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View Full Version : श्रीलाल शुक्ल :: एक युग का अंत


abhisays
29-10-2011, 05:58 PM
श्रीलाल शुक्ल :: एक युग का अंत

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abhisays
29-10-2011, 06:01 PM
मशहूर व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल का कल ८६ वर्ष की आयु में सहारा अस्पताल में निधन हो गया। उन्होंने अपनी लेखनी के लिए बहुत नाम कमाया. ज्ञानपीठ पुरस्कार और पद्म भूषण से सम्मानित भी हुए. 'राग दरबारी' उनकी सबसे प्रसिद्ध व्यंग्य उपन्यास था.

श्रीलाल शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश में सन् 1925 में हुआ था तथा उनकी प्रारम्भिक और उच्च शिक्षा भी उत्तर प्रदेश में ही हुई। उनका पहला प्रकाशित उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' (1957) तथा पहला प्रकाशित व्यंग 'अंगद का पाँव' (1958) है। स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ। श्री शुक्ल को भारत सरकार ने 2008 मे पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया है।

मेरी ओर से इस महान लेखक को नमन.

abhisays
29-10-2011, 06:02 PM
श्रीलाल शुक्ल की कृतिया ::

उपन्यास: सूनी घाटी का सूरज · अज्ञातवास · रागदरबारी · आदमी का ज़हर · सीमाएँ टूटती हैं मकान · पहला पड़ाव · विश्रामपुर का सन्त · अंगद का पाँव · यहाँ से वहाँ · उमरावनगर में कुछ दिन

कहानी संग्रह: यह घर मेरा नहीं है · सुरक्षा तथा अन्य कहानियां · इस उम्र में

व्यंग्य संग्रह: अंगद का पांव · यहां से वहां · मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें · उमरावनगर में कुछ दिन · कुछ जमीन पर कुछ हवा में · आओ बैठ लें कुछ देर

आलोचना: अज्ञेय: कुछ राग और कुछ रंग

विनिबन्ध: भगवती चरण वर्मा · अमृतलाल नागर

बाल साहित्य: बढबर सिंह और उसके साथी

abhisays
29-10-2011, 06:10 PM
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/hi/2/2f/Raagdarbari.jpg


राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल जी ने स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत- दर- परत उघाड़ कर रख दिया है। राग दरबारी की कथा भूमि एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे गाँव शिवपालगंज की है जहाँ की जिन्दगी प्रगति और विकास के समस्त नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के आघातों के सामने घिसट रही है। शिवपालगंज की पंचायत, कॉलेज की प्रबन्ध समिति और कोआपरेटिव सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी साक्षात वह राजनीतिक संस्कृति हैं जो प्रजातन्त्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल फूल रही हैं।

abhisays
29-10-2011, 06:14 PM
राग दरबारी Google Books Link ::

http://books.google.co.in/books?id=Tx1KxkYfO8cC&lpg=PP1&pg=PA5#v=onepage&q&f=false

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 08:49 PM
साहित्य के लिये मेरी कसौटी

-श्रीलाल शुक्ल


जब कोई साहित्य की परख के लिये कसौटी की बात उठाता है तो यह मानकर चलता है कि साहित्य को खरे सोने जैसा होना चाहिये। पर साहित्य में खरे सोने की तलाश करते हुये भी मैं हमेशा अपने को दो बातों की याद दिलाता रहता हूं: एक यह कि जिंदगी में खरा होना ही सब कुछ नहीं है, कभी लोहे की भी जरूरत होती है, और कभी-कभी मिट्टी की भी। और दूसरी मशहूर कहावत में पहले ही कही जा चुकी है कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती।

उपमा, रूपकों और कहावतों के जाल से निकलकर मैं शुरू में ही बता दूं कि मैं साहित्य से हमेशा कोई बहुत बड़ी उम्मीद या असाधारण अपेक्षा नहीं करता, ठीक उसी तरह जैसे की जिंदगी की असाधारण संभावनाओं को समझते हुये भी मैं सीधी-सादी जिंदगी की कद्र करता हूं। साहित्य की कोई भी कृति मेरे लिये ऐसी चुनौती नहीं है जो या तो मुझे झकझोर दे या मैं खुद जिसे अपनी आलोचनात्मक बुद्धि से झकझोर दूं, ठीक वैसे ही जैसे हर एक मोड़ पर मिलने वाला इंसान मेरे लिये कोई ऐसा प्रतिद्वंदी नहीं है जिससे या तो मैं लाजिमी तौर पर परास्त हो जाउं या खुद उसे परास्त कर दूं। तब तक वह खुद अपने को दुश्मन न घोषित कर दे,हर इंसान किसी न किसी बिंदु पर मेरा साथी है; वैसे ही जब तक कोई साहित्यिक कृति खुद अपनी असाहित्यिक विकृति के सहारे मुझे विमुख न कर दे, वह कहीं न कहीं मेरी आत्मस्वीकृति का अंग है।

अब तक मैं साहित्य और जिंदगी की समान स्थितियों का काफ़ी उल्लेख कर चुका हूं और इसका एक कारण है। वह यह कि साहित्य मेरे लिये जिंदगी का एक अनिवार्य अंग है, ठीक उसी तरह जैसे जिंदगी मेरे लिये साहित्य का एक अनिवार्य अंग है, और यहीं अच्छे साहित्य की परख के विषय में मेरी एक मान्यता परिभाषित हो जाती है।

तरह-तरह के लोगों से मिलते हुये मैं बहुतों को बरदास्त भले ही कर लूं पर वास्तविक खुशी उन्हीं से मिलकर होती है मेरे अनुभव-संसार को विस्तार देते हों, मेरी संवेदना की जमी परतों को खोलकर उसकी गहराइयों में उतरने के लिये मुझे प्रेरित करते हों। यही बात मैं साहित्य पर भी लागू करता हूं। अगर कोई साहित्य मेरे अनुभवों में कोई नया आयाम नहीं जोड़ता, परिचित स्थितियों के बीच मेरी मानसिक उदासीनता को तोड़कर संवेदना की नई गहराइयों में जाकर मुझे नहीं छोड़ता तो मैं उसे बरदास्त भर कर सकता हूं उससे आगे मेरे लिये वह कुछ नहीं है।

साहित्य को इस निगाह से देखने का एक अर्थ यह भी होता है कि मेरे लिये साहित्य का रोचक और सरस होना जरूरी नहीं है। हो सकता है कि मेरी यह बात बहुतों को अटपटी जान पड़े, क्योंकि मेरे बहुत से पाठक स्वयं मेरे साहित्य को उसकी रोचकता के लिये ही पढ़ते हैं। रोचकता और सरसता, एक तो पढ़ने वाले की रुचि और उसकी रस-संबंधी अवधारणा का ही विस्तार है, दूसरे उत्कृष्ट साहित्य हमेशा रोचक हो, यह लाजिमी नहीं है। गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी का संपर्क, हो सकता है, किसी को किसी दिलकश अभिनेत्री या फ़िल्मी कमेडियन की सोहबत की भांति रोचक न लगे, तब भी मानवजाति की प्रगति में ये दोनों जिंदगी के जिन मूल्यों को इंगित करते हैं, उसे शायद समझाना जरूरी नहीं है।

तभी जिसे उत्कृष्ट साहित्य समझा गया है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा आज की रुचि के अनुसार उबाऊ, यानी ’डल’ और ’बोरिंग’ है। फ़ारसाइथ और मारियो प्यूजो के सनसनीखेज उपन्यासों को पढ़ने वाले टॉलस्टाय, दोस्तोयेव्स्की या टामस मान को बोरिग या उबाऊ समझ सकते हैं। जिसे पुराना क्लासिकी साहित्य कहते हैं, उसे शुद्ध आनंद के लिये पढ़ना अब अनेक शुद्ध साहित्यप्रेमियों के लिये भी भारी पड़ता है। एडवर्ड एल्बी और जॉन आस्बर्न की ’कॉंय कॉंय कॉंय’ शैली वाले नाटकों के आगे शेक्सपियर को साहित्यिक आनंद के निमित्त पढ़नेवालों की कमी हो सकती है। कालिदास के ’अभिज्ञान शाकुन्तलम’ को न पढ़कर बहुत से लोग ’आषाढ़ का एक दिन’ पढ़ना ज्यादा रुचिकर समझ सकते हैं, पर इससे समय-समय पर बदलने वाली लोकरुचि का भले ही आभास हो जाये, क्लासिकी साहित्य ने मानवीय अनुभवों और उसकी संवेदनाओं को जिस सीमा तक और जिस स्तर पर संपन्न किया है, उसे आसानी से नहीं भूला जा सकता।

ऊबाऊ साहित्य, और उसी के साथ, जिंदगी में भी बोरडम के मामले में मैं बर्टेंड रसल की शागिर्दी करना चाहूंगा। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’द कान्क्वेस्ट ऑफ़ है्प्पीनेस’ में उन्होंने समझाया है कि जिंदगी में बोरडम या ऊब से घबराना या कतराना नहीं चाहिये, क्योंकि ऊब भी भरी-पूरी जिंदगी का अनिवार्य अंग है और उसे सहज भाव से ग्रहण करना चाहिये। साहित्य का उदाहरण देते हुये उन्होंने उत्कृ्ट कोटि के क्लासिकी ग्रंथों का हवाला दिया है जो कई अंशों में प्रचलित लोक-रुचि में ऊबाऊ होते हुये भी असामान्य साहित्यिक अनुभव सृजित करने की सामर्थ्य रखते हैं। इसलिये समझ की बात यही होगी कि हम घटिया साहित्य से कभी-कभी मन बहलाव करते हुये भी , और उसे साहित्यिक दुनिया की अनिवार्य संक्रामक स्थिति मानते हुये भी, उत्कृष्ट साहित्य के बारे में अपनी धारणा बिगडने न दें। यानी,किसी फ़िल्मी तारिका के अभिनय की प्रसंशा करने के कारण ही यह जरूरी नहीं कि हम अपनी पत्नी के प्रति अपने प्रेम और आदर में कमी कर दें।

घटिया साहित्य का जिक्र करते हुये हमें यह भी न भूलना चाहिये कि आज प्रिंटिंग, प्रकाशन, पुस्कतक-व्यवसाय, साहित्य, शिक्षा -उसके पूर्णकालिक शिक्षक और पूर्णकालिक छात्र-इन सबने मिलकर साहित्य लिखने और लिखाने तथा साहित्य पढ़ने और पढ़ाने को हमारी सभ्यता का एक अनिवार्य अंग बना दिया है। इसलिये साहित्य की उपज भी व्यापक और व्यवसायिक तौर पर हो रही है। ऐसी स्थिति में घटिया साहित्य का उत्पादन प्रेस के ईजाद के बाद की घटना है। घटिया प्रतिभायें हमेशा से घटिया साहित्य निकालती आई हैं, सिर्फ़ आज उनके विस्तार और प्रसार की सुविधायें संभावनायें ज्यादा हो गयी हैं। इसलिये साहित्य के पाठकों को सावधान करने के लिये अंत में एक और बात कहना जरूरी समझता हूं।

घटिया साहित्य दो किस्म का होता है। एक तो घटिया किस्म का घटिया साहित्य। उसके बारे में सभी लोग जानते हैं। दूसरा होता बढिया किस्म का घटिया साहित्य। उसके बारे में पाठक को चौकन्ना रहना चाहिये। इस कोटि का साहित्य पता नहीं कब बढिया बनकर पाठक की रुचि को बिगाड़ दे और उसे स्वाभाविक रूप से उत्तम साहित्य में रुचि लेने से रोक दे।

बढिया किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका नहीं देता, बहुचर्चित आदर्शों को स्वत: सिद्ध और स्थायी मानवीय मूल्य बनाकर प्रतिष्ठित करना चाहता है और यथार्थ के विभिन्न आयामों को न उघाड़कर यथार्थ की साहित्य में जो पिटी हुई रूढियां बन रही हैं, उन्हीं को हम पर आरोपित करता है। यह साहित्य हमारे सतही अनुभवों को बार-बार दुहराकर हमारी भावुकता का फ़ायदा उठाता है और हमारे भावनात्मक व्यक्तित्व को एक भी इंच ऊपर नहीं खिसकने देता। इस सारे घटियापन के बावजूद इसमें भाषा नाटकीय रूप से आकर्षक हो और तथाकथित मापदंडों से अत्यंत साहित्यिक हो, सृजनात्मक न होते हुये भी वह प्रांजल और छद्म रूप से काव्यमय हो, ऐसा साहित्य शिल्प की दृष्टि से भी संपन्न और

प्रत्यक्षत: प्रभावशील हो सकता है और अपने पूरे तामझाम के साथ ऊपर से ऐसा दीख सकता है जैसा कि उसका समान्तर असली साहित्य। पर ऐसा साहित्य हमारे लिये अनुभव-संसार में कुछ जोड़ नहीं सकता, वह सिर्फ़ हमें कुछ देर के लिये उत्तेजित कर सकता है। बढिया किस्म के घटिया साहित्य का एक अच्छा नमूना, बकौल जार्ज आर्वेल, रडयार्ड किपलिंग की कवितायें हैं और हिंदी में बकौल मेरे, रीतिकालीन काव्य का लगभग दो तिहाई हिस्सा है। आधुनिक हिंदी साहित्य में भी कथा-साहित्य और कविताओं का एक बड़ा भारी हिस्सा ऐसा मिलेगा जो अत्यंत शुद्ध किंतु निष्प्राण भाषा में बड़े सजग शिल्प के साथ लिखा जा रहा है। पर वह भाषा और शिल्प की पात-गोभी भर है। ऐसे साहित्य को सौम्यता से बरदास्त करना तो ठीक है, पर उसका चस्का नहीं लगना चाहिये।

जो साहित्य का आनन्द लेना चाहते हैं उन्हें मेरी साहित्यिक कसौटी स्वीकार हो या नहीं, पर उनके लिये अच्छे और बुरे में किये बिना साहित्य पढ़ना उत्कृष्ट कोटि के साहित्यिक अनुभवों से अपने को वंचित कर देना है। व्यक्तिगत रूप से रोचक और बढ़िया कोटि के घटिया साहित्य का सामना होते ही मैं रामचरितमानस या वाल्मीकीय रामायण जैसे पुराने ऊबाऊ साहित्य की ओर पलायन करने को ज्यादा सुखद और सुरक्षित समझता हूं।

(आकाशवाणी लखनऊ से 1983 में प्रसारित
श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन में संकलित)

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 08:57 PM
श्रीलाल शुक्ल- एक संस्मरण

-अनूप शुक्ला


ज्ञानदत्तजी ने श्रीलाल शुक्ल के सबसे छोटे दामाद सुनील माथुरजी से मुलाकात का जिक्र किया। सुनीलजी की मुस्कान देख कर मन प्रमुदित हो गया। प्रियंकरजी ने उनके सेंस आफ़ हुयूमर को जमताऊ बताते हुये अच्छे नंबर दे दिये। जिस किताब की जिक्र ज्ञानजी ने अपनी पोस्ट में किया वह मेरे पास है। यह किताब श्रीलालजी के अस्सीवें जन्मदिन पर उनसे जुड़े रहे लेखकों, मित्रों, आलोचकों,पाठकों ,घरवालों के बेहतरीन संस्मरण हैं। मनोरम फोटो हैं। श्रीलाल शुक्ल जी के कुछ इंटरव्यू तथा लेख भी हैं। बहरहाल, बात पाण्डेयजी के बैचमेट रहे सुनीलजी की हो रही थी। सेट स्टीफ़ेन के पढ़े सुनीलजी ने अपने ससुरजी के अस्सीवें जन्मदिन के अवसर पर प्रकाशित ग्रंथ श्रीलाल शुक्ल- जीवन ही जीवन श्रीलालजी के बारे में जो संस्मरण लिखा था वह जस का तस यहां पेश किया जा रहा है। इसे पढ़कर शायद प्रियंकरजी उनको उनके जमताऊ सेंस आफ ह्यूमर के साथ-साथ उनके संस्मरण लिखताऊ कौशल को भी कुछ नंबर दे दें और शायद तब सुनीलजी का ठहाका कुछ और लंबा खिंच जाये।

ग्युन्टर ग्रास, पापा और मैं

-सुनील माथुर


जब मेरी शादी की बात श्रीलाल शुक्ल की सबसे छोटी बेटी से चल रही थी तो विनीता ने बताया कि उनके पापा काफ़ी उत्साहित थे। कुछ वर्ष पहले मैं एक
साल जर्मनी में रहकर आया था और वहां पर थोड़ी जर्मन भाषा भी सीख ली थी। विनीता का कहना था कि उनके पापा समझ रहे थे मैंने ग्युन्टर ग्रास को जर्मन
में अवश्य पढ़ ही लिया होगा और वे मुझसे उनके लेखन पर बातचीत करना चाहते हैं। तब तक मैंने ग्युन्टर ग्रास को अंग्रेजी में भी नहीं पढ़ा था, जर्मन में तो दूर।

वैसे भी मैं उन शातिर लिन्गुइस्ट में से नहीं हूं जो अनेक भाषायें जानते हैं और नई भाषा सीख लेने में समय नहीं लगाते। वर्षों तक मैं लखनूऊ में रहा और पढ़ा,
पर अवधी नहीं बोल सकता। वर्षों तक दिल्ली और अम्बाला रहने के बावजूद मेरी पंजाबी थोड़ी सीमित रह गई। “पैठ“, “की फ़रक पैंदा” , “चक दे फ़ट्टे” और कुछ अपशब्द जो दिल्लीवासियों को आशानी से उगलने आते हैं, मुझे भी आते हैं पर असली गूढ़ पंजाबी नहीं। फिर जर्मन में कैसे पारंगत होता! और ऊपर ग्युन्टर ग्रास जर्मन में। मैंने सोचा इतने इम्तहान जीवन में दिये हैं, एक और सही। अन्तर इतना था कि बाकी में फेल होते भी तो “की फ़रक पैंदा” पर यह मामला थोड़ा गम्भीर था।

शादी हो गयी। तब तक ग्युन्टर ग्रास से सामना नहीं हुआ पर कुछ दिन बाद हम इंदिरानगर अपनी ससुराल पहुंचे। “यार मैं बहुत दिन से सोच रहा था कि तुमने ग्युन्टर ग्रास को तो जर्मन में पढ़ा ही होगा”, पापा बोले।

मैंने एक बड़ी घूंट ली और सिर कुछ हिलाया सा। जानकार होने की भंगिमा के साथ इधर-उधर देखा और एक पेंटिंग की तरफ़ उंगली उठाकर पूछा,” यह रेम्ब्रान्ट है
क्या?”

“नहीं , पिकासो का प्रिंट” कहकर मेरे श्वसुर ने बहुत प्यार के साथ पिकासो की पेंटिंग, ‘क्यूबिज्म’ इत्यादि पर मेरा ज्ञान बढ़ाया। ग्युन्टर ग्रास तनिक वह भूल गये।

यह ग्युन्टर ग्रास का मामला सालों चला। 22 वर्ष हो गये और पापा शायद अभी भी इसी उम्मीद में हों कि उनका सबसे छोटा दामाद उनके एक प्रिय लेखक के बारे में उनसे बातचीत करेगा। मैं समझता हूं कि मेरी उनसे इतनी दोस्ती तो है कि मैं उनसे कुछ भी बात कर सकूं पर यह बात मैं उनसे कह नहीं पाया। आज कहता हूं कि पापा आपका यह दामाद ग्युन्टर ग्रास को आपसे कभी भी डिस्कस नहीं करेगा।

पापा से ज्यादा बहुपठित व्यक्ति मैंने अपनी जिंदगी में तो कोई नहीं पाया। अंग्रेजी, हिंदी और संस्कृत के उन्होंने पुराण काल से लेकर आज तक के सभी लेखकों को पढ़ा है। आश्चर्य यह है सबके कार्य उन्हें याद भी हैं। आप किसी भी लेखक का नाम लें और वह उसके बारे में, उसके साहित्य के बारे में और उसके लेखन के बारे में आलोचनात्मक विश्लेषण तुरन्त कर सकते हैं। साहित्य, दर्शन, कला, संस्कृति, संगीत उनको बस बोलने से रोकिये मत और आपको विस्तृत भ्ररा पूरा ज्ञान
प्राप्त हो जायेगा। समसामयिक घटनाक्रम , राजनीति कुछ भी वह आपको एक ऐसे दृष्टिकोण से पेश करेंगे कि आप सोचेंगे कि यह पहले क्यों नहीं कहा और यह बात यह संदर्भ अखबारों में क्यों नहीं आता।

कुछ समय के लिये मैं लखनऊ में तैनात था और ससुराल में ही रह रहा था। पापा बोले,” यार, एक तो तुम्हें शाकाहारी खाना मिलता है, ऊपर से श्वेत श्याम टीवी”। विश्वकप क्रिकेट 1987 का फ़ाइनल था और बिजली का कोई भरोसा नहीं था। एक और अद्भुत सुझाव आया -”चलो तुम्हें गांव( लख्ननऊ से 20 किमी दूर अतरौली) ले चलते हैं ,वहां देखना। मैंने कहा,” पर वहां तो सुना है बिजली ही नहीं आती।” बोले,” हां पर वहां तो टीवी बैटरी से चलता है, ज्यादा भरोसमन्द है।”

एक बार कुछ दफ़्तर की कुछ इधर-उधर की बातें हो रहीं थी और किसी एक व्यक्ति का जिक्र होने लगा। यह चर्चा हुई कि अगर उसकी गोपनीय रिपोर्ट लिखनी होती
तो इस व्यक्ति के बारे में क्या लिखा जाना चाहिये। उन्होंने सलाह दी। बोले, “लिखना चाहिये- जैसा वह दिखता है, वैसा मूर्ख नहीं है।” इससे ज्यादा सही विवरण और कोई नहीं दे सकता था।

अपनी सर्विस के दौरान मैंने अपने साथियों और दोस्तों में उनके अनेक प्रशंसक पाये हैं। ज्यादातर ‘रागदरबारी’ से प्रभावित हैं। कई तो इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास के पन्ने और अनुच्छेद दर अनुच्छेद किसी भी समय सुना सकते हैं। पर इस महान उपन्यास के लेखक इस पर किसी भी प्रकार की बहस से हिचकिचाते हैं। इस पर कभी मैंने उनसे कोई टिप्पणी नहीं सुनी। कभी मुझे ऐसा भी आभास होता है कि उनको यह दु:ख सा है कि उनकी इतनी और पुस्तकें और उपन्यास हैं जिनका
साहित्यक महत्व उत्तम श्रेणी का है , पर वह ‘रागदरबारी’ के कारण दब सा जाता है।

मेरा परिवार और इनका परिवार एक-दूसरे को अब लगभग 50 वर्षों से जानते हैं। सुना है कि फैजाबाद में मेरे पिताजी और मेरे होने वाले ससुरजी साथ-साथ साइकिल से दफ़्तर जाते थे। हमारे परिवारों की सबसे बड़ी विपत्ति तब आई जब मम्मी की तबियत खराब हुई। पापा का लिखना-पढ़ना कुछ वर्ष बन्द सा हो गया।
उन दिनों मैंने इनको मम्मी की ऐसी देखभाल करते देखा जो बताया नहीं जा सकता।

उनकी 81वी वर्षगांठ का यह कार्यक्रम उनके परिवार ने उन पर थोप सा दिया है। स्वयं तो उन्हें इस पर बहुत संकोच हो रहा था पर बेटे-बेटियों और बहू-दामादों ने
उन्हें ना कहने का अवसर ही नहीं दिया। खास तौर से सबसे बड़े दामाद सुधीर दा ने।

किताब पढ़ने और म्यूजिक का शौक उनके बच्चों में भी है। मेरी पत्नी विनीता जितनी बहुपठित हैं उतना मैंने कम ही अपनी पीढ़ी के लोग पाये हैं। वह गाती भी बहुत अच्छा है। यह सब जेनेटिक ही होगा। यह पापा की ही देन है कि मेरे घर में मेरी पत्नी के कारण लिखने-पढ़ने का माहौल रहता है। शायद एक दिन मैं ग्युन्टर ग्रास को भी पढ़ लूं।

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 09:01 PM
मैं लिखता इसलिये हूं कि…

-श्रीलाल शुक्ल

नदी किनारे जो मल्लाह रहते हैं उनके बच्चे होश संभालने से पहले ही नदी में तैरना शुरू कर देते हैं। अपने परिवार के कुछ बुजुर्ग लेखकों की नकल में मैंने भी बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया था। चौदह-पन्द्रह साल की उम्र तक मैं एक महाकाव्य(अधूरा), दो लघु उपन्यास(पूरे), कुछ नाटक और कई कहानियां लिख चुका था। नये लेखकों को सिखाने के लिये उपन्यास-लेखन की कला पर एक ग्रन्थ भी शुरू किया था, पर वह दो अध्यायों के बाद ही बैठ गया।

वह साहित्य जितनी आसानी से लिखा गया, उतनी ही आसानी से गायब भी हुआ। गांव के जिस घर में मेरी किताबें और कागज पत्तर रहते थे, उसमें पड़ोस का एक लड़का मेरे चाचाजी की सेवा के बहाने आया करता था। उसे किताबें पढ़ने और चुराने का शौक था। इसलिये धीरे-धीरे मेरी किताबों के साथ मेरी पांडुलिपियां भी लखनऊ के कबाड़ियों के हाथ में पहुंच गयीं। बी.ए. तक आते-आते मैंने दो उपन्यास लिखे, तीन कविता संग्रह दो साल पहले ही तैयार हो चुके थे। वे भी लखनूऊ के कबाड़ियों के हाथ पड़्कर पड़ोसी के लड़के के लिये दूध-जलेबी के रूप में बदल गये। एक तरह से यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि पूर्ण वयस्क होकर जब मैंने लिखना शुरू किया तो मेरी स्लेट बिल्कुल साफ़ थी। मैं अतीत का खुमार ढोने वाला कोई ऐरा-गैरा लेखक न था; मैं एक पुख्ता उम्र की ताजा प्रतिभा विस्फोट की तरह साहित्य के चौराहों पर प्रकट हुआ, यह अलग बात है कि यह सोचने में काफ़ी वक्त लगा कि कहां से किधर की सड़क पकड़ी जाये।

बहरहाल, सवाल फ़िर भी अपनी जगह बना हुआ है: मैं क्यों लिखता हूं? सच तो यह है कि इस पर मैंने कभी ज्यादा सोचा नहीं, क्योंकि जब-जब सोचा तो लिखना बन्द हो गया। अब इसका जवाब कुछ अनुमानों से ही दे सकता हूं। पहला तो यह कि लेखन-कर्म महापुरुषों की कतार में शामिल होने का सबसे आसान तरीका है। चार लाइने लिख देने भर से मैं यह कह सकता हूं कि मैं व्यास, कालिदास, शेक्सपीयर, तोल्सताय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और प्रेमचन्द की बिरादरी का हूं।
इसके लिये सिर्फ़ थोड़े से कागज और एक पेंसिल की जरूरत है। प्रतिभा न हो तो चलेगा, अहंकार से भी चल जायेगा- पर इसे अहंकार नहीं लेखकीय स्वाभिमान कहिये। लेखकों के बजाय आप किसी दूसरी जमात में जाना चाहें तो वहां काफ़ी मसक्कत में करनी पड़ेगी; घटिया गायक या वादक बनने के लिये भी दो-तीन साल का रियाज तो होना चाहिये ही। लेखन ही में यह मौज है कि जो लिख दिया वही लेखन है, अपने लेखन की प्रशंसा में भी कुछ लिख दूं तो वह भी लेखन है।
जैसे निराला ने ‘गीतिका’ लिखी; वह कविता थी। उसकी प्रशंसा में ‘मेरे गीत मेरी कला’ लिखी ;वह आलोचना थी।

अब चाहे बचपन की आदत या बड़ों की देखा देखी साहित्यकारों की कतार में घुसने का शौक -जिस किसी भी कारण से आप जब लिखना शुरू करेंगे तो पायेंगे कि उससे कुछ हसीन खुशफहमियां फूट रही हैं। पहली तो यह कि “मैं बिना लिखे नहीं रह सकता” या “लिखना मेरे लिये आत्माभिव्यक्ति की मजबूरी है।” दूसरी यह कि “पांच दसक से मैं गहरी साहित्य साधना में लीन हूं।” यानी, एक ओर जब नई पीढ़ी शोर मचाकर हिंदी के इस बहुप्रचलित मुहावरे का प्रयोग आप पर कर रही हो कि ‘यह लेखक चुक गया है’ तब अपनी रायल्टी, पारिश्रमिक आदि तो आप बोनस में लीजिये और ‘दीर्घ कालीन, संघर्षपूर्ण साहित्य साधना’ की ढींग ऊपर से हांकिये। मुगालता टूट रहा हो तो अपना अभिनन्दन कराके साहित्य सम्मेलनी भाषा में अपने को ‘मां वाणी का अमर पुत्र’ घोषित करा लीजिये।

लिखने का एक कारण मुरव्वत भी है। आपने गांव की सुन्दरी की कहानी सुनी होगी। उसकी बदचलनी के किस्सों से आजिज आकर उसकी सहेली ने जब उसे फ़टकार लगाई तो उसने धीरे समझाया कि ” क्या करूं बहन, लोग जब इतनी खुशामद करते हैं और हाथ पकड़ लेते हैं तो मारे मुरव्वत के मुझसे ‘नहीं’ नहीं कहते बनती।” तो बहुत सा लेखन इसी मुरव्वत का नतीजा है- कम से कम , यह टिप्पणी तो है ही! उनके सहयोगी और सम्पादक जब रचना का आग्रह करने लगते हैं
तो कागज पर अच्छी रचना भले ही न उतरे, वहां मुरव्वत की स्याही तो फ़ैलती ही है।

इतनी देर से मैं लिखने के जो भी कारण बता रहा था, आपने देखा होगा कि घुमा-फ़िराकर मैं वही कह रहा हूं जो साहित्य के पुराने आचार्य पहले ही कह गये हैं।
जैसे, काव्यं यशसे( कविता यश प्राप्त करने के लिये लिखी जाती है), अर्थकृते (रुपये के लिये लिखी जाती है) आदि-आदि। मेरे बुजुर्ग भगवतीचरण वर्मा रुपये वाले कारण को ही साहित्य रचना का प्रेरणा स्रोत मानते थे, भले ही उन्हें खुद ही उस पर पूरा यकीन न रहा हो। 1940 के आसपास गंगा पुस्तकमाला के संचालक दुलारेलाल भार्गव से उन्होंने कुछ आर्थिक सहायता मांगी। भार्गवजी ने कहा,” पहले कोई किताब दीजिये।” वर्माजी ने बाजार जाकर एक मोटी कापी खरीदी, उसमें एक दिन के भीतर पचास-साठ कवितायें और गद्यगीत आशुकवि वाले अन्दाज में लिखे और दूसरे दिन उसे भार्गवजी को देकर उनसे मनचाहा एडवांस ले आये। इस कविता-पुस्तक का नाम ,जैसा कि होना चाहिये, ‘एक दिन’ है। पहली कविता की शुरुआत यूं होती है-

एक दिन
चौबीस घंटे
एक घंटे में मिनट हैं साठ!

गनीमत है कि व्रर्माजी की एक पुस्तक का नाम ‘तीन वर्ष’ भी है।
(श्रीलाल शुक्लजी की पुस्तक जहालत के पचास साल से साभार)

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 09:04 PM
संस्मरण

हमारा समाज ‘एन्टी ह्यूमर’ है

-अनूप शुक्ला


पिछ्ले दो दिन लखनऊ में रहे।

वहां तमाम लोगों से मिलना हुआ। श्रीलाल शुक्लजी, अखिलेशजी, प्रभात टंडन जी, कंचन और अपने बचपन के मित्र विकास से।

श्रीलाल शुक्ल जी के पिछले महीने एक-कमरे से दूसरे कमरे जाते हुये गिरने से कमर में फ़्रैक्चर हो गया। सो वे आजकल बिस्तर पर हैं।

शाम के समय उनके घर गया। बिस्तर पर लेटे हुये थे। धीरे-धीरे बात करते रहे।

बता रहे थे पिछले दो वर्ष से जब से एन्जियोप्लास्टी करायी है, लगातार कोई न कोई तकलीफ़ बनी रहती है। लिखना-पढ़ना छूट गया है। याददास्त पर भी असर पड़ा है। बात करते करते किसी बात की कड़ी छूट जाती है।

श्रीलाल जी मैं कई बार मिल चुका हूं। अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत सजग रहने वाले हैं वे। एकाध बार कहा भी कि -मैं बिस्तर पर पड़े-पड़े नहीं जाना चाहता।

हालचाल पूछते हुये मैंने बताया कि आज रागदरबारी की पाडकास्ट हुआ है तो वे मुस्कराये। अपनी नयी किताबों के बारे में बताया। उनके सारे लेखन के कुछ -कुछ अंश लेकर
एक किताब जल्द ही आने वाली है।

बात करते-करते हड्डी के डाक्टर आ गये। अपने कानमोबाइल में किसी से बतियाते हुये कमरे में घुसे। श्रीलाल जी को देखा और बताया कि कल एक्सरे करायेंगे और अगर सब कुछ सही हुआ तो चलने के लिये कहेंगे।

डाक्टर के जाने के बाद श्रीलाल जी ने डाक्टर के बारे में बताया। बताया कि हमारा परिवार कमजोर कमर वालों का परिवार है। परिवार के कई सदस्य इसी कमरे में इन्ही डाक्टर से अपनी कमर का इलाज करवा चुके हैं। डाक्टर अपनी तमाम व्यस्तता के बावजूद समय से उनके घर आते हैं और देखते हैं।

डाक्टर के बारे में बताते हुये उन्होंने बताया कि एक बार उन्होंने डाक्टर को उनकी सेवाओं केब भुगतान करने का प्रयास किया तो डाक्टर ने कहा- अगर मुझे पता होता कि आप इसका भुगतान करने की बात करेंगे तो मैं आपके घर नहीं आता।

श्रीलाल जी से अपनी बीमारी और कमजोर आवाज के बावजूद धीरे-धीरे बात करते रहे। गिरिराज किशोर जी का जिक्र मैंने उनको बताया कि गिरिराज की कोई नयी किताब आयी है। वे तुरन्त बोले -कित्ती मोटी है? :)


इसके बाद उन्होंने गिरिराजजी और तमाम लेखकों के बारे में कई संस्मरण सुनाये। गिरिराज की किताब पहला गिरमिटिया की तारीफ़ करते हुये कहा- गिरिराज जी ने इस किताब पर बहुत मेहनत से काम किया है।

मोटी किताबों का जिक्र करते हुये उन्होंने बताया कि ये ‘मुग्दर साहित्य’ हैं। आप एक किताब को एक हाथ में और दूसरी को दूसरे हाथ में लेकर कसरत कर सकते हैं। मुगदर की कमी आप किताबों से दूर कर सकते हैं।

युसुफ़ी साहब की किताब खोया पानी का भी जिक्र आया। उन्होंने उसकी बहुत तारीफ़ की। यह भी कहा कि उनकी बाकी किताबें भी पढ़ने का बहुत मन है लेकिन एक तो वे मिलीं नहीं और दूसरे अब पढ़ने-लिखने में तकलीफ़ होती है।

दो साल पहले एक उपन्यास लिखना शुरू किया था। रोज दो पेज लिखते थे। २० दिन काम करके चालीस पेज लिख लिये थे लेकिन इसके बाद बीमारी के कारण लिखना स्थगित हो गया। खुद लिखना हो नहीं पाता, बोल के लिखवाना जमता नहीं।

अमरकान्त जी की बीमारी का जिक्र भी आया। उनका कहना था कि हम लोग जब कोई साहित्यकार बीमार हो जाता है , सरकार से गुहार-पुकार करने लगते हैं। उसी समय हमें सरकार की संवेदन हीनता दिखती है। इसके अलावा तमाम लोग अस्पतालों में बेइलाज मर जाते हैं उनके लिये मूलभूत स्वास्थ्य की जरूरतें मुहैया कराने के लिये न कोई मुहिम चलाते हैं न कोई दबाब बनाते हैं।

बाते करते-करते हल्के-फ़ुल्के साहित्य की बात चली। श्रीलाल जी ने कहा- हिंदी में हल्का साहित्य बहुत कम है। हल्के-फ़ुल्के ,मजाकिया साहित्य, को लोग हल्के में लेते हैं। सब लोग पाण्डित्य झाड़ना चाहते हैं। :)

हमने पूछा -ऐसा क्यों है कि हल्का साहित्य कम लिखा गया?

श्रीलाल जी का कहना था- हमारा समाज ‘एन्टी ह्यूमर’ है। हम मजाक की बात पर चिढ़ जाते हैं। व्यंग्य -विनोद और आलोचना सहन नहीं कर पाते। राजेन्द्र यादव ने
हनुमान कह दिया तो उनकी क्या हालत हुयी! यही गमीनत रही कि बस पिटे नहीं। परसाईजी को लोगों ने उनके घर में पीट दिया। खुशवंत सिंह की एक कहानी ‘बैन’ हो गयी क्योंकि उसमें सरदारों का मजाक उड़ाया गया था।

मैंने पूछा- जब हमारे गांवों ने हंसी-मजाक की परम्परा है और वहीं से जुड़े लेखक लेखन करते हैं तो फ़िर हल्के साहित्य का अकाल क्यों है?

श्रीलालजी का कहना था- गांवों में जो हंसी-मजाक है , गाली-गलौज उसका प्रधान तत्व है। वहां बाप अपनी बिटिया के सामने मां-बहन की गालियां देता रहता है। लेखन में यह सब स्वतंत्रतायें नहीं होतीं। इसलिये गांव-समाज हंसी-मजाक प्रधान होते हुये भी हमारे साहित्य में ह्यूमर की कमी है।

इसी सिलसिले में श्रीलाल जी ने एक किताब का जिक्र किया। एनाटामी आफ़ आफ़सीन राइटिंग। इस किताब में विश्व में तमाम (आफ़सीन)अश्लील लेखन के बारे में जिक्र था।

अपनी बीमारी के चलते वे पद्मभूषण सम्मान लेने भी न जा पाये। हिंदी में यशपाल, भगवतीचरण वर्मा के बाद साहित्यकार की हैसियत से पद्म भूषण से सम्मानित होने वाले तीसरे साहित्यकार हैं श्रीलाल जी।

तमाम बातें होती रहीं। चलते समय उनकी एक फोटो लेने के लिये मैंने अनुरोध किया तो वे बोले- ठीक हो जाऊं तो फोटो लेना आकर। इस मुद्रा में फोटो खिंचवाकर मैं अपनी बीमारी का प्रचार नहीं करना चाहता। :)

दुआ करता हूं कि श्रीलाल शुक्ल जी जल्दी स्वस्थ हों और अपना अधूरा उपन्यास पूरा करें। ('फुरसतिया' से साभार)

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 09:07 PM
संस्मरण

श्रीलाल शुक्लजी से एक मुलाकात

-अनूप शुक्ला

हम पिछ्ले माह जब लखनऊ गये थे तो एक बार फिर श्रीलाल शुक्ल जी से मिले।

हम सबेरे-सबेरे कानपुर से निकले। सपरिवार गाते-बजाते हुये दोपहर होने के नजदीक लखनऊ पहुंचे। ईद की छुट्टी होने के कारण सड़कें किसी बुद्धिजीवी के दिमाग सी खाली थीं। कार सड़क पर सरपट दौड़ रही थी जैसे बुद्धिजीवी के दिमाग में विचार दौड़ते हैं।

बहरहाल हमारा काम शाम होते-होते तमाम हो गया और हमें वापस कानपुर मार्च के लिये आदेश दिया गया।

हम पांच मिनट में आने को कहकर घर, सड़क और फिर मोहल्ला पारकर के पांच मिनट में श्रीलाल जी के पास थे। वे अपने पोते के साथ टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देख रहे थे। बच्चा होमवर्क भी करता जा रहा था साथ में। हमारे जाने से उस बेचारे के आनंद में व्यवधान हुआ क्योंकि दादा ने टीवी की आवाज कम कर दी।

श्रीलाल जी से तमाम बाते हुयीं। उनका उपन्यास रागदरबारी जब प्रकाशित हुआ तब उनकी उमर लगभग ४३ वर्ष थी। इसे लिखने में उनको करीब पांच वर्ष लगे। उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी होने के नाते उनको यह ख्याल आया कि इसके प्रकाशन की अनुमति भी ले ली जाये। हालांकि इसके पहले भी उनकी किताबें छप चुकी थीं और उनके लिये कोई अनुमति नहीं ली गई थी। लेकिन रागदरबारी में तमाम जगह शासन व्यवस्था पर व्यंग्य था इसलिये एहतियातन यह उचित समझा गया कि शासन से अनुमति ले ली जाये। अनुमति मिलने में काफ़ी समय लग गया, एकाध साल के लगभग। इसबीच श्रीलाल शुक्ल जी ने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया था। अज्ञेयजी की जगह दिनमान सापताहिक में संपादक की बात भी तय हो गयी थी। यह सब होने के बात श्रीलालजी ने उत्तर प्रदेश शासन को एक विनम्र-व्यंग्यात्मक पत्र लिखा जिसमें इस बात का जिक्र था कि उनकी किताब पर न उनको अनुमति मिली न ही मना किया गया। बहरहाल, इसे पत्र का ही प्रभाव कहें कि तुरंत रागदरबारी के प्रकाशन की अनुमति मिल गयी। और आज यह राजकमल प्रकाशन से छपने वाली सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से है।

हमारे यह पूछने पर कि रागदरबारी के लिये मसाला कहां से, कैसे मिला श्रीलाल जी ने बताया कि जो देखा था वही मसाला बना। अलग-अलग समय के अनुभवों को इकट्ठा करके इसे लिखा गया। इसको प्रकाशन के पहले पांच बार संवारा-सुधारा गया। इसे लिखने के समय श्रीलालजी की नियुक्ति बुंदेलखंड के पिछ्ड़े इलाकों में रही। कुछ हिस्से तो वीराने में जीप खड़ी करके लिखे गये।

हमने रागदरबारी को नेट पर प्रकाशित करने की अनुमति चाही। श्रीलाल जी ने कहा कि एक लेखक की हैसियत से तो उनको कोई एतराज नहीं है लेकिन प्रकाशक से पूछना भी ठीक रहेगा। प्रकाशक से पूछने पर उन्होंने बताया कि उनका कहना कि कुछ अंश छाप सकते हैं। वैसे राग दरबारी का कापीराइट श्रीलाल शुक्ल की के नाम है तो मेरे ख्याल में उनकी सहमति पर्याप्त होनी चाहिये। मजे की बात है कि रागदरबारी के पाकिस्तान और राजस्थान( जहां यह कोर्स की किताब है) लोग इसे धड़ल्ले से इसे छाप रहे हैं और बेच रहे हैं। बहरहाल हमने यह तय किया है कि रागदरबारी को नेट पर लाया जाना चाहिये। इसके लिये ब्लाग बना लिया गया और आगे के लिये स्वयंसेवकों का आवाहन है जिनके पास रागदरबारी किताब है और जो रागदरबारी-टाइपिंग यज्ञ में अपना योगदान दे सकें।

बात किताबों से कमाई की तरफ भी मुड़ी। श्रीलाल जी के मुताबिक केवल लेखन से जीवन बिताना हिंदी के लेखक के मुश्किल है। उन्होंने बताया कि निर्मल वर्मा जैसे लेखक, जिनकी कि तमाम किताबें छपी हैं, की भी रायल्टी अधिक से अधिक दो लाख रुपये से भी कम ही है। यह भी तब जब गत वर्ष उनके निधन के कारण उनकी किताबों की मांग बढ़ी है।

हमने पूछा तो फिर परसाईजी जैसे लोगों की जिंदगी कैसे गुजरती होगी जिन्होंने लेखन के लिये नौकरी छोड़ दी! श्रीलाल जी ने बताया कि उन्होंने अपनी कमाई के अनुसार अपनी जरूरतें कम रखीं। परिवार नहीं था जब नौकरी छोड़ी। शादी की नहीं। बाद में बहन के परिवार की जिम्मेदारी निभानी पड़ी। लेकिन अपनी आमदनी के लिहाज से अपनी जरूरतों को सीमित किया इसलिये कर सके होंगे गुजारा। श्रीलाल जी ने परसाई जी के साहित्य में योगदान पर भी कुछ चर्चा की तथा बताया कि मध्य प्रदेश में हिंदी साहित्य के प्रचार का बहुत कुछ श्रेय परसाई जी को जाता है।

हमने हिंदी लेखक की विपन्नता की स्थिति की बाबत बात करनी चाही तो शुकुलजी का कहना था- हम हिंदी वाले आम तौर पर जाहिल मनोवृत्ति के लोग हैं। हिंदी पढ़ने -लिखने वालों की अबादी तीस-चालीस करोड़ है। अगर एक प्रतिशत लोग भी महीने में एक किताब खरीदें तो साल में पचास लाख किताबें बिकें लेकिन ऐसा नहीं होता। जब किताबें बिकेगीं नहीं तो छ्पेगीं भी नहीं और हिंदी लेखक ऐसे ही विपन्न रहेगा। केवल लेखन से जीविका इसीलिये हिंदी में बहुत मुश्किल बात है।

हमारे यह पूछने पर कि आजकल क्या लिख रहे हैं श्रीलाल जी ने बताया कि स्वास्थ्य के कारणों से पिछले कुछ दिनों से लिखना नहीं हो पा रहा है। वैसे इंडिया टु दे तथा आउटलुक और अन्य पत्रिकाऒं से नियमिते लेखन का प्रस्ताव है लेकिन लिखना हो नहीं पा रहा। मैंने कहा कि आप बोलकर लिखवाया करें जैसे नागरजी लिखवाया करते थे। इस पर श्रीलाल जी ने कहा कि बोलकर लिखवाने की उनकी आदत नहीं है। अपने लिखे को ही दो तीन बार सुधारना पड़ता है तो दूसरे को बोलकर लिखवाना तो और मुश्किल है। नागरजी के बोलकर लिखवाने का ही जिक्र करते हुये उन्होंने अपना मत बताया कि अगर नागरजी अपना उपन्यास बूंद और समुद्र को कुछ संपादित करके लिखते तो तो शायद कुछ पतला होकर यह और श्रेष्ठ उपन्यास बनता।

अपने लिखने के बारे में बात करते हुये उन्होंने कहा -”एक समय ऐसा आता है कि लेखक अपने लिखे पर ही सवाल उठाता है कि हमने जो लिखा वह कितना सार्थक है! उसकी कितनी सामाजिक उपादेयता है! मैं अब ८१ वर्ष की उम्र में शायद उसी दौर से गुजर रहा हूं।”

अपने लेखन से कितने संतुष्ट हैं और अपनी रचनाऒ को दुनिया के महान साहित्यकारों की रचनाऒं से तुलना करने पर कैसा महसूस करते हैं यह सवाल जब मैंने पूछा तो श्रीलालजी ने कहा- “अब मुझमें इतनी अकल तो है ही कि मैं अपने लिखे की तुलना किसी बहुत आम लेखक की आम रचनाओं से करके खुशफहमी पालने से अपने को बचा सकूं लेकिन जब कभी ‘वर्ल्ड क्लासिक्स’ से तुलना करता हूं तो लगता है कि मैंने कुछ नहीं लिखा उनके सामने।”

मैं समीक्षक नहीं हूं लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि श्रीलाल शुक्ल जी का रागदरबारी उपन्यास विश्व के अनेक कालजयी उपन्यासों के स्तर का उपन्यास है।

इस बीच श्रीलालजी की रैक की किताबें पलटते हुये मैं प्रख्यात पत्रकार स्व. अखिलेश मिश्र की किताब पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तकउलटने-पलटने लगा था। पिछ्ले ही हफ्ते हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में छपी इसकी समीक्षा को पढ़कर इसे पढ़ने की सहज इच्छा थी। मेरी उत्सुकता देखकर श्रीलाल जी ने वह किताब हमें दे दी कि मैं उसे ले जाऊं। हमने उसे प्रसाद की तरह ग्रहण कर लिया। अब जब वह किताब पढ़ रहा था तो लगा कि यह हर पत्रकार के लिये आवश्यक किताब है।

बहरहाल तमाम बाते होती रहीं। साहित्यिक, सामाजिक, व्यक्तिगत। ढेर सारा समय कैसे सरक गया पता ही नहीं चला। पांच मिनट के लिये कहकर मैं घंटे भर से ऊपर यहां गपियाते हुये बिता चुका था। बातों का क्रम भंग कर दिया मुये मोबाइल ने। घरवाले बुलाहट कर रहे थे कानपुर वापस लौटने के लिये।

हम वापस लौट आये। अभी जब मैं लखनऊ में श्रीलाल शुक्ल के साथ सहज रूप से बिताये समय को याद कर रहा हूं तो लगता है कि वे ऐसे व्यक्ति साहित्यकार हैं जिनसे बात करते समय यह अहसास ही नहीं होता कि हम किसी बहुत खास व्यक्ति से, महान लेखक से बात कर रहे हैं। यही शायद उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत है। यही उनकी महानता है। ('फुरसतिया' से साभार)

Dark Saint Alaick
03-11-2011, 09:10 PM
हिन्दी तेरा रूप अनूप

-श्रीलाल शुक्ल


रैब्ले की प्रसिद्ध व्यंग्य-कृति ’गर्गण्टुआ और पैंटाग्रुएल’ में पैंटाग्रुएल को एक बार पेरिस के बाहर टहलते हुये एक नौजवान विद्वान मिला। उससे पूछा गया,” मित्र, इस समय कहां से आ रहे हो?” फ़्रांसीसी भाषा में विद्वान का जबाब, उसी वजन की हिन्दी में कुछ इस प्रकार का था, ” ये उस विशिष्टित, प्रतिषठायित, गरिमामंडित संस्थान से आ रहा हूं जिसे ल्यूटेशिया अभिधानित किया जाता है।”

तब पैंट्राग्रुएल ने अपने एक साथी से पूछा,” यह क्या बक रहा है?”

साथी ने जबाब दिया,”कहता है कि पेरिस से आ रहा हूं।”

इसके बाद नौजवान विद्वान ने जिस चमत्कारपूर्ण भाषा में प्रवचन दिया उसका अनुवाद किसी भाषा में सम्भव नहीं है। पर पैंटाग्रुएल को समझने में यह देर न लगी कि यह आदमी फ़्रांसीसी की नकल करने की कोशिश में उस भाषा की हत्या कर रहा है! जब पैंटाग्रुएल ने उसकी गरदन दबाकर उसे झटका दिया तो वह तुरन्त अपनी क्षेत्रीय बोली पर उतर आया। बहुत दिन बाद आक्टेबियन आगस्टस का यह सिद्धान्त उसकी समझ में आया कि दुरूह शब्दों के प्रयोग से हमें उसे उसी तरह बचना चाहिये जैसे जहाजों के सतर्क नाविक समुद्र में चट्टानों से बचते चलते हैं।

हिन्दी की सड़कों पर आजकल इसी तरह के विद्वानों का हुजूम है। उनकी मुठभेड़ पैंटाग्रुएल से नहीं होती , और न होने की जरूरत है।
पर अंग्रेजी के शब्दों, मुहावरों, वाक्यांशों को यथावत उतारकर जब वे हिन्दी को समृद्ध बनाने की कोशिश करते हैं तो उसमें शक नहीं कि वे हिंदी का अंग-भंग भी करते चलते हैं। कुछ नमूने देखिये:

“इस अराजकता के सार्थक प्रतिकार के लिये ,अर्थ के निश्चित अनुभव को फ़िर से प्राप्त करने के लिये अस्तित्व के प्रति एक अतिरिक्त चिन्ता और चेतना विक्सित की जाती है और इस प्रक्रिया में भाषा का अनुभव भी अधिकाधिक आन्तरिक होता जाता है।” (—रमेशचन्द्र शाह ,’छायावाद की प्रासंगिकता’में)
“सम्बन्धों की नियति जिन जटिलताओं को उत्पन्न करती है, उन्हें बृहत्तर परिवेश में अर्थहीन विरूप प्रयोंगों तथा पूर्ण निस्संगता से वितर्तित किया जा सकना असम्भव नहीं है।” ( श्याम परमार, अकविता और कला-संदर्भ में)
स्व-अस्तित्व, पर अस्तित्व , मुत्यु परमितता, अजनबीयत, आत्म-प्रपंच, व्यग्रता, हतासा आदि तत्वों का निरूपण कृति को सार्वत्रिक बनाता है।”(मधुसूदन बख्शी-’साहित्य सृजन और कुछ विचारधारायें’ में )
” “विज्ञान के नवीनतम आविष्कारों ने हमारे आगे एक ऐसी प्रलम्बित अनिश्चितता का उद्घाटन किया है ….।” (शनंजय वर्मा ’आस्वाद के धरातल’ में। )

यह मन्तव्य नहीं कि ये उद्धरण निरथक हैं; ये नमूने सिर्फ़ इतना बताते हैं कि इस तरह के हिन्दी गद्य को समझने के लिये अंग्रेजी की जानकारी अनिवार्य है। केवल हिन्दी की जानकारी के सहारे इन्हें पढ़ा जाये तो ये सचमुच ही निर्रथक दीखने लगेंगे।

यह शर्त, कि हिन्दी-गद्य समझने के लिये अंग्रेजी की जानकारी हो, हमारे गद्य की सबसे बड़ी कमजोरी बनती जा रही है। समस्या सिर्फ़ उधार ली हुई भाषा की नहीं , समस्या यह कि इस प्रकार की भाषा क्या किसी प्रकार के स्वतंत्र चिन्तन का माध्यम बनने के लिये , उसके विश्लेषण के लिये समर्थ मानी जा सकती है।

वास्तव में आजकल हिन्दी का अधिकांश गद्य अंग्रेजीदां लोगों का है अंग्रेजीदां लोगों के लिये लिखा जा रहा है। प्राय: उसे समझने के लिये उसका पहले मन-ही-मन अंग्रेजी अनुवाद करना पड़ता है। कुछ समय पहले ऐसे गद्य के अनूठे उदाहरण ’कल्पना’ में ’अनमोल बोल’ स्तम्भ के अन्तर्गत छ्पते थे, ’सरिता’ भी कभी-कभी उन्हें ’यह किस देश की भाषा है?’

1939 के आसपास कृष्ण शंकर शुक्ल ने ’आधुनिक हिन्दी का इतिहास’ में वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास ’कुंडली चक्र’ के उद्धरण देकर उनकी इस प्रवृत्ति पर एतराज किया था कि कहीं-कहीं अंग्रेजी मुहावरों के अनुवाद प्रयुक्त करते हैं। उस समय ’रत के हृदय में कहीं तो एक ललित कोना होगा’ या ’भुजबल पांव के नीचे घास नहीं उगने देता था ’ जैसे प्रयोग एक नई प्रवृत्ति की शुरुआत भर थे जो द्विवेदी युग में लिखे गये गद्य की परिष्कृत मानसिकता से मेल न खाते थे। कृष्ण शंकर शुक्ल ने तब कल्पना भी न की होगी कि अंग्रेजों के देश से बाहर जाते ही यह प्रवृत्ति इतनी व्यापक हो जायेगी कि अधिकांश गद्य अंग्रेजी वाक्यांशों का अनुवाद-भर रह जायेगा।

ऐसा होना ही था। आरम्भ के हिन्दी गद्य लेखकों में बहुत से अंग्रेजी नहीं जानते थे, पर वे संस्कृत और उर्दू-फ़ारसी के जानकार थे। जो अंग्रेजी जानते थे यह भी जानते थे कि उनका पाठक-वर्ग कौन सा है! बहरहाल, अधिकांश लेखकों की संस्कृतज्ञता के कारण हिन्दी में विशेषण बहुलता की बीमारी जरूर आई पर अपनी बात को तर्कनिष्ठ ढंग से कहने की प्रवृत्ति भी विकसित हुई! उर्दू की जानकारी के सहारे तत्कालीन लेखकों ने हिन्दी के चुस्त और ओर परिनिष्ठित रूप को निखारा।

धीरे-धीरे अंग्रेजी न जानने वाले हिन्दी लेखक अल्पसंख्यकों की कोटि में आ गये। अब तो वे सिर्फ़ गिने-चुने रह गये हैं और ऐसे लेखकों की संख्या बढ़ रही है। अंग्रेजी ज्यादा और हिन्दी कम जानते हैं। दोनों भाषाओं पर सन्तुलित अधिकार रखने वाले लेखक बिरले ही हैं। तथा अंग्रेजी के प्रचुर ज्ञान और हिन्दी के कामचलाऊ ज्ञानवाले लेखकों की एक नई भाषा विकसित हो रही है जिसमें ’साहसिक’ का अर्थ पारम्परिक रूप से समुद्री डाकू या लुटेरा नहीं बल्कि ’साहसपूर्ण’ है, ’कारुणिक’ का अर्थ ’करुणामय’ नहीं बल्कि ’कारुण्य उत्पादक’ है; ’निर्भर है’ के बजाय ’निर्भर करता है’ लिखा जाने लगा और ’शाप’, ’नरक’ और ’विरूप’ जैसे शब्दों को ’श्राप’, ’नर्क’ और ’विद्रूप’ बना लिया गया है। अजीब बात नहीं कि कुछ वर्षों बाद इस भाषा में ’कृपया’ को ’ कृप्या’ लिखा जाने लगे।

इसी के साथ अंग्रेजी का वाक्य विन्यास , उसके शब्द और मुहावरे , उसके विशिष्ट अभिव्यक्ति-प्रयोग सभी हिन्दी में उतरने लगे हैं जो हिन्दी-पाठक को आतंकित करते हैं और केवल हिन्दी जानने वाले लेखक को निरुत्साह बनाकर छोड़ देते हैं। केवल हिन्दी जानने वाला लेखक अपने ही साहित्य-क्षेत्र में बेगाना हो गया है। सनेही, मैथिलीशरण गुप्त, शान्तिप्रिय द्विवेदी आदि के दिन गये- इस माहौल में रेणु और शैलेश मटियानी अपवाद की तरह दीख पड़ते हैं! अंग्रेजी-परस्त हिन्दी का यह नकचढ़ा (हाईब्राऊ) रवैया उन लेखकों को बहिष्कृत करता जा रहा है जिनसे सहज गद्य की सहज आशा की जा सकती है।

नतीजा यह है कि केवल हिन्दी जानने वाला लेखक भी अब जैसे ही लिखना शुरू करता है, वह अनजाने ही इस प्रतिस्पर्धा का शिकार हो जाता है कि हम क्या किसी से कम हैं। तभी वह ’संदर्भ’ , ’आयाम’, ’परिप्रेक्ष्य’ , ’नकारात्मक साक्षात्कार’, ’सम्पृक्ति के सूत्र’ जैसे सिक्कों को खुलकर उछालता चलता है ताकि उसकी शब्द-सम्पदा पर किसी को शुबहा न रहे; और इस प्रवृत्ति से उलझकर वह उलझानेवाले गद्य की परम्परा को मजबूत करता है, और अपने पात्रों को ’ढीले सिरे’ से लटकाये रखता है।

प्रत्येक देश और समाज के मुहावरे उसकी सभ्यता, संस्कृति और ऐतिहासिक-भौगोलिक स्थिति की उपज हैं। पर अंग्रेजी की नकल में हमें इसका भी ध्यान नहीं रहता। तभी हम ’कोल्ड रिसेप्शन’ ’वार्म हार्टेड’ का भी शाब्दिक अनुवाद रखने की कोशिश करते हैं। भारत जैसे गर्म देश में किसी से मिलकर ठंडक का अनुभव करना स्नेह और सौहार्द का लक्षण हो सकता है (तुमहिं देखि सीतल भइ
छाती)। पर इंग्लैंड जैसे देश कें उपेक्षापूर्ण और स्नेहहीन आचरण के लिये ’कोल्ड बिहेवियर’ का प्रयोग होगा। वहां सौहार्दपूर्ण व्यक्ति के लिये ’वार्महार्टेड’ का प्रयोग उतना ही स्वाभाविक है जितना भारत में नाराजगी के लिये गर्म होना का प्रयोग!

इस तरह के अनेक उदाहरणों से देखा जा सकता है कि अंग्रेजी शब्द समूह का हूबहू हिन्दी अनुवाद निरर्थक ही नहीं, विपरीत अर्थ सृजित करने वाला भी हो सकता है। वास्तव में भाषा का विकास ऐसे कृत्तिम उपायों से नहीं , संस्कृति और चिंतन के विकास के अनुरूप ही होता है। तभी अभिव्यक्ति की नई मांगों के समाधान के लिये भाषा अपने लचीलेपन की सारी सम्भावनाओं को निचोड़ती है और नई अभिव्यंजनाओं की सृष्टि करती है। सन्तोष का यही विषय है कि भाषा का विकास इस सहज आधार पर भी कहीं-कहीं एक-दूसरे के समान्तर स्तर पर होता जा रहा है।

तो बकौल, अंग्रेजी कहावत के शाब्दिक अनुवाद के , काले बादलों में वही एक रुपहली लकीर है। मनीषियों का एक समुदाय गद्य की उसी स्थिति के बारे में पूर्णतया सजग है। इस प्रसंग में रामस्वरूप चतुर्वेदी का ’गद्य की सत्ता’ नामक एक लेख कुछ समय पहले आलोचना(२७) में छपा था। उन्होंने बहस की शुरुआत इसी स्थिति से की थी कि’ हिन्दी में अच्छा गद्य या कहें ,गद्य लेखक विरले हैं।’ इसके अन्य कारणों के साथ उन्होंने भी अनुभव किया किया है कि “अंग्रेजी शब्द समूह , वाक्य विन्यास आदि के क्षेत्रों में तरह-तरह की घुसपैठ कर रही है। ” उनका कहना है कि “मैकाले ने अभी तक काले साहब के शरीर की रचना की थी, उनका दिमाग असल में अब बन रहा है। ऐसी स्थिति में हिन्दी का स्वायत्त विकास निश्चय ही कठिनतर होता जा रहा है।

इस स्थिति से बचत के दो रास्ते हैं। एक यह कि प्रत्येक हिन्दी लेखक अपने लिये वह अनुशासन स्वीकार करके चले कि उसका कथ्य ऐसे पाठक के लिये है जो अंग्रेजी नहीं जानता। वह यह ध्यान रखे कि वह अपनी भाषा द्वारा अपने पाठक को अंग्रेजी की जटिल शब्द श्रंखला का उपहार नहीं दे रहा, बल्कि उसे उस भाषा के माध्यम से अपनी संवेदना और चिंतन का भागी बना रहा है।

दूसरे रास्ते का सम्बन्ध भाषा के बाह्य स्वरूप से नहीं , बल्कि माध्यम के रूप में उसकी मूलभूत उपयोगिता से है। जबतक हम उधार या चोरी का माल हिन्दी में भरते रहेंगे तब तक उस स्थिति की यह अनिवार्यता रहेगी कि हम उधार या चोरी को छिपाने के लिये एक उधार ली हुई, जानबूझकर जटिल बनाई गयी भाषा का प्रयोग करें जिसका उद्देश्य विचार या संवेदना का उद्घाटन नहीं, बल्कि संगोपन होगा। पर हमारी अपनी संवेदना और अपना चिन्तन सम्प्रेषण के लिये उधार की भाषा को अपने आप-छोड़ता चलेगा और बार-बार अपनी अभिव्यक्ति के लिये एक वास्तविक, समर्थ माध्यम की मांग करेगा।

(जहालत के पचास साल से साभार)

anoop
09-12-2011, 06:57 PM
सुत्रधार महोदय, श्रीलाल शुक्ल जी पर आपने बहुत अच्छी सामग्री इस सुत्र में हम सब के लिए जुटा दी है। इसके लिए मैं तहे-दिल से आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। आशा है आप उनकी रचनाओं को भी यहाँ (नेट पर खोज-बीन कर) डालेंगे।