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View Full Version : हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें


Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:31 AM
मित्रो ! इस नए सूत्र में जैसा कि शीर्षक से ज़ाहिर है, मैं हिन्दी में कही जा रही ग़ज़ल प्रस्तुत करूंगा ! हालांकि व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि ग़ज़ल को हिन्दी-उर्दू के खानों में बांटना उचित नहीं है, तथापि यदि एक खाना अलहदा चल रहा है, तो उसमें जाकर देखने में भी कोई हर्ज़ नहीं है ! अपने सूत्र 'एक सफ़र ग़ज़ल के साए में' की तरह इस सूत्र में किसी कालक्रम या कालखंड का ध्यान रखे बगैर मैं बस, श्रेष्ठ अशआर आप तक पहुंचाने का प्रयास करूंगा ! यहां किसी ग़ज़लगो का परिचय नहीं होगा, इसलिए कि इनमें से ज्यादातर साहित्यकार अभी इसी पृथ्वी पर विचरण कर रहे हैं और अधिकांश से मेरी व्यक्तिगत आशनाई है, अतः किसी के बारे में ज्यादा और किसी के बारे में कम लिख जाने का गुनाह मैं अपने सर नहीं लेना चाहता ! हिन्दी साहित्य की खेमेबंदी की इस कमजोरी के कारण आपको कुछ जानकारियों से वंचित रहना पड़ेगा, इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं ! आइए, लुत्फ़ उठाते हैं हिन्दी की कुछ श्रेष्ठ ग़ज़लों का-

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:35 AM
हार किसकी है और किसकी फतह कुछ सोचिए ।
जंग है ज्यादा जरूरी या सुलह कुछ सोचिए।

यूं बहुत लम्बी उडा़नें भर रहा है आदमी,
पर कहीं गुम हो गई उसकी सतह कुछ सोचिए।

मौन है इन्सानियत के कत्ल पर इन्साफ-घर,
अब कहां होगी भला उस पर जिरह कुछ सोचिए।

अब कहां ढूंढें भला अवशेष हम ईमान के,
खो गई सम्भावना वाली जगह कुछ सोचिए।

दे न पाए रोटियां बारूद पर खर्चा करे,
या खुदा अब बन्द हो ऐसी कलह कुछ सोचिए।

आदमी ’इन्सान’ बनकर रह नहीं पाया यहां,
क्या तलाशी जाएगी इसकी वजह कुछ सोचिए।

-महेश अग्रवाल

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:39 AM
भड़कने की पहले दुआ दी गई थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गई थी।

मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूं,
ये जीने की कैसी अदा दी गई थी।

बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो,
पलट कर मुझे क्यों सदा दी गई थी।

अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब
बढा़, शम्मा तब ही बुझा दी गई थी।

मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
मेरी हैसियत यूं बता दी गई थी।

सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया,
मेरी शख्सियत ही भुला दी गई थी।

गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं,
तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी।


-कृष्ण सुकुमार

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:41 AM
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला।
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला।

आज़माइश तो गलत-फ़हमी बढा़ देती है,
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला।

दिल तलक जाने का रास्ता भी तो निकला दिल से,
ये शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला।

सरहदें रोक न पाएंगी कभी रिश्तों को,
खुशबुओं पर न कभी कोई भी पहरा निकला।

रोज़ सड़कों पे गरजती है ये दहशत-गर्दी,
रोज़, हर रोज़ शराफत का जनाज़ा निकला।

तू सितम करने में माहिर,मैं सितम सहने में,
ज़िन्दगी ! तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला।

यूं तो बाज़ार की फ़ीकी़-सी चमक सब पर है,
गौर से देखा तो हर शख्स ही तन्हा निकला।

-मुफ़लिस लुधियानवी

sagar -
28-10-2011, 06:44 AM
भड़कने की पहले दुआ दी गई थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गई थी।

मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूं,
ये जीने की कैसी अदा दी गई थी।

बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो,
पलट कर मुझे क्यों सदा दी गई थी।

अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब
बढा़, शम्मा तब ही बुझा दी गई थी।

मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
मेरी हैसियत यूं बता दी गई थी।

सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया,
मेरी शख्सियत ही भुला दी गई थी।

गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं,
तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी।


-कृष्ण सुकुमार:bravo::bravo: बहुत ही उम्दा गजल से रु बरु कराया हे !:bravo:

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:45 AM
गिरने न दिया मुझको हर बार संभाला है।
यादों का तेरी कितना अनमोल उजाला है।

वो कैसे समझ पाए दुनिया की हकीक़त को,
सांचे में उसे अपने जब दुनिया ने ढाला है।

ये दिन भी परेशां है ये रात परेशां है,
लोगों ने सवालों को इस तरह उछाला है।

इंसानियत का मन्दिर अब तक न बना पाए,
वैसे तो हर इक जानिब मस्जिद है शिवाला है।

सपनों में भी जीवन है फुटपाथ पे सोते हैं,
जीने का हुनर अपना सदियों से निराला है।

सब एक खुदा के ही बन्दे हैं जहां भर में,
नज़रों में मेरी कोई अदना है न आला है।

गंगा भी नहा आए तन धुल भी गया लेकिन,
मन पापियों का अब तक काले का ही काला है।

-विनय मिश्र

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:48 AM
तिमिर की पालकी निकली अचानक।
घरों से गुल हुई बिजली अचानक।

तपस्या भंग सी लगने लगी है,
कहां से आ गई ’तितली’ अचानक।

अभी सामान तक खोला नहीं था,
यहां से भी हुई बदली अचानक।

समझ में आ रहा है स्वर पिता का,
विमाता कर गई चुगली अचानक।

तुम्हारी साम्प्रदायिक-सोच सुनकर,
मुझे आने लगी मितली अचानक।

ये पापी पेट भरने की सजा है,
नचनिया, बन गई तकली अचानक।

मछेरे की पकड़ से छूटते ही,
नदी में जा गिरी मछली अचानक।

-जहीर कुरेशी

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:52 AM
हम हुए आजकल नीम की पत्तियां ।
लाख हों रोग हल नीम की पत्तियां ।

गीत गोली हुए शेर शीरीं नहीं,
कह रहे हम ग़ज़ल नीम की पत्तियां ।

खून का घूंट हम खून वे पी रहे,
स्वाद देंगी बदल नीम की पत्तियां ।

सुर्ख संजीवनी हों सभी के लिए,
हो रही खुद खरल नीम की पत्तियां।

आग की लाग हैं सूखते बांस वन,
अब न होंगी सजल नीम की पत्तियां।

वक्त हैरान हिलती जड़ें बरगदी,
सब कहीं बादख़ल नीम की पत्तियां।

एक छल है गुलाबी फसल देश में,
दरअसल हैं असल नीम की पत्तियां ।

-रामकुमार 'कृषक'

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:56 AM
धूप में मेरे साथ चलता था।
वो तो मेरा ही अपना साया था।

वो ज़माना भी कितना अच्छा था,
मिलना-जुलना था आना-जाना था।

यक-बयक मां की आंख भर आई,
हाल बेटे ने उसका पूछा था।

दिल मचलता है चांद की खातिर,
ऐसा नादां भी इसको होना था।

उसको आना था ऐसे वक्त कि जब,
कोई ग़फ़लत की नींद सोता था।

दिल है बेचैन उसके जाने पर,
बेवफाई ही उसका पेशा था |

-अनु जसरोटिया

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 06:59 AM
ऐसी कविता प्यारे लिख।
जो मन को झंकारे लिख।

लौट के धरती पर आ जा,
अब ना चांद सितारे लिख।

हवा-हवाई ही मत रह,
कुछ तो ठोस-करारे लिख।

पाला मार रहा सबको,
लिख,जलते अंगारे लिख।

दुरभि-संधियां फैल रहीं,
इनके वारे-न्यारे लिख।

समझौतों की रुत में भी,
खुद्दारी ललकारे लिख।

सिर पर है बाज़ार चढा़,
जो यह ज्वार उतारे लिख।

जहां-जहां अंधियारे हैं,
वहां-वहां उजियारे लिख।

हार-जीत जो हो सो हो,
लेकिन मन ना हारे लिख।

-शिवकुमार ’पराग’

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 07:02 AM
धन की लिप्सा ये रंग लाएगी ।
आपसी फ़ासिले बढा़एगी ।

तेरे जीवन का दम्भ टूटेगा,
ऐ ख़िज़ां जब बहार आएगी ।

मुल्क में क्या बचेगा कुछ यारों,
बाड़ जब खुद ही खेत खाएगी ।

इन उनींदे अनाथ बच्चों को,
लोरियां दे हवा सुलाएगी ।

अणुबमों से सज गया संसार,
कैसे कुदरत इसे बचाएगी ।

हम हैं ’दरवेश’ हमको ये दुनिया,
क्या रुलाएगी, क्या हंसाएगी ।

-दरवेश भारती

Dark Saint Alaick
28-10-2011, 07:03 AM
खुशबुओं को जुबान मत देना।
धूप को सायबान मत देना।

अपना सब कुछ तो दे दिया तुमने,
अब किसी को लगान मत देना।

कोई रिश्ता ज़मीन से न रहे,
इतनी ऊँची उडा़न मत देना।

उनके मुंसिफ़,अदालतें उनकी,
देखो,सच्चा बयान मत देना।

जिनके तरकश में कोई तीर नहीं,
उनको साबुत कमान मत देना।

-माधव कौशिक

Sikandar_Khan
28-10-2011, 09:06 AM
धूप में मेरे साथ चलता था।
वो तो मेरा ही अपना साया था।

वो ज़माना भी कितना अच्छा था,
मिलना-जुलना था आना-जाना था।

यक-बयक मां की आंख भर आई,
हाल बेटे ने उसका पूछा था।

दिल मचलता है चांद की खातिर,
ऐसा नादां भी इसको होना था।

उसको आना था ऐसे वक्त कि जब,
कोई ग़फ़लत की नींद सोता था।

दिल है बेचैन उसके जाने पर,
बेवफाई ही उसका पेशा था |

-अनु जसरोटिया:bravo::bravo:

बहुत ही खूबसूरत गजल है
इन हिंदी गजलोँ से रु-ब-रु कराने के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया |

malethia
28-10-2011, 12:12 PM
हार किसकी है और किसकी फतह कुछ सोचिए ।
जंग है ज्यादा जरूरी या सुलह कुछ सोचिए।

यूं बहुत लम्बी उडा़नें भर रहा है आदमी,
पर कहीं गुम हो गई उसकी सतह कुछ सोचिए।

मौन है इन्सानियत के कत्ल पर इन्साफ-घर,
अब कहां होगी भला उस पर जिरह कुछ सोचिए।

अब कहां ढूंढें भला अवशेष हम ईमान के,
खो गई सम्भावना वाली जगह कुछ सोचिए।

दे न पाए रोटियां बारूद पर खर्चा करे,
या खुदा अब बन्द हो ऐसी कलह कुछ सोचिए।

आदमी ’इन्सान’ बनकर रह नहीं पाया यहां,
क्या तलाशी जाएगी इसकी वजह कुछ सोचिए।

-महेश अग्रवाल
महेश जी की एक उम्दा रचना की प्रस्तुती के लिए अलेक्क जी का आभार...............
अन्य प्रस्तुती भी अच्छी है पर मुझे ये पसंद आयी...............:fantastic:

Dark Saint Alaick
31-10-2011, 01:53 PM
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं,ऐसा हुआ होगा

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा

- दुष्यंत कुमार

Dark Saint Alaick
31-10-2011, 01:54 PM
ज़माने भर का कोई इस क़दर अपना न हो जाए
कि अपनी ज़िंदगी ख़ुद आपको बेगाना हो जाए।

सहर होगी ये शब बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे होश का पैमाना हो जाए।

किरन फूटी है ज़ख़्मों के लहू से : यह नया दिन है :
दिलों की रोशनी के फूल हैं – नज़राना हो जाए।

ग़रीबुद्दहर थे हम; उठ गए दुनिया से अच्छा है
हमारे नाम से रोशन अगर वीराना हो जाए।

बहुत खींचे तेरे मस्तों ने फ़ाक़े फिर भी कम खींचे
रियाज़त ख़त्म होती है अगर अफ़साना हो जाए।

चमन खिलता था वह खिलता था, और वह खिलना कैसा था
कि जैसे हर कली से दर्द का याराना हो जाए।

वह गहरे आसमानी रंग की चादर में लिपटा है
कफ़न सौ ज़ख़्म फूलों में वही पर्दा न हो जाए।

इधर मैं हूँ, उधर मैं हूँ, अजल तू बीच में क्या है?
फ़कत एक नाम है, यह नाम भी धोका न हो जाए।

वो सरमस्तों की महफ़िल में गजानन मुक्तिबोध आया
सियासत ज़ाहिदों की ख़ंदए-दीवाना हो जाए

- शमशेर बहादुर सिंह

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:35 AM
‘अनमोल’ अपने आप से कब तक लड़ा करें
जो हो सके तो अपने भी हक़ में दुआ करें

हम से ख़ता हुई है कि इंसान हैं हम भी
नाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें

अपने हज़ार चेहरे हैं, सारे हैं दिलनशीं
किसके वफ़ा निभाएं हम किससे जफ़ा करें

नंबर मिलाया फ़ोन पर दीदार कर लिया
मिलना सहल हुआ है तो अक्सर मिला करें

तेरे सिवा तो अपना कोई हमज़ुबां नहीं
तेरे सिवा करें भी तो किस से ग़िला करें

दी है कसम उदास न रहने की तो बता
जब तू न हो तो कैसे हम ये मोजिज़ा करें

-रविकांत अनमोल

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:36 AM
दरीचे ज़हनों के खुलने की इब्तिदा ही नहीं
जो उट्ठे हक़ की हिमायत में वो सदा ही नहीं

ज़मीर शर्म से ख़ाली हैं, दिल मुहब्बत से
हम इरतेक़ा जिसे कहते हैं, इरतेक़ा ही नहीं

तख़य्युलात की परवाज़ कौन रोक सका
परिंद जब ये उड़ा फिर कहीं रुका ही नहीं

ग़म ए जहां पे नज़र की तो ये हुआ मालूम
जफ़ा जो हम ने सही, वो कोई जफ़ा ही नहीं

बग़ैर इल्म के ज़ुलमत कदा है ज़ह्न मेरा
जो कर दे फ़िक्र को रौशन, वो इक ज़िया ही नहीं

तेरी वफ़ाओं का शीराज़ा मुंतशिर हो कर
बता रहा है हक़ीक़त में ये वफ़ा ही नहीं

जब आया आख़री लम्हात में मसीहा वो
न शिकवा कोई 'शेफ़ा' और कोई गिला ही नहीं

-इस्मत ज़ैदी

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:38 AM
हाथ में लेकर खड़ा है बर्फ़ की वो सिल्लियाँ
धूप की बस्ती में उसकी हैं यही उपलब्धियाँ

आसमा की झोपड़ी में एक बूढ़ा माहताब
पढ़ रहा होगा अँधेरे की पुरानी चिट्ठियाँ

फूल ने तितली से इकदिन बात की थी प्यारकी
मालियों ने नोंच दीं उस फूल की सब पत्तियाँ

मैं अंगूठी भेंट में जिस शख़्स को देने गया
उसके हाथों की सभी टूटी हुई थी उँगलियाँ

-ज्ञानप्रकाश विवेक

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:39 AM
अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते

फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते

तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते

चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर— घने बरगद नही होते

-द्विजेन्द्र 'द्विज'

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:40 AM
अँधेरों पर भारी उजाले रहेंगे
तो हाथों में सबके निवाले रहेंगे

न महफ़ूज़ रह पाएगी अपनी अस्मत
जुबाँ पर हमारी जो ताले रहेंगे

ग़मों से भरी ज़िन्दगी जी रहे हैं
मगर भ्रम ख़ुशी का ही पाले रहेंगे

यूँ आँसू बहाने से कुछ भी न होगा
अगर दिल हैं काले तो काले रहेंगे

बढ़ाते रहोगे अगर हौसला तुम
तो पतवार हम भी सँभाले रहेंगे

-अल्पना नारायण

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:44 AM
अंगारों पर चलकर देखे
दीपशिखा-सा जलकर देखे

गिरना सहज सँभलना मुश्किल
कोई गिरे, सँभलकर देखे

दुनिया क्या, कैसी होती है
कुछ दिन भेस बदलकर देखे

जिसमें दम हो वह गाँधी-सा
सच्चाई में ढलकर देखे

कर्फ़्यू का मतलब क्या होता
बाहर जरा निकल कर देखे

-इसाक अश्क

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:48 AM
अंग-अंग में रूप रंग है, सोज़ो-साज़ है, मौसीक़ी है
तेरा सरापा है कि ख़ुदा ने एक मुरस्सा नज़्म कही है

अपने ज़िह्न के हर गोशे में तुझको पया है नूर-अफ़शाँ
अपने दिल की हर धड़कन में मैंने तिरी आवाज़ सुनी है

तन्हा रहने पर भी मैंने तन्हाई महसूस नहीं की
मेरे साथ हमेशा तेरी यादों की ही बज़्म रही है

सूरज ढलता है तो तेरी याद के दीपक जल उठते हैं
मेरे दिल के शहर की हर शब दीवाली की शब होती है

सोये अरमाँ जाग उठते हैं, कितने तूफ़ाँ जाग उठते हैं
सावन भादों की रिम-झिम तन-मन में आग लगा जाती है

ज़िक्र करूँ क्या तेरे ग़म का, तेरे ग़म को क्या ग़म समझूँ
तेरा ग़म वो नेमत है जो क़िस्मत वालों को मिलती है

आओ ऐसे में खुल जाएँ, एक दूसरे में घुल जाएँ
फ़स्ल-ए-गुल है जाम-ए-मुल है, तुम हो मैं हूँ, तन्हाई है

शौक़ बारहा सोचा उनसे जो कहना है कह ही डालूँ
लेकिन वो जब भी मिलते हैं दिल की दिल में रह जाती है.

-सुरेशचन्द्र शौक़

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:49 AM
अंजाम आज खुद़ से अनजान हो रहा है
आगाज़ ही अजल का सामान हो रहा है

कुछ और कह रही हैं लोहूलुहान राहें
कुछ और मंज़िलों से ऐलान हो रहा है

है चोर ही सिपाही मुंसिफ़ है खुद़ ही क़ातिल
किस शक्ल में नुमायाँ इंसान हो रहा है

जिनको मिली है ताक़त दुनिया सँवारने की
ख़ुदगर्ज आज उनका ईमान हो रहा है

देखा पराग तुमने दुनिया का रंग बोलो
इन हरक़तों से किसका नुक़सान हो रहा है

-ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:50 AM
अंतरगति का चित्र बना दो कागज़ पर
मकड़ी के जाले तनवा दो कागज़ पर

गुमराही का नर्क न लादो कागज़ पर
लेखक हो तो स्वप्न सज़ा दो कागज़ पर

युक्ति करो अपना मन ठण्ढा करने की
शोलों के बाजार लगा दो कागज़ पर

होटल में नंगे जिस्मों को प्यार करो
बे शर्मी का नाम मिटा दो कागज़ पर

कोई तो साधन हो जी खुश रहने का
धरती को आकाशा बना दो कागज़ पर

यादों की तस्वीर बनाने बैठे हो
आंसू की बूँदें टपका दो कागज़ पर

अनपढ़ को जिस ओर कहोगे जाएगा
सभ्य सुशिक्षित को बहका दो कागज़ पर

-एहतराम इस्लाम

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:56 AM
अगर आप दिल से हमारे न होते
तो नज़रों से इतने इशारे न होते

नहीं प्यार होता जो उनको किसीसे
तो आँचल में ये चाँद-तारे न होते

बहुत शोर था उनकी दरियादिली का
हमें देखकर यों किनारे न होते

कहाँ से ग़ज़ल प्यार की यह उतरती
जो हम उन निगाहों के मारे न होते

गुलाब! आप खिलते जो राहों में उनकी
तो ऐसे कभी बेसहारे न होते

-गुलाब खंडेलवाल

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:58 AM
मुझको आँगन में दिखा पदचिन्ह इक उभरा हुआ
तू ही आया था यहाँ पर या मुझे धोखा हुआ

मेरे घर मे जिंदगी की उम्र बस उतनी ही थी
जब तलाक था नाम तेरा हर तरफ बिखरा हुआ

अब नजर इस रूप पर ठहरे भला तो किस तरह
है नज़र मे तू नज़र की राह तक फैला हुआ

क्या करूँ क्या क्या करूँ कैसे करूँ तेरा बयां
तो तो बस अहसास है अंदर कहीं उतरा हुआ

-विजय वाते

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 10:59 AM
अंधकूपों सा अँधेरा रौशनाई हो गया है
राहज़न का राज़ लिखना ही बुराई हो गयाहै

कुछ लकीरों के फक़ीरों की यहाँ इतनी चली है
राह अपनी ख़ुद बनाना बेवफाई हो गया है

कामना की दौड़ में फिरसत किसे समझे ज़रा भी
यातना उस पेड़ की जो बोनसाई हो गया है

गलकटों चोंरों लुटेरों जाबिरों के कारनामों
का बदल कर नाम हाथों की सफाई हो गया है

इस हवा में साँस लेना था कहाँ आसान अब तो
फेफड़ों के ज़ोर की भी आजमाई हो गया है

कब करिंदों की सफाई का चले अभियान देखें
डॉन का तो काम सारा बासफाई हो गया है

प्रेम रस मुजरे दलाली हैं वही बस नाम केवल
देवदासी से बदलकर आजा बाई हो गया है

-प्रेम भारद्वाज

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 11:01 AM
अगर कुछ दाँव पर रख दें, सफ़र आसान होगा क्या
मगर जो दाँव पर रखेंगे वो ईमान होगा क्या

कमी कोई भी वो ज़िन्दगी में रंग भरती है
अगर सब कुछ ही मिल जाए तो फिर अरमान होगा क्या

मगर ये बात दुनिया की समझ में क्यों नहीं आती
अगर गुल ही नहीं होंगे तो फिर गुलदान होगा क्या

बगोला-सा कोई उठता है क्यों रह-रह के सीने में
जो होना है तआल्लुक का इसी दौरान होगा क्या

कहानी का अहम् किरदार क्यों ख़ामोश है दानिश
कहानी का सफ़र आगे बहुत वीरान होगा क्या

-मदनमोहन दानिश

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 11:02 AM
अगर तुमने मुझे रस्ते से भटकाया नहीं होता
तो मैंने मंजिले मक़सूद को पाया नहीं होता

किसी की मुफलिसी पर रूह गर कोसे तो समझाना
हर इक इंसान की किस्मत में सरमाया नहीं होता

अगर मैं जानता डरते हो मुस्तकबिल से तुम मेरे
तो मीठे बोल से धोखा कभी खाया नहीं होता

तुम्हारा कल हमारे आज में पैबस्त ही रहता
तो मेरा आज मुझको इस तरह भाया नहीं होता

झुका था आसमां, बढ़ कर ज़मीं गर बांह फैलाती
धुंधलका दरमियां उनके कभी छाया नहीं होता

-शेषधर तिवारी

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 11:03 AM
अंधेरी गली में मेरा घर रहा है
जहां तेल-बाती बिना इक दिया है.

जो रौशन मेरी आरजू का दिया है
मेरे साथ वो मेरी मां की दुआ है.

अजब है, उसी के तले है अंधेरा
दिया हर तरफ़ रौशनी बांटता है.

यहां मैं भी मेहमान हूं और तू भी
यहां तेरा क्या है, यहां मेरा क्या है.

खुली आंख में खाहिशों का समुंदर
न अंजाम जिनका कोई जानता है.

जहां देख पाई न अपनी ख़ुदी मैं
न जाने वहीं मेरा सर क्यों झुका है.

तुझे वो कहां ‘देवी’ बाहर मिलेगा
धड़कते हुए दिल के अंदर खुदा है.

-देवी नागरानी

Dark Saint Alaick
24-01-2012, 10:37 AM
जो मुझको छल रहा है मेरा यार ही तो है
यह मित्रता भी शहर में व्यापार ही तो है

यह क्या हुआ कि फ़ासले इतने बढ़ा लिए
इन दो घरों के बीच में दीवार ही तो है

कब तक छतों पे रात को तनहा रहोगे तुम
नीचे गगन के, शून्य का आकार ही तो है

लो, मोल-भाव होने लगा दो दिलों के बीच
घर तक उमड़ के आ गया बाज़ार ही तो है

झगड़े, विरोध, दर्प की कैसी फ़सल उगी
दो पत्तियों के बीच में इक धार ही तो है

आओ, बगैर नाव तुम्हें तैरना सिखाऊं
बाहों में मेरे खून की रफ़्तार ही तो है

बोझिल बहुत लगे हैं उदासी भरे ये दिन
मन पर किसी की याद भी अंबार ही तो है

-डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 03:47 PM
दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था
तुम्हारे घर का सफर इस कदर तो सख्त न था

इतने मसरूफ थे हम जाने की तैयारी में
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था

मैं जिसकी खोज में खुद खो गया था मेले में
कहीं वो मेरा ही अहसास तो कम्बख्त ना था

जो जुल्म सह के भी चुप रह गया ना खौला था
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था

उन्हीं फकीरों ने इतिहास बनाया है यहां
जिन पे इतिहास को लिखने के लिये वक्त न था

शराब कर के पिया उसने जहर जीवन भर
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था


-गोपाल दास 'नीरज'

rajnish manga
26-01-2013, 08:49 PM
दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था
तुम्हारे घर का सफर इस कदर तो सख्त न था

इतने मसरूफ थे हम जाने की तैयारी में
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था ....

-गोपाल दास 'नीरज'

बहुत सुन्दर, अलैक जी.

यहाँ मुझे अपना एक शे'र याद आता है.

मैं हज़ारों साल से तन्हा खड़ा हू दश्त में.
तुम बताओ ए मुसाफिर तुम कहाँ तक जाओगे.

rajnish manga
30-01-2013, 10:14 PM
आलोक श्रीवास्तव की ग़जलें

घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी
सबको बांधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी.

तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
अच्छे खासे ऊंचे पूरे कद्दावर थे बाबू जी.

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी सजधज सब जेवर थे बाबू जी.

भीतर से खाली जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी.

कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी.
****

rajnish manga
30-01-2013, 10:29 PM
आलोक श्रीवास्तव की ग़जलें

चिंतन दर्शन जीवन सर्जन रूह नज़र पर छाई अम्मा.
सारे घर का शोर शराबा सूनापन तन्हाई अम्मा.

सारे रिश्ते- जेठ दुपहरी गर्म हवा आतिश अंगारे
झरना दरिया झील समंदर भीनी-सी पुरवाई अम्मा.

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती थी जाने कब तुरपाई अम्मा.

rajnish manga
30-01-2013, 10:30 PM
आलोक श्रीवास्तव की ग़जलें

ज़रा पाने की चाहत में बहुत कुछ छूट जाता है.
न जाने सब्र का धागा, कहाँ पर टूट जाता है.

किसे हमराह कहते हो यहाँ तो अपना साया भी
कहीं पर साथ चलता है कहीं पर छूट जाता है.

गनीमत है नगर वालो लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गाँव में अक्सर दरोगा लूट जाता है.

अजब शय हैं ये रिश्ते भी बहुत मजबूत लगते हैं
ज़रा सी भूल की लेकिन भरोसा टूट जाता है.

बमुश्किल हम मुहब्बत के दफीने खोज पाते हैं
मगर हर बार ये दौलत सिकंदर लूट जाता है.

Dark Saint Alaick
31-01-2013, 12:56 AM
बहुत अच्छे, रजनीशजी। भाई आलोक के श्रीमुख से उनकी अम्मा और बाबूजी सीरीज की कई ग़ज़लें मैंने पिंक सिटी प्रेस क्लब के प्रांगण में सुनी हैं। वाकई अद्भुत रचनाएं हैं यह। पुनर्पाठ के लिए आपका धन्यवाद। :bravo:

Dark Saint Alaick
31-01-2013, 01:03 AM
आलोक श्रीवास्तव की ग़जलें

चिंतन दर्शन जीवन सर्जन रूह नज़र पर छाई अम्मा.
सारे घर का शोर शराबा सूनापन तन्हाई अम्मा.

सारे रिश्ते- जेठ दुपहरी गर्म हवा आतिश अंगारे
झरना दरिया झील समंदर भीनी-सी पुरवाई अम्मा.

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती थी जाने कब तुरपाई अम्मा.

सम्पूर्ण यह है -

चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा

उसने ख़ुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है
धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा

घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा

सारे रिश्ते- जेठ-दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,
झरना, दरिया, झील, समन्दर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा

बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुईं, तो-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा

rajnish manga
02-02-2013, 11:17 PM
सम्पूर्ण यह है -

चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा

उसने ख़ुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है
धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा

घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा

सारे रिश्ते- जेठ-दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,
झरना, दरिया, झील, समन्दर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा

बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुईं, तो-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा

:bravo:

धन्यवाद, अलैक जी. आपका आभारी हूँ कि जो पंक्तियाँ मैं घर पर छोड़ आया था, उनको आपने ढूंढ कर यथा स्थान रखा और अम्मा जी की अधूरी तस्वीर को सम्पूर्णता के साथ प्रस्तुत किया. ग़ज़लकार से क्षमा याचना करता हुआ आपको पुनः धन्यवाद देता हूँ.

rajnish manga
02-02-2013, 11:19 PM
ग़ज़ल / दीवार पर
राज कुमारी ‘रश्मि’

ज़ख्म अब बढ़ने लगे दीवार पर.
फिर निशां पड़ने लगे दीवार पर.

इस कदर है भीड़ सड़कों पर यहां,
लोग अब चलने लगे दीवार पर,

किस तरह से धूप मिल पाए हमें
पेड़ तक जमने लगे दीवार पर.

छा गयी दहशत मची हलचल बहुत
सांप अब लड़ने लगे दीवार पर.

क्या वजह थी ये कभी सोचा नहीं
बस दिए जलने लगे दीवार पर.

फायदा ले कर अंधेरों का यहाँ
रहनुमां चढ़ने लगे दीवार पर.
(आजकल/नवम्बर 1981 से साभार)

rajnish manga
02-02-2013, 11:20 PM
ग़ज़ल
(रमेश प्रसाद गर्ग ‘आतिश’)

दर्द से, दुःख से, मुसीबत से बचा लो यारो.
गिरने वालों को ज़रा बढ़के सम्हालो यारो.

मेरी आँखों में जो तिनके हैं उन्हें रहने दो
अपनी आँखों की तो शहतीर निकालो यारो.

ये गरीबों के हैं आंसू न गिरें धरती पर
अपनी पलकों से इन्हें बढ़ के उठालो यारो.

जिनके दम से कभी मयखाना रहा आबाद
आज उन रिन्दों की पगड़ी न उछालो यारो.

अपने लोगों ने चलाया है ये पत्थर शायद
अपना सर आप ज़रा और झुका लो यारो.

दिल बड़े लोगों का रह जाए तो अच्छा होगा
जानते-बूझते धोका भी तो खा लो यारो.

‘आतिश’ अभी तक आया नहीं महफ़िल में
दो घड़ी और सही धूम मचा लो यारो.

rajnish manga
02-02-2013, 11:23 PM
मुहाजिरनामा
(मुनव्वर राणा)

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आये हैं.
तुम्हारे पास जितना हैं हम उतना छोड़ आये हैं.

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत ने
पुराने घर की दहलीजों को सूना छोड़ आये हैं.

हमारी अहलिया तो आ गई माँ छुट गयीं आखिर
कि हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आये हैं

हमें इस ज़िंदगी पर इस लिए भी शर्म आती है
कि हम मरते हुए लोगों को तन्हा छोड़ आये हैं.

जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आये हैं.

मुहब्बत की कोई कोंपल पनपने ही नहीं पाती
हम अपनी जड़ में जो नफ़रत का मट्ठा छोड़ आये है.

किसी का खूबसूरत ख्वाब इन आँखों ने देखा था
किसी रुखसार पर वादे का बोसा छोड़ आये हैं.

वो जिसने उम्र भर हम से बहुत सच्ची मुहब्बत की
उसे भी देके हम झूठा दिलासा छोड़ आये हैं.
(चुनिन्दा शे’र )

rajnish manga
02-02-2013, 11:27 PM
सन् 1980 में हिन्दी के सुप्रसिद्ध व्यग्यकार श्री रवींद्र नाथ त्यागी की एक पुस्तक आयी थी ‘भद्र पुरुष’. इसी गद्य पुस्तक में एक ग़ज़ल भी कहीं आ गयी है. इसमें हास्य व्यंग्य के सुन्दर अंश दिखाई देते हैं. लीजिये आप भी इसका रसास्वादन करें:

इन गुड़ियों की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देख कर हैरान है.

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
ये हमारे वक़्त की सबसे बड़ी पहचान हैं.

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में, या यूं कहो
एक अँधेरी कोठारी में एक रोशनदान है.

इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब कि सदके आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क में रमजान है.

कल नुमाइश में मिला था चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है.
*****

bindujain
03-02-2013, 04:56 AM
-- मनोज 'आजिज़'

बागे-वतन को जहन्नम कर दिया कुछ ने

दिले-वतन में जखम कर दिया कुछ ने



ग़रीबों का खून पीकर मस्ती से जीते हैं कुछ

बेशर्मी से खूब दामन भर दिया कुछ ने



रौशन था नाम बेहद दुनिया में एक ज़माने

लूट मचाकर झुका सर दिया कुछ ने



इन्सां को इन्सां से इंसानियत की आस थी

हर सू दह्शती आलम कर दिया कुछ ने

bindujain
03-02-2013, 04:58 AM
मेरी तन्हाइयों पर तेरी नजर क्यों है साकी

यूँ शाम सहर मुझ को महफ़िल में ना बुला



पर सकूं जिन्दगी है मेरी माझी के बिना

मेरे सीने में मुहब्बत की प्यास न बढ़ा



उस की बेरुखी में भी एक नशा है साकी


मुझ को रहने दे बेहोश ना होश में ला

rajnish manga
03-02-2013, 09:43 PM
ग़ज़ल
(ग़जलकार / दीप शर्मा)

नित्य नयी तकरार हमारी बस्ती में.
हर डाकू, सरदार हमारी बस्ती में.

एक रात में पूरा गाँव शहीद हुआ,
सोती है सरकार हमारी बस्ती में.

अब कुपात्र को भी आदर देना होगा,
रहजन भी हक़दार हमारी बस्ती में.

पांचवर्ष के बाद यहाँ फादर क्रिसमस
लाते है उपहार हमारी बस्ती में.

पूछो मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे से,
कब होगा अवतार हमारी बस्ती में.

सपने में बापू मिल जायें तो कहना,
ऐसी है रफ़्तार हमारी बस्ती में.

rajnish manga
03-02-2013, 09:44 PM
ग़ज़ल
(अदम गौंडवी)

भूख के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो.
या अदब को मुफलिसों के अंजुमन तक ले चलो.

जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाकिफ हो गयी,
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो.

मुझको नज्मों ज़ब्त की तालीम देना बाद में,
पहले अपने रहबरों को आचरन तक ले चलो.

खुद को ज़ख़्मी कर रहें हैं ग़ैर के धोके में लोग,
इस शहर को रौशनी के बांकपन तक ले चलो.

rajnish manga
03-02-2013, 09:46 PM
ग़ज़ल
(ग़ज़लकार / रऊफ़ परवेज़)

आँखों में आयेगा कभी दिल पर भी आयेगा.
उतरेगा नक्श बन के वो मंज़र भी आयेगा.

अब चल पड़े हैं पाँव तो आँखों के सामने,
जिसकी तलाश थी हमें वह दर भी आयेगा.

सिमटेगी गर जमीन तो फैलेगा आसमान,
कूजे में बंद हो के समंदर भी आयेगा.

गुलचीं बने है आज गुलिस्तां के पासबां,
अब साजिशों का बाग़ में लश्कर भी आयेगा.

अच्छा नहीं पड़ोस का अपने ही घर जले,
बाहर की आग का धुआं अन्दर भी आयेगा.

माना कि खुशनुमा है बड़ा दिलनशीन है,
शीशे का घर बना है तो पत्थर भी आयेगा.

परवेज़ आओ रेत में हम सीपियाँ चुने,
तदबीर कुछ करेंगे तो गौहर भी आयेगा.

rajnish manga
03-02-2013, 09:51 PM
ग़ज़ल
(ग़जलकार / हंसराज रहबर, जी हाँ, चिर परिचित कहानीकार और उपन्यासकार)

किस कदर गर्म है हवा देखो.
जिस्म मौसम का तप रहा देखो.

बदगुमानी - सी बदगुमानी है,
पास होकर भी फासला देखो,

वह जो उजले लिबास वाले हैं,
उनकी आंखों में अजदहा देखो.

हो अँधेरा सफ़र, सफ़र ठहरा,
ले के चलते हैं हम दिया देखो.

खेलता है जो मौत से होली,
क्या करेगा वह मनचला देखो.

अमन ही अमन सुन लिया लेकिन,
मक्तलों का भी सिलसिला देखो.

इस ज़माने में जी लिया रहबर,
मर्दे मोमिन का हौंसला देखो.

rajnish manga
03-02-2013, 09:53 PM
ग़ज़ल
(ग़जलकार / शबाब)

वो गली-गली मेरे शहर की सरे आम चीखों से भर गया.
कहीं खंजरो सा उतर गया कहीं ज़लज़ले सा गुज़र गया.

उन्हीं शहसवारों का ज़िक्र है जिन्हें यारों मंजिलें मिल गई,
जिसे अपने पैरों पे नाज़ था वो रास्ते ही में मर गया.

मेरी गूँज बन के ही लौट आ तू पहाड़ियों की चढ़ाई से,
मुझे दर्द ले के अभी - अभी कहीं घाटियों में उतर गया.

ये तो ज़र्फ़ ज़र्फ़ की बात है, ये नज़र-नज़र का सवाल है,
कोई हादसे से संवर गया कोई हादसे से गुज़र गया.

जहाँ नसले गुल की खबर सूनी मेरे शहरों में वो हवा चली,
कोई पानियों-सा छलक गया कोई मोतियों सा बिखर गया.

किसी घर में आग जहां लगी तो ये आरज़ू का धुआं-धुआं,
कभी मेरी आंख में भर गया कभी तेरी आंख में भर गया.

rajnish manga
22-05-2013, 11:21 PM
ग़ज़ल
इक सदा ठहरी हुयी
(ग़ज़लकार: रमेश मेहता)

वादियों में गूंजती है इक सदा ठहरी हुयी,
रात है बरसों पुरानी औ’ सबा ठहरी हुयी.

कौन जाने अब कहाँ ले जायेगी इसको हवा,
गैस तो चारों तरफ है और फिजा ठहरी हुयी.

वो कि मेरे पास रह कर भी जो मुझसे दूर है,
रेशा-रेशा कट रही है इक कज़ा ठहरी हुयी.

कौन है जो खौफ की चादर पसारे है खड़ा,
कौन झेले खंजरों की ये अदा ठहरी हुयी.

एक साया है कि जो माहौल पर भारी हुआ,
इक दुआ है जो लबों पर बरमला ठहरी हुयी.

**

rajnish manga
22-05-2013, 11:22 PM
ग़ज़ल
(ग़ज़लकार: राजेंदर शर्मा ‘राजन’)

उखड़े हुए अशआर हैं कुछ बेतुके से काफिये,
यह साजिशों का दौर है कोई यहाँ कैसे जिए.

जिसने धरा को दी जहां आकाश सी ऊंचाइयां,
ईनाम ही ईनाम थीं रुसवाइयां उसके लिए.

क़ानून भी तो आज कल सब से बड़ा बहरूपिया,
मेरे लिए कुछ और है कुछ और है तेरे लिए.

मैंने सुना वो आज तक टूटा नहीं मजबूत है,
कुछ और वाहन आप भी उसकी कमर से भेजिए.

अपने शहर में फूस की कुछ झुग्गियां ही शेष हैं,
जब भी जरूरत आ पड़े उनको जला कर सेंकिए.

एक महिला कल गई थी न्याय की आशा लिए,
न्याय के मंदिर से लौटी है नहीं कुछ सोचिए.

देश में हम चाहते हैं अम्न का आलम रहे,
शोर पर पाबंदियां आयद हैं धीरे खांसिए.
**

rajnish manga
22-05-2013, 11:23 PM
ग़ज़ल
यही सिला है हकूमत की कम निगाही का
(कवि: हरजीत सिंह)

सुबूत पेश जो करना है बेगुनाही का,
कुछ इंतज़ाम तो रक्खो किसी गवाही का.

शहर की गलियों में वो बिक गया यारब,
जिसे खिताब दिया तुमने बादशाही का.

खौफ दुश्मन का था न ही रहज़न का,
सभी को डर है यहां गश्त के सिपाही का.

नहीं मिटेगा लहू उनका सीढ़ियों से कभी,
ये ऐसा ज़ख्म है मीनार की तबाही का.

बहुत ही ताज़ा थे वो फूल कल जो टूट गए,
यही सिला है हकूमत की कम निगाही का.

वो एक शख्स अचानक से हो गया खामोश,
कलम से जोड़ के रिश्ता किसी सियाही का.
**

Dark Saint Alaick
23-05-2013, 12:08 AM
आपके अनुपम योगदान के लिए शुक्रिया रजनीशजी। मुझे और भी ज्यादा खुशी होगी, अगर आप इस सूत्र को अपनी किसी ग़ज़ल से सुशोभित करेंगे। धन्यवाद। :hello:

aspundir
23-05-2013, 07:10 PM
अनुपम ...................

rajnish manga
23-05-2013, 10:05 PM
आपके अनुपम योगदान के लिए शुक्रिया रजनीशजी। मुझे और भी ज्यादा खुशी होगी, अगर आप इस सूत्र को अपनी किसी ग़ज़ल से सुशोभित करेंगे। धन्यवाद। :hello:

अनुपम ...................

अलैक जी और पुंडीर जी का उनकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ. अपनी रचना यहां रखने का अवश्य प्रयत्न करूंगा मित्र.

rajnish manga
04-06-2013, 01:30 PM
ग़ज़ल
(ग़ज़लकार: माधव कौशिक)

आने वाले वक़्त का मंज़र मुझे मालूम है.
किस जगह ले जायेंगे रहबर मुझे मालूम है.

जो भी सच कहने की जुर्रत करेगा शहर में
काट डालेंगे उसी का सर मुझे मालूम है.

कितने दिन तक आप इसको बाँध के रख पायेंगे
टूट जाएगा किसी दिन घर मुझे मालूम है.

तुमसे ज्यादा जानता हूँ मैं अमीरे शहर को
घोंप देगा पीठ में खंजर मुझे मालूम है.

आसमां से फूल बरसे या कि बरसे चाँदनी
मेरे सर पर आयेंगे पत्थर मुझे मालूम है.

देवताओं और फरिश्तों ने इसे ऐसा छुआ
हो गयी मैली मेरी चादर मुझे मालूम है.