर कोई भी नहीं है। देर से आयेंगे। कैसे खातिरदारी करूं। चाय बनाने में कई झंझट हैं। गैस जलाओ, चाय का भगोना खोजो, फिर पत्ती, चीनी, दूध सब जुटाओ, छानो, कपों में डालो, फिर कुछ साथ में खाने के लिए चाहिये, ये सब नहीं हो पायेगा। ऐसा करो, व्हिस्की ले लो थोड़ी थोड़ी। मैं तो लूंगा नहीं, डॉक्टर ने मना कर रखा है, तुम्हारे लिए ले आता हूं। एक दम आसान है पैग बनाना। गिलास लो, जितनी लेनी है डालो, सोडा, पानी, बर्फ कुछ भी चलता है और पैग तैयार।
उस दिन हमने बेशक उनके बनाये पैग नहीं लिये थे लेकिन इतने बड़े रचनाकार के सहज, सौम्य और पारदर्शी व्यक्तित्व से अभिभूत हो कर लौटे थे।
मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि
-सूरज प्रकाश

ndhebar
29-10-2011, 01:59 PM
बेहतरीन सूत्र, पर रचनाकारों को धन्यवाद सहित अर्ज करूँगा
रचना किसी की हो, प्रस्तुतकर्ता धन्यवाद के पात्र हैं
आखिर इन्ही की वजह से तो हम इनको पढ़ पाए

Dark Saint Alaick
31-10-2011, 11:39 AM
मौत से हुये साक्षात्कार ने किया प्रेरित

(जनसंवेदना मानव सेवा)

भोपाल। वाक्या करीब पांच साल पुराना है। महाराष्ट्र प्रवास के दौरान रेलवे लाइन पार करते समय एक ट्रेन के नीचे आते मैं बाल-बाल बचा। तभी एक ने कमेन्ट्स किया, बच गये वरना लावारिस की तरह मरते और अंतिम संस्कार करने वाला भी कोई नहीं मिलता। उस अंजान व्यक्ति की यह अंतिम बात मुझे चुभ गई। भोपाल आकर लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की जानकारी ली तो हेैरत में पड़ गया। पुलिस के पास न तो कोई फंड, न दीगर व्यवस्थायें, न कोई ऐसी संस्था जो इस काम में पुलिस का हाथ बंटाती हो। तब ही लावारिस व गरीब लोगों की मौत पर उनके अंतिम संस्कार कराने में हाथ बंटाने के लिये जन संवेदना नामक संस्था का गठन किया। विषय संवेदनशील था लेकिन एकदम नया। उद्देश्य जानने के बाद लोग मौके पर तो संवेदनायें जताते लेकिन पीट फेरते ही मजाक उड़ाने से भी नहीं चूकते। दूसरों की बात ही क्यों की जाये, शुरुआत में तो परिजनों के गले भी मेरी बात नहीं बैठी। मैं अपने ध्येय पर कायम रहा। शुरुआत में काफी दिक्कतें आना स्वाभाविक है। अपना मिशन जारी रखा। पांच साल बाद अब संस्था को देश के अनेक राज्यों के लोग मदद कर रहे हैं। विशेषकर राजस्थान के लोग इस मामले में अधिक संवेदनशील हैं। मप्र खासकर भोपाल में अब तक अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। बहरहाल, संस्था अपने मिशन में जुटी रही और आज मुझ्र यह बताते हुये संतोष है कि जनसंवेदना अब तक सात सौ से अधिक लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार में सहयोग प्रदान कर चुकी है। राजधानी के प्रत्येक थाने के पुलिस कर्मियों को जनसंवेदना की सेवाओं की जानकारी है। जरुरत के समय वह संस्था की मदद लेते हैं। अब भी मेरा ज्यादातर समय अपने ध्येय को पूरा करने में गुजरता है। लीक से हटकर कार्य करने में तकलीफ होना स्वाभाविक है। कहते हैं-संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, भाग्य-दुर्भाग्य सब इसी धरती पर है। व्यक्ति की मौत के बाद ही सही, लेकिन मानव सेवा के इस पुण्य कार्य ने मुझ्र अभूतपूर्व आत्मिक सुख प्रदान किया है।
(सौजन्य से रवि अवस्थी)

Dark Saint Alaick
31-10-2011, 01:37 PM
एक अमेरिकन मुझसे बोला भाई साहब बताइये आपका भारत महान है !
तो सँसार के इतने आविष्यकरो मेँ आपके देश का क्या योगदान है ?
मैँ बोला रे अमेरिकन सुन,सँसार की पहली फायर प्रूफ लेडी भारत मेँ हुई थी ! नाम था "होलिका"
आग मैँ जलती नही थी,इसलिये उस वक्त फायर ब्रिगेड चलती नही थी !!
सँसार की पहली वाटर प्रूफ बिल्डिँग भारत मेँ हुई नाम था भगवान विष्णु शैया "शेषनाग" ! शेषनाग पाताल गये धरती पर रहे "विशेषसनाग"!
दुनिया के पहले पत्रकार "नारदजी" हुये जो किसी राजव्यवस्था से नही डरते थे ! तीने लोक की सनसनी खेज रिपोर्टिँग करते थे !!
दुनिया के पहले कॉँमेन्टेटर "सँजय" हुऐ जिनहोने नया इतिहास बनाया ! महाभारत के युद्ध का आँखो देखा हाल अँधे "ध्रतराष्ट्र" को उन्ही ने सुनाया !!
दादागिरी करना भी दुनिया हमने सिखाया क्योँ वर्षो पहले हमारे "शनिदेव" ने ऐसा आतँक मचाया !! कि "हफ्ता" वसूली का रिवाज उन्ही के शिष्यो ने चलाया ! आज भी उनके शिष्य हर शनिवार को आते है ! उनका फोटो दिखाते है हफ्ता ले जाते है !!
अमेरिकन बोला दोस्त फालतू की बाते मत बनाओ ! कोई ढँग का आविष्यकार हो तो बताओ !!
(जैसे हमने इँसान की किडनी बदल दी, बाईपास सर्जरी कर दी आदि)
मैँ बोला रे अमेरिकन सर्जरी का तो आइडिया ही दुनिया को हमने दिया था !
तू ही बता "गणेशजी" का ऑपरेशन क्या तेरे बाप ने किया था!!
अमेरिकन हडबडाया, गुस्से मैँ बडबडाया ! देखते ही देखते चलता फिरता नजर आया !!
तब से पूरी दुनिया को भान है ! दुनिया में मुल्क कितने ही हो सब मे मेरा "भारत" महान है !!

-प्रशांत वर्मा

Dark Saint Alaick
31-10-2011, 02:27 PM
दुखते हैं खुशबू रचते हाथ


-गीताश्री


यहां इस गली में बनती हैं
मुल्क की मशहूर अगरबत्तियां
इन्ही गंदे मुहल्ले के गंदे लोग
बनाते हैं केवड़ा, गुलाब, खस और
रातरानी अगरबत्तियां.
दुनिया की सारी गंदगी के बीच
दुनिया की सारी खुशबू
रचते रहते हैं हाथ।
---अरुण कमल की कविता

मैंने कुछ साल पहले अचानक नेट पर अपने प्रिय कवि अरुण कमल जी की कविता खूशबू रचते हाथ पढी थी। कविता मेरे जेहन में दर्ज हो गई थी। ये उस कौम पर लिखी गई है जिसकी तरफ हमारा ध्यान कभी जाता ही नहीं। मैं सोचती रही कि कहां किस शहर में मिलेंगी ये औरते जो हमारे लिए खूशबू रचती है। कवि ने उन्हें कहीं किसी गली में तो देखा होगा ना..अचानक मैं पिछले साल उज्जैन गई। ट्रेन से आने जाने का प्लान था। आदतन जब ट्रेन किसी शहर में प्रवेश करने लगती है तो मुझे जार्ज डो का एक प्रसिध कथन याद आने लगता है...किसी शहर को देखने का सबसे अच्छा तरीका है ट्रेन के दरवाजे पर खड़े होकर उसे देखें..और मैं एसा करती हूं जब भी कभी ट्रेन से जाती हूं। उज्जैन के करीब पहुंचते ही ट्रेन के दरवाजे पर आई..धीमी होती ट्रेन और धीमे धीमे आती हवा में महक सी थी। पहले लगा कि महाकाल की नगरी है मंदिर से आती होगी..लोकिन पटरियों के एकदम पास नजर गई और मैं दंग रह गई। अरुण कमल जी की कविता..साक्षात..लाइव..कविता की पंक्तियां याद आने लगीं..हाथ ही हाथ थे..जो खूशबू रच रहे थे। खिलखिला रहे थे..खूशबू में सने हाथ ट्रेन के यात्रियों को टा टा बाय बाय भी कह रहे थे। मुझे कविता के किरदार पहली बार मिले..निराला की भिक्षुक कविता के बाद..
फिर तो इन गलियों में गई अपनी लोकल सहेली मधुलिका के साथ। वहां जाकर जो कुछ मिला उसे यहां लिख डाला। कवि होती तो कविता लिखती..तब भी अऱुण कमल से ज्यादा अच्छा नहीं लिख पाती..पत्रकार हूं सो लेक लेश लिख डाला..फोटो खींचे..उनसे बातें की..खूशबू भरी..उनकी पीड़ा लेकर घर लौट आई..ट्रेन को लौटना होता है..

भोर के इंतजार में एक गली

अब खूशबू रचते हाथ दुखने लगे हैं।
उज्जैन की ऊंची नीची, आड़ी तिरछी, तंग गलियों में अगरबत्ती बनाते बनाते तीस वर्षीया संध्या गोमे की उंगलिया पीड़ा गई हैं। कंधे दुखने लगे हैं। अब दुआ के लिए भी हाथ उठाने में दिक्कत होती है। फिर भी एक दिन में वह पांच किलो तक अगरबत्ती बना लेती है। रीना आकोदिया के गले में हमेशा खराश रहती है। कच्चे माल से निकलने वाला धूल उसके फेफड़े में जम रहा है। परिवार चलाना है तो उसे किसी भी हालत में अगरबत्ती बनाना ही होगा। पुष्पा गोमे बताती है, हम रोज का बीस से पचास रुपये तक कमा लेते हैं। घर के बाहर काम करने नहीं जा सकते। हमें घर बैठे काम चाहिए। इसके अलावा और कोई रोजगार यहां है नहीं..क्या करे?
ये महाकाल और कालिदास की नगरी उज्जैन की एक गली है योगेश्वर टेकरी। शायद ऐसे ही किसी गली में कभी अरुण कमल ने संध्या, पुष्पा, रीना, पिंकी जैसो की बहदाली देखी होगी। तमाम पूजाघरो को सुंगध से भर देने वाले हाथ अब बेहाल हैं। लगातार एक ही जगह बैठकर अगरबत्ती बनाते बनाते उनका जीवन कई तरह की मुश्किलो से भर गया है। उनका स्वास्थ्य तो खराब हो ही रहा है घर की माली हालत भी ठीक नहीं हो पा रही है। फैक्ट्री मालिक और बिचौलिए के शोषण दौर निरंतर जारी है। रीना बताती है, बहुत सी औरतो का घर इसी से चलता है। क्या करें। सभी हमारा शोषण करते हैं। कच्चा माल देते हैं साढे सात किलो, लेकिन बनाने के बाद वे पांच किलो तौलते हैं। धूल से बीमारी हो रही है। रीना की तरह ही इस गली की तमाम औरतें शोषण के दोहरे मार से बिलबिलाई हुई हैं। इनका कोई ना कोई संगठन है ना इनके हक में आवाज उठाने वाला कोई स्थानीय नेता। घर के पुरुष सदस्यो को भी इनकी सुधि नहीं है। खुद तो वे दिनभर बैठकर इसतरह का काम करेंगे नहीं। घर की महिलाओं के ऊपर लाद दिया है पूरा कारोबार। उनका ज्यादातर वक्त चौक चौराहो पर बैठकर चाय पीने या बीड़ी का धुंआ उड़ाने में जाता है। शाम को बिचौलिए से पैसे लेने जरुर पहुंच जाते हैं। कम रकम हाथ लगी तो हो हल्ला मचाते हैं। औरत पर दोहरी मार। कम अगरबत्ती बनाने का इल्जाम भी झेलो। अब तक किसी स्वंयसेवी संगठन की नजर इनकी बदहाली पर नहीं पड़ी है। नवगठित एनजीओ भोर की सर्वेसर्वा मधुलिका पसारी ने जब पहली बार फरवरी, 2010 को मेरे साथ इस गली का दौरा किया तो मेरे साथ साथ वह दंग रह गईं। उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि खुशबू रचने वाले हाथों को किन मुश्किलो को सामना करना पड़ रहा है। अब तक उपेक्षित इस धंधे में लगी महिला मजदूरो का कोई यूनियन भी नहीं है। पिंकी टटावत बताती है यहां यूनियन नहीं बनती। मैं अगर बनाना चाहूं तो बीच के लोग खत्म कर देते हैं। हम काम करना तो नहीं बंद कर सकते ना। काम बंद होगा तो परिवार कैसे चलेगा?
संध्या बौखला कर कहती है, हमें साढे सात किलो माल देता है बदले में पांच किलो लेता है। वजन में माल कम हो गया ना। हमारी मजदूरी वैसे भी कम है ऊपर से डंडी मार देते हैं। कमसेकम हमारी मजदूरी तो बढा देते।
पूरी तरह से औरतो के कंधो पर टिका है ये धंधा। पांच साल की उम्र से लड़कियां भी निपुण हो जाती है अगरबत्ती बनाने में। घर में जिनती महिला सदस्य होती हैं वे सब घरेलु कामकाज निपटाने के बाद सुबह 11 बजे से शाम पांच या छह बजे तक एक ही जगह पर बैठकर बांस की पतली स्टिक पर मसाला चढाती रहती हैं, सुखाती हैं फिर इनका बंडल बना कर बिचौलिए का इंतजार करती हैं। बदले में वो चंद रुपये दे जाता है। इन पैसो से ना पेट भर पा रहा है ना किस्मत बदल पा रही है। पूरे शहर में और कोई धंधा नहीं है। सारे मिल बंद हो चुके हैं।
देश में उज्जैन पांचवे नंबर का अगरबत्ती उत्पादक शहर है। लगभग 100 अगरबत्ती बनाने वाली फैक्ट्री वहां है। यहां से बनने वाली अगरबत्ती की आपूर्ति देश के कई राज्यो जैसे, गुजरात, राजस्थान, उतर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और दिल्ली में होती है। इस व्यसाय को गृह उधोग का दर्जा प्राप्त है इसलिए सरकार ने कई तरह की छूट दे रखी है। अगरबत्ती व्यसाय से पिछले पचास साल से जुड़े व्यवसायी फखरुद्दीन से बातचीत के दौरान उन वजहो का पता चलता है जो मजदूर महिलाओं के शोषण
का वायस बनी हुई हैं।
वह बताते हैं, उज्जैन की अगरबत्ती गुणवत्ता में कमजोर है। सस्ती बिकती है, मजदूर भी निपुण नहीं हैं। ये कारोबार वहीं फले-फूलेगा जहां गरीब वर्ग है। वैसे भी राजनीति की वजह से कपड़ा मिलें, पाइप फैक्ट्री समेत कई कारखाने बंद हो गए। मजदूर क्या करें। मजबूरन उन्हें इस धंधे में लगना पड़ा।
फरुद्दीन महिला मजदूरो के शोषण के लिए छोटे छोटे कारोबारियो को दोषी ठहराते हैं। उनका कहना है कि छोटे कारोबारियो से हम बड़े कारोबारी बेहद परेशान हैं। उनकी वजह से मध्य प्रदेश के हर गांव में अब अगरबत्तियां बनने लगी हैं। चूंकि किलो के हिसाब से बेचना है तो मोटी अगरबत्तियां बनने लगीं हैं। बारीक बनाएंगे तो वजन कम होगा। धीरे धीरे बारीक बनाना भूल जाते हैं। इसीलिए कच्चा मान बाहर नहीं भेजते, अपनी फैक्टरी में ही मजदूरो को रखकर काम करवाते हैं और उन्हें मीनीमम वेजेस से ज्यादा देते हैं।
अंत में..मधुलिका कहती हैं, अब मुझे कुछ करना पड़ेगा। भोर को एक उद्देश्य मिल गया है। हो सकता है इनकी पहल पर एक नई भोर इन गलियों में आए।

Dark Saint Alaick
01-11-2011, 07:05 PM
सात अरबवें बच्चे के नाम दुनिया की पाती


सात अरबवें इंसान के तौर पर जन्म लेने वाले मेरे प्यारे रेशम के गोले से शिशु इस धरती पर तुम्हारा स्वागत है। धरती के किसी भी कोने में भी चाहे तुमने जन्म लिया हो मुझे उम्मीद है कि तुम एक अच्छे घर में अपने माता-पिता की महफूज पनाह में होगे। तुम्हें लगेगा कि मैंने ऐसा क्यों कहा। क्या सब बच्चे माता पिता के पास सुरक्षित नहीं होते। नहीं मेरे लाल, इस दुनिया में जन्म लेने वाला हर बच्चा इतना खुश किस्मत नहीं होता कि उसे माता-पिता का प्यार दुलार नसीब हो। इस दुनिया में सैकडों ऐसे बच्चे हैं जिन्हें नाजायज कहा जाता है। तुम इतने छोटे हो कि नाजायज का मतलब नहीं समझोगे। तेजी से बढ रही दुनिया में बहुत से ऐसे बच्चे हैं जिनका जन्म अवैध हैं ! इनके आने पर किसी तरह की खुशियां नहीं मनाई जाती, बल्कि इन्हें छिपा कर रखा जाता है और मौका लगते ही इन्हें सूनसान इलाकों, कचरा घरों या अनाथालयों में फेंक दिया जाता है। सिंगापुर की एक वेबसाईट में दुनिया के निवासियों की तरफ से दुनिया में जन्में सात अरबवें बच्चे के नाम यह भावुक पत्र लिखा गया है। इस पत्र में धरती के इस नये मेहमान से कहा गया है कि मेरे बच्चे, माता-पिता, भाई-बहन और अन्य चाहने वालों की छत्र छाया में धीरे-धीरे जब तुम बडे होने लगोगे तो तुम्हें अच्छे खिलाने-पिलाने, अच्छी शिक्षा और अच्छा माहौल देने की चिंता उन्हें सताने लगेगी, क्योंकि आसान सी दिखने वाली ये बातें इतनी आसान भी नहीं हैं मेरे चांद।... मासूम बच्चे ... अपने माता-पिता की गोद में चढ कर जब तुम पार्क में जाओगे और अपने नन्हें-नन्हें कदमों से हरी घास में यहां-वहां दौडोगे तो तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा। तुम्हें खिलखिलाता देख बाग-बगीचे, फूल-पत्ती, चिडियां, गिलहरी भी खुश हो जायेंगी, लेकिन क्या तुम्हें पता है कि हरी-भरी और रंग-बिरंगी दिखने वाली यह दुनिया अंदर से खोखली होती जा रही है। प्रदूषण के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उत्पादन लगातार घट रहा है। मिट्टी की उर्वरक क्षमता गिर रही है ! जल स्तर भी घट रहा है। उनकी जगह कंक्रीट की भयावह गगनचुंबी इमारतें है। जंगल खत्म होते जा रहे है। हवा रोशनी सब कुछ रोक रही है। आबादी तेजी से बढ रही है। अपराध, बेरोजगारी, असंतोष सब कुछ बढता जा रहा है। तुम्हारे जन्म पर मैं बहुत खुश हूं, लेकिन भविष्य में तुम्हारे सामने आने वाली ढेरों चुनौतियों को देख कर चिंतित भी।
नन्हें फरिश्ते मैं इस बात पर भी शर्मिन्दा भी हूं कि तुम्हारे लिए एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए मैं कुछ भी नहीं कर रहा/रही या दुनियाभर में जो भी प्रयास किये जा रहे है वे बहुत बडा बदलाव लाने में सक्षम नहीं है। लेकिन तमाम चिंताओ, आशंकाओं और मुश्किलों के बावजूद सात अरबवें बच्चें के तौर पर दुनिया में जन्म लेने वाले प्यारे बच्चे तुम्हारा तहे दिल से इस धरती पर स्वागत है। तुम इस दुनिया को बेहतर बनाने की शुरुआत करो... इस दुआ के साथ इस दुनिया में तुम्हारे संगी साथी।

Dark Saint Alaick
02-11-2011, 05:11 PM
मैच फिक्सिंग में 200 साल पहले दी गयी थी पहली सजा


पाकिस्तानी क्रिकेटरों सलमान बट और मोहम्मद आसिफ भले ही अब स्पाट फिक्सिंग के दोषी करार दिये गये हों लेकिन ‘भद्रजनों के खेल’ में मैच फिक्सिंग की शुरुआत लगभग 200 साल पहले हो गयी थी और तब एक क्रिकेटर पर आजीवन प्रतिबंध भी लगा था।

लंदन के साउथवर्क क्राउन कोर्ट ने कल बट और आसिफ को गलत तरीके से राशि स्वीकार करने का षड्यंत्र रचने और धोखाधड़ी की साजिश रचने का दोषी पाया। इस साजिश में शामिल तीसरे आरोपी मोहम्मद आमिर के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया गया क्योंकि उन्होने अपना गुनाह स्वीकार कर लिया था।

दिलचस्प तथ्य यह है कि क्रिकेट में फिक्सिंग की शुरुआत तब हो गयी थी जबकि टेस्ट क्रिकेट भी नहीं खेला जाता था। सबसे पहले 1817 से 1820 के आसपास इस खेल की अखंडता खतरे में पड़ती नजर आयी थी। इसी दौरान विलियम लैंबार्ट नामक बल्लेबाज पर मैच फिक्सिंग के लिये प्रतिबंध लगाया गया था जिसके बाद वह फिर कभी क्रिकेट नहीं खेल पाए थे।

यह वह जमाना जबकि सिंगल विकेट क्रिकेट भी खेली जाती थी और तब इस तरह के मैचों पर सट्टा लगाना आसान होता था। इतिहासविद डेविड अंडरडाउन ने अपनी किताब ‘स्टार्ट आफ प्ले-क्रिकेट एंड कल्चर इन एटीन्थ सेंचुरी इंग्लैंड’ में लिखा है कि असल में सिंगल विकेट क्रिकेट में पूरे 11 खिलाड़ी नहीं होते थे और इसलिए उन्हें फिक्स करना आसान था।

अंडरडाउन के अनुसार, ‘‘लोग हमेशा क्रिकेट पर सट्टा लगाते थे विशेषकर ड्यूक, राजा और लार्ड्स जो देश चलाते थे। लेकिन धोखाधड़ी या किसी हद तक मैच फिक्सिंग के कुछ आरोप भी लगे थे।’’

मैच फिक्सिंग के पहले वाकये का जिक्र 1817 में मिलता है। अंडरडाउन के अनुसार उस साल इंग्लैंड और नाटिंघम के बीच खेले गये मैच में कुछ खिलाड़ियों ने जानबूझकर लचर प्रदर्शन किया था। इनमें विलियम लैंबार्ट भी शामिल थे जिन्हें उस समय का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज माना जाता था।

नाटिंघम की तरफ से खेलने वाले लैंबार्ट पर आरोप लगा था कि उन्होंने उस मैच में जानबूझकर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। लैंबार्ट के ही साथी फ्रेडरिक बियुक्लर्क ने इसकी शिकायत एमसीसी से की जिसने लैंबार्ट को लार्ड्स में खेलने से प्रतिबंधित कर दिया था। इस तरह से लैंबार्ट दुनिया के पहले ऐसे क्रिकेटर थे जिन पर मैच फिक्सिंग के लिये प्रतिबंध लगा था।

लैंबार्ट बेहतरीन बल्लेबाज थे। वह पहले ऐसे बल्लेबाज भी थे जिन्होंने पहली बार एक मैच की दोनों पारियों में शतक जमाया था। मई 1817 में बनाया गया उनका यह रिकार्ड 76 साल तक उनके नाम पर रहा था। उन्होंने अपने कैरियर में कुल 64 प्रथम श्रेणी मैच खेले जिनमें उन्होंने 3013 रन बनाये।

इंग्लैंड और नाटिंघम के बीच ‘फिक्स’ हुए उस मैच के बारे में कहा जाता है कि दोनों टीमों के कुछ खिलाड़ियों ने जानबूझकर अपने विकेट गंवाये, कैच टपकाये और यहां तक कि ओवरथ्रो से रन दिये। इसी तरह के एक ओवरथ्रो को बचाने के प्रयास में बियुक्लर्क की उंगली चोटिल हो गयी थी।

एमसीसी ने इसके बाद मैच फिक्सिंग को लेकर कुछ कड़े कदम उठाये थे और 1820 में लार्ड्स में सटोरियों के आने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस घटना के बाद मैच फिक्सिंग की अगली घटना का जिक्र 1873 में मिलता है जब सर्रे के खिलाड़ी टेड पूली ने यार्कशर से हारने के लिये 50 पौंड लिये थे। सर्रे ने पूली को तब निलंबित कर दिया था। लैंबार्ट के जमाने के दिग्गज बल्लेबाजों में विलियम बेलडैम (सिल्वर बिली) भी शामिल थे। उनसे लंदन में तब एक सटोरिये ने कहा था, ‘‘यदि आप मेरी बात मानोगे तो बड़ा पैसा बना सकते हो। ’’ बाद में बिली ने इस पर कहा था कि वह तो झांसे में नहीं आये लेकिन कई अन्य थे जो इन लोगों (सटोरियों) की बात मान लेते थे।

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 08:33 PM
उर्वशी, किसके ‘उर’ बसी


उपजाऊपन या बहुत कुछ उत्पन्न करने के अर्थ में उर्वर शब्द हिन्दी में सामान्यतौर पर खूब प्रचलित है। उर्वर बनाने की क्रिया उर्वरण है और उर्वर होने की अवस्था या भाव को उर्वरता कह सकते हैं। धरती पर अन्न उपजानेवाली, अन्नदायिनी के रूप में पृथ्वी को भी उर्वरा कहा जाता है। इसका अर्थ खेती योग्य उपजाऊ ज़मीन भी होता है। इसी कड़ी में उर्वी भी आता है जिसका अर्थ भी धरती है। बांग्ला में यह उरबी है और पूर्वी बोलियों में उर्बि भी है और उरा भी। इसी तरह हृदय, मन या चित्त के लिए हिन्दी और इसकी बोलियों में उर शब्द भी प्रचलित है। जाइज़ संतान के लिए हिन्दी में औरस शब्द प्रचलित है। इन तमाम शब्दों का मूल संस्कृत का उरस् माना जाता है जिसका अर्थ है सीना, छाती, वक्षस्थल, स्तन, हृदय, चित्त आदि। रीतिकालीन साहित्य में स्त्री के अंगों की चर्चा आम बात थी। साहित्यिक हिन्दी में स्त्री के स्तनों के लिए उरसिज या उरोज जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं। पृथ्वी के अर्थ में उर्वी का अर्थ चौड़ा, प्रशस्त, विशाल और सपाट क्षेत्र भी है।
ख्यात भाषाविद् डॉ रामविलास शर्मा लिखते हैं कि संस्कृत में उर शब्द खेत के लिए प्रयुक्त नहीं होता किन्तु उर्वरा खेती लायक भूमि को कहते हैं। इसी उर् से पृथ्वी के लिए उर्वी शब्द बना है। उर्वरता का समृद्धि से रिश्ता है। उरु शब्द का अर्थ है विस्तृत, चौड़ा, विशाल आदि। मोनियर विलियम्स ने भी ग्रीक भाषा का एउरुस् अर्थात प्रशस्त, विशद इसी उरु का प्रतिरूप बताया है। जॉन प्लैट्स के कोश में भी उरु का अर्थ चौड़ा और विस्तृत बताया गया है। डॉ शर्मा कहते कि संस्कत में उर् जैसी कोई क्रिया नहीं है। वे इस संदर्भ में द्रविड़ भाषा परिवार से कुछ उदाहरण देते हुए इस शब्द शृंखला की रिश्तेदारी द्रविड़ भाषाओं से स्थापित करते हैं। तमिल में उळू शब्द जोतने, खंरोचने के लिए प्रयुक्त होता है। किसान के लिए उळवन शब्द है। तुलु में यह ड-कार होकर ऊडूनि, हुडुनि हो जाता है जिसमें जोतने का भाव है। तमिल में उळ का अर्थ है भीतर। उरई का अर्थ है निवास करना। कन्नड़ में उरुवु का अर्थ है विस्तृत, विशद। तुलु में उर्वि, उर्बि का अर्थ है वृद्धि। ये तमाम शब्द उर्वर की उपजाऊ वाली अर्थप्रक्रिया से जुड़ते हैं।
रामविलास जी उर् और ऊर का रिश्ता भारोपीय पुर और पूर से भी जोड़ते हैं जिसमें आश्रय का भाव है, निवास का भाव है जो क्षेत्र में भी है। उर्वि यानी पृथ्वी का अर्थ भी क्षेत्र है। पुर का मूल भारोपीय रूप पोल है। ग्रीक में यह पॉलिस है जिसका अर्थ है नगर। पॉलितेस यानी नागरिक और पॉलितिकोस यानी नागरिक संबंधी। रूसी में यही पोल शब्द खेत की अर्थवत्ता रखता है। ग्रीक में भी पोलोस उस भूमि को कहते हैं जो जोती गई है। स्पष्ट है कि संस्कृत के प व्यंजन से जुड़ी गति और चलने की क्रिया ही इस शब्द शृंखला में उभर रही है। भूमि को जोतना यानी चलते हुए उसकी सतह को उलटना-पलटना। संस्कृत का पुर गाँव भी है, नगर भी। बुर्ज, बर्ग भी इसी शृंखला में आते हैं। द्रविड़ भाषा में इसी पुर और पूर में प के व में बदलने से उर् और ऊर् शब्द मिलते हैं। तंजावुर का वुर इसका उदाहरण है। इनका मूलार्थ संभवतः आवास था। वैसे संस्कृत के उरु में निहित विशद की व्याख्या जंघा या वक्ष में हो जाती है। यही दोनों अंग हैं जो सुविस्तृत होते हैं। इसीलिए उर अगर वक्ष है तो उरु का अर्थ जंघा है। विस्तार के इसी भाव की व्याख्या उर्वी में होती है जिसका अर्थ है पृथ्वी, जिसके अनंत विस्तार को देखकर प्राचीनकाल में मनुष्य चकित होता रहा है। जिस पर विभिन्न जीवों का वास है। साहित्यिक भाषा में उर अर्थात हृदय भी आश्रयस्थली है और सहृदय व्यक्ति के उर में पूरा संसार बसता है। उरस् का रिश्ता दरअसल संस्कृत के ऋ से है जिसमें महान, श्रेष्ठ, अतिशय का भाव है। स्पष्ट है कि महान और बड़ा जैसे भावों से ही विस्तार, विस्तृत जैसे अर्थ विकसित हुए। क्षेत्र के अर्थ में उर्वी शब्द सामने आया। कृषि संस्कृति के विकास के साथ जोतने की क्रिया के लिए उर्वरा जैसा शब्द विकसित हुआ जिसमें भूमि को उलट-पुलट कर खेती लायक बनाने की क्रिया शामिल है। पोषण पाने के भाव को अगर देखें तो इस शब्द शृंखला में स्तनों के लिए उरोज और उरसिज शब्दों का अर्थ स्पष्ट होता है।
डॉ राजबली पाण्डेय हिन्दू धर्मकोश में लिखते हैं कि कृषि भूमि को व्यक्त करने के लिए क्षेत्र के साथ साथ उर्वरा शब्द का प्रयोग भी ऋग्वेद और परवर्ती साहित्य में मिलता है। वैदिककाल में भी खेतों की पैमाइश होती थी। गहरी खेती होती थी साथ ही खाद भी दी जाती थी। आज कृत्रिम या रासायनिक खाद के लिए उर्वरक शब्द खूब प्रचलित है जो इसी कड़ी का हिस्सा है। इन सब बातों का उर्वरता से रिश्ता है। ज़मीन और पशुओं के लिए संघर्ष होते थे जो समूहों के शक्ति परीक्षण की वजह बनते थे। स्वामित्व के झगड़े इन्हीं संघर्षों से ही तय होते थे। इन संदर्भों में उर्वराजित् या उर्वरापति जैसे शब्द उल्लेखनीय हैं जिनमें भूस्वामिन् का भाव है। इस कड़ी का एक अन्य महत्वपूर्ण शब्द है उर्वशी जो स्वर्ग की अप्सरा है और जिसका उल्लेख पौराणिक साहित्य में कई जगहों पर है। एक सामान्य सा अर्थ जो उर्वशी का बताया जाता है वह है पुरुष के हृद्य को वश में कर लेनेवाली- (उर+वशी)। जाहिर है यह अर्थ उर्वशी के अप्सरा होने अर्थात अपार रूप लावण्य की स्वामिनी होने के चलते विकसित हुआ है। दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार नारायणमुनि की जंघा से उत्पन्न होने के कारण उर्वशी को यह नाम मिला। भाव यह है कि जिसका जंघाओं अर्थात उरु में वास हो वह उर्वशी। यह व्युत्पत्ति हरिवंशपुराण में बताई गई है।
(शब्दों का सफर से साभार )

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 08:39 PM
बारिशों से, बारिशों में लिखे खत

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13255&stc=1&d=1320334723

इक तरफा प्यार भी इक तरफे खतों की तरह होता है...किसी लेखक की बेहद खूबसूरत कवितायें पढ़ कर हो जाने वाले मासूम प्यार जैसा. किसी नाज़ुक लड़की के नर्म हाथों से लिखे मुलायम, खुशबूदार ख़त जब किसी लेखक तक पहुँचते हैं तो उसे कैसा लगता होगा? घुमावदार लेखनी में क्या लड़की के चेहरे का कटीलापन नज़र आता है? क्या सियाही के रंग से पता चलता है की उसकी आँखें कैसी है? काली, नीली या हरी.
हाथ के लिखे खतों में जिंदगी होती है...लड़की को मालूम भी नहीं होता की कब उसके दुपट्टे का एक धागा साथ चला गया है ख़त के तो कभी पुलाव बनाते हुए इलायची की खुशबू. लेखक सोचता की लड़की कभी अपना पता तो लिखती की जवाब देता उसे...कि कैसे उसके ख़त रातों की रौशनी बन जाते हैं. पर लड़की बड़ी शर्मीली थी, दुनिया का लिहाज करती थी...घर की इज्ज़त का ध्यान रखती थी...और आप तो जानते ही हैं कि जिन लड़कियों के ख़त आते है उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता.
तो हम बात कर रहे थे इकतरफी मुहब्बत की...या कि इकतरफी चिट्ठियों की भी. ऐसी चिट्ठी लिखना खुदा के साथ बात करने जैसा होता है...वो कभी सीधा जवाब नहीं देता. आप बस इसी में खुश हो जाते हैं कि आपकी चिट्ठियां उस तक पहुँच रही हैं...कभी जो आपको पक्का पता चल जाए कि खुदा आपके ख़त यानि कि दुआएं सच में खोल के पढ़ता है तो आप इतने परेशान हो जायेंगे कि अगली दुआ मांगने के पहले सोचेंगे. गोया कि जैसे आपने पिछली शाम बस इतना माँगा था कि वो गहरी काली आँखों वाली लड़की एक बार बस आँख उठा कर आपकी सलामी का जवाब दे दे. आप जानते कि दुआ कबूल होने वाली है तो खुदा से ये न पूछ लेते कि लड़की से आगे बात कैसे की जाए...भरी बारिश...टपकती दुकान की छत के नीचे अचकचाए खड़ा तो नहीं रहना पड़ता...और लड़की भी बिना छतरी के भीगते घर को न निकलती. न ये क़यामत होती न आपको उससे प्यार होता. आप तो बस एक बार नज़र उठा कर 'वालेकुम अस्सलाम' से ही खुश थे.
यूँ कि बारिशों में किसी ख़ास का नाम न घुला तो तब भी तो बारिशें खूबसूरत होती हैं...अबकी बारिश में यादें यूँ घुल गयीं कि हर शख्स उसके रंग में रंग नज़र आता है. जिधर नज़र फेरें कहीं उसकी आँखें, कहीं भीगी जुल्फें तो कहीं उसी भीगी मेहंदी दुपट्टे का रंग नज़र आता है. हाय मुहब्बत भी क्या क्या खेल किया करती है आशिकों से! घर पर बिरयानी बन रही है और मन जोगी हो चला है, लेखक अब शायर हो ही जाए शायद, यूँ भी उसके चाहने वाले कब से मिन्नत कर रहे हैं उर्दू की चाशनी जुबान में लिखने को. कब सुनी है लेखक ने उनकी बात भला कितने को किस्से लिए चलता है अपने संग, हसीं ठहाके, दर्द, तन्हाई, मुफलिसी, जलालत...लय के लिए फुर्सत कहाँ लेखक की जिंदगी में.
कौन यकीन करे कि लेखक साहब आजकल बारिश में ताल ढूंढ लेते हैं, मीटर बिना सेट किये सब बंध जाता है कि जैसे जिंदगी खातून की आँखों में बंध गयी है. आजकल लेखक ने खुदा को बैरंग चिट्ठियां भेजनी शुरू कर दी हैं...पहले तो सारे वादे दुआ कबूल होने के पहले पूरे कर दिए जाते थे...पर आजकल लेखक ने उधारी खाता भी शुरू करवा लिया है खुदा के यहाँ. दुआएं क़ुबूल होती जा रहीं हैं और खुदा मेहरबान.
कुछ रिश्ते एक तरफ से ही पूरी शिद्दत से निभाए जा सकते हैं. जहाँ दूसरी तरफ से जवाब आने लगे, खतों की खुशबू ख़त्म हो जाती है. वो नर्म, नाज़ुक हाथों वाली लड़की याद तो है आपको, जो लेखक को ख़त लिखा करती थी? जी...जैसा कि आपने सोचा...और खुदा ने चाहा...लेखक को अनजाने उसी से प्यार हुआ. दोनों ने एक दुसरे को क़ुबूल कर लिया.
मियां बीवी भला एक दुसरे को ख़त लिखते हैं कभी? नहीं न...तो बस एक खूबसूरत सिलसिले का अंत हो गया. तभी न कहती हूँ...सबसे खूबसूरत प्रेम कहानियां वो होती हैं जहाँ लोग बिछड़ जाते हैं.
आप किसी को ख़त लिखते हैं तो उनमें अपना नाम कभी न लिखा कीजिए.

-पूजा उपाध्याय

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 09:15 PM
फाउंटेन पेन से निकले अजीबो गरीब किस्से

-पूजा उपाध्याय

नयी कलम से लिखा पहला वाक्य काटने में बड़ा दुःख होता है, वैसे ही जैसे किसी से पहली मुलाकात में प्यार हो जाए और अगले ही दिन उसके पिताजी के तबादले की खबर आये.
'तुम खोते जा रहे हो.' तथ्य की कसौटी पर ये वाक्य ज्यादा सही उतरता है मगर पिछले वाक्य का सरकटा भूत पीछा भी तो नहीं छोड़ रहा. तुम्हारे बिना अब रोया भी नहीं जाता, कई बार तो ये भी लगता है की मेरा दुःख महज एक स्वांग तो नहीं, जिसे किसी दर्शक की जरूरत आन पड़ती हो, समय समय पर. इस वाक्य को लिखने के लिए खुद को धिक्कारती हूँ, मन के अंधियारे कोने तलाशती भी हूँ तो दुःख में कोई मिलावट नज़र नहीं आती. एकदम खालिस दुःख, जिसका न कोई आदि है न अंत.
स्याही की नयी बोतल खोलनी थी, उसके कब्जे सदियों बंद रहने के कारण मजबूती से जकड़ गए थे. मैंने आखिरी बार किसी को दवात खरीदते कब देखा याद नहीं. आज भी 'चेलपार्क' की पूरी बोतल १५ रुपये में आ जाती है. बताओ इससे सस्ता प्यार का इज़हार और किसी माध्यम से मुमकिन है? अर्चिस का ढंग का कार्ड अब ५० रुपये से कम में नहीं आता. गरीब के पास उपाय क्या है कविता करने के सिवा. तुम्हें शर्म नहीं आती उसकी कविता में रस ढूँढ़ते हुए. दरअसल जिसे तुम श्रृंगार रस समझ रहे हो वो मजबूरी और दर्द में निकला वीभत्स रस है. अगर हर कवि अपनी कविता के पीछे की कहानी भी लिख दे तो लोग कविता पढना बंद कर देंगे. इतना गहन अंधकार, दर्द की ऐसी भीषण ज्वाला सहने की शक्ति सब में नहीं है.
सरस्वती जब लेखनी को आशीर्वाद देती हैं तो उसके साथ दर्द की कभी न ख़त्म होने वाली पूँजी भी देती हैं और उसे महसूस करके लिखने की हिम्मत भी. बहुत जरूरी है इन दो पायदानों के बीच संतुलन बनाये रखना वरना तो कवि पागल होके मर जाए...या मर के पागल हो जाए. बस उतनी भर की दूरी बनाये रखना जितने में लिखा जा सके. इस नज़रिए से देखोगे तो कवि किसी ब्रेन सर्जन से कम नहीं होता. ये जानते हुए भी की हर बार मरीज के मर जाने की सम्भावना होती है वो पूरी तन्मयता से शल्य-क्रिया करता है. कवि(जो कि अपनी कविता के पीछे की कहानी नहीं बताता) जानते हुए कि पढने वाला शायद अनदेखी कर आगे बढ़ ले, या फिर निराशा के गर्त में चले जाए दर्द को शब्द देता है. वैसे कवि का लिखना उस यंत्रणा से निकलने की छटपटाहट मात्र है. इस अर्थ में कहा नहीं जा सकता कि सरस्वती का वरदान है या अभिशाप.
तुम किसी अनजान रास्ते पर चल निकले हो ऐसा भी नहीं है(शायद दुःख इस बात का ही ज्यादा है) तुम यहीं चल रहे हो, समानांतर सड़क पर. गाहे बगाहे तुम्हारा हँसना इधर सुनाई देता है, कभी कभार तो ऐसा भी लगता है जैसे तुम्हें देखा हो- आँख भर भीगती चांदनी में तुम्हें देखा हो. एक कदम के फासले पर. लिखते हुए पन्ना पूरा भर गया है, देखती हूँ तो पाती हूँ कि लिखा चाहे जो भी है, चेहरा तुम्हारा ही उभरकर आता है. बड़े दिनों बाद ख़त लिखा है तुम्हें, सोच रही हूँ गिराऊं या नहीं.

हमेशा की तरह, तुम्हारे लिए कलम खरीदी है और तुम्हें देने के पहले खुद उससे काफी देर बहुत कुछ लिखा है. कल तुम्हें डाक से भेज दूँगी. तुम आजकल निब वाली पेन से लिखते हो क्या?

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 09:20 PM
कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता

-अनूप शुक्ला

दुनिया में यह अफ़वाह लोगों ने सच सी मान ली है कि इश्क जवानों का चोंचला है। बुढ़ापे में इश्क नहीं होता। बुजुर्ग लोग केवल जवानों की हरकतें देखकर आह भरते हैं। इस अफ़वाह को फ़ैलाने में आलसी कवियों का हाथ-पैर भी रहा जिन्होंने भीड़- भावना से केवल जवानों के प्रेम का चित्रण किया।

हालांकि इसके खिलाफ़ भी लोगों ने लिखा। एक शेर जो हमें जो याद हैं वे ठेले-खिदमत हैं जो अक्सर शिवओम अम्बरजी सुनाते हैं:

कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता,
आम तब तक मजा नहीं देता जब तक पिलपिला नहीं होता।


ब्लाग-जगत में हमारे सबसे बड़े-बुजुर्गों में भैया लक्ष्मीनारायण गुप्त कानपुर के ही हैं। हमारे ही स्कूल बी.एन.एस.डी. इंटर कालेज के उत्पाद हैं। आजकल अमेरिकियों को गणित पढ़ाते हैं। प्रेम पर जित्ती बोल्ड कवितायें उन्होंने लिखीं हैं उत्ती शायद किसी तथाकथित नौजवान ने भी न लिखी होंगी।

लक्ष्मीजी ने एक पोस्ट लिखी थी जिसमें आल्हा छंद का किस्सा था। उसको और कुछ कविताओं को लेकर हमने भी आल्हा छंद में प्रेम-कथा लिखी थी। हालांकि इसमें नाम लक्ष्मीजी का है लेकिन जो कोई भी इसे अपनी कथा मानना चाहे तो बाशौक मान सकता है। हमें कौनौ एतराज न होगा। हां, मानने से पहले अपने ’बेटर-हाफ़’ से अनुमति ले लेगा तो अच्छा रहेगा।

आम तौर पर माना जाता है कि प्रेम के बारे में लिखने के लिये अंदाज मुलायम होना चाहिये। इसी बात को गलत ठहराने के लिये हमने यहां वीररस का प्रयोग किया है। आप मुलाहिजा फ़र्मायें, इश्क के दरिया में डूब जायें। यह रिठेल केवल उन लोगों के लिये है जिन्होंने इसे पहले बांचा नहीं। लोग दुबारा पढ़ना चाहे तो उसके लिये भी कोई रोक नहीं है।


वीर रस में प्रेम पचीसी

हमारे पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की :-

मजाक का लहज़ा, और इतनी गहराई के साथ अभिव्यक्ति, मान गये आपकी लेखनी का लोहा, कुछ तो उधार दे दो, अनूप भाई, ब्याज चाहे जो ले लो.

सच में हम पढ़कर बहुत शरमाये। लाल से हो गये। सच्चाई तो यह है कि हर लेख को पोस्ट करने के पहले तथा बाद तमाम कमियां नज़र आतीं हैं। लेकिन पोस्ट करने की हड़बड़ी तथा बाद में आलस्य के चलते किसी सुधार की कोई संभावना नहीं बन पाती।

अपनी हर पोस्ट लिखने के पहले (डर के मारे प्रार्थना करते हुये)मैं नंदनजी का शेर दोहराता हूं:-

मैं कोई बात तो कह लूं कभी करीने से
खुदारा मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे।

जबसे रविरतलामीजी ने बताया कि हम सब लोग कूडा़ परोसते हैं तबसे यह डर ‘अउर’ बढ़ गया। हालांकि रविजी ने पिछली पोस्ट की एक लाइन की तारीफ की थी लेकिन वह हमारी नहीं थी लिहाजा हम उनकी तारीफ के गुनहगार नहीं हुये।

बहुत दिनों से ई-कविता तथा ब्लागजगत में कविता की खेती देखकर हमारे मन में भी कुछ कविता की फसलें कुलबुला रहीं थीं। यह सोचा भी था कि हिंदी ब्लाग जगत तथा ई-कविता की भावभूमि,विषय-वस्तु पर कुछ लेख लिखा जाय ।सोचा तो यह भी था कि ब्लागरों की मन:स्थिति का जायजा लिया जाय कि कौन सी ऐसी स्थितियां हैं कि ब्लागजगत में विद्रोह का परचम लहराने वाले साथी

यूँ तो सीधा खडा हुआ हूँ,
पर भीतर से डरा हुआ हूँ.

तुमको क्या बतलाऊँ यारो,
जिन्दा हूँ, पर मरा हुआ हूँ.

जैसी, निराशावादी मूड की, कवितायें लिख रहे हैं।

लेकिन फिर यह सोचकर कि शायद इतनी काबिलियत तथा कूवत नहीं है मुझमे मैंने अपने पांव वापस खींच लिये क्रीज में। यह भी सोचा कि किसी के विद्रोही तेवर का जायजा लेने का हमें क्या अधिकार है!

इसके अलावा दो लोगों की नकल करने का मुझे मन किया। एक तो लक्ष्मी गुप्त जी की कविता पढ़कर आल्हा लिखने का मन किया । दूसरे समीरलाल जी की कुंडलिया पढ़कर कुछ कुंडलियों पर हाथ साफ करने का मन किया।

बहरहाल,आज सोचा कि पहले पहली चीज पर ही हाथ साफ किया जाय। सो आल्हा छंद की ऐसी तैसी कर रहा हूं। बात लक्ष्मीजी के बहाने कह रहा हूं क्योंकि इस खुराफात की जड़ में उनका ही हाथ है। इसके अलावा बाकी सब काल्पनिक तथा मौजार्थ है। कुछ लगे तो लिखियेगा जरूर।

सुमिरन करके लक्ष्मीजी को सब मित्रन का ध्यान लगाय,
लिखौं कहानी प्रेम युद्ध की यारों पढ़ियो आंख दबाय।

पढ़िकै रगड़ा लक्ष्मीजी का भौजी गयीं सनाका खाय,
आंख तरेरी,मुंह बिचकाया नैनन लीन्ह कटारी काढ़।

इकतिस बरस लौं चूल्हा फूंका कबहूं देखा न दिन रात
जो-जो मागेव वहै खवाया तिस पर ऐसन भीतरघात।

हम तौ तरसेन तारीफन का मुंह ते बोल सुना ना कान
उनकी मठरी,पान,चाय का इतना विकट करेव गुनगान।

तुमहि पियारी उनकी मठरी उनका तुम्हें रचा है पान
हमरा चोला बहुत दुखी है सुन तो सैंया कान लगाय।

करैं बहाना लक्ष्मी भैया, भौजी एक दिहिन न कान,
उइ तौ हमरे परम मित्र हैं यहिते उनका किया बखान।

नमक हमैं उइ रहैं खवाइन यहिते भवा तारीफाचार
वर्ना तुम सम को बनवइया, तुम सम कउन इहां हुशियार।

सुनि हुशियारी अपने अंदर भौजी बोली फिर इठलाय,
हमतौ बोलिबे तबही तुमते जब तुम लिखौ प्रेम का भाव।

भइया अइठें वाहवाही में अपना सीना लिया फुलाय
लिखबे अइसा प्रेमकांड हम सबकी हवा, हवा हुइ जाय।

भौजी हंसिके मौज लिहिन तब अइसा हमें लगत न भाय,
तुम बस ताकत हौ चातक सा तुमते और किया न जाय।

भैया गर्जे ,क्या कहती हो ‘इलू ‘अस्त्र हम देब चलाय,
भौजी हंसी, कहते क्या हो,तुरत नमूना देव दिखाय।

बातन बातन बतझड़ हुइगै औ बातन मां बाढ़ि गय रार
बहुतै बातैं तुम मारत हो कहिके आज दिखाओ प्यार।

उचकि के बैठे लैपटाप पर बत्ती सारी लिहिन बुझाय,
मैसेंजर पर ‘बिजी’ लगाया,आंखिन ऐनक लीन लगाय।

सुमिरन करके मातु शारदे ,पानी भौजी से मंगवाय
खटखट-खटखट टीपन लागे उनसे कहूं रुका ना जाय।

सब कुछ हमका नहीं दिखाइन बहुतै थ्वारा दीन्ह दिखाय,
जो हम देखा आपहु द्याखौ अपनी आप बतावौ राय।

बड़े-बड़े मजनू हमने देखे,देखे बड़े-बड़े फरहाद
लैला देखीं लाखों हमने कइयों शीरी की है याद।

याद हमें है प्रेमयुद्ध की सुनलो भइया कान लगाय,
बात रसीली कुछ कहते हैं,जोगी-साधू सब भग जांय।

आंख मूंद कर हमने देखा कितना मचा हुआ घमसान
प्रेमयुद्ध में कितने खपिगे,कितनेन के निकल गये थे प्रान।

भवा मुकाबिला जब प्रेमिन का वर्णन कछू किया ना जाय,
फिर भी कोशिश हम करते हैं, मातु शारदे होव सहाय।

चुंबन के संग चुंबन भिरिगे औ नैनन ते नयन के तीर
सांसैं जूझी सांसन के संग चलने लगे अनंग के तीर।

नयन नदी में नयना डूबे,दिल सागर में उठिगा ज्वार
बतरस की तब चली सिरोही,घायल का सुख कहा न जाय।

तारीफन के गोला छूटैं, झूठ की बमबारी दई कराय
न कोऊ हारा न कोऊ जीता,दोनों सीना रहे फुलाय।

इनकी बातैं इनपै छ्वाड़व अब कमरौ का सुनौ हवाल,
कोना-कोना चहकन लागा,सबके हाल भये बेहाल।

सर-सर,सर-सर पंखा चलता परदा फहर-फहर फहराय,
चदरा गुंथिगे चदरन के संग,तकिया तकियन का लिहिन दबाय।

चुरमुर, चुरमुर खटिया ब्वालै मच्छर ब्लागरन अस भन्नाय
दिव्य कहानी दिव्य प्रेम की जो कोई सुनै इसे तर जाय ।

आंक मूंद कै कान बंद कइ द्*याखब सारा कारोबार
जहां पसीना गिरिहै इनका तंह दै देब रक्त की धार।

सुनिकै भनभन मच्छरजी की चूहन के भी लगि गय आग
तुरतै चुहियन का बुलवाइन अउर कबड्डी ख्यालन लाग।

किट-किट दांत बजि रहे ,पूछैं झण्डा अस फहराय
म्वाछैं फरकैं जीतू जैसी ,बदन पसीना रहे बहाय।

दबा-दबउल भीषण हुइगै फिर तौ हाल कहा न जाय,
गैस का गोला बम अस फूटा,खटमल गिरे तुरत गस खाय।

तब बजा नगाड़ा प्रेमयुद्ध का चारों ओर भवा गुलज़ार
खुशियां जीतीं धकापेल तब,मनहूसन की हुइगै हार।

हरा-हरा सब मौसम हुइगा,फिर तौ सबके लगिगै आग
अंग-अंग फरकैं,सब रंग बरसैं,लगे विधातौ ख्यालन फाग।

इहां की बातैं हियनै छ्वाड़व आगे लिखब मुनासिब नाय
बच्चा जो कोऊ पढ़ि ल्याहै तो हमका तुरत लेहै दौराय।

भैया बोले हंसि के ब्वालौ कैसा लिखा प्यार का हाल
अब तौ मानेव हमहूं है सरस्वती के सच्चे लाल।

भौजी बोलीं तुमसा बौढ़म हमें दिखा ना दूजा भाय,
हमतौ सोचा ‘इलू’ कहोगे ,आजौ तरस गये ये कान।

चलौ सुनावौ अब कुछ दुसरा, देवरन का भी कहौ हवाल
कइसे लफड़ा करत हैं लरिका नयी उमर का का है हाल?

भैया बोले मुस्का के तब नयी उमर की अजबै चाल
बीच सड़क पर कन्या डांटति छत पर कान करति है लाल।

डांटि-डांटि के सुनै पहाडा़, मुर्गौ कबहूं देय बनाय
सिर झटकावै,मुंह बिचकावै, कबहूं तनिक देय मुस्काय।

बाल हिलावै,ऐंठ दिखावै , नखरा ढेर देय बिखराय,
छत पर आवै ,मुंहौ फुलावै लेय मनौना सब करवाय।

इतनेव पर बस करै इशारा, इनका गूंगा देय बनाय
दिल धड़कावै,हवा सरकावै ,पैंटौ ढीली देय कराय।

कुछ दिन मौका देकर देखा ,प्रेमी पूरा बौड़म आय,
पकड़ के पहुंची रतलामै तब,अपना घर भी लिया बसाय।

भउजी की मुसकान देखि के भइया के भी बढ़ि गै भाव
बूढ़े देवर को छोडो़ अब सुन लो क्वारन के भी हाल।

ये है तुम्हरे बबुआ देवर चिरक्वारें और चिर बेताब
बने हिमालय से ठहरे हैं ,कन्या इनके लिये दोआब।

दूर भागतीं इनसे जाती ,लिये सागर से मिलने की ताब
जो टकराती सहम भागती ,जैसे बोझिल कोई किताब।

नखरे किसके चाहें उठाना ,वो धरता सैंडिल की नोक
जो मिलने की रखे तमन्ना, उसे दूर ये देते फेंक।

ये हैं धरती के सच्चे प्रतिनिधि तंबू पोल पर लिया लगाय,
कन्या रखी विपरीत पोल पर, गड़बड़ गति हो न जाय।

सुनिके देवर की अल्हड़ता भौजी मंद-मंद मुस्कांय,
भैया समझे तुरत इशारा सबको कीन्हा फौरन बाय।

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 10:52 PM
क्योंकि शकीरा के पुट्ठे झूठ नहीं बोलते !

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13256&stc=1&d=1320342695

ये हिंदुस्तान को क्या हो रेला है भई? इन्डिया से शादीशुदा बालबच्चेदार मित्र चैटिया रहे हैं. शकीरा अपने इंडिया मे आ रेली बाबा! उसका वो गाना देखाना है “हिप्स डोंट लाई!” अर्थात नितंब असत्य नहीं बोलते. हम बोले -

अबे आती है तो आने दे तेरे को क्या?
अबे पता है एक टिकट कित्ते की?
कित्ते की?
३६५० रुपये की!
क्या? चरया गया है क्या साईं?
बंदा ज्यादा बकझक करने के बज़ाए कडी थमा देता है -
देख ले भई!
अबे रुक.
मैं दनाक से केल्कुलेटर खोल के ४३.९३ आजकल के कंवर्जन रेट से भाग दे कर देखता हूं ताकी मामला अपनी डिफ़ाल्ट करंसी मे समझ में आए -

अबे ८३ डालर!!
हव्व
कौन जाएगा देखने?
जनता जाएगी
देसी जनता?
हव्व!
इत्ता पैसा है उनके कने?
हव्व!
क्या बोल रिया है बे?
सही बोल रिया हूं यार!!

शकीरा मेरी फ़ेवरेट पॉप कलाकार हैं, लेकिन इस भाव में तो मैं उनका कंसर्ट कतई ना देखूं!

*-*-*

कल अंतर्यामिणी बता रही थीं की शहर में ‘लायन किंग’ कंसर्ट हाल में शो करने आएंगे. शायद दफ़्तर वालों की कंसर्ट हाल को दी जाने वाली कार्पोरेट स्पांसरशिप के चलते मिलने वाली मुफ़्त टिकटें पाने का मौका हाथ लगे तो देख आएं.

पत्नी: और अगर टिकटें ना मिलें तो?
स्वामी: हमऊं खरीद के देख लेंगे!
पत्नी: हे हे पता है एक टिकट कितने की है?
स्वामी: कित्ते की?
पत्नी: ८० डालर
स्वामी: रहने दे भई, ये ज़रा महंगी है. हम बिना लायन किंग के ही भले.

भईये अपने इंडिया की महंगाई देख कर तो यहां बैठ के पसीना आ जाता है उससे ज्यादा वहां का उपभोक्तावाद देख कर. मेरे हाई थिंकिंग सिंपल लिविंग वाले इंडिया को अमरीका की हवा लग गई है. लगता है ये नव-भोक्ता चलते दुनिया को पीछे छोड देंगे!

*-*-*

मैं अपने से जरा दूर वाले दफ़्तर में बैठी अमरीकी महिला से पूछता हूं – औसत कंसर्ट का टिकट कितने का होता है? वो बोली “५०-६०.. लेकिन मैं काफ़ी समय से किसी कंसर्ट में नही गई!”

मैं मुस्कुरा देता हूं – मैं भी नहीं गया! लेकिन मेरे भारतीय मित्र शकीरा के कंसर्ट में जाने का कार्यक्रम बना रहे हैं भारत में – अस्सी डालर का टिकट ले कर!
पागल हो गए हैं क्या? वो पूछती है!
उन्हें प्रत्यक्ष कंफ़र्म करना है की शकीरा के ’हिप्स डोंट लाई’!

इस भाव में?
हां!
सचमुच पागल हो गए हैं – इस प्रकार के कंसर्ट पर यहां वो बच्चे पैसा खर्च करते हैं जो खुद कमाते हैं फ़िर भी माता-पिता के साथ उनके घर में रहते हैं और अपनी कमाई से ऐश करते हैं वहां कौन करेगा ऐसी चीज़ पर पैसा खर्च?
भारत की जनता करेगी!
इतना पैसा है जनता के पास?
पता नहीं!

मुझे समझ नहीं आया हां बोलू या ना! अभी भी पशोपेश में हूँ! :(

(ई-स्वामी से साभार)

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 11:01 PM
तुम्हारा प्यार, प्यार और हमारा प्यार लफ़डा?


एक बहुत करीबी मित्र से फोन पर बात हो रही थी. वो बोला की उसका साला अपनी पडोसन से प्रेम विवाह कर रहा है. घर वाले राजी खुशी मान गए हैं.

ये वो ही घर वाले हैं, जिन्होंने मित्र की साली की शादी उसकी पसंद लडके से नहीं होनें दी थी और जबरदस्ती कहीं और कर दी थी.

जब कन्या के प्रेम का ज़िक्र हमारे सामने किया गया था तब – ‘टांका भिड गया है’, ‘ईलू-ईलू का चक्कर है’, ‘लफ़डा चल रहा है’, ‘नैन-मटक्का हो गया है’ जैसे वाक्यांशों से उसके प्रेम में पड जाने का दबी ज़बान से इशारा किया गया था. कन्या की शादी कहीं और कर दी गई! आज उसकी गोद में एक पप्पू खेलता है. जबकि वहीं इन साले महाराज के प्रेम प्रकरण की परिणीति विवाह में हो रही है! लडका इकलौता है, उसने पिता का काम काज संभाल लिया है. पिता को डर होगा कहीं फ़िल्मी स्टाईल में बाग़ी ना हो जाए – जो दबाव बेटी पर चल गया बेटे पर ना चला. मैं सोचता हूं की क्या वो बहन अपने भाई (और पिता) से कभी पूछेगी कि जी “तुम्हारा प्यार, प्यार और हमारा प्यार लफ़डा?” शायद वो नहीं पूछेगी क्योंकि वो भी उसे एक लफ़डा मान कर भुला देने में ही समझदारी मानती होगी/दर्शाती होगी! यही होता है.

कमाऊ पुत्र का प्यार, प्यार हो गया! निरीह पुत्री का प्यार लफ़डा कह कर खारिज कर दिया गया! पुत्री का प्यार इसलिये खारिज कर दिया गया की उसे जो लडका पसंद था उसका सामाजिक स्तर यानी आर्थिक आधार कमजोर था. घटनाओं को परिपेक्ष्य विशेष में देखने की कोशिश करता हूं और एक लाठी से सबको हांकने से भी बचता हूं लेकिन बहुत हद तक क्या उपरोक्त घटना हमारे समाज के चलन की तरफ़ इशारा नहीं करती?

मैंने कहीं व्यंग्य किया था की “प्रेम के नुस्खे, नियम पत्र-पत्रिकाओं में उपलब्ध हैं. प्रेम के हर चरण में किए जाने वाले कार्य एक पूर्वनिर्धारित नीति के तहत किए जाने होते हैं. प्रेम अंधा नही होता, बाकायदा सोच-समझ कर उगता और ढलता है.”

विलुप्तप्राय:वस्था को प्राप्त हो चुका प्रेम इतना लाचार है की उसके अस्तित्व तो क्या उसकी भावनात्मक अस्मिता को भी घर/समाज वालों की स्वीकृत पर आश्रित होना होता है! अन्यथा वो बेचारा लफ़डा/चक्कर/टांका हो के रह जाता है! यदी कहीं अपवादस्वरूप दो लोग सचमुच प्रेम कर बैठें जो बाकयदा सोच-समझ कर उगाया गया तथाकथित प्रेम ना हो, तो उनके प्रेम को अधिक सक्षम ‘पार्टी’ द्वारा ‘लफ़डा’ करार दे दिया जाना आम है! ये प्रेम का लफ़डा या चक्कर करार दिया जाना बिल्कुल वैसा ही विसंगत है जैसा देवी की पूजा करने वाले समाज में कन्या भ्रूण-हत्याएं होना. ये दुष्कर्म इतना आम है की अखबारों और न्यूज़ पोर्टल्स की, रोज़मर्रा की भाषा में है!

आज ही का वेबदुनिया के लेख की भाषा पर गौर कीजिये जो हाल में सुर्खियों में आए किन्ही “दयानन्द पाण्डे” के बारे में है -

सुधाकर के नजदीकी लोगों की मानें तो शुरुआत से ही उसे बेहिसाब धन कमाने का भूत सवार था। उसके पिता उदयभानधर द्विवेदी पुलिस के सबइंस्पेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए। जब सुधाकर के पिता नवाबगंज में तैनात थे, उस समय सुधाकर का पड़ोस में रहने वाली एक लड़की दीपा के साथ चक्कर चल पड़ा।
कहा जाता है कि गैर बिरादरी की होने के कारण दीपा को सुधाकर के परिवार वालों ने स्वीकार नहीं किया। कुछ जानकार लोगों का कहना है कि इसी लड़की के साथ सुधाकर ने आर्य समाज विधि से शादी भी की, लेकिन उसके विवाह को परिवार वालों ने स्वीकृति नहीं दी। – वेबदुनिया

याद दिला दूं की यहां मैं दयानन्द पाण्डे के निजी जीवन की बात नहीं कर रहा. वेबदुनिया की भाषा पर ध्यान दिलवा रहा हूं जो हमारे समाज की सोच और मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है. ये वो ही समाज है जहां दुनिया में सर्वाधिक प्रेम कथाओं वाली फ़िल्में और गाने बनते हैं- “पलभर के लिये कोई हमें प्यार कर ले.. झूठा ही सही”!

हमारी आम भाषा से हमारी आम सोच का पता चलता है. अभी हम अपने आस-पास प्रेम पनपने दे सकने जैसे समाज नहीं बने – भयावह है, नहीं क्या?

(ई-स्वामी से साभार)

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 11:09 PM
एक देसी, एक बीयर…एक किस्सा !



सुरक्षा पडताल से दरवाजा नंबर ४२ तक की सामान खींच कदमताल काफ़ी लंबी थी. मुझे डर हुआ की मेरे डीओ की परतों के नीचे से पसीना अपनी उपस्थिती ज़ाहिर ना करने लगे. गर्मी लग रही थी, शरीर का तापमान कम करने के अलावा आगे लंबी दूरी की उडान के लिये खुद को तैयार करना था.

मैं बैठा कुछ देर तक प्रथम श्रेणी सीट की आरामदायक चौडाई महसूस करता रहा. “मैं इस आराम से अनुकूलित हो सकता हूं!” मैंनें सोचा.

मेरी मां ने एकबार पूछा था – “तू शराब पीता है?” ”धरती पर आम तौर पे छूता नहीं और आसमान में आम तौर पे छोडता नहीं” ..ये जवाव सुन कर मां मुस्कुराईं तो नहीं, पर वो निश्चिंत हो गईं थीं!

जब २२ घंटे की उडान के बाद मुझसे मिलने पहली बार भारत से यहां आईं तो बोलीं ‘इतनी लंबी और पकाऊ फ़्लाईट में तो कोई भी पीने लगे.. सारे पीने वाले जल्दी ही खर्राटे लेने लगे थे!’

हजारों मील हवाई धक्के खा चुकने के बाद, एयरलाईन्स वालों नें आज वफ़ादारी का सिला दिया, कोच श्रेणी में यात्रा करने वाले को मुफ़्त का प्रथम श्रेणी उच्चत्व प्राप्त हुआ था.. आम तौर पर सूफ़ी में रहने वाले नाचीज़ का फ़ील गुड एक ग्लास बीयर पी लेने के बाद और भी सेट होने लगा .. ये चिट्ठा लिखने के लिये आदर्श समय था.

मैं मिल्लर कंपनी की बीयर पी रहा था.. इसकी डिस्टिलरी मिलवॉकी,विस्कॉंसिन में मेरे दफ़्तर के रास्ते में पडती थी. वहां यह बीयर पहली बार पिलाते हुए मित्र नें मुझे एक मजेदार किस्सा भी सुनाया था ..मित्र कहने लगा की उसके दफ़्तर की सच्ची घटना है.. भरोसा नहीं हुआ था.. लेकिन बीयर पी कर सुना गया किस्सा बीयर पी कर दोहराया भी तो जा सकता है – सो झेलें -

अप्पा पिल्लई नामक साफ़्टवेयर इंजीनियर h1 वीसा पर अमरीका मित्र की कंपनी में पधारा. गूढ दक्षिण भारतीय होने की वजह से जब वो अंग्रेजी बोलता तब भी यूं लगता जैसे कोई दक्षिण भारतीय भाषा ही बोल रहा है.

अप्पा कोई भी बात सीधे नहीं कहता था.

अप्पा एक बार अपने बॉस हैरी के पास गया और बोला “हैरी आर यूं एंग्री?”

हैरी ने जवाब दिया “नो अप्पा .. आई ऐम नाट ऐंग्री!”

अप्पा फ़िर बोला ..”इट्स १२:३० .. यू आर नाट ऐंग्री?”

हैरी संयत हो कर बोला “नो अप्पा.. व्हाई वुड आई बी ऐंग्री?”

अप्पा नें झल्ला कर मूंह की तरफ़ हाथ से खाने का इशारा करते हुए बोला “ऐंग्री?.. ऐंग्री??”

“ओह .. हंग्री यू मीन?” .. हैरी के पल्ले पडा!

दफ़्तर के लोग साथ में एक रेस्टोरंट जाने का कार्यक्रम बना रहे थे और अप्पा नें सोचा की हैरी को भी साथ लें लें!

हैरी मस्त किस्म का बॉस था, आते शुक्रवार वो सबको यूं भी अपने साथ खाने पर ले जाने वाला था.. बोला अगर सारे अपना काम खत्म कर लें तो शुक्रवार को खाने के बाद सप्ताहांत के लिये चंपत हो जाएं ..उसे कोई समस्या नहीं होगी!

तो अब अप्पा नें खुशी-खुशी दफ़्तर में ही पित्जा मंगवा कर काम खत्म करने आईडिया उछाला!

अप्पा स्पीकर फ़ोन पर पित्ज़ा का ऑर्डर दे रहा है .. ताकी सब अपनी फ़रमाईशें बता सकें ..

अप्पा: “हैल्लो .. एस .. आई वान्डू औऊडर पी जा!”

पीज्जा वाली भैन जी: “से यू वान्ट टू पाऊडर व्हाट?”

अप्पा: “पी जा ..पी जा.. पी एझ इन पैरोट.. आई एझ इन इडिओट..झेड एझ इन झेब्रा.. अनादर झेड एझ इन अनादर झेब्रा.. ए एझ इन अप्पा.. पीजा ”

पीज्जा वाली भैन जी: “ओह पित्ज़ा.. मे आई हैव यूअर नेम प्लीज़!”

अप्पा: “येस .. इस्ट अप्पा पिल्लई!”

पीज्जा वाली भैन जी: “एप्पा.. कैन यू स्पैल इट फ़ार मी?”

अप्पा: “सिंपिल .. सी अप्पा पिल्लई..Appa .. A एझ इन अप्पा, P एझ इन पिल्लई, अनादर P एझ इन अनादर पिलाई, आनादर A एझ इन अनादर अप्पा .. नऊ माई सरनेम.. P एझ इन पिल्लई ..”

पीज्जा वाली भैन जी: “ओह माई गाड .. कैन यू होल्ड फ़ार ए सेकेंड ..” दूसरी ओर से कुछ देर तक संगीत बजता रहा ..फ़िर पिज्जा वाली ने फोन काट दिया! … दफ़्तर में सभी का हंस हंस के बुरा हाल था… फ़िर किसी और मित्र नें पिज्जा का ऑर्डर पूरा किया!

टेक ऑफ़ के लिये विमान तैयार है .. अगली पोस्ट, कोई और किस्सा ऐसे ही कहीं से समय चुरा कर!
(ई-स्वामी से साभार)

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 11:12 PM
वो बोली, “इट्स ओके !”


वो कार्पोरेट सेल्स के काम से जुडी हुई औरत थी. प्रोफ़ाईल गढूं? किसी गोरी महिला के हिसाब से औसत से कम ऊंचाई, लगभग पांच फ़ुट पांच इंच. इकहरी से कुछ औंस उपर. आंखें चमकीली, कत्थई और शरारती. करीने से किये गए मेक-अप में छुपाए साल जोड कर उम्र मुझसे ज़रा अधिक. बातचीत का सिलसिला उसी ने शुरु किया, वर्ना जैसा की अक्सर होता आया, पूरी फ़्लाईट के दौरान मेरा हैडफ़ोनग्रस्त सिर पुस्तक में ही घुसा रहता.

कुछ आधारभूत नीयम हैं जो लंबे अनुभव के बाद बनाए हैं -

सहयात्री अगर भारतीय महिला है, चाहे जितनी पढी लिखी या आधूनिक दिखे, एकदम दरकिनार कर दो. बातचीत का सिलसिला शुरु करना तो दूर, यदि हम अभिवादन भी कर देंगे तो वो असहज हो जाएगी या एटिट्यूड देगी. जो भी करेगी, जाहिर कर देगी की उसकी निगाह में हम प्रेम चोपडा या शक्ति कपूर की श्रेणी के जीव हैं, और ”आऊऽऽ..शीलाऽऽ या जमीलाऽऽ” टाईप कुछ कह कर उस पे कूदने वाले हैं! तो इतराने मौका ही नहीं देने का, कुढ़ जाए अच्छा!

बाकी महिलाओं के केस में निर्भर करता है की वे कितनी अधिक यात्राएं करती रही हैं. अनुभवी और सहज सहयात्री अलग से दिख जाती हैं. व्यवसाय का असर भी आता है – मसलन मार्केटिंग जैसे सेवा क्षेत्रों से जुडी महिलाएं अधिक सहज होती हैं. फ़िर भी अपना अंगूठा टेक नीयम ये है की हैडफ़ोन लगा और मस्त में किताब पढ! साथ बैठी महिला अगर सुंदर है तो सीट पर बैठते वक्त एक हल्की पडताल ले, और ज्यादा ही सुंदर है तो प्लेन से उतरते वक्त दूसरी – इस से ज्यादा भाव देना नहीं बनता.

पर ये वाली अलग थी, पास बैठी हाथ मिला कर अपना नाम बताया और भीड भरी फ़्लाईट पर एक टिप्पणी की. मेरे हाथ में जो पुस्तक थी उसका शीर्षक देखा, पूछा कैसी पुस्तक है आदी. ‘ह्म्म चतरी! ये जाते जाते अपना कार्ड देगी, बायोडाटा मांग सकती है, किसी रिक्रूटिंग कंपनी से जुडी हो सकती है.’ मैं उसे प्रोफ़ाईल में फ़िट करने लगा. हुआ भी वही! ‘सटीक रे सटीक.. पता सी मैन्नू’ चल कोई नी, साथ बैठी है तो मार ले गप्पें.

दो ग्लास वाईन पी चुकने के बाद बडे आराम से बतिया रही थी. उसे चढी-वढी नहीं थी, बता सकता था वो अभ्यस्त पियक्कड थी.

“मेरी मां मेरे यहां रहने आई हुई है.. मेरे पीछे से मेरी चड्डियों के ड्रॉअर तक की झडती ले चुकी है!”

“तुम्हें कैसे पता?”

”टोकती है मैं इतनी छोटी और झीनी चड्डियां क्यूं पहनती हूं!.. फ़िर पूछा तो बताने लगी की मेरे कपडों के खाने में देखा उसने.”

मैं मुस्कुरा दिया, वो भी!

“तुम हमेशा हैडफ़ोन लगाए किताब पढते हो यात्रा करते समय? ”

“हाँ- ये मेरा सिग्नल है की मैं अभी बातचीत नहीं करना चाहता!”

“तो क्या तुम मुझसे भी बातचीत करना नहीं चाहते थे? मैं तो अपने सहयात्रियों से बात कर लेती हूं!”

“तुम सुंदर औरत हो, नियंत्रण तुम्हारे हाथ में है, चाहो तो बात करो, चाहो तो ना करो!”

“सच है!” वो हंसी.

“और फ़िर सांक्खिकी के हिसाब से तुम जैसी सहयात्री मिलना मुश्किल है, तो फ़ोकट मुस्कुराहटें क्यूं ज़ाया करूं?”

“फ़िर तो तुम नेटवर्किंग कर ही नहीं सकते!.. देखो ये मछली पकडने के जैसा है.. संख्या के कोई माईने नहीं हैं, कोशिश करते रहने के हैं. मैं कोशिश करती हूं कभी सफ़ल होती हूं और कभी असफ़ल!”

मैने मन ही मन सोचा (पट्ठी तेरा एक व्यवसायिक ध्येय है, तुम सफ़र में भी काम कर रही हो. दिलचस्पी तुम्हे इस सहयात्री में नहीं है अपने काम में है! वर्ना तुम भी बात नहीं करतीं- वक्त काटने के लिये भी नहीं!)

लेकिन प्रत्यक्ष में कहा “आजकल लोग वक्त काटने के लिये भी अब किसी से बात करना पसंद नहीं करते.. देखो ना अपनी निजता, सुरक्षा के अलावा ऐसे ही व्यव्हारिक कारण हैं की लोग सार्वजनिक स्थानों पर अपने अपने मोबाईल, आई-पाड, लैपटाप में खोए रहने का जतन करते हैं चाहे काम से थके हुए ही क्यों ना हों.. होते सारे अकेले हैं लेकिन अहं के चलते स्वीकारें कैसे.. बेहतर है खुद को व्यस्त दिखाएं!”

“लेकिन इस बनावटी बर्ताव में भी कई जगह सेंधमारी की जा सकती है. तुम्हें बताऊं नेटवर्किंग करने की एक अच्छी ट्रिक?.. वो है व्यक्तिगत स्पर्श!”

“कैसे?”

“जब भी तुम्हें कहीं कभी अच्छी सेवा मिले. कोई अपना काम ठीक से करता हुआ मिले तो ऐसे व्यक्ति के अधिकारी को एक हस्तलिखित संदेश भेजो. ई-मेल भेज दोगे तो वो असर नहीं आएगा. एक अच्छा ईमानदार हस्तलिखित संदेश भेजने के बाद तुम देखोगे की अधिकारी और वो व्यक्ति दोनों तुम्हारे बेहतर सहयोगी बन गए हैं!”

“ये तो बढिया है! .. थेंक्यू नोट!”

”मुझे तुम पुरुषों पर कई बार तरस आता है.. आम तौर पर तो हमारा मुस्कुराना भर काफ़ी है, अगर हम किसी पुरुष को कोई निवेदन करते हुए जरा आत्मियता से कंधे पर थपथपा दें; ना भी चाह रहे हों, तब भी वो हमारा काम कर देते हैं. पर तुम लोग स्त्रीयों को अक्सर ऐसा वाला व्यक्तिगत स्पर्श नहीं दे सकते!”

“अरे यहां तो मुस्कुराने पर भी खलनायक हो चुकने का आभास दिया जाता है!”

वो हंसने लगी – “यस वी हैव द पावर..लेकिन पता है एक बार मैं एक ऐसे ग्रुप में फ़ंस गई थी जहां पर मैं अकेली महिला थी और समूह के पुरुष मुझे अपनी गैंग में स्वीकारने को तैयार ही नहीं थे, ये कंधा थपथपाने वाली आत्मीय स्पर्श भी तब काम नहीं किया! ”

“फ़िर क्या किया तुमनें?”

“मैनें अपने ब्वायफ़्रैंड से बात की और उसने एक लाजवाब ट्रिक बताई!”

“क्या?”

“जब मैं अपने समूह के मर्दों के साथ एक बडी टेबल पर बैठी काम कर रही थी और मुझे हवा सरकानी थी, मैंने बडे आत्मविश्वास से एक ओर झुक कर पूरे जोरदार ध्वन्यात्मक तरीके से काम सरेआम संपन्न किया.. सारे मर्द पहले तो चौंके और फ़िर क्या हंसे!.. गैंग ने तुरंत काम खत्म होने के बाद मुझे अपने साथ खाने पर आने की दावत दे दी!.. तुम पुरुष लोग कितने जंगली और ज़ाहिल होते हो – तुम्हारा बाण्डिंग का तरीका है ये?!”

“ये है खूबसूरत होने का फ़ायदा..अरे ये सोचो की हम कितने फ़रागदिल होते हैं!.. यही काम कोई पुरुष किसी महिलाओं के समूह में कर दे तो बेचारे का क्या हाल हो!”

“देखो डबल स्टैंडर्डज़ तो दोनो तरफ़ हैं!”

मैने गौर से उसकी तरफ़ देखा जैसे शिकायती लहज़े में कह रहा होऊं “चल झूट्ठी, अभी दो मिनट पहले तो हम पे तरस खा रही थी…हर कहीं तो तुम्हें ज्यादा एडवांटेज मिलता है! हद्द है!!”

उसने मेरे चेहरे पर भाव पढे, बडे ही इत्मिनान से मुस्कुराई, बहुत अश्वस्त हो के मेरा कंधा थपथपाया और बोली “इट्स ओके!“

“ओके” मानो लाचार भाव से मैने कहा!

हवाईज़हाज ज़मीन से लगा, उसने संपर्क में रहने की हिदायत समेत अपना कार्ड दिया और हम अपने रास्ते हो लिये.

(तो दोहरे मापदंडों की हकीकत चाहे जो है, “इट्स ओके!”… सही है ना!)

(ई-स्वामी से साभार)

Dark Saint Alaick
04-11-2011, 09:21 PM
कार्पोरेट देवियां और उनकी प्रेरक कहानियां

कंपनी जगत में सफलता के सोपान चढते हुए आज अनेक महिलाएं विख्यात कंपनियों के सर्वोच्च पदों को संभाल रही है। इन दृढ निश्चयी महिलाओं ने आत्मविश्वास से घर और कंपनी की जिम्मेदारी में संतुलन बना कर चलने का अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। लेखिका सोनिया गोलानी की नई किताब ‘कार्पोरेट डीवाज’ यानी ‘कंपनीजगत की देवियां’ में भारत की ऐसी 18 प्रमुख महिलाओं की कहानी हैं। इसमें उनकी प्रेरणा और उनके उत्साह के स्रोतों को तलाशने की कोशिश है। अंतरंग बातचीत के जरिए यह किताब उन अपारंपरिक शैली और गुप्त मंत्र का खुलासा करती है जिसका उपयोग वे अपने पेशे में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त करने के लिए करती हैं। पुस्तक के अनुसा इन सारी महिलाओं का एक ही जुनून है - काम और जीवन के प्रति संतुलित रवैया। ब्रिटैनिया इंडस्ट्रीज की प्रबंध निदेशक विनीता बाली विनिर्माण क्षेत्र से संबंधित अपने उद्योग में अपनी बेजोड़ नेतृत्व क्षमता की धाक जमाए हुए हैं। वह आसपास की सकारात्मक चीजों से प्रेरणा ग्रहण करती हैं- फिर चाहे वह खूबसूरत सूर्यास्त हो या फिर शास्त्रीय संगीत। इसी तरह आज वित्तीय जगत में चर्चित चंदा कोचर ने अपने बैंक आईसीआईसीआई बैंक में प्रबंधन प्रशिक्षु के रूप में कदम रखा था। आज वह इसकी प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्याधिकारी हैं। उन्होंने बैंक के साथ अपने लंबे संबंध के बारे में कहा ‘‘ सौभाग्य से मुझे नए कारोबार तैयार करने, चलाने और उन्हें बढाने का मौका मिला। इस प्रक्रिया में तरह तरह के नए अनुभव हुए मैंने अलग-अलग चीजें सीखीं । इससे काम के प्रति कभी उब नहीं हुई। ’’

एक और कहानी राजश्री पथी की है जो राजश्री शुगर्स एंड केमिकल्स लिमिटेड की अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक हैं जिन्हें तमिलनाडु के एक दूर-दराज इलाके को गन्ने के लहलहाते क्षेत्र में बदलने और अपेक्षाकृत संकीर्ण मानसिकता वाले सामाजिक माहौल में चीनी का सफल विनिर्माण कारोबार चलाने का श्रेय जाता है। उन्होंने अपनी जीवन के सफर के बारे में कहा ‘‘मैंने हर उस चुनौती को झेला है जिसका सामना एक औरत, इंसान को करना पड़ता है। मेरे रास्ते में जो भी परिस्थितियां आईं उसमें मैंने अपना बेहतरीन प्रदर्शन किया और हर स्थिति में अच्छा इंसान बने रहने की कोशिश की। जब आप अपने साथ ईमानदार होते हैं और ज्यादा लोगों की बेहतरी के लिए काम करते हैं तो आप देखेंगे कि चमत्कार हो रहा है, मुश्किल परिस्थितियों में रास्ता मिलने लगता है और आप किसी ब्रह्मांडीय शक्ति, सर्वोच्च सत्ता, अपने से परे किसी सत्ता पर भरोसा करने लगते जिसकी ओर आप रुख कर सकते हैं।’’ मुंबई की गोलानी अपनी परामर्श कंपनी मैनेजमेंट कंसल्टैंट ग्रुप का दशक भर से प्रबंधन कर रही है। उनकी इस पुस्तक में एक्सिस बैंक की प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्याधिकारी शिखा शर्मा, क्रेडिट सुईस इंडिया की प्रबंध निदेशक वेदिका भंडारकर, गोदरेज समूह की कार्यकारी निदेशक तान्या दुबाश, यूबीएस इंडिया के प्रमुख (कंट्री) मनीषा गिरोत्रा, वेलस्पन रिटेल लिमिटेड की कार्यकारी निदेशक दीपाली गोयंका, जिंदल सॉ लिमिटेड की प्रबंध निदेशक स्मिनु की कहानी भी शामिल हैं।

Dark Saint Alaick
09-11-2011, 03:43 PM
बनारस के घाटों पर कल होगा अदभुत नजारा


वाराणसी ! उत्तर प्रदेश में देश की धार्मिक और सांस्कृतिक नगरी वाराणसी के ऐतिहासिक गंगा घाटों पर कल देव दीपावली पर देवलोक का नजारा देखने को मिलेगा । नीचे कल कल बहती सदा नीरा गंगा की लहरें, घाटों की सीढियों पर जगमगाते लाखों दीपक एवं गंगा के समानांतर बहती हुई दर्शकों को जनधारा देव दीपावली की नाम से आधी रात तक अनूठा दृश्य प्रस्तुत करती है ।
विश्वास, आशा एवं उत्सव के इस अनुपम दृश्य को देखने के उत्सुक देश विदेश के लोग खिंचे चले आते हैं । प्रमुख घाटों पर तिल रखने की जगह नहीं रहती । दुनिया के कोने कोने से पहुंचे देशी-विदेशी पर्यटकों से शहर के होटल एवं धर्मशालाएं पूरी तरह भर गयी हैं । इस अदभुत नजारों को दिखाने का फायदा नाविक भी उठाते हैं और किराये कई गुना बढा देते हैं ।
देव दीपावली का यह तिलस्मी आकर्षण अब अंतर्राष्ट्रीय रूप लेता जा रहा है । दीपावली के पद्रह दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को काशी में गंगा के अर्द्ध चन्द्राकार घाटों पर दीपों का अद्भुत जगमग प्रकाश देवलोक जैसा वातावरण प्रतुत करता है । पिछले दस-बारह साल में ही पूरे देश एवं विदेशों में आकर्षण का केन्द्र बन चुका देव दीपावली महोत्सव देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी की संस्कृति की पहचान बन चुका है ।
गंगा के करीब ।0 किलोमीटर में फैले अर्द्धचन्द्राकार घाटों तथा लहरों में जगमगाते-इठलाते बहते दीप एक अलौकिक दृश्य उपस्थित करते हैं । कल शाम होते ही सभी घाट दीपों की रोशनी से नहा उठेंगे ।
शाम गंगा पूजन के बाद काशी के सभी 80 घाटों पर दीपों की लौ जगमगा उठेगी । गंगा घाट ही नहीं अब तो नगर के तालाबों, कुओं एवं सरोवरों पर भी देव दीपावली की परम्परा बन चुकी है ।
देव दीपावली महोत्सव काशी में सामूहिक प्रयास का अदभुत नमूना पेश करता है । बिना किसी सरकारी मदद के लोग अपने घाटों पर लोग न केवल दीप जलाते है बल्कि हफ्तों पूर्व से घाटों की साफ सफाई में जुट जाते हैं ।
कल के ही दिन दशाश्वमेध घाट पर बने राष्ट्र्रीय राजधानी दिल्ली स्थित इंडिया गेट की प्रतिकृति पर सेना के तीनों अंगों के जवानों द्वारा देश के लिए शहीद जवानों को श्रद्धासुमन अर्पित किया जाता है तथा सेना के जवान बैंड की धुन बिखेरते हैं ।
शरद ऋतु को भगवान श्रीकृष्ण की महा रासलीला का काल माना गया है । श्रीमदभागवत गीता के अनुसार शरद पूर्णिमा की चांदनी में श्रीकृष्ण का महारास सम्पन्न हुआ था । एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शंकर ने देवताओं की प्रार्थना पर राक्षस त्रिपुरा सुर का वध किया था । परम्परा और आधुनिकता का अदभुत संगम देव दीपावली धर्म परायण महारानी अहिल्याबाई से भी जुडा है । अहिल्याबाई होल्कर ने प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत हजारों दीप स्तंभ स्थापित किया था जो इस परम्परा का साक्षी है । आधुनिक देव दीपावली की शुरुआत दो दशक पूर्व यहीं से हुई थी ।

Dark Saint Alaick
09-11-2011, 04:20 PM
वर्ल्ड हैडेक डे पर विशेष

सिरदर्द में दर्दनिवारक दवाओं के अधिक इस्तेमाल से बचना चाहिए


नयी दिल्ली ! सिरदर्द से अक्सर पीड़ित रहने वाले लोगों को इसके लिए हमेशा दर्दनिवारक दवाओं का इस्तेमाल करने की बजाय चिकित्सक से सम्पर्क करके जांच करानी चाहिए ताकि मूल कारण का पता लग सके क्योंकि इन दवाओं का यकृत सहित पूरे शरीर पर विपरीत प्रभाव हो सकता है। राजधानी दिल्ली स्थित सफदरजंग अस्पताल की चिकित्सक डा. विद्या कुमारी का कहना है कि सिरदर्द के कई कारण हो सकते हैं जिनमें आंखों में विकार सबसे आम है। उन्होंने बताया कि रेटीना के आकार में परिवर्तन के चलते आंखों द्वारा देखे जाने वाली चीजें रेटीना पर ठीक तरह से प्रतिबिंबित नहीं हो पातीं जिसके कारण लोगों को पास या दूर की चीजें देखने में परेशानी होती है। उन्होंने बताया कि चीजों को देखने के लिए आंखों पर अधिक जोर पड़ने के कारण इसका प्रभाव माथे की तंत्रिकाओं पर पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप सिरदर्द की समस्या सामने आती है। उन्होंने बताया कि आंखों की जांच नेत्रचिकित्सक से कराकर और सही नम्बर के चश्मे लेकर इस समस्या से निजात मिल सकती है।
डा. विद्या ने बताया कि साइनस की समस्या तथा सर्दी के चलते भी सिरदर्द हो सकता है। सिरदर्द में नाक की तंत्रिकाओं में सूजन आ जाती है जिसके चलते सिरदर्द हो सकता है। इसके साथ ही उच्च रक्तचाप के कारण भी सिरदर्द की समस्या हो सकती है। इसका भी पता चिकित्सक से जांच कराकर ही चल सकता है तथा इसकी दवा लेकर बीमारी का इलाज हो सकता है। उन्होंने बताया कि कुछ लोगों को धूप अथवा शोर से भी सिरदर्द की समस्या हो सकती है। यदि किसी मरीज को धूप अथवा शोर से सिरदर्द की समस्या हो रही है तो उसे इससे बचने की सलाह दी जाती है। उन्होंने बताया कि सिरदर्द की समस्या से ग्रसित मरीज के मामले में चिकित्सक सबसे पहले उनकी आंखों की जांच कराने के साथ ही रक्तजांच, रक्तचाप जांचते हैं। उन्होंने बताया कि कई बार यह देखने में आता है कि कुछ लोगों को तनाव या चिंता के कारण भी सिरदर्द की समस्या हो जाती है। मरीज जब चिकित्सक के पास जाते हैं तो उनसे बातचीत के आधार पर वह इसकी पहचान कर लेते हैं और उन्हें इससे बचने की सलाह देते हैं। वहीं डा. मनीषा का कहना है कि कई बार सिरदर्द का कारण शरीर में कोई और समस्या के चलते हो सकता है। शरीर में कहीं ट्यूमर बनने पर भी इसका प्रभाव सिरदर्द के रूप में सामने आ सकता है। उन्होंने कहा कि इसीलिए सलाह दी जाती है कि जिन लोगों को अक्सर सिरदर्द की समस्या होती है उन्हें इसके लिए हमेशा दर्दनिवारक दवा लेने की बजाय इसके कारणों का पता लगाने के लिए चिकित्सकीय जांच करानी चाहिए। दर्दनिवारक दवा के इस्तेमाल से सिरदर्द में तात्कालिक लाभ तो मिल जाता है लेकिन इसका शरीर पर विपरीत प्रभाव भी हो सकता है। इसके अलावा मूल कारण उसी तरह से बरकरार रहता है।

Dark Saint Alaick
13-11-2011, 03:32 PM
जरा बेमानी सा है कुछ के लिये यह बाल दिवस........


-हिमांशु सिंह

हर साल बाल दिवस बच्चों की दो तस्वीरों के साथ हाजिर होता है। पहली तस्वीर वह जिसमें बच्चे सुबह उठकर, अच्छे कपड़े पहनकर, टिफिन लेकर स्कूल के लिये रवाना होते हैं और दूसरी तस्वीर वह जिसमें बच्चों को दोपहर की अदद रोटी की जुगाड़ के लिये मेहनत करने काम पर निकलना होता है।

महानगरों के खाते-पीते बच्चों के लिये आज का दिन बाल दिवस की मस्ती भरे कार्यक्रमों का है। लेकिन सीलमपुर का जहीन, जगतपुरी का अमन और कापसहेड़ा की चुनिया ऐसे बच्चे हैं जिनके लिये यह बाल दिवस जरा बेमानी सा है। आज भी उन्हें रोज की तरह जिंदगी की जंग लड़ने के लिये मशक्कत करने निकलना है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में बाल श्रमिकों की संख्या 24.6 करोड़ है जिनमें से भारत में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं। दिन भर काम करने के बाद सिर्फ मालिकोंं की प्रताड़ना, उनके अपशब्द और कई मामलों में उनकी यौन कुंठाओं की तृप्ति ही ऐसे बच्चों की तकदीर बनती है।

गैर सरकारी संगठन ‘सेव द चिल्ड्रन’ की प्रिया सुब्रमण्यम बताती हैं कि जहां एक ओर सरकार अपनी योजना ‘शिक्षा का हक’ की बात कर रही है वहीं देश में छह करोड़ बच्चे विद्यालय से दूर हैं। प्रिया की नजर में यह विडंबना है कि जो सरकार बालश्रम उन्मूलन के कार्यक्रम को सही तरह अंजाम नहीं दे पाई उसने शिक्षा का अधिकार जैसी योजना चलाई। बालश्रम उन्मूलमन कानून में खामियां गिनाते हुये वह कहती हैं कृषि को भी सरकार ने बालश्रम के दायरे में क्यों नहीं रखा।

आजादी की आधी सदी बीत जाने के बाद, सूचकांक के रोज जादुई आंकड़े छू लेने और विकास दर के नये नये दावों के बाद भी झुग्गियों में रह रहे करोड़ों बच्चों के लिये कुछ भी नहीं बदला हैै। अभी भी कॉलोनियों के बाहर पडे कूड़े में जूठन तलाशते और दो जून की रोटी के लिये तरसते बच्चों की संख्या से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि बच्चों के संरक्षण और विकास के नाम पर साल दर साल हो रही योजनाओं का ऐलान कितना बेमानी सा है।

देश में 44 हजार बच्चे हर साल गायब हो जाते हैं। यह बच्चे कहां गये इसका किसी को कुछ पता नहीं चलता। ऐसे बच्चों के यौन शोषण के मामले जितने तंग बस्तियों में हैं उससे कहीं ज्यादा आलीशान इमारतों और बंगलों में सामने आते हैं।

‘स्माइल फांडडेशन’ के निदेशक एच एन सहाय का कहना है कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में कागजी आंकड़े और जमीनी हकीकत में बहुत फर्क है। उनका मानना है कि सरकार की बाल अधिकारों से जुड़ी योजनाओं में बुनियादी खामियां हैं।

सहाय कहते हैं कि जो बच्चे कभी पाठशाला ही नहीं जा पाये हैं उनके लिये शिक्षा का अधिकार अभी भी बेमानी है। उन्हें पहले अनौपचारिक शिक्षा के जरिये काबिल बनाना चाहिये तब जाकर उन्हें मुख्य शिक्षा प्रणाली का हिस्सा बनाना चाहिये।

देश में हर साल 17.6 लाख बच्चों की मौत ऐसी बीमारियों से हो जाती है जिनका इलाज संभव है। ऐसी चुनौतियां इस बात का संकेत हैं कि बाल दिवस के मायने तभी होंगे जब जहीन, अमन और चुनिया जैसे बच्चों को भी बेहतर जीवन मिलेगा।

Dark Saint Alaick
14-11-2011, 05:06 PM
(15 नवंबर को पुण्यतिथि पर)

विनोबा भावे ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक रुप से सत्याग्रह को अपनाया

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13691&stc=1&d=1321275981

भूदान आंदोलन के जरिए समाज के भूस्वामियों और भूमिहीनों के बीच की गहरी खाई को पाटने में अतुल्य योगदान देने वाले आचार्य विनोबा भावे को महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहा जाता है। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेंद्र कुमार के अनुसार महात्मा गांधी की ओर से वर्ष 1940 में विनोबा को पहला व्यैक्तिक सत्याग्रही कहा जाना इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक रुप से सत्याग्रह को अपनाया। विनोबा भावे भूदान आंदोलन को यज्ञ की संज्ञा दिया करते थे और उनका कहना था कि आंदोलन में भागीदारी करनी पड़ती है, जबकि यज्ञ में आहूति देनी पड़ती है। लिहाजा भूदान आंदोलन के तहत भूस्वामियों को अपनी भूमि की आहुति देनी पड़ी।

सुरेंद्र कुमार ने कहा, ‘‘विनोबा भावे ने भूदान के जरिए समाज में गहराई तक मौजूद असमानता को दूर करने में काफी हद तक सफलता हासिल की, हालांकि बाद में उस विचार को पूरी तरह कार्यान्वित नहीं किए जाने के कारण उनका सपना पूरी तरह साकार नहीं हो पाया।’’ उन्होंने कहा कि अगर विनोबा ने वह आंदोलन नहीं शुरू किया होता, तो समाज में फैली असमानता से उपजे असंतोष से देश में बड़े पैमाने पर हिंसा भी हो सकती थी। विनोबा मूल रूप से एक सामाजिक विचारक थे और उनका जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिला के गागोदे गांव में हुआ था। शुरुआती शिक्षा के बाद वह संस्कृत में अध्ययन के लिए काशी गए। विनोबा के नेतृत्व में तेलांगाना आंदोलन के दौरान उस क्षेत्र की एक हरिजन बस्ती में भूदान आंदोलन की नींव पड़ी और जल्द ही यह पूरे देश में भूमिहीन मजदूरों की समस्या के हल के तौर पर लोकप्रिय हो गया। इस आंदोलन के तहत उत्तर प्रदेश, बिहार, केरल, उड़ीसा समेत कई राज्यों में बड़े-बड़े भूखंडों के मालिकों ने अपनी जमीन दान दी। देश की आजादी के आंदोलन के दौरान विनोबा को कई बार जेल जाना पड़ा। अपने आंदोलन के दौरान 13 वर्षों तक देश के विभिन्न भागों की पदयात्रा करने वाले विनोबा का निधन 15 नवंबर 1982 को हुआ। आचार्य विनोबा भावे को वर्ष 1958 में सामुदायिक सेवा के लिए पहले मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया और वर्ष 1983 में उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया।

Dark Saint Alaick
14-11-2011, 06:33 PM
50वें साल में प्रवेश कर गया यसुदास का गायन कैरियर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13707&stc=1&d=1321281167

तिरूअनंतपुरम ! भारतीय संगीत के दिग्गज के जे यसुदास ने पार्श्वगायक के तौर पर आज 50 वें साल में प्रवेश कर लिया। उन्होंने विभिन्न भाषाओं में 50,000 से अधिक गीतों के लिए अपने स्वर दिये हैं जिसमें उनकी मातृभाषा मलयालम भी शामिल है। यसुदास ने सबसे पहले 14 नवंबर 1961 को एक संत-सुधारक श्रीनारायन गुरू की एक कविता की चार पंक्तियों को गुनगुनाया था। इस गीत को मलयालम फिल्म ‘कलप्पडुकल’ में लिया गया था जिसका संगीत एम बी श्रीनिवास ने दिया था। उस समय देश के सबसे अधिक सुने जाने वाले गायकों में शामिल यसुदास के सैकड़ों ऐसे गीत हैं जो आज भी लोगों को उनके मधुर स्वर के कारण बार-बार याद आते हैं। मलयालम के अलावा, तमिल, हिन्दी, तेलगु, कन्नड़, बंगाली, गुजराती जैसे क्षेत्रीय और विदेशी भाषाओं में रशियन, अरबी, लैटिन और अंग्रेजी भाषाओं में भी गायिकी की है। संगीत समीक्षकों के मुताबिक, यसुदास की आवाज में इतनी मिठास होने का कारण उनका अभ्यास, प्रतिबद्धता और कड़ी मेहनत है।
यसुदास की आवाज में काफी विविधता है जिसके कारण उन्होंने विविध प्रकार के गीत गाये। महान गायक यसुदास ने तीन पीढियों की महिला गायिकाओं के साथ युगलबंदी की है जिसमें से कई कलाकार जैसे पी सुशीला एस जानकी, पी लीला, वानी जयराम, चित्रा और सुजाता मशहूर गायिका रही हैं। यसुदास ने महान संगीतकारों जैसे डी देवराजन, एम एस बाबूराज, के राघवन, एम एस विश्वनाथन और एम के अर्जुन के लिए गीत गया है। उन्हें गायकी के लिए सात बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार का खिताब दिया गया है। मलयालम, तमिल, कन्नड, तेलगु और बांगला जैसी क्षेत्रीय भाषाओं में गायन के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक लिए उन्होंने राज्य पुरस्कार से नवाजा गया है।

Dark Saint Alaick
23-11-2011, 05:55 PM
इंटरनेट ने लौटाई परंपरागत कश्मीरी संगीत की खोई लोकप्रियता


श्रीनगर ! इंटरनेट कश्मीर के परंपरागत संगीत के उद्धारक के रूप में सामने आया है। चाहे वह चकेर हो या सूफी संगीत, बॉलीवुड और टेलीविजन के मुकाबले पिछले दो दशकों से यह पिछड़ गया था लेकिन इंटरनेट ने उसे उसकी खोई लोकप्रियता वापस दिला दी है। केबल चैनलों और टीवी धारावाहिकों के आने से पहले परंपरागत कश्मीरी संगीत ही लोगों के मनोरंजन का एकमात्र माध्यम हुआ करता था। कश्मीरी संगीत कार्यक्रम स्थानीय इलाकों में घाटी के एकमात्र रेडियो स्टेशन से प्रसारित किए जाते थे। वह चकेर और सूफी कश्मीरी गायकों का स्वर्णिम दौर था। उस दौर के गायकों का नाम आज भी कश्मीर के पिछली पीढी को उस दौर की याद दिलाता है। कश्मीरी संगीत आंतकवाद से भी प्रभावित हुआ क्योंकि कुछ आतंकी संगठनों ने गाना गाने और सुनने को इस्लाम के विरूद्ध घोषित कर दिया था। राज्य सरकारें भी गायकों और संगीत को प्रोत्साहन देने में असफल रही। केबल चैनलों के आने से लोगों ने कश्मीरी संगीत सुनना और कम कर दिया। लेकिन अब एक बार फिर से कश्मीरी संगीत की धुन वादी में गूंजने लगी है। इंटरनेट ने तकनीक प्रिय युवाओं को कश्मीरी संगीत के पुराने गौरव की ओर मोड़ दिया है। अब्दुल गफ्फार कनीहामी का गाया 23 साल पुराना गीत ‘मौज’ पिछले साल यूट्यूब पर अपलोड किया गया जिसे अभी तक हजारों लोगों ने देखा और सुना है। यूट्यूब द्वारा जारी किए गए आंकड़ों से पता चला है कि यह वीडियो दुनिया भर में लोगों ने देखा जिसमें दुनिया के अलग अलग हिस्सों में रहने वाले कश्मीरी शामिल हैं।
कनीहामी ने अपने जवानी के दिनों में यह गीत गाया था। आज दो दशक बाद कनीहामी इस पर बात करते हुए कहते हैं कि इंटरनेट ने घाटी के गुम हो चुके संगीत कलाकारों को युवाओं के बीच वापसी का मौका दिया है। कनीहामी ने पीटीआई से बात करते हुए कहा, ‘‘इंटरनेट कश्मीरी संगीत को बढावा दे रहा है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘युवाओं के लिए पांच-छह घंटे निकालकर महफिलों में आकर गाना गाना और संगीत सुनना मुश्किल काम है। लेकिन इंटरनेट के माध्यम से वह घर बैठे हमारा संगीत सुन सकते हंै। कनीहामी कश्मीर गुलावकर (गायकों) समाज के महासचिव और वरिष्ठ गायक हैं जिन्हें कश्मीरी संगीत की अलग-अलग विधाओं और काव्य रूपों की पूरी समझ है। उन्होंने कहा, ‘‘सूफी संगीत के अपने छिपे हुए अर्थ हैं, इसे इसी रूप में गाया जाता है। इसे समझने के लिए संयम और समझ होना जरूरी है। वहीं चकेर लोक संगीत है। यह गतिशील है इसमें सामाजिक मुद्दों, हास्य, पुरानी कहानियों आदि का मिश्रण होता है। दूसरे कश्मीरी कलाकार जिनके वीडियो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं उनमें गुलजार अहमद गनी, अली मोहम्मद शेख, अब्दुल राशिद हफीज, मोहम्मद सुल्तान भट, गुलाम मोहम्मद दार, वाहिद जिलानी और गुलाम हसन सोफी के नाम शामिल हैं। कश्मीरी सूफी संगीत के पुरोधा मोहम्मद अब्दुल्ला तिबतबाकल के संगीत को भी इंटरनेट के माध्यम से नया जीवन मिला है। उनके वीडियो भी काफी लोग पसंद कर रहे हैं।
एक अन्य कश्मीरी गायक वाहिद जिलानी ने कहा कि इंटरनेट द्वारा कश्मीरी संगीत का प्रचार एक अच्छा संकेत है लेकिन लोगों को इन वीडियो और गानों को अपलोड करते समय ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह हमारी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिलानी ने कहा, ‘‘कई बार जो वीडियो अपलोड किए जाते हैं वे देखने लायक नहीं होते। उनमें कविताओं को अश्लील वीडियो के साथ मिला दिया जाता है।’’ उन्होंने कहा कि वैसे समय बदल रहा है और इंटरनेट इन गानों को नये दर्शकों तक पहुंचा रहा है जिससे कश्मीरी संगीत के विकास में जरूर मदद मिलेगी। कनीहामी ने भी कहा कि कश्मीरी संगीत उद्योग में बदलाव जरूर आया है लेकिन कुछ विकास नहीं हुआ है। उन्होंने सरकारी संस्थाओं के भ्रष्टाचार में शामिल होने की शिकायत करते हुए कहा कि कश्मीरी कलाकारों को एक पिंजड़े में बंद कर दिया गया है जहां से उन्हें बाहर नहीं निकलने दिया जा रहा है।

Dark Saint Alaick
27-11-2011, 03:54 PM
बड़े भैय्या के मुकाबले लोकसभा में अधिक सक्रिय हैं वरूण गांधी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14009&stc=1&d=1322394785 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14010&stc=1&d=1322394785

नयी दिल्ली ! उत्तर प्रदेश में इन दिनों चुनावी पिच तैयार करने में जुटे राहुल गांधी लोकसभा में सक्रियता के मुकाबले में छोटे भाई वरूण गांधी से पिछड़ गए हैं । 15वीं लोकसभा का कार्यकाल शुरू होने के बाद अभी तक वरूण न केवल हाजिरी के मामले में राहुल से आगे रहे हैं, बल्कि सवाल पूछने के मामले में भी उन्होंने बड़े भाई से बाजी मार ली है । लोकसभा सचिवालय से मिली जानकारी के अनुसार 15वीं लोकसभा में कांग्रेस महासचिव राहुल की हाजिरी का प्रतिशत 43 था, वहीं उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से भाजपा सांसद वरूण की उपस्थिति का आंकड़ा 64 फीसदी रहा है। वरूण की मां और राहुल की चाची मेनका गांधी की हाजिरी का आंकड़ा लोकसभा में 70 फीसदी रहा है । इसी प्रकार वरूण गांधी ने जहां लोकसभा में दो विभिन्न मुद्दों पर चर्चाओं में हिस्सा लिया तो वहीं राहुल गांधी ने केवल एक चर्चा में भागीदारी की । लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान सवाल पूछने के मामले में भी वरूण गांधी काफी आगे हैं । वरूण गांधी ने प्रश्नकाल के दौरान 389 पूरक और अनुपूरक सवाल किए, जबकि राहुल गांधी ने कोई सवाल नहीं किया।
लोकसभा सचिवालय से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि न केवल वरूण गांधी, राहुल गांधी के मुकाबले अधिक सक्रिय हैं, बल्कि उनकी मां तथा आंवला (उत्तर प्रदेश) से सांसद मेनका गांधी भी लोकसभा में सक्रिय भूमिका अदा करती हैं । वरूण और मेनका गांधी ने अभी तक एक एक गैरसरकारी विधेयक पेश किया है, जबकि राहुल गांधी यहां भी छोटे भाई से पीछे रह गए हैं । उन्होंने कोई गैर सरकारी विधेयक आज तक किसी भी मुद्दे पर पेश नहीं किया। लोकसभा में मेनका गांधी का हाजिरी का प्रतिशत जहां 70 फीसदी रहा है, वहीं उन्होंने अब तक पांच बार विभिन्न मुद्दों पर हुई चर्चाओं में भाग लिया है तथा 138 पूरक और अनुपूरक सवाल किए हैं । उन्होंने एक निजी विधेयक भी पेश किया है । देवरानी के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की उपस्थिति का प्रतिशत लोकसभा में केवल 42 फीसदी रहा है।

Dark Saint Alaick
27-11-2011, 06:35 PM
आज हरिवंश राय बच्चन की जयंती पर

सांप्रदायिकता और जातिवाद पर एक प्रहार है बच्चन की मधुशाला

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14016&stc=1&d=1322404536

‘मधुशाला’ के मायने बहुत से लोगों के लिए अलग हो सकते हैं, लेकिन इस एक शब्द के पर्यायवाची ढूंढने निकलें तो जुबान पर बरबस एक ही नाम आता है ‘हरिवंश राय बच्चन’। बच्चन की यह अद्भुत रचना अपने निराले काव्य शिल्प और शब्दों के सटीक चयन के कारण हिन्दी काव्य प्रेमियों के दिल पर आज भी राज कर रही है। बच्चन की इस कृति में हाला, प्याला, मधुशाला और मधुबाला जैसे चार प्रतीकों के जरिए कई क्रांतिकारी और मर्मस्पर्शी भावों को अभिव्यक्ति दी गई है।

युवा कवि और कथाकार विपिन कुमार शर्मा का कहना है कि मधुशाला में डॉ. बच्चन ने सरल लेकिन चुभते शब्दों में सांप्रदायिकता, जातिवाद और व्यवस्था के खिलाफ भी आवाज उठाई है। विपिन ने कहा, ‘‘शराब को जीवन की उपमा देकर बच्चन ने मधुशाला के माध्यम से साप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की सीख दी।’’

हिन्दू और मुसलमान के बीच कटुता पर प्रहार करते हुए बच्चन ने लिखा:

मुसलमान और हिन्दू हैं दो,

एक मगर उनका प्याला,

एक मगर उनका मदिरालय,

एक मगर उनकी हाला,

दोनों रहते एक न जब तक,

मंदिर मस्जिद में जाते,

मंदिर-मस्जिद बैर कराते,

मेल कराती मधुशाला

हरिवंश राय बच्चन ने हालांकि मधुशाला पर दो किताबें लिखीं। एक किताब ‘‘खैय्याम की मधुशाला’’ थी। यह मधुशाला मूलत: फारसी में लिखी गई उमर खैय्याम की रचना से प्रेरित है और इस मूल रचना का रचनाकाल बच्चन की मधुशाला से आठ सौ वर्ष पहले का है। उन्होंने जो दूसरी मधुशाला लिखी, वह पाठकों के बीच काफी चर्चित हुई और उसकी लाखों प्रतियां बिकीं। इस मधुशाला को हर उम्र के लोगों ने सराहा और इसे एक कालजयी कृति के तौर पर पहचान मिली। बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के पास स्थित प्रतापगढ जिले के बाबूपट्टी गांव में हुआ था। वर्ष 1926 में 19 साल के हरिवंश राय ने 14 वर्षीय श्यामा से विवाह किया। लेकिन 1936 में श्यामा का टीबी से देहांत हो गया। 1941 में उन्होंने तेजी से विवाह किया।

वर्ष 1955 में हरिवंश राय दिल्ली आ गए और विदेश मंत्रालय में ‘आॅफिसर आॅन स्पेशल ड्यूटी’ के पद पर दस साल काम किया। इसी दौरान वह आधिकारिक भाषा के तौर पर हिंदी के विकास से जुड़े और अनुवाद तथा लेखन से उन्होंने इस भाषा को समृद्ध किया। उन्होंने शेक्सपीयर के मैकबेथ और ओथेलो तथा भागवद् गीता का हिन्दी अनुवाद किया। वर्ष 1966 में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया। तीन साल बाद उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से और 1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। 31 अक्तूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने ‘एक नवंबर 1984’ लिखी जो उनकी अंतिम कविता थी। ‘मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन मेरा परिचय’ कहने वाले हरिवंश ने 18 जनवरी 2003 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
28-11-2011, 04:53 PM
29 नवंबर को जे आर डी टाटा की पुण्यतिथि पर

भारतीय नागर विमानन के भी जनक थे टाटा समूह के शीर्ष पुरुष

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14067&stc=1&d=1322484785

सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित देश के प्रसिद्ध उद्योगपति जे आर डी टाटा न केवल टाटा समूह को शिखर पर ले जाने वाले व्यवसायी थे बल्कि वह भारतीय नागर विमानन के जनक भी थे। विप्रो लिमिटेड के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी का कहना है कि जेआरडी टाटा ने हमेशा ही बड़े सपने देखे। उन्होंने हमेशा ही राष्ट्रीय सीमा के पार देखा, जबकि कई भारतीय उद्योगपतियों ने अपने आप को राष्ट्रीय सीमा से घेरे रखा। इससे जेआरडी को न केवल टाटा समूह को बल्कि भारतीय उद्योग को अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर लाने में मदद मिली।
फ्रांस के पेरिस में 29 जुलाई, 1904 को जन्मे जेआरडी टाटा का बचपन का ज्यादातर समय फ्रांस में ही गुजरा, अतएव फ्रेंच उनकी पहली भाषा थी। उनके पिता रतनजी दादाभाई टाटा पारसी थे और मां सुजान फ्रांसीसी महिला थीं। प्रारंभ में विमान उड़ाने का प्रशिक्षण लेने वाले जेआरडी टाटा को 10 फरवरी, 1929 को पायलट का लाइसेंस मिला। भारत में पहली बार यह लाइसेंस मिला था। उन्होंने 1932 में भारत की पहली वाणिज्यिक एयरलाइन ‘टाटा एयरलाइन’ शुरू की, जो 1946 में एयर इंडिया बन गयी। उन्हें विमानन क्षेत्र का जनक माना जाता है।
जे आर डी टाटा 1925 में अवैतनिक एप्रेंटिस के रूप में टाटा एंड संस से जुड़े। सन् 1938 में वह उसके अध्यक्ष चुने गए और भारत के सबसे बड़े औद्योगिक घराने के प्रमुख बने। उन्होंने इस्पात, इंजीनियरिंग, उर्जा, रसायन आदि में गहरी रूचि ली। कई दशक की अध्यक्षता के दौरान उन्होंने टाटा समूह की कंपनियों की संख्या 15 से बढाकर 100 तक पहुंचा दी तथा इसकी परिसंपत्ति 62 करोड़ रूपए से 100 अरब रूपए तक पहुंच गयी। जे आर डी टाटा ने ऐसा करने में उच्च नैतिक मापदंडों पालन किया तथा रिश्वत और कालाधन से बिल्कुल परहेज किया।
वह सर दोराबजी टाटा न्यास की स्थापना से लेकर करीब आधी शताब्दी तक तक उसके न्यासी रहे। उनके मार्गदर्शन में सन् 1941 में न्यास ने एशिया के प्रथम कैंसर अस्पताल ‘टाटा मेमोरियल सेंटर फार कैंसर, रिसर्च एंड ट्रीटमेंट’ खोला। न्यास ने टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज, टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ फंडामेंटल रिसर्च तथा नेशनल सेंटर फार परफार्मिंग आर्ट की भी स्थापना की। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. डी. सुब्बाराव का कहना है कि देश के विकास के लिये जे आर डी टाटा पूरी तरह कटिबद्ध थे और वह कमजोर वर्ग के उत्थान के प्रति समर्पित थे।
सुब्बाराव के अनुसार एक बार जब जेआरडी टाटा ने मदर टेरेसा से कहा कि भारत की गरीबी उन्हें व्यथित कर देती है, तब मदर ने उनसे कहा था, ‘‘मिस्टर टाटा, आप अधिक उद्योग धंधे खोलिए, लोगों को अधिकाधिक रोजगार दीजिए और बाकी ईश्वर के भरोसे छोड़िए।’’
टाटा ने कंपनी के मामलों में कर्मचारियों को अपनी आवाज रखने देने के लिए प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच संबंध कार्यक्रम शुरू किया। कर्मचारियों के कल्याण में विश्वास रखने वाले टाटा ने आठ घंटे के काम, मुफ्त चिकित्सा सहायता, भविष्य निधि, दुर्घटना मुआवजा योजना शुरू की। उनका मानना था कि घर से काम पर निकलने से लेकर घर लौटने तक कर्मचारी ड्यूटी पर है। वह 89 वर्ष की उम्र में स्विटरजरलैंड के जिनीवा में 29 नवंबर, 1993 को चल बसे। उनके सम्मान में संसद की कार्यवाही स्थगित की गई, जबकि गैर संसद सदस्य के लिए ऐसा नहीं होता है।

Dark Saint Alaick
01-12-2011, 06:21 PM
दो दिसंबर को जन्मदिन पर

बच्चों की पत्रिका 'चंदामामा' की स्थापना की थी बी. नागी रेड्डी ने

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सामाजिक सरोकारों से जुड़े सहज विषयों को मसाले में लपेट कर बॉक्स आफिस पर सफल बनाने का नुस्खा अच्छी तरह समझने वाले फिल्म निर्माता निर्देशक बी. नागी रेड्डी ने बच्चों की पत्रिका चंदामामा की स्थापना की थी और आज करीब 65 साल बाद भी इस पत्रिका का सफर जारी है।

फिल्म समीक्षक माया सिंह ने बताया ‘‘बी. नागी रेड्डी की दिलचस्पी लेखन में शुरू से ही रही। 1945 में उन्होंने आंध्र ज्योति नामक तेलुगु अखबार निकाला। 1947 में उन्होंने बच्चों की पत्रिका चंदामामा शुरू की। आज करीब 65 साल बाद भी चंदामामा बच्चों की पसंदीदा पत्रिका है और लगभग दर्जन भर भाषाओं में इसका प्रकाशन हो रहा है।’’

फिल्म समीक्षक के. के. यादव ने बताया ‘‘बी. नागी रेड्डी की फिल्मों को बहुत अधिक गहराई वाली फिल्मों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। लेकिन उनकी फिल्मों की खासियत यह थी कि वह विषय को दिलचस्प तरीके से उठाते थे और फिल्म को बॉक्स आफिस पर सफल बनाने के लिए गीत, संगीत, एक्शन, रोमांच, थ्रिलर आदि का भरपूर इस्तेमाल करते थे।’’

वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्म समीक्षक आलोक शर्मा ने कहा ‘‘उनकी बनाई फिल्म पाताल भैरवी का शीर्षक ही बता देता है कि यह कैसी फिल्म होगी। लेकिन अपने समय में यह फिल्म हिट रही और इसका कारण फिल्म निर्माण से जुड़े हर तत्व का बेहद खूबसूरती से इस्तेमाल करना था। फिल्म निर्माण को वह एक ऐसी कला समझते थे जिसमें उनके अनुसार, कई प्रयोग करने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। यही वजह है कि चेन्नई में उन्होंने विजय वाहिनी स्टूडियो स्थापित किया जो अपने दौर में एशिया का सबसे बड़ा फिल्म स्टूडियो था।’’

यादव के अनुसार, ‘‘श्रीमान श्रीमती में उन्होंने हास्य के साथ सभी पक्षों को एक कसी हुई पटकथा में पिरोया और यह एक यादगार फिल्म बनी। इसमें भी विषय आम व्यक्ति से जुड़ा हुआ ही था लेकिन पेश करने का अंदाज निराला था। यही बी नागी रेड्डी की खासियत थी।’’

आंध्रप्रदेश के कडप्पा जिले के पोट्टिपाडु गांव में दो दिसंबर 1912 को जन्मे बोम्मीरेड्डी नागी रेड्डी (बी. नागी रेड्डी) ने अपने करिअर की शुरूआत तेलुगु फिल्म निर्माता के तौर पर की थी। उन्होंने अपने मित्र और साझीदार अलुर चक्रपाणि के साथ मिल कर चार दशक में चार दक्षिण भारतीय भाषाओं और हिन्दी में 50 से अधिक फिल्में बनाइ’। पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक घटनाक्रम और मसाला फिल्मों को दर्शकों के पसंदीदा विषयों के जरिये पेश करने वाले बी नागी ने अपने मित्र चक्रपाणि के निधन के बाद फिल्में बनाना ही बंद कर दिया। इसके बाद वह समाज सेवा में जुट गए। वर्ष 1972 में उन्होंने विजय मेडिकल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट की स्थापना की। इस ट्रस्ट ने 1972 में ही विजय अस्पताल की और 1987 में विजय स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना की।

उन्होंने पाताल भैरवी, मिसम्मा, माया बाजार, गुंडम्मा कथा, राम और श्याम, श्रीमान श्रीमती, जूली तथा स्वर्ग नरक फिल्में बनाइ’। हिन्दी, तेलुगु और तमिल सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान मिले। भारत सरकार ने 1986 में उन्हें प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के सम्मान प्रदान किया। आंध्रप्रदेश सरकार ने 1987 में उन्हें रघुपति वेंकैया अवार्ड, तमिलनाडु सरकार ने 1972 में कलैमामनी अवार्ड से सम्मानित किया। 25 फरवरी 2004 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

Dark Saint Alaick
02-12-2011, 04:56 PM
तीन दिसंबर को जयंती पर
खुदीराम : 19 साल की उम्र में देश पर कर दी जान निसार

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भारत की जंग ए आजादी का इतिहास क्रांति की एक से बढकर एक घटनाओं से भरा पड़ा है। इसी कड़ी में खुदीराम बोस का भी नाम शामिल है जो केवल 19 साल की उम्र में देश के लिए मर मिटे। पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में तीन दिसंबर 1889 को जन्मे खुदीराम बोस ने आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए नौवीं कक्षा के बाद ही पढाई छोड़ दी थी । उन्होंने रेवोल्यूशनरी पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और वंदेमातरम लिखे पर्चे वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंगाल विभाजन के विरोध में 1905 में चले आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही ।

इतिहासकार शिरोल ने खुदीराम के बारे में लिखा है कि बंगाल के इस वीर को लोग अपना आदर्श मानने लगे थे। साहस के मामले में खुदीराम का कोई जवाब नहीं था । 28 फरवरी 1906 को जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो वह कैद से भाग निकले । दो महीने बाद वह फिर से पकड़े गए, लेकिन 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। प्रोफेसर कांति प्रसाद के अनुसार खुदीराम का क्रांतिकारी व्यक्तित्व बचपन में ही दिखाई देने लगा था । एक बार खुदीराम ने क्रांतिकारी नेता हेमचंद्र कानूनगो का रास्ता रोककर अंग्रेजों को मारने के लिए उनसे बंदूक मांगी। खुदीराम की मांग से हेमचंद्र यह सोचकर आश्चर्यचकित रह गए कि इस बालक को कैसे पता कि उनके पास बंदूक मिल सकती है।

खुदीराम ने छह दिसंबर 1907 को नारायणगढ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, लेकिन वह बच गया। उन्होंने 1908 में दो अंग्रेज अधिकारियों वाटसन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया, लेकिन ये दोनों भी बच निकले। बंगाल का यह वीर क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा था । इस जज ने कई क्रांतिकारियों को कड़ा दंड दिया था। खुदीराम ने अपने साथी प्रफुल्ल चंद चाकी के साथ मिलकर किंग्सफोर्ड को मारने की योजना बनाई। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम से हमला किया लेकिन उस समय इस गाड़ी में किंग्सफोर्ड की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिलाएं सवार थीं जो मारी गईं। इन क्रांतिकारियों को इसका काफी अफसोस हुआ।

पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। खुदीराम पकड़े गए, जबकि प्रफुल्ल चंद चाकी ने खुद को गोली मारकर जान दे दी। ग्यारह अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में खुदीराम को फांसी दे दी गई। देश के लिए शहीद होने के समय खुदीराम की उम्र मात्र 19 साल थी। बलिदान के बाद यह वीर इतना प्रसिद्ध हो गया कि बंगाल के जुलाहे ‘खुदीराम’ लिखी धोती बुनने लगे। शिरोल ने लिखा है, ‘‘बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। स्कूल बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।’’

Dark Saint Alaick
04-12-2011, 11:54 AM
शाहन के शाह/सूफी संतों ने दिलायी मिटती पहचान एक महामनीषी को

हिन्दू ने ललद्यद तो मुस्लिमों ने लाल अरीफा में खोजी आस्था

वह पगली-सी महिला तो अपने में मस्त थी। लेकिन कुछ शरारती बच्चों ने उसे छेड़ना शुरू कर दिया। पगली ने कोई प्रतिकार नहीं किया। यह देखकर बच्चे कुछ ज्यादा ही वाचाल हो गये। पूरे इलाके में यह माहौल किसी खासे मनोरंजक प्रहसन से कम नहीं था। बच्चों के हो-हल्ले ने बाजार में मौजूद लोगों को भी आकर्षित कर लिया। कुछ ने शरारती बच्चों को उकसाया तो कुछ खुद ही इस खेल में शामिल हो गये। कुछ ऐसे भी लोग थे, जो सक्रिय तो नहीं रहे, लेकिन मन ही मन उस पगली को परेशान देखकर विह्वल हो उठे। मामला भड़कता देख एक दुकानदार ने हस्तक्षेप कर ही दिया और शरारती बच्चों को डांट कर भगाते हुए पगली को अपनी दूकान पर ले आया। पानी पिलाया, बोला: इन लोगों को तुमने डांटा क्यों नहीं।

पगली ने कोई जवाब देने के बजाय दुकानदार से थोड़ा कपड़ा मांगा। मिलते ही उसके दो टुकडे कर दोनों को तुलवा लिया। दोनों का वजन बराबर था। अब एक को दाहिने और दूसरे को बायें कंधे पर रख कर बाजार निकल गयीं। कोई निंदा करता तो दाहिने टुकड़े पर गांठ लगा लेतीं और प्रशंसा करने पर बांयें कंधे के टुकड़े पर। शाम को वापस लौटीं तो दोनों टुकड़े दुकानदार को देते हुए बोली : इसे तौल दीजिए।

दोनों टुकड़ों को गौर से दुकानदार ने देखा एक में गांठें ही गांठें थी, जबकि दूसरे में बस चंद ही गांठ। बहरहाल, तौल कर बताया कि दोनों टुकड़ों के वजन में कोई अंतर नहीं है। पगली ने जवाब दिया : किसी की निंदा या प्रशंसा की गांठों से क्या असर पड़ता है। दुकानदार अवाक रह गया। फौरन पगली के पैरों पर गिर पड़ा। यह थीं लल्लेश्वरी उर्फ लालदेई। बस इसी एक घटना से लल्लेश्वरी के सामने कश्मीरी लोग नतमस्तक हो गये। इसके बाद तो इस महिला के ज्ञान के मानसरोवर से वह अद्भुत बातें लोगों के सामने फूट पड़ी जिसकी ओर लोग अब तक अज्ञान बने हुए थे। उनकी वाणी से फूटे काव्य रूपी वाक्यों को कश्मीरी समाज ने वाख के नाम से सम्मानित कर बाकायद पूजना शुरू कर दिया। यह परम्परा आज तक कायम है।

यह चौदहवीं शताब्दी की बात है। श्रीनगर में पोंपोर के पास ही है सिमपुर गांव। मात्र 15 किलोमीटर दूर। यहां के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी थीं ललदेई। शुरू से ही शिव की उपासना में लीन रहने के चलते वे अपने आसपास की घटनाओं के प्रति बहुत ज्यादा लिप्त नहीं रहती थीं। पास के ही पद्यपुरा गांव के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में उनका विवाह हुआ। हालांकि लल्लेश्वरी खुद भी पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन वे अपने अनपढ़ पति को स्वीकार नहीं कर सकीं। उन्हें लगता था कि स्वयं को अभिव्यक्त कर पाने लायक क्षमता तो मानव में होनी ही चाहिए। बस, उन्होंने घर-परिवार को छोड़ दिया और शिव-साधना का मार्ग अख्तियार कर लिया। भावनाओं का समंदर हिलोरें तो ले ही रहा था, अब वह जन-जन तक पहुंचने लगा। बस कुछ ही समय के भीतर ललद्यद की रचनाएं घर-घर पहुंच गयीं। बाद में तो उन्हें कश्मीरी भाषा और साहित्य की विधात्री देवी तक की उपाधि जन-जन ने दे दी।

यह वह दौर था जब कश्मीर में दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों में घमासान मचा हुआ था। राजनीतिक अशांति जनमानस को बुरी तरह मथ रही थी। प्रताड़ना के नये-नये किस्से लिखे और सुने जा रहे थे। लेकिन इसके साथ ही एक ओर जहां ब्राह्मण भक्तिवाद लोगों को एकजुट कर ताकत दे रहा था, वहीं सूफीवाद भी लोगों में प्रेम और अपनत्व का भाव पैदा करने का अभियान छेड़ हुए था। अचानक ही कश्मीर में इन दोनों भक्ति-संस्कृतियों का मिलन हो गया। शिवभक्ति में लीन ललद्यद को सूफी शेख नूरउद्दीन का साथ मिल गया। लेकिन अब तक ललदेई ने कुण्डलिनी योग के साथ हठयोग, ज्ञान योग, मंत्रयोग और भक्तियोग में महारथ हासिल कर ली थी। इधर-उधर भटकने के बजाय वे ईश्वर को अपने आसपास ही खोजने की वकालत करती हैं।

उनका कहना था कि मैंने शिव को पा लिया है, और यह मुझे कहीं और नहीं, बल्कि खुद अपनी ही जमीन पर खड़ी आस्थाओं में मिल गया। बाद के करीब छह सौ वर्षों तक उन्हें केवल हिन्दू ही नहीं, बल्कि मुस्लिम धर्मगुरुओं ने पूरे सम्मान के साथ याद किया। चाहे वे 18 वीं शताब्दी की रूपा भवानी रही हों या फिर 19 वीं सदी के परमानन्द, सभी ने ललदेई की जमकर प्रशंसा की और जाहिर है इनकी लीकें ललद्यद की राह से ही गुजरीं। लेकिन यह कहना गलत होगा कि वे हिन्दुओं तक ही सीमित रहीं। बल्कि हकीकत तो यह रही कि हिन्दू तो उनका नाम तक बिगाड़ चुके थे। ललिता का नाम बिगड़ कर लाल हो गया। पहचान तक खत्म हो जाती अगर सूफियों ने उन्हें न सहेजा होता। वह तो सन 1654 में बाबा दाउद मुश्काती ने अपनी किताब असरारूल-अबरार में उनके बारे में न लिखा होता। सन 1746 में लिखी वाकियाते-कश्मीर में भी उन पर खूब लिखा गया।

दरअसल, ललद्यद ने कश्मीर में तब प्रचलित सिद्धज्ञान के आधार पर पनपे प्रकाश में स्वयं की शुद्धता, मसलन सदाचार व मानव कल्याण को न केवल खुद अपनाया, बल्कि अपने भाव-व्यवहार से दूसरों को भी इसी राह पर चलने की प्रेरणा दी। बाद के साहित्यकारों और आलोचकों ने उन्हें कश्मीरी संस्कृति का कबीर तक मान लिया। लल्लेश्वरी के नाम एक नहीं, अनेक हैं। लोगों ने उन्हें मनमाने नामों से पुकारा है। जिसमें जो भाव आया, उसने उन्हें इसी भाव से पुकार लिया। किसी ने उन्हें ललेश्वरी कहा, तो किसी ने लल्लेश्वरी, ललद्यद, ललारिफा, लला अथवा ललदेवी तक कह दिया। किसी की निगाह में वे दैवीय क्षमताओं से युक्त साक्षात भगवान की प्रतिमूर्ति हैं तो कोई उन्हें कश्मीरी भाषा की महान कवि मानता है। एक ओर जहां उनके नाम पर स्थापित प्रचीन मंदिर में बाकायदा उनकी उपासना होती है, वहीं लाल-वाख के नाम से विख्यात उनके प्रवचनों का संकलन कश्मीरी साहित्य का एक बेहद महत्वपूर्ण अंग समझा जाता है।

दरअसल, संत परम्परा को कश्मीर में श्रेष्ठ बनाने के लिए लल्लेश्वरी का योगदान महानतम माना जाता है। कहा जाता है कि शिव की भक्ति में हमेशा लीन रहने वाली इस कवयित्री के जीवन में सत्य, शिव और सुंदर का अपूर्व समन्वय और संयोजन था। वह विरक्ति के साथ ही भक्ति की भी प्रतीक थीं। उन्होंने विरक्ति की ऊंचाइयों का स्पर्श किया और इसी माध्यम से शिव स्वरूप में स्वयं को लीन करते हुए वे अपने तन-मन की सुध तक भूल जाती थीं। वे गली-कूचों में घूमती रहती थीं। शेख नूरउद्दीन को ललदेई के बारे में यह बात महज यूं ही नहीं कहनी पड़ी होगी:- उन्होंने ईश्वरीय प्रेम का अमृत पिया, और हे मेरे मौला, मुझे भी वैसा ही तर कर दे। सन 1320 में जन्मी लाल अरीफा यानी ललद्यद सन 1389 में परमशिव में स्थाई आश्रय पा गयीं। लेकिन किंवदंती के अनुसार अंत समय में उनके हिन्दू-मुसलमान भक्त उनके पास भीड़ की शक्ल में मौजूद थे कि अचानक ही उनकी देह से एक शिव-आकार की ज्योति निकली और इसके पहले कि कोई कुछ समझ पाता, वह अनंत आकाश में शिवलीन हो गयी।

-कुमार सौवीर

Dark Saint Alaick
04-12-2011, 03:46 PM
पांच दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस पर

स्वयंसेवक जुड़ते जाते हैं और बढता जाता है कारवां...


देश में बढते भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले गांधीवादी कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आंदोलन को जन जन तक पहुंचाने में स्वयंसेवकों ने ‘भगीरथ’ प्रयास किया, जिसकी बदौलत इसे देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भरपूर समर्थन मिला। टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य मनीष सिसौदिया ने बताया कि अन्ना का भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाया जा रहा पूरा आंदोलन स्वयंसेवकों पर आधारित है । उन्होंने कहा, ‘‘जन लोकपाल के लिये चलाये जा रहे इस आंदोलन के दौरान हमने स्वयंसेवकों को कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं दिया। हमने केवल स्वयंसेवकों को अपना विचार बताया और लोग इससे जुड़ते चले गये । पूरे आंदोलन के दौरान हमेशा हमने यही किया जैसे जंतर मंतर पर जब अन्ना जी अनशन करने वाले थे तब हमने संदेश दिया 74 साल का बूढा आदमी आपके बच्चों के लिये अनशन कर रहा है। आप अपने देश के लिये क्या कर रहे हैं ।’’
उन्होंने कहा, ‘‘स्वयंसेवकों को यदि ठीक ढंग से यह बता दिया जाये कि क्या करना है और क्यूं करना है तो वह अपने आप आंदोलन से जुड़ते जाते हैं और उसे आगे बढाते हैं । दिल्ली में अन्ना जी से जुड़े हुए 150 समर्पित स्वयंसेवक हैं, जो अपना काम करने के साथ साथ इस आंदोलन के लिये अपना समय दे रहे हैं ।’’
टीम अन्ना की साइबर मीडिया की कमान संभालने वाले स्वयंसेवक शिवेंद्र सिंह चौहान ने बताया कि इस आंदोलन की शुरूआत 30 जनवरी 2011 को भ्रष्टाचार के खिलाफ रामलीला मैदान से जंतर मंतर तक रैली निकाले जाने से हुई । इसके बाद उन्होंने फेसबुक के जरिये देश के अन्य शहरों मुंबई, औरंगाबाद, पटना और वाराणसी में अपने साथियों को ऐसी ही रैली के लिये सहमत किया। उन्होंने कहा, ‘‘इसी के साथ फेसबुक पेज के जरिये हमारे अभियान की शुरूआत हो गई और हमने लोगों को उनके अपने शहर में जुड़ने, एकजुट होने और स्वयंसेवक बनने के लिये आमंत्रित करना शुरू किया । इस अभियान को जबर्दस्त समर्थन मिला और हमने 30 जनवरी को 60 शहरों में बेहद आसानी से रैली निकाली।’’
शिवेंद्र ने कहा, ‘‘सब कुछ स्वयंसेवकों द्वारा आयोजित किया जाता था और हम केवल उन्हें दिशा निर्देश भेज देते थे । हम उन्हें शांतिपूर्वक रैली निकालने और अपनी मांगों को रखने के बारे में बताते थे। इस दौरान अमेरिका में रह रहे कुछ भारतीयों ने भी हमारे फेसबुक पेज के जरिये हमसे संपर्क किया । मैंने उनसे अमेरिका के शहरों में इसी तरह के विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का अनुरोध किया और चार लोगों ने बहुत उत्सुकता के साथ इसका जवाब दिया। इन भारतीयों ने अमेरिका के न्यूयार्क, लास एंजिलिस, वाशिंगटन डीसी और शिकागो में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली निकली । हमारे इस आंदोलन का वैश्विक स्तर पर विस्तार केवल स्वयंसेवकों से मिली मदद की वजह से हुआ और यह लगातार बढ रहा है।’’

इस आंदोलन को मिली अपार सफलता पर सिसौदिया ने कहा, ‘‘यदि लोगों को यह लग गया कि कोई आंदोलन मेरे फायदे के लिये है तो अपने आप वह इससे जुड़ जाते हैं । आज के समय में हरेक व्यक्ति अपनी पहचान ढूंढ रहा है । अन्ना जी के आंदोलन के साथ जुड़कर लोगों को लगा कि यह देश और समाज के लिये उपयोगी है और इसीलिये लोग इससे जुड़ते गये।’’ गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र स्वयंसेवकों के योगदान के बारे में जन जागरूकता बढाने के लिये वर्ष 1985 से आज के दिन को अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवक दिवस के रूप में मना रहा है। इस बार संयुक्त राष्ट्र स्वयंसेवकों की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी करने जा रहा है।

Dark Saint Alaick
04-12-2011, 05:55 PM
श्रद्धांजलि
तू तो न आए तेरी याद सताए

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ताउम्र जिंदगी का जश्न मनाने वाले ‘सदाबहार’ अभिनेता देव आनंद सही मायने में एक अभिनेता थे जिन्होंने अंतिम सांस तक अपने कर्म से मुंह नहीं फेरा। देव साहब की तस्वीर आज भी लोगों के जेहन में एक ऐसे शख्स की है जिसका पैमाना न केवल जिंदगी की रूमानियत से लबरेज था बल्कि जिसकी मौजूदगी आसपास के माहौल को भी नयी ताजगी से भर देती थी। इस करिश्माई कलाकार ने ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’ के दर्शन के साथ जिंदगी को जिया । यह उनकी 1961 में आयी फिल्म ‘ हम दोनों’ का एक सदाबहार गीत है और इसी को उन्होंने जीवन में लफ्ज दर लफ्ज उतार लिया था।
देव साहब ने बीती रात लंदन में दुनिया को गुडबॉय कह दिया। सुनते हैं कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। वैसे तो वह जिंदगी के 88 पड़ाव पार कर चुके थे लेकिन वो नाम जिसे देव आनंद कहा जाता है, उसका जिक्र आने पर अब भी नजरों के सामने एक २०-25 साल के छैल छबीले नौजवान की शरारती मुस्कान वाली तस्वीर तैर जाती है जिसकी आंखों में पूरी कायनात के लिए मुहब्बत का सुरूर है। देव साहब के अभिनय और जिंदादिली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब राज कपूर और दिलीप कुमार जैसे कलाकारों ने फिल्मों में नायक की भूमिकाएं करना छोड़ दिया था उस समय भी देव आनंद के दिल में रूमानियत का तूफान हिलोरे ले रहा था और अपने से कहीं छोटी उम्र की नायिकाओं पर अपनी लहराती जुल्फों और हालीवुड अभिनेता ग्रेगोरी पैक मार्का इठलाती टेढी चाल से वह भारी पड़ते रहे। ‘जिद्दी’ से शुरू होकर देव साहब का फिल्मी सफर ‘जानी मेरा नाम ’, ‘देस परदेस’, ‘हरे रामा हरे कृष्ण’ जैसी फिल्मों से होते हुए एक लंबे दौर से गुजरा और अपने अंतिम सांस तक वह काम करते रहे । उनकी नयी फिल्म ‘ चार्जशीट’ रिलीज होने के लिए तैयार है और वह अपनी फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ की अगली कड़ी पर भी काम कर रहे थे, लेकिन इस नयी परियोजना पर काम करने के लिए देव साहब नहीं रहे। बीते सितंबर में अपने 88वें जन्मदिन पर दिए एक अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘‘मेरी जिंदगी में कुछ नहीं बदला है और 88वें साल में मैं अपनी जिंदगी के खूबसूरत पड़ाव पर हूं। मैं उसी तरह उत्साहित हूं, जिस तरह 20 साल की उम्र में होता था। मेरे पास करने के लिए बहुत काम है और मुझे ‘चार्जशीट’ के रिलीज होने का इंतजार है। मैं दर्शकों की मांग के अनुसार, ‘हरे रामा हरे कृष्णा आज’ की पटकथा पर काम कर रहा हूं।’’
देव साहब की फिल्में न केवल उनकी आधुनिक संवेदनशीलता को बयां करती थीं बल्कि साथ ही भविष्य की एक नयी इबारत भी पेश करती थीं । वह हमेशा कहते थे कि उनकी फिल्में उनके दुनियावी नजरिए को पेश करती हैं और इसीलिए सामाजिक रूप से प्रासंगिक मुद्दों पर ही आकर बात टिकती है। उनकी फिल्मों के शीर्षक ‘अव्वल नंबर’, ‘सौ करोड़’, ‘सेंसर’, ‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’ तथा ‘चार्जशीट’ इसी बात का उदाहरण हैं। वर्ष 2007 में देव साहब ने अपने संस्मरण ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में स्वीकार किया था कि उन्होंने जिंदगी में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और हमेशा भविष्य को आशावादी तथा विश्वास के नजरिए से देखा। अविभाजित पंजाब प्रांत में 26 सितंबर 1923 को धर्मदेव पिशोरीमल आनंद के नाम से पैदा हुए देव आनंद ने लाहौर के गवर्नमेंट लॉ कालेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की शिक्षा हासिल की थी। नामी गिरामी वकील किशोरीमल के वह दूसरे नंबर के बेटे थे । देव की छोटी बहन शीलकांता कपूर है, जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फिल्म निर्माता शेखर कपूर की मां हैं । उनके बड़े भाई चेतन आनंद और छोटे भाई विजय आनंद थे। अभिनय के प्रति उनकी दीवानगी उन्हें अपने गृह नगर से मुंबई ले आयी जहां उन्होंने 160 रूपये प्रति माह के वेतन पर चर्चगेट पर सेना के सेंसर आफिस में कामकाज संभाल लिया । उनका काम था सैनिकों द्वारा अपने परिजनों को लिखे जाने वाले पत्रों को पढना ।
उन्हें पहली फिल्म 1946 में ‘हम एक हैं’ मिली । पुणे के प्रभात स्टूडियो की इस फिल्म ने उनके कैरियर को कोई रफ्तार नहीं दी। इसी दौर में उनकी दोस्ती साथी कलाकार गुरू दत्त से हो गयी और दोनों के बीच एक समझौता हुआ । समझौता यह था कि यदि गुरू दत्त ने फिल्म बनायी तो उसमें देव आनंद अभिनय करेंगे। देव आनंद को पहला बड़ा ब्रेक अशोक कुमार ने ‘जिद्दी’ में दिया । बांबे टाकीज की इस फिल्म में देव साहब के साथ कामिनी कौशल थी और 1948 में आयी इस फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। 1949 में देव आनंद खुद निर्माता की भूमिका में आ गए और नवकेतन नाम से अपनी फिल्म कंपनी की शुरूआत की और अपने वादे के अनुसार उन्होंने गुरू दत्त को ‘बाजी ’ (1951) के निर्देशन की जिम्मेदारी सौंपी । दोनों की यह जोड़ी नए अवतार में बेहद सफल रही। 40 के उत्तरार्द्ध में देव साहब को गायिका अभिनेत्री सुरैया के साथ कुछ फिल्मों में काम करने का मौका मिला जो उस जमाने की स्थापित अभिनेत्री थी। इन फिल्मों की शूटिंग के दौरान उनकी सुरैया से नजरें लड़ गयीं और प्रेम की चिंगारी ऐसी भड़की कि इस जोड़ी को दर्शकों ने सिल्वर स्क्रीन पर हाथों हाथ लिया । इन्होंने एक के बाद एक सात सफल फिल्में दी, जिनमें विद्या (1948), जीत (1949 ), अफसर (1950 ), नीली (1950 ), दो सितारे (1951 ) तथा सनम (1951 ) थीं । विद्या के गाने ‘किनारे किनारे चले जाएंगे’ की शूटिंग के दौरान सुरैया और देव आनंद के बीच प्यार का पहला अंकुर फूटा था। इस फिल्म की शूटिंग के दौरान नाव डूबने लगी, तो देव साहब ने ही जान की बाजी लगाकर सुरैया को डूबने से बचाया था। बेचैन दिल को देव अधिक समय तक संभाल नहीं पाए और ‘जीत’ के सेट पर सुरैया के सामने प्यार का इजहार कर दिया, लेकिन सुरैया की नानी ने हिंदू होने के कारण देव साहब के साथ उनके संबंधों का विरोध किया। इसी वजह से सुरैया तमाम उम्र कुंवारी बैठी रहीं। नवकेतन के बैनर तले देव साहब ने 2011 तक 31 फिल्में बनायीं। ग्रेगोरी पैक स्टाइल में उनका डायलाग बोलने का अंदाज, उनकी खूबसूरती पर चार चांद लगाते उनके हैट (टोपी) और एक तरफ झुककर, हाथों को ढीला छोड़कर हिलाते हुए चलने की अदा ... उस जमाने में लड़कियां देव साहब के लिए पागल रहती थीं ।
‘जाल’, ‘दुश्मन’, ‘काला बाजार’ और ‘बंबई का बाबू’ फिल्मों में उन्होंने नायक की भूमिका को नए और नकारात्मक तरीके से पेश किया। अभी तक उनके अलोचक उन्हें कलाकार के बजाय शिल्पकार अधिक मानते थे, लेकिन ‘काला पानी’ जैसी फिल्मों से उन्होंने अपने आलोचकों की बोलती बंद कर दी। उसके बाद 1961 में आयी ‘हम दोनों’ और 1966 में आयी ‘गाइड’ ने तो बालीवुड इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज कर दिया। 1970 में उनकी सफलता की कहानी का सफर जारी रहा और ‘जानी मेरा नाम’ तथा ‘ज्वैल थीफ ’ ने उन्हें नयी उंचाइयों पर पहुंचा दिया जिनका निर्देशन उनके भाई विजय आनंद ने किया था। वर्ष 2002 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित देव साहब राजनीतिक रूप से भी सक्रिय रहे थे। उन्होंने फिल्मी हस्तियों का एक समूह बनाया, जिसने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाए गए आपातकाल के खिलाफ आवाज उठायी थी। 1977 के संसदीय चुनाव में उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया और ‘नेशनल पार्टी आफ इंडिया’ का भी गठन किया, जिसे बाद में उन्होंने भंग कर दिया। कुछ भी कहिए 1923 से शुरू हुआ देव साहब का सफर अब मंजिल पर पहुंच कर एक नई मंजिल की ओर निकल गया है। ऐसे में दिल से बस एक सदा निकलती है - अभी न जाओ छोड़कर।

Dark Saint Alaick
04-12-2011, 06:03 PM
संस्मरण/प्रसून सोनवलकर
जब अपनी नायिका जीनत से प्रेम करने लगे थे देव आनंद

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14161&stc=1&d=1323007740

वर्ष 1971 में अपनी फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ की कामयाबी के बाद सदाबहार हीरो देव आनंद महसूस करने लगे थे कि वह अपनी खोज और इस फिल्म की नायिका जीनत अमान से प्रेम करने लगे हैं। जीनत के प्रति अपनी भावना का इजहार करते हुए देव आनंद ने अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विथ लाइफ’ में लिखा है कि फिल्म की कामयाबी के बाद जब अखबारों और पत्रिकाओं में उनके रोमांटिक संबंधों के बारे में लिखा जाने लगा तो उन्हें अच्छा लगने लगा था। उन्होंने अपने प्रेम की घोषणा करीब करीब कर ही दी थी, लेकिन जब उन्होंने जीनत को राज कपूर के करीब देखा, तो उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए। राज कपूर अपनी फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में जीनत को नायिका बनाना चाहते थे। वर्ष 2007 में प्रकाशित इस पुस्तक में देव आनंद ने लिखा है, ‘‘कहीं भी और कभी भी जब जीनत के बारे में चर्चा होती, तो मुझे अच्छा लगता। उसी प्रकार मेरी चर्चा होने पर वह खुश होती। अवचेतन अवस्था में हम दोनों एक दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़ गए थे।’’
देव आनंद ने स्वीकार किया कि उन्हें उस समय ईर्ष्या हुई जब उनकी अगली फिल्म ‘इश्क इश्क इश्क’ के प्रीमियर पर राज कपूर ने लोगों के सामने सार्वजनिक रूप से जीनत को चूम लिया। उन्होंने महसूस किया कि वह जीनत से प्रेम करने लगे थे और मुंबई के 'द ताज' में एक रोमांटिक भेंट के दौरान इसकी घोषणा करना चाहते थे। देव आनंद ने लिखा है, ‘‘ अचानक, एक दिन मैंने महसूस किया कि मैं जीनत से प्रेम करने लगा हूं.. और इसे उन्हें बताना चाहता था..।’’ इसके लिए उन्होंने होटल ताज को चुना था जहां वे दोनों एक बार पहले भी साथ साथ खाना खा चुके थे। उन्होंने लिखा कि पार्टी में कुछ देर ठहरने के बाद जीनत के साथ भेंटस्थल पर जाने की व्यवस्था कर ली थी, लेकिन पार्टी में ‘नशे में राज कपूर ने अपनी बांहें फैला दी..... जीनत ने भी जवाबी प्रतिक्रिया व्यक्त की....।’
देव आनंद को संदेह था कि इसमें कुछ तो है। उन्होंने याद किया कि उन दिनों अफवाह थी कि जीनत ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ की नायिका की भूमिका के लिए स्क्रीन टेस्ट की खातिर राज कपूर के स्टूडियो गई थी। उन्होंने लिखा, ‘अफवाहें सच होने लगी थीं। मेरा मन दुखी हो गया था।’ देव आनंद के लिए स्थिति और बदल गई, जब ‘नशे में राज कपूर ने जीनत से कहा कि वह उसके सामने सिर्फ सफेद साड़ी में दिखने का अपना वादा तोड़ रही है...।’ दुखी देव आनंद ने लिखा कि जीनत अब उनके लिए वह जीनत नहीं रह गई थी।

Dark Saint Alaick
04-12-2011, 07:30 PM
जब देव साहब ने रफी के लिए गाया

यह तो सभी जानते हैं कि रफी साहब ने देव साहब की बहुत सारी फिल्मों में उनके सदाबहार गानों को अपनी आवाज दी है, लेकिन इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को होगी कि इन दोनों ने 1966 में बनी फिल्म ‘प्यार मोहब्बत’ में साथ गाया है। सदाबहार नायक देव साहब ने इसके बारे में इसी साल 31 जुलाई को आयोजित रफी की 31वीं पुण्यतिथि पर लोगों के साथ सांझा किया था। देव साहब ने उस समारोह में कहा था कि वह रफी की आवाज के प्रशंसक थे और उन्हें वह पसंद थे। देव साहब ने ट्विटर पर लिखा था, ‘‘मैंने कभी गाना नहीं गाया, लेकिन रफी के गाने ‘प्यार मोहब्बत के सिवा ये जिंदगी क्या जिंदगी...’ में जो हुर्र्रे....हुर्रे है वह मेरी आवाज है। मैने बस उतना ही गाया।’’ उन्होंने कभी अपने ट्विटर के पन्ने पर लिखा था, ‘‘रफी अमर हैं हम उन्हें हमेशा अपने पास, अपने दिलों और आत्मा में महसूस करते हैं। मैं उनकी आवाज का कायल हूं।’’

Dark Saint Alaick
04-12-2011, 08:02 PM
संस्मरण
देव साहब के जाने से फिल्मी दुनिया ने ‘वटवृक्ष’ खो दिया : नीरज

‘जब चले जाओगे तुम सावन की तरह । याद बहुत आओगे प्रथम प्यार के चुंबन की तरह ।।’ इन शब्दों के बीच सदाबहार अभिनेता देव आनंद को भरे मन से याद करते हुए प्रसिद्ध गीतकार गोपालदास ‘नीरज’ ने कहा कि देव साहब के जाने से फिल्मी दुनिया ने ‘वटवृक्ष’ खो दिया। देव आनंद की कई फिल्मों के लिए गाने लिख चुके नीरज ने अलीगढ से बताया, ‘‘एक कवि सम्मेलन के दौरान मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई थी और इसके बाद उनकी फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ से जुड़ा रिश्ता आखिरी फिल्म ‘चार्जशीट’ तक बना रहा। हालांकि, मैंने फिल्मों के लिए 1973 में लिखना छोड़ दिया था।’’
भरे मन से नीरज ने कहा, ‘‘देव साहब के रूप में फिल्म जगत ने एक वटवृक्ष खो दिया, जो फिल्मों के अपने साथियों को हमेशा याद रखा करते थे। शायद यही बड़ा कारण था कि उनकी फिल्म ‘सेंसर’ और ‘चार्जशीट’ के लिए भी मैंने गाने लिखे।’’ उनके निधन को व्यक्तिगत नुकसान बताते हुए उन्होंने कहा, ‘‘देव साहब के साथ फिल्म जगत से मेरा आखिरी संपर्क भी खत्म हो गया। जीनत अमान और टीना मुनीम सहित कई युवाओं को उन्होंने मौका दिया था। युवाओं को अवसर देने में वह कभी झिझकते नहीं थे।’’
उन्होंने कहा, ‘‘देव साहब 88 साल की उम्र में भी एक युवा की तरह जोश ओ खरोश के साथ काम करते थे और मैं उनके सामने खुद को ‘बूढा’ महसूस करता था। वह अपनी फिल्मों के शीर्षक में अखबारों और बोलचाल के शब्दों का खुलकर इस्तेमाल करते थे।’’ नीरज ने कहा, ‘‘देव साहब नया विचार दर्शकों के सामने रखने वाले फिल्मकार थे और देव आनंद नियम, संयम और समय के पाबंद थे, जो अपनी जिंदगी को बेहद व्यवस्थित और सलीके के साथ जीने वाले व्यक्ति थे।’’
देव साहब के मित्र और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम ने बताया, ‘‘देव साहब भले ही पाश्चात्य जीवन शैली को पसंद करते थे, लेकिन वह कभी भी शराब और सिगरेट को हाथ नहीं लगाते थे। वह चाय भी शहद के साथ लेते थे। फिल्मों में भी कभी वह सिगरेट के धुंए को अंदर नहीं लेते थे।’’
नेताम ने बताया कि वह देव साहब से पहली दफा 1973 में मुंबई के उनके कार्यालय में मिले थे, उस वक्त वह केंद्र में मंत्री थे। देव आनंद को उन्होंने बस्तर आमंत्रित किया था और वह 1974 में अपनी यूनिट के तीन चार लोगों के साथ बस्तर आये और बेलाडिला सहित कई स्थानों का भ्रमण किया।
देव आनंद जैसे रचनात्मक और जुनूनी व्यक्ति ने भले ही प्रत्यक्ष रूप से राजनीति से खुद को हमेशा दूर रखा हो, लेकिन उन्हें न केवल देश की राजनीति की गहरी समझ थी बल्कि वैश्विक राजनीति के बारे में भी वह अच्छी जानकारी रखते थे।
उन्होंने कहा कि देव आनंद को जानने वाला हर व्यक्ति बतायेगा कि वह कितने खुशमिजाज और जिंदादिल इंसान थे। जानने वाले एवं अनजान हर उम्र के लोगों से वह इतने उत्साह और गर्मजोशी के साथ मिलते थे जैसे उसे वर्षों से जानते हों।

Dark Saint Alaick
04-12-2011, 08:02 PM
संस्मरण
देव आनंद ने इंदौर में इंदौर-महू साढे छह आना की आवाज लगाई थी

इन्दौर ! मशहूर निर्माता-निदेशक और सदाबहार अभिनेता देव आनंद ने मध्य प्रदेश के इंदौर के रेलवे स्टेशन पर खडे होकर महू जाने के लिए यात्रियों को इंदौर-महू साढे छह आना की आवाज लगाई थी। देव आनंद ने वर्ष ।953 में बनी टेक्सी ड्रायवर के अलावा फिल्म नौ दो ग्यारह और पेइंग गेस्ट की शूटिंग इंदौर में की थी। देव आनंद पर दो लोकप्रिय गाने फिल्माए थे। देव आनंद की इंदौर से जुडी यादो को समेटते हुए प्रसिद्ध सिनेमा पत्रकार राम ताम्रकर ने बताया कि देव आनंद की फिल्म गाइड की सिल्वर जुबली पर यहां आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने के लिए अलका सिनेमाघर में आयें थे। उस समय पूरा जेलरोड उनके चाहने वालों से भर गया था।
उन्होंने बताया कि देव आनंद अपनी फिल्म टेक्सी ड्रायवर के कुछ दृष्यो को इंदौर में शूटिंग करने के लिए आए थे। इस फिल्म की कहानी के अनुसार आगरा से मुबंई जाते समय वह इंदौर के रेलवे स्टेशन पर अपना ट्रक खडा करके सवारियां ढूंढने के लिए 'इंदौर-महू साढे छह आना' की आवाज लगाते है। यह फिल्म 1954 में प्रदर्शित हुई थी। फिल्म 'नौ दो ग्यारह' में इंदौर जिले के मानपुर के खतरनाक घाट में कल्पना कार्तिक के साथ मस्ती भरा गाना ..हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ न बोलिये.. फिल्माया था। इसके अतिरिक्त फिल्म 'पेइंग गेस्ट' का एक गीत.. छोड दो आंचल .. भी नर्मदा नदी के किनारे देव आनंद ने फिल्माया था।

anoop
04-12-2011, 08:28 PM
बहुत जबर्दस्त लिखा आपने अलैक जी.

Dark Saint Alaick
05-12-2011, 07:00 PM
छह दिसंबर को डॉ. अंबेडकर की पुण्यतिथि पर

देश को अतुलनीय संविधान दिया अंबेडकर ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14170&stc=1&d=1323097210

भारतीय संविधान के निर्माता डा भीमराव अंबेडकर ने आजादी के बाद देश को एकसूत्र में पिरोकर एक नयी ताकत के रूप में उभरने का मार्ग प्रशस्त करने के लिये ऐसे संविधान का निर्माण किया जो विश्व के लिये मिसाल बन गया। अंबेडकर ने संविधान निर्माण में उदारवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए न केवल सभी वर्गों के हितों का ध्यान रखा बल्कि पिछडे वर्ग के लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए कई प्रावधान किए। उन्होंने संविधान बनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा कि देश की एकता और अखंडता अक्षुण्य रहे। अंबेडकर ने संविधान में मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्व, सामाजिक न्याय सहित अनेक बातों को शामिल कर इसका मूल ढांचा बनाया। संविधान में मतपत्र से मतदान, बहस के नियम, कार्यसूची के प्रयोग आदि को शामिल करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।

संविधान विशेषज्ञ सुब्रतो मुखर्जी के अनुसार संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चार प्रमुख लोगों, पं. जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और राजेन्द्र प्रसाद को अंबेडकर पर पूरा विश्वास था, इसीलिए उन्होंने संविधान निर्माण की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी। अंबेडकर उस विश्वास पर एकदम खरे उतरे। अंबेडकर संविधान निर्माण के लिए बनाई गई प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे।

प्रख्यात विधिवेत्ता अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के मउ में हुआ। अंबेडकर ने कानून की उपाधि प्राप्त की और कोलंबिया विश्वविद्यालय तथा लंदन स्कूल आफ इकॉनामिक्स से डॉक्टरेट की डिग्रियां हासिल कीं। 15 अगस्त 1947 को भारत की आजादी के बाद अंबेडकर देश के पहले कानून मंत्री बने।

संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर राजनीतिक और सामाजिक समता के पैराकार होने के साथ ही आर्थिक सुधारों के प्रबल समर्थक भी थे। उनका सपना कृषि क्षेत्र और ग्रामीण भारत को बुलंदी पर देखने का था। जानकार भी इससे इत्तेफाक रखते हैं। दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने कहा, ‘‘डॉक्टर अंबेडकर के राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण की बात हमेशा की जाती है, लेकिन उनके आर्थिक नजरिये के बारे में चर्चा बहुत कम होती है। वह एक प्रखर अर्थशास्त्री थे और उन्होंने हमेशा आर्थिक सुधारों का समर्थन किया।’’

प्रसाद के मुताबिक कृषि को लेकर अंबेडकर की नीति अलग थी। उन्होंने कहा, ‘‘अंबेडकर ने 1952 के चुनाव में अपनी पार्टी के घोषणापत्र में कृषि को प्राथमिकता दी थी। वह कृषि को औद्योगिक रूप देना चाहते थे ताकि समाज के निचले तबके का शोषण न हो और देश में समृद्धि भी आये।’’ कुछ जानकार अंबेडकर की नीतियों में समाजवाद का पहलू भी देखते हैं। अंबेडकर पर अध्ययन करने वाले लेखक मस्तराम कपूर के अनुसार डॉक्टर अंबेडकर की नीतियां समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया से मिलती थीं। कई ऐसे मौके आये जब लोहिया और अंबेडकर की राय एक दिखी।

सामाजिक सुधार और समता की राह पर चलते हुए अंबेडकर ने हिंदू और इस्लाम से भी अपनी असहमति दिखाई। इसी का नतीजा था कि जीविन के आखिरी दिनों में उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। विदेश नीति के मामले पर अंबेडकर की सोच बड़ी दूरगामी थी। अंबेडकर स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री रहे। उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया का गठन किया, हालांकि चुनावी राजनीति में ज्यादा कामयाबी नहीं मिली। छह दिसंबर 1956 को उनका निधन हो गया था।

Dark Saint Alaick
05-12-2011, 07:09 PM
छह दिसंबर को मुहर्रम पर
सच्चाई के लिए लड़ने का पैगाम देता है ‘आशूरा’ मुहर्रम


इस्लामी कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम की 10वीं तारीख ‘आशूरा’ सच्चाई के लिए लड़ने और इंसानियत का झंडा हमेश बुलंद रखने की कोशिश करने का पैगाम देती है। इसी पैगाम को लेकर हजरत हुसैन भी आगे बढे थे और कर्बला के मैदान में शहादत पाई। मुहर्रम की 10वीं तारीख को इस्लाम के मानने वाले दोनों धड़ों शिया एवं सुन्नी अलग-अलग नजरिए से देखते हैं और इसको लेकर उनके अकीदों में भी फर्क है। इसके बावजूद इन दोनों तबकों के लोग पैगम्बर के नवासे हजरत हुसैन के असल पैगाम को मानते हैं।

दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम अहमद का कहना है, ‘‘मुहर्रम इस्लामी तारीख का पहला महीना है। मजहबी नजरिए से इस महीने की बहुत अहमियत है। इसकी 10वीं तारीख ‘आशूरा’ की और भी ज्यादा अहमियत है क्योंकि इसी दिन हजरत हुसैन ने सच्चाई और हक के लिए लड़ते हुए शहादत पाई थी। यह दिन उनके पैगाम पर गौर करने और इबादत करने का है।’’ मुहर्रम की 10वीं तारीख को कर्बला (इराक) के मैदान में हजरत हुसैन यजीद की सेना के साथ लड़ते हुए शहीद हो गए थे। उनके साथ 72 लोग भी शहीद हुए थे। इनमें कई मासूम बच्चे भी शामिल थे। हुसैन पैगम्बर की प्यारी बेटी हजरत फातिमा के बेटे थे। हुसैन के वालिद हजरत अली थे।

मुहर्रम के शुरुआती 10 दिनों में सुन्नी समुदाय के लोग रोजा रखते हैं और इबादत करते हैं, हालांकि शिया समुदाय के लोगों का नजरिया इससे थोड़ा अलग है। इस दौरान शिया लोग कई मजहबी पाबंदियों का एहतराम करते हैं। वे लोग सूरज ढलने तक कुछ नहीं खाते हैं और अशूरा के दिन ये लोग मातम करने के साथ ही ताजिया निकालते हैं। इन 10 दिनों में शिया समुदाय लोग मजलिस (सभाएं) करते हैं। इनमें हजरत हुसैन और उनसे जुड़े वाकयों को बयां किया जाता है। लोग उनकी शहादत को लेकर गम और फख्र का इजहार करते हैं। मुफ्ती मुकर्रम कहते हैं, ‘‘आम तौर पर लोग मातम करते हैं और ताजिया निकालते हैं। हमें हजरत हुसैन के असल पैगाम को समझना होगा। उन्होंने सच्चाई के लिए लड़ने और इंसानियत का पैगाम दिया था। आज के दौर में उनका पैगाम और भी अहम हो जाता है।’’

Dark Saint Alaick
07-12-2011, 04:32 AM
महिलाओं की गहनों के लिए चाह बरकरार, पसंद बदल गई

नयी दिल्ली ! सोना चाहे कितना भी महंगा क्यों न हो जाए, इस पीली चमकीली धातु के गहने हमेशा महिलाओं की पहली चाहत रहे हैं, लेकिन बदलते ट्रेंड और हालात के साथ आज की महिलाएं जरूरत, अवसर और बजट के हिसाब से अपने गहनों का चुनाव करती हैं। ज्वेलरी डिजाइनर माहिषी लूथरा ने बताया ‘‘हर महिला सुंदर दिखना चाहती है और इसके लिए वह हरसंभव कोशिश करती है। गहने इसी कोशिश का हिस्सा हैं। आज की महिलाएं भारी भरकम और परंपरागत गहने केवल शादी ब्याह में पहनना पसंद करती हैं। पार्टी और अन्य अवसरों के लिए उनकी पसंद अलग होती है। महंगाई को देखते हुए वह अपने बजट के अनुसार, गहने चुनती हैं।’’ उन्होंने कहा कि सोने में निवेश को अच्छा निवेश माना जाता है लेकिन ज्यादातर महिलाएं सोने के गहने पहनने के लिए खरीदती हैं और निवेश वाली बात उनके मन में नहीं रहती। जिन घरों में बेटियां हैं, उन घरों की महिलाएं उनकी शादी को ध्यान में रखकर गहने खरीदती हैं। एमएमटीसी के पैनल में ज्वलेरी डिजाइनर पूजा जुनेजा का कहना है कि हाल के वर्षों में दुल्हन के गहनों को लेकर पसंद काफी बदल गई है। पहले जहां महिलाएं सिर्फ सोने के गहने पसंद करतीं थीं वहीं आजकल सोने के साथ हीरे, कुंदन आदि का काफी चलन है। ज्वेलरी डिजाइनर राजवी ने कहा ‘‘जो हंसुली पहले ग्रामीण महिलाओं का गहना मानी जाती थी और बीच में लगभग पूरी तरह उपेक्षित हो गई थी, अब उसकी बहुत मांग है। इसका श्रेय छोटे पर्दे को ही है।’’ पूजा ने कहा ‘‘ब्राइडल ज्वेलरी में पोलकी सेट की बहुत मांग हैं पहले शादियों में गहनों का खर्च कुल शादी के खर्च का 20 प्रतिशत होता था वहीं अब यह बढकर 40-50 प्रतिशत तक पहुंच गया है। दुल्हन के अलावा परिवार की अन्य महिलाएं भारी भरकम एवं परंपरागत गहने पहनती हैं। करधन, बाजूबंद जैसे जो गहने पहले लगभग उपेक्षित हो गए थे, उनकी अब फिर से पूछ होने लगी है।’’ उन्होंने बताया कि आजकल चेंजेबल गहनों की भी बहुत मांग हैै। इनमें रंगीन नग जडे होते हैं और उन्हें इस तरह डिजाइन किया जाता है कि कपड़ों के रंग के हिसाब से इनके नग बदले जा सकते हैं। ऐसे गहनों की कीमत और परंपरागत गहनों की कीमत में अधिक अंतर नहीं होता। इसके अलावा, इनसे कई अवसरों पर काम चलाया जा सकता है ! फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में किरदारों द्वारा पहने गए गहनों से महिलाएं कितना प्रभावित होतीं हैं? इस सवाल पर राजवी सिंह ने कहा कि फिल्मों से तो महिलाएं हमेशा से प्रभावित होतीं रही हैं, लेकिन छोटे पर्दे ने अब उनकी पसंद को गहरे तक प्रभावित कर दिया है। विभिन्न धारावाहिकों के महिला किरदारों द्वारा पहने जाने वाले गहने औरतों को खूब लुभा रहे हैं। उन्होंने बताया कि विभिन्न चैनलों पर विभिन्न प्रांतों के सीरियल दिखाए जा रहे हैं, इससे महिलाओं को गहनों के नये नये डिजाइन नजर आते हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पंजाब और बिहार की पृष्ठभूमि पर आधारित धारावाहिकों में महिला पात्र स्थानीय परिवेश और आभूषणों में दिखाई देती हैं।

Dark Saint Alaick
10-12-2011, 04:00 PM
11 दिसंबर को रेडियो दिवस पर विशेष
समय के साथ बदल रहा है रेडियो


सेटेलाइट टीवी, इंटरनेट और आईपीटीवी के इस दौर में सूचना का परंपरागत माध्यम रेडियो समय के साथ न केवल बदल रहा है बल्कि दिन प्रतिदिन नयी तकनीकों से खुद को लैस कर रहा है। आकाशवाणी दिल्ली के स्टेशन डायरेक्टर लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने बताया कि बाजार में टीवी, कंप्यूटर, इंटरनेट आ जाने के बावजूद सूचना का परंपरागत माध्यम रेडियो न केवल अपना अस्तित्व बनाये हुए है बल्कि बदलती हुई जरूरतों के लिहाज से अपने में बदलाव लाकर यह तकनीक के साथ कदम ताल कर रहा है। वाजपेयी ने कहा, ‘‘समय के साथ रेडियो में बदलाव आ रहा है और इसकी गुणवत्ता सुधारने के लिये नित नयी तकनीक अपनायी जा रही है । इसी प्रयास के तहत रेडियो के मीडियम वेव पर आवाज की गुणवत्ता सुधारने के लिये हम जल्द ही फ्रांस की डीआरएम तकनीक अपनाने जा रहे हैं।’’

उन्होंने कहा, ‘‘रेडियो के श्रोता लगातार बढ रहे हैं और मोबाइल पर रेडियो सुनने की व्यवस्था ने सराहनीय योगदान दिया है । इससे लाखों श्रोता बढ गये हैं । इसके अलावा हमने श्रोताओं के लिये डाक्टरों से फोन पर बात जैसे विशेष कार्यक्रम शुरू किये हैं।’’

आकाशवाणी के संस्कृत प्रभाग में लंबे समय से समाचार वाचक बलदेवानंद सागर ने कहा, ‘‘दुनिया में अब विभिन्न शोधों से यह बात सामने आ रही है कि रेडियो की पहुंच दृश्य माध्यमों से ज्यादा है । रेडियो की आवाज से व्यक्ति परेशान नहीं होता है और अपना काम करते हुए रेडियो सुनता रहता है।’’ रेडियो की दुनिया में आ रहे बदलावों पर सागर ने कहा, ‘‘आज सामुदायिक रेडियो और एफएम की वजह से रेडियो का दायरा काफी बढ गया है । पहले एनलॉग और एकास्टिक साउंड थे और अब डिजिटल साउंड का जमाना है । वैज्ञानिकों के बीच इससे भी बढकर ‘सुपर डिजिटल’ तकनीक लाये जाने की बात होने लगी है। एफएम आज आकाशवाणी के दूसरे स्टेशनों से ज्यादा प्रभावी हो गया है । लोग ज्यादा से ज्यादा समय तक रेडियो सुनने लगे हैं । टीवी के आने पर कुछ समय के लिये रेडियो का संक्रमण काल आया था लेकिन अब फिर से रेडियो अपना प्रभाव बढाने लगा है ।’’

वाजपेयी ने कहा कि युवाओं के लिये ‘युववाणी’, किसानों के लिये ‘कृषि जगत’ लोगों में पहले से ही बहुत लोकप्रिय है । इन कार्यक्रमों से आज के समय में रेडियो की प्रासंगिकता और बढ गई हैै । उन्होंने कहा, आज प्रतिदिन 40 से 45 करोड़ लोग आकाशवाणी के विभिन्न कार्यक्रम और समाचार सुनते हैं । ये श्रोता अफ्रीका महाद्वीप से लेकर अमेरिका तक फैले हैं। उन्होंने बताया कि आकाशवाणी जल्द ही इंटरनेट पर समाचारों और कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण करने जा रही है । वाजपेयी ने कहा कि आकाशवाणी दिल्ली लोगों से जुड़ने के लिये खुद ही पहल कर रही है और उनके पास जा रही है । देश के विभिन्न महाविद्यालयों, गांवों और कस्बों में कार्यक्रम आयोेजित किये जा रहे हैं । इसके अलावा हम कव्वाली, वाद्यवृंत, मुशायरा और नौटंकी जैसे परंपरागत कलाओं से लोगों को जोड़े रखने के लिये एक पूरी योजना के साथ काम कर रहे हैं। गौरतलब है कि रेडियो के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिये विश्व के कई देशों में आज के दिन को रेडियो दिवस के रूप में मनाया जाता है।

Dark Saint Alaick
11-12-2011, 05:31 PM
हर दिन हजारों लोगों की जिंदगी से खिलवाड़


सेक्स संबंधी बीमारी हो या जोड़ों का दर्द, सभी बीमारियों के सफल इलाज का दावा करने वाले ‘नीम हकीमों’ की आज कल बाढ़ सी आ गयी है। जगह जगह तंबू लगाकर प्रशासन की नाक के नीचे बैठे ये खतरनाक ‘डॉक्टर’ हर दिन हजारों लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं। भीड़भाड़ वाले कई चौराहों और बस अड्डों तथा रेलवे स्टेशनों के पास इन नीम हकीमोंं के तंबू लगे दिखाई देते हैं। तंबूओं के बाहर लगे बैनर पर लिखा होता है - ‘सेक्स संबंधी बीमारी है, स्त्री रोग है, जोड़ों का दर्द है या फिर मर्दाना कमजोरी, बच्चे नहीं हो रहे तो हमारे पास इसका समुचित और पक्का इलाज है।’ अंतर्राज्यीय बस अड्डे के निकट तंबू लगा कर लोगों का इलाज कर रहे एक कथित हकीम ने काफी मान मनौव्वल के बाद अपना नाम जाहिर न करने की शर्त के साथ बताया, ‘हम बरसों पहले उत्तार प्रदेश से यहां आए थे। पिछले बीस साल से यहीं काम कर रहे हैं।’ तालीम के बारे में पूछने पर वह इतराकर बोले, ‘अजी किताबें पढ़ने से क्या होता है। हमारा तजुर्बा ही हमारी पढ़ाई है। हम उन सभी बीमारियों का इलाज कर सकते हैं, जिसका इलाज करने का दावा करते हैं। किसी को शक हो तो आजमा कर देख ले।’
जब हकीम से पूछा गया कि क्या उन्होंने स्वास्थ्य विभाग से कोई लाइसेंस लिया है अथवा कोई डिग्री है, तो वह तमककर बोले, ‘मरीजों का इलाज करना तो खुदा की इबादत करने जैसा है। उसके लिए हमें किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है और रही बात डिग्री की तो हमें सब बीमारियों के नुस्खे जबानी याद हैं। हमारे हाथ की शफा से ही मरीज ठीक हो जाते है।’ आमदनी के बारे में पूछने पर वह थोड़ा हिचकिचाने के बाद बोले, ‘रोजाना एक से डेढ हजार रूपए की दवाएं बिक जाती हैं।’ वह अपनी दवाओं के नाम और नुस्खे बताने पर बिल्कुल राजी नहीं हुए। ये नीम-हकीम जालंधर के सिटी और छावनी रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, बीएमसी चौक, पठानकोेट रोड, होशियारपुर रोड, करतारपुर रोड और नकोदर रोड जैसे स्थानों पर आज कल ‘सेक्स संबंधी’ विभिन्न बीमारियों के साथ साथ जोडों का दर्द, पेट की बीमारी, गैस आदि तमाम बीमारियों का इलाज करते हुए देखे जा सकते हैं। कई तंबुुओं में जाने पर पता चला कि चिकित्सा के नाम पर ठगी करने वाले इन लोगों के जाल में वे लोग फंसते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर, अशिक्षित अथवा श्रमिक वर्ग के लोग होते हैं। उप्र के बलिया जिला निवासी श्रमिक सुभाष राय ने बताया कि इस चिकित्सक ने पैसे ले लिये लेकिन बीमारी ठीक नहीं हुई है। पिछले आठ महीने से वह छावनी स्टेशन पर मौजूद इस नीम हकीम से अपना इलाज करा रहे हैं। इस बारे में शहर के एक आयुर्वेदाचार्य डॉ. अजय शर्मा ने कहा, ‘यह दुखद है कि प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग इस ओर से आंख बंद किये हुए हंै। ये नीम हकीम न केवल लोगों की जिंदगी से खेल रहे हैं, बल्कि आयुर्वेद और उसकी सेवा करने वाले को भी बदनाम कर रहे हैं। बिना किसी शिक्षा के ये नीम हकीम लोगों को आयुर्वेद के नाम पर कोई भी जड़, तना, पत्ती, भभूत या चूर्ण देते हैं जिसका असर उनके शरीर और स्वास्थ्य पर पड़ता है। ये लोग सेक्स संबंधी बीमारी का इलाज करने का झूठा दावा करते हैं। ऐसी किसी बीमारी के शिकार लोग कम पैसों में इलाज के लालच में और संकोचवश किसी बड़े डाक्टर के पास न जा पाने के चलते इनके चंगुल में फंस जाते हैं। यह घातक है।’

Dark Saint Alaick
11-12-2011, 06:26 PM
12 दिसंबर को पुण्यतिथि पर

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श को उठाया था

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14321&stc=1&d=1323613595

आचार्य हजारी प्रसादी द्विवेद्वी की प्रेरणा से ब्रजभाषा के बजाय खड़ी बोली को काव्यभाषा का स्थान दिलाने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उस काल में ही ‘स्त्री विमर्श’ को महत्वपूर्ण स्थान दिया और मानवीय मूल्यों को जीवन में उतारने पर बल दिया था।

कवि प्रेम जन्मेजय कहते हैं कि आज के इस स्त्री विमर्श के युग से बहुत पहले ही मैथिलीशरण गुप्त ने इस पर चर्चा शुरू की थी और अपनी रचना ‘साकेत’ के माध्यम से लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला की पीड़ा को उजागर किया था। जन्मेजय ने कहा कि गुप्त की रचना में उर्मिला सामंती परिवेश में अपनी शिकायत रखती हैं और स्वाभिमान का परिचय देती हैं जबकि वाल्मीकि और तुलसीदास उर्मिला के दर्द को नहीं देख पाए ।

झांसी के चिरगांव में तीन अगस्त 1886 में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा घर में हुई। उन्होंने घर में हिंदी, बांग्ला और संस्कृति साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी ने उनका मार्गदर्शन किया। बारह साल की अवस्था में उन्होंने ब्रजभाषा में कविता रचना शुरू कर दी। बाद में वह महावीर प्रसाद द्विवेद्वी के संपर्क में आए और उनकी कविताएं खड़ी बोली में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने लगीं।

सन् 1919 में उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘रंग में भंग’ बाद में ‘जयद्रथ वध’ प्रकाशित हुआ। उन्होंने सन् 1914 में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत प्रोत ‘भारत भारती’ का प्रकाशन किया और लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता छा गयी क्योंकि उन दिनों देश में आजादी का आंदोलन चल रहा था।

स्वत: प्रेस स्थापित कर उन्होंने अपनी पुस्तकें छापनी शुरू कर दीं। उन्होंने महत्वपूर्ण कृति साकेत और अन्य ग्रंथ पंचवटी आदि 1931 में पूरे किए। सन् 1932 में उन्होंने यशोधरा लिखी। इसी समय वह महात्मा गांधी के संपर्क में आए और गांधीजी ने उन्हें राष्ट्रकवि की संज्ञा दी। सन् 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के तहत वह जेल गए। आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि से सम्मानित किया।

आजादी के बाद उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। सन् 1953 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सन् 1962 में ‘अभिनंदन ग्रंथ’ भेंट किया। हिंदू विश्वविद्यालय ने भी उन्हें डी लिट से सम्मानित किया।

जन्मेजय कहते हैं कि साहित्य रचना में आज के व्यावासायिक दृष्टिकोण के विपरीत उनका लेखन कर्म जीवन मूल्य के प्रति समर्पित और वह राष्ट्रप्रेम के झंडाबरदार रहे। डॉ नगेंद्र के अनुसार मैथिलीशरण गुप्त सच्चे राष्ट्रकवि थे। महान साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में उनके काव्य के भीतर भारत की प्राचीन संस्कृति एक बार फिर तरूणावस्था को प्राप्त हुई। मैथिलीशरण गुप्त 12 दिसंबर, 1964 को चल बसे।

Dark Saint Alaick
12-12-2011, 09:37 PM
पुण्यतिथि 13 दिसंबर पर

स्मिता पाटिल ने दिया समानांतर फिल्मों को नया आयाम

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14362&stc=1&d=1323711439

भारतीय सिनेमा के नभमंडल में स्मिता पाटिल ऐसे ध्रुव तारे की तरह हैं, जिन्होंने अपने सशक्त अभिनय से समानांतर सिनेमा के साथ.-साथ व्यावसायिक सिनेमा में भी दर्शकों के बीच अपनी खास पहचान बनाई ! स्मिता पाटिल के उत्कृष्ट अभिनय से सजी फिल्में भूमिका, मंथन, चक्र, शक्ति, निशांत और नमकहलाल आज भी दर्शकों दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है। स्मिता पाटिल अभिनीत फिल्मों पर यदि एक नजर डालें, तो हम पायेगें कि पर्दे पर वह जो कुछ भी करती थीं, वह उनके द्वारा निभायी गयी भूमिका का जरूरी हिस्सा लगता था। 17 अक्तूबर 1955 को पुणे शहर में जन्मी स्मिता पाटिल ने अपनी स्कूल की पढाई महाराष्ट्र से पूरी की। उनके पिता शिवाजी राय पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे, जबकि उनकी मां समाजसेविका थी। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह मराठी टेलीविजन में बतौर समाचार वाचिका काम करने लगी। इसी दौरान उनकी मुलाकात जाने-माने निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल से हुई।
श्याम बेनेगल उन दिनों अपनी फिल्म 'चरण दास चोर' बनाने की तैयारी में थे। श्याम बेनेगल को स्मिता पाटिल में एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने अपनी फिल्म 'चरण दास चोर' में स्मिता पाटिल को एक छोटी सी भूमिका निभाने का अवसर दिया। भारतीय सिनेमा जगत में 'चरण दास चोर' को ऐतिहासिक फिल्म के तौर पर याद किया जाता है, क्योंकि इसी फिल्म के माध्यम से श्याम बेनेगल और स्मिता पाटिल के रूप में कलात्मक फिल्मों के दो दिग्गजों का आगमन हुआ। श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल के बारे मे एक बार कहा था, मैंने पहली नजर में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में गजब की स्क्रीन उपस्थिति है, जिसका उपयोग रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है। फिल्म 'चरण दास चोर' हालांकि बाल फिल्म थी, लेकिन इस फिल्म के जरिये स्मिता पाटिल ने बता दिया था कि हिंदी फिल्मों मे खासकर यथार्थवादी सिनेमा में एक नया नाम स्मिता पाटिल के रूप में जुड़ गया है।
इसके बाद वर्ष 1975 में श्याम बेनेगल द्वारा ही निर्मित फिल्म 'निशांत' में स्मिता को काम करने का मौका मिला। वर्ष 1977 स्मिता पाटिल के सिने कैरियर में अहम पड़ाव साबित हुआ। इस वर्ष उनकी 'भूमिका' और 'मंथन' जैसी सफल फिल्में प्रदर्शित हुयी। दुग्ध क्रांति पर बनी फिल्म 'मंथन' में दर्शकों को स्मिता पाटिल के अभिनय के नये रंग देखने को मिले। इस फिल्म के निर्माण के लिये गुजरात के लगभग पांच लाख किसानों ने प्रति दिन मिलने वाली अपनी मजदूरी में से दो-दो रूपये फिल्म निर्माताओं को दिये और बाद में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुयी तो बॉक्स आफिस पर सुपरहिट साबित हुयी।
वर्ष 1977 में स्मिता पाटिल की 'भूमिका' भी प्रदर्शित हुयी, जिसमें उन्होंने 30 -40 के दशक में मराठी रंगमच की अभिनेत्री हंसा वाडेकर की निजी जिंदगी को रूपहले पर्दे पर बखूबी साकार किया। फिल्म 'भूमिका' में अपने दमदार अभिनय केलिये वह राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित की गईं। मंथन और भूमिका जैसी फिल्मों मे उन्होंने कलात्मक फिल्मो के महारथी नसीरूदीन शाह, शबाना आजमी, अमोल पालेकर और अमरीश पुरी जैसे कलाकारो के साथ काम किया और सशक्त अदाकारी का जौहर दिखाकर अपना सिक्का जमाने में कामयाब हुईं।
भूमिका से स्मिता पाटिल का जो सफर शुरू हुआ वह चक्र, निशांत, आक्रोश, गिद्ध, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है और मिर्च मसाला जैसी फिल्मों तक जारी रहा। वर्ष ।980 में प्रदर्शित फिल्म 'चक्र' में स्मिता पाटिल ने झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला के किरदार को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया। इसके साथ ही फिल्म 'चक्र' के लिए वह दूसरी बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित की गईं।
अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यावसायिक सिनेमा की ओर अपना रूख किया। इस दौरान उन्हें सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ 'नमक हलाल' और 'शक्ति' जैसी फिल्मों में काम करने का अवसर मिला, जिनकी सफलता ने बाद स्मिता पाटिल को व्यावसायिक सिनेमा में भी स्थापित कर दिया। अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यावसायिक सिनेमा के साथ-साथ समानांतर सिनेमा से अपना सामंजस्य बिठाए रखा। इस दौरान उनकी सुबह, बाजार, भींगी पलकें, अर्द्धसत्य और मंडी जैसी कलात्मक फिल्में और दर्द का रिश्ता, कसम पैदा करने वाले की, आखिर क्यों, गुलामी, अमृत, नजराना और डांस डांस जैसी व्यावसायिक फिल्में प्रदर्शित हुईं, जिसमें स्मिता पाटिल के अभिनय के विविध रूप दर्शकों को देखने को मिले।
वर्ष 1985 में स्मिता पाटिल की फिल्म 'मिर्च मसाला' प्रदर्शित हुई। सौराष्ट्र की आजादी के पूर्व की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'मिर्च मसाला' ने निर्देशक केतन मेहता को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई। सामंतवादी व्यवस्था के बीच पिसती औरत की संघर्ष की कहानी बयां करती यह फिल्म आज भी स्मिता पाटिल के सशक्त अभिनय के लिए याद की जाती है।
वर्ष 1985 में भारतीय सिनेमा में उनके अमूल्य योगदान को देखते हुये वह पदमश्री से सम्मानित की गयी। हिंदी फिल्मों के अलावा स्मिता पाटिल ने मराठी, गुजराती, तेलगू, बंग्ला, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों में भी अपनी कला का जौहर दिखाया । इसके अलावे स्मिता पाटिल को महान फिल्मकार सत्यजीत रे के साथ भी काम करने का मौका मिला। मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेलीफिल्म 'सदगति' स्मिता पाटिल अभिनीत श्रेष्ठ फिल्मों में आज भी याद की जाती है। लगभग दो दशक तक अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाली यह अभिनेत्री महज 31 वर्ष की उम्र में 13 दिसंबर 1986 को इस दुनिया को अलविदा कह गई। उनकी मौत के बाद वर्ष 1988 में उनकी फिल्म 'वारिस' प्रदर्शित हुई, जो स्मिता पाटिल के सिने कैरियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है।

Dark Saint Alaick
13-12-2011, 06:19 PM
लोकसेवा का संगीत सुनाते हैं उस्ताद अकबर खां

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14398&stc=1&d=1323785933

भारत की पश्चिमी सरहद पर रेतीले धोरों की धरती जैसलमेर कलाकारों की खान है, जहां विभिन्न विधाओं में माहिर एक से बढ़कर एक कलाकारों की सुदीर्घ श्रृंखला विद्यमान है। कलाकारों की इस खान में बहुमूल्य हीरा हैं - उस्ताद अकबर खां। बहत्तर साल के अकबर खां का उत्साह किसी युवा से कम नहीं है।
आज भी वे कला और संस्कृति के लिए जीते हुए बहुत कुछ कर गुजरने के जज्बे के साथ जुटे हुए हैं। अकबर खां में वे सभी गुण हैं जो एक अच्छे कलाकार की पहचान होते हैं। कोमल भावनाओंं से भरे और दिल के साफ अकबर खां का सर्वस्पर्शी व्यक्तित्व हर किसी को प्रभावित किए बिना नहीं रहता।
अकबर खां का मौलिक हुनर बचपन से ही झरने लगा था। निरंतर अभ्यास की बदौलत रियासत काल में दरबारी लोक गायक कलाकार के रूप में ख्याति पाने वाले अकबर खां उम्र के इस पड़ाव में भी लोक गायकी के प्रति समर्पित जीवन का पर्याय बने हुए हैं।
ग्यारह जुलाई 1939 को जैसाण की सरजमीं पर पैदा हुए उस्ताद अकबर खां ’जैसलमेरी आलम खां’ आज कला जगत में जानी-मानी हस्ती हंै। साधारण साक्षर अकबर खां को संगीत का हुनर विरासत में मिला। संगीत की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उन्हें पिता आरब खां से मिली।
अकबर खां ने घर-परिवार चलाने के लिए शिक्षा विभाग में नौकरी की और वहीं से जमादार के रूप में सेवानिवृत्त हुए। राजकीय सेवा के साथ-साथ संगीत व संस्कृति जगत की सेवा तथा हमेशा कुछ न कुछ नया सीखने व करने का जो जज्बा यौवन पर रहा, वह आज भी पूरे उत्साह से लबरेज दिखाई देता है।
वंश परम्परा से पारिवारिक लोक संगीत में दक्ष कलाकारों की श्रृंखला में जुड़े उस्ताद अकबर खां वास्तव में उस्ताद हैं जिनकी रगों में पीढ़ियों से सांगीतिक लहू बह रहा है।
सन् 1973 में पहली बार मांगणियार गायकों का सम्मेलन आयोजित करने में अकबर खां की सराहनीय भूमिका रही। इस पर रूपायन संस्थान बोरुंदा की ओर से उन्हें सराहना पत्र भी भेंट किया गया।
आकाशवाणी और दूरदर्शन के कई केन्द्रों से उस्ताद अकबर खां के कार्यक्रमों का प्रसारण हो चुका है। इसके साथ ही लोक चेतना, सामाजिक सरोकारों के कई कार्यक्रमों, योजनाओं, परियोजनाओं के जागरूकता कार्यक्रमों से जुड़े रहे अकबर खां ने अनगिनत स्कूलों व अन्य संस्थाओं में वार्ताओं, लोकगीत गायन, संगीतिक प्रस्तुतियों आदि के माध्यम से अपनी सशक्त व ऐतिहासिक भागीदारी का इतिहास कायम किया है।
अद्भुत कला कौशल व माधुर्य से परिपूर्ण गायकी को लेकर प्रदेश तथा देश की कई हस्तियों व संस्थाओं द्वारा उन्हें सम्मानित व अभिनन्दित किया जा चुका है। लोक कला के संरक्षण व विकास में प्रशंसनीय सेवाओं के उपलक्ष में अकबर खां को स्वाधीनता दिवस -1999 के जिला स्तरीय समारोह में जिला प्रशासन की ओर से सम्मानित भी किया गया। इसी प्रकार जैसलमेर स्थापना दिवस पर 26 अगस्त, 1996 को कवि तेज लोक कला विकास समिति द्वारा उत्कृष्ट आलमखाना (राजगायक ) एवं अन्तर्राष्टÑीय ख्याति प्राप्त कलाकार के रूप में उन्हें सम्मानित किया गया।
भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर में 28 अप्रेल 1979 को हुए राजस्थान लोकानुरंजन मेले में देवीलाल सामार ने उस्ताद अकबर खां का अभिनन्दन किया व लोक कला के उन्नयन, विकास व प्रचार-प्रसार में उनके बहुमूल्य योगदान की मुक्तकंठ से प्रशंसा की।
उस्ताद अकबर खां का बोध वाक्य है- ’जागो-जगाओ, काम की ज्योति जगाओ, सुस्ती, नशा, क्रोध हटाओ, देश बचाओ’, एक अकेला थक जाएगा, मिल कर बोझ उठाओ ।’
इस बोध वाक्य की उन्होंने बाकायदा मोहर बनवा रखी है जिसे वे पत्र व्यवहार में इस्तेमाल करते रहे हैं। माण्ड गायक उस्ताद अकबर खां को सन् 1996 में मांड सम्मान से नवाजा जा चुका है। उस्ताद अकबर खां देश की कई नामी हस्तियों के समक्ष अपनी गायकी का प्रदर्शन कर चुके हैं। स्व. ज्ञानी जैलसिंह, स्व. नीलम संजीव रेड्डी, एम. हिदायतुल्ला, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर सहित देश-विदेश की कई हस्तियों के समक्ष वे अपने फन की धाक जमा चुके हैं।
हिन्दी फिल्म रुदाली, नन्हे जैसलमेर, लम्हे, कृष्णा, सात रंग के सपने, जोर, मीनाक्षी, रेशमा और शेरा, रजिया सुल्तान सहित कई भारतीय एवं विदेशी फिल्मों में उन्होंने अपनी लोक संगीत की शानदार प्रस्तुतियों का रिकार्ड बनाया है। यूनेस्को वर्ल्ड म्यूजिक वेबसाइट पर भी अकबर की प्रस्तुति समाहित है।

Dark Saint Alaick
18-12-2011, 03:42 PM
विशेष बातचीत

कड़े इम्तहान से गुजरा, तब बने मिजाज वाले गीत : नीरज

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14461&stc=1&d=1324208479

अठहत्तर की उम्र में भी वही जज्बा और आवाज में वही दम खम जो जवानी में हुआ करता था, पर हिन्दी फिल्मों के गानों और संगीत के लगातार गिरते स्तर पर गहरी चिन्ता और नाराजगी ही शायद नीरज को फिल्मी दुनिया से बांध कर नहीं रख सकी । इस मशहूर गीतकार ने जब फिल्म उद्योग का रूख किया, तो शुरूआत में सचिन देव बर्मन जैसे संगीतकारों ने उन्हें हर कसौटी पर कसा, लेकिन बाद में उन्हीं के साथ कई यादगार गीत भी उन्होंने किए।

गोपालदास नीरज ने बताया, ‘‘मैं शायद उनके लिए (फिल्म उद्योग के लिए) अनफिट हो गया था । दूसरे सचिन देव बर्मन और शंकर-जयकिशन जैसे संगीतकारों के किसी न किसी कारण से फिल्मों में संगीत नहीं देने के बाद तो रूकने का मतलब ही नहीं था।’’

मुंबई फिल्म उद्योग में ‘ नीरज ’ के नाम से गीत लिखने वाले इस गीतकार का ‘‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’’ गीत देशभर में लोकप्रिय हुआ। राज कपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए लिखा गया ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ और ‘प्रेम पुजारी’ का ‘शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब’ गीत हर खासो आम की जुबां पर चढ़ गए।

देव आनंद के निधन से काफी दु:खी नीरज ने उनके साथ बिताए दिनों को याद करते हुए कहा, ‘‘देव साहब नायाब शख्सियत थे। उन्होंने मुझे ब्रेक दिया। एस. डी. बर्मन से कहा कि एक बार इसे आजमा कर देखो तो बड़ी मुश्किल से बर्मन साहब ने मेरे गीतों को स्वीकार किया।’’ उन्होंने कहा कि देव साहब और बर्मन ने उनके साथ कई तरह के प्रयोग किए और बर्मन तो उन्हें अकसर इतनी कड़ी और आड़ी-तिरछी धुनें देते थे कि कई बार लिखना मुश्किल लगता था, लेकिन आखिर में निभा ले गया।

नीरज ने बताया, ‘‘हिन्दी फिल्मों में राज कपूर ने भी गीत-संगीत को लेकर काफी प्रयोग किए। मेरा नाम जोकर के लिए जब ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ लिखा गया, तो उसमें पूरे जीवन का दर्शन था। ये दुनिया सर्कस है और हम सब जोकर। वो (ईश्वर) नचा रहा है।’’

उन्होंने कहा कि उस जमाने में कई बार हम गीतकार संगीत रचना में भी काफी मददगार होते थे । ‘‘ये काम बर्मन साहब के साथ खूब किया। वो मुझे घर बुला लेते थे और वहां बैठकर हमने कई यादगार गीत इंडस्ट्री को दिए।’’

‘शर्मीली’ के ‘आज मदहोश हुआ जाए रे’ और ‘खिलते हैं गुल यहां’ जैसे यादगार गीत लिख चुके नीरज ने बताया कि आजकल का संगीत कानफोडू हो गया है और गीत के बोल तो समझिए, पता ही नहीं चलता कि कौन क्या कहना चाह रहा है और मकसद क्या है।

उन्होंने कहा, ‘‘मैंने भी तोड़ मरोड़ के कई गीत लिखे, लेकिन भाषा के साथ कभी समझौता नहीं किया और सरल से सरल शब्द गीतों में फिट करने की कोशिश की, ताकि अनपढ़ आदमी को भी आसानी से समझ आ सके।’’

नीरज के गीतों को लता मंगेशकर, किशोर कुमार, मोहम्मद रफी और मन्ना डे सहित उस जमाने के सभी मशहूर फिल्मी गायकों ने सुर दिए। किशोर का गाया ‘फूलों के रंग से’ और ‘धीरे से जाना खटियन में’, लता का गाया ‘राधा ने माला जपी श्याम की’ और ‘रंगीला रे’, रफी का गाया ‘लिखे जो खत तुझे’ और मन्ना डे का गाया ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ कुछ ऐसे गीत इस फनकार ने लिखे हैं, जो वक्त की बंदिशों से परे हैं।

Dark Saint Alaick
18-12-2011, 06:07 PM
19 दिसंबर को काकोरी के नायकों के शहादत दिवस पर विशेष

बिस्मिल, अशफाक : जीये वतन के लिए, मरे वतन के लिए

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14463&stc=1&d=1324217203 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14464&stc=1&d=1324217203

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास आजादी के मतवालों के एक से बढकर एक कारनामों से भरा पड़ा है । रामप्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खान के नाम इसे और भी गौरवमय बना देते हैं। जंग ए आजादी की इसी कड़ी में 1925 में एक महत्वपूर्ण घटना घटी, जब नौ अगस्त को चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया।

इन जांबाजों ने जो खजाना लूटा, दरअसल वह हिन्दुस्तानियों के ही खून पसीने की कमाई थी, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा था। लूटे गए धन का इस्तेमाल क्रांतिकारी हथियार खरीदने और जंग ए आजादी को जारी रखने के लिए करना चाहते थे। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी गई। ट्रेन से खजाना लुट जाने से ब्रितानिया हुकूमत बुरी तरह तिलमिला गई और अपनी बर्बरता तेज कर दी। आखिर इस घटना में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए, सिर्फ चंद्रशेखर आजाद हाथ नहीं आए।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एचएसआरए) के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें से रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। गोरी हुकूमत ने पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया, जिसकी बड़े पैमाने पर निन्दा हुई। डकैती जैसे अपराध में फांसी की सजा अपने आप में एक विचित्र घटना थी। फांसी के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर हुई, लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी दे दी गई।

रामप्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल और अशफाक उल्ला खान को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी दी गई । जीवन की अंतिम घड़ी में भी इन महान देशभक्तों के चेहरे पर मौत का कोई भय नहीं था । दोनों हंसते हंसते भारत मां के चरणों में अपने प्राण अर्पित कर गए। काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी उच्च शिक्षित थे। बिस्मिल जहां प्रसिद्ध कवि थे, वहीं भाषाई ज्ञान में भी निपुण थे। उन्हें अंग्रेजी, हिन्दुस्तानी, उर्दू और बांग्ला भाषा का अच्छा ज्ञान था। अशफाक उल्ला खान इंजीनियर थे। क्रांतिकारियों ने काकोरी की घटना को काफी चतुराई से अंजाम दिया था। इसके लिए उन्होंने अपने नाम तक बदल लिए थे। बिस्मिल ने अपने चार अलग अलग नाम रखे और अशफाक ने अपना नाम कुमारजी रखा था। इन दोनों वीरों की शहादत ने देशवासियों के मन में क्रांति की एक अजीब सी लहर पैदा कर दी थी।

Dark Saint Alaick
18-12-2011, 06:21 PM
19 दिसंबर को गोवा मुक्ति दिवस पर

गोवा और दमन-दीव इस तरह हुए विदेशियों के चंगुल से मुक्त


भारत को यूं तो 1947 में ही आजादी मिल गई थी, लेकिन इसके 14 साल बाद भी गोवा पर पुर्तगालियों का शासन था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन के बार-बार के आग्रह के बावजूद पुर्तगाली झुकने को तैयार नहीं हुए। उस समय दमन-दीव भी गोवा का हिस्सा था।

पुर्तगाली यह सोचकर बैठे थे कि भारत शक्ति के इस्तेमाल की हमेशा निन्दा करता रहा है, इसलिए वह हमला नहीं करेगा। उनके इस हठ को देखते हुए नेहरू और मेनन को कहना पड़ा कि यदि सभी राजनयिक प्रयास विफल हुए, तो भारत के पास ताकत का इस्तेमाल ही एकमात्र विकल्प रह जाएगा।

पुर्तगाल जब किसी तरह नहीं माना, तो नवम्बर 1961 में भारतीय सेना के तीनों अंगों को युद्ध के लिए तैयार हो जाने के आदेश मिले । मेजर जनरल के.पी. कैंडेथ को 17 इन्फैंट्री डिवीजन और 50 पैरा ब्रिगेड का प्रभार मिला। भारतीय सेना की तैयारियों के बावजूद पुर्तगालियों की हेकड़ी नहीं गई। भारतीय वायु सेना के पास उस समय छह हंटर स्क्वाड्रन और चार कैनबरा स्क्वाड्रन थे। गोवा अभियान में हवाई कार्रवाई की जिम्मेदारी एयर वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के पास थी। सेना ने अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देते हुए आखिरकार दो दिसंबर को गोवा मुक्ति का अभियान शुरू कर दिया। वायु सेना ने आठ और नौ दिसंबर को पुर्तगालियों के ठिकाने पर अचूक बमबारी की। सेना और वायु सेना के हमलों से पुर्तगाली तिलमिला गए। आखिरकार 19 दिसंबर 1961 को तत्कालीन पुर्तगाली गवर्नर मैन्यू वासलो डे सिल्वा ने भारत के सामने समर्पण समझौते पर दस्तखत कर दिए।

इस तरह भारत ने गोवा और दमन दीव को मुक्त करा लिया और वहां पुर्तगालियों के 451 साल पुराने औपनिवेशक शासन को खत्म कर दिया। पुर्तगालियों को जहां भारत के हमले का सामना करना पड़ रहा था, वहीं उन्हें गोवा के लोगों का रोष भी झेलना पड़ रहा था। दमन-दीव पहले गोवा प्रशासन से जुड़ा था, लेकिन 30 मई 1987 में इसे अलग से केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। गोवा और दमन-दीव में हर साल 19 दिसंबर को मुक्ति दिवस मनाया जाता है। गोवा मुक्ति युद्ध में जहां 30 पुर्तगाली मारे गए, वहीं 22 भारतीय वीरगति को प्राप्त हुए। घायल पुर्तगालियों की संख्या 57 थी, जबकि घायल भारतीयों की संख्या 54 थी। इसके साथ ही भारत ने चार हजार 668 पुर्तगालियों को बंदी बना लिया था।

Dark Saint Alaick
19-12-2011, 04:36 PM
शहादत दिवस पर
फांसी से पहले रोशन ने दो साल की जेल भी काटी थी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14466&stc=1&d=1324297917

काकोरी ट्रेन लूट कांड में आज के दिन ही इलाहाबाद में फांसी की सजा के पहले इस कांड के सबसे उम्र दराज सदस्य ठाकुर रोशन सिंह ने दो साल के कैद की सजा भी काटी थी। बरेली और शाहजहांपुर में असहयोग आन्दोलन चला रहे रोशन सिंह को बरेली में हुए गोलीकांड में दो साल के कैद की सजा दी गयी थी। उनका जन्म 22 जनवरी ।894 में शाहजहांपुर के नेवादा गांव में हुआ था । उनके पिता का नाम जगदीश सिंह उर्फ जंगी सिंह था । रोशन सिंह मिडिल तक शिक्षा पाने के बाद प्राइमरी स्कूल में शिक्षक हुए और बाद में मातृवेदी संस्था के सदस्य बने।
शिरगंज, बिचपुरी, मैनपुरी एवं अन्य डकैतियों में उन्होंने सक्रिय भाग लिया। जब असहयोग आंदोलन चला, तो उनका यह शौर्य बल और चमक उठा। उन्होंने शाहजहांपुर और बरेली के गांवों में घूम घूमकर असहयोग का प्रचार किया। इन दिनों इसी सिलसिले में बरेली में गोली चली और उन्हें दो वर्ष की कडी कैद की सजा हुई।
इसके बाद आजादी का यह दीवाना काकोरी ट्रेन डकैती में शामिल हुआ। काकोरी कांड में पकडे जाने वालों में रोशन सिंह ही शारीरिक दृष्टि से सबसे अधिक बलवान थे। वह एक अचूक निशानेबाज भी थे।
न्यायाधीश हेमिल्टन ने पहले उन्हें पांच साल के कैद की सजा दी, जिसे बाद में फांसी की सजा में बदल दिया गया। उन्हें भारतीय दंड विधि संहिता की धारा 396 के तहत मौत हो जाने तक फांसी की सजा दी। साथ में यह भी कहा कि यदि अपील करना चाहे तो हफ्ते भर के अंदर अपील कर सकते हैं।
रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनकर जैसे सबको काठ मार गया था। अन्याय की कल्पना तो की जा सकती थी, पर ऐसे अन्याय की कल्पना सपने में भी नहीं थी। अब रोशन सिंह ने सबको एक दूसरे का मुंह ताकते देखा, तो वे चौंके, क्योंकि उन्हें अंग्रेजी नहीं के बराबर आती थी। उन्होंने बगल में खड़े व्यक्ति से से पूछा कि फाइव इयर्स... फाइव इयर्स इससे आगे भी तो कुछ था, वह क्या था। उस व्यक्ति ने उनकी कमर में हाथ डालते हुए कहा, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल.और राजेन्द्र नाथ लाहिडी के साथ-साथ आपको भी फांसी मिली है, जबकि इनके वकील व साथियों का ख्याल था कि रोशन सिंह को फांसी की सजा नहीं मिलेगी।
फांसी की खबर सुनकर रोशन सिंह एकदम उछल पडे। वह सबसे ज्यादा उम्र के थे, पर उनका अपराध सबसे हल्का था। सभी किंकर्तव्यविमूढ होकर उन्हें देख रहे थे। उस कर्मयोगी के तेजस्वी चेहरे पर स्वाभाविक शांति थी। वात्सल्य भरी दृष्टि से बिस्मिल, अशफाक और राजेन्द्र लाहिडी की ओर देखकर वे बोले, तुम लोग अकेले जाना चाहते थे न। फिर उन्होंने गोरे जज हेमिल्टन से हंसकर कहा, मुझे नया जीवन देने के लिए आपको धन्यवाद। आपने लडकों के सामने मेरी बुजुर्गी की लाज रख ली।
फांसी दिए जाने के काफी समय पूर्व जेल में बांग्ला भाषा अच्छी तरह सीख लेने पर एक दिन बिस्मिल ने कहा, ठाकुर तुम्हें तो फांसी होने वाली है, बांग्ला सीखकर क्या करोगे। मुस्कारते हुए ठाकुर रोशन सिंह ने कहा, पंडितजी इस जन्म में नहीं, तो क्या अगले जन्म में भी कुछ काम न आएगी।
जेल आकर रोशन सिंह लगभग मौन हो गए। जरूरत से ज्यादा न बोलते। मराठी का अखबार पढते और उसी में मस्त रहते। फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद एक दिन वकील ने आकर कहा आपकी अपील कर दी गई है। उत्तर मिला, कोई बात नहीं। फिर एक दिन जेल अधीक्षक ने कहा, आपकी अपील खारिज हो गई। फिर वही उत्तर था, कोई बात नहीं।
फांसी के एक दिन पहले मिलने आए लोगों से उन्होंने कहा कि तुम लोग मेरी फिकर मत करो। भगवान को अपने सभी पुत्रों का ख्याल है।
ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 को मलाका जेल, वर्तमान में इलाहाबाद का स्वरुपरानी नेहरू अस्पताल परिसर में फांसी दी गई थी। फांसी से पहले 13 दिसम्बर को अपने मित्र को एक पत्र लिखा। पत्र में लिखा गया, मेरी इसी सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। आप मेरे लिए हरगिज रंज न करें। मेरी मौत खुशी का प्रतीक होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूरी है। मैं दो साल से बच्चों से अलग हूं। इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला, इससे मेरा मोह छूट गया और कोई कामना बाकी नहीं रही। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्मयुद्ध में प्राण देता है, उसकी वही गति होती है, जो जंगल में रहकर तपस्या करने वालों की होती है ।
जिदंगी जिंदा दिलों की जान ए रोशन ।
यूं तो लाखों पैदा होते हैं और फना होते हैं।
फांसी वाले दिन यानी 19 दिसम्बर 1927 को रोशन सिंह मुस्कराते हुए हाथ में गीता लेकर मलाका जेल स्थित फांसीघर की ओर चल पडे और वंदेमातरम का उच्च नारा लगाते हुए भारत माता की जय का उद्घोष किया और ओम का स्मरण करते हुए फांसी पर झूल गए। देशप्रेम की वेदी पर इस वीर ने स्वयं को न्यौछावर कर दिया।

Dark Saint Alaick
19-12-2011, 04:54 PM
20 दिसंबर कैरोलिंग दिवस पर विशेष

क्रिसमस का उल्लास झलकता है कैरल गीतों में

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14467&stc=1&d=1324299089

दुनिया को शांति और अहिंसा का पाठ पढाने वाले प्रभु यीशु मसीह के जन्मदिन क्रिसमस से ठीक पहले उनके संदेशों को भजनों (कैरल) के माध्यम से घर घर तक पहुंचाने की प्रथा को विश्व के विभिन्न हिस्सों में ‘गो कैरोलिंग दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। क्रिसमस से ठीक पहले आज के दिन ईसाई धर्मावलंबी रंग बिरंगे कपड़े पहनकर एक दूसरे के घर जाते हैं और भजनों के माध्यम से प्रभु के संदेश का प्रचार प्रसार करते हैं।

प्रभु की भक्ति में डूबे श्रद्धालुओं के समूह में भजन गायन का यह सिलसिला क्रिसमस के बाद भी कई दिनों तक जारी रहता है । कैरल एक तरह का भजन होता है जिसके बोल क्रिसमस या शीत रितु पर आधारित होते हैं । ये कैरल क्रिसमस से पहले गाये जाते हैं। ईसाई मान्यता के अनुसार कैरल गाने की शुरूआत यीशु मसीह के जन्म के समय से हुई । प्रभु का जन्म जैसे ही एक गौशाला में हुआ वैसे ही स्वर्ग से आये दूतों ने उनके सम्मान में कैरल गाना शुरू कर दिया और तभी से ईसाई धर्मावलंबी क्रिसमस के पहले ही कैरल गाना शुरू कर देते हैं। गो कैरोलिंग दिवस एक ऐसा मौका होता है जब लोग बडे धूमधाम से प्रभु यीशु की महिमा, उनके जन्म की परिस्थितियों, उनके संदेशों, मां मरियम द्वारा सहे गये कष्टों के बारे में भजन गाते हैं ।

प्रभु यीशु मसीह का जन्म बहुत कष्टमय परिस्थितियों में हुआ। उनकी मां मरियम और उनके पालक पिता जोजफ जनगणना में नाम दर्ज कराने के लिये जा रहे थे। इसी दौरान मां मरियम को प्रसव पीड़ा हुयी लेकिन किसी ने उन्हें रूकने के लिये अपने मकान में जगह नहीं दी। अंतत: एक दम्पती ने उन्हें अपनी गौशाला में शरण दी, जहां प्रभु यीशू मसीह का जन्म हुआ। भारत में भी यह दिन बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। नगालैंड, मिजोरम, मणिपुर समेत समूचे पूर्वोत्तर भारत में लोग विशेषकर युवा बेहद उत्साह के साथ टोलियों में निकलते हैं और रातभर घर-घर जाकर कैरल गाते हैं। कैरल गाने के बाद लोग गर्मागर्म चाकलेट और मीठा बिस्कुट खाते हैं।

Dark Saint Alaick
19-12-2011, 05:44 PM
ठंड से बचने के लिये शराब का सहारा न लें रक्तचाप और दिल के रोगी

अचानक शुरू हुई कड़ाके की ठंड में उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारी से पीड़ित लोग थोड़ा एलर्ट रहें और शरीर को गर्म रखने के लिये दो पैग व्हिस्की या रम से दूर ही रहें तो उनकी सेहत के लिये अच्छा है । इस दौरान खान पान का तो बहुत ही ध्यान रखें और क्योंकि इस मौसम में जरा सी लापरवाही उनके लिये परेशानी का सबब बन सकती है और उन्हें अस्पताल में भर्ती होने पर मजबूर कर सकती है। डाक्टरों का मानना है कि इस समय पड़ रही ठंड उच्च रक्तचाप के मरीजों तथा दिल की बीमारी से ग्रस्त मरीजों के लिये परेशानी का कारण बन सकती है, इस लिये सर्दी से तो बचाव करें ही साथ ही साथ खान पान पर भी ध्यान दें और तेल और मक्खन से बने खादय पदार्थो से पूरी तरह बचें। उनका कहना है कि इसके अलावा इस मौसम में शराब का इस्तेमाल तो कतई न करें क्योंकि व्हिस्की और रम के दो पैग उस समय तो उनकी ठंड कम कर देंगे लेकिन इससे उनका ब्लड प्रेशर अचानक बढ जाएगा और ब्लड शुगर में भी अचानक बढोत्तरी हो जाएगी । इस मौसम में ऐसे रोगी एक बार अपने डाक्टर से मिल कर अपनी दवाओं पर जरूर चर्चा कर लें, ऐसा करना उनके लिये लाभप्रद ही होगा और हो सके तो डाक्टर के संपर्क में लगातार रहें । संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (पीजीआई) के कार्डियोलोजी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर सुदीप कुमार ने बताया कि सर्दियां बच्चों और बुजुर्गो के लिये तो खतरनाक होती ही हैं लेकिन उन लोगों के लिये सबसे अधिक परेशानी का कारण बनती है, जो कि उच्च रक्तचाप के मरीज हो या दिल की किसी बीमारी से पीड़ित हो ।
डाक्टरों के अनुसार कड़ाके की सर्दी में उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिये सबसे बड़ी परेशानी यह है कि ठंड की वजह से पसीना नहीं निकलता है और शरीर में नमक (साल्ट) का स्तर बढ जाता है जिससे रक्तचाप बढ जाता है । पीजीआई के कार्डियालोजिस्ट प्रो कुमार ने बताया कि इसके अतिरिक्त सर्दी में ज्यादा काम न करने से शारीरिक गतिविधियां भी कम हो जाती हैं और लोग व्यायाम वगैरह से भी कतराते है, जिससे रक्तचाप बढने की संभावना बढ जाती है और फिर बढे हुये रक्तचाप के कारण उनमें ब्रेन स्ट्रोक का खतरा बढ जाता है । सर्दी के मौसम में खून की धमनियों में सिकुड़न की वजह से खून में थक्का जमने की संभावना बढ जाती है जो कि दिल के रोगियों के लिये परेशानी का कारण बनती है। ऐसे में इस तरह के रोगियों को सर्दी के मौसम में पराठे,पूरी और अधिक चिकनाई वाले खादय पदार्थो से बचना चाहिये क्योंकि सर्दी में दिल को आम दिनों की तुलना में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है जो कभी कभी उस पर भारी पड़ जाती है। वह कहते हैं कि लोगों के मन में एक गलतफहमी है कि सर्दी के दिनों में गर्म चीजें जैसे गुड़ से बनी गजक या तिल के लडडू आदि खाने से या व्हिस्की या रम के दो पैग गुनगुने पानी से लेने से सर्दी भाग जाएगी। उन्होने कहा कि ऐसा करने से आप को तुरंत तो गर्मी का एहसास हो जाएगा लेकिन आप का रक्तचाप और ब्लड शुगर बढ जाएगा जो आपके स्वास्थ्य के लिये काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है और आपको अस्पताल में भर्ती होना पड़ सकता है । इसी कारण ठंड के मौसम में अस्पतालों के कार्डियोलोजी विभाग में अचानक मरीजों की संख्या में भारी इजाफा हो जाता है ।
संजय गांधी पीजीआई के डा सुदीप कहते हंै कि इस ठंड के मौसम में उच्च रक्तचाप और दिल के मरीज सुबह सुबह की मार्निंग वाक से बचें और हो सके तो शाम को वाक या एक्सरसाइज करें और कम से कम इतना जरूर करें कि वाक या एक्सरसाइज में आपके शरीर से पसीना निकलने लगे । इसके लिये जरूरी नहीं है कि आप खुले मैदान में जाये आप किसी हेल्थ क्लब या अपने घर में ही व्यायाम कर सकते हैं और अपने को चुस्त दुरूस्त रख सकते हैं । प्रो कुमार कहते हैं कि इसके अलावा सात या आठ घंटे की अपनी नींद जरूर पूरी करें क्योंकि नींद न पूरी होने से तनाव होता है और तनाव ब्लड प्रेशर बढने का एक बड़ा कारण है । सर्दी में अगर घर से काम के सिलसिले में बाहर निकलना ही है तो अपने शरीर और कानों को गर्म कपड़े से ढंक कर निकले, क्योंकि जरा सी लापरवाही आपके लिये परेशानी का कारण बन सकती है । उधर शहर के जिला सरकारी अस्पताल काशीराम अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डा डीपी मिश्रा ने माना कि सर्दियों के मौसम में उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारी के रोगियों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन अस्पताल में ऐसे रोगियों के लिये चिकित्सा के सभी इंतजाम हैं और किसी भी रोगी को लौटाया नहीं जा रहा है ।

Dark Saint Alaick
20-12-2011, 06:16 PM
पत्नी और बच्चों को भारतीय नागरिकता दिलाने को परेशान है एक पाकिस्तानी हिंदू


जालंधर ! पाकिस्तान के स्यालकोट के धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक हालात से बेजार होकर 16 साल पहले जालंधर आये एक हिंदू परिवार का 70 वर्षीय मुखिया खुद तो भारत का नागरिक है, लेकिन अपनी पाकिस्तानी पत्नी और बच्चों को भारतीय बनाने की जद्दो जहद में वर्षों से परेशान है। पाकिस्तान में बसे हिंदू, सिख और इसाई परिवार वहां के कट्टरपंथियों के जुल्मो सितम से परेशान होकर अकसर अपना घरबार छोड़कर अपने वतन लौट आने को मजबूर हो जाते हैं। इसी क्रम में मुल्क राज (70 ) अपनी पत्नी कमलावंती (64 ) तथा चार बेटे और चार बेटियों के साथ 1995 में अपना कारोबार और घरबार सब वहां छोड कर यहां आ गए थे।

इस बारे में मुल्क राज ने बातचीत में कहा, ‘‘मैं अपने पूरे परिवार के साथ 1995 में यहां आ गया था। हम यहां जैसे तैसे अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। नागरिकता के संबंध में भारत सरकार द्वारा निर्धारित सभी शर्तों को पूरा करने के बाद हमने नागरिकता के लिए आवेदन किया। वर्ष 2009 में सरकार ने मुझे, मेरे दो बेटों और एक बेटी को नागरिकता दे दी, लेकिन पत्नी और अन्य बच्चों को नहीं दी।’’

उन्होंने रूंधे गले से कहा, ‘‘इस बुढापे में कागज दुरूस्त रखने के लिए मुझे बार बार दिल्ली जाना पड़ता है । सरकार ने मेरी पत्नी को नागरिकता नहीं दी है । हमारी एक ही गुजारिश है कि कमलावंती के साथ साथ बच्चों को भी नागरिकता दे दी जाए।’’

मुल्क राज ने कहा, ‘‘हम दस लोग आये थे और हमारे पास कुल आठ पासपोर्ट थे। दोनो छोटे बच्चे नाबालिग थे इसलिए उनका नाम उनकी मां के पासपोर्ट पर दर्ज है। मुझे हर वक्त यही चिंता लगी रहती है कि किसी तरह पूरे परिवार को भारत की नगरिकता मिल जाये । हमें अपने सभी दस्तावेज दुरूस्त करा कर रखने पडते हैं । बच्चों की शादी भी यहीं कर दी है । पोते भी हैं लेकिन चिंता एक ही बात की है कि पत्नी और अन्य बच्चे भारतीय हो जाएं।’’

मुल्क राज के साथ बैठी उनकी पत्नी कमलावंती का कहना है, ‘‘भगवान सब ठीक करेगा । वह हमारी जरूर सुनेगा और मुझे तथा हमारे बच्चों को यहां की नागरिकता जरूर मिलेगी । कम से कम बच्चों को नागरिकता मिल जाये तो मैं चैन से मर सकूंगी।’’

दूसरी ओर जालंधर में रह रहे पाकिस्तानी हिंदू परिवारों के लिए काम करने वाले भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता भगत मनोहर लाल ने कहा, ‘‘ मुल्क राज का परिवार ऐसा अकेला परिवार नहीं है। जालंधर में लगभग दो सौ ऐसे परिवार हैं। कई परिवार ऐसे हैं जिनमें पति को नागरिकता मिल गयी है तो पत्नी को नहीं । किसी परिवार में बच्चों को नागरिकता मिल गयी है तो उनके मातापिता को नहीं। केंद्र सरकार इन लोगों के साथ अन्याय कर रही है। सरकार को इन लोगों के बारे में एक बार जरूर सोचना चाहिए । ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि पति भारत में रहे और पत्नी पाकिस्तान में। वह वापस पाकिस्तान नहीं जाना चाहते हैं इसलिए उन्हें सरकार तत्काल नागरिकता दे।’’

भगत मनोहर लाल ने कहा, ‘‘आगामी 23 दिसंबर को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के समक्ष मैं इस मुद्दे को उठाउंगा और प्रयास करूंगा कि वह अपने स्तर पर इन लोगों की समस्या के समाधान में सहयोग दें ।’’

इस बारे में जालंधर के उपायुक्त प्रियांक भारती ने कहा, ‘‘नागरिकता के संबंध में आवेदन मिलने पर पुलिस की जांच के बाद तत्काल उसे गृह मंत्रालय भेज दिया जाता है। इस तरह के लंबित मामलों की मुझे कोई जानकारी नहीं है ।’’

उन्होंने कहा, ‘‘इस बारे में ब्यौरा मिलने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है । हालांकि, अगर ऐसा मामला है कि पत्नी को नागरिकता नहीं मिली है और पति को मिल गयी है और हमारे पास आकर वह अपना मामला रखते हैं तो मैं उसे दिल्ली भेज दूंगा ।’’

स्यालकोट से आए एक अन्य परिवार के मुखिया दिलीप कुमार (69) ने कहा कि हमारा पूरा परिवार एक ही दिन भारत आये था और हमें नागरिकता दे दी गयी है लेकिन हमारे परिवार के अन्य सदस्यों को नहीं। हम चाहते हैं कि सरकार हम पर रहम करे और हमें नागरिकता दे दे।’’

गौरतलब है कि मुल्क राज और दिलीप कुमार के पास अब भारतीय पासपोर्ट है, जबकि इनके परिजनों के पास नागरिकता नहीं मिलने के कारण अभी भी पाकिस्तान का पासपोर्ट है। कमलावंती से यह पूछे जाने पर कि सरकार अगर उन्हें भारत से जाने के लिए कहे, तो वह क्या करेंगी, उन्होंने कहा, ‘‘मैं अपने पति और बच्चों को छोड कर कहीं नहीं जाउंगी। अब तो इस बुढापे में केवल भगवान के यहां जाने के बारे में सोचती हूं।’’

Dark Saint Alaick
21-12-2011, 07:53 PM
जन्मदिवस पर
हार्डी ने पहचानी थी सबसे पहले रामानुजन की प्रतिभा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14520&stc=1&d=1324482786

गौस, यूलर, जैकोबी जैसे सर्वकालीन महानतम गणितज्ञों की पंक्ति में शामिल श्रीनिवास रामानुजन की प्रतिभा को सबसे पहले अंग्रेज गणितज्ञ जी एच हार्डी ने पहचाना था। हार्डी ही रामानुजन को त्रिनिटी कॉलेज ले गए जहां से उनकी गणितीय प्रतिभा को पूरी दुनिया ने मानना शुरू किया। 22 दिसंबर, 1887 को तमिलनाडु के इरोड में जन्मे महान गणितज्ञ रामानुजम ने गणित को रचनात्मक बनाते हुए कई प्रयोग किए। उन्होंने बीजगणित, ज्यामिति, संख्या सिद्धांत और कलन जैसी अलग अलग गणितीय विधाओं में बहुत सारे सिद्धांत सूत्र दिए। हाइपर ज्योमेट्रिक सिरीज, इलीप्टीकल फंक्शनरीज, डाइवरजेंट सिरीज, बरनौलीज नंबर जैसे गणित के क्षेत्रों में दिए असाधारण योगदान के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।

रामानुजन के योगदान को याद करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के केशव महाविद्यालय में गणित के प्रोफेसर हेमन्त सिंह ने कहा, ‘‘रामानुजन का भारतीय गणित के विकास में बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने अंक सूत्रों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए। उनके दिए सूत्र आज भी गणित के छात्रों के काम आ रहे हैं। रामानुजन न केवल भारतीय गणित बल्कि विश्व के गणितीय इतिहास में विद्वानों की पहले पंक्ति में आते हैं।’’

गणित और अंकों के प्रति रामानुजन के प्रेम को देखकर उन्हें ‘अंकों का मित्र’ भी कहा जाता था। रामानुजन उच्च गणित के पुरोधाओं में से एक थे। 1906 में चेन्नई विश्वविद्यालय में फाईन आर्ट्स विषय में दाखिला न मिलने पर रामानुजन ने खुद से ही पढना और गणित के सूत्रों को हल करना शुरू कर दिया। उन्होने प्रसिद्ध गणितज्ञ जी एस कार की लिखी गणित की किताब से पढना शुरू किया और गणित के सूत्रों से प्रयोग करने लगे। इस दौरान रामानुजन ने कई विदेशी गणितज्ञों को अपने हल किए गए सूत्र और अनसुलझे प्रमेयों की लंबी सूची भेजी, लेकिन किसी ने भी उनके पत्र और प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया। इसी बीच 1909 में उनकी शादी हो गयी। 1910 में उन्होंने जी एच हार्डी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने हार्डी से मदद मांगी और हार्डी ने उनका उत्साहवर्धन करते उचित जवाब भी दिया। रामानुजन की विद्वता से प्रभावित होकर हार्डी उन्हें त्रिनिटी ले गए जहां रामानुजन की पढाई और शोध दोबारा शुरू हुई। यहां से रामानुजन ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और दुनिया भर में उनकी ख्याति फैलती गयी।

रामानुजन की जीवनी ‘द मैन हू न्यू इन्फिनिटी’ में लेखक रॉबर्ट कनिगेल ने लिखा है कि रामानुजन का जीवन संघर्षमय रहा। ब्रिटेन के त्रिनिटी कॉलेज तक की उनकी यात्रा उतार चढाव से भरी रही। उन्हें ब्रिटेन में नस्लभेद का भी शिकार होना पड़ा। 1918 में वह त्रिनिटी कॉलेज में फैलोशिप के लिए निर्वाचित होने वाले पहले भारतीय बने। कार्नगिल के अनुसार रामानुजन ताउम्र स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित रहे। ब्रिटेन में उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। उन्हें विटामिन की कमी और तपेदिक बीमारी के चलते अस्पताल में भर्ती कराया गया। इसी बीच वह 1919 में भारत लौट आये। बीमार चल रहे रामानुजन की सेवा में उनकी पत्नी जानकीअम्मल लगी रहीं लेकिन इतने सालों तक एक दूसरे से दूर रहे इस दंपति का मिलना शायद विधि को मंजूर नहीं था। एक वर्ष बाद ही 1920 में इस महान गणितज्ञ की मौत हो गयी। 32 साल की अल्पायु में ही दुनिया छोड़कर जाने वाली इस महान प्रतिभा की आभा से गणित की दुनिया आज भी चमक रही है, जिसे देखकर लगता है कि वर्तमान पीढी की तरह ही आने वाली पीढियां भी इस नायक के जीवन और गणितीय विद्वता के प्रति उत्सुकता और रूचि दिखाएंगी।

Ranveer
21-12-2011, 10:13 PM
19 दिसंबर को काकोरी के नायकों के शहादत दिवस पर विशेष

बिस्मिल, अशफाक : जीये वतन के लिए, मरे वतन के लिए



भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास आजादी के मतवालों के एक से बढकर एक कारनामों से भरा पड़ा है । रामप्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खान के नाम इसे और भी गौरवमय बना देते हैं। जंग ए आजादी की इसी कड़ी में 1925 में एक महत्वपूर्ण घटना घटी, जब नौ अगस्त को चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया।

इन जांबाजों ने जो खजाना लूटा, दरअसल वह हिन्दुस्तानियों के ही खून पसीने की कमाई थी, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा था। लूटे गए धन का इस्तेमाल क्रांतिकारी हथियार खरीदने और जंग ए आजादी को जारी रखने के लिए करना चाहते थे। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी गई। ट्रेन से खजाना लुट जाने से ब्रितानिया हुकूमत बुरी तरह तिलमिला गई और अपनी बर्बरता तेज कर दी। आखिर इस घटना में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए, सिर्फ चंद्रशेखर आजाद हाथ नहीं आए।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एचएसआरए) के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें से रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। गोरी हुकूमत ने पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया, जिसकी बड़े पैमाने पर निन्दा हुई। डकैती जैसे अपराध में फांसी की सजा अपने आप में एक विचित्र घटना थी। फांसी के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर हुई, लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी दे दी गई।

रामप्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल और अशफाक उल्ला खान को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी दी गई । जीवन की अंतिम घड़ी में भी इन महान देशभक्तों के चेहरे पर मौत का कोई भय नहीं था । दोनों हंसते हंसते भारत मां के चरणों में अपने प्राण अर्पित कर गए। काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी उच्च शिक्षित थे। बिस्मिल जहां प्रसिद्ध कवि थे, वहीं भाषाई ज्ञान में भी निपुण थे। उन्हें अंग्रेजी, हिन्दुस्तानी, उर्दू और बांग्ला भाषा का अच्छा ज्ञान था। अशफाक उल्ला खान इंजीनियर थे। क्रांतिकारियों ने काकोरी की घटना को काफी चतुराई से अंजाम दिया था। इसके लिए उन्होंने अपने नाम तक बदल लिए थे। बिस्मिल ने अपने चार अलग अलग नाम रखे और अशफाक ने अपना नाम कुमारजी रखा था। इन दोनों वीरों की शहादत ने देशवासियों के मन में क्रांति की एक अजीब सी लहर पैदा कर दी थी।

अशफाक उल्ला खान संभवतः सबसे पहले भारतीय क्रांतिकारी मुसलमान जिन्हे फांसी दी गई थी (कम उम्र मे )। उस समय नेहरू और कई प्रमुख नेता रोज जेल मे इनके लिए अपने घर से खाना लेकर जाते थे ।

Dark Saint Alaick
22-12-2011, 03:21 AM
भिखारी ठाकुर : भोजपुरी लोक का सिरमौर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14529&stc=1&d=1324509642

भिखारी ठाकुर को मैं तब से जानता हूं – जब मेरी उम्र सात साल की थी। संभवतः 1944 का साल रहा होगा। मेरे गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर ओझवलिया नाम का एक गांव है। उस गांव में गृहस्थ जीवन में रहकर साधुवृत्ति वाले एक आचारी थे। उनसे गांव वालों का बांस की कोठी को लेकर झगड़ा था। आचारी पर बांस नहीं काटने की बंदिश थी। इस संकट में आचारी को एक चतुराई सुझी कि क्यों न भिखारी ठाकुर का नाच गांव में कराया जाये। नाच सुनकर लोगों की भीड़ उमड़ेगी। गांव और ज्वार के लोग नाच देखने में विभोर रहेंगे। ऐसे में आचारी का मकसद आसानी से पूरा हो जायेगा।

भिखारी ठाकुर उस दौरान कोलकाता में रहते थे। आचारी कोलकाता गये और भिखारी ठाकुर के नाम का अनुबन्ध कर आये। निश्चित तिथि पर भिखारी ठाकुर की मंडली ओझवलिया पहुंच गयी। हजारों की भीड़ नाच देखने उमड़ पड़ी। दस कोस पैदल चलकर लोग नाच देखने आये थे। लोगों का ध्यान जब नाच देखने में लगा था-आचारी ने बांस काटने की अपनी कार्रवाई शुरू करा दी। लोगों को बांस काटने की भनक जैसे ही लगी-मारपीट शुरू हो गयी। नाच बन्द हो गया। दूसरे दिन उस इलाके के लोगों को जब इस बात का अहसास हुआ कि यह भिखारी के प्रति इस इलाके की जनता का बहुत बड़ा अपमान है। अतः लोगों ने मेरे गांव में भिखारी का नाच कराने का निर्णय लिया और नाच हुआ भी। मैं बच्चा था इसलिए मुझे याद नहीं है कि नाच में क्या-क्या हुआ लेकिन मेरे इलाके में यह घटना किवदंती की तरह आज भी लोगों की जेहन में है। नाच की शुरूआत में भिखारी ठाकुर ने आचारी वाली घटना पर एक कविता लिखी थी जिसे उन्होंने गाकर सुनाया था। कविता की शुरू की पंक्तियां बहुत दिनों तक लोगों को याद थी जिसकी पहली पंक्ति थी-‘सबके ठगले भिखारी, भिखारी के ठगले आचारी।’

इस तरह भिखारी ठाकुर से मेरी पहली मुलाकात मेरे अपने गांव में हुई थी। भिखारी ठाकुर को मैंने दूसरी बार पटना के गांधी मैदान में महीनों पहले सरकारी प्रदर्शनों के दौरान देखा था और प्रदर्शनी के सांस्कृतिक मंच पर उनके गीत और कविताएं सुनी थी। वह 1958 का साल था और मैं बी.ए. का विद्यार्थी था। मेरी तीसरी और अंतिम मुलाकात 1965 में हुई। हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार नई कविता पर बहस कर रहे थे। अचानक किसी का ध्यान भिखारी ठाकुर पर पड़ा। वे श्रोताओं के बीच अंतिम पंक्ति में बैठे थे। लोगों ने आग्रह करके उनको मंच पर बुलाया और उनसे कविताएं पढ़वायी। केदारनाथ सिंह ने हाल ही में इस प्रसंग को ‘हिन्दुस्तान’ में लिखा है और उसका शीर्षक दिया है-नयी कविता के मंच पर भिखारी ठाकुर। उस मंच पर केदारनाथ सिंह, विजय मोहन सिंह, चन्द्रभूषण तिवारी, बद्रीनाथ तिवारी, मधुकर सिंह आदि मौजूद थे।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को ‘अनगढ़ हीरा’ कहा था तो प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपीयर’ कहा। डा॰ केदारनाथ सिंह लिखते हैं-‘भिखारी ठाकुर मौखिक परम्परा के भीतर से उभरकर आये थे, पर इनके नाटक और गीत हमें लिखित रूप में उपलब्ध हैं। कोरा मनोरंजन उनका उद्देश्य नहीं था। उनकी हर कृति किसी न किसी सामाजिक विकृति या कुरीति पर चोट करती है और ऐसा करते हुए उसका सबसे धारदार हथियार होता है-व्यंग्य।’ डा. उदयनारायण तिवारी लिखते हैं-‘भिखारी ठाकुर वास्तव में भोजपुरी के जनकवि हैं। इनकी कविता में भोजपुरी जनता अपने सुख-दुख एवं भलाई-बुराई को प्रतयक्ष रूप से देखती है।’ इस तरह बहुत सारे हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने भिखारी ठाकुर की प्रशंसा की है।

संजीव ने ‘सूत्रधार’ नाम से एक उपन्यास उनके जीवन को आधार बनाकर लिखा है। कुछ लोगों ने पी.एचडी., डि.लिट्. और डिजरटेशन इनके नाटकों, गीतों और भजनों पर लिखे हैं। इनमें से कुछ का प्रकाशन भी हुआ है। भिखारी ठाकुर की स्मृति को संजोने के लिए उनके गांव कुतुबपुर (सारण) में भिखारी ठाकुर आश्रम भी निर्मित है जहां नियमित उन पर कार्यक्रम और गोष्ठियां आयोजित होती रहती है।

भिखारी ठाकुर ने अपना जीवन चरित लिखा है। यह जीवन चरित भोजपुरी कविता में है। इन्होंने स्वयं लिखा है कि उनका जन्म 1887 ई. पौष मास शुक्ल पक्ष पंचमी सोमवार के 12 बजे दिन में हुआ था। उनका देहावसान 1971 ई. में हुआ था। उनकी कोई विधिवत शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई थी। उन्होंने अपने साधना से अक्षर ज्ञान प्राप्त किया था और स्वाध्याय से कुछ धार्मिक ग्रंथों का परायण किया था-जिसमें रामचरित मानस प्रमुख था। भिखारी ठाकुर एक अत्यंत पिछड़ी नाई जाति में जन्में थे। उनके घर में एक गाय थी और तीन-चार बछिया थी जिसे वे अपने सगे-साथियों के साथ बचपन में चराया करते थे। इन्हीं साथियों के साथ मिलकर वे रामलीला और दूसरे नाटकों के अभिनय की नकल करते थे। उनका कंठ सुमधुर था। उनकी सुरीली आवाज में जादू था। एक ओर वे परिवार के जीवन-यापन के सहयोग में पशुओं की देखभाल किया करते थे तो दूसरी ओर गृहस्थों और जजमानों के दाढ़ी-बाल बनाते थे।

कुछ लेखकों ने भिखारी ठाकुर पर बचपन में सवर्णों द्वारा शोषण-उत्पीड़न का सवाल बिना किसी जांच-पड़ताल के उठाया है और उनके द्वारा नाच मंडली स्थापित करने की वजह भी इसे ही बतला दिया है। लेकिन ऐसे लेखकों का इलजाम गलत है। अगड़ी जातियों द्वारा दलितों और पिछड़ी जातियों पर शोषण-उत्पीड़न उस काल में होता था लेकिन ये जातियां उस अवधि में प्रतिकार या प्रोटेस्ट की स्थिति में नहीं थी। इसलिए भिखारी ठाकुर ने किसी प्रतिकार में अपना पेशा छोड़ा था और नाच मंडली खड़ी की थी- ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता है।

भिखारी ठाकुर को बचपन से ही रामलीला, रासलीला, सत्संग, प्रवचन, भजन-कीर्तन आदि से बेहद लगाव था। परिणामतः काम से फुर्सत पाकर रात में वे ऐसे अनुष्ठानों में भाग लेते थे और उन पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा था। उनके बचपन के दिनों में बंगाल और बिहार में जितने प्रकार के नाच, नाटक, गीत-संगीत प्रचलित थे-उनको वे बड़ी तन्मयता से देखते थे और उन सबों का प्रयोग उन्होंने अपने द्वारा गठित बिदेशिया नाच में किया था। उनके द्वारा तैयार बिदेशिया नाच बाद में चलकर एक शैली बन गया जो पचास-साठ वर्षों तक बिहार, उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों और कोलकाता में रहनेवाली हिन्दी भाषी जनता विशेष रूप से भोजपुरी भाषी किसान-मजदूर जनता के लिए मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन बना रहा।

मुस्लिम और अंग्रेजी शासनकाल में औरतों पर हो रहे अत्याचारों ने उन्हें घरों की चहारदीवारी में कैद कर दिया था। उनका कोई सार्वजनिक चेहरा नहीं रह गया था। उनकी पर्दादारी और अशिक्षा एक तरह से उनके लिए काल बन गयी थी। ऐसी स्थिति में नाटकों में स्त्री पात्रों का मिलना असंभव था। इसके साथ ही अभिजात वर्ग के लोगों में यह धारणा विकसित हुई थी कि नचनिया-बजनिया का का निम्न जातियों का है। सवर्ण इसमें भागीदारी करें-ऐसी बात वे सोच भी नहीं सकते थे। भिखारी ठाकुर के नाचों में स्त्री पात्रों की भूमिका कम उम्र के लड़के किया करते थे। उनकी नाच मंडली में अधिसंख्य सदस्य दलित और पिछड़ी जातियों से ही आते थे। भिखारी ठाकुर के नाटकों में पात्रों के नाम भी वही होते थे जो दलित और पिछड़ी जातियों में प्रचलित थे। उन्होंने अपने नाटकों में दलित, शोषित, अशिक्षित और उपेक्षित तबकों के साथ घटित होनेवाली घटनाओं का विशेष उल्लेख किया है। बाल-विवाह, अनमेल विवाह, धन के लिए बेटियों को बेचने का अपराध, सम्पत्ति के लोभ में संयुक्त परिवार का विघटन, बहुविवाह, चरित्रहीनता, अपराध, नशाखोरी, चोरी, जुआ खेलना आदि कुछ ऐसी प्रचलित कुप्रवृत्तियां ऐसे वर्गों में व्याप्त थीं, जिससे उनका सामाजिक और आर्थिक जीवन दुखमय हो जाता था। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों के माध्यम से इन कुरीतियों पर प्रहार करने का प्रयास किया। गांव-देहात के लोगों पर इन नाटकों का बड़ा प्रभाव पड़ा और लोगों ने इन कुरीतियों से निजात पाने की दिशा में पहल भी की।

विगत शताब्दी का पचास वर्ष विशेषकर 1915 से 1965 का कालखण्ड उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले और बिहार के भोजपुरी भाषा-भाषी जिलों में आम लोगों के मनोरंजन के साधन, रामलीला, जात्रा, भांड, धोबी, नेटुआ, गोई आदि नाच होते थे। चैती फसल कटने और आषाढ़ में फसल लगने के बीच के समय में किसानी से जीवन-यापन करनेवाली जनता के मनोरंजन का एकमात्र साधन ये नाच होते थे जिसे लोग शादी-विवाह और उत्सव के अवसर पर मंगवाते थे। (इन क्षेत्रों में शादी-विवाह गर्मी के महीने में ही होते थे।) एक व्यक्ति के खर्च से हजारों लोगों का बिना अधेली खर्च किये मनोरंजन होता था। इन नाचों में गाये गीत गांव के चरवाहा, हलवाहा, बनिहारा सालों भर गुनगुनाता था और खेतों में किये गये श्रम से अपनी थकान मिटाता था। भिखारी ठाकुर के बिदेशिया नाच ने इस विधा में नया आयाम जोड़ा। भोजपुरी क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर इस क्षेत्र की जनता की भाषा में उन्होंने अपने नाटक और गीत लिखे और उनका स्वयं मंचन किया। जनता अपनी समस्याओं को अपनी भाषा में सुनकर ज्यादा प्रभावित होती थी। इस तरह भिखारी ठाकुर के नाटकों के प्रभाव अन्य नाटकों की तुलना में ज्यादा प्रभावी होते थे।

(बिहार खोज खबर)

Dark Saint Alaick
22-12-2011, 03:03 PM
23 दिसंबर किसान दिवस पर विशेष

अपनी आजीविका के अपहरण से परेशान आज का किसान


किसानों की आत्महत्या, न्यूनतम समर्थन मूल्य और भूमि अधिग्रहण पर विवाद के बीच किसानों के मुद्दे पर सरकार की चुनौतियां कम नहीं होने वाली हैं। देश की तरक्की के दावे करने वाले ‘समृद्ध’ लोगों के लिये ‘किसान दिवस’ पर ऐसे अनेक अन्नदाताओं के पास शिकायतों की फेहरिस्त है। एक तरफ जहां किसानों की आत्महत्या को लेकर विपक्षी दलों ने कल ही संसद परिसर में धरना देकर मांग की है कि किसानों के मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति या स्थायी समिति का तुरंत गठन किया जाए, दूसरी तरफ सड़कों पर अपना आलू फेंक रहे पंजाब के किसान मंजीत सिंह कहते हैं कि एक किलो आलू की लागत तीन से चार रुपये की आती है, जिसका दाम अब सिर्फ तीस पैसे प्रति किलो रह गया है। वहीं खाद सब्सिडी को लेकर सरकार और खाद उत्पादकों की सांठगांठ से किसान त्रस्त हो रहा है। ऐसे हालात में कल ही आंध्रप्रदेश में किसानों ने ‘कृषि छुट्टी’ का ऐलान किया है, वह आमदनी नहीं होने के कारण खेती नहीं करना चाहते हैं। देश के अन्य हिस्सों में भी किसान खेती से विमुख हो रहे हैं।

वरिष्ठ अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा का कहना है कि आने वाला साल भी किसानों के लिये चुनौती पूर्ण रहेगा। उनका मानना है कि सरकार पूंजी की ताकत के सामने घुटने टेककर किसानों की आजीविका का अपहरण कर रही है और किसानों के हितों के नाम पर विदेशी निवेश को आमंत्रित कर रही है। काबरा का कहना है ‘‘ खुद को किसानों का हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों के लिये मंत्री पद अहम हो जाते हैं और वे सरकार के ही साथ हो लेते हैं।’’ खेती और कृषि मामलों पर विशेष राय रखने वाली शिक्षाविद् जया मेहता कहती हैं कि सरकार सिर्फ ‘कॉस्मेटिक नीतियों’ को ही बढावा देती है जिनसे किसानों के हित सुरक्षित नहीं होते।

महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में कर्ज से दबे किसान आत्महत्या का रास्ता पकड़ रहे हैं, तो उत्तर भारत में अपने हक के लिए लड़ने वाले किसानों को कभी पुलिसिया लाठी तो कभी बंदूक की गोली का सामना करना पड़ा। औद्योगिक उन्नति के नाम पर किसानों से उनकी जमीन छीनकर उद्योगपति मॉल, इंडस्ट्री और रेसिंग ट्रैक बना रहे हैं। अलीगढ के टप्पल निवासी किसान भोलाराम बताते हैं कि ऐक्सपे्रसवे परियोजना के लिये निजी कंपनी और प्रशासनिक अधिकारियों ने जमीन अधिग्रहण के लिये करार पर उनके हस्ताक्षर कराने के लिये कई हथकंडे अपनाए। उनसे लुभावने वायदे किये गये। परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी, जमीन के हिसाब से प्रति महीने निश्चित राशि के वायदे जब झूठे निकले तो छलावे के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा।

भारतीय किसान यूनियन के प्रमुख राकेश टिकैत की मांग है कि सरकार को ‘कृषि कैबिनेट’ का गठन करना चाहिये। उनका कहना है कि बुग्गी में सफर करने वाले किसान नेताआेंं के लिये हवाई जहाज की सवारी प्यारी हो जाती है और वे किसानों को छोड़ कुर्सी का ध्यान रखते हैं। किसान नेता गोविंद सिंह तेवतिया ने मांग की कि सरकार को किसानों की समस्याओं के निपटारे के लिये एक आयोग का गठन करना चाहिये। उनका कहना है कि जमीन के बदले सरकार किसानों को मुआवजा तो देती है पर उस भूमि पर आश्रित अनेक वर्ग के लोगों की कोई सुध नहीं लेता।

प्रमुख किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन 23 दिसंबर पर देश में किसान दिवस मनाया जाता है। इस एक दिन को समारोह की तरह मनाने की बजाय किसानों के हालात पर भी विचार किया जाना चाहिए।

Dark Saint Alaick
24-12-2011, 04:19 PM
25 दिसंबर को जयंती पर
स्वतंत्रता आंदोलन, समाजसेवा में अहम भूमिका निभाई मदनमोहन मालवीय ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14549&stc=1&d=1324729143

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय ने स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाने के साथ ही सामाजिक सुधार में भी बढचढकर हिस्सा लिया। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के इतिहास के प्राध्यापक रिजवान कैसर ने भाषा से कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में मालवीयजी का महती योगदान है। स्वतंत्रता आंदोलन और बीएचयू जैसी बड़ी शिक्षण संस्था की स्थापना में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में 25 दिसंबर, 1861 को एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे पंडित मदन मोहन मालवीय ने पांच साल की उम्र में पंडित हरदेव की धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में संस्कृत की शिक्षा ली। इलाहाबाद जिला स्कूल से स्कूली शिक्षा ग्रहण के बाद उन्होंने मुईर सेंट्रल कॉलेज से मैट्रीकुलेशन किया। उन्होंने कलकता विश्वविद्यालय से स्नातक की पढाई की। उन्होंने जुलाई, 1884 में इलाहाबाद जिला स्कूल में बतौर शिक्षक अपना करियर शुरू किया, लेकिन राजनीति में भी लगातार सक्रिय रहे। जुलाई, 1887 में वह राष्ट्रवादी साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक बने। इस दौरान कानून की पढाई करने के बाद वह पहले इलाहाबाद जिला न्यायालय और बाद में दिसंबर, 1893 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने लगे।

शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करने के लिए मालवीय ने 1911 में प्रैक्टिस छोड़ दी, हालांकि चौरा चौरी कांड में 177 स्वतंत्रता सेनानियों को मृत्युदंड दिए जाने के खिलाफ वह फिर अदालत में उतरे और अपनी दलीलों से 156 को बरी करवाने में सफल रहे। नरमपंथी नेता मालवीय को 1909 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। चार बार-1909, 1918, 1930 तथा 1932 में वह पार्टी अध्यक्ष बने। । जब चौरा चौरी कांड में 177 स्वतंत्रता सेनानी मृत्युदंड के लिए दोषी ठहराए गए तब मालवीय उनकी ओर से अदालत में पेश हुए और 156 को बरी करवाया।

मालवीय इंपेरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल और बाद में इसके परिवर्तित रूप सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली के सदस्य भी रहे। उन्नीस सौ बीस के दशक के प्रारंभ में वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में प्रमुख नेता के रूप में उभरकर सामने आए। सन् 1928 में उन्होंने लाला लाजपत राय, जवाहरलाल नेहरू आदि के साथ मिलकर साइमन आयोग का जबर्दस्त विरोध किया। तुष्टीकरण के विरोधी मालवीय ने 1916 के लखनउ पूना पैक्ट में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन मंडल का विरोध किया। वह खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस के शामिल होने के खिलाफ थे। उन्होंने गांधीजी को देश विभाजन की कीमत पर आजादी के खिलाफ चेताया था। उन्होंने भी 1931 में पहले गोलमेज सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। ‘सत्यमेव जयते’ को उन्होंने ही लोकवाक्य बनाया। वह कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक भी रहे।

मालवीयजी ने जाति का बंधन तोड़ने के लिए काफी काम किया। इतिहास के प्राध्यापक प्रदीप कुमार कहते हैं कि मालवीय जी ने गांधीजी और अंबेडकर के बीच 1930 के पूना पैक्ट में अहम भूमिका निभाई। जीवनपर्यन्त आजादी का सपना देखने वाले मालवीय 12 नवंबर 1946 को चल बसे।

Ranveer
24-12-2011, 09:50 PM
बहुत अच्छी जानकारी .....
अलैक जी को हार्दिक धन्यवाद ||

Dark Saint Alaick
25-12-2011, 05:12 PM
सरकार की सस्ती डीजल नीति का फायदा उठा रही कार कंपनियां

भले ही सरकार किसानों और जनहित को ध्यान में रखते हुये डीजल पर भारी सबिसडी देती है लेकिन इसका असली फायदा कार कंपनियों को हो रहा है। डीजल कारों की बढती मांग से कार कंपनियां नित नये डीजल संस्करण बाजार में उतार रही हैं।

हालांकि, पर्यावरणविदें की चिंता कुछ और है। उनका कहना है कि इससे डीजल की खपत बढने के साथ साथ प्रदूषण का खतरा भी बढ रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की निदेशक सुनीता नारायण का मानना है कि डीजल गाड़ियों की बढती बिक्री से वायु प्रदूषण का खतरा बढेगा। डीजल खपत बढने से तेल कंपनियों का सब्सिडी बोझ भी बढ रहा है।

दरअसल, कृषि, सार्वजनिक परिवहन और माल परिवहन में डीजल का इस्तेमाल होने की वजह से इस पर भारी सब्सिडी वहन करती है। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि कृषि क्षेत्र में डीजल का इस्तेमाल घटकर मात्र 12 प्रतिशत ही इस्तेमाल होता है।

ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश डीजल कारों की कड़ी आलोचना कर चुके हैं। पर्यावरण मंत्री रहते हुये रमेश ने खासकर डीजल की भारी खपत करने वाले एसयूवी जैसे लक्जरी वाहनों का विरोध किया था और कहा था कि ऐसे वाहन मालिकों से डीजल का बाजार मूल्य वसूला जाना चाहिए।

पेट्रोलियम मंत्रालय भी डीजल की लक्जरी कारों पर अतिरिक्त शुल्क लगाये जाने के पक्ष में है। पेट्रोलियम मंत्रालय इस संबंध में वित्त मंत्रालय को पत्र लिखकर ऐसे वाहनों पर 15 प्रतिशत अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाने का सुझाव भी दे चुका है।

सुनीता नारायण कहती हैं कि पेट्रोल कारों के मुकाबले, डीजल गाड़ियों से सात गुना ज्यादा प्रदूषण तत्वों का उत्सर्जन होता है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि इन कारों द्वारा पांच गुना ज्यादा नाइट्रो आॅक्साइड का उत्सर्जन होता है जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।

वहीं, कार कंपनियों का दावा है कि डीजल कारों में अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुये इन्हें पर्यावरण मानकों के अनुरुप बनाया जा रहा है। मारूति उद्योग लिमिटेड में सहायक प्रबंधक शशांक अग्रवाल ने बताया कि कंपनी की डीजल गाड़ियां भारत-4 (यूरो-4) जैसे पर्यावरण मानकों पर खरी उतरती हैं।

भारी उद्योग और सार्वजनिक उपक्रम मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने डीजल कारों को महंगा करने के प्रस्ताव का विरोध किया है। उन्होंने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को पत्र लिखकर कहा है कि डीजल कारों पर अधिक कर नहीं लगाया जाना चाहिये। पटेल ने बड़ी कारों पर लगाए गए 15,000 रुपये के अतिरिक्त शुल्क को भी वापस लिए जाने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि बजाय इसके सरकार डीजल मूल्यों को तर्कसंगत बनाने का रास्ता तलाशे।

सुनीता नारायण कहती हैं, ‘‘कार निर्माता कंपनियां सस्ते डीजल की वजह से डीजल कारों की बढती मांग का फायदा उठाकर मोटा मुनाफा कमा रहीं हैं। ज्यादा से ज्यादा गाड़ियों के डीजल संस्करण बाजार में उतरे जा रहे हैं। इनके प्रदूषण मुक्त होने का कोरा दावा किया जा रहा है।’’ गरीब, किसान और जन सुविधा को फायदा पहुंचाने के लिये बनाई गई नीति का इस तरह बेजा इस्तेमाल चिंताजनक है।

सोसाइटी फॉर इंडियन आटोमोबाइल मैनुफैक्चरर्स (सियाम) के आकंड़ों के अनुसार पिछले कुछ दिनों में डीजल गाड़ियों की बिक्री में इजाफा हुआ है। डीजल की कुल खपत में डीजल कारों में 15 प्रतिशत खपत हो रही है। वहीं पांच साल पहले यह आंकड़ा 11 प्रतिशत ही था।

उपलब्ध आंकडों के अनुसार जिन क्षेत्रों की वजह से डीजल के दाम सस्ते रखे गये हैं, उनमें इसका प्रयोग कम ही होता है। डीजल की कुल खपत में ट्रक जैसे वाहनों में 37 प्रतिशत और सार्वजनिक परिवहन में महज 12 प्रतिशत ही डीजल का उपभोग होता है। सेंटर फार एनवायरमेंट का सवाल है कि आखिर क्यों सरकारी नीतियों के कारण इस तरह के प्रदूषण को बढावा मिल रहा है।

Dark Saint Alaick
30-12-2011, 10:19 AM
जन्मदिवस पर

सबसे कम उम्र में नोबेल साहित्य पुरस्कार जीता था रूडयार्ड किप्लिंग ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14583&stc=1&d=1325225947

एंग्लो इंडियन लेखक, कवि, कहानीकार और उपन्यासकार रूडयार्ड किप्लिंग ने सबसे कम उम्र में साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीता था। 1907 में 42 साल की उम्र में वह यह सम्मान हासिल करने वाले सबसे युवा साहित्यकार बने थे। साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह पहले अंग्रेज साहित्यकार भी थे। 30 दिसंबर, 1865 को जन्मे किप्लिंग ने कई बालकथाएं लिखीं, उनका लिखा ‘जंगल बुक’ आज भी बच्चों के पसंदीदा साहित्य में से एक बना हुआ है। किप्लिंग की कहानियां, कविताएं आज भी अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। किप्लिंग की जीवनी ‘द स्ट्रेंज राइड आफ रूडयार्ड किप्लिंग’ में लेखक अंगस विल्सन ने लिखा है, ‘‘किप्लिंग एक बुद्धिमान और बहुत ही प्रतिभाशाली लेखक थे। उनकी रचनाएं ना केवल इस दौर में बल्कि आने वाले कल में भी प्रासंगिक होंगी। उनकी लिखी किताब ‘जंगल बुक’ की कहानी ‘मोगली ब्रदर्स’ ने बाल साहित्य और सिनेमा को बहुत प्रभावित किया। जंगल बुक से प्रभावित होकर बहुत सारी फिल्में बनीं। हॉलीवुड में बनी टारजन श्रृंखला की फिल्में जंगल बुक और इसे नायक मोगली से ही प्रभावित है।’’ किप्लिंग का जन्म भारत में हुआ था और भारतीय संस्कृति का उन पर गहरा प्रभाव था। उन्होंने अपनी किताब ‘जंगल बुक’ भारतीय जंगलों को ध्यान में रखकर लिखी थी।

उनके माता पिता ने उनका नाम ब्रिटेन के स्टेफोर्डशायर काउंटी में स्थित रूडयार्ड झील के नाम पर रूडयार्ड रखा था। जब वह पांच साल के हुए तो उन्हें ब्रिटेन ले जाया गया। उनकी शिक्षा-दीक्षा ब्रिटेन में ही हुई। उन्होने कम उम्र से ही साहित्यिक रचनाएं करनी शुरू कर दीं। 19 वीं सदी के अंत में और बीसवीं सदी की शुरूआत में वो अंग्रेजी में गद्य और पद्य दोनों शैलियों के लोकप्रिय लेखक बन गये थे। उन्होंने पत्रकार के रूप में भी काम किया था। उन्होंने ‘गजट’ और ‘द पायनियर’ जैसे समाचार पत्रों में काम किया। उनकी लेखनी में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रभाव नजर आता है, जिसके कारण प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज आॅरवेल ने उन्हें ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रवर्तक’ भी कहा था। आर्सन विल्सन के अनुसार स्काउटिंग के संस्थापक वैडन पॉवेल ने भी अपने स्काउटिंग कार्यक्रम को लोकप्रिय करने के लिए जंगल बुक के किरदारों का सहारा लिया था। इस तरह किप्लिंग की रचनाओं में एक सार्वभौमिक अपील थी। किप्लिंग की अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में ‘किम’, ‘गंगादीन’, ‘मांडले’, ‘द व्हाइट मैंस बर्डेन’, ‘इफ’ और ‘रिसेशनल’ जैसी किताबें शामिल हैं। किप्लिंग के प्रशंसकों में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। किप्लिंग का लिखा उपन्यास ‘किम’ नेहरू की पसंदीदा किताबों में से एक था।

Dark Saint Alaick
05-01-2012, 07:00 PM
पुण्यतिथि छह जनवरी पर

साहित्य में ‘सोच की नींव’ रखने वाले युगचिंतक थे भारतेंदु

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14654&stc=1&d=1325775620

साहित्य में ‘सोच की नींव’ रखने वाले अग्रणी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र असाधारण प्रतिभा के धनी व दूरदर्शी युगचिंतक थे और उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज में सार्थक हस्तक्षेप किया और इसकी शक्ति का उपयोग करते हुए आम जनमानस में जागृति लाने की कोशिश की तथा दरबारों में कैद विधा को आम लोगों से जोड़ते हुए इसे सामाजिक बदलाव का माध्यम बना दिया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस दौर में हिंदी साहित्य के आयाम को नयी दिशा दी जब अंग्र्रेजों का शासन था और अपनी बात कह पाना कठिन था। उन्होंने एक ओर खड़ी बोली के विकास में मदद की वहीं अपनी भावना व्यक्त करने के लिए नाटकों और व्यंग्यों को बेहतरीन इस्तेमाल किया। इस क्रम में भारत दुर्दशा या अंधेर नगरी जैसी उनकी कृतियों को देखा जा सकता है। अंधेर नगरी विशेष रूप से चर्चित हुई।

साहित्यिक पत्रिका बया के संपादक और कथाकार गौरीनाथ के अनुसार भारतेंदु के दौर में अपनी बात कहना बेहद कठिन था। विदेशी शासन के प्रति अपने प्रतिरोध को जताने के लिए उन्होंने साहित्य का सहारा लिया और 34 साल के अपने जीवनकाल में ही उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध कर दिया।

गौरीनाथ के अनुसार भारतेंदु ने साहित्य में सोच की नींव रखी और उस दौर की राजनीति में भी प्रतिरोध को दिशा दी। उनके लेखन से बाद की पीढी को बल मिला। गौरीनाथ के अनुसार खडी बोली के विकास में भारतेंदु की भूमिका उल्लेखनीय थी और वह सही मायनों में खड़ी बोली के सबसे बड़े निर्माता थे। उनकी रचनाओं में बनावटी संस्थागत कार्य के बदले प्रतिरोध का स्वर उभर कर सामने आता है। उनकी कृतियों में उस दौर की स्थिति, समस्याएं उभर कर सामने आती हैं और वह परोक्ष रूप से उसके प्रति लोगों को आगाह करते दिखते हैं।

भारतेंदु के लेखन में परोक्ष रूप से आजादी का स्वप्न और भविष्य के भारत की रूपरेरखा की झलक मिलती है। वह धार्मिक एकता व प्रांतीय एकता के भी पक्षधर थे। धार्मिक एकता की जरूरत का जिक्र करते हुए भारतेंदु ने अपने एक भाषण में कहा था कि घर में जब आग लग जाए तो देवरानी और जेठानी को आपसी डाह छोड़कर एक साथ मिलकर घर की आग बुझाने का प्रयास करना चाहिए। उनकी नजर में अंग्रेजी राज घर की आग के समान था और देवरानी जेठानी का संबंध जिस प्रकार पारिवारिक एकता के लिए अहम है, उसी प्रकार हिंदू मुस्लिम एकता की भावना राष्ट्रीय आवश्यकता है।

असाधारण प्रतिभा के धनी भारतेंदु युगचिंतक, दूरदर्शी व विभिन्न विधाओं के प्रणेता साहित्यकार थे। उनके प्रयासों से साहित्य सिर्फ संवेदना का क्षेत्र नहीं होकर वैचारिकता का उत्प्रेरक साबित हुआ। उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज में सार्थक हस्तक्षेप किया और साहित्य की शक्ति का उपयोग करते हुए आम जनमानस में जागृति लाने की कोशिश की। उन्होंने दरबारों में कैद साहित्य को आम लोगों से जोड़ते हुए इसे सामाजिक बदलाव का माध्यम बना दिया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु के बारे में लिखा है कि उनकी भाषा में न तो लल्लूलाल का ब्रजभाषापन आया, न मुंशी सदासुख का पंडिताउपन, न सदल मिश्र का पूरबीपन। उन पर न राजा शिव प्रसाद सिंह की शैली का असर दिखा और न ही राजा लक्ष्मण सिंह के खालिसपन और आगरापन का। इतने पनों से एक साथ पीछा छुड़ाना भाषा के संबंध में बहुत ही परिष्कृत रूचि का परिचय देता है।

Dark Saint Alaick
05-01-2012, 07:04 PM
6 जनवरी जन्मदिन पर

कई विधाओं को साधिकार साधने वाला चितेरा : कमलेश्वर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14655&stc=1&d=1325775845

स्वाधीन भारत के सर्वाधिक क्रियाशील और मेधावी हिंदी साहित्यकार कमलेश्वर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी भाषा को समृद्ध एवं रोचक बनाने तथा इससे युवाओं एवं नए लेखकों को जोड़ने में कमलेश्वर की भूमिका अहम है। नई कहानी के अगुआ और विलक्षण कथाकार कमलेश्वर के बारे में प्रसिद्ध साहित्यकार और उनके मित्र राजेंद्र यादव ने कहा, ‘‘हालांकि मुझे, मोहन राकेश और कमलेश्वर तीनों को नई कहानी आंदोलन का नेतृत्व करने वालों के तौर पर देखा-जाना जाता है, पर नई कहानी आंदोलन को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में कमलेश्वर की भूमिका अहम थी। वह 1950 के दशक में शुरू हुए इस आंदोलन के प्रारंभिक पैरोकारों में सबसे अधिक जुझारू थे।’’ उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कमलेश्वर का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ था। उनका मूल नाम कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना था। हमेशा नए नए प्रयोगों के लिए प्रयत्नशील रहने वाले पद्मभूषण कमलेश्वर के बारे में वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने कहा, ‘‘ वह एक बहुआयामी व्यक्ति थे। वह कथाकार, उपन्यासकार, पटकथा लेखक, संपादक सभी थे। साहित्य और मीडिया क्षेत्र के प्रमुख हस्ताक्षर कमलेश्वर ने युवा लेखकों को आगे बढाने में अहम योगदान दिया।’’
प्रूफ रीडर के तौर अपने कैरियर की शुरूआत करने वाले कमलेश्वर ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’, ‘दैनिक जागरण’ और ‘दैनिक भास्कर’ जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। अशोक वाजपेयी ने कहा, ‘‘वह विख्यात कहानीकार थे। कहानी संग्रह ‘राजा राजबंसिया’ से उन्हें खूब ख्याति मिली। उनकी कहानियों में कस्बाई गंध है।’’ मर्मस्पर्शी लेखक कमलेश्वर ने तीन सौ से उपर कहानियां लिखी हैं। उनकी कहानियों में ‘मांस का दरिया, नागमणि, जार्ज पंचम की नाक, कस्बे का आदमी’ आदि उल्लेखनीय हैं। उन्होंने दर्जन भर उपन्यास भी लिखे हंै। इनमें ‘डाक बंगला, तीसरा आदमी, काली आंधी प्रमुख हैं। गुलजार की चर्चित फिल्म ‘आंधी’ जिसे आपातकाल के दौरान प्रदर्शित करने पर रोक लगा दी गई थी, उपन्यास ‘काली आंधी’ पर आधारित है। फिल्म और टेलीविजन लेखन के क्षेत्र में भी कमलेश्वर को काफी सफलता मिली । उन्होंने ‘सारा आकाश’, ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘मिस्टर नटवरलाल’ जैसी फिल्मों सहित करीब 100 हिंदी फिल्मों की पटकथा लिखी। लोकप्रिय टीवी सीरियल ‘चंद्रकांता’ के अलावा ‘दर्पण’ और ‘एक कहानी’ जैसे धारावाहिकों की पटकथा लिखने वाले भी कमलेश्वर ही थे। उन्होंने कई वृत्तचित्रों और कार्यक्रमों का निर्देशन भी किया। अपने जीवन के अंत तक क्रियाशील रहे कमलेश्वर 75 वर्ष की आयु में 27 जनवरी 2007 को इस दुनिया से चल बसे।

Dark Saint Alaick
09-01-2012, 02:29 AM
नौ जनवरी को महेन्द्र कपूर की जयंती पर
महेन्द्र कपूर : ‘बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी...’

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मोहम्मद रफी, मुकेश और मन्ना डे की त्रयी के दौर में एक पुरकशिश और पुरसुकून आवाज थी महेन्द्र कपूर की, जिसने करीब पांच दशक के कॅरियर में रोमांटिक और देशभक्ति से लेकर बहुविध गीतों को अपनी आवाज दी। फिल्म समीक्षक अशोक पंडित ने कहा कि महेन्द्र कपूर की आवाज में ‘फोक जोन’ (लोकरंग) था और इसी कारण उनके गाये देशभक्ति गीत लोगों के दिल के बेहद करीब हैं। उन्होंने कहा, ‘‘महेन्द्र कपूर की आवाज में एक अलग कशिश थी। उनका गाया ‘मेरे देश की धरती...’ गीत सुनने पर लगता है जैसे वह किसी ठेठ पंजाबी गांव से गाया जा रहा हो। उनकी आवाज में वह बात थी जो श्रोताओं को पंजाब के गांवों, खेतों और ढाबों में ले जाती थी और यही कारण है कि उनके गाए देशभक्ति गीत बेहद लोकप्रिय हुए।’’ मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ का गीत ‘मेरे देश की धरती...’, पूरब और पश्चिम का गीत ‘भारत का रहने वाला हूं’ जैसे महेन्द्र कपूर के लिए ही लिखे गये थे।
‘द वाइब्रेंट वॉइस आफ इंडिया’ के नाम से मशहूर महेन्द्र कपूर पहले भारतीय पार्श्वगायक थे, जिन्होंने अंग्रेजी में गीत रिकार्ड किया। उन्होंने ‘ओ सेली प्लीज हेल्प मी...’ और ‘आई एम फीलिंग ब्लू...’ गीत गाए। फिल्म समीक्षक राम किशोर पार्चा ने ‘भाषा’ से कहा कि हर गायक की आवाज की अपनी खासियत होती है, जो उसे दूसरों से अलग बनाती हैं, यह ‘पिच’ महेन्द्र कपूर के पास थी। उन्होंने रोमांटिक और देशभक्ति दोनों प्रकार के गीत गाए। उनकी आवाज देशभक्ति के गीतों में एक अलग कशिश पैदा करती थी, लेकिन साथ ही गजलों को भी उन्होंने उतनी ही शिद्दत से गाया, जो काफी लोकप्रिय हुईं। पार्चा ने कहा, ‘‘हर आवाज की अपनी एक खासियत होती है जो किसी चरित्र, गीत या फिल्म के लिए एकदम सही होती है। इसलिए यह कहना गलत है कि गायक के कारण किसी अन्य को फायदा या नुकसान होता है।’’
इस संबंध में अशोक पंडित ने कहा, ‘‘हर कलाकार की अपनी विशेषता होती है। इसलिए दो गायकों या कलाकारों की तुलना नहीं की जा सकती। यदि महेन्द्र कपूर के देशभक्ति गीतों को मोहम्मद रफी गाते तो शायद एकदम अलग ढंग से गाते।’’ महेन्द्र कपूर का जन्म पंजाब के अमृतसर में नौ जनवरी 1934 को हुआ था। पांच दशक के अपने कॅरियर में उन्होंने विभिन्न भाषाओं के करीब 25000 गीतों को अपनी आवाज दी। महेन्द्र कपूर ने हिंदी के अलावा पंजाबी, गुजराती और मराठी में गीत गाए। इस योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया।
शुरुआत में महेन्द्र कपूर मोहम्मद रफी से काफी प्रभावित थे लेकिन जल्द ही उन्होंने पंडित जगन्नाथ बसु, उस्ताद नियाज अहमद खान, उस्ताद अब्दुल रहमान खान और पंडित तुलसीदास शर्मा जैसे शास्त्रीय संगीत के जानकारों के सानिध्य में शास्त्रीय संगीत सीखना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने अपनी शैली विकसित की और मेट्रो मर्फी अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिता में विजेता बने। महेन्द्र कपूर ने 1958 में वी शांताराम की फिल्म ‘नवरंग’ में सी रामचंद्र जैसे संगीतकार के निर्देशन में ‘आधा है चंद्रमा रात आधी...’ गीत से सुरमय सफर शुरु किया। महेन्द्र कपूर के यादगार गीतों में गुमराह फिल्म का ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों...’, हमराज का ‘नीले गगन के तले धरती का प्यार पले...’, ‘किसी पत्थर की मूरत से...’, ‘तुम अगर साथ देने का वादा करो...’ जैसे कई गाने शामिल हैं, लेकिन देशभक्ति गीत और उनकी आवाज जैसे एक दूसरे के पूरक थे।
महेन्द्र कपूर को फिल्म आदमी में ‘कैसी हंसी आज बहारों की रात है’ में अपने आदर्श मोहम्मद रफी के साथ गीत गाने का मौका मिला। यह एकमात्र गीत है, जिसे महेन्द्र कपूर और मोहम्मद रफी ने मिलकर गाया है। इस गीत के पीछे भी एक अलग कहानी है। असल में यह गीत मोहम्मद रफी और तलत महमूद की आवाज में रिकार्ड किया गया था, लेकिन मनोज कुमार ने अपने लिए तलत महमूद की आवाज को नकार दिया और इसे महेन्द्र कपूर की आवाज में फिर से रिकार्ड किया गया। महेन्द्र कपूर ने बी आर चोपड़ा की ‘धूल का फूल’, ‘हमराज’, ‘गुमराह’, ‘वक्त’, ‘धुध’ जैसी फिल्मों को अपनी आवाज दी। इसके अलावा उनकी आवाज से सजा महाभारत का शीर्षक गीत ‘अथ श्रीमहाभारत कथा...’ श्रोताओं के जेहन में आज भी ताजा है। 27 सितंबर 2008 को दिल का दौरा पड़ने से महेन्द्र कपूर का निधन हो गया और भारतीय फिल्म संगीत जगत के एक युग का अंत हो गया।

Dark Saint Alaick
09-01-2012, 04:18 PM
दस जनवरी को विश्व हास्य दिवस पर

‘.....हंसी के बिना जिंदगी जीना, जिंदगी से बेईमानी है’

‘‘सुख और दुख की घड़ियां तो जिंदगी में आनी जानी है, हंसी के बिना जिंदगी जीना, जिंदगी से बेईमानी है।’’ विश्व हास्य दिवस पर हंसने हंसाने की अहमियत और ईमानदार हंसी की परिभाषा बताते हुए फिल्म अभिनेता राजपाल यादव कहते हैं कि लोकप्रियता की आड़ में अश्लील हास्य को बढावा दिया जा रहा है, लेकिन आज भी ऐसे कलाकारों का वर्ग है जो हंसी में मिलावट के खिलाफ है। राजपाल ने कहा कि असल हास्य वही है जो घर में बेटी और बाप मिलकर एक साथ देख सकें और हंस सकें। यदि किसी भी हास्य को देखकर शर्म आने लगे तो वह हास्य कहलाने के लायक नहीं है। उनका मानना है कि कॉमेडी सिनेमा पिछले सालों में बदलाव से गुजर रहा है। जिसमें सभी तरह के दर्शकों को खुश करने के लिए उनके हिसाब से हास्य परोसा जा रहा है। राजपाल ने कहा, ‘‘मैं कभी किसी सूरत में अश्लील कॉमेडी नहीं करूंगा।’’ यह पूछे जाने पर क्या व्यक्तिगत टिप्पणियों और छींटाकशी से हास्य पैदा करना जायज है, राजपाल कहते हैं कि यह हास्य के गिरते स्तर को दर्शाता है।’’

‘ग्रेट इंडियन लॉफ्टर चैलेंज-2’ और ‘कॉमेडी सर्कस’ में शिरकत कर चुके सरदार प्रताप फौजदार खुले ढंग से मानते हैं कि हास्य के स्तर में निश्चित रूप से गिरावट आई है। हालांकि उनके अनुसार कॉमेडी का वर्गीकरण हो चुका है कवि सम्मेलनों में आने वाला एक वर्ग ऐसा है, जो वहां समाज और व्यवस्था पर चोट करने वाला व्यंग्य सुनने जाता है। उसके बाद मध्यम वर्ग का नंबर है, जो घर में टीवी पर ‘स्टैंड अप कॉमेडी’ देखता है और उसके हास्य की खुराक पूरी हो जाती है। इसके बाद वह वर्ग है जो देश की आपाधापी से परे अपने आप में ही खोया है और उसे आप व्यंग्यात्मक हास्य नहीं समझा सकते। प्रताप फौजदार का मानना है कि हास्य ऐसा होना चाहिए, जिससे किसी को तकलीफ न हो। किसी को हंसाने के लिए दूसरे को दुख देना भी तो ठीक नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘आजकल लोग किसी के चेहरे मोहरे अथवा उसके अंदाज के बारे में भद्दी छींटाकशी कर हास्य पैदा कर रहे हैं। यह जरूरी तो नहीं कि हर आदमी दूसरे को अच्छा ही लगे और ऐसा नहीं होने पर उसका मजाक बनाना ठीक नहीं है।’’

ग्रेट इंडियन लॉफ्टर चैलेंज के पहले संस्करण के विजेता सुनील पॉल का मानना है कि हास्य को कभी भी ‘टू मच’ नहीं कहा जा सकता। आजकल हास्य इसलिये ही ज्यादा परोसा जा रहा है क्योंकि उसे ज्यादा पसंद किया जा रहा है। सुनील भी हास्य के नाम पर भद्दी टिप्पणियों के सख्त खिलाफ हैं। सुनील ने कहा कि अब हास्य भी एक व्यापार हो गया है जिससे दुकान चलाई जा रही है। उनको इस बात पर भी चिंता है कि आजकल फिल्म का हीरो ही ‘सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता’ का पुरस्कार ले रहा है। हालांकि वह कॉमेडी में किसी वर्गीकरण को नहीं मानते। उन्होंने कहा, ‘‘यदि एक्ट हास्य पैदा करने वाला है तो अमीर को भी अच्छा लगेगा और गरीब को भी।’’

वहीं प्रताप कहते हैं कि जैसे दर्शकों का वर्गीकरण हो चुका है वैसे ही कलाकारों का भी वर्गीकरण हो चुका है। उनके अनुसार, ‘‘कुछ कलाकार ‘मास’ के लिये कॉमेडी करते हैं तो कुछ ‘क्लास’ के लिये।’’ हास्य कवियों के गंभीर आंदालनों में सक्रिय भागीदारी दिखाने पर वह कहते हैं ‘‘ कुछ कलाकरों के लिये मीडिया फ्रेम तैयार करता है तो कुछ मीडिया के बनाये फे्रम में जबरदस्ती घुसने की कोशिश करते हैं।’’

Dark Saint Alaick
09-01-2012, 04:42 PM
बासु चटर्जी के जन्मदिन 10 जनवरी पर

एंग्री यंगमैन की आंधी में भी अलग पहचान बनाने वाले फिल्मकार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14703&stc=1&d=1326112908

हिंदी सिनेमा में जब एंग्री यंगमैन का दौर चरम पर था और मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, यश चोपड़ा जैसे दिग्गज फिल्मकारों का परचम लहरा रहा था, बासु चटर्जी ने फार्मूला से अलग हटते हुए आम आदमी को ध्यान में रखकर साफसुथरी और मनोरंजक फिल्में बनायीं जो न केवल बाक्स आफिस पर कामयाब हुईं बल्कि समीक्षक भी उसकी सराहना करने को मजबूर हो गए। बासु चटर्जी ने 1970 और 80 के दशक में छोटी सी बात, बातों बातों में, खट्टा मीठा, चमेली की शादी, रजनीगंधा, चितचोर, पिया का घर, सारा आकाश, स्वामी, शौकीन जैसी एक से बढकर एक फिल्में बनायीं। बासु चटर्जी हिंदी सिनेमा के उन कुछ फिल्मकारों में से रहे हैं जिनकी फिल्मों में आम आदमी की समस्याएं और उसकी उलझनें उभर कर सामने आती हैं। रिषिकेश मुखर्जी की परंपरा को आगे बढाने वाले बासु चटर्जी ने अपनी फिल्मों में समझौता नहीं किया और पूरे परिवार को ध्यान में रखकर फिल्में बनायीं तथा जीवन के यथार्थ को खूबसूरती से परदे पर उतारते रहे।
बासु चटर्जी की फिल्मों को देखकर आम आदमी किरदारों से अपने को जोड़ता है और ऐसा लगता है कि परदे की कहानी कहीं न कहीं उसकी अपनी कहानी ही है। उनकी फिल्मों में एक ओर तीखा व्यंग्य है वहीं बेहतरीन हास्य भी है। ऐसी फिल्मों में विलेन कोई नहीं होता बल्कि मध्यमवर्गीय जीवन की असलियत ही खलनायक होती है और समय समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है, लेकिन सामाजिक उद्देश्य साफ होता है और उस पर व्यावसायिकता या मनोरंजन हावी नहीं हो पाता।
जब 1970 और 80 के दशक में हिंदी फिल्मों में हिंसा और अश्लीलता बढती जा रही थी, उन्होंने साफ सुथरी फिल्में बनायीं। उनकी खासियत रही है कि उन्होंने सितारों के स्थान पर कहानी, पटकथा, संगीत पर ध्यान दिया। उनकी फिल्मों के कई गाने आज भी काफी पसंद किए जाते हैं। उनकी फिल्मों की एक और खासियत दृश्यों की निरंतरता है और कहानी एक लय में आगे बढती रहती है। दर्शकों को बांध कर रखने वाली ऐसी फिल्मों में आगे के बारे में जानने की उत्सुकता लगातार बनी रहती है।
कई पुरस्कारों से सम्मानित बासु चटर्जी ने एक बार कहा था कि फिल्म निर्माताओं की सामाजिक जिम्मेदारी होती है। फिल्में बनाना भले ही आज महंगा हो गया है लेकिन अच्छी फिल्मों को दर्शक हमेशा मिल जाते हैं। वह उन फिल्मकारों में रहे हैं जिनके लिए सिनेमा समाज में मूल्यों को बढावा देने वाला माध्यम है। बासु चटर्जी ने छोटे परदे का रूख किया तो वहां भी उनकी प्रतिभा दिखी। उन्होंने दूरदर्शन के लिए रजनी, दर्पण, कक्काजी कहिन, व्योमकेश बख्शी जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों का निर्माण किया।

Dark Saint Alaick
10-01-2012, 05:54 PM
11 जनवरी पुण्यतिथि पर

आदर्श प्रधानमंत्री के तौर पर याद किए जाते हैं लालबहादुर शास्त्री

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भारत के ‘लाल’ स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री ने देश की बागडोर ऐसे समय में संभाली जब प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद देश कुशल नेतृत्व के संकट से जूझ रहा था। दूसरे प्रधानमंत्री के रूप ने लालबहादुर शास्त्री ने राष्ट्र को एक गरिमामय नेतृत्व प्रदान किया। लालबहादुर शास्त्री का जन्म दो अक्तूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में एक गरीब परिवार में हुआ। बचपन से ही संघर्षशील रहे शास्त्रीजी ने देश की आजादी की लड़ाई में जम कर भाग लिया और आजादी के बाद भारतीय राजनीति को अहम दिशा प्रदान की।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया कि भारतीय राजनीति में समय बीतने के साथ ही अपने अद्भुत मानवीय गुणों के कारण शास्त्रीजी पहले से कहीं अधिक प्रभावी और आकर्षक राजनेता के तौर पर याद किये जाने लगे हैं। प्रधानमंत्री के पद पर बैठने वाले भारतीयों की कतार में सादगी, सदाचार, सेवा और शिष्टाचार के चार आभूषणों से सुसज्जित लालबहादुर शास्त्री सबसे प्रभावशाली और सम्मानित प्रधानमंत्री नजर आते है, जो अपने आप में अतुलनीय हैं। उन्होंने कहा कि सत्ता और भ्रष्टाचार के बीच चोली दामन के साथ के इस दौर में लाल बहादुर शास्त्री का उज्ज्वल चरित्र और सदाचार उन्हें बुलंदी के एक अलग मुकाम पर पहुंचाते हैं और लोग उनमें एक आदर्श प्रधानमंत्री की छवि देखते हैं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर पुष्पेश पंत ने बताया कि शास्त्रीजी का कार्यकाल काफी छोटा था, लेकिन उस छोटे से समय में ही उन्होंने विदेश नीति को एक नयी दिशा और गति प्रदान की। पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में उन्होंने ऐसे कदम उठाए जो काफी प्रशंसनीय रहे। इससे लगा कि भारत बल प्रयोग करने में नहीं हिचकेगा और इसके बाद ‘जय किसान’ के साथ-साथ ‘जय जवान’ भी कहा जाने लगा। उन्होंने बताया कि इसके अलावा शास्त्री जी को दो और बातों के लिए याद किया जाएगा। पहला, प्रधानमंत्री सचिवालय की स्थापना और दूसरा परमाणु को अस्त्र के रूप में प्रयोग को उन्होंने नयी दिशा दी। इससे पहले भारत परमाणु का प्रयोग शांति के साथ विकास में करता था।

शास्त्रीजी का बचपन काफी संकट में बीता। जब वह डेढ साल के थे उसी समय उनके पिता का निधन हो गया। राजनीतिक विश्लेषक अगम कुमार ने बताया कि शास्त्रीजी ने बचपन में काफी कठिनाइयों का सामना किया। शायद यही वजह थी कि उन्होंने जीवन में कभी भी हार मानना नहीं सीखा। उनके शासन काल में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में उन्होंने उसे करारी शिकस्त दी। भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद शांति समझौते के लिए ताशकंद गये तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का 61 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने के कारण 11 जनवरी 1966 को निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
11-01-2012, 03:41 PM
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव

घोर उपेक्षा का शिकार है ‘आधी आबादी’

इसे विडम्बना कहा जाये या जम्हूरियत का मजाक लेकिन इतिहास गवाह है कि सियासी नजरिये से मुल्क के सबसे अहम सूबे उत्तर प्रदेश मे अब तक हुए विधानसभा चुनावों में प्रतिनिधित्व के मामले में ‘आधी आबादी’ कही जाने वाली महिलाएं घोर उपेक्षा का शिकार रही हैं। उत्तर प्रदेश में वर्ष 1952 से लेकर अब तक कुल 15 बार विधानसभा के चुनाव हुए और निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण किया जाए तो अब तक इन विधानसभाओं में महिलाओं का औसत प्रतिनिधित्व मात्र 4.40 प्रतिशत ही रहा। राजनीतिक पार्टियों की बात करें तो खुद को लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की पुरजोर वकालत करने वाली कांग्रेस ने राज्य में वर्ष 1952 से लेकर अब तक हुए विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा कुल 338 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है जो कुल प्रत्याशियों का 17 प्रतिशत है। औसत निकालें तो कांग्रेस ने हर चुनाव में 24 महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है लेकिन महिला आरक्षण की कठोर पक्षधर कही जाने वाली पार्टी द्वारा पेश किया गया यह आंकड़ा ‘आधी आबादी’ के साथ कतई इंसाफ नहीं करता। महिलाओं ने सामाजिक वर्जनाओं के बावजूद अपने मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए राजनीति में भागीदारी की कोशिश की है। इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अब तक हुए विधानसभा के कुल 15 चुनावों में खड़ी हुई 1985 महिला उम्मीदवारों में से 826 यानी 41 . 61 प्रतिशत औरतों ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा है लेकिन उनमें से सिर्फ तीन ही चुनाव जीत सकीं।
चुनाव आयोग के दस्तावेजों के मुताबिक वर्ष 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में संडीला से कुदसिया बेगम के रूप में पहली बार निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। उसके बाद वर्ष 1989 के चुनाव में गौरी बाजार क्षेत्र से लालझड़ी नामक निर्दलीय महिला चुनाव जीती थीं। बाद में 1996 में बलिया सीट से निर्दलीय प्रत्याशी मंजू ने विजय हासिल की लेकिन उसके बाद से यह सिलसिला आगे नहीं बढ सका। प्रदेश के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो समाजवाद का झंडा बुलंद करने वाली पार्टियों- सोशलिस्ट पार्टी, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जनता दल, भारतीय क्रांति दल और समाजवादी पार्टी ने अब तक कुल 122 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया। राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करने वाले जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश के संसदीय इतिहास में कुल 131 महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है। वहीं, वर्ष 1989 में पहली बार चुनाव लड़ने वाली बहुजन समाज पार्टी :बसपा: ने अब तक सिर्फ 52 महिलाओं को ही उम्मीदवार बनाया है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1952 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में कुल 347 सीटों पर खड़े हुए 2604 प्रत्याशियों में से सिर्फ 25 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं जिनमें से सिर्फ चार को ही जीत मिली। इस तरह उस विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 0.86 प्रतिशत रहा। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1957 में कुल 341 सीटों पर खड़े 1759 प्रत्याशियों में से महिला उम्मीदवारों की संख्या 39 रही जिनमें से कुल 18 निर्वाचित हुर्इं और विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 5.27 प्रतिशत रहा।
साल 1962 में हुए विधानसभा चुनाव में कुल 430 सीटों पर खड़े 2620 में से 61 महिला प्रत्याशी थीं। उनमें से कुल 20 महिलायें निर्वाचित हुई। इस तरह उस विधानसभा में महिलाओं की नुमाइंदगी सिर्फ 4.65 फीसद रही। साल 1967 के चुनाव में कुल 425 सीटों पर खड़े हुए 3014 में से महिला उम्मीदवारों की संख्या 39 थी जिनमें से सिर्फ छह ही निर्वाचित हुर्इं। इन निराशाजनक परिणामों से विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 1.41 प्रतिशत रहा। वर्ष 1969 में हुए मध्यावधि चुनाव में कुल 425 सीटों पर कुल 1791 उम्मीदवारों ने किस्मत आजमाई जिनमें से 55 महिलाएं थी। इस चुनाव में कुल 18 औरतें निर्वाचित हुर्इं। इस तरह उस विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4 23 प्रतिशत रहा। साल 1974 के विधानसभा चुनाव में कुल 424 सीटों पर खड़े 4039 उम्मीदवारों में से 92 महिलाएं थीं। उनमें से कुल 21 निर्वाचित हुई। नतीजतन विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.95 प्रतिशत रहा। वर्ष 1977 के चुनाव में विधानसभा की कुल 425 सीटों पर खड़े 3012 उम्मीदवारों में से 63 महिलाओं ने किस्मत आजमाई, लेकिन उनमें से सिर्फ 11 ही सफल रहीं और विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 2.58 प्रतिशत रहा। साल 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में कुल 425 सीटों पर 85 महिला उम्मीदवार खड़ी हुई, जिनमें से 23 निर्वाचित हुर्इं। इस तरह विधानसभा में औरतों का प्रतिनिधित्व 5.41 प्रतिशत रहा। भाजपा पहली बार चुनाव लड़ी। उसने पांच महिलाओं को टिकट दिया लेकिन उनमें से कोई जीत हासिल नहीं कर सकी। वर्ष 1985 में हुए विधानसभा चुनाव में कुल 425 सीटों पर 168 महिलाओं ने दावेदारी ठोंकी जिनमें से 31 निर्वाचित हुई। इस तरह विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व 7.29 प्रतिशत रहा। कांग्रेस ने 37 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा जिनमें से 26 निर्वाचित हुई।
साल 1989 में हुए चुनाव में कुल 425 सीटों पर 6102 प्रत्याशियों में से 201 महिलाएं चुनाव मैदान में उतरीं जिनमें से सिर्फ 18 ही जीत हासिल कर सकीं और विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.23 प्रतिशत रहा। वर्ष 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में कुल 422 सीटों पर 9726 प्रत्याशियों में से 253 महिलाओं ने चुनाव लड़ा लेकिन उनमें से महज 14 की ही चुनावी नैया पार लग सकी। इस तरह विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 3.31 प्रतिशत रहा। वर्ष 1996 में हुए मध्यावधि चुनाव में कुल 424 सीटों पर 1029 उम्मीदवारों में से 190 महिलाएं रहीं, जिनमें से 20 ने जीत हासिल की। उस बार विधानसभा में ‘आधी आबादी’ का प्रतिनिधित्व 4.71 प्रतिशत रहा। उत्तराखंड के अलग होने के बाद साल 2002 में राज्य में पहली बार हुए विधानसभा चुनाव में कुल 403 सीटों पर 5533 उम्मीदवारों में से 344 महिलाओं ने चुनावी रण में हिस्सा लिया। उनमें से सिर्फ 26 ही जीत सकीं। इस तरह विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 6.45 प्रतिशत रहा। साल 2002 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने 30 महिलाओं को टिकट दिये, जिनमें कायमगंज से लुइस खुर्शीद जीतीं। बाकी 29 की जमानत जब्त हो गयी। वर्ष 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में कुल 403 सीटों पर 6086 उम्मीदवारों में से कुल 370 महिलाओं ने भागीदारी की। उनमें से महज 23 ने जीत हासिल की। इस तरह विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 5.70 प्रतिशत ही रहा। इस तरह ‘आधी आबादी’ कही जाने वाली महिलाओं का विधानसभा में प्रतिनिधित्व कभी आठ प्रतिशत के आंकड़े तक को नहीं छू सका, जो महिला आरक्षण विधेयक पर तीखी बहस के दौर में सियासत में महिलाओं की नुमाइंदगी की जमीनी हकीकत बताने के लिये काफी है।

Dark Saint Alaick
11-01-2012, 09:04 PM
12 जनवरी को 150वीं जयन्ती पर

आज भी प्रासंगिक है अध्यात्म, दर्शन के विश्व गुरू स्वामी विवेकानंद की शिक्षा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14710&stc=1&d=1326301415

रोमा रोलां, महात्मा गांधी, अरविंद घोष, रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान विभूतियों के जीवन और दर्शन को प्रभावित करने वाले विवेकानंद का दर्शन, अध्यात्म और नैतिक शिक्षा आज भी प्रासंगिक है। ‘पॉलिटिकल फिलासॉफी आफ स्वामी विवेकनंद’ किताब की लेखिका कल्पना महापात्रा के अनुसार, ‘‘विवेकानंद के दर्शन में स्वतंत्रता और सामाजिक उत्थान का भाव है। उनका जीवन और विचार भारत के लोगो को सांस्कृतिक सम्मान, चिंतन और प्रगति के लिए प्रेरित करते हैं। एक सच्चे आध्यात्मवादी की तरह उन्होंने अध्यात्म के संदेश दिये।’’ सांसारिकता और भौतिकता से दूर सत्य की तलाश में जीवन बिताने वाले विवेकानंद का जीवन आज की वर्तमान पीढी के लिए अनुकरणीय है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज से दर्शनशास्त्र में परास्नातक और वर्तमान में शोध छात्र दीपक सिन्हा ने कहा, ‘‘विवेकानंद का दर्शन और उनके संदेश में गहरा अध्यात्म छिपा है। विवेकानंद का पूरा जीवन और शिक्षा सही दिशा में जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं। कर्मयोग के उनके संदेश कर्म को ईश्वर के रूप में देखने की प्रेरणा देते हैं। विवेकानंद ने सर्व धर्म सम्भाव और शांति एवं भाईचारे का संदेश दिया वो हर युग में प्रासंगिक रहेगा।’’
12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में जन्मे विवेकानंद को उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस ने ‘अद्वैत वेदांत’ की शिक्षा दी। रामकृष्ण के सानिध्य में रहकर ही विवेकानंद को सत्य का ज्ञान हुआ। रामकृष्ण को गुरू बनाने में विवेकानंद को समय लगा लेकिन जब उन्होंने रामकृष्ण को गुरू के रूप में स्वीकारा तो पूरे तन और मन से उनके प्रति पूर्ण समर्पण किया। रामकृष्ण के सानिध्य में विवेकानंद मानसिक उथल पुथल से भरे एक अधीर युवक से एक परिपक्व पुरूष बन गये, जिसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अब सिर्फ परमेश्वर के बारे में जानना और जीवन के अर्थ को समझना था।
फ्रांसीसी लेखक और दार्शनिक रोमा रोलां ने विवेकानंद की जीवनी ‘द लाइफ आफ विवेकानंद’ में लिखा है, ‘‘उनके शब्द बीथोवन के संगीत की तरह हैं जिनमें एक लय है। भारतीय संस्कृति और दर्शन विवेकानंद जैसे महामनीषियों के जीवन और दर्शन से ही गौरवमयी हुई है।’’ विवेकानंद पर उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस के अलावा आदि शंकर, रामानुज और ईसा मसीह का भी प्रभाव पड़ा। 1888 में वह देश के अलग अलग हिस्सों की यात्रा पर निकले। वाराणसी, इलाहाबाद, रिषिकेश, नैनीताल होते हुए 1892 में वह कन्याकुमारी पहुंचे। वहां एक चट्टान पर ध्यान किया जहां बाद में उनकी याद में विवेकानंद रॉक मेमोरियल स्थापित किया गया।
1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में अपने संबोधन से उन्होंने विश्व भर में अपने दर्शन और भारतीय संस्कृति को पहचान दिलायी। इस सम्मेलन के बाद अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स ने उनके बारे में लिखा, ‘‘कई धर्मों की जन्मभूमि भारत का विवेकानंद ने सही प्रतिनिधित्व किया जिससे यहां बैठे श्रोता बहुत आनंदित हुए। वह यहां सर्वश्रेष्ठ वक्ता रहे।’’ अरविंद घोष ने विवेकानंद के लिए कहा था, ‘‘विवेकानंद रचनात्मक उर्जा का प्रतीक थे। उनकी आत्मा हमेशा मातृभूमि भारत और उसके बच्चों की आत्मा के साथ जुड़ी रहेगी।’’

Dark Saint Alaick
13-01-2012, 05:45 PM
14 जनवरी को मकर संक्रांति पर
सौर कैलेंडर पर आधारित एकमात्र पर्व है मकर संक्रांति

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14749&stc=1&d=1326462223

भारत में मनाए जाने वाले सभी पर्व चंद्र कैलेंडर पर आधारित होते हैं, लेकिन मकर संक्रांति एकमात्र ऐसा पर्व है जो सौर कैलेंडर पर आधारित है। यही वजह है कि इस पर्व की तारीख नहीं बदलती और हर साल यह 14 जनवरी को मनाया जाता है। चंद्रमा की तुलना में सूर्य की गति लगभग स्थिर जैसी होती है और मकर संक्रांति सौर कैलेंडर पर आधारित पर्व है इसलिए इसकी तारीख नहीं बदलती। देश में मनाए जाने वाले अन्य पर्वों की तारीख बदलती रहती है क्योंकि वह चंद्र कैलेंडर पर आधारित होते हैं और चंद्रमा की गति सूर्य की तुलना में अधिक होती है। संक्रांति संस्कृत का शब्द है जो सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश बताता है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार, कुल बारह राशियां होती हैं। इस प्रकार संक्रांति भी 12 हुईं, लेकिन मकर संक्रांति तब मनाई जाती है जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है।

पृथ्वी को कर्क और मकर रेखाएं काटती हैं। जब सूर्य कर्क रेखा को पार करता है तो पृथ्वी के आबादी वाले हिस्से में उसका प्रकाश कम आता है। इसी दौरान धनु में सूर्य का संचार होने पर सर्दी अधिक हाती है जबकि मकर में सूर्य का संचार होने पर सर्दी कम होने लगती है। मकर संक्रांति से गर्मी तेज होने लगती है और हवाएं चलने लगती हैं। बसंत पंचमी से ये हवाएं गर्म होने लगती हैं जिसकी वजह से रक्त संचार बढ जाता है और लोगों को बसंत में स्फूर्ति का अहसास होता है। पेड़ों पर नए पत्ते आने के साथ-साथ फसल पकने की प्रक्रिया भी गर्म हवा लगने से शुरू हो जाती है। इसलिए कृषि के नजरिये से मकर संक्रंति अहम पर्व होता है।

मकर संक्रांति पर्व भारत के अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग नामों से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इसे ‘‘तिलगुल’’ कहा जाता है। महाराष्ट्र में मकर संक्रांति पर लोग सुबह पानी में तिल के कुछ दाने डाल कर नहाते हैं। महिलाएं रंगोली सजाती हैं और पूजा की जाती है। पूजा की थाली में तिल जरूर रखा जाता है। इसी थाली से सुहागन महिलाएं एक दूसरे को कुंकुम, हल्दी और तिल का टीका लगाती हैं। इस दिन तिल के विशेष पकवान भी पकाए जाते हैं। हल्दी कुंकुम का सिलसिला करीब 15 दिन चलता है।

सिख मकर संक्रांति को माघी कहते हैं। इस दिन उन 40 सिखों के सम्मान में सिख गुरूद्वारे जाते हैं जिन्होंने दसवें गुरू गोविंद सिंह को शाही सेना के हाथों पकड़े जाने से बचाने के लिए कुर्बानी दी थी। इस दिन खीर जरूर बनती है। उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद, वाराणसी और हरिद्वार में गंगा के घाटों पर तड़के ही श्रद्धालु पहुंच कर स्नान करते हैं। फिर पूजा की जाती है। उत्तराखंड में इस पर्व की खास धूम होती है। इस दिन गुड़, आटे और घी के पकवान बनाये जाते हैं और इनका कुछ हिस्सा पक्षियों के लिए रखा जाता है।

बिहार में 14 जनवरी को सकरात मनाई जाती है। इस दिन लोग सुबह सवेरे स्नान के बाद पूजा करते हैं तथा मौसमी फल और तिल के पकवान भगवान को अर्पित करते हैं और दही चूड़ा खाया जाता है। इसके अगले दिन यहां मकरात मनाई जाती है जिस दिन खिचड़ी का सेवन किया जाता है। गुजरात में यह पर्व दो दिन मनाया जाता है। 14 जनवरी को उत्तरायण और 15 जनवरी को वासी उत्तरायण। दोनों दिन पतंग उड़ाई जाती है। घरों में तिल की चिक्की और जाड़े के मौसम की सब्जियों को मिला कर एक तरह का पकवान उंधियू बनाया जाता है।

मकर संक्रांति को कर्नाटक में सुग्गी कहा जाता है। इस दिन यहां लोग स्नान के बाद संक्रांति देवी की पूजा करते हैं, जिसमें सफेद तिल खास तौर पर चढाए जाते हैं। पूजा के बाद ये तिल लोग एक दूसरे को भेंट करते हैं। केरल के सबरीमाला में मकर संक्रांति के दिन मकर ज्योति प्रज्ज्वलित कर मकर विलाकू का आयोजन होता है। यह 40 दिन का अनुष्ठान होता है जिसके समापन पर भगवान अयप्पा की पूजा की जाती है। उड़ीसा में मकर संक्रांति को मकर चौला और पश्चिम बंगाल में पौष संक्रांति कहा जाता है। असम में यह पर्व बीहू कहलाता है। यहां इस दिन महिलाएं और पुरूष नए कपड़े पहन कर पूजा करते हैं और ईश्वर से धनधान्य से परिपूर्णता का आशीर्वाद मांगते हैं। गोवा में इस दिन वर्षा के लिए इंद्र देवता की पूजा की जाती है ताकि फसल अच्छी हो।

तमिलनाडु में यह पर्व पोंगल कहलाता है। इस दिन से तमिलों के थाई माह की शुरूआत होती है। इस दिन तमिल सूर्य की पूजा करते हैं और उनसे अच्छी फसल के लिए आशीर्वाद मांगते हैं। यह पर्व राज्य में चार दिन मनाया जाता है। आंध्र प्रदेश में भी यह पर्व चार दिन मनाया जाता है। पहले दिन ‘भोगी’ दूसरे दिन ‘पेड्डा पांडुगा’ (मकर संक्रांति) तीसरे दिन कनुमा और चौथे दिन मुक्कानुमा मनाया जाता है। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में भोगी के दिन घर का पुराना और अनुपयोगी सामान निकाला जाता है और शाम को उसे जलाया जाता है।

Dark Saint Alaick
13-01-2012, 05:50 PM
जन्मदिवस 14 जनवरी पर
कई पीढियों की प्रेरणास्रोत फिल्मी हस्ती थीं दुर्गा खोटे

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14750&stc=1&d=1326462577

हिंदी सिनेमा की शुरूआती सशक्त महिला कलाकारों में से एक दुर्गा खोटे उन हस्तियों में थीं जिन्होंने फिल्म जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी और आने वाली पीढियों की प्रेरणास्रोत बनीं। इससे न सिर्फ पुरूष वर्चस्व वाले फिल्म जगत में महिलाओं की स्थिति बेहतर हुयी बल्कि संभ्रात परिवार की महिलाओं के लिए सिनेमा की राह आसान हो गयी। एक प्रतिष्ठित परिवार में पैदा हुई दुर्गा खोटे ने अभिनय के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया ही, उन्होंने एक और पहल करते हुए स्टूडियो व्यवस्था को भी अस्वीकार कर दिया और एक साथ कई कंपनियों के लिए काम करते हुए हिंदी फिल्मों में फ्रीलांसिंग व्यवस्था को ठोस बनाने में अहम भूमिका निभायी।
फरेबी जाल फिल्म से अभिनय की शुरूआत करने वाली दुर्गा खोटे अयोध्येचा राजा से स्थापित नायिका बन गयीं। यह फिल्म मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं में थी। फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित दुर्गा खोटे का शुरूआती जीवन सुखमय नहीं था और मात्र 26 साल की उम्र में ही उनके पति का निधन हो गया था। अब उन पर अपने दो बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी भी थी। ऐसे में उन्होंने फिल्मों में अभिनय के विकल्प को तरजीह दी।
यह ऐसा दौर था जब कई परिवारों में फिल्मों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। लेकिन दुर्गा खोटे की कामयाबी से कइयों को प्रेरणा मिली और हिंदी फिल्मों से जुड़ी सामाजिक वर्जनाएं टूटने लगीं। दुर्गा खोटे ने एक और पहल करते हुए फिल्म का निर्माण और निर्देशन भी किया। 1940 का दशक उनके लिए विशेष तौर पर अच्छा रहा और इस दौरान बतौर नायिका उनकी कई मराठी और हिंदी फिल्मों को कामयाबी मिली तथा उनके अभिनय की तारीफ की गयी। फिल्मों के साथ साथ वह मराठी रंगमंच से भी जुड़ी रहीं। वह इप्टा से भी सक्रिय रूप से जुड़ी हुयी थीं।
नायिका की भूमिका से अलग होने के बाद वह मां की भूमिकाओं में नजर आने लगीं। के आसिफ की बहुचर्चित फिल्म मुगले आजम हो या राजकपूर की युवा प्रेम पर आधारित बॉबी या भरत मिलाप, चरणों की दासी, मिर्जा गालिब इन सब में उन्होंने सशक्त भूमिका निभायी। अभिनय के अलावा उन्होंने लंबे समय तक लघु फिल्में, विज्ञापन फिल्में, वृत्त चित्रों और धारावाहिकों का भी निर्माण किया। फिल्मों में महिलाओं की राह सुगम बनाने वाली दुर्गा खोटे का 22 सितंबर 1991 को निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
13-01-2012, 05:58 PM
14 जनवरी को पुण्यतिथि पर
ऐतिहासिक पात्रों के जरिये तत्कालीन समस्याओं पर कटाक्ष किए जयशंकर प्रसाद ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14751&stc=1&d=1326463111

‘औरों को हंसते देखो मनु, हंसो और सुख पाओ, अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ ... के जरिये संकीर्ण होते मानवीय नजरिये को व्यापक और सबसे प्रेम, अनुराग करने की अपील करने वाले महाकवि जयशंकर प्रसाद अपने समय की समस्याओं को ऐतिहासिक पात्रों के जरिये बखूबी उठाने के लिए विख्यात रहे हैं और छायावादी कविता में उनका योगदान अतुलनीय है।
खड़ी बोली को कविता की भाषा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले अग्रणी साहित्यकारों में से एक जयशंकर प्रसाद का हिंदी कविता, विशेषकर छायावादी कविता के विकास में योगदान अन्यंतम है। चारों छायावादी कवियों में अगर किसी को अग्रणी के तौर पर माना जा सकता है, तो वह प्रसाद ही हैं। जयशंकर प्रसाद ने स्कंधगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, कामना जैसे चर्चित नाटक लिखे हैं। इन नाटकों को पढने से लगता है कि वह ऐतिहासिक पात्रों के जरिये मानो ब्रिटिश काल के भारत को जगाने की कोशिश कर रहे हैं। खड़ी बोली द्विवेदी युग में ही प्रचलन में आ गई थी, लेकिन काव्यात्मक भाषा के रूप में चरम सफलता छायावाद के दौर में मिली और प्रसाद कृत महाकाव्य कामायनी छायावाद की प्रतिनिधि रचना है।
जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी में 30 जनवरी 1889 को हुआ, जब खड़ी बोली और आधुनिक हिंदी साहित्य अपने किशोरावस्था में था। उनका काव्य संस्कार शुरू से लेकर अंत तक छायावादी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। वह कामायनी जैसी कालजयी रचना में खूबसूरती के साथ मानव मन और मानवता के विकास की कहानी प्रस्तुत करते हैं। इसमें उन्होंने इंसानी प्रवृति और द्वन्द्व का उल्लेख किया है।
इरावती, तितली, कंकाल जैसे उपन्यास और आकाशदीप तथा पुरस्कार जैसी कहानियों के रचयिता प्रसाद ने मौजूदा समस्याओं पर भी बखूबी लिखा है। आज जानवरों को बचाने के लिए अनेक संगठन सक्रिय हैं। गांधीवाद से प्रभावित प्रसाद करूणा और वात्सलय भाव से कामायनी में लिखते हैं, ‘ये प्राणी जो बचे हुए हैं, इस अचला जगती के, उनके कुछ अधिकार नहीं क्या, ये सब हैं फीके।’
प्रसाद के नाटकों पर आक्षेप लगाया जाता है कि वे रंगमंच के हिसाब से नहीं लिखे गए हैं। इसके बारे में कहा जा सकता है कि प्रसाद एक महत्वपूर्ण नाटककार थे। उन्होंने विकसित रंगमंच को ध्यान में रखकर नाटक लिखा है। मंचन योग्य नहीं होने के आरोप उस समय लगाये जाते थे, जब हिंदी रंगमंच समृद्ध नहीं था। आज उनके नाटकों का मंचन सफलतापूर्वक किया जा रहा है। उनका मानना था कि हमारे नाटक हिंदी रंगमंच के लिए लिखे गए हैं, न कि पारसी रंगमंच के लिए। फिर नई पीढी के निर्देशकों ने उनके नाटकों की रंगमंचीय संभावनाओं को अपने प्रयोगों के माध्यम से साकार किया है।

Dark Saint Alaick
13-01-2012, 06:49 PM
मकर संक्राति पर विशेष
पटना में है पतंगों का अनुपम संग्रहालय

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14752&stc=1&d=1326466129

बिहार की राजधानी पटना में पहली बार काइट्स फेस्टिवल (पतंग महोत्सव) का आयोजन राज्य पर्यटन विभाग की ओर से किया जा रहा है। चौदह और पंद्रह जनवरी को गंगा नदी के तट पर होने वाले इस महोत्सव में लोगों को मुफ्त में पतंगें दी जायेंगी। पतंग महोत्सव का सरकारी आयोजन भले ही पहली बार हो रहा हो लेकिन राज्य में इस परंपरा का लुत्फ लोग सदियों से लेते आ रहे हैं। मकर संक्राति के दिन लोग चूड़ा दही खाने के बाद मकानों की छतों तथा खुले मैदानों की ओर दौडे चले जाते हैं और पतंग उडाकर आनंदित होते हैं।
भारत के अलावा चीन, इंडोनेशिया, थाइलैंड, अफगानिस्तान, मलेशिया और जापान जैसे अन्य एशियाई देशों तथा कनाडा, अमेरिका, स्विटजरलैंड, फ्रांस, हालैंड और इंगलैंड आदि देशों में भी पतंग उडाने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। प्रायः यह माना जाता है कि पतंग का आविष्कार ईसा पूर्व चीन में हुआ था। जापान में पतंग उडाना और पतंगोत्सव एक सांस्कृतिक परंपरा है। यहां पतंग तांग शासन के दौरान बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से पहुंची।
भारत में पतंग परंपरा की शुरुआत शाह आलम के समय ।8 वीं सदी में मानी गयी है लेकिन भारतीय साहित्य में पतंगों की चर्चा 13वीं सदी से ही की गयी है। मराठी संत नामदेव ने अपनी रचनाओं में पतंग का जिक्र किया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार पतंगें कागजी परिंदे हैं, जो दिल की धडकनों को डोर के सहारे आसमान में लहराते हैं।
जापानी इनसाइक्लोपीडिया में पतंगों को 'शिरोशी' नाम दिया गया है।शि का अर्थ होता है कागज, जबकि रोशी एक खूबसूरत चिडिया का नाम है। प्राचीन काल में जापान के लोगों में विश्वास था कि पतंगों की डोर वह जरिया है, जो पृथ्वी को स्वर्ग से मिलाती है। चीन के लोगों में विश्वास है कि अगर पतंग उडाकर छोड दी जाए, तो उनका दुर्भाग्य आसमान में गुम हो जायेगा और यदि कोई कटी हुयी पतंग उनके घर में प्रवेश करती है, तो यह उनके लिए शुभ होगा।
जापान का थिरोन ओजोको म्यूजियम विश्व का सबसे बडा पतंग संग्रहालय है। यहां पतंगों की अनेक विलक्षण आकृतियां हैं। कहीं अबाबील पक्षियों की हूबहू आकृति है, तो कहीं पवन चक्की का भ्रम पैदा करने वाले नमूने। कहीं मलेशिया और श्रीलंका के छत्रनुमा दिलकश पतंगों के आकार हैं। ज्यादातर स्थानीय पतंगों पर आकर्षक रंगों के मुखौटे बने होते हैं।
पटना संग्रहालय की एक रोचक बात यह है कि यहां आप पतंगें बनाना सीख सकते हैं। यदि कोई दिक्कत हो, तो यहां मौजूद कुशल प्रशिक्षकों की मदद ली जा सकती है। जापान के थिरोन में हर वर्ष जून में पतंगोत्सव का आयोजन किया जाता है। नाकानोगूजी नदी के दोनों किनारों पर इस खेल का आयोजन किया जाता है। चीन के शांतुग प्रात की राजधानी वेइफांग में 13000 वर्ग फुट क्षेत्र में बना पतंग संग्रहालय स्थापित है। इस संग्रहालय को देखकर ऐसा लगता है कि मानो कोई दैत्य आसमान में उड रहा है। संग्रहालय में पतंगों के अलावा तितलियों, चिडियों और कीटों की आकृतियां है। वर्ष 1984 में यहीं पर पहला अंतर्राष्ट्रीय पतंगोत्सव हुआ था। इसलिए इसे पतंगों की राजधानी भी कहा जाता है।
कलात्मक पतंगों का संग्रह करने के मामले में भारत भी पीछे नहीं है। अहमदाबाद के संस्कार केन्द्र में देश-विदेश की कई बहुमूल्य पतंगें संग्रहित हैं। इनमें ज्यामितीय आकृति का सहारा लेकर करतब दिखाते पशु-पक्षियों की आकृति वाले चित्र, पतंगों पर बेलबूटे का संयोजन किया हुआ है। संग्रहालय को देखकर प्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल ने कहा था कि यह सौन्दर्य का अद्भूत नमूना है। अमेरिकी चित्रकार बोरिस ने कहा था कि यह संग्रहालय मानो आकाश में उडता हुआ प्रतीत होता है।
फ्रांस मे पतंगों की लोकप्रियता को देखते हुये वहां एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन होता है। 'काइट पैशन' नामक इस पत्रिका को श्रेष्ठ प्रकाशन के लिये काइट बेटफोर्ड पुरस्कार से सम्मानित किय जा चुका है। इस पत्रिका में दुनिया भर के पतंग बाजारों उन्हें उडाने और बनाने के तरीकों और पतंगों के अंतर्राष्ट्रीय उत्सव आदि की कई रोचक जानकारियां दी जाती हैं।

Dark Saint Alaick
14-01-2012, 04:43 PM
15 जनवरी को सेना दिवस पर विशेष
सरहद पर तमाम खतरों के बावजूद हौसले बुलंद हैं रणबांकुरों के

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14754&stc=1&d=1326545014

आतंकवादियों और परमाणु हथियारों से लैस चीन एवं पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों की तरफ से उठ रहे तमाम खतरों के बावजूद भारतीय सेना के जवान पूरे जोश के साथ सरहद पर दिन रात देश की सुरक्षा में मुस्तैद खड़े हैं। रक्षा मामलों के विशेषज्ञ मेजर जनरल दीपांकर बनर्जी ने बताया कि जवानों के लिहाज से भारतीय थल सेना दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी थल सेना है । इसमें करीब 12 लाख जवान कार्यरत हैं । इससे ज्यादा सैनिक केवल चीन की सेना में हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘अंग्रेजों के भारत छोड़ देने के बाद 15 जनवरी वर्ष 1948 को लेफ्टिनेंट जनरल के एम करियप्पा भारतीय सेना के पहले भारतीय कमांडर इन चीफ बने । जनरल करियप्पा के कमांडर इन चीफ बनने के साथ ही सेना पूरी तरह से भारतीय सेना बन गई । वे बाद में भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल बनाये गये। लेफ्टिनेंट जनरल के एम करियप्पा के कमांडर इन चीफ बनने की याद में आज के दिन को सेना दिवस के रूप में मनाया जाता है । आज के दिन हरेक पलटनों में छुट्टी होती है। इस दिन की शुरूआत इंडिया गेट स्थित अमर जवान ज्योति पर शहीद जवानों को श्रद्धाजंलि देने के साथ होती है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘देश के विभिन्न हिस्सों में सेना के जवान परेड करते हैं और सेना की ताकत का प्रदर्शन किया जाता है । सबसे बड़ी परेड दिल्ली छावनी इलाके में निकाली जाती है । सैन्य मोर्चे पर वीरतापूर्ण प्रदर्शन करने वाले और अच्छे आचरण करने वाले सैन्यकर्मियों को आज के दिन सेना मैडल देकर सम्मानित किया जाता है।’’
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ भारत वर्मा का मानना है कि भारतीय सेना का बहुत गौरवपूर्ण इतिहास रहा है लेकिन आज यह आंतरिक और बाह्य चुनौतियों से जूझ रही है। उन्होंने कहा कि आतंरिक स्तर पर जहां सेना को आधुनिकतम हथियार नहीं मिल पा रहे हैं वहीं सेना को रक्षा मंत्रालय से भी आवश्यक समर्थन नहीं मिल रहा है। वर्मा ने कहा, ‘‘भारतीय सेना में युवा अधिकारियों की कमी है और करीब 14 हजार पद खाली चल रहे हैं । इसी तरह आधुनिक हथियार और सैन्य साजो सामान नहीं मिलने से इसके असफल होने की संभावना बढती जा रही है । नक्सली भी देश की सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा बन गये हैं। बाहरी चुनौतियों में चीन एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है जिसकी तैयारी चार से पांच गुना ज्यादा है। चीन हमारे 90 हजार किलोमीटर क्षेत्र पर अपना दावा करता है । वे कभी भी कारगिल की तरह भारतीय क्षेत्र विशेषकर अरूणाचल प्रदेश के तवांग में कब्जा कर उसे अपना बना सकते हैं और ऐसे में भारतीय सेना की स्थिति चीन के खिलाफ कमजोर होगी।’’
वर्मा ने कहा कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान से विदेशी सेनायें वापस जा रही हैं । इस स्थिति का फायदा उठाते हुए चीन वहां अपना प्रभाव लगातार बढाता जा रहा है। पाकिस्तान में अब ‘अल्लाह, आर्मी और चीन’ का गुट बन रहा है। उन्होंने कहा कि देश की सुरक्षा को मजबूत करने के लिये हमें योजनाबद्ध तरीके से तीनों सेनाओं का आधुनिकीकरण करना होगा। इसी तरह सीमाई इलाकों में आधारभूत ढांचे को मजबूत करना होगा तभी हम पाकिस्तान, चीन और नक्सलियों की चुनौती से निपट पायेंगे।

Dark Saint Alaick
14-01-2012, 04:52 PM
15 जनवरी को 'हैट डे' पर
सर्दी ने बना दिया हैट को आम लोगों की जरूरत

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14755&stc=1&d=1326545531

दिल्ली की सर्दी ने हैट को फैशन की श्रेणी से आम लोगों की जरूरत में तब्दील कर दिया है और मांग के मुताबिक चलन में आ रहे तरह तरह के हैट मानों सर पर चढ कर इतराते लगते हैं। फैशन डिजाइनर अंबर परिधि सहाय ने कहा, ‘‘फैशन में बदलाव आने के साथ ही हैट लोकप्रिय हो गया है। ठंड तो इन दिनों तेज है ही। लॉन पार्टी में गाउन के साथ हैट पहनने से लुक निखरा हुए लगता है। हैट को किसी भी तरह की ड्रेस के साथ मैच किया जा सकता है। इसके लिए खास गाउन पहनने की जरूरत नहीं है।’’
गुडगांव के हैट डिजाइनर अमितेश शर्मा का कहना है, ‘‘हमारे देश में हैट की मांग बहुत कम रही है। यही वजह है कि हैट डिजाइनर्स भी बहुत कम हैं। कुछ लोग जो हैट पहनते भी हैं वे या तो विदेशों से मंगवाते हैं या खुद डिजाइन करवाते हैं, लेकिन अब फिल्मों, टीवी के धारावाहिकों के अलावा बड़े और मध्यम शहरों में हैट अपनी मौजूदगी जरूर दिखा रहे हैं।’’
हैट डे ब्रिटेन, फ्रांस और कुछ अन्य पश्चिमी देशों में मनाया जाता है। भारत में ऐसे किसी दिन का चलन नहीं है। मगर कभी रसूख वालों की पसंद रहा हैट आज आम लोगों की भी पसंद बन चुका है और बाजार में मौजूद तरह तरह के हैट इनकी बढती लोकप्रियता तथा सामयिकता बताते हैं। फिलहाल दिल्ली के मौसम को देख कर कहा जा सकता है कि शीतलहर और ठंड ने हैट का बाजार गर्म कर दिया है।
बाजार में हैट की अच्छी रेंज उपलब्ध है। इसमें सर्दियों में पहनने के लिए बने गर्म हैट-कैप से लेकर फैंसी डिजाइनर हैट शामिल हैं। राजधानी की शीतलहर और ठंड हैट के बाजार को गर्म कर रही है। नोएडा के हैट डिजाइनर आशुतोष ने कहा, ‘‘हमारे देश में लोग हैट को फैशन या ट्रेंड नहीं मानते। वैसे आजकल फ्रंट हैट का चलन है। यह पीछे से घुमावदार और आगे से हल्का निकला हुआ होता है। लड़कियों को फुल हैट भी पसंद आ रहा है। इसे कभी भी पहना जा सकता है। हैट पहनना न सिर्फ आपको ट्रेंडी लुक देता है बल्कि इससे आप थोड़े अलग भी दिखते हैं।’’
उन्होंने कहा ‘‘यह सही है कि हमारे यहां हैट अपर क्लास के लोग ही पहनते थे। मगर अब कॉलेज के छात्रों को हैट लगाए देखा जा सकता है। इससे आप न सिर्फ सभी से अलग दिखते हैं बल्कि आपके बाल सुरक्षित रहते हैं और धूप से भी बचाव होता है। इन दिनों हैट की मांग है। हालाकि इसकी तुलना में टोपी ठंड से अधिक बचाव करती है, लेकिन कॉलेज के युवाओं की पसंद हैट है। ऊनी हैट तो हाथों हाथ लिए जा रहे हैं।’’

Dark Saint Alaick
16-01-2012, 01:08 AM
आज पुण्यतिथि पर

चार्ल्स डिकन्स के उपन्यास से प्रेरित होकर फिल्म निर्देशक बने थे तपन सिन्हा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14762&stc=1&d=1326661611

दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित बंगाली सिनेमा के प्रसिद्ध फिल्मकार तपन सिन्हा अंग्रेजी के लेखक चार्ल्स डिकन्स के प्रसिद्ध उपन्यास ‘अ टेल ऑफ़ थ्री सिटीज’ और इसी पर बनी अभिनेता रोनाल्ड कॉलमन की फिल्म से प्रेरित होकर फिल्म निर्देशक बने थे। दो अक्टूबर, 1924 को कोलकाता में जन्मे तपन सिन्हा 1950 में फिल्म निर्माण की पढाई करने लंदन गये और वहां ब्रिटिश एवं अमेरिकी सिनेमा को करीब से जाना। तपन दा के नाम से लोकप्रिय यह चितेरा जॉन फोर्ड, कैरोल रीड और बिली विल्डर जैसे फिल्मकारों से प्रभावित हुआ।

वह बंगाली सिनेमा के पहले कतार के फिल्म निर्देशकों में आते हैं। उन्हें सत्यजीत रे और मृणाल सेन जैसे फिल्मकारों की श्रेणी में रखा जाता है। उन्होंने फिल्म निर्देशन के अलावा अपनी कई फिल्मों के लिए संगीत रचना, पटकथा लेखन और छायांकन का भी काम किया। तपन दा को फिल्म ‘काबुलीवाला’ से राष्ट्रीय पहचान मिली। उनका फिल्मी करियर उपलब्धियों से भरा है। उन्होंने रिकार्ड 19 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। वह ताशकंद और सैन फ्रांसिस्को फिल्म समारोह में ज्यूरी सदस्य भी रहे। तपन दा ने कई प्रसिद्ध कलाकारों को अपनी फिल्मों में मौका दिया। इनमें मनोज मित्रा, राधामोहन भट्टाचार्य, काली बनर्जी, देविका मुखर्जी, तनुजा, अर्पणा सेन और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नाम शामिल हैं।

तपन दा पर रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं का भी गहरा प्रभाव पड़ा था। टैगोर की कई रचनाओं पर उन्होंने फिल्में भी बनायी, जिनमें 1957 में आयी फिल्म ‘काबुलीवाला’ शामिल है। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार और सातवें बर्लिन फिल्म समारोह का सिल्वर बीयर ज्यूरी पुरस्कार मिला था। तपन दा ने बांग्ला फिल्मों के अलावा हिन्दी और उड़िया में भी फिल्में बनायीं। उनकी प्रसिद्ध फिल्मों में ‘अंकुश’, ‘आरोही’, ‘अतिथि’, ‘उपहार’, ‘काबुलीवाला’, ‘गाल्पो होलो सत्यी’ और ‘सगीना महतो’ जैसी फिल्में शामिल हैं।

तपन दा ने हिन्दी में ‘जिंदगी-जिंदगी’, ‘एक डॉक्टर की मौत’, ‘आदमी और औरत’, ‘सफेद हाथी’, ‘आतंक’ और ‘आज का रॉबिनहुड’ जैसी फिल्में बनायी। बंगाली में बनी उनकी कई फिल्मों का हिन्दी में रीमेक बनाया गया। उनकी फिल्म ‘अपन जन’ पर गुलजार ने ‘मेरे अपने’, ‘गाल्पो होलो सत्यी’ पर रिषिकेश मुखर्जी ने ‘बावर्ची’ जैसी फिल्में बनायीं। तपन दा की कई फिल्मों ने बर्लिन, लोकार्नो, मॉस्को, सोल जैसे कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कार जीते। फिल्मों के अलावा तपन दा ने कई वृत्तचित्रों, टीवी धारावाहिकों और टेलीफिल्मों का भी निर्देशन किया। 2008 में सिनेमा में उनके योगदान के लिए उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 15 जनवरी 2009 को 84 वर्षीय तपन दा का निधन हो गया और उनके पीछे सिनेमा की एक अनमोल विरासत रह गयी।

Dark Saint Alaick
16-01-2012, 01:18 AM
लगातार घट रही है जनजातियों की संख्या

अंडमान निकोबार द्वीप समूह में अलग-अलग टापुओं पर जंगलों में समूह बना कर रहने वाली जनजातियों का अन्य समुदायों और प्रशासन से बहुत सीमित संपर्क है और इसी वजह से भोजन और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के अभाव में इन समुदायों की आबादी लगातार घट रही है। अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष डा. रामेश्वर उरांव ने बताया कि अंडमान निकोबार द्वीपसमूह पर रहने वाले आदिवासियों के लिए खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना असली चुनौती है, क्योंकि उनका प्रशासन से संपर्क बहुत ही सीमित है। उन्होंने कहा कि ये आदिवासी अपने क्षेत्रों में अधिकारियों को घुसने की इजाजत नहीं देते और कोई अगर घुसना चाहे, तो उस पर तीर चला देते हैं। उरांव ने पिछले महीने एक सप्ताह अंडमान निकोबार द्वीपसमूह पर अलग-अलग टापुओं पर जाकर हालात का जायजा लिया था। इस दौरान उनके साथ आयोग के दो अन्य सदस्य, स्थानीय प्रशासन के अधिकारी और जारवा समुदाय की बोली से परिचित दुभाषिया शामिल थे।
उरांव ने कहा कि जिन जारवा आदिवासियों की चर्चा इन दिनों मीडिया में हो रही है, ताजा जनगणना के अनुसार, उनकी संख्या लगभग 381 है, जबकि इनसे सटे एक अन्य टापू पर रहने वाले ग्रेट अंडमानी जनजाति के लोगों की आबादी लगभग 97 रह गई है। इनकी संख्या लगातार घट रही है, क्योंकि स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह से उन तक नहीं पहुंच पा रही हैं। किसी आदिवासी के बीमार होने पर उसकी इलाज के अभाव में मौत हो जाती है। अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष उरांव ने कहा कि इन आदिवासियों की त्वचा बहुत संवेदनशील है और बाहरी लोगों के अधिक संपर्क में आने पर उन्हें रोग हो जाते हैं, क्योंकि उनकी रोगों से मुकाबले के लिए प्रतिरोधक क्षमता हमारे मुकाबले बहुत कम होती है। इन बातों को ध्यान में रख कर कानून ने और अदालत ने इन समुदायों के संरक्षण के लिए कड़े दिशा-निर्देश दिए हैं। गौरतलब है कि नग्न नृत्य करते हुए इन आदिवासियों के वीडियो के कारण पिछले दिनों जारवा जाति चर्चा में आई थी। उरांव ने कहा कि पिछले महीने अंडमान के दौरे पर उनका स्थानीय प्रशासन की मदद से जारवा समुदाय के दो लड़कों और दो लड़कियों से संपर्क हुआ था। उनसे मिल कर यह स्पष्ट हुआ कि पहले निर्वस्त्र रहने वाले इस समुदाय ने अब थोड़े बहुत कपड़े पहनने या पत्ते लपेटने शुरू कर दिए हैं। हाल ही सामने आए वीडियो फुटेज के बारे में उरांव ने कहा कि पोर्ट ब्लेयर से शुरू होने वाले अंडमान ट्रंक मार्ग से गुजरते समय पहले पर्यटक बीच में ही उतर कर जारवा समुदाय से मिलने या उन तक पहुंचने का प्रयास करते थे, लेकिन अब इस मार्ग पर बीच में उतरने पर रोक लगा दी गई है।
उरांव ने कहा कि यह वीडियो फुटेज कितना पुराना या नया है, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता और हमने अंडमान निकोबार द्वीपसमूह सरकार से इस पूरे मामले में दस दिन के भीतर रिपोर्ट मांगी है। लंदन स्थित अखबार आब्जर्वर ने हाल ही अर्द्धनग्न जारवा आदिवासी महिलाओं को नृत्य करते हुए दिखाने वाले वीडियो फुटेज जारी किए थे, जिससे खासा विवाद पैदा हो गया है। इस प्रकरण के बाद केंद्र सरकार ने भी मामले की जांच के आदेश दिए हैं और पुलिस भी वीडियो फिल्माने वाले अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर चुकी है। आदिवासी मामलों के मंत्री वी. किशोर चंद्र देव कहा है कि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के जारवा आदिवासी समुदाय को ‘दयनीय स्थिति’ में छोड़ने के बजाय उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के लिए कदम उठाए जाएंगे। उन्होंने कहा कि आदिवासियों को विकास के लाभ मिलने चाहिए, लेकिन जारवा समुदाय सहित अन्य समूहों के साथ विचार-विमर्श करने की जरूरत है, ताकि उन्हें मुख्यधारा में लाया जा सके।

Dark Saint Alaick
16-01-2012, 01:21 AM
कमला की यात्रा से ‘जिनोलॉजिकल टूरिज्म’ को बल मिलने की संभावना

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14763&stc=1&d=1326662493

बिहार के बक्सर जिले में अपने पैतृक गांव भेलूपुर में त्रिनिदाद एवं टोबैगो की प्रधानमंत्री कमला प्रसाद बिसेसर का जिस प्रकार गर्मजोशी से स्वागत और सम्मान किया गया है, उससे अपनी जड़ों की खोज में पूर्वजों की धरती भारत आने वाले पर्यटकों यानी ‘जिनोलाजिकल टूरिज्म’ (वंशावली पर्यटन) की संभावनाएं फिर बढ़ गई हैं। बीते 11 जनवरी को कमला प्रसाद बिसेसर के स्वागत में बक्सर ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश से भी बड़ी संख्या में प्रशंसक भेलूपुर गांव पहुंच गये थे। कमला के साथ दल में आये अनेक लोगों के भी पूर्वज भारत के ही हैं। हालांकि वहां रह रहे कई लोगों को पता नहीं है कि उनकी जड़ें कहां हैं। वंशावली वृक्ष और प्रवासियों की जड़ों पर काम करने वाले और ऐतिहासिक दस्तावेज के माध्यम से प्रधानमंत्री के भेलूपुर गांव का पता लगाने वाले शमसुद्दीन के अनुसार विदेशों में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के प्रवासी (पीआइओ) रहते हैं, इसलिए जिनोलॉजिकल टूरिज्म की अपार संभावनाएं हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश मूल के बड़ी संख्या में लोग त्रिनिदाद में रहते हैं। कमला प्रसाद बिसेसर ने भी अपने देश के लोगों से अपील की कि वे अपनी जड़ों का पता लगाएं। इससे अद्भुत संतोष मिलता है। बीते 11 जनवरी को गांव में करीब एक लाख लोगों की भारी भीड़ को संबोधित करते हुए बिसेसर ने कहा कि आप अपनी जड़ों को नहीं जानते तो भविष्य की दिशा भी नहीं तय हो पाती है।
शमसुद्दीन ने कहा कि अपनी जड़ों की तलाश में आने वाले प्रवासी भारतीयों को भारत में जो सम्मान मिलता है, वह उन्हें अभिभूत करने वाला होता है। साहित्य के लिए 2001 में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले प्रवासी भारतीय वी. एस. नायपाल को भी कमला प्रसाद बिसेसर की तरह ही देश में सम्मान मिला था। वह त्रिनिदाद के निवासी हैं जिनके पुरखे वर्षों पहले गिरमिटिया मजदूर के रूप में त्रिनिदाद जाकर बस गये थे। त्रिनिदाद एवं टोबैगो की वर्तमान प्रधानमंत्री बिसेसर के साथ आये विदेश मंत्री सूरजरतन रामवचन के भी पुरखे उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से गये थे। रामवचन ने कहा कि मैं गांव के लोगों की भारी संख्या को देखकर अभिभूत हूं। यह मेरी सातवीं यात्रा हैं। इस तरह के सम्मान की ख्वाहिश हर किसी की होगी। वहीं बिसेसर ने अपने पूर्वजों का आभार जताते हुए कहा कि आज मैं जो भी हूं वह अपनी आनुवांशिक संरचना (जेनेटिक मेकअप) और डीएनए की बदौलत हूं। पूर्वजों की संस्कृति को कैरेबियाई द्वीप में जीवित रखा गया है। कमला बिसेसर के परदादा भवानी स्वरूप को अंग्रेज गिरमिटिया मजदूर के रूप में जहाज से त्रिनिदाद एवं टोबैगो ले गए थे।
प्रधानमंत्री के सलाहकार देवेंद्रनाथ टांकू के पूर्वज भी भारत से थे। टांकू को पता नहीं है कि उनके पूर्वज भारत में किस प्रदेश से संबंध रखते थे। टांकू ने बताया कि अपनी दादी से मैंने लीपे हुए घर के बारे में सुना है। काश मुझे भी पता होता कि मेरे पूर्वज किस प्रदेश से त्रिनिदाद गए थे। कमला बिसेसर से पहले भी त्रिनिदाद एवं टोबैगो के पूर्व प्रधानमंत्री वासुदेव पांडेय अपने पूर्वजों के घर उत्तर प्रदेश आ चुके हैं। इसी प्रकार मॉरीशस के पूर्व राष्ट्रपति कासिम उतिम भी अपनी जड़ों की तलाश में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ आए थे और लोगों से भोजपुरी में बातचीत की थी। इस प्रकार की सूची में मारीशस के पूर्व राष्ट्रपति शिवसागर रामगुलाम और अनिरुद्ध जगन्नाथ का भी नाम है।

Dark Saint Alaick
16-01-2012, 01:23 AM
सलाखों के पीछे से चुनाव जीतने की कवायद

भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ समाजसेवी अन्ना हजारे की मुहिम के बीच उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में कई बाहुबली जेल की सलाखों के पीछे से चुनावी जंग में अपनी ताकत दिखाने की फिराक में हैं। ‘नेशनल इलेक्शन वाच’ की ओर जारी किए गए आकंड़ों पर अगर नजर डालें, तो अपराधियों को टिकट देने में सभी राजनीतिक दल शामिल हैं, जिन्होंने प्रदेश में अब तक घोषित 617 प्रत्याशियों में से कम से कम 77 ऐसे प्रत्याशी उतारे हैं, जिनके खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और डकैती जैसे संगीन मामलों में मुकदमे दर्ज हैं। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, अब तक 69 उम्मीदवार ऐसे भी हैं, जो जेल की सलाखों के पीछे से प्रदेश में सियासी बिसात पर गोटियां बिठाने की कोशिश कर रहे हैं और इस होड़ में प्रदेश का पूर्वांचल का इलाका सबसे आगे है। अपराधियों की इन गतिविधियों पर जहां चुनाव आयोग ने इन सीटों पर अपनी नजरें और पैनी कर दी हैं, वहीं ये बाहुबली भी आयोग और पुलिस प्रशासन को धता बताने की कोशिश कर रहे हैं। प्रदेश में पूर्वांचल के मतदाताओं के सामने इस बार गम्भीर संकट है। यहां पर कुछ विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां लोगों को बाहुबली उम्मीदवारों में से ही किसी एक को चुनना होगा, क्योंकि उन पर कई बाहुबली आमने-सामने हैं।
जेल में बंद मुन्ना बजरंगी, बृजेश सिंह, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले अनेक लोग इस बार भी चुनाव मैदान में हैं। बृजेश सिंह प्रगतिशील मानव समाज पार्टी से उम्मीदवार है और इस समय जेल में है, लेकिन उसके चुनाव प्रचार का जिम्मा उसके सहयोगियों ने संभाल रखा है। बृजेश सिंह पकड़ी नरसंहार, मुम्बई के जेडे हत्याकांड समेत अनेक मामलों में आरोपी है। अपराध की दुनिया का एक और कुख्यात नाम प्रेमप्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी अपना दल के टिकट पर जौनपुर की मड़ियाहू विधानसभा क्षेत्र से प्रदेश के चुनावी जंग में उतरा हुआ है। बजरंगी भाजपा विधायक कृष्णानंद राय सहित दस से ज्यादा लोगों की हत्या का आरोपी है और इस समय फिलहाल दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है। बजरंगी के समर्थक विधानसभा क्षेत्र में जोर शोर से चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं, तो वहीं अपना दल से एक और आपराधिक पृष्ठभूमि वाला उम्मीदवार अतीक अहमद विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहा है, जो दर्जन भर मामलों में आरोपी है। हत्या समेत कई संगीन अपराधों में आरोपी निर्दलीय विधायक मुख्तार अंसारी इस बार मउ विधानसभा क्षेत्र से कौमी एकता दल के उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में है। अंसारी पर कई अपराधिक मामले दर्ज हैं और इस समय वह भी जेल में बंद है।
राज्य की बसपा सरकार में मंत्री नंदगोपाल नंदी पर जानलेवा हमला करने के आरोपी भदोही के विधायक विजय मिश्र को समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर अपना उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस ने गाजीपुर के जमानिया क्षेत्र से कलावती बिंद को उम्मीदवार बनाया है, जो करीब एक साल पहले जमानिया में एक पुलिस चौकी में आगजनी तथा चौकी प्रभारी की मौत के मामले में जेल में बंद है। इसके अलावा कांग्रेस ने गाजीपुर के ही जंगीपुर से शैलेष कुमार सिंह को टिकट दिया है। एक थाने में आगजनी और पथराव के आरोपी सिंह गैंगस्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में निरुद्ध है।

Dark Saint Alaick
16-01-2012, 03:11 AM
16 जनवरी को जन्मदिन पर
कई कलाकारों के करियर को नयी ऊंचाई दी ओ. पी. नैयर ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14770&stc=1&d=1326669052

अपनी शर्तों पर जीवन जीने वाले ओ. पी. नैयर हिंदी सिनेमा के उन दिग्गज संगीतकारों में से एक थे जिन्होंने 1950 और 60 के दशक में न सिर्फ अपनी अलग पहचान बनायी बल्कि कई कलाकारों के करियर को नयी ऊंचाई दी।

अपने संगीत के मामले में बेहद अनुशासित ओ.पी. नैयर ने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली थी लेकिन उन्होंने अपने कई गानो में विभिन्न रागों का बेहतरीन इस्तेमाल किया। उनके कई ऐसे गाने आज भी काफी सुने जाते हैं। ओ.पी. नैयर ने रूमानी गीतों को नया आयाम दिया। दिलचस्प है कि उन्होंने आपसी अनबन के कारण कभी भी प्रसिद्ध पार्श्वगायिका लता मंगेशकर के साथ काम नहीं किया। हालांकि उन्होंने गीता दत्त, आशा भोंसले, शमशाद बेगम जैसी गायिकाओं की आवाज का बेहतरीन इस्तेमाल किया। उनके गानों में पंजाबी लोकशैली और घोड़े की टापों वाली धुनों ने लोगों को जैसे बांध ही लिया तथा गानों की लोकप्रियता ने सीमाओं को तोड़ दिया।

गुरूदत्त की फिल्म आर पार उनकी शुरूआती सफल फिल्मों में थी। इसकी कामयाबी ने उन्हें अग्रिम पंक्ति के संगीतकारों की सूची में शामिल कर दिया। इसके फिल्म के कई गीत जैसे बाबू जी धीरे चलना, सुन सुन जालिमा, ये लो मैं हारी पिया, कभी आर कभी पार आदि आज भी शिद्दत से सुने जाते हैं। ओपी नैयर की धुनों में आशा भोंसले की आवाज निखर कर सामने आयी और दोनों की जोड़ी ने एक से बढकर एक लोकप्रिय गाने दिए।

गुरूदत्त के लिए उन्होंने आगे मिस्टर एंड मिसेज 55, सीआईडी जैसी फिल्मों में भी संगीत दिया जिनके गाने काफी लोकप्रिय हुए। 1957 में आयी तुमसा नहीं देखा हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुयी। इससे एक ओर शम्मी कपूर के करियर को नयी दिशा मिली वहीं हिंदी सिनेमा में गाने की एक नयी शैली विकसित हुयी। यह शैली बाद में कश्मीर की कली, मेरे सनम, फिर वही दिल लाया हूं जैसी फिल्मों में भी दिखी। बी आर चोपड़ा की फिल्म नया दौर में भी ओपी नैयर का संगीत था। उड़े जब जब जुल्फें तेरी, ये देश है वीर जवानों जैसे इसके कई गाने भी काफी लोकप्रिय हुए।

बाद के दिनों में उनके गानों को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली और धीरे धीरे फिल्मी जगत से अलग हो गए। फिल्मों से अलग होने के बाद वह कुछ ही मित्रों के संपर्क में रहे। अंतिम दिनों में वह अपने परिवार से भी नाराज हो गए। हिंदी सिनेमा के संगीत को नयी उंचाई देने में अहम भूमिका निभाने वाले संगीतकारों में से एक ओपी नैयर का 28 जनवरी 2007 को निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
17-01-2012, 04:56 PM
पुण्यतिथि 18 जनवरी पर विशेष
भारतीय सिनेमा के पहले महानायक थे सहगल

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14786&stc=1&d=1326804960

भारतीय सिनेमा के पहले महानायक का दर्जा प्राप्त कुंदनलाल सहगल के गाए गीतों से संगीत जगत की आभा आज भी कुंदन की तरह चमक रही है। 11 अप्रैल 1904 को जम्मू क्षेत्र के नवाशहर में रियासत के तहसीलदार अमरचंद सहगल के घर जब कुंदन का जन्म हुआ था, तब तो पिता ने यह कभी नहीं सोचा होगा कि उनका पुत्र अपने नाम को सार्थक करते हुए वाकई एक दिन कुंदन की तरह ही चमकेगा। सहगल ने अपने दो दशक के लंबे सिने कैरियर में महज 185 गीत ही गाए। इनमें 142 फिल्मी और 43 गैर फिल्मी गीत शामिल हैं, लेकिन उन्हें जितनी ख्याति प्राप्त हुई, उतनी हजारो गीत गाने वाले गायको को भी नसीब नहीं हुई।
बचपन से ही उनका रूझान गीत-संगीत की ओर था। उनकी मां केसरीबाई कौर धार्मिक कार्यकलापों के साथ-साथ संगीत में भी काफी रूचि रखती थी। सहगल अक्सर मां के साथ भजन-कीर्तन जैसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाया करते थे और अपने शहर में हो रही रामलीला के कार्यक्रमों में भी हिस्सा लिया करते थे। उन्होंने किसी उस्ताद से संगीत की शिक्षा नहीं ली थी। सबसे पहले उन्होंने संगीत के गुर एक सूफी संत सलमान यूसुफ से सीखे थे। बचपन से ही एक बार सुने हुए गानों के लय को वह बारीकी से पकड़ लेते थे।
सहगल की प्रारंभिक शिक्षा बहुत ही साधारण तरीके से हुई थी। उन्हें पढ़ाई बीच मे ही छोड़ देनी पड़ी और जीवन यापन के लिए उन्होंने रेलवे मे टाइमकीपर की मामूली नौकरी भी की थी। उन्होंने रेमिंगटन नामक टाइप मशीन की कंपनी में सेल्समैन की नौकरी भी की। वर्ष 1930 में कलकत्ता (अब कोलकाता) के न्यू थियेटर के बी.एन. सरकार ने उन्हें 200 रुपए मासिक पर अपने यहां काम करने का मौका दिया। वहां उनकी मुलकात संगीतकार आर.सी. बोराल से हुई, जो सहगल की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए। धीरे-धीरे सहगल न्यू थियेटर में अपनी पहचान बनाते चले गए।
शुरूआती दौर में बतौर अभिनेता वर्ष 1932 में प्रदर्शित एक उर्दू फिल्म 'मोहब्बत के आंसू' में उन्हें काम करने का मौका मिला। वर्ष 1932 में ही बतौर कलाकार उनकी दो और फिल्में 'सुबह का सितारा' और 'जिंदा लाश' भी प्रदर्शित हुई, लेकिन इन फिल्मों से उन्हें कोई खास पहचान नहीं मिली। वर्ष 1933 में प्रदर्शित फिल्म 'पुराण भगत' की कामयाबी के बाद बतौर गायक सहगल कुछ हद तक फिल्म उद्योग में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इसके साथ वर्ष 1933 में ही प्रदर्शित फिल्म 'यहूदी की लडकी', 'चंडीदास' और 'रूपलेखा' जैसी फिल्मों की कामयाबी से उन्होंने दर्शकों का ध्यान अपनी गायकी और अदाकारी की ओर आकर्षित किया।
वर्ष 1935 में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित पी.सी. बरूआ निर्देशित फिल्म 'देवदास' की कामयाबी के बाद बतौर गायक-अभिनेता सहगल शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुंचे। इस फिल्म में उनके गाए गीत काफी लोकप्रिय हुए। इस बीच सहगल ने न्यू थियेटर निर्मित कई बांग्ला फिल्मों में भी काम किया। वर्ष 1937 में प्रदर्शित बांग्ला फिल्म 'दीदी' की अपार सफलता के बाद सहगल बांग्ला परिवारों में हृदय सम्राट बन गए। उनका गायन सुनकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था, "सुंदर गला तोमार, आगे जानले कतो ना आंनद पैताम।" अर्थात आपका सुर कितना सुंदर है, पहले पता चलता तो और भी आनंद होता।
बांग्ला फिल्मों के साथ-साथ न्यू थियेटर के लिए उन्होंने 1937 में 'प्रेसीडेंट', 1938 में 'साथी' और 'स्ट्रीट सिंगर' तथा 1940 में 'जिंदगी' जैसी कई कामयाब फिल्मों को अपनी गायकी और अदाकारी से सजाया। वर्ष 1941 में सहगल बम्बई के रणजीत स्टूडियो से जुड़ गए। वर्ष 1942 में प्रदर्शित उनकी फिल्म 'सूरदास' और 1943 में फिल्म 'तानसेन' ने बाक्सऑफिस पर सफलता का नया इतिहास रचा। इस बीच वर्ष 1944 में उन्होंने न्यू थियेटर की ही निर्मित फिल्म 'मेरी बहन' में भी काम किया। फिल्म 'मेरी बहन' का गाया उनका गीत 'दो नैना मतवारे' सिने दर्शक आज भी नहीं भूल पाए हैं। वर्ष 1946 में सहगल ने संगीत सम्राट नौशाद के संगीत निर्देशन में फिल्म 'शाहजहां' में 'गम दिए मुस्तकिल' और 'जब दिल ही टूट गया' जैसे गीत गाकर अलग समां बांधा।
अपने दो दशक के सिने कैरियर में सहगल ने 36 फिल्मों में अभिनय भी किया। हिंदी फिल्मों के अलावा उन्होंने उर्दू, बांग्ला और तमिल फिल्मों में भी अभिनय किया। सहगल की मौत के बाद बी.एन. सरकार ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र 'अमर सहगल' का निर्माण किया। इस फिल्म में सहगल के गाए गीतों में से 19 गीत को शामिल किया गया। अपनी जादुई आवाज और उत्कृष्ट अभिनय से सिने प्रेमियों के दिल पर राज करने वाले सहगल 18 जनवरी 1947 को इस दुनिया को महज 43 वर्ष की उम्र में अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
18-01-2012, 04:23 PM
रांगेय राघव की जयंती पर
रांगेय राघव जैसे प्रतिभावान हिंदी में कम ही हैं : राजेंद्र यादव

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14787&stc=1&d=1326889415

रांगेय राघव जैसे प्रतिभावान हिंदी में बेहद कम हैं। उनका रचना संसार इतना विस्तृत है कि उनकी तुलना सिर्फ राहुल सांस्कृत्यायन से की जा सकती है। यह कहना है कथाकार, बुद्धिजीवी राजेंद्र यादव का। उन्होंने कहा, ‘‘रांगेय राघव की तुलना हिंदी संसार में सिर्फ राहुल जी (राहुल सांकृत्यायन) से की जा सकती है लेकिन उन्हें तो उम्र भी बहुत मिली थी। रांगेय राघव ने मात्र 39 साल की उम्र में उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, रिपोर्ताज जैसी विविध विधाओं में करीब 150 कृतियों को अंजाम दिया।’’
यादव ने कहा, ‘‘उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही कमाल था कि सुबह यदि वे आद्यैतिहासिक विषय पर लिख रहे होते थे तो शाम को आप उन्हें उसी त्वरा से आधुनिक इतिहास पर टिप्पणी लिखते देख सकते थे।’’ यादव ने कहा कि तमिल कुल में जन्म लेकर उन्होंने उत्तर भारत पर सांस्कृतिक विजय पाई। रांगेय राघव तिरूपति के पुजारी परिवार से थे और भरतपुर (राजस्थान) के महाराज के उनके पूर्वजों ने उनको अपने यहां आमंत्रित किया था। इस पर उन्हें गर्व भी था जिसका जिक्र उन्होंने अपनी कविता ‘मैं पुरातन कुल में जात हुआ’ में किया है।
उनका जन्म हालांकि आगरा में 17 जनवरी 1923 को हुआ था और उन्होंने गोरखनाथ पर अनुसंधान किया था। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक विभास चन्द्र वर्मा ने कहा कि आगरा के तीन ‘र‘ का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है और ये हैं रांगेय राघव, रामविलास शर्मा और राजेंद्र यादव। वर्मा ने कहा कि रांगेय राघव हिंदी के बेहद लिखाड़ लेखकों में शुमार रहे हैं। उन्होंने करीब करीब हर विधा पर अपनी कलम चलाई और वह भी बेहद तीक्ष्ण दृष्टि के साथ। उनकी रचनाओं में स्त्री पात्र की अत्यंत मजबूत होती थीं और लगभग पूरा कथानक उनके इर्द-गिर्द घूमता था।
सिंधु घाटी सभ्यता के एक प्रमुख केंद्र मोअन-जो-दड़ो पर आधारित उनका काल्पनिक उपन्यास ‘मुर्दों का टीला’ से लेकर कहानी गदल तक स्त्री पात्र कथा संसार की धुरी होती हैं। साथ ही स्त्री के चिंतन विश्व को दर्शाती उनकी कृतियां रत्ना की बात, लोई का ताना और लखिमा की आंखें बेमिसाल हैं जो क्रमश: तुलसी की पत्नी, कबीर की प्रेरणा और विद्यापित की प्रेमिका की दृष्टि से पेश विश्व-दर्शन है।
यादव ने कहा कि उस वक्त जो ऐतिहसिक दृष्टि भगवती चरण वर्मा और आचार्य चतुरसेन शास्त्री अपनी रचनाओं में पेश कर रहे थे उसका जवाब था रांगेय राघव का मुर्दों का टीला और यशोधरा की जीत आदि रचनाएं। पौराणिक कथाओं पर आधारित कृति ‘अंतर्मिलन की कथाएं’ के आमुख में रांगेय राघव ने लिखा है मैंने ये कहानियां विशाल पौराणिक साहित्य में से चुनी हैं। इनको मैंने इसलिए लिखा है कि इनमें मुझे इतिहास की बहुत सी गुत्थियां सुलझती मिली हैं। हमारी संस्कृति में प्रेरणा का केवल एक ही स्रोत नहीं है। महाभारत युद्ध के बाद गौतम बुद्ध, फिर गौतम बुद्ध से गुप्त सम्राटों के काल तक निरंतर भारत में जातियों का अंतर्मिलन चला। उन्होंने कहा ‘‘पहली बार आर्य, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, नाग गरुड़, पिशाच, असुर और अनेक जातियां परस्पर घुल मिल गईं। इनके मिलन से इनके देवता भी मिल गए। विष्णु, शिव, गरुड़, पार्वती, वासुकी, कुबेर, पुलस्त्य, वृत्र, शाक्त इत्यादि में परस्पर मैत्री भाव से उपस्थित हुए।’’ इसी आमुख में राघव ने लिखा है, ‘‘दूसरी बार भारत में यवन, शक, कुषाण, पहलव आदि जातियां आईं जो भारत में घुल-मिल गईं।। यहां मैंने पहले दौर के अंतर्मिलन को प्रकट करने वाली कथाएं लिखी हैं।’’
हिंदी में द्रविड़ संस्कृति का विस्तार से विश्लेषण करने वाले अपने किस्म के इस पहले लेखक ने शिव की अवधारणा के बारे में कहा है, ‘‘महादेव पर यद्यपि अनेक मत हैं किंतु मुझे स्पष्ट लगता है कि वह योग का देवता द्रविड़ संपत्ति ही थी, दक्षिण में ही तांडव हुआ था। शिव के लंग की पूजा की आर्यो ने शिश्न पूजा कह कर निंदा की थी। बाद में उन्होंने स्वयं इसे स्वीकार कर लिया।’’ यादव ने कहा कि एक समानांतर सत्य प्रकट करने के लिए लिखी गई ये कृतियां बेमिसाल हैं। छायावादेत्तर युग के लेखक रांगेय राघव का पूरा नाम तिरुमल्लै नेत्रकम वीर राघव आचार्य था। 19 वर्ष की आयु में बंगाल के अकाल पर लिखा गया उनका रिर्पोताज तूफानों के बीच बेहद मशहूर हुआ। उन्हें हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1947), डालमिया पुरस्कार (1954), उत्तर प्रदेश सरकार पुरस्कार (1957-59) राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार और मृत्यु के पश्चात महात्मा गांधी पुरस्कार मिला।

Dark Saint Alaick
18-01-2012, 06:05 PM
जन्मदिवस पर विशेष
ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति में दिया था जेम्स वॉट ने बड़ा योगदान

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14788&stc=1&d=1326895528

ब्रिटेन में 1780 में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति में भाप इंजन के अविष्कारक जेम्स वॉट का बड़ा योगदान था। वॉट द्वारा अविष्कार किये गये भाप इंजन ने लोगों के काम करने के तरीकों, उत्पादकता और उनके जीवन को बदलकर रख दिया। 19 जनवरी, 1736 को जन्मे वॉट की जीवनी ‘जेम्स वॉट एंड दि स्टीम इंजन’ किताब लिखने वाले लेखक जिम वीटिंग के अनुसार वॉट के इस अविष्कार ने एक क्रांति की शुरूआत कर दी। इससे वह बहुत प्रसिद्ध हुए।
वीटिंग के लिखा, ‘‘वॉट ने प्रारंभिक भाप इंजनों में बदलाव करते हुए उसका विकास किया ताकि औद्योगिक क्रांति के दौरान पनप रहे उद्योगों को विद्युत उर्जा मुहैया करायी जा सके।’’
स्कॉटलैंड के ग्रीनोक शहर में जन्मे वॉट ग्लासगो विश्वविद्यालय में काम करने के दौरान भाप इंजन की तकनीक के प्रति आकर्षित हुए। उन्होंने इस पर काम करना शुरू कर दिया। 1775 में वॉट और उनके सहयोगी बुल्टन ने अपनी कंपनी स्थापित की। 1776 में उनके नेतृत्व में बनाये गये प्रारंभिक भाप इंजन व्यवसायिक उपक्रमों की इकाइयों में लगाये गये। इन इंजनों का प्रयोग पावर पम्प के लिए होता था। वॉट की बात करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में भौतिकी विषय के प्रोफेसर अगम कुमार झा ने कहा, ‘‘वॉट महान अविष्कारक थे। उन्होंने विद्युत माप की इकाइयों के लिए ‘हॉर्सपॉवर’ के सिद्धांत का विकास किया। उनके इसी योगदान को देखते हुए आगे चलकर उनके नाम पर विद्युत का एसआई यूनिट ‘वाट’ रखा गया।’’
अंग्रेज उपन्यासकार एल्डस हक्सले ने वॉट के बारे में कहा था, ‘‘सुबह हम जल्दी उठते हैं क्योंकि यह रोजाना ट्रेन पकड़ने का समय होता है। समय, ट्रेन और वॉट का गहरा रिश्ता है। इस तरह वॉट भाप इंजन के नहीं बल्कि ‘समय के अविष्कार’ हैं।’’ वॉट के व्यक्तिगत जीवन के बारे में वीटिंग ने लिखा, ‘‘वॉट बचपन में आत्मविश्वास की कमी का शिकार थे। वह 17 साल के थे जब उनकी मां का निधन हुआ। शादी के कुछ ही समय बाद उनकी पहली पत्नी भी चल बसी। उनकी पत्नी उनका बहुत उत्साहवर्धन करती थी। इस तरह वॉट का जीवन दुखों से अछूता नहीं रहा।’’
वॉट के बारे में अविष्कारक और रसायनशास्त्री हम्फ्री डेवी ने कहा था, ‘‘वॉट न केवल एक वैज्ञानिक हैं बल्कि एक जन्मजात दार्शनिक और रसायनविज्ञानी भी हैं। उनके पास इन विज्ञानों की भरपूर जानकारी है। वह इसके व्यवहारिक प्रयोग के बारे में बखूबी जानते हैं।’’ इंग्लैंड और दुनिया के विज्ञान जगत में वॉट के इसी योगदान को देखते हुए 2009 में बैंक आॅफ ब्रिटेन ने 50 पाउंड के नये नोट पर उनकी और उनके भाप इंजन की तस्वीर छापने की घोषणा की।

Dark Saint Alaick
21-01-2012, 09:22 AM
21 जनवरी को पुण्यतिथि पर विशेष
अतिक्रमण का शिकार है जार्ज ओरवेल की जन्मस्थली

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14805&stc=1&d=1327123296 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14806&stc=1&d=1327123296 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14807&stc=1&d=1327123296

भारत में महान विभूतियों की याद लोगों को तब आती है, जब उनकी धरोहर या स्मृति से जुड़ी कोई वस्तु विदेश में नीलाम होती है या चोरी होती है। सब कुछ लुटने के बाद ही अधिकारियों की आंख खुलती है, लेकिन कई ऐसे अमूल्य रत्न है जिनकी उपेक्षा लगातार की जा रही है। लोकतांत्रिक विषयों पर लिखने वाले महान लेखक और दुनिया को भविष्य की अंतरदृष्टि देने वाले जार्ज ओरवेल के स्मारक की भी हालत वैसी ही है। संरक्षित धरोहर घोषित होने के बावजूद ओरवेल के खपरैल वाले मकान का आवासीय उपयोग हो रहा है जो नियमों के विपरीत है। इसमें एक शिक्षक रहते हैं और घर के पीछे बने गोदाम में असामाजिक तत्वों का जमावड़ा लगा रहता। 25 जून 1903 को बिहार के पूर्वी चंपारण के मोतिहारी में जन्मे इस ब्रिटिश लेखक पर दुनिया गुमान करती है, लेकिन उनकी जन्मस्थली रखरखाव और देखभाल के अभाव में बदहाल है। अपनी महान कृति ‘एनिमल फार्म’ में जानवरों के नजरिए से ओरवेल ने मनुष्यों के असंतोष, लालच की प्रवृत्ति का बहुत अच्छा वर्णन किया है। शायद उसी प्रवृत्ति का शिकार भी इस महान लेखक का स्मारक हो रहा है। ओरवेल के बचपन का कुछ समय जहां गुजरा वहां सिवाय एक प्रतिमा और क्वार्टर के कुछ नहीं बचा है। प्रशासनिक देखभाल के अभाव के कारण गोदाम और चहारदीवारी की र्इंटें निकाल ली गयी हैं और आसपास अतिक्रमण हो गया है। जार्ज ओरवेल के तखल्लुश नाम से प्रसिद्ध एरिक आर्थर ब्लेयर की लेखनी का दुनिया लोहा मानती है और विदेशों में जहां भी वह रहे उनकी याद में धरोहरों को सहेजकर रखा गया है, लेकिन मोतिहारी में दुर्दशा की हद पार हो गयी है।
ओरवेल रिचर्ड डब्ल्यू ब्लेयर के घर जन्मे थे जो ब्रिटिश सिविल सेवा के अधिकारी थे। वह अफीम पदाधिकारी थे। हालांकि ओरवेल का संबंध बिहार से जन्म भर का ही रहा, क्योंकि उनका बाद का लालन पालन और शिक्षा ब्रिटेन में विभिन्न स्थानों पर हुई। बीबीसी लंदन के पत्रकार रहे ओरवेल तानाशाही के घोर विरोधी और जनतंत्र, मानव अधिकार एवं मानव स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। यही कारण रहा कि बाद के साल में ओरवेल की जन्म भूमि की तलाश करते करते कई विद्वान, पत्रकार और इतिहासकार मोतिहारी आये। वर्ष 1983 में प्रमुख ब्रिटिश पत्रकार इयान जैक ने मोतिहारी में भ्रमण किया और जार्ज के जन्मस्थान के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। बाद में यह विवरण आठ जनवरी 1984 को ‘संडे टाइम्स’ में प्रकाशित हुआ। जन्म स्थान की यह खोज ओरवेल के लेखों में वर्णित संकेतों के आधार पर हुई। बाद में मोतिहारी ने इसी खोज के आधार पर ओरवेल के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाई। इसी प्रकार ‘द गार्जियन’ के पत्रकार लुक हार्डिंग 2000 में मोतिहारी आये। इसके बाद लंदन के ‘द टेलीग्राफ’ के संवाददाता पीटर फोस्टर 2004 में आये। वर्ष 2000 में जार्ज ओरवेल को सहस्राब्दि लेखक का सम्मान दिया गया। 21 जनवरी 1950 में 46 वर्ष की अल्पायु में ओरवेल दुनिया से विदा हो गये। ओरवेल की 55वीं पुण्यतिथि पर उनकी स्मृति में पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने 2005 जीर्णोद्धार के लिए शिलापट्ट लगाया। बाद में 21 जनवरी 2010 को प्रशासन की ओर से ओरवेल की प्रतिमा का अनावरण किया गया।
ओरवेल के जन्मस्थान पर जाकर वहां देखा तो पूरा घर जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं। आस पास दो दर्जन से अधिक अवैध झोपडियां बस गयी हैं। अफीम के गोदाम के पास गंदगी का अंबार लगा हुआ रहता है। मोतिहारी नगर परिषद के सभापति प्रकाश अस्थाना कहते हैं कि मास्टर प्लानिंग के तहत योजना में जार्ज ओरवेल के घर का जीर्णोद्धार करने का कार्यक्रम है। जैसे ही राशि आयेगी काम शुरू होगा। बिहार सरकार ने ओरवेल के जन्मस्थान को संरक्षित धरोहर का दर्जा दिया है। उनकी जन्मस्थली करीब छह एकड़ में फैली है। अब देखभाल के अभाव में यह असामाजिक तत्वों और अतिक्रमणकारियों का अड्डा बन गया है। राज्य की कला, संस्कृति और युवा मामलों की मंत्री सुखदा पांडेय ने ‘भाषा’ को बताया, ‘‘मार्च 2010 से अबतक ओरवेल के स्मारक के सौंदर्यीकरण, सड़क, नाली और चहारदीवारी के निर्माण के लिए राज्य सरकार ने 32.78 लाख रुपये दिये हैं।’’ उन्होंने कहा कि पूर्वी चंपारण के जिलाधिकारी से कार्य पूरा करने के विवरण कई बार मांगे जा चुके हैं। इसी महीने एक पत्र भी दोबारा लिखा गया है। सुखदा ने बताया, ‘‘संरक्षित घर में एक सेवानिवृत्त शिक्षक के रहने की सूचना विभाग को मिली है। इस संबंध में स्थानीय जिलाधिकारी से रिपोर्ट मांगी गयी है। इस संरक्षित धरोहर को विकसित करने के लिए कदम उठाये जायेंगे।’’ ओरवेल के घर की छत और दीवारों में दरार पड़ गयी है। प्रशासन की ओर से बनाया गया पहुंच पथ इतना उंचा हो गया है कि परिसर में ही जल जमाव होता है। ग्रामीण कार्य विभाग (आरडब्ल्यूडी) के कार्यपालक अभियंता हरेंद्र कुमार स्वीकार करते हैं कि ओरवेल के गृह परिसर में दो गेट लगाने थे। सौंदर्यीकरण पर 32 लाख रुपये खर्च हो चुके हैं लेकिन फिर भी एक गेट अतिक्रमण के कारण नहीं बन पाया है। इसके अलावा चहारदीवारी अब भी अधूरी है।

Dark Saint Alaick
21-01-2012, 09:40 AM
21 जनवरी वुमन्स हैल्दी वेट डे पर
महिलाओं में मोटापा और ज्यादा दुबलापन दोनों ही हैं खतरनाक

महिलाओं में जहां मोटापा कई बीमारियों की वजह है वहीं ज्यादा छरहरा होना भी कमजोरी सहित अनेक रोगों का कारण बन सकता है इसलिए जरूरी है कि महिलाएं अपना वजन बॉडी मॉस इंडेक्स (बीएमआई) के अनुसार रखे। बीएमआई व्यक्ति विशेष की लंबाई और वजन पर निर्भर करता है।
वजन तालिका के अनुसार 4.10 फुट लंबाई की महिला का वजन 49-54 किलोग्राम, पांच फुट की महिला का 51-57 किलोग्राम होना चाहिए । इसी तरह महिलाओं में 5 फुट एक इंज की लंबाई पर 52-58 किलोग्राम, 5 फुट दो इंच की लंबाई पर 53-59 किलोग्राम, पांच फुट तीन इंच की लंबाई पर 54-61 किलोग्राम और पांच फुट चार इंच की लंबाई पर 56-62 किलोग्राम होना चाहिए। वजन का यह अनुपता लंबाई के अनुसार बढता जाता है।
डॉ. रचना झाला ने इस बारे में भाषा को बताया कि मोटापा और जरूरत से ज्यादा दुबलापन दोनों ही स्वास्थ्य के लिए अच्छे नहीं हैं। उन्होंने कहा, ‘‘जैसा कि ज्यादातर लोगों को पता है कि मोटापा मुधमेह, हृदय, उच्च रक्तचाप सहित कई बीमारियों का कारण है इसलिए लोग, खासकर महिलाएं मोटापे के प्रति थोड़ा सजग रहती हैं और छरहरा होने के लिए डायटिंग और जिम सहित कई उपाय अपनाती हैं। साथ ही लड़कियों में आजकल आकर्षक दिखने के लिए दुबला होने और जीरो फिगर पाने का क्रेज़ भी ज्यादा है।
डॉ. रचना ने कहा, ‘‘लेकिन जहां मोटापा स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है वहीं ज्यादा दुबला होना भी कमजोरी सहित कई बीमारियों का कारण बन सकता है। ज्यादा दुबलेपन से कमजोरी आने, प्रतिरक्षा तंत्र का कमजोर होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है और प्रतिरक्षा तंत्र के कमजोर होने से कोई भी बीमारी आपको आसानी से पकड़ सकती है। इसलिए आपका वजन बीएमआई के मुताबिक होना जरूरी है।’’
आहार विशेषज्ञ सीमा सुहाग ने कहा कि मोटापा न बढे और वजन भी बहुत कम न हो, यह बीएमआई के अनुसार रहे इसके लिए जरूरी है भोजन में उचित पोषक तथा खाद्य पदार्थों को शामिल करके इसे नियंत्रित किया जाए। वजन नियंत्रित करते समय कई बातों का ध्यान रखा जाना जरूरी हैं। यह व्यक्ति विशेष की उम्र, कार्यक्षमता, कार्यक्षेत्र आदि पर निर्भर करता है।
डॉ. रचना ने इस बारे मे कहा कि वजन कम करने के लिए उचित व्यायाम और सैर आदि की जरूरत तो है साथ ही यह ध्यान में रखना भी जरूरी है कि सही मात्रा में उचित प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट से परिपूर्ण पोषक पदार्थ भी लिए जाए ताकि कमजोरी आदि आने का खतरा न रहे।

Dark Saint Alaick
24-01-2012, 07:13 PM
25 जनवरी राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर विशेष
भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिये चुनाव प्रणाली में आमूल चूल बदलाव जरूरी :विशेषज्ञ

विशेषज्ञों का मानना है कि आजादी के छह दशक जीत बीत जाने के बाद भी भारतीय लोकतंत्र गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है जिसे दूर करने के लिये चुनाव आयोग को और ज्यादा ताकतवर बनाने के साथ ही चुनाव प्रणाली में आमूल चूल बदलाव की जरूरत है। जाने माने सामाजिक चिंतक गोविंदाचार्य ने कहा, ‘‘शासन व्यवस्थाओं में न्यूनतम दोषपूर्ण पद्धति लोकतंत्र है। जिस तरह से शीशा साफ नहीं होने पर तस्वीर स्पष्ट नहीं आती है, उसी तरह से चुनाव व्यवस्था दोषपूर्ण होने पर चयन सही नहीं हो पाता है और दुर्दांत अपराधी भी सांसद बन जाते हैं। भारतीय लोकतंत्र के पहले 15 साल में मूल्यों का ज्ञान रहा, लेकिन 1965 से 1980 के बीच ‘आया राम गया राम’ का दौर शुरू हुआ और सत्ता में बदलाव आया। इसी तरह वर्ष 1980 से 1995 के बीच बाहुबलियो की संख्या बढी। 1995 से 2010 तक करेला नीम चढा की तर्ज पर धनबल का प्रभाव बढा। उन्होंने कहा, ‘‘जनतंत्र को अभिव्यक्त करने वाला लोकतंत्र सत्ताबल, धनबल, बाहुबल की बीमारियों का शिकार बन गया जिसमें गंभीर रणनीतिक सुधार की जरूरत है। इसी तरह संसदीय जनतंत्र में दलों की कार्यशैली को पारदर्शी और जवाबदेह बनाना होगा। आज सभी दल अपराध, भ्रष्टाचार, अवसरवादिता, दल बदल और वंशवाद के शिकार हो गये हैं। इसी कारण जनतंत्रात्मक साधनों की बजाय मुद्दों और मूल्यों की राजनीति सड़क और चौराहों पर हो रही है।’’

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफेसर तुलसी राम का मानना है कि अन्य देशों के मुकाबले अगर देखें तो भारत का लोकतंत्र परिपक्व है, लेकिन भारत में तीन विचारधाराओं जातिगत, संप्रदाय और क्षेत्र के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण हो रहा है । इसमें असली मुद्दे घायब हो गये हैं। प्रोफेसर तुलसी राम ने कहा, ‘‘आज भारतीय जनतांत्रिक प्रणाली ‘जातीय जनतंत्र’ में बदल गयी है। इसमें बदलाव की सख्त जरूरत है।’’ उन्होंने सुझाव दिया, ‘‘इस जातीय जनतंत्र को बदलने के लिये 12वीं कक्षा तक शिक्षा में बदलाव लाना होगा। इस पढाई के दौरान बच्चों को जातिगत, संप्रदाय और क्षेत्र के नाम पर मतदान के खिलाफ बताना होगा । इसके अलावा मीडिया इस मामले में सकारात्मक भूमिका निभाये और जातिवाद, संप्रदायवाद और क्षेत्रवाद का विरोध करे।’’

गोविंदाचार्य ने कहा कि चुनाव प्रणाली में व्यापक सुधार की जरूरत है। इसमें अनिवार्य मतदान, नकार वोट, जनमत संग्रह की वैधानिक व्यवस्था सरीखे नये कदम उठाने पड़ेंगे । इसके अलावा चुनाव आयोग को और ज्यादा ताकतवर बनाये जाने की जरूरत है और सारे चुनाव एक साथ कराये जाये। प्रख्यात संविधानविद सुभाष कश्यप का मानना है कि चुनाव में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था किया जाना अलोकतांत्रिक और अव्यवहारिक होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि मतदान को संविधान में एक ‘मूल नागरिक दायित्व’ बना दिया जाना चाहिये। वोट देने वाले लोगों को प्रोत्साहन दिया जाये। इसके अलावा पासपोर्ट, राशन कार्ड चाहने वालों को मतदान प्रमाण पत्र दिखाने पर छूट दी जाये।’’ गौरतलब है कि भारतीय चुनाव आयोग मतदाताओं को जोड़ने और मतदान के महत्व को बताने के लिये हर वर्ष 25 जनवरी के दिन को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाता है।

Dark Saint Alaick
28-01-2012, 11:02 AM
सामाजिक बदलाव के नए उदाहरण
बहुओं के सपने साकार कर रही हैं सासू माएं

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14868&stc=1&d=1327734119

भारतीय समाज में अक्सर सास की छवि बहुत नकारात्मक ढंग से पेश की जाती है, लेकिन सीमावर्ती बाड़मेर जिले में बहुओं के सपने सासों के कारण ही साकार हो रहे हैं। सामाजिक बदलाव के इस नए उदाहरण में गांवों में सरकारी नौकरियों के अवसरों ने योगदान दिया है। क्षेत्र की अनेक बहुओं ने ससुराल में रहते हुए सरकारी नौकरियां पाने में सफलता हासिल की है। चैनी देवी (19) के माता-पिता ने आठवीं कक्षा के बाद उसका स्कूल छुड़ा दिया था और शादी कर दी थी। लेकिन आज वह अपनी सासू के प्रोत्साहन और गांव में सरकारी नौकरी की उम्मीद से स्नातक कक्षा की पढ़ाई कर रही है।
महिला शिक्षा के क्षेत्र में एक दशक पूर्व तक अति पिछड़े रहे बाड़मेर जिले में चैनी अकेली नहीं है। बाड़मेर जिले में ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसरों के आकर्षण में कई शादीशुदा अनुसूचित जाति तथा जनजाति की महिलाओं ने स्कूल जाना शुरू कर दिया है। अधिकांश मामलों में रोचक बात यह है कि इन महिलाओं के समर्थन में सबसे पहले उनकी सासू मां आई हैं, जिनकी भारतीय समाज में अक्सर नकारात्मक छवि बनी हुई है।
शिक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारी डा. लक्ष्मी नारायण जोशी ने बताया कि 2000 से अधिक शादीशुदा महिलाएं ग्रामीण इलाकों में स्कूलों में आ रही हैं। इनमें से कुछ ऐसी है जिनकी शादी बहुत ही कम उम्र में हो गई थी और उन्होंने किताब का पन्ना भी खोलकर नहीं देखा। वे अपने पास-पड़ोस की उन महिलाओं का अनुसरण कर रही हैं, जिन्हें पढ़ाई करने के बाद सरकारी नौकरी मिल गई है। उन्होंने कहा बताया कि सैंकड़ों महिलाएं आंगनबाडी केन्द्रों से जुड़ रही हैं। इन महिलाओं को ग्रामीण इलाकों के लिए शुरू की गई विभिन्न सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में सहायकों के रूप में नियुक्त किया जा रहा है। कई बहुएं ग्राम सेवक, पटवारी, अध्यापिका, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, रोजगार सहायिका, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी सेवाएं दे रही हैं। बाड़मेर वह जिला है जहां किसी समय पढ़ी-लिखी महिला तो दूर साक्षर पुरुष भी गिने-चुने मिलते थे, लेकिन आज इस सरहदी क्षेत्र में शिक्षा के क्षेत्र में आए बदलाव ने कहानी बदल कर रख दी।
चैनी देवी बाड़मेर के महिला कालेज से स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। चैनी ने कहा कि मुझे लगा था कि मैं अब दोबारा कभी स्कूल नहीं जा पाऊंगी। मैंने आंगनबाड़ी कर्मी की नौकरी के लिए आवेदन किया था और मामूली शैक्षिक योग्यता के कारण मुझे नौकरी मिल गई। इससे मेरी सासू मां का उत्साह बढ़ा और उन्होंने मुझे फिर से स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित किया।
चैनी कहती है कि जब गांव की अन्य महिलाओं ने उन्हें नौकरी करते देखा, तो उनका भी उत्साह बढ़ा। चैनी ने कहा कि यहां की महिलाएं आमतौर पर घूंघट करती हैं, लेकिन कई महिलाएं घूंघट दरकिनार करके स्कूल जाने लगी हैं। चैनी ने कहा कि उनके कालेज में पढ़ाई करने वाली कम से कम दो दर्जन महिलाओं की शादी बचपन में ही हो गई थी। इस नई प्रक्रिया ने पाकिस्तान के साथ लगे इस पश्चिमी जिले में सामाजिक बदलाव का सूत्रपात कर दिया है।
रुखमा नामक महिला ने कहा कि इस इलाके में बदलाव पिछले तीन चार साल से शुरू हुआ है। पार्वती ने कहा कि पहले शादीशुदा महिलाएं अपने घर की चौखट लांघने की कल्पना नहीं कर पाती थीं। बहुओं की तो बात दूर, बेटियों को पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई की अनुमति नहीं होती थी। उसने उन दिनों को याद किया जब उसका शिक्षक बनने का सपना चूर-चूर हो गया था और उसके माता-पिता ने बहुत कम उम्र में उसकी शादी कर दी थी। रुखमा ने कहा कि मेरी ससुराल के लोगों ने मुझे स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित किया। मैं 22 की उम्र में कक्षा 12वीं में हूं, लेकिन हतोत्साहित नहीं हूं। मैं अपने सपने को साकार करने के लिए कम से कम बीएड करना चाहती हूं।

Dark Saint Alaick
29-01-2012, 06:29 PM
पोलियो को मिटाने के बाद अब खसरा निशाने पर
सरकार ने 13 करोड़ से अधिक बच्चों को खसरे का टीका लगाने की योजना बनाई

पिछले एक साल से पोलियो का एक भी मामला सामने नहीं आने से उत्साहित सरकार के निशाने पर अब खसरा रहेगा। भारत में हर साल तकरीबन एक लाख बच्चे खसरे की चपेट में आ जाते हैं। इससे निजात दिलाने के लिए सरकार ने 13 करोड़ से अधिक बच्चों को खसरे का टीका लगाने की योजना बनाई है। स्वास्थ्य मंत्रालय में संयुक्त सचिव अनुराधा गुप्ता ने बताया कि हमारे देश में प्रति वर्ष लगभग एक लाख बच्चे खसरा रोग से प्रभावित होते हैं। पिछले एक साल के दौरान पोलियो का एक भी मामला सामने नहीं आने से हम उत्साहित हैं और खसरे के खात्मे का प्रयास करेंगे। उन्होंने बताया कि खसरे के उन्मूलन के लिए सरकार विशेष मुहिम चलाएगी जिसके तहत पूरे देश में एक साल के भीतर 13 करोड़ से भी अधिक बच्चों को खसरे का अतिरिक्त टीका लगाया जाएगा। अतिरिक्त टीके का बच्चों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा और इससे बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढेþगी। इस बीमारी के मामले 10 साल तक की उम्र के बच्चों में ज्यादा होते हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में लाइफ साइंस के प्रोफेसर पीसी रथ ने बताया कि खसरे के कारण होने वाले बुखार के दिमाग में पहुंचने से बच्चों की मौत भी हो जाती है क्योंकि उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। इस बीमारी की रोकथाम का सही तरीका टीका हो सकता है लेकिन अगर टीके के प्रभाव को बच्चे के अंदर सक्रिय करना है तो बच्चों का कुपोेषण से मुक्त होना जरूरी है।
जयपुर गोल्डन अस्पताल के डॉक्टर बी बी मित्तल ने बताया कि जन्म के बाद नौ महीने तक बच्चों को खसरा नहीं होता। लेकिन नौ महीने की उम्र के भीतर अगर उन्हें टीका लगा दिया जाए तो उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और वह खसरा से बच जाते हैं। उन्होंने कहा कि खसरा एक संक्रामक बीमारी है और इसके वायरस सांस के माध्यम से, खांसने से और हवा के जरिए एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैल जाते हैं। सरकार अगर इस बीमारी पर काबू पाना चाहती है तो उसे सबसे पहले जागरूकता फैलानी होगी, क्योंकि लोगों को इसके बारे में अपेक्षित और पर्याप्त जानकारी नहीं है। पोलियो टीके की तरह खसरे का टीका ड्रॉप में नहीं है और हमारे देश में खसरे का टीका अभी भी इंजेक्शन के माध्यम से दिया जाता है। अनुराधा गुप्ता ने बताया कि पोलियो पर इतनी बड़ी सफलता राजनीतिक और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के चलते हासिल हुई है और यही प्रतिबद्धता खसरे की बीमारी के उन्मूलन के लिए भी दिखाने की जरूरत है। उन्होंने बताया कि पोलियो के खात्मे पर देश में अब तक 12 हजार करोड़ से अधिक की धन राशि खर्च की गई है और हम खसरे के उन्मूलन के लिए भी धन की कोई समस्या नहीं होने देंगे। इसके लिए चलाए जाने वाले विशेष अभियान को पर्याप्त धनराशि मुहैया करायी जाएगी। डॉक्टर मित्तल ने कहा कि देश में अभी भी ऐसी कई बीमारियां हैं जिनका सफाया किया जाना जरूरी है।

Dark Saint Alaick
30-01-2012, 12:13 PM
मधेपुरा के सरकारी अस्पतालों में हड्डी का एक भी डाक्टर नहीं

चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में बड़ी बड़ी खोजों से गौरवान्वित होने वाले इस देश के बिहार राज्य में एक ऐसा भी जिला है जहां 25 लाख की आबादी के लिए छोटे अथवा बडे किसी भी सरकारी अस्पताल में अस्थि रोग का एक भी चिकित्सक नहीं है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के मानक के समतुल्य हड्डी रोग के लिए सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल खोलने की दिशा में कदम बढा रहे बिहार के उत्तर पूर्वी मधेपुरा जिले की स्थापना के 31 वर्ष पूरे हो चुके हैं लेकिन एक जिला अस्पताल, 13 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 23 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और अन्य छोटे बडे 272 सरकारी चिकित्सा केंद्रों वाले इस जिले में सरकार का एक भी अस्थि रोग विशेषज्ञ नहीं है। इससे आर्थिक रुप से सशक्त लोगों को तो कोई परेशानी नहीं है लेकिन समाज के गरीब वर्ग के लोगों को मजबूरन निजी चिकित्सकों के पास जाना पड़ता है, जो मनमानी फीस वसूलते हैं। निजी चिकित्सकों से इलाज के लिए फीस के एवज में गरीबों को बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। मधेपुरा के जिलाधिकारी मिन्हाज आलम विशेषज्ञ चिकित्सक की कमी की बात स्वीकार करते हुए कहते हैं, ‘‘राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग को कई बार लिखा जा चुका है। जल्द ही आर्थोपेडिक्स के चिकित्सक की व्यवस्था की जाएगी।’’ अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण से देश में समाज के कमजोर वर्ग के बीच जागरुकता का दीपक जलाने का काम करने वाले मंडल आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष बीपी मंडल के गृह जिले मधेपुरा में अस्थि से संबंधित मामूली सी भी समस्या का इलाज कराने में लोगों को बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। कई लोग तो आजिज आकर नीम हकीम की शरण लेते हैं जिससे उनका मर्ज और बढ जाता है।
राज्य सरकार पटना में आर्थोपेडिक्स (अस्थि एवं जोड़) का एक सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल करीब करीब तैयार कर चुकी है लेकिन राजधानी के बाहर सरकारी अस्पतालों की क्या स्थिति है यह मधेपुरा जिले की कहानी से साफ है। जिले में कस्तूरबा गांधी विद्यालय, मुरलीगंज की सातवीं कक्षा की छात्रा निशा कुमारी की तो मुसीबतों का ठिकाना नहीं है। परिवार में तीन भाई बहनों में निशा का ही शरीर ठीक था लेकिन बीते दिनों खेलने के दौरान उसकी पैर की हड्डी टूट गयी। सस्ता इलाज नहीं उपलब्ध होने और सरकारी अस्पतालों में हड्डी का विशेषज्ञ चिकित्सक नहीं होने के कारण निशा के पिता को महंगे इलाज के लिए चंदा जमा करना पड़ रहा है। यह समस्या निशा जैसी अकेली बच्ची भर की नहीं है। यह जिले के हर उस गांव में रहने वाले व्यक्ति की समस्या है जो गरीब है। हड्डी संबंधी रोग में सरकारी अस्पतालों में केवल मरहम पट्टी कर दूसरे स्थान पर इलाज के लिए भेज दिया जाता है। जिला चिकित्सा पदाधिकारी परशुराम प्रसाद भी इस प्रकार की कमी को स्वीकार करते हैं। वह गरीबों की परेशानी से वाकिफ होते हुए भी स्वयं को असहाय बताते हैं। ग्रामीणों का कहना है कि निजी चिकित्सकों के यहां एक मामूली से हड्डी के फ्रैक्चर का भी महंगा इलाज कराना पड़ता है। पांच हजार रुपये तक तो ऐसे ही खर्च हो जाते हैं जबकि मामला गंभीर होने पर 10 हजार रुपये तक खर्च करने पड़ते हैं।
अस्थि रोग विशेषज्ञ की समस्या ही नहीं, जिले के सरकारी अस्पतालों में नेत्र रोग विशेषज्ञ भी नहीं है। सदर अस्पताल में नेत्र विभाग एक पारामेडिक के भरोसे संचालित होता है। जिले के सरकारी चिकित्सालयों में संविदा और स्थायी मिलाकर कुल 92 चिकित्सक हैं। हड्डी का विशेषज्ञ चिकित्सक सरकारी अस्पतालों में नहीं होने के कारण और निजी चिकित्सकों की ओर से मनमानी फीस वसूल किये जाने के कारण मधेपुरा के ग्रामीणों को पड़ोस के सहरसा, पूर्णिया जिलों में अस्थि संबंधी विकार के इलाज के लिए जाना पड़ता है। लोग दूर दराज पटना और सिलिगुड़ी भी इस आशा में चले आते हैं कि सस्ता इलाज हो जाएगा। निशा के पिता मुकेश कुमार सिंह कहते हैं कि वह जिले में कई अस्पतालों के चक्कर काट चुके हैं और बिहार राज्य स्वास्थ्य समिति से मदद की गुहार लगा चुके हैं लेकिन किसी ने मदद नहीं की। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) की मधेपुरा शाखा के अध्यक्ष अरुण कुमार मंडल निजी चिकित्सकों की फीस अधिक होने सवाल पर कहते हैं कि निजी क्लिनिकों में बिजली, कर्मचारियों के वेतन आदि का भी खर्च बहुत बढ गया है। इसलिए सरकारी चिकित्सालयों की तरह कम फीस की व्यवस्था पर अमल नहीं किया जा सकता।

Dark Saint Alaick
30-01-2012, 12:17 PM
30 जनवरी को बापू की पुण्यतिथि पर
बापू को नयी पीढियों का ‘रोल मॉडल’ बताया था आइंस्टीन ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14877&stc=1&d=1327911403

विश्वप्रसिद्ध परमाणु वैज्ञानिक एल्बर्ट आइंस्टीन ने दुनिया को सत्य और अहिंसा का अमूल्य संदेश देने वाले महात्मा गांधी को अपने समय का एक प्रबुद्ध व्यक्तित्व और आने वाली पीढियों के लिए ‘रोल मॉडल’ बताते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। आइंस्टीन ने हालांकि पत्र लिखकर बापू से मिलने की इच्छा भी व्यक्त की थी ,लेकिन वह उनसे मिल नहीं पाए थे।
यरूशलम स्थित हिब्रू विश्वविद्यालय द्वारा तैयार एक संकलन में आइंस्टीन ने लिखा है, ‘राजनीतिक इतिहास में महात्मा गांधी के जीवन की उपलब्धियां अद्भुत है। गांधी ने मुक्ति युद्ध के बिल्कुल अलग तौर-तरीके की खोज की और उस पर पूरी निष्ठा एवं समर्पण के साथ अमल किया।’
सापेक्षता के सिद्धांत के जनक ने लिखा, ‘सभ्यता पर उनके जीवन एवं नैतिक मूल्यों का प्रभाव समय के साथ बढता जायेगा।’
उन्होंने लिखा, ‘मेरे इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि जो राजनेता सामने आ कर अपने नैतिक बल के आधार पर लोगों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, समय उन्हें युगों-युगों तक याद रखता है।’
आइंस्टीन ने लिखा, ‘नियति ने हमें ऐसा ज्ञानी और प्रबुद्ध समकालिक व्यक्तित्व दिया है जो आने वाली पीढियों के लिए रोल मॉडल (आदर्श) हैं।’
महात्मा गांधी और एल्बर्ट आंइस्टीन के बीच समय समय पर पत्राचार भी होता था। बापू को लिखे पत्र में भी आइंस्टीन ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये।
बापू को लिखे पत्र में आइंस्टीन ने कहा, ‘मैं मानता हूं कि आपके विचार हमारे समय के सभी राजनीतिज्ञों में श्रेष्ठ हैं। हमें इसी भावना में चीजों को आगे बढाना चाहिए और अपने उद्देश्यों को हासिल करने के लिए हिंसा का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।’
28 अक्तूबर 1932 को बापू को लिखे पत्र में आइंस्टीन ने कहा, ‘मैं आपके एक मित्र के माध्यम से यह पत्र भेज रहा हूं। आपने अपने कार्यो से यह दर्शाया है कि हिंसा के बिना भी सफलता प्राप्त की जा सकती है, यहां तक उन लोगों पर भी, जिन्होंने हिंसा का त्याग नहीं किया है।’
उन्होंने लिखा, ‘हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि आपका उदाहरण आपके देश की सीमाओं के आगे जायेगा और ऐसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कायम करेगा जिसका सभी लोग सम्मान करें और जिससे युद्ध को दूर किया जा सके।’ उन्होंने लिखा कि आने वाले समय में यह विश्वास करना कठिन होगा कि धरती पर हाड़ मांस का कोई ऐसा भी व्यक्ति था।
आइंस्टीन ने इस पत्र में बापू से आमने सामने मिलने की इच्छा भी व्यक्त की थी। उन्होंने लिखा, ‘मुझे उम्मीद है कि एक दिन मैं आपसे आमने सामने मिल सकूंगा।’
महात्मा गांधी ने भी आंइस्टीन को जवाब में पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा-‘मुझे आपका पत्र प्राप्त कर काफी खुशी हुई। आप मुझसे भारत में मेरे आश्रम में मिल सकते हैं।’

Dark Saint Alaick
30-01-2012, 04:54 PM
पुण्यतिथि 31 जनवरी पर विशेष
अभिनय के अलावा गायन में भी निपुण थीं सुरैया

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14885&stc=1&d=1327928076

हिंदी फिल्मों की चर्चित हस्तियों में से एक सुरैया उस दौर की आखिरी महत्वपूर्ण कड़ी थीं जब कलाकार अभिनय के अलावा पार्श्वगायन भी खुद करते थे। सुरैया को अभिनय के अलावा पार्श्वगायन में भी निपुणता हासिल थी और उन्होंने दोनों विधाओं में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। हालांकि उन्होंने संगीत की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली थी। बहुमखी प्रतिभा की धनी सुरैया के लिए फिल्मी दुनिया अपरिचित नहीं थी और उनके एक चाचा फिल्मों में अभिनय करते थे।

दिग्गज संगीतकार नौशाद ने एक रेडियो कार्यक्रम में सुरैया की आवाज सुनी। सुरैया की गायन प्रतिभा से प्रभावित नौशाद ने उन्हें सिर्फ 13 साल की उम्र में ‘शारदा’ फिल्म में पार्श्वगायन का मौका दिया। जब सुरैया की अभिनय यात्रा शुरू हुई तो उनकी रेशमी आवाज ने भी उनके अभिनय के समानांतर जादू बिखेरा। हिन्दी फिल्मों में 1940 से 50 का दशक सुरैया के नाम कहा जा सकता है। उनकी एक झलक पाने के लिए उनके प्रशंसक मुंबई में उनके घर के सामने घंटों खड़े रहते और यातायात जाम हो जाता। अविभाजित भारत के गुजरांवाला में 15 जून 1929 को पैदा हुयी सुरैया ने फिल्मों में अपना करिअर 1941 में शुरू किया था। ‘ताजमहल’ फिल्म में वह बाल कलाकार के तौर पर आईं।

के आसिफ की ‘फूल’, महबूब खान की ‘अनमोल घड़ी’ में छोटी भूमिकाएं निभाने के बाद 1945 में सुरैया दिग्गज कलाकार के एल सहगल की सिफारिश पर ‘तदबीर’ फिल्म में मुख्य नायिका बन कर आईं। सहगल भी सुरैया की आवाज के दीवाने थे। 1946 में आई ‘उमर खैयाम’ और 1947 की ‘परवाना’ में सुरैया और सहगल की जोड़ी पर्दे पर आई। लगातार तीन सुपर हिट फिल्मों - ‘प्यार की जीत’ (1948), ‘बड़ी बहन’ और ‘दिल्लगी’ (1949) ने सुरैया को सफलता के शिखर पर पहुंचा दिया। उन्होंने अपने दौर के सभी लोकप्रिय नायकों के साथ काम किया। बाद के दिनों में उनकी कई फिल्मों को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली। 1954 में सुरैया दो फिल्मों वारिस और मिर्जा गालिब में नजर आईं। मिर्जा गालिब में उन्होंने गालिब की प्रेयसी की भूमिका को अपने अभिनय से जीवंत कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी सुरैया की इस भूमिका की तारीफ की थी।

सदाबहार अभिनेता देव आनंद के साथ उनकी जोड़ी काफी सफल और चर्चित रही। दोनों ने छह फिल्मों में एक साथ काम किया। निजी जीवन में भी दोनों के एक दूसरे के करीब आने की चर्चा थी, लेकिन घरवालों के प्रबल विरोध के कारण बात आगे नहीं बढ सकी। वर्ष 1963 में आई रूस्तम सोहराब सुरैया की आखिरी फिल्म थी। इसके बाद उन्होंने अपने को फिल्मों से लगभग अलग कर लिया। 31 जनवरी 2004 को सुरैया का 75 साल की उम्र में निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
31-01-2012, 01:41 PM
पुण्यतिथि 31 जनवरी के अवसर पर
सुरैया ने मिर्जा गालिब की रूह को जिंदा कर दिया-नेहरु

तुमने मिर्जा गालिब की रूह को जिंदा कर दिया... सुरीली आवाज की मल्लिका सुरैया जमील शेख उर्फ सुरैया के बारे में यह टिप्पणी देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने वर्ष 1954 में प्रदर्शित फिल्म 'मिर्जा गालिब' में सुरैया के जीवंत अभिनय से मुग्ध होकर की थी। 15 जून 1929 को पंजाब के गुजरांवाला शहर मे एक मध्यम वर्गीय परिवार मे जन्मी सुरैया अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं। बचपन से ही सुरैया का रूझान गीत.संगीत की ओर था। वह पार्श्वगायिका बनना चाहती थीं। हालांकि उन्होंने किसी उस्ताद से संगीत की औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, लेकिन संगीत पर उनकी अच्छी पकड थी। सुरैया ने प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के न्यू गर्ल्स हाई स्कूल से पूरी की। वह घर पर ही कुरान और फारसी की शिक्षा भी लिया करती थीं।
बतौर बाल कलाकार सबसे पहले उनकी वर्ष 1937 में 'उसने सोचा था' फिल्म प्रदर्शित हुयी। लगभग 4 वर्ष तक बतौर बाल कलाकार उनकी कई फिल्में प्रदर्शित हुईं, लेकिन फिल्मो से उनकी कुछ खास पहचान नहीं बन पा रही थी। सुरैया को अपना सबसे पहला बडा काम अपने चाचा जहूर की मदद से मिला जो उन दिनों फिल्म इंडस्ट्री मे बतौर खलनायक अपनी पहचान बना चुके थे। वर्ष 1941 में स्कूल की छुटिृयों के दौरान एक बार सुरैया मोहन स्टूडियो मे फिल्म 'ताजमहल' की शूटिंग देखने गईं । यहां उनकी मुलाकात फिल्म के निर्देशक नानु भाई वकील से हुई, जिन्हें सुरैया मे फिल्म इंडस्ट्री का एक उभरता हुआ सितारा दिखायी दिया और उन्होंने सुरैया को फिल्म के किरदार 'मुमताज महल' के लिये चुन लिया।
आकाशवाणी के एक कार्यक्रम के दौरान संगीत सम्राट नौशाद ने जब सुरैया को गाते सुना, तब वह उनके गाने के अंदाज से काफी प्रभावित हुये। नौशाद के संगीत निर्देशन में पहली बार कारदार साहब की फिल्म 'शारदा' में सुरैया को गाने का मौका मिला। सुरैया को वर्ष ।946 मे प्रदर्शित निर्माता निर्देशक महबूब खान की 'अनमोल घड़ी' में भी काम करने का मौका मिला। हालांकि सुरैया इस फिल्म में सहअभिनेत्री थी, लेकिन फिल्म के एक गाने 'सोचा था क्या क्या हो गया' की बदौलत वह बतौर पार्श्व गायिका श्रोताओं के बीच अपनी पहचान बनाने मे काफी हद तक सफल रही।
निर्माता जयंत देसाई की फिल्म 'चन्द्रगुप्त' के एक गाने की रिहर्सल के दौरान सुरैया को देख कर के.एल. सहगल काफी प्रभावित हुए और उन्होंने जयंत देसाई से उन्हें फिल्म 'तदबीर' में काम देने की सिफारिश की। वर्ष 1945 मे प्रदर्शित फिल्म 'तदबीर' में सहगल के साथ काम करने के बाद धीरे-धीरे उनकी पहचान फिल्म इंडस्ट्री में बनती गयी और बाद में उन्होंने सहगल के साथ ही 'उमर खय्याम' 1946 और 'परवाना' 1947 जैसी फिल्म में भी अभिनय किया।
वर्ष 1949 -50 मे सुरैया के सिने कैरियर मे अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। अपनी प्रतिद्वंद्वी अभिनेत्रियों नरगिस और कामिनी कौशल से भी वह आगे निकल गईं। इसका मुख्य कारण यह था कि सुरैया अभिनय के साथ-साथ गाने भी गाती थी। प्यार की जीत 'बडी बहन' (1948) और 'दिल्लगी' (1950 ) जैसी फिल्मों की कामयाबी के बाद सुरैया शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुंची।
संगीतकार हुस्रलाल भगत के संगीत निर्देशन में 'प्यार की जीत' और 'बडी बहन' जैसी फिल्मों के लिये 'वो पास रहे या दूर दूर रहे' और 'ओ दूर जाने वाले' जैसे गानों के जरिये ने सुरैया ने अपना अलग ही समां बांधा संगीत सम्राट नौशद के संगीत निर्देशन मे फिल्म दिल्लगी के गाने 'मुरली वाले मुरली बजा' जैसे गाने के जरिये श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया।
सुरैया के सिने कैरियर मे उनकी जोडी फिल्म अभिनेता देव आनंद के साथ खूब जमी। सुरैया और देव आनंद की जोड़ी ने इन फिल्मों - 'विद्या', 'जीत', 'शायर', 'अफसर', 'नीली' और 'दो सितारे' (1951) - में काम किया। फिल्म 'अफसर' के एक गाने की शूटिंग के दौरान देव आनंद और सुरैया की नाव पानी में पलट गई। देव आनंद ने सुरैया को डूबने से बचाया। इसके बाद सुरैया देव आनंद से बेइंतहा मोहब्बत करने लगी, लेकिन सुरैया की नानी की इजाजत न मिलने पर यह जोड़ी परवान नहीं चढ सकी। वर्ष 1954 में देव आनंद ने उस जमाने की मशहूर अभिनेत्री कल्पना कार्तिक से शादी कर ली। इससे आहत सुरैया ने आजीवन कुंवारी रहने का फैसला कर लिया।
वर्ष 1950 से लेकर 1953 तक सुरैया के सिने कैरियर के लिए बुरा वक्त साबित हुआ, लेकिन वर्ष 1954 में प्रदर्शित फिल्म 'मिर्जा गालिब' और 'वारिस' की सफलता ने सुरैया एक बार फिर से फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गई । फिल्म 'मिर्जा गालिब' को राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से भी सम्मानित किया गया। फिल्म को देख तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इतने भावुक हो गए कि उन्होंने सुरैया को कहा, "तुमने मिर्जा गालिब की रूह को जिंदा कर दिया..।" वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म 'रुस्तम सोहराब' के बाद सुरैया ने खुद को फिल्म इंडस्ट्री से अलग कर लिया। लगभग तीन दशक तक अपनी जादुई आवाज और अभिनय से दर्शकों का दिल जीतने वाली भारतीय सिने जगत की महान पार्श्वगायिका और अभिनेत्री सुरैया 31 जनवरी 2004 को इस दुनिया को अलविदा कह गई।

Dark Saint Alaick
02-02-2012, 11:11 AM
दो फरवरी विश्व आर्द्र भूमि दिवस या वेटलैंड डे पर
अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं धरती को संतुलित रखने वाले आर्द्र क्षेत्र

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14909&stc=1&d=1328166651

दुनिया को प्राणवायु प्रदान करने वाली और पर्यावरण को संतुलित रखने में निर्णायक भूमिका निभाने वाली आर्द्र भूमि आज मानव के बढते लालच का शिकार हो रही है और विशेषज्ञों के मुताबिक इसे बचाने के लिये यदि कारगर प्रयास नहीं किया गया तो इसके लुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा ।

देश के पूर्व कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री ने बताया कि जिन जमीनी क्षेत्रों में हमेशा पानी भरा रहता है और दलदली स्थितियां रहती हैं उन्हें आर्द्र प्रदेश कहा जाता है । इन जगहों पर पशु, पक्षी, पौधे और जड़ी बूटियां पाये जाते हैं । उन्होंने बताया कि ज्यादातर पशु या तो जलचर होते हैं या ऐसी परिस्थितियों में रहने में सक्षम होते हैं ।

उन्होंने कहा, ‘‘प्रकृति ने नम जमीन वाले इन क्षेत्रों में ऐसी जैव विविधता बनाई है जो केवल वहीं पाई जाती है । इस विविधता को बनाये रखने के लिये केवल आर्द्र भूमि की परिस्थितियां आवश्यक होती हैं ।’’ उन्होंने बताया कि भारत में विश्व प्रसिद्ध सुंदरवन, असम के काजीरंगा उद्यान के कुछ क्षेत्र, कच्छ का रण और उड़ीसा की चिल्का झील इसके उदाहरण हैं ।

शास्त्री ने कहा, ‘‘यह क्षेत्र जमीन पर संतुलन बनाने के साथ साथ, तापमान, प्राणवायु (आक्सीजन) के संतुलन का काम करते हैं । ये जैव विविधता को बनाये रखने में महती भूमिका निभाते हैं । सौर उर्जा के रूप में जो उर्जा यहां से उत्सर्जित होती है, वही उपर जाकर अन्य जगह फैलती है । ये क्षेत्र वायु और जल का चक्र बनाये रखने और आंधियों को रोकने में मदद करते हैं ।’’

पर्यावरण संरक्षण के दिशा में काम करने वाली नामचीन संस्था ‘वातावरण’ की निदेशक अलका तोमर ने बताया कि आर्द्र प्रदेश में बहुत बड़ी मात्रा में पानी संग्रहित होता है जो जमीन के अंदर जलस्तर को बनाये रखता है । यह एक तरह से छोटे ‘इको सिस्टम’ जैसा होता है ।

अलका तोमर ने कहा, ‘‘आज इन दलदली क्षेत्रों पर खतरा मंडरा रहा है । बड़े बड़े बिल्डर, भू माफिया संगठन इन क्षेत्रों के सूखने की ताक में हैं ताकि वहां पर कब्जा कर इमारतें बनाई जायें । राजधानी दिल्ली में यमुना की कछारी जमीन पर बिल्डर कब्जा करने का प्रयास कर रहे हैं ।’’

शास्त्री कहते हैं कि पृथ्वी सम्मेलन और स्टॉकहोम समझौते के बाद आज वैश्विक स्तर पर जागरूकता में बढोत्तरी हुई है लेकिन औद्योगिक कूड़े-कचरे के कारण इन क्षेत्रों की शुद्धता खतरे में पड़ गई है । इन क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियां इसको संकट में डाल में डाल रही हैं और आर्द्र क्षेत्रों की निगरानी में भी कमी आई है । उन्होंने कहा कि आज जरूरत इस बात की है कि इन क्षेत्रों में सरकार अपनी निगरानी बढाये ।

गौरतलब है कि ईरान के रामसर शहर में दो फरवरी 1971 को विश्व समुदाय द्वारा आर्द्र भूमि पर एक समझौते को अपनाये जाने की याद में हर वर्ष इस दिन आर्द्र भूमि दिवस (वेटलैंड डे) मनाया जाता है । इस वर्ष की विषय वस्तु आर्द्र भूमि और पर्यटन है ।

Dark Saint Alaick
03-02-2012, 05:46 PM
विश्व कैंसर दिवस 4 फरवरी पर
युवा पीढी को कैंसर के शिकार बना रहे हैं हुक्का पार्लर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15024&stc=1&d=1328353231

महानगरों और बडे शहरों में तेजी से फैल रहे हुक्का पार्लर युवा पीढी को कैंसर का ग्रास बना रहे हैं। कैंसर विशेषज्ञों ने युवकों के बीच आधुनिक और मौज-मस्ती वाली जीवन शैली का पर्याय बन चुके हुक्का का पार्लरों के नियमन के लिये तत्काल कदम उठाने की मांग करते हुये कहा कि युवा पीढी में सिगरेट से कहीं अधिक हुक्का पीने और तंबाकू के अन्य उत्पादों के सेवन का प्रचलन बढ रहा है, जो सिगरेट से कम हानिकारक नहीं हैं और इसलिये सरकार को इस बारे में सम्पूर्ण नीति बनाने चाहिये ताकि तंबाकू के सभी उत्पादों के सेवन एवं धूम्रपान के सभी तरीकों पर रोक लग सके।
कैंसर विशेषज्ञ एवं एशियन इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल साइंसेस (एआईएमएस) के निदेशक डा. एन. के. पाण्डे ने कहा कि अगर तंबाकू के इस्तेमाल और धूम्रपान पर तत्काल सम्पूर्ण रोक नहीं लगायी गयी तब आने वाले समय में तंबाकू जनित कैंसर सबसे बडा हत्यारा साबित होगा। कैंसर विशेषज्ञों का कहना है कि सिगरेट के पैकेटों पर सचित्र चेतावनी छापने और फिल्मों में धूम्रपान के दृश्यों पर प्रतिबंध लगाने के लिये किये जा रहे आधे..अधूरे उपायों से तंबाकू जनिक कैंसर पर कोई लगाम लगने वाला नहीं है और इसके लिये सरकार को सभी तंबाकू उत्पादों के उपयोग को रोकने के लिए कडे कानून लाना चाहिए।
एसोसिएशन आफ सर्जन्स आफ इंडिया (एएसआई) के पूर्व अध्यक्ष डा. पाणडे का कहना है कि हुक्का पीने वाले सोचते हैं कि हुक्का सिगरेट से कम हानिकारक है, लेकिन वास्तव में सिगरेट की तरह बल्कि कहीं अधिक स्वास्थय समस्याएं पैदा करता है। चिकित्सा अनुसंधानों में भी पाया गया है कि हुक्का कैंसर पैदा करता है और यह वास्तव में सिगरेट की तुलना में अधिक हानि पहुंचाता है। विश्व स्वास्थय संगठन डब्ल्यू एच ओ की एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सिगरेट तुलना में हुक्का कहीं अधिक खतरनाक है।
डा. पांडे का कहना है कि यह एक गलत धारणा है कि हुक्का पीना सिगरेट पीने की तुलना में अधिक सुरक्षित है क्योंकि हुक्के का धुंआ सांस के माध्यम से अंदर लेने से पहले पानी के द्वारा फिल्टर होता है। हाल के अध्ययनों में पाया गया है कि हुक्का पीने वाले सिगरेट पीने वालों की तुलना में वास्तव में अधिक निकोटिन सांस के द्वारा अंदर लेते हैं क्योंकि वे हुक्का के द्वारा अधिक मात्रा में धुंआ अंदर लेते हैं। युवा पीढी विलासितापूर्ण जीवन शैली की आदी हो रही है और शारीरिक रू प से सक्रि य नहीं है। उनके दैनिक कार्यक्र म में व्यायाम के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन तंबाकू के लिए काफी जगह है। तंबाकू में 300 कैंसर रसायन और 4000 हानिकारक रसायन होते हैं जो मुंह या गले के कैंसर को बढावा देते हैं। 'धूम्रपान' प्रदूषण और जीवन शैली में तेजी से हो रहे बदलाव जैसे कारणों से हमारे देश में कैंसर का प्रकोप बहुत तेजी से बढ रहा है। आंकडों के अनुसार हमारे देश में 30 लाख कैंसर के रोगी है और हर साल इसमें 8 लाख नये रोगी जुड जाते हैं और इस रोग के कारण हर साल साढे 5 लाख लोगों की मौत हो जाती है। कैंसर के 70 प्रतिशत से अधिक मामलों का पता तब चलता है जब रोग काफी बढ चुका होता है और इस कारण कैंसर रोगियों के जीवित रहने की संभावना कम होती है।
डा. एन. के. पांडे ने कहा कि भारत में कैंसर की घटनाओं में वृद्धि के लिए शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, जीवन शैली में परिवर्तन और जनसांख्यिकीय प्रोफाइल में परिवर्तन मुख्य तौर पर जिम्मेदार है ऐसे में कैंसर की रोकथाम और कैंसर रोगियों की जिंदगी की गुणवत्ता में सुधर लाने पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। श्वसन चिकित्सा विशेषज्ञ डा. मानव मनचंदा ने कहा कि आजकल धूम्रपान को फैशन का पर्याय माना जाता रहा है, लेकिन यह न सिर्फ धूम्रपान करने वालों के स्वास्य के लिए खतरनाक है, बल्कि जो व्यक्ति अप्रत्यक्ष रू प से तंबाकू के धुएं को सांस के जरिए शरीर के अंदर ले लेते हैं, यह उनके स्वास्य के लिए भी उतना ही खतरनाक है। उन्होंने बताया कि एशियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेस की ओपीडी में आने वाले मरीजों में फेफडे के कैंसर के मामलों में 10 प्रतिशत और सीओपीडी (क्रोनिक आब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज) के मामलों में 20 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी।
डा. मनचंदा के कहा कि फेफडे के कैंसर और सीओपीडी के मामलों में वृद्धि अप्रत्यक्ष धूम्रपान, एस्बेस्टस जैसे औद्योगिक कैंसरजन्य पदार्थों, हवा और वाहनों के प्रदूषण के कारण भी हो रही है। गुटका खाने के कारण मुंह के कैंसर के मामलों में भी वृद्धि हो रही है। हालांकि तंबाकू का इस्तेमाल आज के समय में बहुत बडी स्वास्य समस्या बन गयी है और इसलिये पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक प्रदूषण बढते स्तर और एस्बेस्टस के इस्तेमाल जैसे अन्य कारकों पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। डा. पांडे ने कहा कि कैंसर की रोकथाम में जागरू कता तथा बीमारी की जल्द पहचान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
रेडियेशन ओंकोलॉजी विशेषज्ञ डा. नीतू सिंघल का कहना है कि समय पर रोग की पहचान और शीघ्र उपचार इलाज और लंबे समय तक जीवित रहने की कुंजी है। आज जांच के आधुनिक और परिष्कृत उपकरणों की मदद से कैंसर की न सिर्फ बहुत शुरूआती अवस्था में ही पहचान की जा सकती है बल्कि कभी-कभी तो इसकी कैंसरपूर्व अवस्था में ही इसकी पहचान हो सकती है। कैंसर अचानक नहीं होता है बल्कि यह एक र्पंक्रिया है जो कई साल का समय लेती है। आधुनिक उपकरणों और विभिन्न प्रयोगशला जांच तकनीकों की मदद से कैंसर की शुरूआती अवस्था में ही पता लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि कैंसर की पहचान शीघ्र होने पर इलाज आसान हो जाता है।

Dark Saint Alaick
03-02-2012, 07:00 PM
चार फरवरी को पं. भीमसेन जोशी की जयंती पर
20 वीं सदी के महान शास्त्रीय गायक

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14988&stc=1&d=1328281201

बीसवीं सदी में भारतीय शास्त्रीय संगीत को नयी दिशा और अलहदा आयाम देने वालों में भीमसेन जोशी का नाम प्रमुख है और 1985 में तो वह ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ के जरिये घर-घर में पहचाने जाने लगे थे। तब से लेकर 26 साल बाद आज भी इस गाने के बोल और धुन पंडितजी की पहचान बने हुए हैं। संगीत शिक्षक और गायक पंडित मोहनदेव कहते हैं कि पंडित भीमसेन जोशी को बुलंद आवाज, सांसों पर बेजोड़ नियंत्रण, संगीत के प्रति संवेदनशीलता, जुनून और समझ के लिए जाना जाता था। उन्होंने सुधा कल्याण, मियां की तोड़ी, भीमपलासी, दरबारी, मुल्तानी और रामकली जैसे अनगिनत राग छेड़ संगीत के हर मंच पर संगीतप्रमियों का दिल जीता।

पंडित मोहनदेव ने कहा, ‘‘उनकी गायिकी पर केसरबाई केरकर, उस्ताद आमिर खान, बेगम अख्तर का गहरा प्रभाव था। वह अपनी गायिकी में सरगम और तिहाईयों का जमकर प्रयोग करते थे। उन्होंने हिन्दी, कन्नड़ और मराठी में ढेरों भजन गाए।’’ चार फरवरी, 1922 को कर्नाटक के गडग में जन्मे किराना घराने के प्रसिद्ध गायक भीमसेन जोशी का पिछले साल 88 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इन 88 वर्षों में वह आने वाली पीढियों के लिए अपने संगीत की अनमोल विरासत की रचना करते रहे।

वर्ष 1933 में जोशी ने अपने संगीत गुरू की तलाश में बीजापुर का अपना घर छोड़ दिया। वह तीन साल तक उत्तर भारत के दिल्ली, कोलकाता, ग्वालियर, लखनउ और रामपुर जैसे शहरों में घूमते रहे। जल्द ही उनके पिता ने जालंधर में उन्हें ढूंढ निकाला और उन्हें वापस घर ले गए।

वर्ष 1941 में जोशी ने 19 साल की उम्र में मंच पर अपनी पहली प्रस्तुति दी। इसके दो साल बाद वह रेडियो कलाकार के तौर पर मुंबई में काम करने लगे। ‘हिन्दुस्तानी म्यूजिक टुडे’ किताब में लेखक दीपक एस राजा ने जोशी के लिए लिखा है कि जोशी 20वीं सदी के सबसे महान शास्त्रीय गायकों में से एक थे। उन्होंने हिन्दी, कन्नड़ और मराठी में खयाल, ठुमरी और भजन गायन से तीन पीढियों को आनंदित किया। उनकी अपनी अलग गायन शैली थी। राजा के अनुसार, ‘‘जोशी ने सवाई गंधर्व से गायिकी का प्रशिक्षण लिया था। उनके संगीत करियर में एक से बढकर एक बेजोड़ उपलब्धियां शामिल हैं। जोशी ग्रामोफोन कंपनी आॅफ इंडिया :एचएमवी: का प्लैटिनम पुरस्कार पाने वाले एकमात्र भारतीय शास्त्रीय संगीत गायक थे।’’

जोशी ने कई फिल्मों के लिए भी गाने गाए। उन्होंने ‘तानसेन’, ‘सुर संगम’, ‘बसंत बहार’ और ‘अनकही’ जैसी कई फिल्मों के लिए गायन भी किया। पंडितजी शराब पीने के शौकीन थे, लेकिन संगीत करियर पर इसका प्रभाव पड़ने पर 1979 में उन्होंने शराब का पूरी तरह से त्याग कर दिया। भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दिए गए अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारतरत्न जैसे सर्वोच्च नागरिक सम्मानों से सम्मानित किया गया।

Dark Saint Alaick
03-02-2012, 07:48 PM
पुण्यतिथि 4 फरवरी पर विशेष
भगवान दादा की नृत्य शैली अपनाई है बिग बी ने

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अमिताभ बच्चन का प्रत्येक प्रशंसक उनकी नृत्य शैली का दीवाना रहा है, लेकिन उन्होने जिस शख्स भगवान दादा की नृत्य शैली अपनाकर अपने अभिनय में चार चांद लगाये उसे आज बहुत कम लोग जानते हैं। भगवान दादा का मूल नाम भगवान आभाजी पल्लव था। फिल्मों से जुड़ी कोई भी चीज उनसे अछूती नहीं रही। वह ऐसे हँसमुख इंसान थे, जिनकी उपस्थिति मात्र से माहौल खुशनुमा हो उठता था। हंसते-हंसाते रहने की प्रवृत्ति को उन्होने अपने अभिनय, निर्माण और निर्देशन में भी बखूबी उकेरा। भगवान दादा का यह अंदाज आज भी उनके चहेतों की यादों में तरोताजा है।
भगवान दादा का जन्म वर्ष 1913 में मुंबई के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता एक मिल कर्मचारी थे। बचपन से ही भगवान दादा का रूझान फिल्मों की ओर था। वह अभिनेता बनना चाहते थे। शुरूआती दौर में भगवान दादा ने श्रमिक के तौर पर काम किया। भगवान दादा ने अपने फिल्मी करियर के शुरूआती दौर में बतौर अभिनेता मूक फिल्मों में काम किया। इसके साथ ही उन्होंने फिल्म स्टूडियो में रहकर फिल्म निर्माण की तकनीक सीखनी शुरू कर दी। इस बीच उनकी मुलाकात स्टंट फिल्मों के नामी निर्देशक जी.पी. पवार से हुई और वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे।
बतौर निर्देशक वर्ष 1938 प्रदर्शित फिल्म बहादुर किसान भगवान दादा के सिने कैरियर की पहली फिल्म थी, जिसमें उन्होंने जी.पी. पवार के साथ मिलकर निर्देशन किया था। इसके बाद दादा ने 'राजा गोपीचंद', 'बदला', 'सुखी जीवन', 'बहादुर' और 'दोस्ती' जैसी कई फिल्मों का निर्देशन किया, लेकिन ये सभी टिकट खिड़की पर विफल साबित हुईं।
वर्ष 1942 में भगवान दादा ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया और जागृति पिक्चर्स की स्थापना की। इस बीच उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और कई फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया लेकिन इससे उन्हें कोई खास फायदा नही पहुंचा। वर्ष 1947 में भगवान दादा ने अपनी कंपनी जागृति स्टूडियो की स्थापना की। भगवान दादा की किस्मत का सितारा वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म 'अलबेला' से चमका। राज कपूर के कहने पर भगवान दादा ने फिल्म अलबेला का निर्माण और निर्देशन किया। बेहतरीन गीत-संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की कामयाबी ने दादा को स्टार के रूप में स्थापित कर दिया।
आज भी इस फिल्म के सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। सी. रामचंद्र के संगीत निर्देशन में भगवान दादा पर फिल्माये गीत 'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के' उन दिनों युवाओं के बीच गजब का क्रेज बन गया था। 'भोली सूरत दिल के खोटे नाम बड़े और दर्शन छोटे', 'शाम ढ़ले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' भी श्रोतोओं के बीच बहुत ही लोकप्रिय हुए थे।
फिल्म 'अलबेला' की सफलता के बाद भगवान दादा ने 'झमेला', 'रंगीला', 'भला आदमी', 'शोला जो भड़के' और 'हल्ला गुल्ला' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया, लेकिन ये सारी फिल्म टिकट खिड़की पर विफल साबित हुईं, हालांकि इस बीच उनकी वर्ष 1956 में प्रदर्शित फिल्म भागम भाग हिट रही। वर्ष 1966 में प्रदर्शित फिल्म 'लाबेला' बतौर निर्देशक भगवान दादा के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुई। दुर्भाग्य से इस फिल्म को भी दर्शको ने बुरी तरह नकार दिया।
फिल्म 'लाबेला' की विफलता के बाद बतौर निर्देशक भगवान दादा को फिल्मों में काम मिलना बंद हो गया और बतौर अभिनेता भी उन्हें काम मिलना बंद हो गया। परिवार की जरूरत को पूरा करने के लिये उन्हें अपना बंगला और कार बेचकर एक छोटे से चॉल में रहने के लिये विवश होना पड़ा। इसके बाद वह माहौल और फिल्मों के विषय की दिशा बदल जाने पर भगवान दादा चरित्र अभिनेता के रूप में काम करने लगे, लेकिन तब नौबत यहां तक आ गई कि जो निर्माता-निर्देशक पहले उनको लेकर फिल्म बनाने के लिए लालायित रहते थे, उन्होंने भी उनसे मुंह मोड़ लिया। इस स्थिति में उन्होंने अपना गुजारा चलाने के लिए फिल्मों में छोटी-छोटी मामूली भूमिकाएं करनी शुर कर दीं। बाद में हालात ऐसे हो गए कि भगवान दादा को फिल्मों में काम मिलना लगभग बंद हो गया। हालात की मार और वक्त के सितम से बुरी तरह टूट चुके हिन्दी फिल्मों के स्वर्णिम युग के अभिनेता भगवान दादा ने चार फरवरी 2002 को गुमनामी के अंधरे में रहते हुये इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

Dark Saint Alaick
04-02-2012, 05:50 PM
पांच फरवरी को ईद-उल मिलाद-उन-नबी पर
पैगम्बर की शिक्षा, बच्चियों की पैदाइश है जन्नत में जाने का जरिया

पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने इस दुनिया को इंसानियन, ‘एकेश्वरवाद’ और समता का संदेश देने के साथ ही महिलाओं को आला मुकाम दिया है । उन्होंने बच्चियों की पैदाइश और उनकी परवरिश को ‘जन्नत में दाखिल होने का जरिया’ करार दिया। अल्लाह के रसूल कहे जाने वाले पैगम्बर का जन्म 12 रबीउल अव्वल (22 अप्रैल, 571 ) को मक्का में हुआ था। इस्लामी विद्वानों में उनके जन्मदिवस को लेकर मतभेद हैं, हालांकि वैश्विक स्तर पर आमतौर पर अरबी महीने रबीउल अव्वल की 12 तारीख को ही नबी की पैदाइश का दिन माना गया है। कई इस्लामी तारीखदानों के मुताबिक अरबी कैलेंडर की इसी तारीख को पैगम्बर का वफात (देहावसान) भी हुआ था।

इस्लामी मामलों के जानकार और जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर जुनैद हारिस कहते हैं, ‘‘पैगम्बर की पैदाइश की तारीख को लेकर मतभेद हैं, लेकिन ज्यादातर इस्लामी विद्वान इसे 12 रबी उल अव्वल ही मानते हैं। वफात भी इसी तारीख को हुआ था।’’

दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम अहमद का भी मानना है कि पैगम्बर के जन्मदिवस को लेकर आमतौर पर सभी सहमत हैं कि 12 रबी उल अव्वल को ही हजरत मुहम्मद इस दुनिया में आए थे।

हजरत मुहम्मद के मां का नाम आमिना (अमीना) और पिता का नाम अब्दुल्ला था। पैगम्बर का जन्म उस दौर में हुआ, जब अरब जगत में आडंबर, सामाजिक बुराइयों, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और नवजात बच्चियों की हत्या का दौर था। उस वक्त लड़कियों की पैदाइश को एक सामाजिक शर्म और तौहीन माना जाता था। ऐसे में लोग बच्चियों की पैदा होते ही हत्या कर देते थे। अरब सरजमीं पर मौजूद इन बुराइयों के खिलाफ पैगम्बर ने आवाज उठाई तो उनकी राह में तरह-तरह की मुश्किलें पैदा की गईं, हालांकि अल्लाह के नबी आगे बढते चले गए। हारिस कहते हैं, ‘‘उस वक्त पैगम्बर ने नवजात बच्चियों की हत्या के खिलाफ अभियान छेड़ा। उन्होंने कहा कि बच्चियों का पैदा होना और उनकी सही ढंग से परवरिश करना जन्नत में जाने का जरिया है।’’

हजरत मुहम्मद को 40 साल की उम्र में खुदा ने नबी का ओहदा दिया और इसके बाद से ही उन पर पवित्र कुरान नाजिल (अवतरित) हुई। नबी का ओहदा मिलने से पहले ही वह अरब जगत में सामाजिक बदलाव और आडंबर के खिलाफ क्रांति की मशाल जला चुके थे। महज 25 साल की उम्र में 40 की विधवा खदीजा से निकाह करके उन्होंने सबसे बड़ा संदेश विधवा-विवाह का दिया था। उस वक्त के दौर में किसी महिला का विधवा होना एक बड़े गुनाह के तौर पर देखा जाता था।

इंसानियत और ‘एकेश्वरवाद’ का संदेश देने वाले रसूल समाज में महिलाओं को सम्मान एवं अधिकार दिए जाने की हमेशा पैरोकारी करते रहे। मुफ्ती मुकर्रम इस्लामी तारीख के मुताबिक एक वाक्या बयां करते हुए कहते हैं, ‘‘हजरत आयशा (पैगम्बर की पत्नी) के पास एक गरीब महिला अपनी दो बेटियों के साथ मिलने आई। उन्होंने उस महिला को तीन खजूर दिए । उस महिला ने पहले एक-एक खजूर अपनी बेटियों को दिए और फिर आधा-आधा दोनों को दिया। उसने खुद कोई खजूर नहीं खाया।’’

मुकर्रम ने बताया, ‘‘जब पैगम्बर घर लौटे, तो हजरत आयशा ने उस महिला का वाकया सुनाया। इस पर नबी ने कहा कि जो इंसान इस दुनिया में बच्चियों की खुशी-खुशी और सही ढंग से परवरिस करेगा, वो जन्नत में उनके बराबर में बैठने का हकदार होगा।’’

Dark Saint Alaick
06-02-2012, 12:55 AM
न डॉक्टर, न अस्पताल; मरीज करेगा अब खुद इलाज
नैनो टेक्नोलॉजी के जरिए कैंसर का हो सकेगा सफाया

नैनो टेक्नोलॉजी की बदौलत आने वाले समय में कैंसर जैसे गंभीर बीमार के इलाज के लिए डॉक्टरों और अस्पतालों के चक्कर काटने की जरूरत नहीं रहेगी बल्कि मरीज दवाई की कम खुराक के जरिए बीमारी को खुद ही छू मंतर कर सकेगा। एशियन इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल साइंसेस (एआईएमएस) के निदेशक डॉ. एन. के. पाण्डे ने विशव कैंसर दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में कैंसर के उपचार के क्षेत्र में विकसित हो रही नई तकनीकों का जिक्र करते हुए कहा कि भविष्य में जो तकनीकें विकसित होंगी उनकी मदद से मरीज खुद ही इस बीमारी का कई वर्ष पहले ही पता लगा सकेगा और नैनो औषधि की अत्यंत सूक्षम मात्रा के जरिए ही विकसित होने वाली कैंसर कोशिकाओं को समूल नष्ट कर सकेगा।
एसोसिएशन आफ सर्जन्स आफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष डॉ. पाण्डे ने हालांकि कहा कि यह एक सपना है जिसे हकीकत में बदलने के लिए चिकित्सा वैज्ञानिक जुटे हुए हैं और चिकित्सा विज्ञान में देखे जाने वाले अधिकतर सपने हकीकत में जरूर बदलते हैं। उन्होंने कहा कि आज से कुछ वर्ष पूर्व किसी ने सोचा नहीं होगा कि रोबोट आपरेशन करने लगेंगे लेकिन आज यह हो रहा है। आज हालांकि नैनो टेक्नोलॉजी का पूर्ण विकास नहीं हुआ है लेकिन चिकित्सा विज्ञान के कई क्षेत्रों में इसका इस्तेमाल शुरू हो गया है। मिसाल के तौर पर र्पोंस्टेट कैंसर के निदान में नैनो मेडिसिन अहम भूमिका निभा रही हैं। मैगनेटिक नैनो पार्टिकल्स से कैंसर का पता लगाना आसान हो गया है।
डॉ. पाण्डे ने बताया कि चिकित्सा क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव के लिए नैनो टेक्नोलॉजी के पूर्ण विकास पर वैज्ञानिकों का विशेष ध्यान है। शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में इससे बड़ा बदलाव होगा। साथ ही ऐसी तकनीक विकसित होगी जिससे क्षण भर में आपरेशन संभव होगा। नैनो टेक्नोलॉजी की कल्पना नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकशास्त्री रिचर्ड पी फिनमेन ने कई सालों पहले की थी। नैनो एक र्गींक शब्द है जिसका शब्दिक अर्थ है बौना। मीटर के पैमाने पर देखा जाए तो यह। मीटर का अरबवां भाग होता है। नैनो टेक्नोलॉजी वह अप्लाइड साइंस हैं, जिसमें 100 नैनोमीटर से छोटे पार्टिकल्स पर भी काम किया जाता है। इस तकनीक से आज दवाइयों से लेकर धातुओं तक में नए-नए प्रयोग देखने को मिल रहे हैं। इस तकनीक की कार्यक्षमता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बाल की मोटाई से हजार गुना पतली चीजें भी बनाई जा सकती है। साधारण रूप में समझा जाए तो मनुष्य के एक बाल की चौड़ाई 80000 नैनो मीटर होती है। सोच सकते हैं कि नैनो मीटर कितना छोटा होता होगा। इस तकनीक के जरिए सामान्य वस्तुओं और मशीनों की क्षमता कई लाख गुना तक बढ़ाई जा सकती है।
नैनो स्केल पर किसी पदार्थ के परमाणुओं में जोड़-तोड़ करना, उन्हें पुनर्व्यवस्थित कर मनचाही आकार में ढालना ही नैनो टेक्नोलॉजी है। डॉ. पाण्डे ने कहा कि 21वीं सदी नैनो टेक्नोलॉजी की सेंचुरी होगी। कोई आश्चर्य नहीं कि इस तकनीक के जरिए कभी शक्कर के दाने के बराबर एक चिप में विश्व के समस्त पुस्तकालयों के किताबों की सभी जानकारियां समेटी जा सकेंगी। कैंसर जैसी बीमारियों की जांच में हुई प्रगति के बारे में मॉलीक्युलर पैथोलॉजी विशेषज्ञ डॉ. बी आर दास के मुताबिक आज बीमारियों की जांच के क्षेत्र में जो प्रगति हुई है उसकी बदौलत गंभीर से गंभीर बीमारियों का समयपूर्व पता लगाना आसान हो गया है। मिसाल के तौर पर मॉलीक्युलर पैथॉलॉजी के क्षेत्र में विकसित तकनीकों की बदौलत कई तरह के कैंसर का पता लगाने के लिए अब कष्टदायक बायोप्सी करने की जरूरत नहीं रहीं बल्कि रक्त के नमूने से ही यह जांच हो सकेगी। उन्होंने बताया कि आज मॉलीक्युलर डाग्नोटिक्स के जरिए कैंसर जैसी बीमारी के इलाज में अब कोई दवा देने से पहले ही यह पता चल सकता है कि वह दवा फायदा करेगी या नहीं।

Dark Saint Alaick
06-02-2012, 12:57 AM
देसी वियाग्रा तैयार, अब बाजार में उतारने की तैयारी

* कीड़ा जड़ी का वानस्पतिक नाम काडिसेप्स साइनेसिस है। जमीन में धंसे इस कीड़े के सिर पर उगी फफूंद से बनती है दवा
* यारसा गम्बू की भारतीय बाजार में कीमत नौ से ग्यारह लाख रुपए प्रति किलो

देहरादून। उत्तराखंड के पहाड़ों पर पाए जाने वाली कीड़ा जड़ी या यारसा गम्बू से शक्तिवर्धक और कमोत्तेजक दवा तैयार कर ली गई है तथा अब इस देसी वियाग्रा को विश्व बाजार में उतारने की तैयारी की जा रही है। लम्बे समय से यारसा गम्बू पर शोध कर रहे डिफेंस इंस्टीच्यूट आफ बायो एनर्जी रिसर्च गोरा पडाव हल्द्वानी (डीआईबीआईआर) को इसका कल्चर तैयार करने में कामयाबी मिली है। यारसा गम्बू से प्रयोगशाला में देसी वियाग्रा तैयार करने की तकनीक विकसित कर संस्थान ने इसका पेटेंट करा लिया है। डीआईबीआईआर के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. प्रेम सिंह नेगी ने बताया कि पेटेंट मिलने के बाद संस्थान ने अपनी तकनीक दिल्ली की एक दवा निर्माता कंपनी बायोटेक इंटरनेशनल को हस्तान्तरित कर दी है। भारतीय वन अनुसंधान संस्थान के सेवानिवृत्त वनस्पति वैज्ञानिक डॉ. एच बी नैथानी के अनुसार यारसा गम्बू या कीड़ा जड़ी का वानस्पतिक नाम काडिसेप्स साइनेसिस है। इसका जमीन से धंसा भाग कीड़ा होता है और उसके सिर पर उगा फफूंद पादक में आ जाता है। तिब्बत में यारसा का अर्थ गर्मी का घास तथा गम्बू का अर्थ सर्दी का कीड़ा होता है।
यारसा गम्बू से तैयार शक्तिवर्धक दवा का उपयोग खिलाड़ी करते हैं जिसका पता डोप टेस्ट में भी नहीं चल पाता है। इस दवा का मुख्य तत्व सेलेनिम होता है जो कैंसर, एड्स, क्षय रोग, दर्द और ल्यूकेमिया आदि कई बीमारियों के इलाज में काम आता है। यह कैंसर कोशिकाओं के विखंडन को नियंत्रित करता है। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग के सेवानिवृत्त वनस्पति वैज्ञानिक सुरेन्द्र सिंह भरतवाल के अनुसार कीड़ा जड़ी समुद्र तल से 3000 मीटर से लेकर 6000 मीटर ऊंचाई तक के इलाकों में पाई जाती है। मई के बाद जैसे ही बर्फ पिघलने लगती है वैसे ही आठ टांगों वाला यह कीड़ा धरती में घुस जाता है और उसके सिर पर चोटी की तरह फफूंद निकल आता है। यह फफूंद जून या जुलाई में दिखाई देने लगता है और इसके बाद लोग इसे जमा करना शुरू कर देते हैं।
यारसा गम्बू की भारतीय बाजार में कीमत नौ से ग्यारह लाख रुपए प्रति किलो है जबकि अंतर्राष्टñीय बाजार में यह 17 से 20 लाख रुपए प्रति किलो की दर पर उपलब्ध है। उत्तराखंड सरकार ने 2002 में एक आदेश जारी कर स्थानीय लोगों को ग्राम पंचायत और सहकारी संगठनों के माध्यम से इसके दोहन की अनुमति दी थी, लेकिन लोग इसे केवल राज्य वन निगम के माध्यम से ही बेच सकते थे।

Dark Saint Alaick
07-02-2012, 04:52 AM
सात फरवरी को सेंड ए कार्ड टू योर फ्रेंड डे पर
मोबाइल, इंटरनेट से कम हुआ लोगों में ग्रीटिंग कार्ड भेजने का चलन

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क्या आपको याद है आपने कब अपने किसी खास दोस्त या पुराने मित्र को ग्रीटिंग कार्ड भेजा था। यदि नहीं तो आज का दिन इसके लिए एकदम सही है क्योंकि कार्ड न केवल रिश्तों को जोड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं बल्कि इन्हें सालों साल तक तरोताजा भी रखते हैं। कई पश्चिमी देशों में सात फरवरी को ‘सेंड ए कार्ड टू योर फ्रेंड डे’ के रूप में मनाया जाता है। दरअसल आज के इंटरनेट और मोबाइल के युग में लोगों में ग्रीटिंग कार्ड या हाथ से बने कार्ड भेजने का चलन काफी कम हो गया है और इसकी जगह ई कार्ड ने ले ली है। एमएससी की छात्रा आकांक्षा शर्मा ने इस बारे में कहा कि स्कूल के दिनों में तो हम अपने दोस्तों को कार्ड भेजते थे लेकिन अब तो एसएमएस और फोन के जरिए ही बधाई आदि दे दी जाती है। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे याद है बचपन में हम अपने दोस्तों को दीपावली, जन्मदिन या अन्य किसी मौके पर कार्ड देते थे। मित्र अगर बहुत ही खास हो तो बाकायदा ड्राइंग शीट लाकर हाथ से बधाई संदेश लिखकर कार्ड बनाते थे। अपने पास ऐसा कोई कार्ड आने पर उसे सहेज कर रखते थे।’’ आकांक्षा ने कहा, ‘‘लेकिन अब तो फोन, मोबाइल और इंटरनेट का जमाना है। इसलिए कार्ड भेजने का चलन काफी कम हो गया है। बधाई आदि देने का काम अब एसएमएस और मोबाइल के जरिए ज्यादा आसान हो गया है। पेपर कार्ड की जगह ई कार्ड ने ले ली है।’’
इस बारे में इंजीनियरिंग के छात्र विनय रॉय ने कहा कि बदलती तकनीकी ने कार्ड भेजने के चलन को कम नहीं किया है बस इसका स्वरूप कुछ बदल दिया है। अब पेपर कार्ड की जगह ई कार्ड दोस्तों को याद करने का और उन्हें उनकी अहमियत जताने का जरिया बन गए हैं। उन्होंने कहा, ‘‘अब पेपर से बने ग्रीटिंग कार्ड की जगह ई कार्ड ने ले ली है और यह इसका अच्छा विकल्प भी हैं।’’ राहुल ने कहा, ‘‘ये बात अलग है कि एसएमएस या ई कार्ड में वो बात नहीं होती। दोस्तों के भेजे पुराने कार्ड मैंने आज भी सहेजकर रखे हैं जिन्हें देखकर बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं। ई कार्ड को सहेज कर नहीं रखा जा सकता।’’ आकांक्षा ने कहा, ‘‘कहीं न कहीं एसएमएस या ई कार्ड बदलते दौर की मजबूरी भी हैं। पहले अक्सर दोस्त साथ होते थे या आसपास के शहरों में ही रहते थे। लेकिन अब कुछ मित्र नौकरी या किसी अन्य कारण से देश के बाहर हैं। ऐसे में फोन या ईमेल के जरिए बधाई देना ज्यादा आसान हो जाता है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘हालांकि बाजार में मिलने वाले म्युजिकल ग्रीटिंग कार्ड जरूर काफी लोकप्रिय हैं और वेलेंटाइन डे जैसे अवसरों पर दोस्तों को इन्हें देने का मजा ही कुछ और है।’’

Dark Saint Alaick
12-02-2012, 02:55 AM
जन्मदिवस 12 फरवरी पर विशेष
दर्शकों में सिहरन पैदा करने वाले खलनायक प्राण

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15179&stc=1&d=1329000861 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15180&stc=1&d=1329000861 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15181&stc=1&d=1329000861

हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम काल माने जाने वाले 1950 और 60 के दशक में खलनायकी का पर्याय बने प्राण ने इस विधा को ऐसा आयाम दिया कि उनके परदे पर अवतरित होते ही दर्शकों में सिहरन पैदा होने लगती और सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाते उनके किरदार से नायक और नायिकाओं के कान खड़े हो जाते। खलनायकी की भूमिका का अलग मानक स्थापित करने वाले प्राण ने मनोज कुमार की चर्चित फिल्म उपकार में मलंग चाचा की चरित्र भूमिका की। इस सकारात्मक भूमिका को उन्होंने चुनौती के तौर पर लिया और इसमें खलनायकी के लिए ‘कुख्यात’ प्राण ने बेहतरीन भूमिका की। इस फिल्म का एक गाना ‘कसमें वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या’ आज भी खूब पसंद किया जाता है। उपकार की इस भूमिका के साथ ही उनकी छवि बदल गयी और वह चरित्र भूमिकाओं में नजर आने लगे। इन फिल्मों में जंजीर, बॉबी, अमर अकबर एंथनी, डॉन, दोस्ताना, कालिया, शराबी आदि शामिल हैं। 300 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय कर चुके प्राण दिल्ली के एक समृद्ध परिवार में पैदा हुए। पढाई में होशियार प्राण कृष्ण सिकंद यानी प्राण फोटोग्राफर बनना चाहते थे लेकिन संयोग ऐसा हुआ कि वह फिल्मो में आ गए और यहां उन्होंने लंबे समय तक अपने अभिनय का लोहा मनवाया।
दर्जनों पुरस्कारों से सम्मानिम प्राण ने हर किरदार में नयी जान डाल दी। उम्र बढने के साथ ही उन्होंने फिल्मों में अभिनय कम कर दिया लेकिन संवाद अदायगी की उनकी विशिष्ट शैली अब भी याद की जाती है। उनकी शुरूआती फिल्में हों या बाद की, उनकी अदाकारी में दोहराव नहीं दिखता। उल्लेखीय है कि उन्होंने अभिनय का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था। लेकिन उनके अभिनय में इतनी विविधता रही है कि लोग फिदा हो जाते हैं। जब प्राण बतौर खलनायक प्रतिष्ठित हो चुके थे, उस दौर में उन्होंने कुछ फिल्मों में नायक और सहनायक की भूमिकाएं भी कीं। इन फिल्मों में राजकपूर की आह भी शामिल है जिसमें उन्होंने सकारात्मक भूमिका की थी। लेकिन आह को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली। प्राण ने ऐसी भूमिकाएं कीं जो फिल्मों का जरूरी हिस्सा लगती हैं। उन्होंने खलनायकी की भूमिका कर नायकों से ज्यादा नाम कमाया। प्राण ने दिलीप कुमार, राजकपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, मनोज कुमार, अमिताभ बच्चन, सहित कई दिग्गज कलाकारों के साथ दर्जनों फिल्मों में काम किया और अपनी अभिनय प्रतिभा से तमाम कलाकारों के बीच अलग पहचान बनायी। कई फिल्मों में वह नायकों और अन्य सह कलाकारों पर भारी दिखे। उनकी चर्चित फिल्मों में खानदान, जिद्दी, बरसात की एक रात, आजाद, मुनीमजी, मधुमती, चोरी चोरी, जिस देश में गंगा बहती है, देवदास, तुमसा नहीं देखा, कश्मीर की कली आदि शामिल हैं। दिलचस्प है कि परदे पर तमाम तरह के किरदार में दिखने वाले प्राण निजी जीवन में अपने अच्छे व्यवहार के लिए पहचाने जाते रहे हैं। समाज सेवा से जुड़े प्राण एक फुटबाल क्लब से भी जुड़े रहे हैं।

Dark Saint Alaick
12-02-2012, 02:59 AM
सदी के खलनायक हैं प्राण

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भारतीय सिनेमा जगत में सदी के खलनायक प्राण एक ऐसे अभिनेता के रूप में याद किये जाते हैं, जिन्होंने बतौर खलनायक पचास से सत्तर के दशक के बीच फिल्म इंडस्ट्री पर एकछत्र राज किया। शब्दों को चबा-चबा कर बोलना, सिगरेट के धुंए से छल्ले बनाना और हर पल अपने चेहरे का भाव बदलने लाने वाले प्राण ने उस दौर में खलनायकी को नया आयाम दिया। प्राण के पर्दे पर आते ही दर्शको के बीच एक अजीब सी सिहरन हो जाती थी। उनकी यह विशेषता रही है कि उन्होंने जितनी भी फिल्मों में अभिनय किया, उनमें हर पात्र को एक अलग अंदाज में दर्शको के सामने पेश किया।
प्राण का पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद है। उनका जन्म वर्ष 1920 में दिल्ली में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता केवल कृष्ण सिकंद सरकारी ठेकेदार थे। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह दिल्ली की ए. दास कंपनी में स्टिल फोटोग्राफी सीखने लगे। इसी दौरान उन्हें कंपनी के काम से लाहौर जाने का मौका मिला ।
एक दिन पान की दुकान पर प्राण की मुलाकात लाहौर के मशहूर पटकथा लेखक वली मोहम्मद से हुई। वली मोहम्मद ने उन्हें पंजाबी फिल्म यमला जट में काम करने का प्रस्ताव दिया, जिसे प्राण ने स्वीकार कर लिया। वर्ष 1940 में प्रदर्शित फिल्म यमला जट टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई। इसके बाद प्राण को दलसुख पंचोली की एक पंजाबी फिल्म 'चौधरी' (1941) में बतौर खलनायक काम करने का अवसर मिला। बतौर नायक प्राण ने अपने करियर की शुरुआत वर्ष 1942 में प्रदर्शित फिल्म 'खानदान' से की जो बतौर अभिनेत्री नूरजहां की भी पहली फिल्म थी।
इसके बाद प्राण ने सात-आठ फिल्मों में बतौर नायक काम किया, लेकिन तभी देश को बंटवारे की त्रासदी से गुजरना पड़ा और प्राण अपनी पत्नी शुक्ला और एक साल के बच्चे को लेकर मुंबई आ गए। मुंबई आने पर उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसी दौरान प्राण की मुलाकात उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो और अभिनेता श्याम से हुई, जिनकी मदद से उन्हें शाहिद लतीफ के निर्देशन में 1948 में बनी देव आनन्द और कामिनी कौशल अभिनीत 'जिद्दी' फिल्म में बतौर खलनायक के रूप में काम करने का अवसर मिला। फिल्म 'जिद्दी' की सफलता के बाद प्राण ने यह निश्चय किया कि वह खलनायकी को हीं अपने सिने करियर का आधार बनायेंगे और इसके बाद प्राण ने खलनायकी की लंबी पारी खेली और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया।
सत्तर के दशक में प्राण खलनायक की छवि से बाहर निकलकर चरित्र भूमिका पाने की कोशिश में लग गये। वर्ष 1967 में निर्माता-निर्देशक मनोज कुमार ने अपनी फिल्म 'उपकार' में प्राण को मलंग काका का एक ऐसा रोल दिया जो प्राण के सिने करियर में मील का पत्थर साबित हुआ। फिल्म 'उपकार' में प्राण ने मलंग काका के रोल को इतनी शिद्दत के साथ निभाया कि लोग प्राण के खलनायक होने की बात भूल गए। इस फिल्म के बाद प्राण के पास चरित्र भूमिका निभाने का तांता सा लग गया। इसके बाद उन्होंने सत्तर से नब्बे के दशक तक अपनी चरित्र भूमिकाओं से दर्शकों का मन मोहे रखा।
प्राण को उनके दमदार अभिनय के लिए तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1967 में प्रदर्शित फिल्म 'उपकार' के लिए प्राण को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिए पहला पुरस्कार मिला। इसके बाद बाद 1970 में फिल्म 'आंसू बन गए फूल' और वर्ष 1973 में फिल्म 'बेईमान' के लिए भी प्राण को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इन सबके साथ ही वर्ष 1997 में उन्हें लाइफ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार से और 'सदी के खलनायक' से सम्मानित किया गया। फिल्म के क्षेत्र में उनके बहुमूल्य योगदान को देखते हुए उन्हें 2001 में पद्मभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। प्राण की जीवनी पर 'टाइटल एंड प्राण' नामक किताब भी लिखी जा चुकी है। पुस्तक का यह टाइटल इसलिए रखा गया है, क्योंकि प्राण की अधिकतर फिल्मों में उनका नाम सभी कलाकारों के बाद 'एंड प्राण' लिखा हुआ आता था। कभी-कभी उनके नाम को इस तरह पेश किया जाता था 'अबोव आल प्राण'। प्राण ने अपने छह दशक लंबे सिने करियर में लगभग 350 फिल्मों में काम किया। उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में 'बडी बहन', 'आह', 'बिराज बहू', 'आजाद', 'हलाकू', 'मुनीमजी', 'मधुमती', 'छलिया', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'हाफ टिकट', 'कश्मीर की कली', 'शहीद', 'दो बदन', 'राम और श्याम', 'उपकार', 'ब्रह्मचारी', 'जानी मेरा नाम', 'अधिकार', 'गुड्डी', 'परिचय', 'विक्टोरिया नम्बर 203', 'बॉबी', 'जंजीर', 'मजबूर', 'कसौटी', 'अमर अकबर एंथनी', 'डॉन', 'कालिया', 'शराबी', 'सनम बेवफा' और 'मृत्युदाता' आदि शामिल हैं। अपने जीवन के लगभग 90 बसंत देख चुके प्राण इस उम्र में टेलीविजन पर अपने पसंदीदा खेल, फुटबाल, हाकी और क्रिकेट के मैच देखकर तथा बागबानी, अध्ययन और अपने पालतू कुत्तों की देखभाल में समय बिताते हैं।

Dark Saint Alaick
13-02-2012, 01:10 AM
13 फरवरी को जयंती के अवसर पर
स्वतंत्रता आंदोलन के साथ साहित्य के मोर्चे पर अहम योगदान रहा सरोजिनी नायडू का

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15231&stc=1&d=1329081025

स्वतंत्रता अदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष ‘स्वर कोकिला’ सरोजिनी नायडू ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई बल्कि साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। गांधीवादी नेता एन वासुदेवन ने कहा कि सरोजिनी नायडू ने गांधीजी के साथ मिलकर स्वतंत्रता स्वतंत्रता आंदोलन में बढ-चढकर हिस्सा लिया। सरोजिनी नायडू ने गांधी जी के दांडी मार्च में भाग लिया और समुद्र से मुट्ठी भर नमक उठाकर नमक कानून तोड़ा। उन्होंने कहा कि प्यार से गांधीजी को मिकी माउस कहकर पुकारने वाली सरोजिनी नायडू ने सैकड़ों हजारों महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा। उन्होंने गांधीजी की तुलना ईसा मसीह, मोहम्मद पैगंबर साहब और महात्मा बुद्ध से की थी। उनका गांधी और नेहरू से घनिष्ठ संबंध था। तेरह फरवरी 1879 को जन्मी सरोजिनी नायडू बहुत ही मेधावी छात्र थीं और वह महज 12 साल की उम्र में मद्रास विश्वविद्यालय से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में शीर्ष पर रहीं। उनके वैज्ञानिक पिता अगोरनाथ चट्टोपाध्याय उन्हें गणितज्ञ या वैज्ञानिक बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी दिलचस्पी काव्य में थी। उन्होंने अंग्रेजी में कविताएं लिखनी शुरू कर दी। उनके काव्य कौशल से प्रभावित होकर हैदराबाद के निजाम ने उन्हें विदेश जाकर पढने के लिए छात्रवृत्ति दी।

सरोजिनी नायडू ने किंग्स लंदन कॉलेज और गिरटन कालेज में अध्ययन किया। वहां समकालीन साहित्यिक हस्ताक्षर एडमंड गौस ने उन्हें भारतीय विषयों जैसे पर्वत, नदियां, मंदिर, आदि को कविताओं में व्यक्त करने की प्रेरणा दी। वासुदेवन कहते हैं कि नेहरू ने उनके बारे में कहा था कि उनका पूरा जीवन कविता और गीत था। पंद्रह साल की उम्र में वह डॉ गोविंदराजूलू नायडू से मिलीं और दोनों में प्यार हो गया। अध्ययन समाप्त करने के बाद 19 साल की उम्र में सरोजनी नायडू ने गोविंदराजूलू से अंतर-जातीय विवाह किया जो उस काल के लिए क्रांतिकारी कदम था। हालांकि पिता ने उनका पूरा समर्थन किया। वह 1905 में बंगाल विभाजन की पृष्ठभूमि में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ीं। वह गोपाल कृष्ण गोखले, रवींद्रनाथ टैगोर, मुहम्मद अली जिन्ना, एनी बेंसेंट, सी पी रामस्वामी अय्यर, गांधीजी एवं नेहरूजी के संपर्क में आयीं। उन्होंने देश में भ्रमण कर महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा। सन् 1925 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया और वह गांधीजी तथा अन्य नेताओं के साथ जेल गयीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वह गांधीजी के साथ 21 माह जेल में रहीं और गांधीजी के करीब आयीं। स्वतंत्रता के बाद वह उत्तर प्रदेश की गर्वनर बनीं। वह देश की पहली महिला गर्वनर थीं। हालांकि उनका कार्यकाल महज 18 माह का रहा। वह दो मार्च, 1949 को चल बसीं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियां ‘द गोल्डेन थ्रेशहोल्ड’, ‘द बर्ड आफ द टाइम’ और ‘द ब्रोकन विंग’ हैं।

Dark Saint Alaick
14-02-2012, 03:53 AM
14 फरवरी वेलेनटाइन डे पर विशेष
वक्त के साथ बदल गए मोहब्बत के मायने

वक्त बदला, सोच बदली और रिश्ते भी बदले। इस दौरान प्यार करने के अंदाज और इसके इजहार के तरीके भी बदले। आज का प्यार रूमानियत और कल्पना की रेशमी दुनिया से आगे व्यवहारिकता और हकीकत की खुरदरी जमीन पर टिका है। आज की पीढी मोहब्बत के हिंडोले पर झूलते हुए भी व्यवहारिकता की डोर थामे रखती है। जानकार इस बदलाव को समाज में होने वाले बदलावों का नतीजा मानते हैं। जामिया मिलिया इस्लामिया में समाज शास्त्र के प्रोफेसर मनोज कुमार जेना का कहना है कि सामाजिक बदलाव के साथ निश्चित तौर पर प्यार को जताने के मायने बदले हैं और इसमें एक तरह का खुलापन आया है। जेना ने कहा, ‘‘समाज में बदलाव होते हैं, जिसके साथ बहुत सारी चीजें बदलती हैं। प्यार को लेकर भी यह कहा जा सकता है। अब प्यार को लेकर खुलापन आया है, जो वैश्वीकरण का भी एक परिणाम है। बीते कुछ वर्षों में ज्यादा बदलाव देखने को मिले हैं।’’ इस दौर में ऐसे भी युवा हैं जो प्यार में जीने-मरने की कसमों को गुजरे जमाने की बात मानते हैं, जब लैला-मजनू, हीर-रांझा, शीरी-फरहाद, सोनी-महिवाल और रोमियो-जूलियट के मोहब्बत के किस्सों को सुना सुनाया जाता था।
आईआईटी दिल्ली से उत्तीर्ण और अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी चला रहे 27 वर्षीय योगेश गोयल कहते हैं, ‘‘मेरा मानना है कि प्यार एक बहुत खूबसूरत चीज है, लेकिन आज के दौर में बहुत सारी चीजें बदली हैं तो प्यार को लेकर लोगों को सोच भी बदली है। हमारी पीढी के लोग अब कल्पनाओं में नहीं जीते, वे व्यवहारिकता को महत्व देते हैं। प्यार में व्यवहारिकता एक महत्वपूर्ण तत्व है।’’ वह कहते हैं, ‘‘यह भी है कि आज की पीढी बहुत सारी बातों को ध्यान में रखकर ही किसी रिश्ते में पड़ती है। ऐसा नहीं है कि हमारी पीढी में भावुकता नहीं हैं, लेकिन वह भावुक होने से ज्यादा व्यवहारिक है।’’ इस दौर में लड़कियां का जोर भी ‘लांग टर्म कमिटमेंट’ और व्यवहारिकता पर है। नोएडा के एक बीपीओ कंपनी में कार्यरत 24 साल की भूमिका वाधवा कहती हैं, ‘‘आज के जमाने में लड़कियां रिश्ते में लांग टर्म कमिटमेंट चाहती हैं। इसके साथ वह व्यवहारिकता को तवज्जो देती हैं।’’ वेलेनटाइन डे के संदर्भ में उनका कहना है, ‘‘मेरा मानना है कि प्यार के लिए कोई एक दिन नहीं होना चाहिए। इस दिन के लिए मैं इसलिए खास मानती हूं कि बहुत सारे लोग इस दिन प्यार का इजहार कर पाने की हिम्मत जुटा पाते हैं। मेरा मानना है कि प्यार किसी एक दिन या किसी खास मौके का मोहताज नहीं है।’’

Dark Saint Alaick
19-02-2012, 01:21 AM
जन्मदिवस 18 फरवरी पर विशेष
अभिनेता बनना चाहते थे खय्याम

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15281&stc=1&d=1329600093

हिंदी फिल्म जगत में अपने संगीतबद्ध गीतों से लगभग पांच दशक तक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले संगीतकार खय्याम कभी अभिनेता बनना चाहते थे। 18 फरवरी 1927 को पंजाब के नवांशहर जिले के राहोन गांव में जन्में मोहम्मद जहूर हाशमी उर्फ 'खय्याम' का बचपन से ही गीत-संगीत की ओर रूझान था और वह फिल्मों में बतौर अभिनेता काम करके शोहरत की बुंलदियो तक पहुंचना चाहते थे। खय्याम अक्सर अपने घर से भागकर फिल्म देखने शहर चले जाया करते थे। उनकी इस आदत से घर वाले परेशान रहा करते थे। खय्याम की उम्र जब महज 10 वर्ष की थी, तो वह अभिनेता बनने का सपना संजोये घर से भागकर चाचा के पास दिल्ली आ गये। चाचा ने उनका दाखिला स्कूल में करा दिया, लेकिन गीत-संगीत और फिल्मों के प्रति उनके आर्कषण को देखते हुए उन्होंने खय्याम को संगीत सीखने की अनुमति दे दी। खय्याम ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा संगीतकार पंडित हुस्रलाल भगतराम और पंडित अमरनाथ से हासिल की। उसके बाद वह फिल्मों में काम करने की तमन्ना लिए मुंबई आ गये। मुंबई आने पर खय्याम की मुलाकात पाकिस्तान के बडे शास्त्रीय गायक और फिल्म संगीतकार बाबा चिश्ती (जी.ए. चिश्ती) से हुई और वह उनसे संगीत की तालीम लेने लगे।
बाबा चिश्ती के पास लगभग छह महीने तक संगीत सीखने के बाद खय्याम वर्ष 1943 में लुधियाना गये। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध का समय था और सेना में जोर-शोर से भर्तियां की जा रही थीं। तभी उन्हें एक विज्ञापन पढने को मिला, जिसमें युवाओं को प्रशिक्षण देने के बाद रोजगार और अच्छी रकम देने की पेशकश की गयी थी। सेना में लगभग दो साल तक रहने के बाद खय्याम एक बार फिर चिश्ती बाबा के साथ जुड गए। इस दौरान उनकी मुलाकात फिल्मकार बी.आर. चोपडा से हुई, जिन्होंने खय्याम को 125 रपए वेतन पर अपने पास रख लिया। वर्ष 1946 में अभिनेता बनने का सपना लिए खय्याम मुम्बई आ गए। वर्ष 1947 में खय्याम को बतौर अभिनेता एस.डी.नारंग की फिल्म 'ये है जिंदगी' में काम करने का मौका मिला, लेकिन इसके बाद बतौर अभिनेता उन्हें किसी फिल्म में काम करने का मौका नही मिला। इस बीच खय्याम बुल्लो सी.रानी, अजित खान के सहायक संगीतकार के तौर पर काम करने लगे।
कुछ समय के बाद खय्याम अपने पुराने उस्ताद हुस्रलाल-भगतराम के पास चले आये। हुस्रलाल-भगतराम ने ख्य्याम को अपनी फिल्म रोमिया एंड जूलियट में जोहराबाई अंबालेवाली के साथ युगल गीत गाने का मौका दिया। गाने के बोल कुछ इस प्रकार के थे 'दोनों जहां तेरी मोहब्बत में हार के' ... इन सबके बीच खय्याम को गीता दत्त-मीना कपूर के साथ भी गाने का मौका मिला। वर्ष 1950 में खय्याम को फिल्म 'बीबी' को संगीतबद्ध किया। मोहम्मद रफी की आवाज में संगीतबद्ध उनका यह गीत 'अकेले में वो घबराये तो होंगे' खय्याम के सिने कैरियर का पहला हिट गीत साबित हुआ। वर्ष 1953 में खय्याम को जिया सरहदी की दिलीप कुमार, मीना कुमारी अभिनीत फिल्म 'फुटपाथ' में संगीत देने का मौका मिला। यूं तो इस फिल्म के सभी गीत सुपरहिट हुए लेकिन फिल्म का गीत 'शामे-गम की कसम' श्रोताओं के बीच आज भी शिद्वत के साथ सुना जाता है।
अच्छे गीत-संगीत के बाद भी फिल्म फुटपाथ बॉक्स आफिस पर विफल साबित हुई। इस बीच खय्याम फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिये संघर्ष करते रहे। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म 'फिर सुबह होगी' खय्याम के सिने कैरियर की पहली हिट साबित हुई, लेकिन खय्याम को इस फिल्म में संगीत देने के लिए काफी अडचनों का सामना करना पडा। इस फिल्म के निर्माण के पहले फिल्म अभिनेता राज कपूर चाहते थे कि फिल्म का संगीत उनके पंसदीदा संगीतकार शंकर-जयकिशन का हो, लेकिन गीतकार साहिर इस बात से खुश नहीं थे, उनका मानना था कि फिल्म के गीत के साथ केवल खय्याम हीं इंसाफ कर सकते है। बाद में फिल्म निर्माता रमेश सहगल और साहिर ने राज कपूर के सामने यह प्रस्ताव रखा कि केवल एक बार वह खय्याम की बनाई धुन को सुन लें और बाद में अपना विचार रखें। खय्याम ने फिल्म के टाइटिल गाने 'वो सुबह कभी तो आएगी' के लिए लगभग छह धुनें तैयार की और उसे राज कपूर को सुनाया। राज कपूर को खय्याम की बनाई सारी धुनें बेहद पसंद आई और अब उन्हें खय्याम के संगीतकार होने से कोई एतराज नहीं था। यह साहिर के ख्य्याम के प्रति विश्वास का हीं नतीजा था कि 'वो सुबह कभी तो आयेगी' को आज भी क्लासिक गाने के रूप में याद किया जाता है। वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म 'शोला और शबनम' में मोहम्मद रफी की आवाज में गीतकार कैफी आजमी रचित 'जीत ही लेंगे बाजी हम तुम' और 'जाने क्या ढ़ूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें' को संगीतबद्ध कर खय्याम ने अपनी संगीत प्रतिभा का लोहा मनवा लिया और अपना नाम फिल्म इंडस्ट्री के महानतम संगीतकारों में दर्ज करा दिया।
सत्तर के दशक की खय्याम की फिल्में व्यावसायिक तौर पर सफल नहीं रही। इसके बाद फिल्मकारों ने खय्याम की ओर से अपना मुख मोड़ लिया, लेकिन वर्ष 1976 में प्रदर्शित फिल्म 'कभी कभी' के संगीतबद्ध गीत की कामयाबी के बाद खय्याम एक बार फिर से अपनी खोई हुई लोकप्रियता पाने में सफल हो गए। फिल्म 'कभी कभी' के ज़रिए खय्याम और साहिर की सुपरहिट जोड़ी ने 'कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है', 'मैं पल दो पल का शायर हूं' जैसे गीत-संगीत के ज़रिए श्रोताओं को नायाब तोहफा दिया। इन सबके साथ ही फिल्म 'कभी कभी' के लिए साहिर लुधियानवी सर्वश्रेष्ठ गीतकार और खय्याम सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए। वर्ष 1981 में प्रदर्शित फिल्म 'उमराव जान' न सिर्फ खय्याम के सिने कैरियर बल्कि पार्श्वगायिका आशा भोंसले के सिने कैरियर के लिए भी अहम मोड़ साबित हुई। पाश्चात्य धुनों पर गाने में महारत हासिल करने वाली आशा भोंसले को जब संगीतकार खय्याम ने फिल्म की धुनें सुनाई तो आशा भोसले को महसूस हुआ कि शायद वह इस फिल्म के गीत नहीं गा पाएगी। फिल्म 'उमराव जान' से आशा भोंसले एक कैबरे सिंगर और पॉप सिंगर की छवि से बाहर निकली और इस फिल्म के लिए 'दिल चीज क्या है' और 'इन आंखों की मस्ती के' जैसी गजलें गाकर आशा को खुद भी आश्चर्य हुआ कि वह इस तरह के गीत भी गा सकती है। इस फिल्म के लिए आशा भोंसले को न सिर्फ अपने कैरियर का पहला नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ, साथ ही खय्याम भी सर्वश्रेष्ठ संगीतकार राष्ट्रीय और फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। नब्बे के दशक में फिल्म इंडस्ट्री में गीत-संगीत के गिरते स्तर को देखते हुए खय्याम ने फिल्म इंडस्ट्री से किनारा कर लिया। वर्ष 2006 में खय्याम ने फिल्म 'यात्रा' में अरसे बाद फिर से संगीत दिया, लेकिन अच्छे संगीत के बावजूद फिल्म फिल्म बॉक्स आफिस पर नकार दी गई। अपने जीवन के 85 बसंत देख चुके खय्याम इन दिनों फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय नहीं हैं।

Dark Saint Alaick
19-02-2012, 01:24 AM
19 फरवरी को सौरमंडल दिवस के अवसर पर
पृथ्वी से बाहर किसी अन्य सौरमंडलीय पिंड पर नहीं है जीवन की संभावना


सौरमंडल में पृथ्वी से इतर अन्य ग्रहों एवं उपग्रहों पर जीवन की संभावना के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि फिलहाल ऐसी संभावना नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के प्राध्यापक डॉ. दक्ष लोहिया ने कहा कि ग्रहों में जीवन की संभावना नजर नहीं आती है, हालांकि कुछ उपग्रहों खासकर शनि और वृहस्पति के उपग्रहों पर जीवनोपयोगी वायुमंडल है लेकिन फिलहाल जीवन की संभावना के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। नेहरू तारामंडल की निदेशक डॉ. एन रत्नाश्री कहती हैं कि पृथ्वी के अलावा किसी अन्य सौरमंडलीय पिंड पर जीवन की संभावना नहीं है। लेकिन ऐसी संभावना है कि बहुत पहले कभी संभवत: मंग्रल पर सूक्ष्मजीव का जीवन रहा हो। लोहिया कहते हैं कि जहां तक चंद्रमा की बात है तो वहां पर्यावास के लायक वायुमंडल नहीं है, हां, बाद में सिद्धांतत: कृत्रिम रूप से वायुमंडल सृजित किया जा सकता है। रत्नाश्री ने कहा कि सौरमंडल में प्लूटो को निकाले जाने के बाद फिलहाल आठ ग्रह हैं। प्लूटो सन् 1930 में अपनी खोज के समय से ग्रह समझा जा रहा था लेकिन जब उसके द्रव्यमान को मापा गया और उसका द्रव्यमान अन्य सौरमंडलीय पिंडों के समान नजर आया तब ग्रह की परिभाषा पर पुनर्विचार किया गया।
रत्नाश्री के अनुसार ग्रह की परिभाषा के अनुसार ऐसा पिंड सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाए, उसका द्रव्यमान इतना हो कि वह अपने गुरूत्व से ही वृताकार पथ पर चक्कर लगाए तथा वह अपने आसपास में वर्चस्ववान हो। प्लूटो तीसरे मापदंड पर खरा नहीं उतरता । प्लूटो अब बौना ग्रह है। उल्लेखनीय है कि हर साल 19 फरवरी को सौर दिवस आधुनिक अंतरिक्ष विज्ञान का जनक निकोलस कोपरनिकस की याद में मनाया जाता है। दरअसल काफी समय तक सौरमंडल के अस्तित्व नकारा जाता रहा। लोग समझते थे कि पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में है। लेकिन निकोलस कोरनिकस पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। गैलोलियो गैलीली, जोहांस केपलर और सर आइजक न्यूटन ने भौतिकी के इस सिद्धांत को आगे बढाया तथा धीरे धीरे यह स्वीकार किया जाने लगा कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है और अन्य ग्रह भी पृथ्वी की भांति ही सूर्य की परिक्रमा करते हैं। विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप आज विशाल क्षमता की दूरबीनों और अंतरिक्ष यानों ने सौरमंडल और अंतरिक्ष के कई राज खोल दिये हैं।

Dark Saint Alaick
19-02-2012, 01:26 AM
19 फरवरी को गोपालकृष्ण गोखले की पुण्यतिथि पर
गांधीजी को गोखले ने सिखाया था राजनीति का पाठ

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सत्य और अहिंसा का संदेश देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को राजनीति का ककहरा सिखाने का श्रेय गोपाल कृष्ण गोखले को जाता है। उन्होंने ही गांधी जी को अहिंसा के मार्ग पर चलकर आजादी के लिए संघर्ष करने का पाठ पढाया था। गांधी जी के राजनीतिक गुरु के रूप में जाने जाने वाले गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म नौ मई 1866 को महाराष्ट्र के कोहट में हुआ था । पेशे से क्लर्क कृष्ण राव के पुत्र गोखले अपनी प्रतिभा के दम पर जननेता के रूप में प्रसिद्ध हुए। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के इतिहास के पूर्व प्रोफेसर आरके आर्य के अनुसार नरमपंथी सुधारवादी कहे जाने वाले गोखले ने ही गांधी को राजनीति का ककहरा सिखाया था। राष्ट्रपिता को अपने राजनीतिक गुरु से ही अहिंसा के जरिए आजादी की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा मिली थी और उन्हीं के उपदेशों पर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन चलाया। 1912 में गांधीजी के आमंत्रण पर गोखले खुद भी दक्षिण अफ्रीका गए और रंगभेद की निन्दा की।
आर्य के अनुसार गोखले सिर्फ गांधी जी के ही नहीं, बल्कि मोहम्मद अली जिन्ना के भी राजनीतिक गुरु थे । यह बात अलग है कि बाद में जिन्ना गोखले के आदर्शों पर नहीं चल पाए और उन्होंने धर्म के नाम पर हिन्दुस्तान का बंटवारा करा दिया। गोखले ने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान दिया और जातिवाद तथा छुआछूत के खिलाफ भी आंदोलन चलाया । वह जीवनभर हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए काम करते रहे। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बताया था और उन्हें एक जबर्दस्त नेता करार दिया था। हालांकि कुछेक मुद्दों पर गोखले से गांधी जी सहमत नहीं थे, लेकिन फिर भी अपने राजनीतिक गुरु के लिए उनके मन में अगाध सम्मान था। राष्ट्रपिता ने आत्मकथा में गोखले को विशाल हृदय तथा शेर की तरह बहादुर की संज्ञा भी दी थी। गोपाल कृष्ण गोखले पुणे के फरगुसन कालेज के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उन्होंने इस कालेज में शिक्षण के साथ ही आजादी के लिए राजनीतिक गतिविधियां भी चलाई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और सर्वेंट्स सोसायटी आफ इंडिया के सम्मानित सदस्य गोखले का 19 फरवरी 1915 को निधन हो गया और उनके शिष्य महात्मा गांधी ने उनकी परंपरा को आगे बढाया।

Dark Saint Alaick
19-02-2012, 01:48 AM
पुण्यतिथि 19 फरवरी के अवसर पर
भारतीय संगीत को नया आयाम दिया पंकज मलिक ने

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पंकज मलिक को एक ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपने अभिनय, पार्श्वगायन और संगीत निर्देशन से बांग्ला फिल्मों के साथ ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। पंकज मलिक का जन्म 10 मई 1905 को कोलकाता में एक मध्यवर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता मनमोहन मल्लिक की संगीत में गहरी रूचि थी और वह अक्सर धार्मिक कार्यक्रमों में अपना संगीत पेश किया करते थे। पंकज मलिक ने शिक्षा कोलकाता के मशहूर स्काटिश चर्च कॉलेज से पूरी की। घर में संगीत का माहौल रहने के कारण पंकज मलिक का रूझान भी संगीत की ओर हो गया और वह संगीतकार बनने का सपना देखने लगे। पिता ने संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर चलने के लिये प्रेरित किया। उन्होंने दुर्गादास बंद्योपाध्याय और रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्तेदार धीरेन्द्रनाथ टैगोर से संगीत की शिक्षा ली। वर्ष 1926 में महज 18 वर्ष की उम्र में कोलकाता की मशहूर कंपनी 'वीडियोफोन' के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत 'नीमचे आज प्रथोम बदल' के लिए पंकज मलिक को संगीत देने का अवसर मिला। बाद में उन्होंने टैगोर के कई गीतों के लिये संगीत निर्देशन किया। पंकज मलिक ने अपने कैरियर की शुरूआत कोलकाता के इंडियन ब्राडकास्टिंग से की। बाद में वह कई वर्षो तक आल इंडिया रेडियो से भी जुड़े रहे। वर्ष 1933 में पंकज मलिक 'न्यू थियेटर' से जुड़ गए, जहां उन्हें फिल्म 'यहूदी की लड़की' में संगीत निर्देशन का मौका मिला। न्यू थियेटर में उनकी मुलाकात प्रसिद्ध संगीतकार आर.सी. बोराल से हुई, जिनके साथ उन्होंने धूप छांव, प्रेसिडेंट, मंजिल और करोड़पति जैसी कई सफल फिल्मों में बेमिसाल संगीत दिया। वर्ष 9936 में प्रदर्शित फिल्म 'देवदास' बतौर संगीत निर्देशक पंकज मलिक के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुयी। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में कुंदनलाल सहगल ने मुख्य भूमिका निभाई थी। पी.सी. बरूआ के निर्देशन में बनी इस फिल्म में भी पंकज मलिक को एक बार फिर से उनके प्रिय आर.सी. बोराल के साथ काम करने का अवसर मिला। फिल्म और संगीत की सफलता के साथ ही पंकज मलिक बतौर संगीतकार फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। सहगल उनके प्रिय अभिनेता और पार्श्वगायक हो गए। बाद में पंकज मलिक ने कई फिल्मों में सहगल के गाये गीतों के लिये संगीत निर्देशन किया। पंकज मलिक ने संगीत निर्देशन और पार्श्वगायन के अलावा कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया। इनमें मुक्ति (1937), अधिकार (1939), रंजनआंधी (1940), अलोछाया (1940), डॉक्टर (1941) और नर्तकी जैसी फिल्में प्रमुख हैं । इन सबके साथ ही पंकज मलिक ने कई किताबें भी लिखी। इनमें गीत वाल्मीकि, स्वर लिपिका, गीत मंजरी और महिषासुर मर्दनी प्रमुख हैं।
पंकज मलिक ने टैगोर रचित कई कविताओं के लिए भी संगीत दिया। पंकज मलिक के गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर से जुड़ने का वाकया दिलचस्प है। एक बार पंकज मलिक को कॉलेज के किसी कार्यक्रम में टैगोर की एक कविता पर संगीत निर्देशन करना था। जब पंकज मलिक टैगोर से इस बारे में बातचीत करने पहुंचे, तो उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ा। बाद में टैगोर ने अपनी एक कविता 'दिनेर शेषे घूमर देशे' पंकज मलिक को सुनाई और उस पर संगीत बनाने को कहा। पंकज मलिक ने तुरंत उस कविता पर संगीत बनाकर टैगोर को सुनाया, जिसे सुनकार टैगोर काफी प्रभावित हुए और पंकज मलिक को अपनी कविता पर कॉलेज में संगीतमय प्रस्तुति की अनुमति दे दी। संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए पंकज मल्लिक वर्ष 1970 में भारत सरकार की ओर से पदमश्री से सम्मानित किए गए। वर्ष 1972 में फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी पंकज मलिक को सम्मानित किया गया। अपने जादुई संगीत निर्देशन से श्रोताओं के बीच खास पहचान बनाने वाले यह महान संगीतकार 19 फरवरी 1978 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।
पंकज मल्लिक के संगीत निर्देशन में सजी गीतों की लंबी फेहरिस्त में कुछ है 'दो नैना मतवारे' (मेरी बहन), 'दुनिया रंग रंगीली बाबा दुनिया रंग रंगीली' (धरती माता), 'एक बंगला बने न्यारा जिसमे रहे कुनबा सारा' (प्रेसिडेंट), 'पिया मिलन को जाना' (कपाल कुंडला), 'सो जा राजकुमारी सो जा', 'जिंदगी.ये मतलब का संसार' (मेरी बहन), 'लग गयी चोट करेजवा में हे रामा' (यहूदी की लड़की), 'आंखो में आया जो बन के खुमार' (रूप), 'आओ सुनाये कहानी तुम्हे हम' (मंजूर), आसमान पे हैं चांद यहां लाखो चांद' (माया), 'अब प्रीत की जीत मनाये साजन' (मीनाक्षी), 'ए मेरे दिल तू जरा संभल' (कस्तूरी), 'करू क्या आस निराश भई' (दुश्मन) आदि।

Dark Saint Alaick
21-02-2012, 03:40 AM
पुण्यतिथि 21 फरवरी पर विशेष
भारतीय सिनेमा में अभिनेत्रियों को नई पहचान दिलाई नूतन ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15291&stc=1&d=1329781211

नूतन को एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने फिल्मों में अभिनेत्रियों के महज शोपीस के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की परंपरा को बदलकर उन्हें अलग पहचान दिलाई। 4 जून 1936 को मुंबई में जन्मी नूतन समर्थ को अभिनय की कला विरासत में मिली। उनकी मां शोभना समर्थ जानी मानी फिल्म अभिनेत्री थी। वह अक्सर मां के साथ शूटिंग देखने जाया करती थी। इस वजह से उनका भी रूझान फिल्मों की ओर हो गया और वह भी अभिनेत्री बनने के ख्वाब देखने लगी। नूतन ने बतौर बाल कलाकार फिल्म 'नल दमयंती' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की। इस बीच नूतन ने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया, जिसमें वह प्रथम चुनी गयी, लेकिन तब भी बॉलीवुड के किसी निर्माता का ध्यान उनकी ओर नहीं गया। बाद में मां और उनके मित्र मोतीलाल की सिफारिश की वजह से नूतन को वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म 'हमारी बेटी' में अभिनय करने का मौका मिला। इस फिल्म का निर्देशन उनकी मां ने किया। वर्ष 1955 में प्रदर्शित फिल्म 'सीमा' से नूतन ने विद्रोहिणी नायिका के सशक्त किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इस फिल्म में नूतन ने सुधार गृह में बंद कैदी की भूमिका निभायी जो चोरी के झूठे इल्जाम में जेल में अपने दिन काट रही थी। फिल्म 'सीमा' में बलराज साहनी सुधार गृह के अधिकारी की भूमिका में थे। बलराज साहनी जैसे दिग्गज कलाकार की उपस्थिति में नूतन ने अपने सशक्त अभिनय से उन्हें कडी टक्कर दी। इसके साथ ही फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये नूतन को अपने सिने कैरियर का सर्वश्रेष्ठ फिल्म अभिनेत्री का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
इस बीच नूतन ने देव आनंद के साथ 'पेइंग गेस्ट' और 'तेरे घर के सामने' में नूतन ने हल्के फुल्के रोल करके अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म 'सोने की चिड़िया' के हिट होने के बाद फिल्म इंडस्ट्री में नूतन के नाम का डंका बजने लगा और बाद में एक के बाद एक कठिन भूमिका निभाकर वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गयी।
वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म 'दिल्ली का ठग' में नूतन ने स्विमिंग कॉस्टयूम पहनकर उस समय के समाज को चौंका दिया। फिल्म बारिश में नूतन काफी बोल्ड दृश्य दिए, जिसके लिए उनकी काफी आलोचना भी हुई, लेकिन बाद में विमल राय की फिल्म 'सुजाता' एवं 'बंदिनी' में नूतन ने अत्यंत मर्मस्पर्शी अभिनय कर अपनी बोल्ड अभिनेत्री की छवि को बदल दिया। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म 'सुजाता' नूतन के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। फिल्म में नूतन ने अछूत कन्या के किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इसके साथ ही फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिए वे अपने सिने कैरियर में दूसरी बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गईं। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म 'बंदिनी' भारतीय सिनेमा जगत में अपनी संपूर्णता के लिए सदा याद की जाएगी। फिल्म में नूतन के अभिनय को देखकर ऐसा लगा कि केवल उनका चेहरा ही नहीं, बल्कि हाथ पैर की उंगलियां भी अभिनय कर सकती हैं। इस फिल्म में अपने जीवंत अभिनय के लिए नूतन को एक बार फिर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। फिल्म 'बंदिनी' से जुड़ा एक रोचक पहलू यह भी है फिल्म के निर्माण के पहले फिल्म अभिनेता अशोक कुमार की निर्माता विमल राय से अनबन हो गई थी और वह किसी भी कीमत पर उनके साथ काम नही करना चाहते थे, लेकिन वह नूतन ही थी जो हर कीमत में अशोक कुमार को अपना नायक बनाना चाहती थी। नूतन के जोर देने पर अशोक कुमार ने फिल्म 'बंदिनी' में काम करना स्वीकार किया था।
'सुजाता', 'बंदिनी' और 'दिल ने फिर याद किया' जैसी फिल्मों की कामयाबी के बाद नूतन ट्रेजडी क्वीन कही जाने लगी। अब उन पर यह आरोप लगने लगा कि वह केवल दर्द भरा अभिनय कर सकती हैं, लेकिन 'छलिया' और 'सूरत' जैसी फिल्मों में कॉमिक अभिनय कर नूतन ने अपने आलोचको का मुंह एक बार फिर से बंद कर दिया। वर्ष 1965 से 1969 तक नूतन ने दक्षिण भारत के निर्माताओं की फिल्मों के लिए काम किया। इसमें ज्यादातर सामाजिक और पारिवारिक फिल्में थी। इनमें 'गौरी', 'मेहरबान', 'खानदान', 'मिलन' और 'भाई बहन' जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं। वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म 'सरस्वती चंद्र' की अपार सफलता के बाद नूतन फिल्म इंडस्ट्री की नंबर वन नायिका के रूप मे स्थापित हो गईं। वर्ष 1973 में फिल्म 'सौदागर' में नूतन ने एक बार फिर से अविस्मरणीय अभिनय किया। अस्सी के दशक में नूतन ने चरित्र भूमिकांए निभानी शुरू कर दी और कई फिल्मों में 'मां' के किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इन फिल्मों में 'मेरी जंग', 'नाम' और 'कर्मा' जैसी फ़िल्में खास तौर पर उल्लेखनीय हैं । फिल्म 'मेरी जंग' में अपने सशक्त अभिनय के लिए नूतन सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित की गईं।
फिल्म 'कर्मा' में नूतन ने अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के साथ काम किया। इस फिल्म में नूतन पर फिल्माया यह गाना 'दिल दिया है जां भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए' श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। नूतन की प्रतिभा केवल अभिनय तक ही नही सीमित थी, वह गीत और गजल लिखने में भी काफी दिलचस्पी लिया करती थी। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सर्वाधिक फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीर्तिमान नूतन के नाम दर्ज है । नूतन को पांच बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लगभग चार दशक तक अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाली यह महान अभिनेत्री 21 फरवरी 1991 को इस दुनिया को अलविदा कह गई।

Dark Saint Alaick
22-02-2012, 04:20 AM
22 फरवरी को कस्तूरबा गांधी की पुण्यतिथि पर
कस्तूरबा के वात्सल्य भाव के कारण बापू भी उन्हें कहते थे ‘बा’

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15297&stc=1&d=1329870029

कस्तूरबा गांधी ने राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी की धर्मपत्नी से अलग स्वतंत्रता संग्राम की एक अहम महिला नेत्री के तौर पर भी अपनी पहचान बनाई थी और उनके अंदर कूट कूट कर भरे वात्सल्य से खुद ‘बापू’ इतने अधिक प्रभावित थे कि वह उन्हें ‘बा’ कह कर बुलाते थे। एक पत्नी के तौर पर कस्तूरबा ने अपने पति के हर काम में उनका साथ दिया और घरेलू जिम्मेदारियों से उन्हें मुक्त रखा। शायद यही वजह है कि बापू पूरे समर्पण के साथ दिन-रात देश की आजादी के लिए संघर्षरत रह सके। दिलचस्प बात यह है कि बापू खुद बा को अपनी एक प्रेरक आलोचक भी मानते थे। नयी दिल्ली स्थित गांधी संग्रहालय की निदेशक वर्षा दास ने ‘भाषा’ को बताया ‘‘गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दिनों में कस्तूरबा ने वहां पर विवाह कानून के खिलाफ सत्याग्रह का नेतृत्व किया था। इस सत्याग्रह में उन्हें सफलता भी मिली। इस तरह से ‘बा’ को गांधी जी से पहले ही सत्याग्रह के प्रयोग मे सफलता मिल गयी।’’ कस्तूरबा गांधी के इस सत्याग्रह ने महिलाओं को घर से बाहर निकलने के लिए पे्ररित किया। उन्होंने बताया, ‘‘कस्तूरबा घर में रह कर जिस तरह शांतिपूर्वक अपना दायित्व निर्वाह करती थी इससे प्रभावित होकर गांधी जी ने कहा था कि मैने अहिंसा का पाठ कस्तूरबा से सीखा है। साथ ही कस्तूरबा बापू के कामकाज पर अपनी प्रतिक्रिया भी देती थीं और बापू उन्हें अपनी एक प्रेरक आलोचक मानते थे।’’ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया कि कई बार गांधी जी के प्रयोगों और कार्यक्रमों से असहमत रहने के बावजूद कस्तूरबा ने हमेशा उनका समर्थन किया।
प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया, ‘‘विश्व के महान नेताओं में से एक गांधी को आदर्श जीवन संगनी का साथ मिला। बापू के समकालीन नेताओं अब्राहम लिंकन, लेनिन, माओत्से तुंग जैसे अन्य नेताओं को यह सौभाग्य नहीं मिल सका। यही कारण है कि बापू ने कस्तूरबा को जीवन संगिनी के रूप में अपनी सफलता का ‘मूल आधार’ कहा था।’’ कस्तूरबा गांधी का जन्म सुखी संपन्न एक व्यापारी गोकुलदास कपाड़िया के यहां गुजरात के पोरबंदर में 11 अप्रैल 1869 में हुआ था। जब मोहनदास करमचंद गांधी के साथ कस्तूरबा परिणय सूत्र में बंधीं उस समय उनकी उम्र केवल 14 साल की थी। कस्तूरबा गांधी के जीवन के अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए गांधी स्मारक निधि के मंत्री और गांधीवादी रामचंद्र राही ने कहा ‘‘एक बार सौराष्ट्र जेल जाने से पहले बा ने बापू से पूछा कि था कि क्या उन्हें जेल जाना चाहिए। गांधी जी ने जबाव दिया कि जरूर जाना चाहिए। बा ने फिर सवाल किया अगर जेल में मेरी मौत हो गयी तब, गांधी जी ने जवाब दिया कि तब मैं तुम्हें ‘जगदम्बा’ कह कर संबोधित करूंगा।’’ उन्होंने बताया कि वर्ष 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत हुयी तब कस्तूरबा को आगा खा पैलेस में नजरबंद रखा गया था। असाध्य बीमारी के कारण कस्तूरबा ने बापू की गोद में दम तोड़ दिया। तब गांधी जी ने कहा था कि कस्तूरबा मेरी ‘आराध्य’ बन गयी। प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा कि एक आदर्श नारी, अनुकरणीय पत्नी, और प्रेरणादायी मां के रूप में कस्तूरबा देश के स्त्री पुरूषों के लिए एक अनुकरणीय विरासत छोड़ गयी हैं। कस्तूरबा गांधी का 74 साल की उम्र में 22 फरवरी 1944 को निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
23-02-2012, 02:28 PM
पुण्यतिथि 23 फरवरी पर विशेष
रूपहले पर्दे को अपनी दिलकश अदाओं से सजाया मधुबाला ने

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वेलेन्टाइन डे (प्रेम दिवस) 14 फरवरी को जन्मी फिल्म अभिनेत्री मधुबाला के जीवन की यह विडम्बना रही कि वह जीवनभर प्यार के लिये तरसती रहीं और अंततः जब उन्हें किशोर कुमार का सच्चा प्यार मिला तो वह मौत के बहुत करीब आ चुकी थी। भारतीय सिनेमा जगत की अद्वितीय अभिनेत्री मधुबाला (मूल नाम मुमताज बेगम देहलवी) का जन्म दिल्ली के निर्धन मुस्लिम परिवार में 14 फरवरी 1933 को हुआ था। उनके पिता अताउल्लाह खान दिल्ली में रिक्शा चलाया करते थे। तभी उनकी मुलाकात एक नजूमी (भविष्यवक्ता) कश्मीर वाले बाबा से हुई, जिन्होंने भविष्यवाणी की कि उनका भविष्य उज्ज्वल है और वह बड़ी होकर बहुत शोहरत पाएगी। नजूमी की बात को अताउल्लाह खान ने गंभीरता से लिया और वह मधुबाला को लेकर मुंबई आ गए। वर्ष 1942 में मधुबाला को बतौर बाल कलाकार (बेबी मुमताज के नाम से) फिल्म 'बसंत' में काम करने का मौका मिला। बेबी मुमताज के सौंदर्य को देखकर अभिनेत्री देविका रानी मुग्ध हुईं और उन्होंने उनका नाम 'मधुबाला' रख दिया। उन्होंने मधुबाला से बॉम्बे टाकीज की फिल्म 'ज्वार भाटा' में दिलीप कुमार के साथ काम करने की पेशकश कर दी, लेकिन मधुबाला उस फिल्म में किसी कारणवश काम नहीं कर सकी। इसी फिल्म से अभिनेता दिलीप कुमार ने अपने सिने कैरियर की शुरूआत की थी।
मधुबाला को फिल्म अभिनेत्री के रूप में पहचान निर्माता निर्देशक केदार शर्मा की वर्ष 1947 में प्रदर्शित फिल्म 'नीलकमल' से मिली। इस फिल्म में उनके अभिनेता थे राज कपूर। इसे महज संयोग ही कहा जायेगा कि 'नील कमल' बतौर अभिनेता राज कपूर की पहली फिल्म थी। भले ही 'नीलकमल' सफल नहीं रही, लेकिन इससे बतौर अभिनेत्री मधुबाला ने अपने सिने कैरियर की शुरूआत कर दी। वर्ष 1949 तक मधुबाला की कई फिल्में प्रदर्शित हुईं, लेकिन इनसे उन्हें खास फायदा नहीं हुआ। इसी वर्ष बांबे टॉकीज के बैनर तले निर्माता अशोक कुमार की फिल्म 'महल' मधुबाला के सिने कैरियर की महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुई । रहस्य और रोमांच से भरपूर यह फिल्म सुपरहिट रही और इसी के साथ बालीवुड में हारर और सस्पेंस फिल्मों के निर्माण का सिलसिला चल पड़ा। वर्ष 1950 से 1957 तक का वक्त मधुबाला के सिने कैरियर के लिए बुरा साबित हुआ। इस दौरान उनकी कई फिल्में असफल रहीं, लेकिन वर्ष 1958 में 'फागुन', 'हावड़ा ब्रिज', 'कालापानी' तथा 'चलती का नाम गाड़ी' जैसी फिल्मों की सफलता के बाद मधुबाला एक बार फिर से शोहरत की बुलंदियों तक जा पहुंची।
फिल्म 'हावड़ा ब्रिज' में मधुबाला ने क्लब डांसर की भूमिका अदा करके दर्शकों का मन मोह लिया। वर्ष 1958 में ही प्रदर्शित फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' में उन्होंने अपने कॉमिक अभिनय से दर्शकों को हंसाते-हंसाते लोटपोट कर दिया।
मधुबाला के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी अभिनेता दिलीप कुमार के साथ काफी पसंद की गई। फिल्म 'तराना' के निर्माण के दौरान मधुबाला दिलीप कुमार से मोहब्बत करने लगी। उन्होंने अपने ड्रेस डिजाइनर को गुलाब का फूल और एक खत देकर दिलीप कुमार के पास इस संदेश के साथ भेजा कि यदि वह भी उनसे प्यार करते हैं, तो इसे अपने पास रख लें। दिलीप कुमार ने फूल और खत को सहर्ष स्वीकार कर लिया। बी.आर. चौपड़ा की फिल्म 'नया दौर' में पहले दिलीप कुमार के साथ नायिका की भूमिका के लिए मधुबाला का चयन किया गया और मुंबई में ही इस फिल्म की शूटिंग की जानी थी, लेकिन बाद मे फिल्म के निर्माता को लगा कि इसकी शूटिंग भोपाल में भी करनी जरूरी है। मधुबाला के पिता ने बेटी को मुंबई से बाहर जाने की इजाजत देने से इंकार कर दिया। उन्हें लगा कि मुंबई से बाहर जाने पर मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच का प्यार और परवान चढ़ेगा। बाद में बी.आर.चौपड़ा को मधुबाला की जगह वैजयंतीमाला को लेना पड़ा। अताउल्लाह खान बाद में इस मामले को अदालत में ले गए और इसके बाद उन्होंने मधुबाला को दिलीप कुमार के साथ काम करने से मना कर दिया और यहीं से यह जोड़ी अलग हो गई।
पचास के दशक मे स्वास्थ्य परीक्षण के दौरान मधुबाला को अहसास हुआ कि वह हृदय की बीमारी से पीड़ित है। इस दौरान उनकी कई फिल्में निर्माण के दौर में थी। मधुबाला को लगा यदि उनकी बीमारी के बारे में फिल्म इंडस्ट्री को पता चल जाएगा, तो फिल्म निर्माता को नुकसान होगा, इसलिये उन्होंने यह बात किसी को नहीं बताई। मधुबाला के. आसिफ की फिल्म की शूटिंग में व्यस्त थी। इस दौरान उनकी तबीयत काफी खराब रहा करती थी। मधुबाला जो अपनी नफासत और नजाकत को कायम रखने के लिए घर में उबले पानी के सिवाए कुछ नही पीती थीं, उन्हें जैसलमेर के रेगिस्तान में कुंए और पोखरे का गंदा पानी तक पीना पड़ा। मधुबाला के शरीर पर असली लोहे की जंजीर भी लादी गई, लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं की और फिल्म की शूटिंग जारी रखी। मधुबाला का मानना था कि 'अनारकली' का किरदार निभाने का मौका बार-बार नहीं मिलता। वर्ष 1960 में जब 'मुगले आजम' प्रदर्शित हुई, तो फिल्म में मधुबाला का अभिनय देखकर दर्शक मुग्ध हो गए। बदकिस्मती से इस फिल्म के लिए मधुबाला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन सिने दर्शक आज भी ऐसा मानते हैं कि वह इसकी हकदार थीं।
साठ के दशक में मधुबाला ने फिल्मों में काम करना काफी कम कर दिया। 'चलती का नाम गाड़ी' और 'झुमरू' के निर्माण के दौरान ही मधुबाला किशोर कुमार के काफी करीब आ गईं। मधुबाला के पिता ने किशोर कुमार को सूचित किया कि मधुबाला इलाज के लिए लंदन जा रही है और लंदन से आने के बाद ही उनसे शादी कर पाएगी, लेकिन मधुबाला को अहसास हुआ कि शायद लंदन में आपरेशन होने के बाद वह जिंदा नहीं रह पाए और यह बात उन्होंने किशोर कुमार को बताई। इसके बाद मधुबाला की इच्छा पूरी करने के लिए किशोर कुमार ने मधुबाला से शादी कर ली। शादी के बाद मधुबाला की तबीयत और ज्यादा खराब रहने लगी। इस बीच उनकी 'पासपोर्ट', 'झुमरू', 'बॉयफ्रेंड' (1961), 'हाफ टिकट' (1962) और 'शराबी (1964) जैसी कुछ फिल्में प्रदर्शित हुईं। वर्ष 1964 में एक बार फिर से मधुबाला ने फिल्म इंडस्ट्री की ओर रूख किया, लेकिन फिल्म 'चालाक' के पहले दिन की शूटिंग में मधुबाला बेहोश हो गईं और बाद में यह फिल्म बंद कर देनी पड़ी। दिल में मोहब्बत का पैगाम लिए मधुबाला अपने जन्म दिवस के महज आठ दिन बाद 23 फरवरी 1969 को महज 36 वर्ष की उम्र में 'मैं अभी जीना चाहती हूं' ... कहती हुईं इस दुनिया को ही अलविदा कह गईं।

Dark Saint Alaick
25-02-2012, 10:21 AM
निर्वाचन आयोग का वार रूम और संगीत से तालमेल गजब का

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वार रूम और संगीत का क्या कोई तालमेल हो सकता है। जवाब होगा नहीं, लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में निर्वाचन आयोग के वार रूम और संगीत में गजब का तालमेल दिखायी दे रहा है। देश की मशहूर लोक गायिका और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में निर्वाचन आयोग की ब्रांड अम्बेसडर मालिनी अवस्थी लखनऊ के जनपथ सचिवालय में अपने पति और बच्चों को चुनाव आयोग का वार रूम 'नियंत्रण कक्ष' दिखाने लायी थीं। मालिनी अवस्थी, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी उनके पति अवनीश अवस्थी और दो बच्चों की उंगलियों पर मतदान की नीली स्याही लगी थी। वार रूम में एक बडे स्क्रीन पर सुदूर गांव के मतदान केन्द्रों से सीधे लाइव तस्वीरों में लंबी-लंबी कतारें देखकर उनके चेहरे पर उपलब्धि और संतोष के भाव फूट रहे थे।
वह इस विधानसभा चुनाव में उदासीन मतदाओं को जागृत करने के लिए ब्रांड अम्बेसडर हैं। उन्होंने राज्य के कोने-कोने में अब तक करीब चालीस जगह अपनी बुलंद आवाज से मंचीय प्रस्तुति देकर धूम मचा दी है। मालिनी ने कहा, मतदाता जागरूकता अभियान के लिए चुनाव आयोग का ब्रांड एम्बेसडर बनने का प्रस्ताव आया, तो मुझे बहुत गर्व हुआ। लगा कि यदि मेरा लोकगायन देश के लोकतंत्र के काम आए, तो बहुत बडी बात होगी। निर्वाचन आयोग से जुडने का श्रेय वह उत्तर प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी उमेश सिन्हा को देती हैं। सामान्य लोकसंगीत और चुनाव में मतदान के लिए प्रेरणा गीत गाने में फर्क के सवाल पर वह कहती हैं, दोनों में लोक संगीत है । फर्क सिर्फ शब्दों और सन्देश का है। लोक संगीत का मतलब ही है कि लोक से जुड़े। लखनऊ की मूल निवासी मालिनी अवध की संस्कृति में पली-बढ़ी हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी, संस्कृत और राजनीतिक शास्त्र में स्नातक करने के बाद मशहूर भातखंडे विश्वविद्यालय से संगीत में उन्होंने एम.ए. किया है। पढाई पूरी भी नहीं हो पायी थी कि शादी हो गई। कानपुर निवासी पति के आईएएस होने के चलते उन्हें पूरे राज्य में घूमने का अवसर मिला । पति के इस ओहदे पर होने की बदौलत उन्होंने चुनाव की प्रक्रिया और उसकी बारीकियों को अच्छी तरह समझा है, इसलिए उन्होंने मतदाता जागरूकता अभियान के लिए जो गीत लिखा या धुन बनाई वह सटीक बैठी।
मलिनी पूर्व जन्म में विश्वास करती हैं। उनका कहना है, शायद पिछले जन्म में कुछ काम अधूरे रह गए होंगे, जिन्हें मैं इस जन्म में पूरा कर रही हूं। वह बचपन में गुनगुनाती थी। गीत गाती थी। पिता डाक्टर पी. एन. अवस्थी ने उनके अंदर छिपी प्रतिभा को पहचाना और संगीत की शास्त्रीय शिक्षा लेने में मदद की। मां निर्मला उन्हें घर में होने वाले हर कार्यक्रम में साथ बैठा लेती थी। वह बनारस की मशहूर गायिका गिरिजा देवी की शिष्या हैं। वह उस मल्लाह को नहीं भूलती, जिसने जौनपुर में सई नदी और गोमती के संगम में अपनी नाव में निर्गुन सुनाया था। मालिनी का कहना है कि लोककलाएं संस्कृति की अभिव्यक्ति हैं। कभी वह चित्रों में आकार पाती है और कभी गीत संगीत में मुखर होती है। चुनाव में मालिनी ने 'अरे जागो रे जागो देश के मतदाता इलेक्शन की बेरिया जागो दीदी, अम्मा, भैय्या', उदासीन मतदाताओं को जगाने के लिए 'घर मा बैठे तू काहे अलसात हो, वोट काहे नहीं डाले जात हो' गाया। अपने गीतों के बोल के बारे में उन्होंने कहा, यह सब अनाम पुरखों के गीत हैं, जो उन्होंने खेत जोतते, धान की बोवाई करते, जाते में आटा पीसते, शादी और विवाह के क्षणों में लिखे और समाज को सौंप दिए।
उत्तर प्रदेश की विभिन्न बोलियों अवधी, भोजपुरी, ब्रज और बुन्देली आदि में बिखरे पड़े गीतों को संजोकर नई पीढी को देने के लिए मालिनी ने सोन चिरैया नाम की एक संस्था बनाई है। वह कहती हैं कि इस मतदाता जागरूकता अभियान में उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि जिस क्षेत्र में प्रस्तुति है, अपने गीत के बोल को वहां की स्थानीय बोली और लोकसंगीत की शैली में ढाल लूं। मतदाता होने पर गर्व का एहसास कराने के लिए उन्होंने कई नारे गढ़े हैं और छोटी-छोटी नाटिकाएं भी की हैं। वह कहती हैं कि चुनाव की भागदौड में आजकल रियाज छूटा हुआ है। मंच पर गाने के साथ ही रियाज भी हो जाता है। लोगों तक वोट डालने के महत्व का सन्देश पहुंचाने में मालिनी ने करिश्मा कर दिखाया है। इनसे बेहतर कोई और नहीं कर सकता था, यह तो उत्तर प्रदेश का निर्वाचन कार्यालय भी मानता है। सिन्हा भी कहते हैं कि मतदान का प्रतिशत इतना ज्यादा बढ़ जाने का श्रेय मालिनी को भी जाता है। उनके लोकसंगीत में मिठास है। मालिनी इसलिए और खुशनसीब हैं कि उनका पूरा परिवार उन्हें सहयोग करता है। पेशे से डाक्टर बेटी तो मंच पर प्रस्तुति में भी साथ देती है।

Dark Saint Alaick
25-02-2012, 04:55 PM
26 फरवरी को वीर सावरकर की पुण्यतिथि पर
स्वातंत्र्य वीर के जीवन से जुड़े रहे विवाद

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15324&stc=1&d=1330174418

हिन्दुत्व शब्द के जनक कहे जाने वाले स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने एक ओर जहां जन-जन के मन में आजादी का जज्बा भरने का काम किया, वहीं उनके जीवन से विवाद भी जुड़े रहे। नासिक के नजदीक भागपुर गांव में पैदा हुए सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम के दिनों में अंडमान निकोबार की सेल्युलर जेल को देशभक्ति के तरानों से पाट दिया था। वह ऐसे पहले भारतीय इतिहासकार हैं जिनके द्वारा 1857 की जंग-ए-आजादी पर लिखी गई मशहूर किताब को ब्रितानिया हुकूमत ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया था। दूसरी ओर महात्मा गांधी की हत्या के संबंध में उन पर लगे आरोप और रिहाई के लिए ब्रिटिश सरकार के साथ कथित समझौते को लेकर वह विवादित भी रहे। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर आरके आर्य के अनुसार सावरकर में वे सारे गुण थे जो उन्हें महान क्रांतिकारी की श्रेणी में खड़ा करते हैं। रिहाई के लिए उन्होंने जो कथित समझौता किया, वह एक रणनीतिक समझौता था, ताकि आजादी की लड़ाई को जारी रखा जा सके। इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार सावरकर को स्वातंत्र्य वीर मानने में किसी को कोई आपित्त नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह वास्तव में इसके हकदार हैं। कई इतिहासकार ब्रितानिया हुकूमत के साथ उनके कथित समझौते को लेकर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सवाल भी खड़े करते हैं। सावरकर ने लंदन में पढाई के दौरान भारतीय छात्रों को एकजुट कर उन्हें भारत की आजादी के लिए सशस्त्र आंदोलन चलाने को तैयार किया। सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में गिरफ्तार किया गया और मुकदमे के लिए भारत भेज दिया गया। इसी दौरान उनके जीवन की सबसे रोमांचक घटना घटित हुई। वह जहाज से समुद्र में कूद गए और काफी दूर तक तैरते रहे। बाद में उन्हें फिर से पकड़ लिया गया और 24 दिसंबर 1910 को उन्हें 50 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। चार जुलाई 1911 को उन्हें अंडमान निकोबार की सेल्युलर जेल भेज दिया गया। 1921 में उन्हें बंगाल की अलीपुर जेल और फिर महाराष्ट्र की रत्नागिरी जेल स्थानांतरित कर दिया गया। छह जनवरी 1924 को उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने की कथित शर्त के साथ रिहा कर दिया गया। उनकी इस रिहाई के साथ ही विवाद शुरू हो गए। जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने हिन्दू महासभा में अत्यंत सक्रिय भूमिका निभाई। बाद में महात्मा गांधी की हत्या से उनका नाम जुड़ा, लेकिन आरोप साबित नहीं हो पाया। 26 फरवरी 1966 को सावरकर का निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
26-02-2012, 05:00 PM
हिन्दी में बेस्टसेलर का अकाल
गुनाहों का देवता, मधुशाला, प्रेमचंद की कृतियां आज भी अव्वल

हिन्दी में आज भी दशकों पुरानी गुनाहों का देवता, मधुशाला, प्रेमचंद की कृतियों के बेस्टसेलर बने रहने के पीछे हिन्दी के वरिष्ठ लेखक और प्रकाशक तमाम कारण मानते हैं। हालांकि वे इस बात को भी स्वीकारते हैं कि अंग्रेज़ी की तरह हिन्दी में कम पुस्तकों का बेस्ट सेलर बनना यह दिखाता है कि हम बाजार की विपुल संभावनाओं का सही प्रकार से दोहन नहीं कर पा रहे हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति डॉ. ए. अरविन्दाक्षन ने एक बातचीत में कहा कि हिन्दी में किसी पुस्तक के बेस्ट सेलर नहीं बन पाने को वह नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखते। उनके अनुसार यह दिखाता है कि हिन्दी का पाठक प्रबुद्ध है। वह जल्द ही किसी पुस्तक को यह तमगा देना पसंद नहीं करता। उन्होंने कहा कि अंग्रेज़ी की तुलना में हमारे साहित्य में अभी ‘पल्प लिटरेचर (लुगदी साहित्य)’ या ‘पापुलर लिटरेचर (लोकप्रिय साहित्य)’ जैसी विभाजन रेखाएं नहीं हैं। इस प्रकार की श्रेणियों को न तो आलोचकों ने स्वीकार किया है और न ही पाठकों ने। डॉ. अरविन्दाक्षन ने कहा कि ऐसे तमाम साहित्यकार हैं, जिनकी कुछ कृतियों को लोकप्रिय साहित्य के दर्जे में आसानी से रखा जा सकता है। यदि उन्हें उपयुक्त प्रोत्साहन मिलता, तो पाठक भी हाथों-हाथ लेते, लेकिन इसके लिए न तो प्रकाशकों की ओर से गंभीर प्रयास किए जा रहे है और न ही बाजार की मौजूदा संभावनाओं का लाभ उठाया जा रहा है।

वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट इसके लिए पूरी तरह से प्रकाशकों को जिम्मेदार मानते हैं। उन्होंने कहा कि कौन लेखक नहीं चाहेगा कि उसकी पुस्तकें ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचें। उसकी चर्चा हो, सराहना हो या फिर आलोचना हो, लेकिन सवाल यह है कि पुस्तकें पाठकों तक पहुंचे कैसे? अधिकतर प्रकाशक पुस्तकें पाठकों को बेचने के लिए नहीं पुस्तकालयों में थोक सप्लाई के लिए छापते हैं। इसी कारण हजारों किताबें हर साल पुस्तकालयों के अंधेरे कमरों में बंद हो जाती हैं। उन्होने कहा, ‘आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि गुलशन नंदा ने आज से करीब चार दशक पहले एक किताब के एडवांस के रूप में एक प्रकाशक से एक लाख रुपए लिए थे। क्या आज का कोई हिन्दी लेखक एक लाख रूपए के एडवांस की कल्पना कर सकता है। एक लाख एडवांस तो क्या, इतनी रायल्टी मिलना भी मुश्किल है।’ बिष्ट ने कहा कि वरिष्ठ लेखक निर्मल वर्मा ने अपने निधन से कुछ वर्ष पहले एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में बताया था कि उन्हें उनकी सारी पुस्तकों के लिए साल भर में महज 25 हजार रुपए की रायल्टी मिलती है। बिष्ट ने सवाल किया, जब निर्मल वर्मा जैसे शीर्ष लेखक की यह स्थिति हो, तो आम हिन्दी लेखक की भला क्या बिसात।

वाणी प्रकाशन के प्रकाश अरूण माहेश्वरी के अनुसार हिन्दी साहित्य की एक विडंबना यह है कि अधिकतर लेखक एक तरफ तो बाजार को गाली देते हैं और दूसरी तरफ बाजार की सारी संभावनाओं का लाभ भी उठाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि बाजार की शर्तो पर खरा उतरे बिना आप पुस्तकों को बेस्टसेलर नहीं बना सकते। माहेश्वरी ने चेतन भगत सहित तमाम बेस्ट सेलर लेखकों का उदाहरण देते हुए कहा कि वे अपनी नई पुस्तकों के प्रचार के लिए प्रकाशकों के साथ सक्रियता से प्रयास करते हैं, लेकिन इसके विपरीत हिन्दी के साहित्यकार लोकार्पण समारोहों में ही एक-दूसरे पर छीटाकशी शुरू कर देते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी का बड़ा बाजार है और यदि इसकी संभावनाओं का ढंग से लाभ उठाया जाए, तो गंभीर समझी जाने वाली साहित्यिक पुस्तकें भी बेस्ट सेलर बन सकती हैं। उल्लेखनीय है कि किसी पुस्तक को उसकी बिकने वाली प्रतियों के आधार पर बेस्ट सेलर का तमगा मिलता है। अंग्रेज़ी की तुलना में हिन्दी में आज भी बेस्टसेलर पुस्तकों की संख्या काफी कम है।
-माधव चतुर्वेदी

Dark Saint Alaick
27-02-2012, 05:27 PM
28 फरवरी को पुण्यतिथि पर
राजेंद्र प्रसाद : संविधान और देश के निर्माण में अतुलनीय योगदान देने वाले देशरत्न

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15330&stc=1&d=1330349247

महान स्वतंत्रता सेनानी और देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न राजेंद्र प्रसाद तीव्र सामाजिक तथा आर्थिक बदलाव और समाज तथा राजनीति के जनवादीकरण के समर्थक थे। उन्होंने संविधान और देश के निर्माण में अतुलनीय योगदान दिया और तत्कालीन भारत के समक्ष मौजूद समस्याओं पर अपनी बेबाक राय रखी। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने कहा, ‘राजेंद्र प्रसाद को 11 दिसंबर 1946 को संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया गया। इसके अलावा वह वित्त, विधि आदि से जुड़ी समितियो के साथ-साथ झंडा समिति के भी अध्यक्ष थे।’ कश्यप ने कहा कि इससे पहले सितंबर 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित अंतरिम सरकार में उन्हें खाद्य और कृषि मंत्री बनाया गया था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एसोसिएट प्रोफेसर रिजवान कैसर ने कहा कि संविधान निर्माण के दौरान होने वाली चर्चाओं में उन्होंने अहम योगदान दिया। तत्कालीन भारत की बेहतर समझ रखने वाले राजेंद्र बाबू ने उन तमाम मुद्दों पर अन्य लोगों के साथ मिल बैठकर गहन विचार विमर्श किया जिन्हें संविधान में शामिल करने के लिए सूचीबद्ध किया जाता था। राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर 1884 में बिहार के मौजूदा सीवान जिले के जीरादेई में हुआ था। पढने-लिखने तथा देश-समाज से जुड़े मुद्दों में रूचि रखने वाले प्रसाद 1911 में औपचारिक तौर पर कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और जीवनपर्यंत लोगों के कल्याण और देश के विकास में योगदान देते रहे।
सुभाष कश्यप ने कहा कि उस समय विश्व भर में मौजूद बेहतरीन संविधानों के सबसे अच्छे प्रावधानों और विमर्श को अपने देश की जरूरतों के मुताबिक ढालकर अपने देश के संविधान में शामिल करने में राजेंद्र प्रसाद ने अहम योगदान दिया। राजेंद्र प्रसाद अपनी सादगी को लेकर भी खासे चर्चा में रहे। इसके बारे में रिजवान कैसर ने कहा कि सादगी उनकी बुनियाद में शामिल थी, उनके मिजाज का हिस्सा थी। वह जिस समाज से आते थे उसे देहाती समाज कहा जा सकता है, जहां पर जरूरत से अधिक अपव्यय पर जोर नहीं दिया जाता है। उन्होंने कहा कि वह विदेशी प्रतिनिधियों और राजनयिकों से भी कोई विशेष पोशाक पहनने पर जोर नहीं देते थे। यही वजह है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उन्हें कई बार खास तरह की पोशाक पहनने के बारे में सलाह देते थे, जिसे वह प्राय: मान लेते थे। राजेंद्र प्रसाद भारतीय समाज और संस्कृति के बारे में भी बेहतर समझ रखते थे। हिंदू कोड बिल को लेकर उन्होंने आपत्ति दर्ज करायी थी। इसके बारे में कैसर ने कहा कि पंडित नेहरू हिंदू समाज में व्याप्त कुछ मुद्दों को दुरूस्त करना चाहते थे। लेकिन हिंदुओं का एक बड़ा तबका इसका विरोध कर रहा था। राजेंद्र बाबू का भी मानना था कि यह समाज का मुद्दा है। इसपर निर्णय समाज को ही करना चाहिए। लगातार दो बार राष्ट्रपति बनकर मिसाल कायम करने वाले प्रसाद ने 1962 में अपने पद से अवकाश लेने की घोषणा की। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिन पटना के सदाकत आश्रम में गुजारे जहां 28 फरवरी 1963 को उनका देहावसान हो गया।

Dark Saint Alaick
28-02-2012, 02:15 PM
28 फरवरी विज्ञान दिवस पर विशेष
अक्षय उर्जा स्रोतों पर समान रूप से ध्यान दिये जाने के पक्ष में हैं वैज्ञानिक

देश में बढती उर्जा जरूरतों और जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद कुडनकुलम परमाणु संयंत्र पर उठे विवाद के बीच कुछ ऐसे भी वैज्ञानिक हैं जिनका मानना है कि सरकार को अक्षय उर्जा पर भी ज्यादा ध्यान देना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के प्राध्यापक उमेश कुलश्रेष्ठ ने कहा कि परमाणु उर्जा स्वच्छ जरूर है पर सुरक्षित नहीं है। दूसरी बात, परमाणु उर्जा के लिए भारी भरकम खर्च के बाद बहुत कम उर्जा मिलती है। उन्होंने कहा कि जहां तक कुडनकुलम परमाणु संयंत्र का सवाल है तो सरकार का यह कहना कि इस संयंत्र के सिलसिले में पर्याप्त सुरक्षा मापदंड अपनाए गए हैं और संयंत्र के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के पीछे विदेशी एनजीओ का हाथ होने की बात सही हो सकती है। कुलश्रेष्ठ ने कहा कि हमारा देश उष्णकटिबंधीय देश है और यहां प्रचूर सौर और पवन उर्जा है। सौर उर्जा को लोकप्रिय बनाने के लिए ठोस प्रयास किए जाने चाहिएं। उन्होंने कहा कि एक बार सौर उपकरण लग जाने के बाद बिना किसी लागत के वर्षों तक उर्जा जरूरत की पूर्ति होती रहती है। डा. सी वी रमन की याद में मनाये जाने वाले विज्ञान दिवस के लिए इस साल ‘स्वच्छ उर्जा विकल्प और परमाणु सुरक्षा’ विषय रखा गया है। उन्होंने कहा कि सौर प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विदेशों का मुंह ताकने के बजाय हमें स्वयं प्रयास करना चाहिए तथा मैटेरियल साइंस पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि उसमें किसी भी तरह की राजनीति आड़े नहीं आए।

इसी विश्वविद्यालय के विज्ञान विषयक एक अन्य प्रोफेसर दिनेश मोहन की राय में भी हमारे देश में सौर, पवन, भू तापीय, ज्वारीय रूप में गैर पारंपरिक उर्जा के पर्याप्त स्रोत हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय भौतिकीविद् सर चंद्रशेखर वेंकट रमन की रमन प्रभाव खोज की याद में हर साल 28 फरवरी को यह दिवस मनाया जाता है। रमन को 1930 में भौतिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिला था। सन् 1986 में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद ने सरकार से 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस घोषित करने को कहा था। पहले राष्ट्रीय विज्ञान दिवस 28 फरवरी, 1987 को परिषद ने विज्ञान के प्रचार प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए राष्ट्रीय विज्ञान लोकप्रियता पुरस्कार शुरू किये जाने की घोषणा की थी। हर साल विज्ञान दिवस का अलग अलग विषय रखा जाता है। देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की स्थिति के बारे में हाल ही अमेरिकी साइंस जर्नल ने कहा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैज्ञानिक अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव किया है और वैज्ञानिकों को अत्याधुनिक प्रयोगशाला सुविधाएं मिल रही हैं तथा धन की कमी भी महसूस नहीं हो रही। इस संबंध में कुलश्रेष्ठ ने कहा कि साइंस जर्नल की रिपोर्ट बिल्कुल सही है, क्योंकि पंडित नेहरू के बाद मनमोहन सिंह ने विज्ञान के क्षेत्र पर बहुत अच्छा प्रयास किया है। कुलश्रेष्ठ के अनुसार लेकिन इस बात पर ध्यान देना होगा कि विज्ञान छात्रों के लिए अंतिम विकल्प नहीं बने।

Dark Saint Alaick
02-03-2012, 08:39 AM
29 फरवरी जन्मदिन वालों का लंबा होता है इंतजार

जन्म दिन किसी भी इंसान की जिंदगी में खास महत्व रखता है, लेकिन 29 फरवरी जन्मदिन वालों के लिए यह और भी रोमांचित करने वाला होता है, क्योंकि उन्हें चार साल के लंबे इंतजार के बाद यह दिन नसीब होता है। ज्ञातव्य है कि चार से पूरी तरह विभाज्य वर्ष में फरवरी 29 दिन की होती है। इसे 'लीप ईयर' (अधिवर्ष) कहा जाता है । इस प्रकार 'लीप ईयर' में 365 की बजाय 366 दिन होते हैं। सन् 2012 भी लीप ईयर है। विश्व में कई जानी-मानी हस्तियां हैं, जिनका जन्म 29 फरवरी को हुआ था। पूर्व प्रधानमंत्री मोराजी देसाई का जन्म 29 फरवरी 1896 को हुआ था। आस्ट्रेलिया के तस्मानिया राज्य के पूर्व शीर्ष नेता सर जेम्स विल्सन का जन्म भी 29 फरवरी 1812 को हुआ था। यह विचित्र संयोग है कि उनका निधन भी 29 फरवरी को ही 1880 में हुआ था। संभवत: विल्सन पहली शख्सियत हैं, जिनका जन्म और निधन दोनों ही 29 फरवरी को हुआ।
29 फरवरी को जन्म लेने वाले मशहूर अभिनेता या अभिनेत्रियों में भारतीय अभिनेत्री वर्षा उसगांवकार, डैनिस फैरिना, केन फोरे, शान विलियम्स, फिलिस फ्रेलिस, ऐलैक्स रौको, एंटोनियो सबैटो जूनियर, फ्रैंक वुडले, जोनाथन कोलमैन, जॉस आकलैंड, वेंडी पीटर्स, नॉको इलिजीमा, मिशेल मार्गन शामिल हैं।
विश्व में कई जानी माने खिलाड़ी हैं, जिन्होंने 29 फरवरी को जन्म लिया है। ऐसी ही कुछ महत्वपूर्ण हस्तियों में कई हॉकी खिलाड़ी भी शामिल हैं। इनमें भारतीय खिलाड़ी एडम सिंक्लेयर, कनाडा के खिलाड़ी कैम वार्ड, हेनरी रिचर्ड, लैडन बायर्स, सिमौन गैगने, बॉबी सैनग्यूनएटी (अमेरिका) शामिल हैं। विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय खेल फुटबॉल खेलने वाले कई ऐसे खिलाड़ी हैं, जिनका जन्म भी 29 फरवरी का है। इनमें ब्राइस पौप (अमेरिका), बेनेडिकिट होउडेस (जर्मनी), डैरेन एम्ब्राज, स्कॉट गॉलबाउन (ब्रिटेन), क्लिंटन टुपी (न्यूजीलैंड) आदि शामिल हैं।
ईसाइयों के धर्मगुरू पोप पॉल तृतीय का जन्म भी वर्ष 1468 में इसी दिन हुआ था। इसी तरह कई जानी मानी शख्सियत हैं, जिनका जन्म 29 फरवरी को हुआ था। इनमें अल रोसेन (बेसबॉल खिलाड़ी), सी.एच.रोमेरो (अल सल्वाडोर के राष्ट्रपति), क्रिस कोनेली (अमेरिकी संगीतकार), डैनिस वाल्गर (जर्मन रग्बी खिलाड़ी), जेरी फ्राई (अमेरीकन बेसबॉल खिलाड़ी), जीरो आकागावा (जापानी उपन्यासकार), मर्वेन वारेन (अमेरिकी संगीतकार), टेलर वेलमैन (अमेरिकी फुटबॉल खिलाड़ी) और टैरेन्स लांग (अमेरिकी बेसबॉल खिलाड़ी) शामिल हैं।

Dark Saint Alaick
04-03-2012, 09:46 PM
आज फणीश्वरनाथ रेणु के जन्मदिन पर
रेणु के साहित्य में है गहरी लय, गूंजती है प्रकृति की प्रतिध्वनि

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15393&stc=1&d=1330883149

आंचलिक उपन्यासकार के तौर पर विख्यात हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाओं में गहरी लयबद्धता है और इसमें प्रकृति की आवाज समाहित है। वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने कहा, ‘रेणु जी के गद्य में काव्य है। उन्होंने अपनी रचनाओं को कविता की तरह लयात्मक बनाया है जिसमें देहाती माटी की महक समाहित है। वह आम जनों की भाषा में लिखने वाले साहित्यकार थे।’ फणीश्वर नाथ रेणु का चार मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गांव में जन्म हुआ था। बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज विधानसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी के विधायक और फणीश्वर नाथ रेणु के पुत्र पदम पराग वेणु ने बताया, ‘रेणु जी दमन और शोषण के खिलाफ आजीवन संघर्षरत रहे। उन्होंने न सिर्फ देश में बल्कि वर्ष 1950 में पड़ोसी देश नेपाल में भी जनता को राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए क्रान्ति और राजनीति में सक्रिय योगदान दिया।’ अपने पिता का 56 वर्ष का आयु में निधन का जिक्र करते हुए वेणु कहते हैं, ‘उनके जाने से 10 वर्षों तक काफी परेशानी झेलनी पड़ी। हालांकि हम लोग बालिग हो चुके थे, लेकिन पिता के साये की कमी महसूस होती रही।’ फारबिसगंज वही विधानसभा सीट है जहां से रेणु ने चुनाव में खुद किस्मत आजमाई थी। हालांकि चुनाव में उनकी जमानत जब्त हो गयी थी। वेणु कहते हैं, ‘मेरे पिताजी ने जो बीज बोया था, हम लोग उसकी फसल काट रहे हैं। यहां से उन्हें हार का सामना करना पड़ा था, लेकिन मैं यहां से विधायक हूं।’
वरिष्ठ साहित्यकार अशोक चक्रधर का कहना है कि फणीश्वर नाथ रेणु को आंचलिक उपन्यासकार के तौर पर रेखांकित किया जाता है, लेकिन सिर्फ इसमें ही उनका व्यक्तित्व नहीं समाता। उनके लेखन में मानवीय रसप्रियता झलकती है जिसमें ग्राम्य भोलापन है। उनके लेखन से झलकता है कि वह सुधार के पक्षधर थे, लेकिन इसके लिए वह नारे नहीं लगाते सिर्फ गांव के लोगों के मीठे झूठों को पकड़ते हैं। उन्होंने बताया, ‘रेणु जी की रचनाओं में महिलाएं बहुत ताकतवर होती थी। उन्होंने बताया कि जितना सीधा-सपाट पुरूष होता है स्त्री वैसी नहीं होती। वह 10 तरह से सोचती है और रेणु जी महिलाओं के सोचने के 8 से 10 तरीकों को तो जानते ही थे।’ अशोक वाजपेयी, रेणु के कहानी संग्रह ‘ठुमरी’ को श्रेष्ठ कहानी संग्रह में गिनते हैं। वह कहते हैं कि ‘ठुमरी’ में ‘रसप्रिया’ नामक कहानी अद्धभुत है। ‘इसके अलावा रेणु ने भारत और नेपाल के अकालों पर ‘दिनमान’ में काफी कुछ लिखा जो लाजवाब है।’ कथा-साहित्य के अतिरिक्त संस्मरण, रेखाचित्र, और रिपोर्ताज आदि विधाओं में लेखन के अलावा फणीश्वर नाथ रेणु का राजनीतिक आंदोलन से गहरा जुड़ाव रहा था। जीवन के संध्याकाल में वह जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल हुए, पुलिस दमन के शिकार हुए और जेल गये। 11 अप्रैल 1977 को फणीश्वर नाथ रेणु का देहावसान हो गया।

Dark Saint Alaick
04-03-2012, 09:50 PM
पांच मार्च को जन्मदिन पर विशेष
सामाजिक पक्षपात और भेदभाव से लड़कर गंगूबाई ने तलाशी थी अपनी मंजिल

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15394&stc=1&d=1330883439

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की प्रसिद्ध गायिका गंगूबाई हंगल ने महिलाओं के प्रति समाज के पक्षपाती नजरिये और उंच-नीच के सामाजिक विभेद से लड़कर संगीत के क्षेत्र में अपनी मंजिल तलाशी थी। तब के समाज में महिलाओं का गायन क्षेत्र से जुड़ना अच्छा नहीं माना जाता था, साथ ही उंच-नीच का सामाजिक भेदभाव भी चरम पर था। खयाल शैली की गायकी से जुड़ी गंगूबाई को याद करते हुए शास्त्रीय संगीत के शिक्षक और गायक पंडित मोहनदेव कहते हैं कि गंगूबाई किराना घराने की गायिका थीं। उन्होंने सवाई गंधर्व से संगीत की शिक्षा ली। उनके गायन पर मां अंबाबाई और गायिका जोहराबाई अग्रवली का भी प्रभाव पड़ा। उनकी मां अंबाबाई कर्नाटक संगीत की जानी मानी गायिका थीं, लेकिन मां से अलग गंगूबाई ने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में अपना मुकाम बनाया। मोहनदेव ने कहा, उनकी गायकी रागों के सार की असाधारण समभ, स्वरों के प्रति गहरी संवेदनशीलता और सौंदर्यबोध की प्रतीक है। पांच मार्च, 1932 को कर्नाटक के धारवाड़ के एक केवट परिवार में जन्मी गंगूबाई का जीवन गरीबी, जात पात और स्त्री पुरूष के बीच के भेदभाव से संघर्ष की कहानी है। 13 साल की उम्र में औपचारिक रूप से अपने संगीत सपर की शुरूआत करने वाली गंगूबाई ने 1945 तक भारत के अलग अलग हिस्सों में अपनी संगीतमय प्रस्तुतियां दीं। उन्होंने आकाशवाणी के कई केंद्रों के लिए भी प्रस्तुतियां दीं।
संगीत की दुनिया में जारी लिंग भेद के बारे में एक बार गंगूबाई ने कहा था, एक पुरूष संगीतकार मुस्लिम होने पर उस्ताद बन जाता है। हिन्दू होने पर पंडित बन जाता है, लेकिन एक महिला संगीतकार, चाहे वह केसरबाई हो या मोगूबाई, हमेशा बाई ही रहती है। गंगूबाई ने किशोरावस्था से ही संगीत के क्षेत्र में एक के बाद एक उपलब्धियां जोड़नी शुरू कर दी थीं। एक स्कूली छात्रा के रूप में उन्होंने महात्मा गांधी की एक सभा में स्वागत गीत गाया। इसी उम्र में एचएमवी कंपनी ने उनका संगीत रिकार्ड किया था। 16 साल की उम्र में एक ब्राह्मण वकील गुरूराव कौलगी से शादी करने वाली गंगूबाई ने संगीत के क्षेत्र में पुरूषों का वर्चस्व तोड़ा, संगीत के क्षेत्र में उनके अप्रतिम योगदान के लिए ही उन्हें पद्मभूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार जैसे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। वहीं 1996 में संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें अपनी पैलोशिप प्रदान की। गंगूबाई को अस्थि मज्जा का कैंसर हो गया था, लेकिन 2003 में वह इससे उबर गईं । वर्ष 2009 में हृदयघात होने से उनके जीवन का सफ़र खत्म हो गया। हृदयाघात से भले उनकी मौत हो गई, लेकिन उनके हृदय से निकला मधुर संगीत आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में बसा हुआ है।

Dark Saint Alaick
09-03-2012, 06:44 PM
नौ मार्च को पैनिक डे पर विशेष
तनाव, दहशत से मुक्ति दिलाता है योग

आधुनिक जीवनशैली में आगे बढ़ने और सफल होने के दबाव को हर व्यक्ति महसूस कर रहा है और इसके कारण लोगों को तमाम तरह की शारीरिक और मानसिक बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है। विशेषज्ञोें के अनुसार इनसे मुक्ति पाने के लिये योग और ध्यान जैसी पारंपरिक विधियां काफी कारगर साबित हो सकती हैं । दुनियाभर में योग बढावा दे रही संस्था ‘सहज योग’ से लंबे समय से जुडे और यहां योग ध्यान प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले रमेश मान ने कहा कि आज की भागदौड़ भरी जीवन शैली में लगभग प्रत्येक व्यक्ति भारी तनाव, असुरक्षा और चिंता के बीच से गुजर रहा है । इससे उसे उच्च और निम्न रक्तचाप, दिल की बीमारियां, मधुमेह, मानसिक असंतुलन जैसी बीमारियां हो रही हैं। मान ने कहा कि योग और ध्यान से जीवन तनाव मुक्त होता है, चिंतायें दूर होती हैं और नशा करने जैसी बुरी आदतें छूट जाती हैं। उन्होंने कहा कि जो लोग अतीत की घटनाओं या भविष्य को लेकर सोचते रहते हैं और उनका तनाव बढ़ जाता है, लेकिन योग इस तरह की सारी चिंताओें को दूर कर व्यक्ति को मध्यम मार्ग में ले जाता है, जहां व्यक्ति वर्तमान में जीता है। मान ने कहा कि वर्तमान में जीने से व्यक्ति तनाव मुक्त हो जाता है, असुरक्षा की भावना खत्म हो जाती है और वह आत्मविश्वास के साथ जीवन जीता है। उन्होंने कहा कि तनाव से मुक्ति के लिये प्रतिदिन सुबह-शाम 10 मिनट योग और ध्यान किया जाना पर्याप्त है। पेशे से उद्योगपति और पिछले करीब 10 साल से योग और ध्यान कर रहे डा. दीपक गर्ग ने बताया कि योग और ध्यान आम आदमी के साथ-साथ व्यवसायियों को तनाव घटाने में बहुत मदद कर रहा है। उन्होंने कहा कि योग और ध्यान से उच्च रक्तचाप, तनाव, अवसाद जैसी जीवन शैली बीमारियों का इलाज किया जा रहा है। गर्ग ने कहा कि लोगों में असुरक्षा की भावना पुराने अनुभवों के कारण होती है,लेकिन योग इसे संतुलित करता है और व्यक्ति को आत्मविश्वास से लबरेज बनाता है। गौरतलब है कि अमेरिका और कई यूरोपीय देशों में नौ मार्च को भय निवारण दिवस (पैनिक डे) के रूप में मनाया जाता है। इस दिन लोग तमाम तनावों, अवसाद, भय से उपर उठकर खुशियां मनाते हैं।

Dark Saint Alaick
10-03-2012, 08:30 AM
पुण्यतिथि 10 मार्च पर विशेष
जौहर ने अपने अभिनय से सिने प्रेमियों को दीवाना बनाया

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15427&stc=1&d=1331353816

अपने विशिष्ट अंदाज, हाव-भाव और आवाज से लगभग पांच दशक तक दर्शको को हंसाने और गुदगुदाने वाले आई.एस. जौहर का अभिनय फिल्म जगत में आज भी अपनी एक अलग पहचान बनाये हुए हैं। हास्य अभिनेता आई.एस. जौहर का पूरा नाम इंद्र सेन जौहर था । उनका जन्म 16 फरवरी 1920 को टोलागंज (अब पाकिस्तान) में हुआ था। जौहर ने अपनी स्नातकोत्तर की शिक्षा लाहौर के मशहूर एफ.सी. कॉलेज से पूरी की। लाहौर उन दिनों फिल्म निर्माण का केन्द्र माना जाता था और ज्यादातर हिंदी और पंजाबी फिल्मों का निर्माण वहीं हुआ करता था । पढ़ाई के दौरान जौहर का रूझान फिल्मों की ओर हो गया और उन्होंने निश्चय किया कि फिल्मों में ही वह अपना कैरियर बनाएंगे। वर्ष 1948 में जौहर मुंबई आ गए और फिल्म 'एक थी लड़की' में बतौर अभिनेता उन्हें अभिनय करने का अवसर मिला। इस बीच जौहर फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिये संघर्ष करते रहे। वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म 'श्रीमतीजी' के साथ जौहर ने निर्देशन के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। इसके बाद उन्होंने 'नास्तिक' और 'श्री नकद नारायण' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया। हांलाकि ये फिल्में बॉक्स आफिस पर ज्यादा सफल नहीं रही, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और वर्ष 1960 में फिल्म 'बेवकूफ' का निर्माण-निर्देशन किया, जिसने उन्हें कामयाबी दिलाई।
इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र अनिल जौहर को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए '5 राइफल्स' (1974 ) और 'नसबंदी' (1978 ) जैसी फिल्म का निर्माण किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म सफल नहीं हुई, जिससे उन्हें काफी आर्थिक क्षति हुई और उन्होंने फिल्म निर्माण से तौबा कर ली। बहुमुखी प्रतिभा के धनी आई.एस. जौहर ने कई फिल्मों की कहानी और स्क्रीनप्ले भी लिखे। इनमें 'अफसाना', 'नास्तिक', 'हम सब चोर हैं', 'बेवकूफ', 'जौहर महमूद इन हांगकांग' और 'दास्तान' जैसी फिल्में शामिल हैं।
जौहर के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी हास्य अभिनेता महमूद के साथ काफी पसंद की गई। साठ के दशक के हास्य की दुनिया के इन दोनों बेजोड़ महारथियों की जोड़ी सबसे पहले वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म 'नमस्ते जी' में पसंद की गई। इस फिल्म की सफलता के बाद कई निर्माता-निर्देशकों ने इस सफल जोड़ी को अपनी फिल्मों में मौका दिया। इन फिल्मों में वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म 'जौहर महमूद इन गोआ' और वर्ष 1971 में प्रदर्शित फिल्म 'जौहर महमूद इन हांगकांग' जैसी फिल्में शामिल हैं। अपने चरित्र में आई एकरूपता की नीरसता से बचने के लिये जौहर ने अपने आप को विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं में पेश किया। वर्ष 1967 में प्रदर्शित फिल्म 'शार्गिद' का नाम सबसे पहले आता है । फिल्म शार्गिद में जौहर ने एंटी हीरो भूमिका निभाई और दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। फिल्म में जौहर पर फिल्माया एक गाना 'बड़े मियां दीवाने ऐसे ना बनो' काफी लोकप्रिय हुआ। वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म 'जॉनी मेरा नाम' में जौहर के अभिनय के विविध रूप दर्शकों को देखने को मिले। इस फिल्म मे जौहर ने तिहरी भूमिका निभायी। पहला राम, दूजा राम और तीजा राम के चरित्र को जौहर ने इस तरह से निभाया कि दर्शक हंसते हंसते लोटपोट हो गए। इसके साथ ही अपने दमदार अभिनय के लिये जौहर अपने सिने कैरियर में पहली बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए।
इसके बाद जौहर ने जौहर महमूद इन हांगकांग, दास्तान, जोशीला, गंगा की सौगंध और गोपीचंद जासूस जैसी कई फिल्मों में अपने हास्य अभिनय से दर्शकों का मन मोहे रखा। हिंदी फिल्मों के अलावा आई.एस. जौहर ने कई अंग्रेज़ी फिल्मों में भी अभिनय किया। इनमें हैरी ब्लैक, नार्थ वेस्ट, लॉरेस ऑफ़ अरेबिया, डेथ ऑफ़ नाइल आदि फिल्में शामिल हैं। उन्होंने पंजाबी फिल्म 'नानक नाम जहाज है' में अभिनेता पृथ्वीराज कूपर के साथ काम किया। फिल्म सुपरहिट रही। इसने लगभग गुमनामी के अंधेरे में जा रही पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री को भी नया जीवन दिया। चार दशक से लंबे सिने कैरियर में करीब 100 फिल्मों में अपने अभिनय का जौहर दिखाकर आई.एस. जौहर 10 मार्च 1984 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
17-03-2012, 02:56 AM
18 मार्च को पनडुब्बी दिवस पर विशेष
देश के पनडुब्बी बेड़े को आधुनिक बनाए जाने की सख्त जरूरत : रक्षा विशेषज्ञ

चीन और पाकिस्तान की बढती नौसैनिक ताकत के बीच रक्षा विशेषज्ञों ने सरकार को आगाह किया है कि यदि पनडुब्बी बेडे की क्षमता नहीं बढाई गई तो आने वाले समय में देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है । रक्षा मामलों के विशेषज्ञ कमोडोर सी. उदय भास्कर ने कहा कि भारत ने समुद्र में दुश्मन को रोकने में बेहद कारगर समझी जाने वाली पनडुब्बियों के विकास और आधुनिकीकरण पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। भास्कर ने कहा, ‘‘भारत की वर्तमान पनडुब्बियां बहुत पुरानी हैं और उन्हें आधुनिक बनाए जाने की सख्त जरूरत है। 1980 के दशक में जर्मनी के साथ शुरु की गई एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी निर्माण योजना को भारत सरकार ने रद्द करके बहुत बड़ी गलती की थी जबकि उस परियोजना पर करीब 15 करोड़ डालर खर्च किए जा चुके थे। इस योजना को भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद रद्द कर दिया गया था।’’ रक्षा मामलों के विशेषज्ञ और इंडियन डिफेंस रिव्यू पत्रिका के संपादक भरत वर्मा ने कहा कि पनडुब्बी एक ऐसा हथियार है जो दुश्मन की नौसेना की निगाह में आये बिना ही उनके जंगी जहाजों, विमानवाहक पोतों और जमीनी ठिकानों को तबाह कर सकता है। वर्मा ने कहा, ‘‘मिसाइल और विमान दोनों ही हमला होने की सूरत में पकड़े जा सकते हैं लेकिन समुद्र के अंदर रहने वाली पनडुब्बी जवाबी हमला करने में बेहद कारगर होती है ।’’ उन्होंने कहा कि पनडुब्बी के मामले में भारत की स्थिति पड़ोसी देशों चीन और पाकिस्तान के मुकाबले बहुत खराब है । वर्मा ने बताया कि चीन के पास इस समय तीन परमाणु पनडुब्बियों समेत करीब 50 से 60 पनडुब्बियां हैं, पाकिस्तान के पास करीब 16 और भारत के पास 12 पनडुब्बी हैं । वर्मा ने भारत के पनडुब्बी कार्यक्रम की स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा कि देश की पहली परमाणु पनडुब्बी अरिहंत का वर्ष 2013 तक समुद्री परीक्षण शुरू होगा । इसी तरह फ्रांस के सहयोग से बन रही छह परंपरागत स्कॉर्पिन पनडुब्बियां वर्ष 2020 तक ही मिल पायेंगी । उन्होंने सुझाव दिया कि देश में नौसैनिक ताकत को मजबूत करने के लिये सरकारी रक्षा कंपनियों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 26 प्रतिशत से बढाकर 49 फीसद की जाये । इसी तरह से रक्षा अनुसंधान संगठन के पास पूरी क्षमता नहीं है इसलिये पश्चिमी देशों के साथ गठजोड़ कर नवीनतम तकनीकों का हस्तांतरण किया जाये तथा रक्षा उपकरणों को खरीदने में व्याप्त लाल फीताशाही को खत्म किया जाये। गौरतलब है कि 17 मार्च सन 1900 के दिन अमेरिका की नौसेना में पनडुब्बी सेना का गठन किया गया था और इसी की याद में अमेरिका समेत कई पश्चिमी देशों में आज का दिन पनडुब्बी दिवस के रूप में मनाया जाता है।

Dark Saint Alaick
20-03-2012, 11:15 AM
20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस पर विशेष
कहां गई गौरैया ... कहां रे बसेरा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15454&stc=1&d=1332224094

घरों को अपनी चीं...चीं से चहकाने वाली गौरैया अब दिखाई नहीं देती। इस छोटे आकार वाले खूबसूरत पक्षी का कभी इंसान के घरों में बसेरा हुआ करता था और बच्चे बचपन से इसे देखते बड़े हुआ करते थे। अब स्थिति बदल गई है। गौरैया के अस्तित्व पर छाए संकट के बादलों ने इसकी संख्या काफी कम कर दी है और कहीं-कहीं तो अब यह बिल्कुल दिखाई नहीं देती। पहले यह चिड़िया जब अपने बच्चों को चुग्गा खिलाया करती थी तो इंसानी बच्चे इसे बड़े कौतूहल से देखते थे, लेकिन अब तो इसके दर्शन भी मुश्किल हो गए हैं और यह विलुप्त हो रही प्रजातियों की सूची में आ गई है। पक्षी विज्ञानी हेमंत सिंह के मुताबिक गौरैया की आबादी में 60 से 80 फीसदी तक की कमी आई है। यदि इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए तो हो सकता है कि गौरैया इतिहास की चीज बन जाए और भविष्य की पीढियों को यह देखने को ही न मिले। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी आफ प्रोटेक्शन आफ बर्ड्स’ ने भारत से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाला है। आंध्र विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक गौरैया की आबादी में करीब 60 फीसदी की कमी आई है । यह हृास ग्रामीण और शहरी...दोनों ही क्षेत्रों में हुआ है। पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के अनुसार गौरैया की आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है।

गौरैया पर मंडरा रहे खतरे के कारण ही सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई दिलावर जैसे लोगों के प्रयासों से आज दुनियाभर में 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मानाया जाता है, ताकि लोग इस पक्षी के संरक्षण के प्रति जागरूक हो सकें। दिलावर द्वारा शुरू की गई पहल पर ही आज बहुत से लोग गौरैया बचाने की कोशिशों में जुट रहे हैं। सिंह के अनुसार आवासीय हृास, अनाज में कीटनाशकों के इस्तेमाल, आहार की कमी और मोबाइल फोन तथा मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही हैं। उन्होंने कहा कि लोगों में गौरैया को लेकर जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है क्योंकि कई बार लोग अपने घरों में इस पक्षी के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं। कई बार बच्चे इन्हें पकड़कर पहचान के लिए इनके पैर में धागा बांधकर इन्हें छोड़ देते हैं। इससे कई बार किसी पेड़ की टहनी या शाखाओं में अटक कर इस पक्षी की जान चली जाती है। इतना ही नहीं कई बार बच्चे गौरैया को पकड़कर इसके पंखों को रंग देते हैं जिससे उसे उड़ने में दिक्कत होती है और उसके स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है। पक्षी विज्ञानी के अनुसार गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें और उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। उनका मानना है कि गौरैया की आबादी में हृास का एक बड़ा कारण यह भी है कि कई बार उनके घोंसले सुरक्षित जगहों पर न होने के कारण कौए जैसे हमलावर पक्षी उनके अंडों तथा बच्चों को खा जाते हैं।

Dark Saint Alaick
21-03-2012, 03:35 PM
21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस पर विशेष
अस्तित्व बचाये रखने के लिये संघर्ष कर रहे हैं जंगल

दुनिया के करीब सात अरब लोगों को प्राणवायु (आक्सीजन) प्रदान करने वाले जंगल आज खुद अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये संघर्ष कर रहे हैं और यदि जल्द ही इन्हें बचाने के लिये प्रभावी कदम नहीं उठाये गये तो ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्यायें विकराल रूप ले लेंगी। बिहार की राजधानी पटना मेें लंबे समय से जंगलों को बचाने के लिये काम कर रही संस्था ‘तरूमित्र’ के प्रमुख फादर राबर्ट ने बताया कि एक व्यक्ति को जिंदा रहने के लिये उसके आस पास 16 बड़े पेड़ों की जरूरत होती है लेकिन भारत में स्थिति इसके उलट है। फादर राबर्ट ने कहा, ‘‘भारत में 36 लोग एक पेड़ पर आश्रित हैं । दुनियाभर के वैज्ञानिकों का कहना है कि जमीन के एक तिहाई हिस्से पर वन होना चाहिये जबकि भारत में सरकारी आकडों के मुताबिक देश के करीब 23 फीसदी हिस्से पर वन हैं । लेकिन हाल ही में आई एक गैर सरकारी संस्था की रिपोर्ट बताती है कि भारत के केवल 11 प्रतिशत हिस्से पर वन हैं ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘यह स्थिति काफी गंभीर है । कई सौ वर्षो में तैयार हुए जंगलों को काट देने से एक पूरा जीवन चक्र समाप्त हो जाता है।’’
राबर्ट ने कहा कि देश में विकास के नाम पर बड़ी संख्या में पेड़ काटे जा रहे हैं लेकिन उन्हें फिर से लगाने की प्रक्रिया काफी धीमी है । उन्होंने सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरनमेंट :सीएसई: की एक रिपोर्ट के हवाले से बताया कि देश में 18 पेड़ काटे जाते हैं तो एक पेड़ लगाया जाता है। उन्होंने बताया कि सूचना के अधिकार के तहत बिहार के वन विभाग ने बताया कि पटना में पांच हजार पेड़ काटे गये तो केवल 1200 पेड़ लगाये गये। पर्यावरण संरक्षण के दिशा में काम कर रही संस्था ‘वातावरण’ की निदेशक अलका तोमर ने बताया कि सरकार ने वनों के संरक्षण की दिशा में काफी काम किया है और पर्यावरण मंत्रालय की ‘नो गो’ नीति काफी अच्छा असर दिखाई दिया है। अलका तोमर ने कहा, ‘‘लेकिन खनन, कोयला, राजमार्ग जैसे मंत्रालयों की तरफ से पर्यावरण मंजूरी के लिये वन एवं पर्यावरण मंत्रालय पर काफी दबाव रहता है । आज अगर भारत में वन बचे हैं तो इसके पीछे भारतीय वन सेवा के अधिकारियों की कड़ी मेहनत और विभिन्न समुदायों का अथक प्रयास है।’’ उन्होंने बताया कि सरकार ने ‘ग्रीन इंडिया मिशन’ के तहत देश के उन क्षेत्रों में काम किया है जहां जंगल काटे जा चुके हैं। एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के मुताबिक ‘धरती के फेफड़े’ कहे जाने वाले ब्राजील के वर्षावन वहां चलायी जा रही विकास गतिविधियों की भेंट चढ रहे हैं। ब्राजील के राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के मुताबिक दुनिया के इस सबसे बडे वर्षावन में पिछले 12 महीने में 11 प्रतिशत की कमी आई है। गौरतलब है कि दुनियाभर में लोगों को जागरूक करने के लिये 21 मार्च का दिन ‘विश्व वानिकी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का सबसे पहले विचार वर्ष 1971 में यूरोपीय कृषि परिसंघ की 23वीं आम बैठक में आया था।

Dark Saint Alaick
21-03-2012, 03:37 PM
21 मार्च को नस्लभेद उन्मूलन पर अंतरराष्ट्रीय दिवस
वैश्वीकरण के इस दौर में भी जारी है नस्ली भेदभाव

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार के वैश्विक घोषणा पत्र में कहा गया है कि दुनिया के सभी व्यक्ति स्वतंत्र पैदा हुए और सबको समान मान-सम्मान तथा अधिकार के साथ जीने का हक है लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। आज भी नस्ल और रंग के आधार पर विभेद जारी है। पिछले हफ्ते ब्रिटेन के स्कूल में कार्यरत भारतीय मूल की प्रधानाध्यापिका ने नौकरी के दौरान नस्ली भेदभाव किए जाने का आरोप लगाया है। आस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों से भी रंगभेद की खबरें आती रहती हैं। खबरों के मुताबिक आॅस्कर पुरस्कार विजेता फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ की अभिनेत्री फ्रीडा पिंटो को भी कई बार रंगभेद का शिकार होना पड़ा है। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा, ‘‘रंगभेद एक विश्वव्यापी समस्या है जिसका मूल आधार दुनिया में गोरी चमड़ी वाले लोगों द्वारा मुख्यत: काली चमड़ी वाले मनुष्यों के प्रति हेय भावना रखा जाना है। ऐसा लगभग 500 साल से चला आ रहा है।’’ उन्होंने ‘भाषा’ से कहा कि पुर्तगाल और स्पेन ने दक्षिण अफ्रीका में साम्राज्य तथा वहां के निवासियों पर वर्चस्व स्थापित करके रंगभेद की शुरुआत की जिसे ब्रिटेन जैसे देशों ने आगे बढाया।’’ कुमार ने कहा कि 1960 में दक्षिण अफ्रीका के शार्पविले में रंगभेद के खिलाफ शांतिपूर्वक प्रदर्शन के दौरान मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने तथा सभी प्रकार के रंगभेद को खत्म करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 1966 में 21 मार्च का नस्ली भेदभाव समापन दिवस घोषित किया। उन्होंने कहा कि गोरे लोगों द्वारा बुद्धिमता, प्रबंधन, विद्या, बहादुरी आदि में अपने आप को गैर-गोरो से सर्वश्रेष्ठ मानने की वजह से इस मौजूदा समय में भी नस्लीय हमलों की खबरें आ रही हैं।
जाने माने स्तंभकार और सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गताडे ने कहा कि बढते आर्थिक संकट से नस्लभेद को बढावा मिल रहा है। इसके अलावा 11 सितंबर 2011 में अमेरिका पर हुए आतंकी हमलों के बाद बने माहौल में रंगभेद के जरिये परेशान करने संबंधी मामले बढे हैं। उन्होंने कहा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही विश्वस्तर पर रंगभेद को इसांनियत के नाम पर धब्बा माने जाने लगा था। प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया कि रंगभेद के खिलाफ वैश्विक सहमति के निर्माण में अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, वांगरी मथाई और समाजवादी चिंतकों का बड़ा योगदान है। संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्यों में इसके निर्मूलन को दासता उन्मूलन के बराबर का दर्जा दिया गया है। लेकिन अब भी समृद्धि और ख्याति के शिखर पर गोरे ही बहुमत में हैं। हाल के 10-15 वर्ष में गैर-गोरों को साहित्य का नोबल पुरस्कार मिलने लगा है, लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में कभी कभार ही अश्वेत लोगों को यह सम्मान दिया जाता है। उन्होंने कहा कि बराक ओबामा के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से रंगभेद विरोधी विश्व अभियान का नया अध्याय शुरु हुआ है। इससे अमेरिका और यूरोप के मध्यम वर्ग में भारतीय दृष्टिकोण और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के प्रति दिलचस्पी बढी है। लेकिन इसे पूरी तरह के खत्म करने के लिए सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक सभी मोर्चों पर काम करना होगा। गताडे ने कहा कि नस्लीय अथवा जातीय भेदभाव को खत्म करने के लिए समाज में जागरूकता फैलाने और नस्लीय भेदभाव में शामिल लोगों पर सख्त कार्रवाई की जरूरत है।

Dark Saint Alaick
21-03-2012, 03:40 PM
21 मार्च को जन्मदिन पर विशेष
शहनाई बेगम और मौसिकी जहां थी उस्ताद बिस्मिल्ला खान की

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15457&stc=1&d=1332326403

भारतीय शास्त्रीय संगीत और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। 21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमराव में जन्मे खान कहते थे कि संगीत के बहुत से अंग हैं और उनसे बनने वाली बहुत सी रागनियां हैं। संगीत अपने आप में पूरा जीवन है। उस्ताद बिस्मिल्ला के नाम के साथ भी दिलचस्प वाकया जुड़ा है। उनका जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श खान ने उनकी तरफ देखते हुए बिस्मिल्ला कहा। इसके बाद उनका नाम बिस्मिल्ला ही रख दिया गया। उनका एक और नाम कमरूद्दीन था। उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर खान इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को बनारस ले जाया गया। यहां उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और गंगा के साथ उनका जुड़ाव भी। खान काशी विश्वनाथ मंदिर से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे। खान को याद करते हुए संगीत शिक्षक और गायक पंडित मोहनदेव कहते हैं, ‘खान धर्म की सीमाओं से परे सरस्वती के भक्त थे। वह अकसर हिन्दू मंदिरों में शहनाई वादन किया करते थे, शहनाई उनके लिए अल्लाह की इबादत का भी माध्यम थी तो सरस्वती की वंदना का भी। अपने संगीत के माध्यम से उन्होंने शांति और प्रेम का संदेश दिया।’

खान के उपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है, ‘‘खां कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।’’ किताब में मिश्र ने बनारस से खान के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है, ‘‘खान कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।’’ भारत की आजादी और खान की शहनाई का भी खास रिश्ता रहा है। 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्ला का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। खान ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया। अपने जावन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्को में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं। खान ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गंूज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेस’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरीं। खान के संगीत के सफर को याद करते हुए पंडित मोहनदेव कहते हैं कि भारत रत्न, पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण जैसे अलंकारों और पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्ला खान का संगीत उनके दुनिया से जाने के बाद भी अमर है। बिस्मिल्ला खान ने अपने लिए वह मुकाम बनाया है कि जब-जब शहनाई का नाम लिया जाता है उनका नाम सबसे पहले आता है। एक तरह से शहनाई और बिस्मिल्ला एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं।

Dark Saint Alaick
22-03-2012, 06:32 PM
22 मार्च-विश्व जल दिवस पर विशेष
बढते लोग, बेकाबू होता जल संकट

दुनिया की बेतहाशा बढती आबादी के बीच आज समूचा विश्व गंभीर जल संकट से जूझ रहा है और संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक जीवन की इस सबसे अपरिहार्य जरूरत को पूरा करने के लिये ‘भगीरथ’ प्रयास नहीं किये गये तो आने वाले समय में स्थिति और विकट हो जाएगी। कहा जाता है कि ‘जल ही जीवन है’ और ‘बिन पानी सब सून’ यानी पानी के अभाव में जिंदगी और प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन धरती पर मौजूद जल की कद्र करने से हम बचते नजर आ रहे हैं और अगर यही स्थिति बनी रही तो हम बूंद बूंद जल के लिये तरसेंगे। संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसी महीने जारी की गयी विश्व जल विकास रिपोर्ट मेें चेतावनी दी गई है कि विश्व के अनेक हिस्सों में पानी की भारी समस्या है और इसकी बर्बादी नहीं रोकी गई तो स्थिति और विकराल हो जाएगी। वर्ष 2050 तक विश्व की आबादी मौजूदा सात अरब से बढकर नौ अरब हो जाने की उम्मीद है और पानी, भोजन की मांग और जलवायु परिवर्तन की समस्या दिनोंदिन बढती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने इस रिपोर्ट में कहा है, ‘‘कृषि की बढती जरूरतों, खाद्यान उत्पादन, उर्जा उपभोग, प्रदूषण और जल प्रबंधन की कमजोरियों की वजह से स्वच्छ जल पर दबाव बढ रहा है।’’ जहां तक भारत का सवाल है यहां विश्व के मात्र चार प्रतिशत नवीनीकरणीय जल स्रोत हैं जबकि जनसंख्या 17 प्रतिशत। राष्ट्रीय जलनीति प्रारुप 2012 के मुताबिक भारत में 4000 अरब घनमीटर (बीसीएम) वर्षा होती है, इसमें से उपयोग में लाया जाने वाला जल संसाधन लगभग 1123 बीसीएम ही है।

बढते जल संकट के बारे में ‘जलपुरूष’ के नाम से विख्यात राजेंद्र सिंह ने कहा, ‘‘भारत के दो तिहाई भूजल भंडार खाली हो चुके हैं जो बचे हैं वह प्रदूषित होते जा रहे हैं। नदी का जल पीने लायक नहीं बचा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आर्थिक वृद्धि, प्रगति और समृद्धि जैसे फलसफे धरे के धरे रह जाएंगे।’’ देश में बढती जनसंख्या, तीव्र नगरीकरण, तीव्र औद्योगिकरण और आर्थिक विकास की वजह से पानी की मांग लगातार बढती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार, आज कृषि में करीब 70 फीसदी जल का उपयोग होता है जिसमें से अमीर देशों में यह उपयोग 44 फीसदी और अल्प विकसित देशों में 90 फीसदी से अधिक है। सामुदायिक नेतृत्व के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से 2001 में नवाजे जा चुके राजेंद्र सिंह ने कहा कि बढते जल संकट से निपटने के लिए सामुदायिक विकेंद्रित जल प्रबंधन व्यवस्था अपनाने, जल के निजीकरण की जगह सामुदायिकरण करने और इसे अतिक्रमण से बचाने की जरूरत है। देश की मौजूदा जल प्रबंधन व्यवस्था की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह ठेकेदारों को प्रोत्साहित करने वाली और नेताओं, ठेकेदारों, अधिकारियों को फायदा पहुंचाने वाली है। यह समुदाय केंद्रित नहीं है।’’ जल संरक्षण के क्षेत्र में सफल मॉडल तैयार करने वाले सिंह ने कहा, ‘‘सरकारें जल की बढती समस्या से वाकिफ हैं। कई अधिकारी हमारे यहां दौरे पर आते है और इसे अपनाने की बातें करते हैं। लेकिन वे अब भी समाज को गुमराह करने में लगे हुए हैं। सरकारों को जल की बढती किल्लत को गंभीरता से लेना होगा।’’ पानी की किल्लत से निपटने में नदियों को जोड़ने की परियोजना के महत्व के बारे में उन्होंने कहा, ‘‘यह एक षडयंत्रकारी योजना है। इससे पर्यावरणीय संकट, राज्यों के बीच विवाद आदि को बढावा मिलेगा। हमें आपस में नदियों को नहीं बल्कि नदियों से समाज को जोड़ने की जरूरत है।’’

Dark Saint Alaick
24-03-2012, 12:02 AM
24 मार्च बलिदान दिवस पर विशेष
आजाद वतन में भी जेल के सीखचों मे सो रहे हैं खान बहादुर खान

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15470&stc=1&d=1332529322

सन् 1857 की जंग-ए-आजादी के जांबाज सिपाही नवाब खान बहादुर खान आज भी बरेली जिला जेल के सीखचों के भीतर सो रहे हैं। रहेलखण्ड इलाके में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अगुवाई करने वाले नवाब खान बहादुर खान और उनके 257 साथियों को 140 वर्ष पहले ब्रिटिश हुक्मरान ने 24 मार्च को फांसी पर लटकाया था। आनन फानन में मुकदमें की कार्रवाई निपटाकर 24 मार्च 1860 को नवाब खान बहादुर को शहर के बीचो बीच स्थित पुरानी कोतवाली के सामने और उनके 257 साथियों को यहां कमिश्नरी न्यायालय में स्थित एक पुराने बरगद के पेड पर फांसी दी गई थी। खान बहादुर खान का जन्म वर्ष 1789 में रुहेलखण्ड के नवाबी खानदान में हुआ था। मई 1857 में उनकी अगुवाई में क्रांतिकारियों ने इस समूचे क्षेत्र से अंग्रेजों को खदेडकर विजय पताका फहराई थी।

ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार बाद में अंग्रेजों ने बरेली को फिर से फतह कर लिया. मगर नवाब खान बहादुर खान ने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां जारी रखीं। अवध की बेगम हजरत महल के साथ वह बाद में नेपाल चले गए जहां उनको एक साजिश करके गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में नवाब साहब के अन्य साथी भी पकडे गए। खान बहादुर खान को एक जनवरी 1860 को बरेली लाकर कैन्ट के किले में रखा गया। बरेली के तत्कालीन कलेक्टर जान इंगिस ने उनके खिलाफ आनन फानन में चार्जशीट तैयार कराई और नवाब साहब और उनके साथियों को मृत्युदंड देने के एकमात्र उद्देश्य से मुकदमा चलाने के लिये यह चार्जशीट एक स्पेशल कमीशन के समक्ष पेश की गई। विशेष कमीशन के सदस्य बरेली के तत्कालीन जज ए.शेक्सपियर तथा सेवा अधिकारी विलियम राबर्टथस थे जबकि बरेली के सहायक मजिस्ट्रेट मोटोन्स प्रॉसिक्यूटर नियुक्त किये गए थे।

खान बहादुर खान का दाहिना हाथ कहे जाने वाले मुंशी शोभाराम के साथ रहेलखण्ड के 257 क्रांतिकारियों को इस बीच गिरफ्तार करके पहले लखनऊ ले जाया गया और फिर उनको बरेली लाकर उनको विशेष अदालत में पेश किया गया। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार 20 मार्च 1860 को खान बहादुर और उनके साथियों को फांसी के आदेश सुना दिये गए और चार दिन बाद ही 24 मार्च को बरेली की पुरानी कोतवाली के सामने उनको फांसी पर लटका दिया गया। उनके साथी 257 क्रांतिकारियों को कमिशनरी में स्थित एक विशाल बरगद के पेड पर सामूहिक रप से फांसी दे दी गई। पूरे इलाके में उस समय 71 वर्षीय नवाब खान बहादुर खान की लोकप्रियता का अंदाजा इस एक बात से लगाया जा सकता है कि उनको फांसी पर लटकाने के बाद भी जनता मे बगावत फैलने के अंदेशे से खौफजदा अंग्रेज अधिकारी एक घंटे तक नवाब साहब के पार्थिव शरीर से दूर ही रहे। बाद में उन्होंने नवाब के शव को जिला जेल में पहले से ही तैयार एक कब्र में दफन करा दिया। कमिशनरी में 257 क्रांतिकारियों की शहादत का गवाह बरगद का पेड तो अब नहीं रहा मगर उस स्थान पर लगा एक शिलालेख आज भी आने जाने वालों को वतन पर शहीद होने वालों की अमर कुर्बानी की याद दिलाता है।

Dark Saint Alaick
27-03-2012, 10:51 AM
27 मार्च को पुण्यतिथि पर विशेष
राष्ट्रीय एकता को विकास की बुनियाद मानते थे सर सैयद

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15479&stc=1&d=1332827488

विख्यात मुस्लिम सुधारक और विद्वान सर सैयद अहमद खान को अमूमन मुसलमानों से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन वह सारे हिंदुस्तानियों की बात करते थे। वह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के प्रबल समर्थक थे। देश के मुसलमानों की गुरबत को देखकर उनको उपर उठाने के लिए आगे आए सर सैयद का हमेशा यही कहना था कि हिंदू-मुस्लिम एकता के जरिए ही सपनों का भारत बनाया जा सकता है। इस्लामी जानकार और जामिया मिलिया इस्लामिया में अरबी विभाग के प्रोफेसर जुनैद हारिस कहते हैं, ‘‘सर सैयद ने ‘कौम’ शब्द की नयी परिभाषा दी। पहले इसे एक समुदाय विशेष से जोड़कर देखा जाता था, लेकिन सर सैयद ने कौम में देश के सभी नागरिकों को शामिल किया।’’ सर सैयद की पैदाइश 17 अक्तूबर, 1817 को दिल्ली में हुई। गुलाम हिंदुस्तान में एक इस्लामी विद्वान के तौर पर मशहूर हुए सर सैयद ने तालीम को तरक्की का सबसे बड़ा हथियार बताया और इसी फलसफे को लेकर आगे बढे। देश के मुसलमानों की गुरबत उनके मन में एक बड़ी टीस थी। इसी पीड़ा को लेकर उन्होंने मुसलमानों और अन्य पिछड़े तबकों को आगे लाने के लिए प्रयास शुरू किया। तालीम की पुरजोर हिमायत करने वाले सर सैयद ने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय :एएमयू: की बुनियाद रखी, जो आज देश के प्रतिष्ठित विश्वद्यालयों में शुमार होता है।

प्रोफेसर हारिस कहते हैं, ‘‘राष्ट्रीय एकता को लेकर सर सैयद किस कदर संजीदा थे, उसका अंदाजा उनके एक बयान से लगाया जा सकता है। उन्होंने हिंदू और मुसलमान को दो आंखें बताया था। इससे उनकी मुराद यह थी कि दोनों में से किसी एक को तकलीफ होगी तो दूसरे को भी दर्द होगा।’’ सर सैयद ने पूरी जिंदगी तालीम को बढावा देने और देश को जोड़ने का काम किया। 27 मार्च, 1898 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। एएमयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कमर आलम कहते हैं, ‘‘सर सैयद ने तालीम की जो रोशनी बिखेरी, वह आज भी कायम है। उनके प्रयासों का परिणाम है कि आज देश में हजारों बच्चे हर साल तालीम ले रहे हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘सर सैयद के योगदान को सिर्फ मुसलमानों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। उन्होंने सभी को साथ लेकर चलने की बात की थी। एएमयू का पहला स्नातक हिंदू था। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया था।’’

Dark Saint Alaick
31-03-2012, 09:15 AM
पुण्यतिथि 31 मार्च पर
फिल्म जगत की ट्रेजडी क्वीन थीं मीना कुमारी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15502&stc=1&d=1333167289

मुंबई में एक क्लीनिक के बाहर मास्टर अली बख्श नाम का एक शख्स बेसब्री से अपनी तीसरी औलाद के जन्म का इंतजार कर रहा था दो बेटियों के बाद वह दुआ कर रहा था कि अल्लाह इस बार बेटे का मुंह दिखा दे। तभी अंदर से खबर आई, तो वह माथा पकड़ कर बैठ गया। उसके घर इस बार भी बेटी ने ही जन्म लिया था। मास्टर अलीबख्श ने तय किया कि वह बच्ची को घर नहीं ले जायेंगे और अनाथालय छोड़ आये, लेकिन बाद में उनकी पत्नी के आंसुओं ने बच्ची को अनाथालय से घर लाने के लिये उन्हें मजबूर कर दिया। बच्ची का चांद सा माथा देखकर उसकी मां ने उसका नाम रखा माहजबीं। बाद में यही माहजबीं फिल्म इंडस्ट्री में मीना कुमारी के नाम से मशहूर हुईं। एक अगस्त 1932 को एक मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार में जन्मी मीना कुमारी को परिवार की आर्थिक स्थिति खराब रहने के कारण बचपन मे ही स्कूल छोड़ कर फिल्मों में काम करने के लिये मजबूर होना पड़ा। मीना कुमारी के पिता अली बख्श एक पारसी थियेटर में काम किया करते थे, जबकि उनकी मां इकबाल बेगम डांसर थी ।
बतौर बाल कलाकार मीना कुमारी को विजय भटृ की 'लेदरफेस' में काम करने का मौका मिला। मीना कुमारी की किस्मत का सितारा निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट की क्लासिक फिल्म 'बैजू बावरा' से चमका। बेहतरीन गीत-संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की गोल्डन जुबली कामयाबी ने न सिर्फ विजय भट्ट के प्रकाश स्टूडियो को ही डूबने से बचाया, बल्कि नायिका मीना कुमारी को स्टार के रूप में स्थापित कर दिया। फिल्म की शुरूआत के समय निर्माता विजय भट्ट फिल्म अभिनेत्री के रूप में नर्गिस के नाम पर विचार कर रहे थे, लेकिन संगीतकार नौशाद ने उन्हें अपेक्षाकृत नई अभिनत्री को लेने पर जोर दिया। बाद में फिल्म के लिये मीना कुमारी का चुनाव किया गया और यह निर्णय फिल्म की सफलता के बाद सही साबित हुआ। फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये मीना कुमारी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित की गयी।
वर्ष 1952 में मीना कुमारी ने फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही के साथ शादी कर ली, लेकिन वर्ष 1964 में मीना कुमारी और कमाल अमरोही की विवाहित जिंदगी में दरार आ गयी। काम के प्रति समर्पित मीना कुमारी अपने काम में कमाल अमरोही के बेवजह दखल को बर्दाश्त नहीं कर सकीं और 1964 के बाद मीना कुमारी और कमाल अमरोही अलग-अलग रहने लगे। कमाल अमरोही की जुदाई से मीना कुमारी टूट सी गयीं और उन्होंने अपने आप को शराब के नशे में डुबो दिया।
1957 में प्रदर्शित फिल्म 'शारदा' में मीना कुमारी के अभिनय के नये आयाम दर्शकों को देखने को मिले। इस फिल्म में मीना कुमारी ने अभिनेता राज कपूर की प्रेयसी के अलावा उनकी सौतेली मां की भूमिका भी निभायी। हांलाकि इस वर्ष फिल्म 'मदर इंडिया' के लिये फिल्म अभिनेत्री नर्गिस को सभी अवार्ड दिये गये, लेकिन बंम्बई जर्नलिस्ट एशोसियेशन ने मीना कुमारी को उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिये नामित किया। वर्ष 1962 मीना कुमारी के सिने कैरियर का अहम पड़ाव साबित हुआ । इस वर्ष उनकी आरती, मैं चुप रहूंगी और साहिब बीबी और गुलाम जैसी फिल्में प्रदर्शित हुईं। इन फिल्मों के लिये वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार के लिए नामित की गईं। यह फिल्म फेयर के इतिहास में पहला ऐसा मौका था, जब एक अभिनेत्री को फिल्म फेयर के तीन वर्गों में नामित किया गया था।
गुरूदत्त की फिल्म साहिब बीबी और गुलाम में मीना कुमारी ने छोटी बहू के किरदार को जीवंत कर दिया। इस फिल्म के जरिये मीना कुमारी ने बहुत खूबसूरती से अपनी निजी जिंदगी को रूपहले पर्दे पर साकार किया। यह फिल्म आज भी हिन्दी की कलाफिल्मों में शुमार की जाती है। कमाल अमरोही की फिल्म 'पाकीजा' के निर्माण में लगभग चौदह वर्ष लग गये । इस दौरान मीना कुमारी कमाल अमरोही से अलग हो गयी थी, फिर भी उन्होंने फिल्म की शूटिंग जारी रखी, क्योंकि उनका मानना था कि पाकीजा जैसी फिल्मों में काम करने का मौका बार-बार नहीं मिल पाता है।
फिल्म के निर्माण के दौरान उनकी तबीयत काफी खराब रहने लगी। 'ठाडे रहियो' और 'चलते चलते मुझे कोई मिल गया था' गीतों के फिल्मांकन के दौरान मीना कुमारी कई बार नाचते-नाचते गिर पड़ती थी। वर्ष 1972 में पाकीजा प्रदर्शित हुयी तो मीना कुमारी का अभिनय देखकर दर्शक मुग्ध हो गये। यह फिल्म आज भी मीना कुमारी के जीवंत अभिनय के लिये याद की जाती है। 1972 में प्रदर्शित फिल्म 'मेरे अपने' में मीना कुमारी ने एक वृद्ध महिला का किरदार निभाया। फिल्म में मीना कुमारी के संजीदा अभिनय ने दर्शक को भावविभोर कर दिया।
मीना कुमारी को चार बार फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से नवाजा गया। उन्हें सबसे पहले 1953 में प्रदर्शित फिल्म 'बैजू बावरा' के लिये सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। इसके बाद 1964 में 'परिणीता', 1962 में 'साहिब बीबी और गुलाम' और 1965 में 'काजल' फिल्म के लिये भी वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गयी।
मीना कुमारी यदि अभिनेत्री नहीं होती, तो निश्चित तौर पर शायरा होतीं। गीतकार और शायर गुलजार से एक बार मीना कुमारी ने कहा था 'ये जो एक्टिग मैं करती हूं, उसमें एक कमी है, ये फन, ये आर्ट मुझसे नहीं जन्मा है; ख्याल दूसरे का, किरदार किसी का; और निर्देशन किसी का। मेरे अंदर से जो जन्मा है, वह लिखती हूं ... जो मैं कहना चाहती हूं ... वह लिखती हूं। मीना कुमारी ने अपनी वसीयत में अपनी कविताएं छपवाने का जिम्मा गुलजार को दिया, जिसे उन्होंने 'नाज' उपनाम से छपवाया।
सदा तन्हा रहने वाली मीना कुमारी ने अपनी रचित एक गजल के जरिये अपनी जिंदगी का नजरिया पेश किया है - 'चांद तन्हा है आसमां तन्हा/दिल मिला है कहां कहां तन्हा/ राह देखा करेगा सदियों तक/ छोड़ जायेगें ये जहां तन्हा' ! लगभग तीन दशक तक अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों के दिल पर राज करने वाली हिन्दी सिने जगत की महान अभिनेत्री मीना कुमारी 31 मार्च 1972 को इस दुनिया से रुखसत हो गईं।

Dark Saint Alaick
02-04-2012, 11:08 PM
तीन अप्रेल को जन्मदिन पर विशेष
‘मैं हमेशा युद्ध के तैयार रहता हूं’ : फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15512&stc=1&d=1333390236

नई दिल्ली। भारत के पहले फील्ड मार्शल होरमसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ ने वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपनी प्रभावी रणनीति और कुशल नेतृत्व के बल पर इतिहास रच दिया और भारतीय उपमहाद्वीप के नक्शे पर एक नए देश बांग्लादेश का उदय हुआ। रक्षा मामलों के विशेषज्ञ सेवानिवृत्त मेजर जनरल दीपांकर बनर्जी ने बताया कि ‘सैम बहादुर’ के नाम से मशहूर फील्ड मार्शल मानेकशॉ ने वैसे तो देश को कई लड़ाइयों में जीत दिलाई लेकिन बांग्लादेश के निर्माण में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि इस युद्ध में पाकिस्तान ने मात्र 14 दिनों में घुटने टेक दिए थे। बनर्जी ने कहा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बर्मा में युद्ध में जबर्दस्त वीरता और साहस का परिचय देने वाले फील्डमार्शल मानेकशॉ को ब्रितानी हुकूमत ने ‘मिलिट्री क्रॉस’ पुरस्कार से सम्मानित किया था । भारतीय सेना के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल जे एफ आर जैकब ने कहा कि फील्ड मार्शल मानेकशॉ एक महान सिपाही थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने अदम्य साहस और वीरता का परिचय दिया। उनकी प्रभावी रणनीति और कुशल नेतृत्व की वजह से ही भारत ने वर्ष 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को मात दी और बांग्लादेश को मुक्ति मिली थी। लेफ्टिनेंट जनरल जैकब ने कहा कि भारत पाकिस्तान में मिली जीत के बाद मानेकशॉ को देश का पहला फील्ड मार्शल बनाया। उनके बाद जनरल के एम करियप्पा को भी फील्ड मार्शल की उपाधि से सम्मानित किया गया था। बनर्जी ने कहा कि वह एक कुशल सैन्य रणनीतिकार थे। बांग्लादेश में 25 मार्च को ही विद्रोह का बिगुल बज चुका था, लेकिन उन्होंने दिसंबर में हमला करने की सलाह सरकार को दी। इस दौरान सेना ने अपनी पूरी तैयारी कर ली। दिसंबर में हमला करने की वजह से चीन भी हस्तक्षेप नहीं कर पाया और पाकिस्तान भी पश्चिमी मोर्चे पर कुछ खास प्रतिरोध नहीं कर पाया। उन्होंने कहा कि फील्ड मार्शल मानेकशॉ सेना में बहुत लोकप्रिय थे। वह अपने जवानों की पूरी देखभाल करते थे। सेना में उनके रिकार्ड की अब तक कोई बराबरी नहीं कर पाया है। फील्ड मार्शल मानेकशॉ के बारे में कहा जाता है कि उनका व्यक्तित्व बहुत रौबिला था। बांग्लादेश युद्ध से ठीक पहले दिसंबर 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सेना प्रमुख जनरल मानेकशॉ से पूछा ‘जनरल क्या आप तैयार हैं ?’ जनरल मानेकशॉ ने जवाब दिया, ‘मैं हमेशा तैयार रहता हूं।’ गौरतलब है कि फील्ड मार्शल मानेकशॉ का जन्म तीन अप्रेल 1914 को अमृतसर के एक पारसी परिवार में हुआ था। उनका परिवार गुजरात के वलसाड से अमृतसर आया था।

Dark Saint Alaick
05-04-2012, 12:20 AM
पांच अप्रैल को जन्मदिवस पर विशेष
ऐतिहासिक कामयाबियां समेटे है ‘बाबूजी’ का राजनीतिक जीवन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15515&stc=1&d=1333567194

देश में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद बाबू जगजीवन राम दूसरे ऐसे नेता थे, जिन्होंने न न सिर्फ दलित समाज का प्रतिनिधित्व किया, बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बतौर जननेता अमिट छाप छोड़ी। जगजीवन राम के राजनीतिक जीवन में 1971 का भारत-पाक युद्ध तथा हरित क्रांति के रूप में कई उपलब्धियां दर्ज हैं। दलित चिंतक और लेखक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, ‘‘बाबू जगजीवन राम का पूरा जीवन कई ऐतिहासिक उपलब्धियों को समेटे हुए है। 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में भारत को शानदार कामयाबी मिली तो उस वक्त वह देश के रक्षा मंत्री थे। इसी तरह हरित क्रांति के समय वह कृषि मंत्री थे।’’ जगजीवन राम का जन्म पांच अप्रैल, 1908 को बिहार के आरा में हुआ। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और कलकत्ता विश्वविद्यालय से पढाई करने वाले जगजीवन राम छात्र जीवन से ही सामाजिक एवं राजनीतिक बदलाव के हामी रहे। वर्ष 1928 में उन्होंने कोलकाता में एक बड़ी मजदूर रैली का आयोजन किया। यहीं से वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की नजर में आए। वह गुलाम भारत के उस दौर में बतौर दलित नेता उभर रहे थे, जब भीम राव अंबेडकर पूरे देश में दलितों के निर्विवाद नेता के रूप में अपनी पहचान कायम कर चुके थे। जगजीवन राम कांग्रेस के साथ थे, लेकिन उनका कभी अंबेडकर के साथ कोई मतभेद नहीं हुआ।
दलितों को समाज की मुख्य धारा में लाने की कोशिश जगजीवन राम हमेशा करते रहे। इसी क्रम में उन्होंने 1935 में ‘आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेज लीग’ का गठन किया। बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए। आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बनी सरकार में जगजीवन राम को बतौर श्रम मंत्री स्थान मिला। उस वक्त वह सबसे कम उम्र के मंत्री थे। आगे चलकर उन्होंने इंदिरा गांधी की सरकार में रक्षा एवं कृषि सहित विभिन्न विभागों को संभाला। कभी इंदिरा गांधी के सबसे विश्वासपात्रों में गिने जाने वाले जगजीवन राम ने 1977 में कांग्रेस से नाता तोड़ लिया और इसके बाद बनी जनता पार्टी की सरकार में उप प्रधानमंत्री बने। उस दौर में उनका नाम भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल था। चंद्रभान प्रसाद ने कहा, ‘मेरा मानना है कि वह एक मौका था, जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पहली बार दलित प्रधानमंत्री बनता, हालांकि दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। हालांकि बाबू जी हमेशा देश के बड़े दलित नेताओं में शुमार किए जाएंगे।’ जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार लोकसभा की अध्यक्ष हैं और पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढा रही हैं। छह जुलाई, 1986 को जगजीवन राम का निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
05-04-2012, 01:18 AM
विटामिन सी दिवस पर विशेष
देखें कम न हो जाए कहीं विटामिन सी, हो सकती है बीमारी

नई दिल्ली। शरीर को रोगमुक्त और ऊर्जावान बनाए रखने के लिए तमाम तरह के अवयवों की जरूरत होती है, लेकिन इनमें भी विटामिन सी एक ऐसा अवयव है जिसके बिना शरीर को रोगमुक्त रखने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है और इसकी कमी से स्कर्वी और रक्त अल्पता जैसे कई गंभीर रोग हो सकते हैं। विटामिन सी की पहचान चार अप्रैल 1932 को हुई थी और तभी से चिकित्सक तथा वैज्ञानिक मानव शरीर पर इसके प्रभावों और महत्व को लेकर शोध करते रहे हैं। इसे एल एस्कार्बेट एसिड भी कहा जाता है जो ताजा फलों, सब्जियों, खासकर संतरा और नींबू जैसे खट्टे फलों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के पूर्व चिकित्सक डॉ. रमेश कुमार के अनुसार विटामिन सी एंटीआक्सीडेंट की तरह काम करता है और आक्सीडेटिव स्ट्रेस से बचाव करता है। उनके अनुसार विटामिन सी की कमी से स्कर्वी नामक रोग हो सकता है, जिसमें शरीर में थकान, मांसपेशियों की कमजोरी, जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द, मसूढ़ों से खून आना और टांगों में चकत्ते पड़ने जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। विटामिन सी शरीर में रोग पैदा करने वाले विषाणुओं से लड़ने की ताकत पैदा करता है और शरीर में इसकी संतुलित मात्रा बने रहने से रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत रहती है। इसके विपरीत यदि विटामिन सी की कमी हो तो शरीर छोटी-छोटी बीमारियों से लड़ने की ताकत भी खो देता है, जिसका नतीजा बीमारियों के रूप में सामने आता है। बहुत पहले यह बीमारी नाविकों, जलदस्युओं और ऐसे लोगों में आम हुआ करती थी जो लंबे समय तक ताजा फलों और सब्जियों से वंचित रहते थे, लेकिन आज के समय में जंक फूड खाने वाले बच्चों पर यदि उचित ध्यान न दिया जाए तो वे इस बीमारी की चपेट में आ सकते हैं। आहार विशेषज्ञ ऋचा सिंह के अनुसार शरीर को पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी नहीं मिलने से स्कर्वी के अलावा हृदय रोग, रक्त अल्पता, कैंसर और मोतियाबिन्द जैसी बीमारी भी हो सकती हैं। विटामिन सी की कमी होने पर जुकाम की समस्या बार-बार बनी रहती है। उनके मुताबिक यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि विटामिन सी का आवश्यकता से अधिक सेवन (हजारों मिलीग्राम में) नकारात्मक साबित हो सकता है और इससे डायरिया तथा अपच जैसी समस्याएं हो सकती हैं। विटामिन सी हासिल करने के लिए ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। हरी सब्जियों और नींबू, संतरे जैसे खट्टे फलों में यह खूब पाया जाता है। इन्हें अपने रोजमर्रा के खानपान का हिस्सा बना लीजिए और शरीर में विटामिन सी की कमी नहीं होगी।

Dark Saint Alaick
07-04-2012, 12:11 AM
सात अप्रैल जन्मदिन पर विशेष
पं. रवि शंकर : संगीत के आसमान का रौशन सितारा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15518&stc=1&d=1333739447

सितार के तारों से पूरी कायनात को बांध लेने वाले महान संगीतकार पं. रवि शंकर दुनियाभर में भारतीय संगीत का परचम लहराए हुए हैं। समकालीन भारतीय शास्त्रीय संगीत के सबसे कामयाब चेहरे के रूप में पद्मभूषण, पद्मविभूषण, भारत रत्न, रमन मैग्सेसे और ब्रिटेन के आर्डर आफ ब्रिटिश अंपायर ‘नाइटहुड’ जैसे शीर्ष सम्मानों से सम्मानित रविशंकर में 92 साल की उम्र में भी सितार के प्रति वही उत्साह और दीवानगी है, जो दशकों पहले हुआ करती थी। शास्त्रीय संगीत शिक्षक और गायक मोहनदेव कहते हैं, ‘‘पंडित रवि शंकर को सितार बजाते देखना एक सुखद अनुभूति है। खयाल, ठुमरी और धुप्रद जैसी संगीत विधाओं से प्रेरित रवि शंकर के सितार से निकली मधुर ध्वनियां अलौकिक वातावरण बना देती हैं।’’ हाल ही में रविशंकर ने बेंगलूर में बेटी अनुष्का शंकर के साथ एक कार्यक्रम पेश किया जिसमें अपने चिरपरिचित अंदाज में उन्होंने संगीत प्रेमियों को एक बार फिर सम्मोहित कर लिया। इस पर पंडित मोहनदेव कहते हैं कि रविशंकर के संगीत पर उम्र का कोई असर नहीं दिखता बल्कि उम्र के साथ उनके सितार का साज और कर्णप्रिय हो गया है। शास्त्रीय संगीत और सितारवादन विषय पर शोध कर रहे दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र अनुकूल दत्ता का कहना है कि रवि शंकर उर्फ रवींद्र शंकर चौधरी का संगीत जीवन भारतीय शास्त्रीय संगीत के वैश्विक उत्थान का प्रतीक है। रविशंकर ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को सीमाओं के पार पहुंचाया और दुनिया भर में अपने प्रशंसक बना लिए।
सात अप्रैल, 1920 को वाराणसी में जन्मे रविशंकर पहले अपने भाई उदय शंकर के नृत्य समूह में नाचते थे, बाद में सितार की तरफ उनका झुकाव हुआ और वह अलाउद्दीन खान से सितार वादन सीखने लगे। 1950 के दशक में आयी सत्यजीत रे की अपू श्रृंखला की फिल्मों (पाथेर पंचाली, अपराजितो और अपूर संसार) में दिये संगीत के साथ पंडितजी की ख्याति दुनिया भर में फैलने शुरू हो गयी। 1956 में उन्होंने यूरोप और अमेरिका में कार्यक्रम प्रस्तुत किए। अपने विश्व दौरों के दौरान येहूदी मेनहीन और जॉर्ज हैरिसन जैसे पश्चिमी संगीत कलाकारों से उनकी मित्रता हुई। हैरिसन से मित्रता और बीटल्स के साथ ने रवि शंकर को एक अंतर्राष्ट्रीय हीरो बना दिया। रवि शंकर का उद्देश्य भारतीय और पूर्व की संगीत संस्कृति की प्रतिष्ठा से पश्चिम को रूबरू कराना था जिसमें वह सफल भी रहे। तीन गै्रमी पुरस्कारों के विजेता पंडित रविशंकर का असली नाम रवींद्र था। अपने बंगाली नाम रवींद्र शंकर चौधरी को छोटा करते हुए अपना नाम रवि शंकर रख लिया। 1967 में रवि शंकर को वेस्ट मीट्स इस्ट म्यूजिक कार्यक्रम के लिए पहला ग्रैमी पुरस्कार मिला। पंडितजी के बारे दत्ता कहते हैं, ‘‘पंडित जी के सितारवादन की शैली अलग है। वह आलाप, जोर आदि से इसकी शुरूआत करते हैं। उन्होंने ही सबसे पहले जुगलबंदी शैली को बढावा दिया। उन्होंने तिलक श्याम, नट भैरव और बैरागी जैसे कई नये रागों की शुरूआत की।’’ रविशंकर की लिखी आत्मजीवनियां ‘माई म्यूजिक, माई लाइफ’ और ‘राग मेला’ भी संगीतप्रेमियों और संगीत के किसी भी छात्र के लिए संगीत के ज्ञान का विराट संसार और एक अनमोल विरासत हैं। इस विरासत को आने वाली पीढियां भी संभालकर रखना चाहेंगी।

Dark Saint Alaick
08-04-2012, 09:35 PM
आठ अप्रैल को पुण्यतिथि पर विशेष
पहले भारतीय अंग्रेजी उपन्यास के भी रचनाकार थे बंकिमचंद्र

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15529&stc=1&d=1333902745

‘वन्दे मातरम्’ गीत के रूप में भारत को उसकी व्यापक राष्ट्रीयता की पहचान देने वाले महान बांग्ला उपन्यासकार बंकिम चंद्र चटर्जी न केवल बंगाल के चुनिंदा लेखकों में एक थे बल्कि उन्हें भारतीय अंग्रेजी साहित्य की शुरूआत का भी श्रेय जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमनलाल ने कहा कि चटर्जी ने कई उपन्यास लिखे और वह रवींद्रनाथ टैगोर तथा शरत चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे कई चुनिंदा लेखकों में एक थे। उन्होंने कहा कि चटर्जी के बारे में विशेष बात यह है कि उन्हें भारतीय अंग्रेजी साहित्य की शुरूआत का श्रेय जाता है। उन्होंने पहला ‘राजमोहन वाइफ’ उपन्यास अंग्रेजी में लिखा था। चटर्जी का जन्म बंगाल के 24 परगना जिले के कांथलपाड़ा गांव में 27 जून, 1838 को एक ब्राह्मण रूढिवादी परिवार में हुआ था। वह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे। बताया जाता है कि उन्होंने एक ही दिन में अंग्रेजी वर्णमाला सीख ली थी। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मिदनापुर में हासिल की। उन्होंने हुगली के महासिन कॉलेज से पढाई की और बाद में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1857 में बीए किया। वह कलकता विश्वविद्यालय से स्नातक करने वाले प्रथम दो छात्रों में एक थे। चटर्जी की प्रतिभा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि महज 22 साल की उम्र में वह डिप्टी कलेक्टर जैसे उच्च पद को हासिल करने में कामयाब हो गए थे। पिता की इच्छा मानते हुए उन्होंने यह नियुक्ति स्वीकार कर ली। उनके पिता यादवचंद्र चटर्जी भी डिप्टी कलेक्टर रह चुके थे। बाद में उन्होंने कानून की भी पढाई की। उन्होंने संस्कृत का भी गहन अध्ययन किया था। चटर्जी जब 11 साल के ही थे तभी उनकी शादी हो गयी थी । और इसे नियति का क्रूर मजाक कहा जाएगा कि जब वह डिप्टी कलेक्टर बने तब महज एक दो साल के अंदर ही उनकी पत्नी गुजर गयी। पत्नी के निधन से उन्हें बड़ा दुख हुआ। उन्हें दूसरी शादी करनी पड़ी। वह बांग्ला के बहुत बड़े लेखक के रूप में उभरकर सामने आए। उन्होंने पहले कविताएं लिखीं और फिर उन्होंने अंग्रेजी में एक उपन्यास लिखा। उसके बाद उन्होंने अपनी लेखनी को बांग्ला की ओर मोड़ दिया और बांग्ला भाषा में लिखने लगे। केवल उपन्यास ही नहीं बल्कि उन्होंने आलेखों से भी निष्पक्ष चिंतन को बढावा दिया। चटर्जी ने बंगदर्शन पत्रिका शुरू की। इस मासिक पत्रिका में उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ की किस्तें प्रकाशित हुई और बाद में उपन्यास के रूप में सामने आयी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास लिखे। आनंदमठ के अलावा ‘दुर्गेशनंदिनी’, ‘कपालकुंडल’, ‘मृणालिनी’, ‘चंद्रशेखर’,‘देवी चौधरी’ आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं। ‘दुर्गेशनंदिनी’ को बांग्ला भाषा का पहला उपन्यास माना जाता है। चटर्जी ने ऐसी भी पुस्तकें जैसे ‘कृष्णा चरित्र’ और ‘धर्मतत्व’ लिखीं जो उपन्यास नहीं थीं। प्रमाथनाथ बिशि जैसे बांग्ला आलोचक बंकिम चंद्र चटर्जी को बांग्ला साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार मानते रहे। बिशि का कहना था कि विश्व साहित्य में कुछ ही ऐसे लेखक हैं जिन्होंने दर्शन और कला दोनों क्षेत्रों में उत्तम प्रदर्शन किया और उनमें चटर्जी एक थे। चटर्जी सरकारी नौकरी में 32 साल रहे लेकिन उनका कैरियर समस्याओं से भरा था। वह अंग्रेजों के अहंकार, अनुचित और अक्खड़ व्यवहार के सामने कभी नहीं झुके। उनका बार बार तबादला किया गया। बताया जाता है कि उन दिनों कमीशनर मुनरो के सामने जो कोई अधीनस्थ कर्मचारी भी जाता था उसे झुककर सलाम करना होता था लेकिन चटर्जी ने ऐसा नहीं किया । इससे मुनरो नाराज हो गए और उन्होंने उनका तबादला कर दिया। वह आठ अप्रैल, 1894 में महज 56 साल की उम्र में चल बसे।

Dark Saint Alaick
08-04-2012, 09:38 PM
आठ अप्रैल को मंगल पांडेय के शहादत दिवस पर विशेष
जब हिल उठा था ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15530&stc=1&d=1333903089

व्यापारियों के रूप में देश में आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब भारत को अपने अधीन कर लिया तो लंदन में बैठे उसके आकाओं ने शायद यह उम्मीद भी नहीं की होगी कि एक दिन मंगल पांडेय रूपी कोई तूफान ऐसी खलबली मचा देगा जो भारत की आजादी की पहली लड़ाई कही जाएगी । उन्नीस जुलाई 1827 को जन्मे मंगल पांडेय बंगाल नेटिव इन्फैंट्री (बीएनआई) की 34वीं रेजीमेंट के सिपाही थे। सेना की बंगाल इकाई में जब ‘एनफील्ड पी-53’ राइफल में नई किस्म के कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ तो हिन्दू- मुस्लिम सैनिकों के मन में गोरों के विरुद्ध बगावत के बीज अंकुरित हो गए । इन कारतूसों को मुंह से खोलना पड़ता था । भारतीय सैनिकों में ऐसी खबर फैल गई कि इन कारतूसों में गाय तथा सूअर की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता है तथा अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए यह तरकीब अपनाई है। इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार चौंतीसवीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री का कमांडेंट व्हीलर ईसाई उपदेशक के रूप में भी काम करता था । 56वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के कैप्टन विलियम हैलीडे की पत्नी उर्दू और देवनागरी में बाइबल की प्रतियां सिपाहियों को बांटने का काम करती थी । इस तरह भारतीय सिपाहियों के मन में यह बात पुख्ता हो गई कि अंग्रेज उनका धर्म भ्रष्ट करने की कोशिशों में लगे हैं। नए कारतूस के इस्तेमाल और भारतीय सैनिकों के साथ होने वाले भेदभाव से गुस्साए मंगल पांडेय ने बैरकपुर छावनी में 29 मार्च 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । उनकी ललकार से ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में खलबली मच गई और इसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी । संदिग्ध कारतूस का प्रयोग ईस्ट इंडिया कंपनी शासन के लिए घातक साबित हुआ। गोरों ने हालांकि मंगल पांडेय और उनके सहयोगी ईश्वरी प्रसाद पर कुछ समय में ही काबू पा लिया था, लेकिन इन लोगों की जांबाजी ने पूरे देश में उथल पुथल मचाकर रख दी । मंगल पांडेय को आठ अप्रैल 1857 को फांसी पर लटका दिया गया। उनके बाद 21 अप्रैल को उनके सहयोगी ईश्वरी प्रसाद को भी फांसी दे दी गई । बगावत और इन दोनों की शहादत की खबर के फैलते ही देश में फिरंगियों के खिलाफ जगह- जगह संघर्ष भड़क उठा । हिन्दुस्तानियों तथा अंग्रेजों के बीच हुई जंग में काफी खून बहा । हालांकि बाद में अंग्रेज इस विद्रोह को दबाने में सफल हो गए लेकिन मंगल पांडेय द्वारा 1857 में बोया गया क्रांति रूपी बीज 90 साल बाद आजादी के वट वृक्ष के रूप में तब्दील हो गया । भारतीय इतिहास में इस घटना को ‘1857 का गदर’ नाम दिया गया । बाद में इसे आजादी की पहली लड़ाई करार दिया गया।

Dark Saint Alaick
13-04-2012, 11:51 PM
14 अप्रैल को पुण्यतिथि पर विशेष
यात्रा संस्मरण साहित्य के जनक थे राहुल सांकृत्यायन

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15621&stc=1&d=1334343068

पहली बार किसी भारतीय भाषा में ‘मध्य एशिया का इतिहास’ लिखने वाले राहुल सांकृत्यायन बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। घुमक्कड़ी और यायावरी के दौरान साहित्य जैसे दुष्कर कार्य को अंजाम देने वाले इस साहित्यकार को देश में यात्रा संस्मरण साहित्य के जनक के तौर पर जाना जाता है। ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने बताया कि राहुल सांकृत्यायन संभवत: पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने पहली बार किसी भारतीय भाषा में ‘मध्य एशिया का इतिहास’ लिखा। इस पुस्तक के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया। हालांकि, उन्होंने बताया कि यह कृति साहित्यिक नहीं थी और यह इतिहास लेखन था। इसके बावजूद इस रचना के लिए उन्हें प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी का पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा उनको साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया था। वाजपेयी ने बताया, ‘‘सांकृत्यायन की दो और अद्भुत पुस्तकों के लिए मैं उन्हें याद करूंगा। ‘दोहा कोष’ नामक किताब में उन्होंने अपभ्रंश और प्राकृत भाषा के दोहों का अद्भुत संचयन है। ऐसे ही उनके प्रसिद्ध निबंध ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’ में अनूठा वृत्तांत संजोया गया है, जो और कहीं देखने को नहीं मिलता।’’ उन्होंने कहा कि साहित्य, यात्रा वृत्तांत, निबंध, यायावरी, बौद्ध दर्शन, भारतीय दर्शन, इतिहास, बहु भाषाविद्वता, समाजशास्त्र, राजनीति जैसे विषयों के राहुल एक समग्र विशेषज्ञ थे। यह विरल संयोग वर्तमान दौर में देखने को भी नहीं मिलता।
भारतीय साहित्य में यात्राकार, इतिहासविद, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकारी लेखक ने अपने 70 साल के जीवन में लगभग 40 साल तक घर से दूर रहे। उन्होंने पहली बार मात्र नौ वर्ष की आयु में घर छोड़ा और उसके बाद से यायावरी जीवन अपना लिया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म पश्चिम उत्तर प्रदेश के आजमगढ जिले के पंदहा गांव में नौ अप्रैल 1893 को एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ था और उनका बचपन का नाम केदार पांडेय था। हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष और साहित्यकार अशोक चक्रधर ने कहा कि राहुल सांकृत्यायन उन लेखकों में से एक थे, जिन्होंने समाज को एक नयी राह दिखाई। घुमंतू और यायावर सांकृत्यायन अपने समय से बहुत आगे थे, उनके लेखन में समग्रता झलकती है। वह तार्किकता और वैज्ञानिकता के साथ अभिलेखों का अध्ययन करते थे। यात्रा वृत्तांत लिखने में आज तक कोई उनके सामने नहीं ठहरता। हालांकि, चक्रधर ने राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं को स्कूली और महाविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में उचित स्थान नहीं मिलने को लेकर अफसोस जताया। उन्होंने कहा कि वह आज के जमाने के लिए बेहद प्रासंगिक हैं और उन्हें पाठ्य पुस्तकों में उचित स्थान मिलना चाहिए। देश यात्रा के अलावा महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने नेपाल, तिब्बत, श्रीलंका, ईरान, चीन और सोवियत संघ जैसे देशों का भी दौरा किया। हिन्दी, संस्कृत, पाली, भोजपुरी, उर्दू, फारसी, अरबी, तमिल, कन्नड़, तिब्बती, सिंघली, फ्रेंच, और रूसी भाषाओं में पारंगत सांकृत्यायन 14 अप्रैल 1963 को पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में अपना साहित्य संसार हमें सौंपकर इस दुनिया से विदा हो गये।

Suresh Kumar 'Saurabh'
14-04-2012, 10:00 AM
महान व्यक्ति थे राहुल जी।
इनको नमन!

Dark Saint Alaick
23-04-2012, 04:31 AM
फिल्मी स्टूडियो बनते जा रहे हैं अतीत का हिस्सा

एक समय लोगों के सपनों और कल्पनाओं को रूपहले पर्दे पर जीवंत करने वाले अनेक ‘फिल्म स्टूडियो’ अब तेजी से आवासीय, व्यावसायिक परिसर, शादी विवाह के समारोह स्थल अथवा रेस्तरां में तब्दील होते जा रहे हैं और इसका ताजा उदाहरण मुम्बई के महालक्ष्मी रेस कोर्स के पास फेमस स्टूडियो के एक रियल्टी कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम बनाने की खबर के रूप में सामने आया है। ऐसी खबर है कि फेमस स्टूडियो और पिरामल रियल्टी ने संयुक्त उद्यम स्थापित किया है। स्टूडियो के मालिक अरूण रूंगटा ने बिक्री की खबरों से इंकार किया है जबकि पिरामल रियल्टी के प्रवक्ता ने कुछ भी टिप्पणी करने से इंकार कर दिया। करीब एक लाख वर्ग फुट में फैले तीन मंजिला फेमस स्टुडियो में वैजयंती माला एवं सुनील दत्त अभिनीत फिल्म ‘आम्रपाली’ के अलावा मिस्टर इंडिया, कहो ना प्यार है तथा मुगले आजम के रंगीन प्रारूप को तैयार किया गया था। विशेषज्ञों के मुताबिक फिल्म निर्माताओं के अलग-अलग स्थानों और विदेशों में शूटिंग को तरजीह देने और जमीन की आसमान छूती कीमतों के कारण फिल्म स्टूडियो को ऐसी विकट स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। मुम्बई स्थित कमलिस्तान, फिल्मिस्तान और नटराजन स्टूडियो के साथ चेन्नई का जेमिनी स्टूडियो, बेंगलूरू की इनोवेटिव फिल्म सिटी एवं कोलकाता का इंद्रपुरी स्टूडियो कल्पना लोक में विलीन हो गए और अब इनकी यादें भर शेष रह गई हैं। इनकी बिक्री से जुड़ी खबरें इस स्थिति को स्पष्ट बयां कर रही हैं। कमलिस्तान स्टूडियो में अमर अकबर एंथनी, कालिया और रजिया सुल्तान जैसी फिल्मों की शूटिंग की गई थी जबकि फिल्मिस्तान स्टूडियो में अनारकली, तुमसा नहीं देखा, जागृति एवं पेइंग गेस्ट जैसी फिल्मों की शूटिंग हुई थी। मुम्बई में ज्यादातर स्टूडियो में अब टीवी सीरियल, विज्ञापन एवं वृतचित्रों का निर्माण किया जा रहा है। नटराजन स्टूडियो के एक बिल्डर के खरीदने की खबर है जबकि इनोवेटिव फिल्म सिटी को एंटरटेंमेंट पार्क में बदल दिया गया है। जेमिनी स्टूडियो के होटल के रूप में तब्दील होने की खबर है। दिलीप कुमार, वैजंतीमाला और राजकुमार अभिनीत पैगाम और दिलीप कुमार एवं देवानंद की इंसानियत की शूटिंग इसी स्टूडियो में हुई थी। यहां कई तमिल एवं तेलगु फिल्मों का भी निर्माण किया गया था। कोलकाता में रियल इस्टेट के कारोबार में तेजी ने उस स्टूडियो को अपनी चपेट में ले लिया, जहां कभी सत्यजीत राय की फिल्म पाथेर पांचाली की शूटिंग हुई थी।

Dark Saint Alaick
23-04-2012, 04:36 AM
पुण्यतिथि 23 अप्रैल पर विशेष
भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई सत्यजीत रे ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15918&stc=1&d=1335137795

मुंबई। भारतीय सिनेमा जगत के युगपुरूष सत्यजीत रे को एक ऐसे फिल्मकार के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए भारतीय सिनेमा जगत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट पहचान दिलाई है। सत्यजीत रे का जन्म कोलकाता में 2 मई 1921 को उच्च घराने में हुआ था। उनके दादा उपेन्द्र किशोर रे वैज्ञानिक थे जबकि उनके पिता सुकुमार रे लेखक थे। सत्यजीत रे ने स्नातक की पढ़ाई कोलकाता के मशहूर प्रेसीडेंसी कॉलेज से पूरी की। इसके बाद मां के कहने पर उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में दाखिला ले लिया जहां उन्हें प्रकृति के करीब आने का मौका मिला। शांति निकेतन में करीब दो वर्ष रहने के बाद सत्यजीत रे वापस कोलकाता आ गए । उन्होंने अपने कॅरियर की शुरूआत वर्ष 1943 में ब्रिटिश एडवरटीजमेंट कंपनी से बतौर जूनियर विजुलायजर के तौर पर की जहां उन्हें 18 रुपए महीना मिलता था। इस बीच वह डी.के गुप्ता के पब्लिशिंग हाउस सिगनेट प्रेस से जुड़ गए और बतौर कवर डिजाइनर काम करने लगे। बतौर कवर डिजाइनर उन्होंने कई पुस्तकों का डिजायन तैयार किया इसमें जवाहरलाल नेहरू की डिस्कवरी आफ इंडिया प्रमुख है। वर्ष 1949 में उनकी मुलाकात फ्रांसीसी निर्देशक जीन रेनोइर से हुई जो उन दिनों अपनी फिल्म द रिवर के लिए शूटिंग लोकेशन की तलाश में कोलकाता आए हुए थे। जीन रेनोर ने सत्यजीत रे की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें फिल्म निर्माण की सलाह दी। वर्ष 1950 में सत्यजीत रे को अपनी कंपनी के काम के कारण लंदन जाने का मौका मिला जहां उन्होंने लगभग 99 अंग्रेजी फिल्में देख डाली। इसी दौरान उन्हें एक अंग्रेजी फिल्म बाइसिकल थीफस देखने का मौका मिला। फिल्म की कहानी से सत्यजीत रे काफी प्रभावित हुए और उन्होंने फिल्मकार बनने का निश्चय कर लिया। सत्यजीत रे बांग्ला साहित्यकार विभूतिभूषण बंधोपाध्याय के उपन्यास विलडंगसरोमन से काफी प्रभावित थे और उन्होंने उनके इस उपन्यास पर पाथेर पांचाली नाम से फिल्म बनाने का निश्चय किया। पाथेर पांचाली के निर्माण में लगभग तीन वर्ष लग गए । फिल्म निर्माण के क्रम में सत्यजीत रे की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई जिससे फिल्म निर्माण की गति धीमी पड़ गई। बाद में पश्चिम बंगाल सरकार के सहयोग से फिल्म को पूरा किया जा सका। वर्ष 1955 में प्रदर्शित फिल्म पाथेर पांचाली के जरिए सत्यजीत रे ने बंगाल के ग्रामीण परिवेश को दो बच्चों की नजर से पेश किया था। यूं तो फिल्म के कई दृश्य लोकप्रिय हुए लेकिन खासकर वह दृश्य जिसमें एक रेलगाड़ी को देखकर अप्पू और दुर्गा स्तब्त हो जाते हैं। दुर्गा की मौत की खबर के समय किए गए संगीत का प्रयोग अविस्मरणीय है। पथेर पांचाली ने पूरे देश भर में धूम मचा दी थी। फिल्म कोलकाता के सिनेमाघर में लगभग 13 सप्ताह तक हाउसफुल रही देश के अलावा विदेश में भी फिल्म ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। कांस फिल्म फेस्टिवल में इसे विशेष पुरस्कार भी दिया गया। इस फिल्म से सत्यजीत रे की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बन गई। पथेर पांचाली के बाद सत्यजीत रे ने फिल्म अपराजितो का निर्माण किया। इस फिल्म में युवा अपू की महात्वाकांक्षा और उसे प्यार वाली एक मां की भावना को दिखाया गया है। हालांकि फिल्म जब प्रदर्शित हुई तो इसे सभी ने पसंद किया लेकिन मशहूर समीक्षक मृणाल सेन और ऋत्विक घटक ने इसे पाथेर पांचाली से बेहतर माना। फिल्म वीनस फेस्टिवल में गोल्डेन लॉयन अवार्ड से सम्मानित की गई। वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म देवी सत्यजीत रे के सिने कॅरियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है। फिल्म की कहानी एक ऐसी शादीशुदा स्त्री पर आधारित थी जिसे अपने ससुर से देवी बनने का वरदान मिला था। सत्यजीत रे जब यह फिल्म बना रहे थे तब उन्होंने सोचा था शायद सेंसर बोर्ड को यह फिल्म पसंद नहीं आए और इसे बैन कर दे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शर्मिला टैगोर के मुख्य किरदार वाली यह फिल्म दर्शको को काफी पसंद आई। वर्ष 1962 में सत्यजीत रे ने अपने दादा की पत्रिका संदेश की एक बार फिर से स्थापना की। सत्यजीत रे की पहली रंगीन फिल्म महानगर वर्ष 1963 में प्रदर्शित हुई। बहुत कम लोगों को पता होगा कि जया भादुड़ी ने इसी फिल्म से अपने सिने कॅरियर की शुरूआत की थी । वर्ष 1964 में प्रदर्शित फिल्म चारूलता सत्यजीत रे निर्देशित महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है। रवीन्द्र नाथ टैगोर रचित एक लघुकथा नाश्तानिर्ह पर आधारित इस फिल्म की कहानी एक युवती चारू के इर्द-गिर्द घूमती है जो अपने देवर से प्रेम करने लगती है। फिल्म में चारू के सशक्त किरदार को अभिनेत्री माधवी मुखर्जी ने निभाकर फिल्म को सुपरहिट बना दिया। वर्ष ।966 में सत्यजीत रे की एक और सुपरहिट फिल्म नायक प्रदर्शित हुई। फिल्म में उत्तम कुमार ने अरिन्दम मुखर्जी नामक नायक की भूमिका निभाई। बहुत लोगों का मानना था कि फिल्म की कहानी अभिनेता उत्तम कुमार के जीवन पर ही आधारित थी। फिल्म ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। फिल्म के प्रदर्शन के बाद सत्यजीत रे ने कहा था यदि उत्तम कुमार इस फिल्म में काम करने से मना करते तो वह इस फिल्म का निर्माण ही नहीं करते। वर्ष ।969 में अपने दादा की रचित लघु कथा पर सत्यजीत रे ने गूपी गायन बाघा बायन का निर्माण किया। फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई साथ ही बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय हुई। वर्ष 1977 में सत्यजीत रे के सिने कॅरियर की पहली हिंदी फिल्म शतरंज के खिलाड़ी प्रदर्शित हुई। संजीव कुमार, सइद जाफरी और अमजद खान की मुख्य भूमिका वाली यह फिल्म हालांकि टिकट खिड़की पर अपेक्षित सफलता नहीं अर्जित कर सकी लेकिन समीक्षकों के बीच यह काफी सराही गई। वर्ष 1978 में बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की संचालक समिति ने सत्यजीत रे को विश्व के तीन आल टाइम डाइरेक्टर में से एक के रूप में सम्मानित किया। अस्सी के दशक में स्वास्थ्य खराब रहने के कारण सत्यजीत रे ने फिल्मों में काम करना काफी हद तक कम कर दिया। फिल्म घरे बाइरे के निर्माण के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा। इसके बाद डॉक्टर ने सत्यजीत रे को फिल्म में काम करने से मना कर दिया। लगभग पांच वर्ष तक फिल्म निर्माण से दूर रहने के बाद वर्ष 1987 में सत्यजीत रे ने अपने पिता सुकुमार रे पर एक वृतचित्र बनाया। सत्यजीत रे को अपने चार दशक के लंबे सिने कैरियर में मान-सम्मान खूब मिला। उन्हें भारत सरकार की ओर से 32 बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया । सत्यजीत रे वह दूसरे फिल्म कलाकार थे जिन्हें आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। वर्ष 1985 में सत्यजीत रे हिंदी फिल्म उद्योग के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किये गए। इसके अलावा उन्हें भारत रत्न की उपाधि से भी सम्मानित किया गया । सत्यजीत रे के चमकदार कॅरियर में एक गौरवपूर्ण नया अध्याय तब जुड़ गया जब 1992 में उन्हें आस्कर से सम्मानित किया गया। यह भारतीय सिनेमा इतिहास का पहला मौका था जब किसी भारतीय को स्वतंत्र तौर पर आस्कर से सम्मानित किया गया था हांलाकि वर्ष 1982 में प्रदर्शित फिल्म गांधी में कॉस्टयूम डिजाइन के लिए भानु अथैया को भी जॉन मोलो के साथ संयुक्त रूप से आस्कर प्राप्त हुआ था । बहुमुखी प्रतिभा के धनी सत्यजीत रे से फिल्म निर्माण की कोई भी विद्या अछूती नहीं रही। उन्होंने फिल्म निर्माण और निर्देशन के अलावा कई फिल्मों की कहानी भी लिखी। इसके अलावा उन्होंने कई फिल्मों के लिए संगीत भी तैयार किय। उन्होंने वर्ष 1966 में प्रदर्शित फिल्म नायक का संपादन भी किया। सत्यजीत रे ने अपने सिने कॅरियर में 37 फिल्मों का निर्देशन किया। उनके सिने कॅरियर की कुछ अन्य उल्लेखनीय फिल्में पारस पत्थर, जलसाघर, तीन कन्या, कंचनजंघा, महापुरूष, कापुरूष, चिड़ियाखाना, अरण्य दिन रात्रि, प्रतिद्वंदी, सोनारकेल्ला, बाला, जय बाबा फेलुनाथ, सद्गति, गणशत्रु आदि हैं। वर्ष 1991 में प्रदर्शित फिल्म आंगतुक सत्यजीत रे के सिने कॅरियर की अंतिम फिल्म साबित हुई।अपनी फिल्मों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट पहचान बनाने वाले महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने 23 अप्रैल 1992 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

Dark Saint Alaick
23-04-2012, 04:40 AM
हिन्दी सिनेमा के सौ वर्ष

साल 1913 का, महीना अप्रेल और स्थान मुम्बई का ओलंपिया थियेटर ... 100 वर्ष पहले दादा साहब फाल्के ने जब अपनी फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का प्रदर्शन किया, तब शायद ही किसी को यकीन हो रहा था कि श्वेत श्याम पर्दे पर अभिव्यक्ति के इस मूक प्रदर्शन के साथ भारत में स्वदेशी चलचित्र निर्माण का सूत्रपात हो चुका है। दादा साहब फाल्के की ‘राजा हरिश्चंद्र’ मूक फिल्म थी । फिल्म निर्माण में कोलकाता स्थित मदन टॉकिज के बैनर तले ए ईरानी ने महत्वपूर्ण पहल करते हुए पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनाई। इस फिल्म की शूटिंग रेलवे लाइन के पास की गई थी इसलिए इसके अधिकांश दृश्य रात के हैं। रात के समय जब ट्रेनों का चलना बंद हो जाता था तब इस फिल्म की शूटिंग की जाती थी। जाने-माने फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल ने बताया कि भारतीय सिनेमा की शुरूआत बातचीत के माध्यम से नहीं बल्कि गानों के माध्यम से हुई। यही कारण है कि आज भी बिना गानों के फिल्में अधूरी मानी जाती हैं। वाडिया मूवी टोन की 80 हजार रुपए की लागत से निर्मित साल 1935 की फिल्म ‘हंटरवाली’ ने उस जमाने में लोगों के मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ी और अभिनेत्री नाडिया की पोशाक और पहनावे को महिलाओं ने फैशन ट्रेंड के रूप में अपनाया। गुजरे जमाने के अभिनेता मनोज कुमार ने कहा कि 40 और 50 का दशक हिन्दी सिनेमा के लिहाज से शानदार रहा। वर्ष 1949 में राजकपूर की फिल्म ‘बरसात’ ने बॉक्स आफिस पर धूम मचाई । इस फिल्म को उस जमाने में ‘ए’ सर्टिफिकेट दिया गया था क्योंकि अभिनेत्री नरगिस और निम्मी ने दुपट्टा नहीं ओढ़ा था। बिमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ के माध्यम से देश में किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया। फिल्म में अभिनेता बलराज साहनी का डायलॉग ‘‘जमीन चले जाने पर किसानों का सत्यानाश हो जाता है’’आज भी भूमि अधिग्रहण की मार झेल रहे किसानों की पीड़ा को सटीक तरीके से अभिव्यक्त करता हैं । यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसे कॉन फिल्म समारोह में पुरस्कार प्राप्त हुआ। कुमार ने कहा कि 50 के दशक में सामाजिक विषयों पर आधारित व्यवसायिक फिल्मों का दौर शुरू हुआ। वी शांताराम की 1957 में बनी फिल्म ‘दो आंखे बारह हाथ’ में पुणे के ‘खुला जेल प्रयोग’ को दर्शाया गया। लता मंगेशकर ने इस फिल्म के गीत ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ को आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुंचाया। फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम’ हिन्दी सिनेमा में कथानक और अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण है । ऐसी फिल्मों में बदनाम बस्ती, आषाढ़ का दिन, सूरज का सातवां घोड़ा, एक था चंदर एक थी सुधा, सत्ताईस डाउन, रजनीगंधा, सारा आकाश एवं नदिया के पार आदि प्रमुख है। ‘धरती के लाल और नीचा नगर’ के माध्यम से दर्शकों को खुली हवा का स्पर्श मिला और अपनी माटी की सोंधी सुगन्ध, मुल्क की समस्याओं एवं विभीषिकाओं के बारे में लोगों की आंखें खुली। देवदास, बन्दिनी, सुजाता और परख जैसी फिल्में उस समय बॉक्स आफिस पर उतनी सफल नहीं रहने के बावजूद फिल्मों के भारतीय इतिहास में नए युग की प्रवर्तक मानी जाती हैं। महबूब खान की साल 1957 में बनी फिल्म ‘मदर इंडिया’ हिन्दी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती है। सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली और शम्भू मित्रा की फिल्म ‘जागते रहो’ फिल्म निर्माण और कथानक का शानदार उदाहरण थी। इस शृंखला को स्टर्लिंग इंवेस्टमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड के बैनर तले निर्माता निर्देशक के आसिफ ने ‘मुगले आजम’ के माध्यम से नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। मनोज कुमार ने कहा कि आज हिन्दी फिल्मों में सशक्त कथानक का अभाव पाया जा रहा है और फिल्में एक खास वर्ग और अप्रवासी भारतीयों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है, जिसके कारण लोग सिनेमाघरों से दूर हो रहे हैं क्योंकि इन फिल्मों से वे अपने आपको नहीं जोड़ पा रहे हैं। पुराने जमाने में ‘तीसरी कसम’ से लेकर ‘भुवन शोम’ और अंकुर, अनुभव और अविष्कार तक फिल्मों का समानान्तर आंदोलन चला। इन फिल्मों के माध्यम से दर्शकों ने यथार्थवादी पृष्ठभूमि पर आधारित कथावस्तु को देखा,परखा और उनकी सशक्त अभिव्यक्तियों से प्रभावित भी हुए। नए दौर में विजय दानदेथा की कहानी पर आधारित फिल्म ‘पहेली’ श्याम बेनेगल की ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ और ‘वेलडन अब्बा’, आशुतोष गोवारिकर की ‘लगान’, ‘स्वदेश’, आमिर खान अभिनीत ‘थ्री इडियट्स’, अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘पा’ और ‘ब्लैक’, शाहरूख खान अभिनीत ‘माई नेम इज खान’ जैसे कुछ नाम ही सामने आते हैं जो कथानक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से सशक्त माने जाते है। कुमार ने कहा कि फिल्मों के नाम पर वनस्पति छाप मुस्कान, प्लास्टिक के चेहरों की भोंडी नुमाइश हो रही है, जिसके कारण सिनेमाघरों (खासतौर पर छोटे शहरों में) दर्शकों की भीड़ काफी कम हो गई है। आज फिल्में मल्टीप्लेक्सों तक सिमट कर रह गई हैं। इस सबके बीच एक वाक्य में कहें तो राजा हरिश्चंद्र की मूक अभिव्यक्ति से हिन्दी सिनेमा ‘रा वन’ की उच्च प्रौद्योगिकी क्षमता के स्तर तक पहुंच चुका है। त्रिलोक जेतली ने गोदान के निर्माता निर्देशक के रूप में जिस प्रकार आर्थिक नुकसान का ख्याल किए बिना प्रेमचंद की आत्मा को सामने रखा, वह आज भी आदर्श है। गोदान के बाद ही साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने का सिलसिला शुरू हुआ। प्रयोगवाद की बात करें तो गुरूदत्त की फिल्में ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल‘ तथा ‘साहब बीबी और गुलाम’ को कौन भूल सकता है। मुजफ्फर अली की ‘गमन’ और विनोद पांडे की ‘एक बार फिर’ ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। रमेश सिप्पी की 1975 में बनी फिल्म ‘शोले’ ने हिन्दी फिल्म निर्माण को नई दिशा दी। यह अभिनेता अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के रूप में उभरने का दौर था। हालांकि 80 के दशक में बेसिर पैर की ढेरों फिल्में भी बनीं, जिनमें न कहानी थी न विषय। वैसे यह दौर कलर टेलीविजन का था जब हर घर धीरे -धीरे थियेटर का रूप ले रहा था। 60 और 70 का दशक हिंदी फिल्मों के सुरीले दशक के रूप में स्थापित हुआ तो 80 और 90 के दशक में हिन्दी सिनेमा ‘बॉलीवुड’ बनकर उभरा। हालांकि 90 के दशक में फिल्मी गीत डिस्को की शक्ल ले चुके थे। इसी दशक में आमिर, शाहरूख और सलमान का प्रवेश हुआ।

Dark Saint Alaick
28-04-2012, 01:42 AM
पुण्यतिथि 27 अप्रेल के अवसर पर
फिल्म इंडस्ट्री के स्टाइल आइकॅन थे फिरोज खान

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15973&stc=1&d=1335559345 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=15974&stc=1&d=1335559345

हिन्दी फिल्म जगत में फिरोज खान को एक ऐसी शख्सियत के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने न सिर्फ अभिनय से बल्कि फिल्म निर्माण और निर्देशन की प्रतिभा से भी दर्शकों को अपना दीवाना बनाया । अभिनेता के रूप में भी फिरोज खान ने बॉलीवुड के नायक की परम्परागत छवि के विपरीत अपनी एक विशेष शैली गढ़ी, जो आकर्षक और तड़क-भड़क वाली छवि थी। उनकी अकड़कर चलने की अदा और काउब्वॉय वाली इमेज दर्शकों के मन में आज भी बसी हुई है। वह फिल्म उद्योग के स्टाइल आइकॉन माने जाते थे। फिरोज खान का जन्म 25 सितम्बर 1939 को बैंगलूरू में हुआ था । वह अफगानिस्तानी पिता सादिक अली खान तनोली और ईरानी माता की संतान थे। फिरोज खान ने बेंगलूर के बिशप कॉटन ब्वॉयज स्कूल और सेंट जमैन ब्वॉयज हाई स्कूल से पढ़ाई की और अपनी किस्मत आजमाने के लिए वह मुम्बई आ गए। वर्ष 1960 में फिल्म ‘दीदी’ में उन्हें पहली बार अभिनय करने का मौका मिला। इस फिल्म में वह सहनायक थे। इसके बाद अगले पांच साल तक अधिकतर फिल्मों में उन्हें सहनायक की भूमिकाएं ही मिलीं। जल्दी ही उनकी किस्मत का सितारा चमका और उन्हें 1965 में फणी मजूमदार की फिल्म ‘ऊंचे लोग’ में काम करने का मौका मिला। इस फिल्म में फिरोज खान के सामने अशोक कुमार और राजकुमार जैसे बड़े कलाकार थे लेकिन अपने दमदार अभिनय से वह दर्शकों में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। वर्ष 1965 मे ही फिरोज खान की एक और फिल्म ‘आरजू’प्रदर्शित हुई, जिसमें राजेन्द्र कुमार नायक और साधना नायिका थीं। इस फिल्म में उन्होंने अपने प्रेम की कुर्बानी देने वाले युवक का किरदार निभाया। वर्ष 1969 में उनकी फिल्म आई ‘आदमी और इंसान’। इस फिल्म के लिए उन्हें फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ सहनायक का पुरस्कार मिला। वर्ष 1971 में फिरोज खान ने बतौर निर्माता-निर्देशक के रूप में अपनी पारी की शुरूआत की और ‘अपराध’, ‘धर्मात्मा’, ‘कुर्बानी’, ‘जांबाज’, ‘दयावान’, ‘यलगार’, ‘प्रेम अगन’, ‘जानशीं’ और ‘एक खिलाड़ी एक हसीना’ जैसी फिल्मों का निर्माण या निर्देशन किया। फिल्म निर्माण और निर्देशन के क्रम में फिरोज खान ने हिन्दी फिल्मों में कुछ नई बातों का आगाज किया। फिरोज खान के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘अपराध’ भारत की पहली फिल्म थी जिसमें जर्मनी में कार रेस दिखाई गई थी। धर्मात्मा की शूटिंग के लिए वह अफगानिस्तान के खूबसरत स्थानों पर गए। इससे पहले भारत की किसी भी फिल्म का वहां फिल्मांकन नहीं किया गया था। अपने कॅरियर की सबसे हिट फिल्म कुर्बानी से फिरोज खान ने पाकिस्तान की पॉॅप गायिका नाजिया हसन के संगीत कॅरियर की शुरूआत कराई इस फिल्म के गीत ‘‘आप जैसा कोई मेरी जिन्दगी में आए’’ को सदाबहार गीतों में शुमार किया जाता है। उनकी फिल्म ‘दयावान’ दक्षिण भारत की फिल्म ‘नायकन’ का रीमेक थी लेकिन वह सफल नहीं हो पाई। वर्ष 1992 में प्रदर्शित फिल्म ‘यलगार’ के बाद फिरोज खान लगभग 11 वर्ष तक फिल्म इंडस्ट्री से दूर रहे और फिल्म ‘प्रेम अगन’ के साथ निर्देशन का रूख किया। इस फिल्म के जरिए उन्होंने अपने पुत्र फरदीन खान को बतौर अभिनेता लांच किया । फिरोज खान उन चंद अभिनेताओं में एक थे, जो अपनी ही शर्त पर फिल्म में काम करना पसंद करते थे। इस वजह से उन्होंने कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव ठुकरा दिए थे। उन्होंने राजकपूर की फिल्म ‘संगम’ में राजेन्द्र कुमार और ‘आदमी’ फिल्म में मनोज कुमार वाली भूमिका के लिए उन्होंने मना कर दिया था। फिरोज खान ने चार दशक लंबे सिने कॅरियर में लगभग 60 फिल्मों में अभिनय किया। उनकी उल्लेखनीय फिल्मों में ‘आग‘,‘प्यासी शाम’, ‘सफर’,‘मेला’ ,‘खोटे सिक्के’, ‘गीता मेरा नाम’, ‘इंटरनेशनल क्रुक’, ‘काला सोना’, ‘शंकर शंभु’, ‘नागिन’, ‘चुनौती’ और ‘कुर्बानी‘ शामिल हैं। अपने निराले अभिनय से दर्शको के बीच खास पहचान वाले फिरोज खान कैंसर की बीमारी से जूझने के बाद 27 अप्रेल 2009 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
28-04-2012, 01:47 AM
27 अप्रेल को चाइल्ड केयर प्रफेशनल डे पर विशेष
बाल अधिकार को लेकर चुनौतियां बड़ी हैं

देश और दुनिया में बाल अधिकारों की सुरक्षा और हितों के लिए संयुक्त राष्ट्र तथा बड़ी संख्या में सरकारी-गैरसरकारी संगठन काम कर रहे है। लेकिन आज भी भारत जैसे तेजी से तरक्की कर रहे देश में लाखों बच्चे खुले आसमान में जिंदगी बसर करने को विवश हैं। ऐसे में बाल अधिकारों से जुड़ी चुनौतियां बड़ी हैं और इसे अमूमन सभी स्वीकार करते हैं। बाल अधिकारों पर काम कर रहे देश के एक प्रमुख गैर सरकारी संगठन ‘चेतना’ की मानें तो देश में करीब चार करोड़ ऐसे बच्चे हैं, जिनके भविष्य को संवारने की जरूरत है, लेकिन सरकारी स्तर पर पर्याप्त प्रयास नहीं होने से इन तक पूरी मदद नहीं पहुंच पाती। सरकारी स्तर पर ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, लेकिन हमारे अनुमान है कि देश में करीब चार करोड़ बच्चे ऐसे हैं, जिनके अधिकारों एवं हितों की सुरक्षा करने की सख्त जरूरत है। गैर सरकारी संगठन इसको लेकर काम भी कर रहे हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। देश की राजधानी दिल्ली में ही करीब पांच लाख बच्चे अपने बचपन को दांव पर लगाने एवं चुनौतीपूर्ण माहौल में रहने को विवश हैं। यही नहीं एक लाख से अधिक बच्चों के सिर पर छत नहीं है। दिल्ली में गैर सरकारी संगठन पूरी कोशिश करें तो भी एक लाख बच्चों को आशियाना मुहैया नहीं कराया जा सकता। इसके लिए सरकारी स्तर पर बड़े प्रयास की जरूरत है। वैसे संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकार कनवेंशन के मुताबिक यह सभी देशों-सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे बाल अधिकारों की सुरक्षा करें और बच्चों को मुश्किल हालात से बाहर निकालें। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के सदस्य विनोद कुमार टिक्कू का कहना है कि देश में बाल अधिकारों को लेकर बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है और इसमें काम करने वाले लोगों को अधिक पेशेवर होना पड़ेगा। टिक्कू ने कहा कि बाल अधिकार को लेकर देश में काम कर रहे लोगों को बाल न्याय अधिनियम को बखूबी से समझना पड़ेगा। इस क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों का इस अधिनियम के तहत पंजीकृत होना भी जरूरी है। इसके साथ उन्हें पेशेवर एवं आत्मीय भाव भी अपनाना होगा।

Dark Saint Alaick
28-04-2012, 02:17 AM
स्मरण
शंकर और जयकिशन के बीच भी हुई थी अनबन

भारतीय सिनेमा जगत में सर्वाधिक कामयाब संगीतकार जोड़ी शंकर -जयकिशन ने अपने सुरों के जादू से श्रोताओं को कई दशकों तक मंत्रमुग्ध किया और उनकी जोड़ी एक मिसाल के रूप में ली जाती थी लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि एक वक्त ऐसा भी आया जब दोनों के बीच अनबन हो गई थी। शंकर और जयकिशन ने एक दूसरे से वादा किया था कि वह कभी किसी को नहीं बताएंगे कि धुन किसने बनाई है लेकिन एक बार जयकिशन इस वादे को भूल गए और मशहूर सिने पत्रिका फिल्मफेयर के लेख में बता दिया कि फिल्म संगम का गीत ‘ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर कि तुम नाराज न होना’ की धुन उन्होंने बनाई थी । इस बात से शंकर काफी नाराज भी हुए । इसके बाद संगीतकार शंकर ने जयकिशन की मर्जी के खिलाफ जाते हुए लता मंगेश्कर की जगह नई गायिका शारदा को गाने का मौका देना शुरू कर दिया । इस बात से शंकर और जयकिशन के बीच दूरियां बढ़ती चली गई। बाद में पार्श्वगायक मोहम्मद रफी के प्रयास से शंकर और जयकिशन के बीच हुए मतभेद को कुछ हद तक कम किया जा सका। शंकर यानी शंकर सिंह रघुवंशी का जन्म 15 अक्टूबर 1922 को पंजाब में हुआ था। बचपन के दिनों से ही शंकर संगीतकार बनना चाहते थे और उनकी रूचि तबला बजाने में थी। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बाबा नासिर खान साहब से ली थी। इसके साथ ही उन्होंने हुस्न लाल भगत राम से भी संगीत की शिक्षा ली थी। शंकर में संगीत बनाने का जुनून इस कदर था कि जब तक वह अपने संगीत को पूरा नहीं कर लेते उसमें रमे रहते थे और अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से शंकर ने अपना अलग ही अंदाज बनाया। अपने शुरूआती दौर में शंकर ने सत्यनारायण और हेमावती द्वारा संचालित एक थियेटर ग्रुप में काम किया। इसके साथ ही वह पृथ्वी थियेटर के सदस्य भी बन गए जहां वह तबला बजाने के अलावा नाटकों मे वह छोटे-मोटे रोल भी किया करते थे । इसी दौरान शंकर की मुलाकात जयकिशन से हुई। शंकर और जयकिशन की मुलाकात की घटना काफी रोचक है। हुआ यूं कि उन दिनों जयकिशन मध्य बम्बई की एक फैक्ट्री में बतौर टाइमकीपर काम करते थे और अभिनेता बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे। एक दिन जयकिशन सांताक्रूज में एक प्रसिद्ध निर्माता से मिलने के लिए उसके दफ्तर के बाहर इंतजार कर रहे थे। शंकर ने जयकिशन को भी पृथ्वी थियेटर्स में काम करने का सुझाव दिया और उन्हें वहां हारमोनियम वादक की नौकरी दिला दी। इस बीच वह संगीतकार राम गांगली के सहायक के रूप में भी काम करने लगे। कुछ दिनों के बाद राजकपूर और संगीतकार राम गांगुली के बीच मतभेद हो गया। राजकपूर को अपनी अगली फिल्म बरसात के लिए राम गांगुली की जगह नए संगीतकार की तलाश थी। उन्होंने संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन को फिल्म मेंं संगीत देने का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। फिल्म बरसात मे उनकी जोड़ी ने जिया बेकरार है और बरसात में हमसे मिले तुम सजन को सुपरहिट संगीत दिया । फिल्म बरसात की कामयाबी के बाद शंकर जयकिशन बतौर संगीतकार अपनी पहचान बनाने मे सफल हो गए। शंकर-जयकिशन के संगीतबद्ध गीतों की लंबी फेहरिस्त में कुछ है ‘आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं’, ‘प्यार हुआ इकरार हुआ हुआ’और ‘मेरा जूता है जापानी’ जैसे मधुर गीतों का संगीत तैयार किया। शंकर-जयकिशन की जोड़ी को नौ बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है । उनकी जोड़ी को सबसे पहले वर्ष 1956 मे प्रदर्शित फिल्म चोरी चोरी के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके बाद अनाड़ी, दिल अपना और प्रीत पराई,प्रोफेसर, सूरज,ब्रह्मचारी, पहचान, मेरा नाम जोकर एवं बेइमान के लिए भी शंकर जयकिशन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। शंकर की जोड़ी जयकिशन के साथ वर्ष 1971 तक कायम रही । 12 सितंबर 1971 को जयकिशन इस दुनिया को अलविदा हो गए। इसके बाद शंकर ने आंखो-आंखो में, रेशम की डोरी, सन्यासी जैसी कुछ फिल्मों मे सुपरहिट संगीत दिया। अपने मधुर संगीत से श्रोताओं को भावविभोर करने वाले शंकर भी 26 अप्रेल 1987 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
28-04-2012, 08:13 AM
आप उन नब्बे प्रतिशत ‘मूर्ख’ देशवासियों में पहले नंबर पर हैं मिस्टर काटजू

“सच में कांग्रेसी एजेंट लगने लगे हैं मिस्टर काटजू … कारपोरेट मीडिया का कुछ उखाड़ नहीं पाए, अब कांग्रेसियों के आंख का तारा बनने के लिए बेवजह सोशल मीडिया को दुश्मन मान रहे…मिस्टर काटजू, हम आपको उन नब्बे फीसदी भारतीयों में शुमार करते हैं जिन्हें आप मूर्ख कहते हैं ।”

जस्टिस काटजू के पिछले कुछ महीनों की गतिविधियों को अगर आपने ध्यान से देखा होगा तो उसके कई नतीजे निकाल सकते हैं. जैसे, अन्ना के आंदोलन के बाद कांग्रेस सरकार ने मीडिया पर निशाना साधा तो कांग्रेस के प्रवक्ता की तरह काटजू भी उस अभियान को चलाते बढ़ाते दिखे. टीवी वालों से आमतौर पर लोग नाखुश रहते हैं इसलिए कोई भी चैनलों के खिलाफ बोलता है तो लोग उसका समर्थन ही करते हैं. सो, काटजू का समर्थन हुआ.

वही काटजू जब बिहार में जाते हैं तो उनको वहां की मीडिया कैद में है बुलबुल टाइप लगती है लेकिन जब वे यूपी जाते हैं तो मीडिया वालों से कहते हैं कि अभी अभी तो अखिलेश जी आए हैं, क्यों आलोचना लिख रहे हैं आप लोग, वक्त दीजिए. मतलब, दो स्टेट और दो पालिसी. मीडिया का काम वक्त देना नहीं होता है मिस्टर काटजू, मीडिया का काम हर वक्त अपना काम करना होता है. खैर, अब काटजू सोशल मीडिया के पीछे पड़े हैं. तो क्या, पापी सिंघवी का वीडियो जो सोशल मीडिया ने रिलीज कर दिया. अरे काटजू भाई, कांग्रेसियों के नंगेपन को ढंकने की आप चाहें जितनी कोशिश कर करा लें, लेकिन ध्यान रखिएगा, जनता सब समझती है. आपको आपके तेवर व सोच के हिसाब से सोशल मीडिया को थैंक्यू बोलना चाहिए कि इस मीडिया ने आपके कोर्ट और आपकी सत्ता के डर भय के बिना सच को सामने लाने का साहस किया.

आखिर कोई नेता किसी वकील को जज बनाने का प्रलोभन देकर सेक्स कर रहा हो तो उस वीडियो को कैसे पब्लिक में आने से आप रोक सकते हैं. आपकी न्यायपालिका भी न, बड़े लोगों के मामले में तुरंत स्टे टाइप की चीज दे देती है और छोटे लोग मर जाते हैं, कोई सुध लेने नहीं पहुंचता. आप हम सोशल मीडिया वालों को जेल भिजवा दीजिए या फांसी दे दीजिए, बहुत फरक नहीं पड़ेगा, चार मरेंगे तो चार सौ पैदा होंगे. और, जब सोशल मीडिया व न्यू मीडिया को अमेरिका जैसा सर्वशक्तिमान नहीं कंट्रोल कर पाया तो आप किस डाल की चिड़िया हैं. विकीलीक्स अगर अमेरिका में बंद किया गया तो वह स्विटरलैंड से आन हो गया. न्यू मीडिया व सोशल मीडिया की ताकत का दरअसल आपको अंदाजा है ही नहीं. हो भी कैसे, आपके लिए तो सत्ता व सिस्टम की ताकत सर्वोच्च जो है.

पर आप इस भ्रष्ट तंत्र से जो अनुरोध कर रहे हैं कि वह सोशल मीडिया पर लगाम लगाने के लिए कानून बनाए तो यह आपके वैचारिक दिवालियेपन की ही निशानी है. इस देश में सैकड़ों ऐसे कानून हैं जो पूरी तरह अनुपयोगी हैं और हम सभी उसका हर रोज किसी न किसी रूप में उल्लंघन करते हैं, पर वे बने हुए हैं. आपको कानूनों को कम करने की लड़ाई लड़ना चाहिए. कानून व बंदिश से अगर समस्याएं हल होनी होती तो जाने कबकी हल हो गई होती. और, आपको भी पता है कि कानून सिर्फ आम लोगों के लिए बनाए जाते हैं. बड़ा आदमी कानून का अपनी मनमर्जी के हिसाब से उपयोग व व्याख्या करके राहत छूट पा लेता है. पर आम आदमी तो कानून के नाम से ही डर जाता है और अपना दोनों हाथ हथकड़ी की तरफ बढ़ा देता है.

आप अंबिका सोनी और कपिल सिब्बल जैसों से उम्मीद करते हैं कि वे देश के सिस्टम को सही करेंगे तो यह आपकी एक और दृष्टिविहीनता है. जिस निर्मल बाबा पर अंबिका सोनी चुप्पी साधे है, उस अंबिका सोनी से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. निर्मल बाबा मुद्दे पर चैनलों को एक नोटिस तक जारी करने की इस अंबिका सोनी में हिम्मत नहीं है. अंधविश्वास को बढ़ाने का धंधा रोज रोज जारी है पर सब आंख वाले इस कदर आंख मूदे हैं गोया जन्म से अंधे हों, बहरे तो खैर ये हैं ही. और रही बात कपिल सिब्बल की तो जिसका काम ही गलत को सही और सही को गलत साबित करना है, उससे सही गलत के लिए गुहार लगाना सावन के अंधे को हरियाली दिखाने जैसा है. अंबिका सोनी, कपिल सिब्बल आदि इत्यादि कांग्रेसियों व उनके कैरेक्टर को तो दुनिया जानती है काटजू साहब, आप क्यों अपने अच्छे खासे अतीत की वाट लगाना चाहते हैं.

आपने जब अन्ना को खारिज किया था तब भी शक हुआ था कि आप किसी एजेंडे के तहत ऐसा कर रहे हैं. आप सबको खारिज करते हो पर कांग्रेस को नहीं. आप सब पर बोलते हो पर कांग्रेस से जुड़े मसलों मुद्दों पर नहीं. यह चुप्पी क्यों काटजू साहब. एक महिला वकील एक बड़े कांग्रेसी नेता के साथ जज बनाए जाने के नाम पर सेक्स कर रही है तो आप चुप क्यों हैं. सेक्स कोई मुद्दा नहीं है. हर आदमी के पास लिंग होता है और हर आदमी एक या अनेक के साथ सेक्स करता है, यह बेसिक इंस्टिंक्ट है, इसे आप लाख गलत सही कहें, यह चलता रहा है और चलता रहेगा. हर देश का कानून सेक्स को अपने अपने हिसाब से सही गलत मानता है. सेक्स की परिभाषा एक इस्लामी देश में अलग है तो एक अफ्रीकी देश में अलग.

अभी हाल में ही एक तस्वीर छपी थी जिसमें एक अफ्रीकी नेता बुढ़ापे में छठवीं शादी के लिए टाई कोट के साथ साथ कमर कसे दिखा था. सो, नैतिकता पर कोई यूनिवर्सल कानून नहीं है, यह देश काल समाज के हिसाब से परिभाषित किया जाता है. इसलिए इसे छोड़िए. बताइए यह कि जज जैसे पद पर कोई आओ सेक्स सेक्स खेलें खेलकर पहुंच जाए तो उस देश के आम आदमी को कैसा इंसाफ मिलेगा? इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है काटजू? पार्टनर, आपकी पालिटिक्स सिर्फ कुछ को खारिज करना नहीं होना चाहिए. आप उन्हें खारिज करें जिनके कारण इस समय का देश समाज और जनता खारिज हुई जा रही है, अपनी जिंदगी, जमीन, आत्मा से…. आप उन्हें खारिज करें जिन्हें दुखों की मारी जनता खारिज कर रही है तो समझ में आता है कि आप जनता के साथ खड़े हो.

पर आप बेहद चालाकी के साथ, बेहद ब्यूरोक्रेटिक एप्रोच के साथ जो खेल खेल रहे हैं, वह अब लोगों के समझ में आने लगा है. न आ रहा होगा तो हम जैसे लोग समझाएंगे क्योंकि काटजू साहब, इस देश को आप जैसे पढ़े लिखे चालाकों की नहीं बल्कि कम पढ़े लिखे और लड़ने भिड़ने वाले अन्नाओं की जरूरत है. अन्ना में कमियां हो सकती हैं लेकिन कांग्रेस के भ्रष्ट राज काज के मुकाबले हजार गुना कम कमियां होंगी. फिलहाल तो आपको बधाई कि आपने सोनी-सिब्बल को पत्र लिखकर अपनी पक्षधरता के बारे में बता दिया है. आप कारपोरेट मीडिया वालों का तो कुछ उखाड़ बिगाड़ नहीं पाए, हां, अब गरीब मीडिया वालों जिसे लोग सोशल मीडिया और न्यू मीडिया कहते हैं, पर डंडा बरसाने की व्यवस्था कराकर खुद को भ्रष्ट तंत्र का जो पहरेदार साबित कर रहे हैं, वह आपकी राजनीति को स्पष्ट करता है.

मिस्टर काटजू, इंटरनेट महासमुद्र है. पहले भी वहां पोर्न था और आज भी वहां खूब पोर्न है. पहले भी वहां ज्ञान था, आज भी वहां खूब ज्ञान विज्ञान है, पहले भी वहां गासिप और अफवाहें थी, आज भी वहां खूब गासिप व अफवाहें हैं. पहले भी वहां विद्रोह था, आज भी वहां खूब क्रांतियां है…. जाकी रही भावना जैसी के अंदाज में हर आदमी अपनी अपनी जरूरत का माल खोजता देखता सीखता है. आप क्यों चाहते हैं कि इस माध्यम पर जो माल पड़े, वह आपकी रुचि-अरुचि के हिसाब से हो. आप दरअसल खुद को भले ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस डेमोक्रेट बताते हों लेकिन सच तो ये है कि आप अरिस्टोक्रेट की तरह जीते, व्यवहार करते और काम करते हैं. खुद के अंदर झांकिए. वैसे, हम लोग अब आपको उन नब्बे फीसदी भारतीयों में शुमार करने लगे हैं जिन्हें आप मूर्ख बताते हैं. इस मुद्दे पर बहस जारी रहेगी. आपके जवाब का इंतजार रहेगा. सोशल मीडिया और न्यू मीडिया के साथियों से अपील है कि वे इस बहस को अपने अपने मंचों पर ले जाएं और ज्यादा से ज्यादा प्रचारित प्रसारित करें ताकि दूसरे लोगों के भी विचार सामने आ सकें.

आखिर में, काटजू साहब, आपको सोशल मीडिया के लोगों को खुलकर धन्यवाद देना चाहिए, जिनके अभियान के कारण निर्मल बाबा एक्सपोज हुए और मेनस्ट्रीम मीडिया को भी मजबूरन निर्मल बाबा के फ्राड का खुलासा करना पड़ा. और फिर सिंघवी के बहाने जज बनाए जाने के इस सेक्सी सिस्टम की कलई खोलने का काम सोशल मीडिया ने किया. इसी कारण सिंघवी को प्रवक्ता पद से हाथ धोना पड़ा, कांग्रेस के अन्य शीर्ष पदों से भी हटना पड़ा. अगर सब कुछ सही था तो आखिर कांग्रेस ने क्यों सिंघवी को हटाया. बने रहने देते और रोज रोज प्रेस ब्रीफिंग करने देते. सच तो ये है कि कांग्रेस, सिंघवी और आप जैसों ने पूरी कोशिश की कि सिंघवी का सच कहीं सामने न आ सके, सेक्सी सिस्टम की सच्चाई न खुल सके, इसी कारण अदालत के नाम पर सारे मीडिया वालों का मुंह सील दिया गया. लेकिन सोशल मीडिया वालों ने बिना डरे सारा सच सबके सामने परोस दिया. और, फिर कलई खुलने से कालिख पुती कांग्रेस के पास कोई चारा नहीं बचा.

ऐसे में आपको सोशल मीडिया व न्यू मीडिया के लोगों का इस्तकबाल करना चाहिए था, भले ही चोरी छुपे, लेकिन आप तो पूरी तरह से सिस्टम परस्त ही नहीं बल्कि एक पार्टी परस्त निकले. मिस्टर काटजू, मैं भी भाजपाई नहीं हूं, संघी नहीं हूं. लेकिन मैं इस डर से कांग्रेस के करप्शन, कांग्रेस की गंदगी का समर्थन नहीं कर सकता कि ये गई तो भाजपा आ जाएगी. भाजपा कोई भूत नहीं. अगर आपने जो डेमोक्रेटिक व इलेक्टोरल सिस्टम बनाया है, उसके माध्यम से भाजपा जनमत लेकर आती है तो उसे सरकार बनाना चाहिए. और, तब भी हम लोग उस सरकार की कलई उसी तरह खोलते रहेंगे जैसे आज खोल रहे हैं. सोशल मीडिया और न्यू मीडिया किसी का सगा नहीं होता, खुद अपना भी. और आपको शायद पता नहीं होगा, क्योंकि यह कानून की किसी किताब में नहीं लिखा है कि आप और आपकी सरकारें लाख चाहें, इस सोशल मीडिया और न्यू मीडिया को मैनेज कर ही नहीं सकतीं, पैसे के दम पर भी नहीं और कानून के डंडे के बल पर भी नहीं. हां, लेकिन आप जरूर एक्सपोज हो गए मिस्टर काटजू. आपके प्रति जो थोड़ा बहुत साफ्ट कार्नर था अब खत्म. अब आपसे हर मुद्दे पर बात होगी, और खुलकर बात होगी. मैं ही नहीं, हर सोशल मीडिया वाला और न्यू मीडिया वाला अब आपसे मुखातिब होगा. जय हिंद.

-यशवंत सिंह
(मीडिया पोर्टल भड़ास4मीडिया.कॉम के संपादक)

Suresh Kumar 'Saurabh'
28-04-2012, 11:01 AM
उपर शंकर-जयकिशन से जुङी रोचक जानकारी मिली। आपको धन्यवाद!

Dark Saint Alaick
30-04-2012, 08:48 AM
क्या योग गैर इस्लामी है?

-ऐमन रियाज़ (न्यू एज इस्लाम)

एक बात जो रूढ़िवादी मुसलमानों को परेशान करती रही है वो ये कि हाल ही में स्वतंत्र विचार वाले मुसलमानों द्वारा योग को अपनी दिनचर्या में शामिल किया जाना है। योग धीरे धीरे और निश्चित रूप से हमारे घरों में दाखिल हो गया है और हममें से कई इससे फायदा हासिल कर रहे हैं। इसके बावजूद अभी तक मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा इसे बिदअत और "सिर्फ हिंदुओं के लिए" मानता है।

मैं 21 साल का हूँ और मैं पिछले 4-5 सालों से योग कर रहा हूँ। मैंने इससे कई फायदे हासिल किये हैः ध्यान केंद्रित करने की मेरी क्षमता में वृद्धि हुई है, मैं शायद ही कभी गंभीर दबाव का शिकार होता हूँ, मेरा बॉडी मास इंडेक्स 21.7 है, और सबसे महत्वपूर्ण ये है कि मुझे बहुत शांति है। इसके अलावा कई दूसरे छोटे लाभ भी हैं, जैसे शीर्षासन और सरवांगासन से मेरी आंखों की रोशनी बेहतर हुई है, पश्चिमोत्तासन के कारण मेरा पेट काफी मजबूत हो गया है और फेफड़ों के लिए में कपाल भाती और सांस लेने के दूसरे व्यायाम करता हूँ। वास्तव में मुझे योग में इतना मज़ा आता है कि मैं अपनी माँ को योग करने के लिए जोर देता हूँ और अपने बड़े भाई से भी योग करने के लिए कहता हूँ।

हाल ही में एक दिन एक करीबी रिश्तेदार को मुझे योग करते हुए देख कर आश्चर्य हुआ। में पांचों वक्त की नमाज पढ़ता हूँ और उनका मानना ​​था कि जो नमाज़ पढ़ता है उसे योग नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसकी बुनियाद हिंदू धर्म में है। मैंने उनके साथ इस पर बहस नहीं की और उस दिन के बाद से मैं उनके सामने योग नहीं करता हूँ। एक और रिश्तेदार ने कहा कि "योग कुछ भी नहीं, जो नमाज़ है उसी की नकल है"। इस बार मैं ये सुनकर हैरान रह गया। इस बार भी मैंने उनसे इस पर कोई बहस नहीं की।

मुझे सबसे पहले इसी बुनियादी बातें बता लेने दीजिए। शब्द योग संस्कृत के शब्द युज से बना है जिसका अर्थ बाँधना और जोड़ना है, अपनी ध्यान को दिशा देना और केंद्रित करने के हैं। इसका अर्थ एकता और सहयोग के भी हैं। ये खुदा की मर्ज़ी के साथ अपनी मर्ज़ी को जोड़ देने की वास्तविक प्रक्रिया है। महादेव देसाई 'गांधी के अनुसार गीता' शीर्षक से अपनी किताब में कहते हैं कि "ये शरीर, मन और आत्मा सभी शक्ति को खुदा से मिलाना है..." मुझे लगता है कि ये इस्लाम की परिभाषा है। इस्लाम का अर्थ अपनी मर्ज़ी को खुदा की मर्ज़ी के हवाले कर सुकून हासिल करना है। योग में हम खुद को खुदा के हवाले कर सुकून हासिल करते हैं।

योग के बारे में एक ग़लतफ़हमी है कि ये सिर्फ व्यायाम और कुछ जटिल आसन ही हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। आसन योग की सिर्फ एक स्थिति है। पतांजलि ने आत्मा की खोज के लिए योग के कुल आठ अंगों को बयान किया है। ये निम्नलिखित हैं।

1. यम

2. नियम

3. आसन

4. प्रणायाम

5. प्रत्याहारा

6. धारणा

7. ध्यान

8. समाधि

योग के यह सभी आठ अंग भी इस्लाम और उसकी शिक्षाओं का हिस्सा हैं। यम के बारे में, कुरान की आयात 24: 27-29 और 58:81, नैतिक आदेश देती हैं। जब हम पूरे एक महीने के लिए रोज़ा रखते हैं तो हम संयम के ज़रिये अपनी सभी भावनाओं और इच्छाओं को पाक कर लेते हैं, नमाज़ की बहुत सी स्थितियाँ योग के कई आसनों जैसे वज्रासन और वीरासन से पूरी तरह मेल खाते हैं, जैसे सज्दा की हालत में हम फेफड़ों में बची हुई हवा को बाहर निकालते हैं और ताजी हवा को अंदर लेते हैं, कुरान मजीद ने हमें निर्देश दिया है कि हम अपने नफ़्स से रहनुमाई हासिल न करें बल्कि अपने नफ़्स को काबू में रखें। कुरान की एक आयत में अल्लाह ने मोहम्मद स.अ.व. और हम सब को "अपने पूरे ध्यान" के साथ ग़ौरो-फिक्र और ध्यान लगाने को कहा है, और अंत में हम सभी लोगों को अल्लाह से ताल्लुक पैदा कर उच्च चेतना प्राप्त करने की स्थिति तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए।

शब्द ऊँ 'मुसलमानों को रोकता है; यहां तक ​​कि स्वतंत्र विचार वाले मुसलमान भी आज़ादाना तौर पर इस शब्द को गले नहीं लगा सकते हैं। हर शब्द का एक मतलब है,' ओम 'शब्द एक अलग मानसिक छवि पेश करता है जिसे मुसलमान काबिले कुबूल नहीं मानते हैं। मेरा मशविरा ये है किः सीधी साधी है कि ओम 'न कहें। एक मुसलमान एक अच्छा मुसलमान हो सकता है यहां तक ​​कि अगर वो शाकाहारी है, उसी तरह एक मुसलमान' ओम 'का हिस्सा छोड़कर योग का पालन अच्छी तरह कर सकता है। एक शब्द की वजह से पुराने ज़माने की रहमत को रद्द नहीं करना चाहिए। कौन जानता है कि योग के सभी आसन तत्कालीन समय में नमाज़ का एक रूप रहे हों, क्योंकि अल्लाह का फरमान है कि "हमने हर ज़माने में एक नबी भेजा है" और "हमने हर समय में एक डराने वाला भेजा है"। हो सकता है ये खुदा की इबादत का तरीका रहा हो। सज्दे में हमारे जिस्म के आठ हिस्से ज़मीन को छूते हैं, वो हैं: माथा, नाक, दोनों हाथ, दोनों घुटने, दोनों पैर, और साष्टांग में शरीर के आठ भाग भूमि को छूते हैं, वो हैं: दोनों पैर, दोनों घुटने, दो नों हाथ, सीने और ठोड़ी या माथा।

हम सब को अपने विचारों में थोड़ी परिवर्तन लाने की जरूरत है। योग गैर इस्लामी नहीं है, बल्कि ये पूरी तरह से इस्लामी है। अगर हम समग्रता में योग करें, मेरी मुराद सिर्फ योग के आसनों से नहीं है, तो हम ज़्यादा बेहतर मुसलमान बन सकेंगे। योग हमें सकारात्मक दिशा में हमारे मन को ले जाने में मदद कर सकता है; जिन युवाओं में रूढ़िवादिता और आतंकवाद के वायरस दाखिल कराए गए हैं, उनका मुकाबला योग और दिमाग के नियंत्रण की कला के अभ्यास द्वारा किया जा सकता है। हमें पूरे मुस्लिम समाज को योग को अपनाने पर जोर देने की जरूरत है क्योंकि ये नौजवानों के साथ ही बुजुर्गों की भी मदद करता है; ये हिंदुओं के साथ ही मुसलमानों की भी मदद करता है।

आखीर में मैं कहना चाहूंगा "अल्लाह शांति, शांति, शांति"।

(अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान)

Dark Saint Alaick
30-04-2012, 01:40 PM
एक मई को बेबी डे पर विशेष
बच्चों के लिए जरूरी सुरक्षा उपाय

छोटे बच्चों के बड़ों की दवा निगल लेने या कोई जहरीला पदार्थ पी लेने की घटनाएं अकसर देखने में आती हैं। इस तरह की चीजों को बच्चों की पहुंच से दूर रखने की चेतावनी पर ध्यान देना जरूरी है। छोटे बच्चों को माता पिता के प्यार और दुलार से अधिक सुरक्षित देखभाल की आवश्यकता होती है और इसमें कोताही बरतना बच्चे के लिए घातक हो सकता है। बच्चों को संभावित खतरे से बचाने के लिए कोई पुख्ता सुरक्षा सुझाव नहीं हैं जिनका पालन जरूरी है लेकिन माता पिता इस बात से आश्वस्त होना चाहते हैं कि उन्होंने अपने नन्हें लाडले या लाडली की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सभी संभव उपाय किये हैं। राजधानी दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में बाल रोग विशेषज्ञ डा. विद्या कुमारी का कहना है कि पूर्व मेंं हुए हादसों की समीक्षा के बाद अभिभावकों को बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सुझाव दिये जाते हैं। उन्होंने कहा कि माता पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि घर में बच्चों को नुकीली चीजों से दूर रखें। इसके लिए जरूरी है कि ऐसी चीजों को बच्चों की पहुंच से दूर रखा जाए जो उनके लिए खतरनाक साबित हो सकती हैं। उन्होंने बताया कि इसके साथ ही फिनायल, दवाइयां, सर्फ, साबुन भी बच्चों की पहुंच में नहीं रखने चाहिए क्योंकि ऐसी चीजेें बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो सकती हैं। डा. कुमारी ने कहा कि माता पिता को ध्यान रखना चाहिए कि घर में पानी की भरी हुई बाल्टी नहीं रखी हो क्योंकि यह डेढ से ढाई वर्ष के बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। इस्तेमाल के बाद बाल्टी और टब के पानी को खाली कर देना चाहिए। इसके साथ ही बच्चों को एक स्थान में सीमित करने के लिए प्लास्टिक डोरनाब कवर का प्रयोग करना चाहिए। कभी भी बच्चों को उनके नहाने वाले टब में अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। उन्होंने कहा कि घर में बिजली के उपकरण चलती हालत में नहीं छोड़ें और बिजली के साकेट भी खुले नहीं छोडें। बाल मन जिज्ञासु होता है और बड़ों को जिन चीजों को इस्तेमाल करते देखते हैं उनकी तरफ लपकते हैं। कई बार छोटे बच्चे बिजली के चलते उपकरण उठाकर खुद को नुकसान पहुंचा लेते हैं। इसी तरह बिजली के साकेटों में उनकी नन्हीं सी उंगली डाल देते हैं जिससे उन्हें बिजली का करंट लगने का खतरा होता है। उन्होंने कहा कि बच्चों को घर में थोड़ी देर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ें। यह ध्यान रखना चाहिए कि घर की बालकनी पर्याप्त उंची हो और वहां पर बच्चे के चढने के लिए कोई सामान नहीं है। डा. कुमारी ने कहा कि इसके साथ ही बच्चों को उत्पीड़न से बचाने की जिम्मेदारी भी माता पिता पर ही होती है। माता पिता को इसके लिए घर में प्रत्येक आनेजाने वालों की निगरानी रखनी चाहिए। किसी भी अनजान व्यक्ति पर आसानी से विश्वास नहीं करना चाहिए और अपने बच्चों को उनके साथ अकेले नहीं भेजना चाहिए। अगर छोटे बच्चे के साथ घर में अकेले हों तो ध्यान रखें कि आप नहाने अथवा किसी और काम के लिए दरवाजे को भीतर से बंद न करें। ऐसा करने पर बच्चा बाहर से कुंडी लगाकर आपके लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है। कोशिश करें कि घर कर चिटकनियां और कुंडियां पर्याप्त उंचाईं पर हों और उनतक बच्चों का हाथ न पहुंचे। रसोईघर में गैस और अन्य सामान भी उंचाईं पर रखें ताकि बच्चे उन्हें छूकर खुद को चोट न पहुंचा पाएं।

ndhebar
30-04-2012, 02:07 PM
जस्टिस काटजू वाला प्रसंग बढ़िया था

Dark Saint Alaick
01-05-2012, 01:36 AM
मई दिवस की स्थापना के देश अमेरिका में ही उसे नहीं मनाया जाता

शिकागो। अमेरिका में शिकागो शहर के हेमार्केट चौक पर 1886 में मजदूरों के दमन के प्रतीक के तौर पर शुरु हुए अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस को आज विश्वभर के 80 देशों में आधिकारिक तौर पर मनाया जाता है, लेकिन इसे जन्म देने वाले देश अमेरिका में ही इसे मनाने की परंपरा नहीं है। अमेरिकी पत्रिका 'काउंटर पंच' के मुताबिक हेमार्केट चौक पर मजदूरों की विशाल रैली के दौरान हुये बमकांड को आधार बनाकर शिकागो पुलिस ने कई महत्वपूर्ण मजदूर नेताओं को फांसी पर चढ़ा दिया था। इसके बाद से ये नेता क्रांतिकारियों के आदर्श बन गए और 1 मई के दिन को इनकी शहादत दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ग्रोवर क्लीवलैंड ने वर्ष 1894 में मजदूर दिवस की क्रांतिकारी परंपराओं से उसे अलग करने के इरादे से इसे सितंबर में मनाने के आदेश जारी किये। अमेरिका में 19वीं सदी का उत्तरार्द्ध दरअसल मजदूरों की संगठित होने का दौर था। यह वह समय था, जब अमेरिका में आठ घंटे काम की मांग को लेकर मजदूरों ने बड़ी हड़तालें आयोजित कीं। हेमार्केट में जब चार मई 1886 की शाम मजदूर नेता एक हडताल को संबोधित कर रहे थे, तभी वहां एक बम विस्फोट हुआ जिसके बाद पुलिस ने आठ मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया।
उन पर मुकदमा चलाया गया और पांच को फांसी की सजा सुनाई गई। पत्रकार और मजदूर नेता आगस्ट स्पाइस, अल्बर्ट पासन्स, एडोल्फ् फिशर और जार्ज एंगेल्स को फांसी पर चढ़ा दिया गया, जबकि उनके साथी लुइस लिंग की जेल में ही मौत हो गई। इस घटना के पांच वर्ष बाद समाजवादी और लेबर पार्टियों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन 'द्वितीय इंटरनेशनल' की 1891 में हुई बैठक में 1 मई के दिन को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के तौर पर मनाने का निर्णय लिया गया। मई दिवस को जहां अमेरिका में आधिकारिक तौर पर नहीं मनाया जाता, वहीं श्रम संगठनों द्वारा इसे मनाने की परंपरा रही है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय देशों में इसे एक राष्ट्रीय पर्व का सम्मान हासिल था और इस दिन आम तौर पर सैनिक परेडों का आयोजन किया जाता था। क्यूबा में भी इस दिन विशाल रैलियों के निकाले जाने की परंपरा रही है। मजदूरों के श्रम अधिकारों के लिये अपनी जान देने वाले उन पांच अमेरिकी क्रांतिकारियों की याद में शिकागों में हेमार्केट आंदोलन के स्थल पर एक मूर्ति लगी है, जिसके नीचे आगस्ट स्पाइस द्वारा कही गई पंक्तियां लिखी हुई हैं, 'एक दिन आएगा, जब हमारी खामोशी उन आवाजों से अधिक ताकतवर साबित होगी, जिन्हें आज दबाया जा रहा है।'

Dark Saint Alaick
01-05-2012, 06:15 PM
आज मन्ना डे के जन्मदिन पर विशेष
शास्त्रीय गायकी में माहिर मन्ना डे बचपन में पहलवान बनना चाहते थे

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16093&stc=1&d=1335878144

ए भाई जरा देख के चलो, कसमें वादे प्यार वफा, ए मेरी जोहरा जबी, जिंदगी कैसी है पहेली हाय... जैसे गीतों को सुरीली आवाज देने वाले मन्ना डे बचपन मेंं पहलवान और मुक्केबाज बनना चाहते थे, लेकिन उनके चाचा के सी डे ने उनकी खूबियों को पहचानते हुए उन्हें संगीत के गुर सिखाए। कोलकाता में स्कूल के दिनों में मन्ना डे को पहलवानी और मुक्केबाजी का शौक था और वह इसमें जुटे रहते थे, लेकिन सहपाठियों की फरमाइश पर वह गीत भी सुनाया करते थे। मन्ना डे की इन खूबियों को उनके चाचा के. सी. डे ने पहचाना और उन्हें ठुमरी, कव्वाली आदि की बारीकियां सिखाई। इसके बाद 1940 में मन्ना डे कोलकाता से मुम्बई आ गए और संगीतकार एच. पी. दास के सहायक बन गए। इसी दौर में उन्हें फिल्म ‘मशाल’ में गाने का मौका मिला और उनके लिए रास्ते खुल गए। फिल्म समीक्षक हसनैन साजिद रिजवी ने कहा कि कई लोग ऐसे होते हैं जिनकी प्रतिभा को उतना महत्व नहीं मिलता जितने के वह हकदार होते हैं। मन्ना डे ऐसी ही शख्सियत हैं। उस जमाने में देव आनंद, दिलीप कुमार और राज कपूर की तिकड़ी में केवल राजकपूर ने अपने लिए उनकी आवाज का इस्तेमाल किया ... तब शंकर जयकिशन ने मन्ना डे की आवाज में राज कपूर के लिए गीत रिकार्ड किया था। मन्ना डे के प्रपौत्र संदीप डे ने कोलकाता में कहा है कि पत्नी का गत जनवरी में निधन हो जाने से मन्ना डे बहुत व्यथित हैं और उन्होंने इस बार अपने जन्मदिन पर किसी तरह के आयोजन से इंकार कर दिया है।
अंतिम फिल्म चोरी चोरी के गीत ‘यह रात भीगी भीगी’, श्री 420 का गीत प्यार हुआ इकरार हुआ, मेरा नाम जोकर का ‘ए भाई जरा देख के चलो, उपकार का गीत ‘कसमें वादे प्यार वफा’ दिल ही तो है का गीत ‘लागा चुनरी में दाग’, वक्त का गीत ‘ऐ मेरी जोहरा जबी, मेरी सूरत तेरी आंख का गीत ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई’ के बोल और माहौल अलग अलग हैं लेकिन इसमें एक बात समान है कि इसे भारतीय फिल्म संगीत के सुरीले गायक मन्ना डे ने आवाज दी है। पूरण चंद्र और महामाया डे के पुत्र प्रबोध चंद्र डे का जन्म एक मई 1919 को हुआ जिसे हम मन्ना डे के नाम से जानते हैं। मन्ना डे की आवाज का जहां भी इस्तेमाल हुआ...कामयाबी की दिशा में वह मील का पत्थर साबित हुई । मन्ना डे ने बलराज साहनी, प्राण, महमूद के लिए भी गाने गाए और राजेंद्र कुमार के लिए फिल्म ‘तलाश’ और राजेश खन्ना के लिए फिल्म ‘आनंद’ में गीत गाए। मुम्बई में पांच दशक से अधिक समय गुजारने के बाद मन्ना डे बेंगलूर में अपने परिवार के लोगों के साथ रहने चले गए और आजकल वह बेंगलूर में रह रहे हैं।

Dark Saint Alaick
02-05-2012, 05:19 PM
पुण्यतिथि 3 मई के अवसर पर विशेष
फिल्म जगत के आकाश में ध्रुवतारे की तरह हैं नरगिस

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16099&stc=1&d=1335961154

महान अदाकारा कनीज फातिमा उर्फ नरगिस फिल्म जगत केआकाश में एक ऐसे ध्रुवतारे की तरह हैं जिनके बेमिसाल अभिनय से सुसज्जित फिल्मों की रोशनी से बॉलीवुड हमेशा जगमगाता रहेगा। उत्कृष्ट अभिनय से सजी उनकी मदर इंडिया,आवारा, चोरी-चोरी और श्री 420 जैसी फिल्में आज भी दर्शको के दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ती हैं। नरगिस का जन्म एक जून 1929 को कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ था। उनकी मां जद्दन बाई अभिनेत्री और फिल्म निर्मात्री थी । नरगिस ने अपने कॅरियर की शुरूआत महबूब खान की वर्ष 1943 मे प्रदर्शित फिल्म तकदीर से की थी। इस फिल्म की सफलता के साथ ही नरगिस फिल्म इंडस्ट्री में बतौर अभिनेत्री अपनी पहचान बनाने में सफल हो गई। इसके बाद वर्ष 1945 मे महबूब खान द्वारा ही निर्मित फिल्म ‘हुंमायूं’ में नरगिस को काम करने का मौका मिला। वर्ष 1949 नरगिस के सिने कॅरियर में अहम पड़ाव साबित हुआ । इस वर्ष उनकी ‘बरसात’ और ‘अंदाज’ जैसी सफल फिल्में प्रदर्शित हुई। प्रेम त्रिकोण पर बनी फिल्म ‘अंदाज’ में उनके साथ दिलीप कुमार और राजकपूर जैसे नामी अभिनेता थे। इसके बावजूद नरगिस दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहीं। वर्ष 1950 से 1954 तक का वक्त नरगिस के सिने कॅरियर के लिए बुरा साबित हुआ। इस दौरान उनकी ’शीशा’, ‘बेवफा’,‘आशियाना’,‘अंबर’, ‘अनहोनी’,‘शिकस्त’,‘पापी’ ,‘धुन’ और ‘अंगारे’बॉक्स आॅफिस पर असफल हो गई लेकिन वर्ष 1955 में उनकी राजकपूर के साथ ‘श्री 420’ फिल्म प्रदर्शित हुई जिसकी कामयाबी के बाद वह एक बार फिर से शोहरत की बुंलदियो पर जा पहुंची। नरगिस के सिने कॅरियर मे उनकी जोड़ी राज कपूर के साथ काफी पसंद की गई। राज कपूर और नरगिस ने सबसे पहले वर्ष 1948 मे प्रदर्शित फिल्म ‘आग’ में एक साथ अभिनय किया था। इसके बाद नरगिस ने राजकपूर के साथ ‘बरसात’, ‘अंदाज’,‘आवारा’,‘आह’, ‘जागते रहा’,‘चोरी -चोरी’ जैसी कई फिल्मों में भी एक साथ काम किया । वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म ‘आवारा’ के निर्माण के दौरान नरगिस का झुकाव अभिनेता राजकपूर के साथ हो गया और नरगिस ने केवल राजकपूर की फिल्मों मे काम करने का निर्णय लिया। नरगिस ने महबूब खान की फिल्म ‘आन ’में काम करने से भी मना कर दिया । वर्ष 1955 मे प्रदर्शित फिल्म ‘श्री 420’ के बारिश में एक छाते के नीचे फिल्माये गाने के एक दृश्य में नरगिस और राज कपूर के प्रेम प्रसंग इतना सजीव जान पड़ता है जिसे सिने दर्शक शायद ही कभी भूल पाए। वर्ष 1956 मे प्रदर्शित फिल्म ‘चोरी-चोरी’ में नरगिस और राज कपूर की जोड़ी वाली अंतिम फिल्म थी। हालांकि राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो’ में भी नरगिस ने अतिथि कलाकार की भूमिका निभाई। इस फिल्म के अंत मे लता मंगेशकर की आवाज में नरगिस पर ‘जागो मोहन प्यारे’ गाना फिल्माया गया था । वर्ष 1957 मे प्रदर्शित फिल्म ‘मदर इंडिया’ नरगिस के सिने कॅरियर मे बहुत अहम साबित हुई। इस फिल्म मे उनके अभिनय के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले। व्यक्तिगत जीवन में आधुनिक विचारों वाली नरगिस ने ‘मदर इंडिया’ में पारंपरिक स्त्री की भूमिका में जान डाल दी। फिल्म मदर इंडिया में नरगिस ने सोलह साल की युवती से लेकर सत्तर साल की बूढ़ी औरत के किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार कर दिया और अपने जीवंत अभिनय से फिल्म को महानतम भारतीय फिल्म बना दिया। मदर इंडिया की शूटिंग के दौरान नरगिस आग से घिर गई थी और उनका जीवन संकट मे पड़ गया था लेकिन सुनील दत्त अपनी जान की परवाह किए बगैर आग में कूद गए और नरगिस को लपटों से बचा ले आए। इस घटना में सुनील दत्त काफी जल गए थे तथा नरगिस पर भी आग की लपटों का असर पड़ा था। सुनील दत्त और नरगिस को अस्पताल मे भर्ती कराया गया। दोनों जब स्वस्थ होकर बाहर निकले तो दोनों ने शादी करने का फैसला किया। शादी के बाद नरगिस ने फिल्मों मे काम करना कम कर दिया। इस दौरान उनकी ‘लाजवंती’, .‘अदालत’ और ‘मिस इंडिया’ जैसी फिल्म प्रदर्शित हुयी। इसी बीच नरगिस ने संजय दत्त को जन्म दिया। इसके बाद नरगिस ने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया । करीब दस वर्ष बाद उन्होंने अपने भाई अनवर हुसैन और अख्तर हुसैन के कहने पर वर्ष 1968 मे फिल्म ‘रात और दिन’ में काम किया। इस फिल्म मे अपने दमदार अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित की गई। नरगिस को वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘मदर इंडिया’ में उनके जीवंत अभिनय के लिए फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। चेकोस्लाबिया में हुए फिल्म समारोह मे भी नरगिस को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया। फिल्म मदर इंडिया आॅस्कर के लिए भी नामित की गई। फिल्मों से संन्यास लेने के बाद नरगिस सामाजिक कार्यों मे सहयोग करने लगी । अपने इस सामाजिक काम के लिए वह पदमश्री से सम्मानित की गई। उन्हें राज्य सभा सदस्य भी बनाया गया। सुनील दत्त को पता चला कि नरगिस को कैंसर है तो उन्होंने नरगिस को अमेरिका के अस्पताल मे भर्ती कराया लेकिन शायद नरगिस को यह अहसास हो चला गया था कि वह ज्यादा दिनों तक नही जिंदा रहने वाली हैं। उन्होंने सुनील दत्त से कहा कि वह अपनी धरती पर अंतिम सांस लेना चाहती है इसलिए वह मुंबई में कैंडी अस्पताल में दाखिल की गई। उनकी हालत दिन -प्रतिदिन बिगड़ती गई और अपने संजीदा अभिनय से सिने प्रेमियों को भावविभोर करने वाली यह महान अभिनेत्री तीन मई 1980 को सदा के लिए इस दुनिया से रूखसत हो गई।

Sikandar_Khan
02-05-2012, 09:27 PM
नरगिस जी के बारे मे जानने की बहुत चाह थी ! आज आपके इस सूत्र के जरिए "नरगिस जी" के बारे मेँ तफशील से काफी मालूमात हांसिल हुई |

Dark Saint Alaick
04-05-2012, 04:31 PM
पुण्यतिथि पांच मई के अवसर पर विशेष
संगीत जगत के सम्राट थे नौशाद

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नवाबों की नगरी लखनऊ में भोंदुमल एंड संस नामक दुकान के पास एक बच्चा बड़े प्यार से साजो सामान को देख रहा था। तभी दुकान के मालिक ने पूछा, तुम यहां क्या कर रहे हो। इस पर बच्चे ने कहा, मैं दुकान में काम करना चाहता हूं। मालिक ने उसे काम पर रख लिया। उस बच्चे ने दुकान में नौकर के रूप में काम करना इसलिए स्वीकार किया था कि वह इसी बहाने वहां उपस्थित संगीत के वाद्य यंत्रों पर रियाज कर सकेगा। एक दिन वाद्य यंत्रों पर रियाज करने के दौरान मालिक की निगाह उस पर पड़ गई और उन्होंने उस बच्चे को डांटते हुए कहा, तुमने मेरे साजो सामान को गंदा कर दिया। लेकिन बाद में जब उसने सोचा कि बच्चा बहुत मधुर धुन तैयार कर रहा है, तो न सिर्फ उसने उसे साजो सामान उपहार में दे दिया, बल्कि उसके लिए संगीत सीखने की व्यवस्था भी करा दी। यह बच्चा और कोई नहीं, बल्कि संगीत जगत के सम्राट 'नौशाद' थे।
संगीत सम्राट नौशाद का जन्म लखनऊ में 25 दिसंबर 1919 को एक मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनके पिता वाहिद अली खान लखनऊ की अदालत में मुंशी थे। नौशाद ने संगीत की शिक्षा उस्ताद यूसुफ अली और उस्ताद बब्बन साहब से ली। बचपन से ही उनका रूझान संगीत की ओर था, इस वजह से उन्हें फिल्में देखने का कुछ ज्यादा ही शौक था। नौशाद अक्सर फिल्म देखने के बाद रात में देर से लौटा करते थे, जिससे उनके पिता काफी नाराज रहा करते थे और कहते, घर या संगीत एक चुन लो। एक बार लखनऊ में एक नाटक कंपनी आई। नौशाद ने पिता को कह दिया, आपको आपका घर मुबारक मुझे मेरा संगीत ...और घर छोड़ नाटक मंडली में शामिल हो गए। नाटक मंडली के साथ नौशाद ने जयपुर, जोधपुर, बरेली और गुजरात के कई बड़े शहरों में भ्रमण किया।
अपने दोस्त से 25 रुपए उधार लेकर वर्ष 1937 में संगीतकार बनने का सपना लिए मायानगरी मुंबई आ गए। मुंबई पहुंचने पर नौशाद को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन्हें कई दिनों तक फुटपाथ पर ही रात गुजारनी पड़ी। मुंबई में आने के बाद नौशाद की मुलाकात निर्माता कारदार साहब से हुई, जिनकी सिफारिश पर उन्हें हुसैन खान के यहां चालीस रुपए प्रति माह पर पियानो बजाने का काम मिला। इसके बाद संगीतकार खेमचंद्र प्रकाश के सहयोगी के रूप में भी नौशाद ने काम किया।
हिंदी फिल्मों के बहुचर्चित संगीतकार नौशाद उन शुरूआती हस्तियों में थे, जिन्होंने शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत की ऐसी त्रिवेणी बहाई, जिसमें न सिर्फ दोनों विधाओं की मूल आत्मा बनी रही वरन् उसकी मधुरता ने लोकप्रियता की नयी परिभाषा गढ़ दी। हिंदी फिल्मों में उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का बेहतरीन उपयोग कर सैकड़ों कर्णप्रिय धुनें बनाने वाले नौशाद ने गीतों को एक इलाके के बंधन से मुक्त कराया और उसे नई आजादी प्रदान की। बाद में कई संगीतकारों ने इसे आगे बढ़ाते हुए देश के विभिन्न हिस्सों के लोकसंगीत का हिंदी फिल्मों में बेहतरीन इस्तेमाल किया। नौशाद ने अपनी प्रयोगधर्मिता से संगीत को कई नए आयाम प्रदान किए। कई कलाकारों के करियर को नई ऊंचाई प्रदान करने में मददगार खुद नौशाद का शुरुआती सफर आसान नहीं रहा और उन्हें एक ओर पारिवारिक विरोध का सामना करना पड़ा, वहीं संगीत के क्षेत्र में पैर जमाने के लिए भी वर्षों तक संघर्ष करना पड़ा।
नौशाद का संघर्ष अंतत: रंग लाया और ‘प्रेम नगर’ फिल्म बतौर स्वतंत्र संगीतकार उनकी पहली फिल्म थी। ‘रतन’ उनकी पहली कामयाब फिल्म रही। ‘रतन’ से शुरू हुआ सफर आगे कई दशक तक जारी रहा और बॉक्स आफिस पर उनकी फिल्मों ने कमाई के कई नए कीर्तिमान बनाए। दिलचस्प है कि उन्होंने घर वालों को यह नहीं बताया था कि वह फिल्मों में संगीत दे रहे हैं। उनकी शादी के मौके पर बैंड वाले जो धुन बजा रहे थे, वह उनकी ही फिल्म से थी, लेकिन उन्होंने घरवालों को नहीं बताया कि जो धुन बज रही थी, उसके रचयिता वही हैं। भारत में फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के और पद्म भूषण सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित नौशाद 1960 के दशक तक चोटी के संगीतकारों में थे। इस दौरान उन्होंने शारदा, संजोग, अनमोल घड़ी, अमर, शाहजहां, दर्द, नाटक, अनोखी अदा, मेला, अंदाज, चांदनी रात, दिल्लगी, दुलारी, दास्तान, आन, बैजू बावरा, उडनखटोला, मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, गंगा जमुना, सन आफ इंडिया, लीडर, पालकी, साथी, राम और श्याम, पाकीजा, धर्म कांटा आदि फिल्मों में अपने सुरों का समा बांधा। नौशाद ने अपने समय के कई चर्चित गीतकारों के बोलों को बेहतरीन सुर प्रदान किया। इन गीतकारों में शकील बदायूनी, मजरूह सुल्तानपुरी, डीएन मधोक, जिया सरहदी, कुमार बाराबंकवी आदि शामिल हैं। उनकी फिल्म 'मदर इंडिया' भारत की पहली फिल्म थी, जिसे 'आस्कर' के लिए नामित किया गया था।
बतौर संगीतकार वर्ष 1940 में प्रदर्शित फिल्म 'प्रेम नगर' में उन्हें 100 रुपए माहवार पर काम करने का मौका मिला, लेकिन फिल्म की विफलता से बतौर संगीतकार वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। वर्ष 1942 में प्रदर्शित फिल्म 'शारदा' में संगीत देने के बाद नौशाद संगीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। वर्ष 1944 में प्रदर्शित फिल्म रतन की कामयाबी के बाद नौशाद बतौर संगीतकार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। फिल्म 'रतन' का यह गीत 'अंखिया मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना' श्रोताओं में आज भी उतना ही लोकप्रिय है। फिल्म 'रतन' की सफलता के बाद नौशाद बतौर संगीतकार 25000 रुपए पारिश्रमिक के तौर पर लेने लगे, जो उन दिनों काफी बड़ी रकम समझी जाती थी। नौशाद के पसंदीदा गायक के तौर पर मोहम्मद रफी का नाम सबसे ऊपर आता है। नौशाद को जब कई अपनी फिल्मों के लिए गायक कलाकार की जरूरत होती थी, तो वह मोहम्मद रफी को ही काम करने का मौका दिया करते थे। उनके इस व्यवहार को देखकर फिल्म जगत के काफी लोग नाखुश थे, लेकिन फिर भी नौशाद ने लोगों की बातों को अनसुना करते हुए मोहम्मद रफी को ही अपनी फिल्मों में काम करने का अधिक से अधिक मौका देना जारी रखा।
नौशाद ऐसे पहले संगीतकार थे जिन्होंने पार्श्वगायन के क्षेत्र में सांउड मिक्सिंग और गाने की रिकार्डिग को अलग रखा। फिल्म संगीत में एकोरडियन का सबसे पहला इस्तेमाल नौशाद ने ही किया था। बतौर पार्श्वगायिका सुरैया ने अपना पहला गाना नौशाद के संगीत निर्देशन में फिल्म 'शारदा' के लिये दिया था। हास्य अभिनेत्री उमादेवी उर्फ टुनटुन ने भी नौशाद के संगीत निर्देशन में फिल्म 'दर्द' का 'अफसाना लिख रही हूं' गीत गाया। नौशाद के संगीत पर के.एल. सहगल ने 'जब दिल ही टूट गया', 'ए दिले बेकरार झूम', 'गम दिए मुस्तकिल', 'कर लिया चलकर' जैसे गाने गाए।
वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म 'बैजू बावरा' के लिये नौशाद फिल्मफेयर के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के रूप में सम्मानित किए गए। इसके अलावा भारतीय सिनेमा में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। नौशाद ने करीब छह दशक के अपने फिल्मी जीवन में लगभग 70 फिल्मों में संगीत दिया। उनके संगीतबद्ध गीतों की लंबी फेहरिस्त में कुछ हैं - अफसाना लिख रही हूं (दर्द), गाए जा गीत मिलन के (मेला), सुहानी रात ढल चुकी (दुलारी), दीवाना मुझको लोग कहें (दीवाना), ओ दुनिया के रखवाले (बैजू बावरा), ओ दूर के मुसाफिर हमको भी साथ ले ले (उड़नखटोला), दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा (मदर इंडिया), मधुबन में राधिका नाचे रे (कोहिनूर), जब प्यार किया तो डरना क्या (मुगले आजम), नैन लड़ जइहें तो मनवा मां कसक होइबे करी (गंगा जमुना), दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूंढ रहा है, नन्हा मुन्ना राही हूं (सन आफ इंडिया), मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम (मेरे महबूब), तेरे हुस्र की क्या तारीफ करूं (लीडर), दिलरुबा मैंने तेरे प्यार में क्या क्या न किया (दिल दिया दर्द लिया), इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा (पाकीजा) आदि। छह दशक तक अपने संगीत से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले यह महान संगीतकार 5 मई 2006 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।

ndhebar
05-05-2012, 11:30 AM
नौशाद साहब अपने मधुर धुनों के साथ अमर हैं

Dark Saint Alaick
05-05-2012, 04:28 PM
रूसी क्रांति का वाहक 'प्रावदा' हुआ सौ वर्ष का

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16157&stc=1&d=1336217278 http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16158&stc=1&d=1336217278

रूस में वर्ष 1917 की अक्टूबर क्रांति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाला प्रावदा समाचारपत्र आज जहां अपनी सौवीं वर्षगांठ मना रहा है, वहीं दुनियाभर के मेहनतकशों को एक होने का संदेश भी दे रहा है। प्रावदा की शुरुआत साम्यवाद के जनक जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स के जन्मदिवस के अवसर पर 05 मई 1912 को की गई थी। इस समाचारपत्र के जरिए ही लेनिन ने विदेश में रहते हुये रूसी क्रांतिकारियों में क्रांति का जज्बा भरा। प्रावदा की शुरुआत रूसी विपक्ष के एक महत्वपूर्ण समाचारपत्र के रूप में हुई थी और सोवियत काल में सत्तापक्ष की आवाज माने जाने वाले इस अखबार को सोवियत संघ के पतन के बाद बेहद संकट के दौर का सामना करना पड़ा। तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तिसन ने इसे वर्ष 1991 में प्रतिबंधित कर दिया, जिसके बाद इसे एक यूनानी व्यापारी को बेच दिया गया। रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (केपीआरएफ) ने आखिरकार वर्ष 1997 में इस पर पुन: नियंत्रण प्राप्त कर लिया और प्रावदा आज रूसी वामपंथ की एक महत्वपूर्ण आवाज बनकर उभरा है।
मास्को स्थित प्रावदा स्ट्रीट में स्थित इसके दफ्तर में संपादक बोरिस कोमोत्सकी बताते हैं कि मौजूदा समय में इसमें महज 23 पत्रकार काम करते हैं और कई बार तो उन्हें वेतन भी ठीक तरह से नहीं मिल पाता। प्रावदा के पत्रकारों को प्रशासन के सख्त रवैए, आर्थिक दिक्कतों, बंद किए जाने की धमकियों के बीच अपना काम करना पड़ता है। कोमोत्सकी बताते हैं कि ये कुछ कुछ वैसा ही है, जैसा सौ वर्ष पहले जार के शासन में हुआ करता था। कोमोत्सकी के बैठने की जगह के पीछे वाली दीवार पर लेनिन की एक बडी सी तस्वीर लगी हुई है, जिसमें वे प्रावदा पढ़ रहे हैं। कोमोत्सकी अपने साथियों का हौसला बढ़ाते हुए कहते हैं, हम मौजूदा दौर में विपक्ष की एक सशक्त आवाज बनकर उभरे हैं, हम बदलाव की लड़ाई लड़ रहे हैं। बेहद दिक्कत भरे माहौल में भी हम अपना काम करते हैं। कई बार हमें वेतन नहीं मिलता। हमारा हरेक कर्मचारी वाकई में एक हीरो है।
प्रावदा साज सज्जा के मामले में अब भी वैसा ही बना हुआ है, जैसा सोवियत काल में था। प्रावदा के मुखपृष्ठ के मास्टहेड पर आज भी तीन सोवियत मेडल छापे जाते हैं, जो दुनियाभर के मेहनकशों को एक होने का नारा देते हैं। प्रावदा के संपादक की मेज के ठीक पीछे बने शेल्फ पर लेनिन, मार्क्स और स्टालिन की मूर्तियां देखी जा सकती हैं। दफ्तरों में लगी ऊंची-ऊंची शेल्फों पर मार्क्सवादी साहित्य की बहुतायत है। इन सौ वर्षों के दौरान प्रावदा हालांकि एक बार फिर से वहीं पहुंच गया है, जहां से यह शुरू हुआ था। किसी समय बीसियों लाख प्रतियों में प्रतिदिन छपने वाले प्रावदा के अब महज एक लाख अंक ही बाजार में पहुंच पाते हैं और यह महज चार पन्नों में ही सिमट गया है।
प्रावदा के आलोचकों का मानना है कि सोवियत काल में इसे बड़ी संख्या में पढ़ा तो जाता था, लेकिन बहुत कम लोग ही थे, जो इसे दिल से पढ़ते थे। वास्तुविद अलेक्सांद्र फ्योदोरोव बताते हैं, मैं अब भी प्रावदा में दिलचस्पी रखता हूं। लोगों को इसे पढ़ना चाहिए, अब भी यह हम लोगों के लिए कुछ तो मायने रखता ही है। प्रावदा सोवियत अवाम के अलावा मास्को में रहने वाले विदेशी संवाददाताओं और राजनयिकों के बीच भी खासा लोकप्रिय था, जो पर्दे के पीछे का घटनाक्रम जानने के लिए इसे पढ़ा करते थे। प्रावदा के आलोचक यह भी मानते हैं कि इसने कभी भी निष्पक्ष होकर रिर्पोटिंग नहीं की। प्रावदा की रिपोर्टों को सोवियत सेंसर की कैंची का प्राय: ही सामना करना पड़ता था, जिसकी वजह से कई बार महत्वपूर्ण खबरें इसमें नहीं छप पाती थीं। कम्युनिस्ट पार्टी के आदेश के बगैर इसने कभी भी किसी नेता की मौत की खबर को अपने पन्नों पर जगह नहीं दी।

Dark Saint Alaick
06-05-2012, 05:28 PM
पुण्यतिथि 7 मई के अवसर पर
अपने गीतों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया प्रेम धवन ने

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हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्रेम धवन को एक ऐसे गीतकार के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने ओजपूर्ण देशभक्ति के गीत लिखकर श्रोताओं के दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। प्रेम धवन ने नृत्य निर्देशक के तौर पर भी काम किया। वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म नया दौर के गीत उड़ें जब जब जुल्फें तेरी का नृत्य निर्देशन प्रेम धवन ने किया। दो बीघा जमीन, सहारा और धूल का फूल में भी प्रेम धवन ने नृत्य निर्देशन किया। प्रेम धवन इंडियन पीपुल्स थियेटर (इप्टा) के सक्रिय सदस्य बने रहे। त्रिवेणी पिक्चर्स के बैनर तले प्रेम धवन ने कई फिल्मों का निर्माण और निर्देशन भी किया। इन फिल्मों के जरिए उन्होंने परिवार नियोजन, राष्ट्रीयता और सामाजिक मुद्दे दर्शकों के सामने पेश किए। उन्होंने लद्दाख और नाथुला में सुनील दत्त तथा नरगिस दत्त के साथ अपने गीत-संगीत से सैनिकों का मनोरंजन किया।
तेरह जून 1923 को हरियाणा के अंबाला में जन्मे प्रेम धवन ने स्रातक की पढ़ाई लाहौर के मशहूर एफ.सी. कॉलेज से पूरी की। उन्होंने संगीत की शिक्षा पंडित रविशंकर से हासिल की। उन्होंने उदय शंकर से नृत्य की भी शिक्षा ली। बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न प्रेम धवन ने अपने सिने कैरियर की शुरुआत संगीतकार खुर्शीद अनवर के सहायक के तौर पर वर्ष 1946 में प्रदर्शित फिल्म 'पगडंडी' से की। बतौर गीतकार प्रेम धवन नेवर्ष 1948 में बांबे टॉकीज निर्मित फिल्म 'जिद्दी' में गीत लिखने का मौका मिला, लेकिन फिल्म की विफलता से वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। पार्श्वगायक किशोर कुमार ने भी फिल्म 'जिद्दी' से ही अपने सिने कैरियर की शुरुआत की थी। प्रेम धवन को बतौर गीतकार अपनी पहचान बनाने के लिए लगभग सात वर्ष तक कड़ा संघर्ष करना पड़ा। इस दौरान उन्होंने 'जीत', 'आरजू', 'बड़ी बहू', 'अदा', 'मोती महल', 'आसमान', 'ठोकर' और 'डाक बाबू' जैसी कई बी और सी ग्रेड की फिल्में भी की, लेकिन इन फिल्मों से उन्हें कुछ खास फायदा नहीं हुआ। वर्ष 1955 में प्रदर्शित फिल्म 'वचन' की कामयाबी के बाद वह बतौर गीतकार कुछ हद तक अपनी पहचान बनाने मे सफल हो गए।
फिल्म 'वचन' का यह गीत 'चंदा मामा दूर के' श्रोताओं में आज भी लोकप्रिय है। इसके बाद वर्ष 1956 में प्रेम धवन ने फिल्म 'जागते रहो' के लिए 'जागो मोहन प्यारे' गीत लिखा, जो हिट हुआ। वर्ष 1961 में संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में फिल्म 'काबुलीवाला' की सफलता के बाद प्रेम धवन शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुंचे। फिल्म 'काबुलीवाला' में पार्श्वगायक मन्ना डे की आवाज में प्रेम धवन का गीत 'ए मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन' आज भी श्रोताओं की आंखें नम कर देता है। इन सबके साथ वर्ष 1961 में उनकी एक और सुपरहिट फिल्म 'हम हिंदुस्तानी' प्रदर्शित हुई, जिसका गीत 'छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी' सुपरहिट हुआ।
वर्ष 1965 प्रेम धवन के सिने कैरियर का अहम वर्ष साबित हुआ। अभिनेता मनोज कुमार के कहने पर प्रेम धवन ने फिल्म 'शहीद' के लिए संगीत निर्देशन किया। यूं तो फिल्म शहीद के सभी गीत सुपरहिट हुए, लेकिन 'ऐ वतन ऐ वतन' और 'मेरा रंग दे बसंती चोला' आज भी श्रोताओं में बहुत लोकप्रिय है। फिल्म 'शहीद' के बाद उन्होंने कई फिल्मों के लिए संगीत दिया। इन फिल्मों में 'पवित्र पापी', 'किसान और भगवान' शामिल हैं। वर्ष 1970 में फिल्म जगत में उनके योगदान को देखते हुए केन्द्र सरकार ने उन्हें पदमश्री से सम्मानित किया। उन्होंने अपने चार दशक के सिने कैरियर में लगभग 300 फिल्मों के लिए गीत लिखे।
उनके गीतों में से प्रमुख हैं - चंदा रे जा रे जा रे (जिद्दी), सीने में सुलगते हैं अरमान (तराना), दिल में बसा के मीत बना के (दोराहा), तेरे नैना रसीले कटीले हुए राम, ऋतु आए ऋतु जाए सखी री (हमदर्द), ये क्या है ढंग जमाने का (डाक बाबू), अब दिन हो या रात हम रहें तेरे साथ (मिस बांबे), वो आज अपनी महफिल में आए हुए हैं (मेंहदी), तेरा जादू ना चलेगा ओ संपेरे (गेस्ट हाउस), मुझे प्यार की जिंदगी देने वाले (प्यार का सागर), छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी (हम हिंदुस्तानी), ऐ मेरे प्यारे वतन (काबुलीवाला), ओ सांवरे आ जा प्यार लिए (प्राइवेट सेकेट्री), बहुत हसीन हैं तुम्हारी आंखें (आधी रात के बाद) ऐ वतन ऐ वतन, मेरा रंग दे बसंती चोला (शहीद), सैंया ले गई जिया तेरी पहली नजर (एक फूल दो माली) और तेरी दुनिया से होके मजबूर चला (पवित्र पापी) आदि। अपने गीतों से चार दशक तक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले प्रेम धवन 7 मई 2001 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
07-05-2012, 11:42 AM
सात मई को रवींद्रनाथ टैगोर की जयंती पर विशेष
शांति निकेतन को विश्व धरोहर की सूची में शामिल कराने की कवायद

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16201&stc=1&d=1336372908

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति निकेतन को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल कराने की कवायद शुरू की गई है। जुलाई महीने में पेरिस में होने वाली यूनेस्को की बैठक में इसके लिए नामांकन पेश करने का प्रयास किया जा रहा है। नोबेल पुरस्कार विजेता टैगोर से जुड़ा विश्व प्रसिद्ध संस्थान पिछले वर्ष विश्व धरोहर घोषित किए जाने की दौड़ में था लेकिन अंतिम सूची में स्थान नहीं बना सका। विश्व भारती विश्वविद्यालय एक बार फिर इसे विश्व धरोहर की सूची के संभावितों में शामिल करवाने के प्रयास में लगा हुआ है। यूनेस्को नियमों के मुताबिक किसी भी विश्व धरोहर स्थल को एकीकृत कमान के अधीन होना चाहिए। शांति निकेतन के बारे में कहा गया है कि वह इस मापदंड को पूरा नहीं करता है। संस्कृति मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि भारत और बांग्लादेश इस वर्ष संयुक्त रूप से रवींद्रनाथ टैगोर की 150वीं जयंती मना रहे हैं, ऐसे समय में अगर टैगोर से जुड़े इस स्थल को विश्व धरोहर घोषित किया जाता है तो समारोह का महत्व और बढ़ जाएगा। पिछले साल की विफलता के बाद संस्कृति मंत्रालय द्वारा पश्चिम बंगाल सरकार के साथ समन्वय स्थापित कर इस प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की प्रणाली को और दुरूस्त बनाने का प्रयास किया जा रहा है ताकि यह यूनेस्को के मापदंडों पर खरा उतर सके। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारी ने कहा कि यह उसके अधीन आने वाला स्थल नहीं है, हालांकि एएसआई ऐसे स्थलों के लिए शीर्ष एजेंसी है। अधिकारी ने कहा कि पुन: मनोनीत करने का प्रस्ताव मिलने पर एएसआई की सलाहकार समिति इसके विभिन्न पहलुओं पर विचार कर आगे बढाएगा। विश्वविद्यालय की वर्तमान प्रणाली के सम्बंध में अभी भी कई मुद्दे सुलझाए जाने हैं,अधिकारियों ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि संशोधन रिपोर्ट समय पर तैयार हो जाएगी। उन्होंने कहा कि इस सम्बंध में काम को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है और इस विषय पर फिर से आवेदन करने का काम पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि अगर सब कुछ ठीक रहा तो जुलाई 2012 में पेरिस में यूनेस्को की बैठक में शांति निकेतन को विश्व धरोहर घोषित किया जा सके। उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ टैगोर ने 1901 में शांति निकेतन की स्थापना की थी जो कोलकाता से 158 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 20 जनवरी 2010 को यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल किए जाने के लिए शांति निकेतन का मनोनयन किया था। लेकिन यह विश्व धरोहर नहीं बन पाई। शिक्षा के विशिष्ट मॉडल, अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप और स्थापत्य का नमूना होने के साथ कला एवं साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए इसे विश्व धरोहर घोषित किए जाने का आग्रह किया गया था। नामांकन में कहा गया था कि शांति निकेतन का मानवता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है और संस्थान ने 20वीं शताब्दी में धार्मिक एवं क्षेत्रीय बाधाओं को दूर करते हुए लोगों को जोड़ने का कार्य किया है। इसको ध्यान में रखते हुए इसे विश्व धरोहर घोषित किया जाना चाहिए।

Dark Saint Alaick
08-05-2012, 01:47 AM
पुरुषों की दुनिया में महिला की नजर राष्ट्रपति पद पर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16223&stc=1&d=1336423599

अफगानिस्तान जैसे देश में जहां महिलाओं को अधिकारों के नाम पर कुछ हासिल नहीं, एक जांबाज महिला ने राष्ट्रपति की कुर्सी की तरफ देखने की हिम्मत जुटाई है और एक महिला के तौर पर फौजिया कूफी के ख्यालात वाकई बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करते हैं। हाल ही में फौजिया जब काबुल स्थित राष्ट्रपति पैलेस से बाहर निकलीं तो उनके एक कट्टरपंथी सांसद साथी ने चुटकी लेते हुए कहा कि मोहतरमा अगर आपको वाकई किसी महल में रहने का इतना ही शौक है और आप इसी वजह से राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रही हैं तो उससे बेहतर तो यह होगा कि आप किसी राष्ट्रपति से निकाह कर लें। इस वाकए को हफ्तों बीत चुके हैं, लेकिन इस बारे में बात करते हुए फौजिया की भूरी आंखें अब भी हैरानी से फैल जाती हैं। काबुल स्थित अपने आवास में एक साक्षात्कार के दौरान फौजिया ने इस बारे में बातचीत के दौरान कहा कि मुझे यह देखकर वाकई गुस्सा आता है कि वह इस सब को इस तरह से देखते हैं कि अगर कोई महिला राष्ट्रपति बनने के बारे में सोच रही है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वह महल में रहने की ख्वाहिशमंद है। पता चला है कि फौजिया ने उनसे सवाल पूछने वाले सांसद को मुंह तोड़ जवाब देते हुए कहा कि पिछले 30 बरस में अफगानिस्तान के मर्दों का अतीत संदिग्ध रहा है, लेकिन फौजिया को किसी महल की दीवारों के पीछे मुंह छिपाने की कोई जरूरत नहीं है। वह कहती हैं, कई बार मुझे इस बात की खुशी होती है कि वह मेरा विरोध कर रहे हैं। इसका मतलब उन्हें मेरे मजबूत वजूद से डर लगता है और मैं उन्हें करारा जवाब भी देती हूं।
अमेरिका की एक वेबसाइट द्वारा इस वर्ष दुनिया की 150 निडर महिलाओं में शामिल की गईं फौजिया (36) बेवा हैं और दो बच्चियों की मां हैं। फौजिया एक ऐसे देश में हौंसले की मिसाल हैं, जिसे महिलाओं के लिए दुनिया की सबसे खराब जगह के तौर पर देखा जाता है। उन्होंने अपनी बेटियों के नाम लिखे पत्रों में अपने बारे में कई तरह की जानकारियां दी हैं। उन्हें एक ऐसी थकी हुई और हताश मां ने जन्म दिया, जो अपने पति की सात पत्नियों में से एक थी। वह 23 बच्चों के परिवार में जन्मी थीं और उनकी मां को यह अच्छी तरह पता था कि उनके पति इस बच्ची के जन्म पर खुश नहीं होने वाले हैं इसलिए फौजिया के जन्म के फौरन बाद उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया। नन्ही सी बच्ची पूरा दिन धूप में रोती बिलखती रही। आखिरकार उसकी मां को अपने किए पर पछतावा हुआ और उसने अपनी बेटी को सीने से लगा लिया, लेकिन तब तक फौजिया की कोमल त्वचा तेज धूप से बुरी तरह झुलस चुकी थी, जिसके निशान बरसों तक उनके बदन ही नहीं बल्कि उनकी रूह पर बने रहे। संसद भवन के नजदीक किराए के मकान में रहने वाली फौजिया के घर की दीवारों पर दो फोटो लगे हैं। उनमें से एक उनके पिता का है और दूसरा राष्ट्रपति हामिद करजाई के साथ उनकी अपनी तस्वीर है। अपने संस्मरण में फौजिया ने लिखा है कि उनके पिता राजनीतिज्ञ थे और जब उनकी हत्या की गई उस समय वह सिर्फ तीन वर्ष की थीं।
तालिबान को 2001 में अमेरिकी नेतृत्व वाली सेनाओं ने सत्ता से बेदखल कर दिया। तालिबानी हुकूमत में लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी थी, महिलाओं को पूरा बदन ढककर घर से बाहर निकलने दिया जाता था और दुराचार के मामले में उन्हें संगसार कर दिया जाता था। हालांकि काबुल की सड़कों पर अब भी महिलाएं ज्यादा नजर नहीं आतीं, लेकिन फौजिया ने तमाम दुश्वारियों के बावजूद अच्छी शिक्षा हासिल की और उनका कहना है कि पिछले दस साल महिलाओं के लिए अच्छे अवसर लेकर आए हैं। फौजिया को डर है कि नाटो की फौजों के अफगानिस्तान से चले जाने के बाद यहां फिर से तालिबानी हुकूमत कायम हो जाएगी। वह कहती हैं कि भविष्य को लेकर बहुत अनिश्चितता और भ्रम है। महिलाओं में इस बारे में चिंता है। देश की शीर्ष इस्लामी संस्था उलेमा काउंसिल ने यह कहकर महिलाओं की चिंता और बढ़ा दी है कि पुरुष बुनियाद हैं और महिलाएं उनके बाद हैं। फौजिया के अनुसार करजाई ने इस बात का खुलकर समर्थन किया है और उनका कहना है कि अफगानिस्तान की जनता यही चाहती है। वह कहती हैं, मुझे नहीं लगता कि लोग ऐसा चाहते हैं। मैं मानती हूं कि हम सभी मुसलमान हैं, लेकिन इस्लाम के प्रति हमारी सोच तालिबान से अलग है। महिलाओं की भलाई के लिए बहुत सी चीजें बदली हैं और राजनीतिक हल्कों में भी महिलाओं ने तरक्की की है। लड़कियां स्कूलों में पढ़ रही हैं और उन्हें कानून का संरक्षण हासिल है। फौजिया के अनुसार इस सब के बावजूद अफगानिस्तान आज भी होने वाली मांओं के लिए सबसे खराब जगह है और बहुत सी औरतें घरेलू हिंसा और अत्याचार झेल रही हैं। वह पश्चिमी देशों से आग्रह करती हैं कि वह अफगानिस्तान से वापसी के बाद भी यहां की महिलाओं के अधिकारों का समर्थन करते रहें। वह खुद भी इस दिशा में प्रयास करते रहने के लिए वचनबद्ध हैं भले इसके लिए उन्हें अपनी जान ही जोखिम में क्यों न डालनी पड़े।

Dark Saint Alaick
10-05-2012, 04:03 AM
कैफी आजमी की पुण्यतिथि 10 मई पर विशेष
बस, इक झिझक है यूं ही हाल-ए-दिल सुनाने में

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16298&stc=1&d=1336604578

हर हिन्दुस्तानी की रगों में वतन पर मर मिटने का जोश भरने वाला गीत ‘कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियो, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो’ लिखकर मुल्क की अदबी तारीख में अमर हो चुके पुरखुलूस शायर कैफी आजमी एक ऐसे फलसफे के राही थे, जिसमें वतन की मिट्टी की महक और बदकिस्मती की सिसकियां लेती जिंदगी का दर्द शिद्दत से झलकता था। साफ दिल और जहनियत के मालिक कैफी अपने आसपास के माहौल से बेहतर प्रभावित थे और उसका अक्स उनके अशआर और नज्मों में झलकता है। जहां उनके गीत और संवाद फिल्मी दुनिया को ताकत देते हैं, वहीं उनकी रूह से निकलकर कागज पर उतरने वाली आवाज के एक बोल हजारों के हुजूम की रगों में देश-भक्ति और इंकलाब का लहू पलभर में दौड़ाने के लिये काफी हैं। उर्दू के नामवर शायर और कैफी के समकालीन पूर्व राज्यसभा सदस्य बेकल उत्साही ने अपने साथी शायर की शख्सियत पर रोशनी डालते हुए कहा कि कैफी अपनी डगर के राही थे और उन्होंने उर्दू शायरी को नई ऊंचाइयां बख्शीं। उत्साही ने बताया कि कैफी आजमी ने गीतकार के रूप में फिल्मों के लिए जो भी लिखा, उसमें भी उन्होंने अदबी रवादारी निभाई और रवायतों का पूरा एहतराम किया। उनके गीतों में साहित्य का सौंदर्य निखरता था और उनकी जबान में काफी शफकत थी। उन्होंने कहा कि कैफी के कलाम में मिट्टी की खुशबू और दिल को छू लेने वाले गंवई माहौल का एहसास होता है।
उत्साही ने बताया कि कैफी ने जमीनी सचाई पर कलम चलाने के अमीर खुसरो के रिवाज को आगे बढ़ाते हुए मेहनतकश मजदूरों, मजलूमों और महिलाओं के दुख-दर्द, भूख, गरीबी और लाचारी को अशआर की शक्ल में कागज पर उतारा। सैयद अतहर हुसैन रिजवी उर्फ कैफी आजमी की पैदाइश उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के छोटे से गांव मेजवां में 14 जनवरी 1919 को हुई। इनके पिता का नाम सैयद फतेह हुसैन रिजवी और मां का नाम हफीजुन्निसा था। कैफी के घर में शेर-ओ-शायरी का माहौल था। उन्होंने आठ वर्ष की उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया। कैफी ने 11 साल की आयु में एक मुशायरे में अपनी पहली गजल ‘इतना तो जिंदगी में किसी के खलल पड़े, हंसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े’ पढ़ी। उनकी यह गजल खूब सराही गई। कैफी को अरबी शिक्षा के लिये लखनऊ के सुल्तानुल मदारिस भेजा गया, लेकिन वह जगह उन्हें रास नहीं आई। वर्ष 1932 से 1942 तक लखनउ में रहने के बाद कैफी कानपुर चले आए और कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया की सदस्यता ग्रहण कर ली। 1947 में जब मुम्बई में कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर खुला, तो वह मुम्बई चले गये और वहीं रहकर काम करने लगे। उस वक्त तक वह शायरी की दुनिया में काफी मकबूल हो चुके थे। उनकी शादी शौकत से हुई जिनसे उनके दो बच्चे हुए। बेटी शबाना आजमी, जो एक मशहूर फिल्म अभिनेत्री हैं और बेटा बाबा आजमी, जो एक प्रसिद्ध कैमरामैन हैं।
फिल्मी गीतकार के रूप में भी कैफी का सफर बेहद शानदार रहा। उन्होंने वर्ष 1952 में शाहिद लतीफ की फिल्म ‘बुजदिल’ के लिये पहला गीत लिखा तो नानू भाई वकील की फिल्मों ‘यहूदी की बेटी’ (1956), परवीन (1957), मिस पंजाब मेल (1957) और ईद का चांद (1958) में भी उनके लिखे गीत खासे मकबूल हुए। कैफी ने मशहूर फिल्मकार गुरूदत की फिल्म ‘कागज के फूल’ (1959), चेतन आनंद की ‘हकीकत’ (1964) के अलावा कोहरा (1964), अनुपमा (1966), उसकी कहानी (1966), सात हिंदुस्तानी (1969) और रजिया सुल्तान (1983) में भी गीत लिखे। कैफी का पहला कविता संग्रह ‘झनकार’ वर्ष 1943 में प्रकाशित हुआ। अपने अमर शाहकार ‘आवारा सजदे’ के लिये उन्हें वर्ष 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। वहीं साल 2002 में उन्हें इसी रचना के लिए साहित्य अकादमी फेलोशिप दी गई। हिंदी फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रूप में उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिया गया। उन्हें पद्मश्री और राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। कैफी एक शख्सियत नहीं, बल्कि आंदोलन थे। वह हमेशा कहा करते थे ‘गुलाम हिंदुस्तान में पैदा हुआ हूं, आजाद हिंदुस्तान में जी रहा हूं और सोशलिस्ट हिंदुस्तान का सपना अपनी नम आंखों में संजोए हुए हूं।’ दस मई 2002 को मुम्बई के जसलोक अस्पताल में यह अजीम-ओ-शान शायर यह कहते हुए इस दुनिया से विदा हो गया, ‘बहार आए तो मेरा सलाम कह देना, मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने।’

Dark Saint Alaick
10-05-2012, 04:05 AM
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16299&stc=1&d=1336604690

हिंदी फिल्म जगत में कैफी आजमी को एक ऐसे गीतकार के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपने गीतों से श्रोताओं के दिलों में देशभक्ति के जज्बे को बुलंद किया। कैफी आजमी का जन्म उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में 1918 में एक जमींदार घराने में हुआ था। पिता कैफी को उंची से उंची तालीम देना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने उनका दाखिला लखनऊ के प्रसिद्ध सेमिनरी सुल्तान उल मदारिस में कराया। महज ग्यारह वर्ष की उम्र से ही कैफी आजमी ने मुशायरों में हिस्सा लेना शुरूकर दिया, जहां उन्हें काफी दाद भी मिला करती थी, लेकिन बहुत से लोग, जिनमें उनके पिता भी शामिल थे, सोचा करते थे कि कैफी आजमी मुशायरों के दौरान खुद की नहीं, बल्कि अपने बड़े भाई की गजलें सुनाया करते हैं।
पुत्र की परीक्षा लेने के लिए पिता ने उन्हें गाने की एक पंक्ति दी और उस पर उन्हें गजल लिखने को कहा। कैफी आजमी ने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और उस पंक्ति पर एक गजल की रचना की। उनकी यह गजल उन दिनों काफी लोकप्रिय हुई और बाद में सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका बेगम अख्तर ने उसे अपना स्वर दिया। गजल के बोल कुछ इस तरह से थे इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पडेÞ न हंसने से हो सुकून न रोने से कल पडेÞ।
सेमिनरी में अपनी शिक्षा यात्रा के दौरान वहां की कुव्यवस्था को देखकर कैफी आजमी ने छात्र संघ का निर्माण किया और अपनी मांग की पूर्ति नहीं होने पर छात्रों से हड़ताल पर जाने की अपील की। इस अपील पर छात्र हड़ताल पर चले गए और इस दौरान उनका धरना करीब डेढ़ साल तक चला, लेकिन हड़ताल के कारण कैफी आजमी सेमिनरी प्रशासन के कोपभाजन बने और धरने की समाप्ति के बाद उन्हें सेमिनरी से निकाल दिया गया। हड़ताल से कैफी आजमी को फायदा भी पहुंचा और इस दौरान उस समय के कुछ प्रगतिशील लेखकों की नजर उन पर पड़ी, जो उनके नेतृत्व को देखकर काफी प्रभावित हुए। कैफी आजमी के अंदर उन्हें एक उभरता हुआ कवि दिखाई दिया और उन्होंने उनको प्रोत्साहित करने एवं हरसंभव सहायता देने की पेशकश की। इसके बाद एक छात्र नेता अतहर हुसैन के अंदर कवि कैफी आजमी ने जन्म ले लिया।
पिता उन्हें एक मौलाना के रूप में देखना चाहते थे, लेकिन उन्हें उससे कोई सरोकार नहीं था। वह तो मजदूर वर्ग के लिए कुछ करना चाहते थे। वर्ष 1942 में कैफी आजमी उर्दू और फारसी की उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ और इलाहाबाद भेजे गए, लेकिन उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया की सदस्यता ग्रहण करके पार्टी कार्यकर्ता के रूप में कार्य करना शुरूकर दिया और फिर भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए। वर्ष 1947 में एक मुशायरे में भाग लेने के लिए वह हैदराबाद पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात शौकत से हुई। यह मुलाकात जल्दी ही शादी में तब्दील हो गई। आजादी के बाद उनके पिता और भाई पाकिस्तान चले गए, लेकिन कैफी आजमी ने हिंदुस्तान में ही रहने का निर्णय लिया। शादी के बाद बढ़ते खर्च को देखकर कैफी आजमी ने एक उर्दू अखबार के लिए लिखना शुरूकर दिया, जहां से उन्हें 150 रुपए माहवार वेतन मिला करता था। उनकी पहली नज्म सरफराज लखनऊ में छपी। शादी के बाद उनके घर का खर्च बहुत मुश्किल से चल पाता था। उन्होंने एक अन्य रोजाना अखबार में हास्य-व्यंग्य भी लिखना शुरूकिया। इसके बाद अपने घर के बढ़ते खर्चों को देख कैफी आजमी ने फिल्मी गीत लिखने का निश्चय किया।
सबसे पहले शाहिद लतीफ ने कैफी आजमी से अपनी फिल्म बुजदिल के लिए गीत लिखने की पेशकश की। फिल्म बुजदिल के लिए कैफी आजमी ने दो गीत लिखे, जिसके एवज में उन्हें एक हजार रुपए मेहनताना के रूप में प्राप्त हुए, लेकिन इस फिल्म की विफलता के बाद कैफी आजमी को अपना फिल्मी कैरियर डूबता नजर आया।
वर्ष 1959 में गुरूदत्त की कागज के फूल में उनके गीतों से उन्हें फिर से नई पहचान मिली। फिल्म कागज के फूल के लिये कैफी आजमी ने वक्त ने किया क्या हसीं सितम तुम रहे न तुम हम रहे न हम जैसा सदाबहार गीत लिखा। इसके बाद वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म 'हकीकत' में उनके गीत कर चले हम फिदा जानो तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो की कामयाबी के बाद कैफी आजमी सफलता के शिखर पर जा पहुंचे। कैफी आजमी को अपने गीतों के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार, एफ्रो एशियन लेखक पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरूपुरस्कार, उर्दू अकादमी का मिलेनियम अवार्ड, महाराष्टÑ सरकार का ज्ञानेश्वर पुरस्कार और युवा भारतीय पुरस्कार जैसे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। कैफी आजमी ने फिल्म गर्म हवा की कहानी, संवाद और स्क्रीनप्ले भी लिखे, जिनके लिये उन्हें फिल्मफेयर के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। फिल्म हीररांझा के संवाद के साथ-साथ कैफी आजमी ने श्याम बेनेगल की फिल्म मंथन की पटकथा भी लिखी। वर्ष 1995 में प्रदर्शित फिल्म नसीम में उन्होंने अभिनय भी किया।
कैफी आजमी के गीतों में से कुछ हैं-देखी जमाने की यारी बिछड़े सभी बारी बारी, वक्त ने किया क्या हसीं सितम तुम रहे न तुम हम रहे न हम, जाने क्या ढूंढ़ती रहती हैं ये आंखें मुझमें, जीत ही लेंगे बाजी हम तुम, कहीं दीप जले कहीं दिल, सपने सुहाने लड़कपन के, ये नयन डरे डरे ये जाम भरे भरे, कर चले हम फिदा जानो तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो, धीरे धीरे मचल ऐ दिले बेकरार कोई आया है, या दिल की सुनो दुनिया वालो या मुझको अभी चुप रहने दो, मेरी आवाज सुनो प्यार का राज सुनो, ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं, मिलो न तुम तो हम घबराएं, यूंही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते, आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे, तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है कि जहां मिल गया, माना कि तुम हो बेहद हसीं ऐसे बुरे हम भी नहीं, शीशा हो या दिल हो आखिर टूट जाता है, तुम इतना क्यों मुस्कुरा रहे हो क्या गम है जिसको छुपा रहे हो आदि। लगभग 75 वर्ष की आयु के बाद कैफी आजमी ने अपने गांव मिजवां में ही रहने का निर्णय किया। अपने गीतों से श्रोताओं को भावविभोर करने वाले यह महान शायर और गीतकार कैफी आजमी का 10 मई 2002 को इस दुनिया से रखसत हो गए।

Dark Saint Alaick
12-05-2012, 04:29 AM
आज विश्व नर्सेस डे
पूरे समाज की स्वास्थ्य दूत है नर्स

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किसी के जख्मों पर मरहम लगाती, किसी को समय पर दवा खिलाती, किसी नन्हें को गोद में लेकर मां की तरह दुलारती और किसी को थर्मामीटर, इंजेक्शन लगाती उस मेहरबान शख्सियत को कहा तो ‘सिस्टर’ जाता है, लेकिन दरअसल वह मरीजों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं। डॉक्टर की एक आवाज पर दौड़ती नर्स मरीजों के लिए कभी मां बन जाती है तो कभी बहन, कभी उन्हें हौसला देती है तो कभी नसीहत, लेकिन यही नर्स जरूरत पड़ने पर अपने दिल की तमाम कोमल भावनाओं को पीछे छोड़ पूरी मजबूती से कोई भी सख्त से सख्त काम कर जाती है। खून और मुर्दा शरीर देखकर अच्छे अच्छों का कलेजा कांप जाता है, लेकिन नर्स मजबूत हौंसले के साथ मृत शरीरों को भी उनके परिजनों के हवाले करने की औपचारिकताओं के दौरान पूरे हौंसले से सारे काम निपटाती है। दिल्ली के हिंदूराव अस्पताल की स्टाफ नर्स गीतिका विनोद कुमार कहती हैं, मरीजों के बीच काम करने से हमारे भीतर एक मानसिक मजबूती आती है। बीमारी और उससे बचाव के बारे में जो जागरूकता हममें आती है वह हमारे घरवालों, पड़ोसियों और दोस्तों के लिए काफी मददगार साबित होती है। ऐसे में अस्पताल में न होने पर भी हम समाज में एक स्वास्थ्य दूत की तरह काम करते हैं। अपने आसपास के लोगों में स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता फैलाने वाली इन स्वास्थ्य दूतों को लगातार खून, घाव, बीमारियों और संक्रमण के बीच काम करना पड़ता है। एक आम इंसान जिन चीजों से दूर भागता है, ये नर्सें सुबह नहाकर खुद इन चीजों से भरे माहौल में काम करने के लिए घरों से निकलती हैं। मरीजों की सेवा को अपना पेशा नहीं बल्कि अपना धर्म समझने वाली नर्स को धैर्य और ममता की मूर्ति तो बहुत बार कहा गया है लेकिन इस कोमल छवि के पीछे छिपा मजबूत हौंसला है जो उसे मानसिक रूप से इस पेशे के लिए तैयार करता है। इसी का नतीजा है कि न तो कभी मुर्दा शरीरों को संभालने में इसके हाथ कांपे हैं, न ही रोते-बिलखते परिजनों को देखकर कभी इसने अपने होश खोए हैं। किसी मरीज को दवाई पिलाने के लिए मनुहार करती तो कभी किसी जिद्दी मरीज को डांटकर चुप करवाने वाली नर्स अपने घर और अस्पताल में तालमेल बिठाना खूब जानती हैं। घरों की ममता अस्पताल में काम आती है और अस्पताल में मिली मानसिक मजबूती घर में। इसी बात पर चुटकी लेते हुए इसी अस्पताल की स्टाफ नर्स हरजीत कौर कहती हैं, घर वाले वैसे तो हमारे काम को पूरा सपोर्ट करते हैं, बस यह बात और है कि हमारे घर पहुंचने पर कहते हैं-पहले नहाकर आओ। हालांकि इन सभी का मानना है अस्पताल में कई तरह के मरीजों और संक्रमण के बीच काम करने के लिए इन्हें खुद की सुरक्षा का खास ख्याल रखना पड़ता है क्योंकि मरीजों की सही तीमारदारी तो तभी हो सकती है जब उनकी सेवा करने वाली नर्स खुद पूरी तरह से स्वस्थ हो। अपने पेशे के लिए पूरी तरह से समर्पित ये नर्सें, डॉक्टर और मरीजों के बीच एक मजबूत कड़ी की तरह काम करती हैं। किसी मरीज के इलाज को टीम वर्क कहने वाली स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. राहिल कमाल का मानना है कि एक प्रशिक्षित नर्स के साथ होने से डॉक्टर को काफी मदद मिलती है। एक नर्स का मानसिक रूप से मजबूत होना वह इस पेशे की अहम जरूरत मानती हैं। 19वीं शताब्दी में अपना सब कुछ भुलाकर युद्ध के घायलों की सेवा में लगीं फ्लोरेंस नाइटिंगेल को नर्सिंग की प्रणेता माना जाता है और उन्हीं के जन्मदिन पर हर साल आज का दिन ‘अंतर्राष्ट्रीय नर्सिंग दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। नर्सिंग को समर्पित इस मौके पर ये सभी नर्सें इस पेशे को अपनाने के अपने फैसले पर गर्व महसूस करती हैं। इनकी सेवा भावना और दिलों की मजबूती को हम सबका सलाम।

Dark Saint Alaick
14-05-2012, 09:53 AM
वहीदा रहमान के जन्मदिन 14 मई पर विशेष
आज फिर जीने की तमन्ना है ...

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‘कल के अंधेरों से निकल के, देखा है आंखें मलते मलते’ कुछ इसी गीत के बोल की तरह हिंदी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री वहीदा रहमान का फिल्मों की सपनीली दुनिया में आगमन हुआ और उन्होंने गुरुदत्त से लेकर अमिताभ बच्चन तक हर बड़े अभिनेता के साथ काम किया। तीखे नैन नक्श और खजुराहो की मूर्तियों सी सांचे में ढली कमनीय काया की मलिका वहीदा को फिल्म जगत की सबसे हसीन अभिनेत्रियों में शामिल किया जाता है। उन्होंने अपने सशक्त अभिनय से पर्दे पर कई किरदारों को अमर बना दिया। प्यासा, कागज के फूल, साहिब बीबी और गुलाम, गाइड, सीआईडी और चौहदवीं का चांद सहित कई फिल्मों में वहीदा ने यादगार अभिनय किया। 14 मई 1936 को तमिलनाडु के चेंगलपट्टू में जन्मी वहीदा की इच्छा डॉक्टर बनने की थी, लेकिन परिस्थितियां उन्हें फिल्मों की जगमगाती दुनिया में ले आईं। भरतनाट्यम में पारंगत वहीदा रहमान के फिल्मी कैरियर की शुरुआत तमिल और तेलुगू फिल्मों से हुई। हैदराबाद में फिल्म ‘रोजुलू मारायी’ की सफलता पर दी गई पार्टी में गुरुदत्त ने उन्हें देखा और बंबई (मुंबई) ले आए। उन्होंने अपने प्रोडक्शन की फिल्म ‘सीआईडी’ (1956) में उन्हें खलनायिका का रोल आॅफर किया। वहीदा बचपन में ही अपने पिता को खो चुकी थीं और हिंदी फिल्मों में आगमन के कुछ ही सालों में उन्होंने अपनी मां को भी खो दिया। कहते हैं वहीदा अपनी मां को याद कर इतनी भावुक हो उठती थीं कि वह अपनी भूमिकाओं में मां से जुड़े डायलॉग भी ठीक से नहीं बोल पा रही थीं। इसी तरह का उनका एक डायलॉग था ‘तुम्हारे पास तो मां है, मेरे पास तो वह भी नहीं...’ इस डायलॉग के लिए वहीदा को 17 टेक देने पड़े। आखिरकार गुरुदत्त के समझाने के बाद वह डायलॉग ठीक तरह से बोल पाईं। वहीदा रहमान के फिल्मी कैरियर में जितना स्थान गुरुदत्त का रहा, उतना ही देव आनंद का भी रहा। गुरुदत्त के साथ उनकी ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘चौदहवीं का चांद’ ‘सीआईडी’ जैसी फिल्में आज भी क्लासिक फिल्मों की श्रेणी में आती हैं। देव आनंद के साथ उन्होंने ‘गाइड’, ‘बाजी’ और ‘सीआईडी’ जैसी हिट फिल्में दीं। वहीदा ने बच्चन परिवार के लगभग सभी सदस्यों के साथ काम किया है। अमिताभ बच्चन के साथ वे ‘अदालत’, ‘कभी कभी’, ‘त्रिशूल’, ‘नमक हलाल’ जैसी फिल्मों में नजर आइ’, तो अमिताभ बच्चन के पुत्र अभिषेक बच्चन के साथ ‘ओम जय जगदीश’ और ‘दिल्ली 6’ में नजर आईं। यह वहीदा ही थीं, जिन्होंने फिल्म ‘फागुन’ में जया भादुड़ी की मां की भूमिका निभाई। फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, तो ‘गाइड’, ‘नील कमल’ के लिए फिल्म फेयर का पुरस्कार मिला। पद्मश्री से सम्मानित वहीदा को ‘रंग दे बसंती’ में सशक्त भूमिका में बेहद पसंद किया गया। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता मंगलेश डबराल वहीदा रहमान के अभिनय के बारे में कहते हैं, ‘वहीदाजी का अभिनय स्थूल अभिनय से परे था। उनके जैसे अभिनय की झलक बाद की अभिनेत्रियों में सिर्फ स्मिता पाटिल में ही दिखती है। बांग्ला में माधवी मुखर्जी और हिंदी में नूतन जैसी अभिनेत्रियां उनके समकक्ष मानी जा सकती हैं। उनके संवेदनशील अभिनय को उनके चेहरे की भाव भंगिमाओं से ही देखा जा सकता है।’ फिल्म समीक्षक और स्तंभकार भूपेन सिंह कहते हैं कि वहीदाजी अपनी पीढ़ी की आज एकमात्र ऐसी अभिनेत्री हैं, जो फिल्मों में सक्रिय हैं। ‘गाइड’ की विद्रोही रोजी और ‘दिल्ली 6’ की दादी के चरित्र में कभी यह महसूस नहीं हुआ कि उनके अभिनय में नाटकीयता हो। वह हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम दौर का एक सशक्त अध्याय हैं।

Dark Saint Alaick
15-05-2012, 12:39 AM
15 मई को जन्मदिवस पर विशेष
मात्र 24 साल की उम्र में देश पर कुर्बान हो गए सुखदेव

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16541&stc=1&d=1337024334

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सुखदेव थापर एक ऐसा नाम है, जो न सिर्फ अपनी देशभक्ति, साहस और मातृभूमि पर कुर्बान होने के लिए जाना जाता है, बल्कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह के अनन्य मित्र के रूप में भी उनका नाम इतिहास में दर्ज है। ब्रितानिया हुकूमत को अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से दहला देने वाले सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ था। अपने बचपन से ही उन्होंने भारत में ब्रितानिया हुकूमत के जुल्मों को देखा और इसी के चलते वह गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए क्रांतिकारी बन गए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं क्रांतिकारियों पर कई पुस्तकें लिख चुके चमन लाल के अनुसार हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य सुखदेव के मन में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। वह लाहौर के नेशनल कालेज में युवाओं में देशभक्ति की भावना भरते और उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ने के लिए प्रेरित करते थे। एक कुशल नेता के रूप में वह कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों को भारत के गौरवशाली अतीत के बारे में भी बताया करते थे। उन्होंने अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर लाहौर में नौजवान भारत सभा शुरू की। यह एक ऐसा संगठन था जो युवकों को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित करता था। इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार सुखदेव ने युवाओं में न सिर्फ देशभक्ति का जज्बा भरने का काम किया, बल्कि खुद भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनका नाम 1928 की उस घटना के लिए प्रमुखता से जाना जाता है, जब क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए गोरी हुकूमत के कारिन्दे पुलिस उपाधीक्षक जे.पी. सांडर्स को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया था और पूरे देश में क्रांतिकारियों की जय जयकार हुई थी। सांडर्स की हत्या के मामले को ‘लाहौर षड्यंत्र’ के रूप में जाना गया। इस मामले में राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को मौत की सजा सुनाई गई। 23 मार्च 1931 को तीनों क्रांतिकारी हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए और देश के युवाओं के मन में आजादी पाने की नई ललक पैदा कर गए। शहादत के समय सुखदेव की उम्र मात्र 24 साल थी।

Dark Saint Alaick
15-05-2012, 12:41 AM
उपेक्षा का शिकार है सुखदेव का घर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16542&stc=1&d=1337024491

सुखदेव की यादों के साथ-साथ लुधियाना शहर में उनका वह घर भी उपेक्षा का शिकार है, जहां उनका जन्म हुआ था ! बरसों तक तो ज्यादातर लोगों को पता भी न था कि उनका घर है कहाँ? ये घर बुरी हालत में था और यहाँ गाय भैंसे घूमती थीं ! सुखदेव के वंशजों और नागरिक समाज के कुछ लोगों के निजी अभियान के बाद सरकार नींद से जागी और उसने आज़ादी के 65 वर्षों बाद अब जाकर सुखदेव के घर को अपने कब्जे में लिया ! लुधियाना में रहने वाले सुखदेव के वंशज विशाल नैयर बताते हैं कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा ! वे कहते हैं, "सच कहूं तो मेरी आंखें भी तब खुली, जब मैने एक स्थानीय अखबार में एक सर्वे पढ़ा ! सर्वे में बच्चों ने कहा कि भारत को प्रकाश सिंह बादल ने आज़ाद करवाया है और भगत सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री हैं ! तब मुझे लगा कि कुछ करना होगा ! हमने सुखदेवजी का घर सरकार को समर्पित कर दिया था, लेकिन छह साल बाद भी वहां कोई स्मारक नहीं बना है ! मैने कई दिन बैठकर अनशन किया, कोर्ट में गुहार लगाई ! सुखदेवजी के मकान के लिए अनशन करने के कारण मुझे नौकरी से निकाल दिया गया था !"

सुखदेव के नाम पर लड़ाई

बच्चों में हुआ था सर्वे

"मेरी आंखें भी तब खुली जब मैने स्थानीय अखबार में एक सर्वे पढ़ा ! सर्वे में बच्चों ने कहा कि भारत को प्रकाश सिंह बादल ने आज़ाद करवाया है और भगत सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री हैं ! मुझे लगा कि कुछ करना होगा ! एक समय था जब सुखदेवजी के घर में भैंसे घूमती थी ! तब हम इकट्ठा हुए और परिवारवालों ने सुखदेवजी का घर सरकार को समर्पित कर दिया, लेकिन वर्षों बाद भी वहाँ कोई स्मारक नहीं बना है ! मैंने कई दिन बैठकर अनशन किया, कोर्ट में गुहार लगाई ! सुखदेवजी के मकान के लिए अनशन करने के कारण मुझे नौकरी से भी निकाल दिया गया था !"

-विशाल नैय्यर, सुखदेव के वंशज

लेकिन अब इस घर के और भी दावेदार सामने आ गए हैं ! मालिकाना हक के लिए सरकार और स्थानीय लोगों के बीच जंग छिड़ी हुई है ! सरकार ने घर बंद कर इस पर ताला डाल दिया है, जबकि स्थानीय लोगों का कहना है कि आज़ादी के बाद से उन्होंने इस घर को सेहज कर रखने की कोशिश है और अब घर पर उन्हीं का हक़ है ! सुखदेव के नाम पर ट्रस्ट चलाने वाले इन लोगों ने घर के बाहर बनी चारदिवारी कर अपना ताला लगाया हुआ है ! ये विडंबना ही है कि भारत को गुलामी की बेड़ियों से मुक्ति दिलाने में भूमिका निभाने वाले सुखदेव का अपना घर कई तालों की बेड़ियों में कैद है ! आपसी तकरार के कारण यहां कोई स्मारक नहीं बन पाया है !

हाल ही में पंजाब चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए जब लुधियाना जाने का मौका मिला था, तो मैं सुखदेव का घर देखने का मोह छोड़ नहीं पाई थी, लेकिन वहां तक जाना आसान नहीं था ! विशाल मुझे गाड़ी में उस मोहल्ले तक ले गए जहाँ सुखदेव का घर है, लेकिन तंग गलियों में आगे का सफर मुझे अकेले ही पैदल तय करना था ! वो इसलिए क्योंकि उस मोहल्ले के लोगों का सुखदेव के वंशजों से छत्तीस का आंकड़ा है ! सकरी गलियों से होते हुए मैं जैसे ही इलाके में पहुँची मोहल्ले के मुखिया ने मुझे जाने से रोका ! काफी ज्यादा पूछताछ और बीबीसी का माइक दिखाने के बाद ही उन्होंने मुझे उस घर के नजदीक जाने दिया ... अगर उनका सरकार से कोई झगड़ा है भी तो भी सुखदेव या भगत सिंह का घर बाहर से देखने के लिए इतनी बंदिश और पहरा मुझे काफी अटपटा लगा ! स्थानीय नागरिक अशोक थापर कहते हैं, "पिछले 80 सालों से यहां के लोगों ने इस घर को देखा है ! हमने कई लाख देकर इस घर को खाली करवाया, कोई महिला यहां रहने लगी थी ! हमने ट्रस्ट बना यहां कई कार्यक्रम भी किए हैं ! अब सरकार जबरदस्ती कब्जा करना चाहती है !"

मौत तक निभाई दोस्ती

सुखदेव ने भगत सिंह, राजगुरु, बटुकेश्वर बत्त, चंज्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर कई ऐसे कारनामों को अंजाम दिया था, जिसने अंग्रेज सरकार की नींव हिलाकर रख दी थी ! सेंट्रल एसेंबली के सभागार में बम और पर्चे फेंकने और फिर गिरफ़्तारी की घटना, और अन्य योजनाओं को भले ही भगत सिंह समेत दूसरे क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया हो, लेकिन इतिहासकार कहते हैं कि सुखदेव इस युवा क्रांतिकारी आंदोलन की नींव और रीढ़ थे ! सुखदेव बचपन में अपने ताया के पास लायलपुर चले गए थे ! ये इलाका़ अब पाकिस्तान में है ! भगत सिंह और सुखदेव बचपन से ही गहरे दोस्त थे ! सुखदेव पर किताब लिख चुके डॉक्टर हरदीप सिंह के अनुसार उस समय हुई बैठक में एसेंबली में बम फेंकने का जिम्मा पहले भगत सिंह को नहीं दिया गया था !

"1929 में सेंट्रल एसेंबली में बम फेंकने के लिए पहले भगत सिंह का नाम नहीं दिया गया था क्योंकि पुलिस को पहले से ही उनकी तलाश थी. क्रांतिकारी नहीं चाहते थे कि भगत सिंह पकड़े जाएँ. लेकिन सुखदेव भगत सिंह के नाम पर अड़ गए . उनका कहना था कि भगत सिंह लोगों में जागृति पैदा कर सकते हैं. सुखदेव का तर्क सुनने के बाद भगत सिंह को उनकी बात सही लगी. कई लोगों ने सुखदेव को कठोर दिल भी कहा कि उन्होंने अपने दोस्त भगत सिंह को मौत के मुँह में भेज दिया. किताबों में हमने यही पढ़ा है कि भगत सिंह के गिरफ़्तार होने के बाद सुखदेव बंद कमरे में बहुत रोए थे कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे दोस्त को कुर्बान कर दिया."

-डॉ. हरदीप सिंह, लेखक

वे कहते हैं, "रेवोलूशनरी पार्टी की बैठक में फैसला लिया गया कि सेंट्रल एसेंबली में बम गिराना है ! इस बैठक में सुखदेवजी मौजूद नहीं थे ! पार्टी ने फ़ैसला लिया कि भगत सिंह को नहीं भेजा जाएगा, क्योंकि पुलिस पहले से ही सांडर्स कत्ल मामले में उन्हें ढूँढ रही थी ! पार्टी नहीं चाहती थी कि भगत सिंह पुलिस के हाथ लगें, लेकिन सुखदेवजी ने फैसला पलटते हुए कहा कि उनके दोस्त भगत सिंह ही जाएंगे ! सुखदेव चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति जाकर एसेंबली में पर्चे फेंके और गिरफ़्तारी दे, जिसकी आवाज़ सुनकर जनता जागृत हो !"

डॉ. हरदीप सिंह बताते हैं, "इस फैसले पर कई लोगों ने सुखदेव को कठोर दिल भी कहा कि उन्होंने अपने दोस्त भगत सिंह को मौत के मुंह में भेज दिया ! सुखदेव का तर्क सुनने के बाद भगत सिंह को उनकी बात सही लगी ! किताबों में हमने यही पढ़ा है कि भगत सिंह के गिरफ़्तार होने के बाद सुखदेव बंद कमरे में बहुत रोए थे कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे दोस्त को कुर्बान कर दिया !"

सुखदेव और भगत सिंह की गहरी दोस्ती को मौत भी नहीं तोड़ सकी ! मौत में भी उन्होंने एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ा ! साल 1931 में 23 मार्च के दिन अग्रेज हुकूमत ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षडयंत्र मामले में फांसी के तख्ते पर लटका दिया था ! यकीनन भारत को गुलामी की बेड़ियों से छुड़ाने में अपनी जान गंवाने वालों के लिए कई समारोह हो रहे हैं, लेकिन मुझे रह-रह कर सुखदेव का घर याद आ रहा है ! मालिकाना हक जिसका भी हो लेकिन ये घर एक अदद स्मारक का हकदार है, लेकिन अभी तो ये घर आपसी लड़ाइयों में जकड़ा हुआ है और कई तालों में बंद है ! सुखदेव ने आज़ाद भारत की परिकल्पना की थी, लेकिन उनके घर तक जाने के लिए बंदिशों और पूछताछ से होकर गुज़रना पड़ता है ! घर के बाहर लगी सुखदेव की मूर्ति इस तमाशे को मूक दर्शक की तरह देखने को मजबूर है ! (ई-खबर से साभार)

Dark Saint Alaick
16-05-2012, 04:02 PM
17 मई पुण्यतिथि पर विशेष
प्रकाश ने बदले थे हिन्दी फिल्म की सफलता के मायने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16571&stc=1&d=1337166137

हिन्दी फिल्मों के निर्माण में कल का दिन हमेशा दुखद सोच से शुरू होगा क्योंकि कल के ही दिन प्रकाश मेहरा नाम की एक ऐसी शख्सियत इस दुनिया से रुख्सत हुई थी, जिसने फिल्मों की सफलता के मायने ही बदल दिए थे। उत्तर प्रदेश के बिजनौर शहर की गलियों में खेल कर बडेÞ हुए प्रकाश मेहरा ने मुम्बई में वह मुकाम पाया, जो बिरलों को ही नसीब होता है। अमिताभ बच्चन के साथ 'जंजीर' से 'शराबी' तक का सफर तय करने वाले प्रकाश बहुत ही संजीदा इंसान थे। जबर्दस्त संघर्षों के दौर से गुजरे अपने 33 साल के फिल्मी सफर में प्रकाश मेहरा ने न केवल दौलत और शोहरत कमाई, बल्कि भावनात्मक रिश्तों को भी ऐसी तरजीह दी कि उनके साथी उन्हें आज भी इज्जत से याद करते हैं।
नियति तो यह है कि एक सितारा टूट गया तो आसमान क्यों रोएगा... और प्रकाश मेहरा भी एक ऐसे ही सितारा बन रह गए। प्रकाश मेहरा अपने फिल्मी जीवन में दिवंगत गीतकार अंजान और संगीतकार लक्ष्मीकांत की बहुत इज्जत करते थे। बकौल अंजान उन्होंने प्रकाश मेहरा से कई बार पूछा, तुम्हारी फिल्म का नायक लावारिस ही क्यों होता है, तो प्रकाश ने हमेशा हंसकर टाल दिया। बचपन में ही मां की मौत और पिता के मानसिक संतुलन खोने के बाद लावारिस जैसी उपेक्षित जिंदगी जीने वाले प्रकाश मेहरा के जीवन का यही दर्द उनकी फिल्मों में झलकता रहा। फिल्म 'शराबी' में अमिताभ को बाप होते हुए भी बिना बाप के होने जैसा किरदार देने के पीछे भी संभवत: यही सोच थी।
अंजान ने प्रकाश मेहरा के शुरुआती दौर में कहा भी था कि यह लड़का अपने जिगर में कोई तूफान लिए है, तभी तो इसने 'अगर दिल हमारा शीशे के बदले पत्थर का होता' जैसा गीत सुना और मौका लगते ही फिल्म में डाल भी दिया। यही कारण रहा कि अंजान प्रकाश मेहरा की जोड़ी अंत तक साथ रही। अंजान के बाद प्रकाश मेहरा की दूसरी पसंद कादर खान थे। कादर खान से प्रकाश मेहरा की ऐसी जुगलबंदी थी कि उनकी मौत पर कादर खान ने कहा था कि वो यतीम हो गए। प्रकाश मेहरा उनके डायरेक्टर ही नहीं, वरन उस्ताद भी थे। शब्दों की यह भावना इज्जत के साथ ही प्रकाश मेहरा की काबिलीयत भी दर्शाती थी। ऐसे लोगों के साथ और मोहब्बत ने ही प्रकाश मेहरा को उस मुकाम पर पहुंचाया, जहां आसानी से नहीं पहुंचा जा सकता। वर्ष 1968 में 'हसीना मान जाएगी' फिल्म से निर्देशन की पारी शुरू करने वाले प्रकाश मेहरा ने फिर मुड़कर पीछे नहीं देखा।
प्रकाश काम करते गए, लोग सराहते गए। स्वयं के निर्माण 'जंजीर' से प्रकाश मेहरा ने बॉलीवुड को एंग्रीमैन अमिताभ दिया, तो अंत तक प्रकाश अमिताभ की जोड़ी जमती रही। 'लावारिस', 'मुकद्दर का सिकन्दर', 'हेराफेरी', 'शराबी', 'जादूगर', 'नमक हलाल' आदि अमिताभ के साथ प्रकाश मेहरा की ऐसी फिल्में हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। वर्ष 2001 में मुझे 'मेरी बीवी से बचाओ' फिल्म के बाद प्रकाश मेहरा को गहरा सदमा लगा। उन्होंने अपनी पत्नी को खोया। पत्नी की मृत्यु से प्रकाश मेहरा लगभग टूट गए और आखिरकार 17 मई 2009 को अमिताभ के साथ अपनी एक और बड़ी फिल्म 'गाली' के निर्माण की हसरत लिए वह दुनिया छोड़ गए। प्रकाश-अमिताभ की जोड़ी केवल फिल्मों तक ही सीमित नहीं रही, इनके बीच एक अटूट भावनात्मक रिश्ता भी था। फिल्मों में इन्होंने जो कुछ किया, वह सब जानते हैं, परन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि 17 मई 2009 को सुबह छह बजे जब प्रकाश मेहरा ने दम तोड़ा था, तब उनके पास केवल अमिताभ ही मौजूद थे।

Dark Saint Alaick
21-05-2012, 03:56 AM
आज आतंकवाद निरोधक दिवस
समय के साथ रणनीति बदल रहे हैं आतंकवादी संगठन : विशेषज्ञ

दो दशक पहले आत्मघाती आतंकी बम हमले में देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मौत के बाद भले ही भारत में अतिविशिष्ट व्यक्तियों की निजी सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद कर दिया गया हो लेकिन इसे आज भी त्रुटिहीन नहीं कहा जा सकता। क्योंकि आतंकवादी अपने मंसूबों को पूरा करने में नई से नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर रहे हैं। खुफिया ब्यूरो (आईबी) के पूर्व महानिदेशक अजीत डोभाल ने कहा कि पिछले दो दशक में आतंकवादियों का प्रसार वैश्विक हो गया है और अलकायदा, तालिबान जैसे आतंकवादी संगठन देशों की सीमाओं से परे रहकर सक्रिय हैं। उनकी रणनीति में भी आमूल चूल परिवर्तन आया है। डोभाल ने कहा कि आतंकवादियों की रणनीति में मुख्यत: तीन प्रकार के बदलाव आए हैं। पहला संसाधनों और धन की मदद से आतंकवादियों का तकनीकी रूप से उन्नयन हुआ है। राजीव गांधी की हत्या के समय आरडीएक्स जैसे विस्फोटक का बहुत कम इस्तेमाल होता था लेकिन आज कंप्यूटर, साइबर तकनीक, रिमोट कंट्रोल, आईइडी जैसे घातक विस्फोटकों और अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हैं। यही नहीं आज आतंकवादी व्यापक विनाश के हथियारों को पाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि दूसरा बड़ा परिवर्तन यह आया है कि आतंकवादियों की वैश्विक नेटवर्किंग बहुत बढ़ गई है। दो दशक पहले लिट्टे जैसे आतंकवादी संगठन एक या दो देशों में सक्रिय थे वहीं आज उनका प्रसार वैश्विक हो गया है। वर्तमान समय में तस्कर, नशीले पदार्थों का अवैध कारोबार करने वाले, इस्लामी गुट और समुद्री लुटेरे एक साथ आ गए हैं और इनके बीच सहयोग काफी बढ़ गया है।
डोभाल ने कहा कि पिछले दो दशकों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों में सहयोग बहुत बढ़ गया है। संयुक्त राष्ट्र की पहल पर आतंकवादियों पर लगाम लगाने के लिए कई समझौते हुए हैं। मुम्बई पर आतंकवादी हमले के समय कई देश भारत की मदद के लिए आगे आए थे। सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ डॉक्टर रहीस सिंह के मुताबिक एक अमेरिकी सैन्य कार्रवाई में दुनिया के सर्वाधिक वांछित आतंकवादी ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद अलकायदा और तालिबान ने अपनी रणनीति बदल दी है। उन्होंने कहा कि ओसामा की मौत के बाद अलकायदा की मुहिम कमजोर होगी लेकिन ब्रिटिश रॉयल सोसाइटी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक उत्तरी अफ्रीका में अलकायदा नई रणनीति बना रहा है। उनका लक्ष्य अपहरण और फिरौती वसूलना जैसी चीजें हो गई हैं ताकि खुद को मजबूत बनाया जा सके। रहीस सिंह ने कहा कि अल शबाब और अलकायदा इन इस्लामिक मगरेब दोनों ही आतंकवादी संगठन आज एक हो गए हैं और उत्तरी अफ्रीका के देशों जैसे सोमालिया, अल्जीरिया, मोरक्को, ट्यूनिशिया में अपना विस्तार कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आतंकवादियोें की इस बदली हुई रणनीति का मुकाबला करने के लिए भारत सरकार को आतंकवादियों के खिलाफ कड़े कदम उठाने होंगे। इसके अलावा हमें अपनी खुफिया एजेंसियों को चाक चौबंद बनाना होगा ताकि हम समय रहते ठोस कार्रवाई कर सकें। गौरतलब है कि वर्ष 1991 में आज ही के दिन तमिल आतंकवादी संगठन लिट्टे ने एक आत्मघाती बम हमले में राजीव गांधी की हत्या कर दी थी। हमले के समय वह श्रीपेम्बूर में एक जनसभा को संबोधित करने गए थे। तभी से यह दिन आतंकवाद निरोधी दिवस के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है।

Dark Saint Alaick
21-05-2012, 04:06 AM
सत्ता पर ममता का एक साल : बुद्धिजीवियों की राय अलग-अलग

पश्चिम बंगाल का बुद्धिजीवी वर्ग कभी ममता बनर्जी का समर्थक था। लेकिन अब जब राज्य में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष के शासन के एक साल पूरे हो चुके हैं तो बुद्धिजीवियों की राय ममता के बारे में अलग-अलग है। कुछ को जहां लगता है कि ममता ‘निरंकुश’ हैं और उन्हें अपनी ‘आलोचना बर्दाश्त नहीं होती।’ वहीं ज्यादातर की राय है कि तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष को और समय चाहिए। शिक्षाविद सुनंदा सान्याल, साहित्यकार महाश्वेता देवी, अभिनेता कौशिक सेन, लेखक नाबरूण भट्टाचार्य, बांग्ला कवि संखा घोष ने पिछले कुछ माह के दौरान कई मुद्दों को लेकर मुख्यमंत्री की खूब आलोचना की है। इस आलोचना का कारण पार्क स्ट्रीट बलात्कार मामले से निपटने का तरीका, सरकारी ग्रंथालयों में चुनिंदा अखबार भेजा जाना, ममता विरोधी कार्टून को लेकर उठा विवाद और दो प्रोफेसरों की गिरफ्तारी जैसे मुद्दे थे। पिछले माह, ममता का उपहास करने वाले कार्टून को ईमेल से अग्रसारित करने के लिए जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रो. अंबिकेश महापात्र की गिरफ्तारी सहित कई मुद्दों के विरोध में बुद्धिजीवियों ने मौन जुलूस निकाला था। सुनन्दा सान्याल ने कहा कि उनके कुछ गुण मुझे निरंकुश जैसे लगते हैं। न तो प्रोफेसरों को गिरफ्तार किया जाना चाहिए और न ही राज्य के ग्रंथालयों में अखबारों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। वह पूर्ववर्ती वाम मोर्चा सरकार के नक्शेकदम पर ही चल रही हैं। निश्चित रूप से यह बदलाव अच्छाई के लिए नहीं है। आठवीं कक्षा तक के छात्रों को अपराध करने पर हिरासत में न लेने के मंत्रिमंडल के फैसले से व्यथित हो कर सुनन्दा सान्याल ने पिछले साल राज्य स्कूल पाठ्यक्रम समिति और उच्च शिक्षा समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित लेखिका महाश्वेता देवी ने रैली निकाले जाने तथा भूख हड़ताल की अनुमति के लिए ‘एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन आॅफ डेमोक्रेटिक राइट्स’ को पुलिस के इन्कार के कारण तृणमूल सरकार को ‘फासीवादी’ करार दिया है। तृणमूल कांग्रेस के बागी सांसद, गायक और संगीतकार कबीर सुमन ने कहा कि कभी मैं उनकी अच्छाइयों की तारीफ करते हुए गाने लिखता था। अब मैं और ऐसा नहीं कर सकता। विपक्ष की नेता के तौर पर उनका कद ऊंचा था, लेकिन सत्तारूढ़ दल की नेता के तौर पर ऐसा नहीं है। ममता के प्रति राय बदलने का कारण बताते हुए सुमन ने कहा कि मामूली सी भी आलोचना से उनके मन में बैर भाव आ जाता है। मैं सोच विचार करने वाला व्यक्ति हूं लेकिन वह अपने आसपास ऐसे लोग चाहती हैं जो केवल उनकी हां में हां मिलाते रहें। बहरहाल, प्रख्यात चित्रकार शुवप्रसन्ना ने कहा कि मैं किसी दल से नहीं जुड़ा हूं। लेकिन मैं उनका समर्थन करता हूं क्योंकि उन्होंने राज्य में हर ओर विकास किया है। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक और रचनात्मक मोर्चे पर लोग इसलिए उत्साहित हैं क्योंकि उन्होंने हमारे लिए कई कदम उठाए हैं। मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित लेखिका महाश्वेता देवी का कहना है कि ममता की सरकार के कामकाज के आकलन के लिए और समय की जरूरत है। सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि यह सरकार काम करने की कोशिश कर रही है। हमें सरकार के कामकाज का उचित आकलन करने के लिए कम से कम तीन माह और इंतजार करना चाहिए। वयोवृद्ध अभिनेता रंजीत मलिक ने कहा कि बुजुर्ग कलाकार लंबे समय तक उपेक्षित रहे। अब सरकार बुजुर्ग कलाकारों को पेंशन दे रही है। फिल्म उद्योग के लिए टेक्नीशियन्स स्टूडियो का आधुनिकीकरण किया जाएगा और हुगली जिले में एक फिल्म सिटी की स्थापना की जाएगी। ममता ने हमारे लिए बहुत कुछ किया है। रंगमंच से जुड़ी अर्पिता घोष और साओनली मित्रा ने कहा कि उन्हें इस बात की खुशी है कि कोलकाता में सांस्कृतिक मामलों पर अब समुचित ध्यान दिया जा रहा है। पिछले साल नई सरकार ने ‘बंग विभूषण’ अवार्ड की शुरुआत की। यह सालाना पुरस्कार विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी हस्तियों को दिया जाता है। संध्या मुखोपाध्याय, सुप्रिया देवी, मन्ना डे, द्विजेन मुखोपाध्याय और अमला शंकर को यह सम्मान प्रदान किया जा चुका है। सुमन ने कहा कि बेशक, किसी के आकलन के लिए एक साल का समय बहुत कम है। उन्हें अपना कार्यकाल पूरा करने दें और खुद को साबित करने का मौका दें। खुद को राजनीतिक दायरे से अलग रखते हुए वयोवृद्ध अभिनेता सौमित्र चटर्जी और फिल्म निर्माता मृणाल सेन ने टिप्पणी करने से इंकार कर दिया।

Dark Saint Alaick
21-05-2012, 04:11 AM
नीतिगत विफलताओं के आरोपों के बीच संप्रग के तीन साल पूरे

नीतिगत विफलताओं के गंभीर आरोपों से घिरी संप्रग दो सरकार कल अपने तीन साल पूरे करने जा रही है और उधर अगले दो साल में होने जा रहे आम चुनावों को लेकर लटक रही तलवार के बीच कई प्रमुख आर्थिक विधेयकों तथा खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर महत्वपूर्ण फैसले अभी अधर में हैं। पिछले करीब डेढ़ साल से एक के बाद एक संकट में फंसती जा रही संप्रग दो सरकार की तस्वीर संप्रग एक से एकदम अलग कही जा सकती है। पिछली संप्रग सरकार के रास्ते में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर वाम दलों ने काफी रोड़े अटकाए थे, लेकिन इसके बावजूद नीतिगत मसलों पर वह आगे बढ़ती गई थी, लेकिन संप्रग दो सरकार की परेशानियां खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। सरकार सबसे अधिक महंगाई से परेशान है, जो अप्रैल में दहाई के आंकड़े में पहुंच गई। इतना ही नहीं विनिर्माण और कर संग्रहण के क्षेत्र में भी गिरावट ने सरकार की रातों की नींद उड़ा रखी है। अर्थशास्त्री से राजनेता बने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत अमेरिका परमाणु करार को लेकर पहले कार्यकाल में अपनी सरकार पर बड़ा दांव खेला था, लेकिन वह भी इस बार 2 जी स्पेक्ट्रम समेत विभिन्न घोटालो से परेशान नजर आ रहे हैं। राष्ट्रमंडल खेल घोटाले तथा आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले ने सरकार की छवि को और आघात पहुंचाया है।
तृणमूल कांग्रेस जैसे संप्रग के प्रमुख घटक दल ने भी खुदरा क्षेत्र में एफडीआई हो या फिर आतंकवाद विरोधी तंत्र ‘नेशनल काउंटर टेरेरिज्म सेंटर (एनसीटीसी)’ की स्थापना, उसने सरकार को नाकों चने चबवा दिए हैं। परेशानियों से घिरी सरकार के लिए जुलाई में राष्ट्रपति पद के चुनाव ने एक नई चुनौती पैदा कर दी है। सरकार अभी तक अपने उम्मीदवार का फैसला नहीं कर पाई है। हालांकि दो क्षेत्रीय पार्टियों बीजू जनता दल और अन्नाद्रमुक ने पूर्व लोकसभा स्पीकर पी. ए. संगमा के नाम पर पहल की है। यह रोचक बात है कि संगमा की अपनी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उनके इस कदम से दूरी बना रखी है। राकांपा खुद संप्रग सरकार में शामिल है। आज की ताजा स्थिति के अनुसार, कांग्रेस नीत संप्रग दो को राष्ट्रपति चुनाव में निर्वाचक मंडल में बढ़त प्राप्त है, जहां उसके मत का मूल्य करीब 11 लाख है। संप्रग के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी तथा उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के नामों को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है और ये नाम सत्तारूढ़ गठबंधन को बाहर से भी सपा, बसपा और राजद जैसे दलों का समर्थन दिला सकते हैं। ऐसे में भाजपा द्वारा उनकी उम्मीदवारी का विरोध करने का कोई अधिक असर नहीं होगा। सरकार न केवल घोटालों बल्कि विधायी और नीतिगत मामलों में भी पंगु नजर आ रही है। सिविल सोसायटी के दबाव में लाए गए लोकपाल विधेयक का भविष्य भी तृणमूल कांग्रेस जैसे घटक दलों के विरोध के कारण अनिश्चित नजर आ रहा है। ममता बनर्जी की अगुवाई वाली पार्टी ने केन्द्रीय कानून के जरिए राज्यों में लोकायुक्त के गठन पर कड़ा विरोध जताया है।
संसद के मौजूदा बजट सत्र की समाप्ति में अब केवल दो दिन का समय बचा है और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि राज्यसभा में यह विधेयक पारित होने के लिए आएगा। सरकार के प्रबंधकों द्वारा अक्सर महत्वपूर्ण मामलों में फैसले लेने में गठबंधन की मजबूरियों को एक बड़ी वजह बताया जाता रहा है। कांग्रेस के बाद संप्रग की सबसे बड़ी घटक पार्टी तृणमूल कांग्रेस एक तरह से किसी भी मुद्दे पर कांग्रेस को बख्शती नजर नहीं आ रही है। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के मुद्दे पर सरकार के एक अन्य घटक दल द्रमुक ने तृणमूल कांग्रेस से हाथ मिलाकर सरकार के लिए परेशानियां बढ़ा दीं और एक अन्य घटक दल राकांपा के प्रमुख शरद पवार ने तो सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि प्रधानमंत्री द्वारा गठबंधन की मजबूरियां गिनाए जाने से वह खुश नहीं हुए हैं और उन्होंने इसे सहयोगी दलों पर आरोप मढ़ने की नीति के रूप में देखा है। उधर सरकार की बेहतर छवि पेश करने के लिए बनाए गए मंत्रियों के समूह के प्रमुख सदस्य और विधि मंत्री सलमान खुर्शीद ने प्रधानमंत्री को लेकर हो रही हर तरह की आलोचना और सरकार की नीतिगत कमजोरी संबंधी आरोपों को सिरे से खारिज किया है। उन्होंने कहा कि मुझे नहीं लगता कि इस समय हमारे पास उनसे बेहतर कोई व्यक्ति हो सकता है, ऐसे समय में जब हम दबाव में हैं और भारत के शासन को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘हमारे पास सिंह से अच्छा व्यक्ति हो ही नहीं सकता।’ खुर्शीद ने साथ ही कहा कि उन्हें तृणमूल कांग्रेस जैसे सहयोगियों की ओर से खड़ी की जा रही समस्याओं के लिए अकेले जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
संप्रग सरकार मंगलवार को अपनी तीसरी वर्षगांठ के मौके पर अपने नेताओं के लिए एक रात्रिभोज का आयोजन कर रही है और इस अवसर पर पिछले एक साल में विभिन्न सेक्टरों में उठाए गए कदमों की जानकारी देता एक रिपोर्ट कार्ड भी जारी किया जाएगा। गौरतलब है कि मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने न्यूयार्क में हाल ही कहा था कि वर्ष 2014 से पहले कोई प्रमुख सुधार संभव नहीं है । हालांकि उन्होंने बाद में अपने बयान में सुधार किया और कहा कि पेंशन और बीमा विधेयक जैसे उपायों को आने वाले दिनों में मंजूरी दी जा सकती है, जिसकी वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी भी उम्मीद लगाए हुए हैं। ‘रिपोर्ट टू द पीपुल’ नामक अपनी रिपोर्ट में सरकार द्वारा भ्रष्टाचार से निपटने और वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के बावजूद सतत आर्थिक विकास के लिए किए गए प्रयासों का जिक्र किए जाने की संभावना है। ऐसी संभावना है कि सरकार अपनी उपलब्धियों में घरेलू सुरक्षा मोर्चे, विदेश संबंधों, भ्रष्टाचार से लड़ने में सक्षम बनाने वाले विधेयकों के पारित होने तथा सेवा प्रदाता तंत्र में सुधार को गिनाएगी। आगामी सप्ताह सरकार संसद में काले धन पर एक श्वेतपत्र भी पेश करने जा रही है, जिसमें इस संबंध में स्विट्जरलैंड जैसे देशों के साथ हुए समझौतों की सफलता को मुख्य रूप से रेखांकित किया जा सकता है। सरकार चाहे जो कहे, लेकिन विपक्षी दल सरकार के पिछले तीन साल के कामकाज को लेकर खुश नहीं हैं। यहां तक कि कुछ समर्थक दलों के भी विपरीत विचार हैं। भाजपा नेता तथा पार्टी प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी कहते हैं कि संप्रग सरकार पिछले तीन साल में अधकचरा गठबंधन साबित हुई है। उन्होंने कहा, ‘यह पंगु और भ्रष्टाचार से घिरी सरकार है।’ भाजपा की सहयोगी जनता दल यू भी इन्हीं विचारों से सहमति रखती है। पार्टी प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने कहा कि संप्रग का रिकार्ड पूरी तरह नकारात्मक रिपोर्ट कार्ड होगा। सरकार को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह भी सरकार के आलोचक हैं। वह कहते हैं, ‘मैंने आज से पहले कभी ऐसी अजीबोगरीब सरकार नहीं देखी। ऐसी सरकार जो रेल भाड़े को बढ़ाने का फैसला करने वाले अपने रेलवे मंत्री तक की रक्षा नहीं कर सकती।’ क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने का प्रयास कर रहे बीजद के लोकसभा सदस्य भृतुहरि मेहताब कहते हैं, ‘आपको किसी के चेहरे पर मुस्कान दिखाई देती है। आम आदमी की तो बात ही छोड़ दीजिए, मंत्रियों तक के चेहरे लटके हुए हैं।’ वाम दल भी संप्रग दो से खासे नाराज हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा कहते हैं कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम की अनदेखी करने के कारण सरकार की यह हालत हुई है। इसी के लिए घटक दल सरकार को अलग अलग दिशाओं में खींच रहे हैं और यूपीए 2 खुलेआम कॉरपोरेट समर्थक सरकार बन गई है, लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं, ‘नकारात्मक सोच वाले लोग किसी के भी रिकार्ड में छेद ढूंढ निकालते हैं।’

Dark Saint Alaick
21-05-2012, 04:18 AM
संप्रग के तीन साल : घोटालों, अंतर्विरोध से जूझती रही सरकार

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी और सूचना के अधिकार जैसे लोकप्रिय कानूनों के बूते दोबारा सत्ता में आई संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार पिछले तीन वर्षों से महंगाई,घोटालों और अंतर्विरोधों से जूझ रही है तथा उसे संसद के भीतर और बाहर अपनी साख बहाल करने के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ा। घोटालों और अंतर्विरोध के कारण सरकार न केवल लगातार विपक्ष के निशाने पर रही, बल्कि कई मौकों पर घटक दलों के विरोध का सामना भी करना पड़ा। भ्रष्टाचार को लेकर लग रहे आरोपों के बीच अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने भी सरकार के लिए मुसीबतें बढ़ा दी। पहले कार्यकाल में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून तथा सूचना का अधिकार कानून बनाकर सराहना बटोरने वाली संप्रग सरकार ने इस बार शिक्षा के अधिकार का महत्वपूर्ण कानून बनाया। इसके अलावा वह वर्षों से लटके महिला आरक्षण विधेयक को राज्यसभा में पारित कराने तथा भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के उद्देश्य से लाए गए लोकपाल विधेयक को लोकसभा में पारित कराने में सफल रही। लेकिन दूसरे सदनों में कड़े विरोध के कारण ये दोनों ही विधेयक अटके हुए हैं। सभी को खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण विधेयक भी उसने पिछले एक वर्ष में संसद में पेश किए, लेकिन उन्हें भी अभी कानूनी रूप दिया जाना है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार की दूसरी पारी के तीन साल पूरे होने से पहले ही राष्ट्रमंडल खेलों तथा 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मुख्य आरोपी रहे उसके दो बडेþ नेता राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी तथा पूर्व दूर संचार मंत्री ए. राजा जमानत पर तिहाड़ जेल से बाहर जरूर आ गए हैं, लेकिन पिछले एक साल में सरकार पर अंतरिक्ष देवास करार तथा कोयला ब्लाकों के आवंटन में राजकोष को तेरह लाख करोड़ रुपए का और चूना लगाने के आरोपों का गर्द-गुबार आ जमा है। जनता साग-सब्जियों तथा अन्य खाद्य पदार्थों के खुदरा मूल्य में भारी वृद्धि तथा खाद्य एवं डीजल सबसिडी में भारी कटौती की आशंकाओं और पिछले एक साल में ही पेट्रोल की दरों में पांच-पांच बार बढ़ोतरी तथा अनेक अन्य कारणों से त्राहि-त्राहि कर रही है।
बहुब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की इजाजत, बीमा के क्षेत्र में एफडीआई की सीमा बढ़ाने, पेंशन कोष के निजीकरण तथा राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केन्द्र (एनसीटीसी) के प्रस्तावों पर तृणमूल कांग्रेस जैसे सरकार के घटक दलों के वीटो से सरकार के अपने उदारीकरण के एजेंडे को आगे बढ़ाने में अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है। ज्ञातव्य है कि संप्रग में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी साझीदार तृणमूल कांग्रेस की नेता एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कड़े प्रतिरोध के कारण पिछले साल के अंत में सरकार को बहुब्रांड खुदरा बाजार में एफडीआई की इजाजत देने के मामले में अपने कदम वापस खींचने पड़े थे और हाल ही एनसीटीसी का भी प्रस्ताव अंतत: ठंडे बस्ते में डाल देना पड़ा। बनर्जी ने राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी तथा देश के संवैधानिक ढांचे का अतिक्रमण बताते हुए न केवल एनसीटीसी उच्च पदों पर भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए लोकपाल बनाने संबंधी विधेयक के कई प्रावधानों पर और जांच एवं कार्रवाई के लिए सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के अधिकार क्षेत्र में विस्तार संबंधी विधेयक का विरोध किया, बल्कि सरकारी तेल कंपनियों का घाटा बढ़ने का रोना रोती रही सरकार को नवंबर दिसंबर में पेट्रोल के खुदरा मूल्य में बढ़ोतरी आंशिक तौर पर वापस लेने के लिए भी मजबूर कर दिया। वैसे सरकार को 15 मयी 2011 से अब तक पेट्रोल के मूल्य में कम से कम पांच बार बढ़ोतरी पर विपक्षी राजनीतिक दलों तथा मध्यवर्ग के भी भारी रोष का सामना करना पड़ा। डॉलर के मुकाबले रुपए के मूल्य में गिरावट तथा अंतर्राष्टñीय बाजार में कच्चे तेल की दरों में बढ़ोतरी के मद्दे-नजर 22 मई को संसद के बजट सत्र की समाप्ति के बाद पेट्रोल के खुदरा मूल्य में एक और वृद्धि के संकेतों के बीच देखना यह होगा कि सरकार के घटक दल, खासकर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इस बार क्या रुख अपनाती है। देश में एक और भुखमरी तथा दूसरी ओर भंडारण सुविधा के अभाव में लाखो टन अनाज के बर्बाद होने के खतरे के बीच उच्चतम न्यायालय को गत अक्टूबर-नवम्बर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए गरीबों में अनाज के मुफ्त वितरण का आदेश तो जारी करना ही पड़ा, गरीबी रेखा (बीपीएल) के निर्धारण की योजना आयोग की कम से कम एक पहल पर भी अदालत की झिड़की सहनी पड़ी। इसके बावजूद योजना आयोग ने गत मार्च में ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 22 रुपए के बजाय 26 रुपए तथा शहरी क्षेत्र में लगभग 28 रुपए के बजाय 32 रुपए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आय से अधिक आमदनी वालों को बीपीएल से ऊपर बताते हुए दावा किया कि 2004-05 से 2009-10 के बीच बीपीएल से नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों की कुल संख्या में सात प्रतिशत की कमी हुई है। संसद के बजट सत्र के बीच इस दावे को लेकर सरकार को दोनों सदनों में भारी आलोचनाएं झेलनी पड़ी।

Dark Saint Alaick
21-05-2012, 04:24 AM
हिन्दी सिनेमा के सौ साल और हिन्दी

कभी देश के कोने-कोने में हिन्दी के विस्तार का श्रेय हिन्दी फिल्मों को दिया जाता था, लेकिन बदलते वक्त में नए अंग्रेजीदां अभिनेता अभिनेत्रियों के लिये अब हिन्दी फिल्मों में संवाद रोमन में लिखे जाने लगे, ताकि वे आसानी से उसे पढ़ सकें। इसके अलावा क्रेडिट लाइन और प्रचार सामग्री तो रोमन में ही प्रदर्शित की जाती है। मशहूर निर्माता निर्देशक बासु भट्टाचार्य ने कहा था, ‘हिन्दी का सौभाग्य है कि वह देश के कोने-कोने में बोली जाती है, लेकिन यह दुर्भाग्य है कि भारत के किसी भूभाग में वह अपनी आत्मीयता स्थापित नहीं कर पाई है। जिन प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाएं फल फूल रही है, उन क्षेत्रों में किसी को हिन्दी की ओर नजार उठाकर देखने की भी फुरसत नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे अपने बल पर खड़ा होना होगा।’ त्रिलोक जैतली ने गोदान के निर्माता-निर्देशक के रूप में जिस प्रकार आर्थिक नुकसान का ख्याल किए बिना प्रेमचंद की आत्मा को सामने रखा, वह आज भी आदर्श है। गोदान के बाद ही साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मो का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसी श्रृंखला में शतरंज के खिलाड़ी भी ऐसी ही एक फिल्म थी। फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम’ हिन्दी सिनेमा में कथानक और अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण है। ऐसी फिल्मों में बदनाम बस्ती, आषाढ़ का दिन, सूरज का सातवां घोड़ा, एक था चंदर-एक थी सुधा, सत्ताईस डाउन, रजनीगंधा, सारा आकाश भी शामिल है। फिल्म समीक्षक हसनैन साजिद रिजवी ने कहा कि फिल्म जगत में एक वर्ग का आज भी दावा है कि हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी की जो सेवा की, उसके प्रचार-प्रसार में जो योगदान दिया, उसे नजरंदाज करना मुमकिन नहीं। देश के कोने-कोने में आज हिन्दी का जो विस्तार दिखाई दे रहा है, उसके पीछे हमारी फिल्में ही हैं।
हसनैन ने कहा कि दूसरा पक्ष यह पूछ बैठता है कि हिन्दी भाषा के इतने दर्शक अगर नहीं मिलते, तब क्या हिन्दी में इतनी फिल्मों को निर्माण होता। हिन्दी तब से बोली जाती है, जब फिल्मों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। भाषा के साथ फिल्मों का कोई खास संबंध नहीं होता है, आज भी लोग मगन होकर सत्यजित राय और मृणाल सेन की फिल्में देखते हैं, लेकिन इन फिल्मों को देखने से कोई बांग्ला भाषा में प्रवीण नहीं हो जाता है। उन्होंने ने कहा कि आज काफी संख्या में ऐसे अभिनेता-अभिनेत्रियां हैं, जो दूसरे मुल्कों और परिवेश से आकर बॉलीबुड में काम कर रहे हैं। कैटरीना कैफ, कल्कि कोचलिन, जैकलिन फर्नांडीज, सन्नी लियोन, लिजा रे, जरीन खान, जिया खान, फ्रीडा पिंटो आदि दूसरे देश से आई हैं, लेकिन काफी हिन्दी फिल्मों में काम कर रही हैं। हिन्दी फिल्मों की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि ऐसे कलाकारों के लिए हिन्दी फिल्मों में प्रयोग में आने वाले संवाद अब रोमन में लिखे जाते हैं। क्रेडिट टाइटल और प्रचार सामग्री भी अंग्रेजी में होती है। ‘देवदास’, ‘बन्दिनी’, ‘सुजाता’ और ‘परख’ जैसी फिल्में उस समय बाक्स आफिस पर उतनी सफल नहीं रहने के बावजूद फिल्मों के भारतीय इतिहास के नए युग की प्रवर्तक मानी जाती हैं। आज लोगों को ‘धरती के लाल’ और ‘नीचा नगर’ जैसी फिल्मों का इंतजार है जिसके माध्यम से दर्शकों को खुली हवा का स्पर्श मिले और अपनी माटी की सोंधी सुगन्ध, मुल्क की समस्याओं एवं विभीषिकाओं का आभास हो।

Dark Saint Alaick
21-05-2012, 05:14 AM
21 मई को राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष
जब दून स्कूल के बाथरूम में छिप गए थे नन्हे राजीव

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16626&stc=1&d=1337559171

दून स्कूल में पढ़ाई कर रहे 11 वर्षीय राजीव गांधी से जब पहली बार मिलने उनके नाना पंडित जवाहर लाल नेहरू देहरादून पहुंचे तब संकोची स्वभाव के राजीव स्कूल के बाथरूम की बास्केट में छिप गए थे। राज्यसभा सदस्य एवं कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर ने बताया कि इस घटना के विषय में मैंने दून स्कूल के हेडमास्टर जॉन मार्टिन की जर्मन पत्नी मैडी मार्टिन की पुस्तक में पढ़ा और राजीव ने इस घटना की पुष्टि की। उन्होंने कहा कि 1985 में मैं राजीव गांधी का संयुक्त सचिव था। राजीव उस समय भारत के प्रधानमंत्री थे। मैं दून स्कूल के 50वें स्थापना दिवस समारोह में हिस्सा लेने उनके (राजीव) के साथ देहरादून जा रहा था। हवाई जहाज में मैंने मैडी मार्टिन की पुस्तक पढ़ी जिसमें लिखा था कि जब राजीव के नाना और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू उनसे मिलने दून स्कूल पहुंचे तब स्कूल में राजीव का कहीं अता-पता नहीं था। अय्यर ने कहा कि सभी लोग काफी चिंतित हुए, चारों ओर लोग राजीव की खोज में लग गए तब किसी ने पाया कि यह नन्हा बच्चा स्कूल के बाथरूम में गंदे कपड़े रखने की बास्केट में छिपा हुआ हैं। पुस्तक में लिखा था कि संकोची स्वभाव के होने की वजह से राजीव ने ऐसा किया।अय्यर ने कहा कि दून स्कूल के इस समारोह में शाम चार बजे उन्हें राजीव गांधी से मिलना था ताकि उनके भाषण को अंतिम रूप दिया जा सके। मैंने राजीव गांधी से पुस्तक की इस घटना के बारे में पूछा कि क्या यह सच है। राजीव ने कहा कि हां, यह सही घटना है लेकिन इसके छिपने का कारण दूसरा है। उन्होंने कहा कि इसके बाद समारोह में राजीव गांधी ने अपने भाषण में इस घटना का जिक्र किया। अय्यर ने कहा कि इस घटना के विषय में राजीव ने बताया कि उनके स्कूल के बाथरूम में छिपने की वजह यह नहीं थी कि उन्हें अपने नाना और प्रधानमंत्री का सामना करने में संकोच हो रहा था या राजनीति से वह दूर रहना चाह रहे थे। उन्होंने कहा कि राजीव ने मुझसे कहा कि जब कभी वह अपने मित्रों के समक्ष पंडित नेहरू के पक्ष में बोलते थे तो दोस्त कहते थे कि नाना की बात बोलता है, और जब कभी कोई विपरीत बात कहते थे तब दोस्त कहा करते थे कि इतने बड़े और ज्ञानी आदमी के विपरीत बोल रहा है। अय्यर ने कहा कि राजीव ने कहा कि यही कारण है कि लम्बे अर्से तक उन्होंने कुछ नहीं कहा। शायद यहीं कारण है कि जब परिस्थितिवश प्रधानमंत्री बना तब जितनी भी सोच मन में थी, उसे व्यक्त किया और प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यो में इसे व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तब उनकी कोई तैयारी नहीं थी, किसी को उनकी क्षमता के बारे में पता नहीं था लेकिन 40 वर्ष का यह नौजवान देश का प्रधानमंत्री बना तब लोग हैरान रह गए कि जिस व्यक्ति ने राजनीति ने कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई उसने नई सोच और नए एजेंडे के साथ कुछ ही महीने में देश और दुनिया को चकित कर दिया। राजीव गांधी का जन्म 20 अगस्त 1944 को मुम्बई में हुआ था और तमिलनाडु के श्रीपेरम्बदूर में चुनाव प्रचार के दौरान 21 मई 1991 को आत्मघाती बम हमले में उनकी हत्या कर दी गई।

Dark Saint Alaick
21-05-2012, 05:22 AM
पद्मा सचदेव की नई किताब
अश्लील गीतों से शुरू ही से परहेज था लता मंगेशकर को

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16627&stc=1&d=1337559698

सात दशक से अधिक के अपने संगीतमय सफर में लता मंगेशकर ने अपने बनाए मानदंडों के साथ कभी समझौता नहीं किया। अश्लील गीतों से गुरेज उन्हें आज ही नहीं, बल्कि कैरियर के शुरूआती दौर से रहा और कई बार तो उन्होंने गीतों के बोल ही बदलवा दिए। सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ अनुभवों को अपनी नई किताब ‘लता मंगेशकर : ऐसा कहां से लाऊं’ में समेटने वाली डोगरी कवयित्री और हिन्दी की मशहूर लेखिका पद्मा सचदेव ने ऐसे कई वाकयात को कलमबद्ध किया है, जब इस महान पार्श्वगायिका ने गीतों के गिरते स्तर पर चिंता जताई। सत्तर के दशक में शंकर जयकिशन के साथ ‘आंखों आंखों में’ के एक गीत की रिकार्डिंग थी, लेकिन लता ने पंक्ति में ‘चोली’ शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति जता कर गाने से इन्कार कर दिया। इसके बाद निर्माता जे. ओमप्रकाश ने गाने के बोल ही बदलवा दिए। अश्लील गीतों के बारे में लता ने कहा, ‘संगीत अश्लील नहीं होता, शब्द अश्लील होते हैं। कवियों को गीत के बोल चुनते समय सावधानी बरतनी चाहिए। कई गायक इस तरह के गीत गा लेते हैं, लिहाजा मेरे अकेले के न गाने से कोई फर्क नहीं पड़ता।’ उन्होंने उस दौर में अहमदाबाद में एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था, ‘जहां तक बन पड़ता है, मैं अश्लील गीत नहीं गाती, लेकिन मैं दूसरों को कैसे रोक सकती हूं।’ किताब में मोहम्मद रफी, हेमंत कुमार, मन्ना डे, आशा भोसले, आर. डी. बर्मन जैसे कलाकारों के साथ रिकार्डिंग के अनुभव और आलोचनाओं पर लता के नजरिए को भी लेखिका ने पूरी शिद्दत से लिखा है। अब भले ही किसी को यकीन न हो, लेकिन एक दौर ऐसा भी था, जब महीने भर रिहर्सल के बाद भी गाना लता से गवाया नहीं जाता था। इसका जिक्र करते हुए लता ने किताब में कहा है, ‘जब मैं इंडस्ट्री में नई आई थी, तब कितनी ही नामी गायिकाएं थीं। उन दिनों एक गाने की रिहर्सल महीने भर तक होती थी। इसके बाद भी गाना कोई और गा लेता था, तो दुख होता था, पर कुछ कह नहीं सकते थे। जद्दोजहद के उस दौर में भी हौसला बुलंद रहता।’ कर्नाटक शैली की महान गायिका एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी से लता की मुलाकात का विवरण भी किताब में है। कोकिलकंठी सुब्बुलक्ष्मी मुंबई आई थी और लता उनसे मिलने गई। लता ने सुब्बुलक्ष्मी के बारे में कहा, ‘उन्होंने मीरा के भजन इतने सुंदर गाए हैं कि उन्हें सुनने के लिये मैंने मीरा फिल्म 15 बार देखी। वह ऐसी सुरीली हैं कि कहीं से भी आवाज उठा लें, सुर में ही उठती है।’ यही नहीं उस मुलाकात में लता ने सुब्बुलक्ष्मी से कर्नाटक संगीत सीखने की इच्छा भी जाहिर की थी। किशोर कुमार के साथ रिकार्डिंग के दौरान जहां मजाक मस्ती का आलम रहता, तो रफी बहुत कम बोला करते थे। अपने दौर के कलाकारों की मुरीद लता ने कहा था, ‘रफी साहब निहायत मुहज्जब आदमी हैं। कम बोलना उनकी आदत में शुमार है। मैंने कितने अच्छे कलाकारों के साथ काम किया। गीता दत्त, गौहर बाई, शमशाद बेगम, राजकुमारी और भी कई। कितने सादा लोग थे, लेकिन आज की पीढ़ी में वैसे लोग नहीं हैं।’
नूरजहां की प्रशंसक लता को शहंशाह ए गजल मेहदी हसन की शैली भी बहुत पसंद थी। मेहदी हसन जब मुंबई आए थे, तब उन्होंने लता के हस्ताक्षर की हुई तस्वीर मांगी थी। किताब में 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय दिल्ली के रामलीला मैदान पर गाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लता मंगेशकर को न्यौते का भी जिक्र है। वहीं पंडित जवाहरलाल नेहरू जब ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ सुनकर रो पड़े थे, उस कन्सर्ट का भी इसमें उल्लेख किया गया है। इसमें ‘ट्रैजेडी क्वीन’ मीना कुमारी के आखिरी वक्त में उनसे हुई मुलाकात का भी जिक्र है, जब जिंदगी से खफा इस महान अभिनेत्री ने कुछ खास पल लता के साथ बांटे थे। मीना कुमारी ने लता से अपनी फिल्म ‘मेरे अपने’ देखने का आग्रह करते हुए कहा कि अब वे और काम नहीं करेंगी। कुछ दिनों बाद मीना कुमारी का इंतकाल हो गया और सेना के जवानों के लिये हुए एक कार्यक्रम में लता ने सबसे पहले उन्हीं की पसंदीदा फिल्म ‘पाकीजा’ का गीत ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा’ गाकर महान अभिनेत्री को श्रद्धांजलि दी थी। इसमें बिमल राय की फिल्म ‘बंदिनी’ के मशहूर गीत ‘मोरा गोरा रंग लई ले’ की रिकार्डिंग का भी जिक्र है, जो बतौर गीतकार गुलजार का पहला गीत था। लता ने जिस तरह से उसे गाया, उस पर गुलजार ने कहा, ‘लताजी ने उतना इस दुनिया से लिया नहीं, जितना दिया है। दुनिया के पास शायद उन्हें देने के लिये कुछ है ही नहीं।’ इसमें एक घटना का जिक्र है, जब उस्ताद बड़े गुलाम अली खान कहीं गा रहे थे और अचानक लता का एक गीत बजा। खान साहब ने गाना बंद कर दिया और आंखें बंद करके बैठ गए। गीत खत्म होने के बाद कहा, ‘अजीब लड़की है। कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती। क्या अल्लाह की देन है।’

ndhebar
21-05-2012, 11:02 AM
संगम में गाये अपने गीत "क्या करूँ राम मुझे बुड्ढा मिल गया" के लिए वे कई बार सार्वजानिक माफ़ी भी मांग चुकी है

Dark Saint Alaick
22-05-2012, 02:25 PM
22 मई को राजा राम मोहन राय की जयंती पर
उन्नीसवीं सदी में लोगों की सोच बदल देने वाला नायक

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16650&stc=1&d=1337678727

आधुनिक भारत के निर्माता कहे जाने वाले महान समाज सुधारक राजा राम मोहन राय ने केवल सती प्रथा जैसी कुरीति खत्म नहीं की, बल्कि लोगों के सोचने-समझने का ढंग बदल दिया। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने कहा कि समाज की कुरीतियों जैसे सती प्रथा, बाल विवाह के खिलाफ राजा राम मोहन राय ने खुल कर संघर्ष किया। उन्होंने गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक की मदद से सती प्रथा के खिलाफ कानून बनवाया। कैसर के अनुसार राय ने कहा था कि सती प्रथा का वेदों में कोई स्थान नहीं है। उन्होंने घूम-घूम कर लोगों को उसके खिलाफ जागरूक किया। उन्होंने लोगों की सोच में बदलाव लाने का अथक प्रयास किया। पश्चिम बंगाल में हुगली जिले के राधानगर गांव में 22 मई, 1772 जन्मे राजा राम मोहन राय की प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई। उनके पिता रामकांत राय वैष्णव थे। उन्हें उच्च शिक्षा के लिए पटना भेजा गया। तीक्ष्ण बुद्धि के धनी राम मोहन राय ने पंद्रह साल की उम्र तक उन्होंने बांग्ला, फारसी, अरबी और संस्कृत सीख ली थी।
राजा राम मोहन राय मूर्तिपूजा और रूढ़िवादी हिंदू परंपराओं के विरुद्ध थे। वह सभी प्रकार की सामाजिक धर्मान्धता और अंधविश्वास के खिलाफ थे, लेकिन उनके पिता रूढ़िवादी हिंदू ब्राह्मण थे। इससे पिता और पुत्र में मतभेद पैदा हो गया और राजा राममोहन राय घर छोड़कर चले गए। उन्होंने घर लौटने से पहले काफी यात्राएं कीं। वापसी के बाद उनके परिवार ने इस आशा के साथ उनकी शादी कर दी कि वह बदल जाएंगे, लेकिन इसका उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह वाराणसी चले गए और वहां उन्होंने वेदों, उपनिषदों एवं हिंदू दर्शन का गहन अध्ययन किया। उनके पिता 1803 में गुजर गए और वह मुर्शिदाबाद लौट आए। राजा राम मोहन ने राय ईस्ट इंडिया कंपनी के राजस्व विभाग में नौकरी शुरू कर दी। वह जॉन डिग्बी के सहायक के रूप में काम करते थे। वहां वह पश्चिमी संस्कृति एवं साहित्य के संपर्क में आए। उन्होंने जैन विद्वानों से जैन धर्म का अध्ययन किया और मुस्लिम विद्वानों की मदद से सूफीवाद की शिक्षा ली। उन्होंने 1814 में आत्मीय सभा का गठन कर समाज में सामाजिक और धार्मिक सुधार शुरू करने का प्रयास किया। उन्होंने महिलाआें के फिर से शादी करने, संपत्ति में हक समेत महिला अधिकारों के लिए अभियान चलाया। उन्होंने सती प्रथा और बहुविवाह का जोरदार विरोध किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर यू. पी. अरोड़ा कहते हैं कि उन दिनों काफी पिछड़ापन था और संस्कृति के नाम पर लोग अपनी जड़ों की ओर देखते थे, जबकि राजा राम मोहन राय यूरोप के प्रगतिशील एवं आधुनिक विचारों से प्रभावित थे। उन्होंने इस नब्ज को समझा और जड़ को ध्यान में रखकर वेदांत को नया अर्थ देने की चेष्टा की। राजा राम मोहन राय ने शिक्षा खासकर स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया। उन्होंने अंग्रेजी, विज्ञान, पश्चिमी चिकित्सा एवं प्रौद्योगिकी के अध्ययन पर बल दिया। वह मानते थे कि अंग्रेजी शिक्षा पारंपरिक शिक्षा प्रणाली से बेहतर है। उन्होंने 1822 में अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित स्कूल की स्थापना की। नवंबर, 1830 में राजा राम मोहन राय ने ब्रिटेन की यात्रा की। उनका ब्रिस्टल के समीप स्टाप्लेटन में 27 सितंबर, 1833 को निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
23-05-2012, 03:05 PM
पुण्यतिथि 24 मई के अवसर पर विशेष
जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल

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महान शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का अपनी जिंदगी और शायरी के बारे में नजरिया कुछ ऐसा था - 'इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल'। मुशायरों और महफिलों मे मिली शोहरत तथा कामयाबी ने एक यूनानी हकीम असरार उल हसन खान को फिल्म जगत का एक अजीम शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी बना दिया, जिन्होंने चार दशक से भी ज्यादा लंबे सिने कैरियर मे करीब 300 फिल्मों के लिए लगभग 4000 गीतों की रचना कर श्रोताओं को परम आनंद प्रदान किया।
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर शहर में एक अक्तूबर 1919 में हुआ था। उनके पिता सब इंस्पेक्टर थे और वह असरार को ऊंची से ऊंची तालीम दिलाना चाहते थे। मजरूह सुल्तानपुरी ने लखनऊ के तकमील उल तीब कॉलेज से यूनानी पद्धति की मेडिकल की परीक्षा उत्तीर्ण की और बाद में वह हकीम के रूप में काम करने लगे। बचपन से ही मजरूह सुल्तानपुरी को शेरो-शायरी करने का काफी शौक था और वह अक्सर सुल्तानपुर में हो रहे मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे, जिनसे उन्हें काफी शोहरत मिली। उन्होंने अपनी मेडिकल की प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी और अपना ध्यान शेरो-शायरी की ओर लगाना शुरूकर दिया। इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई।
वर्ष 1945 में सब्बो सिद्दीकी इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित एक मुशायरे में हिस्सा लेने मजरूह सुल्तान पुरी मुंबई आए। मुशायरे में उनकी शायरी सुन मशहूर निर्माता ए.आर. कारदार काफी प्रभावित हुए और उन्होंने मजरूह से अपनी फिल्म के लिए गीत लिखने की पेशकश की, लेकिन मजरूह ने कारदार साहब की इस पेशकश को ठुकरा दिया, क्योंकि फिल्मों के लिए गीत लिखना वह अच्छी बात नहीं समझते थे।
जिगर मुरादाबादी ने मजरूह को तब सलाह दी कि फिल्मों के लिए गीत लिखना कोई बुरी बात नही है। गीत लिखने से मिलने वाली धनराशि में से कुछ पैसे वह अपने परिवार के खर्च के लिए भेज सकते हैं। जिगर मुरादाबादी की सलाह पर मजरूह फिल्म में गीत लिखने के लिए राजी हो गए। संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा। मजरूह ने उस धुन पर 'जब उसने गेसू बिखराए, बादल आया झूम के' गीत की रचना की। मजरूह के गीत लिखने के अंदाज से नौशाद काफी प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी नई फिल्म 'शाहजहां' के लिए उनसे गीत लिखने की पेशकश की।
अपनी वामपंथी विचारधारा के कारण मजरूह को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें जेल भी जाना पड़ा। मजरूह को सरकार ने सलाह दी कि अगर वह माफी मांग लेते हैं, तो उन्हें जेल से आजाद कर दिया जाएगा, लेकिन वह इस बात के लिए राजी नहीं हुए और उन्हें दो वर्ष के लिये जेल भेज दिया गया। जेल में रहने के कारण मजरूह के परिवार की माली हालत काफी खराब हो गई। राज कपूर ने उनकी सहायता करनी चाही, लेकिन मजरूह ने उनकी सहायता लेने से मना कर दिया। इसके बाद राज कपूर ने उनसे एक गीत लिखने की पेशकश की। मजरूह ने 'इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल' गीत की रचना की, जिसके एवज में राज कपूर ने उन्हें एक हजार रुपए दिए। लगभग दो वर्ष तक जेल में रहने के बाद मजरूह सुल्तानपुरी ने एक बार फिर से नए जोशो-खरोश के साथ काम करना शुरूकर दिया। वर्ष ।953 में प्रदर्शित फिल्म 'फुटपाथ' और 'आरपार' में अपने गीतों की कामयाबी के बाद मजरूह सुल्तानपुरी फिल्म इंडस्ट्री में पुन: अपनी खोई हुई पहचान बनाने में सफल हो गए।
मजरूह सुल्तानपुरी के महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए वर्ष 1993 में उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा वर्ष 1964 में प्रदर्शित फिल्म 'दोस्ती' में अपने रचित गीत 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे के लिए' वह सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। मजरूह सुल्तानपुरी ने चार दशक से भी ज्यादा लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फिल्मों के लिए लगभग 4000 गीतों की रचना की। अपने गीतों से श्रोताओं को भावविभोर करने वाले यह महान शायर और गीतकार 24 मई 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।
मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों की लंबी फेहरिस्त में से कुछ हैं - तू कहे अगर जीवन भर मैं गीत सुनाता जाऊं (अंदाज), बाबूजी धीरे चलना (आरपार), जाने कहां मेरा जिगर गया जी (मिस्टर एंड मिसेज 55), माना जनाब ने पुकारा नहीं, छोड़ दो आंचल जमाना क्या कहेगा (पेइंग गेस्ट), है अपना दिल तो आवारा (सोलहवां साल), दीवाना मस्ताना हुआ दिल (बंबई का बाबू), बार बार देखो हजार बार देखो (चाइना टाउन), ना तुम हमें जानो ना हम तुम्हें जानें (बात एक रात की), चाहूंगा मैं तुझे शाम सवेरे (दोस्ती), ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत (तीन देवियां), इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा (पाकीजा), पिया तू अब तो आजा (कारवां), मीत ना मिला रे मन का (अभिमान), हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते (कुदरत) आदि।

Dark Saint Alaick
25-05-2012, 03:02 PM
25 मई को जयंती पर विशेष
रास बिहारी बोस : विदेश की धरती पर रहकर लड़ी अंग्रेजों से लड़ाई

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16691&stc=1&d=1337940130

स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में रास बिहारी बोस एक ऐसा नाम है जिसने विदेश में रहकर भारत से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए एक बड़े अभियान को अंजाम दिया था । इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिन्द फौज) उन्हीं की अवधारणा का मूर्त रूप थी, जिसकी कमान आगे चलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने संभाली थी। पच्चीस मई 1886 को बंगाल में जन्मे रास बिहारी बोस ने फ्रांस और जर्मनी से चिकित्सा विज्ञान तथा अभियांत्रिकी जैसे विषयों में उपाधियां हासिल की थीं, लेकिन उनका मन हर वक्त देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने की सोचता रहता था। इसीलिए वह क्रांति के मार्ग के अनुयायी हो गए और अंग्रेजों को देश से बाहर धकेल देने के लिए क्रांति की घटनाओं को अंजाम देने लगे। रास बिहारी ने 1908 में अलीपुर बम मामले से बचने के लिए बंगाल छोड़ दिया और देहरादून आ गए। वहां वह वन अनुसंधान संस्थान में काम करने लगे। इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार रास बिहारी ने उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पंजाब में कई साहसिक गतिविधियों को अंजाम दिया। वह 1912 में उस समय सुर्खियों में आ गए जब उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ दिल्ली के चांदनी चौक पर भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग को मारने के लिए उसके काफिले पर बम फेंक दिया। इस हमले में वायसराय हालांकि बच गए, लेकिन रास बिहारी बोस और उनके साथियों का नाम देशभर में छा गया। अपने साथियों की मदद से रास बिहारी बोस दिल्ली से बाहर निकलने में कामयाब रहे और अन्य क्रांतिकारी गतिविधियों की योजना बनाने लगे। अंग्रेज पुलिस ने इस मामले में उनके कई साथियों को गिरफ्तार कर लिया, जिन्हें फांसी पर लटका दिया गया। स्वाधीनता संग्राम पर कई पुस्तकें लिख चुके आर. कृष्ण के अनुसार रास बिहारी 1915 में जापान चले गए और वहां उन्होंने भारतीयों को एकजुट करने का काम शुरू कर दिया। उन्होंने वहीं शादी की और 1923 में वहां की नागरिकता हासिल कर ली। मार्च 1942 में उन्होंने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना के लिए सम्मेलन का आयोजन किया। इसका पहला सत्र जून 1942 में बैंकाक में हुआ। रास बिहारी लीग की सशस्त्र इकाई ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ (आजाद हिन्द फौज) के गठन के लिए ‘काउंसिल आफ एक्शन’ के अध्यक्ष चुने गए। रास बिहारी ने द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ रहे और जापानियों द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों को देश की आजादी के लिए लड़ने को प्रेरित किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज का प्रभार 1943 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को सौंप दिया। भारत की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले इस क्रांतिकारी नेता का 21 जनवरी 1945 को निधन हो गया। जापान सरकार ने उन्हें ‘आर्डर आफ राइजिंग सन’ से सम्मानित किया।

Dark Saint Alaick
27-05-2012, 11:33 PM
28 मई को जयंती पर विशेष
सावरकर : स्वातंत्र्य वीर, विवादों का भी रहा साथ

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16725&stc=1&d=1338143569

हिन्दुत्व शब्द के प्रतिपादक और स्वातंत्र्य वीर के विशेषण से पहचाने जाने वाले सावरकर भारतीय इतिहास का एक ऐसा पक्ष हैं, जहां वह अंग्रेजों के खिलाफ अपने साहसिक कारनामों के लिए प्रसिद्ध भी हैं और अंग्रेजों के साथ कथित समझौते को लेकर कुछ विवादित भी। सावरकर का जन्म नासिक के नजदीक भागपुर गांव में 28 मई 1883 को हुआ था। अंडमान निकोबार की सेल्युलर जेल को देशभक्ति के तरानों से पाट देने वाले आजादी के इस महानायक को ऐसा पहला भारतीय इतिहासकार कहा जाता है, जिनके द्वारा 1857 की जंग-ए-आजादी पर लिखी गई प्रसिद्ध किताब पर ब्रितानिया हुकूमत ने प्रकाशन से पहले ही रोक लगा दी थी। सावरकर भारत से अंग्रेजों को भगाने का हमेशा सपना देखते रहे और इसके लिए उन्होंने कई साहसिक क्रांतिकारी घटनाओं को भी अंजाम दिया। इसीलिए उन्हें स्वातंत्र्य वीर का विशेषण भी मिला। रिहाई के लिए हालांकि अंग्रेजों से सावरकर का कथित समझौता उन्हें विवादित भी करता है, जिस पर इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं।
सावरकर के आंदोलन की बात करें, तो लंदन में वह पढ़ाई के दौरान भारतीय छात्रों को एकजुट कर उन्हें भारत की आजादी के लिए सशस्त्र आंदोलन के लिए प्रेरित करते थे। इस कारण 13 मार्च 1910 को उन्हें लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमे के लिए भारत भेज दिया गया। इसी दौरान उनके जीवन की सबसे अद्भुत घटना घटित हुई। वह जहाज से समुद्र में कूद गए और काफी दूर तक तैरते रहे। बाद में हालांकि, उन्हें फिर से पकड़ लिया गया। 24 दिसंबर 1910 को अदालत ने उन्हें 50 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। चार जुलाई 1911 को उन्हें अंडमान निकोबार स्थित सेल्युलर जेल भेज दिया गया। 1921 में उन्हें बंगाल की अलीपुर जेल और फिर महाराष्ट्र की रत्नागिरी जेल स्थानांतरित कर दिया गया। छह जनवरी 1924 को उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने की कथित शर्त के साथ रिहा कर दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने हिन्दू महासभा में अत्यंत सक्रिय भूमिका निभाई। बाद में महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में उनका नाम आया, लेकिन आरोप साबित नहीं हो पाए।

Dark Saint Alaick
28-05-2012, 11:39 PM
नाइट क्लब में संस्कृत के श्लोकों पर थिरकते हैं लोग

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16770&stc=1&d=1338230274

अर्जेन्टीना के एक नाइट क्लब में ‘जय शिव शंभू’ और संस्कृत के श्लोकों पर थिरकते हैं लोग। चौंकिए मत, क्योंकि यह बिल्कुल सच है। अगर आप अर्जेन्टीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स के ग्रुव नाइट क्लब में हैं, तो आप सालसा व स्थानीय रेगाटन संगीत की बजाय वहां संस्कृत श्लोकों पर थिरकते लोगों को भी देख सकते हैं। अर्जेन्टीना, उरुग्वे और पराग्वे में भारत के राजदूत आर विश्वनाथन ने यह जानकारी दी है। उन्होंने कहा कि गत सप्ताहंत मैं ग्रूव नाइट क्लब में गया और वहां पर जो मैंने देखा और संगीत सुने वाकई ही वैसा मुझे आज तक कहीं और ऐसा अनुभव नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि नाइट क्लब में जो डीजे पर संगीत बज रहा था उसमें कोई सालसा नृत्य अथवा सांबा या रेगाटन के संगीत नहीं बज रहे थे बल्कि ‘जय जय राधारमण हरी बोल’, ‘जय कृष्णा हरे’, ‘गुरुदेवा गुरु ओम’और ‘जय शिव शंभू’ जैसे मधुर संस्कृत गीत तथा श्लोकों के साथ संगीत चल रहा था। विश्वनाथन ने बताया कि जाने-माने गायक रॉड्रिगो बस्तास और उनके सहयोगी निकोलस पुक्की अपनी मधुर आवाज से मेहमानों का मनोरंजन कर रहे थे। क्लब में 13 से 30 की उम्र के लगभग 800 लोग थे। सभी डीजे की धुन पर झूम रहे थे। विश्वनाथ ने बताया कि इस नाइट क्लब में मेहमानों को शराब की जगह शीतल पेय परोसा जाता है। वैसे भी ग्रूव नाइट क्लब में केवल शाकाहारी भोजन ही मिलता है। वहां पर धूम्रपान करने की भी मनाही है। क्लब में एक योग गुरु भी हैं। वह मेहमानों को योग के कई तरह के गुर सिखाते हैं। वह श्रोतागणों को हंसने और परस्पर मेल मिलाप रखने की सलाह देते हैं। सभी श्रोतागण गुरु की बातों को बड़े ध्यान से सुनते हैं। उन्होंने कहा कि मैंने देखा क्लब में कभी नृत्य शुरू हो जाता था, तो कभी डीजे में मधुर संगीत बजने लगते थे। थोड़े-थोड़े अंतराल में योग गुरु मेहमानों को योग सिखाते थे। क्लब में संगीत बहुत धीमी आवाज में बजता है। नृत्य में किसी तरह का हुडदंग नहीं होता। संस्कृत मंत्र का उच्चारण और भारत माता का नाम लेते समय संगीतकार और श्रोतागण बहुत सभ्य माहौल कायम करते हैं। यह पूछे जाने पर कि संस्कृत श्लोकों और संगीत से अर्जेन्टीना के युवाओं को कैसे आकर्षित किया जाता है, बस्तास ने कहा कि योगा रेव एक अल्टरनेटिव पार्टी है। यह मदिरा, धूम्रपान और मादक दवाओं के सेवन के बिना मनोरंजन का एक अलग जरिया है। मंत्र, योग, मेडिटेशन तथा नाच-गानों से आत्मा को एक अलग ही शांति मिलती है।

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Dark Saint Alaick
28-05-2012, 11:41 PM
बदल रही है भोपाल के सरकारी स्कूलों की तस्वीर

भोपाल के कुछ सरकारी स्कूलों के दिन बदल गए हैं और कई बहुर्राष्ट्रीय कंपनियों और संस्थानों ने इन सरकारी स्कूलों में बुनियादी जरूरतें मुहैया कराने के साथ ही कई सुविधाओं की भी व्यवस्था की है, जिससे पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या में कमी आई है। इस परिवर्तन के बाद भोपाल के बिलखेड़िया के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली तेरह साल की छात्रा सीमा कहती हैं कि अब उसको स्कूल जाना अच्छा लगता है। आशा के चेहरे पर खिली मुस्कान स्कूल जाकर उसे मिलने वाली खुशी बयान कर रही है। वह पूरे गर्व के साथ अपने स्कूल में उपलब्ध सुविधाओं के बारे में बताती है, जो कि कोका-कोला के ‘सपोर्ट माई स्कूल’अभियान के तहत स्कूल में मुहैया करवाई गई हैं। सीमा और गांव की कई अन्य लड़कियां कभी स्कूल नहीं गर्इं क्योंकि स्कूल में शौचालय और पीने का साफ पानी न होने के कारण माता-पिता उन्हें स्कूल नहीं भेजते थे। अब उनके स्कूल में लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय हैं और साथ ही एक पुस्तकालय, खेल का मैदान, सुंदर पौधे और कम्प्यूटर सुविधाएं भी हैं। ‘सपोर्ट माई स्कूल’ अभियान को कोका-कोला ने जनवरी 2011 में यूएन-हैबिटेट, सीएएफ और सुलभ इंटरनेशनल के सहयोग से शुरू किया। इस अभियान का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों के खस्ताहाल माहौल को एक सुविधाओं से युक्त माहौल में बदलना है ताकि गांव के बच्चे स्कूल जाने के लिए प्रेरित हों। भारतीय क्रिकेट सितारे सचिन तेंदुलकर इस अभियान के ब्रांड एम्बेसडर हैं और उनका मानना है कि प्रत्येक बच्चे को एक खुशनुमा और स्वस्थ माहौल में पढ़ाई का अधिकार है और ‘सपोर्ट माई स्कूल’ ऐसा ही एक अभियान है, जिसमें सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं को स्थापित किया जा रहा है ताकि वे भी पब्लिक स्कूलों की बराबरी कर सकें। ग्रामीण और अर्द्ध ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल छोड़ने वाले विद्यार्थियों की दर नहीं बढ़ रही है। एक अध्ययन के अनुसार इन क्षेत्रों में 50 प्रतिशत से अधिक स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है और तीन में से एक बच्चा पांचवीं कक्षा तक और दो में से एक आठवीं कक्षा में आने तक स्कूल छोड़ देता है। इस अभियान के तहत देश भर में गांवों और कस्बों में स्थित 100 से अधिक स्कूलों को पुनर्गठित कर मॉडल स्कूलों के तौर पर स्थापित किया जा चुका है, जिनमें भोपाल क्लस्टर से चुने गए 8 स्कूल भी हैं, जिनमें सरकारी स्कूल छावनी, सरकारी स्कूल बिलखेड़िया, सरकारी स्कूल पदरिया, सरकारी स्कूल बैरागढ़ छिछली, सरकारी स्कूल खानूगांव, सरकारी स्कूल आदमपुर, सरकारी कस्तूरबा गर्ल्स प्राइमरी स्कूल, नार्थ टीटी नगर एवं सरकारी कस्तूरबा गर्ल्स मिडिल स्कूल शामिल हैं। भोपाल क्लस्टर में रणनीतिक सहभागी पीयरसन फाउंडेशन के साथ सभी 8 स्कूलों में पुस्तकालय भी खोले जा चुके हैं और देश के 13 क्लस्टरों में शिक्षण-प्रशिक्षण सत्रों का भी आयोजन किया जा रहा है। सहभागी टाटा टेलीसर्विसेज के सहयोग से 26 कम्प्यूटर्स को भी 5 स्कूलों में स्थापित किया जा चुका है और ग्रामीण बच्चों के शिक्षण के दायरे को बढ़ाया जा रहा है। सपोर्ट माई स्कूल एक ऐसी अवधारणा है, जिसने शिक्षा के विकास के लिए अनुदान देने वालों को भी आकर्षित किया है और उन्होंने 6.1 करोड़ रु पए का अनुदान विभिन्न क्लस्टरों में स्कूलों में सुविधाएं मुहैया कराने के लिए दिया है।

Dark Saint Alaick
28-05-2012, 11:42 PM
मंदिर-मस्जिद विवादों को सुलझाने की राह दिखाती एक पहल

भाईचारे और आपसी मुहब्बत का रास्ता बेशक इबादतगाहों से होकर गुजरता है, मगर इन्हीं प्रार्थनागृहों के झगड़ों को लेकर मुल्क के सीने पर फिरकावाराना फसाद के कई नश्तर भी दर्ज हैं, लेकिन आजमगढ़ के एक गांव के लोगों ने साम्प्रदायिकता की जहरीली हवा को प्रेम की बयार में बदलकर मुल्क के दीगर हिस्सों में मंदिर-मस्जिद को लेकर जारी विवादों को सुलझाने का नया रास्ता दिखाया है। आजमगढ़ के फूलपुर में स्थित मुड़ियार गांव के लोगों ने मंदिर-मस्जिद से जुड़े एक विवाद को आपसी सुलह-समझौते से सुलझाकर न सिर्फ एक मिसाल कायम की है बल्कि इसकी रोशनी में अयोध्या, काशी और मथुरा में धर्मस्थलों को लेकर जारी विवादों का भविष्य भी देखा जा सकता है। अयोध्या और काशी को साथ मिलाकर त्रिकोण जैसी भौगोलिक स्थिति में बसे आजमगढ़ के करीब 10 हजार की आबादी वाले मुस्लिम बहुल मुड़ियारपुर गांव में लगभग 400 साल पुराना मंदिर है और उसी से सटी मुगलकालीन मस्जिद है। ये दोनों इबादतगाहें मुस्लिम आबादी वाले इलाके में स्थित हैं। गांव के पुराने बाशिंदे अब्दुल गफूर बताते हैं कि वर्ष 1971 में विजयदशमी के दिन कुछ हिन्दू लोग रथयात्रा लेकर मंदिर जा रहे थे तभी कुछ असामाजिक तत्वों ने गोलियां चलाई जिसमें राजबलि राजभर नामक व्यक्ति की मृत्यु हो गई और राम, लक्ष्मण तथा सीता की भूमिका निभा रहे लोग जख्मी हो गए। उन्होंने बताया कि उस घटना के बाद से गांव की फिजा में साम्प्रदायिकता का जहर घुल गया। दोनों समुदायों के बीच जबर्दस्त फसाद हुआ और कई महीने तक कर्फ्यू लगा रहा। यहां तक कि एक पलटन पीएसी इस वक्त भी वहां तैनात है। गफूर ने बताया कि हालात तब और खराब हो गए जब मंदिर और मस्जिद के आसपास की जमीनों को लेकर मुकदमेबाजी शुरू हो गई। इस तरह दोनों समुदायों के बीच झगड़ा खत्म होने के रास्ते भी बंद से हो गए। उन्होंने बताया कि मंदिर जाने का रास्ता मुस्लिम आबादी से होकर जाता था और शांति बनाए रखने के लिए जिला प्रशासन ने एक व्यवस्था की जिसके मुताबिक विजयदशमी के दिन राम, लक्ष्मण तथा सीता वेषधारियों समेत सिर्फ 18 लोग ही मंदिर जा सकते थे, जो न सिर्फ हिन्दुओं को नागवार गुजरता था बल्कि उनके मौलिक अधिकारों का हनन भी था। वक्त के साथ दिलों के बीच बढ़ती दूरियां खत्म करने की पहल पेशे से डॉक्टर 31 वर्षीय मुहम्मद फैसल ने की। उन्होंने दोनों पक्षों से अलग-अलग बातचीत करके उन्हें झगड़े का ऐसा हल निकालने के लिए समझाया, जो सभी को मान्य हो। फैसल ने बताया कि उन्होंने करीब आठ महीने के दौरान दोनों पक्षों के बीच लगभग 10 बैठकें करार्इं जिसके बाद झगड़े का हल निकला। इसके तहत मंदिर और मस्जिद के बीच 20 फुट की जमीन को आधी-आधी बांटकर 12 फुट उंची दीवार बनवाई गई और हिन्दू पक्ष को आजादी के साथ मंदिर में पूजा-अर्चना करने का मौका देने के लिए मुस्लिम पक्ष के लोगों ने पूजास्थल के पिछले हिस्से की करीब 21 वर्ग फुट जमीन मंदिर समिति के नाम करने के लिए मुश्ताक अहमद को मनाया। इसके एवज में मुश्ताक को एक लाख रु पए दिये गए। फैसल ने बताया कि दूसरे रास्ते के लिए मुस्लिम पक्ष ने10 फुट और जमीन दी। इस तरह दोनों पक्षों ने समझदारी दिखाई और मामला हल हो गया। अब दोनों पक्ष जिला प्रशासन से मिलकर गांव के विवादित रहे स्थल पर तैनात पीएसी बल को हटाने की गुजारिश करेंगे। अब हिन्दुओं को मंदिर जाने के लिए मुस्लिम इलाके से होकर नहीं गुजरना पड़ेगा। ऐसा मुश्ताक अहमद के अपनी जमीन मंदिर समिति के नाम करने की वजह से ही मुमकिन हो सका है। फैसल का कहना है कि ग्रामीणों ने जिस तरह आपसी सूझबूझ से चार दशक पुराने साम्प्रदायिक विवाद को खत्म किया वह बेमिसाल है और अगर सकारात्मक सोच के साथ पहल की जाए तो अयोध्या, काशी और मथुरा के विवाद को हल करने के लिए यह मिसाल एक नजीर बन सकती है।

Dark Saint Alaick
28-05-2012, 11:43 PM
केरल की धरती से उजड़ रहे हैं परिन्दों के आशियाने

केरल की सरजमीन कभी परिन्दों का पसंदीदा आशियाना होता था ... सैलानी परिन्दे भी इसका रुख करते थे, लेकिन अब यह चमन परिन्दों के लिए सहरा में बदलता जा रहा है। करीब 80 साल पहले परिन्दा वैज्ञानिक सालिम अली परिन्दों का सर्वेक्षण करने जब केरल आए, तो वह इस राज्य पर फिदा हो गए। न सिर्फ केरल की प्राकृतिक सुंदरता ने सालिम अली का मन मोह लिया, बल्कि यहां के परिन्दों की विविधता की व्यापकता पर वह हैरान रह गए। बहरहाल, केरल के वन विभाग ने सालिम अली के पदचिह्नों पर राज्य में परिन्दों का सर्वेक्षण कराया, तो बहुत ही खराब तस्वीर नुमायां हुई। सर्वेक्षण में यह कड़वी सच्चाई उभर कर आई कि इन परिन्दों के ढेर सारे आशियाने बुरी तरह तबाह हो चुके हैं और आज हालात ऐसे हैं कि केरल में परिन्दों का अपना वजूद भी खतरे में पड़ता जा रहा है। ऐसे में आज अगर सालिम अली जिंदा होते, तो वह जरूर मायूस होते। अली ने 1933 में अपने सर्वेक्षण में केरल के त्रावनकोर और कोच्चि (कोचिन) क्षेत्रों को शामिल किया था। उस वक्त दोनों रियासत थे।
अली बांबे नेच्यूरल हिस्ट्री सोसाइटी की पहल पर यह सर्वेक्षण कर रहे थे। सोसाइटी भारत के विभिन्न हिस्सों में परिन्दों की जैवविविधता कलमबंद करना चाहती थी। इस श्रृंखला का पहला सर्वेक्षण 1931 में हैदराबाद रियासत में किया गया था। इस क्रम में त्रावनकोर और कोचिन के अलावा भोपाल, ग्वालियर, इंदौर और धार (1938), मैसूर (1939) और गुजरात (1944-1948) रियासतों का सर्वेक्षण किया गया। सालिम अली ने अपनी आत्मजीवनी ‘द फॉल आफ ए स्पैरो’ (1985) में त्रावनकोर और कोचिन की तारीफ की थी। उन्होंने यह भी माना था कि 1933 का यह सर्वेक्षण उन्हें अपनी ‘द बर्ड्स आफ केरल’ लिखने का आधार उपलब्ध कराया। मजेदार बात यह है कि अली की पत्नी तहमीना इस पूरे सर्वेक्षण में उनके साथ थी। उनके भतीजे हुमायूं अब्दुल अली भी कुछ समय के लिए साथ थे। सालिम ने त्रावनकोर सरकार के पास अपना प्रस्ताव पेश कर यात्रा और अन्य खर्चों के लिए बस 2000 रुपए की रकम और स्थानीय वन, पुलिस और राजस्व विभाग के अधिकारियों का सहयोग मांगा था। दो साल पहले केरल के परिन्दों के सर्वेक्षण में शामिल रहे सी. शशि कुमार ने एक वार्ता में सालिम अली के सर्वेक्षण की तारीफ करते हुए उसे एक धरोहर करार दिया। इस बीच राज्य वन विभाग ने एक पुस्तक ‘एलोंग द ट्रेल्स आफ सालिम अली’ प्रकाशित की है, जिसमें 2010 के सर्वेक्षण के निष्कर्षों को पेश किया गया है।

Dark Saint Alaick
28-05-2012, 11:44 PM
हिन्दी सिनेमा में फिर लौटी छोटे शहरों की कहानी

महानगर की कहानियों से दूर कई फिल्म निर्माता एक बार फिर भारत के छोटे शहरों की सच्चाई और कहानियों को हिन्दी सिनेमा के माध्यम से दर्शकों के सामने ला रहे हैं। महानगर की पृष्ठभूमि पर बनी कई फिल्मों के हिट रहने के बाद हबीब फैसल, अनुराग कश्यप, और दिबाकर बनर्जी जैसे निर्देशक प्रांतीय वास्तविकता को दिखाने के लिए दिल्ली और मुंबई से बाहर निकले और ‘इशकजादे’, ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ और ‘शंघाई’ जैसी फिल्में बनाई। मुंबई के काले पक्ष को अपनी अंतिम फिल्म ‘दैट गर्ल इन येलो बूटस’ में दिखाने वाले कश्यप ने निर्णय लिया कि वह अपनी नयी फिल्म ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ छोटे शहर धनबाद की कहानी पर बनाएंगे। अनुराग ने बताया कि वह शहर काफी दिलचस्प है। छोटे शहर में लोग एक-दूसरे को जानते हैं, ऐसे में एक गैंगस्टर अपने द्वारा प्रताड़ित व्यक्ति से कहता है, ‘चाचा किसी को मत बताना, नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।’ जैसे वह बात करते हैं। मेरी फिल्म में जगह तलाशना और लोगों की मनस्थिति का पता लगाना रोमांचक था। दिल्ली की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘दो दूनी चार’ जैसी फिल्में बनाने वाले फैजल अपनी फिल्म ‘इशकजादे’ से छोटे शहरों की कहानी सामने लाए।
लखनऊ और उसके आसपास के इलाके में अपनी फिल्म की शूटिंग करने वाले फैजल ने कहा, ‘छोटे शहर काफी जीवंत और रंगीन है। वहां के लोगों में हास्य को लेकर दिलचस्प भावना है और उनके जीवन में अलग तरह का लय होती है। हालांकि फैजल का मानना है कि सिनेमा में इस तरह का बदलाव कुछ समय के लिए है और यह हाल ही में लोकप्रिय हुआ है। फिल्म ‘खोसला का घोसला’, ‘ओए लकी लकी ओए’ और ‘लव सेक्स और धोखा’ में दिल्ली के कुछ नकारात्मक पहलू दिखाने वाले दिबाकर बनर्जी ने अपनी राजनीति पर आधारित फिल्म ‘शंघाई’ की कहानी के लिए छोटे शहर भरत नगर को चुना। बनर्जी ने कहा कि मेरा छोटा शहर काल्पनिक है। यह कहीं और की कहानी है, लेकिन मैने लातूर और बारामती इलाके में इसकी शूटिंग की है और वहां के लोग वास्तव में अच्छे हैं। हम लोग छोटे शहरों में थे, जहां पर फिल्म उद्योग नहीं था, ऐसे में हमारी फिल्म में कोई अतिरिक्त कलाकार नहीं है। जो भीड़ आप देखते हैं, वह शहर के वास्तविक लोगों की भीड़ है। हम लोगों ने असली पुलिसकर्मी, पार्टी कार्यकर्ता और राजनीतिक कार्यालय को फिल्म की शूटिंग में शामिल किया है।

Dark Saint Alaick
28-05-2012, 11:49 PM
हिन्दी सिनेमा के सौ वर्ष और भूले बिसरे गीतकार

हिन्दी फिल्मों में गीतकारों की सेवाएं लेने का प्रचलन 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ से शुरू हुआ, लेकिन इसके बाद पिछले आठ दशकों में कई ऐसे फनकारों को लोगों ने भुला दिया, जिनके कर्णप्रिय गीत कभी लोगों की जुबान चढ़कर बोले थे। फिल्म समीक्षक हसनैन साजिद रिजवी ने कहा कि आर्देशिर ईरानी ने आलम आरा में अपने साहसिक प्रयासों से भारतीय सिनेमा में संगीतकारों और गीतकारों के लिए नए अवसर खोल दिए। फिल्म की पटकथा में परिस्थितियों के प्रति पात्रों की कव्यात्मक अभिव्यक्ति को गीतों के माध्यम से विस्तार मिला। उन्होंने कहा कि हिन्दी संगीत ने बेहतरीन गीतकारों की एक परंपरा की शुरुआत कर संगीत प्रेमियों को यादगार तोहफा दिया। आलम आरा के साथ चला गीतों का कारवां कुछ उतार-चढ़ाव के साथ चलता रहा और आज भी जारी है। रिजवी ने कहा कि इन गीतकारों की श्रेणी में कई ऐसे फनकारों के नाम लिये जा सकते हैं, जिनके गीत लोगों के जुबान पर चढ़कर बोले, लेकिन आज उन्हें भुला दिया गया। गीतकार कमर जलालादावादी, भरत व्यास, हसन कमाल, एस. एच. बिहारी, असद भोपाली, पंडित नरेन्द्र शर्मा, गौहर कानपुरी, पुरुषोत्तम, शेवाज रिजवी, अभिलाष, रमेश शास्त्री, बशर नवाज, खुमान बाराबंकी आदि प्रमुख हैं।
फिल्म महुआ का गीत ‘दोनों ने किया था प्यार मगर’, हावड़ा ब्रिज का ‘आइए मेहरबान...’ हिमालय की गोद में का ‘मैं तो एक ख्वाब हूं’ जैसे गीतों को समय के दायरे में नहीं बांधा जा सकता, लेकिन आज कम ही लोगों को मालूम होगा कि इसे कमर जलालाबादी ने लिखा था। इसी तरह, फिल्म बूंद जो बन गई मोती के गीत ‘यह कौन चित्रकार है’, संत ज्ञानेश्वर का ‘ज्योत से ज्योत जले’, रानी रूपमती का ‘आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’ को कौन भुला सकता है। इसे कलमबद्ध करने वाले गीतकार भरत व्यास है। रमेश शास्त्री का नाम लेने पर आज कम ही लोग उन्हें पहचान पाएं लेकिन मशहूर गीत ‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा...’’ उन्हीं की कलम की उपज है। इसी प्रकार पुरुषोत्तम पंकज द्वारा लिखे गीत ‘चांद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा’, गीतकार अभिलाष के गीत ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता....’ एस एच बिहारी के गीत ‘कजरा मुहब्बत वाला...,’ 'जरा हौले हौले चलों मेरे साजना', नरेन्द्र शर्मा द्वारा लिखे गीत ‘यशो मति मैय्या से बोले नंदलाला...’ को कौन भुला सकता है, लेकिन कलम के इन जादूगरों को आज भुला दिया गया।

Dark Saint Alaick
29-05-2012, 03:07 AM
एक ही बार निर्विरोध हुआ है राष्ट्रपति का चुनाव

अगले राष्ट्रपति के चुनाव के लिए राजनीतिक दलों में किसी एक के नाम पर आम सहमति बनाने के प्रयास चल रहे हैं, लेकिन वर्ष 1952 से सिर्फ एक बार कोई एक व्यक्ति इस सर्वोच्च पद पर निर्विरोध चुना गया है। डॉ. नीलम संजीव रेड्डी वर्ष 1977 के राष्ट्रपति चुनाव में निर्विरोध निर्वाचित हुए थे, लेकिन ऐसा नहीं है कि उनके खिलाफ कोई चुनाव में नहीं उतरा था। राष्ट्रपति पद के इस सातवें चुनाव में कुल 37 उम्मीदवारों ने नामांकन पत्र भरे थे, जिनमें से 36 के पर्चे खारिज हो गए और रेड्डी निर्विरोध चुन लिए गए थे। राष्ट्रपति के चुनाव में उम्मीदवारों की संख्या को देखा जाए, तो सबसे अधिक 15 उम्मीदवार चौथे राष्ट्रपति चुनाव में खड़े हुए थे। इस चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार डॉ. जाकिर हुसैन विजयी हुए थे। यह पहला चुनाव था जिसमें विपक्ष ने एकजुट होकर न्यायमूर्ति कोटा सुब्बाराब को संयुक्त प्रत्याशी बनाया था। इस चुनाव में जीत का अंतर अन्य चुनावों की तुलना में सबसे कम था और सर्वाधिक आठ उम्मीदवारों का खाता भी नहीं खुला था। डॉ. जाकिर हुसैन अल्पसंख्यक समुदाय से पहले राष्ट्रपति थे। इसी चुनाव में पहली बार कोई महिला राष्ट्रपति चुनाव में उतरी और वह भी मनोहरा होल्कर। वर्ष 1969 का राष्ट्रपति चुनाव काफी रोचक रहा। इस चुनाव में कोई भी प्रत्याशी प्रथम वरीयता मतों के आधार पर मतों का अपेक्षित कोटा हासिल नहीं कर पाया था। प्रारंभिक गणना में डॉ. वी. वी. गिरि को चार लाख एक हजार मत और उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी डॉ. नीलम संजीव रेड्डी को तीन लाख 13 हजार मत मिले थे, जबकि निर्वाचन के लिए चार लाख 18 हजार 169 मतों का कोटा निर्धारित किया गया था। इस स्थिति में अंतिम पांच प्रत्याशियों को प्राप्त मत एक-एक करके अन्य प्रत्याशियों के मतों में जोड़े गए। इस आधार पर अंत में डॉ. गिरि को चार लाख 10 हजार 77 मतों के साथ निर्वाचित घोषित किया गया। डॉ. रेड्डी को चार लाख पांच हजार 427 मत हासिल हुए थे। इस चुनाव में कुल 15 प्रत्याशी मैदान में थे। राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होने के लिए यह आवश्यक है कि उम्मीदवार को कुल वैध मतों के आधे से एक अधिक मत मिलें। अब तक के राष्ट्रपति चुनावों का एक और रोचक तथ्य यह है कि चौधरी हरिराम ने सर्वाधिक पांच बार 1952 से 1969 तक चुनाव लड़ा। उन्हें सबसे ज्यादा 6341 मत 1962 में मिले। वर्ष 1967 में उनके प्रस्तावकों और अनुमोदकों तक ने उन्हें वोट नहीं दिया। राष्ट्रपति चुनाव में सबसे अधिक बार उतरने के मामले में दूसरे स्थान पर कृष्ण कुमार चटर्जी हैं। उन्होंने 1957, 1967 और 1969 के चुनाव लड़े। उन्हें सबसे ज्यादा 125 वोट 1967 में मिले। वर्ष 1969 में उन्हें एक वोट भी नहीं मिला। लगभग हर तरह के चुनाव में किस्मत आजमाने वाले काका जोगिंदर सिंह उर्फ धरती पकड़ को राष्ट्रपति पद के चुनाव में उतरने का मौका 1992 में मिल सका और वह 1135 वोट लेने में कामयाब रहे। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील इस सर्वोच्च पद को सुशोभित करने वाली पहली महिला हैं। अब तक सिर्फ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद दो बार राष्ट्रपति बने हैं।

Dark Saint Alaick
29-05-2012, 01:36 PM
पुण्यतिथि 29 मई के अवसर पर विशेष
अभिनय की दुनिया के बेताज बादशाह थे पृथ्वीराज कपूर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16778&stc=1&d=1338280565

भारतीय सिनेमा के युगपुरुष पृथ्वीराज कपूर ने चार दशकों के अपने दमदार अभिनय से दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ी है। फिल्म जगत में पापा जी के नाम से मशहूर महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने न सिर्फ फिल्मों बल्कि रंगमंच में भी अपने शानदार अभिनय के जरिए दर्शकों को अपना दीवाना बनाए रखा। पृवराज कपूर के रंगमंच से जुड़ने की कहानी काफी दिलचस्प है। जब वह महज छह वर्ष के थे, तब वह पेशावर में अपने पिता के साथ नल-दमयंती नाटक देखने गए। नाटक के एक दृश्य में एक महिला ने अपने मरे हुए बच्चे को उठाया और गाना गाया, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया और 'वंस मोर... वंस मोर ...' का शोर चारों तरफ उठा। इस पर उस महिला ने बच्चे को वापस जमीन पर रखा और उसे फिर उठाकर वह गाना एक बार फिर गाया। यह देख कर पृथ्वीराज कपूर काफी दुखी हुए। उन्होंने निश्चय किया कि भविष्य वह थियेटर का निर्माण करेंगे और अपने कलाकारों को किसी तरह कर दिक्कत न हो, इसका ध्यान रखा करेंगे।
पृथ्वीराज कपूर का मानना था कि जब कोई कलाकार किसी किरदार को पेश करे, तो उसमें इस तरह समा जाए कि जब कोई उस कलाकार का दिल चीर कर देखे उसको उसी तरह धड़कता हुआ पाये जिस तरह उस किरदार का दिल धड़कता हो। अपनी इन्हीं खूबियों की बदौलत पृथ्वीराज कपूर ने अपना अलग अंदाज बनाया। 3 नवंबर ।906 को पश्चिमी पंजाब के लायलपुर शहर में (अब पाकिस्तान) जन्मे पृथ्वीराज कपूर ने प्रारंभिक शिक्षा लायलपुर और लाहौर में पूरी की। उनके पिता दीवान बशेस्वरनाथ कपूर पुलिस सब इंस्पेक्टर थे। पिता का तबादला पेशावर हो गया। पृथ्वीराज कपूर ने अपनी आगे की पढ़ाई पेशावर के एडवर्ड कालेज से की। उन्होंने एक वर्ष तक कानून की पढ़ाई भी की, लेकिन तभी उनका रुझान थिएटर की ओर हो गया था। महज 18 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो गया और वर्ष ।928 में अपनी चाची से आर्थिक सहायता लेकर पृवीराज कपूर अपने सपनों के शहर मुंबई पहुंचे। पृथ्वीराज कपूर ने अपने सिने करियर की शुरुआत 1928 में मुंबई में इंपीरियल फिल्म कंपनी से की। वर्ष ।930 में बी. पी. मिश्रा की फिल्म सिनेमा गर्ल में उन्होंने अभिनय किया। इसके कुछ समय बाद एंडरसन की थियेटर कंपनी के नाटक शेक्सपियर में भी उन्होंने अभिनय किया।
वर्ष 1933 में पृथ्वीराज कपूर कोलकाता के मशहूर न्यू थियेटर के साथ जुड़े। वर्ष 1933 में प्रदर्शित फिल्म राज रानी और वर्ष 1934 में देवकी बोस की फिल्म सीता की कामयाबी के बाद बतौर अभिनेता पृथ्वीराज कपूर अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इसके बाद उन्होंने न्यू थियेटर की निर्मित कई फिल्मों मे अभिनय किया। इन फिल्मों में मंजिल 1936 और प्रेसिडेंट 1937 जैसी फिल्में शमिल है। वर्ष 1937 में प्रदर्शित फिल्म विधापति में पृथ्वीराज कपूर के अभिनय को दर्शकों ने काफी सराहा। वर्ष 1938 में चंदूलाल शाह के रंजीत मूवीटोन के लिए पृथ्वीराज अनुबंधित किए गए। रंजीत मूवी के बैनर तले वर्ष 1940 मे प्रदर्शित फिल्म पागल में पृवीराज कपूर अपने सिने कैरियर मे पहली बार एंटी हीरो की भूमिका निभाई। इसके बाद वर्ष 1941 मे सोहराब मोदी की फिल्म सिकंदर की सफलता के बाद पृथ्वीराज कपूर कामयाबी के शिखर पर जा पहुंचे। वर्ष 1944 में पृवीराज कपूर ने अपनी खुद की थियेटर कंपनी पृथ्वी थियेटर शुरूकी। पृथ्वी थियेटर में उन्होंने आधुनिक और शहरी विचारधारा का इस्तेमाल किया, जो उस समय के पारसी और परंपरागत थियेटरों से काफी अलग था। धीरे-धीरे दर्शकों का ध्यान थिएटर की ओर से हट गया, क्योंकि उन दिनों दर्शकों पर रूपहले पर्दे का क्रेज कुछ ज्यादा ही हावी हो चला था।
सोलह वर्ष में पृथ्वी थिएटर के 2662 शो हुए, जिनमें पृथ्वीराज कपूर ने लगभग सभी शो में मुख्य किरदार निभाया। पृथ्वी थिएटर के प्रति पृथ्वीराज कपूर इस कदर समर्पित थे कि तबीयत खराब होने के बावजूद भी वह हर शो मे हिस्सा लिया करते थे। वह शो एक दिन के अंतराल पर नियमित रूप से होता था। तीन घंटे के शो के समाप्त होने के बाद पृथ्वीराज कपूर दरवाजे पर एक झोली लेकर खड़े हो जाते थे, ताकि शो देखकर बाहर निकलने वाले लोग झोली में कुछ पैसे डाल सकें। इन पैसों के जरिए पृथ्वीराज कपूर ने एक वर्कर फंड बनाया था, जिसके जरिए वह पृथ्वी थिएटर में काम कर रहे सहयोगियों को जरूरत के समय मदद किया करते थे। पचास के दशक में पृथ्वीराज कपूर की जो फिल्में प्रदर्शित हुईं, उनमें व्ही. शांताराम की दहेज 1950 के साथ ही उनके पुत्र राज कपूर की निर्मित फिल्म आवारा 1951 प्रमुख है। फिल्म आवारा में पृथ्वीराज कपूर ने राज कपूर के साथ अभिनय किया। साठ का दशक आते आते पृथ्वीराज कपूर ने फिल्मों में काम करना काफी कम कर दिया। इस दौरान उनकी मुगले आजम 1960, हरिश्चंद्र तारामती 1963, सिकंदरे-आजम और आसमान महल 1965 जैसी कुछ सफल फिल्में प्रदर्शित हुई। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म आसमान महल में पृथ्वीराज ने अपने सिने कैरियर की एक और न भूलने वाली भूमिका निभाई। इसके बाद वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म तीन बहूरानियां में पृथ्वीराज कपूर ने परिवार के मुखिया की भूमिका निभाई, जो अपनी बहूरानियों को सच्चाई की राह पर चलने के लिए प्रेरित करता है। इसके साथ ही अपने पौत्र रणधीर कपूर की फिल्म कल आज और कल में भी पृथ्वीराज कपूर ने यादगार भूमिका निभाई। वर्ष 1969 में पृथ्वीराज कपूर ने एक पंजाबी फिल्म नानक नाम जहां है में भी अभिनय किया। फिल्म की सफलता ने लगभग गुमनामी में आ चुके पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री को एक नया जीवन दिया। फिल्म इंडस्ट्री मे उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए पृथ्वीराज कपूर वर्ष 1969 में भारत सरकार द्वारा पदम भूषण से सम्मानित किए गए। इसके साथ ही फिल्म इंडस्ट्री के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के से भी पृथ्वीराज कपूर को सम्मानित किया गया। पृथ्वीराज कपूर 29 मई 1972 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।

Dark Saint Alaick
30-05-2012, 02:39 AM
पृथ्वीराज कपूर की सांसों में बसता था पृथ्वी थिएटर

रंगमंच के लिए पृथ्वीराज कपूर इस कदर दीवाने थे कि उन्होंने 1944 में अपनी पूरी जमापूंजी से पृथ्वी थिएटर की स्थापना कर डाली। पृथ्वी थिएटर से उन्हें आर्थिक लाभ तो नहीं हुआ, लेकिन उनकी मेहनत ने इस थिएटर और खुद भारत में रंगमंच को बहुत मजबूत आधार दे दिया। नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के पूर्व निदेशक देवेंद्र राज अंकुर ने कहा, ‘जिस दौर में पृथ्वीराज ने पृथ्वी थिएटर की स्थापना की थी, उस दौर में आजादी की लड़ाई चरम पर थी। तब एक टूरिंग कंपनी की तरह पृथ्वी थिएटर की यूनिट ने पठान, दीवार, पैसा जैसे नाटकों का घूम घूम कर मंचन किया। इन नाटकों से उस दौर में पृथ्वीराज ने सांप्रदायिक सद्भाव, हिन्दू मुस्लिम एकता और सामाजिक नैतिक मूल्यों का संदेश दिया जो बड़ी बात थी।’ अंकुर के अनुसार, पृथ्वी थिएटर का पहला नाटक ‘शकुंतला’ था। पृथ्वीराज ने अपने नाटकों के जरिये उस दौर की समस्याएं उठाईं। तब रंगमंच बहुत ही शुरूआती अवस्था में था और अक्सर लोकनाट्य ही होते थे लेकिन पृथ्वीराज ने रंगमंच को आधुनिक रूप दिया। पृथ्वी थिएटर से पहले 1850 से 1940 के आसपास तक पारसी थिएटर का प्रभाव था। उन्होंने बताया, ‘उनका थिएटर दिल्ली भी आता था और रीगल थिएटर में नाटक पेश करता था। उस दौर की जानी मानी हस्तियां पृथ्वीराज कपूर के नाटक देखने जाती थीं। हालांकि थिएटर से पृथ्वीराज को खास आमदनी नहीं होती थी और वह इसकी भरपाई के तौर पर फिल्मों से मिली राशि उसमें लगा देते थे, लेकिन उनकी मेहनत ने पृथ्वी थिएटर और खुद भारत में रंगमंच को बहुत मजबूत आधार दे दिया।’ स्कूल में पढ़ते हुए देवेंद्र राज अंकुर ने पृथ्वीराज के रंगकर्म पर एक किताब ‘थिएटर के सरताज पृथ्वीराज कपूर’ प्रकाशित की थी। यह किताब प्रख्यात फिल्म निर्देशक लेखराज टंडन के छोटे भाई योगराज ने लिखी थी।
देवेंद्र राज अंकुर ने बताया, ‘रंगमंच पर पृथ्वीराज की बुलंद आवाज वह समा बांधती थी कि आज के लाइट साउंड इफैक्ट वाला दौर भी उसके सामने कुछ नहीं है। यह उस इंसान की जिजीविषा ही कहलाएगी कि उसने विभाजन का दंश बर्दाश्त कर लाहौर से मुंबई में आ कर रंगमंच को अपनाया। पृथ्वी थिएटर की यूनिट से जुड़े कई सहयोगियों रामानंद सागर, शंकर जयकिशान और राम गांगुली आदि को पृथ्वीराज कपूर ने बाद में फिल्मों में मौका दिया। आर्थिक समस्या, गिरता स्वास्थ्य, ढलती उम्र जैसे कारणों के चलते 1960 के दशक में उन्होंने थिएटर बंद कर दिया। पृथ्वीराज कपूर पर एक किताब ‘पृथ्वी और पृथ्वी’ लिखने वाली सुनीता सिंह ने कहा, ‘फिल्मों से होने वाली आमदनी पृथ्वीराज हमेशा पृथ्वी थिएटर में लगाते। रंगमंच के लिए उनकी मेहनत और लगन इसी बात से समझी जा सकती है कि पृथ्वी थिएटर ने पृथ्वीराज के नेतृत्व में 16 साल में 2,662 से अधिक शो किए।’ उन्होंने बताया कि पृथ्वी थिएटर के कलाकार अलग अलग शहरों में घूम-घूम कर नाटक करते थे। थिएटर के शुरूआती दौर में पृथ्वीराज ने अपनी यूनिट के साथ ट्रेन के तीसरे दर्जे के डिब्बे से 100 से अधिक शहरों का दौरा किया था, सिर्फ नाटकों के लिए। अभिनय की जीती जागती पाठशाला कहलाने वाली अभिनेत्री जोहरा सहगल ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि उन्होंने जब पृथ्वीराज कपूर के साथ रंगमंच पर काम करना शुरू किया, तो उनके सामने वह अक्सर अपने संवाद भूल जाती थीं। तीन नवंबर 1906 को जन्मे पृथ्वीराज कपूर ने 29 मई 1972 को इस दुनिया रूपी रंगमंच को अलविदा कह दिया।

Dark Saint Alaick
30-05-2012, 03:14 AM
आगामी फिल्मों में कुछ खास करती नजर आएंगी बॉलीवुड की अभिनेत्रियां

अभिनेत्री विद्या बालन की फिल्म ‘कहानी’ की सफलता के बाद बॉलीवुड में कई ऐसी फिल्में रिलीज होने वाली हैं, जिनमें पटकथा का केंद्र बिन्दु महिला है। पिछले महीने जहां नयी अभिनेत्रियों परिणीति चोपड़ा और पाओली डैम ने ‘इशकजादे’ और ‘हेट स्टोरी’ जैसी फिल्मों की सफलता के साथ-साथ अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाया, वहीं आने वाले महीनों में बिपाशा बसु, करीना कपूर, प्रीति जिन्टा, श्रीदेवी और रानी मुखर्जी दर्शकों का ध्यान आकर्षित करेंगी। अगस्त में सनी लिओन की बॉलीवुड में पहली फिल्म ‘जिस्म 2’ रिलीज होने जा रही है। इसी के साथ निर्देशक कलाकार फराह खान की एक रोमांटिक कॉमेडी ‘शीरीं फरहाद की तो निकल पड़ी’ भी रिलीज होगी। फराह को कड़ी टक्कर देंगी चित्रांगदा सिंह जिनकी ‘काम... द अनआॅफीशियल स्टोरी’ उसी दिन रिलीज होगी। यह फिल्म संजय लीला भंसाली प्रोडक्शन की है। फराह ने कहा ‘शीरीं फरहाद...’ में हीरोइन की भूमिका निभाते हुए मैं चिंतित थी। आखिर आप ऐसी हीरोइन को मुख्य भूमिका में कैसे देख सकते हैं जो मोटी हो और उम्र के 40 वें दशक में हो। बहरहाल, संजय ने मुझ पर भरोसा किया। मैं तो फिल्म के वह प्रिंट्स देख कर परेशान हो गई थी, जो संपादित नहीं हुए थे। लेकिन संजय की मंजूरी के बाद मेरी चिंता दूर हो गई।’
सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और ‘ये साली जिन्दगी’ को आलोचकों ने भी सराहा था। उन्होंने एक बार फिर चित्रांगदा सिंह को अपनी फिल्म में मुख्य भूमिका सौंपी है। फिल्म में अर्जुन रामपाल भी हैं। चित्रांगदा ने कहा, ‘कार्य स्थलों पर यौन उत्पीड़न विषय पर बनी यह फिल्म यथार्थ दिखाती है। चुनौती इसलिए भी कड़ी थी क्योंकि सुधीर मिश्रा उत्कृष्टता से कम पर मानते ही नहीं।’ मधुर भंडारकर ने भी महिला प्रधान फिल्म ‘हीरोइन’ का तानाबाना बहुत मेहनत से बुना है। इसमें करीना कपूर मुख्य भूमिका में हैं। भंडारकर ने कहा, ‘इस फिल्म में करीना बिल्कुल अलग भूमिका में दिखेंगी। यह वह किरदार है जिसे आप अपने करियर में केवल एक बार निभा सकते हैं। बेहद कसी हुई पटकथा के साथ करीना सबको चौंकाने के लिए तैयार है।’ विक्रम भट्ट को ‘राज 3’ की रिलीज का इंतजार है, जिसमें बिपाशा बसु और इमरान हाशमी ने काम किया है। विक्रम ने कहा, ‘बिपाशा ने ‘राज’ में कमाल किया था और अब दस साल बाद वह ‘राज 3’ में दिखेंगी। एक अभिनेत्री के तौर पर बिपाशा आज और परिपक्व हो गई हैं तथा मंज गई हैं। इतने बरसों में हम बहुत अच्छे मित्र रहे और एक दूसरे के संपर्क में भी रहे। हम दोनों के लिए यह घर वापसी जैसा है।’ ‘इंग्लिश विंग्लिश’ से श्रीदेवी एक बार फिर वापसी कर रही हैं। खट्टी मीठी कॉमेडी वाली यह फिल्म एक और अभिनेत्री के लिए चुनौती होगी जो वापसी कर रही हैं। प्रीति जिन्टा की ‘इश्क इन पेरिस’ उसी सप्ताह रिलीज होगी जब ‘इंग्लिश विंग्लिश’ रिलीज होगी। सितंबर में रानी मुखर्जी की ‘अइया’ रिलीज होगी।

Dark Saint Alaick
30-05-2012, 10:38 PM
पुण्यतिथि 31 मई के अवसर पर विशेष
अपने संगीतबद्ध गीतों से श्रोताओं को दीवाना बनाया अनिल विश्वास ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16816&stc=1&d=1338399465

भारतीय सिनेमा जगत में अनिल विश्वास को एक ऐसी शख्सियत के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने न सिर्फ संगीत निर्देशन, बल्कि अभिनय और पार्श्वगायन से भी लोगो का मन मोहे रखा। 7 जुलाई 1914 को पूर्वी बंगाल के वारिसाल (अब बंगलादेश) में जन्मे अनिल विश्वास का रुझान बचपन से गीत-संगीत की ओर था। महज 14 वर्ष की उम्र से ही उन्होंने संगीत समारोह में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था, जहां वह तबला बजाया करते थे।
वर्ष 1930 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। देश को स्वतंत्र कराने के लिय छिड़ी मुहिम में अनिल विश्वास भी कूद पड़े। इसके लिये उन्होंने अपनी कविताओं का सहारा लिया। कविताओं के माध्यम से अनिल विश्वास देशवासियों मे जागृति पैदा किया करते थे। इसके कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। वर्ष 1930 में अनिल विश्वास कलकत्ता के रंगमहल थिएटर से जुड़ गए, जहां वह बतौर अभिनेता, पार्श्वगायक और सहायक संगीत निर्देशक काम करते थे। वर्ष 1932से 1934 अनिल विश्वास थियेटर से जुड़े रहे। उन्होंने कई नाटकों में अभिनय और पार्श्वगायन किया। रंगमहल थिएटर के साथ ही अनिल विश्वास हिंदुस्तान रिर्काडिंग कंपनी से भी जुड़े। वर्ष 1935 में अपने सपनों को नया रूप देने के लिए वह कलकत्ता से मुंबई आ गए। वर्ष 1935 में प्रदर्शित फिल्म धरम की देवी से बतौर संगीत निर्देशक अनिल विश्वास ने अपने सिने कैरियर की शुरुआत की। साथ ही फिल्म में उन्होंने अभिनय भी किया।
वर्ष 1937 में महबूब खान निर्मित फिल्म जागीरदार अनिल विश्वास के सिने कैरियर की अहम फिल्म साबित हुई, जिसकी सफलता के बाद बतौर संगीत निर्देशक वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए। वर्ष 1942 में अनिल विश्वास बांबे टॉकीज से जुड गये और 2500 रूपये मासिक वेतन पर काम करने लगे। वर्ष 1943 में उन्हें बांबे टॉकीज निर्मित फिल्म किस्मत के लिए संगीत देने का मौका मिला। यूं तो फिल्म किस्मत में उनके संगीतबद्ध सभी गीत लोकप्रिय हुए, लेकिन आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है के बोल वाले गीत ने आजादी के दीवानो में एक नया जोश भर दिया।
अपने गीतों को अनिल विश्वास ने गुलामी के खिलाफ आवाज बुलंद करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और उनके गीतो ने अंग्रेजो के विरुद्ध भारतीयों के संघर्ष को एक नई दिशा दी। यह गीत इस कदर लोकप्रिय हुआ कि फिल्म की समाप्ति पर दर्शकों की फरमाइश पर इस सिनेमा हॉल में दुबारा सुनाया जाने लगा। इसके साथ ही फिल्म किस्मत ने बॉक्स आफिस के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। इस फिल्म ने कलकत्ता के एक सिनेमा हॉल में लगातार लगभग चार वर्ष तक चलने का रिकार्ड बनाया।
वर्ष 1946 में अनिल विश्वास ने बांबे टॉकीज को अलविदा कह दिया और वह स्वतंत्र संगीतकार के तौर पर काम करने लगे। स्वतंत्र संगीतकार के तौर पर अनिल विश्वास को सबसे पहले वर्ष 1947 में प्रदर्शित फिल्म भूख में संगीत देने का मौका मिला। रंगमहल थिएटर के बैनर तले बनी इस फिल्म में पार्श्वगायिका गीता दत्त की आवाज में संगीतबद्ध अनिल विश्वास का गीत आंखों में अश्क लब पे रहे हाय श्रोताओं में काफी लोकप्रिय हुआ।
वर्ष 1947 में ही अनिल विश्वास की एक और सुपरहिट फिल्म प्रदर्शित हुई थी नैया जोहरा बाई की आवाज में अनिल विश्वास के संगीतबद्ध गीत सावन भादो नयन हमारे आई मिलन की बहार रे ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म अनोखा प्यार अनिल विश्वास के सिने कैरियर के साथ-साथ व्यक्तिगत जीवन में अहम फिल्म साबित हुई। फिल्म का संगीत तो हिट हुआ ही, साथ ही फिल्म के निर्माण के दौरान उनका झुकाव भी पार्श्वगायिका मीना कपूर की ओर हो गया। बाद में अनिल विश्वास और मीना कपूर ने शादी कर ली।
साठ के दशक में अनिल विश्वास ने फिल्म इंडस्ट्री से लगभग किनारा कर लिया और मुंबई से दिल्ली चले गए। इस बीच उन्होंने सौतेला भाई (1962) और छोटी छोटी बातें (1965) जैसी फिल्मों को संगीतबद्ध किया। फिल्म छोटी छोटी बातें हालांकि बॉक्स आफिस पर कामयाब नहीं रही, लेकिन इसका संगीत श्रोताओं को पसंद आया। इसके साथ ही फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित की गई। वर्ष 1963 में अनिल विश्वास दिल्ली प्रसार भारती में बतौर निदेशक काम करने लगे और वर्ष 1975 तक काम करते रहे। वर्ष 1986 में संगीत के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अपने संगीतबद्ध गीतों से लगभग तीन दशक तक श्रोताओं का दिल जीतने वाला यह महान संगीतकार 31 मई 2003 को इस दुनिया को अलविदा कह गया।

Dark Saint Alaick
30-05-2012, 10:41 PM
डर्टी पिक्चर की जबरदस्त कामयाबी से लौटा नायिका प्रधान फिल्मों का युग

अभिनेत्री विद्या बालन की फिल्म 'डर्टी पिक्चर' की सिल्वर जुबली कामयाबी से रेखा, शबाना आजमी और स्मिता पाटिल जैसी अभिनेत्रियों का वह दौर फिर लौट आया है, जब नायिकाओं की भूमिका प्रमुख हुआ करती थी और दर्शक उनके अभिनय को देखने के लिए सिनेमाहॉल जाया करते थे। बहुत समय बाद ऐसा हुआ है, जब किसी फिल्म को सिल्वर जुबली कामयाबी नसीब हुई है। इससे पहले 2007 में शाहरुख खान की फिल्म 'ओम शांति ओम' ने सिल्वर जुबली मनाई थी। पिछले साल दो दिसम्बर को रिलीज हुई 'डर्टी पिक्चर' अहमदाबाद के रिलीफ सिनेमाहॉल में लगातार 25 सप्ताह से लगी हुई है और इसे वहां सुबह दस बजे के शो में दिखाया जा रहा है।
मल्टीप्लेक्स के इस युग में जब तीन-चार फिल्में एक साथ दिखाई जाती हैं और कोई भी फिल्म दो या तीन सप्ताह से ज्यादा नहीं चल पाती है, 'डर्टी पिक्चर' का सिल्वर जुबली मनाना किसी अजूबे से कम नहीं है। इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी से यह तो साबित हो ही गया है कि दर्शक आज भी अच्छे अभिनय, कथा, पटकथा, संवाद और संगीत से सजी फिल्म को देखते और सराहते हैं। साथ ही इस फिल्म ने उस दौर के दरवाजे फिर खोल दिए हैं, जब नायिका को केन्द्र में रखकर कहानियां लिखी जाती थीं और उसकी भूमिका प्रमुख हुआ करती थी।
हिन्दी फिल्मों के स्वर्ण युग में मीना कुमारी, नर्गिस, मधुबाला, नूतन, वैजयंती माला और वहीदा रहमान; यथार्थवादी फिल्मों के दौर में शबाना आजमी और स्मिता पाटिल तथा लोकप्रिय सिनेमा के युग में रेखा, राखी और माधुरी दीक्षित कुछ ऐसी अभिनेत्रियां रही हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर फिल्मों की कहानियां लिखी जाती थीं और उनके अभिनय के दम पर फिल्में चला करती थीं। डर्टी पिक्चर की कामयाबी से अब विद्या बालन भी इन अभिनेत्रियों की कतार में शामिल हो गई हैं।
हालांकि विद्या बालन ने इस फिल्म से पहले 'पा' (2009), 'इश्किया' (20।0) और 'नो वन किल्ड जेसिका' (20।।) जैसी कामयाब फिल्मों में भी काम किया था, लेकिन 'डर्टी पिक्चर' के लिए राष्ट्रीय और फिल्म फेयर पुरस्कार हासिल करने और इसके बाद इसी साल रिलीज नायिका प्रधान फिल्म कहानी की सफलता से उनका कद इतना बढ़ गया है कि समकालीन अभिनेत्रियों में वह निर्विवाद रूप से शीर्ष स्थान पर पहुंच गई हैं। विद्या बालन के लिए दक्षिण भारतीय फिल्मों की डांसर सिल्क स्मिता (विजयलक्ष्मी) के संघर्ष पर आधारित इस फिल्म में नायिका के किरदार को निभाना किसी चुनौती से कम नहीं था, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार किया। विद्या बालन ने माना था कि सिल्क के चरित्र को निभाना आसान नहीं था। चूंकि दक्षिण भारत की अभिनेत्रियां शारीरिक दृष्टि से कुछ भारी भरकम होती हैं, इसलिए भूमिका की तैयारी के लिए उन्होंने अपना वजन भी ।2 किलो बढ़ाया। मुश्किल और बोल्ड भूमिका होने के नाते उन्हें मानसिक तैयारी भी कम नहीं करनी पड़ी।
विद्या बालन की भूमिका को जीवंत बनाने के लिए की गई मेहनत काम आई और फिल्म ने जबरदस्त कामयाबी हासिल की। दर्शकों और समीक्षकों ने एक स्वर में उनके अभिनय की तारीफ करते हुए कहा कि उनकी निभाई अब तक की भूमिकाओं में यह सर्वश्रेष्ठ थी। निर्माता एकता कपूर और निर्देशक मिलन लूथरिया को फिल्म की इस कदर कामयाबी की उम्मीद नहीं थी। 'डर्टी पिक्चर' ब्लॉकबस्टर साबित हुई और इसने कुल एक अरब 17 करोड़ रुपए की कमाई की। यह भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी महिला प्रधान फिल्म रही, जिसने ओपनिंग में सबसे ज्यादा मुनाफा हासिल किया।

Dark Saint Alaick
01-06-2012, 10:05 PM
पुण्यतिथि 2 जून के अवसर पर विशेष
बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे राज कपूर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16862&stc=1&d=1338570294

भारतीय सिनेमा के शो मैन कहे जाने वाले राज कपूर को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने अभिनय के साथ ही निर्माण-निर्देशन से भी दर्शकों को अपना दीवाना बनाया। 14 दिसंबर 1924 को पेशावर (अब पाकिस्तान) में जन्मे राज कपूर का रुझान बचपन से ही फिल्मों की ओर था और वह अभिनेता बनना चाहते थे। उनके पिता पृथ्वीराज कपूर फिल्म इंडस्ट्री के जाने माने अभिनेता थे। राज कपूर ने अपने सिने कैरियर की शुरूआत बतौर बाल कलाकार वर्ष 1935 में प्रदर्शित फिल्म 'इंकलाब' से की। मुख्य अभिनेता के तौर पर वर्ष 1947 में प्रदर्शित फिल्म 'नील कमल' उनकी पहली फिल्म थी।
राज कपूर फिल्मों मे अभिनय के साथ ही कुछ और भी करना चाहते थे। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म 'आग' के जरिए राज कपूर ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रखा और 'आर.के. फिल्म्स' की स्थापना की। उस समय राज कपूर की उम्र महज 24 वर्ष थी। फिल्म 'आग' की सफलता के बाद राज कपूर ने कई कामयाब फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया।
वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म 'आवारा' राज कपूर के सिने कैरियर की अहम फिल्म साबित हुई। फिल्म की सफलता ने राज कपूर को अंतर्राष्टÑीय ख्याति दिलाई। फिल्म का शीर्षक गीत 'आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं' देश-विदेश में बहुत लोकप्रिय हुआ।
राज कपूर के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी अभिनेत्री नरगिस के साथ काफी पसंद की गई। दोनों ने 'बरसात', 'अंदाज' (1949), 'जान पहचान', 'प्यार' (1950), 'आवारा' (1951), 'अनहोनी', 'आशियाना', 'अंबर' (1952), 'आह', 'धुन', 'पापी' (1953), 'श्री 420' (1955), 'जागते रहो' और 'चोरी चोरी' (1956) जैसी कई फिल्मों में एक साथ काम किया।
फिल्म 'श्री 420' में बारिश में एक छाते के नीचे फिल्माए गीत 'प्यार हुआ इकरार हुआ' में नरगिस और राज कपूर के प्रेम प्रसंग के अविस्मरणीय दृश्य को सिने दर्शक कभी नहीं भूल पाएंगे। राज कपूर ने अपनी बनाई फिल्मों के जरिए कई छुपी हुयी प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का मौका दिया, जिनमें संगीतकार शंकर जयकिशन, गीतकार हसरत जयपुरी, शैलेन्द्र और पार्श्वगायक मुकेश जैसे बड़े नाम शामिल हैं। वर्ष 1949 में राज कपूर की निर्मित फिल्म बरसात के जरिए गीतकार के रूप में शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी और संगीतकार के तौर पर शंकर जयकिशन ने अपने कैरियर की शुरुआत की थी।
पार्श्वगायक मुकेश को यदि राज कपूर की आवाज कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुकेश ने राज कपूर अभिनीत सभी फिल्मों में उनके लिए पार्श्वगायन किया। मुकेश की मौत के बाद राज कपूर ने कहा था, 'लगता है मेरी आवाज ही चली गई है।' वर्ष 1971 में राज कपूर ने फिल्म 'मेरा नाम जोकर' का निर्माण किया, जो बॉक्स आॅफिस पर बुरी तरह नकार दी गई। 'मेरा नाम जोकर' की विफलता से राज कपूर को गहरा सदमा पहुंचा। उन्हें काफी आर्थिक क्षति भी हुई। उन्होंने यह निश्चय किया कि भविष्य में यदि वह फिल्म का निर्माण करेंगे तो मुख्य अभिनेता के रूप में काम नहीं करेंगे।
वर्ष 1973 में राज कपूर ने अपने पुत्र रिषि कपूर को लेकर फिल्म 'बॉबी' का निर्माण किया। युवा प्रेम पर आधारित इस फिल्म ने बॉक्स आॅफिस पर न सिर्फ सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए, बल्कि राज कपूर अपनी खोई हुई पहचान पाने में भी कामयाब हो गए। इन सबके साथ ही अभिनेता रिषि कपूर और अभिनेत्री डिंपल कपाड़िया भी फिल्म की सफलता के बाद स्टार बन गए।
राज कपूर की फिल्मों का संगीत पक्ष काफी मजबूत हुआ करता था। स्वयं राज कपूर को गीत-संगीत की अच्छी समझ थी और उनके साथ संगीतकार शंकर जयकिशन, गीतकार हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र की जोड़ी थी।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी राज कपूर ने कई फिल्मों का संपादन भी किया। इन फिल्मों में 'संगम' (।964), 'मेरा नाम जोकर' (1970), 'बॉबी' (1973), 'सत्यम शिवम सुंदरम' (1978), 'प्रेम रोग' (1982) और 'राम तेरी गंगा मैली' (1985) शामिल हैं। फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' की कहानी भी राज कपूर ने लिखी थी।
राज कपूर को वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म 'अनाड़ी' के लिए सबसे पहले सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, वर्ष 1964 में प्रदर्शित फिल्म 'संगम' में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, वर्ष 1971 में प्रदर्शित फिल्म 'मेरा नाम जोकर' में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, वर्ष 1982 में प्रदर्शित फिल्म 'प्रेमरोग' में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और वर्ष 1985 में प्रदर्शित फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्माता-निर्देशक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। वर्ष 1971 में राज कपूर 'पद्मभूषण' पुरस्कार और वर्ष 1987 में हिंदी फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' से भी सम्मानित किए गए।
वर्ष 1985 में प्रदर्शित 'राम तेरी गंगा मैली' के जरिए राज कपूर ने अपने पुत्र राजीव कपूर को बतौर अभिनेता रूपहले पर्दे पर पेश किया। इसके बाद राज कपूर अपने महत्वाकांक्षी फिल्म 'हिना' के निर्माण में व्यस्त हो गए, लेकिन उनका सपना साकार नहीं हुआ और 2 जून 1988 को वह इस दुनिया से रुखसत हो गए। बाद में 'हिना' का निर्माण उनके पुत्र रणधीर कपूर ने पूरा किया, जो रिलीज के बाद एक बड़ी हिट साबित हुई।

Dark Saint Alaick
04-06-2012, 08:01 AM
कबीर जयंती पर विशेष
आज भी प्रासंगिक हैं संत कबीर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16887&stc=1&d=1338778786

महान समाज सुधारक, अलौकिक साहित्य सम्राट एवं धार्मिकता के उच्च शिखर के पुरोधा संत कबीर का जन्म 1398 ई़ में हुआ। वे विवाहित थे या अविवाहित,हिन्दू थे या मुस्लिम, उन्हें जलाया गया या दफनाया गया इन विषयों से अलग हटकर उनके बताए मार्ग की सच्चाई को समझना और सच्चा, खरा, उचित लगे तो अनुसरण करके उस पर चलना ही हमारी नीति होना चाहिए। उन्होने जब धार्मिकता के नाम पर समाज में फैले अंधविश्वास, आडम्बर, ढोंग, पाखण्ड, रुढ़ीवाद जैसी अनेकों धारणाओं, प्रथाओं, मतों पर चलते हुए लोगों को देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । वे समाज को भटकती राह से सही राह पर लाने के लिए कम से कम शब्दों में समझाकर उनके जीवन के अंधकार को दूर करना चाहते थे। सन्त कबीर जैसा स्पष्ट वक्ता और समाज सुधारक नहीं होगा क्योंकि वे शिक्षित ना होते हुए भी विद्घवान और धार्मिक गुरु की उच्च श्रेणी पर आसीन थे। उनके द्वारा दी गई सही दिशा की आज भी जरुरत है। रामानन्द के शिष्य रहे, सन्त कबीर के समय में समाज में अस्थिरता का बोलबाला था। वे सभी वर्गों में फैली सामाजिक-धार्मिक बुराईयों एवं रुढ़ीवाद के विरुद्घ बोलने एवं कहने से जरा भी हिचक नहीं रखते हुए समाज को सचेत व सावधान करते रहे। वे हिन्दु,मुस्लिम,सिख,ईसाई या बौद्घ किसी भी वर्ग- समाज में भेद नहीं समझते थे। वे समझते थे कि सभी प्राणी मिट्टी के ही पुतले हैं। वे राम रहीम को एक ही मानते एवं समझते थे। मन्दिर-मस्जिद में आस्था रखने के बजाए वे ईश्वर पर विश्वास एवं भरोसा रखने पर बल दिया करते थे। कबीर की भाषा सीधी एवं सरल रही हैं। उनके हर दोहे सागर सी गहराई तथा सरलता लिए होते थे। जहां सन्त कबीर का देहान्त हुआ उस स्थान पर मन्दिर मस्जिद दोनों बनाए गए हैं। बताया जाता है कि जब कबीर का देहान्त हुआ तब मुस्लिम कहने लगे वे हमारे सन्त रहे है हम इन्हें दफनाएंगें उधर हिन्दु उन्हे अपना मान कर अंतिम संस्कार करना चाहते थे। सन्त कबीर का निधन 1518 ई़ में होना बताया जाता हैं। नीरु नाम के जुलाहे दम्पती द्वारा इनका लालन-पालन किया गया था। उनके कुछ दोहे आज भी समाज की आंखें खोल देने के लिए पर्याप्त हैं। ढोंग पर संत कबीर ने करारा व्यंग्य करते हुए लिखा था-
‘ माला फेरत जुग गया, गया ना मन का फेर
कर का, मन का डार के,मन का मन का फैर ’’
वे मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे । उनका कहना था कि मनुष्य को ईश्वर से सीधे सम्बन्ध रखना चाहिए। इसे उन्होने एक दोहे में समझाया-
‘‘ ज्यों तिल माही तेल है त्यों चकमक में आग
तेरा सांई तुझ में है जाग सके तो जाग ’’
संत कबीर का मानना था कि कोई मनुष्य बड़ा तो बन जाए लेकिन समाज के काम ना आए उसका समाज में रहना ही व्यर्थ है। इसके लिए वे कहते थे-
‘‘ बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ’’।
आज जीवन की बढ़ती आपाधापी में आम आदमी ने खुद को इतना उलझा दिया है कि वह क्या कर रहा है और क्या बोल रहा है उसका भी उसे भान नहीं रहता। इसे कबीर ने काफी पहले ही पहचान लिया था तभी तो उन्होने कहा था-
‘ऎसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय
औरन को सीतल करे आपहू सीतल होय’
आज समाज को जरुरत है कबीर के उन्ही सन्देशों-उपदेशों की । हर तरफ झगड़े -फसाद, मारकाट, छल कपट, बेईमानी धोखा, कटूता, क्रोध, हिंसा फैलती जा रही है। ऐसे में सन्त कबीर को समझना और उनके बताए मार्ग पर चलना और भी प्रासंगिक हो जाता है।
-मदन साल्वी

Dark Saint Alaick
04-06-2012, 08:12 AM
जन्मशती वर्ष पर विशेष
मंटो को भी लगाने पड़े थे अदालत के चक्कर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16888&stc=1&d=1338779542

उर्दू के मशहूर अफगानिगार सआदत हसन मंटो ने अपना पहला अफसाना स्वाधीरनता संग्राम के दौरान हुए जलियांवाला बाग कांड पर लिखा था, पर बाद में उन्हें अपने अफसानों में अश्लीलता के आरोप में दस वर्ष तक अदालत के चक्कर काटने पड़े थे। दिलचस्प बात यह है कि लुधियाना के समराला गांव में 11 मई 1912 को जन्मे मंटो को अश्लील लेखन के आरोप में कभी कोई सजा नहीं हुई थी, पर उन्हें जुर्माना अदा करना पड़ा, जिसके लिए उन्हें पैसे उधार लेकर जमानत भी लेनी पड़ी, लेकिन वह इस पूरे प्रसंग में काफी परेशान हो गए और विभाजन के बाद पाकिस्तान में जाकर बस गए। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के वकील पिता ने भी उस जमाने में मंटो के मुकदमे की पैरवी की थी।
दूरदर्शन के पूर्व निदेशक एवं फिल्म विशेषग्य शरद दत्त के अनुसार मंटो ने 1944 में के. आसिफ की फिल्म मुगले आजम के लिए संवाद भी लिखे थे जिसमें चंद्रमोहन अकबर और सप्रू सलीम बने थे तथा बीना ने अनारकली की भूमिका निभाई थी। अनिल विश्वास ने फिल्म संगीत दिया था, लेकिन प्रोड्यूसर के असहयोग के कारण यह फिल्म नहीं बन पाई। बाद में के. आसिफ ने दोबारा मुगले आजम बनाई।
मंटो के जन्मशती वर्ष में हिन्दी और उर्दू की दुनिया में लेखकों ने उन्हें नए सिरे से याद करना शुरू किया है। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक नरेन्द्र मोहन ने मंटो की एक जीवनी लिखी है और अंग्रेजी की लेखिका रख्शंदा जलील ने अंग्रेजी में उनकी कहानियों का अनुवाद किया है। प्रकाशन विभाग की पत्रिका आजकल ने अपना विशेषांक निकाला है। शकील सिद्दीकी ने अपने एक लेख में मंटो को मार्क्स से प्रभावित बताया है। सहमत और प्रगतिशील लेखक संघ ने मंटो पर समारोह करने का फैसला किया है। मलयालम में भी उनकी रचनाओं का अनुवाद हुआ है।
गुनहगार मंटो के अनुसार सिद्दीकी का कहना है कि मंटो पर धुआं, बू, ठण्डा गोश्त, काली सलवार और ऊपर, नीचे और दरम्यान कहानी पर मुकदमे चले और दस वर्ष तक उन्हें अदालत के चक्कर लगाने पड़े। खोल दो कहानी जिस पत्रिका में छपी, उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। मंटो पर तीन मुकदमे वर्ष 1947 से पहले और तीन मुकदमे वर्ष 1947 के बाद चले। भारत-पाकिस्तान के शायद ही किसी लेखक को अश्लीलता के आरोपों में इतने लंबे समय तक अदालत के चक्कर लगाने पड़े हों। मंटो ने यह भी लिखा है कि एक मुकदमे में मजिस्ट्रेट ने उन्हें जर्माना भी किया और अदालत में यह भी कहा कि मैं आपसे मिलना चाहता हूं। मंटो को बहुत हैरानी हुई कि आखिर मजिस्ट्रेट क्यों मिलना चाहते हैं। वह उनके लिए कराची में रुक गए। मजिस्ट्रेट ने अगले दिन मंटो से मिलने पर कहा कि मंटो साहब, मैं आपको इस दौर का बहुत बड़ा अफसानानिगार मानता हूं, आपसे मिलने का मकसद सिर्फ यह है कि आप यह ख्याल दिल में लेकर न जाएं कि मैं आपका प्रशंसक नहीं हूं। तब मंटो ने पूछा कि आपने मुझ पर जुर्माना किया। तब मजिस्ट्रेट ने कहा कि इसका जवाब एक बरस के बाद दूंगा। यह अलग बात है कि मजिस्ट्रेट साहब फिर नहीं मिले।
मंटो ने मुम्बई में रहते हुए मिर्जा गालिब, चल चल रे नौजवान, किशन कन्हैया, अपनी नगरिया और आठ दिन नामक फिल्मों के संवाद भी लिखे थे। उनका घनिष्ठ संबंध श्याम अशोक कुमार, नर्गिस, सायरा बानो की मां नसीम बानो, सितारा देवी जैसे कलाकारों से था और उन पर उन्होंने यादगार संस्मरण भी लिखे थे। 42 साल की उम्र में अलविदा कहने वाले मंटो ने करीब 200 कहानियां लिखीं, एक उपन्यास और पांच रेडियो नाटक भी लिखे। 24 वर्ष की उम्र में उनका पहला कहानी संग्रह छपा था। वर्ष 1934 में उनकी पहली कहानी छपी थी। इस तरह 21 साल के लेखन करियर में उन्होंने कई यादगार अफसाने लिखे, जो हिन्दी-उर्दू की अदबी विरासत बन गए हैं।
मंटो ने विक्टर ह्यूगो और आस्कर वाइल्ड की रचनाओं का उर्दू में अनुवाद भी किया। उनके बारे में कहा जाता है कि भारत-पाक विभाजन के समय उनका इस मुद्दे पर अपने अजीज अभिनेता दोस्त श्याम से विवाद हो गया था और श्याम की बात उन्हें दिल में इतनी चुभी कि उन्होंने पाकिस्तान में रहने का फैसला किया, पर जलील का कहना है कि इस बात का जिक्र मंटो ने कहीं नहीं किया है। मंटो आल इंडिया रेडियो में भी काम करते थे और उनकी दोस्ती कृश्न चंदर तथा उपेंद्रनाथ अश्क से भी थी। अश्क ने तब मंटो-मेरा दुश्मन नामक एक किताब भी लिखी थी। मंटो का विवाद आल इंडिया रेडियो के निदेशक एवं मशहूर शायर नून मीम राशिद से हो गया था, जिनके कारण उन्होंने रेडियो की नौकरी छोड़ दी थी।

Dark Saint Alaick
04-06-2012, 11:32 AM
दुर्लभ हुई ताज़ा हवा का एहसास कराती हास्य फिल्में

हास्य व्यंग्य हिन्दी सिनेमा का कभी भी मूल स्वर नहीं रहा, लेकिन पिछले 100 वर्षो के दौरान हिन्दी सिनेमा ने समय समय पर ऐसी फिल्में दी जो जिंदगी और उसकी उलझनों की गहमागहमी के बीच आज भी ताजी हवा के झोके का सा एसहास कराती है, हालांकि अब ऐसी सार्थक फिल्में बिरले ही देखने को मिलती है। गुजरे जमाने के अभिनेता मनोज कुमार ने कहा कि कलाकार चीख चिल्ला कर या गूंगा-बहरा बनकर हस्य नहीं पेश कर सकता । संवादों और अभिनय के मिश्रण से हास्य उपजता है और ऐसी हास्य विनोद से भरपूर फिल्में हमें ताजगी प्रदान करने के साथ जिंदगी के स्याह पक्ष को भी उजागर करने का काम करती हैं। उन्होंने कहा कि आज हास्य के नाम पर अधिकांश ऐसी फिल्में बन रही हैं जो कामेडी के ‘डार्क जोन’ में खड़ी दिखती हैं। हिन्दी फिल्म में हास्य रस का समावेश दिवंगत देवकी बोस ने किया था । करीब सात दशक पूर्व उन्होंने ‘सुनहरा संसार’ फिल्म के माध्यम से मध्य वर्गीय समाज की बेकारी के प्रश्न को बड़े व्यंग्यात्मक अंदाज में प्रस्तुत किया था और उसके जरिये पहली बार हमें हास्य की बानगी देखने को मिली। इसी तरह से सागर मूवीटोन द्वारा निर्मित ‘गे-बर्ड्स’ और रणजी की ‘चार चक्रम’ नामक फिल्म को उस समय सफलतम हास्य फिल्म की श्रेणी में रखा गया था। पचास के दशक में मोतीलाल और कन्हैयालाल अभिनीत ‘मिस्टर सम्पत’ पेश करके एस एस वासन ने फिल्मों में हास्य को नया आयाम दिया, लेकिन इसके बाद काफी समय तक कोई ऐसी फिल्म देखने को नहीं मिली जिसे सार्थक हास्य का पर्याय माना जाए। साठ के दशक के अंत और सत्तर के दशक के प्रारंभ में चेतन आनंद की फिल्म ‘फंटूश’ और मराठी कथानक पर आधारित ‘चाचा चौधरी’ ने हास्य चित्रों के निर्माण को निश्चित ही एक नयी गति दी। चलती का नाम गाड़ी, पड़ोसन, प्यार किए जा, गोलमाल, चश्मेबद्दूर, अंगूर, जाने भी दो यारो, चुपके चुपके, छोटी सी बात जैसी दूसरी फिल्मों ने उस परंपरा को आगे बढाने का प्रयास किया। मनोज कुमार ने कहा कि हास्य फिल्मों की अभूतपूर्व सफलता के बावजूद अधिकांश निर्माताओं की हास्य फिल्मों के प्रति बेरूखी बनी रही है। हास्य फिल्मों की श्रेणी में सुरेश जिंदल की ‘कथा’ का महत्वपूर्ण स्थान है। जिंदल इससे पहले शतरंज के खिलाड़ी का निर्माण कर चुके थे और रिचर्ड एटिनबरो की फिल्म ‘गांधी’ के सह निर्माता थे। कथा हास्य व्यंग्य से भरपूर सार्थक चित्र था। हृषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की त्रिमूर्ति ने हास्य के क्षेत्र में ऐसी फिल्में दी जो आज भी उछलकूद, मारधाड़ और कसरती नाच गानों से भरपूर फिल्मों की मरूभूमि में नखलिस्तान की तरह हैं।

Dark Saint Alaick
05-06-2012, 03:32 PM
नेहरू, स्टालिन और माओ भी थे 'आवारा' से प्रभावित

बॉलीवुड के मशहूर निर्माता-निर्देशक राज कपूर की फिल्म 'आवारा' पर फिदा होने वालों में दुनिया के बड़े-बड़े नेता तक शामिल रहे हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर पूर्व सोवियत संघ के शासक जोसेफ स्टालिन और चीन में साम्यवादी क्रांति के सूत्रधार माओ त्से तुंग जैसे दिग्गज भी आवारा की विषयवस्तु से प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सके थे। स्टालिन तो 'आवारा' से इस कदर अभिभूत हुए थे कि पंडित नेहरूसे मुलाकात के दौरान वह पूरे समय उनसे सिर्फ इसी फिल्म के बारे में बातें करते रहे थे। पंडित नेहरू भी स्टालिन के इस 'आवारा-प्रेम' को देखकर चकित हो गए थे। उनकी उत्सुकता इस कदर बढ़ गई थी कि स्वदेश लौटने पर उन्होंने राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर से पूछ ही लिया था, 'ये आवारा क्या है, जो तुम्हारे बेटे ने बनाई है। स्टालिन पूरे समय मुझसे उसी की बातें करते रहे।' पंडित नेहरूकी सोवियत संघ की यात्रा के दौरान ऐसा ही एक और वाकया हुआ था। उस समय पंडित नेहरूकी बेटी तथा बाद में देश की प्रधानमंत्री बनीं श्रीमती इंदिरा गांधी भी उनके साथ गई थीं। भारतीय प्रधानमंत्री के सम्मान में आयोजित भोज में पंडित नेहरूके भाषण के बाद जब सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन के बोलने की बारी आई, तो अपने सहयोगियों के साथ उन्होंने आवारा का लोकप्रिय गीत 'आवारा हूं' गाकर सुनाया था। चीन की क्रांति के नायक माओ त्से तुंग को भी यह फिल्म और खास तौर पर इसका गीत 'आवारा हूं' बेहद पसंद था।
ये कुछ वाकयात हैं, जो 1951 में 'आवारा' के प्रदर्शित होने के कुछ समय बाद लोगों ने सुने और पढ़े थे, लेकिन इस फिल्म की लोकप्रियता एक विशेष कालखंड तक ही सीमित नहीं रही है। यह भारत की शायद पहली ऐसी फिल्म थी, जिसने देश की सरहदों को पार करके सोवियत संघ, चीन, अफगानिस्तान, अफ्रीका, यूरोप, अफ्रीका और पश्चिम तथा दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में करोड़ों लोगों के दिलों को जीतकर कामयाबी का परचम लहराया। एक तरह से 'आवारा' ने विश्व के लगभग आधे भूभाग पर सांस्कृतिक विजय हासिल करते हुए विभिन्न देशों के साथ भारत के सांस्कृतिक संबंधों को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस फिल्म को प्रदर्शन के समय मिली लोकप्रियता आज भी बरकरार है। यही वजह है कि प्रतिष्ठित 'टाइम' मैगजीन ने हाल ही अपनी बीस नई प्रविष्टियों में 'आवारा' को भी शामिल कर विश्व की 100 क्लासिक फिल्मों की सूची में इसे स्थान दिया है। इससे पहले भारतीय फिल्मों में अंतर्राष्टñीय ख्यातिप्राप्त निर्माता- निर्देशक सत्यजित रे की 'अपु त्रयी', गुरदत्त की 'प्यासा' और मणिरत्नम की 'नायकन' को ही यह सम्मान हासिल हो पाया है। 'आवारा' ने 'टाइम' मैगजीन की 100 क्लासिक फिल्मों में स्थान हासिल करने से पहले इतने सम्मान हासिल किए हैं कि उनकी अलग से एक सूची बन सकती है। इसे 1953 में कान फिल्म समारोह में ग्रैंड प्राइज के लिए नामित किया गया था। 2003 में 'टाइम' मैगजीन ने ही इसे अपने फिल्म खजाने की 10 उत्कृष्ट भारतीय फिल्मों की सूची में शामिल किया था। साथ ही इसने फिल्म के नायक राज कपूर के अभिनय को सर्वकालिक 10 उत्कृष्ट अभिनय प्रदर्शनों में चुना था।
भारत में 'आवारा' ने रिकार्ड एक करोड़ 20 लाख रुपए से अधिक कमाई की थी, जिसे अगले साल 1952 में महबूब खान की 'आन' फिल्म ने तोड़ा। जहां तक विश्व के दर्शकों के बीच इस फिल्म की लोकप्रियता की बात है, सोवियत संघ में 'आवारा' का प्रदर्शन होने के बाद लगभग छह करोड़ तीस लाख दर्शकों ने इसे देखा। यह फिल्म वहां कई वर्ष तक भारत की सफलतम फिल्म बनी रही। तुर्की में भी 'आवारा' ने कामयाबी की नई मिसाल कायम की। वहां 1964 में 'आवरे' नाम से इसका रीमेक बनाया गया, जिसमें तुर्की के मशहूर अभिनेता सादरी अहसिक ने नायक और आजदा पेक्कन ने नायिका की भूमिका निभाई थी।
आवारा में गीतकार शैलेन्द्र के लिखे गीत 'आवारा हूं, गर्दिश में हूं या आसमान का तारा हूं' ने तो विश्व सिनेप्रेमियों के बीच तहलका मचा दिया। अंतर्राष्टñीय लोकप्रियता में आज भी इस गीत का कोई मुकाबला नहीं है और यह विश्व गीत जैसा बन चुका है। देश में भी इस गीत का इस्तेमाल कई फिल्मों में किया गया। दिलचस्प बात यह है कि अंतर्राष्टñीय स्तर पर आवारा जैसी ही कामयाबी पाने वाली निर्माता-निर्देशक बिमल राय की फिल्म 'दो बीघा जमीन' में बाल कलाकार जगदीप को 'आवारा हूं' गीत गाते और नाक से इसकी धुन निकालते हुए दिखाया गया था।
'आवारा' की अंतर्राष्टñीय कामयाबी ने फिल्म से जुड़े हर कलाकार को विश्व सिनेमा पटल पर स्थापित कर दिया। फिल्म के निर्माता-निर्देशक राज कपूर के साथ ही नायिका नर्गिस, पृथ्वीराज कपूर, लीला चिटनिस, के. एन. सिंह, गायक मुकेश, संगीतकार शंकर जयकिशन, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी तथा कहानीकार ख्वाजा अहमद अब्बास के नाम पूरी दुनिया के सिनेप्रेमियों के लिए चिर परिचित नाम बन गए। 'आवारा' के बारे में एक और दिलचस्प बात यह है कि इसमें कपूर खानदान की तीन पीढ़ियों ने एक साथ काम किया था। फिल्म में न्यायाधीश की भूमिका उनके पिता पृथ्वीराज कपूर, उनके बचपन की भूमिका शशि कपूर और एक छोटी सी भूमिका उनके दादा दीवान बशेशरनाथ कपूर ने निभाई थी। फिल्म में राज कपूर ने अपने कैमरामैन राधू करमाकर के साथ मिलकर छायांकन के कई अभिनव प्रयोग भी किए। विशेष रूप से फिल्म के स्वप्न दृश्य के फिल्मांकन में उनकी कलात्मकता के शिखर के दिग्दर्शन होते हैं।
राज कपूर ने 1951 में ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी पटकथा 'आवारा' को खरीदने का फैसला किया। उनसे पहले अब्बास ने 'आवारा' की कहानी प्रख्यात फिल्मकार महबूब खान को सुनाई थी, लेकिन कलाकारों के नाम को लेकर दोनों के बीच सहमति नहीं बन पाई। महबूब फिल्म में बाप की भूमिका अशोक कुमार और बेटे की भूमिका दिलीप कुमार से कराना चाहते थे। बात नहीं बनने पर अब्बास ने राज कपूर से सम्पर्क किया, जिन्होंने इस पर फिल्म बनाने का निर्णय लेने में एक पल की भी देरी नहीं की। इस फिल्म के नायक का नाम 'राजू' इतना चर्चित हो गया था कि लोगों ने अपने पुत्रों के नाम राजू रखने शुरू कर दिए थे। सोवियत संघ और चीन जैसे साम्यवादी देशों में 'आवारा' के इस कदर कामयाब होने का एक प्रमुख कारण इसकी विषयवस्तु का समाजवादी विचारधारा के नजदीक होना भी था।
राज कपूर ने अपनी इस फिल्म के बारे में कहा था, 'मुझे अपनी फिल्म में मनोरंजन और संदेश के बीच सही संतुलन बनाने का प्रयास करना था। 'आवारा' एक मुकम्मल फिल्म थी। इसमें सब कुछ था। इसमें वर्गभेद था। यह महानतम प्रणय की कथा थी, जिसका नायक स्वतंत्रता और बाद के भारत को विरासत में मिली दरिद्रता की उपज था। लब पर तराने और हाथ में फूल लिए यह युवक विषम आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों की कांटों भरी राह पर चल रहा था। इस 'आवारा' में लोगों ने उस परिवर्तन की झलक देखी, जिसकी चाह उनके मन के किसी कोने में दबी पड़ी थी। 'आवारा' भारत के निष्पाप नवजात गणतंत्र के सुनहरे सपनों और कठिन विश्व के साथ कदम मिलाकर चलने की कोशिश करने वाली फिल्म है। यह सर्वमान्य मानवीय गरिमा का प्रतिष्ठित रूप थी।'

Dark Saint Alaick
06-06-2012, 02:43 AM
जनता मस्त तो बाबा भी...

भारत के कई प्रमुख टीवी चैनल और समाचार चैनलों पर अब भी दरबार लगा है। बड़ी संख्या में भक्तों के बीच चमत्कारी शक्तियों का दावा करने वाले शख्स सिंहासन पर विराजमान हैं। लोग प्रश्न पूछते हैं और बाबा जवाब देते हैं। सामान्य परेशानी वाले सवालों के असामान्य जवाब। एक छात्रा पूछती है- बाबा मैं आर्ट्स लूं, कॉमर्स लूं या फिर साइंस। बाबा कहते हैं- पहल ये बताओ आखिरी बार रोटी कब बनाई है। रोज एक रोटी बनाना शुरू कर दो। एक और हताश और परेशान व्यक्ति पूछता है, बाबा नौकरी कब मिलेगी? बाबा कहते हैं क्या कभी सांप मारा है या मारते हुए देखा है? ये है निर्मल बाबा का दरबार। जनता मस्त है और बाबा भी। बाबा की झोली लगातार भर रही है। बाबा के नाम प्रॉपर्टी भरमार है। होटल हैं, फ्लैट्स हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं। कई अखबार दावा करते हैं कि जनवरी से बाबा के बैंक खाते में हर दिन एक करोड़ रुपए आ रहे हैं।
ये है 21वीं सदी का भारत। आधुनिक भारत। अग्नि-5 वाला भारत। कौन कहता है भारत में पैसे की कमी है। गरीब से गरीब और धनी से धनी बाबा के लिए अपनी संपत्ति कुर्बान कर देना चाहता है। कई प्रमुख टीवी चैनलों और समाचार चैनलों पर जगह बना चुके निर्मल बाबा पर एकाएक मीडिया की तिरछी नजर पड़ी। टीवी चैनल निर्मल बाबा की पोल खोलने के लिए कमर कस कर मैदान में आ गए। अब तो थाने में मामला भी दर्ज हो चुका है। कितनी अजीब बात है कई समाचार चैनल बाबा की बैंड बजाने पर तुले हैं और उन्हीं के चैनल पर बाबा अपने भक्तों को बेमतल का ज्ञान बांट रहे हैं।
बाबाओं को लेकर भारतीय जनता का प्रेम नया नहीं है। कभी किसी बाबा की धूम रहती है तो कभी किसी बाबा की। कभी आसाराम बापू टीवी चैनलों की शान हुआ करते थे। तो आज निर्मल बाबा का समय आया है।
ये बाबा भी बड़ी सोच-समझकर ऐसे लोगों को अपना लक्ष्य बनाते हैं, जो असुरक्षित हैं। आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत छोटी लकीर होती है, जिसे मिटाकर ऐसे बाबा अपना काम निकालते हैं। लेकिन नौकरी के लिए तरसता व्यक्ति या फिर बेटी की शादी न कर पाने में असमर्थ कोई गरीब इन बाबाओं का टारगेट नहीं। इनका टारगेट हैं मध्य वर्ग, जो बड़े-बड़े स्टार्स और व्यापारिक घराने के लोगों की ऐसी श्रद्धा देखकर इन बाबाओं की शरण में आ जाता है। कलाकार हो या उद्योगपति, राजनेता हों या नौकरशाह, इन बड़े लोगों ने जाने-अनजाने में इस अंधविश्वास को बल दिया है। शादी के समय किसी कलाकार का ग्रह-नक्षत्रों को खुश करने के लिए मंदिरों का दौरा, चुनाव जीतने के लिए बाबाओं के चक्कर लगाते नेता। दरअसल समृद्धि अंधविश्वास भी लेकर आती है। वजह अपना रुतबा, अपनी दौलत कायम रखने का लालच। जो जितना समृद्ध वो उतना ही अंधविश्वासी। और फिर समृद्धि के पीछे भागता मध्यमवर्ग। इस मामले में क्यों पीछे रहेगा? इसलिए इन बाबाओं के पौ-बारह हैं। फिर क्यों न निर्मल बाबा डायबिटीज से पीड़ित व्यक्ति को खीर खाने की सलाह देंगे? आखिर हमारी मानसिकता ही तो ऐसे तथाकथित चमत्कारियों को समृद्ध बना रही है।

-पंकज प्रियदर्शी, ब्लॉग लेखक

Dark Saint Alaick
08-06-2012, 03:32 PM
पुण्यतिथि 9 जून के अवसर पर विशेष
उत्कृष्ट निर्देशन से दर्शकों के दिलों पर राज किया राज खोसला ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16918&stc=1&d=1339151484

भारतीय सिनेमा में राज खोसला को एक ऐसे फिल्मकार के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपने उत्कृष्ट निर्देशन से लगभग चार दशक तक सिने प्रेमियों के दिलों पर राज किया। पंजाब के लुधियाना शहर में 31 मई 1925 को जन्मे राज खोसला का बचपन से ही रुझान गीत-संगीत की ओर था। वे फिल्मी दुनिया में पार्श्वगायक बनना चाहते थे। आकाशवाणी में बतौर उद्घोषक और पार्श्वगायक का काम करने के बाद राज खोसला 19 वर्ष की उम्र में पार्श्वगायक की तमन्ना लिए मुबई आ गए। मुंबई आने के बाद राज खोसला ने रंजीत स्टूडियो में अपना स्वर परीक्षण कराया और इस कसौटी पर वह खरे भी उतरे, लेकिन रंजीत स्टूडियो के मालिक सरदार चंदूलाल ने उन्हें बतौर पार्श्वगायक अपनी फिल्म में काम करने का मौका नहीं दिया। उन दिनों रंजीत स्टूडियो की स्थिति ठीक नहीं थी और सरदार चंदूलाल को नए पार्श्वगायक की अपेक्षा मुकेश पर ज्यादा भरोसा था, अत: उन्होंने अपनी फिल्म में मुकेश को ही पार्श्वगायन करने का मौका देना उचित समझा।
इस बीच राज खोसला फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिये संघर्ष करते रहे। उन्हीं दिनों उनके पारिवारिक मित्र और अभिनेता देव आनंद ने राज खोसला को अपनी फिल्म 'बाजी' में गुरुदत्त के सहायक निर्देशक के तौर पर नियुक्त कर लिया। वर्ष 1954 में राज खोसला को स्वतंत्र निर्देशक के तौर पर फिल्म 'मिलाप' को निर्देशित करने का मौका मिला। देव आनंद और गीता बाली अभिनीत फिल्म 'मिलाप' की सफलता के बाद बतौर निर्देशक राज खोसला फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए। वर्ष 1956 में राज खोसला ने 'सी.आई.डी.' फिल्म का निर्देशन किया। जब फिल्म ने बॉक्स आॅफिस पर अपनी सिल्वर जुबली पूरी की, तब गुरुदत्त इससे काफी खुश हुए। उन्होंने राज खोसला को एक नई कार भेंट की और कहा, यह कार आपकी है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि गुरुदत्त ने कार के सारे कागजात भी राज खोसला के नाम से ही बनवाए थे। 'सी.आई.डी.' की सफलता के बाद गुरुदत्त ने राज खोसला को अपनी एक अन्य फिल्म के निर्देशन की भी जिम्मेदारी सौंपनी चाही, लेकिन राज खोसला ने उन्हें यह कह कर इंकार कर दिया कि एक बड़े पेड़ के नीचे भला दूसरा पेड़ कैसे पनप सकता है। इस पर गुरुदत्त ने राज खोसला से कहा, गुरुदत्त फिल्म पर जितना मेरा अधिकार है, उतना तुम्हारा भी है।
वर्ष 1958 में राज खोसला ने नवकेतन बैनर तले निर्मित फिल्म 'सोलहवां साल' निर्देशित की। देव आनंद और वहीदा रहमान अभिनीत इस फिल्म को सेंसर का वयस्क प्रमाण पत्र मिलने के कारण फिल्म को देखने ज्यादा दर्शक नहीं आ सके और अच्छी पटकथा तथा निर्देशन के बावजूद फिल्म बॉक्स आॅफिस पर कोई खास कमाल नही दिखा सकी। इसके बाद राज खोसला को नवकेतन के बैनर की ही फिल्म 'काला पानी' को निर्देशित करने का मौका मिला। यह बात कितनी दिलचस्प है कि जिस देव आनंद की बदौलत राज खोसला को फिल्म इंडस्ट्री में काम करने का मौका मिला था, उन्हीं की वजह से देव आनंद को अपने फिल्मी करियर का बतौर अभिनेता पहला फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ।
वर्ष 1960 में राज खोसला ने निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया और 'बंबई का बाबू' का निर्माण किया। फिल्म के जरिए राज खोसला ने अभिनेत्री सुचित्रा सेन को रुपहले पर्दे पर पेश किया। हालांकि फिल्म दर्शकों के बीच सराही गई, लेकिन बॉक्स आॅफिस पर इसे अपेक्षित कामयाबी नही मिल पाई। फिल्म की विफलता से राज खोसला आर्थिक तंगी में फंस गए। इसके बाद राज खोसला को फिल्मालय की एस. मुखर्जी निर्मित 'एक मुसाफिर एक हसीना' निर्देशित करने का मौका मिला। फिल्म की कहानी एक ऐसे फौजी अफसर की जिंदगी पर आधारित थी, जिसकी याददाश्त चली जाती है। फिल्म के निर्माण के समय एस. मुखर्जी ने राज खोसला को यह राय दी कि फिल्म की कहानी फ्लैशबैक से शुरूकी जाए। एस. मुखर्जी की इस बात से राज खोसला सहमत नहीं थे। बाद में वर्ष 1962 में जब फिल्म प्रदर्शित हुई, तो आरंभ में उसे दर्शकों का अपेक्षित प्यार नहीं मिला और राज खोसला के कहने पर एस. मुखर्जी ने फिल्म का संपादन कराया और जब फिल्म को दुबारा प्रदर्शित किया, तो फिल्म पर बॉक्स आॅफिस पर सुपरहिट साबित हुई।
वर्ष 1964 में राज खोसला की एक और सुपरहिट फिल्म प्रदर्शित हुई 'वह कौन थी'। फिल्म के निर्माण के समय मनोज कुमार और अभिनेत्री के रूप में निम्मी का चयन किया गया था, लेकिन राज खोसला ने निम्मी की जगह साधना का चयन किया। रहस्य और रोमांच से भरपूर इस फिल्म में साधना की रहस्यमय मुस्कान के दर्शक दीवाने हो गए। साथ ही फिल्म की सफलता के बाद राज खोसला का निर्णय सही साबित हुआ। वर्ष 1967 में राज खोसला ने फिल्म 'अनिता' का निर्माण किया, जो बॉक्स आॅफिस पर बुरी तरह नकार दी गई, जिससे उन्हें गहरा सदमा पहुंचा और उन्हें आर्थिक क्षति हुई। इससे राज खोसला टूट से गए, बाद में अपनी मां के कहने पर उन्होंने वर्ष 1969 में फिल्म 'चिराग' का निर्माण किया, जो सुपरहिट रही। वर्ष 1971 में राज खोसला की एक और सुपरहिट फिल्म प्रदर्शित हुई 'मेरा गांव मेरा देश' इस फिल्म में विनोद खन्ना खलनायक की भूमिका में थे। फिल्म की कहानी उन दिनों एक अखबार में छपी कहानी पर आधारित थी। वर्ष 1978 में राज खोसला ने लीक से हटकर फिल्में बनाने का काम करना शुरूकर दिया और नूतन और विजय आनंद को लेकर 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' का निर्माण किया। पारिवारिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म दर्शकों के बीच काफी सराही गई। वर्ष 1980 में प्रदर्शित फिल्म 'दोस्ताना' राज खोसला के सिने करियर की अंतिम सुपरहिट फिल्म थी। फिल्म में अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिंहा और जीनत अमान ने मुख्य भूमिका निभाई थी। अपने दमदार निर्देशन से लगभग चार दशक तक सिने प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन करने वाले यह महान निर्माता-निर्देशक 9 जून 1991 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
12-06-2012, 12:05 AM
मेरठ का बॉलीवुड से रहा है गहरा नाता

राजनीतिक और औद्योगिक क्षेत्र में प्रमुख स्थान रखने वाले मेरठ का हिन्दी फिल्मों के विकास में भी बड़ा योगदान रहा है। हिन्दी सिनेमा को विशेष पहचान दिलाने और इसे लोकप्रिय बनाने में यहां के कलाकारों की महती भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता है। मेरठ ने भारत भूषण, नसीरुद्दीन शाह, अरुण गोविल, कैलाश खेर, देवेन्द्र गोयल, पंडित मुखराम शर्मा, बोनी कपूर, बंटी चौधरी, मंदाकिनी, दीप्ति भटनागर आदि कई ऐसे नामी अभिनेता, अभिनेत्री, लेखक, गायक, गीतकार, संगीतकार और निर्माता-निर्देशक दिए हैं, जिन्होंने न सिर्फ राष्ट्रीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सिनेप्रेमियों को अपने फन का कायल बनाया है।
कम ही लोगों को मालूम होगा कि हिन्दी सिनेमा के पहले चाकलेटी हीरो भारत भूषण का जन्म मेरठ में हुआ था। उनके पिता रायबहादुर मोतीलाल मेरठ में सरकारी वकील थे और वह चाहते थे कि उनका बेटा भी उनकी तरह सरकारी मुलाजिम बने, लेकिन भारत भूषण ने उनकी मर्जी के खिलाफ फिल्म को अपना कैरियर बनाया। भारत भूषण ने बैजू बावरा, मिर्जा गालिब, रानी रूपमती और बरसात की रात जैसी लगभग 36 फिल्मों में साहित्यिक, ऐतिहासिक और रूमानी किरदारों को अपने सहज-स्वाभाविक अभिनय से जीवंत किया और चैतन्य महाप्रभु फिल्म के लिए वह 1954 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के दूसरे फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए।
विश्व सिनेमा पर अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले मशहूर अभिनेता नसीरुद्दीन शाह का ताल्लुक भी मेरठ से रहा है। हालांकि उनका जन्म बाराबंकी में हुआ, लेकिन उनका परिवार मेरठ जिले के सरधना से संबंध रखता है। नसीरुद्दीन शाह अपने बहुआयामी अभिनय के लिए तीन बार राष्टñीय फिल्म पुरस्कार और चार बार फिल्म फेयर पुरस्कार हासिल कर चुके हैं। सिनेमा में अहम योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री और पद्म विभूषण से भी अलंकृत किया गया है।
प्रसिद्ध कथा-पटकथा और संवाद लेखक पंडित मुखराम शर्मा का जन्म भी मेरठ में किला परीक्षितगढ़ क्षेत्र के पूठी गांव में हुआ था। मुखराम शर्मा वह शख्स थे, जिन्होंने हिन्दी फिल्म उद्योग में लेखक को सम्मानित दर्जा दिलाने में अहम भूमिका निभाई। अध्यापन का पेशा छोड़कर 1939 में बॉलीवुड में किस्मत आजमाने पहुंचे शर्माजी ने फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक कहानियां, पटकथा, संवाद और गीत लिखे। उन्होंने लगभग 150 से अधिक फिल्मों के लिए कहानी लेखन किया, जिनमें कुछ उल्लेखनीय फिल्में औलाद, वचन, एक ही रास्ता, दुश्मन, साधना, दो बहनें, तलाक, सपने सुहाने, पतंगा, धूल का फूल, घराना, गृहस्थी, समाधि, हमजोली, राजा और रंक आदि हैं। पंडित मुखराम शर्मा को उनके अप्रतिम कार्य के लिए 1950 से 1970 के बीच तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार, 1961 में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के हाथों संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा मेरठ के लोगों की उत्कृष्ट सेवा के लिए मेरठ रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
जाने-माने निर्माता-निर्देशक देवेन्द्र गोयल भी मेरठ से बालीवुड की जगमगाती दुनिया में कदम रखकर उसे और रोशन करनी वाली प्रतिभाशाली हस्ती थे। उन्होंने कुल सोलह फिल्मों आंखें, अदा, आस, अलबेली, नरसी भगत, एक साल, चिराग कहां रोशनी कहां, रजिया सुल्तान, प्यार का सागर, दूर की आवाज, दस लाख, एक फूल दो माली, धड़कन, एक महल हो सपनों का, आदमी सड़क का और दो मुसाफिर का निर्माण और निर्देशन किया।
बोनी कपूर ने भी निर्माता-निर्देशक के रूप में बॉलीवुड पर मेरठ की छाप छोड़ी। उन्होंने वो सात दिन, मिस्टर इंडिया, जुदाई, कंपनी, नो एंट्री और वांटेड जैसी सफल फिल्मों का निर्माण-निर्देशन किया। रामानन्द सागर के टेलीविजन धारावाहिक रामायण से घर-घर चर्चित हुए अरुण गोविल का भी जन्म और शिक्षा-दीक्षा मेरठ में ही हुई। मुम्बई में 1977 में फिल्म पहेली में पहली बार अभिनय करने के बाद फिल्म सावन को आने दो से उन्होंने बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाई।
मेरठ के ही गायक और संगीतकार कैलाश खेर ने भी बॉलीवुड में ऊंचा मुकाम हासिल किया है। वह बॉलीवुड के लिए अब तक 300 से अधिक और क्षेत्रीय फिल्मों के लिए 18 भाषाओं में गीत गा चुके हैं। नुसरत फतह अली खान और पं. कुमार गंधर्व को अपना आदर्श मानने वाले कैलाश खेर ने संगीत सीखने के लिए 14 वर्ष की अल्पायु में घर छोड़ दिया था और वह न केवल संगीत सीखते थे, बल्कि अपना खर्च निकालने के लिए संगीत सिखाते भी थे।
निर्माण, निर्देशन, संगीत निर्देशन, पार्श्व गायन आदि सिनेमा की विभिन्न विधाओं में पारंगत विशाल भारद्वाज हालांकि बिजनौर से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन उनकी प्रारंभिक शिक्षा मेरठ में ही हुई है। निर्माता-निर्देशक गुलजार की फिल्म माचिस में संगीतकार के रूप में सफलता हासिल करने के बाद उन्होंने निर्माण और निर्देशन के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हुए मकबूल, ओमकारा, कमीने, सात खून माफ और इश्किया जैसी फिल्मों से एक नया सिनेमाई मुहावरा गढ़ा। राजा भैया, बंटी राठौर और विश्वजीत जैसी कुछ और फिल्मी हस्तियां हैं, जो मेरठ से ही ताल्लुक रखती हैं।
अभिनेत्रियों में मीना कुमारी, मंदाकिनी और दीप्ति भटनागर का नाता मेरठ से रहा है। बताया जाता है कि मीना कुमारी की ननिहाल मेरठ में थी। भारतीय सिनेमा के ग्रेटेस्ट शोमैन राज कपूर ने इसी शहर की यास्मीन जोसफ को मंदाकिनी नाम देकर 1985 में राम तेरी गंगा मैली फिल्म से रपहले परदे पर उतारा। यह फिल्म सुपर हिट रही, लेकिन इसके बाद उनकी फिल्में फ्लाप दर फ्लाप रहीं और वह फिल्मी दुनिया से गायब हो गई। चित्रांगदा सिंह और दीपा शाही के बारे में भी कहा जाता है कि वह मेरठ से संबंधित रही हैं। इन अभिनेत्रियों के पिता मेरठ छावनी में पोस्टेड रहे और इस अवधि में उन्होंने यहीं रहकर शिक्षा हासिल की।

Dark Saint Alaick
13-06-2012, 08:19 PM
14 जून ब्लड डोनर डे पर विशेष
रक्तदान : गैरों से भी खून का रिश्ता

खून के रिश्ते को दुनिया का सबसे अटूट बंधन माना जाता है और अपनी रगों में बहते खून के चंद कतरे ‘दान’ करके आप ऐसे अनजाने लोगों से भी खून का रिश्ता जोड़ सकते हैं, जो जरूरत के वक्त आपसे मिले इस तोहफे के दम पर नया जीवन पाकर उम्रभर आपके ऋणी रहेंगे। ‘रक्तदान’ को ‘महादान’ कहा गया है, लेकिन आज भी बड़ी संख्या में लोगों की मौत समय पर खून न मिलने के कारण हो रही है। बहुत से लोग रक्तदान के महत्व को समझते हैं और अब तक 111 बार रक्तदान कर चुके महाराष्ट्र के चालीसगांव निवासी दीपक शुक्ला ऐसे लोगों में अग्रणी हैं। उन्होंने नेत्रदान और अंगदान का भी संकल्प लिया है । अपने अनुभव को दीपक इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं - ‘जीते जीते रक्तदान, मरते मरते नेत्रदान’। हमारे शरीर में रक्त बनने की क्रिया भी काफी रोचक है। रक्त, श्वेत रक्त कण, लाल रक्त कण, प्लाज्मा और प्लेटलेट्स से मिलकर बने रक्त में लाल रक्तकण शरीर के हर भाग में आॅक्सीजन पहुंचाने का काम करते हंै, श्वेत रक्तकण रोग प्रतिरोधक होते हैं तो प्लेटलेट्स का काम होता है बहते रक्त को रोकना। कभी चोट लगने पर खून बहता है और प्लेटलेट्स ही उसे बहने से रोकने का काम करते हैं। हर दिन हमारे शरीर के बोन मैरो (अस्थिमज्जा) में रक्त कोशिकाओं का निर्माण होता रहता है । आमतौर पर मनुष्य के शरीर में पांच से छह लीटर रक्त मौजूद होता है । लेकिन किसी कारणवश इसकी कमी होने पर इसकी पूर्ति करना आवश्यक हो जाता है । हर व्यक्ति का एक खास ब्लड ग्रुप होता है और कोई भी 18 से 60 वर्ष का स्वस्थ व्यक्ति (महिला या पुरुष) जिनका वजन 45 किलोग्राम या उससे ज्यादा हो किसी भी पंजीकृत ब्लड बैंक में रक्तदान कर सकता है ।
आमतौर पर दुर्घटनाओं में घायल होने वाले लोगों, किसी रोगी के आपरेशन के समय और बच्चे के जन्म के समय रक्त चढ़ाने की आवश्यकता पड़ जाती है । इसके अलावा थैलसीमिया, एनीमिया, हीमोफिलिया जैसी बीमारियों में भी रक्त चढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है । इसी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए विश्व भर में ‘रेड क्रॉस सोसायटी’ या ‘ब्लड बैंक’ की व्यवस्था की गई । भारत में 7 जून 1920 को ‘इंडियन रेड क्रॉस सोसायटी’ की स्थापना हुई । पेशे से लेक्चरर दीपक कहते हैं, ‘रक्त का कोई विकल्प नहीं है, लेकिन फिर भी लोगों को ब्लड बैंक की याद जरूरत पड़ने पर ही आती है। ज्यादातर लोग रक्तदान से कतराते हैं, लेकिन वह और उनका परिवार हर तीन महीने पर रक्तदान जरूर करता है।’ इंडियन रेडक्रॉस सोसायटी की निदेशक डॉ. वनश्री सिंह कहती हैं कि ब्लड बैंक में जरूरत पड़ने पर कोई भी आकर रक्तदान कर सकता है और रक्त ले जा सकता है। लोगों को रक्तदान के प्रति उत्साहित करने के लिए हम रक्तदाता को ‘वास्तविक हीरो’ के रूप में प्रचारित करते हैं। 14 को विश्व रक्तदाता दिवस के मौके पर एक सप्ताह का विशेष रक्तदान अभियान चलाया जाएगा और इस दौरान रक्तदान से जुड़े कई कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में डॉ. शमीम अहमद के अनुसार, ‘रक्त चढ़ाते समय उसकी शुद्धता और ग्रुप के बारे में जांच करना बहुत जरूरी है। खासकर एचआईवी जैसी बीमारियां रक्त चढ़ने के कारण न फैले इसका खास ख्याल रखना चाहिए। किसी के रक्त के नमूने को लेने के बाद उसे हेपेटाइटिस ए और सी, सिफलिस, एचआईवी जैसी पांच तरह की जांच प्रक्रियाओं से गुजारा जाता है। जांच परिणाम नकारात्मक आने पर ही प्रयोग के लिए रखा जाता है।’ विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 14 जून को रक्तदाताओं के प्रति धन्यवाद व्यक्त करने का दिन घोषित किया है।

Dark Saint Alaick
15-06-2012, 11:48 PM
राष्ट्रपति चुनाव में अब नहीं रही ‘धरती पकड़ों’ की गुंजाइश

राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव अब सियासी दलों के बीच वर्चस्व स्थापित करने और भावी राजनीति में अपने अस्तित्व को बनाए रखने की ऐसी रणभूमि बन गया है जिसमें सियासी दांव पेंच से अनजान चौधरी हरि राम, कृष्ण कुमार चटर्जी, यमुना प्रसाद त्रिशुलिया, नागेन्द्र नारायण दास, काका जोगिन्दर सिंह धरती पकड़ जैसे लोगों के अब चुनावी मैदान में कूदने की कोई गुंजाइश नहीं बची है। साल 1952 से 1992 तक तक ऐसा भी दौर देखा गया जब इस शीर्ष संवैधानिक पद के लिए हर बार कई लोगों ने दावेदारी पेश करके राष्ट्रपति पद के चुनाव में राजनीति से इतर रंग भरे और मीडिया तथा जनता में चर्चा का विषय बने। चौधरी हरिराम ने सबसे अधिक पांच बार (1952 से 1969) अपनी दावेदारी पेश की जबकि कृष्ण कुमार चटर्जी तीन बार (1957, 1967, 1969) उम्मीदवार बने। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने कहा कि 1992 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद यह सिलसिला थम गया। इस चुनाव में शंकर दयाल शर्मा और जी जे स्वेल के बीच मुकाबला हुआ जबकि राम जेठमलानी और काका जोगिंदर सिंह धरती पकड़ भी मैदान में थे। उन्होंने कहा कि इसके बाद राष्ट्रपति चुनाव की गंभीरता और गरिमा को बनाने के नाम पर किसी भी व्यक्ति के राष्ट्रपति चुनाव का नामांकन भरने के लिए निर्वाचक मंडल से 50 प्रस्तावकों एवं 50 अनुमोदकों का अनुमोदन आवश्यक बना दिया गया। इससे पहले राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के लिए निर्वाचक मंडल के केवल 10 प्रस्तावकों एवं 10 अनुमोदकों का समर्थन जरूरी था। राष्ट्रपति पद के लिए 1969 का चुनाव कई मायने में अनोखा रहा जब वी वी गिरि और नीलम संजीव रेड्डी के बीच कांटे का मुकाबला रहा। वी वी गिरि 4,20,077 मत प्राप्त कर विजयी रहे जबकि नीलम संजीव रेड्डी को 4,05,427 मत प्राप्त हुए। इस चुनाव में सी डी देशमुख की महत्वपूर्ण भूमिका रही जिन्हें 1,12,769 मत प्राप्त हुए। वहीं सी सेनानी को 5814 मत, पुरचरण कौर को 940 मत और चौधरी हरिराम को 125 मत प्राप्त हुए।
दो मई 1952 को राष्ट्रपति पद के लिए पहला चुनाव हुआ जिसमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 5,07,400 मत प्राप्त कर विजयी रहे जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वन्द्वी के टी शाह को 92, 827 मत मिले। चौधरी हरिराम को 1,954 और कृष्ण कुमार चटर्जी को 533 मत मिले। छह मई 1957 को राष्ट्रपति पद के लिए दूसरे चुनाव में 4,59,698 मत प्राप्त कर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पुन: विजयी रहे। चौधरी हरिराम को 2,672 तथा नागेन्द्र नारायण को 2000 मत मिले। सात मई 1962 को चुनाव में 5,53,067 मत प्राप्त कर डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन विजयी रहे जबकि चौधरी हरिराम को 6,341 और यमुना प्रसाद त्रिशुलिया को 3,577 मत मिले। छह मई 1967 को चुनाव में जाकिर हुसैन 4,71,244 मत प्राप्त कर विजयी रहे जबकि के सुब्बाराव को 3,63,971 मत मिले। खुबीराम को 1,369 मत, बी श्रीनिवास बोस को 232 मत, यमुना प्रसाद त्रिशुलिया को 232 मत, ब्रह्मदेव को 232 मत और कृष्ण कुमार चटर्जी को 125 मत मिले। 17 अगस्त 1974 को राष्ट्रपति चुनाव में फखरूद्दीन अली अहमद 7,54,113 मत प्राप्त कर विजयी रहे जबकि त्रिदिब चटर्जी को 1,89,196 मत मिले। 12 जुलाई 1982 को चुनाव में ज्ञानी जैल सिंह 7,54,113 मत प्राप्त कर जीते जबकि एच आर खन्ना को 2,82, 685 मत मिले। 16 जुलाई 1987 को चुनाव में आर वेंकट रमण 7,40,148 मत प्राप्त कर विजयी रहे जबकि वी आर कृष्णा अय्यर को 2,81,550 मत मिलें। 24 जुलाई 1992 को चुनाव में डॉ. शंकर दयाल शर्मा को 6,75,864 मत मिले और जी जी स्वेल को 3,46,485। वहीं रामजेठमलानी को 2,704 मत तथा काका जोगिन्दर सिंह धरती पकड़ को 1,135 मत मिले। 17 जुलाई 1997 को राष्ट्रपति पद के चुनाव में के आर नारायणन 9,56,290 मत प्राप्त कर जीते वहीं टी एन शेषण को 50,631 मत मिले। 15 जुलाई 2002 को चुनाव में ए पी जे अब्दुल कलाम 9,22,884 मत मिले जबकि लक्ष्मी सहगल को 1,07,366 मत प्राप्त हुए। 19 जुलाई 2007 को चुनाव में प्रतिभा पाटील 6,38,116 मत प्राप्त कर विजयी रही जबकि भैरो सिंह शेखावत को 3,31,306 मत मिले।

Dark Saint Alaick
17-06-2012, 09:05 AM
फादर्स डे के अवसर पर
बॉलीवुड में खूब चला पिता पर आधारित फिल्मों का सिक्का

संतान की नजर में पिता हर मुश्किल को हल करने वाला एक ऐसा सक्षम व्यक्ति होता है, जिसे वह अपने मित्र, पालक, संरक्षक और आदर्श के रूप में देखता है, लेकिन कई बार इस खूबसूरत रिश्ते में कड़वाहट भी नजर आती है। बॉलीवुड में पिता पुत्र के रिश्तों पर आधारित फिल्मों का सिक्का खूब चला और इस रिश्ते से जुड़े हर पहलू को खूब भुनाया गया। हिंदी फिल्म जगत में पारिवारिक और सामाजिक फिल्में सदा से बनती और पसंद की जाती रही हैं। ऐसे में पिता सहित परिवार के तमाम सदस्यों की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है। बहुत सी फिल्मों में पुत्र को पिता की मौत का बदला लेते हुए दिखाया गया और कुछ फिल्में ऐसी भी बनीं जिनमें पिता पुत्र का रिश्ता एक नए रूप में सामने आया। फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध कहते हैं कि हमारे देश में रिश्तों को बहुत महत्व दिया जाता है और यह बात हमारी फिल्मों में भी झलकती है। पुरानी मुगले आजम में जहां अकबर और सलीम के रिश्तों की उहापोह दिखाई गई वहीं नयी फिल्म कृश में एक पुत्र अपने वैज्ञानिक पिता और उसके अविष्कार को मानवता के खिलाफ उपयोग किए जाने से रोकता नजर आया। वर्ष में कुछ खास दिन कुछ खास रिश्तों के नाम समर्पित हैं। जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे के रूप में मनाया जाता है। हमारे देश में हाल के वर्षों में यह दिन मनाने का चलन बढा है। लघु फिल्म निर्माता कबीर देशपांडे कहते हैं कि आम जनजीवन में हम रिश्तों से बंधे रहते हैं और जब पर्दे पर हम रिश्तों की खींचतान देखते हैं तो हमें वह खुद पर गुजरता महसूस होता है। यही वजह है कि राजेश खन्ना अभिनीत ‘अवतार’ और अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘बागबान’ की कहानी को कई पिता अपनी कहानी समझते हैं। पिता पुत्र के रिश्तों पर बनी कुछ फिल्मों में विवाहेतर संबंधों और उससे उत्पन्न संतान के रिश्तों का तानाबना बुना गया। अनिरूद्ध कहते हैं कि शबाना आजमी और नसीरूद्दीन शाह की ‘मासूम’ और शाहरूख खान की ‘मैं हूं ना’ इसका उदाहरण हैं। ‘कभी खुशी कभी गम’ पिता के अंहकार की वजह से परिवार का बिखराव बताती है तो ‘आ अब लौट चलें’ में बेटा परदेस में बसे पिता को अपनी मां के पास वापस ले आता है। इनमें मसाला है पर सब कुछ आसपास घटता प्रतीत होता है। फिल्म समीक्षक माया गुप्ता कहती हैं कि हिन्दी फिल्मों में पिता के साथ पुत्री के संबंधों के बजाय पुत्र के साथ संबंधों को अधिक महत्व दिया गया है। शायद इसका कारण हमारा पुरूष प्रधान समाज है। सुनील दत्त की ‘दर्द का रिश्ता’ और शायद ऐसी ही कुछ गिनी चुनी फिल्मों में पिता पुत्री के रिश्ते दिखाए गए हैं। उन्होंने कहा कि पिता पुत्र पर बनी कुछ फिल्मों की कहानी गले नहीं उतरी, लेकिन फिल्में खूब चलीं। लावारिस, शक्ति, परवरिश, त्रिशूल आदि में उस दौर के एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन का जादू सर चढ़ कर बोला, लेकिन फिल्मों में पिता पुत्र के रिश्तों में स्वाभाविकता नहीं नजर आई। भरपूर मसाले के साथ ‘भूतनाथ’ भी चल गई जिसमें पिता की आत्मा तक पुत्र से नफरत करती है। अनिरूद्ध के अनुसार, ‘गांधी माई फादर’ में महात्मा गांधी का उनके बेटे हरिलाल के साथ तनावपूर्ण रिश्ता जहां बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है, वहीं ‘पा’ फिल्म में बीमार बेटे और पिता का दर्द भरा रिश्ता विषम परिस्थितियों में भी संतान के लिए मोह बताता है। ‘कयामत से कयामत तक’ में पिता बेटे की प्यार में दीवानगी से परेशान होता है वहीं ‘सूर्यवंशम’ में अनपढ़ बेटे को पिता अपनी संपत्ति से बेदखल कर देता है।

Dark Saint Alaick
18-06-2012, 04:17 PM
पुण्यतिथि 18 जून के अवसर पर विशेष
फिल्म जगत की 'ब्यूटी क्वीन' थीं नसीम बानो

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17267&stc=1&d=1340018250

भारतीय सिने जगत में अपनी दिलकश अदाओं से दर्शकों को दीवाना बनाने वाली अभिनेत्रियों की संख्या यूं तो बेशुमार है, लेकिन चालीस के दशक में एक अभिनेत्री ऐसी हुई, जिसे 'ब्यूटी क्वीन' कहा जाता था और आज के सिने प्रेमी शायद ही उसे जानते हों। वह अभिनेत्री थीं नसीम बानो। चार जुलाई 1916 को को जन्मी नसीम बानो की परवरिश शाही ढंÞग से हुई थी। वह स्कूल पढ़ने के लिए पालकी से जाती थीं। नसीम बानो की सुंदरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें किसी की नजर न लग जाए, इसलिए उन्हें पर्दे में रखा जाता था। फिल्म जगत में नसीम बानो का प्रवेश संयोगवश हुआ। एक बार नसीम बानो अपने स्कूल की छुटियों के दौरान अपनी मां के साथ फिल्म 'सिल्वर किंग' की शूटिंग देखने गई। फिल्म की शूटिंग देखकर नसीम बानो मंत्रमुग्ध हो गई और उन्होंने निश्चय किया कि वह अभिनेत्री के रूप में अपना सिने करियर बनाएंगी। इधर, स्टूडियो में नसीम बानो की सुंदरता को देख कई फिल्मकारों ने नसीम बानो के सामने फिल्म अभिनेत्री बनने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उनकी मां ने यह कहकर सभी प्रस्ताव ठुकरा दिए कि नसीम अभी बच्ची है। नसीम की मां उन्हें अभिनेत्री नहीं, बल्कि डॉक्टर बनाना चाहती थीं।
इसी दौरान फिल्म निर्माता सोहराब मोदी ने अपनी फिल्म 'हेमलेट' के लिए बतौर अभिनेत्री नसीम बानो को काम करने के लिए प्रस्ताव दिया और इस बार भी नसीम बानो की मां ने इंकार कर दिया, लेकिन इस बार नसीम अपनी जिद पर अड़ गई कि उन्हें अभिनेत्री बनना ही है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिए भूख हड़ताल भी कर दी। बाद में नसीम की मां को नसीम बानो की जिद के आगे झुकना पड़ा और उन्होंने नसीम को इस शर्त पर काम करने की इजाजत दे दी कि वह केवल स्कूल की छुटियों के दिन फिल्मों में अभिनय करेगी। वर्ष 1935 में जब फिल्म 'हेमलेट' प्रदर्शित हुई, तो वह सुपरहिट हुई, लेकिन दर्शकों को फिल्म से अधिक पसंद आई नसीम बानो की अदाकारी और सुंदरता। 'हेमलेट' की कामयाबी के बाद नसीम बानो की ख्याति पूरे देश में फैल गई। सभी फिल्मकार नसीम से अपनी फिल्म में काम करने की गुजारिश करने लगे। इन सब बातों को देखते हुए नसीम ने स्कूल छोड़ दिया और खुद को सदा के लिए फिल्म इंडस्ट्री को समर्पित कर दिया। 'हेमलेट' के बाद नसीम बानो की जो दूसरी फिल्म प्रदर्शित हुई, वह थी खान बहादुर। फिल्म के प्रचार के दौरान नसीम बानो को 'ब्यूटी क्वीन' के रूप में प्रचारित किया गया। यह फिल्म भी सुपरहिट साबित हुई। इसके बाद नसीम बानो की एक के बाद एक 'डायवोर्स', 'मीठा जहर' और 'वासंती' जैसी कामयाब फिल्में प्रदर्शित हुई।
वर्ष 1939 में प्रदर्शित फिल्म 'पुकार' नसीम बानो के सिने करियर की अहम फिल्म साबित हुई। फिल्म में चंद्रमोहन सम्राट जहांगीर की भूमिका में थे, जबकि नसीम बानो ने नूरजहां की भूमिका निभाई थी। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में नसीम बानो ने अपने सभी गाने खुद ही गाए थे और इसके लिए उन्हें लगभग दो वर्ष तक रियाज करना पड़ा। नसीम बानो का गाया गीत 'जिंदगी का साज भी क्या साज है' आज भी श्रोताओं के बीच लोकप्रिय है। फिल्म 'पुकार' में नसीम बानो को 'परी चेहरा' के रूप में प्रचारित किया गया। 'पुकार' की सफलता के बाद नसीम बानो बतौर अभिनेत्री शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुंचीं। इसके बाद नसीम ने जितनी भी फिल्में की वह सफल रहीं और सभी फिल्म में उनके दमदार अभिनय को दर्शकों ने सराहा। इस बीच नसीम बानो ने चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं निभानी शुरूकर दीं। इसी क्रम में नसीम बानो ने फिल्म 'शीश महल' में एक जमींदार की स्वाभिमानी लड़की की भूमिका को भावपूर्ण तरीके से रुपहले पर्दे पर पेश किया। इसके अलावा फिल्म 'उजाला' में उन्होंने रंगमंच की अभिनेत्री की भूमिका निभाई, जिसे शास्त्रीय नृत्य और संगीत पसंद है। इसके बाद नसीम ने 'बेताब', 'चल चल रे नौजवान', 'बेगम', 'चांदनी रात', 'मुलाकातें' और 'बागी' जैसी सुपरहिट फिल्मों के जरिए सिने प्रेमियों का मन मोहे रखा।
साठ के दशक में प्रदर्शित फिल्म 'अजीब लड़की' बतौर अभिनेत्री नसीम बानो के सिने करियर की अंतिम फिल्म थी। इस फिल्म के बाद नसीम बानो ने अपने सफलतापूर्वक चल रहे सिने करियर से संन्यास ले लिया। इसकी मुख्य वजह यह रही कि उस समय उनकी पुत्री सायरा बानो फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी और अपनी बेटी से नसीम बानो अपनी तुलना नहीं चाहती थीं, इसलिए नसीम बानो ने निश्चय किया कि वह अब अपनी बेटी के सिने करियर को सजाने-संवारने के लिए के लिए काम करेंगी। साठ और सत्तर के दशक में नसीम बानो ने बतौर ड्रेस डिजायनर फिल्म इंडस्ट्री में काम करना शुरूकर दिया। अपनी पुत्री सायरा बानो की अधिकांश फिल्मों में ड्रेस डिजायन नसीम बानो ने ही किया। इन फिल्मों में 'अप्रैल फूल' (1964), 'पड़ोसन' (1968), 'झुक गया आसमान' (1968), 'पूरब और पश्चिम' (1970), 'विक्टोरिया नंबर 203' (1972), 'ज्वार भाटा' (1973), 'पॉकेटमार' (1974), 'चैताली' (1975), 'बैराग' (1976) और 'काला आदमी' (1978) शामिल हैं। लगभग चार दशक तक सिने प्रेमियों को अपनी दिलकश अदाओं से दीवाना बनाने वाली अद्वितीय सुंदरी नसीम बानो 18 जून 2002 को इस दुनिया से रुखसत हो गई।

Dark Saint Alaick
20-06-2012, 01:25 AM
आज सिकलसेल दिवस पर
जोड़ों, छाती में दर्द हो सकता है अनुवांशिक बीमारी सिकलसेल का लक्षण

बाधित विकास, एनीमिया, थकान, जोड़ों तथा छाती में दर्द की शिकायत मानव जीवन के लिए जरूरी डीएनए की संरचना में स्थायी बदलाव की वजह से होने वाली अनुवांशिक बीमारी सिकलसेल एनीमिया की वजह से भी हो सकती है और मरीज को कभी कभी जीवनरक्षक प्रणाली पर रखने की नौबत आ जाती है। सर गंगाराम अस्पताल में क्लीनिकल हीमेटोलॉजी विभाग की अध्यक्ष डॉ. अनुपमा जग्गिया ने बताया कि सिकलसेल एनीमिया के मरीजों की लाल रक्त कोशिकाओं का आकार हंसिया नुमा हो जाता है और इनका हीमोग्लोबिन आॅक्सीजन के प्रति अत्यंत संवेदनशील हो जाता है। ऐसी कोशिकाएं अक्सर टूट कर रक्त वाहिनियों में एकत्र हो सकती हैं या फेफड़े में फंस कर जानलेवा स्थिति उत्पन्न कर सकती हैं। उन्होंने बताया कि अगर माता पिता दोनों को सिकलसेल एनीमिया की बीमारी है, तो संतान इस बीमारी से पीड़ित होगी। अगर दोनोंं में से एक को यह समस्या है तो संतान में इस बीमारी के होने की आशंका 50 फीसदी होती है। मेदांता मेडिसिटी के वरिष्ठ हीमेटोलॉजिस्ट डॉ. राजीव पारेख ने बताया कि डीएनए की संरचना में होने वाले स्थायी बदलाव के कारण हुआ जीन म्यूटेशन अनुवांशिकी आधारित बीमारी सिकलसेल का मुख्य कारण है और कुछ पीढ़ियों में इसके लक्षण दबे रहने के बाद अचानक उभर सकते हैं।
डॉ. अनुपमा के अनुसार, रक्त कोशिकाओं में पाए जाने वाले दो जीन में से अगर एक जीन इस बीमारी से प्रभावित होता है तो उसे ट्रेट कहा जाता है। ऐसे लोगों में एक जीन सामान्य हीमोग्लोबिन का और दूसरा जीन सिकल सेल हीमोग्लोबिन का होता है तथा शरीर में सामान्य हीमोग्लोबिन और सिकलसेल हीमोग्लोबिन दोनों बनते हैं। अक्सर इन लोगों में सिकलसेल के लक्षण नहीं उभरते, लेकिन अनुवांशिक आधार पर यह बीमारी उनकी संतान में पहुंच जाती है। डॉ. पारेख ने कहा कि सिकल सेल हीमोग्लोबिन वाली लाल रक्त कोशिकाएं बहुत जल्दी टूट जाती हैं और अंगों तथा रक्त नलिकाओं में इनका जमाव होने की वजह से खून का थक्का बन सकता है। टूटी हुई ये कोशिकाएं अगर रक्त प्रवाह में चली जाती हैं, तो पित्त में पाए जाने वाले तत्व बिलिरूबिन का स्तर बढ सकता है और पीलिया हो सकता है। पित्त के तत्वों में वृद्धि के कारण पित्ताशय में पथरी यानी कोलेटाइथिएसिस की समस्या तथा प्लीहा (स्प्लीन) और जिगर के आकार में वृद्धि भी हो सकती है। इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में ‘ब्लड ट्रान्स्फ्यूजन मेडिसिन’ विभाग के निदेशक डॉ. आर. एन. मक्रू ने बताया कि आम तौर पर सामान्य लाल रक्त कोशिकाओं की उम्र 120 दिन होती है, लेकिन सिकल सेल 15 से 20 दिन ही जीवित रहती है। यही वजह है कि इस बीमारी के मरीजों को समय समय पर रक्त चढ़ाना पड़ता है।
डॉ. अनुपमा ने कहा कि इस बीमारी के मरीजों को ‘एक्यूट चेस्ट सिन्ड्रोम’ हो सकता है, जिसमें फेफड़ों में संक्रमण हो जाता है या सिकल सेल फेफड़ों में फंस जाती हैं। ऐसे में ‘पल्मोनरी आर्टीरियल हाइपरटेन्शन’ की समस्या भी हो सकती है, जिसमें फेफड़ों की छोटी रक्त वाहिनियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और हृदय में इतने जोर से संकुचन नहीं हो पाता कि फेफड़ों से आॅक्सीजन युक्त रक्त हृदय में आ सके। इससे फेफड़ों में रक्तचाप बढ जाता है। यह समस्या जब गंभीर रूप ले लेती है तो मरीज को जीवनरक्षक प्रणाली (वेंटीलेटर) पर रखना पड़ता है। सिकल सेल के मरीजों को आम तौर पर रक्त में सामान्य हीमोग्लोबिन वाली लाल रक्त कोशिकाएं बढ़ाने की दवा दी जाती है। कभी मरीज को खून भी दिया जाता है। डॉ. मक्रू के अनुसार, यह समस्या अधिक होने पर इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांट होता है। ऐसे मरीजों के लिए सबसे बड़ी समस्या सामान्य यानी बिना सिकल सेल हीमोग्लोबिन वाला खून या बोन मैरो मिलना होता है। इसका कारण यह है कि एक ही माता पिता की संतान होने पर भाई-बहनों में सिकलसेल बीमारी होने की आशंका होती है। डॉ. अनुपमा ने कहा कि सिकलसेल के मरीज का विकास बाधित होता है, वह रक्ताल्पता यानी एनीमिया का शिकार होता है, वह बहुत जल्दी थक जाता है, चलना, काम करना उसके लिए मुश्किल होता है, उसकी सांस जल्दी फूल जाती है, जोड़ों में दर्द होता है और छाती में संक्रमण हो सकता है। उन्होंने कहा कि यह बीमारी मुख्य रूप से अफ्रीकी देशों में पाई जाती है, पर हमारे देश में खास तौर पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह बीमारी दिखाई पड़ती है।

Dark Saint Alaick
20-06-2012, 11:24 PM
बढ़ता ही रहा है लंबी नाम वाली फिल्मों का कारवां

हिन्दी सिनेमा ने 'राजा हरिश्चंद्र' से 'थ्री इडियट्स' तक तमाम बदलाव देखे हैं, लेकिन एक परम्परा जो बॉलीवुड में हमेशा कायम रही, वह है फिल्मों के लंबे नाम रखने का चलन। मूक युग से शुरू हुआ यह सिलसिला आज भी न सिर्फ जारी है, बल्कि समय के साथ बढ़ता ही गया है। मूक युग में लंबे नाम वाली सबसे पहली फिल्म 'डेथ आफ नारायणराव पेशवा' 1915 में बनी थी। इस दौर में लंबे नामों से लगभग 64 फिल्में बनीं, पर दिलचस्प बात यह है कि इन सभी फिल्मों के टाइटल अंग्रेजी में थे। इनमें 50 फिल्में 1910 के दशक में ही बन गई थीं। सवाक् युग में लगभग 850 फिल्मों का निर्माण हुआ, लेकिन मूक युग की तुलना में देखा जाए, तो सवाक् युग के प्रारंभिक 1930 के दशक में लंबे नाम से सिर्फ 16 फिल्में ही बनीं।
हालांकि बाद के हर दशक में ऐसी फिल्मों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। 1940 के दशक में 21,1950 के दशक में 51, 1960 के दशक में 109, 1980 के दशक में 134, 1990 के दशक में 136 और दो हजार के दशक में सर्वाधिक 188 फिल्मों का निर्माण हुआ। इस ट्रेंड को देखते हुए लगता है कि लंबे नाम से फिल्मों के निर्माण का यह सिलसिला आगे भी लंबे समय तक जारी रहेगा। इस साल 2012 में भी लंबे नाम से 13 फिल्में अब तक बन चुकी हैं, जिनमें गली गली चोर हैं, एक मैं और एक तू, तेरे नाल लव हो गया और अब होगा धरना अनलिमिटेड प्रमुख हैं।
यहां लंबे नाम वाली फिल्मों से आशय उन फिल्मों से है, जिनके नाम में चार या उससे अधिक शब्द आए हैं। सवाक् युग में किसी एक वर्ष में लंबे नाम से सबसे ज्यादा 32 फिल्मों के निर्माण का रिकार्ड 2002 में बना। इस दौर में सबसे कम एक-एक फिल्म का निर्माण 1932, 1934 और 1937 में हुआ। सवाक् युग में लंबे नाम वाली सबसे पहले फिल्म अलीबाबा एंड फोर्टी थीव्ज थी, जो मदन थियेटर्स के बैनर तले 1932 में बनी और लंबे नाम वाली हिन्दी टाइटल से निर्मित सबसे पहली फिल्म दो घड़ी की मौज (1935) थी, जिसमें सुलोचना (रूबी मायर्स) और डी. बिलिमोरिया नायक थे।
हिन्दी फिल्मों के इतिहास में सबसे लंबे नाम से बनी फिल्मों की संख्या छह है, जिनके टाइटल में सात शब्द हैं। इन फिल्मों के नाम हैं - अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूं आता है (1980), अंधेरी रात में दीया तेरे हाथ में (1986), पाप को जला कर राख कर दूंगा (1988), राजा को रानी से प्यार हो गया (2000), हमें तुमसे प्यार हो गया चुपके चुपके (2003) और तू बाल ब्रह्मचारी मैं हूं कन्या कुंवारी (2003)।
लंबे नाम वाली फिल्मों के बारे में एक तय यह भी है कि इनमें कुछ फिल्मों को छोड़कर ज्यादातर फिल्में बॉक्स आफिस पर नाकाम रहीं। इस तरह की कुछ प्रमुख सफल फिल्में हैं - चल चल रे नौजवान (1944), झनक झनक पायल बाजे (1955), मिस्टर एंड मिसेज 55 (1955), दो आंखें बारह हाथ (1957), चलती का नाम गाडी (1958), दिल अपना और प्रीत परायी (1960), जिस देश में गंगा बहती है (1960), साहिब बीबी और गुलाम (1962), तेरे घर के सामने (1963), आई मिलन की बेला (1964), आए दिन बहार के (1966), आया सावन झूम के (1966), एक फूल दो माली (1969), हरे रामा हरे कृष्णा (1971), मेरा गांव मेरा देश (1971), रोटी कपडा और मकान (1974), दुल्हन वही जो पिया मन भाये (1977) हम किसी से कम नहीं (1977), मैं तुलसी तेरे आंगन की (1978), एक दूजे के लिए (1981), कयामत से कयामत तक (1988), हम आपके हैं कौन (1994), दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995), दिल तो पागल है (1997), कुछ कुछ होता है (1998), हम दिल दे चुके सनम (1999), हम साथ साथ हैं (1999), कहो ना प्यार है (2000), कल हो न हो (2003), लगे रहो मुन्ना भाई (2006), रब ने बना दी जोडी (2008), अजब प्रेम की गजब कहानी (2009), आई हेट लव स्टोरीज (2010), वन्स अपान ए टाइम इन मुम्बई (2010) और मेरे ब्रदर की दुल्हन (2011)। यह भी दिलचस्प है कि धर्मेन्द्र, जितेन्द्र, आमिर खान, हृतिक रोशन और रानी मुखर्जी के कैरियर की शुरआत लंबे नाम वाली फिल्मों से ही हुई। धर्मेन्द्र की पहली फिल्म 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' (1960), जितेन्द्र की 'गीत गाया पत्थरों ने' (1964), हृतिक रोशन की 'कहो ना प्यार है' (2000) और रानी मुखर्जी की 'राजा की आएगी बारात' (1997) थी। वैसे तो सलमान खान ने भी अपने कैरियर का आगाज लंबे नाम वाली फिल्म 'बीवी हो तो ऐसी' (1988) से किया, लेकिन इसमें उनकी छोटी सी भूमिका थी।
लंबे नाम वाली फिल्मों में काम करने का रिकार्ड प्राण के नाम है, जिन्होंने विभिन्न रूपों में लगभग 37 ऐसी फिल्मों में काम किया। उनकी लंबे नाम वाली पहली फिल्म 'बरसात की एक रात' (1948) और आखिरी फिल्म 'दीवाना तेरे प्यार का' (2003) थी। उनके बाद लंबे नाम वाली फिल्मों में काम करने वाले प्रमुख कलाकार हैं धर्मेन्द्र (33), अशोक कुमार (27), सलमान खान (25), गोविन्दा (23), शाहरुख खान (19), शत्रुघ्न सिन्हा और रिषी कपूर (18), अजय देवगन (16), अमिताभ बच्चन (15), राजेश खन्ना और संजय दत्त (13), अक्षय कुमार (12), शम्मी कपूर, विनोद खन्ना, अनिल कपूर और सैफ अली खान (10), शशि कपूर और सुनील शेट्टी (9), राजेन्द्र कुमार और नसीरुद्दीन शाह (8), याकूब, जितेन्द्र और आमिर खान (7), मोतीलाल, संजीव कुमार, सन्नी देओल, अभय देओल, हृतिक रोशन और इमरान खान (6), जयराज, बलराज साहनी, प्रदीप कुमार, जॉय मुखर्जी, विश्वजीत और इरफान (5), राजकुमार, मनोज कुमार, ओम पुरी, अक्षय खन्ना और बाबी देओल (4), किशोर कुमार, रणधीर कपूर और इमरान हाशमी (3), सोहराब मोदी, भारत भूषण, गुरदत्त और रणबीर कपूर (दो) ।
हिन्दी फिल्मों के स्वर्णिम युग की तिकडी दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनन्द में लंबे नाम वाली फिल्मों में काम करने के मामले में देव आनन्द अव्वल रहे हैं। उन्होंने लंबे नाम वाली कुल दस फिल्मों में काम किया, जबकि राज कपूर सात फिल्मों में काम करने के साथ दूसरे स्थान पर रहे हैं। दिलीप कुमार को शायद लंबे नाम वाली फिल्मों में काम करना खास पसंद नहीं था। उनके खाते में लंबे नाम वाली सिर्फ एक फिल्म 'दिल दिया दर्द लिया' (1966) शामिल है।
नायिकाओं में मुमताज लंबे नाम वाली 16 फिल्मों में काम करके अव्वल रही हैं। उनके बाद लंबे नाम से बनी फिल्मों में काम करने वाली जिन नायिकाओं का स्थान आता है, उनमें प्रमुख हैं - रानी मुखर्जी (14), हेमा मालिनी. रवीना टंडन और काजोल (13), आशा पारिख और रेखा (11), तनूजा. जया बच्चन, जीनत अमान, जूही चावला और सोनाली बेंद्रे (10), लीला चिटनीस और वहीदा रहमान (9), नूतन, मौसमी चटर्जी, प्रीति जिंटा, सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय बच्चन (8), कामिनी कौशल, स्मिता पाटिल, फराह और करीना कपूर (7), दुर्गा खोटे, मीना कुमारी, माला सिन्हा, साधना, परवीन बाबी, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर और तब्बू (6), राखी, नीलम और कैटरीना कैफ (5), नलिनी जयवंत, बबीता और पद्मिनी कोल्हापुरे (4), मधुबाला, शर्मिला टैगोर, लीना चंदावरकर, श्रीदेवी, शिल्पा शेट्टी, प्रियंका चोपडा, दीपिका पादुकोण (3) तथा रेहाना, सायरा बानो, शबाना आजमी, लारा दत्ता और विद्या बालन (2), निम्मी, वैजयंतीमाला और निगार सुल्ताना ने लंबे नाम वाली फिल्मों में सबसे कम मात्र एक-एक फिल्म में काम किया है। नूरजहां, सुरैया और नर्गिस के खाते में लंबे नाम वाली एक भी फिल्म नहीं आई।

Dark Saint Alaick
22-06-2012, 11:01 AM
22 जून को जन्मदिन पर
अमरीश पुरी मानते थे, रंगमंच दर्शकों से सीधे संवाद कराता है

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17275&stc=1&d=1340344860

रंगमंच के मंजे हुए कलाकार और दमदार आवाज के धनी अमरीश पुरी मानते थे कि रंगमंच दर्शकों से सीधे संवाद कराता है और एक कलाकार की असली परख यहीं होती है। अमरीश पुरी के साथ कभी मुंबई में रंगमंच पर काम कर चुके उद्धव खेडेकर ने भाषा को बताया, ‘उनकी उर्जा देख कर मन में सवाल उठता था कि यह आदमी कभी थकता भी है या नहीं। वह हर समय काम के लिए तैयार रहते थे। आवाज इतनी बुलंद थी कि माइक की जरूरत ही न पड़े। अभिनय के रंग में इतने रंगे हुए थे कि रिहर्सल के लिए स्क्रिप्ट मिलने के बाद सबसे पहले उनकी ही तैयारी पूरी होती थी।’ उन्होंने बताया, ‘अमरीश पुरी 1960 के दशक में जोर पकड़ने वाले भारतीय थिएटर आंदोलन के मुख्य सदस्यों में से एक थे और उन्होंने अपने दौर के कई उत्कृष्ट नाटक लेखकों के साथ काम किया था। उन्होंने अपने थिएटर दौर का लगभग पूरा समय मुंबई में ही बिताया। बाद में वह फिल्मों में व्यस्त हो गए और रंगमंच पर वापसी नहीं कर पाए। वह मानते थे कि रंगमंच दर्शकों से सीधे संवाद कराता है और एक कलाकार की असली परख यहीं होती है।’ फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध दुबे ने बताया. ‘हिंदी सिनेमा में नकारात्मक भूमिकाएं निभाने वाले अमरीश पुरी को दर्शक खास तौर पर 1987 में आई शेखर कपूर की हिंदी फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ के मोगैम्बो के रूप में याद करते हैं। यह एक ऐसा किरदार था जो क्रूरता तो दिखाता है लेकिन अपनी सनक के कारण लोगों को मुस्कुराने पर मजबूर भी करता है। इसमें कुर्सी के हत्थे पर अपनी उंगलियां घुमा कर अमरीश पुरी का यह कहना लोगों को आज भी याद है कि ‘मोगैम्बो खुश हुआ।’
फिल्म समीक्षक माया सिंह कहती हैं, सार्थक सिनेमा में अमरीश पुरी का अभिनव योगदान है लेकिन मसाला फिल्मों की चकाचौंध में हम उसे उपेक्षित कर जाते हैं। ‘निशांत’ का बूढा जमींदार हो या ‘मन्थन’ के मिश्राजी या फिर ‘भूमिका’ के विनायक काले, अमरीश पुरी ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। पश्चिमी दर्शकों के लिए स्टीवन स्पीलबर्ग की हॉलीवुड के लिए बनाई गई फिल्म ‘इंडियाना जोन्स एंड द टेम्पल आफ डूम’ में मोला राम की भूमिका अविस्मरणीय है। यह फिल्म 1984 में आई थी। जालंधर जिले की पूर्व तहसील नवांशहर में 22 जून 1932 को जन्मे अमरीश पुरी ने हिमाचल प्रदेश के बी एम कॉलेज से स्नातक की पढाई की थी। अभिनय का शौक उन्हें जल्द ही लग गया था क्योंकि उनके दो भाई चमन पुरी और मदन पुरी पहले से ही फिल्मों से जुड़े हुए थे। दोनों भाइयों के नक्शेकदम पर चलते हुए अमरीश भी मुंबई आ गए। पहली फिल्म में सफलता नहीं मिली और वह एक बीमा कंपनी में काम करने लगे। इसी बीच वह पृथ्वी थिएटर से जुड़ गए और फिर थिएटर, टीवी के विज्ञापनों तथा फिल्मों का सिलसिला शुरू हो गया। वर्ष 1979 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 22 जून 1932 को जन्मे अमरीश पुरी ने 12 जनवरी 2005 को अंतिम सांस ली।

Dark Saint Alaick
01-07-2012, 10:53 PM
दो जुलाई को शिमला समझौते की वर्षगांठ के अवसर पर
स्विस उच्चायोग के सहयोग से बनी थी शिमला समझौते की रूपरेखा

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों का आधार माने जाने वाला शिमला समझौता की रूपरेखा स्विस उच्चायोग के सौजन्य से तैयार की गई थी, क्योंकि उस समय युद्ध के कारण दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध नहीं था। शिमला समझौते ने ही पाकिस्तान की ओर से बांग्लादेश को मान्यता प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त किया। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने कहा कि शिमला समझौते के 40 साल गुजरने के बावजूद भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को सामान्य बनाने की दिशा में कोई दूसरा विकल्प सामने नहीं आया है। शिमला समझौता दोनों देशों के रिश्तों का आधार है। इसी समझौते ने पाकिस्तान के बांग्लादेश को मान्यता प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त किया। ब्रिटेन में भारत के पूर्व उच्चायुक्त एवं लेखक कुलदीप नैयर ने कहा कि शिमला समझौते के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो की बैठक से पूर्व भारतीय प्रतिनिधि डी. पी. धर और पाकिस्तानी प्रतिनिधि अजीज अहमद ने इसका आधार तैयार किया था। उन्होंने कहा कि धर और अजीज के बीच बातचीत की रूपरेखा स्विस उच्चायोग के सौजन्य से तैयार की गयी थी, क्योंकि उस समय युद्ध के कारण भारत और पाकिस्तान के बीच राजनयिक संबंध नहीं थे। धर और अजीज के बीच बातचीत अंग्रेजी में हुई थी, लेकिन धर उर्दू में बात करना चाहते थे। दोनों में सहमति बनी और पूरी अनौपचारिक बातचीत उर्दू में हुई। कश्मीरी पंडित होने के कारण धर अच्छी उर्दू बोलते थे। नैयर ने कहा कि शिमला समझौते के 40 वर्ष गुजरने के बावजूद दोनों देशों के रिश्ते अब भी सामान्य नहीं हो पाए हैं और कश्मीर के विषय पर मामला अटक जाता है।
नटवर सिंह ने कहा कि कश्मीर के अंतिम समाधान के विषय को शिमला समझौते में एक उपबंध के माध्यम से शामिल किया गया। इसे उपबंध 6 के तहत टिकाऊ शांति और संबंधों को सामान्य करने के प्रास्ताव में जोड़ा गया। उन्होंने कहा कि कश्मीर के विषय पर उस समय भारत सरकार के रूख की देश के भीतर आलोचना हुई थी, लेकिन इंदिरा गांधी ने भारत और पाकिस्तान के रिश्तो के दीर्घावधि आयामों को ध्यान में रखा। समग्र वार्ता, पर्दे के पीछे के राजनयन के साथ इस विषय पर कोई भी उपाय शिमला समझौते का स्थान नहीं ले सका है। सिंह ने कहा कि कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं, जिनका कोई समाधान नहीं होता है, हमें इसके साथ ही जीना होता है। बहरहाल, नैयर ने कहा कि शिमला समझौते पर इंदिरा गांधी और भुट्टो के बीच बातचीत से पूर्व पाकिस्तानी प्रतिनिधि अजीज ने चार सूत्री एजेंडा पेश किया, जिसमें 12 बिन्दुओं को शामिल किया गया था। दूसरी ओर धर ने दो सूत्री एजेंडा पेश किया, जिसमें 16 बिन्दुओं को शामिल किया गया था। धर और अजीज के मसौदों पर विचार-विमर्श करते हुए 10 सूत्री शिमला समझौता तैयार किया गया, जिस पर दो जुलाई 1972 को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने हस्ताक्षर किए।

Dark Saint Alaick
02-07-2012, 03:32 PM
पुण्यतिथि 3 जुलाई पर विशेष
संवाद अदायगी के बेताज बादशाह थे राजकुमार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17284&stc=1&d=1341224944

मुंबई के माहिम पुलिस थाने में एक सब इंस्पेक्टर के रूप में काम कर रहे शख्स से एक सिपाही ने पूछा, हुजूर। आप रंग-ढंग और कद काठी में किसी हीरो से कम नहीं हैं। फिल्मों में यदि आप हीरो बन जाएं, तो लाखों दिलों पर राज कर सकते हैं। सब इंस्पेक्टर को सिपाही की यह बात जंच गई। माहिम थाने में फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था। एक बार थाने में फिल्म निर्माता बलदेव दुबे आए हुए थे। वह इसी सब इंस्पेक्टर के बातचीत करने के अंदाज से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने उनसे अपनी फिल्म शाही बाजार में अभिनेता के रूप में काम देने की पेशकश की। उस शख्स ने सिपाही की बात सुनकर पहले ही अभिनेता बनने का मन बना लिया था, इसलिए तुरंत ही अपनी सब इंस्पेक्टर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और निर्माता की पेशकश स्वीकार कर ली। यह शख्स और कोई नहीं, संवाद अदायगी के बेताज बादशाह कुलभूषण पंडित उर्फ राजकुमार थे।
पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में 8 अक्टूबर 1926 को एक मध्यवर्गीय कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में जन्मे राजकुमार स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुंबई के माहिम थाने में सब इंस्पेक्टर के रूप में काम करने लगे। फिल्म शाही बाजार को बनने में काफी समय लग गया और राजकुमार को अपना जीवनयापन करना भी मुश्किल हो गया। इसलिए उन्होंने वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म रंगीली में एक छोटी सी भूमिका स्वीकार कर ली। यह फिल्म सिनेमाघरों में कब लगी और कब चली गई, यह पता ही नहीं चला। इस बीच उनकी फिल्म शाही बाजार भी प्रदर्शित हुई, जो बॉक्स आॅफिस पर औंधे मुंह गिरी।
शाही बाजार की विफलता के बाद राजकुमार के तमाम रिश्तेदार यह कहने लगे, तुम्हारा चेहरा फिल्म के लिए उपयुक्त नहीं है। कुछ लोग कहने लगे, तुम खलनायक बन सकते हो। वर्ष 1952 से 1957 तक राजकुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। रंगीली के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली, वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने अनमोल सहारा, अवसर, घमंड, नीलमणि और कृष्ण सुदामा जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स आॅफिस पर सफल नहीं हुई।
महबूब खान की वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म मदर इंडिया में राजकुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फिल्म पूरी तरह अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी, फिर भी वह अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्टÑीय ख्याति भी मिली और फिल्म की सफलता के बाद वह अभिनेता के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म पैगाम में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे, लेकिन राजकुमार यहां भी अपनी सशक्त भूमिका के जरिए दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद दिल अपना और प्रीत पराई, घराना, गोदान, दिल एक मंदिर और दूज का चांद जैसी फिल्मों में मिली कामयाबी के जरिए वह दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच गए, जहां वह अपनी भूमिकाएं स्वयं चुन सकते थे।
वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म काजल की जबर्दस्त कामयाबी के बाद राजकुमार ने अभिनेता के रूप में अपनी अलग पहचान बना ली। बी.आर .चोपड़ा की 1965 में प्रदर्शित फिल्म वक्त में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से दर्शक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। फिल्म में राजकुमार का बोला गया एक संवाद - चिनाय सेठ, जिनके घर शीशे के बने होते हैं, वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते ... या चिनाय सेठ, ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं, हाथ कट जाए, तो खून निकल आता है ... दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए।
वक्तकी कामयाबी से राजकुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। इसके बाद उन्होंने हमराज, नीलकमल, मेरे हुजूर, हीर रांझा और पाकीजा में रूमानी भूमिकाएं भी स्वीकार की, जो उनके फिल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थीं। इसके बावजूद राजकुमार दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे। कमाल अमरोही की फिल्म पाकीजा पूरी तरह से मीना कुमारी पर केन्द्रित फिल्म थी। इसके बावजूद राजकुमार अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। पाकीजा में उनका बोला गया एक संवाद, आपके पांव देखे ... बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा ... मैले हो जाएंगे... इस कदर लोकप्रिय हुआ कि लोग गाहे बगाहे उनकी आवाज की नकल करने लगे।
वर्ष 1991 में प्रदर्शित फिल्म सौदागर में राजकुमार के अभिनय के नए आयाम देखने को मिले। सुभाष घई निर्मित इस फिल्म में राजकुमार वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म पैगाम के बाद दूसरी बार दिलीप कुमार के सामने थे और अभिनय की दुनिया के इन दोनों महारथियों का टकराव देखने लायक था। सौदागर में राजकुमार का बोला एक संवाद - दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है, तो अफसाने बन जाते हैं, मगर दुश्मनी करता है, तो इतिहास लिखे जाते हैं ... आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग मे गूंजता है। अपने संजीदा अभिनय से लगभग चार दशक तक दर्शकों के दिल पर राज करने वाले यह महान अभिनेता 3 जुलाई 1996 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
03-07-2012, 03:21 AM
प्रसंगवश : राष्ट्रपति चुनाव
गुमनाम पर्चा बंटने के आधार पर वी.वी. गिरि के निर्वाचन को दी गई थी चुनौती

देश के चौदहवें राष्ट्रपति के चुनाव की तिथि नजदीक आने के साथ ही चुनाव संबंधी सरगर्मियां बढ़ गई हैं और इसके साथ ही इस चुनाव से संबंधित रोचकताएं भी सामने आने लगी हैं। यह चुनाव भी इस मायने में अन्य चुनावों से अलग नहीं है, जिसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके और ऐसा हो भी चुका है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव कानून के तहत राष्ट्रपति के पद पर निर्वाचित व्यक्ति के निर्वाचन को सिर्फ उच्चतम न्यायालय में ही चुनौती जा सकती है और यह चुनौती भी सिर्फ कोई प्रत्याशी या निर्वाचक मंडल के कम से कम 20 सदस्य ही मिलकर दे सकते हैं। आगामी 19 जुलाई को होने वाले इस चुनाव में संप्रग के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी और भाजपा समर्थित प्रत्याशी पूर्णो संगमा के बीच सीधे मुकाबले की संभावना है। इससे पहले, राष्ट्रपति का सबसे दिलचस्प चुनाव अगस्त 1969 में हुआ था। इस चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार थे, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने वी. वी. गिरि को अपने प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतारा था। चुनाव में हो रही इस रस्साकसी को सभी देख रहे थे, लेकिन अचानक ही मतदान से ठीक पहले संसद के केन्द्रीय पक्ष में एक गुमनाम पर्चा वितरित हुआ। इसमें नीलम संजीव रेड्डी के बारे में तमाम अनर्गल बातें लिखी थी। चुनाव में अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील हुई और इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी चुनाव हार गए। इसके बाद शिवकृपाल सिंह, फूल सिंह, सांसद एन. श्रीराम रेड्डी सहित 13 सांसदों ने और सांसद अब्दुल गनी डार और नौ अन्य सांसदों तथा आठ विधायकों ने उच्चतम न्यायालय में अलग-अलग चुनाव याचिकाएं दायर कीं। इनमें से शिवकृपाल सिंह और फूल सिंह का नामांकन पत्र रिटर्निंग अधिकारी ने अस्वीकार कर दिया था। न्यायमूर्ति एस. एम. सीकरी की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इन चुनाव याचिकाओं पर विचार किया। संविधान पीठ ने याचिकाओं में उठाए गए विभिन्न सवालों पर विस्तार से सुनवाई के बाद सभी याचिकाएं खारिज कर दीं। संविधान पीठ के समक्ष अन्य बातों के साथ ही मुख्य विचारणीय मुद्दा यह था कि क्या चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी के बारे में अपमानजनक तथ्यों के साथ गुमनाम पर्चा बंटने को राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव कानून की धारा 18 और भारतीय दंड संहिता की धारा 171-सी के दायरे में ‘अनवाश्यक रूप से प्रभावित’ करने का कृत्य माना जाए? न्यायालय को यह भी फैसला करना था कि क्या यह पर्चा चुनाव जीतने वाले प्रत्याशी की साठगांठ से उसके समर्थकों द्वारा मुद्रित और वितरित किया गया था और क्या इस पर्चे के वितरण से चुनाव प्रभावित हुआ था? संविधान पीठ ने इन याचिकाओं पर विस्तार से सुनवाई के बाद 14 सितंबर, 1970 को अपने फैसले में कहा कि इस पर्चे में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे अनावश्यक रूप से प्रभावित करने वाला माना जाए। सविधान पीठ ने कहा कि यदि यह भी मान लिया जाए कि यह पर्चा अनावश्यक रूप से प्रभावित करने का आधार बन सकता है, तो भी प्रतिवादी वी. वी. गिरि का चुनाव अवैघ घोषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस मामले में यह साबित नहीं हो सका है कि संसद के केन्द्रीय कक्ष में यह पर्चा वी. वी. गिरि की साठगांठ से बांटा गया था या इसने चुनाव के नतीजों को वास्तव में प्रभावित किया था। इस चुनाव से पहले ही अप्रैल 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया था। न्यायालय ने इस तथ्य को नोट किया कि सुनवाई के दौरान कांग्रेस दो खेमों में बंटी हुई थी। एक खेमा कांग्रेस (ओ) और दूसरा खेमा कांग्रेस (आर) के नाम से जाना जाता था। इस मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय में 116 गवाहों से पूछताछ हुई। इनमें से 55 गवाह याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए थे, जबकि 61 गवाह वी. वी. गिरि की ओर से पेश हुए । इन गवाहों की हैसियत पर टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने कहा था कि ये गवाह या तो उच्च पदों पर रह चुके हैं या अब भी उच्च पदों पर आसीन है। इनमें से कुछ को छोड़कर लगभग सभी संसद या विधान मंडल के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं। न्यायालय ने यह भी कहा था कि सामान्यतया इनके द्वारा पेश साक्ष्य को काफी महत्व मिलना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से इनमें से कई सदस्य परस्पर विरोधी खेमों में हैं। न्यायालय ने यह टिप्पणी करने में भी गुरेज नहीं किया कि पुरानी कांग्रेस पार्टी अब एकजुट नहीं रह गई है और इनमें जबर्दस्त मतभेद हैं।
संविधान पीठ ने अपने निर्णय में कहा कि यह पर्चा डाक से भेजा गया था, जिसे केन्द्रीय कक्ष में बांटा गया। सुनवाई के दौरान न्यायालय के समक्ष पेश अधिकांश साक्ष्य इस पर्चे के वितरण के सवाल से जुड़े थे। संविधान पीठ ने कहा कि इस मामले में अधिकांश गवाहों ने पूरा सच बयां नहीं किया और यह देखना काफी दुखद है कि राजनीतिक लाभ के लिए इन गवाहों ने सत्य का बलिदान कर दिया। संविधान पीठ ने कहा कि इस मामले में निश्चित ही यह पर्चा अपमानजनक था, लेकिन यह व्यक्तिगत अपील के सबूत से कम था और इसलिए इसे अनावश्यक रूप से प्रभावित करने वाला कृत्य नहीं कहा जा सकता है। शिवकृपाल सिंह का नामांकन रद्द करने की कार्यवाही को संविधान पीठ ने सही ठहराते हुए कहा था कि नामांकन के साथ उन्होंने संसदीय क्षेत्र की मतदाता सूची में खुद के पंजीकृत मतदाता होने के बारे में प्रमाणित प्रति संलग्न नहीं की थी। इसी तरह न्यायालय ने कहा कि चरनलाल साहू का नामांकन पत्र भी सही आधार पर अस्वीकार किया गया था, क्योंकि उस दिन वह 35 वर्ष के नहीं थे और जहां तक योगी राज का सवाल है, तो उनके नाम का प्रस्ताव और अनुमोदन उन निर्वाचकों ने किया था, जिन्होंने एक अन्य प्रत्याशी राजभोज पांडुरंग नाथूजी के नाम का भी प्रस्ताव और अनुमोदन किया था। संविधान पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता धारा आठ में उल्लिखित आधारों के अलावा किसी अन्य आधार पर राष्ट्रपति के चुनाव को चुनौती नहीं दे सकते हैं। चुनाव के दौरान प्रतिवादी वी. वी. गिरि या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उनकी साठगांठ से रिश्वत देने जैसा अपराध करने के आरोपों पर न्यायालय ने कहा कि स्वदेशी कॉटन मिल्स को पॉलिएस्टर फैक्ट्री का लाइसेंस देने में किसी प्रकार की रिश्वतखोरी का मामला नहीं बनता है।

Dark Saint Alaick
06-07-2012, 02:58 PM
चार जुलाई-विवेकानंद की पुण्यतिथि पर विशेष
भारतीय संस्कृति और धर्म को नई परिभाषा देने वाले विवेकानंद

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17290&stc=1&d=1341568706

अपनी तेज और ओजस्वी वाणी के जरिए पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद ने केवल वैज्ञानिक सोच तथा तर्क पर बल ही नहीं दिया, बल्कि धर्म को लोगों की सेवा और सामाजिक परिवर्तन से जोड़ दिया। विवेकानंद द्वारा स्थापित और जन कल्याण से जुड़े रामकृष्ण मिशन के स्वामी संत आत्मानंद ने कहा कि विवेकानंद ने धर्म को स्वयं के कल्याण की जगह लोगों की सेवा से जोड़ा। उनका मानना था कि धर्म किसी कोने में बैठ कर सिर्फ मनन करने का माध्यम नहीं है। इसका लाभ देश और समाज को भी मिलना चाहिए। शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद के जरिए आधुनिक विश्व को भारतीय धर्म और संस्कृति से परिचित कराने वाले विवेकानंद एक महान समन्वयकारी भी थे। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विवेकानंद को प्राचीन और आधुनिक भारत के बीच का सेतु बताया है। वहीं सुभाष चंद्र बोस ने विवेकानंद के बारे में लिखा है, ‘स्वामीजी ने पूरब और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान का समायोजन किया। यही वजह है कि वह महान हैं।’ रामकृष्ण मिशन में स्वयंसेवक देवाशीष मुखर्जी ने कहा, ‘स्वामी विवेकानंद मूल रूप से आध्यात्मिक जगत के व्यक्ति थे, लेकिन सामाजिक कार्यों पर भी उन्होंने काफी जोर दिया। उनके संदेश के केंद्र में मनुष्य की गरिमा है और वह मानव को ईश्वर का अंश मानते थे।’ स्वयं विवेकानंद ने भी ‘राजयोग’ में लिखा है कि प्रत्येक आत्मा ईश्वर का अंश है। अंदर के ईश्वर को बाहर प्रकाशित करना लक्ष्य है। ऐसा कर्म, भक्ति, ध्यान के जरिये किया जा सकता है। देवाशीष मुखर्जी ने कहा, ‘विवेकानंद भारत को ऐसा देश मानते थे, जहां पर आध्यात्म जीवित है और जहां से पूरे विश्व में आध्यात्म का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है। वह इसे भारत की महत्वपूर्ण विशेषता मानते थे और केवल इसे बनाए रखने की नहीं, बल्कि इसे बढ़ाने की जरूरत पर बल देते थे।’ विवेकानंद ने सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी अपने चिंतन का विषय बनाया है। उन्होंने 1894 में मैसूर के महाराजा को लिखे पत्र में आम जनता की गरीबी को सभी अनर्थों की जड़ बताया है। उन्होंने इसे दूर करने के लिए शिक्षा और उनमें आत्मविश्वास पैदा करना सरकार और शिक्षितों का मुख्य कार्य बताया था। भारत आज भी इसी दिशा में प्रयासरत है। मुखर्जी ने कहा, ‘विवेकानंद ने गरीब और पीड़ित जनता के उत्थान को अहम माना है। इसके लिए उन्होंने विज्ञान और तकनीक के इस्तेमाल पर बल दिया है। वह आम लोगों के विकास में ही देश और विश्व का विकास मानते थे।’ आज भी विवेकानंद को युवाओं का आदर्श माना जाता है और प्रत्येक साल उनके जन्मदिन 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। मुखर्जी ने कहा, ‘विवेकानंद युवाओं से मैदान में खेलने, कसरत करने के लिए कहते थे ताकि शरीर स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट हो सके और आत्मविश्वास बढ़े।’ अपनी वाणी और तेज से दुनिया को चकित करने वाले विवेकानंद ने सभी मनुष्यों और उनके विश्वासों को महत्व देते हुए धार्मिक जड़ सिद्धांतों और सांप्रदायिक भेदभाव को मिटाने का संदेश दिया ।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 04:08 PM
नौ जुलाई स्मॉल आर्म डिस्ट्रक्शन डे
हथियारों के ‘जखीरे’ पर खड़ी है दुनिया

नई दिल्ली। अफ्रीका से लेकर एशिया तक हर तरफ मची हिंसा में छोटे हथियारों का अत्यधिक इस्तेमाल हो रहा है और विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यदि राजनीतिक अस्थिरता तथा कानून व्यवस्था की स्थिति को सुधारा नहीं गया तो आने वाले समय में स्थिति और विकट हो जाएगी। दुनियाभर में कितने छोटे हथियार हैं इसका कोई ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक विश्वभर में कम से कम 87 करोड़ 50 लाख छोटे हथियार हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार करीब 100 देशों की लगभग एक हजार कंपनियां छोटे हथियार बनाने के व्यवसाय में शामिल हैं और हर साल 75 से 80 लाख छोटे हथियार बनाए जाते हैं। रक्षा मामलों की पत्रिका ‘इंडियन डिफेंस रिव्यू’ के संपादक भारत वर्मा ने बताया कि समाज में दहशतगर्दी बढ़ रही है और सरकार की पकड़ कमजोर हो रही है। कानून का शासन कमजोर होने पर छोटे हथियार लोग अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए रखते हैं। वर्मा ने कहा कि इसके अलावा आज दुनियाभर में फैले आतंकवादी, असामाजिक तत्व और तस्कर बड़ी संख्या में छोटे हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनका उद्देश्य हथियारों के बल पर सत्ता को बदलना है। भारत के पूर्वोत्तर में सक्रिय उग्रवादी गुटों का भी कुछ इसी तरह का मंसूबा है जिन्हें चीन और पाकिस्तान जैसे देश हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हथियार बनाने वाले देश जैसे रूस, चीन, अमेरिका भी इस पूरे खेल में शामिल हैं। कानून का शासन कमजोर होने पर इन देशों के हथियारों का व्यापार बढ़ जाता है। इसका ताजा उदाहरण सीरिया है जहां इन देशों पर संघर्षरत गुटों को हथियार देने के आरोप लगे हैं । वर्मा ने कहा कि ये देश ऐेसे गुटों को हथियारों की आपूर्ति कर दो तरफा फायदा उठाते हैं। इन देशों को जहां हथियार बेचकर खूब मुनाफा होता है वहीं सत्ता बदलने पर वहां अपने मनमुताबिक नीतियां बनवा लेते हैं। रक्षा मामलों के विशेषज्ञ डा. रहीस सिंह ने कहा कि विकसित देश वैश्वीकरण के इस दौर में विभिन्न उत्पादों में विकासशील देशों का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं तो वे अब हथियार बेचकर मुनाफा कमा रहे हैं जहां उनका एकाधिकार है। डा. सिंह ने बताया कि स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विकासशील देशों सोमालिया, अल्जीरिया, लीबिया, कतर आदि में परंपरागत हथियारों की खरीद में बढ़ोतरी के साथ वहां अशांति भी बढ़ गई है। उन्होंने कहा कि सिप्री की वर्ष 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक चीन बहुत तेजी से छोटे हथियार बेच रहा है और उसके खरीददारों में भारत के पड़ोसी और अफ्रीकी देश शामिल हैं। छोटे हथियारों की बढ़ोत्तरी से सामाजिक, राजनीतिक अशांति में बढोत्तरी होगी। डा. रहीस ने कहा कि भारत को इससे निपटने के लिए सीमा सुरक्षा व्यवस्था पर एक पारदर्शी नीति बनानी होगी। आर्थिक नीतियां इस तरह से बनानी होगी कि समाज के भूखे लोगों को रोजगार मिले और आर्थिक असमानता कम हो। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ हर वर्ष नौ जुलाई को छोटे हथियार विनाश दिवस के रूप में मनाता है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य छोेटे हथियारों की वजह से उत्पन्न होने वाले खतरों के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाना है ।

Dark Saint Alaick
09-07-2012, 12:06 PM
संस्मरण
जब ‘त्रावणकोर के महाराजा’ मिले थे महारानी एलिजाबेथ द्वितीय से

भारत में ब्रिटिश शासन से लेकर लोकतंत्र की स्थापना के गवाह रहे, त्रावणकोर के 90 वर्षीय महाराजा उथरादोम तिरूनल मार्तन्ड वर्मा के पास ढेर सारी खट्टी मीठी यादें हैं, लेकिन ब्रिटिश महारानी एलिजबेथ द्वितीय के साथ हुई मुलाकात इन यादों की अनमोल धरोहर है। वर्ष 1947 में भारत की आजादी और रियासतों के भारतीय संघ में विलय से पहले तक दक्षिण केरल में शासन करने वाले पूर्ववर्ती त्रावणकोर राजघराने के प्रमुख महारानी की तीव्र याददाश्त और उनके ज्ञान से हतप्रभ रह गए थे। वर्ष 1933 में उथरादोम तिरूनल पहली बार इंग्लैंड में एलिजाबेथ द्वितीय से मिले थे और तब वह केवल सात साल की राजकुमारी एलिजाबेथ द्वितीय थीं। 21 साल बाद बेंगलूर में दूसरी मुलाकात के दौरान महारानी ने उन्हें न केवल पहचान लिया, बल्कि उनकी रियासत के बारे में पूछताछ भी की। उन्होंने कहा, ‘उनके राजतिलक से बहुत पहले, मैं इंग्लैंड में उनसे मिला था। उनके पिता, तत्कालीन ड्यूक आॅफ यॉर्क भी वहां थे।’ फिर महारानी का राजतिलक हुआ और भारत की आजादी के बाद वह अपने पति के साथ यहां आईं। उथरादोम तिरूनल ने कहा, ‘1954 में मुझे बेंगलूर में महारानी के सम्मान में आयोजित चाय पार्टी में आमंत्रित किया गया। विधानसौध में आयोजित इस पार्टी में महारानी अपने पति के साथ आईं। मैं उनसे मिलना चाहता था और अपनी इच्छा मैंने विजयलक्ष्मी पंडित को बताई। उन्होंने हमारी मुलाकात की व्यवस्था की।’
उथरादोम तिरूनल अपनी पत्नी राधादेवी के साथ महारानी से मिले। उन्होंने कहा, ‘अभिवादन के बाद महारानी ने पूछा, ‘आप त्रावणकोर के इलैयाराजा (युवराज) हैं?’ फिर उन्होंने इंग्लैंड में बरसों पहले हुई हमारी मुलाकात का जिक्र किया। जब उन्होंने पूछा कि क्या त्रावणकोर भारत के दक्षिणी छोर में है, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।’ उन्होंने कहा, ‘उन्हें भारत के बारे में अच्छी जानकारी थी। उन्होंने बेंगलूर में मेरे आवास के बारे में पूछा और कहा कि मैसूर के महाराजा के साथ उनके महल में जाते समय वह नंदी हिल्स स्थित मेरे महल के पास से गुजरी थीं और उन्हें मैसूर के महाराजा ने बताया था कि यह महल त्रावणकोर के इलैयाराजा का है।’ उथरादोम तिरूनल के पास महारानी की वह तस्वीर भी है, जो खुद उन्होंने खींची थी। इसमें मैसूर के महाराजा के साथ खुली कार में जा रही महारानी जनता की ओर देख कर हाथ हिला रही हैं। उन्होंने कहा, ‘यह देख कर अच्छा लगता है कि इंग्लैंड के शाही परिवार ने आसानी से बदलता समय स्वीकार कर लिया। वह नए दौर के साथ जीते हैं। जहां तक मुझे याद है, तो ब्रिटिश सरकार ने शाही वंश को दी करों में छूट वापस ले ली थी, लेकिन ब्रिटिश शाही परिवार ने इस बारे में कोई शिकायत नहीं की। यह दुर्लभ गुण है।’ त्रावणकोर रियासत के अंतिम शासक चिथिरा तिरूनल बलराम वर्मा के बाद 1991 में उथरादोम तिरूनल ने त्रावणकोर राजवंश की जिम्मेदारी संभाली। वह कहते हैं, ‘ब्रिटिश प्रशासकों के लिए मन में कभी बैरभाव नहीं आया, क्योंकि उन्हें हमेशा त्रावणकोर शासकों की सराहना की। वह हमारे साथ मित्रता की संधि चाहते थे।’
घूमने के शौकीन उथरादोम तिरूनल कहते हैं कि अमेरिका छोड़ कर वह लगभग सभी पश्चिमी देशों में भ्रमण कर चुके हैं। उन्हें उच्च लोकतांत्रिक ढांचे की वजह से स्विट्जरलैंड बहुत अच्छा लगा। उनके मित्रों की सूची में नेपाल के सम्राट महेंद्र और बीरेन्द्र, फारस के शाह, सोवियत नेता निकिता खु्रश्चेव से लेकर कश्मीर के डॉ. कर्ण सिंह, पंजाब में कपूरथला का राजवंश और तमिलनाडु में पुथुकोट्टी राजवंश तक शामिल हैं। जहां तक रहने की बात है, तो उथरादोम तिरूनल को त्रावणकोर से अच्छी जगह और कोई नहीं लगती। वह कहते हैं, ‘यहां ऐसे राजा हुए जिन्होंने संकट के समय जनता के साथ उपवास किया। इस जमीन ने शासकों को विनम्रता, दया, करूणा और सरलता की सीख दी। मेरी मातृभूमि जैसा देश और कोई नहीं हो सकता।’ हाल ही में त्रावणकोर राजवंश के श्रीपद्मनाथ स्वामी मंदिर के गर्भगृह से निकले खजाने के बारे में उन्होंने कहा, ‘यह खजाना सदियों से मंदिर के गर्भगृह में है और शाही परिवार को इसकी जानकारी भी है। यह भगवान पद्मनाभ की संपत्ति है और हमें इसमें कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही। इसे भविष्य में भी भगवान की संपत्ति के तौर पर संरक्षित रखा जाना चाहिए।’

Dark Saint Alaick
09-07-2012, 12:09 PM
जगदीश शेट्टार : सत्ता के करीब पहुंच कर दूर हुए, फिर भी मिल गई कुर्सी

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बेंगलूर। भाजपा नेता 56 वर्षीय जगदीश शेट्टार के लिए एक साल से भी कम समय में राजनीतिक जीवन का एक चक्र पूरा हो गया। पिछले साल अगस्त में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शेट्टार डी. वी. सदानंद गौड़ा से पीछे रह गए थे। गौड़ा, अवैध खनन को लेकर लोकायुक्त की रिपोर्ट में अभियोग लगाए जाने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले बी. एस. येदियुरप्पा की इस पद के लिए खास पसंद थे। बहरहाल, 11 माह बाद शेट्टार उस येदियुरप्पा खेमे की पसंद बन गए, जो गौड़ा को पद से हटाने के लिए कमर कस चुका था। बीते चार माह में गौड़ा जहां येदियुरप्पा की पकड़ से बाहर आ गए, वहीं उनके भाजपा की कर्नाटक इकाई के दिग्गज के साथ रिश्तों में भी कड़वाहट आ गई। उन्हें हटाने की मांग तेज हो गई। पिछले साल पार्टी के वरिष्ठ नेता एच. एन. अनंतकुमार और भाजपा की राज्य इकाई के अध्यक्ष के. एस. ईश्वरप्पा ने जब शेट्टार का नाम आगे किया, तो खुद शेट्टार ने पैर पीछे कर लिए थे, पर आज उन्हें कुर्सी मिल गई। उनका कार्यकाल हालांकि छोटा होगा, क्योंकि कर्नाटक में अगले साल मई में विधानसभा चुनाव होंगे। यह भी चर्चा चल रही है कि गुजरात में जब दिसंबर में विधानसभा चुनाव होंगे, तब कर्नाटक में भाजपा के कुछ गुट भी समय से पहले चुनाव की मांग कर सकते हैं।
फिलहाल शेट्टार के समक्ष चुनौतियां कम नहीं हैं। दक्षिण में पहली सरकार बनाने वाली सत्तारूढ़ भाजपा को विधानसभा चुनावों से पहले अपनी कलह दूर करना और उन मुद्दों को सुलझाना है, जिनकी वजह से जनता में उसकी छवि खराब हुई है। यह काम आसान नहीं होगा। पिछले दिनों गौड़ा के प्रति खुल कर समर्थन जताने वाले मंत्री और विधायक उनके लिए निष्ठा रखते हैं और लगता नहीं है कि वह शेट्टार को आसानी से स्वीकार कर लेंगे। ऐसे में सरकार की स्थिरता को लेकर सवाल उठते हैं। मितभाषी शेट्टार फिलहाल ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री हैं। वह ऐसे समय पर मुख्यमंत्री पद संभालने जा रहे हैं, जब पार्टी पर जातिगत समीकरण हावी हैं और गहरे मतभेद भी हैं। गौड़ा खुद वोक्कलिंगा समुदाय के हैं। पिछले साल लिंगायत समुदाय के शेट्टार के बजाय गौड़ा का समर्थन करने के बाद लिंगायत समुदाय के एक वर्ग ने येदियुरप्पा की जम कर आलोचना की थी। शेट्टार को येदियुरप्पा का आभारी होना चाहिए, जिन्होंने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए आलाकमान पर बहुत दबाव डाला। इससे पहले, यह भी स्पष्ट हो गया था कि येदियुरप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच चलने की वजह से उन्हें फिर से मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा। 17 दिसंबर 1955 को बगलकोट जिले के केरूर गांव में जन्मे शेट्टार उस परिवार से हैं, जिसकी जड़ें पूर्ववर्ती जनसंघ से जुड़ी थीं। उनके पिता शिवप्पा शिवमूर्थापा शेट्टार जनसंघ के कार्यकर्ता थे और उन्होंने लगातार पांच बार हुबली धारवाड़ नगर निकाय के सदस्य का चुनाव जीता था। वह दक्षिण भारत में जनसंघ के पहले महापौर भी थे।
शेट्टार के चाचा सदाशिव शेट्टार ने वर्ष 1967 में जनसंघ के टिकट पर हुबली विधानसभा का चुनाव जीता था। बीकॉम और एलएलबी की डिग्री प्राप्त शेट्टार ने हुबली बार में 20 साल तक वकील के तौर पर प्रैक्टिस की। वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ता रहे। वर्ष 1990 में वह भाजपा की हुबली ग्रामीण इकाई के अध्यक्ष बने और चार साल बाद पार्टी की धारवाड़ इकाई के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। शेट्टार सबसे पहले 1994 में हुबली ग्रामीण विधानसभा से राज्य विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और लगातार चार कार्यकाल तक इसी सीट का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष 1996 में उन्हें पार्टी की राज्य इकाई का सचिव तथा 1999 में विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया गया। उन दिनों विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा राज्य के मुख्यमंत्री थे। शेट्टार वर्ष 2005 में भाजपा की राज्य इकाई के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। वर्ष 2006 में एच. डी. कुमार स्वामी के नेतृत्व वाली भाजपा जदएस गठबंधन सरकार में वह राजस्व मंत्री रहे। वर्ष 2008 में भाजपा के सत्ता में आने पर वह अपनी मर्जी न होने पर भी विधानसभा अध्यक्ष बनाए गए, क्योंकि लिंगायत समुदाय का होने की वजह से येदियुरप्पा कथित तौर पर उनका प्रभाव कम करना चाहते थे। 2009 में उन्होंने पद छोड़ने की भरपूर कोशिश की और वह ग्रामीण विकास तथा पंचायत राज मंत्री बनाए गए। उन्होंने 1984 में विवाह किया था। उनकी पत्नी का नाम शिल्पा है। इस जोड़े के दो पुत्र प्रशांत और संकल्प हैं।

Dark Saint Alaick
11-07-2012, 04:07 PM
11 जुलाई को पुण्यतिथि पर विशेष
प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढाने वाले साहित्यकार थे भीष्म साहनी

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बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी आमलोगों की आवाज उठाने और हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद की जनसमस्याओं को उठाने की परंपरा को आगे बढाने वाले साहित्यकार के तौर पर पहचाने जाते हैं। विभाजन की त्रासदी पर ‘तमस’ जैसे कालजयी उपन्यास लिखने वाले साहनी ने हिंदुस्तानी भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया। साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कहा कि भीष्म साहनी ने दबे-कुचले और समाज के पिछड़े लोगों की समस्याओं को जनभाषा में अत्यंत सटीक तरीके से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। यही वजह है कि उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का साहित्यकार कहा जाता है। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह भी साहनी को प्रेमचंद की परंपरा के अहम और प्रमुख रचनाकार मानते हैं। जिस तरह से प्रेमचंद ने सामाजिक वास्तविकता और पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणामों को अपनी रचनाओं में चित्रित किया, उन्हीं विषयों को आजादी के बाद साहनी ने अपनी लेखनी का विषय बनाया। साहनी का जन्म रावलपिंडी (पाकिस्तान) में हुआ था। विभाजन के बाद वह भारत आ गए। बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में साहनी ने उनके भारत आने की परिस्थिति का उल्लेख किया था। उन्होंने बताया था कि वह स्वतंत्रता समारोह का जश्न देखने रावलपिंडी से सप्ताह भर के लिए दिल्ली आए थे। उनकी पंडित नेहरू को लालकिले पर झंडा फहराते और हिन्दुस्तान की आजादी का जश्न देखने की हसरत थी, लेकिन जब वह दिल्ली पहुंचे, तो पता चला कि गाड़ियां बंद हो गई और फिर उनका लौटना नामुमकिन हो गया। भीष्म साहनी ने तमस के अलावा झरोखे, बसंती, मय्यादास की माड़ी जैसे उपन्यासों और हानूश, माधवी, कबिरा खड़ा बाजार में जैसे चर्चित नाटकों की भी रचना की। भाग्यरेखा, निशाचर, मेरी प्रिय कहानियां उनके कहानी संग्रह हैं। राजेंद्र यादव ने बताया कि विभाजन के बाद पाकिस्तान से देश में आने वाले लोगों की मनोदशा और समस्याओं को अत्यंत ही सजीव और वास्तविक वर्णन उन्होंने तमस में किया है। यादव ने उनके साथ अपने संबंधों को ताजा करते हुए कहा कि विभाजन के बाद भारत में ही बस गए साहनी बड़े ही जिंदादिल इंसान थे। अत्यंत साधारण से दिखने वाले साहनी जब-तब फोन करके किसी घटना को मजेदार चुटकुले के रूप में बताते थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहनी ने नाटकों के अलावा फिल्मों में भी काम किया है। मोहन जोशी हाजिर हो, कस्बा के अलावा मिस्टर एंड मिसेज अय्यर फिल्म में उन्होंने अभिनय किया। साहनी की कृति पर आधारित धारावाहिक ‘तमस’ काफी चर्चित रहा था। यादव ने बताया कि वह भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा से भी जुड़े हुए थे। स्वभाविक रूप से उनकी रूचि अभिनय में थी और वह फिल्मों की ओर भी आकर्षित हुए। बेहद सादगी पसंद रचनाकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर साहनी को पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। समाज के अंतिम व्यक्ति की आवाज उठाने वाले इस लेखक का निधन 11 जुलाई 2003 को दिल्ली में हुआ।

Dark Saint Alaick
11-07-2012, 04:15 PM
विश्व जनसंख्या दिवस पर विशेष
परिवार नियोजन में ‘आधी आबादी’ भारी
नसबंदी से अब भी हिचकिचा रहे हैं पुरुष

इसे जागरुकता की कमी कह लीजिए या समाज की पुरुष प्रधान मानसिकता का एक और सबूत। लेकिन जनसंख्या विस्फोट की चौतरफा दिक्कतों के बीच आबादी के सरपट दौड़ते घोड़े की नकेल कसने की व्यक्तिगत मुहिम में पुरुषों की भागीदारी महिलाओं के मुकाबले अब भी बेहद कम है। विशेषज्ञों के मुताबिक, परिवार नियोजन के आपरेशनों के मामले में कमोबेश पूरे देश में गंभीर लैंगिक अंतर बरकरार है। इस सिलसिले में मध्यप्रदेश भी अपवाद नहीं है। सूबे में पिछले पांच सालों के दौरान हुए परिवार नियोजन आपरेशनों में पुरुष नसबंदी की भागीदारी सिर्फ सात प्रतिशत के आस-पास रही, यानी नसबंदी कराने वाले हर 100 लोगों में केवल सात पुरुष थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2007-08 से 2011-12 के बीच प्रदेश में कुल 24,94,293 नसबंदी आपरेशन किए गए। इस अवधि में केवल 1,67,830 पुरुषों ने नसबंदी कराई, जबकि 23,26,463 महिलाओं ने परिवार नियोजन के लिए इसको अपनाया। बहरहाल, पिछले तीन दशक में नसबंदी के करीब 2,97,000 आपरेशन करने का दावा करने वाले डॉ. ललितमोहन पंत इन आंकड़ों से कतई चकित नहीं हैं। प्रसिद्ध नसबंदी विशेषज्ञ पंत ने बताया कि नसबंदी के मामले में कमोबेश पूरे देश में यही हालत है। परिवार नियोजन के आपरेशनों को लेकर ज्यादातर पुरुषों की हिचक और वहम अब भी कायम हैं। पंत के मुताबिक, अक्सर देखा गया है कि महिलाएं अपने तथाकथित ‘पति परमेश्वर’ के बजाय खुद नसबंदी आपरेशन कराने को जल्दी तैयार हो जाती हैं। परिवार नियोजन शिविरों में मुझे कई महिलाएं बता चुकी हैं कि वे इसलिए यह आपरेशन करा रही हैं, क्योंकि उनके पति अपनी नसबंदी कराने को किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं। उधर, नसबंदी आपरेशनों को लेकर ज्यादातर पुरुषो की प्रतिक्रिया एकदम उलट बताई जाती है। पंत ने बताया कि हम जब परिवार नियोजन शिविरों में नसबंदी आपरेशन के बारे में बात करते हैं तो ज्यादातर पुरुष अपने यौनांग में किसी तरह की तकलीफ की कल्पना मात्र से सिहर उठते हैं। सरकारी चिकित्सक ने कहा कि ज्यादातर पुरुषों को लगता है कि अगर वे नसबंदी आपरेशन कराएंगे तो उनकी शारीरिक ताकत और मर्दानगी कम हो जाएगी, जबकि हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं होता। बहरहाल, जैसा कि वह बताते हैं कि देश में वर्ष 1998-99 के दौरान एनएसवी (नो स्कैल्पल वसेक्टमी) के रूप में नसबंदी की नई पद्धति का प्रयोग शुरू होने के बाद इस परिदृश्य में बदलाव की जमीन तैयार होने लगी है। एनएसवी को आम जुबान में नसबंदी की ‘बिना चीरा, बिना टांका’ पद्धति कहा जाता है। उन्होंने बताया कि ज्यादातर पुरुष लम्बे समय तक परिवार नियोजन आपरेशनों से इसलिए भी दूर भागते रहे, क्योंकि नसबंदी की पुरानी पद्धति में बहुत दर्द होता था। लेकिन एनएसवी सरीखी नई पद्धति के चलते अब पुरुष झटपट नसबंदी कराके अपेक्षाकृत जल्दी अपने काम पर लौट सकते हैं और इसमें नाम मात्र का दर्द होता है। डॉ. पंत ने कहा कि देश में जनसंख्या नियंत्रण की मुहिम को और प्रभावी बनाने के लिए पुरुष नसबंदी की ओर अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

Dark Saint Alaick
12-07-2012, 01:37 AM
साक्षात्कार
अन्ना के मंच से बोले गए दो शब्द भारी पड़े-ओम पुरी

नई दिल्ली। गई अपनी विवादास्पद टिप्पणी से अब भी इत्तेफाक रखते हैं, हालांकि वह मानते हैं कि शिष्टाचार की भाषा अपनाई जानी चाहिए। मुख्यधारा सिनेमा और कला फिल्मों के सशक्त हस्ताक्षर माने जाने वाले अभिनेता ओमपुरी ने कहा कि हालांकि एक कलाकार के रूप में उन्हें देश और दुनिया से भरपूर सम्मान मिला है, लेकिन हजारे के मंच से बोले गए दो शब्दों की वजह से उनकी जान पर बन आई थी। ओम पुरी ने पिछले दिनों हरियाणा के करनाल में विगत दिवस करनाल में हरियाणा इंस्टीच्यूट आफ फाइन आर्ट्स हीफा की ओर से आयोजित पुरस्कार समारोह के मौके पर बातचीत में कहा कि हालांकि अब यह घटना पुरानी हो चुकी है, लेकिन हजारे के मंच से उन्होंने जो दो शब्द बोले थे, उन शब्दों की वजह से उनकी जान पर बन आई थी। हीफा की ओर से आयोजित समारोह में उन्हें पंडित जसराज सम्मान से सम्मानित किया गया। यह सम्मान अपनी मेहनत तथा लगन के दम पर किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने वाले असाधारण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को उनकी जीवन पर्यन्त उपलब्धियों के लिए दिया जाता है।
ओम पुरी ने कहा कि उनसे कहा गया कि उनके शब्द शिष्टतापूर्ण नहीं हैं, लेकिन विधानसभाओं और संसद में कई बार जो अप्रिय घटनाएं घटित होती हैं, नेता उन्हें किन शब्दों में बयां करना चाहेंगे। ओम पुरी ने बातचीत के दौरान अपने 35 साल के फिल्मी दुनिया के सफर से पहले के उतार-चढ़ाव के अलावा अपने बचपन के कुछ यादगार पलों को भी साझा किया। उन्होंने बताया कि बचपन में वह कंचे खेला करते थे और जब वह नाली में गिरे कंचों को उठा लेते थे, तब धार्मिक स्वभाव की उनकी मां उन्हें बार-बार नहलाया करती थी। ओम पुरी ने बताया कि उनका जन्म अम्बाला में हुआ था, लेकिन उनकी शुरुआती शिक्षा और परवरिश पटियाला के गांव सन्नौर में अपने मामा के घर रहते हुए हुई है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार वह हरियाणा और पंजाब की साझा राजधानी चंडीगढ़ की तरह हैं और दोनों ही प्रदेशों से उन्हें भरपूर प्यार तथा सम्मान मिलता रहा है।
ओम पुरी ने अब तक 250 फिल्मों में काम किया है, जिसमें से 20 विदेशी हैं। भारतीय सिने-जगत के साथ-साथ ब्रिटिश तथा हॉलीवुड की कई नामचीन फिल्मों में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके ओम पुरी ने बताया कि उनके जीवन में सफलता के क्षण उस समय आए, जब उनकी 1981 में रिलीज हुई फिल्म आक्रोश के जरिए उन्हें पहचान मिली और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 62 वर्षीय ओम पुरी ने बताया कि जीवन के शुरुआती दिनों में उन्होंने पटियाला के डीसी कार्यालय में एक कलर्क के रूप में भी कार्य किया था, लेकिन उनके भीतर छिपा कलाकार उन्हें दिल्ली और पुणे के रास्ते मुम्बई तक ले गया। दुनिया ने उनकी कला को सराहा और इसी सफर में उन्हें पद्मश्री, फिल्म फेयर, नेशनल अवार्ड और इंटरनेशनल बैस्ट एक्टर जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया। ओम पुरी ने बताया कि उनकी अगली फिल्म चक्रव्यूह नक्सलवाद की समस्या को लेकर है, जिसका निर्देशन प्रकाश झा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस फिल्म के जरिए वह लोगों को नक्सलवाद की समस्या को समझाने की कोशिश कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि चक्र व्यूह के माध्यम से देश के नक्सलवाद प्रभावित 260 जिलों की समस्या को पेश किया जाएगा। उन्होंने कहा कि इस फिल्म के माध्यम से केवल सच्चाई को उजागर करने का प्रयास किया गया है और फैसला देश की जनता को लेना है कि इस समस्या का क्या समाधन हो सकता है। ओम पुरी ने देश की सामाजिक स्थितियों के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि हमारे देश में तरक्की काफी हुई है, लेकिन आज भी अनेक क्षेत्रों, खास कर गांवों में बहुत खराब स्थिति है और देश की एक बड़ी आबादी को आज भी भोजन नहीं मिल रहा है और इसका मुख्य कारण वितरण प्रणाली की गड़बड़ियां हैं। हमारे देश में अनाज की कमी नहीं है, लेकिन यह लोगों तक सही तरीके से नहीं पहुंच रहा है। अनाज होते हुए भी लोगों को खाना नहीं मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का नाम लिए बगैर कहा कि जब एक मंत्री से कहा गया कि एक जगह खराब हो रहे अनाज को गरीबों तक पहुंचाया जाए, तो मंत्री ने कहा कि कानून में इस तरह का प्रावधान नहीं है। उन्होंने कहा कि देश की व्यवस्था में और सुधार की आवशयकता है और सुधार से ही महंगाई तथा भुखमरी जैसी समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि पंजाब और हरियाणा ने देश की हरित क्रांति में सबसे बड़ा योगदान दिया है और इन्हीं राज्यों के किसानों की मेहनत की वजह से देश में भरपूर अनाज है। इसके बावजूद अगर अन्य राज्यों में यदि अनाज की कमी है, तो यह व्यवस्था में कहीं कमी की ओर संकेत कर रहा है। उन्होंने मायानगरी में जाने की तमन्ना रखने वाले युवकों को सुझाव दिया कि उन्हें अपनी किस्मत आजमाने के लिए एक बार वहां जरूर जाना चाहिए, लेकिन यदि कुछ साल तक उनके सपने पूरे नहीं होते हैं, तो वापस लौट भी आना चाहिए।

Dark Saint Alaick
12-07-2012, 01:42 AM
पुण्यतिथि 12 जुलाई पर विशेष
हिंदी फिल्मों के जुबली स्टार थे राजेन्द्र कुमार

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17308&stc=1&d=1342039315

हिंदी फिल्म जगत में जुबली स्टार के नाम से मशहूर राजेन्द्र कुमार को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने न सिर्फ अभिनय से, बल्कि निर्माण और निर्देशन से भी सिने प्रेमियों को अपना दीवाना बनाया। 20 जुलाई 1929 को पश्चिम पंजाब के सियालकोट अब पाकिस्तान में जन्मे राजेन्द्र कुमार बचपन से ही अभिनेता बनने का सपना देखा करते थे। अपने इसी सपने को साकार करने के लिए पचास के दशक में वह मुंबई आ गए। मुंबई पहुंचने पर उनकी मुलाकात सेठी नाम के एक व्यक्ति से हुई, जिन्होंने उनका परिचय सुनील दत्त से कराया, जो उन दिनों स्वयं अभिनेता बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे। इस बीच राजेन्द्र कुमार की मुलाकात जाने माने गीतकार राजेन्द्र कृष्ण से हुई, जिनकी मदद से वह 150 रुपए मासिक वेतन पर निर्माता-निर्देशक एच.एस. रवेल के सहायक निर्देशक बन गए। बतौर सहायक निर्देशक राजेन्द्र कुमार ने रवेल के साथ प्रेमनाथ और मधुबाला अभिनीत साकी तथा प्रेमनाथ और सुरैया अभिनीत शोखियां के लिए काम किया। वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म जोगन बतौर अभिनेता राजेन्द्र कुमार के सिने कैरियर की पहली फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में उन्हें दिलीप कुमार के साथ अभिनय करने का मौका मिला। इसके बावजूद राजेन्द्र कुमार दर्शकों के बीच अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे। वर्ष 1950 से वर्ष 1957 तक राजेन्द्र कुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फिल्म जोगन के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली, वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने तूफान और दीया तथा आवाज, एक झलक जैसी कई फिल्मों मे अभिनय किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बाक्स आॅफिस पर सफल नहीं हुई। वर्ष 1957 में प्रदर्शित महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया में राजेन्द्र कुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फिल्म पूरी तरह अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी, फिर भी राजेन्द्र कुमार अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्टÑीय ख्याति भी मिली और फिल्म की सफलता के बाद वह बतौर अभिनेता फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म मेरे महबूब की कामयाबी से राजेन्द्र कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। राजेन्द्र कुमार कभी भी किसी खास इमेज में नहीं बंधे। इसलिए अपनी इन फिल्मों की कामयाबी के बाद भी उन्होंने वर्ष 1964 में प्रदर्शित फिल्म संगम में राज कपूर के सहनायक की भूमिका स्वीकार कर ली, जो उनके फिल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थी। इसके बावजूद राजेन्द्र कुमार यहां भी दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे। वर्ष 1963 से 1966 के बीच कामयाबी के सुनहरे दौर में राजेन्द्र कुमार की लगातार छह फिल्में हिट रहीं और कोई भी फिल्म फ्लाप नहीं हुई। मेरे महबूब (1963), जिन्दगी, संगम और आई मिलन की बेला (सभी 1964), आरजू (1965) और सूरज (1966) सभी ने सिनेमाघरों पर सिल्वर जुबली या गोल्डन जुबली मनाई। इन फिल्मों के बाद राजेन्द्र कुमार के कैरियर में ऐसा सुनहरा दौर भी आया, जब मुम्बई के सभी दस सिनेमाघरों में उनकी ही फिल्में लगी और सभी फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई। यह सिलसिला काफी लंबे समय तक चलता रहा। उनकी फिल्मों की कामयाबी को देखते हुए उनके प्रशंसकों ने उनका नाम ही जुबली कुमार रख दिया। राजेश खन्ना के आगमन के बाद परदे पर रोमांस का जादू जगाने वाले इस अभिनेता के प्रति दर्शकों का प्यार कम होने लगा। इसे देखते हुए राजेन्द्र कुमार ने कुछ समय के विश्राम के बाद 1978 में साजन बिना सुहागन फिल्म से चरित्र अभिनय की शुरुआत कर दी। वर्ष 1981 राजेन्द्र कुमार के सिने कैरियर का अहम पड़ाव साबित हुआ। अपने पुत्र कुमार गौरव को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए उन्होंने लव स्टोरी का निर्माण और निर्देशन किया, जिसने बाक्स आफिस पर जबरदस्त कामयाबी हासिल की। इसके बाद उन्होंने कुमार गौरव के कैरियर को आगे बढाने के लिए नाम और फूल फिल्मों का निर्माण किया, लेकिन पहली फिल्म की सफलता का श्रेय संजय दत्त ले गए, जबकि दूसरी फिल्म बुरी तरह पीट गई और इसके साथ ही कुमार गौरव के फिल्मी कैरियर पर भी विराम लग गया। राजेन्द्र कुमार के फिल्मी योगदान को देखते हुए 1969 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अपने दमदार अभिनय से दर्शको के बीच खास पहचान बनाने वाले जुबली कुमार का 12 जुलाई 1999 को कैंसर की जानलेवा बीमारी से निधन हो गया। राजेन्द्र कुमार ने अपने कैरियर में लगभग 85 फिल्मों में काम किया। उनकी उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ हैं -तलाक, संतान, धूल का फूल, पतंग, धर्मपुत्र, घराना, हमराही, आई मिलन की बेला, सूरज, पालकी, साथी, गोरा और काला, अमन, गीत, गंवार, धरती, दो जासूस, साजन बिना सुहागन, साजन की सहेली, बिन फेरे हम तेरे, फूल आदि।

Dark Saint Alaick
14-07-2012, 04:26 AM
पुण्यतिथि 14 जुलाई के अवसर पर विशेष
आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17319&stc=1&d=1342221966

'आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे... दिल की ऐ धड़कन ठहर जा मिल गई मंजिल मुझे' हिन्दी फिल्मों के मशहूर संगीतकार मदनमोहन के इस गीत से संगीत सम्राट नौशाद इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने इस धुन के बदले अपने संगीत का पूरा खजाना लुटा देने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मदन मोहन कोहली का जन्म 25 जून 1924 को हुआ था। उनके पिता रायबहादुर चुन्नीलाल फिल्म व्यवसाय से जुड़े हुए थे और बॉम्बे टाकीज और फिल्मिस्तान जैसे बड़े फिल्म स्टूडियो में साझीदार थे। घर में फिल्मी माहौल होने के कारण मदन मोहन भी फिल्मों में काम करके नाम करना चाहते थे, लेकिन पिता के कहने पर उन्होंने सेना मे भर्ती होने का फैसला ले लिया। उन्होंने देहरादून में नौकरी शुरू कर दी। कुछ दिन बाद उनका तबादला दिल्ली हो गया, लेकिन कुछ समय के बाद उनका मन सेना की नौकरी से ऊब गया और वह नौकरी छोड़कर लखनऊ आ गए और आकाशवाणी के लिए काम करने लगे। आकाशवाणी में उनकी मुलाकात संगीत जगत से जुड़े उस्ताद फैयाज खान, उस्ताद अली अकबर खान, बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसी जानी मानी हस्तियों से हुई, जिनसे वे काफी प्रभावित हुए। उनका रुझान संगीत की ओर हो गया। अपने सपनों को नया रूप देने के लिए मदन मोहन लखनऊ से मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद मदन मोहन की मुलाकात एस. डी. बर्मन, श्याम सुंदर और सी. रामचंद्र जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों से हुई। वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। संगीतकार के रूप में 1950 में प्रदर्शित फिल्म आंखें के जरिए वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। फिल्म आंखें के बाद लता मंगेशकर मदन मोहन की चहेती पार्श्वगायिका बन गई और वह अपनी हर फिल्म के लिए लता मंगेशकर से ही गाने की गुजारिश किया करते थे। लता मंगेशकर भी मदनमोहन के संगीत निर्देशन से काफी प्रभावित थीं और उन्हें गजलों का शहजादा कह कर संबोधित किया करती थीं।
पचास के दशक में मदन मोहन के संगीत निर्देशन में राजेन्द्र कृष्ण के रूमानी गीत काफी लोकप्रिय हुए। इनमें कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झंकार लिए (देख कबीरा रोया), मेरा करार लेजा मुझे बेकरार कर जा (आशियाना) और ऐ दिल मुझे बता दे (भाई-भाई/1956) जैसे गीत शामिल हैं। मदन मोहन के संगीत निर्देशन में आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे (अनपढ़), लग जा गले (वो कौन थी), नैनों में बदरा छाए और मेरा साया साथ होगा (मेरा साया) जैसे राजा मेहंदी अली खां के गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपने संगीत निर्देशन से कैफी आजमी के जिन गीतों को अमर बना दिया, उनमें कर चले हम फिदा जानो तन साथियो, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो (हकीकत), मेरी आवाज सुनो प्यार का राग सुनो (नौनिहाल), ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं (हीर रांझा), सिमटी सी शरमाई सी तुम किस दुनिया से आई हो (परवाना) और तुम जो मिल गए हो ऐसा लगता है कि जहां मिल गया (हंसते जख्म) जैसे गीत शामिल हैं। महान संगीतकार ओ. पी. नैयर अक्सर कहा करते थे मैं नहीं समझता कि लता मंगेशकर मदन मोहन के लिए बनी हुई हैं या मदन मोहन लता मंगेश्कर के लिए, लेकिन अब तक न तो मदन मोहन जैसा संगीतकार हुआ और न लता जैसी पार्श्वगायिका। मदनमोहन के संगीत निर्देशन में आशा भोसले ने फिल्म मेरा साया के लिए झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में गाना गाया, जिसे सुनकर श्रोता आज भी झूम उठते हैं। उनसे आशा भोसले को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि वह अपनी हर फिल्म में लता दीदी को हीं क्यों लिया करते हैं ... इस पर मदनमोहन कहा करते, जब तक लता जिदां है, उनकी फिल्मों के गाने वही गाएगी। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म हकीकत में मोहम्मद रफी की आवाज में मदन मोहन के संगीत से सजा गीत कर चले हम फिदा जानो तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो आज भी श्रोताओ में देशभक्ति का जज्बा बुलंद कर देता है। आंखों को नम कर देने वाला ऐसा संगीत मदन मोहन ही दे सकते थे।
वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म दस्तक के लिए मदन मोहन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए। उन्होंने अपने ढाई दशक लंबे सिने करियर में लगभग 100 फिल्मों के लिए संगीत दिया। अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं के दिल में खास जगह बना लेने वाला यह सुरीला संगीतकर 14 जुलाई 1975 को इस दुनिया से अलिवदा कह गया। मदन मोहन के निधन के बाद 1975 में ही उनकी मौसम और लैला मजनूं जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई, जिनके संगीत का जादू आज भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता है। मदन मोहन के पुत्र संजीव कोहली ने अपने पिता की बिना इस्तेमाल की हुई 30 धुनें यश चोपड़ा को सुनाई, जिनमें आठ का इस्तेमाल उन्होंने अपनी फिल्म वीर जारा के लिए किया। ये गीत भी श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए।

Dark Saint Alaick
16-07-2012, 10:20 PM
जन्म दिवस विशेष
‘पेड न्यूज मुक्त’ और पारदर्शी पत्रकारिता के लिए प्रयास करते रहे प्रभाष जोशी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17327&stc=1&d=1342459200

देश के सबसे मूर्धन्य संपादकों में शुमार प्रभाष जोशी ने पूरी जिंदगी मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता के लिए समर्पित कर दी। जीवन के आखिरी कुछ साल उन्होंने ‘पेड न्यूज’ के खिलाफ आवाज बुलंद की और पत्रकारिता में शुचिता के लिए प्रयासरत रहे। वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय कहते हैं, ‘प्रभाष जोशी ने सबसे पहले पेड न्यूज के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने पेड न्यूज के खिलाफ अभियान शुरू किया और इसको लेकर बड़ी बहस छिड़ी। आज वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके चाहने वालों की यह जिम्मेदारी है कि पत्रकारिता को नुकसान पहुंचा रही पेड न्यूज की व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करें।’ ‘जनसत्ता’ के जरिए हिंदी पत्रकारिता की गरिमा को नए शिखर पर ले जाने वाले जोशी लेखनी के दायरे को हमेशा विस्तृत करने के पक्ष में रहे। उनकी लेखनी का दायरा भी बहुत विस्तृत था, जिसमें राजनीति से लेकर खेल तक शामिल हैं। ‘चौथी दुनिया’ के संपादक संतोष भारतीय कहते हैं, ‘प्रभाष जोशी गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा को आगे बढाने वाले पत्रकार थे। उन्होंने पत्रकारिता को नया आयाम दिया। आज के दौर में जोशी की पत्रकारिता को ही उदाहरण के तौर पर पेश करने की जरूरत है।’ विनोबा भावे की पदयात्रा और जेपी आंदोलन के प्रत्यक्ष गवाह रहे जोशी का जन्म 15 जुलाई, 1936 को भोपाल के निकट अष्टा में हुआ। जोशी ने ‘नई दुनिया’ से पत्रकारिता की शुरुआत की। बाद में वह सरोकार परक पत्रकरिता के लिए मशहूर रामनाथ गोयनका के साथ जुड़े। यहीं से उनकी क्रांतिकारी लेखनी और संपादकीय हुनर की गवाह पूरी दुनिया बनी। साल 1983 में ‘जनसत्ता’ की शुरुआत प्रभाष जोशी के नेतृत्व में हुई। 80 के दशक में यह अखबार जनता की आवाज की शक्ल ले चुका था। पंजाब में खालिस्तानी अलगाववाद और बोफोर्स घोटाले जैसे कुछ घटनाक्रमों में इस प्रकाशन ने निर्भीकता और निष्पक्षता का जोरदार परिचय दिया। यह सब जोशी के विलक्षण नेतृत्व के बल पर संभव हुआ। जोशी की मूल्य आधारित पत्रकारिता के बारे में ‘जनसत्ता’ के पूर्व स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव कहते हैं, ‘मैंने प्रभाष जोशी के साथ बतौर स्थानीय संपादक काम किया। मेरा मानना है कि उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की गरिमा को बढ़ाने और उसे एक नए शिखर पर ले जाने काम किया।’ सक्रिय पत्रकारिता से अलग होने के बाद जोशी ने अपनी लेखनी को विराम नहीं दिया। जीवन के आखिरी कुछ साल में उन्होंने ‘पेड न्यूज’ के खिलाफ जोरदार आवाज बुलंद की। उनके प्रयासों का नतीजा था कि पेड न्यूज के खिलाफ पहली बार एक बहस छिड़ी और भारतीय प्रेस परिषद ने इस संदर्भ में जांच कराई। जोशी क्रिकेट के बड़े शौकीन और मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के बड़े मुरीद थे। पांच नवंबर, 2009 को आस्ट्रेलिया के खिलाफ सचिन की ऐतिहासिक पारी को देखने के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 01:29 AM
पुण्यतिथि 17 जुलाई के अवसर पर
बांग्ला सिनेमा को विशिष्ट पहचान दिलाई कानन देवी ने

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17328&stc=1&d=1342470582

भारतीय सिनेमा जगत में कानन देवी का नाम एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने न सिर्फ फिल्म निर्माण की विधा बल्कि अभिनय और पार्श्वगायन से भी दर्शकों के बीच अपनी खास पहचान बनाई। कानन देवी (मूल नाम काननबाला) का जन्म पश्चिम बंगाल के हावड़ा में 1916 को एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। बचपन के दिनों में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बाद परिवार की आर्थिक जिम्मेवारी को देखते हुए कानन देवी अपनी मां के साथ काम में हाथ बंटाने लगी। कानन देवी जब महज 10 वर्ष की थीं, तब अपने एक पारिवारिक मित्र की मदद से उन्हें ज्योति स्टूडियो द्वारा निर्मित फिल्म जयदेव में काम करने का अवसर मिला। इसके बाद कानन देवी को ज्योतिस बनर्जी के निर्देशन में राधा फिल्म्स के बैनर तले बनी कई फिल्मों में बतौर बाल कलाकार काम करने का मौका मिला। वर्ष 1934 में प्रदर्शित फिल्म मां बतौर अभिनेत्री कानन देवी के सिने करियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई। कुछ समय के बाद कानन देवी न्यू थियेटर में शामिल हो गई। इस बीच उनकी मुलाकात राय चंद बोराल से हुई, जिन्होंने कानन देवी से हिंदी फिल्मों में आने का प्रस्ताव किया। तीस और चालीस के दशक में फिल्म अभिनेता या अभिनेत्रियों को फिल्मों में अभिनय के साथ ही पार्श्वगायक की भूमिका भी निभानी होती थी, जिसको देखते हुए कानन देवी ने भी संगीत की शिक्षा लेनी शुरूकर दी। उन्होंने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा उस्ताद अल्लारक्खा और भीष्मदेव चटर्जी से हासिल की। इसके बाद उन्होंने अनादि दस्तीदार से रवीन्द्र संगीत भी सीखा। वर्ष 1937 में प्रदर्शित फिल्म मुक्ति बतौर अभिनेत्री कानन देवी के सिने करियर की सुपरहिट फिल्म साबित हुई। पी.सी.बरुआ के निर्देशन में बनी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी के बाद कानन देवी न्यू थियेटर की चोटी की कलाकार में शामिल हो गई। वर्ष 1941 में न्यू थियेटर छोड़ देने के बाद कानन देवी स्वतंत्र तौर पर काम करने लगी। वर्ष 1942 में प्रदर्शित फिल्म जवाब बतौर अभिनेत्री कानन देवी के सिने करियर की सर्वाधिक हिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में उन पर फिल्माया यह गीत दुनिया है तूफान मेल उन दिनों श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। इसके बाद कानन देवी की हॉस्पिटल, वनफूल और राजलक्ष्मी जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई, जो टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई। वर्ष 1948 में कानन देवी ने मुंबई का रुख किया। इसी वर्ष प्रदर्शित चंद्रशेखर बतौर अभिनेत्री कानन देवी की अंतिम हिंदी फिल्म थी। फिल्म में उनके नायक की भूमिका अशोक कुमार ने निभाई। वर्ष 1949 में कानन देवी ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। श्रीमती पिक्चर्स के अपने बैनर तले कानन देवी ने कई सफल फिल्मों का निर्माण किया। वर्ष 1976 में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कानन देवी के उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कानन देवी बंगाल की पहली अभिनेत्री बनी, जिन्हें यह पुरस्कार दिया गया था। कानन देवी ने अपने तीन दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 60 फिल्मों में अभिनय किया। उनकी अभिनीत उल्लेखनीय फिल्मों में जयदेव, प्रह्लाद, विष्णु माया, मां, हरि भक्ति, कृष्ण सुदामा, खूनी कौन, विद्यापति, साथी, स्ट्रीट सिंगर, हारजीत, अभिनेत्री, परिचय, लगन, कृष्ण लीला, फैसला, आशा आदि शामिल हैं। कानन देवी ने अपने बैनर श्रीमती पिक्चर्स के तहत कई फिल्मों का निर्माण किया। उनकी फिल्मों में कुछ हैं वामुनेर में (1948), अन्नया (1949), मेजो दीदी (1950), दर्पचूर्ण (1952), नव विद्यान (1954), आशा (1956), आधारे आलो (1957), राजलक्ष्मी ओ श्रीकांता (1958), इंद्रनाथ, श्रीकांता औ अनदादीदी (1959), अभया ओ श्रीकांता (1965)। अपनी निर्मित फिल्मों, पार्श्वगायन और अभिनय के जरिए दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाली कानन देवी 17 जुलाई 1992 को इस दुनिया को अलविदा कह गई।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 10:58 PM
18 जुलाई को नेल्सन मंडेला दिवस पर
... और नेल्सन मंडेला ने कोई हिंसा नहीं होने दी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17336&stc=1&d=1342547867

दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्ध अश्वेत नेता नेल्सन मंडेला ने न केवल देश से नस्लवाद खत्म किया, बल्कि गोरे शासन के दौरान दमन से गुजरे अश्वेतों के गुस्से की वजह से उस मौके पर वह हिंसा नही होने दी जिसकी आशंका जतायी जा रही थी । तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने से कहा कि दक्षिण अफ्रीका में जब 1994 में नस्लवाद खत्म हुआ तब ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही थी व्यापक हिंसा होगी। दरअसल गोरे शासन में दमन की इंतहा हो गयी थी और ऐसा माना जा रहा था कि नस्लवाद के खात्मे के बाद श्वेतों के खिलाफ अश्वेत लोगों का गुस्सा फूट पड़ेगा एवं व्यापक हिंसा होगी लेकिन मंडेला ऐसे करिश्माई व्यक्ति थे कि हिंसा की एक भी घटना नहीं होने दी। दक्षिण अफ्रीका के मवेजो में 18 जुलाई, 1918 को जन्मे मंडेला ने यूनिवर्सिटी कॉलेज आॅफ फोर्ट और यूनिवर्सिटी आॅफ विटवाटर्सरैंड से अपनी पढाई की तथा 1942 में विधि स्नातक किया। वह अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस :एएनसी: से जुड़े । उन्होंने 1944 में अन्य लोगों के साथ मिलकर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग (एएनसीवाईएल) की स्थापना की । वह जुड़ गए। वर्ष 1948 मेंं उन्हें एएनसीवाईएल का राष्ट्रीय सचिव चुना गया।
मंडेला ने वर्ष 1952 में अनुचित कानूनों के खिलाफ व्यापक नागरिक अवज्ञा अभियान डिफियांस कैम्पेन शुरू किया। उन्हें इस अभियान का प्रमुख स्वयंसेवक चुना गया। सन् 1960 में एएनसी पर प्रतिबंध के बाद मंडेला ने उसकी सशस्त्र शाखा बनाने की वकालत की। जून 1961 में एएनसी इस बात पर सहमत हुई कि जो लोग मंडेला के अभियान से जुड़ना चाहते हैं, पार्टी उन्हें ऐसा करने से नहीं रोकेगी । उसके बाद उमखांतो वी सिजवे की स्थापना हुई और मंडेला उसके कमांडर इन चीफ बने। मंडेला को 1962 में गिरफ्तार किया गया और उन्हें पांच साल का कठोर कारावास मिला। सन् 1963 में एएनसी और उमखांतो वी सिजवे के कई नेता गिरफ्तार किए और मंडेला समेत इन सभी पर हिंसा के माध्यम से सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश का मुकदमा चाल। अदालत मेंं मंडेला ने जो बयान दिया उसकी दुनियाभर में सराहना हुई। मंडेला ने कहा था, ‘आखिरकार हम समान राजनीतिक अधिकार चाहते हैं क्योंकि उसके बगैर हम हमेशा पिछड़े रह जायेंगे। मैं जानता हूं कि इस देश के श्वेतों को यह क्रांतिकारी जैसा लग रहा होगा क्योंकि अधिकतर मतदाता अफ्रीकी होंगे। इस बात को लेकर श्वेत लोग लोकतंत्र से डरते हैं।’ बारह जून, 1964 को मंडेला समेत आठ आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी । इन सभी को पहले रोब्बेन द्वीप और बाद में विक्टर वर्स्टर जेल ले जाया गया।
जेल के दौरान मंडेला की प्रतिष्ठा तेजी से बढी और उन्हें दक्षिण का सबसे महत्वपूर्ण अश्वेत नेता माना जाने लगा। उन्होंने जेल से रिहाई के लिए अपनी राजनीतिक स्थिति से कोई समझौता करने से इनकार कर दिया। नस्लवाद के खिलाफ लंबे समय तक जनांदोलन चलने के बीच एएनसी ने सरकार से वार्ता शुरू की। उसी बीच 1990 में मंडेला को रिहा कर दिया गया। सन् 1993 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिला। सत्ताईस अप्रैल को पूर्ण मताधिकार के साथ मतदान हुआ और एएनसी को बहुमत मिला। मंडेला 10 मई, 1994 को पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। वर्ष 1999 में एक कार्यकाल के बाद वह राष्ट्रपति की दौड़ से हट गए। वर्मा ने कहा कि उनके बारे में एक और अच्छी बात है कि उन्होंने स्वेच्छा से राष्ट्रपति पद छोड़ दिया। उनका कहना है कि मंडेला ने कम्युनिस्ट पार्टी और अफ्रीकन कांग्रेस पार्टी में तालमेल कायम रखा और जनतांत्रिक ताकतों का बिखराव नहीं होने दिया। हालांकि जनता का सपना जैसे भूमि पुनर्वितरण, बेरोजगारी उन्मूलन आदि पूरा नहीं हो सका और अपराध भी नहीं घटा। उल्लेखनीय है कि नवंबर, 2009 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने शांति और आजादी की संस्कृति में दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति के योगदान के सम्मान में 18 जुलाई को नेल्सन मंडेला दिवस की घोषणा की। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने इस दिवस पर अपने संदेश में कहा कि मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका के लोगों के जीवन में बदलाव लाने के लिए अपने जीवन का 67 साल लगा दिया। वह राजनीतिक कैदी, शांति की स्थापना करने वाले तथा स्वतंत्रता सेनानी हैं।

Dark Saint Alaick
26-07-2012, 02:40 PM
26 जुलाई को करगिल विजय दिवस पर विशेष
करगिल के 13 साल बाद भी आधुनिक नहीं हो पाई सेना

सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि करगिल में भारतीय क्षेत्र में घुस आए पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार भगाने के 13 साल बीत जाने के बाद भी भारतीय सेना हथियारों की भारी कमी का सामना कर रही है और मंथर गति से चल रही सैन्य आधुनिकरण की प्रक्रिया को तेज नहीं किया गया तो आने वाले समय में स्थिति विकट हो सकती है। रक्षा मामलों के विशेषज्ञ सेवानिवृत्त मेजर जनरल दीपांकर बनर्जी ने बताया कि करगिल युद्ध के जीत के बाद बनाई ‘करगिल समीक्षा रिपोर्ट’ ने इन्फैंट्री को आधुनिक बनाए जाने की सिफारिश की थी लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि इतने साल बीत जाने के बाद भी यह प्रक्रिया बहुत धीमी गति से चल रही है । इन्फैंट्री के जवानों को एक लड़ाकू मशीन के रूप में बदलने की योजना ढीली पड़ गई है। बनर्जी ने कहा कि करगिल युद्ध के समय पहाड़ों में लड़ने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था जिसके लिए समिति ने मध्यम दूरी तक मार करने वाली नई तोपों को खरीदने की सिफारिश की थी जिस पर अभी तक कुछ खास प्रगति नहीं हो पाई है। भारत ने बोफोर्स के बाद कोई तोप नहीं खरीदी है। रक्षा मामलों की पत्रिका इंडियन डिफेंस रिव्यू के संपादक भारत वर्मा का मानना है कि राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी की वजह से भारत की सेनाओं केआधुनिकीकरण में बाधा आ रही है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सत्ता में आने के बाद करगिल समीक्षा रिपोर्ट के लागू नहीं होने के कारणों की पड़ताल के लिए जिस कार्यबल का गठन किया था उसके अब इतने समय बाद अगले महीने तक रिपोर्ट देने की संभावना है। वर्मा ने कहा किआज तीनों सेनाओं को आधुनिक बनाए जाने की सख्त जरूरत है। हमें सबसे पहले चीफ आॅफ डिफेंस स्टाफ बनाना होगा जिसकी सख्त कमी हमें करगिल युद्ध के दौरान महसूस हुई थी। चीफ आॅफ डिफेंस स्टाफ बनने से तीनों सेनाएं संयुक्त रूप से कार्रवाई कर सकेंगी। उन्होंने कहा कि यह होना बहुत जरूरी है क्योंकि इससे तीनों सेनाओं में समन्वय बढेþगा। अफगानिस्तान में अमेरिकी वायुसेना, थलसेना और यहां तक की नौसेना मिलकर कार्रवाई कर रही हैं और इससे उनको सफलता मिली है। वर्मा ने कहा कि थल सेना की एक स्ट्राइक कोर बनाने की योजना परवान नहीं चढ़ पाई है। सेना को लड़ाकू हेलीकॉप्टरों की सख्त जरूरत है जो वायु सेना के साथ खींचतान में फंस गई है। उल्लेखनीय है कि 26 जुलाई 1999 के दिन भारतीय सेना के जांबाज जवानों ने अद्भुत वीरता और शौर्य का प्रदर्शन करते हुए करगिल युद्ध में पाक घुसपैठियों को मार भगाया था। तभी से यह दिन ‘करगिल विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है । इस जंग में भारतीय सेना के 500 से अधिक जवान और अधिकारी शहीद हो गए थे जबकि पाकिस्तान के हजारों जवान और आतंकवादी मारे गए थे।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 03:34 PM
बंगाल के एक छोटे से गांव से देश के पहले पते तक का सफर

‘बंगाल के एक छोटे से गांव में दीपक की रोशनी से दिल्ली की जगमगाती रोशनी तक की इस यात्रा के दौरान मैंने विशाल और कुछ हद तक अविश्वसनीय बदलाव देखे हैं।’ देश के 13वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद अपने भाषण में ये उदगार प्रणब मुखर्जी ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा, ‘उस समय मैं बच्चा था, जब बंगाल में अकाल ने लाखों लोगों को मार डाला था। वह पीड़ा और दुख मैं भूला नहीं हूं।’ स्कूल जाने के लिए अकसर नदी तैरकर पार करने वाले प्रणब ने जमीन से उठकर कई मुकाम हासिल किए और आज अंतत: देश के सर्वोच्च नागरिक बन गए। वह भारत और भारतीयता के तानेबाने को पूरी तत्परता और तार्किकता से समझने में सक्षम रहे। सत्ता के गलियारों में उन्हें संकटमोचक कहा जाता था। प्रशासक और दलों की सीमा के पार अपनी स्वीकार्यता के लिए वह मशहूर रहे। वह पहली बार 1969 में राज्यसभा के लिए चुने गए। एक बार राज्यसभा की ओर गए तो कई वर्षों तक जनता के बीच जाकर चुनाव नहीं लड़ा। सियासी जिंदगी में करीब 35 साल बाद उन्होंने लोकसभा का रुख किया। 2004 में वह पहली बार पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से चुने गए। 2009 में भी वह लोकसभा पहुंचे। बीते 26 जून को वित्त मंत्री पद से प्रणब के इस्तीफा देने के तत्काल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें पत्र लिखकर सरकार में उनके योगदान के लिए आभार जताया और कहा कि उनकी कमी सरकार में हमेशा महसूस की जाएगी। सरकार के मंत्रियों ने भी उनकी कमी खलने की बात कही। प्रणब प्रधानमंत्री बनने से कई बार चूके, लेकिन इस महत्वपूर्ण पद पर न होते हुए भी संकट के समय सभी लोग उनकी ओर ही देखते थे। अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री पद की हसरत का इजहार करने के बाद उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर नयी पार्टी बनाई। बाद में वह फिर से कांग्रेस में आए और सियासी बुलंदियों को छूते चले गए। अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश मामलों पर पैनी पकड रखने वाले प्रणब बाबू ने सरकार में रहते हुए कमरतोड मेहनत की और आज भी वह देर रात तक अपने काम में व्यस्त रहते हैं । राजनीति के गलियारों में अपने फन का लोहा मनवाने के बाद प्रणब अब देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन हैं। जाहिर है सरकार और राजनीति में उनके 45 साल के अनुभव का कोई सानी नहीं है । भले ही वह एक स्थापित वकील न रहे हों लेकिन संविधान, अर्थव्यवस्था और विदेशी संबंधों की अपनी समझ और पकड़ का लोहा उन्होंने बार बार मनवाया। प्रणब सियासत की हर करवट को बखूबी समझते रहे हैं। यही वजह रही कि जब भी उनकी पार्टी और मौजूदा संप्रग सरकार पर मुसीबत आई तो वह सबसे आगे नजर आए। कई बार तो ऐसा लगा कि सरकार की हर मर्ज की दवा प्रणब बाबू ही हैं। प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने 1991 में उन्हें विदेश मंत्री बनाने के साथ ही योजना आयोग का उपाध्यक्ष का पद दिया। मनमोहन की सरकार में वह रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और वित्त मंत्री के पदों पर रहे। प्रणब के पिता किंकर मुखर्जी भी कांग्रेस के नेता हुआ करते थे। कुछ वक्त के लिए प्रणव ने वकालत भी की और इसके साथ ही पत्रकारिता एवं शिक्षा क्षेत्र में भी कुछ वक्त बिताया। इसके बाद उनका सियासी सफर शुरू हुआ। राष्ट्रपति भवन देश का सबसे अहम पता है जो भारत के प्रथम नागरिक के नाम के साथ जुड़ा होता है। देश के जिस आलीशान भवन में रहने का गौरव प्रथम नागरिक को मिलता है उसकी भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चार मंजिला इस भवन में 340 कमरे हैं और सभी कमरों का उपयोग किसी न किसी रूप में किया जा रहा है। लगभग दो लाख वर्ग फुट में बना राष्ट्रपति भवन आजादी से पहले ब्रिटिश वायसराय का सरकारी आवास हुआ करता था। करीब 70 करोड़ ईटों और 30 लाख घन फुट पत्थर से बने इस भवन के निर्माण में तब एक करोड़ चालीस लाख रूपये खर्च हुए थे।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 04:28 PM
27 जुलाई को गणितज्ञ बरनौली की जयंती के अवसर पर
गणित में अहम योगदान करने वाले जीन बरनौली पर विवादों की छाया रही

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17352&stc=1&d=1343418097

गणित की शाखा कैलकुलस के क्षेत्र के अग्रणी गणितज्ञों में एक स्विट्जरलैंड के गणितज्ञ जोहान उर्फ़ जीन बरनौली का जीवन विवादों से घिरा रहा। स्विट्जरलैंड के बेसल में छह अगस्त, 1667 को जन्मे जीन बरनौली को उनके पिता व्यापारी बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी इच्छा चिकित्सा अध्ययन की थी और वह इसके लिए अपने पिता को मनाने में कामयाब हो गए। हालांकि उन्हें चिकित्सा की पढाई में भी मन नहीं लगा और अपने भाई जैकब बरनौली से गणित भी पढने लगे। उन्होंने बेसल विश्वविद्यालय से स्नातक किया। उन्हें जोहान और जॉन बरनौली भी कहा जाता है। बेसल विश्वविद्यालय में वह उन दिनों खोजे गए इनफिनाइटसिमल कैलकुलस के अध्ययन में अपने भाई के साथ अध्ययन में समय लगाने लगे। वे उन पहले गणितज्ञों में थे जिन्होंने न केवल कैुलकुलस समझा बल्कि विभिन्न समस्याओं में उसका उपयोग भी किया। जामिया विश्वविद्यालय की गणित विभाग की शिक्षिका डॉ. कुमकुम देवान कहती हैं कि इनफिनाइटसिमल कैलकुलस में उनका काफी योगदान रहा। बेसल विश्वविद्यालय में गणित में अध्यापन का अवसर नहीं मिलने पर जीन बरनौली ग्रोनिगेन विश्वविद्यालय में पढाने लगे। भाई जैकब की मृत्यु के बाद वह वह बेसल विश्वविद्यालय लौटे। जैकब बेसल विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे और जीन को उन्हीं का स्थान मिला। सन् 1694 में जीन बरनौली को मस्कुलर मूवमेंट पर उनके गणित पेपर पर उन्हें डॉक्टरेट मिला। अपने जीवन काल में उन्हें कई सम्मान मिले। जीन का जीवन विवादों से भरा पड़ा है। उनका पहला विवादा फ्रांस के जाने माने गणितज्ञ एल हास्पीटल के साथ हुआ। हॉस्पीटल ने उन्हें कैलकुलस पढाने के लिए मनाया। जीन ने उन्हें मुफ्त में कैलकुलैस पढाया। लेकिन जब हॉस्पीटल ने डिफेंरेंशियल कैलकुलस पर पुस्तक प्रकाशित की तब दोनों में मतभेद हो गया। दरअसल हास्पीटल ने जीन को अपनी पुस्तक में श्रेय नहीं दिया। जैकब के साथ भी उनका संबंध अच्छा नहीं रहा। दरअसल जीन को कैलकुलस पढाने के बाद जैकब यह मानने के तैयार नहीं थे कि जीन गणित में उनके बराबर हैं। जब जीन ने एक जटिल सवाल का हल किया जब जैकब ने उन्हें ‘अपना छात्र’ बताया। जीन को यह अच्छा नहीं लगा। दोनों भाइयों में तनाव हो गया। परिवार के साथ समस्या यहीं समाप्त नहीं हुई । उनके बेटे डेनियल हाइड्रोडायनाम्किस की स्थापना को लेकर भौतिकी में प्रसिद्ध हुए। लेकिन उनका अपने पिता जीन के साथ अच्छा संबंध नहीं। ऐसा जान पड़ता है कि जीन अपने बेटे से ईर्ष्या करते थे। बरनौली के परिवार तीन पीढियों में आठ अच्छे गणितज्ञ हुए। जीन का एक जुलाई, 1748 को निधन हो गया ।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 04:30 PM
28 जुलाई पुण्यतिथि पर विशेष
भक्ति और त्याग की प्रतिमूर्ति थी सिस्टर अल्फोंसा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17350&stc=1&d=1343388586

भारतीय मूल के ईसाइयों में सर्वप्रथम ‘संत’ की उपाधि से नवाजी गई सिस्टर अल्फोंसा भक्ति, त्याग और प्रेम की प्रतिमूर्ति थीं जिन्होंने अपना सारा जीवन ईसा मसीह के उपदेशों के अनुरूप दूसरों की सेवा में कुर्बान कर दिया। केरल में सिस्टर अल्फोंसा के जन्म स्थान से ताल्लुक रखने वाले फादर वर्गीज ने बताया कि सिस्टर अल्फोंसा भारतीय ईसाइयों में पहली ऐसी महिला हैं, जिन्हें रोमन कैथलिक चर्च के सर्वोच्च धर्मगुरू पोप बेनेडिक्ट 16वें ने वर्ष 2008 में संत घोषित किया था। उन्होंने कहा, ‘सिस्टर अल्फोंसा सर्वगुण संपन्न थीं । वह चाहतीं, तो सुविधाओं से पूर्ण जीवन बीता सकती थीं, लेकिन उन्होंने अपना सर्वस्व ईश्वर की सेवा में लगाने का संकल्प लिया।’ फादर वर्गीज ने बताया कि जीवन के बाद के दिनों में उन्हें कई बीमारियां हो गई, इसके बावजूद भी उन्होंने ईश्वर में अपनी आस्था बनाई रखी और इसे प्रभु का आशीर्वाद माना। उनके लिये प्रभु यीशू ही सब कुछ थे और वह उनके उपदेशों का अनुसरण करती थीं। उन्होंने कहा, ‘बीमारियों से पीड़ित सिस्टर अल्फोंसा की मात्र 35 साल की उम्र में ही मौत हो गई थी। मौत के बाद उनकी कब्र पर लोग मन्नते मांगते थे और उनकी मन्नतें पूरी भी हुई। आज उनकी कब्र एक तीर्थ स्थान में बदल गई है, जिसके दर्शन के लिये लोग दूर-दूर से आते हैं।’
फादर वर्गीज ने कहा कि इसको देखते हुए चर्च ने उनका पूरा अध्ययन किया। उनकी कब्र को खोलकर देखा गया कि उनका हृदय सूख गया है, लेकिन गला नहीं है। चर्च ने उनके चमत्कारों की कई बार जांच की और उन्हें ‘संत’ घोषित किया। उन्होंने कहा कि ईसाई धर्म की मान्यताओं के मुताबिक जिस व्यक्ति को ‘संत’ घोषित किया जाता है, उसका जीवन अन्य लोगों के लिए अनुकरणीय है। फादर वर्गीज ने कहा कि सिस्टर अल्फोंसा का जीवन भी बहुत ही अनुकरणीय था। फादर वर्गीज ने कहा, ‘सिस्टर अल्फोंसा ने पूरे जीवन में कभी झूठ नहीं बोला। वह हमेशा प्रार्थनारत रहती थी। उन्होंने शादी का प्रस्ताव आने पर नकार दिया और संपूर्ण जीवन ईश्वर की भक्ति में लगा दिया। वे बहुत मशहूर नहीं थी, लेकिन उनका अध्यात्मिक जीवन बहुत ही अनुकरणीय था।’ रोमन कैथलिक चर्च के फादर जार्ज अब्राहम ने कहा कि सिस्टर अल्फोंसा के जीवन से हमें सबसे बड़ी सीख मिलती है कि भक्त तमाम तकलीफों के बावजूद ईश्वर में अपना विश्वास बनाए रखें। उनके पवित्र जीवन के कारण ही उन्हें संत की उपाधि दी गई। उल्लेखनीय है कि अन्ना मुत्ततुपदतु या सिस्टर अल्फोंसा का जन्म 19 अगस्त 1910 को केरल के कोट्टायम के नजदीक कुदमलूर में जन्म हुआ था। वह सीरियन-मालाबार कैथलिक चर्च से ताल्लुक रखती थी। मात्र 35 साल की अवस्था में 28 जुलाई 1946 को उनका निधन हो गया था।

Dark Saint Alaick
28-07-2012, 12:42 AM
वन महोत्सव दिवस पर विशेष
दूर है अब भी ‘हरियाली का रास्ता’

हर साल की तरह इस बार भी वन महोत्सव पर सुबह से ही तमाम कार्यक्रम आयोजित होंगे, गोष्ठियों में योजनाएं बनेंगी और लोग वनों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्धता की कसमें खाएंगे। हर साल मनाए जाने वाले इस महोत्सव की अहमियत क्या सिर्फ इतनी ही है कि हमें एक दिन के लिए याद दिला दे कि ‘पेड़ हैं तो जीवन है’। तख्तियों पर ‘ग्रीन सिटी, क्लीन सिटी’ और ‘जहां है हरियाली, वहां है खुशहाली’ जैसे नारों को थामे छात्र आज भले ही पौधों को रोप लें, पर भविष्य में इन पौधों की देखभाल के लिए कोई उत्तरदायी नहीं बनता। वन संरक्षण पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठन ‘कल्पवृक्ष’ के पंकज ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र के मानकों के अनुसार, दुनिया भर के सभी देशों में कम से कम 33 प्रतिशत भूमि वनों से ढकी होनी चाहिए, परंतु भारत में यह आंकड़ा मात्र 23 प्रतिशत ही है। उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस संख्या में भी निरंतर कमी आती जा रही है। वाइल्डलाइफ ट्रस्ट आॅफ इंडिया (डब्ल्यू टी आई) के संरक्षण प्रमुख डॉ. संदीप तिवारी ने कहा कि यह दुखद है कि वन महोत्सव अब सिर्फ कुछ दिनों तक ही सिमट कर रह गया है। उनका मानना है कि वन महोत्सव को जीवन भर जारी रखना चाहिए न कि सालाना तौर पर मनाना चाहिए। संदीप का कहना है कि वृक्षों का रोपण करते वक्त तो कई हाथ आगे बढ़ते हैं पर उनके पोषण और देखभाल के लिए लोग आगे नहीं आते इसलिए यह आवश्यक है कि यह महोत्सव सिर्फ वृक्षारोपण तक ही सीमित न रहे। करीब 62 साल पहले 1950 में वन महोत्सव की शुरुआत की गई। इसको आरम्भ करने में देश के तत्कालीन वन मंत्री कन्हैया लाल एम. मुंशी की अहम भूमिका रही। मुख्य रूप से इसका उद्देश्य लोगों में वनों और वृक्षों के लिए ऐसी भावना पैदा करना था जिससे अधिक से अधिक पेड़ लगाए जा सकें। सालाना तौर पर मनाए जाने वाले इस महोत्सव के जरिए कई लोग और संगठन आगे आए और वृक्षारोपण को एक परंपरा बनाए जाने के लिए काम शुरू हो गया। वन संरक्षण से जुड़ी रेखा पचौरी कहती हैं कि लोगों को सिर्फ वन महोत्सव या उस पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में ही नहीं, बल्कि अपने जन्म दिन, घर की स्थापना या किसी अन्य निजी अवसर पर भी पेड़ लगाने चाहिए। इससे न सिर्फ पेड़ों से भावनात्मक लगाव बनेगा बल्कि जीवन भर उनकी देखरेख के लिए भी पे्ररणा मिलेगी।

Dark Saint Alaick
28-07-2012, 08:01 PM
पुण्यतिथि 29 जुलाई के अवसर पर
आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17355&stc=1&d=1343487696

भारतीय सिनेमा में राजा मेहंदी अली खान का नाम एक ऐसे गीतकार के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने प्रेम, विरह और देश प्रेम की भावना से ओत प्रोत अपने गीतों से लगभग चार दशक तक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया। करमाबाद शहर में एक जमींदार परिवार में पैदा हुए राजा मेहंदी अली खान चालीस के दशक में आकाशवाणी दिल्ली में काम करते थे। आकाशवाणी की नौकरी छोड़ने के बाद वह बम्बई आए और यहां अपने मित्र के प्रयास से उन्हें अशोक कुमार की फिल्म ऐट डेज में डायलॉग लिखने का काम मिल गया। चालीस के दशक में उर्दू साहित्य के लेखन की एक सीमा निर्धारित थी। राजा मेहंदी अली खान ने धीरे-धीरे उर्दू साहित्य की बंधी-बंधाई सीमाओं को तोड़ा और अपने लेखन का उन्होंने अलग अंदाज बनाया। अपने लेखन की नई शैली की वजह से वह कुछ ही समय में लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब हो गए। वर्ष 1945 में उनकी मुलाकात फिल्मिस्तान स्टूडियो के मालिक एस. मुखर्जी से हुई। राजा मेहंदी अली खान में एस. मुखर्जी को फिल्म इंडस्ट्री का उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया। उन्होंने उनसे फिल्म दो भाई के लिए गीत लिखने की पेशकश की। फिल्म दो भाई में अपने गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया की कामयाबी के बाद बतौर गीतकार राजा मेहंदी अली खान फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। वर्ष 1947 में विभाजन के बाद देशभर में हो रहे सांप्रदायिक दंगों को देखकर राजा मेहंदी अली खान का मन विचलित हो गया। उनके कई रिश्तेदारों ने उनसे नवनिर्मित पाकिस्तान चलने को कहा, लेकिन राजा मेहंदी अली खान का मन इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ और उन्होंने भारत में ही रहने का निश्चय किया।
देश के वीरों को श्रद्धाजंलि देने के लिए उन्होंने फिल्म शहीद के लिए वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो की रचना की। देशभक्ति के जज्बे से परिपूर्ण फिल्म शहीद का यह गीत आज भी श्रोताओं की आंखो को नम कर देता है। वर्ष 1950 तक राजा मेहंदी अली खान फिल्म इंडस्ट्री में बतौर गीतकार स्थापित हो चुके थे और फिल्म इंडस्ट्री में उनकी तूती बोलने लगी थी। फिल्म इंडस्ट्री में ऊंचे मुकाम मे पहुंचने के बावजूद राजा मेहंदी अली खान को किसी बात का घमंड नहीं था। उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि वह नए संगीतकार के साथ काम कर रहे हैं या फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज संगीतकार के साथ। उन्होंने वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म मदहोश के जरिये अपने संगीत कैरियर की शुरूआत करने वाले मदन मोहन के साथ भी काम करना स्वीकार कर लिया। मदन मोहन के अलावा राजा मेहंदी अली खान ने इकबाल कुरैशी, बाबुल, एस. मोहिन्दर जैसे नए संगीतकार को फिल्म इंडस्ट्री में पेश किया। फिल्म मदहोश के बाद मदन मोहन, राजा मेहंदी अली खान के चहेते संगीतकार बन गए। इसके बाद जब कभी राजा मेहंदी अली खान को अपने गीतों के लिए संगीत की जरूरत होती थी, तो वह मदन मोहन को ही काम करने का मौका दिया करते थे। मदन मोहन ने अपने संगीत निर्देशन से राजा मेहंदी अली खान के जिन गीतों को अमर बना दिया, उनमें आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे (अनपढ़/1962), लग जा गले कि फिर हंसी रात हो न हो (वो कौन थी/1964), नैनों में बदरा छाए, मेरा साया साथ होगा (मेरा साया/1966) आदि श्रोताओं के बीच आज भी उतनी ही शिद्दत के साथ सुने जाते हैं।
राजा मेहंदी अली खान ने अपने गीतों में आप शब्द का इस्तेमाल बहुत ही खूबसूरती से किया है। इन गीतों में आप यूंही हमसे मिलते रहे देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा (एक मुसाफिर एक हसीना/1960), आपके पहलू में आकर रो दिए (मेरा साया/1966), आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे (अनपढ़/1962) और आपको राज छुपाने की बुरी आदत है (नीला आकाश/1965) जैसे कई सुपरहिट गीत शामिल हैं। पचास के दशक में राजा मेहंदी अली खान के रूमानी गीत काफी लोकप्रिय हुए थे। इस दौर में स्वर सम्राज्ञी लता मंगेश्कर ने गीतकार राजा मेहंदी अली खान के लिए कई गीत गाए। इन गीतों में आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे (अनपढ़/1966), जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यों राए, नैना बरसे रिमझिम रिमझिम (वो कौन थी/1964), आपने अपना बनाया मेहरबानी आपकी (दुल्हन एक रात की/1966), अगर मुझसे मोहब्बत है (आप की परछाइयां/1964), तू जहां जहां चलेगा मेरा साया साथ होगा (मेरा साया/1966) जैसे न भूलने वाले गीत शामिल हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी राजा मेहंदी अली खान ने कई कविताएं और कहानियां भी लिखी, जो नियमित रूप से बीसवी सदी, खिलौना, शमा, बानो जैसी पत्रिकाओं में छपा करती थीं। सत्तर के दशक में राजा मेहंदी अली खान ने फिल्मों के लिए गीत लिखना काफी हद तक कम कर दिया। अपने गीतों से लगभग चार दशक तक श्रोताओं को भावविभोर करने वाले महान गीतकार राजा मेहंदी अली खान 29 जुलाई 1996 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 12:30 AM
दो अगस्त रक्षाबंधन पर विशेष
नया यज्ञोपवीत धारण करने का महापर्व रक्षाबंधन

भाई बहन के प्रेम को मजबूती प्रदान करने वाला रक्षाबंधन पर्व मूलत: नया यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने वाला महापर्व है। भारतीय संस्कृति की पहचान इस पर्व पर पुरोहित यजमानों को नया यज्ञोपवीत धारण कराते हैं और उन्हें रक्षा का धागा बांधते हैं, जबकि बहनें भाइयों को सुंदर-सुंदर राखियां बांधती हैं। भारत की तरह ही हिन्दू बहुल पड़ोसी देश नेपाल का भी यह मुख्य पर्व है, जबकि अमेरिका, यूरोप तथा अन्य देशों में रहने वाले हिन्दू भी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं।
शास्त्रीय दृष्टि से रक्षाबंधन विशुद्धत: नया यज्ञोपवीत धारण करने का महापर्व है और इस दिन पुरोहित आचार्य यजमानों को रक्षा का धागा भी बांधते हैं। कालांतर में यह मुख्यत: बहनों के भाइयों को राखी बांधने के पर्व के रूप में बदल गया। इसलिए आज इसे भाई-बहन के पर्व के रूप में ही ज्यादा जाना जाता है।
रक्षाबंधन हिन्दुओं के अनगिनत पर्वों का सिरमौर है। यह प्रमुखत: ब्राह्मणों का पर्व माना जाता है, किंतु बाकी सवर्ण मुख्यत: क्षत्रिय और वैश्य भी इस मनाते हैं। उपनयन अथवा यज्ञोपवीत संस्कार सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों के लिए जन्म से लेकर मृत्यु तक के सोलह संस्कारों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, विवाह से भी श्रेष्ठतर, क्योंकि व्यक्ति का विवाह एक से अधिक बार हो सकता है, किन्तु यज्ञोपवीत जीवन में केवल एक बार होता है। अत: नया यज्ञोपवीत धारण करने का वार्षिक पर्व होने के कारण रक्षाबंधन हिन्दुओं का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है।
पवित्र यज्ञोपवीत धारण करने का मंत्र इस प्रकार है... ऊं यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रयं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।।
यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनामि।
ब्राह्मण को द्विज भी कहा जाता है, जिसका मतलब है दो जन्म वाला। माता के गर्भ से पैदा होना उसका पहला जन्म है और यज्ञोपवीत संस्कार से संपन्न होना दूसरा जन्म माना गया है। यज्ञोपवीत के बिना ब्राह्मण अपूर्ण है। यज्ञोपवीत का महत्व इस तय से भी रेखांकित होता है कि हिन्दुओं के लिए अनिवार्य गायत्री मंत्र का जाप यज्ञोपवीत के बिना व्यर्थ माना गया है। संध्या वंदन भी यज्ञोपवीत के साथ ही सार्थक माना गया है।
पौराणिक तय है कि विष्णु भगवान ने वामनावतार में दैत्यराज बलि से उसका साम्राज्य दान में प्राप्त करने के लिए उससे संकल्प कराते हुए उसे रक्षा सूत्र बांधा था। इसी प्रसंग की स्मृति मेंआज पुरोहित आचार्य यजमान को रक्षा सूत्र बांधते समय इस मंत्र का उच्चारण करता है: येन बद्धो बली राज दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
पुरोहित आचार्य यजमान को रक्षा सूत्र बांधते हुए उससे अपनी रक्षा का संकल्प कराता है और यजमान उसे भोजन कराके उचित दक्षिणा देता है। यह क्रम अब पुरोहित एवं यजमान की बजाय बहन एवं भाई के मध्य ज्यादा होने लगा हैं। मुगल बादशाह हुमायूं को एक हिन्दू रानी ने शांति प्रस्ताव के साथ उसे अपना भाई मानते हुए राखी भेजी थी, जिसे बादशाह ने स्वीकार करके उसके राज्य पर आक्रमण करने का इरादा त्याग दिया था। तभी से यह भाई-बहन के पर्व के रूप में ज्यादा प्रचलित होता गया और आज तो इसे केवल इसी रूप में जाना जाता है।
भाई-बहन के पर्व के रूप में हुआ यह परिवर्तन बुरा नहीं है, लेकिन कहीं-कहीं यह केवल इसमें बहन को मिलने वाली दक्षिणा के लालच का अवसर बन जाता है। वैसे भाई-बहन का मान्य शास्त्रीय पर्व भैयादूज है, जब स्वयं यमराज अपनी बहन देवी यमुना से मिलने के लिए भूलोक पर चले आते है, किन्तु रक्षाबंधन के संबंध में ऐसा कोई पौराणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
अत: रक्षाबंधन के पुण्य पर्व पर बहनें किसी लालच के बगैर भाइयों की दीर्घायु की कामना करते हुए और उनसे अपनी रक्षा का वचन लेते हुए उन्हें राखी अवश्य बांधे, लेकिन साथ ही वे पर्व के पौराणिक महत्व का स्मरण कराने वाले इस मंत्र का उपचारण करना न भूलें : येन बद्धो बली राजा...।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 01:46 AM
3। जुलाई जन्मदिन पर विशेष
मुंशी प्रेमचन्द का पूर्वी उत्तर प्रदेश से विशेष लगाव रहा है

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17375&stc=1&d=1343681162

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और बस्ती मंडल से विशेष लगाव रहा है। 31 जुलाई ।880 को वाराणसी के लमही गांव में पैदा हुए मुंशी प्रेमचन्द वर्ष 1894 में अपने पिता के साथ गोरखपुर आ गये और यहां नार्मल स्थित एक पाठशाला में उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। बाद में वह गोरखपुर और बस्ती जिले में अध्यापक के रूप में आये। मुंशी प्रेम चन्द वर्ष 1911 में बस्ती आये और उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात डुमरियागंज तहसील में तहसीलदार मन्नन द्विवेदी गजपुरी से हुयी। श्री द्विवेदी से उनकी साहित्य विषयों पर खूब बातचीत होती थी। प्रेमचन्द उन दिनों पेचिश के गंभीर रोग से पीडित थे इसलिए जल्द ही लखनऊ वापस चले गये। फिर बाद में गोरखपुर में एक अध्यापक के रूप में उनकी नियुक्ति हुयी और यहां उर्दू बाजार में उनकी मुलाकात समाचार पत्र .स्वदेश. के सम्पादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी से हुयी। इसके बाद साहित्य में उनकी रूचि बढती गयी। गोरखपुर में रहने के दौरान ही उनकी मुलाकात महावीर प्रसाद पोद्दार से हुयी और उनके कहने पर ही प्रेमचन्द ने सेवा सदन जैसा उपन्यास लिखा। गोरखपुर में नार्मल स्कूल के करीब एक मकान में रहते थे जहां एक पुरानी ईदगाह थी और ईदगाह के बगल में एक मजार थी जहां ईद पर मेला लगता था। आज यह मजार मुबारक खां शहीद कहलाती है। प्रेमचन्द जहां रहते थे उस स्थान को अब प्रेमचन्द पार्क बना दिया गया है और प्रेमचन्द साहित्य संस्थान बन गया है। यहीं रहते हुए ।920 में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के दौरान जब महात्मा गांधी यहां बाले के मैदान में आये तो प्रेमचन्द ने उनका भाषण सुना और फिर चार दिन बाद सरकारी सेवा से त्याग पत्र देकर स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गये थे। बाद में वह पौद्दार जी के साथ उनके गांव चले गये जहां चरखा कातते और गांधी जी के असहयोग आन्दोलन पर केन्द्रित कहानियां और उपन्यास लिखते थे। मुंशी प्रेमचन्द में पूर्वांचंल में गरीबी, किसानों का उत्पीडन, जमींदारों का शोषण, महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार. बेमेल विवाह और कर्ज लेकर जीवन यापन करने वाले लोंगों की जिन्दगी को करीब से देखा था। पूर्वांचल का यही दबा कुचला समाज प्रेमचन्द की उपन्यास में और इनकी कहानियों में विभिन्न रूपों में सामने आता है। आठ अक्टूबर 1936 में कलम का यह सिपाही हमेशा हमेशा के लिए सो गया लेकिन उनकी प्रासंगिकता आज भी कायम है। उन्होंने पहली बार साहित्य को जनोन्मुख बनाया था। उनके उपन्यास और कहानियों में किसानों, मजदूरी और वर्ग में बंटे हुए समाज का दर्द उभरता है और यही बात आज भी मुंशी प्रेमचन्द को दूसरे लेखकों से कहीं बडा बनाती है।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 01:58 AM
पुण्य तिथि पर विशेष
आज भी बहुत याद आते हैं रफी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17376&stc=1&d=1343681980

वर्ष 1944 में संगीत निर्देशक नौशाद अपनी फिल्म पहले आप का संगीत तैयार करने में व्यस्त थे। इसी दौरान फिल्म के निर्देशक ए.आर. कारदार एक लड़के को नौशाद के पास लेकर गये और कहा, यह लड़का अच्छा गाता है कृपया इसे सुन लें।नौशाद ने उस लड़के को कहा आप मेरी फिल्म के एक गाने में कोरस के रूप में गा सकते है। गाने के बोल कुछ इस प्रकार थे हिन्दोस्तां के हम हैं. हिन्दोस्तां हमारा है। कोरस गाने वाले सभी सदस्यों को लोहे के जूते पहनने थे। उस लड़के को भी जूते पहनाये गये, लेकिन सही नाप के जूते नही रहने की वजह से लड़के को काफी परेशानी हो रही थी। इसके बावजूद उस लड़के ने जूते तबतक नही उतारे जबतक गाने की रिर्काडिंग पूरी नही हुयी। गाने की रिर्काडिंग पूरी होने के बाद नौशाद ने देखा कि उस लड़के के पैर छिल गये है तब उन्होंने पूछा तुमने जूते क्यों नही उतारे । लड़के ने जवाब दिया इससे रिर्काडिंग में दिक्कत आती और समय बर्बाद होता। लड़के की बात सुनकर नौशाद काफी खुश हुये और कहा, एक दिन तुम हिंदुस्तान के सबसे बड़े गायक बनोगे। यह लड़का और कोई नही मोहम्मद रफी थे। दिलीप कुमार, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर और राजकुमार जैसे नामचीन नायकों की आवाज कहे जाने वाले रफी ने अपने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे कैरियर में लगभग 26000 फिल्मी और गैर फिल्मी गाने गाये । उन्होंने हिन्दी के अलावा मराठी, तेलगू और पंजाबी फिल्मों के गीतों के लिये भी अपना स्वर दिया ।
पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह गांव में 24 दिसंबर 1924 को जन्में रफी को गायन की प्रेरणा एक फकीर से मिली थी। उनके मोहल्ले में एक फकीर का आना-जाना था और उनके गीतों को सुनकर रफी के दिल में संगीत के प्रति लगाव पैदा हो गया।उनके बड़े भाई हमीद ने रफी के मन में संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया। रफी ने लाहौर में उस्ताद अब्दुल वाहिद खान से संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया । रफी उस दौर के मशहूर गायक कुंदनलाल सहगल के दीवाने थे। इसे महज एक संयोग कहा जायेगा कि उन्हें पहली बार मंच पर गाने का मौका सहगल के ही कार्यक्रम में मिला। एक बार लाहौर में सहगल के गायन को सुनने के लिए रफी अपने भाई हामिद के साथ वहां पहुंचे। सहगल गाना शुरू करने वाले ही थे कि अचानक बिजली चली गई और उन्होंने गाने से मना कर दिया।ऐसी स्थिति में हामिद ने कार्यक्रम के संचालक से अनुरोध किया कि बेसब्र श्रोताओं को शांत रखने के लिए उनके भाई को गाने का मौका दिया जाए। रफी के गाना शुरू करते ही श्रोता शांत हो गए। उसी कार्यक्रम में संगीतकार श्याम सुंदर भी मौजूद थे जिन्होंने रफी की आवाज से प्रभावित होकर उन्हें मुम्बई आने का न्योता दिया। रफी ने श्याम सुंदर के संगीत निर्देशन में पहली बार 1942 में पंजाबी फिल्म गुल बलोच के लिए गायिका जीनत बेगम के साथ युगल गीत 'सोनिये नी हीरीए नी' गाया। रफी की आवाज से श्याम सुंदर इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी फिल्म बाजार में उनसे सात गाने गवाए। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने राजेन्द्र कृष्ण का लिखा एक गीत सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की अमर कहानी गाकर देशवासियों को भाववि"ल कर दिया। इस गीत की सफलता के बाद रफी अपनी पहचान बनाने में तो कुछ हद तक कामयाब हुये लेकिन उन्हें तब भी नियमित तौर पर काम नहीं मिल रहा था। इसके बाद नौशाद ने रफी को फिल्म दुलारी में पार्श्वगायन का मौका दिया। इस फिल्म के गीत सुहानी रात ढल चुकी से वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। रफी की एक तमन्ना सहगल के साथ गीत गाने की थी, जिसे नौशाद ने ही फिल्म शाहजहां में पूरा कराया। इस फिल्म के एक गीत रूह मेरे सपनों की रानी को रफी ने सहगल के साथ कोरस के रूप में अपनी आवाज दी थी।दिलचस्प बात यह है कि इस गाने में अपनी गायी पंक्ति पर अभिनय भी उन्होंने ही किया था। लता मंगेशकर ने रफी के साथ सैकड़ो गीत गाये थे लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया जब उन्होंने रफी से बातचीत तक करनी बंद कर दी। लता मंगेशकर गानों पर रायल्टी की पक्षधर थी जबकि रफी ने कभी भी रॉयल्टी की मांग नहीं की। दोनों का विवाद इतना बढ़ा कि रफी और लता के बीच बातचीत भी बंद हो गई और दोनों देशों ने एक साथ गीत गाने से इंकार कर दिया । चार वर्ष के बाद अभिनेत्री नरगिस के प्रयास से दोनों ने एक साथ एक कार्यक्रम मेंदिल पुकारे गीत गाया। रफी के करियर में एक दौर ऐसा भी आया जब कुछ समय के लिए उनका सितारा गर्दिश में चला गया। फिल्म आराधना की सफलता के बाद पार्श्वगायक किशोर कुमार के उभरने के बाद रफी कुछ समय तक हाशिये पर चले गए लेकिन हम किसी से कम नहीं के गीत क्या हुआ तेरा वादा से एक बार फिर से वह अपनी खोयी हुयी पहचान पाने में कामयाब हो गये। इस गाने के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। चार दशक से भी लंबे गायन के करियर में रफी के उत्कृष्ट योगदान को देखते हुए उन्हें 1965 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें गीतों के लिए छह बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। चौदहवीं का चांद हो याफताब हो (चौदहवीं का चांद), तेरी प्यारी प्यारी सूरत को ससुराल (चाहूंगा मैं तुझे सांझ सबेरे, दोस्ती), बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है (सूरज), दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर, बह्मचारी और .क्या हुआ तेरा वादा (हम किसी से कम नहीं) लिए उन्हें फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। रफी ने अपना अंतिम गीत संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के निर्देशन में फिल्म आसपास के लिए गाया। अपनी आवाज के जादू से श्रोताओं को मदहोश करने वाला यह महान पार्श्वगायक 31 जुलाई 1980 को इस दुनिया को अलविदा कह गया।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 11:15 AM
माउस से एक क्लिक पर पसंदीदा किताब पढ़ने के लिए घर आ जाएगी

पढ़ने में दिलचस्पी रखने वालों को अब किताबों की ऊंची कीमत या जगह-जगह ट्रैफिक जाम की समस्या के कारण होने वाली थकान के चलते अपना शौक दरकिनार करने की जरूरत नहीं है क्योंकि कम्प्यूटर के माउस से एक क्लिक, उन्हें उनकी पसंदीदा किताब उनके घर पर मुहैया कराएगा। यह सुविधा एक आनलाइन लायब्रेरी ‘हुक्डआनबुक डॉट कॉम’ से मिलने वाली है। यह 14 साल की उस बच्ची के दिमाग की उपज है जो अक्षरों की दीवानी है। लायब्रेरी की वेबसाइट लॉन्च हो चुकी है और एक अगस्त से इसके लिए सदस्यता अभियान चलाया जाएगा। यह लायब्रेरी शुरू करने वाले सॉफ्टवेयर इंजीनियर विक्रम खोसला ने बताया कि वर्ष 2002 से 2008 तक मैं अपने परिवार के साथ अमेरिका के लॉस एंजिलिस में था। वहां मेरा कारोबार चल रहा था। वहां हर जिले में लायब्रेरी है और नई किताबें आसानी से मिल जाती हैं। मेरी बेटी इशिता वहां लायब्रेरी से ला कर खूब किताबें पढ़ती थी। जब हम भारत लौटे तो वह हर माह पढ़ने के लिए तीन-चार हजार रुपए की किताबें खरीदती थी, लेकिन एक बार पढ़ने के बाद किताबें धरी रह जाती थीं। इसके अलावा, यहां लायब्रेरी भी बहुत दूर-दूर हैं। जो हैं, उनमें नई किताबें नहीं बल्कि साल भर पुरानी किताबें हैं। एक दिन इशिता ने मुझसे कहा कि क्यों न हम अपनी लायब्रेरी बनाएं। विचार अच्छा था। हमने इस पर काम किया और आनलाइन लायब्रेरी के लिए मैंने वेबसाइट डिजाइन की जो लॉन्च हो चुकी है। इस तरह भारत की पहली आनलाइन लायब्रेरी ‘हुक्डआनबुक डॉट कॉम’ अस्तित्व में आ गई। विक्रम के अनुसार, सिर्फ मासिक सदस्यता दी जाएगी और वह भी 500 रुपए की फीस तथा 1000 रुपए सिक्योरिटी डिपॉजिट पर। प्रचार के लिए बाकायदा विज्ञापनों और एसएमएस से मार्केटिंग भी की जाएगी। सदस्यता खत्म करने पर सिक्योरिटी डिपॉजिट वापस कर दिया जाएगा। अगर किसी पाठक ने कोई महंगी किताब ली और उसे नहीं लौटाया तब? इस पर विक्रम ने कहा कि तब उसका सिक्योरिटी डिपॉजिट हम जब्त कर लेंगे। अगर किताब अधिक महंगी हुई तो यह नुकसान हमारे घाटे में जाएगा। वैसे, ऐसा बहुत ही कम लोग कर सकते हैं क्योंकि पढ़ने के शौकीन लोग किताबों का महत्व और मतलब दोनों समझते हैं। विक्रम कहते हैं कि अभी हमारे पास 10,000 से अधिक बेस्ट सेलर किताबों का संग्रह है। वेबसाइट पर पंजीकरण कराने के बाद पाठक किताबों के लिए आर्डर दे सकते हैं और वह किताब उनके घर भेज दी जाएगी। पढ़ने के बाद वह किताब उनके घर जा कर ली जाएगी। अगर आर्डर की गई किताब हमारे पास उपलब्ध नहीं है तो अनुरोध पत्र भरने के बाद पाठक को वह किताब 48 घंटे के अंदर उपलब्ध करा दी जाएगी। उन्होंने बताया कि जल्द ही हम एक विशाल लायब्रेरी भी स्थापित करने जा रहे हैं जहां पाठक जा कर अपनी पसंद की किताबें पढ़ सकते हैं। हमने डेढ़ साल में देश भर में 100 लायब्रेरी स्थापित करने की योजना बनाई है। यह काम फ्र्रेंचाइजी के आधार पर होगा। उम्मीद है कि पाठकों को इससे लाभ मिलेगा। पढ़ने में गहरी दिलचस्पी रखने वाले, इतिहास के सेवानिवृत प्राध्यापक यू. सी. शर्मा कहते हैं कि मुझको ऐसा लगता है कि लोगों की पढ़ने में दिलचस्पी कम हो रही है, लेकिन आज भी एक बड़ा पाठक वर्ग है। महंगी किताबें ले पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। ऐसे में मासिक शुल्क के आधार पर आॅनलाइन लायब्रेरी से घर बैठे पढ़ने की सुविधा मिले, तो क्या बात है। विक्रम के अनुसार, इशिता के कहने पर उन्होंने वेबसाइट में एक बुकशेल्फ भी डाला है। उसमें पाठक प्राथमिकता के आधार पर किताबों के नाम डाल सकते हैं। पहली किताब वापस लेने के लिए जब लायब्रेरी का कर्मचारी पाठक के घर जाएगा तो वह अपने साथ पाठक की प्राथमिकता सूची के अनुसार, दूसरी किताब साथ लेकर जाएगा। उन्होंने बताया कि अगर कोई पाठक अपने निजी संग्रह के लिए कोई किताब खरीदना चाहते हैं तो वह इस आनलाइन लायब्रेरी को इसके लिए आर्डर दे सकते हैं। सदस्यों को किताब खरीदने पर 35 फीसदी डिस्काउंट दिया जाएगा। कुछ खास किताबों पर यह 50 फीसदी होगा।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 11:15 AM
प्रेमचंद जयंती पर विशेष
मुंशी प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों के लिए भारत रत्न अर्थहीन

साहित्यकारों को भारत रत्न देने की मांग वक्त-बेवक्त उठती रही है और हिन्दी एवं उर्दू के नामचीन रचनाकार मुंशी प्रेमचंद को इससे विभूषित करने की मांग की जाती रही है, मगर साहित्य जगत का मानना है कि प्रेमचंद की हैसियत भारत रत्न से बहुत ऊंची है। भारत रत्न सम्मान की स्थापना 1954 में की गई थी और इस पुरस्कार के संविधान के तहत कला, साहित्य, विज्ञान और लोक सेवा के क्षेत्रों को शामिल किया गया था, लेकिन अभी तक किसी भी भारतीय साहित्यकार को यह सम्मान नहीं दिया गया है। इस बारे में ज्ञानपीठ के निदेशक और लेखक रवीन्द्र कालिया ने कहा कि प्रेमचंद की हैसियत भारत रत्न से बहुत बड़ी है और यह प्रश्न बड़ा जटिल है। प्रेमचंद कालजयी रचानाकार हैं और उनके लिए भारत रत्न जैसा सम्मान अर्थहीन है, मगर 1954 से अब तक किसी साहित्यकार को भारत रत्न नहीं दिया जाना सोचनीय है। उन्होंने कहा कि तुलसीदास, गालिब और प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों को भारत रत्न देने की मांग करने के बजाय इसके लिए कालखंड तय किया जाना बेहद जरूरी है। हमारे यहां अन्य भारतीय भाषाओं में भी बहुत बड़े साहित्यकार हुए हैं। मुझे ऐसा लगता है कि हमारे देश के शासक वर्ग की प्राथमिकता में कभी साहित्य रहा ही नहीं। ‘हंस’ के संपादक और साहित्य सृजक राजेन्द्र यादव ने कहा कि प्रेमचंद या रवीन्द्र नाथ ठाकुर जैसे साहित्यकारों के लिए भारत रत्न कोई मायने नहीं रखता। अब तक किसी साहित्यकार को भारत रत्न नहीं दिया जाना चयनकर्ताओं के मानसिक दिवालियापन को प्रकट करता है। यादव ने कहा कि मुझे ऐसा लगता है कि इसे तय करने वालों की नजर में संस्कृति और साहित्य कोई मायने नहीं रखता। एक कार्यक्रम के दौरान मार्कण्डेय काटजू ने गालिब को भारत रत्न दिए जाने की मांग की थी और लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने इसका समर्थन किया था। इधर, गत वर्ष सरकार ने अधिसूचना जारी कर यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न दिया जा सकता है। अब तक यह सम्मान 41 लोगों को दिया जा चुका है। सबसे पहले 1954 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, चंद्रशेखर वेंकट रमन और सर्वपल्ली राधाकृष्णन को यह सम्मान प्रदान किया गया था। इसके अलावा भारतीय नागरिकता प्राप्त मदर टेरेसा तथा दो गैर भारतीयों ‘सीमांत गांधी’ खान अब्दुल गफ्फार खान तथा नेल्सन मंडेला को यह सम्मान प्रदान किया जा चुका है। ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने कहा कि हिन्दी में प्रेमंचद, निराला, अज्ञेय, प्रसाद जैसे साहित्यकार हैं, जिन्हें भारत रत्न देने की मांग की जा सकती है। भारतीय भाषाओं में बीसियों ऐसे साहित्यकार हुए हैं, जो भारत रत्न के हकदार हैं। उन्होंने कहा कि साहित्य में भारत रत्न नहीं दिए जाने का सबसे बड़ा कारण यह रहा होगा कि इस क्षेत्र में सबसे अधिक विवाद होगा। मुझे लगता है कि इस झंझट से बचने के लिए साहित्य में यह सम्मान नहीं दिया गया होगा।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 11:16 AM
नई किताब/‘शिवाजी एंड सुराज’
भ्रष्टाचार के खिलाफ बेहद सख्त थे छत्रपति शिवाजी

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का आंदोलन हाल में शुरू हुआ है, लेकिन इतिहास गवाह है कि यह समस्या कोई नई नहीं है और इस मुद्दे को लेकर पहले भी छत्रपति शिवाजी जैसे कई शासकों ने कड़ा रुख अख्तियार किया था। अनिल माधव दवे ने अपनी पुस्तक ‘शिवाजी एंड सुराज’ में लिखा है कि महाराज को राज व्यवहार में भ्रष्टाचार, चाहे वह आचरण में हो या अर्थतंत्र में, बिल्कुल अस्वीकार्य था। उनके सौतेले मामा मोहिते ने रिश्वत ली, यह जानकारी महाराज को मिली तो उन्होंने तत्काल उसे कारागार में डाल दिया और छूटने पर पिता शाह जी के पास भेज दिया। बीते दिनों रिलीज हुई पुस्तक के अनुसार, इसी प्रकार एक दबंग ने गरीब किसान की भूमि हड़पने की कोशिश की। शिवाजी ने अपने पद एवं शक्ति का गलत प्रयोग करने वाले उस बड़े किसान को न केवल दंडित किया, बल्कि गरीब की भूमि भी सुरक्षित करवा दी। अपने अधिकारियों को लिखे 13 मई, 1671 के एक पत्र में शिवाजी लिखते हैं कि अगर आप जनता को तकलीफ देंगे और कार्य संपादन के लिए रिश्वत मांगेंगे तो लोगों को लगेगा कि इससे तो मुगलों का शासन ही अच्छा था और लोग परेशानी का अनुभव करेंगे। राज्यसभा सदस्य दवे ने कहा कि छत्रपति शिवाजी भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ थे। इसमें केवल आर्थिक नहीं, बल्कि चारित्रिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार भी शामिल था। उनकी भ्रष्टाचार की परिभाषा बेहद व्यापक थी, जिसकी हिमायत सभी देशभक्त नागरिक कर रहे हैं। पुर्तगाल के वायसराय कॉल डे सेंट विंसेंट ने 20 सितम्बर, 1667 के पत्र में लिखा है कि धूर्तता, साहस, संचालन और सैन्य सूझबूझ में शिवाजी की तुलना सीजर एवं अलेक्जेंडर से की जा सकती है। किताब में दवे ने लिखा है कि शिवाजी जानते थे कि भ्रष्टाचार एक तरह से विषकन्या है और विरोधी अपने हित साधने के लिए इस मार्ग का भरपूर प्रयोग करते हैं। राजमहल में सेंध एवं राज्यकर्ताओं का व्यभिचार अंत में राज्य की पराजय का कारण बनता है। अत: इस तरह के भ्रष्टाचार के प्रति उन्होंने अत्यंत कठोर व्यवहार रखा। किताब के मुताबिक, शिवाजी सर्वत्यागी संन्यासी नहीं थे। वे शासक थे। उन्होंने अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध लड़े, हमले किए, दुर्गों को जीता और अन्य राज्यों से संधि तथा वार्ताएं कीं। ऐसा करते समय उन्होंने साम, दाम, दंड, भेद का भरपूर प्रयोग किया। उन्होंने विजय प्राप्ति के लिए दुश्मनों को जहां आवश्यक लगा, सभी प्रकार के प्रलोभन दिए, लेकिन स्वयं को नारी एवं किसी भी प्रकार के प्रलोभन से न केवल मुक्त रखा बल्कि अपने सहयोगी को भी ऐसा नहीं करने दिया। उन्होंने लिखा है कि शिवाजी का स्वराज्य हो या गांधी का स्वदेशी। भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हो या फ्रांस की क्रांति। रूस में मिखाइल गोर्बाचोव द्वारा प्रारंभ ग्लासनॉट अथवा पेरेस्त्रोइका का सुधाार आंदोलन हो या अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम, सभी समाज में घुमड़ती ‘स्व’ के भाव की अभिव्यक्तियां ही हैं, जिसका जन्म किसी नायक से या नायक के बगैर हुआ। मुगल दरबार के इतिहासकार गफी खान जैसा उनका विरोधी भी लिखता है कि शिवाजी अपनी प्रजा में मान मर्यादा बनाए रखने के लिए हमेशा सावधान रहे। वे दुश्मन को लूटते और उनके क्षेत्रों में विद्रोह खड़ा करते थे, लेकिन अशोभनीय कामों से वह हमेशा दूर रहते थे। जब भी कोई मुस्लिम महिला या बच्चे युद्ध या मुहिम में उनके कब्जे में आते तो वह उनके सम्मान का पूरा ध्यान रखते थे। उनकी यह दृष्टि राजदर्शन का अंग थी।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 08:25 PM
रक्षाबंधन 2 अगस्त के अवसर पर विशेष
श्रोताओं को बेहद लुभाते हैं राखी के गीत

भाई-बहन के अटूट स्नेह को प्रदर्शित करने वाला रक्षाबंधन का त्योहार और इस पर आधारित गीतों ने श्रोताओं के दिल पर अमिट छाप छोड़ी है। हिन्दी फिल्मों में रक्षाबंधन के गीतों की शुरुआत 1960 के दशक से मानी जाती है। उस दौर में भाई-बहन के रिश्तों पर 'छोटी बहन', 'राखी', 'अनपढ़' और 'काजल' जैसी कई फिल्में बनीं, जिनमें रक्षाबंधन के सुमधुर गीत थे। इन गीतों में भाई-बहन के स्नेह और अनुराग की भावनाओं को बड़े ही सुंदर शब्दों में पिरोया गया है। ये गीत आज भी उतने ही मकबूल हैं, जितने उस जमाने में हुए थे। एक जमाना था जब भाई-बहन के रिश्तों पर आधारित फिल्मों में राखी का एक न एक गीत जरूर हुआ करता था, लेकिन अब न तो इस तरह की फिल्में बन रही हैं और न ही राखी के गीत लिखे जा रहे हैं। हालांकि तीन-चार साल पहले तक भी भाई-बहन के स्नेहपूर्ण अटूट संबंधों को चित्रित करने वाली फिल्में बनती रही हैं, लेकिन उनमें रक्षाबंधन को लेकर कोई गीत नहीं था और अब तो यह सिलसिला लगभग टूट ही गया है।
निर्माता एल. वी. प्रसाद की 1959 में प्रदर्शित फिल्म 'छोटी बहन' संभवत: पहली फिल्म थी, जिसमें भाई-बहन के प्यार भरे अटूट रिश्ते को रुपहले परदे पर दिखाया गया था। इस फिल्म में बलराज साहनी ने बड़े भाई और नन्दा ने छोटी बहन की भूमिका निभाई थी। शैलेन्द्र का लिखा और लता मंगेशकर द्वारा गाया फिल्म का यह गीत 'भइया मेरे राखी के बंधन को निभाना' बेहद लोकप्रिय हुआ था। रक्षाबंधन के गीतों में इस गीत का विशिष्ट स्थान आज भी बरकरार है। निर्माता-निर्देशक ए. भीम सिंह ने भाई-बहन के रिश्ते पर आधारित दो फिल्में 'राखी' और 'भाई बहन' बनाई। वर्ष 1962 में प्रदर्शित फिल्म 'राखी' में अशोक कुमार और वहीदा रहमान ने भाई-बहन की भूमिका निभाई थी। वर्ष 1968 में प्रदर्शित 'भाई बहन' में सुनील दत्त और नूतन मुख्य भूमिकाओं में थे।
इसी दौर में 'अनपढ़' (1962) और काजल फिल्म में भाई बहन के पवित्र प्रेम पर दो खूबसूरत गीत पेश किए गए। इनमें 'अनपढ़' का माला सिन्हा पर लता मंगेशकर की आवाज में फिल्माया गीत 'रंग बिरंगी राखी लेकर आई बहना' आज भी दर्शकों और श्रोताओं को अभिभूत कर देता है। फिल्म में बलराज साहनी भाई की भूमिका में थे। 'काजल' में मीना कुमारी पर बेहद खूबसूरत गीत 'मेरे भइया मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन' का फिल्मांकन किया गया था। रवि के संगीत निर्देशन में इस गीत को पार्श्वगायिका आशा भोसले ने स्वर दिया था। बिमल राय की 'बंदिनी' में भी यह बेहद मार्मिक गीत था, जिसमें बहन अपने पिता से भाई को सावन में भेजने का अनुरोध करती है-'अब के बरस भेज भइया को बाबुल सावन में दीजो बुलाय रे'। बहन की व्यथा को बतलाने वाले शैलेन्द्र का लिखे और एस. डी. बर्मन के स्वरबद्ध किए इस गीत को भी आशा भोसले ने अपना कर्णप्रिय स्वर दिया था।
सुनील दत्त और जयश्री को लेकर 'दीदी' नाम से एक फिल्म भी बनी थी, जिसमें लता मंगेशकर की आवाज में जयश्री पर एक सुमधुर गीत 'मेरे भइया को संदेसा पहुंचाना कि चंदा तेरी जोत जले' का फिल्मांकन किया गया था। फिल्म में सुनील दत्त भाई की भूमिका में थे। वर्ष 1971 में रिलीज 'हरे रामा हरे कृष्णा' में देव आनन्द और जीनत अमान ने भाई-बहन की भूमिका निभाई थी। फिल्म का गीत 'फूलों का तारों का सबका कहना है, एक हजारों में मेरी बहना है' आज भी सदाबहार गीतों में शामिल है। 'रेशम की डोरी' में सुमन कल्याणपुर का गाया 'बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है' रक्षाबंधन पर आज भी रेडियो पर खूब बजता है। इसी तरह फिल्म 'बेईमान' का 'ये राखी बंधन है ऐसा', 'सच्चा झूठा' का 'मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया', 'चम्बल की कसम' का 'चंदा रे मेरे भइया से कहना', 'प्यारी बहना' का 'राखी के दिन', 'हम साथ साथ हैं' का 'छोटे छोटे भाइयों के', 'तिरंगा' का 'इसे समझो न रेशम का तार', 'रिश्ता कागज का' का 'ये राखी की लाज तेरा भइया निभाएगा' आदि गीत भी काफी लोकप्रिय हुए।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 08:26 PM
कई देशों में एक दिन होता है भाई बहनों के नाम,
लेकिन राखी सिर्फ भारत में है

परंपराओं के देश भारत में भाई बहन के प्यार का प्रतीक पर्व रक्षाबंधन सदियों से मनाया जाता रहा है। दुनिया के कुछ और देशों में भी एक दिन भाई बहनों के प्यार के लिए समर्पित होता है लेकिन वहां राखी उस तरह नहीं मनाई जाती जिस तरह भारत में मनाई जाती है। समाज शास्त्र के सेवानिवृत प्राध्यापक ए. एस. अजवानी कहते हैं, ‘दुनियाभर में भारत की पहचान एक ऐसे देश के रूप में है जहां रिश्तों को बहुत महत्व दिया जाता है और रिश्तों के आधार पर देश में त्यौहारों का मनाया जाना इस बात का प्रमाण भी है।’ उन्होंने कहा, ‘तीज पर माताएं बच्चों के कल्याण की कामना करती हैं तो छठ पर्व पूरे परिवार की खुशहाली और समृद्धि की आकांक्षा के साथ मनाया जाता है। करवा चौथ पर महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए पूजा करती हैं। फिर भाई बहन का रिश्ता भला बिना पर्व के कैसे हो सकता है।’ कनाडा के मिसिसागा में रह रहीं अंजलि शर्मा ने फोन पर कहा, ‘सावन माह की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह पर्व बिल्कुल अनोखा है। बहन अपने भाई के माथे पर तिलक लगा कर उसकी लंबी उम्र की कामना करती है और उसकी कलाई में रक्षा सूत्र बांधती है। भाई इस रक्षा सूत्र के एवज में उसकी रक्षा का वचन देता है। दुनिया के और भी देशों में एक दिन भाई बहनों के लिए होता है लेकिन राखी तो भारत में ही मनाई जाती है।’ भारत के अलग अलग हिस्सों में सावन माह की पूर्णिमा अलग अलग नामों से जानी जाती है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसे कजरी पूर्णिमा कहा जाता है, तो गुजरात में इसका नाम पवित्रोपना है। उत्तराखंड में इसे जन्योपुन्यु तथा महाराष्ट्र और गोवा में नाराली पूर्णिमा कहा जाता है। मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट ममता सहाय कहती हैं, ‘रक्षाबंधन भाई बहनों का पर्व होता है। जिस भाई की कोई बहन नहीं है या जिस बहन का कोई भाई नहीं है, उसे इस कमी का अहसास रक्षाबंधन के दिन जरूर होता है। यह पर्व हमेशा बचपन की याद दिला जाता है। ससुराल में बैठी बहन की आंखें इस दिन मायके की और भाई की याद कर नम हो जाती हैं। यह भावनात्मक जुड़ाव केवल भारत में ही देखने को मिलता है।’ नेपाल में भी रक्षाबंधन मनाया जाता है। यह पूर्णिमा जननी पूर्णिमा कहलाती है। इस दिन वहां परिवार के बुजुर्ग सदस्यों से पवित्र धागा कलाई पर बंधवाया जाता है। इस मौके पर सात अलग अलग अनाजों का एक विशेष सूप बनाया जाता है जिसे क्वाति कहा जाता है। दूसरे देशों में रक्षाबंधन पर्व तो नहीं मनाया जाता, लेकिन हां, एक दिन भाई बहन के लिए जरूर होता है। अमेरिका में दो मई को ‘नेशनल ब्रदर्स एंड सिस्टर्स डे’ मनाया जाता है। इस दिन भाई बहन एक दूसरे को ग्रीटिंग कार्ड और तरह तरह के उपहार देते हैं और घरों में खास तौर पर ‘कपकेक’ तैयार किया जाता है। दक्षिण अफ्रीकी देश टोंगा में 11 दिसंबर को ‘सिबलिंग डे’ मनाया जाता है। ब्रिटेन में 10 अप्रैल को ‘सिबलिंग डे’ मनाया जाता है। वहां इस दिन उपहारों के लेनदेन के साथ साथ पुरानी यादें भी ताजा की जाती हैं। दक्षिण एशिया के कुछ देशों में भी एक दिन भाई बहनों को समर्पित होता है।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 09:39 PM
बाजार में उपहारों की कमी नहीं, विशेष पैकेज भी आ गए

रक्षा बंधन पर बहन को देने के लिए उपहार चुनने में भाइयों को इस बार थोड़ी मुश्किल हो सकती है, क्योंकि तरह तरह के उपहार अनोखे अंदाज में बाजार में उपलब्ध हैं और विशेष पैकेज की भी कमी नहीं है। राजधानी के द्वारका में आर्चीज गैलरी के संचालक मनोज पाहवा कहते हैं, ‘इस बार राखी के म्यूजिकल कार्ड आए हैं। इन्हें खोलते ही संगीत सुनाई देता है। गिफ्ट कार्ड भी हैं जिनमें बहनों के लिए तरह तरह के उपहार हैं। इनकी कीमत 200 रूपये से लेकर 2500 रूपए तक है।’ फैशन डिजाइनर माधुरी दत्ता कहती हैं,‘हमने रक्षाबंधन के लिए परंपरागत सलवार सूट तैयार किए हैं, जिनमें जरी गोटे से या कशीदाकारी का काम है। सूट के साथ मेलखाती हल्की फुल्की ज्वेलरी हमने मुफ्त रखी है। इसमें गले की खूबसूरत चेन, कान के झुमके, बालियां, हाथों के ट्रेंडी कंगन या ब्रेसलेट शामिल हैं। वैसे भी बारिश का मौसम है इसलिए इन दिनों भारी गहने पहने नहीं जा सकते।’ कई पार्लर और स्पा सेंटर में महिलाओं के लिए विशेष पैकेज की पेशकश की जा रही है। गुड़गांव में ‘पीसफुल माइंड एंड बॉडी सेंटर’ का संचालन कर रहे गजपाल मिरानी कहते हैं, ‘हमारे यहां एक स्पा सेशन की फीस 5000 रूपये से शुरू होती है। ग्राहक की मांग के अनुरूप उसे सुविधा दी जाती है और उसी तरह फीस बढ़ती है।’ गजपाल कहते हैं, ‘रक्षा बंधन के मौके पर हमने एक पैकेज की पेशकश की है। इसमें एक स्पा सेशन और फेशियल शामिल है। इसकी फीस 5000 रूपए है। गोल्डन पैकेज में हमने एक स्पा सेशन, फेशियल, मेनीक्योर और पेडिक्योर को शामिल किया है। इसकी फीस 15 हजार रूपये है।’ दिल्ली के हौजखास इलाके में ब्यूटी पार्लर चलाने वाली गीतिका बेसेकर कहती हैं, ‘हमारे यहां फेशियल के साथ मेहंदी का पैकेज रखा गया है। अक्सर महिलाएं फेशियल के लिए ही आती हैं। फुल मेकअप कराने वाली महिलाओं के लिए हमने गिफ्ट पैक तैयार किए हैं जिनमें चूड़ियां, बिन्दी और स्नैक्स का एक पैकेट शामिल है।’ मग पेन्टिंग की दुकानों पर भी भीड़ नजर आ रही है और ज्यादातर मांग बहनों या भाइयों के लिए मग में संदेश पेंट करवाने की है। एक मग की पेंटिंग पर करीब 150 रूपये का खर्च आता है। रक्षाबंधन के लिए ‘शॉप डॉट नेचरबास्केट डॉट को डॉट इन’ वेबसाइट में तरह तरह के गिफ्ट हैम्पर मौजूद हैं। सूखे मेवे वाले गिफ्ट हैम्पर की कीमत, जहां 4000 रूपए से शुरू होती है वहीं ग्रांड स्पेशल हैम्पर 5,250 रूपए का है। चॉकलेट वाले हैम्पर की कीमत 1,990 रूपए से 4,000 रूपए तक है। सेलिब्रेशन हैम्पर, स्नैकर्स डिलाइट हैम्पर, फ्रूट लवर हैम्पर, एग्जोटिक फ्रूट हैम्पर, इटालियन फीस्ट हैम्पर, एल मैक्सिकैनो हैम्पर, थाई क्यूसिनी हैम्पर तथा जैपनीज क्यूसिनी हैम्पर भी यहां उपलब्ध हैं। रक्षा बंधन के मौके पर यह वेबसाइट अपने हैम्पर्स की डिलीवरी मुफ्त कर रही है।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 09:39 PM
फिल्मों में फीका नहीं रहा भाई बहन का प्यार

हिन्दी फिल्मों में भारतीय परंपराओं और त्यौहारों को हमेशा ही बेहद दिलचस्प तरीके से दिखाया जाता रहा है। रक्षाबंधन का पर्व इससे अछूता नहीं है। फिल्मों के शुरूआती दौर से लेकर अब तक की कई फिल्मों में बहना भाई की कलाई पर राखी बांधती नजर आई और बहन की रक्षा की खातिर भाइयों को बलिदान देते हुए देखा गया। अभिनेत्री नफीसा अली कहती हैं, ‘राखी की शुरूआत हिन्दी फिल्मों में सोहराब मोदी की 1941 में बनी ‘सिकंदर’ से हुई जिसमें पृथ्वीराज कपूर ने सिकंदर की भूमिका निभाई थी। हम लोग स्कूल में रानी कर्णावती की कहानी पढते थे जिन्होंने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजी थी। महबूब खान की ‘हुमायूं’ (1945) में हमने यह देखा भी। इसमें अशोक कुमार ने हुमायूं की और वीना ने कर्णावती की भूमिका निभाई थी।’ उन्होंने कहा, ‘1959 में एल. वी. प्रसाद की फिल्म ‘छोटी बहन’ में भाई बहन के रिश्ते, नेत्रहीनता और परिवार के लोगों के व्यवहार को बहुत अच्छी तरह दिखाया गया था। इसका गीत ‘भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना’ आज भी लोगों को याद है। फिल्म में नंदा और बलराज साहनी भाई बहन बने थे।’ फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध मिश्रा ने कहा, ‘पुरानी फिल्म ‘छोटी बहन’ से लेकर ‘हम साथ साथ हैं’ में नीलम तक समय बदलता गया और इसी के साथ साथ बॉलीवुड में बहन की छवि भी बदलती गई। भाइयों का अंदाज भी बदलता रहा। ‘जाने तू या जाने न’ में भाई का बहन की फिक्र करने का अंदाज बिल्कुल अलग नजर आया।’
अनिरूद्ध ने कहा ‘जोश’ फिल्म में ऐश्वर्या राय बच्चन ने शाहरूख खान की बहन की भूमिका निभाई थी। भाई बहन का प्यार दिखाने में दोनों ने न्याय किया लेकिन यह जोड़ी अपनी इमेज के चलते दर्शकों के गले नहीं उतर पाई। ‘माई ब्रदर निखिल’ में निर्देशक ओणिर ने भाई संजय सूरी और बहन जूही चावला का प्यार बहुत ही दिलचस्प तरीके से दिखाया। फिल्म में जूही चावला अपने एचआईवी ग्रस्त भाई को समाज में पूरा सम्मान दिलाने के लिए जूझती नजर आती हैं जिसका वह हकदार है।’ नफीसा कहती हैं, ‘फिल्मों में हम भावनाओं, परंपराओं और घटनाओं को ही अलग अलग अंदाज में देखते हैं। रक्षाबंधन हमारे जीवन में खास महत्व रखता है। कुछ रूढियां भी चली आ रही हैं जो कभी कभार रिश्तों पर हावी हो जाती हैं। फिल्मों में इनका चित्रण बखूबी किया गया है। लेकिन अब बदलते समय के साथ इनका भी स्वरूप बदल रहा है।’ भाई बहन के प्यार पर बनी खालिद मोहम्मद की फिल्म फिजा में 1993 के मुंबई दंगों, सांप्रदायिक तनाव के दौरान लापता हुए भाई रितिक रोशन को उनकी बहन करिश्मा कपूर यानी फिजा तलाश करती नजर आती है। भाई अमान मिल तो जाता है लेकिन उसकी दुनिया बिल्कुल बदल चुकी होती है। राखी, भाई बहन, बंधन, तलाश, मेरे भैया, दीदी, सच्चा झूठा, प्यारी बहना, रेशम की डोर, अनोखा बंधन, यह कैसा इन्साफ, तपस्या, आइना, हम तुम्हारे हैं सनम, रन, अंगारे जैसी कई फिल्में हैं जिनमें भाई बहन के प्यार को दिखाया गया है।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 09:59 PM
रमजान माह में तोप चलाने की अनूठी परंपरा आज भी बरकरार

मध्य प्रदेश के रायसेन जिला मुख्यालय पर रमजान के पवित्र माह में तोप की गर्जना के साथ मुसलमान भाई सहरी और रोजा अफ्तारी करते हैं। यह देश में अपनी तरह की अनूठी परंपरा है। नवाबों के शासनकाल में रायसेन में रमजान माह में तोप की गर्जना के साथ सहरी और रोजा अफतारी की परंपरा शुरू हुई थी, जो आज भी कायम है। जिला प्रशासन के मुखिया कलेक्टर द्वारा प्रतिवर्ष रमजान माह में तोपें चलाने और उसके लिए बारूद खरीदने कि लिखित अनुमति मुस्लिम त्यौहार कमेटी को निर्धारित समय के लिए प्रदान की जाती है। रायसेन जिला मुख्यालय स्थित ऐतिहासिक किले की पहाड़ी पर एक नियत स्थान है, जहां रमजान माह प्रारंभ होने के एक दिन पहले प्रशासन की अभिरक्षा में रखी तोप को मुस्लिम त्यौहार कमेटी के सदस्य लेकर जाते हैं और इसे चलाने के लिए प्रशिक्षित तोपची को ही नियुक्त किया जाता है। रायसेन संभवत: देश का एकमात्र ऐसा शहर है जहां रमजान माह में रोजा अफतारी और सहरी का संकेत तोप चलाकर दिया जाता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तोप कि गर्जना सुनकर आसपास के लगभग 50 गांव के लोग रोजा खोलते हैं। शहर के वरिष्ठ नागरिक और वकील रेहान खान ने बताया कि भोपाल स्टेट के अंतिम नवाब हमीदुल्लाह खान ने रमजान में उपयोग की जा रही तोप रायसेन के मुसलमानों को दान में दी थी। इस तोप में एक बार उपयोग करने के लिए लगभग 200 ग्राम बारूद का प्रयोग किया जाता है। नवाबी शासनकाल में रायसेन मे रमजान माह में तोप की गर्जना के माध्यम से सहरी और रोजा अफ्तार का संकेत देता शुरू हुआ था। कलेक्टर मोहनलाल ने बताया कि इस तोप का पहला लायसेंस वर्ष 1956 में तत्कालीन कलेक्टर बदरे आलम ने जारी किया था, जो आज भी प्रभावशील है। प्रति वर्ष रमजान माह में जिला प्रशासन द्वारा परंपरागत तरीके से तोप चलाने और बारूद देने की अनुमति प्रदान की जाती है। प्रशासन भी इसे देश की अनूठी परंपरा मानता है। रमजान माह के बाद इस तोप को विधिवत कलेक्ट्रेट के मालखाने में जमा करा दिया जाता है। इसके साथ जिला मुख्यालय पर रमजान माह में तडके होने वाली सहरी की सूचना नगाडा बजाकर देने की भी अनूठी परंपरा कायम है। यहां करीब 500 फीट ऊंची किले की पहाडी से रात के सन्नाटों को चीरती नगाड़ों की आवाज से आसपास के लगभग 50 गांव के रोजेदारों को जगाया जाता है। इस नगाड़े को देर रात ढाई बजे से मुस्लिम त्यौहार कमेटी द्वारा नियुक्त लोगों द्वारा बजाया जाता है और सहरी का समय शुरू होने के साथ ही नगाडों की आवाज थम जाती है। ईद का चांद दिखने का जितना इंतजार देश के रोजेदारों को होता है, उतना ही इंतजार यहां के लोगों को ईद का चांद दिखने के साथ ही उस दिन विशेषकर दस बार तोप चलाकर चांद दिखने का संकेत दिया जाता है उसका भी रहता है।

Dark Saint Alaick
02-08-2012, 06:45 PM
तीन अगस्त को जन्मदिन पर विशेष
खड़ी बोली को काव्य भाषा के तौर पर स्थापित करने वाले
साहित्यकार मैथिलीशरण गुप्त

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17416&stc=1&d=1343915086

राष्ट्र जागरण में अतुलनीय योगदान करने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने असंभव दिखाई पड़ने वाली खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में स्थापित किया। साथ ही देश, समाज की समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनया और अतीत, वर्तमान और भविष्य पर कुछ इस तरह व्यापक विचार विमर्श किया-

हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी।।

मैथिलीशरण गुप्त से हुई मुलाकात को याद करते हुए लोकप्रिय कवि अशोक चक्रधर ने कहा, ‘गुप्तजी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविताओं के जरिये खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने राष्ट्र जागरण के साथ-साथ महिलओं से जुड़ी समस्याओं को भी बखूबी उठाया।’ दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने कहा, ‘द्विवेदी युग के कवि गुप्त ने असंभव सी दिखने वाली खड़ी बोली में काव्य रचना को संभव किया और फिर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण उनके बाद के कवियों ने इसे ही अपनी काव्य अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।’ उन्होंने कहा कि आदर्श, स्वदेश प्रेम, नारी जागरण जैसे मुद्दों पर जोर दिया। उनकी रचना भारत-भारती राष्ट्रीय चेतना के उद्बोधन के लिहाज से मील का पत्थर है। वहीं ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ के जरिए उन्होंने नारियों की समस्याओं को उठाया।
अपनी रचनाओं के माध्यम से अंग्रेजों के अतिवादी रवैये को उजागर करने वाले साहित्यकार मैथिलीशरण गुप्त के बारे में अशोक चक्रधर ने बताया कि वह अपनी कविताओं को पहले स्लेट पर लिखा करते थे। जब उनसे इसके बारे में कोई पूछता, तो वह कहते कि यह स्लेट द्विवेदीजी ने दिया है और उन्हें इस पर लिखने में असानी होती है और उनकी रचना में निखार आता है। गुप्तजी का जन्म तीन अगस्त 1885 में झांसी जिले के चिरगांव में हुआ था और 12 वर्ष की अवस्था से ही कविता रचना आरंभ कर दिया था। ‘रंग में भंग’ उनका प्रथम काव्य संग्रह है। साकेत, जयद्रथ वध, पंचवटी, यशोधरा, द्वापर, राजा प्रजा, हिडिम्बा समेत अनेक चर्चित रचनाएं लिखीं। साहित्य और राष्ट्र जागरण में उनके योगदानों को देखते हुए आजादी के बाद गुप्तजी को राज्यसभा सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया, जहां उन्होंने 1952 से 1962 तक संसद का मान और स्तर दोनों बढ़ाया। गुप्त भारत की सामासिक संस्कृति को भी बखूबी समझते थे और अतीत के बजाय भविष्य को बेहतर बनाने और भारत को फिर से दुनिया का सिरमौर बनाने के लिए मिलजुल कर कंधे से कंधे मिलाकर आगे बढ़ना ही बेहतर समझते हैं। वे निरर्थक प्रलाप नहीं करते, बल्कि आगे का मार्ग भी सुझाते हैं-

सप्रेम हिलमिल कर चलो, यात्रा सुखद होगी तभी।
पीछे हुआ सो हो गया, अब सामने देखो सभी।।

गुप्तजी भी भारतेंदु हरिश्चंद्र की तरह व्यक्ति को जड़ होने की बजाय बदलते समय के साथ सामंजस्य बैठाने का आग्रह करते हैं-

प्राचीन बातें ही भली हैं, यह विचार अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहां वैसी व्यवस्था ठीक है।।

Dark Saint Alaick
03-08-2012, 03:00 PM
चार अगस्त किशोर कुमार की जयंती पर विशेष
आवाज जो हमेशा रही किशोर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17420&stc=1&d=1343988034

नाम किशोर, मिजाज मनमौजी, अंदाज मस्ताना और सुर के शहंशाह किशोर कुमार के लिए, हर परिचय छोटा है। उनकी आवाज ने संगीत की सीमाएं तोड़ी, अल्फाजों से दर्शन और सुर को जोड़ा, अपने संगीत को हर दिल में बसा दिया, एक ऐसा फनकार, जिसके जीवन को कुछ शब्दों में बयां करना बहुत मुश्किल है। चार अगस्त, 1929 को मध्य प्रदेश के खंडवा में जन्मे किशोर प्रशिक्षित गायक नहीं थे, लेकिन बड़े भाई अशोक कुमार की तरह उन्हें अभिनय कुछ ज्यादा रास नहीं आया। संगीत में उनका मन रमता था। उनके गायन में आने का वाकया बड़ा ही दिलचस्प है। अशोक कुमार ने एक बार कहा था कि जब किशोर दस साल के थे तब उनकी आवाज कर्कश थी लेकिन उन्हें गायन से प्यार था। एक दिन जब उनकी मां रसोई में सब्जी काट रही थी तो किशोर दौड़ते हुए रसोई में आए और उनका पैर कट गया। पैर में इतना दर्द हुआ कि किशोर विकल हो उठे और एक महीने तक हर दिन घंटों रोते रहे। इतना ज्यादा रोने से उनकी आवाज साफ हो गयी और किशोर, जो अब मधुर स्वर में आए तो फिर कभी थमे नहीं। ब्रिटिश गायक और गीतकार डेविड कर्टनी ने किशोर कुमार पर अपनी आॅनलाइन बॉयोग्राफी ‘बायोग्राफी आफ किशोर कुमार’ में लिखा है कि जहां बॉलीवुड सिनेमा में गायकों को शीर्ष पर पहुंचने और वहां अपनी जगह बनाए रखने में संघर्ष करना पड़ता था वहीं किशोर कुमार को आसानी से यहां प्रवेश मिल गया और वह संगीत की अलग अलग शैलियों में प्रवीणता हासिल कर शीर्ष पर न केवल पहुंचे बल्कि वहां बने भी रहे। कर्टनी के अनुसार गायक के रूप में किशोर कुमार की प्रतिभा को मशहूर संगीतकार सचिन देव बर्मन ने तराशा। किशोर पहले केएल सहगल की तरह गाते थे, बर्मन ने उनसे अपनी खुद की शैली का विकास करने को कहा। इसके बाद किशोर ने कामयाबी के जो झंडे गाड़ना शुरू किया तो अंत तक जारी रहा। किशोर ने उस दौर के लगभग हर संगीतकार के साथ काम किया और अनगिनत हिट गाने दिए। 1970 में किशोर को पहली बार स्टारडम फिल्म ‘आराधना’ से मिली। हर फिल्म के गीत ‘रूप तेरा मस्ताना’ से किशोर की आवाज पूरे देश में छा गयी और किशोर को पहली बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। किशोर कुमार चूंकि मस्तमौला तबीयत के बेहद लापरवाह और फक्कड़ आदमी थे। उन्हें दुनिया का तीन पांच का आंकड़ा समझ में नहीं आता था इसलिए कई बार वह न चाहते हुए थी कई विवादों से जुड़े रहे। व्यक्तिगत जीवन में कई निर्माता-निर्देशकों ने उन्हें सनकी तक कहा। कुछ पत्रकारों और लेखकों के अनुसार किशोर ने वार्डन रोड स्थित अपने बंगले के बाहर ‘किशोर से सावधान’ का बोर्ड टांग रखा था। किशोर पैसे न मिलने पर काम बीच में ही छोड़ देते थे। लेकिन इसके उलट किशोर बड़े दिलदार और हमदर्द भी थे, उनके मित्र अरूण मुखर्जी की मौत के बाद किशोर नियमित रूप से भागलपुर में उनके परिवार को पैसे भेजते थे। निर्माता विपिन गुप्ता की तंगी के दिनों में किशोर कुमार ने ही उनकी मदद की। आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने उनसे कांग्रेस की एक रैली में गाने के लिए कहा, जिससे उन्होंने इनकार कर दिया। इससे गुस्साकर कांग्रेस सरकार ने आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उनके गाने पर प्रतिबंध लगा दिया। अमिताभ और मिथुन चक्रवर्ती के साथ व्यक्तिगत समस्याओं के कारण किशोर ने कुछ समय तक उनके लिए भी अपनी आवाज नहीं दी। ‘जिदंगी के सफर’, ‘सागर किनारे’, ‘हमें और जीने की’, ‘जिंदगी एक सफर’, ‘ओ मांझी रे’ और ‘ओ साथी रे’ जैसे अनगिनत सुपरहिट गीत देने वाले किशोर कुमार ने रिकार्ड आठ बार सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता। 13 अक्टूबर, 1987 को किशोर की मुंबई में हृदयघात से मौत हो गयी। किशोर भले नहीं रहे, लेकिन उनकी आवाज सदा रहेगी, कभी बूढी हुई न होगी, वह किशोर है किशोर ही रहेगी।

Dark Saint Alaick
04-08-2012, 10:34 PM
पांच अगस्त को ‘फ्रेंडशिप डे’ पर
बॉक्स आफिस का सुपरहिट फार्मूला ‘दोस्ती’

दोस्ती जिंदगी का सबसे खूबसूरत रिश्ता होने के साथ ही बॉक्स आफिस का ऐसा फार्मूला है, जो दशकों से फिल्मों की सफलता की गारंटी रहा है। फिल्म ‘दोस्ती’, ‘मेरे हमदम मेरे दोस्त’ से लेकर ‘शोले’, ‘दिल चाहता है’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ आदि दर्जनो फिल्मों की सफलता इस बात की गवाह है कि दोस्ती का जज्बा हमेशा जिंदा रहा है। मुंबई में रह रहे फिल्म इतिहासकार एस एम एम औसजा ने कहा, ‘भारतीय जनमानस का तानाबाना बचपन से ही कुछ इस तरह बुना जाता है जिसमें संबंधों का पैमाना जन्म से तय होता है। लेकिन खून के रिश्तों से अलग हट कर दोस्ती का रिश्ता कम मजबूत नहीं होता और हिन्दी फिल्मों में तो दोस्तों ने बाकायदा एक दूसरे की खातिर जान देकर इसे साबित भी किया है। दर्शकों को यह बात पसंद आई।’ फिल्म आलोचक राशिद कुरैशी ने कहा, ‘दर्शकों को ऐसी फिल्में पसंद आती हैं जिनसे वह खुद को आसानी से जोड़ सकते हैं। दोस्ती पर आधारित फिल्म इसलिए दर्शकों को पसंद आती है क्योंकि खुद उनके भी दोस्त होते हैं और वह फिल्म के किरदार को अपने बेहद करीब समझ बैठते हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसका कोई दोस्त न हो।’ फिल्म समीक्षक राजकमल ने कहा, ‘जब दर्शक फिल्म में बताई जा रही स्थिति से खुद को जोड़ लेते हैं तो उनके मन में कहानी के प्रति रूचि उत्पन्न हो जाती है। इसीलिए दोस्ती का फार्मूला कारगर होता है। वर्ष 1964 में ‘दोस्ती’ ने एक नेत्रहीन और एक विकलांग की दोस्ती को बेहद मार्मिक तरीके से पर्दे पर पेश किया। इसी साल राज कपूर ‘संगम’ ले कर आए। यह फिल्म राज कपूर और राजेंद्र कुमार की दोस्ती तथा दोनों का प्यार वैजयंती माला पर केंद्रित था।’ दुनिया के कई देशों में पांच अगस्त को ‘फ्रेंडशिप डे’ मनाया जाता है। दोस्ती के प्रतीक इस दिन पर ही दोस्तों को याद करना जरूरी नहीं है क्योंकि यह रिश्ता तो सदाबहार होता है। यही वजह है कि हिन्दी फिल्मों में इस रिश्ते को पूरा महत्व दिया गया। 70 और 80 के दशक में अमिताभ की शोले, याराना, नमक हराम, दोस्ताना, नसीब जैसी फिल्मों का जादू लोगों के सर चढ कर बोला। इन फिल्मों में बॉक्स आॅफिस के लिए सभी मसाले तो थे लेकिन दोस्ती को आधार बनाया गया था। औसजा ने कहा, ‘इन फिल्मों की सफलता का मुख्य कारण यह था कि लोगों को दोस्ती विषय बहुत अच्छा लगा। बाकी मसाले तो फिल्म में होते हैं। जब इस तरह की थीम पर फिल्म बनाई जाती है और उसे सफाई से तराशा जाता है तो निश्चित रूप से वह सफल होती है।’ मुन्ना भाई श्रृंखला की फिल्मों में मुन्ना और सर्किट की जोड़ी का आधार भी दोस्ती ही है। युवा फिल्म निर्माता फरहान अख्तर की ‘दिल चाहता है’ को सुपरहिट बनाने में भी दोस्ती का ही फार्मूला आधार रहा। ‘पार्टनर’ में गोविंदा और सलमान खान रोमांटिक कॉमेडी करते नजर आए। राजकमल के अनुसार, हर पीढी एक फिल्मी दौर की दर्शक होती है। अपने आसपास के माहौल से हर पीढी प्रभावित होती है और हर दौर रूपहले पर्दे पर किसी न किसी रूप में खुद को पेश करता है। अपने दोस्तों और उनकी कहानी से मिलता जुलता घटनाक्रम पर्दे पर सभी को पसंद आता है।

Dark Saint Alaick
06-08-2012, 08:40 PM
छह अगस्त को हिरोशिमा दिवस पर विशेष
परमाणु हथियारों के ढेर पर बैठी है दुनिया


महाशक्ति अमेरिका से लेकर उत्तर कोरिया तक परमाणु बमों के बढते प्रसार के बीच विशेषज्ञों ने चेतावनी है कि यदि व्यापक विनाश के इन हथियारों का खात्मा नहीं किया गया तो आने वाले समय में स्थिति बहुत गंभीर हो जाएगी। विश्वभर में कितने परमाणु बम हैं, इसका कोई ठीक ठीक आकड़ा नहीं है, लेकिन फेडरेशन आॅफ अमेरिकी साइंटिस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक शीतयुद्ध की समाप्ति को दो दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी दुनियाभर में परमाणु आयुधों की संख्या करीब 19 हजार है जो बहुत ज्यादा है । इनमें से 4800 आयुध इस्तेमाल किये जाने की स्थिति में हैं । इनमें से करीब दो हजार अकेले अमेरिका और रूस के पास है जिन्हें हाई अलर्ट पर रखा गया है और बेहद कम समय में भी दागा जा सकता है । इन परमाणु हथियारों से पूरी पृथ्वी को कई बार तबाह किया जा सकता है । अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार कमर आगा ने कहा कि दुनियाभर में परमाणु हथियारों का बढता प्रसार बेहद चिंताजनक है । आज ‘दुष्ट राष्ट्र’, ‘असफल राष्ट्र’ भी इसे बनाना चाहते हैं। उन्होंने कहा, ‘परमाणु बम एक ऐसा हथियार है जिसका इस्तेमाल प्रतिरोधक के रूप में किया जाता है, जैसा कि भारत ने किया । उत्तर कोरिया का कहना है कि उसे दक्षिण कोरिया से खतरा है, ईरान खुद को इस्राइल से खतरा बताता है।’
आगा ने कहा, ‘भारत के पड़ोसी देशों में परमाणु हथियार के प्रसार से भारत के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। जिन देशों में परमाणु हथियारों का प्रसार बढ़ रहा है वहां लोकतांत्रिक सरकारें नहीं हैं । पाकिस्तान के परमाणु बम की सुरक्षा को लेकर पूरे विश्व समुदाय में चिंता है ।’’ फेडरेशन आफ अमेरिकी साइंटिस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान के पास 90 से 110 परमाणु बम हैं, जबकि भारत के पास 80 से 100 तथा उत्तर कोरिया के पास 10, दुनिया में परमाणु बम का पहली बार इस्तेमाल करने वाले अमेरिका के पास आठ हजार, रूस के पास 10 हजार, फ्रांस के पास 300, चीन के पास 240, ब्रिटेन के पास 225, इस्राइल के पास 80 परमाणु हथियार या उन्हें बनाने लायक सामग्री है। सामरिक मामलों की पत्रिका ‘इंडियन डिफेंस रिव्यू’ के संपादक भरत वर्मा ने कहा, ‘जिन देशों के पास परमाणु बम हैं, वे इसे खत्म नहीं करेंगे, क्योंकि इससे शक्तिशाली कोई भी हथियार नहीं है। इसी वजह से अन्य देश भी इसे हासिल करना चाहते हैं। अगर शिया राष्ट्र ईरान परमाणु हथियार बनाता है, तो सुन्नी शासित सऊदी अरब भी इन्हें हासिल करेगा। कई आतंकवादी गुट भी इन हथियारों को हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘चीन ने विश्व समुदाय की नजर अपने ऊपर से हटाने के लिए एक रणनीति के तहत पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और ईरान को परमाणु बम की तकनीक मुहैया कराई। ये देश आज एशिया में चीन के शक्तिशाली अड्डे बन गए हैं।’
वर्मा ने कहा, ‘परमाणु हथियार का प्रसार रोकना मुश्किल है। इसकी तकनीक आसानी से हासिल हो जाती है। आने वाले समय में चीन की चुनौती से निपटने के लिये परमाणु विभीषिका झेलने वाला जापान भी परमाणु बम बना सकता है।’ उन्होंने सुझाव दिया कि ऐसे समय में भारत को चाहिये कि वह परमाणु हथियार को दागने की प्रणाली को मजबूत करे। अगर कोई देश हमारी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश करता है तो हमें परमाणु हमले से भी नहीं हिचकना चाहिए, जैसा फ्रांस की नीति है। भारत को छोटे रणनीतिक हथियार बनाने चाहिए, ताकि जरूरत पड़ने पर एक छोटे इलाके को निशाना बनाया जा सके। उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज ही के दिन पहली बार अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा शहर पर परमाणु बम गिराया था, जिसमें लगभग एक लाख लोगों की मौत हुई थी। इस हमले के तीन दिन बाद अमेरिका ने जापान के एक अन्य शहर नागासाकी पर भी परमाणु बम गिराया था, जिसमें करीब 80 हजार लोगों की मौत हो गई थी।

Dark Saint Alaick
06-08-2012, 08:55 PM
पुण्यतिथि 7 अगस्त पर विशेष
यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17435&stc=1&d=1344268523

हिंदी फिल्म जगत में गुलशन बावरा को एक ऐसे गीतकार के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने न सिर्फ अपने गीतों, बल्कि अभिनय और पार्श्वगायन से भी सिने प्रेमियों को दीवाना बनाया। हिन्दी भाषा और साहित्य के करिश्माई व्यक्तित्व गुलशन कुमार मेहता उर्फ गुलशन बावरा का जन्म 11 अप्रैल को को लाहौर शहर के निकट शेखपुरा गांव में हुआ था । महज छह वर्ष की उम्र से ही गुलशन का रूझान कविता लिखने की ओर था। उनकी मां विद्यावती धार्मिक कार्यकलापों के साथ साथ संगीत मे भी काफी रूचि रखती थी । गुलशन अक्सर मां के साथ भजन-कीर्तन जैसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाया करते थे । देश के विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों में उनके माता-पिता की उनकी नज़रों के सामने हत्या हो गई। इसके बाद वह अपनी बड़ी बहन के पास दिल्ली आ गए। गुलशन बावरा ने स्रातक की पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय से पूरी की । कॉलेज की पढ़ाई के दौरान उनकी रूचि कविता लिखने में हो गई। परिवार की घिसी पिटी परंपरा को निभाते हुए गुलशन मेहता ने वर्ष 1955 में अपने कैरियर की शुरूआत मुंबई में एक लिपिक की नौकरी से की। उनका मानना था कि सरकारी नौकरी करने से उनका भविष्य सुरक्षित रहेगा। लिपिक की नौकरी उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी। आफिस मे अपने काम के समय भी वह अपना ज्यादातर समय कविता लिखने मे हीं बिताया करते थे। उनका मन इस नौकरी मे नहीं रमा। वर्ष 1961 में गुलशन मेहता ने रेलवे में लिपिक की नौकरी छोड़ दी। अचानक ही उनकी मुलाकात संगीतकार जोड़ी कल्याण जी-आनंद जी से हुई, जिनके संगीत निर्देशन में लिए गुलशन मेहता ने फिल्म सट्टा बाजार के लिए तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे गीत लिखा, लेकिन इस फिल्म के जरिए वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। फिल्म सट्टा बाजार मे उनके गीत को सुनकर फिल्म के वितरक शांतिभाई दबे काफी खुश हुए। उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि इतनी छोटी सी उम्र में कोई व्यक्ति इस गीत को इतनी गहराई के साथ लिख सकता है। उस समय गुलशन बावरा की उम्र महज 19 वर्ष की थी। शांति भाई ने गुलशन मेहता को बावरा कहकर संबोधित किया। इसके बाद से गुलशन मेहता गुलशन बावरा के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में प्रसिद्ध हो गए। लगभग आठ वर्ष तक मायानगरी मुंबई में गुलशन बावरा ने अथक परिश्रम किया। आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और उन्हें कल्याण जी-आनंद जी के संगीत निर्देशन में निर्माता- निर्देशक मनोज कुमार की फिल्म उपकार में गीत लिखने का मौका मिला। मनोज कुमार ने गुलशन बावरा के साथ फिल्म इंडस्ट्री में संघर्ष किया था और दोनों में काफी घनिष्ठता थी। मनोज कुमार ने गुलशन बावरा से गीत की कोई पंक्ति सुनाने के लिए कहा। तब गुलशन बावरा ने मेरे देश की धरती सोना उगले गाकर सुनाया। गीत के बोल सुनने के बाद मनोज कुमार बहुत खुश हुए और उन्होंने गुलशन बावरा से फिल्म उपकार में गीत लिखने की पेशकश की। फिल्म उपकार में अपने गीत मेरे देश की धरती सोना उगले की सफलता के बाद गुलशन बावरा ने कभी पीछे मुड़कर नही देखा। गुलशन बावरा को इसके बाद कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए। वर्ष 1969 में प्रदर्शित फिल्म विश्वास में कल्याणजी आनंदजी के हीं संगीत निर्देशन में गुलशन बावरा ने चांदी की दीवार न तोड़ी जैसे भावपूर्ण गीत की रचना कर अपना अलग ही समा बांधा। इसके बाद गुलशन बावरा ने सफलता की नई बुलंदियों को छुआ और एक से बढ़कर एक गीत लिखे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी गुलशन बावरा ने कई फिल्मों में अभिनय भी किया है। इन फिल्मों में उपकार, विश्वास, पवित्र पापी, बेईमान, जंजीर, अगर तुम ना होते, बीवी हो तो ऐसी और इंद्रजीत प्रमुख हैं। इसके अलावा गुलशन बावरा ने पुकार तथा सत्ते पे सत्ता में पार्श्वगायन किया। गुलशन बावरा के पसंदीदा संगीतकार के तौर पर आर.डी. बर्मन का नाम सबसे ऊपर आता है। वर्ष 1975 में प्रदर्शित फिल्म खेल खेल में आर.डी. बर्मन के संगीत निर्देशन में गुलशन बावरा द्वारा रचित गीत खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों युवाओं के बीच काफी पसंद किए गए और इस गीत ने पूरे भारत वर्ष मे धूम मचा दी। इसके बाद गुलशन बावरा द्वारा रचित अधिकांश फिल्मी गीतों में आर.डी. बर्मन का ही संगीत हुआ करता था। गुलशन बावरा और आर.डी. बर्मन की जोड़ी वाली सुपरहिट गीतों में कुछ हैं -एक मै और एक तू, आती रहेंगी बहारें जाती रहेंगी बहारें,कसमें वादे निभाएंगे हम, दिलबर मेरे कब तक मुझे ऐसे ही तड़पाओगे, सत्ते पे सत्ता, हमें और जीने की चाहत ना होती। गुलशन बावरा को दो बार फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ गीतकार से नवाजा गया। उन्हें सबसे पहले वर्ष 1967 में प्रदर्शित फिल्म उपकार के गीत मेरे देश की धरती सोना उगले के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके बाद गुलशन बावरा वर्ष 1973 में प्रदर्शित फिल्म जंजीर के गीत यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी के लिये सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजे गए। अपने गीतों से श्रोताओं के दिलों पर अमिट छाप छोड़ने वाले गुलशन बावरा 7 अगस्त 2009 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

Dark Saint Alaick
07-08-2012, 04:10 PM
सात अगस्त को पुण्यतिथि पर
एक से अधिक देशों के राष्ट्रगान के रचयिता हैं रवींद्रनाथ

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=17436&stc=1&d=1344337823

विश्वविख्यात रचनाकार, दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री और बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी रवींद्रनाथ ठाकुर दुनिया के इकलौते ऐसे कवि हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘अमार सोनार बांग्ला’ रवीन्द्रनाथ की ही रचनाएं हैं। इसके अलावा श्रीलंका के राष्ट्रगान पर भी उनका प्रभाव है। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूंकने वाले रवींद्रनाथ को गुरूदेव के नाम से भी जाना जाता है। वह मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। अध्ययन और नाटकों में गहरी दिलचस्पी रखने वाली माला चतुर्वेदी ने कहा, ‘साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा हो जिसमें भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूंकने वाले और युगद्रष्टा ठाकुर की रचना न हो। उनके सृजन संसार में गीतांजलि, गीतोबितान, गीतिमाल्य जैसे काव्य संग्रह, डाकघर, राजा, विसर्जन, मुक्तधारा जैसे नाटक, गोरा, घरे बाहिरे जैसे चर्चित उपन्यास शामिल हैं।’ माला के अनुसार, प्रकृति से लगाव रखने वाले गुरूदेव का मानना था कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्त रूप देने के लिए वह सियालदह आ गए और शांतिनिकेतन की स्थापना की। अंतरराष्ट्रीय और मानवीय संबंधों पर जोर देने वाले ठाकुर का स्कॉटलैंड से भी जुड़ाव था। स्कॉटलैंड के नगर योजनाकार पैट्रिक गेड्डेस उनके मित्र थे। एडिनबर्ग नेपियर विश्वविद्यालय में साहित्य की प्रध्यापक बसाबी फ्रेजर ने हाल ही में कहा था, ‘वह पूरब और पश्चिम को मिलाने वाले अग्रदूत थे। उन्होंने करीब 37 देशों की यात्रा की और उनके दोस्त पूरे दुनिया में फैले हुए थे।’ मोहनदास करमचंद गांधी को ‘महात्मा’ की उपाधि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ही दी थी। दोनों महान विभूतियों के बारे में नेहरू ने लिखा है, ‘‘गांधी और ठाकुर दोनों एक दूसरे से पूरी तरह से अलग हैं। फिर भी दोनों ठेठ भारतीय और भारत की महान हस्तियों में से एक हैं।...मेरा सौभाग्य है कि दोनों से हमारा निकट का संंबंध है।’’ उनके मित्रों में प्रख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन भी थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जुलाई 1930 में जर्मनी में आइंस्टीन के घर पर उनसे मुलाकात की थी और संगीत और विज्ञान समेत अनेक मुद्दों पर विचार विमर्श किया था। वह साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाले एशिया के पहले व्यक्ति थे। उन्हें दिसंबर 1913 में गीतांजलि के लिए यह सम्मान प्रदान किया गया था जो बांग्ला में लिखित 157 गीतों का संग्रह है। सात मई 1861 को कोलकाता में जन्मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर बचपन से ही अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। उन्होंने प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में प्रारंभिक पढाई की और ब्रिटेन में कानून की शिक्षा हासिल की लेकिन बिना डिग्री हासिल लिए ही स्वदेश लौट गए। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेजी हुकूमत के अमानवीय कार्यों का विरोध भी किया था। जलियांवाला बाग कांड के विरोध में उन्होंने अपनी नाइटहुड की उपाधि वापस कर दी थी। भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ ठाकुर सात अगस्त 1941 को इस दुनिया से चल बसे।